Friday, October 27, 2017

कुण्डलिनी-साधना ( Kundalini Sadhana )


कुण्डलिनी शक्ति क्या है?
योग कुण्डल्युपनिषद् में कुण्डलिनी का वर्णन इस तरह किया गया है- ´कुण्डले अस्या´ स्त: इति: कुण्डलिनी। दो कुण्डल वाली होने के कारण पिण्डस्थ उस शक्ति प्रवाह को कुण्डलिनी कहते हैं। दो कुण्डल अर्थात इड़ा और पिंगला। बाईं ओर से बहने वाली नाड़ी को ´इड़ा´ और दाहिनी ओर से बहने वाली नाड़ी को ´पिगला´ कहते हैं। इन दोनों नाडियों के बीच जिसका प्रवाह होता है, उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इस सुषुम्ना नाड़ी के साथ और भी नाड़ियां होती है। जिसमें एक चित्रणी नाम की नाड़ी भी होती है। इस चित्रणी नाम की नाड़ी में से होकर कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होती है, इसलिए सुषुम्ना नाड़ी की दोनों ओर से बहने वाली उपयुक्त 2 नाड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति के 2 कुण्डल हैं।

कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के २/१/८ संदर्भ में कहा गया है-
 ''सत्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए । अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुईं । यही सप्त समिधाएँ हैं, यही सात हवि हैं । इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया गया है ।''
उपनिषद् में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप का वर्णन-
मूलाधारस्य वहवयात्म तेजोमध्ये व्यवस्थिता।
जीवशक्ति: कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी।।

अर्थात कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नी तेज के मध्य में स्थित है। वह जीवनी शक्ति है। तेज और प्राणाकार है।

कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञानार्णव तंत्र में वर्णन इस प्रकार किया गया है-
मूलाधारे मूलविद्दया विद्युत्कोटि समप्रभासम्।
सूर्यकटि प्रतीकाशां चन्द्रकोटि द्रवां प्रिये।।

अर्थात मूलाधार चक्र में विद्युत प्रकाश ही करोड़ों किरणों वाला, करोड़ों सूर्यो और चन्द्रमाओं के प्रकाश के समान, कमल की डण्डी के समान अविच्छिन्न तीन घेरे डाले हुए मूल विद्या रूपिणी कुण्डलिनी स्थित है। वह कुण्डलिनी परम प्रकाशमय है, अविच्छिन्न शक्तिधारा है और तेजोधारा है।

घेरण्ड संहिता के अनुसार-
घेरण्ड संहिता में कुण्डलिनी को ही आत्मशक्ति या दिव्य शक्ति व परम देवता कहा गया है।

मूलाधारे आत्मशक्ति: कुण्डली परदेवता।
शमिता भुजगाकारा, सार्धत्रिबलयान्विता।।

अर्थात मूलाधार में परम देवी आत्माशक्ति कुण्डलिनी तीन बलय वाली सर्पिणी के समान कुण्डल मारकर सो रही है।

महाकुण्डलिनी प्रोक्त: परब्रह्म स्वरूपिणी।
शब्दब्रह्ममयी देवी एकाऽनेकाक्षराकृति:।।

अर्थात कुण्डलिनी शक्ति परम ब्रह्मा स्वरूपिणी, महादेवी, प्राण स्वरूपिणी तथा एक और अनेक अक्षरों के मंत्रों की आकृति में माला के समान जुड़ी हुई बतायी जाती है।

कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्।
बन्धनाय च मूढ़ानां यस्तां वेति से योगिवित्।।

अर्थात कन्द के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति अवस्थित है। यह कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई अवस्था में होती है। इस कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा ही योगिजनों को मोक्ष प्राप्त होता है। सुख के बन्धन का कारण भी कुण्डलिनी है। जो कुण्डलिनी शक्ति को अनुभाव पूर्ण रूप से कर पाता है, वही सच्चा योगी होता है।

सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है-
उसमें भूः में धरित्री भुवः में वायु स्वः में तेजस महः में महानता, जनः में जनसमुदाय, तपः में तपश्चर्या एवं सत्य में सिद्धवाण्-वाक सिद्धि रूप सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी हैं ।

इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है, जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है ।

मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है। इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की तथा सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है । दोनों के बीच चलने वाले आदान-प्रदान माध्यम को मेरुदण्ड कहा गया है । ब्रह्मरंध्र ब्रह्मण्ड का प्रतीक है । ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मण्डीय चेतना का अवतरण केन्द्र है और इस महान् भण्डागार में से मूलाधार को जिस कार्य के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की शक्ति कि आवश्यक्ता होती है उसकी पूर्ति लगातार होती रहती है ।

कुण्डलिनी प्रसंग योग वशिष्ठ, योग चूड़ामणि, देवी भवगत्, शारदा तिलक, शान्डिल्योसपनिषद मुक्ति-कोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णन तंत्र, योगिनी तंत्र बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र सौन्दर्य लहरी आदि गंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है ।

यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं-
हे ''प्राणाग्नि! मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रकटों अज्ञान का अंधकार दूर करों, ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ ।''

त्रिशिखिब्रहोपनिषद में शास्त्रकार ने कहा है-
''योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान लडपती और चमकती है । उससे जो है, सोया सा जागता है । जो जागता है, वह दौड़ने लगता है ।''

महामंत्र में वर्णन आता है-
''जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है । उससे नाद बिन्दू, कला के तीनों अभ्यास स्वयंमेव सध जाते हैं । परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी चारों वाणियाँ मुखर हो उठती हैं । इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है । शरीर-वीणा के सभी तार क्रमबद्ध हो जाते हैं और मधुर ध्वनि में बजते हुए अन्तराल को झंकृत करते हैं । शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवनमुक्त कर देवात्मा बना देती है । ''

शरीर में कुण्डलिनी की अवस्था
जननेन्द्रिय के मूल में या लिंग उपस्थ में नाड़ियों का एक गुच्छा है। योग शास्त्रों में इसी को “कन्द” कहा जाता है। इसी पर कुण्डलिनी गहरी नींद में जन्म-जन्मान्तर से सो रही होती है।

कुण्डलो कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता।
सा शक्तिश्चालिता येन, स युक्तों नात्र संशय।।

अर्थात कुण्डलिनी को सर्प के आकार की कुटिल कहा गया है। जिस तरह सांप कुण्डली मारकर सोता है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति भी आदिकाल से ही मनुष्य के अन्दर सोई हुई रहती है।

यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीव: पयुयेथा।
ज्ञान न जायते तावत् कोटि योगविधेरपि।।

अर्थात जब तक कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य के अन्दर सोई हुई अवस्था में रहती है, तब तक मनुष्य परिस्थिति के अधीन रहता है। ऐसे व्यक्ति का आचरण पशुओं के समान होता है। ऐसे व्यक्ति दीन-हीन जीवन यापन करते हैं, तथा उनका रहन-सहन, भावों और विचारों, आहार-विहार आदि में आत्म विश्वास, धैर्य, सूझ-बूझ, उमंग, उत्साह, उल्लास, दृढ़ता, स्थिरता, एकाग्रता, कार्य कुशलता, उदारता और हृदय विशालता जैसे गुणों का अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति अनेक योग साधना, पूजा-पाठ आदि करके भी अपने ब्रह्माज्ञान विवेक को प्राप्त नहीं कर पाता।

मूलाधारे प्रसुप्त साऽऽमशक्ति उन्न्द्रिता-
विशुद्धे तिष्ठति मुक्तिरूपा पराशक्ति:।

अर्थात वह प्रबल आत्मशक्ति मूलाधार में सो रही है। उसका प्रयोग किसी बड़े या चमत्कारी कार्य में न होने से वह अपमानित व्यक्ति की तरह शिथिल और गतिहीन बनी हुई है। व्यक्ति के अन्दर जागी हुई इच्छाशक्ति के महान उद्देश्यों की पूर्ति में नियोजित वही शक्ति पराशक्ति के रूप में विराजती है।

कुण्डलिनी जागृत करने का कारण
शरीर के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होने से शरीर के अन्दर मौजूद दूषित कफ, पित्त, वात आदि से उत्पन्न होने वाले विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके जागरण से मनुष्य के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दोष, आदि खत्म हो जाते हैं। इस शक्ति का जागरण होने से यह अपनी सोई हुई अवस्था को त्याग कर सीधी हो जाती है और विद्युत तरंग के समान कम्पन के साथ इड़ा, पिंगला नाड़ियों को छोड़कर सुषुम्ना से होते हुए मस्तिष्क में पहुंच जाती है।

कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सचालयेत बुध:।
स्पश्यनादाभ्रवोर्मध्य, शक्तिचालनमुच्चते।।

अर्थात अपने अन्दर आंतरिक ज्ञान व अत्याधिक शक्ति की प्राप्ति के लिए सभी मनुष्यों को चाहिए कि वह अपने अन्दर सोई हुई कुण्डलिनी (आत्मशक्ति) का जागरण करें, उसे कार्यशील बनाएं! प्राणायाम के द्वारा जब मूलाधार से स्फूर्ति तरंग की तरह ऊर्जा शक्ति उठकर मस्तिष्क में आती हुई महसूस होने लगे तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो चुकी है।

ज्ञेया शक्तिरियं विश्नोनिर्भया स्वर्णभ: स्वरा।

अर्थात शरीर में उत्पन्न होने वाली इस कुण्डलिनी शक्ति को स्वर्ण के समान सुन्दर विष्णु की निर्भय शक्ति ही समझना चाहिए। यही शक्ति आत्मशक्ति, जीवशक्ति आदि नाम से भी जाना जाता है। यही ईश्वरीय शक्ति भी है, प्राणशक्ति और कुण्डलिनी शक्ति भी है। मनुष्य के शरीर में मौजूद कुण्डलिनी शक्ति और पारलौकिक शक्ति दोनों एक ही शक्ति के अलग-अलग रूप हैं।

पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के अनुसार-
पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के साधनापद में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के अनेकों उपाय बताए गए है। मंत्र ग्रन्थों में जितने योगों का वर्णन है, वे सभी कुण्डलिनी जागरण की ही साधना है। महाबन्ध, महावेध, महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी मद्रा, अश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा, शक्ति चालिनी मुद्रा, आदि कुण्डलिनी जागरण में सहायता करते हैं। इसमें प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी को जागरण करना और उसे सुषुम्ना में लाना कुण्डलिनी जागरण का सबसे अच्छा उपाय है। प्राणायाम के द्वारा कुछ समय में ही कुण्डलिनी शक्ति का जागरण कर उसके लाभों को प्राप्त किया जा सकता है।

प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है। इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है। प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है। प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है।

प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस का संचार होने से क्रियाशीलता का विकास भी होता है।

कुंडलिनी जागरण का अर्थ है
मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में जन्मजात पायी जाती है। इसे जगाने के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती है।

कुंडली जागरण के लिए साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या प्रयास करना पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण है।

योग और अध्यात्म में इस कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों में से प्रथम चक्र मूलाधार के नीचे माना गया है। यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है।

आध्यात्मिक भाषा में इन्हें षट्-चक्र कहते हैं।

ये चक्र क्रमश:
इस प्रकार है:- मूलधार-चक्र, स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपुर-चक्र, अनाहत-चक्र, विशुद्ध-चक्र, आज्ञा-चक्र। साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत करते हुए, आज्ञा-चक्र तक पहुंचता है। मूलाधार-चक्र से प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है।

षट्-चक्र एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रंथियां है। इन चक्र ग्रंथियों में जब साधक अपने ध्यान को एकाग्र करता है तो उसे वहां की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। इन चक्रों में विविध शक्तियां समाहित होती है। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि। साधक जप के द्वारा ध्वनि तरंगों को चक्रों तक भेजता है। इन पर ध्यान एकाग्र करता है। प्राणायम द्वारा चक्रों को उत्तेजित करता है। आसनों द्वारा शरीर को इसके लिए उपयुक्त बनाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक प्रयासों के द्वारा साधक, शक्ति के केंद्र इन चक्रों को जाग्रत करता है।

वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- १- अन्नमय कोष (द्रव्य, भौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है), २- प्राणामय कोष (जीवन शक्ति), ३- मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है), ४- विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता), ५- आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता), ६- चित्-मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा ७- सत्-मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)। मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है।

साधक की कुण्डलिनी जब चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, तो इसी को मोक्ष कहा गया है।

कुण्डलिनी योग के अंतर्गत शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है जैसे-
योग वशिष्ठ, तेजबिन्दूनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिव पुराण, देवी भागवत, शाण्डिपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णव तंत्र, योगनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठ श्रुति ध्यान बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है ।

तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया । शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है ।

योग दर्शन समाधिपाद का ३६वाँ सूत्र है-
'विशोकाया ज्योतिष्मती'
इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है।

हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार “मूलाधार-चक्र” से “कण्ठ पर्यन्त” तक का जगत “माया” का और “कण्ठ” से लेकर ऊपर का जगत “परब्रह्म” का है।

मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।
कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥ -वराहश्रुति

अर्थात मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है ।

मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक (ब्रह्मरन्ध्र) में माना गया है । यही द्युलोक, देवलोक, स्वर्गलोक है। आत्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान) का सूर्य इसी लोक में निवास करता है ।

पतन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता अब उर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक (सूर्यलोक) तक पहुँचना होता है । योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है । कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है ।

आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं ।

मेरुदण्ड को राजमार्ग या महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूः, भुवः, स्वः, तपः, महः, सत्यम् यह सात-लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है ।

षट्-चक्र-भेदन-
षट्-चक्र-भेदन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है इसकी चर्चा करते हुए ‘आत्म विवेक’ नामक साधना ग्रंथ में कहा गया है कि-
गुदालिङान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दलम्।
परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः॥
योगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम्।
स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रञ्त्र् क्रमस्य तु॥
पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात्।
प्रश्रयः क्रूरता गर्वों नाशो मूच्छर् ततः परम्॥
अवज्ञा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो ध्रुरवम्।
नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञकम्।
सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥
लज्ज् भयं घृणा मोहः कषायोऽथ विषादिता।
लौन्यं प्रनाशः कपटं वितर्कोऽप्यनुपिता॥
आश्शा प्रकाशश्चिन्ता च समीहा ममता ततः।
क्रमेण दम्भोवैकल्यं विवकोऽहंक्वतिस्तथा॥
फलान्येतानि पूर्वादिदस्थस्यात्मनों जगुः।
कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम्॥
तत्र प्रणव उद्गीथो हुँ फट् वषट् स्वधा तथा।
स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विष॥
इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि षोडश॥

(1) गुदा और लिंग के बीच चार दल (पंखुड़ियों) वाला ‘आधार चक्र’ है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का वास है।

(2) इसके बाद स्वाधिष्ठान-चक्र लिंग मूल में है। इसके छः दल हैं। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है।

चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है। स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार अनुभव करता है। उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है। श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है।

(3) नाभि में दस दल वाला मणिपूर-चक्र है। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में जड़ जमाये रहते हैं।

मणिपूर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है। संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं। मनोविकार स्वयंमेव घटते जाते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है।

(4) हृदय स्थान में अनाहत-चक्र है। यह बारह दल वाला है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक तथा अहंकार से साधक भरा रहेगा। इसके जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे।

अनाहत चक्र की महिमा ईसाई धर्म में सबसे ज्यादा मानी जाती है। हृदय स्थान पर कमल के फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक ‘आईचीन’ कनक कमल मानते हैं। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है। कलात्मक उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है। बुद्धि की वह परत जिसे विवेक-शीलता कहते हैं। आत्मीयता का विस्तार, सहानुभूति एवं उदार सेवा, सहाकारिता, इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं।

(5) कण्ठ में विशुद्ध-चक्र है। यह सरस्वती का स्थान है। यह सोलह दल वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ तथा सोलह विभूतियाँ विद्यमान है।

कण्ठ में विशुद्ध चक्र है। इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं। दोष व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है। मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध चक्र, चित्त संस्थान को प्रभावित करता है। तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने के सूत्र हाथ में आ जाते हैं। नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती हैं।

(6) भ्रू-मध्य में आज्ञा चक्र है। यहाँ- ॐ, उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा, स्वहा, सप्त स्वर आदि का वास है। आज्ञा चक्र के जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग जाती हैं।

(7) सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में है। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों का अस्तित्व है। वहाँ से ऊर्जा का स्वयंभू प्रवाह होता है। यह ऊर्जा मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर जाती/दौड़ती हैं। इसमें से छोटी-छोटी किरणे निकलती रहती हैं। उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हजारों में होती है। इसलिए इस चक्र के लिये ‘सहस्रार’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है।

यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है, इसलिए उसे ब्रह्मरन्ध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखते हैं।

कबीर साहिब ने अपनी निम्नलिखित प्रसिद्ध रचना ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ में सब कमलों का वर्णन विस्तार पूर्वक इस प्रकार किया है-
कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥टेक॥
काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।
मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥
धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।
कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥
मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।
देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥
स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।
उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥
नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा ।
हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥
द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।
सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥
षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।
हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥
ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।
निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥
कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।
सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥
आंख कान मुख बंद कराओ अनहद झिंगा सब्द सुनाओ ।
दोनों तिल इकतार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ॥10॥
चंद सूर एकै घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ ।
तिरबेनी के संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है ॥11॥
घंटा संख सुनो धुन दोई सहस कँवल दल जगमग होई ।
ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है ॥12॥
डाकिन साकिनी बहु किलकारें, जम किंकर धर्म दूत हकारें ।
सत्तनाम सुन भागें सारे, जब सतगुरु नाम उचारा है ॥13॥
गगन मंडल विच उर्धमुख कुइआ, गुरुमुख साधू भर भर पीया ।
निगुरे प्यास मरे बिन कीया, जा के हिये अंधियारा है ॥14॥
त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा ।
लाला बरन सूरज उजियारा, चतुर कंवल मंझार सब्द ओंकारा है ॥15॥
साध सोई जिन यह गढ़ लीना, नौ दरवाजे परगट चीन्हा ।
दसवां खोल जाय जिन दीन्हा, जहां कुंफुल रहा मारा है ॥16॥
आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई ।
हंसन मिल हंसा होइ जाई, मिलै जो अमी अहारा है ॥17॥
किंगरी सारंग बजै सितारा, अच्छर ब्रह्म सुन्न दरबारा ।
द्वादस भानु हंस उजियारा, खट दल कंवल मंझार सब्द रारंकारा है ॥18॥
महासुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुर पावै नाही बाटी ।
ब्याघर सिंह सरप बहु काटी, तहं सहज अचिंत पसारा है ॥19॥
अष्ट दल कंवल पारब्रह्म भाई, दाहिने द्वादस अचिंत रहाई ।
बायें दस दल सहज समाई, यूं कंवलन निरवारा है ॥20॥
पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो, पांच ब्रह्म निःअक्षर चीन्हो ।
चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है ॥21॥
दो पर्बत के संध निहारो, भंवर गुफा ते संत पुकारो ।
हंसा करते केल अपारो, तहां गुरन दरबारा है ॥22॥
सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये ।
मुरली बजत अखंड सदाये, तहं सोहं झुनकारा है ॥23॥
सोहं हद्द तजी जब भाई, सत्त लोक की हद पुनि आई ।
उठत सुगंध महा अधिकाई, जा को वार न पारा है ॥24॥
षोड़स भानु हंस को रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा ।
हंसा करत चंवर सिर भूपा, सत्त पुरुष दरबारा है ॥25॥
कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई ।
पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दीदारा है ॥26॥
आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुष की तहं ठकुराई ।
अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है ॥27॥
ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहि को राजा ।
खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है ॥28॥
ता पर अकह लोक हैं भाई, पुरुष अनामी तहां रहाई ।
जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन से न्यारा है ॥29॥
काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।
माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥30॥
आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।
अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥31॥
सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।
खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ॥32॥

कुण्डलिनी शक्ति 
अभी तक हमने जितना समझा है, वह सब शास्त्रों के अनुसार समझा है कि कुण्डलिनी शक्ति क्या है और कैसे काम करती है। अब अपनी बात कुण्डलनी शक्ति इन्सान के शरीर में उस परमात्मा द्वारा दी गई समस्त शक्तियों में से सबसे ज्यादा शक्तिशाली एवं अति गुप्त विद्या है। कुण्डलिनी शक्ति के ऊपर प्रारम्भ से ही अनेको बार, अनेको व्याखायें दी जा चुकी है। तथा अनेको बार इसके ऊपर शास्त्रार्थ हो चुका है। आज के समय में साधकों का सम्प्रदाय दो हिस्सों में बट चुका है। जो साधक संत मत को मानते हैं, वे कुण्डलिनी शक्ति से दूर रहते है, अर्थात कुण्डलनी शक्ति को जगाना और इसके बारे में जानना वो आवश्यक नहीं समझते। उनके अनुसार आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाना और नाम का जाप करना, इसको ही वो प्रधान मानते है। ये साधक आज्ञा चक्र से नीचे के चक्रो को कोई भी महत्व देना पसन्द नहीं करते। इनके अनुसार नीचे के चक्रो पर साधना करने का मतलब है- समय की बरबादी। इनके अनुसार कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत हो कर आज्ञा चक्र पर ही पहुँचती है। इसलिये क्यो न आज्ञा चक्र से ही यात्रा शुरू की जाये। आज्ञा चक्र से साधना करने का कितना फायदा होता है, यह तो वही साधक जाने।

किन्तु हमारी दृष्टी में ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि बिना कुन्डलिनी शक्ति के जाग्रत हुऐ आज्ञा चक्र का जाग्रत होना असम्भव है। क्योंकि सभी चक्रो को जाग्रत करने के मूल में कुण्डलिनी शक्ति का महत्वपूर्ण योगदान है। जो साधक सीधे ही आज्ञा चक्र से साधना प्रारम्भ करते है। सालों-साल बीत जाने पर भी उनकी मानसिक स्थिती और उनकी विचारधारा में तनिक/बिलकुल भी बदलाव नहीं आता। यदि उन से इस बारे में पूछा जाये तो उनके अनुसार कम-से-कम चार जन्मो में वो अपनी मुक्ति मानते है। कोई उनसे पूछने वाला हो तो कि यह जन्म तो बिताना इतना मुश्किल है। आगे के तीन जन्मो के बारे में क्या बात करें।
उन साधकों के अनुसार यदि गुरू कृपा हो तो चार जन्म में मुक्ति सम्भव है और यह साधक सिर्फ मुक्ति के लिये ही साधना करते है। गुरू और नाम जाप पर इनकी पूर्ण श्रद्धा होती है। इनमे से अधिकांश साधक नीचे के चक्रो के नाम से ही डरते है, वो कहते है कि- यदि नीचे के चक्र जाग्रत हो गये तो अनेको सिद्धियाँ की प्राप्ति होगी, जिससे कि साधक मुक्ति के मार्ग से भ्रष्ट हो सकता है और सिद्धियों के लालच में फंस कर अपने आप को खराब कर लेता है।

लेकिन जब इन साधकों की नाम और गुरू के प्रति इतनी श्रद्धा और विश्वास है, तो यह साधक कैसे भटक सकते है, क्योंकि इनका पूर्ण गुरू तो हर वक्त इनके साथ है फिर भटकाव क्यों और कैसे?

हमारी नजर में कोई माने या न माने या तो इनके गुरूओं को कुण्डलिनी शक्ति जागरण का विधान, उसके नियम आदि नहीं मालूम और यदि मालूम है तो- ये अपने शिष्यों को बताना या सिखाना नहीं चाहते, क्योंकि कुण्डलिनी जागरण की प्रकिया बहुत ही गहन और जटिल है। कुण्डलिनी जागरण के दौरान गुरू-शिष्य का साथ-साथ पुरूषार्थ करना अति आवश्यक है। मात्र प्रवचन दे कर या शास्त्रों/ग्रन्थो की काहानियाँ सुना कर या रामायण, गीता आदि का उपदेश दे कर कुण्डलिनी जागरण सम्भव नहीं है।

असल में कुण्डलिनी शक्ति के लिये पूरी मेहनत, पूर्ण आत्म-विश्वास और पूर्ण-गुरु का होना आवश्यक है। क्योंकि कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होने पर मात्र मोक्ष ही नहीं, भोग भी प्रदान करती है।

मोटे तोर पर आज का साधक सम्प्रदाय तीन हिसों में बटा हुआ है। ध्यान-योग, हठ-योग और तन्त्र योग। तंत्र को, साधक योग नही मानते। उनकी नजर में तंत्र या तो एक वीभत्स क्रिया है, या फिर एक चमत्कार दिखाने की विधि। हमारी नजर में तंत्र का अर्थ है- तन्+प्राण= तन से मुक्ति पाने का उपाय तंत्र है, अर्थात अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आदि सप्त शरीरो से मुक्ति पाना और आत्मा का उस परमात्मा में पूर्ण लय होना ही तंत्र है। पूर्ण तंत्र में बिन्दू का रज से मिलन करना ही कुण्डलिनी शक्ति है, अर्थात तंत्र की सर्वोच्चय-भैरवी-साधना ही कुन्डलिनी साधना है। जैसे-जैसे साधक अपने आप को उधर्व-मुखी करना शुरू करते है। उनकी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो कर पूर्ण यात्रा को निकल पड़ती है। आदि शंकराचार्य ने इस कुण्डलिनी शक्ति का प्रारूप ‘श्री यंत्र अर्थात श्री चक्र’ को बनाया है।

बहुत ही ध्यान पुर्वक यदि हम तंत्र और संत मत का अध्ययन या विश्लेषण करे तो हमे ऐसा महसूस होगा जैसे किसी ने हमारी बुद्धि को ठग लिया हो। संत मत के अनुसार-

ब्रह्मा मरे, विष्णु मरे, मरे शंकर भगवान।
अक्षर मरे, क्षर मरे, तब प्रकटे पूर्ण भगवान॥

तंत्र के अनुसार ‘श्री चक्र’ में स्थित कामेश्वर और कामेश्वरी जहाँ वास करते हैं। जिस आसन पर विराजमान रहते है, उस आसन का पूर्व दिशा का पाया ब्रह्म-प्रेत है अर्थात वहाँ पर ब्रह्मा को प्रेत माना गया है। पश्चिमी पाया विष्णु-प्रेत अर्थात वहाँ पर श्री हरी को प्रेत रूप में माना गया है। दक्षिण दिशा का पाया रूद्र-प्रेत अर्थात यहाँ पर शिव को मृत माना गया है। उत्तर पाया ईश्वर-प्रेत माना गया है, यहाँ पर अक्षर-ब्रह्म को मृत माना गया है। कामेश्वर और कामेश्वरी जिस फलक के उपर आसीन है, उसे सदाशिव या क्षर-ब्रहम माना गया है। असल में कामेश्वर और कामेश्वरी कोई देवी या देवता नही है, बल्कि आत्मा-रूपी कामेश्वरी ही, परब्रह्म रूपी कामेश्वर के साथ आलिंगन बद्ध है।

जहाँ संत मत सिर्फ गुरू-तत्व का ध्यान करता है। वहीं तंत्र या हठ-योगी अनेकों प्रकार की क्रियायें करके सभी प्रकार का आंनद लेते हुऐ अपनी आत्मा रूपी प्रेयसी को प्रीतम रूपी परमात्मा से मिला देता है। हठ योग की साधना का आधार अष्टाँग योग है। इसके अंतरगत आसन, प्रणायाम, बन्द, यम-नियम मुख्य है। साथ ही ध्यान-धारणा और समाधी के द्वारा कुण्डलिनी जागरण करना इनका ध्येय है। इन साधकों की नजर में यदि प्राण-वायु की अपान-वायु में एवं अपान-वायु की प्राण-वायु में आहुति दे दी जाये तो कुण्डलिनी जागरण सम्भव हैं। इसके लिये हठ-योगी मूल रूप से तीन बन्धो को प्रयोग करते है- मूल-बन्द, उड़ियान-बन्ध, जालन्धर-बन्ध। मूल-बन्ध अर्थात गुदा का संकोचन अर्थात अपान वायु का बाहर न निकलने देना। उड़ियान बन्ध अर्थात पूर्ण-बाह्य-कुम्भक का प्रयोग करना। जालन्धर बन्द अर्थात अपनी ठोड़ी का अपने कन्ठ से लगाना।

हमारा ध्येय किसी भी साधना को अच्छा या बुरा बताना नहीं है। जैसा की आज के समय में अधिकतर पुरूष अपने योग को बड़ा और दूसरे के योग को छोटा बताते है। साधकों की इसी विचार धारा की वजह से ही हिन्दुस्तान से अनेकों विद्याये लुप्त हो गई है।

हम एक उदाहरण दे कर समस्त साधकों को समझाने की कोशिश/प्रयास करते है। आपको समझ में आये या न आये यह हमारे बस में नहीं है। जब हम अपने बच्चे को स्कूल ले कर जाते है, तो हम हर चीज का ध्यान रखते है, जैसे की- स्कूल, उसके अध्यापक, केन्टीन और सबसे खास चीज विषय(सब्जेक्ट), बच्चों को पढ़ाये जाने वाली पुस्तकें आदि। हम अपने बच्चे को मात्र एक ही विषय नहीं दिलवाते, उसके सभी विषयों का ख्याल रखते है। साथ में ही खेलना, कुदना, नृत्य आदि का भी ध्यान रखते है। हम अपने बच्चे को सब कुछ देते है, किन्तु वह बच्चा किसी विशेष विषय की तरफ अपना विशेष ध्यान देता है, और बाकी सभी विषयों को साधारण रूप से ग्रहण करता है। अधिकतर ऐसा होता है की माँ-बाप उसे डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनाना चाहते है, किन्तु वह बच्चा बनता कुछ ओर ही है। यदि बच्चे को स्कूल में होमवर्क ना मिले या उसकी चेकिंग न हो तो हम अपनी शिकायत ले कर मुख्य-अध्यापक के पास पहुँच जाते है।

हम अपने जीवन में हर चीज का ख्याल रखते है, हर चीज पर ध्यान देते है। किन्तु हमने साधना मार्ग को इतना सस्ता क्यों जान लिया? क्यों मान लिया?

क्या साधना मार्ग इतना सस्ता है कि, कोई भी साधारण व्यक्ति, किसी भी गुरू या संत के पास जा कर दीक्षा ग्रहण करे और नाम का जाप करे, तो क्या मुक्ति सम्भव है?

आज के गुरूओं और शिष्यों, दोनो ने मिल कर साधना और मुक्ति के मायने ही बदल दिये हैं। हमारी नजर में मात्र शब्द का रट्टा लगा कर, कहानियाँ, किताबें पढ़कर प्रवचन सुन कर मुक्ति सम्भव नहीं है।

मुक्ति एक महान और उच्च स्थान है। जहाँ पहुँच कर आत्मा सभी बंधनों से मुक्त हो जाती है।

कुण्डलिनी साधना के लिये हमे तपना पड़ता है। अत्यधिक मेहनत की जरूरत होती है। जैसे कोई व्यक्ति जब किसी विशेष परीक्षा की तैयारी करता है तो, वह तैयारी के दौरान हर तरफ से अपना ध्यान हटा कर अपनी शिक्षा पर केन्द्रित करता है। मात्र कुछ दिनो के लिये वह अपना सब सुख-सुविधा का त्याग करके अपनी शिक्षा को पूर्ण करता है, और शिक्षा पूर्ण होने पर अर्थात उसको एक अच्छी नौकरी लग जाने पर वह सन्तुष्ट हो कर सारी-उम्र सभी सुखों का भोग भोगता है। उसी प्रकार यदि एक साधक चाहे तो अपनी साधना के बल पर पूर्ण मुक्ति का फल प्राप्त कर सकता है, और मुक्त हुई जीव आत्मा शरीर में रहते हुऐ भी उन महान भोगों को भोगती है। जिस के लिये बड़े-बड़े सेठ साहुकार और धनी तरसते है।

चलते-चलते दो बात- यदि नीचे के चक्र, माया रूप हैं, जैसा कि कुछ मत या पंथों का मानना है और ऊपर के चक्र असली है तो जो चक्र(लोक) ब्रह्माण्ड में है वे क्या हैं?

चाहे नीचे के चक्र यानि लोक हो या ऊपर के चक्र हो, हैं तो शरीर के अन्दर ही।

जो अण्ड में है, वो पिण्ड में हैं और जो पिण्ड में हैं, वो अण्ड में हैं। यह कहना तो ठीक है किन्तु जब मृत्यु के उपरान्त जब पिण्ड जलकर ख़ाक हो जाएगा तो फिर आत्मा किस चक्र या लोक में वास करेगी। क्योंकि सारी उम्र तो पिण्ड में अण्ड का आभास करके, पिण्ड के लोकों यानि चक्रो की साधना की है। लेकिन जब पिण्ड खत्म हो जाएगा, तो आत्मा को किस लोक में स्थान मिलेगा, फैसला तो तब ही होगा। क्योंकि मन के सहारे जिन लोको की साधना की थी, वे तो खत्म हो गये। अब आत्मा के सामने असली लोक अर्थात मण्डल हैं। जिनके देवों की साधना नहीं की, कभी आराधना नहीं की। क्या वे देव इस आत्मा को अपने लोक में स्थान देंगे, कदापि नहीं। मन को जितना मर्जी भरमा लो, शिष्यों को जितना मर्जी बहका लो। सत्य तो एक दिन खुल कर रहेगा, कि पिण्ड के बाहार जो है, वही सत्य है और पिण्ड के अन्दर जो है वह मिथ्या है। इसलिये कुछ संतों ने जगत को मिथ्या या माया का खेल कहा है।

जब तक सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो कर ब्रह्माण्ड के सत्य लोको या मण्डलों की आराधना, सेवा, भजन, दर्शन नहीं करेगा, तब तक सब बेकार है। सूक्ष्म-शरीर को स्थूल-शरीर से अलग करने का मात्र एक ही विधान है- कुण्डलिनी साधना।

उदाहरण के तौर पर- जिस प्रकार एक छोटा बच्चा खाना पीना, बोलना-चलना, लिखना-पढ़ना आदि का प्रारम्भ तो घर से ही करता है, किन्तु कुछ समय बाद हम उसे उच्च शिक्षा हेतु अच्छे विद्यालय में प्रवेश करा देते हैं। उसी प्रकार एक साधक के लिये साधना का प्रारम्भ तो शरीर में स्थित मण्डलों से ही होता है, किन्तु जब सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो जाता है, तो ब्रह्माण्ड में स्थित उच्च लोको की साधना करके, पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करके, जीव आत्मा पूर्ण कैवल्य पद को प्राप्त कर लेती है। जिस प्रकार हमारे देश में एक अच्छे साधू या नेता की इज्जत की जाती है, उसी प्रकार उस आत्मा का भी, उच्च लोको में वैसा ही सम्मान या आदर किया जाता है।

कुन्डलनी साधना बाहुबल की साधना है। आप के साहस, आप के आत्म-विश्वास और आपकी सहन-शीलता की साधना है।

यदि हम कुण्डलिनी साधक की उपमा दे तो ऐसी होगी, जैसे एक वीर जवान अपने देश की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करके सीना ताने, जान हथेली पर लिये खड़ा हो। वहीं एक साधारण साधक की उपमा ध्यान योगी की उपमा, नाम-जप करने वालों की उपमा, मात्र ऐसी है- जैसे एक समाज सुधारक की छवि होती है।

अब आपने फैसला करना है कि, आप को किस रास्ते पर चलना है। हमने जो जाना, जो पाया, जो समझा, वो आपके सामने रख दिया है। शब्दों का कभी अन्त नहीं होता, उदाहरणो की संख्या नहीं होती। समझाने वाले और समझने वाले पर निर्भर करता है कि, वो कितना समझा सकता है, और दूसरा कितना समझ सकता है। सभी बातों को लिख कर नहीं समझाया जा सकता।

रूद्रयामल में कुण्डलिनी-साधकों के लिये एक ‘उदघाटन-कवच’ दिया गया है जिसका श्रद्धा-पूर्वक पाठ करना साधकों के लिये अत्यन्त लाभप्रद माना गया है-
॥ उदघाटन-कवच ॥
मूलाधारे स्थिता देवि, त्रिपुरा चक्र नायिका ।
नृजन्म भीति-नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥1॥
स्वाधिष्ठानाख्य चक्रस्था, देवी श्रीत्रिपुरेशिनी ।
पशु बुद्धिं नाशयित्वा, सर्वैश्वर्य प्रदाऽस्तु मे ॥2॥
मणिपुरे स्थिता देवी, त्रिपुरेशीति विश्रुता ।
स्त्री जन्म-भीति नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥3॥
स्वस्तिके संस्थिता देवी, श्रीमत्-त्रिपुर सुन्दरी ।
शोक भीति परित्रस्तं, पातु मामनघं सदा ॥4॥
अनाहताख्या निलया, श्रीमत्-त्रिपुर वासिनी ।
अज्ञान भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥5॥
त्रिपुरा श्रीरिति ख्याता, विशुद्धाख्या स्थल स्थिता ।
जरोद्-भव भयात् पातु, पावनी परमेश्वरी ॥6॥
आज्ञा चक्र स्थिता देवी, त्रिपुरा मालिनी तु या ।
सा मृत्यु भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥7॥
ललाट पदम् संस्थाना, सिद्धा या त्रिपुरादिका ।
सा पातु पुण्य सम्भूतिर्-भीति-संघात् सुरेश्वरी ॥8॥
त्रिपुराम्बेति विख्याता, शिरः पद्मे सु-संस्थिता ।
सा पाप भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥9॥
ये पराम्बा पद स्थान गमने, विघ्न सञ्चयाः ।
तेभ्यो रक्षतु योगेशी, सुन्दरी सकलार्तिहा ॥10॥

कुण्डलिनी जगरण के यों तो अनेकों उपाय हैं, किन्तु बाबा जी द्वारा रचित ये गुरु-स्तोत्र अपने आप में एक अनुभुत प्रयोग है। कुण्डलिनी जगरण के इच्छुक साधक यदि स-स्वर इस स्तोत्र का लगातार पाठ करते हैं तो बहुत ही जल्दी कुण्डलिनी जगरण होने लगेगी और साधकों को कुण्डलिनी जगरण के अनूठे अनुभव होने लगेंगे।


॥ गुरु-स्तोत्र ॥
॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥
दायें गुरु है, बायें गुरु है । आगे गुरु है, पीछे गुरु है ॥
ऊपर गुरु है, नीचे गुरु है । अंदर गुरु है, बाहर गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥1॥

अंड में गुरु है, पिंड में गुरु है । जल में गुरु है, थल में गुरु है ॥
पवन में गुरु है, अनल में गुरु है । नभ में गुरु है, अंतर में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥2॥

तन में गुरु है, मन में गुरु है । घर में गुरु है, वन में गुरु है ॥
मंत्र में गुरु है, में यंत्र गुरु है । तंत्र में गुरु है, माला में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥3॥

धूप में गुरु है, दीप में गुरु है । फूल में गुरु है, फल में गुरु है ॥
भोग में गुरु है, पूजा में गुरु है । लोक में गुरु है, परलोक में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥4॥

जप में गुरु है, तप में गुरु है । हठ में गुरु है, यज्ञ में गुरु है ॥
जोग में गुरु है, में योग गुरु है । ज्ञान में गुरु है, ध्यान में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥5॥

॥ ॐ तत्सत् ॥
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Sunday, October 8, 2017

जाहरवीर गोगाजी (Jahar Veer Goga ji)


बाबा गोगाजी महाराज( सिद्धनाथ वीर गोगादेव)
राजस्थान के सिद्धों के सम्बन्ध में एक चर्चित दोहा है : ‘‘पाबू, हडबू, रामदे, माँगलिया, मेहा। पाँचू पीर पधारज्यों, गोगाजी जेहा'' सिद्ध वीर गोगादेव राजस्थान के लोक देवता हैं जिन्हे जाहरवीर गोगाजी के नाम से भी जाना जाता है । राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर गोगामेड़ी है। यहां भादव शुक्लपक्ष की नवमी को गोगाजी देवता का मेला भरता है। इन्हे हिन्दु और मुस्लिम दोनो पूजते है ।

वीर गोगाजी गुरुगोरखनाथजी के परमशिस्य थे। चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा ददरेवा में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं। कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ ‘गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा।

मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। विक्रम संवत 1003 में गोगा जाहरवीर का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। जिस समय गोगाजी का जन्म हुआ उसी समय एक ब्राह्मण के घर नाहरसिंह वीर का जन्म हुआ। ठीक उसी समय एक हरिजन के घर भज्जू कोतवाल का जन्म हुआ और एक वाल्मीकि के घर रत्ना जी  का जन्म हुआ। यह सभी गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य हुए। गोगाजी का नाम भी गुरु गोरखनाथ जी के नाम के पहले अक्षर से ही रखा गया।  यानी गुरु का गु और गोरख का गो यानी की गुगो जिसे बाद में गोगा जी कहा जाने लगा। गोगा जी ने गूरू गोरख नाथ जी से तंत्र की शिक्षा भी प्राप्त की थी।

चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था। जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास दत्तखेड़ा (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। दत्तखेड़ा चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति है। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्था  टेककर मन्नत माँगते हैं।

आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है. गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है. लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है. भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है. उत्तर प्रदेश में इन्हें जाहर पीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं।

हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोगा पीर व जाहिर वीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।

गोगा जाहरवीर जी की चाबुक (लोहे की सांकले) और छड़ी का बहुत महत्त्व होता है और जो साधक चाबुक (लोहे की सांकले) और छड़ी की साधना नहीं करता उसकी साधना अधूरी ही मानी जाती है क्योंकि मान्यता के अनुसार जाहरवीर जी के वीर चाबुक में निवास करते है । सिद्ध चाबुक पर नाहरसिंह वीर ,सावल सिंह वीर आदि अनेकों वीरों का पहरा रहता है। चाबुक लोहे की सांकले होती है जिसपर एक मुठा लगा होता है । जब तक गोगा जाहरवीर जी की माड़ी में अथवा उनके जागरण में चाबुक नहीं होती तब तक वीर हाजिर नहीं होते , ऐसी प्राचीन मान्यता है । ठीक इसी प्रकार जब तक गोगा जाहरवीर जी की माड़ी अथवा जागरण में चिमटा नहीं होता तब तक गुरु गोरखनाथ सहित नवनाथ हाजिर नहीं होते।

छड़ी अक्सर घर में ही रखी जाती है और उसकी पूजा की जाती है । केवल सावन और भादो के महीने में छड़ी निकाली जाती है और छड़ी को नगर में फेरी लगवाई जाती है , इससे नगर में आने वाले सभी संकट शांत हो जाते है । जाहरवीर के भक्त दाहिने कन्धे पर छड़ी रखकर फेरी लगवाते है । चाबुक को अक्सर लाल अथवा भगवे रंग के वस्त्र पर रखा जाता है।

यदि किसी पर भूत प्रेत आदि की बाधा हो तो चाबुक को पीड़ित के शरीर को छुवाकर उसे एक बार में ही ठीक कर दिया जाता है भादो के महीने में जब भक्त जाहर बाबा के दर्शनों के लिए जाते है तो चाबुक को भी साथ लेकर जाते है और गोरख गंगा में स्नान करवाकर जाहर बाबा की समाधी से छुआते है । ऐसा करने से चाबुक की शक्ति कायम रहती है ।

प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं। विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है।

जातरु (जात लगाने वाले) ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां समूह में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से चाबुक (लोहे की सांकले) मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।

जाहरवीर जी के गुणों का वर्णन करना छोटा मुह बड़ी बात है । उन्हें चार कुंठ का पीर कहा जाता है, उनकी प्रसंशा करने की क्षमता किसी भी लेखक में नहीं है । यह मेरा सौभाग्य है कि मै बाबाजाहरवीर पर लेख लिख रहा हूँ । एक मान्यता के अनुसार 52 वीर दो प्रकार से पूजे जाते है एक वाममार्गी और एक दक्षिणमार्गी ।

वाममार्ग में 21 वीरो की पूजा होती है और दक्षिणमार्ग में ३१ वीरो की पूजा की जाती है,कोई भी साधक दोनों प्रकार की साधनाए नहीं कर सकता पर यदि जाहरवीर बाबा की कृपा प्राप्त हो जाये तो व्यक्ति दोनों साधनाए कर सकता है । एक कथा के अनुसार बड़ी माता (वाममार्गी) और छोटी माता (दक्षिणमार्ग) दोनों देवीयों का ज्ञान एक साधक के पास नहीं हो सकता क्योंकि इन देवीयों को बाबा बालकनाथ जी ने श्राप दिया था कि आप दोनों बहने कभी नहीं मिल सकती पर जब उन दोनों बहनों ने याचना की तो बाबा बालकनाथ जी ने कहा जब गोगा जाहरवीर की छड़ी निकलेगी तो तुम दोनों बहने मिल सकती हो इसलिए जो साधक जाहरवीर बाबा की कृपा प्राप्त कर लेता है उसे दोनों देवीयों का ज्ञान हो जाता है ।

बाबा जाहरवीर ने नागो का दमन किया है यदि उनकी कृपा मिल जाये तो नाग स्वपन में भी नहीं डराते और यदि वे रुष्ट हो जाये तो घर में सांप निकल आते है । जाहरवीर बाबा के सिर पर शेषनाग की छैया है,उनके गले में भूरिया नाग है और बाएं पैर से पदम् नाग बंधा रहता है । तक्षक नाग जिसे ताखी नाग भी कहते है सदैव उनके सामने हाथ बांधे खड़े रहते है । एक मान्यता के अनुसार यदि जाहरवीर बाबा की साधना कर ली जाये तो नाग लोक से सम्बन्ध स्थापित हो सकता है और सांप के काटे व्यक्ति का आप इलाज कर सकते है । हमारे खानदान में पिछली कई पीडियो से जाहरवीर बाबा की पूजा होती आ रही है । मै भी हर साल सावन के महीने में जाहरवीर बाबा का जप करता हूँ और भादों शुक्ल पक्ष में गोगा माड़ी राजस्थान जाकर जाहरवीर बाबा का दर्शन करता हूँ ।

जाहरवीर बाबा का दर्शन पूजन केवल हिन्दू ही नहीं मुस्लिम और जैन धर्म के लोग भी करते है । जाहरवीर बाबा की पूजा का फल बहुत जल्दी मिलता है, और उनके रुष्ट होने का फल भी बहुत जल्दी मिलता है । 


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष 
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Friday, October 6, 2017

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah9)

नवीनता की खोज में मूल्य न छूट जाएं...
जवानी को अनदेखे को देखने में, अथाह की थाह पाने में बड़ा मजा आता है। जवानी अज्ञात कुछ भी नहीं रखना चाहती। इसीलिए कई बार जीवन की कई ढंकी चीजों पर भी टूट पड़ती है। शास्त्रों में तो लिखा है कि युवा पीढ़ी को वैसा ब्रह्म बहुत अच्छा लगता है, जिसका चिंतन कभी किसी ने न किया हो। जिसका चिंतन हो चुका हो, उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। इसीलिए जवान लोग नया-नया ढूंढ़ने में लग जाते हैं। आज का धर्म है मैक इन इंडिया। यह भी एक खोज है। कहते हैं ब्रह्म को जानना हो तो नई दृष्टि विज्ञान की चाहिए और उसको जीना हो तो नई दृष्टि संस्कार की चाहिए। युवा पीढ़ी जब खोजने निकलेगी तो सहारा विज्ञान का लेना पड़ेगा लेकिन, जिसे खोजने निकले हैं उसके भीतर कुछ ऐसा है, जिसके लिए विज्ञान के साथ संस्कार और संस्कृति की भी जरूरत पड़ेगी। उमंग और उत्साह जवानी के लक्षण हैं लेकिन, इसे बनाए रखने के लिए जवानी भटककर गलत रास्ते पर चली जाती है। उमंग के लिए जीवन को विलास में न बदला जाए। युवा यदि संस्कार से जुड़ते हैं तो एक बात बहुत अच्छे से समझ में आएगी कि वे युवा हैं इसलिए एक पीढ़ी बाद आए हैं। तो जो पीढ़ी गुजरी उससे कुछ नया करके जाएं और जो नई पीढ़ी आएगी उसके लिए और कुछ नया छोड़कर जाएं लेकिन, मूल्य न छूट जाएं। नए को खोजिए, नवीनता सांस में उतारिए लेकिन, ऐसा न हो कि वह भोग-विलास लेकर आ जाए। ऐसा हुआ तो वह नया बहुत महंगा पड़ जाएगा।

संसार में रहकर भी हम ईश्वर के अंश...
तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।। पति-पत्नी केबीच झगड़े के जितने कारण हैं उनमें एक है हस्तक्षेप। दोनों में सबसे अधिक निकटता होती है और इतनी नज़दीकी वाले लोग भी यदि हस्तक्षेप पर आपत्ति ले तो कलह होना ही है। इसलिए जब भी हस्तक्षेप जैसी स्थिति बने, दोनों को ही सबसे पहले यह देखना चाहिए कि हस्तक्षेप के पीछे अहंकार है या हित की भावना। केवल हठ है या प्रेम भी बोल रहा है। मंदोदरी जब पति रावण को समझाने का प्रयास कर रही थी और वह समझ नहीं रहा था तो प्रभाव बनाने के लिए राम के व्यक्तित्व पर टिप्पणी की। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।यहां मंदोदरी ने श्रीराम को विश्वरूप कहा है। यानी सारा संसार उन्हीं का रूप है। परमात्मा प्रकृति के कण-कण में बसा है। हमारे भीतर भी वह उसी प्रमाण में है। यदि उसका सदुपयोग कर लें तो सही मार्ग पर जाएंगे और उसके विपरीत चलना ही गलत रास्ता है, जो रावण कर रहा था। परमात्मा विश्वरूप है इसलिए विशाल है और हम लोग ओस की बूंद की तरह बहुत छोटे हैं। पर ओस की बूंद की एक खूबी होती है कि वह जिस पत्ते पर होती है उसका रंग उसी में उतरता है। लगता है बूंद का रंग वही है जो पत्ते का है। पर ऐसा है नहीं। ओस की बूंद पत्ते से बिल्कुल अलग है। हम संसार में रहें, उस संसार की झलक हममें दिखे पर अलग हटते ही वापस परमात्मा का अंश बन जाएंगे। रावण इसे भले ही नहीं समझा हो पर हमारे लिए अभी समझने की संभावनाएं बनी हुई हैं।

अपनी दृष्टि को भीतर की ओर मोडि़ए....
दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। जिन नेत्रों से हम बाहर की दुनिया देखते हैं, जिनके माध्यम से कई दृश्य जीवन में उतार लेते हैं वे आंखें स्वयं की भूल देखने के काम नहीं आतीं। दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। इन्हीं आंखों को थोड़ा-सा भीतर मोड़ दें तब अपनी भूल नज़र आ सकती है। चूंकि नेत्रों का शारीरिक गठन बाहर खुलता है इसलिए लोग इतने आदी हो जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि इन्हें भीतर भी मोड़ा जा सकता है। पलकें तो आदमी या तो नींद में बंद करता है या जितनी स्वत: झपकती है उतनी ही बंद होंगीं। यदि किसी से पांच-दस मिनट पलकें बंद कर बैठने को कहें तो उसके भीतर तूफान शुरू हो जाता है। लेकिन, जिन्होंने लंबे समय पलक बंद करने का अभ्यास कर लिया उनके नेत्र भीतर की ओर अपने आप मुड़ने लगेंगे और अपनी भूलें भी दिखने लगेंगीं। भीतर नेत्र मुड़ते ही आपका दृष्टिकोण बदल जाएगा और आसपास जितने रिश्ते, जितने व्यक्ति हैं, उनकी समझ के मामले में आप परिपक्व हो जाएंगे। फिर जो आपको नापसंद हों, उन्हें लेकर भी सोचने लगेंगे कि इसके पीछे का कारण मैं ही तो नहीं? खुशी और गम इसी दृष्टिकोण से उत्पन्न होने लगेंगे। मनोवैज्ञानिकों ने तो कहा है सुख-दुख साइकोलॉजिकल स्थितियां हैं। यदि स्वयं को देखने में योग्य हो गए तो दूसरे जिन बातों से दुखी हैं उन्हीं में सुख ढूंढ़ लेंगे। वरना खुशी की बातें या स्थितियां भी गम दे जाएंगीं। जब भी समय मिले, पलकों को अपनी ओर से बंद करिए।

परिवार भीतर के संसार का पहला दरवाजा...
ईश्वर मात्रा से नहीं, गुण से प्रगट होता है। इसे थोड़ा सरल बनाकर समझा जाए। सबसे पहले तो यह तय कर लें कि ऊपर वाला प्रकट कहां होता है। यानी किन-किन चीजों में उसको देखा जा सकता है? हमारे पास दो तरह के संसार हैं। एक बड़ा जो बाहर है, जिसमें हमारा व्यावसायिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन चलता है। एक छोटा संसार है जो भीतर का है। इसमें निजी जीवन संचालित होता है। परिवार का जीवन बाहर और भीतर के बीच का होता है। परिवार में कुछ गतिविधियां बड़े संसार जैसी होती हैं। धन-दौलत, अपना-पराया ये बाहर का संसार है, जो परिवार में भी होता है। इन दोनों में ही परमात्मा का अंश होता है लेकिन, बाहर के संसार में यदि परमात्मा को खोजें तो वह बड़ा जरूर है यानी मात्रा में अधिक हो सकता है पर गुण में छोटा ही होगा। जब अपने भीतर के छोटे संसार में उतरेंगे तो परमात्मा मात्रा में भी छोटा मिलेगा और गुण में एक स्वाद देता जाएगा। ईश्वर की खोज बाहर कठिन हो सकती है। ईश्वर खोजने से ज्यादा जीने का विषय है और जिंदगी जीने के मौके परिवार व निजी जीवन में ज्यादा हैं। बाहर के संसार में जब जीवन जीने जाते हैं तो कई बाधाएं होती हैं। वहां एक खींचतान है इसलिए आप जीवन को लेकर थोड़ा असहज महसूस करेंगे। अत: रोज थोड़ी देर भीतर के छोटे और निजी संसार में जरूर जाया करें, जिसका पहला दरवाजा परिवार होता है। इसका माध्यम है योग। प्रयोग करके देखिए, परिवार के मतलब भी बदल जाएंगे और परमात्मा का स्वाद भी।

समर्पण से जीवनसाथी के अस्तित्व को जानें...
समझदार पति-पत्नी एक-दूसरे का व्यक्तित्व तो बचा लेते हैं लेकिन, अस्तित्व नहीं बचा पाते। उसके लिए समझ से ज्यादा समर्पण जरूरी होता है। चूंकि उम्र का एक लंबा समय दोनों ने अलग-अलग बिताया होता है और पति-पत्नी बनने के बाद इनकी पहली मुलाकात व्यक्तित्व से ही होती है, इसलिए सारी समझ इसी को बचाने में लगा दी जाती है। जीवनसाथी का अस्तित्व टटोलने के लिए केवल निकटता काम नहीं आती। समर्पण भाव भी पैदा करना पड़ता है, जिसकेे लिए अहंकार छोड़ना जरूरी है। व्यक्तित्व गतिशील भी होता है और परिवर्तनशील भी। जैसे-जैसे किसी विवाहित जोड़े की उम्र बढ़ती है, उनके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आने लगता है। बहुत से लोग जो पहले गंभीर थे, अब मस्ताने हो गए और वैवाहिक जीवन की शुरुआत मस्ती से करने वाले थक गए, उदास हो गए। अस्तित्व भी गतिशील होता है लेकिन, परिवर्तनशील नहीं होता। इसलिए जीवनसाथी के अस्तित्व को टटोलना हो तो थोड़ा रुकना पड़ेगा। यहां रुकने से मतलब है उसके शरीर से आगे बढ़कर उसकी आत्मा को स्पर्श करना। आज भी अधिकतर जोड़े जीवन की यात्रा शरीर से शुरू कर शरीर पर ही खत्म कर देते हैं। शरीर झलकता है व्यक्तित्व से और आत्मा के दर्शन होंगे अस्तित्व में। जिन क्षणों में जरा भी जीवनसाथी की आत्मा महसूस की जाती है, वो दांपत्य के दिव्य क्षण होते हैं। इन्हें पाने के लिए शुरुआत समर्पण से ही करनी पड़ेगी।

प्रार्थना में करुणा से भक्ति पैदा होती है...
विज्ञान ने भौतिकता को तो आसान बना दिया है लेकिन, आत्मिक बातें कठिन होती जा रही हैं। इन दिनों हमारे जीवन में एक विषय है जनसंपर्क। मोबाइल ने इसे इतना सरल कर दिया कि सारी दुनिया मुट्ठी तो दूर, उंगली की छोटी-सी नोक पर आ गई है पर प्रेमपूर्ण संबंधों के मतलब ही बदल गए। प्रेम पर वासना की ऐसी परत जमी कि लोग भूल ही गए प्रेम होता क्या है। ऐसे में प्रेमपूर्ण होना कठिन हो गया है। यदि हमें दूसरों को प्रेम का मतलब समझाना हो या खुद प्रेम में उतारना हो तो एक आध्यात्मिक तरीका है- करुणामय हो जाना। करुणा प्रेम का ऐसा विकल्प है, जिसमें थोड़ी बहुत सुगंध और स्वाद रह सकता है। करुणा की विशेषता यह है कि वह अलग-अलग क्रिया में भिन्न परिणाम देती है। करुणा को सहयोग से जोड़ दें तो प्रेम की झलक मिलेगी। करुणा वाणी से जुड़ जाए तो भरोसा पैदा होता है। चिंतन में यदि करुणा का समावेश हो जाए तो परिपक्वता आ जाती है। क्रिया से जुड़ जाए तो परोपकार बनने लगता है। क्रोध में उतर आए तो हितकारी दृष्टि, स्नेह और ममता जाग जाती है। मांग में करुणा आने पर प्रार्थना पैदा होती है और प्रार्थना में यदि करुणा उतर जाए तो फिर भक्ति पैदा हो जाती है। जब भी भीतर करुणा उतरे, पहला काम यह किया जाए कि इसे दूसरों से जोड़ें। अपनी करुणा को खुद पर खर्च करने में कंजूसी न करें। यदि प्रेमपूर्ण होना कठिन हो तो कम से कम करुणामय तो हो ही जाएं। करुणामय व्यक्ति विज्ञान का भी दुरुपयोग नहीं करेगा।

दक्षता बढ़ाने के लिए भीतर पंचतत्व उतारें....
संगठन पंचतत्वकी तरह व्यक्त होता है। आजकल परिवार हो या व्यापार, संगठन का महत्व बढ़ रहा है। राष्ट्र की तो ताकत ही संगठन है। यदि कुछ लोग एक छत के नीचे, एक साथ रह रहे हों तो उस रहन-सहन को संगठन में बदल लेना चाहिए। किसी संस्थान में यदि संगठन ठीक से उतर आए तो अधिकारियों और कर्मचारियों की योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी और परिश्रम के मतलब ही बदल जाएंगे। हम अपने संस्थान या संगठन में किसी से उम्मीद करते हैं कि वह किसी एक क्षेत्र में परिपक्व, कामयाब हो तो दूसरे क्षेत्र में भी वैसा ही प्रदर्शन करे। प्रबंधन की भाषा में कहें तो यदि कोई मार्केटिंग में दक्ष है तो वह एचआर विभाग में कमजोर पड़ जाता है। पर यदि संगठन को पंचतत्व से जोड़ें तो सभी लोग सभी कामों में दक्ष हो सकेंगे। पंचतत्व में सबसे पहले पृथ्वी को समझें। इसमें पहाड़ भी होते हैं, वृक्ष भी हैं। दूसरा तत्व है जल जिसमें नदी, तालाब, समुद्र हैं। तीसरा है अग्रि। इसमें राख, अग्नि और धुंआ है। वायु में वेग, सुगंध और आंधी है तथा अंतिम तत्व यानी आकाश विशाल है, ध्वनि लिए हुए है और बादल का परदा उस पर है। ये पांचों तत्व एक साथ मिलकर पूरी सृष्टि चलाते हैं। हमारे भीतर ये पंचतत्व हैं और यदि ये संगठित हो जाएं, तो वह व्यक्ति जिस भी संगठन में होगा, उसे ऊंचाइयां देगा। प्रयास करें कि इस पूरी प्रकृति में जो पंचतत्व हैं वे हमारे भीतर उतरें और हम जिस भी संगठन से जुड़ें, हर क्षेत्र में दक्ष होकर उसके लिए खूब योगदान दे सकें।

सोच-समझकर किसी की जय जयकार करें...
परमात्मा की जय की जाए यह तो समझ में आता है पर दो कोड़ी के लोगों की भी जय करने लगते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब किसी की जय कर रहे होते हैं तो उसके गुण-दुर्गुण आपके भीतर उतरने लगते हैं। अब तो उन लोगों की भी जय-जयकार होती है, जिनमें गुण ढूंढ़े नहीं मिलते और दुर्गुण रोम-रोम में होते हैं। लिहाजा जय का नारा भी एक-दूसरे के भीतर दुर्गुण स्थानांतरित करने का जरिया बन जाता है। बहुत सारी चीजों की जय करें तब इस जय के नारे को गृहस्थी से भी जोड़ें। जय गृहस्थी, जय परिवार, जय ऐसा कहने में बुराई नहीं है। परिवार में सब लोग अपना यशदान करते हैं। एक की खूबी दूसरे में उतरे, जिनमें योग्यता है वो उसका परिणाम परिवार में देना चाहें तो दिनभर में एक बार ‘जय गृहस्थीजरूर बोला जाए। जिस घर में हम रहते हैं, जिस परिवार के सदस्य हैं उससे हमें बहुत कुछ मिला होता है। जयकारे का मतलब है अब वह लौटाया जाए। परिवार भी एक संस्था है और हमारा कारोबार भी एक संस्था है। संसार नाम की संस्था में इंद्रियां फैलती हैं, परिवार नामक संस्था में इंद्रियां मुड़ती हैं। इसलिए जब इंद्रियों का उपयोग संसार में कर चुके हों और घर लौट रहे हों तो इंद्रियों द्वारा संग्रहित वस्तुओं को थोड़ा छानकर घर में लाएं। जय शब्द के अर्थ ठीक से समझें। जय का मतलब यदि परिवार में ठीक से उतार सकें तो आज परिवार टूटने के जो खतरे हमारे सामने मंडरा रहे हैं वो दूर हो जाएंगे।

अहंकार को काबू कर पुरुष परिवार बचाएं...
नारी की उपस्थिति से ही मकान घर बनता है। वरना वह ईंट-सीमेंट के ढांचे से ज्यादा कुछ नहीं होता। पुरुष अपने स्वभाव के कारण मकान को घर बना ही नहीं सकता। यह काम महिलाएं ही करती हैं। किसी भी घर का आधार आपसी समझ और प्रेम होता है। रावण के पास बहुत बड़ा महल था। पत्नी मंदोदरी बार-बार उस महल को घर बनाने का प्रयास करती पर जिद्दी और अहंकारी रावण ऐसा होने नहीं दे रहा था। मंदोदरी जब समझा रही थी तो रावण ने न सिर्फ पत्नी का मजाक उड़ाया बल्कि समूची नारी जाति पर व्यक्तिगत टिप्पणी कर दी। रावण विद्वान था लेकिन, अहंकार जितने भेद पैदा करता है उनमें से एक स्त्री और पुरुष का भी कर देता है। अहंकार से भरी रावण की उस वाणी पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।। रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।रावण मंदादरी से कहता है- साहस, झूठ, चंचलता, छल, भय, अविवेक, अपवित्रता और निर्दयता.. तूने शत्रु का समग्र रूप गाकर मुझे बड़ा भारी भय सुनाया? यहां वह स्त्रियों के आठ अवगुण गिना रहा है। हमारे समाज में, परिवार में जब पुरुष के भीतर का रावण अंगड़ाई लेता है तो मातृशक्ति पर इसी तरह के आरोप जड़ देता है, आलोचना करने लगता है और इसी भेद के कारण घर टूट जाते हैं। घर-परिवार में रहते हुए अपने भीतर के रावण को नियंत्रित रखिएगा। वरना भारत की सबसे बड़ी पूंजी परिवार है और हम अपने ही भीतर के रावण के कारण उसे तोड़ बैठेंगे।

रिश्तों को मन से बचाएं, हृदय से निभाएं...
रिश्ते भी फसल की तरह होते हैं। इनके बीज बड़ी सावधानी से बोना पड़ते हैं और उससे भी ज्यादा सावधानी देख-रेख में बरतनी पड़ती है। फसल के लिए सबसे नुकसानदायक होती है खरपतवार। ये वो छोटे-छोटे पौधे होते हैं जो मूल फसल के पौधे के आसपास उगकर उसका शोषण करते हैं। किसान समय-समय पर खरपतवार को नष्ट करता रहता है। रिश्तों की फसल बचाना है तो मस्तिष्क, मन, हृदय और आत्मा को समझना होगा। मस्तिष्क के रिश्ते व्यावहारिक होते हैं। व्यापार की दुनिया में मस्तिष्क काम आता है। हृदय में घर-परिवार के रिश्ते बसाए जाते हैं। आत्मा से रिश्ते निभाना थोड़ा ऊंचा मामला है। रिश्तों की फसल में सबसे खतरनाक खरपतवार मन के रूप में होती है। यहां-वहां फैली गाजरघास या किसी नदी में उगी जलकुंभी को देखेंगे तो मन की भूमिका समझ जाएंगे। मन रिश्तों के मामले में ऐसा ही करता है। इसलिए रिश्ते निभाइए हृदय से। उन्हें पालना हो तो आत्मा का उपयोग कीजिए। मस्तिष्क से रिश्ते निभाने पड़ते हैं यह जीवन का व्यावहारिक पक्ष है लेकिन, रिश्तों को मन से पूरी तरह बचाइएगा। रिश्तों की फसल के लिए सबसे अच्छी खाद होती है समय, समझ और समर्पण की। यह खाद ठीक ढंग से दी जाए तो फसल बहुत अच्छे से फूलेगी-फलेगी, अन्यथा मन भेद को जन्म देता है। भेद का अर्थ है संदेह, ईर्ष्या, झूठ, कपट। यहीं से रिश्ते एक-दूसरे का शोषण करने पर उतर आते हैं। रिश्तों की फसल बहुत सावधानी से बोइए, उगाइए, बचाइए और फल के परिणाम तक ले जाइए।

नाम-दाम कमाएं पर त्याग की वृत्ति रखें...
एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए। सीढ़ियों के सहारे आप ऊपर से नीचे उतर सकते हैं और नीचे से ऊपर चढ़ भी सकते हैं। परमात्मा जब अवतार लेता है तो ऊपर से नीचे धरती पर उतरता है। अपनी लीला से यह संदेश देता है कि मैं ईश्वर हूं पर ऊपर से नीचे उतरकर मनुष्य बन गया हूं। अगर ऊपर से नीचे उतरा जा सकता है तो नीचे से ऊपर क्यों नहीं चढ़ सकते? यह प्रश्न हर अवतार ने अपने समय के मनुष्यों से किया है और आज भी कर रहा है। हम चाहें तो ऊपर चढ़ सकते हैं। इसमें मदद करेंगे हमारे धर्म ग्रंथ। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, सभी के पास अपने ग्रंथ हैं और उनके प्रसंग या संदेश ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी हैं। सीढ़ी चढ़ने या उतरने में जरा-सी लापरवाही हुई तो गिर भी सकते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए जब सबसे ऊपर के पायदान पर पहुंचते हैं तो वहां भगवान को नहीं पाएंगे। आपको लगेगा स्वयं ही भगवान जैसे हो गए। सबसे ऊंची पायदान पर आप और भगवान में कोई फर्क नहीं है। लेकिन, ऊपर चढ़ने में हमें संसार की आसक्ति रोकती है। संसार नीचे की ओर खींचता है, इसलिए जब ऊपर चढ़ना हो तो उत्साह बनाए रखना पड़ेगा, जिसमें त्याग, आकांक्षा दोनों जुड़े रहेंगे। आकांक्षा से हम संसार में उतरते हैं और यदि त्याग की वृत्ति आ जाए तो संसार छोड़कर सीढ़ी चढ़ने में दिक्कत नहीं होगी। संसार में खूब नाम-दाम कमाइए पर त्याग की वृत्ति रखिए। एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए।

मन कुटिल हो तो गुण भी दोष दिखते हैं...
माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। स्त्री का चरित्र भावनाओं की लहर की तरह होता है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, अनुभूति जरूर की जा सकती है। पुरुष का चरित्र आक्रामक होकर शोषण की वृत्ति रखता है। स्त्री के चरित्र की कूटनीतिक चालों की तरह व्याख्या रावण जैसे लोग ही कर सकते हैं। लंका कांड में मंदोदरी जब पति रावण को समझा रही थी तो चूंकि वह उस समय राजनीतिक भाषा बोल रहा था, चरित्र में कुटिलता उतर आई तो स्त्रियों की आठ खूबियों को दोष बता दिया। पहले कहा- साहस। स्त्री का सबसे बड़ा साहस होता है कि वह मां बनने की क्षमता रखती है। जबकि प्रसव मृत्यु को आमंत्रण भी हो सकता है। अनृत, यानी झूठ। रावण कहता है स्त्रियां झूठ बहुत बोलती हैं। तो क्या पुरुष इसमें कम पड़ता है? स्त्री की चंचलता को वह दोष बताता है, जबकि चंचलता उसका खुलापन है। माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। उसे डरपोक कहता है। जो परिवार के लिए कुछ भी करने को तैयार हो वह डरपोक कैसे हो सकती है? उसके बाद अविवेक का दोष बताता है। जबकि स्त्री का विवेक पुरुष के मुकाबले अधिक जागा हुआ होता है। इसी प्रकार अपवित्रता और निर्दयता को भी उसने स्त्रियों के साथ दोष के रूप में जोड़ा है। रावण जैसे लोग समाज में स्त्रियों के प्रति इस प्रकार की टिप्पणियां कर समूची मानवता के विरोधी बन जाते हैं। राम ऐसे ही रावण को मिटाने के लिए धरती पर आए थे।

प्रेम पति-पत्नी के रिश्ते का प्राण है...
खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। सत्ता स्वभाव से ही स्वभक्षी होती है। इसकी कामना रखने वाला तैयार रहे कि यह एक दिन उसे भी कुतर-कुतरकर खा जाएगी। खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। उनमें जेंडर कॉन्शसनेस की समस्या आ ही जाती है। मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं ऐसे झगड़े नौकरी-व्यापार में दिखना आम है, लेकिन जब पति-पत्नी एक-दूसरे पर सत्ता बनाना चाहते हैं तो कीमत बच्चे चुकाते हैं। आजकल पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुषों के लिए प्रेम एक काम हो गया है। प्रेम इस रिश्ते का प्राण है लेकिन, व्यस्तताओं के बीच प्रेम काम की तरह निपटाया जा रहा है। यह फर्क जरूर है कि पुरुष के पास स्त्री के मुकाबले काम अधिक होते हैं, इसलिए प्रेम उसके लिए अंतिम प्राथमिकता है। स्त्रियां भी बहुत काम करती हैं, उनके लिए भी प्रेम एक काम है। इसीलिए दोनों के बीच रूखापन उतर आया है। स्त्रियों के मन में यह भाव गहरा रहा है कि वे पुरुषों से पीछे न रह जाएं। स्त्री के पास उसका स्वधर्म इतना मजबूत है कि जहां खड़ी हो, वहीं ऊंचाई पा सकती है। उसे ऊंचा होने के लिए पुरुष का प्लेटफॉर्म चाहिए भी नहीं। लेकिन दोनों के बीच अजीब-सा मुकाबला है और उसमें प्रेम दम तोड़ता जा रहा है। जैसे ही पति-पत्नी के बीच का प्रेम टूटता है, उनकी उदासी बच्चों में उतर आती है। आजकल ज्यादातर बच्चे चिड़चिड़े और जिद्दी इसलिए भी पाए जाते हैं कि उनके प्रेम का स्रोत समाप्त हो गया है। प्रेम को प्रेम ही रहने दीजिए। तब ही रिश्ते सुरक्षित रह पाएंगे।

समय के महत्व को ठीक से समझें...
सबको सभी बातों का ज्ञान हो जाए, जरूरी नहीं है। जब हम अज्ञान की स्थिति में होते हैं तो कुछ वस्तुओं, व्यक्तियों को लेकर भ्रम हो जाता है। पर दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम है स्वयं के बारे में गलतफहमी। रावण ऐसे ही भ्रम में जी रहा था। पत्नी मंदोदरी के समझाने पर पहले तो उसने मंदोदरी की आलोचना की। फिर अपनी प्रशंसा के बीच बड़ी सफाई से उसकी भी तारीफ करने लगा। कहता है, ‘सारा संसार मेरे वश में है यह बात तेरी कृपा से अब मेरी समझ में आई है। मैं तेरी चतुराई समझ गया हूं। तू समझाने के बहाने मेरी प्रभुता का बखान कर रही है।

इस संवाद पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।। मंदोदरि मन महुं अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।।रावण कहता है, ‘हे मृगनयनी, तेरी बातें बड़ी रहस्यभरी हैं। समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय मुक्त करने वाली हैं।तब मंदोदरी सोचने लगी कि काल के वश में होने के कारण पति को मति-भ्रम हो गया है।

हमें यह समझना है कि समय इंसान की बुद्धि को बदल देता है। इसलिए समय का सम्मान करें, उसके महत्व को ठीक से समझें। यदि अपने ही समय को पढ़ना नहीं आया तो एक दिन वह बुद्धि को पलटकर ऐसा आचरण करा सकता है कि आप सोच भी नहीं सकते। सच है, काल पर किसी का वश नहीं होता लेकिन, कम से कम अपने ऊपर तो वश है कि काल को समझ सकें और रावण जैसी गलती न करें।

मिलकर निर्णय लें, मिलकर जीना सीखें....
परिवार में बड़े-बूढ़े कई आदर्श वाक्य सुनाते रहते हैं। ऋषि-मुनियों ने तो गृहस्थ जीवन पर बहुत कुछ कहा है लेकिन, आज के दौर में परिवार जिन हालात से गुजर रहे हैं उसमें शंकराचार्यजी ये शब्द बहुत काम काम हैं,‘न नेयो न नेता। यानी आने वाले समय में न कोई नेता होगा और न ही कोई उनका अनुयायी। सबको मिलकर चलना होगा। आज परिवारों में यह इसलिए लागू है, क्योंकि यहां सबको मिलकर चलना ही पड़ेगा वरना परिवार तेजी से टूटते जाएंगे।

शिक्षा से प्राप्त योग्यता और धन से प्राप्त जीवनशैली ने परिवारों में शक्ति के कई केंद्र बना दिए। सब नेतृत्व चाहते हैं। बड़े तो इस झंझट में उलझे ही हैं, छोटे से बच्चे को भी लगता है कि मेरा कहा माना जाए। लेकिन अब मिल-जुलकर ही चलना पड़ेगा। काल प्रवाह से परिवार भी नहीं बचे। बहुत तेजी से पुराना गुजरता जा रहा है और नित नया परिवारों में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में मिल-जुलकर, एक-दूसरे की बात का मान रखकर ही परिवार चलाने पड़ेंगे। सबसे पहले अहंकार विलीन करना होगा।

किसी एक को नहीं, परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता को परिवार का हिस्सा मानना पड़ेगा। अपनी शिक्षा को परिवार की देन समझना होगा। वरना परिवार बंट जाएंगे। लेकिन इस बंटवारे में तन भले ही बंट जाएं पर मन न बंटे। छत बंट जाए पर रिश्ते नहीं टूट जाएं। इसलिए शंकराचार्यजी की इस बात को याद रखते हुए सब मिलकर ही निर्णय लें, मिलकर ही जीना सीखें।

मूल्यों पर चलकर होश में रहना आसान...
होश, बेहोश और जोश ये स्थितियां सभी के जीवन में घटती हैं। कुछ लोग जानते हैं कि कब होश में रहना, कैसे बेहोशी से बचना कैसे इन दोनों के बीच जोश बनाए रखना है। होश का मतलब है जब ज़िंदगी की राह में गिरें तो गिरे ही नहीं रहना है, उठना भी है। जोश यानी आगे बढ़ना और बेहोशी का मतलब है रुक जाना। प्रगति करना हो तो बदलाव पर नज़र रखिए। एक तो स्वयं में हो रहे बदलाव पर पकड़ होनी चाहिए, दूसरा आपके आसपास के वातावरण में हो रहे बदलाव की भी पूरी समझ होनी चाहिए। पहले जीने के लिए परम्परा आधारित जीवन पर्याप्त था लेकिन, वक्त बदला तो परम्पराएं भी तेजी से बदलीं। इसलिए अब परम्परा आधारित जीवन नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे पिछले दिनों गुरु परम्परा प्रश्नों के घेरे में गई। अब लोग लंबे समय तक गुरुओं से दूरी बना सकते हैं या गुरु बनाने में संकोच करेंगे। जब परम्परा आधारित जीवन से हटें तो मूल्य आधारित जीवन पर जाएं। मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा ये मूल्य हैं। मूल्यों पर चलने वालों के लिए होश बनाए रखना आसान होगा। ज़िंदगी की राह में ठोकरें लगेंगी, आप गिर भी जाएंगे पर यदि होश कायम है तो खुद को उठा भी लेंगे। यदि खुद को नहीं बदला, परम्पराओं पर टिके रहे तो यह भी बेहोशी होगी, जो इनसान के कदम लड़खड़ा देती है, उसे रोक देती है। होश और बेहोशी के बीच जरूरत पड़ती है जोश की। यह जोश ही आपको आगे ले जाएगा।

अपनी योग्यता को अहंकार से न जोड़ें...
राजसत्ता पर बैठे व्यक्ति की जब कमर टूट जाती है तो वह न किसी की गर्दन मरोड़ सकता है और न ही खुद उसकी गर्दन मरोड़ने की जरूरत रह जाती है। युद्ध शुरू होने से पहले ही रावण का आचरण बता रहा था कि उसकी कमर टूट चुकी है। घर, सेना और मैदान में सभी दूर हालात विपरीत हो रहे थे। पत्नी मंदोदरी ने समझाया तो पहले तो उसका परिहास किया, फिर शब्दों में उसकी प्रशंसा ढूंढ़ने लगा। यहां तुलसीदास ने व्यंग्य करते हुए लिखा है, ‘एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध। सहज असंक लंकपति सभॉ गयउ मद अंध।यानी इस प्रकार अज्ञानवश विनोद (हास-परिहास) करते हुए रावण को सुबह हो गई। तब स्वभाव से निडर और अहंकार में अंधा लंकापति सभा में पहुंचा। पति-पत्नी एकांत में रहें, विनोद करें तो ये अच्छे लक्षण हैं। लेकिन, रावण तब विनोद कर रहा था, जब उसे बहुत गंभीर होना था।

तुलसीदासजी ने उसे निडर बताने के साथ अंधा भी लिखा। दु:साहसी व्यक्ति की यदि दृष्टि चली जाए तो उसके लिए खतरा बढ़ जाता है। फिर उसका हर कदम गलत होता है। रावण के माध्यम से हमें यही समझना चाहिए कि जब आप अपनी योग्यता को अहंकार से जोड़ते हैं, शिक्षा को भोग-विलास में उतार लेते हैं तो फिर सही निर्णय ले पाने की संभावना समाप्त हो जाती है। शिक्षित व्यक्ति को दुर्गुण नहीं पालना चाहिए, योग्य को आलसी नहीं होना चाहिए। वरना जो आचरण रावण कर रहा था वैसा ही हम भी जीवन में कहीं न कहीं करते रहेंगे।

करुणा से मिलती है संकल्प को ताकत...
संकल्प लेकर उसे तोड़ना इंसान की फितरत हो गई है। बड़े संकल्प की तो बात दूर है, छोटा-मोटा संकल्प भी पूरा नहीं कर पाते। बहुत से लोग हैं, जो रात को संकल्प लेते हैं कि सुबह जल्दी उठेंगे और सुबह होने पर रात का संकल्प धरा रह जाता है। भोजन के नियंत्रण का संकल्प खाना दिखते ही टूट जाता है। क्यों हमारे संकल्प पूरे नहीं हो पाते? संकल्प पूरा करने के लिए संयम आवश्यक है और संयम में भगवान की उपस्थिति बहुत जरूरी है। यदि आप संयम में यह मानकर चलेंगे कि परमात्मा अनुपस्थित होकर भी मुझे देख रहा है तो संयम को ठीक से पाल सकेंगे। परमात्मा सदैव साथ है, यह भाव उतरते ही आपके भीतर जो सबसे बड़ा गुण आता है वह है करुणा। जब आप करुणामय होते हैं तो न तो अपने प्रति अपराध करेंगे, न दूसरे के प्रति कुछ गलत कर पाएंगे।

करुणामय व्यक्ति का संयम भी बहुत तगड़ा होता है, क्योंकि उसे परमात्मा का सहारा मिल जाता है। वेद में कहा गया है-’श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे। इसमें ऋषि ने परमात्मा से कहा है कि आपका जो पहला संकल्प होगा उसमें मेरी पूरी श्रद्धा है और वह संकल्प है सबके लिए करुणा। इसलिए जब कोई संकल्प लें, उसे पूरा करने के लिए जिस संयम की आवश्यकता हो उसमें सदैव यह ध्यान रखें कि आप अकेले उसे पूरा नहीं कर पाएंगे। इसमें एक और परमशक्ति की ताकत लगेगी। जैसे ही करुणामय हुए, अपने संयम को ताकत दे सकेंगे और फिर संकल्प कभी नहीं टूटेंगे।

जीवन की जडे़ं ढूंढ़ने के लिए मंदिर जाएं..
किस मंदिर में जाकर माथा टेंकें, किस मूर्ति को मान्यता दें? आजकल लोग यह सवाल बहुत पूछते हैं। धर्म के प्रति आधुनिक दृष्टि रखने में बुराई नहीं है पर आधुनिक होते-होते लोग आलोचनात्मक हो जाते हैं। आसान है यह कहना कि मंदिरों में सिवाय लूट के और क्या है। लोग भीख मांगने जाते हैं भगवान से। बाबाओं ने मंदिरों को लूट का केंद्र बना रखा है, पुजारी अपनी दुकान चलाता है। ऐसी बातें आसानी से कह दी जाती हैं। मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर मंदिर जाएं क्यों? इसका उत्तर है यदि आप किसी बात को ठीक से नहीं देख-समझ पाएंगे तो उसका सही अर्थ नहीं पकड़ पाएंगे। यह सही है कि मंदिर लूट, अंधविश्वास, मारामारी के केंद्र बन गए हैं लेकिन, हर बात का सतह के नीचे का पहलू होता है। भले ही सब भीख मांगने जा रहे हों, कोई लूट रहा हो, आप वहां से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप जीवन की जड़ें ढूंढ़ने मंदिर में जाएं। जीवन सदैव मौन या एकांत में मिलता है। अभ्यास कीजिए उस देवस्थान पर कितना भी शोर हो पर आपके भीतर शांति घट जाए। 

दूसरे क्या कर रहे हैं यह छोड़ प्रार्थना कीजिए, अपना रोम-रोम धैर्य से भर लीजिए। पूजा-पाठ, कर्मकांड, हल्ला-गुल्ला ये अपनी-अपनी रुचि का विषय हैं और काफी हद तक मनुष्य की मानसिकता पर टिका है। कोई टिप्पणी या आलोचना करने की जगह उस वरदान से न चूकें जो मंदिर की उस चारदीवारी में बड़ी आसानी से मिल सकता है। जो श्रेष्ठ है, मिल सकता है, उसे लपक लीजिए।

नियति व्यवस्था है पर निर्णय हमें लेना है....
जब सब कुछ भगवान की इच्छा से हो रहा है, हर परिणाम में भाग्य काम कर रहा है, हर बात का कोई निमित्त है तो फिर गलत को गलत क्यों ठहराया जाता है? इस तरह के प्रश्न आजकल पढ़े-लिखे समाज में खूब उछाले जाते हैं। केवल सैद्धांतिक पंक्तियों को पकड़ेंगे तो आरोप सही लगेंगे लेकिन, यह अच्छे से समझना होगा कि भगवान जितना नियंता है, उतनी ही नियति है। नियंता का अर्थ है व्यवस्था चलाने वाला और नियति का मतलब है उसने एक ऐसी नीति बना दी है, जो कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर की तरह है। आप जैसा करेंगे, वैसा परिणाम मिल जाएगा। नियंता के रूप में भगवान ने नियम बनाया कि पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण हर चीज को खींचती है। अब यदि गिर जाएं तो यह नहीं कह सकते कि भगवान की इच्छा थी, पृथ्वी ने खींच लिया तो गिर गए। नियंता ने नियम बनाया लेकिन, गिरना आपकी नियति थी। आप ठीक से संभल नहीं पाए तो पृथ्वी खींच रही है। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध से पहले कहा था, ‘एक तरफ मैं अकेला हूं, वह भी बिना शस्त्र उठाए तथा दूसरी ओर मेरी सेना होगी। आपको जो लेना हो, ले लो। कौरवों ने सेना चुनी, पांडवों ने निहत्थे कृष्ण को चुन लिया। कुल मिलाकर निर्णय हमारे ऊपर है, भगवान अपनी व्यवस्था कर चुके हैं। इसलिए ऐसे प्रश्नों का कोई मतलब नहीं है। आपको संभावना और चयन ऊपर से दिया गया है और उसी के दायरे में अपना जीवन चलाइए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....