Tuesday, March 1, 2016

श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (7)

बुरी नजर ना डालें क्योंकि...
राजा नृग के चले जाने पर श्रीकृष्ण ने अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा-जो लोग अग्नि के समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणों का थोड़े से थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठमूठ अपने को लोगों का स्वामी समझते हैं वे राजा तो क्या पचा सकते हैं? मैं हलाहल विष को नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुत: ब्राह्मणों का धन ही परम विष है, उसको पचा लेने के लिए पृथ्वी में कोई औषध, कोई उपाय नहीं है।

ब्राह्मण के धन का अर्थ किसी जाति विशेष की सम्पत्ति ही न समझी जाए। जिस किसी का ईमानदारी से कमाया धन है उस पर बुरी नजर न डाली जाए। श्रीकृष्ण ने जो उपदेश यहां दिया उसके आध्यात्मिक अर्थ भी हैं। यह शरीर, इन्द्रियां और प्राण तत्व जाने अनजाने भूल कर जाते हैं। इनका उपयोग साधक को करना आना चाहिए।

ज्ञानेन्द्रिय में कान को लिया जाए उसका विषय है शब्द, देवता, उसके दिशा हैं और उनका तत्व आकाश है। त्वचा का विषय शब्द देवता वायु, तत्व वायु है। नेत्र का विषय रूप, देवता सूर्य और तत्व अग्नि है। जीभ का विषय रस, देवता वरुण, तत्व आकाश है। नाक विषय गंध, देवता अश्वनीकुमार व तत्व पृथ्वी हैं। ये पाचों इन्द्रियां तमोगुण वाली हैं।

कमेन्द्रिय में वाणी, पांव, गुदा व उपस्थ है-जिनके विशय क्रमश: बोलना, ग्रहण करना, चलना, मलत्याग, मूत्र त्याग हैं और इनके देवता भी क्रमश: अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मृत्यु व प्रजापति है। इनके तत्व आकाश, वायु, अग्नि, पृथ्वी व जल, क्रमानुसार माने गए हैं।

इन्द्रिय लक्षणों की बनावट पांच तत्वों से हुई-यथा आकाष से शब्द, श्रवणेन्द्रियभव व इन्द्रियों के छिद्र उत्पन्न हुए। वायु से स्पर्श, चेष्टा व चर्म उत्पन्न हुए। अग्नि से रूप, नेत्र और ज्योति उत्पन्न हुई। जल से रस, जिव्हा, स्नेह व शीतलता उत्पन्न हुए, पृथ्वी से गंध, घ्राणेन्द्रिय और शरीर के केश, अस्थि, हाथ, पैर, सिर, कमर, गर्दन आदि सब बने।

बस थोड़ा वक्त अपनों के लिए
मायायुक्त संसार और दूसरा मायामुक्त परमात्मा। मायायुक्त संसार में तो वह लगा ही रहता है यह उसका एक नैसर्गिक कार्य है, उसकी यह स्वभावसंगत लाचारी है जो सहज स्वभावगत स्थिति है, उससे विमुख होना आसान नहीं होता है। उसके अभ्यास से दूसरे बिन्दु परमात्मा की ओर मोड़ा जा सकता है। अभ्यास आसान नहीं है। इसलिए भागवत स्मरण बनाए रखें। भागवत केवल ग्रंथ नहीं एक पूरी आचार संहिता है।

अब भगवान के परिवार में संवेदनाओं के प्रसंग आएंगे। श्रीकृष्ण अपने परिवार के हर सदस्य की योग्यता के अनुसार उपयोग करना जानते थे। बलरामजी से अब परिवार में भावनाओं को जोड़ रहे हैं। बलरामजी व्रज में जाएं यह भगवान की ही इच्छा थी। वे एक तरह से भगवान के प्रतिनिधि बन कर ही गए थे। यदि हम अधिक व्यस्त हों अपने कामकाज में तो परिवार के अन्य सदस्यों की भूमिका, सुनिश्चित करें। रिक्त सदस्य अकारण तनाव में स्वयं भी डूबेगा तथा पूरे परिवार को भी परेशानी में डालेगा। इसीलिए यहां भागवत संदेश दे रही है कि आप चाहे कितने व्यस्त हों लेकिन कुछ समय अपनों के लिए जरूर निकाले।

बलरामजी के मन में व्रज के नन्दबाबा आदि सम्बन्धियों से मिलने की बड़ी इच्छा थी। वे द्वारिका से नन्दबाबा के व्रज में आए। उन्हें अपने बीच में पाकर सबने बड़े प्रेम से गले लगाया। किसी से हाथ मिलाया, किसी को खूब हंस-हंस कर गले लगाया। अब गोपियों के भाव-नेत्रों के सामने भगवान् श्रीकृष्ण की हंसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मूर्तिमान होकर नाचने लगे। वे उन बातों की मधुर स्मृति में तन्मय होकर रोने लगीं। बलरामजी ने वसंत के दो महीने चैत्र और वैशाख वहीं बिताए। जीवन में समय निकालकर अपने लोगों से मेल मिलाप करते रहना चाहिए।बलरामजी की व्रज क्रीड़ा में आत्म शासन का संदेश छिपा है। गोपियों के साथ विचरणे का सही अर्थ समझा जाए।

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में प्रथम तीन अदृश्य किंतु व्यवहार में अनुभूति प्राप्त करते हैं, अहंकार सृष्टि तथा स्वयं के देह में पंचतत्वीय स्वरूप में प्रत्यक्ष दिखाई देता है। मन की निर्मलता, बुद्धि की शुद्धता, चित्त की संस्कार मुक्त और अहंकार की निराभिमानिता प्रभु पथ के एक साथ चलने वाले चार आगम हैं। चारों के एक वर्णीय बने बिना प्रभु वर्ण में विलीनता का पथ प्रशस्त नहीं होता। भागवत स्वरूप प्राप्त करने के लिए इन चारों तत्वों का पवित्रनाम् और शुद्धतम होना आवश्यक है क्योंकि प्रभुतत्व निर्विकार, पवित्रतम और शुद्धतम होता है।

बस मन लगाकर कीजिए अपना काम
जब भगवान बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गए हुए थे, तब पीछे से कुरू देश के राजा पौण्ड्रक ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि भगवान वासुदेव मैं हूं। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा। पौण्ड्रक का दूत द्वारिका आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का संदेश कह सुनाया। यदुवंशी! तुमने मुर्खतावश मेरे चिन्ह धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो तो मुझे से युद्ध करो।

भगवान श्रीकृष्ण ने रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह करुश का राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराज के पास रहता था। काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अत: वह भी उसकी सहायता करने के लिए तीन अक्षैहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। यह प्रसंग बताता है जीवन में कई लोग ऐसी भूल कर बैठते हैं। स्वयं को भगवान मान लेना यानी अहंकार को आमंत्रण देना। अहंकार बाधा है प्रभु मिलन में। अहं भाव निष्कामता से ही दूर होगा। इसे समझा जाए। इस सूत्र में विपाक का उल्लेख भी विचारणीय है। कर्म जब परिपक्व हो प्रारब्ध बन जाते हैं और वे फल देने योग्य बन जाते हैं उस प्रक्रिया को विपाक की संज्ञा दी गई। अभ्यासरत साधक या भक्त के लिए आवश्यक है कि सारा आध्यात्म पथ पर चलने के दौरान बन्धनों से मुक्त होते हुए प्रारब्ध संचित न होने दें। पूर्व संस्कार सरल हों और नए न निर्मित हों साधन या भक्ति का लक्ष्य होता है। जब शून्य अवस्था को वह प्राप्त कर पाता है, तब ही मन या चित्त स्थिर और निर्मल हो पाता है। कठिनाई यह है कि कर्म किए बिना नहीं रहा जा सकता, कर्म फल न मिले इसके लिए गीता में युक्त स्पष्ट उल्लेखित है। ''अभ्यासेऽप्य समर्थोऽसि कत्कर्मरयो भव। भदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्ति द्विमवाम्यसि।।

यदि ऐसे अभ्यास में भी तू असमर्थ है तो जो कर्म करे, मेरे निमित्त कर, उनका फल मेरे अर्पण करता जा अर्थात् ईश्वर प्रीत्यर्थ सब कार्य कर। मेरे निमित्त सब कर्म करते रहने से भी तू उपरोक्त सिद्धि प्राप्त कर लेगा, वर्णित है मन मेरे में लगने लगेगा और बुद्धि भगवत्मयी हो जाएगी। इसे ब्रम्हभाव में स्थित जीव की स्थिति कहा जा सकता है। जब कर्म ईश्वर अर्पण हो जाते हैं, तब सबकुछ ''ईश्वर प्रणिधान के अंतर्गत आकर उच्चतम् स्थिति को प्राप्त साधक या भक्त आध्यात्मिकता की उस भूमिका में आ जाता है जहां से फिर वापसी नहीं होती है।

उन लोगों को देखकर भगवान भी हंसता है
जब भगवान बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गए हुए थे, तब पीछे से करूश देश के राजा पौण्ड्रक ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि भगवान वासुदेव मैं हूं। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा।

उसका यह सारा का सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंच पर अभिनय करने के लिए आया हो।
उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान् श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हंसने लगे।यह प्रसंग हमें बताता है कि जब हम अहंकार में डूबते हैं तो ऊपर बैठा भगवान भी हमें देखकर हंसता है। इसलिए हमेशा अहंकार का त्याग ही करें। अहंकार आपको न केवल हंसी का पात्र बना देगा बल्कि आपको परमात्मा से, अपनों से, सबसे दूर कर देगा। इसलिए अहंकार को हमेशा दूर रखें। ध्यान रहे कि भगवान हमें देख रहा है।

भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने तीखे बाणों से उसके रथ को तोडफ़ोड़ डाला और चक्र से उसका सिर उतार लिया। फिर भगवान् ने अपने बाणों से काशी नरेश का सिर भी धड़ से ऊपर उड़ाकर काशीपुरी में गिरा दिया। इसी प्रसंग में अहंकार की एक और कथा है। काशी नरेश का पुत्र भी वही भूल कर बैठा जो उसके पिता ने की। परमात्मा को मारना चाहा। इस कथा के सार को समझना बहुत आवश्यक है, यह हम सभी के जीवन से जुड़ी है।

इसलिए अपनी जिम्मेदारी के लिए जागरूक रहना जरूरी है 
बलराम के जीवन से जुड़ी एक कथा है। द्विविद नाम का एक वानर था, जो भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मंत्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था। जब उसने सुना कि श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्र की मित्रता के ऋण से उऋण होने के लिए राष्ट्र-विप्लव करने पर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गांवों, खानों और अहीरों की बस्तियों में आग लगाकर उन्हें जलाने लगा।

वानर तो भगवान् राम के सखा और सेवक थे लेकिन अत्यधिक बल और मद में वे इसे ही भूल गए। भौमासुर जैसे राक्षस की मृत्यु का बदला लेने निकल पड़े। श्रीकृष्ण तो उन्हें मिले नहीं लेकिन बलराम से भेंट हो गई।एक दिन वह वानर बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजी को नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताए हुए देशों की दुर्दशा पर विचार करके उस शत्रु को मार डालने की इच्छा से क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान था। उसने अपने एक ही हाथ से शाल का पेड़ उखाड़ दिया और बड़े वेग से दौड़कर बलरामजी के सिर पर उसे दे मारा।

अब यदुवंश शिरोमणि बलरामजी ने हल और मूसल अलग रख दिए तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथों से उसके जत्रुस्थान (हंसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरती पर गिर पड़ा। द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अत: भगवान् बलरामजी ने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारिकापुरी में लौट आए।यही द्विविद जो राम अवतार में अच्छे कार्य करता रहा, श्रीकृष्णावतार में भटक गया, बहक गया।

अपनी भूमिकाओं के प्रति सदैव सजग रहा जाए। इसलिए परमात्मा का सतत् स्मरण और आचरण में संयम बनाए रखना चाहिए।मन एकाग्र करने के लिए यह दृढ़ भावना होना आवश्यक है कि कर्म किए बिना रहा नहीं जा सकता तो प्रथम तो निष्काम कर्म किया जाए और उन्हें ईश्वर अर्पण करके किया जाए क्योंकि ईश्वर ने ही दायित्व सौंपा है वह करना है।

इसलिए गुजरे कल को भुला देना ही ठीक है...
आइए अब हम एक ऐसे प्रसंग से गुजरें जो बता रहा है कि नई पीढ़ी के सदस्य कुछ ऐसे निर्णय और कार्य कर लेते हैं जो पूरे परिवार को दुविधा और संघर्ष में डाल देते हैं। युवावस्था स्वयं को मुक्त मानती है। मुक्त का आध्यात्मिक अर्थ समझकर प्रवेश करें प्रसंग में।अध्यात्म मनुष्य को मुक्त पुरुष बनाता है।निरहंकारी साधक कामनाओं से मुक्त होता है। कामनाओं का बन्धन जटिल और गांठ पर गांठ लगाने वाला होता है। कामनाओं की आपूर्ति में भय और संशय घर कर जाते हैं। ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास होने लगता है। यह एक प्रकार से घड़ी की सुई पीछे हटाने जैसा होता है।

एक यात्री यात्रा करता है तो वह सोचता है कि 100 मील की यात्रा में 70 मील चल दिए बस 30 मील शेष रहे, यात्री के रूप में वह 30 मील का विचार करता है, न कि बीते 70 मील की, इसी प्रकार बीते सुख-दुख का चिंतन अर्थहीन होता है। ईश्वरीय कृपा से शेष 30 मील भी पूरे हो जाएंगे यह मान्यता की आशंका से बचाती है। मन शांत रहता है। मुक्त अवस्था में पूर्वजन्म जिससे कुछ लेना नहीं उसी प्रकार आगामी जन्म का विवाद अर्थहीन होता है। कामना रहित सुखमय जीवन आसक्ति से बचाता है। आसक्ति और कामना मोह के जाल में उलझा देती है। मोह हुआ और आवागमन का चक्र चला।अनासक्त, कामना रहित, मोह ममता से परे, आस्थावान पुरुष का जीवन समग्रता लिए रहता है।

ये गुण उसकी सहज वृत्तियां बन जाती हैं। आध्यात्मिक जीवन जीने की कला आने पर ही ये वृत्तियां सहज बन जाती हैं। सहजता आने पर आत्मभिमुखता या अन्र्तदर्शिता की स्थिति का निर्माण होता है, तब मन शांत, संतुलित और सम रहता है।शांत मन आत्मा की ओर अभिमुख हो पाता है। ऐसी स्थिति में अन्त:करण (बुद्धि, चित्त और अहंकार) में ईश्वर का अनुभव करते हुए साधक में अनुभवगम्यता का विकास होता है। ध्यान जमने लगता है।

जब हो नाजुक घड़ी तो...
जब महारथी साम्ब ने देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं तब वे एक सुंदर धनुष चढ़ाकर सिंह के समान अकेले ही रणभूमि में डट गए। इधर कर्ण को मुखिया बनाकर कौरव वीर धनुष चढ़ाए हुए साम्ब के पास आ पहुंचे।कौरवों ने युद्ध में बड़ी कठिनाई और कष्ट से साम्ब को रथहीन करके बांध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणा को लेकर जय मनाते हुएहस्तिनापुर लौट आए। द्वारिकावासियों को इसकी सूचना नहीं थी, नहीं भगवान को। नारद ने आकर यह संदेश सुनाया। द्वारिका में कोहराम मच गया।

द्वारिकाधीश के पुत्र को कौरवों ने बंदी बना लिया।नारदजी से यह समाचार सुनकर यदुवंशियों को बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेन की आज्ञा से कौरवों पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे। बलरामजी कलहप्रधान कलियुग के सारे पाप-ताप को मिटाने वाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियों के लड़ाई-झगड़े को ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शांत कर दिया और स्वयं सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर सवार होकर हस्तिनापुर गए।

उनके साथ कुछ ब्राम्हण और यदुवंश के बड़े-बूढ़े भी गए। जब नाजुक घड़ी हो तो बड़े-बूढ़े साथ में होना चाहिए।बलरामजी ने हमें सुंदर संकेत दिया है। जब विवाह जैसी स्थिति हो, सुलह करना हो, शांति की स्थापना करनी हो तो बुजुर्गों को आगे करना चाहिए। उनका अनुभव इसमें कारगर साबित होता है।

बलरामजी ने कौरवों की दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। उस समय उनकी ओर देखा तक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोर से हंस कर कहने लगे-सच है, जिन दुष्टों को अपनी कुलीनता बलपौरुष और धन का घमंड हो जाता है वे शांति नहीं चाहते। मैं आपको समझा-बुझाकर शांत करने के लिए, सुलह करने के लिए यहां आया हूं। फिर भी ये ऐसी दुष्टता कर रहे हैं, बार-बार मेरा तिरस्कार कर रहे हैं।

जरूरी है निभाना अपनी जिम्मेदारी क्योंकि...
राजा जनक का महाभारत में एक ब्राह्मण से हुए संवाद का वर्णन इस प्रकार किया गया है। ब्राह्मण ने पूछा - राज्य के प्रति किस प्रकार ममता को त्याग दिया? किस प्रकार राज्य को अपना समझते हैं और किस प्रकार नहीं समझते? राजा जनक का उत्तर था - इस संसार में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली सभी अवस्थाओं का एक न एक दिन अंत हो जाता है, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है। वेद भी कहता है यहकिसकी वस्तु है, यह किसका धन है (अर्थात् किसी का नहीं है) इसलिए अपनी बुद्धि से विचार करता हूं तो कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जान पड़ती जिसे अपनी कह सकें।

इसी विचार से मैंने मिथिला के राज्य से अपना ममत्व हटा लिया। अब जिस बुद्धि का आश्रय ले सर्वत्र अपना राज्य समझता हूं वह सूनो। मैं अपनी नासिका में पहुंची हुई सुगन्ध सुख के लिए ग्रहण नहीं करता। मुख में पड़े हुए रसों का भी मैं तृप्ति के लिए आस्वादन नहीं करना चाहता। इसलिए जल तत्व पर भी विजय पा चुका हूं।तराजा जनक के मंत्री को शंका हुई और उन्होंने राजा ब्राह्मण ने जनक से पूछा - लोग आपको विदेह करते हैं, यह झूठा नहीं है क्या? आप राज्य चलाते हैं, गृहस्थी पालन करते हुए अच्छे व्यंजन खाते हैं, मखमली गद्दों पर सोते हैं। फिर आप विदेह कैसे।

राजा जनक ने कहा - आप कल शाम को 8 बजे हमारे साथ भोजन कीजिए, भोजन पर उत्तर दूंगा। उन्होंने दूसरे ही क्षण मंत्री के जाने के पश्चात सेनापति को बुलाया और मंत्री महोदय को रात्रि 9 बजे मृत्यु दण्ड देने की 'राज आज्ञा जारी कर भेजा। मंत्री को महान् आश्चर्य हुआ, वे विचार में पड़ गए, राजा से मिलना चाहा, राजा ने कहलवा दिया कि कल शाम को 8 बजे मिलेंगे। मंत्री को नींद नहीं आई, दिन में किसी काम में चित्त नहीं लगा, भोजन भी न कर सके, क्योंकि वे मृत्यु को सिर पर देख रहे थे। राज आज्ञा जो ठहरी। सोचते विचारते चिन्ता मग्न हो मंत्री ने 24 घण्टे बिताए। रात्रि 8 बजे भोजन पर राजा ने अच्छे-अच्छे पकवानों को स्वयं परोसा। राजा ने खाने के लिए कहा-मंत्री खाना आरम्भ नहीं कर सके। वे पूछ भी नहीं पा रहे थे कि मृत्यु दण्ड क्यों दिया। राजा पूछने लगे रसगुल्ले का स्वाद कैसा है? लड्डू कितने स्वादिष्ट हैं, आदि-आदि।

मंत्री झुंझला उठे क्या स्वाद। एक घंटे बाद तो मरना है? राजा जनक ने शांत भाव से कहा-अभी तो आपके पास एक घण्टा है-भोज्य पदार्थों में रस लीजिए न, मंत्री बोले-रस नहीं आ सकता महाराज जब मृत्यु सिर पर हो। राजा जनक ने गंभीर होकर कहा-बस मंत्रीजी। आपके विदेह संबंधी प्रश्न का उत्तर मैंने दे दिया। मंत्री ने पूछा वह कैसे? जब एक घण्टे की अवधि में आप रस नहीं ले सके। मैं तो निश्चित मानकर प्रत्येक कार्य करता हूं कि निमिश मात्र का अंतर भी जीवन और मृत्यु में नहीं है। बस कार्य करता रहता हूं। प्रभु प्रदत्त दायित्व निभाता हूं। जगत् का शासक एक ही है दूसरा कोई नहीं।

कैसी होनी चाहिए गृहस्थी?
एक बार रानियों के बीच नारदजी रूक्मिणीजी के महल में पहुंचे। वे सोचने लगे- यह कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने एक ही शरीर से एक ही समय सोलह हजार महलों में अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया। देवर्षि नारद इस उत्सुकता से प्रेरित होकर भगवान् की लीला देखने के लिए द्वारिका आ पहुंचे। वहां के उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों से परिपूर्ण थे।

यह प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण है, जो लोग संसारी जीवन को दूभर मानते हैं उन्हें इससे सीख लेनी चाहिए। गृहस्थी किस तरह से चलाई जाती है भगवान् कृष्ण से सीखा जाए। 16 हजार रानियों के साथ भगवान् खुशी-खुशी रह रहे हैं, किसी की कोई शिकायत नहीं, ना ही कोई झगड़ा। सब प्रसन्न हैं। भगवान सभी को खुष रखे हुए हैं।

उसके राज-पथ (बड़ी-बड़ी सड़कें), गलियां, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओं के रहने के स्थान, सभा-भवन और देव-मंदिरों के कारण उसका सौंदर्य और भी चमक उठा था। उसकी सड़कों चौक, गली और दरवाजों पर छिड़काव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियां और बड़े-बड़े झण्डे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तों पर धूप नहीं आ पाती थी। उसी द्वारिका नगरी में भगवान् श्रीकृष्ण का बहुत ही सुन्दर अन्त:पुर था। उस अन्त:पुर (निवास) में भगवान् की रानियों के सोलह हजार से अधिक महल शोभायमान थे, उनमें से एक बड़े भवन में देवर्षि नारदजी ने प्रवेश किया।

देवर्षि नारदजी ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण उस महल की स्वामिनी रुक्मिणीजी के साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान् को सोने की डांडी वाले चंवर से हवा कर रही हैं।भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलंग से सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारद के युगलचरणों में मुकुटयुक्त सिर से प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उन्हें अपने आसन पर बैठाया। शास्त्रोक्त विधि से देवर्र्षि शिरोमणि नारद की पूजा की।भगवान् भी नारद के मन की बात ताड़ गए। उन्होंने नारदजी को बिल्कुल भी भान नहीं होने दिया। पूरा स्वागत सत्कार किया। जैसा कि ब्राह्मण या ऋषि का होना चाहिए।

इसके बाद देवर्षि नारदजी श्रीकृष्ण की योगमाया का रहस्य जानने के लिए उनकी दूसरी पत्नी के महल में गए।
वहां उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिय और उद्धवजी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहां भी भगवान् ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसन पर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्ति से उनकी अर्चना-पूजा की। अब नारदजी का सिर चकराने लगा। भगवान के चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था कि अभी रुक्मिणी के महल में ही आपसे भेंट हुई। नारदजी भगवान की योगमाया को समझने आए थे। खुद ही माया में उलझ कर रह गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। अब तो बस एक महल से दूसरे महल में घूमने लगे। भगवान हर जगह अलग-अलग रूप में दिख रहे थे। उस महल में भी देवर्षि नारद ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को दुलार रहे हैं।

तो ऐसी थी कृष्ण की गृहस्थी
वहां से फिर दूसरे महल में गए तो क्या देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण स्नान की तैयारी कर रहे हैं। इसी प्रकार देवर्षि नारद ने विभिन्न महलों में भगवान् को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा। कहीं वे यज्ञकुण्डों में हवन कर रहे हैं तो कहीं पंचमहायज्ञों से देवता आदि की आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राम्हणों को भोजन करा रहे हैं तो कहीं यज्ञ का अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं। कहीं संध्या कर रहे हैं तो कहीं मौन होकर गायत्री का जप कर रहे हैं। कहीं हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनको चलाने के पैंतरे बदल रहे हैं। कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथ पर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंग पर सो रहे हैं तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं। किसी महल में उद्धव आदि मंत्रियों के साथ किसी गंभीर विषय पर परामर्श कर रहे हैं और कहीं प्रजा में तथा अन्त:पुर के महलों में वेष बदलकर छिपे रूप से सबका अभिप्राय जानने के लिए विचरण कर रहे हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। उनकी योगमाया का परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारद के विस्मय और कौतूहल की सीमा न रही। द्वारिका में भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थ की भांति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरूषार्थों में उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारद का बहुत सम्मान किया।

नारदजी ने उनको प्रणाम किया और कहा भगवान् मैं आपकी माया से हार गया। सचमुच आप कुछ अलग ही लीला कर रहे हैं। भगवान् ने कहा-नारद एक बात ध्यान रखना, तुम संत हो और सन्त का काम है गृहस्थों के परिवार में प्रवेश करना, उनकी रक्षा करना, पर तांक-झांक करना ठीक नहीं है। आज से कसम खा लेना। ताक-झांक मत करना। नारद ने भी अपनी भूल स्वीकार की। नारद ने कहा-मैं जा रहा हूं आप मुझे आज्ञा दीजिए। नारदजी को समझ में आ गया। वे सबके अन्तरात्मा हैं। जो उनका साक्षात्कार कर लेते हैं उन्हें ही शांति है, अन्य को नहीं मिलती। अपनी अन्तरात्मा में स्थित ब्रम्ह का सतत् तेल धारावत् चिन्तन, ममन, ध्यान, स्मरण, नाम, जप इत्यादि, उसकी आराधना, उपासना साधन या कोई नाम दें, एक ही बात है कि वह हमसे भुलाए न भूले। होना चाहिए सत्य का अनुसंधान, सत्य का वास्तविक प्रयोग। सत्य-स्वरूप केवल-केवल सत्य से ही जाना जा सकता है।

जरूरी है दायरे से बाहर निकलना क्योंकि...
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो।

देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है।

आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा।

अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईश्वरार्थ कर्म करने का निर्देष देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है।

आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है। व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, सौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है।

कैसी थी कृष्ण की दिनचर्या?
वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जल में स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म संध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्री का जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषों के पात्र आदर्ष जो हैं। इसके बाद सूर्योदय होने के समय सूर्योपस्थान करते और अपने कालास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरों का तर्पण करते। फिल कुल के बड़े-बूढ़ों और ब्राम्हणों की विधि पूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधार, पहले-पहल ब्याही हुई, बछड़ों वाली, सीधी-शांत गौओं का दान करते। भगवान् के योग और ध्यान पर प्रकाश डाला गया है। नियमित प्राणायाम करते थे भगवान्। षक्ति का संचरण कैसे करना, प्राण से अपने जीवन को कैसे ऊंचा उठाना, बकायदा पूरी क्रिया करने के बाद भगवान् मार्निंग वॉक पर जाते थे। लोग उनसे पूछते कि आपको घूमने की जरुरत क्या है! भगवान् कहते हैं कि द्वारका की व्यवस्था देखने हेतु घूमना आवष्यक है। भगवान् लौटकर आते, उसके बाद भगवान् का स्नान, ध्यान, पूजन के बाद भगवान् का दान का सत्र शुरू होता। प्रतिदिन दान का एक सत्र हुआ करता था उस सत्र में वो सबको वांछित दान दिया करते। उसी समय लोग अपनी छोटी-मोटी समस्याएं भगवान् को बता देते फिर भगवान् जलपान करने आते थे।यह भगवान का इन्द्रिय यज्ञ था। कर्म सम्पादन में सुनना, छूना, देखना, रस लेना, सूंघना, पांचों इन्द्रियों (कर्ण, त्वचा, आंखें, रसना और नासिका) की संयम रूपी अग्नि में आहुति देते हैं अर्थात् इन्द्रिय-संयम वर्तते हैं। यह वर्तना राग-द्वेश से रहित इन्द्रियों द्वारा प्रतिपादित भोग भोगते हुए जीवन यज्ञ पूरा करते हैं। ऐसे जीवन में कर्म गलत हो ही नहीं सकते।

भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्द्रिय यज्ञ की संज्ञा इन्द्रियों के संयमित जीवन को दी है। महाभारत में अर्जुन को ब्राम्हण और उसकी पत्नी के साथ संवाद के रूप में इस तत्व की गूढ़ व्याख्या श्रीकृष्ण ने की है। संक्षेप में मन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों को भोगता है, कर्म करता है। कर्म के विषय में वर्णन किया गया है।संसार में जो ग्रहण करने योग्य दीक्षा और व्रत आदि हैं तथा आंखों से दिखाई देने वाले स्थूल कर्म हैं उन्हें ही कर्म माना जाता है। कर्मठ लोग ऐसे ही कर्म को कर्म के नाम से पुकारते हैं और जो अकर्मठ जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है वे लोग कर्म के द्वारा मोह का ही नियंत्रण करते हैं।

प्लानिंग जरूरी है क्योंकि...
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो। देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।

भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है। आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा। अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम।

इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईष्वरार्थ कर्म करने का निर्देश देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है। आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है।

व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, षान्ति, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है। माना कि सब गुण न तो मनुष्य में एक साथ आ सकते हैं न अल्पकाल में ये उसमें समाहित हो सकते हैं। किन्तु आत्मा को बचाने के लिए काम, क्रोध, लोभ को त्यागना चाहिए, क्योंकि इनके रहते दैवी सम्पद या गुण केवल कल्पना जैसे लगते हैं।

जीवन में मिठास के लिए जरूरी है...
कर्मयोगी के कई उदाहरण हैं। वैसे तो महात्मा अनेक हैं किन्तु एतिहासिक संतों में कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता, तिरुवल्लस्वामी को हम उदाहरण के रूप में ले सकते हैं जिन्होंने कर्म किए किन्तु बंधन में नहीं पड़े। दूसरी ओर उन संन्यासियों का समूह है जिन्होंने ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण से संसार का त्याग किया, किन्तु उन्हें भी शरीर धर्म निभाने और लोक-कल्याणार्थ कर्म करना पड़ता है और प्रारब्धवशात या तप की न्यूनता के कारण उन्हें मन से कर्मरत होना पड़ता है। इसके लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - ऐसा मूढ़ात्मा मिथ्याचारी कहलाता है। उसका संन्यास बड़े बन्धन का कारण बन जाता है, किन्तु उसके प्रयास भी निष्फल नहीं जाते हैं, वह योग भ्रष्टोभिजायते वाली स्थिति में पहुंच नव जन्म में आगे बढ़ता है, उसकी यात्रा चलती रहती है।

अब भगवान् अपनी पूरी मधुरता के साथ पराक्रम दिखाएंगे और इसी का नाम जीवन का संतुलन है कि कुछ भी करें कितना ही बल, पौरूष दिखाना हो, आक्रमण दिखाना हो लेकिन जीवन का माधुर्य नहीं खोना चाहिए। आपके व्यक्तित्व की मधुरता नहीं जाना चाहिए। आपकी पहचान होना चाहिए और मधुरता को प्रकट करने का सबसे आसान तरीका कौन सा है जरा मुस्कुराइए। मधुरता अगर बनाए रखना है तो मुस्कान बहुत सरल माध्यम है। आप मुस्कुराइए आप भीतर से मधुर हो जाएंगे। आप मुस्कुराइए, आप भीतर से मीठे हो जाएंगे। आपको कोई मिश्री नहीं लेना, बस मुस्कान आपके जीवन की मधुरता बनाए रखेगी। भगवान् अपनी मुस्कान, अपनी मधुरता के साथ प्रस्थान कर रहे हैं।

एक दिन की बात है द्वारिकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। उसने श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का जिन्होंने जरासन्ध को दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिए गए थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बन्दी बनने का दुख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया।

आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।

सहायता और प्रार्थना का यह नियम है....
आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।

आपने 18 बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान मर्दन करके उसे छोड़ दिया, परन्तु एक-बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। मनुष्यों का सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया, परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं।

अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कीजिए।

यह सहायता और प्रार्थना का नियम है, जिससे आप सहायता मांग रहे हैं, उसके सामथ्र्य की भी थाह आपको होनी चाहिए। परमात्मा असीम शक्तिशाली हैं, हम उनसे सहायता मांगते हैं तो यह भाव भी होना चाहिए कि हम आपकी शक्ति जानते हैं, आप हमें इस संकट से बचा सकते हैं।दूत ने कहा - भगवन जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दीनों का कल्याण कीजिए।

पाण्डवों को कृष्ण क्यों पसंद करते थे?
उद्धवजी ने कहा-भगवन देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्यकर्तव्य है। पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिए जरासन्ध को जीतना आवश्यक है।

प्रभो! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं। इसलिए पहले आप वहीं पधारिए।

उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिए आज्ञा दी।

हस्तिनापुर जाना -भगवान् को सूचना मिली और भगवान बहुत दुखी हो गए। सूचना यह थी कि कौरवों ने छल से पाण्डवों को लाक्ष्यागृह में भेजा और पांडव और कुंती जलकर मर गए। यह सूचना जब कृष्णजी को मिली तो कृष्णजी बहुत चिंतित हो गए, लेकिन उनको विश्वास नहीं हुआ। कुछ उदास भी हुए। पाण्डव भगवान् को क्यों पसंद थे समझ लें। कर्म करने से अनुभव होता है। पवित्र कर्म से धर्ममय अनुभव होते हैं।

श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि अध्यात्म शक्ति की जागृति, प्रत्यक् चेतना छिगम् अर्थात् अन्तर्गुरु ईश्वर की चेतन सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव। साधन (कर्म) के तीन स्तर होते हैं। प्रथम स्तर पर साधक अपने कत्र्तत्याभिमान से युक्त रहता है। (मैं साधन कर रहा हूं, कर्म कर रहा हूं, सेवा कर रहा हूं आदि) दूसरे स्तर पर ईश्वर की शरण में रहता है और अपनी प्रगति को ईश्वर की अनुकम्पा के अधीन अनुभव करता है। तीसरे स्तर पर ब्रम्हभाव में रत रहता हुआ जीवन सफल करता है।

सवाल है भक्ति कैसे की जाए?
ईश्वर सब दूर हैं, अणु-अणु में हैं और अणु-अणु उसमें हैं। वह सृजन या विनाश करते हुए बंधन मुक्त है, क्योंकि वह सब कर्मों में उदासीन की तरह अनासक्त भाव से अपने आप होता हुआ दृष्टा बना देखता है और उनकी मुश्किलों को हल करता है। इस क्रिया को राजविद्या अर्थात् सब विद्याओं का राजा कहा गया है और आगे ''पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:, वेद्यं पविभमोंकार ऋवक्साम यजुरदेव च।जगत् का पिता, माता, विधाता, जानने योग्य पवित्र ऊँकार ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद मैं ही हूं। अर्थात् ईश्वर है, श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश महानतम योगी ईश्वर के रूप में दिया।

माता-पिता, विधाता के रूप में ही साधक का भक्त को जो उन पर निर्भर रहते हैं का योगक्षेम वहाम्यहम् नित्य युक्त उपासना करने वाले का योगक्षेम वहन करते हैं।योग अर्थात् प्राप्त करना (साधक को उच्चतम भक्ति भावना का निर्माण) क्षेम अर्थात् प्राप्त को संभालकर रखना। इसका अर्थ जगत की विभीषिकाओं से रक्षा करने से भी लिया जाता है। अर्जुन की पग-पग पर रक्षा की। भक्त प्रहलाद को अनुभव नहीं होने दिया कि विपत्ति या कष्ट क्या होता है? देवर्षि नारद ने भक्ति के संदर्भ में उदाहरण दिया है।

तुलसीदासजी ने शबरी के सम्मुख श्रीराम के मुख से कहलवाया-
''कह रघुपति सुन भामिनि बाता। मानो एक भक्ति कर नाता।।
सवाल है भक्ति कैसे की जाए -
भगवान श्रीकृष्ण इस सवाल का सटीक उत्तर देते हैं-

''मन्मना भव मद्भक्तों मद्याजी मां नमस्कुरु! मामेवैश्यसि युक्तवैवामात्मनं मत्परायण:।। 34।।

परमात्मा में अनन्य मन वाला हो, मुझ (परमात्मा) में मन लगा, मेरा भक्त बन (अनन्य का नहीं), मेरे निमित्त यज्ञ (सद्कर्म) कर मुझे नमस्कार कर (सियाराम मय सब जग जानि कर, प्रणाम जोरि युग पानी) मुझमें परायण होकर आत्मा को मेरे साथ युक्त (जोड़) कर मुझे प्राप्त कर लेगा। भगवान् की सत्य प्रतिज्ञा है।भगवान् के साथ जोडऩा योग है।

कर्म को जोडऩा कर्म योग, कर्मफलों को ईश्वर अर्पण करना राजयोग, जो कहता है-कर्मफलों को छोड़ मत, बल्कि ईश्वर अर्पण कर दो, ये वे फूल हैं आगे जो जाने के साधन हैं, उसे भगवत-भाव मूर्ति पर चढ़ाओ। कर्म किए हैं तो फल तो निर्मित होगा ही स्वयं फलों का उपयोग करना, भोगना है, दूसरे उपभोग करें यह सेवा रूप में है और ईश्वर अर्पण में फल-त्याग ही सच्चा योग है। प्रेमी को सर्वस्व अर्पित कर दिया जाता है।

द्रोपदी के स्वयंवर की बस यही शर्त थी कि...
बलरामजी कृष्णजी को देखने लग गए कि अब और बचा है क्या स्वयंवर में। कृष्ण बोलते हैं-दाऊ अब द्रौपदी अपने जीवन में आएगी। हम यह घोषणा कर रहे हैं कि यदुवंशी इस स्वयंवर में शामिल नहीं होंगे, दर्शक रूप में जा रहे हैं। सबको लगा यह ठीक है। द्रौपदी के स्वयंवर में पहुंचते हैं भगवान दु्रपद देश की द्रौपदी उस समय संसार की सबसे सुन्दर स्त्री मानी जाती थी। याज्ञसेनी नाम था उसका। उसके पिता दु्रपद ने यज्ञ से उसको प्राप्त किया था और परमात्मा ने उसको अतिरिक्त सौंदर्य दिया था।

द्रौपदी के बारे में ऐसा कहते थे कि उसको पाने के लिए उस समय आर्यावर्त का प्रत्येक राजा उत्सुक था। द्रौपदी की देह से स्थायी सुगंध निकलने का वरदान था। हजारों फुलवारियां अगर खिल जाएं और सुगन्ध फैलाएं। ऐसी सुगन्ध 24 घण्टे द्रौपदी की देह से आएगी यह उसको वरदान था। द्रौपदी को पाने के लिए सारे राजा आए हुए थे। शर्त यह थी कि एक लकड़ी का यंत्र था, उसमें मछली लगी थी, उस मछली को नीचे तेल में देखकर उसकी चलित आंख का निशाना लगाना था और निशाना लग जाए तो द्रौपदी उसको वरेगी। भगवान् भी पहुंच गए स्वयंवर में बलरामजी के साथ।

दुर्योधन आया था कर्ण को लेकर। सभी आए थे कोई नहीं चूका। दुर्योधन को तो पता था कि जीतेगा कर्ण और फिर द्रौपदी को मुझे भेंट करेगा। आप सोचिए दुर्योधन किस स्तर पर मित्रता कर रहा था और कर्ण किस स्तर पर मित्रता कर रहा था। कर्ण आया ही इसीलिए था कि मित्र यह विजित है मुझसे और फिर मैं आपको भेंट कर दूंगा। मित्रता में इतने निम्न स्तर पर नहीं जाना चाहिए। कर्ण जैसा योग्य और ज्ञानी लेकिन उलझा हुआ था दुर्योधन में।

छल को छल से नहीं जीता जा सकता
कर्ण जैसा योग्य और ज्ञानी लेकिन उलझा हुआ था दुर्योधन में। सब लोग बैठे हैं, तैयारी की। घोषणा की गई, द्रौपदी आई। सबसे कहा पराक्रम दिखाएं। कोई नहीं दिखा पाया। जैसे ही कर्ण खड़ा हुआ सभी जानते थे कि कर्ण निशाना लगा देगा। यह बिल्कुल तय था।

द्रौपदी ने एकदम से घोषणा की कि इनको रोकिए यह इस स्वंयवर के योग्य नहीं हैं। मैं इनको अनुमति नहीं देती और नहीं मैं इनको वरूंगी क्योंकि यह सूत पुत्र है, क्षत्रिय नहीं हैं। कर्ण बड़ा अपमानित हुआ। कर्ण को लगा यह तो मेरा सीधा-सीधा अपमान है। बैठ गया। दुर्योधन तमतमा गया और फिर बारी आई एक ब्राह्मण की। ब्राह्मण युवक गठीला, अर्जुन।

पाण्डव वेष बदलकर स्वयंवर में आए थे क्योंकि कौरव पहचान लेंगे तो फिर आक्रमण करेंगे, छिपते फिर रहे थे। मां डरी हुई थी कि बेटा तुम में से एक चला जाएगा। तो अपना प्रकाशन मत करो। इनको यही समझने दो कि हम मर गए। बाद में हम नीति बनाएंगे, यह तो छल पर उतर आए हैं। एक बात याद रखिए छल का कोई इलाज नहीं है। छल का इलाज छल है तो आप भी छली हो जाएंगे। छल का इलाज सिर्फ भगवान हैं। छल को छल से नहीं जीता जा सकता और प्रयास भी मत करिएगा।

और अर्जुन ने जीत लिया स्वयंवर
पाण्डव बहुत नाराज होते, उन लोगों ने हमको जलाने की कोशिश की, आज आदेश करें, तो कुन्ती बोलती हैं कि न तो हमारे पास सेना है, न समर्थन है। पांच तुम हो और ये कौरव, पितामह भीष्म और गुरूदेव द्रोण उनके साथ हैं उन्होंने हमें जलाकर मारने की कोशिश की थी। कुंती को तो आशा थी कि आएगा एक दिन कभी, मां के कहने थे। पांचों पाण्डव पहुंच गए।

अर्जुन ने धनुष उठाया एक तीर साधा और सीधा निशाने पर। जय-जयकार हो गई। द्रौपदी चली माला पहनाने, तो राजा लोग खड़े हो गए। दुर्योधन, कर्ण, जरासंध, शिशुपाल ने कहा यह कैसे हो सकता है। पहले तो इसका परिचय दो और दूसरा क्षत्रियों के स्वयंवर में ब्राह्मण को अनुमति नहीं मिल सकती। मार डालो इस ब्राह्मण को और लोग मारने के लिए चले। बलराम भी खड़े हो गए।

बलराम को यह नहीं पता कि किस ओर से लडऩा है पर कहीं भी लड़ाई होती तो वे एकदम से उत्साह में आ जाते थे। बलराम एकदम से खड़े हुए तो कृष्ण ने कहा-दाऊ बैठ जाओ। दाऊ ने कहा- यहां हाहाकार हो रहा है। कृष्ण ने कहा-पांडव जीवित हैं मैं बहुत प्रसन्न हूं। वो अर्जुन है सब निपटा लेगा चुपचाप बैठो दाऊ। कृष्ण मन ही मन प्रसन्न थे कि इस मछली को विश्व में दो ही लोग भेद सकते थे या तो कर्ण या अर्जुन। कर्ण बाहर हो चुका है तो यह शत-प्रतिशत अर्जुन है।अर्जुन आज एक युद्ध लडऩे जा रहे थे, कृष्ण सामने थे दोनों का वही वार्तालाप मन ही मन हो चुका था जो भविष्य में गीता के रूप में आएगा।

स्थिति कैसी भी हो आप उसे बदल सकते हैं....
काम सारे पांडवों से कराए कृष्ण ने कभी ये नहीं कहा कि मैं पीठ पर हूं तुम जाकर सो जाओ। करना तुम्हें है लेकिन अब मैं तुम्हारी योजना में शामिल हूं, तुम्हारे विचार में, तुम्हारे लक्ष्य में और तुम्हारी सफलता में हिस्सेदारी अब मेरी होगी चलो आगे चलते हैं। यहां से भगवान् के जीवन में पाण्डव युग का आरम्भ हो रहा है। भगवान् को चलते समय सूचना दी गई थी कि जरासन्ध बहुत अत्याचार कर रहा है, बहुत परेशान कर रहा है।

भगवान् अब पाण्डवों के जीवन में आ गए हैं। वो पाण्डवों के लिए कौरवों से बात करते हैं, उन्हें अलग राज्य दिलवाते हैं। भगवान् अब भक्त के लिए हर वह काम करेंगे जो एक दूत करता है। एक गुरु करता है, एक स्वामी करता है, सखा करता है और एक सेवक जो भूमिका निभाता है। भगवान् वे सारे काम पाण्डवों के लिए करेंगे।भगवान् ने कहा-हमें तो लम्बी यात्रा करना है चिंता छोड़ो, आओ। आप लोग यहीं रहो, आपकी ओर से मैं जा रहा हूं कौरवों से बात करने।

भगवान पहुंचे हैं कुरूवंश के राजदरबार में। भीष्म ने सबको सूचना दी कि कृष्ण आ रहे हैं बड़ी-लंबी चौड़ी चर्चा है महाभारत में, लेकिन हम हमारे काम की बात कर लें। भगवान् ने कहा-उनको उनका हिस्सा दे दीजिए। सारी राज सत्ता दुर्योधन के कहने में थी, दुर्योधन ने कहा यहां तो नहीं देंगे। उसने कहा हस्तिनापुर से बाहर एक खाण्डव वन है, उजाड़ वन, वो दे देते हैं इनको जो करना है वो करें।

सबको लगा कि यह तो कोई बात ही नहीं होती है, लेकिन वो तो कृष्ण थे। कृष्ण ने कहा-चलेगा खाण्डव वन दे दो। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि कृष्ण खाण्डव वन लेकर आए। लेना तो आधा राज्य था या फिर युधिष्ठिर को राजकुमार बनाने की बात थी, लेकिन जब कृष्ण लौटे तो कुन्ती से बोले-मैं खाण्डव वन लेकर आ गया हूं। पांचों भाई चौंक गए, लेकिन पांचों भाई एक बात जानते थे कि कृष्ण जो करेंगे वो हमारे हित में ही करेंगे।

कृष्ण ने पांचों भाइयों से कहा कि जीवन में कभी न कभी नई शुरूआत करना ही पड़ती है। लम्बे चलने के बाद भी कभी वो स्थिति आ जाती है कि हमें एक से पुन: गिनती गिननी पड़ती है। आओ खाण्डव वन को कुछ नया करें, पांचों भिड़ जाते हैं और अन्य राजाओं से मदद लेते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा-मैं द्वारिका से धन दूंगा, द्वारिका से भवन बनाने के लिए विशेषज्ञ बुलवाऊंगा। चलो इस खाण्डव वन को इन्द्रप्रस्थ बनाते हैं और देखते ही देखते कृष्ण के नेतृत्व में इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हो गई। ऐसा सुंदर भवन, ऐसी सुंदर राजधानी बना दी इन लोगों ने और कृष्ण ने हमको यह शिक्षा दी है कि कैसी भी स्थिति हो आप उसको बदल सकते हैं।

जो कुछ बोलें सोचकर बोलें
पूर्व में भगवान् श्रीकृष्ण ने स्पष्ट ही कहा कि प्रसन्नता राग-द्वेष से मुक्त होने पर चित्त में समाहित होती है और प्रसन्नचित्त से बुद्धि स्थिर होती-तरंगें प्रवाह में नहीं उठतीं वैसे ही जैसे जल स्थिर हो जाए तो उसमें प्रतिबिंब देखा जा सकता है। बुद्धि रूपी सरोवर में साधक फिर अपने आराध्य के दर्शन कर सकता है।

विश्वरूप दर्शन के पश्चात जब श्री अर्जुन एक न्यायाधीश के मानिन्द होकर विधि के विधान को समझ सका तब उसको किसी भी अन्य साधन से न देख सकने वाले नारायण स्वरूप को चतुर्भुज रूप में देखने में समर्थ हुआ। यह नर-नारायण के दो आइने सामने आ गए और अर्जुन अनन्त को अनन्त में देख गीतामृत के माध्यम से लोक कल्याण कर सके।चलिए पाण्डवों के दाम्पत्य की ओर चलें।

श्रीकृष्ण ने कहा दाऊ आप बैठो, वह सब संभाल लेगा और ऐसा हुआ भी। पांचों भाइयों ने मिलकर उन राजाओं को जो दण्ड दिया है कि त्राहि-त्राहि मच गई। फिर बड़े लोग बीच में आए। क्यों झगड़ रहे हो भैया! लड़की तैयार है, ये तैयार है अपने-अपने घर जाओ। उस दिन अंदाजा लग गया कि यह अर्जुन ही है। कर्ण ने उस दिन शपथ ली कि मैं इस द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लूंगा।

भरी राजसभा में इस द्रौपदी ने मुझको सूतपुत्र कहकर नीचा दिखाया है। एक दिन भरी राजसभा में मैं अपने अपमान का बदला लूंगा। इसलिए सार्वजनिक रूप से किसी पर टिप्पणी करें तो सावधान रहें। द्रौपदी इनकार भी कर सकती थी पर उसने भरी सभा में कहा-नहीं ये तो सूतपुत्र है। अपनी टिप्पणियों से द्रौपदी ने दो बार स्वयं विपत्ति आमन्त्रित की। जब भी कुछ बोलें तो आगे-पीछे का सोचकर बोलें। द्रौपदी ने अपने लिए अनजाने में ही एक शत्रु खड़ा कर लिया। हम भी अपने जीवन में ऐसे ही न जाने कितने शत्रु बना लेते हैं। याद रखें, हमारे बोले गए शब्द इस ब्रम्हाण्ड में घूमते हुए एक दिन फिर हमारे पास ही किसी अन्य रूप में पहुंचते हैं।

लक्ष्य को पाना है तो...
पाण्डव तो भगवान के रिश्तेदार ही हैं लेकिन भगवान ने सिर्फ उनका साथ निभाया लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास उन्होंने ने ही किया इसीलिए उन्हें लक्ष्य प्राप्त हुआ। कृष्ण ने पाण्डवों को भी कभी नहीं कहा कि तुम कुछ मत करो मैं सब ठीक कर दूंगा। इसीलिए कर्म तो जरूरी है। कथा आती है कि पाण्डव घर आए तो दाऊजी से कृष्ण ने कहा इनके पीछे चुपचाप चलो।

दाऊ ने कहा-यह तुम क्या करते हो और सोचते हो पीछे चलने की क्या आवश्यकता है? कृष्ण ने कहा-ये पांडव हैं। जैसे ही पाण्डव जंगल में अपनी कुटिया में पहुंचे अचानक कृष्ण का प्रवेश हुआ। कुन्ती ने देखा, वह एकदम दौड़ी। कृष्ण ने पहचान लिया, कृष्ण ने बुआ कहकर प्रणाम किया तो कुन्ती कृष्ण के कंधे पर सिर रखकर रोने लग गई।

कुन्ती रोते हुए कहती हैं कि कृष्ण तुम कहां चले गए थे। तुम देखो इन बच्चों की तरफ, मैंने कैसे पाला है इनको। राजा पाण्डु के जाने के बाद मैंने जंगल में इनको तैयार किया, इनको हर तरह की शिक्षा दी। हम भी कुरूवंश की संतान हैं, राजा तो पाण्डु ही थे वो तो चले गए, इसलिए अन्धे धृतराष्ट्र को बैठाया। हम कुछ नहीं चाहते पर हमें जीवन तो दे दो। हमें राज्य नहीं चाहिए। युधिष्ठिर ने तय कर लिया मुझे राजकुमार नहीं बनना, कहीं भी रहेंगे। हमारा कौन सहारा है। इन पांच बच्चों को देखो तुम।

कुन्ती का कृष्ण से बहुत गहरा स्नेह था। कुन्ती कृष्ण की बुआ थीं लेकिन उसने कृष्ण को परमात्मा के रूप में ही भेजा। यह कुन्ती का ही प्रताप था जो कृष्ण पाण्डवों के साथ हर दम खड़े रहे। विश्व की सर्वशक्तिमान हस्ती जिनके लिए हमने बचपन, यौवन तैयार किया वो आज सामने उपस्थित है, देख रहे हैं उनको। भगवान् से पूछते हैं क्या करें हम इस जंगल में कब तक पड़े रहें।

भगवान् बोलते हैं नहीं-नहीं अब तो आकाश की यात्रा आरम्भ करना है। आओ कुछ योजना बनाते हैं, विचार करते है। कुछ पुरूषार्थ करते हैं। एक बार भगवान हमारे जीवन में आए तो आप मानकर चलिए कि सारी कमियां पूरी हो जाएंगी। भगवान यह कहते हैं कि मैं साथ हूं करना तुम्हें है। काम सारे पांडवों से कराए कृष्ण ने कभी ये नही कहा कि मैं पीठ पर हूं तुम जाकर सो जाओ।

करना तुम्हें है लेकिन अब मैं तुम्हारी योजना में शामिल हूं, तुम्हारे विचार में, तुम्हारे लक्ष्य में और तुम्हारी सफलता में हिस्सेदारी अब मेरी होगी चलो आगे चलते हैं। यहां से भगवान् के जीवन में पाण्डव युग का आरम्भ हो रहा है। भगवान् को चलते समय सूचना दी गई थी कि जरासन्ध बहुत अत्याचार कर रहा है, बहुत परेशान कर रहा है।

भगवान तो बस भक्तों के बस में है क्योंकि...
भगवान् तो बस भक्तों के बस में हैं। युधिष्ठिर ने इच्छा जताई तो तुरंत हां कर दी। इसी बहाने वे अपनी कुछ और लीलाएं दिखाएंगे। इस राजसूय यज्ञ में दुनियाभर के राजा आएंगे।भगवान् ने कहा-आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय यज्ञ करने से समस्त लोकों में आपकी मंगलमयी कीर्ति का विस्तार होगा। पृथ्वी के समस्त नरपतियों को जीतकर, सारी पृथ्वी को अपने वश में करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञ का अनुष्ठान कीजिए। आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालों के अंश से पैदा हुए हैं।

वे सब के सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आप लोगों ने अपने सद्गुणों से मुझे अपने वश में कर लिया है। जिन लोगों ने अपनी इन्द्रियों और मन को वश में नहीं किया है, वे मुझे अपने वश में नहीं कर सकते। संसार में कोई बड़े से बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदि के द्वारा मेरे भक्त का तिरस्कार नहीं कर सकता फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो संभावना ही क्या है?

युधिष्ठिर को गुरु मंत्र मिल गया। भगवान् ने उसे जाने-अनजाने ही पृथ्वी पति होने का आशीर्वाद भी दे दिया लेकिन ये पाण्डवों की भी मर्यादा थी कि उन्होंने इसका तनिक भी अभिमान नहीं किया, बल्कि इसे भगवान् का ही आशीर्वाद और प्रताप समझा। पाण्डव राजसूय की तैयारी में लग गए, मार्गदर्शक थे स्वयं भगवान् कृष्ण।जीवन में गुरुमंत्र सद्ग्रुण के लिए बहुत उपयोगी और प्रभावशाली रहता है। गुरु मंत्र प्राप्त करते समय जो शक्तिपात होता है वह ही सद्गुणों को जीवन में उतरने में सहयोगी होता है।

अगर आप हैं मुश्किलों से परेशान
गुरु मंत्र प्राप्त करते समय जो शक्तिपात होता है वह ही सद्गुणों को जीवन में उतरने में सहयोगी होता है। जब भगवान को आप अपने को समर्पित कर देते हैं सारी समस्याएं अपने आप ही सुलझने लगती है। सब कुछ बदलने लगता है। इसीलिए जब आप भी जीवन की समस्याओं से परेशान हों तो सब कुछ भगवान पर छोड़ दीजिए और देखिए सारी समस्याएं अपने आप सुलझ जाएगी। कुछ ऐसा ही संदेश दे रहा है हमें भगवान का पांडवो के जीवन में प्रवेश और हर कार्य में उनकी मदद करना।कृष्ण ऐसी ही कृपा पाण्डवों पर कर रहे थे। राजसूय की तैयारी पुरजोर चल पड़ी। हर और दूत दौड़ा दिए गए। महाराज युधिष्ठिर का राजसूय है। वे चक्रवर्ती सम्राट बन रहे हैं।

मंत्र का सभी सम्प्रदायों एवं साधन-प्राप्तियों में महत्व को स्वीकार किया गया है। साधन की दृष्टि से मंत्र-जप का उद्देश्य शक्ति को अपने अंतर में जागृत करना है तथा उसका अनुभव करना है। वास्तव में मंत्र, गुरु, शक्ति तथा इष्ट से एक ही तत्व के विभिन्न स्वरूप तथा स्तर हैं जो विभिन्न रूपों में कार्य करते हुए साधक को अध्यात्म पथ पर अग्रसर करते हैं। मंत्र-जप के साधक के स्तर भेद एवं अधिकार भेद से कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है, जिनमें सबसे उत्तम है मंत्र शक्ति का प्रत्यक्ष होकर जप का विलीन हो जाना। साधन की आवश्यकता तभी तक है जब तक प्राप्तव्य नहीं हुआ। गंतव्य पर पहुंच कर यात्रा समाप्त हो जाती है।

प्रयत्नपूर्वक जप आणवोपाय के अंतर्गत है एवं स्वाभाविक जप शक्ति की क्रिया अथवा शाक्तोपाय है। मन निर्मल हो जाने पर शक्ति अपनी क्रियाएं समेट लेती हैं क्योंकि क्रियाएं चित्त के आधार पर ही शक्ति की क्रियाशीलता हैं। संस्कार क्षय के पश्चात् क्रियाओं की आवश्यकता एवं उनका आधार दोनों समाप्त हो जाते हैं। क्रियाओं में मंत्र-जप के कई स्वरूप तथा विभिन्न स्तर स्वयंमेव प्रकट होते रहते हैं। अन्य क्रियाओं के साथ भी जप क्रिया प्रकट हो सकती है तथा केवल जप क्रिया भी। देखा जाए तो अन्य क्रियाएं भी मंत्र शक्ति का स्वरूप है।

पाण्डवों को भगवान् की शक्ति सामथ्र्य और ज्ञान पर पूरा भरोसा था। उन्होंने खुद को भगवान् को ही समर्पित कर दिया था। अब तो बस भगवान् सब करवा रहे थे, पाण्डव कर रहे थे। पाण्डवों का डंका अब सब ओर गूंज रहा था। जब तक पुरुषार्थ के आधार पर जप चलता है जब तक मंत्र अचेतन है। कई प्रकार के अनुष्ठान पराशचरण इत्यादि अचेतन मंत्र को चेतन करने के लिए

किए जाते हैं। भगवान् की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर का हृदय आनन्द से भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयों को दिग्विजय करने का आदेश दिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों में अपनी शक्ति का संचार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने संचयवंशी वीरों के साथ सहदेव को दक्षिण दिशा में दिग्विजय करने के लिए भेजा।

नकुल को मत्स्यदेशीय वीरों के साथ पश्चिम में, अर्जुन को केकयदेशीय वीरों के साथ उत्तर में और भीमसेन को भद्रदेषीय वीरों के साथ पूर्व दिषा में दिग्विजय करने का आदेश दिया। सब भाइयों ने राजा की आज्ञा ली और निकल पड़े। भगवान् भी उनके साथ गए। भक्ति का सबसे बड़ा सुख यह है कि भक्त के आगे भगवान् चलते हैं और उनके पीछे भगवान् का सारा वैभव। पाण्डव दिग्विजय को निकल पड़े हैं।

कोई भी कार्य शुरू करें तो ये जरूर ध्यान रखें...
हमारे यहां हर कार्य को शुरू करने के पहले भगवान को याद किया जाता है। कहा जाता है कि भगवान को याद करके यदि कोई काम शुरू किया जाए तो उस काम में किसी तरह की कोई रूकावट नहीं आती। यहां भागवत में जो प्रसंग चल रहा है उसमें भगवान कृष्ण की पूजा सर्वप्रथम की गई। धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ के योग्य समय आने पर यज्ञ के कर्मों में निपुण वेदवादी ब्राह्मणों को ऋत्विज, आचार्य आदि के रूप में वरण किया।

पाण्डवों ने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और विदुर आदि को भी बुलवाया। राजसूय यज्ञ का दर्शन करने के लिए देश के सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सब के सब वहां आए।राजा युधिष्ठिर का प्रताप चारों ओर फैल गया। उन्हें चक्रवर्ती सम्राट मान लिया गया। भगवान की ऐसी कृपा रही कि कहीं कोई विरोध भी नहीं कर सका। भगवान को आगे करके जब कोई कार्य किया जाए उसमें कोई समस्या नहीं आती, जो आती है उसे भगवान खुद निपटा देते हैं।

अब सब लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा अग्रपूजा होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा-यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं।

उस समय धर्मराज युधिष्ठिर की यज्ञसभा में जितने सत्पुरुष उपस्थित थे सब ने एक स्वर से बहुत ठीक-बहुत ठीक, कहकर सहदेव की बात का समर्थन किया।यह विचार पांचों पाण्डवों के मन में था लेकिन अपने बड़े-बूढ़ों के प्रभाव को भी वे कम नहीं करना चाहते थे। ऐसे में सबसे छोटे भाई की सलाह काम आई। सलाह हमेशा लेते रहना चाहिए। कभी-कभी छोटों की सलाह मानकर काम करना भी श्रेष्ठ होता है। जैसे ही सहदेव ने श्रीकृष्ण का नाम लिया लोग हर्षित हो उठे।

श्रीकृष्ण ने क्यों काटा शिशुपाल का सिर?
जैसे ही सहदेव ने श्रीकृष्ण का नाम लिया लोग हर्षित हो उठे। यह कलकलंक ग्वाला भला अग्रपूजा का अधिकारी कैस हो सकता है? क्या कौआ कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है?अर्जुन, भीम, भीश्म जैसे वीरों से शिशुपाल की यह बातें सही नहीं गईं। वे शिशुपाल को मारने के लिए उत्तेजित हो उठे लेकिन श्रीकृष्ण मौन होकर सुन रहे थे। उन्होंने सबको शांत किया। शिशुपाल श्रीकृष्ण की बुआ का लड़का ही था लेकिन जरासंध के प्रभाव के कारण वह श्रीकृष्ण से बैर रखता था।शिशुपाल का सारा शुभ नष्ट हो चुका था। इसी से उसने और भी बहुत सी कड़वी बातें भगवान् को सुनाईं। भगवान् श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया।

अब शिशुपाल को मार डालने के लिए पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृचयवर्षा नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए। परन्तु शिशुपाल को इससे कोई घबराहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकार का आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभा में श्रीकृष्ण के पक्षपाती राजाओं को ललकारने लगा। उन लोगों को लड़ते-झगड़ते देख श्रीकृष्ण खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओं को शांत किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपाल का सिर तीखी धार वाले चक्र से काट लिया। शिशुपाल के शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान् श्रीकृष्ण में समा गई। यह दृश्य देखकर शिशुपाल के अन्य मित्र राजा और श्रीकृष्ण से बैर रखने वाले डरकर शान्त बैठे रहे।

शिशुपाल को चार जन्मों के बाद अब मुक्ति मिली। शिशुपाल और जरासंध पहले जन्म में जय-विजय नाम के द्वारपाल थे जो विष्णुधाम के पहरेदार थे। सनकादिक ऋशियों के श्राप से उन्हें राक्षस कुल में जन्म मिला। पहले हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु फिर रावण-कुंभकर्ण और फिर जरासंध-शिशुपाल। अब माहौल शांत हुआ। श्रीकृष्ण की फिर जय-जयकार हुई। उनकी अग्रपूजा करके युधिष्ठिर ने यज्ञ शुरू किया।

ऐसे लोग कभी सच्चे प्रेम को नहीं समझ पाते
इस प्रकार भगवान् ने युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-संबंधियों की प्रार्थना से कुछ महीनों तक वहीं रहे। इसके बाद राजा युधिष्ठिर की इच्छा न होने पर भी भगवान् ने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मंत्रियों के साथ इन्द्रप्रस्थ से द्वारिकापुरी की यात्रा की। सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधन से पाण्डवों की यह उज्जवल राज्यलक्ष्मी का उत्कर्ष सहन न हुआ। क्योंकि वह स्वभाव से ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुल का नाश करने के लिए एक महान रोग था।

जो मन से कपटी होते हैं वे सच्चे प्रेम को नहीं समझ पाते हैं। युधिष्ठिर के मन में दुर्योधन के लिए कोई मैल न था लेकिन दुर्योधन इन्द्रप्रस्थ जैसा राज्य देखकर दंग रह गया। उसके मन में इस राज्य को पाने की लालसा हो उठी। इसका वैभव उसके सिर चढ़ गया। कपटी, पापी और कामी लोग हमेशा दूसरों के वैभव, दूसरों की सम्पत्ति और दूसरों की स्त्री पर ही निगाह रखते हैं। दुर्योधन इन्हीं तीन दुर्गुणों का प्रतीक है। वह कैसे भी पाण्डवों की सुख-शान्ति में खलल डालना चाहता था।

पाण्डवों की लोगों में प्रतिष्ठा बनने लग गई। लोग जानने लग गए कि यह कोई नई शक्ति आई है। कुरूवंश का हिस्सा आया है जिसके पास धर्म है, यह उजला पक्ष है कुरूवंश का। एक पक्ष दुर्योधन के साथ रह गया। राजसूय यज्ञ हुआ जीत लिया, विश्व विजेता बन गए। अब राजसूय यज्ञ के बाद तिलक होना है। बढिय़ा यज्ञ किया गया। सारे राजाओं को आमन्त्रित किया गया। शिशुपाल और दुर्योधन, सब लोग आए। युधिष्ठिर का राजतिलक होना है।

उसे ही थोड़े में सुख का अनुभव होता है जो...
ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में स्थित रहकर अपनी माया से सबको ऐसे घुमा रहा है, जैसे यंत्र संचालित किया जाता है।गृहस्थ जीवन वस्तुत: मायिक यंत्र मय जीवन है, जिसमें सामान्यत: सुबह होती है, शाम होती है और 'जिन्दगी यूं ही तमाम होती है।

इस चक्र के निर्वाह में मन, बुद्धि का योग स्थापित करने से यंत्र की गति या तो थम जाती है और गुर अनुग्रह हो जाने पर यंत्र सीधे घूमता हुआ पार लगा देता है। बुद्धि द्वारा वह मान लेता है कि यह विशेष जीवन ईश्वर और ईश्वरी कार्य के लिए हैं।वानप्रस्थ में मन, बुद्धि, त्यागमय तपस्वी जीवन, संयम से वैराग्य दृढ़ होगा। त्याग अपने आप होने लगे, ममता मोह अतीत की बात हो जाए तो माना जाए कि मन, बुद्धि सन्यस्थ स्थिति में पहुंच गए हैं।

क्षमा, धैर्य, अहिंसा, सत्य, सरलता, ज्ञान, त्याग आदि सात्विक वर्ताव सहज हो जाए तो काम बन गया समझा जाए कि प्रभु प्राप्ति समीप आ रही है। प्राप्त होना तो उस प्रभु पर निर्भर करता है कि कितनी कृपा करता है और साधक भक्त किस प्रकार कितनी ग्रहण करता है, प्रभु तो अनन्त और असीम कृपा की सदैव वर्षा करते रहते हैं।

हर स्थिति में स्थिर बुद्धि को बनाए रखकर उसका सद्उपयोग करते जाना ही मनुष्य/साधक का धर्म है। जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं होती है उसे लाख उपाय करने पर भी उसे ज्ञान नहीं होता। जो ज्ञानी होता है वह अल्प प्रयास से सुख का अनुभव करता है। कर्म-शुभ करने से जीवन पथ बिना क्लेश के पार हो जाता है। कहां जाना है, क्यों जाना है, स्पश्ट हुए बिना जहां अल्प पथ थका देने वाला होता है, तो अनन्त पथ की बात ही क्या?

बुद्धिमान् पथिक रथ का सहारा लेना है, नाव का सहारा लेता है, यान का सहारा लेता है। ये सहारे महापुरुष, गुरु और अन्तर्भगवान् हैं। साधनों की ममता भी छोडऩा होती है। उसी समय वह दुर्घटना हुई। दुर्योधन कुण्ड समझकर गिर गया। द्रौपदी हंस दी तो दुर्योधन ने कहा-मैं इसका प्रतिकार करूंगा, इसका प्रतिषोध करूंगा। अब भगवान् इनको स्थापित करके पुन: द्वारिका लौट आए। चलिए हम भी द्वारिका चलते हैं। पाण्डवों को स्थापित कर दिया और हमें इस पूरी कथा से एक संकेत दिया।

वह सबसे बड़ा संकेत यह दिया है हमको कि मेरे भरोसे रहोगे तो कभी भी दुखी नहीं रहोगे, असफल नहीं रहोगे। पाण्डवों की सफलता की यात्रा आरम्भ हो रही है। आप कुछ गड़बड़ कर दो तो बात अलग है वरना भगवान तो आपको दुनिया का राजा और इन्द्रप्रस्थ का राजा बनाकर चले गए।

मंजिल को पाना है तो...
भगवान हर भक्त पर समान रूप से अपनी कृपा रखते हैं। परमात्मा के लिए उनका हर बच्चा समान है वे देते समय ये नहीं देखते कि लेने वाला चोर है या साहूकार है वे सिर्फ ये देखते हैं कि इसकी आस्था कितनी दृढ़ और सच्ची है। भागवत के इस प्रसंग के अनुसार शाल्व के मन में संकल्प चाहे जैसा भी था लेकिन उसके संकल्प के प्रति उसकी दृढ़ता व आस्था के कारण ही उस पर शिवजी प्रसन्न हुए।

अब भागवत में एक नया प्रसंग आता है।

शाल्व शिशुपाल का सखा था और रुक्मिणी के विवाह के अवसर पर बारात में शिशुपाल की ओर से आया हुआ था। उस समय यदुवंशियों ने युद्ध में जरासन्ध आदि के साथ-साथ शाल्व को भी जीत लिया था। उस दिन सब राजाओं के सामने शाल्व ने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं पृथ्वी से यदुवंशियों को मिटाकर छोड़ूंगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना। मूढ़ शाल्व ने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान् पशुपति की आराधना प्रारम्भ की। मन में संकल्प बुरा था लेकिन तपस्या कठोर थी और फिर तप भी किया भोलेभाले शिव के लिए। शिव तो बस शिव ठहरे। शाल्य का भयंकर संकल्प जानकर भी वे प्रसन्न हो गए।

भगवान् शंकर आशुतोष हैं, औढर दानी हैं, फिर भी वे शाल्व का घोर संकल्प जानकर एक वर्ष के बाद प्रसन्न हुए। शाल्व ने यह वर मांगा कि मुझे आप एक ऐसा विमान् दीजिए जो देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसों से तोड़ा न जा सके, जहां इच्छा हो, वहीं चला जाए और यदुवंशियों के लिए अत्यंत भयंकर हो। भगवान् शंकर ने कहा दिया तथास्तु। शाल्व ने वह विमान प्राप्त करके द्वारिका पर चढ़ाई कर दी। शाल्व के विमान ने द्वारिकापुरी को अत्यंत पीडि़त कर दिया।

किसी भी परिस्थिति में ना छोड़े इस रास्ते क्योंकि...
भगवान् के पुत्र प्रद्युम्न ने देखा हमारी प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथ पर सवार होकर सबको ढांढस बंधाया और कहा कि डरो मत। उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयों के साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। ये सब के सब महारथी थे। शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा।

शाल्व के मंत्री का नाम था द्युमान जिसे पहले प्रद्युम्नजी ने पच्चीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्न पर अपनी फौलादी गदा से बड़े जोर से प्रहार किया और मार लिया, मार लिया कहकर गरजने लगा। गदा की चोट से शत्रुदमन प्रद्युम्नजी का वक्षस्थल फट सा गया। दारुक का पुत्र उनका रथ हांक रहा था। वह सारथि धर्म के अनुसार उन्हें रणभूमि से हटा ले गया।

प्रद्युम्नजी की जब मूर्छा टूटी तब उन्होंने सारथी से कहा-तूने यह बहुत बुरा किया। अब मैं अपने ताऊ बलरामजी और पिता श्रीकृष्ण के सामने जाकर क्या कहूंगा? अब तो सब लोग यही कहेंगे न कि मैं युद्ध से भाग गया? मेरी भाभियां हंसती हुई मुझसे साफ-साफ पूछेंगी कि कहो, वीर! तुम नपुंसक कैसे हो गए? अवश्य ही तुमने मुझे रणभूमि से भगाकर अक्षम्य अपराध किया है।

यह प्रसंग हमें हमारा कर्तव्य बताता है। किस परिस्थिति में धर्म का पालन कैसे हो हमें यही विचार करना चाहिए। धर्म का पथ न छोड़ें। प्रद्युम्न के सारथी ने जो उत्तर दिया वह इसका ही उदाहरण है।सारथी ने कहा-मैंने जो भी किया है, सारथी का धर्म समझकर ही किया है। शत्रु ने आप पर गदा का प्रहार किया था, जिससे आप मूर्छित हो गए थे, बड़े संकट में थे इसी से मुझे ऐसा करना पड़ा।

बस यही हमारा सुख और दुख तय करता है....
यदुवंशियों तथा शाल्व की सेना के लोगों ने युद्धभूमि में प्रवेश करते ही भगवान् को पहचान लिया। घोर युद्ध हुआ।तब एक मनुष्य ने भगवान् के पास पहुंच कर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला-मुझे आपकी माता देवकीजी ने भेजा है।

उन्होंने कहा है कि अपने पिता के प्रति अत्यंत प्रेम रखने वाले महाबाहु श्रीकृष्ण! शाल्व तुम्हारे पिता को बांध कर ले गया है। यह समाचार सुनकर भगवान् कृष्ण मनुष्य से बन गए।

उनके मुंह पर कुछ उदासी छा गई। वे साधारण पुरुष के समान अत्यंत करुणा और स्नेह से कहने लगे-मेरे भाई बलरामजी को तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सका। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्व का बल-पौरुष तो अत्यंत अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजी को बांधकर ले गया? सचमुच प्रारब्ध बहुत बलवान है।

प्रारब्ध ही हमारे सुख-दुख तय करता है। भगवान ने भी माना और इस मान्यता को स्थापित भी किया। वे भले ही अवतार थे लेकिन मनुष्य का अवतार लिया था सो प्रारब्ध के साथ तो चलना ही था।प्रारब्ध पर भगवान का भी मत है। इसे तो भोग कर ही पूरा करना पड़ता है। प्रारब्ध को साधन के द्वारा भोगा जाना चाहिए।

सच क्या है ऐसे ही पता चलेगा?
दन्तवक्त्र के भाई का नाम था विदूरथ। वह अपने भाई की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो गया। तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से आया। भगवान् श्रीकृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिए अशक्य था, मारकर द्वारिकापुरी में प्रवेश किया।

एक बार बलरामजी ने सुना कि दुर्योधन आदि कौरव पाण्डवों के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसी का पक्ष लेकर लडऩा पसंद नहीं था। इसलिए वे तीर्थों में स्नान करने के बहाने द्वारिका से चले गए।

भगवान् इस पूरे युद्ध के सूत्रधार की तरह हैं, जबकि बलराम ने अहिंसा का पक्ष लिया और तीर्थ यात्रा पर निकल गए। कृष्ण का कहना था कि जब धर्म और अधर्म के बीच लड़ाई हो रही हो तो सबसे बड़ा तीर्थ रणभूमि ही हो सकती है। बलराम को दुर्योधन से भी स्नेह था, वह उनका शिष्य भी था और इधर पाण्डव उनकी बुआ के लड़के थे। इसलिए बलराम ने तीर्थ पर जाना ही ज्यादा ठीक समझा।

तीर्थयात्रा के कई उद्देश्य होते हैं। यह एक अभ्यास है जिससे वैराग्य वृत्ति जगाने में सहायता मिलती है। पापों का क्षरण भी तीर्थयात्रा से होता है। यहां यह तथ्य विचारणीय है पापात्मा अशांत रहता है, अशांत कैसे परमात्मा के निकट जाने की कल्पना भी कर सकता है। मन का शांत व अचंचल (स्थिर) होना आवश्यक है। तीनों गुणों के आवरण भी साथ-साथ हटाने का अभ्यास करना होगा। निष्काम कर्म, प्रतीक या निराकार उपासना, बहिरंग योग साधन या ध्यान योग अतरंग साधन जो की जावे फलस्वरूप पराभक्ति उदय होगी, यौगिक शब्दों में शक्ति जाग्रत होगी, सच का ज्ञान ऐसे ही होगा।

कुछ ऐसा था दुर्योधन व भीम का युद्ध?
भगवान् खुद भी शांति के ही पक्षधर हैं। कौरवों ने खासतौर पर दुर्योधन और कर्ण जैसे योद्धाओं ने युद्ध का अभ्यास भी शुरु कर दिया है।अभ्यास और वैराग्य क्रम में साधन का उच्च स्थान है। सतत् साधन करते मन निग्रह का अभ्यास होता है और वैराग्यीय वृत्ति बन जाती है।पवित्र नदी के पट पर ही माहिष्मतीपुरी है। बलरामजी वहां मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभास क्षेत्र में चले आए। वहीं उन्होंने ब्राह्मणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत सा भार उतर गया। जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकने के लिए कुरुक्षेत्र जा पहुंचे।

भयंकर युद्ध हो रहा था। लाखों की संख्या में लोग लड़े और मारे गए। धरती पर तीन ही तरह के इन्सान जीवित रह गए, बच्चे बूढ़े और विधवाएं। दोनों कुलों की दुर्दशा देखकर वे दुखी भी थे और धरती से पाप का भार कम होने से प्रसन्न भी।

महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलरामजी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन ही मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहने के लिए यहां पधारे हैं? उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक-दूसरे को जीतने के लिए क्रोध से भरकर भांति-भांति से पैंतरे बदल रहे थे।

कोई किसी से जीतता या हारता नजर नहीं आ रहा था। भारी युद्ध और गर्जना से माहौल भी रोमांचकारी हो गया था। बलरामजी से रहा नहीं गया और उन्होंने इस युद्ध को रोकने का प्रयास किया।बलरामजी ने कहा-राजा दुर्योधन और भीमसेन। तुम दोनों वीर हो। तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूं कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदायुद्ध में शिक्षा अधिक पाई है।

इसलिए तुम लोगों जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय होती नहीं दिखती। अत: तुम लोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो। बलरामजी की बात दोनों के लिए हितकर थी, परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजी की बात न मानी। वे एक दूसरे की कटुवाणी और दुव्र्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त से हो रहे थे।

भगवान् बलराम ने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है, इसलिए उसके संबंध में विशेष आग्रह न करके वे द्वारिका लौट गए। द्वारिका में उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियों ने बड़े प्रेम से आगे आकर उनका स्वागत किया। वहां से बलरामजी फिर नैमिशारण्य क्षेत्र में गए। वहां ऋषियों ने विरोधभाव से युद्धादि से निवृत्त बलरामजी के द्वारा बड़े प्रेम से सब प्रकार के यज्ञ कराए।

उन लोगों को बिना मांगे ही मिल जाता है सबकुछ जो...
यहां से सुदामा का प्रसंग शुरू होता है।एक दिन भगवान् को द्वारिका में एक सूचना दी गई कि द्वार पर फटेहाल ब्राह्मण आया है और आपसे मिलने का आग्रह कर रहा है और यह मिलने का समय नहीं है। भगवान् रानियों से सेवा करा रहे थे। कोई रानी पंखा कर रही है, कोई चरण स्पर्श कर रही हैं। आठों पटरानियां आसपास हैं। इस समय भगवान् किसी से नहीं मिलते। द्वारपाल आकर बोला- वह बड़ा हठीला है, रोने लगा और इतना दीन-हीन है कि जब वह कहने लगा कि मिला दो, मिला दो, तो हमें उस पर दया आ गई। आपसे मिलना चाहता है

भगवान् ने कहा-इस समय कौन है, क्या समस्या आ गई। द्वारपाल ने कहा- वह अपना नाम सुदामा बताता है। इतना सुनकर एकदम कूदे भगवान् पलंग से। रानियों को लगा, यह क्या हो गया। एकदम से कूदे, सुदामा मेरा बालसखा है यह कहकर एकदम दौड़े भगवान्। यह देख द्वारपाल घबरा गए कि क्या हुआ स्वास्थ ठीक नहीं है, रानियां भी चौंक गईं। तब तक तो द्वार पर पहुंच गए। सुदामा भगवान् का बालसखा था, सांदीपनि आश्रम में पढ़ता था। उसकी पत्नी का नाम सुशीला था। कुछ कमा-धमा नहीं पाया बहुत ही दीन-हीन था।

एक दिन तो खाने के लाले पड़ गए तो उसकी पत्नी ने कहा-तुम रोज घर में तो घटनाएं सुनाते हो हमको कि तुम कृष्ण के साथ पढ़े हो, द्वारिकाधीष के साथ पढ़े हो। घर में कई लोग यही किस्सा सुनाते हैं, किसी बड़े आदमी के साथ पढ़े हो तो जीवनभर याद करता है उसको। अपने बच्चों को सुनाता है कि वो हमारे साथ पढ़ते थे। हमारे साथ रहते थे, हमारे मोहल्ले में रहते थे। पुराने जो आगे बढ़ जाते हैं उनके किस्से तो चलते ही हैं। बच्चों को यही सिखाता, यही सुनाता है कि कृष्ण मेरे साथ पढ़े हैं। एक दिन उसकी पत्नी ने बोला-इतनी तारीफ करते हो कुछ मांग लो बच्चे भूखे मर रहे हैं। आटा घोलकर पिलाती हूं दूध की जगह, जाओ अपने मित्र के पास।

इस प्रकार सुदामाजी की पत्नी ने उनसे कई बार बड़ी नम्रता से प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि धन की तो कोई बात नहीं है, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन हो जाएगा, यह तो जीवन का बहुत बड़ा लाभ है। ज्ञानी पुरुषों की विशेषता ही यह होती है कि वे हर बात में अध्यात्म और भक्ति का समावेश कर लेते हैं। सुदामा की पत्नी बच्चों की चिंता में थी, गरीबी और भुखमरी से ग्रस्त थी लेकिन सुदामा इसमें भी श्रीकृष्ण के दर्शनों का लाभ देख रहे हैं। मन में जब ऐसी घटनाएं आ जाएं तो फिर परमात्मा से कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बिना मांगे ही भण्डार भर जाता है।

दोस्ती निभाएं तो कुछ इस तरह ...
जीवन में एक सिद्धांत बनाइए, हम जिनकी कृपा पाना चाहते हैं उसके पास कभी खाली हाथ न जाएं। श्रीकृष्ण को क्या कमी थी और सुदामा के थोड़े से चावलों से उन्हें मिलता भी क्या लेकिन यह मामला वस्तु के मूल्य या महत्व का नहीं, भाव का है। विद्वानों और संतों का ऐसा मानना है कि राजा, ब्राह्मण, गुरु और बालक के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। छोटा ही सही एक उपहार अवश्य ले जाएं, इससे वे प्रसन्न होते हैं।

आइये देखें सुदामा के दाम्पत्य का आधार भगवान् थे, रामायण के प्रसंग से समझें। मनुष्य साधक भौतिक, दैहिक व दैविक त्रि-तापों से नित्य प्रति तनु होता जाता है। सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण के बीच से गुजरना सहज गति है। कभी इसमें परस्पर मिश्रण हो जाता है, तदनुसार होते जाते हैं। त्रि-चक्रम में उलझा साधक जप, तप व योग बल से अनुसूया साध्वी का संग करने अर्थात् बुद्धि शुद्ध करके चले तो ब्रम्हा, विष्णु व शंकर को शिशुवत अपने आश्रम (मन मंदिर) में लीला कराके असीम दैवी आनंद प्राप्त कर सकता है।

इस दैवी दम्पत्ति त्यागमूर्ति के सम्पर्क में भरतजी के जाने के पश्चात राम आए। चित्रकूट का त्याग किया अर्थात् जगत-जन्य विकार (गन्दगी) त्याग दी तब कहीं त्यागमूर्ति युगल के सम्पर्क का लाभ मिल सका। तात्पर्य यह कि सतसंग के लिए अविकार अवस्था (तन-मन की) होना आवश्यक है। परिवार में प्रेम का प्रसंग देखें।

वाल्मिकी रामायण में वर्णन है कि भरत के साथ सैन्य, हाथी, नागरिक आदि आए थे-राम के चित्रकूट में रहने के कारण लोगों का आवागमन भी बढ़ गया था, ऋषि-मुनियों के जप-तप में विघ्न पड़ता था, वे चित्रकूट से दूर कहीं घने वन में चले गए थे और भरतजी के सैन्य से गंदगी फैल गई थी इसलिए श्रीराम ने चित्रकूट भी छोड़ दिया। अर्थ है चित्त में अपनों के प्रति जग राग हो तो विकार आता है - उस राग को भी चित्त से हटाना है क्योंकि जहां राग होगा वहां द्वेश भी होगा।

इन राग द्वेश के रहते न तो जप हो पाता है और न ही तप और न ही योग इनसे परे ही साधक साधन कर सकता है।सुदामा का श्रीकृष्ण के चरणों में राग है, वे उसे धन-सम्पदा से नहीं जोड़ते, कृष्ण राजा हैं और सुदामा एक ब्राम्हण भिक्षु की तरह लेकिन फिर भी रिश्ता एकदम आत्मीय है। सुदामा ने कभी कृष्ण से कोई अपेक्षा नहीं रखी और श्रीकृष्ण ने भी ऐसा नहीं दर्शाया कि वे अपने मित्र की दरिद्रता को दूर करना चाहते हैं, कृपा कर रहे हैं। उन्होंने कुछ दिया ही नहीं प्रत्यक्ष रूप से।

पत्नी कैसी होनी चाहिए?
सुदामा के दाम्पत्य का आधार भगवान् थे, रामायण के प्रसंग से समझें। वाल्मिकी रामायण में वर्णन है कि भरत के साथ सैन्य, हाथी, नागरिक आदि आए थे-राम के चित्रकूट में रहने के कारण लोगों का आवागमन भी बढ़ गया था, ऋषि-मुनियों के जप-तप में विघ्न पड़ता था, वे चित्रकूट से दूर कहीं घने वन में चले गए थे और भरतजी के सैन्य से गंदगी फैल गई थी इसलिए श्रीराम ने चित्रकूट भी छोड़ दिया। अर्थ है चित्त में अपनों के प्रति जग राग हो तो विकार आता है - उस राग को भी चित्त से हटाना है क्योंकि जहां राग होगा वहां द्वेष भी होगा। इन राग द्वेष के रहते न तो जप हो पाता है और न ही तप और न ही योग इनसे परे ही साधक साधन कर सकता है। सीताजी को सती अनुसूयाजी अनेक दिव्य वस्त्र एवं अलंकार प्रदान कर महत्वपूर्ण उपदेश देती हैं। नारी के धर्म (कर्म) की प्रस्तुति अनुसूयाजी से अधिक तत्कालीन कोई अन्य नारी नहीं कर सकती थीं।

''मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुन राजकुमारी।
अमित दानि भर्ता बय देही। अधम सो नारि जो सेव न ते ही।।
धीरज धर्म मित्र अरू नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।
बुद्ध रोग बस जड़ धन हीना। अंध बघिर क्रोधी अति दीना।।
ऐस हु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।
एकइ धर्म एक व्रत नेमा। कायं वचन मन पति पद प्रेमा।। -( रामायण अरण्य काण्ड दोहा 4 से)

और भी पतिव्रता के चार प्रकार बताते हुए उत्तम सपने में भी पर पुरुष का न दर्शन करने वाली मध्यम पुरुष को पिता, भाई, पुत्र सम देखने वाली - धर्म के अनुसार भय में रहने वाली तीसरे प्रकार की पतिव्रता और अवसर अनुसार व्यवहार करने वाली, मौका मिलने पर कदाचरण करने वाली अधम नारी नरक में वास करती है और भावी जन्म में विधवा होती है। पति की सेवा से जन्म से अपावन नारी शुभ गति प्राप्त कर लेती है। पतिव्रता नारियां संसार का हित करती हैं अर्थात संभ्रान्त, कुलीन सम्य चरित्रवान नागरिकों को जन्म देने से बढ़कर अन्य कोई सांसारिक और सामाजिक हित नहीं हो सकता।

ऐसी थी कृष्ण सुदामा की दोस्ती
उसने कहा खाली हाथ नहीं जाएंगे तो चिवड़ा रख लिया और आ गए। अब उसने पहली बार देखे राजमहल और द्वारपाल तो उसने सोचा कि राजा है तो पता नहीं अंदर बुलाए या नहीं बुलाए, प्रतीक्षा करनी पड़े लेकिन कृष्ण को दौड़ता हुआ आता देखकर सुदामा को कुछ समझ में नहीं आया और जब तक कि सुदामा की आंख खुलती तब तक भगवान् ने सुदामा को बाहों में भर लिया। सुदामा मूच्र्छि्रत हो गए। जो भगवान् की बाहों में जाता है फिर उसको होश नहीं रहता है। भगवान् ने सुदामा से कहा-अरे मित्र अचानक, कोई खबर नहीं चलिए अन्दर आइए। अन्दर लाए, सुदामा डरते-डरते वैभव देखते आ रहे हैं। राजसभा में ले गए। तब तक तो लोग इकट्ठे हो गए। रानियां आ गईं। सबने सोचा चलो कोई अतिथि आया है और सुदामा से बोलते हैं यहां बैठ जाओ। सुदामा बेचारा क्या जाने क्या है यह बैठ गया, राजगादी थी वह। जिस राजगादी पर कृष्ण बैठते थे उस राजगादी पर सुदामा बैठ गए। रानियों को आश्चर्य हुआ जिस राजगादी के आसपास से हवा को भी निकलने के लिए कृष्ण से इजाजत लेनी पड़ती हो उस पर सुदामा को बैठा दिया भगवान ने। बैठ गया दोस्त। तत्काल रूक्मिणीजी ने सेवादारों को बोला, इस पर यह बैठ गए हैं तो भगवान् कहां बैठेंगे, एक और राजगादी लाओ।

पहरेदार लाए इससे पहले तो भगवान् सुदामा के पैरों में बैठ गए। उसकी जंघाओं पर हाथ रखा। इतने दिन बाद आए हो मित्र। सुदामा कहने लगे नीचे मत बैठो, मैं भी नीचे बैठ जाता हूं। कृष्ण ने कहा-आज तुझे वहीं बैठना है। अब तक तो लोगों को समझ में आ गया। रानियों को लगा कि बालसखा आया है। रानियों से कहा इसके स्वागत की तैयारी करो। मेरा मित्र आया है भोजन के थाल लाओ। उन्होंने कहा-बहुत दूर से चलकर आया है इसके पैर में कांटे लगे हैं, रक्त है।

पहले पाद प्रक्षालन किया जाएगा। भगवान् ने अपने दोस्त के पैर धोए। भगवान् क्यों पैर धो रहे हैं, क्योंकि सुदामा सच्चा ब्राह्मण और बड़ा भक्त था। भगवान् भक्त के चरण प्रक्षालन में कोई भी देर नहीं करते। सुदामा की आंख से आंसू निकल रहे हैं। भगवान् भी रो रहे हैं अब तो पता ही नहीं लग रहा है कौन जल है और कौन आंसू। भगवान् ने अपने मित्र को बड़ा सम्मान दिया। उसके बाद थोड़ा समय बीता तो भगवान् ने कहा नए वस्त्र लेकर आओ हमारे मित्र को पहनाओ, तैयार करो। सुदामाजी को तैयार किया गया।

यही उस तक पहुंचने का सबसे सरल रास्ता है....
भगवान् कहते हैं सुदामा गुरु दक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आए, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं? मैं जानता हूं कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्राय: विषय भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वन्यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है। जगत् में बिरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान् की माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिए कर्म करते रहते हैं।

भगवान् को सुदामा के पूरे जीवन के बारे में जानकारी थी, लेकिन वे उसके गुणों का बखान खुद अपने मुख से कर रहे थे। भक्ति जब अपने चरम पर आ जाए तो भगवान् से ऊपर उठ जाती है और भगवान् अपने भक्त के पैरों में आ जाते हैं। उसके सारे कष्ट अपने हाथों से चुन-चुनकर अलग कर देते हैं। भक्ति के मार्ग में आए अपार कष्ट दो क्षण में ही अपने स्पर्श से दूर कर देते हैं।

हमको भक्ति में कुछ नहीं करना है, न कठोर तप, न कोई बड़ा यज्ञ, न पूजन विधान। ये मार्ग तो दैहिक है, भौतिक है। परमात्मा को पाना है तो पहले खुद के भीतर उतरें। अपना मन सुधारें, साधें और उसमें परमात्मा को स्थापित करें। मन निर्मल हो जाए, अहंकार का विसर्जन हो जाए, बुद्धि को परमात्मा के चरणों से बांध दें फिर परमात्मा मिलने में देरी नहीं होगी। कबीरदास ने बहुत खूब लिखा है-''कबीरा मन निर्मल भय, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिर, कहत कबीर-कबीर। निष्काम पुरुषों को परमधाम देने वाले पदों का भजन करते हैं। निष्काम कर्म करने वाले परमधाम पाते हैं, यह स्पष्ट होता है।

कबीर ने भक्ति का परमात्मा को पाने का सबसे सरल मार्ग बताया है, आप अपना मन साफ कर लो। अहंकार, व्यसन, सारे दुर्गुणों का विसर्जन कर दो फिर आपको भगवान् के पीछे भागना नहीं पड़ेगा। भगवान् खुद आपके पीछे दौड़ा आएगा आपका नाम पुकारते हुए। सुदामा के साथ भी ऐसा ही हुआ। अब भगवान् उसके पैरों में बैठे उससे कह रहे हैं....क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे।

समय की कीमत समझिए
भगवान् ने सुदामा को जीवन का उपदेश दिया है। हम मित्रों से जब भी मिलें तो परिवार, समाज, देश और धर्म पर सार्थक चर्चाएं होनी चाहिए। निरर्थक बातों से समय की बर्बादी होती है। किसी भी विषय को गंभीरता से नहीं लिया जाए तो बाद में परिणाम गंभीर हो जाते हैं। सुदामा ज्ञानी थे लेकिन श्रीकृष्ण परम ज्ञानी थे।

उन्होंने सुदामा को जीवन की चारों दशाओं के बारे में सम्यक ज्ञान दिया। वे जीवन के व्यापक दृष्टिकोण पर बात कर रहे हैं। हम अपने जीवन में उतरें। सोचिए, क्या जब कभी आप अपने पुराने मित्रों से मिलते हैं तो ऐसी कोई चर्चा होती है। क्या आप अपने भीतर, अपने मित्रों के भीतर अध्यात्म की ऐसी चेतना का प्रवाह कर पाते हैं, अगर नहीं तो फिर आप खुद और अपने मित्र दोनों का समय बर्बाद कर रहे हैं। समय की कीमत को समझिए। इस ज्ञान की धारा में अवरुद्ध न करें।

आपके बीच जब भी कोई चर्चा हो तो उसका कोई सार हो। वो फिजुल न हो। हम कई बार मित्रों के साथ केवल गप्पे लड़ाया करते हैं, बेमतलब की बातों पर घंटों बहस किया करते हैं। उसे रोकिए। समय, ज्ञान और परमात्मा बार-बार नहीं मिलता। इसके लिए तप किया जाता है। समय परमात्मा का सबसे बड़ा उपहार है, फिर ज्ञान और फिर स्वयं भगवान समय के लिए हमें सबसे ज्यादा तप करना चाहिए।

उसे बरबाद न करें। कृश्ण कहते हैं जीवन का हर क्षण जो हम बिता रहे हैं वह साद्देष्य होना चाहिए। निरुद्देश्य समय की बरबादी बेकार है। समय को साधिए। समय जिसने साध लिया परमात्मा उसके लिए आसान हो जाएगा। इस समय को ज्ञान की प्राप्ति में खर्च करें। जब मित्रों से मिलें कुछ ज्ञान की बातें भी हों। कृ ष्ण ने सुदामा से पहले हालचाल पूछा फिर ज्ञान की बात की और अब वे बचपन को याद कर रहे हैं लेकिन वह भी साद्देश्य ही है।

शांति तभी मिलती है जब....
सुदामा जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे उस समय की वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनों को एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने ईंधन लाने के लिए जंगल में भेजा था। उस समय हम लोग एक घोर जंगल में गए हुए थे और बिना ऋतु के ही बड़ा भयंकर आंधी-पानी आ गया। आकाश में बिजली कड़कने लगी थी। अब सूर्यास्त हो गया, चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा फैल गया।

धरती पर इस प्रकार पानी ही पानी हो गया कि कहां गड्ढा है, कहां किनारा, इसका पता ही न चलता था। वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आंधी के झटकों और वर्षा की बोछारों से हम लोगों को बड़ी पीड़ा हुई, दिशा का ज्ञान न रहा। हम लोग अत्यंत आतुर हो गए और एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जंगल में इधर-उधर भटकते रहे। जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनि को इस बात का पता चला, तब वे सूर्योदय होने पर हम लोगों को ढूंढते हुए जंगल में पहुंचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यंत आतुर हो रहे हैं।

वे कहने लगे आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रों! तुम लोगों ने हमारे लिए अत्यंत कष्ट उठाया। सभी प्राणियों को अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है, परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवाह न करके हमारी सेवा में ही संलग्न रहे। गुरु के ऋण से मुक्त होने के लिए सत् शिष्यों का इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भाव से अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेव की सेवा में समर्पित कर दें। द्विज-शिरोमणियों! मैं तुम लोगों से अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएं पूर्ण हों और तुम लोगों ने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोक में कहीं भी निष्फल न हो।

प्रिय मित्र! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे, हमारे जीवन में ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएं घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेव की कृपा से ही मनुष्य शान्ति का अधिकारी होता और पूर्णता को प्राप्त करता है।

श्रीकृष्ण स्वयं जगद्गुरु थे लेकिन उन्होंने जीवन में गुरु के महत्व को सर्वोच्च माना। अगर हमारे पास एक अच्छा गुरु हो तो फिर हमें खुद को उसी में समर्पित कर देना चाहिए। कृष्ण ने गुरु का स्मरण किया है, वे गुरु सान्दीपनि के प्रति समर्पित रहे हैं, महर्षि सान्दीपनि स्वयं भी जानते थे कि उनके आश्रम में पढऩे स्वयं जगत्पिता परमेश्वर आए हैं, जो सारे ज्ञान का केन्द्र बिन्दू हैं।

सारी विद्या, सारे वेद-शास्त्र जिनसे उत्पन्न हुए हैं वे श्रीकृष्ण ही हैं, फिर भी गुरु-शिष्य की मर्यादा कभी भंग नहीं हुई। श्रीकृष्ण ने कभी सांदीपनि ऋषि को गुरु-पिता तुल्य से कम नहीं माना और सारी उम्र वे गुरु के प्रेम से परिपूर्ण रहे। सुदामा बोले! देवताओं के आराध्य श्रीकृष्ण! भला अब हमें क्या करना बाकी है? क्योंकि आपके साथ जो सत्यसंकल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुल में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

तब बोले बगैर भी वो सारी बातें समझ जाएगा
इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नी को प्रसन्न करने के लिए उसी के आग्रह से यहां आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूंगा जो देवताओं के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है।भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा विचार करके उनके वस्त्र में से एक पोटली में बंधा हुआ चिउड़ा ''यह क्या है'' ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया और बड़े आदर से कहने लगे-मित्र! यह तो तुम मेरे लिए अत्यंत प्रिय भेंट ले आए हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसार को तृप्त करने के लिए पर्याप्त हैं ऐसा कहकर वे उसमें से एक मुट्ठी चिउड़ा खा गए और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणी के रूप में स्वयं भगवती लक्ष्मीजी ने भगवान् श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया, क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान् के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं।

रुक्मिणीजी ने कहा-विश्वात्मन बस, बस! मनुष्य को इस लोक में तथा मरने के बाद परलोक में भी समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि प्राप्त करने के लिए यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है, क्योंकि आपके लिए इतना ही प्रसन्नता का हेतु बन जाता है।

भगवान् ने अपने हाथों से चिवड़ा खाया, उधर सुदामा का घर महल हो गया। भगवान् ने उसे सारा राजपाठ दे दिया। एक तरह से त्रिलोक का स्वामी घोषित कर दिया। ब्राम्हण को राजा बना दिया, लेकिन सुदामा को तनिक भी पता नहीं लगने दिया। पूरी सेवा की, तरह-तरह के भोग खिलाए। आराम दिया। सुदामा मन ही मन सोच रहे थे कि कृष्ण से अपने बच्चों और परिवार के लिए थोड़ा सा धन कैसे मांगू। लज्जा आ रही है। संकोच हो रहा है लेकिन भक्ति में यह सबसे बड़ा फायदा है कि आपको भगवान् से कुछ मांगना नहीं पड़ता, वो तो बिना मांगे ही सबकुछ दे देता है।

आप अपना मन उसके चरणों से बांध दो, बस फिर आपके बोले बगैर भी वो सारी बातें समझ जाएगा। आपकी सारी इच्छा पूरी कर देगा। भगवान ने सुदामा की पोटली में रखा चिवड़ा खा लिया। धन्य हो गया ब्रह्मांड उस दिन। एक फांक लगाई ब्रह्मांड ने कहा यह भगवान् हैं, सुदामा का चिवड़ा खाया। रानियां कहने लगीं हम एक से एक भोग बनाते हैं कृृष्ण स्पर्श करके चले जाते हैं। आज तो मुट्ठी भर चिवड़ा खा गए।

श्रीकृष्ण ने सुदामा को विदा कर दिया। सुदामा सोच रहे हैं उन्होंने उस पलंग पर सुलाया जिस पर उनकी प्राणप्रिय रुक्मिणीजी शयन करती थीं। मानों मैं उनका सगा भाई हूं! कहां तक कहूं? मैं थका हुआ था, इस लिए स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजी ने अपने हाथों चंवर डुलाकर मेरी सेवा की।

ओह, देवताओं के आराध्यदेव होकर भी ब्राम्हणों को अपना इष्टदेव मानने वाले प्रभु ने पांव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिला कर सुदामाजी की अत्यंत सेवा-शुरूषा की और देवता के समान पूजा की। स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातल की सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियों की प्राप्ति का मूल उनके चरणों की पूजा ही है। सुदामाजी वापस घर लौटते समय सोचते हैं परमदयालु श्रीकृष्ण ने मुझे थोड़ा सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिल्कुल मतवाला न हो जाए और मुझे न भूल बैठे।

मामला सिर्फ भरोसे का है इसलिए...
इस प्रकार मन ही मन विचार करते-करते वे अपने घर के पास पहुंचे। वहां क्या देखते हैं कि सब का सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा के समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलों से घिरा हुआ है। ठौर-ठौर, चित्र-विचित्र, उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड के झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं।

सरोवरों में कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक भांति-भांति के कमल खिले हुए हैं, स्त्री-पुरुषा बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थान को देखकर वे सोचने लगे-मैं यह क्या देख रहा हूं? यह किसका स्थान है? यदि यह वही स्थान है, जहां मैं रहता था, तो यह ऐसा कैसे हो गया।

सुदामा ने अपनी पत्नी के साथ बड़े प्रेम से अपने महल में प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्र का निवासस्थान।इस प्रकार समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गंभीरता से सुदामा विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहां से आ गई। वे मन ही मन कहने लगे मैं जन्म से ही भाग्यहीन और दरिद्र था। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धि का कारण क्या है? अवश्य ही परमऐश्वर्यशाली यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के कृपाकटाक्ष के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता। यह सब कुछ उनकी करुणा की ही देन है।

श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदि के दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियों का धन और ऐश्वर्य के मद से पतन हो जाता है। इसलिए वे अपने अदूरदर्शी भक्त को उसके मांगते रहने पर भी तरह-तरह की सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते यह उनकी बड़ी कृपा है। अपनी बुद्धि से इस प्रकार निष्चय करके वे ब्राम्हण देवता त्याग पूर्वक अनासक्त भाव से अपनी पत्नी के साथ भगवतप्रसाद स्वरूप विषयों को ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेमभक्ति बढऩे लगी।

भगवान् ऐसी लीला करता है। वह किसी को देता है तो उसके देने का तरीका भी बड़ा मौलिक है और किसी से लेता है तो लेने का तरीका भी बड़ा मौलिक है। मामला सिर्फ भरोसे का है, भरोसा रखिएगा। सुदामा को देखकर भगवान् ने कहा संपत्ति तो मैं यहां भी दे सकता था पर प्रतीक्षा कर। कभी कभी सुदामा भाव अपने भीतर भी जाग्रत करिए परमात्मा के लिए और यह मानकर चलिए परमात्मा आपके पैर धोएगा।

यही उस तक पहुंचने का सबसे सरल रास्ता है...
भगवान् कहते हैं सुदामा गुरु दक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आए, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं? मैं जानता हूं कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्राय: विषय भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वन्यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है। जगत् में बिरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान् की माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिए कर्म करते रहते हैं।

भगवान् को सुदामा के पूरे जीवन के बारे में जानकारी थी, लेकिन वे उसके गुणों का बखान खुद अपने मुख से कर रहे थे। भक्ति जब अपने चरम पर आ जाए तो भगवान् से ऊपर उठ जाती है और भगवान् अपने भक्त के पैरों में आ जाते हैं। उसके सारे कष्ट अपने हाथों से चुन-चुनकर अलग कर देते हैं। भक्ति के मार्ग में आए अपार कष्ट दो क्षण में ही अपने स्पर्श से दूर कर देते हैं।

हमको भक्ति में कुछ नहीं करना है, न कठोर तप, न कोई बड़ा यज्ञ, न पूजन विधान। ये मार्ग तो दैहिक है, भौतिक है। परमात्मा को पाना है तो पहले खुद के भीतर उतरें। अपना मन सुधारें, साधें और उसमें परमात्मा को स्थापित करें। मन निर्मल हो जाए, अहंकार का विसर्जन हो जाए, बुद्धि को परमात्मा के चरणों से बांध दें फिर परमात्मा मिलने में देरी नहीं होगी। कबीरदास ने बहुत खूब लिखा है-''कबीरा मन निर्मल भय, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिर, कहत कबीर-कबीर।।

कबीर ने भक्ति का परमात्मा को पाने का सबसे सरल मार्ग बताया है, आप अपना मन साफ कर लो। अहंकार, व्यसन, सारे दुर्गुणों का विसर्जन कर दो फिर आपको भगवान् के पीछे भागना नहीं पड़ेगा। भगवान् खुद आपके पीछे दौड़ा आएगा आपका नाम पुकारते हुए। सुदामा के साथ भी ऐसा ही हुआ। अब भगवान् उसके पैरों में बैठे उससे कह रहे हैं....क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे।

कृष्ण भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए क्योंकि....
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारिका में निवास कर रहे थे। मनुष्यों को ज्योतिषियों के द्वारा उस ग्रहण का पता पहले से ही चल गया था, इसलिए सब लोग अपने-अपने कल्याण के उद्देश्य से पुण्य आदि उपार्जन करने के लिए समन्तपंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में आए। समन्तपंचक क्षेत्र वह है, जहां शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुरामजी ने सारी पृथ्वी को क्षत्रियहीन करके राजाओं की रुधिरधारा से पांच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिए थे।

इस महान् तीर्थयात्रा के अवसर पर भारत वर्ष के सभी प्रान्तों की जनता कुरुक्षेत्र आई थी। यदुवंशियों ने कुरुक्षेत्र में पहुंचकर एकाग्रचित्त से संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहण के उपलक्ष्य में निश्चित काल तक उपवास किया। अनेक देशों के, अपने पक्ष के तथा शत्रुपक्ष के सैकड़ों नरपति आए हुए थे। इनके अतिरिक्त यदुवंशियों के परम हितैशी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान् के दर्शन के लिए चिरकाल से उत्कण्ठित गोपियां भी वहां आई हुई थीं। यादवों ने इन सबको देखा। एक-दूसरे के दर्शन, मिलन और वार्तालाप से सभी को बड़ा आनन्द हुआ।

बरसों बाद भक्त और भगवान का मिलन हुआ। गोप-गोपियां श्रीकृष्ण को देखकर भाव-विभोर हो गए। भक्त फिर भगवान में खो गए। कुन्ती और वसुदेव जो रिश्ते से भाई-बहन थे, मिले और कुन्ती अभी तक के दुखों को याद करके रो पड़ीं। वसुदेव से शिकायत करने लगी। दोनों भाई-बहनों का प्यार देखकर यदुवंशियों की आंखें भी भर आई। दोनों को एक-दूसरे के दुखों की खबर थी लेकिन नारी हृदय कुन्ती शिकायतें कर बैठीं।

कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दु:ख भूल गईं। कुन्ती ने वसुदेवजी से कहा-भैया! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूं। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्ति के समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढ़कर दुख की बात क्या होगी? भैया! विधाता जिसके बांए हो जाता है, उसे स्वजन-सम्बंधी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं।

वसुदेवजी ने कहा-बहिन! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैव के खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वर के वश में रहकर कर्म करता है और उसका फल भोगता है। बहिन, कंस से सताए जाकर हम लोग इधर-उधर अनेक दिशाओं में भागे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए ईश्वर कृपा से हम सब पुन: स्थान प्राप्त कर सके हैं।इधर सभी यदुवंशियों के कुरूक्षेत्र में जमा होने की सूचना वृंदावन में नन्दबाबा को लगी।

वे अपने बाकी संगी-साथियों को लेकर कुरूक्षेत्र आ पहुंचे। फिर तो भावनाओं का ऐसा सागर उमड़ा कि सब उसमें ही डूब गए। बलराम और श्रीकृष्ण को देखने के लिए बरसों से तरस रहे माता-पिता व्याकुल हो गए। माता यषोदा तो अधीर ही हो उठीं। बरसों बाद माता का स्पर्श पाकर खुद श्रीकृष्ण भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए, गला रूंध गया। कुछ शब्द भी न निकलने थे बस माता कृष्ण को और कृष्ण माता को निहार रहे थे।

जीवन का असली रहस्य यही है...
महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबा ने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में बैठा लिया और भुजाओं से उनका गाढ़ आलिंगन किया। उनके हृदय में चिरकाल तक न मिलने का जो दुख था, वह सब मिट गया। रोहिणी और देवकीजी ने व्रजेष्वरी यशोदा को अपनी अंकवार में भर लिया। यशोदाजी ने उन लोगों के साथ मित्रता का जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनों का गला भर आया। वे यशोदाजी से कहने लगीं-यशोदारानी! आपने और व्रजेश्वर नन्दजी ने हम लोगों के साथ जो मित्रता का व्यवहार किया है, वह कभी मिटने वाला नहीं है,

उसका बदला इन्द्र का ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानीजी! भला ऐसा कौन कृतघ्न है, जो आपके उस उपकार को भूल सके? जिस समय बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता को देखा तक न था और इनके पिता ने धरोहर के रूप में इन्हें आप दोनों के पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनों की इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियों की रक्षा करती हैं तथा आप लोगों ने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया, इनके मंगल के लिए अनेकों प्रकार के उत्सव मनाए।

सच पूछिए तो इनके मां-बाप आप ही लोग हैं। आप लोगों की देख-रेख में इन्हें किसी प्रकार की आंच तक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आप लोगों के अनुरूप ही था, क्योंकि सत्पुरुषों की दृष्टि में अपने-पराये का भेदभाव नहीं रहता। नन्दरानीजी! सचमुच आप लोग परम संत हैं।वृंदावन के ग्वालों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। कृष्ण की सखियां, गोपियां अपने आराध्य को निहार रही थीं। प्रेमभाव से परिपूर्ण गोपियां कृष्ण की भक्ति में आकंठ डूबी नजर आ रही थीं। कृश्ण ने उन्हें उस दिव्य ज्ञान से परिचित कराया जिसके लिए बड़े-बड़े संत महात्मा भी तरसते हैं। कृष्ण ने जैसे उन्हें अपने भीतर ही उतार लिया।

भगवान् श्रीकृष्ण ने यहां गोपियों को अध्यात्मज्ञान की शिक्षा से शिक्षित किया। उसी उपदेश के बार-बार स्मरण से गोपियों का जीवकोश शरीर नष्ट हो गया और वे भगवान् से एक हो गईं।यह दृश्य अध्यात्म ज्ञान प्राप्त होने की घटना है। संतों ने कहा है-जब ज्ञान होगा तब तुझे भी दिखेगा कि सारा विश्व तेरे में हैं, मैं भी तेरे में हूं और सारा विश्व मेरे में है। यह भी समझा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य में भगवान् हैं और भगवान् में सारा विश्व, इस प्रकार का ज्ञान अनुभवगम्य है।

कैसे किया था कृष्ण ने अपनी पत्नियों से विवाह?
जिस समय दूसरे लोग इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुल की स्त्रियां एकत्र होकर आपस में भगवान् की त्रिभुवन विख्यात लीलाओं का वर्णन कर रही थीं।कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों के साथ द्रौपदी बात कर रही थीं। कृष्ण की प्रिय सखी सबसे कृष्ण से विवाह संबंधी सवाल कर रही थीं।

द्रौपदी ने पूछा- हे श्रीकृष्णपत्नियों! तुम लोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी माया से लोगों का अनुकरण करते हुए तुम लोगों का किस प्रकार पाणिग्रहण किया?

रुक्मिणीजी ने कहा-द्रौपदीजी! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपाल के साथ हो, इसके लिए सभी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध के लिए तैयार थे। परन्तु भगवान् मुझे वैसे ही हर लाए, जैसे सिंह बकरी और भेड़ों के झुंड में से अपना भाग छीन ले जाए। क्यों न हो जगत् में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटों पर इन्हीं की चरणधूली शोभायमान होती है। द्रौपदीजी! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान् के समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यों के आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करने के लिए प्राप्त होते रहें, मैं उन्हीं की सेवा में लगी रहूं।

सत्यभामा ने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेन की मृत्यु से बहुत दुखी हो रहे थे, अत: उन्होंने उनके वध का कलंक भगवान् पर ही लगाया। उस कलंक को दूर करने के लिए भगवान् ने ऋक्षराज जाम्बवान् पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिता को दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलंक लगाने के कारण डर गए। अत: यद्यपि वे दूसरे को मेरा

वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तक मणि के साथ भगवान् के चरणों में ही समर्पित कर दिया।जाम्बवती ने कहा-द्रौपतीजी! मेरे पिता ऋक्षराज जाम्बवान् को इस बात का पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान् सीतापति हैं। इसलिए वे इनसे सत्ताईस दिन तक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान् राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकड़कर स्यमन्तक मणि के साथ उपहार के रूप में मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूं कि जन्म-जन्म इन्हीं की दासी बनी रहूं।

कालिन्दी ने कहा-द्रौपतीजी! जब भगवान् को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणों का स्पर्श करने की आशा-अभिलाषा से तपस्या कर रही हूं, तब वे अपने सखा अर्जुन के साथ यमुना तट पर आए और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारने वाली उनकी दासी हूं।इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं।

कृष्ण सभी को कैसे खुश रखते थे?
इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं। इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं। भगवान् अपने प्रत्येक विवाह से गृहस्थी में आध्यात्मिक जीवनशैली का संदेश दे रहे हैं। निवृत्ति मार्ग और प्रवृत्ति मार्ग में प्रथम को त्याग के माध्यम से प्राप्त किया जाता है और दूसरा संस्कारों से युक्त बलात मनुष्य या साधक द्वारा अपना लिया जाता है, यह उसे कालान्तर में सहज लगने लगता है। प्रवृत्ति मार्ग की दिशा बदलने का प्रयत्न योग शक्ति में निहित है।

यह योग ज्ञानयोग हो, कर्मयोग हो या भक्तियोग, कोई अन्तर नहीं पडऩा चाहिए श्रद्धा विश्वास और निष्ठा में। ज्ञान और कर्म अर्थात् निष्काम कर्म दोनों श्रेष्ठ हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-''सन्यास: कर्म योगश्च नि: श्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्म सन्यासात्कर्मयोगो विषिश्यते।। 2।। 5।। गीताकर्मों का त्याग और योग दोनों मोक्ष देने वाले हैं। उनमें भी कर्म-संन्यास से कर्मयोग श्रेयस्कर है। यहां स्पष्ट होना आवश्यक है कि वस्त्र त्याग या चोला बदलना यानी भगवा, पीले या सफेद वस्त्र धारण करने को संन्यास नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: जो मनुष्य द्वेष और इच्छा से मुक्त है उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिए।

इस पर गांधीजी की टिप्पणी विचारणीय है-''संन्यास का खास लक्षण कर्म का त्याग नहीं है, वरन् द्वन्दातीत होना ही है। एक मनुष्य कर्म करते हुए भी संन्यासी हो सकता है। ब्रम्हलीन स्वामी श्री विष्णुतीर्थजी महाराज ने गीतातत्वामृत में इसकी व्याख्या करके विषय को अधिक सरल और स्पष्ट कर दिया है। उनकी व्याख्या इस प्रकार है।......जिसकी पूर्व आश्रमों में श्रेय के मार्ग पर योगारूढ़ होने की तैयारी नहीं हुई है वह संन्यासी होकर भी नाम-मात्र का संन्यासी है और जिसकी कर्मकाण्ड में रहकर तैयारी हो गई है, वह संन्यास न लेने पर भी संन्यासी तुल्य ही है।

जो गृहस्थ भी कर्मों का फल न चाहकर और अन्त:करण शुद्धि को साधन समझकर नियतकर्म करता है वह आरुरुक्ष (संकल्पों विकल्पों का त्यागी, स्थिरचित्त, मनो निग्रही) की श्रेणी में आ जाता है। जब तक अन्त:करण की शुद्धि नहीं होती, मनुष्य जितेन्द्रिय नहीं होता, मन पर उसका वश नहीं होता, उसे ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती।

कैसे भगवान भक्तों को अपना बना लेते हैं?
द्रौपदी उनकी बातें सुनकर थकती न थीं। वह कृष्ण की लीलाओं का रस ले रही थीं। कैसे भगवान अपने भक्तों को अपना बना लेते हैं, उन पर किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आने देते। मित्रविन्दा ने कहा-द्रौपदीजी! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहां आकर भगवान् ने सब राजाओं को जीत लिया और जैसे सिंह झुंड के झुंड कुत्तों में से अपना भाग ले जाए, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारिकापुरी में ले आए।

मेरे भाइयों ने भी मुझे भगवान् से छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूं कि मुझे जन्म-जन्म उनके पांव पखारने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे।सत्या ने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिताजी ने मेरे स्वयंवर में आए हुए राजाओं के बल-पौरुष की परीक्षा के लिए बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलों ने बड़े-बड़े वीरों का घमंड चूर-चूर कर दिया था।
उन्हें भगवान् ने खेल-खेल में ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बांध दिया, ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरी के बच्चों को पकड़ लेते हैं। इस प्रकार भगवान् बल-पौरुष के द्वारा मुझे प्राप्त कर चतुरंगिणी सेना और दासियों के साथ द्वारिका ले आए। मार्ग में जिन क्षत्रियों ने विघ्न डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवा का अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे।

भद्रा ने कहा-द्रौपदीजी! भगवान् मेरे मामा के पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हीं के चरणों में अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजी को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान् को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत सी दासियों के साथ इन्हीं के चरणों में समर्पित कर दिया। मैं अपना परम कल्याण इसी में समझती हूं कि कर्म के अनुसार मुझे जहां-जहां जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हीं के चरणकमलों का संस्पर्श प्राप्त होता रहे।

देवकी की आंखों से यह दृश्य देखकर आंसु बहने लगे....
उस समय वहां सर्व देवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहले से ही यह सुनकर अत्यंत विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अपने मरे हुए गुरुपुत्र को यमलोक से वापस ला दिया। अब उन्हें अपने उन पुत्रों की याद आ गई जिन्हें कंस ने मार डाला था। उनके स्मरण से देवकीजी का हृदय आतुर हो गया, नेत्रों से आंसू बहने लगे। उन्होंने श्रीकृष्ण और बलरामजी को सम्बोधित करते हुए कहा-भूमि के भारभूत उन राजाओं का नाश करने के लिए ही तुम दोनों मेरे गर्भ से अवतीर्ण हुए हो।

मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गए थे। उनको गुरुदक्षिणा देने के लिए उनकी आज्ञा तथा काल की प्रेरणा से तुम दोनों ने उनके पुत्र को युमपुरी से वापस ला दिया था। तुम दोनों योगीश्वरों के भी ईश्वर हो। इसलिए आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूं कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रों को, जिन्हें कंस ने मार डाला था, लो दो और उन्हें मैं भर आंख देख लूं।

माता देवकी की यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ने योगश किया। जब दैत्यराज बलि ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोक में पधारे हैं। उन्होंने भगवान् के चरणों में प्रणाम किया।भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-दैत्यराज! स्वायम्भुव मन्वन्तर में प्रजापति मरीचिका की पत्नी ऊर्णा के गर्भ से छ: पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर कि ब्रम्हाजी अपनी पुत्री से समागम करने के लिए उद्यत हैं, हंसने लगे। इस परिहास रूप अपराध के कारण उन्हें ब्रम्हाजी ने शाप दे दिया और वे असुर योनि में हिरण्यकशिपु के पुत्र रूप से उत्पन्न हुए।

अब योगमाया ने उन्हें वहां से लाकर देवकी के गर्भ में रख दिया और उनके उत्पन्न होते ही कंस ने मार डाला। दैत्यराज! माता देवकीजी उन पुत्रों के लिए अत्यंत शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं। अत: हम अपनी माता का शोक दूर करने के लिए इन्हें यहां से ले जाएंगे। इसके बाद ये शाप से मुक्त हो जाएंगे और आनन्दपूर्वक अपने लोक में चले जाएंगे। इनके छ: नाम हैं-स्मर, उद्गीथ, परिश्वंग, पतंग, क्षुद्रभृत और घृणि। इन्हें मेरी कृपा से पुन: सद्गति प्राप्त होगी। इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो गए।

दैत्यराज बलि ने उनकी पूजा की, इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी बालकों को लेकर फिर द्वारिका लौट आए तथा माता देवकी को उनके पुत्र सौंप दिए।इसके बाद उन लोगों ने भगवान् श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलरामजी को नमस्कार किया। तदन्तर सबके सामने ही वे देवलोक में चले गए। देवकी यह देखकर अत्यंत विस्मित हो गईं कि मरे हुए बालक लौट आए और फिर चले भी गए। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्ण की ही कोई लीला-कौशल है।

उपासना का मतलब क्या है?
देवकीजी द्वारा श्रीकृष्ण की जो उपासना की गई थी यह प्रसंग उसका परिणाम है। उपासना क्या है, इस पर संतों ने कहा है कि उपासना का अर्थ है परमेश्वर के पास बैठना। बड़ों के पास बैठने का अर्थ है तद्रूप बनना। परमेश्वर अर्थात सत्य। अतएव सत्य रूप बनना उपासना है। सत्य रूप बनने की तीव्र इच्छा करना, उसके लिए भगवान् से विनती करना प्रार्थना है।

महात्मा गांधी की यह दृष्टि एकदम व्यावहारिक है। हमारे लगभग सब आध्यात्मिक ग्रंथ गांधीजी की इस दृष्टि को पुष्ट करते हैं। सत्यरूप आचरण शुद्धि के लिए स्पष्ट संकेत हैं। बिना आचरण शुद्धि के निर्विकार स्थिति नहीं आती। गांधीजी आगे स्पष्ट करते हैं कि निर्विकार बनने के लिए विकारी विचार भी न उठने देना। मन कभी खाली नहीं रहता। वह विकारी विचारों को अपने में समेटे रहेगा या सत्य (परमेश्वर) के प्रति बढ़ेगा। राम, कृष्ण, विष्णु, अल्लाह, प्रभु, ग्रंथ-साहिब, महावीर स्वामी, बुद्ध या अन्य कोई प्रतीक वस्तुत: सत्य के मूर्तिरूप हैं। उनका स्मरण करना नाम-स्मरण है। यह स्मरण हृदयगत जब होता है तब तद्रूपता की संभावना बलवती हो जाती है। हमें स्मरण रखना होगा कि उपासना बुद्धि का नहीं, श्रद्धा का और विश्वास का विषय है। उपासना करते-करते निर्मलता या शुद्धता आती है। नित्य उपासना-प्रार्थना करते रहने से आत्मा पुष्ट होती है। आत्मा की शुद्धता (निर्मलता) और पुष्टता में ही ईश्वरीय तत्व की झलक मिलना शक्य होता है। उपासना एकाकी या सामुहिक या दोनों हो सकती है।

पंथानुसार उपासना के स्वरूप अलग-अलग होते हैं। वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन, इस्लामी, ईसाई या अन्य उपासना पद्धति ईश्वरीय स्वरूप और निज स्वरूप को एकाकार करने के लिए होती है। यह एकाकारिता बिना तीव्र, श्रद्धाविश्वास के संयुक्त प्रवाह के संभव नहीं यह शक्ति और शिव की परम कल्याणमयी अभिव्यक्ति कही जा सकती है।प्राय: पाया जाता है और साधकों या उपासकों का अनुभव भी बतलाता है कि श्रद्धा और विश्वास होने के बाद भी मन नाना प्रकार के सात्विक, राजसिक, विचारों में मगन रहता है।

इन दोनों के बिना ही जीवन अधूरा है...
अर्जुन को भगवान् ने दृष्टि दी तब ही वह परम् तेजोमय के दर्शन कर सका (11वां अध्याय)। यह कृपा उन्होंने महापुरुष कृष्ण रूप में अवतार ग्रहण करके की थी। जब कोई महापुरुष प्रभु शक्ति सम्पन्न हो कृपा पाता है तब ही सम्भव होता है, किन्तु इस निमित्त धरातल दैवी गुणों से पुष्ट होना आवश्यक है, इसे हम अभ्यास की कोटि में रचाना उपयुक्त समझते हैं। सतत् अभ्यास अटूट साधन के माध्यम से होता है। भजन, प्रार्थना, ध्यान, स्वाध्याय, पूजा इत्यादि साधन के साध्य अंग हैं। यत्न साध्यों की सहज, परिणिति हेतु जो अभ्यास किया जाता है उसमें महापुरुष या गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।

देवकीजी भगवान से कहती हैं कि मेरे सात पुत्रों को कंस ने मारा तू ले आ। भगवान उन सातों पुत्रों को लाकर मिलाते हैं। भगवान ने यमराज को आदेश दिया कि मेरे सारे मृत भाइयों को लौटा लाओ, मेरी माता की आज्ञा है, यह मेरा निर्देश है कि इनके कोई कर्म-प्रारब्ध या किसी दोष का ध्यान न रखा जाए। यमराज ने ऐसा ही किया। ये दूसरी बार था जब भगवान ने अपने किसी के लिए सृष्टि के नियम भी बदल दिए। उनको जीवित कर दिया जिन्हें मरे को सालों बीत गए थे। यहां भगवान ने दो बातों का संकेत दिया है।

इसे समझना बहुत जरूरी है। पहली बार भगवान ने अपने गुरु ऋषि सांदीपनि के पुत्र को यमराज से मांगा था। वह भी बहुत पहले मारा जा चुका था, दूसरी बार अपने भाइयों को जीवित किया। सृष्टि के नियम बदल दिए। यहां जो दो संकेत हैं वे भी स्पष्ट हैं। पहला जीवन में गुरु और माता का महत्व। गुरु विद्यार्थी को माता की तरह संवारता है और माता बच्चे की पहली गुरु होती है। दोनों का पद समान है, दोनों की महिमा भी एक सी है। दोनों का जीवन में समान महत्व है और दोनों के बिना ही जीवन अधूरा है।

जीना इसी का नाम है...
कृष्ण ने अपने जीवन में उन दोनों के महत्व को भलीभांति समझा है। गुरु से शिक्षा ली, शिक्षा अमूल्य थी सो उसका मूल्य भी ऐसा चुकाया जो इतिहास बन गया। गुरु के मृत पुत्र को सालों बाद यमराज से ले आए। फिर माता के उन पुत्रों को जीवित कर दिया जिन्हें कंस ने मार दिया था। माता ने कृष्ण के लिए लाखों कष्ट सहे। अपने सात पुत्रों को अपनी आंखों के सामने मरते देखा। अब कृष्ण की बारी थी, अपनी माता के उस ऋण को चुकाने की। माता ने इच्छा की और कृष्ण ने उसे क्षण भर में पूरा कर दिया। माता-पिता और गुरु के लिए जीवन में अगर कुछ भी करना पड़े, उसे कर दीजिए। उनके लिए किया गया कोई कार्य निष्फल नहीं जाता। कृष्ण ने इस घटना में जो संदेष दिया वह भी बहुत अद्भुत है। कई जन्मों की तपस्या के बाद देवकी ने कृष्ण को पुत्र रूप में पाया था। वह विष्णु की अनन्य भक्त थीं।

वसुदेव भी उसके साथ तपस्या में लीन थे। दोनों की एक ही इच्छा थी भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने की। भगवान को ही उन्होंने अपना सर्वस्व दे दिया। हर जन्म विष्णु भक्ति के लिए ही था। सो अब भगवान उनके घर प्रकट हुए। यह संकेत है कि अगर हम भगवान की भक्ति में खो जाते हैं तो भगवान भी फिर हमारे लिए किसी नियम या सिद्धांत में बंधकर नहीं रहता। वह अपने भक्त के लिए हर सीमा से ऊपर चला जाता है। सृष्टि का नियम भी बदलना पड़े तो, बदलता है। कृष्ण ने देवकी और वसुदेव को इसी भक्ति का फल दिया है।

सांदीपनि ने भी बरसों तक तप कर शिव को प्रसन्न किया। महाकाल शिव जब आए तो उन्होंने वरदान दिया कि खुद नारायण उनके शिष्य बनेंगे। अवंतिका की पावन भूमि पर कृष्ण षिक्षा ग्रहण करने आएंगे। दूसरा वरदान दिया कि अवंति क्षेत्र में कभी सूखा नहीं पड़ेगा, अकाल नहीं पड़ेगा। सांदीपनि ने कृष्ण को शिष्य स्वीकार किया। वे जानते थे कि जगत् गुरु नारायण ही उनके शिष्य हैं। उन्होंने कृष्ण की क्षमता देख कर ही उनसे अपना मृत पुत्र वापस मांगा था।कथा आगे गति पकड़ रही है। कृश्ण ने जीवन की गति की शिक्षा दी है, उन्होंने बताया है कि जीवन में हर दिन एक नई चुनौती आपके सामने आएगी और हर दिन आपको संघर्षकरना है। जीवन में आराम नहीं है। आराम तो केवल भक्ति में है।

भगवान कृष्ण ने अपनी बहन का ही हरण क्यों करवा दिया?

भागवत कथा आगे गति पकड़ रही है। कृष्ण ने जीवन की गति की शिक्षा दी है, उन्होंने बताया है कि जीवन में लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि भगवान ने अपनी ही बहिन का अपहरण क्यों करवाया? सुभद्रा हरण का प्रसंग व्यक्ति की निजी स्तंत्रता से जुड़ा है। भगवान कहते हैं सबको अपने स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए। सुभद्रा पर बलरामजी ने दुर्योधन से विवाह का दबाव बनाया था

बलराम बहुत सीधे थे, दुर्योधन ने उन्हें अपना गुरु बना लिया, गदा युद्ध सीखा। बलराम दुर्योधन की इस चाल को समझ नहीं पाए। वे समझते थे कि दुर्योधन सहज ही मुझ पर स्नेह रखता है। वह योद्धा भी था और राजपुत्र भी, सो उन्होंने सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने का मन बना लिया।

कृष्ण दुर्योधन का भविश्य जानते थे, वे ये भी जानते थे कि सुभद्रा अर्जुन को पसंद करती है।

सुभद्रा लेकिन बलरामजी का विरोध करना भी नहीं चाहती थीं और दुर्योधन से विवाह भी नहीं करना था, ऐसे में केवल कृष्ण ही थे जिससे वह अपने मन की बात कह सकती थीं। कृष्ण सुभद्रा की मनोदशा को समझ गए। कथा आगे बढ़ती है-परीक्षित ने प्रश्न पूछा शुकदेवजी से मेरे दादा अर्जुन ने यह विवाह किस प्रकार किया था।एक बार अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए प्रभासक्षेत्र पहुंचे। वहां उन्होंने यह सुना कि बलरामजी सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषय में सहमत नहीं हैं।

अब अर्जुन के मन में सुभद्रा को पाने की इच्छा जग आई। वे त्रिदण्डी वैष्णव का वेष धारण करके द्वारका पहुंचे। वे वहां वर्षाकाल में चार महीने तक रहे। द्वारका वालों और बलरामजी को यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं। एक दिन बलरामजी ने आतिथ्य के लिए उन्हें निमंत्रित किया और उनको वे अपने घर ले आए। अर्जुन ने भोजन के समय वहां विवाह योग्य सुभद्रा को देखा।

उन्होंने उसे पत्नी बनाने का निश्चय कर लिया। सुभद्रा ने भी मन में उन्हीं को पति बनाने का निश्चय किया। कृष्ण की सहमति पहले ही थी सो कोई डर भी नहीं था। कृष्ण ने देवकी और वसुदेव को भी समझाया कि अर्जुन का भविष्य धर्ममय है, दुर्योधन अधर्मी है और एक दिन उसका अंत बहुत बुरा ही होगा। वे भी सहमत हो गए।

इस कहानी में छुपे हैं जिंदगी के सारे राज क्योंकि....
सुभद्रा और अर्जुन का विवाह हो गया। भगवान ने फिर इस सुंदर प्रसंग के जरिए हमें जीवन का सार सिखाया। कृष्ण के जीवन प्रसंग महज सुनने के लिए नहीं हैं, उन्हें जीवन में उतारिए। उसे गौर से देखिए, समझिए उसमें हमारे जीवन के लिए क्या संदेश, संकेत छिपे हैं। उन्हें पकडऩे का प्रयास कीजिए। अवतारों का उद्देश्य भी यही होता है। वे केवल अधर्म या धर्म की लड़ाई के लिए धरती पर नहीं आते।

उनके आने के बड़े उद्देश्य होते हैं। सबसे बड़ा उद्देश्य मानवों को प्रेरणा देना होता है। राम हो या कृष्ण सभी अवतारों ने जीवन में बहुत संघर्ष किया। कृष्ण का अवतार मानव में देवत्व जगाने का प्रयास है। कृष्ण ने पूर्ण अवतार होने के बाद भी साधारण मनुष्यों की तरह ही सारे कर्म किए लेकिन उसके पीछे उद्देश्य था मानवों में देवत्व कैसे जगाया जाए, हम कैसे अपने कर्मों से महान बन सकते हैं, किस तरह अपनी इन्द्रियों को संचालित किया जाए कि सारे कार्य हमारे अनुकूल हों। सुभद्रा-अर्जुन प्रसंग से कृष्ण ने कई संकेत किए हैं।

यह संकेत वे हैं जो आज हमारे बड़े उपयोग के हैं। इन्हीं को साधकर भी हम अपने लिए जिन्दगी की राहें आसान कर सकते हैं। समझिए कृष्ण ने अपने बड़े भाई की इच्छा के विरूद्ध बहन का विवाह अर्जुन से करवा दिया। आखिर क्यों? इसके कारणों में झाकेंगे तो बड़ी सुन्दर नीतियां मिलेंगी। मानवीय रिश्तों की ऐसी मिसाल जो हमारे जीवन में हमेशा ही उपयोगी होगी। बलराम सुभद्रा के लिए दुर्योधन को पसंद कर चुके थे। लगभग निर्णय ही ले लिया था सुभद्रा की इच्छा के विरूद्ध। हमारे देश की रूढिय़ों में यह कुप्रथा सदियों से है, अपनी बेटियों का विवाह आज भी कई लोग बिना उसकी इच्छा के अपने अनुसार तय कर देते हैं।

बेटी हमारी जिम्मेदारी है लेकिन ध्यान रखें कि वह भावी मां और संस्कृति को विस्तार करने वाली भी है। उसे अपनी मर्जी से किसी को न सौपें। उसका जीवन साथी कैसा हो, यह तय करने का अधिकार भी उसे दें। उससे पूछें। बलराम ने यह नहीं किया, सीधा निर्णय ही सुना दिया। कई लोग आज भी यही कर रहे हैं। बलराम ने दुर्योधन में केवल दो बातें ही देखी, एक उसका योद्धा होना और दूसरा उसका राजपुत्र होना।

रिश्ता बनाएं तो क्या ध्यान रखें?
शारीरिक बल या आर्थिक स्थिति रिश्तों को कायम करते समय देखा जाना चाहिए लेकिन केवल हम दो पात्रताओं को ध्यान में रखकर ही कोई रिश्ता न बनाएं। शारीरिक बल या सुंदरता और आर्थिक स्थिति भक्ति के चारित्रिक प्रमाण पत्र नहीं होते हैं। कई लोग आज भी लड़कियों का रिश्ता तय करते समय बस इन्हीं दो बातों को ध्यान रखते हैं। एक वह शारीरिक रूप से सक्षम हो और दूसरा आर्थिक रूप से। इसके अलावा सारी बातें गौण हो जाती हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं -हमें चरित्र देखना चाहिए, व्यवहार देखना चाहिए, अपने कुटुम्ब और मित्रों में उसके रिश्ते कैसे हैं यह देखना चाहिए। इसी से उसकी योग्यताओं का अनुमान लगाया जा सकता है। अगर इन मापदण्डों पर वह खरा उतरे तो फिर रिश्ते के लिए आगे सोचना चाहिए। हम यह देखें कि उसकी महत्वाकांक्षाएं क्या हैं, उसके भीतर धर्म कितना गहरा उतरा हुआ है। धर्म के लिए उसका नजरिया कैसा है। फिर रिष्श्ता तय करें। अगर वह इन परिमाणों पर खरा है तो फिर बात आगे बढ़ाई जाए।

तीसरी बात जो कृष्ण ने कही है वह भी बहुत गौर करने वाली है। कृष्ण कहते हैं हम जब रिश्ते तय करते हैं तो यह देखें कि उस युवक का भविष्य क्या है। कृष्ण दुर्योधन का भविष्य जानते थे सो दुर्योधन के खिलाफ थे। उन्हें अर्जुन के भविष्य को लेकर निश्चिंतता थी, सो वे अर्जुन के पक्ष में थे। हम इन बातों पर विचार कर अगर बेटियों के रिश्ते तय करेंगे तो हमें कभी भी अपने निर्णयों पर लज्जित या दुखी नहीं होना पड़ेगा। कृष्ण से सीखें रिश्ते कैसे जोड़े जाते हैं।

आपका भविष्य तय करती है आपकी संगत
एक सुंदर कथा है। संतों की संगत का असर हम पर कैसे पड़ता है।कथा है एक नगर के बाहर जंगल में कोई साधु आकर ठहरा। संत की ख्याति नगर में फैली तो लोग आकर मिलने लगे। प्रवचनों का दौर शुरू हो गया।

संत की ख्याति दिन रात दूर-दूर तक फैलने लगी। लोग दिनभर संत को घेरे रहते थे। एक चोर भी दूर से छिपकर उनको सुनता था। रात को चोरी करता और दिन में लोगों से छिपने के लिए जंगल में आ जाता। वह रोज सुनता कि संत लोगों से कहते हैं कि सत्य बोलिए। सत्य बोलने से जिंदगी सहज हो जाती है। एक दिन चोर से रहा नहीं गया, लोगों के जाने के बाद उसने अकेले में साधु से पूछा-आप रोजाना कहते हो कि सत्य बोलना चाहिए, उससे लाभ होता है लेकिन मैं कैसे सत्य बोल सकता हूं।संत ने पूछा-तुम कौन हो भाई?चोर ने कहा-मैं एक चोर हूं।संत बोले तो क्या हुआ। सत्य का लाभ सबको मिलता है। तुम भी आजमा कर देख लो।

चोर ने निर्णय लिया कि आज चोरी करते समय सभी से सच बोलूंगा। देखता हूं क्या फायदा मिलता है। उस रात चोर राजमहल में चोरी करने पहुंचा। महल के मुख्य दरवाजे पर पहुंचते ही उसने देखा दो प्रहरी खड़े हैं। प्रहरियों ने उसे रोका-ऐ किधर जा रहा है, कौन है तूं।

चोर ने निडरता से कहा-चोर हूं, चोरी करने जा रहा हूं। प्रहरियों ने सोचा कोई चोर ऐसा नहीं बोल सकता। यह राज दरबार का कोई खास मंत्री हो सकता है, जो रोकने पर नाराज होकर ऐसा कह रहा है। प्रहरियों ने उसे बिना और पूछताछ किए भीतर जाने दिया।

चोर का आत्म विश्वास और बढ़ गया। महल में पहुंच गया। महल में दास-दासियों ने भी रोका। चोर फिर सत्य बोला कि मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। दास-दासियों ने भी उसे वही सोचकर जाने दिया जो प्रहरियों ने सोचा। राजा का कोई खास दरबारी होगा।अब तो चोर का विश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया, जिससे मिलता उससे ही कहता कि मैं चोर हूं। बस पहुंच गया महल के भीतर।

कुछ कीमती सामान उठाया। सोने के आभूषण, पात्र आदि और बाहर की ओर चल दिया। जाते समय रानी ने देख लिया। राजा के आभूषण लेकर कोई आदमी जा रहा है। उसने पूछा-ऐ कौन हो तुम, राजा के आभूषण लेकर कहां जा रहे हो।चोर फिर सच बोला-चोर हूं, चोरी करके ले जा रहा हूं। रानी सोच में पड़ गई, भला कोई चोर ऐसा कैसे बोल सकता है, उसके चेहरे पर तो भय भी नहीं है। जरूर महाराज ने ही इसे ये आभूषण कुछ अच्छा काम करने पर भेंट स्वरूप पुरस्कार के रूप में दिए होंगे। रानी ने भी चोर को जाने दिया। जाते-जाते राजा से भी सामना हो गया। राजा ने पूछा-मेरे आभूषण लेकर कहां जा रहे हो, कौन हो तुम?

चोर फिर बोला- मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। राजा ने सोचा इसे रानी ने भेंट दी होगी। राजा ने उससे कुछ नहीं कहा, बल्कि एक सेवक को उसके साथ कर दिया। सेवक सामान उठाकर उसे आदर सहित महल के बाहर तक छोड़ गया।

अब तो चोर के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने सोचा झूठ बोल-बोलकर मैंने जीवन के कितने दिन चोरी करने में बरबाद कर दिए। अगर चोरी करके सच बोलने पर परमात्मा इतना साथ देता है तो फिर अच्छे कर्म करने पर तो जीवन कितना आनंद से भर जाएगा।चोर दौड़ा-दौड़ा संत के पास आया और पैरों में गिर पड़ा। चोरी करना छोड़ दिया और उसी संत को अपना गुरू बनाकर उन्हीं के साथ हो गया।संत की संगत ने चोर को बदल दिया। कथा का सार यही है कि जो सच्चा संत होता है वह हर जगह अपना प्रभाव छोड़ता ही है।

जरूरी है जिम्मेदारियों को निभाना क्योंकि....
गृहस्थ का उद्देश्य परमात्मा के निकट जाने का नहीं उसे अपने निकट बुलाने का है। यह एक तरह का वशीकरण है। संन्यास में संन्यासी भगवान के निकट पहुंचकर उसे अपने वश में करने का प्रयास करता है, गृहस्थ का वशीकरण इससे विपरीत खुद भगवान के प्रति समर्पित होने का है। उसके रचे संसार का पालन कर, कर्तव्यों का निर्वहन कर वह भगवान को समर्पित हो जाता है। फिर भगवान खुद उसके वश में होकर उसे ढूंढने निकल पड़ते हैं। एक कथा है कि एक संन्यासी किसी गांव में पहुंचा। वहां मंदिर में एक पुजारी रहता था, जो बहुत धार्मिक स्वभाव का था, उसके पत्नी और बच्चे भी आज्ञाकारी थे। पुजारी भगवान की सेवा तो करता था लेकिन उसका मन फिर भी बेचैन रहता था कि भगवान को पाना है। साधु गांव में पहुंचे तो उसकी इच्छा और अधिक बलवती हो गई।

पुजारी ने संन्यास लेने की ठान ली और परिवार को रोता-बिलखता छोड़ साधु के साथ चला गया। गांववालों ने बहुत समझाया, पत्नी और पुत्र ने पैर पकड़ लिए लेकिन वह नहीं माना। उसकी पत्नी भी काफी समझदार और धार्मिक थी, सो नियति का खेल समझकर इसे स्वीकार कर लिया। पुत्र की जिम्मेदारी, मंदिर की सेवा और खेती भी उसके जिम्मे आ गई।

वह सारी बातें भूलकर अपनी जिम्मेदारी निभाने लगी। पुत्र को गुरु के पास भेज दिया अच्छी शिक्षा के लिए। मंदिर में सुबह-शाम पूजा का सिलसिला भी बंद नहीं होने दिया और खेती भी मुरझाने नहीं दी। वह जब भी भगवान की पूजा करती तो एक ही बात दोहराती कि मेरे पति को भगवान आपकी प्राप्ति जल्दी हो, जिसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ त्याग दिया है।

उधर पुजारी साधु के साथ वन-वन भटकने लगा। एक दिन उसे भगवान नारायण गुजरते दिखाई दिए। उसने पैर पकड़ लिए, भगवान आपके दर्शन हो गए। भगवान ने उससे कहा-हट जा मैं अभी तेरे लिए नहीं आया हूं। मुझे कहीं और जाना है। कोई मेरा इंतजार कर रहा है। पुजारी ने पूछा मैं भी तो आपके लिए सबकुछ छोड़कर भटक रहा हूं। आपका इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए कब आएंगे।

नारायण ने कहा-अभी तुम्हें बहुत समय लगेगा। तुमने मेरी तलाश तो की लेकिन मैंने तुम्हें जो काम सौंपा था वह नहीं किया।

पुजारी बोला-कौन सा काम भगवन, मैं तो दिन-रात आपकी ही सेवा कर रहा हूं। इसके सिवा तो मेरी जिंदगी में कुछ और रह ही नहीं गया है।भगवान बोले- मैंने अपनी एक भक्त और उसके पुत्र की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपी थी लेकिन तुम उस जिम्मेदारी से मुंह छिपाकर भाग आए। पुजारी को समझते देर नहीं लगी कि वह अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर आया है। बस उसकी आंखें खुल गई। फिर गांव की ओर लौट पड़ा।

गांव में आया तो देखा उसकी पत्नी की चारों ओर जय-जयकार हो रही है। कच्चे मकान की जगह महल खड़ा है। पुत्र राजकुमारों जैसे कपड़े पहने था। घर में नौकर-चाकरों की कतार लगी थी।मंदिर में गया तो खुद नारायण बैठे, उसकी पत्नी का बनाया भोग खा रहे हैं। पत्नी की सेवा और जिम्मेदारियों के पालन से भगवान प्रसन्न हो गए। पुजारी ने अपनी पत्नी से क्षमा मांगी। नारायण ने उसे आशीर्वाद दिया। कहा-तुझे तेरे तप के कारण नहीं, तेरी पत्नी के सेवाभाव और तुम्हारे प्रति उसकी श्रद्धा के कारण दे रहा हूं।कथा का सारांश यह है कि भगवान ने आपको जो जिम्मेदारियां दी हैं सबसे पहले उसका पालन करें।

वो हमें गिरने नहीं देते, सभांल लेते हैं...
अर्जुन को यह अनुभव होता था कि वह अकेला ही श्रीकृष्ण का बड़ा भक्त है लेकिन कृष्ण ने उसे उस ब्राह्मण से मिलाकर यह भ्रम दूर कर दिया। भगवान की यह विशेषता है कि अगर उनका भक्त अभिमान के वशीभूत होने लगे, किसी बुराई के समीप जाने लगे तो भगवान उसे गिरने नहीं देते, उसे संभाल लेते हैं। भक्त को अहसास भी नहीं होने देते हैं और उसके सारे कष्ट, अभिमान, कुराइयां हर लेते हैं। अगर भक्त लायक है तो स्वत: ही समझ जाता है। भगवान ऐसी ही लीलाएं दिखा रहे हैं, अर्जुन का अभिमान अब जाता रहा। भक्ति निष्काम हो गई। अर्जुन श्रीकृष्ण के और नजदीक हो गए। अभी सर्वस्व समर्पित नहीं किया था अब वह भी कर दिया। भक्त और भगवान एक हो गए हैं।

वैसे भी माना जाता है कि अर्जुन श्रीकृष्ण एक ही हैं, नर और नारायण के अवतार हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं सभी में मेरा अंश है। हम भी उन्हीं नारायण के अंश हैं।

एक कथा है - एक गांव में कोई ग्वाला था, भगवान को बहुत मानता था। गांवों में जात-पात की परम्परा बहुत थी उन दिनों। ब्राम्हण और क्षत्रियों का दबदबा था। अछूतों का कोई दर्जा नहीं था उनके बीच। गांव में सबसे अलग उनका स्थान था।

एक दिन गांव में कोई संत पहुंचे। वे जात-पात नहीं मानते थे सो हर किसी को उनके दर्शन करने की, उपदेश सुनने की आजादी थी। फिर भी श्रेष्ठी वर्ग का दबदबा था सो छोटी जात वालों को दर्शन के लिए बाद में बुलाया जाता।संत से यह सुब देखा न गया। उन्होंने समझाया कि सब समान हैं, सभी भगवान का अंश हैं। उस ग्वाले ने संत की बात सुनी, वह बात उसके दिल में बैठ गई। वह भी सबसे कहने लगा कि हम भी भगवान के ही बनाए हैं, उसके ही अंश हैं। यह सुन ऊंचे समाज वालों से नहीं रहा गया। गरीबों पर अत्याचार और बढ़ गए। संत से यह अमानवीयता देखी न गई। वे गांव छोड़कर चले गए।

रावण क्यों मारा गया, उसका सारा वैभव क्यों नष्ट हो गया?
कहने का आशय यह है कि हम भले ही मूर्ति पूजा करें लेकिन चित्त को उसमें स्थिर करके करें। बस उसी में खुद को पूरी तरह टिका दें। भगवान उस प्रतिमा, उस पत्थर से भी प्रकट हो जाएगा।ऐसी ही भक्ति के हमारे शास्त्रों में दो उदाहरण हैं। एक भक्त प्रहलाद का जिसे उसके पिता ने खम्भे से भगवान को बुलाने की चुनौती दी और खम्भा तोड़कर खुद नारायण नृसिंह के रूप में प्रकट हो गए। दूसरा उदाहरण मीराबाई का है, जिन्होंने कृष्ण की प्रतिमा को ही अपना पति मान लिया। जिन्दगीभर उसी प्रतिमा को लेकर भक्ति की। जब जहर दिया गया तो गोविन्द का नाम लेकर हंसकर पी गई। मीराबाई को कुछ नहीं हुआ, उधर प्रतिमा नीली पड़ गई।

मिथिला के राजा का नाम था बहुलाष्व। उनमें अहंकार का लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाष्व दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे भक्त थे। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने उन दोनों पर प्रसन्न होकर दारुक से रथ मंगवाया और उस पर सवार होकर द्वारका से विदेह देश की ओर प्रस्थान किया। भगवान के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, शुकदेव, बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे। वे जहां-जहां पहुंचते, वहां-वहां के नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजा की सामग्री लेकर उपस्थित होती।
भगवान अपने साथ अनेक ऋषिमुनियों को लेकर चलते हैं। वैसे भी श्रीकृष्ण अकेले कम ही रहे। उनका उद्देश्य रहता है भक्तों को साधु-संत और विद्वान पुरुषों की निकटता प्राप्त हो। कृष्ण का हमेशा यही प्रयास रहा कि पूजनीय संत, विद्वान उनके आसपास रहें। किसी भी समय वे अकेले न रहें। हर परेशानी के समय विद्वान और संत उनके पास रहें।

दरअसल श्रीकृष्ण ने मानवजाति को यह संदेश दिया है कि आप स्वयं कितने ही विद्वान क्यों न हो जाएं। कितने ही सक्षम क्यों न हों फिर भी आपके साथ विद्वानों का होना जरूरी है। हमेशा संतों की छत्रछाया में रहें। आप पर आती मुश्किलें स्वत: लौट जाएंगी। यह बात विचारणीय है कृष्ण के जीवन के हर पल में मानव जाति के लिए कई संकेत छिपे हैं। संतों का, विद्वानों का साथ क्यों जरूरी है, वो भी श्रीकृष्ण जैसे सर्वसमर्थ पूर्णावतार को। यह जिन्दगी के लिए एक संकेत है। हम अपने मद में संत-विद्वानों का अपमान कर देते हैं। इससे हमारी सिद्धि नष्ट हो जाती है।

रावण क्यों मारा गया, सारा वैभव क्यों नष्ट हो गया उसका। रावण ने तमाम जिन्दगी संतों, विद्वानों का विरोध किया, तपस्वियों को मरवा डाला। उसकी लंका में भी एक ही साधु पुरुष था विभीषण। रावण अगर सुरक्षित था तो वह केवल लंका में विभीषण की उपस्थिति के कारण। याद रखिए आप तब तक सुरक्षित रहेंगे जब तक एक भी सज्जन आपके साथ है, जैसे ही संत पुरुष आपका साथ छोड़ दें समझ लें कि अब अंत नजदीक है। विभीषण को छोडऩे के बाद रावण खुद कितने दिन जी पाया।इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि संतों का साथ हमेशा चाहिए। अगर जीवन में कोई पुण्य काम न आए तो आपको एक यही पुण्य बचा सकता है।

बस यही सबसे बड़ी जीत है...
संत, ऋषि, मुनि, साधु ये सब उसी को कहते हैं जिसने विषयों को जीत लिया, मन को नियंत्रित कर लिया। सब उसी के नाम हैं। यह जरूरी नहीं है कि वह संन्यास ले, भगवा वस्त्र पहने या जंगलों में रहे। मन को जीतना ही सबसे बड़ा काम है, जिसने इसे कर लिया वह स्वत: संत हो जाएगा। फिर चाहे संसार में रहे या जंगल में।

मन को जीतने के लिए विषयों पर विजय पाना आवश्यक है। विषय हमारे लिए रुकावट पैदा करते हैं। विषयों को जीतना हमारे लिए सबसे बड़ी जंग है। विषयों को जीतने की प्रक्रिया बहुत लम्बी है। बुराइयां हर मनुष्य में होती हैं इन्हें मिटाने के लिए मन पर नियंत्रण होना चाहिए। बुराइयों से निपटने के लिए वैराग्य जगाना पड़ता है। वैराग्य जगाने के लिए परमात्मा में मन लगाना जरूरी है।

विषयों से वैराग्य तब ही होगा जब निर्विषयी मन बनेगा। मन को निर्विषयी बनाना उसका पथान्तर करना है, इसकी सहज वृत्ति जगतमुखी है, इसे परमात्मा मुखी बनाने का अभ्यास करना आवश्यक है। महापुरुषों के वचनों सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय, सत्संग, भजन, एकान्तवास, कीर्तन, गायन (भक्ति गीत) आदि ऐसी आध्यात्मिक साधन युक्त परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं जिससे मन एकाग्रता के अनुकूल बनता है। इन्हें ध्यान का अंग भी कहा जा सकता है।

फिर वही सवाल उठता है कि महापापी-वैरी पुन: पुन: उपद्रव करे, बाधाएं डाले तब साधक के सामने शरणागति के अलावा कोई मार्ग नहीं रहता। वह अपने इष्ट से, अपनी अंतरात्मा से, अपनी अंतरशक्ति से निरन्तर प्रार्थना करता रहे। दुर्गासप्तसती में ऐसी ही प्रार्थना की गई है-''सर्वबाधा प्रशमनं त्रेलोक्यस्याखिलेश्वरी। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम।

सर्वेश्वरी-तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करो।राजसिक- प्रमाद, अनियमितता, तन-अ-रक्षण आदि बाधाएं हैं और शत्रु है-काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि। यह हमें याद रखना है। माँ के भौतिक रूप में कोई शत्रु नहीं सब उसकी सन्तान हैं।

बाधाएं और शत्रु जब समाप्त हो जाते हैं, तब मन में उठती तरंगें शान्त हो उसे निर्मल, निर्विकारी जल की मानिन्द स्तब्ध या स्थिर कर देती है। तब परमात्मा को जानने या उसके दर्शन करने की स्थिति बनती है। उसका प्रतिबिम्ब जो अन्तर आत्मा में है दृश्य होता है।

संबंधों को निभाएं तो कुछ इस तरह...
भागवत में ही भगवान के चौथे अवतार वामनदेव की कथा है। असुरों के राजा बलि जो भगवान के अनन्य भक्त प्रहलाद का पौत्र था ने यज्ञ का आयोजन किया। देवताओं के हित को देखकर भगवान ने वामन रूप अवतार लिया लिया और राजा बलि के यज्ञ में चले गए। दान मांगा, राजा बलि ने संकल्प लिया, गुरु शुक्राचार्य ने रोका फिर भी नहीं माने वामन को तीन पग भूमि दान दी। वामन देव ने दो ही पग में धरती और आकाश नाप लिया, तीसरा पग कहां रखूं वामन ने पूछा।

राजा बलि जो जानते थे कि देवताओं ने उनका यज्ञ रुकवाने के लिए छल किया है, फिर भी अपने संकल्प से नहीं हटे। भगवान उसे जीतने आए थे, उसने भगवान को जीत लिया। वामन ने जब बलि से पूछा कि तीसरा पैर कहा रखूं तो राजा बलि ने नि:संकोच खुद को आगे कर दिया। भगवान के पैरों के नीचे अपना सिर धर दिया। भगवान के भार से वह पाताल में चला गया लेकिन उसके सत्यव्रत और भक्तिभाव से विष्णु प्रसन्न हो गए तो वर मांगने को कहा।

बलि ने विष्णु को अपने राज्य का द्वारपाल बना लिया। भगवान भक्त के नगर की पहरेदारी करने लग गए। यह होता है समर्पण। अपना सबकुछ उसे सौंप दो फिर आपसे दूर कुछ भी नहीं रहेगा। इसी यात्रा में भगवान राजा के साथ-साथ ब्राह्मण के घर भी जाते हैं और साथ में मुनियों को भी ले जाते हैं। एक तो भगवान बताना चाहते हैं कि मेरा समानता में विश्वास है और दूसरे भगवान सतत् सक्रियता का संदेश देते हैं। मेलजोल बनाए रखो। आज जिस जीवन में जी रहे हैं मनुष्य अपनों से ही कटता जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण से सीखें संबंधों का निर्वहन कैसे करें।

जरूरी है अपने अंदर की शक्ति को जगाना क्योंकि...
इस विषय में मैं तुम्हे एक पुरानी कथा बताता हूं। यह नारद और ऋषि श्रेष्ठ नारायण का संवाद है। एक समय की बात है नारदजी विभिन्न लोकों में विचरण करने के लिए बदरिकाश्रम गए। वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियों के बीच में बैठे हुए थे। उस समय नारदजी ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो। भगवान नारायण ने ऋषियों की उस भरी सभा में नारदजी को उनके प्रश्न का उत्तर दिया और वह कथा सुनाई जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियों में परस्पर वेदों के तात्पर्य और ब्रम्ह के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते समय कही गई थी।

भगवान नारायण ने कहा-नारदजी! पुराने समय की बात है। एक बार जनलोक में वहां रहने वाले ब्रम्हा के मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रम्हचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियों का ब्रम्हसत्र यानी प्रवचन हुआ था। उस समय तुम मेरी श्वेत द्वीपाधिपति अनिरूद्ध-मूर्तिका दर्शन करने के लिए श्वेतद्वीप चले गए थे। उस समय वहां उस ब्रम्ह के सम्बन्ध में बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी।सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार-ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभाव में समान हैं। उन्होंने अपने में से सनन्दन को तो वक्ता बना लिया और शेष भाई श्रोता बनकर बैठ गए। अद्भुत सत्संग हुआ था वह।

सनन्दनजी ने कहा-जिस प्रकार प्रात:काल होने पर सोते हुए सम्राट को जगाने के लिए वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट के पराक्रम तथा सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाए हुए सम्पूर्ण जगत को अपने में लीन करके अपनी शक्तियों के सहित सोये रहते हैं तब प्रलय के अन्त में श्रुतियां उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से उन्हें इस प्रकार जगाती हैं।अब आगे भागवत में दार्शनिक प्रसंग आया है। परीक्षित ने श्रुतियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछा है। श्रुतियों में (यानी वेद के शब्दों में) भगवान के स्वरूप का वर्णन किस प्रकार किया जाता है। शुकदेवजी द्वारा जो उत्तर दिया गया उसे भागवत में संतों ने वेद स्तुति का नाम दिया है। यह प्रसंग एक गहरा वार्तालाप है।श्रुतियां परमात्मा को जगा रही हैं यह प्रतिकात्मक घटना है। हम भी अपने भीतर रह रहे परमात्मा को ऐसे ही उठाएं। भक्त अपनी इन्द्रियों से श्रुतियों का काम लेता है। इस उदाहरण में एक कथन स्मरण करने योग्य है।

ये दो बातें मुश्किलों से बचा सकती हैं...
दो चीजों को भूलमत जो चाहे कल्याण। अयंभावी मृत्यु इक और दूजे श्री भगवान। इन दो की स्मृति साधक को अनेक दुविधाओं, कदाचरणों, ममता जनित क्लेश और विघ्न-बाधाओं से बचा सकती है। इससे ज्ञानोदय होने में सहायता मिलती है। महात्मा या सद्गुरु शक्तिपात करके विराट पुरुष के दर्शन से मिलने वाले आनन्द का अनुभव तब ही करा सकते हैं जब निष्काम कर्म द्वारा चित्त शुद्ध कर लिया गया हो, निष्ठा को अपने में प्रतिष्ठित कर लिया गया हो अपने अन्तर को कपट रहित निर्मल कर लिया हो और सब प्राणी जिसमें आश्रित हो उस परमात्मा को जानो। अन्य सबकुछ तुच्छ समझकर छोड़ दो। यह अमृत का सेतु है।

परमात्मा सत्य है। उसे सत्य निष्ठ ही जान सकता है, अन्य नहीं। सत्य का आचरण कल्याणकारी होता है। सत्य की प्रतिष्ठा से क्रिया सफल हो जाती है। सत्य से ही ब्रम्ह का अनुभव किया जा सकता है। इससे चित्त दर्पण स्वच्छ, निर्मल होता है फिर वह प्रतिबिम्ब रूप में स्पष्टत: भासित होता है। यह उसका दर्शन है। वस्तुत: वह मन, बुद्धि से परे तथा इन्द्रियातीत है। अनुभवगम्य ब्रम्ह बखानने का विषय नहीं है। फिर यह अनुभव ध्यान में हो या प्रतीक-पूजन में। नियमित पूजन-भजन और ध्यान साधन करने वाला साधक चिन्ता, भय, विषाद, शोक आदि से सर्वथा मुक्त होकर शान्ति में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसके सान्निध्य में अन्य भी शान्ति रूपी सुगन्ध का अनुभव कर लेते हैं।

यह पूर्ण या आंशिक ब्रम्हानुभूति का प्रभाव कहा जा सकता है। वैसे पूर्ण ब्रम्हानुभूति अत्यन्त दुष्कर है लेकिन आंशिक प्राप्ति भी बिना सत्याचरण के सम्भव नहीं। सत्याचरण इसलिए आवश्यक है कि ब्रम्ह सत्य है। उस परम सत्य को जगत-सत्य में खोजने के लिए तीर्थाटन, सत्संग, महात्माओं के दर्शन, प्रतीक दर्शन आदि किए जाते हैं। भौतिक जगत और आध्यात्मिक क्षेत्र की रचना परम सत्य के द्वारा ही की गई है, इसलिए उसे झूठा कैसे कहें, हालांकि दार्शनिक शंकर चिन्तन में ब्रम्ह सत्य जगत मिध्या स्वीकारा गया है। उसको चुनौती नहीं दी जा सकती है। नित्य-अनित्य व अक्षर-क्षर का भेद तो करना ही होगा। ब्रम्ह अक्षर अनन्त और तेजरूप चिन्मय है, जबकि जगत और जगत का सम्पूर्ण व्यवहार और स्वरूप अन्तवान है। अनन्त और अन्त में मूलभूत अन्तर तो है ही।

दूसरे ब्रम्हानुभूति चिर आनन्द का विषय हैं। जगतानुभूति चाहे प्रारम्भ में मोहवशात ब्राम्ह और क्षणिक आनन्द दे दे किन्तु वह अल्पकाल या कालान्तर में दु:खदायी होती है। पुत्र, विवाह या व्यवसाय सुख दे किन्तु विछोह महा कष्टप्रद होता है। भगवतीय विछोह या तो होता नहीं है और यदि प्रारब्धवशात् हो गया तो भी आनन्दानुभूति उसी प्रकार होती है जैसी कि महारासलीला के मध्य गोपियों को हुई थी।

तीसरे महारास लीला उस ब्रम्ह की अत्यन्त सुन्दरतम प्रेम-प्रदर्शन की लीला कही जा सकती है, जिससे प्रेम किया जाता है। उसमें सुन्दरतम देखने की दृष्टि हमेशा रहती है। वह सुन्दर दिखाई भी देता है। ब्रम्ह ने सुन्दर सुष्टि का निर्माण किया, उससे सुन्दर कोई हो नहीं सकता, क्योंकि सुन्दर ही सुन्दर का निर्माण करता है।

यह बात सिर्फ बुद्धिमान लोग ही समझते हैं...
ब्रम्ह सत्य है, ब्रम्ह आनन्द प्रदायक है और वह मोहक श्रेष्ठतम सुन्दर है। इसीलिए उसे सत्यम, शिवम् एवं सुन्दरम् कहा जाता है। भगवत् गीता में-''परम ब्रम्ह अक्षर है, उसका स्वभाव अध्यात्म कहलाता है-भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला भूत-भाव और सृष्टि एवं संहार कर्म है। और यही ब्रम्ह ''तपसा चीयते ब्रम्ह, तस्य ज्ञान मयं तप: मुण्डकोपनिशद 1, 1, 4-9 अर्थात् ब्रम्ह तप द्वारा निर्गुण से सगुण हो गया। चीयते का अर्थ फलना-फूलना है। यह अध्यात्म भाव है। यह आत्मज्ञान प्राधान है।

आइये जानते हैं भागवत में भगवान को उठाने के लिए श्रुतियां क्या कहती हैं। श्रुतियां कहती हैं-भगवान! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिए चराचर प्राणियों को फंसाने वाली माया का नाश कर दीजिए। जगत में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियां हैं उन सबको जगाने वाले आप ही हैं। इसलिए आपके बिना यह माया मिट नहीं सकती।

जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी बाप बचे रहते हैं। जैसे घट, मिट्टी का प्याला, कसोरा आदि सभी विकार मिट्टी से ही उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय आप में ही होती है।मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे-ईंट, पत्थर या काठ पर, होगा वह पृथ्वी पर ही, क्योंकि वे सब पृथ्वी स्वरूप ही हैं। इसलिए हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है।

लोग सत्व, रज, तम-इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस माया नदी के स्वामी, उसके नचाने वाले हैं।भगवन प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञा का पालन करें, यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार की धौंकनी में हवा का आना-जाना।

भगवन आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात् उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से पशुओं के समान बांध लेते हैं।

इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेम का बन्धन जोड़ रखा है, वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते हैं, जगत् के बन्धन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है।श्रुतियां कह रही हैं-भगवन सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आपसे पृथक मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं, परन्तु बुद्धिमान् पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं।

ये है जिंदगी जीने का सही तरीका...भगवान सीधी-सीधी बात यह समझा रहे हैं कि धन के मद में लोग मर्यादा भूल जाते हैं। मनुष्य अपने को इतना चालाक समझता है कि वह भगवान को भी ठगने लगता है। इसी बात को समझाने के लिए आगे शुकदेवजी वृकासुर की कथा सुनाते हैं।इसके पहले हम भगवान की बात से समझलें कि वे कर्मों का फल देते हैं। कर्मगति न्यारी होती है। पहले यह समझ लें फिर वृकासुर की कथा में प्रवेश करेंगे।

भगवान श्रीकृष्ण ने बहुआयामी लीला करके सिद्ध किया कि अपने विकास के लिए स्वयं को कुटुम्ब में बांध, विभिन्न अनुभव किए-कुटुम्बी बनकर उसमें वे जकड़कर बंध गए और फलस्वरूप वंश विनाश लीला का अवलोकन करना पड़ा। कुटुम्ब में रहना माता-पिता की देखभाल, पत्नी, पुत्रों का रक्षण धर्मरूप है किन्तु बंधनकारी हो, आसक्ति में बांधने वाला हो यह कर्म अधर्मकारी हो जाता है। अधर्म को आपत धर्म के रूप में स्वीकार कर उन्होंने (श्रीकृष्ण) अपना स्वभाववत धर्म जगत्गुरु का नहीं छोड़ा और लोकसंग्रह के रूप में कल्याण कार्य पूर्ण किया। भगवान बता रहे हैं कि कैसे संसार में रहकर भी इससे अलग रहा जा सकता है। संसार के नियमों, रिवाजों, बंधनों और रिश्ते-नातों में पड़कर भी कैसे इससे विमुक्त रहा जा सकता है। भगवान हमें जीवन में वैराग्य उतारने की शिक्षा भी देते हैं।

कई बार इन्सान संन्यासी बनकर भी वैराग्य नहीं पा पाता, भगवान ने सिद्ध किया है कि इच्छाशक्ति हो, ज्ञानेंद्री सक्रिय हो और भीतर से अध्यात्म को, भक्ति को जगाया जाए तो संसार में रहकर भी वैराग्य धारण किया जा सकता है। भगवान ने अपने पूरे जीवन में इस बात को साबित भी किया है। वे न तो कभी स्थान के मोह में फंसे, न कभी इन्सान के रिश्तों के मोह में फंसे, न कभी दुनियादारी में उलझे। कृष्ण सबमें होकर भी सबसे अलग रहे। केवल एक ही बंधन उन्हें बांध सका वह था भक्ति और प्रेम का बंधन। जिसने कृष्ण पर यह पासा फेंका कृष्ण उसके अधीन हो गए।

जब ना मिले अपने ही सवालों का जवाब तो....
आज की जटिल दुनिया में जो बहुत छोटी हो गई है कर्म व देश परिवर्तनशील हो गए हैं। काल अपना विनाशक तथा सृजनात्मक कर्म करता जा रहा है। मनुष्य के सामने स्वयं निर्मित मकडज़ाल है, जिसमें वह फंसा हुआ है, उस जाल को काटे बिना निकलना असंभव है, स्वयं ही काटना है।

इन्सान जब जन्म लेता है तो उसके साथ ही यह मकडज़ाल शुरु हो जाता है। पल-पल बढ़ती देह उसके सामने चुनौतियां भी बढ़ा देती हैं। इन चुनौतियों को पूरा करते-करते जीवन बीत जाता है। हम खुद को एक जाल में बुना पाते हैं। बचपन में पढऩे-लिखने की जिम्मेदारी, फिर नौकरी-व्यापार की फिर घर-परिवार, बच्चों की जिम्मेदारी और उसके बाद वृद्धावस्था में स्वयं की ही चिंता रहती है।

अब सवाल यह है कि इस मकडज़ाल से कैसे मुक्ति पाई जाए। हम जीवनभर इस सवाल का जवाब दुनियाभर में खोजते रहते हैं लेकिन जवाब नहीं मिलता दुनिया में उसका जवाब मिलेगा भी नहीं। कई बार जवाब हमारे पास ही होता है। जब जवाब की तलाश हो तो खुद के भीतर झांकिए। कृष्ण के चरित्र से सीखिए।

हम इस उलझन से, इन चुनौतियों से आसानी से बाहर आ सकते हैं। शर्त यह है कि हमारे मन में इसकी इच्छाशक्ति हो। संसार से भागना, जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर भगवान की शरण में जाना या संन्यास लेना इसका जवाब नहीं है। हम संसार में रहकर भी अपने भीतर अध्यात्म को जगा सकते हैं। जैसे ही हमारे मन में अध्यात्म जागेगा, बस समझो भंवर से निकलने का रास्ता मिल गया। अब एक और सवाल उठता है कि अपने भीतर वैराग्य को कैसे जगाया जाए। अध्यात्म का संचार कैसे शुरु हो, मन में भक्ति कैसे जागे। मन अनियंत्रित होता है सो पहले उसे नियंत्रित करने की कोशिश करनी होगी। मन के नियंत्रण में आने के बाद ही जीवन के सूत्र आपके हाथ में आएंगे।

अभी अधिकांश लोगों के जीवन के सूत्र या तो परिजन, प्रियजन के हाथों में होते हैं या फिर मन के हाथों में। हम अपने जीवन की डोर को खुद पकड़ें। अपने विवेक से, बुद्धि से, ज्ञान से। जब यह सूत्र हमारे हाथ में होगा तो फिर जीवन को अपने हिसाब से गति दे सकेंगे।मन नियंत्रण में हो, जीवन के सूत्र अपने हाथ में हो तो फिर बात टिकती है कर्म पर। कर्म ही सारे मार्ग खोलता है। जीवन में अध्यात्म का मार्ग अवरूद्ध भी कर्म से होता है और खुलता भी कर्म से है।

कर्म हमारे जीवन की दिषा तय करते हैं। प्रारब्ध बताते हैं। हम क्या हैं और आगे क्या होंगे यह भी तय करता है कर्म। कर्म संस्कारों का निर्माण करते हैं। संस्कार ही मकडज़ाल हैं। संस्कारों को काटने के तीन तरीके लिए जा सकते हैं कर्म को काटना, ज्ञान से कर्म जनित संस्कारों को काटना और भक्ति के कर्मों से निर्मित संस्कारों का उत्छेदन करना।

क्या है जो आपको भगवान से दूर कर सकता है?
सात्विक कर्म वे होते हैं जिसके केन्द्र में परमात्मा होता है। ऐसे कर्म जो भगवान को ध्यान में रखकर किए जाते हैं, जिनके पीछे उद्देश्य भी पवित्र होता है और उसका तरीका भी। सात्विक कर्म हमें कर्तव्य सिखाते हैं। यहां कर्तव्य का अर्थ समझना आवश्यक है। कर्तव्य केवल वह नहीं है जो हमें केवल कर्म से जोड़ता है। कर्म और कर्तव्य अलग-अलग हैं। कर्तव्य, जिम्मेदारी को भी नहीं कहते हैं। कई लोग जिम्मेदारियों को ही कर्तव्य मान बैठते हैं। जिम्मेदारियों के बहाने ही जाने-अनजाने कई गलतियां, पाप कर बैठते हैं और फिर यह कहते हैं कि फलां जिम्मेदारी निभाने के लिए ऐसा किया। यह तो मेरा कर्तव्य था। दरअसल जिम्मेदारी कर्तव्यों का एक अंग हो सकती है, पूर्ण रूप से कर्तव्य नहीं हो सकतीं।

कर्तव्य का अर्थ तो सबसे अलग है। हमारे विद्वानों ने कर्तव्यों की सही व्याख्या की है। कर्तव्य का अर्थ है ऐसा कर्म जो वास्तव में करने योग्य है, धर्म से युक्त है, ऐसा कर्म जिसके करने से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी ऐसे व्यक्ति को हानि नहीं होती जो धर्म के मार्ग पर चल रहा है। कर्तव्य उसे कहते हैं जिसके किए जाने से किसी अन्य का कर्तव्य प्रभावित नहीं होता। इसीलिए कहा गया है कि कर्तव्य का रास्ता बहुत कठिन है। राजसिक कर्म कहते हैं उसे जिसके केन्द्र में संसार हो। राजसिक कर्म को जिम्मेदारियों से जोड़ा जा सकता है लेकिन कर्तव्य से नहीं। संसारिक निर्वहन के लिए किए गए कर्म राजसिक होते हैं, ऐसे कर्म हमें कई बार परमात्मा तक ले जाते हैं तो कई बार उससे दूर भी कर देते हैं। राजसी कर्म भी परमात्मा को पाने का जरिया हो सकता है लेकिन ऐसे कर्मों का मार्ग सात्विक की ओर जाने वाला होना चाहिए। इससे भी कोई हानि नहीं है।

तीसरा होता है तामसिक कर्म। यह पूरी तरह भगवान से दूर करने वाला होता है। इन कार्मों के केन्द्र में न तो संसार होता है और नहीं परमात्मा। ये कर्म आत्म केन्द्रित होते हैं। केवल खुद के सुख के लिए किए जाते हैं। ये कर्म मनुष्य के पतन का कारण होते हैं। इसमें न तो कर्तव्य का भाव होता है और न ही जिम्मेदारी का।

व्यापक रूप से अच्छे कर्म हितकारी-स्व व लोक के लिए तथा बुरे कर्म (विनाशकारी) लिए जा सकते हैं। अपने कर्तव्य कर्म स्वधर्मी कर्म होते हैं, जिनको करना श्रेष्ठ है। जन्मजात व्यवस्था क्वचित ही षेश है। ऐसे में अच्छे तथा बुरे का भेद सात्विक, राजसिक और तामसिक लेना ही ठीक है। ''सात्विक कर्म-लोक हितकारी, राजस कर्म-निज हितकारी, तामसिक कर्म-विनाषकारी "

कर्मफल त्याग, आसक्ति रहित मन:स्थिति, मन की स्थिरता, निश्कामना प्राप्त कर कर्मयोगी, ज्ञानी या भक्त परमसिद्ध स्थिति प्राप्त कर ज्ञान की पराकाश्ठा पाता है। कर्म, ज्ञान व भक्ति मूलरूप में तथा अंत में एक ही स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं। तीनों का उद्गम तथा विसर्जन एक ही है। किसी भी मार्ग से गतिमान हुए योगी (भगवान से युक्त) की बुद्धि षुद्ध (स्थित प्रज्ञ) दृढ़तापूर्वक मन-इन्द्रियों को वष में करते हुए शब्दादि विषय त्याग राग द्वेश को जीत अल्प आहार (जिव्हा संयम) वाचा, काया और मन को अंकुश में रखकर ध्यान में रहते हुए, वैराग्य का आश्रय ले, ममात रहित शान्त हो ब्रह्यभाव की योग्यता प्राप्त करता है। गीता 18 अ श्लोक 51, 52, 53 ब्रह्यभाव को प्राप्त स्थिति-''ब्रह्यभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काड्क्षति। सम: सर्वेशु भूतेशु भद्भक्तिं लभते पराम।।

ब्रह्यभाव युक्त मनुष्य सदा प्रसन्न करता है। न शोक करता है न किसी की कामना करता है, सब प्राणियों में समभाव रखता है तब उसे पराभक्ति प्राप्त होती है।पराभक्त भगवान को तत्व से जानता है। वह सगुण-निर्गुण दोनों भावों को समझ सकता है। तत्व से जानकर भक्त भगवान में लीन हो जाता है। पुनर्जन्म का झंझट मिट जाता है।

किन्तु इस स्थिति को पाने के लिए पूर्ण समर्पण की आवश्यकता अर्जुन और उद्धव दोनों को श्रीकृष्ण (भगवान भाव में) बताते हैं। समर्पण भी एक अतिशुद्ध अन्त:करणीय कर्म है जिसमें मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार समाहित है।

भगवान शिव ने वृकासुर को मारा क्यों नहीं?
ब्रह्या, विष्णु और महादेव-ये तीनों शाप और वरदान देनें में समर्थ हैं, परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्या शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं, परन्तु विष्णु भगवान वैसे नहीं हैं। इस विषय में एक प्राचीन घटना है। शंकरजी एकबार वृकासुर को वर देकर संकट में पड़ गए थे। वृकासुर शकुनि का पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारद को देख लिया और उनसे पूछा कि तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होने वाला कौन है? देवर्षि नारद ने कहा-तुम भगवान शंकर की आराधना करो। नारद ने वृकासुर को जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले शिव के बारे में बता दिया। शिव भोलेनाथ हैं उन्हें कोई भी प्रसन्न कर सकता है। शिव ऐसे देवता हैं जो थोड़े से प्रयास से खुश होकर मुंह मांगा वरदान दे देते हैं। अधिकांश असुर शिव के ही कृपा पात्र थे। विष्णु मायापति हैं, इसलिए उन्हें प्रसन्न करना मुश्किल है। लेकिन शिव सहज हैं। उनके पास कोई माया नहीं है। वे बस ऐसे ही प्रसन्न हो सकते हैं। उतने ही सहजता में वे क्रोधित भी हो जाते हैं। विष्णु न तो जल्दी क्रोधित होते हैं और नहीं प्रसन्न।

नारदजी के उपदेश पाकर वृकासुर केदार क्षेत्र में गया और अग्नि को भगवान शंकर का मुख मानकर अपने शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा। भगवान शंकर ने प्रकट होकर वृकासुर से कहा-प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो! बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम मुंह मांगा वर मांग लो। अरे भाई मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूं। वृकासुर ने वर मांगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूं, वही मर जाए। उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने से हो गए फिर हंसकर कह दिया-अच्छा ऐसा ही हो।

शिव ने भोलेपन में, अपने सहज स्वभाव से ही उसे मनचाहा वरदान दे दिया। वे इतने सीधे देवता हैं कि एकबार अपनी शरण में आए भक्त का विरोधी हो जाने पर भी बुरा नहीं करते। वृकासुर के मन में पाप था, वह व्याभिचारी भी था सो वरदान पाते ही उसके मन में पाप जाग गया।

भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आई कि मैं पार्वतीजी को ही हर लूं। वह असुर शंकरजी के वर की परीक्षा के लिए उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का प्रयास करने लगा। अब तो शंकरजी अपने दिए हुए वरदान से ही भयभीत हो गए। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अंत तक दौड़ते गए, परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े।

कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि भगवान शिव ने सर्वसमर्थ होते हुए भी वृकासुर को मारा क्यों नहीं, वे उससे भाग क्यों रहे हैं। इसका जवाब है कि शिव ने वृकासुर को अपना शरणागत मान लिया था, वृकासुर भले ही अपने धर्म से हट गया, जिससे वरदान लिया उसी को मारने चला था लेकिन शिव अपना धर्म कैसे छोड़ सकते थे। शरणागत को अभयदान के बाद मारना उन्हें अपने धर्म के विरूद्ध लगा सो लोकोपवाद का डर किए बगैर वे वृकासुर से डरकर भाग रहे हैं। शिव को मारना तो असंभव है क्योंकि वे स्वयं ही काल के अधिपति महाकाल हैं लेकिन उनको मारने के प्रयास में वृकासुर स्वयं ही मर जाता, जिससे शिव के धर्म का विलोप हो सकता था। शरणागत को मारने से उन्हें लोकोपवाद सहन करना पड़ता। सो शिव वृकासुर से भाग रहे हैं। इससे उनकी भी रक्षा हो रही है और धर्म की भी।

फैसला लेने से पहले जरूरी है...
नारद ने वृकासुर को शिव के बारे में बता दिया। शिव भोलेनाथ हैं उन्हें कोई भी प्रसन्न कर सकता है। शिव ऐसे देवता हैं जो थोड़े से प्रयास से खुश होकर मुंह मांगा वरदान दे देते हैं। अधिकांश असुर शिव के ही कृपा पात्र थे। विष्णु मायापति हैं, इसलिए उन्हें प्रसन्न करना मुश्किल है। लेकिन शिव सहज हैं। उनके पास कोई माया नहीं है। वे बस ऐसे ही प्रसन्न हो सकते हैं। उतने ही सहजता में वे क्रोधित भी हो जाते हैं। विष्णु न तो जल्दी क्रोधित होते हैं और नहीं प्रसन्न।

नारदजी के उपदेश पाकर वृकासुर केदार क्षेत्र में गया और अग्नि को भगवान शंकर का मुख मानकर अपने शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा।

भगवान शंकर ने प्रकट होकर वृकासुर से कहा-प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो! बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम मुंह मांगा वर मांग लो। अरे भाई मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूं। वृकासुर ने वर मांगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूं, वही मर जाए। उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने से हो गए फिर हंसकर कह दिया-अच्छा ऐसा ही हो।

शिव ने भोलेपन में, अपने सहज स्वभाव से ही उसे मनचाहा वरदान दे दिया। वे इतने सीधे देवता हैं कि एकबार अपनी शरण में आए भक्त का विरोधी हो जाने पर भी बुरा नहीं करते। वृकासुर के मन में पाप था, वह व्याभिचारी भी था सो वरदान पाते ही उसके मन में पाप जाग गया।

भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आई कि मैं पार्वतीजी को ही हर लूं। वह असुर शंकरजी के वर की परीक्षा के लिए उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का प्रयास करने लगा। अब तो शंकरजी अपने दिए हुए वरदान से ही भयभीत हो गए। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अंत तक दौड़ते गए, परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े।

कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि भगवान शिव ने सर्वसमर्थ होते हुए भी वृकासुर को मारा क्यों नहीं, वे उससे भाग क्यों रहे हैं। इसका जवाब है कि शिव ने वृकासुर को अपना शरणागत मान लिया था, वृकासुर भले ही अपने धर्म से हट गया, जिससे वरदान लिया उसी को मारने चला था।

लेकिन शिव अपना धर्म कैसे छोड़ सकते थे। शरणागत को अभयदान के बाद मारना उन्हें अपने धर्म के विरूद्ध लगा सो लोकोपवाद का डर किए बगैर वे वृकासुर से डरकर भाग रहे हैं। शिव को मारना तो असंभव है क्योंकि वे स्वयं ही काल के अधिपति महाकाल हैं लेकिन उनको मारने के प्रयास में वृकासुर स्वयं ही मर जाता, जिससे शिव के धर्म का विलोप हो सकता था। शरणागत को मारने से उन्हें लोकोपवाद सहन करना पड़ता। सो शिव वृकासुर से भाग रहे हैं। इससे उनकी भी रक्षा हो रही है और धर्म की भी।

बड़े-बड़े देवता इस संकट को टालने का कोई उपाय न देखकर चुप रह गए। अन्त में वे प्राकृतिक अंधकार से परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठलोक में गए। वैकुण्ठ में स्वयं भगवान नारायण निवास करते हैं।भगवान ने कहा- हम इस बात पर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या? शंकर दक्ष प्रजापति के शाप से पिशाचभाव को प्राप्त हो गए हैं। भगवान ने ऐसी मोहित करने वाली अद्भुत और मीठी वाणी कही कि उसकी विवेक बुद्धि जाती रही। उसने भूलकर अपने ही सिर पर हाथ रख लिया। बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरती पर गिर पड़ा।

विष्णु ने वृकासुर को बिना श्रम के ही, उसके हाथों ही मरवा दिया। इससे शिव के प्राणों और धर्म पर आए संकट से छुटकारा तो मिला ही, साथ ही देवताओं और अन्य लोकों पर वृकासुर के वरदान से आने वाले संकट का भी निराकरण हो गया। सभी देवताओं ने विष्णु की स्तुति की। उन्हें धन्यवाद दिया।

भगवान शंकर उस विकट संकट से मुक्त हो गए। अब भगवान पुरुषोत्तम ने भयमुक्त शंकरजी से कहा कि देवाधिदेव! बड़े हर्ष की बात है कि इस दुष्ट को इसके पापों ने ही नष्ट कर दिया। ऐसा कौन प्राणी है जो महापुरुषों का अपराध करके कुशल से रह सके।

इस कथा में कई शिक्षाएं छुपी हैं, जिसे हम अपने जीवन में उतार सकते हैं। पहली किसी भी समय, बिना गहराई से विचार करे कोई निर्णय न लें, दूसरी, शक्ति हमेशा सदाचारी को सौंपी जाए। बिना सोचे दी गई शक्ति का दुरुपयोग स्वयं आपके खिलाफ भी हो सकता है। तीसरी, प्राणों पर संकट भी आए तो भी अपने धर्म को नहीं छोडऩा चाहिए।

भगवान विष्णु को देवताओं में सबसे श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि...
श्रीकृष्ण विष्णु के पूर्ण अवतार हैं, सभी संतों ने उन्हें श्रेष्ठ देव घोषित किया है। विष्णु गृहस्थी के देवता हैं, वे परिवार बचाते हैं, परिवार का ही कल्याण करते हैं। वे जितने सहनशील हैं, उतना कोई देवता नहीं, जितना धैर्य उनमें है उतना किसी भी देवता में नहीं है। इसकी एक कथा भी है।

एक बार सभी ऋषि-मुनियों में चर्चा चली कि सबसे विनम्र देवता कौन से हैं। तीनों प्रमुख देवों के कृपापात्र और उनके भक्त अपने-अपने तथ्य रखने लगे। शिव भक्तों ने कहा भोलेनाथ सबसे विनम्र और दयालु हैं, वे स्वभाव से ही भोले हैं, ब्रम्ह भक्तों ने कहा-ब्रम्हाजी ने सृष्टि की रचना की लेकिन अपने हाथ में कुछ नहीं रखा। संचालन विष्णु के हाथ में सौंप दिया। उन्हें कभी इस बात का घमण्ड भी नहीं हुआ कि इतनी सुंदर सृष्टि की रचना उन्होंने की है।

विष्णु भक्तों ने भी अवतारों का तर्क दिया कि जब भी किसी जीव पर संकट आता है तो विष्णु अवतार लेकर उनकी रक्षा करते हैं। सब तर्क दे रहे थे लेकिन फिर भी तय नहीं हो पा रहा था कि सबसे विनम्र कौन है?

संतों ने तय किया कि तीनों देवों के व्यवहार की परीक्षा ली जाए, लेकिन परीक्षा कौन ले? इतना सक्षम कौन है? तब ब्रम्हा के मानसपुत्र भृगु ऋषि उठे और उन्होंने कहा-मैं जाऊंगा तीनों देवताओं के पास।

भृगु प्रतापी थे उन्हें सभी लोकों में सशरीर जाने की अनुमति थी। वे सबसे पहले अपने पिता ब्रम्हाजी की सभा में गए। भृगु ने पिता को बिना प्रणाम किए ही अपना आसन ले लिया। ब्रम्हा को यह अनुशासनहीनता लगी, उन्होंने भृगु से कहा-हे भृगु तुम कदाचीत अपनी विद्या और ज्ञान के दंभ में सारा लोकाचार भुल गए हो। क्या तुम्हें इतना भी ध्यान नहीं है कि पिता की सभा में आकर पहले उन्हें प्रणाम करना चाहिए। भृगु ने खड़े होकर क्षमा मांगी और उठकर चले गए। ब्रम्हा को एक बार प्रणाम न करने पर इतना बुरा लगा तो वे विनम्र कैसे हो सकते हैं।

फिर भृगु कैलाश पर्वत पर गए। वहां शिव अपने गणों के साथ बैठे थे। भृगु गए और सीधे एक आसन पर जाकर बैठ गए। शिव ने इसे सहज लिया लेकिन शिवगणों को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने भृगु से कहा- हे ऋषिवर आप महाकाल की सभा में आए और आपने उन्हें प्रणाम तक नहीं किया। यह तो शिव का अपमान है। गणों के ऐसा कहने पर भी शिव कुछ नहीं बोले। फिर गणों ने कहा है ऋषिश्रेष्ठ आप अगर लोकाचार का पालन नहीं करेंगे तो कैसा प्रभाव पड़ेगा। शिव ने भी इसमें अपनी सहमति दी। भृगु शिवसभा से उठकर चल दिए।

अब बचे थे श्री विष्णु। भृगु सीधे क्षीरसागर पहुंचे। वे गए तो द्वारपालों ने रोक लिया। वैकुण्ठनाथ अभी निद्रा में हैं, विश्राम कर रहे हैं। भृगु नहीं ठहरे। द्वारपालों ने भी शाप के डर से उन्हें नहीं रोका। भृगु विष्णु के पास पहुंचे तो वे शेष शैय्या पर सो रहे थे। लक्ष्मी चरण दबा रहीं थीं। भृगु ने क्रोध में विष्णु के सीने पर एक लात जमा दी।कहने लगे कि यह तो एक ब्राम्हण का अपमान है, ब्राम्हण ऋषि द्वार पर आए और तुम सो रहे हो। जगतपाल बनते हो, इतना भी ध्यान नहीं। विष्णु के सीने पर लात लगी तो सारे देवता कांप गए। भृगु को यह क्या हो गया। स्वयं नारायण की छाती पर लात मार दी। नारायण क्रोधित हो गए तो सुदर्शन चक्र चल जाएगा। भृगु के तो आज प्राण ही गए, समझो।

भगवान हमारी परीक्षा क्यों लेते है?
विष्णु ने अपने नेत्र खोले, भृगु खड़े दिखाई दिए तो तुरंत पैर पकड़कर क्षमा मांगी-ऋषिवर मेरी छाती वज्र की है, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं लगी। तनिक ठहरिए मैं औषधी मंगवाता हूं। आप कैसे पधारे मुझे सेवक को आदेश देते मैं स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित हो जाता। भृगु ने अपने व्यवहार के लिए विष्णु से क्षमा मांगी, फिर सारे संतों ने घोषित किया कि सबसे विनम्र देवता विष्णु ही हैं। महात्मा विदुर अपने भाई से खिन्न, दुर्योधन से अपमानित हो तीर्थाटन पर निकल गए। तीर्थाटन की अवधि में महाभारत का युद्ध, समाप्त हो चुका था। युधिष्ठिर राजपद पर आसीन हो चुके थे। महाभागवत् उद्धवजी से सब कुछ सुन परम ज्ञानी मुनि मैत्रेय के दर्शनार्थ हरिद्वार पहुंचे। मैत्रेय मुनि ने विदुरजी को आत्माओं के आत्मापूर्ण परमात्मा का विवेचन सुनाया, आत्मशक्ति ज्ञान और क्रिया से सम्पन्न विश्वात्मा का दिग्दर्शन कराते हुए मैत्रीय मुनि ने विदुरजी को मायापति की माया, जिसकी चाल चक्कर में डालने वाली अनन्त है, समझाई महाभाग विदुरजी के मन का मोह दूर हुआ।अब हम भागवत के दसवें स्कंध के नवासी (89वें) अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं।

दशम स्कंध में कुल 90 अध्याय हैं। भक्तों की परीक्षा तो भगवान लेते ही रहते हैं। नियति सभी की परीक्षा लेती है। एक बार नहीं बार-बार लेती है। भले ही खुद भगवान ने मनुश्य रूप में अवतार क्यों न लिया हो। मानव देह धरी है तो संसार की सभी चीजें, आरोप, प्रत्यारोप, मान-अपमान, सभी कुछ सहन करना पड़ता है। लेकिन यह परीक्षा हमारी न होकर हमारे धर्म की होती है। हम अपने धर्म पर कितने टिके रह सकते हैं। हमारे मन पर हमारा कितना नियंत्रण है, उन सब बातों की परीक्षा होती है। कई लोग परीक्षा की घड़ी में बौखला जाते हैं, अपने धर्म से डिग जाते हैं और यहीं से उनका पतन शुरू हो जाता है।

भागवत में श्रीकृष्ण भी लगातार परीक्षा दे रहे हैं। कभी ब्रम्हा, कभी शिव, कभी जरासंध तो अब उनके ही नगरवासी, कृष्ण के ही अनुगामी उन पर आरोप लगा रहे हैं। कृष्ण ने हर परीक्षा में बड़े ही धैर्य से काम लिया है। उन्होंने कभी धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा। वे जितने शक्तिशाली थे उतने ही सहज और व्यवहारिक भी। हर बात का गहन चिंतन कृष्ण के सहज व्यवहार में ही था। वे कभी आरोपों का हिंसात्मक दमन नहीं करते थे, ना ही कभी अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते थे। वे हर बात का उत्तर तलाशने, हर आरोप के निराकरण में ही विश्वास रखते थे।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष

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