Tuesday, September 22, 2015

Jeene Ki Rah9 (जीने की राह)

अध्यात्म में संसार का समाधान
जीवन और संसार दोनों गतिशील हैं। बदलते संसार को भौतिकता से पकड़िए। नित, नए हो रहे जीवन को आध्यात्मिकता से जानिए। स्थितियां चाहे निराशाजनक हों, प्रतिकूल हों इन दोनों से समझौता मत कीजिए। किष्किंधा कांड में हनुमानजी के माध्यम से सुग्रीव को राज्य मिल गया। श्रीराम ने कहा, ‘चार मास के लिए मैं वन में जाता हूं, आप राज करो और उसके बाद सीताजी को ढूंढ़ेंगेे। उनके जीवन का सर्वाधिक विपरीत काल चल रहा था।

कोई और होता तो निराशा में टूट जाता, लेकिन श्रीराम हमें समझा रहे हैं कि हमारे पास सबसे बड़ी पूंजी हमारे होने की है, हमारी आत्मा की है। किंतु हम आत्मा को भूलकर बाहर की स्थितियों पर आश्रित हो जाते हैं। तुलसीदासजी ने दोनों भाइयों की बातचीत का वर्णन बड़ी सुंदर चौपाइयों में किया है, ‘कहत अनुज संग कथा अनेका, भगति विरती विरह अनेक विवेका।श्रीराम छोटे भाई लक्ष्मण से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान, चार तरह की बातें कर रहे थे। भक्ति तथा वैराग्य का संबंध अध्यात्म से है और राजनीति तथा ज्ञान का संबंध भौतिकता से है। वे हमें भी सिखा रहे हैं कि जीवन में जब निराशा आ जाए, आप संघर्ष की स्थिति में हों तो अपने लोगों के साथ बैठकर संसार और अध्यात्म दोनों की चर्चा करें।

दोनों के श्रेष्ठ को भीतर उतारें। अगर हमने संसार को, उसके बदलाव को ठीक से समझा, जीवन जो प्रतिपल नया है उसको पकड़ लिया तो इसका एक सुपरिणाम यह होता है कि हमें समाधान दिखने लगता है, क्योंकि कभी-कभी अध्यात्म का समाधान संसार में और संसार का समाधान अध्यात्म में मिल जाता है। श्रीराम किष्किंधा कांड में उस समय यही कर रहे थे। आगे की घटनाएं जो होने वाली हैं यह सब उसी की तैयारी थी। हम भी सबक लें, क्योंकि हमारे जीवन में भी ऐसी घटनाएं होती रहेंगी।

भीतर के विष का विसर्जन करें
जब भी नाग का नाम आता है उसे विष के साथ ही जोड़ा जाता है। सर्पदंश मतलब मौत की दस्तक। परंतु भारतीय संस्कृति ने तो पेड़-पौधे और प्राणियों को अपने ढंग से प्रतीक मानकर पूजा है। भगवान शंकर का आभूषण है सर्प। कथा है कि समुद्र मंथन से निकले विष का जब शिवजी पान कर रहे थे तो विष की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिर गई। जिन जीव-जंतुओं ने उसे पी लिया वे विषैले हो गए, इसलिए वे निर्दोष हैं। विषैला होने के कारण जंतु को मार डाला जाए, यह अपराध है।

विष की बात करें तो बहुत सारा विष आधुनिक मनुष्य ने भी निर्मित किया है, जो जीव-जंतुओं में मौजूद विष से भी खतरनाक है। हमारे भीतर जब काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे दुर्गुण अंगड़ाइयां लेते हैं तो शरीर में हार्मोनल चेंज होता है, वह एक तरह का विष निर्माण ही है। अर्थी ले जाते लोगों को देखिएगा थोड़ी-थोड़ी देर में कंधे बदलते जाते हैं। अर्थी वही है, कंधे बदले जा रहे हैं। हम भी यही कर रहे हैं। एक के बाद एक विष स्वयं तैयार कर रहे हैं, जुड़ रहे हैं, हट रहे हैं और शरीर को लगभग अर्थी बना लेते हैं। फिर इन्हीं विष को आज का फैशनेबल संसार नए-नए ढंग से प्रस्तुत करता है। सर्वाधिक उपयोगी वस्तु मोबाइल भी अपने गैर-जिम्मेदाराना उपयोग के कारण विष उगलने लगेगी।

बस, यह है कि सांप का काटा ज्यादा देर जिंदा नहीं रहेगा, लेकिन मोबाइल का डंसा हुआ धीरे-धीरे एक ऐसे विष को अपने भीतर पैदा कर लेगा, जो बाद में कहीं न कहीं अपना असर दिखाएगा। इसलिए आज नागपंचमी के दिन इस पर विचार किया जाए कि जो विष हम निर्मित कर रहे हैं आज उसका भी विसर्जन किया जाए। सावधान रहा जाए, क्योंकि मनुष्य का शरीर बेशकीमती है इसे कम से कम उस विष से तो समाप्त न करें, जिसे हम रोक सकते हैं।

विनम्रता से आती है शांति
प्रयास कीजिएगा कि दिनभर में जितने भी लोग मिलें उनको कुछ न कुछ जरूर दीजिए। कोई ऐसी चीज दीजिए, जिसमें आपको आर्थिक दबाव न हो और सामने वाले की स्मृति में स्थायी रूप से टिक जाए। ऐसी ही एक चीज है विनम्रता। कहते हैं विनम्रता भक्त का गहना होती है। आपका किसी भी धर्म से संबंध हो, लेकिन भक्ति में विनम्रता जरूर उतारिए। छोटे व्यक्ति से मिलें या बड़े से, विनम्रता मत खोइए। हममें से अधिकांश लोगों का कभी रेलवे स्टेशन पर कुली या ऑटो वाले से झगड़ा जरूर हुअा होगा। ये भले लोगों के बीच चलने वाली स्थायी लड़ाइयां हैं। कुछ गृहिणियां बाइयों से भी पंगा ले चुकी होंगी, लेकिन विनम्रता न खोएं।

खासतौर पर विरोध करते समय जरूर विनम्र बने रहें। इससे विरोध में शालीनता आती है। लेकिन विनम्रता होती क्या है? अगर सांसारिक दृष्टि से विनम्रता को लेंगे तो वह प्रदर्शन है, सिर्फ व्यावसायिक अंदाज है। अध्यात्म कहता है विनम्रता आपका निजी प्रेमपूर्ण कृत्य होना चाहिए। समझ लीजिए विनम्रता ईश्वर की आज्ञा है, तो हम विनम्रता भगवान के लिए अपना रहे हैं। हम किसी मनुष्य से विनम्रता के साथ व्यवहार कर रहे हैं, लेकिन भीतर से हम भगवान की सेवा कर रहे हैं।

विनम्रता का सीधा अर्थ है यह जो उठा-पटक दुनिया में चल रही है, मैंने इससे अपने आपको अलग कर लिया है, क्योंकि मैं एक परमशक्ति से जुड़ा हूं। मैं उसी के आदेश पर चलूंगा, इसलिए विनम्रता दूसरों को प्रभावित करने का कृत्य न होकर स्वयं को आनंद में डुबाने वाला सत्कर्म होना चाहिए। धीरे-धीरे आप पाएंगे लगातार जी गई विनम्रता अपने आप शांति पैदा कर देगी। जिस शांति की खोज के लिए हम बड़े-बड़े आयोजन करते हैं वह शांति इस विनम्रता नाम के भाव से आ सकती है।

अपने परिवार को सत्संग से जोड़ें
संसार में रहते हुए हम स्वयं कुछ बातों से प्रेरित होते हैं और दूसरों को भी प्रेरित करते हैं। हम शिक्षा, व्यवसाय, प्रतिष्ठा अर्जित करने जैसे कई बातों के लिए प्रेरित करते हैं। इसके साथ जब भी अवसर मिले, अपने लोगों को सत्संग के लिए जरूर प्रेरित करें। इसे केवल कथा-प्रवचन न समझ लिया जाए। जहां भी अच्छे विचार मिलें, जीवन ऊपर उठाने के लिए जो भी सिद्धांत मिलें वह सत्संग है।

हम सुखी जीवन के लिए, जितने सूत्र दूसरों को देते हैं यदि उसमें सत्संग शामिल नहीं हुआ तो बुद्धि, बल, शिक्षा यह सब घातक भी हो सकते हैं, क्योंकि सत्संग के अभाव में लोग शिक्षा-बल का दुरुपयोग करेंगे ही। हमारे अपने ऐसे लोग हैं जो समझदार, चतुर और पढ़े-लिखे भी हैं, पर गलत काम में लगे हुए हैं। इसलिए जिन पर अपना बस चले उन्हें सत्संग से जरूर जोड़िए। यह न सिर्फ उनके लिए, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए भी बड़ी सेवा होगी। सत्संग मनुष्य को भगवान या मोक्ष दिलाए या न दिलाए, सही रास्ता जरूर दिखा सकता है। आज तेजी से सामाजिक वातावरण बदला है। घर के बाहर निकलते हैं दुनिया नए रंग-रूप में दिखती है।

लौटने के बाद वैसी ही तैयारी घर में शुरू हो जाती है। किंतु यदि हम और हमारा परिवार सत्संग से जुड़ा है तो हमारे भीतर वह विवेक जाग्रत होगा कि समाज में भोग-विलास और दुष्कर्मों से घिरकर जो बदलाव आ रहा है वैसा हमारे घर में न आए। क्योंकि विकास के साथ समाज को बदलने में संस्कारों, नैतिक मूल्यों की चिंता नहीं की जाती। सारी चीजें भौतिक मानकों पर तौली जाती हैं, लेकिन परिवार के मामले में ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए खूब शिक्षा आए, धन आए, बल आए, लेकिन संस्कार न खो जाएं, मूल्य न चले जाएं। यदि हम सत्संग से जुड़े हैं तो समाज की जो भी स्थिति हो, परिवार को जरूर बचा जाएंगे।


भीतर उतरकर रिश्ते ताजा करें
यदि ध्यान से सुनें तो हमारे भीतर बीती उम्र की आवाजें सुनाई देंगी। और गहरे उतरें तो कुछ लोगों के चेहरे दिख जाएंगे जो आपको संबोधित कर रहे होंगेे। आधुनिक जीवनशैली में रिश्तों को पकड़कर जीने में किसी की रुचि नहीं है। लोग माता-पिता तक से संबंध छोड़ने को तैयार हैं। ऐसे में अन्य रिश्ते गंभीरता से कौन निभाएगा? इसलिए हम कुछ समय अपने भीतर उतरें और स्वयं को पहचानें, क्योंकि भीतर से आप खुद को नहीं जोड़ेंगे तो आप धीरे-धीरे कमजोर होते जाएंगे।

कमजोर लोग किसी भी रिश्ते के साथ न्याय नहीं कर सकते। जब आप छोटे थे तो कुछ मित्रों, रिश्तेदारों के साथ बहुत समय बिताते थे। बड़े हुए तो नए लोग जिंदगी में आए और पुराने लगभग छूट गए। अब क्या करें? जब हम मेडिटेशन करते हैं तो गहरे उतरकर स्वयं से जुड़ जाते हैं। हमारी उस अंतर्स्थिति में हमें वे पुराने लोग याद भी आते हैं। हो सकता है आप दुखी हो जाएं या अच्छा भी लगे। किंतु थोड़ी सावधानी से यदि ध्यान के साथ भीतर उतरने का अभ्यास किया तो ध्यान में तो सब शून्य हो जाता है, पर जब आप ध्यान से लौटते हैं, तो आपकी स्मृति में बड़े स्वस्थ ढंग से वे पुरानी बातें, पुराने लोग उतर आएंगे।

नए से संबंध रखना ही है, लेकिन पुराने लोगों को याद करने का यह एक ढंग है। यह जो अंदर उतरने की क्रिया है ये आपको प्रेरित करेगी कि पुराने लोग मिलें तो भूल मत जाइए। हो सकता है आपकी व्यस्तता के कारण आपकी प्राथमिकताओं में पुराने लोग न हों, लेकिन अंतर्मन से जुड़े हुए लोग हर हाल में पुराने संबंधों को जब कभी भी वो किसी मोड़ पर मिलते हैं तो जरूर ताजे कर लेते हैं।

आचरण की मर्यादा कभी न छोड़ें
अधिकार या नेतृत्व जिनके हाथों में आ जाते हैं उनमें से अधिकतर सेवा और कर्तव्य की जगह निज हित, मौज-मस्ती में डूब जाते हैं। काम वही करते हैं, जिसमें उनकी बुरी नीयत पहले से बनी हुई थी। खूब सुख आ जाए या बहुत दुख आए तो मनुष्य अमर्यादित आचरण करने लगता है। सामान्य व्यक्ति ऐसा करे तो फिर भी ठीक है, लेकिन जिन्हें विशिष्ट कार्य का दायित्व सौंपा गया हो, उनका ऐसा करना निराशाजनक है।

सीताजी के विरह के बाद भी श्रीराम का व्यवहार संतुलित था। उनके हाथों दुगुर्णों के विनाश के अभियान का बड़ा नेतृत्व सौंपा गया था। वे जानते थे उनका आचरण भविष्य के लिए आचार संहिता बनने वाला है। श्रीराम लक्ष्मणजी से जो बातचीत कर रहे थे उसमें विशिष्ट संदेश दिए जा रहे थे। लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुं देखि।।यानी हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं। जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णु भक्त को देखकर हर्षित होते हैं।

वे लक्ष्मण से कहते हैं कि गृहस्थ को भक्त होना चाहिए पर गृहस्थी से उन्हें सीताजी की याद आग गई। घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।। दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।आकाश में बादल घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती। उन्होंने कहा कि जब हमारा कोई प्रिय हमसे दूर चला जाए या संसार छोड़कर ही चला जाए, तो ऐसे विरह में निश्चित ही हम टूटेंगे, लेकिन उस समय हमारा आचरण संतुलित होना चाहिए। यही श्रीराम से हमें सीखना है। विपरीत परिस्थिति आए तो भी अपना मर्यादित आचरण न छोड़ें।

अतीत से सीख लें, उलझन में न पड़ें
जो लोग सफलता को लेकर बहुत गंभीर होते हैं वे परिश्रम भी बहुत करते हैं। फिर परिश्रम नशा बन जाता हैै। अधिकांश परिश्रम भविष्य पर निगाह रखकर किया जाता है। हमें यह प्राप्त करना है, हमारा यह लक्ष्य है। ऐसा होना भी चाहिए। थोड़ा होश रखकर परिश्रम का एक हिस्सा अतीत के लिए भी बचाएं। अतीत की कुछ घटनाएं हमारे भीतर निगेटिविटी पैदा करती हैं और उसे मिटाने के लिए परिश्रम चाहिए, लेकिन हम परिश्रम की सारी ऊर्जा भविष्य के लिए झोंक चुके होते हैं।

अपने ही अतीत की घटनाओं से दूर खड़े रहने के लिए मन को खींचना पड़ेगा। इसमें बड़ी ताकत लगती है, इसलिए उस ताकत को सावधानी से बचाया जाए। इसके लिए मौन प्रयास करना पड़ता है। जब कभी आप अपने बीते हुए से कट रहे हों तो आस-पास के लोगों को पता भी नहीं लगने दें कि आपके भीतर यह प्रक्रिया चल रही है। अकेले प्रयास करेंगे तो अतीत से जल्दी मुक्ति पा लेंगे। दो-चार लोगों को यदि इसकी भनक लग गई तो और अतीत में पटक देंगे। अगर आप देखें तो पता लगेगा कि ज्यादातर लोग ऐसे हैं, जिनके पास बीते समय में धन कम था और धीरे-धीरे अधिक हो रहा है। भारत में एक बड़ा मध्यम वर्ग बन गया है, जिसकी समान कहानी है कि जो कुछ भी पहले नहीं था, अब सबकुछ है उनके पास।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके पास अधिक था, अब कम रह गया है। जो आज है वह भी आपको अतीत में ही पटक रहा है। अतीत से यदि जुड़ना है तो सीख के स्तर पर थोड़ा बहुत जुड़ जाएं, लेकिन उलझन के स्तर पर तुरंत मुक्ति पाएं। मन को उलझाने में बड़ा मजा आता है, इसीलिए वह अतीत में ले जाता है। चलिए अपने परिश्रम का एक हिस्सा बचाएं और अपने आप को अतीत की इन बातों से मुक्त रखें, जो आपके वर्तमान को बिगाड़ सकती हैं।

दूसरों की उपलब्धि से प्रेरणा लें
कई बार ऐसा हो जाता है कि जो हमें नहीं मिला वह दूसरों को मिल जाता है। दूसरे यदि अपरिचित हों तब तो हमें इतनी दिक्कत नहीं होती। समस्या तब होती है जब हमें न मिले और हमारे परिचित को वह प्राप्त हो जाए। तुलना और बेचैनी शुरू हो जाती है और यदि परिपक्वता न दिखाई तो अनजाने में ही हम आलोचना पर उतर आते हैं। आपको नहीं मिला तो आपने आलोचना का सहारा ले लिया, जबकि होना यह चाहिए कि ऐसे समय हम विश्लेषण करें कि यदि उसे मिला है तो हमें क्यों नहीं मिला।

सारा जोर इस पर लगाइए कि हमारे भीतर वे कौन-सी कमजोरियां थीं या हमारे मुकाबले सामने वाले में वे क्या अच्छाइयां थीं। जब वांछित चीज हमें नहीं मिलती, तो हमारा समय और ऊर्जा उन लोगों पर खर्च होने लगती है, जिन्हें मिला है। इसीलिए हम उसे प्राप्त करने के लिए भय का निर्माण करते हैं, स्वयं के लिए भी और दूसरों के लिए भी। जीवन में भय दो रूपों में आता है लालच या दबाव। हम भय के द्वारा सामने वाले पर दबाव बनाते हैं या उसे लालच में डाल देते हैं। दोनों ही दुरुपयोग हैं।

भविष्य का भय हमें डरा रहा है कि अब क्या होगा और उसी भय से हम दूसरों को डराने की कोशिश कर रहे हैं कि तुझे कैसे मिल गया। धीरे-धीरे यह भय हिंसा में बदल जाता है। इसलिए तुरंत अपने व्यक्तित्व पर नियंत्रण करिए और उन कारणों को खोजिए जहां हम चूक गए। ऊर्जा इसमे नष्ट न करें कि उसे क्यों मिल गया। उसकी योग्यता हमारे लिए सीख हो, ईर्ष्या का कारण न हो। जो उसे प्राप्त हुआ वह हमारे लिए प्रेरणा बने। आज अधिकांश लोग इसी चक्कर में असंतुष्ट पाए जाते हैं, अशांत पाए जाते हैं। तुलना मनुष्य का स्वभाव है। प्रतिस्पर्द्धा योग्यता को मांजती है। ऐसा करना भी चाहिए, लेकिन सावधानी के साथ।

प्रकृति प्रेम, मनुष्य होने की शर्त
आज के मशीनी युग में हमारे लिए प्रकृति का मतलब है जल, वायु, अग्नि जैसे उसके तत्वों का हमारे लिए उपयोग। तो क्या प्रकृति सिर्फ यही सब है? किष्किंधा कांड में श्रीराम जब सुग्रीव को राजा बनाने के बाद वन में आए तब वे विरह में डूबे हुए थे। ऐसे में तुलसीदासजी ने श्रीराम के मुंह से मनुष्य जीवन और प्रकृति पर बड़ी अद्‌भुत टिप्पणियां करवाई हैं। अपने कवि हृदय को जाग्रत कीजिए और फिर जुड़ें श्रीराम की भावनाओं से। अब हम इसी स्तंभ में कुछ दिन श्रीराम-लक्ष्मण की बातचीत के माध्यम से प्रकृति और जीवन-संदेश से जुड़ते चलेंगे।

श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, ‘लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुं देखि।।हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं। जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं।' ‘घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।’ ‘दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती।

श्रीराम कहते हैं गृहस्थ को थोड़ा वैराग्य भाव पालना चाहिए। वैराग्य का मतलब चीजों को छोड़ देना नहीं बल्कि अपनी चीजों में संतोष रखकर सदुपयोग करना है। यही सच्चा वैराग्य है। जब वैराग्य आएगा तब विरह का मतलब समझ में आएगा। सभी के जीवन में कहीं न कहीं ऐसी स्थिति आती है, जिसका नाम दुख है। दुख को हटाने के लिए, कम करने के लिए और अधिक दुखी होने से बचने के लिए प्रकृति क्या काम आती है इस पर विचार करते चलेंगे, क्योंकि प्रकृति प्रेमी होना हमारे मनुष्य होने की आवश्यक शर्त है।

भीतर सत्संग की सुगंध पैदा करें
नई पीढ़ी के बच्चे बोलें न भी पर मन ही मन सोचते हैं कि लोग सत्संग में क्यों जाते हैं। क्या मिलता है सत्संग से? सत्संग में सामान्यत: कोई व्यक्ति बोल रहा होता है और अनेक लोग उसको सुन रहे होते हैं। उसके मूल में कथा भी हो सकती है, व्याख्यान, प्रवचन हो सकता हैै। शाब्दिक अर्थ यह है कि अच्छी बात के लिए एकत्र होकर संग करना, लेकिन आज के बच्चों को यह बात गले नहीं उतरती। उनका मानना है कि किसी का कुछ नहीं बदलता। भयभीत लोग ऐसे स्थानों पर जाकर अपना भय मिटाने का प्रयास करते हैं। कई माता-पिता मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हमारे बच्चे सत्संग में नहीं जाते। बच्चे जाएंगे भी नहीं, क्योंकि एक तो उनके पास समय नहीं है, दूसरी बात रुचि नहीं है। ऐसे में यदि हम सत्संग उन तक ला सकें तो हमारी बड़ी उपलब्धि होगी। सत्संग को उन तक लाने के लिए अपने भीतर रूपांतरण लाना पड़ेगा। यदि सत्संग में जाकर आपके भीतर के कुछ दोष मिट जाएं, आपके व्यक्तित्व में दूसरों को महसूस होने वाली शांति आए, तब वे सोचेंगे ये ऐसी जगह गए थे जहां से कुछ श्रेष्ठ मिलता है। हमारा बदलाव सत्संग को उन तक ला सकेगा। वक्त तो बच्चे कहीं न कहीं बिता रहे हैं, इसलिए इनके जीवन में कुछ समय सत्संग जीवित रखने के लिए अपने भीतर परिवर्तन लाना पड़ेगा। सत्संग से जो सबसे बड़ा अंतर आता है वह है आपके चरित्र से सुगंध उठने लगती है और यह ऐसी सुगंध है, जो दूसरे महसूस करेंगे ही। माता-पिता के चरित्र की सुगंध बच्चों में उतरती ही उतरती है। चरित्र का मतलब केवल आचरण नहीं है। यह उस समझ का नाम है, जिसमें जो भी किया जाए उसके प्रति होश पैदा हो जाए, इसलिए जब भी सत्संग में जाएं एक अच्छा और सही परिवर्तन लेकर लौटें।

सीख के साथ संस्कार भी महत्वपूर्ण
पहले मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों से जीवन जीता था। इसीलिए दैनिक उपयोग की वस्तुएं भी लाभकारी होती थीं। वस्तुओं के उपयोग के प्रति हम जागरूक रहते थे कि ये भविष्य में हमारे लिए कितनी उपयोगी हैं और कितनी नुकसानदायक। विज्ञान और तकनीक के इस दौर में हमने सुविधाओं के चक्कर में यह भुला दिया कि हमारे शरीर को इससे कितना नुकसान होगा। केवल टीवी, मोबाइल और कम्प्यूटर का ही उदाहरण लें। इस त्रिवेणी ने शरीर पर जो तूफान लाया है वह नज़र नहीं आता। आज अधिकतर लोग इनका दुरुपयोग ही कर रहे हैं। भविष्य में देह इसकी कीमत चुकाएगी।

आज परिश्रम इतना करना पड़ता है कि लोगों के पास आंतरिक और बाहरी स्वास्थ्य के लिए वक्त नहीं है। यदि इन संसाधनों का उपयोग समझना हो तो सीख और संस्कार का अंतर समझना होगा। सीख दुनिया में दो वक्त की रोटी जुटाने में काम आती है और संस्कार जीवन बचाने के काम आते हैं। सीख किताबों से मिल सकती है, लेकिन संस्कार घरों में बड़ी उम्र के लोगों के आचरण से मिलेंगे। सीख देना आसान है परंतु संस्कार देना कठिन, क्योंकि सीख सतह पर दी जा सकती है। संस्कार के लिए देने और लेने वाले दोनों को गहराई में उतरना होगा। सीख देते समय केवल इतना ध्यान रखना है कि जानकारी सही हो, लेकिन संस्कार देते समय धैर्य रखना पड़ेगा। सीख अस्थायी मामला है और संस्कार स्थायी। जिनके पास संस्कार होंगे उन्हें यह समझ भी आ जाएगी कि भौतिक संसाधनों का उपयोग किस प्रकार हितकारी बनाया जाए। अन्यथा मोबाइल, टीवी और कम्प्यूटर चलाने की सीख तो सबके पास है, लेकिन इनके अज्ञात दुष्परिणाम से बचने की समझ नहीं है। हमें हमारे ही भीतर यह समझ पैदा करनी होगी।

भीतर गहराई से जोड़ता है ध्यान
यदि व्यक्ति केवल शिक्षित है और प्रबंधन में योग्य नहीं है तो वह लगभग घर ही बैठा रहेगा। ऐसे अनेक पढ़े-लिखे लोग हैं, जिनकी योग्यता पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन यदि उनमें प्रबंधकीय कौशल नहीं है तो वह शिक्षा ऐसी होगी जैसे रेफ्रिजरेटर में रखा हुआ भोजन जो सुरक्षित है, लेकिन उसमें ताजगी नहीं है। दूसरा पक्ष यह है कि कुछ लोग बहुत अच्छे प्रबंधक होते हैं, लेकिन शिक्षा के मामले में थोड़े कमजोर हैं। ऐसे लोगों के परिणाम में क्वालिटी, गहराई नहीं होगी तथा वे दूरगामी नहीं होंगे। कुछ लोग ऐसे भी हैं कि शिक्षा और प्रबंधन दोनों मिलने के बाद भी, सफलता का दृश्य दिखने के बाद भी यदि असफल जैसे लगते हैं तो इसका मतलब है हम केवल बाहर टिककर शिक्षा और प्रबंधन का उपयोग कर रहे हैं।

प्रबंधन में शक्ति है, शिक्षा में समझ है। प्रबंधन के पास क्रियाशीलता है, शिक्षा के पास विचार हैं। इसलिए शिक्षित व्यक्ति को यह समझ जरूर होनी चाहिए कि जो शक्ति उसे प्रबंधन से मिल रही है वैसी ही ईश्वरीय शक्ति, आध्यात्मिक ऊर्जा उसके भीतर है और प्रबंधन का उसको यह उपयोग करना चाहिए कि भीतर की शक्ति को चार भागों में बांट लें। शारीरिक, मानसिक, नैतिक और व्यावसायिक। तब भीतर की शक्ति बाहर अद्‌भुत परिणाम देगी। अभी हम भीतर की शक्ति का उपयोग ही नहीं कर पाते। जैसे ही आप संसार प्रदत्त शक्ति और ईश्वर द्वारा दी गई शक्ति का अंतर समझेंगे, आपकी काम करने की क्षमता ही बदल जाएगी। अध्यात्म कहता है थोड़ा-सा अपनी आत्मा के निकट बैठिए। इसलिए कुछ समय मेडिटेशन जरूर कीजिए। यह किसी मोक्ष, पाप-पुण्य का मामला नहीं है। ध्यान आपको गहरे में अपने भीतर जोड़ेगा और आपकी शक्ति चार भागों में ठीक से बंट जाए इसमें मदद करेगा।

अंधेरे की विदाई का पर्व जन्माष्टमी
कुछ लोग हैं जो अंधेरे से डरते हैं और कुछ लोग अंधेरे में गलत काम करते हैं। कुल-मिलाकर अंधेरा अप्रिय होता है। अंधकार की परिभाषाओं में सबसे सही यही है कि प्रकाश के अभाव का नाम अंधकार है, क्योंकि इसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसके बावजूद यदि प्रकाश नहीं है तो अंधकार अपना काम करेगा। हिंदू देवताओं में श्रीकृष्ण अवतार की अनेक विशेषता हैं। उनमें एक है उनका अपने आप को अंधकार से जोड़ना। वे आधी रात को जन्म लेते हैं। यह घोषणा करते हैं कि तुम्हारे जीवन में जब अंधकार हो, भ्रम, निराशा, उदासी हो मैं तब भी आऊंगा। ईश्वर का हमारे जीवन में आने का मतलब है प्रकाश का आना। जो दिख नहीं रहा था वह स्पष्ट हो जाना।

श्रीकृष्ण ने कहा था- अंधकार मिटाना इसलिए भी आवश्यक है कि प्रकाश में वह दिखने लगता है, जो जरूरी है। चुनौतियां अंधकार में नज़र नहीं आती। धीरे-धीरे अंधकार खुद एक चुनौती बन जाता है। श्रीकृष्ण के पास अपने ज्ञान, अपनी समझ का प्रकाश था, इसलिए वे सारी चुनौतियों के पार चले गए। उनके जीवन में लगभग वह सब हुआ, जो हमारे जीवन में होता है। सबसे बड़ी चुनौती तो यह थी कि उन्हें सारा संघर्ष अपने लोगों से करना पड़ा। अपने लोग अपनेपन और विरोध दोनों का अंधकार निर्मित करते हैं। जब अपनेपन की अति हो तब भी अंधकार छा जाता है, दिखना बंद हो जाता है। ऐसे ही जब विरोध हो तो भी अंधकार छा जाता है। जो लोग प्रतिपल जीवन जीने के लिए तैयार हैं उन्हें हर हाल में अंधकार को विदा करने की तैयारी कर लेनी चाहिए। जीवन जिस चुनौती पर खड़ा होता है उसमें अपने-पराए, मित्र-शत्रु इन सबसे निपटने के लिए एक प्रकाश चाहिए। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी संघर्ष से सीधे सामना करने के लिए सुंदर तिथि के रूप में आती है।

धैर्य का परिणाम विनम्रता में हो
परमात्मा ने अपने ही स्वरूप को प्रकृति में बदलकर पूरी मनुष्यता के लिए अद्‌भुत ढंग से उपयोगी बनाया है। हम प्रकृति के हर हिस्से से कुछ न कुछ सीख सकते हैं। धार्मिक दृष्टि से प्रकृति को परमात्मा से जोड़ा गया है। विज्ञान उस नेचर से रिसर्च कर उसे मनुष्य के लिए उपयोगी बना देता है, इसीलिए विज्ञान की दृष्टि में यह सब नेचरल एक्टिविटी है। यहां विज्ञान और प्रकृति का संबंध एकदम मशीनी हो जाता है। यदि किसी भक्त से पूछें कि उसके लिए नदी का क्या मतलब है तो उसकी आस्था सीधे गंगा में डुबकी लगाएगी। वो पहाड़ को सीधे गोवर्धन से जोड़कर परिक्रमा में उतर जाएगा। उसे वायु में हनुमानजी नजर आएंगे। उसके लिए अग्नि का मतलब यज्ञ है।

आकाश वह स्थान है जहां भगवान का वैकुण्ठ बसा है। तो यहीं से भाव बदल जाते हैं। किष्किंधा कांड में तुलसीदासजी ने श्रीराम-लक्ष्मण संवाद के जरिये प्रकृति के महत्व को बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। बरषहिं जलद भूमि निअराएं। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएं।। बूंद अघात सहहिं गिरि कैसें। खल के बचन संत सह जैसें।। बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान नम्र हो जाते हैं। बूंदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं। विद्या को पाकर विद्वान को विनम्र होना चाहिए। उदाहरण दिया है जैसे बादल पृथ्वी के पास आकर झुक जाते हैं। विनम्रता तभी पूरी होती है जब उसमें सहनशीलता आ जाए। वरना विनम्रता भी एक मुखौटा बन जाएगी। सहनशील होने के लिए श्रीराम ने पर्वत पर बूंदों की चोट का उदाहरण दिया है। ये दोनों ही उदाहरण हमें समझा रहे हैं कि अपने भीतर सहनशीलता यानी धैर्य का परिणाम बाहर विनम्रता होना चाहिए। धैर्य शिक्षित और परिश्रमी व्यक्ति के लिए गहना है।

व्यक्तित्व में लचीलापन लाएं
भाषा में एक शब्द आता है दुहना। इसे पशुओं से जोड़कर देखा जाता है। जैसे गाय का दूध दुहना। किसी के श्रेष्ठ का किसी और के द्वारा उपयोग किया जाना। मनुष्य जीवन में अपने लिए श्रेष्ठ और उपयोगी बातें दुहने के कई अवसर हैं। जिंदगी लगातार सुख-दु:ख प्रवाहित कर रही है, क्षमता आपकी है कि आप किसे ग्रहण कर रहे हैं सुख या दु:ख। यदि आप दु:खों से बचना चाहते हैं तो आपको थोड़ा लचीला होना पड़ेगा यानी चीजों से जुड़ जाएं। अपने आप को किसी से काटंे न। कुछ लोग खुद को समाज से काट लेते हैं, परिवार से काट लेते हैं और फिर मनुष्य स्वयं से भी कट जाता है। यहां लचीले होने का मतलब है हर परिस्थिति में ढल जाना। नर्तक दक्ष हो तो नृत्य-कला में शरीर का लोच उसे निखारता है। इसी तरह हमारे पूरे व्यक्तित्व में लोच होनी चाहिए। हम हर स्थिति में ढल जाएंगे और श्रेष्ठ प्राप्त कर लेंगे। लचीलेपन का मतलब आचरण से गिरना नहीं है।

सफलता के लिए अपनी योग्यता का सदुपयोग करना ही लचीलापन है। लचीलेपन का यह उपयोग है कि हम जीवनभर शरीर पर टिक जाते हैं। लचीला व्यक्तित्व हर स्थिति का लाभ उठाना जानता है। और तो और, जीवन में उदासी आ जाए तो उसका भी फायदा उठाया जा सकता है। उदासी में अकेलापन नुकसान पहुंचाएगा, पर यदि व्यक्तित्व में लचीलापन है तो आप अकेलेपन को एकाग्रता में बदल सकेंगे और एकाग्रता में बदलने के लिए शरीर से हटकर भीतर आत्मा तक जाना जरूरी है। उदासी शरीर से हटी, शरीर की थकान गई और आप स्फूर्त हुए। आत्मा पर जाने से जो ऊर्जा मिलने वाली है वह आपकी समूची स्थिति को बदल देगी, इसलिए लचीलेपन को ठीक से समझकर अपने व्यक्तित्व में स्थितियों के प्रति लोच लाकर उन सफलताओं को जरूर हासिल करें, जो इसी कारण हमसे दूर हैं।

आत्मा पर ध्यान से आती है पवित्रता
दूसरे की देह में रुचि रखना मनुष्य की कमजोरी ही नहीं उसका स्वाभाविक लक्षण है और यह रुचि हर उम्र में अपने हिसाब से बनी रहती है। आज हमारे चारों ओर कुछ ऐसे दृश्य सरलता से उपलब्ध हैं, जिन्हें देखकर शरीर तुरंत अपने प्रवेश द्वार खोल देता है। उत्तेजक विज्ञापन, उत्तेजक फिल्में अब एक क्लिक पर आपके एकांत में सहज उपलब्ध है। ऐसे में शरीर का असंयमित होना सरल और स्वाभाविक है। अब शरीर कब कुचेष्टा पर उतर आए पता नहीं, क्योंकि बाहर के खुलेपन ने भीतर के खोखलेपन को जन्म दे दिया है। बाहर विकास की आंधी ने भीतर असंयमित वासना के थपेड़े चला लिए। ऐसे में शरीर में हार्मोनल परिवर्तन के कारण जहर बनेगा ही बनेगा और इसीलिए हम शरीर की जरूरत की बजाय उसकी मांग पर टिक जाते हैं। शरीर अगर अकेले संचालित होता तो कठिनाई नहीं थी।

मन और बुद्धि इसके पीछे काम कर रहे होते हैं। मन से जुड़ते ही भोग की इच्छा शुरू हो जाती है। दूसरों की देह में रुचि अपनी आत्मा पर टिकने से ही खत्म होगी। इसलिए यदा-कदा इस शरीर को, जो दूसरे शरीरों की ओर लगभग दौड़ता है थोड़ा-सा मोड़िए और आत्मा से जोड़िए। जितना हम अपनी आत्मा पर टिकेंगे, उतना ही हम अपनी और दूसरों की देह के प्रति सजग हो जाएंगे। दूसरों की देह से बचने का एक ही तरीका है हम होश में आ जाएं अपनी देह को लेकर। आपको समझ में आएगा कि यह नष्ट होने वाली व्यवस्था है। जैसे मेरी देह नष्ट होगी वैसे ही दूसरों की भी होगी। फिर क्यों न स्थायी पर टिका जाए, जो कि आत्मा है और यहीं से हम अपने शरीर का भी मान करेंगे और दूसरों की देह का भी सम्मान करेंगे। इस मान-सम्मान का नाम है पवित्र भाव। इसे बनाने के लिए कुछ समय अपनी आत्मा के साथ जरूर बिताएं।

मानव से वस्तु जैसा व्यवहार न करें
आजकल अपने हित में दूसरों का इस्तेमाल कितना और कैसे करते हैं, इसे बड़ी योग्यता माना जाता है। दूसरों का उपयोग करने के बाद हम उनका दुरुपयोग करने लगते हैं। कुछ लोग इससे भी आगे शोषण पर उतर आते हैं। चीजों को संभालकर न रखने की प्रवृत्ति तो बन ही गई है। अपनी प्राचीन संस्कृति, बीते जमाने की चीजों, स्थिति के प्रति लगाव को कभी देशभक्ति कहा जाता था। उपयोग करो और फेंकोकी प्रवृत्ति धीरे-धीरे व्यक्तियों तक पहुंच जाती है। कोई कुछ समय तक आपके काम का था, आपका काम निकल गया, आपने उसे हटा दिया। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो सामने वाले में खतरा देखने लगते हैं तो हटाते-हटाते मिटा ही देते हैं। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम उपयोग और फेंकने की प्रवृत्ति पर विश्वास न रखें। कम से कम जिन लोगों का आपने उपयोग किया है उनका सम्मान अवश्य रखें।

स्वयं के व्यक्तित्व को ऐसा बनाएं कि हम दूसरों के लिए उपयोगी बनें और दूसरे हमें फेंक न सकें। विश्वसनीयता, हितकारी दृष्टिकोण, निष्ठा, ईमानदारी ये कुछ ऐसे गुण हैं जो हमारे साथ हैं तो हमारा उपयोग करके लोग हमे फेंक दें ऐसे अवसर कम आएंगे। मनुष्य और धन में बहुत बड़ा अंतर है। मनुष्य के पास जो आज दिखता है केवल उतना ही नहीं होता। मनुष्य असीम संभावना का दूसरा नाम है। आपको लग रहा है आपने किसी को पूरा निचोड़ लिया अब फेंक दें, तो आप गलती कर रहे हैं। आप जान ही नहीं पाए कि इसके भीतर और क्या हो सकता है, इसलिए कम से कम मनुष्यों के मामले में तो यूज एंड थ्रो का व्यवहार न करें। यदि कोई आपके लिए उपयोगी है और बाहरी परिस्थितियों के कारण आज उपयोगी न लग रहा हो, तो उपयोग में न लें पर उसे मिटाइए मत। उसके भीतर की संभावना पता नहीं किस दिन आपके काम आ जाए।

तटस्थता देती है भीतरी मजबूती
ऐसा बहुत बार हो जाता है कि हम खूब परिश्रम करते हैं, सभी लोग मानते हैं कि हमें सफलता जरूर मिल जाएगी। अग्रिम बधाइयां भी मिलने लगती हैं। फिर अचानक हमारी अपेक्षाएं धरी रह जाती हैं। कुछ लोग दोहरे परिश्रम में पुन: जुट जाते हैं, लेकिन यह आसान नहीं होता। कुछ लोग लंबे समय के लिए उलझ जाते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में हमें तटस्थ भाव रखना चाहिए। भाषा की दृष्टि से शब्द थोड़ा कठिन है, लेकिन जीवन में अपनाने पर अद्‌भुत परिणाम देगा। तटस्थ मतलब किसी के प्रति कोई राग-द्वेष न रखकर अपनी भूमिका निभाना। जब इस तरह की अप्रत्याशित असफलता जीवन में आए तो तटस्थ भाव से मूल्यांकन करिए।

अब इस तटस्थ भाव को लाएं कैसे? इसके लिए एक दृश्य को अपने जीवन से जोड़िए। किसी तेज चलते हुए पंखे को देखिएगा। उसकी अलग-अलग पंखुड़ियां एक लगने लगती हैं। इसे यदि हम चक्र कहें तो चक्र के सारे प्राण उसके केंद्र में होते हैं, जिसको आप कील या सेंटर कह लें। बीच की कील मजबूत है तो आस-पास घूमने वाला पहिया सही ढंग से चलेगा। बल्कि उसकी पूरी चाल कील पर टिकी है। इसमें अच्छी बात यह है कि कील जरा भी नहीं हिलती, चक्का पूरा घूम जाता है। बस, हमें अपने आंतरिक व्यक्तित्व को कील मानना चाहिए। दुनिया जितनी तेजी से घूम रही है हम उतने ही दृढ़ हैं। कील हिल गई तो चक्र की गति प्रभावित होगी ही। अपने आंतरिक व्यक्तित्व को कील की तरह मजबूत रखने के लिए हमें अपने ही केंद्र पर जाना पड़ेगा और जिसका अपना केंद्र मजबूत है वह बाहर से कहीं भी, कभी भी टूटेगा नहीं, दु:खी नहीं होगा। इस केंद्र पर जाने के लिए योग के जो आठ चरण हैं वो आठ सीढ़ियों की तरह हैं, इसीलिए कुछ समय योग करने में जरूर बिताया जाए।

भीतर संसार रहे तो परेशानी      
हमारा दैनिक जीवन प्रकृति के पांच तत्वों में घुला-मिला है। जीवन के लिए प्रकृति के पास बहुत सारे तत्व हैं, लेकिन जीवन को समझने के लिए भी बड़े सुंदर इशारे हैं। इसे श्रीरामजी ने बहुत अच्छे से समझा और छोटे भाई लक्ष्मणजी को भी समझाया। किष्किंधा कांड में दोनों भाई चातुर्मास में जीवन बिता रहे थे। सुग्रीव आश्वासन दे चुके थे कि चार मास के बाद मैं सीताजी की खोज के लिए वानर भेजूंगा। इस अवधि में श्रीराम ने भाई को तो ज्ञान दिया ही, स्वयं का आत्मबल भी बढ़ाया। तुलसीदासजी दोनों भाइयों की बातचीत में व्यक्त दर्शन प्रकृति के आधार पर बता रहे हैं, ‘क्षुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुं धन खल इतराई।। भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।

रामजी कहते हैं जैसे छोटी नदियां थोड़ा-सा पानी आने पर इतरा जाती हैं और जैसे बारिश का शुद्ध पानी जब जमीन पर गिर जाए तो कीचड़ से मिलकर गंदा हो जाता है। ऐसे ही कई लोग होते हैं, जिन्हें जीवन में सफलता, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा मिल जाए, तो वो ऐसे ही इतराते हैं। भूल जाते हैं कि यह सब माया है। माया यानी जादू, जिसका सीधा मतलब है जो है वह दिखता नहीं और जो दिख रहा है वह होता नहीं। परमात्मा हमें संसार में ऐसी माया दिखाते हैं कि हम भ्रम में पड़ जाते हैं और मैंमें डूब जाते हैं। मेरी सम्पत्ति, मेरा घर, मेरी सफलता, मैंने ही सबकुछ किया है। इसी में माया का प्रवेश हो जाता है। हम भूल जाते हैं कि करने वाले भले ही हम हैं, पर कराने वाला कोई और है। जब मनुष्य माया से जुड़ता है, तो उसका व्यक्तित्व थोड़ा धुंधला हो जाता है। इसलिए संसार में रहना है, सारे काम करना हैं। संसार में रहने में दिक्कत नहीं है। परेशानी तब शुरू होती है जब संसार हमारे भीतर रहने लगता है। इन पंक्तियों में श्रीराम हमें यही समझा रहे हैं।


विसर्जन से ही होता है नवसृजन
मनुष्य शरीर मिला है तो परेशानिया आएंगी ही। कुछ परेशानियां कुदरती होती हैं, कुछ को संसार हमारी ओर फेंकता है और कुछ दिक्कतों के निर्माता हम खुद होते हैं। भारतीयों के लिए परेशानियों से निपटने के लिए सबसे सरल, स्वीकृत तरीका है उत्सव, त्योहार, परंपराओं में डूब जाना। धर्म से संबंध होते ही उत्सव में गरिमा आ जाती है। श्रेष्ठ को जीते हुए यदि मन प्रसन्न हो, आनंदित हो तो वह उत्सव है।


गणेशोत्सव तो इन बातों में अद्‌भुत है और आश्चर्यजनक भी। सबसे अनूठी बात है प्रतिमा की स्थापना के पश्चात, उत्सव के बाद उसका विसर्जन करना। पिछले दिनों भारत की संन्यास परंपरा के शीर्ष संत स्वामी सत्यमित्रानंद गिरिजी से मिलना हुआ। उन्होंने अभी-अभी अपने सारे दायित्व स्वामी अवधेशानंद गिरिजी को सौंपे हैं। छोड़ने में बड़ी ताकत लगती है। छोड़ना यदि साधु को भी पड़े तो उसे भीतर मंथन से गुजरना पड़ता है। संसार चाहे जो समझे, लेकिन सांसारिक समीकरण साधु को भी घेरते हैं। उस दिन स्वामी सत्यमित्रानंदजी ने त्याग की बड़ी सुंदर परिभाषा दी। उन्होंने कहा, ‘कमाना तो मनुष्य को खुद पड़ता है , लेकिन छुड़वाता केवल भगवान है।यह बड़ा सुंदर इशारा है। जिस दिन भगवान चाहता है, उस दिन सब आसानी से छूट जाता है। 

चूंकि वह छुड़वाता है इसलिए त्याग का आनंद बढ़ जाता है। इसे यदि सांसारिक लोग समझ लें तो उनके जीवन से जब भी कुछ छूटे वे समझ लें यह परमात्मा करवा रहा है, इसलिए विसर्जन से हम यह सीखें कि गणेशजी महाराज स्थापित होते हैं और खूब आनंद मनवाते हैं और फिर यह कहते हैं चलो विसर्जन करें, क्योंकि एक नया सृजन करना है। जैसे सत्यमित्रानंद गिरिजी ने विसर्जन किया और अवधेशानंद गिरिजी नवसृजन करेंगे। हमारे जीवन के लिए अर्जन और विसर्जन का यह सुंदर संदेश है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

No comments:

Post a Comment