Monday, March 9, 2015

Jeene Ki Rah3 (जीने की राह)

मूल स्वभाव में रहकर बच्चों से व्यवहार करें
बच्चा अपने माता-पिता की साझी रुचियों का परिणाम होता है। मेडिकल साइंस में इसी को डीएनए कहते हैं। बच्चे के बड़े होने पर माता-पिता परेशान होते हैं कि यह तो जिद्‌दी है। जैसा चाहते थे वैसा नहीं है। पैदा करते समय तो चूक गएलेकिन लालन-पालन में एक प्रयोग कर सकते हैं। अपने बच्चों के साथ रहें तो अपने स्वाभाविक केंद्र यानी अपने मूल स्वभाव पर स्थापित हो जाएं।


जब घर में आपका व्यापारीअधिकारी यानी बाहर का व्यक्तित्व हावी रहता है तो यह आपके पूरे व्यक्तित्व पर परत चढ़ा देता है और परत चढ़े हुए वयस्क जब बच्चों से व्यवहार करते हैंतब ठीक व्यवहार नहीं हो पाताइसलिए योग-ध्यान के माध्यम से अपने केंद्र पर टिकना होगा। अगर आप दादा-दादीनाना-नानी या माता-पिता हैंतो अपने पोते-पोतीनाती-नातिन और बेटे-बेटी के साथ दो या तीन मिनट मेडिटेशन जरूर करिएगा। इससे वे अपने केंद्र पर जाएंगे और जैसे ही आप भी अपने केंद्र पर जाएंगेउसके बाद आप दुनिया के सबसे सरल व्यक्ति हो जाएंगे। फिर आपसे से जो तरंगें निकलेंगीउसे बच्चा पकड़ेगा। फिर आप जो कहेंगेवह करेगा। अभी वह नहीं सुनेगाक्योंकि आप उसे एक आदेशअधिकार से बोल रहे हैंजबकि आपको स्वभाव से बोलना है।

कोई दुख बताए तो उसमें अपना दुख न जोड़ें
जब कोई हमें अपना दुख सुनाता हैतब हम उसमें अपना दुख भी जोड़ लेते हैं। होना यह चाहिए कि हम मन में यह भाव लाएं कि हम संसार के सबसे सुखी इंसान हैं और इसकी मदद अवश्य कर सकेंगे। किष्किंधा कांड में श्रीराम ने सुग्रीव से पूछा और तुलसीदासजी ने लिखा, ‘सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव। कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव।।’ कृपा के समुद्र और बल की सीमा श्रीरामजी सखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए और बोले, ‘हे सुग्रीवमुझे बताओतुम वन में किस कारण रहते हो। सुग्रीव उत्साहित हुए कि चलो किसी ने मुझसे पूछा तो सही कि मैं परेशान क्यों हूं।’ ‘नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई।।


सुग्रीव ने कहा, ‘हे नाथबाली और मैं दो भाई हैं। हम दोनों में ऐसी प्रीति थीजिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।’ श्रीराम और लक्ष्मण के रूप में दो भाई सामने खड़े हैंलेकिन बाली-सुग्रीव का प्रेम बाद में समाप्त हो जाता है। आज हमारे घरों में भी यही हो रहा है। पहले बहुत प्रेम होता है। अहंकार और स्वार्थ बीच में आते ही सगे भाई दुश्मन हो जाते हैं। अहंकार जिस तेजी से बढ़ रहा है उसके परिणाम में परिवारों का विघटन होना ही हैलेकिन श्रीराम परिवार बचाओ अभियान पर निकले थे। अब वे बहुत सुंदर ढंग से सुग्रीव की मदद करेंगे।

इंद्रियों के सदुपयोग में ही है जीवन
यदि व्यवस्था में छिद्र है तो उसमें से ईमानदारीनैतिकता और धन रिस जाता है। यह छिद्र ऐसा होता है कि इसमें टू वे ट्रैफिक चलता है। जिस समय ईमानदारी को बाहर फेंका जाता है उस समय बेईमानी को प्रवेश कराया जा रहा होता है। इस पूरी क्रिया का नाम है भ्रष्टाचार। इसी तरह शास्त्रों ने मनुष्य में नौ छिद्र बताए हैं। इनसे अच्छाई बाहर जा सकती है और बुराई भीतर आ सकती है। हम सारे कामों के साथ मृत्यु को देखने की भी तैयारी करें। यदि आप मृत्यु देखना चाहें तो आंखनाक और कान इन सबकों मिलाकर छह छिद्र हैं। मल-मूत्र की इंद्रियों के दो छिद्र और एक है मुख का छिद्र। इन छिद्रों से लगातार जीवन बाहर जा रहा है।

इन छिद्रों को लगातार मन और आत्मा देख रहे होते हैं। आत्मा देखती है तो इनका सदुपयोग होता है। जब मन इनको देखता हैतो वह जीवन को बर्बाद करता है। मन इन छिद्रों से पार जाने के लिए अनेक डंडों की सीढ़ी बनाता है। उन्हीं डंडों पर चढ़कर हम और ऊपर तथा दूर जाना चाहते हैं। पहुंचते कहीं नहीं हैं। फिर हम उलझ जाते हैं। मौत आएगी तो घसीटकर ले ही जाएगी। इसलिए इन नौ छिद्रों का उपयोग योग के माध्यम से करेंगेतो एक दिन निश्चित हम आने वाली मृत्यु के दर्शन करने के लायक हो जाएंगे और यहीं से जीवन का हम सही उपयोग कर सकेंगे।

आत्मा तक पहुंचने का प्रवेश द्वार है प्रेम
प्रेम के मामले में महिला और पुरुष दोनों का मनोविज्ञान भिन्न होता है। फर्क होना तो नहीं चाहिएक्योंकि प्रेम तो एक ही होता है पर दृष्टिकोण की भिन्नता फर्क ला देती है। प्रेम में मानव की क्रिएटिविटी बहुत बढ़ जाती है। प्रेम सृजन हैइसलिए सृजन के बाद शांति मिलनी चाहिएलेकिन प्रेम में लोग बावले हो जाते हैंअशांत हो जाते हैं। जहां प्रेम का परिणाम शांति होना था वहां विध्वंसहिंसाअशांति क्यों हो जाती हैभिन्न दृष्टिकोण के कारण झंझट शुरू होती है। पुरुष का प्रेम देह से यात्रा करता है जबकि महिला संरक्षण चाहती है। उसके लिए पुरुष शरीर सुरक्षा कवच होता है। भिन्न मनोविज्ञान के कारण प्रेम कब वासना में बदल जाता हैपता नहीं लगता।


सांसारिक रूप से देखें तो अब प्रेम की परिभाषाएं बदल गई हैं। वासना के मखमल में कहीं प्रेम लपेटा हुआ है। अध्यात्म कहता है आत्मा तक जाने के लिए प्रेम प्रवेश द्वार है और परमात्मा तक जाने के लिए आत्मा दरवाजा हैइसलिए प्रेम छोटी घटना नहीं है। जब कोई सच्चे प्रेम में उतरता है तो वह नवजात हो जाता है। शिशु कितना शांतपवित्रनिश्छल होता है। ऐसे ही प्रेम मनुष्य को पवित्र बनाता है। प्रेम में अगर हम सजग हैं तो हम उसे वासना के स्पर्श से बचा लेंगेक्योंकि हमें अपने केंद्र पर लौटना है और प्रेम उसके लिए सेतु है।

प्रकृति की सहजता को आचरण में उतारें
विश्व के सामने प्रदूषण की बड़ी समस्या है। धार्मिक लोगों को इसके प्रति अपने ढंग से जागरूक होना चाहिए। हमारी प्रकृति पंच तत्व पृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश से बनी है। ये पांचों तत्व मनुष्य के शरीर में भी प्रभावी होते हैं। प्रकृति अपने पंच तत्वों के साथ बहुत सहज गति से बहती है। उसे चलना नहीं कहेंगेबहना कहेंगे। मनुष्य जीवन भी बहाव की तरह होना चाहिए। बहने में सहजता है। जैसे आपके परिश्रम को किसी की कृपा मिल गई। अगर कोई प्रकृति से पूछे कि तुम क्या करती होतो उसका जवाब होगा मैं कुछ नहीं करतीमैं होने देती हूं । जब हम पंचतत्व से जुड़ते हैंतो हमारे भीतर होने देने का भाव जाग जाता है। हम तनाव-मुक्त हो जाते हैं। हमें भविष्य का निर्माण करना है।

इसके लिए जरूरी विचार व योजनाएं व्यग्रतावेदनाभयआशा और निराशा लेकर आते हैं। हम परेशान होने लगते हैं। दरअसलहम दो भाग में बने हैं- जो हम हैं और हम जो होना चाहते हैं। इसमें ये पंच तत्व बड़ी मदद करते हैंक्योंकि ये हमें सिखाते हैं कि हम प्रकृति से आए हैं। जैसे ही प्रकृति की सहजता हमारे आचरण में उतरती हैहम कितना ही परिश्रम करें उसे नशा बनाकर बेचैन नहीं होंगे। कितनी ही बड़ी सफलता अर्जित कर लें उसमें अहंकार नहीं लाएंगे और हमारी मस्ती कायम रहेगी।

शिक्षा के साथ शिष्टाचार भी महत्वपूर्ण
इन दिनों हम बच्चों की शिक्षा पर बहुत जोर दे रहे हैंलेकिन सवाल उठता है कि क्या केवल शिक्षा से काम चल जाएगाशिक्षा की एक बहन है शिष्टाचार। देखा जा रहा है कि अधिकांश बच्चे शिक्षा लेकर तो घर लौटते हैं पर दूसरी बहन शिष्टाचार घर में प्रवेश नहीं कर पाती। यही वजह है कि बच्चे घर में जिदअमर्यादित व्यवहार या कभी-कभी बदतमीजी की हद पार कर जाते हैं। शिष्टाचार का प्रयास परिवार के भीतर से ही करना होगा। परिवार के वरिष्ठ सदस्य जो माता-पिताबड़े भाई-बहन भी हो सकते हैंसभी मिलकर संयुक्त रूप से कृतज्ञता और शिष्टाचार का मिला-जुला आचरण प्रस्तुत करेंतब बच्चों के जीवन में दोनों बहनें ठीक ढंग से आएंगी। छोटा-सा भी काम पूरा हो तो प्रशंसा अवश्य की जाए।

घर में जो भी सदस्य जो काम कर सकता होउससे वह जरूर कराया जाए। इससे वह सम्मानित महसूस करता है। दूसरों के प्रति शिष्ट होने में मन बड़ी बाधा पहुंचाता है। मन सक्रिय होभरा-पूरा हो तो कभी भी सही काम नहीं करेगा। अशांत रखेगा। मन निष्क्रिय हो या अनुपस्थित हो तो अच्छे काम होंगे। इन दोनों के बीच एक कोरा मन भी है। जिसे रखकर कृतज्ञ होनाशिष्ट होना बड़ा आसान हैइसलिए घर के सभी सदस्य पूजा-पाठ के साथ कुछ समय योग को जरूर दें।


भीतर के केंद्र से दूर ले जाता है अहंकार
परमात्मा अच्छे लोगों को अच्छे काम करने और बुरे लोगों को गलती सुधारने के मौके देता रहता है। किंतु हमारे जीवन में जब-जब अहंकार आएगाईश्वरीय शक्ति हमसे मुंह मोड़ लेगी। रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में सुग्रीवबालि की कहानी श्रीराम को सुना रहे थे, ‘अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बालि रिपु बल सहै न पारा।। धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयउं बंधु संग लागा।।’ उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर ललकारा। बालि शत्रु की ललकार को सह नहीं सका। वह दौड़ाउसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाई के संग चला गया। बालि ने उस मायावी की चुनौती स्वीकार की और उसके पीछे दौड़ा।

उस राक्षस को मारने के लिए दौड़ने में साहस से अधिक अहंकार था। इसीलिए श्रीराम ने अहंकारी बालि का साथ न देकर विनम्र सुग्रीव का साथ दिया। अहंकार हमें अपने केंद्र से बाहर परिधि पर डाल देता है। इस घटना में सुग्रीव भाई के पीछे गए थे। हम भी हैं अहंकार के पीछे चल देते हैं। सुग्रीव इसलिए बच गए कि उनके जीवन में हनुमानजी थे। हनुमानजी एक तरह से एक ऐसी जीवनशैली हैंजो हमारे मनोविज्ञान को इस बात के लिए प्रेरित करती हैं कि उदासी और निराशा के साथ जीना नहीं सीखना हैउसे मिटाना है और यह काम योग द्वारा हो सकता है।

प्रेमपूर्ण होकर व्यसन से मुक्त कराएं
तंबाकूधूम्रपान और मदिरा पान को अब दोषपूर्ण नहीं माना जाता। ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माने जाते हैं पर चरित्र से इसका संबंध खारिज कर दिया गया है। मदिरा पान तो स्टेटस सिंबल बन गया है। सबसे बड़ा खतरा यह है कि मदिरा घर में पहुंच गई है। जहां यह समस्या हैउन घरों के समझदार लोग नशे में शिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व की जड़ में जाकर देखें कि कमजोरी कहां है। आपको वह कमजोरी दूरी करनी होगी।

उसे अपनी उस जड़ पर लौटाकर लाना होगाजहां नशे की जरूरत नहीं होती और इसके लिए एक अच्छा दोस्त बनना पड़ेगा। कुल-मिलाकर बुराई नशे की वृत्ति में है। मनुष्य मूल रूप से एक शुद्ध प्राणी हैनशा उसको अशुद्ध करता हैइसलिए उसकी शुद्धता जहां मूलरूप से बसी हुई हैउस जगह काम किया जाए और यह काम प्रेमपूर्ण होकरविश्वसनीय बनकर दोस्त के रूप में ही किया जा सकता है।

जीवन में पहल करने की वृत्ति बढ़ाइए
सभी के जीवन में कहीं न कहीं धोखे और अपमान की घटनाएं हुई होंगी। ऐसी घटनाओं के बाद व्यक्ति सभी को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है या वह अत्यधिक सावधान हो जाता है। जब अपमान मिलता है तो बदले की भावना जाग जाती है या फिर निराशा व कुंठा जाग जाती हैं। धोखा और अपमान तो कभी भी हो सकते हैं। तब क्या करेंगेन तो बदले की वृत्ति रखें और न ही अत्यधिक संदेह में डूबें। बस सावधान रहकर अच्छे काम की पहल करें। आदमी बहुत रिजर्व होता जा रहा है। चार लोगों के बीच में कोई हमें देखकर बात नहीं करेतो हम सोचते हैं हम क्यों पहल करें। मान-अपमान के झंझट में माफी मांगने की बात आए तो हम सोचते हैं कि हम क्यों पहल करें।

जब ऐसी आदत मन में बस जाती है तो हम बोझिल होने लगते हैंइसलिए चाहे कितन ही धोखे मिलेअपमानित होंलेकिन पहल करना मत छोड़िए। अपनी पहल में प्रेमसम्मानआश्वासनप्रोत्साहन और समर्थन का भाव जरूर रखें। पहल का मतलब अहंकार का प्रदर्शन न हो। इसमें यह भावना जोड़ लीजिए कि परमात्मा ने हमें अवसर दिया है। आप अपनी पहल करने की वृत्ति को जैसे-जैसे बढ़ाएंगे आप पाएंगे कि दुनिया के कई लोगों के लिए आप बहुत महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं और यह भी एक उपलब्धि है।

वर्तमान को उपयोगी बनाना ही पुरुषार्थ
समय के सदुपयोग की सलाह दी जाती है। जो लोग समय प्रबंधन में रुचि रखते हैं उन्हें इसके कई तरीके सिखाए जाते हैं। टाइम मैनेजमेंट पर अध्यात्म की अपनी दृष्टि है। हिंदू धर्म ने तो समय को काल और काल को देवत्व से जोड़ा है। समय को भविष्यवर्तमान और भूतकाल में बांटा गया है। भविष्य का अज्ञात होना ही मनुष्य के परिश्रम को रोचक और गहरा बना देता है। इसी तरह भूतकाल का निचोड़ अनुभव होना चाहिएन कि बेकार की स्मृतियां। इन दोनों के बीच में महत्वपूर्ण है वर्तमान। एक ही क्षण में वह भूत में होता है या उसका रूप भविष्य होता है। वर्तमान को उपयोगी बनाना ही पुरुषार्थ है। वर्तमान पर टिकने के लिए अध्यात्म ने कुछ साधन बताए हैं।

उन्हीं में से एक है मेडिटेशन। ध्यान की आदर्श स्थिति यह होती है कि आंख बंद करके सांस पर नियंत्रण करना। जब जो काम करेंडूबकर करें यह भी एक ध्यान है। प्रकृति से जुड़कर हम ऐसा आसानी से कर सकते हैं। गाय की आंख में आंख डालकर देखेंतो उसमें गजब की गहराई होती है। आपका ध्यान लग सकता है। श्वान के नेत्रों में आंख डालें तो समय के प्रति एक अजीब सी जागरूकता नजर आती है। ये दोनों ही प्रयोग आपको वर्तमान में टिकाने में सहायक हैं और यही समय का सही सदुपयोग होगा।

आलस्य की जननी है सुविधाओं की आदत
सुख-सुविधाएं बुरी नहीं होतींलेकिन इन्हें भोगते समय जो लोग विवेक नहीं रखेंगेउन्हें दो बुराइयों का जोखिम रहता है। विवेकहीन सुख-सुविधाओं की अगली कड़ी होती है आरामदेह जीवन। आराम की आदत आलस्य को जन्म देती है। आलसी आदमी के पास अपनी स्थिति के लिए अनेक तर्क होते हैं। ये तर्क उसे निकम्मेपन के दौर में फेंक देते हैं। इससे हमारे व्यक्तित्व के पंच तत्व प्रभावित होने लगते हैं। आरामआलस्य और निकम्मेपन की यात्रा से पृथ्वी तत्व बंजर होने लगता है। जल तत्व बदबू तथा अग्नि तत्व धुआं देने लगता है। वायु तत्व प्रदूषित हो जाता है और आकाश पर दुर्भाग्य के बादल आ जाते हैंइसलिए लगातार प्रयास करें कि हम कुछ अनूठा व श्रेष्ठ करें।

इसके लिए चार बातें जरूरी हैं। एकसहनशक्ति खूब होनी चाहिएक्योंकि इसके अभाव में हम रिस्क नहीं लेते। दोहमारे भीतर साहस होक्योंकि साहसी व्यक्ति ही कुछ नया करता है। तीननए-नए लोगों से जुड़ने में रुचि रखिए। नए लोगों से मिलने से घबराने वाले अपने कंफर्ट जोन से बाहर नहीं आते। चारधन के प्रति लगाव जरूर रखें। धन में बुराई नहीं है। बुराई है उसके दुरुपयोग में। अधिक धन की कामना भी मनुष्य को प्रेरित करती है। यदि आपकी यात्रा ठीक है तो यह कामना गलत काम नहीं करवाएगी।

पुनर्निर्माण के देवता शिव
यह मल्टी पर्सनालिटी का युग है। आपसे उम्मीद की जाती है कि आप हर क्षेत्र में दक्ष हों और जो भी काम करें पूर्णता के साथ करें। शिव चरित्र की एक विशेषता यह है कि वे जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करते हैं। शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण। उन्हें संहार का देवता कहा गया हैलेकिन संहार का अर्थ है पुनर्निर्माण। फिर शिवरात्रि की तिथि अनूठी है। इस दिन शिवलिंग का प्राकट्य भी हुआ और शिव-पार्वती का विवाह भी। शिवलिंग स्वरूप का मतलब है भाव-विरक्त रहकर सबके लिए हितकारी होना। आज संसार में निजहित की कामना इतनी हावी हो गई है कि लोग दूसरों को नुकसान पहुंचाने से भी पीछे नहीं हटते। पार्वती से विवाह के समय उनकी सास मैनाजी ने शिवजी के रूप को देखकर क्रोध में अपशब्द कहेतब भी शिव मुस्कुरा रहे थे। यह उनके स्व-संचालित जीवन का प्रतीक है। शिवरात्रि के दिन यह संदेश जीवन में उतारें कि दूसरों से संचालित होना बंद कर दें।

हम मशीन नहीं हैं कि किसी ने स्वीच दबाया और हम चल दिए। किसी ने अपशब्द कहा और हम पूरी तरह से उससे प्रभावित होकर गतिविधि करने लग जाते हैंं। शिव उस समय भी मुस्कुराकर कह रहे थे- मैं क्या हूं इसका निर्णय करने वाली मैनाजी कौन हैं। ऐसे ही व्यक्ति का दाम्पत्य दिव्य हो सकता है। शिव-पार्वती का दाम्पत्य इतना प्रेमपूर्ण और समर्पित थाइसीलिए उनके यहां कार्तिकेयगणेश और हनुमानजी जैसी संतानें हुईंजिन्हें संसार आज भी लोक देवताओं के रूप में पूज रहा है। आज के दिन शिवरात्रि से दो संदेश लिए जाएं- पहलातो यह कि हम सबके लिए हितकारी बनें और दूसराहमारा दाम्पत्य ऐसा हो कि हमारी संतानों के भाग्य में आनंद उतरे।

शांति व उत्साह के पड़ावउत्सव
हमारे देश में मेले और उत्सव खूब मनाए जाते हैं। कई लोगों का जीवन तो इनसे ही जुड़ा है। तेजी से गुजर रहे जीवन में ये शांति तथा उत्साह के पड़ाव जैसे हैं। इन दोनों मौकों पर एक आयोजन और होता हैजिसे सत्संग कहते हैं। कुछ सत्संग ऐसे होते हैंजिन्हें कथा कहा जाता है और कुछ सत्संगों में विचार-विमर्श होता है। प्राचीन समय से संत सम्मेलन किया करते थे। आज के कुंभ मेले उसी का रूप हैं। उस समय संत सम्मेलन में दुख पर शोध करते थे और उन्हें कैसे मिटाया जाए इसके उपाय ढूंढ़ा करते थे। संतों का मानना था कि मनुष्य सुखी रहे यह हमारा भी दायित्व है। अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए उनकी गतिविधियां तो चलती ही थींलेकिन साधारण मनुष्यों के लिए भी वे चिंता पालते थे। संतों को यह मालूम होता है कि आम मनुष्य की कुछ सीमाएं हैंइसलिए कष्ट आने पर वह टूटने लगता है।

यदि हम उसे कुछ उपाय सौंप देंतो वह जीवन का आनंद उठा सकेगा। आजकल प्रबंधन की भाषा में कहा जाता है कि यदि आपको अमीर बनना हैतो दूसरों को भी धनवान होने का मौका दीजिए। एक अच्छा प्रबंधन अपने कर्मचारियों से भरपूर परिणाम तभी ले सकता हैजब वह उनको महसूस कराए कि ऐसा करने में उनकी भी प्रगति है। ठीक यही भाव संतों का होता है कि साधारण मनुष्य को संसार में रहते हुए परमात्मा मिलेतो यह उनके लिए भी हितकारी है। यह परस्पर लेन-देन जैसा है। हमें भगवान की उपलब्धि हुई है तो हम संसार को बांट रहे हैं और सांसारिक लोगों को जो भौतिक लाभ हुआ है वह धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में भी काम आएगाइसलिए एक का मनचाहा दूसरे का मनचाहा बन जाता है और सत्संग में यह काम सबसे आसानी से होता है।

मनुष्य होने की अनुभूति अहम
हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि हम मनुष्य हैं। यदि इसकी विस्मृति हो गई तो फिर समझ लीजिए कि केवल जी रहे हैं। जानवर और इंसान लगभग सारे काम एक जैसे करते हैं। एक ही भेद है कि जीवन क्या हैयह पशु पूरी उम्र नहीं जान पाता और मनुष्य चाहे तो हर पल समझ सकता है। हमें परमात्मा के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए कि उन्होंने हमें मनुष्य बनाया। परमात्मा ने अपनी सबसे सरल पहचान प्रकृति में डाल दीइसलिए खुद को प्रकृति से जरूर जोड़ें। इसका सीधा अर्थ है धरती को प्रदूषित न करें। वायु शुद्ध रखें। जल का मान करें। शरीर की अग्नि को स्वास्थ्य से जोड़ें और आकाश यानी ध्वनि यानी अच्छे शब्द सदैव सुनते रहें। 

इन्हीं पंचतत्वों में जीवन हैलेकिन हम लोग खुद को इस तरह बना लेते हैं कि पंचतत्वों का उपयोग करने की जगह उनके गुलाम बन जाते हैं। गुलामी कैसी भी होदुख ही पहुंचाएगी। गुलामी और स्वतंत्रता में भी हम अति पर टिक जाते हैं। या तो इतने गुलाम हो जाएंगे कि दूसरे के बिना काम ही नहीं चलेगा या खुद को इतना स्वतंत्र कर लेंगे कि जैसे हमारे अलावा कुछ है ही नहीं। अति अंतिम छोर हैइसीलिए इसके आगे के आनंद से हम वंचित हो जाते हैं। जीवन संतुलन मांगता है। अति के कारण जिस आधे-अधूरे को हम देखते हैं उसके कारण उस आधे से चूक जाते हैंजहां जीवन का बहुमूल्य होता है। पशु के पास यह दृष्टि नहीं होतीइसलिए वह एक ही अति पर जीवन गुजार देता है। जंगल में उन्मुक्त होता है या मनुष्य के पिंजरे या खूंटे से बंधा होता है। हमारे जीवन में भी कई खूंटेपिंजरे व उजाड़ वन हैं। जीवन मिलता है संतुलन सेइसलिए अपने मनुष्य होने की अनुभूति बनाए रखेंतब जीवन का असली आनंद उठा सकेंगे।

संतान से आत्मिक रिश्ते बनाएं
मां-बाप और बच्चों के बीच की अनुभूतियां बाहर से नहीं समझी जा सकतीं। बाकी रिश्ते जन्म के बाद बनते हैंइसलिए उन्हें ऊपरी तौर पर समझा जा सकता है। किंतु पालक और संतान का रिश्ता जन्म के पूर्व ही बनने लगता हैइसलिए इसे समझने के लिए गहरे उतरना पड़ेगा। मुझसे अनेक मां-बाप शिकायत करते हैं कि बच्चे उनकी बात समझ नहीं पाते या वे ठीक से समझा नहीं पा रहेक्या करेंसमस्या गंभीर हैलेकिन निदान आसान है। हम अपने बच्चों से ऊपरी तौर पर ज्यादा जुड़े हैं। मसलनउन्हें अच्छा पढ़ानाउनकी जरूरतें पूरी करना। हम काफी ध्यान इसी पर देते हैंतो बच्चों को लगने लगता है कि माता-पिता से उनका रिश्ता इसी बात का है कि वे सारी सहूलियतें उपलब्ध कराएंगे। यदि हम बीमार हुए तो इलाज करवाएंगे। कई बच्चे तो मानतेे हैं कि यह मां-बाप की ड्यूटी हैवरना पैदा ही क्यों किया।

अधिकतर पालक भी अपने आप को इसी में उलझा लेते हैं। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। पूरी क्षमता से ऐसा करना चाहिएलेकिन सिर्फ इतना ही न करें। अपने बच्चों को आत्मिक अनुभूति के स्तर पर जोड़िए। पहले के तीनों काम शारीरिक स्तर के हैंलेकिन हमारी संतानें जितना हमारे शरीर का हिस्सा हैं उससे अधिक आत्मा का भी भाग हैं और इसीलिए आत्मीयता बनाए रखने का काम भक्ति के द्वारा हो सकता है। चूंकि बच्चों के पास भक्ति के लिए समय कम हैइसलिए अल्प समय में इनके साथ मेडिटेशन से जुड़ जाइए। जिस परिवार में माता-पिता और बच्चे एकसाथ ध्यान करेंगे उस परिवार की आत्मिक अनुभूति समृद्ध होगी और कुछ समस्याएं तो दरवाजे के बाहर से ही लौट जाएंगी तथा जो भीतर आ चुकी हैं वे रूप बदलकर समाधान बन जाएंगी।

संघर्ष में आनंद प्राप्ति का रास्ता
भगवान भक्त की परीक्षा लेते हैं। यह संवाद धर्म के प्रति समर्पित व्यक्तियों में लोकप्रियप्रेरणादायक और मान्य है। जीवन में जब भी संघर्ष का दौर आता हैबहुत कम लोग होते हैं जो संघर्ष का सामना जमकर करते हैं। अधिकतर लोग या तो टूट जाते हैं या लक्ष्य की पूर्ति के लिए गलत साधनों का उपयोग करने लगते हैं। सबकी सुविधा के अनुसार काम होता रहे ऐसा संभव नहीं है। एक भक्त के जीवन में जब संघर्ष आता हैतो वह मानकर चलता है कि प्रतिस्पर्धा के युग में जब दूसरे घोर परिश्रम कर रहे होते हैं और यदि आप थोड़े भी कमजोर साबित हुए तो भी आपका संघर्ष बढ़ जाएगा। ऐसे में अत्यधिक परिश्रम को भी कुछ लोग संघर्ष मान लेते हैं। जीवन में जब भी संघर्ष आए तो इसे मजबूरी नहीं मानें। संकट और तनाव न समझें। संघर्ष एक तरह की दृढ़ इच्छाशक्ति है। आप कुछ विशिष्ट पाना चाहते हैं।

उसे प्राप्त करने के लिए आपके भीतर जो माद्‌दा होता है उसी का नाम संघर्ष है। आप संघर्ष में उतरते हैं तो आपको उसके रास्ते भी मिलेंगेसमाधान भी मिलेगा। कहते हैं जो व्यक्ति जितना अधिक संघर्ष करता है वह उतना ही परिपक्व हो जाता है। भगवान भक्त की परीक्षा लेता है यानी एक बड़ी शक्ति हमें आजमा रही है और हमें उसमें पास होना है। यदि हमने रास्ते सही अपनाए तो वह हमें उत्तीर्ण जरूर करेगाइसलिए संघर्ष के दौरान गलत रास्ता न पकड़ें। आजकल चूंकिगलत साधनों के उपयोग को चरित्र से नहीं जोड़ा जाताइसलिए लोग बहुत जल्दी गलत रास्ता अपना लेते हैं। संघर्ष तो परिपक्व व्यक्ति का गहना हैइसलिए जीवन में जब कभी संघर्ष आए तो अपना परिश्रम और ईश्वर की कृपा को जोड़ लें। संघर्ष में भी आनंद आने लगेगा।

शब्दों का अर्थ बदलने से अनर्थ
शब्दों का लोगों ने कैसा-कैसा उपयोग किया है इसका एक उदाहरण बाली का चरित्र भी है। बाली उन व्यक्तियों में से थाजिसने अपने शब्दों से भय निर्मित किया था। जब हम अपने ही शब्दों का गलत अर्थ लगा लेते हैं तब हम जो भी निर्णय लेंगेगलत ही लेंगे। किष्किंधा कांड में सुग्रीव अपनी परेशानी श्रीराम को बता रहे थे। जब बड़ा भाई बाली राक्षस को मारने दौड़ा और वह एक गुफा में घुस गयातब उसके पीछे गुफा में घुसते हुए बाली ने सुग्रीव से कहा तुम 15 दिन यहां रुकना और मैं वापस नहीं आऊं तो समझ लेना मारा गया। परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा।। सुग्रीव वहां एक माह रुका। फिर सुग्रीव ने खून की धार गुफा से बाहर आती देखी। सुग्रीव के स्थान पर कोई भी होता तो वह यही समझता कि भाई मारा गया अब राक्षस आकर मुझे भी मार डालेगा। यही समझकर सुग्रीव वहां से भाग निकला।

जब बाली यह कह चुका था कि 15 दिन मेरी प्रतीक्षा करनातो फिर बाली को यह विचार करना था कि लौटने पर सुग्रीव से पूछते तो सही कि तू क्यों वहां से भाग आयालेकिन अहंकारी व्यक्ति को एक नशा होता है। राक्षस को मारकर गुफा से लौटने पर बाली ने सिर्फ इतना देखा कि मंत्रियों ने सुग्रीव को राजा बना दिया है। अगर उसने अपने शब्दों को याद किया होता तो भाई से रिश्ते की गरिमा खंडित नहीं होती। आज भी हमारे परिवारों में रिश्तेइसीलिए टूट रहे हैं कि सदस्य एक-दूसरे से कहे गए शब्दों के अर्थ बदल लेते हैं । न सिर्फ बोलते समय सावधानी रखी जाएबल्कि बोले गए शब्दों को याद भी रखें। शब्द से बाली फिराकीमत वसूली जा रही थी सुग्रीव से। क्या हमारे परिवारों में आजकल ऐसा नहीं हो रहाइसलिए बाली जैसे आचरण से बचा जाए।

अकेलेपन की औषधि परहित
इन दिनों लोग उदास बहुत जल्दी हो जाते हैं। जरा अपने मन की न हुई तो उदासी घेर लेती है। अपनों से सहयोग न मिलेधोखा हो जाए तुरंत उदासी में डूब जाते हैं। इसे ही डिप्रेशन कहा गया है। हमारे जैसे देश में जहां कण-कण में ईश्वर की कृपा और मोक्ष के भाव बसे हों वहां भी लोग उदास होने लगें तो यह चिंता का विषय है। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि यह हार्मोनल डिसबैलेंस है और इलाज भी उसी तरह किया जाता है। अध्यात्म कहता है जीवन में परमात्मा के अभाव का एक रूप डिप्रेशन है। भगवान के अभाव का अर्थ है आत्मविश्वास की कमीक्योंकि जो व्यक्ति डिप्रेशन में डूबता है वह अज्ञात भय से पीड़ित होता है। भय ज्ञात हो तो निदान हो जाएलेकिन डर का कारण ही मालूम न हो तो केवल इलाज से काम नहीं चलेगा। थोड़ा परमात्मा के निकट जाइएडिप्रेशन के सारे उत्तर मिल जाएंगे। व्यक्ति सबसे पहले खुद को अकेला महसूस करता है।

अकेलापन लंबे समय टिकता है तो डिप्रेशन में बदलेगा ही। मन को नकारात्मक विचार लेना और देना बहुत पसंद हैइसलिए जब उदासी घेरने लगेतथा अकेलेपन में डूबने लगे तो तुरंत खुद को मनुष्यता से जोड़ दें। हम मानव जाति के लिए क्या कर सकते हैंइस पर थोड़ा काम किया जाए। बहुत से लोग संसार में ऐसे हैं जो उदास हैंभ्रमित हैं और थक गए हैं। चलिए उन लोगों के लिए कुछ करें। जैसे ही आप मनुष्य के रूपांतरण में अपनी भूमिका तय करते हैंतुरंत परमात्मा आपको उदासी से बाहर फेंंक देता हैइसलिए जब कभी उदासी घेरेतुरंत परहित के लिए सक्रिय हो जाएं। परहित अकेलेपन में डूबे हुए लोगों के लिए औषधि जैसा है। मुफ्त में मिल रही इस दवाई से दुनिया की एक बड़ी बीमारी का इलाज अध्यात्म सिखाता है।

जीवन दृष्टि में हास्य बोध लाएं
गाड़ी चलाते समयपैदल चलते समयहम अतिरिक्त सावधानी बरतते हैंक्योंकि दुर्घटना की आशंका से हम चौकन्ने रहते हैं। किंतु दौड़ती जिंदगी के प्रति भी चौकन्ना रहना जरूरी है। जब हम जिंदगी के प्रति होश रखते हैं तो हमें एक चीज मिलती है- हास्य। जिंदगी मुस्कुरानेआनंदित होने के अवसर लेकर चलती है। अगरबत्ती के धुएं में खुशबू की तरह जीवन में हास्य घुला हुआ है। आपका बोध उस हास्य को उठा सकेगा। जीवन में परेशान होने के अनेक कारण हैं। कोई काम शुरू करिए दिक्कत से ही शुरू होगाइसलिए जब कोई दायित्व आए तो काम करते समय पूरी तरह गंभीर रहेंलेकिन उसमें हास्य का मिश्रण जरूर रखें। अपनी गंभीरता और हास्य को ठीक ढंग से मिश्रित करें। कोई भी चीज कम-ज्यादा न रखेंक्योंकि जीवन आपके बगल से हास्य लेकर गुजर रहा हैउसमें प्रसन्नता घुली हुई है।

आप चूक गए तो किसी और को बंट जाएगीतो क्यों न थोड़ा आप भी अपना हिस्सा लें। खुद भी खुशी से तरबतर हों और प्रसन्न रहने के मौके दूसरों को भी दें। एक प्रयोग करते रहें। जिंदगी उन्हें खुशी आसानी से दे सकती हैजो थोड़ा अपने पर हंसना जानते हैं। हम कितने ही परफैक्ट हो जाएंलेकिन गलतियां करते रहते हैं और इसका दोष दूसरों पर मढ़ने को तैयार रहते हैं। अपनी गलतियों परखुद पर हंसना सीख जाएं। जब हम अपने ऊपर हंसना शुरू करते हैं तो जिंदगी खुशी का हिस्सा हमारे लिए बढ़ाने लगती है। हर घटना में हास्य का पहलू बसा होता है। यदि आप चौकन्ने हैंतो उसे आसानी से अपनी ओर मोड़ सकते हैंइसलिए सेन्स ऑफ ह्यूमर अपने साथ जोड़े रखें। दूसरों को जो फायदा होगा सो होगालेकिन आप जिंदगी की मस्ती को जान जाएंगे।

सद्‌भाव की अभिव्यक्ति त्योहार
किसी भी धर्म का त्योहार आने पर उस धर्म से जुड़े अधिकांश लोग बहुत प्रसन्न रहते हैं। पहले से तैयारी होती है। त्योहार वाले दिन तो सुबह से उत्सव के माहौल में आ जाते हैं। पूरी दिनचर्या उससे जुड़ जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी हो या रामनवमीईद हो या नानक जयंतीक्रिसमस में भी सब प्रसन्न रहते हैं। एक-दूसरे से मिलनाआचरण में छोटी-छोटी बातें जोड़ना। किंतु यह सब होता है साल में एक बार। आइएएक प्रयोग करिए। जब आप किसी काम के दबाव या तनाव में हों तो उस दिन यह तय करें कि आज का दिन ऐसे मनाएंगे जैसे त्योहार हो। उस दिन अन्न भी ऐसा ही लेंगे। हमारी पूरी भाषा उत्सव की भाषा होगी। हमारा ड्रेसकोड भी उत्सव जैसा होगा। मानसिक रूप से तो उस दिन उत्सव में डूब जाएं। अचानक आप पाएंगे कि आप भीतर से अलग ढंग से चैतन्य होने लगे हैं। बेशक आप पर काम का दबाव होगा। स्थितियों का तनाव होगालेकिन आपका आत्मविश्वास उस दिन अलग रूप में होगा। मसलनकभी सोचा कि रामनवमी मना रहे हैं तो राम की सारी विशेषताएं उस दिन दिमाग में चलनी चाहिए। राम के रूप में जो व्यक्तित्व उस दिन आपके भीतर उतरा है उसकी विशेषताएं दूसरों के हित में बांटें। रामनवमी मनाने का सही अर्थ है रोम-रोम मे श्रीराम का उतर जाना। 

यदि आपको उस दिन थोड़ी देर के लिए भी श्रीराम मिले हैं तो उसे सबको बांट दीजिए। सिर्फ अपने लिए न रखें। त्योहार मनाने की यह वृत्ति आपको तनाव से मुक्त रखेगी और जो काम आप कर रहे होंगे उसके बहुत अच्छे परिणाम मिलेंगे। भाषाभूषाभोजन और भजन के मामले में उस दिन को त्योहार मान लीजिए और फिर देखिए आपका परिश्रम आपको बड़े अच्छे परिणाम देगा।

व्यक्तित्व से अस्तित्व पर जाएं
मौजूदा समय में वही लोग टिक पाएंगे जो अपना श्रेष्ठ सर्वश्रेष्ठ में बदल देंगे। इस प्रक्रिया में आपको कई विषम परिस्थितियों से भी गुजरना पड़ेगाक्योंकि सर्वश्रेष्ठ’ इस समय गुमशुदा है और गुमशुदा की तलाश एक रहस्यमय कार्य है। आपको सर्वश्रेष्ठ माता-पिता बनना है तो संतानों के मामले में घोर चुनौतियां सामने आएंगी। हमारा थकनाहमारे दुख और हमारी बीमारियां सर्वश्रेष्ठ तक पहुंचने में बाधाएं हैं। इन तीनों से मुक्ति पानी पड़ेगीक्योंकि जिंदगी उम्र से एक अजीब-सा रिश्ता बनाती है। कभी आयु को अनुमति देती है कि वह जिंदगी पर हावी हो जाए तो कभी उम्र को थका देती हैइसलिए जिन्हें सर्वश्रेष्ठ देना है वे उम्र के प्रति सावधान रहें। उम्र को कम होना ही है। बुढ़ापा आकर रहेगाइसलिए हर उम्र में जो भी सर्वश्रेष्ठ करने की संभावना है उसे उसी वक्त कर लेना चाहिए। जीवन है तो दुख भी आएंगे। ये आपको सर्वश्रेष्ठ बनने में बाधा भी पहुंचा सकते हैं। 

इन्हें अलग दृष्टि से लें। आपका व्यक्तित्व प्रभावशाली होसक्रिय हो तो आप श्रेष्ठ प्राप्त कर लेंगेलेकिन जैसे ही सर्वश्रेष्ठ की ओर बढ़ेंगेआपको अपने व्यक्तित्व पर भी काम करना पड़ेगा। वह काम होगा अपने व्यक्तित्व से हटकर अपने अस्तित्व को जानना। जीवन-यात्रा में कई बार बिना साथी और कारवां के चलना पड़ता है। व्यक्तित्व ऐसे में घबरा जाता हैलेकिन अस्तित्व सिखाता है कि अकेले भी कारवां बनाया जा सकता है। व्यक्तित्व तो दबाव में आकर समझौता भी कर लेता हैलेकिन अस्तित्व जरा भी समझौता नहीं करता। जिन्हें अस्तित्व को पहचानना होउसकी ओर चलना हो उन्हें अपनी दिनचर्या में योग को महत्व देना चाहिए। योग सर्वश्रेष्ठ से मिलाने के लिए बड़ी मजबूत सीढ़ी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......मनीष


2 comments:

  1. आपका blog अच्छा है। मै भी Social Work करती हूं।
    अनार शब्द सुनते ही एक कहावत स्मरण हो आता है-‘एक अनार, सौ बीमार।' चौंकिए मत, अनार बीमारियों का घर नहीं है, बल्कि यह तो हमारे शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है। इससे उपचार और अन्य आयुर्वेदा के टीप्स पढ़ने के लिए यहां पर Click करें और पसंद आये तो इसे जरूर Share करें ताकि अधिक से अधिक लोग इसका फायदा उठा सकें। अनार से उपचार

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    1. आपका हार्दिक धन्यवाद आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं..

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