Tuesday, February 7, 2017

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah2)

हमारे मनोरथों की पूर्ति का सूत्र
जन्म-मृत्यु को फकीरों ने रोग कहा है। परमात्मा का यशगान इस बीमारी की दवा है। दरअसल, मनुष्य के जीवन में रोग तब आता है जब वह शरीर का दुरुपयोग करता है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होगी ही, लेकिन ठीक से नहीं समझ पाने के कारण ये दोनों बातें रोग की तरह जीवन में उतर जाती हैं।

किष्किंधा कांड के समापन में एक दोहा है- ‘भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिंजे नर अरु नारि। तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।श्री रघुवीर का यश भवरूपी रोग (जन्म-मरण) की अचूक दवा है। जो पुरुष-स्त्री इसे सुनेंगे, त्रिशिरा के शत्रु श्रीरामजी उनके सब मनोरथ सिद्ध करेंगे। रोग से तो मुक्ति मिलेगी, लेकिन मनोरथ भी सिद्ध होंगे। मनुष्य के मन का रथ बहुत तेजी से दौड़ता है, इसीलिए मनुष्य के मनोरथ उसे दबाव में ले आते हैं। श्रीराम जैसी परमशक्ति से जुड़ने पर हम अपने मनोरथ और महत्वाकांक्षाओं को तनाव में नहीं बदलने देंगे।

तुलसीदासजी ने लिखा है- श्रीराम का यह यश जो स्त्री-पुरुष सुनेंगे उन्हें लाभ होगा। वे चाहते तो मनुष्य भी लिख सकते थे, लेकिन स्त्री-पुरुष का अलग-अलग उल्लेख किया है, क्योंकि इस कांड में श्रीराम कथा में पहली बार हनुमानजी का प्रवेश हुआ है। स्त्री शब्द इसीलिए लाया गया है कि हनुमानजी को लेकर भ्रांति है कि स्त्रियां उन्हें नहीं पूज सकतीं। तुलसी सावधान थे, इसीलिए उन्होंने लिखा हनुमानजी स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से पूज्य हैं। वे रिश्तों का निर्वहन करने वाले देवता हैं, जो आदमी-औरत का भेद नहीं मानते। किष्किंधा कांड में इसके साफ प्रमाण दिए गए हैं। इसीलिए समापन पर तुलसीदासजी स्पष्ट कर रहे हैं कि रामजी का यशगान किया जाए और स्त्री-पुरुष समान रूप से हनुमानजी से जुड़ जाएं तो मनोरथ बिना परेशानी के पूरे होंगे।

अध्यात्म की दृष्टि से देशभक्ति
इन दिनों देशभक्ति की नई-नई परिभाषाएं सामने रही हैं। सरकार ने कुछ बड़े नोट क्या बंद किए, गद्दार, चोर, भ्रष्ट और टुच्चेपन पर तो जैसे शास्त्र लिखे जा रहे हैं। एक ही घटना की इतनी व्याख्याएं हो गईं कि घटना के पीछे का सत्य खो गया। हर कोई दूसरे की देशभक्ति पर संदेह कर रहा है।

देश में एक ऐसी समस्या है, जिस पर किसी की नज़र नहीं जाती और वह है राष्ट्रीयता के बोध का अभाव। आप किसी को मार-पीटकर, दबाव डालकर या कानून के डर से देशभक्त नहीं बना सकते। इस समय जो पीढ़ी इतिहास रच रही है उनमें से बहुतों को राष्ट्र का अर्थ ही नहीं मालूम होगा। खूब कथा, सत्संग और भजन-कीर्तन हो रहे हैं लेकिन, धार्मिक होने और देशभक्त होने में फर्क है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो हम तीन चीजों से बने हैं- शरीर, मन और आत्मा। देश शरीर की तरह है, मन लोकतांत्रिक व्यवस्था और देशभक्ति उसकी आत्मा है। ज्यादातर लोगों का जीवन शरीर से शुरू होकर शरीर पर ही खत्म हो जाता है। उनके लिए देश का मतलब नागरिकता है। व्यवस्था मन की तरह होती है, जिसे अपनी सीमा लांघकर दूसरों के अधिकार में प्रवेश करने में विशेष रुचि होती है। आजकल लोकतंत्र में यह खेल सरेआम चल रहा है।

मन की घोषणा है कि जो मुझे पसंद है वह मैं कर लूंगा। सामने वाले को कितनी दिक्कत होगी, भविष्य में क्या होगा इन सबके प्रति मन बेफिक्र होता है। किंतु जैसे हड्डी-मांस के शरीर में आत्मा का होना चमत्कार है, ऐसे ही देशभक्ति चमत्कारिक घटना है। यह जब, जिसके भीतर जागेगी वह अनूठा होगा। चमत्कार का मतलब ही होता है हम से ऊपर कुछ और है। यहीं आकर प्रत्येक नागरिक मान लेगा कि हमसे ऊपर देश है और तन, मन, धन से देश के लिए हितकारी क्रिया ही देशभक्ति है।

देखने-सुनने में सतर्कता, शांति का सूत्र
क्या देखें और क्या सोचें, यदि इसे लेकर स्पष्टता जाए तो दुनिया की कोई परिस्थिति अशांत नहीं कर सकती। आजकल तो मनुष्य के जीवन में अशांति सुबह दूध या अखबार वाले के आने से पहले ही दस्तक दे देती है। शांत तो सभी रहना चाहते हैं पर मजेदार बात यह है कि काम सारे अशांति के करते हैं।

हमारे शरीर में दो बातें ऐसी हैं कि यदि उनका सदुपयोग कर लें तो समझ में जाएगा कि शांति बाहर कहीं से नहीं आती, यह हरेक के भीतर उसकी निजी संपत्ति है। आंख देखने का काम करती है और मन सोचने से जुड़ा है। आंख बाहर की तरफ चलती है, मन भीतर की ओर रहता है। शास्त्रों ने नेत्र का देवता सूर्य को बताया है और मन संचालित होता है चंद्रमा से। आंखों द्वारा बाहर जो दृश्य देखे जाते हैं उसमें सूर्य हमारी मदद करता है। मन के विषय में चंद्रमा जुड़ जाता है। ज्योतिष शास्त्र में इसकी विस्तार से व्याख्या है। अन्न से मन बनता है। हम इंद्रियों द्वारा जो आहार लेते हैं वह तीन स्थितियों से हमारे भीतर आता है- सात्विक, राजसिक तामसिक और उसी तरह का मन बना देता है। सात्विक भोजन यानी फलाहार। यदि ईमानदारी से फलाहार करेंगे तो मन सात्विक होगा।

राजसी यानी बहुत ज्यादा तला-गला खाना। तामसिक का मतलब होता है मांसाहार, मदिरा आदि। विद्वान लोग कहते हैं हमारे द्वारा जो अन्न खाया जाता है उसके निर्माण में चंद्र-ज्योति होती है। यानी भोजन कितना गर्म है इससे ज्यादा अहम है उसे कितना ठंडा रखा जा सकता है। यही भोजन आपके चिंतन को प्रभावित करता है। इस जगह सावधान हो गए तो आप ठीक से सोच सकेंगे। यदि सूर्य की उपासना ठीक से की तो नेत्रों से गलत दृश्य भीतर नहीं उतार पाएंगे। क्या देखें, क्या सुनें बस, इतनी सावधानी भी रख ली जाए तो मनुष्य चैन की नींद सो सकता है।

गुणवान प्रतिभा को कोई नहीं रोक सकता
गुणवान होना भी योग्यता है पर देखा जाता है कि योग्य से योग्य व्यक्ति भी दुर्गुण पाल लेता है। सदगुण भीतर उतारना बहुत बड़ी तपस्या है। बड़े-बड़े योग्य लोग भी सदगुणों से दूर रहकर एक दिन पतन के मार्ग पर चले जाते हैं। किष्किंधा कांड में हनुुमानजी का पहली बार कथा में प्रवेश हुआ और उन्होंने सबकी समस्याओं का समाधान किया था।

रामजी ने हनुमानजी की पहली झलक में ही समझ लिया था कि यही प्राणी है जो मेरे अभियान को पूरा करा सकता है। सोपान के समापन पर तुलसीदासजी ने श्रीराम के लिए एक सोरठा लिखा, ‘नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक। सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक।। यहां रामजी के गुणसमूह को लीला बताते हुए कहा गया है कि उनके पास गुण ही नहीं, गुणों का समूह था। योग्य व्यक्ति जब गुणवान हो तो फिर उसकी प्रतिभा को कोई नहीं रोक सकता। यहां रामजी के शरीर, शोभा और नाम तीनों की चर्चा आई है। मनुष्य का शरीर उससे परिश्रम कराता है, शोभा उसे प्रभावशाली प्रतिष्ठित बनाती है और नाम केवल संबोधन के लिए नहीं होता। किसी के चले जाने के बाद लोगों को यदि कुछ याद रह जाता है तो वह है उसका नाम और काम।

राम को ऐसे याद करते हुए बताया गया है कि किष्किंधा कांड में राम बहुत परेशान थे, फिर जीवन में हनुमान आए और दोनों के संयोग से एक बड़ा अभियान आरंभ हुआ, जो था रावण के विरुद्ध नैतिक युद्ध जिसमें जनजाग्रति की गई। हमें भी जीवन में कई अभियान पूरे करने होंगे। हनुमानरूपी सेवा, परिश्रम और योग जीवन में उतारें। हमारी योग्यता को राम जैसे गुण प्राप्त होंगे और एक गुणी व्यक्ति जब किसी भी अभियान के लिए निकलता है तो सफल होकर ही लौटता है। हनुमानजी के साथ होने का मतलब है सफलता के बाद शांति भी मिलेगी ही।

योग के जरिये सुख से आगे आनंद तलाशें
हम मनुष्यों की सबसे बड़ी तलाश है सुख। धन, पद-प्रतिष्ठा शरीर से सभी सुख पाना चाहते हैं। इसीलिए हमारे भीतर एक भावना घर कर गई है कि यदि इस प्रकार करेंगे तो उस प्रकार का सुख मिल जाएगा लेकिन, भगवान कहता है कि मैंने तो तुम्हें सुखी बनाकर ही संसार में भेजा है। तुम मूल रूप से और पूर्ण रूप से सुखी हो।

आदमी जमाने भर के उत्पात करता है कि अब खुशी मिल जाएगी लेकिन, जैसे ही थोड़ा भीतर उतरेंगे, साफ दिखेगा कि हम पहले से ही खुश हैं। हमारा मूल स्वभाव है सुख। दुख हमारा व्यवहार है। इसे यूं कहें कि सुख हमेशा भीतर ही है और दुख हम बाहर से भीतर लाते हैं। चूंकि हम मनुष्य हैं, इसलिए बाहर से दुख लाना बंद करेंगे नहीं, लेकिन कम से कम भीतर के सुख को तो समझ लें। भीतर का सुख पकड़ में गया और भले ही बाहर से दुख अंदर ले आएं लेकिन, इन दोनों के साथ यदि जरा-सा योग कर लिया तो अपने भीतर सुख की परत के नीचे दुख की मौजूदगी में एक और स्थिति मिलेगी, जिसे कहा गया है आनंद। जरा-सा नीचे उतरे कि आनंद पर टिक जाएंगे।

आनंद का धरातल मिलते ही समझ में जाएगा कि दुख महत्वपूर्ण है, सुख। इन दोनों से ऊपर है आनंद। जो दुख हम बाहर से भीतर लाए वह भी बेचैन होकर कहेगा मुझे बाहर फेंको। जैसे किसी समर्थ लोगों की महफिल में जाएं और हमारी पूछ-परख हो, कोई हमारी तरफ ध्यान दे तो हम बाहर निकल जाएंगे या निकाल दिए जाएंगे। बस, ऐसा ही दुख के साथ घटता है। यदि हम भीतर से समर्थ हैं तो भीतर खुशी और आनंद देखकर दुख पहली फुरसत में हटना चाहेगा। जब हम आनंद पर टिकते हैं तो अगला काम यह करें कि इसे बांट दें। स्वयं भी खुश रहें और दूसरों को भी खुश रखें। यहां आकर हमारी तलाश पूरी हो जाती है।

हर हालत में बढ़ते रहना ही जीवन है
जीवन में किस पर विश्वास करें और किस पर नहीं इसका कोई पैमाना नहीं होता। आज के दौर में हर किसी पर संदेह होना स्वाभाविक है। ऐसी कोई योग्यता नहीं है जिसके आधार पर हम यह तय कर सकें कि किस पर कितना भरोसा करें और उससे कैसा व्यवहार करें। राजनीति और व्यवसाय में एक-दूसरे से बहुत कुछ छिपाया जाए, दूसरे को संदेह में रखा जाए इसे कला माना जाता है।

यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो ठगा भी सकते हैं। धोखा तो आजकल बड़ी आसानी से दिया जा सकता है। कुछ लोग अपनी कार्यशैली या नीयत से अकारण भी आपको सत्य से वंचित रख सकते हैं। ऐसे लोग जब व्यवहार करते हैं तो आप भ्रम में जाते हैं कि क्या करें? जो पता चल जाए वही धोखा नहीं होता। कभी-कभी आप लंबे समय तक धोखे में डाल दिए गए होते हैं और पता भी नहीं चलता। शास्त्रों में कथा है कि राजा भर्तृहरि ने कीमती रत्न अपनी प्रिय और विश्वसनीय पत्नी को दे दिया। दूसरे दिन वही रत्न उन्हें ऐसे व्यक्ति के पास दिखा, जो वे सोच भी नहीं सकते थे।

अंत में पता लगता है कि रानी के संबंध उस व्यक्ति से थे। यह छल उन्हें वैराग्य दे गया। अपनों से धोखा मिलने पर मनुष्य बहुत निराश होकर भ्रम में पड़ जाता है कि किस पर विश्वास करें? इसीलिए हमारे यहां भाग्य की व्यवस्था बहुत अच्छे ढंग से दी गई है। ऋषि-मुनियों ने कहा है कुछ ऐसा है जो आपके भाग्य में लिखा होगा वह सामने आएगा। जब अपनों से धोखा मिले तो भाग्य की इस धारणा पर विचार कीजिएगा, शायद वह दुख कम हो जाए। इस दौर में विश्वसनीय लोग मिलना सौभाग्य का विषय है पर यदि मिले तो इसे दुर्भाग्य मानें। अपने भाग्य में उसे लेकर आगे बढ़ते चलें। धोखा खाने पर रुकना नहीं है, टूटना नहीं है। इसी का नाम जीवन है।

परमशक्ति से जुड़कर असुरक्षा दूर करें
इन दिनों लक्ष्य पर पहुंचने की अंधी दौड़ चल रही है। कुछ लोगों को मालूम है क्या पाना है और कुछ नहीं जानते क्या हासिल करना है पर दौड़ सभी रहे हैं। जब हर कोई दौड़ रहा हो, सभी के अपने लक्ष्य हों और यदि एक ही तरह के लक्ष्य के लिए अनेक लोग भाग रहे हों तब असुरक्षा का भाव आना स्वाभाविक है। कभी-कभी तो ऐसा भाव अपने लोगों के बीच भी जाता है। घर में रह रही स्त्री को लगता है भले ही पति मेरे लिए कर रहे हों पर क्या मैं सुरक्षित हूं?

बच्चे, बड़े, बूढ़े सभी में एक अजीब-सी असुरक्षा की भावना घर कर गई है। अपने आपको बहुत अधिक असुरक्षित मानें। कोई शक्ति है जो आपके साथ है और यदि आप उस परमशक्ति से जुड़ते हैं तो असुरक्षा का भाव चला जाएगा। मनुष्य जब असुरक्षा के भाव में उतर जाता है तो पूर्वग्रह ग्रसित होकर ऐसा काम करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए। एक कथा है- अष्टावक्र का शरीर आठ जगह से टेड़ा था। ऐसा उनके पिता के श्राप के कारण हुआ।

वह बालक गर्भावस्था में इतना योग्य था कि पिता से प्रश्नोत्तर कर लिए और पिता को लगा जन्म के बाद कहीं इसकी मुझ से प्रतिस्पर्द्धा हो जाए। एक पिता पुत्र की योग्यता से ही असुरक्षित हो गया और क्रोध में डूबकर बेटे को श्राप दे दिया। ऐसे कई किस्से सुनने को मिलते हैं लेकिन, परमशक्ति का विधान आश्वस्त करता है कि सबको अपने हिस्से का मिलता ही है। जब एक ही लक्ष्य की दिशा में बहुत से लोग दौड़ लगा रहे हों तो अपनी पात्रता बढ़ाएं।

आप किसी विशेष सफलता के लिए चुने जाएं इसके लिए आपके पास पात्रता होनी चाहिए और वह है आत्मबल, आंतरिक ऊर्जा। परमशक्ति से जोड़कर स्वयं को सुरक्षित रखिए और उसके बाद कैसे भी अभियान पर निकल जाएं, आपको कोई असुरक्षित नहीं कर सकता।

नए-पुराने के मेल से अच्छा नेतृत्व संभव
अकेले लक्ष्य तय करने, अकेले सफलता प्राप्त करने और यदि मामला व्यवसाय का हो तो अकेले ही मुनाफा कमाने का जमाना गया। यह समूह में काम करने का समय है। अकेले काम करने की वृत्ति होगी तो काम करना कई लोगों के साथ ही पड़ेगा लेकिन, यही भाव बना रहा तो सबसे जुड़ नहीं पाएंगे और अपना नुकसान करेंगे। हमारे ऋषि-मुनियों ने यज्ञ, पूजा-पाठ, प्रार्थना या इबाादत के जो भी रूप रखे उसमें कई देवताओं का जिक्र आता है। किसी भी धर्म का पूजा-पाठ का तरीका देखें, आप पाएंगे उसे समूह से जोड़ा गया है।

अलग-अलग देवों की पूजा पद्धति, उनके परिणाम अलग-अलग मिलते हैं। अब इसी बात को अपने व्यावसायिक जीवन में जोड़िए। आपको समूह में काम करना है। हो सकता है नेतृत्व आपके पास हो या आप समूह का हिस्सा हो। जब सबकी हिस्सेदारी रखकर लक्ष्य की अोर चलना हो तो पूजा-पाठ की पद्धति बड़ी काम आएगी। इसीलिए कहते हैं कुछ समय इबादत, प्रार्थना, पूजा कीजिए, क्योंकि जब भी दो व्यक्ति मिलते हैं, दो संसार मिलते हैं। हर व्यक्ति के संसार भी दो होते हैं, बाहरी और भीतरी संसार। बाहर का संसार शरीर से संचालित होता है, इसलिए जब दो लोग मिलते हैं तो उनमें बाहरी संसार में तालमेल बैठाना तो आसान होता है परंतु मन के यानी भीतरी संसार में टकराहट पैदा होती है।

हर एक के मन में एक ऐसा संसार होता है और चूंकि वह अधिकतर इसी से संचालित होता है, इसलिए मन से मन टकराते हैं तो प्रतिस्पर्द्धा, वैमनस्य और षड्यंत्र शुरू हो जाते हैं। यदि आप पूजा-पाठी हैं तो ध्यान आएगा कि कई देवताओं को मिलाकर कितने अच्छे ढंग से पूजा संभव है। आधुनिक प्रबंध और ऋषि-मुनियों की पद्धति यदि ठीक से अपना ली तो आप किसी भी समूह का बहुत अच्छी तरह से नेतृत्व कर सकेंगे।

वास्तु दोष दूर कर परिवार में प्रेम बढ़ाएं
आजकल वास्तु का बड़ा जोर है। जितने नवनिर्माण होते हैं, वास्तु की दृष्टि से ही किए जाते हैं। वास्तु का सीधा-सा अर्थ है ऐसा देवता जिसने अपनी उपस्थिति से सुख, शांति और आनंद के प्रवाह को नियंत्रित कर रखा है। हर एक का अपना वास्तु होता है। जैसे किसी भवन में पूजाघर ईशान कोण में रखा जाए, बेडरूम पश्चिम-दक्षिण कोण में हो तो ठीक हो।

ऐसे ही पारिवारिक सदस्यों का भी अपना वास्तु है और यदि इसका ठीक उपयोग किया जाए तो घर में शांति आएगी। वॉच कीजिए- कुछ सदस्य ऐसे हैं, जो किचन में बहुत चिड़चिड़े हो जाते हैं। कुछ बेडरूम में अशांत हो जाते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जो ड्राइंग रूम में बहुत अच्छा अभिनय करते हैं। यह स्थान और व्यक्ति का वास्तु है। घर में हर सदस्य का अपना एक नशा होता है। जैसे दादा-दादी के लिए अपने बच्चों के बच्चों का नशा होता है।

जिस दिन परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम का नशा चढ़ता है, वह मनुष्य को परमात्मा की ओर मोड़कर भी परिवार को वैकुंठ बना सकता है। यदि ठीक से वास्तु समझ लिया जाए कि किस सदस्य के साथ कब, कहां प्रेम पनपता है, तो इसके माध्यम से आप उसकी गलत आदतें भी छुड़ा सकते हैं या अच्छी आदतों से उसे लाभ दिला सकते हैं। कहते हैं- अध्यात्म में प्रेम से ब्रह्मचर्य घट जाता है।

यदि परिवार में प्रेम बचा है तो मनुष्य जब बाहर बहुत अशांत, परेशान होकर घर लौटता है तो उसे फिर घर का नशा चढ़ जाएगा। तो चलिए, भवन के वास्तु से हम इतने परिचित हैं पर भवन में व्यक्ति किस कोने में कहां किस वास्तुदोष से चिड़चिड़ा हो सकता है, कहां प्रसन्न हो सकता है इस पर जरा गहन दृष्टि डालिए और फिर देखिए परिवार अपने आप में वह स्थान बन जाएगा, जहां आप हर हालत में आकर आनंद उठाना चाहेंगे।

संवेदनशीलता बचाकर सफलता मिले
जिन बातों से जीवन बनता है उनमें संवेदनशीलता का बड़ा योगदान है। इसकी सीधी परिभाषा है अपनापन, प्रेम, करुणा। भगवान जब मनुष्य को जन्म देता है तो ये सब लबालब भरकर देता है। बढ़ती उम्र के साथ शिक्षा, अनुभव, पद-प्रतिष्ठा, पहचान धीरे-धीरे संवेदनशीलता को समाप्त करने लगते हैं। फिर आज के दौर में तो यह कमजोरी मानी जाती है। संवेदनशीलता बचाकर सफलता प्राप्त करना और संवेदनशीलता को समाप्त कर सफल होने के उदाहरण हैं श्रीराम और रावण। इसी स्तंभ में हर मंगलवार को हमने किष्किंधा कांड के हनुमानजी और राम को पढ़ा, उससे पहले सुंदर कांड में हनुमानजी के चरित्र को जाना था।

अब लंकाकांड में हनुमानजी की भूमिका को क्रमश: पढ़ते चलेंगे। वैसे तो रामचरित मानस हिंदुओं का प्रमुख ग्रंथ है लेकिन, इतना लोकप्रिय हुआ कि सारे धर्मों से मुक्त होकर जीवन की आचार संहिता बन गया। लंका कांड में श्रीराम और रावण का युद्ध प्रमुख है। राम-रावण के बाहरी युद्ध की तरह एक युद्ध हमारे भीतर भी चल रहा है दुर्गुण और सदगुणों का। आगे लंकाकांड में इसी पर चर्चा करेंगे कि हमें इस युद्ध में सदगुणों को जिताना है। सफल होना है और शांत भी। सफल रावण भी था, सफल राम भी थे।

रावण की सारी सफलता अशांति के साथ थी और राम कुछ नहीं होने के बाद भी सफल और शांत हुए। रावण जीवन में जो भी संवेदनशील था उसे खत्म कर चुका था। उसकी संपत्ति उसके लिए ज्वालामुखी बन गई थी। वह सत्ता प्राप्त कर सफलता के शिखर पर था और राम सत्ता छोड़ने के बाद शिखर पर थे। इन दोनों के बीच हनुमानजी की प्रमुख भूमिका थी। अब इसी को जीवन से जोड़ते चलेंगे। हमें हर हाल में अपने ही भीतर के रावण यानी गलत को पराजित कर सही के साथ जीवन बिताना है।

भीतर की भीड़ मिटाने के लिए योग करें
हर व्यक्ति के भीतर एक भीड़ होती है। बाहर से अकेला दिख रहा आदमी भी भीतर कई लोगों से घिरा है। इसी भीड़ से फिर वह काल्पनिक समूह बनाकर कल्पना में ही दूसरों से उम्मीद लगाए रहता है। महत्व मिले, नेतृत्व प्राप्त हो यह सब कल्पना में चलता रहता है। भीतर काल्पनिक समूह बनाने के बाद तुलना शुरू होती है। हम हम हैं, कल्पना में दूसरे लोग हैं और उन्हीं काल्पनिक लोगों से हम अपनी तुलना करने लगते हैं।

जब यह तुलना बाहर आती है तो ईर्ष्या में बदलती है। उदाहरण के तौर पर हमारे पास चारपहिया वाहन नहीं है तो हम कल्पना में उन सारे लोगों को देखने लगते हैं, जिनके पास कार है। फिर तुलना करने लगते हैं, जो ईर्ष्या बन जाती है। कल्पना में जो भी चल रहा होता है, उसे यदि साकार किया और वह बात अच्छी है तब तो आप लाभ में होंगे पर यदि गलत कल्पना को साकार किया तो जीवन को नुकसान होगा। दूसरे से तुलना करने में हमारा अहंकार आहत या पोषित होता है। जीवन में जब अहंकार उतरे तो फिर हम बाहर उल्टी-सीधी गतिविधियां करने लगते हैं, इसलिए कल्पना में ही सावधान हो जाएं। हमारे भीतर भीड़ तो होगी लेकिन, उससे बचने के लिए योग जरूरी है।

योग का मतलब ही है अकेले होकर एकांत में उतरना। अगर भीड़ है तो टकराएंगे, फिर तुलना शुरू होगी, जो बाहर ईर्ष्या का रूप लेगी, जहां से आप अहंकार तक पहुंच जाएंगे, इसलिए भीतर की भीड़ मिटानी हो तो योग करें और बाहर से अहंकार गिराना हो तो बच्चे बन जाएं। बच्चों की दो विशेषताएं होती हैं- चूंकि उन पर धूल नहीं जमी होती इसलिए वे सरल होते हैं। माता-पिता के सहारे होते हैं, इसलिए समर्पित होते हैं। भीतर की सरलता और समर्पण हमें अहंकार से बचाएंगे। यदि हमें एकांत में रहने की आदत हो जाए तो भीतर की भीड़ से बच जाएंगे।

नियम से काम करने में अपमान नहीं
यदि आप किसी नियम का पालन कर रहे हों तो इसे निजी अपमान समझें। बहुत से लोग होते हैं कि जिन्हें यदि किसी नियम में बंधकर काम करना पड़ता है तो वे उसे अपना अपमान मान लेते हैं, दबाव में जाते हैं। हम भी इस स्थिति से गुजर सकते हैं। किसी से नियम के तहत काम करवाते हों तो परेशानी हो सकती है और यदि किसी के द्वारा बनाए नियम के तहत उनके लिए काम कर रहे होंगे तो भी दबाव में सकते हैं।

किसी से नियम का पालन करवाने का मतलब उसे पालतू बनाना नहीं होता। ऐेसे ही यदि आप किसी के लिए नियम में बंधकर काम कर रहे हैं तो भी यह समझें कि हम उसके पालतू या गुलाम हो गए। कायदे से बंधना गुलामी नहीं, एक अनुशासन है। लेकिन, मनुष्य का अहंकार उसे अनुशासन से बंधने में भी गुलामी दिखाने लगता है। अनुशासित जीवन खुद एक तपस्या है, भक्ति है। अनुशासन चाहे शरीर का हो, मन या आत्मा का, हर हाल में शांति ही देगा। फिर भी हम सब कहीं कहीं चार तरीके से नियम तोड़ते हैं। पहला अहंकार से, दूसरा स्वार्थ के कारण, तीसरा अज्ञान से और जो चौथा ढंग है वह बड़ा आध्यात्मिक है। कई बार वैराग्य भाव से भी नियम टूट जाते हैं लेकिन, यह ऊंची स्थिति सबके लिए संभव नहीं होती।

ज्यादातर लोग अहंकार के कारण ही नियम तोड़ते हैं। स्वार्थ तो तुड़वाएगा ही और अज्ञान के कारण तोड़ दें यह भी क्षम्य है पर यदि कभी नियम तोड़ने की इच्छा हो तो पहले भीतर वैराग्य भाव पैदा करें। अहंकार, स्वार्थ और अज्ञान से मुक्ति का नाम है वैराग्य। वैरागी यानी फूल जैसा जीवन। फल जैसा नहीं। फल में एक आकांक्षा है, क्योंकि यह अपने आप में एक परिणाम है। जब हम परिणाम पर टिकते हैं तो अहंकारी हो सकते हैं। वैराग भाव का मतलब सिर्फ कर्म करना है, परिणाम किसी और पर छोड़ दिया जाए।

ईश्वर से ऐसे जुड़ें जैसे गर्भस्थ शिशु मां से
बहुत कम अवसर आते हैं जब धर्म विज्ञान को स्वीकार करे और विज्ञान धर्म के महत्व को समझे। दोनों अपनी अति पर हैं और नुकसान उन लोगों को होता है, जो दोनों को ही पकड़ना चाहते हैं। इन दोनों को मानने वाले लोग बीच का रास्ता निकाल सकते हैं।

परमात्मा का अर्थ होता है परमशक्ति और शक्ति के मामले में विज्ञान भी सहमत है। एक वर्ग है जो पूछता है परमशक्ति कहां से आती है? यह वह वर्ग है जो संशय या भ्रम में है। परमात्मा को ढूंढ़ना भी चाहता है। वैज्ञानिक भी परमात्मा को नकारते नहीं पर संशयग्रस्त होकर शोध में डूबे हैं। दूसरा वर्ग होता है, जो मानता ही नहीं है कि परमात्मा होता है। परमशक्ति को ईश्वर कहा गया है तो कोई अल्लाह कहता है, जो भी मानें वह ऐसे बिजली के करंट की तरह है जो धक्का दे तो व्यक्ति नास्तिक और खींच ले तो आस्तिक हो जाता है। विज्ञान लगातार शोध कर रहा है और कुछ जगह निरुत्तर भी है। जैसे धड़कन बंद हो जाए तो जीवन समाप्त हो जाता है यानी जीवन का संबंध धड़कन से है।

बाहर की दृष्टि से देखें तो बात सही भी है लेकिन, अध्यात्म कहता है जब कोई बच्चा गर्भ में होता है तो नौ माह उसके हृदय में धड़कन नहीं होती। वह मां की नाभि से जुड़ा होकर उसी की धड़कन से काम चला रहा होता है। तो बिना धड़कन के भी एक जीवन है। संसार में रहकर उस परमशक्ति से ऐसे ही जुड़ें जैसे गर्भस्थ शिशु मां से। हम भी यह शक्ति परमेश्वर से ले सकते हैं। हनुमान चालीसा द्वारा उस परम शक्ति से जुड़कर अद्भुत शांति की अनुभूति होगी।

इंद्रियों के संयोजन से दुर्गुणों को मात दें
जीत केवल शस्त्रों से नहीं होती। आपके साथ बलवान योद्धा हों और जीत दिला ही दें यह जरूरी नहीं। जीतने के लिए हमारे पक्ष के लोगों का ठीक से संयोजन करना पड़ेगा। रामचरितमानस के लंकाकांड में श्रीराम-रावण के बीच युद्ध की अनेक घटनाएं हैं, जिनमें रामजी ने बहुत अच्छे ढंग से हनुमानजी का संयोजन किया था।

कुछ घटनाएं तो ऐसी हुई थीं कि रावण लगभग जीत चुका था लेकिन, हनुमानजी ने विजय का मुख मोड़कर रामजी की ओर कर दिया था। हनुमानजी शिव का अवतार कहे गए हैं। तुलसीदासजी ने लंकाकांड के आरंभ में तीन श्लोक लिखे हैं। पहले में रामजी के लिए सोलह बातें कही गई हैं, दूसरे तीसरे श्लोक में शिवजी के लिए बारह बातों की चर्चा है। इसमें राम और शिव के चरित्र की खूबियों को छोटे-छोटे शब्दों में बताया गया है। युद्ध के पहले जिस प्रकार अपने-अपने पक्ष में जय-जयकार होती है, राम-शिव के चरित्र की विशेषताओं का बखान एक तरह से जयकारा है। इनमें राम के लिए एक शब्द आया हैगुणनिधिमजितं। इसका अर्थ है गुणों की निधि और अजेय हैं श्रीराम।

रावण जैसे दुर्गुणों से निपटने के लिए गुणवान होना बहुत जरूरी है। गुणवान की हार नहीं हो सकती, इसलिए राम के लिए अजेय लिखा है। शिवजी के लिए लिखा गया हैकल्याणकल्पद्रुमं यानी कल्याण का कल्पवृक्ष। कल्याण मतलब भलाई और कल्पवृक्ष वह पेड़, जिससे जो मांगो, मिल जाता है। संयोजन का सीधा-सा अर्थ है कई चीजों को मिलाकर उसका सदुपयोग करना। जैसे शास्त्रों में लिखा हैएकं गर्भं दजिरे सप्तवाणी:’ सात सुरों से वाणी ने संगीत का निर्माण किया है। यह संयोजन का अच्छा उदाहरण है। जीवन में जब भी दुर्गुणों से युद्ध करना हो, अपनी इंद्रियों का सही संयोजन करें। आगे लंकाकांड की कथा हमें यही समझाएगी।

दूसरों की समस्या दूर कर महत्वपूर्ण बनें
चुंबक में दो बातें होती हैं। एक तो लोहा जो दिखता है और दूसरी उसके आसपास का मैग्नेटिक फील्ड जो नजर नहीं आता। इस बात को जीवन में आने वाली समस्याओं से जोड़कर देखें। समस्याएं तो जीवन में बनी ही रहेंगी। एक मिटाएंगे, दूसरी जाएगी। चलिए, देखते हैं जब समस्या आए तो स्थिति क्या बनती है और उससे कैसे निपटा जाए? समस्या के दौर में हमारे साथ तीन बातें होंगी।

एक, हम परेशान होते हैं। दो, भयभीत हो जाते हैं और तीन, अपने आपको अकेला महसूस करने लगते हैं, इसीलिए दूसरे का सहारा ढूंढ़ते हैं। तीनों ही स्थितियों में या तो हम उलझ जाते हैं या अवसाद में डूबकर कोई आत्मघाती कदम उठा लेने की सोचते हैं। तो जब भी समस्या आए, दो काम कीजिए। पहले तो समस्या से थोड़ा दूर हटें। यहां हटने का मतलब भागना नहीं बल्कि भूलना है। थोड़ी देर के लिए भूल जाइए कि आप किसी बड़ी समस्या से परेशान हैं। जैसे ट्रैफिक में चलते हुए दूसरों को निकलने की जगह देते हैं तो इसका मतलब यह नहीं होता कि हमने चलना बंद कर दिया। वहां जब हटते और रुकते हैं तो वह हमारे चलने का ही भाव होता है। ऐसे ही समस्या के समय थोड़ा अलग हट जाएं और उसे दूर से देखें। दूसरा काम करें जब समस्याग्रस्त हों तो दूसरों की मदद के लिए आगे आएं। इससे हमारे भीतर की ऊर्जा अन्य लोगों की ओर बहने लगती है और हम थोड़ा अपने आप से हटते हैं।

ऐसे में भीतर यह भाव जागेगा कि अपनी समस्या नहीं भी निपट रही हो तो दूसरों की मदद तो कर रहे हैं। धीरे-धीरे आप उनके लिए मूल्यवान होने लगेंगे और जब दूसरों के लिए मूल्यवान होंगे तो अपने लिए कीमती हो जाएंगे। कीमती होने का मतलब है आत्मबल से सराबोर होना। तो जब भी समस्या आए, ये दो काम करके देखिए, आसानी से पार पा जाएंगे।

वीरता आत्मविश्वास है परिवार स्रोत
जीत एक सिलसिला है। जो लोग यह मानते हैं कि एक बार जीत गए, अब आगे कुछ नहीं करना है तो समझो वे हार की तैयारी कर रहे हैं। अब तो जीत और हार को वीरता से जोड़कर देखे जाने का समय है। यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि जो जीतेगा वह वीर होगा और ऐसा भी नहीं है कि जो वीर है वह जीत ही जाए। हार-जीत के बड़े गहरे मायने होते हैं। कई बार आप जीतकर भी हार जाते हैं और बहुत बार हारने के बाद भी जीत जाएंगे।

एक मशहूर घटना है हनुमानजी द्वारा लंका जलाने की और इसे लगभग सभी लोग जानते हैं। धार्मिक लोग हनुमानजी के पराक्रम को रामजी की कृपा मानते हैं और अन्य लोग इसे एक अद्भुत आत्मविश्वास से भरा कार्य, क्योंकि विश्वविजेता रावण की लंका वहीं जाकर जलाना निराला ही काम था। यदि ध्यान से देखें तो जब रावण के आदेश पर राक्षसों ने हनुमानजी की पूंछ में आग लगाई तो एक बार तो लगा हनुमानजी हार गए। कुछ ही देर बाद हनुमानजी ने पराक्रम दिखाया तो हार दिखने वाली वह स्थिति जीत में बदल गई। हमारे साथ भी कई बार ऐसा होगा कि आरंभ में हो सकता है पराजय की स्थिति में हों पर यदि थोड़ा सावधान रहें तो जीत खींचकर लाई जा सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि पहले तो लग रहा हो आप जीत चुके हैं और जरा से लापरवाह हुए कि हार को आने में देर लगती ही नहीं है। इसलिए मुद्दा हार-जीत का नहीं है, असल बात है वीरता को बचाए रखना।

वीरता के लिए महत्वपूर्ण यह है कि इसका स्रोत क्या है? वीरता आत्मविश्वास है और इसके आने के तीन प्रमुख स्रोत होते हैं- संसार, परिवार और परमशक्ति। इसलिए जीत कभी खत्म होने वाला एक ऐसा सिलसिला है, जिसके लिए इन तीनों में जिससे भी मिले, ऊर्जा लेते रहनी चाहिए।

शांति का सूत्र : बाहर संतोष, भीतर योग..
तन और मन के मामले में दुनिया अलग-अलग होती है। शरीर के लिहाज से देखें तो दुनिया तो एक है पर शरीर बहुत। पूरी दुनिया में जितने लोग बाहर से दिख रहे हैं उतने ही शरीर हैं और ये सारे शरीर वाले लोग जब दूर से देखते हैं तो दुनिया एक नज़र आती है। मन के मामले में उल्टा है। जितने मन उतनी ही दुनिया।
बाहर से एक दिखने वाली दुनिया मन के हिसाब से सबकी अलग-अलग है। इसीलिए बाहर की दुनिया में जब शरीर से दौड़-भाग करते हैं, तो उतना नहीं थकते जितना मन थकाता है। मन इतनी दुनियाएं बसा लेता है कि इधर-उधर भागता-फिरता है। इसे रोकना बड़ा मुश्किल है। फिर इसकी थकान से बचने के लिए कहीं कहीं से ऊर्जा लेनी ही होगी। ऊर्जा प्राप्त करने के लिए साधना करनी पड़ती है। हम दौड़-भाग भी करते रहें और शांत भी रहें यदि ऐसा हो जाए तो नुकसान का सौदा नहीं है। शांत होने के लिए जीवन में संतोष और सहनशीलता को स्थान दें। इन्हें ठीक से समझा जाए। सहनशीलता मजबूरी है। सहनशील लोग हो सकता है भीतर से बेचैन हों लेकिन, संतोष मजबूरी नहीं, एक ऐसी वृत्ति है जो भीतर से भी चैन पैदा करती है।

आत्मस्वीकृति के साथ स्थिति को स्वीकार किया जाता है वही संतोष है लेकिन, हर स्थिति में संतोष भी नहीं हो सकता और हर हालत में सहनशीलता भी नहीं सकती। यदि इन दोनों का तालमेल बैठ जाए तो जीवन में शांति उतरना आसान है। संतोष और सहनशीलता जीवन में उतारने है,तो शरीर में सात चक्रों में नीचे से ऊपर की यात्रा की जाए। हर चक्र का अपना स्वभाव है। इस यात्रा से जैसे-जैसे ऊर्जा ऊपर चढ़ेगी, शांति की मात्रा बढ़ती जाएगी। योग भी एक साधना है। तो बाहर की क्रिया में संतोष-सहनशीलता लाएं और भीतर से थोड़ा योग करते रहें।

अच्छे वक्ता बनना हो तो भजन कीजिए
हम अपनी काफी ऊर्जा दूसरों का खंडन और अपना मंडन करने में खर्च कर देते हैं। जब दुनियादारी में उतरते हैं तो कई लोगों से बात करनी पड़ती है, उन्हें अपनी बात समझानी पड़ती है और इस सब में बड़ी ऊर्जा लगती है। बात दो स्तरों पर होती है। पहले स्तर पर उनकी बात सुनने के बाद प्रतिक्रिया देते हैं, उसका खंडन या समर्थन करते हैं। लेकिन, दोनों ही आसान नहीं होते। बातचीत का दूसरा स्तर होता है बिना उनकी सुने अपनी बात कहनी पड़ती है। यानी शुरुआत हम कर रहे होते हैं। इसमें भी बड़ी ऊर्जा लगती है। आजकल तो प्रजेंटेशन करना हो, लेक्चर देना हो या किसी और तरीके से लोगों में अपनी बात रखनी हो तो इसके भी कोर्स कराए जाते हैं।

वाणी में प्रभाव लाने के लिए एक प्रयोग जरूर करें और वह है भजन करते रहिए। भजन एक तरह से भगवान से वार्तालाप है। इसमें एक तो हम परमात्मा का गुणगान करते हैं और दूसरा उनसे प्रार्थना कर याद दिलाते हैं कि आप बहुत दयालु हैं और हम आपके भरोसे हैं। जब हम संसार से बात करते हैं तो हमारी ऊर्जा खर्च होती है और जब भजन के माध्यम से भगवान से बात करते हैं तो ऊर्जा प्राप्त होती है। भजन करने के बाद आप पाएंगे कि अचानक आपके भीतर बातचीत की कला उतर आई। देखिए, यदि आप भजन सुन रहे हैं तो श्रवण बाहर हो रहा है और भीतर भगवान से वार्ता हो रही है। और यदि आप स्वयं भजन गा रहे हैं तो बाहर गायन हो रहा है, भीतर वार्ता हो रही है।

दोनों ही स्थितियों में आपको ऐसी ऊर्जा मिलेगी जो ब्रह्मांड से प्राप्त हुई है। इसे तो विज्ञान भी स्वीकार करता है कि कास्मिक एनर्जी चारों तरफ फैली हुई है। वह जहां से रही है उस स्रोत से जब बात करते हैं उसका नाम भजन है, इसलिए अच्छे वक्ता या उत्तरदाता बनना हो तो भजन जरूर करते रहिए।

मन पर नियंत्रण पाने के चार तरीके
मनुष्य को दूसरों से उतना खतरा नहीं है जितना स्वयं से और यह होता है अपने ही दुर्गुणों से। हमारे शरीर में दुर्गुण प्रवेश तो करते हैं इंद्रियों के माध्यम से लेकिन, उनको आमंत्रण देता है मन। ऋषि-मुनियों ने पात्रों के माध्यम से इन प्रवृत्तियों को बड़े अच्छे ढंग से बताया है। रावण दुर्गुणों की पाठशाला था।

लंका कांड में श्रीराम और रावण के बीच दुर्गण और सद्गुणों का जो युद्ध हुआ था, ऐसा ही युद्ध हम भी हमेशा अपने भीतर लड़ते रहते हैं। इसलिए जब लंका कांड का आरंभ हुआ तो तुलसीदासजी ने दो पंक्तियां लिखी हैं- ‘लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड। भजसि मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड। इसमें मन से कहा गया है कि तू अब श्रीराम का स्मरण कर। यानी अच्छी बातों से जुड़ जा। इस युद्ध में मन ही दुर्गणों का समर्थन करता है, इसलिए लंका कांड के आरंभ में मन को याद किया है। मन को नियंत्रित करना हो तो एक सेतु बनाना पड़ता है, जिसकी प्रतीकात्मक चर्चा अगली पंक्ति में आती है।सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ। अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु।।इसमें श्रीराम कहते हैं अब विलंब किया जाए। अच्छे कार्यों को पूरा करने में देर करें।

मन को नियंत्रित करना एक शुभ कार्य है। चार आसान तरीके हैं, जिनसे मन नियंत्रित किया जा सकता है और वे हैं- व्यावसायिक जीवन में खूब परिश्रम कीजिए, मन उसमें लगा रहेगा। सामाजिक जीवन में पारदर्शिता रखिए, मन को गलत काम करने के मौके नहीं मिलेंगे। पारिवारिक जीवन में जितना अधिक प्रेम रखेंगे, मन गलत कामों से उतना ही दूर होता जाएगा। चौथा तरीका है निजी जीवन में पवित्रता रखिए। ये चार काम कीजिए। मन नियंत्रित रहेगा और दुर्गुण कभी पराजित नहीं कर पाएंगे।

भीतर तृप्ति जगाने से टिकेगी गृहस्थी
गलत व्यक्ति से सही मुलाकात हो जाने की जो घटनाएं होती हैं उनमें से एक है शादी। स्त्री-पुरुष के मिलन में होने वाली बेमेल बातों को दूर नहीं किया जा सकता है तब तलाक जैसी घटनाएं सामने आने लगती हैं। भारत में भी तलाक की दर लगातार बढ़ रही है।

चौंकाने वाली बात यह है कि शादी के पांच साल के भीतर तलाक की बात करने वालों से ज्यादा वे हैं, जिनकी शादी को दस से बीस साल तक हो गए हैं। यह तो तय है कि विवाह का आरंभ कई गलतफहमियों से होता है। जब शादी का प्रस्ताव रखा जाता है, चाहे लड़का-लड़की स्वयं रखें या उनके परिवार वाले, तब अपना-अपना श्रेष्ठ ही प्रस्तुत किया जाता है। नि:कृष्ट बाद में नजर आता है और झंझट शुरू होती है। दरअसल, इस तकनीकी युग में विवाह करना आसान हो गया लेकिन, उसे निभाना उतना ही कठिन होता जा रहा है। इसीलिए शादी दौड़ते हुए शुरू होती है, चलते हुए आगे बढ़ती है और घिसटते हुए पूरी होती है। यदि नौबत किसी भी हाल में साथ रह सकने की हो तो एक-दूसरे को क्षमा करने की वृत्ति जरूर रखें। आप तलाक लेकर मार्ग बदल रहे हैं पर यदि स्वयं को नहीं बदला तो दूसरे और तीसरे के साथ भी ऐसा ही होना है।

कस्तूरी मृग उस सुगंध की तलाश में बाहर भागता है जो उसके भीतर ही होती है। दांपत्य में भी स्त्री-पुरुष एक-दूसरे से जो संतुष्टि चाहते हैं उसका बड़ा हिस्सा उनके भीतर होता है। चूंकि सारा मामला शरीर पर टिक जाता है इसलिए सामने वाले से उम्मीद बहुत ज्यादा हो जाती है और फिर कस्तूरी मृग की तरह भागते फिरते हैं। वह तृप्ति का स्वाद यदि भीतर जगा लिया जाए तो बाहर थोड़ी-बहुत अतृप्ति भी चल सकती है। वरना मंत्रों और सद्भाव से आरंभ हुए रिश्ते कोर्ट में वकीलों की दलीलों के बीच घसीटे जाएंगे।

स्वामीजी की याद में हनुमान चालीसा जप
मनुष्य का जीवन घटनाओं का जोड़ होता है और हर घटना दूसरी घटना पर प्रभाव छोड़ती है। जैसे कोई विद्यार्थी पढ़ते समय जिस फ्लेवर की च्यूइंगम खाएगा और यदि परीक्षा देते समय भी उसी फ्लेवर को मुंह में रखे तो कुछ बातें आसानी से याद आने लगती हैं। ऐसे ही मोबाइल की रिंगटोन को अलार्म बना लें तो उठने में सुविधा हो जाती है।

पहले मनुष्य के जीवन में इतनी घटनाएं नहीं होती थीं पर आज के युवाओं के आसपास तो चौबीसों घंटे घटनाएं मंडराती रहती हैं। घटनाओं का बंटवारा ठीक ढंग से किया जाए इसकी सीख स्वामी विवेकानंद ने बहुत अच्छे ढंग से दी थी। जीवन की समूची घटनाओं को उन्होंने इतने अच्छे ढंग से छांटा, बांटा और उनके माध्यम से हमें जो दे गए वह हमारे लिए बहुत बड़ा संदेश बन जाता है कि कैसे कोई युवक अपना चरित्र बचाते हुए संस्कृति के आधार पर दुनिया में नाम कमा सकता है। घटनाओं को आपस में जोड़ने के लिए हमारे पास कोई माध्यम होना चाहिए। ऐसा ही माध्यम है हनुमान चालीसा।

हनुमान चालीसा की चौपाइयों का संबंध किसी धर्म विशेष से माना जाए। ये क्रम से बोले गए अद्भुत मंत्र हैं जो एक-दूसरे से इतने जुड़े हैं कि जब कोई सांस के साथ इनका जप करे तो वह जीवन की हर चुनौती का सामना ठीक से कर सकता है। ऐसे ही एक प्रयोग के साथ विवेकानंदजी को याद करते हुए अपने भीतर घटनाओं को विवेकानंदजी की दृष्टि और संदेश से जोड़ लें तो हर घटना दूसरे की प्रेरणा बन जाएगी।

कैलोरी घटाकर भी उपवास करना संभव
इस समय देशवासियों को खूब नई जानकारियां दी जा रही हैं। बड़ा प्रचार है कि जीवन को कैशलेस किया जाए। जब देश को कैशलेस करने की बातें नए ढंग से हो रही हों तब देशवासियों का जीवन फैटलेस हो इस पर भी काम किया जाना चाहिए। डाइट को कैलोरी मैनेजमेंट से जोड़कर लोगों को जागरूक करना बहुत जरूरी हो गया है। ऐसे में मुहिम चलाई जाए कि आप जो भी खा रहे हों उसकी कैलोरी पता हो।

देश के तीव्र विकास के साथ उतनी ही तेजी से बीमारियां भी प्रवेश के लिए तैयार बैठी हैं। कहीं ऐसा हो कि डाइबिटीज की तरह मोटापा भी गंभीर समस्या बन जाए। इसलिए स्कूल से लेकर कॉलेज तक और हर क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति को इस बात के लिए जागरूक किया जाए कि आप जो भी खा रहे हैं, पहले उसकी कैलारी जान लें। कितनी कैलोरी का भोजन कर सकते हैं यह तय करें। हमारे यहां लगभग सभी धर्मों में उपवास की परम्परा शायद इसीलिए लाई गई। उपवास के दो अर्थ होते हैं। एक तो उप-वास यानी परम शक्ति के पास बैठना लेकिन, दूसरा अर्थ है शरीर को तंदुरुस्त और दिमाग को सक्रिय रखना। पाइथागोरस जैसे गणितज्ञ और दार्शनिक ने उपवास को बहुत महत्व दिया है।

खुद महीनों पानी पीकर जीवन गुजारते थे। उनका दावा था उपवास से मनुष्य की रचनात्मकता बढ़ती है, उसके भीतर अपने आप खुशनुमा अहसास जाग जाता है। यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि उपवास में सिर्फ फलाहार ही किया जाए। एक काम और किया जा सकता है कि प्रतिदिन आप जितनी कैलोरी लेते हैं उससे कुछ कम कर दें। यह भी उपवास होगा और कैलोरी के प्रति जागरूकता बढ़ जाएगी। कुल मिलाकर देश की सेहत के लिए देशवासियों की सेहत बनाना बहुत जरूरी है।

नींद के मामले में कोई समझौता करें
खानपान के मामले में अच्छे-अच्छों का संयम टूट जाता है। थाली सामने आते ही सारे प्रण धरे रह जाते हैं। मनुष्य के लिए जितना महत्वपूर्ण भोजन है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है नींद। नींद का नुकसान तुरंत पता लगता है, इसलिए जिस प्रकार हम खाने-पीने में शुद्धता का ध्यान रखते हैं, वैसे ही नींद के मामले में भी सावधान होना होगा।

नींद की शुद्धता से मतलब है उसमें व्यवधान नहीं होना। नींद को गहरा बनाने के लिए उसको ध्यान का बाय-प्रोडक्ट बनाना पड़ेगा। नींद आराम या वासना पूर्ति की क्रिया नहीं है। जब भी सोने जाएं, पहले मेडिटेशन करें, उससे मौन घटेगा। उसके बाद जो नींद आएगी उसमें परमात्मा रूपी शांति का अनुभव होगा। अभी हमारा क्रम उल्टा है। पहले थकान आती है, फिर बेचैनी होती है। इन दोनों के साथ हम नींद में उतरते हैं और परिणाम में सुबह की शुरुआत अशांति से होती है। दिनभर की बेचैनी और आंतरिक विचलन का कारण पिछली घटी हुई नींद भी होती है। जब भी सोने जाएं, एक प्रयोग कर सकते हैं। शयन कक्ष में पलंग पर या किसी और स्थान पर कमर सीधी करके बैठ जाएं और का गुंजन करें। ऐसा गुंजन कि रोम-रोम में वही ध्वनि सुनाई दे। सारा मामला कल्पना का है। कल्पना कीजिए कि आपने जितनी लंबी की गूंज ली वह आपके शरीर में फैल गई और जब उसको विराम दिया, बस वहीं शून्य है।

अगली युक्त सांस लेने से पहले पिछली सांस के बाद जो शून्य आया था, कुछ क्षण उस शून्य पर टिकिए। उसके बाद अगली ध्वनि लीजिए। जितना दो ध्वनि के बीच के शून्य पर टिकेंगे उतनी ही गहरी नींद आएगी और यदि नींद गहरी आई तो खान-पान के असंयम के परिणाम से बच जाएंगे। खाने-पीने में भले ही समझौता कर लें पर नींद के मामले में करें।

ईश्वर के नाम को भीतरी सांस से जोड़ें
दुनिया में सफलता पाने के लिए कुछ अलग होना और दिखना पड़ता है। हमारी सारी योग्यता इसी में है कि अन्य लोगों से अव्वल, अनूठे और थोड़े निराले हों। इसलिए लोग सारी ताकत इसी पर लगाते हैं कि कुछ अलग हो जाएं। संसार में ऐसा चलता है लेकिन, यदि संसार बनाने वाले को पाना हो तो फिर उसके जैसा ही होना पड़ता है।

भगवान मिलता ही तब है जब आप भगवान होने की तैयारी करें। भगवान होने की तैयारी का मतलब कहीं अहंकार लाना नहीं है। भगवान बना देने वाली खूबियां मनुष्य को जन्म से मिली हुई हैं और उन्हीं को उजागर करने का मतलब भगवान जैसा होना है। जैसे ही आप भगवान की तरह होते हैं, जीवन में परमात्मा उतर जाता है। परमात्मा की अनुभूति होते ही आप इस दुनिया से एक अलग दुनिया में भी जाने को तैयार हो जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि यह संसार छोड़ देना। इसमें जीते हुए भी एक नई दुनिया महसूस की जा सकती है।

लंका कांड आरंभ हुआ तो श्रीराम को सेना के साथ समुद्र पार कर लंका में प्रवेश करना था। तभी चर्चा में जामवंत ने एक टिप्पणी की, ‘सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह। नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरहिं।नाम के सहारे संसाररूपी सागर से पार हो जाते हैं। तो क्या नाम में इतनी ताकत होती है? दरअसल नाम लेने का तरीका ही उसकी ताकत है।

बाहर हमारे कर्म बोलते हैं और भीतर सांस प्रभावशाली होती है। योग्यता को बाहर कर्म से जोड़ें, आप कामयाब हो जाएंगे और भगवान के नाम को भीतर सांस से जोड़ें, आप भगवान जैसे होने लगेंगे। यदि सांस पर ठीक से टिकना और उसका उपयोग करना सीख गए तो भीतर की सारी ऊर्जा हमारे काम आएगी। एक बार नाम के माध्यम से ईश्वरीय गुणों से जुड़ गए तो ये सारे गुण बाहर की दुनिया में भी बहुत काम आएंगे।

किसी को सुनते हुए भी हो सकता है ध्यान
यदि आप ध्यान करना चाहते हैं और उसके लिए जरूरी समय नहीं निकाल पा रहे हों या कोई और बाधाएं ध्यान करने से रोकती हों तो एक काम धीरे-धीरे करते रहिए। योग अभ्यास का नाम है। कई तरह के अभ्यास हैं, जो आपकी योगवृत्ति को मजबूत करेंगे। उनमें से एक है अच्छे श्रोता बन जाना। यदि आप किसी को शांति से सुन सकें तो उसके दो फायदे होंगे। पहला यह कि ध्यान का अभ्यास होने लगेगा और दूसरा फायदा होगा, आप किसी के काम सकेंगे। यह भी बहुत बड़ी सेवा है।

सेवा करने के लिए बहुत समर्थ या धनाढ्य होना ही जरूरी नहीं है, यह मन से भी की जा सकती है। जब किसी को सुनें तो अपने श्रोता होने के चार आधार रखिए। एक, यदि कोई व्यक्ति किसी मुद्दे पर बोल रहा है और आप उससे सहमत नहीं हैं तो असहमति एकदम से व्यक्त कर उसे पूरे धैर्य से सुनें। हो सकता है सामने वाले को लगे कि आप सहमत हैं। दो, यदि वह दुखी है तो आपका सुनना सहानुभूति भरा होना चाहिए। बोलने वाले को यह संतोष मिलना चाहिए कि मेरे दुख को इन्होंने कुछ इस तरह से सुना जो मेरे लिए सहानुभूति बन गया। 

तीन, अगर वह आपसे किसी समस्या पर बात कर रहा है तो आपका श्रवण सहयोग भरा होना चाहिए। कुछ इस तरह से सुनिए कि उसे लगे, ये मुझे सहयोग दे सकते हैं। चार, यदि वह मांगे तो ही सलाह दीजिए।
इन चारों बातों के समय ध्यान दीजिए कि पूरी तरह से सुनना ही नहीं है। जरूरत पड़ने पर छोटी टिप्पणी भी करें और ऐसा करने के लिए आपको भीतर से शून्य होना पड़ेगा। ऐसा हो कि सामने वाला बोल रहा है और हम भीतर अपने ही समीकरण, अपने दृश्यों में उलझे रहें। जिस दिन आप भीतर से शून्य और शांत होकर किसी को सुनेंगे, समझो ध्यान की ओर पहला कदम उठा चुके होंगे।

मेहमान की तरह करें नींद का स्वागत
रात को सोते समय बाहर से तो हमारा शरीर लेटा हुआ, स्थिर दिखता है। उसमें कोई गति नहीं होती लेकिन, भीतर से चार पहियों पर यह रातभर सफर करता है। ये चार पहिये होते हैं- काम, क्रोध, मद और लोभ के। कई बार तो ये सोए शरीर को भीतर से इतना दौड़ाते हैं कि सुबह उठने पर हम थकान-सी महसूस करते हैं। जो लोग सुबह उठने पर शांत नहीं रहते, उन्हें रात की नींद पर नज़र डालनी होगी। हम अपनी नींद को देखें तो पहली बात नज़र आएगी कि नींद तो तुरंत जाती है पर फिर खुल जाती है।

दूसरी स्थिति होती है नींद तो जाती है पर रातभर असहजता बनी रहती है। तीसरी स्थिति में देर तक नींद आती ही नहीं है और चौथी स्थिति होती है कि देर तक नींद आती नहीं है और रातभर खुलती रहती है। नींद के साथ विज्ञान भी काम करता है। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि हमारे मस्तिष्क में मेलेटोनिन नाम का हार्मोन है, यदि उसका रिसाव कम होने लगे तो नींद में बाधा आएगी। इसका रिसाव अंधकार में आसानी से होता है लेकिन, रात को नींद से पहले जिस अंधकार की जरूरत होती है, लोग -गैजेट्स के कारण उसकी हत्या कर देते हैं। देर से भोजन करना, रात को किसी बहस या आवेश में उलझ जाना और फिर उसे दूर करने के लिए मोबाइल-टीवी जैसे साधनों का सहारा लेना।

ज्यादातर लोग नींद से पहले ये तीनों खतरनाक काम कर रहे हैं। नींद जिस अंधेरे की अपेक्षा करती है उसे हम इन चीजों से मिटा रहे होते हैं, इसलिए उस हार्मोन को बनने दीजिए जो अंधेरे में ही शरीर से निकलता है। उसे दोबारा एक्टिव होने में दो घंटे लग जाते हैं, इसलिए हो सके तो सोने से दो घंटे पहले सारे काम निपटा लें और नींद का ऐसा स्वागत करें जैसे किसी खास मेहमान का करते हैं। आपने नींद को महत्व दिया तो वह सुबह शांति लौटा देगी।

पूरी तन्मयता से काम करें, शांति उतरेगी
जो भी काम करें, यदि पूरे स्वाद के साथ करेंगे तो भीतर संन्यास या कहें फकीरी अपने आप उतर जाएगी। संन्यास का एक मतलब होता है रोम-रोम में शांति समा जाना। शांति की तलाश में हैं तो एक शब्द ध्यान में रखेंस्वाद।जीवन में जिन भी क्षेत्रों में स्वाद बनाए रखना है उनमें से एक है रिश्तों का निर्वहन। आपका कोई परिवार जरूर होगा और यह टिका होता है रिश्तों पर।

हम कई बार परिवार में रहते हुए सिर्फ वस्तुओं को देखने लगते हैं। एक मकान, कुछ गाड़ियां, कुछ लोग और उनकी सुविधाएं, इसी का नाम परिवार नहीं है। यदि परिवार में रिश्ते नहीं देख पाए तो समझिए आप किसी धर्मशाला या होटल में ठहरे हुए हैं। वहां कई तरह के लोग आजा रहे हैं और घर के सदस्य भी इसी तरह दिखने लगते हैं। रिश्तों को देखने के लिए खास किस्म की रोशनी चाहिए, इसीलिए साधु-संतों ने परिवारों के लिए एक व्यवस्था दी है कि सायंकाल घर में दीया-बाती जरूर करें। उसकी रोशनी और सुगंध आपको कुछ दिखाएगी, कुछ महसूस कराएगी। थके-मांदे शाम को घर आकर केवल देह देखने के लिए रोशनी नहीं चाहिए होती। रिश्तों को महसूस करने, नापने के लिए भी प्रकाश चाहिए। शाम के समय जो दीये जलाते हैं उनकी रोशनी में अपनापन देखिए, अपने लोगों को देखिए। तुलसी के पौधे के पास जलाए जाने वाले दीये में अपने प्रियजन की छवि, उसके साथ गुजारे अहसास को जरूर देखिए।

केवल दीया जलाकर अलग हट जाएं। एक प्रयोग करते रहिए- शाम को जब भी दीया जलाएं, उसकी लौ में नज़र गढ़ाएं और एक फिल्म की तरह पूरे परिवार को उससे गुजार दें। आप पाएंगे, प्रेम का अहसास बढ़ेगा, अचानक उदासी घटने लगेगी। वह प्रकाश आपको वहां ले जाएगा, जहां सचमुच अपने लोगों के साथ होने का सुख बसा होता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....



No comments:

Post a Comment