Monday, May 25, 2015

Jeene Ki Rah5 (जीने की राह)

सद्कर्मों के लिए है जीवन
जीवन में बिना कर्म किए हम रह ही नहीं सकते। इसलिए क्रिया मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक साथ रहती है। हममें और पशुओं में फर्क ही यह हो जाता है कि कर्म मनुष्य भी करेगा, लेकिन व्यवस्थित होकर। और यही उसकी पहचान है। कर्म के पीछे जो विचार काम करता है, यह मनुष्य की उपलब्धि है। इस संसार को जिस ढंग से भगवान ने बनाया है, उसमें मनुष्य को सद्कर्म करने के लिए बहुत सारे अवसर दिए हैं। अगर अवसर नहीं दिए होते तो मनुष्य भी आरोप लगा सकता है कि हम क्या करें? शास्त्रों में तो लिखा है कि परमात्मा इतना पूर्ण है कि तुम पूर्ण में से पूर्ण निकाल सकते हो, तब भी पूर्ण बचा रह जाएगा और उस पूर्ण में कुछ डाल दें तब भी पूर्ण बना रहेगा। इसलिए ईश्वर कम्प्लीट है। आप उसमें कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकते। मनुष्य जन्म का सबसे बड़ा उपयोग ही यह होगा कि परमात्मा ने जो हमें करने के लिए मौका दिया है, उसमें अच्छे काम जरूर करते चलें।

जो गलत है, उसे मिटाइए। जिनको जरूरी चीजों का अभाव है, उनकी मदद कीजिए। इसके लिए साहस की जरूरत पड़ती है। जब आप कोई साहसी काम करेंगे तो हो सकता है लोग आलोचना करें। ऐसे में या तो मन मारकर बैठ जाइए या फिर हट जाइए। दोनों ही गलत हैं। अगर भगवान ने अच्छे काम के मौके दिए हैं, तो वह मदद भी करेगा। इसलिए कुछ ऐसे काम हाथ में जरूर लीजिए जिससे अपने मनुष्य होने पर गर्व हो। जितने महापुरुष हुए हैं, उनकी जीवनी में एक बात देखने को मिलती है कि उन्होंने अपनी प्रसिद्धि के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने कुछ अच्छे काम हाथ में लिए। भगवान बहुत खुश होंगे कि जिसे मैंने इस पृथ्वी पर भेजा था उसने वह काम कर दिया जो मेरी पसंद का था। इसलिए सेवा कीजिए, सेवा के अवसरों को जीवन से जोड़िए।

सहज व्यवहार से कम क्रोध
अलग-अलग लोगों से बातचीत करते समय विषय की प्रस्तुति भले ही बदल जाए, लेकिन मुखौटा न ओढ़िए। हमें पता भी नहीं चलता और हम अपने चेहरे पर मुखौटा ओढ़ना शुरू कर देते हैं। मित्रों से बात करेंगे तब हमारे चेहरे के भाव कुछ और होंगे। बॉस या अधीनस्थ से बात करेंगे तब हमारे मुखौटे का ढंग बदला हुआ होता है। पत्नी से, पति से या बच्चों से चर्चारत होने पर हम लोगों की आदत सी हो गई है मुखौटा ओढ़कर बात करने की। जहां गंभीर नहीं होना है, वहां गंभीर हो जाते हैं। जहां मुस्कुराने की इच्छा नहीं है, वहां हंसने लगते हैं और धीरे-धीरे यह आदत बन जाती है। 

हमारे भीतर कुछ बीमारियां ऐसी हैं जो हमें मुखौटा ओढ़ा ही देती हैं। हम बहुत कुछ छिपाने लगते हैं। जिन बातों को प्रकट करना है, उन्हें बाहर नहीं आने देते और जिन्हें बाहर आना चाहिए, उन्हें रोकने लगते हैं। भावनाओं को सही समय पर प्रकट नहीं किया जाए या अकारण रोक लिया जाए या जहां नहीं प्रकट करना है, वहां बाहर फेंक दिया जाए तो वह बीमारी बन जाती है और उस बीमारी का नाम है क्रोध। क्रोध प्रकट तो बाहर होता है और जहर भीतर फैलाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिन क्षणों में हम क्रोध में डूबे हुए होते हैं, वे क्षण हमारे व्यक्तित्व में पागलपन के होते हैं। क्रोध हमें पागल बना देता है। उस समय हम भूल जाते हैं कि हम कौन हैं। इसलिए मुखौटा न ओढ़ें। इसका मतलब सहज और सरल रहें। ढोंग व्यवहार और रिश्तों में न निभाएं। आप सहज और सरल होंगे तो भावनाएं ठीक ढंग से व्यक्त होंगी। इससे क्रोध के अवसर कम हो जाएंगे और जैसे ही क्रोध के अवसर कम हुए आपका पागलपन चला जाएगा। सहज होने के लिए भावनाओं का उपयोग सही ढंग से करना होगा।

बदलाव से डरें नहीं, लाभ उठाएं
प्रकृति एक तयशुदा गति से परिवर्तन करती है। मनुष्य जब प्रकृति से जुड़ता है तो वह पहला काम करता है लाभ के लिए अपने तरीकों से प्रकृति की गति को कम करना, बढ़ाना या रोकना। जब प्रकृति असंतुलित होती है तो इसका दुष्परिणाम सबसे ज्यादा मनुष्य ही उठाता है। हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हैं, क्योंकि हमें सिखाया गया है तेजी से परिवर्तन करो और प्रकृति का स्वभाव है अपनी गति से चलने दो। बोया गया बीज अपने समय पर ही उगता है, लेकिन मनुष्य तुरंत उसे बड़ा पेड़ बनाना चाहता है। यह शीघ्रता हमें तनावग्रस्त कर देती है। इन दिनों हमारे देश में परिवर्तन शब्द को लेकर उत्साह और भय दोनों है। एक वर्ग कह रहा है देखना देश ऐसा बदलेगा कि पूरी दुनिया देखेगी। दूसरा वर्ग कहता है कुछ नहीं होने वाला, हालात और भी बदतर हो जाएंगे। चलिए इस विषय को अध्यात्म की दृष्टि से देखते हैं।

सामान्य आदमी की तरह सोचें तो यह परिवर्तन हमें भय से जोड़ रहा है। मुझे बड़े-बड़े व्यवसायी यह बताते हैं कि पूंजी केे मामले में एक डर बैठ गया है। यदि सक्षम लोग भी भयभीत हैं तो सामान्य का क्या होगा। सीधा सा इलाज है, अपने भीतर की आध्यात्मिकता को जाग्रत कीजिए। परिवर्तन को भय से मुक्त करिए। चौबीस घंटे में पांच मिनट तीन काम करें और यह आपको अकेले ही करना है। पहला शरीर को ढीला छोड़ दें और बैठ जाएं। ऐसे ढीला छोड़िए जैसे बर्फ की शिला पिघलती है। कल्पना करिए कि हमारा मस्तक ऊपर से पिघलकर नीचे बह रहा है। दूसरा आंख बंद कर अपने ही भीतर मन को देखिए। यहां से आप शांत होने लगेंगे। तीसरा अपनी भीतर-बाहर आती-जाती सांस को गहरा लीजिए और महसूस कीजिए। ये तीन काम करिए, दुनिया में हो रहे बदलाव से भयमुक्त रहेंगे। परिवर्तन का लाभ उठाना है, उससे डरना नहीं है।

सत्कर्म से मिलती है लोकप्रियता
इस दौर में प्रसिद्धि पाना नशे की तरह हो गया है। पहले कुछ लोग थे जो परदे के पीछे होते थे और बाहर दृश्य का संचालन करते थे, लेकिन आज सभी मंच पर आना चाहते हैं। परदे के पीछे रहने को कोई तैयार नहीं है। ज्यादातर लोगों की आकांक्षा है कि कम करें, अधिक दिख जाए। बहुत ज्यादा लोग हमें जानने लगें। लोकप्रियता बीमारी बन गई है। आज इसी पर विचार करें कि लोकप्रियता क्यों जरूरी है? लोकप्रियता दो तरह की होती है। पहली आप कोशिश करके हासिल करते हैं और दूसरी आप कर्म कर रहे होते हैं और अपने आप मिल जाती है। क्योंकि दुनिया के सबसे लोकप्रिय देवताओं में हनुमानजी का क्रम काफी ऊपर है। कितनी लोकप्रियता उन्होंने अर्जित की और कितनी उन्हें परमात्मा से मिली, यह हमारे लिए समझने का विषय है। हमें यह सीखना चाहिए कि अच्छे और भले काम में परमात्मा की उपस्थिति बनाए रखें। लोकप्रियता, प्रसिद्धि आपके आसपास अपने आप मंडराएगी। लंका जाने के पहले दुनिया हनुमानजी को सुग्रीव के सचिव के रूप में जानती थी। लेकिन जैसे ही वे श्रीराम से मिले, उन्हें लंका भेजा गया, लौटकर आए और एक रात में अद्‌भुत लोकदेवता बन गए। हनुमानजी जानते थे कि मुझे एक सद्कार्य करना है लंका जाकर। पूरे कर्म में उन्होंने अपने साथ भगवान को रखा था। परमात्मा की उपस्थिति हमसे ऐसे काम करवा लेती है जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। विश्वविजेता रावण की लंका जलाने के बाद हनुमानजी की लोकप्रियता अचानक बढ़ गई। यही सूत्र हम भी उठा लें। खूब काम कीजिए, अच्छा काम कीजिए, परमात्मा से जुड़े रहिए। हमारा लक्ष्य सत्कर्म होना चाहिए। लोकप्रियता बाय प्रोडक्ट बनकर अपने आप आएगी।

आदत से न जिएं निजी जीवन
अगर आपकी मेलजोल में रुचि है। मित्रों की बड़ी सूची आपके पास है। आप इस बात के लिए लोकप्रिय हैं कि संबंध बहुत अच्छे से निभाते हैं तो एक बात को लेकर सावधान हो जाइए। देखा जाता है कि मित्रों के लिए समर्पित ऐसे लोग जीवनसाथी के प्रति उदासीन या अनुचित व्यवहार करने लगते हैं। वे इसे स्वीकार भी नहीं करते, क्योंकि वे मानते हैं कि जैसे समर्पित और सक्रिय वे मित्रों के लिए हैं, ऐसे ही जीवनसाथी के प्रति भी हैं और यहीं भूल हो जाती है।

आप स्त्री हों या पुरुष, अपने जीवनसाथी के प्रति व्यवहार के मामले में फर्क रखना ही होगा। मित्रों से मतभेद होने पर, असहमत होने पर उनकी हेंडलिंग बिल्कुल अलग किस्म की होती है। जीवनसाथी के साथ पहला महत्वपूर्ण बिंदू यह होता है कि उसका जेंडर भिन्न रहता है, इसलिए जब आप जीवनसाथी को मित्र भी बनाते हैं तो मित्रों जैसा व्यवहार नहीं कर सकते, क्योंकि जीवनसाथी के साथ हमारा संबंध पूर्ण वयस्क बनने के बाद बना है।

दोनों के बीच कोई समस्या आ जाए तो उसकी गोपनीयता बड़ी महत्वपूर्ण है। आपके बीच की घटनाएं आप दूसरों को हू-ब-हू नहीं बता सकते। अध्यात्म कहता है जब जीवन में निजता का मामला हो, तब स्वभाव में जिएं, आदत से जिंदगी न बिताएं। सांसारिक मित्रता आदत का मामला है और आदत से जीवनसाथी के साथ जिंदगी नहीं गुजारी जा सकती। यदि ऐसा करते हैं तो आप कलह की तैयारी कर लेंगे।

हम अपने घरों में भी आदत से तैयार किए गए हैं। आदत से हम शाकाहारी हैं। आदत से सुबह जल्दी उठते हैं या देर से और आदत से ही शादी कर लेते हैं, जबकि यह नितांत स्वभाव का मामला है। जिस दिन अपने जीवनसाथी के साथ स्वभाव में जीने लगेंगे आपको वैकुण्ठ कहीं ओर नहीं ढूंढ़ना पड़ेगा।

भीतरी फालोअप देता है शांति
आधुनिक प्रबंधन में फालोअप का महत्व बढ़ता जा रहा है। लक्ष्य और ऊंचे होते जा रहे हैं। आदमी की इच्छाओं का गजब का विस्तार हुआ। इस फैलाव के बीच में यदि कुछ नहीं फैला है तो वह है चौबीस घंटे। इसी चौबीस घंटे में हमें ज्यादा से ज्यादा काम निपटाकर अधिक से अधिक लक्ष्य प्राप्त करना है, इसलिए फॉलोअप महत्वपूर्ण है। देशी भाषा में कहें तो पीछे पड़ जाना। इसकी जब अति हो जाती है, तब दोनों पक्ष दुखी हो जाते हैं। आपको फॉलोअप करना हो या कोई अापका फॉलोअप कर रहा हों, ऐसे में तनाव-चिड़चिड़ेपन से बचना चाहें तो इसे अपने ऊपर लागू कर दें। फॉलोअप का आध्यात्मिक ढंग यह है कि खुद के भीतर जाकर अपने उस स्वरूप को पकड़ना, जिसे दूसरे नहीं जानते। वह दुश्मन वृत्ति का, गलत इंसान है जो हम ही हैं और जिसे हम ही पकड़ सकते हैं।

यह छुपा होता है मन की गुफाओं में। वहां से इसे निकालना और पकड़ना कठिन काम है। इसको तपस्या, साधना, जप-तप, ध्यान कहा गया है। जब आप खुद का फॉलोअप कर रहे होते हैं तो इनमें से कोई एक विधि आपको अपनानी पड़ेगी। भीतर का लक्ष्य परमात्मा हैं और बाहर का लक्ष्य संसार। यदि भीतर का लक्ष्य नहीं पाया और केवल बाहर का पा लिया तो सफलता के साथ तनाव जरूर आएगा, लेकिन यदि दोनों ही पा लिए तो फिर तनाव-अशांति को दूर होना ही होगा। हम भीतर खुद का फॉलोअप करें, हमारे भीतर जो भी व्यर्थ पड़ा है उसको हटाएं। चूंकि परमात्मा वहीं होता है, तो वह हमें आसानी से मिल जाएगा। परमात्मा की एक शक्ल का नाम आत्मविश्वास है, प्रसन्नचित्त परिश्रम है। और इस भीतरी फॉलोअप के साथ अब बाहरी फॉलोअप करें। काम का काम होता रहेगा, मस्ती की मस्ती बनी रहेगी।

सुमिरन के जरिये ईश्वर से जुड़ें
कभी इस पर ध्यान दीजिएगा कि खाली वक्त में हम क्या सोच रहे होते हैं। हमारे चिंतन में कौन लोग रहते हैं। काम करते समय भी दिमाग में कुछ और चल रहा होता है। गाड़ी चलाते वक्त अनेक इंसान दिमाग में से गुजर रहे होते हैं। आप पाएंगे कि शायद ही कोई ऐसा वक्त होता होगा, जिसमें सिर्फ हम अपने बारे में सोचते हैं, खुद से ही जुड़ते हैं। जैसे ही हम खुद से बात करने के लिए भीतर उतरते हैं, हमारे साथ कई लोग आ जाते हैं। बाहर से अकेले होने का मतलब है केवल हमारा शरीर और आस-पास कोई न रहे, जबकि भीतर से अकेले होने का मतलब है हम अपनी आत्मा के पास बैठकर उसे जानने का प्रयास करें, लेकिन ऐसा कर नहीं पाते। फकीरों ने एक क्रिया बताई है- सुमिरन। हम न चाहते हुए भी दूसरों के बारे में सोचते हैं।

कुल-मिलाकर सोचना हमारी मजबूरी हो जाती है। सुमिरन का अर्थ है दो सिरे की डोरी। इसे आत्म-स्मरण भी कहा गया। दो सिरे की डोरी इसलिए कि इसके एक भाग पर हम स्वयं को लपेट लें और दूसरे सिरे पर परमात्मा को बांध लें। है मुश्किल काम, लेकिन करिएगा जरूर। बिना बंधे हम रह नहीं सकते। बाहर की स्थितियों और व्यक्तियों से हम बंधते ही रहते हैं। यह एक लत की तरह है, लग गई तो लग गई। नशा है, चढ़ गया तो चढ़ गया और इसीलिए खुद के साथ भगवान को बांध लें। अब एक तरफ परमात्मा हैं व दूसरी तरफ हम और हमारा शेष संसार। डोरी का एक सिरा दूसरे को जरूर प्रभावित करेगा। परमात्मा की उपस्थिति धीरे-धीरे हमें संसार से काटेगी और यहीं हम अपने आप से जुड़ेंगे, लोगों और परिस्थितियों के बिना। संसार से कटने का मतलब यह नहीं है कि संसार को छोड़ देना। जब चाहा जुड़े, जब चाहा कटे इसे कहेंगे सुमिरन।

ईश्वर से कीजिए गुरु की मांग
हम कितने ही हुनरमंद हों, सक्षम हों, लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी आ जाती हैं जो हमारी सीमा के पार रहती हैं। हम उनसे जूझ नहीं पाते तथा थकान और निराशा घेर लेती है। जैसे आप बहुत बड़े डॉक्टर, नौकरशाह या व्यवसायी हैं। खूब दक्ष हैं अपने काम में। बहुत प्रतिष्ठा है आपकी। आपको देखकर लोग कहते हैं ये चाहें जो कर सकते हैं, सफलता इनकी दास, अवसर इनके गुलाम हैं। धन हाथ का मैल है। किंतु आपके जीवन में कुछ अवसर ऐसे आते हैं, जब आपको लगता है कि हम कमजोर पड़ रहे हैं, किसी परमशक्ति की जरूरत है। खासतौर पर निजी जीवन में ऐसा हो जाता है। 

ऐसे में आप किसी को बता भी नहीं सकते, क्योंकि आप जी रहे होते हैं छवि में। ऐसी छवि जो जितनी आपने बनाई है उससे ज्यादा दूसरों ने आपके बारे में बना दी है। दो ही शक्तियां ऐसी हैं जो हमारी मदद करेंगी। परमात्मा की मदद लें, जिन्हें पाना आसान नहीं है। वरना परमात्मा ने हमें गुरु नामक सुलभ व्यवस्था दी है। जीवन में कोई गुरु अवश्य ढूंढ़ लें। यहां एक और समस्या आ सकती है कि यदि आप गुरु के सामने भिखारी की तरह गए तो हो सकता है सामने भी आपको भिखारी मिल जाए। और दो भिखारी जब आमने-सामने होंगे तो कोई क्या किसको देगा। इसलिए आप श्रद्धा बलवती करिए और परमात्मा से मांगिए कि जीवन में कोई गुरु भेज दे। हम ढूंढ़ेंगे तो चूक जरूर करेंगे। वह भेजेगा तो श्रेष्ठ ही होगा। तब गुरु हमारे लिए केवल मार्गदर्शक नहीं, अभिभावक भी बन जाएगा। उसकी रुचि न सिर्फ हमारी परेशानी से छुटकारा दिलाने में होगी, बल्कि हमें इस लायक बनाने में भी होगी कि जब कभी ऐसी स्थिति आए तो हम गुरु की अनुपस्थिति में भी सक्षम होकर निपट लेंगे, क्योंकि वह हमारे पास गुरुमंत्र छोड़ देता है।

परिवार से चर्चा में आत्मीयता हो
घर-परिवार में आपसी व्यवहार में वाणी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। बोलचाल के ढंग ने कई घरों को जोड़कर रखा और अनेक को तोड़ दिया। रिश्ते निभाने में शब्द अमृत भी बन सकते हैं और जहर भी। घर में बोले गए शब्द का बौद्धिक महत्व उतना नहीं है, जितना आत्मिक है। शब्दों में अक्ल भले ही न लगाएं, पर भावनाएं जरूर उड़ेलें, क्योंकि जब आप परिजनों से बात कर रहे होते हैं तो शब्दों के पीछे के अर्थ केवल शाब्दिक नहीं होते, उसमें अनुभूति भी होती है। आप हृदय से बोलें और सामने वाला हृदय से ही सुने। औपचारिकताओं का पुट कम से कम रखें। हमेशा सजग रहें कि हमारे शब्दों से दूसरा आनंदमय हो रहा है या नहीं। गपशप जरूर करें पर बकवास बिल्कुल न करें। यदि आप श्रोता हैं तो सामने वाले को महसूस होना चाहिए कि आप जागृत हैं। अनेक लोगों को श्रवण के अभिनय की शिकायत होती है।

अगर सुनने वाले से पूछें तो वह कहेगा बोलने वाला भी नाटक कर रहा है। केवल अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए शब्द फेंके जा रहे हैं। सुनने और बोलने के बीच में एक क्रिया और काम कर रही होती है, वह है खामोशी। कई बार आपको मौन धारण करना पड़ेगा, लेकिन ध्यान रखिए घरों में खामोशी भी खतरा बन सकती है। अत: हर खामोशी के पीछे बातचीत को पेंडिंग रखिए। अभी नहीं बोलेंगे या सुनेंगे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि खामोशी के साथ रिश्ते को पैक कर दिया है। केवल आगे बढ़ाया गया है। तनाव या विपरीत का समय गुजर जाए, फिर बातचीत शुरू हो जाएगी। घर-परिवार में बातचीत किसी भी हाल में बंद न करें, क्योंकि यही एक माध्यम है जो गलतफहमी बढ़ा भी सकता है और मिटा भी सकता है। गलतफहमी गृहस्थी के लिए धीमा जहर है।

धन कमाएं पर सेवाभाव भी हो
इन दिनों जिन शब्दों के अर्थ को लेकर खूब भ्रम फैला हुआ है उनमें से एक शब्द है सेवा। जैसा भ्रम प्रेम को लेकर है, ऐसा ही सेवा के साथ हुआ है। सेवा में यदि त्याग न हो, तो वह सौदा बन जाती है और सौदा हानि-लाभ पहले देखता है। आज जिन लोगों को सेवा करते हुए देखा जाता है वे ज्यादातर सौदा ही कर रहे हैं। समाजसेवा के क्षेत्र में अहंकार काम कर रहा है। राजनीति में निजहित की कामना समा गई है। घर-परिवार की सेवा में मजबूरी की गंध आ रही है। सेवा को सही समझना हो, तो भक्ति के माध्यम से समझा जा सकता है। शास्त्रों में भक्ति के नौ प्रकार बताए गए हैं। उन सभी में सेवा की प्रधानता है। जिन्हें सेवा करना हो उन्हें भक्त पहले होना चाहिए। 

पिछले दिनों एक बहुत बड़े समाजसेवक मुझे मिले थे। वे चिंता व्यक्त कर रहे थे कि नई पीढ़ी सेवा के क्षेत्र से गायब हो गई है। कोई सेवा नहीं करना चाहता। सब स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। पहले परिवार बड़े हुआ करते थे, तो घर के एक-दो सदस्यों को सेवा के लिए स्पेअर कर दिया जाता था। अब परिवार छोटे हो गए। सबको अपना-अपना कमाना है। सेवा के लिए जिस त्याग और दानवृत्ति की जरूरत थी वह मूलरूप से ही गायब है। जब त्याग और दान का भाव चला जाता है तो लोग अहंकार की भाषा बोलने लगते हैं। अहंकार की आदत होती है सिर्फ मैं बोलूंगा, बाकी सब श्रोता रहें। मैं बोलूंगा और सबको करना है और इसीलिए सेवा गायब हो जाती है। सेवा का मतलब है विनम्र होकर सामने वाले व्यक्ति या परिस्थिति के अनुसार काम करना है। हर हाल में ही सर्वहितकारी दृष्टिकोण। नई पीढ़ी का पहला लक्ष्य है धन कमाना जो होना भी चाहिए, लेकिन इसमें से जब सेवाभाव चला जाएगा, तो धन का भी दुरूपयोग होने लगेगा।

वैराग्य का सही अर्थ जानिए
वैराग्य शब्द भी बड़ा अनूठा है। भारतीय संस्कृति में जिन शब्दों की व्याख्या में लोग खूब भ्रम में पड़े हैं, उनमें से एक है वैराग्य। इसकी लोगों ने अपनी-अपनी व्याख्याएं कर रखी हैं। किसी ने कहा संपूर्ण त्याग का मतलब वैराग्य है। कोई कहता है अतिरिक्त संतोष वैराग्य है। किसी का मानना है अपना काम जितने में चल जाए, और अधिक की आकांक्षा न रहे, इसका नाम वैराग्य है। भजन-पूजन के क्षेत्र में तो इस शब्द को खूब उछाला जाता है। सुग्रीव भी ऐसा ही कर रहे थे। बात चल रही है किष्किंधा कांड की। सुग्रीव श्रीराम के सामने बालि का नाम लेकर वैराग्य की नई व्याख्या कर रहे थे। बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा।। हे श्रीरामजी, बालि तो मेरा परम हितकारी है जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मुझे मिले। अब प्रभु कृपा करहु एहि भांती। सब तजि भजनु करौं दिन राती।।सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहंसि रामु धुनपाती।। हे प्रभु, अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूं। सुग्रीव की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर हाथ में धनुष धारण करने वाले श्रीरामजी मुस्कुराकर बोले। यहां उनका हंसना बड़ा महत्वपूर्ण है। श्रीराम जैसे व्यक्ति किसी पर व्यंग्य नहीं करते, लेकिन जैसे बच्चे की नादानी पर माता-पिता को हंसी आ जाती है, ऐसे ही सुग्रीव के वैराग्य दर्शन को सुनकर श्रीराम मुस्कुरा दिए, क्योंकि यह क्षणिक वैराग्य था। इसको लोक भाषा में श्मशान वैराग्य भी कहते हैं। बहुत सारे लोगों को ऐसा ही घटता है। अपनी सुविधा से चीजों को छोड़ा तो वैराग्य नाम दे दिया। अपनी इच्छा से चीजों को प्राप्त कर लिया तो भी वैराग्य नाम दे दिया। आगे की पंक्तियों में श्रीराम वैराग्य की बड़ी सुंदर व्याख्या करेंगे, जो हमारे लिए बहुत काम की होंगी।

योग से मृत्यु भी आनंददायी
जन्म और मृत्यु किसी और के हाथ में है। आप चाहे इसे ईश्वर कह लें, माता-पिता या प्रकृति की घटना, लेकिन हमारे वश से बाहर है। हमारे हाथ में अगर कुछ है तो वह है जीवन। लेकिन अब तो जीवन पर भी अधिकार नहीं रह गया है। हम स्थितियों और व्यक्तियों से इतना बंध गए हैं कि बहुत कम लोग ही खुद की इच्छा से जीवन जी पाते हैं। कर्तव्य कहें या मजबूरी, जीवन का बड़ा हिस्सा दूसरों के लिए गुजर जाता है और एक दिन मृत्यु द्वार पर आ जाती है। मृत्यु पर हमारा वश नहीं चलता। तो क्या ऐसे ही समय बीत जाएगा। चलिए, एक प्रयोग किया जा सकता है। हम अपनी मृत्यु पर पूरा नियंत्रण रख सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब है मरते समय हम पूरी तरह होश में रहेंगे। इस समय कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा। हम और हमारी मृत्यु, जब इन दोनों के बीच कोई नहीं रहेगा, तब प्रवेश होता है परमात्मा का और परमात्मा के आते ही मृत्यु पर हमारा पूरा अधिकार हो जाएगा। इसे इच्छामृत्यु कहेंगे।

इच्छामृत्यु की कानूनी परिभाषा अलग है और आध्यात्मिक परिभाषा अलग। कानून इसे अपराध ठहराएगा, लेकिन अध्यात्म कहता है जिस दिन मृत्यु आए उस दिन मृत्यु से ज्यादा आपकी इच्छा काम करे। हम जिस तरह शरीर के कष्ट उठाते हैं, सुख भोगते हैं, हम भूल जाते हैं कि हमारे पास शरीर से हट कर उससे भी ऊंची स्थिति आत्मा है। जैसे ही हम आत्मा के निकट जाते हैं, हमारे लिए मृत्यु के अर्थ बदलने लग जाएंगे, क्योंकि मृत्यु का अधिकार शरीर पर है, आत्मा स्वतंत्र है। बात गहरी है, लेकिन समझ में आ जाए तो इच्छामृत्यु के अर्थ बदल जाएंगे। इसके लिए उम्र का कोई-सा भी दौर हो ध्यान जरूर करिए। मेडिटेशन करने वालों को मृत्यु किसी भी उम्र में आए, आनंद में कोई फर्क नहीं रहेगा।

शुरुआत विज्ञान के आधार पर करें
अप्राप्त को प्राप्त करने की तीव्र आशा हर मनुष्य की कमजोरी है। सभी को सब नहीं मिलता। जब हम पूरी ताकत लगाते हैं कि हमें कुछ मिल जाए और यदि नहीं मिलता है तब इस स्थिति को लोग अलग-अलग ढंग से लेते हैं। कुछ भाग्य से जोड़कर बैठ जाते हैं, कुछ अपनी कमजोरी मान लेते हैं और कुछ बहुत ज्यादा निराश हो जाते हैं। फिर शुरू होता है ईर्ष्या का काम। हमें मिला नहीं और जिनके पास है उसे देखकर हमारा मन मचलने लगता है। अनियंत्रित और मचलता हुआ मन दो काम करवाता है। ईर्ष्या हमें डुबोती है और गलत रास्ते पर ले जाती है। मन की रुचि तुलना में होती ही है। वह तर्क करता है। कई बार आज के दौर के लोगों को मन, हृदय और मस्तिष्क का फर्क समझ में नहीं आता। मन वैज्ञानिक की तरह है, हृदय ऋषि की तरह है और मस्तिष्क इन दोनों से संचालित होकर सामान्य मनुष्य की तरह काम करता है।

विज्ञान का आरंभ भी संदेह से होता है। विज्ञान चीजों को तोड़कर देखता है। जब तक उसे प्रमाण नहीं मिल जाए, तब तक गहराई में उतरता जाता है। मन यही करता है। हृदय ऋषि की तरह होता है। वह वैज्ञानिक की तरह संदेह से शुरुआत नहीं करता। ऋषि श्रद्धा और विश्वास से अपना काम आरंभ करते हैं। इसलिए मिले तो संतोष, न मिले तो संतोष, यह ऋषि की प्रणाली है। इसमें ईर्ष्या का भाव नहीं है। यह पूरी तरह विश्वास पर टिका है और वहां शुरुआत संदेह से होती है। इसलिए जब हम दुनिया में कोई चीज प्राप्त करना चाहें तो शुरुआत बेशक विज्ञान के आधार पर करें, लेकिन न मिलने पर या मिल जाने पर फिर ऋषि प्रणाली अपनाई जाए। भरोसा रखिए, नहीं मिला है तो विचलित न हों। और मिल जाए तो अहंकार में न डूब जाएं। हृदय पूरी तरह प्रेमपूर्ण होता है, वह भरोसे में जीता है।

अहंकार में न बदले आत्मविश्वास
खुद पर भरोसा अच्छी बात है। जब तक यह आत्मविश्वास का मामला होगा हितकारी रहेगा, लेकिन आत्मविश्वास को अहंकार में बदलने में देर नहीं लगती। जिन्हें अपने अलावा भगवान पर भरोसा है वे आस्तिक हैं और जिन्हें अपने ऊपर जरूरत से ज्यादा भरोसा है, वे नास्तिक कहलाते हैं। किंतु संभव है कि ये नैतिक हो और आस्तिक अनैतिक, इसलिए हम अहंकार को आधार बनाकर बात कर रहे हैं। अपने ऊपर ज्यादा भरोसा करने से अहंकार आएगा ही। नास्तिक कहते हैं परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं होता। ऐसे लोग प्रकृति में चार तत्व की कल्पना करते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। इनका मानना है कि इन चार तत्वों से हम जो चाहें वसूल कर सकते हैं। आस्तिक जब सफलता की यात्रा पर निकलते हैं, तो कहते हैं, हमें भी इन चार तत्वों के सहारे सफल होना है, लेकिन वे पांचवां तत्व और जोड़ देते हैं।

उसका नाम है आकाश। इन लोगों ने एक क्रम निर्धारित किया है। सबसे पहले परमात्मा, फिर आकाश, आकाश से वायु, फिर वायु से अग्नि, फिर अग्नि से जल, फिर जल से पृथ्वी। और इसका संचालन कर रहा है ईश्वर। यह पांचों उसी की झलक हैं। सच्चा आस्तिक कहता है, ‘मैं माध्यम हूं, करवाने तथा देने वाला कोई और है।तब आत्मविश्वास कर्म के लिए प्रेरणा स्रोत हो सकता है, लेकिन अहंकार का कारण नहीं बनेगा। नास्तिकों के साथ खतरा यह है कि आत्मविश्वास उनके पास भी वही है। प्रकृति का यह लोग भी वैसा ही उपयोग कर रहे हैं, लेकिन इन्हें अहंकार आएगा ही और अहंकार धीरे-धीरे अशांति में बदलता है, इसलिए नास्तिक जल्दी अशांत होंगे। यदि आस्तिक अशांत हो रहे हैं तो उन्हें अपनी आस्तिकता की शुद्धता की परीक्षा कर लेना चाहिए।

बाहर-भीतर जोड़ती हैं आंखें
किसी को दिल की गहराई से महसूस करना हो तो उसके लिए आंखें बड़ी मदद करती हैं। मनुष्य शरीर की इंद्रियों में आंखें मुकुट की तरह हैं। परमात्मा ने आंसू निकलने के लिए ही आंखों का उपयोग किया, जो सुख और दुख दोनों में निकल आते हैं। भगवान के सामने यदि आप खड़े हों और परेशान हों तो आंसू निकल आते हैं। धन्यवाद देने गए हों तब भी अश्रु प्रवाहित होने लगते हैं। हृदय अपनी अभिव्यक्ति इन्हीं के माध्यम से करता है, इसीलिए आंखों का बहुत अच्छा उपयोग करना सीखिए। आनंद के क्षणों में जब हम नेत्र बंद कर लेते हैं तो इसका मतलब है अपने से जुड़ने का प्रयास करते हैं। किसी भी मनुष्य में और किसी अंग में दोष आ जाए या कमी रह जाए तो हमें उतनी दया नहीं आती, लेकिन जब हम किसी नेत्रहीन को देखते हैं तो लगता है इसके लिए दुनिया है ही नहीं।

सिर्फ इस इंद्रिय में संभावना है कि वह बाहर और भीतर दोनों तरफ से मदद करती है। जब आप बाहर देख रहे होते हैं तो यह सिर्फ आंख है और भीतर उतरते ही चक्षु बन जाती है। बाहर यह दृश्यों से जुड़ती और भीतर चेतना से संबंध बना लेती है। अध्यात्म में आंख को लेकर एक सुंदर शब्द कहा गया है और वह है दृष्टा। श्री हनुमान चालीसा में एक चौपाई आई है - जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। पढ़ा आंख से ही जा सकता है। बोला या सुना नहीं लिखा है। परमात्मा का सबसे सुंदर स्वाद देखने में ही है यानी दृष्टा होने में। मनुष्य की भावदशा का झरोखा है आंख। एक प्रयोग करिएगा। जब कभी आप बेचैन हों, आंखों के ऊपर बंद होती और खुलती पलकों पर टिक जाइए। अभी पलकें खुद उठती हैं और खुद गिरती हैं। आपका इसमें कोई योगदान नहीं होता। अब आप करने लगें और बहुत धीरे-धीरे करिए। थोड़ी देर में शांति महसूस करेंगे।

शास्त्रों का पढ़ा व्यर्थ नहीं जाता
शास्त्रों में जो कुछ भी लिखा होता है क्या वह सदैव सही होता है। तर्क और विज्ञान की कसौटी पर धर्म को कसने वालों के मन में यह सवाल जरूर उठता है। धर्म के मामले में ज्यादातर लोग शास्त्रों को प्रमाण मानते हैं। शास्त्र में लिखा उनके लिए ब्रह्मवाक्य है। किंतु एक वर्ग ऐसा भी है जो कहता है कि यदि शास्त्रों में लिखी हर बात सही है तो जो बात शास्त्रों में नहीं लिखी है क्या वह गलत हो जाएगी। यह भी संभव है कि शास्त्रों में लिखा उस काल में सही हो। आज के दौर में शायद वह बात उतनी सही न बैठे, इसीलिए ऐसा भी देखा गया है कि किसी एक प्रसंग पर एक ही लेखक ने जब उसका वर्णन दो अलग-अलग शास्त्रों में किया, तो कथानक बदल गया। विद्वानों का तर्क है कि लेखक की मानसिक स्थिति लिखते समय अलग रही होगी। जाहिर है शास्त्रों पर पूरी तरह से रुका नहीं जा सकता।

हमें जीवन-यात्रा के दौरान अनुभव में आई स्थितियों को भी समझना चाहिए, क्योंकि समय के साथ मनुष्य के चिंतन में बदलाव आता जा रहा है, इसलिए शास्त्र को निर्णायक न माना जाए। किंतु उसके प्रभाव को नकारा भी नहीं जा सकता। साहित्य पर विश्वास करने में कोई बुराई नहीं है। उसकी अनुभूति नुकसानदायक भी नहीं है। जैसे अश्लील साहित्य पढ़ा जाता है तो वह भी अपना प्रभाव छोड़ता है। उसके शब्द उत्तेजना, क्रोध और काफी हद तक अपराध की ओर प्रेरित कर सकते हैं। पहले के जमाने में साहित्य में अश्लीलता दुभर थी। अब आंखों को ऐसे दृश्य और शब्द आसानी से मिल जाते हैं, इसीलिए मानसिक पतन की आशंका बढ़ गई है। अत: हर आदमी को कोई एक पुरानी पुस्तक जो किसी भी धर्म की हो, जीवन में जरूर पढ़नी चाहिए। पढ़ा हुआ असर करता ही है और वह व्यर्थ नहीं जाएगा।

विवाह का लाभ-हानि से संबंध नहीं
विवाह किया जाए या नहीं, पुराने समय से यह बहस का विषय रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि विवाह के पश्चात दुख के दिन आरंभ हो जाते हैं, लेकिन जिन्होंने विवाह नहीं किया, जरूरी नहीं है कि उनको भी सुख प्राप्त हो जाए। यदि आदमी सुख और दुख के समीकरण से विवाह करने की सोच रहा है, तो वह एक गलत निर्णय होगा। इन दिनों समाज में जब लिव-इन-रिलेशन की चर्चा चल रही है तो विवाह जैसी संस्था के पक्ष और विपक्ष में खुलकर चर्चा होनी चाहिए। अगर नई पीढ़ी के बच्चे विवाह का गलत अर्थ निकाल लेंगे तो परिवार के ढांचे में बहुत बड़ी दरार आएगी। भारत में विवाह का मतलब स्त्री-पुरुष के देह मिलन की घटना नहीं है। भारत की संस्कृति कहती है कि विवाह में जब स्त्री-पुरुष पति-पत्नी का संबंध स्वीकार करते हैं, तो इसका महत्व यह है कि कुछ समय बाद उनको माता-पिता बनना है। यदि विवाह जैसा बंधन संस्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो माता-पिता का भाव भी स्त्री-पुरुष में नहीं आएगा। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष को एक साथ रहने का अवसर तो दे देगी, लेकिन उनके भीतर माता-पिता बनने की संभावना को खत्म कर देगी। 

ऋषि-मुनियों ने विवाह की परंपरा स्त्री जाति की रक्षा की दृष्टि से भी गठित की थी। विवाह यदि लंबे समय के लिए है तो स्त्री सुरक्षित रहेगी और यदि छोटे समय के लिए है तो पुरुष का सुख अधिक होगा। लिव-इन-रिलेशनशिप छोटे समय का विवाह है। इसमें आगे-पीछे औरत को ही दुख उठाना है। संस्कार के रूप में विवाह करने से स्त्री अधिक सुरक्षित है। यदि इस समय ठीक से विचार नहीं किया गया तो नई पीढ़ी के बच्चे केवल आदमी और औरत होकर अपना वैवाहिक जीवन शुरू करेंगे और इसी पर जीवन खत्म हो जाएगा।

गलत व्यक्ति से दूर रहें तो बेहतर
क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया है कि अापके निकट आने वाले लोगों की कितनी जानकारी आपको है। पांच तरह से लोग आपके जीवन में प्रवेश करते हैं। वे जो सिर्फ टाइमपास करने के लिए आपसे जुड़े हैं। ‌िफर वे जो सचमुच आपके लिए कुछ करना चाहते हैं। तीसरे वे जो आपका सहारा बन सकते हैं या बने हुए हैं। चौथे वे लोग जो आपके मार्गदर्शक होंगे। पांचवें, वे जिन्हें अाप सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए अपने से जोड़कर रखते हैं। आप जानते हैं कि वे सिर्फ इसलिए अच्छे लगते हैं कि जब भी आप कुछ कहते हैं वे तसल्ली से सुनते हैं। अब ऐसे लोगों की सूची बनाइए और सबसे पहले इस बात पर गौर करिए कि इस तरह के लोग यदि आपसे जुड़े हैं तो क्या आपके पास उनकी व्यक्तिगत जानकारी है। उनका निजी आचरण कैसा है, इस पर पैनी नजर रखिएगा।

यदि आप उनसे रिश्ता नहीं तोड़ना चाहते और व्यक्तिगत आचरण में उनमें दोष है तो आप तुरंत वह दोष दूर करने में जुट जाइए। आपको उन्हें सुधारना होगा, लेकिन यदि आप संबंध विच्छेद कर सकते हों, तो गलत लोगों से तुरंत दूरी बना लीजिए। भले ही वे कितने ही प्रतिभाशाली और योग्य हों, लेकिन गलत, गलत ही होता है। प्रतिभाशाली व्यक्ति जब गलत मार्ग पर जाता है तो सामान्य से भी ज्यादा घातक हो जाता है। हमने उससे संबंध इसीलिए बनाए कि वे योग्य हैं, आपके लिए उपयोगी हैं। अगर वे भीतर से गलत आचरण कर रहे हैं, तो जितना फायदा आप उठा चुके हैं या उठाने वाले हैं, आप उससे भी बड़े नुकसान की तैयारी कर रहे हैं। उनका गलत आचरण आपके लिए महंगा साबित हो सकता है। इसलिए सीधी-सी बात है, जिनसे भी संबंध रखें उनके व्यक्तिगत आचरण की जानकारी जरूर रखी जाए।

परमात्मा के संकेत को समझिए
हमारी सामर्थ्य के बाहर परमात्मा की सीमा आरंभ होती है। जब कभी जीवन में ऐसा मौका आए कि अपने से अधिक सक्षम और बलशाली से मुकाबला करना हो, तो अपनी सारी ताकत जरूर झोंकनी चाहिए, लेकिन साथ में परमात्मा की कृपा बनी रहे यह भाव जरूर बनाइए। रामकथा का प्रसंग है, भाई बालि से परेशान सुग्रीव श्रीराम से मैत्री कर चुके थे। श्रीराम ने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा, जाओ बालि से युद्ध करो। 
इसी भरोसे में सुग्रीव अपने बड़े भाई बालि से भिड़ जाते हैं, लेकिन बालि सुग्रीव की जमकर पिटाई करता है। सुग्रीव भगवान के पास आकर कहते हैं, आपने तो कहा था, मेरी रक्षा करेंगे। लेकिन जब बालि मुझे मार रहा था, तब आपने धनुष-बाण नहीं उठाए। इस पर जो बात श्रीराम ने उस समय कही, वह हमारे भी बड़े काम की है। श्रीराम कहते हैं- सुग्रीव, दूर से तुम और तुम्हारा भाई एक जैसे दिखते हो, तो मेरे सामने समस्या यह थी कि अगर मैं तीर चलाऊं और वह तुमको लग गया ताे? इसका एक आध्यात्मिक अर्थ भी है। भगवान कह रहे हैं कि अच्छे और बुरे का भेद बनाकर रखो, ताकि मुझे समझ में तो आए कि कौन मेरा है और कौन नहीं। मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला। तब श्रीराम ने सुग्रीव के गले में फूलों की माला डालकर फिर बालि से युद्ध के लिए भेजा। सुग्रीव के गले में माला डालकर भगवान ने बालि को भी संदेश दिया कि सावधान हो जाओ, सुग्रीव अब मुझसे संरक्षित है। बालि ने गलती की कि वह भगवान की भाषा समझ नहीं पाया। हमारे जीवन में भी कई बार परमात्मा अपने संकेत हमें भेजता है और हम बालि की तरह अहंकार में डूबे होने के कारण संकेतों को समझ नहीं पाते और परिणाम में बालि की तरह दंडित हो जाते हैं।

अपनी क्षमता को खुद पहचानें
कहते हैं लिमिट जब भी क्रॉस की जाएगी नुकसान होकर रहेगा। शरीर के सुख को भी जब अति से जोड़ेंगे तो वह भोग रोग बन जाएंगे। धन की अति भी दुख का कारण हो जाएगी। अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि अति की क्या सीमा है। हरेक के लिए अति की सीमा अलग-अलग हो जाती है। जैसे कोई दो रोटी खाकर भूखा रहता है और कोई दो रोटी खाकर बीमार भी हो जाता है। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि हमारी सीमा क्या है। हमारी सीमा तय होगी हमारी क्षमता से और अपनी क्षमता को हमारी उपयोगिता से जोड़ना चाहिए।

सीधी भाषा में कहें कि हमारे लिए जो आवश्यक है उतना प्राप्त करने के लिए पूरी ताकत लगाई जाए, लेकिन हम अनावश्यक को प्राप्त करने में ताकत लगाते हैं। यहां से अति शुरू हो जाती है। इन दोनों का तालमेल यदि बैठ जाए तो न हम अपनी अति को क्रॉस करेंगे और न ही लिमिट के नीचे आलसी हो जाएंगे। अध्यात्म में एक शब्द है माया। माया वह होती है जो संसार रचती है, पर किसी को दिखती नहीं और यदि किसी को माया दिख जाए तो समझ लीजिए वह माया नहीं कुछ और ही मामला होगा। संसार में कुछ ऐसा भी है जो दिखता है पर होता नहीं है। हमारी जो क्षमता है, हमारी जो आवश्यकताएं हैं वे कभी-कभी माया की तरह हो जाती हैं। दिख रही हैं, पर होती नहीं और होती हैं पर दिखती नहीं हैं। अपनी क्षमता को जानने के लिए अपने से जुड़ना जरूरी है।

हम ज्यादातर मौकों पर दूसरों से तय कराते हैं कि हम कितने सक्षम हैं। कोई हमें प्रेरित करता है तब हम कुछ कर पाते हैं। इसका मतलब हुआ कि दूसरे हमें सक्षम बना रहे हैं, जबकि हमें अपनी क्षमता को खुद पहचानें। जो भी करें अपनी सीमाओं में करें। अति बिलकुल न करें। अति के नुकसान की भरपाई कोई नहीं कर पाता।

मन पर नियंत्रण करना जरूरी
बहुत कम लोग होते हैं जो स्वीकार करते हैं कि हमारे मन में गलत बातें चलती रहती हैं। गलत बात का मतलब केवल वासना या शरीर के दुष्कर्म ही नहीं हैं। बहुत से लोग तो यह भी नहीं समझ पाते कि मन होता क्या है। वे इसी में परेशान रहते हैं कि हम भीतर से ऐसे नहीं हैं जैसे बाहर से दिखते हैं। तो क्या सारी जिंदगी इसी उलझन में बिता दी जाए। हमें अपने मन को पकड़ना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। जिस दिन मन समझ में आ जाए, उसी दिन से उसका नियंत्रण शुरू हो जाता है। जैसे कोई छात्र पीएचडी करते समय किसी विषय का अध्ययन करता है, शोध करता है। ऐसे ही हमारे भीतर मन की बहुत ही सूक्ष्म स्टडी करनी होगी।

मन को देखने का एक तरीका है। शांत बैठ जाइए। यदि एक भी विचार चला तो मन पकड़ में नहीं आएगा। विचारशून्य होकर बैठिए। जितना अधिक विचारशून्य बैठेंगे उतनी ही जल्दी मन पकड़ में आ जाएगा। सोचिए कि आप नदी किनारे बैठे हैं और जल बिलकुल शांत है। आपने एक पत्थर जल में फेंका, तो जल की तरंगें फैल गईं। जैसे ही पत्थर डूबा, तरंगें सिकुड़ीं और जल वापस वैसा ही हो गया। बस, मन ऐसा ही है। वह तरंगों के रूप में फैलता है और सिकुड़ जाता है। यदि आप मन का फैलाव और सिकुड़ना देख लें तो वह पकड़ में आ जाएगा। यहीं से आपका दोहरा व्यक्तित्व समाप्त होने लगेगा। मीरा ने इस मन के लिए बड़ी आक्रामक पंक्ति लिखी हैं। एक जगह वे लिखती हैं - यो मन मेरो बड़ो हरामी।यहां हरामी शब्द का अर्थ है धोखेबाज। कभी कुछ सोचेगा तो कभी कुछ। इसका नियंत्रण बस इसी में है कि इसके फैलाव को देखो, इसका सिकुड़ना देखो। थोड़ा सा विचारशून्य हो जाइए, मन पकड़ में आ जाएगा और जीवन की बहुत बड़ी समस्या का निदान निकल आएगा।

सही समय पर योग्य वारिस चुनें
पिछले दिनों संत समाज में एक देखने, सोचने और समझने वाली घटना घटी। सबकुछ साधु-कृत्य था लेकिन मामला संपत्ति से जुड़ा है, इसलिए गृहस्थों के लिए एक बड़ा संदेश बन गया। दायित्व प्रदान उत्सव में सत्यमित्रानंदगिरिजी ने अपनी संस्थाओं के सारे दायित्व अवधेशानंदगिरिजी को सौंप दिए। इस समय भारत की संन्यास परंपरा के वरिष्ठ, श्रेष्ठ और मान्य पुरुष हैं सत्यमित्रानंदगिरिजी। अपनी जीवन यात्रा में उन्होंने सभी को अपने आचरण से स्पष्ट संदेश दिया है कि संपत्ति यदि परमात्मा के मार्ग में सहयोगी हो, तो उसका भी सात्विक संचय किया जा सकता है।

संपत्ति का वारिस तो मिल सकता है, लेकिन एक संन्यासी के पुरुषार्थ से अर्जित संसार का दायित्व किसे दिया जाए, यह मंथन भी सत्यमित्रानंदजी के भीतर हुआ होगा। उनके विचार सही जगह जाकर रुकना ही थे और वे रुके अवधेशानंदगिरिजी पर। जिस संपत्ति और संस्था के सत्य का सत्यमित्रानंदजी ने जो सृजन किया उसके अस्तित्व को अवधेशानंदजी और परिष्कृत रूप में गति देंगे, इसमें लेश-मात्र संदेह नहीं है। श्रेष्ठ अब सर्वश्रेष्ठ बनने जा रहा है। इसे केवल बाबाओं की बातों की अदला-बदली न समझा जाए।

संसारभर के गृहस्थों के लिए संदेश है कि परिवार में विरासत सही ढंग से समय रहते योग्य को सौंप दी जाए। किसे कितना योग्य मानें, यह बहुत बड़ी परीक्षा होती है। सम्पत्ति यदि योग्य व्यक्ति के हाथ न जाए, तो दान, भोग और नाश की तीन गतियों के अनुसार उसका परिणाम आना है। आज भारतीय परिवारों में टूटन-बिखराव का एक कारण विरासत का सही ढंग से स्थानांतरण नहीं होना भी है। इन दोनों संतों के आचरण से परिवार बचाने का यह प्रबंधन सूत्र लिया ही जा सकता है।

परमात्मा पर भरोसा बनाए रखें
जीवन में संघर्ष के अवसरों पर जब हम अपनी पूरी ताकत लगा चुके होते हैं तब परमशक्ति अज्ञात रूप से हमरीमदद कर रही होती है। हमारी सीमा के बाद फिर उसका प्रवेश होता है। किष्किंधा कांड में एक प्रसंग आता है किश्रीराम ने प्रेरणा देकर सुग्रीव को बालि से युद्ध करने के लिए भेजा था। एक बार पिटकर भगवान के पास आ चुका था और श्रीराम ने कहा था इस बार मैं तेरी रक्षा करूंगा। गले में माला भी डाल दी। यहां एक पंक्ति लिखी है तुलसीदासजी ने जिसके अनुसार सुग्रीव ने बालि से युद्ध करते समय अपना छल और बल दोनों उपयोग में लिए। यह मनुष्य का सहज स्वभाव है।

जब जीतना ही हैकी जिद पर उतर आता है तो कुछ न कुछ छल जरूर करता है जो सुग्रीव ने भी किया होगा, लेकिन बालि के सामने उसकी एक न चली तो उसने हृदय से हार मानी। जैसे ही वह हृदय पर उतरा, परमात्मा समझ गए इसकी सीमा पूरी हुई, मुझे प्रवेश लेना ही होगा। बहु छल बल सुग्रीव कर हियं हारा भय मानि। मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।। सुग्रीव ने बहुत से छलबल किए, किंतु अंत में भय मानकर हृदय से हार गया। तब श्रीराम ने तानकर बालि के हृदय में बाण मारा। बालि को भ्रम होना निश्चित था और दूसरी बात बालि के कारण संसार को भी यह प्रश्न मन में आ सकता है कि श्रीराम ने छुपकर मारा।

श्रीराम कभी किसी को भ्रम में नहीं रखते, इसीलिए वे बालि को मारने के बाद उसके पास पहुंचे। वे बालि पर भी समान रूप से दया करना चाहते थे। उनका मानना था कि मेरा तीर लगने के बाद अब बालि वह नहीं रहा जो पहले अवगुणों के साथ था। हम यदि सुग्रीव की तरह हैं तो भरोसा न छोड़ें और यदि बालि की जगह हैं तो भी विश्वास रखें। हमारी गलतियों पर परमात्मा पूरी तरह सही में उत्तर देगा।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष


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