Sunday, March 19, 2017

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah3)

अपने जीवन व स्वभाव में गहराई उतारें
नदी को शांत होने के लिए गहराई चाहिए। जहां वह बहुत गहरी होती है, वहां वह बिल्कुल शांत नज़र आती है। हमारे जीवन में भी यही नियम लागू होता है। शांत होना है तो जीवन में गहराई उतारनी होगी। शांति की खोज में यदि नदी की तरह गहरे न हो सकें तो बीज की तरह हो जाएं। बीज जब अंकुरित होता है तो जानता नहीं है कि मेरे अंकुरण का परिणाम क्या होगा। कितना बड़ा वृक्ष बनूंगा, मेरे फूलों का क्या उपयोग होगा पर एक बात जानता है कि मैं बीज हूं तो मुझे अंकुरित होना है।

बस, बीज जैसा ही भाव अपने भीतर ले आएं कि हम मनुष्य हैं तो हमें शांत होना ही है। तीन काम करते समय अपने आपको बीज जैसा बना लें तो शांति का अंकुरण होकर रहेगा। पहला- जब भी किसी को समय दे रहे हों खास तौर पर परिवार को तो जो सदस्य जिस कालखंड का अधिकारी हो उसे वह पूरी तरह से दें। उस समय छेड़छाड़ न करें। दूसरा, जब कभी समाज की, राष्ट्र की सेवा कर रहे हों तो पूरी तरह से समर्पित हो जाएं। और तीसरा जब भी किसी को सुनें, शत-प्रतिशत उदार रहें। लोग भरे बैठे हैं बोलने को। आप खाली हो जाएं सुनने के लिए। ध्यान रखिए, प्रकृति का उसूल है, वह वहां नहीं लौटाती जहां आप देते हैं। आप शांति का जो बीज बो रहे हैं जब वह अंकुरित होगा तो मालूम नहीं उसके फूल किस डाली पर खिलेंगे, कैसे फल निकलेंगे लेकिन, फिर भी बीज अंकुरण में पीछे नहीं हटता।

हमे  भी काम सारे ऐसे ही करने हैं कि कभी न कभी तो शांति के फूल खिलेंगे। कहां खिलेंगे इसकी चिंता छोड़ दीजिए। शांति के बीज यदि बोए हैं तो फूल जीवनसाथी के रूप में खिल सकते हैं, संतान के रूप में खिल सकते हैं, आपकी सफलता के रूप में खिल सकते हैं। शांत होना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है इसलिए जीवन में, स्वभाव में गहराई उतारिए।

संघर्ष करना पड़े तो उसे दुर्भाग्य न मानें
जीवन में संघर्ष सबको करना पड़ता है। संसार में निर्मित परिस्थितियों में और उन हालात में भी जो ईश्वर से मिले होते हैं। इसलिए, यदि संघर्ष करना पड़े तो उसे दुर्भाग्य न माना जाए। संघर्ष से बचने की कोशिश न करें। सफलता उसे ही मिलेगी जो ठीक से संघर्ष कर सकेगा। हालात कितने बुरे हैं यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्व इसका है कि उन हालात का सामना आप कैसे करते हैं।

एक बात याद रखिए कि जब भी संघर्ष करना पड़े, अपनी आंतरिक प्रसन्नता मत खोने दीजिए। भीतर से जितना खुद को खुश रखेंगे उतने हल्के होंगे और जो भीतर से हल्का होता है उसे बाहर का भारीपन दबाव या तनाव में नहीं डूबो पाता। लंकाकांड की यह घटना हमारे लिए बड़ी प्रेरणादायक है। श्रीराम विचार कर रहे थे कि समुद्र को कैसे पार किया जाए। तब हनुमानजी टिप्पणी करते हैं, ‘सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी।।

हनुमानजी की यह अत्युक्ति सुनकर वानर श्रीरघुनाथजी की ओर देखकर हर्षित हो गए। टिप्पणी यह थी कि आपने एक बार अग्नि का मस्तक काटा था जो समुद्र में गिरा और उससे समुद्र सूख गया। अग्नि की पत्नी स्वाहा रोई तो उसके आंसुओं से समुद्र फिर भर गया और इसीलिए वह खारा है। यह बात कहकर हनुमानजी रामजी के बल का प्रदर्शन भी कर रहे थे और सबको आश्वस्त करते हुए खुश भी कर रहे थे।

वानर प्रसन्न हुए तो रामजी को भी हंसी आ गई। किसी भी विपरीत परिस्थति में जब संघर्ष करना पड़ रहा हो तो अपनी मौलिकता न खोएं, अपनी मस्ती को न जाने दें। बहुत बड़ी चुनौती का सामना श्रीराम और उनकी सेना को करना था पर हनुमानजी संदेश दे रहे थे मस्त रहो, प्रसन्न रहो और फिर संघर्ष करो। सफलता और मजबूत व निश्चित होगी।

ध्यान करने से खत्म होता है मन का खेल
संसार में बहुत कुछ होता नहीं है लेकिन, लगने लगता है। कभी-कभी लगता है जो पहले हमारे बड़े शुभचिंतक थे, आजकल बदल से गए हैं। ऐसा लगता है, हो सकता है वैसा होता नहीं हो। माता-पिता जब बेटे की शादी करते हैं तो कई बार लगता है बहू आने के बाद बेटाबदल गया। हो सकता है, ऐसा होता न हो। विवाह के बाद स्त्री ससुराल जाती है तो वहां का नया माहौल, नए रिश्तेदार देखकर उसे लगता है ये मेरे मायके जैसे नहीं हैं।
जो माहौल मुझे वहां मिला, यहां नहीं मिल रहा। फिर ऐसा लगता है होता नहीं है वाली बात। ये लगने का नतीजा यह होता है कि अचानक अनजानी-सी उदासी भीतर उतरने लगती है। इसका आकलन करना बड़ा मुश्किल है कि जो लग रहा है, सचमुच वैसा हो भी रहा है या नहीं। इसका कोई फॉर्मूला नहीं है, जिससे आप पता लगा सकें कि जो लग रहा है वह सही है या जो हो रहा है वह सही होगा।

जो लोग मेडिटेशन करेंगे उन्हें थोड़ी बहुत भनक मिल सकती है, क्योंकि मेडिटेशन करने वाला मन पर काम करता है और मन की आदत है कि वह अपनी गलत सोच को बुद्धि पर थोप देता है। मन को विपरीत सोचना, संदेह करना ही पसंद है। इसलिए आपको जो विपरीत लग रहा है, संभव है मन का थोपा हुआ हो। बस, यहीं से परेशानी शुरू होती है। जब ध्यान में मन पर काम करते हैं तो थोपा हुआ खेल खत्म हो जाता है, हम बुद्धि और हृदय से सोचने लगते हैं।

इन दोनों से जो भी देखेंगे वह सही होगा। इसलिए योग का संबंध केवल धर्म-कर्म, परमात्मा की प्राप्ति या मोक्ष से नहीं है। इसका संबंध है आपकी सोच में सकारात्मक परिवर्तन लाना। ध्यान के बाद आप कभी भी, कैसी भी स्थिति में ‘ऐसा लग रहा है’ को लेकर निराश या उदास नहीं होंगे। आपको वह दिखने लगेगा जो सही और सचमुच आपके लिए घट रहा होगा।

अपने जीवन को ज्योति की तरह देखें
जलते हुए दीपक को देखें तो पहली प्रतिक्रिया होगी कि दीपक जल रहा है। थोड़ी गहराई से देखेंगे तो कहेंगे बत्ती जल रही है, दीपक तो मिट्‌टी का है। और भी बारीकी से देखेंगे तो बत्ती में तेल दिखेगा और अधिक गहराई में उतरेंगे तो समझ जाएंगे कि दीपक, तेल, बाती इन तीनों से हटकर है ज्योति। दीपक उस ज्योति के कारण है। ज्योति तो सदैव से जल रही थी, साधन मिल गए तो प्रकट हो गई।

इस आध्यात्मिक विचार को व्यावहारिक जीवन से भी जोड़िए। सभी धर्मों में अवतार की परम्परा है। हम अवतारों को कथा में, धार्मिक स्थल पर पूजा-पाठ से जोड़कर देखते हैं लेकिन, इन्हीं अवतारों को प्रतीकात्मक रूप से देखें, क्योंकि जीवन में कई उलझनें प्रतीक रूप से देखने पर ही समझ में आती हैं। अवतार को प्रतीक के रूप में देखेंगे तो आपको मनोवैज्ञानिक दृष्टि लगेगी। तब उसे वैज्ञानिक कसौटी पर कसिए, इसके बाद व्यावहारिक जीवन में उतारें और जब व्यावहारिक जीवन में समझ के साथ उतर जाएं तब व्यवसाय में भी प्रयोग कीजिए। इन अवतारों ने कई ऐसे प्रसंग घटाए, जो आपके बिज़नेस फील्ड में बड़े काम के हैं। बात वहीं से समझते हैं कि हम उदाहरण दीपक और ज्योति का ले रहे थे और गहराई में उतरे तब ज्योति समझ में आई।

अवतार ज्योति की तरह होते हैं। उनके पास भी शरीर था, उन्होंने भी वही जीवन जिया जो हम जीते हैं। वे ज्योति की तरह थे और हम अपने जीवन को दीपक की तरह देखते हैं। हमारे पास भी वही ज्योति है, जो अवतारों के पास थी अौर गहराई सेे अपने जीवन को देखेंगे, वह ज्योति मिलेगी। उसका प्रतीक रूप में वैज्ञानिक दृष्टि और व्यावसायिक क्षेत्र में प्रयोग कीजिए। कई अनसुलझी समस्याओं के समाधान मिल जाएंगे।

अपना पात्र खुला रखें, कृपा बरस जाएगी
उपलब्ध संसाधनों का देसी सदुपयोग जुगाड़ कहलाता है। हमारे देश में जुगाड़ बहुत बड़ी योग्यता है। आप बहुत पढ़े-लिखे, समर्थ हों पर यदि जुगाड़ु नहीं हैं तो हो सकता है प्रगति के लिए बाधाओं का सामना करना पड़े। प्रबंधन में जुगाड़ का अर्थ होता है उपाय कुशल। यानी आपके पास जो भी संसाधन और उपाय हैं उनका कुशलता से उपयोग कर लें। लोकभाषा में जुगाड़ को जोग कहते हैं।

जोग का परिष्कृत रूप योग है और योग को दो अर्थों में देखा जा सकता है। एक तो पतंजलि का आठ चरण का योग और दूसरा समय का योग। जैसे बातचीत में कहा जाता है सब योग की बात है। यहां योग मतलब एक ऐसा समय जो आपके लिए अनुकूल हो या प्रतिकूल हो। कुल-मिलाकर यदि सही योग बनाना हो तो जुगाड़ु होना पड़ेगा। इन दिनों हमारी बातचल रही है लंका कांड की। श्रीराम समुद्र के सामने खड़े हैं, चर्चा चल रही है सेतु कैसे बनाया जाए? उस समय जामवंत टिप्पणी करते हैं जिस पर तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं।।अर्थात मन में रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करने में जुट जाओ।

श्रीराम की कृपा से कुछ भी परिश्रम नहीं लगेगा। यहां जामवंतजी के कहने का यह अर्थ नहीं कि मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। परिश्रम तो करना पड़ेगा परंतु उसी के अनुरूप उसका परिणाम भी मिलेगा, इसलिए रामजी का प्रताप यानी भगवान की कृपा आप पर बरस सकती है इसका बोध बनाइए। सबसे बड़ी जुगाड़ है भगवान की कृपा मिल जाना। भगवान कृपा देने में भेद-भाव नहीं करते। बस, आपको अपना पात्र खुला रखना है, बरसती कृपा उसमें भी गिर जाएगी। इतनी सरल, सहज जुगाड़ यदि आपके पास है तो निश्वित रूप से उतना तो अवश्य मिल ही जाएगा, जितना परिश्रम किया है।

ईश्वर से आपको जोड़ने वाली डोर है प्रार्थना
हर त्योहार निवेदन है, हर उत्सव एक प्रार्थना। हमारे देश में चूंकि बहुत से देवी-देवताओं ने अवतार लिया इसलिए कई तिथियां उन्हें समर्पित की गई हैं और इसीलिए हर माह बल्कि हर सप्ताह कोई न कोई उत्सव रहता है। जब उत्सव या त्योहार मना रहे हों तो यह भाव अवश्य जगाएं कि आप उस देवत्व से कोई न कोई प्रार्थना या निवेदन कर रहे हैं। भगवान से बात करें तो भाव यही होना चाहिए कि यह हमारी प्रार्थना है, पूरी करना, नहीं करना आपकी इच्छा है। प्रार्थना का मतलब ही है निवेदन हमारा, इच्छा आपकी।

निवेदन और इच्छा के बीच में जो शब्द दिल से निकलते हैं वे प्रार्थना बन जाते हैं। प्रार्थना यदि सच्ची हुई तो कोई शब्द व्यर्थ जाएगा ही नहीं। उस कान तक जरूर पहुंचेगा, जहां के लिए आपने उस शब्द को प्रकट किया है। यही प्रार्थना की खूबी है। प्रार्थना का एक और मतलब है- विश्वास और निकटता। जिस भी देवत्व से आप प्रार्थना कर रहे होते हैं, उसकी निकटता मिलने लगती है। प्रार्थना डोर बनकर उस परमशक्ति को आपसे जोड़ देती है। समझने के लिए प्रकृति का उदाहरण लिया जा सकता है। सूरज और चांद प्रकृति के प्रमुख प्रतिनिधि हैं। जब हम इन्हें देखते हैं तब तो वे हमारे सामने होते हैं लेकिन, यदि उनकी ओर पीठ कर लें तो तो भी वे हमारे साथ ही होते हैं। जरा सा पलटे कि आमने-सामने हो जाएंगे।

आपने दिशा बदली है पर उस प्रकृति की मौजूदगी नहीं बदल सकते। बस, ऐसे ही परमात्मा है। जैसे ही आप प्रार्थना करते हैं, आप सामने होते हैं लेकिन, पलटते ही वह आपके पीछे हो जाता है। मामला सिर्फ आपके पीठ करने और सामने लाने का है। प्रार्थना उसके सामने कर देती है पर जब भी पीठ करते हैं तब भी वह मौजूद रहता है। वैसे ही जैसे सूर्य, चंद्र और उनका प्रकाश हमारी पीठ पर सदैव रहता है। जब भी लगे कि परमशक्ति की ओर मुड़ना है तो प्रार्थना करने लग जाइए।

सूर्य-चंद्र की खूबियां जीवन में उतारें
हर व्यवस्था के अपने कुछ अंग होते हैं और उनमें आपस में रस्साकशी या खींच-तान चलती रहती है। काम-धंधे की बात करें तो जितने विभाग होते हैं, सब एक-दूसरे के लिए होते हैं लेकिन, एक-दूसरे से उलझते भी हैं। एक का काम दूसरे के बिना नहीं चलता लेकिन, फिर भी कभी-कभी आपस में टकरा जाते हैं। ऐसी ही एक व्यवस्था हमारे भीतर भी चल रही है।

हमारी इंद्रियों को अलग-अलग विभाग कह सकते हैं। इन सबके सहयोग का नाम स्वस्थ शरीर है और जैसे ही इन्होंने खींच-तान मचाई, समझो बीमारी को आमंत्रण मिला। हमारा जीवन कैसा होना चाहिए, इस पर पुराने लोग कहा करते थे- सूर्य और चंद्र जैसा। सूरज और चांद जैसा जीवन क्यों बताया जाता था? इसलिए नहीं कि वे ऊपर हैं और आकाश में दिखते हैं। इन दोनों की एक बड़ी विशेषता है नियमित होना। इनकी यात्रा इतनी तयशुदा है कि दस हजार साल बाद सूर्य कब उदित होगा और चांद कब डूबेगा, बताया जा सकता है।

तो चांद-सूरज से सीखें कि हमें बहुत नियमित होना चाहिए। यदि खाने, पीने और सोने इन तीन स्थितियों में सूरज और चांद जैसे हो गए तो आपके साथ मनुष्य और जीवन दोनों अद्‌भुत ढंग से जुड़ जाएंगे। केवल मनुष्य योनि में जन्म लेने से ही व्यक्ति मनुष्य नहीं हो जाता, क्योंकि हम वे सारे काम भी करते हैं जो पशु भी करते हैं। हमारा मनुष्य होना तभी साबित होगा जब जीवन को ठीक से समझेंगे और इसके लिए इन तीन बातों में बिल्कुल सूर्य और चंद्र की तरह नियमित होना है। ये दोनों केवल प्रकाश ही नहीं देते बल्कि इनके भीतर एक स्फूर्ति होती है, प्राण होता है और समय का बोध कराते हैं। इन तीन खूबियों को नियमितता से जीवन में उतारिए, फिर देखिए आप भी चमकेंगे और लोग आपको निहारेंगे।

ज्योति की तरह हो पति-पत्नी का रिश्ता
‘भवन निर्माण का विवाद से पुराना नाता है,इस कहावत को सही होते देखना चाहें तो मकान बनाकर देखिए। आस-पड़ोस से झगड़ा हो ही सकता है, क्योंकि सारा मामला मालिकाना हक का होता है। कई बार तो इंचभर जमीन की नपती के लिए पड़ोसी जीवनभर का बैर पाल लेते हैं। आइए, इसे समझें कि जब भी निर्माण होगा, मालिकाना हक की बात आएगी और जहां मालिक बनने की इच्छा हुई, झगड़ा होकर रहेगा। परिवार में जब सदस्य एक-दूसरे पर मालिकाना हक जताने लगते हैं तो तनाव शुरू हो जाता है।

बाकी रिश्ते तो फिर भी अपनी स्थिति को बचा लेते हैं पर चूंकि पति-पत्नी का रिश्ता अपेक्षाओं पर टिका होता है, इसलिए मालिकाना हक की बात आ ही जाती है। पति को लगता है इस स्त्री का शरीर, इसकी भावनाएं मेरी हैं, मैं इसका मालिक हूं। ये विचार आते ही वह शोषण करना शुरू कर देता है। दूसरी ओर स्त्री को लगता है मेरे पास सबसे बड़ी पूंजी ही शरीर है और इसी के नाम पर मैं जैसा चाहूं, पति को नचा सकती हूं। यह भी अघोषित मालिकाना हक जताना है। कुल-मिलाकर जिसके साथ परिवार का निर्माण होना था वो भावना, वो विचार कलह की ओर ले जाते हैं।

इसलिए कम से कम पति-पत्नी तो अपना घर विवाद की जमीन पर न बनाएं। शरीर के इस रिश्ते को केवल हाड़-मांस से न जोड़कर एक दीपक से जोड़ा जाए। जैसे दीपक शरीर होता है लेकिन, उसमें जलने वाली ज्योति हृदय है। ज्योति नहीं तो दीपक किसी काम का नहीं। इस रिश्ते में यदि हृदय की प्रधानता हुई तो फिर शरीर में कोई बाधा नहीं आएगी। पति-पत्नी का रिश्ता दीपक के शरीर की तरह नहीं, ज्योति के हृदय की तरह होना चाहिए जहां एक-दूसरे से घुलने-मिलने की तमन्ना हो। फिर देखिए, होने वाला निर्माण विवाद से बचा रहेगा।

जीवन की चुनौतियों को खेल जैसा लें..
जीवन में आने वाली हर चुनौती को युद्ध की तरह नहीं, खेल की तरह लिया जाए। युद्ध हो या खेल, किसी एक पक्ष की जीत और दूसरे की हार होनी ही है। हारने वाला पूरी तरह टूट जाता है और जीतने वाला यदि संयम न रखे तो अहंकार में डूब जाता है। जीवन में जब भी चुनौती आए, उसे खेल की तरह लें। इसे समझना हो तो लंका कांड के उस प्रसंग में चलते हैं जहां वानरों से कहा जा रहा है ‘राम चरन पंकज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू।।श्रीराम के चरणों को हृदय में धारण कर सब एक खेल कीजिए।

आगे तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘लिलहिं लेही उठाईयह बड़ा प्यारा शब्द है। कोई भी बड़ा काम करें, खेल-खेल में निपटाएं। युद्ध और प्रतिस्पर्द्धा में हमारे साथ एक बात हो जाती है। हम यह मानने लगते हैं कि जो हम जानते हैं वही सही है और दूसरा जो जानता है वह गलत है। इसीलिए हम विरोध का स्वर मुखर करने लगते हैं। हम सामने वाले पर प्रभुत्व चाहते हैं इसीलिए प्रतिस्पर्द्धा में पड़ते हैं। खेल में मामला थोड़ा अलग है। यहां दोनों पक्ष एक ही नियम के तहत आमने-सामने होते हैं जबकि युद्ध में सब अपने-अपने नियम से चलते हैं।

उस समय आपका विवेक, आपकी निर्णय क्षमता यह सब बड़े काम आते हैं। युद्ध में हम किसी भी तरह से सामने वाले को समाप्त ही करना चाहते हैं, जबकि खेल में जीत के लिए उसका उपयोग करते हैं। हम उसे हराने में उतनी ऊर्जा नहीं लगाते, जितनी ताकत खुद जीतने में लगाते हैं। इसलिए जब भी कोई चुनौती आए, तो यह मानकर चलिए कि दूसरे भी उस पर काम कर रहे होंगे और ऐसे समय आप किसी भी चुनौती को खेल के रूप में लेंगे तो जीत तो सुनिश्चित होगी, पर यदि हार भी हो जाती है तो आप बिखरेंगे नहीं, टूटेंगे नहीं।

मन से दूरी बनाकर उस पर काबू पाएं
शास्त्रों में स्वर्ग-नर्क की अलग-अलग ढंग से परिभाषाएं हैं। भौगोलिक स्थिति के अनुसार तो स्वर्ग ऊपर है, भूलोक बीच में और नर्क नीचे। किंतु इसकी जीवन से जुड़ी परिभाषा है कि जब आप अशांत होते हैं तो नर्क और शांत होते हैं तो स्वर्ग में होते हैं। इन दोनों तक जाने के लिए नौ रास्ते बताए गए हैं। ये नौ छिद्र हैं हमारे शरीर के। दो आंख, दो कान, दो नाक, एक मुंह और मल-मूत्र के दो स्थान।

इस तरह से इन नौ रास्तों से मनुष्य स्वर्ग में जा सकता है और नर्क में भी। यानी शांत भी रह सकता है और अशांत भी। हमारे भीतर तीन तरह के यात्री होते हैं जो इन नौ रास्तों से चलकर हमें शांति और अशांति तक पहुंचाते हैं। एक है मस्तिष्क, दूसरा हृदय और तीसरा मन। मस्तिष्क और हृदय से शांति तक पहुंचना फिर भी आसान है। यदि मस्तिष्क यात्री है तो अशांति तो होगी पर बर्बादी नहीं होगी।

यात्री हृदय है तो स्वर्ग में पहुंचना ही है यानी शांति को प्राप्त होना ही है। लेकिन यदि यात्री मन होता है तो पक्का है कि नर्क यानी अशांति तक पहुंचना है। रामकथा में हनुमानजी के लिए एक पंक्ति आई है, ‘मन महुं तरक करैं कपि लागा।इसमें हनुमानजी ने अपने मन से बात की थी। हम भी मन से बहुत बात करते हैं लेकिन यहां मन से बात करने का अर्थ है अपने मन से थोड़ी दूरी बना लेना।

जैसे ही आप मन से दूर हटते हैं, मन को सुनते हैं, मन को देखते हैं बस, यहीं से मन नियंत्रण में आने लगेगा, क्योंकि मन दो तरह की बातें करता है। एक में भ्रम और संदेह का धुआं उठाता है और दूसरा जिसमें दुर्गुणों की बदबू देता है। शांत होने के लिए अपने मन से बात करें लेकिन, दूर हटकर। यह काम सांस करेगी। सांस के माध्यम से मन से बात कीजिए, एक दूरी बनी रहेगी। मन नियंत्रण में आते ही आप इन्हीं नौ मार्गों से शांति की ओर यानी स्वर्ग में पहुंच जाएंगे।

सोने से पहले ध्यान बढ़ाए छुट्‌टी की खुशी
अच्छे-अच्छे प्रबंधक अपने संसाधनों का उपयोग करने में चूक जाते हैं और ये ही लोग दूसरों के संसाधनों का गजब का उपयोग कर जाते हैं। हर व्यावसायिक व्यवस्था में एचआर विभाग होता है, जिसके लोगों का काम होता है वहां काम करने वालों के भीतर जितनी योग्यता, संभावनाएं और संसाधन हैं उनका अधिक से अधिक उपयोग कर लिया जाए।

किंतु ऐसे कुशल लोग भी अपने भीतर के संसाधनों के प्रति लापरवाह होते हैं। उनमें हम और आप भी हो सकते हैं। हमारे भीतर जितने भी संसाधन हैं, अगर दिनभर उनका उपयोग नहीं कर सकें तो एक समय जरूर कर लें और वह समय होता है रात का। खासतौर से उस रात जब अगला दिन अवकाश का हो। अवकाश के पहले की रात हम बहुत रिलैक्स और प्रसन्न होकर सोते हैं लेकिन, देर से सोते हैं कि कल जल्दी नहीं उठना है। कुल-मिलाकर जल्दी उठने के अवकाश के आनंद को खो बैठते हैं।

वैसे उठना तो चाहिए सूर्योदय से पहले पर यदि अवकाश के दिन देर तक सोने की इच्छा हो तो कम से कम रात को एक व्यवस्था करके सोया जाए, योग की दुनिया में जिसका नाम है ‘मृतवतयानी मरे जैसा हो जाना। ऐसे सो जाइए जैसे यह आपकी अंतिम रात है और कल सुबह मुर्दा ही होंगे। असल में मृतवत होकर सोने का अर्थ होता है लोकेशणा से मुक्त हो जाना।

क्रोध, काम और लोभ ये तीन बातें हमें लोकेशणा में भटकाती हैं। इन्हीं से मुक्त होकर सो जाएं। अगले दिन जब उठेंगे तो पाएंगे न सिर्फ कामकाज से अवकाश है, बल्कि काम, क्रोध, लोभ से भी छुट्‌टी है। नींद आने से पंद्रह मिनट पहले अपने आप को लोकेशणा से मुक्त करें और यह तब होता है जब सोने से पहले कुछ देर मेडिटेशन कर लिया जाए। फिर देखिए छुट्‌टी का आनंद क्या होता है।

परिवार में रहना है तो भक्त हो जाइए
घर बसाना मुश्किल हो जाता है और परिवार न हो तो घर किसी काम का नहीं रहता। यदि मनुष्य जन्म लिया है और परिपूर्ण इंसान बनना चाहते हैं तो घर-परिवार दोनों होने चाहिए। लोगों को अपना ही घर-परिवार बोझ लगने लगता है। बसा तो लेते हैं, फिर दूर भागते हैं। परिवार में तनाव, कलह जिन कारणों से होता है उनमें एक है मालिकियत चलाना।

परिवार चलता है सर्वमत से। यानी कुछ-कुछ सबका अधिकार और मिला-जुला निर्णय। जब किसी सदस्य को लगने लगता है कि परिवार में हमारा महत्व नहीं है, मात्र उपयोग हो रहा है तो फिर गड़बड़ी शुरू हो जाती है। इसलिए कोशिश हो कि परिवार में सर्वमत हो। आज पढ़ाई-लिखाई के दौर में सभी ज्ञानी हो गए और कभी-कभी ज्ञान भी परिवार में बाधा बन जाता है।

परिवार में रहना हो तो ज्ञानी से ज्यादा भक्त हो जाइए। मतलब यह नहीं कि पूरी तरह से किसी धर्म से जुड़कर पूजा-पाठ में ही डूब जाएं। भक्त होने का सीधा-सा अर्थ है अपने ऊपर किसी और परमशक्ति पर विश्वास रखना। अपने परिवार में सौंदर्य जरूर देखिए। जीवन की सुंदरतम उपलब्धि है आपका परिवार होना और जब आप भक्त होते हैं तो फिर सौंदर्य के अर्थ ही बदल देते हैं।

एक भक्त भगवान में चार बातों में सौंदर्य देखता है- नाम, रूप लीला और धाम। परिवार में नाम का अर्थ है आपका वंश, आपका कुल, आपका गौत्र। रूप का अर्थ है परिवार अपने आप में बहुत सुंदर स्वरूप लिए हुए है। बच्चों का होना लीला है और यदि घर में माता-पिता या कोई भी बड़े-बूढ़े हैं तो समझ लीजिए यह धाम है। इस भाव से यदि परिवार में रहते हैं तो अपने मनुष्य होने पर गौरव भी होगा और सच तो यह है वह जो अधूरा पशुओं के पास नहीं होता, आपके पास पूरा होगा।

चार दुर्गुणों के संतुलन से आनंद प्राप्त करें
खूब काम करने के इस दौर में कई लोग भूल ही गए कि काम और जीवन दो अलग-अलग चीजें हैं। परमात्मा ने हमें जीवन दिया है, इसलिए काम कर पा रहे हैं। जीवन तो पशुओं को भी मिला है पर वे काम नहीं कर पाते। उनका परिश्रम सिर्फ भोजन और भोग के लिए होता है। मनुष्य का पुरुषार्थ इनके अलावा जीवन के कुछ और लक्ष्य के लिए भी होता है। इसमें धन, पद-प्रतिष्ठा, धर्म-रक्षा, रुचियां और आनंद शामिल है। हम काम में इतने डूब जाते हैं कि जीवन का आनंद खत्म होने लगता है।

काम, क्रोध, मद और लोभ ये चार चीजें आपके परिश्रम को जीवन से काट सकती हैं। यदि इनका ठीक से संतुलन कर लिया तो परिश्रम करते हुए भी जीवन का आनंद उठाया जा सकता है। जब काम वासना का वेग चलता है तो उससे लोभ, क्रोध और अहंकार तीनों आहत होते हैं। ध्यान रखिए, इन तीनों की तो और भी जरूरत पड़ सकती है लेकिन, यदि काम वेग से नहीं बचे तो ये तीनों विकृत हो जाएंगे, जबकि यदि इनका ठीक से उपयोग करें तो अच्छे परिणाम भी मिल सकते हैं। मनुष्य को साज-सामान चाहिए यह लोभ है, यदि उसमें बाधा आए तो क्रोध पैदा होता है और ये सब पाने का दबाव अहंकार बनाता है। इन चारों में संतुलन बनाया कि जीवन बाहर निकल आएगा। चूंकि हम अत्यधिक मेहनत करते हैं, इसलिए काम वासना भी क्षीण हो जाती है।

आज कई दंपती के बीच शरीर की आवश्यकता उनके परिश्रम ने खत्म कर दी और इसीलिए एक विकृति आ जाती है क्योंकि इस रिश्ते की जरूरत ही शरीर की मांग है। जब इस पर बहस शुरू होती है तो अपने-अपने अहंकार टकराते हैं तो लगता है दोनों ही लोभी हैं। यहीं से जीवन नीरस हो जाता है। जीवन का आनंद प्राप्त करना हो और परिश्रम भी बना रहे तो इन चार दुर्गुणों को ठीक से उपयोग में लाइए।

पूर्ण स्वीकार भाव के साथ काम करते रहें..
हम सब एक बहुत बड़ी व्यवस्था का हिस्सा हैं। जब कोई काम कर रहे होते हैं, तो हमारी दृष्टि उसी काम पर होती है। किंतु उस समय कई लोगों की दृष्टि हम पर भी रहती है, क्योंकि आप उस व्यवस्था का हिस्सा हैं। जिसे कोई अज्ञात शक्ति चला रही है। धीरे-धीरे बहुत से लोग, कई परिस्थितियां उसमें मिल जाती हैं और हम उसका छोटा-सा हिस्सा रहते हैं। यहां हम एक भूल कर जाते हैं। यह मान लेते हैं कि हम ही इस व्यवस्था को चला रहे हैं।

जो हम कर रहे हैं, उसे केवल हम ही कर सकते हैं। ऐसा अहंकार नहीं पालें। जैसे ही अपने आपको उस व्यवस्था का हिस्सा मान लेंगे, उसकी अच्छाई और बुराई दोनों को स्वीकार करने में दिक्कत नहीं होगी। स्वर्ग और नर्क की परिकल्पना इसीलिए की गई कि सभी को मालूम हो जाए कि जीवन में सबकुछ आसानी से नहीं मिलता। स्वर्ग का मतलब है आप पूरी तरह शांत हैं और जैसा चाहते हैं वैसा हो रहा है। नर्क का मतलब है चारों ओर अशांति, परेशानी। दोनों ही स्थितियों में खुद को खुश रखें। लंका कांड के एक प्रसंग में जब नल और नील वृक्ष-पत्थरों से सेतु का निर्माण कर रहे थे तब सेतु की रचना देख श्रीराम हंसे और तुलसीदासजी ने लिखा। 
‘सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं।। देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना।।यहां श्रीराम का हंसना हमारे लिए बड़ा संदेश है। सेतु निर्माण के पहले श्रीराम को भी स्वर्ग और नर्क (कभी प्रसन्नता, कभी अशांति) का आभास हो रहा था।

सोच रहे थे कैसे लंका में पहुंचेंगे लेकिन, चूंकि आप एक व्यवस्था का हिस्सा हैं तो अपना काम करते रहिए। परमशक्ति उसका काम कर रही है। आंतरिक प्रसन्नता आपके आसपास स्वर्ग का वातावरण बना देगी।

धर्म के श्रेष्ठतम को जीवन में उतारें
विनोबा भावे कहा करते थे कि सभी फकीर गहरे में जाकर एक बात पर सहमत हैं कि मनुष्य को पंथ छोड़ देना चाहिए और धर्म से जुड़ जाना चाहिए। उनके अनुसार धर्म से जुड़ने का मतलब है उसके तत्व को समझकर जीवन में उतारना। आजकल तो जिस धर्म की दुहाई देकर लोग बहुत चिल्लाते हैं, यदि शांति से उनसे पूछें तो वे बता नहीं सकते कि उनके धर्म के मूल तत्व क्या हैं।

साधारण भाषा में कहें तो कई लोग जिस भी धर्म से जुड़े हैं उसके बारे में यह तक नहीं जानते कि वह जीवन के लिए कितना उपयोगी है। बस, चूंकि उस धर्म से जुड़े हैं और उसे बचाना है तो हल्ला कर दो। धर्म के तत्व जीवन के लिए काम आए, उस पर किसी की नज़र नहीं है। बची-खुची कसर राजनीति पूरी कर देती है, क्योंकि राजनेताओं के लिए धर्म एक खेल है। एक कुटिल खेल, जिसमें धर्म के तत्व कहां से मिलते हैं यह लोग जान ही नहीं पाते। जिन्हें धर्म के तत्व प्राप्त करने हों, उन्हें सत्संग करते रहना चाहिए। सत्संग में आपको ऐसे लोग समझा रहे होते हैं, जिन्हें धर्म से कुछ मिल गया होता है और वे उसे सब में बांटना चाहते हैं। अच्छे फकीरों की संगत का मतलब ही यह है कि जो उन्हें मिला है वह दे रहे हैं, आप ले लीजिए।

सत्संग की वाणी बिना स्वाद के समझ में नहीं आती। आपको अपने भीतर स्वाद जगाना होगा कि जिस भी धर्म से मैं जुड़ा हूं उसका जो श्रेष्ठ है, जो मूल तत्व है वह मेरे जीवन में उतरे। सत्संग केवल आयोजन नहीं, जीवन के लिए धर्म तत्व प्राप्त करने का अनूठा अवसर होता है और उसके लिए जो स्वाद जगाना है उसका नाम है जिज्ञासा। एक ऐसी जिज्ञासा जो आपको धर्म के तत्व और जीवन से जोड़ने के काम आएगी। यही जिज्ञासा धर्म को गहराई से जानने की दिशा में ले जाएगी।

शांति पाना है तो ध्यान में उतरकर मौन साधें
जीने की एक अच्छी राह का नाम मौन भी है। जो मौन के रास्ते पर चलेंगे उन्हें एक दिन शांति जरूर मिलेगी। मनोवैज्ञानिक कहते हैं आनंदित आदमी कम और दुखी, परेशान व विचलित लोग ज्यादा बोलते हैं। आंतरिक संवाद अविराम होने लगे तो बाहर जो प्रकट होता है उसे पागलपन कहते हैं।

एक पागल जो बाहर से कुछ भी बोलता हुआ दिखता है, दरअसल उसके भीतर क्या चल रहा है यह किसी को नहीं मालूम। लेकिन बाहर से यदि किसी पागल को लगातार वॉच करें तो पाएंगे उसके शब्दों में कोई तालमेल नहीं है। बस, ईमानदारी से एक बार अपने भीतर उतरकर देखें। हम भीतर बिल्कु़ल उस पागल की तरह बात करते हैं जो वह बाहर कर रहा है। चूंकि वह बाहर कर रहा है, इसलिए घोषित हो चुका है। दूसरों की मौजूदगी में महसूस होने वाली उसकी शर्म चली गई, इसलिए अविराम जो चाहे बोलता रहता है। हम ऐसा ही वार्तालाप भीतर कर रहे होते हैं। हमें दूसरों से शर्म है लेकिन, खुद के मामले में बेशर्म हो गए हैं, इसलिए खुद को रोकते भी नहीं। जरा चेक कीजिएगा कि आपके भीतर कौन है जो बात कर रहा है। आप पाएंगे बस, ये ही फर्क है हममें और पागल में।

पागल बाहर बोल रहा होता है और हम भीतर। इसलिए थोड़ी देर के लिए मौन जरूरी हो जाता है। मौन भीतर के पागलपन को रोक देता है। चौबीस घंटे में थोड़ा समय मौन साधने का मतलब ही यह है कि अपने आप को इस पागलपन से बचा लें। मौन बिना ध्यान के नहीं घटता और ध्यान की सरल-सी विधि है किसी भी मंत्र को सांस से जोड़ देना। मंत्र सांस से जुड़ते ही आप विचारशून्य होकर ध्यान में उतर जाएंगे। सरल-सा मंत्र है हनुमानचालीसा। करके देखिए, जैसे ही ध्यान में उतरे, भीतर मौन घटा और आप शांत हुए। इतने शांत कि पास बैठने वाले भी उस शांति को महसूस करेंगे।

प्रसन्न रहना शुभ कार्य, शुभ का विस्तार करें
अगर आप स्वस्थ हैं तो शायद अपने शरीर की याद भी न आए। शरीर तो बीमार पड़ने पर ही याद आता है। जैसे हमेशा जूते पहनते हैं लेकिन, जूता यदि काटे तो पता लगता है कि पैर है। हमें जो महसूस होता है और जो भूल जाते हैं, इन दो बातों में जीवन का बड़ा संदेश छिपा होता है। जब दु:ख आता है तो कई चीजें पता लगने लगती हैं, क्योंकि दु:ख भारी होता है। दु:ख आया कि भारीपन व्यक्तित्व में उतरा और यदि कोई भारी चीज शरीर पर है तो हमारी चाल में फर्क आ जाता है।

ध्यान रखिएगा, आनंद हमारा स्वभाव है। प्रसन्नता हमें जन्म से मिली है, इसलिए यह कहने में कोई बुराई नहीं है कि खुश रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। जितना खुश रहेंगे उतना हल्कापन महसूस करेंगे। पीड़ा चुभन लेकर आती है, क्योंकि वह बाहर से आती है, इसलिए जो जन्म से मिला है, जो हमारा मूल है उससे न कटें। कैसी भी स्थिति हो, प्रसन्न रहें, क्योंकि प्रसन्नता या खुश रहना शुभ कार्य है और शुभ का सदैव विस्तार करते रहना चहिए। हमारे पास क्या-क्या है, जन्म से हमें क्या-क्या मिला इस पर शांति से विचार करें तो पाएंगे जन्म से केवल शरीर ही नहीं मिला, उसके साथ आंतरिक प्रसन्नता भी मिली थी।

हम भूलते गए और बाहर की कई चीजों को भीतर लाते गए। बाहर से जो भी आएगा वह पीड़ा पहुंचाएगा, चुभन देगा और हम छटपटाएंगे, परेशान होंगे। इस बात को अधिक गहराई से समझने के लिए थोड़ा अपने ही भीतर उतरना पड़ता है और भीतर उतरने के लिए ध्यान करना पड़ता है। ध्यान आपको केवल भविष्य ही नहीं, अतीत में उस जगह ले जाएगा जहां आपके साथ आपकी प्रसन्नता आई थी। ध्यान के माध्यम से यदि एक बार उस मूल प्रसन्नता से परिचय हो गया तो बाहर की झंझटें परेशान नहीं करेंगी।

महत्वाकांक्षा को सही दिशा देता है संतोष
महत्वाकांक्षा की अपनी ऊर्जा तो संतोष की अपनी शक्ति होती है। हम मनुष्यों को ये दोनों चाहिए। एनर्जी और पॉवर, यदि इसे ठीक से समझ लें तो फिर सफलता के मुकाम पर थोड़ा जल्दी पहुंच जाएंगे। शक्ति ऊर्जा को गति व दिशा देती है। यदि आपके पास ऊर्जा है पर शक्ति नहीं है तो ऊर्जा इधर-उधर बहेगी, आप उसका व्यवस्थित उपयोग नहीं कर पाएंगे।

यदि शक्ति है और ऊर्जा नहीं है तो भी बैठे रहेंगे। इसलिए अपनी महत्वाकांक्षा को ऊर्जा से जोड़ें, उसे संतोष का स्पर्श दें। संतोष एक तरह की शक्ति है। बहुत से लोगों को यह भ्रम है कि कुछ नहीं करना ही संतोष है, लेकिन संतोष का मतलब आलस्य या रुक जाना नहीं होता।

संतोष का अर्थ है निरंतरता, स्थिरता। इसलिए संतोष की वृत्ति भी बहुत जरूरी है, अन्यथा महत्वाकांक्षा बावली हो जाएगी। संतोष यदि जीवन में है तो वह महत्वाकांक्षा को सही दिशा देगा, इसलिए कहीं न कहीं संतोष को भी बचाकर रखिए। केवल महत्वाकांक्षा आपको तुलना में पटक देगी और जब तुलना लगातार होने लगे तो प्रतिस्पर्द्धा में बदल जाती है। फिर तुलना शुरू होती है कि कोई दूसरा नंबर 1 पर है तो हम क्यों नहीं हो सकते? आप एक दिन नंबर 1 पर पहुंच भी जाएंगे और तुलना का स्वभाव यदि बना रहा तो खुद से ही शुरू कर देंगे, इसलिए जो मिला उसी में खुश रहो, आगे बढ़ो और आपके पास जो है वह दूसरों में बांट दो।

थोड़ा ऊपर वाले को देखिए, उसने संसार में जितने इंसान बनाए सब अलग-अलग, बिना तुलना के। तो अपनी तुलना दूसरों से न करें। आप, आप है। स्वयं अपने आप में श्रेष्ठ है। अपनी श्रेष्ठता को उजागर कीजिए। यहीं से संतोष और महत्वाकांक्षा मिलकर आपको सफलता के साथ शांति प्रदान करेंगे।

बड़ा काम करना हो तो शुभ संकल्प जरूर लें
किसी बड़े अभियान पर निकलने से पहले कोई शुभ संकल्प जरूर लें। इससे सफलता की संभावना बढ़ सकती है। उस अभियान में हमसे जुड़े लोगों का हित कैसे हो, समाज व राष्ट्र की सेवा तथा परिवार के हितार्थ लगातार चिंतन चलता रहे ये शुभ संकल्प है। व्यावसायिक जीवन में जब लोग बड़े अभियान पर निकलते हैं तो सिर्फ इस बात का ध्यान रखते हैं कि लाभ के साथ हमारे लक्ष्य पूरे होने चाहिए। वे भूल जाते हैं कि इसकी भेंट कितने ही लोग चढ़ रहे होंगे। कभी-कभी तो आप खुद भी चढ़ जाते हैं।

यह तो याद रहता है कि आपने क्या प्राप्त कर लिया पर यह भूल जाते हैं कि बहुत कुछ खो भी दिया है। यदि आप शुभ संकल्प लेंगे तो वे आपको प्रेरित करेंगे कि दूसरों की भलाई के साथ बड़े और अच्छे काम किए जाएं। कोई भी काम जीवन से हटकर नहीं करें। फकीरों ने कहा है जीवन की चदरिया बड़ी झिनी, मतलब बारीक होती है। इसको बड़ी गहराई से देखना पड़ता है। जब अपनी योजना गहराई से बना चुके हों तो उसे जीवन से जोड़ते समय और भी कुछ बातें ऐसी दिखने लगेंगी जो आप सामान्य रूप से नहीं देख पा रहे होंगे। हमें वैभव, संपत्ति, सफलता ये सब तो दिखती है पर इन सबके भीतर एक जीवन होता है, अब वह भी दिखेगा। लंका में प्रवेश करते समय जब भगवान राम वानरों से चर्चा कर रहे थे तो उन्होंने एक शुभ संकल्प लिया। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘करिहउ इहां संभु थापना। मोरे हृदय परम कलपना।।

अर्थात मैं यहां शिवलिंग की स्थापना करूंगा। यह मेरे हृदय की महान कल्पना है। शिवलिंग मतलब सभी का कल्याण। यहां श्रीराम यही सिखा रहे हैं कि बड़ा काम करना हो तो शुभ संकल्प जरूर लीजिए। आप तो सफल होंगे ही, दूसरों का भी कल्याण कर सकेंगे।

पूर्वग्रह टकराने से होते हैं दंपती में झगड़े
पति-पत्नी लड़ते क्यों हैं, इसे लेकर मनोवैज्ञानिकों का शोध बढ़ता जा रहा है। कमाल तो यह है कि जितना शोध, जितनी चिकित्सा हो रही है, समस्या उतनी ही बढ़ती जा रही है। पति-पत्नी के बीच तनाव का एक बड़ा कारण होता है दोनों के सपने, जो उन्होंने विवाह से पहले देखे थे। भारतीय दृष्टि वैवाहिक जीवन को तीन भागों में बांटकर चलती है।

पहला महिला-पुरुष, दूसरा पति-पत्नी तथा तीसरा माता-पिता। तीनों ही स्थितियों में इनके सपने लगातार काम कर रहे होते हैं। विवाह से पहले जब ये महिला-पुरुष होते हैं उस समय उनके विचार स्वतंत्र होते हैं, रहने का अपना-अपना ढंग होता है। फिर इनके परिवार होते हैं, जो दोनों के सामने नए रूप में आ जाते हैं। इसके बाद इनके सपने टकराते हैं। महिला-पुरुष रहते जीवन में जो लोग और उनसे आपके जो संबंध होते हैं, उनका पति-पत्नी होने पर सावधानी से इस्तेमाल करना होता है, क्योंकि विवाह होते ही आप महिला-पुरुष नहीं रहते। अब सिर्फ पति के भीतर का पुरुष या महिला अथवा पत्नी के भीतर की महिला या पुरुष ही काम करेगा। माता-पिता बनते ही जो पॉजिटिविटी बच्चों के लिए आप में होनी चाहिए। वह महिला और पुरुष होने के पूर्वग्रह से टकरा रही होगी और इसीलिए दोनों के लक्ष्य एक होने के बाद भी झगड़े बढ़ते जाते हैं।

कुछ तलाकशुदा लोगों से बात की गई तो उनका स्वर था कि हम एक-दूसरे को सुख देना चाहते थे फिर भी लड़ाई हो गई। वे समझ ही नहीं पाए कि पहले महिला-पुरुष थे फिर पति-पत्नी और माता-पिता बन गए। इन तीनों चरणों में अपने भीतर की स्थितियों से परिचित हो जाएं तब झगड़े कम होंगे और आप प्रेमपूर्ण जीवन आसानी से जी सकेंगे। इसके लिए जरूरी है योग, क्योंकि योग भीतर यानी आत्मा से जोड़ता है।

शिव-पार्वती से सीखें संतान के प्रति दायित्व
समझदार लोग बीज देखकर पेड़ का भविष्य बता देते हैं और जो उनसे भी ज्यादा समझदार होंगे वो पेड़ देखकर बीज कैसा रहा होगा, यह भी व्यक्त कर सकते हैं। दोनों बातें संतानों से जोड़ी जा सकती लेकिन, इसके लिए विशेष दृष्टि चाहिए। बाहर की स्थिति देखकर न तो बच्चों के लिए माता-पिता तय करें और न ही माता-पिता के लिए बच्चों का मूल्यांकन किया जाए।

आजकल तो सब अभिनय में माहिर हैं, इसलिए पता नहीं लगता कि मुखौटे के पीछे असली चेहरा क्या है? मौजूदा भारत में जितनी समस्याएं हैं उनमें एक है परिवारों का टूटना और उसके पीछे का कारण है माता-पिता व संतान के बीच बीज और पेड़ का जो रिश्ता है, लोगों ने उस पर चिंतन करना ही बंद कर दिया है। माता-पिता बच्चों को संसार में लाने का माध्यम नहीं बल्कि एक मार्ग है। वे एक ऐसा बीज है, जिसका केवल अंकुरण ही नहीं होता, बल्कि पूरा रास्ता बनकर जीवनभर संतान के साथ चल सकता है। माता-पिता रूपी बीज फूल और उसकी सुगंध, फल और उसके स्वाद तक साथ चलेंगे।

इसलिए संतान के फलरूपी स्वाद और फूलरूपी सुगंध में माता-पिता बसे रहते हैं। जब इतनी गंभीर और दूरगामी यात्रा करनी हो तब माता-पिता यदि चूक जाएं तो कीमत बच्चे चुकाएंगे। और ऐसा हो भी रहा है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो बच्चे अपने आपको राहगीर मान लेंगे। माता-पिता क्या होते हैं, उनकी संतानें कैसे श्रेष्ठ होती हैं यह जानना हो तो शिव-पार्वती के परिवार को देखें। आज महाशिवरात्रि का बड़ा संदेश यही है कि संतान माता-पिता का आईना होती है और भगवान शंकर-पार्वती से सीखें इस दायित्व को बहुत अच्छे से कैसे निभाया जाए। तब ही समझा जाएगा आपने सही मनोरथ के साथ व्रत किया है।

साक्षी भाव से उपलब्ध होती है शांति
परमात्मा विचार से ज्यादा भाव का विषय है। कम ही लोग होंगे, जिन्होंने विचार की यात्रा से परमशक्ति को प्राप्त किया, किंतु बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो भाव के स्तर पर भगवान को पा गए। संत-फकीरों को भगवान भाव के स्तर पर ही मिला है।

हमें उस भगवान को पाने के लिए नहीं दौड़ना है जो मंदिर में बैठाए गए हैं, जिनके चित्र बनाए गए हैं या जिनकी छवि हमारे भीतर बसी है। हमें उस परमात्मा को पाना है, जो शांति प्रदान करे। हमारे पास शरीर है जिससे श्रम करना है और कर भी रहे हैं। मन विचारों में उलझा हुआ है मतलब उसे भी काम के अवसर मिलते ही रहते हैं। शरीर और मन के बाद बात आती है आत्मा की।

चूंकि परमात्मा भाव का विषय है और भाव आत्मा तक जाने पर ही मिलेगा। जिस प्रकार शरीर परिश्रम कराता है, मन विचारों में उलझाता है ऐसे आत्मा तक जाने का मतलब यह नहीं हैं कि योगी हो जाएं, ध्यान में डूब जाएं, दुनिया छोड़कर जंगल में चले जाएं। आत्मा तक जाने और उस पर टिकने का मतलब है साक्षी हो जाना। जैसे किसी नाटक के दर्शक, संगीत के श्रोता बनना, किसी फिल्म को देखना। अपनी ही गतिविधियों को दूर से देखें तो साक्षी हो जाते हैं। हमें शरीर, मन और आत्मा इन तीनों ही स्थितियों से गुजरना है। इसलिए शरीर से परिश्रम में कोई कमी न रखें, मन के मामले में विचारों पर नियंत्रण रखें और आत्मा तक इसलिए जाएं कि साक्षी होना ही है। जैसे ही साक्षी होकर खुद ही को दूर से देखतें है, आप शांत होने लगते हैं। शरीर का श्रम और मन के विचार ये दोनों मिलकर वासना बनाते हैं।

जैसे ही वासना हटी, ध्यान लग जाता है। ध्यान में उतरते ही आप साक्षी होने लगते हैं। संसार के काम करते हुए शांति मिल जाए यह मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

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