Monday, November 20, 2017

बाबा कीनाराम जी (Baba Kinaramji)

अघोरेश्वर कीनाराम जी
(आविर्भाव सन् १६०१ ई. -महाप्रयाण १७७१ ई.)
उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले की चन्दौली तहसील (अब जिला) के रामगढ़ ग्राम में अकबरसिंह नामक एक रघुवंशी क्षत्रिय रहते थे। उनकी पत्नी मनसा देवी को स्वप्न में भगवान् शिव नन्दी बैल पर बैठे हुए दिखलायी पड़े। पुरोहितों ने इस स्वप्न को सुनकर मनसा देवी से कहा- 'आपके गर्भ से ९ माह बाद भगवान् सदाशिव अवतार लेंगे। शिशु के जन्म के पूर्व तीन महात्मा चातुर्मास्य का बहाना लेकर उस गाँव में ठहरे थे। जन्म होने पर तीनों महात्माओ ने अकबर सिंह के द्वार पर उपस्थित होकर शुभकामना व्यक्त की। उन तीनों में से सबसे वयोवृद्ध महात्मा ने बालक को अपनी गोद में लेकर उसके कान में कुछ शब्द कहे जो सम्भवत: दीक्षामन्त्र था। पुरोहितों ने अकबर सिंह को परामर्श दिया कि ६० वर्ष की उम्र में आपको पुत्ररत्न मिला है इसके दीर्घजीवी होने के लिए आप इसको किसी के हाथ बेचकर फिर 'किन' (खरीद) लें। इस परामर्श का क्रियान्वयन होने के कारण बालक का नाम कीनाराम हुआ। इसका राशिनाम शिवा था। इन्हीं की वैष्णव लोग 'शिवारामके नाम से जानते थे।

किशोर वय में कीनाराम का विवाह हुआ। पत्नी का नाम कात्यायनी था। पति के घर जाने से पूर्व ही उसका देहान्त हो गया फलस्वरूप अत्यन्त तीव्र वैराग्य उत्पन्न होने के कारण कीनाराम तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। इस क्रम में वे गाजीपुर जिले के कारो गाँव (अब बलिया में है) में पहुँचे। वहाँ एक क्रूर जमींदार ने मालगुजारी बकाया रहने के कारण एक विधवा के पुत्र बीजाराम कोहाथ पैर बाँधकर जेठ की दोपहरी मेंभूमि पर लिटा दिया था। कीनाराम ने जमींदार से कहा- 'अपने पैर के नीचे की जमीन खोदो। तुम्हें बकाया मालगुजारी और जमीन खोदने का पारिश्रमिक दोनों मिल जायेगा।जमींदार ने वैसा ही किया। पैसा मिलने पर उसने कीनाराम से क्षमा माँगी और बीजाराम को छोड़ दिया।

माँ के दुराग्रह पर बाबा कीनाराम बीजाराम को लेकर चल दिये। बालक बीजाराम आजीवन कीनाराम के साथ छाया की तरह रहा।कारो ग्राम से चलकर बाबा गिरनार की ओर बढ़ गये। कीनाराम को पादुकासिद्धि (=खड़ाऊँ पहन कर पानी या कीचड़ के ऊपर या आसमान में चलना) प्राप्त थी। इसके साथ उन्होंने पृथिवी में प्रवेश कीआकाशगमन की भी सिद्धि स्वत: प्राप्त की। जूनागढ़ पहुँच कर बाबा भिक्षाटन करने लगे। जूनागढ़ के नवाब के आदेशानुसार सिपाहियों ने पहले भिक्षाटन करते हुए बीजाराम को फिर बाबा कीनाराम को जेल में बन्द कर दिया। वहाँ और भी साधु बन्दी थे। इस जेल में ९८१ चक्कियाँ थीं। सबके साथ एक चक्की बाबा को भी आटा पीसने के लिये दी गयी। बाबा ने चक्की को देखा और कहा- 'चल'। वह नहीं चली। इस पर उन्होंने चक्की पर एक कुबड़ी (=छोटा डण्डा) मारी। देखते ही सारी ९८१ चक्कियाँ चलने लगीं। यह सुनकर नवाब दौड़ा-दौड़ा बाबा के पास आया और क्षमा माँगा। बाबा ने उसे दो आदेश दिये-(१) आज से किसी साधु को तंग मत करना। (२) जो साधु फक़ीर तुम्हारे यहाँ आये उसे खुदा के नाम पर ढ़ाई पाव राशन दे देना। वहाँ बाबा के दोनों आदेशों का पालन चलता रहा और बाबा के आशीर्वाद से जूनागढ़ में मुसलमान शासक की वंशपरम्परा भी चली।

जूनागढ़ से चलकर बाबा कीनाराम खाड़ी और दलदलों को पार करते हुए कराँची से ७० किमी. दूर हिंगलाज१ पहुँचे। हिंगलाज मन्दिर से कुछ दूरी पर उन्होंने धूनी लगायी। हिंगलाज देवी स्वयं एक कुलीन महिला के रूप में वहाँ उन्हें प्रतिदिन भोजन पहुँचाती थी। धूनी की साफ-सफाई भैरव स्वयं एक वटुक के रूप में करते थे। कुछ दिनों के बाद बाबा ने उस महिला से परिचय पूछा तो देवी ने स्वयं अपने रूप का दर्शन दिया और कहा- 'जिसके लिये आप तप कर रहे हैं मैं वही हूँ। मेरा यहाँ का समय पूरा हो गया है। अब मुझे मेरे स्थान काशी में ले चलो। मैं काशी में केदारखण्ड के क्रीं कुण्ड में निवास करूँगी।बाबा ने धूनी ठंडी कीऔर चल दिये।

सन् १६३८ में बाबा हिंगलाज से मुल्तान और मुल्तान से कन्धार पहँचे। कन्धार में मिट्टी का एक विशाल किला था जो व्यापारिक और सामरिक दृष्टि से भारत और फारस दोनों देशों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण था। बाबा के आशीर्वाद से शाहजहाँ ने किले को फारस के शाहअब्बास से जीत लिया। बाद में उसने वहाँ बुलाकर बाबा का भव्य सत्कार किया। कुछ दिनों बाद शाहजहाँ से बाबा की भेंट उत्तर भारत में हुई। इस समय शाहजहाँ अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल के ऊपर दीवाना था और राजकोष का बहुत अपव्यय कर रहा था। बाबा के प्रति उसने अवज्ञा और उद्दण्डता दिखायी। बाबा ने उसे शाप दे दिया- 'तुमने साधु की अवज्ञा की है। तुम बीबी के गुलाम हो। अपनी ही औलाद के हाथों दु:ख पाओगे और अपनी करनी का फल चखोगे।वैसा ही हुआ। शाहजहाँ अपने पुत्र औरंगजेब के हाथों जेल में बन्द किया गया और यातना भोगता रहा।

महाराज कीनाराम फिर जूनागढ़ आ गये। वहाँ उन्होंने कमण्डलु कुण्ड अघोरी शिला पर सिद्धेश्वर दत्तात्रेय को बड़े विभत्स रूप में मांस का टुकड़ा लिये देखा। दत्तात्रेय ने उस मांस में से एक टुकड़ा काटकर कीनाराम को दिया। उसे खाने के बाद कीनाराम को दूरदृष्टि प्राप्त हो गयी। एक ही समय में अनेक स्थानों में प्रकट होने की सिद्धि उन्हें पहले से प्राप्त थी। उन्होंने गिरनार पर्वत से दिल्ली के बादशाह को घोड़े पर सवार और वजीर से दुशाला लेते देखा था।

गिरनार से कश्मीर और दिल्ली होते हुए बाबा कीनाराम काशी में आये और वहाँ हरिश्चन्द्र घाट पर भगवान् दत्तात्रेय के अंशभूत कालूराम से उनकी भेंट हुई। कालूराम उस समय मुर्दों की खोपड़ियों से अनेक चमत्कार दिखा रहे थेउन्हें चना खिला रहे थे। कालूराम ने इशारे से कीनाराम से भोजन माँगा। बाबा ने गंगा की ओर ऊपर हाथ उठाया और गंगा जी से मछलियाँ निकल-निकल कर चिता में गिरने लगीं। कालूराम ने उनका भोजन किया। कालूराम और कीनाराम ने उस समय के जमींदार राघवेन्द्र सिंह को बुलाकर उनसे सम्पर्क किया और क्रींकुण्ड तथा उसके आस पास की ९० बीघा भूमि दान में प्राप्त की। यहाँ कीनारामकालूराम और कीनाराम के शिष्य रामजियावनजिसको बाबा ने मरने के बाद जीवित कर लिया थाकी समाधि है।

एक बार बाबा कीनाराम के आदेश से बीजाराम सितार लिये हुए आकाश में उड़ गये। वहाँ उनके शरीर से ज्वाला उत्पन्न हुईचिनगारियाँ निकलने लगींमानो पूरा शरीर जल गया। बाद में सब लोगों के देखते-देखते बीजाराम चमगादड़ों के साथ नीचे उतर आयेबाबा को प्रणाम किया और सितार बजाने लगे। तब से क्रींकुण्ड पर पेड़ों में बहुत सारे चमगादड़ रहते हैं।

बनारस में ईश्वरगंगी मुहल्ले में बाबा लोटादास रहते थे। उनको लोटा की सिद्धि प्राप्त थी। वे उस पात्र में से मनोवाञ्छित वस्तु निकालकर दूसरों को दे देते थे। कीनाराम ने किसी समय लोटादास की किसी मामले में सहायता की थी। तब से दोनों में प्रगाढ़ सम्बन्ध था। एक बार लोटादास ने भण्डारा कियाउसमें कीनाराम को निमन्त्रित नहीं किया। कीनाराम चुपचाप जाकर वहाँ बैठ गये। जब भोजन के लिये पत्तल और पानी परोसा गया तो पत्तलों पर मछलियाँ कूदने लगीं और पानी में शराब की दुर्गन्ध आने लगी। लोटादास ने आकर बाबा से क्षमा मांगी। तब सब्जी की जगह तैर रहीं मछलियाँ बदल गयीं और पानी में सुगन्ध आ गयी। लोटादास ने अपने सिद्ध लोटा से कीनाराम के पात्र (=कपाल) में भोजन देना शुरु किया। कई लोटा और दही देने पर भी कपाल नहीं भरा। क्षमा माँगने पर कीनाराम ने लोटादास के भण्डार गृह में पहले से चार गुनी अधिक दही पूड़ी की व्यवस्था कर दी।

एक बार क्रींकुण्ड के पास शिवाला घाट पर काशीनरेश चेतसिंह के किले में वैदिक ब्राह्मण वेदपाठ कर रहे थे। कीनाराम गधे पर चढ़कर वहाँ पहुँचे। ब्राह्मणों ने उनका अपमान कर दिया। बाबा बोले - लोलुप ! ठगविद्या का आश्रय लेने वालोउदरनिमित्त अपने धर्म से विमुख ब्राह्मणोदेखो मेरा गदहा वेद बोल रहा है। ऐसा कहकर महाराज ने गदहे का कान ऐंठा और थप्पड़ मारा। गधा वेदमन्त्र बोलने लगा। कीनाराम ने अक्षत लेकर किला की ओर फेंका और शाप दिया-'किला में कबूतर बीट करेंगे। छोड़कर भागना होगा। यह किला विधर्मियों के अधिकार में चला जायगा। यहाँ उपस्थित सभी लोग नि:संतान होंगे।वैसा ही हुआ। अंग्रेजों के आक्रमण पर चेतसिंह को किला छोड़कर भागना पड़ा। आज भी उस किले में कबूतरों का झुण्ड रहता है।

एक बार कीनाराम अपनी जन्मभूमि रामगढ़ में रह रहे थे। उनके पास आकाशमार्ग से एक भैरवी आयी जो पूर्णतया नग्न थी। महाराज ने अपनी जटा से एक बहुत सुगन्धित रेशमी वस्त्र निकाल कर भैरवी के ऊपर फेंक दिया। भैरवी के ऊपर जो कोई वस्त्र फेंका जाता वह जल जाता था पर वह वस्त्र नहीं जला। भैरवी आश्चर्य में पड़ गयी। बाबा के पास एक ही लंगोटी रहती थी। नहाने के पहले उसे धुलकर आकाश में फेंक देते थे। नहाने के बाद हाथ आकाश में उठाते और लंगोटी उनके हाथ में आ जाती। लंगोटी को फट्कारने पर उसमें से चिनगारियाँ निकलती थीं। हाथ से सुरकने पर उसमें से रंगविरंगी किरणें निकला करती थी। इसी प्रकार नि:संतान ब्राह्मण दम्पती को चार पुत्रों की प्राप्तिछोटी लकड़ी को आवश्यकता से अधिक बड़ी करना उनका चमत्कार था। रामगढ़ में कुँवा खोदने के लिए इन्होंने आकाश में हाथ उठाकर कई अञ्जली सिक्के मँगाये थे। तथा इंर्टों के घट जाने पर उपलों से कुँये को बँधवाया था। रामगढ़ में आज भी वह कुआँ विद्यमान है। इस कुँये में चार घाट है और हर घाट के पानी का स्वाद अलग-अलग है। स्वामी जी ने ७० वर्ष की उम्र में कायाकल्प किया था।

काशी में क्रींकुण्ड में दो कुँयें हैं। जिस कुण्ड का पानी पीया जाता है एक बार बाबा उसमें प्रवेश कर गये। वापस न निकलने पर लोगों को चिन्ता हुई। उसी समय एक भक्त जगन्नाथपुरी गया हुआ था। वहाँ उसने हाथ में नारियल का कमण्डलु लिये जटाजूटधारी बाबा कीनाराम को जगन्नाथ मन्दिर से बाहर आते देखा। काशी आकर उसने यह घटना बतलायी। बाबा ने औरंगजब को फट्कारा था- 'धर्म के नाम पर पृथिवी को न रंगें। भविष्य आपका कृतज्ञ नहीं होगा।...आपकी मृत्यु नजदीक है...आप लोलुपचित्त हैं....दिल्ली तक आपका पहुँचना कठिन है।

एक बार उन्होंने अपने सामने उपस्थित कामासक्त स्त्रियों को उपदेश के द्वारा कामवासनारहित कर सन्मार्ग पर पहुँचाया था। एक बार बाबा मुंगेर जिले में श्मशान के समीप चातुर्मास्य कर रहे थे। एक मध्यरात्रि में पीले रंग के मांगलिक वस्त्र को पहने खड़ाऊँ पर चढ़ी एक योगिनी आकाशमार्ग से बाबा के सामने उतरी और निवेदन किया-'गिरनार की काली गुफा में निवास करती हूँ। अन्त:प्रेरणा हुई और आपके पास आगयी। आप तान्त्रिक क्रियाओं द्वारा मेरे साध्य को पूरा करें ताकि मैं पूर्ण हो जाऊँ। श्मशान में एक शव था। चार खूँटियाँ चार कोनों में गाड़ कर शव के हाथ-पैर को चारों खूँटियों से बाँध दिया गया। लालवस्त्र से शव को ढँककर उसका मुख खोल दिया गया। योगिनी और महाराज भगलिङ्ग आसन पर बैठकर शव के मुख में हवन करते रहे। योगिनी तृप्त हुई। अन्त में श्मशान-देवता नन्दी पर बैठ कर उपस्थित हुए और इस साधना को सफल होने का आशीर्वाद दिया। अभी भी यदा कदा जूनागढ़ अहमदाबाद मार्ग पर योगिनियों का दर्शन लोगों को मिलता रहता है। इस प्रकार की अनेक चमत्कारपूर्ण घटनायें बाबा के जीवन में घटित हुईं। विस्तार के भय से उनका वर्णन यहाँ नहीं किया जा रहा है।

भविष्यवाणी- एक बार विजयकृष्ण गोस्वामी को सम्बोधित करते हुए बाबा ने कहा -'पुरुष की जरूरत पुत्रादि के लिए होती है। शताब्दियों बाद विज्ञान का चमत्कार सामने आयेगा तब स्त्रियाँ पुत्रों के लिये कृत्रिम गर्भाधान करायेंगी। अपनी उपेक्षा और अवहेलना के प्रतिशोध में पुरुषों की उपेक्षा और अवहेलना करने को वे उद्यत होंगी।'

उपदेश-'पुरुष विधुर हो सकते हैं स्त्रियाँ विधवा नहीं हो सकती। पति की मृत्यु के ६ महीने बाद रजस्वला होने पर उनका विवाह कराया जा सकता है।'

'मनुष्य को कामना दु:ख देती है। विषयासक्त जीवन अथाह होता है। दम्भ से भरा व्यक्तित्व झुलस जाता है...मान-बड़ाई-स्तुति और कुत्ते का लिङ्ग पैठते-पैठते पैठ जाता है पर निकलने के समय बहुत कष्ट देता है।...चोरी नारी (=व्यभिचार)मिथ्या त्याग और साधु की इच्छा इन तीनों से अपने को बचाओ और बचो।'

'दुविधा धोबी कुमति कलवार तृष्णा तेली हम धरकार।
हमरे भीतर भरा मूत खखार कहे कीनाराम रहिये ओही पार।'
'साधु है तुरीयातीतसाधु की दृष्टि में नहीं कोई अमीत।'

जीवन जीने के लिये नहीं है। जीवन मरने के लिए भी नहीं है। जीवन जानने के लिए है। सन्यास वैराग्य देह का विषय है आत्मा का नहीं। आत्मा शुद्ध चैतन्य है। उसमें किसी का प्रतिबिम्ब नहीं होता। देह और मन में ही प्रतिबिम्ब होता है।

१. हिंगलाज देवी का मन्दिर अब पाकिस्तान में है। वहाँ के लोग उसे बीवी-नानी के नाम से जानते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Monday, November 6, 2017

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah10)

आत्मा के निकट पहुंचकर मिलती है खुशी...
जीवन मेंप्रसन्नता के प्राण रहस्यमय रूप से छिपे हुए हैं। हमें उन्हें ढूंढ़ना पड़ता है। अगर कोई सोचे कि मैं तो हमेशा खुश रहूंगा तो वह सोचता ही रह जाएगा। ज्यादा से ज्यादा प्रसन्न रहने के कारण बाहर ढूंढ़ेगा। प्रसन्नता उसके भीतर ही है, उसे यह मालूम नहीं पड़ेगा। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया हैरहसयपूर्ण ढंग से हमारे भीतर हमारी प्रसन्नता का कारण है।रहस्य उजागर करने के लिए दो-तीन बातें काम आती हैं। एक, ठीक से शास्त्र पढ़ें। हर धर्म के ग्रंथों में ऐसे इशारे दिए गए हैं कि आप अपने भीतर उतरकर प्रसन्नता के कारण ढूंढ़ लेंगे लेकिन, हम शास्त्रों की बातों में उलझ जाते हैं। शास्त्र पढ़ते समय व्यावहारिक, आध्यात्मिक और इससे भी अधिक प्रतीकात्मक दृष्टिकोण रखना पड़ता है। शब्दों के प्रतीकात्मक अर्थ दिमाग में बैठाना पड़ेंगे। हिंदू शास्त्रों में लिखा है तैंतीस कोटि देवता। अब लोग संख्या में उलझ गए। अर्थ यह कि कण-कण में कोई शक्ति छिपी है, जो आपको देख रही है। लोग स्वर्ग-नर्क में उलझ जाते हैं। उनका मानना है स्वर्ग ऊपर है, बीच में पृथ्वी और पाताल में नर्क है। इस पर वैज्ञानिक दृष्टि से बात करें तो बहस के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। सच तो यह है कि अच्छे काम करके आचरण से उठ जाओ तो स्वर्ग है, गलत काम कर नीचे गिर जाओ तो नर्क है। इसलिए शास्त्रों के इशारों को पकड़ें और प्रसन्न होने का कारण भीतर ढूंढ़ें। जो अपनी आत्मा के निकट पहुंच गया वह संसार का सबसे खुश इंसान होगा।

शुभ का सदुपयोग करना बुद्धिमानी...
लंबे समय राजसत्ता पर बैठो तो लोग खड़े होना ही भूल जाते हैं। फिर रावण तो विश्वविजेता की सत्ता पर बैठा था, वह सचमुच खड़ा होना भूल गया था। बैठने में अहंकार है, खड़े होने में किसी के प्रति आदर है, विनम्रता है। जब आप अकड़ में होते हैं तो प्रकृति से मिले सारे सुख, परमात्मा से जो अच्छा आपको मिल सकता है, उसे अस्वीकृत कर देते हैं। तुलसीदास ने लिखा, ‘फूलइ फरइ बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद। मूरुख हृदयं चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम।।यानी यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं है। चाहे ब्रह्मा के समान ज्ञानी गुरु मिल जाए तो भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं चेतता। बेत का वृक्ष पृथ्वी से जल प्राप्त कर लेता है, पंचतत्वों से उसे सब मिल सकता है, लेकिन वह स्वीकार नहीं करता। शुभ को जीवन में उतारना, सदुपयोग करना बुद्धिमानी है। करना रावण जैसी मूर्खता है। श्रीराम ने रावण के जीवन में पांच तरीके से शुभ और सही बात भेजी थी। पहले शूर्पणखा के माध्यम से समझाया, फिर मारीच के माध्यम से, विभीषण ने समझाया, उसके बाद बेटे ने और अंत में पत्नी मंदोदरी समझा रही थीं। रिश्तों से जो श्रेष्ठ मिलना था वह रावण ले पाया। रावण का चरित्र हमें सिखा रहा है कि जीवन में जब हम कोई गलत कदम उठाएं तो इन पांच रास्तों से परमात्मा समझाता है और हम चूक जाते हैं। आगे हम इन्हीं पांच रास्तों पर चर्चा करेंगे ताकि जीवन में जब भी यह अवसर आएं तो हम चूक जाएं।

मन मौन हुआ कि चिंतन में बदलती है चिंता...
चिंता में चिंतन छुपा है लेकिन, चिंतन में चिंता नहीं छुपी रहनी चाहिए। आज ज्यादातर लोग चिंताग्रस्त हैं, क्योंकि सभी के जीवन में कोई कोई परेशानी चल रही है, इसलिए चिंता होना स्वाभाविक है। जब चिंता कर रहे होते हैं तो भीतर चिंतन चल रहा होता है, लेकिन जब चिंतन चल रहा हो, तब यह अभ्यास करें कि चिंतन के नीचे से चिंता हट जाना चाहिए। जब आप चिंता में डूबे हुए होते हैं तो भविष्य का भय सामने होता है लेकिन, जब आप चिंतन में हों तो भयमुक्त होना चाहिए। भयमुक्त चिंतन के लिए चार काम करते रहिए, पहला, ईश्वर का भरोसा बनाए रखें। दूसरा, अपनी स्थिति का सही आंकलन कर लें।

तीसरा, सीमित साधनों में से असीमित परिणाम कैसे निकाले जा सकते हैं इसकी सजगता रखें और चौथा है विपरीत परिस्थिति में, संघर्ष में जो आपके सहयोगी हों वो योग्य होने चाहिए। चिंता कहती है क्या होगा? और चिंतन की शुरूआत होती है कि क्या कर सकते हैं? अगर आपका मन बहुत बातें कर रहा है तो यह चिंता की स्थिति होगी। चिंता में हमारा मन खूब बातें करता है, डराता है, लेकिन जैसे ही मन मौन हुआ, चिंतन आरंभ हो जाएगा।

दरअसल, मन जब बातें करता है तो शब्दों का एक शोर भीतर पैदा होने लगता है और उस शोर के भीतर हमारा विवेक दब जाता है। विवेक चिंतन के प्राण हैं और मन चिंता को बढ़ाता है। इसलिए चिंता से शुरूआत जरूर करिए, पर चिंता को चिंतन पर समाप्त करिए।

सांस पर ध्यान देकर अच्छे को मजबूती दें...
जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। यह आदर्श वाक्य हमारे बड़े-बूढ़े और कभी-कभी हम लोग भी दूसरों को समझाने के लिए कहा करते हैं। कोई परेशानी में हो, तब यह समझाइश दी जाती है कि जो हुआ, अच्छा ही हुआ होगा। लेकिन, ध्यान दें यह कहने से ज्यादा देखने की स्थिति है। यहां मतलब नज़रिये से है। वास्तविकता तो यह है कि जो हुआ होता है, बुरा हो चुका होता है, पर यह वाक्य इसलिए कहा जाता है कि आपका दृष्टिकोण बदल जाए। तब जो परिणाम आपको मिला है उसकी पीड़ा कम हो जाएगी। कुछ मछुआरे समुद्र में रास्ता भूल गए थे। अंधेरे में कुछ समझ में नहीं रहा था और तय था कि उनकी नाव डूब जाएगी, सब मर जाएंगे। 

अचानक उन्होंने आग देखी। वे समझ गए कि कोई बस्ती है। तुरंत वहां पहुंचे। वह बस्ती उन्हीं की थी। उनके झोपड़ों में आग लग गई थी। उनके घर वाले रो रहे थे पर मछुआरे कह रहे थे कि आग लगती तो हम रास्ता भटकने से डूबकर मर गए होते। यहां अच्छाई भी है और बुराई भी। अब देखने का दृष्टिकोण बनाना है। यह शब्द हमें समझाता है कि समस्या को बड़ा मत होने देना। समस्या जब बड़ी होती है तो फिर वह अकेली नहीं रह जाती, अपने साथ बहुत सारी दूसरी परेशानियां भी लेकर आती हैं। जो होता है, अच्छा होता है इस बात को यदि मजबूत करना हो तो अपनी सांस पर ध्यान दीजिए। विपरीत परिस्थिति में हमारी सांस तेज चलती है और सांस पर ध्यान देने का मतलब है योग।

मन की मांग को भगवान से जोड़ दें...
धीरे-धीरे हमत्योहारों के दौर में प्रवेश कर रहे हैं। अब हमारे दिल-दिमाग पर बाजार हावी होने वाला है। लगातार विज्ञापन देखने को मिलेंगे। चाहत को उत्तेजना देने वाले दृश्य और शब्द अब बाजार में फेंके जाएंगे। चाहत का आरंभ होता है कामना से। कामना की शुरूआत मन से होती है। चाहत यानी इस भाव की प्रबलता कि यह वस्तु हमें मिल ही जाए। चाहत रखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन कामना और चाहत के बीच में एक मांग चलती है।

आप संसार की वस्तुओं के लिए मांग रखें, लेकिन मांग का एक हिस्सा इस रूप में बचाए रखें कि परमात्मा हमारी मांग होना चाहिए। मन में यदि भगवान की भी मांग हो तो मन संसार की कामना के लिए थोड़ा नियंत्रित हो जाता है। इसलिए इस अवसर पर मन पर काम करते रहिए। और कोई भी वस्तु खरीदने जाएं, चाहे लोन लेकर खरीद रहे हों या अपनी हैसियत के बाहर जाकर धन की व्यवस्था करके खरीद रहे हों। मन के साथ यह विचार जरूर करें कि यह वस्तु सबसे पहले आपके कितने काम की है। दूसरा, आपके परिवार के लिए कितनी उपयोगी है। तीसरा विचार करना कि आपके आसपास जो लोग हैं क्या उन्हें भी काम आएगी। यहां से कामना और चाहत पर थोड़ा-सा नियंत्रण होता है। मन को तसल्ली भी देनी पड़ती है कि जो भी तू मांग रहा है सब तुझे मिल जाए जरूरी नहीं है। पर चूंकि मांग मन की आदत है उस मांग को थोड़ा भगवान से भर दो तो मन संसार के प्रति जिद्दी नहीं होगा और आपको परेशान नहीं करेगा।

भक्ति में निरंतरता का बड़ा महत्व है...
बुराई कब-किसकी मिटी है, दुर्गुण कब-किसके खत्म हुए हैं? यह अनवरत सिलसिला जन्म से आरंभ होता है और मृत्यु तक भिन्न रूपों में चलता रहता है। एक होता है खत्म करना और दूसरा विलीन करना। खत्म करने में बहुत ताकत लगती है और विलीन करने में तकनीक काम आती है। जैसे हम सोचें पानी को खत्म करके बर्फ बनाएं तो संभव नहीं। बर्फ खत्म करके पानी बनाना भी मुमकिन नहीं। यह विलीनीकरण की क्रिया होगी। ऐसे ही दुर्गुण विलीन करने पड़ते हैं। अपनी बुराई को विलीन करने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे पहचानें, फिर उसे जानें और जैसे ही अपने दुर्गुणों को जानने लगते हैं वो अपने आप विलीन होने लगते हैं। इनसे लड़ाई करें। संयम का मतलब है अपनी बुराई को जानना। इसके लिए जो दृष्टि लगती है वह दृष्टि सिर्फ परमात्मा से मिलती है। 
एक प्रयोग करते रहिए। खुद को विश्वास दिलाइए कि आप शरीर, सांस और मन से संचालित हैं। जैसे ही आप अपने आपको शरीर, सांस और मन से जोड़ेंगे, अपने दुर्गुणों से पहचान होने लगेगी। जब आप सांस पर काम करेंगे तो शरीर और मन थोड़े अलग-अलग दिखने लगेंगे। इसे कहेगे जानना। जो लोग बीमा कराते हैं वे जानते हैं कि बीमा करवाने के बाद महत्वपूर्ण बात रह जाती है नियमित रूप से किस्तें जमा करवाना। संसार का सबसे सुरक्षित बीमा ईश्वर का भरोसा है, लेकिन उसके लिए आपको निरंतर किस्त भी जमा करानी पड़ेगी। इसीलिए भक्ति में निरंतरता का बड़ा महत्व है।

बुराई से बचने के पांच अवसर देता है ईश्वर..
यह सर्वाधिक उत्सव और त्योहार वाला महीना कार्तिक है। आज के दिन यानी धनतेरस को हम धन्वंतरि जयंती मनाते हैं। आरोग्य के देवता धन्वंतरि इसी दिन समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। समुद्र मंथन यानी मन का मंथन। बुराइयों के केंद्र मन का हमें मंथन करना पड़ता है। बुराइयां किन-किन रूपों में आती हैं, इसका उदाहरण है शूर्पणखा।

इस स्तंभ में हम मंगलवार को लंका कांड के प्रसंगों पर चर्चा कर रहे हैं। युद्ध की तैयारियां हो चुकी थी और युद्ध से पहले श्रीराम ने पांच माध्यमों से रावण को समझाया था। भगवान हमें बुराई से बचाने के पांच अवसर देता है। जब हम रावण की तरह गलत निर्णय ले रहे हों तो सबसे पहले शूर्पणखा के रूप में सावधान करता है। वह रावण की बहन थी, जिसे उसने भोग-विलास के लिए दंडकारण्य में छोड़ रखा था। हम भी कई बार अपनी सुविधाओं के लिए अपने लोगों का दुरुपयोग करने लगते हैं। लक्ष्मण के माध्यम से शूर्पणखा का नाक-कान कटाकर श्रीराम ने रावण को सावधान किया कि अब गलत बात सहन नहीं की जाएगी।

हमारे परिवार के सदस्यों का अपमान होता है, जिसका कारण हमारी गलतियां हैं तो परमात्मा हमें संदेश दे रहा है कि सावधान हो जाओ, सुधर जाओ। लेकिन रावण ने कोई शिक्षा नहीं ली। ध्यान रखिए, राम-रावण का युद्ध अच्छाई से बुराई का युद्ध था। बुराई को पराजित करने में राम ने सीमित साधनों का जिस तरह से उपयोग किया वह हमारे लिए बड़ा सबक है।

रोगों से रक्षा करती है हमारी तृप्त आत्मा..
पिछले दिनों एक सज्जन मिले जो दिनभर में 14 गोलियां खाते थे और बड़े मजाकिया लहजे में बोले- अब तो भगवान से यही प्रार्थना है कि दवा भी खाते रहें और तबीयत भी ठीक रहे। सुनकर आश्चर्य लगता है लेकिन, इसे समझना पड़ेगा। दवा खाने से बीमारी तो कंट्रोल हो सकती है लेकिन, जीवन में स्वास्थ्य जाए यह जरूरी नहीं। स्वास्थ्य हमारा मूल स्वभाव है। बीमारी बाहर से आती है और स्वास्थ्य भीतर का विषय है। जब आप दवा लेते हैं तो शरीर में फारेन पार्टिकल प्रवेश करता है। जैसे भोजन बाहर से भीतर आता है तो सबसे पहले शरीर पर असर करता है। नींद, आलस्य और ताकत ये शरीर के भोजन के रूप हैं। हम भूल जाते हैं कि शरीर के भीतर मन और मन के आगे आत्मा है और आत्मा का भी एक भोजन है, जो है स्वस्थ रहना। अगर कोई बीमारी हो जाए और दवा खाना पड़े तो कोई बुराई नहीं है। लेकिन शरीर को उसके आहार के प्रति सावधान रखें। शाकाहार करें, खान-पान संतुलित और संयमित रखें तो दवाई के नुकसान भी कम होंगे और फायदे जल्दी मिलेंगे। किंतु इसी समय आत्मा के भोजन यानी सत्संग और योग की भी तैयारी रखें। अवसर मिले तो हनुमान चालीसा से मेडिटेशन करके देखिए, आत्मा तृप्त होगी और तृप्त आत्मा अपने शरीर की अलग ही ढंग से रक्षा करती है। तब हो सकता है बड़ी से बड़ी बीमारी होने के बाद भी कम दवाओं से काम चल जाए। फिर यह कहने में कोई बुराई नहीं कि दवा भी खाते रहें और तबीयत भी अच्छी रहे।

योग के जरिये परिवार में लाएं सकारात्मकता...
परिवार में एकता कैसे बनी रहे इसके लिए कभी-कभी युवा पीढ़ी भी गंभीर हो जाती है। पिछले दिनों नई उम्र के बच्चों ने मुझसे एक सवाल पूछा कि हम चाहते हैं हमारा परिवार एक रहे लेकिन, कुछ कुछ ऐसा हो जाता है कि एक उदासी घेर लेती है और फिर अलग होना पड़ता है। नई पीढ़ी के बच्चों के मन में परिवार में सब साथ रहे यह भावना शुभ संकेत है। इस पर गहराई से दृष्टि डालनी होगी। कई बार छत अलग हो जाए तो भी परिवार में एकता बनी रहती है। उसका कारण है कि उनके बीच में कोई गतिविधि ऐसी होती है जो संयुक्त होती है जैसे कि व्यवसाय। परिवार के सदस्यों का एक ही व्यवसाय हो तो सब आपस में जुड़े रहते हैं। जुड़े रहने का दूसरा कारण होती हैं परम्पराएं। फिर कुछ आयोजन होते हैं, जिनसे सदस्य आपस में मेलजोल बनाए रखते हैं। एक कारण धर्म भी होता है, जिससे कि परिवार में एकता बनी रहती है। लेकिन, इन सब घटनाओं में निगेटिव एक्टीविटीज चलती रहती हैं। एक ही व्यवसाय हो तो लोग जुड़े अवश्य रहेंगे पर भीतर ही भीतर घुटते भी हैं, विरोध भी होता है। तो यदि किसी गतिविधि में संयुक्त होना हो, जिसमें कि निगेटिविटी रहे तो वह गतिविधि है योग। जब भी अवसर मिले, परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठकर योग करें। इस संयुक्त गतिविधि में पॉजिटीव तरंगें ही निकलती हैं। वैसे हमारे शरीर में रक्त, तरंग के अलावा प्राण भी बहते हैं। ऐसे ही हमारे परिवार के शरीर में एक प्राणतत्व है और यदि योग करेंगे तो उसमें पॉजिटिविटी उतरेगी।

उचित विश्राम सलाह के बाद फैसला लें..
यह दुनिया बनाने वाले को लोगों ने अपने-अपने धर्म के हिसाब से नाम दे दिया है। इस सृष्टि का बहुत छोटा-सा हिस्सा हमारे हाथ लगता है और हम घोषणाएं करते हैं कि यह दुनिया हमने बनाई है। हमें खुद को समझाना पड़ेगा कि दुनिया तो किसी परमशक्ति ने बनाई है और हमारे हवाले जो हिस्सा है, हम उसके चौकीदार हैं।
लंका कांड में श्रीराम ने पांच तरीके से रावण को समझाया था। पहला तरीका शूर्पणखा का था। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी है- ‘इहां प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई।। कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई।। प्रात:काल श्रीराम जागे और सब मंत्रियों को बुलाकर पूछा- शीघ्र बताइए अब क्या करना चाहिए? यहां जागे, सलाह और शीघ्र, तीन शब्द रामजी के साथ आए हैं। एक तो रामजी कोई भी काम करते हैं तो समय पर विश्राम करते हैं और जब दोबारा जागते हैं तो पूरे उत्साह के साथ साथियों से सलाह लेते हैं। यह तरीका हम पर भी लागू होता है। रामजी का दूसरा तरीका था मारीच जो रावण का मामा था। उसके माध्यम से भी रावण को समझाया था कि आप यह ठीक नहीं कर रहे हैं। समाज का अनुभव, परिवार के वृद्धजन भी हमें समझाने के लिए भगवान द्वारा की गई व्यवस्था हैं। पर हम गलती कर रावण की तरह यह मान लेते हैं कि यह संसार मैंने बनाया है, मैं सब देख लूंगा। परंतु ऐसा होता नहीं है। ऐसी ही गलती के कारण शिखर पर बैठा व्यक्ति एक दिन धड़ाम से शून्य पर गिरता है।

मिलकर मसले सुलझाएं परिवार बचाएं...
हम जब किसी खास सफर पर निकलते हैं तो उसकी विशेष तरीके से तैयारी भी की जाती है। जि़ंदगी के भी कुछ तयशुदा सफर होते हैं जिन पर स्त्री-पुरुष निकलते ही हैं लेकिन, एक यात्रा ऐसी है जो सिर्फ स्त्रियों के भाग्य में लिखी होती है। वह अनूठी यात्रा है मायके से ससुराल की। यह किसी के लिए तो इतनी कठिन हो जाती है कि जीवन बोझ बन जाता है और कुछ इसे आसानी से पार कर जाती हैं। पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित संयुक्त परिवार के वरिष्ठ सदस्य ने बताया कि हमारे यहां आने वाली बहू का परिवार से तालमेल नहीं बैठा और उसने कह दिया कि मुझे मेरे पति को अलग रहना है। संयुक्त परिवारों का टूटना कोई नई बात नहीं है। नई बात तब होती है जब वे इस तरह टूटते हैं कि मतभेद के साथ मनभेद भी हो जाते हैं। एक थाली में खाने वाले लोग एक-दूसरे की सूरत तक देखना पसंद नहीं करते। अधिकतर मामलों में इसका कारण बहू को बताया जाता है। लड़के वाला पक्ष कहता है बहू के मायके से प्रतिपल हस्तक्षेप होता है, तो लड़की वाले उसके ससुराल पक्ष पर अच्छा बर्ताव करने के आरोप लगाते हैं। जब दो परिवार एक-दूसरे की निंदा, आलोचना करने लगें तो परिवार बचाना मुश्किल हो जाता है। तब एक ही सूत्र काम आता है- धैर्य और भविष्य के प्रति आशा की दृष्टि। तत्काल फैसले लेते हुए मिल-बैठकर मामले को सुलझाएं। वरना जिन परिवारों के लिए देश जाना जाता है वे टूटते चले जाएंगे और कीमत स्त्री को ही अधिक चुकानी पड़ेगी।

मानस रोग का इलाज कर दुर्गुणों से बचें...
वैसे तो सभी सभ्य लोग चाहते हैं कि दुर्गुणों का हमला परिवारों पर सीधा हो। अत: घर की चारदिवारी में कुछ सुरक्षा रखते हैं। घर के सदस्य आचरण से गिर जाएं और ऐसा काम घर में करें, जो उनके संस्कार और परम्पराओं से मेल नहीं खाता हो। इसे लेकर सभी सजग रहते हैं। लेकिन, इसे समझना होगा। मौजूदा माहौल में जो लोग चाहते हों कि बाहर के दुर्गुण घर में आएं तो उन्हें दो बातों पर काम करना चाहिए। संबंध खराब होते हैं एक-दूसरे की निंदा और केवल शरीर पर टिकने के कारण। शास्त्रों में कुछ बीमारियां बताई हैं, जिन्हें मानस रोग कहा गया है। बाहर के रोगों की तरह मनुष्य के भीतर भी रोग होते हैं, जिनका इलाज उसे खुद ही करना है। मोह को सारे रोगों का कारण बताया गया है। उसके बाद काम, क्रोध और लोभ को रोग कहा है। आयुर्वेद के हिसाब से वात, पित्त और कफ बीमारियों के कारण हैं। वात मतलब वायु। काम को वायु, पित्त यानी एसीडीटी को क्रोध और कफ को लोभ कहा है। इन बीमारियों के रहते हम घर का वातावरण अच्छा रख ही नहीं सकते। नतीजे में सदस्य तनावग्रस्त होंगे, एक-दूसरे पर आक्रमण करेंगे, एक-दूसरे की निंदा करेंगे और धीरे-धीरे परिवार टूटने लगेंगे। यदि एक साथ रहेंगे भी तो एक-दूसरे को बोझ मानेंगे। इसलिए परिवार बचाना हो तो दुर्गुणों से बचिए और उसके लिए मानस रोग का इलाज खुद करें। भक्ति, योग, सत्संग वो दवाएं हैं जो असर भले ही धीरे करें पर परिवार बचाने में बड़े काम की हैं।

अहम संदेश देता है मनुष्य शरीर का अंत...
ऊपर वाले ने इंसान का शरीर भी गजब का बनाया है। जीते-जी तो इसमें इतनी संभावनाएं छोड़ी हैं कि भोगने उतर जाओ तो जानवर से भी ज्यादा भोग सकते हो। और यदि सही उपयोग कर लिया जाए तो इसी शरीर में देवता भी बना जा सकता है। असीम संभावना वाली यह देह जाते-जाते, खत्म होने के बाद भी ज़िंदगी को लेकर गजब के संदेश दे जाती है। मरने के बाद मनुष्य शरीर जला दिया जाता है, दफना दिया जाता है या बहा दिया जाता है। तीनों ही स्थितियों में उसकी राख, मिट्टी बड़ा संदेश दे जाती है। चिता की राख में जो संदेश है वह उसकी आग में नहीं है। पांच-छह फीट का शरीर कुछ मुट्ठी राख में बदल जाता है। विचार कीजिए, यही तो सबसे बड़ा संदेश है कि आखिर में रह क्या जाएगा? जिं़दगीभर जिस बात के लिए सारा तमाशा करते हैं, यदि उसके समापन पर नज़र डाल लें तो गलतियां कम होंगीं। वो चंद मुट्ठी राख, वो कब्र की जरा-सी मिट्टी बताती है कि मेरे रूप में तब्दील होने से पहले तुम्हारे पास जो था उसका सदुपयोग कर लेना। वरना यह हश्र तो होना ही है। मनुष्य की चिता की आग ही ऐसी है, जिसमें उजाला औररोशनीदोनों है। वरना बाकी सारी आग उजाला ही देती है, ‘रोशनीनहीं देती। इतनी बड़ी तैयारी के साथ यदि ऊपर वाले ने हमें मनुष्य बनाकर भेजा है तो चूकना नहीं चाहिए। दूसरे के जीवन का समापन देखने को मिले तो बुद्धिमानी इसी में है कि तुरंत अपना जीवन संवार लिया जाए। हर मौत दूसरे के लिए भी संदेश है।

प्रसन्नता उतारने का केंद्र हैं गौशालाएं...
विज्ञान और धर्म जिन बातों पर एक-दूसरे के प्रति विरोध में हैं, उनमें उलझ गए तो ज़िंदगी बीत जाएगी पर हाथ कुछ नहीं लगेगा। हमें विज्ञान से कटना नहीं है और धर्म छोड़ना भी नहीं है। इसलिए वे सारे अवसर टटोलिए जहां ये दोनों एकमत हैं। विज्ञान कहता है हमारे सारे अाविष्कारों में तरंगें काम करती हैं और यही ऋषि-मुनियों ने कहा है। हमारे शरीर में भी सारा कार्यक्रम तरंगों से चल रहा है। विज्ञान ने इसे पॉजिटिव और नेगेटिव तरंग कहा, हमने आनंद और अवसाद का नाम दिया। जीवन में पॉजिटिविटी के लिए कुछ बातें ऐसी हैं, जिसे लोगों ने नासमझी से धर्म का रंग दे दिया। आजकल धर्म का दुरुपयोग करने में लोगों को महारत हासिल है। इसलिए पॉजिटिविटी का एक महान केंद्र अलग ही रूप ले बैठा, जो है गाय। आज के दिन गोपाष्टमी का पर्व सिर्फ इसलिए नहीं मनाया जाता कि इसका संबंध कृष्ण अवतार से है। दरअसल, गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिसके शरीर की संरचना पॉजिटिविटी बाहर निकालने के लिए की गई है। यह विज्ञान भी मानता है।नई पीढ़ी को समझना ही चाहिए कि जिस शांति, प्रसन्नता और पॉजिटिविटी की तलाश में वे विज्ञान के साधन अपना रहे हैं, वह शत-प्रतिशत गाय में उपलब्ध हैं। गौशालाएं पाप-पुण्य का मामला नहीं, जीवन में प्रसन्नता उतारने का केंद्र है। भारत की प्रत्येक गौशाला शांति प्रतिष्ठान केंद्र है। खुश रहना कौन नहीं चाहता और खुश रहने के लिए जो खजाना गाय में है वह दुनिया में किसी के पास नहीं।

अपने भीतर की आवाज जरूर सुनें...
नवजात शिशु जब संसार में आता है तो रोता है। दुनिया मानती है वह भूख के कारण रोता है। लेकिन, इसका एक पक्ष और है कि वह मां से मिल रही जीवन धारा से कट चुका होता है, इसलिए भी रोता है। युवा होने पर उसकी भूख का मतलब बेचैनी हो जाता है और बुढ़ापे में भूख थकान में बदल जाती है। हर उम्र शरीर के साथ अपने ढंग का व्यवहार करती है। हममें समझ है तो हर उम्र का ठीक से उपयोग कर सकते हैं। लंका कांड में इसका उदाहरण है।

युद्ध की तैयारी हो चुकी थी, रामजी ने अपने लोगों से सलाह ली। तब जामवंत द्वारा दी सलाह समझने योग्य है। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘मंत्र कहउॅ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालिकुमारा।। इसका मतलब है- मैं (जामवंत) अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूं कि बालिपुत्र अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए। जामवंत यानी सेना का सबसे बूढ़ा सदस्य और अंगद सबसे युवा। राम मध्य में थे। यह होता है उम्र का सदुपयोग। युवा पीढ़ी को बहुत सोच-समझकर रावण के सामने भेजा जा रहा था।

हमने पहले चर्चा की है कि अंगद से पहले श्रीराम पांच लोगों के माध्यम से रावण को समझाते हैं। सबसे पहले शूर्पणखा, फिर मारीच, विभीषण, मंदोदरी और रावण का बेटा प्रहस्त। लेकिन रावण किसी की बात सुनने-समझने को तैयार नहीं था। यह प्रसंग बताता है कि उम्र और उससे जुड़ा शरीर अपने तरीके से समझाता है। भले ही दूसरों की नहीं सुनें, कम से कम अपनी तो सुन लें। रावण की तरह गलत कदम उठाने से बच जाएंगे।

सहज-सरल रहें तो परिवार से खुशी मिलेगी...
जीवन का सर्वश्रेष्ठ आनंद, प्रसन्नता और खुशी गृहस्थी से प्रवेश करते हैं। लेकिन आज कई लोग जो गृहस्थ जीवन जी रहे हैं, वे इससे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनके लिए गृहस्थी कलह का केंद्र बन गई है। एक प्रकार से वे गृहस्थी से घबरा रहे हैं। दांपत्य जीवन में भोग-विलास तो स्वीकार करते हैं लेकिन, शांति प्राप्त करने के लिए जो त्याग, समर्पण और प्रेम चाहिए उस पर काम नहीं करते। गृहस्थी की जड़ों में पूरी संभावना है खुशी और प्रसन्नता का वृक्ष उगाने की। अब यह कैसे किया जाए? गृहस्थ धर्म की पहली शर्त है आप जो हैं, वैसे ही दिखें, वैसे ही जीएं। बाहर जो भी करें, जैसे भी दिखें पर कम से कम घर में तो कोई मुखौटा ओढ़ें। पूरी तरह से उजागर हो जाएं। अभी हम अपने व्यक्तित्व अस्तित्व को ढंककर रखते हैं। इसके लिए घरों में रिश्तों का इस्तेमाल करने लगे हैं। किसी को कॉलीन बनाते हुए देखें तो पाएंगे कारीगर एक-एक धागे से बात करता हुआ, इशारा करता हुआ काम करता है। कॉलीन बनाने वालों के उस्तादों की एक भाषा होती है, जिसे सुनकर बनाने वाला कारीगर डिज़ाइन कर देता है। ऐसे ही परिवार में रिश्ता बारीक धागे जैसा है। यहां छोटी से छोटी डोर भी महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन ध्यान रखिएगा, इस डोर का इस्तेमाल करते समय वो ही रहें जो आप हैं। बिना कोई आवरण ओढ़े बिल्कुल सरल और सहज। फिर देखिए, दुनिया की सबसे बड़ी खुशी जिसे प्राप्त करने के लिए आप बावले हैं, वह घर-परिवार से ही मिलेगी।

वर्तमान से राजी हो जाएं, बुरा होने से बचेंगे...
अच्छे दिनआने वाले हैं..’ इस सामाजिक नारे की गहराई में जाएं और यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो मतलब बदल जाएंगे। सभी लोगों के अच्छे और बुरे दिन अलग-अलग होते हैं। इस संसार में जितने लोग हैं उतने ही दिन सबके लिए अलग-अलग हैं। जो आपका अच्छा दिन होगा, वह किसी का खराब तथा किसी और का बहुत ज्यादा खराब हो सकता है। कुछ ऐसे भी होंगे, जो आपके अच्छे से भी और अच्छे दिन भोग रहे होंगे। बात गहरी है पर सरलता से यूं समझें कि सबके अच्छे दिन अपने-अपने हिसाब से होते हैं। अपने तरीके से वो गलत या बुरे भी बन जाते हैं। कभी-कभी हम कहते हैं आज मेरा दिन बहुत खराब रहा। इसका मतलब है उस दिन कुछ ऐसा हुआ है, जो आपके लिए प्रतिकूल होगा। कभी यह भी कहते हैं कि आज का दिन बहुत अच्छा था। 

पर जो दिन आपके लिए अच्छा रहा, कोई दूसरा शायद उसे बुरे रूप में भोग रहा होगा। अब यदि आप चाहते हैं कि दिन तो वही है पर आपके लिए अच्छा हो जाए परंतु बाहरी स्थितियों पर आपका नियंत्रण रहे तो सहमत हो जाना सीख जाएं। जो अपने वर्तमान से सहमत है उसके साथ बुरा होने की आशंका कम हो जाएगी। यदि अपने आपको सहमत या राजी करना चाहें तो आध्यात्मिक दृष्टि कहती है अपने भीतर की इंद्रियों पर काम कीजिए, जिनका राजा है मन। इसे राजी होने में दिक्कत होती है। किसी तरह मन को राजी कीजिए, इंद्रियां नियंत्रित होंगी और शरीर घोषणा कर देगा मेरे तो सभी दिन अच्छे रहते हैं।

अपनी रुचि को क्षमता बनाएं, थकेंगे नहीं...
कभी दो चीजों पर शांति से बैठकर काम कीजिए- आपकी क्षमता और रुचि। वैसे ये दोनों अलग-अलग हैं। संभव है आपकी रुचि किसी खेल में है पर उसके लिए जरूरी शारीरिक क्षमता हो। रुचि को पूरा करने के लिए क्षमता जरूरी है और आप रुचि को क्षमता में बदल सकते हैं। जब यह होता है तो मनुष्य थकता नहीं है। आपकी रुचि कौन-सी है और उसे कैसे क्षमता में बदल सकते हैं, इसके लिए एक अंदरूनी क्रिया की जा सकती है। हर मनुष्य के शरीर में दस इंद्रियां हैं और सात चक्र। जन्म से ही कोई एक चक्र तथा कोई एक इंद्रीय ऐसी होती है, जो आपको सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। इसे केंद्रीय चक्र या इंद्रीय भी कह सकते हैं। जीवन की ऊर्जा जिस भी चक्र पर होगी और जिस भी इंद्रीय से मिलेगी, यदि वह केंद्रीय है तो आप वैसी ही गतिविधि करने लगेंगे। रुचि का निर्माण ही यहां से होता है। इसके लिए आप ही को सोचना पड़ेगा। आंख, नाक, कान, त्वचा और जिह्वा इन पांच ज्ञानेंद्रियों में से कोई एक जरूर प्रमुख होगी। ऐसे ही सात में से कोई एक चक्र प्रमुख होगा। इस पर लगातार वॉच कीजिए। थोड़ा समय निकालकर आपका कोई मंत्र हो उसके जप या विचारशून्य होकर अपनी सांस उस चक्र और इंद्रीय से जोड़िए। अपनी रुचि को क्षमता में बदलने का अपने आप रास्ता मिल जाएगा। फिर लगेगा, हर काम पूरी ताकत से करने के बाद भी थकान नहीं आती। अपनी रुचि और क्षमता को जानने का तरीका निकालिए, बड़े से बड़ा काम निपटाकर भी थकेंगे नहीं।

उपवास में भीतर ओंकार सुनाई देना चाहिए...
कार्तिक मास पूरा हुआ। इस महीने लोगों ने स्नान और दान खूब किए होंगे। उपवास सभी धर्मों में मान्य है। तरीके अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन, हर धर्म ने कहा है उपवास अवश्य करें। जब कोई उपवास करता है तो उसे दो बातों पर काम करना होता है- अन्न और विचार। अन्न का संबंध स्वास्थ्य से है और विचार का आचरण से। उपवास यानी ये दो नियंत्रित हो जाएं। पेट का उपवास से इतना ही लेना-देना है कि जितना आप उसे रोज देते थे उतना उपवास के दिन नहीं दिया।

लेकिन, पेट तो वैसे भी नहीं मांगता। मांगती तो जीभ और उसका स्वाद है। चूंकि शरीर ऐसी बातों से संचालित होता है कि यदि उसे नहीं समझे तो उपवास के मतलब बदल जाएंगे। हमारे भीतर दो आदतें हैं- एक सांसारिक और दूसरी जैविक। संसार में रहते हुए हमने कुछ ऐसी आदतें सीख ली या सिखा दी गई हैं जो उपवास में भारी पड़ जाती हैं। लेकिन, एक जैविक आदत है जो जन्म से साथ आती है और भीतर के हार्मोन तैयार करती है। उपवास का असर जैविक आदत पर होना चाहिए। इसलिए उपवास आदत से नहीं, स्वभाव से किया जाए। गुरुनानक कह गए हैं कि जब उपवास करें तो आपके भीतर एक ध्वनि सुनाई देनी चाहिए। की ध्वनि, जिसे ओंकार कहा गया है। चूंकि उपवास में आप विचार शून्य होते हैं, अन्न फलाहारी होता है, इसलिए शरीर पूरा सहयोग करता है। विचार और शरीर यदि सहयोगी हैं तो की ध्वनि सुनाई देगी और उस दिन लगेगा आप परमात्मा के पास बैठै हैं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....