Tuesday, May 24, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 5)

योग करें और आहत होने से बचें
बच्चे स्कूल से आते हैं तो स्कूल की कुछ जानकारी देते हैं। कुछ शिकायतें होती हैं, कुछ बहाने। समझदार माता-पिता बहाने और शिकायतों में फर्क समझते हैं। इस वक्त बच्चों की शिकायतों पर लापरवाही नहीं दिखानी चाहिए। आमतौर पर एक शिकायत हल्के में ली जाती है और वह होती है बुलीके बारे में। बुली शब्द उन बच्चों के लिए उपयोग में लाया जाता है, जो स्कूल में सहपाठी के साथ मारपीट करते हैं। बुली बच्चे अपने आप में एक मानसिक समस्या है। इन्हें काबू न किया जाए तो उनकी यह हिंसा आगे जाकर विकृत रूप ले लेगी। यह मानसिकता हमें वयस्क लोगों में भी मिलेगी। अब वे सीधे शारीरिक आक्रमण न कर सकें तो मानसिक करेंगे।

ऐसी हरकत करेंगे, ऐसी बातें बोलेंगे जो हिंसा जैसी होगी और यदि आप जरा भी संवेदनशील हैं तो निश्चित ही आहत हो जाएंगे, लेकिन अब आप बड़े हो गए हैं तो किसी से शिकायत तो कर नहीं सकते। ऐसे लोग घर आकर अन्य सदस्यों पर खींझ निकालते हैं। घर वाले जानने का प्रयास करते हैं कि आप बाहर से आते हैं तो बड़े बेचैन, परेशान रहते हैं और कुछ बताते भी नहीं। इसका एक इलाज आप ही के पास है। जब हम बाहर की दुनिया में उतरते हैं तो कुछ लोग बुली बच्चे की तरह हमें परेशान करेंगे। ऐसे समय यदि उन्हें समझा सकें तो बहुत अच्छा, नहीं तो स्वयं को समझाएं। अपने आप में इतनी गहराई में उतर जाएं कि उनकी हिंसा हमें आहत न कर सके। अपने आपको शांत बना लें। योग इसके लिए कवच है, इसलिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग जरूर कीजिए। घर से निकलते समय शांत रहें और आते वक्त बहुत प्रसन्न होकर घर लौटें। अपनी कोई परेशानी परिवार के सदस्यों पर न थोपें। योग इन सब बातों के लिए आपको तैयार करेगा।

हालात कैसे भी हों, शिष्टाचार न छोड़ें
समस्याओं को निपटाने के जितने भी तरीके हैं उनमें एक है शिष्टाचार। यह एक ऐसी जीवनशैली है जो कई बातों को मिलाकर बन जाती है। हमें लगता है कि शिष्टाचार उन्हीं से निभाया जाए, जो परिचित हों। थोड़ा उनसे भी निभाया जाए, जो अंजान हों, लेकिन उनसे भी निभाया जाए, जो प्रतिस्पर्द्धी हों। यहां तक कि शत्रुता होने पर भी निभाया जाए। व्यक्तित्व में शालीनता, सौम्यता, मधुरता, क्षमा मांगने की वृत्ति, मेहमाननवाजी का भाव, चेहरे पर मुस्कान, बात कहने का विनम्र सलीका ऐसी अनेक बातें मिलकर शिष्टाचार बनती हैं। शिष्टाचार से समस्या कैसे निपटती है? किष्किंधा कांड के उदाहरण से समझते हैं। लक्ष्मणजी आवेश में थे तो लगा कि युद्ध होकर रहेगा। हनुमानजी ने उन्हें शांत किया और कहा कि सीताजी की खोज में वानर भेजे गए हैं।

पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई।।तब पवनसुत हनुमान ने सब दिशाओं में दूत भेजने का हाल सुनाया। लक्ष्मणजी को तो लगा कि मैं व्यर्थ ही क्रोध कर रहा था। यह तो पहले ही सब काम कर चुके हैं। तब हनुमानजी शिष्टाचार की प्रस्तुति करते हैं। अपने राजा को लेकर लक्ष्मणजी के साथ श्रीराम के पास आते हैं तो तुलसीदासजी ने लिखा, ‘हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ। रामानुज आगे करि आए जहं रघुनाथ।।तब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और लक्ष्मणजी को आगे करके (अर्थात उनके पीछे-पीछे) सुग्रीव हर्षित होकर चले और रघुनाथजी के पास आए। श्रीराम ने दूर से ही देखा कि लक्ष्मणजी अागे-आगे और बाकी सब पीछे हैं तो समझ गए कि काम हो गया। इस पूरे प्रकरण में हनुमानजी की जो भूमिका थी वह हमारे लिए बहुत बड़ी शिक्षा है कि शिष्टाचार मत छोड़िए। हालात कैसे भी हों शिष्टाचार की शैली आपकी मदद करेगी।

नदियों को बचाइए, जीवन बचेगा
नदी में स्नान करना केवल जलक्रीड़ा ही नहीं है। भारत में तो नदी के साथ धर्म जुड़ा है। यहां नदियों में डुबकी लगाना केवल जलक्रीड़ा नहीं है। इससे पुण्य का बड़ा मामला जुड़ जाता है। उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान करोड़ों लोग शिप्रा में डुबकी लगाने को आतुर हैं। एक माह तक यह जल-पूजा चलेगी। इस दौरान सब मिलकर छोटी-छोटी आहूति दें। वह ऐसे कि शिप्रा में इस संकल्प के साथ डुबकी लगाएंं कि देश की प्रत्येक नदी को प्रदूषण मुक्त रखेंगे। यह किसी एक सरकार या व्यवस्था का काम नहीं होगा। केवल गंगाजी का ही उदाहरण लें। गंगा भारत के लिए मां के समान है। यह देश के आधे अरब लोगों को रोजी-रोटी देती है। आस्था का केंद्र तो है ही, लेकिन इतना बड़ा रोजगार इससे जुड़ा है तो छोटा-मोटा हर नदी से जुड़ेगा।

अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो जल की डुबकी वह भी किसी तीर्थ में, किसी पावन अवसर पर जीवन प्रदान करेगी। इसलिए जब सिंहस्थ के अवसर पर शिप्रा स्नान की तैयारी की जाए तो मन ही मन यह संकल्प भी लें कि हम नदी को गंदा नहीं करेंगे। सामान्य रूप से श्रद्धालु संकल्प लेते हैं कि हम नदियों को गंदा नहीं करेंगे, बल्कि साफ करेंगे। यदि इनमें से एक संकल्प पूरा कर लें कि हम नदियों को गंदा नहीं करेंगे तो साफ करने का काम तो नदी खुद ही कर लेगी। जिस शिप्रा में करोड़ों लोग डुबकी लगाएंगे उस शिप्रा के अस्तित्व और अस्थायी अस्तित्व की कहानी किसी से नहीं छुपी है। धर्म के इस मेले में विचार किया जाए कि यदि आप सचमुच धार्मिक हैं, श्रद्धालु हैं और मनुष्य हैं तो जल की प्रत्येक बूंद जहां से भी आ रही हो चाहे वह नदी हो, तालाब हो, बरसता पानी हो या धरती में समाई धाराएं हों, उसका मान करें। आपका सच्चा धार्मिक होना यहीं साबित होगा। नदियों को बचाइए, जीवन बचेगा।

गलती हो तो सुग्रीव जैसी क्षमा मांगें
गलती करने वाले भक्त कभी-कभी प्रयास करते हैं कि भगवान को याद दिला दें कि आपको लग रहा है कि हम सब ठीक-ठाक ही करते रहेंगे, पर ऐसा होता नहीं है। जब गलती कर जाते हैं तो गलती के तर्क भी भगवान के सामने देते हैं। हम अपनी गलती दूसरे के सिर पर थोपने में बहुत दक्ष है। किष्किंधा कांड के प्रसंग में सब लौटकर रामजी के पास आते हैं। जैसे ही रामजी से सामना होता है, सुग्रीव को लगता है मैं इनका काम भूलने की गलती कर चुका हूं, अब स्पष्टीकरण कैसे दिया जाए। देखिए, किस ढंग से सुग्रीव स्पष्टीकरण दे रहे हैं।

सुग्रीव के इस स्पष्टीकरण को तुलसीदासजी ने सुंदरता से व्यक्त किया है, ‘नाई चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी।। अतिसय प्रबल देव तव माया। छूटई राम करहु जौं दाया।।

श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा- हे नाथ, मुझे कुछ भी दोष नहीं है। हे देव, आपकी माया अत्यंत ही प्रबल है। आप जब दया करते हैं, तभी यह छूटती है। इस तरह सुग्रीव ने दो बातें कही- एक तो मैंने जो गलती की उसका कारण माया है। दूसरी बात यह है कि यह माया आपकी है। भूल जरूर आपके प्रति की पर कहीं न कहीं इसमें आपकी भी भूमिका है। माया का सीधा-सा अर्थ है जादू। सुग्रीव कह रहे हैं यह सब आपकी जादूगरी है। आप जादू कर रहे हैं, हमको लगता है यह संसार हमारा है। आप जादू करते हैं, हमको लगता है यह मकान हमारा है। थोड़ी देर बाद आप जादू से वह मकान हटा देते हैं। धन, पद के साथ भी आपका ही जादू चलता है। अब भगवान इस पूरे वार्तालाप को किस ढंग से सुग्रीव के साथ करेंगे यह हमारे लिए भी बड़ा सबक है। हम लोग संसार में रहकर भगवान के प्रति कोई न कोई गलती जरूर करेंगे। जब यह गलती करेंगे तब उसका उत्तर कैसे दिया जाए यह हमें आज सुग्रीव से सीखना है।

तन-मन की शुद्धि का महापर्व
सफाई रखना मनुष्य का स्वभाव है और होना भी चाहिए। कहते हैं, जो लोग गंदगी में रहते हैं वे दुर्भाग्य को आमंत्रित करते हैं। शुद्धता में सौभाग्य है। हमारे देश में सफाई का जो राष्ट्रीय अभियान लिया गया है उसे केवल स्थान की, शरीर की सफाई से न जोड़ा जाए। उज्जैन में कुंभ मेले के मौके पर आयोजित शुद्धता के कुछ नए अर्थ समझे जा सकते हैं। वैसे तो जब मेला लगता है तो गंदगी की संभावना बढ़ जाती है, लेकिन इस मेले में जो लोग आ रहे हैं उनकी दो श्रेणियां की जा सकती है- एक साधु-संत और दूसरे श्रद्धालु। क्यों लोग साधु-संतों के दर्शन करना चाहते हैं, उनका सत्संग करना चाहते हैं, उनकी कृपा प्राप्त करना चाहते हैं? इसके पीछे जितने भी कारण हैं उसमें से एक बड़ा है तन और मन की शुद्धि।

यहां आने पर शोर भी मिलेगा, लेकिन ये साधु लोग दिल का इक तारा इस तरह से बजा रहे हैं कि यदि इसकी आवाज कोई ठीक से सुन ले तो उसके तन-मन के तार कुछ झंकृत हो जाएंगे। शुद्धता की जो मांग है, सफाई की आकांक्षा है उसे और गति मिल जाएगी। उजले तन वाले लोग भी यहां मन का मैल धो सकते हैं। दस पर्व स्नान होने जा रहे हैं। पर्व स्नान की और कुंभ के अवसर पर लगाई गई डुबकी केवल जल में कूदना नहीं है। इस समय जल की पवित्र तरंगें आपके मन को धोएंगी, अंतरतम तक की गहराइयों तक पहुंचेंगी। यहीं आपको महसूस होगा कि जिस शुद्धता के लिए आप जीवन में कई प्रयास कर चुके हैं वो प्रयास यहां सरलता से पूरा होगा। इसलिए जब कुंभ के मेले में आएं तो इस प्रयास को इसी रूप में लें। जो लोग चूक जाएंगे वे अपने जीवन में शुद्धता का अवसर चूक जाएंगे। समय निकालकर कुंभ में जाएं और वहां तन-मन दोनों को शुद्ध करने के अभियान में जुट जाएं। लौटने के बाद यही आपके काम आएगा।

वैभव के बीच विराग है कुंभ मेला
पुराने लोग कहा करते थे कि जो लोग बाहर की दुनिया की मिट्‌टी फांकते हैं वो मन में फिर नहीं झांकते। इसका यह मतलब नहीं कि कंकर, पत्थर, मिट्‌टी खाई जाए। इसका सीधा-सा मतलब है जीवन केवल बाहर पर टिक जाए। हमारा जन्म संसार में हुआ है। हम घर-परिवार बसाते हैं, लेकिन उसमें इतना डूब जाते हैं कि जीवन का दूसरा पक्ष देख ही नहीं पाते। फिर हम भूल ही जाते हैं कि एक दुनिया ऐसी भी है, जिसमें मनुष्य अपने भीतर झांक सकता है। जीवन की यात्रा में कदम-कदम पर होनी और अनहोनी बिछी रहती है। आतंकी जमीनी सुरंग में बारूद बिछाकर हत्याएं करते हैं। जीवनपथ पर ऐेसे कितने ही विस्फोटक बिछे हैं और अमृत के झरने भी हैं। विस्फोट जीवन को हिला देता है।

अमृत का झरना फूट जाए तो जीवन को सजा देता है। केवल बाहर की दुनिया में जिएंगे तो यह होनी-अनहोनी परेशान कर देगी, लेकिन थोड़ा भीतर उतरेंगे तो बाहर की अनहोनी का सामना करने के लिए हमारे पास ताकत, हिम्मत होगी। भीतर उतरते ही महसूस हो जाता है कि एक दिन इस दुनिया को छोड़कर जाना है। कहने का मतलब यह नहीं है कि दुनिया में कुछ बसाया न जाए, जो बसाया उसका भोग न किया जाए। किंतु हमेशा ध्यान रखें कि यह सब बहुत समय नहीं रहेगा। साथ में जो जाएगा उसे यदि महसूस करना है तो किसी धार्मिक मेले में जाकर साधु-संतों की जीवनशैली देखनी चाहिए। वैभव है, पर विराग भी है। विलास है फिर भी तपस्या है। ऐसा अद्‌भुत योग इस समय उज्जैन के कुंभ मेले में प्राप्त है। इसको समझने के लिए योग-ध्यान से गुजरना पड़ेगा। अनेक कैम्पों में योग-ध्यान की व्यवस्था की गई है। मौका न चूकें। पहुंच जाएं उज्जैन और अपने मानसिक चिंतन को अपने कृत्य में उतारने के लिए इस कुंभ मेले में हो रही गतिविधियों से जीवन को जोड़ें।

मन की धूल साफ करता है कुंभ
ये प्रकृति पंच तत्वों से बनी है- पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश। इनका संतुलन बिगड़ा कि हम अस्वस्थ और अशांत हो जाते हैं। इसी पंच तत्व का एक रूप है धूल। धूल कपड़े से साफ की जा सकती है, उसका भीतर आना रोका जा सकता है, लेकिन दुर्गुणों की धूल सबसे ज्यादा जमती है मन पर। इसीलिए शास्त्रों ने मन को दर्पण कहा है। इस दर्पण पर दुर्गुणों की धूल जमती है, तो वह किसी और साधन से साफ नहीं होती। कोई कहता है गुरु कृपा से साफ होती है। कोई कहता है मेडिटेशन से साफ होती है। इसका एक अवसर कुुंभ में आया है। इसमें मन पर जमी धूल साफ करने के अनेक मौके नज़र आते हैं। यह बात अलग है कि यहां ऐसे भी कई दृश्य हैं, जहां धूल वापस व अधिक जम सकती है।

मनुष्य का मन उससे दो काम कराता है- एक तो संसार में इधर-उधर भगाता है। दूसरा वर्ग ऐसा भी है जो जगत से भाग रहा है। दोनों का मन यहां ठहर सकता है। यहां अनेक मौके हैं जो आपको यह चिंतन दे जाएंगे कि जिंदगी की दौड़ में भीतर रुका कैसे जाता है। भरी धूप में खुले बदन एक साधु आंख बंद करके बैठा है। कब तक आप इसे पाखंड समझेंगे? सिंहस्थ यानी धर्म का तटबंध। यहां बहुत कुछ ऐसा लाकर रोका गया है, जो बिखरे-बिखरे रूप में और कहीं मिलने पर आप उसे प्राप्त नहीं कर सकते। यहां सब इकट्‌ठा है तो श्रेष्ठ चुनना आसान है। एक आर्थिक शूचिता आप चाहें तो देख सकते हैं। मेरा यह शब्द प्रयोग इसलिए कि मेला घूमने वालों के मन में सबसे ज्यादा प्रश्न यही उठ रहा है कि साधुओं के पास यदि इतना धन है तो फिर हमसे तप-त्याग की बात क्यों की जाती है? लेकिन संतों की आर्थिक शूचिता समझने के लिए इस मेले में आइए, समझिए और अगर समझ जाएं तो वापस लौटकर अपना सांसारिक जीवन इसी संकेत से चलाइए।

हमारे प्रयास और उसकी कृपा हो
दुर्गुणों से नादान या विद्वान कोई नहीं बच पाया। श्रीराम के सामने सुग्रीव जब उनका दिया काम भूलने का स्पष्टीकरण दे रहे थे कि तो उन्होंने काम, क्रोध और लोभ तीनों से बचने का सरल-सा उपाय प्रस्तुत किया। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है,‘बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावंर पसु कपि अति कामी।। नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा।।हे स्वामी! देवता, मनुष्य और मुनि सभी विषयों के वश में हैं। फिर मैं तो पामर पशु और उसमें भी अत्यंत कामी बंदर हूं। स्त्री का नयन-बाण जिसे नहीं लगा, जो भयंकर क्रोधरूपी अंधेरी रात में भी जागता रहता है (क्रोधांध नहीं होता)। लोभ पांस जेहिं गर न बंधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया।। यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपां पाव कोइ कोई।।

और लोभ की फांसी से जिसने अपना गला नहीं बंधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं, आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं। तब श्रीराम ने कहा, ‘अगर ऐसा है तो कोई साधन करो, तप-तपस्या करो, अनुशासन बांध लो। सुग्रीव कहते हैं, ‘केवल तप, अनुशासन से इन दुर्गुणों से दूर रहा जाए ऐसा संभव नहीं हो पाता।अब श्रीराम चौंक गए और कहा, ‘करना तो आपको ही पड़ेगा।सुग्रीव कहते हैं, ‘इनसे कोई बच सकेगा ऐसा तो कोई आपके ही जैसा होगा।सुग्रीव बहुत अच्छी बात कहते हैं कि साधनों के कारण दुर्गुणों से नहीं बच सकते। इतनी क्षमता हममें नहीं है। वही दुर्गुणों से बच सकता है, जिस पर आपकी कृपा हो जाए। कृपा शब्द से सुग्रीव ने हमें संकेत दिया है कि प्रयास करिए, अनुशासित जीवन जियें, लेकिन परमात्मा की कृपा बनी रहे ऐसा भाव सदैव रखें। हमारे प्रयासों में उसकी कृपा मिल जाए तो फिर हम जो चाहते हैं वह हो सकता है।

सिंहस्थ में भीड़ का आत्मानुशासन
भीड़ अगर कुटिल आदमी के साथ आ जाए तो हिंसा कर सकती है, अपराध कर सकती है। किसी समझदार के नेतृत्व में आ जाए तो सृजन और सेवा का बहुत बड़ा काम कर सकती है। इन दिनों सिंहस्थ मेले में जहां देखो वहां भीड़ नजर आती है, लेकिन स्वअनुशासित, एक अज्ञात लक्ष्य की ओर चलती हुई। आश्चर्य होता है इतने नरमुंड हैं, लेकिन फिर भी शांत! इसके पीछे है धर्म, अध्यात्म। कहीं न कहीं गुरुकृपा भी काम कर रही है। संतों का अपना प्रभामंडल इस भीड़ को नियंत्रित किए हुए है। अजीब-अजीब से दृश्य सामने आते हैं। मैं कहीं पढ़ रहा था और उस पढ़े हुए पर एक संन्यासी की टिप्पणी याद आ रही थी। अपने नए ब्रह्मचारियों को लेकर साधु-संत भी चिंतित हैं। वक्त बदला, नई पीढ़ी का आचरण नए ढंग का हुआ और धर्म के क्षेत्र में साधु-संत और उनके अखाड़े भी इससे प्रभावित हुए।

पुराने संन्यासी नए ब्रह्मचारियों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं यदि एक लड़का हो तो समझिए वह एक है। दो हो जाएं तो समझ लीजिए वे आधे हैं। तीन हो जाएं तो समझिए उससे भी कम हैं, लेकिन चार अगर कहीं हो जाएं तो फिर समझ लो एक भी नहीं है। उनका कहना है कि आजकल जब ब्रह्मचारियों की संख्या बढ़ रही है तो संन्यास का लक्ष्य थोड़ा दाएं-बाएं हो रहा है। साधु समाज के वरिष्ठ संन्यासी, अखाड़ा परिषद के वरिष्ठ अधिकारी नई पीढ़ी के साधु-संतों को देखकर चिंतित होते हैं। कुछ लोग तो मानकर चलते हैं कि यह एक ऐसा आवरण है कि यदि इसमें घुस जाओ तो इसके बाद हर वह काम किया जा सकता है, जिससे सम्मान भी मिल जाए और गलत हो तो पहचान भी न हो। किंतु इस चिंता के निदान भी मिल जाते हैं। यही तो अजीबोगरीब दृश्य सिंहस्थ को और आकर्षक बना देता है।

दूसरे को सुखी करना सबसे बड़ा दान
एक-दूसरे को सताना इनसान की फितरत है। वैसे तो किसी को भी दुख पहुंचाना धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से पाप ही है। किसी को सुख पहुंचाना सबसे बड़ा दान है, लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति ऐसी हो जाती है कि मुझे सुख मिले और दूसरे को दुख मिल जाए। कई बार तो दूसरों को दुख देने में ही हमें सुख मिलने लगता है। फिर हम अपने आसपास तनावपूर्ण वातावरण बना लेते हैं। यह तो तय है कि दूसरों को दुख पहुंचाकर आप क्षणिक सुख उठा लें, लेकिन लंबे समय में यह हमारे लिए दुख का कारण बन सकता है। चलिए, आज उन तीन स्तरों को देखें जहां एक-दूसरे से आदमी पीड़ित होता है। पहला स्तर है शरीर का। कई लोगों को शारीरिक रूप से दूसरों को परेशान करने में ही रुचि होती है।

इसकी शुरुआत किसी को धक्का देने से लेकर किसी को कुटिल दृष्टि से देखने से भी हो सकती है। कुछ लोग जो और अधिक कुटिल या समर्थ होते हैं वे शरीर से आगे मन तक पहुंच जाते हैं। शरीर में प्रभाव काम करता है तो मन तक भावनाएं काम करती हैं। भावनाओं के माध्यम से आप किसी के मन को आहत कर सकते हैं। तीसरा स्तर है हृदय तक जाना। जब हम किसी के हृदय तक पहुंच जाएं और वहां जाकर आहत करें तो समझ लीजिए आप ऐसा गुनाह कर रहे हैं, जिसकी एक दिन आप भारी कीमत चुकाएंगे। हृदय वह स्थान है जहां सबके लिए प्रेमपूर्ण आमंत्रण है। इसलिए यदि सताने की थोड़ी-सी भी वृत्ति आपके भीतर हो तो ध्यान रखिए इसे शरीर पर ही समाप्त कर दें, मन और हृदय तक न ले जाएं। यदि आपको कोई सता रहा हो तो आप अपनी ऊर्जा उसे सताने में न लगाकर नज़रअंदाज करें। इसका सबसे अच्छा तरीका है यह मान लेना कि इसके गलत का हिसाब करने वाला कोई है और उसको उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।

अव्यवस्था है मूल स्वभाव की परीक्षा
बात-बात पर क्रोध करने वालों की बात छोड़ दें, क्योंकि ये लोग इसे जीवनशैली मानते हैं। वे जिंदगी में क्रोधित बने रहते हैं, बल्कि जब शांत रहते हैं तो परेशान होने लगते हैं। किंतु जब शांत-संयमी लोग क्रोधित होते हैं तब उन्हें और हमें भी कारण ढूंढ़ने चाहिए। एक बड़ा कारण है अव्यवस्था। अच्छे-अच्छे शांत-संयमित लोग भी अव्यवस्थाओं के कारण धैर्य खो बैठते हैं। मैं उज्जैन सिंहस्थ क्षेत्र में कल्पवास कर रहा हूं। चूंकि हनुमतधाम से जुड़ा हुआ हूं इसलिए व्यावहारिक व्यवस्थाओं से मेरा सामना हो रहा है। सिंहस्थ मेले में शासन, प्रशासन, साधु और समाज चारों अपने-अपने ढंग से जुड़े हैं। चारों जब एक धरातल पर आ जाएं तो एक-दूसरे से सहयोग भी करते हैं और असहयोग भी शुरू हो जाता है। खासतौर पर जब अव्यवस्था होती हैं । जब क्रोध माथे नाचता है तो पता ही नहीं लगता कि यह व्यक्ति साधु है या राजनेता है, सामान्य व्यक्ति है या असामान्य।

अव्यवस्थाओं में कुछ लोग खुद को समझा लेते हैं कि सिंहस्थ में धर्म के स्वरूप का दर्शन करने आए हैं तो अभाव का भी आनंद लें। किंतु कुछ लोग अव्यवस्था पर टिक जाते हैं। फिर शुरू होता है चिड़चिड़ापन। मैं कई ऐसे लोगों से मिल रहा हूं जो अव्यवस्थाओं से विचलित हैं। मैं उनसे और स्वयं से भी आग्रह कर रहा हूं कि कुछ समय की अव्यवस्था से अपने मूल स्वभाव में क्रोध न उतारें। अपने सांसारिक संबंधों को खंडित न करें। भगवान जब अपने भक्त की परीक्षा लेता है तो उसके जीवन में विपरीत लाने के लिए कुछ लोग भेजता है जो आपको उकसाते हैं। आप चूक गए तो नुकसान आपका है, इसलिए सिंहस्थ में से यह आनंद भी उठाएं कि जब भी शिप्रा में डुबकी लगाएं, अपना क्रोध बहा दें, क्योंकि व्यवस्था होकर अव्यवस्था स्थायी नहीं रहती। स्थायी रहेगा हमारा स्वभाव। उसे बचाना चाहिए।

मन नियंत्रण में हो तब काम करें
प्रसन्न रहना मनुष्य का मूल स्वभाव होना चाहिए, लेकिन हम देखते हैं कि लोग अकारण उदासी ओढ़ लेते हैं। जब हमारी पसंद का काम न हो या मनमर्जी का परिणाम न मिले, तब भी हम अपनी प्रसन्नता न खोएं। श्रीराम विपरीत परिस्थितियों में भी आंतरिक प्रसन्नता खोते नहीं थे। भीतर की खुशी बचाए रखने के लिए हमें दूसरों के प्रति उदार होना पड़ेगा, क्योंकि हमारे जीवन में अनेक लोग आते हैं; जोे हमारे अनुकूल व्यवहार न करें तब हमें पीड़ा होती है। सुग्रीव भगवान का काम भूलने के बाद हनुमानजी के समझाने पर वानरों को सीताजी की खोज में भेजते हैं और जब आकर श्रीराम से अपनी गलती स्वीकार करते हैं तो श्रीराम तुरंत हंसते हुए कहते हैं, ‘चलो, जो हो गया सो हो गया, अब आगे बढ़ो।

तुलसीदासजी ने पंक्तियां लिखी हैं, ‘तब रघुपति बोले मुसुकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई।। अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई।।तब श्रीरघुपतिजी मुस्कराकर बोले, ‘हे भाई, तुम मुझे भरत के समान प्यारे हो। अब मन लगाकर वही उपाय करो, जिस उपाय से सीता की खबर मिले।पूरे घटनाक्रम पर श्रीराम को रोष भी आया था पर अब हंसकर वे ये बता रहे हैं कि मेरा गुस्सा भी तुम्हारे भले के लिए था। ध्यान रखें क्रोध करने में कोई दिक्कत नहीं है पर भीतर नियंत्रण नहीं खोना चाहिए। वे मन लगाने का कहकर सुग्रीव से कह रहे हैं कि यह मन ही है जो मनुष्य को भटका देता है। ऐसी जगह ले जाकर पटकता है, जहां सही रास्ता ढूंढ़ना मुश्किल हो जाता है। इससे संदेश मिलता है कि कोई भी काम करें तन्मय होकर, ईमानदारी से करें। मन लगाकर कहने का एक और अर्थ है कि मन आपके नियंत्रण में हो तब काम करें। अगर मन के नियंत्रण में आप हैं तो मानकर चलिए आप गलत रास्ता पकड़ लेंगे जो सुग्रीव ने पकड़ा था।

सिंहस्थ में जो सही है, वह लेकर जाएं
भगवान की लीलाओं में से एक है सिंहस्थ मेला। इस मेले में सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह होती है कि जिससे मिलो वह एक सवाल छोड़ जाता है। श्रद्धालुओं को देखो तो लगता है यह बावरापन है या आस्था। संदेह शुरू हो गया। व्यवस्थापकों से मिलो तो लगता है अधिकारियों ने ईमानदारी से काम किया या बेईमानी से। सबसे ज्यादा माया तो साधु-संतों के दर्शन में दिखती है। बैरागियों को देखो तो लगता है सारा मोह तो आसपास है। निर्मोहियों को देखें तो उनके विवाद देखकर आश्चर्य होता है। फिर गहराई में जाओ तो लगता है कि इन्होंने एकांत में मुक्ति के लिए तपस्या की होगी। समूह में आने पर इनका संकल्प होगा कि हमारी मुक्ति के भाव से सबको आनंद मिले।

यहीं से साधु अच्छे लगने लगते हैं, क्योंकि साधुता का मतलब ही है परहित का चिंतन, परहित का जीवन। इसीलिए हम मेले में आएं तो खोजबीन से ज्यादा जो मिल रहा है उसे सहजता से लें, क्योंकि यह मेला नहीं महादेह है। ऐसा लगता है कि बहुत बड़ी देह है, जिसमें कई इंसान समा गए। गीता में जो विराट रूप श्रीकृष्ण ने दिखाया वही यहां दिखता है। इसीलिए जब इस मेले में आएं तो सबसे पहले जीवन ढूंढ़ें, क्योंकि यहां से जाने के बाद जीवन ही आपके काम आएगा। अगर बहुत अधिक संदेह करेंगे, साधु-संतों की खिल्ली उड़ाएंगे, अधिकारियों की आलोचना करेंगे और अपनी सुविधाएं देखेंगे तो मेले से वह ले जाना चूक जाएंगे, जिसके लिए मेला लगा है। आपकी आस्था और यहां की व्यवस्था, आपकी श्रद्धा और यहां की सुविधाएं, आपकी दृष्टि और बाबा का सच इनके सबके अंतर का नाम ही मेला है। इसलिए जो सही है वो यहां से लेकर जाइए। बहुत खोजबीन न करें, क्योंकि जीवन अभी बहुत कुछ ढूंढ़ रहा है और वह इस मेले में मिल सकता है।

सिंहस्थ के कोलाहल में शांति
शांति की तलाश में सभी लोग रहते हैं। उन्हें लगता है कि शांति वहां मिलेगी जब आप थोड़े अकेले हो जाएंगे या जब सफल हो जाएंगे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। एक प्रयोग और करिएगा। शोर में भी शांति तलाशी जा सकती है। उज्जैन के सिंहस्थ मेले में आप ऐसा कर सकते हैं। खूब शोर-शराबा है, लेकिन एक जगह आप शांति प्राप्त कर सकते हैं। यह अवसर चूक न जाएं। सिंहस्थ में आने वाला शिप्रा-स्नान अवश्य करता है। डुबकी लगाकर तुरंत चल न दें। मौका मिले तो घाट की किसी सीढ़ी पर बैठ जाएं और नदी की जलधारा को देखें और अंतरमन से उस बहाव को जोड़ें। आपको लगेगा जैसे आपका मन बह रहा है और आप देख रहे हैं। योगियों ने कहा है कि दूर हटकर मन को देखने से उसे काबू किया जा सकता है।

विचारों का प्रवाह लेकर मन दौड़ रहा है। आप दूर खड़े उसे देख रहे हैं। आप शांत होने लगेंगे। ऐसा अवसर आने पर तुरंत मन से दूर खड़े होने का आपको अभ्यास हो जाएगा। अन्यथा मन आपको घसीटकर अशांति में ले जाता है। मेले में खूब घूमें, लेकिन साधु-संतों के पंडालों में जितना जाएंगे कहीं न कहीं आप उनके वैभव में उलझ जाएंगे। यहां कई निगाहें ऐसी भी हैं जो आपको देख रही होंगी और आपको दिखा भी देंगी, जो आपने जीवनभर नहीं देखा होगा। यही मेले का संतत्व है। इसलिए एक भाग हुआ कि आप साधुओं से मिल लें और दूसरा भाग हुआ स्नान। साधुओं से जीवनशैली का परिचय होता है, लेकिन स्नान करने से आपका परिचय स्वयं से हो सकता है और आप अपने मन को नियंत्रित करने की कला सीख सकते हैं, क्योंकि मन को जान-पहचान से लेना-देना नहीं है। वह अनजानी राह और चाह पर तुरंत निकल पड़ता है। उसे जाता हुआ देखना ही शांति प्राप्त करना है।

विचार शब्दों का खेल न बन जाएं
सिंहस्थ का पूरा मेला लेन-देन का मामला बन गया है। लोग श्रद्धा देकर आशीर्वाद ले रहे हैं और कहीं आशीर्वाद देकर श्रद्धा खरीदी जा रही है। श्रद्धा के नीचे जब हर बात का सौदा हो रहा हो तो विचार भी सौदे की वस्तु बन जाते हैं। किसी भी बात के आगे महा लगा दो तो वह बड़ी प्रदर्शित होने लगती है, लेकिन जो पहले से ही महान हो उसके आगे महा लगाओ तो फिर जिम्मेदारी बढ़ जाती है। कुंभ को महाकुंभ कहेंगे तो कहने वालों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। फिर जब इसके साथ विचार जुड़ा हो तो ये आयोजन मात्र नहीं होना चाहिए। इसमें सचमुच एक भविष्य छुपा होना चाहिए, लेकिन हमारे यहां विद्वान जब शब्दों का खेल खेलने लग जाते हैं तब फिर विचार हथियार बन जाते हैं।

जिन्होंने राजनीति का खेल खेला हो वे कोई भी खेल आसानी से खेल सकते हैं। विचार खेल की नहीं, जीवन की बात है। इस कुंभ में वह देखने को मिला, जो पिछले कुंभ में नहीं था। भगवा वस्त्र संत के लिए और संत नेता के लिए कवच बन गए। इसलिए अच्छी नीयत से किए जा रहे काम भी संदेह की भेंट चढ़ गए। धार्मिक दृश्य यह है कि विचारों का कुंभ इसलिए आयोजित हो कि इसमें भारत का वास्तविक भविष्य छुपा हुआ है, लेकिन आध्यात्मिक अर्थ यह है कि विचारों का सैलाब अशांति लाता है। इसलिए एक कुंभ ऐसा भी हो, जो विचार-शून्य हो। योग कहता है विचार-शून्य स्थिति ही परमात्मा तक पहुंचाती है और विचारों की अधिकता परमात्मा को शोध और संदेह का विषय बना देती है। विचार करने वाले लोग भूल जाते हैं कि परमात्मा जिज्ञासा का विषय हो सकता है, संदेह और चर्चा का कम। जिन्हें शांति की खोज करनी हो वो इस महाकुंभ में विचार-शून्य होने का प्रयास करें। विचारों का स्वागत हो, लेकिन इस खतरे से सावधान रहें कि विचार शब्दों का खेल न बन जाएं। लोगों का शोषण करने से नहीं चूकते। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो परमात्मा का विधान यह है कि आप जितना दूसरों को देंगे भगवान उससे अधिक आपको लौटाएगा।
  
नेतृत्व करें तो भेदभाव मिटाना होगा
नेतृत्व करने का मतलब समझा जाता है कि अच्छा पद, अधिक अधिकार, धन और प्रतिष्ठा मिलेगी। किंतु नेतृत्व करने वालों को अधीनस्थों को आश्वासन देना पड़ता है कि वे उनके नेतृत्व में सुरक्षित हैं और जरूरत के वक्त उचित मार्गदर्शन भी देंगे। केवल निर्देश देने वाला व्यक्ति ही नेतृत्व नहीं कर रहा है। किष्किंधा कांड में वानर सीताजी की खोज में जाने को तैयार थे। यही से श्रीराम के नेतृत्व की शुरुआत हो रही थी। वे जानते थे कि जिस दिन यह खबर मिलेगी कि सीता कहां है, उस दिन आक्रमण करना ही पड़ेगा। श्रीराम ने प्रत्येक वानर का आत्मविश्वास जगाया। यह उनकी अनूठी कला थी।

तुलसीदासजी ने लिखा,
अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीं।।
 यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई।।

सेना में एक भी वानर ऐसा नहीं था, जिससे श्रीरामजी ने कुशल न पूछी हो। प्रभु के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि श्रीरघुनाथजी विश्वरूप तथा सर्वव्यापक हैं। व्यावहारिक रूप से यह असंभव दिखता है, पर प्रतीकात्मक रूप से श्रीराम ने प्रत्येक वानर से उसकी कुशल पूछी थी। इसका मतलब है कि यदि आप नेतृत्व कर रहे हों तो आपके साथ काम करने वाले को लगना चाहिए कि आप उसमें निजी रुचि ले रहे हैं। आप उसके बहुत निकट हैं। श्रीराम सबके साथ हैं ऐसा आभास उन्होंने करा दिया था। किसी को भी यह महसूस नहीं होता था कि उनका लीडर उनसे बहुत दूर है, क्योंकि जिसे भी नेतृत्व करना है उसे अपनापन स्थापित करना पड़ेगा और भेदभाव मिटाना पड़ेगा। आज लोग निज स्वार्थ के लिए नेतृत्व करते हैं और अपने ही लोगों का शोषण करने से नहीं चूकते। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो परमात्मा का विधान यह है कि आप जितना दूसरों को देंगे भगवान उससे अधिक आपको लौटाएगा।


दुर्गुण हमारे भीतर बैठे भूत-पिशाच
भूत-प्रेत में मनुष्य की सहज रुचि होती है। उनके बारे में जानने के चक्कर में लोग कथाएं पढ़ते हैं, फिल्में देखते हैं और कुछ लोग श्मशान भी पहुंच जाते हैं। इन दिनों उज्जैन कुंभ के दौरान कई उत्साही लोग लगातार उन तिथियों की प्रतीक्षा करते हैं जब अघोरी लोग श्मशान में तपस्या करते हैं। महाकाल की भूमि श्मशान साधना के लिए सिद्ध मानी गई है। नाथ परंपरा, तांत्रिक साधना वाले लोग श्मशान पहुंचते हैं। श्मशान ही इनका घर है। दूसरे लोग तमाशा देखने जाते हैं। डरते भी हैं और देखना भी चाहते हैं। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में यदि आप इसमें समय नष्ट नहीं करना चाहते हैं तो इतना मान लें कि हमारे दुर्गुण ही भूत और पिशाच हैं। हमारे भीतर गलत काम करने की इच्छा हो तो वह प्रेतवृत्ति है। इन्हें या तो आप अपने आत्मविश्वास से मिटाइए या आपके पास मदद के लिए कोई परमशक्ति होनी चाहिए।


गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्री हनुमान चालीसा में भूत-पिशाच निकट नहीं आवै। महावीर जब नाम सुनावैंपंक्ति लिखी है। इस 24वीं पंक्ति में तुलसीदासजी ने आश्वस्त किया है कि यदि भूत-पिशाच होते भी हैं तो आप बाहर वाले भूत-पिशाच के चक्कर में क्यों पड़े हैं? यह देह श्मशान की तरह है, जिसमें कई भूत-पिशाच बैठे हैं। पहले इनका निपटारा कर लें। इसलिए कुंभ में आने वाले सबको साधना देखने के लिए श्मशान जाने की जरूरत नहीं है। आपको जिन दुर्गुणों से मुक्ति पानी है, उसके लिए आप किसी भी संत के कैंप में जा सकते हैं। नदी किनारे बैठकर विचार कर सकते हैं और जो पॉजिटिविटी इस समय इस धरती से निकल रही है, उसे सांस में भरकर अपने सांसारिक जीवन में ले जाएं तो इस जीवन में न तो कभी कोई भूत आएगा, न पिशाच आएगा। बस, सद्‌गुण रह जाएंगे और सद्‌गुण प्राप्त होने से बड़ी तपस्या क्या होगी?

कुंभ की विदाई के पहले लाभ उठाएं
भारी गर्मी में कई दृश्य ऐसे दिख जाएंगे जो आपके कलेजे को ठंडक पहुंचाएंगे। कुंभ ऐसी ही विलक्षण विशेषताओं के दृश्य हमें दिखा रहा है। हवा-पानी से भारी तबाही हुई और कई लोगों को लगा कि सिंहस्थ समाप्त हो गया है। उसके बाद दुनियाभर से लोग पहुंचे हैं कुंभ मेले का आनंद लेने। यह केवल मेला नहीं है। निराश लोगों को यहां कई सहारे मिलेंगे। जिनके जीवन में अंधेरी रात है, उन्हें यहां कई सितारे मिलेंगे। जो पहुंच गए वे तो सौभाग्यशाली हैं परंतु जो नहीं पहुंच पाए वे दुर्भाग्यशाली हैं ऐसा भी नहीं है। वे इस कुंभ को पढ़ें, सुनें और देखें जरूर। यहां संसार की बगिया का उसूल देखने को मिलेगा।

भगवान ने दुनिया को बगीचे के रूप में बनाया है, जहां फूल भी हैं और कांटे भी। इसी कुंभ के मेले में शारीरिक तकलीफ है तो मानसिक शांति भी है। सिर के ऊपर गर्मी नाच रही है, कलेजा ठंडक में डूबा हुआ है। दुनिया को देने वाले लोग यहां मांगते नज़र आएंगे। रोजमर्रा की दुनिया में रीति-रिवाज पर धर्म की जो मोहर लगती है और उससे पाप-पुण्य की जो परिभाषा तय होती है, वे सारे पाप-पुण्य आपको नए-नए रूप में यहां मिलेंगे। अपनी जिंदगी के कई खोए दस्तावेज यहां ढूंढ़ सकते है। ऐसे अनेक साधु-संत मिल जाएंगे त्याग करते हुए, जो यह बताते हैं कि भोग में भी तपस्या हो सकती है।

लगता है कि पूरी व्यवस्था की डोर किन्हीं अदृश्य हाथों में है। आप उसे बाबा महाकाल भी कह सकते हैं और मां शिप्रा भी पुकार सकते हैं। इस मेले में आने के बाद आपकी तन, मन, धन की थकानें दूर होंगी। तन और मन की थकान तो समझ में आती है, पर धन की भी एक थकान है। उसे कमाते हुए यदि आप थक गए तो उस धन का सदुपयोग यहां आकर करें, वह उत्साह में बदल जाएगा। कुंभ अब विदाई के क्षणों में है। सबकुछ सिमट जाए इसके पहले,जो लूटना चाहिए वह लूट लीजिए।

विश्राम के दौरान मिलता है भगवान
सिंहस्थ में महीनेभर बहुत सारे लोग साथ रहे। महीनेभर में कई संसार एक साथ समा गए थे। एक बात शास्त्रों में लिखी है और साधु-संत भी कहते हैं कि दुनिया पाना हो तो दौड़ लगानी पड़ती है पर दुनिया बनाने वाले को हासिल करना हो तो थोड़ा-सा विश्राम करना पड़ता है। मैं एक माह से अधिक हनुमतधाम में ठहरा था। हनुमतधाम के निर्माण के समय मैंने संकल्प लिया था कि पूरे मेले की अवधि में इस कैंप से बाहर नहीं जाऊंगा। यदि कदम बाहर निकलेंगे तो सिर्फ शिप्रा स्नान के लिए या किसी गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए। पूरे बत्तीस दिन मेरा लगभग क्षेत्र संन्यास जैसा रहा। जो अनुभूति मुझे हुई उसे लाखों-करोड़ों में बांटना चाहिए। सही है कि भगवान विश्राम करने पर ही मिलता है।

वर्षों बाद मैं किसी एक जगह इतना रुका। उज्जैन की रज-रज और कण-कण में मोक्ष उतरा था। ऐसा लगा था जैसे महाकाल पूरे वायुमंडल में समा गए हों और शिप्रा मैया सभी को प्रेम से भिगो रही हैं। आने वालों की पॉजिटिव एनर्जी, साधु-संतों की सदाशयता सबकुछ अनूठा था, लेकिन इसका आनंद मिला एक जगह रुकने पर। इसलिए चौबीस घंटे में से कुछ समय हम भी ऐसा निकालें जब हम खुद को रोक सकें। थोड़ी देर रुकने के बाद तेज चलने की ताकत तो मिलती ही है, उस परम शक्ति का अनुभव भी अद्‌भुत ढंग से होता है। मेले से सबक लिया जाए कि हम जब यहां से विदा हों तो आंतरिक रूप से अपने से जुड़ें और कुछ समय ऐसा रुकें कि ईश्वर की निकटता का अहसास होने लगे, क्योंकि ईश्वर अनुभूति का दूसरा नाम है।

आदेश में भी विनम्रता का भाव हो
दूसरों से काम लेना हो तो तीन तरीके अपनाए जा सकते हैं। ये किष्किंधा कांड में सुग्रीव ने बड़े अच्छे ढंग से पूरे किए थे। सीताजी की खोज में वानरों को भेजने के उनके आदेश में तीन स्तर थे- सबसे पहले समझाया, फिर निवेदन किया और फिर डराया। तुलसीदासजी ने लिखा- ठाढ़े जहं तहं आयसु पाई, कह सुग्रीव सबहि समुझाई। राम काजु अरु मोर निहोरा, बानर जूथ जाहु चहुं ओरा।। जनकसुता कहुं खोजहु जाई, मास दिवस महं आएहु भाई। अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाए, आवइ बनिहि सो मोहि मराएं।। अर्थात यह श्रीरामजी का काम है और मेरा अनुरोध है तुम चारों ओर जाकर जानकीजी की खोज करो। महीनेभर में वापस आ जाना। जो इस अवधि में बिना पता लगाए लौटेगा, उसे मैं मृत्युदंड दूंगा।


किसी से काम लेना हो तो हमें यह कला आनी चाहिए कि सामने वाले को उस काम के बारे में ठीक से समझा सकें। फिर वानरों से निवेदन किया। हमारे आदेश में भी निवेदन का भाव होना चाहिए। नई पीढ़ी के बच्चे खूब परिश्रम करते हैं परंतु बहुत ज्यादा आदेश की भाषा सुनने को तैयार नहीं होते। वे पूरा आदर-भाव चाहते हैं। सुग्रीव ने यही किया, पहले समझाया, फिर निवेदन किया। लेकिन केवल समझाने या निवेदन करने से भी काम नहीं चलता। सख्ती और अनुशासन भी जरूरी है। फिर सुग्रीव ने सबको धमकाया। इस पूरे प्रसंग से हमें भी समझ जाना चाहिए कि किसी से काम लेना हो तो पहले उसे ठीक से समझाएं, आदेश में विनम्रता का भाव रखें, लेकिन इतनी संभावना जरूर छोड़ें कि यदि काम नहीं होता है तो अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जाएगी। किस सुंदर ढंग से इसे सुग्रीव ने पूरा किया, क्योंकि वहां श्रीराम मौजूद थे। श्रीराम की मौजूदगी मतलब शांति, अपनापन, प्रेम, अनुशासन। इन्हीं के साथ इस तरह के निर्णय लिए जाएं।

अपने भीतर उतरें, बलशाली हो जाएंगे
जीवन में जब कभी भी विपरीत परिस्थिति आए तो जरूर सोचिएगा कि विपरीत परिस्थिति सूर्यास्त जैसी हैं। क्योंकि सूर्यास्त का एक अर्थ यह होता है कि जिस समय आप सूर्य को डूबता देख रहे होते हैं, उस समय वह कहीं उग भी रहा होता है। इसलिए जब हालात खराब हो तो ठीक होने की संभावना बनी रहती है। जब लगे कि चीजें बिगड़ गई हैं तो थोड़ा एकांत साधिए। अपने आस-पास के लोगों से एक दूरी बना लीजिए। इसका यह मतलब नहीं है कि आप उदासी में डूब जाएं। इस दूरी को अलगाव जैसा न बनाएं।

अलगाव का मतलब लोगों से कट जाना और दूरी का मतलब है एक गरिमामय व्यवहार रखते हुए अपने आपको एकांत में लाकर स्वयं को स्थितियों का मूल्यांकन करने का मौका देना। जब हालात विपरीत हों तो लोगों की टिका-टिप्पणियां परेशान करने लगती हैं। थोड़े से एकांत में रहेंगे तो तटस्थ होकर सोच सकेंगे कि इसमें कितनी गलती आपकी है और कितनी दूसरों की। एकांत में बहुत सारे विचार चिंतन में न हों।
तब जो एकांत घटने लगेगा वह आपको उस गहराई में ले जाएगा, जहां समाधान होता है; जहां एक भरोसा होता है कि आज भले ही चीजें अनुकूल नहीं हैं पर कल सफलता जरूर मिलेगी। सच तो यह है कि जब हम एकांत में होते हैं तो बाहर की चीजें प्रभावित नहीं करतीं, इसलिए अपने आंतरिक, मनोवैज्ञानिक, स्थितियों या स्वभाव को नापने के लिए एकांत बहुत जरूरी है।

जैसे ही आप गहरे उतरते हैं, अत्यधिक बलवान हो जाते हैं। भीतर कोई कहता है चाहे जो हो जाए, निपट लेंगे। इसलिए विपरीत परिस्थिति में एकांत साधने के लिए कुछ समय ध्यान को दीजिए। अपना मूल्य आप ही को निर्धारित करना है। कमजोर बनकर अपनी कीमत न गिराएं। थोड़ा सा ध्यान करें, समझ में आ जाएगा कि आप दुनिया के बहुत मूल्यवान व्यक्ति हैं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष

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