Thursday, April 9, 2015

Jeene Ki Rah4 (जीने की राह)

अपने भीतर सद्‌विचार उतारें
कई बार हम विचार करते हैं कि अपनी कुछ आदतों को बदल डालेंगे। कुछ आदतें ऐसी होती हैं, जिनके बारे में दूसरे लोग जानते हैं और हमें टोकते रहते हैं, लेकिन कुछ गलत आदतें ऐसी भी होती हैं, जिनके बारे में केवल हम ही जानते हैं। ऐसी आदतें बदलने में बहुत झंझट होती है। हमारा बाहर का वातावरण हमारे स्वभाव में परिवर्तन के लिए बड़ा उपयोगी होता है। वातावरण बदलने का मतलब है अपने आचार-विचार को बदलना। यदि आप आचार-विचार बदलना चाहते हैं तो सबसे सरल काम है अच्छे लोगों की संगत में उठना-बैठना शुरू कर दीजिए। हमारा मन हमें सत्संग से रोकेगा, क्योंकि उसे कुसंग पसंद है।

अच्छे व्यक्तियों का संग करने में परेशानी हो तो अच्छी किताबें पढ़ना शुरू कर दीजिए। सद्‌विचार प्रतिदिन हमारे भीतर उतरेंगे। पुस्तक को लगातार न पढ़ें। जैसे दिनभर में हम बीच-बीच में पानी पीते रहते हैं, ऐसे ही दिन में जब समय मिले कुछ अच्छे पन्ने पढ़ लीजिए। हमारे मन-मस्तिष्क में विचार लगातार चलते रहते हैं। विचारशून्य होना ध्यान की अवस्था है। जब हम अच्छी पुस्तक पढ़ते हैं या अच्छे लोगों की संगत में बैठते हैं तब इस बात की गुंजाइश बढ़ जाती है कि हम भीतर आ रहे विचारों का निरीक्षण कर सकें कि क्या शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित उतर रहा है। एक तरह से यह स्वनिर्मित चैकपोस्ट होगी। किन विचारों को भीतर जाना चाहिए और किन्हें रोकना है, इसका विवेक धीरे-धीरे जाग जाएगा। आप समझने लगेंगे कि व्यर्थ विचार भीतर जाकर किस तरह का नुकसान पहुंचाते हैं। जो ऊर्जा किसी रचनात्मक कार्य में काम आ सकती है वह फालतु के सोच-विचार में खप जाती है, इसलिए दिनभर में किसी अच्छी पुस्तक को थोड़ा-थोड़ा पीते रहिए।

दोस्ती आसान, निभाना कठिन
दोस्ती दुनिया में एक बड़ी जिम्मेदारी का नाम है। मित्रता करना आसान है और निभाना उतना ही कठिन। मित्र, मित्र से अपेक्षा करे यह तो स्वाभाविक है। यदि आप सक्षम हैं तो अपने मित्र की मदद करना आपका धर्म बन जाता है। अब तो समय का इतना अभाव हो गया है कि लोगों के पास दुश्मनी के लिए भी वक्त नहीं है तो दोस्ती के लिए वक्त कहां से लाया जाए, इसलिए लोग सिर्फ संबंध बनाते हैं। जिसे आज दोस्ती का नाम दिया जा रहा है वह तो सौदेबाजी को अपनेपन का जामा पहनाने का काम है। चलिए, किष्किंधा कांड में दो मित्रों के आचरण को देखें। हनुमानजी के माध्यम से सुग्रीव श्रीराम के मित्र बन चुके थे। रामजी ने जब उनकी पीड़ा सुनी तो अपने मित्र के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए थोड़ी अतिश्योक्तिपूर्ण बात कह दी। सुनु सुग्रीव मारिहउं बालिहि एकहिं बान। ब्रह्म रुद्र सरनागत गएं न उबरिहिं प्रान।। उन्होंने कहा - हे, सुग्रीव सुनो। मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूंगा। ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे। यह सुग्रीव के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए था। आगे श्रीराम ने मित्रता के छह लक्षण बताए हैं। आज हम लोगों के लिए यह संदेश बड़े काम का है, जब अधिकांश लोग दोस्ती निभाने से मुंह चुरा रहे हों। श्रीराम ने कहा था - जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी। निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।। जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जानें।

जानकारी को परेशानी न बनाएं
बहुत जानकारियां दिमाग में भरने से दिमाग भी थक जाता है। जैसे थके हुए लोगों को चलने में दिक्कत होती है ऐसे ही थका हुआ मस्तिष्क भी अपनी चाल बिगाड़ लेता है। आजकल कम्प्यूटर ने जानकारी बटोरना बहुत आसान कर दिया है। मैंने अनेक लोग देखे हैं, जो बीमार हो जाए तो उसकी स्टडी में लग जाते हैं। फिर या तो डॉक्टर को मूर्ख मान लेते हैं या खुद को परेशान कर लेते हैं। जानकारी मिल गई, पर ज्ञान अधूरा ही रहा, इसलिए यदि कम परेशान न होना हो तो सबकुछ समझने की कोशिश न करें। जिसे देखो वह विज्ञान को क्रीम की तरह चुपड़ने के चक्कर में है।

इस दुनिया में बहुत कुछ हमारी कल्पना से परे है उसमें खुद को व्यर्थ न कुदाएं। वरना अपना चैन बिगड़ जाएगा। कई बार ऐसा होता है कि हमसे संबंधित व्यक्ति, स्थिति और वस्तु अचानक अजीब व्यवहार करने लगते हैं। हम जुट जाते हैं उसके रिसर्च में कि ऐसा क्यों हुआ। छोड़िए, कुछ चीजों को होने दीजिए। कुदरत अपना काम कर रही है। हमारी अच्छी-खासी चलती गाड़ी अचानक बंद हो जाती है। अब हम उस गाड़ी के इंजन में घुुसकर रिसर्च करें कि ऐसा क्यों हुआ। परिचित व्यक्ति अचानक ऐसा व्यवहार कर जाता है, जिसकी कल्पना नहीं रहती और हम जुट जाते हैं उसके डीएनए टेस्ट में। कोई परिस्थिति जिसकी हमने उम्मीद नहीं की, अचानक बदल जाती है और हम भाग्य तथा भगवान को ढूंढ़ने लगते हैं, कोसने लगते हैं। जिंदगी एक पसरी हुई पहेली है। एक छोर पकड़ेंगे, दूसरा फिसल जाएगा। होने दीजिए कुछ बातों को। आप उत्सुकता बनाए रखें, संतोष भीतर उतारें और कुछ नया करने का उत्साह कभी न खोएं। जो होगा, अच्छा ही होगा। यह भरोसा जीवन में स्वाद भर देता है।

संतान के गुणों को पहचानिए
अपने बच्चे सभी को प्यारे लगते हैं। ईमानदार मां-बाप उनका भविष्य संवारने के लिए उनकी गलतियों और कमजोरियों के प्रति सख्त होते हैं। अगर इसमें भी लाड़ आड़े आ गया तो पूरे वंश का नुकसान है। हम इसलिए लगातार देखते रहते हैं कि कहीं यह कोई गड़बड़ न कर दे पर इसमें एक भूल हो जाती है। वह यह कि हमारे बच्चों में कुछ नैसर्गिक गुण होते है, जिनकी हम इस अतिरिक्त चौकन्नेपन के कारण अनदेखी कर जाते हैं। ये बातें बड़ी छोटी-छोटी होती हैं। पकड़िए हमारे बच्चे किन चीजों में दक्ष हैं। कोई अंताक्षरी बहुत अच्छी खेलता है।

उसके मुंह से गाने के बोल फूल की तरह झरते हैं। कोई पहेलियां बहुत अच्छी बुझाता है। कुछ बच्चे टेलीफोन नंबर और पता याद रखने में कमाल करते हैं। किसी को एक बार रास्ता बता दो तो दुबारा भूलता नहीं। जब बड़े कोई बात भूल जाएं तो कुछ बच्चे उन्हें तुरंत भूली हुई बात याद दिला देते हैं, यानी याद दिलाने में माहिर होते हैं, इसलिए पढ़ाई-लिखाई से हटकर उनकी कुछ ऐसी खूबियां हैं जिन पर हमें नजर रखना चाहिए। अगर बच्चा अन्य संतानों से बड़ा है तो उसकी गंभीरता को तराशें और यदि सबसे छोटा है तो उसकी मौज को पनपने दें। ये दोनों ही कुदरत की देन होती हैं, इसलिए हमारी अतिरिक्त जागरूकता में उनकी नैसर्गिक शक्ति का दमन न हो जाए। यह भी पूजा-पाठ का ही एक हिस्सा होगा कि आप चौबीस घंटे में कुछ समय दूर से अपने बच्चों की हरकतों को देखिएगा और पढ़ाई-लिखाई से हटकर यदि वेे कोई अनूठा काम करें तो उसे योजनाबद्ध तरीके से उसकी खूबी में बदलिए। उसे तराशने का भरपूर मौका दीजिए। अन्यथा ऐसी योग्यता स्वत: विसर्जित हो जाएगी तथा हम और वह बच्चा भविष्य में एक साथ पछताएंगे।

स्वाध्याय से मिलती है शांति
शिक्षा का केवल यही अर्थ नहीं है कि आदमी दो वक्त की रोटी कमाने के लायक हो जाए। धन तो बिना पढ़े-लिखे लोगों के जीवन में भी आ जाता है। दरअसल शिक्षा से मनुष्य पशु जैसी स्थिति से बाहर निकलकर मनुष्य बन जाता है। शास्त्रों कहा गया है कि विद्या मनुष्य का मानसिक संस्कार करती है। शिक्षा अर्जित करने के लिए विषय, परिश्रम और एकाग्रता की जरूरत पड़ती है। जिस संस्थान में आप शिक्षित हो रहे हैं उसका भी महत्व होता है। अच्छी शिक्षा के लिए ये चार बातें जरूरी हैं, लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती।

शिक्षा के साथ स्वाध्याय को जोड़ना पड़ेगा। बच्चों को समझाना होगा कि जितनी आवश्यक शिक्षा है उतना ही जरूरी है स्वाध्याय को समझना। स्वाध्याय का सीधा अर्थ होता है स्वयं का अध्ययन। इसे आत्म-शिक्षण भी कहते हैं। इसमें चिंतन, मनन और अध्ययन तीन बातें आती हैं। शिक्षा के साथ ये तीन बातें जुड़ जाएं तो जो सफलता हाथ लगती है वह बहुत दृढ़ होती है। शिक्षा पूर्ण ही तब होगी जब मनुष्य स्वाध्याय से गुजरेगा। शिक्षा यदि परिश्रम है तो स्वाध्याय तप है। शिक्षा यदि सुख और सफलता प्रदान करती है तो स्वाध्याय धैर्य और शांति देगा। शिक्षा हमें उन केंद्रों पर ले जाती है जहां मनुष्य की सफलता के सूत्र बसे हुए हैं। स्वाध्याय हमें वासनाओं की जड़ों तक ले जाएगा। आज के समय में स्वाध्याय इसलिए भी आवश्यक है कि जो लोग समय के उपयोग के मामले में गड़बड़ा रहे हैं वे यह मान लेते हैं कि एक विद्यार्थी के पास पढ़ने-लिखने के अलावा जो समय बचा है वह मौज-मस्ती में बिताया जाए, लेकिन थोड़ा समय भी स्वाध्याय को दिया तो शिक्षा के साथ अन्य गतिविधियों के संतुलन के लिए समय की समझ आसानी से आ जाएगी।

मित्रता भी संपत्ति की तरह है
मनुष्य जीवन में मित्रता भी संपत्ति के रूप में देखी गई हैै। श्रीराम ने दो लोगों से अद्‌भुत मित्रता की थी। वे थे सुग्रीव और विभीषण। इन दोनों के बीच में हनुमानजी महाराज थे। मित्र कैसे हों यह श्रीराम के संवादों से सीखा जा सकता है। सुग्रीव से चर्चा करते हुए श्रीराम ने कहा था- कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा।। एक, मित्र का धर्म है कि वह बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलाए। दो, गुण प्रकट करे व अवगुण छिपाए। देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।। बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।। तीन, देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे।

विपत्ति के समय में तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं। छह तरह की बातें मित्र के लिए मित्र के मन में होनी चाहिए। श्रीराम जब कहते हैं कि मित्र के गुणों को प्रकट करें, निंदा न करें तो सीधा-सा सिद्धांत है किसी की अच्छी बात याद करने से सामने वाले के सद्‌गुण हमारे भीतर उतरने लगते हैं। चौथी बात मित्रों के बीच जब किसी वस्तु का अदान-प्रदान हो तो उसमें कंजूसी न बरतें। खुला दिल दोस्ती का गहना होता है। पांचवीं बात के रूप में श्रीराम ने बताया कि अपने बल के अनुसार अपने मित्रों का हित करिए। यदि आप सक्षम हैं, तो उसका लाभ दोस्तों को भी पहुंचाएं और अंतिम, विपत्ति के समय स्नेह के साथ खड़े रहें। स्नेह इसलिए कहा है कि जब कोई अपना विपत्ति मं  पड़ता है तो हम तनाव में आकर चिड़चिड़े हो जाते हैं। क्रोध में अपने लोगों पर आरोप करने लगते हैं। जब संकट आए तो सारा ध्यान संकट मिटाने पर लगाया जाए, दोषारोपण या किसकी गलती है, यह बाद में देखा जाए।

अपने जीवन को प्रकृति से जोड़ें
जीवन को कई दार्शनिकों ने कोरा कागज बताया है। इस पर जो लेखनी चलती है उसे परिस्थिति और विचार कहते हैं। जब दुख आता है तो जीवन के कागज पर लिखे ये बोल साफ होने लगते हैं और सुख आने पर ठीक से पढ़ने में आ जाते हैं। इसी बात को ऋषि-मुनियों ने अपने ढंग से समझाया है। जिस परिस्थिति में व्यक्ति का जन्म होता है; जिन विचारों के साथ उसका पालन-पोषण होता है, वह वैसा ही बन जाता है। हम देखते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोगों की श्रद्धा और समर्पण शत-प्रतिशत रहता है। इस मामले में वे निर्दोष और ईमानदार होते हैं, लेकिन ऐसे लोग भी विरोधाभासी बातों में जीने लगते हैं। एक धर्म अहिंसा, जीव-दया, शाकाहार तो दूसरा धर्म बलि और मांसाहार को मानता है। एक धर्म कहता है पूरे वस्त्र पहनो। दूसरा वस्त्र छोड़ने को त्याग मान लेता है। इस विरोधाभास के बीच कोई सही ढंग निकालना पड़ेगा। मनोवैज्ञानिकों से पूछो तो वे कह देते हैं, जो सही है उसे पाला जाए, लेकिन सही की परिभाषा क्या है? ऋषि-मुनि कहते हैं आप किसी भी धर्म और देश में रहें, हैं प्रकृति का हिस्सा। जीवन के जिस आचरण में आप प्रकृति के विरुद्ध हैं, पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश का दुरुपयोग कर रहे हैं तो वह गलत है। उस रहन-सहन को बदल डालिए जो प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करे, इसीलिए मांसाहार-शाकाहार, धर्म परंपराएं इन सब पर विचार होना चाहिए; क्योंकि मापदंड है प्रकृति। परमात्मा को हर धर्म ने अपने तरीके से व्यक्त किया, इसलिए उसके रूप बदल दिए, लेकिन प्रकृति सदैव उसी रूप में रहेगी। अपने रहन-सहन, अपने विचारों को प्रकृति से जोड़िए और प्रकृति के प्रति ईमानदार होकर संतुलित जीवनशैली बिताई जाए।

पितृ पुरुषों से आचरण शुद्धि
हमारे बच्चों के पास हर विषय की जानकारी प्राप्त करने के साधन हैं। ऐसे में माता-पिता बच्चों को दो जानकारियां अपने स्तर पर देते रहें। परिवार के पितृ पुरुषों और देश के महापुरुषों की। उन्हें इनकी जीवनी से परिचित कराएं और प्रेरित करें कि वे इसे अपने जीवन से जोड़ें। सामान्य ज्ञान की परीक्षा में महापुरुषों की संक्षिप्त जानकारी मांगी जाती है। इसका संबंध परीक्षा पास करने से होता है। हालांकि, जीवन की असली परीक्षा में महापुरुषों की जीवनी काम आती है।

वंश के पितृ पुरुषों ने भले ही कोई अद्‌भुत, अनूठा कार्य न किया हो, लेकिन उनके बारे में परिवार के बच्चों को मालूम होना चाहिए। यह जीवनी उन्हें परिवार के प्रति प्रेम से जोड़ेगी और महापुरुषों की जीवनी नई पीढ़ी को समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व से परिचित कराएगी। इनसे जुड़ने के तीन तरीके हो सकते हैं। सुनकर, पढ़कर और साथ रहकर। सुनाने का काम घर के बड़े लोग करें।

पढ़ने के लिए हम उन्हें प्रेरित करें और यदि कोई महापुरुष या पितृ पुरुष जीवित है तो बच्चों को उनके साथ समय बिताने के लिए प्रेरित करें। यह भी स्वाध्याय है। इससे हमें अपना जीवन समझने का अवसर मिल जाता है। हम और हमारे बच्चे भी अनेक लोगों से मिलते हैं। ज्यादा आशंका यही होती है कि लोग हमारे आचरण को दूषित कर जाएं। आचरण में पवित्रता लाने वाले लोग सार्वजनिक जीवन में कम मिलते हैं। ऐसे में जब हम पितृ पुरुषों और महापुरुषों से जुड़ते हैं तो हमारे भीतर व्यवहार शुद्धि, आचरण शुद्धि अपने-आप होने लगती है। हमारे परिवार के संबंध में क्या शुभ है, हमारे राष्ट्र और समाज के लिए क्या कल्याणकारी है, इन बातों की समझ पितृ पुरुष और महापुरुष की जीवनी से जुड़कर जल्दी आ जाती है।

महत्वाकांक्षा को योग-बल दें
आज प्रबंधन के युग में महत्वाकांक्षी होना योग्यता मान ली गई है। सफलता प्राप्त करने के लिए महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है। महत्वाकांक्षा जब तक प्रेरणा बनी रहे तब तक तो लाभकारी है, लेकिन हम भूल जाते हैं कि महत्वाकांक्षा के भीतर एक भावनात्मक आवेग होता है। आवेग और आवेश कैसा भी हो, भविष्य में दिक्कत देगा। दूसरों से प्रतिस्पर्धा करके इच्छित फल प्राप्त हो यह आज की प्रबंधकीय शैली है। जब ऐसा नहीं होता तो मनुष्य निराश हो जाता है या आशाहीन बन जाता है। महत्वाकांक्षा तीव्र आकांक्षा में बदल जाती है। जो योग्यता है वही पीड़ा पहुंचाने लगती है और यहीं से तनाव उत्पन्न होता है। कम पढ़े-लिखे लोग तनाव को उसी रूप में लेते हैं जिस रूप में वह आया है। पढ़े-लिखे लोग तनाव में अपना बहुत कुछ मिला देते हैं। इधर महत्वाकांक्षा खूब परिश्रम करा चुकी है तो आदमी तन से थक चुका होता है। तनाव के मामले में मन अपना काम कर रहा होता है और चूंकि हमारा आत्मा से परिचय होता नहीं है, इसलिए हम तन और मन में ही उलझकर रह जाते हैं, इसलिए पढ़े-लिखे व्यक्तियों को चाहिए कि वे अपनी महत्वाकांक्षा से समझौता न करें, उसे जरूर जाग्रत रखें, लेकिन जीवन में संतोष जरूर उतारें। यह भ्रम है कि संतोष और महत्वाकांक्षा दोनों साथ नहीं चल सकते। परिश्रम तन का मामला है, महत्वाकांक्षा उसी से जुड़ी है। इससे जब तनाव आता है तो मन सक्रिय हो जाता है, लेकिन संतोष आत्मा का विषय है। प्रतिदिन थोड़ा समय अपनी आत्मा से जुड़ेंगे तो संतोष पनपेगा, जो महत्वाकांक्षा को नियंत्रित करेगा, बाधित नहीं। संभव है तब तनाव हमारे लिए ऊर्जा बन जाए, इसलिए महत्वाकांक्षी व्यक्ति को योग, ध्यान अवश्य करना चाहिए।

सत्संग से बनाएं जीवन सार्थक
ऐसे लोग हैं, जिनकी दिक्कत यह है कि समय कैसे बिताया जाए और दूसरा वह वर्ग है, जिसकी दिक्कत यह है कि समय कैसे निकाला जाए। दोनों ही लोग सत्संग से जरूर जुड़ें। सत्संग का अर्थ किसी महात्मा की कथा न समझ लें। सत्संग कई ढंग से किया जा सकता है। इसमें रुचि को संतुष्टि मिलती है। नई जानकारियां मिलती हैं और भ्रम दूर हो जाता है। हम मानसिक और आत्मिक रूप से कुछ ऐसी खोज में होते हैं, जो सत्संग में पूरी होती है। समय का सबसे अच्छा सदुपयोग यही है। इसके लिए किसी पंडाल में जाने की जरूरत नहीं है। सत्संग में कोई महात्मा या गुरु हो यह भी आवश्यक नहीं। माता-पिता संतान के साथ सत्संग कर सकते हैं। 

जीवनसाथी आपस में सत्संग कर सकते हैं और यदि अकेले हैं तो किसी पुस्तक के साथ सत्संग संभव है। बिना सत्संग बुद्धि का दुरुपयोग होने की आशंका बढ़ जाती है, क्योंकि जो धन-वैभव हम अर्जित करते हैं, उसे अच्छी बातों से जोड़ने की प्रेरणा सत्संग से ही मिलेगी। अन्यथा सांसारिक मार्ग पर तो अर्जित धन और प्रतिष्ठा कलंकित भी हो सकते हैं। सत्संग आपको लगातार जागरूक रखेगा कि आस-पास के वातावरण पर दृष्टि रखिए, सावधान रहिए। सत्संग दृष्टि देता है कि आप स्वयं को और दूसरों को ठीक से पहचान सकें। जैसे ही आप सत्संग में प्रवेश करते हैं क्रांति घटती है स्वयं के निरीक्षण की। सत्संग से आप में विचारों के निरीक्षण की शक्ति आ जाती है, क्योंकि ये विचार ही हमारा व्यक्तित्व बनाएंगे और यदि इसके पहले विचारों का निरीक्षण-परीक्षण ठीक से हो जाए तो आप जीवन की आधी से ज्यादा बाजी तो जीत चुके होते हैं। अत: समय का कितना ही अभाव हो, कुछ समय सत्संग में जरूर बिताएं।

भक्ति में भावना का बहुत महत्व
थोड़ा-बहुत डर सभी को लगता है। प्रत्यक्ष भय से मनुष्य निपट भी ले, लेकिन एक अज्ञात भय सबको सताता है। भय से निपटने के लिए बहुत बड़ा बहादुर बनना आवश्यक नहीं है। जूना पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरिजी इसे बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं। भक्ति भय से नहीं, भावना से होती है। भक्ति एक तरह की क्रांति है जिंदगी को बदलने के लिए, इसलिए भक्त को भक्ति का भाव जानना आवश्यक है, अन्यथा वह धर्मभीरू बन जाता है। फिर उसे हर समय देवता के नाराज होने की आशंका होती है। चार तरह के भक्त होते हैं। एक, जो दुख से घबराकर भगवान का नाम भजता है। दूसरा, अर्थार्थी अर्थात वह किसी कामना से भजन करता है। तीसरा, जिज्ञासु यानी जिज्ञासा के कारण भगवान का स्मरण करता है। चौथा भक्त सबसे उत्तम भक्त है जो ज्ञानपूर्वक अनन्य प्रेम से परमात्मा का नाम जपता है।

वह भगवान से दुनिया की वस्तुएं न मांगकर भगवान को ही मांगता है। मंदिरों में भीड़ बढ़ी है। भगवान के दर्शन करने के लिए लंबी कतारें लगती हैं, लेकिन भक्ति की भावना में कमी आई है। भावना के बिना किए गए कर्म का मर्म समझ में नहीं आता। भक्ति में भावना का बहुत महत्व है। मुख से नाम उच्चारण करें और हृदय में भाव आ जाए। पहली बात तो यह कि हम अपने भीतर भक्ति उतारें और अपनी भक्ति को भावना से जोड़ दें। यहां से शुरू होगा वह भरोसा कि हमारी पीठ पर किसी बहुत बड़ी शक्ति का हाथ है। हमारे आस-पास ईश्वर की कृपा का सुरक्षा घेरा चलता है, इसलिए भक्ति को ठीक से समझा जाए। भावना से यदि भक्ति की गई तो परिणाम भी शत-प्रतिशत मिलेंगे वरना भक्ति भी सौदा हो जाएगी और सौदा करने वाले लोग सदैव भयभीत पाए जाएंगे।

अच्छा मित्र पाना बड़ी उपलब्धि
अच्छा मित्र जीवन में बड़ी उपलब्धि है। आजकल लोगों को सिर्फ संबंधों में रुचि है। मित्रता का दायित्व कोई नहीं लेना चाहता। किष्किंधा कांड में श्रीराम मित्रों के लक्षण बता चुके थे। फिर उन्हेंं स्मरण आया कि कुमित्रों-मित्रों की परिभाषा भी बता दी जाए। वे कहतेे हैं कि कुमित्र कैसे होते हैं। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी है- आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।। जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है। हे भाई, जिसका मन सांप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है। सावधान रहिए। यदि व्यक्ति बहुत कोमल वचन बोल रहा है । सच्चा मित्र स्पष्ट बात करता है। तीसरी बुराई है मन में कुटिलता रखना। कुटिलता तो मित्रता में विष है। एक-दूसरे के प्रति खुला हृदय होना चाहिए।

चौथी बात श्रीराम कमाल की बोलते हैं जैसे सांप की चाल टेढ़ी होती है ऐसे ही कुमित्र का मन होता है। सांप अपनी चाल टेढ़ी ही इसलिए रखता है कि न जाने कब पलटकर डसने का काम करना पड़े। श्रीराम ने यह भी बताया- सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।। सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा, मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊंगा। तुम्हारी सहायता करूंगा। इस प्रकार श्रीराम ने आश्वस्त किया कि संसार में धोखा देने वाले लोग बहुत होंगे, लेकिन अब चूंकि मुझसे मित्रता हो गई है तो निश्चिंत रहना। मैं जिनके साथ हूं उन्हें किस बात की चिंता।

अपने विवेक का अनादर न करें
अनेक लोगों से मिलते-जुलते रहने से कभी-कभी हम अपना मूल स्वरूप भूलने लगते हैं। हम देखते हैं कि यदि निगेटिव विचारधारा के लोगों के साथ थोड़ा अधिक समय बिताया जाए तो हमारे भीतर भी नकारात्मकता उतरने लगती है। सार्वजनिक जीवन में मजबूरीवश लोगों का सान्निध्य लेना पड़ता है। तब हमारा विवेक ही हमारी रक्षा करेगा। वही हमें समझाता है कि दूसरों से कितना लेना और अपना क्या देना है। निवृत्त शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरिजी का कहना है यदि मानव का व्यवहार शुद्ध है तो परमार्थ शुद्ध है ही। व्यवहार को शुद्ध करने के लिए जीवन में सावधान रहना पड़ता है। उस व्यक्ति की यह भावना भी नहीं रहती कि मैं कोई तप कर रहा हूं, क्योंकि वह जीवन का सहज अंग बन जाता है। जीवन में जो कुछ भी सहज है, वह स्थायी होता है। 

जो कृत्रिम को धारण करने की चेष्टा करनी पड़ती है। कृत्रिमता बार-बार विकृत होती है और सहजता में कभी कोई दूषण नहीं आता है। भक्त के भीतर विवेक ही परमात्मा का प्रतिनिधि है। यदि वह साथ नहीं होता तो कभी सामने से आने वाला पत्थर आंख में लग सकता है और उससे आंख जा सकती है, परंतु वह प्रतिनिधि तुरंत आदेश देता है और आप अपनी गर्दन नीची कर हाथ ऊपर कर लेते हैं। यह संपूर्ण क्रिया एक क्षण में ही हो जाती है। मनुष्य कभी जागरूक नहीं रह पाता परंतु परमात्मा का प्रतिनिधि बार-बार जाग्रत करता है। मानव मन में पहला विचार बुराई के रूप में जगाता है परंतु तुरंत दूसरा विचार आता है कि यह उचित नहीं है। विवेक निरंतर जागता रहता है। परंतु जब मानव विवेक का बार-बार अनादर करता है तब विवेक पर मन का नियंत्रण हो जाता है और ऐसा विवेक मरे हुए जैसा है, जिससे हमें नुकसान ही नुकसान होगा।

मिलनसारिता आवश्यक गुण
मजबूत से मजबूत किले में भी कोई दीवार कमजोर रह जाए, तो आक्रमण के दौरान पूरा किला उसकी कीमत चुकाता है। ऐसे ही हमारे व्यक्तित्व में कोई ऐसा छिद्र होता है, कमजोर नस होती है, जिसमें से दुर्गुण प्रवेश कर जाते हैं और कुछ लोग उस नस पर हाथ रखकर हमारा दुरुपयोग कर लेते हैं। एक कमजोरी होती है दूसरों से घुलने-मिलने में बहुत संकोच महसूस करने की। सामूहिक अवस्था में या तो कुछ लोग डर जाते हैं या असहज होकर भीतर ही भीतर परेशान रहते हैं। घुलना-मिलना एक गुण है। चाहे कितने ही और कैसे भी लोगों के बीच में हों, अपने आप को असहज न करें। आप पूरी तरह सक्षम हैं कि योग्य से योग्य और अयोग्य से अयोग्य के साथ भी अपनी सहजता नहीं खोएंगे।

एक मनोवैज्ञानिक रक्षा कवच अपने आसपास रखिए। भारत में इसके लिए एक बहुत सुंदर व्यवस्था की गई है और वह है कुछ त्योहार। त्योहार का मतलब ही है आपस में घुलना-मिलना। इसमें ऐसी गतिविधि होती है, जो लोगों को आपस में जोड़ देती है। अभी-अभी होली बीती है, जो रंगों का निराला पर्व है। बड़ी अजीब-अजीब अवस्था में लोग इससे जुड़ जाते हैं। इसकी मस्ती अच्छे-अच्छों को मिलनसार बना देती है। रंगों का मतलब ही होता है मिल जाना। अब हम नवरात्रा में प्रवेश कर जाएंगे। हमें अपनी ऊर्जा को प्रकृति की ऊर्जा से जोड़ना है। नवरात्रि भक्त की मस्ती और आनंद के दिन हैं, चूक मत जाइएगा। भारतीय संस्कृति मिलनसारिता और एकांत दोनों में संतुलन का आग्रह करती है। कुछ त्योहार हमें सार्वजनिक रूप से सक्रिय रहने का आग्रह करते हैं तो कुछ कहते हैं अपने आप में सिमट जाओ। परमात्मा की अनुभूति दोनों ही स्थितियों में हो सकती है।

मुफ्त के सौदों से सावधान रहें
मुफ्त में कुछ भी मिले तो सावधान हो जाएं। अब सौजन्य सम्मान नहीं, अपराध बनता जा रहा है। हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में लगातार ऐसी घटनाएं घट रही हैं कि हमें यह तय कर लेना चाहिए कि यदि कोई मुफ्त में हमें कुछ भी दे तो बिल्कुल न लें। आप समझ रहे होंगे कि सौजन्य काम कर रहा है, लेकिन उसके पीछे दबे पांव अपराध आ रहा होगा। यह घोर लेन-देन का युग है। मनुष्य ने हर सांस में धंधा करने की कसम खा ली है। धन कहां से उगाया जाए, वसूला जाए सारी अक्ल इसी में झोंकी जा रही है, इसलिए अपने आप को समझाएं कि फ्री में मिल रही चीज जहर की तरह है। जिस सुविधा पर आपका अधिकार न हो, जिसे भोगने के लिए आप योग्य न हों, अगर वह आपको तश्तरी में रखकर दी जा रही है तो समझ लीजिए यह गलत सौदा है। देने वाला आपसे इसकी कीमत जरूर वसूलेगा।

अब तो धार्मिक लोगों के दान-खाते भी पुण्य की कमाई के लिए खोले जाते हैं। फिर सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में कोई आपको क्यों कुछ मुफ्त देगा, इसलिए अत्यधिक सावधान रहें और कोई भी प्रस्ताव आपके सामने आए तो उसे बिल्कुल हवा न दें। प्रलोभन में न आना, खुद को भविष्य में सुरक्षित रखने जैसा है। लोभ अच्छे-अच्छों से बुरे काम करा लेता है। ऐसी सौजन्यता पर बिल्कुल उदारता न दिखाएं, सख्त हो जाएं। मुफ्त की भावनाओं को भीतर प्रवाहित न होने दें वरना जितना आपको मिल रहा है, उससे ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। यदि अपराध की शक्ल में ऐसा हुआ तो किस-किस को सफाई देते फिरेंगे, इसलिए अपने आपको भगवान से जोड़िए। सफाई भी देनी पड़े तो उसे देंगे। यदि आपने फैसला कर लिया है कि सफाई भगवान को ही देंगे तो फिर बचाएगा भी वही।

भरोसा देता है गुरु का सान्निध्य
हम जिनके सान्निध्य में रहते हैं, धीरे-धीरे उन्हीं जैसे होने लगते हैं, इसीलिए गुरु के सान्निध्य का महत्व है। गुरु कई रूपों में हमारे जीवन में आ सकते हैं। किष्किंधा कांड में श्रीराम सुग्रीव के जीवन में मित्र के रूप में आए थे, लेकिन काम गुरु का कर रहे थे। जब श्रीराम अपनी बात कह चुके तो सुग्रीव ने कहा और तुलसीदासजी ने लिखा - कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा।। दुंदुभि अस्थि ताल देखाए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए।।हे रघुवीर सुनिए, बाली महान बलवान और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने श्रीरामजी को दुंदुभि राक्षस की हडि्डयां और ताल के वृक्ष दिखलाए। श्री रघुनाथजी ने ताल वृक्षों को बिना परिश्रम आसानी से ढहा दिया। यहां एक शब्द आया है बिनु प्रयासयानी बिना परिश्रम के श्रीराम यह काम कर गए। यह आध्यात्मिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। गुरु की उपस्थिति ऐसी ही होती है। हमारे जीवन में जब कोई गुरु हो, तो हम यह न मानें कि गुरु करता हुआ ही दिखे। ज्यादातर मौकों पर गुरु कुछ करता नहीं दिखेगा। हमको संदेह भी हो सकता है, लेकिन वह बिना दिखाए बहुत कुछ कर रहे होते हैं। गुरु भीतर से परमात्मा से भरा हुआ है। 

अब हमारी श्रद्धा उसमें से खींच सकती है। वह कोई सहायता, कोई प्रयास नहीं करेगा। आपको उससे लेना होगा। हम गुरु को जो उपलब्धि मिली उसके सहभागी हो सकते हैं। जो ऊर्जा उन्हें उपलब्ध हुई है उसका उपयोग हम अपने लिए कर सकते हैं, लेकिन करना हमें होगा। श्रीरामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बाली का वध अवश्य करेंगे। हमारे जीवन में भी जब समस्या आए तब गुरु का सान्निध्य हमें भरोसा दिलाएगा।

वृद्धावस्था में चाहिए समर्पण
बूढ़े और जवान लोगों मेें जिन-जिन बातों पर मतभेद होता है उनमें से एक है जीवनशैली। पुरानी पीढ़ी के लोग कुढ़ते रहते हैं कि नए बच्चे जिस ढंग से जिंदगी जी रहे हैं वह ठीक नहीं है। फिर विवाद आरंभ हो जाता है। हमें दोनों ही पीढ़ी को ठीक से समझना और समझाना होगा। कितने ही उपाय कर लीजिए, बुढ़ापा आता है तो जाता नहीं और जवानी लौटकर नहीं आती। दोनों का अपना महत्व है। जैन संत तरुणसागरजी अपने निराले ढंग से इसी बात को समझाते हैं। वृद्धावस्था को भुनभुनाते हुए नहीं, गुनगुनाते हुए जीया जाए। युवा अवस्था में केवल खाने-पीने का मकसद न हो। उसमें जीयो और जीने दो का उद्‌देश्य भी होना चाहिए। मनुष्य जीवन तो हर हाल में जीना है, लेकिन आह के साथ नहीं, वाह के साथ। विदेशी संस्कृति यानी खाओ, पीयो, मौज करो, लेकिन भारतीय संस्कृति कहती है जीयो ऐसे कि शांति से मर सकें और मरो ऐसे कि लोग याद करते रहें।


पश्चिमी संस्कृति लर्निंग और अर्निंग सिखाती है। भारत की संस्कृति लर्निंग, अर्निंग के साथ लिविंग भी सिखाती है। आदमी किसी भी धर्म का हो उसे यह स्पष्ट होना चाहिए कि धर्म केवल मारने से नहीं बचाता, बल्कि मरने से भी बचाता है। जवानी में दुर्गुण नशे के रूप में भी आ जाते हैं। नशारूपी डाकू तो लूटकर ही जाएगा। आपको खाली कर देगा। तंबाकू में आप पत्ती नहीं, जीवन रगड़ रहे होते हैं। सिगरेट से ज्यादा तो जिंदगी जल जाती है, इसलिए नशा कभी न करें। बूढ़े लोगों को यह समझना चाहिए कि अब जीवन के समापन पर धैर्य के साथ ईश्वर भक्ति बढ़ा दें। बहुत ज्यादा संसार पर टिप्पणी न करें, संसार में न उलझें। जवानी की गति संतुलित हो और बुढ़ापे की गति समर्पित हो। दोनों ही उम्र आनंद देगी।


आत्मविश्वास का स्रोत आत्मा
कभी-कभी दुनिया में हम चारों तरफ से लाचार हो जाते हैं। कुछ ऐसी स्थितियां बन जाती हैं कि हम सबसे निराश होने लगते हैं। तब हमें समझाया जाता है कि आत्मविश्वास मत छोड़ना। चलिए, आज इसी पर बात करते हैं कि आत्मविश्वास होता क्या है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है, ‘हम विश्वास करें कि हम आत्मा हैं तो शक्ति, पवित्रता तथा वह सबकुछ जो श्रेष्ठ है, हमारे भीतर आ जाएगा।हमें अपनी आत्मा से साक्षात्कार करने के लिए उत्सुकता बढ़ा लेनी चाहिए खासतौर पर तब जब आप निराश हों। जब हम किसी समस्या का समाधान ढूंढ़ रहे होते हैं तो कई लोगों से मिलते हैं। 

ऐसे में अपनी आत्मा से मिलने में क्या बुराई है। जैसे ही आप अपनी आत्मा से परिचय बढ़ाते हैं, आपकी इच्छा शक्ति प्रबल होने लगती है। तब आप चाहे भौतिक काम करें या आध्यात्मिक, परिणाम अलग ही मिलेंगे, क्योंकि हमारी अंतरात्मा में अनंत संभावनाएं हैं, बस हमें उस पर आस्था रखनी है। हम अपने आपको शरीर और मन मानते हैं, इसलिए हम समाधान भी शरीर और मन से जुड़े लोगों से लेने लगते हैं, लेकिन जैसे ही आत्मा से जुड़ेंगे मन चुपचाप बैठ जाएगा और शरीर पूरी मदद करेगा। आत्मा इस शरीर के भीतर है और आत्मा तक पहुंचने के लिए किसी एकांत में बैठ जाएं, अपने भीतर गहरे में उतरें, विचार शून्य सांस लेना शुरू करें। धीरे-धीरे आपको आत्मा की निकटता मिलने लगेगी। उसके बाद आत्मा स्वयं आपकी मदद करने लगेगी। शुरुआत आपको करनी है, अंत करने के लिए आत्मा तैयार है। दुनिया का कोई कार्य ऐसा दुर्लभ नहीं जो आप न कर सकें। आपका शरीर उस आत्मा से संचालित होकर कठिन से कठिन कार्य भी आसानी से कर सकेगा।

कामना को ईश्वर की ओर मोड़ें
जरा-जरा सी बात पर तनाव आ जाना, दूसरों पर झल्लाहट उतारना आजकल ये लक्षण अधिकतर लोगों में देखे जा रहे हैं। काम और उसके परिणाम के प्रति अत्यधिक अपेक्षा तनाव का कारण है। चूंकि हम जीवन का अधिकतर समय संसार में गुजारते हैं, इसलिए संसार की सुख-सुविधाएं प्राप्त करना हमारा लक्ष्य हो जाता है। तौर-तरीके भी सांसारिक हो जाते हैं और उलझनें शुरू हो जाती हैं। हमें थोड़ा धार्मिक बने रहना होगा, क्योंकि धर्म एक बहुत अच्छी बात सिखाता है कि इच्छाओं का दमन नहीं करना चाहिए। यदि कोई धर्म यह कहे कि अपनी कामनाओं को दबा दो तो या तो वह गलत कह रहा है या हम उसका अर्थ गलत समझ रहे हैं। अच्छा कर्म करेंगे तो परिणाम अच्छा मिलेगा, लेकिन कामना यदि दूषित है तो अच्छा कर्म भी तनाव दे जाएगा। 

इसलिए कामना को थोड़ा-सा परमात्मा की ओर मोड़ दें। इससे हम काम करते समय शुद्ध होते हैं। मसलन, हम व्यवसाय कर रहे हैं, लेकिन हमारी कामना ईश्वर से जुड़ी है तो हम सोचेंगे कि धन आने पर कुछ अच्छा काम करेंगेे। किसी को ठगेंगे नहीं, झूठ नहीं बोलेंगे। ईश्वर से जुड़ने पर ऐसे सद्‌विचार पनपने लगते हैं। नीयत साफ होने लगती है। जैसे मां-बाप बनते ही संतान का लालन-पालन हमारी जिम्मेदारी है, ऐसे ही मनुष्य शरीर मिलते ही हमारा दायित्व है कि इसमें जिंदगी हम डालें। अब मनुष्य हम बन जाते हैं और सोचते हैं कि जीवन चलाएं संसार वाले। ऐसा नहीं हो सकता। मनुष्य बने हैं तो हमारे भीतर मनुष्यता उतरे, जीवन उतरे। यह काम हमें करना है। ईश्वर से अपनी कामना जोड़नेे से हमें अपने मनुष्य होने का बोध जल्दी हो जाएगा। यहीं से हम काम कोई भी करें, अच्छे से करेंगे, ईमानदारी से करेंगे और परेशान नहीं होंगे।

तेजस्विता से बनाएं प्रभावी व्यक्तित्व
व्यक्तित्व को प्रभावी बनाने के लिए बाहर और भीतर से प्रयास करने पड़ते हैं। हमारा दिखना व्यक्तित्व को बाहर से प्रभावी बनाता है, लेकिन हमारा होना भीतर का विषय है। संसार हमें देखता है और परमात्मा की नजर हमारे होने पर होती है, क्योंकि भीतर जो हमारी गतिविधियां चल रही होती हैं, वैसे हम होते हैं। दिखते हम अलग हैं, होते कुछ और हैं। अगर अपने व्यक्तित्व को प्रभावी बनाना चाहते हैं तो हमें तेजस्वी जरूर होना चाहिए। तेज हमारे भीतर भरा हुआ है, हमें इसका सदुपयोग करना चाहिए। अपने भीतर के तेज को बाहर प्रकट करने के लिए प्रमादपूर्ण जीवन से बचना होगा। प्रमाद का अर्थ है प्रकृति के विरुद्ध जाकर जीवन जीना। हम जीवन में कुछ क्रियाएं ऐसी कर जाते हैं जिससे हमारे तेज पर प्रभाव पड़ता है। हमारी तेजस्विता को दो बातें प्रभावित करेंगी। एक हमारी दिनचर्या और दूसरा परमात्मा से जुड़ाव।

हमारा कोई भी क्रियाकलाप ईश्वर से नहीं छुपा हुआ है। संसार से तो हम छुपा सकते हैं, लेकिन भगवान से कैसे छुपाएंगे। इस बात को दृढ़ता से उतार लें कि उससे कुछ छिपा नहीं है तो फिर गलत काम क्यों किया जाए। जैसे ही हम अनुचित का त्याग करते हैं, हमारे भीतर शुद्धता उतरती है। शुद्धता धीरे-धीरे निर्मलता में बदलती जाती है। ये दोनों मिलकर हमारी तेजस्विता को प्रबल करते हैं। यही तेज फिर हमारे व्यक्तित्व को निखारता है। अच्छे व्यक्तित्व के आसपास संसार चलता है। हम चाहते हैं हमारी पर्सनालिटी का प्रोजेक्शन सही हो और इसके लिए हम अधूरे प्रयास करते हैं जो केवल बाहरी होते हैं। धर्म का आचरण पालते हुए, प्रकृति का सम्मान रखते हुए और सही ढंग से परमात्मा से जुड़ते हुए जो जीवनशैली अपनाई जाएगी, उससे व्यक्तित्व में निखार आएगा।

त्याग से भगवान नहीं मिलते
कुछ लोग जो दुनियादारी में डूबे रहते हैं, उन्हें दुनिया बनाने वाले की फिक्र नहीं होती। धर्म क्या होता है, भगवान क्या हैं, हम परमात्मा से क्यों जुड़ें, इन सब बातों के बारे में कुछ लोग बिलकुल नहीं सोचते। जब जिंदगी में तनाव आता है, चाहा हुआ नहीं होता, तब ऐसे लोग थोड़ी फिक्र पालते हैं। जो ईश्वर को मानते हैं और संसार में भी रहते हैं, ऐसे लोगों को एक बड़ा भ्रम सताता है कि हमें इसमें संतुलन कैसे बैठाना है। हमेशा इस बात के लिए परेशान होते रहते हैं कि क्या ईश्वर को पाने के लिए दुनिया छोड़ दें या दुनिया में उतरेंगे तो ईश्वर छूट जाएगा। इस बात को हमें बहुत ठीक ढंग से समझ लेना चाहिए कि परमात्मा ने यह कहीं भी नहीं कहा कि मुझे पाने के लिए संसार छोड़ दिया जाए। किष्किंधा कांड में श्रीराम सुग्रीव को अपनी उपस्थिति के बारे में समझाते हैं और सुग्रीव तुरंत एक टिप्पणी करते हैं।

तुलसीदासजी ने लिखा है - उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपां मन भयउ अलोला। सुख संपति परिवार बड़ाई, सब परिहित करिहउं सेवकई।।जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ, आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, संपत्ति, परिवार और बड़प्पन सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूंगा। यहां भगवान कहते हैं कि मुझे पाने के लिए सुख छोड़ना नहीं है, सुख को समझना है। मेरे लिए सम्पत्ति को मत त्यागिए, सम्पत्ति का सदुपयोग करिए। परिवार में प्रेमपूर्ण रहना ज्यादा जरूरी है, बजाय परिवार को छोड़ने के। बड़प्पन को नहीं छोड़ना है, बल्कि अहंकार को त्यागना है। इन सबके साथ फिर मेरी सेवा करना है। भगवान की सेवा करने का अर्थ है भगवान के बनाए हुए इस संसार में उन लोगों की सेवा करना जिन्हें जरूरत है। सुग्रीव और श्रीराम की यह बातचीत हमारे लिए आज भी उपयोगी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष

Monday, April 6, 2015

Katha Gyan (कथा ज्ञान)

समर्पण
कथा महाभारत के युद्ध की है। अश्वत्थामा ने अपने पिता की छलपूर्ण ह्त्या से कुंठित होकर नारायणास्त्र का प्रयोग कर दिया। स्थिति बड़ी अजीब पैदा हो गई। एक तरफ नारायणास्त्र और दुसरी तरफ साक्षात नारायण। अस्त्र का अनुसंधान होते ही भगवान् ने अर्जुन से कहा - गांडीव को रथ में रखकर नीचे उतर जाओ ... अर्जुन ने न चाहते हुए भी ऐसा ही किया और श्रीकृष्ण ने भी स्वयं ऐसा ही किया। नारायणास्त्र बिना किसी प्रकार का अहित किए वापस लौट गया, उसने प्रहार नहीं किया, लेकिन भीम तो वीर था, उसे अस्त्र के समक्ष समर्पण करना अपमान सा लगा। वह युद्धरथ रहा, उसे छोड़कर सभी नारायणास्त्र के समक्ष नमन मुद्रा में खड़े थे। नारायणास्त्र पुरे वेग से भीम पर केन्द्रित हो गया। मगर इससे पहले कि भीम का कुछ अहित हो, नारायण स्वयं दौड़े और भीम से कहा - मूर्खता न कर! इस अस्त्र की एक ही काट है, इसके समक्ष हाथ जोड़कर समर्पण कर, अन्यथा तेरा विध्वंस हो जाएगा।

भीम ने रथ से नीचे उतर कर ऐसा ही किया और नारायणास्त्र शांत होकर वापस लौट गया, अश्वत्थामा का वार खाली गया। यह प्रसंग छोटा सा है, पर अपने अन्दर गूढ़ रहस्य छिपाये हुए है ... जब नारायण स्वयं गुरु रूप में हों, तो विपदा आ ही नहीं सकती, जो विपदा आती है, वह स्वयं उनके तरफ से आती है, इसीलिए कि वह शिष्यों को कसौटी पर कसते है ... कई बार विकत परिस्थियां आती हैं और शिष्य टूट सा जाता है, उससे लड़ते। उस समय उस परिस्थिति पर हावी होने के लिये सिर्फ एक ही रास्ता रहता है समर्पण का ... वह गुरुदेव के चित्र के समक्ष नतमस्तक होकर खडा हो जाए और भक्तिभाव से अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित कर दे और पूर्ण निश्चित हो जाए ... धीरे धीरे वह विपरीत परिस्थिति स्वयं ही शांत हो जायेगी ... और फिर उसके जीवन में प्रसन्नता वापस आ जायेगी।

मत सोचो नेगेटिव... होगा सब अच्छा
सभी की जिन्दगी में उतार चढ़ाव आते हैं। कदम-कदम पर मुश्किलें आती हैं। हम सब जानते हैं, मुश्किलों की सबसे बुरी आदत ये ही की वे बिना बुलाए आ जाती है और उससे भी बुरी हमारी आदत नेगेटीव सोचने की। कई बार छोटी सी मुसीबत या परेशानी को हम इतनी बड़ी मान लेते हैं कि परिस्थिति का सामना करने से पहले ही हम हार मान बैठते हैं। ऐसे में जिन्दगी एक बोझ सी बन जाती है और बेमकसद हो जाती है। हम अपने आप को दुनिया का सबसे परेशान और बदकिस्मत व्यक्ति मान लेते हैं। ऐसे में खुद को तो तनावग्रस्त कर ही लेते हैं साथ ही हमसे जुड़े लोगों की जिन्दगी को भी तनाव से भर देते हैं।

एक बच्चे से उसके माता पिता बहुत प्यार करते थे। जैसे की सभी के माता-पिता करते हैं लेकिन उसकी कहानी कुछ अलग थी। उसके पेरेन्टस का प्यार सामान्य नहीं था। असामान्य था क्योंकि वो चाहते थे कि उनके बच्चे को इस बुरी दुनिया का सामना ना करना पड़े। वो चाहते थे कि वह बड़ा होकर बहुत बड़ी शख्सियत बने।इसीलिए उन्होंने अपने बच्चे को बाहरी माहौल से दूर रखा। उसे बाहर के बच्चों के साथ खेलने नहीं देते। बाहर के लोगों से बात नहीं करने देते। किसी रिश्तेदार से उसे मिलने भी नहीं देते। स्कूल भेजने की बजाय घर पर ही उसकी पढ़ाई की व्यवस्था कर दी। अब उस बच्चे की उम्र बड़ी तो माता-पिता दोनों ने सोचा कि अब हमारा बेटा अठारह साल का हो गया है। अब हमारा सपना पूरा होने का समय आ गया है। उन्होंने उसका एडमिशन एक बड़े मेडिकल कालेज में करवा दिया।

अब वह पहली बार कालेज गया उसने अपने आप को बाहरी माहौल में बड़ा असहज महसूस किया। वह दो दिनों में ही बाहरी दुनिया और उसके लोगों से परेशान हो गया। नतीजा ये हुआ कि उसने अपने माता-पिता से कहा कि वो उसे आकर यहां से ले जाए वरना वह होस्टल की बिल्डिंग से कूद कर अपनी जान दे देगा। माता-पिता घबरा गए और उसे घर ले आए।दरअसल उस लड़के को बाहर की दुनिया और आजादी रास नहीं आ रही थी क्योंकि वह तो कैद में रहने का आदी हो चुका था। उसे अपने फैसले खुद लेने की आदत नहीं थी। वह बाहरी दुनिया का तनाव बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। उसके माता- पिता को आज अपनी भूल का एहसास हुआ लेकिन अब वक्त गुजर चुका था।

अगर हमारा नजरिया नकारात्मक होगा तो हमारी जिन्दगी सीमाओं में कैद हो जाएगी। हो सकता है सकारात्मक नजरिया विकसित करने के लिए हमें थोड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़े और बदलाव के कारण अनिश्चितता महसूस हो लेकिन ये निश्चित है कि जब हम हर परिस्थिति को सकारात्मक ढंग से लेने के आदी हो जाएंगे तो एक दिन हम सफल जरुर होंगे।

जब न समझे कोई आपकी तकलीफ को

जब आपकी किसी तकलीफ को कोई समझ ना पाएं तो ये ना सोंचे की आपको कोई नहीं समझता क्योंकि आपकी तकलीफ या परेशानी को सिर्फ वही समझ सकता है जो खुद कभी उस परेशानी से गुजरा हो क्योंकि किसी की तकलीफ को कोई भी तभी समझ सकता है जब उसने भी उन विषम परिस्थितियों का सामना किया हो।

एक कुत्ता बेचने वाला था उसने कई कुत्तों को पाला ताकि वह उन्हे बेचकर अच्छा पैसा कमा सके । धीरे-धीरे कुत्तो की संख्या बढऩे लगी। बढ़ते - बढ़ते इतनी बढ़ गई की उसे उन्हे सम्भालना मुश्किल होने लगा। अब वह परेशान होने लगा उसे लगने लगा कि कोई भी उसके कुत्तों को बस खरीद ले। इसके लिए उसने कुत्तों की सेल लगा दी। उसके पास एक छोटा सा लड़का आया। उसने कहा अंकल मुझे एक कुत्ता चाहिए, लेकिन मेरे पास सिर्फ पचास रुपए ही हैं। क्या आप मुझे इतने पैसों में एक कुत्ता दे पाएंगे। उस बच्चे की मासूम शक्ल देखकर उस आदमी को उस पर प्यार आ गया। वह बोला हां जो तुम्हे पसंद आएगा में तुम्हे वो कुत्ता देने को तैयार हूं।

उस बच्चे ने कहां तो ठीक है आप जो मुझे सफेद रंग का कुत्ता सामने वाले पपी हाउस में मुझे यहां से दिखाई दे रहा दिजिए। वह बोला ठीक है वह आदमी उस कुत्ते को लेने के लिए जाता है तभी दूसरी तरफ एक कुत्ता लुढ़कता हुआ आता है और उसके पैर में आकर गिर जाता है। वह बच्चा दो मिनट तक खड़ा कुछ सोचता रहता है और अपनं पैरों में पड़े उस कुत्ते को उठाकर दूकानदार से कहता है, अंकल मुझे यही कुत्ता चाहिये। वह आदमी उस बच्चे से कहता है कि बेटा तुम इस कुत्ते को मत खरीदा। इसके पैर पूरी तरह से बेकार है, इससे ना तुम ठीक से खेल पाओगे और ना ये तुम्हारे साथ तब वो बच्चा अपने पेंट को उपर चढा़ते हुए। बोलता है अंकल यही पपी मेरा सबसे अच्छा दोस्त बन सकता है। क्योंकि ये मेरी तकलीफ को अच्छे से समझ सकता है और मैं इसकी। जब वो आदमी उस बच्चे के पैरों की तरफ देखता है तो उसके नकली पैरों को देखकर चुप हो जाता है और उसे वही कुत्ता सौंप देता है।

क्योंकि मौके बार बार नहीं आते

सामान्यत: सभी को जीवन में सफलता और सुख के लिए कई मौके मिलते हैं। कुछ लोग सही अवसर को पहचान कर उससे लाभ प्राप्त कर लेते हैं। वहीं कुछ लोग मूर्खतावश सही मौके को समझ नहीं पाते और सफलता, सुख-समृद्धि से मुंह मोड़ लेते हैं।

एक लड़का था, नाम था उसका सुखीराम। वह बहुत परेशान और दुखी था। सुखीराम के पास कोई खुश होने की कोई वजह नहीं थी। वह शिवजी का भक्त था। उसने भगवान की भक्ति से अपनी किस्मत बदलने की सोचा। अब वह दिन-रात भगवान की भक्ति में डूबा रहता। कुछ ही समय में परमात्मा उसकी श्रद्धा से प्रसन्न हो गए और उसके समक्ष प्रकट हो गए।

भगवान को अपने सामने देखकर सुखीराम ने अपने दुखी जीवन की कहानी सुनाना शुरू कर दी। वह विनती करने लगा कि उसे सभी सुख और ऐश्वर्य के साथ-साथ सुंदर और गुणवान पत्नी भी मिल जाए। इस पर शिवजी ने उसे अपनी किस्मत बदलने के लिए तीन मौके देने की बात कही। शिवजी ने कहा कि कल तुम्हारे घर के सामने से तीन गाय निकलेगी। किसी भी एक गाय की पूंछ पकड़ कर उसके पीछे-पीछे चले जाना तुम्हें सभी सुख प्राप्त हो जाएंगे। ऐसा वर पाकर सुखीराम खुश होकर अपने घर लौट आया। वह सुबह उठकर अपने घर के बाहर गाय के निकलने की प्रतिक्षा करने लगा। थोड़ी ही देर में एक सुंदर सुजसज्जित गाय निकली, उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा कि दो गाय और आना है, शायद अगली गाय और ज्यादा धन, वैभव और सुख-समृद्धि देने वाली हो। इतना सोचते-सोचते वह पहली गाय उसके सामने से निकल गई। दूसरी गाय आई, वह बहुत ही गंदगी लिए हुए थी, उसके पूरे शरीर पर गोबर लगा हुआ था। उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा इतनी गंदी गाय के पीछे कैसे जा सकता हूं? और वह तीसरी गाय का इंतजार करने लगा। तीसरी गाय आई तो उसकी पूंछ ही नहीं थी। सुखीराम सिर पकड़कर बैठ गया और अपनी किस्मत को कोसने लगा।

कहानी का सारंश यही है कि सही मौका मिलते ही उसका लाभ उठाने में ही समझदारी है, अन्य अवसरों की प्रतिक्षा करने से अच्छा है जो भी मौका मिला है उसका फायदा उठा लेना चाहिए।

तरक्की चाहिए तो खुद को बदलो

* सच कड़वा होता है लेकिन इसे स्वीकार करें
* अपने जीवनसाथी की कमजोरी को महसूस करें
हमारे समाज में पुराने ढररे पर चलना आज भी अनेक मामलों में सही माना जाता है चाहे वह शादी हो या कोई प्रथा इन बातों पर आज भी हमारा समाज रूढि़वादियों से घिरा है। लेकिन ये जरूरी नहीं कि उस का वह नियम या कायदा समय के अनुसार हो इसलिए हमें समय के साथ अपने आप को बदल लेना चाहिए।

गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़ा एक पंसग यही संदेश देता है। बुद्ध उस समय वैशाली में थे वे नित्य धर्मोपदेश देते थे और उनके शिष्य भी उनके उपदेशों का प्रचार करते एक दिन उनके शिष्यों का समूह यही काम कर रहा था कि रास्ते में उन्हें भूख से तड़पता हुआ आदमी दिखाई दिया उनके एक शिष्य ने कहा कि तुम भगवान बुद्ध की शरण में आआ और उनके उनके उपदेश सुनो तुमको शांति मिलेगी भिखारी भूख के मारे उठ नहीं पा रहा था जब महात्मा बुद्ध को इस बारे में पता चला तो वे उसी समय उस भिखारी से मिलने आए और उसे भरपेट खाना खिलाया फिर अपने शिष्य से बोले कि इस वक्त भरपेट खाना ही इसकी जरुरत है और उपदेश भी क्योंकि भूखे आदमी को धर्म समझ नहीं आएगा। हमें समय को ध्यान में रखकर ही सारा काम करना चाहिए।

चाह रखने वाले अपनी राह खुद बनाते हैं

किसी का भला करने या मदद करने के लिए के हमें चाहत की जरूरत होती है बहुत से लोग पैसे की कमी या अपनी क्षमता का रोना रोते रहते हैं लेकिन सही मायनों में अअर देखा जाए तो सच्ची लगन और भावना रास्ता अपने आप बना देती है।

एक छात्र डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था वह जरूरतमंदों की हमेशा मदद करता। एक दिन उसे रास्ते में एक बच्चा मिला जिसके साथ कोई नहीं था उसने पुलिस को खबर कर उस बच्चे को अनाथालय में छोड़ दिया लेकिन वह उस बच्चे से लगातार मिलने के लिए अनाथालय जाता उसने वहां देखा कि उस अनाथालय में बच्चों की देखरेख और पढ़ाई की व्यवस्था तो अच्छी है पर वहां के स्टाफ में आपस में प्रेम भाव नहीं है जिसे बच्चे खुश रह सकें। उस छात्र ने अपनी पढ़ाई खत्म होने के बाद एक आन्दोलन चलाया कि जिन लोगों की गृहस्थी छाटी है वे अनाथ बच्चों को गोद लें और उनका पालन पोषण करें उसकी इस कोशिश में कई लोगों ने उसका साथ दिया

और अनाथ बच्चों को मां बाप का साथ मिलने लगा वह छात्र नोबेल पुरूस्कार विजेता पैस्टोला था जिन्होंने अपना पूरा जीवन अनाथ बच्चों के लिए समर्पित कर दिया उनका ये काम लोगो के लिए मिसाल बन गया उनके इस काम यही पता चलता है कि जहां चाह होती है वहां राह अपने आप बन जाती है।

समय किसी के लिए नहीं रुकता

अंहकार की अति के चलते स्वयं के आगे किसी को कुछ न समझना और यह मानना कि आपके बिना कुछ नहीं हो सकता की सोच लोगों में हावी होती जा रही है। लेकिन आज सच्चाई कुछ और ही बोलती है आज के समय में किसी के बगैर किसी का काम नहीं रुकता। इसलिए आज आदमी को जरुरत है कि वह अपने आप को इतना महत्वपूर्ण बना ले कि लोग हमारे न होने पर हमारी जरूरत को महसूस करें।

एक गांव में झगड़ालु औरत रहती थी उसके कड़वे स्वभाव की वजह से कोई भी उससे बात करना पसंद नहीं करता था उसका एक ही साथी था और वह था उसका मुर्गा। मुर्गा रोज सवेरे बांग देता और गांव में रोजमर्रा का काम शुरु हो जाता। गांववालों की उपेक्षा के कारण एक दिन उसने गांव छोडऩे का फैसला किया गांव छोडऩे से पहले उसने गांव वालों को कहा कि मैं गांव छोड़ के जा रही हूं अब तुम लोग हमेशा मुसीबत में रहोगे क्योंकि मेरे मुर्गे की बांग से गांव में सवेरा होता है और अब ये गांव हमेशा के लिए अधेंरे में डूब जाएगा। दूसरे गांव पहुंचकर जब अगले दिन वह सोकर उठी तो सवेरा हो चुका था और उसका मुर्गा बांग देने की बजाए जंगल में कहीं चला गया उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना उसके मुर्गे के बांग दिए सवेरा कैसे हो गया तब एक बुजुर्ग ने उस औरत को समझाया कि सूरज के उगने पर मुर्गे बांग देते हैं न कि उनके बांग देने पर सूरज उगता है ये प्रकृ ति का नियम है जो किसी के लिए नहीं बदल सकता।

हर आदमी एक पाठशाला है
यूं तो आज हर जगह अच्छी से अच्छी शिक्षा देने के लिए बड़े बड़े कॉलेज और स्कूल बनाए गए हैं जहां पर मोटी फीस देकर पढऩे का सपना सबको नसीब नहीं होता लेकिन वास्तविकता में ऐसे संस्थान भी विद्यार्थियों को वो व्यावहारिक ज्ञान नहीं दे पाते जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा जरुरत होती है जिनसे वे जिदंगी के हर पहलु का सामना समझदारी से कर सकें

संत शेख नासिर हमेशा कहते थे कि मैं हर आदमी से कुछ न कुछ सीखता हूं क्योंकि सभी में कोई न कोई विशेषता जारूर होती है। उनकी इस बात पर कई लोगों ने उनका मजाक बनाते हुए एक नाई की ओर इशारा करते हुए कहा कि क्या इस नाई ने भी आपको कोई पाठ पढ़ाया है। शेख नासिर ने हां करते हुए कहा इस नाई के पास बहुत से लोग हजामत के लिए आते हैं एक दिन मैंने इसे कहा कि खुदा के लिए मेरी हजामत पहले बना दो तब इसने बड़े प्रेम से सबका काम छोड़कर मेरा काम पहले किया उस समय मेरे पास पैसे भी न थे जब मैं थोड़े दिन बाद उसे पैसे देने गया तब वो मुझे बोला कि आपने मुझे खुदा के लिए हजामत बनाने के लिए कहा और मैने ये काम खुदा के लिए किया था पैसे के लिए नहीं। नासिर ने लोगों को समझाते हुए कहा कि मैंने इस नाई से निष्काम ईश्वर भक्ति सीखी है इसलिए मैं कहता हूं कि हर आदमी एक पाठशाला है।

सीखें जिदंगी के हर पहलु से
हम सभी के जीवन में समस्याएं हैं। कभी-कभी हम अपनी समस्याओं को बहुत कठिन और बड़ा बना लेते हैं। इतने भाग्यवादी हो जाते हैं।कि हम जिन्दगी को मुसीबत समझकर समस्याओं से भागने लगते हैं लेकिन इस दौड़ में हम ये भूल जाते हैं कि मुसीबतें भागने से खत्म नहीं होतीं, बिना उनसे जूझे ये सुलझ भी नहीं सकतीं।

एक आदमी हमेशा मुसीबतों से घिरा रहता था। उसका एक कदम ठीक होता तो दूसरा बिगड़ जाता। उसे सुधारने जाता तो तीसरा बिगड़ जाता। तीसरा सुधारने जाता तो कोई नई मुसीबत खड़ी हो जाती। कभी परिवार पर कोई संकट, तो कभी नौकरी पर। उनसे पार पाता तो कोई नई उलझन सामने आ जाती। वह बहुत परेशान हो गया। उसने सोचा कि ये मेरे साथ ही क्यों होता है। ऐसा कब तक चलता रहेगा? क्या जीवन में कभी सुख संतोष होगा? वह इतना निराश हो गया कि उसने आत्महत्या तक करने का प्रयास कर लिया पर किस्मत ने उसका वहां भी साथ नहीं दिया। वह बच गया और परिवार और इष्ट मित्रों ने उसे बहुत ताने सुनाए और उसे जिन्दगी से भागने वाला कहा सभी ने उसे धिक्कारा। उसने सोचा कि स्थान बदलने पर शायद मेरा भाग्य बदल जाएगा।

उसने एक छोटे से कस्बे को पसंद किया। वहां जाने के लिए उसने और उसके परिवार ने तैयारी कर ली। सामान लेकर उसने जैसे ही घर से बाहर कदम रखा तो देखा एक महिला सामने रास्ता रोके खड़ी है। उसने पूछा कौन हो तुम और क्या चाहती हो। महिला ने कहा तुम्हारा साथ। आदमी ने जवाब दिया लेकिन मैं तो शहर छोड़ रहा हूं। महिला ने मुस्कुरा कर कहा तो मैं भी वहां तुम्हारे साथ जाऊंगी। आदमी ने झल्लाकर उसका परिचय पूछा तो वह बोली- मैं तुम्हारी किस्मत हूं। यह सुनकर उसका दिल बैठ गया। उसने कहा जब तुम ही मेरा साथ छोडऩे को तैयार नही हो तो मैं कहीं भी जाकर क्या करुंगा?

उस आदमी ने फैसला किया कि मैं यहीं रहकर अपना भाग्य बदलूंगा। निश्चय ही उसकी मेहनत रंग लाई, जी तोड़ मेहनत से सफलता उसके कदम चुमने लगी। अब वह भी खुश था और परिवार भी उल्लास के माहौल से कष्ट भी आता तो उसका तुरंत समाधान हो जाता।

विश्वास से जीत सकते हैं दुनिया को
किसी भी काम में मिलने वाली हार को जिन्दगी की सबसे बड़ी हार मानकर निराश होने वाले कभी मंजिल तक नहीं पहुंच सकते। जिन्दगी में मिलने वाली नाकामयाबियां ही इस बात का पैमाना तैयार करती हैं कि व्यक्ति अपने जीवन में कितना सफल होगा क्योंकि जो अपनी जिन्दगी की हर ठोकर से कुछ नया सीखकर आगे बढ़ता है वही आसमान की बुलंदियों को छूता है। किसी ने बहुत सही कहा है कि अगर तुम्हे सफल होना है तो सीढिय़ों की जरुरत नहीं है क्योंकि सीढिय़ां उनके लिए बनी है जिन्हे छत पर जाना हो,आसमान पर हो जिनकी नजर उन्हे तो रास्ता खुद ही बनाना होगा। और किसी के बनाये हुए रास्ते पर चलकर मंजिल तक पहुंचना आसान होता है लेकिन रास्ता अगर खुद ही को बनाना हो तो चोट तो लगना ही है। सफ लता इस बात से नहीं मापी जाती कि हमने जिन्दगी में कितनी उंचाई हासिल की है, बल्कि इस बात से मापी जाती है कि हमने कितनी बार गिर कर उठने की क्षमता दिखाई है।

मशहूर आदमी की जिन्दगी की बड़ी मशहूर कहानी है। यह आदमी इक्कीस साल की उम्र में व्यापार में नाकामयाब हो गया। बाइस साल की उम्र में वह चुनाव हार गया। चौबीस साल में वह व्यापार में असफल हो गया। छब्बीस साल की उम्र में उसकी पत्नी मर गई। सताइस साल की उम्र में उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। चौतीस साल की उम्र में वह कांग्रेस से चुनाव हार गया। पैतालिस साल की उम्र में उसे सीनेट के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। सैतालिस साल की उम्र मैं वह उपराष्ट्रपति बनने में असफल रहा। उनपचास साल की आयु सीनेट के एक ओर चुनाव में कामयाबी मिली, ओर वही आदमी बावन साल की उम्र में अमेरिका का राष्ट्रपति चुना गया। वह आदमी अब्राहम लिंकन था।

ज्ञान की कोई कीमत नहीं होती
इंसान को कभी अपनी शक्तियों और सम्पत्ति पर अभिमान नहीं करना चाहिए क्यों कि माया व्यक्ति को बुद्धिहीन कर देती है। और बुद्धिहीन लोग जीवन में कभी ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते। एक बार एक जानश्रुति नाम का राजा था उसे अपनी सम्पत्ती पर बड़ा घमंड था एक रात कुछ हंस राजा के कमरे की छत पर आकर बात करने लगे एक हंस बोला कि राजा का तेज चारों ओर फैला है उससे बड़ा कोई नहीं तभी दूसरा हंस बोला कि तुम गाड़ी वाले रैक्क को नहीं जानते उनके तेज के सामने राजा का तेज कुछ भी नहीं है। राजा ने सुबह उठते ही रैक्क बाबा को ढूढ़कर लाने के लिए कहा राजा के सेवक बड़ी मुश्किल से रैक्क बाबा का पता लगाकर आए।

तब राजा बहुत सा धन लेकर साधू के पास पहुंचा और साधू से कहने लगा कि ये सारा धन में आपके लिए लाया हूं कृपया कर इसे ग्रहण करें और आप जिस देवता की उपासना करते हे उसका उपदेश मुझे दीजिए साधू ने राजा को वापस भेज दिया। अगले दिन राजा और ज्यादा धन और साथ में अपनी बेटी को लेकर साधू के पास पहुंचा और बोला हे श्रेष्ठ मुनि मैं यह सब आपके लिए लाया हूं आप इसे ग्रहण कर मुझे ब्रह्मज्ञान प्रदान करें तब साधू ने कहा कि हे मूर्ख राजा तू तेरी ये धन सम्पत्ति अपने पास रख ब्रह्मज्ञान कभी खरीदा नहीं जाता। राजा का अभिमान चूर चूर हो गया और उसे पछतावा होने लगा।

कथा बताती है कि जहां अभिमान होता है वहां कभी ज्ञान नहीं होता ज्ञान को पाने के लिए इंसान को अपना अहंकार को छोडना पड़ता है।

जीत की भूख ही बनाती है सफल
मन की शक्ति ही वह ताकत है,जो किसी को भी वो हर काम करने की हिम्मत देती है, जिसे कोई इंसान ये सोचता है कि ये मुझसे नही होगा। हर व्यक्ति हर काम कर सकता है सिर्फ जरुरत है तो अपनी पूरी आंतरिक शक्ति से लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करने की।

राघव क्रिकेट की प्रेक्टिस करने लगातार जाता था। बहुत प्रेक्टिस करने के बाद भी वह टीम में सिलेक्ट नहीं हो पाया। जब वह प्रेक्टिस करता तो उसकी मां मैदान में बैठकर उसका इंतजार करती रहती थी। इस बार जब नया प्रेक्टिस सीजन शुरु हुआ, तो वह चार दिन तक प्रेक्टिस पर नहीं आया। क्वार्टर फाइनल और सेमीफाइनल मैच के दौरान भी नहीं दिखा। राघव फाइनल मैच के दिन आया। उसने अपने कोच के पास जाकर कहा आपने मुझे हमेशा रिजर्व खिलाडिय़ों में रखा और कभी क्रिकेट टीम में खेलने नहीं दिया लेकिन आज मुझे खेलने दीजिए। कोच ने कहा बेटा मुझे दुख है। मैं तुम्हे यह मौका नहीं दे सकता। फाइनल मैच है कालेज की इज्जत का सवाल है। मैं तुम्हें खिलाकर अपनी इज्जत दांव पर नहीं लगा सकता। राघव ने खूब मिन्नतें की। कोच का दिल पिघल गया।कोच ने कहा ठीक है जाओ खेलो लेकिन याद रखना कि मैंने यह निर्णय अपने कर्तव्य के विरुद्ध लिया है, ध्यान रखना मुझे शर्मिंदा ना होना पड़े।

मैच शुरु हुआ लड़का तूफान की तरह खेला उसने छ: गेंद पर छ: छक्के मारे। उस मैच का हीरो बन गया। उस मैच मैं टीम को शानदार जीत मिली। मैच खत्म होने के बाद कोच उस राघव के पास जाकर पूछा मैंने तुम्हे कभी इस तरह खेलते हुए नहीं देखा। यह चमत्कार कैसे हुआ?

राघव बोला कोच आज मेरी मां मुझे खेलते हुए देख रही थीं। कोच ने उस जगह मुड़कर देखा जहां उसकी मां बैठा करती थीं। कोच ने कहा बेटा तुम जब भी मैच की प्रेक्टिस करने आते थे। तब तुम्हारी मां हमेशा उस जगह बैठा करती थीं लेकिन आज मै वहां किसी को नहीं देख रहा हूं। राघव ने बताया कि कोच मैनें आपको यह कभी नहीं बताया कि मेरी मां अंधी थीं। पांच दिन पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। आज पहली बार वो मुझे ऊपर से देख रही हैं।

जिंदगी जियो जी भर के
बहुत से लोग मौत के डर से भयभीत होकर जिदंगी के बारे में सोचना ही छोड़ देते हैं उन्हें केवल एक ही बात ही सताती है कि उन्हें एक दिन मरना है ऐसे लोग जीने के आंनद को महसूस ही नहीं कर पाते हैं एक राजा ने मरने के डर से एक ऐसा महल बनवाया जिसमें कोई खिड़की ही नहीं थी केवल एक दरवाजा था और एक के बाद एक पहरेदार खड़े कर दिए। थोड़े दिनों के बाद उस राजा का दोस्त उससे मिलने आया जब राजा ने उसे अपना नया महल दिखाया तो उसका मित्र बोला कि मैं भी अपने लिए ऐसा ही महल बनवाऊंगा तभी सामने खड़ा एक भिखारी उनकी बातें सुनकर हंसने लगा और बोला कि तुम इसके अन्दर चले जाओ और एक दरवाजा लगवालो तब तो कोई भीतर आ ही नहीं पाऐगा। यह सुनकर राजा को गुस्सा आया वो भिखारी से बोला कि तुम पागल हो गए हो क्या इस तरह तो यह मेरी कब्र बन जाएगी तब राजा को भिखारी के हंसने का कारण समझ में आया। मृत्यू एक सच है लेकिन एसके डर से जीवन जीने की खुशी को छोड़ देने वाला सबसे बड़ा मूर्ख होता है।

याद रखें वक्त हमेशा बदलता है

दिन के बाद रात और रात के बाद दिन को आना ही होता है आना-जाना जगत का शाश्वत नियम है जो इस नियम को जान लेता है वह जीवन के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। एक नगर में एक सेठ रहता था वह उस नगर का सबसे धनी व्यक्ति था। एक दिन उसे व्यापार में बहुत बड़ा घाटा हुआ और सारी सम्पत्ति चली गई। निराश होकर उसने आत्महत्या करने का विचार किया। वर्षा ऋतु चल रही थी एक अंधेरी रात में वह घर से निकला और नदी पर जा पहुंचा। वह नदी में कूदने के लिए जैसे ही चटटान पर चढ़ा तभी दो मजबूत हाथों ने उसे पकड़ लिया। बिजली की चमक में उसने देखा कि जिसने उसे पकड़ा है वह कोई साधू है। साधू ने उससे आत्महत्या का कारण पूछा तब सेठ ने साधू को अपनी निराशा का कारण बताया। सुनकर साधू हंसने लगे और सेठ से कहने लगे कि तुम यह स्वीकार करते हो कि पहले तुम सुखी थे। वह बोला हां महाराज पहले मेरा भाग्य चमक रहा था क्यों कि तब मेरे पास लक्ष्मी थी लेकिन अब मेरे जीवन में सिर्फ अंधकार है। साधू फिर हंसने लगा और बोला जैसे रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि का आना निश्चित है। वैसे ही जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेगें।

परिर्वतन प्रकृति का नियम है जो इस सच को जान लेता है वह सुख में सुखी नहीं होता और दु:ख में दु:खी नहीं होता उसका जीवन उस चटटान की तरह हो जाता है जो वर्षा और धूप दोनों में समान होती है। इस लिए तुम भी इस नियम को समझ कर इस का पालन करो और अपना कर्म करते रहो। सेठ को साधू की बात समझ में आ गई और वह अपने घर वापस चला आया।

असली खुशी है आज में जीना
अक्सर लोग भविष्य के सुख की चाह में अपने आज से इस तरह समझौता करते हैं कि आने वाला कल भी उनका आज जैसा ही होता है सुख और शांति से जीने की चाह में आदमी अपने आज में इतना खो जाता है कि आने वाले कल में सुख और शांति की परिभाषा ही भूल जाता है और खुशी शांति जैसे शब्द केवल सुनने मात्र को रह जाते हैं।

एक होटल चलाने वाले व्यापारी ने अपने दोस्त से कहा कि मैं पचपन साल तक कमा लूं फिर शांति से जीऊंगा जब वह आदमी पचपन साल का हो गया तब अपने दोस्त से फिर मिला तब उस दोस्त ने उससे पूछा कि क्या चल रहा है तब वह बोला कि मैं बड़ा परेशान हूं घर में मन नहीं लगता मुझे मेरे काम की याद आती है होटल की याद आती है पत्नी को शिकायत रहती है कि जैसा व्यवहार होटल वालों के साथ करते थे वैसा ही हुकुम घरवालों पर चलाते हैं इस पर घर में रोज झगड़ा होता है इसलिए मैंने दोबारा होटल आना शुरु कर दिया। दोस्त बोला तुमने कल जीने की सोच में अपना अच्छा खासा आज बरबाद कर दिया सब चीजों से फ्री होकर जब तुमने शांति से जीना चाहा तो तुम्हें वो भी अच्छा नहीं लगा। अब तुम खुद सोचो कि तुमने क्या पाया और क्या खोया।

बस जरुरत है खुद को पहचानने की
हर इंसान के अन्दर कोई न कोई खूबी जरूर होती है जिसे अगर वह सही जगह पर इस्तेमाल करे तो उसका जीवन सफल बन सकता है लेकिन इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है खुद के उस हुनर को पहचानना। एक बार की बात है। एक बाप अपने तीन बेटों में संपत्ति बांटना चाहता था लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि तीनों में से किस बेटे को अपनी जायदाद दे। तीनों जुड़वा थे उम्र से भी तय नहीं किया जा सकता है। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। तो उसने फकीर से सलाह ली। फकीर ने उसे एक तरीका बताया । उसने बेटों से कहा मैं तीर्थ यात्रा पर जा रहा हूं और बेटों को उसने कुछ बीज दिए और कहा कि इन बीजों को सम्हाल कर रखना। उसके बाद उनके पिता तीर्थ पर चले गए उसके बाद लम्बे समय के बाद लौटे। वे एक-एक कर तीनों के घर गए। पहले बेटे के घर पहुंचे। पहले बेटे से उन्होंने पूछा बेटा मैंने जो तुम्हे बीज दिए थे उसका तुमने क्या किया? उसने कहा पिताजी कौन से बीज मुझे तो याद ही नही। पिता ने उसे कुछ भी नहीं कहा।

उसके बाद पिता ने अपने दूसरे बेटे के घर जाकर भी यही प्रश्र किया। उसने अपनी तिजोरी की चाबी पिता को दे दी और कहा मैंने आपकी अमानत को तिजोरी में सम्हाल कर रखा है। पिता को फिर निराशा हुई। अब वे तीसरे बेटे के पास गए और वही प्रश्र दोहराया। उसने कहा पिताजी आप को मेरे साथ कहीं चलना होगा। दोनों थोड़ी दूर चले और सामने एक बगीचा था। पुत्र ने कहा पिताजी ये रहे आपके बीज। पिता का दिल खुशी से झुम उठा और उसने खुश होकर अपनी सारी जायदाद अपने तीसरे बेटे के नाम कर दी।

परमात्मा ने हर किसी को हुनर दिया है, सभी को समान शरीर दिया है और संभावनाएं भी। पर फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है कि आप किसी मौके में या अपने आप में कितनी संभावनाऐ देखते है और आप मौका हो या शरीर कितनी बेहतर तरीके से उसका उपयोग करते हैं। पिता ने अपने तीनों बेटों को समान बीज दिए थे पर तीनों ने उसका अपने ढंग से उपयोग किया। वैसे ही परमात्मा ने हम सभी को जीवन और अपने स्तर की संभावनाएं दी हैं। बस सब कुछ इसी पर टिका है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं

सच्चा प्रेम... जो हर हाल में दे आपका साथ

आज बहुत सारे लोग सच्चे प्यार का दम भरते हैं लेकिन अगर सच्चाई पर गौर किया जाये तो हम देखते हैं कि वे ही लोग जरा सी मुसीबत आते ही अपने फर्ज से मुंह मोड़ लेते हैं और उनके सच्चे प्यार के दावे खोखले रह जाते हैं।

एक व्यक्ति ने अपने परिवार के खिलाफ जाकर एक सुन्दर लड़की से शादी की और रात दिन पत्नी को खुश करने में जुट गया। एक बार वह पत्नी के साथ नौका विहार के लिए गया तभी अचानक तूफान आया और नाव डूबने लगी पत्नी को परेशान देखकर वह कहने लगा कि तुम घबराओ नहीं में तुम्हें डूबने नहीं दूंगा और पत्नी को कंधे पर बिठाकर तैरने लगा।

बहुत देर तक कोई किनारा नहीं आया और वह युवक भी थक चुका था तभी उसके मन में स्वार्थ जागने लगा। वह अपनी पत्नी से बोला कि जब तक संभव हुआ मैंने तुम्हें बचाया लेकिन अब मैं थक चुका हूं और अगर मैं इसी तरह तुम्हें लेकर तैरता रहा तो मैं भी डूब जाऊंगा अब मैं मेरी जान की परवाह करूंगा क्योंकि अगर मैं जिन्दा रहा तो दूसरा विवाह कर सकता हूं।और इतना कह कर वह मझधार में अपनी पत्नी को छोड़कर चला गया।

कथा का सार है कि सच्चे प्यार की पहचान कठिन समय में ही होती है और जो मुसीबत में साथ देता है वही सच्चा साथी होता है।

ऐसे लोग कभी सुखी नहीं होते
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें किसी भी स्थिति में संतोष और खुशी नहीं मिलती। वे चाहे जिस भी रह लें वे कभी खुश नहीं रह सकते। एक आदमी रोज मंदिर जाता और प्रार्थना करता है, हे भगवान मैं जीवन से बहुत परेशान हूं मुझे दुखों से मुक्ति दे दो। मुझे मोक्ष चाहिये, मुझे मोक्ष दे दो। एक दिन भगवान परेशान हो गए क्योंकि वह रोज सुबह-सुबह पहुंच जाता और गिड़गिड़ता कि मैं दुखी हूं। एक दिन भगवान प्रकट हो गए और बोले तुझे मुक्ती चाहिए तो लो इसी वक्त लो, यह खड़ा है विमान बैठकर चलो। वह आदमी घबरा कर बोला अभी, एकदम कैसे हो सकता है? अभी मेरा लड़का छोटा है। उसकी शादी हो जाए फिर चलूंगा। अब उस व्यक्ति का बेटा जवान हो गया और उसकी शादी हो गई। भगवान फिर प्रकट हुए और बोले चलो मेरे साथ मे तुम्हें मोक्ष के लिए लेने आया हूं। लड़के की तो अभी शादी हुई है। पोते या पोती का सुख देख लूं, फिर मैं बिल्कुल तैयार हूं। भगवान फिर वापस चले गए।

ऐसे करते-करते वह व्यक्ति बूढ़ा हो गया उसके हाथ पैर थक गए। अभी तक जब भी भगवान आते वह उन्हें हर बार बहाना बना कर लौटा देता। अब वह व्यक्ति बूढ़ा हो गया तो भगवान को लगा कि अब तो मुझे इसकी कामना पूरी कर ही देनी चाहिये। भगवान फिर प्रकट हो गए तो अब वह आदमी झुंझला गया और बोला आप तो मेरे पीछे ही पड़ गए आपको और कोई नहीं मिलता क्या? आप कृपया यहां से चले जाइए। भगवान बोले फिर तू मुझसे इतने सालों से क्यों रोज मुक्ति मांगता है। दरअसल वो तो मेरी पुरानी आदत है। वो तो मैं आदतन बोलता हूं। कल मैं फिर आऊंगा और वही प्रार्थना दोहराऊंगा प्रकट मत हो जाना। अक्सर लोगों के साथ आज यही समस्या है वे समझते हैं,मंदिर जाते हुए उम्र कट जाती है लेकिन परमात्मा के अनुरूप नहीं हो पाता क्योंकि वह भगवान को भी अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं।उनकी पूजा का लक्ष्य भगवान को पाना नहीं बल्कि सांसारिक पदार्थों और दुखों से बचना भर है। इसलिए ऐसे लोग मांगने पर ही अपना सारा जीवन बीता देते हैं जो होता है उसका आनंद नहीं उठाते हैं। इसलिए ऐसे लोगों की जिन्दगी का अभाव कभी खत्म ही नहीं हो पाता है। वे हमेशा दुखी ही रहते है, खुद भगवान प्रकट हो जाएं तब भी।

गलतफहमियों की बलि न चढ़ाएं अपने रिश्ते को
जिदंगी में कुछ रिश्ते बड़े ही नाजुक होते हैं इसलिए उन्हें सहेजना और सम्भालना बड़ा मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही एक रिश्ता है प्रेम का चाहे वो पति पत्नी का हो या प्रेमी प्रेमिका का। एक दूसरे की भावनाओं को न समझ पाना और कभी अपनी भावनाओं को अपने प्रेमी के सामने न रख पाना और उसका आपकी भवनाओं को न समझ पाना दोनों ही स्थिति में रिश्ते गलतफहमी के शिकार होने लगते हैं, नतीजन रिश्तों में दरार आने लगती है।

ऐसा ही एक किस्सा है मिर्जा और साहिबा का। दोनो एक दूसरे से बेहद प्यार करते लेकिन साहिबा के भाईयों को दोनों का रिश्ता बिल्कुल पसंद नहीं था इसलिए वे लोग उसकी शादी किसी दूसरी जगह करना चाहते थे। मिर्जा युद्धकला में माहिर था वो साहिबा से जी जान से प्यार करता था इसलिए जिस जगह साहिबा की शादी हो रही थी उसी वक्त वो मण्डप में से ही साहिबा को उठा लाया। दोनों भागते भागते जब थकने लगे तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगे मिर्जा को नींद आ गई तभी साहिबा ने देखा की उसके भाई दोनों को मारने के लिए आ रहे हैं
साहिबा ने सोचा कि अब तो उसके भाई उन दोनों को अपना लेंगें और अपने भाईयों को वह मना सकती है वह यह भी जानती थी कि अगर लडाई हुई तो मिर्जा उसके भाईयों को मार डालेगा। इस डर से उसने मिर्जा के सारे तीर तोड़ दिए जैसे ही साहिबा के भाईयों ने धावा बोला अचानक मिर्जा की नींद खुली और वह अपने तीर कमान ढूढऩे लगा जब उसे अपने सारे तीर टूटे हुऐ जमीन पर दिखे तो वह समझ गया कि यह सब साहिबा ने ही किया है और साहिबा के भाईयों ने उसे मार डाला मिर्जा ने सोचा कि साहिबा ने उसे धोखा दिया है लेकिन साहिबा की भावना कुछ और थी जो साहिबा मिर्जा को बता नहीं पाई।

इसलिए प्यार में भावनाओं को प्रदर्शित करना और समझना दोनों ही जरूरी हैं।

दाम्पत्य का पहला सुख एक दूसरे का साथ
सुखी जीवन के कई सूत्र होते हैं। वर्तमान में देखने को मिलता है कि शादी के बाद पति पत्नी एक दूसरे को समय नहीं दे पाते नतीजा ये होता है कि एक दूसरे में तकरार और शिकायतें जन्म लेने लगती हैं। रिश्ता बनने से पहले ही बिखरने लगता है इसलिए अगर दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाना है तो सबसे ज्यादा जरूरी है एक दूसरे के साथ रहना। तभी वे एक दूसरे की भावनाओं को अच्छे से समझ पाते हैं क्यों कि एक दूसरे को समझे बिना शादीशुदा जीवन की खुशी महसूस करना मुश्किल होता है।

इसका एक उदाहरण हमें रामायण में देखने को मिलता है। राजतिलक के समय जब माता कैकई ने राम के लिए राजा दशरथ से वनवास मांग लिया तब रामजी ने सीता से कहा कि तुम महल में रहो और मेरी प्रतीक्षा करो। लेकिन सीता जी तो श्रीराम के साथ जाना चाहती थी राम ने सीता जी को बहुत समझाया कि तुम एक राजकुमारी हो राजमहल में पली बडी हो तुम वन के वातारण को नहीं सह पाओगी। सीता जी ने राम से कहा कि एक पत्नी के लिए सबसे बड़ा सुख होता है पति का सानिध्य और यही उसका सबसे बड़ा कर्तव्य भी होता है।

 इसलिए मैं आपके साथ रहना चाहती हूं फिर चाहे वो महल हो या वन। सीता जी की यह बात सुनकर भगवान राम उन्हें अपने साथ वनमें ले गए और चौदह सालों तक वन में एक दूसरे के साथ रहकर जीवन व्यतीत किया।

मुश्किल एक दिन टल ही जाएगी

जिन्दगी में परेशानियां सभी के साथ होती हैं। समस्याओं से हारकर आप जीवन को जीना नहीं छोड़ सकते हैं। भगवान जिन्दगी का हर दिन हमें एक अनमोल सिक्के के रूप में दिया है। अगर आप खर्च करें तो ठीक, नहीं तो वह जिस तरह से देता है उसी तरह वापस भी ले लेता है। जिन्दगी के जो पल हैं उन्हें खुशी से बिताएं क्योंकि जिन्दगी का समय सीमित है और मौत एक सच्चाई ।

एक शहर में चार साधु आए। एक साधु शहर के चौराहे पर जाकर बैठ गया दूसरा घंटाघर में, एक कचहरी में और चौथा साधु शमशान में जाकर बैठ गया। चौराहे परबैठे साधु से लोगों ने पूछा, बाबाजी आप यहां आकर क्यों बैठे हो? क्या कोई अच्छी जगह नहीं मिली? साधु ने कहां यहां चारों दिशा से लोग आते है और चारों दिशाओं मे जाते हैं। किसी आदमी को रोको तो वह कहता है कि रुकने का समय नहीं हैं, जरुरी काम पर जाना है। अब यह पता नहीं लगता कि जरुरी काम किस दिशा में है इसलिए यह जगह बढिय़ा दिखती है।

घंटाघर पर बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबा। यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहा घड़ी की सुइयां दिनभर घूमती है परंतु बारह बजते ही हाथ जोड़ देती है कि बस हमारे पास इतना ही समय है, अधिक कहां से लाएं? घंटा बजता है तो वह बताता है कि तुम्हारी उम्र में से एक घंटा और कम हो गया। जीवन का समय सीमित है। हमें यह जगह बढिय़ा दिखती है।

कचहरी के बाहर बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबा आप यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहा यहां दिन भर अपराधी आते हैं। मनुष्य पाप तो अपनी मर्जी से करता है परंतु दंड दूसरे की मर्जी से भोगना पड़ता है। अगर वह पाप करे ही नहीं तो दंड क्यों भोगना पड़े? इसलिए हमें यह जगह बढिय़ा दिखती है।

शमशान में बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबाजी आप यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहां शहर में कोई भी आदमी हमेशा नहीं रहता। सबको एक दिन यहां आकर उसकी यात्रा समाप्त हो जाती हैं। कोई भी आदमी यहां आने से बच नहीं सकता। हमें जीवन रहते-रहते ही इसे जी लेना चाहिये। जिससे फिर संसार में आकर दुख ना झेलना पड़े इसलिए यह जगह मुझे बैठने के लिए सबसे बढिया दिखती हैं।

कथा बताती है कि जिदंगी को हर हाल में खुशी से जिऐं क्यों कि मौत तो एक दिन सभी को आनी है उसकी चिंता में हम आज की खुशी न गवाएं।

समझें अपने साथी के दर्द को
ज्यादातर दाम्पत्य संबंधों में खटास तभी आती है जब पति-पत्नी एक-दूसरे की परेशानियों को नहीं समझ पाते। दोनों एक दूसरे को नजर अंदाज करने लगते हैं। ऐसे में स्थिति बिगड़ती है और फिर रिश्ता टूटने तक की नौबत आ जाती है। अगर दाम्पत्य को जीवनभर खुशहाली भरा रखना है तो इसके लिए एक-दूसरे की परिस्थिति, परेशानी और मनोदशा को समझना, उसे महसूस करना बहुत जरूरी है। महाभारत का यह प्रसंग इस ओर इशारा करता है।

धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे। जब वे जवान हुए तो उनकी दादी सत्यवती और भीष्म को उनकी शादी की चिंता सताने लगी। भीष्म हस्तिपुर से काफी दूर गंधार देश गए, जहां की राजकुमारी गांधारी काफी सुंदर थीं। गांधारी के पिता ने भीष्म को यह कहकर रिश्ते के लिए मनाकर दिया कि वे एक अंधे राजकुमार से अपनी बेटी की शादी नहीं कर सकते। यह बात गांधारी तक पहुंची। गांधारी ने इस बात को बहुत गहराई से लिया, उसने सोचा कि धृतराष्ट्र को अंधे होने के कारण कितना अपमानित होना पड़ रहा है। लेकिन कोई उनकी परेशानी को समझ नहीं सकता। उसने धृतराष्ट्र से ही विवाह करने की ठान ली। गांधारी ने धृतराष्ट्र की परेशानी को महसूस करने के लिए अपनी आंखों पर कपड़े की मोटी पट्टी बांध ली। जो तमाम उम्र बंधी रही।

सोच होगी अच्छी तो.
अगर आपका नजरिया सही है तो आप गलत में भी सही को पहचान लेंगे। आज अगर आपने अपनी सोच को सकारात्मक बना लिया तो आप सफलता जरूर प्राप्त करेंगे। एक दिन वन में गुजरते हुए नारदजी ने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है कि उसके शरीर के चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। नारदजी को देखकर उसने उन्हें प्रणाम किया और पूछा प्रभु। आप कहां जा रहे हैं? नारदजी ने उत्तर दिया मैं वैकुंठ जा रहा हूं। तब उस व्यक्ति ने नारदजी से निवेदन किया आप भगवान से पूछकर आइएं कि मैं कब मुक्ति प्राप्त करुंगा? नारद जी ने हां कह दी थोड़ा आगे जाने पर नारदजी ने एक दूसरे व्यक्ति को देखा अपनी धनु में मस्त उस व्यक्ति ने भी नारदजी को प्रणाम किया और अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखी- आप जब भगवान के समक्ष जाए तो पूछे कि मैं मुक्त कब होऊंगा? नारदजी ने उसे भी हां कर दी।

लौटते समय दीमक वाले व्यक्ति ने पूछा कि भगवान ने मेरे बारे में क्या कहा? नारदजी ने कहा- भगवान बोले कि मुझे पाने के लिए उसे चार जन्म और लगेंगे। यह सुनकर वह योग विलाप करते हुए कहने लगा- मैंने इतना ध्यान किया कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया फिर भी चार जन्म और लगेंगे। दूसरे व्यक्ति के पूछने पर नारदजी ने जवाब दिया भगवान ने कहा कि सामने लगे इमली के पेड़ में जितने पत्ते हैं, उसे मुक्ति के लिए उतने ही जन्म प्रयास करने पड़ेंगे। यह सुन वह व्यक्ति आनंद से नृत्य करने लगा और बोला मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त कर लूंगा। उसी समय देववाणी हुई मेरे बच्चे तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे। इसलिए कहते हैं कि सकारात्मक सभी परेशालियों का हल होती है यदि हम आत्म विश्वास के साथ आशावादी दृष्टिकोण अपना कर निरंतर कर्म करते रहे, तो लक्ष्य जरूर मिलता है। इसलिए हमेशा सकारात्मक सोचें।

ऐसा होता है सच्चा प्यार
कहते हैं प्रेम की पहचान के लिए कोई शब्द और साक्ष्य की जरूरत नहीं होती। प्रेम आंखों से ही झलक जाता है। पति-पत्नी हो या प्रेमी-प्रेमिका, वे प्रेम की भावनाओं को आंखों से ही समझ जाते हैं। विद्वान कहते हैं कि वो रिश्ता प्रेम का हो ही नहीं सकता, जिसमें भावनाओं को शब्दों से बताया जाए। प्रेम तो वह होता है जिसमें बिना कुछ बोले और बिना कुछ सुनें हम अपनों की बात समझ जाएं।

पुराणों में नल-दयमंती की प्रेम कहानी ऐसी ही है। दयमंती एक सुंदर राजकुमारी थी। उसके राज्य से बहुत दूर किसी दूसरे राज्य में नल नाम का राजा था। नल बहुत पराक्रमी और सुंदर था। नल के राज उद्यान में दो हंस थे। उन्होंने नल को दयमंती की सुंदरता के बारे में बताया और कहा कि वो दयमंती को अपनी रानी बना ले। दोनों हंसों ने दयमंती को भी जाकर नल की सुंदरता और वीरता का बखान कर दिया। दयमंती ने नल को मन ही मन अपना पति मान लिया। दोनों में संदेशों का आदान-प्रदान होने लगा। कुछ समय के बाद दयमंती का स्वयंवर रखा गया। जिसमें न केवल धरती के राजा, बल्कि देवता भी आ गए।

नल भी स्वयंवर में जा रहा था। देवताओं ने उसे रोककर कहा कि वो स्वयंवर में न जाए। उन्हें यह बात पहले से पता थी कि दयमंती नल को ही चुनेगी। सभी देवताओं ने भी नल का रूप धर लिया। स्वयंवर में एक साथ कई नल खड़े थे। सभी परेशान थे कि असली नल कौन होगा। लेकिन दयमंती जरा भी विचलित नहीं हुई, उसने आंखों से ही असली नल को पहचान लिया। सारे देवताओं ने भी उनका अभिवादन किया। इस तरह आंखों में झलकते भावों से ही दयमंती ने असली नल को पहचानकर अपना जीवनसाथी चुन लिया।

जब समय खराब होता है तो सब गलत होता है
जब समय खराब होता है तो हम बहुत जल्दी अपना धैर्य खो देते हैं और एक गलत दिशा पकड़ लेते हैं। आज के युवा कि ये आम समस्या है कि वह कितना भी समझदार हो लेकिन विपरीत परिस्थितियों में घबराकर बहुत जल्दी अपना आपा खो देता है। महाभारत के वन पर्व में ऐसा ही एक प्रसंग है।

जुए में हारने के बाद पाण्ड़व वन में चले गए। एक दिन धृतराष्ट्र ने विदुर को बलाया और दुखी होकर कहा कि तुम सबका भला सोचते हो इसलिए मेरे व पाण्डवों के हित के बारे में बताओ। विदुर बोले कि किसी भी राज्य का स्थायित्व धर्म पर होता है। आप धर्म के अनुसार काम करें पांडवों को उनका राज्य लौटा दीजिए और दुर्योधन को काबू कीजिए

राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि वह अपने धन से संतुष्ट रहे और दूसरों के धन का लालच न करें। यदिआप ऐसा नहीं करेगें तो कौरव कुल का नाश निश्चित है क्यों कि गुस्से से भरे भीम और अर्जुन लौटने पर किसी को जिन्दा नही छोड़ेगें। धृतराष्ट्र विदुर की बातें सुनकर नाराज होते हुए बोले कि तुम केवल पाड़वों का भला चाहते हो इसलिए यहां से चले जाओ। उस समय धृतराष्ट्र केवल पांडवों के हित के बारे में ही सोच रहे थे क्यों कि वे सब उनके सगे बेटे थे। धृतराष्ट्र ने विदुर की बात नहीं मानी और जिसका परिणाम महाभारत का युद्ध था। इसलिए कहते हैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि।

अपने कद को बड़ा रखना है तो नम्रता सीखें
जो व्यक्ति जितना ज्यादा नम्र होता है उसका कद उतना ही बड़ा होता है। पतन हमेशा उस इंसान का होता है जिसमें विनम्रता नहीं होती है या जिसे क्षमा करना नहीं आता है। इसीलिए बबुल का पेड़ ठूठ की तरह खड़ा रहता है जबकि फलों से लदा आम का वृक्ष हमेशा झुका रहता है। मानवता को प्राप्त क रना ही मानव का लक्ष्य है इसके लिए जरूरी होता है कि वह सिर्फ आकृति से ही नहीं बल्कि प्रकृति से भी मनुष्य हो।

एक कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है।शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण का कारण भी उसकी राक्षसीवृति ही थी। इसके अलावा विश्वामित्र ने किंकर नाम के राक्षस को भी कल्माषपाद में प्रवेश करने की आज्ञा दी। जिसके कारण वह ऐसे नीच कर्म करने लगा। लेकिन इतना होने पर भी महर्षि वसिष्ठ उसे क्षमा करते रहे। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।

वसिष्ठ बोले कौन है तो आवाज आई मैं आपकह पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं। आपका पौत्र मेरे गर्भ में है वह बारह वर्षो से गर्भ में वेदपाठ कर रहा है वे यह सुनकर सोचने लगे कि अच्छी बात है मेरे वंश की परम्परा नहीं टूटी। तभी वन में उनकी भेट कल्माषपाद से हुई वह वसिष्ठ मुनि को खाने के लिए दौड़ा। उन्होने अपनी पुत्रवधु से कहा बेटी डरो मत यह राक्षस नहीं यह कल्माषपाद है। इतना कहकर हाथ मे जल लेकर अभिमंत्रित कर उन्होने उस पर छिड़क दिया और कल्माषपाद शाप से मुक्त हो गया। वसिष्ठ ने उसे आज्ञा दी की तुम अब कभी किसी ब्राम्हण का अपमान मत करना। महर्षि वसिष्ठ राजा के साथ अयोध्या आए और उसे पुत्रवान बनाया।

कैसे रखें रिश्तों का मान?

आधुनिक कामकाजी दुनिया में इंसान के पास खुद के लिए ही वक्त नहीं है, तो शेष संसार के लिए किसके पास समय होगा। फिर भी समाज में रहते हुए हमें रिश्ते निभाने ही पड़ते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम किसी जरूरी काम पर निकलते हैं और हमारे अपने लोग ही हमें आराम देना चाहते हैं, ऐसे समय हम कई बार अपने काम की धुन में उनका अपमान कर देते हैं या फिर उन्हें अनदेखा कर देते हैं। यहीं से रिश्तों में बिखराव शुरू होता है। इन रिश्तों को सहेजना सीखें, काम में लगे रहना ठीक है लेकिन रिश्तों का सम्मान भी जरूरी है।

रिश्तों का मान कैसे रखें, यह रामचरित मानस के सुंदरकांड के एक प्रसंग में हनुमान से सीखा जा सकता है। हनुमान समुद्र को पार कर रहे हैं। वे मन में लगातार राम का नाम भी जपते जा रहे हैं। समुद्र भी राम भक्त था, वह एक रिश्ते से राम का पूर्वज भी रहा है। समुद्र ने जब देखा कि हनुमान लगातार उड़ रहे हैं, सौ योजन के समुद्र को एक उड़ान में पार करना कठिन काम है सो सागर ने मैनाक पर्वत जो कि उसी के भीतर रहता था, को कहा कि वो हनुमान को विश्राम दे। मैनाक ने हनुमान से कहा कि तुम राम के काम से जा रहे हो, थको नहीं, कुछ देर मुझ पर विश्राम कर लो। मुझ पर कई मीठे फल वाले वृक्ष भी हैं थोड़ा आहार भी ले लो।

हनुमान जल्दी में थे लेकिन फिर भी उन्होंने मैनाक के इस प्रस्ताव को अनदेखा नहीं किया। उन्होंने उसे छूकर कहा कि भाई मैं तो प्रभु के काम से जा रहा हूं। भगवान के काम किए बगैर में विश्राम कैसे कर सकता हूं। मैनाक को छूकर हनुमान ने उसका भी सम्मान रखा, और बिना रुके आगे चल दिए।

हर समस्या का हल आस-पास ही होता है
कई बार ऐसा होता है हम किसी मुसीबत में होते हैं और दूसरों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। ऐसे समय में कुछ संकेत हमें उन मुसीबतों से निजात दिला सकते हैं लेकिन आवश्यकता है उन्हें समझने की और सही मौके पर उनके उपयोगी की। हर समस्या का हल वहीं आस-पास ही होता है जरुरत है सिर्फ उसे तलाश करने की।

एक व्यक्ति को पक्षी पालने का बड़ा शौक था। उसने अपने पिंजरे में कई तरह के पक्षी पाल रखे थे। वह व्यक्ति पक्षियों की भाषा जानता था तथा और अधिक सीखने का प्रयास करता था। एक बार वह किसी दूसरे देश जा रहा था तो उसने पिंजरे में बंद पक्षियों से कहा कि मैं दूसरे देश जा रहा हूं। वहां मैं दूसरे परिंदों से उनकी भाषा सीखने का प्रयास करूंगा। अगर तुम्हें कोई संदेश वहां के अपने रिश्तेदारों को देना हो तो बता दो। परिंदों ने कहा कि तुम दूसरे देश के हमारे रिश्तेदारों से मिलो तो कहना कि हम स्वतंत्रता के लिए छटपटा रहे हैं। हम स्वतंत्र होना चाहते हैं।

यह सुनकर वह दार्शनिक यात्रा पर निकल गया। एक दिन वह घूमते-घूमते दूसरे देश के जंगल में पहुंच गया। वहां के पक्षियों को देखकर उसने वही संदेश जो पिंजरे में बंद परिदों ने उसे कहा था उन्हें सुनाया। यह सुनकर उन्होंने कहा कि ठीक है जैसा जिसका भाग्य। फिर उन्होंने कहा कि हमारे यहां एक संत प्रवृत्ति का पक्षी भी है आप उसे यह बात बताईए। और उस व्यक्तिने वह संदेश उस संत प्रवृत्ति वाले परिंदे को भी सुनाई।

सुनकर वह परिंदा गिरा और मर गया। दार्शनिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। थोड़े दिनों बाद जब दार्शनिक वापस अपने घर लौटा तो उसने यह घटना पिंजरे में बंद परिंदों को सुनाई। यह सुनकर पिंजरे में बंद पक्षी भी नीचे गिर गए। उस व्यक्तिने उन्हें निकालने के लिए जैसे ही पिंजरा खोला तो वे सभी पक्षी उड़कर भाग गए। तब दार्शनिक को समझ आया कि परदेश में जो परिंदा गिर कर मर गया था वह वास्तव में मरा नहीं था उसने इनके लिए एक संदेश दिया था।

दु:ख के बारे में सोचकर सुख को न गवाएं
जिंदगी में अच्छा-बुरा समय आता-जाता रहता है। बुरे समय के बारे में सोचकर कुछ लोग आज ही दु:खी हो जाते हैं और सुख के पल भी खो देते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि बुरे समय से बचने के लिए हम पहले से ही कुछ ऐसी रणनीति बनाए कि उसका असर हम कम से कम हो।

यह बात व्यवसाय में भी लागू होती है। यदि हम मंदी के बारे में सोच कर अपना व्यवसाय कम कर देंगे तो निश्चित ही उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा जबकि उससे बचने के लिए हमें कुछ अन्य उपाय भी सोचना चाहिए।

एक आदमी सड़के के किनारे समोसे बेचता था। वह अनपढ़ था इसलिए अखबार नहीं पढ़ता था। ऊंचा सुनने की वजह से रेडियो नहीं सुनता था और आंखे कमजोर होने की वजह से वह टेलीविजन भी नहीं देखता था। इसके बाद भी वह रोज दोगुने जोश के साथ अपना काम करता था। थोड़े ही दिनों में उसका व्यवसाय अच्छा चलने लगा और मुनाफा भी अधिक होने लगा। यह देखकर वह ज्यादा आलू खरीदने लगा। बड़ा चूल्हा खरीद लिया। इससे उसका व्यापार और भी बढ़ गया।

थोड़े दिनों बाद उसका बेटा भी काम में हाथ बटांने लगा। वह पढ़ा-लिखा था। अखबार पढ़ता था और रेडियो भी सुनता था। एक दिन उसने अपने पिता से कहा कि जिस तरह व्यापार जगत में मंदी का दौर आया है इसका असर हम पर भी पड़ेगा। आगे हमें बुरे हालातों का सामना करना पड़ सकता है। यह सुनकर वह व्यक्ति ने सोचा कि उसका बेटा समझदार है और पढ़ा लिखा भी। इसकी बात को गंभीरता से लेना चाहिए।

दूसरे ही दिन उसने आलू की खरीदी कम कर दी और अपना साइनबोर्ड भी नीचे उतार दिया। उसका जोश खत्म हो चुका था। थोड़े ही दिनों में उसकी दुकान पर ग्राहकों की संख्या कम हो गई और मुनाफा भी कम हो गया। तब उस व्यापारी ने अपने बेटे से कहा कि तुमने एकदम सही समय पर मुझे मंदी के बारे में बता दिया नहीं तो अधिक नुकसान हो सकता था।

खुश रहना है तो...अच्छा सोचो
मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है कि उसे सामने वाले में गुण छोड़कर दोष ही देखता है और आज के युग में तो लोग इस आदत को लेकर एक दूसरे पर हावी हो रहे हैं। लेकिन अगर इंसान किसी के दोषों को अनदेखा कर केवल खूबियों पर ध्यान दे तो जिदंगी में हर समस्या का समाधान मिल जाएगा।

एक बार देवराज इन्द्र अपनी अपनी सभा में बैठकर देवताओं से चर्चा करते हुऐ कहा कि पृथ्वी पर श्री कृष्ण देवराय सबसे श्रेष्ठ और गुणवान राजा है कुछ देवताओं को राजा की तारीफ सुनना अच्छी नहीं लगी।तब एक देवता राजा कृष्णदेव की परीक्षा लेने के लिए पहुंचे । देवता मरे हुए कुत्ते का रूप धर धरती पर लेट गया उसके शरीर से गंदी बदबू आ रही थी और उसका मुंह फटा हुआ था। तभी उस रास्ते से राजा कृष्णदेव का निकलना हुआ जब राजा ने रास्ते पर पड़े कुत्ते को देखा तो कहने लगे इस कुत्ते के दांत कितने सुन्दर हैं मोती के जैसे चमक रहे है। तभी देवता अपने असली रूप में प्रकट हुआ और राजा से कहने लगा हे राजन तुम सचमुच श्रेष्ठ राजा हो तुम्हें रास्ते पर पड़े कुत्ते के दांत तो दिखाई दिए लेकिन उससे आती दुर्गन्ध पर तुमने गौर ही नहीं किया। संसार में तुम्हारे जैसा इंसान ही हमेशा खुश रह सकता है।

कथा बताती है कि अगर इंसान कमियों को छोड़कर केवल खूबियों पर ध्यान दे तो समस्याऐं कभी पैदा ही नहीं होंगी।

दोस्ती में न तोड़े भरोसा

कहते हैं सच्चा दोस्त वो आईना होता है जिसमें आप अपना अच्छा और बुरा दोनों ही देख सकते हैं। इसलिए समय कैसा भी हो अपने दोस्तों का साथ कभी न छोड़े और न ही दोस्ती में कभी किसी को धोखा दें । क्योंकि दोस्ती वो दौलत है जो हमेशा हमारे साथ रहती है परिस्थिति जैसी भी हो एक सच्चा दोस्त हमेशा हमारे साथ रहता है।

ऐसा ही एक उदाहरण है महाभारत में द्रोणाचार्य और दु्रपद की दोस्ती। दोनों ही भारद्वाज ऋषि के आश्रम में अध्ययन करते थे दोनो ही एक दूसरे के परम मित्र थे। राजपद मिलने से पहले राजा द्रुपद ने अपने मित्र द्रोणाचार्य को यह वादा किया कि उसे जब भी जरूरत होगी तो वह अपना आधा राज्य उसे दे देगा। एक समय द्रोणाचार्य विकट परिस्थितियों से गुजर रहे थे उनके पास न धन था न खाने को खाना तब उन्हें अपने परम मित्र दु्रपद की याद आई और वे अपने परिवार के साथ द्रुपद के महल में पहुंचे। जब द्वारपाल उनका संदेश लेकर दु्रपद के पास पहुंचे तो दु्रपद ने उन्हें पहचानने से ही मना कर दिया। राजा दु्रपद ने द्रोणाचार्य का खूब अपमान भी किया।

काम को बोझ न समझें

हम जो भी काम करते हैं उसे सिर्फ एक औपचारिकता की तरह न करें। यदि काम सिर्फ औपचारिकता बन जाएगा तो न तो आपको उसमें कुछ मजा आएगा और काम सिर्फ बोझ बन कर रह जाएगा। जो भी काम करें, उसका पूरा आनंद लें ताकि काम बोझ न बने।

एक मंदिर का निर्माण हो रहा था। निमार्ण में तीन मजदूर बाहर काम कर रहे थे। वहां एक व्यक्ति आया और तीनों को काम करते हुए देखा। जो महात्मा मंदिर का निर्माण करवा रहे थे, उस व्यक्ति ने उनसे पूछा कि किसी भी काम को किस तरीके से करना चाहिए? महात्मा बोले- मैं तेरे इस प्रश्न का जबाव अवश्य दूंगा लेकिन पहले तू ये जो तीन मजदूर काम कर रहे रहे हैं इनसे पूछकर आ कि तुम क्या कर रहे हो?

वह आदमी गया और उसने पहले मजदूर से पूछा जो पत्थर तोड़ रहा था कि तुम क्या कर रहे हो तो उसने गुस्से में बोला दिखता नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं। दूसरे से पूछा, उसने कहा भैया नौकरी कर रहा हूं । पापी पेट के लिए, बच्चों को पालने के लिए काम करना ही पड़ता है। तीसरे से जाकर पूछा तो उसने कहा - पूजा कर रहा हूं, आनंद मना रहा हूं। ये पत्थर मंदिर में लगेंगे यह जानकर मुझे बड़ी मस्ती आ रही है।

तीनों का उत्तर लेकर वह महात्मा के पास गया। महात्मा ने कहा काम का यही फर्क है। तुम अपने काम को उन दो मजदूरों की तरह बना सकते हो। जो गुस्से में या मजबूरी में यह काम कर रहे हैं या उस व्यक्ति की तरह कर सकते हो जो मजा ले रहा है, आनंद लेकर पत्थर तोड़ रहा है। यह सिर्फ अपना-अपना नजरिया है कि हम अपना काम किस तरह कर रहे हैं।

लक्ष्य पाना है तो दूसरी बातों पर ध्यान न दें

हर किसी के जीवन में अपना एक लक्ष्य होता है। कुछ लोग लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं जबकि कुछ लोग इधर-उधर की बातों पर ध्यान देकर अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं। ऐसा लोगों की संख्या अधिक है जो अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते। चूंकि वे अपने लक्ष्य को देखते तो हैं लेकिन उसके आस-पास जो भी होता है उसे पर भी ध्यान देते हैं। जबकि जो लोग लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं उन्हें हर समय सिर्फ अपना लक्ष्य ही दिखाई देता है और वे कठिन प्रयास कर आखिरकार अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं।

कौरवों व पाण्डवों के गुरु द्रोणाचार्य ने एक बार अपने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने एक नकली गिद्ध एक वृक्ष पर टांग दिया। उसके बाद उन्होंने सभी राजकुमारों से कहा कि तुम्हे बाण से इस गिद्ध के सिर पर निशान लगाना है। पहले द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को बुलाया और निशाना लगाने के लिए कहा। फिर उन्होंने युधिष्ठिर से पूछा तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। युधिष्ठिर ने कहा मुझे वह गिद्ध, पेड़ व मेरे भाई आदि सबकुछ दिखाई दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को निशाना नहीं लगाने दिया। इसके बाद उन्होंने दुर्योधन आदि राजकुमारों से भी वही प्रश्न पूछा और सभी ने वही उत्तर दिया जो युधिष्ठिर ने दिया था।

सबसे अंत में द्रोणाचार्य ने अर्जुन को गिद्ध का निशाना लगाने के लिए कहा और उससे पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे गिद्ध के अतिरिक्त कुछ और दिखाई नहीं दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्जुन को बाण चलाने के लिए। अर्जुन ने तत्काल बाण चलाकर उस नकली गिद्ध का सिर काट गिराया। यह देखकर द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न हुए।

ऐसा होता है आपका सच्चा दोस्त

कबीरदास जी ने कहा है कि निंदक नियरे राखिये आंगन कुटि छवाय बिन साबुन बिना निर्मल करे सुभाय कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ के साथ साथ आपकी बुराईयों को सामने लाकर उनको दूर करने में आपकी मदद करता है। ऐसा ही एक किस्सा है कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती का द्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया।

उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था। अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए। अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा। जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नीयती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती।

सबसे सुखी कौन...?
दुनिया में हर आदमी के पास अपनी जरूरत और सुख के हिसाब से सब कुछ है फिर भी आज हर आदमी दुखी है। अगर हर आदमी को अपना जीवन सही मायनों में सुखी बनाना है तो अपनी चाहतों पर नियंत्रण रखना होगा तभी वह अपने जीवन को सुखी बना सकता है।

एक संत की सभा में एक आदती ने पूछा महाराज आपकी सभा मे सबसे सुखी है। महात्मा ने पीछे बैठे एक आदमी की ओर इशारा किया तब वह आदमी बोला कि इसका प्रमाण क्या है कि सही सबसे सुखी है। संत ने सभा में बैठे राजा से पूछा कि राजन आपको क्या चाहिए राजा बोला मेरे पास तो सबकुछ है बस राज्य को चलाने वाला एक पुत्र चाहिए। फिर एक धनपति से पूछा तुम्हें क्या चाहिए तब धनपति बोला मैं इस नगर का सबसे ज्यादा धनी व्यक्ति बनना चाहता हूं। इस प्रकार सभी ने अपनी अपनी इच्छाऐं महात्मा जी को बता दी ।

आखिर में महात्मा जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि तुम्हेंक्या चाहिए तब वह व्यक्ति बोला कि मुझे तो कुछ नहीं चाहिए। अगर आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो कृपा करके बस मुझे इता आर्शीवाद दीजिए कि मेरे जीवन में कोई चाह नहीं हो तब पूरी सभ में मौन छा गया और महात्मा जी बोले कि है महानुभावों इस दुनिया में सबसे सुखी वही है जिसने अपनी चाहतों को खत्म कर दिया है।

सबसे बड़ा धन है आपका हुनर
कहते हैं आपका हुनर ही आपकी सबसे बड़ी पूंजी है। अगर आप में हुनर है तो आप किसी भी मुसीबत का सामना कर सकते है। एक बूढ़ा संगीतकार किसी जंगल से गुजर रहा था। उसके पास बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं थीं। रास्ते में कई डाकुओं ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसका सारा धन तो छीन ही लिया साथ ही वाइलिन भी। वह अपने संगीत से व उस वाइलिन से बहुत प्यार करता था। संगीतकार ने डाकुओं से बड़ी ही नम्रता से अपना वाइलिन मांगा। वे डाकू बड़े चकित हुए। उन्होंने सोचा कैसा पागल आदमी है। धन वापस ना मांगकर ये बाजा मांग रहा है। डाकुओं ने सोचा कि यह बाजा हमारे किस काम का और उसे वापस लौटा दिया।

वह संगीतकार उसे पाकर नाचने लगा और उसे वहीं बैठकर बजाने लगा। अमावस्या की अंधेरी रात सुनसान वन ऐसे वाइलिन का मीठा स्वर शुरू में तो डाकु अनमने मन से सुनते रहे फिर उनकी आंखों मे भी नमी आ गई। वे भाव विभोर हो उठे और उन्होंने न सिर्फ उसका सारा धन लौटा दिया बल्कि उसे वन के बाहर तक सुरक्षित भी पंहुचाया ।

लाइफ का फंडा संगीत उस संगीतकार का मूल स्वभाव भी था और हुनर भी, सो उसने डाकुओं से अपना हुनर, अपना साधन मांग लिया। यही हुनर उसके काम आया और डाकुओं ने उसके संगीत से प्रभावित होकर सारा धन भी लौटा दिया। लाइफ का फंडा यह है कि आप जब भी परेशानी में घिरें तो अपने स्वभाव और अपने हुनर पर भरोसा रखें, उसी को बचाएं, अगर हुनर बचा रहा तो धन-दौलत फिर मिल जाएंगे।

बदला लेना नहीं... माफ करना सीखिए
कभी कभी बदले की भावना में आदमी इतना अंधा हो जाता है कि उसे ये ध्यान भी नहीं होता कि ऐसी भावना कहीं न कहीं उसे ही नुकसान पहुंचाएगी ।क्यों कि किसी के लिए प्रतिशोध की भावना कभी अच्छा फल नहीं देती। एक आदमी ने बहुत बड़े भोज का आयोजन किया परोसने के क्रम में जब पापड़ रखने की बारी आई तो आखिरी पंक्ति के एक व्यक्ति के पास पहुंचते पहुंचते पापड़ के टुकड़े हो गए उस व्यक्ति को लगा कि यह सब जानबूझ करउसका अपमान करने के लिए किया गया है ।इसी बात पर उसने बदला लेने की ठान ली।

कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति ने भी एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया और उस आदमी को भी बुलाया जिसके यहां वह भोजन करने गया था। पापड़ परोसते समय उसने जानबूझकर पापड़ के टुकड़े कर उस आदमी की थाली में रख दिए जेकिन उस आदमी ने इस बात पर अपनी कोई प्रतिक्रि या नहीं दी। तब उसने उससे पूछा कि मैने तुम्हें टूआ हुआ पापड़ दिया है तुम्हें इस बात का बुरा नहीं लगा तब वह बोला बिल्कुल नहीं वैसे भी पापड़ को तो तोड़ कर ही खाया जाता है आपने उसे पहले से ही तोड़कर मेरा काम आसान कर दिया है। उस व्यक्ति की बात सुनकर उस आदमी को अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ।

क्या आपकी दोस्ती सच्ची है...?
इंसान को दोस्ती बडी ही सोच समझ कर करनी चाहिए । एक सच्चा दोस्त वही है जो आपकी खुशी मे खुश होने के साथ साथ आपके दुखों को भी अपना बना ले। जो मुसीबत में एक मांझी की तरह तरह आपकी नैया को पार लगाने में आपकी मदद करे।

ऐसा ही एक उदाहरण है कृष्ण और द्रोपदी की दोस्ती।एक बार पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ में श्री कृष्ण को प्रथम पद प्रदान किया। शिशुपाल ने इस बात पर अपना विरोध जताया और श्री कृष्ण को खूब भला बुरा कहा। तब श्री कृष्ण ने अपने सुर्दशन चक्र से शिशुपाल का वध कर दिया। इस काम में असावधानी के कारण उनकी उंगली से खून बहने लगा सब घबराकर इधर उधर देखने लगे उसी समय द्रोपदी ने अपनी साड़ी को फाड़ कर पटटी बांधी।

एक बार पाण्डव द्रोपदी को जुए में दाव पर लगाकर हार गए। सारे कौरवों ने भरी सभा में द्रोपदी का खूब अपमान किया। दुशाषन जब द्रोपदी की साड़ी खींचने लगा तब उसकी लाज बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने स्वयं द्रोपदी की चीर बड़ाकर उसकी लाज बचाई। इसलिए कहते हैं कि मुसीबत के समय जो आपके साथ होता है वही आपका सच्चा दोस्त होता है।

अहंकार ही पतन का कारण है
कुछ लोगों को अपने बल का बहुत अहंकार होता है। अपने ताकत के नशे में किसी का सम्मान नहीं करते और सभी का उपहास उड़ाते रहते हैं या अपमान करते हैं। इन लोगों के पतन का कारण इनका अहंकार ही बनता है। इसलिए ध्यान रखें कि यदि आप बलशाली हैं या आपके पास कोई विशेष योग्यता है तो इसका दुरुपयोग न करें तथा किसी अन्य का अपमान न करें।

भगवान श्रीराम के पूर्वज सूर्यवंशी राजा सगर की दो पत्नियां थीं केशिनी और सुमति। केशिनी का एक ही पुत्र था जिसका नाम असमंजस था, जबकि सुमति के साठ हजार पुत्र थे। असमंजस बहुत ही दुष्ट था। उसको देखकर सगर के अन्य पुत्र भी दुराचारी हो गए। उन्हें अपने बल पर बहुत ही घमंड था। घमंड में चूर होकर वे किसी का सम्मान नहीं करते थे।

एक बार सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। तब इंद्र ने उस यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल में कपिलमुनि के आश्रम में छुपा दिया। जब अश्व नहीं मिला तो सगर के पुत्रों ने पृथ्वी को खोदना प्रारंभ किया। तब पाताल में उन्हें कपिलमुनि के आश्रम में यज्ञ का घोड़ा दिखाई दिया। यह देखकर घमण्ड में चूर सगर के सभी पुत्रों ने समाधि में लीन कपिल मुनि को भला-बुरा कहा। सगर पुत्रों की बात सुनकर जैसे ही कपिल मुनि ने आंखें खोली सभी सगर पुत्र वहीं भस्म हो गए।

दूसरों के कहने पर निर्णय न लें, खुद भी सोचें
कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने पर ही हर काम कर लेते हैं और अपनी बुद्धि का उपयोग ही नहीं करते। और जब तक बात हमारे समझ में आती है बहुत देर हो चुकी होती है। जबकि होना यह चाहिए कि दुसरों की बात को पहले हम अपनी कसौटी पर कसे और फिर निर्णय लें कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं? ऐसा करने से हम कभी धोखा नहीं खाएंगे और न ही कभी नुकसान उठाना पड़ेगा।

एक आदमी मछली बेचने का व्यापार करता था। उसकी एक दुकान थी जिस पर बोर्ड लगा था और उस बोर्ड पर लिखा था- फ्रेश फीश सोल्ड हियर। एक दिन उसके यहां एक मित्र आया वो बोला- जब तुम फ्रेश फीश ही बेचते हो तो लिखने की क्या आवश्यकता है। तब उस मछली बेचने वाले ने बोर्ड पर से फ्रेश हटा दिया।

थोड़े दिन बाद कोई दूसरा मित्र मिलने वाला आया वह बोला- तुम मछली यहां ही बेचते हो या और कहीं भी बेचते हो? तो वह बोला- सिर्फ यही बेचता हूं। तो वह मित्र बोला- तो इसमें लिखने की क्या आवश्यकता है। तो दुकानदार ने हियर भी हटा दिया। अब बचा सिर्फ फीश सोल्ड।

एक दिन और कोई परिचित आया वह बोला- सोल्ड लिखा है तो बेचते ही हो फ्री तो देते नहीं हो तो इसे भी हटाओ। अब बोर्ड पर लिखा रह गया सिर्फ फिश। कुछ दिनों बाद फिर कोई आया तो उसने कहा बदबू के कारण दूर-दूर तक पता चलता है कि यहां मछली बिकती है तो यह लिखने की क्या जरुरत है। उसने फिश भी मिटा दी। और फिर एक दिन किसी ने कहा कि जब कुछ लिखा ही नहीं है तो बोर्ड भी हटा दो। तो इस तरह उस दुकान पर लगा बोर्ड भी हट गया।

विपरीत समय में भी लें सही निर्णय
मनुष्य के जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं जब उसे तुरंत निर्णय लेने पड़ते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि वह लालच में आकर गलत निर्णय ले लेता है जो परेशानी का कारण बन जाते हैं। इसलिए जब भी विपरीत समय में कोई निर्णय लेने का अवसर आए तो उसके उसके दूरगामी परिणाम के बारे में भी अवश्य सोचें।
किसी गांव में एक लालची व्यापारी रहता था। वह अपने गांव से दूर देश समुद्र की यात्रा करते हुए व्यापार करने जाता था। एक दिन उसके दोस्तों ने उससे पूछा कि क्या तुम्हें तैरना आता है? तो व्यापारी ने कहा- नहीं। दोस्तों ने कहा तुम समुद्र में यात्रा करते हो तो तैरना तो आना ही चाहिए। व्यापारी ने भी सोचा कि सभी ठीक कहते हैं। उसने सोचा क्यों न तैरना सीख लिया जाए लेकिन काम-काज में व्यस्तता के कारण उसके पास समय नहीं रहता था।

इस कारण जब वह तैरना नहीं सीख सका तो उसने अपने दोस्तों से पूछा कि अब क्या करुं? उसके दोस्तों ने उसे सुझाव दिया कि जब वह कश्ती में जाए तो अपने साथ खाली पीपे (डिब्बे) रख ले और अगर कभी तुफान में कश्ती डुबने लगे तो खाली पीपे शरीर पर बांधकर समुद्र में कूद जाए। ऐसा करने से उसकी जान बच जाएगी। व्यापारी ने ऐसा ही किया। अपनी कश्ती में खाली पीपे रख लिए। संयोग से उसी यात्रा के दौरान समुद्र में तुफान आ गया। जिन लोगों को तैरना आता था वे तो कूद गए।

कुछ ने उससे भी कहा कि खाली पीपे बांधकर कूद जाओ पर व्यापारी सोच रहा था कि अगर में खाली पीपे बांधकर समुद्र में कूद गया तो ये जो दूसरे पीपे जिनमें धन रखा है ये भी सब डूब जाएंगे। धन के लालच में व्यापारी खाली पीपे के स्थान पर धन से भरे पीपे शरीर पर बांधकर समुद्र में कूद गया। इस तरह धन के लालच में उसने अपने प्राण गवां दिए।

मंजिल पाने के लिए सही रास्ता ही चुनें
जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं जब आपको लगता है कि गलत रास्ते पर चलकर आप जल्दी अपनी मंजिल तक पहुंच सकते हैं जबकि सही रास्ता कठिनाइयों भरा लगता हैं। ऐसे में अक्सर लोग गलत रास्ते को चुनते हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि आगे जाकर इसकी नतीजा क्या होगा। इसलिए हम जब भी कोई निर्णय लें तो उसके दूरगामी परिणाम के बारे में भी अवश्य सोचें।

किसी गांव में दो मित्र रहते थे। उनका नाम सोहन और मोहन था। सोहन बहुत ही चतुर व चालाक था, वह जल्द से जल्द अमीर बनना चाहता था। जबकि मोहन बहुत ही सीदा-सादा था, वह अपनी काबिलियत और मेहनत पर ही विश्वास करता था। एक बार दोनों दोस्तों ने शहर जाकर पैसा कमाने का सोचा। दोनों मित्र कुछ पैसे लेकर शहर आ गए। शहर में आकर सोहन को जुए की लत लग गई। शुरु में उसने जुएं में बहुत पैसा कमाया। इस पैसे से उसने शहर में ही एक घर ले लिया और ऐशो-आराम से रहने लगा। मोहन ने उसे काफी मना किया लेकिन वह नहीं माना।

मोहन ने शहर में एक छोटी सी दुकान खोली। वह दिन-रात मेहनत करता और ईमानदारी से अपना हर काम करता। थोड़े ही दिनों में उसकी दुकान ठीक से चलने लगी। मोहन ने भी शहर में ही एक छोटा सा घर ले लिया। सोहन अक्सर मोहन को देखकर उसका मजाक उड़ाता था लेकिन मोहन उसे कुछ भी नहीं कहता।
एक समय ऐसा भी आया जब सोहन जुएं की लत के कारण कंगाल हो गया और सड़क पर आ गया। तब मोहन ने उसे सहारा दिया और अपने घर में रहने की जगह दी। मोहन के स्वभाव को देखकर सोहन का मन भी पिघल गया और उसने मोहन से अपने किए पर माफी मांगी और आगे से सही रास्ते पर चलने की कसम खाई। इस तरह दोनों दोस्त मिलकर दुकान चलाने लगे। इससे दुकान और भी अच्छी चलने लगी और उनकी आमदनी भी बढ़ गई। इस तरह दोनों दोस्त खुशी-खुशी रहने लगे।


दुनिया में हर चीज अनमोल है
कुछ लोग अपनी जिंदगी में कुछ खास को ही महत्वपूर्ण मानते हैं और बाकी सब उनके लिए महत्वहीन हो जाता है। लेकिन वे ये नहीं समझते कि इस दुनिया में हर चीज अपना एक अलग महत्व रखती है। एक शिष्य ने पढ़ाई खत्म करने के बाद घर जाते समय अपने गुरु को स्वर्ण मुद्राएं गुरु दक्षिणा में दी। तब गुरुदेव बोले ये तो तुम्हारे काम की है मुझे तो गुरुदक्षिणा में वो चीज दो जो तुम्हारे काम की न हो। इतना सुनकर शिष्य अपने हाथों में मिटटी भर कर ले आया और बोला ये मेरे किसी काम की नहीं है आप इसे अपने पास रख लीजिए । इतने में मिटटी बोली कि मुझे बेकार समझा है अगर मैं न रहूं तो अनाज कैसे पैदा होगा तुम भूखे मर जाओगे।

फिर शिष्य पत्थर के टुकड़े ले आया और गुरु को देने लगा तभी पत्थर बाले कि हम नहीं होगें तो मकान कैसे बनाओगे कहां रहोगे।फिर वह गंदगी ले आया और बोला ये तो किसी काम की नहीं है। आप इसे अपने पास रख लीजिए तभी गन्दगी बोली मुझे व्यर्थ समझते हो अगर मैं नहीं रहूंगी तो खाद कैसे बनेगी। तब गुरु ने कहा कि यह भी व्यर्थ नहीं है तब गुरुदेव ने समझाया कि इस जगत में कोई भी चीज व्यर्थ नहीं है आदमी केवल अपने अहम के कारण कई चीजों को व्यर्थ समझने लगता है । तब उस शिष्य ने अपना अहम ही गुरु को दक्षिणा में देकर एक आदर्श शिष्य बना।

फर्ज निभाऐं कुछ इस तरह कि...

आज के समय में यह एक आम समस्या है कि जब भी किसी व्यक्ति को कोई काम या जिम्मेदारी दी जाती है तो वे कुछ न कुछ शिकायत करते ही रहते हैं। जीवन में किसी भी काम को पूरा करने के लिए लगन के साथ साथ समर्पण भाव का होना बड़ा जरूरी है। अगर व्यक्ति बिना शिकायत अपनी जिम्मेदारी को निभाए तो निश्चित ही अच्छे परिणाम सामने होंगे।

बहुत पुरानी बात है, एक राज्य में जोरदार बारिश के कारण नदी में बाढ़ आ गई। सारा शहर बाढ़ की चपेट में आ गया। लोग जान बचाकर ऊंचे स्थानों की ओर भागे। बहुत से लोगों की जान गई। राज्य का राजा परेशान हो उठा। एक पहाड़ी से उसने नगर का नजारा देखा। सारा शहर पानी में डूब चुका था। राजा ने अपने मंत्रियों से बचाव कार्य पर चर्चा की। किसी भी तरह से बाढ़ का पानी नगर से निकाला जाए, बस सबको यही चिंता थी। राजा ने सिद्ध संतों से पूछा क्या कोई ऐसी विधि है जो नदी को उल्टा बहा सके, जिससे बाढ़ का पानी निकल जाए। पंडितों ने कहा ऐसी कोई विधि नहीं है।

तभी वहां एक वेश्या आई, उसने राजा से कहा वह नदी को उल्टी बहा सकती है। राजा को हंसी आ गई। मंत्रियों और ब्राह्मणों ने उसे दुत्कार दिया, जहां बड़े-बड़े सिद्ध पुरुष हार मान गए, वहां तू क्या है।वेश्या ने राजा से कहा मुझे एक बार अवसर तो दें। राजा ने सोचा जहां इतने लोग कोशिशें कर रहे हैं, यह भी कर तो बुराई ही क्या है। राजा ने उसे आज्ञा दे दी। वेश्या ने आंखें बंद कर थोड़ी देर कुछ बुदबुदाया।

वह ध्यान की स्थिति में ही बैठी रही, तभी अचानक चमत्कार हो गया। नदी का बहाव उलटी दिशा में लौटने लगा और देखते ही देखते, सारा पानी बह गया। संकट टल गया। राजा ने उस वेश्या के पैर पकड़ लिए। उससे पूछा ऐसी सिद्धि तुझमें कहां से आई? वेश्या ने कहा यह मेरी गुरु की शिक्षा का असर है। जिस महिला ने मुझे इस निंदित कार्य में धकेला था, उसने मुझे एक शिक्षा दी थी कि शायद भगवान ने तुझे इसी कार्य के लिए बनाया है। तू कभी अपनी किस्मत को मत कोसना। जो भी जिम्मेदारी हो उसे हमेशा पूरे मन से निभाना। और मैंने यही किया। मैंने कभी भगवान से शिकायत नहीं की, न ही किस्मत को कोसा। मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या बन गया और मैंने आज भगवान से उस तपस्या का फल मांग लिया।

मौका चुकोगे तो पछताना पड़ेगा

इंसान की जिंदगी में कई ऐसे अवसर आते हैं जिसकी वह तलाश में रहता है। लेकिन कई बार वह इसे पहचान नहीं पाता। उसकी यही गलतियां उसे आगे जाकर पछताने पर मजबूर कर देती है। जीवन में अगर कोई अच्छा अवसर मिले तो उसका लाभ उठाना चाहिए। नहीं तो आगे जाकर पछताना पड़ता है। किसी गांव में हरिया नाम का एक आदमी रहता था। वह भगवान पर बहुत श्रद्धा रखता था। वह रोज भगवान की पूजा करता। वह भगवान भक्ति में इतना डूब गया कि अंधविश्वासी हो गया। वह हर बात को भगवान से जोड़कर ही देखता।

एक दिन गांव में बाढ़ आ गई। सब गांव वाले जान बचाकर भागने लगे लेकिन हरिया नहीं भागा। तभी हरिया के पास गांव का ही एक आदमी आया और बोला कि बाढ़ का पानी गांव को डुबा दे इसके पहले यहां से भाग चलो। लेकिन हरिया तो भगवान की भक्ति में अंधविश्वासी हो गया था। उसने कहा जब भगवान मुझे बचाने नहीं आएंगे मैं नहीं जाऊंगा। वह व्यक्ति चला गया। धीरे-धीरे गांव में पानी भराने लगा। हरिया घर की छत पर चढ़ गया। फिर उसके पास गांव का दूसरा आदमी आया और वहां से चलने को कहा। हरिया ने फिर वही जबाव दिया।

थोड़ी देर में बाढ़ के पानी ने पूरे गांव को डुबा दिया। हरिया एक बड़े पेड़ पर चढ़ गया। सब दूर पानी ही पानी हो गया। तभी नाव में बैठकर एक और गांव वाला हरिया को बचाने आया। हरिया ने उसे भी मना कर दिया। बाढ़ का पानी बढऩे से हरिया उसमें डूब कर मर गया। जब हरिया भगवान के पास पहुंचा तो गुस्से में बोला कि मैंने आपकी बहुत सेवा की और आप मुझे बचाने नहीं आए। भगवान मुस्कुराए और बोले- अरे मूर्ख। मैं एक नहीं तीन बार तुझे बचाने आया था लेकिन तुने मुझे पहचाना ही नहीं।

अगर प्यार हो सच्चा तो मिलेगा जरूर
हमारे यहां कई प्रेम कहानियां अधूरी रह गई हैं। लेकिन कहते हैं अगर आपका प्यार सच्चा है तो एक न एक दिन आपको जरूर मिलता है। हमारे पुराणों में ऐसी ही एक प्रेम कहानी है राजा नल और दयमंती की।
एक बार राजा नल अपने भाई से जुए में अपना सब कुछ हार गए। उनके भाई ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया। नल और दयंमती जगह जगह भटकते फिरे। एक रात राजा नल चुपचाप कहीं चले गए। साथ उन्होने दयमंती के लिए एक संदेश छोड़ा जिसमें लिखा था कि तुम अपने पिता के पास चली जाना मेरा लौटना निश्चित नहीं हैं। दयमंती इस घटना से बहुत दुखी हुई उसने राजा नल को ढ़ूढऩे का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन राजा नल उसे कहीं नहीं मिले। दुखी मन से दयंमती अपने पिता के घर चली गई।

लेकिन दयमंती का प्रेम नल के लिए कम नहीं हुआ। और वह नल के लौटने का इंतजार करने लगी। राजा नल अपना भेष बदलकर इधर उधर काम कर अपना गुजारा करने लगे। बहुत दिनों बाद दयमंती को उसकी दासियों ने बताया कि राज्य में एक आदमी है जो पासे के खेल का महारथी है। दयमंती समझ गई कि वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा नल ही है। वह तुरंत उस जगह गई जहां नल रूके हुए थे लेकिन नल ने दयमंती को पहचानने से मना कर दिया लेकिन दयमंती ने अपने सच्चे प्रेम के बल पर राजा नल से उगलवा ही लिया कि वही राजा नल है। फिर दोनों ने मिलकर अपना राज पाट वापस हासिल कर लिया। कथा कहती है कि आपका समय कैसा भी हो अगर आपका प्यार सच्चा है तो आपके साथी को आपके वापस लौटा ही लाता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष