Monday, March 21, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 3)

हनुमानजी से सीखें समझाना
अपने आपको समझदार मानने का हक सबको है। दूसरे को नासमझ मानना बीमारी है। इन दिनों ज्यादातर लोग इसी बीमारी से ग्रस्त हैं। खतरा तब और बढ़ जाता है, जब ऐसे लोगों को समझाना पड़ता है। बड़े पद पर व्यक्ति बैठा हो और यदि उसे कोई बात समझाना पड़े तो यह बहुत बड़ी रिस्क होती है। मुद्‌दा यह होता है कि उसके अहंकार को कितनी चोंट पहुंच रही है। हनुमानजी के सामने किष्किंधा कांड में यही चुनौती आ गई थी। रामजी का काम भूलकर सुग्रीव गलती कर रहे थे। हनुमानजी जान चुके थे कि यह भूल मेरे राजा को महंगी पड़ेगी। किसी राजा को समझाना या बड़े पद पर बैठे व्यक्ति को कुछ कहना मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर फेंकने जैसा है। सामने वाले की अहंकारजन्य मक्खियां आपको नोंच सकती हैं।

जिस ढंग से हनुमानजी ने सुग्रीव को समझाया उससे मोहित होकर तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी, ‘निकट जाई चरनन्हि सिरू नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा।हनुमानजी सुग्रीव के पास गए, प्रणाम किया और चार विधि से समझाया। हनुमानजी जानते थे कि राजा में अहंकार होता है। उसे संतुष्ट किए बिना न तो वे सुनेंगे और न समझेंगे। फिर अपनी वाणी और विचार में प्रभाव डालने के लिए समझाने की चार विधियों का उपयोग किया- साम, दाम, दंड और भेद। साम में उन्होंने बताया कि मित्रता निभाइए। पहले उन्होंने निभाई, अब आपका अवसर है। दाम, उन्होंने राज्य दिलाया है। उपकार का बदला चुकाएं। दंड, जो श्रीराम बाली को दंड दे सकते हैं वे आपको भी नहीं छोड़ेंगे। भेद, आपके ऊपर अंगद को युवराज बनाया है, जो बाली का बेटा है। सुग्रीव को तुरंत समझ में आ गया। हनुमानजी जीवन में होने का यही मतलब है कि भूल करने पर वे हमें सही समझ देकर अच्छे काम करवा लेंगे।

सच को स्थापित करेगी विनम्रता
कुछ काम बिना ताकत लगाए पूरे हो ही नहीं सकते। इन दिनों जिस काम के लिए बहुत ताकत लगानी पड़ती है वह है सच बोलना। लोग साफ कहते हैं, सच बोलकर सभी काम नहीं हो सकते। धीरे-धीरे यह मान्यता दृढ़ हो गई कि कुछ काम झूठ बोलकर ही होते हैं। झूठ की यही विशेषता है कि उसे अपनी जगह बनाना बहुत अच्छी तरह से आता है। झूठ के पास अपना एक नशा है और यह उड़ान में विश्वास रखता है। चूंकि आज सभी जल्दी में हैं तो उन्हें झूठ का फर्राटा बहुत पसंद आता है। तेजी से जो काम हो जाए उसे सफलता मान लिया जाता है। कुछ परिणाम ऐसे हैं कि संसार को उसमें सुख दिखता है, लेकिन कुछ परिणाम ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ आप देख पाएंगे और उनमें शांति बसी होगी। झूठ अपने साथ एक प्रतिबिंब लेकर जरूर चलता है, जिसका नाम है सुख। झूठ अपने साथ सुविधा भी लेकर चलता है पर बाद में दुविधाएं पैदा करता है।

सत्य दुविधा लेकर चलता है परंतु बाद में अद्‌भुत सुविधा देगा। लोग सच क्यों नहीं बोल पाते? या जो लोग सच बोल रहे हैं वे दूसरों को प्रेरित क्यों नहीं कर पाते? इसका कारण यह है कि सच बोलने वाले ज्यादातर रूखे हो जाते हैं, सख्त हो जाते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं। यदि सत्य बोलने वाला व्यक्ति भीतर रस रखे, मधुरता रखे, नम्रता रखे, तो सत्य की भी सही मार्केटिंग हो सकेगी। झूठ बोलने वालों ने झूठ की गजब की मार्केटिंग की है। सत्यवादियों ने कहा हम तो सच बोलते हैं। सामने वाले को बुरा लगे या भला लगे। यह एक खराब मार्केटिंग है, इसलिए सच बोलने वालों को चाहिए कि उनके पास जो सच का प्रोडक्ट है उसकी सही ढंग से मार्केटिंग करें। इसके लिए खुद उन्हें अपनी प्रस्तुति सर्वोत्तम करनी पड़ेगी, इसलिए जब भी सच बोलें वाणी की विनम्रता और व्यक्तित्व का आकर्षण जरूर बनाए रखें।

बंटवारे में प्रेम भाव ऐसे बचाएं
न्यायालयों में खासतौर पर पारिवारिक प्रकरण का अध्ययन करने का अवसर मिले तो मत चूकिए। समझ में आएगा कि जो फैसले घर के भीतर किए जा सकते हैं, वे जरा सी नादानी और अहंकार के कारण अदालतों में पहुंच जाते हैं। एक ही माता-पिता की संतानों के बीच जब बंटवारा होता है और यदि उसमें समझदारी न रखी जाए तो वसीयत शस्त्र बन जाती है और अदालत ही कुरुक्षेत्र होता है। मैं अनेक मारवाड़ी परिवारों से परिचित हूं और वहां के धीर-गंभीर लोग चिंतित हैं कि बंटवारा सदस्यों में नहीं, परिवार के प्रेम में हो जाए तो बड़ी पीड़ा होती है। इस बात पर सहमति है कि सदस्यों में बंटवारा होगा ही, लेकिन कम से कम प्रेम का धागा न टूटे। बंटवारे में परिश्रम, योग्यता, धन और समय ये मुद्‌दे होते हैं। किसी सदस्य का दावा होता है कि उसने परिश्रम अधिक किया।

धन का साम्राज्य उसकी योग्यता से है, इसलिए उसे मूल्य अधिक मिले। यह तो सही है कि सदस्यों में कोई ऊंचा-नीचा जरूर होगा। व्यावहारिक पक्ष तो यह है कि सबको समान मिल जाए। जिन घरों में ठाकुरजी की पूजा होती हो, परमात्मा का नाम लिया जाता हो वहां के सदस्यों को समझना चाहिए कि पूजा का मतलब है धैर्य, समझ। अपने परिश्रम को पूजा मान लें। धन यदि आपके पास कम आ रहा है तो दान मानकर छोड़ दें। जो समय आपने अपने सदस्यों के साथ एक ही काम में दिया हो उसको भविष्य के लिए इन्वेस्टमेंट मान लें और जब बंटवारा हो तो व्यवहार की दृष्टि से सजग रहें, लेकिन फिर जो भी हो गया हो उसको लेकर मन में जन्मा वैमनस्य मिटाने का प्रयास करें। जब हम भगवान की पूजा करते हैं, तो यह भी भरोसा रखिए कि आपके हिस्से का कोई ले नहीं सकता तथा किसी और के हिस्से का आपको मिल नहीं सकता। बस यही भाव बंटवारे में प्रेम बचाएगा।

ऊर्जा के सदुपयोग से आत्मविकास
विज्ञान और धर्म एक-दूसरे के विरोध में कई तर्क देते हैं। वैज्ञानिकों की नजर में धर्म लगभग अंधविश्वास है। धार्मिक लोग वैज्ञानिकों को संस्कृति, संस्कार का पतन करने वाला मानते हैं। इनके झगड़े में नई पीढ़ी बहुत भ्रम में पड़ जाती है कि किसे मानें? उनकी प्रगति में विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है। विज्ञान ने उन्हें सबकुछ दिया, इसलिए विज्ञान को छोड़ना या उसकी आलोचना करना लगभग मूर्खता है, लेकिन जब शांति की बात आती है तो विज्ञान भी हाथ खड़े कर देता है। विज्ञान कहता है कि मैंने जो तुम्हें सुख दिया है, वही शांति है, लेकिन ऐसा होता नहीं है। शांति अपने आप में बिल्कुल अलग बात है। सुखी व्यक्ति शांत हो यह जरूरी नहीं। शांत व्यक्ति जरूर सुखी हो सकता है।

शांति का क्षेत्र शुरू होता है धर्म के साथ, लेकिन धर्म क्षेत्र वालों ने भी कोई कम उपद्रव नहीं मचा रखा है। वे भी उतने ही अशांत हैं जितने विज्ञान वाले। दोनों ही क्षेत्र के लोग जहां सदुपयोग करना था वहां दुरुपयोग कर रहे हैं। किंतु विज्ञान और धर्म शक्ति और ऊर्जा पर सहमत हैं। विज्ञान की सारी गतिविधि और शोध एनर्जी पावर पर टिकी है। धर्म ने इन दोनों का उपयोग आत्मविकास के लिए किया है। शोध दोनों ही क्षेत्रों में हुआ है। ऋषि-मुनि भी बहुत बड़े वैज्ञानिक थे। वैज्ञानिक भी ऋषि-भाव से ही सफल हो पाता है। शास्त्रों ने कहा है कि बड़ा काम करने निकलें तो अधिक प्रतिरोध न करें। अहंकार, कर्कश वाणी इन सबको छोड़ दें। इसका सीधा अर्थ है सहमत हो जाएं, शांत रहें। ऋषि-मुनियों ने इसको शक्ति का सदुपयोग कहा है, कमजोरी नहीं माना है। यह ऊर्जा का रूपांतरण है। इसी रूपांतरण से वैज्ञानिकों ने सुख-साधन तैयार किए और ऊर्जा के इसी सदुपयोग से हम आत्मविकास भी कर सकते हैं।

इंद्रियों को योग से अनुशासित करें
मनुष्य को यदि मालूम पड़ जाए कि वह जिन कारणों से भूल कर रहा है उसे अब दूर करने का समय आ गया है तो इसे बुद्धिमानी कहेंगे, लेकिन ऐसी बुद्धिमानी अच्छे-अच्छों के पास नहीं आ पाती। वे जानकर भी गलत कारण छोड़ नहीं पाते। यदि ऐसी समझदारी न आए तो कम से कम उन लोगों को अपने साथ रखें, जो ऐसी समझदारी दे सकें। यह रिश्ता हनुमानजी और सुग्रीव के बीच था। हनुमानजी ने उन्हें चार विधि से समझा दिया। सुग्रीव ने गलती स्वीकार भी कर ली, बल्कि उसका कारण भी बताया। वह कारण हमारे लिए भी बड़े काम का है। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘सुनि सुग्रीव परम भय माना। विषय मोर लीन्हेउ ग्याना।।यानी मैं विषयों के वश में ऐसी गलती कर गया।

विषय का मतलब वे सारी बातें, जिनमें काम, क्रोध, मद और लोभ छुपा है। सीधी-सी भाषा में कहें तो भोग और विलास। ये दो ऐसे विषय हैं, जिनमें आदमी उलझ जाता है। हम विषयों का कुछ नहीं कर सकते। अशोभनीय दृश्य, अनुचित बातें हमारे आसपास घट रही हैं, हम कब तक इनसे बचेंगे? हमें समझना होगा कि ये विषय हमारे जीवन में उतरते कैसे हैं। उसका माध्यम होती हैं इंद्रियां- हाथ, पैर, मल-मूत्र की दो इंद्रियां, कंठ, आंख, नाक, कान, त्वचा और जिह्वा। इंद्रियां यदि अनियंत्रित हुईं तो ये विषयों तक जाएंगी और यदि नियंत्रित हो गईं तो ये अपने ही भीतर उतरकर ऊर्जा प्राप्त कर लेंगी। सुग्रीव का हनुमानजी से जुड़ने का मतलब हनुमान योगी हैं, अनुशासित व्यक्तित्व हैं। हमारी इंद्रियों को योग यानी अनुशासन मिल जाए तो वे भोग-विलास में ऊर्जा नष्ट नहीं करेंगी बल्कि हमारा व्यक्तित्व निखारने में, हमें सफलता दिलाने में और लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद करेंगी।

व्यावहारिकता से हो शादी का फैसला
विवाह को लेकर आज भी कई प्रश्न उठते रहते हैं। शुरुआत यहां से होती है कि क्या विवाह किया जाए? जीवनसाथी का चुनाव कैसे करें? किस उम्र में किया जाए? क्या विवाह जन्मपत्री मिलाकर करें और प्रेम-विवाह हो या परिवार की सहमति से? पहले जीवनसाथी के चयन की बहुत अधिक स्वतंत्रता नहीं थी। माता-पिता निर्णय कर देते थे। फिर एक दौर आया कि बच्चों से पूछा जाने लगा। हालांकि, राय बड़े लोगों की ही हावी रहती थी। अब इस दौर में बच्चों की राय अधिक प्रभावशाली है। किंतु अनेक माता-पिता मुझसे पूछते रहते हैं कि क्या विवाह जन्मपत्री मिलाकर किया जाना चाहिए। यदि प्रस्ताव अच्छा हो औैर पत्री न मिलें तो क्या करें और यदि पत्री मिल जाए, लेकिन हालात ठीक न लगें तो क्या करें?

यह बिल्कुल सही है कि ज्योतिष अंधविश्वास का नहीं, विज्ञान का मामला है। ऐसे ही सवाल श्रीकृष्ण के जीवन में भी आए थे, जब उन्हें यह निर्णय लेना था कि सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से हो या अर्जुन से? कृष्ण ने बड़े भाई को समझाते हुए कहा था कि सबसे पहले उनकी राय लेनी चाहिए जिनका विवाह हो रहा हो। दूसरा, दोनों वंशों का स्तर देखें, तीसरा आप जिस भी पक्ष में हों; उसके धैर्य के मामले में जरूर जानकरी रखें, क्योंकि गृहस्थी में धैर्य और समझ बाद में बहुत काम आती है, और चौथी बात उन दोनों का भविष्य थोड़ा अपने विवेक से देखें। यदि यह सब सही है तो जन्मपत्री भगवान के ऊपर छोड़ दें और यदि ये सब ठीक नहीं लग रहा हो तो जन्मपत्री का भी रास्ता बुरा नहीं है, इसलिए बहुत अधिक भ्रम में न पड़ते हुए व्यावहारिक दृष्टि से विज्ञान मानकर ज्योतिष का उपयोग करें। कहीं ऐसा न हो कि न मानने या मानने की अति आपके प्रिय को गलत जीवनसाथी सौंप दे।

योग में है बच्चों की ज़िद के लिए दवा
बच्चे जिद पर उतर आएं तब क्या करें यह सवाल माता-पिता को परेशान कर देता है। मैंने पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान करीब 16 साल की बेटी को मां से ऐसी जिद करते हुए देखा, जो थोड़ी देर में झगड़े में बदल गई। युवती जिद को क्रोध के निकट ला चुकी थी, इसलिए मर्यादा का भान खो बैठी। मां बड़प्पन के कारण आंख में आंसू लिए चुपचाप थी। जब युवती कहीं गई तो मां ने मुझसे कहा, ‘आपने सबकुछ देखा, क्या आपके पास इसका कोई समाधान है?’ मुझे जो उस समय सूझा वह बता दिया। शायद आपके भी काम आ सके। मैंने कहा कि माता-पिता को समझ लेना चाहिए कि बच्चे जब गलत जिद करें तो उसे उसी समय निपटाने की कोशिश कभी न करें। जिद और वर्तमान का छत्तीस का आंकड़ा है।

हठ यदि अहंकार पूर्ति के लिए है, यदि यह भाव है कि मेरी ही बात सही है, यदि उद्‌देश्य की जगह व्यक्तिगत कामना काम कर रही है तो वह हठ थोड़ी देर में क्रोध में बदलेगा। क्रोधी व्यक्ति को तत्काल समझाना यानी हथेली पर सरसों उगाने जैसा है। धैर्य से बर्दाश्त कर लें और बाद में जब एकांत मिले तो केवल समझाइश से काम नहीं चलेगा। समझाने वाले को अपने शरीर से सकारात्मक तरंगें बच्चे तक स्थानांतरित करनी पड़ेंगी। माता-पिता के शरीर में अपनी संतानों के लिए जो तरंगें हैं उन तरंगों को सकारात्मकता में बदलना होगा और इसके लिए उनके पास योग के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है, इसलिए कम से कम केवल इसी बात के लिए थोड़ी देर योग करें कि आपको अपने बच्चों से बात करनी है और उन्हें ऐसी तरंगें देनी है, जिन्हें आप अपने विचारों में सही मानते हैं। विश्वास कीजिए, योग ऐसा विज्ञान है जो दवा बनकर इस अकारण जिद का इलाज बन जाता है।

आज्ञा में अपनापन होना चाहिए
इन दिनों माता-पिता और बच्चों के बीच जितनी झंझटें चल रही हैं उनमें से एक न मानने की भी है। माता-पिता सोचते हैं बच्चे भविष्य के मामले में उतना नहीं जानते जितना हम जानते हैं, इसलिए हम जो कह रहे हैं उसे इन्हें मानना चाहिए। दूसरी ओर बच्चे मानकर चलते हैं कि हम किसी का कहना क्यों मानें? जो हमें ठीक लग रहा है वही करें। दोनों अपनी-अपनी जगह ठीक हैं। बाहर की दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है कि घर के कुछ कायदे लागू नहीं होते और घर के ज्यादा कायदे लादे जाएं तो फिर बच्चे बाहर से घर की ओर मुड़ना नहीं चाहते। यदि आप माता-पिता हैं तो बच्चों को केवल आदेश देने से काम नहीं चलेगा। पहले के माता-पिता मानते थे कि हमने आदेश दिया और बच्चों को उसका पालन करना ही है, लेकिन अब ऐसा नहीं है।

आपकी आज्ञा में अपनापन होना चाहिए, जिसमें तीन बातें होंगी- समझाइश, सुझाव और निवेदन। ये तीनों जब ठीक से मिल जाएं तब आज्ञा में अपनापन पैदा हो जाएगा। और आजकल के बच्चे इसे तो फिर भी मान लेंगे पर यदि उन्हें केवल आदेश दिया तो मानकर चलिए मतभेद बढ़ना ही है। तो माता-पिता के रूप में आज्ञा में अपनापन लाएं। यदि आप बच्चे हैं और माता-पिता की आज्ञा नहीं मानना चाहते तो उद्‌दंडता न करें। उनकी आज्ञा को नहीं मानने के लिए तीन काम बच्चों को भी करना चाहिए। एक, तुरंत प्रतिक्रिया न दें। थोड़ी देर रुक जाएं। हो सकता है आपका यह रुकना आप ही को कुछ अच्छी बात समझा दे। दो, इनकार में विनम्रता न छोड़ें और माता-पिता के शब्दों में विश्वास पूरा रखें। तीन, विश्वास, विनम्रता और धैर्य यदि इन तीनों के साथ इनकार करेंगे तो बात बिगड़ेगी नहीं। वरना कहना मानना और नहीं मानना परिवार में उपद्रव का एक बड़ा कारण बन जाता है।

प्रेमी चित्त शिकायत नहीं करता
कई बातों के मतलब धीरे-धीरे बदल गए। नई पीढ़ी तो जानना भी नहीं चाहती कि पहले क्या अर्थ रहा होगा? प्रेम ऐसा ही एक शब्द है। इसे केवल क्रिया मान लिया गया है, जिसमें आकर्षण प्रधान हो गया है। कोई किसी से आकर्षित हो गया और तत्काल घोषणा कर दी जाती है कि यही प्रेम है। भक्ति में प्रेम का अर्थ समझ में आता है, पर भक्ति भी मात्र कर्मकांड रह गई है, इसलिए प्रेम का रूप बिगड़ना ही था। प्रेम अहसास है। इसे अनुभूति और स्वाद भी कहा जा सकता है। इन तीनों की कोई व्याख्या नहीं होती। सूफी फकीरों के लिए प्रेम का मतलब है परमात्मा से जुड़ाव। कुछ प्रेमी ऐसे हुए हैं, जो भावनाओं की गहराई से जुड़े थे, शरीर महत्वपूर्ण नहीं था।

परमात्मा है या नहीं, यही सवाल खड़ा हो गया, इसलिए प्रेम के मायने बदल गए। प्रेम को सरलता से समझना हो तो दो बातों पर टिकना होगा, विरह और आभार। जब भी हम प्रेम करेंगे, विरह अपना प्रभाव रखेगा। विरह का मतलब एक ऐसी पीड़ा, जिसमें सुख भी है। जब कोई प्रेम में डूबता है तो वह समूची प्रकृति के प्रति आभार प्रदर्शन करने लगता है। प्रेमी चित्त कभी किसी से शिकायत नहीं करता। हम किसी से प्रेम करें यह जरूरी नहीं, पर हमारा चित्त प्रेमी हो जाए यह आवश्यक है। जैसे ही हम प्रेम में डूबेंगे, हमारी चेतना निखर जाएगी। यदि प्रेमपूर्ण हैं तो हमारी पूरी दिनचर्या इससे प्रभावित होगी। सुबह प्रसन्न उठेंगे, क्योंकि हम प्रेम से भरे हैं। दोपहर के विश्राम में भी पूरा सुख होगा। हमारी शाम में धन्यवाद का भाव होगा कि चलो दिन बीत रहा है। प्रेम से परिपूर्ण व्यक्तित्व रात को सोने से पहले प्रार्थना तथा आभार में डूब जाता है। ऐसी नींद अगले दिन के लिए ताज़गी का कारण बन जाएगी।

शांति हो सफलता का पैमाना
किसी काम को करने के बाद चाहे सफलता मिले या विफलता, लेकिन यदि आप अशांत होते हैं तो मानकर चलिए वह काम ठीक से पूरा नहीं हुआ है। अत: सफलता का मापदंड शांति होना चाहिए, न कि आंकड़े या अर्जित धन। ऐसा नहीं है कि ये सफलता की श्रेणी में नहीं आएंगे, लेकिन इनके साथ शांति प्राप्त नहीं हुई तो सफलता अधूरी है। खूब परिश्रम करते हुए काम नशा न बन जाए और परिणाम बोझ न बने इसके लिए योग से जुड़ना जरूरी हो जाता है। सूफी संत कहते हैं, ‘अपने अस्तित्व को मिटाकर परमशक्ति में मिल जाना ही भक्ति है।आज के किसी व्यक्ति को यह बात समझ में ही नहीं आएगी। पहले तो वह अस्तित्व में ही उलझ जाएगा।


इसे यूं समझें, आप जो दिखते हैं और लोग जो आपको समझते हैं उसका नाम व्यक्तित्व है। आप जो होते हैं उसका नाम अस्तित्व है। अस्तित्व को मिटाने का मतलब है खुद को नहीं मिटाना, अपने भीतर के मैंको मिटाना। मैंमिटा तो अहंकार गया। अहंकार हटाकर काम किया जाएगा तो सफल हो या असफल, अशांति नहीं आएगी। अहंकार अशांति को जन्म देता है। अहंकार मिटाने के कई तरीके हैं। इनमें से एक है मंत्र का जप करना। प्रश्न है कि मंत्र जप से अहंकार कैसे मिटेगा? दरअसल, जब हम मंत्र जप करते हैं तो खुद को भूल जाते हैं और उस परमशक्ति से जुड़ने का प्रयास करते हैं। स्वयं के रूप की विस्मृति और विराट परमात्मा की स्मृति होने लगती है। उसके रूप का चिंतन कराता है मंत्र। कर्म में कर्तापन का अभाव आ जाता है। मैं कर रहा हूंका बोध खत्म होने लगता है, इसलिए योग से जुड़कर जब भी कोई काम किया जाएगा, जीतें या हारें दोनों ही स्थिति में मस्ती बनी रहेगी।


हनुमानजी गुरु और चालीसा मंत्र
मित्र लोग आपस में बातचीत करते समय यारशब्द का प्रयोग करते हैं। धीरे-धीरे यह शब्द भी हल्का होता जा रहा है। कुछ मित्रों ने मित्रता को इतना कलंकित किया कि यारशब्द गाली लगने लगता है। सूफी संतों ने मुरशद यानी गुरु को अपना यार कहा है। इन्हीं को कभी खुदा, कभी माशूक, आशिक या कभी साईं कहा है। इस मायने में यार शब्द बड़ा गहरा होता है। शास्त्रों में गुरु और परमात्मा को अनोखे ढंग से जोड़ा गया है। कहीं-कहीं तो गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व दे दिया गया है।

थोड़ी-सी अतिशयोक्ति करके कहा गया है कि तीनों लोकों में गुरु से बड़ा कोई नहीं। जो काम ईश्वर नहीं कर सकता, वह गुरु कर सकता है। सुनने में यह बात अजीब लगती है। भौतिक दृष्टि से देखेंगे तो बात गले नहीं उतरती। अध्यात्म कहता है कि ईश्वर चूंकि सारी सृष्टि का संचालन करता है, इसलिए वह बंधन में भी डाल देता है और मोक्ष भी प्रदान करता है, लेकिन गुरु केवल मोक्ष देकर बंधन से मुक्ति देता है। मोक्ष को यह न समझें कि यह मृत्यु मौत के बाद की कोई स्थिति होती होगी। जीते जी अशांति से मुक्त होना ही मोक्ष है।

परमात्मा ने बनाया तो हमें इंद्रियां भी दीं, भोग-विलास भी दिया। मतलब बंधन में डाल दिया। जब गुरु जीवन में आता है तो वह इनसे मुक्त कराता है। गुरु हमारे अंधकार को अपने मंत्र से हटा देता है, इसलिए गुरु की जरूरत बताई जाती है। कोई मनुष्य गुरु मिल जाए तो आप सौभाग्यशाली हैं अन्यथा हनुमानजी को गुरु बना लीजिए और श्री हनुमान चालीसा को मंत्र। तीन से पांच मिनट में पूरी हो जाने वाली ये पंक्तियां आपको जीवन में न सिर्फ स्पष्टता देगी, बल्कि आत्मविश्वास से भर देंगी। शांति की तलाश हो तो एक बार प्रयोग और उपयोग करके अवश्य देखिए।

परमात्मा की प्रतिनिधि है महिला
अभी शिवरात्रि का पर्व बीता है और अब  हम महिला दिवस मना रहे हैं। अद्‌भुत संयोग है। भगवान शंकर ने अर्धनारीश्वर अवतार लेकर स्त्री-पुरुष समानता का अद्‌भुत संदेश दिया है। हर पुरुष के भीतर आधी स्त्री व आधा पुरुष होता है और हर स्त्री के भीतर आधा पुरुष व आधी स्त्री। इसलिए उनमें विचारों की पृथकता तथा व्यक्तित्व में भेद स्वाभाविक है। जो इस मनोविज्ञान को समझ जाएंगे वो स्त्री-पुरुष के हर रिश्ते की गरिमा रखेंगे। पुरुष के भीतर की आधी स्त्री बेचैन होती है तो बाहर का पुरुष क्रोधित हो जाता है। स्त्री के भीतर का आधा पुरुष अतृप्त है, तो बाहर की स्त्री ईष्या में डूबी होगी।

पति-पत्नी जब एक-दूसरे के भीतर के स्त्री-पुरुष को संतुष्ट कर दें, तो इनके रिश्ते गरिमामयी होंगे। जब परमात्मा को बहुत बड़ी गरिमा ,जिम्मेदारी देनी थी तो उन्होंने स्त्री का चयन किया। मां बनने का अधिकार स्त्री को देकर भगवान ने घोषणा कर दी कि मेरा यह नवीनतम संस्करण मुझे बड़ा प्रिय है और मैं इस पर आधारित हूं। स्त्रियों को अभिमान होना चाहिए कि आप परमात्मा की सबसे सुंदर कृति और प्रतिनिधि हैं। फिर क्यों मन में संकोच, मन में यह पीड़ा कि हम पुरुष से कम हैं? पुरुष ईश्वर के निर्णय का मान करें और स्त्रियों को एक अलग दृष्टि से देखें, क्योंकि वे पूरी प्रकृति की प्रतिनिधि हैं। उन्हें नमन करना, प्रेम करना भी परमात्मा की पूजा ही होगी।

बीमारी में धैर्य न छोड़ें, सहयोग दें
बीमारियों के अलग-अलग नाम होते हैं, लेकिन फिर भी वह होती बीमारी ही है। हर उम्र में बीमारी के मतलब बदल जाते हैं। बचपन में बीमारी में दूसरे हमारी चिंता हमसे ज्यादा करते हैं। हमें सिर्फ पीड़ा होती है, चिंता करने के लिए दूसरे होते हैं। युवावस्था में शरीर तो समर्थ हो चुका होता है बीमारी से मुकाबला करने के लिए, पर कुछ भय सताने लगते हैं और बुढ़ापे में तो बीमारी का मतलब लगभग मृत्यु का आलिंगन हो जाता है। बूढ़ा व्यक्ति जब बीमार होता है तो सबसे ज्यादा फिक्र यह सताती है कि देखभाल कौन करेगा। उम्र के तीनों दौर में जो बीमारी का अर्थ ठीक से समझ लेगा उसके लिए उम्र भी मददगार हो जाएगी।

बूढ़े व्यक्ति को जब बीमारी घेरे तो उसे पुरानी उपलब्धि भूल जाना चाहिए और अधूरी महत्वाकांक्षाओं को बिल्कुल याद नहीं करना चाहिए। एक तो शरीर बूढ़ा हो चुका होता है, ऊपर से ये उपलब्धि-महत्वाकांक्षाएं और परेशान करती हैं। यह है बीमारी में बीमारी जोड़ लेना। हम किसी भी उम्र में हों, एक तैयारी बीमार व्यक्ति को जरूर करनी चाहिए और वह है सहयोग देना। जब लोग हमारी सेवा कर रहे होते हैं तब हम उन्हें खूब सहयोग दें। दूसरी बात, बीमार व्यक्ति को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। बोलें कम, सुनें ज्यादा। अन्यथा सेवा करने वाले इसी बात से परेशान हो जाते हैं कि इनकी सेवा में सबसे बड़ी दिक्कत ये खुद हैं। ध्यान रखिए, बीमारी किसी को नहीं छोड़ने वाली, लेकिन यदि उम्र के इन तीनों दौर में बीमारी को ठीक से समझ लिया जाए तो आधा इलाज तो हम ही कर लेंगे, बाकी का डॉक्टर संभाल लेंगे और इन सबके साथ जब प्रभु कृपा मिल जाए तो फिर बीमारी जीवन के लिए बोझ नहीं, एक जरूरत बनकर गुजर जाएगी।

विकल्प होंगे तो सहमति आसान
किसी विषय में यदि निर्णय हमें अकेले लेना हो तो दिक्कत कम होगी पर यदि सबकी सहमति लेनी हो तो चुनौती शुरू हो जाती है। खासतौर पर यदि हम किसी समूह में काम कर रहे हों और सभी लोगों की सहमति लेनी हो। किसी विषय पर सभी की राय का सम्मान करना हो तो बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। एेसे मौके पर यदि आप नेतृत्व कर रहे हों और समूह में सभी की सहमति पर काम करना हो या आप नेतृत्व न करके सामान्य स्थिति में हों, उस स्थिति में भी अपने प्रस्ताव के विकल्प पर जरूर काम करिए। वजह यह है कि आप कोई प्रस्ताव लेकर आए और यदि सब उससे सहमत नहीं हुए तो या तो वह प्रस्ताव हाशिए पर पटक दिया जाएगा या उसकी तत्काल हत्या हो जाएगी। इसलिए सदैव विकल्प लेकर चलें।

सबकी सहमति के मामले में समझदार आदमी अपना विकल्प बहुत अच्छे से तैयार रखता है। दूसरा काम यह करें कि जब आपके प्रस्ताव पर समूह में विरोध हो तो विरोध करने वाले के व्यक्तित्व पर न टिकें, उसकी मानसिकता को समझें। यदि व्यक्तित्व पर टिकेगे तो हमारे भीतर ईर्ष्या पैदा हो सकती है। उसकी मानसिकता पढ़ेंगे तो हम परिपक्वता के साथ विरोध को समझेंगे। उसी विरोध के साथ अपना विकल्प स्थापित कर सकेंगे। आज हमारे परिवारों में कलह का बड़ा कारण यही है कि आपसी सहमति नहीं हो पाती और सब एक-दूसरे से उलझ जाते हैं। यदि हमें परिवार बचाना है तो एक-दूसरे के प्रति सहमत होना ही पड़ेगा। उसके लिए विकल्प और मानसिकता प्रस्तुत करना आना चाहिए। एक-दूसरे के व्यक्तित्व की जगह मानसिकता को समझना पड़ेगा। इतनी समझदारी आ गई तो परिवार का प्रत्येक सदस्य असहमत होने के बाद भी एक साथ प्रेम से रह सकेगा।

हमें परस्पर जोड़ने का माध्यम अन्न
समझदार लोग हर वस्तु का कोई न कोई उपयोग कर लेते हैं। आए दिन पढ़ने में आता है कि प्रमुख राजनेता दलितों के साथ भोजन करेंगे। समाजसेवी भी अन्न का वितरण करके अपने उद्‌देश्य का प्रदर्शन करते हैं। इन दिनों हमारे राष्ट्र में अन्न को भी राजनीति, समाजसेवा और व्यवसाय से अलग ढंग से जोड़ा जा रहा है। इसी बीच यह खबर पढ़ने को मिलती है कि संत लोग पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति के लोगों के साथ धार्मिक मेलोंं में बैठकर भोजन करेंगे। लोग भी सुनकर और पढ़कर टिप्पणी करते हैं कि यह सब दिखावा है। राजनेता, समाजसेवी और व्यवसायियों की बात छोड़ दें तो संत जब ऐसा करते हैं तो उसके पीछे कोई न कोई उद्‌देश्य जरूर होता है। किसी के साथ बैठकर अन्नग्रहण जीवन में शांति का बहुत बड़ा संदेश है।

अन्न से मन बनने की शास्त्रों की घोषणा को यदि ठीक से समझ ले तो जीवन में शांति आसानी से आ जाएगी। जो लोग गृहस्थी के प्रति गंभीर हों, जिन्हें अपना परिवार बचाने में रुचि हो, उन्हें इन लोगों से कम से कम इतनी शिक्षा तो लेनी चाहिए कि हम भी अपने परिवार में अन्न का सदुपयोग करें। शाकाहार करें और ईमानदारी से कमाए हुए धन से अन्न को घर में लाएं। इसके साथ गृहस्थ को अन्न को रिश्तों में आपस में जोड़ने के लिए सेतु भी बना लेना चाहिए। जब घर के सदस्य बैठकर एक साथ भोजन करते हैं और यदि उस भोजन निर्माण की प्रक्रिया में मां, बहन, बेटी का प्रेमपूर्ण योगदान है तो सदस्यों के विचार प्रेमपूर्ण होंगे। अन्न भी एक-दूसरे को जोड़कर रखने का माध्यम बन जाएगा। भोजन के प्रति आज भारत के घरों में लापरवाही-सी आ गई है, जबकि सबसे ज्यादा गंभीर इसी बात के लिए होना चाहिए। अन्न हमारे परिवारों को जोड़ने का ऐसा धागा है, जिसमें हर सदस्य फूल की तरह बहुत अच्छे से पिरोया जा सकता है।

प्रीति व नीति नेतृत्व के अहम अंग
खुद काम करना आसान है, किसी से करवाना कठिन। किसी से काम लेना हो तो पहले समझाना पड़ता है। यदि हमें समझाना नहीं आता तो करना क्या है, यह वह समझ नहीं पाएगा। इस अधूरी समझ में उसकी योग्यता भी शामिल हो जाती है। यदि व्यक्ति अधिक योग्य है तो उस अधूरी जानकारी को पूरी कर लेगा, लेकिन योग्यता कम है तो काम का नुकसान होगा, इसलिए कई लोग खुद काम करना पसंद करते हैं; लेकिन हमेशा ऐसा नहीं हो सकता। समाज में सभी व्यवस्थाएं सहयोग से चलती हैं, इसलिए लोगों का योगदान लेना ही पड़ता है। दूसरों से कैसे काम लिया जाए इसमें हनुमानजी माहिर थे। सीताजी की खोज के लिए वानर भेजने का निर्णय सुग्रीव ने लिया। उसका क्रियान्वयन हनुमानजी को कराना था।


हनुमानजी ने जो किया उसके लिए तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता।।तब हनुमानजी ने दूतों को बुलाया और बहुत सम्मान किया।' भय अरु प्रीति नीति देखराई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई।।सबको भय, प्रीति और नीति दिखलाई। सब बंदर चरणों में सिर नवाकर चले। हनुमानजी ने चार काम किए- पहला, सबको बुलाकर सम्मान दिया। काम लेना हो तो सम्मान में कमी मत रखिए। सम्मान एक तरह का प्रोत्साहन है। दूसरा काम, सबको भय दिखाया। यहां भय दिखाने का अर्थ केवल डराना नहीं बल्कि अनुशासन के दायरे में लाना है। तीसरा काम, सबको प्रेम से समझाया। जब किसी को प्रेम से बताया जाता है तो उसके साथ समानता प्रदर्शित की जाती है। चौथा, नीति का कोई भी काम कायदे से बाहर जाकर नहीं किया। प्रबंधन से जुड़े लोगों के लिए यह अच्छा संदेश है कि यदि आप किसी समूह का नेतृत्व कर रहे हों तो हनुमानजी की तरह सम्मान, भय, प्रीति और नीति का प्रयोग कीजिए।


मन की सत्ता में दुर्गुणों से क्षति
जेल ऐसी जगह होती है, जहां अच्छे और बुरे दोनों पहुंच जाते हैं। इतिहास गवाह है कि बिना अपराध भले लोग जेल गए। अपराध करने के बाद भी लोग सलाखों के पीछे नहीं पहुंचे। वहां आदमी को कानून ही पहुंचाता है। कानून की पुरानी घोषणा है कि वह अंधा होता है। जिस मार्ग की शुरुआत ही अंधत्व से हो, फिर वहां अच्छे-बुरे का क्या भेद? महाभारत में धृतराष्ट्र की सत्ता लगभग अंधी थी। दिमाग शकुनि के पास था। हाथ दुर्योधन के थे। ताकत कर्ण की थी। ऐसे ही हाल कंस के समय थे, इसीलिए कृष्ण को भी कारागृह में जन्म लेना पड़ा। उनके माता-पिता देवकी और वसुदेव सर्वथा निर्दोष थे। स्पष्ट है कि निर्दोष भी जेल जा सकते हैं। खतरा तो तब है जब दोषी जेल नहीं पहुंच पाते। बुरे लोग अपराध करने के पहले ही सुरक्षा के इंतजाम कर लेते हैं। सबमें सत्ता का बड़ा खेल है।

शास्त्रों में कथा है। राजा जन्मेजय ने सर्प यज्ञ किया। उनके पिता परीक्षित को तक्षक ने डंसा था। बदला लेने के लिए उस यज्ञ में सर्पों की आहूति दी जा रही थी। तक्षक इंद्र के सिंहासन के नीचे छिप गया। तब जन्मेजय ने कहा, ‘अगर इंद्र ने तक्षक को सुरक्षा दी है तो ऋषि-मुनि ऐसे मंत्र पढ़ें कि इंद्र भी सिंहासन के साथ यज्ञ में आकर गिरें।सत्ताएं अपराधियों को संरक्षण दें यह इतिहास इंद्र के समय से ही चल रहा है। फिर अब तो कभी-कभी अपराधी ही इंद्र बन जाता है। जब इंद्र का सिंहासन हिला तब उसने तक्षक से कहा, ‘अब मैं तेरी रक्षा नहीं कर पाऊंगा।कहानी तो लंबी है, पर हमारे काम की बात यह है कि गलत लोगों को यदि जेल पहुंचाना है तो सत्ताओं को हिलाना पड़ेगा। इसका आध्यात्मिक दृष्टिकोण यह है कि हमारे भीतर यदि मन की सत्ता है, दुर्गुण मुक्त रहकर हमें नुकसान पहुंचाते रहेंगे। उन्हें जेल पहुंचाना हो तो हमारे व्यक्तित्व में बुद्धि की सत्ता, नेतृत्व जाग्रत करना होगा।

आपकी सजगता, बच्चों की जिंदगी
असफलता कोई नहीं चाहता। सफलता जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। फिर आजकल तो सफलता के लिए जीवन झोंक दिया जाता है। सफलता की अंधी दौड़ चल रही है। यदि आप गिरे तो कोई न तो आपके लिए रुकेगा, न उठाएगा, बल्कि यह भीड़ पैरों तले रौंदते हुए निकल जाएगी। आपका शव आपके ही लोग नहीं पहचान पाएंगे। मृत्यु का ऐसा वर्णन ठीक नहीं है। देश के कोने-कोने से परीक्षा में असफल होने पर आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं। इसके दो कारण हैं- नासमझी और दबाव। ये दोनों ही आसपास के लोगों की देन हैं। जिनके ऊपर इनके लालन-पालन की जिम्मेदारी है, सावधानी उन्हें रखनी होगी। इस उम्र के पास जितना जोश है, उतनी ही तीव्र निराशा भी है। हम बच्चों को बहुत अधिक हिदायतें न दें। कुछ मां-बाप को बीमारी-सी लग जाती है। हर गतिविधि, निर्णय पर समझाने बैठ जाते हैं। इसकी बजाय अधिक समय दें।


बच्चों को दिया जाने वाला जो समय है, उसका ठीक से अर्थ समझें। इसमें पहला काम यह करें कि उन्हें खूब सुनें। वे आपके सामने पूरी तरह से खुल जाने चाहिए। वे भीतर से खाली हो जाएं। तब उन्हें इस तरह समझाएं कि उसमें सहयोग का भाव ज्यादा हो। हुक्म की शक्ल में ज्ञान न बांटें। इसे मदद के रूप में पेश करें। यदि आपको यह अंदाज हो जाए कि आपका बेटा या बेटी इन दिनों कुछ परेशान हैं, सफलता प्राप्त करने के दबाव में हैं, तो उन्हें अकेला बिल्कुल न छोड़ें। यह अकेलापन अच्छे-अच्छों को मार डालता है। किसी का अकेलापन मिटाने के लिए समय देना पड़ता है, इसलिए बच्चों के मामले में समय को लेकर सावधान हो जाएं। यदि वे मृत्यु का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं, तो केवल आपका प्रेम उन्हें नहीं रोक पाएगा, आपकी सजगता ही उनका जीवन बन सकेगी।



जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

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