आत्मा की निकटता
पाने में लगे
बुढ़ापा
जिसका भी जन्म
हुआ है उसकी
मृत्यु होनी ही
है। जन्म-मृत्यु
के बीच जीवन
का एक महत्वपूर्ण
हिस्सा है बुढ़ापा।
इस संधिकाल में
जन्म का स्वाद
हल्का रह जाता
है और मृत्यु
दस्तक देने लगती
है। अब अहंकार
लगभग गलने लगता
है। आत्मा जान
जाती है कि
मुझे अब यह
देह छोड़नी है।
समझदार वृद्ध आत्मा की
निकटता प्राप्त करने में
लग जाते हैं।
जो इसमें देर
करते हैं उनके
लिए बुढ़ापा कष्ट
का कारण बन
जाता है। बूढ़ा
आदमी स्वयं की
मदद तो कर
नहीं पाता, लेकिन
अपनी उपस्थिति, अनुभव
और जीवनशैली से
वह साथ के
लोगों की मदद
कर सकता है।
किष्किंधा कांड में
तुलसीदासजी ने संपाती
के मुख से
यह दोहा कहलवाया
है, ‘मैं देखउं
तुम्ह नाहीं गीधहि
दृष्टि अपार। बूढ़ भयउंं
न त करते
उं कछुक सहाय
तुम्हार।। अर्थात यदि मैं
बूढ़ा नहीं होता
तो तुम्हारी कुछ
मदद करता। किंतु
उन्होंने सीताजी का पता
बताकर बहुत बड़ी
सहायता कर दी।
वृद्धावस्था अनुभव से ऐसे
संकेत देती है,
जो युवाओं के
बहुत काम आए।
जो बचपन वृद्धों
के साथ जुड़
जाता है उसकी
नींव मजबूत होने
लगती है। किंतु
वृद्धों को इसमें
सावधान रहना होगा।
हमने वृद्धावस्था के
भौतिक इंतजाम तो
कर लिए परंतु
आत्मिक व्यवस्था के नाम
पर अभी भी
खुद को धोखा
दे रहे हैं।
बुढ़ापे से पहले
के जीवन में
दुर्गंध रही होगी,
षड्यंत्र व कलह
रहे होंगे। यह
दुर्गंध बिल्कुल मिटा देनी
चाहिए तो बुढ़ापे
में अपने आप
सुगंध पैदा हो
जाती है।
वृद्धावस्था
की परिपक्वता अपनी
सुगंध से सारे
वातावरण को चाहे
वह परिवार का
हो या समाज
का, महका देगी।
यही काम संपाती
कर रहे थे
और उनसे हमें
यही शिक्षा लेनी
है कि वृद्धावस्था
आएगी जरूर, लेकिन
जीते जी इस
अवस्था में प्रेम,
आनंद और अपनेपन
का ऐसा गीत
गाएं जो हमारे
साथ के लोगों
को एक नया
जीवन दे सके।
समय प्रबंधन में रिश्तों
को स्थान दें
वक्त को सही
ढंग से बिताने
में अक्ल से
ज्यादा प्रबंधन काम आता
है। अच्छा प्रबंधक
कम अक्ल हो
तो भी चल
जाता है और
बहुत अक्ल वाला
आदमी प्रबंधन में
कमजोर हो तो
वह सही परिणाम
नहीं दे पाता।
समय का सदुपयोग
भी श्रेष्ठ प्रबंधन
है। यदि यह
कर लें तो
कई अक्लमंद लोग
आपके आगे छोटे
पड़ेंगे। समय प्रबंधन
को लोग व्यावसायिक
लाभ और कॅरिअर
में फायदे की
दृष्टि से देखते
हैं। कम ही
लोग हैं, जो
समय प्रबंधन में
भावनाओं, संवेदनाओं, रिश्तों को
स्थान देते हैं।
पिछले दिनों मैं
श्राद्धपक्ष में गयाजी
से कथा करके
लौट रहा था।
एक युवक ट्रेन
में मेरे साथ
सफर कर रहा
था, जो हाल
ही में अच्छी
कंपनी में नौकरी
पर लगा था।
बातचीत में पता
लगा कि पितृ-पूजा के
लिए वह गयाजी
आया था। कहने
लगा, ‘आजकल छुट्टी मुश्किल
से मिलती है।
जबसे नौकरी लगी है
मैंने हर वीकेंड
पर ध्यान रखा
है कि परिवार
के बड़े-बुजुर्ग
व अन्य रिश्तेदारों
से संपर्क रखूं।
मेरे साथ के
कई युवक हैं,
जो नौकरी लगते
ही पंछी की
तरह स्वतंत्र हो
जाते हैं। छुट्टियां मौज-मस्ती
में चली जाती
हैं। घर में
कोई काम आता
है तो खुद
को लाचार बताते
हैं। मैं शुरू
से सावधान रहा,
क्योंकि मेरे घर
में बड़े-बूढ़ों
की संख्या अधिक
है और लगता
है कि कब
कौन संसार से
विदा हो जाए
और छुट्टी
न मिले तो
मुझे बड़ी पीड़ा
होगी।’ युवक का
आशय यह था
कि जिन घरों
में बड़े-बूढ़ों
की संख्या अधिक
हो वहां युवाओं
को ऐसा समय
प्रबंधन करके रखना
चाहिए कि जब
आकस्मिक रूप से
बड़े-बूढ़ों की
विदाई की घटना
घट जाए तो
अपनी उपस्थिति सरलता
से दे सकें।
नई पीढ़ी में
भी ऐसे लोग
हैं, जो परिवार
और बड़े-बूढ़ों
के लिए इस
ढंग से सोचते
हैं। वास्तव में
भारत के परिवार
बचाओ अभियान के
लिए यह बड़ी
सुखद घटना थी।
वैवाहिक जीवन को
बोझ न बनने
दें
अब कई जोड़े
ऐसे हैं, जिनके
बीच जिंदगी का
मकसद ही खत्म
हो गया है।
दूर से लगता
है जैसे दोनों
एक-दूसरे के
लिए जी रहे
हैं, लेकिन अधिकतर
जोड़ों को पास
से देखें तो
पाएंगे बस, घिसट
रहे हैं। साथ-साथ रहकर
भी अकेलापन है।
पहली बार मिलने
पर जो भावनाएं
पैदा हुई थीं
वे सब खत्म
हो गईं। इन्हें
हल्का-सा याद
होगा कि कुछ
समय तक तो
संबंधों में बड़ी
ताज़गी रही होगी,
एक-दूसरे के
बिना वक्त नहीं
कटता होगा, एक-दूसरे को देखते
ही मन खुश
हो जाता होगा।
धीरे-धीरे जीवन
में नई-नई
घटनाओं के साथ
भावनाएं भी बदल
जाती हैं। ऐसी
भावनाओं को जिंदा
रखने के लिए
अब दोनों को
प्रयास करने होंगे,
नहीं तो जीवन
बोझ हो जाएगा।
ऋषि-मुनियों ने
विवाह नामक संस्था
को बहुत व्यवस्थित
रूप दिया था,
क्योंकि उन्हें पता था
कि अविवाहित व्यक्ति
को अकेलापन घेर
लेता है। समय
पर विवाह न
हो तो यही
अकेलापन भटका भी
देता है। ऐसे
में यदि वह
भोग-विलास की
ओर चला जाए
तो फिर विवाह
नीरस लगता है।
स्वच्छंदता की आदत
के कारण वैवाहिक
जीवन बंधन लगने
लगता है और
कलह शुरू हो
जाती है। गृहस्थी
में प्रेम, अपनेपन
का रस होता
है। इसे महसूस
करने के लिए
कोशिश करनी होगी।
नियम-सा बना
लें कि दिनभर
में जब भी
जीवनसाथी से मिलें
तो उसमें औपचारिकता
न हो।
आंख में आंख
डालकर निर्दोष भाव
से देखकर बिना
बोले भी बहुत
कुछ कहा जा
सकता है। जब
भी मिलें, प्रेम
के दो शब्द
बोलें, कुछ देर
पास बैठें। ये
छोटी-छोटी बातें
जीने का खो
चुका मकसद लौटा
लाएंगी। गृहस्थी अब बड़ा
लक्ष्य है, क्योंकि
पति-पत्नी को
अच्छे माता-पिता
भी साबित होना
है और दोनों
के बीच का
रस सूखा तो
उसका असर संतान
पर भी पड़ेगा,
इसलिए दोनों के
बीच प्रेम और
अपनेपन का रस
बनाए रखें।
तलाक की स्थिति
में अध्यात्म का
सहारा
हर तलाक केवल
दो लोगों की
गलती से नहीं
होता बल्कि उसमें
परिवार के अन्य
सदस्य, अपने-परायों
की भी भूमिका
होती है। एक
वक्त था जब
तलाक के बारे
में सोचना भी
पाप माना जाता
था। फिर दौर
आया कि तलाक
की बात आने
पर डर-सा
लगता था। किंतु
अब इसे आवश्यक
बुराई-सा मान
लिया गया है
और यह सलाह
तक दे दी
जाती है कि
तुरंत फैसला ले
लिया जाए। इसमें
दो पक्ष होते
हैं। एक कहता
है, जितनी देर
करेंगे, सुलह की
संभावना बढ़ जाएगी।
दूसरा कहता है
देर करने से
कोई मतलब नहीं
है, जीवन का
उतना हिस्सा और
बर्बाद करना ही
है।
पढ़े-लिखे जोड़ों
में तो तलाक
की दर बढ़ी
ही है पर
अब तो कम
पढ़े-लिखे ग्रामीण
भी जल्दी-जल्दी
अलग हो जाना
चाहते हैं। कानूनी
दांव-पेंच इतने
उलझा देते हैं
कि तलाक लेने
वाले ही नहीं,
बल्कि उनसे जुड़े
कई लोग परेशान
हो जाते हैं।
वे दोनों क्या
करें, कैसे बच
सकते हैं यह
तो वे ही
जानें। किंतु उनके आसपास
के लोग ऐेसी
भूमिका निभाएं कि दोनों
पक्षों का सम्मान
बचा रहे, विस्फोटक
स्थिति न बने
और दोनों पक्षों
को समान लाभ
पहुंचे। धार्मिक दृष्टि से
देखें तो गृहस्थी
ईश्वर का प्रसाद
है, लेकिन जब
इसमें व्यावहारिक दृष्टि
जुड़ती है तो
तनाव के कारण
साथ रहना मुश्किल
हो जाता है।
ऐसे में भीतर
के आध्यात्मिक व्यक्तित्व
को जाग्रत रखें।
इस अलगाव में जब
तनाव, अकेलापन आएगा
तो अध्यात्म मदद
करेगा। अध्यात्म स्पष्टता देता
है, जिसके साथ
कोई काम करें
चाहे मिलन हो
या बिछोह, तो
तनाव में कम
आएंगे और अलग
होने के बाद
भी दूसरों के
प्रति आपका रवैया
सहानुभूतिपूर्ण रहेगा। लाभ आपको
ही मिलेगा। तो
जिस भी परिवार
में ऐसी नौबत
आए, पहले तो
इससे बचने का
प्रयास करें और
न बच पाएं
तो कम से
कम भीतर के
अध्यात्म को अवश्य
जाग्रत रखें।
उचित दृष्टि से बाधा
सुविधा बन जाती
है..
जब भी हम
किसी बड़े अभियान
पर निकलते हैं
या हमारा लक्ष्य
विशाल होता है
तो बहुत सारे
लोग पूरी तैयारी
करने के बाद
भी सफल नहीं
हो पाते। यदि
हम थोड़ी दृष्टि
खुली रखें तो
हमें आसपास की
स्थितियों तथा व्यक्तियों
से संकेत मिल
सकते हैं, जिनसे
हम गलतियां सुधार
सकते हैं।
वानर सीताजी की खोज
में निकले तो
उन्हें संपाति नाम का
गिद्ध मिला। अंतिम
दृश्य में संपाति
वानरों को जो
बात समझा गया
वह हमारे बड़े
काम की है।
तुलसीदासजी ने चौपाई
लिखी है - तासु
दूत तुम्ह तजि
कदराई। राम हृदयं
धरि करहु उपाई।।
तुम उनके (श्रीराम
के) दूत हो,
अत: कायरता छोड़कर
श्रीरामजी को हृदय
में धारण करके
उपाय करो। इसमें
संपाति ने वानरों
से चार बातें
कहीं। एक, आप
रामजी के दूत
हैं। हम भी
जब किसी अभियान
पर निकलते हैं
तो किसी व्यवस्था
या व्यक्ति के
प्रतिनिधि होते हैं।
हमारी जिम्मेदारी है
कि बहुत सावधानी
से काम करें।
दो, कायरता निकाल
दो यानी यह
अज्ञात भय दूर
करें कि हम
सफल होंगे कि
नहीं। तीन, बात
हृदय में रखो।
बड़े काम केवल
बुद्धि से नहीं
किए जाते, उसमें
हृदय का समावेश
हो यानी भावनाएं,
संवेदनाएं इनके साथ
बौद्धिक योग्यता का उपयोग
करना चाहिए। चार,
कोई न कोई
उपाय अवश्य ढूंढ़ो।
उपाय को अंग्रेजी
में रेमेडी कहते
हैं। कभी-कभी
हमें लगता है
कि कोई रास्ता
नहीं है, लेकिन
संपाति समझा गया
कि हर समस्या
का कोई न
कोई उपाय होता
है। जब भी
जीवन में ऐसा
संकट आए कि
समझ नहीं आ
रहा हो और
सफलता से हम
अचानक दूर हो
गए हों तो
आसपास की कोई
स्थिति या व्यक्ति
हमारे लिए उपाय
बन सकता है।
संपाति इस बात
का प्रतीक है
कि जो पहले
बाधा बनकर आया
वही सुविधा बन
गया।
अपने भीतर स्वीकार
की वृत्ति पैदा
करें
क्या करें तब
जब हमारे आसपास
ऐसे लोग हों,
जिनका व्यवहार, कार्यशैली
हमसे भिन्न हों।
खासतौर पर तब
जब हम सही
हों और उनकी
कार्यशैली गलत हो।
ऐसे वक्त हमें
झुंझलाहट होती है,
या गुस्सा आता
है। हम उनसे
अलग होना चाहते
हैं, पर कुछ
रिश्ते ऐसे होते
हैं कि साथ
रहना भी पड़ता
है।
हमारे आसपास ऐसे लोग
हों, जो बहुत
बोलते हों। कुछ
लोग झूठ भी
बोलते हैं। उन्हें
सुनते हुए बड़ी
बेचैनी होती है,
पर उनका क्या
करें? ये लोग
हमारे बच्चे हो
सकते हैं, हमारा
जीवनसाथी हो सकता
है, बॉस या
कोई हमारा ऐसा
अधीनस्थ व्यक्ति हो सकता
है, जिसे हम
छोड़ नहीं सकते।
ऐसे में ‘स्वीकार
की वृत्ति’ अपने भीतर
पैदा करें। यह
स्वीकार कर लें
कि ये अपने
हैं और जैसे
भी हैं हमें
इसी में से
रास्ता निकालना है। फिर
उन्हें सहन करें
या सुधार लें।
दोनों काम साथ
चलेंगे। किंतु यदि आपने
स्वीकृति दे दी
कि जो भी
हैं, जैसे भी
हैं अपने हैं
तो शायद जो
क्रोध, जो चिड़चिड़ापन
आपके भीतर आएगा
वह नियंत्रित हो
जाएगा, क्योंकि ऐसे लोगों
के साथ क्रोध
तो आता है।
क्रोध के पीछे
मकसद है कि
मुझे कुछ प्राप्त
हो जाए या
मैं कुछ खो
न दूं। जैसे
ही अपनों के
साथ स्वीकृति देंगे
और यह मान
लेंगे कि मुझे
इनसे कोई लेना-देना नहीं
है, लेकिन ये
मेरे अपने हैं,
क्रोध अपने आप
गिर जाएगा। क्रोध
को यदि परिणाम
में कुछ नहीं
मिलेगा, तो उसे
गिरना ही है।
जब क्रोध गिरेगा
तब दृश्य साफ
होगा कि आप
इन्हें कैसे सहन
करते हैं और
कैसे सुधार सकते
हैं। जो भी
हो, आपका अपना
सदैव आपके जैसा
नहीं हो सकता,
लेकिन फिर भी
वह आपका होता
है। इस सहनशीलता
में ही रिश्ते
निभाते हुए आप
उन्हें सुधार सकते हैं।
शास्त्रों से लें
संयुक्त परिवार की सीख
पति-पत्नी के बीच
मतभेद का एक
विषय मूल परिवार
से अलग रहने
का होता है।
नौकरीपेशा लोगों के लिए
अलग रहना आसान
है। किंतु परिवार
व्यवसाय से जुड़ा
हो तो घर
टूटता ही है,
बिखर भी जाता
है। टूटा हुआ
घर जुड़ सकता
है, पर जब
बिखरता है तो
उसके कई टुकड़े
हो जाते हैं।
हम परिवार में
साथ क्यों रहते
हैं? पहली बात,
एक ही कुल
के सदस्य हैं
इसलिए। दो, प्रेम
के कारण। तीन,
कर्तव्य भावना से। चार,
एक ही व्यवसाय
और पांच, मजबूरी।
एक भी कारण
गड़बड़ हुआ तो
अलगाव हो जाता
है। आज हर
सदस्य योग्य तथा
पढ़ा-लिखा है।
उसका आत्म-विश्वास
विद्रोह के रूप
में सामने आ
रहा है।
पहले कुछ लोगों
के हाथ में
नेतृत्व था। आज
नेतृत्व और शक्ति
के इतने केंद्र
बन गए हैं
कि कौन, किसकी
माने। परिवार को
जोड़े रखने के
लिए एक आध्यात्मिक
प्रयास यह किया
जाए कि जब
भी पूरा परिवार
इकट्ठा हो
पुराने शास्त्र, पुरानी कथाओं
की चर्चा अवश्य
करें, क्योंकि ये
शास्त्र लिखे हैं
संत-फकीरों ने।
मूल में कहीं
न कहीं उनकी
दिव्यता है, वे
हमारे लिए दर्पण
बन जाएंगे। घर
में नई पीढ़ी
के बच्चों के
साथ बैठकर जब
शास्त्रों की चर्चा
होगी, कुछ कथाओं
की बात सामने
आएगी, भले ही
बहस हो जाए
पर मानकर चलिए
कि कुछ ऐसा
हाथ जरूर लगेगा,
जो सोचने पर
मजबूर करेगा कि
जीवन जीने का
ढंग अलग होकर,
अकेले छोटे-छोटे
हिस्से में बंटकर
नहीं है।
परिवार के साथ
रहना और अलग
होने पर भी
प्रेम बने रहना
इन सबके संकेत
पुराने साहित्य के पात्रों
में और उनके
परिवारों में बहुत
अच्छे से आए
हैं। इसलिए ग्रंथों
से हमारी नई
पीढ़ी को प्रयासपूर्वक
जोड़ना चाहिए ताकि एकसाथ
रहने के उनके
विचार परिपक्व हो
सकें, स्पष्ट हो
सकें।
बच्चों की मित्रता
के प्रति सतर्कता
बरतें...
बच्चों के संगी-साथी उन
बातों में शामिल
हैं, जिनके प्रति
हम अतिरिक्त सावधानी
रखते हैं। हमें
पता हो कि
बच्चों के साथ
जो लोग उठ-बैठ रहे
हैं, वे उनसे
क्यों जुड़े हैं।
सामान्य रूप से
आजकल मित्रता के
पांच कारण होते
हैं। दोनों का
साथ पढ़ना। समान
रुचि। दोनों का
एक-दूसरे प्रति
व्यवहार अच्छा होना, फिर
भले ही रुचियां
अलग-अलग हों।
किसी विशेष अभियान
में खासतौर पर
व्यावसायिक क्षेत्र में दोनों
साथ हों और
कुसंग के कारण।
हरेक के भीतर
कुछ न कुछ
गलत छुपा हुआ
है।
कुसंगी पूरा मौका
देते हैं कि
आपके भीतर दबा
हुआ गलत व्यक्ति
निकल आए। हम
न चाहते हुए
भी उनके साथ
कुसंग कर लेते
हैं। इन दिनों
बच्चों को मां-बाप से
अलग अधिक रहना
पड़ता है, इसलिए
मां-बाप को
चाहिए कि जब
तक आप बच्चों
के साथ हैं,
उनके साथियों से
आपका सीधा संवाद
हो। उनके परिवार
की पृष्ठभूमि जान
लेना भविष्य के
लिए लाभकारी होगा।
इन बच्चों को
मित्रता का अर्थ
आध्यात्मिक दृष्टि से समझाइए।
सभी परिवारों में
कभी न कभी
पूजा-पाठ का
माहौल उतरता है।
कुछ परिवारों में लगातार
रहता है। जब
आप बच्चों को
भक्ति के माहौल
से गुजारेंगे, तो
उन्हें समझाइए कि भक्ति
का मतलब होता
है समर्पण, सत्य
का साथ। यदि
बच्चों में थोड़ी
भी भक्ति उतरी
तो वे मित्रता
करते समय सच
का साथ, समर्पण,
संवेदनशीलता, वफादारी, दयालुता, अपनापन,
कुमार्ग से स्वयं
बचना, मित्र को
बचाना, यह सब
सीखेंगे। ये भक्ति
के लक्षण हैं।
जब आप पैनी
दृष्टि रखेंगे और बच्चों
के आसपास से
उन कुसंगियों को
हटा देंगे जो
उनके मित्र बन
सकते हैं, तो
निश्चित ही उनके
जीवन में अच्छे
लोग टिक जाएंगे
और आपके बच्चों
के अच्छे दोस्त
आपकी भी पूंजी
बनेंगे।
अच्छे लोगों के साथ
बुद्धि व दिल
से जुड़ें
अच्छे लोगों की तलाश
कभी खत्म मत
कीजिए। यह तय
नहीं होता कि
अच्छे लोग किसी
खास मुकाम पर
मिलेंगे। आप व्यवसाय
या नौकरी कर
रहे हों या
केवल गृहिणी हों,
आपके जीवन में
अलग-अलग ढंग
से अच्छे लोग
आते रहेंगे। बुरे
लोगों से सावधान
रहने की हमारी
ट्रेनिंग होती है।
उसी तरह हम
अच्छे लोगों को
पहचानने की भी
सावधानी रखें। उनकी उपस्थिति
का पूरा लाभ
उठाएं। हमारी जिंदगी में
ऐसे लोगों के
आने के पांच
रास्ते होंगे। वे राय
दे रहे होंगे
या हमें सलाह
देंगे। एक रूप
सहयोग का भी
हो सकता है।
उनसे सुरक्षा मिलेगी
और इन सबसे
बढ़कर यदि लगे
कि हमें संरक्षण
मिल रहा है
तो फिर उनसे
जुड़ने में देर
न करें।
अच्छे लोग खुद
को कम खोलते
हैं। हमें ही
उनसे जुड़ना होगा।
जैसे ही हम
एेसी कोशिश करेंगे,
हमारा मन ही
हमें रोकेगा। बुद्धि
तो फिर भी
स्वीकृति दे देती
है, हृदय हमेशा
उदार ही होता
है, लेकिन मन
का काम है
संदेह करना। कहेगा
कि आप जिस
व्यक्ति से जुड़
रहे हैं वह
दिख तो अच्छा
रहा है, लेकिन
भीतर से खराब
है। आप मन
को समझाकर अच्छे
व्यक्ति की ओर
बढ़ेंगे, तो फिर
वह भय में
डालता है। इतना
भयभीत कर देता
है कि मनुष्य
सोचता है कि
इस व्यक्ति से
जुड़कर मुझे हानि
होगी और पीछे
हट जाता है,
इसलिए जीवन में
अच्छे व्यक्ति से
जुड़ना हो तो
पहले हृदय व
बुद्धि से जुड़ें
और अंत में
मन की बात
सुनें। यदि पहले
मन की बात
सुनी तो जीवन
में जो भी
नुकसान उठाए हैं,
उसमें अच्छे व्यक्ति
खोने को भी
जोड़ लें। बहुत कम लोग
बचे हैं, जो
अपनी समूची अच्छाई
के साथ किसी
से जुड़ते हैं।
हर व्यक्ति रहस्य
होता जा रहा
है। ऐसे में
अच्छे व्यक्तियों को
भगवान का प्रसाद
मानकर अपने मन
से बचाकर हृदय
और बुद्धि से
जोड़ लीजिए।
हर स्थिति में व्यवहार
गरिमामय हो
महान व्यक्ति केवल बड़े
कार्य व अच्छे
सिद्धांत के कारण
ही नहीं जाने
जाते हैं। इन
लोगों की एक
और विशेषता है-
उनका गरिमापूर्ण व्यवहार।
यह बड़े व्यक्ति
का गहना है।
जीवन में जब
हमें कुछ ऊंचाइयां
मिलने लगें, सफलता,
प्रतिष्ठा मिले, ख्याति हमारे
भाग्य में आ
चुकी हो तब
गरिमा नष्ट न
होने दें। इसके
लिए पांच बातों
से बचें- क्रोध,
विचलन, कोसना, घबराना और
उत्तेजना। जैसे ही
ये पांच बातें
हटीं, दो बातें
अपने आप आ
जाती है- धैर्य
तथा सूझबूझ और
आपका व्यवहार अपने
आप गरिमापूर्ण होने
लगता है।
ऐसा व्यक्ति विपरीत परिस्थिति
में तुरंत अपना
सेकंड प्लान रेडी
रखता है, घबराता
नहीं है। अपने
से बड़ी ताकत
-परमात्मा- का ख्याल
उसको तत्काल आ
जाता है। ऐसे
लोग जानते हैं
कि कोई कितनी
ही भक्ति कर
ले, कर्मकांड से
गुजर जाए, ज्ञानी
हो जाए, लेकिन
भगवान तक नहीं
पहुंच सकता, क्योंकि
न तो उसका
कोई पता होता
है और न
ही रूप। हां,
ऐसे गरिमापूर्ण व्यवहार
वाले लोग अपनी
तैयारी ऐसी कर
लेते हैं कि
भगवान उन तक
आ जाता है।
परमात्मा का स्पष्ट
नियम है कि
तुम भले ही
मेरे लिए, मेरी
ओर चल रहे
हो, लेकिन मैं
ही तुम्हारे पास
आ जाऊंगा। नादान
भक्त इसे अपना
पहुंचना मान लेते
हैं, लेकिन जो
यह जानते हैं
कि भगवान स्वयं
आए हैं, उनके
व्यवहार में सदैव
गरिमा बनी रहती
है। इसीलिए हमारे
शास्त्रों में लिखा
गया है- अतिथि।
देवो भव:।
अर्थात मेहमान भगवान जैसा
होता है। मतलब
यह है कि
वह आता है।
जब वह जीवन
में आए तो
हमारी तैयारी बहुत
ही गरिमामय और
परिपक्व होनी चाहिए।
छोटे-मोटे मेहमान
के आने पर
भी हम भारी
तैयारी करते हैं,
इतनी बड़ी शक्ति
जब जीवन में
उतरे तो गरिमापूर्ण
व्यवहार बड़ा जरूरी
है। यही भाव
संसार के लोगों
के लिए भी
काम आता है।
संतुलन साधकर पूर्ण विजय
पाएं
जब कभी किसी
कार्य में सफल
हो जाएं तो
यह मूल्यांकन अवश्य
करें कि आपकी
जो जीत हुई
है वह पूरी
हुई या नहीं।
हम दो तरह
से विजयी होते
हैं। एक बाहर
से, दूसरा भीतर
से। हमें केवल
बाहर की विजय
या पराजय ही
नज़र आती है,
क्योंकि हमारा अधिकांश जीवन
बाहर से संचालित
है। किंतु जब
हम दुनिया बनाने
वाले से जुड़ते
हैं तो फिर
विजय का मूल्यांकन
थोड़ा भीतर उतरकर
करेंगे। यदि बाहर
जीत गए और
भीतर हार गए
तो यह अधूरी
जीत है। कई
लोग प्रबंधन कौशल
से दुनिया जीत
लेते हैं, लेकिन
घर में हार
जाते हैं।
बाहर अनेक लोग
जुड़ जाते हैं
पर घर के
अपने ही लोग
उनसे बिछड़ जाते
हैं। अपनी सक्रियता
को परिश्रम, परिश्रम
को पुरुषार्थ और
पुरुषार्थ को तप
में बदलिए, तब
आप बाहर-भीतर
दोनों जगह सफल
होंगे। हम बहुत
सक्रिय हैं यानी
हम काम में
लगे हैं। जब
पूरी तरह लग
जाते हैं तो
सक्रियता परिश्रम में बदल
जाती है। जब
उत्साह आ जाता
है तो इसे
पुरुषार्थ कहेंगे और इसको
तप में बदलने
के लिए भीतर
खून ठीक से
बहे और बाहर
पसीना अच्छे से
निकले। भीतर खून
ठीक से बहे
का मतलब हमारे
रोम-रोम में
रक्त का संचालन
ठीक से हो।
यह काम प्राणायाम
से होगा, इसलिए
दुनिया में काम
करते हुए योग
के जरिये थोड़ी
देर भीतर की
दुनिया में उतरें।
हम जब बाहर
को स्वीकारते हैं
तो भीतर को
नकार देते हैं।
कुछ लोग भीतर
इतना उतर जाते
हैं कि बाहर
की परवाह नहीं
करते। जीवन संतुलन
का नाम है।
न तो पूरी
तरह शरीर को
स्वीकारें, न पूरी
तरह आत्मा को।
कभी आत्मा बढ़
जाए, कभी शरीर
प्रमुख हो जाए।
आपकी निकटता जिसके
साथ होगी आप
वैसा करेंगे। जब
हम आत्मा के
निकट होंगे तो
शांत रहेंगे, जब
शरीर के पास
होंगे तो अशांत
रहेंगे। जिन्हें अपनी विजय
को पूरा बनाना
है उन्हें इस
संतुलन को ठीक
से समझना होगा।
योग ही आपको
आपसे जोड़ सकता
है
श्रेष्ठ और योग्य
व्यक्तियों के साथ
काम करते हुए
सफलता अर्जित करना
बड़ी बात नहीं
है। बहुत सक्षम
लोगों का नेतृत्व
कर सफल होने
में बहुत बड़ी
चुनौती नहीं होगी।
असली परीक्षा तब
होती है जब
साथ के लोग
कमजोर हों। हमारे
यहां कई ऐसे
चरित्र हुए हैं,
जिन्होंने मनोवैज्ञानिक रूप से
कम क्षमतावान लोगों
के भीतर छुपी
योग्यता को बाहर
निकाला, उसे तराशा
और कोई सोच
भी नहीं सकता
ऐसा काम उनसे
ले लिया। श्रीराम
का उदाहरण सबसे
उपयोगी है। पिछले
दिनों श्रीराम के
पक्ष में, रावण
के पक्ष में,
दोनों के विरोध
में भी खूब
विचार व्यक्त हुए।
श्रीराम की एक
बड़ी खूबी यह
थी कि उन्होंने
रावण जैसे समर्थ
व्यक्ति के विरुद्ध
सामान्य लोगों को साथ
लेकर विशिष्ट विजय
प्राप्त की थी।
हमारे जीवन में
भी ऐसा हो
सकता है कि
प्रभावी लोगों के सामने
सामान्य लोगों को लेकर
किसी अभियान का
हिस्सा बनना पड़े,
तो पहली बात
तो अपनी योग्यता
पर पूरा भरोसा
रखें। कमजोर लोगों
की योग्यता को
चुन-चुनकर बाहर
निकालें और उसका
उपयोग करें। सत्ता
से हटकर भी
खास बने रहना
हमें श्रीराम और
हनुमानजी सिखाते हैं। हमारे
आसपास भी कई
बार अनेक लोगों
की भीड़ जम
जाती है जैसे
किसी मेले से
घिरे हुए हों।
मनुष्यों की भीड़
जब हमारे आसपास
हो तो हमें
उनके भीतर का
श्रेष्ठ निकालकर आगे बढ़ने
की कला सीखनी
पड़ेगी, क्योंकि हमारे आसपास
अपने-पराये, आम
और खास ये
सब लोग नज़र
आएंगे।
दूसरों के श्रेष्ठ
की परख तब
कर पाएंगे जब
हम अपने भी
उत्तम को जान
सकें। ध्यान रखिएगा
जब-जब भी
स्वयं के बारे
में जानना हो,
कुछ समय योग
से जुड़ना ही
पड़ेगा। संसार की एकमात्र
विधि है योग
जो आपको आपसे
जोड़ सकेगी। बाकी
सब विधियां तो
आपको संसार से
जोड़ने के ही
काम आएंगी।
बीमारी से निपटने
का भीतरी साधन
सामान्य व्यक्ति से लेकर
बड़े-बड़े साधु
भी कभी न
कभी, किसी न
किसी बीमारी की
चपेट में आ
ही जाते हैं।
फर्क यह है
कि सामान्य व्यक्ति
बीमारी से अधिक
परेशान हो जाता
है। उससे निपटने
के लिए उसके
साधन इतने सामान्य
होते हैं कि
बीमारी और हावी
हो जाती है।
संत पुरुष सावधानी
के साथ बीमारी
से व्यवहार कर
उसे हावी नहीं
होने देते। ऐसे
में चिकित्सा का
आपका जो भी
तरीका हो जरूर
अपनाएं, लेकिन आध्यात्मिक तरीका
यह है कि
अपनी पॉजीटिव सोच
बढ़ा दें। जैसे
ही आपकी सोच
व व्यवहार में
पॉजिटिविटी उतरती है तो
इसका सीधा असर
अंगों पर पड़ता
है। जितनी पॉजीटिव
सोच बढ़ेगी आप
उतनी जल्दी स्वस्थ
होंगे।
निगेटिविटी
का केंद्र होता
है हमारा मन।
मन से लगातार
नकारात्मक विचार, उल्टी-सीधी
बातें प्रवाहित होती
रहती हैं। हमारा
मन जब किसी
दूसरे से जुड़ता
है तो वासना
को उसके ऊपर
लेपन करता है।
वस्तु कोई दूसरी
है, व्यक्ति कोई
दूसरा है, पर
जैसे ही मन
वासना बीच में
लाया, पाने की
इच्छा बलवती हो
जाती है। जब
भी हम बीमार
हों, शरीर पर
डॉक्टर व दवा
काम करेंगे। मन
पर काम आप
ही को करना
पड़ेगा, लेकिन यह उसी
वक्त संभव नहीं
होगा। इसके लिए
रोज वक्त निकालकर
इस पर काम
करिए। श्रीहनुमान चालीसा
से मेडिटेशन की
विधि मन को
नियंत्रित करने में
बड़ी कारगर है।
श्रीहनुमान
चालीसा से परिचित
होंगे तो जरूरत
के वक्त आजमा
सकेंगे। लाभ यह
होगा कि मन
नियंत्रित होगा और
शरीर पर श्रीहनुमान
चालीसा मंत्रों के रूप
में प्रभावी होगी।
बीमारी का यह
इलाज आपके हाथ
में है। बाकी
व्यवस्थाओं को जारी
रखिए। फिर देखिए,
बाहरी इलाज आपके
लिए सुविधाजनक हो
जाएगा, क्योंकि आप भीतर
से सक्षम हो
चुके होंगे।
बोध से सीखें
परिवार में प्रेमपूर्वक
रहना
एक समय था
जब सहमति परिवारों
का प्रमुख लक्षण
हुआ करती थी।
लोग एक ही
छत के नीचे
रहते और परिवार
में एक-दूसरे
से सहमत होकर
प्रसन्न होते थे।
ऐसा नहीं था
कि असहमति बिल्कुल
नहीं थी, किंतु
उसके तरीके बड़े
विनम्र थे। आज
शिकायत और कलह
परिवार के प्रमुख
लक्षण हो गए
हैं। हर सदस्य
को दूसरे से
कोई शिकायत है।
शिकायतें ठीक से
नहीं सुलझाई जाएं
तो फिर कलह
घुलने में देर
नहीं लगती।
पिछले दिनों मेरा मिलना
दो परिवारों से
हुआ। एक परिवार
की महिला ने
मुझसे कहा, ‘मैं
बहू से परेशान
हूं, क्योंकि वह
इसे अपना घर
नहीं समझती। एक
दिन तो उन्होंने
यहां तक कह
दिया कि हम
तो पेइंग गेस्ट
हैं। जब भी
मौका मिलेगा, अपनी
गृहस्थी खुद बसा
लेंगे। इसके बाद
एक अन्य परिवार
की मां ने
बेटे द्वारा की
गई टिप्पणी सुनाई।
मतभेद के दौरान
बेटे ने माता-पिता से
कहा, ‘आप क्यों
बेचैन हो रहे
हैं? हम तो
मेहमान जैसे हैं।
मेरे हालात सुधरते
ही हम अलग
हो जाएंगे। अगर
कोई इसका निदान
पूछे तो सांसारिक
रूप से कोई
हल नहीं है,
लेकिन अध्यात्म के
पास इससे बचने
की विधि है।
बच्चों को सामूहिक
ध्यान से जोड़ें,
क्योंकि यह हमें
शरीर से हटाकर
आत्मा तक ले
जाता है। आज
रिश्ते शरीर से
शुरू होकर शरीर
पर ही खत्म
हो रहे हैं,
इसलिए परिवारों में
ऐसे दृश्य आ
रहे हैं। जैसे
ही परिवार के
सदस्य ध्यान में
उतरेंगे, उन्हें परिवार की
जानकारी मिलेगी, जो परिचय
में बदलेगी, परिचय
समझ में उतरेगा,
उसके बाद ज्ञान
आएगा और अंत
में बोध होगा।
अभी हमें परिवार
की जानकारी तो
है पर बोध
नहीं है। जानकारियां
अशांत कर सकती
हैं पर बोध
प्रेमपूर्ण होकर रहना
सिखाएगा। बात कुछ
गहरी है, लेकिन
यदि परिवार बचाना
है तो ऐसे
आध्यात्मिक प्रयोग करने ही
पड़ेंगे।
श्रेष्ठतम बाहर लाने
का प्रयास करें
यूं तो भगवान
ने मनुष्य को
बनाया तो कोई
कसर नहीं छोड़ी।
उसके भीतर सबकुछ
डालकर उसे संसार
में भेजा है,
लेकिन श्रेष्ठ को
खुद के भीतर
से बाहर निकालने
की जिम्मेदारी हम
पर छोड़ दी।
अब यदि हम
अपने भीतर की
उस श्रेष्ठता को
बाहर नहीं निकालें,
तो यह हमारी
गलती होगी। अपनी
कमी हमें ही
दूर करनी पड़ेगी।
जब हम दूसरे
लोगों के संपर्क
में आएंगे तो
हो सकता है
लगे कि उसमें
जो क्वालिटी है
वह हममें नहीं
है।
दरअसल, उसने समय
रहते अपनी उस
योग्यता को बाहर
निकाल लिया पर
हम चूक गए।
फिर हम निराश
होने लगते हैं,
इसलिए जहां से
भी योग्यता बाहर
आ सके, उसे
निकालिए। कोई मौका
मत चूकिए अन्यथा
जिस दिन चुनौती
सामने आएगी आप
वही बात कहेंगे
जो अंगद कह
रहे थे। प्रसंग
चल रहा है
किष्किंधा कांड का।
सीताजी की सब
जानकारी मिल चुकी
थी, प्रश्न था
जाएगा कौन? अंगद
युवा थे और
उस दल का
नेतृत्व कर रहे
थे, लेकिन उन्होंने
लाचारी बता दी।
तुलसीदासजी ने लिखा
है,‘अंगद कहइ
जाउं मैं पारा।
जियं संसय कछु
फिरती बारा।।’अंगद कहते
हैं, ‘जा तो
सकता हूं परंतु
लौटने में संदेह
है।’
हम सब भी
जब कोई काम
करने जाते हैं
तो अंगद की
ही तरह कहते
हैं इतना तो
कर सकता हूं पर
इसके आगे मेरा
वश नहीं। किंतु
भगवान ने तो
सभी में संभावना
छोड़ी है। इसे
सदैव भीतर से
बाहर निकालने का
प्रयास कीजिए। जब भी
अच्छे योग्य लोग
संपर्क में आएं
तो तुरंत वॉच
कीजिए कि इन्होंने
अपने भीतर की
खूबी को किस
प्रकार बाहर निकाला।
वही विधि, वही
तरीका हमें भी
अपनाना चाहिए। मनुष्य जीवन
मिला है और
भगवान ने जो
श्रेष्ठ दिया है
वह दबा न
रह जाए इसके
प्रयास जीवनभर करते रहिए।
बीमारी में सकारात्मक
दृष्टिकोण रखें
यदि आप बीमार
हैं और उदास
भी हैं तो
खतरा और बढ़
जाएगा। बीमार नहीं हैं
और उदास हैं
तो भी ठीक
नहीं है। यदि
बीमार हैं पर
उदास नहीं हैं
तो फिर भी
बीमारी से आसानी
से बाहर आ
सकेंगे। कुछ लोग
जरा बीमार पड़ते
हैं और जीवन
की मुख्य धारा
से बाहर हो
जाते हैं। यानी
काम पर जाना
छोड़ देंगे, लोगों
से मिलना बंद
कर देंगे।
शरीर है तो
बीमारी तो आएंगी
ही, लेकिन छोटी-सी बीमारी
को बड़ी बनाने
में उदासी का
बड़ा योगदान है।
अब क्या होगा,
कहीं बीमारी लंबी
न खिंच जाए,
ऐसे विचार घेर
लेते हैं। ऐसे
में आप जान
लें कि जैसे
ही बीमारी आए,
जो-जो भी
अनुकूल या आपकी
पसंदीदा परिस्थितियां हों, तुरंत
उनसे जुड़ जाएं।मसलन,
यदि किसी व्यक्ति
विशेष से मिलना
अच्छा लगता हो
तो जरूर मिलें।
उस समय निकलने
वाले पॉजिटिव वाइब्रेशन्स
आपके शरीर को
इतना सक्षम बना
देंगे कि वह
बीमारी को जल्दी
विदा कर सके।
यदि आप बीमार
व उदास हों
और ऐसी स्थिति
मिले जो आपको
अच्छी लगती हो
तो कम से
कम उन स्थितियों
व व्यक्तियों से
जरूर बचें जो
नेगेटिव हों। जैसे
ही बीमार हुए,
सबसे पहले मन
कहेगा इसमें संदेह
ढूंढ़ो, नुकसान ढूंढ़ो। आप
दूसरों की निंदा
पर उतर आएंगे,
हो सकता है
चिड़चिड़े हो जाएं,
जबकि होना यह
चाहिए कि उदासी
और बीमारी का
कांबीनेशन बनाने से बचें।
बीमारी आ रही
है शरीर में,
उदासी आ रही
है मन से।
इन दोनों का
मेल हुआ कि
आप और बड़ी
उलझन में फंस
जाएंगे। इसलिए छोटी-मोटी
बीमारी में अपने
सार्वजनिक काम रद्द न
करें, सबसे मिलते-जुलते रहें, अपना
कर्तव्य पूरा करें।
एक तरह से
विस्मृति होगी, आप शरीर
का कष्ट भूल
जाएंगे, उदासी गलने लगेगी
और बीमारी कोई
बड़ी बाधा नहीं
पहुंचा पाएगी।
टेक्नोलॉजी से प्रेम
व करुणा खंडित न हों
नशा और मजा
एक साथ नहीं
हो सकते, पर
लोग कहते हैं
कि नशा में
मजा आ गया।
दरअसल यह उनका
भ्रम था। नशा
थोड़ी देर के
लिए आपको भुला
देता है। जब-जब हम
जो हैं वह
भूलने लगते हैं
तब-तब अशांत
होंगे। इन दिनों
परिवारों में भी
एक नशा उतर
आया है। सभी
उससे चिंतित भी
हैं पर कुछ
सीखकर उसे दूर
करना नहीं चाहते।
इस नशे से
जुड़ीं पिछले दिनों
आईं दो खबरें
चौंकाती हैं।
घर में घुसकर
एक युवक ने
लड़की को इसलिए
मार डाला, क्योंकि
फेसबुक पर उस
लड़की को पता
लग गया कि
जिससे मेरी चर्चा
होती है वह
लड़की नहीं, कोई
लड़का है। धोखा
देना मनुष्य की
कमजोरी है। कुछ
लोगों को तो
धोखा देने से
ही संतुष्टि मिलती
है। उनके लिए
‘आओ छल करें’ सिद्धांत बन जाता
है। उसमें मददगार
है इंटरनेट की
टेक्नोलॉजी। इसी तरह
छात्र ने शिक्षक
को कक्षा में
जाकर मार डाला।
जाहिर है जब
नशा चढ़ जाता
है तो अपने
होने के बोध
के साथ अच्छे-बुरे की
समझ भी चली
जाती है। आज
जिस परिवार में
देखें, नशे के
कारण या तो
लोग अलग हो
गए या साथ
रहकर परस्पर गलत
आचरण करने लगे।
सब अपने-अपने
हाथों में यंत्र
लेकर अलग दुनिया
में उतर गए।
इसे एकांत नहीं,
अकेलापन कहेंगे, जो अच्छा
लक्षण नहीं है।
नशा एक तरह
से मानसिक लकवा
है, जिसकी चपेट
में कभी-कभी
पूरा घर आ
जाता है।
टेक्नोलॉजी
का यह नशा
जीवन पर भार
है और जब
सिर पर बोझ
रखा हो तो
चाल गड़बड़ाएगी ही।
ऐसे में कोशिश
की जाए कि
तकनीक का उपयोग
कम से कम
घरों में तो
उस सीमा तक
ही हो, जिससे
कि प्रेम, करुणा
और अपनापन खंडित
न हो। तकनीक
का खूब उपयोग
कीजिए पर इन
तीन चीजों को
बचाइए वरना यह
नशा पूरे परिवार
को लील जाएगा।
शरीर से आत्मा
की यात्रा का
अभ्यास करें
हमारी देह जीवन
के एक मोड़
पर साथ नहीं
दे पाती है।
शरीर दो अवस्थाओं
में साथ छोड़
देता है- बीमारी
और बुढ़ापा। दोनों
साथ आ जाएं
तो कष्ट और
बढ़ जाते हैं।
भीष्म को इच्छामृत्यु
का वरदान प्राप्त
था। शरीर के
मामले में इससे
बड़ी विजय क्या
होगी कि वे
ब्रह्मचारी भी थे,
लेकिन जीवन के
अंतिम समय शर-शय्या पर लेटे
थे। वही शर-शय्या हमारे जीवन
में स्थितियां बनकर
आती है। एक
बहुत समर्थ राजनेता
अस्वस्थ हैं।
बड़े लोगों की बीमारी
भी रहस्य बन
जाती है, क्योंकि
उससे कई लोगों
का भविष्य जुड़ा
होता है। हम
अपने शरीर से
जीवनभर खेलते हैं पर
जब यह असहाय
हो जाए तो
दूसरे इससे खेलते
हैं।शरीर से मुक्ति
पाने का आनंद
लेना हो तो
जीवनभर शरीर से
हटकर मन और
मन से हटकर
आत्मा तक की
यात्रा का अभ्यास
किया जाए। आत्मा
तक की यात्रा
कर ली तो
शरीर असहाय होने
पर दूसरे इसका
लाभ उठाएं या
दुरुपयोग करें, आपको परेशानी
नहीं होगी। आपका
तमाशा तो नहीं
बनेगा। जब भी
अवसर मिले, एकांत
में उतरिए और
विचारों को नियंत्रित
करिए। अनियंत्रित विचार
एक तरह की
आधी मृत्यु है।
किसी पागल को
देखिए, उसके भीतर
इतने विचार भर
गए होते हैं
कि वह उनके
विस्फोट के कारण
ऐसा हो जाता
है।
बुरा न मानें
पर अकेले में
हम कभी-कभी
पागलों जैसी हरकत
करने लगते हैं
जब दूसरे देख
नहीं पाते, लेकिन
जैसे ही मेडिटेशन
से विचारों को
नियंत्रित करने की
कला सीख जाएंगे,
बस उस दिन
अपने शरीर व
आत्मा को अलग
करने की कला
भी सीख जाएंगे
और यह तब
बड़ी काम आती
है जब मौत
दस्तक दे रही
होती है। वरना
आज ही हमें
यह उदाहरण समझा
रहा है कि
बड़े-बड़े जाते
समय इतने छोटे
हो जाते हैं
कि हर कोई
उनसे खेलने लगता
है।
मन की रस्सी
काटकर मौन हो
जाएं
मौन साधने से शांति
मिलती है, इसका
लोगों ने उल्टा
अर्थ लिया। चुप
रहकर सोचने लगे
कि शांति मिल
जाएगी, पर चुप
रहना बाहर की
गतिविधि है। मौन
रहना भीतर का
मामला यानी खुद
से बात करना
बंद कर दिया।
चुप होने का
मतलब है दूसरों
से तो बात
नहीं कर रहे
परंतु भीतर चर्चा
जारी है। इसमें
हम और स्वतंत्र
हो जाते हैं।
कुछ भी बोल-सोच सकते
है। इसीलिए चुप
रहने वाले लोग
जरूरी नहीं कि
भीतर से शांत
हों। किष्किंधा कांड
के एक प्रसंग
में वानर लंका
जाने को लेकर
अपने-अपने बल
का प्रदर्शन कर
रहे हैं।
हनुमानजी आंखें बंद किए
बैठे थे। तब
जामवंतजी ने जो
कहा वह हमारे
लिए बहुत बड़ा
संदेश है। तुलसीदासजी
ने लिखा है-
‘कहइ रीछपति सुनु
हनुमाना। का चुप
साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बल
पवन समाना। बुधि
बिबेक बिग्यान निधाना।।
अर्थात हे हनुमान,
आप चुप क्यों
हों? आप तो
बल, बुद्धि, विवेक
और ज्ञान की
खान हों। हनुमानजी
की आंखें बंद
थीं और भीतर
स्वयं से भी
बात नहीं कर
रहे थे। जामवंत
ने इसी को
चुप रहना कहा
है। बाहर से
लोग समझेंगे कि
आप चुप हैं,
लेकिन भीतर मौन
भी रह सकते
हैं।
सबसे बड़ी बाधा
है हमारा मन।
उसके पास ऐसी
रस्सी है, जिससे
वह किसी को
भी, किसी से
भी बांध देता
है। हमें यह
रस्सी काटनी होगी।
फिर मन मुक्त
हो जाता है।
इसका अर्थ यह
नहीं कि कहीं
भी चला जाए।
मतलब यह है
कि जिन-जिन
लोगों से बंधा
है उनसे मुक्त
हुआ। फिर वह
हमारे काबू में
आ जाता है।
हम शांत हो
जाते हैं। तब
दूसरों की बात
ठीक से समझ
भी सकेंगे, अपनी
बात समझा भी
सकेंगे। मौन व्यक्ति
द्वारा कैसे काम
किए जाते हैं,
बिना जुबान हिलाए
कैसे बोला जा
सकता है यह
कला हनुमानजी सिखाते
हैं।
आधुनिक प्रबंधन में अध्यात्म
न भूलें
फकीरों ने जीवन
को अलग-अलग
ढंग से परिभाषित
किया है। जब
हम बुद्ध को
सुनेंगे-पढ़ेंगे तो पाएंगे
जीवन योग है।
महावीर से गुजरें
तो पाएंगे उन्होंने
जीवन को तप
बना दिया। हमारा
परिचय जब ईसा
मसीह से हो
तो जीवन सेवा
दिखने लगेगा। जब
राम से मिलेंगे
तो पाएंगे जीवन
त्याग का नाम
है और कृष्ण
को जानते हैं
तो जीवन में
धर्म क्या है
यह समझ में
आता है।
कुल-मिलाकर सभी यह
कह रहे हैं
कि आपके भीतर
परम शक्ति उतरी
है, क्योंकि आपका
जन्म शक्ति के
मिलन से हुआ
है, जिसे आप
भूल रहे हैं।
जैसे ही वह
शक्ति याद आएगी,
आप दूसरे ही
व्यक्ति हो जाएंगे।
यदि आपने अपने
भीतर परमात्मा की
उपस्थिति स्वीकार कर ली
तो वही आप
दूसरों में भी
स्वीकार कर लेंगे
और दूसरों के
प्रति आपका व्यवहार
बदल जाएगा। आजकल
आधुनिक प्रबंधन में इस
बात के बहुत
फंडे सिखाए जाते
हैं कि अपने
कार्यस्थल पर, अपनी
बिज़नेस लाइन में
लोगों के साथ
कैसा व्यवहार किया
जाए।
एक बहुत बड़े
व्यावसायिक संस्थान में तो
बार-बार यह
कहा जाता था
कि हम एक
कुटुंब की तरह
रहते हैं। अचानक
वहां इतना बड़ा
झगड़ा खड़ा हुआ
कि वे शायद
नहीं जानते कि
व्यावसायिक क्षेत्र के जो
कुछ लोग नैतिकता
से बिज़नेस करना
चाहते थे वे
इससे हताहत हुए
हैं। ऐसा क्यों
हो जाता है?
इसलिए कि हमने
आधुनिक दृष्टि से तो
अपने आपको सक्षम
बना लिया पर
आध्यात्मिक दृष्टि से हम
अपरिपक्व हैं। हम
अपने भीतर काम
नहीं कर पाए
हैं। बड़े पद
पर बैठे लोगों
का ऐसे आपस
में उलझ जाना
आध्यात्मिक अपरिपक्वता का ही
परिणाम है, इसलिए
आधुनिक प्रबंधन में जब-जब नई
शैली पर काम
हो, धर्म और
अध्यात्म को न
भूला जाए।
छोटी बातों पर काम
करें, जीवन यही
है
दिवाली बीती और
हाथ क्या लगा?
इस पर बहुत
कम लोग विचार
कर पाते हैं।
पिछले दिनों खाना,
खर्च और खयाल
के मामले में
लगभग सभी लोगों
को कुछ न
कुछ अनुभव हुआ
होगा। कुछ लोगों
ने हैसियत से
बाहर जाकर खर्च
किया होगा। माहौल
इतना लुभावना था
कि जिनकी हैसियत
नहीं होगी वे
लोन लेकर निपटारा
कर चुके होंगे।
खाने-पीने के
दौर में जिन्हें
मीठे से परहेज
बताया गया हो
उनका भी संयम
टूट जाता है।
फिर हमारे विचार इन
दिनों इतने शोर
में डूबे कि
बहुत कम लोग
होंगे, जो दिवाली
के बाद खुद
को शांत पाएंगे।
जिन लोगों के
पास काम का
दबाव रहा वे
भी अशांत, जो
लोग ज्यादा कुछ
हासिल नहीं कर
पाए वे भी
शांत नहीं होंगे।
इसलिए दिवाली के
बाद शांति से
विचार करें कि
क्यों ऐसा होता
है कि हम
किसी उत्सव या
त्योहार पर ही
बहुत सक्रिय होकर
कुछ अनूठा करने
का विचार करते
हैं। जीवन तो
निरंतरता यानी छोटे-छोटे कामों
को भी ठीक
से करने का
नाम है। इसे
समझना हो तो
तय कर लें
कि जीवन बड़े
अभियानों से ही
नहीं, छोटे-छोटे
कामों से बना
है। आप कैसे
सोते, उठते, बैठते
और बोलते हैं,
जीवन का निर्माण
इन्हीं छोटी-छोटी
गतिविधियों से हुआ
है। मौजूदा वक्त
की अंधी दौड़
में लोग सामान्य
गतिविधियों, जो कि
बहुत महत्वपूर्ण हैं,
के प्रति लापरवाह
हो गए हैं।
जैसे दिवाली पर खाना,
खर्च और खयाल
में इन्वॉल्व थे
ऐसे ही इन
छोटी गतिविधियों के
प्रति होश में
हैं तो तुरंत
हमारी चेतना इन
कर्मों से जुड़
जाएगी। जैसे ही
चेतना जुड़ती है,
किसी भी कृत्य
को करने के
बाद आप अशांत
नहीं रहेंगे। इस
प्रयास के लिए
ही निरंतरता रखनी
होगी, इसलिए छोटी-छोटी बातों
पर भी लगातार
काम कीजिए, जीवन
इसी से बना
है।
श्रद्धा रही तो
परिवार सलामत रहेंगे
लड़ाई हर घर
में होती है।
पहले भी झगड़े
हुआ करते थे,
लेकिन तब लोग
इतने धैर्यवान थे
कि घर के
झगड़े बाहर नहीं
निकालते थे। फिर
लोगों का धैर्य
छूटा और कलह
घर की सीमा
लांघने लगी। पिछले
कुछ दिनों से
देश में सिर्फ
लड़ाई ही लड़ाई
दिख रही है।
घर लड़ ही
रहे थे, अब
धंधे की बड़ी
लड़ाई के साथ-साथ राजनीति
का पारिवारिक दंगल
भी चर्चा में
है। झगड़े तो
होंगे ही। यदि
स्वयं शांत रहने
में सक्षम हों
तो फिर आसपास
घट रहे झगड़े
परेशान नहीं करेंगे।
कलह और झगड़े
की इसी स्थिति
में सर्वोच्च न्यायालय
ने तलाक के
मामले में फैसला
दिया कि शादी
के बाद माता-पिता से
अलग रहने पर
किसी को भी
न्याय का समर्थन
नहीं मिलेगा, क्योंकि
भारत में माता-पिता की
सेवा को पवित्र
दायित्व माना गया
है। ‘शादी इस
व्यवस्था को बदल
नहीं सकती’ यह पंक्ति
लगता है न्यायालय
में किसी ऋषि
ने लिखी है।
आज जब माता-पिता अपने
बच्चों से इस
बात के लिए
अाशंकित हैं कि
वे समय पर
काम आएंगे या
नहीं, तब यह
फैसला बहुत बड़ा
आश्वासन बन जाता
है। झगड़ों के
इस वक्त में
हम अपनी तैयारी
बेहतर कर लें।
खास तौर से
परिवार में अब
प्रेम उतर आए
यह तो थोड़ा
कठिन है, क्योंकि
प्रेम में कहीं
न कहीं वासना
होती है, लेकिन
प्रेम को थोड़ा-सा ऊंचा
चढ़ाकर श्रद्धा में बदल
दें।
दुनिया की सारी
श्रद्धा अकारण होती है।
इस पर कोई
तर्क नहीं हो
कि संतान अपने
माता-पिता की
सेवा करे या
माता-पिता अपनी
संतान का लालन-पालन करें।
इस पर कोई
बहुत ज्यादा विचार
भी नहीं होना
चाहिए। यह सिर्फ
श्रद्धा का विषय
है और जब
बच्चों व माता-पिता में
श्रद्धा समान रूप
से होगी तो
दुनिया कितनी ही झगड़े,
परिवार सलामत रहेंगे।
परिवार की रक्षा
करेगा संयुक्त ध्यान
कहा जाता है
कि जो कोई
भी परमात्मा की
खोज में निकला
और यदि उसे
उस परमशक्ति की
जरा भी अनुभूति
हो गई तो
वह जैसा गया
था वैसा लौटकर
नहीं आता। बाहर
और भीतर से
उसका संपूर्ण व्यक्तित्व
बदला हुआ होता
है। ठीक यही
बात विवाह के
भी साथ है।
जो भी विवाह
नाम की व्यवस्था
में उतरा, वह
फिर वैसा नहीं
रहता जैसा पहले
था, क्योंकि दो
दुनियाएं विवाह के बाद
जब मिलेंगी तो
वैसी रहेंगी ही
नहीं जैसी पहले
थीं।
कई लोग यह
भूल कर जाते
हैं कि हमारी
वही स्वतंत्रता, वही
मस्ती, वही इच्छाएं
कायम रहें। यहीं
से झंझट शुरू
हो जाती है।स्त्री-पुरुष का गठन
कुछ स्तर पर
तो समान है
पर आंतरिक स्तर
पर बिल्कुल अलग।
सामान्य रूप से
देखें तो स्त्री-पुरुष के बीच
इन्द्रियों के आकार-प्रकार में भेद
हो सकता है,
बाकी सब समान
है। किंतु अब
मेडिकल साइंस ने नई
घोषणा की है
कि मस्तिष्क के
स्तर पर भी
स्त्री-पुरुष भिन्न हैं।
जब कोई दवा
दी जाती है
तो जिस प्रकार
से स्त्री का
मस्तिष्क तेजी से
उसे स्वीकार करता
है, पुरुष का
अलग ढंग से
करता है। इसे
ही ऋषि-मुनि
वर्षों पहले कह
चुके हैं कि
योग स्त्री और
पुरुष दोनों को
एक साथ बैठकर
करना चाहिए क्योंकि
इसमें दोनों के
परिणाम अलग-अलग
आएंगे। जहां पुरुष
का अहंकार गलेगा
वहीं स्त्री की
उदासी गिरेगी, क्योंकि
दोनों के मस्तिष्क
आणविक स्तर पर
योग को अलग-अलग रूप
से स्वीकार करेंगे।
परंतु दोनों को
परिणाम शुभ ही
मिलेंगे।
जब परिवार बचाने की
बात आए तो
इन दोनों का
संयुक्त योग, ध्यान
पूरे परिवार की
रक्षा करेगा। श्रीहनुमान
चालीसा से ध्यान
इसे और सरल
बना देता है,
क्योंकि हनुमानजी सर्वस्वीकृत, परिवार
के देवता हैं,
धर्म की सीमाओं
से मुक्त और
शांति के दूत
हैं।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....
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