Wednesday, August 19, 2015

Jeene Ki Rah8 (जीने की राह)

दोनों लोक में गुरु-मंत्र उपयोगी
विज्ञान ने मनुष्य की भौतिक समस्याओं के समाधान दिए हैं, लेकिन जीवन के कुछ प्रश्न अभी भी अनुत्तरित हैं। उसमें से एक प्रश्न है गुरु की जीवन में क्या आवश्यकता है? गुरु भी एक मनुष्य है और हम भी मनुष्य हैं। जब हम समर्थ हैं, प्रयास हमें ही करना है तो गुरु क्यों बनाया जाए? परमात्मा तक सीधे यात्रा की क्षमता सबमें नहीं होती। इस मार्ग पर उतार-चढ़ाव, अंधे मोड़ आएंगे ही। गुरु हमें गुरु-मंत्र का दीपक दे देते हैं।

गुरु हमारे अहंकार को काटता है और हमारा मूल व्यक्तित्व निखरकर आ जाता है। गुरु कहीं भी हमें लाचार नहीं बनाता। वह हमें परमात्मा तक पहुंचने में सक्षम बना देता है। लोग सारे दायित्व गुरु पर छोड़ देते हैं। गुरु-शिष्य के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण है गुरु-मंत्र। इसके द्वारा शक्ति का संचार होता है और शक्ति के संचय से हम बनेंगे शक्तिवान और ऐसा व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में जरूर सफल होगा। पूरी एकाग्रता और निष्ठा से गुरु-मंत्र जपें। गुरु-मंत्र आध्यात्मिक घटना है, पर आपको संसार में भी सफलता दिलाएगा। एकाग्रता से दृढ़ता आएगी और दृढ़ता से जब भी कोई काम किया जाएगा सफलता मिलकर रहेगी, इसलिए जो लोग संसार को भी प्राप्त करना चाहें उनके लिए भी गुरु और उनका मंत्र उपयोगी ही रहेगा।

यदि जीवन में कोई अवसर मिले और गुरु प्राप्त हो रहे हों तो चूक न जाएं। अन्यथा प्रतिदिन प्रार्थना में भगवान से कहें कि कोई गुरु भेज दें और फिर जो मंत्र प्राप्त हो उस मंत्र पर टिकें। व्यक्ति के रूप में गुरु मिल जाना बहुत बड़ी उपलब्धि है, लेकिन हमारा ही अति आग्रह यदि हमें रोके तो एक विनम्र प्रस्ताव रख रहा हूं हनुमानजी को गुरु बना लीजिए। आप पाएंगे श्री हनुमानचालीसा मंत्र बन जाएगी और आपको वह सारी उपलब्धियां मिल जाएंगी जो जीवन में गुरु के मिलने पर होती है।

सावन में क्रोध, अहंकार मिटा दें
हम परिवार में दो ढंग से जी सकते हैं। पसंद के आधार पर या प्रेम के आधार पर। पसंद-नापसंद को घर के बाहर रखें। संसार में पसंद-नापसंद के साथ रहना व्यावहारिक घटना है, ऐसा करना भी चाहिए। परंतु परिवार में यदि हम कहें कि यह रिश्ता हमें पसंद है, यह पसंद नहीं है तो परिवार बोझ बन जाएगा और टूट भी सकता है। परिवार में सिर्फ प्रेम रखिए। जहां प्रेम है वहां पसंद-नापसंद का सवाल ही नहीं उठता। परिवार दो कारणों से टूटते हैं - अहंकार और क्रोध।

पसंद-नापसंद की वृत्ति इन्हें जन्म देती है, लेकिन प्रेम दोनों को गला देता है। हमें इन दोनों का रूपांतरण करना चाहिए। अहंकार मिटेगा विनम्रता से, क्रोध जाएगा त्याग से। परिवार में विनम्रता और त्याग उतर आए तो न तो आप किसी के प्रति अहंकारी होंगे और न क्रोध करेंगे। कागज पर हस्ताक्षर करने से पहले हम देखते हैं कि उस पर लिखा क्या है? कोरे कागज पर कोई दस्तखत नहीं करता। क्रोध व अहंकार के साथ यही करें। जीवन-पृष्ठों पर जब-जब क्रोध-अहंकार उतरें, गतिविधि का हस्ताक्षर बिल्कुल न करें। करना ही पड़े तो मौन के हस्ताक्षर करिए, मुस्कान की कलम से। दोनों विकार वाणी से व्यक्त होते हैं। विज्ञान भी कहता है कि ज्यादा ऊंचा बोलने से क्रोध-अहंकार बढ़ते हैं। लोग समझते हैं गुस्सा आने पर हम जोर से बोलते हैं।

दरअसल जोर से बोलने से गुस्सा और बढ़ जाता है, अत: घर में मौन रहने व धीरे बोलने का प्रयोग करते रहें, जो तब ज्यादा काम आएगा जब आप इसे सावन माह से जोड़ लेंगे। यह प्रकृति के भीगने का समय है। शिव उपासना में जल का बड़ा महत्व है। यह जीवन में शीतलता लाता है। चलिए, पूरे सावन इस बात का अभ्यास करें कि मौन रखेंगे, मीठी वाणी बोलेंगे और धीमे-धीमे बोलेंगे। इस बार सावन में क्रोध और अहंकार धुल जाने चाहिए।

जीवनशैली का प्राण है सत्संग
विज्ञान ने सिद्ध किया है कि एक वस्तु यदि कुछ समय दूसरी वस्तु के पास रखी रह जाए, तो उनके गुण-दोष एक-दूसरे में उतर जाते हैं। ऐसा ही मनुष्यों के साथ भी है। आप किसी दुर्गुणी व्यक्ति के साथ समय बिताएंगे तो पाएंगे कि दुर्गुण आपके भीतर स्थान बना रहे हैं। इससे बचने के लिए आपको बहुत अधिक संयम की ताकत लगेगी। इसके उलट सद्‌गुणी व्यक्तियों के साथ रहें तो न चाहते हुए भी उनकी अच्छी बातें आपके भीतर प्रवेश करने लगेंगी।

ध्यान दीजिए न चाहते हुए भी, इसीलिए हमारे यहां सत्संग का बड़ा महत्व है। इसमें जो संग शब्द है, वह अच्छी जीवनशैली के लिए प्राण है। जब कहीं, जहां भी अच्छे व्यक्ति का संग मिले लाभ उठाइए। किंतु अच्छे व्यक्ति मिलने मुश्किल हों, तो किसी शास्त्र का, पवित्र स्थान का संग कर लीजिए। वह भी सत्संग है। कुछ स्थान ऐसे हैं जिन्हें तीर्थ, मंदिर कहते हैं, वहां भी सत्संग घटेगा। ऐसे गुण जिनकी तलाश में आपको बहुत समय लगाना पड़े, परिश्रम करना पड़े, वह आपके जीवन में आसानी से उतर जाएंगे। जब आप किसी अच्छे व्यक्ति के पास बैठे होते हैं, तो आप पाएंगे कि शरीर बैठा है, लेकिन मन भीतर से कह रहा है भागो। वह उस अच्छे व्यक्ति पर संदेह कराएगा।

एक अरुचि-सी जगाने लगता है। ऐसे समय आप अपने मन से बात करिए। अभी हम सत्संग कर रहे हैं, एक अच्छे व्यक्ति के पास बैठे हैं। फिर पूछिए कि क्या तुम यहीं हो? एक गूंज-सी भीतर उठेगी, ‘क्या तुम यहीं हो,’ जब तक कि वो यह न कहे कि हां मैं यहीं हूं, क्योंकि मन रुका और आप शांत हुए। फिर आपके भीतर अच्छी बाते बहुत आसानी से प्रवेश कर जाएंगी। इसलिए जब भी मौका मिले सत्संग करिए और उस समय मन से पूछते रहिए कि क्या तुम यहीं हो? कहीं मत जाना, रुके रहना।

ऐसे हो जाते हैं हम व्यसनाधीन
आपने जीवन में कुछ मित्र बनाए होंगे। संभव है कुछ शत्रु भी बनाए हों या कुछ लोग अपने आप शत्रु बन गए हों। कुछ ऐसे भी मित्र हो सकते हैं, जो पहले तो मित्र लगे और बाद में शत्रु जैसा व्यवहार कर रहे हैं। यह है बाहर की दुनिया का मामला। आइए, अब बात ऐसे मित्र की जो पहले मित्र है और बाद में शत्रु। इनका नाम है व्यसन मित्र। दुर्गुण मित्र बनकर बाद में जो दुश्मनी निकालते हैं, तब पछतावा होता है। तीन तरीके से मनुष्य व्यसन करता है। पहला, नशा करना। जैसे शराब, अफीम, गांजा, भांग का सेवन। इसका संबंध शरीर से है। दूसरा है कर्म का नशा। जैसे जुआं खेलना, सट्‌टा लगाना। तीसरा रूप है काम-भोग। पर पुरुष-गमन, पर स्त्री-गमन। जब मनुष्य में इनमें से कोई भी एक आए या तीनों आएं, शुरू में मित्र लगते हैं, लेकिन धीरे-धीरे ये मनुष्य के व्यक्तित्व को खोखला करते हैं।

संभलने तक देर हो जाती है। ज्यादातर लोग जागते हुए सपना देखते हैं। नींद में देखे सपने तो याद रहते हैं पर जागते हुए देखे सपने हम भूल जाते हैं। सारे कामकाज चल रहे हैं और भीतर सपनों में खोए हैं। व्यसन एेसे लोगों के जीवन में जल्दी उतरते हैं, क्योंकि जब आदमी सपने में खो जाता है तो व्यसन को प्रवेश का मौका मिल जाता है। आज चारों तरफ दुर्गुणों की आंधियां चल रही हैं। ऐसे में हम खुद बचें और बच्चों की इनसे रक्षा करें। बचने के दो तरीके हैं- सावधानी और सतर्कता। बाहर सावधानी रखें और भीतर सतर्क रहें। सावधानी का संबंध शरीर से है और सतर्कता का संबंध मन से है। सावधानी मतलब गिर जाना। सतर्कता मतलब गिरकर उठना। जिसने यह साध लिया वह फिर कैसे भी विपरीत वातावरण में रहे, व्यसन उस पर हावी नहीं होंगे। व्यसन से बचें वरना अपना व पूरे परिवार का बहुत बड़ा नुकसान कर देंगे।

प्रेमपूर्ण रहना सुंदरता का प्रतीक
किसी भी वस्तु का सौंदर्य केवल उसकी सजावट में नहीं, बल्कि उसके सदुपयोग और समय रहते नष्ट होने के पहले ही उसके परिणाम ले लिए जाएं, इस बात में है। हम सभी सौंदर्य पसंद करते हैं। यदि हमको सौंदर्य से लगाव है तो छोटी से छोटी चीजों का सदुपयोग करना सीख जाएं। कपड़े उतारकर फेंकना, चप्पल-जूतों को बेतरतीब ढंग से रखना, भोजन झूठा छोड़ना, कार के दरवाजे को जोर से बंद करना और बेजान चीजों को लात मार देना।

हम तो यह मानकर चलते हैं कि सामने वाली वस्तु बेजान है, लेकिन कहीं न कहीं हमारी यह क्रिया हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। इसलिए जीवन में सौंदर्य बनाना हो तो हर काम को तन्मयता और समर्पण से करिए। काम बाहर हो रहा है और एक सौंदर्य हमारे भीतर घट रहा होगा। अपनी वस्तु के प्रति तो हम फिर भी थोड़े जागरूक हैं, क्योंकि अपनी है। अपने भीतर सौंदर्य जगाने की दृष्टि से अच्छा व्यवहार करिए। अगर हम किसी दूसरे से कोई वस्तु लें, तो उसके प्रति अतिरिक्त सावधान रहें। पहले तो यह मानकर चलें जो वस्तु हमने दूसरे से ली है वह अतिथि के रूप में है। समय रहते उसे वापस लौटाना है। ली गई वस्तु जब लौटाएं तो पूरी तरह आभार से भरकर लौटाएं। वस्तु के प्रति भी और वस्तु देने वाले के प्रति भी। जिन्हें मेडिटेशन में रुचि हो वो दूसरे की वस्तु का उपयोग करने में और लौटाने में जितने सावधान रहेंगे वे पाएंगे कि जीवन की यह क्रिया उनके ध्यान लगाने में मदद करेगी।

विचार का संबंध मन से है और मन दूसरों की वस्तु के प्रति अतिरिक्त रुचि रखता है। आप दूसरों की वस्तु लौटाते हैं तो मन निष्क्रिय होता है। अपनी वस्तु के प्रति सजग होते हैं मन आपके नियंत्रण में आ जाता है। परिणाम में आपका ध्यान आसानी से लगेगा और आप खूब सौंदर्य से भरपूर होंगे। जीवन में प्रेमपूर्ण रहना भी सुंदरता का प्रतीक है।

परिवार का पालन भी यज्ञ है
सभी धर्मों के पास अपनी-अपनी पूजा पद्धति में कुछ विशेष क्रियाएं हैं। गिरजाघर की प्रेयर का अपना मतलब भी है। मस्जिद में पढ़ी गई नमाज भी अपने आप में संदेश है। गुरुद्वारे में जिस तरह से ग्रंथ-साहिब पढ़ा जाता है, उससे पूरी तरह नादब्रह्म प्रभावित हो जाता है। ऐसे ही हिंदू-धर्म में यज्ञ है। हवन सामग्री को कुछ मंत्रों के साथ विप्रगण प्रभावित करते हैं और अग्नि, हवन सामग्री, मंत्र और पुरोहित के सद्कर्म मिलकर पूरे वातावरण को शुभ और कल्याणकारी स्थिति से जोड़ते हैं। भारत के परिवारों में कोई न कोई वरिष्ठ व्यक्ति होता है, जि सकी जिम्मेदारी होती है परिवार का भरण-पोषण करना।

पहले यह दायित्व संभालने वाले को सम्मान भी मिलता था। अब बदले हुए परिवारों में कुछ सदस्यों को जिम्मेदारी तो उठानी पड़ती है, पर उन्हें यह पीड़ा होती है कि मान नहीं मिलता, क्योंकि शक्ति के छोटे-छोटे केंद्र बन गए हैं। ऐसे में इन लोगों को यज्ञ की फिलॉसफी को जीवन में उतारना चाहिए। परिवार का लालन-पालन एक यज्ञ की तरह है, जिसमें सबकुछ स्वाहा के बाद शुभ निकलता है। हवन का धुआं अपने आप में दिव्य संदेश है। यदि आप परिवार का लालन-पालन इस दृष्टि से करेंगे तब लगेगा जो किया वो अनूठा था।

इस भाव के लिए एक यज्ञ भीतर भी किया जा सकता है। शांति से बैठ जाइए और मूलाधार चक्र की ऊर्जा को धीरे-धीरे सहस्त्रार यानी मस्तक के ठीक बीच में लाइए। जैसे यज्ञ में हवन सामग्री डाली जाती है ऐसे ही भीतरी यज्ञ में ऊर्जा को सामग्री समझकर नीचे से ऊपर उठाइए। ऊर्जा जितनी ऊपर उठेगी आप उतने ही आनंदित होंगे और अपने किए हुए के परिणाम को अच्छे से जानकर उसको भी खूब प्रसन्नता से स्वीकार करेंगे। ये दोनों यज्ञ करते रहिए, आप जहां भी नेतृत्व दे रहे हों परिवार या बाहर, आपको हर हाल में आनंद आएगा।

कर्म फल के प्रति आसक्ति न हो
कर्म-योग बहुत श्रेष्ठ है, लेकिन इसमें जब परिणाम की आसक्ति जुड़ जाती है, तो वह इसे दूषित कर देती है। एक बात दिमाग मेें बिठा लें कि पूरे प्रयास के बाद भी जीवन में कुछ बातें अपने ही ढंग से होकर रहेगी। हमारा अधिकार शत-प्रतिशत कर्म पर है, शत-प्रतिशत परिणाम पाने में नहीं है। सही को पूरे प्रयास से करना चाहिए, लेकिन गहरे में यह स्वीकृति बनी रहे कि कुछ ऐसा होगा, जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं रह पाएगा और उस समय विचलित न हों।

स्वीकृति के इसी भाव को और अस्वीकृति की इसी दशा को आस्तिक और नास्तिक शब्द दिए गए हैं। वैसे माना जाता है कि जो ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करे वह आस्तिक और जो न करे वह नास्तिक। नास्तिक व्यक्ति ईश्वर को इसलिए अस्वीकार करता है कि उसकी घोषणा रहती है जो भी हूं, मैं ही हूं और इसीलिए कर्म और परिणाम के प्रति उसका अति-आग्रह हो जाता है। यह तय है कि जो होना है वह होकर रहेगा और यहीं से वह विचलित हो जाता है। मन आपको आस्तिक होने से रोकता है और यदि आप आस्तिक हों जाते हैं तो गलत ढंग से आपको आस्तिक बना देता है, लेकिन जैसे ही स्वीकृति का भाव आता है आप घर, ऑफिस में हों, अकेले हों, जो भी घटनाएं आपके जीवन से गुजरेंगी आप उसे सही ढंग से स्वीकार करेंगे।

आस्तिक होने का यह भी अर्थ है कि अपनी आध्यात्मिक चेतना का सद्पयोग करना। नास्तिकता इसी चेतना का दुरुपयोग है। आध्यात्मिक चेतना हमें यह सिखाती है कि हमारा जन्म कुछ विशेष बातों के लिए हुआ है और वह मृत्यु के पहले हमे करना ही है, लेकिन हम उलझ जाते हैं परिणाम मे। स्वीकार करिए, जो होगा उसे देखेंगे, लेकिन कर्म पूरी ताकत से करेंगे। आस्तिक के लिए ईश्वर का सहारा मददगार है। वह नास्तिक को परेशान कर जाता है।

सुखी रहना जन्मसिद्ध अधिकार
बिना तैयारी के जीवन में कुछ भी न लाएं। यदि हम धन, पद, प्रतिष्ठा या परिवार चाहते हैं, तो इसके लिए तैयारी जरूर करें। यदि तैयार नहीं हैं तो हम अपरिपक्व होंगे और जो बातें हमारे जीवन में आने वाली हैं उनका उपयोग ठीक से नहीं कर पाएंगे। जिनसे सुख मिल सकता है वह दुख का कारण बन जाएंगे। तैयारी के लिए संकल्प लेना पड़ता है कि यदि धन आएगा तो हम तैयार हैं उसके सदुपयोग के लिए। हमारी इंद्रियां बहाना बनाने में माहिर हैं, लेकिन उन्हें नियंत्रित करने की तैयारी है तो जीवन में जो स्थितियां आ रही हैं उसमें वे दुरुपयोग नहीं करेंगी।

तब आप हर हाल में सुखी होंगे, क्योंकि आपकी तैयारी ठीक है। जैसे धन का सदुपयोग करने के लिए हम उसे बंैक में डिपॉजिट करते हैं, ऐसे ही कुछ विचारों, निर्णयों, व्यक्तित्वों को स्टॉक करना सीखें। जीवन के किसी मोड़ पर भविष्य में वे काम आएंगे। तैयारी इसी का नाम है। यह नहीं किया तो इंद्रियां तुरंत उनका दुरुपयोग शुरू कर देंगी। याद रखिए इंद्रियां आसानी से नियंत्रण में नहीं आएंगी। आंख को जो करना है वो छोड़कर सारे दृश्य देखेगी, जो उसे नहीं देखने हैं। जीभ, त्वचा, कान ये सारी इंद्रियां बिना नियंत्रण के नुकसान ही पहुंचाएंगी। अच्छे लोग अच्छाई से तो जुड़ना चाहते हैं, पर हिम्मत नहीं करते।

कई बार तो व्यक्तियों की अच्छाई उनकी मजबूरी होती है। बुरा आदमी बुरा काम किसी न किसी हिम्मत के साथ करता है। इसीलिए हम पाते हैं अच्छे लोग टूटे, दुखी, परेशान नजर आते हैं। हिम्मत नहीं थी तो संकल्प नहीं लिया। संकल्प नहीं लिया तो तैयार नहीं थे और जब तैयार ही नहीं थे तो घटनाएं परेशान करेंगी ही। अब यह संकल्प लिया जाए कि हम तैयार हैं हर बात के लिए कि हम सुखी रहेंगे, क्योंकि सुखी रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

संसार व ईश्वर के फर्क को समझें
एक विरोधाभास सभी के जीवन में अपने-अपने ढंग से बना रहता है। जो लोग भगवान को मानते हैं वे पूरी ताकत संसार छोड़ने में लगा देते हैं। जिन्होंने अपनी सारी शक्ति संसार में झोंक दी है, उन्हें भगवान से परहेज शुरू हो जाता है। कुछ लोग दोनों को पकड़े हुए हैं, तो पूरा जीवन उलझन और भ्रम में पड़े रहते हैं बस इसी भ्रम के कारण भक्त भी तनाव में पाए जाते हैं, जबकि भक्ति और अशांति ये साथ नहीं हो सकते। अशांत चित्त से भक्ति हो ही नहीं सकती। ध्यान रखिए, संसार में रहना है, तो उसे पाने की कोशिश मत करिए, उसमें रहना ही उसे पाना है। संसार कभी किसी को नहीं मिला, क्योंकि संसार कभी भी स्थिर नहीं रहता, प्रतिपल नष्ट हो रहा है। अब परमात्मा की बात करते हैं। भगवान नित्य प्राप्त है और जो मिला ही हुआ है उसे फिर क्या पाना।

थोड़ा-सा होश जगाइए वह अपने आप दिख जाएगा। यह आपकी क्षमताओं में शामिल है। एक ताकत भगवान में भी नहीं है और वह है अपने भक्तों से दूर जाना। हम ही उनसे दूर भागते हैं। संसार पाने का ऐसा युद्ध है, जिसमें जीत भी जाएं तो हाथ में हार ही लगेगी। यदि पाए हुए परमात्मा के लिए होश जगाने के युद्ध में हार भी जाएं तो भी आपकी जीत ही है। इस हार में भी एक तृप्ति, एक सुगंध है। संसार मिल भी जाए तो सावधान हो जाना, क्योंकि इस पाए हुए में भी बहुत कुछ खोना है। हमारे जितने संत, महात्मा, फकीर हैं ये भगवान के सामने हारे हुए हैं और इसीलिए जीत गए। नेपोलियन व सिकंदर ने दुनिया जीत ली पर वे सबसे अधिक हारे हुए लोग हैं। हमें संसार और परमात्मा के इस अंतर को समझना है, फिर चाहे संसार में रहें, चाहे भक्ति करें दोनों का आनंद समान रूप से उठा सकेंगे।

हम से इस प्रकार मिलते हैं भगवान
भगवान अपने भक्तों से किस ढंग से मिलते हैं यदि यह जानना हो, तो उनकी कथाओं को पढ़ना चाहिए। श्रीराम केवट से मिले हों, श्रीकृष्ण ने सुदामा से क्या व्यवहार किया? बुद्ध से उनके भिक्षु जब सवाल-जवाब करते थे तो किस प्रकार होते थे? महावीर और नानक के निकट जाकर लोग कैसा महसूस करते थे? मोहम्मद साहब के खास लोगों ने उनमें क्या देखा? ये सब ईश्वर के रूप हैं, उनके प्रतिनिधि हैं।

यदि हम इनको ठीक से समझ लें, तो हम जान जाएंगे परमात्मा अपने भक्तों से किस तरह मिलता है। किष्किंधा कांड के संबंध में शंकरजी पार्वतीजी को कथा सुना रहे हैं, जानतहूं अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीं।। जो लोग जानते हुए भी ऐसे प्रभु को त्याग देते हैं, वे क्यों न विपत्ति के जाल में फंसें?’ यहां शिवजी के माध्यम से तुलसीदासजी ने बताया है कि श्रीराम बहुत कृपालु हैं। वे सुग्रीव से मिले तो दया का भंडार खोल दिया था। ऐसे दयालु भगवान को लोग भूल जाते हैं। सुग्रीव ने जो गलती की हम भी वही कर रहे हैं। ईश्वर को त्याग देंगे तो संकट जरूर आएगा।

जिस ढंग से ईश्वर हमसे मिलते हैं उसी तरीके से हम भी दूसरे लोगों से मिलें। शास्त्रों में किसी से मिलने का एक तरीका है। पहली बात, जो भी आपके सामने हो उसे पूरा देखें। हम जब भी किसी से मिलते हैं एक अनदेखा भाव हमारे भीतर रहता है, क्योंकि हमारे भीतर अपने ही समीकरण चल रहे होते हैं। दूसरी बात, उस व्यक्तित्व को, उनकी बातों को अपनी आती-जाती सांस से जोड़ें और तीसरी बात उस व्यक्ति की छवि अपने हृदय पर उतारें, पर ध्यान रखें सामने वाला व्यक्ति साफ-सुथरा, सही होना चाहिए। अच्छे लोगों से मिलने पर यह तीन काम करें। भगवान अपने भक्तों से इसी तरह मिलता है।

उपकार में अहंकार मौजूद न हो
उन अवसरों को तलाश करते रहिए, जिनमें हम दूसरों के लिए मददगार साबित हो जाएं। चाहे व्यक्ति समर्थ हो या असमर्थ। लोगों को यह अहसास दिलाना कि हम उनके हैं या उनके हो सकते हैं, अपने आप में एक बहुत बड़ी पूजा है। हमारा प्रभाव और स्वभाव दोनों ही दूसरों के काम आ सकें तो यह हमारी उपलब्धि होगी। जो असमर्थ हैं, कमजोर हैं वह तो मदद पाने के लिए बेताब रहते ही हैं। हम इतने योग्य हो जाएं कि समर्थ लोग भी उस मौके की तलाश में रहें, जिसमें हम उनके लिए मददगार बन सकें।

सहयोग, मदद और एहसान इन तीनों में जो भी अंतर है वह अहंकार का है। मदद करिए निरहंकारी होकर। सहयोग में थोड़ी-सी अपेक्षा आ सकती है, लेकिन अहंकार आते ही यह एहसान में बदल जाता है और फिर सारे किए-धरे पर पानी फिरने लगता है। जिनके भीतर भक्ति-भाव होता है, जो सच्चे भक्त होते हैं वह दूसरों की मदद के लिए उतावले होते है। जब तक दूसरों की मदद नहीं करते बेचैन रहते हैं, लेकिन आपकी मदद उपकार में बदलने को हो, तो तुरंत सावधान हो जाएं, क्योंकि इस उपकार के बाद जो बचता है वह है अहंकार। सामने वाला आभार व्यक्त करेगा और आपका अहंकार पोषित होने लगेगा, इसलिए जब भी किसी की मदद करें तो उसे तुरंत भूल जाएं। मदद पर कुछ सोचना ही नहीं है।

एहसान के बाद यदि सन्नाटा आ गया तो अहंकार पैदा नहीं होगा। दूसरों की मदद के लिए सदैव तैयार रहें, लेकिन इसे अहंकार के कारण अपने नुकसान में न बदलें। जब आप दूसरों की मदद कर रहे होते हैं तब परमात्मा इस बात के लिए तैयार हो जाता है कि मुझे इसकी मदद करनी होगी, लेकिन जैसे ही हमारी मदद अहंकार में बदलेगी ईश्वर भी अपना उठाया हुआ कदम पीछे खींच लेता है। अच्छे काम के बुरे परिणाम इसी को कहते हैं।

स्वीकृति से खत्म करें तनाव
जब भी आप किसी को बदलने का प्रयास करेंगे, तो वह दबाव में आएगा और झगड़े शुरू हो जाएंगे। पति-पत्नी के बीच मतभेद और झगड़े के जितने कारण हैं उनमें बड़ा कारण है एक-दूसरे को बदलने में जुटे रहना। पति चाहता है मेरे हिसाब से चले और पत्नी के अपने आग्रह होते हैं। दोनों एक-दूसरे का व्यक्तित्व बदलते-बदलते सीमाएं लांघ जाते हैं और अस्तित्व बदलने का प्रयास करने लगते हैं। जब बात अस्तित्व पर आती है, तो फिर विद्रोह अपने-अपने ढंग से होने लगता है। दोनों में से जो भी दबे वह डिप्रेशन में डूब जाता है। यदि दोनों ईमानदारी से अपनी बुराइयों की लिस्ट बनाएं तो दोनों की लगभग एक जैसी ही बनेगी। सिर्फ दोषारोपण का स्वभाव विवाद को जन्म देता है। एक-दूसरे से इतनी अपेक्षाएं होती हैं कि उन्हें पूरा करने में असहज हो जाते हैं। फिर संबंध खराब होकर टूट जाते हैं। रिश्ता बचाना हो तो प्रयास दोनों करें तब तो अच्छा है। अन्यथा जिसे लगता है कि संबंध बचना चाहिए, उसे ही पहल करनी चाहिए।

कुछ दिनों के लिए संकल्प ले लें कि अब सिर्फ हांमें जीना है। जो भी स्वीकृति में जीता है, वह जल्दी शांत हो जाएगा। यदि एक भी शांत होने लगे तो उसका प्रभाव दूसरे पर पड़ेगा ही। यदि किसी बात पर सहमति न बने तो तुरंत उस बात को भूल जाएं। घटना जैसी भी घटे उसे स्वीकार करें। एक दिन आप पाएंगे कि आपके जीवनसाथी ने आपकी इसी स्वीकृति की आदत के कारण अपनी आदतें भी बदलनी शुरू कर दी हैं। जो ऊर्जा अस्वीकृति में लग रही थी, वही ऊर्जा अब शांति में बदलने लगेगी और इस ऊर्जा के कारण संबंध प्रगाढ़ होंगे ही इसलिए जब कभी आपको ऐसा लगे कि आप अपने जीवनसाथी से तनाव में हैं, तो पहला प्रयोग अपने पर करें सहमत होना आरंभ कर दें।

बच्चों को बाग में जरूर ले जाएं
बहुत से युवा माता-पिता अपनी भूमिका के मामले में अपरिपक्व होते हैं। कुछ तो अब भी उसी पुरानी दुनिया में डूबे रहते हैं। वे माता-पिता बनने के बाद भी विवाह पहले की मौज-मस्ती छोड़ना नहीं चाहते। आप जैसे ही माता-पिता बनते हैं सबसे पहले आपको दिनचर्या में परिवर्तन लाना पड़ेगा। फिर सोच में परिवर्तन लाएं।
अगर मां-बाप ठीक से नहीं जुड़ते हैं, तो इसकी कीमत बच्चा चुकाएगा। इसलिए जैसे ही आप मां-बाप बनें आपको अपने पुराने संबंधों, पुरानी जीवनशैली में परिवर्तन करना ही होगा। कई मां-बाप इसमें चिढ़ जाते हैं। ऐसे में फिर माता-पिता एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालने लगते हैं और जल्दी से पति-पत्नी बन जाते हैं। पति-पत्नी यानी आपस का झगड़ा, माता-पिता यानी ऐसी समझ, जिससे बच्चों का लालन-पालन होना है। आपको जब भी समय मिले बच्चों को लेकर बाग-बगीचे मे जरूर जाएं।

मां-बाप यदि बच्चे के साथ किसी बच्चे के रूप में हैं तो यह जीवन को संयुक्त रूप से नया रूप देना है, क्योंकि यह वाटिका-सत्संग अद्‌भुत होता है। पेड़-पौधों में प्राण ऊर्जा होती है। जब आप अपने बच्चों के साथ किसी बाग में बैठते हैं, तो अपने आप ऊर्जा एक-दूसरे में स्थानांतरित होती है। बच्चों में यह भाव घर कर जाता है कि हम सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं, जैसे यह वृक्ष हैं। विज्ञान कहता है कि पौधे भाव पकड़ते हैं और भाव छोड़ते भी हैं। यह प्रयोग अद्‌भुत साबित हो सकता है, लेकिन लोग समय मिलने पर मॉल जाते हैं या और किसी शोर वाली जगह ले जाते हैं, वहां भी जाना चाहिए, लेकिन संतुलन स्थापित करने के लिए किसी न किसी वाटिका मे अपने परिवार, अपने बच्चों के साथ कभी न कभी जरूर जाते रहें, क्योंकि वहां से जो लेकर आएंगे वो कहीं और से नहीं मिल पाएगा।

आत्म परीक्षण से क्रोध काबू करें
क्रोध करने वाले लगभग सभी लोग यह चाहते हैं कि उनका क्रोध करना छूट जाए। गुस्सैल से गुस्सैल आदमी भी इसे अपनी कमजोरी मानता है। कई लोग तो क्रोध करने के बाद उदासी में भी डूब जाते हैं। क्रोध समाप्त हो इसके लिए एक छोटी-सी सोच अपनी जीवनशैली में जरूर उतारें। जब कभी खाली बैठे हों व ऐसी स्थिति न हो कि क्रोध आने वाला है, तो थोड़ा अपने जीवन में पीछे जाइए। यदि आप 40 साल के हैं तो आयु को तीन भागों में बांट लें।

फिर देखिए कि आपके जीवन में ऐसी कौन-सी घटनाएं घटी थीं। हर उम्र के पड़ाव की जड़ में जाकर आप निश्चित रूप से पाएंगे कि क्रोध की जड़ें आपकी होंगी, लेकिन खाद-पानी दूसरे का होगा। किसी और का अतीत क्रोध बनकर आप पर छा गया। फिर वह आपका अतीत बना और आपने अपने बीते हुए को किसी और पर क्रोध बनाकर डाला। यह एक शृंखला है। अब आप विचार करेंगे तो पकड़ लेंगे कि किन बातों पर आपको क्रोध आया। आप पाएंगे कि अधिकतर मौकों पर दूसरे लोग थे। धीरे-धीरे आपको यह विचार आने लगेगा कि आज तक हम वही कर रहे हैं। पुराने समय में जिन बातों पर आपको क्रोध आया है उन बातों पर अब क्रोध न करें।

बस, धीरे-धीरे आप पाएंगे कि आपको क्रोध से मुक्ति मिल रही है। अपने दिवंगत माता-पिता, पितृजन या किसी ईष्ट का चित्र अपने निकट जरूर रखें। जब भी क्रोध आए उस तस्वीर को गौर से देखिएगा। यदि क्रोध कर चुके हों और उसके बाद एकांत मिलने पर तस्वीर पर नजर गड़ाएं। लगभग डूब जाएं उस तस्वीर में। आप पाएंगे धीरे-धीरे आप क्रोध से मुक्त होने लगेंगे। जिन्हें जीवन में सफलता की लंबी यात्रा करनी हो, उन्हें अपनी ऊर्जा बचाकर रखनी चाहिए और ऊर्जा को सबसे ज्यादा यदि कोई खाता है तो क्रोध।

उचित हों लक्ष्य प्राप्ति के साधन
हम खाली कभी नहीं बैठते। कुछ न कुछ काम हर समय चलता रहता है। सोते वक्त नींद अपना काम कर रही होती है, जिससे जागने के बाद किए काम प्रभावित होते हैं। साधकों व भक्तों को सिखाया जाता है कि कोई भी काम जागरूक रहकर, होश में करें। इससे हम उद्देश्य प्राप्ति के लिए गलत साधन उपयोग में नहीं लाएंगे।

लक्ष्य तक पहुंचने के लिए साधन तो सही हों, लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्णर यह है कि जब आप अपने लक्ष्य पर पहुंच जाएं तब भी जिन साधनों का उपयोग कर रहे हैं वे सही होने चाहिए। देखा जाता है कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सही साधन अपनाने वाले लोग, लक्ष्य पर पहुंचने के बाद सही साधन छोड़ देते हैं। 

राजनीति में ऐसा देखा जाता है। समर्पित, ईमानदार लोग भी सत्ता पर बैठते ही वे सारे सही मार्ग छोड़ देते हैं, जिनसे वे वहां तक पहुंचे थे। किष्किंधा कांड के इस प्रसंग में यही दिखता है। सुग्रीव ने श्रीराम और हनुमानजी जैसे साधन अपनाए और सत्ता तक पहुंच गए। राजा बनने के पहले सुग्रीव ने वचन दिया था कि मैं सीताजी की खोज के लिए वानर भेजूंगा। श्रीराम ने उस समय सुग्रीव से कहा भी था। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदयं धरेहु मम काजू।। जब सुग्रीव भवन फिरि आए।

रामु प्रबरषन गिरि पर छाए।जब सुग्रीव को श्रीराम समझा रहे थे तो इस बात पर उन्होंने दबाव डाला था, ‘मेरे काम का हृदय में सदा ध्यान रखना।यह है कर्तव्य। आपको सत्ता जिसके लिए मिली है उसके बाद अपने दायित्व, कर्तव्य को मत भूलिए। हम लोग यहीं चूक जाते हैं और इसलिए चूक जाते हैं कि हमारे भीतर एक सूक्ष्म अहंकार होता है। वह कुछ ऐसी विकृतियां पैदा करता है कि हम उन विकृतियों को लेकर जीने लगते हैं।

मध्यस्थता में तटस्थ होना जरूरी
यदि आप किसी बड़े पद पर हैं, आपके निर्णय को लोग मान्य करें और किसी विवाद में लोग आपकी मध्यस्थता चाह रहे हों तो ऐसे समय यदि आप सावधान नहीं हैं तो पक्षपात कर सकते हैं। लोगों की अपेक्षा है कि आप तटस्थ होकर काम करें। तटस्थ रहने के लिए अध्यात्म की जरूरत है। आधुनिक प्रबंधन आपको किसी को निपटाना, कोई आपको न निपटाए इससे बचना सिखा सकता है, लेकिन तटस्थता आत्मा के निकट होने पर सधती हैै।

आप जितना शरीर पर टिकेंगे आक्रामक होने की उतनी संभावना रहेगी। षड्यंत्र की सूझ-बूझ आपके भीतर हो सकती है, लेकिन मध्यस्थता में दोनों पक्ष की अच्छाइयां और बुराइयां ठीक से समझनी पड़ेगी। ऐसे समय कुटिल बुद्धि काम नहीं करेगी। आत्मा के निकट होने पर आप जानते हैं कि अच्छे की अच्छाई बाहर आए, बुरे की बुराई समाप्त हो जाए। यही सही मध्यस्थता है। कभी-कभी तटस्थता में लोग अत्यधिक कठोर हो जाते हैं। कठोर व्यक्ति बाहरी दृश्य देखता है जबकि तटस्थ व्यक्ति भीतर की संवेदनाएं भी पकड़ता है। परिवार में आप बड़े हों, कुछ सदस्यों में मतभेद दूर करना हो तो आपको संवेदना के स्तर पर अपनी तटस्थता जोड़नी है, न कि कठोर होकर कोई फैसला सुना दें।

इसके लिए प्रेम और सहजता चाहिए, क्योंकि आपका निर्णय किसी को चोट पहुंचा सकता है, लेकिन आपका तटस्थ होना किसी के लिए संतोष का कारण और किसी के लिए समझ का कारण होगी। मध्यस्थ बनना हो तो सबसे पहले कुछ समय मेडिटेशन कीजिए। अपने चक्रों पर काम करिए। चक्रों के बीच घूम रही जीवन ऊर्जा आपकी तटस्थता को संवेदना से जोड़ेगी। अन्यथा आप सिर्फ अपनी पसंद का कठोर निर्णय सुना देंगे। उसमें स्थिति का सही मूल्यांकन नहीं हो पाएगा और व्यक्तियों को अकारण हित और अहित प्रदान कर देंगे।

ऐसे जानें अपना मूल व्यक्तित्व
हमारे व्यक्तित्व का बड़ा हिस्सा दूसरों द्वारा तैयार किया गया है। माता-पिता के लालन-पालन से एक हिस्सा तैयार हुआ। फिर जीवन में मित्र आए, अच्छे और बुरे दोनों किस्म के लोग हमें मिले। सबने अपनी छाप छोड़ी और व्यक्तित्व का नया हिस्सा तैयार हो गया। ऐसे में अपना मूल व्यक्तित्व जानना हो तो यह प्रयोग करें। कुछ भजन तो ऐसे होते हैं कि यदि उन्हें ठीक से सुन लिया जाए तो रूपांतरण आसानी से घट सकता है। जब भजन सुनें तो जैसे तीन अंतरे का भजन हो तो पहले अंतरे के शब्दों को आंख बंद करके एक कान से भीतर लाएं और दूसरे से बाहर करें। शब्दों को ऐसे भीतर लाएं जैसे हाथ से पकड़कर ला रहे हैं।

हम भजन के शब्दों के प्रति अत्यधिक जुड़ जाएंगे। जब भजन का दूसरा अंतरा सुनें तो शब्दों को कान में लाएं और धीरे से हृदय तक ले जाएं। थोड़ी देर उन शब्दों को हृदय पर रोकें और दूसरे कान से बाहर निकाल दें। यह आध्यात्मिक प्रयोग शुरू-शुरू में कठिन लगेगा, लेकिन अभ्यास से आसान हो जाएगा। तीसरे चरण में उस भजन को पूरी तरह भीतर पी जाएं। एक कान से भीतर लाएं और भीतर ही रख दें। चाहें तो दोनों ही कानों से उसको भीतर ला सकते हैं।

आपको पढ़ने में यह बात अजीब लग रही होगी, लेकिन करके देखिए। भजन के शब्द जब ऐसे भीतर उतरेंगे तो हमे अंतरतम से शांत कर देंगे, क्योंकि श्रवण से हम अपने भीतर प्रवेश कर रहे हैं। सांस भजन के शब्दों का वाहक बन गई है। धीरे-धीरे पाएंगे कि आप उस भजन के साक्षी हो गए हैं। यहीं से आप अपने मूल व्यक्तित्व से जुड़ जाएंगे। जो दूसरों ने दिया या दूसरों से जो हमने लिया है और जो हमारे लिए जरूरी नहीं है उसकी हम ठीक से सफाई कर सकेंगे। यह प्रयोग कभी करके जरूर देखिएगा।

प्रतियोगिता के साथ प्रेम सिखाएं
आजकल जीवन में जितनी बातें सिखाई जाती हैं उनमें से एक है प्रतियोगिता। तीन बातों का अंतर ठीक से समझ लें - प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्द्धा और प्रतिद्वंद्विता। बच्चों की पढ़ाई शुरू होते ही प्रतियोगिता का भाव उनके भीतर पैदा कर दिया जाता है। विद्यालय में प्रवेश से प्रतियोगिता शुरू हो जाती है। बच्चा समझ जाता है कि जहां प्रवेश में ही प्रतियोगिता है वहां पढ़ाई में क्या होगा? धीरे-धीरे प्रतियोगिता से भरा यह व्यक्तित्व बड़ा होने लगता है।

जीवन के क्षेत्र बदलने पर यही प्रतियोगिता प्रतिस्पर्द्धा में बदल जाती है। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होंगे शरीर को दूसरों में रुचि जाग जाती है, इसलिए प्रतियोगिता प्रतिस्पर्द्धा में बदल जाती है। या तो यह मुझे मिले वरना किसी को भी नहीं मिले, ऐसा भाव आ जाता है। इसी का नाम प्रतिस्पर्द्धा है और ऐसे लोग जब घर बसाते हैं तो यही प्रतिस्पर्द्धा पति-पत्नी के बीच शुरू हो जाती है और पहुंच जाती है प्रतिद्वंद्विता पर। अधिकांश जोड़ों की लड़ाई बड़े मुद्‌दों पर होती ही नहीं। जीवनसाथी ने चादर ठीक से समेटी नहीं। डाइनिंग टेबल पर भोजन गिरा दिया, पलंग पर बेतरतीब ढंग से बैठ या लेट गए और झगड़ा शुरू। झगड़ा उस विषय पर नहीं, झगड़ा हो रहा है प्रतिद्वंद्विता के भाव का।

इसलिए जो मां-बाप अपने बच्चों को प्रतियोगिता सिखा रहे हैं, वे सावधानी बरतें कि भविष्य में इनका दाम्पत्य इसकी कीमत न चुकाए। इसका यह मतलब नहीं है कि बच्चों को प्रतियोगिता से काट दिया जाए, बल्कि प्रेम का अर्थ भी समझाया जाएं। परमात्मा से ठीक से जोड़ा जाए। फिर जीवनसाथी एक-दूसरे से छोटे मुद्‌दों पर नहीं उलझेंगे। यह जानते हुए कि चीज गलत हो रही है, लेकिन प्रेम से सुधारेंगे। इसलिए प्रेम और परमात्मा उस समय से जोड़े रखिए जब प्रतियोगिता शुरू हो रही हो।

संबंधों की समझ का त्योहार राखी
यदि दो लोग मिल रहे हों, तो यह मान लेते हैं कि हम दो व्यक्ति हैं। दो मित्र हो सकते हैं, पति-पत्नी हो सकते हैं। किंतु जब भी दो लोग मिलेंगे तो वे दो नहीं छह लोग होते हैं। सुनने में अजीब लगेगा। दरअसल, हम शरीर, मन और आत्मा से बने हैं। जब हम केवल देह पर टिके होते हैं तब हम अलग व्यक्ति होते हैं। मन और आत्मा के स्तर पर अलग, लेकिन होते संयुक्त हैं। इसलिए जब दो व्यक्ति मिलते हैं तो वे दो नहीं छह होते हैं। संभव है कि एक व्यक्ति आत्मा पर तो दूसरा शरीर पर टिका है।

पति-पत्नी चूंकि सर्वाधिक निकट होते हैं तीनों ही मामले में, लेकिन वे मानकर चलते हैं कि हम दो ही हैं, जबकि यूनिट छह है। इसलिए रिश्ते की समझ के लिए हमें शरीर, मन और आत्मा के अंतर को समझना होगा। आत्मा अंत तक साथ रहेगी। मन तो विचार-स्मृति से बनता है। कई बार गायब हो जाता है। शरीर को यहीं रह जाना है। यह समझ जैसे-जैसे परिपक्व होगी हम यह भी समझ जाएंगे कि हमारे जन्म से कुछ रिश्ते बने और मृत्यु तक कुछ रिश्ते रहेंगे। कुछ रिश्ते आएंगे और कुछ चले जाएंगे। इस समझ के बाद हम रिश्तों का मान करने लगते हैं। फिर भारत में ऋषि-मुनियों ने त्योहार बनाए ही इसलिए हैं। इनमें से एक त्योहार रक्षाबंधन रिश्तों की समझ पैदा करता है।


यदि रिश्तों से सही रूप में जुड़ना है तो शरीर, मन और आत्मा के अंतर को जानें। कहते हैं जब इन तीनों की समझ होती है तब व्यक्तित्व निर्मल हो जाता है। व्यक्तित्व की निर्मलता का मतलब है बाहर से विनम्रता और भीतर से प्रसन्नता। इन दोनों के साथ जो भी रिश्ता निभाया जाएगा उसमें परमात्मा की सुगंध होगी। आज रक्षाबंधन के दिन यह संदेश दिया जाए कि हम अपने भीतर के तीनों रूप शरीर, मन और आत्मा को हर रिश्ते के साथ पूरी समझ से जोड़ेंगे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

Friday, August 14, 2015

Katha Gyan (कथा ज्ञान)

किस्मत में जो लिखा है, उसे पाना हमारे हाथ में है
किस्मत एक ऐसी चीज है जिस पर कुछ लोग बहुत ज्यादा भरोसा करते हैं और कुछ बिल्कुल भी नहीं। कई लोग हर चीज को किस्मत के भरोसे ही छोड़ देते हैं। किस्मत को मानना अलग विषय है और उसी पर टिक जाना एकदम अलग बात। जो लोग सिर्फ किस्मत को ही सबकुछ मानकर बैठ जाते हैं वे अक्सर असफल हो जाते हैं। तकदीर में जो लिखा है वो तो होना ही है लेकिन जो होगा, वो हमें किस हद तक प्रभावित करेगा यह बात हमारे कर्म तय करते हैं।

एक राजा के दो बेटे थे। दोनों ही होनहार थे, राजा को दोनों ही बेटे समान लगते थे। उसके आगे समस्या यह थी कि वो अपना उत्तराधिकारी किसे घोषित करे, क्योंकि दोनों में ही उसे कोई कमी नजर नहीं आती थी। राजा परेशान रहने लगा। एक मंत्री ने राजा की मनोदशा का ताड़ लिया। उसने जोर देकर पूछा तो राजा ने अपनी चिंता का कारण बता दिया। मंत्री ने राजा को एक युक्ति सुझाई।

उसने राजा से कहा कि दोनों राजकुमारों को राजज्योतिषी के पास भेजना चाहिए, वे ही इस बात का निर्णय कर देंगे कि कौन सा राजकुमार भविष्य में राजा बनने के लायक है। राजा ने ऐसा ही किया। दोनों राजकुमारों को ज्योतिषी के पास भेजा। ज्योतिषी ने दोनों की कुंडली देखी, हाथ की रेखाएं देखीं और घोषणा की कि दोनों ही राजा बनने योग्य हैं। दोनों की कुंडली में राजसी सुख लिखा है। दोनों की रेखाएं भी राजसी जीवन की ओर संकेत कर रही हैं।

दोनों ही खुश हो गए लेकिन राजा की दुविधा जस की तस थी। दोनों की कुंडली में अगर राजयोग है, तो फिर राजा किसे बनाया जाए। ज्योतिषी ने जवाब दिया, आप थोड़े दिन, इंतजार करें, राज पद का दावेदार राजकुमार आप खुद ही चुन लेंगे। राज योग की बात सुन दोनों राजकुमारों पर अलग-अलग असर हुआ।

बड़े राजकुमार ने सोचा कि राजा बनना ही है तो राजसी जीवन की आदत डाल ली जाए, क्योंकि जीवनभर फिर राजा बनकर रहना है। वो पूरी तरह विलासिता में डूब गया। वहीं छोटे ने सोचा कि जब राज योग लिखा ही है तो क्यों ना राजा के कर्तव्य देख लिए जाएं। उसने प्रजा के बीच जाकर रहना शुरू कर दिया, उनकी समस्याओं का निपटारा किया, उनकी रक्षा की व्यवस्था की।

राजकीय काम देखने लगा। राजा तक यह सूचना पहुंची कि जनता छोटे राजकुमार को राजा के रूप में देखना चाहती है। राजा ने उसे अपना युवराज घोषित कर दिया। इस बात से तिलमिलाया बड़ा राजकुमार राज ज्योतिषी के पास पहुंचकर शिकायत करने लगा। ज्योतिषी ने उसे समझाया कि राज सुख तुम दोनों की कुंडली में है लेकिन तुमने ये जानकर भी अपने कर्तव्य और कर्म का मार्ग नहीं पकड़ा।

तुमने यह मान लिया कि तुम ही राजा बनोगे और विलासिता में डूब गए। जबकि छोटे राजकुमार ने भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए उसके अनुसार कर्म किया तो वो राजा चुन लिया गया। तुम भी राज सुख भोग रहे हो, जीवन भर भोगोगे भी लेकिन राजा बनने की तैयारी तुमने नहीं की, वो तैयारी तुम्हारे छोटे भाई ने की इसलिए राजा ने उसे युवराज बनाया।

ये है हमारे दुख का असली कारण...
कई बार हम योजनाएं बनाते हैं लेकिन काम फिर भी बिगड़ ही जाता है। जिस तरह के परिणामों की अपेक्षा हम करते हैं उससे अलग ही या उल्टे ही परिणाम हमें मिलते हैं। कई लोग सोचते हैं कि हमने तो सारी योजनाएं ठीक बनाई थीं, उस पर काम भी किया था फिर परिणाम क्यों नहीं मिले।

इसका जवाब है हमने योजनाएं तो बनाई लेकिन भविष्य में ऐसा ही होगा, जैसा हम सोच रहे हैं, यह मानना गलत है। भविष्य की गर्त में क्या छिपा है कोई नहीं जानता, हम सिर्फ कर्म करें, अगर हम अपने हर कर्म से ज्यादा फायदे की अपेक्षा करेंगे तो यह बात हमें सिर्फ पीड़ा ही देगी। हम कर्म करें, लेकिन उससे अपेक्षा को निकाल दें।

एक नगर सेठ था। उसने एक आलीशान महल बनवाया। बड़ी धनराशि खर्च करके तैयार किए गए महल के रंगरोगन का काम चल रहा था। सेठ महल के बाहर खड़ा-खड़ा कारीगरों को निर्देश दे रहा था। सेठ ने मुख्य कारीगर से कहा कि इस महल पर ऐसे रंगों से बेल-बूटे बनाओ कि मेरी सात पुश्तों तक इसके रंग फीका ना पड़े। कारीगर भी उसके बताएं अनुसार काम कर रहे थे। तभी वहां से एक संत गुजरे।

उन्होंने सेठ की बातें सुनीं, सेठ को देखकर मुस्कुराए और चले गए। सेठ को यह बात अजीब लगी। उसी दिन दोपहर को सेठ अपने घर में भोजन कर रहा था, उसके चार साल के बच्चे ने उसकी थाली को ठोकर मार दी। सेठ की पत्नी ने उसे डांटा तो सेठ ने कहा कि इसे मत डांट, यह तो कुल का चिराग है। हमारी पीढिय़ां इसी से चलेंगी। तभी वहां वही संत भिक्षा मांगने पहुंचे। उन्होंने सेठ की बात सुनी और मुस्कुराकर चल दिए। सेठ को फिर अजीब लगा। सेठ से रहा नहीं गया। वह संत के पीछे चल दिया।

एक जगह एकांत में जाकर उसने संत से पूछा आपने दो बार मेरी बात सुनी और दोनों बार मुस्कुराकर चल दिए। ऐसा क्यों? संत ने कहा तुम्हें भविष्य का कुछ पता नहीं और तुम जानें क्या-क्या योजना बना रहे हो। तुम जिस महल पर सात पुश्तों तक दिखने वाली बेल-बूटे बनवा रहे हो, वह तुम सात दिन भी नहीं देख पाओगे, क्योंकि आज से सातवें दिन तुम्हारी मौत हो जाएगी।

यही सोचकर मैं मुस्कुरा दिया। सेठ का दिल बैठ गया, आंखों में आंसू आ गए। उसने पूछा फिर आप दूसरी बार क्यों मुस्कुराए मेरे घर आकर। संत ने कहा जिस बेटे ने तुम्हारी थाली को ठोकर मारी और तुमने उसका ठुकराया हुआ खाना भी बड़े प्रेम से खाया, वो तुम्हारे कुल का नाश कर देगा। वो पिछले जन्म की तुम्हारी पत्नी का प्रेमी है, जो इस जन्म में तुम्हारा बेटा बना है।

उसे ही तुम इतने प्यार से रख रहे हो, वो तुम्हारी सारी कमाई बुरे कामों में उड़ा देगा। सेठ जोरों से रोने लगा, संत ने उसे समझाया कि तुमने अपने लिए योजनाएं तो बहुत अच्छी बनाई लेकिन उन योजनाओं से तुम परिणाम भी अपने अनुकूल चाहते हो, जो कि गलत है। परिणाम तो नियति के हाथों में है। हमारे हाथों में नहीं।

प्रेम नहीं करोगे तो जानोगे कैसे?
एक बार की बात है एक प्रेमी को किसी महलों में रहने वाली लड़की से प्यार हो गया। जब ये बात उसके परिवार वालों को पता चली तो उन्होंने उस लड़के के मरवाने के लिए कुछ गुंडों को भेजा। जब उस लड़की तक यह खबर पहुंची कि उसके प्रेमी को मरवाने की साजिश रची गई है तो उसने सबका विरोध किया। विरोध करने पर जब उसके घरवालों ने उस पर पहरे लगवा दिए तो वो अपने प्रेमी को बचाने के लिए पहरों को तोड़कर जब उस जगह पर पहुंची जहां उसके प्रेमी के सिर पर बंदुक रखे कुछ लोग खड़े थे। तब लड़की दौड़कर उसके प्रेमी के आगे खड़ी हो गई और बोली मुझे मार डालो। उसके बाद इसे मार देना तब उसे मारने वाले लोगों में से एक व्यक्ति बोला लड़की तू मौत को गले लगाने के लिए इतनी उतावली क्यों हो रही है।

तब उसने कहा कि मैं जानती हूं कि जिंदगी से बढ़कर कुछ भी नहीं है लेकिन मैं मानती हूं कि प्रेम ही मेरे लिए सबकुछ है क्योंकि बिना प्रेम के जीवन कुछ भी नहीं। जो एक बार सचमुच प्रेम के अर्थ को समझ लेता है।

उसे महसूस कर लेता है। उसकी पवित्रता को समझ लेता है। उसके मूल्यों को जान लेता है। बिना प्रेम के जीवन कुछ भी नहीं प्रेम से जीवन है बिना प्रेम जीवन नहीं। इसका कारण यही है कि प्रेम संसार का नहीं प्रेम तो ईश्वर का अंग है। जो प्रेम की गहराई को समझने लगता है। वह यह जानता है कि प्रेम जो सच्चाई वो कहीं और नहीं। प्रेम में जो ताकत है वह और कहीं नहीं इसीलिए मेरा प्रेम ही मर जाए उससे अच्छा है कि मैं ही अपने प्राण त्याग दूं। लेकिन तुम मुझे मार सकते हो क्योंकि शायद तुमने कभी किसी से प्रेम नहीं किया। इसीलिए तुम मेरी भावनाओं को जानोगे कैसे? इसीलिए शायद जिस दिन तुम्हे प्रेम की अनुभुति हो उस दिन तुम मेरी मौत का प्रायश्चित कर लोगे।

रिश्तों को सहेजें, यही सबसे बड़ी पूंजी है
कभी-कभी हम रिश्तों की गहराई को समझ नहीं पाते हैं। कई रिश्ते हमारे लिए मामूली होते है, कई रिश्तों को पहचान नहीं पाते लेकिन वो हमारे जीवन में कभी ना कभी कोई महत्ववपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जो लोग रिश्तों का मान नहीं रखते वे अक्सर बाद में पछताते हैं। जिंदगी में कोई भी रिश्ता हो उसका मान जरूर रखें। अन्यथा बाद में वे पछताते हैं।

एक लोक कथा है। एक गांव में दो परिवार रहते थे। दोनों परिवारों मे से एक में बेटा-बहू, सास-ससुर रहते थे। बहू सास-सुसर की जरा भी कद्र नहीं करती थी। परिवार में हमेशा कलह का माहौल रहता था। बूढ़े सास-ससुर कलह के कारण अक्सर अपने पड़ोसी के यहां जाकर बैठ जाते।

उस परिवार में केवल एक विधवा औरत और उसके दो बच्चे रहते थे। गरीबी में गुजारा होता था लेकिन वह कभी किसी के अपने घर आने से नाराज नहीं होती। जितना बन पड़ता उन बूढ़ों की सेवा करती। एक दिन वह बूढ़ा मर गया।

अंतिम संस्कार के बाद उसके उत्तर कार्य किए जाने थे लेकिन बहू ने एक तांत्रिक को बुलाकर क्रिया करवाई कि उसके ससुर का प्रेत अब दोबारा घर ना लौटे। ना पिंडदान किया, ना उत्तर कार्य।

बूढ़े आदमी का प्रेत भटकता हुआ, पड़ोस की विधवा औरत के घर पहुंचा और पेड़ पर बैठ गया। विधवा को अपने पड़ोस की बहू का ससुर के प्रति ऐसा व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उसने रोज एक रोटी बूढ़े आदमी के नाम से अपने आंगन के पेड़ के नीचे रखने लगी। प्रेत वही रोटी खाने लगा।

कई दिन बीत गए। एक दिन विधवा औरत ने पेड़ ने नीचे रोटी नहीं रखी। प्रेत इंतजार करता रहा। उसने घर के भीतर जाकर देखा तो औरत का बेटा बीमार हो गया है। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। प्रेत ने माया से कुछ सोने की अशर्फियों से भरी एक थैली, मकान की छत पर रख दी। फिर विधवा औरत को बुलाकर बताया। उसने वो धन लेने से इंकार किया तो प्रेत ने समझाया कि तुमने तो रिश्तों का मान रखा है। मेरे अपने बहू-बेटे ने मेरी कद्र नहीं की। तुम ने पराई होते हुए भी मेरा ध्यान रखा। इसलिए इस धन पर तुम्हारा अधिकार है।

इसलिए कहते हैं अति सर्वत्र वर्जयते
कहते हैं अति सर्वत्र वर्जते यानी किसी भी चीज की अति दुखदायी होती है। चाहे वह अति खाने-पीने को लेकर हो, प्रेम या नफरत की हो, या अन्य किसी तरह की अति हमेशा दुख ही देती है।

एक बार की बात है पृथ्वीपति भरत जिनके नाम पर भारत का नाम रखा गया। एक दिन वे नदी पर नहाने के लिए गए। वहां उस समय एक हिरनी पानी पीने आई। उस समय जब वह पानी पी चुकी थी। वहां अचानक शेर की आवाज सुनकर वह उछलकर नदी के तट पर चढ़ गई। बहुत ऊंचे स्थान पर चढऩे के कारण उसका गर्भपात हो गया। नदी लहरो के साथ उसके गर्भ से निकला बच्चा राजा भरत के पास पहुंचा। राजा भरत उसे अपने साथ आश्रम ले आए। वे उसका अपने बच्चों की तरह पालन-पोषण करने लगे।

उसी के कारण उनका पूजा-पाठ आदि सब छुट गए। वे दिन रात बस उसी के चिंतन में लगे रहते। एक दिन आश्रम के पास एक हिरणों का झुंड आया। वह हिरण उन्हीं के साथ चला गया। जब वह बच्चा वापस नहीं लौटा तो राजा भरत सोचने लगे कि कहीं उसे किसी भेडि़ए ने तो नहीं खा लिया। क्या वह आज जंगल से लौटेगा या नहीं वे दिन रात बस उसी हिरण के बच्चे की चिंता करते रहते। जब उनकी मृत्यु का समय आया तब भी वे उसी हिरण के बारे में सोचते रहते थे। इसी तरह हिरण के वियोग में राजा भरत ने अपने प्राण त्याग दिए। यही कारण था कि उन्हें अगला जन्म हिरण के रूप में लेना पड़ा। इतने महान राजा को भी हिरण से प्रेम आसक्ति हो जाने के कारण अगला जन्म हिरण के रूप में लेना पड़ा।

किस्मत को बदलना है तो ऐसे सोचें...
कई लोग अपनी सारी असफलता और परेशानी को भगवान या किस्मत पर छोड़ देते हैं। जब भी किसी काम में अच्छे परिणाम नहीं मिलते तो लोग किस्मत को कोसने लगते हैं, या अपनी हार को भगवान के मत्थे मढ़ देते हैं।

कई लोग यह सोचकर दोबारा प्रयास भी नहीं करते कि शायद किस्मत में लिखा ही नहीं है। ऐसे में निराशा हम पर हावी हो जाती है। हम कोशिशें बंद कर देते हैं और फिर निष्क्रिय रहना हमारा स्वभाव बन जाता है।

एक राजा के दरबार में विरोचन और मुनि दो गायक थे। विरोचन की गायकी का पूरा दरबार कायल था, हर कोई उसे ही सुनता था। मुनि को यह बात अखरती थी। धीरे-धीरे उसने इसे अपनी किस्मत समझकर समझौता कर लिया। हर कोई विरोचन को मुनि से बेहतर मानता था क्योंकि दरबार में ज्यादातर विरोचन ही सुने जाते थे।

लगातार खुद की उपेक्षा होते देख, मुनि ने अपना नियमित अभ्यास भी छोड़ दिया। वह रोज शिव मंदिर के सामने बैठकर खुद की किस्मत और भगवान को कोसता रहता। एक दिन भगवान ने सोचा क्यों ना इसकी भी सुन ली जाए। मुनि मंदिर में बैठा भगवान को अपनी खराब किस्मत के लिए कोस रहा था तभी शिवजी प्रकट हो गए। उन्होंने कहा मुनि तू क्या चाहता है।

मुनि ने कहा मुझे भी विरोचन की तरह दरबार में किसी खास मौके पर गाने के लिए मौका चाहिए, लेकिन मेरी किस्मत में ऐसा मौका लिखा ही नहीं है। भगवान ने कहा ठीक है मैं तुझे एक मौका देता हूं। कुछ दिनों बाद राजा के दरबार में कुछ दूसरे राजा और विद्वान आए। उनके मनोरंजन के लिए विरोचन को बुलाया गया। लेकिन उस दिन विरोचन का गला खराब था। राजा ने मुनि को गाने का आदेश दिया।

चूंकि मुनि तो रियाज ही नहीं करता था, इस कारण वो ठीक से गा नहीं पाया। राजा को यह बात बुरी लगी। उसने मुनि को हमेशा के लिए प्रतिबंधित कर दिया। दुखी मुनि मंदिर पहुंचा तो वहां शिवजी पहले से बैठे थे। मुनि ने उनसे फिर शिकायत की। उसने कहा मौका दिया तो पहले बता तो देते मैं थोड़ा अभ्यास कर लेता। शिवजी हंस दिए।

उन्होंने समझाया कि मुनि जीवन में कोई भी अवसर बताकर नहीं आता, किस्मत कब खुल जाए, कब तुम्हें जीवन का सबसे बड़ा अवसर मिल जाए, यह तय नहीं है। हमें हमेशा तैयार रहना चाहिए। तुमने तो आस ही छोड़ दी, अभ्यास छोड़ दिया इसलिए तुम्हें आज अपमानित होना पड़ा।

सही समय पर सही विकल्प पहचानने वाले रच देते हैं इतिहास...
समस्याएं सभी के जीवन में होती हैं और इन समस्याओं को दूर करने के कई रास्ते भी होते हैं। कुछ लोग सही समय पर सही रास्ता चुन लेते हैं और वे सफलता के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं। वहीं कुछ लोग सब कुछ भाग्य या नियति के भरोसे छोड़कर बैठ जाते हैं, जीवनभर दुखी होते रहते हैं।

एक सामान्य बालक चंद्रगुप्त को अखंड भारत का सम्राट बनाने वाले आचार्य चाणक्य ने इस संबंध में कई महत्वपूर्ण सूत्र दिए हैं। इन सूत्रों को अपनाकर कोई भी इंसान सफलता एक नया इतिहास रच सकता है। चाणक्य ने कहा है कि नियति तो अपना खेल रचती रहती है और इस खेल के प्रभाव से हमें कभी दुख मिलते हैं तो कभी सुख। दुख के समय में एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि नियति केवल कोई संयोग मात्र नहीं है, नियति व्यक्ति को हर समस्या से निकलने के लिए विकल्प अवश्य देती है।

बुद्धिमान इंसान वही है जो उन विकल्पों को पहचानकर, उनमें से सही विकल्प चुन लेता है। सबकुछ नियति के भरोसे छोड़कर बैठने वाले इंसान सदैव कष्ट और दुख के ही प्रतिभागी बन जाते हैं। ऐसे लोग जीवन में ना तो कुछ बन पाते हैं और ना ही कोई इतिहास बना पाते हैं। इसीलिए समझदारी इसी में है कि सही समय पर सही रास्तों को पहचाना जाए और उन रास्तों पर बिना समय गंवाए आगे बढ़ा जाए।

आचार्य चाणक्य की यह बात हर परिस्थिति में बहुत ही कारगर और समस्याओं से निजात दिलाने वाली है। जो भी इंसान नियति के इशारों को समझकर उन्हें जीवन में उतार लेता है वह नए इतिहास रच देता है। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए यह अचूक उपाय है।

मंजिल पानी हो तो ऐसे करें रास्ता तय...
कई लोग अपनी मंजिल को पानी के लिए भरसक प्रयास करते हैं। फिर भी कई बार हमारे सारे प्रयास विफल हो जाते हैं। निराशा छाने लगती है। आखिर ऐसा क्यों होता है? हमें कई बार लगता है कि हमने इमानदारी से प्रयास नहीं किया, हमारी कोशिश में कोई कमी रह गई।

कई बार ऐसा नहीं होता। हम अक्सर उसी रास्ते से मंजिल पाने की कोशिश करते हैं जो हमें सामने दिखाई देता है, अगर कभी रास्ता बदलकर लक्ष्य को पाने का प्रयास किया जाए तो संभव है कि हम कामयाब हो जाएं। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बचपन में एक ऐसे ही प्रसंग में यह संदेश दिया है।

श्रीमद् भागवत पुराण में कथा है कि एक बार भगवान श्रीकृष्ण अपने ग्वाल मित्रों के साथ गायों को चराते हुए जंगल में काफी दूर निकल गए। उन्हें भूख लगने लगी। भगवान ने ग्वालों को पास में चल रहे एक यज्ञ में भेजा। भगवान ने अपने मित्रों से कहा कि जाओ, उस यज्ञ में कई ब्राह्मण लोग हैं, वहां जाकर हम सब के लिए भोजन ले आओ। ग्वाले कृष्ण के कहे अनुसार यज्ञ शाला में पहुंच गए।

ग्वालों ने ब्राह्मणों से कहा कि पास भी भगवान श्रीकृष्ण विराजे हुए हैं और वे भूख से व्याकुल हैं। उनके लिए थोड़ा भोजन दे दीजिए। ब्राह्मणों ने कहा यज्ञ का हविष्य भगवान को दिए बगैर भोजन नहीं दिया जा सकता। ग्वाले लौट आए। उन्होंने कृष्ण को सारी बात बताई कि ब्राह्मणों ने भोजन देने से इनकार कर दिया है। भगवान ने उन्हें समझाया कि निराश मत हो।

फिर प्रयास करो। लेकिन अब के अपना मार्ग बदलो, अब कि बार ब्राह्मणों से नहीं, उनकी पत्नियों से भोजन मांगों। ग्वालों ने ऐसा ही किया। वे ब्राह्मण पत्नियों के पास गए और उन्हें बताया कि भगवान श्रीकृष्ण के लिए भोजन चाहिए। तो वे खुद ही सारा भोजन लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंच गईं और उन्हें बड़े प्रेम से भोजन कराया। यह प्रसंग बताता है कि अगर किसी एक मार्ग से लक्ष्य तक पहुंचना मुश्किल हो तो हमें लक्ष्य नहीं उसे पाने के मार्ग को बदलने के बारे में सोचना चाहिए।

एक गलत सलाह बर्बाद कर सकती है जिंदगी
हमें जीवन में रोजमर्रा के कामों से लेकर महत्वपूर्ण घटनाओं तक किसी ना किसी तरह से सलाह की जरूरत पड़ती रहती है। उस समय हमारी संगत पर निर्भर करता है कि हमें कितनी सही सलाह मिल रही है। किसी की एक गलत सलाह हमारा जीवन बरबाद कर सकती है। हमें जीवन भर पछताना पड़ सकता है। हमारे शास्त्रों ने समझाया है कि हमेशा ज्ञानवान, धर्म को जानने वाले और हमारे हितैषी से ही हमें सलाह लेनी चाहिए। गलत आदमी से ली गई सलाह हमें पतन की राह पर ले जा सकती है।

रामायण इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जब दशरथ ने राम को युवराज घोषित किया और राज्य अभिषेक की तैयारी का आदेश दिया तो सबसे ज्यादा खुश कैकयी थी। कैकयी दशरथ की सबसे छोटी रानी और राजकुमार भरत की मां थीं।

वो राम को बहुत प्रेम करती थीं और राम भी उन्हें अपनी सगी मां के समान स्नेह रखते थे। जब कैकयी ने अपनी दासी मंथरा से इस बारे में बात की कि आज बहुत हर्ष का दिन है। राम राजा बनने वाले हैं तो मंथरा ने उसे उल्टी सलाह दे दी। उसने कैकयी को कई तरह से भड़काया और राम के लिए वनवास, भरत के लिए राज्य मांगने के लिए तैयार कर लिया। कैकयी ने ऐसा ही किया।

उसने राज्याभिषेक से पहले ही राजा दशरथ से राम के लिए 14 साल का वनवास और भरत को राजा बनाने का वरदान मांग लिया। राम वन में चले गए, राजा दशरथ ने भी देह त्याग दी, भरत ने राजा बनने से इंकार कर दिया, पूरी प्रजा ने कैकयी का अघोषित बहिष्कार कर दिया। कैकयी का सारा जीवन लगभग दुख और वेदना में ही गुजरा। उसने केवल एक दासी की सलाह मान कर ये कार्य किया।

चोर सामान चोरी करके भाग रहा था तभी...
अपने भारत भ्रमण के दौरान स्वामी विवेकानंद एक संत से मिले। संत ने उन्हें पवहारी बाबा की एक कथा सुनाई। कथा इस प्रकार थी- प्रसिद्ध योगी पवहारी बाबा गंगातट पर निर्जन वास करते थे। एक रात बाबाजी की कुटिया में एक चोर घुसा। कुछ बरतन, कपड़े और एक कंबल ही बाबा की कुल जमा पूंजी थी। चोर बरतनों को बांधकर जल्दी से निकल जाने का प्रयास करने लगा। जल्दबाजी में वह कुटिया की दीवार से टकरा गया और घबराहट में भागते समय चोरी का सामान भी गिर गया।

बाबा आसन से उठे और चोर के पीछे दौडऩे लगा। काफी दूर तक पीछा करने के बाद बाबा ने उसे पकड़ ही लिया। भयभीत चोर कांप रहा था। लेकिन बाबा उसके चरणों में गिर पड़े और आंखों में आंसू भरकर बोले- 'प्रभु आज आप चोर के वेश में मेरी कुटिया में आए पर आपने कुछ चीजें छोड़ दी थीं। कृपया इन्हें भी अपने साथ ले जाएं।' वह चोर भाव-विभोर हो गया और बाबा के प्रेमपूर्वक किए आग्रह से उसे वह सामान स्वीकारना पड़ा। बाबा ने एक अपराधी में ईश्वर को देखा था।

कथा के अंत में संत ने स्वामी विवेकानंदजी से पूछा कि क्या आप जानते हैं कि वह चोर कौन था? अनभिज्ञता प्रकट करने पर उन्होंने बताया वह चोर मैं था।

एक कहानी-...और एक राजा ही निकला सबसे बड़ा गरीब!
महात्मा को एक बार रास्ते में पड़ा धन मिल गया। उन्होंने निश्चय किया कि वे इस सबसे गरीब आदमी को दान कर देंगे। निर्धन आदमी की तलाश में वे खूब घूमे। उन्हें कोई सुपात्र नहीं मिला। एक दिन उन्होंने देखा राजमार्ग पर राजा के साथ अस्त्र-शस्त्रों से सजी विशाल सेना चली आ रही है। राजा महात्मा को पहचानता था।

हाथी से उतरकर उसने महात्मा को प्रणाम किया। महात्मा ने अपनी झोली से धन निकाला और राजा को थमा दिया। राजा ने विनीत स्वर में कहा महाराज! यह क्या? आपके आशीर्वाद से मेरे खजाने में हीरे-जवाहरात का भंडार है। महात्मा ने उत्तर दिया राजन! मैं गरीब आदमी की तलाश में था। तुम सबसे गरीब हो। यदि तुम्हारे खजाने में धन का अंबार है तो सेना लेकर कहां जा रहे हो? अगर तुम्हें किसी बात की कमी नहीं तो यह सब किसलिए? राज्य का विस्तार और धन के लिए। महात्मा की बातों ने असर किया। राजा ने तत्काल अपनी सेना को लौटने का आदेश दिया। वह ऐसे जा रहा था मानो में अनमोल खजाना जीतकर लौट रहा हो।

योग्य शिष्य
नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में तबलावादक उस्ताद मोटू खां का महत्वपूर्ण स्थान था। उनके तबले की थाप पर लोग झूम उठते थे और मंत्र-मुग्ध होकर नाचने लगते थे। हर ओर उनकी ख्याति थी, किंतु उन्हें आत्मिक शांति न थी।

वे एक ऐसे योग्य शिष्य की तलाश में थे जिसे वे तबला वादन में निपुण कर सकें। वे अपनी इस कला को युगों तक जीवित रखना चाहते थे और यह कला जीवित तभी रह सकती थी जब वे तबले के गुर किसी योग्य व्यक्ति को सिखा देते। इसके लिए उन्होंने अनेक व्यक्तियों की तलाश की। अंतत: कुछ समय बाद उनकी तलाश पूरी हुई और उन्हें एक योग्य शिष्य मिल ही गया। पूरी तन्मयता से वे उसे तबला सिखाने लगे। उस्ताद के इस कार्य का सांप्रदायिक मानसिकता वाले कुछ लोगों ने विरोध किया। वे उनके द्वारा चुने गए शिष्य का बहिष्कार करने पर तुले हुए थे क्योंकि वह हिन्दू था। पर मोटू खां ने किसी की परवाह नहीं की और शिष्य का प्रशिक्षण जारी रखा।

वर्षों कठिन परिश्रम करने के बाद एक दिन उन्होंने दरबार में अपने शिष्य का तबला वादन रखा। शिष्य के वादन से वहां उपस्थित सभी कर्मचारियों को यह एहसास हुआ कि तबला स्वयं उस्ताद मोटू खां बजा रहे हों। शिष्य का तबलावादन समाप्त होने पर मोटू खां अपने स्थान पर खड़े होकर बोले, 'अब कोई बताए कि यह वादन हिन्दू का था या मुसलमान का?' सबने सिर झुका लिया। मोटू खां बोले, 'कला जब सच्चे मन से निकलती है तो वह सारे दायरों से बाहर हो जाती है। उसे किसी दायरे में बांध कर देखना ठीक नहीं।' सब उनसे सहमत हो गए।

उपचार का मूल्य
दुर्गाचरण बाबू कोलकाता के प्रसिद्ध चिकित्सकों में से एक थे। वे रामकृष्ण परमहंस के परम भक्त थे। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य उन्हें नाग महाशय के नाम से जानते थे। उनके पिताजी कोलकाता के एक बड़े प्रतिष्ठान में काम करते थे। एक बार प्रतिष्ठान के मालिक के एक रिश्तेदार बीमार पड़ गए। वे बेहद धनी थे और उन्होंने अपने इलाज के लिए रुपया पानी की तरह बहा दिया। फिर भी उनकी सेहत में कोई सुधार नहीं आया। तब किसी ने उन्हें नाग महाशय के पास जाने की सलाह दी। मालिक के रिश्तेदार को यह पता चला कि नाग महाशय के पिता उन्हीं के संबंधी की कंपनी में हैं, तो उन्होंने उन से नाग महाशय की जानकारी ली और अपने इलाज के लिए उनके पास पहुंचे।

नाग महाशय ने रोगी को देखा। रोगी की हालत गंभीर थी किंतु नाग महाशय के कु शल और लंबे उपचार से वे पूरी तरह स्वस्थ हो गए। यह देख कर रोगी दंग रह गया कि बड़े-बड़े डॉक्टर भी जिस रोग का निवारण नहीं कर पाए उसका निवारण नाग महाशय ने कुछ ही समय में कर दिया। नाग महाशय से प्रसन्न होकर उसने उन्हें रुपयों से भरी थैली पकड़ाई तो नाग महाशय ने उस में से केवल 20 रुपये निकाले। शेष रुपयों की थैली उस व्यक्ति को वापिस कर दी और बोले, 'मेरी फीस इतनी ही है। शेष राशि पर मेरा कोई हक नहीं है।'

धनिक नाग महाशय की ईमानदारी देख कर दंग रह गया। जब उनके पिता को यह बात पता चली तो वह बोले, 'जब वह व्यक्ति स्वयं तुम्हें रुपयों की थैली दे रहा था तो तुम्हें वापिस करने की क्या जरूरत थी?' इस पर नाग महाशय विनम्रता से पिता से बोले, 'पिताजी, मेरे उपचार का मूल्य तो इतना ही था और फि र आपने व मेरे गुरुजी ने ही तो मुझे सिखाया है कि हमेशा सचाई के मार्ग पर चलो, धर्म का पालन करो। यही मेहनत का द्वार है। मैंने तो अपने धर्म का पालन मात्र किया है।' नाग महाशय की बातें सुनकर पिता शांत हो गए और उन्हें अपने पुत्र पर बेहद गर्व हुआ।

बुद्धि के सहारे
पुराने जमाने की बात है। किसी गांव में एक फकीर रहता था। वह रोज भिक्षा मांगने शहर जाताथा। एक दिन भिक्षा के लिए शहर में वह एक धनवान व्यापारी के घर पहुंचा। व्यापारी उसको बहुत खुश नजर आया , सो कौतूहल से पूछा ,आज तो आप बहुत खुश नजर आ रहे हैं। हमें भी उस खबर में शामिल कीजिए। व्यापारी ने बताया ,आज मुझे ईश्वर की कृपा से एक पुत्र की प्राप्ति हुई है। और उसने खुश होकर फकीर को एक सोने की मोहर दे दी।

सोने की मोहर पाकर वह खुश हुआ और व्यापारी को दुआएं देता हुआ अन्य घरों में चावल -आटा मांगने चला गया। जब सायंकाल वह भिक्षा लेकर अपने गांव लौट रहा था , तब उसने सोचा इस मोहर को आटे में छुपा लेना चाहिए। उसने ऐसा ही किया। जब वह घने जंगल से गुजर रहाथा , तब उसे डाकुओं ने घेर लिया और कहा , ऐ मुसाफिर ! तेरे पास जो कुछ भी है , हमारे हवाले कर दे वरना जान से हाथ धोना पड़ेगा। फकीर घबरा गया , पर उसने धीरज नहीं खोया और कहा , हे डाकुओं के सरदार ! मेरे पास यह मोहर है। यह तुम ले जाओ , मगर यह आटा मेरे पास ही रहने दो।

तब डाकुओं के सरदार ने सोचा कि यह आटा क्यों नहीं दे रहा , जबकि वह मोहर देने को तैयार है। तब सरदार ने पूछा , तुम हमें आटा न देकर मोहर ही क्यों दे रहे हो ? इस पर फकीर ने कहा , क्योंकि यह आटा चमत्कारी है और रोज एक सोने की मुहर उत्पन्न करता है। डाकुओं केसरदार ने सोचा कि क्यों न इससे यह आटा ही ले लिया जाए। यह सोचकर डाकुओं का सरदार सोने की मोहर वहीं फेंक उससे आटा लेकर भाग गया। डाकुओं के जाने के बाद ब्राह्मण खुशी -खुशी अपने घर आ गया। संकट आने पर भी उसने बुद्धि नहीं खोई , इसलिए कठिनाई में भीसफलता हासिल कर ली।

क्रोध से नुकसान
अहं नामक व्यक्ति को बहुत गुस्सा आता था। वह जरा - जरा सी बात पर क्रोधित हो जाता था। वह उच्च शिक्षित और उच्च पद पर आसीन था।उसके क्रोध को देखकर एक सज्जन ने उसे सुदर्शन नामक ऋषि के आश्रम में जाने को कहा। अहं ने उस सज्जन की यह बात सुनते ही उसे गुस्से से घूरा और बोला , ' मैं क्या पागल हूं जो सदुर्शन ऋषि के आश्रम में जाऊं ?

मैं तो सर्वश्रेष्ठ हूं और मेरे आगे कोई कुछ नहीं है।' उसकी इस बात को सुनकर सज्जन वहां से चला गया। धीरे - धीरे सभी अहं से दूर-दूर रहने लगे। उसे भी इस बात का अहसास हो गया था। एक दिन वह बेहद क्रोध में सुदर्शन ऋषि के आश्रम में जा पहुंचा। सुदर्शन ऋषि ने अहं के क्रोध के बारे में सुन रखा था। उन्होंने उसके क्रोध को दूर करने की मन में ठानी। वह जान बूझकर बोले, ' कहो नौजवान कैसे हो ? तुम्हें देखकर तो प्रतीत होता है कि तुममें दुर्गुण ही दुर्गुण भरे हुए हैं। '

सुदर्शन ऋषि की बात सुनकर अहं को बेहद क्रोध आया । क्रोध में उसकी मुट्ठियां भिंच गईं और वह दांत पीसते हुए सुदर्शन ऋषि के साथ सबको अनाप - शनाप बकने लगा। क्रोध में उसकी उल्टी - सीधी बातें सुनकर आश्रम में अनेक लोग एकत्रित हो गए किंतु किसी ने भी उसे कुछ नहीं कहा । बोल-बोल कर जब वह थक गया तो चुपचाप नीचे बैठ गया।

बेवजह क्रोध में बोलकर उसका सिर दर्द हो गया था और गला भी सूख गया था। उसकी ऐसी स्थिति देखकर सुदर्शन ऋषि बोले ,कहो नौजवान क्रोध ने तुम्हारे सिवाय किसी और का अहित किया है। सभी दुर्गुण पहले स्वयं को विनाश के कगार पर लेकर आते हैं। तुम्हारे क्रोध ने तुमको सबसे दूर कर दिया है जबकि तुम अत्यंत ज्ञानी एवं शिक्षित व्यक्ति हो। ऋषि की सारी बातें अहं ने सुनी और उसे अपनी गलती का पश्चाताप् हुआ। उसने उसी दिन से अपने व्यक्तित्व में से क्रोध को दूर करने का निश्चय कर लिया

छोटे-छोटे काम
एक दिन गांधी जी साबरमती आश्रम में कार्य कर्ताओं के साथ कताई कर रहे थे। तभी लालबहादुर शास्त्री कहीं बाहर से आश्रम में पहुंचे। पहलेवे सीधे गांधी जी से मिलने कताई स्थल पर गए और जा कर उनके पास बैठ गए। गांधी जी की निगाह उनके कुर्ते पर पड़ी तो बोले - लालबहादुर,तुम्हारे कुर्ते में चीर लगी है। '

शास्त्री जी ने कहा , हां बापू , देख तो लिया था, मगर समय नहीं मिला कि जाकर इसे सिलवालूं। यहां से जाकर सिलवा लूंगा। गांधी जी ने कहा , तुम लंबे सफर से आ रहे हो। थक भी गए होगे। सबसे पहले स्नान कर लो। इससे तुम्हारी थकान दूर होगी और तरोताजा भी महसूस करोगे। ' शास्त्री जी कुर्ता निकाल कर तख्त पररख कर नहाने चले गए। उनके जाते ही गांधी जी ने सूई - धागा ले उनका कुर्ता सिल दिया और उसे खूंटी पर टांग दिया।

शास्त्री जी स्नान - ध्यान करके आए तो कुर्ता वहां नहीं था। उन्हें कुर्ता खोजते देख कर गांधी जीने इशारा किया , वहां खूंटी पर टंगा है। शास्त्री जी ने जब उसे दोबारा पहना तो देखा कि कुर्ता सिला हुआ है। वह कुछ पूछते , उसके पहले ही गांधी जी बोले , ' लाल बहादुर , आजादी तो हमेंतभी मिलेगी जब सब लोग दूसरे पर निर्भरता छोड़ कर अपना काम स्वयं करने लगेंगे। जब हम इतना छोटा काम भी दूसरे के लिए छोड़ देंगे , तो देश का क्या होगा। पूरी आजादी हमें कैसे मिलेगी। ' शास्त्री जी के पास इसका कोई जवाब नहीं था। मगर गांधी जी की एक नसीहत को शास्त्री जी ने जिंदगी भर याद रखा। इसके बाद उन्होंने अपना कोई भी काम दूसरे के भरोसे नहीं छोड़ा। यहां तक कि मंत्री बनने के बाद भी उन्हें गांधी जी की सीख याद रही और वह अपने कपड़े स्वयं साफ करते थे।

जीवन की सार्थकता
एक राजा काफी वृद्ध और बीमार हो चला था। उसका जीवन दवाओं के सहारे ही चल रहा था। इस दौरान एक ज्योतिषी उसके पास आया और उसने कहा कि राजा का जीवन बस एक माह शेष है। इससे राजा और चिंतित हो गया। उसकी बीमारी और बढ़ गई। उन्हीं दिनों एक संत राजा को देखने आए। राजा ने उन्हें सारी बात बताई तो वे हंसकर बोले, 'आप तो अमर हैं।' इस पर राजा को बेहद आश्चर्य हुआ। उसने संत से कहा, 'मेरा शरीर तो जर्जर हो चुका है। यह कभी भी टूट सकता है फिर मैं अमर कैसे हो सकता हूं। कृपया विस्तार से समझाएं।'

यह सुनकर संत राजा को एक जुलाहे के यहां ले गए। संत ने जुलाहे से पूछा, 'तुम कपड़ा तो बनाते हो पर बेचारी रूई के अस्तित्व को क्यों मिटाते हो?' इस पर जुलाहा बोला, 'यदि समय रहते रूई का उपयोग न किया जाए तो वायु और रेत इसको नष्ट कर देंगी। मैं तो इन्हें कपड़े में बदल इन्हें समाज के लिए उपयोगी बना रहा हूं।' अब संत ने राजा को समझाया, 'राजन्, दुनिया की हर वस्तु का एक न एक दिन मिटना तय है।

इसलिए उनका सर्वोत्तम प्रयोग किया जाना चाहिए। इसी में उसकी सार्थकता है। शरीर का भी एक दिन नष्ट होना तय है। उसे स्थायी रूप से बचाया नहीं जा सकता। इसलिए उसके बचने की चिंता छोड़कर हमें उसका दूसरों के हित में प्रयोग करना चाहिए।' राजा संत का आशय समझ गया। वह मृत्यु की चिंता छोड़कर राजकाज में फिर से मन लगाने लगा। धीरे-धीरे वह स्वस्थ हो गया।

संकल्प और समर्पण
यशोधर्म एक प्रसिद्ध संत थे। अनेक शिष्य उनसे ज्ञान प्राप्त करने के लिए आतुर रहते थे। एक दिन जब वह अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे तो एक शिष्य बोला, 'अध्यात्म मार्ग में गति पाने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए?' शिष्य का प्रश्न सुनकर संत यशोधर्म बोले, 'जैसे पक्षी को उड़ान भरने के लिए दो पंखों की आवश्यकता होती है उसी तरह अध्यात्म का मार्ग पाने के लिए भी व्यक्ति को संकल्प एवं समर्पण रूपी दो पंखों की आवश्यकता होती है। इनके अभाव में कोई भी व्यक्ति अध्यात्म की राह नहीं पा सकता।

यह सुनकर शिष्य बोला, 'गुरुजी, क्या अकेले संकल्प या समर्पण से अध्यात्म लाभ नहीं हो सकता?' यशोधर्म बोले, 'आओ, नौका विहार करते हैं । इसका जवाब मैं तुम्हें वहीं दूंगा।' यह सुनकर शिष्य संत के साथ नौका विहार के लिए तैयार हो गया। वह संत के साथ नौका स्थल पर पहुंचा तो यशोधर्म बोले, 'नाव मैं चलाता हूं।' यह कह कर उन्होंने एक ही पतवार से नाव खेनी शुरू कर दी। आधा घंटा बीत गया, नाव वहीं गोल-गोल घूमने लगी। काफी देर बीतने के बाद शिष्य बोला, 'गुरुजी, यह आप क्या कर रहे हैं? कहीं एक पतवार से भी नाव चलती है।

ऐसे तो हम यहीं चक्कर खाते रहेंगे और कभी भी किनारे तक नहीं पहुंच पाएंगे।' शिष्य की बात सुनकर संत यशोधर्म मुस्कराते हुए बोले, 'अब तुम्हीं बताओ जब नौका की एक पतवार हमें किनारे तक नहीं पहुंचा सकती तो खाली अकेले संकल्प या समर्पण का सहारा लेकर तुम अध्यात्म के मार्ग तक कैसे पहुंच सकते हो? जिस तरह दोनों पतवारों के बिना नाव खेना संभव नहीं है उसी तरह संकल्प एवं समर्पण के बिना अध्यात्म का मार्ग पाना भी संभव नहीं है।' संत यशोधर्म की इस बात से शिष्य की आंखें खुल गईं और वह समझ गया कि अध्यात्म के मार्ग के लिए संकल्प एवं समर्पण दोनों ही अनिवार्य हैं।

सच्ची निष्ठा
विश्वबंधु शवर आखेट की खोज में भटकता हुआनील पर्वत की एक गुफा में जा पहंचा। वहां भगवान नील माधव की मूर्ति के दर्शन पाते ही शवर के हृदय में भक्ति - भावना का स्रोत उमड़पड़ा। वह हिंसा छोड़ कर भगवान नील माधव कीरात दिन पूजा करने लगा।

उन्हीं दिनों मालवराज इंद्र प्रद्युम्न किसी अपरिचित तीर्थ में मंदिर बनवाना चाहते थे। उन्होंने स्थानकी खोज के लिए अपने मंत्री विद्यापति को भेजा।विद्यापति ने वापस जाकर राजा के नील पर्वत परविश्वबंधु शवर द्वारा पूजित भगवान नील माधव की मूर्ति की सूचना दी। राजा तुरंत मंदिर बनवानेके लिए चल दिया। विद्यापति राजा इंद प्रद्युम्न को उस गुफा के पास लाया , किंतु आश्चर्य। मूर्तिवहां नहीं थी।

राजा ने क्रोधित होकर कहा , विद्यापति ! तुमने व्यर्थ ही कष्ट दिया है। यहां तो मूर्ति नहीं है।विद्यापति ने कहा ,महाराज मैंने अपनी आंखों से इसी गुफा में भगवान नीलमाधव की मूर्ति देखी है। अवश्य ही कोई ऐसी बात हुई है , जिस से भगवान की मूर्ति अंतर्धान हो गई है। राजन ! आतेसमय आप क्या सोचते आए हैं ? राजा इंद प्रद्युम्न ने बताया , मैं केवल इतना ही सोचता आयाहूं कि अपने स्पर्श से भगवान की मूर्ति को अपवित्र करने वाले शवर को भगा दूंगा और कोई अच्छा पुजारी नियुक्त कर दूंगा। फिर मंदिर बनवाने का आयोजन करूंगा। '

विद्यापति ने बड़ी नम्रता से कहा आपकी इसी मंद भावना के कारण भगवान रुष्ट हो कर चले गएहैं। समदर्शी भगवान जात - पात नहीं हृदय की सच्ची निष्ठा ही देखते हैं। राजा ने अपनी भूलसुधारी। भगवान से क्षमा मांगी , उनकी स्तुति की और उसी स्थान पर जाकर जगन्नाथ जी केप्रसिद्ध मंदिर की स्थापना कराई।

सच्चा गुरु
नैमिषारण्य में एक साधु ने छह साल तक एकांत में रह कर तपस्या की। जब उसे लगा किवह ज्ञान की प्राप्ति के करीब है , उसने प्रभु से यहप्रार्थना कि उसे एक ऐसे आदर्श गुरु का पता दें जिसका अनुसरण कर वह आगे के साधना पथ पर आगे बढ़े। उसी रात साधु ने सपना देखा।सपने में प्रभु ने उससे कहा कि अगर वह सचमुच ऐसा चाहता है तो उस भिखारी का अनुसरण कर जो कवित्त पढ़ - पढ़ कर भीख मांगता रहता है।

सुबह उठते ही साधु ऐसे भिखारी की खोज में चलपड़ा। वह उनकी कुटिया से कुछ ही दूर मिला। साधु ने जब उसके द्वारा किए सत्कर्म पूछे तोभिखारी बोला - मुझसे मजाक मत कीजिए। मैंने न तो कोई सत्कर्म किया , न तपस्या की औरन प्रार्थना। मैं तो कवित्त गाकर लोगों का मनोरंजन करता हूं और जो रूखी - सूखी मिलती है , खालेता हूं। तब साधु ने पूछा - तू भिखारी कैसे बना , तूने फि जूलखर्ची में पैसे उड़ा दिए यादुर्व्यसन में ?'

भिखारी ने कहा - नहीं , मुझे जब पता चला कि एक गरीब स्त्री के पति और पुत्र कर्ज के बदलेगुलाम बनाकर बेच दिए गए तो मैंने अपनी सारी संपत्ति साहूकार को देकर उसके पति व पुत्र को छुड़वा लिया। मेरी सारी संपत्ति चली जाने से मैं भिखारी हो गया। आजीविका का कोई साधन न रहने से मैं कवित्त गाकर अपना पेट पालता हूं और प्रसन्न रहता हूं।

भिखारी की कथा सुनकर साधु उससे बहुत प्रभावित हुआ और बोला - तू सचमुच आदर्श साधु है।तेरा अनुसरण करके ही मैं प्रभु का प्रेम पा सकता हूं।

मन की कमजोरी
एक विद्वान महर्षि ने घोर तप आरंभ किया।आंधी - तूफान और अन्य विघ्न - बाधाएं भीउन्हें तप से नहीं डिगा सकीं। देवराज इंद्र को जब इसकी सूचना मिली तो वह हमेशा की तरह भयग्रस्त हो गए। उन्हें लगा कि यह महर्षि कहीं उनके लिए खतरा न बन जाएं। यही सोच कर वह एक शिकारी का रूप धारण कर महर्षि के पास पहुंचे और उनसे हाथ जोड़कर बोले , गुरुजी ,मुझे किसी आवश्यक काम से जाना है। मैं अपना धनुष - बाण आपके पास रखना चाहता हूं। जबमैं वापस आऊंगा तो आपसे ले लूंगा। कृपया इसे संभाल कर रख लें। '

महर्षि शिकारी वेश में इंद्रदेव को नहीं पहचान पाए। उन्होंने धनुष - बाण रखने से साफ मना करदिया। किंतु इंद्रदेव भला इतनी आसानी से कहां हार मानने वाले थे ? उन्होंने महर्षि पर इतनाजोर डाला कि उन्हें धनुष - बाण रखना पड़ा लेकिन वह बोले , ' तुम नहीं मानते तो इसे कुटियाके एक कोने में रख दो। किंतु मैं तप में इतना लीन होता हूं कि मुझे किसी का ध्यान ही नहीं रहता। ऐसे में इसकी रखवाली मुमकिन नहीं है। ' इस पर शिकारी बने इंद्रदेव बोले , चिंता न करें गुरुजी , इसे कोई लेकर जाने वाला नहीं है। बस आते - जाते एक नजर डाल लिया करें। इसके बाद वह वहां से चले गए।

महर्षि तप में लीन हो गए। मगर कई बार उनकी नजर कोने में पड़े धनुष - बाण पर अवश्य पड़जाती। वे भी कभी राजा थे और राजपाट छोड़कर संन्यासी बनकर तप में लगे थे। कई दिनों तकउस पर नजर पड़ते - पड़ते उनके मन में धनुष - बाण चलाने की इच्छा जागने लगी। बस , अबवे तप से समय बचाकर जंगल में निकल जाते। उनका ध्यान बंटने लगा। तप में कमी आ गई।इंद्रदेव यही तो चाहते थे। उन्हें महर्षि के कठोर तप से अपना सिंहासन हिलता हुआ नजर आनेलगा था जो अब सुरक्षित था। महर्षि के मन के कोने में दबी उनकी एक कमजोरी ने उनका कठोर तप भंग कर दिया।

भूल का अहसास
फारस का एक राजा कलाकारों का अत्यधिक सम्मान करता था। उसके दरबार में दूर-दूर से चित्रकार,मूर्तिकार,लेखक और कवि आदि आते और अपनी रचनाओं पर भरपूर प्रशंसा व पुरस्कार पाते थे। एक दिन ग्रीस का एक ख्यात मूर्तिकार राजा के पास आया। उसने राजा को तीन मूर्तियांभेंट कीं और बोला - राजन , जब तक ये तीनों मूर्तियां आपके दरबार में रहेंगी , तब तक आपके राज्य में सुख - समृद्धि बनी रहेगी। राजा ने प्रसन्न होकर मूर्तिकार को इनाम में सोने के सिक्कों से भरा एक थैला दिया। राजा ने अपने सेवकों को उन मूर्तियों का ध्यान से रख - रखाव करने का आदेश दिया। आदेश का यथा विधि पालन होने लगा।

एक दिन एक सेवक के हाथ से सफाई करते वक्त एक मूर्ति गिरकर टूट गई। राजा को जैसे हीयह बात पता चली वह आग बबूला हो गया और उसने सेवक को मौत की सजा सुनाई। आदेश का सुनना था कि उस सेवक ने बाकी दो मूर्तियां भी पटक कर तोड़ डालीं। राजा इस गुस्ताखी से और भी गुस्से में आ गया , लेकिन साथ ही उसके इस कृत्य से वह आश्चर्यचकित भी था। किसी तरह अपनी भावनाओं पर काबू पा उसने इसका कारण पूछा। सेवक बोला - किसी न किसी के हाथ सेतो ये मूर्तियां भी टूटनी ही थीं , इसलिए ऐसा करके मैंने दो अन्य व्यक्तियों को मौत के मुंह मेंजाने से बचा लिया है। सेवक की बात सुन राजा को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने अपने आंख खोलने वाले उस सेवक को न केवल क्षमा किया , उसे दरबार में महत्वपूर्ण स्थान भी दिया।

जीवन में इन फायदों के लिए दिवाली पर जरूर दें मां लक्ष्मी को बुलावा!
दीपावली पर्व अमावस के गहरे अंधकार में भी हर एक के दिल और चेहरों को आशा, उमंग व उत्साह की जोत से रोशन कर देता है। आखिऱ क्यों दीपावली पर जिंदगी में खुशियां और जोश चरम पर होती हैं?

इस सवाल का जवाब धर्म के साथ ही व्यावहारिक नजरिए से सोचने पर मिलता है। दरअसल, इस महापर्व की धार्मिक परंपराओं में जुड़ी है, ऐसी कामना, जिसका संबंध सांसारिक जीवन से है। शास्त्रों के मुताबिक भी यह जीवन के लिए अहम चार पुरुषार्थ में शामिल हैं। वह विषय या कामना है - अर्थ यानी धन, पैसा या दौलत।

धर्म दर्शन यह है कि बाहरी जीवन की संपूर्णता के लिए धन बहुत जरूरी है। व्यक्ति और हालात के मुताबिक धन सुख-दु:ख या लाभ-हानि का कारण बन सकता है। जहां अयोग्य और अहंकारी धन का दुरुपयोग कर सकता है, वहीं योग्य और काबिल के पास धन का होना दूसरों के लिए भी हितकारी हो जाता है।

दीप पर्व पर लक्ष्मी-कुबेर उपासना से जुड़ी परंपरा निभाने के साथ अगर हम इससे जुड़े व्यावहारिक जीवन के संदेशों को अपना लें तो जीवन भय, बाधा और संकटमुक्त ही नहीं बल्कि मनचाहा ऐश्वर्य और यश के साथ बीतता है। इसलिए यहां जानते हैं व्यवहार में धन की सकारात्मक भूमिका को, यानी क्यों बहुत जरूरी लक्ष्मी की साधना -

- धन व्यक्ति को सकारात्मक विचार शक्ति यानि सोच को सही दिशा दे सकता है।

- अमीर हो या गरीब भावनात्मक संबंधों और रिश्तों को मधुर बनाने में धन अहम भूमिका निभाता है। इससे मिलने वाली खुशी जिंदगी जीने का जज्बा बनाए रखती है। यह खुशी उम्र को उसी तरह बढ़ा सकती है, जिस तरह चिंता या तनाव उम्र को घटाती है।

- दरिद्रता या धन के अभाव से समय निकलने के साथ मानसिक बेचैनी, निराशा, कुंठा जीवन पर हावी होती है, ऐसी स्थिति में धन की आवक आपके आत्मविश्वास और शक्ति को फिर से जगा देती है।

- व्यक्तिगत योजनाओं और लक्ष्यों तक पहुंचने में धन का बहुत बड़ा योगदान होता है।

- धर्म शास्त्रों में बताए गए जीवन के चार पुरुषार्थों में धर्म, काम और मोक्ष को पाना अर्थ यानि धन के पड़ाव से गुजरे बिना संभव नहीं है।

- पारिवारिक जिंदगी में जरूरतों और सुविधाओं की पूर्ति में धन का अभाव तनाव, कलह और विवाद का कारण बनकर जिंदगी में उथल-पुथल मचा देता है। किंतु ऐसी स्थिति से बाहर आने और जीवन को गति देने में धन ही संगी-साथी बनता है।

- धन मिलने पर ही नहीं बल्कि धन प्राप्ति की आस ही व्यक्ति में ऊर्जा और उत्साह भर देती है।

- धन परिवार, समाज में मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और ख्याति देता है।

- धन व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक और व्यावहारिक स्वास्थ्य को पुष्ट करता है।

सफल जीवन के लिए हर इंसान इन कारणों से भी दीपावली पर लक्ष्मी को बुलावा यानी स्मरण जरूर करें। क्योंकि द्रव्य रूप लक्ष्मी यानी, रुपया-पैसा किसी भी व्यक्ति के जीवन, व्यक्तित्व, विचार और चरित्र को निखारने में अचूक औषधी की तरह काम करता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष