Saturday, July 25, 2015

Jeene Ki Rah7 (जीने की राह)

भीतर बनाइए मौन का रक्षा कवच
अकारण उत्तेजित होना दुर्गुण है। उत्तेजना यदि सद्कार्य के लिए या लक्ष्य प्राप्ति के लिए है, तब तो ठीक है। अधिकांश मौकों पर हमारी उत्तेजना दूसरों से प्रेरित होती है। फिर चाहे यह उत्तेजना काम, क्रोध या लोभ की ही क्यों न हो। बाहर के कारण से उत्तेजित होने से बचने के लिए हमें अपने भीतर रक्षा कवच पैदा करना पड़ेगा। बाहर किसी ने हमारे साथ कुछ किया और उस पर हमारी प्रतिक्रिया होशपूर्ण न होकर अहंकार से जुड़ी हो तो उत्तेजना में बदल जाती है। जो ऊर्जा आपके भीतर है वह व्यर्थ उत्तेजना में खर्च न हो जाए, रक्षा कवच उससे हमारा बचाव करेगा। यह रक्षा कवच तैयार कैसे किया जाए? इसका सरल-सा रूप है मौन हो जाएं।

यानी मन को बाहर से आने वाले विषय पर प्रतिक्रिया न करने दें। जैसे यदि मोबाइल फोन को साइलेंट मोड पर डाल दें तो जो कॉल आप लेना नहीं चाहें उसकी रिंगटोन आपको डिस्टर्ब नहीं करेगी। हालांकि, आप जानते हैं कि कॉल आ रहा है। बस ऐसे ही अपने मन को साइलेंट मोड पर डाल दीजिए। बाहर घटनाएं होकर रहेंगी, लेकिन भीतर आपकी उत्तेजना साइलेंट मोड पर पड़ी है। आप आराम से उस समय से अपने आप को निकालकर ले जाएंगे। हम लगातार बदलते रहते हैं। जब हम बिलकुल एकांत में होते हैं अपने वॉशरूम में या बेडरूम में तो हम कोई और व्यक्ति होते हैं और जैसे ही हम लोगों के बीच आएंगे तो बिल्कुल बदल जाते हैं। यह बदलाव स्वाभाविक है, लेकिन इसमें जब उत्तेजना जुड़ जाती है तो यह बदलाव असहज हो जाता हैै। इसलिए एक रक्षा कवच आंतरिक मौन का बनाइए। हमारी उत्तेजना हमको गलत ढंग से परिवर्तित नहीं कर पाएगी और जब हम बिना उत्तेजना के अपने व्यक्तित्व में परिवर्तन लाएंगे तो वह हमारे लिए हितकारी होगा।

प्रार्थना के जरिये दें दुर्गुणों को मात
ऐसे बहुत से लोग हैं, जो सीधा-सादा जीवन जीते हैं और अकारण तनाव में नहीं आते, लेकिन इनके जीवन में भी कभी-कभी आपातकाल आ जाता है। आपातकाल शब्द इसलिए लिख रहा हूं कि काम, क्रोध, मद और लोभ ये दुर्गुण हमेशा शिकार की तलाश में रहते हैं। अनुशासित व्यक्ति भी जरा चूक गए तो फिर ये प्रवेश कर जाएंगे। जब हमारे ऊपर इनका आक्रमण हो जाए तो समझिएगा इमरजेंसी आ गई।

छोटे बच्चे किसी बात को देखकर डर जाएं, तो तुरंत माता-पिता की शरण में चले जाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि हम इसका मुकाबला नहीं कर सकते। उसी तरह दुर्गुणों का आक्रमण हो तो हमें तुरंत परमात्मा की शरण में चले जाना चाहिए। प्रलोभनों से सुरक्षा करने के लिए भगवान से मदद मांगिए और उस मदद का नाम है प्रार्थना। यही पूजा है। सबसे पहला काम यह करें कि प्रलोभनों से नेत्रों को मोड़ दें, क्योंकि ज्यादातर प्रलोभन आंख से प्रवेश करते हैं। अन्य इंद्रियां बाद में आती हैं। अपनी बंद दृष्टि में परमात्मा को ले आइए।

दृष्टि नियंत्रित हो गई तो भी विचार सक्रिय रहेंगे। अपने विचारों को अच्छे विचारों से जोड़ दें। जिस समय आपके ऊपर यह इमरजेंसी चल रही हो आप जितना अच्छे से अच्छा पॉजीटिव सोच सकते हों सोचिए, क्योंकि सद्‌विचार हृदय में आएंगे, तो हृदय मन से प्रभावित होना छोड़ देगा और दुर्गुण, अप्रिय स्थितियां बाहर ही रह जाएंगी। तीसरे चरण में आपको गुरु ने दिया मंत्र हो, तो उसका खूब जप करिए। यह एक कवच है। यह तीन चरण आपके आपातकाल में आपके लिए हथियार हैं। कुमति कब घेर ले पता नहीं लगता। हम खूब अभ्यास करते हैं, लेकिन दुर्गुण हम पर भारी पड़ जाते हैं, इसलिए जब कभी भी ऐसा हो फौरन इन तीन बातों को अपने जीवन में उतारिए।

ईश्वर को परिवार का सदस्य बनाएं
अधिकतर लोगों के मन में सवाल उठता है कि हमने गृहस्थी क्यों बसाई? परिवार में कलह का वातावरण हो तो ऐसे विचार और पैदा होते हैं। पारिवारिक परेशानियों से बचने के सबके अपने ढंग हैं। ज्यादातर लोग परिवार से भागकर दिक्कतें दूर करना चाहते हैं, लेकिन समस्या बनी रहती है। किंतु भक्ति की मानसिकता में जीने वालों के लिए पारिवारिक तनाव से मुक्ति पाना आसान होगा।

दो संवादों को मंत्र की तरह रटा जाए। पहला- भगवान मेरे हैं और दूसरा- मैं भगवान का हूं। दोनों संवाद भरोसे पर आधारित हैं। जैसे ही हम इनके आधार पर जीवन जीते हैं, हमारी स्थिति मां और उसके छोटे बच्चे जैसी हो जाती है। बच्चे को नहलाते समय मां उसे खूब रगड़ती-पोछती है और बच्चा रोता है। थोड़ी देर बाद सजा-धजाकर मां उसे हृदय से लगा लेती है। तब दोनों प्रसन्न हो जाते हैं।

भगवान मेरे हैं और मैं भगवान का हूं, ऐसा मानने से हमारे प्रति ईश्वर की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। यह भरोसा जितना बढ़ेगा, आपको कम पूजा-पाठ में भी अधिक लाभ मिलने लगेगा। हम भरोसे के अभाव में घंटों पूजा के बाद भी अशांत रहते हैं। परिवार में शांति हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए और इन दो संवादों से हम ईश्वर को पारिवारिक सदस्य बना लेंगे। ईश्वर जैसा सदस्य यदि हमारे परिवार में आ जाए तो फिर वह भी सुख-दुख का भागीदार रहेगा।

परिवारों में अशांति का इतिहास बड़ा लंबा है। इतिहासकार कहते हैं तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार से अधिक युद्ध लड़े गए हैं। परिवार के मामले में यह आंकड़ा और बढ़ जाता है। परिवारों में शांति भी अगले युद्ध की तैयारी होती है, इसलिए ये दो संवाद परिवार में शांति के सूत्र बन जाएंगे। भगवान का एक स्वरूप शांति भी है। उनका आगमन अशांति का प्रस्थान है।

हमेशा अवसरों की तलाश जारी रखें
जीवन अवसरों का दूसरा नाम है। परमात्मा अवसर विहीन किसी को नहीं छोड़ता। मनुष्य सावधान हो तो अवसरों का लाभ उठा सकता है। हमारे जीवन में अच्छे लोगों का आना भी एक अवसर ही होता है, इसलिए चूक मत जाइए। किष्किंधा कांड में बालि श्रीराम के जीवन में आने का एक अवसर गंवा चुका था। अंतिम वक्त में अपने आरोपों पर श्रीराम का उत्तर सुनकर उसने कहा, ‘आपके सामने मेरी चतुराई अब नहीं चल सकती।

मैं समझ चुका हूं कि मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई है।जैसे ही बालि प्रायश्चित के भाव से कोमल वाणी बोला, श्रीराम की दया फूट पड़ी। ईश्वर मूल रूप से दयालु हैं। हमारे हिसाब से यदि परिणाम नहीं आता है तो उसमें भी हमारा हित ही होता है। श्रीराम ने कहा, ‘अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना।।मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूं, तुम प्राणों को रखो। बालि ने कहा, ‘जन्म-जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं।।

मुनिगण जन्म-जन्म में अनेक साधन करते रहते हैं फिर भी अंतकाल में उनके मुख से रामनाम नहीं निकलता। बालि समझ चुका था कि जीवन के समापन पर भाग्य से ऐसा अवसर मिला है। विदा करने के लिए साक्षात ईश्वर आए हैं। हमें यही सीखना है कि यदि कभी अवसर चूक भी जाएं तो अवसरों की तलाश जारी रखिए। जीवन की विशेषता ही यह है कि यहां कुछ भी तय नहीं होता। आप सोचते कुछ हैं, हो कुछ और जाता है।

इसलिए जीवन के प्रति घबराइए मत। जरूरी नहीं है कि सब अपने मन का हो जाए। हममें और फकीरों में यही फर्क है। जीवन में जब कोई अव्यवस्था होती है तो संत घबराते नहीं हैं। उनका कहना होता है जीवन एक अव्यवस्था का ही नाम है, फिर क्या घबराना। जब जैसा अवसर आए, जमकर जी लिया जाए।

समय रहते बच्चों को ईश्वर से जोड़ें
नई पीढ़ी के सामने कई विषयों में भ्रम है। उनमें से एक यह है कि जीवन में किस स्तर तक भौतिकता से जुड़ें और कितना आध्यात्मिकता में उतरें। पहले के वक्त में संसार इस रूप में नहीं था तो लोग चुपचाप ध्यान-कर्म कर लेते थे। उनकी स्वीकृतियां सहज होती थीं। अब बच्चे देहरी के पार निकलते हैं तो दुनिया अलग ढंग से उन्हें आकर्षित करती है, जो कई बार विद्रोह का कारण बन जाता है। किंतु नई पीढ़ी को अध्यात्म यानी परमात्मा से जोड़ना उन्हीं के हित में होगा, क्योंकि शांति आधुनिकता से तो नहीं मिल सकती।

आधुनिकता दोषपूर्ण नहीं होती, उसे भी स्वीकार करना है। माता-पिता को वह प्रयोग करते रहना चाहिए जो किष्किंधा कांड में बालि ने किया। जीवन को समेटते-समेटते बालि ने एक बहुत सुंदर निर्णय लिया। इस निर्णय पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिए। गहि बांह सुन नर नाह आपन दास अंगद कीजिए।हे कल्याणप्रद प्रभु! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए। हे देवता और मनुष्यों के नाथ बांह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए।

समय रहते अपने बच्चों को ईश्वर से जोड़ दें। इसका यह मतलब नहीं है कि बच्चों को पंडित बना दें, मंदिरों में बैठा दें। तिलक-चोटी रखवा दें। ईश्वर से जुड़ने का मतलब है खूब परिश्रम और सफलता अर्जित करते हुए शांति प्राप्त करने की जागरूकता। इतिहास बताता है कि अंगद भविष्य में राम के बहुत विश्वसनीय बने और श्रीराम द्वारा रावण के समापन को जो अभियान चलाया गया उसमें अंगद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। माता-पिता बच्चों को ईश्वर से जोड़ें यह उनकी परिपक्वता है, लेकिन बच्चे समय रहते भगवान से जुड़ जाएं यह कमाल अंगद ने किया था, जिसकी चर्चा अगले अंक में आएगी।

मन को खराब चिंतन से बचाएं
दिनभर हमारा शरीर सक्रिय रहता है और मन के भागने का तो कोई हिसाब है ही नहीं। दोनों साथ दौड़ रहे हैं तो एक-दूसरे को कैसे देख सकेंगे? जब रात को हम सोने जाएं उस स्थिति में शरीर को शिथिल होना ही है और यही वह मौका होता है जब हम अपने मन पर ठीक से काम कर सकेंगे। दिनभर में यदि मन ने कोई अच्छे काम किए हैं तो उसकी सराहना, प्रशंसा जरूर की जाए और जब गलत कामों में मन ने रुचि ली है तब उसे धिक्कारने में भी न चूकें।

यदि डांट का ढंग सही रहा तो मन आज्ञाकारी बन सकता है। इसके लिए उसे बुरे चिंतन से बचाते रहना होगा। पहले जिन गलत खयालों को वह लपक रहा हो उन्हें रोकें। अब मन को विचार नहीं मिलेंगे तो वह बेचैन होगा। जैसे किसी व्यक्ति का मन अधिक समय से भूखा या प्यासा हो तो वह कुछ भी खाने-पीने के लिए तैयार हो जाएगा। इसी तरह उस मन को अच्छे संस्कारवान विचार सौंप दें, वह तुरंत लपक लेगा। अच्छे विचारों से भरा हुआ मन जल्दी नियंत्रित होगा।

ध्यान रखिएगा जब तक मन नियंत्रण में न आए, इससे सावधान रहना। यह कभी भी नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे घर में हमारी संतान गलत मार्ग पकड़ ले तो वह पैसे भी चुराती है, धोखा भी देती है, झूठ भी बोलती है लेकिन यदि आपकी निगरानी बढ़ गई तो उसे गलत करने के अवसर कम हो जाएंगे। मन बिगड़ैल बच्चा ही है। उसे अनुचित बातों को पकड़ने की बीमारी जैसी है।

यदि बीमारी को जान लिया जाए तो उससे लड़ना आसान हो जाएगा। मन है तो बीमार, लेकिन अपने आप को स्वस्थ मानता है। जैसे कुछ लोगों को समाज में एक बीमारी लग जाती है। वे ईमानदार होते हैं, लेकिन दूसरों को बेईमान ही मानते हैं। यह बीमारी मन को प्रिय है। इसलिए मन की निगरानी के मौके चूकिए मत।

चेतना के जरिये मन का लाभ उठाएं
विज्ञापनों ने व्यवसाय करने वालों को तो मुनाफा पहुंचाया और ग्राहकों को भी सही जानकारी मिल गई। परंतु विज्ञापन, वस्तु के चयन में मनुष्य के चिंतन में से तर्क-विवेक को खा गए। अध्यात्म की भाषा में इसको कहते हैं आपको क्या करना है, यह दूसरे तय कर रहे हैं। अपने ऊपर से आपका नियंत्रण चला गया। जैसे विज्ञापन तय करते हैं कि आप किससे मुंह धोएंगे, क्या पहनकर चलेंगे। कई बार तो आप सुंदर हैं यह भी विज्ञापन तय करता है।

आपकी मौलिकता को खाने-पीने के बाद विज्ञापन जो डकार लेता है वह आपके लिए सत्य बन जाता है। आध्यात्मिक जगत में मन यही भूमिका निभाता है। मनुष्य का मन तय करता है उसे क्या करना है। बुद्धि के सारे तर्क धरे रह जाते हैं और मन जो चाहता है करा लेता है। पिछले चार-पांच वर्षों में तो प्रतिष्ठित लोगों द्वारा किए गए अपराध मन की ही अंगड़ाइयां हैं, इसलिए अपने मन को देखने का अभ्यास बनाइए। वह बिलकुल विज्ञापन फिल्म की तरह बड़ी-बड़ी बातें छोटे-छोटे ढंग से दिखाता है। इतना प्रभावशाली बना देता है कि आपको लगने लगता है जो मन कह रहा है वह कर ही लें।

हम बंध जाते हैं उससे, इसलिए मन के विज्ञापनों से सावधान रहना है तो उसे गौर से देखना सीखें। जब भी मौका मिले, अपने आप को मन से अलग करिए। ऐसा कल्पना के द्वारा होगा। फिर उसको आता-जाता देखिए। रोकिए-टोकिए मत, देखना ही पर्याप्त है। थोड़ी देर में आपको समझ में आ जाएगा कि किस खूबसूरती से वह आपका इस्तेमाल करता है। आपके शरीर को उसने अपने ही ढंग से गुलाम बना रखा है, लेकिन जैसे ही आप उस पर नजर रखते हैं, अपने शरीर को बचा सकेंगे और अपनी चेतना के जरिये मन के विज्ञापनों का लाभ तो उठाएंगे, हानि नहीं।

बीमारी से बचाए आहार शुद्धि
हम खाने के लिए कमाते हैं या कमाने के लिए खाते हैं। हमारे बड़े-बूढ़े यह सवाल कई बार हमसे पूछते हैं। इससे नई पीढ़ी के बच्चे चिढ़ जाते हैं कि हमें खाने-पीने के मामले में क्यों टोका जाता है। 60-70 वर्ष की उम्र में आने वाली व्याधियां 30-40 की उम्र में ही दरवाजा खटखटाने लगती हैं। उधर शरीर को 14-15 घंटे काम करना है। कुल-मिलाकर एक बीमारी मिटाने के लिए दूसरी पाली जाती है, इसलिए पकड़ भोजन से ही बनाई जाए। ऋषि-मुनियों की बात शत-प्रतिशत सही थी कि अन्न जीवन को संचालित करता है।

जब भी हम भोजन करते हैं एक भाग मल-मूत्र बन जाता है। यदि इनका विसर्जन शरीर से ठीक से न हो तो इसे बीमारी बनने में देर नहीं लगती। दूसरे भाग से हड्‌डी और मांस बनता है। तीसरा हिस्सा सबसे महत्वपूर्ण होता है, जो बहुत सूक्ष्म होता है और उससे बनता है मन। इसीलिए कहा है जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन। आहार जितना शुद्ध है, अंत:करण उतना ही पवित्र होगा। आहार का शाब्दिक अर्थ है जिसे इंद्रियां ग्रहण करें वह आहार है। केवल अन्न ही भोजन नहीं है।

दृश्य भी भोजन है। आंखों से पढ़े गए शब्द भी भोजन बन जाते हैं, इसलिए इंद्रियों द्वारा की जा रही हर क्रिया के समय सावधानी ही सबसे अच्छी आहार शुद्धि है। भोजन के वक्त क्रोध और तनाव से खुद को दूर रखें, क्योंकि भोजन जब भीतर जाता है चाहे वह अन्न का हो, दृश्य का हो या शब्द का हो, शरीर उसे पचाने की रासायनिक क्रिया आरंभ कर देता है। ऐसे समय यदि हम क्रोध और तनाव में हैं तो पाचक रसायन बन नहीं पाते या फिर ऐसे रसायन बन जाते हैं, जो भोजन को विषैला बना देते हैं। जाहिर है अशांत स्थिति में लिया गया आहार भीतर जाकर विष बन जाता है, जो बाहर से लिए विष से खतरनाक है।

सांस से बढ़ाएं सकारात्मकता
कुछ कर्म शरीर के लिए किए जाते हैं, जिनका परिणाम शरीर पर होता है। जैसे बहुत परिश्रम के बाद विश्राम करें तो सबसे ज्यादा लाभ शरीर को मिलता है। कुछ काम अपना परिणाम आत्मा तक पहुंचाते हैं। कथा-सत्संग, पूजा-पाठ ये आत्मा से संबंधित कर्म हैं। हमारा एक कृत्य ऐसा है, जिसका संबंध मन से है और वह है सांस लेना। हम ध्यान न भी दें, तो भी हमारा सांस लेना और छो़ड़ना चलता रहता है। अधिकतर लोगों को दिनभर में ध्यान भी नहीं आता कि सांस भी ली जा रही है। इसमें बाधा आने पर ही श्वसन-क्रिया का ध्यान आता है।

सांस का सबसे ज्यादा फायदा मन उठाता है, क्योंकि उसे विचारों का भोजन सांस से ही मिलता है, इसलिए जागते हुए हमें सांस के प्रति जागरूक होना चाहिए। खासतौर पर जब कभी तनाव की स्थिति आए एक अभ्यास बढ़ाएं। सकारात्मक विचारों को सांस से भीतर लाएं। सकारात्मक विचारों को समझने के लिए विचारों को स्मृति में बदल दें। आपके जीवन में जो अच्छे लोग रहे हों माता-पिता, गुरु इनसे जुड़ी स्मृतियों को उनकी छवि के साथ भीतर लाएं, लेकिन जब सांस बाहर जाए, तो जो भी नकारात्मक विचार हों उन्हें बाहर ले आएं। इसे यूं समझें। किसी गोदाम में भरा हुआ ट्रक आता है। सामान खाली करता है और कुछ दूसरा सामान भरकर ले जाता है।

सकारात्मकता भीतर लाएं और नकारात्मकता को बाहर ले जाएं। नकारात्मक विचार मतलब आपके तनाव को बढ़ाने वाली बातें। गलत करने की जो इच्छाएं पैदा हो रही हैं उन्हें सांस के साथ बाहर फेंक दें। आप पाएंगे सांस लेते समय अधिक प्रयास नहीं लगता, लेकिन सांस को बाहर जाते समय प्रयास करना पड़ेगा। थोड़ी देर में आप अपने आपको शांत पाएंगे। सांस के द्वारा आप अपना इलाज स्वयं कर चुके होंगे।

अंगद का चरित्र भरोसे का प्रतीक
शिक्षा के विस्तार के इस युग में ज्यादातर बच्चे अपने माता-पिता से अधिक पढ़े-लिखे होते हैं। पहले भी संतानें अपने माता-पिता से अधिक पढ़ जाती थीं, लेकिन उस समय घर-परिवार में संस्कार सहजता से उपलब्ध थे, इसलिए बच्चे अपने माता-पिता को सम्मान देने में सहज थे। आज परिवारों का ढांचा बदल गया है। अब बदले माहौल में माता-पिता होने का अर्थ भी बदल गया है।

संस्कारों के अभाव में अधिक पढ़े-लिखे बच्चे मान लेते हैं कि हमारे माता-पिता को हमसे कम समझ है, जबकि उन्हें यह समझना होगा कि माता-पिता को जानकारी कम होगी, लेकिन समझ का स्तर उनका बच्चों से ऊंचा ही रहेगा। इसके लिए उनको माता-पिता पर भरोसा करना पड़ेगा। याद करें किष्किंधा कांड का वह प्रसंग, जिसमें बालि प्राण त्यागने के ठीक पहले अपने बेटे अंगद को श्रीराम को सौंप देता है। जिस व्यक्ति के हाथों उसके पिता का वध हुआ था, अंगद को उसी व्यक्ति को सौंपा जा रहा था।

हालांकि, अंगद ने विरोध न कर पिता के निर्णय को मान्य किया। यही बात आज की पीढ़ी के बच्चों को समझनी चाहिए कि हो सकता है उनके मां-बाप उनसे कम पढ़े-लिखे हों, लेकिन जीवन की समझ उन्हें जरूर होगी। जिस नीयत से माता-पिता निर्णय लेते हैं, उन्हें वह नीयत समझनी चाहिए। अपनी संतानों के मामले में जैसी साफ नीयत माता-पिता की होती है, परमात्मा ऐसी नीयत किसी को नहीं देता। बच्चों को भरोसा रखना होगा कि पालक के निर्णय में भगवान की कृपा शामिल है। आज दिख रहा अहित भविष्य का हित लेकर आ रहा होगा, भरोसा रखें। इस प्रसंग में अंगद का चरित्र उसी भरोसे का प्रतीक है।

दया से ऊंचा होता है करुणा भाव
व्यवस्थित लोग शरीर के लिए जो भी वस्तुएं उपयोग की जाती हैं उनका समय निश्चित करके चलते हैं। जैसे कपड़े शरीर पर कितनी देर रखने हैं। कुछ लोग हर दिन मोजे बदलते हैं। कुछ बदलने में इतने दिन लगाते हैं कि बदबू आने लगती है। हाथ की घड़ी रात को उतार दी जाती है। यह शरीर का एक अनुशासन है। हमें बिल्कुल स्पष्ट होता है कि शरीर के मामले में किस वस्तु को कितनी देर पकड़कर रखना है।

एक प्रयोग करते रहिए। क्रोध को भी वस्तु ही मान लें और तय कर लें कि इसे कब लाना है और कब वापस भेजना है। जैसे धूप का चश्मा बिना धूप के उतारने में समझदारी है। क्रोध के साथ ऐसा ही करें। यदि जरूरी हो तो ही लाएं और उपयोग के बाद तो तुरंत रवाना कर दें। बिल्कुल ऐसे ही जैसे बारिश में छतरी खुली, बूंदाबांदी बंद हुई और हम पहली ही फुरसत में छतरी समेट लेते हैं, लेकिन क्रोध के मामले में ऐसा नहीं कर पाते। क्रोध को जल्दी रवाना इसलिए करना है कि उसका नुकसान शरीर उठाता है, इसलिए शरीर की रक्षा के लिए भीतर करुणा का जल उतारिए।

यह शरीर में नहीं, हृदय में बसती है। करुणा दया से ऊंची स्थिति है। दूसरे की पीड़ा देखकर दुख होना और कुछ करने की इच्छा पैदा होना दया है, लेकिन कुछ करना ही है, ऐसा भाव करुणा है। दया के पास विकल्प होता है करें या न करें? दया अपने परिणाम में अहंकार ला सकती है। करुणा प्रेम ही बिखेरती है।
हमने यदि दया के भाव से किसी की मदद की, तो अहंकार आएगा ही और अहंकार का प्रकट रूप क्रोध है, लेकिन यदि भीतर करुणा जाग्रत कर लेते हैं, तब आप प्रेमपूर्ण रहते हैं और प्रेम की उपस्थिति में क्रोध ऐसे चला जाता है, जैसे मालिक का काम होने पर कोई नौकर फिजूल उसके सामने खड़ा नहीं रहता।


एकाग्रता से निकालें भीतरी संपत्ति
पृथ्वी को मां क्यों कहा गया है? इसका उत्तर शास्त्रों ने बड़े सुंदर ढंग से दिया है। धरती और मां में एक बात समान है। दोनों के पास गर्भ है। गर्भ का अर्थ है कुछ महत्वपूर्ण जीवन संबंधी तत्व अपने भीतर समेटकर रखना। स्त्री के शरीर में गर्भाशय सृजन का केंद्र है। ऐसे ही पृथ्वी अपने भीतर सृजन का बहुत बड़ा केंद्र समेटे हुए है। ऊपर से तो पृथ्वी हमारे लिए भौतिक वस्तु ही होगी। जैसे-जैसे इसके भीतर उतरेंगे रासायनिक पदार्थ, धातुएं, तेल, गैस, जीवन से जुड़े बहुमूल्य तत्व सब मिल जाएंगे। ठीक ऐसा ही मनुष्य के भीतर है। परमात्मा ने उसके भीतर कर्म और स्वभाव से जोड़कर प्रतिभा, मैत्री, विद्या, बुद्धि और बल छोड़ रखा है। पृथ्वी में से कोई सम्पत्ति प्राप्त करना हो तो खुदाई करनी पड़ती है। एक बड़ा गड्‌ढा करके या नोंकदार खुदाई से, जिसे ड्रिल कहते हैं।

मनुष्य को अपने भीतर की सम्पत्ति को बाहर निकालना हो तो दूसरा तरीका अपनाना चाहिए। अपने व्यक्तित्व की नोंकदार खुदाई करें। इसका नाम है एकाग्रता। अपनी इच्छाशक्ति को एक जगह केंद्रित करके भीतर की तरफ मोड़ दें, तो कोई भी मनुष्य भीतर की सम्पत्ति बाहर निकाल सकता है। जैसे धरती पर बाहर से चीजें बिखरी हैं, ऐसे ही हमने भी अपने मस्तिष्क अौर शरीर में बहुत सारी चीजें फैला रखी हैं। एकाग्रता से यह बिखराव समेटें। यह आता है कंसन्ट्रेशन से, मेडिटेशन से। कभी किसी को आटा गूंधता हुए देखिए। चार-पांच चरण में समझदार हाथ बिखरे हुए आटे को गूंध लेते हैं और लोई को जैसा चाहे वैसा आकार दे देते हैं। यह प्रयोग हमें अपने व्यक्तित्व के साथ भी करना चाहिए। थोड़ा-सा समेटिए और अपने भीतर की सम्पत्तियों को एकाग्रता से बाहर निकालें। इसे ही प्रखरता कहेंगे। सफलता को प्रखरता से पुरानी मोहब्बत है।


पैदल चलने को अपनी सांस से जोड़ें
इतने वाहन हो गए हैं कि गांव के संकरे रास्ते, भी तरस गए हैं कि मनुष्य के पैर सीधे पड़ जाएं। कुछ तो समय की कमी है और कुछ परिश्रम का भाव जाता रहा है, क्योंकि ऐसा मान लिया जाता है कि पैदल चलने में मेहनत लगेगी। इस विचार के कारण लोगों का पैदल चलना बंद हो गया। जो लोग पैदल चल रहे हैं उनमें से बहुतों को तो डॉक्टर चलवा रहे हैं। पैदल चलना भी बीमारी का इलाज बना दिया गया है। कैलोरी प्रबंधन के कारण लोग पैदल चल रहे हैं।

भूल ही गए कि पैदल चलने के और भी फायदे हैं। वाहन स्टेटस सिंबल बनते जा रहे हैं। हमारे तनाव के जितने भी कारण हैं उनमें से एक हमारा कम पैदल चलना या बिल्कुल नहीं चलना भी है। यदि आप पैदल चलते हैं तो ध्यान की एक प्रक्रिया अपने आप होने लगती है। जो भी शरीर पृथ्वी से अपना संपर्क रखेगा पृथ्वी उसको कुछ कुछ सुख जरूर देगी। पैदल चलते समय शरीर की दसों इंद्रियां हलचल में रहती हैं, लेकिन पूरी तरह से स्वतंत्र भी नहीं रहतीं। असावधानी पर गिरने का खतरा बना रहता है और यहीं से बाहर की दुनिया और हमारे भीतर के संसार में संतुलन बन जाता है। आप पैदल चलते में एक प्रयोग भी कर सकते हैं।

अपने हर कदम को सांस से जोड़ लीजिए। एक सांस भीतर, एक कदम आगे और एक सांस बाहर अगला कदम आगे। जैसे ही कदम-ताल और सांस का संबंध बना, चलते-चलते ध्यान की क्रिया घटती रहेगी। मंदिरों में परिक्रमा की व्यवस्था इसीलिए की गई है। किसी एक लक्ष्य को केंद्र में रखकर हम चल रहे होते हैं। ऐसे ही चलते हुए हमारा शरीर कदम और सांस से जुड़ेगा, मन शांत होने लगेगा। घूमने का घूमना हुआ मेडिटेशन स्वत: होता रहेगा। बिना पैदल चले कोई भी दिन बिताएं।

जीवन में भी रियाज बहुत जरूरी
कला जगत में रियाज का बड़ा महत्व है। शिक्षा जगत और प्रबंधन में इसको पूर्वाभ्यास कहा गया है, लेकिन होमवर्क और रिहर्सल में बड़ा फर्क है। होमवर्क यानी शरीर को बाहर से सजाना और रिहर्सल यानी भीतर मानसिक रूप से साफ-सफाई करना। कला जगत से जुड़े लोग रियाज को जीवन का अंग बना लेते हैं।
बिना रियाज के कलाकार खत्म हो जाता है। रिहर्सल कलाकार के प्राण हैं। आप कलाकार भले ही हों और किसी व्यवसाय से जुड़े हों, लेकिन भीतर की रिहर्सल रोज कर सकते हैं, करना भी चाहिए। घर से निकलने के पहले कुछ मिनट के लिए अपने आप को रोकें और मानसिक रिहर्सल कर लें कि बाहर की दुनिया में जाकर क्या करना है। बुजुर्ग लोग कहा करते थे कि जब भी घर से बाहर निकलें, मुड़कर अपने निवास स्थान को देखें, प्रणाम करें और चल दें। वास्तु देवता को पीठ नहीं देना चाहिए। यह मामला अंध विश्वास का नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक तथ्य है। इस तरह घर छोड़ना मानसिक रिहर्सल का ही हिस्सा है। आप बाहर-भीतर बेतहाशा भाग रहे हैं।

घर छोड़ने के बाद तो गति और तेज होनी है, इसलिए रुककर आगामी दृश्य की पटकथा मस्तिष्क में उतार लें। कलाकार रियाज के बाद मंच पर उतरता है तो उसे अच्छे परफॉर्मेंस का आत्मविश्वास होता है। आपको भी दुनिया के रंगमंच पर शानदार प्रस्तुति देनी है। बाहर की दुनिया में उतरने पर जो सुख या दुख मिलेगा, दोनों के लिए आप व्यवस्थित हो चुके होंगे। एक कलाकार की तरह आपका प्रत्येक कदम सधा हुआ रहेगा। अन्यथा जब सुख आता है तो हम बावले हो जाते हैं और दुख आता है तो दीवाने हो जाते हैं। किंतु जो मानसिक रियाज से गुजरे होंगे वे दोनों ही स्थिति में अपनी प्रस्तुति के प्रति संतुष्ट और तृप्त रहेंगे।

भक्ति साकार से निराकार की यात्रा
जब भी कोई काम करें उसमें दूसरों के अनुभव जरूर लेते रहिए। गायत्री परिवार के पितृपुरुष पं. श्रीराम शर्मा एक उदाहरण दिया करते थे। किसी निर्माणाधीन भवन की जब छत डाली जाती है तो नीचे बल्लियां लगाई जाती हैं। लकड़ी या टीन की चादरों का एक आधार बनाया जाता है और फिर छत भरी जाती है। निश्चित समय के बाद वो बल्लियां हटा ली जाती हैं, लेकिन आधार बना रहता है, क्योंकि वह मजबूत हो जाता है।

आप जब कोई काम आरंभ करें तो आपको दूसरे के अनुभव, ज्ञान के सहारे की जरूरत होगी। वह सहारा बिल्कुल इसी तरह लें। जब आपको लगे कि आप परिपक्व हो चुके हैं तो फिर भले ही उन्हें हटा लें। भक्ति के क्षेत्र में भी यही प्रयोग करना पड़ता है। भक्ति आरंभ साकार से होती हैै। यानी पूजा-पाठ, तीर्थ, मंदिर यह सब साकार हैं। आरंभ इनसे करिए और फिर धीरे-धीरे योग के माध्यम से परमात्मा के निराकार स्वरूप को पहचानें। सीधे यदि निराकार को जानने का प्रयास करेंगे तो चूक हो सकती है। पहले इन सबका सहारा लें। जैसे किसी व्यक्ति का भोला होना अलग बात है और उसके भीतर संतत्व उतर जाना अलग बात है। भोलापन विपरीत परिस्थितियों से अनजान होता है।

जैसे ही विपरीत परिस्थिति आएगी भोलेपन की परीक्षा हो जाएगी। संतत्व का अर्थ है एक ऐसा भोलापन जो किसी भी विपरीत परिस्थिति में समाप्त नहीं होगा। भक्त को एक ऐसा भोलापन अपने भीतर रखना चाहिए। उससे जब संतत्व की ओर पहुंच जाएं तो बल्लियों की तरह उस सहारे को हटा सकते हैं। आप एक बार मजबूत हो जाएं तो आपके गिरने और टूटने की संभावना समाप्त हो जाती है। वरना अच्छे-अच्छे साधक और तपस्वी जीवन यात्रा में ठोकर खा जाते हैं और आचरण से गिर जाते हैं।

भ्रांति दूर होने पर संभव सहज विदाई
संसार में झंझट तब शुरू होती है जब हम इस वास्तविक संसार से हटकर भ्रम की दुनिया बसा लेते हैं। यदि हम जन्म मृत्यु को ठीक से समझ लें तो हम वास्तविक संसार और अपनी भ्रांतियों से बनाए हुए संसार का अंतर समझ लेंगे। प्रसंग चल रहा है बालि के निधन का। मरते-मरते उसने जितने प्रश्न पूछे, श्रीराम ने सभी के उत्तर दिए। जब बालि ने प्राण छोड़े तो तुलसीदासजी ने विशेषरूप से यह चौपाई लिखी- राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग। सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत जानइ नाग।।

श्रीरामजी के चरणों में दृढ़ प्रीति करके बालि ने शरीर को वैसे ही (आसानी से) त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला का गिरना जाने। इस दृश्य को हाथी से इसलिए जोड़ा गया कि जब हमारे प्राण निकलें तब हमारी विदाई संसार से ऐसी होनी चाहिए कि पता ही लगे। मरने वाला बता तो नहीं सकता कि मैं कैसे मरा, लेकिन ऋषि-मुनियों ने मृत्यु के दृश्य का वर्णन किया है। अगर हम संसार की वास्तविकता को जान लें तो हम मृत्यु की वास्तविकता को भी पहचान लेंगे। इसके लिए लगातार अभ्यास करिए कि भ्रांति के संसार में रहना बंद करें। अगर आप शांति से बैठकर देखें तो आपका मन किसी भ्रांति के चक्कर में चौबीसों घंटे ऐसे-ऐसे काम करता है, जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है।

वास्तविकता यह है कि आपकी पत्नी है, पति है, बच्चे हैं, परिवार है। मन की भ्रांति यह है कि दूसरी स्त्रियां, दूसरे पुरुष, दूसरा सबकुछ मन में समा जाता है। इसीलिए मृत्यु आते समय फिर एक भ्रांति पैदा हो जाती है, जबकि मृत्यु से बड़ी कोई वास्तविकता नहीं है। यह प्रसंग हमें यही समझा रहा है जाना तो सबको है क्यों होश में संसार से जाया जाए।

ईश्वर पर भरोसा देता है शांति
परेशान कोई नहीं होना चाहता, लेकिन लगभग सभी परेशान रहते हैं। जब कभी परेशान हों तो सबसे पहले देखिए कि परेशानी किस मार्ग से रही है। संसार से जो परेशानी आती है उन पर हमारा नियंत्रण उतना नहीं होता। दूसरा हिस्सा हमारा व्यक्तित्व है, जो शरीर, मन और आत्मा से बना है। दिक्कतों को हम सबसे पहले शरीर से झेलते हैं।

सावधानी रखें तो इन्हें शरीर से ही विदा किया जा सकता है। शरीर ऐसा द्वार है, जिसमें कई ताले और कई दरवाजे हैं। शरीर के दरवाजे बंद हों इसमें मन की रुचि होती है। उससे आने वाली समस्याओं का चिंतन, उनके प्रति भय, संदेह ये मन की रुचि के विषय हैं। अब सवाल उठता है कि मन का क्या करें। संतों ने कहा है, जिनका भगवान में भरोसा है, उनके लिए मन को वश में करना आसान है। जैसे ही हमारा ईश्वर के प्रति भरोसा बढ़ता है, हमारे मन को उसमें लगना ही पड़ेगा। मन दूसरों में रुचि लेता है। अगर वो दूसरा भगवान बन जाए, तो मन भगवान से जुड़ जाएगा। तब हमारा मन अपने आप अच्छी बातें लेने लगता है, क्योंकि उसका मालिक भगवान से जुड़ा है।

नुकसान पहुंचा सकने वाला मन फायदेमंद साबित होगा। ईश्वर पर भरोसा बढ़ाने के लिए इस मन को यदाकदा सत्संग में ले जाएं। मन को भीड़ में रुचि है। सत्संग में मन थोड़ी देर इधर-उधर भटकेगा, लेकिन सामान्यतौर पर सत्संग में प्रत्येक मनुष्य पॉजिटिव एनर्जी लेकर बैठा होता है। मन को वही मिलता है, जो वहां बंट रहा है और जब वह सत्संग का स्वाद ले लेता है, फिर वह जीवन को बेस्वाद नहीं बनाता। सत्संग की खूबसूरती ही हमारे जीवन का सौंदर्य बन जाती है। मन पर नियंत्रण के लिए भगवान पर भरोसा बढ़ाइए। यह भरोसा आपके जीवन में शांति लाने के लिए बहुत मददगार होगा।

अहंकार घटाने के लिए काम बदलें
लोग इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि हमारी नई पीढ़ी के बच्चे आलसी हो गए हैं। यदि इन्हें इस उम्र में भी घर के कामों की कुछ जिम्मेदारियां नहीं सौंपी तो जिस उम्र में सचमुच इन्हें काम करना पड़ेगा, उसके लिए ये मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पाएंगे। जैसे दफ्तरों में काम का सिर्फ बंटवारा होता है, बल्कि एक का काम दूसरे को और दूसरे का काम पहले को दिया जाता है ताकि सब लोग सभी कामों में दक्ष हो जाएं। ऐसा घरों में भी होना चाहिए। घर के पुरुष कुछ काम वह करें जो स्त्रियां करती रही हैं। घर की महिलाओं को भी यह अवसर दिया जाए कि जो काम पुरुष करते हैं, वह करें। यदि आपके घर में किसी प्रकार का काम करने वाले कर्मचारी हैं तो महीने में एक या दो बार वह काम भी करिए। इसके दूरगामी परिणाम आएंगे। सबसे बड़ी बात होती है ऐसी स्थिति में काम करने के लिए हमको अपना अहंकार गिराना पड़ता है।

यह प्रयोग घर से अहंकार मिटाने के लिए बड़ा उपयोगी है। जो काम आप नहीं कर सकते, जिसमें आपकी रुचि नहीं है वो काम घर में करें। जैसे कभी बर्तन साफ कर लिए जाएं, कभी भोजन बना लें या बनाने में मदद कर दें, कभी कपड़े प्रेस कर दिए जाएं। कई घरों में नई पीढ़ी के बच्चे तो यह जानते ही नहीं हैं कि सुबह उठने के बाद अपना बिस्तर भी समेटा जा सकता है। इस तरह की जिम्मेदारियों के काम अगर बड़े-छोटों के और छोटे-बड़ों के करने लगें तो आप पाएंगे घर का माहौल बदलेगा, अहंकार गिरेगा। मां-बाप कहते हैं बच्चे आलसी हो गए। बच्चे कहते हैं यह हमारा काम नहीं है। एक तनाव, जिसके बीच में अहंकार काम करने लगता है। इसलिए काम के मामले में अपनी-अपनी भूमिका बदल कर देखें। परिणाम में परिवार में शांति उतरेगी।

ईश्वर को पाने का साधन है गृहस्थी
चाहने पर सबसे सरलता से भगवान मिलता है और सबसे कठिनाई से दुनिया मिलती है। परमात्मा को पाने के लिए बहुत कठिन प्रयास नहीं करने पड़ेंगे, लेकिन संसार चाहते हैं तो खूब परिश्रम करना पड़ेगा, क्योंकि संसार में गतिरोध, उलझनें और कुटिलताएं हैं। सवाल उठता है कि क्या गृहस्थी में भगवान मिल जाएंगे? कुछ लोग सोचते हैं कि घर-गृहस्थी छोड़नेे पर ही भगवान मिलेंगे और यहीं से गड़बड़ शुरू हो जाती है।

जिस दुनिया को भगवान ने बनाया उसे वे क्यों छुड़वाएंगे? साधु-संतों ने कहा है कि गृहस्थी वह केंद्र है, जहां रहकर परमात्मा आसानी से मिल सकता है। संतों ने कहा है कि गृहस्थी में भौतिक जीवन के अलावा परमात्मा के प्रति भी भूख-प्यास बनाए रखें। शास्त्रों में गृहस्थी को ऐसा जहाज बताया गया है, जिसकी यात्रा संसार से शुरू होती है और परमात्मा के पास जाकर खत्म होती है। यदि कोई जहाज हमें भगवान तक ले जाए तो फिर उस साधन को अपनाने में क्या बुराई है? यह सही है कि हम जलयान की यात्रा करते हैं, तो उसमें बाधाएं भी आती हैं। तमाम टेक्नोलॉजी के बाद जब आप हवाई जहाज में उड़ते हैं तो लगता है कि तकनीकी खराबी मौत का कारण बन जाए। फिर भी हम मंजिल तक पहुंच ही जाते हैं।

गृहस्थी में ऐसी उठा-पटक आती रहे तो निराश होकर इसे छोड़ें। गृहस्थी ऐसा झरना है, जिसमें झाग भी है, सौंदर्य भी है, प्रहार भी है और स्नान के अवसर भी हैं। फकीरों ने कहा है कि भक्ति की प्यास जिस जल से बुझती है, उसे भगवान की कृपा कहते हैं और एक बार यह जल पी लें तो फिर कोई प्यास नहीं रहती। ऐसे ही गृहस्थी की प्यास बुझा लें, तो परमात्मा को पाने की प्यास जाग जाएगी। परिवार सहायक है संसार को पाने के लिए भी और संसार बनाने वाले को पाने के लिए भी।


वासनाओं का रूपांतरण कीजिए
इंद्रियों के सदुपयोग को दुरुपयोग में बदलने का नाम वासना है। चूंकि वासना का संबंध इंद्रियों यानी हमारी आंख, नाक, कान, हाथ, पैर, मल-मूत्र की दो इंद्रियां, मुख, त्वचा, कंठ से होता, वह इन सबसे जुड़ जाती है। तब मनुष्य वासनाओं को दुश्मन समझने लगता है, इसलिए वासनाएं बाहर से आएं और इंद्रियों से मिलें तो हम सावधान हो जाएं।

इन्हें परमात्मा की ओर मोड़ दिया जाए। फकीरों ने कहा है, वासना खत्म नहीं की जा सकती, इन्हें संस्कारित किया जा सकता है। परिष्कृत किया जा सकता है। इन्हें उस दिशा में मोड़ा जा सकता है, जो जीवन की सर्वश्रेष्ठ दिशा है। वासना श्रेष्ठ लक्ष्य को पाने का संकल्प बन सकती है, इसलिए वासनाओं को नष्ट करने पर बहुत अधिक ऊर्जा मत लगाइए। कैसे उनको शुद्ध करें, कैसे उन्हें नियंत्रित करें इसका प्रयास करें, क्योंकि वासना यदि गलत बात से जुड़ी, आप गलत काम करेंगे। सही बात से जुड़ी; आप सही काम में जुट जाएंगे, इसलिए वासना का रूपांतरण करना है। जब वासना हमारे भीतर आती है और इंद्रियों से मिलती है तो एक बेचैनी शुरू होती है।

फिर इंद्रियां इधर-उधर भटकने लगती हैं। कोई शराब पीता है, कोई और नशा करता है, कोई गलत रास्ते पर जाता है। कुल-मिलाकर शुभ कार्यों से लोग मुंह मोड़ने लगते हैं, इसलिए उसी समय सावधान हो जाएं, जब वासनाएं आपकी इंद्रियों से मिल रही हों। इसके लिए पांच से दस मिनट इंद्रियों को भीतर से वॉच करिए, आपको वह बिंदु नजर आएगा जब वासनाएं उनसे मिलती हैं। जितना उस बिंदु से आप परिचित होने लगेंगे, उतना ही वासनाओं के प्रवेश के समय सावधान हो जाएंगे। एक अच्छा साधक जानता है कि कहां-कहां से वासनाएं आकर इंद्रियों को चुरा सकती हैं। थोड़ी-सी सावधानी पूरे जीवन को आनंद से भर देंगी।

वर्तमान में जीकर जीवन को जानें
जीवन में कुछ बातों को स्वीकार करना ही पड़ता है। आप मजबूरी के साथ स्वीकार करेंगे तो परेशानियां बढ़ जाएंगी। आप स्वेच्छा से स्वीकार करेंगे तो परेशानियां वही रहेंगी, लेकिन आप कम परेशान होंगे। ऐसी अनेक परिस्थितियां बनती हैं, जिन्हें स्वीकार करना ही पड़ता है। इसे समय से जोड़ दीजिए। जैसे जो वक्त बीत जाता है उसका सुख हो या दुख, आप लौटाकर नहीं ला सकते। उसे भुलाने की कोशिश करिए, क्योंकि जो आने वाला है वो अभी आप तक नहीं पहुंचा है, इसलिए जो हमारे हाथ में बचता है वो होता है वर्तमान।

अपने वर्तमान को सुधारने के लिए बड़े संतुलन के साथ काम करना होगा, क्योंकि वर्तमान बाल के भी हजारवें हिस्से से छोटा होता है। थोड़ी देर पहले वो भविष्य था और थोड़ी देर बाद भूतकाल में बदल जाएगा। इतने कम समय के लिए जो कालखंड पकड़ में आया है उसे बहुत ही होश, एकाग्रता के साथ छूना चाहिए। जो वर्तमान को पकड़ लेगा वह जीवन को जान जाएगा, क्योंकि इच्छाएं, तकलीफें, परेशानियां इन सबका सबसे अच्छा इलाज वर्तमान ही है। इन्हें भूतकाल से जोड़ेंगे तो यह बढ़ेंगी।

इन्हें भविष्य काल से जोड़ें तो कम नहीं होंगी, लेकिन जैसे ही आप इन्हें वर्तमान से जोड़ते हैं तो आपके पास कुछ समाधान निकल आता है। वर्तमान से जुड़ने के लिए थोड़ी देर अपने को रोकिए। हम बात कर रहे हैं जीवन की गति की। जीवन की रफ्तार का संबंध हमारी सांस के साथ है। जितना हम आती-जाती सांस के प्रति होशपूर्ण होंगे, उतना ही हम वर्तमान से जुड़ेंगे और जितना वर्तमान से अपना संबंध रखेंगे उतना ही समस्याओं का निदान आसानी से निकाल सकेंगे। यह एक फिलॉसफी है। आप इस पर जितना सोचेंगे उतनी जल्दी इससे परिचित हो जाएंगे।

जैसी दृष्टि वैसा नजर आता है संसार
संसार बुरा तब लगता है जब हमारा मन इसे बुरी दृष्टि से देखता है। मन का स्वभाव दुख पकड़ने का है। संसार को कैसे देखा जाए इसके लिए श्रीराम किष्किंधा कांड में बालि की रोती हुई विधवा तारा को समझाते हैं। इस वार्तालाप पर तुलसीदासजी चौपाई लिखते हैं - तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।। छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।। तारा को व्याकुल देखकर श्रीरघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। उन्होंने कहा - पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच तत्वों से यह शरीर रचा गया है। प्रगट सो तनु तव आगें सोवा।

जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।। वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? श्रीराम ने तारा को समझाया कि यह जो शरीर निष्प्राण तुम्हारे सामने पड़ा है यह इसके पूर्व तुम्हारे पति का था। शरीर का अंत होने पर पांचों तत्व अपना हिस्सा ले जाते हैं, लेकिन इसके भीतर जो आत्मा है वह कभी नहीं मरती। श्रीराम तारा को समझाते हैं कि जिस शरीर के लिए तुम रो रही हो क्या इसमें से आत्मा निकल जाने पर इसको रख सकती थी? इस पूरे वार्तालाप से हम यह समझें कि संसार हमें उसकी समझ के कारण अच्छा या बुरा लगता है। ,

श्रीराम की दृष्टि से देखें, तो जो आया है वह जाएगा। यदि संसार के कण-कण में परमात्मा देखने लगें तो फिर जब हमें अपनों से बिछड़ना पड़े या कभी अपनों से धोखा खाना पड़े तब हम दुख को अलग ढंग से लेने लगेंगे, क्योंकि परमात्मा प्रत्येक निर्णय में समाया हुआ है। उसे जितना देना था, उसने दिया और जितना लेना था ले लिया। फिर किस बात का शोक करें, क्यों दुख मनाएं। हम उसके हिस्से हैं उसी की तरह प्रसन्न रहें।

अकेलेपन को आनंद में ऐसे बदलें
आदमी जब दुखी होता है तब अकेलापन महसूस करता है और जब अकेला पड़ जाए तो दुख ओढ़ लेता है। हमारे भीतर यह क्षमता है कि हम अकेले रहने से घबराएंगे नहीं, बल्कि अपने भीतर से प्रसन्नता निकाल लेंगे। मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूं जो भीड़ से घिरे हैं, प्रतिष्ठित हैं, लोकप्रिय हैं, लेकिन भीतर से बिल्कुल खाली और अकेले हैं।

यदि उन्हें बाहर से कभी अकेला रहना पड़ जाए तो सिर्फ टूट जाते हैं, बल्कि भटक जाते हैं। यदि पुरुष हैं तो अकेलापन मिटाने के लिए किसी गैर-स्त्री की तलाश में निकल जाते हैं। कई स्त्रियां भी किसी पर-पुरुष में अपने अकेलेपन का समाधान खोजती हैं। कई लोग जरा-सा अकेलापन आते ही अपने निजी संबंध खराब कर लेते हैं। अनेक पति-पत्नी अपनी-अपनी व्यस्तता के कारण एक-दूसरे को अकेलापन दे देते हैं और फिर भटक जाते हैं। इस समय सबके पास बहुत सारा काम है, इसलिए अपने अकेलेपन में अपना आनंद खुद ढूंढ़ना पड़ेगा। अपने आपको सक्षम बनाएं कि अकेलेपन में हम भटकेंगे नहीं, उदास नहीं होंगे। अपने मन को कंगाल कर दीजिए। आपका अकेलापन धनवान हो जाएगा। इसे गहराई से समझिए।

जिनका मन धनवान है वो अकेलेपन में कंगाली महसूस करेंगे। मन धनवान होता है काम, क्रोध और लोभ से। इन तीन बातों से इसे निर्धन कर दीजिए। आपके अकेलेपन में काम, क्रोध और लोभ नहीं है, तो आपसे बढ़कर कोई आनंदित धनवान नहीं होगा। अपने अकेलेपन को एकांत में बदलने के लिए जितने भी प्रयास हैं उसमें से एक प्रयास योग का भी है। प्रयास करें कि हर हाल में अपने अकेलेपन को उदासी में नहीं बदलने देंगे। इसे शुभ अवसर मानकर आनंद में बदल देंगे।

भय जगाता है मनुष्य के अंदर का पशु
जानवर भय का बड़ा गहरा संबंध है। जानवर बलशाली होते हैं इसलिए मनुष्य पर हावी हो जाते हैं, लेकिन वे मूलरूप से मनुष्य से डरते हैं। जानवरों की जीवनशैली ही ऐसी है कि जंगल में कोई कानून नहीं होता। जो बलशाली हैं वे कमजोर को खा जाते हैं। अब बात करते हैं मनुष्य की। जब-जब मनुष्य अंदर से भयभीत होगा, उसके अंदर का जानवर सक्रिय हो जाएगा। हर मनुष्य में थोड़ा-सा अंश पशु का होता ही है। मनुष्य के भीतर का पशु एकांत में और खासतौर पर जब मनुष्य काम-पीड़ित होता है तब जाग जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है आप यदि शांति से टटोलें तो अपनेे भीतर के पशु को पकड़ लेंगे। इन दिनों कुछ घटनाएं पढ़ने में आई हैं। नगरों में और लगभग गांवों में भी कुछ जानवर खुले घूमते हैं। खुले घूमने वाले जानवर जहां मनुष्य रहते हैं वहां आक्रामक नहीं होते, लेकिन पिछले दिनों कुत्तों से जुड़ी खबर आई कि उन्होंने कुछ बच्चों पर आक्रमण किया।

उनमें से कुछ बच्चे मर भी गए। जैसे मनुष्य की बस्ती में कुछ जानवर आक्रमक हो गए, ऐसे ही मनुष्य के भीतर का भी जानवर अचानक आक्रामक हो गया है। इसीलिए कुछ अपराधों में अपराधी पशुवत व्यवहार करता है। यूं भी कह लें कि बिना पशुवत हुए कोई मनुष्य अपराध कर ही नहीं पाएगा। हमारे भीतर का जानवर यदि नियंत्रण से बाहर गया तो हम गलत काम करेंगे। अपने भीतर के पशु को मनुष्यता से जोड़े रखने के लिए आपको अन्न और विचार, इन दोनों पर काम करना होगा। ये दोनों भीतर जाकर आपके पशु को जगा सकते हैं। बाहर के पशु पर तो नियंत्रण हो जाएगा, पर भीतर के पशु का क्या करेंगे। आप स्वयं इसे नियंत्रित करिए। नियंत्रित पशु, आज्ञाकारी जानवर मनुष्य से भी श्रेष्ठ आचरण कर जाता है।

एकतरफा दोस्ती से मुक्ति बेहतर
रिश्तों से हटकर जिम्मेदारी निभाने के लिए यदि कोई संबंध है तो वह है मित्रता। दायित्व बोध का दूसरा नाम दोस्ती है। दोस्ती दो तरफा होती है। यदि किसी एक को दोस्ती निभानी पड़ रही है तो ऐसी मित्रता से मुक्ति पा लेनी चाहिए। पहले मित्रता दो कारणों से बनती थी। समान स्वभाव हों और एक-दूसरे के काम आने की स्थिति हो, तो लोग आपस में मित्र बन जाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इसलिए यदि लगे कि व्यस्तता और जिम्मेदारियों के कारण आपको मित्रता बदलनी या समाप्त करनी पड़ सकती है, तो बहुत अच्छे ढंग से खूबसूरत मोड़ पर जाकर उसको छोड़ दीजिए। संबंध खराब भी हों और मित्रता अपमानित भी रहे।
जीवन में नई जिम्मेदारियां आपको अपनी मित्रता से मोड़ देती हैं। अब स्थाई मित्रता कम संभव है, क्योंकि समूची जीवनशैली ऐसी हो गई है। यदि सही समय पर आप मित्रता के संबंध को मोड़ देंगे, तो कहीं और ठीक ढंग से अपने आपको उपयोगी बना सकेंगे। सच तो यही है कि जब जिसके काम जाएं आप उसी समय उसके मित्र हो जाएंगे। अन्यथा स्थाई मित्रता निभाने के दबाव में आप दूसरों के काम भी नहीं सकेंगे। इसलिए एक स्वभाव बनाएं। जब जिसके साथ हों सचमुच उसका साथ निभाएं। आजकल टेक्नोलॉजी ऐसी हो गई है कि संबंध अत्यधिक बन जाते हैं। संबंधों की भीड़ में अब मित्रता की अनुगूंज सुनाई नहीं देगी।

इस चक्कर में आपका पूरा व्यक्तित्व सूख जाएगा। नए-नए दोस्त आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। बेशक पुरानी मित्रता को भूलना नहीं है, लेकिन पुराने पर टिके रहकर नए के साथ न्याय नहीं कर सकें ऐसा भी हो जाए। अनेक नए रिश्ते जीवन में, कामकाज में, जिम्मेदारियों में बनते जाएंगे। न्याय करिए नए के साथ और भावनाओं से जुड़े रहिए पुराने के साथ।

अपनी भक्ति को प्रकृति से जोड़ें
हर व्यक्ति प्रकृति को अपने-अपने तरीके से नुकसान पहुंचाता है, क्योंकि जीवनशैली ही ऐसी है। अगर प्रकृति को बिल्कुल नुकसान पहुंचाने की सोचें तो यह एकदम अव्यावहारिक दृष्टिकोण होगा। आप प्रकृति के साथ अपना भी नुकसान कर लेंगे। ऐसे में जब भी प्रकृति से जुड़ें सोचें कि क्या करें कि इसे कम से कम नुकसान हो। आपका भी काम चलता रहे और प्रकृति को लाभ पहुंचा सकते हों तो यह बोनस होगा। कुछ बातें आसानी से की जा सकती हैं।

जैसे प्लास्टिक का उपयोग करें, वृक्ष को अकारण काटें, स्वयं धुआं पैदा करें, जल का दुरूपयोग करें। अगर इन्हें हम सावधानी से करें तो थोड़ा-थोड़ा लाभ प्रकृति को पहुंचाते रहेंगे। प्रकृति के प्रति न्याय करना है; तो अपने भीतर की भक्ति को प्रकृति से जोड़ें, क्योंकि केवल सामाजिक-व्यावहारिक दृष्टि से प्रकृति को लेंगे, तो हम समीकरण बैठाने लग जाएंगे। यदि आध्यात्मिक दृष्टि से बात करेंगे, भीतर के भक्त को जाग्रत करेंगे, तो आपको शास्त्रों की बातें याद आएंगी। हिंदुओं ने तो प्रकृति के निर्माण की पूरी पद्धति को ब्रह्मा, विष्णु, महेश से जोड़ा है। यह अद्भुत प्रबंधन है, इसलिए यदि भक्ति की दृष्टि से इस व्यवस्था को देखेंगे, तो हमारे मन में यह बात जरूर आएगी कि जब-जब हम प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ कर रहे हैं हम परमात्मा का अपमान कर रहे हैं।
यह बिल्कुल ऐसा ही होगा जैसे अपने मां-बाप का अपमान करना। अपने ही बच्चों का शोषण करना। ये दो बड़े पवित्र रिश्ते हैं। ऐसा रिश्ता प्रकृति, परमात्मा और हमारा होना चाहिए। जरा-सा भाव बदलें तो हम अपने आप पर्यावरण मित्र बन जाएंगे। जैसे ही हमारी भक्ति प्रकृति से जुड़ेगी हम प्रकृति के लिए लाभकारी और प्रकृति हमारे लिए हितकारी हो जाएगी।

स्वयं की मौलिकता से जुड़िए
आपको तो किसी की तरह होना है और ऐसा कुछ करें कि किसी की तरह हीन रह जाएं। खुद को यह समझाइए कि आपआप  हैं, जो परमात्मा की ऐसी कृति है जिसका चयन उन्होंने मनुष्य बनाकर किया है। अन्यथा वह किसी पशु की योनि भी आपको दे सकता था। अब जो श्रेष्ठता हमारे भीतर है उसका उपयोग करके हमें वह बनना है जो परमात्मा ने हमें बनाना चाहता है। दूसरों की नकल करके, दूसरों की तरह बन जाएं, ऐसा प्रयास ही हमें हमारी श्रेष्ठता से काट देता है। इस मामले में ईश्वर सचमुच अनूठा है कि उसने हर इंसान को अलग ढंग से बनाया है।

सबके अपने-अपने स्वभाव हैं, अपनी-अपनी रुचि है और उन्हीं अरबों इनसानों में से एक हम हैं। जैसे ही हम अपनी मौलिकता और योग्यता जुड़ते हैं, हम अपनी श्रेष्ठता को अपने ढंग से उजागर करेंगे। हम लग जाते हैं नकल करने में। क्यों नकल करें? जब हमारे पास अपनी पूंजी है, हमें उसी का उपयोग करना चाहिए। हमारा व्यक्तित्व एक नदी की तरह है। नदी का जल बहता है, सूख भी सकता है और किसी महासागर में जाकर मिल भी सकता है, लेकिन नदी में से जब नहर निकाली जाती है तो उसी नदी के जल का व्यवस्थित उपयोग कर लिया जाता है। जल होता नदी का ही है, लेकिन सारा मामला उपयोग का है।

ऐसे ही हमारे भीतर हमारी ऊर्जा नदी की तरह बह रही है। हमें मौलिकता की कुछ नहरें निकाल लेनी चाहिए। बस, यहीं से यह मौलिकता हमें नहर की तरह उपयोगी बनाएगी। मौलिकता का परिचय प्राप्त करना हो, तो थोड़ा समय दीजिए खुद से जुड़ने के लिए। बिल्कुल शांत बैठ जाइए, भीतर उतरकर अपनी नाभि पर टिक जाइए। आप स्वयं धीरे-धीरे पाएंगे कि हमारे भीतर क्या मौलिकता है। बस, उसको योग्यता से जोड़ दीजिए।

उत्तरकर्म को खारिज करें
अपनों को खोने का दर्द वे ही जानते हैं, जिन्होंने इसे भोगा है। प्रियजन के विरह के दुख में खुद को कैसे समझाया जाए? प्रसंग चल रहा है किष्किंधा कांड का। अपने पति बालि की मृत्यु के बाद रो रही तारा श्रीराम के समझाने पर शांत हुईं, तब भगवान शंकर पत्नी पार्वती से कहते हैं- ‘उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं।।हे उमा, स्वामी श्रीरामजी सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं।मनुष्य कठपुतली है। हमारी डोर उस परमपिता के हाथों में हैं।

वो नचा रहा है, हम नाच रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि हमारी क्या भूमिका है। बस, यही उसकी विशेषता है कि उसके हाथों से हो रहे नृत्य में परमात्मा नर्तक को यह छूट देता है कि एक सीमा के बाद मैं डोरी कस दूंगा, लेकिन एक दायरे में तुम अपनी प्रस्तुति करने के लिए स्वतंत्र हो। मनुष्य का स्वभाव बन जाता है कि वह अपने दायरे में ढंग से नृत्य तो करता नहीं, बल्कि डोरी से ही छेड़छाड़ करना शुरू कर देता है। आगे श्रीराम ने कहा, ‘तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा।।नदनन्तर श्रीरामजी ने सुग्रीव को आदेश दिया कि मृतक बालि का उत्तरकर्म ठीक से किया जाए।


ऐसा श्रीराम ने क्यों कहा होगा? जब घर में किसी की मृत्यु हो जाए तो शोक और उत्तरकर्म ठीक से किए जाएं। आज दुख मनाना भी एक औपचारिकता हो गई है। उत्तरकर्म को लेकर लोग अंधविश्वास के तर्क देकर भूलने लगे हैं। हम यह नहीं कहते कि मृतक के उत्तरकर्म में बहुत अधिक पारंपरिक हो जाएं, अंधविश्वासी हो जाएं। इसे विज्ञान का तर्क देकर खारिज किया जाए। श्रीराम यही समझा रहे हैं कि जो चले गए हैं वे लौटकर नहीं आएंगे, लेकिन उनकी स्मृति इसलिए बनाएं रखें कि उनके द्वारा किए जाने वाले शेष कार्य हम पूरे करेंगे। इसी को श्राद्ध कहा है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष






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