Friday, September 30, 2016

Jigyasa(जिज्ञासा)

जानें, क्या है दुर्गा शब्द का अर्थ?
मां दुर्गा सभी दु:खों को हरने वाली हैं । वे अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करती तथा उनकी हर मनोकामना पूरी करती हैं। इतना ही नहीं दुर्गा मां का नाम लेने से ही सारे कष्टों का निवारण अपने आप ही हो जाता है। देवीपुराण में दुर्गा शब्द का अर्थ बताया गया है उसके अनुसार-

दैत्यनाशार्थवचनो दकार: परिकीर्तित:।
उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मत:।।

रेफो रोगघ्नवचनो गच्छ पापघ्नवाचक:।
भयशत्रुघ्नवचनश्चाकार: परिकीर्तित:।।

इस श्लोक के अनुसार दुर्गा शब्द में द अक्षर दैत्यनाशक, उ अक्षर विघ्ननाशक, रेफ रोगनाशक, ग कार पापनाशक तथा आ कार शत्रुनाशक है। इसीलिए मां दुर्गा को दुर्गतिनाशिनी भी कहते है। जो भी मां दुर्गा की सच्चे मन से भक्ति करता है माता उसके सभी दु:ख दूर कर उसे अपनी शरण में ले लेती हैं।

क्यों करें भगवान से पहले गुरु की पूजा?
हिन्दू धर्म में आषाढ़ पूर्णिमा गुरु भक्ति को समर्पित गुरु पूर्णिमा का पवित्र दिन भी है। भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु को सर्वोपरि माना है। वास्तव में यह दिन गुरु के रुप में ज्ञान की पूजा का है। गुरु अज्ञान रुपी अंधकार से ज्ञान रुपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं। गुरु धर्म और सत्य की राह बताते हैं। गुरु से ऐसा ज्ञान मिलता है, जो जीवन के लिए कल्याणकारी होता है।

गुरु शब्द का सरल अर्थ होता है- बड़ा, देने वाला, अपेक्षा रहित, स्वामी, प्रिय यानि गुरु वह है जो ज्ञान में बड़ा है, विद्यापति है, जो निस्वार्थ भाव से देना जानता हो, जो हमको प्यारा है। गुरु का जीवन में उतना ही महत्व है, जितना माता-पिता का। माता-पिता के कारण इस संसार में हमारा अस्तित्व होता है। किंतु जन्म के बाद एक सद्गुरु ही व्यक्ति को ज्ञान और अनुशासन का ऐसा महत्व सिखाता है, जिससे व्यक्ति अपने सद्कर्मों और सद्विचारों से जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद भी अमर हो जाता है। यह अमरत्व गुरु ही दे सकता है। सद्गुरु ने ही भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया। इसलिए गुरुपूर्णिमा को अनुशासन पर्व के रुप में भी मनाया जाता है। इस प्रकार व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास गुरु ही करता है। जिससे जीवन की कठिन राह को आसान हो जाती है। जब अध्यात्म क्षेत्र की बात होती है तो बिना गुरु के ईश्वर से जुडऩा कठिन है। गुरु से दीक्षा पाकर ही आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है।

हिन्दु धर्म ग्रंथों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश माना गया है।
गुरुब्र्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरा:।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै: श्री गुरुवे नम:॥

सार यह है कि गुरु शिष्य के बुरे गुणों को नष्ट कर उसके चरित्र, व्यवहार और जीवन को ऐसे सद्गुणों से भर देता है। जिससे शिष्य का जीवन संसार के लिए एक आदर्श बन जाता है। ऐसे गुरु को ही साक्षात ईश्वर कहा गया है। इसलिए जीवन में गुरु का होना जरुरी है।

जगत की हर रचना है गुरु

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हर धर्मावलंबी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रगट करता है। जीवन में सफलता के लिए हर व्यक्ति गुरु के रुप में श्रेष्ठ मार्गदर्शक, सलाहकार, समर्थक और गुणी व्यक्ति के संग की चाहत रखता है। इसलिए वह गुरु के रुप में किसी संत, अध्यात्मिक व्यक्तित्व या किसी कार्य विशेष में दक्ष और गुणी व्यक्ति को चुनना चाहता है।

किंतु इस धारणा के विपरीत पुराणों में आए प्रसंग यह संदेश देते है कि अगर मन में लगन हो, इच्छा शक्ति हो, कुछ जानने, सीखने का दृढ संकल्प हो तो कोई भी व्यक्ति गुरु को कहीं भी पा सकता है। क्योंकि गुरु की महिमा ही ऐसी है कि ईश्वर की तरह गुरु हर जगह मौजूद है। सिर्फ चाहत और दृष्टि चाहिए गुरु को पाने और देखने की।

जगद्गुरु दत्तात्रेय ऐसे ही शिष्य के रुप में भी प्रसिद्ध हैं। जिनके अनेक गुरु हुए। जबकि उन्होनें किसी से गुरु दीक्षा नहीं पाई थी। आखिर यह कैसे संभव हुआ। बात वही थी-ज्ञान पाने की ललक।

गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत में मौजूद हर वनस्पति, प्राणियों, ग्रह-नक्षत्रों को अपना गुरु माना। जिनकी प्रकृति और गुणों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इनकी संख्या २४ थी। इनमें प्रमुख रुप से पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, सूर्य, चंद्र, कबूतर, मधुमक्खी, हाथी, अजगर, पतंगा, हिरण, मछली, गरुड़, मकड़ी, बालक, वैश्या, कन्या, बाण प्रमुख थे। जिनसे उन्होंने कोई गुरु मंत्र और शिक्षा नहीं ली। मात्र इनकी गति, प्रकृति, गुणों को देखकर अपनी दृष्टि और विचार से शिक्षा पाई और आत्म ज्ञान पा लिया। इससे ही श्री दत्तात्रेय जगद्गुरु बन गए।

गुरु दत्तात्रेय ने जगत को बताया कि मात्र देहधारी कोई मनुष्य या देवता ही गुरु नहीं होता। बल्कि पूरे जगत की हर रचना में गुरु मौजूद है। यहां तक कि स्वयं के अंदर भी। जिनको देखना और जानना बहुत जरुरी है।

थकान जरूरत भी है और बीमारी भी...
थकान जरूरत भी है और बीमारी भी। यदि जीवन का संतुलन बिगड़ा और थकान आई तो समझ लीजिए बीमारी आई और यदि वापस ऊर्जा अर्जित करने के लिए विश्राम किया जा रहा है तो ऐसी थकान वरदान भी साबित हो सकती है। इन दिनों जिस तरह की हमारी जीवनशैली है इसमें असंतुलन बहुत अधिक है।

खान-पान, काम-काज, बोल-चाल, रहन-सहन यहां तक उठने-बैठने में भी असंतुलन है। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक शरीर की कुछ नियमित क्रियाएं हैं। आदमी उसे भूल गया है। चलिए महापुरुषों की ओर चलते हैं। बुद्ध बहुत काम किया करते थे और कभी थकते नहीं थे। आज भी कई साधु-संत उतना ही परिश्रम कर रहे हैं जितना एक कॉर्पोरेट जगत का सफल व्यक्ति। फकीर जब रात को सोते हैं तो पूरी बेफिक्री के साथ सो जाते हैं। बुद्ध से उनके शिष्यों ने एक बार पूछा था-आप थकते नहीं। बुद्ध का उत्तर था जब मैं कुछ करता ही नहीं तो थकूंगा कैसे। बात सुनने में अजीब लगती है लेकिन है बड़ी गहरी। अध्यात्म ने इसे साक्षी भाव कहा है। स्वयं को करते हुए देखना। यह वह स्थिति होती है जब तन सक्रिय होता है और मन विश्राम की मुद्रा में रहता है। आज ज्यादातर लोग असमय, अकारण थक जाते हैं, जिसका एक बड़ा कारण है असंतुलित जीवन। एक होता है थकान को महसूस करना और दूसरा है स्वाभाविक थकान। जिस समय आपकी रूचियों में, इच्छाओं में और मूल स्वभाव में धीमापन आने लगे, अकारण चिढ़चिढ़ाहट हो जाए, समझ लीजिए यह थकान बीमारी है। इसलिए प्रतिदिन थोड़ा योग, प्राणायाम, ध्यान करें। ये क्रियाएं अपनेआप में एक विश्राम है। करने वाला कोई और है हम तो कठपुतली हैं उसके हाथ की, यह मनोभाव भी थकान को मिटाएगा। क्या दिक्कत है ऐसा सोच लेने में।

यह होता है गृहस्थी का सबसे मधुर भाग
गृहस्थी परमात्मा का प्रसाद है। पर इसका सबसे मीठा, स्वादिष्ट और महत्वपूर्ण भाग है संतान। जो बच्चे परिवारों में ठीक से पल कर समाज में उतरेंगे वे धरती पर बोझ नहीं, समाज और राष्ट्र के लिए गौरव बनेंगे। किसी ने ठीक कहा है और हमारे ऋषिमुनि भी यही कहते थे कि बच्चों के साथ कभी-कभी बच्चा होना पड़ता है तब उसे बड़प्पन क्या होता है समझ में आता है। अध्यात्म की दृष्टि से बच्चों के लालन-पालन में उन्हें दो चीजें सावधानी से देना चाहिए। और वह है खान-पान। वे क्या खा रहे हैं और क्या पी रहे हैं इससे उनका व्यक्तित्व बनता है।

कबीर लिख गए हैं-
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय। जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी होय।।

जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे, वैसी वाणी होगी अर्थात् शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं, इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है, उसका जीवन वैसा ही बन जाता है।

भोजन से मन बनता है। दरअसल मन अपने निर्माण के बाद जो भोजन करता है उसका नाम विचार है। वह विचार खाता है। जिन बच्चों का मन सात्विक भोजन से बनेगा, फिर वह मन भी सात्विक विचार खाएगा। ऐसे ही पानी से वाणी का संबंध है। जल शरीर में ऑक्सीजन लेकर जाता है। अपनेआप में यह प्राणायाम की क्रिया बन जाती है। बच्चों को सिखाया जाए जल हमेशा बैठकर पिया जाए। जो बच्चे सही शब्द सुनते हैं और सही विचार गुनते हैं उनका व्यक्तित्व पूर्ण होता है।

दूरदर्शिता, याददाश्त और चरित्र खानपान पर निर्भर है। इसलिए बच्चों के साथ यदि सचमुच उनका बचपन जोड़े रखना है तो उनके स्वाद पर नजर रखें और बच्चों को एक चीज पसंद है कि उनसे उन्हीं के लेवल पर आकर जीवन जिया जाए और बड़े इसी में चूक जाते हैं।

जीवन में आनंद यहीं से शुरू होता है...

दुनिया में सबको सब नहीं मिलता। कुछ लोग होते हैं जिन्हें काफी मिल जाता है लेकिन वे भी दुखी रहते हैं। थोड़े ऐसे भी हैं जिन्हें कम मिला वे भी सुखी नहीं हैं और ज्यादातर ऐसे हैं जिन्हें कुछ भी नहीं मिला उन्हें तो परेशान रहना ही है।

संसार के सुख-दुख को समझना पड़ता है। जब इसे जान लेते हैं, समझ लेते हैं तो यहीं से आनंद शुरु होता है। मुस्लिम फकीर इमाम शाफी का खयाल था कि दुनिया बड़ी नाचीज है इसे एक रोटी के एवज में खरीदना घाटे का सौदा है। खाने के मामले में उनका कहना था कि खाना न अच्छा होता है न बुरा। जायके का सारा मामला हलक में उतरने तक ही रहता है, उसके बाद सबका अंजाम एक ही है।

दुनिया में देखा-देखी कर जिन्दगी जीने का सिलसिला चलता है उस पर शाफी कहते थे दूसरे के मुकाबले हमारे पास ज्यादा माल हो, बराबरी करने के ऐसे खयाल तनाव ही देंगे। दूसरे से बराबरी माल की नहीं इबादत की करें। माल यहीं रह जाएगा और इबादत साथ जाएगी। गम और खुशी इन्हीं में बसे हैं लेकिन जब इबादत और गहरी हो जाए तो इसी को फकीर की मौज कहा गया है जिन्हें हिन्दुओं ने आनंद बोला है।

असली मकसद आनंद हासिल करना होना चाहिए। डायोजनीज नाम के फकीर को सिकंदर ने कहा था अभी तो मैं दुनिया जीतने निकला हूं इसलिए आपके पास बैठने में दिक्कत है। तो डायोजनीज ने कहा था दुनिया की यात्रा में तो अभी नहीं हमेशा ही दिक्कत रहेगी, क्योंकि हाथ खुशी मिले या गम, आनंद से फिर भी चूक जाओगे।

रोजाना पूजा से मिलते हैं ये फायदे
ईश्वर से जुडऩे के लिए सबसे सरल माध्यम है पूजा। कर्मकाण्ड में जब भावना अपना महत्व बढ़ाने लगे तो वह पूजा का सही स्वरूप है। पूजा से चार बातें मिलती हैं- अनुशासन, परिश्रम, धैर्य और दूरदर्शिता। इसीलिए न सिर्फ हिंदुओं ने बल्कि सभी धर्मों ने पूजा की एक निश्चित ड्रिल बनाई है।

कब, क्या, कितना करना इसमें एक अनुशासन छिपा है। सबसे पहले सूर्य को अध्र्य दिया जाता है जो धार्मिक कर्मकाण्ड ही नहीं असल में प्रकृति के तेज को प्रतिदिन अपने भीतर आमंत्रित करने की क्रिया है। तुलसी को प्रतिदिन जल चढ़ाया जाए। क्योंकि तुलसी में शांति के तत्व बसे हैं। गाय को गोग्रास देने का अर्थ है एक निश्छल आत्मा को अपने भीतर उतारना। गाय जैसी शुद्ध आत्मा और किसी पशु की नहीं है। पंचदेव माने गए हैं- गणेशजी, सूर्य, दुर्गाजी, विष्णुजी, शंकरजी।

देवपूजा का अर्थ है अपने पुरूषार्थ के साथ किसी और परमशक्ति पर भरोसा करना जो बिल्कुल भी अनुचित नहीं है। नित्य पूजा का अगला क्रम है किसी न किसी ग्रंथ का पाठ प्रतिदिन किया जाए। शुभ साहित्य के शब्द आपके चिंतन को सकारात्मक और सृजनशील बनाएंगे। इसके बाद जीवित माता-पिता, वृद्धजन तथा दिवंगत पितृजनों को प्रतिदिन प्रणाम करने का अर्थ है अपने भीतार की ऊर्जा को ऊपर उठाना।

बड़े-बूढ़े हमारे इस व्यक्तित्वरूपी वृक्ष के बीज हैं और कोई भी पेड़ कभी बीज से बड़ा नहीं होता। नित्य पूजा का यह अनुशासन, परिश्रम हमारे भीतर उस धैर्य और दूरदर्शिता को बढ़ाता है जिसकी जरूरत आज हर क्षेत्र में है। यदि किसी दिन ऐसा न भी कर पाएं तो एक काम जरूर करें, जरा मुस्कराइए...।

ये दो कमजोरियां हमें बना देती हैं अशांत
अपने शरीर से सुख भोगने की तीव्र इच्छा और दूसरे के अंगों की चाहत, ये दो कमजोरियां मनुष्य को शांत और स्वस्थ बने रहने में बाधक हैं। इन दोनों ही मामलों में मौका मिलते ही आदमी अपनी हदें लांघ देता है। एकांत के अवसरों पर तो जानवरों से भी गया-बीता व्यवहार क्रियाएं करने लगता है।

भजन, पूजन, सत्संग, शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी इन कमजोरियों से पार नहीं पा पाते। भीतरी पवित्रता परिपक्व और स्थाई कैसे रहे इसके लिए भारतीय ऋषियों ने एक दिव्य परंपरा निर्मित की है जिसे गुरु दीक्षा कहा गया है। अलग-अलग संतों ने इसकी अपने-अपने हिसाब से व्याख्या की है। आज केवल बुद्ध की ही बात लें। उन्होंने दीक्षा के लिए एक शब्द दिया है स्त्रोतापन्न।

यहां स्त्रोत का अर्थ है जल। ऐसा जल जो किसी उद्गम, स्त्रोत से प्रवाहित है, वह है गुरु। इस जल-पान का नाम दीक्षा है। इसे पीने का तरीका होगा। इसे दूर खड़े होकर नहीं पिया जा सकेगा, इसमें उतरना पड़ेगा, उतरे कि भीगे। भीतर-बाहर से भीगे कि दीक्षा घटी। जैसे ही गुरु कृपा हुई आपको पांच अनुभूतियां एकसाथ होंगी, इन्द्रियां वश में आने लगेंगी, मन में प्रसन्नता बढ़ेगी, चित्त की एकाग्रता सधेगी, अंत:करण पवित्र होने लगेगा तथा कभी-कभी आत्म साक्षात्कार भी होने लगेगा। इस सबका लाभ भौतिक जीवन को मिलेगा ही। इसलिए जीवन में गुरु का आना मात्र एक आध्यात्मिक प्रसंग ही नहीं है यह व्यावहारिक घटना भी है। दीक्षा का आत्मबल हमें कमजोरियों से मुक्त करेगा।

इस तरह भी पूरी हो सकती हैं आपकी इच्छाएं....
संसार टिका है चाहत पर। मनुष्य की इच्छाएं संसार को सजाती हैं, बनाती हैं। जितनी चाह अधिक होगी, संसार से निकटता उतनी ज्यादा होगी। संसार में रहते हुए अच्छी पत्नी, पति, बच्चे, मकान, पद, धन सबको चाहिए। इस चाह के बिना संसार बेकार है।

जब अनेक चीजें पाने की इच्छा हो तो उसे चाहत कहते हैं और जब यही चाहत अनेक की जगह एक के लिए हो जाए उसे अभीप्सा कहते हैं। अभीप्सा का सीधा सा अर्थ है कामना, यानी प्रबल इच्छा। चाहत से संसार मिलता है और अभीप्सा से परमात्मा की प्राप्ति होती है। यह सब सोचने का मामला है। संसारी सोचता है मुझे सब मिल जाए।

उसका यही चिंतन धीरे-धीरे सूक्ष्म होता है और फिर सोचता है सब मिल गया हो या न मिल गया हो सिर्फ एक मिल जाए। जिस दिन एक की कामना होने लगती है यहीं से भक्ति का जन्म होता है। इसलिए अपनी इच्छा और कामना को चिंतन से जोड़े रखना होगा। सुबह-शाम आपके चिंतन में क्या चलता है उससे आपकी चाहत और फिर कामना बनेगी। अध्यात्म में एक शब्द आया है मौलिक चिंतन। जब आप दूसरों के विचारों से संचालित होते हैं तब आप भीड़ का एक हिस्सा होते हैं।

भीड़ संसार का दूसरा नाम है और जितना आपका चिंतन मौलिक होता है उतने ही आप भीड़ से हटकर एकांत में उतरते हैं। और जितना एकांत में उतरेंगे उतना परमात्मा के निकट जाएंगे। इसलिए जब भी कोई चीज सुनें, देखें और पढ़ें सीधे अपने भीतर न उतारें, कुछ न कुछ अपना मौलिक चिंतन उसके साथ जरूर जोड़ लें। चिंतन को मौलिक बनाने के लिए दो काम जरूर करें बोलना और लिखना। अपने विचार को समय पर शालीनता के साथ व्यक्त करें और प्रतिदिन एक पृष्ठ उन विचारों का लिखें, यहीं से मौलिक चिंतन का विकास होगा।

अगर परिवार में पूरी तरह सुख-शांति चाहिए...
हम अपने परिवारों में भौतिक सुविधाओं को जितना जुटाएं उससे कुछ अधिक प्रेम और श्रद्धा को भी भरें। हर घर में बड़े-बूढ़े होते हैं। अब जो बुढ़ापा आ रहा है उसे धन-दौलत, सुख-सुविधा से ज्यादा, समय की जरूरत है। वे चाहते हैं कुछ पल परिवार के सदस्य उनके पास बैठे।

छोटे बच्चों पर प्रेम करना आसान है परन्तु घर के वृद्धों पर प्रेम करना बड़ा कठिन हो जाता है। घर की युवा और प्रौढ़ पीढ़ी के रूप में आप चाहेंगे कि वृद्ध आपकी आज्ञा माने। क्योंकि इस समय आप उनका लालन-पालन कर रहे होते हैं। कई वृद्ध समझ नहीं पाते और वे चाहते हैं आज्ञा तोड़ें, क्योंकि आज्ञा मनवाने में नई पीढ़ी के अहंकार की तृप्ति है और आज्ञा तोडऩे में बीत रही पीढ़ी के अहंकार की तृप्ति है। बूढ़ों को कभी-कभी लगने लगता है हमारे बच्चों का प्रेम एक धोखा है, प्रेम के नाम पर आप बच्चे का शोषण कर रहे हैं।
बड़े अपने बच्चों से प्रेम करें तो समझ लें कोई बड़ी बात नहीं है, महत्व की बात तब होती है जब बच्चे बड़ों के प्रति प्रेम से भर जाएं। यह तभी सम्भव है जब हमारे परिवार का मूल चित्त श्रद्धा से भरा हो। इसलिए परिवार के आधार में, परिवार का प्रत्येक सदस्य श्रद्धा और प्रेम से भरा रहे। तभी दोनों पीढिय़ां एक-दूसरे से प्रेम से जुड़े रहेंगे, आदर और सम्मान बना रहेगा।

हर संतान को यह लग रहा है कि जो हम सीख रहे हैं वह हमने हमारे मात-पिता से नहीं सीखा, मैंने खुद अर्जित किया है। इसलिए आजकल लोग घर के बड़े-बूढ़ों के पास नहीं बैठते, क्योंकि उन्हें जो चाहिए वे मानते हैं पहले से हमारे पास है लेकिन वे भूल जाते हैं बूढ़ी सांसें भी आशीर्वाद से भरी रहती है। जरा सा आशीर्वाद इसका मिल जाए तो भविष्य उज्जवल हो सकता है, जीवन संवर सकता है।

जीवन में मैनेजमेंट के लिए यह समझ जरूरी है

आज के युवा इस बात को जानते हैं कि अब नौकरी मिलने और उसमें बने रहने के मापदण्ड बदल गए हैं। पर्याप्त जानकारी, बुद्धिमानी, जनसम्पर्क, लगनशील, परिश्रम तथा नेतृत्व का गुण ये सब तो जरूरी हैं ही, परन्तु इस समय इन सबसे भी ज्यादा एक गुण प्रबंधन में देखा जाता है और वह है कॉमनसेंस।

इसके कुछ उदाहरण हनुमानजी ने प्रस्तुत किए हैं। लंका जाते समय सिंहिका नाम की राक्षसी मिली थी जिसको उन्होंने मार डाला था। वह ईष्र्या का प्रतीक थी। वह उड़ते हुए लोगों की परछाई पकड़कर उन्हें खा जाती थी। हनुमंतलालजी का मत है कि ईष्र्या को मार डालना चाहिए। ईष्र्यालु लोग अपनी सारी ऊर्जा दूसरों के भाग्य से लडऩे में लगा देते हैं, जबकि यदि मनुष्य को लडऩा है तो अपनी किस्मत से लडऩा चाहिए ताकि उसे बेहतर बना सकें।

भाग्य भले ही ना बदला जा सके किन्तु इस अपरिवर्तित भाग्य का सामना करने के लिए हालात तो बदले ही जा सकते हैं। फिर लंका के द्वार पर लंका की रक्षा करने वाली लंकिनी नामक राक्षसी मिली, उसने हनुमानजी को पहचाना और बलपूर्वक रोकने का प्रयास किया तब उन्होंने लंकिनी को मुक्का मारा और उसे घायल कर दिया। लंकिनी थी तो रक्षक, किन्तु वह रावण जैसे चोर की सेवा में थी। जो रक्षक एक गलत व्यवस्था की रक्षा करें उन पर प्रहार करना चाहिए।

हनुमानजी की चतुराई हमारे लिए प्रेरणादायक है। इसलिए उन्हें कहा गया है कि बिद्यावान गुनी अतिचातुर, फिर पंक्ति आती है-रामकाज करिबे को आतुर-वे आतुर हैं आलसी नहीं। जिसे रामभक्त होना हो, हनुमान भक्त होना हो, वे आलस्य छोड़ दें। अध्यात्म में आलस्य का कोई काम नहीं और अध्यात्म ही क्यों, सांसारिक जीवन में भी आलस्य अपराध है।

ये फर्क है जीने और रहने में...

रहने और जीने में फर्क है। रहते पशु भी हैं लेकिन जीने की संभावना सिर्फ मनुष्यों में होती है। कोई पशु अच्छा होगा तो आज्ञाकारी हो जाएगा, थोड़ी अधिक सेवा कर देगा। इससे ज्यादा वह और कुछ नहीं हो सकता लेकिन मनुष्य के पास हमेशा यह संभावना बनी रहेगी कि वह अपने ही मनुष्य होने का अतिक्रमण कर ले।

इसीलिए मनुष्य होना गौरव की बात है। और हमारा सबसे बड़ा गौरव यह होना चाहिए कि हम इस धरती को जीते-जी क्या देकर जाएंगे। हमारे लेने की सूची बहुत लम्बी है लेकिन देने का हिसाब छोटा और गड़बड़ है। क्या दिया जाए इस पर कभी-कभी भ्रम भी हो जाता है। इसीलिए महापुरुषों की जिंदगी में झांक लेना चाहिए। वे हमें सिखा गए क्या और कैसे दिया जा सकता है। ऐसा ही मनुष्य का एक जीवन जिया था गांधीजी ने।

उन्होंने जो दिया था वैसा कोई भी व्यक्ति दे सकता है बस, गांधीजी के निकट जाना होगा। गांधी पूरी तरह आत्मा पर जिए थे। बाहर और भीतर का अद्भुत संतुलन उनके व्यक्तित्व में था। उनके भौतिक निर्णयों पर मतभेद हो सकते हैं लेकिन उनका अध्यात्म निर्विवाद था। उन्होंने जीवन को सिर्फ शरीर से नहीं जोड़ा बल्कि आत्मा से सम्बद्ध कर दिया था। और वे इस संसार को वह दे गए जो आश्चर्य में डालता है। जो लोग दुनिया को कुछ श्रेष्ठ देना चाहते हैं उन्हें पहले अपने भीतर स्पष्ट होना पड़ेगा।

जितना हम अपने केन्द्र से जुड़ेंगे जो कि भीतर होता है उतना ही हम परिधि पर पड़े हुए संसार को अच्छा दे सकेंगे। अभी हम उल्टा कर जाते हैं। संसार को केन्द्र में रखते हैं और खुद परिधि पर आ जाते हैं। इसीलिए हमारा कॉन्ट्रीब्यूशन भी उल्टा हो जाता है। बेहतर देने के लिए बेहतर होना ही पड़ेगा। जो भीतर जाकर हुआ जाता है।

इसलिए जीवन बेरंग हो जाता है....
जीवन का अपना एक रंग रहता है जो सफेद होता है। जो सपने हम बुनते हैं वे जरूर रंग बिरंगे होते हैं। हिन्दुओं ने सूर्य को जल देने की क्रिया बड़ी अद्भुत बनाई है। जल देकर आह्वान और आभार दोनों व्यक्त किया जाता है। सूर्य से जीवन का रंग चमकीला सफेद मांगा जाता है। इसमें जीवन और तपिश दोनों समाहित है, लेकिन आजकल भौतिक युग में जीवन को इन्द्रधनुषी माना जाता है।
जीवन को सतरंगी बनाने के चक्कर में सारे ही रंग बेरंग हो जाते हैं। इन्द्रधनुषी जीवनशैली में आराम पसंगी, स्वादलिप्सा, प्रतिद्वंद्विता, वासना वृत्ति, भोग-प्रेम, अनियमितत जीवन ये सब समाए हैं। इनके परिणाम में हम बीमारियां पाल लेते हैं। ये जीवनशैली के रोग हैं। क्या क्या रोग हमने पाल लिए हैं, इसे तो हम बेहतर जानते हैं।

चलिए पुन: सूर्य से जुड़ें। सूर्य हमें तप सिखाता है। सूर्य से जीवन को जोडऩे का अर्थ है तपस्वी जीवन, नियमित, संयमित जीवन। विज्ञान बताता है कि सूर्य की किरणें विशेष परिस्थिति से गुजरकर इन्द्रधनुष बनाती हैं। हम स्वयं भी प्रिज्म के द्वारा सूर्य किरणों को इन्द्र धनुष रूप में देख सकते हैं, परन्तु यह अस्थाई है मूल स्वरूप नहीं। वास्तव में सूर्य किरण सफेद चमकीली है, बिल्कुल जीवन ऐसा ही है। हम भोग विलास के प्रिज्म या प्राकृतिक स्थितियां देकर इसे इन्द्रधनुषी बनाते हैं।

यदि हम कभी इन्द्रधनुष को छू सकें तो पाएंगे वह एक दम खाली है भ्रम जैसा आप चाहें तो आरपार निकल सकते हैं। इसलिए जीवन को संयमित रखकर उसके मूल रंग में रखें। अवसाद, आवेश और असुरक्षा का भाव असंतुलित जीवन के परिणाम हैं। रंग विज्ञानी मानते हैं कि सफेद रंग कईग् रंगों का परिणाम है। एक तरह से रंगों की पूर्णता का नाम सफेद रंग है। संयमित जीवन को इसी रूप में लिया जाए।

क्यों इतनी सफलता के बाद भी नहीं मिलती है शांति?
सफलता प्राप्त हो जाए और अशांति भी बनी रहे तो कारण ढूंढना चाहिए इसका एक कारण मोह भी हो सकता है। चलिए श्री हनुमानचालीसा की उन्नीसवीं चौपाई की चर्चा करें।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं।।

आपने रामनाम अंकित मुद्रिका को मुंह में रखा और सौ योजन विस्तृत समुद्र को लांघ गए। आपकी अपार महिमा को देखते हुए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। सीताजी को ढूंढने हनुमानजी समुद्र को लांघ कर लंका में गए थे। यहां समुद्र मोह का प्रतीक है। मोह की वृत्ति को पार करना एक बड़ी चुनौती है। ये पंक्तियां सीता शोध के पूर्व समुद्र तट पर बैठे वानरों के दृश्य की ओर संकेत करती है।

सीताजी भक्ति का प्रतीक हैं। जब हमारी भक्ति का अपहरण हो जाए तो हमें उसे पुन: प्राप्त करने के लिए मोह का सागर पार कर लंका जाना होगा। भक्ति (सीता) का अपहरण क्यों हो गया था, इस पर विचार करें। रावण के कहने पर मारीच ने स्वर्ण मृग का वेश बनाया था। सीताजी इस स्वर्ण मृग पर आकर्षित हो गई थीं।

स्वर्ण मृग क्या है? लोभ है, मोह है। जाते समय लक्ष्मणजी ने अपनी लक्ष्मण रेखा खींच दी थी। लक्ष्मण यानी साक्षात् वैराग्य। रावण (भोग) वेष बदलकर आया था। यह हमारे जीवन की कहानी है। भक्ति का अपहरण रावण कैसे करता है। जब हमारी भक्ति मोह में पड़ जाती है तब भोग वेष बदलकर आता है। वेष बनाने में भोग बड़ा दक्ष होता है। भोग के कई वेष होते हैं।

अहंकार, सम्मान या धर्म के रूप में भी आ सकता है और हम भी उसे अपना लेते हैं। जब भोग हमें आमंत्रित करे तो हमें अपने वैराग्य की रेखा खींचनी चाहिए। हनुमानजी के अलावा मोह का सागर कोई पार नहीं कर सका। इसलिए श्री हनुमानचालीसा का आश्रय लेना चाहिए।

ये मांगें भगवान से प्रार्थना में....
परमात्मा से जब भी की जाए गुण ग्रहण की ही प्रार्थना की जाए। प्रार्थना तो करें परन्तु उसे आचरण में भी लाएं। अन्यथा प्रार्थना फलीभूत नहीं हो पाएगी। गुण ग्रहण की प्रार्थना करने का अर्थ है कि हम सुबह उठकर एक अच्छा काम करने का संकल्प लें और रात सोने से पहले एक बुराई का त्याग करके सोएं। जो ऐसा करते हैं वे गुणग्राही, जीवन को गुणों से सम्पन्न बना लेते हैं। धन से सम्पन्न होना तो सरल एवं सहज है लेकिन गुणों से सम्पन्न होना मुश्किल हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम बुराइयों को छोडऩे और अच्छाइयों एवं गुणों को ग्रहण करने में अपने आपको कमजोर पाते हैं। इस कमजोरी के कारण हम गुणों को देखने के स्थान पर दोष देखने लगते हैं। अपने व्यक्तित्व में सृजन का भाव लगातार विकसित करें। मानव जीवन को कल्पवृक्ष बनाने का श्रेय इन्हीं रचनात्मक विचारों का होता है। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्च स्तरीय विचारों में ही संलग्न करना चाहिए। विचार मानव के जीवन में महान शक्ति है।

वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जैसा बीज होगा वैसा पेड़ बनेगा। जैन मुनि प्रज्ञा सागरजी ने अपनी पुस्तक मेरी किताब में इस विषय पर बहुत अच्छे विचार दिए हैं। उनका कहना है- कुछ लोग दूसरे की कमी क्यों देखते हैं? अपनी कमी को छिपाने के लिए। जैसे लोमड़ी अंगूर तक नहीं पहुँच पाती तो स्वयं को दोष देने की बजाय अंगूरों को दोष देने लगती है। खाने की वासना तो है लेकिन अपनी असमर्थता छुपाने के लिए अंगूर को ही खट्टा बता दिया। ऐसे ही हम भी अपनी कमी छुपाते-छुपाते दूसरों की कमी देखने के आदी हो गए हैं।

रिश्तों के बोझ को ऐसे उठाएं कि जिंदगी हल्की हो जाए...

रिश्तों की जान संवेदना में होती है लेकिन आज रिश्ते भी बोझ बन गए हैं। दुनियाभर का वजन लादे हम लोग रिश्तों का बोझ उठाने में थके-थके से हो जाते हैं और जीवन बोझिल हो जाता है। मुस्लिम फकीर अबुल हसन खिरकानी जिन्दगी में छोटी-छोटी चीजों को अलग ही नजरिए से देखते थे। उनकी बात ठीक से समझ लें तो जिन्दगी के लिए बहुत बड़ा संदेश बन जाएगी। उनकी बीवी बड़ी तुनक मिजाज थीं।

एक दफा एक शख्स अबुल हसन के घर उनसे मिलने गए। उनकी बीवी से पूछा शेख कहा हैं। मोहतरमा पलट कर बोलीं - तू ऐसे नाकाबिल और बुरे आदमी को शेख कहता है, हाँ, मेरा शौहर जरूर जंगल में लकड़ी लेने गया है। वो जनाब पति-पत्नी के रिश्ते की गरमाहट और बोझ को समझ गए और जंगल पहुँचे। देखा तो ताज्जुब में आ गए। अबुल हसन चले आ रहे हैं उनके साथ एक शेर है और उस पर लकडिय़ों का बोझ रखा है। उन शख्स ने फरमाया आपकी बीवी आपके बारे में कुछ और ही अल्फाज कह रही है और आप ये करिश्मा किए जा रहे हैं। इसके जवाब में हसन ने मुस्कुराकर बड़ी गहरी बात कह दी- च्च्सुनो मेरे भाई यदि मैं अपनी बीवी की तुनक मिजाजी का बोझ न उठाऊं तो ये शेर मेरा बोझ क्यों उठाएगा?ज्ज् यदि बोझ ही बन जाएं, जो बन ही जाते हैं तो फिर उन्हें ऐसे उठाएं कि कम से कम जिन्दगी थोड़ी हल्की हो जाए।

हमारा जीवन भी इन बातों की सच्चाई से जुड़ा है। अगर हम रिश्तों के वजन को संवेदनशीलता से लें तो आसानी से जिया जा सकता है। अबुल हसन का जीवन ऐसे ही संदेश देता है, बस हमें इसे समझना है।

जीवन में मैनेजमेंट के लिए यह समझ जरूरी है
आज के युवा इस बात को जानते हैं कि अब नौकरी मिलने और उसमें बने रहने के मापदण्ड बदल गए हैं। पर्याप्त जानकारी, बुद्धिमानी, जनसम्पर्क, लगनशील, परिश्रम तथा नेतृत्व का गुण ये सब तो जरूरी हैं ही, परन्तु इस समय इन सबसे भी ज्यादा एक गुण प्रबंधन में देखा जाता है और वह है कॉमनसेंस।

इसके कुछ उदाहरण हनुमानजी ने प्रस्तुत किए हैं। लंका जाते समय सिंहिका नाम की राक्षसी मिली थी जिसको उन्होंने मार डाला था। वह ईष्र्या का प्रतीक थी। वह उड़ते हुए लोगों की परछाई पकड़कर उन्हें खा जाती थी। हनुमंतलालजी का मत है कि ईष्र्या को मार डालना चाहिए। ईष्र्यालु लोग अपनी सारी ऊर्जा दूसरों के भाग्य से लडऩे में लगा देते हैं, जबकि यदि मनुष्य को लडऩा है तो अपनी किस्मत से लडऩा चाहिए ताकि उसे बेहतर बना सकें।

भाग्य भले ही ना बदला जा सके किन्तु इस अपरिवर्तित भाग्य का सामना करने के लिए हालात तो बदले ही जा सकते हैं। फिर लंका के द्वार पर लंका की रक्षा करने वाली लंकिनी नामक राक्षसी मिली, उसने हनुमानजी को पहचाना और बलपूर्वक रोकने का प्रयास किया तब उन्होंने लंकिनी को मुक्का मारा और उसे घायल कर दिया। लंकिनी थी तो रक्षक, किन्तु वह रावण जैसे चोर की सेवा में थी। जो रक्षक एक गलत व्यवस्था की रक्षा करें उन पर प्रहार करना चाहिए।

हनुमानजी की चतुराई हमारे लिए प्रेरणादायक है। इसलिए उन्हें कहा गया है कि बिद्यावान गुनी अतिचातुर, फिर पंक्ति आती है-रामकाज करिबे को आतुर-वे आतुर हैं आलसी नहीं। जिसे रामभक्त होना हो, हनुमान भक्त होना हो, वे आलस्य छोड़ दें। अध्यात्म में आलस्य का कोई काम नहीं और अध्यात्म ही क्यों, सांसारिक जीवन में भी आलस्य अपराध है।

हम दुनिया में रहें, दुनिया हम में नहीं...
यह दुनिया एक सराय है। इसलिए फकीरों ने कहा है हम दुनिया में रहें दुनिया हम में न रहे। संसार से जितना लगाव बढ़ता है सांसारिक चीजें बेचैनी के उतने ही सामान हमारे भीतर उतार देती है। बलख के बादशाह इब्राहिम की जिंदगी का एक मशहूर किस्सा है। वे अपने दरबार में बैठे हुए थे। उनका मिजाज फकीरी रहता था। हर बात को गहरे तरीके से सोचते थे। एक बार एक शख्स उनके दरबार में सीधा घुस गया और बादशाह के सिंहासन के पास जाकर इधर-उधर देखने लगा। इब्राहिम ने पूछा क्या देख रहे हैं और क्या चाह रहे हैं। उस शख्स ने फरमाया एक-दो दिन का मुकाम चाहता हूँ। बादशाह बोले शौक से रहिए।

उस शख्स ने कहा रह तो जाता लेकिन यह तो सराय है और मुझे सराय में नहीं ठहरना। बादशाह चौंक गए उन्होंने कहा होश में बात करिए यह सराय नहीं बादशाह का महल है। उस शख्स ने फरमाया यह बताओ क्या तुमसे पहले भी इस जगह कोई रहते थे। बादशाह ने कहा- हाँ, मेरे पिता और उसके पहले मेरे दादा। कई पीढिय़ां इससे गुजर गईं। वह शख्स मुस्कुराया और बोला जब इतने लोग यहाँ रहकर चले गए तो फिर यह सराय नहीं हुई तो और क्या हुई। इसी का नाम तो दुनिया है। है सराय की तरह और हम हमेशा का ठिकाना मान लेते हैं। यहाँ कोई किसी का नहीं होता। मजबूर तमन्नाओं के कदम थक जाते हैं पर कोई किसी को सहारा नहीं देता। बादशाह समझ गए बात गहरी की जा रही है और उन्होंने उस शख्स से पूछा- आप कौन हैं तो पता लगा वे हजरत खिज्र थे।

दरअसल हम सब मुसाफिर हैं और मुसाफिर का मकसद मंजिल होता है। अपने मुकाम तक पहुंचने के लिए कुछ हल्के-फुल्के ठिकाने जरूर ले लेता है लेकिन मुसाफिर भूलता नहीं है कि उसकी मंजिल कौन-सी है। हम सबकी मंजिल वह परमशक्ति है, धर्म का मार्ग कोई भी हो।

कैसे मिलता है आनंद...?

बचपन से हमें खानपान के सलीके सिखाए जाते हैं, हमें आ भी जाते हैं। चलिए आज केवल पीने की बात करें, खाने की बात फिर कभी। एक चीज पीना हम नहीं सीख पा रहे, वह है आनंद को पीना। चाहते हुए भी इसका रसपान हम नहीं कर पाते हैं। आते हुए आनंद को भी हम छिटक देते हैं। मंगल भवन अमंगलहारी जैसी चौपाइयों को रटने वाले हम लोग अपने दुख से कम दुखी बल्कि दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी रहते हैं।

यह वृत्ति हमारी आनंद की प्यास को विकृत कर देती है। संसार की हर गतिविधि में, प्रकृति के हर तत्व में रस भरा है। इसे साधन की पद्धति से रिफाईंड करना पड़ता है। इसी प्रक्रिया का नाम आनंद प्राप्त करना है। इस आनंद के घूंट को पूरा स्वाद लेकर पीना है। साधु संत यह कला जानते हैं कि हर सांस के साथ आनंद को कैसे भीतर उतारना है। हम सांसारिक लोग इसके लिए एक अभ्यास कर सकते हैं। जब भी पानी पिएं बैठकर ही पिएं। पीते समय कमर सीधी हो, आंखें बंद हों और पानी का घूंट भीतर उतारते समय महसूस करें कि आप जल नहीं प्रकृति का पूरा प्राण तत्व अपने भीतर घूंट दर घूंट उतार रहे हैं।

अपने ही हाथ से पानी के ग्लास को उचित स्थान पर मानसिक आभार देते हुए रख दीजिए। दिनभर में तीन-चार बार भी ऐसा अभ्यास सध जाए तो अन्य समय आनंद पी जाने में सरलता होगी। जलपान की ऐसी प्रक्रिया अपने आपमें प्राणायाम के परिणाम दे देगी। संत हर घड़ी, हर क्रिया से आनंद उठा लेते हैं। उन्हें तो कोई हार-फूल पहनाता है और उसमें गेंदा हो तो वे यह कह कर आनंद उठा लेते हैं यह संसार गेंदा फूल है, क्योंकि गेंदा एक ऐसा फूल है जो है तो फूल पर फेंक कर मारो तो चोट भी देता है। संत एक साथ हार-फूल और संसार-शूल को समझकर आनंद का रसपान कर लेते हैं।

प्रशंसा वो मदिरा है जो कानों से पिलाई जाती है
प्रशंसा वो मदिरा है जो कानों से पिलाई जाती है। हनुमान जी को अपनी प्रशंसा सुनना प्रिय नहीं था लेकिन तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की चौदहवीं और पन्द्रहवीं चौपाइयों में लिखा है- सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा।। जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते।। हे हनुमानजी! आपका यश कौन गा सकता है। श्री सनक, सनातन, सनंदन, सनतकुमार आदि मुनिगण, ब्रह्मा आदि देवगण, नारद, सरस्वती, शेषनाग, यमराज, कुबेर जैसे बुद्धि-शक्ति सम्पन्न और समस्त दिग्पाल आपका यश गाने में असमर्थ हैं। फिर सांसारिक विद्वान, कवियों की तो बात ही क्या करें। तुलसीदासजी ने पूरी श्रीहनुमानचालीसा में इस बात का ध्यान रखा कि श्री आंजनेय अपनी स्तुति से नाराज न हो जाएं। श्रीराम से जोड़कर यदि प्रशंसा हो तो उन्हें फिर भी मान्य है।

अपनी प्रशंसा न सुनने के स्वभाव के विपरीत श्रीहनुमानचालीसा की पंक्तियों को श्रीहनुमानजी ने इसलिए मान्यता दे दी कि वे अपने भक्तों को, साधकों को निर्णय लेने का पूरा अवसर देना चाहते हैं।

यह जीवन-प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण सूत्र है। यदि इन पंक्तियों से अपने साधकों में नैतिक साहस और नई उत्तेजना पैदा होती है तो यह यशगान श्री आंजनेय को स्वीकार है। प्रबंधन में एक नियम है कि आपके अधीनस्थ या सहायक आपका कहना तब ही मानेंगे या आपके निर्णयों को स्वीकार इस कारण करेंगे कि उन्हें यह भरोसा हो कि आप उनसे अधिक योग्य हैं। बल्कि वे यह भी सोचते हैं कि समय विशेष आने पर आप उनका सही मार्गदर्शन कर सकेंगे।

जन्म और मृत्यु, दोनों का महत्व समान ही हैं
जन्म और मृत्यु का हिसाब हम संसारी लोग अलग-अलग रखते हैं। हमारे हिसाब से याद रखने के लिए जन्म ही है। मृत्यु को लगातार हम भूलने का प्रयास करते हैं लेकिन परमात्मा का हिसाब कुछ और तरीके का है। वे इन दोनों को अलग नहीं रखते।

परमात्मा की दृष्टि में जितना महत्वपूर्ण जन्म है उससे कम हैसियत मृत्यु की नहीं है। उनके लिए दोनों का महत्व समान है। श्रीकृष्ण आधी रात को पैदा हुए थे, राम भरी दोपहरी में आए थे। रात के अंधेरे में आकर श्रीकृष्ण एक बड़ा संदेश यह दे गए कि तुम्हारे जीवन में यदि अंधकार है, तुम प्रकाश की खोज में हो तो भी मैं तुम्हारे जीवन में आ जाऊँगा। जिस समय श्रीकृष्ण पैदा होकर मथुरा से गोकुल लाए गए और नन्दबाबा ने उन्हें चुपचाप यशोदाजी के पास रखा, उस समय गोकुलवासी गहरी नींद में सो रहे थे। जबकि सभी लोग पहले से तय कर चुके थे कि नन्दबाबा के यहां जब अष्टमी को संतान का जन्म होगा तो हम उत्सव मनाएंगे।

कथा ऐसी है कि श्रीकृष्ण के पहले यशोदाजी के यहां योगमाया ने जन्म ले लिया था। भगवान के आने के पहले माया आ जाती है और माया सुलाती है तथा जब मायापति आते हैं तो वे जगाते हैं। जीवन में भगवान के आने का अर्थ यही है कि हम माया से मुक्त हो जाएं। अपनी मृत्यु के समय भी कृष्ण उद्धव को ये उपदेश दे गए थे कि मैं चुपचाप आया और अंत में चुपचाप चला जाऊँगा। जो कुछ घटा है बीच में घटा है। जीवन और मृत्यु के बीच श्रीकृष्ण ने पूरी लीला बता दी। वे कहते हैं जिन्हें ये दोनों याद हैं उन्हें मध्य का जीवन जीने में दिक्कत नहीं आएगी। इसलिए हम भी जन्म और मृत्यु के अर्थ को समान महत्व से समझें और मध्य के जीवन को दिव्य बनाएं।

इन गुणों से मिलती है प्रशंसा और प्रतिष्ठा
ज्ञानियों को दुगुर्णों से दूर रहना चाहिए। ज्ञान और सद्गुण एक साथ कैसे रहें इसकी कला हनुमानजी जानते हैं। हनुमानचालीसा की पहली चौपाई में इन्हें ज्ञान और गुण का सागर लिखा है।

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर

ज्ञान और गुण के सागर हनुमानजी आपकी जय हो। तीन लोक (स्वर्ग, भू और पाताल) आपसे प्रकाशमान हैं। अत: आप कपीस यानी वानरों के राजा हैं। इनका पहला नाम हनुमान लिखा है। जब इन्होंने सूर्य को मुंह में रख लिया था तब इन्द्र ने वज्र का प्रहार कर सूर्य को मुक्त कराया था, प्रहार से इनकी ठोढ़ी टूट गई थी। संस्कृत में ठोढ़ी को हनु कहा है, अत: इनका एक नाम हनुमान पड़ा।

लेकिन हनुमान का एक महत्वपूर्ण अर्थ है जो अपने मान का हनन कर दे वो हनुमान है। हनुमान के भक्त को निराभिमानी होना चाहिए। परमात्मा अहंकार शून्य चित्त में ही उतरते हैं। इन्हें ज्ञान, गुण का सागर कहा है मंदिर नहीं। एक फर्क है मंदिर में पवित्र होकर जाया जाता है। योग्यता मनुष्य की पहचान कैसे बन जाती है देखें, कपीस लिखा है हनुमानजी को। लेकिन वानरों के राजा सुग्रीव थे, हनुमानजी तो उनके मंत्री थे। परन्तु तुलसीदासजी का मानना है जो लोगों के दिल पर राज करे वो असली राजा है।

इसलिए उन्होंने हनुमानजी को राजा संबोधित किया। हनुमानजी पद से नहीं, पद हनुमानजी के नाम से जाना जा रहा है। योग्यता से प्रतिष्ठा को किस प्रकार जोड़ा जा सकता है यह इस चौपाई से पता चलता है, तिहुंलोक उजागर का अर्थ है अपने सद्कर्मों से प्रतिष्ठा अर्जित की जाए तथा उसे सीमित न रखें, उसका विस्तार हो ताकि अधिक से अधिक लोग उससे प्रेरित हो सकें। हनुमान केवल पूजनीय नहीं प्रेरक भी हैं।

इसलिए परिवारों में बिखराव आ रहा है....
यदि बात आचरण में नहीं उतरी तो शब्द वाणी विलास ही रहेंगे फलदायी नहीं होंगे। आचरणहीन शब्द संसार को धोखा दे सकते हैं, परन्तु परमात्मा से कैसे छुपाओगे। इसीलिए संतों ने कहा है जो कहा वह करो, भीतर कुछ बाहर कुछ मत रहो। मन, वचन और कर्म में एकरूपता परमात्मा की पसंद है। आज हम केवल परिवार की बात करें। इन दिनों अधिकांश परिवार अशांति का केन्द्र और उपद्रव के अड्डे बन गए हैं।

हर सदस्य अपने हिसाब से दूसरे सदस्य से मान, सहयोग, प्रेम चाहता है। सारे रिश्ते लेन-देन की डोर में बँध गए हैं। उस पर आधुनिक जीवनशैली ने सुविधाओं से ज्यादा मुगालता दे दिया। जिसे देखो उसे मुगालता है कि सही क्या है इसकी फिक्र छोड़ जो हम कर रहे हैं वही सही है।

अकबर इलहाबादी ने एक बढिय़ा बात कही थी-
हमको नई कशिश के हल्के जकड़ रहे हैं,
बातें तो बन रही हैं पर घर बिगड़ रहे हैं

घर में हर सदस्य अपने शिक्षित होने पर स्वयं को ज्ञानवान और अन्य को मूर्ख समझने का पहला दावा ठोकता है। परिवारों को अध्यात्म से जोड़ा जाए। पूजा और ध्यान परिवार की अनिवार्य दिनचर्या बना देनी चाहिए। ये दोनों काम बच्चों की शिक्षा को जानने से अधिक जीने का विषय बना देंगे। फकीरों ने कहा है थोड़ा जानो, ज्यादा जीओ।

आज आदमी जीना तो भूल ही गया है। बस वक्त गुजार रहा है। इसीलिए सब तरह से सम्पन्न लोग समय के मामले में कंगाल नजर आते हैं। जो लोग दाम्पत्य जीवन को आनंद से बिताना चाहते हैं उन्हें इस गृहस्थ जीवन के सत्य को जानने से अधिक जीने की कला आना चाहिए। और एक कला यह है कि मन, वचन तथा कर्म से अपने परिवारों में एक रहें। बाहर दिए जा रहे धोखे का खेल घर में न खेलें। दुनियादारी में जीतने, विजयी होने का सुख है तो घर में जीने का आनंद है।

सफलता के लिए सख्ती भी जरूरी है...
अपने दायित्व सदैव दूसरों पर थोपे और सौंपे नहीं जा सकते। लेकिन कुछ काम ऐसे भी होते हैं जो खुद भी करना पड़ते हैं और दूसरों से भी कराना पड़ते हैं। कभी-कभी तो खुद करना आसान होता है और दूसरों से काम लेना कठिन हो जाता है। हिन्दू धर्म में अवतारों ने कई उदाहरण ऐसे दिए हैं जिसमें उन्होंने कुछ काम दूसरों से लिए हैं और कुछ खुद ही किए हैं।

यह इस बात पर निर्भर करता है कि काम किस स्तर का है और परिणाम कितने महत्वपूर्ण होंगे। एक बार विष्णुजी ने नारद मुनि को सत्य-व्रत के बारे में समझाया था और कहा था इसका प्रचार संसार में जाकर करो। बाद में भगवान ने निर्णय लिया कि मैं स्वयं भी जाऊं। शतानंद नामक ब्राह्मण के सामने भगवान ने वृद्ध ब्राह्मण का वेष धरा और वार्तालाप किया। ऐसा सत्यनारायण व्रत कथा में आता है।

भगवान ने सोचा जो कुछ मैंने नारदजी को समझाया है क्या वैसा नारदजी संसार में लोगों को समझा सकेंगे? यह भगवान की कार्यशैली है कि वे हर कार्य करने में अत्यधिक सावधानी रखते हैं। कुछ कार्य स्वयं ही करना चाहिए। अपने सहायकों और साथियों पर आधारित रहने की एक सीमा रेखा तय करना होगी। इसका सीधा असर गुणवत्ता पर पड़ता है।

भगवान सत्य-व्रत की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। शत्-प्रतिशत परिणाम पाने के लिए भगवान ने स्वयं की भूमिका को सक्रिय भी रखा और इस बात की चिंता नहीं पाली कि नारद अन्यथा ले लेंगे। प्रबंधन का एक नियम है किसी व्यवस्था में शीर्ष व्यक्ति सदैव अच्छे बनने के चक्कर में असफल बॉस साबित हो जाते हैं। जो नेतृत्व सफलता तक पहुंचता है वह अपने सहायकों, साथियों में सदैव लोकप्रिय रहे यह आवश्यक नहीं है। सख्त और अप्रिय निर्णय भी लेना ही पड़ते हैं।

ऐसी प्रार्थना किसी काम की नहीं...
फकीरों ने कहा कि स्वयं को मिटाए बिना परमात्मा नहीं मिलता। यह संवाद भय पैदा करता है। स्वयं को मिटाने में डर लगता है लेकिन स्वयं को मिटाने का अर्थ है अपने अहंकार को गला देना। इसके लिए एक सरल प्रक्रिया है जप करना। जप कि यह विशेषता है कि नाम की बार-बार आवृत्ति होने पर रस बना रहता है। जप में, प्रार्थना में दरअसल स्वयं को मिटाना होगा।

मिटे बिना न तो सही प्रार्थना हो सकती है और न जप हो सकता है। यदि प्रार्थना करते-करते हम पिघले न, जप करते-करते हम स्वयं को न खो दें तो फिर ये प्रार्थना, हमारी अक्ल का हिसाब ही मानी जाएगा। फिर प्रार्थना एक गणित होगी, एक धंधा होगी।
एक चर्च में एक पादरी प्रवचन दे रहे थे तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई क्योंकि सामने एक बुढिय़ा बैठी थी और पादरी जब भी ईश्वर का नाम लेते वह आमीन-आमीन कहती। आमीन, ओम का ही रूपांतरण है। लेकिन जब पादरी शैतान का नाम लेते तब भी बुढिय़ा कहती-आमीन। पादरी को बड़ी हैरानी हुई। प्रवचन के बाद जब वे मंच से उतरे और बुढिय़ा के पास गए, उस बुढिय़ा से कहा- समझ में नहीं आता कि ईश्वर का नाम लेते समय तो आमीन करते देखा, पर आप शैतान के नाम पर भी आमीन कह रही हैं।

बुढिय़ा ने कहा- यह मेरा मृत्यु का समय है, अंतिम समय है, किसी से भी बुरा क्यों बनें। क्या मालूम संसार से जाने के बाद में किसके पास जाना पड़े? पता नहीं भगवान के हाथ लगें या शैतान के। इसे कहेंगे गणित। यह पूजा नहीं की जा रही है। दोनों को राजी रखना क्या ठीक है? दरअसल यह बुद्धि का हिसाब है। यह मिटना नहीं है, यह मोलभाव है। जप एवं साधना ऐसे नहीं हो सकती, इसमें मिटना ही पड़ेगा।

भगवान को महसूस करना है तो यह करके देखें...
जिन्हें भक्ति करना हो, जो जीवन में शान्ति चाहते हों, अपने व्यक्तित्व में मौलिकता रखना चाहते हों उन्हें प्रकृति के साथ कुछ प्रयोग करना चाहिए। शास्त्रों में लिखा है प्रकृति परमात्मा की पहली और सच्ची प्रतिनिधि है। परमात्मा का रूप मनुष्य ने अपनी रूचि, श्रद्धा और जाति के अनुसार बना लिया है और यदि ऐसे स्वरूप की प्राप्ति न हो रही हो तो प्रकृति से अवश्य जुड़ें।
प्रकृति अपने से जुड़ाव को व्यर्थ नहीं जाने देती। प्रकृति पर एक दिन सुबह से ही विचार कर लें कि आज आप प्रकृति के प्रत्येक हिस्से के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाएंगे। पूरा दिन प्रकृति के लिए होगा। अपनी सामान्य गतिविधि करते रहें लेकिन प्रकृति के जितने हिस्से उस दिन आपको दिखें या उनके संपर्क में आए तो आप उनके प्रति अतिरिक्त रूप से संवेदनशील बन जाएं। जैसे किसी पेड़ को देखें, किसी पक्षी को देखें या पशु को स्पर्श करें तो पूरी तरह प्रेम से भर जाएं।

विचार करें कि हम उस देश में रहते हैं जहां नदी, पहाड़, वृक्ष, पशु-पक्षी पूजे गए हैं। इस तरह से हम सम्पूर्ण पूजा के भाव में डूब जाएंगे। दिनभर में किसी पत्ती को स्पर्श करके विचार करें जैसे आप अपने बच्चे के गाल को स्पर्श कर रहे हैं। कुल मिलाकर आज का दिन प्रकृति के नाम है। इस विचार और कल्पना को अपनी रूचि से जोड़ते और बढ़ाते जाएं। रात को सोते समय चिंतन करें क्या हम आज प्रकृति में समा पाए?

जब हम प्रकृति के प्रति पे्रमपूर्ण रहेंगे तब हम इंसानों के प्रति भी पूरी संवेदनशीलता से भरे होंगे। यह एक अभ्यास है। लगातार उन महान व्यक्तियों का चिंतन करें जिन्होंने प्रकृति से प्रेम किया है तो आज सारे संसार ने उनसे प्रेम किया है। हम भी उनमें से एक क्यों न हों।

कैसे सामना करें बुरे वक्त का...
बुरा वक्त सब के साथ आता है, पर कुछ ही समझदार होते हैं जो उसमें से भी अच्छाई निकाल लेते हैं। जब हमारा समय अच्छा नहीं होता तो हम सबसे पहले यह करते हैं कि इस स्थिति का दोषारोपण करने के लिए किसी दूसरे को ढँूढ़ते हैं। संकट के समय तो राग-द्वेष मिटाकर खुले दिल से सबको स्वीकार करना लाभकारी होगा। इसके लिए एक आध्यात्मिक अभ्यास करते रहना चाहिए।

दरअसल हम सारे अभ्यास तब शुरू करते हैं जब समय उल्टा आता है। सतत अभ्यास से विपरीत वक्त का प्रवाह, झोंका हल्का हो जाएगा। अध्यात्म कहता है स्वयं को लगातार वीतरागी बनाते रहो। वीतरागी होना वैरागी से थोड़ी ऊपर की स्थिति है। राग का अर्थ है सुख की उम्मीद दूसरे से करना। जब वो पूरी नहीं होती है तो द्वेष शुरू हो जाता है।

कुछ लोग द्वेष तो मिटा देते हैं उन्हें वैरागी कहेंगे, लेकिन कहीं न कहीं वे राग से जुड़े रहते हैं। द्वेष पर इनका नियन्त्रण है पर राग से जुड़े हुए हैं। वीतरागी जो होता है वह राग-द्वेष दोनों से ऊपर है। जीवन में विपरीत समय आना ही है ऐसे में वीतरागी वृत्ति का अभ्यास शत्रु-मित्र, अपने-पराए, राग-द्वेष से मुक्त करेगा और स्थितियों को सुलझाने में हर ओर से मदद मिल जाएगी। बुरे वक्त में तनाव कम होगा क्योंकि वीतराग भाव बाहर से काटकर हमें भीतर ले जाता है जहाँ आनंद का स्रोत है।

मदर टेरेसा के जीवन की एक घटना है। वे शुरू से ही सुंदर और सुशील थीं। आरम्भ में उनका लक्ष्य संन्यासिन बनने का था भी नहीं। लेकिन एक बार एक बीमारी के कारण वे बहुत कमजोर और कृशकाय हो गईं। सौंदर्य वैसा नहीं रहा। तब स्वयं से उन्होंने पूछा मेरे भीतर ऐसा क्या है जो सदैव बना रहेगा, मिटेगा नहीं और वे सेवा के क्षेत्र में उतर गईं। विपरीत से श्रेष्ठ कैसे निकाला जाए यह इसका उदाहरण है।

भगवान आपकी बात सुनेंगे, जरा ऐसे पुकारें
परमात्मा को पुकारने के लिए शोर से अधिक शून्य की जरूरत होती है। इस शून्य को मौन भी कहा गया है। ईसा मसीह ने ईश्वर के लिए एक बड़ा आश्वासन यह दिया है कि जैसे ही हम उसे पुकारेंगे वह चला आएगा। उसका द्वार खटखटाएंगे वह दरवाजा खोल देगा। उसे याद करेंगे वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा। कुल मिलाकर इसका अर्थ यह है कि भरोसा रखो, ईश्वर क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर करता है।

भक्तों के मामले में वह लापरवाह, निष्क्रिय और उदासीन बिल्कुल नहीं है। उसे बुलाने के लिए एक गहन आवाज लगाना पड़ती है। इसी का नाम संतों ने शक्ति कहा है। परमात्मा के सामने आप स्वयं को जितना निरीह, दीनहीन बनाएंगे आध्यात्मिक दुनिया में उतने ही शक्तिशाली माने जाएंगे। इसीलिए कहते हैं प्रार्थना करते समय यदि आंसू आ जाएं तो समझ लीजिए प्रार्थना शक्तिशाली हो गई।

तीन दरवाजे हैं जहां से शक्ति प्रवेश करती है-मन, वचन और शरीर। मन की चूंकि अनेक भागों में बंटने की रूचि होती है इसलिए वह शक्ति को भी तोड़ देता है। व्यर्थ और अनर्थ की बातचीत वचन की शक्ति को कमजोर करती है। और शरीर से तो हम स्वास्थ्य के मामले में लापरवाह होकर अपनी दैहिक शक्ति को खो बैठते हैं। यदि इन तीनों के मामले में सावधान रहा जाए और फिर परमात्मा को पुकारा जाए तो वह पुकार अपने परिणाम देगी। ज्यादातर लोग परमात्मा तक कैसे पहुंचे इसके तरीकों में उलझ जाते हैं और जीवन बीत जाता है।

सीधा सा तरीका है उसके सामने पहुंच जाओ और जैसे हम होते हैं वैसे ही हम बने रहें। उदाहरण के तौर पर कोई भीखारी हमारे सामने आकर खड़ा हो जाए और वह कुछ न कहे तो भी हम समझ जाएंगे ये क्यों खड़ा है? बस ऐसे ही परमात्मा के सामने अपने होने के साथ खड़े हो जाएं। बाकी जिम्मेदारी फिर उसकी है।

इस प्रार्थना को जल्दी सुनते हैं भगवान...
अध्यात्म का एक स्वरूप है आनन्द की खोज। जो लोग परमपिता परमेश्वर से जुडऩा चाहें उन्हें मुस्कुराना जरूर आना चाहिए। हर धर्म ने मुस्कुराहट को अपने-अपने तरीके से जरूरी ही माना है। मुस्कुराहट आनन्द की सतह है। जैसे समंदर में लहरें उठती हैं ऐसे ही आनन्द के समुद्र में मुस्कुराहट की लहर उठती है।

आजकल देखा गया लोग घर से निकलते हैं अपने धंधे-पानी, नौकरी-पेशा तक जाते-जाते जितने लोग मिलते हैं सबको देखकर मुस्कुराते हैं और घर आते ही एकदम सीरियस हो जाते हैं। घर में एक-दूसरे सदस्यों को देखकर कोई नहीं मुस्कुराता। हम घर में आपस में झगड़ते हैं और दूसरों को देखकर मुस्कुराते हैं। अपनों से मिलकर हंसिए।

जिस क्षण हम मुस्कुराते हैं परमात्मा मुड़कर हमारी ओर चलने लगता है। जो स्माईल जीने की चीज है वह लेने और देने की चीज बन गई है। हम मुस्कुराहट को भी शस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं जबकि वह हमारी शान्ति का कारण हो सकती है। कई लोगों की हंसी भी बीमार हो गई है। कई लोगों ने स्माईल को भी बिजनेस पीस बना डाला है। अब तो देखा गया है द्विअर्थी संवाद या अश्लील चर्चा पर ही लोग हंसते हैं।

जिन्हें भक्ति करना हो, जो सद्गुण अपनाना चाहें, जो शान्ति की खोज में हों उन्हें सदैव अपनी हंसी को प्रेम और करुणामयी बनाए रखना चाहिए। फकीरों को हंसता हुआ देखिए। उनकी हंसी में चोट नहीं होती और हम किसी को गिरता हुआ देखकर भी हंसने लगते हैं। यह बहुमूल्य क्रिया है। इसे प्रेम के साथ प्रदर्शित करिए। इसलिए सुबह हो या शाम, अपनों से मिलें या गैरों से, घर के भीतर हों या बाहर, जब भी मौका मिले जरा मुस्कुराइए...परमात्मा यह प्रार्थना जरूर सुनता और देखता है।

जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं...
माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता।

एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और जब अवसर आया तो वह हमें प्रेम नहीं दे रहा, वह लौटा नहीं रहा।

इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है।

जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा न करें इसे सहज बहने दें।

कोई पुरुष स्त्री के सामने कब हो जाता है बोना?
गृहस्थी बसाना सभी को पसंद है भले ही मजबूरी हो या मौज। अधिकांश लोग इससे गुजरते जरूर हैं। जब-जब गृहस्थी में अशांति आती है तब आदमी इस बात को लेकर परेशान रहता है कि क्या किसी के दाम्पत्य में शांति भी होती है। समझदार लोग गृहस्थ जीवन में शांति तलाश लेते हैं।

आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने एक वक्तव्य में गृहस्थी में अशांति के कारण को वासना भी बताया है। उन्होंने कहा है वासना के कारण पुरुष स्त्री के प्रति और कभी-कभी स्त्री पुरुष के प्रति जैसा द्वेष भाव रख लेते हैं उससे परिवारों में उपद्रव होता है। एंजिलर मछली का उदाहरण उन्होंने दिया है। यह मछली जब पकड़ी गई इसका आकार था 40 इंच। मामला बड़ा रोचक है लेकिन नर एंजिलर पकड़ में नहीं आ रहा था क्योंकि वह उपलब्ध नहीं था। एक बार तो यह मान लिया गया कि इसकी नर जाति होती ही नहीं होगी। लेकिन एक दिन एक वैज्ञानिक को मादा मछली की आंख के ऊपर एक बहुत ही छोटा मछली जैसा जीव नजर आया जो मादा मछली का रक्त चूस रहा था। यह नर मछली था। मादा का आकार 40 इंच था और नर का 4 इंच। पं. शर्मा ने इसकी सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि नारी को भोग और शोषण की सामग्री मानने वाला पुरुष ऐसा ही बोना होता है। जो मातृशक्ति को रमणीय मानकर भोगने का ही उद्देश्य रखेंगे वे जीवन में एंजिलर नर मछली की तरह बोने रह जाएंगे।

हम इस में यह समझ लें कि जानवरों में उनकी अशांति का कारण वासनाएं होती हैं। केवल बिल्ली की बात करें बिल्ली का रुदन उसकी देह की पीड़ा नहीं उसकी उत्तेजित कामवासना का परिणाम है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी इनके परिणाम भोगता है और उसका रुदन ही परिवार में अशांति का प्रतीक है।

वरुणदेव के अवतार हैं भगवान झूलेलाल
सिंधी समाज चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को भगवान झूलेलाल का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाता है। सिंधी समाज के कई ग्रंथों में भगवान झूलेलाल का वर्णन है। भगवान झूलेलाल के जीवन से जुड़ी पूरी कहानी इस प्रकार है-

संवत 1007 में पाकिस्तान में सिंध प्रदेश के ठट्टा नगर में मिरखशाह नामक एक मुगल सम्राट राज्य करता था। उसने जुल्म करके हिंदू आदि धर्म के लोगों को इस्लाम स्वीकार करवाया। उसके जुल्मों से तंग आकर एक दिन सभी पुरुष, महिलाएं, बच्चे व बूढ़े सिंधु नदी के पास इकट्ठा हुए और उन्होंने वहां भगवान का स्मरण किया। कड़ी तपस्या करने के बाद, सभी भक्तजनों को मछली पर सवार एक अद्भुत आकृति दिखाई दी। पल भर के बाद ही वह आकृति भक्तजनों की आंखों से ओझल हो गई तब आकाशवाणी हुई कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए मैं आज से ठीक सात दिन बाद श्री रतनराय के घर में माता देवकी की कोख से जन्म लूंगा। निश्चित समय पर
रतनरायजी के घर एक सुंदर बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम उदयचंद रखा गया।

मिरखशाह के कानों में जब उस बालक के जन्म की खबर पहुंची तो वह अत्यंत विचलित हो गया। उसने इस बालक के मारने की सोची, परंतु उसकी चाल सफल नहीं हो पाई। तेजस्वी मुस्कान वाले बालक को देखकर उसके मंत्री दंग रह गए। तभी अचानक वह बालक वीर योद्घा के रूप में नीले घोड़े पर सवार होकर सामने खड़ा हो गया। अगले ही पल वह बालक विशाल मछली पर सवार दिखाई दिया। मंत्री ने घबराकर उससे माफी मांगी। बालक ने उस समय मंत्री को कहा कि वह अपने हाकिम को समझाए कि हिंदू-मुसलमान को एक ही समझे और अपनी प्रजा पर अत्याचार न करे लेकिन मिरखशाह नहीं माना। तब भगवान झूलेलाल ने एक वीर सेना का संगठन किया और मिरखशाह को हरा दिया। मिरखशाह झूलेलाल की शरण में आने के कारण बच गया। कुछ समय पश्चात भगवान झूलेलाल संवत् 1020 भाद्रपद की शुक्ल चर्तुदशी के दिन अन्र्तधान हो गए।

एक दिन ऐसा करके देखें, जीने का नजरिया बदल जाएगा
जीवन को यदि गरिमा से जीना है तो मृत्यु से परिचय होना आवश्यक है। मौत के नाम पर भय न खाएं बल्कि उसके बोध को पकड़ें। एक प्रयोग करें। बात थोड़ी अजीब लगेगी लेकिन किसी दिन सुबह से तय कर लीजिए कि आज का दिन जीवन का अंतिम दिन है, ऐसा सोचनाभर है। अपने मन में इस भाव को दृढ़ कर लें कि यदि आज आपका अंतिम दिन हो तो आप क्या करेंगे।

बस, मन में यह विचार करिए कि कल का सवेरा नहीं देख सकेंगे, तब क्या करना...? इसलिए आज सबके प्रति अतिरिक्त विनम्र हो जाएं। आज लुट जाएं सबके लिए। प्रेम की बारिश कर दें दूसरों पर। विचार करते रहें यह जीवन हमने अचानक पाया था। परमात्मा ने पैदा कर दिया, हम हो गए, इसमें हमारा कुछ भी नहीं था। जैसे जन्म घटा है उसकी मर्जी से, वैसे ही मृत्यु भी घटेगी उसकी मर्जी से।

अचानक एक दिन वह उठाकर ले जाएगा, हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे। हमारा सारा खेल इन दोनों के बीच है। सच तो यह है कि हम ही मान रहे हैं कि इस बीच की अवस्था में हम बहुत कुछ कर लेंगे। ध्यान दीजिए जन्म और मृत्यु के बीच जो घट रहा है वह सब भी अचानक उतना ही तय और उतना ही उस परमात्मा के हाथ में है जैसे हमारा पैदा होना और हमारा मर जाना।

इसलिए आज ऐसा महसूस करें आज आखिरी दिन है। कल रहें न रहें तो क्यों न आज जिएं। प्रेम से जिएं उस परमात्मा की मर्जी से जिएं। हमारे कई संत-महात्मा अपने जीवन के हर दिन को मौत की मस्ती के साथ जीते थे। क्योंकि इन लोगों का मानना था कि जन्म परमपिता परमेश्वर ने दिया है तो समापन भी वे ही करेंगे और उनका यही बोध कि आज का दिन अंतिम हो सकता है, उनको अमर बना गया। इसका एक आसान तरीका है जरा मुस्कुराइए...।

हनुमान ही दे सकते हैं यश और लक्ष्मी एक साथ...
हम मनुष्यों की एक बड़ी मांग ऐश्वर्य प्राप्ति की रहती है। छह प्रकार के ऐश्वर्य बताए गए हैं-धर्म, अर्थ, ज्ञान, यश, श्री और वैराग्य। श्रीराम ने यश और लक्ष्मी दोनों हनुमानजी को दी है तथा हमको यश और लक्ष्मी हनुमानजी ही दे सकते हैं।

श्री हनुमानचालीसा की तेरहवीं चौपाई में लिखा है-
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।

आपके यश का गान हजार मुख वाले शेषनाग भी सदैव करते रहेंगे। इस प्रकार करते हुए लक्ष्मीपति विष्णु स्वरूप श्रीराम ने उन्हें अपने गले से लगाया है। इसमें तुलसीदासजी कह रहे हैं कि आपका यश अनंतकाल तक असंख्य रूप में गाया जाएगा। यहां कहा गया है कि श्रीपति ने आपको कंठ से लगाया। श्रीपति का अर्थ है लक्ष्मीपति। गोस्वामीजी ने यहां सोच समझकर श्रीराम को श्रीपति संबोधित किया है।

हमें एक बात ध्यान में रखना होगी। भक्तों पर कृपा करने की भगवान की अपनी एक व्यवस्था होती है। हमें गहराई में जाकर समझना होगा कि भगवान नियंता ही नहीं, एक नियम भी हैं। जैसा धरती का एक नियम गुरुत्वाकर्षण का होता है। विज्ञान कहता है धरती का स्वभाव है कि वह वस्तु को अपनी ओर खींचती है। यह धरती का नियम है। असावधानी से चलते हुए यदि हम गिर जाएं और यह कहें कि धरती का स्वभाव है खींचना, इसीलिए हम गिर गए तो हम गलत हैं।

हम अपनी ही गलती से गिरे हैं। इसी तरह परमात्मा का नियम अपनी जगह है। जैसे नदी का स्वभाव सागर में मिलना है, उसका मिलना तय है। अब वह चट्टान से टकराकर जाए, मुड़कर जाए, जिस प्रकार से भी जाए। नियम यह है कि उसे सागर में मिलना है। उस नियम का पालन हमें करना चाहिए। इसका पालन करने में श्री हनुमानचालीसा हमारी मार्गदर्शक और सहयोगी है।

हनुमान से सीखें महत्वकांक्षाओं को पूरा करने का तरीका
अपनी महत्वाकांक्षाओं को हर हालत में पूरा करने का यह दौर है। तुलसीदास जी ने इस महत्वाकांक्षा को ही मनोरथ कहा है।

कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा

मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है, ऐसा धैर्यवान कौन है जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो। आगे उन्होंने इसे और साफ करते हुए कहा है-

सुत बित लोक ईषना तीनी, केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी

पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलीन नहीं कर दिया, यानी बिगाड़ नहीं दिया। अच्छे-अच्छे इस चक्कर में उलझ गए। आज के प्रबंधन की भाषा में इसे ही अति व्यावसायिक दृष्टिकोण कहा गया है।

मान लिया गया है कि अपने लक्ष्य की पूर्ति में संवेदनाएं खतरा हो सकती हैं। अत: सिर्फ प्रोफेशनल एट्यीट्यूड रखो। व्यक्तिगत, संवेदनशील सम्बन्ध कुछ नहीं होते। सम्बन्ध काम के रखे जाएं, दिल के नहीं। अब तो आदमी इतना कामकाजी हो गया है कि दिल के भी सौदे करने लग गया। इस दौर में जो लोग जॉब शिफ्ट या जंप करते हैं ज्यादातर मौकों पर उनके साथ यही होता है कि वे या तो अपने पुराने मैनेजमेंट को भूल ही जाते हैं या उनके पुराने मालिक उनकी सूरत नहीं देखना चाहते।

हनुमानजी से सीखें कि सारे व्यावसायिक दायित्व रखते हुए भी सम्बन्धों में संवेदनाओं की गरिमा कैसे रखी जाए। रावण को मारकर जब राम अयोध्या लौटे तो कुछ समय बाद उन्होंने सभी वानरों को विदा किया। हनुमानजी थे तो राजा सुग्रीव के सचिव पर अब श्रीराम के साथ रहना चाहते थे, बड़ी मर्यादा से उन्होंने सुग्रीव से अनुमति ली थी-

तब सुग्रीव चरन गहि नाना, भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना

सुग्रीव के चरण पकड़कर हनुमानजी ने अनेक प्रकार से विनीती की। उनके स्पष्ट और संवेदनशील व्यवहार के कारण ही उनके पुराने बॉस सुग्रीव को कहना पड़ा-

पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा, सेवहु जाइ कृपा आगारा

पवनकुमार तुम पुण्य की राशि हो, जाओ कृपाधाम राम की सेवा करो। हनुमानजी से सीखें अपने मनोरथों की पूर्ति में संवेदनाओं की गरिमा को कैसे जीवित रखें।

ऐसा हो रिश्ता पति-पत्नी का....
श्रीरामजी को वनवास जाना था। वे चाहते थे सीताजी माँ कौशल्या के पास रुक जाएं। सीताजी उनके साथ जाना चाहती थीं। कौशल्याजी भी चाहती थीं सीता न जाए। सास, बहू और बेटा, ऐसा त्रिकोण यहां पैदा हो गया था।
दुनिया में इस रिश्ते ने कई घर बना दिए और बिगाड़ दिए। लेकिन रामजी के धैर्य, सीताजी की समझ और कौशल्याजी की समझ ने रघुवंश का इतिहास बदल दिया। हमारे अवतारों की यह घटनाएं हमें अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों में बड़े-बड़े संदेश दे जाती हैं। हमारे परिवारों में सास-बहू पति-पत्नी के संबंधों में जो विच्छेदन आता है उसका बड़ा मनोवैज्ञानिक संकेत है।

जब कोई किसी परिवार में किसी पर निर्भर होता है तो परिवार के सदस्य को लगता है कि हम उसकी जरूरत पूरी कर रहे हैं। माँ-बाप बच्चों को जब बड़ा करते हैं तो वे इसलिए प्रसन्न रहते हैं कि बच्चे उन पर निर्भर हैं। जैसे ही बच्चे बड़े हो जाते हैं तो वे अपना काम खुद करने लगते हैं। उनका अपना संसार बस जाता है, अब वो माँ-बाप पर निर्भर नहीं हैं। तब एक मनोवैज्ञानिक भीतरी अन्त:विरोध शुरू होता है।

सास-बहू के झगड़े का एक कारण यह भी होता है कि सास सोचती है कि इस बेटे को जो सदा से मेरे ऊपर निर्भर था, मुझे उसे बुद्धिमान बनाने में २५ साल लगे और इस नई औरत ने पांच मिनट में उसको बुद्धू बना दिया। जो बेटा सदा से मुझ पर निर्भर था वह आज इस पर निर्भर हो गया। यही हाल पति-पत्नी के होते हैं। वह भी एक-दूसरे को एक-दूसरे पर निर्भर करना चाहते हैं। दाम्पत्य का आधार प्रेम होना चाहिए।

हम पहले भी यह बात कर चुके हैं कि जिस परिवार के केन्द्र में प्रेम होगा वह परिवार फिर अहंकाररहित होगा उसमें बड़ा-छोटा, तेरा-मेरा नहीं होता और इसलिए विरोध की संभावना समाप्त हो जाती है।

भगवान को पाना हो तो पहले यह करें...

असंतुष्ट रहना मन का स्वभाव है। इसी खिन्नता के चलते मन व्यक्तित्व के भीतर कुछ स्थाई असंतोष के भाव भर देता है और इसीलिए अनेक लोगों को यह लगने लगता है कि हमें जो कुछ भी उपलब्ध हुआ है वह हमारी योग्यता से कम है और दूसरों को देखकर स्वयं यह सोचने लगता है कि जो अयोग्य हैं वह हमसे आगे निकल गए।

अपना मूल्यांकन करते समय मनुष्य अपनी योग्यताओं की तरफ कम और न मिली उपलब्धियों की ओर ज्यादा झुक जाता है। यहीं से बेचैनी शुरू होती है। हमारा अहंकार इसमें और उछालें देने लगता है। मन जो असंतुष्ट था वह और चंचल हो जाता है। चंचल मन में परमात्मा की झलक नहीं दिखती और ऐसी स्थितियों में जितना अधिक हम परमात्मा को महसूस करेंगे उतना ही जल्दी हम शान्त हो जाएंगे।

मन विक्षिप्त होकर संसार की ओर अधिक भागता है और जितना शान्त है परमात्मा की ओर उतना अधिक चलेगा। यहां एक बात समझ लें परमात्मा को पाने का अर्थ यह नहीं है कि संसार को नकारा जाए। अध्यात्म तो कहता है परमात्मा और संसार दो अलग-अलग बातें नहीं हैं। संसार अपनी जगह है और उसे स्वीकार भी करना है लेकिन संसार में परमात्मा देखने की दृष्टि बनाए रखना है।
जैसे ही संसार में परमात्मा को अधिक देखने लगते हैं वैसे ही हम इस सोच के प्रति स्पष्ट हो जाते हैं कि जितनी हमारे भीतर कमजोरियां हैं उनके मुकाबले हमें कष्ट और दु:ख कम मिले हैं और जितने हम योग्य हैं उससे अधिक हम प्राप्त कर चुके हैं। अपने दुर्गुणों के मुकाबले मान और प्रतिष्ठा पर्याप्त मिल चुकी है। योग्यता से अधिक या तो छल से मिलेगा या प्रभु कृपा से। छल का परिणाम वापस कष्ट ही होगा और प्रभु कृपा से प्राप्त उपलब्धि में प्रसन्नता है।

ये तीन चीजें बनाती हैं हमें योग्य...

आप किसी भी क्षेत्र में हों योग्यता के तीन प्रमाण माने जाते हैं। निरंतरता, विश्वसनीयता और समर्पण। कार्य के प्रति प्रयासों में जो निरंतरता होती है उससे आलस्य दूर होता है। हमारी कार्यशैली से बासी और ऊबाउपन चला जाता है। हमारा पूरा व्यक्तित्व ताजा रहता है। आज के समय में यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी कि आप किसी की नजर में विश्वसनीय माने जा रहे हैं।
ईमानदारी का प्रकट रूप है समर्पण। जो भी करें, जमकर करें। हनुमानजी में ये तीनों गुण थे। उनसे बल, बुद्धि और विद्या की माँग की जाती है। हनुमानचालीसा के आरंभ के दूसरे दोहे में लिखा गया है

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार,
बल बुद्धि विद्या देहु मोही, हरहु कलेस विकार

अर्थात् -मैं अपने को बुद्धिहीन जानकर आपका स्मरण कर रहा हूं, आप मुझे बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करके मेरे सभी कष्टों और दोषों को दूर करने की कृपा करें।

इसके पीछे सूत्र यह है कि बुद्धि विश्वसनीय हो, बल में समर्पण भाव रहे और विद्या निरंतर यानी सक्रिय रहे, जड़ न हो जाए।इन तीनों का जब संतुलन जीवन में होगा तो क्लेश (कष्ट), विकार (दोष) दूर हो सकेंगे। क्लेश पांच हैं-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्यु का भय)। क्लेश मनुष्य को पीड़ा पहुंचाते हैं।

पीडि़त मन कभी शांत नहीं हो सकता और विकार छ: माने गए हैं-काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, भत्सर (ईष्र्या)। ये छ: मनुष्य को उसके लक्ष्य से भटकाते हैं। विकारों में जकड़ा हुआ व्यक्ति लक्ष्य की ओर ठीक से चल नहीं सकता। यह हनुमानजी की विशेषता है कि वे मनुष्यों के क्लेश और विकारों को पहचानते भी हैं और दूर करना जानते भी हैं।

मौत को समझने के यह तीन रास्ते हैं...
जीवन मिला है तो मृत्यु तय है। दुनिया की सबसे तयशुदा घटना है मौत। हम जीवनभर बहुत सारी ऊर्जा उन बातों पर लगाते हैं जो तय नहीं हैं। जो अस्पष्ट है, ना ही भरोसे का है हमारी इच्छाएं उसी की ओर दौड़ती हैं। इच्छाएं और वासनाएं जितनी हावी होंगी हमारी गुप्त शक्तियां प्रकट होने में उतनी ही देर लगेगी।

जितना हम गुप्त शक्तियों को जाग्रत कर लेंगे उतना हम मृत्यु को जान लेंगे। अब सवाल यह उठता है कि मौत को जानना क्या जरूरी है, जब आएगी तब आएगी और उसके बाद किसने देखा, क्या हुआ? एक वर्ग इस सिद्धांत से जीवन जीता है और दूसरा वर्ग है भयभीत लोगों का। ये जीवन को मौत के भय में गुजारते हैं। जरा बारीकी से देखें तो दोनों ही तरीके के लोगों का परिणाम एक सा है। मौत का भय या मृत्यु का अज्ञान, दोनों एक जैसे नतीजे देते हैं।

तीसरा तरीका है मृत्यु का ठीक से परिचय कर लेना। जिसने मौत को जान लिया उसने फिर जीवन होश में जी लिया। जीवन अशांत, उदास, उबाऊ और थका हुआ इसीलिए लगता है कि हम सबसे सुनिश्चित घटना के प्रति होश में नहीं हैं। ये बेहोशी अगले जन्म तक परिणाम देगी। हम जो आज हैं वह पीछे से आया और लाया हुआ है।

इसीलिए संतों का उनके जन्म पर पूरा अधिकार होता है और सामान्यजन का जन्म वश में नहीं होता। कहां, कब पैदा होना यह वश के बाहर है, लेकिन दिव्य पुरुष इस मामले में कन्फर्म बर्थ-डेथ वाले होते हैं। हम भी मृत्यु से परिचय ले सकते हैं। तीन तरीके हैं गुरुकृपा, सत्संग और ध्यान। इन तीनों के माध्यम से जो मृत्यु को जान लेगा फिर वो जीवन को भी पूरी मस्ती से जी लेगा।

गृहस्थी में ऐसे रहें, हर सुख मिलेगा...
जीवन में श्रेष्ठ क्या है इसकी सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है। किसी धार्मिक आदमी से पूछो तो वह कहेगा श्रद्धा के बिना धर्म बेकार है। किसी आध्यात्मिक आदमी से पूछो तो वह प्रेम पर टिक जाएगा। कोई योद्धा हो और लम्बे समय से रणक्षेत्र में हो तो उसके लिए घर से बढ़कर और कुछ नहीं होगा। व्यापारी व्यवसाय को उत्तम बताएगा।

ऐसे जीवन के अनेक क्षेत्र हैं जिनमें सबकी अपनी-अपनी राय होगी। कल्पना करिए ये सब एक जगह मिल जाएं तो जीवन का दृश्य क्या हो? और इसका नाम है दृष्टि। दाम्पत्य एक तरह का कोलाज है। यहां धर्म, प्रेम, श्रद्धा, शान्ति, अशान्ति, लोभ सब एक साथ मिल जाएगा। जोगी, यति, तपस्वी, फकीर, महात्मा, सफल व्यवसायी, उच्च शिक्षाविद् सबकुछ इस एक छत के नीचे घट सकता है।
इसलिए दाम्पत्य को संन्यास से भी कठिन माना है। इसमें धैर्य और दूसरे के लिए जीने की तमन्ना रखना पड़ती है। गृहस्थी से गुजरे हुए लोग स्वतंत्र जीवन जीने वाले लोगों के प्रति परिपक्व और गंभीर नजर आते हैं। परमात्मा की खोज में निकलने वाले लोग केवल पहाड़ों, जंगलों से निकलेंगे ऐसा नहीं है, चूल्हा, चौका, शयनकक्ष और आंगन परमात्मा ने इन्हें भी अपना स्थान बनाया है।

भगवान् ने अपने लिए एक नाम रखा है ब्रह्म। इसका अर्थ बड़ा सुन्दर है। इसका अर्थ है जो सदा विस्तार की ओर चले, हमेशा विराट होने की सम्भावना अपने अंदर रखे, जो अनन्त हो। और यह भाव गृहस्थी में बड़ा काम आता है क्योंकि भीतर से विशाल हुए बिना बाहर का विराट कैसे उपलब्ध होगा। गृहस्थी में आनन्द लाना चाहें और विराट की अनुभूति करना चाहें तो एक काम तो कर ही लें जरा मुस्कुराइए...

अगर शांति चाहिए तो इससे दोस्ती कीजिए...
यदि आप शांति की तलाश में हैं तो अपनी दोस्ती मौन से भी कर ली जाए। पुरानी कहावत है मौन के वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं। मौन और चुप्पी में फर्क है। चुप्पी बाहर होती है, मौन भीतर घटता है। चुप्पी यानी म्यूटनेस जो एक मजबूरी है। लेकिन मौन यानी साइलेंस जो एक मस्ती है। इन दोनों ही बातों का संबंध शब्दों से है।

दोनों ही स्थितियों में हम अपने शब्द बचाते हैं लेकिन फर्क यह है कि चुप्पी में बचाए हुए शब्द भीतर ही भीतर खर्च कर दिए जाते हैं। चुप्पी को यूं भी समझा जा सकता है कि पति-पत्नी में खटपट हो तो यह तय हो जाता है कि एक-दूसरे से बात नहीं करेंगे, लेकिन दूसरे बहुत से माध्यम से बात की जाती है।

भीतर ही भीतर एक-दूसरे से सवाल खड़े किए जाते हैं और उत्तर भी दे दिए जाते हैं। यह चुप्पी है। इसमें इतने शब्द भीतर उछाल दिए गए कि उन शब्दों ने बेचैनी को जन्म दे दिया, अशांति को पैदा कर दिया। दबाए गए ये शब्द बीमारी बनकर उभरते हैं। इससे तो अच्छा है शब्दों को बाहर निकाल ही दिया जाए।

मौन यानी भीतर भी बात नहीं करना, थोड़ी देर खुद से भी खामोश हो जाना। मौन से बचाए हुए शब्द समय आने पर पूरे प्रभाव और आकर्षण के साथ व्यक्त होते हैं। आज के व्यावसायिक युग में शब्दों का बड़ा खेल है। आप अपनी बात दूसरों तक कितनी ताकत से पहुंचाते हैं यह सब शब्दों पर टिका है। कुछ लोग तो सही होते हुए भी शब्दों के अभाव, कमजोरी में गलत साबित हो जाते हैं।

कोई आपको क्यों सुनेगा यदि आपके पास सुनाने लायक प्रभावी शब्द नहीं होंगे। इसलिए यदि शब्द प्रभावी बनाना है तो जीवन में मौन घटित करना होगा। समझदारी से चुप्पी से बचते हुए मौन को साधें। चुप्पी चेहरे का रौब है और मौन मन की मुस्कान। जीवन में मौन उतारने का एक और तरीका है जरा मुस्कराइए...

हनुमान से सीखें, कैसे हो शरीर की साज-संभाल
मानव के समूचे विकास और उपयोगिता में देह भी प्रमुख भूमिका रखती है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से हम देखें कि इन दिनों बड़ी-बड़ी कंपनियों में फायनेंशियल इन्वेस्टमेंट, फिजीकल इन्वेस्टमेंट के साथ-साथ, बल्कि इनसे भी ज्यादा ह्यूमन इन्वेस्टमेंट पर जोर दिया जा रहा है।

इस मामले में हनुमानजी एक श्रेष्ठ उदाहरण हैं। मानव के रूप में उन्होंने स्वयं का खूब सद्पयोग होने दिया तथा दूसरों को प्रेरित करके उन्हें भी मौका दिया। हनुमानचालीसा की चौथी चौपाई में लिखा है-
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा।

आप सुनहरे रंग वाले सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए और घुँघराले बालों वाले हैं। कानों में कुंडल पहने हैं। हनुमानजी के श्रृंगार के वर्णन के पीछे जीवन का एक बहुत बड़ा दर्शन छुपा है। यह सही है कि शरीर में आसक्ति न हो पर उसके महत्व को भी नकारा न जाए। शरीर पर टिकें ना, पर उसके सहारे को छोडें भी नहीं।सम्पूर्ण मानव किसी भी कारपोरेट जगत् की सबसे बड़ी पूंजी है और मानव की सम्पूर्णता में देह खासी भूमिका रखती है।

इन पंक्तियों में सुसज्जित देह को स्वीकृति दी गई है वह भी एक ब्रह्मचारी के वर्णन से।इन पंक्तियों में हनुमानजी का कितना सुंदर वर्णन कर रहे हैं गोस्वामीजी। हनुमानजी हमेशा पूरी तैयारी में रहते हैं। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचारी होने का यह अर्थ नहीं कि औघड़ जैसे रहें। वे शरीर के सौंदर्य के प्रति जागरूक हैं। सुसज्जित रहने का स्वभाव भी एक गुण है। वे यह नहीं कहते कि जो ब्रह्मचर्य का पालन करे वह सौंदर्यबोध को ठुकरा दे। सुंदरता की अनुभूति भी परमात्मा तक पहुंचने में साधक बन जाती है।

सफलता मिलने के बाद भी अगर आप परेशान रहते हैं तो...

इन दिनों सफलता प्राप्त करना नशे की तरह हो गया है। कोई भी असफल नहीं रहना चाहता। मजेदार बात यह है कि जो असफल हो जाते हैं वो तो परेशान नजर आते ही हैं पर ज्यादातर लोग सफल होने के बाद भी अशांत रहते हैं।

अध्यात्म कहता है श्रद्धावान चित्त अशांत नहीं होगा। इसलिए हमें अपने काम के प्रति अत्यधिक श्रद्धा पैदा करना होगी। लगन और श्रद्धा में फर्क है। लगन जब बहुत गहरी उतर जाती है तब श्रद्धा होती है और श्रद्धा का अर्थ है हमने अपने अलावा एक ऐसे अस्तित्व को स्वीकार किया है जो हमारी सफलता और असफलता के परिणामों को लेकर हमारी मदद करेगा।

दो दृष्टांत ध्यान में लाएं फिर बात सरलता से समझ में आएगी। राम अवतार में राम के दर्शन हो जाना किसी के लिए भी बड़ी सफलता थी। लेकिन दो पात्र ऐसे हुए जो राम के दर्शन के बाद भी अशांत हो गए। शिव की पहली पत्नी सती, जिन्होंने श्रीराम को देखा, परीक्षा लेने का विचार किया और सीता का रूप धरकर छल से परीक्षा ली थी। अंत में वे अशांत हुईं।

इसी तरह शूर्पणखा ने भी श्रीराम के दर्शन किए थे और उसे भी नाक, कान कटवाना पड़े थे। राम दर्शन के बाद असफलता और अशांति क्यों? यह बड़े सूत्र की बात है। दरअसल इन दोनों का ही प्रयास था कि राम को हम अपने तरीके से मानेंगे और पाएंगे। वह तरीका अहंकार व वासना में डूबा हुआ था। हम भी जीवन में जब-जब अपने लक्ष्य के प्रति अहंकार और वासना रखेंगे परिणाम इसी प्रकार मिलेंगे।

श्रद्धा वह तत्व है जो नीयत को शुद्ध करती है। श्रद्धा अपने साथ शुद्धता को लेकर ऐसे चलती है जैसे गर्भवती स्त्री अपने गर्भ को संभालकर चलती है और शुद्ध आचरण से किया हुआ कार्य सफलता तथा असफलता दोनों मे शांति अवश्य देता है।

असफलता और परेशानी का निवारण ऐसे करें...
हमारा सोचा हुआ काम जब नहीं होता है तो कुछ लोग केवल स्थितियों का विश्लेषण करते हैं। कुछ सारा दोष दूसरों पर डाल देते हैं। जो धर्म भीरू हैं वे लोग भगवान और भाग्य को भी बीच में ले आते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी असफलता, दु:ख और परेशानियों का कारण व निदान अपने भीतर ढूंढते हैं।

एक फकीर के पास आदमी ने जाकर कहा दुनिया में बहुत दु:ख हैं। जिधर देखो लोग परेशान हैं। कब हटेंगे दुनिया से दु:ख। उस फकीर ने कहा। दुनिया दु:खी नहीं है, तुम ही दु:ख हो। बात बड़ी गहरी है और सारे फकीर, संत-महात्मा यही कहते हैं। जिन्दगी दु:ख है, दुनिया नहीं।

यह दु:ख और सुख का खेल मन में है पहले यहां से शुरू होता है और फिर इसका प्रतिबिम्ब दुनिया में नजर आता है। फौजियों को परेड क्यों कराई जाती है? युद्ध में परेड काम नहीं आती लेकिन उनका शरीर लेफ्ट और राईट की ध्वनि के साथ अनुशासन में आ जाता है। और युद्ध में परेड नहीं अनुशासन काम आता है।

ठीक ऐसे ही हमें जीवन के संघर्ष में विचारों का अनुशासन काम आएगा। इसी को कहा गया है दु:ख हम हैं, संसार नहीं। पहले दुकानों पर एक तख्ती लगी रहती थी जिस पर लिखा होता था आज नगद, कल उधार। इसमें कल शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि कल कभी आता नहीं। हर कल आज है, वर्तमान है।

जिस दिन आप भूतकाल को छोड़ेंगे, वर्तमान से जोड़ेंगे और भविष्य को योजना के स्तर पर पकड़ेंगे उस दिन आपकी पकड़ अपने सुख-दु:ख पर अलग ढंग से होगी। इसलिए जब भी जीवन में दु:ख जैसा आए, उसके कारण में स्वयं को जरूर खोजिए और ऐसा करते हुए एक काम अवश्य करें जरा मुस्कुराइये...

तरक्की के लिए यह चीज बहुत जरूरी है...
संसार में उन्नति करने के लिए जिन बातों की जरूरत होती है उनमें से एक है आत्मबल। यदि मानसिक अस्थिरता है तो यह बल बिखर जाता है। इस कारण भीतरी व्यक्तित्व में एक कंपन सा आ जाता है। भीतर से कांपता हुआ मनुष्य बाहरी सफलता को फिर पचा नहीं पाता, या तो वह अहंकार में डूब जाता है या अवसाद में, दोनों ही स्थितियों में हाथ में अशांति ही लगती है।

यह आत्मबल जिस ऊर्जा से बनता है वह ऊर्जा हमारे भीतर सही दिशा में बहना चाहिए। हमारे भीतर यह ऊर्जा या कहें शक्ति दो तरीके से बहती है। पहला विचारों के माध्यम से, दूसरा ध्यान यानी अटेंशन के जरिए।

हम भीतर जिस दिशा में या विषय पर सोचेंगे यह ऊर्जा उधर बहने लगेगी और उसको बलशाली बना देगी। इसीलिए ध्यान रखें जब क्रोध आए तो सबसे पहला काम करें उस पर सोचना छोड़ दें। क्योंकि जैसे ही हम क्रोध पर सोचते हैं ऊर्जा उस ओर बहकर उसे और बलशाली बना देती है। गलत दिशा में ध्यान देने से ऊर्जा वहीं चली जाएगी। इसे सही दिशा में करना हो तो प्रेम जाग्रत करें।

इस ऊर्जा को जितना भीतरी प्रेमपूर्ण स्थितियों पर बहाएंगे वही उसकी सही दिशा होगी। फिर यह ऊर्जा सृजन करेगी, विध्वंस नहीं। माता-पिता जब बच्चे को मारते हैं तब यहां क्रोध और हिंसा दोनों काम कर रहे हैं। बाहरी क्रिया में क्रोध-हिंसा है, परन्तु भीतर की ऊर्जा प्रेम की दिशा में बह रही होती है। माता-पिता यह क्रोध अपनी संतान के सृजन, उसे अच्छा बनाने के लिए कर रहे होते हैं।

किसी दूसरे बच्चे को गलत करता देख वैसा क्रोध नहीं आता, क्योंकि भीतर जुड़ाव प्रेम का नहीं होता है। इसलिए ऊर्जा के बहाव को भीतर से चैक करते रहें उसकी दिशा सदैव सही रखें, तो बाहरी क्रिया जो भी हो भीतर की शांति भंग नहीं होगी।

जीवन में जब भी दुख और तनाव आएं, ये करें
दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें, जितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है।

तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।

कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।

इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दिया, इसलिए हम परेशान हैं।

पैदा होने पर मान लेते हैं बस अब जिन्दगी कट जाएगी लेकिन जन्म और जीवन अलग-अलग मामला है। जन्म एक घटना है और उसके साथ जो सम्भावना हमें मिली है उस सम्भावना के सृजन का नाम जीवन है।

इसलिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त नहीं है। इस जीवन के साथ होने वाले संघर्ष को सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा और इसी सहर्ष स्वीकृति में समाधान छुपा है। सत्संग, पूजा-पाठ, गुरु का सान्निध्य इससे बचने और उभरने के उपाय हैं। इसी के साथ ऐसी स्थिति में एक काम और करिए जरा मुस्कुराइए...

गृहस्थी में केवल वासना ही न हो...
अगर आपके दांपत्य में अशांति ज्यादा हो और प्रेम घट रहा हो तो यह आपस में मिल बैठकर बात करने से सुलझ सकता है। अधिकतर ऐसा होता है कि दांपत्य शुरू तो प्रेम से होता है लेकिन फिर यह वासना पर आकर ठहर जाता है। अगर दांपत्य में खुशहाली चाहिए तो आपको वासना से ऊपर उठकर प्रेम पर ही टिकना होगा। तभी गृहस्थी खुशहाल रहेगी। हमारी पहचान भी बनी रहेगी।

जब-जब गृहस्थी में अशांति आती है तब आदमी इस बात को लेकर परेशान रहता है कि क्या किसी के दाम्पत्य में शांति भी होती है। समझदार लोग गृहस्थ जीवन में शांति तलाश लेते हैं। आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने एक वक्तव्य में गृहस्थी में अशांति के कारण को वासना भी बताया है। उन्होंने कहा है वासना के कारण पुरुष स्त्री के प्रति और कभी-कभी स्त्री पुरुष के प्रति जैसा द्वेष भाव रख लेते हैं उससे परिवारों में उपद्रव होता है। एंजिलर मछली का उदाहरण उन्होंने दिया है।

यह मछली जब पकड़ी गई इसका आकार था 40 इंच। मामला बड़ा रोचक है लेकिन नर एंजिलर पकड़में नहीं आ रहा था क्योंकि वह उपलब्ध नहीं था। एक बार तो यह मान लिया गया कि इसकी नर जाति होती ही नहीं होगी। लेकिन एक दिन एक वैज्ञानिक को मादा मछली की आंख के ऊपर एक बहुत ही छोटा मछली जैसा जीव नजर आया जो मादा मछली का रक्त चूस रहा था। यह नर मछली था। मादा का आकार 40 इंच था और नर का 4 इंच।पं. शर्मा ने इसकी सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि नारी को भोग और शोषण की सामग्री मानने वाला पुरुष ऐसा ही बोना होता है।

जो मातृशक्ति को रमणीय मानकर भोगने का ही उद्देश्य रखेंगे वे जीवन में एंजिलर नर मछली की तरह बोने रह जाएंगे।हम इस में यह समझ लें कि जानवरों में उनकी अशांति का कारण वासनाएं होती हैं। केवल बिल्ली की बात करें बिल्ली का रुदन उसकी देह की पीड़ा नहीं उसकी उत्तेजित कामवासना का परिणाम है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी इनके परिणाम भोगता है और उसका रुदन ही परिवार में अशांति का प्रतीक है।

अगर आप अभावों में जी रहें हैं तो...

अभाव किसी को भी नहीं भाता। वस्तु पास में न हो, स्थिति अनुकूल न रहे तब जो अभाव होता है वह तो समझ में आता है परन्तु मन चाहा मिल जाए और फिर भी जीवन में अभाव, असंतोष बना रहे, खतरा यहां से शुरू होता है और आज अनेक लोग इसी खतरनाक स्थिति में जी रहे हैं। जो लोग ये मानते हैं कि सम्पन्नता के साधनों से ही प्रसन्नता आएगी और प्रगति होगी वे भूल जाते हैं कि केवल इससे ही कुछ नहीं होगा।

इन बाहरी साधनों के साथ भीतर की मनोवृत्ति पर भी काम करते रहना होगा। हमारी मनोवृत्ति में यदि संतोष, सहानुभूति, संयम और सदाचार नहीं है तो बाहर से सबकुछ मिल जाने पर भी अभाव का भाव बना रहेगा जो अशांति का कारण बनेगा। इसी कारण जिनके पास सबकुछ है जरूरी नहीं कि उनके पास शांति भी हो।

भौतिकता और आध्यात्मिकता का संघर्ष यहीं से शुरू होता है। भौतिकता कहती है पदार्थ ही प्रमाण है, मटैरिएलिस्कि एप्रोच बनाए रखो, भावनाएं भ्रांति हैं। आध्यात्मिकता का आग्रह है पदार्थ गौण हैं, संवेदनाओं को साधो, इसी छीना-झपटी में मनुष्य उलझ जाता है फिर कैसे जीतें इस द्वन्द को? गुरूनानक की बात काम आ सकती है। वे कहते हैं

जिउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारू

हे प्रभु जैसे भी तुझे भाता हो हमें रख, तेरी मर्जी। ये जो दो शब्द हैं तेरी मर्जी ये हमारे सारे पुरूषार्थ को पवित्र और प्रभावशाली बना देंगे। हम कर्म तो पूरा करेंगे पर फल की प्राप्ति या अप्राप्ति हमें अशांत नहीं करेगी।
नानक कहते हैं ऐसे रहते हुए शब्द की, नाम की कमाई करो। व्यावसायिक जीवन में जो भी कमाएं परन्तु आध्यात्मिक जीवन की इस आमदानी को न भूलें जिसे नानक ने च्च्नामु अधारूज्ज् कहा। नाम की कमाई सारे अभाव दूर कर देती है।

भगवान को पाने के लिए ये बातें जरूरी हैं...
दुनिया और दुनिया बनाने वाले दोनों को यदि हम पाना चाहें तो जीवन में एक संतुलन बनाना पड़ेगा। यह संतुलन शक्ति से बनता है। हमारे भीतर छ: प्रकार की शक्तियाँ हैं जिन्हें हम ठीक से जान लें तो हमारे लिए भौतिकता और भक्ति समझना आसान हो जाएगा।
1. पराशक्ति - यह सब शक्तियों का मूल और आधार है।
2. ज्ञान शक्ति - यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का रूप धारण कर, मनुष्य की क्रिया का कारण बन जाती है। इसके द्वारा दूरदृष्टि, अंतज्र्ञान और अंतदृष्टि जैसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
3. इच्छाशक्ति - यह शरीर के स्नायु मण्डल में लहरें उत्पन्न करती हैं जिससे इन्द्रियां सक्रिय होती हैं और कार्य करने की तरफ संचालित होती हैं। जब यह शक्ति सत्गुण से जुड़ जाती है तो सुख और शान्ति की वृद्धि होती है।
4. क्रियाशक्ति - सात्विक इच्छा शक्ति इसी के द्वारा कार्यरूप में परिणित फल को पैदा करती है।
5. कुण्डलिनी शक्ति - यह एक तरह से जीवन शक्ति है। इसके दो रूप हैं समष्टि और व्यष्टि। समष्टि का अर्थ है पूरी श्रृष्टि में कई रूपों में विद्यमान रहना जैसे - पेड़-पौधों में प्राण, प्रकृति का जीवन तत्व। व्यष्टि रूप में मनुष्य के शरीर के भीतर तेजोमई शक्ति के रूप में रहती है। इसी शक्ति के द्वारा मन संचालित होता है। इसे परमात्मा की ओर मोड़ दें तो माया के बंधन से मुक्ति मिलती है। यह साधना से जागृत होती है।
6. मातृका शक्ति - यह अक्षर, बिजाक्षर, शब्द, वाक्य तथा गान विद्या की शक्ति है। मंत्रों में शब्दों को जो प्रभाव होता है वह इसी के कारण है। इसी शक्ति की सहायता से इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति अपना फल दे पाती है। इसके बिना कुण्डलिनी शक्ति नहीं जागती। अपनी इन शक्तियों को भीतर से पहचानें और इनका उपयोग सफलता प्राप्त करने में करें।

जीवन में सबसे श्रेष्ठ क्या है....
जीवन में श्रेष्ठ क्या है इसकी सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है। किसी धार्मिक आदमी से पूछो तो वह कहेगा श्रद्धा के बिना धर्म बेकार है। किसी आध्यात्मिक आदमी से पूछो तो वह प्रेम पर टिक जाएगा। कोई योद्धा हो और लम्बे समय से रणक्षेत्र में हो तो उसके लिए घर से बढ़कर और कुछ नहीं होगा। व्यापारी व्यवसाय को उत्तम बताएगा। ऐसे जीवन के अनेक क्षेत्र हैं जिनमें सबकी अपनी-अपनी राय होगी। कल्पना करिए ये सब एक जगह मिल जाएं तो जीवन का दृश्य क्या हो? और इसका नाम है दृष्टि। दाम्पत्य एक तरह का कोलाज है। यहां धर्म, प्रेम, श्रद्धा, शान्ति, अशान्ति, लोभ सब एक साथ मिल जाएगा। जोगी, यति, तपस्वी, फकीर, महात्मा, सफल व्यवसायी, उच्च शिक्षाविद् सबकुछ इस एक छत के नीचे घट सकता है। इसलिए दाम्पत्य को संन्यास से भी कठिन माना है।

इसमें धैर्य और दूसरे के लिए जीने की तमन्ना रखना पड़ती है। गृहस्थी से गुजरे हुए लोग स्वतंत्र जीवन जीने वाले लोगों के प्रति परिपक्व और गंभीर नजर आते हैं। परमात्मा की खोज में निकलने वाले लोग केवल पहाड़ों, जंगलों से निकलेंगे ऐसा नहीं है, चूल्हा, चौका, शयनकक्ष और आंगन परमात्मा ने इन्हें भी अपना स्थान बनाया है। भगवान् ने अपने लिए एक नाम रखा है ब्रह्म। इसका अर्थ बड़ा सुन्दर है। इसका अर्थ है जो सदा विस्तार की ओर चले, हमेशा विराट होने की सम्भावना अपने अंदर रखे, जो अनन्त हो। और यह भाव गृहस्थी में बड़ा काम आता है क्योंकि भीतर से विशाल हुए बिना बाहर का विराट कैसे उपलब्ध होगा। गृहस्थी में आनन्द लाना चाहें और विराट की अनुभूति करना चाहें तो एक काम तो कर ही लें जरा मुस्कुराइए...

ऐसों की सलाह कभी न माने
जीवन का गहरा अनुभव यही कहता है कि व्यक्ति को दूसरों की सलाह से काम करने की बजाय अपने विवेक से ही निर्णय लेना चाहिये। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने पर ही हर काम कर लेते हैं और अपनी बुद्धि का उपयोग ही नहीं करते। और जब तक बात हमारे समझ में आती है बहुत देर हो चुकी होती है। जबकि होना यह चाहिए कि दुसरों की बात को पहले हम अपनी कसौटी पर कसे और फिर निर्णय लें कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं? ऐसा करने से हम कभी धोखा नहीं खाएंगे और न ही कभी नुकसान उठाना पड़ेगा।

एक आदमी मछली बेचने का व्यापार करता था। उसकी एक दुकान थी जिस पर बोर्ड लगा था और उस बोर्ड पर लिखा था- फ्रेश फीश सोल्ड हियर। एक दिन उसके यहां एक मित्र आया वो बोला- जब तुम फ्रेश फीश ही बेचते हो तो लिखने की क्या आवश्यकता है। तब उस मछली बेचने वाले ने बोर्ड पर से फ्रेश हटा दिया।

थोड़े दिन बाद कोई दूसरा मित्र मिलने वाला आया वह बोला- तुम मछली यहां ही बेचते हो या और कहीं भी बेचते हो? तो वह बोला- सिर्फ यही बेचता हूं। तो वह मित्र बोला- तो इसमें लिखने की क्या आवश्यकता है। तो दुकानदार ने हियर भी हटा दिया। अब बचा सिर्फ फीश सोल्ड।

एक दिन और कोई परिचित आया वह बोला- सोल्ड लिखा है तो बेचते ही हो फ्री तो देते नहीं हो तो इसे भी हटाओ। अब बोर्ड पर लिखा रह गया सिर्फ फिश। कुछ दिनों बाद फिर कोई आया तो उसने कहा बदबू के कारण दूर-दूर तक पता चलता है कि यहां मछली बिकती है तो यह लिखने की क्या जरुरत है। उसने फिश भी मिटा दी।

और फिर एक दिन किसी ने कहा कि जब कुछ लिखा ही नहीं है तो बोर्ड भी हटा दो। तो इस तरह उस दुकान पर लगा बोर्ड भी हट गया।

मन में उठते बुरे विचार... कैसे लगाएं रोक
मन को निंयत्रित करना और उसमें उठते बुरे और अनुचित खयालात को रोक देना असंभव नहीं तो बेहद कठिन तो अवश्य ही है। आज मनुष्य के जीवन में परेशानियों और कठिनाइयों का अम्बार लगा हुआ है जिससे उसका मन भटकता ही रहता है। जैसे-जैसे समय बदल रहा है ठीक उसी तरह हमारी सोच और काम के तरीके में भी परिवर्तन आ रहा है।

अधिकतर लोग दुर्भावानाओं से घिरे रहते हैं।अगर इनसे छुटकारा पाना है तो हनुमानजी का ध्यान सबसे उत्तम उपाय है। हनुमानजी बुरे विचारों को समाप्त कर हमारे मन को शुद्धता और पवित्रता प्रदान करते हैं। रोज सुबह-सुबह कुछ समय किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठकर प्राणायाम करें और साथ भगवान हनुमानजी का ध्यान करते हुए इस पंक्ति का जप करें- महाबीर विक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी।

इस पंक्ति के जप से साधक के सभी बुरे विचार, कुमति नष्ट हो जाती है और विचारों में शुद्धता आती है। इस पंक्ति का अर्थ यही है कि भगवान हनुमान महावीर हैं और वे अपने भक्तों की कुमति को दूर करके उन्हें शुद्ध विचारों वाला बना देते हैं। हनुमानजी का ध्यान हमें पूरी तरह धार्मिक बनाता है साथ ही हमारे जीवन की सभी समस्याओं का प्रभाव कम कर देता है।

गंगा स्नान की चाह है तो सिर पर रुद्राक्ष रख यह मंत्र बोल नहाएं
हिन्दू धर्म में गंगा को मां का दर्जा दिया गया है। यह देव नदी भी मानी गई है। क्योंकि पौराणिक मान्यताओं में गंगा स्वर्ग से भू-लोक में जगत कल्याण के लिए राजा भगीरथी के घोर तप से आई। इस दौरान गंगा के अलौकिक वेग को भगवान शंकर ने अपनी जटाओं से काबू किया। यही कारण है कि युग-युगान्तर से गंगा पावन और मोक्ष देने वाली मानी जाती है। वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि गंगा का जल पवित्र और रोगनाशक है।

यही कारण है कि धर्म में आस्था रखने वाले अनेक लोग गंगा स्नान की गहरी चाहत रखते हैं। इनमें कुछ लोगों की गंगा स्नान चाहत पूरी होती है, लेकिन कुछ जिम्मेदारियों या व्यस्तता के चलते गंगा स्नान से वंचित रहते हैं। इसलिए ऐसे ही आस्थावान लोगों के लिए यहां बताया जा रहा है शास्त्रों में लिखी बातों पर आधारित वह तरीका जो गंगा स्नान के समान ही माना गया है। डालते हैं एक नजर-

शास्त्रों में गंगा स्नान के पुण्य और सुख पाने का यह उपाय है रुद्राक्ष को सिर पर रखकर नीचे बताए मंत्र बोलकर स्नान करना। जिसके लिए एक रुद्राक्ष सिर पर धारण करें। इसके बाद स्नान के लिए जल सबसे पहले सिर पर डालें और यह मंत्र बोलें -

रुद्राक्ष मस्तकै धृत्वा शिर: स्नानं करोति य:।
गंगा स्नान फलं तस्य जायते नात्र संशय:।। 

इसके अलावा ऊँ नम: शिवाय यह मंत्र भी मन ही मन स्मरण करें। इस मंत्र में रुद्राक्ष को सिर पर रखकर स्नान का फल गंगा स्नान के समान बताया गया है। स्नान का यह तरीका तन के साथ मन को भी पवित्र और सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।

तब यह दुनिया सबसे मुश्किल काम लगता है...हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान है, धर्म को समझना सरल नहीं है, धर्म को समझ कर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल है, लेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना।

धर्म में जी लेना जितना कठिन है, जीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहीं, क्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता है, वह लडख़ड़ाता है, गिर जाता है।

सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है मैं तो पूरे ध्यान से चला रहा हूं फिर भी गिर जाता हूं और वह बड़ी मस्ती में चला रहा है। जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है।

धर्म का मामला कुछ इसी तरह का है, जब तक उसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाक, परेशानी में डालने वाला, लडख़ड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर हम उस मस्त साइकिल सवार की तरह हैं जो अपनी मर्जी से लहराते हुए चलाता है, अपनी मर्जी से रोक लेता है, अपनी मर्जी से उतर जाता है और बिना लडख़ड़ाहट के चला लेता है। जीवन में धर्म बेश कीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा।

पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरना, हम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे। धर्म को तराशने की एक क्रिया का नाम है जरा मुस्कराइए...।

सच को समझने के लिए यह जरूरी है...

हमारी समझ में जो बात आती है ज्यादातर मौकों पर हम उसे सही और सत्य मान लेते हैं। जो बात हमारी समझ से बाहर है या तो हम उसे गलत साबित कर देते हैं या नकार देते हैं। हमारी बुद्धि के विपरीत जो भी दिखता है उसे हम इसलिए खारिज कर देते हैं कि हम अपनी बुद्धि को सही मानते हैं।

पढ़ाई-लिखाई के इस युग में ज्यादातर लोग यह मान लेते हैं कि सत्य मेरी ही समझ पर समाप्त होता है। इससे आगे सब कुछ असत्य है और बेकार है। इसीलिए उलझनें समाप्त नहीं होती। जिस समय हम यह मानते हैं कि मेरी समझ से परे भी सत्य हो सकता है, वहीं से सत्य मिलने की संभावना बढ़ जाती है।

जो लोग सचमुच सत्य को प्राप्त करना चाहते हों उन्हें लगातार वर्तमान पर टिकने की आदत बनाना होगी। ईश्वर को जानते, पहचानते जो काम किए जाएंगे वे सत्य के निकट होंगे। अतीत पर टिककर हम भगवान को भूल जाते हैं और अत्यधिक भविष्य में खोकर भी हम परमात्मा को याद नहीं रख सकते, क्योंकि इन दोनों स्थिति में हमारा 'मैं' सक्रिय रहता है।

वर्तमान एक ऐसी स्थिति होती है जहां 'मैं' कमजोर पड़ता है और वहीं से भगवान का प्रवेश सरल हो जाता है। बीता हुआ कल और आने वाला कल हमें जानकारियों से भर देगा, पर वर्तमान हमें अनुभव से जोड़ता है। इस समय हम जानकारियों का ढेर बन गए हैं, जबकि हमें अनुभव की बहती हुई नदी बनना है। वर्तमान में टिकने का एक बड़ा फायदा यह होता है कि हमारी ऊर्जा जबर्दस्त रूप से संगठित होकर अपने लक्ष्य से जुड़ जाती है।

हम अपने काम में डूबकर ध्यानस्थ स्थिति पर चले जाते हैं। कार्य का परफेक्शन इसे ही कहते हैं। वर्तमान हमें तन्मय बनाता है और अपने काम में डूबा हुआ, तन्मय व्यक्ति अतीत का अधिक लाभ उठाएगा और भविष्य का सही उपयोग कर जाएगा।

हनुमान चालीसा सिखाती है भक्ति का सही तरीका
भक्ति में हृदय की प्रमुखता होती है। बुद्धि से भक्ति करने में बाधा आएगी। प्रेम का स्थान हृदय है। हनुमानचालीसा की अंतिम चौपाई में तुलसीदासजी ने भगवान से निवेदन किया है हमारे हृदय में विराजिए। हनुमानचालीसा मन से आरंभ हुई थी। पहले ही दोहे में

श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।

यहां निज मनु का अर्थ है कि मन रूपी दर्पण को गुरु के चरणों की धूल से साफ किया जाता है। तो मन को लगातार साफ, शुद्ध करें और हृदय में परमात्मा के लिए स्थान बनाएं। मन और हृदय के बीच में हनुमानचालीसा ने प्रवाह लिया है। 40वीं चौपाई में लिखा गया है-

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।

हे हनुमानजी! यह तुलसीदास सदा सर्वदा के लिए श्रीराम (हरि) का सेवक है। ऐसा समझ कर आप उसके (तुलसीदास) के हृदय में निवास करिए। इस अंतिम चौपाई में 'नाथ' शब्द का प्रयोग किया है, 'कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।' नाथ इसलिए कहा कि यदि हमको लगे कि हम अनाथ हैं, तो फिर हमारे भीतर बाबा हनुमंतलालजी की कृपा का अनुभव करें, हम अनाथ नहीं रहेंगे।

तुलसीदासजी तो अनाथ थे ही। इसलिए अंत में उन्होंने अपने प्रभु को नाथ संबोधन से याद किया। आगे 'डेरा' शब्द का प्रयोग किया है। गोस्वामीजी ने स्पष्ट मांग की है कि- हे हनुमानजी! अकेले मत आना, पूरा डेरा- डण्डा लेकर आना। डेरा-डण्डा से मतलब है कि आप तो आएंगे ही साथ में रामजी, सीताजी, लक्ष्मणजी पूरा डेरा लेकर आना।

भक्त का हृदय भगवान का कैम्प होता है। डेरे में जब सब होते हैं, तब जाकर फिर डेरा पूरा लगता है और लगता तो कोई एक दिन में नहीं उठता। इसलिए कहा है कि महाराज डेरा लेकर आना।

कैसे जीतें कामवासना को?
काम वासना अध्यात्मिक जीवन में सबसे बड़ी परेशानी है। इसे दबाया नहीं जा कसता या तो इसके आगे हार जाएं या फिर इसे जीत लें। वासना से समझौता कठिन है, इसे थोड़ा भी मौका दिया जाए तो यह हमारे पूरे आध्यात्मिक जीवन पर हावी हो जाती है। इसे जीतने के कई तरीके हैं लेकिन अध्यात्मक और योग ही सबसे अच्छा रास्ता है। काम को जीत लें तो फिर कामनाएं अपनेआप हथियार डाल दंगी। जब तक काम का भाव शरीर में जीवित है कामनाएं भी उठती रहेंगी।

आध्यात्मिक जीवन में निष्कामता का बड़ा महत्व है। सभी के मन में यह प्रश्न उठता है आखिर कामनाओं का त्याग कैसे हो। गीता में चार प्रकार बताए हैं कामना त्याग के। एक विस्तारक प्रक्रिया, दो एकाग्र प्रक्रिया, तीन सूक्ष्म प्रक्रिया तथा चौथी है विशुद्ध प्रक्रिया। विस्तारक प्रक्रिया का अर्थ है हमारी जो कामना व्यक्तिगत हो उसे हम सामाजिक रूप दे दें। जैसे हम अपने बच्चे को पढ़ाना चाहें तो पूरे गांव में ही स्कूल खोल लें। इससे हमारी वासना शुद्ध रूप से विस्तृत होकर विलीन हो जाएगी। दूसरी प्रक्रिया है एकाग्र। इसमें जो भी हमारी प्रबल वासना हो केवल उस पर ही अपने चित्त को टिका दें और अन्य वासनाओं को छोड़ दें। यह ध्यान योग जैसा है। जैसे-जैसे एकाग्रता सधेगी, साधक उस एकमात्र वासना से मुक्त होने लगता है। तीसरी विधि है सूक्ष्म प्रक्रिया।

इसमें स्थूल वासनाओं को त्यागकर सूक्ष्म वासनाओं पर टिक जाएं। शरीर या बुद्धि को सजाना हो तो उसके स्थान पर मन और हृदय को सजाएं। इससे हम अंतर्मुखी होंगे और बाहरी वासनाएं गिर जाएंगी। इसे संतों ने ज्ञानयोग की युक्ति कहा है। चौथी प्रक्रिया है विशुद्ध। इसमें वासना को न व्यक्तिगत, न सामाजिक, न स्थूल, न सूक्ष्म मानें। दो ही तरह की वासना होगी, शुभ या अशुभ वासना। अच्छी वासना को रखें और बुरी वासना को त्याग दें। विनोबाजी एक उदाहरण देते थे यदि मीठा खाना हो तो मिठाई के स्थान पर आम खा लें। इस तरीके से इस प्रक्रिया में वासना को मारने का दबाव नहीं है बल्कि अशुभ को शुभ में परिवर्तित करने का आग्रह है। अशुभ वासनाओं का त्याग और शुभ वासनाओं की पूर्ति करते-करते मन एक दिन शुद्ध होकर वासनाहीन हो जाता है। इसीलिए यह चौथी पद्धति अधिक मान्य है। अन्य में थोड़े खतरे हैं।

जानिए श्राद्ध का श्राद्ध का क्या महत्व है…..
सद्‌गुरु: अगर आप शव को दो-तीन दिन से ज्यादा रखें, तो आप देखेंगे कि उसके शरीर के बाल बढ़ने लगते हैं। अगर कोई इंसान शेविंग करता है, तभी आपका ध्यान इस पर जाएगा क्योंकि चेहरे के बालों पर ध्यान ज्यादा जाता है। उसके नाखून भी बढ़ने लगेंगे।

इसकी वजह जीवन की अलग-अलग रूपों में होने वाली अभिव्यक्ति में है। मैं इसे अलग करके समझाता हूं एक जीवन होता है और एक भौतिक या स्थूल जीवन होता है। भौतिक जीवन खुद को व्यक्त करता है। भौतिक जीवनी ऊर्जा, जिसे आम तौर पर प्राण कहा जाता है, की पांच मूल अभिव्यक्तियां हैं। वैसे तो उसकी दस अभिव्यक्ति हैं लेकिन उससे चीजें और जटिल हो जाएंगी, तो पांच मूल अभिव्यक्ति हैं।

प्राणों के अलग-अलग प्रकार:
इन्हें समान, प्राण, उडान, अपान और व्यान कहा जाता है। जब किसी इंसान को मृत घोषित किया जाता है, तो अगले इक्कीस से चौबीस मिनट में, समान शरीर से बाहर निकलने लगेगा। समान शरीर के तापमान को ठीक रखता है। इसीलिए सबसे पहले शरीर ठंडा होने लगता है। कोई मर गया है या जिंदा है, यह जांचने का पारंपरिक तरीका है कि नाक छूकर देखा जाता है। अगर नाक ठंडी हो गई है, तो इसका मतलब है कि वह इंसान मर चुका है। अड़तालीस से चौंसठ मिनट के बीच प्राण शरीर से निकल जाता है।

उसके बाद छह से बारह घंटे के बीच, उडान निकल जाता है। उडान के शरीर से निकलने तक कुछ तांत्रिक प्रक्रियाओं से शरीर को पुनर्जीवित किया जा सकता है। एक बार उडान के बाहर निकलने के बाद शरीर को फिर से पुनर्जीवित करना असंभव है। अगली चीज होती है अपान जो आठ से अठारह घंटों के भीतर निकलती है। उसके बाद व्यान, जो प्राण की रक्षक प्रवृत्ति है, शरीर से निकलती है। सामान्य मृत्यु की स्थिति में यह ग्यारह से चौदह दिनों के भीतर शरीर से बाहर जा सकती है। सामान्य मृत्यु का मतलब है कि मृत्यु वृद्धावस्था में हुई, जीवन के क्षीण होने से वे शरीर से निकल गए। अगर किसी की मृत्यु दुर्घटना में होती है, या दूसरे शब्दों में जीवन के जीवंत रहने के दौरान ही उसकी मृत्यु हो जाती है और उसका शरीर पूरी तरह नष्ट नहीं होता है, शरीर अब भी बचा रहता है, तो उस जीवन का कंपन अड़तालीस से नब्बे दिनों तक जारी रहता है।

श्राद्ध मृत व्यक्ति में मधुरता डालने के लिए है:
तब तक आप उस जीवन के लिए कुछ चीजें कर सकते हैं। आप उस जीवन के लिए क्या कर सकते हैं? शरीर छूट गया है और चेतन बुद्धि तथा विचारशील मन पीछे छूट गए हैं।

एक बार जब विचारशील मन नहीं रह जाता, तो अगर आप उस मन, जिसमें सोचने की क्षमता नहीं है, बुद्धि नहीं है, में सुखदता की एक बूंद डालते हैं तो वह सुखदता कई लाख गुना बढ़ जाएगी। अगर आप अप्रियता की एक बूंद डालते हैं, तो वह अप्रियता लाखों गुना बढ़ जाएगी। इसे ही नर्क और स्वर्ग के रूप में जाना जाता है।
तो लोग जो करने की कोशिश करते हैं वह कितनी अच्छी तरह किया जाता है या आज के समय में कितने बेतुके ढंग से किया जाता है, यह एक अलग बात है, मगर अलग-अलग स्तरों पर क्या किया जाना चाहिए, इसके बारे में एक पूरा विज्ञान है।

मृत प्राणी का बचाव:
पैरों के अंगूठों को बांधने से मूलाधार को इस तरह कसा जा सकता है कि उस जीवन द्वारा एक बार फिर शरीर में घुसपैठ न किया जा सके या घुसपैठ करने की कोशिश न की जाए। क्योंकि वह जीवन उस शरीर में इस जागरूकता के साथ नहीं रहा है कि यह मैं नहीं हूं

उसने हमेशा यह विश्वास किया है यह मैं हूं। हालांकि वह बाहर आ गया है, मगर वह शरीर के किसी भी छिद्र के द्वारा उसमें घुसने की कोशिश करता है, खासकर मूलाधार से होकर। मूलाधार में ही जीवन उत्पन्न होता है और जैसे-जैसे शरीर ठंडा होने लगता है, आखिरी वक्त तक जहां गर्माहट बनी रहती है, वह मूलाधार है।

तो जीवन वापस आने की कोशिश करता है। इससे बचने के लिए पहला काम पैरों के अंगूठों को बांधने का किया जाता है ताकि वह कोशिश न हो सके। जीवन के निकलने की यह प्रक्रिया चरणों में होती है। यही वजह है कि पारपंरिक रूप से हमेशा यह कहा गया है कि अगर कोई मर जाता है, तो आधे घंटे के भीतर या ज्यादा से ज्यादा चार घंटों में आपको शरीर को जला देना चाहिए क्योंकि यह प्रक्रिया चलती रहती है। जो जीवन शरीर से निकल गया है, उसे लगता है कि वह अब भी शरीर में वापस जा सकता है। अगर आप इस नाटक को रोकना चाहते हैं, तो शरीर को जला दीजिए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष
शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Tuesday, September 27, 2016

जीवन जीने की राह(Jeevan Jeene Ki Rah)

दूसरों को संतुष्ट करना भी एक हुनर
अयोग्य व्यक्ति परेशान होदिक्कत में आए तो समझ में भी आता है परंतु कभी-कभी मनुष्य की योग्यता भी उसे मुसीबत में डाल देती है। पढ़-लिखकरपरिश्रम करके जब किसी बड़े पद पर पहुंच जाते हैंहमारे पास कुछ अधिकार आ जाते हैं तो हम उनका उपयोग करते हैं। जिन लोगों के पास अधिकार नहीं होता उनके पास कुछ ऐसा ज्ञान होता है कि वे उससे दूसरों का भला करते हैं। यह योग्यता का सदुपयोग है। किंतु ऐसे योग्य लोगों को परेशानी भी उठानी पड़ सकती हैै। बहुत योग्य व्यक्ति अपने लिए समय नहीं निकाल पाते। वे सदैव उन लोगों से घिरे रहते हैंजिनका काम इन्हें करना होता है। कुल-मिलाकर योग्य व्यक्तियों को अपना और अपने घर वालों का समय दूसरों को देना पड़ता है।

कभी-कभी तो आप आराम भी नहीं कर पाते और मन ही मन खीज-सी होती है कि यह सफलतायह योग्यतायह प्रतिष्ठा किस काम की जब आप अपना ही काम नहीं कर पा रहे हैं। आपके अपने लोग लगातार आरोप लगाते हैं कि आप हम से दूर होते जा रहे हैं। ऐसे समय में हर योग्य व्यक्ति को एक काम सीखना चाहिए और वह है दूसरों को संतुष्ट करना। जब आप अधिकार संपन्न होते हैंयोग्य होते हैं तो लोग आपसे अपेक्षा करते हैं कि उनकी परेशानी तुरंत दूर करें। हो सकता है उस समय आप विश्राम चाहते हों तो सामने वाले को संतुष्ट करें कि प्रतीक्षा कीजिएआपका काम कुछ समय बाद होगा। दूसरों को संतुष्ट करना एक बहुत बड़ा हुनर है। तो जब आप योग्य बन रहे होंकामयाब हो रहे होंऊंचाइयों पर जा रहे हों तो इस बात में भी दक्ष होते जाएं कि दूसरों को संतुष्ट कैसे करें। मालवा की भाषा में इसको चाले लगाना भी कहते हैं। दूसरों को संतुष्ट कैसे किया जाए इस पर चिंतन करते रहिए। आगे के दिनों में हम इसी पर बात करेंगे।

रिश्तों में संवादहीनता न आने दें
अपेक्षा अशांति का कारण हैलेकिन यह स्वाभाविक है कि मनुष्यमनुष्य से अपेक्षा करेगा ही। फिर जहां संबंध होते हैंवहां तो अपेक्षा होती ही है। एक रिश्ता तो पूरी तरह अपेक्षा पर ही टिका है और वह है पति-पत्नी का। शायद इसीलिए इस रिश्ते में तनाव बहुत अधिक होता है। जो लोग समझदार हैंयोग्य हैं वे उनसे अपेक्षा रखने वालों को संतुष्ट करने का हुनर जानते हैं। सभी को संतुष्ट किया भी नहीं जा सकतालेकिन हमसे अपेक्षा रखने वाले लोग जीवन में आते रहेंगे। वे हमारी जिम्मेदारी के दायरे में भी हो सकते हैं। इनकी संख्या कम हो तब तो बात आसान है पर यदि बड़ी संख्या में ऐसे लोग आपसे जुड़ गए तो फिर सभी को संतुष्ट करना चुनौती बन जाता है।

पहला प्रयास तो यह करें कि जो भी कोशिश आप कर रहे हैंउसमें पूरी तरह ईमानदार रहें। सामने वाला संतुष्ट हो रहा है या नहींयह अलग बात है पर आप पूरी तरह ईमानदार बने रहें। दूसरी बात संवादहीनता न आने दें और तीसरी बात कोई न कोई मध्यस्थ जरूर रखें। मध्यस्थ व्यक्ति भी हो सकते हैं और व्यवस्था भी हो सकती है। जैसे लंबे समय तक आप किसी से बात न कर पा रहे हों तो उसे यह गलतफहमी हो सकती है कि आप उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। किसी को संतुष्ट करने में यह उपेक्षा भाव बीच में आ ही जाता है। तो प्रयास कीजिए कि आपसी संवाद बना रहे। किसी व्यक्ति या व्यवस्था को मध्यस्थ रखने का मतलब है जैसे किसी से प्रत्यक्ष नहीं मिल सकें तो मोबाइल आदि के माध्यम से संदेश भेजते रहें। कोई व्यक्ति आपके और उसके बीच ऐसा होजो इस कार्य को पूरा कर ले। इस थोड़ी-सी सक्रियता से आप उन सभी को संतुष्ट कर सकते हैं जो आपसे अपेक्षा लगाए बैठे हैं। यह हुनर आपको जीवन में बड़ा काम आएगाक्योंकि दूसरों को संतुष्ट करना भी एक बहुत बड़ी सेवा है।

आशीर्वाद से बढ़ता है आत्मबल
कुछ लोग पैर से छूकर भी आशीर्वाद देते हैं। यह बात सुनने में अजीब लगती हैक्योंकि पैर छूकर आशीर्वाद लिया जाता हैदिया नहीं जाता। मैंने अपने जीवन में एक-दो संत ऐसे देखे हैंजिनके सामने मैं झुकूं उससे पहले वे मेरे सामने झुक गए और जब वे झुके तो मुझे अनुभूति हुई कि ये झुककर भी मुझे आशीर्वाद ही दे रहे हैं।

समझ में आया कि इसके पीछे विनम्रता काम कर रही है। स्वभाव में विनम्रता तभी आ सकती है जब अहंकार गले। इसके जितने भी तरीके हैंउनमें हमारे ऋषि-मुनियों ने एक तरीका निकाला है प्रणाम करने का। इसके भी कई प्रकार होते हैं। साष्टांग प्रणाम शत-प्रतिशत होता है। फिर आप घुटने झुकाकर मस्तक सामने वाले के पैरों पर रखते हैं।

यह 75 प्रतिशत होता है। कमर झुकाकर दोनों हाथों से किया प्रणाम 50 प्रतिशत होता है। एक हाथ से किया प्रणाम 25 फीसदी और खड़े-खड़े हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हैं तो 15 प्रणाम प्रतिशत होता है। सीधे खड़े रहकर केवल हाथ जोड़ते हैं तो यह 10 प्रतिशत प्रणाम होता है। प्रणाम करते समय हम दूसरे की योग्यता देखते हैं।

जो जिस योग्य होता है आप उतने प्रतिशत प्रणाम कर लेते हैंलेकिन कुछ रिश्ते ऐसे होते हैंजिसमें योग्यता नहींसंबंध देखे जाते हैं। आगे से ध्यान रखिएगा कि प्रणाम हर हालत में लाभकारी हैक्योंकि उसके एवज में आप आशीर्वाद ले रहे होते हैंसामने वाले का सद्‌भाव ग्रहण कर रहे होते हैं।

जितने प्रतिशत प्रणाम करेंगे उतना ही प्रतिशत उसका लाभ भी मिलेगा और आशीर्वादसद्‌भाव यदि इस कीमत पर मिले तो जिस भी प्रतिशत का आप प्रणाम कर रहे हों उसको बढ़ाते रहें। प्रणाम के बदले में मिलने वाली आशीर्वाद की पूंजी आपका आत्मबल और आनंद बढ़ाने में बहुत काम आती है।

ये चार तरीके अपनाएंसदा खुश रहें
कुछ समय बाद खुश रहना भी सपने जैसा हो जाएगा। बड़ी बात नहीं कि शांति सिर्फ स्वप्न में ही मिला या दिखा करेगीजबकि खुश रहना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। फिर ऐसा क्यों है कि आज जिसे देखो वह अशांत नज़र आता है। परिवारों में लोग लगातार चिंतित हैं कि कैसे खुश रहें और दूसरों को रखें। इसके लगातार प्रयास किए जा रहे हैं कि लोग खुश रहें। कहीं कोर्स हो रहे हैंकहीं क्लासेस चल रही हैंशिविर लगाए जा रहे हैं।

यहां तक कि अब तो सरकार इसका अलग मंत्रालय बनाने जा रही है। भारत की संस्कृति में दो अवतार ऐसे हुए हैंजो हैं तो हिंदुओं के देवता परंतु इन्होंने अपनी लीलाओं से समूचे मानव जीवन को प्रभावित किया है और इसीलिए किसी भी धर्म का आदमी होयदि राम-कृष्ण की लीला को ठीक से समझ लें तो धर्म से परे जाकर जीवन में शांति प्राप्त की जा सकती है। इन दोनों ही अवतारों ने अपने साथ रहने वाले लोगों के लिए खुश रहने के बड़े अच्छे तरीके निकाले थे।

राम मर्यादा के अवतार थेइसलिए उन्होंने भक्तों की शांति-प्रसन्नता के लिए हनुमानजी को नियुक्त कर दिया था। एक प्रकार से हनुमानजी उनका चलता-फिरता हैप्पीनेस मंत्रालय थे। कृष्ण स्वयं अपने आप में प्रसन्नता के प्रतीक और शांति के दूत थे। इन दोनों अवतारों ने हमें यह सिखाया कि यदि चार काम करते रहें तो आपको प्रसन्न रहने से कोई नहीं रोक सकता। एकअपने से ऊपर किसी और शक्ति पर भरोसा रखिए। दोखूब शिक्षित होंलेकिन शिक्षा को संस्कार से जोड़ें। तीनपरहित की कामना करें और चारअहंकारशून्य जीवन जीएं। ये चार बातें आपको किसी भी स्थिति में अशांति से बचाए रखेंगी और आप हर हाल में खुश रहेंगे। इन्हें अपनाइए और सदा मुस्कुराइए..।

जनहित में मर्यादित व्यवहार है राजनीति
आजकल राजनीति’ शब्द कुछ लोगों के बीच गाली जैसा हो गया है। कुछ गलत लोग राजनीति में आ गए इसलिए राजनीति को गलत समझा जा रहा हैअन्यथा राजनीति कभी गलत नहीं रही। देश की आजादी में राजनीति का बड़ा योगदान है। राजनीति को समझने के लिए किष्किंधा कांड की यह चौपाई बड़े काम की है। हनुमानजी के सिर पर हाथ रखकर भगवान राम ने उन्हें विदा किया। हनुमानजी प्रसन्न होकर चले तब तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुर त्राता।।’ यद्यपि देवताओं की रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं। इसे हम यूं समझें कि नीति की मर्यादा रखने के लिए श्रीराम वानरों को भेज रहे हैं।

राम के लिए राजनीति का अर्थ है मर्यादा का व्यवहार। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए हैं। वे सारे व्यवहार में मर्यादा रखते हैं। जो शब्द आया है-सुरत्राता’ मतलब देवताओं की रक्षा के लिए राम अवतार हुआ है और रावण की मृत्यु मनुष्य के हाथों होनी थीइसलिए राम समझ गए कि देवताओं की रक्षा के लिए मुझे मनुष्य के माधुर्य का माध्यम अपनाना पड़ेगाईश्वर के ऐश्वर्य का नहीं। अत: वे मनुष्य बनकर मर्यादा का व्यवहार कर रहे हैं। यही राजनीति है। राम हमें समझा रहे हैं राजनीति का मतलब है जनहित में मर्यादित व्यवहार। ऐसे उद्‌देश्य की पूर्ति करने का एक साधनजिसमें सबका भला हो। वे जानते थे कि मैं यह जो कर रहा हूं उसमें वानर दूत बनकर जाएंगे फिर सूचना लेकर आएंगे। इसमें समय लगेगा और यह समय बीतेगा तब ही रावण के मरने की अवधि आएगी। राजनीति में धैर्यभविष्य की समझ और सबके हित की कामना होती है और होनी चाहिएयही श्रीराम का संदेश है।

जीवन में दुर्गुणों का प्रवेश है आत्मघात
ऊपर वाला अपने ढंग से सबको जन्म देता है और जीवन का समापन भी करवाता है। हमारे हाथ में जो कुछ भी है वह बीच का मामला है। न हम जन्म का चयन कर सकते हैं और न ही मृत्यु को अपने ढंग से प्राप्त कर सकते हैं। किंतु भगवान उन्हें अपराधी मानता हैजो दूसरे के जीवन पर अकारण प्रहार करते हैं। आतंकी घटनाओं के साथहमारा परिचय एक नए ढंग की मृत्यु- आत्मघाती हमले से हुआ है। ऐसे हमलों से पूरी दुनिया कांप रही है। आतंक इसलिए बढ़ रहा हैक्योंकि लोग मानव जीवन के महत्व को समझ ही नहीं पा रहे हैं। मनुष्य का शरीर मिला है तो हमें अध्यात्म से जुड़कर इसका महत्व समझना होगा। शांति प्राप्त करना और धर्म को सही रूप में समझना हो तो अध्यात्म से जुड़ें।

समझ में आ जाता है कि जिस व्यक्ति के जीवन में दुर्गुणों का प्रवेश होसमझ लीजिए वह आत्मघात की तैयारी कर रहा है। जीवन में भी जब कामक्रोधमदमोह और लोभ हावी हो जाते हैं तो हम आत्मघाती कदम ही उठाते हैं। जो आतंकी सामूहिक हत्याकांड कर रहे हैं वे तो अपराधी हैं हीलेकिन दुर्गुणों को भीतर स्थान देकर स्वयं को आत्मघाती बनाकर हम भी कुछ अदृश्य हत्याएं करते रहते हैं। कभी किसी की भावनाओं काकभी किसी के चरित्र का और कभी अपने ही कर्तव्यों के प्रति उदासीन होकर जीवन जीने का। ये सब आत्मघाती कदम हैंइसलिए आतंकियों के घिनौने अपराध से सीखें कि हमारे भीतर दुर्गुणों का प्रवेश न हो और हमसे कभी कोई ऐसा काम न हो जो उस मानव जीवन या प्राणी जीवन के विरुद्ध हो जो परमात्मा ने दिया है। वरना किसी भी दिन अवसर मिलने पर ये दुर्गुण हमसे भी गलत काम करवा लेंगे और बाद में हमारे पास सिवाय पछतावे के और कुछ नहीं रहेगा।

अपने भीतर भक्ति को बनाए रखें
पहले पारिवारिक जीवन में बड़ी उम्र का व्यक्ति नेतृत्व करता था। वह जो बोलता थाआदेश बन जाता था और उसे मानना पड़ता था। समाज के और राष्ट्र के जीवन में भी ऐसा ही था कि नेतृत्व और निर्णय कुछ ही लोगों के हाथों में होता था। धीरे-धीरे समय बदला और परिवार में शक्ति व निर्णय के अनेक केंद्र बन गए। परिवार में जितने सदस्य हैंसबकी अपनी-अपनी राय महत्वपूर्ण हो गई और परिणाम में कलह हाथ लगी। इसलिए कलह पैदा हो रही हो तो एक काम करते रहिएगा और वह है विकल्प का प्रयोग। यदि आपको कोई निर्णय लेना हो तो यह न मानें कि आपने जो कह दिया वही हो जाएगा। विकल्प खुले रखिए। यह समझें कि ऐसा होना चाहिए लेकिनहो सकता है उससे सभी सहमत न हों। जब ऐसा मानते हैं कि हम विकल्प पर टिकेंगे तो हमारा अहंकार बाधा पहुंचाता है। सामने वाले अपने अहंकार के कारण आपकी राय नहीं मान रहे होंगे।

अहंकार टकराने से ही कलह आरंभ हो जाती हैइसलिए पारिवारिक जीवन में भक्ति बनाए रखिए। मैं हमेशा कहता हूं कि व्यावसायिक जीवन में भी भीतर के भक्त को खत्म न होने दें। आप कितने ही बड़े अधिकारी होंप्रोफेशनल होंअपने भीतर भक्ति बनाए रखें। जो भक्ति करता है वह हमेशा अपने ऊपर एक शक्ति को मानता है। भक्ति की शुरुआत होती है- तू हैमैं कहीं भी नहीं’ से। यही है भक्ति का अर्थ। इसका समापन होता है न मैं हूं न तू है। जब इतना इन्वॉल्वमेंट होता है तो अहंकार गल जाता है। यदि कोई आपकी बात न माने या आपका मनपसंद काम न हो तो आप मान लेते हैं कि संभवत: भगवान को यही मंजूर होगा। यही आत्मस्वीकृति आपके अहंकार को गलाकर जीवन को कलह-मुक्त कर देती है।

प्रत्येक काम योजनाब ढंग से करें
खुद पर नियंत्रण रखना अग्नि से गुजरने जैसा है। जो बाहर से बहुत दृढ़ दिख रहे हों वे भी भीतर से खुद पर नियंत्रण पाने के लिए संघर्ष कर रहे होंगे। बदलते हालात में स्व-नियंत्रण की कला सबको आनी चाहिए वरना पतन बड़ी आसानी से हो जाएगा। आदत बना लें कि बिना योजना के कोई काम नहीं करेंगे और प्रतिदिन योजना बनाएंगे। अपने सारे कार्य कुछ खानों में बैठा लें। जैसे हमारी पांच कर्मेंद्रियां हैं- आंखकाननाकत्वचा और जीभ। आप जो भी काम करेंइन कर्मेंद्रियों को खाने में बैठाकर करें कि आज क्या देखना हैकितना सुनना हैस्पर्श किसका रहेगा और कैसा स्वाद होगा। ध्यान रहे कि योजना का मूल्यांकन यानी समीक्षा करते रहें। जरूरी हो तो बदलाव करें और यदि रोकना पड़े तो तुरंत रोक लें।

कुल-मिलाकर कोई भी काम करेंबिना योजना के न करें। उसका एक फायदा और होता है। जब हम काम करने बैठते हैं तो हमारे साथ कई दूसरी परिस्थितियां और व्यक्ति भी जुड़ जाते हैं। कभी-कभी तो आस-पास इतनी भीड़ हो जाती है कि एक धुंध-सी जम जाती है और हम कर रहे काम को भूलकरउन्हीं में उलझ जाते हैं। एक छोटा-सा उदाहरण लें कि आप कोई प्रोजेक्ट बना रहे हों और उसी बीच आपके मित्र या घर का कोई सदस्य आ जाए और घंटे-दो घंटे उनके साथ बिताना पड़े तो जब वह स्थिति या व्यक्ति हटता हैहम भूल ही जाते हैं कि कर क्या रहे थे। यदि योजनाबद्ध तरीके से काम करेंगे तो तुरंत याद आ जाएगा और उनके साथ बिताया हुआ समय हमारे काम को बाधित नहीं करेगा। योजना का यह बड़ा फायदा है कि आप अपने से बंधे रहते हैं। जो स्वयं पर नियंत्रण पाना चाहते हों वे हर काम योजनाबद्ध तरीके से संपन्न करें।

हमेशा प्रसन्न रहने के लिए योग करें
परमात्मा जब किसी को जन्म देता है तो उसके साथ प्रसन्न रहने की सारी संभावनाएं छोड़ता है। मनुष्य शरीर का गठन बाहर और भीतर से ऐसा किया गया है कि उसे खुश रहना ही चाहिए। फिर हम उदास क्यों रहते हैंअसल में उदासी बाहर से हमारे भीतर आती है और खुशी भीतर मौलिक रूप से मौजूद है। चूंकि हम सावधान नहीं रहतेइसलिए बाहर से आई उदासी हावी हो जाती है। बहुत गहराई में न जाएं तो हमारे पास पांच ज्ञानेंद्रियांपांच कर्मेंद्रियांऔर पंचतत्व होते हैं। ये पंद्रह चीजें हमें खुशी देने के लिए ही हैं। इन सबके साथ एक सोलहवीं चीज है मन। वैसे शास्त्रों में इससे आगे तक का वर्णन है पर हम सामान्य लोगों को इस सोलहवीं स्थिति पर काम कर लेना चाहिए। मन है उदासी का केंद्र।

रोग के इलाज के पहले डॉक्टर पैथालॉजी का टेस्ट कराता हैजिससे तय होता है कि बीमारी की जड़ है कहांमन उदासीदुखपरेशानीनिराशाचिड़चिड़ापनबेचैनीहताशाथकान और डिप्रेशन का केंद्र हैजो पंद्रह साधनों को मटियामेट कर देता है। इसका नियंत्रण केवल और केवल योग से हो सकता है। मानवता अगर इतनी उदास हो जाएगी तो प्रकृति उसका साथ कैसे देगीइसलिए योग करना एक पात्र को हाथ में लेने जैसा है। पात्र का ढक्कन खुला हुआ हैप्रसन्नता बरस रही हैआप भर लीजिए। यदि ढक्कन बंद है या पात्र उल्टा है तो प्रसन्नता तो बरसेगी परंतु आप एकत्र नहीं कर पाएंगे। पात्र को खुला रखें और दोनों हाथों से खुशियां समेट लें। इसके लिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग जरूर करें। यदि हनुमान चालीसा से मेडिटेशन कर लिया जाए तो फिर प्रसन्न रहना और आसान हो जाता हैक्योंकि हनुमानजी से बड़ा कोई योगी नहीं है।

मन को तन्मय करेंगे तो होंगे बड़े काम
सभी के जीवन में बड़ी जिम्मेदारी का काम करने के अवसर आते हैं। कुछ लोग सदैव जिम्मेदारी के काम करते हैं और कुछ कभी-कभी ही दायित्व बोध को जीवन से जोड़ पाते हैं। जब भी बहुत महत्वपूर्ण काम करना हो और उसमें हमारी भूमिका भी गहरी हो तो दो काम करने चाहिए। पहलामन को पूरी तरह से तन्मय करें। दूसरातन का मोह छोड़ें। यानी भ्रमित न हों और खूब परिश्रम करें। इसी बात को तुलसीदासजी ने किष्किंधा कांड में वानरों से जोड़कर कहा है। वानर सीताजी की खोज में चल चुके थे। तुलसीदासजी ने दोहा लिखा,‘चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह। राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह।।’ इस दोहे में चलना शब्द लिखा है।

यह शब्द पहले भी आया हैलेकिन यहां जो चलना शब्द आया है उसमें चलने का अर्थ था रामजी ने सबको विदा किया। कुछ पंक्तियों बाद फिर चलना शब्द आया हैजिसका अर्थ है अब वे स्वयं चले। मतलब उस बड़े कार्य की जिम्मेदारी वानर समझ चुके थे। इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है मन लयलीन। तन्मय होनालीन होनामगन होना। मन बहुत कम तल्लीन होता है। हमेशा इधर-उधर भागता रहता हैलेकिन चूंकि बड़ा काम करना है तो मन को केंद्रितनियंत्रित और जरूरत पड़े तो अनुपस्थित कर देना चाहिए। यहीं से एकाग्रता आती है। उसके बाद फिर तुलसीदासजी ने कहा है कि देह का ममत्व भूल गए। देह परिश्रम में बाधा पहुंंचा सकती है। उसे थोड़ा आराम चाहिए। देह की और भी कुछ मांगें होती हैं। जब हम यह तय कर लेते हैं कि घोर परिश्रम करना है तो मन और तन मिलकर हमें उस बड़े काम को पूरा करने में मदद करते हैं। ये ही बाधा है और ये ही दोनों सहयोगी भी हैं।



वक्त को सुविधाजनक बनाता है योग
समय के मामले में दो तरह के लोग मिल जाएंगे। एक वेे जो हमेशा यही कहते रहते हैं कि क्या करें टाइम नहीं है। एक वर्ग ऐसा भी हैजिसके साथ समस्या है कि समय कैसे काटेंसेवानिवृत्तवृद्धावस्था की ओर जाते हुए लोग दूसरी श्रेणी में पाए जाते हैं। फिर शरीर भी साथ नहीं देता तो चौबीस घंटे भी भारी पड़ने लगते हैं। जो युवावस्था में हैंवे बहुत कुछ पाना चाहते हैं। उन्हें समय कम पड़ रहा है। खाना-पीनासोना-उठना इन सबका तालमेल बिगड़ गया है। 25वां घंटा भगवान ने किसी को दिया नहीं है। इसलिए अध्यात्म कहता है समय का सदुपयोग ही समय का विस्तार और समय का संकोच है। बात गहरी है पर इसे यूं समझें कि कुछ लोगों को चौबीस घंटे कम पड़ रहे हैं और उन्हें काम अधिक है।

उन्हें समय का सदुपयोग कैसे करना हैयही अध्यात्म सिखाता है। ये लोग थोड़ी देर योग करेंमंत्र का जप ध्यान के साथ करें। जैसे मैं आग्रह करता हूं श्री हनुमान चालीसा से मेडिटेशन किया जाए। इसमें तीन से दस मिनट का समय लगता है। यह दस मिनट आपके चौबीस घंटे की अवधि को बढ़ा सकते हैं। घंटे तो चौबीस ही रहेंगेलेकिन आप चाहते हैं काम अधिक है और चौबीस घंटे में परिणाम ज्यादा मिल जाएं तो योग के साथ बिताया हुआ यह दस मिनट का समय ऐसी ऊर्जासमझ और स्पष्टता देगा कि आप परिणाम के मामले में बिना चौबीस घंटे को विस्तार दिए अधिक अवधि प्राप्त कर सकेंगे। जिनके पास समय बहुत है वे जब योग से गुजरते हैंश्री हनुमान चालीसा को ध्यान से जोड़ते हैंतब यही थोड़ा समय उन्हें चौबीस घंटे फैला देगा। उनके व्यक्तित्व का वितरण इतने प्रेमपूर्ण ढंग से और आनंदित तरीके से होगा कि फिर उन्हें समय काटने की समस्या नहीं होगी।

नकारात्मकता के सागर में तैरना सीखें
एक शिकायत अलग-अलग ढंग से करते हुए कई लोग मिल जाएंगे। प्राय: सुनने को मिलता है कि हमारे यहां टांग खींचने वाले लोग बहुत हैं। कोई काम करने जाएं तो आलोचना पहले शुरू हो जाती है। यह छोटे कस्बों के लोगों की आम शिकायत है। जिस स्थान पर आप रहते हैं उसे कोसना एक मनोवृत्ति-सी हो जाती है। ऐसा नहीं है कि बड़े नगरों में रहने वालों को ऐसी शिकायत नहीं होती। वहां जीवन तेज होता है तो शायद खींचतान नज़र नहीं आती। छोटी जगहों के सुस्त जीवन में वहां की उठापटकधक्कामुक्की सब अजीब ढंग से स्पर्श करते हैं। किंतु तय है कि यदि छोटी जगह टांग खींचने वाले ज्यादा हैं तो बड़े स्थानों पर गर्दन उतारने वाले कम नहीं मिलेंगे। फिर आजकल तो एक ट्रेंड-सा चल गया है कि नकारात्मक उद्‌घोष करनिगेटिविटी को उछालकरकोई विवादास्पद बयान देकर कुछ ऐसा कर दो कि चर्चा हो जाए।

मार्केटिंग करने वाले लोग कहते हैं यदि नकारात्मक प्रचार कर दें तो 80 प्रतिशत लाभ होता है। बाजार की दुनिया मेंलोकप्रियता की दौड़ में नकारात्मकता को उछालकर आगे बढ़ना भले ही सफलता दे देलेकिन जीवन के लिए यह घातक है। इसके लिए नदी का उदाहरण लिया जा सकता है। जिन्हें तैरना नहीं आताउन्हें डूबो देती है। जो तैराक हैं वे नदी के साथ बहना जानते हैंउनसे नदी अलग ढंग से पेश आती है और मुर्दे को नदी ऊपर फेंक देती है। जब आप जीवित हैं और तैरना नहीं आता तो डूब रहे हैं और मर जाने पर नदी फेंक देती है। बसजिंदगी इसी तरह से होती है। यदि तैरना सीख गए तो चारों ओर जो निषेधजो नकारात्मकता है उसमें से अपने आपको बचाकर ले आएंगेअन्यथा या तो डूब जाएंगे या मुर्दे की तरह बाहर फेंक दिए जाएंगे।

विचारों के प्रति सजगता देती है शांति
मनुष्य का मन एक दिन में कम से कम पचास हजार या इससे भी अधिक विचार पी जाता है और यही उसकी अशांति का बड़ा कारण बन जाता है। शांति खोजनी हो तो अपने आसपास बह रहेअपनी ओर आ रहे विचारों के प्रति थोड़ा होश जगाना पड़ेगा। जैसे हम रिमोट का बटन दबाकर टीवी देखना आरंभ करते हैं तो कई चैनल लगाने के बाद किसी एक पर टिक जाते हैं। कई दृश्यफिल्मेंसमाचार वातावरण में मौजूद होते हैं। आपका टीवी उनमें से कुछ को पकड़ लेता है। बसऐसा ही विचारों के साथ चल रहा है।

कई विचार बह रहे हैंआपका मन उनको टटोलता है और फिर किसी अच्छे या बुरे विचार पर टिक जाता है। थोड़ी देर बाद किसी दूसरे पर चला जाता है। यह बिल्कुल टीवी देखने जैसा है। लंबे समय तक टीवी देखते रहें तो थक जाते हैं। मन का थकना ही अशांतिउदासीअवसाद है। जब मन विचारों से भर जाता है तो नशा मांगता है। यह नशा शराब का हो सकता हैकाम का हो सकता है और किसी दवा का भी हो सकता है। मादक पदार्थ मन को और तेज कर देते हैं।

जीवन तयशुदा गति से ही चलता हैलेकिन मन को सबकुछ तेजी से चाहिएइसीलिए तालमेल बिगड़ रहा है। जो लोग नशा करते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि वे जीवन के विपरीत गतिविधि कर रहे हैं। नशीली वस्तु भीतर उतरते ही आपको और तेज दौड़ाने लगती है। पीकर वाहन तेज चलानाचिल्लाना इन सबका यही कारण है। इसकी रोकथाम विचारों के स्तर पर ही करनी होगी। तो टीवी से समझें कि रिमोट आपके हाथ में है यानी कितने विचार लेना हैयह आपकी मर्जी पर निर्भर है। वरना लाखों विचार आपकी ओर आ रहे हैंयदि रोकने में चूक गए तो समझ लीजिए अशांति को आमंत्रण स्वयं आपने ही दिया है।

ऊपर वाली सरकार से जुड़े रहें
सरकारें दो तरह की होती हैं। ऊपर वालीऔर नीचे वाली। ऊपर वाली यानी भक्ति की सरकार और नीचे वाली यानी भौतिकता की दुनियानवी सरकार। अयोध्या जाएं तो वहां रामजी को सब सरकार ही कहते हैं। वहां देवता और गुरु को भी सरकार कहते हैं। ऊपर वाली सरकार अखंड हैसारे संसार को चलाती है। नीचे वाली सरकार खुद भी डरी रहती है और लोगों को भी भयभीत करती है। ऊपर वाली सरकार याद आने से ही सुरक्षा लगने लगती है। वह कृपा बरसाती हैनीचे वाली सरकार जो हमारे पास है वह भी ले जाती है। सरकार दोनों में से कोई भी होझूठ जरूर बोलेगी। ऊपर वाली सरकार के झूठ में भी सच होगा। जैसे संसार व्यर्थ हैझूठ है छोड़ो इसे। इसका सच यह है कि आप संसार में रहेंसंसार आप में न रहे।

नीचे वाली सरकार के सच में भी झूठ ही रहेगा। एक बार एक बच्चे ने नीचे वाली सरकार से पूछा, ‘माई-बाप आप क्या करते हैं?’ सरकार ने कहा, ‘इस पेड़ पर चढ़कर कूद जाओ।’ बच्चा बोला, ‘गिर जाऊंगा।’ सरकार ने कहा, ‘हम संभाल लेंगे।’ बच्चा कूद गया। सरकार थोड़ी खिसक गई। बच्चा धड़ाम से धरती पर गिरा। रोते हुए बोला, ‘ये क्या किया?’ सरकार बोली, ‘तू पूछ रहा था हम क्या करते हैंयही करते हैं! पहले चढ़ा देते हैंफिर कहते हैं कूद जासंभाल लेंगेफिर हट जाते हैंगिरा देते हैं।’ ऊपर वाली सरकार गोद में ले ले तो फिर गिरने नहीं देतीलेकिन हमें तो दोनों ही सरकारों से काम चलाना है। ऊपर वाली सरकार आपके परिश्रमनिष्ठाप्रेम और समर्पण से मिलेगीइसलिए ये गुण कभी न छोड़ें। हो सकता है ऐसे गुण वाले नीचे वाली सरकार में हाशिये पर पटक दिए जाएं। जो भी होऊपर वाली सरकार हमेशा रहेगीइसलिए उससे जुड़े रहें। नीचे वाली तो आती-जाती रहेगी।

बड़ा काम करना हो तो योग से जुड़ें
भयभीत लोग ज्यादा दावे करते हैंक्योंकि उनके भीतर कहीं भय छीपा रहता है। भीतर की कमजोरी छिपाने के लिए हिम्मत की बातें करने हैं। किष्किंधा कांड में जब सारे वानर सीताजी की खोज के लिए निकले तो खूब उत्साह में थे। सात्विक अहंकार था कि हम इतने महत्वपूर्ण कार्य के लिए चुने गए हैं। हमारे साथ भी ऐसा ही होता है। जब हमें किसी बड़े काम या लोकप्रिय घटना से जुड़ने का अवसर मिलता हैतो प्रयास की गंभीरता से अधिक अहंकार का स्पर्श काम करता है। सीताजी की खोज शक्तिभक्ति और शांति की खोज का रूपक है। यह बताता है कि सद्कार्य की नीयत के बाद भी बाधाएं भी आती हैं।

तुलसीदासजी ने इस दृश्य पर लिखा, ‘लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने।। मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना।।’ वानरों को प्यास लगी और पीने के लिए जल नहीं मिल रहा। हनुमानजी ने मन ही मन विचार किया कि ये सब मरना चाहते हैं। भूख और प्यास भक्तिशक्ति और शांति के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। इन्हें कब लगना चाहिए और कब इनकी पूर्ति होनी चाहिए यदि इसमें सावधानी नहीं है तो हम इन तीनों मामलों में चूक जाएंगे। हनुमानजी ने मन ही मन विचार किया। हनुमानजी का मन में विचार करने का अर्थ मन को निर्विचार करना भी है। हनुमानजी योगी थे और योगी जब भी सोचता हैदूरदर्शिता के साथ सोचता है। वे समझ गए इन्हें ऐसी प्यास लगी है कि यदि पूर्ति नहीं हुई तो सब मर जाएंगे। कुछ करना पड़ेगा। यह समझ योग का ही परिणाम थी। बड़े काम करना हो तो योग से जुड़ना चाहिए। यदि हम हनुमान भक्त हैं तो हमारा संबंध किसी धर्म से विशेष से नहींसिर्फ सफलता पाने से है।


धन से रिश्ता तय करता है लाभ-हानि
लालच सभी को होता है। कम या ज्यादा हो सकता है परंतु हर आदमी अपने ढंग से लालची है। ध्यान रखिएगा, आपका लालची स्वभाव यदि लोगों को पता चल गया तो वे आपका फायदा उठा सकते हैं और आपको नुकसान हो सकता है। फिर धन तो सीधे लालच से जुड़ा है। यह आता ही लालच के गलियारों से है। आप लालच की जितनी पूर्ति करेंगे, धन उतना तेजी से आएगा, इसलिए आज के समय में सारा जीवन धन के आसपास ही संचालित हो रहा है। ध्यान रखिएगा, तीन गति है धन की- दान, भोग और नाश। आइए, विचार करें कि जब हम धन से जुड़ते हैं या जीवन में धन उतरता है तो यदि हम धन के स्वामी बन गए तो कंजूस होकर रह जाएंगे।

यदि हमारे भीतर यह बात बार-बार आई कि मेरा धन-मेरा धन तो अहंकार पैदा होगा। दूसरी बात, धन को यदि सेवाभाव से जोड़ा तो हम दान करेंगे तथा धन को केवल विलास का विषय समझा तो भोगी हो जाएंगे। यदि धन के प्रति केवल पूर्ति का भाव रहा तो वह हमारी जरूरतें पूरी करने के काम आएगा, इसलिए जब धन के साथ जीएं तो उसके आदी मत हो जाइए वरना बिना उसके आप कोई काम नहीं कर पाएंगे। दौलत के बीच रहना जिनकी आदत बन जाती है, ऐसे लोग फिर निकट से निकट संबंधों में भी धन ही देखने लगते हैं। दौलत यदि पिता की आदत है तो वह संतान को धन ही मानेगा। वैसे ही खर्च करेगा, वैसे ही बचाएगा। पति-पत्नी के संबंधों में भी जब धन आदत के रूप में उतरता है तो कलह आना ही है। उसे हम धन से बचा नहीं सकेंगे, लेकिन हमारे-उसके संबंध स्वामी के हैं, सेवा के हैं, पूर्ति के हैं या भोग के हैं, इसी हिसाब से धन हमारे लिए लाभकारी होगा या नुकसानदायक।

परंपरा, संस्कार और मूल्यों से जुड़ें
इन दिनों जब नई पीढ़ी के बच्चों से राष्ट्रीयता, नैतिकता, परिवार या धर्म की बात की जाए तो वे कुछ सवाल हमारी ओर उछालते हैं। बच्चे जब इन बातों पर प्रश्न उठाएं तो सावधानी से उत्तर दें। परंपरा, संस्कार व मूल्य- ये तीनों शब्द बच्चों को भारी लगते हैं, लेकिन गहराई से देखें तो ये जीवन के लिए तीन सरल स्थितियां और सफलता प्राप्त करने के तीन सहज साधन हैं। परंपराएं परिवर्तित होती रहती हैं, संस्कारों का निर्माण करना पड़ता है और मूल्य स्थायी होते हैं। जैसे अगरबत्ती जलाई जाए तो परंपरा के रूप में यह पूजा की क्रिया है, उसकी सुगंध संस्कार है और यदि जलाने का तर्क समझ में आ जाए तो मूल्य शुरू हो जाते हैं। परंपरा में आपके पास ज्ञान होना चाहिए। फिर आप प्रयास करते हैं। जितना अधिक संसार में उतरेंगे परंपराएं, प्रयास ये सब भी उतने ही काम आएंगे। केवल संसार की खोज अशांति देगी।


थोड़ी-थोड़ी खोज स्वयं की भी करें, क्योंकि स्वयं की खोज के बाद ही परमात्मा की खोज होती है। स्वयं की खोज में ध्यान काम आता है और ध्यान संस्कारों से मिलता है। पहला परिश्रम, दूसरा हुआ पुरुषार्थ। ध्यान एक पुरुषार्थ है। परिश्रम जब स्वयं की खोज में लग जाता है तो वही परिश्रम पुरुषार्थ बन जाता है। तीसरा चरण है मूल्य। ध्यान के बाद आती है समाधि और मूल्य एक प्रकार की समाधि है, उसका प्रतीक है। तो परंपरा प्रयास है, संस्कार पुरुषार्थ है और मूल्य प्रतीक है, जो हमें किसी भी व्यक्ति, वस्तु या स्थिति के अच्छे, सही और महत्वपूर्ण होने से जोड़ते हैं। ये कभी नहीं बदलते। संसार पाइए ज्ञान से, स्वयं को खोजिए ध्यान से और परमात्मा तक पहुंच जाएंगे समाधि से। अत: आज की पीढ़ी अपने आप को परंपरा, संस्कार और मूल्यों से जरूर जोड़ें।

प्रबंधक के साथ लीडर भी बनें पालक
संदेह ऐसा शस्त्र है, जो आपकी सुरक्षा के काम आ सकता है और आत्मघाती भी हो सकता है। खासतौर पर संदेह यदि परिवार में उतर आए तो फिर परिवार बचाना मुश्किल हो जाता है। आज सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि माता-पिता और पति-पत्नी भी संदेह के दायरे में आ गए हैं। माता-पिता बच्चों पर संदेह करने लगे हैं। उनके भविष्य की रक्षा के लिए संदेह कर रहे हों यहां तक तो ठीक है परंतु जब अपने भविष्य को लेकर बच्चों पर संदेह करने लगें कि ये बड़े होकर हमारी रक्षा-सेवा करेंगे या नहीं, यह खतरनाक है।

पहले माता-पिता सिर्फ समर्पण भाव से बच्चों को पालते थे, लेकिन आज वे भविष्य को लेकर डरे हुए हैं। संदेह अच्छे-अच्छों को भ्रम में डाल देता है। संकुचित कर देता है और अंत में संताप में पटक देता है। बच्चों का भी यही हाल है। पहले बच्चे माता-पिता के साथ श्रद्धा और विश्वास से जुड़े थे। ये दोनों संदेह की तरह जीवन को संकुचित नहीं करते, उसे विस्तार देते हैं, इसलिए पहले बच्चों को अच्छा लगता था कि परिवार और हमसे अधिक से अधिक लोग जुड़ें परंतु आज कोई किसी को साथ रखने को तैयार नहीं है। इसका एक कारण और है कि माता-पिता मैनेजर की भूमिका में ज्यादा आ गए हैं। एक अजीब प्रबंधन के साथ बच्चे पाले जा रहे हैं। प्रबंधक और लीडर में फर्क होना चाहिए। उदाहरण के लिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस बहुत अच्छे प्रबंधक थे, लेकिन लीडर होने की योग्यता उन्होंने विवेकानंद में खोजी और इन दोनों का मणिकांचन योग विश्व को अनूठा वरदान दे गया, इसलिए यदि माता-पिता अपने भीतर प्रबंधक और लीडर होने की योग्यता उतारें तो उनका और बच्चों का योग वैसा ही बन जाएगा जैसा रामकृष्ण और विवेकानंद का था।

उदारता व संयम को आचरण में लाएं
यह उदारता और संयम का वक्त होना चाहिए। जो लोग आज सार्वजनिक जीवन में सक्रिय, पारिवारिक जीवन में समर्पित, धार्मिक जीवन में गतिशील हैं और राजनीतिक जीवन में कुछ मुकाम पाना चाहते हैं उन्हें इन दो शब्दों को गहना बनाकर आचरण में उतारना ही पड़ेगा अन्यथा सारी दुनिया के साथ हमारा देश भी इसका नुकसान उठाएगा। उदारता मनुष्य के भीतर सेवाभाव लाती है, हिंसा को दूर करती है। उदारता से परहित होता है और संयम से जीवन की अति समाप्त हो जाती है, हम भोगी होने से बच जाते हैं। इन दो बातों से अहंकार, क्रोध सब काबू में आ जाएंगे। आज जिसे देखो वह या तो अहंकार में डूबा है या क्रोध से घिरा हुआ है।

बल, धन, रूप और पद इन चारों का अहंकार एक दिन गिरना ही है। बलवान को एक दिन शरीर साथ नहीं देगा। रूपवान का रूप समाप्त हो जाएगा। पद पर सदैव कोई बैठा नहीं रह सकता और धन बहता ही रहता है। लोग फिर भी अहंकार करते हैं, यह उनकी मूर्खता है। ऐसे लोग बहुत अधिक दिन तक नहीं टिक पाएंगे। इन सबसे ज्यादा खतरनाक है धर्म का अहंकार। धर्म का अहंकार बढ़ता ही जाता है। मेरे शास्त्र, मेरे धार्मिक स्थल, मेरी साधना.. मैं और मेरेका भाव बढ़ता ही जाएगा और इसी कारण आज हिंसा हो रही है, इसलिए उदारता और संयम का पाठ श्रीकृष्ण की शैली में समझाना होगा। कृष्ण कहते थे ये दोनों बातें सिखाने के लिए सामने वाले को दंड देना पड़े तो दे दीजिए, क्योंकि उसी दंड में क्षमा छिपी होती है, इसलिए जिनके पास अधिकार हैं, जो योग्य हैं वे स्वयं उदारता व संयम बरतें और दूसरों को यह सिखाने के लिए एक सख्त अनुशासन बनाए रखें।


आगे रहकर भी साथ चलना सीखें
आगे चलते हुए साथ में चलनायह मुहावरा नेतृत्व करने वालों के लिए बड़े काम का है, चाहे बात उल्टी लगती है। किष्किंधा कांड के उस प्रसंग से यह मुहावरा समझें, जिसमें सीताजी की खोज में निकले वानर प्यास सेे परेशान हो गए। हनुमानजी को लगा कि वानर प्यास से व्याकुल होकर प्राण छोड़ देंगे।

एक ऊंचे स्थान पर चढ़कर दृष्टि डाली तो कुछ पक्षी एक गुफा में जाते दिखे और वे समझ गए कि वहां पानी होगा। सारे वानरों को वहां ले गए। दल का नेतृत्व अंगद कर रहे थे, लेकिन उन्होंने गुफा में जाने से इनकार कर दिया। सभी हनुमानजी की ओर देखने लगे। जिस समय वानर रामजी से विदा लेकर निकले तब अति-उत्साह में सभी आगे-आगे तथा हनुमानजी सबसे पीछे चल रहे थे, लेकिन जब परेशानी आई तो उन्हें आगे कर दिया। किसी की परेशानी कम करना, परेशानी में फंसे लोगों का नेतृत्व करना हनुमानजी का स्वभाव है।आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु कीन्हा।।यहां एक शब्द आया है- ‘विलंबु कीन्हा।

हनुमानजी ने नेतृत्व संभालते हुए बिना देरी किए सभी वानरों को गुफा के भीतर ले जाने की व्यवस्था की। जब आप किसी का नेतृत्व कर रहे हों तो आगे चलते हुए भी साथ रहना होगा। यह गुण हमारे भीतर भी होना चाहिए। चाहे हम परिवार का नेतृत्व कर रहे हों, समाज का या व्यवसाय में किसी दल का। बेशक आगे आपको चलना है परंतु अपने साथ वालों को यह अहसास कराएं कि हम उनके साथ ही चल रहे हैं। यह अहंकार हीनता के लक्षण हैं और यही हनुमानजी की विशेषता थी कि बिना विलंब किए आगे रहते हुए अहंकार रखें। जिस दिन यह गुण किसी के भीतर उतरता है, नेतृत्व के मतलब बदल जाते हैं।

सफलता को परिवार के साथ बांटें
आप अपने संस्थान के प्रतिनिधि हैं, चेहरा हैं, ऐसा आधुनिक प्रबंधन में सिखाया जाता है। बताया जाता है कि आप सार्वजनिक रूप से सक्रिय हों या किसी काम से मैदान में हों तब यह भूलें कि आपका कामकाज देख रहे लोग आपके माध्यम से आपके संस्थान का परिचय ही ले रहे हैं। यदि आपका प्रदर्शन श्रेष्ठ है, व्यक्तित्व आकर्षक प्रभावी है तो लाभ संस्थान को मिलेगा और यदि आप चूक रहे हैं तो नुकसान भी संस्थान ही उठाएगा, इसीलिए आधुनिक प्रबंधन में व्यक्तित्व विकास पर बहुत काम किया जाता है। ठीक इसी प्रकार आप अपने परिवार के भी प्रतिनिधि हैं। जब समाज में आप कोई भूमिका निभाते हैं तो आप परिवार का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। लोग आपसे आपके वंश, आपके कुल की पहचान करेंगे।

कोई भी आचरण करते समय यह भूलें कि आपके परिवार के लोग भी आप ही से प्रतिष्ठा पाएंगे या आलोचना के केंद्र बनेंगे। भारतीय संस्कृति सिखाती है कि यदि परिवार में आप अन्य के मुकाबले अधिक सफल हो गए हों तो उस सफलता को अन्य सदस्यों के साथ जरूर बांटिए। सबको साथ लेकर चलने की मनोवृत्ति रखें, क्योंकि आप प्रतिनिधि हैं, चेहरा हैं। संभव है जब आपका बहुत नाम हो जाए तो परिवार के किसी सदस्य से कोई गलती हो जाए या वह किसी विवाद में पड़ जाए तो उसके छींटे आप पर भी आएंगे। उस विवाद से स्वयं को बचाएं और उस सदस्य को भी समझाएं। एक अच्छे परिवार के प्रतिनिधि की यही पहचान है कि अपनी सफलता सब में बांटें, दूसरों की कमजोरी को दूर रखें और यदि कोई सदस्य विवाद अथवा संकट में फंस गया हो तथा उसका प्रभाव आप पर पड़ रहा हो तो धैर्य रखें और परिवार का साथ छोड़ें।

धर्म व शिक्षा स्थलों का मेल चाहिए
पिछले दिनों एक शिक्षाविद ने मेरे सामने टिप्पणी की कि देश में मंदिर-मस्जिदों की संख्या स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों से अधिक है। ऐसे में देश का शैक्षणिक विकास कैसे होगा, युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन कैसे मिलेगा? दरअसल, दोनों का अपनी-अपनी जगह महत्व है। दुनिया में जब हम लक्ष्य पूर्ति के लिए दौड़ रहे हों, घोर तनाव में हों तो ऐसे विहार से विराम देते हैं धार्मिक स्थल। फिर हिंदुओं ने तो मंदिर के मामले में कुछ अनूठे काम किए हैं। जैसे मूर्ति को प्राण प्रतिष्ठित कर दिया। यह घोषणा है कि परम शक्ति इस रूप में उपलब्ध है, आप यहां आकर उसे प्राप्त कर सकते हैं।

अन्य धार्मिक स्थलों में भी इबादत के जो साधन हैं, ये सब ऊर्जा के ही स्रोत हैं। किंतु शिक्षा स्थलों को लेकर चिंता यह है कि वे व्यवसाय के केंद्र बन गए हैं। दूसरों का भला करने की बजाय वे शोषण के तरीके सिखाने लगे। इधर, धार्मिक स्थलों की दुर्गति धर्म को मानने वालों ने ही कर दी। धार्मिक स्थल पर केवल मांगने नहीं जाया जाता। वहां जाने पर शक्ति प्राप्त होती है, मन का भ्रम दूर होता है। ये केवल कर्मकांड के लिए नहीं, जीवन को नई दिशा देने के लिए है। ऐसे में शिक्षा केंद्रों में यदि धार्मिक स्थल हों तो भी शुभ संकेत होंगे और धार्मिक स्थल यदि शिक्षा के केंद्रों से जुड़ जाएं तो देश के विकास को कौन रोक सकता है। इसलिए हमेशा धर्म पर तीखी टिप्पणी करना, धार्मिक स्थलों का मजाक बनाना और शिक्षा केंद्रों पर बहुत अधिक चिंता व्यक्त करना। ये सब इसी कारण हैं कि दोनों अपने महत्व को ठीक से प्रकट नहीं कर पा रहे। जिस दिन मंदिरों का महत्व और शिक्षा स्थलों का प्रभाव ठीक से स्थापित होगा, हमारे देश का यह मणिकांचन योग सारी दुनिया में प्रमाण बन जाएगा।

साक्षी भाव से समस्या का हल निकालें
जब कभी आपको लगे कि स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो गई हैं, कुछ ऐसी उलझन जाए कि समझ में ही आए कि परेशानी हमने ही आमंत्रित की है या दूसरों ने दी है। जब जीवन में ऐसा दौर आता है तो फिर हम उलझने लगते हैं। उस परेशानी को सुलझाने की बजाय दूसरों पर दोषारोपण करते हैं या अपने ही प्रति इतने दुखी हो जाते हैं कि धीरे-धीरे हम डिप्रेशन में जाते हैं। ऐसी परिस्थितियां कभी जीवन में आएं तो जो भी प्रयास आप कर रहे हैं वह तो करते रहिए, लेकिन अपने मन में एक रूपक तैयार कीजिए।

रूपक का मतलब है एक दृश्य बनाइए और कल्पना कीजिए कि इस दृश्य के लेखक आप हैं, अभिनेता यानी नायक या नायिका आप हैं, खलनायक आप हैं, सह-अभिनेता की भूमिका में भी आप हैं और निर्देशक भी आप ही हैं। हर दृश्य में ये छह भूमिकाएं आप निभा रहे हैं। उस परेशानी भरे माहौल या स्थिति में जब आप स्वयं की ये छह भूमिकाएं तय कर लें तब फिर एक सातवीं भूमिका रखिए और वह होती है दर्शक की भूमिका। आप ही उस सारे दृश्य के दर्शक बनते हुए दूर खड़े होकर देखिए। ऋषि-मुनियों ने इसे ही साक्षीभाव कहा है। अपने को करते हुए देखना ही साक्षीभाव है और इस भाव में वो जो छह भूमिकाएं हैं, जिसमें सबकुछ आप ही हैं- देख रहे हैं आप, कर रहे हैं आप.. यहां से एक दूरी बनेगी और हो सकता है दूरी बनते ही आपको समाधान दिखने लगे। आपको लगने लगेगा कहां-कहां आपका योगदान है और कहां-कहां आप उसे ठीक कर सकते हैं। बस, यहीं से आप में एक आत्मविश्वास जागेगा विपरीत परिस्थिति से अपने आप को बाहर निकाल लेने का, इसलिए उलझन के दौर में साक्षीभाव जरूर रखिए।

व्यवहार कुशल होने के सात तरीके
जीवन में कभी-कभी आपको आक्रामक होना पड़ता है। इसका मतलब है आपमें भरपूर जोश हो, लेकिन जोश और जज्बा विवेक से दूर भी ले जाता है, इसलिए जरूरत पड़ने पर आक्रमक हों परंतु साथ में व्यवहार कुशल भी हों। पिछले दिनों मैं एक मिलिट्री स्कूल में व्याख्यान देने गया तो वहां जवानों की ट्रेनिंग देखी। उसमें कुछ ड्रील तो दांतों तले उंगली दबा लेने जैसी थी। इन्स्ट्रक्टर से मैंने पूछा आपको नहीं लगता कि इन लोगों से अत्यधिक शारीरिक श्रम करवाया जा रहा है? उन्होंने कहा, हम इन्हें आक्रामक बनाना चाहते हैं। फिर कहा कि हम इन्हें व्यवहार कुशल भी बनाते हैं। यानी दूसरों की सुविधा का भी ध्यान रखना। हमसे किसी को असुविधा हो, बल्कि हमारी मौजूदगी में दूसरों को लगना चाहिए कि वे किसी से संरक्षित हैं।

व्यवहार कुशल होने के लिए सहनशील भी होना पड़ता है। अगर लगता है कि व्यवहार कुशल होने में दिक्कत है, तो ये सात काम जो फौजी इन्स्ट्रक्टर ने मुझे बताए थे, आपके भी काम सकते हैं। एक, ड्राइविंग करें। इससे आपकी असहजता दूर होती है। दो, थोड़ी देर एक टांग पर खड़े होकर सारा ध्यान स्पाइनल कॉर्ड पर लगाएं। तीन, भीड़ भरे इलाके में पैदल घूमिए। चार, जो वातावरण सूट होता हो, कुछ देर उसमें भी रहिए। पांच, कुछ समय बदबूदार स्थान पर बिताइए। छह, कुछ देर वहां भी रहिए जहां बहुत शोर हो रहा हो और सात, जो लोग आपको पसंद हों, जितना हो सके, उनके साथ भी रहिए, लेकिन व्यक्त होने दें। इससे सहनशीलता बढ़ती है और आपकी आक्रामकता दूसरों की परेशानी का कारण नहीं बनेगी। यह सहनशीलता सफल होने में आपकी मदद करती है और सफल होने के बाद शांत रहने में व्यवहार कुशलता काम आएगी।

भीतर स्थायी शांति ही आत्मज्ञान
पिछले दिनों कुछ लोगों ने मुझसे पूछा कि आत्मज्ञान क्या होता है? यह जिन्हें प्राप्त होता है उनका आचरण कैसा होता है? जब लोग भक्ति से आगे बढ़कर मेडिटेशन करने हैं तो उनकी अनुभूतियों में परिवर्तन आने लगता है। कई लोगों को आंखें बंद करने पर दृश्य दिखते हैं, थोड़ी दृष्टि बदलती है। वे सोचते हैं यह क्या हो रहा है? आइए, आत्मज्ञान को रूपक से समझें। किष्किंधा कांड में जब हनुमानजी वानरों को पानी पिलाने गुफा में ले जाते हैं तो वहां स्वयंप्रभा नाम की देवी मिलती हैं जो श्रीराम की भक्त थीं। जब उन्हें पता चलता है कि सीताजी की खोज में निकले वानर प्यास से परेशान हैं तो कहती हैं- आप सभी आंखें बंद करें और जब खोलेंगे तो खुद को समुद्र तट पर पाएंगे। वहीं से सीताजी के संकेत मिलेंगे।

तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘मूदहु नयन बिबर तजि जाहु, पैहहु सीतहि जनि पछिताहु।। नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा, ठाढ़े सकल सिंधु के तीरा।।नयन मूदि का अर्थ है ध्यान। अभ्यास और वैराग्य दोनों योग के प्रमुख लक्षण हैं। हनुमानजी में वैराग्य ऐसा था कि वे इच्छा रहित जीवन जीते हुए सिर्फ कर्तव्य का वहन करते थे। जीवन में जब वैराग्य और अभ्यास उतरते हैं तो योग्यता खुद प्रवाहित होने लगती है। योग का तो मतलब ही है बुरी और कमजोर आदतों के विरुद्ध संघर्ष। बस, इसे ही आप आत्मज्ञान कह सकते हैं, क्योंकि इस सब में हम योग से गुजरते हैं तो अपनी आत्मा की ओर चलने लगते हैं। यदि सरलता से ध्यान से जुड़ना हो तो हनुमान चालीसा के साथ मेडिटेशन किया जा सकता है। जिन्हें आत्मज्ञान में रुचि हो और थोड़ी भी अनुभूति हो गई हो उन्हें यदि देखना हो कि आत्मज्ञान का परिणाम क्या है तो वे भीतर शांति खोजें। जब-जब आप शांत हैं तब-तब आत्मज्ञानी हैं।

विज्ञान का लाभ लें, अस्तित्व से न कटें
जिंदगी बालों की तरह नहीं है, जो किसी कंघी से सुलझ जाए। बालों का गुच्छा भी जब उलझ जाए तो कंघी काम करना बंद कर देती है। जीवन या तो बहुत सरल है या बहुत जटिल। यह सरलता या जटिलता इस पर निर्भर है कि आप किसके सहारे जिंदगी को समझने का प्रयास कर रहे हैं। अनपढ़ के हाथ में शास्त्र दे दिया जाए तो वह मतलब ढंग से नहीं समझ पाता। ठीक ऐसा ही जीवन के साथ है। मनुष्य जन्म मिल तो गया है, लेकिन जो अनाड़ी हैं, लापरवाह हैं वे इसका दुरुपयोग करेंगे। कुछ तो इतना दुरुपयोग कर लेते हैं कि जीवन को ही कोसने लगते हैं। सहज मिली यह उपलब्धि बेकार गंवा दी जाती है।

परमात्मा ने यदि मनुष्य का शरीर दिया है तो मानकर चलिए कि आप श्रेष्ठ होंगे तभी ऐसा अवसर मिल सका है। इस दौर में चारों ओर विज्ञान छा चुका है, टेक्नोलॉजी ने मनुष्य के रोम-रोम में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है, बीते वक्त से आज हमारे पास अधिक सुख-सुविधाएं हैं। फिर हम अशांत क्यों हैं? वह कौन-सी चीज है, जिसने विज्ञान और तकनीक के दिए सारे लाभों को हानि में बदल दिया है? इसे समझना होगा, क्योंकि विज्ञान और तकनीक को नकारना नहीं है। दरअसल, जब हम इनसे जुड़ें तो पूरी तरह इनसे ही जुड़ गए और अपने अस्तित्व से कट गए। जो लोग स्वयं से दूर होकर, अपने अंतरमन से कटकर विज्ञान और टेक्नोलॉजी को भोगेंगे वे किसी सूरत में शांत नहीं रह पाएंगे। इसलिए व्यक्तित्व, विज्ञान और तकनीक से जुड़ने पर लाभ उठाता है और अस्तित्व के लिए स्वयं से जुड़ना पड़ेगा। अपने अस्तित्व से कटें और विज्ञान-तकनीक का भरपूर लाभ लें तो इस युग में भी आप स्वयं शांत रहकर मनुष्य जीवन का लाभ उठा पाएंगे।

लक्ष्य प्राप्ति में आत्मा का भी योगदान हो
किसी चील के मुंह में बोटी या किसी पक्षी के मुंह में रोटी हो और उसे उड़ता हुआ देखें तो लगता है यह बहुत दूर जा रहा है। बस, मनुष्य का भाग्य ऐसा ही हो गया है। कभी-कभी तो लगता है, कौन उड़ा ले जाता है हमारे भाग्य को हमसे? खूब प्रयास करते हैं, कोई कसर नहीं छोड़ते, योग्य भी हैं फिर भी वह क्यों नहीं मिल पाता जो मिलना चाहिए। जब ऐसा लगता है तो हम निराश होने लगते हैं।

एक बारीक कारण देखें तो पाएंगे इस समय हम लोग बहुत अधिक भागने लगे हैं। भागते-भागते भी सबकी इच्छा होती है छलांग लगा लें। कुछ तो हमेशा उड़ने की कोशिश में रहते हैं। यह जो तेजी है, यह अशांत करके ही छोड़ेगी। मतलब यह नहीं कि रुक जाएं या धीमे चलने लगें। मतलब इतना ही है कि कुछ पड़ाव और जो अंतिम लक्ष्य है, वहां थोड़ा विराम लेने की वृत्ति बनाएं। रुकने का वह स्थान कोई मंदिर हो सकता है, आपका घर हो सकता है या आपका एकांत भी हो सकता है। इसके बाद चलेंगे तो आपकी चाल में तेजी तो होगी पर अशांति नहीं होगी। केवल शरीर और मन से संचालित लक्ष्य की यात्रा या कहें कि आपका कॅरिअर इस समय शरीर और मन से ही जुड़ा हुआ है। इसको कहीं कहीं आत्मा से जोड़िए। जैसे ही आत्मा का स्पर्श मिलेगा, वह आपको कुछ पड़ाव पर रुकने की समझाइश देगी और जो लोग ध्यान-योग करते हुए अपनी आत्मा से जुड़ेंगे वे लक्ष्य पर पहुंचकर आराम करना भी सीख जाएंगे। वरना लोग लक्ष्य पर पहुंचकर भी भागना बंद नहीं कर रहे हैं। इसी का नतीजा है सबकुछ मिल जाने के बाद भी अशांति। तो लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए शरीर और मन से अधिक योगदान अपनी आत्मा का भी रखिए, फिर देखिए जो मिलेगा वह अलग ही आनंद देकर जाएगा।

मौन साधने से ऊर्जावान हो जाते हैं शब्द
बरसते पानी में यदि छाते की छड़ किसी और ने थाम रखी हो तो आपका भीगना तय है। छाते को सबसे अच्छा वही पकड़ और संभाल सकता है, जो भीगने से बचने के लिए उसका उपयोग करना चाहता हो। ऐसे ही जिंदगी में कई बार हम अपने बचाव या सुरक्षा के प्रमुख साधनों की कमान दूसरों को सौंप देते हैं और परेशान होते हैं। दूसरों को हमें क्या और कितना देना है इसकी समझ कायम रखें। इसी समझ की कमी के कारण हम कुछ महत्वपूर्ण चीजें भी दूसरों को पकड़ा देते हैं जैसे प्रभावी शब्द। हम अपने कई महत्वपूर्ण शब्द दूसरों पर खर्च कर देते हैं। दिनभर में हम अपने-पराए कई लोगों से मिलते हैं और इतना बोलते हैं, अपने शब्दों को बेकार फेंक रहे होते हैं। ये शब्द केवल बाहर निकलकर बातचीत ही नहीं कर रहे, हमारी ऊर्जा को भी चूसकर बाहर कर रहे हैं। यह ऊर्जा कहीं और काम सकती है।

थोड़ा विचार करें कि शब्द बाहर फिंक क्यों जाते हैं? बोलने के बाद लगता है कि नहीं बोला होता तो ठीक था। दरअसल, जब भीतर विचारों का शोर होता है तो ये बेतरतीब, भड़-भड़ करते विचार आपके शब्दों को बाहर धक्का दे देते हैं और इस तरह निकले शब्द अर्थहीन बकवास बन जाते हैं, संभव है अनर्थ भी पैदा कर दें। भीतर के विचार, उनका शोर रोकना हो तो मौन साधना पड़ेगा। जैसे ही मौन की बात आती है, लोग होंठ बंद कर लेते हैं, लेकिन यह मौन नहीं, यह तो चुप्पी है। चुप्पी से कुछ हासिल नहीं होगा। हासिल होगा मौन से और मौन तब घटता है जब आप स्वयं से भी बात करना बंद कर देते हैं। जैसे ही आपने मौन साधा, विचार विदा हो जाएंगे और इसके बाद जो शब्द होंगे वे अद्भुत प्रभावशाली होकर आपकी ऊर्जा को बढ़ाने वाले होंगे।

संघर्ष में धैर्य रखना ही शिव का विषपान
जब अपनों से संघर्ष करना पड़े तो सबसे बड़ी ताकत होती है आंतरिक प्रसन्नता। अपनों से संघर्ष में अच्छे-अच्छे टूट जाते हैं। सभी को कभी कभी अपनों से संघर्ष करना पड़ता है। इसके लिए पहली ताकत जुटाएं आंतरिक प्रसन्नता के रूप में। भीतर से खूब प्रसन्न रहिए, शायद स्वजन शत्रु में नहीं बदलेंगे। वे आकर आपसे जुड़ जरूर सकते हैं। जानवरों में मनुष्य को सबसे ज्यादा डर लगता है सांप से। कोई हिंसक जानवर मनुष्य को इतना भयभीत नहीं करता। इसका कारण है सांप की अज्ञात उपस्थिति और दूसरा उसका जहरीला होना।

सपने में शेर जाए तो नींद खुलने पर ज्यादा विचार नहीं आते, लेकिन सांप जाए तो बहुत देर तक मन में पता नहीं क्या-क्या चलता रहता है। अपनों से संघर्ष भी ऐसा ही होता है, इसीलिए कहा गया है- आस्तीन के सांप से सावधान रहिए। इसी सर्प को शिव से जोड़ दें तो अर्थ बदल जाते हैं। सर्प एक बहुत बड़ा संदेश देते हैं कि विषपान कीजिए जैसाकि शिव ने किया था। विषपान यानी विपरीत परिस्थितियों में, संघर्ष में धैर्य रखना। जब अपनों से आहत हो जाएं तो लड़खड़ाना नहीं, वर्तमान परिस्थिति प्रतिकूल हो तो भविष्य के प्रति आशान्वित रहना। इस प्रकार विषपान धैर्य, निर्भयता ये सब सिखाता है। सांप से एक बड़ी शिक्षा यह भी मिलती है कि उसकी मौजूदगी यदि शिव के पास है तो वह पूजनीय है और यदि जंगल में है तो हिंसक है और लोग उसको मारकर ही मानेंगे।

हमारे पास शिव की उपस्थिाति का मतलब यही है कि हम विष को स्वीकार करें और इसी स्वीकारोक्ति से जीवन में भगवत्ता उतरेगी, परमात्मा का स्वाद उतरेगा। ध्यान रखिए, जिसके पास विषपान की स्वीकृति है उससे बड़ा पराक्रमी और निर्भय कोई हो नहीं सकता।

विराम में ही शांति और भय से मुक्ति है
राजनीति में अंतिम परिणाम सत्ता ही माना जाता है और भक्ति में अंतिम परिणाम है भय मुक्ति। राजनीति की बात तो समझ में आती है। मौजूदा नेता तो सत्ता के लिए ही हैं। किंतु भक्ति के क्षेत्र में भी कुछ लोग चूक रहे हैं। भक्त को भय-मुक्त रहना चाहिए, क्योंकि उसकी पीठ पर भगवान का हाथ रहता है। सबसे बड़ा भय होता है अज्ञात का भय और भक्त इसी से मुक्त रहता है। इसे किष्किंधा कांड के प्रसंग से समझते हैं। 

स्वयंप्रभाजी के कहने पर आंख बंद करने वाले वानरों ने जब आंखें खोलीं तो खुद को समुद्र तट पर पाया, लेकिन निराशा हाथ लगी। सीताजी का पता नहीं मिल रहा था। तुलसीदासजी ने लिखा- इहां बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं।। वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ नहीं हुआ। कहने लगे कि बिना सीताजी की सूचना लिए वापस जाकर क्या करेंगे?

यह निराशा में डूबी वाणी थी। कई बार जीवन में हम निराश हो सकते हैं, लेकिन भय में डूब जाना अच्छी बात नहीं है। वानरों के नेता अंगद की वाणी भयभीत व्यक्ति की वाणी थी, ‘कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुं प्रकार भइ मृत्यु हमारी।। अंगद रोते, डरते हुए कह रहे थे मेरी तो मृत्यु तय है, क्योंकि असफल लौटने पर राजा सुग्रीव मुझे मार डालेंगे। ‘दुहुं प्रकारयानी दोनों तरह से। हम लोग भी दोनों तरह से डरे हुए हैं। संसार में भयभीत रहते हैं कि पता नहीं भौतिक सफलता मिलेगी या नहीं और संसार से मुंह मोड़कर भगवान की ओर दौड़ने लगते हैं। कुल मिलाकर दोनों ही स्थितियों में हम दौड़ते हैं। अगर सफलता में शांति, भय-मुक्ति चाहते हैं तो हमें इस दौड़ को कहीं न कहीं विराम देना होगा, जिसे मेडिटेशन कहते हैं। यह काम अब इन वानरों के लिए हनुमानजी करेंगे।

बुढ़ापे का सौंदर्य है आंतरिक प्रसन्नता
कहते हैं बुढ़ापे में सौंदर्य चला जाता है। शरीर की बात करें तो यह बिल्कुल सही है। जिस्म का नूर कोई नहीं बचा सकता। चाहे जितनी देखभाल शरीर की कर लो। आज तुलसीदासजी की जयंती है, जिनका लिखा श्रीरामचरित मानस भारतीयों के जीवन की आचार-संहिता बन गया। घर-घर में इतनी पैठ शायद ही किसी और साहित्य की हुई होगी। उन्होंने जो बातें हमें सिखाई हैं उनमें एक बड़ी बात यह है कि बुढ़ापे का सौंदर्य आंतरिक प्रसन्नता है। लोग वृद्धावस्था में भगवान को पाने से ज्यादा भुनाने का प्रयास करते हैं। किंतु तुलसी कहते हैं वृद्धावस्था में सबसे पहले उदासी मिटाएं। परमात्मा उम्र नहीं देखता। उसे तो आपके भीतर की मौज से मतलब है। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस वृद्धावस्था में ही पूरा किया था। उनके संतत्व ने घोषणा की कि मैंने अपने अंदर उतरकर जितना आनंद प्राप्त किया उससे बहुत ज्यादा संसार में बांट दूंगा।

वृद्धावस्था की ओर जा रहे और वहां पहुंच चुके हैं लोग आज तुलसी जयंती पर यह विचार अपनाएं कि अब अधिकांश समय बच्चों के बच्चों को देंगे। आज मां-बाप इतने व्यस्त हैं कि बच्चों के लालन-पालन में कहीं न कहीं दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े-बूढ़ों का स्पर्श होना जरूरी है। वे स्वीकार करते हैं कि उनकी सबसे बड़ी समस्या है बच्चों का लालन-पालन। इसे सुलझाने में वे ऊंट को घोड़ा बनाने जैसे तरीके आजमाते हैं। इससे चाल तो तेज हो जाती है, पर कद छोटा हो जाता है। आज के माता-पिता, पति-पत्नी होकर एक-दूसरे की उलझन से बाहर ही नहीं निकल पाते। बच्चों के लिए ऐसे मां-बाप को देखना रिंग में दो बॉक्सर देखने जैसा हो जाता है। वातावरण हिंसक हो उठता है। ऐसे में परिवार में वृद्धावस्था की मौजूदगी से ही प्रेम और शांति का वातावरण होगा।

संयम बनाए रखकर चरित्र बचाएं
नशा करने वाला व्यक्ति बड़ा हो या छोटा, अमीर हो या गरीब, पढ़ा-लिखा हो या निरक्षर, वह स्वयं के साथ दूसरों का भी नुकसान करता है। कहते हैं पता और पैगाम किसी दूसरे का भी हो, लेकिन फाड़ा तो लिफाफा ही जाएगा। इस तरह आदत और शराब मिलकर जब नशा बनता है तो नुकसान तो पीने वाले का ही होना है। पिछले कुछ दिनों की खबरें देखें तो पाएंगे कि शराब के नशे में किसी ने फुटपाथ पर सो रहे लोगों को रौंद दिया तो किसी ने दुष्कर्म किया।

पहले लोग मौज-मस्ती के लिए नशा करते थे, अब 90 प्रतिशत अपराधी अपराध करने के पहले नशा करते हैं ताकि हिम्मत खुल जाए। कमाल की बात है मनुष्य को सबसे कमजोर करने वाली शराब हिम्मत का माध्यम बन गई है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो नशा दुर्गुणों का रक्षक है। मनुष्य शरीर में दुर्गुण शत्रु की तरह हैं। नशा करते ही दुर्गुण बलशाली हो जाते हैं। फिर लोग उन्हीं दुर्गुणों के शिकार हो जाते हैं। किसी मनोवैज्ञानिक ने प्रयोग किया था- कुत्ते को रोटी खिलाते हुए घंटी बजाई। दस दिन में कुत्ते के लिए रोटी खाने और घंटी की आवाज में संबंध बन गया। 11वें दिन रोटी न होने पर भी घंटी बजाने पर कुत्ते की लार टपकने लगी।

मनुष्य के लिए आदत और नशा ऐसा ही हो जाता है। जो लोग शराब या अन्य कोई नशा करते हैं धीरे-धीरे वह आदत बन जाती है। सायकोलॉजी में इसे कंडीशन्ड रिफ्लेक्स कहते हैं, इसीलिए हम देखते हैं बरात में बिना पिए नाच नहीं सकते। पार्टी में मेलजोल नहीं हो सकता। अब तो गंभीर बात करने के लिए भी पैमाना चाहिए। सीमा से बाहर जाकर जो भी काम होगा वह नुकसान ही पहुंचाएगा। फिर चाहे नशा मदिरा का हो या किसी अन्य चीज का। संयम बनाए रखिए। चरित्र बचाए रखिए।

हालात खराब हों तो भक्ति को बढ़ाएं
जो लोग आशा में जी रहे हैं वे अब भी नारा उछालते हैं- भ्रष्टाचार का घड़ा या तो फूटेगा या फोड़ दिया जाएगा। पता नहीं ऐसा कब और कैसे होगा? भले लोग चिंतित हैं कि जिम्मेदार लोगों का भी आचरण बच नहीं पा रहा है। सरकारी व्यवस्था में चारों ओर बिगड़ी बनाने वालों की जमात फैल गई है। जो काम आसानी से न हो सके वह ये कराते हैं। जिन्हें भगवान पर भरोसा है वे अपनी भलाई को ऐसे भ्रष्ट आचरण से आहत न करें। जिस समय श्रीराम हुए, श्रीकृष्ण का दौर गुजरा, महावीर ने जो समय देखा, बुद्ध के समय जो परिस्थितियां थीं, नानक और मोहम्मद साहब भी कठिन हालात से गुजरे, लेकिन इन हस्तियों ने दिखा दिया कि कमल कीचड़ में ही खिलता है।

पतन की कितनी ही आंधी चले, भ्रष्ट आचरण के तूफान उठें, चरित्रहीनता की लहरें फैल जाएं, लेकिन हमारे व्यक्तित्व को आंच नहीं आनी चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब हमारा जुड़ाव परमशक्ति से हो। जब-जब बाहर हालात खराब हों तब-तब भक्ति बढ़ाते रहें, चाहे किसी धर्म के हों, भक्ति का मतलब ही है अपनी आत्मा से जुड़ना। इसमें योग जैसी साधना बड़ी काम आती है। योगी विपरीत परिस्थिति में भी टिका रहता है। खूब धन कमाएं, नाम अर्जित करें, पद और प्रतिष्ठा हासिल कर लें, लेकिन भीतर के भक्त को मरने न दें। जब भी उस परमपिता परमेश्वर के सामने खड़े हों तब उनसे कहें कि मेरी भक्ति का जो फल मुझे मिला है वैसा ही सबको मिले। यदि आपको आनंद मिल गया है तो उसे दोनों हाथों से लुटाइए। एक भक्त जब किसी के साथ खड़ा होता है तो लोगों को उसमें अपना संरक्षक दिखने लगता है। भक्त अपना एक हिस्सा भगवान से जोड़कर रखता है और दूसरा उन लोगों के लिए, जो संसार में उससे जुड़े हैं।

परिवार के केंद्र में हो श्रीकृष्ण जैसा गुरु
चौपड़ के खेल में कहावत है- जरूरी नहीं कि सारे पासे आपके हाथ में हों, जरूरी यह है कि आप बाजी कैसे चलते हैं। इसे यूं समझें कि संसाधन सीमित हो या कभी कोई साधन नहीं भी हो सकता है। ऐसे में हम किस-किस नीयत से निर्णय लेंगे यह महत्वपूर्ण है। कौरवों के पास सारे पासे थे, लेकिन बाजी पांडवों ने सही ढंग से चली, क्योंकि श्रीकृष्ण उनके साथ थे। श्रीकृष्ण यानी स्पष्ट चिंतन, सुदृढ़ निर्णय शक्ति और आत्म-विश्वास। श्रीकृष्ण का यह रूप हमारे भीतर उपस्थित है। बस, उघाड़ना भर है। श्रीकृष्ण जैसी उपलब्धि हमारे भीतर शिक्षा अथवा किसी के मार्गदर्शन से प्राप्त हो सकती है।

श्रीकृष्ण मूल रूप से पारिवारिक व्यक्ति थे, लेकिन अत्यधिक सामाजिक और राष्ट्रीय नेतृत्व करते दिखते थे। हम अधिकतम समय घर से बाहर गुजारते हैं। ऐसे में परिवार बचाने की यही शैली है कि जरूरी नहीं हमारे पास पासे कितने हैं? आवश्यक यह होगा कि हम बाजी कैसे चलें। घरों में ऐसा ही वातावरण है। एक-दूसरे से चाल चल रहे हैं। परिवार एकमात्र ऐसा खेल है, जिसमें या तो सभी को जीतना है या सभी से हारना है। एक ही परिवार में अपनों को हराना और अपनों से जीतना ठीक नहीं है, इसलिए श्रीकृष्ण जैसा गुरु परिवार के केंद्र में होना चाहिए।

गुरुमंत्र लेते समय इसकी गोपनीयता बनाए रखने को कहते हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है? दरअसल मनुष्यों का शारीरिक गठन इस प्रकार है कि हम कोई चीज भीतर लाएंगे तो उसको बाहर निकालना ही होगा। भोजन और मल विसर्जन इसी का उदाहरण है। कोई भी वस्तु भीतर रोकने में धैर्य लगता है, तप की जरूरत होती है। इसे पारिवारिक जीवन में अपनाएं। अपने परिवार में पूरी तरह रुकें, प्रत्येक पल को जिएं फिर बाहर की दुनिया भी अलग ही आनंद देगी

खुद से जुड़ेंगे तो निराशा दूर होगी
‘नक्शे से इमारत चले, वृक्ष चले निज लीलाजीवन-यात्रा के लिए यह पंक्ति बड़े काम की है। हम में से बहुतों को स्पष्ट होगा कि हमारी मंजिल कहां है। इमारत की चाल नक्शे से हो तो इमारत अच्छी होती है। नक्शे से बाहर निकलकर इमारत बनाई जाएगी तो उसके कमजोर होने की आशंका बढ़ जाती है। किंतु वृक्ष के मामले में नक्शा काम नहीं करता। जमीन में उसकी जड़ें कितनी गहरी होंगी, तना कितना मोटा होगा, डालियां कहां-कहां बिखरेंगीं और फूल कैसे निकलेंगे यह उसकी निज लीला है। मनुष्य ने अपने हाथ वृक्ष पर भी डाल दिए और उसके समापन में जुट गया। इसकी कीमत भी वह चुका रहा है।

किष्किंधा कांड में अंगद के लिए तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं।।सीताजी मिल नहीं रही थीं और सारे वानरों के साथ अंगद भी उदास थे। उन्होंने कह दिया, ‘मेरा मरण निश्चित है।यदि विपरीत परिस्थिति में हम जीवन की यात्रा को वृक्ष की तरह न देखते हुए इमारत की तरह देखेंगे तो परेशान हो जाएंगे। वृक्ष की निज लीला में जड़ की बड़ी भूमिका होती है। जड़ का मतलब होता है अपने से जुड़ना। जिस दिन मनुष्य वृक्ष की निज लीला की तरह यात्रा करेगा, वह जड़ से जुड़ना शुरू कर देता है। जैसे ही हम अपनी जड़ में उतरते हैं, हमें एकांत मिलता है और एकांत में आत्म-साक्षात्कार होने लगता है व उदासी, निराशा जाती रहेगी। अंगद को यह आत्म-साक्षात्कार हनुमानजी की उपस्थिति करा रही थी।

जीवन में जब भी निराशा आए, हनुमानजी जैसी हस्ती को बनाए रखिए। तब आप पाएंगे कि इमारत की तरह चलेंगे तो निराश हो जाएंगे, वृक्ष की तरह निज लीला करते हुए चलेंगे तो लक्ष्य तक भी पहुंचेंगे, प्रसन्न भी रहेंगे।

प्रेम से जुड़ने का संदेश देने वाला पर्व
जितने उत्सव और त्योहार हमारे देश में मनाए जाते हैं संभवत: किसी मुल्क में नहीं मनाए जाते। हमारे पूर्वज कुछ काम ऐसे कर गए हैं, जो हमारे डीएनए में उत्सव और त्योहार बनकर बह रहे हैं। हमें समझना चाहिए कि ये केवल हुड़दंग नहीं है। त्योहार हमें आपस में जोड़ते हैं और विश्राम के लिए पड़ाव देते हैं। आज व्यावसायिक जगत में इतनी चुनौतियां प्रतिस्पर्द्धा हो गई है कि यदि शीर्ष पर पहुंचकर थक गए तो आप सफलता की दुनिया में भूतपूर्व ही नहीं, स्वर्गीय हो जाएंगे। कुछ लोगों के मन में तो यह बात बैठ गई है कि आगे बढ़ना है तो दूसरे को पीछे नहीं छोड़ना, उसे समाप्त ही कर देना है। ऐसे प्रतिस्पर्द्धी माहौल में त्योहार विराम देते हैं, शांति देते हैं। रचनात्मक सोचने का मौका और दूसरों के साथ खिलवाड़ करने का संदेश देते हैं। खासतौर पर यह संदेश देते हैं कि जो भी करें, पूरी तरह डूबकर करें।

भक्ति ऐसा ही उत्सव है जो हमें डूबो देता है। जैसे ही हम तल्लीन होते हैं, कर्म और कर्ता एक हो जाते हैं। जैसे आज राखी का त्योहार है। इसे जब आप परहित की भावना से जोड़ते हैं, एक पुरुष भाई के रूप में स्त्री बहन की रक्षा और उसके संबंधों को प्रगाढ़ता से देखता है। उसी दिन उसके मन में यह भाव आता है कि क्यों ऐसा रक्षा सूत्र प्रत्येक रिश्ते में उतर आए। जिस दिन हम एेसा सोचेंगे उस दिन एक हस्ती ऊपर बैठी है जो हमारी रक्षा करने उतर आएगी।

राखी ऐसा ही त्योहार हैं, जो दूसरों से प्रेम से जुड़ने का संदेश देता है, इसलिए राखी को केवल साधारण धागा ही मानें। एक-दूसरे से सब जुड़ जाएं तो फिर समाज प्रेम की धारा में डूबेगा और परिवार भी सुरक्षित होने लगेंंगे। तब आप जो भी करना चाहेंगे, आनंद के साथ कर सकेंगे।

रोज खुद से जुड़ने का समय निकालें
विपरीत समय में, संकट के दौर में जब घबराहट हो तो बहादुरी का मुखौटा ओढ़ लेना चतुराई मानी जाती है। कई लोग ऐसा ही करते हैं। जो परमात्मा में विश्वास करते हैं उनको एक बात सिखाई जाती है कि यदि केवल कर्मकांड करोगे तो बहादुरी मुखौटा ओढ़ने जैसी होगी, लेकिन यदि भक्ति करेंगे और अपनी भक्ति को योग से जोड़ेंगे तो फिर निर्भयता आपका स्वभाव बन जाएगी। बहादुरी और निर्भयता में बारीक फर्क है। बहादुर से बहादुर आदमी भी असफलता के डर से भरा रहता है, लेकिन जो निर्भय होता है उसे बहादुरी से कोई लेना-देना नहीं होता।

बस, वह भयमुक्त है, इसीलिए अपने से ऊपर किसी परम शक्ति से जुड़िए और योग इसका बहुत अच्छा माध्यम है। योग पहले स्वयं से जोड़ता है और फिर उस परम शक्ति से जोड़ता है। परंतु दिक्कत यह है कि लोग अनेक लोगों से जुड़े रहते हैं पर खुद से नहीं जुड़ते। तो चूंकि स्वयं से जुड़ने की ठीक से तैयारी नहीं है इसलिए ऐसी संस्थाओं में, ऐसे स्थानों पर आते-जाते रहते हैं, जिन्हें कभी आश्रम कहा गया है, कभी तीर्थ कहा है। किंतु वहां भी उन्हें खुद से जुड़ने के अवसर नहीं मिलते, शांति प्राप्त नहीं होती।

ऐसे लोग जब किसी आश्रम में जाते हैं तो वहां चमत्कार, आशीर्वाद, कृपा, सलाह इन सबकी अपेक्षा रखते हैं। जबकि आश्रम वे केंद्र होते हैं जहां कोई एक या बहुत सारे व्यक्ति आपको स्वयं से ही जोड़ने की कला सिखाते हैं। हर आश्रम के केंद्र में एक गुरु होता है, जो आपका रूपांतरण इस प्रकार से करता है कि आप खुद--खुद स्वयं से जुड़ जाते हैं। इसलिए तमाम व्यस्तताओं के बीच 24 घंटे में कुछ समय स्वयं से जुड़ने के लिए जरूर निकालिए। योग और गुरु इसमें आपकी बहुत मदद करेंगे।

सरल रहकर सत्ता का सुख उठाएं
सत्ता स्वभाव से ही नरभक्षी होती है। उस पर बैठने वाले को खा जाती है। शुरुआत से ही जमीर कुतरना शुरू करती है। इसीलिए जब कोई सत्ता पर बैठता है तो आचरण का संतुलन खो बैठता है। सत्ता केवल राजनीतिक सत्ता नहीं होती, जिसके लिए नेता जीवन दांव पर लगा देते हैं। सत्ता परिवार में मुखिया की भी हो सकती है, किसी व्यवस्था में नेतृत्व की भी हो सकती है और एक सबसे बड़ी सत्ता है आपके अपने होने की। इसमें आपको अपनी इंद्रियों पर राज करना पड़ता है। यह आंतरिक सत्ता है परंतु इतना ध्यान रखें कि हर सत्ता नरभक्षी है।

निज मन ही निज तन को खाए ऐसा कहा गया है। इसलिए मन से संचालित हमारी इंद्रियां हमें कुतर लेती हैं।
कहा जाता है सत्ता पर अनुभवी को बैठना चाहिए। किंतु ध्यान रखिए, अनुभव के बाद हम कुटिल हों, सरल होते जाएं। देखा गया है कि अनुभवी व्यक्ति कुटिल होने लगता हैै, क्योंकि जब आपने बहुत दुनिया देखी हो, तो आप इस बात में माहिर हो जाते हैं कि बचा कैसे जाए और निपटाया कैसे जाए? अधिकतर अनुभवी लोग सरलता खो बैठते हैं। अध्यात्म कहता है, जितने अनुभवी हों उतने सरल हो जाएं। इसके लिए अपने मन को सक्रिय सहयोग देना बंद कर दें। इससे जीवन और स्वभाव में सरलता उतरती है और जिस दिन सरलता अनुभव से जुड़ जाए उस दिन आपके पास कैसी भी सत्ता हो, उसका दुरुपयोग नहीं होगा बल्कि वह आपको जीवन का आनंद देगी।

अभी जो भी सत्ता पर बैठा है वह आनंद के लिए या तो शोषण करता है या गलत आचरण। लोग मानते ही नहीं हैं कि सरल रहकर भी सत्ता का सुख उठाया जा सकता है। वह सुख मिलता है मन के नियंत्रण से और मन का नियंत्रण होगा योग से। इसलिए योग को अपनाइए।

खुद को भीतर से ठीक कर आगे बढ़ें
अंतरतम में झांककर अपनी कमजोरियां ठीक करने के लिए बनाए दर्पण भारतीय संस्कृति को ऋषि-मुनियों की बड़ी देन है। इन आईनों में एक है कथाएं। यदि ठीक से उनका अर्थ ग्रहण कर लें तो वे आईने का ही काम करेंगी। प्रसंग है किष्किंधा कांड का। अंगद दुखी हो चुके थे कि सीताजी की खोज के बिना लौटेंगे तो सुग्रीव मुझे जीवित नहीं छोड़ेंगे। उन्हें दुखी देख रामजी की सेना के वयोवृद्ध सदस्य जामवंत कुछ कथाएं सुनाते हैं। यहां तुलसीदासजी ने लिखा है- ‘जामवंत अंगद दुख देखी। कहीं कथा उपदेस बिसेषी।। हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी।।जामवंत कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हम लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो रामजी का काम करने को मिला है।

प्रभु श्रीराम भक्तों से अतिरिक्त प्रीति रखते हैं और जिन्हें भगवान प्रेम कर रहा हो वे क्यों दुखी हों? लेकिन दुखी रहना मनुष्य स्वभाव बन जाता है, क्योंकि दूसरों की सहानुभूति, सांत्वना प्राप्त होती है। बच्चा बचपन में ही सीख जाता है कि खेलो-कूदो, मस्त रहो तो लोग डांटते हैं और बीमार हो जाओ तो सारा घर आस-पास बैठ जाता है। उसका यह मनोविज्ञान तैयार हो जाता है कि दुखी हो जाओ तो सहानुभूति मिलती है। लेकिन बोधकथाएं आईना दिखाती हैं कि क्यों दुखी हो रहे हो, क्यों संसार से झूठी सांत्वना बटोर रहे हो? आपके पास स्वयं इतना कुछ है कि उससे अपने को भीतर से ठीक करो और फिर संसार की कैसी भी परेशानी हो, उसका सामना करो। यही बात जामवंत अंगद को समझा रहे थे और हमें भी समझना होगा कि जीवन में जब सफलता की यात्रा पर चलें और मार्ग में बाधाएं आएं तो दुखी होकर बैठ जाएं। तुरंत कथा-सत्संगरूपी दर्पण देखें, स्वयं को ठीक करें और आगे बढ़ जाएं।

गुरु की सत्ता से जुड़कर अहंकार मिटाएं
जो लोग सत्ता पर लंबे समय तक बैठ जाते हैं, वे खड़े होना ही भूल जाते हैं। चलने का प्रयास करते हैं तो स्वयं नहीं चल पाते, दो-चार लोगों की मदद लगती है। सत्ता अपनी कीमत वसूलती है। सत्ता चाहे राजनीति की हो, परिवार की या किसी अन्य व्यवस्था की हो, थोड़ा सावधान रहना होगा। बाकी क्षेत्र में सत्ता पर बैठे लोग यदि बिगड़ जाएं तो उतना खतरा नहीं है, क्योंकि वहां दूसरे आपको उतारने को तैयार रहते हैं। किंतु जब धर्म क्षेत्र में सत्ता मिल जाए और उसका अहंकार जाए तो फिर पूरा जीवन ही बर्बाद हो जाता है। सत्ता भक्त की भी है और गुरु की भी। श्रेष्ठ होने का अहंकार भक्त को भी जाता है। कुछ भक्त अपना धर्म श्रेष्ठ होने का अहंकार पाल लेते हैं।

कमजोरी धर्म में नहीं, धर्म के प्रति अहंकार करने में है। धर्म तो सबका एक जैसा है। अहंकार और द्वेष के कारण लोगों ने उसे अलग-अलग स्वरूप दे दिया है। धर्म में प्रवेश करते ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए कि वह हमारा रूपांतरण कर दे। ऐसा मार्ग दिखाए कि हम परमात्मा की ओर चल सकें। धर्म आमंत्रण है उसी परमात्मा का। यदि आप किसी विशेष धर्म से हैं तो गुरु की सत्ता पर जरूर भरोसा कीजिए। गुरु की सत्ता और अन्य सत्ताओं में फर्क यह है कि गुरु केवल इसीलिए सत्ता पर बैठा है कि आपको परम सत्ता तक पहुंचा दे। उनका आग्रह नहीं होता कि उन्हें ही श्रेष्ठ मानो। वे तो कहते हैं, ‘मैंने दीपक जलाकर आपकी हथेली पर रख दिया है, अब यह दीपक और आपकी यात्रा.. कर दें आरंभ। जब कभी भी हमें सत्ता का अहंकार आए तो गुरु की सत्ता से जुड़िए और अपने आप को अहंकार-शून्य करके उस परम सत्ता के लक्ष्य पर पहुंचिए, जिसे लोग जीवन में भूल जाते हैं।

दुर्गुणों से लड़ने में सक्षम बनने का पर्व
दुर्गुण उस जमीन को खुरदुरा बना देते हैं, जिस पर चलकर मनुष्य को जीवन-यात्रा पूर्ण करनी होती है। इसलिए जिसके भीतर दुर्गुण जाएं, उसकी यात्रा में बाधाएं आएंगी। दुर्गुण तो तैयार ही बैठै रहते हैं। छिद्र दिखा कि प्रवेश किया। सवाल है कि दुर्गुणों से बचा कैसे जाए? गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, ‘जब-जब मेरे भक्त असुरक्षित होंगे, जब अधर्म हावी होगा, उन्हें मेरी जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।

तो क्या भगवान सचमुच जाते हैं? जिस काल में कृष्ण मौजूद थे उस समय भी महाभारत का युद्ध हो गया। उनके सामने ऐसे-ऐसे काम हो गए कि सोचकर शर्म आती है। जब भगवान थे तब मनुष्यता इतनी गिर गई तो आज जब वे नहीं दिखते हैं तब तो हालात और खराब होने चाहिए, लेकिन ध्यान दें, इसीलिए वे कह गए थे मैं आऊंगा। उनके आने का मतलब है वे कहीं गए नहीं हैं, वे यहीं हैं। आने का मतलब है आप उन्हें महसूस कर लें, क्योंकि जितने मनुष्य जन्मे उतने ही कृष्ण चुके हैं। इसलिए भगवान यह व्यवस्था स्थायी रूप से करके चलते हैं कि आपका महसूस कर लेना ही मेरे आने को जान लेना है। जन्माष्टमी उसी का संदेश है। इस पर्व को मनाकर हम कृष्ण-जन्म को याद करते हैं। इसका मतलब है- वे हैं ही।

आज उन्हें याद करके हम महसूस कर रहे हैं कि वे हमारे बीच चुके हैं और आते ही सबसे बड़ा काम करेंगे कि जब दुर्गुणों के आक्रमण होंगे तो आपको उनका सामना करने लायक सक्षम बना देंगे। दुर्योधन तब भी था जब कृष्ण थे, वह आज भी है जब कृष्ण दिखते नहीं। किंतु पांडव जैसी क्षमता वे हमें देंगे ताकि हम कुरुक्षेत्र में जीत सकें। इसलिए उत्सव को वह अवसर मानें जब हम अपने दुर्गुणों से लड़ने के लिए खुद को सक्षम कर सकें।

गलत लोगों के प्र‌भाव से बचाता है योग
आज की राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था ने लोगों को नागरिक तो बना दिया पर हम मनुष्य बनने में चूकते जा रहे हैं। कई बार हमें दूसरों की मदद लेनी पड़ती है और हो सकता है, जिससे हमारा संपर्क है वह व्यक्ति बहुत प्रभावशाली हो। ऐसे व्यक्ति का मूल्यांकन करने में हम चूकने लगते हैं, क्योंकि उसका प्रभामंडल हमारी सोच को कुंद कर देता है। हम इसी में खुश हो जाते हैं कि प्रभावशाली व्यक्ति हमारी मदद कर रहा है। ध्यान रखिएगा, ऐसे लोगों का मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। भले ही बाहर से न कर पाएं पर भीतर ही भीतर मूल्यांकन जरूर करिए, क्योंकि अपराधी को जब राजनीति के वस्त्र मिल जाते हैं तो वह उनमें अपने काले कारनामे भी छिपा लेता है।

गलत व्यक्ति को जब महत्वपूर्ण पद मिल जाता है, तो उसका गलत कपूर की तरह अदृश्य हो जाता है। हम मानकर बैठ जाते हैं कि समर्थ व्यक्ति हमारे ऊपर कृपा कर रहा है और दबाव में आ जाते हैं। परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है, इसीलिए हम बहुत महत्वपूर्ण हैं तो किसी गलत व्यक्ति से क्यों दबें? कहीं ऐसा न हो कि हम भी कोई गलत काम कर जाएं या उससे गलत लाभ उठा लें। अपने आप को बचाकर चलने के लिए भी आत्म-विश्वास की जरूरत पड़ती है। फिर ऐसे समय जब चारों तरफ ऐसे लोगों की बाढ़-सी आई हो, जिन्होंने तय कर लिया हो कि कुल-मिलाकर सफल होना है, रास्ता सही हो या गलत।

उस समय आपको अपने मनुष्य होने पर बहुत ध्यान रखना होगा। इसके लिए अपने आप को योग से जरूर जोड़ें। योग ही आपके आत्मविश्वास को जगा पाएगा। यह भी ध्यान रखें, योग केवल तन के स्वास्थ्य के लिए ही नहीं है बल्कि इससे जुड़कर आप बाहर से कई गलत लोगों के आक्रमण से भी बच जाएंगे।

ईश्वर को इंद्रियों का अर्पण सच्चा भोग
सभी लोगों को किसी न किसी से लगाव होता है। कोई धन से, कोई पद से, कोई बच्चों से, कोई प्रतिष्ठा से तो किसी को दुर्गुणों से लगाव हो जाता है। यह अनुचित और गलत जुड़ाव हमें भटका देता है। नेता हो या नौकरशाह, उनका लगाव केवल अधिकार संपन्न होने से होता है। आम जनता को उदासीन रहने में बड़ा मजा आता है। हम मान लेते हैं कि हम सामान्य व्यक्ति हैं, कोई राष्ट्रीय या सामाजिक जिम्मेदारी क्यों उठाएं। यह सही है कि हम सामान्य लोग हैं, लेकिन खुद को इतना तैयार कर सकते हैं कि श्रेष्ठ नागरिक, मनुष्य बन जाएं।

अध्यात्म में एक शब्द है- भोग। इसके दो अर्थ हैं, बना हुआ अन्न या कोई भी खाद्य सामग्री जो भगवान को चढ़ाई जाए उसे भोग कहते हैं। उसके बाद भक्त लोग प्रसाद मानकर उसे ग्रहण कर लेते हैं। देह की संतुष्टि, इंद्रियों की अनुचित मांग को पूरा करना भी भोग है। जब इंद्रियों की मांग बढ़ती जाए और हम पूरी करते जाएं तो यह विलास होता है। जीवन में भोग और विलास हावी हो जाए तो व्यक्ति भटक जाता है। किंतु यदि आपने इंद्रियों की मांग को मोड़कर परमात्मा में अर्पित करके भोग बनाया तो वह प्रसाद आपको फायदा पहुंचाएगा। जो लोग आज सत्ता में बैठकर गलत काम करते दिखते हैं, अपने मूल कर्तव्य के प्रति उदासीन होते हैं और उन्हें पूरा नहीं करते तो समझिए वे उस भोग में डूब गए हैं, जो इंद्रियों की मांग है। उन्हें देखकर हमें अपने आप को उस अच्छाई से जोड़ना है कि हमारी इंद्रियां यदि कोई मांग करे तो उसे परमात्मा को चढ़ाकर प्रसादरूपी भोग बना लें। बस, यहीं से आपके और उसके मनुष्य होने में फर्क हो जाएगा।
आप पाएंगे कि जो भी करेंगे उसके बाद खूब शांत और प्रसन्न होंगे, क्योंकि ऐसे ऊंचे और ख्यात लोग प्रसन्न नहीं होते, अशांत ही बने रहते हैं।

संकट के समय अनुभव का लाभ लें
यदि ठीक से सर्वे किया जाए तो पाएंगे कानून सामान्य से अधिक प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने तोड़ा है। सामान्य व्यक्ति मजबूर होता है और मजबूरी के पास विकल्प नहीं होते। जो विशिष्ट होते हैं उनके पास सारे रास्ते होते हैं, लेकिन ऐसा भी समय आता है कि वे भी उलझ जाते हैं। सामान्य व्यक्ति तो किसी परमशक्ति के भरोसे खुद को मुसीबत से निकाल लेता है, लेकिन प्रतिष्ठित लोगों का अहंकार आड़े आ जाता है। यदि सामान्य बनकर नियम का पालन किया तो बेइज्जती हो जाएगी। फिर वे गलत कदम उठाते हैं। किष्किंधा कांड के प्रसंग में अंगद यही भूल कर रहे थे। सीताजी की खोज में चलते समय कानून बना था कि बिना काम किए लौटना नहीं है, समय पर काम करना है। प्रतिष्ठित वर्ग के अंगद इसी व्यवस्था को तोड़ रहे थे। अच्छा था कि श्रीराम की सेना के वयोवृद्ध जाम्बवंत वहां थे। वृद्ध दूसरों के ज्ञान का सदुपयोग करना जानते हैं।

जाम्बवंत बहुत विद्वान नहीं थे, लेकिन उन्होंने अनुभव से अंगद को बहुत कथाएं सुनाईं। एहि बिधि कथा कहहिं बहु भांती। गिरि कंदरा सुनी संपाती।। बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा।। जाम्बवान बहुत प्रकार से कथाएं कह रहे थे। इनकी बातें पर्वत की कंदरा में संपाती ने सुनीं। बाहर निकलकर उसने बहुत से वानर देखे और बोला- जगदीश्वर ने मुझको घर बैठे बहुत-सा आहार भेज दिया। इससे संदेश मिलता है कि जब भी विपरीत समय आए सत्संग जरूर कर लेना चाहिए, जिसकी कथाओं में समस्या का समाधान छुपा होता है। हमारे भीतर भी एक जाम्बवंत है जिसे अनुभव कह सकते हैं। जब भी संकट का समय आए, अपने अनुभव को सोने मत दीजिए। जब हमारा अपना अनुभव सो जाता है तभी हम दूसरों से उनकी अक्ल उधार लेते हैं।

इस बाजार युग में प्रकृति से भी जुड़ें
बीते वक्त में इंसान के पास सुविधाएं कम थीं तो दुख आने के रास्ते भी अधिक नहीं थे। अब इस बाजार युग में ऐसा लगता है कि सारे देश का शरीर बाजार में और उसकी शक्ति दुकान में तब्दील हो गई है। घर हो या बाहर, जिसे देखो वह सौदा करने में लगा है। बाजार शरीर से ही चलता है, वहां आत्मा का कोई लेना-देना नहीं होता। ध्यान रखिए दुख का संबंध तीन स्तरों पर होता है- शरीर, मन और आत्मा का दुख। सुनकर आश्चर्य होगा कि आत्मा का भी दुख होता है, लेकिन इसे यूं समझें कि जब पीड़ा अंतरतम तक हो जाए तो इसे कहने के लिए आत्मा का दुख कहेंगे।

मन का दुख कल्पनाओं से जुड़ा है, लेकिन शरीर का दुख हमारी जीवनशैली से संबंधित है। बाजार के जीवन के कारण शरीर अपनी मूल प्रकृति से दूर होता जाता है। इसकी तासीर है पृथ्वी, अग्रि, जल, वायु और आकाश से तालमेल बनाना। यदि बारीकी से देखें तो आज पंचतत्व को भी प्रोडक्ट बनाकर मुनाफे और घाटे में बदल दिया गया है। शरीर चाहे तो सीधे प्रकृति से जुड़ सकता है, लेकिन बाजार ने उसे दूसरे रास्ते दिखाए। प्रकृति हमेशा कहती है थोड़ी देर मेरे साथ ठहर जाओ, ठहरते ही मेरे भीतर का सुख तुम्हारा आनंद बन जाएगा। थोड़ा तल्लीन होना पड़ता है प्रकृति के साथ, लेकिन बाजार कहता है भागो, कहीं मत ठहरो। एक दुकान में जरा ठहरों तो दूसरा आवाज लगाने लगता है। इसीलिए आज बाजार ने आदमी के शरीर को अस्वस्थ बना दिया है।

इसका यह मतलब नहीं कि बाजार से संबंध तोड़ लें, लेकिन एक ऐसी यात्रा भी करते रहें, जो हमें प्रकृति की ओर ले जाती है और उस यात्रा का नाम है योग। अगर कठिन लगे तो श्री हनुमान चालीसा से ध्यान किया जा सकता है। हनुमानजी की विशेषता ही यह है कि वे लंका जैसे बाजार में से भी सलामत लौट आए थे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....