Tuesday, June 6, 2017

गुरु प्राप्ति (Guru Receipt )

ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

गुरु प्राप्ति - एक लक्ष्य
मनुष्य अपने आप में अधूरा और अपवित्र है। वह अपने आपको पूर्ण कहता हैमगर पूर्ण है नहींक्योंकि उसके जीवन में कोई न कोई अधूरापन रहता ही हैधन है तो प्रतिष्ठा नहींप्रतिष्ठा है तो पुत्र नहीं हैपुत्र है तो सौभाग्य नहींसौभाग्य है तो रोग रहित जीवन नहीं है। यदि आधुनिक विज्ञान के अनुसार मानव शरीर की चीड-फाड की जायतो उसमे से केवल मांस निकलेगाहड्डिया निकलेगीरूधिर निकलेगामल-मूत्र निकलेगा।

इसके अलावा शरीर के अन्दर कुछ ऐसी चीज नहीं हैजिससे की इस शरीर पर गर्व किया जा सके। हम भोजन करते हैंवह भी मल बन जाता है। हम चाहे हलवा खायेंचाहे घी खायेचाहे रोटी खायेंउसको परिवर्तित मल के रूप में ही होना है। सामान्य मानव शरीर में ऐसी क्रिया नहीं होतीजो उसे दिव्य और चेतना युक्त बना सके और ऐसा शरीर अपने आपमें व्यर्थ हैखोकला हैउस देह में उच्चकोटि का ज्ञानउच्चकोटि की चेतना समाहित नहीं हो सकती।

क्यो नहीं प्राप्त हो सकतीफिर मनुष्य योनि में जन्म लेने का अर्थ ही क्या रहाजो पुष्प मल में पडा हुआ हैउसको उठा कर भगवान् के चरणों में नहीं चढाया जा सकता। यदि हम शरीर को भगवान् के या गुरु के चरणों में चढायें - हे भगवान्! हे गुरुदेव! यह शरीर आपके चरणों में समर्पित हैतो शरीर तो ख़ुद अपवित्र हैजिसमें मल और मूत्र के अलावा है ही कुछ नहीं। ऐसे गन्दे शरीर को भगवान् के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैंऐसे शरीर को अपने गुरु के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं?

देवताओं का सारभूत अगर किसी में हैतो वह गुरु रूप में हैक्योंकि गुरु प्राणमय कोष में होता हैआत्ममय कोष मैं होता है। वह केवल मानव शरीर धारी नहीं होता। उसमे ज्ञान होता हैचेतना होती हैउसकी कुण्डलिनी जाग्रत होती हैउसका सहस्रार जाग्रत होता है। न उसे अन्न की जरूरत पड़ सकती हैन पानी की जरूरत हो सकती हैन तो उसे मूत्र त्याग की जरूरत होगीन मल विसर्जन होगा। जब भूख-प्यास ही नहीं लगेगीतो मल मूत्र विसर्जित करने की जरूरत हे नहीं होगी।

इसलिए उच्चकोटि के साधक न भोजन करते हैन पानी पीते हैंन मल-मूत्र विसर्जन करते हैजमीन से छः फीट की ऊंचाई पर आसन लगाते हैं और साधना करते हैं। जो इस प्रकार की क्रिया करते हैंवे सही अर्थों में मनुष्य है। जो इस प्रकार की क्रिया नहीं कर सकतेजो मलयुक्त हैंजो गन्दगी युक्त हैंवे मात्र पशु हैं।

इस जगह से उस जगह तक छलांग लगाने की कौन सी क्रिया हैकैसे वहां पहुंचा जा सकता हैजीवन में मनुष्य कैसे बना जा सकता हैजीवन में वह स्थिति कब आएगीजब जमीन से छः फूट ऊंचाई पर बैठ करके साधना कर सकेंगेजमीन का ऐसा कोई सा भाग नहीं हैजहां रूधिर न बहा हो। धरती का प्रत्येक इंच और प्रत्येक कण अपने आप में रूधिर से सना हुआ हैअपवित्र हैउस भूमि में साधना कैसे हो सकती है।

बिना पवित्रता के उच्चकोटि की साधनाएं सम्पन्न नहीं हो सकतीहजारो वर्षों की आयु प्राप्त नहीं की जा सकतीसिद्धाश्रम नहीं पहुंचा जा सकता और जब नहीं पहुंचा जा सकतातो ऐसा जीवन अपने आप में व्यर्थ हैकिसी काम का नहीं हैंवह सिर्फ श्मशान की यात्रा ही कर सकता है।

ऐसा जीवन तो आपकी पिछली अनेक पीढियां व्यतीत कर चुकी है और अब उनका नामोनिशान भी बचा नहीं है। आपको अपने दादा परदादा के सब नाम तो मालूम हैलेकिन यह नहीं मालूमकी आपके परदादा के पिता कौन थेउन्होनें क्या कार्य किया और किस प्रकार उन्होनें अपना जीवन बितायायदि आप भी ऐसा ही करना चाहते हैतो फिर आपको जीवन में गुरु की कोई जरूरत ही नहीं है।

यह शरीर कितना अपवित्र हैकी चार दिन भी बाहर के वातावरण को झेल नहीं सकता। यदि चार दिन स्नान नहीं करेंतो आपके शरीर से बदबू आने लगेगीकोई आपके पास बैठना भी नहीं चाहेगाबात भी करना नहीं चाहेगा। जबकि भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती थीउच्चकोटि के योगियों से अष्ठगंध प्रवाहित होती है।

तो आप में क्या कमी हैजो अष्टगंध प्रवाहित नहीं होतीआप जब निकलेतो दुनिया वाले मुड कर देखेकी पास में से कौन निकलायह सुगंध कहां से आईउसके व्यक्तित्व में क्या हैऔर यदि ऐसा व्यक्तित्व नहीं बनातो जीवन का मूल अर्थमूल लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सकताजिसके लिए देवता भी इस पृथ्वी लोक पर जन्म लेने के लिए तरसते हैं। राम के रूप में जन्म लेते हैकृष्ण के रूप में जन्म लेते हैंइसा मसीह के रूप में जन्म लेते हैंपैगम्बर मोहम्मद के रूप में जन्म लेते हैं।

इस शरीर को पवित्र बनाने के लिएयह आवश्यक है कि हम देह तत्व से प्राण तत्व में चले जायें। जब प्राण तत्व में जायेंगेतो फिर देह तत्व का भान रहेगा ही नहीं। फिर जीवन के साए क्रियाकलाप तो होंगेमगर फिर मल-मूत्र की जरूरार नहीं रहेगीफिर भोजन और प्यास की जरूरत नहीं रहेगीफिर शून्य सिद्धि आसन लगा सकेंगेफिर शरीर से सुगंध प्रवाहित हो सकेगी और एहसास हो सकेगाकि आप कुछ है।

प्राण तत्व में जाकर आप में चेतना उत्पन्न हो सकेगीअन्दर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगासारे वेद सारे उपनिषद् कंठस्थ हो पायेंगे। आप कितनी साधना करेंगेकितना मंत्र जपेंगेकब तक जपेंगेज्यादा से ज्यादा साठ साल की उम्र तक। सत्तर साल तकलेकिन आपके जीवन का आधिकांश समय तो व्यतीत हो चुका हैजो बचा हैवह भी सामाजिक दायित्वों के बोझ से दबा हुआ है फिर वह जीवन अद्वितीय कैसे बन सकेगाऔर अद्वितीय नहीं बनातो फिर जीवन का अर्थ भी क्या रहा?

कृष्ण को कृष्ण के रूप में याद नहीं कियाकृष्ण तो जगत गुरु के रूप में याद किया जाता है। उनको गुरु क्यों कहा जाता हैइसलिएकी उन्होनें उन साधनाओं कोउस चेतना को प्राप्त कियाजिसके माध्यम से उनके शरीर से अष्टगंध प्रवाहित हुईउनका प्राण तत्व जाग्रत हुआ।

मैं आपको एक द्वितीय साधना दे रहा हूं (गुरु हृदयस्थ स्थापन)हजार साल बाद भी आप इस साधना को अन्यत्र नहीं कर पायेंगेपुस्तकों से आपको प्राप्त नहीं हो पायेगागंगा किनारे बैठ करके भी नहीं हो पायेगारोज-रोज गंगा में स्नान करने से भी नहीं प्राप्त हो पायेगा। यदि गंगा में स्नान करने से ही कोई उच्चता प्राप्त होती हैतो मछलियां तो उस जल में रहती हैवे अपने आप में बहूत उच्च बन जाती।

जीवन में अद्वितीयता होयह जीवन का धर्म है। हमारे जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं। ऐसा होतब जीवन का अर्थ है। ऐसा जीवन प्राप्त करने के लिए बस एक ही उपाय हैकी हम ऐसे गुरु की शरण में जायेंजो अपने आप में पूर्ण प्राणवान होंतेजस्विता युक्त होंवाणी में गंभीरता होआँख में तेज होवे जिस को देख लेंवह सम्मोहित होअपने आप मेंसक्षम होऔर पूर्ण रूप से ज्ञाता हो।

लेकिन आपके पास कोई कसौटी नहीं हैकोई मापदण्ड नहीं है। आप उनके पास बैठ कर उनके ज्ञान सेचेतना सेप्रवचन से एहसास कर सकते हैं। यदि आपको जीवन में सदगुरू की प्राप्ति हो गईतो आपको जीवन का अर्थ समझ में आयेगातब आपको गर्व होगाकी आप एक सदगुरू के शिष्य हैजिनके पास हजारों हजारों पोथियों ज्ञान है।

यदि व्यक्ति में ज़रा भी समझदारी हैयदि उसमें समझदारी का एक कण भी हैतो पहले तो उसे यह चिंतन करना चाहिएकी उसे ऐसा जीवन जीना ही नहींजो मल-मूत्र युक्त हैक्योंकि ऐसे जीवन की कोई सार्थकता ही नहीं है और फिर उसे सदगुरू को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिएजो उसे तेजस्विता युक्त बना सकेजो उसे प्राण तत्व में ले जा सकेंजो उसके शरीर को सुगंध युक्त बना सके।

यदि ऐसा नहीं कियातो भी यह शरीर रोग ग्रस्तता और वृद्धावस्था को ग्रहण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। फिर वह क्षण कब आयेगाजब आप दैदीप्यमान बन सकेंगेकब आपमें भावना आएगीकि मुझ को दैदीप्यमान बनना ही हैअद्वितीय बनाना ही हैंसर्वश्रेष्ठ बनना है?

ऐसा तब सम्भव हो सकेगाजब आपके प्राणगुरु के प्राण से जुडेंगेजब आपका चिंतन गुरुमय होगाजब आपके क्रिया-कलाप गुरुमय होंगे और इसके लिए एक ही क्रिया है - अपने शरीर में पूर्णता के साथ गुरु को स्थापित कर देना हैजीवन में उतार देना।

शरीर में उनका स्थापन होते हीउनकी चेतना के माध्यम से यह शरीर अपने आप में सुगन्ध युक्तअत्यन्त दैदीप्यमान और तेजस्वी बन सकेगाजीवन में अद्वितीयता और श्रेष्ठता प्राप्त हो सकेगीजीवन में पवित्रता आ सकेगीप्राण तत्व की यात्रा सम्भव हो सकेगी और उनका ज्ञान आपके अन्दर उतर कर सकेगा।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष

2 comments:

  1. Replies
    1. आपकी टिप्पणि हमारे लिए बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार.
      ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

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