Tuesday, November 17, 2015

Jeene Ki Rah11 (जीने की राह)

हर व्यक्ति में कोई न कोई गुण
जब हम सांसारिक कार्यों में उतरते हैंतो हम जानते हैं कि इसमें प्रतिस्पर्द्धा होगी। इसके के लिए हम लगातार अपना व्यक्तित्व मांजते रहते हैं। लगातार स्वयं को नहीं मांजेंगे तो पिछड़ जाएंगे। एक गलती बहुत से लोगों से होती है कि हम कुछ लोगों को मूर्ख मान लेते हैंनासमझ समझ लेते हैं। हमें लगा कि हमने उन्हें मूर्ख बना दिया या वे कम अक्ल थेइसलिए हमने उनका उपयोग नहीं किया और बाद में वे समझदार निकल गए। कुछ लोग खुद को जानबूझकर मूर्ख साबित करते हैंताकि लोग उनको मूर्ख मानकर अवॉइड कर सकें और उनके लिए काम आसान हो जाए। आदमी समझदार हैयोग्य है तो लोग उसकी तगड़ी घेराबंदी करते हैं। यदि अयोग्य और मूर्ख व्यक्ति हो तो लोग उसको छोड़ देते हैं। इसी छूट का वे फायदा उठाते हैं। इसलिए इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि नादान कोई नहीं होता।

यदि आपको संपर्क में आए लोगों का लाभ उठाना है तो आप यह तय कर लीजिए कि आपके पास क्या योग्यता है कि आप लाभ उठा सकें। वो मूर्ख हो या समझदारलेकिन आपकी तैयारी पक्की है तो आप उसका लाभ अवश्य उठा सकेंगे। श्रीकृष्ण पांडवोंं को हमेशा समझाते थे कि सदैव सामने वाले की योग्यता से ही लाभ नहीं मिलताउसकी कमजोरी भी हमारे लिए लाभकारी हो सकती है। कृष्ण जानते थे कि भीष्म जैसे योग्य और समर्थ व्यक्ति से पांडव पराजित हो जाएंगेइसलिए उन्होंने युधिष्ठिर को भेजकर भीष्म से ही उनकी मृत्यु का तरीका पूछ लिया था। हम आज ऐसा प्रयोग नहीं कर सकतेलेकिन इतना तो कर ही सकते हैं कि जरा होश में रहेंनजर खुली रखें और मूर्खकमजोर आदमी को यह मानकर न छोड़ दें कि हमारे किसी काम का नहीं। हरेक में कुछ न कुछ ऐसा है कि यदि आप तैयार हों तो उसका उपयोग कर सकते हैं और यही बुद्धिमानी है।

लोगों से काम लेने का मंत्र
यह तो तय है कि अकेला मनुष्य सबकुछ नहीं कर सकता। किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए अनेक लोगों के सहयोग की जरूरत होती हैलेकिन उस समय हमें यह सावधानी रखनी पड़ेगी कि जिनका हम सहयोग ले रहे हैंउनमें योग्यता क्या है। अयोग्य से अयोग्य आदमी भी किसी न किसी काम का जरूर होता है और योग्य से योग्य आदमी भी आपका काम बिगाड़ सकता है। वह दौर खत्म हुआ कि आपने एक मार्ग पकड़ा और मंजिल पर पहुंच गए। अब कई मार्ग बदलने पड़ते हैं। कभी छलांग लगानी पड़ेगीकभी कूदना पड़ेगाकभी उस रास्ते को छोड़ना पड़ेगा और कभी नया रास्ता बनाना पड़ेगा। जब भी किसी व्यक्ति से मिलें तोे उसकी वह संभावना टटोलेंजो आपके काम आ सके।

किससे क्या काम लेना है यदि इस बात को जानना चाहें तो सामने वाले को त्रिगुण में फिट करके देखें- सतोगुणरजोगुण और तमोगुण। सतोगुण वाले सदैव अच्छे काम करेंगेईमानदारी से करेंगे और उनके व्यवहार में पवित्रता होगी। रजोगुण प्रधान लोग लेन-देन में माहिर होते हैं। सांसारिक कामों में छल-कपट भी करना पड़े तो कर लेंगे। तमोगुणी मनुष्य कुटिल होगा। किसी भी काम को गलत तरीके से कैसे किया जाए उसमें उसकी रुचि होगी। यदि हम थोड़ा भी मेडिटेशन से गुजरें तो किसी भी मनुष्य में इन गुणों की तरंग को पकड़ सकते हैं। मेडिटेशन में हम स्वयं पर केंद्रित होते हैं और ऐसा व्यक्ति दूसरे के केंद्र से निकलने वाली तरंगों को पकड़ सकता है। आपको बड़ी व्यवस्था में तीनों गुणों से संयुक्त व्यक्ति से भी काम लेना पड़ सकता है। कबकिसकेकिस गुण को उजागर कर कौन-सा काम लेना हैयही संसार में काम लेने का गुण है। अभ्यास करिए त्रिगुण वृत्ति को जानने काअपनी भी और दूसरे की भी।

ज्ञान से विश्राम पाती हैं इंद्रियां
परमात्मा सभी से अलग-अलग समय में अलग-अलग रोल करवाते हैं। कभी आप नेतृत्व कर रहे होंगेकहीं अधिकारी होंगेकभी व्यापारी की भूमिका में होंगे। रिश्तों को निभाना भी महत्वपूर्ण भूमिका है। आप जो भी दायित्व निभा रहे होंउसके प्रति अपना नज़रिया स्पष्ट कर लें। किष्किंधा कांड के प्रसंग में श्रीराम राज्य से वंचित राजा थेभाई थे और विचारक की भूमिका भी निभा रहे थे। इस बार श्रीराम जो टिप्पणी कर रहे हैं इस पर तुलसीदासजी ने लिखा है - बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।। जहं तहं रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।। पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भरी हुई उसी तरह शोभायमान हैजैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है। जहां-तहां अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैंजैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियां शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती हैं।

चूंकि श्रीराम राजा थेउन्होंने वर्षा बाद की नई व्यवस्था को स्वराज से जोड़ा है। स्वराज यानी जहां प्रजा हर तरह से सुखी हो। श्रीराम प्रजा के प्रति सदैव चिंतित रहते थे। श्रीराम जैसे महापुरुष परहित का पर्याय हैं। वे कहते हैं कि जब पृथ्वी के पास दूसरों को देने के इतने अवसर हों तो पथिक यहां विश्राम पाते हैं। हमारी इंद्रियां लगातार भागती हैं। इंद्रियों की रुचि उनके विषय में होती है। जैसे आंख इंद्रिय है तो उसका विषय देखना हैलेकिन यदि ज्ञान सही ढंग से जीवन में उतर जाए तो इंद्रियां भी विश्राम में आ जाती हैं। इंद्रियों के साथ बेकार की खींचातानी नहीं करनी चाहिए। उन्हें ज्ञान के सहारे विश्राम दिला दीजिए। इस प्रसंग से हमारे लिए सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि हम मनुष्य हैं तो इंद्रियों का भरपूर उपयोग कर सकते हैंलेकिन कब इन्हें सक्रिय रखना है और कब विश्राम देना है श्रीराम की वाणी हमें यही बता रही है।

मन का भोजन है विचार
कुछ लोगों को किसी भी रास्ते पर चलाया जाएवे भटकते ही नज़र आएंगे। भटकना कुछ लोगों का शौक है और कुछ की मजबूरी। जैसे मनुष्य के शरीर में बुद्धि भटकती भी है और सही मार्ग भी दिखाती है। हृदय भटक भले ही जाएलेकिन उसकी पहली कामना सही मार्ग की होती है। मन किसी एक रास्ते पर चलना ही नहीं चाहता। भटकना उसकी मूल रुचि है। मन किस तरह से भटकता है इसको समझना हो तो कुत्ते-बिल्ली का उदाहरण लिया जा सकता है। भारत में कुछ लोग बिल्ली रास्ता काट जाए तो अशुभ मानते हैं और विदेश में बिल्ली घरों में पाली जाती है ताकि वह रास्ता काटे तो कुछ अच्छा लगे। ये दोनों ही पालतू हैं। दोनों भटकते रहते हैं। बिल्ली को खाने की वस्तु मिले तो उसी स्थान पर गिराती है फिर खाती है। कुत्ते को कोई खाने की वस्तु दी जाए तो वह कहीं और जाकर खाता है। श्वान को झुकना होप्रेम बताना हो तो पूंछ हिलाता है।

बिल्ली को दबना होअपनापन बताना हो तो वह म्याऊं करती है। मनुष्य का मन भी उलटी-पलटी खाता ही रहता है। कब किसका गुलाम हो जाएकब किसका मालिक बन जाए पता नहीं चलता। श्वान की तरह भौंकता ही रहता है। कभी आपसे किसी का मतभेद हो जाएआपको क्रोध आ जाए और बाहर क्रोध व्यक्त न कर सकें तो भीतर अपने आप को ध्यान से देखिएगा। पाएंगे कि कोई श्वान जोर से भौंक रहा है। जब आप अपनी पसंद की चीज नहीं पा सकें तो देखिए मन उस पर बिल्ली की तरह झपट रहा है। इन दोनों को सिखाया जाता है भोजन से। मन का भोजन विचार है और वह उसे खाता है सांस से। सांस के प्रति सजग हो जाएंविचारों को नियंत्रित करें तब मन बिल्कुल पालतू होगा और जिसका मन पालतू है वह दुनिया का सबसे शांत व्यक्ति होगा।

शृंगार में व्यक्तित्व न खो जाए
इन दिनों दूसरों को प्रभावित करना भी प्रबंधन का हिस्सा माना जाता है। इसके लिए लोग कई तरह के नुस्खे अपनाते हैं। कम साधनों में खुद को अधिक वैभवशाली दिखाना एेसी ही युक्ति है। आपके आस-पास ऐसे कई लोग दिखेंगेजो उतने समृद्ध नहीं हैंजितने दिखते हैं या दिखाते हंै। कभी-कभी तो दिखावा इतना बढ़ जाता है कि लोग उधार लेकर इसीलिए मकान सजाते हैं कि दूसरों को प्रभावित कर सकें। यह बिल्कुल मदारी के खेल जैसा है। मदारी किसी साधन को अपने ढंग से नचाता है। चाहे वह बंदर हो या खिलौना। जिन बातों में वह सक्षम नहीं है उन बातों को भी ऐसे दिखाता है कि लोग उसका लोहा मान जाएंलेकिन तारीफ पाकर मदारी भूल ही जाता है कि मैंने झूठ का सहारा लिया है। वह मान लेता है कि मैं सचमुच कमाल का हूं। आजकल सभी मनुष्य मदारी बनने लग गए हैं।

जब आपका ओढ़ा हुआ वैभवसमृद्धि दूसरों को प्रभावित करती है तो वे आपकी प्रशंसा करने लगते हैं और यहीं से मनुष्य उस छवि में कैद हो जाता है। दूसरे आपको कह-कहकर वह बना देते हैं जो आप होते नहीं हैं। जिन्होंने वैभव का दिखावा किया हैवे भूल जाते हैं कि सच कुछ और था। कम सौंदर्य को गहनों से ढंका जाता है और जिसके पास सौंदर्य हो वह गहने निखारने के लिए पहनता है। लेकिन शृंगार का तीसरा तरीका भी है- आत्मा का शृंगार। यह शृंगार ऐसा होता है कि इसमें कुछ दिखे या न दिखेलेकिन सुगंध अवश्य महसूस होती है। संसार में रहते हुए दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए कुछ शृंगार किए जाएं इसमें बुराई नहीं हैलेकिन इस बात की पूरी सावधानी रखी जाए कि उस शृंगार की आड़ में हमारा मूल व्यक्तित्व न खो जाए। आत्मा का शृंगार करने का प्रतिदिन कुछ अवसर निकालिए। उसी का नाम योग है।

बच्चों को सुसंग का स्वाद दें
सभी गृहस्थ संतान सुख चाहते हैं। कभी-कभी गृहस्थी बसाने के बाद संतान की प्राप्ति नहीं होती और संतान सुख प्राप्ती के लिए लोग कई उपाय करते हैं। संतान सुख अलग बात है और संतान से सुख मिलना बिल्कुल दूसरी बात है। कभी-कभी संतान भी दुख का कारण बन जाती है। श्रीराम किष्किंधा कांड में लक्ष्मणजी से कहते हैं कि यदि संतान दुराचारी हो जाए तो उस कुल के श्रेष्ठ आचरण नष्ट हो जाते हैं। तुलसीदासजी लिखते हैं- कबहुं प्रबल बह मारुत जहं तहं मेघ बिलाहि। जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।। कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती हैजिससे बादल जहां-तहां गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं। संतानें अयोग्य हों तो जीवन का सबसे बड़ा दुख मनुष्य पर टूटने लगता है। किंतु श्रीराम यह भी इशारा कर देते हैं कि संतानों को योग्य बनाना हमारे हाथ में है।

कबहुं दिवस महं निबिड़ तम कबहुंक प्रगट पतंग। बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग।। जैसे बादल ढंक जाएसूर्य छिप जाए तो समझ लीजिए कुसंग हो गयाअंधकार छा गया। बादल छंट जाएप्रकाश आ जाए यह सत्संग का ही परिणाम है। अपनी संतानों को सुसंग का स्वाद सबसे पहले घर से ही दिया जा सकता है। अगर बच्चों को घर में होश संभालते यह बात समझ में आ जाए तो जब वे घर से बाहर निकलेंगेउन्हें इसका ज्ञान रहेगा कि किन लोगों के साथ उठा-बैठा जाए। जैसे हम भोजन-पानी के मामले में बच्चों को बचपन से स्वाद पैदा कर देते हैं ऐसे ही हमें सुसंग का स्वाद भी घर में ही उनके जीवन में उतार देना चाहिए। फिर बाहर निकलने पर वे अच्छे मित्रअच्छे साथी ही ढूंढ़ेंगे। घर से अच्छी बातें बाहर ले जाएंगे तथा बाहर से श्रेष्ठ बातें भीतर लाएंगेतब जाकर संतान से सुख मिलेगा।

शक्ति केंद्र जानेंसाहस जगाएं
हमें महत्व मिले ऐसी इच्छा सभी की रहती है। जो लोग समाज में महत्वपूर्ण हैं उनको तो महत्व मिल ही जाता हैलेकिन जिनके पास कोई बहुत बड़ा पद-प्रतिष्ठा न हो वो भी महत्व चाहते हैं। अपनी जिंदगी में इससे भी थोड़ा आगे बढ़ा जा सकता है। यदि हमें महत्व पाने की इच्छा है तो धीरे-धीरे इसको सम्मान पाने में बदलिए। लोग हमको महत्व दें या न देंलेकिन हमारा प्रयास होना चाहिए कि लोग हमें सम्मान दें। सम्मान प्राप्त करना पड़ता हैमहत्व मिल जाता है। कभी-कभी दूसरे को महत्व देना मजबूरी भी हो जाती हैलेकिन अधिकांश मौकों पर व्यक्ति सहमत होकर दिल से सम्मान देता है। सम्मान पाने के लिए हमको ही प्रयास करना पड़ता है। इसमें हमारी हिम्मत बड़ा काम करती है।

जन्म से ही सभी लोग हिम्मती नहीं होतेयदि हम समाज में सम्मान पाना चाहते हैं तो हमें अपने भीतर की हिम्मत को अंगड़ाई देनी होगी। अधिकांश लोग जन्म से ही संकोचीडरपोक और शर्मीले होते हैंलेकिन यदि इस संसार में सम्मान से रहना है तो हिम्मती होना सीखना पड़ेगा। और यदि आपके बच्चे हिम्मती नहीं हैं तो उन्हें सिखाना पड़ेगा। जब हमारे भीतर की हिम्मत हमें समझ में आने लगती है तब हम कुछ रिस्क भी ले लेते हैं। आज जीवन में आगे बढ़ने के लिए खतरे उठाने ही पड़ेंगे और बिना साहस के खतरा उठाया तो नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। अपने भीतर की हिम्मत को जगाने के लिए तीन बातों की जरूरत पड़ती है- हमारा संगहमें समर्थन कौन लोग दे रहे हैं और हमारे पास क्या साधन हैंइसीलिए परमात्मा ने हमारे शरीर में स्वयं का मूल्य जानने के लिए कुछ केंद्र बनाए हैं। यदि इन शक्ति केंद्रों को हम भीतर से जान जाएं तो हमें अपने साहस को अपनी सफलता से जोड़ने में दिक्कत नहीं आएगी।

दाम्पत्य में निजता का सम्मान हो
कुछ लोग बाहर से बहुत सरल और चरित्रवान दिखते हैंलेकिन यह सही है कि हर एक भीतर से जटिल और अपवित्र है। यह बात अलग है कि कई लोग अपनी भीतरी अपवित्रता को मिटाने में सतत प्रयास करते हैंअपनी जटिलता को समाप्त करने के लिए लगे रहते हैं। ऐसे लोगों को साधक-भक्त कहा जाता है। सारी बातें जीवन में उजागर करने के बाद भी कुछ गोपनीय रह ही जाता है और उसे हर व्यक्ति भीतर रखता है। दुनिया की बाकी रिश्तेदारियों में यह गोपनीयता चल जाती हैलेकिन पति-पत्नी के बीच इस गोपनीयता के कारण कभी-कभी तनाव भी पैदा हो जाता हैक्योंकि यह एकमात्र रिश्ता है जो एक-दूसरे से जितनी अपेक्षा करता है उतने ही खुलेपन की मांग करता है। इस रिश्ते में अंतरमन को उघाड़ना पड़ता है।

हालांकियह भी उतना ही सच है कि दोनों कितने ही आत्मीय होंकुछ बातों में गोपनीयता की रक्षा करनी चाहिए। इसे निजता भी कहा जाता है। अपनी निजता में कोई भी हस्तक्षेप नहीं चाहताइसलिए यदि आपका जीवन साथी कुछ गोपनीय रखना चाहता है तो उस पर संदेह न करें और न दबावपूर्वक जानने का प्रयास करें। यदि प्रेम से बात बाहर आ जाए तो धैर्य से सुनिएक्योंकि प्रेम से आपने उजागर तो कर दिया पर वह अप्रिय भी हो सकता है। इसलिए पति या पत्नी कोई बात नहीं बता रहा है तो उस पर अविश्वास करने की बजाय सोचें कि इसका क्या कारण होगाकहीं सामने वाला किसी दबाव में तो नहींऐसा है तो उसकी मदद की जाए। हर बात उघाड़ने से यह रिश्ता खूबसूरती खो देता हैइसलिए दाम्पत्य में कुछ ढंका रहने दें जो एक-दूसरे की निजता होगी। जितना इसका सम्मान करेंगेउतना आपसी विश्वास बढ़ेगा और दाम्पत्य सुखमय होगा।

रिश्तों से बच्चों को एेसे जोड़ें
प्रतिस्पर्धा के दौर में सभी माता-पिता अपने बच्चों को जानकारियों से भरपूर रखना चाहते हैं। बाहरी सफलताओं का इतना दबाव है कि कई बच्चे तो अपना मूल स्वभाव ही खो देते हैं। परिंदे भी अपने बच्चों को उड़ना सिखाते हैंलेकिन लौटकर घोंसलों पर आएं इतनी गुंजाइश उन बच्चों में जरूर रखते हैं। किंतु देखने में आ रहा है कि इंसान के बच्चे यदि परिवार की डाली से उड़ जाए तो उन्हें लौटाना मुश्किल हो रहा है। इसीलिए परिवार लगातार खाली होते जा रहे हैं। पहले तो एक परिवार में इतने सदस्य होते थे कि छोटे-मोटे खेल के लिए टीमें बना सकें। और अब सदस्य तो कम हुए ही हैंसाथ में प्रेमअपनापन भी गायब होने लगा है।
जब भी कभी फुर्सत मिलेअपने बच्चों को एक छोटी-सी एक्सरसाइज से जरूर गुजारिए। उन्हें अपने कुछ रिश्तेदारों की सूची सौंपकर एक प्रश्नावली थमाइए और उनसे लिखवाइए कि आपको कौन-सा रिश्तेदार पसंद है और क्योंइस बहाने वे उनका परिचय भी प्राप्त कर लेंगे। फिर उनसे यह भी पूछिए कि यदि अपने लोगों को खुश करना है तो वे क्या-क्या करेंगेहो सकता है वे प्रश्नावली को गलत भरेंतब हमारी जिम्मेदारी होगी कि हम उसे ठीक कर दें।

कुछ उत्तर तो ऐसे मिलेंगे कि आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। कुछ नजदीक के और महत्वपूर्ण रिश्तों को तो बच्चे खारिज ही कर देंगे। कहीं वे शिकायत करते मिलेंगे तो कहीं वे अनजाने से बन जाएंगेलेकिन साल में एक या दो बार अपने बच्चों से यह अभ्यास जरूर करवाएं। चूंकि आजकल इसी तरीके से पढ़ाई की जा रही हैइसलिए उनकी शिक्षा के कोर्स मेंउनके सिलेबस में अपनी ओर से परिवार का चैप्टर भी जोड़ दीजिए। आपको भविष्य में इसके सद्परिणाम अवश्य मिलेंगे।

इंद्रियों का उचित उपयोग करें
पागलपन और मूर्खता इनसान के साथ जुड़े हैं। फर्क बारीक-सा है। पागल कहे जाने का ज्यादा बुरा लगता है। मूर्ख कहने पर भी बुरा तो लगता है पर उससे कम। चलिएआज दोनों को समझते हैं। क्रोध में डूबकर जो भी करेंगे वह क्षणिक पागलपन हैपरंतु क्रोध आए और हम उसे वापस न भेज सकें तो यह हमारी मूर्खता होगी। कभी-कभी काम के जुनून को भी यह संज्ञा दी जाती है। जैसे वह पागलों की तरह भिड़ गया। पागल भी जो करते हैं उसमें वे दूसरों की फिक्र नहीं करते। वह वही करता है जो उसे करने की इच्छा होती हैइसीलिए मेहनत करता हुआ इनसान भी पागल दिखता है। फर्क यह है कि वह अपना लक्ष्य जानता है और पागल बेतरतीब काम करता है।

किंतु परिश्रम में अत्यधिक डूबकर जब हानि अधिक उठा ली जाए तो वह मूर्खता होगी। पागलपन को मूर्खता में और मूर्खता को पागलपन में परिवर्तित होने में ज्यादा समय नहीं लगता। यह ऐसा ही है कि पानी गरम किया तो भाप बन गयाजमा दिया तो बर्फ बन गया। परमात्मा ने हमें दस इंद्रियां दी हैंजिनका उपयोग हम पागलों की तरह कर सकते हैं और मूर्खों की तरह भी। पागल अपनी इंद्रियों को अनियंत्रित करके चलता है और मूर्ख परिवर्तित करके चलता है। जिस प्रकार परमात्मा ने कान दिए हैं सुनने के लिए पर कुछ लोग इनसे देखने लगते हैं। आंखों से सुनने लगते हैं। दिल से दिमाग का काम लेते हैं और दिमाग में तेल डाल देते हैंयह मूर्खता है। सीधी सी बात है मनुष्य को दो पैर चलने के लिए दिए हैंलेकिन यदि हाथ टिकाकर दोनों हाथदोनों पैरों से चलें तो लोग मूर्ख ही कहेंगे। समझदार आदमी पागलपन का भी सदुपयोग कर जाता हैमूर्खता से भी अच्छे-अच्छे काम निकाल लेता है।

धन के साथ संतोष को जोड़ें
पिछले कुछ दिनों से जीवन धन के आस-पास घूम रहा है। जरूरी नहीं कि जीवन में धन आ ही गया हो। कुछ ने प्रयास कियाकुछ ने धन को बरसते देखा और कुछ लोगों के पास आ भी गया होगालेकिन ये धन से परिचय के दिन थे। जब जीवन में समृद्धिधनवैभव आता है तो जरूरी नहीं कि सुख भी आ जाए। हम धनतेरस से गुजरकर दीपावली तक पहुंच रहे हैं। चलिएइस पूरे कालखंड को किष्किंधा कांड से जोड़कर देखें। श्रीराम ने लक्ष्मण को जो समझाया वह हम जीवन से जोड़ लें तो दीपावली अपने अर्थ लेकर आएगी। श्रीराम लक्ष्मणजी से कह रहे हैं, ‘बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई।। फूले कास सकल महि छाई। जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।। हे लक्ष्मणदेखो वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद-ऋतु आ गई। कास के फूल खिलने से चारों ओर सफेदी छा गई। मानो वर्षा ऋतु का बुढ़ापा (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) आ गया हो।

शरद अद्‌भुत ऋतु है। वर्षा ऋतु का बुढ़ापा यानी अंत आ गया हो। इस समय हमारा जीवन समृद्धि और वैभव से ढंका नजर आता है। निर्धन से निर्धन व्यक्ति के यहां भी धन अपने ढंग से दस्तक दे रहा होता है। ऐसे में श्रीराम आगे सावधान करते हैं, ‘उदित अगस्त पंथ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषइ संतोषा।। सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा।।’ ‘अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया हैजैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय।’ हमें दीपावली पर यह संदेश लेना चाहिए कि यदि धन के साथ संतोष जुड़ जाए तो धन जो तकलीफ देता है वह नहीं होगी। साथ में मद व लोभ से अपने आप को मुक्त रखिए।

योग्यता का सदुपयोग महत्वपूर्ण
यह सवाल वर्षों से चला आ रहा है कि आदमी की महानता यानी ग्रेटनेसउसका महत्व यानी इम्पॉर्टेंस और उसकी महिमा यानी उसकी ग्लोरी योग्यता के कारण होती है या उसने उस योग्यता का सदुपयोग कैसे कियाइस कारण होती हैं। योग्यता बहुत सारे लोगों में होती है। महत्व तब शुरू होता है जब आप उस महत्ता का दुरुपयोग करते हैं या सदुपयोग। रावण के साथ भी ऐसा ही है। कोई रावण को महान पंडित बताता हैकोई उसकी इस बात के लिए प्रशंसा करता है। रावण की प्रशंसा करना निषेध में कहे गए शब्द हैं। हमें थोड़ा समझना होगा कि रावण का महत्व थाक्योंकि वह वीर थाविश्वविजेता था। उसके पास सिद्धियां थींउसने तपस्या की थीलेकिन तप किया जाता है पुण्य अर्जित करने के लिए और उसने पाप का संग्रह किया थाइसलिए उसका महत्व तो थालेकिन वह महान था या नहीं इस पर संदेह है।

यदि योग्यता का सदुपयोग नहीं किया तो आप महान नहीं हो सकते। रावण से यदि कुछ सीखना है तो यही सीखिए कि शीर्ष पर पहुंचकर जो गलतियां की जाती हैं वे रावण जैसे विश्वविजेता को भी एक दिन धूल चटा देती हैं। किसी को दबाकरआतंक मचाकरअपने प्रभाव का उपयोग करके स्वयं को महान घोषित करना मूर्खता है। रावण बाद में ऐसी ही गलतियां करता रहाइसलिए जो भी रावण की प्रशंसा करे वह उसके महत्व की तो जरूर प्रशंसा करे पर उसे महानता से न जोड़ें। वरना वही भूल हम कर जाएंगे जो रावण कर बैठा था। वह अपनी योग्यता से एक महान नायक हो सकता था किंतु दुरुपयोग किया तो बड़ा खलनायक बन गया। हमें खलनायकों का अनुसरण नहीं करना है। उनके द्वारा की गई गलतियों को समझकर उससे बचना हैसमाज के सामने नायक की भूमिका में आना है।

धन के अभाव में भी सुख संभव
शास्त्रों में कहा गया है कि जो लोग सारी दुनिया जीत लेते हैं वे एक जगह हार जाते हैं और वह है समय। बड़े-बड़े विश्वविजेता भी वक्त के आगे हार गए। किंतु यदि सही ढंग से चला जाए तो फिर भी इसे हल्की-सी विजय माना जा सकता है। श्रीराम से अच्छा उस समय कौन जान सकता था। लक्ष्मण को प्रकृति और परिस्थिति का उदाहरण देकर उन्होंने जो कहा उसे तुलसदासजी ने ऐसे व्यक्त कियारस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी।। जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।। नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद्-ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए।

जैसे समय पाकर अच्छे कर्मों का फल प्राप्त होता है।’ श्रीराम कह रहे हैं ममता का त्याग ज्ञानी व्यक्ति कर सकता है। किसी बात के प्रति अत्यधिक आकर्षित हो जाना ममता है। जो लोग इससे बंध जाते हैं वे परेशानी उठाएंगे। जीवन की कुछ घटनाओं के निर्णय समय पर छोड़ देने चाहिए। वक्त के फैसले अपने ही ढंग के होते हैं। उसका इंतजार करिए। श्रीराम आगे कहते हैं - पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप के जसि करनी।। जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना।। न कीचड़ है न धूलइससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीति-निपुण राजा की करनी। जल के कम हो जाने से मछलियां व्याकुल हो रही हैं जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है।’ ये पंक्तियां श्रीराम ने इसलिए कहीं कि वे वनवासी राजा थे और साथ में गृहस्थ भी। गृहस्थ के पास यदि धन न हो तो उसे व्याकुल नहीं होना चाहिए। बिना धन के भी गृहस्थी में सुख उतारा जा सकता है। श्रीराम यही कहना चाहते हैं।

अच्छाई देखने की आदत डालें
दूसरे से अच्छा बनने की तमन्ना सभी में रहती है। धीरे-धीरे खुद को अच्छा देखने की आदत अनियंत्रित होने लगती है तो फिर हम दूसरों में बुराई देखने लगते हैं। इन दिनों तो अच्छा और बुरा देखने की आदत धर्म में भी उतर आई है। हमारा धर्म दूसरे धर्म से अच्छा है- धीरे-धीरे यह घोषणा राष्ट्रीय तनाव का कारण बनती जा रही है। सभी धर्मों के महापुरुषों और शास्त्रों ने घोषणा भी की है कि हमारे धर्म में क्या अच्छा है यह बताया जाए। हमारा धर्म अच्छा है इसकी घोषणा न की जाएक्योंकि निश्चित कुछ न कुछ अच्छाई सबमें रही होगीतभी वह धर्म प्रतिष्ठित हुआ। धीरे-धीरे यह आदत घरों तक आ जाती है। नज़दीकी रिश्ते भी एक-दूसरे के लिए अच्छे-बुरे की घोषणा करने लगते हैं। अपनी अच्छाई को स्थापित करना और दूसरे की बुराई को उजागर करना भी पति-पत्नी के बीच झगड़े का एक कारण होता है।

बहुत दिनों से नारा चल रहा हैअच्छे दिन आने वाले हैं। अच्छी बातें देखने के दिन आने चाहिए। चाहे हमारे रिश्तेदार होंमित्र हों या कामकाजी सहयोगी होंसबकी अच्छाई देखी जाए। बुराई सबमें होती हैलेकिन अब अच्छाई उजागर करने और उसको स्वीकार करने का समय है। इस समय देश में दूसरों की बुराई देखने का दौर है। इससे हम कभी सही जगह नहीं पहुंचेंगे। बहुत बड़ी क्रांति न करेंपर निजी स्तर पर यह तैयारी की जाए कि हम सुबह से लेकर रात तक अब दूसरों की अच्छाई ही देखेंगे और उसे स्वीकार करेंगे। अगर यह स्वभाव हमारा बन गया तो लाभ यह होगा कि हमें बैठे-ठाले दूसरों की अच्छाई मिलने लगेगी। जिसे प्राप्त करने के लिए लोग तप-तपस्या करते हैं वो हमें घर बैठेचलते-फिरते मिल जाएगीइसलिए अच्छाई देखने के दिन आ गए हैं ऐसी घोषणा की जाए और फिर जीवन का असली आनंद लिया जाए।

धन को बांटने का संकल्प लें
अभी-अभी दीपावली का त्योहार गुजरा है। घर में लक्ष्मी पूजन होता है तो हम किसी पंडित को बुलवाकर मंत्रोच्चार कर लेते हैं या स्वयं पूजा करते हुए कुछ मंत्र बोलते हैं। अधिकांश लोगों को इन मंत्रों का अर्थ पता नहीं होताक्योंकि पूजा रस्म बन गई है। किंतु यह न भूलें कि शास्त्रों में लक्ष्मीजी के कुछ रूप व्यक्त किए गए हैं। राजा के यहां वे राजलक्ष्मी हैंगृहस्थी में वे गृहलक्ष्मी हैंउद्योग और परिश्रम वालों के यहां लक्ष्मी शोभा बनकर आती हैं। पापियों में वे कलह के रूप में आ जाती हैं। हमारे काम की बात यही है कि लक्ष्मी अर्जित करते हुए कोई पाप नहीं होना चाहिए। यानी ऐसा कोई काम न किया जाए जो संसार या संसार बनाने वाले के विधान के विरुद्ध हो। अगर गलत रास्ते से संपत्ति घर लाए तो वह कलह का कारण बनेगी। इसलिए जरूरी नहीं कि धनवान व्यक्ति कलह से मुक्त हो या उसे सच्चा सुख प्राप्त हो जाए।

अत: अपने परिश्रम से अर्जित धन का एक हिस्सा उन लोगों के लिए जरूर निकालें जो आज असमर्थ हों या जिनके पास वे साधन नहीं हैंजो हमें उपलब्ध हो गए हों। समाज के लिए हमारी यह हिस्सेदारी मां लक्ष्मी को बड़ी पसंद आती है। हमारे देश में कुछ लोगों को सबकुछ मिल गया हैलेकिन एक बड़ा वर्ग आज भी ऐसा है जिसे कुछ नहीं मिला। ध्यान दें कुछ नहीं’ शब्द पर। वे योग्य हैंअधिकारी हैं फिर भी वंचित हैंक्योंकि पूरी व्यवस्था इस तरह से हो गई है कि कुछ लोगों ने लूट लिया है और कुछ लुट गए हैं। अत: हम संकल्प लें कि पूरे वर्ष कम से कम अगली दीपावली तक उन लोगों का भी ध्यान रखेंगेजो किसी कारण से सुखसाधनसंपत्तिशांति से वंचित हो गए हैं। जो घर आई हुई लक्ष्मी को इस रूप में बांटेगालक्ष्मी उसके जीवन मेंउसके घर में अधिक समय शांति और सुख के साथ रहना पसंद करेंगीं।

संकट का समाधान हमारे भीतर
संकट और परेशानी से निपटने के सबके अपने ढंग होते हैं। विपरीत परिस्थिति में हम लोगों की मदद लेते हैं। हम नहीं लेना चाहें तो भी कुछ लोग सहयोग करते हैं। ऐसा भी होता है कि सबकी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं और हमें लगता है कि अब कौन हमारी मदद करेगा। सारे रास्ते बंद हो गएअब कैसे निपटेंकर्म करने की अपनी क्षमता होती है। दिक्कत के समय आदमी उससे भी थक जाता है। कर्म करना रुक जाएलेकिन भीतर के विचार नहीं रुकते। ऐसे समय या तो हम पूरी तरह से टूट जाएंगे या फिर अगर अपने चिंतन को सही दिशा दे दी तो संकट से बाहर भी आ जाएंगे। जब ऐसी घड़ी जीवन में आए कि अब करने से कुछ होगा नहीं और सोचना रुक नहीं रहा होतो अपने विचारों को परमात्मा से जोड़ दें और यूं सोचिए कि हमारा निर्माण किसी और ने किया है। हमारे माता-पिता तो सिर्फ माध्यम हैं।

हम परमात्मा के द्वारा भेजे गए हैंउन्हीं के अंश हैंइसीलिए उनकी श्रेष्ठता हमारे भीतर निश्चित उतरी है। यह विचार हमारी आंतरिक ऊर्जा को और प्रबल करेगाक्योंकि जब परमशक्ति का सारा श्रेष्ठ हमारे भीतर है तो हम क्यों निराश हों। विज्ञान कुछ भी कहे पर यह सही है कि हमारे भीतर हमारे माता-पिता के डीएनए के अलावा प्रकृति ने बहुत कुछ भर रखा है और उसका उपयोग करने के लिए हमें स्वयं से जुड़ने की कला आनी चाहिएइसलिए जब कभी भी परेशान होंतो पूरी तरह से बाहर से अपने को काट लें। एकांत में बैठ जाएं और अपने ही भीतर गहरे उतरें। एक सरल-सा प्रयोग किया जा सकता है कि अपने भीतर अपनी नाभि पर स्वयं को खींच कर डालें। यह केंद्र आपको धीरे-धीरे ऊर्जा से भर देगा और यहीं हमें महसूस होने लगेगा कि हमारे पास कुछ अतिरिक्त ऐसा है जो हमें इस संकट से बाहर निकालने में काम आएगा।

परिवार में सामूहिक ध्यान जरूरी
पहले रिश्ते बनाना और निभाना गौरव की बात हुआ करती थी। आज रिश्ते आसानी से टूट जाते हैं। रिश्ते टूटने के कारणों में बड़ा कारण है एक-दूसरे पर ध्यान नहीं देना। पति-पत्नी के बीच कलह इसीलिए है कि जरूरत के वक्त वे एक-दूसरे पर ध्यान नहीं दे पाते। बूढ़े माता-पिता की बच्चों से यही शिकायत है। छोटे बच्चे अपनी जिद इस आरोप के साथ पूरा कराते हैं कि मां-बाप के पास उनके लिए फुर्सत नहीं है। कुल-मिलाकर सब एक-दूसरे पर ध्यान न देने का आरोप लगा रहे हैं। मैं पिछले दिनों एक कॉर्पोरेट हाउस की वर्कशॉप में था। वहां मुझे बताया गया कि पहले व्यक्ति जब किसी बात पर ध्यान देता था तो उसकी सीमा 12 सेकंड हुआ करती थीअब वह घटकर 8 सेकंड रह गई। 8 सेकंड से अधिक अब कोई व्यक्ति किसी बात पर ध्यान नहीं देताइसलिए प्रबंधन में सिखाया जाता है कि ग्राहक का ध्यान 8 सेकंड से ज्यादा नहीं रहेगाइसलिए इसी अवधि में उसे लपक लिया जाए।

ध्यान देने की यही वृत्ति रिश्तों के प्रति भी बनती जा रही हैइसलिए घरों में ऐसे अभ्यास होते रहना चाहिए कि एक-दूसरे पर ध्यान देनेसाथ निभाने का समय बढ़े। अध्यात्म ने इसीलिए ध्यान पर बहुत अधिक बल दिया है। ध्यान का मतलब ही है वर्तमान पर रुक जाना। आज मनुष्य या तो अतीत में गिरने में देर नहीं लगाता या भविष्य में छलांग की जल्दी में रहता है। जो लोग थोड़ा बहुत वर्तमान पर टिकने की आदत डाल लेंगे उनके परिवारों में शांति और प्रेम जल्दी उतरेगाक्योंकि ध्यान का मतलब ही है वर्तमान पर टिकना। यह बात परिवारों में भी ध्यान रखनी होगी कि लोग बहुत जल्दी एक-दूसरे से दूर हो जाएंगेलेकिन जिन परिवारों में सामूहिक योग की वृत्ति बनी रहेगी वे परिवार एक-दूसरे के प्रति अधिक समय तक वहीं रुकेंगे। एक-दूसरे का अधिक समय तक साथ देंगे।

भक्ति में श्रम के साथ विश्राम
जीवन में परिश्रम और विश्राम का संतुलन बिगड़ जाए तो आदमी के लिए काम नशा हो जाएगा या फिर वह बेवक्त आलसी हो जाएगा। दोनों ही खतरनाक हैं। श्रीराम जीवन के कठिन दौर से गुजर रहे थे और सिर्फ लक्ष्मण से बात कर रहे हैं। बसयहीं विश्राम और परिश्रम का मतलब समझ में आ जाएगा। किष्किंधा कांड के ये प्रसंग हमारे लिए बड़े काम के हैं। श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं- तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा।। कहुं कहुं बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी।। शरद ऋतु में बादल छंटकर आकाश साफ हो जाता है जैसे भगवद् भक्त आशा छोड़कर सुशोभित होते हैं। यहां आशा का मतलब है बहुत अधिक आसक्ति। जिद और आसक्ति में फर्क है।

हठ तो कभी-कभी मनुष्य को फिर भी परिश्रम के लिए प्रेरित करता हैलेकिन आसक्ति उसे गलत मार्ग पर भी ले जा सकती है। फिर श्रीराम कहते हैं जैसे राजा विजय पाना चाहता हैतपस्वी को तप चाहिएव्यापारी को धन-संपत्ति और भिखारी को भीख। ये चारों जब भी अवसर मिलता हैअपने काम पर निकल जाते हैंलेकिन यदि जीवन में परमात्मा की भक्ति आ जाए तो इन चारों के परिश्रम का मतलब बदल जाता है। श्रीराम ने टिप्पणी की है कि ये श्रम को त्याग देते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि आलसी हो जाएंपरिश्रम करना छोड़ दें। सभी को विजय पानी हैधन पाना हैतप अर्जित करना है और भिक्षा प्राप्त करनी है। इन सबके साथ भक्ति जुड़ जाए तो फिर मनुष्य कुछ समय के लिए श्रम के साथ विश्राम भी करने लगता है। जीवन में सदैव दौड़ने से ही कुछ मिलता हैऐसा नहीं है। थोड़ी देर रुकेंबैठिएशांत हो जाइए और अपने आपको एक नई स्थिति के लिए तैयार कीजिए।

ईश्वर जैसे होने की संभावना
हम सब कुछ न कुछ बनना चाहते हैं। बचपन से हमें यह सिखाया जाता है। अब तो बच्चों को भविष्य में क्या बनना है इसकी योजना माता-पिता बच्चे के जन्म से पहले ही तैयार कर लेते हैं। पहले के माता-पिता इस बात पर जोर देते थे कि अधिक से अधिक बच्चे पढ़-लिख लें और अच्छा इंसान बन जाएं। वे अपने बच्चों को किसी विशेष क्षेत्र के लिए तैयार नहीं किया करते थे। धीरे-धीरे वक्त बदला और अब तो बच्चे शुरू से ही इस बात के लिए तैयार किए जाते हैं कि उन्हें इस क्षेत्र में जाना है। यही तुम्हें होना है इस बात का आग्रह बच्चों के व्यक्तित्व को दबाव में ला देता है। यह सही है कि हर बच्चा कोई न कोई संभावना लेकर आता है। बहुत कम लालन-पालन करने वाले यह जानते हैं। किंतु अब आप अपने भविष्य के प्रति समझदार हैं तो इस पर विचार जरूर कीजिए कि मूल रूप से आप में कौन-सी संभावना थीजो आप हो सकते थे और उसको अब भी पकड़ने का वक्त है।

जीवन के मामले में देर कभी भी नहीं होती। परमात्मा ने मनुष्य बनाकर उसे कहा था मैं तुम्हें अपने जैसा बनने में पूरी मदद करूंगा। तुम्हारे भीतर सबसे बड़ी संभावना छिपी है मेरे जैसा होने की। भगवान का अर्थ हैजिसने अपने ऐश्वर्य का सदुपयोग कर लिया हो। इतनी बड़ी मदद मिल रही हो और फिर भी हम उसके जैसे नहीं बनें तो यह हमारी भूल होगी। उदाहरण देने के लिए ही परमात्मा इस संसार में कुछ ऐसे मनुष्यों को भेज देता हैजिनमें वह अपनी झलक डाल देता है और उनमें से एक है गुरुनानक देव। आज उनकी जयंती पर हम यही विचार करें कि जो संभावना परमात्मा ने गुरुनानक देव के भीतर छोड़ीवह सबके भीतर छिपी है। थोड़ी-सी तैयारी हम करेंबहुत अधिक मदद वह करने को तैयार है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

Friday, November 6, 2015

Prarthna (प्रार्थना)




















इस तरह करेंगे तो हर प्रार्थना स्वीकार करेंगे भगवान....
हर इंसान जीवन में कभी ना कभी भगवान से प्रार्थना जरूर करता है। प्रार्थना हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा होना चाहिए लेकिन अक्सर लोग तभी भगवान को याद करते हैं जब वे किसी बड़ी परेशानी से दो-चार होते हैं।

कई लोग ये भी कहते हैं कि वे प्रार्थना तो बहुत करते हैं लेकिन भगवान सुनता ही नहीं। दरअसल हम जब भी प्रार्थना करते हैं तो उसमें वो भाव नहीं होता जो भगवान को चाहिए। हम मिन्नतों में भी भगवान को वस्तुओं का लालच देते हैं। सिर्फ ये सोचने की बात है कि जिसने इस पूरे संसार की रचना की है वो क्या किसी साधारण लालच से पिघल जाएगा। प्रार्थना में सिर्फ आपकी भावनाएं ऐसी हों जो उसे छू सके।

भागवत में भक्त धु्रव की कथा आती है। धु्रव के पिता की दो पत्नियां थीं। पिता को अपनी दूसरी पत्नी से अधिक प्रेम था, जो कि ज्यादा सुंदर थी। उसी से पैदा हुए पुत्र से ज्यादा स्नेह भी था। एक दिन एक सभा के दौरान धु्रव अपने पिता की गोद में बैठने के लिए आगे बढ़ा तो सौतेली मां ने उसे रोक दिया।

पांच साल के अबोध धु्रव को रोना आ गया। सौतेली मां ने कहा जा जाकर भगवान की गोद में बैठ जा। धु्रव ने अपनी मां के पास जाकर पूछा मां भगवान कैसे मिलेंगे। मां ने जवाब दिया, उसके लिए तो जंगल में जाकर घोर तपस्या करनी पड़ेगी।

बालक धु्रव ने जिद पकड़ ली कि अब भगवान की गोद में ही बैठना है। जंगल की ओर निकल पड़ा। एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान लगाया। लेकिन कोई मंत्र नहीं आता था। नारदजी उधर से गुजरे तो बालक धु्रव को गुरु मंत्र दे दिया। ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नम:। बस अब बालक धु्रव मंत्र जपने लगा। कोई और इच्छा नहीं थी, सिर्फ एक भाव की भगवान की गोद में बैठना है।

मन से भगवान को पुकारने लगा। बच्चे का निर्दोष भाव देखकर भगवान भी पिघल गए। प्रकट हुए। वर मांगने को कहा। बालक धु्रव ने कहा मुझे अपनी गोद में बैठा लीजिए। भगवान ने इच्छा पूरी कर दी।

ना कोई प्रसाद, ना कोई चढ़ावा, सिर्फ भावों से ही भगवान को जीत लिया पांच साल के धु्रव ने। राज्य में बड़ा सम्मान हुआ। पिता ने सिंहासन भेंट कर दिया।

कभी भगवन की प्रार्थना से मुंह फेरने की गलती न करें...
दुःख में भगवान को याद करना चाहिए, लोग गलती यह करते हैं कि जब बहुत दुखी होते हैं तो भगवान् को भी भूल जाते हैं। दुख किसके जीवन में नहीं आता। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति भी दुखी रहता है। पहुंचे हुए साधु से लेकर सामान्य व्यक्ति तक सभी के जीवन में दुख का समय आता ही है। कोई दुख से निपट लेता है और किसी को दुख निपटा देता है। दुख आए तो सांसारिक प्रयास जरूर करें, पर हनुमानजी एक शिक्षा देते हैं और वह है थोड़ा अकेले हो जाएं और परमात्मा के नाम का स्मरण करें।

सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी ने सीताजी के सामने श्रीराम का गुणगान शुरू किया। वे अशोक वृक्ष पर बैठे थे और नीचे सीताजी उदास बैठीं हनुमानजी की पंक्तियों को सुन रही थीं। रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।

वे श्रीरामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, जिन्हें सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया। तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ।। तब हनुमानजी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी मुख फेरकर बैठ गईं। हनुमानजी रामजी का गुणगान कर रहे थे। सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया। दुख किसी के भी जीवन में आ सकता है।

जिंदगी में जब दुख आए तो संसार के सामने उसका रोना लेकर मत बैठ जाइए। परमात्मा का गुणगान सुनिए और करिए, बड़े से बड़ा दुख भाग जाएगा। आगे तुलसीदासजी ने लिखा है कि हनुमानजी को देखकर सीताजी मुंह फेरकर बैठ गईं। यह प्रतीकात्मक घटना बताती है कि हम भी कथाओं से मुंह फेरकर बैठ जाते हैं और यहीं से शब्द अपना प्रभाव बदल लेते हैं। शब्दों के सम्मुख होना पड़ेगा, शब्दों के भाव को उतारना पड़ेगा, तब परिणाम सही मिलेंगे। इसी को सत्संग कहते हैं।

जानिए, कैसे लाया जाए प्रार्थना में असर?
प्रार्थनाएं हर बार नहीं सुनी जातीं, लेकिन कई बार एक ही आवाज में भगवान दौड़े आते हैं। उन शब्दों में ऐसा कौन सा जादू होता है, जिससे भगवान पिघलते हैं। प्रार्थना कभी खाली ना जाए, इसमें ऐसा असर कैसे जगाया जाए।

कहते हैं प्रार्थना में शब्दों की जगह भाव होना चाहिए। कुछ नियम प्रार्थना के भी होते हैं। हम जब मांगने पर आते हैं तो यह भी नहीं देखते कि क्या हमारे लिए जरूरी है और क्या नहीं। बस मंदिर पहुंचते ही मांग रख देते हैं। मांगने की भी मर्यादाएं होती हैं। अनुचित और गैर-जरूरी चीजें मांगने से सिर्फ समय और प्रार्थना की बर्बादी होती है।

अपनी प्रार्थना में असर लाने के लिए भगवान से मांगने का भाव छोड़ दें। हम जितना मांगेंगे, उतना कम मिलेगा। सही तरीका यह है कि जीवन उसके भरोसे छोड़ दें और अपना कर्म करते चलें। फिर मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जो आवश्यकता होगी, वो अपनेआप मिल जाएगा।

गुजरात के प्रसिद्ध संत हुए हैं नरसिंह मेहता। नरसिंह मेहता बड़े नगर सेठ थे। उनकी एक ही बेटी थी। वे कृष्ण भक्ति में इतने लीन थे कि अपनी सारी दौलत गरीबों और जरूरतमंदों को दान कर दी। उनका अंदाज भी फकीराना हो गया। लोग समझाते कि कभी तुमको कोई जरूरत पड़ी तो क्या करोगे। फिर कहां से इना धन आएगा। मेहता कहते कि सब सांवरिया सेठ भगवान कृष्ण करेंगे।

बेटी के ससुराल में एक समारोह हुआ। नरसिंह मेहता को मायरे की भेंट देनी थी लेकिन पास में एक ढेला भी नहीं था। वो खाली हाथ ही चल दिए। भगवान का नाम जपते चल रहे थे। भगवान कृष्ण ने देखा कि ऐसे खाली हाथ जाएगा तो मेरे भक्त की इज्जत क्या रह जाएगी। भगवान खुद गाड़ीभर कर मायरे का सामान लेकर नरसिंह मेहता की बेटी के ससुराल पहुंच गए। हमारी प्रार्थना में भाव समर्पण का होना चाहिए, इसके बाद तो भगवान बिना मांगे ही सब दे देगा।

फिर कोई भी परेशानी आपके लिए चिंता का कारण नहीं रहेगी...
कई बार हम संकट में भगवान को भूल जाते हैं, दिन-रात उस परेशानी से निकलने के लिए छटपटाते हैं लेकिन रास्ता नहीं मिलता।अक्सर देखा गया है कि ऐसे मुश्किल समय में हम भगवन को भूल जाते हैं. अगर प्रार्थना का क्रम जारी रहे तो फिर मुश्किलों से निकलने में कोई समस्या नहीं आएगी।रामचरित मानस के सुंदरकांड का एक प्रसंग यही बात सिखाता है।जिंदगी में संकट किसी भी रूप में आ जाता है। कभी-कभी तो हम थक जाते हैं कि आखिर हम इससे कैसे निपटें? कुछ लोगों ने महसूस किया होगा कि हमारा अनुभव भी ऐसे समय काम नहीं आता। हम कितनी ही ऊंची कक्षा के व्यक्ति हों, कुछ संकट ऐसे होते हैं, जो हमें विचलित कर ही जाते हैं। सुंदरकांड में सीताजी के साथ ऐसा ही हुआ था। वे परमज्ञानी विदेहराज जनक की बेटी थीं।

स्वयं बहुत सुलझी हुई स्त्री थीं और श्रीरामजी की धर्मपत्नी थीं। इसके बावजूद जब हनुमानजी उनसे पहली बार मिले तो वे अत्यधिक विचलित थीं। तुलसीदासजी ने लिखा है - कह कपि हृदयं धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।। उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।। हनुमानजी ने कहा - हे माता! हृदय में धर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्रीरामजी का स्मरण करो।

उनकी प्रभुता को हृदय में लाओ और कायरता छोड़ दो। हनुमानजी के सामने दो जिम्मेदारियां थीं - पहली, श्रीराम का विरह संदेश देना और दूसरी सीताजी को सांत्वना देकर शोक से बाहर निकालना। तब हनुमानजी सीताजी को समझाते हैं - चार बातों को स्मरण रखें तो बड़े से बड़े संकट से पार हो जाएंगे।

पहली बात, धर्य न छोड़ें; दूसरी, भगवान का स्मरण करें। स्मरण धर्य का काम करता है। तीसरी बात, भगवान सर्वशक्तिमान हैं, उनकी ताकत को प्रभुता कहा है। उसे अपने हृदय में रखें। चौथी बात, कायरता छोड़ दें। ये दिन भी बीत जाएंगे, ऐसा भाव बनाए रखें। दुनिया का बड़े से बड़ा संकट आया है तो जाएगा भी।

भगवान को सबसे अच्छी लगती है ये प्रार्थना
मंत्र, पूजा-पाठ और हवन-पूजन अपनी जगह है लेकिन प्रार्थना का एक तरीका ऐसा भी है जिससे बिना कुछ किए भी भगवान तक पहुंचा जा सकता है। ये तरीका आपकी अपनी मुस्कुराहट। कहते हैं आदमी उसी चेहरे को देखना पसंद करता है जिसमें कोई आकर्षण हो।

मुस्कुराहट से बड़ा कोई आकर्षण नहीं है। भगवान राम हो या कृष्ण, गौतम हो या महावीर, सभी के चेहरों पर आकर्षण का प्रमुख कारण था उनकी निष्पाप मुस्कान। हम भी प्रयास करें कि चेहरे पर मुस्कान खिली रहे। इससे हमारा मन भी तनाव मुक्त होगा और हम अधिक सहज रह पाएंगे।

अध्यात्म का एक स्वरूप है आनन्द की खोज। जो लोग परमपिता परमेश्वर से जुडऩा चाहें उन्हें मुस्कुराना जरूर आना चाहिए। हर धर्म ने मुस्कुराहट को अपने-अपने तरीके से जरूरी ही माना है। मुस्कुराहट आनन्द की सतह है। जैसे समंदर में लहरें उठती हैं ऐसे ही आनन्द के समुद्र में मुस्कुराहट की लहर उठती है।

आजकल देखा गया लोग घर से निकलते हैं अपने धंधे-पानी, नौकरी-पेशा तक जाते-जाते जितने लोग मिलते हैं सबको देखकर मुस्कुराते हैं और घर आते ही एकदम सीरियस हो जाते हैं। घर में एक-दूसरे सदस्यों को देखकर कोई नहीं मुस्कुराता। हम घर में आपस में झगड़ते हैं और दूसरों को देखकर मुस्कुराते हैं। अपनों से मिलकर हंसिए।

जिस क्षण हम मुस्कुराते हैं परमात्मा मुड़कर हमारी ओर चलने लगता है। जो स्माईल जीने की चीज है वह लेने और देने की चीज बन गई है। हम मुस्कुराहट को भी शस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं जबकि वह हमारी शान्ति का कारण हो सकती है। कई लोगों की हंसी भी बीमार हो गई है। कई लोगों ने स्माईल को भी बिजनेस पीस बना डाला है। अब तो देखा गया है द्विअर्थी संवाद या अश्लील चर्चा पर ही लोग हंसते हैं।

जिन्हें भक्ति करना हो, जो सद्गुण अपनाना चाहें, जो शान्ति की खोज में हों उन्हें सदैव अपनी हंसी को प्रेम और करुणामयी बनाए रखना चाहिए। फकीरों को हंसता हुआ देखिए। उनकी हंसी में चोट नहीं होती और हम किसी को गिरता हुआ देखकर भी हंसने लगते हैं। यह बहुमूल्य क्रिया है। इसे प्रेम के साथ प्रदर्शित करिए। इसलिए सुबह हो या शाम, अपनों से मिलें या गैरों से, घर के भीतर हों या बाहर, जब भी मौका मिले जरा मुस्कुराइए...परमात्मा यह प्रार्थना जरूर सुनता और देखता है।

जानिए, भगवान से प्रार्थना में क्या मांगा जाए...
हम मंदिर या किसी भी देव स्थान पर जब भी जाते हैं, हमारी मांगों की फेहरिस्त तैयार ही होती है। कभी बिना मांगे हम किसी दरवाजे से नहीं लौटते। परमात्मा से मांगने की भी एक सीमा और मर्यादा होती है। हमेशा भौतिक वस्तुओं या सांसारिक सुख की मांग ही ना की जाए। कभी-कभी कुछ ऐसा भी मांगें जो हमें भीतर से परमात्मा की ओर मोड़ दे। ईश्वर गुणों की खान होता है, उससे हम अपने लिए सद्गुण मांगें तो ज्यादा बेहतर होगा।

परमात्मा से जब भी की जाए गुण ग्रहण की ही प्रार्थना की जाए। प्रार्थना तो करें परन्तु उसे आचरण में भी लाएं। अन्यथा प्रार्थना फलीभूत नहीं हो पाएगी। गुण ग्रहण की प्रार्थना करने का अर्थ है कि हम सुबह उठकर एक अच्छा काम करने का संकल्प लें और रात सोने से पहले एक बुराई का त्याग करके सोएं।

जो ऐसा करते हैं वे गुणग्राही, जीवन को गुणों से सम्पन्न बना लेते हैं। धन से सम्पन्न होना तो सरल एवं सहज है लेकिन गुणों से सम्पन्न होना मुश्किल हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम बुराइयों को छोडऩे और अच्छाइयों एवं गुणों को ग्रहण करने में अपने आपको कमजोर पाते हैं।

इस कमजोरी के कारण हम गुणों को देखने के स्थान पर दोष देखने लगते हैं। अपने व्यक्तित्व में सृजन का भाव लगातार विकसित करें। मानव जीवन को कल्पवृक्ष बनाने का श्रेय इन्हीं रचनात्मक विचारों का होता है।

इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्च स्तरीय विचारों में ही संलग्न करना चाहिए। विचार मानव के जीवन में महान शक्ति है। वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जैसा बीज होगा वैसा पेड़ बनेगा। जैन मुनि प्रज्ञा सागरजी ने अपनी पुस्तक मेरी किताब में इस विषय पर बहुत अच्छे विचार दिए हैं।

उनका कहना है- कुछ लोग दूसरे की कमी क्यों देखते हैं? अपनी कमी को छिपाने के लिए। जैसे लोमड़ी अंगूर तक नहीं पहुँच पाती तो स्वयं को दोष देने की बजाय अंगूरों को दोष देने लगती है। खाने की वासना तो है लेकिन अपनी असमर्थता छुपाने के लिए अंगूर को ही खट्टा बता दिया। ऐसे ही हम भी अपनी कमी छुपाते-छुपाते दूसरों की कमी देखने के आदी हो गए हैं।

ये हैं भगवान को पाने के लिए छः सबसे जरुरी बातें...
दुनिया और दुनिया बनाने वाले दोनों को यदि हम पाना चाहें तो जीवन में एक संतुलन बनाना पड़ेगा। यह संतुलन शक्ति से बनता है। हमारे भीतर छ: प्रकार की शक्तियाँ हैं जिन्हें हम ठीक से जान लें तो हमारे लिए भौतिकता और भक्ति समझना आसान हो जाएगा।
1. पराशक्ति - यह सब शक्तियों का मूल और आधार है।

2. ज्ञान शक्ति - यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का रूप धारण कर, मनुष्य की क्रिया का कारण बन जाती है। इसके द्वारा दूरदृष्टि, अंतज्र्ञान और अंतदृष्टि जैसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

3. इच्छाशक्ति - यह शरीर के स्नायु मण्डल में लहरें उत्पन्न करती हैं जिससे इन्द्रियां सक्रिय होती हैं और कार्य करने की तरफ संचालित होती हैं। जब यह शक्ति सत्गुण से जुड़ जाती है तो सुख और शान्ति की वृद्धि होती है।

4. क्रियाशक्ति - सात्विक इच्छा शक्ति इसी के द्वारा कार्यरूप में परिणित फल को पैदा करती है।

5. कुण्डलिनी शक्ति - यह एक तरह से जीवन शक्ति है। इसके दो रूप हैं समष्टि और व्यष्टि। समष्टि का अर्थ है पूरी श्रृष्टि में कई रूपों में विद्यमान रहना जैसे - पेड़-पौधों में प्राण, प्रकृति का जीवन तत्व। व्यष्टि रूप में मनुष्य के शरीर के भीतर तेजोमई शक्ति के रूप में रहती है। इसी शक्ति के द्वारा मन संचालित होता है। इसे परमात्मा की ओर मोड़ दें तो माया के बंधन से मुक्ति मिलती है। यह साधना से जागृत होती है।

6. मातृका शक्ति - यह अक्षर, बिजाक्षर, शब्द, वाक्य तथा गान विद्या की शक्ति है। मंत्रों में शब्दों को जो प्रभाव होता है वह इसी के कारण है। इसी शक्ति की सहायता से इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति अपना फल दे पाती है। इसके बिना कुण्डलिनी शक्ति नहीं जागती। अपनी इन शक्तियों को भीतर से पहचानें और इनका उपयोग सफलता प्राप्त करने में करें।

केवल इस ताकत से पाया जा सकता है भगवान को....
हर तरह से बलशाली बनने के इस समय में बाहुबल, धनबल, जनबल इन्हें भौतिक तौर-तरीकों से पाया जा सकता है। यह कोई बहुत कठिन काम नहीं होता। यह सब तो रावण के पास भी था, क्योंकि उसने अर्जित किया था। लेकिन आत्मबल की कमी उसमें भी थी और आज भी कई लोगों में रहती है।

लगातार प्रयास करते रहिए कि बाहर से सब तरह से सक्षम होने के साथ हम आत्मबली भी हों। इसकी शुरूआत आत्मज्ञान से होती है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना। अपने को जानने की पहली सीढ़ी है हम भीतर से क्या हैं? या यूं कहें हमारे भीतर हमारे अलावा और कौन रहता है?

जैसे ही इस सवाल के जवाब में हम थोड़ा गहरे उतरेंगे तभी हमें अनुभूति होगी हमारे भीतर परमात्मा रहता है और जितने उसके निकट जाएंगे उतना ही हम यह अधिक महसूस करेंगे कि हम ही परमात्मा हैं। हमारे भीतर रहकर ईश्वर ने हमें अपने जैसा बनाया है, लेकिन संभावना छोड़ दी है कि हम पहचानें या न पहचानें। हम भगवान की शानदार कृति हैं और वे हमारे भीतर बसे ही हैं।

इस अनुभव को बढ़ाने के लिए एक प्रयोग करें। जब भी हम कोई काम करें इस बात का दबाव स्वयं पर बनाएं कि हमारा हर कृत्य हमारी भगवत्ता को जरूर स्पर्श करे। यदि हम कुछ गलत कर रहे हैं तो हमारी भगवत्ता उससे अछूति नहीं है। फिर विचार करें परमात्मा अनुचित नहीं करता। चूंकि हम उससे कट गए हैं इसलिए जीवन में गलत शुरू हो गया है।

जैसे ही हम भीतर उससे जुड़ेंगे अनुचित अपने आप उचित में बदलने लगेगा। भीतर भगवान से जुडऩा ही आत्मबल है। कोई है जो हमसे सीधे-सीधे जुड़ा है। भीतर से उनका साथ होना बाहर हमारे व्यक्तित्व को ओज और तेजमय बना देगा।

भगवान की भक्ति का एक तरीका यह भी है...
जिन्हें भक्ति करना हो, जो जीवन में शान्ति चाहते हों, अपने व्यक्तित्व में मौलिकता रखना चाहते हों उन्हें प्रकृति के साथ कुछ प्रयोग करना चाहिए। शास्त्रों में लिखा है प्रकृति परमात्मा की पहली और सच्ची प्रतिनिधि है। परमात्मा का रूप मनुष्य ने अपनी रूचि, श्रद्धा और जाति के अनुसार बना लिया है और यदि ऐसे स्वरूप की प्राप्ति न हो रही हो तो प्रकृति से अवश्य जुड़ें।

प्रकृति अपने से जुड़ाव को व्यर्थ नहीं जाने देती। प्रकृति पर एक दिन सुबह से ही विचार कर लें कि आज आप प्रकृति के प्रत्येक हिस्से के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाएंगे। पूरा दिन प्रकृति के लिए होगा। अपनी सामान्य गतिविधि करते रहें लेकिन प्रकृति के जितने हिस्से उस दिन आपको दिखें या उनके संपर्क में आए तो आप उनके प्रति अतिरिक्त रूप से संवेदनशील बन जाएं। जैसे किसी पेड़ को देखें, किसी पक्षी को देखें या पशु को स्पर्श करें तो पूरी तरह प्रेम से भर जाएं।

विचार करें कि हम उस देश में रहते हैं जहां नदी, पहाड़, वृक्ष, पशु-पक्षी पूजे गए हैं। इस तरह से हम सम्पूर्ण पूजा के भाव में डूब जाएंगे। दिनभर में किसी पत्ती को स्पर्श करके विचार करें जैसे आप अपने बच्चे के गाल को स्पर्श कर रहे हैं। कुल मिलाकर आज का दिन प्रकृति के नाम है। इस विचार और कल्पना को अपनी रूचि से जोड़ते और बढ़ाते जाएं। रात को सोते समय चिंतन करें क्या हम आज प्रकृति में समा पाए?

प्रार्थना में अगर ऐसा भाव हो तो फिर वो बेकार है...
भगवान के सामने प्रार्थना में भी लोग मोलभाव से नहीं चूकते। उसका नाम जुबान पर बाद में आता है, मन से अपनी मांग पहले निकल जाती है। यहीं से हमारी आस्था घायल होती है। भक्ति में व्यापार प्रवेश गया और प्रार्थना भगवान तक पहुंच ही नहीं पाई। जब हम परमात्मा के सामने खड़े हों तो मांगने की बजाय समर्पण का भाव मन से निकलना चाहिए, तभी प्रार्थना उसके कानों तक पहुंचती है।

लेकिन आजकल इसका ठीक उलट हो रहा है। लोग ईश्वर को भी चढ़ावे का लालच देकर अपना काम निकलवाना चाहते हैं। इसके लिए एक बात समझनी होगी कि जिसने हमें ये सब दिया है क्या वो इन्हीं भौतिक साधनों के लालच में फंसेगा।

फकीरों ने कहा कि स्वयं को मिटाए बिना परमात्मा नहीं मिलता। यह संवाद भय पैदा करता है। स्वयं को मिटाने में डर लगता है लेकिन स्वयं को मिटाने का अर्थ है अपने अहंकार को गला देना। इसके लिए एक सरल प्रक्रिया है जप करना। जप कि यह विशेषता है कि नाम की बार-बार आवृत्ति होने पर रस बना रहता है। जप में, प्रार्थना में दरअसल स्वयं को मिटाना होगा।

मिटे बिना न तो सही प्रार्थना हो सकती है और न जप हो सकता है। यदि प्रार्थना करते-करते हम पिघले न, जप करते-करते हम स्वयं को न खो दें तो फिर ये प्रार्थना, हमारी अक्ल का हिसाब ही मानी जाएगा। फिर प्रार्थना एक गणित होगी, एक धंधा होगी।

एक चर्च में एक पादरी प्रवचन दे रहे थे तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई क्योंकि सामने एक बुढिय़ा बैठी थी और पादरी जब भी ईश्वर का नाम लेते वह आमीन-आमीन कहती। आमीन, ओम का ही रूपांतरण है। लेकिन जब पादरी शैतान का नाम लेते तब भी बुढिय़ा कहती-आमीन। पादरी को बड़ी हैरानी हुई। प्रवचन के बाद जब वे मंच से उतरे और बुढिय़ा के पास गए, उस बुढिय़ा से कहा- समझ में नहीं आता कि ईश्वर का नाम लेते समय तो आमीन करते देखा, पर आप शैतान के नाम पर भी आमीन कह रही हैं।

बुढिय़ा ने कहा- यह मेरा मृत्यु का समय है, अंतिम समय है, किसी से भी बुरा क्यों बनें। क्या मालूम संसार से जाने के बाद में किसके पास जाना पड़े? पता नहीं भगवान के हाथ लगें या शैतान के। इसे कहेंगे गणित। यह पूजा नहीं की जा रही है। दोनों को राजी रखना क्या ठीक है? दरअसल यह बुद्धि का हिसाब है। यह मिटना नहीं है, यह मोलभाव है। जप एवं साधना ऐसे नहीं हो सकती, इसमें मिटना ही पड़ेगा।

इस तरह प्रार्थना हमारे लिए लीडरशिप का काम करती है...
हमारे जीवन की हर व्यवस्था में एक शीर्ष पद होता है। कोई न कोई प्रमुख होता है, जिसके निर्देश पर अन्य को काम करना पड़ता है। परिवार में मुखिया, कार्यालयों में बॉस, सामाजिक जीवन में कर्णधार। ऐसी अनेक शक्लों में आदेश, प्रेरणा और निर्णय लेने वाले लोग होते हैं।

चलिए, आज इस बात पर चर्चा करें कि जीवन कितना आदेशों से और कितना प्रेरणा से चलता है। फिर इसे भी समझ लें कि किसका आदेश मानें और किससे प्रेरित हों।आप किसके प्रति आज्ञाकारी हैं, किनके निर्देशों से संचालित हैं, इससे जिंदगी की गति तय होती है। व्यावहारिक, पारिवारिक जीवन में शीर्ष व्यक्ति का चयन हमारे हाथों में नहीं होता। माता-पिता और बॉस के चयन की गुंजाइश कम ही लोगों को मिलेगी।

ये तय होते हैं, लेकिन हमारे निजी, आध्यात्मिक जीवन में आदेश और प्रेरणा के स्रोत हम स्वयं चुन सकते हैं। जैसे हमारा मन हमारी आत्मा की प्रेरणा से चलना चाहिए, पर वह हो जाता है स्वेच्छाचारी। यदि हम आत्मा तक न पहुंच पाएं, तो कम से कम मन, बुद्धि द्वारा तो प्रेरित रहें।
शीर्ष पर बुद्धि हो, निर्णय लेने के अधिकार बुद्धि के पास रहें, पर चूंकि मन ये अधिकार छीन लेता है तो हमें वो उन आकर्षणों की ओर ले जाता है, जो नुकसानदायक हैं। हमारे जीवन के शीर्ष पर आत्मा व बुद्धि होनी चाहिए, लेकिन प्रभावशाली हो जाता है मन।

इसलिए थोड़ी देर प्रार्थना से जरूर गुजरिए। प्रार्थना हमें वर्तमान पर टिकाकर परमशक्ति में डुबोने की क्रिया है। जैसे ही हम प्रार्थना में उतरे, मन निष्क्रिय हो जाएगा, क्योंकि प्रार्थना मांग नहीं है, सिर्फ जुड़ाव है और यहीं से हम सही नेतृत्व में जीवन को चलाने लगेंगे।

हमारे व्यक्तित्व को इस तरह संवारती है प्रार्थना...
प्रार्थना परत उतारने की प्रक्रिया है। हमने संसार में रहते हुए अपने चेहरे पर, अपने व्यक्तित्व पर कई परतें जमा कर ली हैं। प्रार्थना द्वार जैसी है परमात्मा तक जाने के लिए। उस दिव्य शक्ति के सामने छिपा हुआ चेहरा लेकर नहीं जा सकते। वहां तो जैसे हैं वैसा ही रहना होगा।

हम क्या हैं यह बताने की क्रिया जगत में अलग होती है और जगदीश के सामने अलग होती है। दुनिया में कई लोगों के सामने हम चिल्लाते हैं जानते नहीं मैं कौन हूं?

हमारा मनपसंद काम नहीं हुआ, अपमान हुआ, तो हम एक दम ब्लास्ट हो जाते हैं। अभी बताता हूं मैं क्या हूं। यह अकड़ का प्रदर्शन है, परिचय का नहीं, शब्दों की हिंसा है। अध्यात्म जगत थोड़ा उल्टा चलता है। यहां जब यह कहा जाए कि जानते नहीं मैं कौन हूं तो सबसे पहले मैं गिर जाएगा। क्योंकि जो जानता है उसका मैं गल ही जाएगा।

जानने में ही मैं का विसर्जन है। हमारा मैं दुनिया में तीन रूप में एपियर होता है। अकड़, हिंसा और अहंकार। जबकि ये तीनों पानी के बुलबुले जैसे, ताश के पत्तों के महल समान और कागज की नाव की औकात के होते हैं।

ढह जाएंगे एक दिन ये तीनों, पर नुकसान पहुंचा कर। प्रार्थना यदि सच्ची रहे तो परमात्मा के सामने हमारा वो चेहरा प्रकट होगा जो हमारे जन्म से पहले था और मृत्यु के बाद रहेगा। बीच में जीते जी जो भी दुर्गुणों से लिपापुता हमने अपना चेहरा बनाया वह असत्य लेपन था। प्रार्थना इसी की धुलाई है। प्रार्थना में जब हम अपने व्यक्तित्व को धोते हैं तब हम पवित्र होने लगते हैं और पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है।
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तीन चरण बना लें प्रार्थना के, पहला आरम्भ में भीतर से विचार शून्य हों, दूसरा मध्य में बाहर से समर्पण रखें और तीसरा समापन पर जरा मुस्कुराइए...।


इस तरह पुकारें तो आप तक दौड़े आएंगे भगवान...
भगवान ऐसी व्यवस्था का नाम है जिसमें भरोसा रखो तो उसे देख भी सकते हैं और अगर भरोसा नहीं हो तो लाख पुकारें वो नहीं आएंगा। भगवान किसी मंत्र या पूजा से कभी खुश नहीं हो सकता जब तक की उसमें भावनाओं का प्रसाद नहीं चढ़ाया गया हो। भगवान को पुकारना है तो दिल में ऐसी भावनाओं को जगाना पड़ेगा फिर पुकारिए, भगवान खींचे चले आएंगे।

जिनका शरीर, सांस और मन पर नियंत्रण है उनका ध्यान घटना है और यह ध्यान की अवस्था उन्हें सिद्ध योगी सा बना देती है। ऐसी दिव्य स्थिति में उनसे जो कृत्य होते हैं फिर वो चमत्कार की श्रेणी में आते हैं।अबुलहसन उच्च दर्जे के मुस्लिम फकीर हुए हैं। इनके मुंह से जो अलफाज निकलते थे वो सच हो जाते थे। जिनके जीवन में ध्यान सही रूप से उतर जाए तो उनकी वाणी सिद्ध हो जाती है।

एक बार हज यात्रियों को अपने ऊपर खतरा लगा। उन्होंने अबुल हसन के पास जाकर कहा कोई ऐसी दुआ बता दीजिए जिससे सफर में हमारे ऊपर कोई खतरा न रहे। फकीर ने जवाब दिया जब कोई मुसीबत हो तो अबुल हसन को याद कर लेना। कुछ को विश्वास आया कुछ ने बात हंसी में उड़ा दी। रास्ते में डाकू आ गए। एक धनवान को अबुल हसन की बात याद आ गई और उसने फकीर को याद किया। कहते हैं वह ओझल हो गया, डाकुओं को नजर नहीं आया। डाकुओं के जाने के बाद वह फिर नजर आ गया। उसका धन बच गया।

जब सबने पूछा तो उसने कहा मैंने फकीर अबुल हसन को याद कर लिया था। लोगों ने बाद में अबुल हसन से पूछा हमने खुदा को याद किया और इस धनवान ने आपको याद किया था। ये बच गया हम लुट गए ऐसा क्यों? फकीर ने जवाब दिया आप लोग खुदा को जुबान से याद करते हो और मैं दिल से बस उसी का फर्क था।दिल से इबादत ऐसे ही नहीं हो जाती है। उसके लिए शरीर, सांस और मन में एकसाथ शांति लाना पड़ती है। इसका नाम ध्यान होता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

Sunday, November 1, 2015

श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part(3)

घटनाओं का जोड़ है मनुष्य
भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को लेकर भीष्म के पास पहुंच गए हैं,भीष्म शरशैया पर हैं। भगवान ने कहा- मैंने आपको वचन दिया था कि मैं आपके अंतिम समय में आऊंगा, मैं आ गया। मेरा आपसे एक निवेदन है कि युधिष्ठिर राजा बनने वाले हैं आप इनको राजधर्म का ज्ञान दीजिए। जैसे ही भीष्म राजधर्म पर बोलना शुरु करते हैं एक अठ्ठहास सुनाई देता है।

देखा वहां द्रौपदी हंस रही थीं। द्रौपदी ने कहा-पितामह आप किस राजधर्म की बात कर रहे हैं? यह राजधर्म और धर्म उस समय कहां चला गया था जब भरी सभा में मुझे खींचकर लाया गया और दुर्योधन के आदेश से मेरा अपमान किया गया था। द्रौपदी के शब्द सुन भीष्म मौन हो गए। तब श्रीकृष्ण बोले- द्रौपदी, मैं जानता हूं तेरे साथ दुनिया का वो अपमान हुआ है जो सबसे घिनौना है। इतिहास सदैव इस पर आंख नीची करेगा। लेकिन पांचाली एक बात याद रखना, किसी एक घटना से किसी व्यक्ति का मूल्यांकन मत करना।

व्यक्ति घटनाओं का जोड़ होता है। जिन भीष्म पर तुम आरोप लगा रही हो वे भीष्म कुछ और ऊंचाइयों पर भी जीते हैं। किसी एक स्थिति में पतित व्यक्ति दूसरी स्थिति में बहुत पुण्यात्मा हो सकता है। किसी एक स्थिति में बहुत बढिय़ा काम करने वाला व्यक्ति कहीं गिर भी सकता है। पहचानों पांचाली ये भीष्म हैं। पांचाली श्रीकृष्ण की बात सुनकर चुप हो गई। तब भीष्म ने कहा- श्रीकृष्ण, मैं राजधर्म की शिक्षा तो दूंगा पर मेरा एक प्रश्न है आपसे। कृष्ण बोले पूछिए और भीष्म ने बड़ा सुंदर प्रश्न पूछा और श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया वो हमारे बड़े काम का है।

सबके पापों का हिसाब रखते हैं भगवान
भीष्म ने श्रीकृष्ण से पूछा- मेरा जीवन ब्रह्मचारी के रूप में, योद्धा के रूप में, राजपुरूष के रूप में निष्कलंक रहा। मैंने कभी कोई पाप नहीं किया लेकिन मुझे आज ये दिन क्यों देखना पड़ रहा है। श्रीकृष्ण बोले- भीष्म। आप भूल गए आपने एक पाप किया था। भीष्म बोले- मैंने कभी कोई पाप नहीं किया।

श्रीकृष्ण ने कहा-लोगों के पाप का हिसाब रखना ही भगवान का काम है, मैं रखता हूं। मैं बताता हूं आपने कौन सा पाप किया था। जिस दिन द्रौपदी को राजसभा में लाया गया, ये आदेश करके कि यह जीत ली गई है। तब द्रौपदी ने एक बड़ा मौलिक प्रश्न किया था उस सभा में। द्रौपदी ने कहा था कि पांडव हार गए हैं, ये अपना राज्य हार गए उसके बाद इन्होंने अंत में मुझे दाव पर लगाया। तो जो राजा, जो पति स्वयं हार चुका हो तो वो दूसरे को कैसे दाव पर लगा सकता है । ये द्रोपदी का प्रश्न था।

राजसभा में दो मत हो गए थे। विदुर ने कहा था द्रौपदी ठीक बोल रही है। उस समय द्रौपदी ने आपसे भी यही प्रश्न पूछा था। आपने आंख नीची कर ली थी। आपने कहा था कि दुर्योधन राजा है इसलिए मैं इसके विपरीत नहीं बोल सकता। आपने कहा था मेरी शपथ है कि मैं हस्तिनापुर की राजगादी को सुरक्षित रखूंगा मेरी निष्ठा कुरूवंश से जुड़ी है और आपने गर्दन नीची कर ली थी। यही एक पाप था जो आपके जीवन को यहां ले आया।

भीष्म ने कहा- ये आप क्या कह रहे हैं भगवन मैंने तो संबंधों का निर्वाह किया था। मैंने तो शपथ ली थी प्रतिज्ञा का पालन करना तो राजपुरूष का कर्तव्य है। श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया भागवत का संदेश यहीं से आरंभ हो रहा है।

समय के अनुसार बदल दें परपराएं
श्रीकृष्ण भीष्म से कह रहे हैं -भीष्म याद रखिए जीवन में अपनी शपथ, अपने संकल्प, अपने निर्णय व अपनी परंपरा का पुनर्मूल्यांकन करते रहना चाहिए। जब आपने हस्तिनापुर की राजगादी की रक्षा की शपथ ली थी तब चित्रांगद और विचित्रवीर्य बैठे थे राजगादी पर। और जब द्रोपदी का अपमान किया गया उस समय दुर्योधन जैसा दुष्ट बैठा था राजगादी पर।

श्रीकृष्ण का यह संवाद हमारे लिए संकेत है। वर्षों पुरानी हमारे घर की कोई परंपरा हो, हमारी जीवन की परंपरा व्यवस्थाओं की परंपराएं हो तो समय- समय पर उनका पुनर्मूल्यांकन करते रहिए। पांडव अपने सारे निर्णयों की पुष्टि भगवान से करवाते थे और भीष्म यहीं पर चूक गए थे। श्रीकृष्ण ने कहा-जीवन संतुलन का नाम है। जो लोग जीवन को अति से जिएंगे वे एक दिन परेशान हो जाएंगे।

यह सुनकर भीष्म ने कहा इतना बड़ा कुरुवंश था मैं कैसे संबंध निभाता था? मैं ही जानता था। श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले- आपने हस्तिनापुर की राजगादी को सुरक्षित रखा लेकिन आसपास के वातावरण को रूपांतरित नहीं किया ये आपकी बड़ी भूल थी। दुर्योधन भ्रष्ट बन गया, ये आपकी भूल है। भीष्म ने नजर नीची की। भगवान ने भीष्म को जो संदेश दिया हमारे भी काम आएगा। भीष्म ने कहा मैं प्रणाम करता हूं और भीष्म ने आभार व्यक्त किया।उन्होनें फिर धर्मराज को उपदेश दिया। और फिर परमधर्म बताया, विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना ही परमधर्म है। अब भीष्म प्राण त्यागने की तैयारी में हैं।

भक्तों को दिया वचन निभाते हैं भगवान
महाभारत के युद्ध के दौरान भीष्म ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया था कि जिस दिन मेरी मृत्यु हो, आप अवश्य उपस्थित रहना। श्रीकृष्ण ने अपना वचन निभाया। जब महात्मा भीष्म ने प्राणों का उत्सर्ग किया तो भगवान भी भावुक हो गए। सोचिए क्या दिव्य मृत्यु रही होगी कि जिसकी मृत्यु पर भगवान आंसू बहाने लगे। ऐसी भीष्म की मृत्यु हुई। प्रथम स्कंध में भीष्म का चरित्र भागवत के ग्रंथकार सुना रहे हैं। भीष्म का गमन हुआ। भीष्म को भगवान ने विदा किया। भगवान श्रीकृष्ण महाभारत को समाप्त करके जा रहे हैं।

भगवान ने कहा मेरा समय हुआ, मुझे द्वारिका जाना है। भगवान द्वारिका जाने लगे और पांडवों से कहा कि- देखो अब तुम लोग अपना जीवन आरंभ करना। युधिष्ठिर का राजतिलक करके श्रीकृष्ण द्वारिका गए। वहां की जनता ने उनकी रथ यात्रा का दर्शन किया। यह वर्ण प्रथम स्कंध के 10 तथा 11वें अध्याय में आता है। बाहरवें अध्याय में परीक्षित के जन्म की कथा है। उत्तरा ने बालक को जन्म दिया और वह बालक जन्म लेते से ही उस चतुर्भुज रूप को खोजने लगा जिसे उसने अपनी माता के गर्भ में देखा था।

परीक्षित भाग्यशाली था कि उसको माता के गर्भ में ही भगवान के दर्शन हुए। यही कारण है कि वह उत्तम श्रोता है। युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों से पूछा कि यह बालक कैसा होगा? ब्राह्मणों ने कहा कि वैसे तो सभी ग्रह दिव्य हैं किंतु मृत्यु स्थान में कुछ त्रुटी है। इसकी मृत्यु सर्प दंश से होगी। यह सुनकर धर्मराज को दु:ख हुआ कि मेरे वंश का पुत्र सर्पदंश से मरेगा। पर ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि जो कुछ भी होगा उसी से इस बालक को सदगति मिलेगी।

क्यों हारे अर्जुन लुटेरों से ?
हम प्रथम स्कंध में चल रहे हैं। इसके सोलहवें अध्याय से परीक्षित का चरित्र आरंभ होता है। विदुरजी तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र में पहुंचे। विदुरजी महाभारत युद्ध के समय हस्तीनापुर छोड़ चुके थे। उन्हें खबर हुई कि सभी कौरवों का विनाश हो चुका है और धर्मराज युधिष्ठिर राजसिंहासन पर बैठै हैं। मध्यरात्रि के समय विदुरजी धृतराष्ट्र और गांधारी को लेकर वन में सप्त स्त्रोत तीर्थ चले गए।

यदुवंश की कथा आगे विस्तार से जानेंगे। अभी सिर्फ इतना कि भगवान ने जाते-जाते अर्जुन को अपने यदुवंश की स्त्रियां और संपत्ति सौंप दी और कहा कि तुम इनको लेकर हस्तिनापुर चले जाओ क्योंकि अब राक्षस लोग आक्रमण करेंगे, द्वारिका डूब जाएगी। अर्जुन उनको लेकर आ रहे थे कि रास्ते में लुटेरों ने हमला किया, अर्जुन हार गए। अर्जुन पराजित होकर आए। युधिष्ठिर ने देखा और पूछा अर्जुन तुम तो द्वारिका गए थे। भगवान श्रीकृष्ण व उनके परिवार के सदस्यों को लेने। क्या हुआ, तेरा चेहरा ऐसा डूबा हुआ क्यों है?

चेहरे का तेज कहां चला गया, वो ओज कहा चला गया जिसके लिए अर्जुन जाना जाता था? तू रोता-रोता सा क्यों दिखता है। अर्जुन ने कहा- भैया हम लूट गए। भगवान चले गए। वे स्वधाम जा चुके हैं। जब मैं कुछ स्त्रियों को लेकर आ रहा था लुटेरों ने मुझे लूट लिया। मैं गांडीव उठाता था तो मेरा शस्त्र नहीं उठता। मैं साधारण लुटेरों से हार गया। वो स्त्रियां ले गए, धन ले गए। मैं लुटापिटा आपके पास आया हूं ।

भगवान की उपस्थिति में ही बल है
लुटे-पिटे अर्जुन को देखकर युधिष्ठिर ने कहा-आज हमें समझ में आ गया हम पांडवों के पास कोई ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की थी। अरे तू जिस गांडीव से बड़े-बड़े योद्धाओं को पराजित करता था। वो लूटेरों से हार गया। तेरे गांडीव में ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की मौजूदगी में थी। जीवन में परमात्मा की मौजूदगी की ही ताकत है। उसके जाते ही हम बेकार हो जाएंगे इसलिए निर्भय बने रहिए उसका बल हमारे साथ है। यह बहुत सूत्र की बात है। भगवान को सदा अपने जीवन के केंद्र में रखिए।

अब पांडवों ने विचार किया चलो हम भी संसार त्यागते हैं। ऐसा कहते हैं कि पांडवों में सिर्फ ही युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग में गए थे। युधिष्ठिर अपने भाइयों व पत्नी द्रोपदी को साथ लेकर चले। स्वर्गारोहण के समय सबसे पहले द्रौपदी गिर गई। प्रश्न पूछा ये क्यों गिर गई? उत्तर मिला पांच पतियों में सबसे अधिक अर्जुन को प्रेम करती थी, भेदभाव रखती थी इसलिए इनका पतन सबसे पहले हुआ। उसके बाद सहदेव का पतन हुआ क्योंकि उनको ज्ञान का अभिमान था। नकुल का पतन हुआ क्योंकि उन्हें अपने रूप का अभिमान था। अर्जुन जब गिरे तो युधिष्ठिर ने कहा अर्जुन को अपने बल पर अभिमान था इसलिए अर्जुन भी स्वर्ग में सशरीर नहीं जा पाए।

अब बचे भीम और युधिष्ठिर। तो पहले भीम गिर गए। उसने पूछा मैं क्यों गिर गया भैया? तो उन्होंने कहा तू इसलिए गिर गया कि तू खाता बहुत था। अधिक खाना भी पाप है। भीम अधिक खाता था और अधिक सोता था। ये दो काम न करें ये पाप की श्रेणी में आते हैं। उसके बाद युधिष्ठिर स्वर्ग में गए। उन्होंने वहां भाइयों और पत्नी को देखा और सबको मुक्ति दिलाई। आगे भागवत के प्रमुख पात्र परीक्षित की कथा आएगी।

धर्म के चार चरण होते हैं
पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राज करने लगे। उन्होंने धर्म के आधार पर प्रजापालन किया। तीन अश्वमेध यज्ञ किए। सब प्रसन्न थे उनके राज में। जन्म के समय ज्योतिषियों ने जिन गुणों का वर्णन किया वे सब उनमें प्रकट होने लगे थे। यथासमय उन्होंने उत्तर की कन्या दरावति से विवाह किया। जिससे जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए।

एक बार जब वे कहीं जा रहे थे तभी उन्हें एक लंगड़ा दुर्बल बैल और दुर्बल गाय दिखाई दी। वास्तव में वह बैल धर्म था और गाय के रूप में पृथ्वी थी। परीक्षित ने देखा की राजा का वेष धारण किए हुए एक शुद्र उन दोनों पर निरंतर चाबुक का प्रहार कर रहा है। वह राजा वेष धारण किए हुए और कोई नहीं साक्षात कलियुग था। राजा से अन्याय नहीं सहा गया। उन्होंने कलियुग का हाथ पकड़ लिया। पूछा कि इन निर्बलों को क्यों प्रताडि़त कर रहा है? परीक्षित को तब तक उनके रूप का ज्ञान नहीं था। तब बैल ने अपना परिचय दिया, गौ ने अपना परिचय दिया।

बैल रूपी धर्म का केवल एक ही पैर था शेष तीन पैर टूट चुके थे। धर्म के चार चरण होते हैं-सत्य, तप, पवित्रता, और दान। सतयुग में तो धर्म के चार चरण थे। फिर त्रेता में सत्य चला गया द्वापर में सत्य ओर तप न रहे और कलयुग में सत्य और तप के साथ पवित्रता भी चली गई। कलयुग में केवल दान और दया के सहारे धर्म रह गया। गाय रूपी पृथ्वी का शरीर जर्जर, केवल अस्थिपंजर रह गया था। तब राजा ने उनकी ये दुर्दशा देखी और प्रण किया कि आप लोग निश्चित रहिए मैं इस आततायी कलयुग का सर्वनाश करके रहूंगा।

कलयुग को अभयदान दिया परीक्षित ने
राजा परीक्षित की प्रतिज्ञा को जब कलयुग ने सुना तो वह भय से कांप उठा। वह राजा की शरण में आ गया। परीक्षित ने उसे अभय दान दे दिया। तब कलयुग ने कहा कि पद्धति के क्रम से मेरा भी समय आ गया है। आप मुझे रहने के लिए उचित स्थान दीजिए। तब परीक्षित ने कलयुग को मदिरा, जुआ, व्याभिचार और हिंसा इन चार स्थानों पर रहने की अनुमति दे दी। कलयुग ने फिर अनुनय विनय किया कि उसको एक और पंचवां स्थान दिया जाए। और वह पांचवां स्थान स्वर्ण था। राजा ने स्वीकृत कर लिया।

समय बीता और एक दिन ऐसा हुआ कि परीक्षित को जिज्ञासा हुई कि देखूं तो सही कि मेरे दादा ने मेरे घर में क्या-क्या रख छोड़ा है ? एक पेटी में स्वर्ण मुकुट मिला। बिना कुछ सोचे ही राजा परीक्षित ने मुकुट पहन लिया। यह मुकुट जरासंघ का था। पाण्डवों ने जब जरासंघ का वध किया था तब वे इसे ले आए थे। यह धन अनीति का था, छीना-छपटी का था। अनीति का धन उसके कमाने वाले को और वारिस को भी दु:ख देता है, इसलिए उस मुकुट को पेटी में बंद करके रखा गया था। आज परीक्षित ने देखा तो पहन लिया।

अधार्मिक व्यक्ति का वह मुकुट अधर्म से ही लाया गया था। इसलिए उसके द्वारा कलयुग ने परीक्षित की बुद्धि में प्रवेश कर लिया। जिस कलयुग को राजा परीक्षित अपने देश में भी नहीं रहने देना चाहते थे उस कलयुग को राजा के मुकुट में ही स्थान मिल गया।

जब ऋषि ने परीक्षित को दिया श्राप
एक दिन राजा परीक्षित शिकार खेलने गए। मृग का पीछा करते-करते वे बहुत थक गए। प्यास लगी तो वे शमीक ऋषि के आश्रम में गए। शमीक ऋषि ध्यान लगाकर बैठे थे। परीक्षित ने सोचा कि ये मेरी बात नहीं सुन रहे। भूख प्यास के मारे राजा अपना विवेक खो बैठा। और उसने एक छड़ी से एक मृत सर्प को शमीक ऋषि के गले में डाल दिया। और राजा चला गया। शमीक ऋषि की समाधि फिर भी भंग नहीं हुई। शमीक ऋषि का पुत्र श्रृंगी वहां पहुंचा। उसने देखा कि किसी ने मृत सर्प पिता के गले में डाल दिया है। तो उन्हें बड़ा क्रोध आया।

उन्होंने क्रोध में आकर श्राप दे दिया कि जिस किसी ने मेरे पिताजी के गले में मृत सर्प डाला है आज से ठीक सातवे दिन सर्पराज तक्षक उसको डंस लेंगे।जब ऋषि शमीक की तपस्या पूर्ण हुई तब उन्हें पूरी बात श्रृंगी ने बताई।ऋषि ने ध्यान लगाया। वे समझ गए कि राजा परीक्षित ने कलयुग के प्रभाव में आकर यह किया है। अनजाने में उनसे भूल हो गई। मेरे पुत्र ने छोटी सी भूल का उन्हें इतना बड़ा दंड दे दिया। यह तो अच्छा नहीं हुआ। अगर राजा परीक्षित न रहें तो पृथ्वी पर अराजकता व्याप्त हो जाएगी। यह सोच ऋषि चिंतित हो गए।

इधर राजा परीक्षित ने जब मुकुट उतारा तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। राजा परीक्षित को जब शाप के बारे में ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे प्रभु आज्ञा मानकर शिरोधार्य किया और तुरंत राजपाट छोड़ दिया। उन्होंने निश्चय किया कि अब जो भी थोड़े दिन बचे हैं, उन दिनों में वे भगवान की भक्ति करेंगे। ऐसा विचार कर परीक्षित राजमहल छोड़कर गंगा के तट पर आकर विराज गए और संकल्प लिया कि मरणकाल तक वे निराहार रहकर तपस्या करेंगे।

संकट आने पर धैर्य रखें
ऋषि-मुनियों को जब यह पता चला कि राजा परीक्षित श्रापित हो चुके हैं तो वे राजा के समीप उनके आश्रम पहुंचे। उनमें मुख्य थे अत्री, वशिष्ठ, च्यवन अरिष्ठनेमी, अंगीरा, पाराशर, विश्वामित्र, परशुराम, भृगु, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, अगस्त्य, और वेदव्यास। नारदजी भी वहां पहुंच गए। राजा ने सबको प्रणाम किया और सारी बात बता दी व कहा कि अब मैं इसी प्रकार से अपना शेष जीवन-यापन करूंगा। तब सभी ऋषि-मुनियों ने विचार किया कि जब तक आप जीवित हैं तब तक वे सब लोग यहीं विराजेंगे और धर्मोपदेष करेंगे।

ऋषियों ने राजा को भांति-भांति का उपदेष देना आरंभ किया और संयोग से शुकदेवजी वहां उपस्थित हो गए। सभी ने उनका स्वागत किया, सत्कार किया उनको उचित आसन पर बैठाया। राजा ने अपनी कथा संक्षेप में शुकदेवजी महाराज को सुनाई और अपने कल्याण की कामना की। राजा ने कहा कि वो ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरा उद्धार हो। प्रश्न सुन शुकदेवजी ने मौन होकर राजा की भावनाओं को पहचाना और परीक्षित को उपदेश देना आरंभ किया। उस वातावरण को देखकर परीक्षित ने अपने को धन्य माना।

शुकदेवजी ने कहा जो समय बीत गया उसका स्मरण मत करो, भविष्य का विचार भी मत करो। केवल वर्तमान को सुधारो। सात दिन बाकी रहे हैं। भगवान नारायण को स्मरण करो। तुम्हारा जीवन अवश्य धन्य हो जाएगा और इस प्रकार व्यासजी प्रथम स्कंध को समाप्त करते है। परीक्षित से सीखा जाए कि संकट आने पर कैसे संयम रख जीवन बिताएं। संयम को बल देना हो तो एक काम और किया जा सकता है, जरा मुस्कुराइए...

जगत नहीं जगदीश की उपासना करें
परीक्षित श्रापित हो चुके हैं। परीक्षितजी ने अपना पाप बता दिया, उनसे भूल हुई, गंगा के तट पर बैठ गए। साधु-संतों से कहा जीवन के अंतिम समय में क्या किया जाए कि आदमी को मोक्ष मिले। कोई मुझे सिखाए। साधु-संतों ने कहा हम ये नहीं कर सकते। तभी किसी ने कहा शुकदेवजी यह कर सकते हैं। तभी शुकदेवजी पधारे। शुकदेवजी से परीक्षित ने पूछा- शुकदेवजी आप ज्ञान दीजिए हमें क्या करना चाहिए, हम अपने जीवन को कैसे सिद्ध कर सकें? शुकदेवजी ने कहा मैं आपको सात दिन तक कथा सुनाऊंगा। परीक्षितजी ध्यान से बैठ गए। यहां भागवत का प्रथम स्कंध समाप्त होने जा रहा है।

शुकदेवजी कह रहे हैं- यह संसार आपको कुछ अधिक नहीं देगा, दुनिया पर टिकोगे कुछ नहीं मिलेगा, दुनिया बनाने वाले पर टिकोगे तो बहुत मिलेगा। शुकदेवजी ने कथा सुनाई- चंचला नाम की बहुत सुंदर स्त्री थी। सारे गांव के युवक उससे विवाह करना चाहते थे पर चंचला ऐसी नखराली कि सबको मना कर गई। एक दिन उसके गांव के पागलखाने में राजनेता निरीक्षण करने आए वहां उन्होंने देखा कोठरी में एक सुंदर युवक बाल नोच रहा था। उन्होंने पूछा ये कैसे पागल हो गया? किसी ने बताया हमारे गांव में चंचला नाम की स्त्री है। ये उससे विवाह करना चाहता था। उसने मना कर दिया तो यह पागल हो गया। अगली कोठरी में गए तो एक युवक खुद को थप्पड़ मार रहा था। उन्होंने कहा ये कैसे पागल हो गया? फिर किसी ने कहा चंचला ने इससे शादी कर ली इसलिए ये पागल हो गया।

चंचला जिसको मिली वो भी पागल हो गया और जिसको नहीं मिली वो भी गया। ये संसार चंचला है। दुनिया जिसे मिली उसको भी कुछ नहीं मिला और जिसकी चली गई वो भी दु:खी हो गया। शुकदेवजी राजा परीक्षित को द्वितीय स्कंध की ओर ले जा रहे हैं। यहां दूसरे स्कंध से लेकर आठवें स्कंध तक गीता हमें जीवन में निष्काम कर्म करना सीखाएगी तथा व्यवसायिक जीवन में परिश्रम की चर्चा आएगी।

श्रोता में कौन से गुण होने चाहिए
भागवत के प्रथम स्कंध में अधिकार निरूपण किया गया है। श्रोता कैसा होना चाहिए, और वक्ता कैसा होना चाहिए। यह दूसरा स्कंध साधन प्रधान स्कंध है। दस अध्याय हैं, जिनमें परमात्मा की प्राप्ति के साधन बताए हैं। मुख्य रूप से श्रवण को ही परमात्मा प्राप्ति का साधन बताया है। इस स्कंध के दस अध्याय में से पहले दो में ध्यान की चर्चा है। बाद के दो अध्याय में वक्ता, श्रोता की श्रद्धा का वर्णन है। शेष छ: अध्याय में मनन का वर्णन है। इन साधनों के द्वारा मनुष्य भगवान को प्राप्त कर लेता है।

आगे के स्कंधों में सर्ग-विसर्ग का वर्णन आएगा इसलिए शुकदेवजी ने अधिकार और साधन को पहले बता दिया है। यह भागवत की विशिष्ट भाषा है। द्वितीय स्कंध आरंभ होता है। शुकदेवजी को राजा परीक्षित के प्रश्न सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा कि राजा के प्रश्न बड़े ही महत्व के हैं। आत्म तत्व को न जानने के कारण प्राणी प्रपंच में ही लीन रहता है जबकि मानव जीवन का लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण एवं कीर्तन होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण की अद्भूत लीला का वर्णन श्रीमद्भागवत में उल्लेखित है। यह श्रीमद्भागवत पुराण वेद के समान पठनीय और मननीय है। शुकदेवजी ने राजा को कहा कि उनके कल्याण और जनहित की दृष्टि से वे इस कथा को सुनाएंगे।

परीक्षित अधिकारी थे अत: उनको शुकदेव जैसे सदगुरू मिले। परीक्षित में पांच प्रकार की शुद्धियां हैं- मातृ शुद्धि, पितृ शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, अन्न शुद्धि, और आत्म शुद्धि। शुकदेवजी ने परीक्षित से कहा- हे राजन, तुम यह न समझना कि तुम्हारी आयु अल्प रह गई है। दो घड़ी के सद्विचार से ही मनुष्य अपना हित साध सकता है।

मृत्यु ज्ञात हो जाने पर क्या करें?
अब आरंभ हो रहा है दूसरा स्कंध। इस स्कंध से आठवें स्कंध तक गीता हमें बताएगी जीवन में कर्म कैसे किए जाएं। गीता महाभारत का एक छोटा सा साहित्य है। महाभारत के बीच में छोटे से दीए के रूप में पूरी महाभारत को प्रकाशित करने वाले का नाम गीता है। शुकदेवजी राजा परीक्षित को बताते हैं। किस तरह से खट्वांग राजा को जब यह पता लगा इंद्र के द्वारा उसकी मृत्यु में दो चार घड़ी शेष हैं तो खट्वांग राजा तुरंत स्वर्ग से उतरकर अयोध्या आए, दान दक्षिणा दी, वैराग्य लिया, सरयू तट पर तप किया और योग क्रिया द्वारा अपने शरीर को मुक्त कर दिया। शुकदेवजी ने बताया कि मृत्यु निकट जानकर मनुष्य को चाहिए कि वह माया मोह का त्याग कर औंकार मंत्र का जाप करे। इस प्रकार राजा परीक्षित को मृत्युकाल में क्या करना उचित है, शुकदेवजी इसका उपदेश देकर कहते हैं कि अलग-अलग देवताओं की उपासना का फल सुनिए। जो ब्रह्म तेज चाहते हैं वे मनुष्य ब्रह्मा की, उत्तम इंद्रियों को चाहने वाले इंद्र की, संतान चाहने वाले दक्ष प्रजापति की, संपत्ति की कामना वाले देवी दुर्गा की, तेज चाहने वाले अग्नि की, धन चाहने वाले वरूण की, विद्या चाहने वाले शंकर की, पति-पत्नी में प्रेम चाहने वाले पार्वती की, धर्म चाहने वाले विष्णु की, कुल को चाहने वाला पितरों की तथा विघ्नों से रक्षा चाहने वाला यज्ञ उपासना करें। फिर शुकदेवजी ने बताया निष्काम कर्म के लिए साधक को इन देवी-देवताओं की उपेक्षा करते हुए श्रीनारायण की ही आराधना करनी चाहिए।

सूतजी कहने लगे कि मुने, शुकदेवजी के वचन सुनकर राजा परीक्षित ने अपना तन-मन श्रीकृष्ण भक्ति में लीन कर दिया। राजा ने जब देखा कि उनका मृत्यु काल समीप आ गया है तो उन्होंने नित्य नैमित्तिक कर्मोंको छोड़कर भगवान श्रीकृष्ण में ही ध्यान लगाया। राजा ने शुकदेवजी से कहा कि प्रभु इस जगत को अपनी माया से किस भांति उत्पन्न करते हैं ? किस भांति इसका पालन करते हैं? और किस भांति इसका संहार करते हैं? कृपया बताइए?

नारायण ही परब्रह्म हैं
हम पुन: ध्यान में ले आएं कि कथा शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे हैं तथा शौनकादी ऋषियों को सूतजी कथा सुना रहे हैं।भागवत में अब ब्रह्मा, विष्णु वार्ता की चर्चा आएगी। आदिदेव अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि रचना की इच्छा से सोच में डूबे हुए थे। तभी ब्रह्माजी ने आकाशवाणी सुनी- तप, तप। ब्रह्माजी ने समझा कि मुझे तप करने का आदेश मिला है। ब्रह्माजी ने सौ वर्ष तक तप किया और चतुर्भुज नारायण के दर्शन हुए। नारायणजी ने ब्रह्माजी को चतुश्लोकी भागवत का उपदेश दिया।

द्वितीय स्कंध के नवें अध्याय के 32वें से 35 वें श्लोक तक चतुश्लोकी की भागवत है। शुकदेवजी ने परीक्षितजी को समझाया कि भगवान की सृष्टि का विषद वर्णन करने के उद्देश्य से ब्रह्माजी ने नारदजी को समझाया कि एक से अनेक होने की इच्छा भगवान विष्णु ने की। भगवान ने ब्रह्माण्ड की रचना की और हजारों वर्ष तक उसको जल में रखा। फिर उसको बाहर निकालकर चैतन्य किया और उसे फोड़कर उससे सहस्त्रोचरण नेत्र भुजा मस्तक वाले विराट पुरूष की उत्पत्ति की। वही नारायण ब्रह्मा रूप से संसार की सृष्टि करते हैं, रौद्र रूप से लय करते हैं, विष्णु रूप में इसका रक्षण पालन पोषण करते हैं तथा सृष्टि करते हैं।

उसके पश्चात नारदजी को ब्रह्माजी ने चौबीस अवतार की संक्षिप्त कथा कही। ब्रह्माजी ने अपने पुत्र नारद से कहा कि वे इस विषय में जितना जानते थे उतना उन्होंने बता दिया है। जो कथा मैंने तुम्हें सुनाई है उस कथा अर्थात श्रीमद्भागवत पुराण का जन-जन में प्रचार तुम करो।

कर्ता और कर्म में अंतर बताती है भागवत
अवतार की बात हम लोग अच्छी तरह से समझ लें। जब भगवान के अवतार की चर्चा आती है तो यह प्रश्न सहज है कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? भगवान जानते थे कि मैं भक्तों को कहता हूं कि तुम ऐसा जीवन जियो तो भक्त एक दिन मुझसे कहेंगे कि भगवान एक तो हमको मनुष्य बना दिया और ऊपर से बहुत से नियम लाद दिए। आपको क्या मालूम की धरती पर कितना कष्ट है। तो भगवान ने कहा कि मैं स्वयं भी मनुष्य बनकर आऊंगा और तुम्हें बताऊंगा कि कैसे जीवन जिया जाए।

श्रीकृष्ण और श्रीराम के जीवन में कुछ नया नहीं था। जैसा हमारा जीवन है वैसा ही उनका जीवन था। लेकिन अवतार लेकर भगवान अपने आचरण से बता रहे हैं कि कर्ता का अर्थ क्या होता है ? अवतारों के प्रति पूजा और प्रार्थना क्या हैं? यह हम गोपियों के जीवन से समझ सकते हैं। गोपियों जैसी पूजा विधि-विधान से नहीं हो सकती। अगर हम बाहर से इस बात को जाचेंगे तो समझ में नहीं आएगी। बात थोड़ी भीतर की है। करने वाले में कर्ता का भाव यदि न हो तो उसके हाथ से जो भी होगा वह परमात्मा से हो रहा होगा।

करने वाले में कर्ता का भाव हो तो जो भी होगा वह अहंकार से घटित होगा। हमने ही सब किया है यही भाव बना रहेगा और कर्म में निष्कामता नहीं आएगी।जब हम अवतारों की चर्चा कर रहे हैं तब कर्ता और कर्म की बात को आसानी से समझा जा सकता है।इस कर्ता और कर्म के भाव को दास मलूका के दोहे से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। ''अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम। इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि काम न करें। न करने का मतलब आलस्य बिलकुल नहीं है। यहीं बस थोड़ा का फर्क है।

कर्ता का भाव मन से मिटा दें
जब हम दास मलूक का यह दोहा अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम, पढ़ते हैं तो सोचते हैं कि मलूक कर्म छोडऩे की बात कह रहे हैं । लेकिन सच यह है कि मलूक कर्ता छोडऩे की बात कह रहे हैं। मलूक कह रहे हैं कर्ता भाव छोड़ दो। पक्षी काम नहीं करते। लेकिन वे किसी नौकरी पर नहीं जाते। फिर भी देखिए कि पक्षी घोंसला बना रहे हैं, घास-पात ला रहे हैं, भोजन जुटा रहे हैं। काम तो चल रहा है लेकिन उनके अंदर का कर्ता भाव नहीं है।

अजगर चाकरी नहीं कर रहा है अपने भोजन की तलाश तो फिर भी करता है। हिलता-डुलता है, चलता-फिरता है लेकिन कर्ता का भाव वहां नहीं है। तो मलूक इतना ही कह गए हैं कि प्रकृति बिना कर्ता भाव से चल रही है। परमात्मा उसे चलाता है। अवतारों से हम एक संकेत यह लें कि किस तरह से अकर्ता भाव से कर्म होता है।ब्रह्माण्ड के सात आवरणों का वर्णन करते हुए वेदान्त-प्रक्रिया में ऐसा माना है कि-पृथ्वी से दस गुना जल है, जल से दस गुना अग्नि, अग्नि से दस गुना वायु, वायु से दस गुना आकाश, आकाश से दस गुना अहंकार, अहंकार से दस गुना महत्व और महत्व से दस गुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान के केवल एक पाद में है। इस प्रकार भगवान की महत्ता प्रकट की गई है।

अगले स्कंध में विदुर के गृह त्याग का प्रसंग तथा तीर्थयात्रा में महर्षि मैत्रेय से हुए उनके सत्संग का वृत्तांत जो राजा परीक्षित को शुकदेवजी ने सुनाया और जो सूतजी ऋषियों को सुना रहे हैं, वह आएगा। इसी के साथ द्वितीय स्कंध समाप्त होता है।

वनवास के बाद ही सुख मिलता है
अब धीरे-धीरे हम कथा में प्रवेश कर रहे हैं। इसमें सर्ग और विसर्ग का वर्णन है। सर्ग अर्थात सृजन, सृष्टि। यहां से श्रीमद्भागवत में परमात्मा को समझने के लिए प्रसंग आए हैं। तृतीय स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि- हे राजन, तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है यही प्रश्न विदुरजी ने मैत्रेय मुनि महाराज से किया था। तब राजा परीक्षित ने कहा कि विदुरजी और मैत्रेय महाराज में यह वार्तालाप कहां पर हुआ? कृपया मुझे बताइए।

शुकदेवजी महाराज ने बताया कि जब पांडव अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करके वनवास बिताकर धृतराष्ट्र के समक्ष आए और अपना राज वापस मांगा तो धृतराष्ट्र ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के दूत के रूप में गए। धृतराष्ट्र ने तब भी नहीं स्वीकारा। विदुर धृतराष्ट्र को समझाने गए लेकिन धृतराष्ट्र ने विदुरजी की सलाह नहीं मानी।जब विदुर धृतराष्ट्र को समझा रहे थे तो शकुनी और दुष्शासन वहां आ गए उन्होंने विदुरजी का बहुत अपमान किया। इस कारण विदुरजी दु:खी हो गए। दुष्शासन ने तो यहां तक कहा कि विदुर को देश निष्कासन का दंड दिया जाए।

विदुरजी ने इस घटना को प्रभुलीला के रूप में ग्रहण किया और कौरवों का प्रदेश छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। बहुत वर्षों तक इधर-उधर घूमने के उपरांत विदुरजी यमुना तट पर पहुंचे और संयोग से वहां उनकी भेंट उद्धवजी से हो गई।याद रखिए वनवास के बिना जीवन में सुवास नहीं आ सकता इसलिए पांडवों ने और भगवान रामचंद्रजी ने वनवास बिताया था लेकिन कलयुग में वनवास का यह अर्थ नहीं कि गृह छोड़कर जंगल की ओर जाया जाए। घर में भी रहकर वनवास के नियमों का पालन किया जा सकता है।

संतों का सदैव सम्मान करें
विदुरजी ने सोचा कि अब कौरव मेरी निंदा कर रहे हैं तो वनवास की ओर निकल पड़े । महापुरूष निंदा और विपरीत परिस्थितियों में भी सार्थकता खोजते हैं। अच्छी वस्तुओं में अच्छाई देखे ऐसे लक्षण साधारण वैष्णव के होते हैं लेकिन बुरी वस्तुओं में अच्छाई देखी जाए ये उत्तम वैष्णव के लक्षण होंगे।भगवान ने सोचा कि यदि कौरवों के साथ विदुरजी रहेंगे तो कौरवों का विनाश न हो सकेगा इसीलिए विदुरजी को वह स्थान छोडऩे की प्रेरणा प्रभु ने दी।

रामायण में रावण ने विभीषण का और महाभारत में दुर्योधन ने विदुरजी का अपमान किया था। इस प्रकार संतों का अपमान करने के कारण उनका विनाश हुआ। भगवान भी जानते थे जब तक विभीषण लंका में है रावण नहीं मरेगा। तो उसको ज्ञान बांटा और कहा तू बाहर निकल और जैसे ही विभीषण बाहर गया सभी लंकावासी आयुहीन हो गए। पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर ये तीन भाई थे। विदुर बहुत संत प्रवृत्ति के थे ।

विदुर ने धृतराष्ट्र को कई बार समझाया कि तुम्हारे गलत आचरण से दुर्योधन का स्वभाव बिगड़ता जा रहा है। इस प्रकार की बात करने के बाद भी जब धृतराष्ट्र ने ध्यान नहीं दिया तो विदुर चले गए तीर्थयात्रा पर और उधर विदुर को उद्धव मिल गए। उद्धव वो पात्र है जो कृष्ण के सखा भी है और रिश्तेदार भी हैं। कृष्ण जैसे ही हैं उद्धव।

कैसे हुआ सृष्टि का निर्माण
यह उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। कौरव पराजित तथा श्रीकृष्ण परम तत्व में विलिन हो चुके थे। उनके वियोग में उद्धव महाराज तीर्थाटन के लिए निकल पड़े और उस समय विदुरजी और उद्धवजी की भेंट हो गई। उद्धवजी ने विदुरजी को सारी जानकारी दी। कैसे कौरवों व पांडवों का युद्ध हुआ? कैसे भगवान ने देह त्यागी? दोनों एक-दूसरे की बात सुनकर दु:खी हो गए। उद्धवजी तो श्रीकृष्ण के परम सखा थे। उन्होंने सारी बात विदुरजी को बताई।

उद्धव ने बताया कि भगवान से बिछुड़ जाने पर वे दु:खी हैं और अब वे यहां से बद्रीकाश्रम के लिए प्रस्थान करेंगे। उनकी बात सुनकर विदुर चिंतित हो गए। विदुर ने कहा जो आत्मबोध कृष्णजी ने आपको सुनाया वह मैं भी सुनाना चाहूंगा। तब उद्धवजी ने कहा कि आप मैत्रेय मुनि की सेवा में चले जाइए क्योंकि जिस समय भगवान ने मुझे उपदेश दिया उस समय महामुनि मैत्रेय वहीं उपस्थित थे। महात्मा विदुर भागीरथ के तट पर स्थित मैत्रेय मुनि के आश्रम के लिए प्रस्थान कर गए। विदुर मैत्रेय मुनि के पास पहुंचे। उनसे निवेदन किया श्रीकृष्ण की लीलाओं का मर्म समझाएं।

मैत्रेयजी ने विदुर को बताया कि महाप्रलय के समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी योगमाया को समेट कर सुषुप्त अवस्था में रहते हैं। यद्यपि उस अवस्था में भी चैतन्य और पुन:रचना के लिए अवसर की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। भगवान देवों की प्रार्थना स्वीकार कर 23 तत्वों को संकलित करते हैं और फिर उसमें प्रविष्ट हो जाते हैं।

क्या है सृष्टि का क्रम
मैत्रेय मुनि विदुरजी को सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बता रहे हैं। उसके अनुसार भगवान सृष्टि की उत्पत्ति के लिए एक विराट पुरूष की रचना करते हैं। विराट पुरूष प्राण, अपान, समान, और उदान, व्यान इन पांच वायु सहित नाग, कुर्म, कलकल, दह, धनंजय आदि तत्वों को प्रकट करता है। अपने कठिन तप के कारण भगवान इन प्राणियों की जीविका के लिए इनकी मुख, जिव्हा, नासिका, त्वचा, नेत्र, कर्ण, लिंग, गुदा, हस्तुपाद, अनुभूति और चित्त और इनके विषय क्रमश: वाणी, स्वाद, ध्यान, स्पर्श, दर्शन, श्रवण, वीर्य, मल त्याग, कर्मशक्ति, चिंतन, अनुभूति चेतना और फिर इनके देवता अग्नि, वरूण, अश्विनी कुमार, आदित्य, पवन, प्रजापति इंद्र लोकेश्वर आदि को उत्पन्न करते हैं।

विदुरजी ने मैत्रेयजी से कुछ प्रश्न किए। मैत्रेयजी ने उनसे कहा कि आपने जो प्रश्न पूछा है उनके उत्तर आगे आने वाली कथाओ में निहित है। मैत्रेयजी कहते हैं अब सृष्टि का क्रम सुनिए विदुरजी। ब्रह्माजी सर्वप्रथम तप, मोह आदि तामसिक वृत्तियों के उत्पन्न होने पर खिन्न हो गए। तब ब्रह्माजी ने विष्णुजी का ध्यान किया और दूसरी सृष्टि की रचना करने लगे। उनमें सनकादि आदि वीतराग ऋषि उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी की भौंह से नील और लोहित वर्ण का एक बालक उत्पन्न हुआ। वह अपने जन्म के साथ ही निवास स्थान और नाम के लिए रोने लगा। उसके रूदन के कारण ही ब्रह्माजी ने उसका नाम रूद्र रख दिया। उसको उन्होंने प्रजा उत्पन्न करने का आदेश दिया। नील लोहित की जो संतती उत्पन्न हुई वह इतनी उग्र और भयंकर थी कि स्वयं ब्रह्माजी भयभीत रहने लगे। नील लोहित वन में चला गया।

ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न हुए ऋषि
नील लोहित के जाने पर ब्रह्माजी ने अपने दस अंगों से दस पुत्र उत्पन्न किए। उनकी गोद से प्रजापति, अंगुष्ट से दक्ष, प्राण से वशिष्ठ, त्वचा से भृगु, हस्थ से ऋतु, नाभि से पुलक, कर्णों से पुलस्त्य मुख से अंगिरा, नेत्रों से अत्रि, मन से मरीची और इसके अतिरिक्त भी ब्रह्माजी के हृदय से काम, भोहों से क्रोध, अदरोष्ठ से लोभ, वाक से सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से निरूक्ति, छाया से कर्दम, दक्षिण स्तन से धर्म ओर वाम स्तन से अधर्म उत्पन्न हुए।

जब मरीची आदि से भी प्रजा बढ़ी तो ब्रह्माजी ने पुन: भगवान का स्मरण किया। भगवान का ध्यान करते ही ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हो गए। एक भाग पुरूष बना और दूसरा भाग स्त्री। जो पुरूष बना वही स्वयंभू मनु और जो स्त्री बनीं वे शतरूपा नाम की रानी बनी। मनु व शतरूपा से दो पुत्र व तीन कन्याएं उत्पन्न हुईं। पुत्रों के नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद व कन्याओं के नाम हैं आकूति, देवहूति, और प्रसूति थे। इन्हीं तीन कन्याओं का क्रमश: रूचि, कर्दम और दक्ष प्रजापति के साथ विवाह किया। फिर इन तीन दंपत्तियों से ही आगे की समस्त सृष्टि का विस्तार हुआ।

जब हिरण्याक्ष को इस बात का ज्ञान हुआ तो उसने संपूर्ण पृथ्वी को पानी में छुपा दिया। तब ब्रह्मा की नासिकाओं से वराह भगवान प्रकट हुए। उन्होंने पृथ्वी को पानी से बाहर निकाला। हिरण्याक्ष को मारा। और पृथ्वी का शासन मनु के हाथों सौंपकर भगवान स्वधाम लौट गए।

कन्या को ईश्वर का वरदान समझें
विदुरजी को मैत्रेयजी बता रहे हैं ऐसे ब्रह्मांड की रचना की गई। जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की और इतने सारे मानस पुत्र पैदा हो गए। तब भगवान ने ब्रह्माजी से कहा- आपको मनुष्यों की सृष्टि पैदा करनी पड़ेगी जैसे ही भगवान ने संकेत दिया ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हुए। एक भाग स्त्री के रूप में तथा दूसरा पुरूष के रूप में पैदा हुआ। पुरूष मनु तथा स्त्री शतरूपा रूप में जानी गईं। ब्रह्मा ने उन्हें संतानोपत्ति की आज्ञा दी। उनको तीन बेटियां पैदा हुईं आकुति, देवहुति और प्रसूति तथा दो पुत्र पैदा हुए उत्तानपाद और प्रियव्रत।

संत कहते हैं कि पहले तीन कन्याएं हुईं और बाद में हुए पुत्र। भगवान भी ये घोषणा करते हैं कि मुझे जब अवसर मिलता है तो मैं पहले कन्या देना पसंद करता हूं। जिन लोगों के घर में कन्या पैदा हो और वे दु:ख मनाए तो यह भगवान के निर्णय के प्रति पाप है। यहां से वे बताते हैं कि जब मनुष्य पैदा हुए तो मनु शतरूपा ने कहा कि ये हमारे बेटे-बेटी सब पैदा हुए हैं तो इनको हम कहां रखेंगे। पृथ्वी तो रसातल में जा चुकी है और हिरण्याक्ष नाम का राक्षस उसको बाहर नहीं लाने दे रहा है। तब भगवान ने वराह अवतार लिया और जब पृथ्वी को बाहर लाए तथा हिरण्याक्ष को मारा। तब एक प्रश्न खड़ा हुआ कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु कहां से आए।

परीक्षित ने शुकदेव से पूछा, विदुर ने मैत्रेयजी से पूछा। उन्होंने कहा एक ऋषि थे कश्यप। उनकी पत्नी थीं दिति। वे एक दिन संध्या को कामांध होकर अपने पति के पास पहुंचीं। उन्होंने कहा मुझे आपसे इसी समय एक पुत्र चाहिए। ऋषि ने कहा दाम्पत्य में पति-पत्नी के बीच भोग का भी एक अनुशासन होना चाहिए। आप गलत समय संतान की मांग कर रही हैं लेकिन वो हठ पर अड़ गई । ऋषि ने उनकी इच्छा पूरी की और उनके गर्भ में दो पुत्र आए हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु।

ज्ञानी पुरुषों का पतन क्रोध से होता है
जब दिति ने जाना कि उसके गर्भ से राक्षस उत्पन्न होंगे तो वह घबरा गई। तब कश्यप ने कहा कि उनका संहार करने के लिए भगवान नारायण स्वयं आएंगे। जब वे दोनों राक्षस दिति के गर्भ में आए तो उसने विचार किया कि यदि मैं इनको पैदा करूंगी तो ये देवताओं का नाश करेंगे अत: दोनों को 100 वर्ष तक दिति ने गर्भ में रखा। ब्रह्माजी ने दिति के गर्भ में जो दो राक्षस थे उनकी कथा देवताओं को सुनाई।

ब्रह्माजी बोले एक बार मेरे चार मानस पुत्र सनकादि ऋषि बैकुण्ठ लोक गए। सनदकुमार बैकुण्ठ के छ: द्वार पार कर सप्तम द्वार में जब पहुंचे तो वहां द्वारपाल जय-विजय खड़े थे। सनदकुमार भगवान के प्रासाद में प्रवेश कर ही रहे थे कि भगवान के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें रोका। द्वारपालों ने सनदकुमार से कहा कि अंदर से आज्ञा मिलने पर ही हम आपको प्रवेश करने देंगे तब तक आप यहीं रूकिए। सनदकुमार यह सुनकर क्रोधित हुए। ज्ञानी पुरूष का पतन क्रोध के द्वारा होता है। सनदकुमार क्रोधित हुए अत: उनका पतन हुआ। प्रभु के द्वार पर पहुंचकर उन्हें वापस लौटना पड़ा।

तब सनदकुमारों ने क्रोधित होकर जय-विजय को शाप दिया कि राक्षसों में विषमता होती है, तुम दोनों के मन में विषमता है अत: तुम राक्षस हो जाओगे। सनकादि ऋषियों के शाप के कारण जय-विजय को दैत्य रूप में तीन बार जन्म लेना पड़ा। सनकादि ऋषियों ने बैकुण्ठ के द्वार पर क्रोध किया था। अत: उन्हें बैकुण्ठ में प्रवेश नहीं मिला, भगवान बाहर ही आ गए थे दर्शन देने।

लोभ ही सभी पापों की जड़ है
हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु प्रतिदिन चार-चार हाथ बढ़ते थे। लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है। हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह वृत्ति और हिरण्यकषिपु का अर्थ है भोगवृत्ति। भगवान श्रीराम ने क्रोध यानि रावण को मारने के लिए तथा शिशुपाल के वध के लिए श्रीकृष्ण ने एक ही अवतार लिया था। किंतु लोभ को मारने के लिए भगवान को दो अवतार लेना पड़े हिरण्याक्ष के लिए वाराह और हिरण्यकषिपु के लिए नृसिंह अवतार।

हिरण्याक्ष की इच्छा हुई कि स्वर्ग में से सम्पत्ति ले आऊं। दिन-प्रतिदिन उसका लोभ बढ़ता गया। एक बार वह पाताल में गया। वहां उसने वरूण से लडऩा चाहा। वरूण ने कहा युद्ध करना है तो वाराह नारायण से युद्ध करो। हिरण्याक्ष ने वाराह भगवान को युद्ध के लिए ललकारा। मुष्ठि प्रहार करके भगवान ने हिरण्याक्ष का संहार किया और पृथ्वी का राज मनु महाराज को सौंप दिया।

मनु से उन्होंने कहा कि धर्म से पालन करना और वे बद्रीनारायण के स्वरूप में लीन हो गए। तृतीय स्कंध में दो प्रकरण हैं पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। हम पढ़ चुके हैं स्वयंभू मनु की रानी का नाम शतरूपा था। मनु महाराज के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद। उनकी तीन कन्याएं थी आकुति, देवहूति और प्रसूति। आकुति का रूचि से, देवहूति का कर्दम से और प्रसूति का दक्ष से विवाह हुआ था। कर्दम ऋषि और देवहूति के घर कपिल भगवान आए थे।

ज्ञान के प्रतीक हैं कपिल मुनि
पूर्व मीमांसा के बाद इस उत्तर मींमासा का आरंभ किया गया है। उत्तर मीमांसा में ज्ञान प्रकरण है। मैत्रेयजी कहते हैं कपिल ब्रह्मज्ञान के स्वरूप हैं। कर्दम अर्थात इंद्रियों का दमन करने वाला, अर्थात जितेंद्रीय। उनके तप से भगवान प्रसन्न हुए और भगवान ऋषि के घर पधारे।भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा- दो दिन बाद मनु महाराज तुम्हारे पास आएंगे, अपनी पुत्री देवहुति तुम्हें देंगें। भगवान ने कहा कि मैं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां आऊंगा। जगत को सांख्य शास्त्र का उपदेश करना है। ऐसा कहकर श्रीहरि वहां से विदा हुए।

मनु-शतरूपा अपनी पुत्री देवहुति को लेकर आए कर्दम से कहा विवाह कर लो। कर्दम ने विवाह स्वीकार किया। मनु महाराज ने विधि पूर्वक कन्यादान किया और देवहूति तथा कर्दम ऋषि का विवाह हो गया। पूर्व मीमांसा में वाराह नारायण की कथा कही गई है और उत्तर मीमांसा में कपिल नारायण का चरित्र है।हर माता-पिता को चिंता होती है कि अपनी पुत्री का विवाह करना है। तो मनु-शतरूपा को भी लगा कि हमारी तीन बेटियां हैं और तीनों को ठीक घर में दें। उनको मालूम था आकुति हर किसी से मिल जाती है तो आकुति का विवाह रूचि से कर दिया।

अब बचीं देवहुति। हुति मतलब बुद्धि, जिसकी बुद्धि देव भगवान में लगी हो तो उन्होंने उसे कर्दम को सौंप दिया। तीसरी बेटी थीं प्रसूति जो सती की मां थीं। प्रसूति को माता-पिता जानते थे कि इसका विवाह ऐसे घर में करना पड़ेगा जो युवक इसे प्रसन्न रख सके। माता-पिता सोच रहे हैं कि प्रसूति का विवाह किससे करें तो उन्होंने दक्ष से विवाह कर दिया। दक्ष मतलब जो बहुत ही टेलेंटेड हो, दक्ष मतलब सक्षम हो, वह संभाल लेगा हमारी बेटी को।

दाम्पत्य जीवन में संयम रखें
भागवत महापुराण की जब सात दिवसीय कथा की जाती है तो सप्ताह पारायण के सात विश्राम स्थल होते हैं। पहला विश्राम तीसरे स्कंध के 22वें अध्याय तक रहता है। हम कल वहां तक पढ़ चुके थे जहां मनु और शतरूपा के वंश की चर्चा आई है। कर्दम का विवाह मनु महाराज की पुत्री देवहुति से हुआ। अब इसके बाद भगवान कपिल का जन्म होगा। यहां कथा 22वें अध्याय पर आकर खत्म हो रही है।

हमने तृतीय स्कंध में पढ़ा था इसके दो भाग थे पूर्वनिमांसा, उत्तरनिमांसा। आगे भगवान कपिल का वर्णन होगा। अपनी स्मृति में दो-तीन बातें बनाए राखिएगा कि पहले दिन संयम की कथा की जाएगी। संयम चूक गए दिति और कश्यप और उनके घर हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु का जन्म हुआ। संयम बना हुआ था तो कर्दम और देवहुति के जीवन में तो कपिल भगवान का जन्म हुआ। आइए विश्राम स्थलों के अनुसार भागवतजी के इस अनुष्ठान के दूसरे दिन में प्रवेश करते हैं। आप लोग पुन: स्मरण कर लें सूतजी शौनकादि ऋषियों को कथा सुना रहे हैं। कथा सुना रहे हैं शुकदेवजी, परीक्षितजी को। पिछले प्रसंगों में मैत्रेयजी विदुरजी को कथा सुना रहे थे।

तो एक श्रोता एक वक्ता, एक श्रोता एक वक्ता। बहुत सारी कथा फ्लैशबैक में चल रही हैं लेकिन हमें स्मरण रखना है कि इसके मुख्य वक्ता शुकदेवजी हैं और मुख्य श्रोता राजा परीक्षित हैं। अब हम गीता से निश्कामता को जानते हुए प्रसंगों को पढ़ेंगे। दूसरी बात इसमें भगवान का वाड्मय स्वरूप है। भगवान अपने स्वरूप के साथ स्थापित हुए हैं। इसलिए इसका महत्व है। दूसरे स्कंध से आठवें स्कंध तक की जो कथा अब आएगी इसमें गीता कर्म करना सीखाती है।

जीवन में जरुरी है पारदर्शिता
हम जिस तरह का जीवन जीते हैं इसमें चार तरह का व्यवहार होता है। हमारा पहला जीवन होता है सामाजिक जीवन, दूसरा व्यावसायिक , तीसरा पारिवारिक और चौथा हमारा निजी जीवन। हमारा सामाजिक जीवन पारदर्शिता पर टिका है। व्यावसायिक जीवन परिश्रम पर, पारिवारिक जीवन प्रेम पर तथा निजी जीवन पवित्रता पर टिका है। हमारे जीवन के ये चार हिस्से भागवत के प्रसंगों में बार-बार झलकते मिलेंगे।

हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता बहुत जरुरी है। महाभारत में जितने भी पात्र आए उनके जीवन की पारदर्शिता खंडित हो चुकी थी। भागवत में भी चर्चा आती है कि दुर्योधन, दुर्योधन क्यों बन गया। दुर्योधन, दुर्योधन इसलिए बन गया क्योंकि दुर्योधन जब पैदा हुआ तो उसके मन में जितने प्रश्न थे उसके उत्तर उसको नहीं दिए गए। जब उसने होश संभाला तो सबसे पहले उसने ये पूछा कि मेरी मां इस तरह से अंधी क्यों है। राजमहल में कोई जवाब नहीं देता था क्योंकि सब जानते थे कि गांधारी ने अपने स्वसुर भीष्म के कारण पट्टी बांधी थी।

भीष्म ने दबाव में गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करवाया था। भीष्म ने सोचा योग्य युवती अंधे के साथ बांधेंगे तो गृहस्थी, राज, सिंहासन अच्छा चलेगा। जैसे ही गांधारी को पता लगा कि मेरा पति अंधा है और मुझे इसलिए लाया गया तो उसने भी आजीवन स्वैच्छिक अंधतत्व स्वीकार कर लिया। ये प्रश्न हमेशा दुर्योधन के मन में खड़ा होता था कि मेरी मां ने ये मूर्खता क्यों की? तो महाभारत ने कहा गया है कि पारदर्शिता रखिए अपने सामाजिक जीवन में।

प्रेम पर टिका है पारिवारिक जीवन
हमारे पारिवारिक जीवन में प्रेम होना चाहिए। परिवार जब भी टिकेगा प्रेम पर टिकेगा। समझौतों पर टिका हुआ दाम्पत्य बड़े दुष्परिणाम लाता है। एक काल की घटना है जिस समय हस्तिनापुर में दाम्पत्य घट रहे थे लोगों के। उसी समय द्वारिका में कृष्णजी का भी दाम्पत्य घट रहा था पर कितना अंतर है कोई ये नहीं कह सकता कि इतने सारे परिवार में सदस्य थे इसलिए हस्तिनापुर में कौरव-पांडव लड़ मरे। जितने कौरव थे उससे चार गुना तो श्रीकृष्ण की संतानें थीं लेकिन कृष्ण के दाम्पत्य में कभी आप अशांति नहीं पाएंगे क्योंकि कृष्ण ने एक सूत्र दिया ?

आपके पास ध्यान योग हो, आपके पास ज्ञान योग हो, आपके पास कर्मयोग हो, आपके पास भक्तियोग हो तो कृष्ण बोलते हैं कि यह सब बेकार है यदि आपके पास प्रेमयोग नहीं है। अंतिम बात आपका निजी जीवन पवित्रता पर टिकेगा। पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। परमात्मा हमारे जीवन में तभी उतरेगा जब हमारा निजी जीवन पवित्र होगा । भागवत में प्रवेश से पहले अपने चार जीवन को टटोलते रहिएगा। पवित्रता बनाई रखिए, पवित्रता का बड़ा महत्व है। जिसके जीवन से पवित्रता चली गई वह बहुत कष्ट उठाएगा।
इसलिए आज हम जिन प्रसंगों में प्रवेश कर रहे हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के प्रसंग हैं तो जीवन के ये चार व्यवहार को समझिए और आइए हम प्रवेश करें इसके पहले मैं आपको पुन: दोहरा दूं हमने शास्त्रों का सार देख लिया, भगवान का वांड्मय रूप देख लिया। जीवन के चार व्यवहार हमने देख लिए और दाम्पत्य के सात सूत्र हम आगे पढ़ते चलेंगे।

सुखी जीवन के सात सूत्र हैं
पहले हमने दाम्पत्य का पहला सूत्र देखा था संयम। अब हम देखेंगे दाम्पत्य का दूसरा सूत्र संतुष्टि। संतोष दाम्पत्य में बहुत आवश्यक है। देखिए कौशल्या की संतुष्टि के कारण अवध का कुल टूटा नहीं, कुंती की संतुष्टि के कारण पांडव एक बने रहे। अब दाम्पत्य का दूसरा सूत्र संतुष्टि पर विचार करेंगे। फिर आगे आएगा दाम्पत्य का तीसरा सूत्र संतान फिर संवेदनशीलता, फिर संकल्प, फिर सक्षम और अंतिम सूत्र है समर्पण। ध्यान रखिए अब दूसरे विश्राम स्थल यानि कथा आयोजन का जो दूसरा दिन होता है उसमें संतुष्टि के साथ हम प्रवेश करने जा रहे हैं।

तो भगवान कपिल का जन्म अब होने जा रहा है। इसी के साथ तीसरे स्कंध का 23वां अध्याय आरंभ हो रहा है। 22वें अध्याय में कर्दम और देवहुति का विवाह हुआ। कर्दम ऋषि ने कहा देखो देवी मुझसे विवाह तो कर रही हो। मैं तो संत हूं, तपस्वी हूं। संतान पैदा होने के बाद मैं तुम्हें यहीं छोड़कर अकेला जंगल में चला जाऊंगा। देवहुति क्या करतीं, उन्होंने कहा ठीक है। इनके संतानें हुईं, नौ पुत्रियां और उसके बाद भगवान कपिल का जन्म हुआ।

कर्दम जा ही रहे थे, लेकिन देवहुति ने बोला नौ कन्याएं हैं इनकी व्यवस्था तो कर जाओ आप। मैं अकेली कहां तक वर ढूंढ़ती रहूंगी तो कर्दम ने उन कन्याओं का विवाह किया। संतान के रूप में कपिल दिए और चले गए वन को। अब देवहुति अकेली, एक दिन बैठकर विचार कर रही थीं मेरे पति चले गए। मेरे घर कपिल का जन्म हुआ है। उन्होंने कपिल भगवान से कहा -तू गुरु बन जा, तू गुरु की श्रेणी में आ जा, तू ज्ञान का अवतार है। आज तू मुझे जीवन के कुछ प्रश्नों का उत्तर दे।

भक्तियोग का महत्व बताती है भागवत
भगवान मनु की पुत्री देवहुति अपने पुत्र से बात कर रही है। देवहुति ने जो प्रश्न पूछे अपने बेटे से, वो एक मां ने भी पूछे हैं और एक स्त्री ने भी। एक मां अपने बेटे से प्रश्न पूछ रही है और एक स्त्री पुरूष से प्रश्न पूछ रही है कि यह कैसा जीवन है हमारा। जब मैं पुत्री थी तो मेरे माता-पिता के अधीन थी। उन्होंने एक दिन लाकर कर्दम को सौंप दी तो मैं कर्दम की पत्नी बन गई। उसके बाद मेरे पति ने निर्णय लिया और वो चले गए तथा मुझे बेटे को सौंप गए।

कपिलजी ने उत्तर दिए अपनी मां को। मां अब सुनिए मैं आपको उत्तर दे रहा हूं, आध्यात्मिक, व्यावहारिक और सामाजिक पक्ष पर देवहुति अपने पुत्र से सत्संग कर रही है। उन्होंने प्रश्न पूछा कौन सी भक्ति की जाए। मन को कैसे नियंत्रित किया जाए? कपिल मुझे तुम बताओ । वे बता रहे हैं अपनी मां को। मां सुनिए दुनिया में यदि सबसे श्रेष्ठ कोई है तो भक्तियोग है। मां आप ज्यादा झंझट में न पड़ें। आप अपने जीवन में सबसे पहले भक्ति को आरंभ करें और उन्होंने बताया कि नवधा भक्ति को जीवन में उतारें। नौ तरह की भक्ति होती है श्रवण भक्ति, कीर्तन भक्ति, स्मरण भक्ति, पाद सेवन भक्ति , अर्चन, वंदन, सख्य, दास व आत्मनिवेदन। आप इतनी में से कोई एक भक्ति कर लो।

फिर मां ने पूछा कि तू ये सब बता तो रहा है पर मुझे यह समझ में नहीं आता कि भगवान का रूप क्या है? उन्होंने कहा भगवान तो बहुत विराट है मां। पूरी प्रकृति उसकी है। आप क्या सोच रही हैं मां। पृथ्वी से दस गुना जल, जल से दस गुना अग्नि, अग्नि से दस गुना आकाश, आकाश से दस गुना वायु, वायु से भी दस गुना प्राकृत तत्व और उसके बाद महत्व तत्व और वो सब मिलाकर भगवान का एक पैर है। इतना बड़ा भगवान का विराट स्वरुप है तो मां आप इस प्रकृति तत्व की अनुभूति करिए।

भक्ति के लिए मन को बांधना पड़ता है
भगवान का स्वरूप तथा भक्ति के विषय में जब भगवान कपिल ने अपनी माता को बताया तो उन्होंने कहा- यह बात तो ठीक है कि भक्ति करना चाहिए लेकिन जब भक्ति करने बैठूं तो मन नहीं लगता। कपिलजी ने बोला मां बिल्कुल ठीक कह रही हो, बिना मन के नियंत्रण में भक्ति नहीं उतरती। मन को बांधना ही पड़ेगा।

देवहुति ने अगला प्रश्न पूछा कि बेटा तू यह तो बता कि मन कैसे लगेगा ? अब कपिल देव समझा रहे हैं, मां वह भी बताता हूं। आपका मन अष्टांग योग से लगेगा। अब कपिलजी अष्टांग योग की चर्चा कर रहे हैं। भागवत में वे कह रहे हैं आठ प्रकार के योग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि।

समाधि अंतिम अवस्था है। ध्यान उसके पहले की अवस्था है। पहले ध्यान रखो आप, फिर उसके बाद ध्यान करो। तो प्राणायाम की पूरी प्रक्रिया कपिलजी ने बतलाई। पूरी क्रिया भागवत में लिखी कि आप प्राणायाम कैसे करें? कपिल देव बताते हैं मां, ऐसे सांस का नियंत्रण करिए और सांस के नियंत्रण करते ही आपकी देह, आपकी आत्मा का ध्यान जाग जाएगा और मन गौण हो जाएगा। यह श्वास का नियंत्रण है। इस प्रकार कपिलजी ने प्रणायाम के तरीके बताए। मां, आप अष्टांग योग करिए। आपको अष्टांग योग से बहुत आनंद प्राप्त होगा। अष्टांग योग का विस्तार से वर्णन करते हुए योग के बारे में लिखा है कि योग करने से तीन बातें होती हैं आत्मा की शुद्धि, तन की शक्ति और मन की प्रसन्नता बढ़ जाती है। उन्होंने कहा आप योग करिए जैसे ही आप योग करेंगे आप स्वत: ही प्रसन्न हो जाएंगे और यदि कुछ न कर पाएं तो एक काम तो कर ही सकते हैं जरा मुस्कुराइए.....

भक्ति के तीन रूप होते हैं
कपिलजी अपनी मां देवहुति को योग की चर्चा सुना रहे हैं। फिर मां ने उनसे एक प्रश्न पूछा क्या भक्ति के रूप भी होते हैं? तो कपिलजी ने कहा- हां भक्ति के तीन रूप होते हैं। नौ तरह की भक्ति और तीन तरह के रूप । कौन-कौन से रूप होते हैं तो उन्होंने कहा एक तो सतरूप होता है, एक रजरूप होता है और एक तमरूप होता है इसको सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण बोलते हैं।

कपिल भगवान मां से कह रहे हैं कि मां आप सतोगुणी भक्ति कर सकती हैं, आप रजोगुणी भक्ति कर सकती हैं और तमोगुणी भक्ति कर सकती हैं। परिणाम भी ऐसे ही मिलेंगे। अब मां ने एक प्रश्न पूछा कि चलो मुझे सब समझ में आ गया लेकिन तू तो ज्ञान का अवतार है तूने मुझे सब समझा दिया पर मैं आज तुझसे एक प्रश्न पूछना चाहती हूं कपिल। गृहस्थी में रहकर भक्ति कैसे की जाए? एक भक्त की गृहस्थी कैसी होना चाहिए।

देखिए एक स्त्री का प्रश्न एक पुरूष से। अभी मां के भीतर की नारी जाग गई। यदि गृहस्थी में कोई उल्टी-सीधी घटना घटे तो गृहस्थ अपनी भक्ति को कैसे बचाए? मां पूछ रही हैं।गृहस्थी में सदैव इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। कुछ न कुछ उल्टा-सीधा चलता रहता है। उस समय भक्ति कैसे बचाएं कितना मौलिक प्रश्न पूछ रही है देवहुति अपने बेटे से।

गृहस्थी के केंद्र में परमात्मा को रखें
देवहुति अपने बेटे कपिल से प्रश्न कर रही है- बेटे तू ये बता गृहस्थी कैसे चलाएं। गृहस्थी को कैसे बचाएं, गृहस्थी को कैसे हम केंद्र में रखकर भगवान की स्तुति कैसे करें? गृहस्थी के बारे में उन्होंने मां को बड़े विस्तार से वर्णन किया और मां से कहा- मां गृहस्थी बचाने के बहुत सारे सूत्र हैं पर चलो मैं आपको एक सूत्र बता देता हूं और बड़ी सुंदर बात बता रहे हैं भगवान कपिल । यह बात हमारे भी बड़े काम की है। बात वहीं से शुरू हुई जहां से भागवत लिखी गई थी।

महाभारत लिखने के बाद वेदव्यास दु:खी थे तो नारदजी ने उनसे कहा था केंद्र में परमात्मा को रखें और फिर कोई ग्रंथ लिखें। तो व्यासजी ने लिखी भागवत, जिसके केन्द्र में भगवान हैं। कपिल देव अपनी मां से कह रहे हैं मां, अपनी गृहस्थी के केंद्र में कौन है? यह बात गृहस्थी की शांति और अशांति को तय करेगी। यदि बहुत अधिक संसार है तो बहुत परेशानी है। परमात्मा को गृहस्थी के केंद्र में रखिएगा। यदि परमात्मा नहीं है केंद्र में संसार ही संसार है तो मां इस दु:ख का कोई अंत नहीं है।

जिन लोगों की गृहस्थी के केंद्र में परमात्मा नहीं होता उनकी गृहस्थी कैसी होती है? कपिल देव अपनी मां को बोल रहे हैं कि कितना ही बड़ा दु:ख हो जाए दाम्पत्य परमात्मा का प्रसाद है। कपिल देव ने अपनी से मां से कहा मां गृहस्थी को उदासी से मत लो। ये परमात्मा का प्रसाद है ये आपके जीवन में उतरा है।तो आज एक बेटे ने अपनी मां को ज्ञान दिया है। तीसरे स्कंध का यहां समापन कर रहे हैं ग्रंथकार।

जीवन में धर्म का महत्व
अब आगे चतुर्थ स्कंध आएगा जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों का वर्णन करता है। जीवन में धर्म का क्या महत्व है, यह चतुर्थ स्कंध बताएगा। धर्म शुद्धि से प्राप्त होता है। धर्म प्राप्ति के लिए शुद्धि चाहिए। देश की शुद्धि, काल की शुद्धि, मन की शुद्धि, देह की शुद्धि, विचार की शुद्धि, इंद्रियों की शुद्धि और द्रव्य की शुद्धि। सात तरह की शुद्धि हो तब जीवन में धर्म का अवतरण होता है।

तो पहला बताया धर्म। फिर बताया अर्थ। अब भागवत बता रही है अर्थ की प्राप्ति पांच प्रकार से होती है। पहली होती है माता-पिता के आशीर्वाद से, दूसरी गुरु की कृपा से, तीसरी अपने उद्यम से, चौथी अपने प्रारब्ध से और पांचवीं होती है प्रभु कृपा से। काम का अर्थ है पुरूषार्थ। मोक्ष की कैसे प्राप्ति है इसकी चर्चा अब ग्रंथकार करने जा रहे हैं। यहां से ग्रंथकार हमको एक घटना पढ़ाने जा रहे हैं।अब ग्रंथकार चौथे स्कंध के आरंभ में अत्री और अनुसूइया की चर्चा कर रहे हैं। अनुसूइया कपिल की बहिन और कर्दम-देवहुति की बेटी थीं। अनुसूइया के पति का नाम था अत्री।

अत्री और अनुसूइया का दाम्पत्य बड़ा दिव्य था। अत्री का अर्थ होता है अ, त्री जिसमें तीन न हो, त्री का भाव न हो। तीन कौन से? सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों का अभाव होने पर आदमी अत्री बन जाता है। उनकी पत्नी थीं अनुसूइया। अनुसूइया का अर्थ है जिसमें असूइया प्रवृत्ति का अभाव हो। असूइया को ईष्या कहते हैं। तो पत्नी में ईष्र्या का अभाव तथा पति निर्गुणी थे इसलिए उनका दाम्पत्य इतना दिव्य था। नारदजी इनके दाम्पत्य को देखकर बड़े प्रसन्न होते थे। कितना दिव्य दाम्पत्य है इनका।

जब त्रिदेव ने ली अनुसूइया की परीक्षा
घूमते-घूमते नारदजी एक दिन कैलाश पर पहुंचे। कैलाश पर पहुंचे तो शंकर जी ध्यानमग्न थे। पार्वती ने कहा मैं ही आपकी सेवा-पूजा करती हूं। पार्वतीजी ने लड्डू बनाया और नारदजी को दिया कि प्रसाद पाओ। नारदजी तो नारदजी हैं उन्होंने लड्डू मुंह में रखा और उसके बाद बोले वैसा स्वाद नहीं है। पार्वतीजी ने बोला कौन सा स्वाद नहीं है? बोले वो वाला स्वाद है ही नहीं जो उस आश्रम में है, अत्री और अनुसूइया के आश्रम में। क्या लड्डू बनाती हैं मां अनुसूइया। पार्वतीजी ने बोला ये कौन है? नारद ने कहा बहुत ही पतिव्रता स्त्री हैं, उनके पतिव्रत को सब प्रणाम करते हैं।

नारदजी अपना काम करके चले गए। पार्वतीजी ने सोचा मुझसे बड़ी पतिव्रता कौन होगी? उन्होंने शंकरजी को पूरा वृत्तांत सुनाया और बोला उसके पतिव्रत में सचमुच इतनी ऊंचाई है कि हमसे भी अधिक पतिव्रता है तो आप उसकी परीक्षा लीजिए। शंकरजी ने बोला दूसरों के चक्कर में आप न पड़ें देवी। परंतु पार्वतीजी ने कहा नहीं आप ही को जानना पड़ेगा। शंकरजी कैलाश से नीचे उतरे, उनको मिल गए विष्णुजी। कहां जा रहे हैं शंकरजी ने पूछा, विष्णुजी से। बोले, वहीं अत्री आश्रम। आपका क्या हुआ, शंकरजी ने पूछा।
विष्णुजी बोले नारद आया था लक्ष्मी को बोल गया कि वैकुण्ठ में वैभव और वो आनंद है ही नहीं जो अत्री के आश्रम में है। लक्ष्मी अड़ गई कि जरा पता तो लगाओ कि कौन पतिव्रता है। मैं भी शंकरजी अब आपके साथ हूं। दोनों को रास्ते में मिल गए ब्रह्माजी। दोनों ने ब्रह्माजी से पूछा क्या हुआ? अधिक पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। नारद ब्रह्माणी को भी समझा गए थे। लक्ष्मीजी, पार्वतीजी और ब्रह्माणी जी ने कहा उसके पतिव्रत का परीक्षण करके आप आइए।

जब त्रिदेव बन गए बच्चे
ब्रह्मा, विष्णु व शिव तीनों देव अत्री के आश्रम में आए और तीनों ने विचार किया कि इनकी क्या परीक्षा ली जाए? त्रिदेव वेश बदलकर गए और भिक्षा मांगी। उन्होंने कहा हम आपसे भिक्षा तो लेंगे पर आपको निर्वस्त्र होकर भिक्षा देनी पड़ेगी। अनुसूइया ने बोला ऐसे तो मेरा पतिव्रत भंग हो जाएगा। ये कैसी मांग कर रहे हैं साधु लोग। उन्होंने कहा ठीक है, मेरे द्वार पर आए हो और आपकी वाणी से ऐसा निकला है तो मैं आपको ऐसे ही भिक्षा दूंगी जैसे आप चाहते हैं। उन्होंने हाथ में जल लिया, संकल्प लिया कि ये तीनों छोटे-छोटे बच्चे बन जाएं, छह-छह महीने के। बस तीनों ब्रह्मा, विष्णु, महेश छोटे-छोटे बच्चे बन गए। उठाकर अंदर ले आई और भिक्षा करा दी।

तीनों भगवान छोटे-छोटे हो गए। पहुंचे ही नहीं वापस, न कैलाश में, न वैकुण्ठ में, न ब्रह्मलोक में। तो माताएं परेशान हो गईं। दौड़ी चली आईं तीनों आश्रम में। यहां आकर देखा तो उनके पति बच्चे बने पड़े हैं। तब नारदजी आए तो तीनों देवियों ने कहा नारदजी,हमारे पति तो बच्चे बन गए।

नारदजी ने बोला ये तो बनने ही थे। पतिव्रता का प्रताप देख लिया आपने। तीनों बोलीं हमने तो देख लिया। अब इनको वापस तो बड़ा कराओ आप। नारदजी ने कहा आप अनुसूइया से ही मांग लीजिए। तीनों देवियों ने कहा क्या बात कर रहे हैं, यदि अनुसूइया को ये बता दिया कि ये त्रिदेव हैं और हम तीनों आईं हैं तो ये तो जीवनभर कभी इनको हमें नहीं देंगी और अपराध भी क्षमा नहीं करेंगी। तब नारद ने कहा इनका नाम अनुसूइया है। ये असूइया वृत्ति से निवृत्त हैं। आप मांगिए तो सही, ये क्षमा कर देंगी। तीनों माताओं ने अपना परिचय दिया। तब तक तो अत्री आ गए। अत्री ने पूछा, देवी ये तीन संतानें? उन्होंने अत्रीजी से सारी बात कही। अत्री ने कहा अनुसूइयाजी ये तो त्रिदेव हैं, भगवान हैं इनको मुक्त करिए।

ऐसे होता है जीवन में धर्म का प्रवेश
अत्री मुनि के कहने पर माता अनुसूइया ने त्रिदेव को पुन: वास्तविक स्वरूप प्रदान कर दिया। त्रिदेव ने अनुसूइयाजी से कहा हम आपकी भक्ति, आपके तप से बहुत प्रसन्न हैं। हमारे तीनों के अंश से आपके घर तीन पुत्र जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शिव के अंश से ऋषि दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ। ये भगवान का एक और अवतार हुआ। हमने कर्दम और देवहुति की पुत्री की कथा भी सुन ली। अब आइए प्रसूति के घर में चलते हैं।

मनु-शतरूपा की तीसरी पुत्री है प्रसूति। उनका विवाह किया गया दक्ष से। इनके यहां सोलह कन्याओं का जन्म हुआ। दक्ष ने अपनी तेरह कन्याओं का विवाह कर दिया धर्म से। अपनी चौदह व पंद्रह कन्या में एक अग्नि को दी एक पितरों को प्रदान करी और सोलहवीं कन्या सती का विवाह भगवान शंकर से करवा दिया।इस तरह दक्ष ने अपनी तेरह बेटी धर्म को सौंप दी। श्रद्धा, दया, मैत्री, शांति, पुष्टि, क्रिया, उन्नति ये पत्नियों के नाम हैं धर्म के। बुद्धि, मेधा, स्मृति, तितिक्षा, धृति और मूर्ति ये तेरह, धर्म की तेरह पत्नियां हैं। यानि धर्म को जीवन में लाना है तो ये तेरह काम करने पड़ेंगे और इसमें अंतिम पत्नी का नाम है मूर्ति। विचार करिए मूर्ति धर्म की पत्नी है। कितनी सुंदर बात भागवत में आ रही है।

हम मूर्तिपूजक हैं क्योंकि धर्म की पत्नी हैं मूर्ति। तो मूर्ति माता हैं और धर्म पिता हैं। इस अंतर को समझ लीजिए बड़ी बारीक बात है। मंदिरों में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा कराते हैं तो मूर्ति धर्म की तेरहवीं पत्नी हैं। वो मां के रूप में हैं और धर्म पिता के रूप में हैं। माताएं घर को साधती हैं ऐसे ही मूर्ति मंदिर में रखी जाती हैं और धर्म की चारों तरफ जय-जयकार होती है। पिता जो होता है वो बाहर की सारी व्यवस्था जुटाता है। ये एक आदर्श व्यवस्था है। धर्म की पत्नी मूर्ति। तो आप देखिए जब-जब धर्म की प्रतिष्ठा जीवन में करने जाएं तो जयजयकार करिए धर्म की और मूर्ति के साथ प्राण-प्रतिष्ठा रखिए।

ऐसे करें भगवान के दर्शन
अभी मनु और शतरूपा की संतानों की कथा चल रही है। जब मनु और शतरूपा ने भगवान के पहली बार दर्शन किए तो भगवान के दर्शन को लेकर मनु और शतरूपा ने जो भाव प्रकट किया वो हमारे भीतर हमें रखना चाहिए। जैसे ही भगवान प्रकट हुए, मनु-शतरूपा ने देखा तो ऐसा लिखा है-

छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी, एकटक रहे नयन पट रोकी। चितवहीं सादर रूप अनूपा, तृप्ति न मानही मनु-शतरूपा।छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी

अर्थात भगवान के रूप को देखकर ऐसा लगे कि ये छवि का समुद्र है, सौंदर्य का सागर है । पहला भाव ये होना चाहिए। एकटक रहे नयन पट रोकी अर्थात एकटक हो जाइए, अचंभित हो जाइए जैसे बहुत समय बाद हमारा परिचित मिले हम उसको देखकर चौंक जाते हैं, ऐसे ही भगवान को देखकर एकदम अचंभित होने का भाव लाइए। नयनपट रोकी, पलकों को झुकाना बंद कर दीजिए। पलक तो दुनिया के सामने झुकाई जाती है भगवान को देखें तो एकटक देखते रहें। तीसरा काम नैनो को रोक दीजिए आंख खुली रखकर देखते जाइए-देखते जाइए।

चितवहीं सादर रूप अनूपा, चौथी बात प्रतिमा को देखें तो सादर, आदर का भाव रखें। मूर्ति के प्रति सम्मान का भाव रखें, गरिमा से खड़े रहें। चितवहीं सादर रूप अनूपा, एक शब्द आया अनूपा, भगवान के रूप को देखें तो प्रतिपल अनूप लगना चाहिए, नया-नया लगना चाहिए। छठी सबसे महत्वपूर्ण बात तृप्ति न मानहीं मनु-शतरूपा। दर्शन करने के बाद मनु-शतरूपा को तृप्ति नहीं हुई। अतृप्त भाव बना रहे। भगवान के दर्शन करने के बाद तृप्ति का भाव न बना रहे। इन छह तरीकों से भगवान के दर्शन किए जाते हैं।

दिव्य है शंकर-पार्वती का दाम्पत्य
मनु-शतरूपा ने अपनी पुत्री प्रसूति दक्षराज को सौंपी और प्रसूति तथा दक्ष की सौलह कन्याएं हुईं उसमें सौलहवीं सबसे छोटी कन्या थीं सती। सतीजी का विवाह किया गया शंकरजी से। अब आप सती और शंकर का दाम्पत्य देखिए। सती के साथ शंकरजी का दाम्पत्य आरंभ हो रहा है। ग्रंथकार अब हमको आगे ले जा रहे हैं। दक्ष की कथा बताई।

सबसे पहले जब दक्ष को सम्मान मिला तो दक्ष को आया अहंकार। एक बार साधु-संतों का कार्यक्रम था, अनुष्ठान था उसमें सब देवता साधु-महात्मा बैठे हुए और उसमें दक्ष सबसे बाद में आए। उन्होंने इधर-उधर देखा कि मैं आया तो सब खड़े हो गए पर शंकर भगवान खड़े नहीं हुए, ध्यान लगाए बैठे थे। बस यहीं से श्वसुर और दामाद में बैर-भाव आरंभ हो गया। दोनों में मतभेद हो गए। उस सभा में बात ऐसी हुई कि दक्ष के जो सचिव थे उन्होंने शंकरजी को कुछ कह दिया। तो शंकरजी के जो गण थे उन्होंने उनको भी अपशब्द कह दिए। सती को भी ये मालूम हो गया कि मेरे पिता से मेरे पति का मतभेद हो गया है।

एक बार शंकरजी की रामकथा सुनने की इच्छा हुई तो उन्होंने सती से कहा चलो कुंभज ऋषि के आश्रम में चलते हैं। कुंभज ऋषि के आश्रम में पति-पत्नी पहुंचे। उन्होंने कहा मैं आपसे रामकथा सुनना चाहता हूं। शंकरजी आए तो कुंभज ऋषि खड़े हो गए उन्होंने शंकरजी को प्रणाम किया और बोले बैठिए मैं सुनाता हूं। सतीदेवी ने सोचा ये क्या बात हुई जो वक्ता हैं वो श्रोता को प्रणाम कर रहा है। श्रोता वक्ता को करता है ये तो समझ में आता है। तो जो खुद ही प्रणाम कर रहा है वो क्या रामकथा सुनाएगा। सती ने सोचा शंकरजी तो ऐसे ही भोलेनाथ हैं किसी के भी साथ बैठ जाते हैं। यहां से सती के दिमाग में विचारों का क्रम तर्कों के साथ चालू हो गया। ऋषि ने इतनी सुंदर रामकथा सुनाई कि शंकरजी को आनंद हो गया। हम संक्षेप में चर्चा करते चल रहे हैं। शंकरजी ने कथा सुनी, अपनी पत्नी को देखा कि वे कथा नहीं सुन रही थीं।

जब माता सती ने ली श्रीराम की परीक्षा
सतीजी कथा नहीं सुन रही थीं। वे इधर-उधर देख रही थीं। शंकरजी ने बोला आपकी इच्छा आप सुनो या न सुनो। जब दोनों पति-पत्नी लौट रहे थे तब भगवान श्रीरामचंद्र की विरह लीला चल रही थी। सीताजी का अपहरण हो चुका था। भगवान सीताजी को ढूंढ रहे थे। सामान्य राजकुमार से रो रहे थे। यह देखकर शंकरजी ने कहा जिनकी कथा सुनकर हम आ रहे हैं उनकी लीला चल रही है। शंकरजी ने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया, जय सच्चिदानंद।

और जैसे ही उनको प्रणाम किया तो सतीजी का माथा और ठनक गया कि ये पहले तो कथा सुनकर आए एक ऐसे ऋषि से जो वक्ता होकर श्रोता को प्रणाम कर रहे थे और अब ये मेरे पतिदेव इनको प्रणाम कर रहे हैं रोते हुए राजकुमार को। शंकरजी ने बोला ''सतीदेवी आप समझ नहीं रही हैं ये श्रीराम हैं जिनकी कथा हम सुनकर आए उनका अवतार हो चुका है और ये लीला चल रही है मैं प्रणाम कर रहा हूं आप भी करिए''। सतीजी ने बोला मैं तो नहीं कर सकती प्रणाम। सतीजी ने कहा ये ब्रह्म हैं मैं कैसे मान लूं मैं तो परीक्षा लूंगी। शंकरजी ने कहा ले लीजिए लेकिन मर्यादा का ध्यान रखना देवी तथा एक पत्थर पर बैठ गए।

सतीजी गईं हठ करके परीक्षा लेने। लिखा है ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा। अस कहि लगे जपन हरिनामा, गईं सती जहां प्रभु सुखधामा।'' शंकरजी कह रहे हैं अब जो होगा भगवान की इच्छा। कई लोग इन पंक्तियों का अर्थ आलस्य से करते हैं। ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।'' तर्क की शाखा बढ़ाने से क्या फायदा, होगा वही जो भगवान चाहेंगे। इसलिए कुछ मत करो ऐसा समझना बिल्कुल गलत बात है। शंकरजी ने पूरा पुरूषार्थ किया, कथा सुनाने ले गए , कथा सुनाते समय समझाया, वापस समझाया अपना पूरा पुरूषार्थ करने के बाद परिणाम के लिए भगवान पर छोड़ दिया।

दाम्पत्य में झूठ नहीं होना चाहिए
भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने के लिए सतीदेवी गईं । विचार किया इनकी परीक्षा लूं तो सीता का वेश धर लिया और सोचा ये तो राजकुमार हैं सीता-सीता चिल्ला रहे हैं मुझे पहचान नहीं पाएंगे। सीता बनकर गईं और रामजी ने देखा तो दूर से प्रणाम किया। श्रीराम बोले आपको नमन है माताजी, पिताजी कहां हैं। ओह! सतीजी समझ गईं कि मैं पकड़ी गईं। ये तो मुझे पहचान गए। भागी वहां से, लौटकर आई और अपने पति के पास आकर बैठ गईं।

शंकरजी ने पूछा देवी परीक्षा ले ली? कुछ उत्तर नहीं दिया, झूठ बोल दिया। ''कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं, कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।'' इतना झूठ बोला कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली मैंने तो आप ही की तरह प्रणाम किया।झूठ बोल गईं अपने पति से। भगवान शंकर ने ध्यान लगाकर देखा कि घटना तो कुछ और हुई है और ये कुछ और बता रही हैं। इन्होनें सबसे बड़ी गलती यह की कि ये सीता बन गई, मेरी मां का रूप धर लिया तो अब मेरा इनसे दाम्पत्य नहीं चलेगा। मैं इनका मानसिक त्याग करता हूं। दोनों लौटकर कैलाश आए भगवान ध्यान में बैठ गए।

थोड़े दिन तो सती सोचती रहीं कि ये तो रूठ गए, लंबे रूठ गए, दो-तीन दिन तो रूठते थे पहले भी, तो मना लेती थी पर इस बार तो स्थायी हो गया । तब चिंता होने लगी। ये तो सुन ही नहीं रहे हैं, ध्यान में चले गए। उसी समय देखा ऊपर से विमान उड़कर जा रहे थे। मालूम हुआ कि पिता दक्ष ने बड़ा भारी यज्ञ किया है, ये सारे देवता उसी में भाग लेने जा रहे हैं। बेटी को चिंता हुई, पिता के घर इतना बड़ा काम और मुझे आमंत्रित नहीं किया। तब उनको ध्यान आया कि श्वसुर-दामाद का बैर चल का रहा है। सती ने कहा- हमको बुलाया नहीं गया लेकिन मैं जाऊंगी।

अहंकार ही पतन का कारण है
पिता दक्ष के यहां यज्ञ की बात सुनकर सतीजी अपने पति शंकरजी से बोलती हैं पिता के घर यज्ञ हो रहा है आप मुझे जाने दीजिए। शंकरजी कह रहे हैं देवी बात समझो, बिना आमंत्रण के नहीं जाना चाहिए। दक्षराज के मन में मेरे प्रति ईश्र्या है, आप मत जाइए। लेकिन सती बोलीं नहीं मैं तो जाऊंगी। शंकरजी ने कहा आप जाएं साथ में ये दो गण भी ले जाएं। ये आपकी रक्षा करेंगे।

वे गईं और जैसे ही वहां पहुंची तो देखा दक्षराज का बड़ा भारी यज्ञ चल रहा था। दक्षराज ने देखा मेरी बेटी आई है तो ध्यान ही नहीं दिया अपनी बेटी पर। माता प्रसूति ने देखा तो बेटी से बोला आ तू बैठ। सतीजी ने कहा मां तू तो लाड़ करती हैं पर यह सब क्या, मेरे पति शंकरजी का आसन नहीं है। उनका स्थान नहीं इस यज्ञ में, यह तो बड़ा भारी अपमान है। तब बड़ा क्रोध आया सतीजी को और क्रोधाग्नि में उन्होंने अपनी देह को भस्म कर दिया। जैसे ही उनकी देह भस्म हुई शंकरजी के गणों ने उपद्रव शुरू कर दिया। दक्ष के सैनिकों ने उनकी पिटाई कर दी। कुटे-पिटे गण आए शंकरजी के पास कैलाश पर। पूरा वृत्तांत सुनाया। शंकरजी को क्रोध आया, जटाएं हिलाईं। वीरभद्र नाम का एक गण पैदा किया, और कहा जाओ ध्वंस कर दो दक्ष के यज्ञ को।

शिवजी तांडव की मुद्रा में आ गए। वीरभद्र ने सारा यज्ञ ध्वंस कर दिया। सारे देवता दौड़ते-भागते ब्रह्मा और विष्णुजी के पास गए। भगवान ने कहा तुमने शिव के प्रति अपराध किया तो यह तो भुगतना ही है। सबने जाकर भगवान शंकरजी से प्रार्थना की कि आप शांत हो जाएं इनको क्षमा कर दें, उन्होंने क्षमा भी किया। इसीलिए उनका एक नाम आशुतोष पड़ा। इस तरह यह कथा हमको यह बता रही है कि दक्ष का अहंकार दक्ष को ले डूबा। सती को जाते-जाते ये बड़ा दु:ख था कि मैं अपने पति का अपमान नहीं देख सकती इसलिए मैं जा रही हूं लेकिन मैं जन्म-जन्म तक इन्हें ही पति चाहती हूं।

पार्वती श्रद्धा व भगवान शंकर विश्वास हैं
जब माता ने सती ने देह त्याग किया तो ऐसा कहते हैं कि अगले जन्म में वो पार्वती कहलाईं। इस जन्म में वे हिमाचल के यहां बेटी बनीं। मनुष्य के अंतिम समय में जो उसकी अंतिम इच्छा होती है वह अगले जन्म का कारण बन जाती है। पार्वती बनकर नया दाम्पत्य शंकरजी का आरंभ हुआ। शंकर और पार्वती का दिव्य दाम्पत्य था तभी तो उनके यहां कार्तिकेय व गणेश जैसी संतानें पैदा हुईं। ''भवानीशंकरोवंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ'' अर्थात पार्वती श्रद्धा हैं शंकर विश्वास हैं। जीवन में श्रद्धा और विश्वास का जब मिलन होता है तब कार्तिकेय व गणेश पैदा होते हैं।

सूतजी शौनकादि से कह रहे हैं, परीक्षित को समझा रहे हैं शुकदेवजी। अपने दाम्पत्य को ऐसे बचाकर रखो। मां देवहुति ने भी अपने पुत्र कपिल से यही प्रश्न पूछा था कि गृहस्थी में भक्ति कैसी हो। यहां भी यही प्रश्न आया। तो सती और पार्वती के माध्यम से हम ये सीख सकते हैं कि अपने दाम्पत्य को आपसी समझ व गइराई से कैसे चलाया जाए।आइए हम अगले दृश्य में प्रवेश करते हैं। ग्रंथकार बहुत सुंदर दृश्य बताते हैं। भगवान शंकर और पार्वती का विवाह हुआ और अभी-अभी दोनों कैलाश पर पहुंचे हैं। दोनों बैठे हैं पति-पत्नी और बैठकर बात कर रहे हैं।

पार्वतीजी, शंकरजी से पूछ रही है कि आप मुझे रामकथा सुनाइए जो मैं चूक गई सती जन्म में।तो शंकरजी उनको रामकथा सुना रहे हैं। अब देखिए पति-पत्नी अकेले में बैठे हों तो कामकथा फूटती है पर यहां रामकथा फूट रही है। दिव्यता का महत्व है जीवन में। परमात्मा उतरेगा तो शुद्धता को पसंद करके उतरता है। दोनों पति-पत्नी बैठकर बातचीत कर रहे हैं।

जीवन साथी का आदर करें
एक दृश्य में जब पार्वतीजी आती हैं तो शंकरजी कह रहे हैं ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा जानी प्रिय'' दो शब्द आए हैं प्रिया और आदर। अपनी पत्नी पार्वतीजी को प्रिया प्रेम दिया। केवल प्रेम देने से काम नहीं चलता। शंकरजी कहते हैं आदर भी जरूरी है। ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा'' ये दाम्पत्य का सूत्र है। शंकरजी यहीं नहीं रुकते ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा, बाम भाग आसन हर दीन्हा''। पार्वतीजी को अपने बाएं भाग में समान बैठाया। पहली बात है हम प्रेम दें, आदर करें। अपने जीवनसाथी के साथ समानता का व्यवहार करें। बाम, भाग, आसन हर दिन्हा, अपने पास में बैठाया।

शंकरजी दाम्पत्य का छोटा सा सूत्र बताते हैं, हमें यह समझना चाहिए। अब ग्रंथकार हमें आगे ले जा रहे हैं। ये धर्म का प्रसंग था। धर्म का प्रसंग हमने पढ़ा, धर्म कैसे बच सकता है। चाहे वह गृहस्थ धर्म हो। अब हम चतुर्थ स्कंध के उस प्रकरण में प्रवेश कर रहे हैं जिसे अर्थ प्रकरण कहा है और अर्थ प्रकरण में धु्रव भगवान का जन्म होने वाला है। मनु-शतरूपा के वंश की चर्चा चल रही थी। हमने तीनों पुत्रियों का जीवन, दाम्पत्य देख लिया। अब पुत्रों की बारी आ रही है। तो उत्तानपाद और प्रियव्रत, उनके दो पुत्र थे।

उत्तानपाद की कहानी अब ग्रंथकार कह रहे हैं। सूतजी कह रहे हैं कि शौनकजी सावधान होकर सुनिएगा। उत्तानपाद बड़े धार्मिक राजा थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम सुनीति और दूसरी का नाम सुरुचि था। इन दो पत्नियों के साथ उनका जीवन चल रहा था। एक बार सिंहासन पर बैठे थे उत्तानपाद। वे छोटी पत्नी सुरुचि को बहुत प्यार करते थे। वह पास में बैठी थी। सुरुचि के पुत्र का नाम था उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम था धु्रव। पांच साल का बालक ध्रुव अपने पिता के पास आया। उसने देखा पिता की गोद में उत्तम भी बैठा है पास में सौतेली मां सुरुचि बैठी हुई है।

कर्कश वाणी सभी दु:खों का कारण है
मनु महाराज के पुत्र उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने जब अपने पिता को सिंहासन पर बैठा देखा तो वह भी राजसिंहासन पर चढऩे का प्रयास करने लगा। पांच साल के बालक ने कोशिश की कि अपने पिता की गोद में बैठ जाए। उत्तानपाद ने सोचा इसको गोदी में बैठा लेता हूं लेकिन जैसे ही प्रयास करने लगे, उनकी दूसरी पत्नी सुरुचि अड़ गई। सुरुचि ने कहा ध्रुव तू पिता की गोद में नहीं बैठ सकता। उसने कहा- क्यों मां? वह बोली यदि तुझे पिता की गोद में बैठना है तो तुझे सुरुचि के गर्भ से जन्म लेना पड़ेगा, नहीं तो भगवान की पूजा कर फिर वही देखेंगे।

सौतेली मां ने ऐसी कर्कश वाणी बोली जिसे सुन ध्रुव परेशान हो गया। रोने लगा और चूंकि राजा उत्तानपाद सुरुचि के प्रभाव में थे तो पत्नी को मना भी नहीं कर सके, क्योंकि वो जानते थे कि अगर मैंने ध्रुव को गोदी में उठाया तो ये सारा घर माथे पर उठा लेगी। वह सुरुचि का स्वभाव जानते थे। ध्रुव रोते-रोते अपनी मां सुनीति के पास चला गया। उसने कहा मां से- मैं आज पिताजी की गोद में बैठने गया तो मां ने मुझे बैठने नहीं दिया और ऐसा कहा है कि जा तू भगवान को पा ले तो तू अधिकारी बनेगा। मां भगवान कहां मिलते हैं।

सुनीति ने कहा ध्रुव तू सौभाग्यशाली है कि तेरी सौतेली मां ने तुझसे यह कहा कि जा भगवान को प्राप्त कर। तेरा बहुत सौभाग्य है। तू भगवान को प्राप्त कर। वो यह सीखा रही है। पांच साल का बच्चा जंगल में चल दिया। ऐसा कहते हैं जब वो जंगल की ओर जा रहा था उसके मन में विचार आ रहा था कि भगवान कैसे मिलते हैं, भगवान कहां मिलेंगे, कैसे प्राप्त होंगे और चल दिया।

यहां एक बात ग्रंथकार कह रहे हैं घर-परिवार में सुरुचि ने कर्कश वाणी बोली और ध्रुव का दिल टूट गया। समाज में, परिवार में, निजी संबंधों में कर्कश वाणी का उपयोग न करें। ये बहुत घातक है । शब्दों का नियंत्रण रखिए। जीवन में कभी भी कर्कष वाणी न बोलिए। भक्त की वाणी हमेशा निर्मल होती है इसलिए ध्रुव चला जा रहा है और भगवान को ढूंढ़ रहा है। उसे मार्ग में नारदजी मिल गए।

कठिन तप से मिलते हैं भगवान
अब तक की कथा में आपने पढ़ा कि भगवान की खोज में निकले ध्रुव को मार्ग में नारदजी मिले। नारदजी ने ध्रुव को रोका और कहा बालक इस जंगल में कहां जा रहा है। नारदजी को देखकर ध्रुव कहते हैं कि मैं भगवान को प्राप्त करने जा रहा हूं। नारदजी हंसे, तू जानता नहीं है भगवान क्या होता है। बड़ा कठिन है जंगल में तप करना। ऐसे ही भगवान नहीं मिलते। नारदजी ध्रुव को डरा रहे हैं। ध्रुव ने कहा कि देखिए मुझे डराइए नहीं, अगर आप भगवान को प्राप्त करने का कोई रास्ता बता सकते हैं तो अच्छी बात है मुझे भयभीत क्यों कर रहे हैं।

जो भी स्थिति होगी मैं भगवान को प्राप्त करुंगा। बस मैंने सोच लिया है, मेरा हठ है। नारदजी बोले वाह, ठीक है क्या चाहता है? ध्रुव बोले आप मेरे गुरु बन जाओ। नारदजी को गुरु बना लिया। नारदजी ने उसे मंत्र दिया ऊं नमो भगवते वासुदेवाय, जा तू इसका जप करना, जितनी देर तू इसका जाप करेगा और अगर सिद्ध हो गया तो परमात्मा तेरे जीवन में उतर आएंगे। ध्रुव बैठ गए और ध्यान किया। उन्होंने ''ऊं नमो भगवते वासुदेवाय'' का जप शुरू कर दिया। छह महीने तक करते रहे। भगवान सिद्ध हो गए, सिंहासन डोल गया, भगवान को लगा कोई भक्त मुझे याद कर रहा है। अब मुझे जाना पड़ेगा।

भगवान प्रकट हुए और जैसे ही भगवान प्रकट हुए तो देखा कि ध्रुव तो बस ध्यान लगाए बैठा है। अपने हाथों से ध्रुव के गाल को स्पर्श किया। आंख खोली तो भगवान सामने खड़े हुए थे। ध्रुव ने भगवान को प्रणाम किया, धन्य हो गए। भगवान ने कहा बोल क्या चाहता है? बच्चा था ज्यादा बातचीत करना तो आती नहीं थी, पांच साल के बच्चे ने कह दिया बस जो आप दे दो। भगवान बहुत समझदार हैं उन्होंने कहा ठीक है तू वर्षों तक राज करेगा, तेरी अनेक पीढिय़ां सिद्ध हो जाएंगी। तेरे पुण्य प्रताप से वे धन्य हो जाएंगे, तेरा राज्य अद्भुत माना जाएगा। तुझे मनोवांछित की पूर्ति होगी जो तू चाहता है वो मिलेगा, तथास्तु कह कर भगवान चले गए।

क्रमशः...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष