Friday, December 18, 2015

क्रोध ( Krodha)

गुस्से पर काबू चाहिए तो कभी खुद के लिए भी निकालें समय
इस दुनिया में अगर आग से भी तेज कुछ है तो वो है क्रोध। गुस्सा हमें नहीं, हमारे व्यक्तित्व को जलाता है। एक क्षण के आवेग में आदमी वो कर जाता है, जिसके बाद सिर्फ पछतावे के अलावा कुछ नहीं बचता। क्रोध एक क्षण में हावी होता है और दूसरे पल ही खत्म भी हो जाता है लेकिन कभी-कभी क्षणभर का गुस्सा भी सारी जिंदगी पर भारी पड़ जाता है।

आज के दौर में युवाओं के व्यक्तित्व में जो सबसे बड़ी कमी देखी जा रही है वो है सहनशीलता की। कोई भी जरा सा अपमान, थोड़ी सी असफलता, क्षणिक विपरीत परिस्थितियों से ही अपना आपा खो देता है। कई तो जान तक ले या दे देते हैं।

आखिर ऐसा क्या किया जाए कि अपने व्यवहार और व्यक्तित्व में सहनशीलता और गंभीरता आ जाए। निजी जीवन में व्यक्ति कई मामलों में अपनेआप से ही लड़ता दिखाई देता है। हमारे भीतर ही एक युद्ध चल रहा है। कुछ बुराइयां हैं जिन्हें हम लाख दबाने की कोशिश करते हैं लेकिन समय-असमय वे भीतर ही भीतर अपना सिर उठा ही लेती हैं।

आइए इसके समाधान पर चलते हैं। दरअसल ये हमारे व्यक्तित्व की कमजोरी और समझ की कमी के कारण हो रहा है। आज हम दुनियाभर से संपर्क में हैं, सोशल नेटवर्किंग पर भी पूरा ध्यान दे रहे हैं। हर एक मित्र से हर पल पूरे संपर्क में हैं लेकिन एक खास व्यक्तित्व जिसके पास भी हमें थोड़ी देर बैठना चाहिए, उसी के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं। वो व्यक्तित्व है आप खुद। हम अपने ही पास रहना भूल जाते हैं। खुद के लिए थोड़ा भी समय नहीं है।

हमारे सारे पौराणिक पात्रों ने खुद के व्यक्तित्व पर खूब ध्यान दिया है। इसी कारण वे महान हुए। भगवान कृष्ण की दिनचर्या में चलते हैं। भगवान सुबह ब्रह्म मूहुर्त में जागते हैं। सुबह उठते ही वे सीधे बिस्तर से नहीं उतरते, बल्कि वहीं सुखासन लगाकर थोड़ी देर ध्यान करते। भगवान कहते हैं नींद से जागा इंसान अपने आप में नहीं होता, वो दूसरी ही दुनिया में होता है। नींद से जागते ही थोड़ी देर ध्यान लगाइए।

आप खुद में स्थिर होंगे। इससे व्यक्तित्व में गंभीरता आएगी, आप खुद के नियंत्रण में होंगे। इसी समय अपने पूरे दिन की प्लानिंग भी कर लें। आज क्या-क्या करना है। फिर स्नान के बाद भगवान संध्या पूजन करते हैं। ये परमशक्ति से जुडऩे का साधन है। ये आपको आत्म विश्वास भी देगा और आपके व्यक्तित्व में सौम्यता भी लाएगा। इससे आप अपने भीतर के क्रोध को नियंत्रित कर सकेंगे।

रिश्तों में एक पल की चूक भी दे सकती है भीषण परिणाम
परिवार में क्रोध का प्रवेश अहंकार के साथ होता है। पहले व्यक्ति में अहंकार आता है, पीछे से गुस्सा भी दबे कदमों से आता है। जब क्रोध और अहंकार परिवार में आते हैं तो परिणाम सिर्फ विघटन होता है। परिवारों के बिखरने का कारण कोई भी हो, उसके मूल में ये ही दो कारण होते हैं। हम जब भी घर में प्रवेश करते हैं तो अदृश्य रूप में कई तरह की बातें हमारे साथ प्रवेश करती हैं।

बाहरी बातों को अपने घर में ना लाएं। कई लोग अपने साथ दफ्तर घर तक ले आते हैं। कुछ लोग सिर्फ बाहरी तनाव तो कुछ व्यवसायिक सफलता का नशा लेकर घर में घुसते हैं। होना यह चाहिए कि हम सिर्फ खुद को लेकर ही आएं, बाहरी चीजें घर के बाहर ही छोड़ दें। परिवार में प्रेम आधार हो, ना कि संपत्ति। कई परिवार आज सिर्फ इस कारण जुड़े हुए हैं क्योंकि उनका आधार पुरखों की जायदाद है। भौतिक चीजें परिवार की डोर नहीं हो सकती। अगर साधनों से परिवार को बांधने की कोशिश करेंगे तो फिर सदस्यों में क्रोध को फूटने से कोई रोक नहीं सकता।

क्रोध का एक क्षण परिवार को बिखेर सकता है। परिवार में रिश्तों की मर्यादा और सम्मान जरूरी है। एक पल भी इसे खोया तो परिणाम भीषण हो सकता है। हंसी-मजाक में भी रिश्तों की मर्यादा ना लांघें। महाभारत का युद्ध एक क्षण के लिए भूली गई रिश्तों की मर्यादा का ही परिणाम था। इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी ने देवर दुर्योधन को पानी में गिर जाने पर मजाक-मजाक में अंधे का बेटा अंधा कहा था। रिश्ते की मर्यादा टूटी। दुर्योधन क्रोध से आगबगुला हुआ। बदला लेने पर ऊतारू हुआ। परिणाम द्रौपदी का चीरहरण, पांडवों को वनवास, कुरूक्षेत्र में महाभारत का युद्ध। करोड़ों जानों की बलि।

परिवार में रहें तो रिश्तों का सम्मान करें। अहंकार, क्रोध, ईष्र्या इन बातों को घर में प्रवेश ही ना दें। तभी परिवार सुखी और समृद्ध होगा।

हर वक्त क्रोध, दबाव भी बिगाड़ सकता है परिणाम को..
कारपोरेट युग का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि आदमी सिर्फ रिजल्ट ओरिएंटेड हो गया है। परिणाम अपेक्षा के अनुरूप ना मिले, काम वक्त पर नहीं हुआ, बस यहीं से क्रोध हमारे काम में प्रवेश कर जाता है। हमेशा याद रहे बेहतर परिणाम बिना दबाव के किए काम में आता है। काम में दबाव हो लेकिन हमेशा याद रखें कि दबाव प्रेम का हो, उस दबाव में क्रोध शामिल ना रहे।

आजकल देखा जा रहा है कि दफ्तरों में काम का इतना दबाव बना दिया जाता है कि कर्मचारी नैराश्य में डूबने लगते हैं। हमारी जीवनचर्या में होना यह चाहिए कि हम अपने कार्य स्थल पर सबसे ज्यादा ठंडे दिमाग से काम करें। कारण यहां हमें उन लोगों का नेतृत्व करना होता है जिनसे हमारा सीधा कोई रिश्ता नहीं होता। परिवार में अनुशासन की आवश्यकता होती है। लेकिन लोग उल्टा जीवन जीते हैं। परिवार में अत्यधिक नरम रूख रखते हैं। परिणाम, परिवार का अनुशासन टूटने लगता है। और ऑफिस में पहुंचते ही बरसना शुरू कर देते हैं। कई बार तो हम बिना सोचे समझे किसी पर भी गुस्सा हो जाते हैं।

परिणाम कर्मचारी हमारे खिलाफ हो जाते हैं। कई लोग सिर्फ खुद पर ही भरोसा करते हैं। किसी और को नहीं सुनते। कोई हमें सलाह दे, हमें पसंद नहीं। याद रखें, छोटा कर्मचारी भी कोई बड़ी हितकारी सलाह दे सकता है। रावण को देखिए, वो किसी की नहीं सुनता था। सिर्फ खुद के निर्णय ही उसके लिए सर्वोपरि होते थे। विभीषण, माल्यवंत, शुक जैसे कितनों ने ही उसे समझाया कि राम से संधि कर लें लेकिन रावण को जो भी सलाह देता उसे वह निकाल देता या फिर जान से मार देता।

कभी अपने हितैषियों की नहीं सुनी। हम सिर्फ अहंकार में आकर क्रोध के वश में ना रहें। प्रेम से काम लें, सबकी सुनें, अच्छी सलाह को तवज्जों दें, तो फिर दफ्तर भी घर जैसा ही होगा।

जानिए, एक क्रोध आपको कितनी तरह की हानि पहुंचाता है
चलिए आज समझते हैं कि क्रोध आपकी कितनी निजी हानि करता है। कई लोगों का स्वभाव होता है बात बात पर उत्तेजित हो जाना। मर्यादाएं भूल जाना। किसी पर भी फूट पडऩा। ऐसे लोग अक्सर सिर्फ नुकसान ही उठाते हैं। खुद के स्वास्थ्य का भी, संबंधों का भी और छवि का भी। हमेशा ध्यान रखें अपनी छवि का।

लोग अक्सर अपनी छवि को लेकर लापरवाह होते हैं। हम जब भी परिवार में, समाज में होते हैं तो भूल जाते हैं कि हमारी इमेज क्या है और हम कैसा व्यवहार कर रहे हैं। निजी जीवन में तो और भी ज्यादा असावधान होते हैं। अच्छे-अच्छे लोगों का निजी जीवन संधाड़ मार रहा है।

अगर आप बार-बार गुस्सा करते हैं तो सबसे पहले जो चीज खोते हैं वह है आपके संबंध। क्रोध की आग सबसे पहले संबंधों को जलाती है। पुश्तों से चले आ रहे संबंध भी क्षणिक क्रोध की बलि चढ़ते देखे गए हैं। दूसरी चीज हमारे अपनों की हमारे प्रति निष्ठा। रिश्तों में दरार आए तो निष्ठा सबसे पहले दरकती है। फिर जाता है हमारा सम्मान।

अगर आप बार बार किसी पर क्रोध करते हैं तो आप उसकी नजर में अपना सम्मान भी गंवाते जा रहे हैं। इसके बाद बारी आती है अपनी विश्वसनीयता की। हम पर से लोगों का विश्वास उठता जाता है। फिर स्वभाव और स्वास्थ्य। कहने को लोग हमारे साथ दिखते हैं, लेकिन वास्तव में वे होते नहीं है।

समाधान में चलते हैं। हमेशा चेहरे पर मुस्कुराहट रखें। कोई भी बात हो, गहराई से उस पर सोचिए सिर्फ क्षणिक आवेग में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त ना करें। सही समय का इंतजार करें। कृष्ण से सीखिए अपने स्वभाव में कैसे रहें। उन्होंने कभी भी क्षणिक आवेग में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। हमेशा परिस्थिति को गंभीरता से देखते थे। शिशुपाल अपमान करता रहा लेकिन वे सही वक्त का इंतजार करते रहे। वक्त आने पर ही उन्होंने शिशुपाल को मारा।

अपनी दिनचर्या में मेडिटेशन को और चेहरे पर मुस्कुराहट को स्थान दें। ये दोनों चीजें आपके व्यक्तित्व में बड़ा परिवर्तन ला सकती हैं। कभी भी किसी भी स्थिति से निपटने के लिए आपको तैयार रखेगी।

परिवार के फैसलों में निजी हित को दूर रखें, बिखराव नहीं होगा
अक्सर लोग पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में एक बड़ी चूक कर जाते हैं। कुछ निर्णय ऐसे होते हैं जो परिवार के हित में होते हैं लेकिन कभी-कभी वे ही निर्णय निजी तौर पर हमें हानिकारक लगते हैं। बस यहीं से पारिवारिक जीवन में क्रोध शुरू हो जाता है। परिवार की जिम्मेदारियों पर निजी भावनाएं हावी हो जाती है और व्यक्ति कभी-कभी अपनों से ही विद्रोह कर बैठता है।

ऐसे समय में परिवार के मुखिया या बड़ों को चाहिए कि वे परिस्थितियों को बिगडऩे से रोकें। निर्णयों में परिवार को पहले देखेंए निजी हितों को बाद में। अपने से छोटों को समझाएं कि परिवार का कोई भी निर्णय निजी नहीं होता। जब तक हम परिवार के निर्णयों में निजी हित खोजते रहेंगे, वे फैसले हमें कचोटते ही रहेंगे।

एक कटु फैसला भी परिवार के टूटने का कारण बन सकता है। परिवार कोई एक आदमी नहीं चला सकता। परिवार पीढिय़ों से मिलकर बनता है, अक्सर यही होता है कि दो पीढिय़ों की विचारधारा कभी एक जैसी नहीं होती। बड़े जो फैसला करते हैं, उसके अनुशासन को छोटे अपने विररीत मानते हैं। बस यहीं से टकराव शुरू होता है। परिवार को संभालना भी हमारी जिम्मेदारी है।

अगर घर के बड़े स्थिति नहीं संभाल पाएं तो फिर दूसरी पीढ़ी के नेतृत्वकर्ताओं को अपने बड़ों के समर्थन में आना चाहिए। तभी परिवार बिखराव से बच सकता है। रामायण के प्रसंग में चलते हैं। राम को वनवास हो गया। सारे बड़े शोकमग्र हो गए। परिवार में भारी मतभेद हो गया। दशरथ अलग पड़ गए, कैकयी को भलाबुरा कहा जाने लगा। कौशल्या राम के साथ वन में जाने को तैयार हो गईं।

लक्ष्मण मरने-मारने पर ऊतारू हो गए। ये एक ऐसी घड़ी थी, जब पूरा रघुवंश बिखर सकता था। परिवार में फूट हो जाती। लेकिन ऐसी घड़ी में राम आगे आए। परिस्थितियों को अपने हाथों में लिया। लक्ष्मण को समझाया, सभी बड़ों को दिलासा दिया। वनवास के निर्णय पर खुद को शोक नहीं है, भरोसा दिलाया। हमेशा परिवार में लिए गए निर्णय में परिवार को हित पहले देखें। कोशिश करें, परिवार ना बिखरे। क्योंकि परिवार से बढ़कर कोई दूसरी सम्पदा नहीं होती।

व्यवसाय और परिवार दो जीवन हैं, इन्हें अलग-अलग ही जीएं
आप काम कोई भी करते हों, लेकिन उसे घर से बाहर ही रखें। जो लोग काम का तनाव घर ले आते हैं, वे अपने रिश्तों को बाजार में आने का निमंत्रण देते हैं। कई लोगों के साथ अक्सर एक बात होती है। दफ्तर के काम में जो गड़बड़ी होती है, उसका गुस्सा घरवाले झेलते हैं, घरेलू रिश्तों के तनाव में ऑफिस के सहयोगी दबाए जाते हैं। हम हमेशा दोहरी जिंदगी जीते हैं। घर में कामकाजी और कामकाज में घरेलू।

क्रोध को समाप्त करना है तो अपने दोनों जीवनों को अलग कर लें। ये मान लें आपकी दो जिंदगियां हैं। एक दफ्तर में, दूसरी घर। और दोनों ही आपको अलग-अलग जीनी है। एक साथ जीने का प्रयास करेंगे तो दोनों ही का रस और आनंद खराब करेंगे। कई लोग इसे एक नामुमकिन सा काम मानते हैं लेकिन जब आप इसका अभ्यास करेंगे तो यह अपने आप आपके स्वभाव में उतर जाएगा।

हम अक्सर असफलताओं से डरने लगते हैं। नतीजा हमारी सोच ज्यादा-से-ज्यादा काम करने और दूसरों से भी ज्यादा काम कराने की हो जाती है। थोड़ा भी लाभ कम हुआ तो कर्मचारियों की शामत आ जाती है। हमारे हर काम में क्रोध झलकने लगता है। हम अवसाद जैसी स्थिति में आ जाते हैं।

आइए, महाभारत के इंद्रप्रस्थ चलते हैं। सम्राट युधिष्ठिर के राज्य में। देखिए कितनी सुंदर व्यवस्था है। पांच भाई, राज्य चला रहे हैं। पांचों एक पत्नी से बंधे हैं। लेकिन ना राज्य के लिए विवाद है, ना ही स्त्री के लिए।

दरअसल धर्म के ज्ञाता युधिष्ठिर ने अपने राजकीय जीवन और पारिवारिक जीवन दोनों की व्यवस्था ऐसी की है कि इनका आपस में टकराव नहीं होता। राज्य और परिवार दोनों ही मामलों में कोई भी भाई असंतुष्ट नहीं है। युधिष्ठिर ने राज्य के कामों की देखभाल भी भाइयों को सौंप रखी थी। लेकिन वहां राज्य की बातें दरबार में ही होती थीं। जब पांचों भाई परिवार के रूप में साथ बैठते तो फिर धर्म, ज्ञान जैसे विषयों पर चर्चा होती। राजकाज की बातों को वहां प्रवेश नहीं दिया जाता।

काम के साथ क्रोध का हो संगम तो विनाश तय समझिए
परिवार से चार चीजें हमेशा दूर रखें, काम, क्रोध, मद और लोभ। ये चार विकार जहां भी एकजुट हुए हैं, वहां विनाश किया है। इन चारों में से एक दो भी अगर परिवार में प्रवेश पा जाएं, तो दिलों के रिश्ते टूटकर बिखरने में देर नहीं लगती। परिवार वो ही सुखी है जहां ज्ञान, धर्म, कर्म और गुणों का आवास हो। जब भी परिवार में बैठेंं, हमेशा याद रखें, चर्चा इन्हीं बिंदुओं पर हो।

जब तक परिवार में ज्ञान, धर्म, गुण और कर्म का आधार होगा, यह अविचलित खड़ा रहेगा और कितनी भी विपरित परिस्थितियों से भी भिड़ जाएगा। लेकिन चार अवगुणों में से एक दो ने भी प्रवेश कर लिया तो फिर सब खत्म होने में देर नहीं लगेगी।

परिवार में काम का प्रवेश पहले होता है, दाम्पत्य शुरू होते ही काम का संचार रिश्तों में होता है। अगर यह सिर पर हावी हो जाए तो क्रोध के आने में देर नहीं होगी। जिन पति-पत्नियों का रिश्ता काम पर ही टिका हो, उनका दाम्पत्य कभी शांत और आनंददायक नहीं होगा। काम का सबसे बड़ा मित्र है क्रोध। जैसे ही काम असंतोष की दहलीज पर आता है, तो क्रोध में बदल जाता है। पति, पत्नी की बात नहीं मानें तो पत्नी गुस्सा करती है, कामातुर पति पत्नी की हर मांग मानने पर मजबूर हो जाता है।

रामायण के अयोध्या कांड के इस घटनाक्रम को देखें। काम और क्रोध ने मिलकर कैसे रघुवंश को बिखराव की चौखट पर लाकर पटक दिया। दशरथ ने राम को युवराज घोषित किया। कैकयी क्रोधित हुई। दशरथ की सबसे प्रिय रानी थी कैकयी, सबसे सुंदर। राजा उसे किसी परिस्थिति में दु:खी नहीं देख सकते थे। कोपभवन में उसे सिंगार विहीन देखा तो दशरथ भीतर से कांप गए। क्योंकि वे कैकयी के प्रति कामासक्त थे। कैकयी के साथ क्रोध रघुवंश में प्रवेश कर गया, दशरथ के साथ काम का आगमन हुआ। फिर जो हुआ वो सब जानते हैं। राम 14 वर्ष के लिए वनवास पर गए।

परिवार में क्रोध और काम इन दोनों को प्रवेश ना दें। परमात्मा के हाथ में परिवार सौंप दें। अपनी मर्यादाएं स्वयं तय करें। तभी परिवार सुरक्षित रहेगा।

क्या करें अगर गुस्सा आपका स्वभाव बनता जा रहा है?
अक्सर बाहरी दुनिया में किया गया अभिनय जैसा व्यवहार हमारे स्वभाव में उतरने लगता है। लोग दुनिया के सामने कुछ और होते हैं और अपने भीतर कुछ और। कई बार बाहरी दुनिया का तनाव हमारे भीतर तक उतर आता है। हमारा मूल स्वभाव कहीं खो जाता है। हम अपनेआप में नहीं रहते।

कई लोग गुस्से का अभिनय करते हैं, दफ्रतर में, मित्रों में या सहयोगियोयं में लेकिन वो गुस्सा कब खुद उनका स्वभाव बन जाता है वे समझ नहीं पाते। समय गुजरने के साथ ही व्यवहार बदलने लगता है। हमेशा प्रयास करें कि दुनियादारी की बातों में आपका अपना स्वभाव कहीं छूट ना जाए। आप जैसे हैं, अपनेआप को वैसा ही कैसे रखें, इस बात को समझने के लिए थोड़ा ध्यान में उतरना होगा।

हम कभी-कभी क्रोध करते हैं लेकिन क्रोध हमारा मूल स्वभाव नहीं है। क्या किया जाए कि बाहरी अभिनय हमारे भीतरी स्वभाव पर हावी ना हो। क्रोध पहले व्यवहार में आता है फिर हमारा स्वभाव बन जाता है। क्रोध स्वभाव में आया तो सबसे पहले वो हमारी सोच को खत्म करता है, फिर संवेदनाओं को मारता है। संवेदनाहीन मानव पशुवत हो जाता है।

आइए, इस क्रोध को अपने स्वभाव में उतरने से कैसे रोका जाए, इस पर चर्चा करते हैं। बाहरी दुनिया को बाहर ही रहने दें। बाहरी दुनिया और भीतरी संसार के बीच थोड़ा अंतर होना चाहिए। ये अंतर लाने का सबसे सरल तरीका है, ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन रोज करें। अपने परिवार के साथ समय बिताएं। थोड़ा समय खुद के लिए निकालें। एकांत में बैठें। किसी मंदिर या प्राकृतिक स्थान के निकट बैठें।

श्रीकृष्ण को देखिए, संसार भर के काम किए लेकिन खुद के लिए समय निकालते हैं। गोकुल या वृंदावन में जब रहे, थोड़ा समय खुद को जरूर देते। अकेले वन में या यमुना किनारे बैठकर बांसुरी बजाते हैं। संगीत हमारी संवेदनाओं को सिंचता है। ध्यान उन्हें दृढ़ बनाता है। एकांत उन्हें नवजीवन देता है। हम जब खुद को समय देंगे, खुद पर ध्यान देंगे तो फिर संसार का बाहरी आवरण, बाहर ही रहेगा। आप भीतर से वो ही रहेंगे जो आप हैं।

अगर गुस्सा हावी हो तो उसे कैसे बनाया जाए अपने लिए प्रेरणा?
हमारे मन का कोई भी भाव हो, उसके कई रूप और कई उपयोग हो सकते हैं। कोशिश करें अपने मन के भावों को दबाने के बजाय उनका रूख मोड़ दिया जाए। थोड़े से प्रयास से हम अपने जीवन की दिशा बदल सकते हैं। हमारे भीतर जो भाव सबसे ज्यादा आते हैं, उनमें क्रोध अव्वल है। अपने क्रोध को पालना सीखिए, उसे दिशा दीजिए, फिर आपके काम में धार भी होगी और काम में सफलता भी ज्यादा मिलेगी।

जो लोग छोटी-छोटी बातों पर उबल पड़ते हैं, वे सिर्फ खुद का नुकसान करते हैं। क्रोध को उसी समय प्रकट ना करें, उसे संभालें। जब क्रोध आए तो उसे दबाए नहीं, उसका रूख मोड़ दें। आप अपने भीतर किसी भी भाव को दबाएं, वो थोड़े दिन में कुंठा का रूप ले लेगा। कुंठा हमें भीतर से काटती है, कचोटती है लेकिन आगे नहीं बढऩे देती है।

क्रोध को कैसे पाला जाए, कैसे उसका रूख मोड़ा जाए ये भगवान कृष्ण सिखाते हैं। भगवान ने अपने क्रोध को किस तरह अपनी प्रेरणा बनाया। प्रसंग है जब भगवान कृष्ण ने अपने मामा कंस को मार दिया, अपने नाना को फिर राजपाठ सौंप दिया। जरासंघ कंस का ससुर था, वो कृष्ण से कंस की मौत का बदला लेना चाहता था। उसने मथुरा पर हमला किया। बलराम सहित भगवान के अन्य सहयोगी काफी क्रोधित हो गए और उन्होंने जरासंघ से युद्ध करने का निर्णय लिया।

भगवान कृष्ण ने अपने क्रोध को संभाला, उन्होंने बलराम और मथुरावासियों को समझाया कि जरासंघ को तो कभी भी मारा जा सकता है, मैं उसे मार भी दूंगा लेकिन अभी जरूरी है सबकी सुरक्षा। उन्होंने अपने क्रोध को रचनात्मक मोड़ दे दिया और मथुरा को छोड़ गए दूसरी सुंदर नगरी बसा ली, जिसका नाम था द्वारिका। कृष्ण के निर्णय से दुखी सारे मथुरावासियों को बाद में समझ आया कि अगर युद्ध किया जाता तो हजारों लोग मारे जाते। बहुत खून बहता और जरासंघ अगर मारा भी जाता तो बाद में कोई और राक्षस मथुरा पर आक्रमण कर देता। हिंसा नहीं रुकती।

जब भी आप पर किसी परिस्थिति में क्रोध हावी हो तो उस परिस्थिति के विकल्प पर विचार करें। तत्काल क्रोध प्रकट करने या क्रोध के अधीन होकर कोई कदम उठाने से दूरगामी परिणाम ऐसे हो सकते हैं जिस पर हमें पछताना पड़े।


क्रोध को कैसे जीता जाय
जैसे अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसकी शक्ति का पहले अन्दाजा लगा लें, और यह समझ लें कि उसकी शक्ति का उद्गम क्या है, वैसे ही हमें यह समझ लेना चाहिये क्रोध पैदा क्यों होता है। इतना समझ लेने के बाद, क्रोध को पचा लेने की शक्ति मनुष्य प्राप्त कर सकता है।

ध्यायतो विषयान्पुँसः संगस्तेषूपायते,
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते॥
(गीता अध्याय 2 श्लोक 62)

उक्त पंक्तियों में क्रोध की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला गया है। मनुष्य की इन्द्रियों के विषय हैं- सौंदर्य, स्वाद, मधुर शब्द, कोमल स्पर्श आदि। मनुष्य सुन्दर वस्तुओं को देखने, अच्छे-अच्छे भोजन और रसों का स्वाद लेने, संगीत के जैसे कर्ण प्रिय स्वरों को सुनने आदि की चिंता करता है। यह तो स्वाभाविक ही है किन्तु खतरा यह है कि उनके संबंध में सोचते वह इतना आदी हो जाता है कि वह उनके पाने की इच्छा करने लगता है। उनके बिना वह रह नहीं सकता, बस यही क्रोध का कारण है, क्योंकि उन सब चीजों की प्राप्ति अपने वश की बात नहीं है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि क्रोध का सबसे बड़ा कारण है किसी से अत्यधिक इच्छा करना। आप अपने मित्र, पुत्र या पत्नी से इसीलिए नाराज होते हैं कि उसने आपकी इच्छानुसार कार्य नहीं किया। इच्छा करना बुरी चीज नहीं है, किन्तु जब हम किसी के ऊपर आवश्यकता से अधिक आशाएं बाँध लेते हैं और अपनी स्वार्थ सिद्धि का आधार समझ बैठते हैं, तभी क्रोध को मानो न्योता दे देते हैं। कोई व्यक्ति हमारी या आपकी इच्छाओं का पालन, मशीन की तरह नहीं कर सकता है। उसकी भी इच्छाएं हैं, जब पहले उसकी इच्छाएं पूरी हो जाएगी तभी वह आपकी तरफ ध्यान देगा। इसलिए क्रोध के विजय के मार्ग में सबसे क्षीण पहला कदम यह होगा कि हमें किसी से अंधाधुन्ध आशाएं नहीं करनी चाहिये। किन्तु यह केवल रक्षात्मक कार्य हैं। क्रोध पर पूरी तरह विजय प्राप्त करने के लिए किसी से कुछ कार्य सिद्धि की अभिलाषा करने के स्थान पर, यदि हम यह सोचना बल्कि करना आरम्भ कर दें कि हमें अपने मित्रों और प्रेमियों की सेवा करनी है। इस प्रकार की मनोवृत्ति उत्पन्न हो जाने पर क्रोध की कोई गुंजाइश न रहेगी।

अपनी ओर से तो क्रोध पैदा न होने देने का प्रबन्ध मनुष्य उपर्युक्त विधि से चाहे कर ले किन्तु उस स्थिति में क्या होगा जब दूसरे हमारा अपमान करते हैं, या हमें हानि पहुँचाते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, और हमारे आस-पास के जितने आदमी होते हैं वे प्रायः स्वार्थी ही होते हैं। जब एक की हानि होगी तभी दूसरे का लाभ होगा। ऐसी दशा में हानि पहुँचाने वाले के प्रति क्रोध कैसे न होने दिया जाय। इस सम्बन्ध में हमें उदारवृत्ति का अनुगमन करना चाहिए। जब संसार स्वार्थमय है और इसका प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से कुछ लेकर या छीन कर ही अपनी स्वार्थ लिप्सा पूरी करता है, तो उस पर क्रोधित होने का कोई कारण नहीं है। दुनिया के इस रवैये को समझ लेने के बाद क्रोध न आना चाहिए। अपना कर्त्तव्य यही है कि हम अपनी हानि को पूरी करें और उससे हमेशा बचते रहें।

लाभ-हानि के क्षेत्र के बाहर भी कुछ काम ऐसे होते हैं जिनसे दूसरे लोग हमें व्यर्थ में हानि पहुँचाते हैं या कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि अनजाने में दूसरों के द्वारा कुछ काम ऐसे हो जाते हैं जिसके कारण हमें क्रोध हो सकता है, जैसे कि आपकी पत्नी या पुत्र से असावधानी के कारण आपका गिलास या कलम टूट जाय। कभी-कभी कोई ऐसे नौकर मिल जाते हैं कि आप कहते हैं कि बाजार से आम ले आओ, वह ले आता है नींबू। इसी तरह मान लीजिये किसी ने आपके बच्चे को मार दिया, आपको क्रोध आ जाता है। इस प्रकार के छोटे-छोटे कारणों से क्रोध आता है। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए। महात्मा गाँधी ने बताया है कि जब क्रोध आये तो हमें उस समय कोई काम ही न करना चाहिए। क्रोध की दशा स्थायी नहीं होती। थोड़ी देर तक ही मनुष्य हिताहित ज्ञान शून्य हो सकता है, बाद में विचार शक्ति काम करने लगती है और मनुष्य का क्रोध कम हो जाता है।

करीब-करीब इसी सिद्धान्त का अनुसरण अब्राहम लिंकन ने भी अनेक अवसरों पर किया था। एक बार उसकी सेना के एक बड़े उच्च पदाधिकारी ने उसके बताये गये युद्ध सम्बन्धी अनुशासन को नहीं माना, फलतः बड़ी हानि उठानी पड़ी। यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध आया। उसने उस पदाधिकारी के नाम एक कड़ा पत्र लिखा, किन्तु लिखने में विचार शक्ति से काम लेना पड़ता है। परिणाम यह हुआ कि उसका क्रोध ठंडा हो गया और वह पत्र भेजा नहीं गया। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि मानसिक आवेग में लिखना उसकी तीव्रता को कम कर देता है।

इसी प्रकार हमारे देश में प्रचलित एक किंवदंती भी है जिसमें बताया गया है कि क्रोध की दवा क्या है? एक मनुष्य को बहुत क्रोध आता था, एक वैध से उसने इसकी दवा पूछी। वैद्य ने खाली पानी एक बोतल में भर कर उसे दे दिया और कहा कि जब क्रोध आये तो यह दवा मुँह में भर लो और भरे रहो, थोड़ी देर में तुम्हारा क्रोध कम हो जायेगा। तात्पर्य यह कि जब क्रोध आ जाय तो अपने को रोक कर किसी काम में लग जाने पर क्रोध कम हो जाता है।

मनुष्य जो कुछ दूसरों का अपराध कर बैठते हैं, वह उनके स्वभाव की निर्बलता है, यह सोचने और इस पर ध्यान देने से क्रोध बिल्कुल आता ही नहीं। अगर मनुष्य यह समझ ले कि अपराधी अज्ञान में अपराध करता है, तो क्रोध आये ही नहीं। महान् पुरुषों ने इसी तत्व को हृदयंगम करके ही क्रोध पर विजय प्राप्त की है। ईसा मसीह को जिन लोगों ने उन्हें सूली पर चढ़ाया, उन पर क्रोध करने की अपेक्षा, उनकी अज्ञानता के प्रति उन्हें दया थी। कृष्ण को जब बहेलिए ने अज्ञान वश बाण से बेध दिया तो अपने हत्यारे को देख कर वे केवल मुस्कराये थे और बोले कि इसमें तुम्हारा क्या दोष, यह तो होनहार ही था।

संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन ने जीवन भर किसी विषय पर बड़े परिश्रम से खोज की थी। उन गवेषणाओं पर टीका-टिप्पणी करके उसने तमाम कागजात एक मेज पर रखे थे। एक दिन वह अपनी अध्ययनशाला में बैठे पढ़ रहे थे कि उसका कुत्ता डायमंड एकदम उचका और जलते हुए लैम्प को गिरा दिया। पलभर में सारे मूल्यवान कागज जलकर भस्म हो गये। जीवन भर का परिश्रम कुत्ते ने नष्ट कर दिया पर न्यूटन शान्त रहे। क्रोध पर उसकी विजय बेमिसाल विजय थी, उसका हृदय भारी था, उसने कुत्ते के सर पर हाथ फेरते हुए उसने कहा- डायमंड, डायमंड, तुम क्या जानो, तुमने क्या कर डाला।उसकी जगह पर शायद कोई दूसरा होता तो क्रोध में अंधा होकर कुत्ते को गोली ही मार देता। इन महान व्यक्तियों ने क्रोध पर इसीलिए विजय पाई थी कि वे अपराधी का अपराध को कारण न मानकर, उसकी अज्ञानता को कारण मानते थे। गाँधी जी कहा करते थे- अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं।

क्रोधकी उत्पत्ति संकीर्ण हृदय में होती है। जिसके विचार इतने संकुचित हैं कि वह अपने दृष्टिकोण को छोड़ कर दूसरों के विचारों के प्रति आदर नहीं रखता, वह पग-पग पर क्रोध करता चलता है। इसी तरह रूढ़िवादिता भी क्रोध की जड़ है। किसी धर्म के प्रति किसी रीति या परम्परा के प्रति आस्था रखना बुरी बात नहीं है, पर किसी अपने से भिन्न विचारों के प्रति, घृणा करना बुरी बात है। बहुत से वृद्ध, नौजवानों से इसीलिए क्रोधित हो जाते हैं कि नये ढंग से कपड़े पहनते हैं, पुराने रीति-रिवाजों को नहीं मानते। यह ठीक है कि बहुत सी बातें आधुनिक जीवन प्रणाली में बुरी भी हैं, पर हमें यह न भूल जाना चाहिए कि समय बदला करता है, जिस संस्कृति के आप पक्षपाती हैं, किसी समय में वह भी इसी तरह नयी रही होगी। मनुष्य को हमेशा प्रगतिशील होना चाहिए। परिवर्तनों और नवीन व्यवस्थाओं से घृणा या क्रोध करके कोई लाभ नहीं होता है। समय बदलता ही है, इस पर ध्यान रखने से क्रोध नहीं आ सकता।

क्रोध पर विजय प्राप्त करने का सबसे उत्तम उपाय है, अपने में न्याय की प्रवृत्ति का पैदा कर लेना। मनुष्य के अनेक कार्य उनमें से किसी की हानि या अपकार या अपराध कर डालने वाले काम उसके खुद के द्वारा नहीं होते। कभी-2 परिस्थितियाँ ऐसी आ जाती हैं कि मनुष्य ऐसे काम करने को मजबूर हो जाता है। ऐसे कामों में आत्म-हत्या, चोरी, व्यभिचार, डाका और कत्ल जैसे जघन्य अपराध भी शामिल हैं। यद्यपि यह ठीक है कि कुछ ऐसे मनुष्य भी हैं जो जान बूझ कर ऐसे अपराध करते हैं परन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं है। अधिकतर मनुष्य ऐसे गुरु अपराध भावावेश या परिस्थितियों के कारण कर डालते हैं।

अब मनोवैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह बात सिद्ध भी हो गई है। इसलिए जेलखानों में अपराधियों की मानसिक स्थिति को समझना और उनका सुधार करना राज्य का एक कर्त्तव्य बन गया है। इसी सत्य का पालन हम अपने व्यक्तिगत जीवन में कर सकते हैं यदि किसी मित्र, सम्बन्धी या पास पड़ोसी ने अपमान या अपकार भी कर डाला हो, तो हमें उसके प्रति न्याय करना चाहिए और वह न्याय कैसे हो? यदि हम अपने को अपराधी की परिस्थितियों में रख दें और सोचें कि उन अमुक परिस्थितियों में हम क्या करते? तो यह समझ में आ जायगा कि हमारा भी काम शायद वैसा ही होता जैसा कि अपराधी कर चुका है। बस यह विचार आते ही अपराधी के प्रति क्रोध न आकर इसमें सहानुभूति पैदा हो जाती है और क्षमा भाव जाग्रत हो उठता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

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