Friday, October 23, 2015

Jeene Ki Rah10 (जीने की राह)

खुद को भुलाना नुकसानदायक
नशे का मतलब होता है स्वयं को भूल जाना। लोग नशा करते ही इसीलिए हैं कि खुद को भूल जाएं। जब मनुष्य खुद को भूलने को तैयार हो तब वह कई किस्म के नशे पाल लेता है। धन, रूप, बल, पद इन सबका तो नशा होता ही है। फिर उसका मैंइतना हावी हो जाता है कि खुद से कट जाता है। इनसे भी खतरनाक मदिरा, तंबाकू, अफीम, गांजा और भी ऐसे नशे हैं, जिन्हें फैशन के रूप में नई पीढ़ी ने अपना लिया है। जरा-सा धन आया, जीवन जीने का स्तर उठा और आदमी इस किस्म के नशे पाल लेता है। गलत काम जब लोग करते हैं तो नशा कर लेते हैं। जिन्हें हिंसा करनी होती है वे भी नशे में डूब जाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि नशा करने के बाद हम खुद को भूल जाएंगे।

अगर हमारे भीतर कहीं कोई अच्छा आदमी है तो वह हमको रोक नहीं सकेगा और जो गलत हम करने जा रहे हैं उसके लिए स्वतंत्र रहेंगे। जरा-सा उत्सव का माहौल हो, प्रसन्नता में डूबना हो, लोग नशे की ओर दौड़ पड़ते हैं जैसे बिना नशे के खुशी मनाई ही नहीं जा सकती, लेकिन वह भूल जाता है कि इस नशे की कीमत भविष्य में उसका शरीर चुकाएगा। चुस्ती-फुर्ती का अभाव, नींद पूरी नहीं होना, दिन में सपने देखना, मेहनत से जी चुराना और किसी काम में तबीयत न लगना, भूख न लगना आदि। नशे का एक बड़ा परिणाम रक्तदोष भी है। मन ने थोड़ी देर भोग-विलास में डुबोया और कीमत शरीर को चुकानी पड़ी। धार्मिक दृष्टि से तो आज की पीढ़ी नकार देती है कि नशे से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उन्हें बताना पड़ेगा कि नशे का धर्म से लेना-देना नहीं है। धर्म का अच्छे जीवन से लेना-देना है। जो भी अच्छा जीवन जीना चाहे वह कम से कम अपने से जुड़ा रहे, क्योंकि अपने को भुलाने के लिए नशा किया जाता है और यह जीवन के प्रति बड़ा नुकसानदायक सौदा है।

खुलापन दिव्य दांपत्य की कुंजी
पति-पत्नी में मतभेद हो जाना कोई नई बात नहीं है। समझदार दंपती समझदारी से निपटाते हैं और नासमझ रिश्तों को तोड़ देते हैं। जब दोनों अधिक पढ़े-लिखे हों तो मतभेद को रोकना मुश्किल है। बुद्धि का मूल स्वभाव है टकराना, लेकिन समझदार दंपती अपने मतभेद को उस दायरे में समेट लेते हैं जहां रिश्ते के साथ अपने-अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व भी बच जाते हैं। दोनों एक-दूसरे में जिन बातों को ढूंढ़ते हैं, उसमें एक यह भी है कि हम कहां हैं इनके जीवन में। दोनों की पसंद भिन्न हो तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन दोनों जब अपने आस-पास रहस्य का वातावरण बना लेते हैं तब संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। फिर इस दौर में तो दोनों को एक-दूसरे से दूर ज्यादा समय बिताना पड़ता है।

यदि बिताए गए अज्ञात समय की जानकारी ठीक से शेयर न की जाए तो समझ लीजिए विवाद के बीज ही बोए जा रहे हैं। एक-दूसरे के प्रति यदि संदेह आ जाए तो फिर दोनों को लगने लगता है कि हमारे निजी जीवन में हस्तक्षेप किया जा रहा है। जो जीवन प्रेमपूर्ण आग्रह से चलना चाहिए, उसमें हस्तक्षेप की छाया आ जाती है। लोग किए गए प्रेम की भी पुष्टि चाहते हैं। पुरुष हो या स्त्री दोनों ही दावे करने लगते हैं कि हम भले ही बाहर से कठोर हों, लेकिन भीतर से नारियल, अखरोट की तरह मुलायम हैं और अपने आवेश को सही साबित करने लगते हैं। नारियल और अखरोट का उदाहरण तो ठीक है, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि यह बाहर से कठोर और भीतर से मुलायम जरूर हैं, लेकिन जब ये सड़ जाते हैं तो बाहर से पता नहीं लगता कि भीतर से कितने सड़े हुए हैं, इसलिए अपने व्यक्तित्व को नारियल और अखरोट बनाने से पहले भीतर की ताजगी के प्रति सजग रहें। जीवनसाथी खुली किताब की तरह एक-दूसरे को पढ़ाएं। इसी में दांपत्य दिव्य हो जाएगा।

लक्ष्य प्राप्ति का साधन हैं शास्त्र
मनुष्य को लक्ष्य पर पहुंचने के लिए कई तरह के साधन अपनाने पड़ते हैं। आध्यात्मिक माध्यम का एक लाभ है कि वे हमारी भौतिक यात्रा में भी काम आते हैं। श्रीराम सीताजी के विरह में थे और उनके संग थे भाई लक्ष्मण। दुख की घड़ी में भी श्रीराम अपने भाई को जीवन से संबंधित कुछ बातें बता रहे थे। श्रीराम जानते थे कि इससे दो लाभ होंगे। दोनों भाइयों के बीच सत्संग होगा, मेरा मनोबल भी बढ़ेगा और लक्ष्मण के मन में जो ग्लानि है वह भी दूर होगी। इस पूरी बातचीत को श्रीराम प्रकृति से जोड़कर कर रहे थे। दर्शन को प्रकृति से जोड़ने के अद्भुत प्रयोगों में से यह एक था।

श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं और तुलसीदासजी ने व्यक्त किया है - समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।। सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई।। जल एकत्र होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्‌गुण (एक-एक कर) सज्जन के पास चले जाते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्रीहरि को पाकर अचल हो जाता है। हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ।। पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड-मत के प्रचार से सद्‌ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं। तीन बातों पर श्रीराम ने प्रकाश डाला है। सद्‌गुण की बात की है, फिर कहा है जब व्यक्ति परमात्मा से जुड़ता है तब उसका जीवन कैसा हो जाता है। इन दोनों को प्राप्त करने के लिए जो आध्यात्मिक साधन हैं वे हैं हमारे शास्त्र। शास्त्रों की स्थिति पर भी श्रीराम ने इशारा किया है। जैसे ही हम ईश्वर से जुड़ते हैं, नदी का बहता हुआ जल समुद्र से मिलने पर एक गहराई, एक अलग ही रूप ले लेता है। इन दोनों स्थितियों को प्राप्त करने के लिए शास्त्र का सहारा लिया जाना चाहिए।

सुख और दुख से परे है आनंद
जब जीवन में सुख आता है हम सुखी हो जाते हैं और जब दुख आता है तो हम दुखी हो जाते हैं। सोचना यह है कि हमारा अपना क्या योगदान रहा। जैसे वे आए हम वैसे हो गए। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने एक नई स्थिति हमें सौंपी है- आनंद। आनंद में हमारी भूमिका आरंभ हो जाती है। दुख कभी किसी के जीवन में कम नहीं होंगे, लेकिन जो आध्यात्मिक व्यक्ति होते हैं वे समझ जाते हैं कि दुख आए तो दुखी नहीं होना है। दुख का आना और हमारा दुखी होना इसमें हम जितना भेद कर देंगे, जितनी दूरी बना देंगे, उतने ही हम आनंद के निकट चले जाएंगे। सुख आता है तो मनुष्य अहंकार में डूब जाता है, दुख आता है तो तनावग्रस्त हो जाता है। ये दोनों ही चीजें भीतर से पैदा की गई हैं।

बाहर से हमेशा हालात आते हैं। जब मन उनमें जुड़ता है तो फिर तनाव पैदा होता है और तनाव हमेशा भीतर से जन्म लेता है, क्योंकि उसमें मन की भूमिका होती है। यही मन सुख में अहंकार उछाल देता है। हम दोनों ही स्थितियों में अपने आपको थोड़ा संसार से अलग करके भीतर स्वयं से जुड़ें तो लगने लगेगा कि सुख आए या दुख, दोनों को ही हम अलग खड़ा होकर देख रहे हैं। इस प्रयोग को यूं भी कर सकते हैं कि हमारे आस-पड़ोस में कोई दुख की घटना हो जाए और हमारा उनसे सामान्य संबंध हो तो दूर से ही उस घटना को देखते हैं। उनसे मिलकर संवेदना व्यक्त करते हैं, लेकिन बाहर निकलते ही हमारा सामान्य जीवन शुरू हो जाता है, क्योंकि हम जानते हैं यह दुख हमारा नहीं है। अपने सुख-दुख को भी ऐसे ही दूर खड़े होकर देखा जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि खुद के सुख-दुख से खुद को अलग किया जाए। खुद को अलग करने के लिए कहीं जुड़ना पड़ेगा, इसलिए जितना ज्यादा हो सके, भगवान से जुड़ने का प्रयास कीजिए।

ईश्वर प्राप्ति की तीन योग्यताएं
किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना हो तो कोई न कोई योग्यता जरूरी है। धीरे-धीरे शिक्षा और अनुभव इतने अधिक प्रभावशाली हो जाएंगे कि बिना इसके दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो सकता है। वह दौर गया कि अनपढ़ लोग और आप भाग्य के भरोसे धन और संपत्ति अर्जित कर सकते थे। आज ऐसी योग्यता की बात करें जिस पर लोगों का ध्यान नहीं जाता, क्योंकि सब मानकर चलते हैं योग्यता का परिणाम नाम और दाम होना चाहिए। लोग भूल जाते हैं कि दुनिया में सफलता प्राप्त करने के लिए जो योग्यता लगती है वह दुनिया बनाने वाले के सामने बिल्कुल अलग रूप ले लेती है।

लोग यह मान लेते हैं कि जिस योग्यता से दुनिया मिल रही है उसी से दुनिया बनाने वाला भी मिल जाएगा। यहीं से अशांति का जन्म होता है। सब मिल जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि कुछ खोया-खोया सा है। खुशी के सारे साधनों के बाद भी हम मस्त नहीं हो पाते। हमारी प्रसन्नता, हमारी मस्ती एक अभिनय बन जाती है। अपना दर्द हम ही समझ पाते हैं। परमात्मा के सामने बिल्कुल भोले, बेअकल और मस्त जैसे हो जाएं। भगवान को मस्त लोग बहुत अच्छे लगते हैं। मस्त उसको कहते हैं, जो हर हाल को स्वीकार कर ले। मस्ती का मतलब होता है किसी ऐसी शक्ति के भरोसे जीना, जो हमारा कभी बुरा नहीं होने देगी। भगवान कहते हैं कभी-कभी मेरे द्वार पर भी आकर लोग अक्ल लगाते हैं। कुछ तो इस चक्कर में होते हैं कि चलो भगवान मिल गया तो भगवान जैसे ही हो जाएं और भगवान कहते हैं तुम्हें जैसा मैंने बनाया है वैसे बनो। न मेरे जैसे बनो और न उससे हटो जो तुम्हें बनना है। भगवान के सामने खड़े होने की यह तीन योग्यताएं यदि हमारे भीतर आ जाएं तो जो योग्यता संसार में है वह भी सफलता के साथ शांति प्रदान करेगी।

समय का सम्मान, ईश्वर की पूजा
आजकल बुद्धि और हृदय के संतुलन पर जोर दिया जाता है। इसका फायदा समय प्रबंधन में मिलता है। इन दिनों जिन बातों से लोग परेशान हैं उनमें समय प्रबंधन भी है। छह बातों का ध्यान रखकर इसे बड़ी आसानी से साधा जा सकता है। एक, जो काम जिस समय पर किया जाना चाहिए, उसी समय पर करें। इसके लिए खुद पर दबाव बनाना पड़ेगा। कार्य और समय दोनों को ठीक से साधें। जैसे सुबह टहलना चाहिए, रात्रि भोजन के बाद थोड़ा घूमा जा सकता है। यह तो एक उदाहरण जैसा है। दो, जो भी काम करें, व्यवस्थित रूप से करें। तीन, काम को प्रबंधन के साथ किया जाए। व्यवस्थित काम करने और प्रबंधन के साथ काम करने में अंतर है।

जैसे किसी कार्य की मशीनरी एक व्यवस्थित ढंग है, लेकिन उसको चलाना एक प्रबंधन है। ऐसा ही समय के मामले में कीजिए। चार, समय के क्षेत्र ठीक से बंटे हों। कितना समय घर में देना है, कितना मित्रों को, कितना व्यवसाय में और कितना समय समाज को देना है। यानी क्षेत्र ठीक से बंट जाएं और उसमें जितना समय दिया जाना चाहिए, दिया जाए। पांच, अपने समय को परिणाम से जरूर जोड़ें, क्योंकि परिणाम के प्रति जागरूक नहीं हैं तो वह समय नष्ट करना ही है।

छह, यह कभी न भूलें कि चौबीस घंटे ही होते हैं। इसी चौबीस घंटे में हो सकता है हमें अड़तालीस घंटे का काम करना पड़े और यदि चूक जाएं तो दो घंटे के परिणाम भी हम नहीं दे सकेंगे। समय-काल को परमात्मा का रूप माना गया है। जो लोग पूजा-पाठ करते हैं, ईश्वर में भरोसा रखते हैं उनको समय का सम्मान करना चाहिए। इन छह तरीकों से यदि समय का सम्मान किया गया तो अपने आप में यह परमात्मा की पूजा हो जाएगी। और इस समय प्रबंधन में बुद्धि तथा हृदय का संतुलन बड़ा काम आता है।

प्रशंसा और आलोचना में सहज रहें
दुनिया में कई आवाजें बड़ी मीठी होती हैं। किसी को कोयल की आवाज मीठी लगती है। कुछ लोगों को अपने बच्चों की आवाज भी मीठी लगती है। जीवनसाथी की आवाज में मिठास पाने वाले लोग अब कम ही होंगे, लेकिन फिर भी वाणी की मिठास आज भी कायम है। ध्यान दीजिए, सबसे मीठी आवाज लगती है अपनी प्रशंसा या अपने प्रशंसक की। जब कोई हमारी तारीफ करता है तो हमारे व्यक्तित्व में मिठास घुलने लगती है। प्रशंसा की यह मिठास न सिर्फ कानों में प्रवेश करती है बल्कि मन से गुजरकर हृदय में घुल जाती है। यहीं से कुछ झंझटें भी शुरू हो जाती हैं, क्योंकि प्रशंसा के भीतर अदृश्य विष छुपा होता है। प्रशंसा हमें अच्छे कर्म के लिए प्रेरित कर सकती है या अहंकार पैदा कर गिरा भी सकती है। प्रशंसा को धीर-गंभीर लोग तुरंत पचाने में लग जाते हैं और किसी अच्छे काम के लिए प्रेरित होते हैं। प्रशंसा प्रेरणा बन जाती है।

मूर्ख प्रशंसा सुनकर अहंकार पाल लेते हैं। उनका मैंऔर प्रबल हो जाता है। मैंलगभग दूसरी मौत का नाम है। हमें इससे बचना चाहिए, क्योंकि कुछ लोग हमारी प्रशंसा अहंकार बढ़ाकर हमें बर्बाद करने के लिए कर सकते हैं। यही प्रशंसा का जहर है। तीसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो न गंभीर होते हैं और न मूर्ख। इन्हें सहज कह सकते हैं। सबसे अच्छा तरीका यही है। सहजता से सुनिए और भूल जाइए। तब प्रशंसा ऐसा लाभ देगी, जो दिखेगा नहीं लेकिन भविष्य में काम कर जाएगा। आप सहज हैं तो सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि प्रशंसा के समय आपकी सोच, जो हो सो हो, लेकिन आलोचना के समय आप परेशान नहीं होंगे। आलोचना के समय धीर-गंभीर व्यक्ति को भी ताकत लगानी पड़ती है और मूर्ख तो आवेश में आ ही जाते हैं। सहज व्यक्ति दोनों ही स्थिति में अपनी खुशी से सौदा नहीं करेगा।

परिपक्व मनुष्य में क्रोध नहीं होता
लोग अपने क्रोध का कारण दूसरों को बताते हैं, लेकिन गहरे में हम ही उसका कारण हैं। अब तो लोग अपनी खुशी का भी कारण दूसरों में ढूंढ़ने लग गए हैं। कुछ तो मानते हैं कि हमें खुशी कोई दूसरा ही दे सकता है। किंतु क्रोध की तरह खुशी का कारण भी हम ही हो सकते हैं। भीतर खुशी ढूंढ़ने के लिए प्रकृति बहुत अच्छा साधन है। किष्किंधा कांड में तुलसीदासजी बता रहे हैं कि श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, ‘दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।। नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिलें बिबेका।।चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। वृक्ष नए पत्तों से ऐसे सुशोभित हो गए हैं, जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है।

अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।। खोजत कतहुं मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उधम खत्म हो जाता है। धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता। वृक्षों के नए पत्तों को साधक के मन की स्थिति से जोड़ा है। यह सही है कि मन में जब विवेक जाग जाता है तो ज्ञान ऐसे ही लबालब होता है। श्रीराम उस समय राजा नहीं थे, लेकिन किसी श्रेष्ठ राज्य की कल्पना उनके मन में चल रही थी। उन्होंने कहा है कि जैसे एक स्वच्छ व्यवस्था में धूल नहीं होती, ऐसे ही एक परिपक्व मनुष्य में क्रोध नहीं होना चाहिए, क्योंकि क्रोध धूल की ही तरह है, जो पानी से मिल जाए तो कीचड़ हो जाए और उड़कर आंख में लग जाए तो दृष्टि को बाधा पहुंचा सकती है। बस, क्रोध इसी तरह है। इन सुंदर कल्पनाओं में श्रीराम जीवन का बड़ा संदेश हमें दे रहे हैं।

संसार में रहकर ईश्वर प्राप्ति संभव
रास्तों का सबसे बड़ा काम होता है किसी को मंजिल पर पहुंचाना। जब ट्रैफिक ज्यादा हो तो रास्ते उसी अनुसार बनाए जाते हैं। इस समय हम बात कर रहे हैं दो तरह के रास्तों की। एक, प्रभु मार्ग पर चलें और संसार को पाएं। दो, संसार के मार्ग पर चलते हुए परमात्मा को पाना। जब हम भगवान के मार्ग पर चल रहे होते हैं, तो हमारी मंजिल ईश्वर को पाना हो। कई पड़ाव आएंगे। हमें उन पर रुकना भी है, उपयोग भी करना है, लेकिन हमारा लक्ष्य होगा ईश्वर को पाना। इसका मतलब यह नहीं है कि पूजा-पाठी हो जाएं। ईश्वर का जीवन में आना मतलब शांति, सहजता का आना। यदि आप लक्ष्य पर पहुंचने के बाद शांत नहीं हैं तो समझ लीजिए ईश्वर से दूर हैं। दूसरे रास्ते पर संसार पाना उद्‌देश्य होता है और बीच में ईश्वर के पड़ाव बना लिए जाते हैं।

वहां अशांति हर हाल में हाथ आएगी, क्योंकि परमात्मा पड़ाव नहीं, लक्ष्य है। इन दिनों पूजा-पाठ पाखंड में बदल रहा है। लोग भूल गए हैं कि भक्ति का एक अर्थ है सत्संग। सेवा का भाव हो और धैर्य व्यक्तित्व में उतरे। तीनों बातें भक्ति का गहना हैं। जिन्हें भक्ति करनी हो उनका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति हो, लेकिन संसार भी नहीं छोड़ना है। संसार में जो भी जरूरी है वह किया जाना चाहिए। संसार में रहकर अपना लक्ष्य ईश्वर याद रहे, यह काम सत्संग करता है। फिर जब ईश्वर को पाने निकले हैं, संसार का भी उपयोग कर रहे हैं, तो सेवा करनी चाहिए। लक्ष्य पर निकले हैं इसलिए अधीर होना स्वाभाविक है, लेकिन धैर्य बनाए रखें। इसलिए इस भ्रम को दूर किया जाए कि यदि ईश्वर से जुड़ें तो संसार छोड़ना पड़ेगा या संसार से जुड़ जाएं तो ईश्वर छूट जाएगा।

सत्संग में मन पर निगाह रखें
सहज दिखना और शांत दिखना आजकल व्यावसायिक जीवन का आवश्यक तत्व है। बड़ी उम्र के लोग तो इसमें बहुत माहिर हैं। किंतु नई पीढ़ी इस मामले में थोड़ी ईमानदार है। यदि वह शांत है तो भी और अशांत है तो भी व्यक्त करने में देर नहीं करती। पिछले दिनों सातवें दिन कथा समाप्ति पर साथ रहे युवा उद्योगपति ने सहजता से कहा, ‘सात दिन से कुर्ता-पजामा पहनकर कथा में लगा हूं। मेरा दिमाग खराब हो गया। अब मैं कल से इसे ठीक करूंगा।मैं सोचने लगा कि क्या सात दिन की कथा में किसी का दिमाग खराब हो सकता है, क्योंकि दिमाग तो कमाने में भी खराब हो रहा होगा। वह धर्म-कर्म के कार्य में खुद को असहज महसूस कर रहा होगा, इसीलिए उसने यह टिप्पणी की।

जब ऐसे लोग दो पैसा कमाने में बेचैन और अशांत होते हैं तब उन्हें समझ में आता है कि दिमाग तो यहां भी खराब होना है। खराबी का अर्थ है, जिस काम में दिमाग लगाओ अगर उससे शांति नहीं मिल रही तो दिमाग को दूसरी तरफ लगाया जाए। संसार में जब हम परिश्रम करते हैं तो इसमें शरीर काम आता है, लेकिन धर्म-कर्म के क्षेत्र में मन काम करता है। शरीर से मतलब परिश्रम करना है तो स्वस्थ भी रहना है, लेकिन जैसे ही सत्संग में उतरें, पूजा-पाठ में आएं तो शरीर छोड़कर मन पर टिक जाइए। वहां शरीर को देखना है, यहां मन पर नजर रखना है और जब यह दोनों ठीक से होने लगेंगे, तो दिमाग खराब होने के अर्थ ठीक निकल आएंगे, क्योंकि दिमाग दुनिया भी खराब करती है और दुनिया बनाने वाले के रास्ते में भी दिमाग खराब हो जाता है, पर दोनों के अर्थ अलग होते हैं। मीरा, कबीर, रहीम, और तुलसीदासजी को दुनिया के एक वर्ग ने दिमाग खराब होने वाला ही बताया था। अब हम समझ सकते हैं कि हमारे लिए इन सबका क्या मतलब होगा।

धन का चक्र समझें, चक्कर से बचें
अब धीरे-धीरे उत्सव और त्योहारों का समय आने वाला है। दिवाली तक तो भारतीय मन की उत्सवधर्मिता, पर्व-प्रेम चरम पर होगा। पहले उत्सव का मतलब था किसी ईष्ट से जुड़कर अपने जीवन में प्रसन्नता लाना। धीरे-धीरे बाजार का प्रवेश हो गया। जहां उत्सवों में रिश्ते मजबूत किए जाते थे, वहां अब वस्तुएं प्रवेश कर गईं। कुल-मिलाकर उत्सव का अर्थ हुआ वस्तुओं को प्राप्त करना, इसीलिए विज्ञापनों के लिए तो उत्सव मार्केट है। बहुत परिश्रम से कमाया धन न चाहते हुए भी आप ऐसे खर्च कर जाएंगे, जो आपको नहीं करना चाहिए। लक्ष्मीजी की घोषणा है कि धन की तीन गति है - दान, भोग और नाश। या तो सत्कार्य, सेवा में लगाइए वरना वह भोग में और भोग से नाश में जरूर जाएगा।

भारतीय संस्कृति के शास्त्रों ने जैसे कालचक्र बताया है, वैसा ही धनचक्र भी होता है। मतलब धन घूमकर आएगा, लेकिन स्वरूप बदला हुआ होगा। इसी चक्र को चक्कर भी कहा गया है। चक्र मतलब एक अवसर जो दोबारा आएगा। चक्कर मतलब उलझना, पूरी तरह से बर्बाद होना। समय चक्र पर फिर दिवाली आ रही है। पिछली बार भी आई थी, लेकिन अब वह लौटकर नहीं आ सकती। आएगी दिवाली ही, पर चूंकि चक्र है तो वह अपना रूप बदल लेगी। हमें हर बार चक्र पर यह सीखना है कि धन का भी अपना चक्र है। जो धन आज आपके पास है वह कल नहीं है, जबकि कल वह हमारे पास होना चाहिए, पर चक्र पर समझ कर करेंगे तो हम धन का सद्पयोग करेंगे, पर चक्कर में उलझकर करेंगे तो हम इसी धन को भोग और नाश में बर्बाद कर देंगे। तो आने वाला समय आकर्षण का समय है। लगातार वस्तुएं आपको खींचेंगी अपनी ओर। उलझ न जाएं चक्कर की तरह, उपयोग करें चक्र की तरह।

निज हित का साधन न बने सेवा
परोपकार जैसे शब्द इस दौर में अपना अर्थ खो चुके हैं। सभी को यही लगता है कि अब वही काम किया जाए, जिसमें अपना हित जरूर हो। सब अपने हित पर इतने केंद्रित हैं कि धीरे-धीरे दूसरे का अहित करने में भी नहीं चूकते। मनुष्य परोपकार व सेवा में भी अपने हित देखने लगता है। अपने हित साधने में बुराई नहीं है। सेवा निज हित का साधन बन जाए यह गलत है। श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण को यही समझा रहे हैं। ससि संपन्न सोह महि कैसी, उपकारी कै संपति जैसी। निसि तम घन खद्योत बिराजा, जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।अन्न से युक्त (लहलहाते खेतों से भरी) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसे उपकारी पुरुष की संपत्ति।

रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो। इन पंक्तियों में तुलसीदासजी कहते हैं कि उपकारी की फसल जानती है कि एक दिन मुझे कटना है और नए ढंग से दूसरों के काम आना है। उपकारी वृत्ति के लोग मानते हैं कि हमारे परिश्रम से हम यश, धन, प्रतिष्ठा जो भी अर्जित करें वह दूसरों के काम जरूर आए, क्योंकि हर फसल अपने भीतर यह जानती है कि एक दिन मुझे कटना है और वह कटने के लिए इसलिए तैयार है कि उसके जरिये दूसरों का हित होना है। इन्हीं पंक्तियों में तुलसीदासजी ने यह भी कहा है कि यदि रात को फसल देखें तो उसके आसपास कुछ जुगनू मंडराते हैं। जो पाखंड है, जो सेवा को प्रदर्शन से जोड़ते हैं, जिनके मन में अपने अहंकार की पूर्ति के लिए ही सेवा करने का भाव रहता है वो सब दंभी हैं। आज सेवा के क्षेत्र में ऐसे ही लोग आ गए हैं, जो चमकते हैं, दिखते हैं, अपना हित साधते हैं और हट जाते हैं। श्रीराम यहां हमें संदेश दे रहे हैं कि सेवा अवश्य कीजिए लेकिन उन जुगनुओं की तरह नहीं जो आए, चमके और चले गए।

अकेलेपन का कारण है अहंकार
कभी-कभी लोगों के बीच में रहने के बाद भी हमें अकेलापन लगने लगता है। घर-परिवार में किसी बात पर विवाद हो जाए, कामकाज की जगह सफलता न मिले तो लगता है हम अकेले पड़ गए। अकेलापन यदि अधिक समय टिक जाए तो आदमी स्वयं को असहाय महसूस करने लगता है। उसे लगता है दुनिया में कोई मेरे साथ नहीं है। फिर यह असहाय होने का भाव धीरे-धीरे अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाता है। जब कभी आपको ऐसा लगे कि अकेलापन लग रहा है तो सबसे पहले विचार करें कि इसमें आपका कितना योगदान है। क्योंकि सामान्यत: हम दूसरों को ही दोषी मानेंगे। अब थोड़ा सा इस पर विचार कीजिएगा कि ये सब बाहरी स्थितियां हैं। इनसे हटकर थोड़ा सा भीतर उतरिए।

आप पाएंगे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी अस्वीकृति की वृत्ति ने हमें अकेला कर दिया। बात-बात पर ना करना, दूसरों से असहमति बताना धीरे-धीरे हमारा स्वभाव बन जाता है। और यदि ऐसा लगता है कि आप इन दिनों अधिक ना कर रहे हैं तो फिर गहरे जाकर दो बातों पर विचार करें। या तो कोई बात गलत हो, अवैधानिक हो, अनुचित हो और हम अस्वीकृति का भाव रखें तब तो बात समझ में आती है लेकिन यदि अस्वीकृति, असहमति की स्थिति अहंकार के कारण है तो यह अहंकार एक न एक दिन हमें अकेलेपन में डूबो ही देगा। जब घर में या बाहर आप अपने आप को अकेला महसूस करें उस समय तुरंत स्वयं के भीतर झांककर देखिए कि कहीं इसके पीछे असहमति का भाव और उस असहमति के पीछे अहंकार तो नहीं? और यदि ऐसा है तो बीमारी की जड़ हमारे ही भीतर है। ऐसे में दूसरों को दोष देना बंद कर तुरंत स्वयं का ही उपचार करवाएं। अकेलापन भविष्य के लिए अच्छा नहीं है।

पूर्वजों के प्रति श्रद्धा है श्राद्ध
नई पीढ़ी के कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि श्राद्ध क्यों जरूरी है? उन्हें लगता है कि ब्राह्मणों ने दक्षिणा पाने के लिए श्राद्ध जैसा कर्मकांड बचाए रखा है, लेकिन भारत की संस्कृति में व्यर्थ कुछ भी नहीं है। श्राद्ध को केवल कर्मकांड की जगह भावनात्मक गतिविधि मानें तो सारे मतलब बदल जाएंगे। आज रिश्ते वैसे ही सिकुड़ते जा रहे हैं। मां-बाप होने के अर्थ बदल गए तो बूढ़े मां-बाप होने के अर्थ और बदल जाएंगे। फिर उनके जो मां-बाप रहे होंगे, जिन्हें दादा-दादी, नाना-नानी कहें उनकी स्मृति तो कोई रखना ही नहीं चाहेगा। नई पीढ़ी इस सर्वे पर ध्यान दें, जिसके अनुसार 100 में से 90 बच्चों को अपने दादा-दादी, परदादा-दादी का नाम मालूम नहीं है, जबकि उनकी स्मृति बहुत तीव्र है।

ऐसे समय श्राद्ध से जुड़ने का मतलब है अपने पूर्वजों को याद करना। यह सवाल सही है कि थाली में रखी हुई खीर-पूरी, ब्राह्मण को दी दक्षिणा पितृों तक कैसे पहुंचती होगी? विज्ञान की दृष्टि से यह सिर्फ ढकोसला हो सकता है, लेकिन भावनात्मक दृष्टि से सारा मामला स्मृतियों का है। जैसे किसी भी वृद्ध के साथ आप कुछ समय रहें तो आपको एक अनुशासन पालना पड़ता है। धीरे चलना पड़ता है, जोर से बोलना पड़ता है। उनके साथ जीवन गुजारें तो उनकी कई बातें अलग ढंग से लेनी पड़ती हैं। ऐसे ही गुजरे लोगों का श्राद्ध है। ये भोजन, ये पूजा सिर्फ स्मृतियों की सुंदर-सी ड्रिल है, इसलिए बच्चों को चाहिए कि वे भले ही श्राद्ध में अधिक समय न दें। बहुत बड़ा ब्राह्मण भोज न दें, लेकिन पूर्वजों को याद करने के लिए श्राद्ध पक्ष का सम्मान तो करें। इन पंद्रह दिनों में अपनेे तरीके से पितृों को याद कीजिए। उनके अधूरे कार्यों को पूरा करना एक तरीका हो सकता है। इसलिए श्राद्ध पक्ष को भावनात्मक रूप से एक पखवाड़े जिया जाए।

देवस्थान होते हैं ऊर्जा के केंद्र
प्रकृति ने हमारे चारों ओर ऊर्जा के कई केंद्र बना रखे हैं। कुछ लोगों को पुस्तक पढ़ने से, कुछ को खेलने से, कुछ को मित्रों के साथ उठने-बैठने से ऊर्जा प्राप्त होती है। ऊर्जा के सबसे बड़े केंद्र हैं देव स्थान। चाहे वो मंदिर हों, मस्जिद हो, गिरिजाघर हो या गुरुद्वारा। जब भी किसी देव स्थान पर जाएं, चार बातों पर ध्यान देना चाहिए। एक, यह अच्छी तरह महसूस करें कि देव स्थान की जगह दिव्य ही होगी, क्योंकि जिस धरती पर यह स्थान बनता है, धरती अपना प्रभाव छोड़ती ही है। दो, उसमें जिस किसी की भी प्रतिष्ठा है जो अवतार, जो व्यक्तित्व वहां विराजमान है, उसको स्थापित करते समय जो भी कर्मकांड किया गया वह भी अपना प्रभाव छोड़ता है ऊर्जा देने में। तीन, जो लोग वर्षों से वहां आ-जा रहे हैं उनकी पॉजीटिव एनर्जी वहां एकत्र हुई होगी।

आजकल इस बात की बड़ी चर्चा है कि एक अंतरराष्ट्रीय व्यावसायिक व्यक्ति ने भारत के एक मंदिर में जाना स्वीकार किया। हर भारतीय को इस बात पर गर्व। किंतु केवल मंदिर जाने से कुछ नहीं होना है। उस मंदिर या देव स्थान से आपको कुछ प्राप्त करना हो तो चौथी बात बड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है और वह है हमारी मनोभूमि। शक्ति का एक केंद्र हमारे भीतर भी है, जो बाहर की अच्छी शक्ति को भीतर खींचता है। यदि इस केंद्र को हमने निष्क्रिय कर रखा है तो आप कैसे भी दिव्य स्थान पर चले जाएं, आपको कुछ नहीं मिलेगा और जिनको भी मिला है उनकी चौथी तैयारी बड़ी महत्वपूर्ण थी। आपके भीतर एक केंद्र हैं, जो ऊर्जा को समेटता है। योग की दृष्टि में उसे नाभि कहते हैं। तो जब किसी देव स्थान पर जाएं तो वहां की समूची ऊर्जा अपनी नाभि में उतरे इसके लिए थोड़ी देर शांति से वहां बैठेंं, मानसिक रूप से जुड़ें। यदि हमारी लेने की तैयारी नहीं है तो दे रही प्रकृति कब तक हमारा साथ देगी?

सफलता के बाद संयम जरूरी
किष्किंधा कांड में श्रीराम सीताजी से विरह के क्षणों में लक्ष्मण से चर्चा कर रहे हैं। वे मनुष्य जीवन में होने वाली घटनाओं का प्रकृति के आधार पर चिंतन करते हैं। श्रीरामचरितमानस में कुछ पंक्तियां ऐसी आई हैं, जिन्हें लेकर लोग तुलसीदासजी पर नारी विरोधी होने का आरोप लगाते हैं। श्रीराम के मस्तिष्क में यह बात घूम रही है कि स्त्री के जीवन में कैसे-कैसे संकट आ सकते हैं, इसीलिए उदाहरण देते समय स्त्री की स्वतंत्रता, उसके परिणाम को उन्होंने खेत और वर्षा से जोड़ दिया। इसे तुलसीदासजी ने इस प्रकार लिखा है। महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएं बिगरहिं नारीं।। कृषी निरावहिं चतुर किसाना।

जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।’ ‘भारी वर्षा से खेतों की क्यारियां फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियां बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निराह रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर फेंक रहे हैं)। जैसे विद्वान लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं।प्रश्न उठता है कि स्वतंत्र होने पर क्या पुरुष नहीं बिगड़ते? जीवन कुछ नीतियों, सिद्धांतों, मूल्यों से चलता है। इन्हें जो भी तोड़ेगा उसका जीवन बिगड़ेगा ही, लेकिन जब पुरुष आचरण से बिगड़ता है तो उसके नुकसान अलग होंगे और जब स्त्री आचरण से गिरती है तो उसके परिणाम अलग होंगे। जैसे सीताजी ने स्वयं निर्णय लिया था कि उन्हें अकेला छोड़ा जाए और उनके असुरक्षित होते ही रावण को अवसर मिल गया, इसलिए स्त्री की स्वतंत्रता के जो खतरे हैं श्रीराम यहां उस पर टिप्पणी कर रहे हैं। वे कहते हैं समझदार लोगों को मोह, मद, और मान का त्याग कर देना चाहिए। अन्यथा जो उपलब्धियां उन्होंने अपनी योग्यता से प्राप्त की हैं ये उसे नुकसान पहुंचाएंगी सबक है कि हम सफल होने के बाद भी अनुशासन, संयम के दायरे में रहें और दुर्गुणों को अपने से दूर रखें।

गुणों की मार्केटिंग जरूरी
हर व्यक्ति के भीतर सेल्समैन होता है। कोई उसका उपयोग करता है और कोई जानते हुए भी नहीं करता। बाजार के इस युग मंें लोग खरीदने के लिए बेताब हैं या बिकने के लिए बेचैन। जिन्हें अपने गुणों का ठीक से प्रदर्शन करना नहीं आएगा वे उन गुणों के साथ घर में ही बैठे रह जाएंगे। जिन्हें प्रदर्शन करने में महारत हासिल है, जो मार्केटिंग करना जानते हैं, जिनका जनसंपर्क तगड़ा है वो तो दुर्गुण भी बेच देते हैं। इसलिए कम से कम जिनके पास गुण हैं, वे उन्हें समाज-राष्ट्र में जरूर प्रस्तुत करें, उपयोग में लाएं। अपने सद्‌गुणों की मार्केटिंग करना केवल इसलिए जरूरी नहीं है कि हम ही उसका लाभ उठाएं। इसलिए भी जरूरी है कि कहीं न कहीं दूसरों को भी उसका लाभ मिलेगा। उसका उपयोग परिवार में भी करें। कई बार हम कोई बात घर के सदस्यों तक पहुंचाना चाहते हैं और पहुंचा नहीं पाते।

रिश्तों में जो खटास आती है उसका एक कारण यही है। जीवनशैली में खुलापन आ गया और अपनेपन से खुलापन चला गया। एक अच्छा सेल्समैन सामने वाले को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि आप जो चाहते हैं वह आपको मिल जाए। हमें अपने परिवारों में सभी सदस्यों के बीच लगातार इस बात की जांच-पड़ताल करते रहना चाहिए कि कोई कुंठित तो नहीं है, कोई अपने आप को दबा हुआ तो महसूस नहीं कर रहा है। कोई कुछ कहना चाहता है और लोग सुन नहीं रहे ऐसी स्थिति तो नहीं बन गई। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके अधिकारों का दमन हो रहा हो। एक अच्छे सेल्समैन की यह खूबी है कि वह अपना प्रोडक्ट तो बेच ही देता है, लेकिन सामने वाले को लाभ भी पहुंचाता है, उसकी उपयोगिता की पूर्ति भी करता है। अपने इस गुण का उपयोग परिवार को जोड़े रखने और प्रसन्न रखने में जरूर कीजिए।

भीतरी शुद्धता लाती है स्वच्छता
स्वच्छता के प्रति आग्रह लगातार बढ़ते रहना चाहिए, क्योंकि इसका सीधा संबंध स्वास्थ्य से है। हमारे देश में पिछले कुछ समय से स्वच्छता एक अभियान बन गया है। साफ-सफाई से रहना अपने आप में भक्ति है, अनुशासन है, लेकिन यदि इसे केवल राष्ट्रीय और सामाजिक अनुशासन के रूप में लेंगे तो लोग सफाई भी दिखावे की तरह करेंगे। यही वजह है कि हम ऐसे लोगों को देखते हैं, जो सफाई के मामले में भी भेदभाव करते हैं। अपने घर को साफ रखेंगे, लेकिन घर के बाहर सड़क को गंदा कर देंगे। सफाई को न सिर्फ हमारे, बल्कि सबके स्वास्थ्य से जोड़कर देखना चाहिए।

यह प्रेरणा इसलिए दी जानी चाहिए कि हम बिना हाथ धोए बहुत सारे कीटाणु अपनी देह में आमंत्रित करते हैं। हाथों को धोकर भोजन करना और अन्य गतिविधि करने के बाद हाथ धोना बड़ा आवश्यक है। हाथों से कर्मकांड संपन्न होता है, इसलिए उसकी पवित्रता पर अत्यधिक ध्यान दिया गया और हमारे यहां हाथ मिलाने की जगह नमस्कार की पद्धति लाई गई। दिल साफ रखने के लिए हाथ साफ रखे जाएं, इसमें कोई बुराई नहीं है। जिस दिन स्वच्छता को हम परमात्मा से जोड़ देंगे, उस दिन हम भेदभाव भी समाप्त कर देंगे। गंदगी करने की वृत्ति कहीं न कहीं भीतर आपको दुर्गुणी बनाएगी, व्यसनी बनाएगी और गलत आचरण से जोड़ेगी। इसलिए हाथ साफ करते हुए मन, वचन और कर्म तीनों की शुद्धता पर भी प्रयास करते रहना चाहिए और जिसने इनकी शुद्धता पर काम किया वह फिर बाहरी स्वच्छता के प्रति कोई दिखावा नहीं करेगा। उसके लिए वह सहज जीवनशैली होगी, जिसकी आज बहुत आवश्यकता है।

दैनिक जीवन में माइक टेस्टिंग
सभी के जीवन में कुछ गतिविधियां ऐसी हो जाती हैं, जिनके होने का पता नहीं चलता। कभी-कभी तो समझ में ही नहीं आता कि ऐसा क्यों हो गया या ऐसा क्यों किया जा रहा है। ऐसा भी होता है कि अभी जो काम दिख रहा है, वह है तो छोटा-सा, लेकिन आगे महत्वपूर्ण हो जाएगा। हैलो - माइक टेस्टिंग..ऐसी ही आवाज सुनने की हर माइक को आदत पड़ गई है। श्रोता के रूप में हमने भी कभी न कभी सुनी होगी। इसके पीछे कोई शब्द, कोई संदेश नहीं है, लेकिन करना जरूरी है, क्योंकि भविष्य में सारी आवाज इसी टेस्टिंग पर टिकी है। जीवन में हमारी कई गतिविधियां माइक टेस्टिंग की तरह होती हैं। थोड़ा कुछ ऐसा करते रहिए जो बिल्कुल माइक टेस्टिंग की तरह हो, क्योंकि भविष्य में उसके परिणाम आने हैं। इस एक शब्द में कोई मैसेज नहीं है, कोई उपयोगिता नहीं है।

जैसे सुबह उठकर थोड़ी-सी देर, 10-15 मिनट योग करना। एक हल्की आवाज है योग में, लेकिन दिनभर की ध्वनि इससे नियंत्रित हो जाएगी। आप माइक टेस्टिंग को भोजन के संदर्भ में जरूर जोड़कर देखिएगा। हम दिनभर में कई बार कुछ ऐसा खाते-पीते रहते हैं, जिसका उस समय कोई परिणाम नहीं दिखता। कभी-कभी तो स्वाद भी नहीं रहता। बिना स्वाद के ही खाते-पीते रहते हैं। बिना भूख के भोजन कर जाते हैं। उस समय तो पता नहीं लगता, लेकिन बाद में इसके परिणाम आते हैं और जरूरी नहीं है कि केवल पाचन तंत्र तक ही इसका प्रभाव हो। पाचन तंत्र यदि संतुलित है तो शरीर पर चढ़ रही चर्बी तक वह थोड़ा-सा भोजन काम दिखाएगा, इसलिए भोजन को माइक टेस्टिंग की तरह लीजिए। जो भी लें, जितना भी लें, लेकिन सावधान रहिए। बिल्कुल इसी भाव से उसको ग्रहण करें कि भविष्य में इसके फायदे और नुकसान क्या हो सकते हैं।

बाहर की भाषा भीतर न लाएं
संसार में अनेक तरह की भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन यह सही है कि हर मनुष्य दो भाषाएं जानता है। एक वह जो बाहर बोल रहा है और दूसरी वह जो भीतर, स्वयं से बोली जाती है। जब हमको हमसे बात करनी हो तो वह भाषा बिल्कुल नहीं होगी, जिसमें हम बाहर दुनिया से बात कर रहे हैं। चूंकि भीतर की भाषा भावपूर्ण होती है, इसलिए इसमें प्रत्येक शब्द का एक अर्थ है। बाहर बहुत कुछ ऐसा भी बोला जाता है, जिसका अर्थ तो दूर, अनर्थ की भी तैयारी होने लगती है। कुछ लोग बाहर की भाषा को भीतर बुलाने की गलती करतेे हैं और यहीं से हमारे लिए चीजों के मतलब बदल जाते हैं। जब कभी ध्यान करने बैठेंगे, नहीं लग पाएगा। हमारे मन को वही भाषा पसंद है, जिससे उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति होती है और इसीलिए मन बाहर की भाषा को भीतर खींचता है। भीतर शब्द उतरे और आप शून्य से बाहर हुए, ध्यान से हट गए।

जो लोग अपने भीतर की भाषा को समझ जाएंगे वो उसे घर से जोड़ लेंगे। यूं समझ लीजिए कि जब बाहर से अपने घर में आएं तो वही भाषा बोलिए जो आपके भीतर है एकदम प्रेमपूर्ण, एकदम शांत। आज आदमी घर में भी वही भाषा बोलता है जो बाजार की है। लिहाजा कलह, अशांति होनी ही है। घर में बच्चे जिस भाषा को सुनना चाहते हैं वह अलग है। जीवनसाथी का संबंध जिस भाषा से है वह अलग है। माता पिता बच्चों से, बच्चे माता पिता से बात करें, वह भाषा बिल्कुल अलग है। 
इसमें सामने वाले के शब्दों के प्रति धैर्य, समझ होनी चाहिए, इसलिए अपने भीतर की और अपने घर की भाषा को एक बनाएं और बाहर की दुनिया की भाषा, जिसमें दो पैसे कमाना, नाम, प्रतिष्ठा कमाना है वह भाषा इससे थोड़ी अलग होगी। जो भाषा के क्षेत्र का विभाजन ठीक से कर लेंगे भाषा उन्हें वह दे जाएगी, जिसकी खोज में सभी लगे हुए हैं।

कलयुग में दिव्य जीवन संभव
भारत की संस्कृति में काल को सुंदर ढंग से बांटा गया है। चार युग की कल्पना अवतारों को ही व्यक्त करने के लिए नहीं थी। ऋषि-मुनियों ने चार युगों को मनुष्य की जीवनशैली से जोड़ा है। 

सतयुग का आचरण बहुत शुद्ध होता था। त्रेतायुग में श्रीराम ने अवतार लिया और उस समय आचरण में थोड़ी गिरावट आई। मंथरा जैसे लोग सक्रिय हुए। रावण जैसे योग्य लोगों ने गलत रास्ता पकड़ा। द्वापर आते-आते जीवन मूल्य लगभग ध्वस्त होने लगे। जितना विपरीत श्रीकृष्ण ने देखा उतना श्रीराम ने नहीं देखा। फिर कलयुग में सारी बातें ही उल्टी होने लगेंगी। बुराइयां आसानी से पनपेंगी, लेकिन अच्छे बने रहने की संभावना उतनी ही जीवित रहेगी। श्रीराम ने लक्ष्मण से चर्चा में 19वें और 20वें उदाहरण में कलयुग को धर्म से जोड़ा है। वे कहते हैं जब कलयुग आता है तो धर्म चला जाता है।

इसका मतलब नहीं कि सभी अधार्मिक हो जाएंगे बल्कि अच्छे बने रहने के लिए चुनौतियां अधिक लगेंगी। इसीलिए श्रीराम केे उदाहरण को तुलसीदासजी ने चौपाई में व्यक्त किया है, ‘देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।। ऊधर बरषइ तुन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियं उपज न कामा।चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं। जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होने पर भी घास तक नहीं उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता। बंजर भूमि पर बारिश गिरे तो फसल नहीं उगती। भक्त अपने हृदय को इतना शुद्ध और परिपक्व कर लेता है कि काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे दुर्गुण अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाते। हम सब कलयुग में रह रहे हैं और श्रीराम लक्ष्मणजी के माध्यम से हमें यह सिखा रहे हैं कि कलयुग में भी दिव्यता से रहा जा सकता है। बाहर यदि विपरीत स्थितियां हों, तो जीवन में चुनौतियों का आनंद बढ़ जाता है।

मनोबल बढ़ाएं, दुर्गुणों को मात दें
विजय की कामना हमारा सहज स्वभाव है। सभी जीतना चाहते हैं और जीतना भी चाहिए। आज भी लोग जितनी दौड़-भाग कर रहे हैं उसके पीछे सफलता की कामना है। सफलता विजय का ही एक रूप है। यदि हम विश्वविजेताओं के जीवन में भी झांकें तो पाएंगे कि सफल होने के बाद भी उन्हें पूर्ण सफलता मिल गई, ऐसा नहीं कह सकते। रावण जैसा विजेता संसार में दूसरा नहीं था। उसने चारों दिग्पाल जीत लिए थे। इंद्र, यम, वरुण और कुबेर सभी को उसने पराजित किया था। मनुष्य उसके नाम से कांपते थे और ऋषि-मुनियों को उसने इतना परेशान किया था कि उनको लगता था अब संभवत: धर्म नहीं बचेगा। रावण की सफलता इसलिए अधूरी मानी जाएगी कि उसने अपनी योग्यता का दुरुपयोग किया था। हर दशहरे पर हम रावण दहन करके मान लेते हैं कि बुराइयों का नाश हो गया।

संभवत: रावण जानता था कि लोग उसे मिटाने का प्रयास करेंगे और इसलिए जाते-जाते वह अपने जीवित रहने की व्यवस्था कर गया था, इसलिए आज भी जीवित है। राम ने रूप-रावण मार दिया, पर रावण अपने अरूप भाव को बचा गया। हम अपने बच्चों को समझाएं कि रावण केवल लंका का राजा नहीं था। उसने योजनाबद्ध ढंग से दुर्गुण फैलाए कि वे लोगों की रग-रग में बस गए। इसीलिए श्रीहनुमान चालीसा का जाप किया जाए, ताकि हनुमान चालीसा की पंक्तियां मंत्र बनकर मनुष्य का मनोबल बढ़ाएं और उस मनोबल से हम रावणरूपी दुर्गुणों का सामना करें। हम अपने परिवार, समाज और राष्ट्र में रावण रूपी बुराई को समाप्त करने के लिए जागरूक हो सकें।

अपनी ही भूलों से हारा रावण
रावण ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जिस छोटे भाई विभीषण को मैं लात मारकर भगा रहा हूं, मेरा यह चरण-प्रहार मेरी ही मौत का कारण बन जाएगा। अहंकार मनुष्य के सोचने की क्षमता को खा जाता है। जिस रावण ने अनेक युद्ध लड़े, योजनाबद्ध ढंग से शासन किया वो रावण शीर्ष पर पहुंचने पर अहंकार में डूब गया। कामी वह था ही। अहंकार ने उसके क्रोध को और हवा दी। धीरे-धीरे रावण के सारे निर्णय उसके पतन मार्ग के लिए मील के पत्थर साबित होने लगे। इधर, श्रीराम जानते थे कि सेना व साधनों के मामले में वे रावण से कमजोर हैं। श्रीराम के पास यदि कोई पंूजी थी तो उनके भाई लक्ष्मण और हनुमानजी। इन दो व्यक्तियों के साथ पूरा युद्ध लड़ना था। समझदार और समर्पित साथी हों तो वे मूर्ख और चापलूसों की बड़ी-भारी फौज से भी बड़े काम के साबित होंगे। श्रीराम समझ चुके थे कि रावण कोे मारने के लिए उसकी गलतियां ही काम आएंगी।

विभीषण को लात मारकर रावण ने ऐसी ही भूल की थी। जैसे ही विभीषण ने श्रीराम की शरणागति ली, रामजी ने राजतिलक कर दिया। इसके पीछे श्रीराम की दूरदर्शिता और आत्मविश्वास था। विभीषण को भरोसा हो गया कि श्रीराम जिसको देने पर उतरते हैं तो पूरा दे देते हैं। जो बात सगा भाई नहीं दे सका वह निर्वासित राजकुमार दे गया। बस, विभीषण ने तय कर लिया कि जैसे भी हो श्रीराम को जिताना है। रावण जैसे दुर्गुणों के लिए हमें भी अपने भीतर संगठन शक्ति बनानी पड़ेगी। हमें बहुत योजनाबद्ध ढंग से काम करना पड़ेगा, क्योंकि आज हमारे आस-पास के वातावरण से दुर्गुण कभी भी प्रवेश कर सकते हैं, इसलिए जिनके पास योजना होगी, संगठन शक्ति होगी, समर्पण का भाव होगा और दूसरों के लिए हितकारी दृष्टिकोण होगा वे लोग श्रीराम की तरह अपने भीतर के रावण को अवश्य मार सकेंगे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष

Wednesday, October 21, 2015

Krodha (क्रोध)

गुस्से पर काबू चाहिए तो कभी खुद के लिए भी निकालें समय
इस दुनिया में अगर आग से भी तेज कुछ है तो वो है क्रोध। गुस्सा हमें नहीं, हमारे व्यक्तित्व को जलाता है। एक क्षण के आवेग में आदमी वो कर जाता है, जिसके बाद सिर्फ पछतावे के अलावा कुछ नहीं बचता। क्रोध एक क्षण में हावी होता है और दूसरे पल ही खत्म भी हो जाता है लेकिन कभी-कभी क्षणभर का गुस्सा भी सारी जिंदगी पर भारी पड़ जाता है।

आज के दौर में युवाओं के व्यक्तित्व में जो सबसे बड़ी कमी देखी जा रही है वो है सहनशीलता की। कोई भी जरा सा अपमान, थोड़ी सी असफलता, क्षणिक विपरीत परिस्थितियों से ही अपना आपा खो देता है। कई तो जान तक ले या दे देते हैं।

आखिर ऐसा क्या किया जाए कि अपने व्यवहार और व्यक्तित्व में सहनशीलता और गंभीरता आ जाए। निजी जीवन में व्यक्ति कई मामलों में अपनेआप से ही लड़ता दिखाई देता है। हमारे भीतर ही एक युद्ध चल रहा है। कुछ बुराइयां हैं जिन्हें हम लाख दबाने की कोशिश करते हैं लेकिन समय-असमय वे भीतर ही भीतर अपना सिर उठा ही लेती हैं।

आइए इसके समाधान पर चलते हैं। दरअसल ये हमारे व्यक्तित्व की कमजोरी और समझ की कमी के कारण हो रहा है। आज हम दुनियाभर से संपर्क में हैं, सोशल नेटवर्किंग पर भी पूरा ध्यान दे रहे हैं। हर एक मित्र से हर पल पूरे संपर्क में हैं लेकिन एक खास व्यक्तित्व जिसके पास भी हमें थोड़ी देर बैठना चाहिए, उसी के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं। वो व्यक्तित्व है आप खुद। हम अपने ही पास रहना भूल जाते हैं। खुद के लिए थोड़ा भी समय नहीं है।

हमारे सारे पौराणिक पात्रों ने खुद के व्यक्तित्व पर खूब ध्यान दिया है। इसी कारण वे महान हुए। भगवान कृष्ण की दिनचर्या में चलते हैं। भगवान सुबह ब्रह्म मूहुर्त में जागते हैं। सुबह उठते ही वे सीधे बिस्तर से नहीं उतरते, बल्कि वहीं सुखासन लगाकर थोड़ी देर ध्यान करते। भगवान कहते हैं नींद से जागा इंसान अपने आप में नहीं होता, वो दूसरी ही दुनिया में होता है। नींद से जागते ही थोड़ी देर ध्यान लगाइए।

आप खुद में स्थिर होंगे। इससे व्यक्तित्व में गंभीरता आएगी, आप खुद के नियंत्रण में होंगे। इसी समय अपने पूरे दिन की प्लानिंग भी कर लें। आज क्या-क्या करना है। फिर स्नान के बाद भगवान संध्या पूजन करते हैं। ये परमशक्ति से जुडऩे का साधन है। ये आपको आत्म विश्वास भी देगा और आपके व्यक्तित्व में सौम्यता भी लाएगा। इससे आप अपने भीतर के क्रोध को नियंत्रित कर सकेंगे।

रिश्तों में एक पल की चूक भी दे सकती है भीषण परिणाम
परिवार में क्रोध का प्रवेश अहंकार के साथ होता है। पहले व्यक्ति में अहंकार आता है, पीछे से गुस्सा भी दबे कदमों से आता है। जब क्रोध और अहंकार परिवार में आते हैं तो परिणाम सिर्फ विघटन होता है। परिवारों के बिखरने का कारण कोई भी हो, उसके मूल में ये ही दो कारण होते हैं। हम जब भी घर में प्रवेश करते हैं तो अदृश्य रूप में कई तरह की बातें हमारे साथ प्रवेश करती हैं।

बाहरी बातों को अपने घर में ना लाएं। कई लोग अपने साथ दफ्तर घर तक ले आते हैं। कुछ लोग सिर्फ बाहरी तनाव तो कुछ व्यवसायिक सफलता का नशा लेकर घर में घुसते हैं। होना यह चाहिए कि हम सिर्फ खुद को लेकर ही आएं, बाहरी चीजें घर के बाहर ही छोड़ दें। परिवार में प्रेम आधार हो, ना कि संपत्ति। कई परिवार आज सिर्फ इस कारण जुड़े हुए हैं क्योंकि उनका आधार पुरखों की जायदाद है। भौतिक चीजें परिवार की डोर नहीं हो सकती। अगर साधनों से परिवार को बांधने की कोशिश करेंगे तो फिर सदस्यों में क्रोध को फूटने से कोई रोक नहीं सकता।

क्रोध का एक क्षण परिवार को बिखेर सकता है। परिवार में रिश्तों की मर्यादा और सम्मान जरूरी है। एक पल भी इसे खोया तो परिणाम भीषण हो सकता है। हंसी-मजाक में भी रिश्तों की मर्यादा ना लांघें। महाभारत का युद्ध एक क्षण के लिए भूली गई रिश्तों की मर्यादा का ही परिणाम था। इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी ने देवर दुर्योधन को पानी में गिर जाने पर मजाक-मजाक में अंधे का बेटा अंधा कहा था। रिश्ते की मर्यादा टूटी। दुर्योधन क्रोध से आगबगुला हुआ। बदला लेने पर ऊतारू हुआ। परिणाम द्रौपदी का चीरहरण, पांडवों को वनवास, कुरूक्षेत्र में महाभारत का युद्ध। करोड़ों जानों की बलि।

परिवार में रहें तो रिश्तों का सम्मान करें। अहंकार, क्रोध, ईष्र्या इन बातों को घर में प्रवेश ही ना दें। तभी परिवार सुखी और समृद्ध होगा।

हर वक्त क्रोध, दबाव भी बिगाड़ सकता है परिणाम को..
कारपोरेट युग का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि आदमी सिर्फ रिजल्ट ओरिएंटेड हो गया है। परिणाम अपेक्षा के अनुरूप ना मिले, काम वक्त पर नहीं हुआ, बस यहीं से क्रोध हमारे काम में प्रवेश कर जाता है। हमेशा याद रहे बेहतर परिणाम बिना दबाव के किए काम में आता है। काम में दबाव हो लेकिन हमेशा याद रखें कि दबाव प्रेम का हो, उस दबाव में क्रोध शामिल ना रहे।

आजकल देखा जा रहा है कि दफ्तरों में काम का इतना दबाव बना दिया जाता है कि कर्मचारी नैराश्य में डूबने लगते हैं। हमारी जीवनचर्या में होना यह चाहिए कि हम अपने कार्य स्थल पर सबसे ज्यादा ठंडे दिमाग से काम करें। कारण यहां हमें उन लोगों का नेतृत्व करना होता है जिनसे हमारा सीधा कोई रिश्ता नहीं होता। परिवार में अनुशासन की आवश्यकता होती है। लेकिन लोग उल्टा जीवन जीते हैं। परिवार में अत्यधिक नरम रूख रखते हैं। परिणाम, परिवार का अनुशासन टूटने लगता है। और ऑफिस में पहुंचते ही बरसना शुरू कर देते हैं। कई बार तो हम बिना सोचे समझे किसी पर भी गुस्सा हो जाते हैं।

परिणाम कर्मचारी हमारे खिलाफ हो जाते हैं। कई लोग सिर्फ खुद पर ही भरोसा करते हैं। किसी और को नहीं सुनते। कोई हमें सलाह दे, हमें पसंद नहीं। याद रखें, छोटा कर्मचारी भी कोई बड़ी हितकारी सलाह दे सकता है। रावण को देखिए, वो किसी की नहीं सुनता था। सिर्फ खुद के निर्णय ही उसके लिए सर्वोपरि होते थे। विभीषण, माल्यवंत, शुक जैसे कितनों ने ही उसे समझाया कि राम से संधि कर लें लेकिन रावण को जो भी सलाह देता उसे वह निकाल देता या फिर जान से मार देता।

कभी अपने हितैषियों की नहीं सुनी। हम सिर्फ अहंकार में आकर क्रोध के वश में ना रहें। प्रेम से काम लें, सबकी सुनें, अच्छी सलाह को तवज्जों दें, तो फिर दफ्तर भी घर जैसा ही होगा।

जानिए, एक क्रोध आपको कितनी तरह की हानि पहुंचाता है
चलिए आज समझते हैं कि क्रोध आपकी कितनी निजी हानि करता है। कई लोगों का स्वभाव होता है बात बात पर उत्तेजित हो जाना। मर्यादाएं भूल जाना। किसी पर भी फूट पडऩा। ऐसे लोग अक्सर सिर्फ नुकसान ही उठाते हैं। खुद के स्वास्थ्य का भी, संबंधों का भी और छवि का भी। हमेशा ध्यान रखें अपनी छवि का।

लोग अक्सर अपनी छवि को लेकर लापरवाह होते हैं। हम जब भी परिवार में, समाज में होते हैं तो भूल जाते हैं कि हमारी इमेज क्या है और हम कैसा व्यवहार कर रहे हैं। निजी जीवन में तो और भी ज्यादा असावधान होते हैं। अच्छे-अच्छे लोगों का निजी जीवन संधाड़ मार रहा है।

अगर आप बार-बार गुस्सा करते हैं तो सबसे पहले जो चीज खोते हैं वह है आपके संबंध। क्रोध की आग सबसे पहले संबंधों को जलाती है। पुश्तों से चले आ रहे संबंध भी क्षणिक क्रोध की बलि चढ़ते देखे गए हैं। दूसरी चीज हमारे अपनों की हमारे प्रति निष्ठा। रिश्तों में दरार आए तो निष्ठा सबसे पहले दरकती है। फिर जाता है हमारा सम्मान।

अगर आप बार बार किसी पर क्रोध करते हैं तो आप उसकी नजर में अपना सम्मान भी गंवाते जा रहे हैं। इसके बाद बारी आती है अपनी विश्वसनीयता की। हम पर से लोगों का विश्वास उठता जाता है। फिर स्वभाव और स्वास्थ्य। कहने को लोग हमारे साथ दिखते हैं, लेकिन वास्तव में वे होते नहीं है।

समाधान में चलते हैं। हमेशा चेहरे पर मुस्कुराहट रखें। कोई भी बात हो, गहराई से उस पर सोचिए सिर्फ क्षणिक आवेग में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त ना करें। सही समय का इंतजार करें। कृष्ण से सीखिए अपने स्वभाव में कैसे रहें। उन्होंने कभी भी क्षणिक आवेग में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। हमेशा परिस्थिति को गंभीरता से देखते थे। शिशुपाल अपमान करता रहा लेकिन वे सही वक्त का इंतजार करते रहे। वक्त आने पर ही उन्होंने शिशुपाल को मारा।

अपनी दिनचर्या में मेडिटेशन को और चेहरे पर मुस्कुराहट को स्थान दें। ये दोनों चीजें आपके व्यक्तित्व में बड़ा परिवर्तन ला सकती हैं। कभी भी किसी भी स्थिति से निपटने के लिए आपको तैयार रखेगी।

परिवार के फैसलों में निजी हित को दूर रखें, बिखराव नहीं होगा
अक्सर लोग पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में एक बड़ी चूक कर जाते हैं। कुछ निर्णय ऐसे होते हैं जो परिवार के हित में होते हैं लेकिन कभी-कभी वे ही निर्णय निजी तौर पर हमें हानिकारक लगते हैं। बस यहीं से पारिवारिक जीवन में क्रोध शुरू हो जाता है। परिवार की जिम्मेदारियों पर निजी भावनाएं हावी हो जाती है और व्यक्ति कभी-कभी अपनों से ही विद्रोह कर बैठता है।

ऐसे समय में परिवार के मुखिया या बड़ों को चाहिए कि वे परिस्थितियों को बिगडऩे से रोकें। निर्णयों में परिवार को पहले देखेंए निजी हितों को बाद में। अपने से छोटों को समझाएं कि परिवार का कोई भी निर्णय निजी नहीं होता। जब तक हम परिवार के निर्णयों में निजी हित खोजते रहेंगे, वे फैसले हमें कचोटते ही रहेंगे।

एक कटु फैसला भी परिवार के टूटने का कारण बन सकता है। परिवार कोई एक आदमी नहीं चला सकता। परिवार पीढिय़ों से मिलकर बनता है, अक्सर यही होता है कि दो पीढिय़ों की विचारधारा कभी एक जैसी नहीं होती। बड़े जो फैसला करते हैं, उसके अनुशासन को छोटे अपने विररीत मानते हैं। बस यहीं से टकराव शुरू होता है। परिवार को संभालना भी हमारी जिम्मेदारी है।

अगर घर के बड़े स्थिति नहीं संभाल पाएं तो फिर दूसरी पीढ़ी के नेतृत्वकर्ताओं को अपने बड़ों के समर्थन में आना चाहिए। तभी परिवार बिखराव से बच सकता है। रामायण के प्रसंग में चलते हैं। राम को वनवास हो गया। सारे बड़े शोकमग्र हो गए। परिवार में भारी मतभेद हो गया। दशरथ अलग पड़ गए, कैकयी को भलाबुरा कहा जाने लगा। कौशल्या राम के साथ वन में जाने को तैयार हो गईं।

लक्ष्मण मरने-मारने पर ऊतारू हो गए। ये एक ऐसी घड़ी थी, जब पूरा रघुवंश बिखर सकता था। परिवार में फूट हो जाती। लेकिन ऐसी घड़ी में राम आगे आए। परिस्थितियों को अपने हाथों में लिया। लक्ष्मण को समझाया, सभी बड़ों को दिलासा दिया। वनवास के निर्णय पर खुद को शोक नहीं है, भरोसा दिलाया। हमेशा परिवार में लिए गए निर्णय में परिवार को हित पहले देखें। कोशिश करें, परिवार ना बिखरे। क्योंकि परिवार से बढ़कर कोई दूसरी सम्पदा नहीं होती।

व्यवसाय और परिवार दो जीवन हैं, इन्हें अलग-अलग ही जीएं
आप काम कोई भी करते हों, लेकिन उसे घर से बाहर ही रखें। जो लोग काम का तनाव घर ले आते हैं, वे अपने रिश्तों को बाजार में आने का निमंत्रण देते हैं। कई लोगों के साथ अक्सर एक बात होती है। दफ्तर के काम में जो गड़बड़ी होती है, उसका गुस्सा घरवाले झेलते हैं, घरेलू रिश्तों के तनाव में ऑफिस के सहयोगी दबाए जाते हैं। हम हमेशा दोहरी जिंदगी जीते हैं। घर में कामकाजी और कामकाज में घरेलू।

क्रोध को समाप्त करना है तो अपने दोनों जीवनों को अलग कर लें। ये मान लें आपकी दो जिंदगियां हैं। एक दफ्तर में, दूसरी घर। और दोनों ही आपको अलग-अलग जीनी है। एक साथ जीने का प्रयास करेंगे तो दोनों ही का रस और आनंद खराब करेंगे। कई लोग इसे एक नामुमकिन सा काम मानते हैं लेकिन जब आप इसका अभ्यास करेंगे तो यह अपने आप आपके स्वभाव में उतर जाएगा।

हम अक्सर असफलताओं से डरने लगते हैं। नतीजा हमारी सोच ज्यादा-से-ज्यादा काम करने और दूसरों से भी ज्यादा काम कराने की हो जाती है। थोड़ा भी लाभ कम हुआ तो कर्मचारियों की शामत आ जाती है। हमारे हर काम में क्रोध झलकने लगता है। हम अवसाद जैसी स्थिति में आ जाते हैं।

आइए, महाभारत के इंद्रप्रस्थ चलते हैं। सम्राट युधिष्ठिर के राज्य में। देखिए कितनी सुंदर व्यवस्था है। पांच भाई, राज्य चला रहे हैं। पांचों एक पत्नी से बंधे हैं। लेकिन ना राज्य के लिए विवाद है, ना ही स्त्री के लिए।

दरअसल धर्म के ज्ञाता युधिष्ठिर ने अपने राजकीय जीवन और पारिवारिक जीवन दोनों की व्यवस्था ऐसी की है कि इनका आपस में टकराव नहीं होता। राज्य और परिवार दोनों ही मामलों में कोई भी भाई असंतुष्ट नहीं है। युधिष्ठिर ने राज्य के कामों की देखभाल भी भाइयों को सौंप रखी थी। लेकिन वहां राज्य की बातें दरबार में ही होती थीं। जब पांचों भाई परिवार के रूप में साथ बैठते तो फिर धर्म, ज्ञान जैसे विषयों पर चर्चा होती। राजकाज की बातों को वहां प्रवेश नहीं दिया जाता।

काम के साथ क्रोध का हो संगम तो विनाश तय समझिए
परिवार से चार चीजें हमेशा दूर रखें, काम, क्रोध, मद और लोभ। ये चार विकार जहां भी एकजुट हुए हैं, वहां विनाश किया है। इन चारों में से एक दो भी अगर परिवार में प्रवेश पा जाएं, तो दिलों के रिश्ते टूटकर बिखरने में देर नहीं लगती। परिवार वो ही सुखी है जहां ज्ञान, धर्म, कर्म और गुणों का आवास हो। जब भी परिवार में बैठेंं, हमेशा याद रखें, चर्चा इन्हीं बिंदुओं पर हो।

जब तक परिवार में ज्ञान, धर्म, गुण और कर्म का आधार होगा, यह अविचलित खड़ा रहेगा और कितनी भी विपरित परिस्थितियों से भी भिड़ जाएगा। लेकिन चार अवगुणों में से एक दो ने भी प्रवेश कर लिया तो फिर सब खत्म होने में देर नहीं लगेगी।

परिवार में काम का प्रवेश पहले होता है, दाम्पत्य शुरू होते ही काम का संचार रिश्तों में होता है। अगर यह सिर पर हावी हो जाए तो क्रोध के आने में देर नहीं होगी। जिन पति-पत्नियों का रिश्ता काम पर ही टिका हो, उनका दाम्पत्य कभी शांत और आनंददायक नहीं होगा। काम का सबसे बड़ा मित्र है क्रोध। जैसे ही काम असंतोष की दहलीज पर आता है, तो क्रोध में बदल जाता है। पति, पत्नी की बात नहीं मानें तो पत्नी गुस्सा करती है, कामातुर पति पत्नी की हर मांग मानने पर मजबूर हो जाता है।

रामायण के अयोध्या कांड के इस घटनाक्रम को देखें। काम और क्रोध ने मिलकर कैसे रघुवंश को बिखराव की चौखट पर लाकर पटक दिया। दशरथ ने राम को युवराज घोषित किया। कैकयी क्रोधित हुई। दशरथ की सबसे प्रिय रानी थी कैकयी, सबसे सुंदर। राजा उसे किसी परिस्थिति में दु:खी नहीं देख सकते थे। कोपभवन में उसे सिंगार विहीन देखा तो दशरथ भीतर से कांप गए। क्योंकि वे कैकयी के प्रति कामासक्त थे। कैकयी के साथ क्रोध रघुवंश में प्रवेश कर गया, दशरथ के साथ काम का आगमन हुआ। फिर जो हुआ वो सब जानते हैं। राम 14 वर्ष के लिए वनवास पर गए।

परिवार में क्रोध और काम इन दोनों को प्रवेश ना दें। परमात्मा के हाथ में परिवार सौंप दें। अपनी मर्यादाएं स्वयं तय करें। तभी परिवार सुरक्षित रहेगा।

क्या करें अगर गुस्सा आपका स्वभाव बनता जा रहा है?
अक्सर बाहरी दुनिया में किया गया अभिनय जैसा व्यवहार हमारे स्वभाव में उतरने लगता है। लोग दुनिया के सामने कुछ और होते हैं और अपने भीतर कुछ और। कई बार बाहरी दुनिया का तनाव हमारे भीतर तक उतर आता है। हमारा मूल स्वभाव कहीं खो जाता है। हम अपनेआप में नहीं रहते।

कई लोग गुस्से का अभिनय करते हैं, दफ्रतर में, मित्रों में या सहयोगियोयं में लेकिन वो गुस्सा कब खुद उनका स्वभाव बन जाता है वे समझ नहीं पाते। समय गुजरने के साथ ही व्यवहार बदलने लगता है। हमेशा प्रयास करें कि दुनियादारी की बातों में आपका अपना स्वभाव कहीं छूट ना जाए। आप जैसे हैं, अपनेआप को वैसा ही कैसे रखें, इस बात को समझने के लिए थोड़ा ध्यान में उतरना होगा।

हम कभी-कभी क्रोध करते हैं लेकिन क्रोध हमारा मूल स्वभाव नहीं है। क्या किया जाए कि बाहरी अभिनय हमारे भीतरी स्वभाव पर हावी ना हो। क्रोध पहले व्यवहार में आता है फिर हमारा स्वभाव बन जाता है। क्रोध स्वभाव में आया तो सबसे पहले वो हमारी सोच को खत्म करता है, फिर संवेदनाओं को मारता है। संवेदनाहीन मानव पशुवत हो जाता है।

आइए, इस क्रोध को अपने स्वभाव में उतरने से कैसे रोका जाए, इस पर चर्चा करते हैं। बाहरी दुनिया को बाहर ही रहने दें। बाहरी दुनिया और भीतरी संसार के बीच थोड़ा अंतर होना चाहिए। ये अंतर लाने का सबसे सरल तरीका है, ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन रोज करें। अपने परिवार के साथ समय बिताएं। थोड़ा समय खुद के लिए निकालें। एकांत में बैठें। किसी मंदिर या प्राकृतिक स्थान के निकट बैठें।

श्रीकृष्ण को देखिए, संसार भर के काम किए लेकिन खुद के लिए समय निकालते हैं। गोकुल या वृंदावन में जब रहे, थोड़ा समय खुद को जरूर देते। अकेले वन में या यमुना किनारे बैठकर बांसुरी बजाते हैं। संगीत हमारी संवेदनाओं को सिंचता है। ध्यान उन्हें दृढ़ बनाता है। एकांत उन्हें नवजीवन देता है। हम जब खुद को समय देंगे, खुद पर ध्यान देंगे तो फिर संसार का बाहरी आवरण, बाहर ही रहेगा। आप भीतर से वो ही रहेंगे जो आप हैं।

अगर गुस्सा हावी हो तो उसे कैसे बनाया जाए अपने लिए प्रेरणा?
हमारे मन का कोई भी भाव हो, उसके कई रूप और कई उपयोग हो सकते हैं। कोशिश करें अपने मन के भावों को दबाने के बजाय उनका रूख मोड़ दिया जाए। थोड़े से प्रयास से हम अपने जीवन की दिशा बदल सकते हैं। हमारे भीतर जो भाव सबसे ज्यादा आते हैं, उनमें क्रोध अव्वल है। अपने क्रोध को पालना सीखिए, उसे दिशा दीजिए, फिर आपके काम में धार भी होगी और काम में सफलता भी ज्यादा मिलेगी।

जो लोग छोटी-छोटी बातों पर उबल पड़ते हैं, वे सिर्फ खुद का नुकसान करते हैं। क्रोध को उसी समय प्रकट ना करें, उसे संभालें। जब क्रोध आए तो उसे दबाए नहीं, उसका रूख मोड़ दें। आप अपने भीतर किसी भी भाव को दबाएं, वो थोड़े दिन में कुंठा का रूप ले लेगा। कुंठा हमें भीतर से काटती है, कचोटती है लेकिन आगे नहीं बढऩे देती है।

क्रोध को कैसे पाला जाए, कैसे उसका रूख मोड़ा जाए ये भगवान कृष्ण सिखाते हैं। भगवान ने अपने क्रोध को किस तरह अपनी प्रेरणा बनाया। प्रसंग है जब भगवान कृष्ण ने अपने मामा कंस को मार दिया, अपने नाना को फिर राजपाठ सौंप दिया। जरासंघ कंस का ससुर था, वो कृष्ण से कंस की मौत का बदला लेना चाहता था। उसने मथुरा पर हमला किया। बलराम सहित भगवान के अन्य सहयोगी काफी क्रोधित हो गए और उन्होंने जरासंघ से युद्ध करने का निर्णय लिया।

भगवान कृष्ण ने अपने क्रोध को संभाला, उन्होंने बलराम और मथुरावासियों को समझाया कि जरासंघ को तो कभी भी मारा जा सकता है, मैं उसे मार भी दूंगा लेकिन अभी जरूरी है सबकी सुरक्षा। उन्होंने अपने क्रोध को रचनात्मक मोड़ दे दिया और मथुरा को छोड़ गए दूसरी सुंदर नगरी बसा ली, जिसका नाम था द्वारिका। कृष्ण के निर्णय से दुखी सारे मथुरावासियों को बाद में समझ आया कि अगर युद्ध किया जाता तो हजारों लोग मारे जाते। बहुत खून बहता और जरासंघ अगर मारा भी जाता तो बाद में कोई और राक्षस मथुरा पर आक्रमण कर देता। हिंसा नहीं रुकती।

जब भी आप पर किसी परिस्थिति में क्रोध हावी हो तो उस परिस्थिति के विकल्प पर विचार करें। तत्काल क्रोध प्रकट करने या क्रोध के अधीन होकर कोई कदम उठाने से दूरगामी परिणाम ऐसे हो सकते हैं जिस पर हमें पछताना पड़े।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष

Tuesday, October 6, 2015

श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part(2)

खुद से परिचित होने का ग्रंथ है भागवत
आज से हम एक ऐसे ग्रंथ में प्रवेश कर रहे हैं जो वैष्णवों का परम धन है, पुराणों का तिलक है, ज्ञानियों का चिंतन, संतों का मनन, भक्तों का वंदन तथा भारत की धड़कन है। किसी का सौभाग्य सर्वोच्च शिखर पर होता है तब उसे श्रीमद्भागवत पुराण कहना, सुनना और पढऩा मिलता है।

भागवत महापुराण वह शास्त्र हैं जिसमें बीते कल की स्मृति, आज का बोध और भविष्य की योजना है। तो आज भागवत में प्रवेश करने से पहले थोड़ा भीतर उतरने की तैयारी करिए। यह स्वयं मूल से परिचित कराने का ग्रंथ है। भगवान ने भागवत की पंक्ति-पंक्ति में ऐसा रस भरा है कि वे स्वयं लिखते हैं-

पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरवो रसिका भुवि भावुका:।

हमारे भीतर जो रहस्य भरा हुआ है उसको उजागर करने के लिए भागवत एक अध्यात्म दीप है जैसे हम भोजन करते हैं तो हमको संतुष्टि मिलती है उसी प्रकार भागवत मन का भोजन है। जब मन को ऐसा शुद्ध भोजन मिलेगा तो मन संतुष्ट होगा, पुष्ट होगा और तृप्त होगा और जिसका मन तृप्त है उसके जीवन में शांति है। भागवत में प्रवेश करें तो कुछ बातें स्पष्ट करते चलें। हम जिस रूप में इस सद्साहित्य को पढ़ते चलेंगे, हमारे तीन आधार हैं। संत और महात्माओं का यह कहना है और शोध से ज्ञात भी हुआ है। पहली बात है भगवान ने अपना स्वरूप भागवत में रखा तो भागवत भगवान का स्वरूप है। दूसरी बात इसमें ग्रंथों का सार है और तीसरी बात हमारे जीवन का व्यवहार है। ये तीन बातें भागवत में हैं।

भगवान बसे हैं भागवत में
भागवत में 12 स्कंध हैं (12 चेप्टर)। उन 12 स्कंधों में 335 छोटे-छोटे अध्याय हैं जिन्हें सेक्शन कह लें और 18 हजार श्लोक हैं। जो 12 स्कंध हैं उसमें भगवान का स्वरूप बताया है। पहला और दूसरा अध्याय भगवान के चरण , तीसरा और चौथा स्कंध भगवान की जंघाएं, पांचवां स्कंध भगवान की नाभि , छठा वक्षस्थल, सात और आठ बाहू , नौ कंठ, दस मुख, ग्यारह में ललाट और बारह में मूर्धा है।

भगवान का वाड्.मय स्वरूप भागवत के स्कंधों में बंटा हुआ है तो भागवत में बसे हुए हैं भगवान। भागवत का एक और अर्थ है भाग मत। बहुत सी ऐसी स्थिति आती है हमारे जीवन में, या तो आदमी बाहर भागता है या भीतर भागने लगता है। भाग मत भागवत कहती है रुकिए, देखिए और फिर चलिए। एक और अर्थ है भागवत का। चार शब्द है भ, ग, व, त। जिनका अर्थ है भ से भक्ति, ग से ज्ञान, व से वैराग्य और त से त्याग।

दूसरी बात इसमें ग्रंथों का सार है। हमारे यहां चार प्रमुख ग्रंथ हैं और चारों ग्रंथ भागवत में समाविष्ट हैं। इतनी सुंदर रचना वेदव्यासजी ने की है। महाभारत हमें रहना सिखाती है आर्ट ऑफ लिविंग जिसे कहते हैं। कैसे रहें, जीवन की क्या परंपराएं हैं, क्या आचारसंहिता, क्या सूत्र हैं, संबंधों का निर्वहन कैसे किया जाता है यह सब महाभारत से सीखा जा सकता है।

जीवन का दूसरा साहित्य है गीता। गीता हमें सिखाती है करना कैसे है आर्ट ऑफ डुईंग। भागवत महापुराण के दो से आठ स्कंध तक हम गीता में करना कैसे ये देखेंगे। रामायण हमें जीना सिखाती है भागवत में नवें स्कंध में श्रीरामकथा आई है। रामायण हमें सिखाएगी आर्ट ऑफ लिविंग। अंतिम चरण में भागवत कहती है मरना कैसे है। यह इस ग्रंथ का मूल विचार है, 'आर्ट ऑफ डाइंग। भागवत के दसवें, ग्यारहवें और बारहवें स्कंध में भगवान की लीला आएगी। यह चार ग्रंथ इस भागवत में समाए हुए हैं और इसी रूप में चर्चा करते चलेंगे तो आप इसे स्मरण में रखिए। ..

गृहस्थी का ग्रंथ है भागवत
हम सब गृहस्थ लोग हैं, दाम्पत्य में रहते हैं। भागवत की घोषणा है कि मैं दाम्पत्य में आसानी से प्रवेश कर जाती हूं। हमारे दाम्पत्य के सात सूत्र हैं- संयम, संतुष्टि, संतान, संवेदनशीलता, संकल्प, सक्षम और समर्पण। इन सात सूत्रों को हम प्रतिदिन भागवत में स्पष्ट करते चलेंगे।हमने भागवत में भगवान का स्वरूप देख लिया। ग्रंथों का सार देख लिया और जीवन का व्यवहार भी देख लिया।

लोगों के मन में प्रश्न उठता है भागवत किसने कही, किसने सुनी? वेदव्यासजी ने ऐसा ग्रंथ रचा कि जिसमें बहुत सारे स्तर पर बहुत सारी कथाएं चलती हैं। इस कारण भागवत पढऩे वाले भ्रम में आ जाते हैं कि अभी तो ये बोल रहे थे, अभी तो इनकी कथा चल रही थी, अचानक दूसरी कथा आ जाती है तो लोग भ्रम में पड़ जाते हैं। भ्रम न पालें, सबसे पहले हम ये जान लें कि भागवत लिखने की नौबत क्यों आई? वैसे तो इसका उत्तर भागवत के प्रथम स्कंध के चौथे अध्याय में आता है पर मैं आपको यहीं बता रहा हूं। भागवत का आरंभ उसके महात्म्य से होता है। जिसे सामान्य भाषा में संदेश(प्रोमो) कहते हैं। क्या बात हुई जो भागवत लिखनी पड़ी? महर्षि वेदव्यास जिनका नाम कृष्णद्वेपायन है। ब्रह्माजी ने जब वेद रचे तो उनको सौंप दिए। व्यासजी ने वेदों का संपादन किया।

चार वेद उन्होंने बनाए ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्वेद और सामवेद। फिर व्यासजी ने 18 पुराण लिखे। फिर व्यासजी ने महाभारत की रचना की, जिसको कहते हैं पंचम वेद। ऐसी अद्भुत रचना की कि महाभारत को पढऩे के बाद सारे संसार ने ये तय कर लिया कि जो कुछ भी इस महाभारत में है वो सारा संसार में है और जो इसमें नहीं है वह संसार में नहीं है।

भागवत के नायक हैं श्रीकृष्ण
महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखने के बाद व्यासजी एक दिन बैठे तो उनके भीतर उदासी जाग गई। उसी समय नारदजी आए। उन्होंने पूछा व्यासजी क्या बात है इतना बड़ा सृजन करने के बाद आपके चेहरे पर उदासी क्यों है?सृजन के बाद तो आनंद होना चाहिए। व्यासजी ने नारदजी से बोला मेरा भी यही प्रश्न है आपसे।

मैंने महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखा, मैं थका हुआ क्यों हूं, उदास क्यों हूं। नारदजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया और वह हमारे बड़ा काम का है। नारदजी ने कहा व्यासजी ये तो होना ही था क्योंकि आपने जो रचना की है उसके नायक पांडव हैं और खलनायक कौरव हैं।आपकी रचना के केंद्र में मनुष्य है, विवाद है, षडयंत्र हैं।

आप कोई ऐसा साहित्य रचिए जिसके केंद्र में भगवान हों। तब आपको शांति मिलेगी। हमें समझने की बात ये है कि जीवन की जिस भी गतिविधि के केंद्र में भगवान नहीं होगा, वहां अशांति होगी। इसीलिए भगवान को केंद्र में रखिए और सारे काम करिए। बात व्यासजी को समझ में आ गई। तब उन्होंने भागवत की रचना की जिसके नायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। तब जाकर उनको शांति मिली।
इसीलिए भागवत का पाठ किया जाता है जिसे सुनने के बाद मनुष्य को शांति मिलती है। लोग कहते हैं महाभारत घर में नहीं रखना चाहिए।महाभारत नहीं रखते। क्योंकि उपद्रव होता है। लोग रामायण रखते हैं घर में, लेकिन रामायण जैसा आचरण नहीं करते। अगर आप महाभारत पढऩा चाहें तो अवश्य पढि़ए, घर में रखिए यह वही ग्रंथ है जो व्यासजी ने लिखा है। व्यासजी ने बड़ी सुंदर रचना भागवत के रूप में की है। केंद्र में भगवान को रखा और केंद्र में भगवान को रखने के बाद महात्म्य का आरंभ कर रहे हैं। केन्द्र में भगवान हों और व्यक्तित्व में प्रसन्नता हो इसलिए हमेशा मुस्कुराइए....

आनंद चाहिए तो सच्चिदानंद का ध्यान करें
भागवत माहात्म्य में श्लोक वर्णित है- सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।

अर्थात जो जगत की उत्पत्ति और विनाश के लिए है तथा जो तीनों प्रकार के ताप के नाशकर्ता हैं ऐसे सच्चिदानंद स्वरूप भगवान कृष्ण को हम सब वंदन करते हैं। सत यानी सत्य, परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है। चित्त, जो स्वयं प्रकाश है। आनंद-आत्मबोध। शास्त्रों में परमात्मा के तीन स्वरूप कहे गए हैं सत, चित और आनंद। सत प्रकट रूप से सर्वत्र है। जड़ वस्तुओं में सत तथा चित है किंतु आनंद नहीं।

जीव में सत और चित प्रकटता है पर आनंद अप्रकट रहता है अर्थात अप्रकट रूप से विराजमान अवश्य है। वह अव्यक्त रूप से है। वैसे आनंद अपने अन्दर ही है। फिर भी मनुष्य आनंद को बाहर खोजता है। इस आनंद को जीवन में किस प्रकार प्रकट करें यही भागवत शास्त्र हमें बताता है। आनंद के अनेक प्रकार तैतरीय उपनिषद् में बताए गए हैं परंतु इनमें से दो मुख्य हैं पहला साधनजन्य आनंद और दूसरा है स्वयंसिद्ध आनंद।

जिसका ज्ञान नित्य टिकता है उसे ही आनंद मिलता है वही आनंदमय होता है। जीव को यदि आनंद रूप होना हो तो उसे सच्चिदानंद के आश्रय होना पड़ेगा । भागवत कहती है मेरे लिए कुछ भी नहीं छोडऩा है। वेद, त्याग का उपदेश करते हैं, शास्त्र कहते हैं काम छोड़ो, क्रोध छोड़ो, परंतु मनुष्य कुछ नहीं छोड़ सकता । संसार में फंसे जीव उपनिषदों के ज्ञान को पचा नहीं सकते । इन सब बातों का विचार करके भगवान व्यासजी ने श्रीमद्भागवत शास्त्र की रचना की है।

भगवान का पहला स्वरूप है सत्य
भागवत महात्म्य के आरंभ में सबसे पहले लिखा है-सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।

ये पहला श्लोक है भागवत का। प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द है सच्चिदानंदरूपाय। भागवत आरंभ हो रहा है और भागवत ने घोषणा की सत, चित और आनंद। भगवान के तीन रूप हैं सच्चिदानंद रूपाय सत, चित और आनंद। भगवान के रूप को प्रकट किया। भगवान तक पहुंचने के तीन मार्ग है सत, चित और आनंद। इन तीन रास्तों से आप भगवान तक पहुंच सकते हैं।

आप देखना चाहें भगवान का स्वरूप क्या है तो भगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट नहीं होंगे। भगवान का पहला स्वरूप है सत्य। जिस दिन आपके जीवन में सत्य घटने लगे आप समझ लीजिए आपकी परमात्मा से निकटता हो गई। सत भगवान का पहला स्वरूप है फिर कहते हैं चित स्वयं के भीतर के प्रकाश को आत्मप्रबोध को प्राप्त करिए। फिर है आनंद। देखिए सत और चित तो सब में होता है पर आपमें जो है उसे प्रकट होना पड़ता है। वैसे तो आनंद हमारा मूल स्वभाव है पर हमको आनंद निकालना पड़ता है मनुष्य का मूल स्वभाव है आनंद फिर भी इसके लिए प्रयास करना पड़ता है।

सत, चित, आनंद के माध्यम से भागवत में प्रवेश करें। यहां भागवत एक और सुंदर बात कहती है भागवत की एक बड़ी प्यारी शर्त है कि मुझे पाने के लिए, मुझ तक पहुंचने के लिए या मुझे अपने जीवन में उतारने के लिए कुछ भी छोडऩा आवश्यक नहीं है। ये भागवत की बड़ी मौलिक घोषणा है। इसीलिए ये ग्रंथ बड़ा महान है। भागवत कहती है मेरे लिए कुछ छोडऩा मत आप। संसार छोडऩे की जरूरत नहीं है। कई लोग घरबार छोड़कर, दुनियादारी छोड़कर पहाड़ पर चले गए, तीर्थ पर चले गए, एकांत में चले गए तो भागवत कहती है उससे कुछ होना नहीं है। मामला प्रवृत्ति का है। प्रवृत्ति अगर भीतर बैठी हुई है तो भीतर रहे या जंगल में रहें बराबर परिणाम मिलना है।

सबका उद्धार करती है भागवत
भागवत कहती है कि योगियों को जो आनंद समाधि में मिलता है, गृहस्थों को वही आनंद घर में बैठकर भागवत से मिल सकता है। ये भागवत की मौलिक घोषणा है।भागवत ने बोला आपसे घर नहीं छूटता तो कोई बड़ा भारी काम करने की आवश्यकता नहीं। घर में रहें, संसार में रहें। घर में रहना कोई बुरा नहीं है। हां हमारे भीतर घर रहने लगे वहां से झंझट चालू होती है। भागवत इस अंतर को बताएगी कि क्या फर्क है संसार में रहने में और संसार अपने भीतर रहने में। इसलिए भागवत ने कहा है कुछ छोडऩे की आवश्यकता नहीं, मेरे साथ रहो। ऐसे कई प्रसंग आएंगे कि भागवत ये साबित कर देगी कि यहीं स्वर्ग है और यहीं नर्क है। ये तो हम ही लोग हैं जो इसको नर्क बनाए जा रहे हैं।

इस भागवत शास्त्र की रचना कलयुग के जीवों के उद्धार के लिए की गई है। श्रीमद्भागवत में एक नवीन मार्गदर्शन कराया गया है। घर में रहकर भी आप भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं, प्राप्त कर सकते हैं परंतु आपका प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय हो जाना चाहिए। गोपियों का प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय बन गया था। भागवत में कहा है घर में रहो, अपने स्वभाव में रहो और संसार में फिर परमात्मा को प्राप्त कर सकते है। घर में रहें या बाहर अपनों से मिलें या परायों से। लेकिन जरा मुस्कुराइए...

निष्काम भक्ति सीखाती है भागवत
आज इस बात की चर्चा की जाए कि भागवत का मूल विषय क्या है? भागवत का मूल है निष्काम भक्ति। भागवत में बार-बार आपको यह शब्द मिलता रहेगा। भागवत ने कहा है मेरा मूल विषय है निष्काम भक्ति। निष्काम भक्ति का अर्थ है आप कर रहे हैं फिर भी आप नहीं कर रहे हैं। जिसको अंग्रेजी में कहते हैं डूइंग है डूअर नहीं है। निष्कामता वहीं घटती है जिसमें आपके कर्म में से मैं चला जाए। आपके काम में से जिस दिन कर्ता बोध का अभाव हो जाए उस दिन निष्कामता घटती है।

बहुत लोगों को समझ में नहीं आता निष्कामता होती क्या है? मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। जिन लोगों ने बेटियां पैदा की हैं, बेटियां बड़ी की हैं, पाली हैं और विदा किया है। वो लोग जान सकते हैं निष्कामता क्या होती है। जब कोई अपनी बेटी को पालता है तो बेटे की तरह ही पालता है। लेकिन एक दिन वह बेटी बड़ी होती है और आदमी उसको विदा कर देता है। एक दिन उस बेटी का विवाह हो जाता है। उसका नाम, वंश, कुल, परंपरा सब एक क्षण में बदल जाता है।

ये भारतीय संस्कृति का ऐसा गौरव है कि जब स्त्री का विवाह होता है तो एक क्षण में उसका सबकुछ बदल जाता है। देहरी पार जाकर उसकी पहचान, उसका वंश, उसका कुल, उसके रिश्ते और सोलह श्रृंगार। आदमी जानता है मैं इस बेटी को बड़ा कर रहा हूं। एक दिन मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं रहेगा। जिस दिन आपके कर्म में, कर्म के फल के प्रति बेटी के विदा करने जैसा भाव जाग जाए बस वहीं से निष्कामता का जन्म होता है। भागवत का मूल विषय यही है कि निष्काम भक्ति योग।

तीनों दुखों का नाश करते हैं श्रीकृष्ण
तीन तरह के ताप का विनाश करने वाले है श्रीकृष्ण। भागवत के पहले श्लोक में ये बताया गया है।
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।

तापत्रय अर्थात आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तीन तरह के दु:ख होते हैं इंसान को। भागवत कितना सावधान ग्रंथ है। पापत्रयविनाशाये नहीं लिखा तापत्रयविनाशाय लिखा। पाप आता है चला जाता है। यदि आदमी पश्चाताप कर ले। लेकिन पाप का परिणाम क्या है ताप। पाप अपने पीछे ताप छोड़कर जाता है। आदमी को पता नहीं लगता इसी को संताप कहते हैं। लिखा है आध्यात्मिक आदिदैविक, अदिभौतिक तीनों प्रकार के पापों को नाश करने वाले भगवान श्रीकृष्ण की हम वंदना करते हैं। अनेक लोगों को मन में यह प्रश्न उठता है कि वंदना करने से क्या लाभ है? वंदना करने से पाप जलते हैं। श्रीराधा व कृष्ण की वंदना करेंगे तो हमारे सारे पाप नष्ट होंगे। परंतु वंदना केवल शरीर से नहीं मन से भी करना पड़ेगी। अत: ईश्वर वंदनीय है। वंदना करने का अर्थ है अपनी क्रियाशक्ति को और बुद्धि शक्ति को श्रीभगवान को अर्पित करना।

वंदन करने से अभिमान का बोझ कम होता है। श्रीभागवत का आरंभ ही वंदना से किया गया है। और वंदना से समाप्ति की गई है। संत महात्मा कहते हैं कि ये जो 'श्रीकृष्ण' शब्द लिखा है इसमें जो ये 'श्री' है यह राधाजी का प्रतीक है। राधाजी को 'श्री' भी कहा गया है। विद्वानों का प्रश्न है और शोध का विषय भी है बड़ी चर्चा होती है इसकी लोग हमसे भी प्रश्न पूछते हैं कि भागवत में राधाजी की चर्चा नहीं आती? पूरे भागवत में राधाजी का नाम ही नहीं है। नायक कृष्ण और राधा का नाम नहीं। लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है कि वेदव्यासजी ने क्या सोचकर राधाजी का नाम नहीं लिखा। जबकि राधा के बिना कुछ नहीं हो सकता।

कृष्ण देह तो राधा आत्मा हैं
विद्वान और पंडित लोग कहते हैं जिस समाधि भाषा में भागवत लिखी गई और जब राधाजी का प्रवेश हुआ तो व्यासजी इतने डूब गए कि राधा चरित लिख ही नहीं सके। सच तो यह है कि ये जो पहले श्लोक में वंदना की गई इसमें श्रीकृष्णाय में श्री का अर्थ है कि राधाजी को नमन किया गया।

बात ये है कि जब राधाजी से कृष्णजी ने पूछा कि इस साहित्य में तुम्हारी क्या भूमिका होगी। तो राधाजी ने कहा मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए मैं तो आपके पीछे हूं। इसलिए कहा गया कि कृष्ण देह हैं तो राधा आत्मा हैं। कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ हैं, कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत हैं, कृष्ण बंशी हैं तो राधा स्वर हैं, कृष्ण समुद्र है तो राधा तरंग हैं और कृष्ण फूल हैं तो राधा उसकी सुगंध हैं।
इसलिए राधाजी इसमें अदृश्य रही हैं। राधा कहीं दिखती नही है इसलिए राधाजी को इस रूप में नमन किया।

जब हम दसवें, ग्यारहवें स्कंध में पहुंचेंगे, पांचवें, छठे, सातवें दिन तब हम राधाजी को याद करेंगे। पर एक बार बड़े भाव से स्मरण करें राधे-राधे। ऐसा बार-बार बोलते रहिएगा। राधा-राधा आप बोलें और अगर आप उल्टा भी बोलें तो वह धारा हो जाता है और धारा को अंग्रेजी में बोलते हैं करंट। भागवत का करंट ही राधा है। आपके भीतर संचार भाव जाग जाए वह राधा है। जिस दिन आंख बंद करके आप अपने चित्त को शांत कर लें उस शांत स्थिति का नाम राधा है। यदि आप बहुत अशांत हो अपने जीवन में तो मन में राधे-राधे..... बोलिए मेरा आश्वासन है, मेरा आपसे वादा है और नमन है आप पंद्रह मिनट में शांत हो जाएंगे क्योंकि राधा नाम में वह शक्ति है। भगवान ने अपनी सारी संचारी शक्ति राधा नाम में डाल दी। इसलिए भागवत में राधा शब्द हो या न हो राधाजी अवश्य विराजी हुई हैं।

इसीलिए प्रथम पूज्य हैं श्री गणेश
आज हम भागवत के महात्म्य में प्रवेश करते हैं। व्यासजी ने भागवत की रचना की। अब व्यासजी के सामने एक समस्या आई कि इतना बड़ा ग्रंथ लिखेगा कौन? तब नारदजी ने सलाह दी कि गणेशजी से लिखवा लो, गणेशजी से अच्छा कोई नहीं लिख सकता। गणेशजी को याद किया, गणेशजी आ गए। गणेशजी से व्यासजी ने कहा मैंने एक साहित्य रचा है। आप इसके लेखक बन जाइए।
उन्होंने कहा लिख तो दूंगा पर मेरी एक शर्त है जब आप बोलो तो एक पल के लिए भी रूकना मत। तो मैं लिख दूंगा। व्यासजी मान गए। व्यासजी भी व्यासजी थे। वे हर सौ श्लोक के बाद ऐसा कोई गंभीर श्लोक बोल देते थे कि गणेशजी उसका अर्थ सोचने लग जाते क्योंकि व्यासजी ने भी शर्त रखी थी कि मैं तो बिना रूके बोलूंगा पर आप बिना अर्थ समझे एक भी पंक्ति मत लिखना। व्यासजी एक श्लोक ऐसा बोलते कि गणेशजी उसका अर्थ सोचते तब तक व्यासजी अपना सब काम निपटाकर दूसरा श्लोक रच देते।

18 हजार श्लोक का साहित्य भागवत गणेशजी ने लिख दिया। इसीलिए प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में गणपतिजी की पूजा की जाती है। गणपतिजी विघ्नहर्ता हैं। गणपतिजी के पूजन करने का अर्थ है जितेंद्रीय होना। विघ्न न आए इसलिए व्यासजी सर्वप्रथम श्रीगणेशाय नम: कहकर गणपति महाराज की वंदना करते हैं। इसके पश्चात सरस्वतीजी की वंदना करते हैं। सरस्वती की कृपा से मनुष्य में समझ और सोचने की शक्ति आती है। फिर सद्गुरु की वंदना की गई है तथा भागवत के प्रधान देव श्रीकृष्ण की वंदना हुई है।

भगवान शिव का रूप हैं शुकदेव
भागवत लिखने के बाद व्यासजी के सामने एक और समस्या आ गई कि इस ग्रंथ का प्रचार कौन करेगा ? उनको चिंता हो गई अब यह शास्त्र किसको दूं ? श्रीभागवत शास्त्र मैंने मानव समाज के कल्याण के लिए रचा है। अब यह किसको सौंपूं ? जिससे जगत का कल्याण हो ऐसे किसी योग्य पुरूष को यह ज्ञान दिया जाए।

इस विचार के साथ वृद्धावस्था में भी व्यासजी को पुत्रेष्णा जागी। उन्होंने आह्वान किया। भगवान शंकर वैराग्य के रूप में मेरे यहां पुत्र बनकर आएं। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। शिवजी प्रसन्न हुए। व्यासजी ने मांगा -समाधि में जो आनंद आप पाते हैं वही आनंद जगत को देने के लिए आप मेरे घर में पुत्र के रूप में पधारिए। शुकदेवजी भगवान शिव का ही अवतार हैं। वाल्मीकि रामायण के बाद श्रीरामचरितमानस रचा गया। रामकथा के वक्ता शंकरजी थे। महाभारत के बाद भागवत रची गई। हम भी भागवत को इस स्तंभ में नई शैली में प्रस्तुति कर रहे हैं।

व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी सोलह वर्ष माता के गर्भ में रहे और वहीं उन्होंने परमात्मा का ध्यान किया। व्यासजी ने गर्भ में ही अपने पुत्र से पूछा- तुम बाहर क्यों नहीं आते। शुकदेवजी ने उत्तर दिया- मैं संसार के भय से बाहर नहीं आता हूं। मुझे माया का भय लगता है। इस पर श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि मेरी माया तुझे नहीं लग सकेगी। तब शुकदेवजी माता के गर्भ से बाहर आए। जन्म होते ही शुकदेवजी वन की ओर जाने लगे।

माता ने प्रार्थना की कि मेरा पुत्र निर्विकार ब्रह्म रूप है किंतु यह मेरे पास से दूर न जाए इसे रोंके। व्यासजी अपनी धर्मपत्नी से बोले जो हमें अतिप्रिय लगता हो वही परमात्मा को अर्पण करना चाहिए। वह तो जगत का कल्याण करने जा रहा है। किंतु व्यासजी भी व्यथित हो गए । व्यासजी ज्ञानी थे, फिर भी जाते हुए पुत्र के पीछे दौड़े।

जीव का संबंध तो परमात्मा से है
व्यासजी अपने पुत्र शुकदेव को बुलाते हैं- पुत्र लौट आओ। तुम्हें विवाह आदि के लिए आग्रह नहीं करेंगे। बस हमें छोड़कर मत जाओ। शुकदेवजी वृक्षों द्वारा उत्तर देते हैं। मुनिराज आपको पुत्र के वियोग से पीड़ा हो रही है परंतु हमको तो जो पत्थर भी मारता है तो हम उसे फल देते हैं। वृक्षों के पुत्र उनके फल हैं। पत्थर मारने वाले को भी फल दे वही सज्जन है। आपका बेटा तो जगत कल्याण करने चला है।

शुकदेवजी ने कहा- पिताजी। मेरे और आपके अनेक जन्म हुए हैं। यह तो अच्छा है पूर्व जन्म याद नहीं रहते। न तो आप मेरे पिता हैं और न ही मैं आपका पुत्र हूं। आपके और मेरे सच्चे पिता तो श्रीनारायण हैं। जीव का सच्चा संबंध तो परमात्मा के साथ ही है। मेरे पीछे न पड़ो श्रीभगवान के पीछे पड़ो। इतना कहकर शुकदेवजी नर्मदा तट पर आ गए। शुकदेवजी ने कहा मैं नर्मदा के इस किनारे पर बैठता हूं और सामने के किनारे पर आप विराजिए। पिताजी, अब मेरा ध्यान न करें। ध्यान तो परमात्मा का ही करें।

इस प्रकार यह भागवत का वंदना क्रम था। शुकदेवजी को प्रणाम करके इस कथा का आरंभ किया गया है। एक बार नैमिशारण्य में शौनकजी ने सूतजी से कहा कि आज तक कथाएं तो बहुत सुनी हैं। अब कथा का सार तत्व सुनने की इच्छा है। ऐसी कथा सुनाइए की हमारी भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति दृढ़ हो। अनेक ऋषि-मुनि वहां गंगा के किनारे बैठे थे। परंतु कथा कहने को तैयार नहीं हुआ।

तब भगवान ने श्रीशुकदेवजी को प्रेरणा दी कि तुम वहां जाओ। भागवत पांचवा पुरुषार्थ प्रेम का शास्त्र है। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का उदय होता है तब इस पवित्र कथा को पढऩे-सुनने का योग बनता है। कलयुग में प्राणियों को काल रूपी सर्प से छुड़ाने के लिए शुकदेवजी ने यह भागवत की कथा कही थी।

निर्भय कर देती है भागवत
भागवत के महात्म्य में एक और चर्चा है। जब परीक्षित को शुकदेवजी कथा सुना रहे थे। उसी समय भागवत के श्लोक को सुनकर स्वर्ग से देवता नीचे उतर आए। देवता शुकदेवजी से बोले- इतने दिव्य श्लोक और भूलोक में बोले जाएं, ये तो देवताओं की संपत्ति है। यह तो स्वर्ग में जाना चाहिए। आप इसे हमें दे दें। शुकदेवजी बोले- मैं तो वक्ता हूं । यजमान हैं राजा परीक्षित। आप परीक्षित से पूछ लीजिए अगर ये देते हैं तो ले जाइए कथा को।

देवताओं ने परीक्षित से पूछा और परीक्षित ने उत्तर दिया। आप मुझे क्या देंगे इसके बदले में? देवताओं ने कहा- इस कथा के बदले हम आपको अमृत दे देंगे। सात दिन बाद आपको तक्षक डसने वाला है आपकी मृत्यु होने वाली है। हम आपको स्वर्ग का अमृत देते हैं। आप अमृत ले लो कथा हमको दे दो। परीक्षित ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया-आप मुझे अमृत तो दोगे। हो सकता है मैं अमर भी हो जाऊं पर निर्भय नहीं हो पाऊंगा।

बड़ा फर्क है अमर और निर्भय होने में। देवताओं आप तो रोज डरते हो, जब कोई दैत्य पीछे लग जाए आप भागते फिरते हो, आप अमर हो पर निर्भय नहीं हो। ये भागवत मुझे निर्भय कर देगी मुझे अमर नहीं होना। शुकदेवजी कहते हैं धन्य हैं आप राजा परीक्षित। आपने बहुत अच्छा निर्णय लिया। शुकदेवजी मुस्कुरा दिए। शुकदेवजी मुस्कुरा रहे हैं और शुकदेवजी ने घोषणा कि भागवत को सुनते समय जीवन में भी उतारें । आलस्य की प्रतिनिधि क्रिया नींद है और आनंद की प्रतिनिधि क्रिया है मुस्कान।आप मुस्कुराएंगे तो आपके भीतर आनंद का जन्म होगा। इसीलिए जरा मुस्कुराइए।

भक्ति के पुत्र हैं ज्ञान व वैराग्य
भागवत कथा का महात्म्य एक बार सनदकुमारों ने नारदजी को सुनाया था। महात्म्य में ऐसा लिखा है कि बड़े-बड़े ऋषि और देवता ब्रह्म लोक छोड़कर विशाला क्षेत्र में इस कथा को सुनने के लिए आए थे। विशालापुरी में जहां सनदकुमार विराजते थे वहां एक दिन नारदजी घूमते हुए आ गए। वहां सनकादि ऋषियों के साथ नारदजी का मिलन हुआ।

नारदजी का मुख उदास देखकर सनकादि ने उनकी उदासीनता का कारण पूछा कि आप चिंता में क्यों हैं? नारदजी ने कहा-मैंने अनेकों स्थानों का परिभ्रमण किया किंतु मुझे शांति नहीं मिली। कलयुग के दोष देखता हुआ घूमता फिरता मैं वृंदावन आया तो वहां एक विचित्र बात देखी। वहां एक महिला अपने दो सुप्तप्राय: अचेतन से पुत्रों के साथ बैठी विलाप कर रही थी। मैं उसके समीप गया और विलाप का कारण पूछा। उस स्त्री ने बताया कि वह भक्ति है। उसके पास अचेतन से पड़े ये दो प्राणी उसके पुत्र हैं। एक का नाम ज्ञान है और दूसरे का वैराग्य है।

स्त्री का कहना था कि कलयुग ने इन दोनों को मृतक समान बना दिया है। और कहा कि मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई कर्नाटक में पली, महाराष्ट में मेरा यौवन निखरा और गुजरात में पहुंचते-पहुंचते ही मैं वृद्धा हो गई। भक्ति ने कहा जबसे मैं वृंदावन आई हूं। तब से मेरा यौवन लौट आया है। किंतु मेरे पुत्रों की दशा दयनीय हो गई है। वे यहां पहुंचते-पहुंचते अचेतन से हो गए हैं।कर्नाटक में आज भी आचार की शुद्धि देखने में आती है। भगवान व्यासजी को कर्नाटक के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। जो सच था भक्ति के बारे में उन्होंने व्यक्त किया। भक्ति कहती है गुजरात मे जीर्ण हो गई। देवलोकवासी डोंगरे महाराज कहा करते थे। धन का दास प्रभु का दास नहीं हो सकता। गुजरात कांचन का लोभी हो गया है।

धर्म का प्रचार करने पर मिलता है मोक्ष
नौ अंग होते हैं भक्ति के। इसमें प्रथम है श्रवण। कीर्तन भक्ति दूसरी है। तीसरी है वंदन भक्ति और चौथी है अर्चन भक्ति। विस्तार से हम आगे पढ़ेंगे। भक्ति के दो बालक हैं ज्ञान और वैराग्य। ज्ञान और वैराग्य जब मूर्छित होते हैं तो भक्ति रोती है। कलयुग में ज्ञान और वैराग्य क्षीण होते हैं बढ़ते नहीं। नारदजी ने ज्ञान व वैराग्य को जगाने के अनेक प्रयत्न किए, तो भी उनकी मूर्छा नहीं गई। उपनिषदों के पठन से अपने हृदय में ज्ञान और वैराग्य जागता है परंतु वे फिर से मूर्छित हो जाते हैं। नारदजी चिंता में फंसे हैं कि ज्ञान और वैराग्य की मूर्छा उतरती नहीं है। उसी समय आकाशवाणी हुई कि आपका प्रयास उत्तम है। ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति का प्रचार करने के लिए आप कुछ सद्कर्म कीजिए। नारदजी कहते हैं मैंने जिस देश में जन्म लिया है उस देश के लिए यदि उपयोगी बन सकूं तो मेरा जीवन धन्य हैं।

आप बताईए मैं क्या सदकर्म करूं ? नारद ने पूछा। तब सनकादि मुनि ने कहा परदु:ख से यदि आप दु:खी हंै तो आपकी भावना दिव्य है। यही संत का चरित्र है। भक्ति का प्रचार करने की आपकी इच्छा है तो आप भागवत यज्ञ का पारायण कीजिए। आपकी इच्छा पूर्ण होगी। आप भागवत ज्ञान यज्ञ करें और भागवत का प्रचार करें। आप ही ने तो व्यासजी के दु:ख दूर करते हुए भागवत रचने का उपदेश दिया था। अत: आप श्रीमद्भागवत का प्रचार कर अपना कर्तव्य पूरा करें। कलयुग में भक्ति प्रचार का एक तरीका यह भी है प्रभु का स्मरण करते हुए सदैव मुस्कुराइए।

भक्ति से मिलते हैं भगवान
हरिद्वार के पास श्रीभागवत कथा का अमृतपान करने के लिए सनकादि ऋषि, नारद मुनि आदि सभी ऋषि मुनि आए। जो नहीं आए थे उन सभी के घर भृगु ऋषि जाते हैं। विनती करते हैं उनको कथा में लाते हैं। नारदजी श्रोता बनकर बैठै हैं और सनकादि आसन पर विराजमान हैं। उसी समय भागवत महिमा सुन भक्ति प्रकट हुई, बोली- मैं कहां रहूं ? मेरा स्थान बताएं। सनकादि बोले- आप भक्तों के हृदय में रहें। फिर भगवान भी आ गए। वे निर्मल चित्त वालों में बैठ गए। इसी प्रकार भक्ति और भगवान का स्थान तय हो गया।

श्रीमद्भागवत के दर्शन से, श्रवण से, पूजन से पापों का नाश होता है। कथा श्रवण का लाभ आत्मदेव ब्राह्मण का चरित्र कहकर बताया गया है। एक आत्मदेव नाम का ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम था धुन्धुली, जो कर्कशा व क्रोधी स्वभाव की थी। आत्मदेव की संतान नहीं थी इसलिए वह बड़ा दु:खी था। एक बार जंगल में उसे एक महात्मा मिले। आत्मदेव ने उनसे संतान का वरदान मांगा। महात्मा ने आत्मदेव को एक फल दिया। कहा अपनी पत्नी को खिला देना।

आत्मदेव ने वह फल अपनी पत्नी को दिया। धुन्धुली उल्टा सीधा बहुत सोचती थी। उसने सोचा यदि ये फल मैंने खाया तो मैं गर्भवती हो जाऊंगी और मेरा पेट बढ़ जाएगा। घर में डाकू आ जाएंगे तो भाग नहीं पाऊंगी और मैं बीमार होने लगूंगी तो घर का काम कौन करेगा। यदि गर्भ टेढ़ा हुआ तो मेरी मृत्यु हो जाएगी। भागवत रिश्तों के ऊपर प्रकाश डालने वाला ग्रंथ है। यहां भागवतकार ने एक श्लोक लिखा है कि धुन्धुली सोच रही है मेरी ननद मेरा सामान ले जाएगी। अब बोलिए ये भी कोई बात हुई। श्लोक लिखा है कि भाभी को चिंता हो रही है कि ननद के कारण झंझट न खड़ी हो जाए। इस तरह एक-एक संबंध पर भागवत प्रकाश डालेगी।

मन की नहीं बुद्धि की बात मानें
अपनी उल्टी सोच के कारण आत्मदेव की पत्नी धुंधुली फल खाने को लेकर संशय में पड़ गई। धुंधुली की एक बहन थी। उसने वह फल बहन को खाने को दिया। बहन ने कहा मैं तो हूं गर्भवती और किसी को फल खिला देते हैं। मेरा जो बच्चा होगा वो तू रख लेना, पति को झूठ बोल देना। दोनों ने वह फल गाय को खिला दिया। बहन के यहां जो संतान हुई वह उसने धुन्धुली को दे दी।

जब गाय ने फल खाया तो गाय को एक ऐसे पुत्र का जन्म हुआ जिसके कान गाय की तरह थे। उसका नाम गोकर्ण रखा। जो बहन का बेटा था इसका नाम धुंधुकारी रखा। धुंधुकारी बहुत ही अत्याचारी, अपवित्र आचरण का व्यक्ति था। माता-पिता को मारता, घर की सारी दौलत ठिकाने लगा दी। दु:खी होकर एक दिन पिता तो जंगल में चले गए और मां मर गई। पांच वैश्याओं को अपने घर ले आया। पांच वैश्याओं ने कहा और धन लाओ तो धुंधुकारी ने राजा का धन चुरा लिया। वैश्याओं ने सोचा राजा का मामला है। हम पकड़े जाएंगे तो वैश्याओं ने धुंधुकारी को मार डाला और गाढ़ दिया। वैश्याएं चली गईं। धुंधुकारी प्रेत बन गया ।

कथा का सार है कि आत्मदेव हम हैं यानि मनुष्य और आत्मदेव की पत्नी का नाम धुन्धुली था जो कि बुद्धि है। उसकी बहन थी मन। मन का कहना बुद्धि ने माना और उल्टा काम हो गया। हमारी बुद्धि जब मन का कहना मानेगी तो जीवन बिगड़ जाएगा। सारा खेल मन का है। जब मन बुद्धि को नियंत्रित करने लगे तो गए काम से। होना ये चाहिए कि बुद्धि से मन नियंत्रित हो। मन तो गलत काम सिखाता ही है।

इस तरह आत्मदेव व धुंधली का सारा जीवन बिखर गया। जबकि गोकर्ण बड़ा संत प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपने भाई को प्रेत बना जब देखा तब उसने अपने भाई को भागवत सुनाई तो धुंधुकारी मुक्त हो गया।

भवसागर से मुक्त करती है भागवत
ऐसी कथा आती है कि जब गोकर्णजी भागवत सुना रहे थे तो एक बांस के खंभे में धुंधुकारी उतर गया और उसमें सात गठान थी। उस बांस के खंभे में एक-एक दिन कर सात गठान टूटती गई और धुंधुकारी मुक्त हो गया। भागवत सुनने की भावना जो धुंधुकारी के मन में थी वैसी भावना आप भी रखेंगे तो आप भी मुक्त हो जाएंगे। मुक्त होने का मतलब जीवन से मुक्त नहीं होना दुनियादारी से मुक्त होना है। जीवन में सात गठानें होती हैं काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर और अविद्या। एक-एक दिन एक-एक टूटती चली जाएंगी।

इस कथा के आगे एक प्रसंग बहुत सुंदर आ रहा है जैसे ही यह कथा पूरी हुई, सबको बड़ा आनंद हुआ। कथा पूरी होते-होते अचानक शुकदेवजी पधार गए। शुकदेवजी बहुत प्रसन्न हुए। शुकदेवजी को ऊंचे आसन पर बैठाया। जब सारे साधु-संत बैठ गए तो अचानक भगवान प्रकट हुए। भगवान श्रीहरि के साथ अर्जुन प्रकट हुए, प्रहलाद प्रकट हुए और सारे संत प्रकट हो गए। सबने मिलकर भागवत में कीर्तन किया। इसलिए भागवत में कीर्तन का महत्व है। भागवत में महात्म्य समाप्त होने जा रहा है और भागवत के महात्म्य को समाप्त करते-करते ग्रंथकार ने वक्ता और श्रोता के लक्षण बताए हैं। पहला लक्षण है विरक्त भाव। प्रत्येक नर-नारी को भागवत भाव से देखा जाए।

उपदेशकर्ता ब्राह्मण अर्थात ब्रह्मज्ञ होना चाहिए। वह धीर गंभीर और दृष्टांत कुशल होना चाहिए। वक्ता में धन-कीर्ति का मोह न हो। कथा सुनते समय कथा का ही चिंतन करें चिंताएं त्याग दें। भागवत की कथा का श्रवण जो प्रेम से करता है उसका संबंध भगवान से जुड़ जाता है। आगे सनकादि ने सप्ताह विधि बताई। सूतजी-शौनकजी को बता रहे हैं। नारद ने तब सनकादि का आभार व्यक्त किया। सनकादि ने एक सप्ताह तक कथा कहीं थी। कथा सुन भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, तरूण व स्वस्थ हो गए।

सभी वेदों का सार है भागवत
ऋग्वेदी शौनक ने पूछा- सूतजी बताएं शुकदेवजी ने परीक्षित को, गोकर्ण ने धुंधकारी को, सनकादि ने नारद को कथा किस-किस समय सुनाई ? समयकाल बताएं।

सूतजी बोले- भगवान के स्वधामगमन के बाद कलयुग के 30 वर्ष से कुछ अधिक बीतने पर भ्राद्रपद शुक्ल नवमी को शुकदेवजी ने कथा आरंभ की थी, परीक्षित के लिए। राजा परीक्षित के सुनने के बाद कलयुग के 200 वर्ष बीत जाने के बाद आषाढ़ शुक्ला नवमी से गोकर्ण ने धुंधुकारी को भागवत सुनाई थी। फिर कलयुग के 30 वर्ष और बीतने पर कार्तिक शुक्ल नवमी से सनकादि ने कथा आरंभ की थी।

सूतजी ने जो कथा शौनकादि को सुनाई वह हम सुन रहे हैं व पढ़ रहे हैं। जब शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे तब सूतजी वहां बैठे थे तथा कथा सुन रहे थे। भागवत के विषय में प्रसिद्ध है कि यह वेद उपनिषदों के मंथन से निकला सार रूप ऐसा नवनीत है जो कि वेद और उपनिषद से भी अधिक उपयोगी है। यह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का पोषक तत्व है। इसकी कथा से न केवल जीवन का उद्धार होता है अपितु इससे मोक्ष भी प्राप्त होता है। जो कोई भी विधिपूर्वक इस कथा को श्रद्धा से श्रवण करते हैं उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार फलों की प्राप्ति होती है। कलयुग में तो श्रीमद्भागवत महापुराण का बड़ा महत्व माना गया है। इसी के साथ ग्रंथकार ने भागवत का महात्म्य का समापन किया है।

सत्य ही परमात्मा है
आज से भागवतजी का प्रथम स्कंध आरंभ हो रहा है। इसमें 19 अध्याय हैं। प्रवेश के पूर्व एक बार पिछले दिनों पढ़े गए महात्म्य का संक्षेप में चिंतन कर लें ताकि स्मृति बनी रहे। नैमिशारण्य में शौनकादि ने सूतजी को सम्मान देकर कथा वाचन का आग्रह किया । सूतजी ने सर्वप्रथम शुकदेव, नारदजी, सरस्वती, व्यासजी को प्रणाम किया।

व्यासजी ने मंगलाचरण से प्रथम स्कंध आरंभ किया है। कथा में बैठने से पहले मंगलाचरण करना चाहिए। वंदन करने से, स्मरण करने से मंगलाचरण होता है। क्रिया में अमंगलता काम के कारण आती है। मनुष्य जब तक सकाम है तब तक उसका मंगल नहीं होता। भागवत में तीन मंगलाचरण हैं। प्रथम स्कंध में व्यासदेवजी का। द्वितीय स्कंध में शुकदेवजी का और समाप्ति पर सूतजी का। प्रभात के समय, मध्यान्ह के समय और रात को सोने से पहले भी मंगलाचरण करना चाहिए चूंकि इन तीनों समय देह को ऊर्जा चाहिए।

व्यासजी ने ध्यान की चर्चा करते हुए कहा कि एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करो। मन को प्रभू के स्वरूप में स्थिर किया जाए। एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करने से मन एकाग्र होता है। ध्यान का एक अर्थ है मानस दर्शन। ध्यान में पहले तो संसार के विषय उभरते हैं। वे मन में न आएं ऐसा करने के लिए ध्यान करते समय परमात्मा के नाम का बारंबार चिंतन करो। जिससे मन स्थिर हो सके इसके लिए सांस पर भी नियंत्रण किया जाए। उच्च स्वर से कीर्तन भी किया जा सकता है। कीर्तन से संसार का विस्मरण होता है।

केवल दान या स्नान से मन शुद्ध नहीं होता। ध्यान की परिपक्व दशा समाधि है। भगवान के प्रति ध्यान नहीं होगा तो संसार का ध्यान होता रहेगा। मंगलाचरण में व्यासजी लिखते हैं -सत्यंपरंधिमहि। अर्थात सत्य स्वरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं। सत्य ही परमात्मा है।

भक्ति से मिलते हैं भगवान
जिस धर्म में कोई कपट नहीं है ऐसी निष्कपट चर्चा ही भागवत का मुख्य विषय है। भागवत का मुख्य विषय है निष्काम भक्ति। जहां भोगेच्छा है वहां भक्ति नहीं होती। भगवान के लिए भक्ति करें। भक्ति का फल भगवान होना चाहिए, संसार सुख नहीं। मांगने से प्रेम की धारा टूट जाती है। इसीलिए कृष्ण कह गए हैं कि जो आनंद मुझे गोकुल में गोपियों से मिला है वह द्वारका में नहीं मिला क्योंकि गोपियों का प्रेम निष्काम है।

शौनकजी ने पूछा- व्यासजी ने भागवत की रचना क्यों की तथा इसका प्रचार कैसे किया, हमें सुनाएं। सूतजी ने कहा- व्यासजी ने यह कथा शुकदेवजी को सुनाई थी। शुकदेवजी सुपात्र हैं। शुकदेवजी केवल ब्रहमज्ञानी नहीं है, ब्रहमदृष्टि भी रखते हैं।
एक प्रसंग आता है। जनक राजा के दरबार में एक समय शुकदेवजी और नारदजी पधारे। दोनों महापुरूष हैं मगर दोनों में श्रेष्ठ कौन ? जनक राजा समाधान नहीं कर सके। परीक्षा किए बिना कैसे फैसला हो। तो जनकजी की रानी सुनयना ने निश्चय किया कि मैं इन दोनों की परीक्षा लूंगी। सुनयनाजी ने दोनों को अपने घर बुलाया और एक ही झूले पर बैठा दिया। फिर सुनयनाजी ने श्रृंगार किया, सजधजकर आईं और उन दोनों के मध्य में उस झूले पर बैठ गईं। नारदजी को कुछ संकोच हुआ, मैं बालब्रह्मचारी हूं । स्त्री का स्पर्श हो रहा है मेरे मन में विकार न आ जाए, यह सोचते हुए वे दूर हट गए।

लेकिन शुकदेवजी जैसे बैठै थे वैसे ही बैठे रहे। उनको भान तक नहीं हुआ कि कोई आकर बैठ गया है। उन्हें स्त्री और पुरूष का भान है ही नहीं। वे दूर भी नहीं हटते । बस सुनयना रानी ने निर्णय दे दिया कि इन दोनों में श्रेष्ठ शुकदेवजी ही हैं।

कलयुग में मुक्ति दिलाती है कृष्ण भक्ति
शुकदेवजी भिक्षावृत्ति के लिए बाहर निकलते हैं तो भी गो दोहनकाल से अर्थात छ: मिनट से अधिक कहीं नहीं रूकते । फिर भी सात दिन तक बैठकर यह कथा उन्होंने राजा परीक्षित को कैसे सुनाई ? शौनकादि सूतजी से पूछ रहे हैं।
सूतजी ने कहा- एक समय की बात है कि नैमिशारण्य तीर्थ में 88 हजार ऋषि-मुनि एकत्रित हुए। मुझे भी उस सभा में आमंत्रित किया गया था। उस सभा में विचार हो रहा था कि कलयुग में न केवल मनुष्य की आयु अल्प होगी अपितु वह रोग, शोक आदि व्याधि से ग्रस्त रहने के कारण आलसी और मंदबुद्धि भी हो जाएंगे। उनसे वेदशास्त्रों का अध्ययन और यज्ञ कर्मों की आशा भी नहीं की जा सकती। तो उसका उद्धार कैसे होगा ? सभी का मत था कि कलयुगी जीव के उद्धार के लिए श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान ही एक मात्र उपाय है।

सूतजी महाराज से आग्रह किया गया कि वे भगवान के अवतारों का वर्णन करें। आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और श्रीमद्भागवत पुराण की कथा कहना आरंभ की । ऋषियों ने सूतजी से छ: प्रश्न भी किए। 1- शास्त्रों का तत्व क्या है ? 2- नारायण होकर श्रीकृष्ण देवकी के पुत्र किस प्रकार हैं ? 3- भगवान के क्या-क्या गुण हैं ? 4- भगवान के अवतार और लीलाओं की कथा क्या है? 5- नर रूप धारण कर श्रीकृष्ण और बलराम का चरित्र कैसा था और 6- जब भगवान श्रीकृष्ण स्वर्ग सिधारे तो उस समय धर्म किसकी शरण में था ?

सूतजी ऋषियों के प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनको शास्त्रों के तत्वों से अवगत कराया। भगवान अपने भक्तों को सुख देने के लिए अनेक लीलाएं भी करते हैं और उनके अवतार में रूप धारण भी करते हैं। कल अवतारों की चर्चा होगी। अवतार जीवन में उतरे इसके पहले जरा मुस्कुराइए....

धर्म स्थापना के लिए अवतार लेते हैं भगवान
सूतजी ने भगवान विष्णु के विराट रूप से संसार की सृष्टि तथा उनके चौबीस अवतारों का विस्तृत विवरण किया है। लोक सृष्टि की इच्छा से भगवान विष्णु ने सर्वप्रथम महत् तत्व और अहंकार आदि से उत्पन्न सोलह कलाओं से परिपूर्ण पुरूष में अवतार धारण किया।

सृष्टि की रचना पर विचार करने के लिए वे क्षीरसागर में जाकर योगनिद्रा में सो गए। तब उनकी नाभि से प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और फिर उन्होंने वृहत विश्व की रचना कर डाली। आगे परमात्मा के चौबीस अवतारों की कथा है। धर्म की स्थापना करने और जीव का उद्धार करने हेतु परमात्मा अवतार धारण करते हैं। भागवत में मुख्यत: श्रीकृष्ण कथा करनी है परंतु यह कथा अंत के स्कंधों में आती है।

पहला अवतार सनदकुमारों का है सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार। ये चारों ब्रह्मचर्य का प्रतीक हैं। सब धर्मों में ब्रह्मचर्य पहले आता है। ब्रह्मचर्य से ही मन स्थिर रहेगा। दूसरा अवतार वराह का है। वराह अर्थात श्रेष्ठ दिवस। सत्कर्म में लोभ विघ्न करने आता है। लोभ को संतोष से मारें। वराह का अवतार संतोष का अवतार है। रसातल में गई पृथ्वी को लाने के लिए यह अवतार हुआ था। तीसरा अवतार है नारदजी का। यह भक्ति का अवतार है।

ब्रह्मचर्र्य का पालन करें और प्राप्त स्थिति में संतोष मानें उससे नारद अर्थात भक्ति मिलेगी। चौथा अवतार नर नारायण का है। ऋषि बनकर इस अवतार में तपस्या की। भक्ति मिले तो उसे भगवान का साक्षात्कार होता है। भक्ति द्वारा भगवान मिलते हैं। परंतु भक्ति ज्ञान और वैराग्य बिना न हो। पांचवां अवतार कपिल देव का है। ज्ञान, वैराग्य का अवतार है यह । इन्हें जीवन में उतारो तो ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति आएगी। छठा अवतार है दत्तात्रेयजी का। ऊपर बताए हुए पांच गुण ब्रह्मचर्य, संतोष, ज्ञान भक्ति और वैराग्य हमारे भीतर आएंगे तो हम गुणातीत होंगे। ऊपर के छ: अवतार ब्राह्मण के लिए हैं।

धर्माचरण करने से मिलेंगे श्रीकृष्णसातवां अवतार यज्ञ का है। प्रजापति रूचि तथ आकूति के पुत्र स्वायंभू मनवन्तर की रक्षा की। अमृत लेकर समुद्र से प्रकटे। आठवां अवतार ऋषभदेव का। नवां अवतार है पृथु राजा का। दसवां अवतार है मत्यनारायण का। जब पृथ्वी डूब रही थी, चाक्षुष मनवन्तर में तब पृथ्वी रूपी नौका पर बैठकर अगले मनवन्तर के अधिपती वैवस्त मनु की रक्षा की।

ये चार अवतार क्षत्रियों के लिए हैं।धर्म का आदर्श बताने के लिए ग्यारहवां अवतार कुर्म का है। बारहवां अवतार धन्वन्तरी का है। तेहरवां अवतार मोहिनी का। इस अवतार में भगवान ने दैत्यों को मोहित कर देवताओं को अमृत पान कराया। यह अवतार वैश्यों के लिए है। चौदहवां अवतार नृसिंह स्वामी का है। नृसिंह अवतार पुष्टि का अवतार है। पंद्रहवां अवतार वामन का है जो पूर्ण निष्काम है। जिसके ऊपर भक्ति का नीति का छत्र है जिसने धर्म का कवच पहना है जिसे भगवान भी नहीं मार सके हैं ऐसे बलि राजा के लिए यह वामन अवतार है । सोलहवां अवतार परशुराम का है। यह अवतार आवेश का अवतार है। इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया।
सत्रहवां व्यास नारायण का ज्ञान का अवतार है। अठाहरवां रामजी का अवतार है। यह मर्यादा पुरूषोत्तम का अवतार है। इससे हमारा काम मिटेगा अर्थात हमंे कन्हैया मिलेगा, क्योंकि उन्नीसवां अवतार श्रीकृष्ण का है। रामजी की मर्यादा का पालन करो तो श्रीकृष्ण कृपा करेंगे। ये दोनों साक्षात पूर्ण पुरूषोत्तम के अवतार हैं। बाकि सब अंशावतार हैं। भागवत में कथा तो करनी है कन्हैया की। परंतु क्रम-क्रम से दूसरे अवतारों की कथा भी सुनी जाएगी। बीसवां अवतार बलराम का था।

नारदजी से सीखें प्रसन्न रहना
भगवान विष्णु का इक्कीसवां अवतार बुद्ध का था। बाईसंवा हरि का अवतार था, जिन्होंने गजेंद्र को गृह से मुक्त कराया था। तेईसवां अवतार हयग्रीव का था। चौबीसवां अवतार कार्तिक अवतार हुआ। इस प्रकार के चौबीस अवतार हैं। अवतारों की संख्या और क्रम में विद्वानों के अपने-अपने मत हैं। अब व्यासजी के दु:खी होने का प्रसंग कथा में आता है जो हम महात्म्य में पढ़ चुके हैं।

नारदजी ने जब अनुभव किया कि अभी भी व्यासजी के मन में उनकी बात बैठ नहीं पाई है तो भक्ति महिमा और उपयोगिता के प्रमाण स्वरूप उन्होंने अपने पूर्व जन्म का वृतांत व्यासजी को सुनाया। नारदजी पूर्व जन्म में एक दासी के पुत्र थे। ऋषि-मुनियों से भगवान के चरित्र को सुनकर उनके मन में इतना अनुराग उत्पन्न हुआ कि उनको किसी प्रकार का देह बोध ही नहीं रहा। वे भक्त थे किंतु माता के प्रति मोह को वे त्याग नहीं पाए थे।

नारदजी बताते हैं कि भगवान की कुछ ऐसी कृपा हुई, क्योंकि माता को एक रात सर्प ने दंश मारा और वे चल बसीं। इस प्रकार वे सहज ही बंधन मुक्त हो गए। नारदजी घर से निकलकर गहन वन में समाधि में लीन हो गए। उसी अवस्था में भगवान विष्णु के उन्हें दर्शन हुए। आंख से आंसू बहने लगे। भगवान जब अन्तध्र्यान हुए तो नारदजी विचलित हो उठे।

तब भगवान ने उन्हें निरंतर साधु सेवा करने का उपदेश दिया और आशा दिलाई कि अगले जन्म में वे सिद्ध योगी होंगे। सहसा एक दिन बिजली गिरी और भौतिक शरीर नष्ट हो गया। अंतिम सांस के साथ ही नारदजी की आत्मा भगवान में प्रविष्ट हो गई। सहस्त्रों युगों के बाद वे मरीची आदि ऋषियों के साथ उत्पन्न हुए । भगवान विष्णु की कृपा से नारदजी अखंड ब्रह्मचर्य धारण करने वाले और तीनों लोक में स्वच्छंद विचरण करने के अधिकारी बन गए। निरंतन वीणा लेकर हरि गुणगान करते हैं नारदजी। वे सदैव प्रसन्न रहते हैं। उनके चरित्र से सीखा जाए-जरा मुस्कुराइए...

सत्संग का महत्व बताती है भागवत
भागवत में संत की महिमा का गुणगान किया गया है। पारसमणि लोहे को सोना बनाती है और किन्तु लोहे को अपने जैसा नहीं बनाती। परंतु संत अपने संसर्ग में आए हुए को अपने जैसा बना देते हैं। संत करे आपु समाना। मनुष्य देव होने के लिए बनाया गया है। मनुष्य को देव होने के लिए चार गुणों की आवश्यकता है- संयम, सदाचार, स्नेह, और सेवा । ये चार गुण सत्संग बिना नहीं आते। प्रथम स्कंध अधिकार लीला का है। श्रीमद्भागवत का ज्ञान देने का अधिकारी कौन है यह प्रथम स्कंध में बताया गया है। पहले स्कंध में तीन प्रकरण हैं- उत्तमाधिकारी, मध्याधिकारी व कनिष्ठाधिकारी। शुकदेव और परीक्षितजी उत्तम वक्ता व श्रोता हैं। नारदजी और व्यासजी मध्यम श्रोता व वक्ता हैं और सूतजी, शौनकजी कनिष्ठ वक्ता तथा श्रोता हैं।

शुकदेवजी जन्म से ही निर्विकारी हैं। वे घर छोड़कर वन चले गए । तब व्यासजी ने विचार किया कि इन्हें भागवत कथा कैसे सुनाई जाए। जब इन्हें कथा सुनाऊंगा तभी तो ये प्रचार करेंगे। तब व्यासजी ने अपने शिष्यों से कहा कि शुकदेवजी जिस वन में समाधि में बैठे हों आप वहां जाइए। वे सुनें, इस प्रकार इन दो श्लोक का उच्चारण कीजिए। शिष्य वन में पहुंचे शुकदेवजी को वे दो श्लोक सुनाए। श्लोक सुन शुकदेवजी ने पूछा कि ये श्लोक कौन बोल रहा है ? व्यासजी के शिष्यों का दर्शन हुआ। शुकदेवजी ने पूछा आप कौन हैं? ये श्लोक कहां से आए ?

शिष्यों ने बताया ऐसे तो बहुत सारे श्लोक भागवत पुराण में हैं जो आपके पिताजी ने रची है। अठारह हजार श्लोक हैं। शुकदेवजी सोचने लगे व्यासजी मेरे पिता हैं । मैं उनका उत्तराधिकारी हूं। मैं पिता के पास जाकर यह पुराण सुनूंगा। अब शुकदेवजी को भागवत शास्त्र पढऩे की इच्छा हुई । सूतजी वर्णन करते हैं इसके बाद यह कथा शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को सुनाई। अब मैं आपको सुना रहा हूं। व्यासजी ने शुकदेवजी को सुनाई। शुकदेवजी ने राजा परीक्षितजी को सुनाई, और सूतजी ये कथा शौनकादि ऋषि को सुना रहे हैं।

महाभारत सीखाती है, रहना कैसे है
अब मैं आप लोगों को राजा परीक्षित के जन्म कर्म और मोक्ष की कथा तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा सुनाता हूं। पांच प्रकार की शुद्धि बताने के लिए पंचाध्यायी कथा शुरू करता हूं। पितृशुद्धि, मातृशुद्धि, वंशशुद्धि, अन्नशुद्धि, और आत्मशुद्धि । जिनके ये पांच शुद्ध होते हैं उन्हीं में प्रभु दर्शन की आतुरता जागती है। राजा परीक्षित में ये पांच शुद्धियां मौजूद थीं। और यही बात दिखाने के लिए आगे की कथा कही जा रही है।

अब भागवत के प्रथम स्कंध में महाभारत आरंभ हो रही है। महाभारत हमको बताएगी रहना कैसे है। महाभारत भागवत में प्रवेश कर रही है। अद्भुत ग्रंथ है महाभारत। महाभारत से शुरू होगी और कृष्ण के स्वधाम गमन पर भागवत समाप्त होगी। बहुत सावधानी से भागवत के आरंभ में महाभारत सुनाई गई। इसलिए सुनाई गई कि हम जान लें महाभारत से, कि जीवन में क्या भूल होने पर क्या परिणाम मिलते हैं। अश्वत्थामा का प्रसंग सुनें सबसे पहले। महाभारत समाप्त हो चुकी है। कौरव पराजित हो गए पांडव जीत गए।

महाभारत समाप्त हुई तो आठ लोग बचे थे पांच पांडव और तीन कौरव पक्ष के, कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा। दुर्योधन युद्ध छोड़कर एक सरोवर में छिप गया। पांडव उसे मारने के लिए ढूंढ़ रहे थे। भीम ने प्रतिज्ञा ली थी कि मैं इसकी जंघाएं तोड़ दूंगा। दुर्योधन की जंघाएं तोड़ दीं, दुर्योधन मरने जैसा हो गया। जो दुर्योधन कभी हस्तिनापुर का राजा था। वह दुर्योधन अपने अंतिम समय में कीचड़ से भरे एक सरोवर में पड़ा हुआ था। गिद्ध और श्वान उसकी मज्जा को नोंच रहे थे। ये जीवन का अंत है। महाभारत कहती है याद रखिए ये इंद्रियां जब समाप्त होंगी तो ये शरीर कुरूक्षेत्र की तरह समाप्त हो जाएगा।

अश्वत्थामा की मणि निकाली श्रीकृष्ण ने
अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र था। दुर्योधन का परम मित्र था। दुर्योधन के अंत समय में उसने दुर्योधन से पूछा- मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं, मित्र। तो दुर्योधन ने कहा -मैं तुम्हें आज अंतिम दिन का सेनापति बनाता हूं। पांडवों को मार डालो। ऐसा कहकर दुर्योधन ने प्राण त्याग दिए। अश्वत्थामा ने पांडवों के सर्वनाश की शपथ ली और रात के अंधेरे में वह पांडवों के शिविर में गया। शिविर में पांडवों के द्रोपदी से उत्पन्न पांचों पुत्र सो रहे थे। अश्वत्थामा ने पांडव समझकर द्रोपदी के पांचों पुत्रों को छल से मार दिया।

सुबह जब सबको यह ज्ञात हुआ तो हाहाकार मच गया, पांडव रोने लगे। हमारे पुत्र मारे गए। द्रौपदी बहुत दु:खी हुई। पांडव अश्वत्थामा को पकडऩे के लिए दौड़े। श्रीकृष्ण की कृपा से उन्होंने अश्वत्थामा को बंदी बना लिया तथा द्रोपदी के सामने लेकर आए। अर्जुन और भीम ने कहा द्रौपदी आज्ञा दो इसका क्या करें। अभी तुम्हारे सामने इस पापी का हम वध करते हैं। इसने हमारे पांच पुत्र मार डाले छल से। तब द्रौपदी ने कहा-ये मेरी गुरु माता का बेटा है। मैं जानती हूं जिसका बेटा चला जाए, उसकी मां को कितना दर्द होता है। इसको मार डालेंगे तो जो दु:ख मुझे हो रहा है वही दु:ख मेरी गुरु माता को होगा। इसलिए इसको छोड़ दो। द्रोपदी की यह बात सुनकर सभी सोच में पड़ गए।

श्रीकृष्ण द्रौपदी को बहुत अच्छे से जानते थे, उनकी सखा थी, बहिन थी। श्रीकृष्ण ने कहा यह स्त्री बहुत महान है। ये आज में नहीं देखती ये कल में देखती है। पर अश्वत्थामा को दंड तो दिया जाएगा। उसकी मणि निकाल ली। किंतु जाते-जाते अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र छोड़ गया और ब्रह्मास्त्र उसने उत्तरा के गर्भ पर छोड़ा।

परीक्षित की रक्षा की श्रीकृष्ण ने
अब हम भागवत में महाभारत के प्रसंगों की चर्चा कर रहे हैं। उत्तरा अभिमन्यु की पत्नी थी। श्रीकृष्ण उत्तरा के मामा ससुर थे। उत्तरा गर्भवती थी और उसके गर्भ पर अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा। इधर श्रीकृष्ण द्वारका जा रहे थे। श्रीकृष्ण जैसे ही जाने लगे, उन्होंने देखा उत्तरा दौड़ती हुई आई, उसने कहा-आप कहां जा रहे हैं? अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया है मेरे गर्भ पर। मेरी संतान समाप्त हो जाएगी, मेरी रक्षा करिए।महाभारत में प्रसंग आता है कि उत्तरा को मृत पुत्र हुआ था तो श्रीकृष्ण को बुलाया गया और श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि जीवन में मैंने कोई शुभ कार्य किए हों, कोई पुण्य किए हों तो यह संतान जीवित हो जाए और वह बच्चा जीवित हो गया।

लेकिन भागवत थोड़ा हटकर बात करती है। भागवत कहती है श्रीकृष्ण ने उत्तरा से कहा- तू चिंता मत कर और श्रीकृष्ण उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गए। वहां जाकर ब्रह्मास्त्र को शांत किया तथा बच्चे की रक्षा की। इसलिए जब ये बच्चा पैदा हुआ तो इस बच्चे ने कहा गर्भ में मैंने किसी चतुर्भुज रूप को देखा था। वह प्रत्येक व्यक्ति का परीक्षण करने लगा इसलिए उसका नाम परीक्षित पड़ा। भगवान उर में यानी हृदय में भी आते हैं और भगवान भक्त की रक्षा के लिए उदर में भी आते हैं। देवकी के पेट में प्रभु नहीं थे। देवकी को भ्रांति कराई थी कि पेट में आ गए हैं। किंतु जब भक्त पर संकट आया तो परमात्मा उत्तरा के गर्भ में चले गए।

इसके बाद जब भगवान द्वारका जा रहे थे। तब उनकी बुआ कुंती ने उनका रथ पकड़ लिया। श्रीकृष्ण उतरे, नियम था रोज वे कुंती बुआ को प्रणाम करते थे। लेकिन जैसे ही आज श्रीकृष्ण उतरे, कुंती ने उन्हें प्रणाम किया। कृष्ण बोले- बुआ, ये आप क्या कर रही हैं। मैं आपका भतीजा हूं। कुंती ने कहा- मैं तो तुझे तब से जानती हूं जब तू माखन चुराया करता था, बंसी बजाया करता था, गाय चराता था। फिर तुने कंस को मारा। अब सुन, बहुत हो गया ये रिश्ता। तू भगवान है और हम भक्त।

रिश्तों का महत्व बताती है भागवत
कुंती ने श्रीकृष्ण से जो बातचीत की बड़ी प्यारी बातचीत है। बुआ और भतीजे का रिश्ता बड़ा अद्भुत बताया है भागवत में। भागवत परिवार का ग्रंथ है एक-एक रिश्ते पर भागवत प्रकाश डालता चलता है। बुआ को जब भतीजा या भतीजी देखते हैं तो बुआ में पिताजी का आधा रूप दिखता है। बुआ लाड़ भी है और वात्सल्य भी है, ममता भी और पिता का भय भी है।

कुंती श्रीकृष्ण से बोलती हैं- तू आज भगवान है, तू आज मुझे वरदान देकर जा। कुंती ने श्रीकृष्ण से जो वरदान मांगा दुनिया में कभी किसी ने ऐसा वरदान नहीं मांगा। कुंती कहती है-मैंने सुना है आदमी सुख में भगवान को भूल जाता है तो कृष्ण, एक काम कर जीवनभर के लिए दु:ख दे जा। दु:ख में तू बहुत याद आता है। जब हम बहुत सुखी रहेंगे, हमको सबकुछ मिलता रहेगा तो हम तुझे भूल जाएंगे। तो तू ऐसा कर कि जीवन में ऐसा लगे कुछ काम अनुकूल नहीं है यदि अनुकूल हो जाए तो आलस्य आ जाएगा। थोड़ा दु:ख देकर जा मुझको। श्रीकृष्ण ने कहा क्या बात करती हैं बुआ। कुंती बोली हां मुझे दु:ख देकर जा। इतना दु:ख देना कि हमेशा तेरी याद आती रहे। महत्वपूर्ण तू याद आना है बाकी सुख दु:ख तो भूल जाएंगे। पर तुझे याद करते रहेंगे। ऐसे सुख पर सिला पड़े, जो हरि नाम भूलाए। बलिहारी रहूं दु:ख की जो हरि का नाम रटाए।कुंती बार-बार श्रीकृष्ण से दु:ख मांग रही हैं।

श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा -आज आपकी ईच्छा पूरी करता हूं। कुंती बोली एक दिन और रूक जा। कृष्ण ने सोचा चलो रूक जाते हैं एक दिन और। जैसे ही श्रीकृष्ण हस्तिनापुर के राजभवन में लौटे सबको लगा हमारे कारण रूके हैं। उत्तरा कह रही है मेरे कारण रूके, अर्जुन कह रहा है मेरी वजह से रूके हुए हैं, कुंती कह रही है मैंने रोक लिया।

भगवान भी रखते हैं भक्तों का ध्यान
कुंती बुआ के कहने पर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर रुक गए। सबको लग रहा था हमने रोक लिया श्रीकृष्ण को पर भगवान सोच रहे हैं मैं जिसकी वजह से रूका हूं ये कोई नहीं जानता। भगवान आंख बंद करके अपने कक्ष में बैठे हैं। उसी समय युधिष्ठिर आए। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। पूछा-भगवान सारी दुनिया आपका ध्यान करती है। आप किसका ध्यान कर रहे हैं?

भगवान ने कहा- सारी दुनिया मेरा ध्यान करती है परन्तु मैं हमेशा भक्त का ध्यान करता हूं। मुझे भीष्म याद आ रहे हैं। तुम राजगादी पर बैठने वाले हो युधिष्ठिर, तो आओ चलो भीष्म के पास चलते हैं, भीष्म देह त्यागने वाले हैं। शरशैया पर पड़े हुए हैं। भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था इसलिए महाभारत के समाप्त होने पर भीष्म ने निर्णय लिया कि मैं देह बाद में त्यागूंगा। श्रीकृष्ण बोले- चलो उनके पास चलते हैं। मुझे वहां जाना है तुम भी साथ चलो। उनसे राजधर्म की शिक्षा ग्रहण करो। भीष्म के पास उनको लेकर आए हैं।

भीष्म शरशैया पर पड़े हुए हैं। जो कभी हस्तिनापुर का रक्षक था, परम ब्रह्मचारी, ब्रह्मांड कांपता था जिससे, एक-एक राजा जिनके इशारे पर चलता था वो महान पराक्रमी शरशैया पर पड़ा हुआ है। भगवान को देख भीष्म हाथ भी नहीं उठा सके क्योंकि हाथों में भी तीर लगे हुए थे। गर्दन भी नहीं झुका सके। भीष्म बोले -वासुदेव आप आ गए मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उन्होंने कहा-वासुदेव, मैं आज आपको नमन भी नहीं कर सकता। कितना लाचार हो जाता है व्यक्ति अपने अंतिम समय में। जो कभी बड़े-बड़े शस्त्र उठाता था वो हाथ भी हिला नहीं सकता। यह बूढ़ापा है, यह जीवन का अंतिम काल है, सभी को इससे गुजरना है एक दिन।

क्रमश:..

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष