Friday, June 5, 2015

Jeene Ki Rah6 (जीने की राह)

विवाह का लाभ-हानि से संबंध नहीं
विवाह किया जाए या नहीं, पुराने समय से यह बहस का विषय रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि विवाह के पश्चात दुख के दिन आरंभ हो जाते हैं, लेकिन जिन्होंने विवाह नहीं किया, जरूरी नहीं है कि उनको भी सुख प्राप्त हो जाए। यदि आदमी सुख और दुख के समीकरण से विवाह करने की सोच रहा है, तो वह एक गलत निर्णय होगा। इन दिनों समाज में जब लिव-इन-रिलेशन की चर्चा चल रही है तो विवाह जैसी संस्था के पक्ष और विपक्ष में खुलकर चर्चा होनी चाहिए। अगर नई पीढ़ी के बच्चे विवाह का गलत अर्थ निकाल लेंगे तो परिवार के ढांचे में बहुत बड़ी दरार आएगी। भारत में विवाह का मतलब स्त्री-पुरुष के देह मिलन की घटना नहीं है। भारत की संस्कृति कहती है कि विवाह में जब स्त्री-पुरुष पति-पत्नी का संबंध स्वीकार करते हैं, तो इसका महत्व यह है कि कुछ समय बाद उनको माता-पिता बनना है। यदि विवाह जैसा बंधन संस्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो माता-पिता का भाव भी स्त्री-पुरुष में नहीं आएगा। 

लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष को एक साथ रहने का अवसर तो दे देगी, लेकिन उनके भीतर माता-पिता बनने की संभावना को खत्म कर देगी। ऋषि-मुनियों ने विवाह की परंपरा स्त्री जाति की रक्षा की दृष्टि से भी गठित की थी। विवाह यदि लंबे समय के लिए है तो स्त्री सुरक्षित रहेगी और यदि छोटे समय के लिए है तो पुरुष का सुख अधिक होगा। लिव-इन-रिलेशनशिप छोटे समय का विवाह है। इसमें आगे-पीछे औरत को ही दुख उठाना है। संस्कार के रूप में विवाह करने से स्त्री अधिक सुरक्षित है। यदि इस समय ठीक से विचार नहीं किया गया तो नई पीढ़ी के बच्चे केवल आदमी और औरत होकर अपना वैवाहिक जीवन शुरू करेंगे और इसी पर जीवन खत्म हो जाएगा।

गलत व्यक्ति से दूर रहें तो बेहतर
क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया है कि अापके निकट आने वाले लोगों की कितनी जानकारी आपको है। पांच तरह से लोग आपके जीवन में प्रवेश करते हैं। वे जो सिर्फ टाइमपास करने के लिए आपसे जुड़े हैं। ‌िफर वे जो सचमुच आपके लिए कुछ करना चाहते हैं। तीसरे वे जो आपका सहारा बन सकते हैं या बने हुए हैं। 
चौथे वे लोग जो आपके मार्गदर्शक होंगे। पांचवें, वे जिन्हें अाप सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए अपने से जोड़कर रखते हैं। आप जानते हैं कि वे सिर्फ इसलिए अच्छे लगते हैं कि जब भी आप कुछ कहते हैं वे तसल्ली से सुनते हैं। अब ऐसे लोगों की सूची बनाइए और सबसे पहले इस बात पर गौर करिए कि इस तरह के लोग यदि आपसे जुड़े हैं तो क्या आपके पास उनकी व्यक्तिगत जानकारी है। उनका निजी आचरण कैसा है, इस पर पैनी नजर रखिएगा।

यदि आप उनसे रिश्ता नहीं तोड़ना चाहते और व्यक्तिगत आचरण में उनमें दोष है तो आप तुरंत वह दोष दूर करने में जुट जाइए। आपको उन्हें सुधारना होगा, लेकिन यदि आप संबंध विच्छेद कर सकते हों, तो गलत लोगों से तुरंत दूरी बना लीजिए। भले ही वे कितने ही प्रतिभाशाली और योग्य हों, लेकिन गलत, गलत ही होता है। प्रतिभाशाली व्यक्ति जब गलत मार्ग पर जाता है तो सामान्य से भी ज्यादा घातक हो जाता है। हमने उससे संबंध इसीलिए बनाए कि वे योग्य हैं, आपके लिए उपयोगी हैं। अगर वे भीतर से गलत आचरण कर रहे हैं, तो जितना फायदा आप उठा चुके हैं या उठाने वाले हैं, आप उससे भी बड़े नुकसान की तैयारी कर रहे हैं। उनका गलत आचरण आपके लिए महंगा साबित हो सकता है। इसलिए सीधी-सी बात है, जिनसे भी संबंध रखें उनके व्यक्तिगत आचरण की जानकारी जरूर रखी जाए।

परमात्मा के संकेत को समझिए
हमारी सामर्थ्य के बाहर परमात्मा की सीमा आरंभ होती है। जब कभी जीवन में ऐसा मौका आए कि अपने से अधिक सक्षम और बलशाली से मुकाबला करना हो, तो अपनी सारी ताकत जरूर झोंकनी चाहिए, लेकिन साथ में परमात्मा की कृपा बनी रहे यह भाव जरूर बनाइए। रामकथा का प्रसंग है, भाई बालि से परेशान सुग्रीव श्रीराम से मैत्री कर चुके थे। श्रीराम ने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा, जाओ बालि से युद्ध करो। इसी भरोसे में सुग्रीव अपने बड़े भाई बालि से भिड़ जाते हैं, लेकिन बालि सुग्रीव की जमकर पिटाई करता है। सुग्रीव भगवान के पास आकर कहते हैं, आपने तो कहा था, मेरी रक्षा करेंगे। लेकिन जब बालि मुझे मार रहा था, तब आपने धनुष-बाण नहीं उठाए। इस पर जो बात श्रीराम ने उस समय कही, वह हमारे भी बड़े काम की है। श्रीराम कहते हैं- सुग्रीव, दूर से तुम और तुम्हारा भाई एक जैसे दिखते हो, तो मेरे सामने समस्या यह थी कि अगर मैं तीर चलाऊं और वह तुमको लग गया ताे? इसका एक आध्यात्मिक अर्थ भी है। 

भगवान कह रहे हैं कि अच्छे और बुरे का भेद बनाकर रखो, ताकि मुझे समझ में तो आए कि कौन मेरा है और कौन नहीं। ‘मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला’। तब श्रीराम ने सुग्रीव के गले में फूलों की माला डालकर फिर बालि से युद्ध के लिए भेजा। सुग्रीव के गले में माला डालकर भगवान ने बालि को भी संदेश दिया कि सावधान हो जाओ, सुग्रीव अब मुझसे संरक्षित है। बालि ने गलती की कि वह भगवान की भाषा समझ नहीं पाया। हमारे जीवन में भी कई बार परमात्मा अपने संकेत हमें भेजता है और हम बालि की तरह अहंकार में डूबे होने के कारण संकेतों को समझ नहीं पाते और परिणाम में बालि की तरह दंडित हो जाते हैं।

अपनी क्षमता को खुद पहचानें
कहते हैं लिमिट जब भी क्रॉस की जाएगी नुकसान होकर रहेगा। शरीर के सुख को भी जब अति से जोड़ेंगे तो वह भोग रोग बन जाएंगे। धन की अति भी दुख का कारण हो जाएगी। अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि अति की क्या सीमा है। हरेक के लिए अति की सीमा अलग-अलग हो जाती है। जैसे कोई दो रोटी खाकर भूखा रहता है और कोई दो रोटी खाकर बीमार भी हो जाता है। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि हमारी सीमा क्या है। हमारी सीमा तय होगी हमारी क्षमता से और अपनी क्षमता को हमारी उपयोगिता से जोड़ना चाहिए।

सीधी भाषा में कहें कि हमारे लिए जो आवश्यक है उतना प्राप्त करने के लिए पूरी ताकत लगाई जाए, लेकिन हम अनावश्यक को प्राप्त करने में ताकत लगाते हैं। यहां से अति शुरू हो जाती है। इन दोनों का तालमेल यदि बैठ जाए तो न हम अपनी अति को क्रॉस करेंगे और न ही लिमिट के नीचे आलसी हो जाएंगे। अध्यात्म में एक शब्द है माया। माया वह होती है जो संसार रचती है, पर किसी को दिखती नहीं और यदि किसी को माया दिख जाए तो समझ लीजिए वह माया नहीं कुछ और ही मामला होगा। संसार में कुछ ऐसा भी है जो दिखता है पर होता नहीं है। हमारी जो क्षमता है, हमारी जो आवश्यकताएं हैं वे कभी-कभी माया की तरह हो जाती हैं। दिख रही हैं, पर होती नहीं और होती हैं पर दिखती नहीं हैं। अपनी क्षमता को जानने के लिए अपने से जुड़ना जरूरी है।

हम ज्यादातर मौकों पर दूसरों से तय कराते हैं कि हम कितने सक्षम हैं। कोई हमें प्रेरित करता है तब हम कुछ कर पाते हैं। इसका मतलब हुआ कि दूसरे हमें सक्षम बना रहे हैं, जबकि हमें अपनी क्षमता को खुद पहचानें। जो भी करें अपनी सीमाओं में करें। अति बिलकुल न करें। अति के नुकसान की भरपाई कोई नहीं कर पाता।

मन पर नियंत्रण करना जरूरी
बहुत कम लोग होते हैं जो स्वीकार करते हैं कि हमारे मन में गलत बातें चलती रहती हैं। गलत बात का मतलब केवल वासना या शरीर के दुष्कर्म ही नहीं हैं। बहुत से लोग तो यह भी नहीं समझ पाते कि मन होता क्या है। वे इसी में परेशान रहते हैं कि हम भीतर से ऐसे नहीं हैं जैसे बाहर से दिखते हैं। तो क्या सारी जिंदगी इसी उलझन में बिता दी जाए। हमें अपने मन को पकड़ना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। जिस दिन मन समझ में आ जाए, उसी दिन से उसका नियंत्रण शुरू हो जाता है। जैसे कोई छात्र पीएचडी करते समय किसी विषय का अध्ययन करता है, शोध करता है। ऐसे ही हमारे भीतर मन की बहुत ही सूक्ष्म स्टडी करनी होगी।

मन को देखने का एक तरीका है। शांत बैठ जाइए। यदि एक भी विचार चला तो मन पकड़ में नहीं आएगा। विचारशून्य होकर बैठिए। जितना अधिक विचारशून्य बैठेंगे उतनी ही जल्दी मन पकड़ में आ जाएगा। सोचिए कि आप नदी किनारे बैठे हैं और जल बिलकुल शांत है। आपने एक पत्थर जल में फेंका, तो जल की तरंगें फैल गईं। जैसे ही पत्थर डूबा, तरंगें सिकुड़ीं और जल वापस वैसा ही हो गया। बस, मन ऐसा ही है। वह तरंगों के रूप में फैलता है और सिकुड़ जाता है। यदि आप मन का फैलाव और सिकुड़ना देख लें तो वह पकड़ में आ जाएगा। 


यहीं से आपका दोहरा व्यक्तित्व समाप्त होने लगेगा। मीरा ने इस मन के लिए बड़ी आक्रामक पंक्ति लिखी हैं।
एक जगह वे लिखती हैं - ‘यो मन मेरो बड़ो हरामी।’ यहां हरामी शब्द का अर्थ है धोखेबाज। कभी कुछ सोचेगा तो कभी कुछ। इसका नियंत्रण बस इसी में है कि इसके फैलाव को देखो, इसका सिकुड़ना देखो। थोड़ा सा विचारशून्य हो जाइए, मन पकड़ में आ जाएगा और जीवन की बहुत बड़ी समस्या का निदान निकल आएगा।

सही समय पर योग्य वारिस चुनें
पिछले दिनों संत समाज में एक देखने, सोचने और समझने वाली घटना घटी। सबकुछ साधु-कृत्य था लेकिन मामला संपत्ति से जुड़ा है, इसलिए गृहस्थों के लिए एक बड़ा संदेश बन गया। दायित्व प्रदान उत्सव में सत्यमित्रानंदगिरिजी ने अपनी संस्थाओं के सारे दायित्व अवधेशानंदगिरिजी को सौंप दिए। इस समय भारत की संन्यास परंपरा के वरिष्ठ, श्रेष्ठ और मान्य पुरुष हैं सत्यमित्रानंदगिरिजी। अपनी जीवन यात्रा में उन्होंने सभी को अपने आचरण से स्पष्ट संदेश दिया है कि संपत्ति यदि परमात्मा के मार्ग में सहयोगी हो, तो उसका भी सात्विक संचय किया जा सकता है।

संपत्ति का वारिस तो मिल सकता है, लेकिन एक संन्यासी के पुरुषार्थ से अर्जित संसार का दायित्व किसे दिया जाए, यह मंथन भी सत्यमित्रानंदजी के भीतर हुआ होगा। उनके विचार सही जगह जाकर रुकना ही थे और वे रुके अवधेशानंदगिरिजी पर। जिस संपत्ति और संस्था के सत्य का सत्यमित्रानंदजी ने जो सृजन किया उसके अस्तित्व को अवधेशानंदजी और परिष्कृत रूप में गति देंगे, इसमें लेश-मात्र संदेह नहीं है। श्रेष्ठ अब सर्वश्रेष्ठ बनने जा रहा है। इसे केवल बाबाओं की बातों की अदला-बदली न समझा जाए।

संसारभर के गृहस्थों के लिए संदेश है कि परिवार में विरासत सही ढंग से समय रहते योग्य को सौंप दी जाए। किसे कितना योग्य मानें, यह बहुत बड़ी परीक्षा होती है। सम्पत्ति यदि योग्य व्यक्ति के हाथ न जाए, तो दान, भोग और नाश की तीन गतियों के अनुसार उसका परिणाम आना है। आज भारतीय परिवारों में टूटन-बिखराव का एक कारण विरासत का सही ढंग से स्थानांतरण नहीं होना भी है। इन दोनों संतों के आचरण से परिवार बचाने का यह प्रबंधन सूत्र लिया ही जा सकता है।

परमात्मा पर भरोसा बनाए रखें
जीवन में संघर्ष के अवसरों पर जब हम अपनी पूरी ताकत लगा चुके होते हैं तब परमशक्ति अज्ञात रूप से हमारी मदद कर रही होती है। हमारी सीमा के बाद फिर उसका प्रवेश होता है। किष्किंधा कांड में एक प्रसंग आता है कि श्रीराम ने प्रेरणा देकर सुग्रीव को बालि से युद्ध करने के लिए भेजा था। एक बार पिटकर भगवान के पास आ चुका था और श्रीराम ने कहा था इस बार मैं तेरी रक्षा करूंगा। गले में माला भी डाल दी। यहां एक पंक्ति लिखी है तुलसीदासजी ने जिसके अनुसार सुग्रीव ने बालि से युद्ध करते समय अपना छल और बल दोनों उपयोग में लिए। यह मनुष्य का सहज स्वभाव है।

जब ‘जीतना ही है’ की जिद पर उतर आता है तो कुछ न कुछ छल जरूर करता है जो सुग्रीव ने भी किया होगा, लेकिन बालि के सामने उसकी एक न चली तो उसने हृदय से हार मानी। जैसे ही वह हृदय पर उतरा, परमात्मा समझ गए इसकी सीमा पूरी हुई, मुझे प्रवेश लेना ही होगा। बहु छल बल सुग्रीव कर हियं हारा भय मानि। मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।। सुग्रीव ने बहुत से छल-बल किए, किंतु अंत में भय मानकर हृदय से हार गया। तब श्रीराम ने तानकर बालि के हृदय में बाण मारा। बालि को भ्रम होना निश्चित था और दूसरी बात बालि के कारण संसार को भी यह प्रश्न मन में आ सकता है कि श्रीराम ने छुपकर मारा।

श्रीराम कभी किसी को भ्रम में नहीं रखते, इसीलिए वे बालि को मारने के बाद उसके पास पहुंचे। वे बालि पर भी समान रूप से दया करना चाहते थे। उनका मानना था कि मेरा तीर लगने के बाद अब बालि वह नहीं रहा जो पहले अवगुणों के साथ था। हम यदि सुग्रीव की तरह हैं तो भरोसा न छोड़ें और यदि बालि की जगह हैं तो भी विश्वास रखें। हमारी गलतियों पर परमात्मा पूरी तरह सही में उत्तर देगा।


अलग-अलग है तारीफ और प्रशंसा
बधाई देना सामाजिक या व्यायसायिक औपचारिकता है। कुछ लोगों के लिए बधाई ईष्या का विषय बन जाती है। बाहर से तो बधाई दे रहे होते हैंलेकिन भीतर ही भीतर ईष्या अपना काम कर रही होती है। जब भी किसी को उसकी उपलब्धि पर बधाई देनी हो तो ध्यान रखिएगा आपकी बधाई में पूरी ईमानदारी से प्रशंसा भी उतरना चाहिए। किसी को बधाई देना और उसकी तारीफ करना आध्यात्मिक दृष्टि से दो अलग-अलग बातें हैं। बधाई केवल उपलब्धि पर दी जाती है और प्रशंसा उपलब्धि के विशिष्ट तरीके के लिए की जाती है।

जो उपलब्धि आपने पाई है उसके पीछे आपकी नीयततरीकासोचकिन लोगों से सहयोग लिया और भविष्य में इस उपलब्धि का क्या करने वाले हैंइन सबकी जानकारी होने पर तारीफ की जाती है। जब हम किसी की तारीफ करते हैं तो अध्यात्म की दृष्टि से इसका सीधा मतलब होता हैहम उसे यह बता रहे होते हैं कि आपके भीतर एक दिव्य व्यक्तित्व छुपा हुआ था। आप सोए हुए थे और इस उपलब्धि के साथ आप जाग गए। जागते ही आपने उस परमात्मा को देख लिया जो भीतर आपके जन्म के साथ आया हुआ है। यहीं से हमारे तारीफ करने के ढंग बदल जाएंगे। भारतीय संस्कृति में सत्संग एक महत्वपूर्ण घटना होती है।

जो लोग सत्संग में आते हैं उनके लिए कहा जाता है कि परमात्मा उनको देखकर बहुत आश्वस्त हुआ है कि इन्हें बनाकर मैं निराश नहीं हुआ। यह होती है उन लोगों की प्रशंसा जो सत्संग में आए हैं। ठीक ऐसे ही जो तरीका आपने उपलब्धि के पीछे अपनाया है और जब बधाई के साथ हम उसकी प्रशंसा करते हैं तो हम परमात्मा की ओर से ही बोल रहे होते हैं। इस भाव से सुनने वाले को भी संतोष प्राप्त होगा और हमें खुशी मिलेगी कि हमने परमात्मा को याद कर लिया।

ईमानदारी से साथ निभाएं
हमारे घर-परिवार में सदस्यों को एक-दूसरे से जो शिकायत होती हैउसमें से एक यह रहती है कि बहुत से लोगों को समझ नहीं आता कि वे जिनके साथ रह रहे हैंवह उनके साथ हैं भी या नहीं। पति को पत्नी सेपत्नी को पति से यह तो मालूम होता है कि हम पास-पास हैंलेकिन इसमें संदेह रहता है कि हम साथ-साथ हैं। जैसे-जैसे बुढ़ापा आता हैमाता-पिता में भी संतानों के प्रति यही भावना जागने लगती है।

यदि आप चाहते हैं कि आपका परिवार प्रेमपूर्ण रहेएकजुट रहेकभी टूटे नहीं तो प्रयास कीजिए आपके घर के हर सदस्य को यह महसूस हो कि आप उसके साथ हैं। इसमें बहुत ही स्पष्ट नीति रखनी पड़ेगी जो महाभारत के समय श्रीकृष्ण ने पांडवों के साथ रखी थी। वैसे तो उनकी घोषणा थी कि युद्ध के समय शस्त्र नहीं उठाऊंगा लेकिन वे यह भी स्पष्ट करना चाहते थे कि साथ किसके होंगे और उन्होंने अर्जुन के रथ की रास अपने हाथ में ली। हमारे घर में भी हम सदस्यों को आश्वस्त करें कि हम उनके साथ हैं। यदि लंबे समय तक आभास बना रहे कि कोई हमारे साथ नहीं है तो सामने वाला अकेलेपन का शिकार हो जाता है और यदि यह भरोसा आ जाए कि कैसी भी स्थिति होलोग हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे तो जीवन के उत्साह को बनाए रखने में आसानी हो जाती है। 

इसलिए न सिर्फ कहेंबल्कि साथ को निभाएं भी। हमारा किसी भी सदस्य के साथ रहने का मतलब यह है कि हम उसको सुरक्षा प्रदान करेंसहयोग करेंउसकी गतिविधि में हमारी सहभागिता भी हो। उसे यह नहीं लगे कि ये सिर्फ समझाते हैंबल्कि लगे कि संकट के समय हाथ भी बढ़ाते हैं। जब आप ईमानदारी से किसी का साथ निभाते हैं तो परमात्मा आपके साथ रहने के लिए बेताब हो जाता है।

कमजोर कड़ी को मजबूत करें
व्यावसायिक प्रबंधन और घर का प्रबंधन कुछ मामलों में बिलकुल अलग है। दोनों के करने का ढंग और समझने का तरीका भी पृथक-पृथक होगा। कुछ लोग व्यवसाय प्रबंधन में बहुत दक्ष होते हैं और वही दक्षता वे घर में भी अपनाने लगते हैं। इसमें बुराई नहीं है। घर आकर योग्यता को मारना नहीं हैयोग्यता का रूप बदलना है। जब हम व्यावसायिक जीवन में प्रबंधन करते हैं तो दो तरीके से समस्याएं निपटाते हैं। एक मेडिकल साइंस के तरीके से और दूसरा कानून-संविधान के तरीके से।

मेडिकल साइंस में बीमारी को दूर किया जाता है। वहीं कानूनी तरीका यह होता है कि गलती हुई है तो दंड दो। इन दोनों तरीके का घर में रूप बदल जाता है। घर में इसका एक आध्यात्मिक इलाज निकालना होगा। मेडिकल साइंस कहता हैबीमारी दूर करो आदमी स्वस्थ हो जाएगालेकिन घर का प्रबंधन कहता है बीमारी को समझ लो तब स्वास्थ्य आएगा। व्यावसायिक प्रबंधन में गलत व्यक्ति को लेकर टिप्पणी की जाती है कि इस बीमारी को हटाओमैनेजमेंट अपने आप ठीक हो जाएगा। यह कमजोर कड़ी बन जाएगा। घर में ऐसा नहीं हो सकता। घर में सबसे ज्यादा काम कमजोर कड़ी पर ही करना पड़ेगा। आपके दंड देने के तरीके भी अलग होंगे।

घर में ऐसा कोई दंड नहीं दिया जा सकता जिसे मृत्युदंड की श्रेणी में लिया जाए। व्यावसायिक प्रबंधन में दंड देकर आप व्यक्ति से मुक्त हो सकते हैंउसको कानून के दायरे में बांध सकते हैं पर घर-परिवार में ऐसा नहीं हो सकता। घर की सारी समस्याएं आध्यात्मिक दृष्टि से पूरी करिए। फैमिली मैनेजमेंट में धर्म और अध्यात्म का स्पर्श जरूर रखिएक्योंकि यहां समझ से काम लेना होता है। घर में कमजोर कड़ी को मिटाया नहींमजबूत बनाया जाता है।

असफलता जीवन का अंत नहीं
माता-पिता अपने बच्चों पर जिन-जिन बातों का दबाव बनाते हैं उनमें से एक है लगातार सफल होने का। इस दबाव के मामले में अब तो उम्र भी नहीं देखी जाती। छोटे बच्चों से बड़े लोगों की तरह सफलता की अपेक्षा की जा रही है। इधर से माता-पिता दबाव बनाते हैं और उधर से बच्चे विद्रोह करने लगते हैं। यह सही है कि हमें अपने बच्चों को सफल बनाना चाहिएलेकिन एक प्रयोग और करते रहिए।

जब हम अपने बच्चों को सफलता के क्षेत्रों से परिचित करा रहे होंउसी समय हम उन्हें यह भी जानकारी देते रहें कि जीवन में असफलता के भी कई क्षेत्र होते हैं। एक बार असफल होने पर टूट न जाएं। एक असफलता को जीवन का अंत न मानें। यह सफलता का आरंभ हो सकता है। जब हमारे बच्चे किसी क्षेत्र में असफल हों तो तुरंत हम उनके साथ खड़े हो जाएं। उस समय उनको ज्ञान बांटनासमझाइश देना या क्या गलती तुम कर गएउसका दोषारोपण न करें। अपने जिस नुकसान को वो बहुत बड़ा मान रहे हैंआप उनके साथ भावनात्मक रूप से शामिल हों। यहां से एक सहानुभूतिएक विश्वास जागेगा।

अगले चरण में उन्हें समझाएं कि मनुष्य के पास चयन की सुविधा है। कोई बच्चा लगातार प्रयास करे कि उसे डॉक्टर ही बनना है और पूरी ताकत के बाद भी सफल न हो तो उसे बताएं कि नुकसान तो बहुत बड़ा हुआ है लेकिन अब पूरी हिम्मतउत्साह के साथ क्षेत्र बदल लें। अब डॉक्टर बनने के बजाय इसी योग्यता से कुछ और बना जाए। बच्चों को मेडिटेशन से भी जोड़ेंक्योंकि ध्यान एक विश्राम होगा। जैसे एक अच्छी नींद निकाल लें तो दिनभर की झपकियों से मुक्ति मिल जाती है। ऐसे ही थोड़ी देर का मेडिटेशन फिर कुछ नया करने का उत्साह भर उन्हें सफलता के मार्ग पर बढ़ा देता है।

हृदय से लिए फैसले हमेशा सही होंगे
यदि हमारे फैसले का परिणाम सफलता के रूप में सामने आता है तो लोग हमारी तारीफ करते हैं। किंतु असफलता मिले तो टिप्पणियां बदलने लगती हैं। ऐसे में दूसरों की चिंता न करते हुए गौर करें कि फैसले के पीछे सोच किसकी थी। कितना हमारा योगदान था और कितना हमारे विचारों में दूसरे लोगों का प्रवेश था। कभी-कभी हमारी सोच भी उधार की होती है। जब हम पूरी तरह अपनी अक्ल से फैसले लेते हैं तो अहंकार का खतरा होता है। बेशकफैसला मस्तिष्क में रहने वाली बुद्धि ने लियालेकिन मन ने कुछ न कुछ योगदान उसमें जरूर दिया होगा। अब यदि फैसले के पीछे की सोच पकड़नी है तो मन में चल रही विचार-प्रक्रिया को रोकना होगा। मन निष्पक्ष नहीं होता। संदेह में डूबा होता है व गलत में उसकी रुचि होती है। जरूर यह सोच उसने बुद्धि में डाली होगी। पहले तो इसे पकड़िएजो निश्चित पकड़ में आएगा।

फिर जो अनुभव होगा वह मन का नहींमस्तिष्क और हृदय का संयुक्त होगा। अब हृदय को मौका मिलेगा कि वह नया निर्णय लेजो मूलरूप से पवित्र ही होता है। वह किसी का अहित चाहता ही नहीं है और जो किसी का अहित न चाहे परमात्मा उसके हित में जुट जाता है। यहां से हृदय अपने पवित्र भाव मस्तिष्क में भेजेगा। अब आपकी बुद्धि एक बार पुन: सक्रिय हो जाएगी और बुद्धि वह निर्णय लेगी जो सही होगा।

आपको पता भी लग जाएगा कि आपका फैसला किस बात के लिए गलत था और यहीं से आप उसमें सुधार कर लेंगे। देखिएकोई भी फैसला कामना के साथ लिया जाता है। कामना पर मन का प्रभाव है तो फैसले गलत होंगे और कामना या इच्छा यदि हृदय से जागी है तो फैसले सही होंगे और परिणाम भी शत-प्रतिशत सही होगा।

जीवन का समापन होश में हो
कहते हैं कि मरते वक्त आदमी झूठ नहीं बोलता। उस वक्त परमात्मा भी कुछ सवाल हमसे पूछ रहा होता हैइसीलिए कहा जाता है ऐसे काम करो कि हम ठीक से भगवान को उत्तर दे सकें। किष्किंधा कांड में तीर से आहत व अंतिम सांस ले रहे बालि से श्रीराम ने कहा, ‘तुम चाहो तो मैं तुम्हें पुन: जीवन दे सकता हूं।’ तब बालि श्रीराम की बहुत बड़ी कृपा का पात्र बन गया थालेकिन उसने बड़ी गहरी बात कह दी जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं।। जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी।।’ मुनिगण कई जन्म अनेक प्रकार का साधन करते रहते हैं।

फिर भी अंतकाल में उनके मुख से रामनाम नहीं निकलता। जिनके नाम के बल से शंकरजी काशी में सबको समान रूप से अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं वे श्रीराम मेरे सामने खड़े हों और मैं वापस जीवन मांग लूं?’ मृत्यु तो सबकी होनी हैलेकिन जिस दिन हम अपनी मृत्यु को दिव्य बना लें या इसकी तैयारी शुरू कर दें उस दिन जीवन के अर्थ बदल जाते हैं। जो अनुभूति उस दिन बालि को हो रही थी वैसी हमें भी होनी चाहिए। यह सौभाग्य का विषय है कि जीवन का समापन होश में किया जाए।

संसार के साधन तो रोक नहीं पाएंगेलेकिन जाने का तरीका जरूर आध्यात्मिक हो सकता है। हम सत्कर्मों से खासतौर पर योग के माध्यम से जिए हुए जीवन से जब पलकों को अंतिम बार बंद कर रहे होंगेदिव्य बना सकते हैं। आंखों में वह दृश्य ला सकते हैंजो जीवनभर नहीं आया। सांसों में उस परम अनुभूति को उतार सकते हैं जो सारी जिंदगी नहीं मिली। यह प्रसंग हमें उसी तैयारी को समझा रहा है। अब आगे श्रीराम बालि कोजो समझाएंगे वह हमारे लिए बहुत उपयोगी होगा। अगले स्तंभ में उसी पर विचार करेंगे।

कुछ समय का ध्यान, 24 घंटे आनंद
हमारी अवतार परंपरा बड़े अद्‌भुत ढंग से संदेश देती है। परमशक्ति भक्तों का उद्धार करने के लिएउनको सही मार्गदर्शन देने के लिए उन्हीं का कोई रूप लेकर आती है। भगवान विष्णु के दस अवतार प्रमुख माने गए हैं। विष्णु ने इन अवतार रूप में विशेष आचरण के जरिये यह समझाया है कि बुराई हर युग में रहेगी। आपकी अच्छाई इतनी सक्षम होनी चाहिए कि आप उससे युद्ध कर सकें। इन्हीं में से एक अवतार है बुद्ध का। इस अवतार की विशेषता यह है कि इन्होंने बताया कि बुराई सदैव बाहर ही रहेऐसा नहीं है।

चुनौती तब बढ़ जाती है जब हमें अपने ही भीतर की बुराई से युद्ध करना पड़ता है। इस अवतार का प्रमुख संदेश था अपना आनंद अपने भीतर। जिस दिन आप अच्छाई और आनंद अपने भीतर ढूंढ़ लेते हैं उस दिन उदासी और बुराई को मिटना ही पड़ता हैइसीलिए बुद्ध ने ध्यान पर बहुत जोर दिया हैक्योंकि ध्यान के ही माध्यम से हम भीतर उतर पाएंगे। बुद्ध ने शिष्यों को यही बताया था कि मैं तुम्हारे भीतर न कोई ज्ञानचमत्कारकृपा का स्थानांतरण कर पाऊंगा और न ही तुम्हारी कायापलट करूंगा। मैं स्वयं का स्थानांतरण तुम्हारे भीतर कर दूंगा। मुझे जो बुद्धत्व प्राप्त हुआ है वह तुम्हारे भीतर भी उतर सकता है। मुझे मिला हैमैं तुम्हें दे सकता हूं। बुद्ध के अनुसार गुरु अपने शिष्यों को खुद से भी बेहतर बनाने की तैयारी रखता है।

जब गुरु शिष्य के भीतर उतरने लगता है तो वह खुद को जरा भी नहीं बचाता। बुद्ध कहते थे - मैं आरंभ करूंगाअंत तुम्हें करना है। मैं संकेत दूंगापकड़ना पड़ेगा मेरे शिष्य को और उसके लिए बुद्ध ने ध्यान पर जोर दिया। कुछ समय का ध्यान 24 घंटे उस आनंद को दे सकता है जिसे देने बुद्ध इस पृथ्वी पर आए थे।

धन अर्जन को सेवा से जोड़ना होगा
दौलत कमाने में देर और आलस नहीं होना चाहिए। फिर जब धन कमाने के लिए अनेक साधन हो गए हों तो मुकाबला भी अधिक लोगों से होगा। पहले लोग कम पढ़े-लिखे होते थे तो धन कमाने की क्षमता कम लोगों में होती थी। अब ज्यादातर लोग जो काम कर रहे हैंधन कमाने के लिए ही कर रहे हैं। हर व्यक्ति के पास धन होना चाहिए इसमें कोई बुराई नहीं हैलेकिन इस अंधी दौड़ में लोग भूल जाते हैं कि धन कमाना जीवन का छोटा-सा हिस्सा है। जब हम दौलत को सबसे पहले रखते हैंतब जिंदगी में से बहुत कुछ खो देते हैंजिसे सच्ची खुशीभीतर की प्रसन्नता कहते हैं।

इसलिए पैसा कमाने के प्रयासों को आनंददायक बनाना हैदौलत से होने वाले नुकसान से बचना है तो इसे सेवा से जोड़ दें व क्रम भी बदल दें। पहले सेवाफिर धन। यदि पहले धन फिर सेवा आएगी तो गड़बड़ शुरू हो जाएगी। सेवारूपी बीज बोएं तो धन का जो वृक्ष उगेगा उसके फल बड़े मीठे होंगेक्योंकि सेवा में दो बातें जुड़ी हैं। आपका सेवा करने का तरीका क्या है और दूसरा आप कुछ अतिरिक्त दे रहे होते हैं। बसयहीं से जो धन आएगा या जो भी व्यक्ति आपको धन दे रहा होगा वह आपके सेवाभाव को देखकर दे रहा होगा। 

आजकल तो छोटे से छोटा आदमी भी कह देता है- क्वालिटी होनी चाहिएभले ही दो पैसे ज्यादा लग जाएं। अब मुकाबला क्वालिटी से क्वालिटी का नहीं हैअब मुकाबला उस क्वालिटी के पीछे दी जा रही सेवा का है। अध्यात्म ने सेवा को भक्ति से जोड़ा है। जो लोग मूलरूप से अपने भीतर का भक्त बचाएंगे उनके हाथों से सेवा सहज होगी। ऐसी सेवा के बाद जो धन आएगा या जो व्यक्ति आपको धन दे रहे होंगे वो पूरी प्रसन्नता के साथ देंगे और प्रसन्नता के साथ आया हुआ धन सचमुच दौलत से भी बड़ी दौलत है।

विफलता के दौरान शांति बनाए रखें
सभी जिंदगी में कभी न कभी असफल होते हैं। कुछ लोग अधिककुछ लोग कम। सदैव सफल व्यक्तित्व बनाने में परमात्मा की रुचि कम ही है। किसी ने परमात्मा से पूछा कि जब आप बना ही रहे थे तो सबको सफल बना देते। ईश्वर का कहना था, ‘मैं पूर्ण मनुष्य बनाना चाहता हूं और जब जीवन में असफलता आती है तो वह व्यक्ति को पूर्ण बनाकर जाती है।

एक प्रयोग करते रहिए। आप गांव में रहते हों या शहर में। उस स्थान के नामी-गिरामी लोगों की सूची जरूर बनाइए और थोड़ा अध्ययन करें कि वे जीवन में कब असफल हुए और उसके बाद उन्होंने क्या किया। किसी बड़े व्यक्ति से बातचीत का सौभाग्य मिल जाए तो यह प्रश्न जरूर पूछिए कि आप कब असफल हुए और फिर आपने क्या किया। पांच-पच्चीस लोगों द्वारा दिए गए उत्तर आपके जीवन का सबसे बड़ा संदेश बन जाएंगे। आप समझ जाएंगे कि असफलता में दो चीजें शामिल हैं- लॉस और लेसन। जैसे ही असफलता हाथ लगती है नुकसान और निराशा एकसाथ काम करती है और उसी समय आपको सीखप्रेरणा पूरे धैर्य के साथ पकड़ लेनी चाहिए। केवल निराशा पर टिके तो अगली सफलता खो देंगे।

ध्यान रखिएगा हमारे असफल होने पर हमारे ही भीतर एक तत्व है जो सबसे ज्यादा खुश होता है और वह है मन। मन जानता है कि मेरा यह मालिक जैसे ही असफल होगाचिंता में डूबेगाखूब उल्टे-सीधे विचार करेगा और जितने अधिक यह विचार करेगा मुझे उतना ही अधिक भोजन मिलेगा। असफलता के क्षणों में आचरण में परिश्रम रखेंव्यवहार में शांति रखें। अपने शरीर से थोड़ा हटकर मन पर काम करें। जितना मन को शून्य करेंगेउतने ही उल्टे-सीधे विचार कम आएंगे। भविष्य के प्रति आपकी दृष्टि स्पष्ट होगी।

जीवन में लयबद्धता लाना अहम
बच्चा जब पहली बार अपने दोनों पैरों पर खड़े होकर लड़खड़ाता हुआ चलता है वह दिन माता-पिता के लिए यादगार होता है। बड़े लोग पूरा प्रयास करते हैं कि सहारा भी दें और बच्चा स्वतंत्र रूप से चलना भी सीख जाए। इस दृश्य को जीवनभर के लिए याद रखिए। आपकी संतानें कितनी ही बड़ी हो जाएंकहीं न कहीं वे लड़खड़ाकर चल रही होंगी। माता-पिता के रूप में आप कितने ही बूढ़े हो जाएंअब भी आप सहारा देकर उन्हें लड़खड़ाने से बचा सकते हैं। उस समय आपने उसके हर कदम पर सावधानी रखी थी।

बच्चों में यह बात उतार दें कि जो सजगता हमने उस समय रखी थीजिंदगी की चाल में अब तुम्हें भी वैसी ही रखनी है। यह सूत्र यदि हम संतानों को समझा देंगे तो वे सफल हों या असफललड़खड़ाकर उदासी के कुंए में नहीं गिरेंगे। हम उन्हें सिखाएं कि मां के लिए हर संतान महत्वपूर्ण होती है। पहाड़ चढ़ रहे पर्वतारोही के लिए हर कदम जीवन होता है। शिक्षक के लिए उसकी हर क्लास महत्वपूर्ण होती है। कथावाचक हर सत्संग के प्रति अत्यधिक गंभीर होता है।

सफल व्यवसायी के लिए हर बैठक सफलता का सूत्र होती है। बसयही भाव हमें बच्चों को समझाना है। प्रकृति में समाकर परमात्मा अपना श्रेष्ठ देने को तैयार हैइसलिए हर कदम पर सावधान रहें और श्रेष्ठ को लपक लें। हमारी जिंदगी का हर पलहर कदम बिल्कुल ऐसा है जैसे फूलों को धागे से गूंथ दिया जाए। जैसे कोई अच्छा संगीतकार सुर-राग और शब्द को सही गूंथता है। संगीत के जानकार को उसी में आनंद आता है व न जानने वाले को बोरियत महसूस होती है। जीवन के साथ ऐसा ही है। खासतौर पर हम अपने बच्चों को यह सिखाएं कि जीवन के हर कदम में लयबद्धता ले आएं। फूलों के हार की तरह गूंथ दें।

ध्यान के जरिये मन को काबू करें
हर व्यवस्था कोे ठीक से चलाने के लिए कुछ बातों का नियंत्रण करना पड़ता है। नौकरी करते हैं तो इस बात पर पूरा नियंत्रण रखते हैं कि काम समय पर हो जाए। यदि व्यवसाय कर रहे हैं तो खर्च आदि पर नियंत्रण करते हैं। यदि माता-पिता हैं तो बच्चों के आचरण पर नियंत्रण किया जाता है। नियंत्रण के अभ्यास में एक कदम और बढ़ाइए तथा अपने मन पर नियंत्रण की क्रियाएं शुरू कर देनी चाहिए। बाकी सब बातें आसान हैंमन पर नियंत्रण बड़ा मुश्किल हो जाता है।

जब मन अनियंत्रित होता है तो हमारे सारे बाहरी अनुशासन धरे रह जाते हैं। या तो वे आवरण बन जाते हैं या मजबूरीक्योंकि बाहर से तो हम अनुशासित और नियंत्रित इसलिए हैं कि कानून का डर हैसमाज का भय हैएक लाचारी-सी है। पर भीतर मन पूरी तरह अनियंत्रित है। यदि मन नियंत्रित है तो जो अनुशासन बाहर से आएगा वह स्वेच्छा और पूरी प्रसन्नता से आएगा। उसमें कोई दबाव नहीं होगा। मन को नियंत्रित कैसे किया जाएपहले तो यह सोच लें कि यदि मन नियंत्रित हुआ तो हमारे जीवन में एक बहुत बड़ी घटना घटेगी। शंकराचार्यजी ने एक जगह लिखा है - जितं जगत् केनमनो हि येन।’ जगत को किसने जीता हैउसने जिसने मन को जीत लिया। जितना आप जान लेंगे कि मन का स्वरूप क्या हैउतना ही मन को नियंत्रित कर सकेंगे।

मन को नियंत्रित करने की जो विधियां हैं उन्हीं में से है ध्यान यानी मेडिटेशन और वैराग्य। वैराग्य का अर्थ यह नहीं कि संसार छोड़ दिया जाए। वैराग्य का अर्थ है जो है उसमें संतोष रखें और जो नहीं है उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करें। यहीं से वैराग्य आरंभ होता है। ये दो बातें ठीक से आ जाएं तो समझो कि मन नियंत्रित है और दुनिया की हर सफलता हमारी ओर चल रही होगी।

गलत काम का नतीजा गलत ही
हर व्यक्ति के कुछ निर्णय सवालों के घेरे में आ जाते हैं। किंतु धीर-गंभीर लोग जो निर्णय लेते हैंबाहर से वे भले ही प्रश्नों के घेरे में लगेंलेकिन उनके पास इन प्रश्नों के पर्याप्त उत्तर होते हैं। किष्किंधा कांड में श्रीराम बालि को तीर मार चुके थे। बालि श्रीराम पर कुछ आरोप लगाता है। बालि का आरोप लगाना और श्रीराम का उत्तर देना हमारे लिए बहुत बड़ा संदेश है।

बालि ने श्रीराम से कहा था, ‘धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं।। मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।।’ हे गोसाईआपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याध (शिकारी) की तरह छिपकर माराश्रीराम बड़ा सुंदर उत्तर देते हुए कहते हैं, ‘बालिमुझे दो तरह की बातें करने वाले लोग पसंद नहीं हैं। एक तरफ तुम मुझे अवतार कह रहे होदूसरी तरफ मुझे शिकारी बता रहे हो। यदि मैं अवतार हूं तो अवतार सबसे बड़ा न्यायाधीश होता है और न्यायाधीश जब किसी को मृत्युदंड देता है तो गले में फंदा पहनाने स्वयं नहीं आता।

आदेश न्यायालय में दिया जाता हैलेकिन मृत्युदंड के समय आदेश देने वाला अदृश्य होता है। यदि मैं अवतार हूं तो मैंने तुम्हें मृत्युदंड दिया है। मैं तुम्हारा यह आरोप खारिज करता हूं कि मैंने तुम्हें छुपकर मारा। ईश्वर जब न्याय करता है तो वह अदृश्य ही रहता है। श्रीराम ने यह उत्तर देकर बालि को समझा दिया था कि मुझ पर आरोप लगाने के पहले तुम्हें अपने क्रियाकलाप पर विचार करना चाहिए।

अधिकतर लोग सारी स्थितियां अपने पक्ष में देखते हैं और आरोप दूसरों पर लगाते हैं। जब कमजोरी आपकी हो तो पहले उसे दूर करें। अन्यथा दंड भुगतने के लिए तैयार हो जाएं। जो नियम श्रीराम बालि पर लागू कर रहे हैं वह हम सब पर भी लागू होता है। गलत काम का परिणाम सदैव गलत ही आएगा।


एकाग्रता में निहित हमारी शक्ति
सार्वजनिक जीवन में हमें अपनी पद-प्रतिष्ठारुचिलक्ष्य के साथ-साथ अन्य लोगों की भी इन्हीं बातों का ध्यान रखना पड़ता है। क्योंकि सभी के ऐसे ही उद्‌देश्य होते हैं। ऐसे समय हमें एकाग्रता पर लगातार काम करना चाहिए। एकाग्रता में बहुत शक्ति होती है। भौतिक जगत में एकाग्रता से लाभ होता है और एकाग्रता से चूक जाएं तो हानि भी होती है।

जितने भी बड़े वैज्ञानिक हुए हैं उनकी सफलता के पीछे एकाग्रता ही थी। कुछ साधु-संतों का जीवन देखें तो हम पाएंगे वे सहजता से अनूठा और अव्वल कर जाते हैं। इसके पीछे उनकी एकाग्रता ही काम कर रही होती है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश में टीकमगढ़ जिले के छिपरी स्थान पर रविशंकरजी रावतपुरा सरकार ने सामाजिक कुंभ का आयोजन किया। बहुत बड़ी संख्या में लोग पहुंचे। बिना किसी सरकारी तामझाम के इतना बड़ा संसार रचा गया। जिसने भी देखा उसे आश्चर्य हुआ। इसके पीछे एक संत की एकाग्रता है। इतने सारे लोग बिना किसी स्वार्थ के वहां पहुंच जाएं और उन्हें वहां वह मिल जाएजिसकी तलाश में कोई हिमालय जा रहा हैकोई मंदिरों में माथा टेक रहा है तो कोई सत्संग के बड़े-बड़े आयोजन कर रहा है।

हमें इस पूरे सामाजिक कुंभ से यही शिक्षा लेनी है कि भीड़ में भी यदि आप अपनी एकाग्रता बचा जाएं तो दुर्लभ और अनूठे काम किए जा सकते हैं। जब हम एकाग्रता में डूबते हैं तो हमारे मनुष्य होने की जो सत्ता हैवह पूरी तरह से उसमें उतर जाती है। यहीं से शक्ति का निर्माण होता है। जब-जब हम बिखरे-बिखरे हैंहमारी शक्ति भी फैली हुई है। जैसे ही हम एकाग्र हुएहमारी शक्ति और बढ़ जाती है। फिर जो भी काम किया जाए उसके परिणाम बड़े अनूठे होते हैं। एकाग्रता के अभ्यास के लिए थोड़ा समय योग-साधना को अवश्य दीजिए।

हृदय पर केंद्रित होकर भय दूर करें
आज जिसे देखो वह डरा हुआ है। पहले बच्चे अज्ञात से डरते थेअब ज्ञात से डरने लग गए। पहले बच्चों को कुछ बातों का ज्ञान होता भी नहीं था और दिया भी नहीं जाता था। समय बदला तो कच्ची उम्र में वह ज्ञान और जानकारी भी आ गई जो परिपक्व होने पर आती थी। यहीं से भय भी बढ़ा। पहले बच्चों को डर लगता था तो मां के आंचल में छुप जाते थे या पिता के कंधे पर चढ़ जाते थे। अब तो वह आंचल खुद भयभीत हैवे कंधे खुद डरे हुए हैं। आइएआज इसी पर विचार करते हैं। जैसे ही जीवन में कोई भय आए सबसे पहले पता लगाएं कि यह बाहर आ कहां से रहा है। फिर उसका इलाज निकालें और यदि वह लाइलाज है तो इससे मुक्त होने के लिए बाहर कम और भीतर ज्यादा काम करिए। हमारे शरीर में तीन हिस्से ऐसे हैं जहां भय का इलाज मिल सकता।

मस्तिष्क भय के मामले में भविष्य में पटकता है कि अब क्या होगाये सारे विचार मस्तिष्क में जन्मते हैं और उसका इलाज भी यहीं से निकलना हैइसलिए मस्तिष्क पर काम किया जाए। चिंतन को स्पष्ट करिए। हृदय वर्तमान में जीता है। भय की स्थिति में तुरंत हृदय पर टिक जाएं। यहां पवित्रता हैशांति हैप्रेमपूर्ण वातावरण है। जितना हृदय पर टिकेंगेभय से मुक्त होने लगेंगे। हृदय का स्वभाव है भरोसा करना। ईश्वर पर भरोसा ​बढ़ाइएहृदय मदद करेगा और आप भय से मुक्त होंगे। हमारे भीतर तीसरा स्थान है मन। तुरंत इससे मुक्त हो जाएंक्योंकि मन भय के मामले में अतीत और भविष्य दोनों पर कूदता है। मन आपके भय को और विस्तारित करेगाइसलिए मन से कटकर मस्तिष्क और हृदय पर टिकने का प्रयास करें। जब भय का वातावरण हो तो अकेले न रहें। चाहे आपका भगवान आपके साथ हो या कोई अच्छा इंसान।

दूसरे के क्रोध का कारण समझें
आजकल जिसे देखो उसे बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है। कुछ लोग तो यह शिकायत करते हैं कि हमें न चाहते हुए भी गुस्सा आ जाता है। शांत रहने के हमारे प्रयासों पर क्रोध भारी पड़ जाता है। फिर भी कुछ धीर-गंभीर और समझदार लोग अपने क्रोध पर काफी हद तक नियंत्रण पा लेते हैं। इनके सामने सवाल खड़ा होता है कि अपने क्रोध पर तो हमने नियंत्रण पा लियालेकिन जब सामने वाला क्रोध करे तब हम कैसे स्वयं को नियंत्रित रखें। एक प्रयोग कीजिए। सामान्यत: क्रोध तब आता है जब जैसा हमने चाहा वैसा काम नहीं हुआ।

अपनी पसंद और उम्मीद के विपरीत यदि कोई कार्य हो तो हमें सामने वाले पर क्रोध आ जाता है। आप घर में होंया बाहर अपने कार्यस्थल पर होंकोई आप पर क्रोध कर रहा हो तो जो आदमी क्रोध कर रहा है इसके सामने की स्थितियों को हटाएं और क्रोध करने वाले आदमी के पीछे कुछ अज्ञात कारण हैं उन्हें देखें। हो सकता है पत्नी से लड़कर आया होसंभव है पति से मतभेद हुआ होबच्चों की परेशानी हो तो आदमी कार्यस्थल पर भड़क जाता है। ऐसा भी होता है कि झंझट कार्यस्थल पर हो और क्रोध घर में उगला जा रहा हो।

यह कारण देखकर खुद को समझाइए कि यह जो उबल रहा हैगुस्से में डूबा हैनिर्दोष है। इसके पीछे कुछ और स्थितियांअन्य कई व्यक्ति काम कर रहे हैं। क्रोध क्रिया नहींप्रतिक्रिया है। जब दूसरा कर रहा हो तो उसके क्रोध से स्वयं को नियंत्रित करने का एक ही तरीका है उसके पीछे अज्ञात ढूूंढ़ें। यदि उस अज्ञात को पकड़ लिया तो हमारे पास जो ज्ञात ऊर्जा हैहम उसे नष्ट नहीं करेंगे। अन्यथा उसके क्रोध में हमारा क्रोध जुड़ा तो नुकसान हमारी ऊर्जा का होगा। यदि हम शांत रहे तो हमारा भी भला होगा और हो सकता है हम उसका भी हित कर जाएं।

वाणी में चिंतनस्पष्टता व मिठास हो
विज्ञानधर्म व अध्यात्म ये कई मामले में आपस में टकराते रहते हैं। इनमें जो संतुलन बना ले उसे इनका श्रेष्ठ मिल जाता है। चलिए विज्ञान व अध्यात्म के ऐसे विषय पर चर्चा करते हैं जो सांस लेेने जितना सहज है। सांस लेना और बोलना यह हम जीवन में लगातार करते हैं। जिन क्षणों में हम बाहर नहीं बोलते उस समय भीतर चर्चारत होते हैं। बोलना एक ऐसी क्रिया होनी चाहिएजिससे हमारी जरूरतें पूरी होंलेकिन हमने बोलने को भी आदत बना लिया है।

कई बार शब्द निकलने के तुरंत बाद पछतावा भी होता है। विज्ञान कहता है बोलना भौतिक तरंग की तरह है। एक स्पंदन होता हैशब्द बाहर आ जाते हैं। जैसे भोजन करने पर पाचन तंत्र अपना काम करता हैऐसे ही कुछ क्रियाएं होती हैं। कंठ से गुजरती हैं और शब्द निकलते हैं। यह विज्ञान का दृष्टिकोण है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो ऋषि-मुनियों ने कहा है कि बोलने को सिर्फ एक क्रिया न समझें। इसका पहला संबंध वाणी से हैजिसमें तीन बातें होती हैं तब बोलना पूरा होता है। शब्दअर्थ और उच्चारण। जागरूक व्यक्ति वाणी में इन तीनों के प्रति सावधान होता है। वाणी का इतना ही अर्थ नहीं है कि कोई जानकारी किसी को इधर से उधर दे दी जाए।

इसमें जीवन को प्रभावित करने वाले सारे तत्व घुले हैंइसलिए कुछ समय वाणी पर भी काम कीजिए। आपकी वाणी के भीतर शब्दअर्थ और उच्चारण इन तीनों को जब समझने लगेंगे तो आप कभी निरर्थक नहीं बोलेंगे। आपकी वाणी इतनी प्रभावशाली होगी कि लोग आपको सुनने के लिए आतुर और बेताब रहेंगे। आपको भी संतोष होगा कि हमने जो बोला वह काम का थाइसलिए जब भी बोलें शब्दअर्थ और उच्चारण में चिंतन होस्पष्टता हो और मिठास रहे।

परिवार में रस पैदा करती है भक्ति
लंबे समय किसी के भी साथ रहना परीक्षा जैसा ही होता है। स्त्री-पुरुष पति-पत्नी के रूप में जब साथ रहते हैं तब इनके बीच एक दिक्कत यह भी होती है कि वे आपस में बात क्या करें। दोनों के बीच में जितने विषय होते हैं वे सब इस तरह से निचुड़े जा चुके होते हैं जैसे चरखी से निकला गन्ना। ज्यादातर देखा गया है पति-पत्नी के बीच जब कोई बात शुरू होती है कि दोनों अपने शब्दों के साथ भीड़ लेकर चलते हैं। वार्तालाप में अन्य पात्रों की उपस्थिति बहुत अधिक हो जाती है।

इसलिए देखा गया है कि अधिकांश पति-पत्नी या तो चुप्पी साधे होते है या बात कर रहे होते हैं तो दूसरे लोगों से संबंधित ही रहता है। बहुत कम दंपती ऐसे होते हैंजो आपस में केवल दोनों के लिए ही बात करते हैं। कुछ समय बाद सिर्फ दुनियादारी और काम की बातें होती हैं। प्रेम,अपनापनसमर्पण इनसे जुड़े संवाद गायब हो जाते हैं। इसका निदान भक्ति में है। पति-पत्नी को एकसाथ भक्ति करनी चाहिए। पति-पत्नी होने के साथ-साथ उन्हें अपने भीतर के भक्त को पुनर्जीवित करना होगा। भक्ति का ही दूसरा रूप प्रेम है।

आज के समय में स्त्री-पुरुष पति-पत्नी बनकर एक-दूसरे से प्रेम करेथोड़ा कठिन हैलेकन परमात्मा की भक्ति करने से उनके भीतर प्रेम अपने आप जाग जाता है। माता-पिता में परमात्मा उपस्थित रहता ही हैलेकिन जीवनसाथी में परमात्मा की प्राणप्रतिष्ठा करनी पड़ती है। परमात्मा के आगमन का दूसरा अर्थ ही है प्रेम का आना। जितना प्रेम जाग्रत होगा यह रिश्ता उतना ही गरिमामय होता जाएगा। भक्ति भगवान की हो रही हैप्रेम मनुष्य के शरीर में जाग रहा है। शुभ परिणाम दाम्पत्य को मिल रहे होंगे। यह भेद मिट जाएगा कि हम पत्थर की मूर्ति के सामने तो प्रणाम करते हैं और अपने जीते-जागते साथी को नकार देते हैं।

ईश्वर के उत्तर में साक्षात सत्य
निंदा करनाआरोप लगानासंदेह व्यक्त करना बड़ा आसान है। विश्वास करना उतना ही कठिन है। हम मनुष्यों पर संदेह करते हैंलेकिन धीरे-धीरे यह दुस्साहस बढ़ जाता है और हम भगवान को भी संदेह के दायरे में ले लेते हैं। हम एक प्रश्न करेंवे बराबर दो जवाब देंगे। चूंकि प्रश्न मनुष्य के अपने होते हैंइसलिए वह उत्तर भी अपने हिसाब से ही पसंद करता हैजबकि जीवन का सच यह है कि प्रश्न आपके हो सकते हैंलेकिन उसका जो उत्तर होता है वह सिर्फ उत्तर होता है।

निष्पक्ष होता है। यदि उत्तर परमात्मा द्वारा दिया जा रहा है तो उससे बड़ा सत्य क्या हो सकता है। बालि के सामने श्रीराम यही कर रहे थे। बालि ने मरते-मरते श्रीराम पर आरोप लगाया थाजिसके दो बिंदु थे। पहला तो यह कि आप अवतार हैं तो सुग्रीव को छोड़ मुझे क्यों माराजिसका उत्तर भगवान दे चुके थे। बालि का दूसरा आरोप थाआपने व्याध की तरह मुझे छुपकर क्यों माराश्रीराम ने कहा, ‘एक तरफ मुझे अवतार मानते हो और दूसरी तरफ योद्धा। यदि मैं अवतार हूं तो न्यायाधीश के रूप में मैंने तुम्हें दंड दिया हैकिंतु यदि मुझे योद्धा मानते हो तो युद्ध का नियम होता है प्रतिद्वंद्वी की पूरी शक्ति का ज्ञान होना। मुझे ज्ञात है कि तुम्हें यह वरदान है कि युद्ध में जो भी तुम्हारे सामने होगा उस योद्धा की आधी शक्ति तुम्हारे भीतर उतर आएगी।

तो मैं ऐसी नादानी नहीं कर सकता था कि योद्धा के रूप में तुम्हारे सामने आकर अपनी आधी शक्ति तुम्हें दे दूं। मुझे छुपकर ही तुम पर वार करना था। यह युद्ध का नियम बन गया था। श्रीराम का उत्तर जितना व्यावहारिक था उतना ही आध्यात्मिक भी था। यह प्रसंग हमें समझा रहा है कि हमारी पसंद से हम नियम और कायदे बना लेते हैं। अगर प्रभावशाली हैं तो संसार मान लेगालेकिन परमात्मा पर ऐसा प्रभाव नहीं चलता।

जीना सिखाती है बुजुर्गों की सीख
बड़े-बूढ़े हमारे परिवारों में जीवन जीने के अद्‌भुत सूत्र छोड़ जाते हैं। बच्चों के लालन-पालन के लिए तो कुछ ऐसे सिक्रेट कोड बड़े-बूढ़े दे जाते हैंजिनके आगे अच्छा-अच्छा प्रबंधन भी चुप हो जाए। दादा-दादी और नाना-नानियों ने जो कथाएं बच्चों को बिस्तर पर सुनाई उसके सामने बड़े-बड़े क्लास रूम और इंस्टीट्यूट फीके हैं। इसलिए परिवारों में जब बच्चों का लालन-पालन करना होतो जितने आधुनिक प्रयास अपनाए जाएं उससे दोगुने पारंपरिक और पुश्तैनी प्रयास जरूर करिएगाक्योंकि हमें बच्चों को सीख और स्वतंत्रता एक साथ देनी है।

स्वतंत्रता आज के भौतिक युग के लिए जरूरी है। यह उनके आत्मविश्वास को बढ़ाती हैलेकिन सीख उनके भीतर होश का जन्म कराती है। स्वतंत्रता का संबंध जानने से है। वे दुनिया बहुत अच्छे से जान लेंगेलेकिन जब तक सही सीख नहीं मिलेगी वे जानी हुई दुनिया को जी नहीं पाएंगे। जानने और जीने में फर्क है। इसलिए बच्चों के लालन-पालन में कुछ संकेतों को पकड़ना सीखें। खासतौर पर जब बच्चों में हार्मोनल चेंज हो रहा हो। उनका बचपन जा रहा हो और जवानी पूरी तरह आई न हो। इस समय बच्चे उस मोड़ पर होते हैंजहां उन्हें रास्ते तो दिख चुके होते हैं पर जाना किस पर है यह समझ में नहीं आता। यहीं से उनके मस्तिष्क और हृदय के बीच मन सक्रिय हो चुका होता है। उनके हाव-भाव रोमांटिक हो चुके होते हैं।

वो चीजों में सपने देखने लगते हैं। ऐसे समय में बड़े-बूढों के सिक्रेट कोड बड़े काम आएंगे। यह हर वंश और परिवार के अलग-अलग होते हैं। कुछ परिवारों में सारे बच्चे एक ही लय से पाले जा सकते हैंतो किसी परिवार में एक बच्चे पर लादे गए नियम दूसरे बच्चे पर लागू नहीं हो सकतेइसलिए अपने परिवारों में बड़े-बूढ़ों द्वारा छोड़ गए कुछ सिक्रेट कोड ढूंढ़ते रहिए।

दूसरों की खुशी का कारण बनें
कभी फुर्सत में दो सूची बनाइए। एक में वे लोग होंजो आपको देखकर खुश होते हैं। दूसरी सूची में उनके नाम जोड़िएजिन्हें देखकर आप खुश होते हों। आप पाएंगे अगर ईमानदारी से कलम उठाएं तो कई चेहरे और नाम के आगे आपको दिक्कत आने लगेगी। जब हम कामकाज करके अपने घर लौटते हैं तो बच्चे और यदि घर में पालतू पशु हैंतो वे हमें देखकर नि:स्वार्थ खुश होते हैं। इनकी निर्दोष प्रसन्नता हमें क्षणिक खुशी अपनाने पर मजबूर कर देती है।

बाहर की दुनिया में जो लोग हमें देखकर खुश होते हैं या जिन्हें देखकर हम प्रसन्न होते हैंउनमें सत्यता कम और सौदेबाजी ज्यादा होती है। किंतु सूची इसलिए बनाइए कि आप तय कर सकें कि आपकी जिंदगी में कितने ऐसे लोग हैंजो आपको देखकर खुश होते हैं या जिन्हें देखकर हम प्रसन्न होते हैं। जो आपको देखकर खुश होते हैं। इनकी संख्या तय करेगी कि आप कितने खुशनसीब हैं। जब आप अपने व्यवसाय की दुनिया में हों तो सर्वश्रेष्ठ परिणाम लेना चाहते हैं। अपनी टार्गेट लिस्ट में कुछ नाम बढ़ाते चलिएजो आपको देखकर खुशी महसूस करें ये लोग आपकी उपलब्धि होंगे।

आपको दूसरे की खुशी का कारण बनने के लिए अपने भीतर बहुत साफ-सफाई करनी पड़ेगी। घर आएं तो जीवनसाथी को देखकर प्रसन्न रहने का अभ्यास करेंअभिनय नहीं। स्वयं को इस लायक बनाएं कि आपको देखकर जीवनसाथी संतुष्ट होप्रसन्न हो। देखा यह जाता है कि पति-पत्नी दो-चार घंटे या दिनभर के गैप के बाद जब एक-दूसरे से मिलते हैं तो अजनबी की तरह मिलते हैं या शिकायतकर्ता की तरह। होना यह चाहिए कि दोनों एक-दूसरे के लिए खुशी का कारण बनें। लगे कि कोई हैजिसके लिए हम खुश होते हैं या जो हमारे लिए खुश रहता

आश्रमों में जाएं तो सुविधाएं न खोजें
आजकल आयोजनों की बाढ़ आई हुई है। कुछ लोग तो सामान्य-सी घटना को भी आयोजन बना डालते हैं। ध्यान रखिएगाआयोजन में बड़ा हिस्सा अहंकार-प्रदर्शन का होता हैजबकि उत्सव आंतरिक प्रसन्नता का मामला है। इस समय धार्मिक आयोजनों की भी बरसात-सी हो रही है। होते धरती पर हैंलेकिन लगता ऐसे हैं जैसे आसमान से बरस रहे हों। इन्हें तीन तरीके से देखा जा सकता है। मंदिरआश्रम और कथा।

जिस नगर में देखो इनके निर्माण और आयोजनों की स्पर्द्धा चल रही है। चूंकि इनसे कुछ ऐसे लोग भी जुड़ जाते हैंजो विवादास्पद होते हैंइसलिए ये पवित्र कार्य भी आलोचना का विषय बन जाते हैं। ये तीनों मनुष्य के भीतर जो मनुष्यता हैजो ईश्वर का अंश है उसको ढूंढ़ने की व्यवस्था है। यहां आपको अकेला किया जाता है। आप जितने अकेले होते हैंउतने ही परमात्मा के प्रवेश की संभावना बढ़ जाती है। आश्रम में जाने का मतलब है उस स्थान पर जाना जहां आपको पूरा ध्यान गुरु पर लगाना है। वे उपस्थित हों या अनुपस्थितजीवित हों या दिवंगत। गुरु पर टिकना आपका काम है। यह अपेक्षा न करें कि गुरु आप पर टिकें ।

हम आश्रमों में जाकर सुविधाएं ढूंढ़ते हैं जबकि यह व्यवस्था आपको तप की ओर ले जाती है। वहां जाकर क्या 
मिलाइस चक्कर में न पढ़ें बल्कि आपने क्या खोयाइसका अध्ययन कीजिए। तीसरी बात है कथा। कथा रूपांतरण की घटना है। कथावाचक जिस शास्त्र पर बोल रहा हैवह शास्त्र सिर्फ एक झरोखा है। झरोखा आगे झांकने के लिए होता है। कथा को नाव भी समझ सकते हैंजिसमें बैठकर आपको उस पार जाना है। किनारे पर जाकर नाव छोड़नी पड़ती है। हर व्यवस्था का अपना सदुपयोग है। अगर न करें तो वह अपने आप दुरुपयोग में बदल जाएगी।

घर-परिवार में हो मजबूत साझेदारी
जब धन कम अौर काम ज्यादा होरिश्ते मजबूत हों तब आदमी सांसारिक जीवन में पार्टनरशिप करता है। इसमें तीन बातें काम करती हैं। धन का बंटवारा हो जाता हैजो उसे बढ़ाने में काम आता है। व्यक्ति कम और काम अधिक हो तो सब मिल-जुलकर समय का सदुपयोग कर लेते हैं। एक पार्टनरशिप निजी रूप से अापको और करनी है। तीन पार्टनर बनाइए। एक आप स्वयं होंदूसरे में अापका परिवार हो और तीसरे में व्यवसाय हो।

परिवार और व्यवसाय में प्राण डालकर जीवित व्यक्ति की तरह व्यवहार करिए। अभी घर से निकलते हुए अपने कार्यस्थल जाने तक हमारे पास प्रसन्नता के कारण नहीं होते। एक तरह की मजबूरी में निकल और पहुंच रहे हैं। इसी तरह काम से निकलने से घर में प्रवेश करने तक तनाव और थकान है। अगर आप इस पार्टनरशिप कोे समझ गए तो घर से काम पर जाते समय खूब जोश से भरे रहेंगे और लौटते समय प्रसन्नता में डूबे होंगे। घर और व्यवसाय के बीच ऐसा नाता होना चाहिएजो हो तो एक-दूसरे के लिएलेकिन एक-दूसरे में विघ्न न पहुंचाए।

कामकाज में लक्ष्य पूरा करने के लिए बहुत एकाग्र होना पड़ता हैजबकि घर में आपकी एकाग्रता बिखरी-बिखरी सी रहती हैक्योंकि सबके साथ संबंध निभाना है। संबंधों को समटने के लिए खुद को बिखेरना पड़ता हैइसलिए समय निकालकर दोनों ही जगह ध्यान यानी मेडिटेशन करते रहिए। योग से जुड़ने का अर्थ होता हैआप अपने भीतर की सहजतासरलता और साधारणता को पहचान जाएं। जिसने इन्हें जान लिया वह विशिष्ट हो जाएगा। आपको विशिष्ट बनना नहीं है। आपको सिर्फ योग से जुड़ना हैबाकी सब अपने आप होने लगेगा। व्यावसायिक क्षेत्र में श्रेष्ठ परिणाम मिलकर रहेंगे और घर-परिवार में प्रेमपूर्ण वातावरण स्वयं पैदा हो जाएगा।

मन पर नियंत्रण हर चोट का इलाज
जिंदगी के रास्ते सीधे कभी नहीं होते। वैसे यह है तो राजपथ। जिसे मनुष्य का शरीर मिला है उसे यह मालूम होना चाहिए कि वह राजपथ पर ही चल रहा हैजहां जितनी सुविधा है उतनी ही दुविधा भी है। कहीं मोड़ हैं तो कहीं गड्‌ढे हैं। आप सावधानी से चल रहे हैं पर किसी और की असावधानी दुर्घटना का कारण बन जाएगी। जीवनपथ पर बहुत कुछ ऐसा हो रहा होता हैजिस पर हमारा बिल्कुल नियंत्रण नहीं रहता।

जीवनपथ पर चलते समय हमें चोट भी लगेगीगिरेंगे-उठेंगे फिर गिरेंगे। कुछ घाव जल्दी भर जाएंगे। कुछ जीवनभर बने रहेंगेलेकिन चलते ही रहना हैइसलिए घावों का इलाज भी हमें ही करना पड़ेगा। कुछ चोटें दूसरों को बताई जा सकती है और दूसरों के सहारे ठीक भी की जा सकती है। किंतु कुछ घावों का इलाज हमें ही करना है। हर पल परिस्थितियां बदलती हैंइसलिए पुराने घाव और चोट लेकर नई स्थितियों में न उतरें। हर 
परिस्थतियों में दो तरह के लोग मिलेंगे।

एक वो जो आत्मविश्वास से भरे होंगे और प्रेरित करेंगे। दूसरे वे हैं जो खुद कमजोर होंगे तथा हमारी कमजोरी को और बढ़ा देंगे। हमारे घाव को ताजा करेंगे। हमारी यात्रा में रुकावट बन जाएंगे। दोनों ही स्थितियों में हमें अपने भीतर उतरकर पुरानी चोट-घाव से मुक्ति पाना है और नई स्थिति में खुद को तैयार करना है। मन इस मामले में बड़ी भूमिका निभाता है।

मन विश्वास को संदेह में बदल देता है और संदेह को विश्वास में। इसीलिए जब भी नई स्थिति में उतरना होतो मन पर जरूर नियंत्रण पा लें। जब भी समय मिले मन पर काम जरूर करें। मन पर नियंत्रण कर लिया गया तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि आप कितने घायल हुएकितनी चोंट खाए हुए हैंबल्कि हर बार नई परिस्थिति मेंनए रूप में सामने आएंगे।

बालि की तरह आचरण करना पाप
आरोप लगाना आसान है। आप एक छींटा उछालिएदामन धोते-धोते सामने वाले की जिंदगी बीत जाएगी। चर्चा चल रही है श्रीराम और बालि के प्रसंग की। श्रीराम ने अंतिम सांसें ले रहे बालि के दोनों आरोपों के उत्तर बहुत ही व्यवस्थित और मान्य ढंग से दे दिए थे। किंतु श्रीराम आगे जोे बोले हैंनैतिकता और चरित्र के मामले में ये पंक्तियां आचार संहिता बन जाती हैं। अनुज वधु भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।। इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।’ श्रीराम ने कहा हे मूर्ख! सुनछोटे भाई की स्त्रीबहनपुत्र की स्त्री और कन्या ये चारों समान हैं। इन्हें जो बुरी दृष्टि से देखता है उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं लगता। 

श्रीराम कहते हैं, ‘बालि एक बात और अच्छे से समझ लो। छोटे भाई की पत्नीबहनपुत्र की पत्नी यानी बहूअपनी पुत्री ये चारों रिश्ते मेरी दृष्टि में सम्मानीय हैंप्रेमपूर्ण हैं। इनका अपमान न किया जाए।’ श्रीराम कह रहे हैं कि बालि तुमने सबसे बड़ी भूल यह की कि छोटे भाई की पत्नी का ही हरण कर लिया।

कभी न आक्रामक होने वाले श्रीराम घोषणा कर गए कि ऐसे व्यक्ति को मारने से पाप नहीं लगता। बालि को तो समझ में आ ही गयालेकिन हमें भी समझना है कि हम समाज मेंपरिवार मेंखासतौर पर माता-बहनों के साथ रिश्ते में अत्यधिक पवित्र रहें। पुरुष स्त्रियों से भेद दृष्टि रखते हैं और स्त्रियां भी स्त्रियों के प्रति भेद दृष्टि रखती हैं। श्रीराम को दोनों अस्वीकार हैइसीलिए कहा गया भक्त के लक्षण हैं कि वह भेद नहीं कर पाते। श्रीराम ने तो इस भेद को पाप की श्रेणी में ला दिया है। यह समझ लें कि हम जीवन में जब-जब भी बालि की तरह आचरण करेंगेरिश्तों में भेद लाएंगे तो परमात्मा के प्रहार को हमें भुगतना पड़ेगा।


बच्चों से रिश्तों में संवेदना लाएं
बच्चे माता-पिता पर निर्भर होते हैं यह सत्य हैलेकिन अब स्वरूप बदल रहा है। आज की पीढ़ी माता-पिता से जल्दी मुक्त हो रही है। पहले पालकों के पास बच्चों के लिए पर्याप्त समय थाअब वे भी जल्दी मुक्ति चाहते हैं। लिहाजाबच्चे घर के कर्मचारियों के हवाले कर दिए गए। यहीं से निर्भरता ने नया रूप ले लिया। बच्चों को जैसे ही अहसास होता है कि हम निर्भर नहीं रहना चाहते तो उन्हें सिखाई जा रही अच्छी बातों के प्रति वे तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। ऐसे में या तो माता-पिता को चुप होना पड़ता है या मतभेद बढ़ने लगते हैं। पहले के दौर में बड़े बोल रहे होते थे तो छोटों को सुनना ही था। अब बच्चे अनूठे और अलग दौर से हैं। यह बात माता-पिता को समझनी होगी। जिस दौर में वे बच्चे थे और जिससे उनके बच्चे गुजर रहे हैं इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। इसलिए बच्चों से सावधानी के साथ पेश आना पड़ेगा।

आप बहुत अधिक सलाह नहीं दे पाएंगे। पहले किसी को नियंत्रित करना तो कहते थे कि उसे भयभीत कर दो। पहले के बच्चे मां-बाप से भयभीत भी रहते थेतो नियंत्रण आसान था। अब भय धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। मां-बाप ने सोचा यह भयभीत नहीं है और नियंत्रण करना है तो अगला काम किया लोभ काक्योंकि नियंत्रित करने के दो ही तरीके हैं- भय और लोभ। अब मां-बाप और बच्चों के रिश्ते में लोभ आ गया है। बच्चों ने भी लोभ के दायरे बढ़ा दिए। अब यदि वे थोड़े बहुत भी निर्भर हैं तो अपने लोभ की पूर्ति के लिएइसलिए अपने बच्चों की दृष्टि में माता-पिता सिर्फ उपयोगिता की वस्तु रह गए। हमें इनकी निर्भरता को केवल भय और लोभ से नहीं जोड़ना है। भावनासंवेदना और प्रेम बीच में लाना ही पड़ेगा। जैसे ही ये तीनों चीजें आएंगीनिर्भरता के मतलब ही बदल जाएंगे।

व्यक्ति के सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाएं
हर व्यक्ति के भीतर कुछ न कुछ श्रेष्ठ जरूर होता है और यह सदैव उजागर नहीं रहता। कुछ लोग अपने श्रेष्ठ को बाहर आने नहीं देेते और कुछ इस प्रक्रिया से अनभिज्ञ रहते हैं कि श्रेष्ठ बाहर भी आ सकता है। हमें हमारे संपर्क में आने वाले लोगों के भीतर के श्रेष्ठ को बाहर निकालना चाहिए। परमात्मा ने हर व्यक्ति में अपना अंश छोड़ा है और परमात्मा का थोड़ा-सा अंश भी मनुष्य के लिए श्रेष्ठ बन जाता है।

जब भी किसी से मिलें और बात करें तो सतह पर मत टिकिए। हम केवल शब्दों से चलकर शब्दों पर ही खत्म हो जाते हैं। उसके भीतर जो श्रेष्ठ की धारा बह रही है उसे महसूस करें। इसके लिए आपको भीतर उतरकर जुड़ना होगा। हो सकता है ऐसा करने में आप थोड़े लोगों से ही मिल सकेंलेकिन जिनसे भी मिलेंपूरे दिल से मिलें। जब भी बात करें पूरी गहराई में जाकर करें और सुने।

इससे पहला फायदा तो यह हो रहा होगा कि आप उसके भीतर का श्रेष्ठ निकाल चुके होंगे और दूसरा यह है कि बिना अपने भीतर गहरे उतरे दूसरे की अच्छाई बाहर ला भी नहीं पाएंगेक्योंकि हम अपने भीतर उतरना भी भूल चुके हैं। इस प्रक्रिया में हम यह काम भी कर जाएंगे। हम समाज में रहते हैं तो समाज ने हमें एक पहचान दे दी है। हम जब दूसरों से मिलते हैं तो हम व्यक्ति से नहींउसकी पहचान से मिलते हैं।

हम भी सोचते हैं कि हम एक पहचान से बात कर रहे हैं और कभी कुछ हासिल नहीं कर पाएंगेलेकिन उस व्यक्ति के भीतर और भी कुछ हैइसीलिए चौबीस घंटे में कुछ समय अपने भीतर उतरें तो दूसरों के भीतर उतरना सुविधाजनक होगा। बाहर से किसी से क्या ले पाएंगेलेकिन यदि उसके भीतर की श्रेष्ठता निकाल ली तो आप उस पर भी उपकार करेंगे और आपका भी फायदा होगा।

हृदय से संचालित हो घर-गृहस्थी
यह प्रतिस्पर्द्धा को प्रेरणा मानने का समय है। कामकाजी जिंदगी में अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धा के कारण लगभग सभी लोग किसी न किसी दबाव में हैं। इसका बड़ा नुकसान परिवार उठाता है। जब हम परिवार में लौटें तो प्रतिस्पर्द्धी मानसिकता बाहर उतार दें। ठान लें कि घर की चारदीवारी में हर हालत में सहज रहेंगे और रिलेक्स बने रहेंगे। हमारी तनावग्रस्त रहने की आदत के कारण परिवार परेशान हो जाता है। तनाव की आदत के कारण हम घर में भी मुद्‌दे ढूंढ़ने लगते हैं। जैसे सफाई नहीं हुईजो काम बताया गया वह पूरा नहीं हुआ। खर्च ज्यादा हो रहा है।

बच्चों के लालन-पालन में जो निर्णय लेना हैउसमें मतभेद हो रहे हैं। किसी की तबीयत खराब होगीकोई आचरण से भटक रहा होगा तो क्या इन बातों को उतना ही तनावग्रस्त होकर लिया जाए जितना बाहर धंधेपानी की दुनिया में हम करते हैं। घर की समस्याएं सहज होकर अधिक आसानी से निपटाई जा सकती हैंलेकिन हम इसे भी व्यावसायिक मानसिकता से निपटाने की कोशिश करते हैं। बाहर काम-धंधे में बोले जाने वाले झूठ घर में प्रवेश करने लगते हैं। फिर झंझट शुरू होती है। घर दिमाग से नहीं चलता। गृहस्थी हृदय से संचालित होनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि मस्तिष्क का उपयोग घर में न किया जाएलेकिन व्यावसायिक मानसिकता वाले मस्तिष्क का उपयोग घर में वर्जित ही होना चाहिए।

अन्यथा घरों से सत्य गायब हो जाएगा और झूठ के आस-पास पले हुए बच्चेजीने वाले सदस्य कभी एक-दूसरे को सुखी नहीं रख पाएंगे। हमारे भारत के परिवारों में आज कलह का एक बड़ा कारण यही है कि हम अत्यधिक व्यावसायिक होते जा रहे हैं। इसीलिए झूठ और सच का फर्क धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है।

बच्चों के सम्मान को ठेस न पहुंचाएं
यह जो पीढ़ी इस समय हमारे आंगन में पल रही हैअपने सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण समय से गुजर रही है। बच्चे और उनके मां-बाप दोनों ही इस समय तनाव में हैं। बड़े लोगों और बच्चों में विवेक का फर्क होता है। अाकांक्षाएं दोनों की होती हैं। लोभक्रोध दोनों ही उम्र में रहते हैंलेकिन बड़े लोग विवेक का प्रयोग करके विपरीत परिस्थिति से बच सकते हैं।

बच्चों को इसी तरह की परेशानियों से बचाने के लिए मां-बाप समझाइश देते हैंरोक-टोक लगाते हैं। यहीं से बच्चे और माता-पिता आमने-सामने आ जाते हैंलेकिन किसी भी स्थिति में बच्चों के सम्मान को ठेस न पहुंचाएंक्योंकि विवेकहीन या कम विवेक वाला व्यक्ति भी सम्मान उतना ही चाहता हैजितना विवेकशील व्यक्ति चाहता है।

देखा जाता है कि बच्चों पर चिढ़कर सबके सामने उन्हें डांट दिया जाता है। बाल-मन कई बार अपमान की इन घटनाओं को अपने भीतर दर्ज कर लेता है और फिर वह अपमान आक्रोश बनकर कभी भी फूट सकता है। हम अपने बच्चों को शिष्टाचार तथा परिवार की परंपराएं सिखाते हैं। इस दौरान उनके सम्मान को पूरी तरह बचाए रखिएगाक्योंकि वे भी सम्मान के उतने ही आकांक्षी हैंजितने बुजुर्ग होते हैं। जो सम्मान वे संसार से चाहते हैं वही सम्मान अपने माता-पिता से भी चाहते हैं।


बचपन में अपमान का घूंट पीने वाले बच्चों के जीवन में दूरगामी परिणाम आएंगे। उनके जीवन में बहुत कुछ नया आएगाजिससे वे परिचित नहीं हैं। एक समय तक तो वे मां-बाप की दृष्टि से ही देखते हैं। माता-पिता का धैर्य बच्चों का सम्मान बन जाएगा और माता-पिता की अधीरता बच्चों का अपमान बन जाती है। आपके द्वारा दिया गया सम्मान उनके लिए भविष्य में ऊर्जाउत्साह और सही दिशा का कारण बन सकता है।


पत्नी की राय का सम्मान करें
किष्किंधा कांड के प्रसंग मे श्रीराम अंतिम सांस ले रहे बालि को समझा रहे थे, ‘तुम्हें मालूम पड़ चुका था कि सुग्रीव के पीछे मैं हूं इसके बाद भी तुम उससे उलझ गए।’ खासतौर पर भगवान इशारा करते हैं कि बालि ने अपनी पत्नी तारा की भी बात नहीं मानी। तारा बहुत समझदार स्त्री थी। पांच प्रात: स्मरणीय स्त्रियों में से एक मानी गई है।

गोस्वामीजी श्रीराम के कहे को ऐसे व्यक्त करते हैं, ‘मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारी सिखावन करसि न काना।। मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी।।’ हे मूढ़ तुझे अत्यंत अभिमान है। तूने पत्नी की सीख पर भी ध्यान नहीं दिया। सुग्रीव को मेरी भुजाओं के बल का आश्रित जानकर भी अरे अधम अभिमानीतूने उसे मारना चाहा। श्रीराम ने बालि को मूर्ख कहा है। वैसे तो श्रीराम बहुत विनम्र थे। भाषा दोष तो उनके चरित्र में था ही नहींलेकिन यहां कठोर होकर बालि को मूर्ख कह रहे हैं कि तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें समझायापर तुमने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया।

श्रीरामचरित मानस के माध्यम से श्रीराम घोषणा कर रहे हैं कि जो पत्नी की बात नहीं सुनता मैं उसे मूर्ख कहता हूं। बात श्रीराम के मुंह से निकली है तो हमें सोचना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि पुरुष गलत निर्णय लेता है तो उसकी अर्धांगिनी रोकती हैलेकिन पुरुष का अहंकार उसे रोकता है कि यह स्त्री है और यह मुझे कैसे समझा सकती है। वह आदेश कैसे दे सकती है। यही भूल बालि भी कर बैठा। भगवान ने कहा - दाम्पत्य जीवन में एक इंटरडिपेंडेंस होता है। एक-दूसरे पर निर्भर रहकर ही परिवार चलाया जा सकता है। अपने परिवार में एक-दूसरे की राय का सम्मान करें। आज भगवान बालि के माध्यम से हमको यही समझा रहे हैं कि स्त्री और पुरुष का भेद न मानें।

तैयारी के साथ नई भूमिका में उतरें
कामयाबी की अपनी यात्रा में हमें कई तरह की भूमिकाएं निभानी होती हैं। जब हम कोई नई भूमिका बिना तैयारी निभाते हैं तो फिर हम चिड़चिड़े हो जाते हैं। नव विवाहित युगल में यह देखा जा सकता है। दोनों पढ़े-लिखे होते हैंइसलिए दोनों की महत्वाकांक्षाएं होती हैं। फिर माता-पिता बनने की नई भूमिका आती है। अधिकतर जोड़े इसके लिए तैयार नहीं होते। फिर बीच में बच्चा होता है और आमने-सामने युवा माता-पिता चिड़चिड़ेपनक्रोध के साथ एक-दूसरे पर आरोप लगाते हुए दिखते हैं। संतान को दोनों के बीच का मांजरा समझ में नहीं आता।

भोजन के साथ वह क्रोधबेचैनी और चिड़चिड़ापन भी लेता रहता है। इसलिए जीवन में कोई भी भूमिका हों। पढ़ाई पूरी करके कोई व्यवसाय संभाल रहे हों या कोई नौकरी कर रहे हों। हमें ऐसी भूमिकाओं के लिए तैयार होना चाहिए। स्वयं माली बन जाएं और अपने बीज को ठीक से तैयार करेंरोपें। उसे खाद-पानी दें। उसका ठीक से अंकुरण होने दें और उसे वृक्ष बनने का अवसर दें। यह एक आध्यात्मिक चिंतन के साथ की जाने वाली क्रिया है। जो भी करें पूरी स्पष्टता के साथ करें।

जब विद्यार्थी रहें तो स्पष्ट रहे कि मैं विद्यार्थी हूं। दाम्पत्य जीवन में भी बिना किसी भ्रम के उतरें। अपने बीते हुए समय पर पूरी पकड़ रखेंफिर वर्तमान को देखें कि आप क्या होने जा रहे हैं और भविष्य पर भी नजर रखें कि आपको क्या होना है। जीवन चौबीस घंटे थोड़ा-थोड़ा बह रहा है। जरा भी चूकें तो वह आपके हाथ से फिसल जाएगा। स्पष्टता और होश का मतलब है जीवन के साथ-साथ जो समय बीत रहा है उस पर भी नजर रखिए। बहुत कुछ बह जाने दीजिए और बहुत कुछ रोक लीजिएतब आप जो भी भूमिका निभाएंगे उसका आनंद उठा पाएंगे।

मन को काबू करने के चार सूत्र
दूसरों को सुखी देखकर जब हम सुखी और दूसरों के दुख में संवेदनाओं के साथ हम शामिल हो जाएं और उसे दूर करने का प्रयास करें तो शांति मिलने लगेगी। किंतु इससे मन बेचैन होने लगता हैक्योंकि मन और शांति की दुश्मनी है। उसके मालिक के अशांत रहने पर ही मन की सुरक्षा है। मन का विस्तार होने लगे और हृदय संकुचित हो जाए तो जीवन में अशांति आएगी ही। मन पर काम करने के लिए चार बातों से गुजरिए।

पहली- हमारे अनुकूल या इच्छा के अनुसार कोई काम हो जाए और यदि वह शुभ है तो रोम-रोम प्रसन्नता से भर जाए। खुश रहने का मौका मत चूकिए। दूसरी बात- यदि इच्छा का काम न होजीवन में कुछ अशुभ आ रहा हो तो उसके प्रति उपेक्षा का भाव पैदा करें। तीसरी बात- जो लोग दुखी हैं उनके प्रति संवेदनशील हो जाएं और चौथी बात- जो सुखी हैं उनके साथ दोस्ती जरूर करें। ये चार बातें मन को नियंत्रित करने में सहयोगी बन जाएंगी। मन के प्रति बहुत ही स्पष्ट नजरिया रखें। जरा-सी लापरवाही हुई और मन काम दिखा जाएगा।


इसमें योग बहुत मददगार होता है। पहले योग साधु-संतों का मामला माना जाता था। हालांकिअब कुछ महात्माओं ने योग को मनुष्य के जीवन में सरलता से जोड़ दिया है। आगामी 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है। यदि ठीक से न समझा जाए तो योग जितना आसान हैउतना ही कठिन हो जाएगा। क्रिया तो हो जाएगीपरिणाम नहीं मिलेगा। योग के सबसे बड़े वैज्ञानिक थे ऋषि पतंजलि। उन्होंने बहुत प्रबंधकीय ढंग से योग को आठ चरण में बांटा है। 21 जून के पहले इस स्तंभ में आठ दिन तक हम भी योग को सरलता से समझने का प्रयास करेंगे। जीवन से जुड़ी घटनाओं के अवसर को चूकना नहीं चाहिए।


योग से संभव है होशपूर्ण विदाई
मृत्यु को लेकर मानव की बहुत जिज्ञासा रही है। बड़े-बड़े शास्त्र रचे गए हैं। यह दुनिया की सर्वाधिक अदृश्य शक्ति है। उसका प्रदर्शन उसके अलावा कोई नहीं देख सकता, लेकिन इसे महसूस करने की तैयारी की जा सकती है। अंतिम समय में होश और अहसास ठीक रहे तो इसे ही मृत्यु का दर्शन माना जाएगा। जिन्हें मौत को जानने में रुचि हों वे शरीर, मन और आत्मा पर एक साथ काम करेंगे। चिकित्सा विज्ञान शरीर की जानकारी देगा।

योग मन से परिचय कराएगा और भक्ति यानी उपासना आत्मा तक पहुंचाएगी। मैं डॉ. मधुसूदन बारचे की पुस्तक पढ़ रहा था। उन्होंने लिखा है, शारीरिक अंगों की धीरे-धीरे मृत्यु सहज और शाश्वत प्रक्रिया है। हर अंग की सामान्य कार्यक्षमता उम्र के साथ कम होती जाती है। कम होने की दर उसके क्रियाकलापों, रखरखाव और बाहरी वातावरण पर निर्भर होती है। एक समय (बुढ़ापा) उसकी अतिरिक्त (रिजर्व) कार्यक्षमता भी काम करना बंद कर देती है। वही उसके जीवन का अंतिम समय होता है। शरीर के हर अंग की क्षमता प्रारंभ में असीमित होती है। यह क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है। मस्तिष्क की कार्यक्षमता सर्वाधिक होती है और वह अंत तक मनुष्य का साथ देता है।

यह जरूरी है कि हम मृत्यु के पूर्व 10 वर्ष बिना बीमारी या अक्षमता के पूर्णत: स्वस्थ व प्रसन्नतापूर्वक बिताएं। शरीर को नजदीक से समझने के लिए इस शरीर तथा उसकी रचना को अध्यात्म और पुराणों से भी जोड़ा गया है। हमें अपने मस्तिष्क को मजबूत करने के लिए शरीर से उतरकर मन और आत्मा पर काम करना होगा। इसके लिए योग के अलावा और कोई तरीका नहीं है। यदि थोड़ा-थोड़ा अभ्यास रोज किया जाए तो मृत्यु वाले दिन उसके दर्शन मुश्किल नहीं होंगे।

मन में दुर्भावना आना भी हिंसा
शरीर के साथ दो बातें जुड़ी हैं - मन और आत्मा, इसीलिए चिकित्सा विज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म से जुड़ना भी जरूरी है। इसके लिए योग बहुत आवश्यक है। ऋषि पतंजलि ने योग के आठ चरण किए हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इस स्तंभ में हम आठ चरण चलेंगे। आज पहले चरण का बीज बोएं ताकि आठवीं स्थिति में सुफल का वृक्ष हमें मिले।

विराट को पाने की इच्छा ही योग है, इसलिए आने वाले आठ दिनों में बहुत उत्साह से भर जाएं। शिवपुराण के अनुसार श्रीकृष्ण महात्मा उपमन्यु से मिलने गए। कृष्ण न स्वयं विद्वान थे बल्कि बहुत बड़े योगी भी थे। उन्होंने ऋषि उपमन्यु से जीवन से संबंधित प्रश्न किए। उपमन्यु ने कृष्ण को समझाने के लिए शिवजी और पार्वतीजी के बीच जो आध्यात्मिक संवाद हुआ था वह सुनाया। पार्वती ने शिवजी से शरीर, मन और आत्मा से जुड़े सवाल पूछे थे। कृष्ण ने ऋषि उपमन्यु से कहा योग अभ्यास करने के पहले ही मृत्यु हो जाए तो मनुष्य आत्मघाती होता है।

सीधी-सी बात है हमने यदि समय रहते योग नहीं किया तो समझ लें आत्महत्या ही कर रहे हैं। योग का पहला चरण है यम। इसके पांच भाग हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तैय, ब्रह्मचर्य और अपरिगृह। अहिंसा का मतलब केवल शारीरिक आक्रमण नहीं है। मन में भी किसी के प्रति दुर्भावना न आए। सत्य का अर्थ है मन, वचन, कर्म में एक होना। अस्तैय यानी कैसी भी स्थिति में चोरी न करें, मानसिक रूप से भी। ब्रह्मचर्य का अर्थ है आत्मिक अनुशासन का जीवन और अपरिगृह को कहेंगे बहुत अधिक चीजों को इकट्‌ठा न करना। जब इन बातों का अभ्यास होने लगे तब समझिए योग की शुरुआत हुई। कल दूसरे चरण नियम की बात करेंगे। तब तक जरा मुस्कुराइए...।

खुद को जानने में ही स्थायी शांति
इसी स्तंभ में हम चर्चा कर चुके हैं कि ऋषि उपमन्यु से श्रीकृष्ण ने योग पर कुछ प्रश्न पूछे थे। उपमन्युजी ने बताया था कि पांच प्रकार के योग हैं। 1. मंत्र योग-जप के माध्यम से मंत्र बोलने की मन की वृत्ति। 2. स्पर्श योग- मन की वही वृत्ति जब प्राणायाम को प्रधानता दे। 3. भाव योग- स्पर्श योग जब मंत्र के स्पर्श से भी रहित हो जाए। 4. अभाव योग- संपूर्ण विश्व का जो रूप है वह भी विलीन हो जाए। 5. महायोग- जब मन की वृत्ति शिवमय हो जाए।

आठ चरण में से दूसरा चरण है नियम। ये भी पांच प्रकार के हैं - शौच, संतोष, तप, जप (स्वाध्याय) और ईश्वर प्रणिधान। जिन्हें योग करना है उन्हें अपने जीवन को नियम से जोड़ना चाहिए। हम सीधे आसन, ध्यान और प्राणायाम में छलांग लगाने लगते हैं। नियम में शौच का मतलब होता है शुद्धि। केवल तन की शुद्धि से काम नहीं चलेगा। मन की शुद्धि भी उतनी ही आवश्यक है। संतोष का मतलब धैर्य भी होगा। शांत रहने के लिए संतोष की वृत्ति सहयोगी है। पुरुषार्थ पूरा करना है, लेकिन यदि संतोष की वृत्ति है तो पुरुषार्थ अपने परिणाम में अशांत नहीं करेगा। नियम का तीसरा भाग है तप। तप का मतलब अनुशासित परिश्रम। परिश्रम नशा न बन जाए। वासनाओं से मुक्त परिश्रम तप कहलाएगा।

इसके बाद क्रम है जप यानी स्वाध्याय। स्वयं का अध्ययन ही स्वाध्याय है। हमें दुनियाभर की जानकारी है। सेल्फ एनैलिसिस नहीं है। जिसने खुद को जान लिया उसे फिर कोई अशांत नहीं कर सकता। पांचवीं बात है ईश्वर प्रणिधान। परमात्मा के प्रति समर्पण का भाव। सफल होने पर हम अहंकारी नहीं होंगे। असफल हुए तो डिप्रेशन में नहीं डूबेंगे। यम और नियम के बाद तीसरा चरण कल हम समझेंगे आसन का। तब तक जरा मुस्कुराइए...।

योगासन से काबू में आती हैं इंद्रियां
जन्म व मृत्यु जानवर और मनुष्य दोनों में होती है। मनुष्य जानवर से इसी मामले मेें अलग है कि वह इन दोनों के बीच घट रहा जीवन दो दृष्टि से देख सकता है- एक भौतिक और दूसरी आध्यात्मिक। नाम-दाम-पद-प्रतिष्ठा अर्जित करने के तरीके, ये सब भौतिक दृष्टि के मामले हैं। इस दृष्टि से तो संसार की सब वस्तुओं को प्राथमिकता दी जाएगी। अधिकतकर लोग पूरी उम्र इसी दृष्टि पर टिके रहते हैं। उनका भौतिक सुख कब भोग में और भोग कब रोग में बदल जाता है, पता ही नहीं लगता। जीवन की दूसरी दृष्टि है आध्यात्मिक।

इसका संबंध आठ चरणों के योग से है, जिनसे मानव, शरीर से चलकर मन से गुजरता हुआ आत्मा तक पहुंच सकता है। जैसे चुंबक में एक होता है लोहा, जो दिख रहा है और दूसरी अदृश्य चुंबकीय शक्ति। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण होता है, जो अदृश्य शक्ति है। ऐसे ही आठ चरण योग का शरीर है, जो दिख रहा है। परंतु इसमें जो अदृश्य आध्यात्मिक शक्ति है, वही हमको जीवन का दूसरा पहलू दिखाएगी। यम, नियम के बाद योग का तीसरा चरण है आसन। कई प्रकार के आसन हैं, जो शरीर और रोग निवारण की आवश्यकतानुसार किसी योग्य गुरु से सीखे जाने चाहिए। किंतु इसे केवल फिजिकल एक्सरसाइज न समझें। मनुष्य की दसों इंद्रियां अपने-अपने विषय से संबंधित रहती हैं।

आंख का विषय है दृश्य। अगर केवल देखा जाए तब तक कोई खतरा नहीं है, लेकिन जैसे ही आंख उस देखे हुए को भीतर उतार लेती है, यही स्मृतियां बनकर मन तक पहुंच जाती हैं और विषय घातक हो जाते हैं। आसन करने से इंद्रियों का नियंत्रण सरल हो जाता है, इसलिए आसन किसी की देख-रेख में करें, लेकिन खुद को समझाते रहें कि आप अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने का काम भी कर रहे हैं।

प्राणायाम जीवन की सर्वोत्तम कला
योग से क्या मिलता है? स्वास्थ्य ठीक रहता है, हम स्वयं को पा लेते हैं और इन सबसे महत्वपूर्ण है ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं। किष्किंधा कांड में बालि ने श्रीराम के दर्शनों को लेकर कहा, ‘सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं। जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुंक पावहीं।।’ ‘श्रुतियां नेति-नेति कहकर निरंतर जिनका गुणगान करती रहती हैं तथा प्राण और मन को जीतकर एवं इंद्रियों को विषयों के रस से सर्वथा नीरस बनाकर मुनिगण ध्यान में जिनकी कभी कभी झलक पाते हैं, वे ही प्रभु आप साक्षात मेरे सामने प्रकट हैं।

शरीर में प्रकट हुई जो वायु है उसको प्राण कहते हैं। उसे रोकना ही उसका आयाम है। तीन तरीके हैं इसके- रेचक : नाक के एक छिद्र को दबाकर दूसरे से वायु बाहर निकालना। पूरक : दूसरे छिद्र द्वारा वायु को भीतर भरना। कुंभक : वायु को भीतर घड़े की भांति रोकना। शरीर में दस तरह के प्राण हैं : प्राण- प्रयाण करता है इसलिए प्राण कहते हैं। अपान- जो कुछ भोजन किया जाता है उसे जो वायु नीचे ले जाती है। व्यान- जो वायु सभी अंगों को बढ़ाती है। उदान- जो मर्म स्थानों को उद्वेलित करती है। समान- जो सभी अंगों में समान रूप से चलती है। नाग- मुख से कुछ उगलने में कारणभूत वायु। कूर्म- आंख खोलने में कूर्म नामक वायु स्थित है।
कृकल - छींक में। देवदत्त - जंभाई में और धनन्जय - यह संपूर्ण शरीर में रहती है यह मृत शरीर को भी नहीं छोड़ती। प्राणायाम के परिणाम - मल, मूत्र और कफ की मात्रा घटती है। सांस विलंब से चलती है। शरीर में हल्कापन, शीघ्र चलने की शक्ति, हृदय में उत्साह, सौंदर्य में वृद्धि, युवापन की स्थिरता और स्वर में मिठास। यहां तक कहा गया है कि तप, प्रायश्चित, यज्ञ, दान और व्रत आदि जितने भी साधन हैं ये प्राणायाम के सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं।

प्रत्याहार से नियंत्रित होती हैं इंद्रियां
योग के एक-एक चरण यदि ठीक से चलें तो यह वह परिणाम देगा कि हम बाहर की दुनिया की उपलब्धि तो प्राप्त कर ही लेंगे, भीतर से भी पूरी तरह शांत, प्रसन्नचित्त और आनंदित भी रहेंगे। हमें भीतर-बाहर से जोड़ने का काम करती हैं इंद्रियां। योग का पांचवां चरण है प्रत्याहार। हमारी इंद्रियों को अपनी आसक्ति से हटाकर भीतर केंद्रित करना यानी इंद्रिय रूपी घोड़ों को नियंत्रित करना है। पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मल-मूत्र की दो इंद्रियां व कंठ और पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, नाक, कान, त्वचा और जीभ हैं। रूप, गंध, शब्द, स्पर्श और रस इनके विषय हैं।

इंद्रियां अपने विषयों से केवल उपयोगिता के लिए जुड़े तो कोई खतरा नहीं है, लेकिन जैसे ही वे विषय में आसक्त हो जाती हैं, तुरंत मन को इसका वितरण कर देती हैं। यहीं से गड़बड़ शुरू हो जाती है। आंख का काम देखना है। त्वचा का काम स्पर्श करना है, लेकिन यदि दोनों अपने विषय में आसक्त हो जाएं तो फिर रस पैदा हो जाता है। पुरुष की आंख ने किसी स्त्री को देखा, स्त्री की आंख ने पुरुष को देखा। यदि देखनाभर है तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जैसे ही आसक्ति बनी कि प्राप्ति की चाह पैदा होती है तथा झंझट शुरू हो जाती है। मनुष्य की अशांति का एक बड़ा कारण यही है कि उसकी इंद्रियां अनियंत्रित हैं। अनियंत्रित घोड़ा घुड़सवार को पटकेगा ही।

प्रत्याहार से इंद्रियां नियंत्रित होती हैं। योग के इस चरण से इसलिए ठीक से जुड़ना है कि धीरे-धीरे ध्यान और समाधि की ओर पहुंचना है। इंद्रियों को दबाना भी नहीं है। दबाने का अर्थ है आंख ही फोड़ लेना। यह गलत हो जाएगा। विषय की आसक्ति से हटाकर भीतर की ओर मोड़ देना ही इंद्रियों का सदुपयोग है। प्रत्याहार यदि ठीक से सध जाए तो मनुष्य के लिए उसकी इंद्रियां अच्छी मित्र बनकर सबसे अच्छे परिणाम दे सकती हैं।

धारणा कमजोर तो योग में बाधाएं
योग में सीधे छलांग न लगाएं। तसल्ली से आठ चरण पार करें। हम आज छठवें चरण में हैं, जिसे धारणा नाम दिया है। ऋषि उपमन्यु ने श्रीकृष्ण को बताया था कि योग में दस बाधाएं भी आती हैं। आलस्य, तीक्ष्ण व्याधियां, प्रमाद यानी असावधानीवश योग न करना, स्थान-संशय - यह है या नहीं इस प्रकार का ज्ञान, अनावस्थित चित्तता - चित्त की अस्थिरता। अश्रद्धा, भ्रांति दर्शनम्, दुख, दौर्मनस्य - इच्छा पर आघात पहुंचने से मन में जो क्षोभ होता है और विषय लोलुपता - विचित्र विषयों में जो सुख का भ्रम है।

ये बाधाएं दूर कर लें तो छह सिद्धियां मिलती हैं- 1 प्रतिभा - सूक्ष्म पदार्थ हो, छिपा हुआ हो, भूतकाल में रहा हो, दूर हो, भविष्य में होने वाला हो, उसका ठीक-ठीक ज्ञान। 2. श्रवण- सुनने का प्रयत्न न करने पर भी सुनाई देना। 3. वार्ता- समस्त देहधारियों की बातों को समझ लेना। 4. दर्शन- दिव्य पदार्थों का बिना किसी प्रयत्न के दिखाई देना। 5. आस्वाद- दिव्य रसों का स्वाद प्राप्त होना। 6. वेदना- अंत:करण के द्वारा दिव्य स्पर्शों का तथा बाहर की दुनिया की गंध का अनुभव वेदना कहलाता है। योग का छठवां चरण है धारणा।

जिसका सीधा सा अर्थ होता है अपने चित्त को किसी स्थान विशेष में बांधना, किसी पवित्र लक्ष्य से जोड़ना। यदि हम विद्यार्थी हैं तो शिक्षा हमारा लक्ष्य है। व्यवसाय कर रहे हैं तो सफलता प्राप्त करना हमारा ध्येय है। कहीं सेवाएं दे रहे हैं तो कर्तव्य निष्ठता हमारा ध्येय होगा। इसी को योग में धारणा कहा है। यदि हमारी धारणा कमजोर है या स्पष्ट नहीं है तो हमें योग मार्ग में आने वाली बाधाएं परेशान करेंगी ही। यदि छठवें चरण तक हम सही निकल गए तो सातवां महत्वपूर्ण चरण आएगा ध्यान यानी मेडिटेशन। एक तरह से यह स्थिति योग के प्राण हैं।

जो जितनी गहराई में, उतना सफल
जब हम योग से जुड़ते हैं, सफलता का एक नया अर्थ सामने आता है। यहां अपने आपको पा लेना ही सफलता है। संसार में जो जितनी ऊंचाई पर है, वह उतना ही सफल है। अध्यात्म कहता है, जो जितना गहराई में है वह उतना सफल है। योग का आठवां चरण समाधि है। इसका अर्थ है पूरी तरह से अपने में ठहर जाना। अपने भीतर ठहरने के लिए भीतर के सात शरीरों में विचरण करना होगा। इन्हें सात चक्र भी कहा गया है। मेरूदंड के ठीक नीचे मल-मूत्र की इंद्रियों के ऊपर पहला चक्र है मूलाधार, जो हमारा भौतिक शरीर है।

जीवन-ऊर्जा यहीं पड़ी है। अब हम इस जीवन ऊर्जा के साथ ऊपर उठेंगे। दूसरा चक्र है स्वाधिष्ठान, नाभि के नीचे। यहां हमारा भाव शरीर है। तीसरा चक्र है मणिपुर, नाभि में। यह सूक्ष्म शरीर है। यहां जीवन-ऊर्जा के साथ टिकेंगे तो अपने आप आचरण पवित्र होने लगेगा। पेड़ से सूखे पत्तों की तरह हमारे दुर्गुण स्वत: छिटक जाएंगे। चौथे क्रम पर आता है अनाहत चक्र। यह हमारा मनस शरीर है। यहां आत्मा का स्पर्श मिलेगा। यहां प्रेम से लबालब होंगे, क्योंकि अगले चरण में परमात्मा की थोड़ी-थोड़ी झलक मिलने वाली है। फिर कंठ में विशुद्ध चक्र।

महात्मा ने इसे आध्यात्मिक शरीर कहा है। महेश योगी इसे परमात्मा का द्वार कहते थे। जे. कृष्णमूर्ति इसे चरम बताते रहे। योग के सबसे बड़े वैज्ञानिक और ऋषि पतंजलि ने इसे पूरी तरह से समाधि कहा है। दोनों भौंहों के बीच में छठा आज्ञा चक्र है। इसके बाद सातवां चक्र सहस्त्रार है। इनकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती। यह पूरी तरह से अनुभूति का क्षेत्र है। समाधि का मतलब ही यह है कि हम ही जानते हैं हमें क्या मिला। आठ चरण की इस समझ के बाद जब योग में उतरा जाएगा, तब पता लगेगा दुनिया का सबसे बड़ा सुख क्यों हमसे दूर था।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष