Friday, March 20, 2015

दस महाविद्या

शक्तिपात युक्त - दस महाविद्या दीक्षा
जिसे प्राप्त करना ही जीवन की पूर्णता कहा गया है,इस सृष्टि के समस्त जड़-चेतन पदार्थ अपूर्ण हैंक्योंकि पूर्ण तो केवल वह ब्रह्म ही है जो सर्वत्र व्याप्त है। अपूर्ण रह जाने पर ही जीव को 'पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणंके चक्र में बार-बार संसार में आना पड़ता हैऔर फिर उन्हीं क्रिया-कलापों में संलग्न होना पड़ता है। शिशु जब मां के गर्भ से जन्म लेता हैतो ब्रह्म स्वरुप ही होता हैउसी पूर्ण का रूप होता हैपरन्तु गर्भ के बाहर आने के बाद उसके अन्तर्मन पर अन्य लोगों का प्रभाव पड़ता है और इस कारण धीरे-धीरे नवजात शिशु को अपना पूर्णत्व बोध विस्मृत होने लगता है और एक प्रकार से वह पूर्णता से अपूर्णता की ओर अग्रसर होने लगता है।

और इस तरह एक अन्तराल बीत जाता हैवह छोटा शिशु अब वयस्क बन चुका होता है। नित्य नई समस्याओं से जूझता हुआ वह अपने आप को अपने ही आत्मजनों की भीड़ में भी नितान्त अकेला अनुभव करने लगता है। रोज-रोज की भीग-दौड़ से एक तरह से वह थक जाता हैऔर जब उसे याद आती है प्रभु कीतो कभी-कभी पत्थर की मूर्तियों के आगे दो आंसू भी ढुलक देता है।

परन्तु उसे कोई हल मिलता नहीं। चलते-चलते जब कभी पुण्यों के उदय होने पर सदगुरू से मुलाक़ात होती हैतब उसके जीवन में प्रकाश की एक नई किरण फूटती है। ऐसा इसलिए होता हैक्योंकि मात्र सदगुरू ही उसे बोध कराते हैकि वह अपूर्ण था नहीं अपितु बना गया है। गुरुदेव उसे बोध कराते हैंकि वह असहाय नहींअपितु स्वयं उसी के अन्दर अनन्त संभावनाएं भरी पड़ी हैंअसम्भवको भी सम्भव दिखाने की क्षमता छुपी हुई हैगुरु कि इसी क्रिया को दीक्षा कहते हैंजिसमे गुरु अपने प्राणों को भर कर अपनी ऊर्जा को अष्ट्पाश में बंधे जिव में प्रवाहित करते है।

गुरु दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का मार्ग साधना के क्षेत्र में खुल जाता है। साधनाओं की बात आते ही दस महाविद्या का नाम सबसे ऊपर आता है। प्रत्येक महाविद्या का अपने आप में अलग ही महत्त्व है। लाखों में कोई एक ही ऐसा होता है जिसे सदगुरू से महाविद्या दीक्षा प्राप्त हो पाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद सिद्धियों के द्वार एक के बाद एक कर साधक के लिए खुलते चले जाते है।

महाकाली महाविद्या दीक्षायह तीव्र प्रतिस्पर्धा का युग है। आप चाहे या न चाहे विघटनकारी तत्व आपके जीवन की शांतिसौहार्द भंग करते ही रहते हैं। एक दृष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति की अपेक्षा एक सरल और शांत प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए अपमानतिरस्कार के द्वार खुले ही रहते हैं। आज ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं हैजिसका कोई शत्रु न हो ... और शत्रु का तात्पर्य मानव जीवन की शत्रुता से ही नहींवरन रोगशोकव्याधिपीडा भी मनुष्य के शत्रु ही कहे जाते हैंजिनसे व्यक्ति हर क्षण त्रस्त रहता है ... और उनसे छुटकारा पाने के लिए टोने टोटके आदि के चक्कर में फंसकर अपने समय और धन दोनों का ही व्यय करता हैपरन्तु फिर भी शत्रुओं से छुटकारा नहीं मिल पाता।

महाकाली दीक्षा 
महाकाली दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता हैचाहे वह शत्रु आभ्यांतरिक हों या बाहरीइस दीक्षा के द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर लेता हैक्योंकि महाकाली ही मात्र वे शक्ति स्वरूपा हैंजो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती हैं। जीवन में शत्रु बाधा एवं कलह से पूर्ण मुक्ति तथा निर्भीक होकर विजय प्राप्त करने के लिए यह दीक्षा अद्वितीय है। देवी काली के दर्शन भी इस दीक्षा के बाद ही सम्भव होते हैगुरु द्वारा यह दीक्षा प्राप्त होने के बाद ही कालिदास में ज्ञान का स्रोत फूटा थाजिससे उन्होंने 'मेघदूत' , 'ऋतुसंहारजैसे अतुलनीय काव्यों की रचना कीइस दीक्षा से व्यक्ति की शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है।

तारा दीक्षा 
तारा के सिद्ध साधक के बारे में प्रचिलित हैवह जब प्रातः काल उठाता हैतो उसे सिरहाने नित्य दो तोला स्वर्ण प्राप्त होता है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वार्णाभूषणों का उपहार देती हैं। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या हैं। तारा दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैंवहीं उसके अन्दर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता हैजिसके फलस्वरूप उसके सामने भूत भविष्य के अनेकों रहस्य यदा-कदा प्रकट होने लगते हैं। तारा दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का सिद्धाश्रम प्राप्ति का लक्ष्य भी प्रशस्त होता हैं।

षोडशी त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा  
त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा प्राप्त होने से आद्याशक्ति त्रिपुरा शक्ति शरीर की तीन प्रमुख नाडियां इडासुषुम्ना और पिंगला जो मन बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती हैंवह शक्ति जाग्रत होती है। भू भुवः स्वः यह तीनों इसी महाशक्ति से अद्भुत हुए हैंइसीसलिए इसे त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है। इस दीक्षा के माध्यम से जीवन में चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तो होती ही हैसाथ ही साथ आध्यात्मिक जीवन में भी सम्पूर्णता प्राप्त होती हैकोई भी साधना होचाहे अप्सरा साधना होदेवी साधना होशैव साधना होवैष्णव साधना होयदि उसमें सफलता नहीं मिल रहीं होतो उसको पूर्णता के साथ सिद्ध कराने में यह महाविद्या समर्थ हैयदि इस दीक्षा को पहले प्राप्त कर लिया जाए तो साधना में शीघ्र सफलता मिलती है। गृहस्थ सुखअनुकूल विवाह एवं पौरूष प्राप्ति हेतु इस दीक्षा का विशेष महत्त्व है। मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए भी यह दीक्षा उपयुक्त है। इस दीक्षा से साधक को धर्मअर्थकाम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

भुवनेश्वरी दीक्षा  
भूवन अर्थात इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरीजो 'ह्रींबीज मंत्र धारिणी हैंवे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी आधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती हैं। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता हैउस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्तिचेतना-शक्तिस्मरण-शक्ति अत्यन्त विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतधात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाशकुबेर सिद्धिरतिप्रीती प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उत्तम मानी है है। इस महाविद्या की आराधना एवं दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। इस महाविद्या की दीक्षा प्राप्त कर भुवनेश्वरी साधना संपन्न करने से साधक को चतुर्वर्ग लाभ प्राप्त होता ही है। यह दीक्षा प्राप्त कर यदि भुवनेश्वरी साधना संपन्न करें तो निश्चित ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है।

छिन्नमस्ता महाविद्या दीक्षा  
भगवती छिन्नमस्ता के कटे सर को देखकर यद्यपि मन में भय का संचार अवश्य होता हैपरन्तु यह अत्यन्त उच्चकोटि की महाविद्या दीक्षा है। यदि शत्रु हावी होबने हुए कार्य बिगड़ जाते होंया किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग होतो यह दीक्षा अत्यन्त प्रभावी है। इस दीक्षा द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती हैआर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैंसाथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारम्भ हो जाता है। इस साधना द्वारा उच्चकोटि की साधनाओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता हैतथा उसे मौसम अथवा सर्दी का भी विशेष प्रभाव नहीं पङता है।

त्रिपुर भैरवी दीक्षा भूत-प्रेत एवं इतर योनियों द्वारा बाधा आने पर जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ग्रामीण अंचलों में तथा पिछडे क्षेत्रों के साथ ही सभ्य समाज में भी इस प्रकार के कई हादसे सामने आते हैजब की पूरा का पूरा घर ही इन बाधाओं के कारण बर्बादी के कगार पर आकर खडा हो गया हो। त्रिपुर भैरवी दीक्षा से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्त होती हैवही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती हैव्यक्ति का स्वास्थ्य निखारने लगता है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक में आत्म शक्ति त्वरित रूप से जाग्रत होने लगती हैऔर बड़ी से बड़ी परिस्थियोंतियों में भी साधक आसानी से विजय प्राप्त कर लेता हैअसाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्यों को भी पूर्ण कर लेता है। दीक्षा प्राप्त होने पर साधक किसी भी स्थान पर निश्चिंतनिर्भय आ जा सकता हैये इतर योनियां स्वयं ही ऐसे साधकों से भय रखती है।

धूमावती दीक्षा 
धूमावती दीक्षा प्राप्त होने से साधक का शरीर मजबूत व् सुदृढ़ हो जाता है। आए दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता होया शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती होतो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता हैजिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। इस दीक्षा के प्रभाव से यदि कीसी प्रकार की तंत्र बाधा या प्रेत बाधा आदि होतो वह भी क्षीण हो जाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद मन में अदभुद साहस का संचार हो जाता हैऔर फिर किसी भी स्थिति में व्यक्ति भयभीत नहीं होता है। तंत्र की कई उच्चाटन क्रियाओं का रहस्य इस दीक्षा के बाद ही साधक के समक्ष खुलता है।

बगलामुखी दीक्षा 
यह दीक्षा अत्यन्त तेजस्वीप्रभावकारी है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक निडर एवं निर्भीक हो जाता है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई दीक्षा नहीं है। इसके प्रभाव से रूका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती वल्गा अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैंजो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है।

मातंगी दीक्षा
आज के इस मशीनी युग में जीवन यंत्रवतठूंठ और नीरस बनकर रह गया है। जीवन में सरसताआनंदभोग-विलासप्रेमसुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी दीक्षा अत्यन्त उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा साधक में वाक् सिद्धि के गुण भी जाते हैं। उसमे आशीर्वाद व् श्राप देने की शक्ति आ जाती है। उसकी वाणी में माधुर्य और सम्मोहन व्याप्त हो जाता है और जब वह बोलता हैतो सुनने वाले उसकी बातों से मुग्ध हो जाते है। इससे शारीरिक सौन्दर्य एवं कान्ति में वृद्धि होती हैरूप यौवन में निखार आता है। इस दीक्षा के माध्यम से ह्रदय में जिस आनन्द रस का संचार होता हैउसके फलतः हजार कठिनाई और तनाव रहते हुए भी व्यक्ति प्रसन्न एवं आनन्द से ओत-प्रोत बना रहता है।

कमला दीक्षा 
धर्मअर्थकाम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों को प्राप्त करना ही सांसारिक प्राप्ति का ध्येय होता है और इसमे से भी लोग अर्थ को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। इसका कारण यह है की भगवती कमला अर्थ की आधिष्ठात्री देवी है। उनकी आकर्षण शक्ति में जो मात्रु शक्ति का गुण विद्यमान हैउस सहज स्वाभाविक प्रेम के पाश से वे अपने पुत्रों को बांध ही लेती हैं। जो भौतिक सुख के इच्छुक होते हैंउनके लिए कमला सर्वश्रेष्ठ साधना है। यह दीक्षा सर्व शक्ति प्रदायक हैक्योंकि कीर्तिमतिद्युतिपुष्टिबलमेधाश्रद्धाआरोग्यविजय आदि दैवीय शक्तियां कमला महाविद्या के अभिन्न देवियाँ हैं।

प्रत्येक महाविद्या दीक्षा अपने आप में ही अद्वितीय हैसाधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक दीक्षा के महत्त्व का एक प्रतिशत भी वर्णन स्थानाभाव के कारण यहां नहीं हुआ हैवस्तुतः मात्र एक महाविद्या साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का मार्ग खुल जाता हैऔर एक-एक करके सभी साधनों में सफल होता हुआ वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है।

यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य हैकि दीक्षा कोई जादू नहीं हैकोई मदारी का खेल नहीं हैकि बटन दबाया और उधर कठपुतली का नाच शुरू हो गया।

दीक्षा तो एक संस्कार हैजिसके माध्यम से कुस्नास्कारों का क्षय होता हैअज्ञानपाप और दारिद्र्य का नाश होता हैज्ञान शक्ति व् सिद्धि प्राप्त होती है और मन में उमंग व् प्रसन्नता आ पाती है। दीक्षा के द्वारा साधक की पशुवृत्तियों का शमन होता है ... और जब उसके चित्त में शुद्धता आ जाती हैउसके बाद ही इन दीक्षाओं के गुण प्रकट होने लगते हैं और साधक अपने अन्दर सिद्धियों का दर्शन कर आश्चर्य चकित रह जाता है।

जब कोई श्रद्धा भाव से दीक्षा प्राप्त करता हैतो गुरु को भी प्रसनता होती हैकि मैंने बीज को उपजाऊ भूमि में ही रोपा है। वास्तव में ही वे सौभाग्यशाली कहे जाते हैजिन्हें जीवन में योग्य गुरु द्वारा ऐसी दुर्लभ महाविद्या दीक्षाएं प्राप्त होती हैंऐसे साधकों से तो देवता भी इर्ष्या करते हैं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष

Monday, March 9, 2015

Jeene Ki Rah3 (जीने की राह)

मूल स्वभाव में रहकर बच्चों से व्यवहार करें
बच्चा अपने माता-पिता की साझी रुचियों का परिणाम होता है। मेडिकल साइंस में इसी को डीएनए कहते हैं। बच्चे के बड़े होने पर माता-पिता परेशान होते हैं कि यह तो जिद्‌दी है। जैसा चाहते थे वैसा नहीं है। पैदा करते समय तो चूक गएलेकिन लालन-पालन में एक प्रयोग कर सकते हैं। अपने बच्चों के साथ रहें तो अपने स्वाभाविक केंद्र यानी अपने मूल स्वभाव पर स्थापित हो जाएं।


जब घर में आपका व्यापारीअधिकारी यानी बाहर का व्यक्तित्व हावी रहता है तो यह आपके पूरे व्यक्तित्व पर परत चढ़ा देता है और परत चढ़े हुए वयस्क जब बच्चों से व्यवहार करते हैंतब ठीक व्यवहार नहीं हो पाताइसलिए योग-ध्यान के माध्यम से अपने केंद्र पर टिकना होगा। अगर आप दादा-दादीनाना-नानी या माता-पिता हैंतो अपने पोते-पोतीनाती-नातिन और बेटे-बेटी के साथ दो या तीन मिनट मेडिटेशन जरूर करिएगा। इससे वे अपने केंद्र पर जाएंगे और जैसे ही आप भी अपने केंद्र पर जाएंगेउसके बाद आप दुनिया के सबसे सरल व्यक्ति हो जाएंगे। फिर आपसे से जो तरंगें निकलेंगीउसे बच्चा पकड़ेगा। फिर आप जो कहेंगेवह करेगा। अभी वह नहीं सुनेगाक्योंकि आप उसे एक आदेशअधिकार से बोल रहे हैंजबकि आपको स्वभाव से बोलना है।

कोई दुख बताए तो उसमें अपना दुख न जोड़ें
जब कोई हमें अपना दुख सुनाता हैतब हम उसमें अपना दुख भी जोड़ लेते हैं। होना यह चाहिए कि हम मन में यह भाव लाएं कि हम संसार के सबसे सुखी इंसान हैं और इसकी मदद अवश्य कर सकेंगे। किष्किंधा कांड में श्रीराम ने सुग्रीव से पूछा और तुलसीदासजी ने लिखा, ‘सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव। कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव।।’ कृपा के समुद्र और बल की सीमा श्रीरामजी सखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए और बोले, ‘हे सुग्रीवमुझे बताओतुम वन में किस कारण रहते हो। सुग्रीव उत्साहित हुए कि चलो किसी ने मुझसे पूछा तो सही कि मैं परेशान क्यों हूं।’ ‘नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई।।


सुग्रीव ने कहा, ‘हे नाथबाली और मैं दो भाई हैं। हम दोनों में ऐसी प्रीति थीजिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।’ श्रीराम और लक्ष्मण के रूप में दो भाई सामने खड़े हैंलेकिन बाली-सुग्रीव का प्रेम बाद में समाप्त हो जाता है। आज हमारे घरों में भी यही हो रहा है। पहले बहुत प्रेम होता है। अहंकार और स्वार्थ बीच में आते ही सगे भाई दुश्मन हो जाते हैं। अहंकार जिस तेजी से बढ़ रहा है उसके परिणाम में परिवारों का विघटन होना ही हैलेकिन श्रीराम परिवार बचाओ अभियान पर निकले थे। अब वे बहुत सुंदर ढंग से सुग्रीव की मदद करेंगे।

इंद्रियों के सदुपयोग में ही है जीवन
यदि व्यवस्था में छिद्र है तो उसमें से ईमानदारीनैतिकता और धन रिस जाता है। यह छिद्र ऐसा होता है कि इसमें टू वे ट्रैफिक चलता है। जिस समय ईमानदारी को बाहर फेंका जाता है उस समय बेईमानी को प्रवेश कराया जा रहा होता है। इस पूरी क्रिया का नाम है भ्रष्टाचार। इसी तरह शास्त्रों ने मनुष्य में नौ छिद्र बताए हैं। इनसे अच्छाई बाहर जा सकती है और बुराई भीतर आ सकती है। हम सारे कामों के साथ मृत्यु को देखने की भी तैयारी करें। यदि आप मृत्यु देखना चाहें तो आंखनाक और कान इन सबकों मिलाकर छह छिद्र हैं। मल-मूत्र की इंद्रियों के दो छिद्र और एक है मुख का छिद्र। इन छिद्रों से लगातार जीवन बाहर जा रहा है।

इन छिद्रों को लगातार मन और आत्मा देख रहे होते हैं। आत्मा देखती है तो इनका सदुपयोग होता है। जब मन इनको देखता हैतो वह जीवन को बर्बाद करता है। मन इन छिद्रों से पार जाने के लिए अनेक डंडों की सीढ़ी बनाता है। उन्हीं डंडों पर चढ़कर हम और ऊपर तथा दूर जाना चाहते हैं। पहुंचते कहीं नहीं हैं। फिर हम उलझ जाते हैं। मौत आएगी तो घसीटकर ले ही जाएगी। इसलिए इन नौ छिद्रों का उपयोग योग के माध्यम से करेंगेतो एक दिन निश्चित हम आने वाली मृत्यु के दर्शन करने के लायक हो जाएंगे और यहीं से जीवन का हम सही उपयोग कर सकेंगे।

आत्मा तक पहुंचने का प्रवेश द्वार है प्रेम
प्रेम के मामले में महिला और पुरुष दोनों का मनोविज्ञान भिन्न होता है। फर्क होना तो नहीं चाहिएक्योंकि प्रेम तो एक ही होता है पर दृष्टिकोण की भिन्नता फर्क ला देती है। प्रेम में मानव की क्रिएटिविटी बहुत बढ़ जाती है। प्रेम सृजन हैइसलिए सृजन के बाद शांति मिलनी चाहिएलेकिन प्रेम में लोग बावले हो जाते हैंअशांत हो जाते हैं। जहां प्रेम का परिणाम शांति होना था वहां विध्वंसहिंसाअशांति क्यों हो जाती हैभिन्न दृष्टिकोण के कारण झंझट शुरू होती है। पुरुष का प्रेम देह से यात्रा करता है जबकि महिला संरक्षण चाहती है। उसके लिए पुरुष शरीर सुरक्षा कवच होता है। भिन्न मनोविज्ञान के कारण प्रेम कब वासना में बदल जाता हैपता नहीं लगता।


सांसारिक रूप से देखें तो अब प्रेम की परिभाषाएं बदल गई हैं। वासना के मखमल में कहीं प्रेम लपेटा हुआ है। अध्यात्म कहता है आत्मा तक जाने के लिए प्रेम प्रवेश द्वार है और परमात्मा तक जाने के लिए आत्मा दरवाजा हैइसलिए प्रेम छोटी घटना नहीं है। जब कोई सच्चे प्रेम में उतरता है तो वह नवजात हो जाता है। शिशु कितना शांतपवित्रनिश्छल होता है। ऐसे ही प्रेम मनुष्य को पवित्र बनाता है। प्रेम में अगर हम सजग हैं तो हम उसे वासना के स्पर्श से बचा लेंगेक्योंकि हमें अपने केंद्र पर लौटना है और प्रेम उसके लिए सेतु है।

प्रकृति की सहजता को आचरण में उतारें
विश्व के सामने प्रदूषण की बड़ी समस्या है। धार्मिक लोगों को इसके प्रति अपने ढंग से जागरूक होना चाहिए। हमारी प्रकृति पंच तत्व पृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश से बनी है। ये पांचों तत्व मनुष्य के शरीर में भी प्रभावी होते हैं। प्रकृति अपने पंच तत्वों के साथ बहुत सहज गति से बहती है। उसे चलना नहीं कहेंगेबहना कहेंगे। मनुष्य जीवन भी बहाव की तरह होना चाहिए। बहने में सहजता है। जैसे आपके परिश्रम को किसी की कृपा मिल गई। अगर कोई प्रकृति से पूछे कि तुम क्या करती होतो उसका जवाब होगा मैं कुछ नहीं करतीमैं होने देती हूं । जब हम पंचतत्व से जुड़ते हैंतो हमारे भीतर होने देने का भाव जाग जाता है। हम तनाव-मुक्त हो जाते हैं। हमें भविष्य का निर्माण करना है।

इसके लिए जरूरी विचार व योजनाएं व्यग्रतावेदनाभयआशा और निराशा लेकर आते हैं। हम परेशान होने लगते हैं। दरअसलहम दो भाग में बने हैं- जो हम हैं और हम जो होना चाहते हैं। इसमें ये पंच तत्व बड़ी मदद करते हैंक्योंकि ये हमें सिखाते हैं कि हम प्रकृति से आए हैं। जैसे ही प्रकृति की सहजता हमारे आचरण में उतरती हैहम कितना ही परिश्रम करें उसे नशा बनाकर बेचैन नहीं होंगे। कितनी ही बड़ी सफलता अर्जित कर लें उसमें अहंकार नहीं लाएंगे और हमारी मस्ती कायम रहेगी।

शिक्षा के साथ शिष्टाचार भी महत्वपूर्ण
इन दिनों हम बच्चों की शिक्षा पर बहुत जोर दे रहे हैंलेकिन सवाल उठता है कि क्या केवल शिक्षा से काम चल जाएगाशिक्षा की एक बहन है शिष्टाचार। देखा जा रहा है कि अधिकांश बच्चे शिक्षा लेकर तो घर लौटते हैं पर दूसरी बहन शिष्टाचार घर में प्रवेश नहीं कर पाती। यही वजह है कि बच्चे घर में जिदअमर्यादित व्यवहार या कभी-कभी बदतमीजी की हद पार कर जाते हैं। शिष्टाचार का प्रयास परिवार के भीतर से ही करना होगा। परिवार के वरिष्ठ सदस्य जो माता-पिताबड़े भाई-बहन भी हो सकते हैंसभी मिलकर संयुक्त रूप से कृतज्ञता और शिष्टाचार का मिला-जुला आचरण प्रस्तुत करेंतब बच्चों के जीवन में दोनों बहनें ठीक ढंग से आएंगी। छोटा-सा भी काम पूरा हो तो प्रशंसा अवश्य की जाए।

घर में जो भी सदस्य जो काम कर सकता होउससे वह जरूर कराया जाए। इससे वह सम्मानित महसूस करता है। दूसरों के प्रति शिष्ट होने में मन बड़ी बाधा पहुंचाता है। मन सक्रिय होभरा-पूरा हो तो कभी भी सही काम नहीं करेगा। अशांत रखेगा। मन निष्क्रिय हो या अनुपस्थित हो तो अच्छे काम होंगे। इन दोनों के बीच एक कोरा मन भी है। जिसे रखकर कृतज्ञ होनाशिष्ट होना बड़ा आसान हैइसलिए घर के सभी सदस्य पूजा-पाठ के साथ कुछ समय योग को जरूर दें।


भीतर के केंद्र से दूर ले जाता है अहंकार
परमात्मा अच्छे लोगों को अच्छे काम करने और बुरे लोगों को गलती सुधारने के मौके देता रहता है। किंतु हमारे जीवन में जब-जब अहंकार आएगाईश्वरीय शक्ति हमसे मुंह मोड़ लेगी। रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में सुग्रीवबालि की कहानी श्रीराम को सुना रहे थे, ‘अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बालि रिपु बल सहै न पारा।। धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयउं बंधु संग लागा।।’ उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर ललकारा। बालि शत्रु की ललकार को सह नहीं सका। वह दौड़ाउसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाई के संग चला गया। बालि ने उस मायावी की चुनौती स्वीकार की और उसके पीछे दौड़ा।

उस राक्षस को मारने के लिए दौड़ने में साहस से अधिक अहंकार था। इसीलिए श्रीराम ने अहंकारी बालि का साथ न देकर विनम्र सुग्रीव का साथ दिया। अहंकार हमें अपने केंद्र से बाहर परिधि पर डाल देता है। इस घटना में सुग्रीव भाई के पीछे गए थे। हम भी हैं अहंकार के पीछे चल देते हैं। सुग्रीव इसलिए बच गए कि उनके जीवन में हनुमानजी थे। हनुमानजी एक तरह से एक ऐसी जीवनशैली हैंजो हमारे मनोविज्ञान को इस बात के लिए प्रेरित करती हैं कि उदासी और निराशा के साथ जीना नहीं सीखना हैउसे मिटाना है और यह काम योग द्वारा हो सकता है।

प्रेमपूर्ण होकर व्यसन से मुक्त कराएं
तंबाकूधूम्रपान और मदिरा पान को अब दोषपूर्ण नहीं माना जाता। ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माने जाते हैं पर चरित्र से इसका संबंध खारिज कर दिया गया है। मदिरा पान तो स्टेटस सिंबल बन गया है। सबसे बड़ा खतरा यह है कि मदिरा घर में पहुंच गई है। जहां यह समस्या हैउन घरों के समझदार लोग नशे में शिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व की जड़ में जाकर देखें कि कमजोरी कहां है। आपको वह कमजोरी दूरी करनी होगी।

उसे अपनी उस जड़ पर लौटाकर लाना होगाजहां नशे की जरूरत नहीं होती और इसके लिए एक अच्छा दोस्त बनना पड़ेगा। कुल-मिलाकर बुराई नशे की वृत्ति में है। मनुष्य मूल रूप से एक शुद्ध प्राणी हैनशा उसको अशुद्ध करता हैइसलिए उसकी शुद्धता जहां मूलरूप से बसी हुई हैउस जगह काम किया जाए और यह काम प्रेमपूर्ण होकरविश्वसनीय बनकर दोस्त के रूप में ही किया जा सकता है।

जीवन में पहल करने की वृत्ति बढ़ाइए
सभी के जीवन में कहीं न कहीं धोखे और अपमान की घटनाएं हुई होंगी। ऐसी घटनाओं के बाद व्यक्ति सभी को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है या वह अत्यधिक सावधान हो जाता है। जब अपमान मिलता है तो बदले की भावना जाग जाती है या फिर निराशा व कुंठा जाग जाती हैं। धोखा और अपमान तो कभी भी हो सकते हैं। तब क्या करेंगेन तो बदले की वृत्ति रखें और न ही अत्यधिक संदेह में डूबें। बस सावधान रहकर अच्छे काम की पहल करें। आदमी बहुत रिजर्व होता जा रहा है। चार लोगों के बीच में कोई हमें देखकर बात नहीं करेतो हम सोचते हैं हम क्यों पहल करें। मान-अपमान के झंझट में माफी मांगने की बात आए तो हम सोचते हैं कि हम क्यों पहल करें।

जब ऐसी आदत मन में बस जाती है तो हम बोझिल होने लगते हैंइसलिए चाहे कितन ही धोखे मिलेअपमानित होंलेकिन पहल करना मत छोड़िए। अपनी पहल में प्रेमसम्मानआश्वासनप्रोत्साहन और समर्थन का भाव जरूर रखें। पहल का मतलब अहंकार का प्रदर्शन न हो। इसमें यह भावना जोड़ लीजिए कि परमात्मा ने हमें अवसर दिया है। आप अपनी पहल करने की वृत्ति को जैसे-जैसे बढ़ाएंगे आप पाएंगे कि दुनिया के कई लोगों के लिए आप बहुत महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं और यह भी एक उपलब्धि है।

वर्तमान को उपयोगी बनाना ही पुरुषार्थ
समय के सदुपयोग की सलाह दी जाती है। जो लोग समय प्रबंधन में रुचि रखते हैं उन्हें इसके कई तरीके सिखाए जाते हैं। टाइम मैनेजमेंट पर अध्यात्म की अपनी दृष्टि है। हिंदू धर्म ने तो समय को काल और काल को देवत्व से जोड़ा है। समय को भविष्यवर्तमान और भूतकाल में बांटा गया है। भविष्य का अज्ञात होना ही मनुष्य के परिश्रम को रोचक और गहरा बना देता है। इसी तरह भूतकाल का निचोड़ अनुभव होना चाहिएन कि बेकार की स्मृतियां। इन दोनों के बीच में महत्वपूर्ण है वर्तमान। एक ही क्षण में वह भूत में होता है या उसका रूप भविष्य होता है। वर्तमान को उपयोगी बनाना ही पुरुषार्थ है। वर्तमान पर टिकने के लिए अध्यात्म ने कुछ साधन बताए हैं।

उन्हीं में से एक है मेडिटेशन। ध्यान की आदर्श स्थिति यह होती है कि आंख बंद करके सांस पर नियंत्रण करना। जब जो काम करेंडूबकर करें यह भी एक ध्यान है। प्रकृति से जुड़कर हम ऐसा आसानी से कर सकते हैं। गाय की आंख में आंख डालकर देखेंतो उसमें गजब की गहराई होती है। आपका ध्यान लग सकता है। श्वान के नेत्रों में आंख डालें तो समय के प्रति एक अजीब सी जागरूकता नजर आती है। ये दोनों ही प्रयोग आपको वर्तमान में टिकाने में सहायक हैं और यही समय का सही सदुपयोग होगा।

आलस्य की जननी है सुविधाओं की आदत
सुख-सुविधाएं बुरी नहीं होतींलेकिन इन्हें भोगते समय जो लोग विवेक नहीं रखेंगेउन्हें दो बुराइयों का जोखिम रहता है। विवेकहीन सुख-सुविधाओं की अगली कड़ी होती है आरामदेह जीवन। आराम की आदत आलस्य को जन्म देती है। आलसी आदमी के पास अपनी स्थिति के लिए अनेक तर्क होते हैं। ये तर्क उसे निकम्मेपन के दौर में फेंक देते हैं। इससे हमारे व्यक्तित्व के पंच तत्व प्रभावित होने लगते हैं। आरामआलस्य और निकम्मेपन की यात्रा से पृथ्वी तत्व बंजर होने लगता है। जल तत्व बदबू तथा अग्नि तत्व धुआं देने लगता है। वायु तत्व प्रदूषित हो जाता है और आकाश पर दुर्भाग्य के बादल आ जाते हैंइसलिए लगातार प्रयास करें कि हम कुछ अनूठा व श्रेष्ठ करें।

इसके लिए चार बातें जरूरी हैं। एकसहनशक्ति खूब होनी चाहिएक्योंकि इसके अभाव में हम रिस्क नहीं लेते। दोहमारे भीतर साहस होक्योंकि साहसी व्यक्ति ही कुछ नया करता है। तीननए-नए लोगों से जुड़ने में रुचि रखिए। नए लोगों से मिलने से घबराने वाले अपने कंफर्ट जोन से बाहर नहीं आते। चारधन के प्रति लगाव जरूर रखें। धन में बुराई नहीं है। बुराई है उसके दुरुपयोग में। अधिक धन की कामना भी मनुष्य को प्रेरित करती है। यदि आपकी यात्रा ठीक है तो यह कामना गलत काम नहीं करवाएगी।

पुनर्निर्माण के देवता शिव
यह मल्टी पर्सनालिटी का युग है। आपसे उम्मीद की जाती है कि आप हर क्षेत्र में दक्ष हों और जो भी काम करें पूर्णता के साथ करें। शिव चरित्र की एक विशेषता यह है कि वे जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करते हैं। शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण। उन्हें संहार का देवता कहा गया हैलेकिन संहार का अर्थ है पुनर्निर्माण। फिर शिवरात्रि की तिथि अनूठी है। इस दिन शिवलिंग का प्राकट्य भी हुआ और शिव-पार्वती का विवाह भी। शिवलिंग स्वरूप का मतलब है भाव-विरक्त रहकर सबके लिए हितकारी होना। आज संसार में निजहित की कामना इतनी हावी हो गई है कि लोग दूसरों को नुकसान पहुंचाने से भी पीछे नहीं हटते। पार्वती से विवाह के समय उनकी सास मैनाजी ने शिवजी के रूप को देखकर क्रोध में अपशब्द कहेतब भी शिव मुस्कुरा रहे थे। यह उनके स्व-संचालित जीवन का प्रतीक है। शिवरात्रि के दिन यह संदेश जीवन में उतारें कि दूसरों से संचालित होना बंद कर दें।

हम मशीन नहीं हैं कि किसी ने स्वीच दबाया और हम चल दिए। किसी ने अपशब्द कहा और हम पूरी तरह से उससे प्रभावित होकर गतिविधि करने लग जाते हैंं। शिव उस समय भी मुस्कुराकर कह रहे थे- मैं क्या हूं इसका निर्णय करने वाली मैनाजी कौन हैं। ऐसे ही व्यक्ति का दाम्पत्य दिव्य हो सकता है। शिव-पार्वती का दाम्पत्य इतना प्रेमपूर्ण और समर्पित थाइसीलिए उनके यहां कार्तिकेयगणेश और हनुमानजी जैसी संतानें हुईंजिन्हें संसार आज भी लोक देवताओं के रूप में पूज रहा है। आज के दिन शिवरात्रि से दो संदेश लिए जाएं- पहलातो यह कि हम सबके लिए हितकारी बनें और दूसराहमारा दाम्पत्य ऐसा हो कि हमारी संतानों के भाग्य में आनंद उतरे।

शांति व उत्साह के पड़ावउत्सव
हमारे देश में मेले और उत्सव खूब मनाए जाते हैं। कई लोगों का जीवन तो इनसे ही जुड़ा है। तेजी से गुजर रहे जीवन में ये शांति तथा उत्साह के पड़ाव जैसे हैं। इन दोनों मौकों पर एक आयोजन और होता हैजिसे सत्संग कहते हैं। कुछ सत्संग ऐसे होते हैंजिन्हें कथा कहा जाता है और कुछ सत्संगों में विचार-विमर्श होता है। प्राचीन समय से संत सम्मेलन किया करते थे। आज के कुंभ मेले उसी का रूप हैं। उस समय संत सम्मेलन में दुख पर शोध करते थे और उन्हें कैसे मिटाया जाए इसके उपाय ढूंढ़ा करते थे। संतों का मानना था कि मनुष्य सुखी रहे यह हमारा भी दायित्व है। अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए उनकी गतिविधियां तो चलती ही थींलेकिन साधारण मनुष्यों के लिए भी वे चिंता पालते थे। संतों को यह मालूम होता है कि आम मनुष्य की कुछ सीमाएं हैंइसलिए कष्ट आने पर वह टूटने लगता है।

यदि हम उसे कुछ उपाय सौंप देंतो वह जीवन का आनंद उठा सकेगा। आजकल प्रबंधन की भाषा में कहा जाता है कि यदि आपको अमीर बनना हैतो दूसरों को भी धनवान होने का मौका दीजिए। एक अच्छा प्रबंधन अपने कर्मचारियों से भरपूर परिणाम तभी ले सकता हैजब वह उनको महसूस कराए कि ऐसा करने में उनकी भी प्रगति है। ठीक यही भाव संतों का होता है कि साधारण मनुष्य को संसार में रहते हुए परमात्मा मिलेतो यह उनके लिए भी हितकारी है। यह परस्पर लेन-देन जैसा है। हमें भगवान की उपलब्धि हुई है तो हम संसार को बांट रहे हैं और सांसारिक लोगों को जो भौतिक लाभ हुआ है वह धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में भी काम आएगाइसलिए एक का मनचाहा दूसरे का मनचाहा बन जाता है और सत्संग में यह काम सबसे आसानी से होता है।

मनुष्य होने की अनुभूति अहम
हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि हम मनुष्य हैं। यदि इसकी विस्मृति हो गई तो फिर समझ लीजिए कि केवल जी रहे हैं। जानवर और इंसान लगभग सारे काम एक जैसे करते हैं। एक ही भेद है कि जीवन क्या हैयह पशु पूरी उम्र नहीं जान पाता और मनुष्य चाहे तो हर पल समझ सकता है। हमें परमात्मा के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए कि उन्होंने हमें मनुष्य बनाया। परमात्मा ने अपनी सबसे सरल पहचान प्रकृति में डाल दीइसलिए खुद को प्रकृति से जरूर जोड़ें। इसका सीधा अर्थ है धरती को प्रदूषित न करें। वायु शुद्ध रखें। जल का मान करें। शरीर की अग्नि को स्वास्थ्य से जोड़ें और आकाश यानी ध्वनि यानी अच्छे शब्द सदैव सुनते रहें। 

इन्हीं पंचतत्वों में जीवन हैलेकिन हम लोग खुद को इस तरह बना लेते हैं कि पंचतत्वों का उपयोग करने की जगह उनके गुलाम बन जाते हैं। गुलामी कैसी भी होदुख ही पहुंचाएगी। गुलामी और स्वतंत्रता में भी हम अति पर टिक जाते हैं। या तो इतने गुलाम हो जाएंगे कि दूसरे के बिना काम ही नहीं चलेगा या खुद को इतना स्वतंत्र कर लेंगे कि जैसे हमारे अलावा कुछ है ही नहीं। अति अंतिम छोर हैइसीलिए इसके आगे के आनंद से हम वंचित हो जाते हैं। जीवन संतुलन मांगता है। अति के कारण जिस आधे-अधूरे को हम देखते हैं उसके कारण उस आधे से चूक जाते हैंजहां जीवन का बहुमूल्य होता है। पशु के पास यह दृष्टि नहीं होतीइसलिए वह एक ही अति पर जीवन गुजार देता है। जंगल में उन्मुक्त होता है या मनुष्य के पिंजरे या खूंटे से बंधा होता है। हमारे जीवन में भी कई खूंटेपिंजरे व उजाड़ वन हैं। जीवन मिलता है संतुलन सेइसलिए अपने मनुष्य होने की अनुभूति बनाए रखेंतब जीवन का असली आनंद उठा सकेंगे।

संतान से आत्मिक रिश्ते बनाएं
मां-बाप और बच्चों के बीच की अनुभूतियां बाहर से नहीं समझी जा सकतीं। बाकी रिश्ते जन्म के बाद बनते हैंइसलिए उन्हें ऊपरी तौर पर समझा जा सकता है। किंतु पालक और संतान का रिश्ता जन्म के पूर्व ही बनने लगता हैइसलिए इसे समझने के लिए गहरे उतरना पड़ेगा। मुझसे अनेक मां-बाप शिकायत करते हैं कि बच्चे उनकी बात समझ नहीं पाते या वे ठीक से समझा नहीं पा रहेक्या करेंसमस्या गंभीर हैलेकिन निदान आसान है। हम अपने बच्चों से ऊपरी तौर पर ज्यादा जुड़े हैं। मसलनउन्हें अच्छा पढ़ानाउनकी जरूरतें पूरी करना। हम काफी ध्यान इसी पर देते हैंतो बच्चों को लगने लगता है कि माता-पिता से उनका रिश्ता इसी बात का है कि वे सारी सहूलियतें उपलब्ध कराएंगे। यदि हम बीमार हुए तो इलाज करवाएंगे। कई बच्चे तो मानतेे हैं कि यह मां-बाप की ड्यूटी हैवरना पैदा ही क्यों किया।

अधिकतर पालक भी अपने आप को इसी में उलझा लेते हैं। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। पूरी क्षमता से ऐसा करना चाहिएलेकिन सिर्फ इतना ही न करें। अपने बच्चों को आत्मिक अनुभूति के स्तर पर जोड़िए। पहले के तीनों काम शारीरिक स्तर के हैंलेकिन हमारी संतानें जितना हमारे शरीर का हिस्सा हैं उससे अधिक आत्मा का भी भाग हैं और इसीलिए आत्मीयता बनाए रखने का काम भक्ति के द्वारा हो सकता है। चूंकि बच्चों के पास भक्ति के लिए समय कम हैइसलिए अल्प समय में इनके साथ मेडिटेशन से जुड़ जाइए। जिस परिवार में माता-पिता और बच्चे एकसाथ ध्यान करेंगे उस परिवार की आत्मिक अनुभूति समृद्ध होगी और कुछ समस्याएं तो दरवाजे के बाहर से ही लौट जाएंगी तथा जो भीतर आ चुकी हैं वे रूप बदलकर समाधान बन जाएंगी।

संघर्ष में आनंद प्राप्ति का रास्ता
भगवान भक्त की परीक्षा लेते हैं। यह संवाद धर्म के प्रति समर्पित व्यक्तियों में लोकप्रियप्रेरणादायक और मान्य है। जीवन में जब भी संघर्ष का दौर आता हैबहुत कम लोग होते हैं जो संघर्ष का सामना जमकर करते हैं। अधिकतर लोग या तो टूट जाते हैं या लक्ष्य की पूर्ति के लिए गलत साधनों का उपयोग करने लगते हैं। सबकी सुविधा के अनुसार काम होता रहे ऐसा संभव नहीं है। एक भक्त के जीवन में जब संघर्ष आता हैतो वह मानकर चलता है कि प्रतिस्पर्धा के युग में जब दूसरे घोर परिश्रम कर रहे होते हैं और यदि आप थोड़े भी कमजोर साबित हुए तो भी आपका संघर्ष बढ़ जाएगा। ऐसे में अत्यधिक परिश्रम को भी कुछ लोग संघर्ष मान लेते हैं। जीवन में जब भी संघर्ष आए तो इसे मजबूरी नहीं मानें। संकट और तनाव न समझें। संघर्ष एक तरह की दृढ़ इच्छाशक्ति है। आप कुछ विशिष्ट पाना चाहते हैं।

उसे प्राप्त करने के लिए आपके भीतर जो माद्‌दा होता है उसी का नाम संघर्ष है। आप संघर्ष में उतरते हैं तो आपको उसके रास्ते भी मिलेंगेसमाधान भी मिलेगा। कहते हैं जो व्यक्ति जितना अधिक संघर्ष करता है वह उतना ही परिपक्व हो जाता है। भगवान भक्त की परीक्षा लेता है यानी एक बड़ी शक्ति हमें आजमा रही है और हमें उसमें पास होना है। यदि हमने रास्ते सही अपनाए तो वह हमें उत्तीर्ण जरूर करेगाइसलिए संघर्ष के दौरान गलत रास्ता न पकड़ें। आजकल चूंकिगलत साधनों के उपयोग को चरित्र से नहीं जोड़ा जाताइसलिए लोग बहुत जल्दी गलत रास्ता अपना लेते हैं। संघर्ष तो परिपक्व व्यक्ति का गहना हैइसलिए जीवन में जब कभी संघर्ष आए तो अपना परिश्रम और ईश्वर की कृपा को जोड़ लें। संघर्ष में भी आनंद आने लगेगा।

शब्दों का अर्थ बदलने से अनर्थ
शब्दों का लोगों ने कैसा-कैसा उपयोग किया है इसका एक उदाहरण बाली का चरित्र भी है। बाली उन व्यक्तियों में से थाजिसने अपने शब्दों से भय निर्मित किया था। जब हम अपने ही शब्दों का गलत अर्थ लगा लेते हैं तब हम जो भी निर्णय लेंगेगलत ही लेंगे। किष्किंधा कांड में सुग्रीव अपनी परेशानी श्रीराम को बता रहे थे। जब बड़ा भाई बाली राक्षस को मारने दौड़ा और वह एक गुफा में घुस गयातब उसके पीछे गुफा में घुसते हुए बाली ने सुग्रीव से कहा तुम 15 दिन यहां रुकना और मैं वापस नहीं आऊं तो समझ लेना मारा गया। परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा।। सुग्रीव वहां एक माह रुका। फिर सुग्रीव ने खून की धार गुफा से बाहर आती देखी। सुग्रीव के स्थान पर कोई भी होता तो वह यही समझता कि भाई मारा गया अब राक्षस आकर मुझे भी मार डालेगा। यही समझकर सुग्रीव वहां से भाग निकला।

जब बाली यह कह चुका था कि 15 दिन मेरी प्रतीक्षा करनातो फिर बाली को यह विचार करना था कि लौटने पर सुग्रीव से पूछते तो सही कि तू क्यों वहां से भाग आयालेकिन अहंकारी व्यक्ति को एक नशा होता है। राक्षस को मारकर गुफा से लौटने पर बाली ने सिर्फ इतना देखा कि मंत्रियों ने सुग्रीव को राजा बना दिया है। अगर उसने अपने शब्दों को याद किया होता तो भाई से रिश्ते की गरिमा खंडित नहीं होती। आज भी हमारे परिवारों में रिश्तेइसीलिए टूट रहे हैं कि सदस्य एक-दूसरे से कहे गए शब्दों के अर्थ बदल लेते हैं । न सिर्फ बोलते समय सावधानी रखी जाएबल्कि बोले गए शब्दों को याद भी रखें। शब्द से बाली फिराकीमत वसूली जा रही थी सुग्रीव से। क्या हमारे परिवारों में आजकल ऐसा नहीं हो रहाइसलिए बाली जैसे आचरण से बचा जाए।

अकेलेपन की औषधि परहित
इन दिनों लोग उदास बहुत जल्दी हो जाते हैं। जरा अपने मन की न हुई तो उदासी घेर लेती है। अपनों से सहयोग न मिलेधोखा हो जाए तुरंत उदासी में डूब जाते हैं। इसे ही डिप्रेशन कहा गया है। हमारे जैसे देश में जहां कण-कण में ईश्वर की कृपा और मोक्ष के भाव बसे हों वहां भी लोग उदास होने लगें तो यह चिंता का विषय है। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि यह हार्मोनल डिसबैलेंस है और इलाज भी उसी तरह किया जाता है। अध्यात्म कहता है जीवन में परमात्मा के अभाव का एक रूप डिप्रेशन है। भगवान के अभाव का अर्थ है आत्मविश्वास की कमीक्योंकि जो व्यक्ति डिप्रेशन में डूबता है वह अज्ञात भय से पीड़ित होता है। भय ज्ञात हो तो निदान हो जाएलेकिन डर का कारण ही मालूम न हो तो केवल इलाज से काम नहीं चलेगा। थोड़ा परमात्मा के निकट जाइएडिप्रेशन के सारे उत्तर मिल जाएंगे। व्यक्ति सबसे पहले खुद को अकेला महसूस करता है।

अकेलापन लंबे समय टिकता है तो डिप्रेशन में बदलेगा ही। मन को नकारात्मक विचार लेना और देना बहुत पसंद हैइसलिए जब उदासी घेरने लगेतथा अकेलेपन में डूबने लगे तो तुरंत खुद को मनुष्यता से जोड़ दें। हम मानव जाति के लिए क्या कर सकते हैंइस पर थोड़ा काम किया जाए। बहुत से लोग संसार में ऐसे हैं जो उदास हैंभ्रमित हैं और थक गए हैं। चलिए उन लोगों के लिए कुछ करें। जैसे ही आप मनुष्य के रूपांतरण में अपनी भूमिका तय करते हैंतुरंत परमात्मा आपको उदासी से बाहर फेंंक देता हैइसलिए जब कभी उदासी घेरेतुरंत परहित के लिए सक्रिय हो जाएं। परहित अकेलेपन में डूबे हुए लोगों के लिए औषधि जैसा है। मुफ्त में मिल रही इस दवाई से दुनिया की एक बड़ी बीमारी का इलाज अध्यात्म सिखाता है।

जीवन दृष्टि में हास्य बोध लाएं
गाड़ी चलाते समयपैदल चलते समयहम अतिरिक्त सावधानी बरतते हैंक्योंकि दुर्घटना की आशंका से हम चौकन्ने रहते हैं। किंतु दौड़ती जिंदगी के प्रति भी चौकन्ना रहना जरूरी है। जब हम जिंदगी के प्रति होश रखते हैं तो हमें एक चीज मिलती है- हास्य। जिंदगी मुस्कुरानेआनंदित होने के अवसर लेकर चलती है। अगरबत्ती के धुएं में खुशबू की तरह जीवन में हास्य घुला हुआ है। आपका बोध उस हास्य को उठा सकेगा। जीवन में परेशान होने के अनेक कारण हैं। कोई काम शुरू करिए दिक्कत से ही शुरू होगाइसलिए जब कोई दायित्व आए तो काम करते समय पूरी तरह गंभीर रहेंलेकिन उसमें हास्य का मिश्रण जरूर रखें। अपनी गंभीरता और हास्य को ठीक ढंग से मिश्रित करें। कोई भी चीज कम-ज्यादा न रखेंक्योंकि जीवन आपके बगल से हास्य लेकर गुजर रहा हैउसमें प्रसन्नता घुली हुई है।

आप चूक गए तो किसी और को बंट जाएगीतो क्यों न थोड़ा आप भी अपना हिस्सा लें। खुद भी खुशी से तरबतर हों और प्रसन्न रहने के मौके दूसरों को भी दें। एक प्रयोग करते रहें। जिंदगी उन्हें खुशी आसानी से दे सकती हैजो थोड़ा अपने पर हंसना जानते हैं। हम कितने ही परफैक्ट हो जाएंलेकिन गलतियां करते रहते हैं और इसका दोष दूसरों पर मढ़ने को तैयार रहते हैं। अपनी गलतियों परखुद पर हंसना सीख जाएं। जब हम अपने ऊपर हंसना शुरू करते हैं तो जिंदगी खुशी का हिस्सा हमारे लिए बढ़ाने लगती है। हर घटना में हास्य का पहलू बसा होता है। यदि आप चौकन्ने हैंतो उसे आसानी से अपनी ओर मोड़ सकते हैंइसलिए सेन्स ऑफ ह्यूमर अपने साथ जोड़े रखें। दूसरों को जो फायदा होगा सो होगालेकिन आप जिंदगी की मस्ती को जान जाएंगे।

सद्‌भाव की अभिव्यक्ति त्योहार
किसी भी धर्म का त्योहार आने पर उस धर्म से जुड़े अधिकांश लोग बहुत प्रसन्न रहते हैं। पहले से तैयारी होती है। त्योहार वाले दिन तो सुबह से उत्सव के माहौल में आ जाते हैं। पूरी दिनचर्या उससे जुड़ जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी हो या रामनवमीईद हो या नानक जयंतीक्रिसमस में भी सब प्रसन्न रहते हैं। एक-दूसरे से मिलनाआचरण में छोटी-छोटी बातें जोड़ना। किंतु यह सब होता है साल में एक बार। आइएएक प्रयोग करिए। जब आप किसी काम के दबाव या तनाव में हों तो उस दिन यह तय करें कि आज का दिन ऐसे मनाएंगे जैसे त्योहार हो। उस दिन अन्न भी ऐसा ही लेंगे। हमारी पूरी भाषा उत्सव की भाषा होगी। हमारा ड्रेसकोड भी उत्सव जैसा होगा। मानसिक रूप से तो उस दिन उत्सव में डूब जाएं। अचानक आप पाएंगे कि आप भीतर से अलग ढंग से चैतन्य होने लगे हैं। बेशक आप पर काम का दबाव होगा। स्थितियों का तनाव होगालेकिन आपका आत्मविश्वास उस दिन अलग रूप में होगा। मसलनकभी सोचा कि रामनवमी मना रहे हैं तो राम की सारी विशेषताएं उस दिन दिमाग में चलनी चाहिए। राम के रूप में जो व्यक्तित्व उस दिन आपके भीतर उतरा है उसकी विशेषताएं दूसरों के हित में बांटें। रामनवमी मनाने का सही अर्थ है रोम-रोम मे श्रीराम का उतर जाना। 

यदि आपको उस दिन थोड़ी देर के लिए भी श्रीराम मिले हैं तो उसे सबको बांट दीजिए। सिर्फ अपने लिए न रखें। त्योहार मनाने की यह वृत्ति आपको तनाव से मुक्त रखेगी और जो काम आप कर रहे होंगे उसके बहुत अच्छे परिणाम मिलेंगे। भाषाभूषाभोजन और भजन के मामले में उस दिन को त्योहार मान लीजिए और फिर देखिए आपका परिश्रम आपको बड़े अच्छे परिणाम देगा।

व्यक्तित्व से अस्तित्व पर जाएं
मौजूदा समय में वही लोग टिक पाएंगे जो अपना श्रेष्ठ सर्वश्रेष्ठ में बदल देंगे। इस प्रक्रिया में आपको कई विषम परिस्थितियों से भी गुजरना पड़ेगाक्योंकि सर्वश्रेष्ठ’ इस समय गुमशुदा है और गुमशुदा की तलाश एक रहस्यमय कार्य है। आपको सर्वश्रेष्ठ माता-पिता बनना है तो संतानों के मामले में घोर चुनौतियां सामने आएंगी। हमारा थकनाहमारे दुख और हमारी बीमारियां सर्वश्रेष्ठ तक पहुंचने में बाधाएं हैं। इन तीनों से मुक्ति पानी पड़ेगीक्योंकि जिंदगी उम्र से एक अजीब-सा रिश्ता बनाती है। कभी आयु को अनुमति देती है कि वह जिंदगी पर हावी हो जाए तो कभी उम्र को थका देती हैइसलिए जिन्हें सर्वश्रेष्ठ देना है वे उम्र के प्रति सावधान रहें। उम्र को कम होना ही है। बुढ़ापा आकर रहेगाइसलिए हर उम्र में जो भी सर्वश्रेष्ठ करने की संभावना है उसे उसी वक्त कर लेना चाहिए। जीवन है तो दुख भी आएंगे। ये आपको सर्वश्रेष्ठ बनने में बाधा भी पहुंचा सकते हैं। 

इन्हें अलग दृष्टि से लें। आपका व्यक्तित्व प्रभावशाली होसक्रिय हो तो आप श्रेष्ठ प्राप्त कर लेंगेलेकिन जैसे ही सर्वश्रेष्ठ की ओर बढ़ेंगेआपको अपने व्यक्तित्व पर भी काम करना पड़ेगा। वह काम होगा अपने व्यक्तित्व से हटकर अपने अस्तित्व को जानना। जीवन-यात्रा में कई बार बिना साथी और कारवां के चलना पड़ता है। व्यक्तित्व ऐसे में घबरा जाता हैलेकिन अस्तित्व सिखाता है कि अकेले भी कारवां बनाया जा सकता है। व्यक्तित्व तो दबाव में आकर समझौता भी कर लेता हैलेकिन अस्तित्व जरा भी समझौता नहीं करता। जिन्हें अस्तित्व को पहचानना होउसकी ओर चलना हो उन्हें अपनी दिनचर्या में योग को महत्व देना चाहिए। योग सर्वश्रेष्ठ से मिलाने के लिए बड़ी मजबूत सीढ़ी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......मनीष


Thursday, March 5, 2015

Asafalta (असफलता)


जब भी असफल या निराश होंसबसे पहले ये करें....
जब कभी हम परेशान होते हैं तो परेशानी दूर करने का निदान ढूंढ़ते हैं। ऐसा करना भी चाहिए। ऐसा करते हुए एक काम और किया जाए। उस परेशानी के कारण को भी पकड़ें। यहां यह ध्यान रखें कि कारण दूसरों में न ढूंढे़।

जब भी हम निराश होंअसफल होंदुखी हों तो सीधे अपने भीतर छलांग लगाएं और टटोलें कि इसके पीछे हम कहां हैं। अब जैसे-जैसे हम गहराई में उतरकर अपने पर ही काम करेंगेहमारी मुलाकात हमारी इंद्रियों से होगी। इंद्रियां भी चूंकि एक नहीं हैंइसलिए उनमें से उस एक को पकड़ोजो सबसे ज्यादा ताकतवर है और विषयों से जुड़कर हमें परेशान कर रही है।

लेकिन उससे झगड़ा न किया जाएक्योंकि उसकी शक्ति हमारी कमजोरी बनती है। उसका अनियंत्रण ही हमारी परेशानी का कारण है। जीवन में गुरु अपने शिष्यों की कमजोरियों को इंद्रियों के माध्यम से पकड़ते हैं और उसी कमजोरी को शक्ति में रूपांतरित कर देते हैं।

इंद्रियों को हमारा दुश्मन बनाने की जगह दोस्त बनाने की कला एक सच्चा गुरु जानता है। इंद्रियों से जितना अधिक झगड़ा करेंगेउतनी ही परेशानी हम और बढ़ा लेंगे। हम भीतर ही भीतर खुद से उलझने लग जाएंगे। इंद्रियां हमारी खुशी और परेशानी के लिए एक पुल की तरह हैं। वे एक रास्ते के माफिक हैं। हम उनसे झगड़ा करके पुल को ध्वस्त कर लेते हैं और रास्ते को ऊबड़-खाबड़ बना लेते हैं।

कोई कभी उनसे भी झगड़ा करता हैजो काम आने वाले लोग हों। इंद्रियां जितना काम बिगाड़ती हैंउससे ज्यादा काम बना भी सकती हैं। इसलिए इंद्रियों को समझें तो सुख और दुख के कारण समझ में आ जाएंगे तथा निदान भी सही हो जाएगा।

असफलता और दुःख का सबसे बड़ा कारण यह है...
अधिकांश विवादों की जड़ में मैं’ होता है। अहंकार समाधान कमसमस्याएं ज्यादा पैदा करता है। सफल से सफल लोग अहंकारी होने पर भले ही असफल न हुए होंपर अशांत जरूर हो गए और अशांति अपने आप में एक असफलता है। अहंकार कैसे उल्टे-उल्टे काम कराता हैपता ही नहीं लगने देता है कि आदमी कब हंस रहा है और कब रो रहा है। चलिएरावण की सभा में चलते हैं।

सुंदरकांड का वह दृश्य चल रहा थाजहां विश्वविजेता रावण के दरबार में हनुमानजी खड़े थे।

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयं बिषाद।।

हनुमानजी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हंसा। फिर पुत्रवध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया। यहां दो दृश्य एकसाथ चले हैं।

पहले तो रावण हंसा। इसके बाद उसे तत्काल विषाददुख हो गया था। उसे ऐसा लगता था कि दुनिया में कभी उसकी पराजय नहीं हो सकती। उसने तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि वह किसी के हाथों नहीं मारा जाएगामनुष्य और बंदरों को छोड़कर।

इतनी बड़ी उपलब्धि एक अहंकारी के लिए उसके अभिमान में वृद्धि करने के लिए काफी थीलेकिन वह यह भूल गया था कि वरदान उसे मिला हैउसके बेटे को नहीं। अभिमानी रावण ने अपने बच्चों को भी खूब गलत मार्ग दिखाए थे।

आदमी का अहंकार स्वयं को और उसके आसपास के लोगों को परेशानी में डालता ही है। नतीजे में एक बेटा मारा गया और जो रावण सारी दुनिया को दुखी कर रहा थावह अपनी ही सभा में स्वयं दुखी हो गया और माध्यम थे हनुमानजी।

असफल होने पर भी अपनी ये आदत ना छोड़ें...
उत्सव मनाना और सौभाग्य को आमंत्रित करना लगभग एक जैसा है। सफलता का उत्सव तो बहुत लोग मनाते हैंलेकिन असफल होने पर भी उत्सव की वृत्ति न छोड़ें। भारतीय संस्कृति उत्सवों की ही संस्कृति है।
उत्सव का अर्थ यह नहीं होता कि खुशियों का बंटवारा कर लेंबल्कि उत्सव का अर्थ होता हैउत्साह को पैदा करना। सुख और दुख बांटो या न बांटोउनके अपने फैलने के तरीके होते हैंलेकिन उत्साह हमें भीतर से ही लाना पड़ेगा। उत्सव का अर्थ धूम-धड़ाका और भाग-दौड़ ही न मान लें।

सच तो यह है कि जिस दिन आप खूब शांति से बैठ जाते हैंउस दिन आप भरपूर उत्सव में डूबे रहते हैं। तमाशे और उत्सव में यही फर्क है। जिंदगी की चलती हुई गाड़ी में उत्सव उस कील की तरह हैजिसके आसपास पहिया घूम रहा है। हम कहते हैंवाहन चल रहा है।

दरअसल वाहन दो हिस्सों में बंटा है। उसका चलना उसके पहिये पर निर्भर है और पहिये का घूमना उसकी बीच की कील पर निर्भर है। कील रुकी रहती हैपहिया घूमता है और गाड़ी को चलता हुआ बताया जाता है। बस जिंदगी की गाड़ी भी ऐसी ही है। आप घूमते हुए पहिए पर ज्यादा न टिकें। उस रुकी हुई कील पर ध्यान देंजिसे जीवन का केंद्र कहा गया है।

जो सचमुच उत्सव मनाना चाहते हैंवे अपनी प्रशंसा कोउत्साह को उस कील पर टिकाएं। जो आयोजनप्रयोजन कील पर केंद्रित होगा तो वह उत्सव होगा और जब वह पहिए पर आधारित होगा तो तमाशा होगा। जिसमें धूम-धड़ाका होगाजिसमें शोर होगा। खामोशी से मनाया उत्सव जीवन को और संचारित तथा उत्साहित कर देता है।

असफलता से बचने के लिए जरूरी हैं ये तीन गुण...
सारे व्यावसायिक प्रयास कुल मिलाकर धन के आसपास केंद्रित रहते हैं। यह धन कमाने का दौर है। जब इसका नशा चढ़ता हैतो आदमी अच्छे और बुरे तरीके पर ध्यान नहीं देता।अपने व्यावसायिक जीवन में धन कमाने को तीन बातों से जोड़े रहिए- योग्यतापरिश्रम और ईमानदारी।

ये त्रिगुण जिसके पास हैंवह किसी भी व्यावसायिक व्यवस्था में शेर की तरह होगा। शेर का सामान्य अर्थ लिया जाता है हिंसक पशुलेकिन यहां शेर से अर्थ समझा जाए जिसके पास नेतृत्व कीयानी राजा बनने की क्षमता।

एक पुरानी कहानी है। एक शेर का बच्च माता-पिता से बिछड़ भेड़ों के झुंड में शामिल हो गया। उनके साथ रह उसकी चाल-ढालरंग-ढंग सब बदल गए। संयोग से किसी शेर ने भेड़ों के उस काफिले पर हमला किया। भेडें भागींतो शेर का बच्च भी भागा। हमलावार शेर को समझ में आ गया।

उसने भेड़ों को छोड़ा और उस शेर के बच्चे को पकड़ा। पानी में चेहरा दिखाया और कहा- तू मेरे जैसा है। तू शेर हैसबसे अलगसबसे ऊपर। हमारे साथ ऐसा ही होना चाहिए। हमारे त्रिगुण हमें आईना दिखाते हैं कि हमें योग्यतापरिश्रम और ईमानदारी से धन कमाना है।

संस्थानों में अनेक लोगों की भीड़ होगीपर हमें सबसे अलग रहना है। जो धन हम कमा रहे हैं वह तभी शुद्ध होगा और हमें अपनी सफलता के साथ शांति भी देगा। शास्त्रों में लिखा है- सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं पर स्मृतम्। योर्थै शुचिहिं स शुचिर्न मृद्वारिशुचि: शुचि:।। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि सर्वोपरि है।

वास्तव में वही शुद्ध है जो धन से शुद्ध है। जल और मिट्टी की शुद्धि कोई शुद्धि नहीं है। धन कमाने के मामले में हमारे ये त्रिगुण हमें बार-बार सामान्य लोगों की भीड़ से अलगविशिष्ट बनाएंगे। अब जो समय है वह माचिस से आग जलाने का नहीं रहा। अब तो अपने व्यक्तित्व के तेज से प्रकाश फैलाने का वक्त है।

किसी भी संस्थान में इंसानों का ढेर होगा। उसमें यदि पूरे और सलामत आप दिखना चाहें तो लगातार अपने इन त्रिगुणों पर टिके रहिए और योग-प्राणायाम को थोड़ा समय जरूर दीजिए। यह बात सच है कि अपने विषय में सच्चई से कुछ कहना प्राय: कठिन होता हैक्योंकि स्वयं के अंदर दोष देखना सभी को अप्रिय लगता हैलेकिन आपके द्वारा अपने दोषों का अनदेखा करना दूसरों को अप्रिय लगता है।

असफलता का डर दूर करने के लिए जरूरी है ये बातें...
उस परमशक्तिपरमात्मा की अनुभूति होने पर व्यक्ति के मन में पहली इच्छा यह आती है कि यदि मैंने पा लिया है उसेतो वह दूसरों को भी जरूर मिले। मैंने रसपान कर लिया है तो दूसरे भी प्यासे न रहें। लेकिन संसार की उपलब्धियां बांटने में कष्ट होता है।

इस समय संसार में दो बातों के लिए आदमी प्रयासरत और बेताब है- सफलता और प्रसिद्धि। कामयाब आदमी ख्याति जरूर बांटता है। इससे अहंकार को पुष्टि मिलती है। बिना सफल हुए भी कुछ लोग ख्यात होना चाहते हैंफिर वे कुख्यात बनने की ओर बढ़ जाते हैं।

सफलता को तो लोग फिर भी आपस में बांट लेते हैंलेकिन प्रसिद्धि का बंटवारा दौलत के बंटवारे से भी अधिक कठिन हो जाता है। बाप-बेटेभाई-भाईपति-पत्नी के रिश्ते भी ख्याति के बंटवारे के मामले में ईष्र्या में डूब जाते हैं।

जीवन में सफलता और प्रसिद्धि आने पर उदारता का स्वभाव और बढ़ा देना चाहिए। बिना उदार भाव के ये दोनों आपको ही खा जाएंगी। अपने उदार भाव को अधिक प्रदर्शन में न रखें। जो इसे थोड़ा रहस्यमयी रखेंगेउन्हें अहंकार से बचने में सुविधा होगी। उदारता हमारे भीतर के बड़प्पन को संवार रही है। जब सेवा करें तो उसे रहस्यमयी न रखेंउसमें पूरा खुलापन रखें।

जिन्हें परमात्मा की अनुभूति होती हैउनके लिए सफलता और सेवा के अर्थ भिन्न हो जाते हैं। वे बांटने को उतावले होते हैं। हमें मिला तो दूसरों को भी मिलेउनका हर कृत्य इस भाव से भरा रहता है। ऐसे लोग सांसारिक वस्तुओं को बांटने में भी संकोच नहीं करते हैं। यह भी प्रेम का एक रूप होगा।

असफल होना नहीं चाहते तो इस एक आदत से बचें...
अपनी प्रशंसा अपने मुख से करना सीधे-सीधे अहंकार का अंकुरण करना है। सफलता को पचाना भी बड़ी ताकत का काम है। हम लोग अपने जीवन में जरा भी सफल होते हैंतो सबसे पहले इसे शोर और प्रदर्शन में तब्दील करते हैं। सुंदरकांड में हनुमानजी महाराज हमें सिखा रहे हैं कि सफल होने पर थोड़ा खामोश हो जाइए। हमारी सफलता की कहानी कोई दूसरा बयान करेतो कामयाबी में चार चांद लगना ही है।

लंका जलाकर और सीताजी को संदेश देने के बाद उनका रामजी की ओर लौटना सफलता की चरम सीमा थी। वह चाहते तो अपने इस काम को स्वयं श्रीरामजी के सामने बयान कर सकते थे। जैसा हम लोगों के साथ होता हैहम लोग अपनी सफलता की कहानी स्वयं दूसरों को न सुनाएंतो कइयों का तो पेट दुखने लगता है। लेकिन हनुमानजी जो करके आएउसकी गाथा श्रीरामजी को जामवंत सुना रहे थे।

तुलसीदासजी को लिखना पड़ा-

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुं मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित्र सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।

हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान ने जो करनी कीउसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जामवंत ने हनुमानजी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्रीरघुनाथजी को सुनाए।।

आगे लिखा गया है- सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियं लाए।। सुनने पर कृपानिधि श्रीरामचंद्रजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमानजी को फिर हृदय से लगा लिया। परमात्मा के हृदय में स्थान मिल जाना अपने प्रयासों का सबसे बड़ा पुरस्कार है।

बड़े लक्ष्य पाना हो तो गणेश जी से बात सीखें...
केवल मनुष्य ही ऐसा होता है जिसके पास श्रेष्ठ से श्रेष्ठ और तुच्छ से तुच्छ दोनों एक समान होता है। उसके पास विचारों की चरम ऊंचाई हैतो आचरण की निम्नतम गति भी है। उठेगा तो इतना ऊंचा उठ जाएगा कि देवत्व लांघ ले और गिरेगा तो इतना नीचे गिर जाएगा कि पशु भी शर्मिदा हो जाएं।

भारत के पास श्रेष्ठतम शास्त्र रहे हैंएक से बढ़कर एक महापुरुष आए इस धरती परअवतारों ने जीवन जीने की कला सिखा दीफिर भी लोग चूकते गए। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह रहा कि हमने विवेक-शून्य होकर इनका उपयोग किया।

जिस दिन हम विवेकहीन हो जाते हैंहमारा आधार ही खिसक जाता है। हम धार्मिक भावनाओं में इतने बह गए कि सही-गलत ही भूल गए। भावुकता उत्तेजना बन गई। यथार्थ का धरातल विवेक मांगता है। बड़े लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कल्पनाशक्ति और दूरदर्शिता जरूरी है। पर बिना विवेक के ये भी घातक हैं। विचार जब ओवरफ्लो होते हैंतो भाव बन जाते हैं। यह भावना का बहाव ही बहा ले जाता है। कोई बांध चाहिए जो इस बहाव का सदुपयोग कर ले। इसीलिए हिंदुओं ने गणेशजी को खूब पूजा है। वह विवेक के देवता हैं।

स्पष्ट है कि उन्हें अकारण ही प्रथम पूज्य नहीं बनाया गया है। उनका विवेक शुभ से जुड़ा है और जब भी कोई कार्य शुभ से आरंभ होगाविवेक से गुजरेगा तो उसे शत-प्रतिशत सफल होना ही है। इसलिए हर कार्य से पहले गणपति की आराधना होती है। गणोश उत्सव इस धरती पर लोक-देवताओं से जुड़े कई अद्भुत प्रयोगों में से एक है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......मनीष



Monday, March 2, 2015

Ashaanti (अशांति)

यहां खोजें अपनी अशांति और गुस्से के कारणों को...
कभी तसल्ली से बैठकर इस बात की सूची बनाइए कि आपको किन बातों पर गुस्सा आता है और किन बातों से आप अशांत हो जाते हैं। सूची बनने के बाद फिर विश्लेषण करिए कि इनमें से कितनी बातों का कारण आप हैं और कितनी बातों में दूसरे जिम्मेदार हैं।

यह काम निष्पक्षता से किया जाएक्योंकि हमारी आदत होती है कि हम अपने क्रोध और अशांति का कारण सदैव दूसरे में देखते हैं। थोड़ी देर के लिए आया हुआ क्रोध हमारी ऊर्जा का नुकसान कर जाता है। हम उस ऊर्जा को खो देते हैंजो किसी और उपयोगी काम में खर्च की जा सकती है।

कई स्थितियां ऐसी होती हैंजब क्रोध आता हैलेकिन हम उसे व्यक्त नहीं कर पाते और नई बीमारी शुरू हो जाती है। अब क्रोध भीतर ही भीतर बहने लगता है। भारत के ऋषि-मुनियों ने हर औरत के भीतर आधा आदमी और हर आदमी के भीतर आधी औरत का बड़ा सुंदर सिद्धांत दिया है।

सद्गुण और दुगरुण भीतर ही भीतर इसी वृत्ति से अपने परिणाम देते हैं। आज हम क्रोध की बात कर रहे हैं। क्रोध जब पुरुष भाव से जुड़ता है तो वह प्रकट हो जाता है और स्त्री भाव से जुड़कर कुढ़न में बदल जाता है। कुढ़न ईष्र्या के आसपास की स्थिति है। स्त्री भाव से जुड़कर क्रोध जलनदाहरश्क में बदल जाता है। पुरुष भाव से जुड़कर क्रोध आगबबूला मुद्रा में आ जाता है।

वह अपनी अप्रसन्नता को भी आक्रमण से प्रस्तुत करने लगता है। उसका क्रोध झल्लाहटबौखलाहट और हिंसा में भी उतर सकता है। जब तक क्रोध के कारण दूसरों में ढूंढ़े जाएंगेतब तक स्त्री हो या पुरुष दोनों भाव से जुड़कर नुकसान ही पहुंचाएंगे। इसलिए कारण अपने में ढूंढ़िए और अपने आप से जुड़िए।

इस कारण भी युवा पीढ़ी झेल रही है डिप्रेशन...
इस समय जितनी शिक्षा बढ़ी हैउतनी ही अधीरता भी बढ़ रही है। पढ़े-लिखे लोग अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए इस कदर अधीर होते जा रहे हैं कि जरा-सी रुकावट या देरी उन्हें डिप्रेशन की ओर ले जाती है। जो थोड़े हिम्मत वाले हैंवे अपने आप को डिप्रेशन से तो बचा लेते हैंलेकिन चिड़चिड़े हो जाते हैं।

कुल मिलाकर शिक्षा ने आदमी को बुद्धिमान बनायापर बेताब भी बना दिया। हर पढ़े-लिखे आदमी को यह बात जरूर समझनी चाहिए कि कुछ बातें होकर ही रहती हैं। जीवन के प्रवाह में कुछ ऐसा होता ही हैजो घट जाता है।

आप चाहें या न चाहें। उस समय शिक्षा को समझ का काम करना चाहिए। प्रिय लोगों की मृत्युबिछड़नाअचानक नुकसान हो जानादुर्घटनाएं इत्यादि पर आपका सीधा वश नहीं चलता। ऐसे वक्त पढ़े-लिखे होने का अर्थ है हिम्मत न हारें। जैसे निरोगी काया एक सुख हैवैसे ही समझ देने वाली शिक्षा भी अपने आप में बहुत बड़ा सुख है।

अत: यह उपलब्धि हमारे लिए काम की होनी चाहिए। दो वक्त की रोटी को पढ़ाई-लिखाई तो जुटा ही देगी लेकिन शरीर और मन के स्वास्थ्य के अलावा एक और स्वास्थ्य होता हैजिसे नैतिक स्वास्थ्य कहते हैं। इसकी अनुभूति शिक्षा कराती है। नैतिक रूप से निरोगी व्यक्ति दूसरों के प्रति प्रेमसेवापरोपकारउदारता और मधुरता का व्यवहार करता है।

दरअसल शिक्षा एक समझ की तरह बननी चाहिएजो मनुष्य के शरीर और आत्मा के संयोग को समझा सकेक्योंकि मनुष्य पूरी दुनिया में आत्मा और शरीर का अद्भुत संयोग है और इस अनुभूति को शिक्षा परिपक्व कर देती है।

इसके बिना आपके जीवन में शांति संभव नहीं है...
योग न तो फैशन हैन धंधा। थोड़ा अफसोस होता हैलेकिन यह सही है कि इन दिनों योग के साथ ये दोनों बातें जुड़ गई हैं। योग को उपलब्ध होने का अर्थ है शांति को प्राप्त होना और शांति जिस भी कीमत पर मिलेजरूर हासिल करें।

विज्ञान के युग में भौतिक साधनों की कोई कमी नहीं है। लेकिन शांति विज्ञान का विषय नहीं है और जो लोग जीवन में योग लाना चाहेंउन्हें मन को नियंत्रित करना आना चाहिए।

फकीरों ने कहा है कि मन को नियंत्रित किए बिना किसी के जीवन में योग या शांति नहीं आ सकती। करोड़ों में ही कोई ऐसा होगाजिसे मन को नियंत्रित किए बिना शांति मिल जाएगी।

लेकिन यह अपवाद है। कोई पहुंचा हुआ फकीर ही इस स्थिति में मिलेगा। सामान्य व्यवस्था यह है कि मन को काबू में किया जाए। मस्तिष्क के तीन विभाग हैं - अवचेतन मनचेतन मन और अचेतन मन। ये आत्मा से अलग हैं।रहा सवाल शरीर का तो उसकी रचना कोशिकाओं से हुई है। चिकित्सा विज्ञान के लोग जानते हैं कि एक सूक्ष्म कोशिका कितनी बड़ी जटिल रचना होती है।

ऐसा कहा गया है कि एक वर्ग इंच में 11 लाख 77 हजार 500 कोशिकाएं देखी गई हैं। एक कोशिका नष्ट होने पर अपने सारे आनुवंशिक गुण दूसरी में दे जाती है। विज्ञान के लिए भी ये बड़ी अजीब घटना है।

इसलिए मनुष्य के भीतर झांकना केवल शरीर के स्तर पर भी विज्ञान के लिए लगातार शोध का विषय है। ऐसे में मन तो और सूक्ष्म हो जाता हैलेकिन सांस के माध्यम से आप मन को पकड़ सकेंगे। शरीर का इलाज तो चिकित्सक पर छोड़ देंलेकिन कम से कम साधक तो हुआ जा सकता हैताकि मन का इलाज तो कर ही लें।

अशांति का एक कारण है गुस्साइसे ऐसे काबू करें...
आजकल गुस्सा तो लोगों की नाक पर बैठा है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि नाक शरीर का वह अंग है जिसका संबंध सांस से है और सांस मन को भोजन प्रदान करती है। यह एकमात्र क्रिया हैजिसका संबंध परमात्मा के हाथ में है।

इसीलिए नाक पर बैठा गुस्सा फौरन भीतर जाता है और क्रोध वह विष हैजो शरीर में तुरंत फैल जाता है। हमें अपने जीवन में जिन-जिन बातों को गंभीरता से लेना चाहिएउनमें से एक क्रोध है। एक बड़ा खतरा भविष्य के लिए दिख रहा है कि इस समय बच्चे बुरी तरह गुस्सैल हो उठे हैं।

मैं पिछले दिनों अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक स्तर के लगभग 15 परिवारों के संपर्क में आया। इनमें से 12 परिवार के लोगों की दिक्कत यह थी कि उनके घर के छोटे बच्चेजो 5 साल से 14 साल के हैंबहुत अधिक गुस्सा करने लगे हैं।

क्रोध के कारण हमारे हार्मोस में एक विषैला तत्व पैदा हो जाता है। हम अपने ही द्वाराअपने ही भीतर एक चिता तैयार कर लेते हैं और उसकी अग्नि में न सिर्फ खुदबल्कि अन्य लोगों को भी झुलसाने लगते हैं। कम से कम बड़े तो इस बात को समझ लें कि हर क्रोध के मूल में अहंकार होता है।

अहंकार अपने ही प्रति एक तरह का अज्ञान माना जाता है। इसके पीछे यह हठ होता है कि हर व्यक्ति हमारी बात माने। जिन्हें अपने क्रोध पर नियंत्रण पाना होवे निरहंकारी होने का प्रयास करें। निरहंकारी वही हो पाएगाजिसने अहंकार को जाना है। जैसे ही आप अपने अहंकार से परिचित होते हैंयह विसर्जित होने लगता है और यहीं से क्रोध नियंत्रण में आ जाता है। अगर बड़ों का क्रोध नियंत्रण में है तो वे बच्चों को भी इससे मुक्ति दिला पाएंगे।

शांति से जीना है तो ये तीन बातें कभी ना भूलें....
परमात्मा ने हमारे जीवन प्रबंधन को बहुत ही व्यवस्थित तरीके से जमाकर हमें दिया हैलेकिन हम उसे समझ नहीं पाते और बिना समझे उसका उपयोग करने लगते हैंजो बाद में दुरुपयोग में बदल जाता है। इन छोटी-छोटी बातों को गहराई से समझ लें तो बहुत काम आएंगी।

जिसे भी शांतिपूर्ण जीवन जीना है तो उसे शरीरमन और आत्मा तीनों को कभी नहीं भूलना चाहिए। इंद्रियों को आत्मा का औजार कहा गया है। परमात्मा ने यह औजार हमें देकर आत्मा की आवश्यकताएं पूरी करने के अवसर दिए।

इंद्रियों का संबंध उपभोग से जोड़ा गया है और सामान्य रूप से भोगों की आलोचना की जाती है। साधारण लोग इसका अर्थ ये ले लेते हैं कि इंद्रियों के कारण पतन होता हैइसलिए इनका दमन किया जाए। शास्त्रों में शब्द आया है इंद्रिय-निग्रह।

इसका अर्थ दमन करना नहीं हैइनकी दिशाओं को मोड़कर इनका सदुपयोग करना है। नियंत्रित इंद्रियां सबसे अच्छी दोस्त होंगी और अनियंत्रित इंद्रियों से बड़ा कोई दुश्मन नहीं होता। जो लोग अपनी इंद्रियों से परिचित रहेंगेवे स्वयं का और दूसरों का भी पूरा व्यक्तित्व ही देखेंगे। अभी इंद्रियों के दुरुपयोग के कारण हम न तो स्वयं को जान पाते हैं और न ही दूसरों कोइसी कारण अशांत रहते हैं।

इंद्रियां हमें मनुष्य से मनुष्य में भेद करा देती हैं। अपना-परायाभोग-विलास के झंझट यही से शुरू होते हैं। अध्यात्म कहता हैइंद्रियों के प्रति जागरूकता आते ही हम उस समग्र के प्रति विसर्जित होने लगते हैंजिसे परमात्मा कहा गया है। इसलिए थोड़ा समय बाहर की दुनिया से हटकर भीतर की दुनिया में उतरकर इंद्रियों के प्रति होश जगाने में लगाएं।

अशांति से बचने के लिए यह संतुलन जरूरी है..
मनुष्य शरीर और आत्मा दोनों से बना हैलेकिन इस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप से समझना होगा। जीवन में जो भी क्रिया करेंदोनों को समझकर करें। केवल शरीर पर टिककर करेंगे तो जीवन भौतिकता में ही डूब जाएगा और केवल आत्मा से जोड़कर करेंगे तो अजीब-सी उदासी जीवन में होगी।

न बाहर से कटना है और न बाहर से पूरी तरह जुड़ना है। दोनों का संतुलन रखिए। जैन संत तरुणसागरजी दो घटनाएं शरीर से जुड़ी सुनाते हैं।महावीर स्वामी पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। पेड़ पर आम लटक रहे थे। बच्चों ने आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंके। कुछ पत्थर आम को लगे और एक महावीर स्वामी को लगा। बच्चों ने कहा - प्रभु! हमें क्षमा करेंहमारे कारण आपको कष्ट हुआ है। प्रभु बोले - नहींमुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। बच्चों ने पूछा - तो फिर आपकी आंखों में आंसू क्यों?

महावीर ने कहा - पेड़ को तुमने पत्थर मारा तो इसने तुम्हें मीठे फल दिएपर मुझे पत्थर मारा तो मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकाइसलिए मैं दुखी हूं। यहां शरीर का महत्व बताया गया है।आखिर इस शरीर पर किसका अधिकार हैमाता-पिता कहते हैं - संतान मेरी है। पत्नी कहती है - मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आई हूंइसलिए इस पर मेरा अधिकार है। मृत्यु होने पर शरीर को श्मशान ले जाते हैं तो श्मशान कहता है - इस पर अब मेरा अधिकार है। चिता की अग्नि कहती है - यह तो मेरा भोजन है।

अब आप ही विचार करें कि इस शरीर पर आखिर किसका अधिकार हैइसलिए शरीर और आत्मा को जोड़करसमझकर जिएंगे तो शरीर का सदुपयोग कर पाएंगे और आत्मा का भी आनंद ले पाएंगे।

हमारे भीतर की अशांति का एक कारण ये भी है...
फिजूलखर्ची एक बुराई हैलेकिन ज्यादातर मौकों पर हम इसे भोगअय्याशी से जोड़ लेते हैं। फिजूलखर्ची के पीछे बारीकी से नजर डालें तो अहंकार नजर आएगा। अहं को प्रदर्शन से तृप्ति मिलती है। अहं की पूर्ति के लिए कई बार बुराइयों से रिश्ता भी जोड़ना पड़ता है।

अहंकारी लोग बाहर से भले ही गंभीरता का आवरण ओढ़ लेंलेकिन भीतर से वे उथलेपन और छिछोरेपन से भरे रहते हैं। जब कभी समुद्र तट पर जाने का मौका मिलेतो देखिएगा लहरें आती हैंजाती हैं और यदि चट्टानों से टकराती हैं तो पत्थर वहीं रहते हैंलहरें उन्हें भिगोकर लौट जाती हैं।

हमारे भीतर हमारे आवेगों की लहरें हमें ऐसे ही टक्कर देती हैं। इन आवेगोंआवेशों के प्रति अडिग रहने का अभ्यास करना होगाक्योंकि अहंकार यदि लंबे समय टिकने की तैयारी में आ जाए तो वह नए-नए तरीके ढूंढ़ेगा।

स्वयं को महत्व मिले अथवा स्वेच्छाचारिता के प्रति अति आग्रहये सब फिर सामान्य जीवनशैली बन जाती है। ईसा मसीह ने कहा है- मैं उन्हें धन्य कहूंगाजो अंतिम हैं। आज के भौतिक युग में यह टिप्पणी कौन स्वीकारेगाजब नंबर वन होने की होड़ लगी है। ईसा मसीह ने इसी में आगे जोड़ा है कि ईश्वर के राज्य में वही प्रथम होंगेजो अंतिम हैं और जो प्रथम होने की दौड़ में रहेंगेवे अभागे रहेंगे।

यहां अंतिम होने का संबंध लक्ष्य और सफलता से नहीं है। जीसस ने विनम्रतानिरहंकारिता को शब्द दिया है अंतिम। आपके प्रयास व परिणाम प्रथम होंअग्रणी रहेंपर आप भीतर से अंतिम हों यानी विनम्रनिरहंकारी रहें। वरना अहं अकारण ही जीवन के आनंद को खा जाता है।

अशांति दूर करने का सबसे सटीक रास्ता ये है...
अधिकांश मनुष्य चाहते हैं कि उनके भीतर प्रसन्नताकर्तव्य और पवित्रता बनी रहे। कई लोग ईमानदार प्रयास करते भी हैंफिर भी दुगरुणों के झोंके अचानक भीतर प्रवेश कर जाते हैं। पता नहीं कौन-सा झरोखा खुला रह जाता है कि सारे प्रयासों के बाद भी मन में मलिनता आ ही जाती है।

हमारे भीतर विपरीत विचारों की टकराहट चलती ही रहती है। जिस समय जो विचार जीत जाते हैंमनुष्य का वैसा ही आचरण हो जाता है। यदि हम अपनी आत्मा में सात्विकता की वृद्धि करना चाहें तो हमें इस टकराहट को लेकर सावधान रहना होगा।

ऋषि-मुनि’ में मुनि उनके लिए कहा गया हैजिनके भीतर मौन घटित हो जाता है। मुनि हर वह मनुष्य हो सकता है जो भीतर से मौन साध ले। जो लोग लगातार ध्यान की क्रिया से गुजरेंगेउनके भीतर मौन का जन्म होगा। मेडिटेशन का बाय-प्रोडक्ट’ मौन है। आपको अपने ही भीतर मौन का अनुभव होने लगेगा। विचारों की टकराहट बंद हो जाएगी।

विचार सांस से प्रवेश करते हैं और हमें सांस के प्रति 24 घंटे में कुछ समय अतिरिक्त रूप से सजग रहना होगा। जिन बातों से विचार जन्म लेते हैंवे बातें हमारे चाहने पर ही होंगी। जैसे ही मौन घटित होता हैमनुष्य के चेहरे पर असाधारण शांतिप्रसन्नतासंतोष और तेज प्रकट होने लगता है।

फिर वह जो भी करता हैपुण्यमय होता है। करुणादयाउदारतामैत्री और आत्मीयता उसका सहज व्यवहार हो जाता है। उसकी क्रिया में अपने आप तपसाधनास्वाध्यायसत्संग घटित होने लगता है। ये मौन के परिणाम हैं। 24 घंटे में कुछ समय भीतर से बिल्कुल खामोश हो जाएं।

शांति चाहिए तो खुद पर भी एक ये एहसान जरूर करें...
जीवन में वे अवसर ढूंढ़े जाने चाहिएजब हम अपना उपकार कर सकें। अशांति से मुक्ति चाहने वालों को स्वयं पर एक उपकार करना होगा। हमारे भीतर कुछ दैवीय गुण होते हैं। उन्हें जाग्रत करने से शांति प्राप्त करना सरल है। इन दिनों अनेक लोगों के जीवन में तीन बातें बहुत परेशान करती हैं।

जीभ पर नियंत्रण नहीं होना पहली परेशानी है। हमारा अधिकांश समय इसी में उलझा रहता है। दूसरी बड़ी झंझट है क्रोध। बाहर से हम इसे नियंत्रित कर लेते हैं तो भीतर से यह कई बीमारियों को जन्म दे जाता है।

तीसरी दिक्कत है अपवित्र-अवांछित विचारजो हमारे भीतर चलते ही रहते हैं। विचारों के प्रवाह में हमारी शांति बह जाती है। ये तीनों ही गुलामी के लक्षण हैं। इन पर पार पाने की औषधि का नाम है आत्म-संयम।

इसे समझ लें कि शरीर और आत्मा अलग हैं। यह बोध ही आत्म-संयम को हमारे जीवन में ले आएगा। मैं शरीर नहीं आत्मा हूंलगातार इसका चिंतन करना होगा। हमारी अशांति बसी ही इसी में है कि हमने जीवन के केंद्र में शरीर और उसके सुखों को रख छोड़ा है।

अपने मैं’ को विसर्जित करने में ही सुख और शांति है। शरीर जन्म लेता है तो मृत्यु भी होती है और इन दोनों में दुख है। इसीलिए हम जीवनभर दुख आने से डरते हैं और सुख की चाहत में भटकते हैं।

जैसे और जितने हम आत्मा से परिचित होते जाएंगेहम समझने लगेंगे कि आत्मा का न जन्म हैन मृत्यु। इस बोध के बाद हमारे जीवन में वही सब होगा जो हो रहा हैलेकिन हम अशांति से दूर होंगे क्योंकि हम द्रष्टा भाव से चीजों को लेंगे। हम ही कर रहे हैं और हम ही अलग हटकर देख रहे हैं। फिर किस बात का दुख?

तो दर्द और अशांति में भी पाया जा सकता है आनंद
हर बीमारी का कोई न कोई इलाज है। जो बीमारी लाइलाज मानी गईउसका इलाज अध्यात्म के पास है। और वह है सहनशक्ति। सहनशक्ति आती है सद्गुणों के संग्रहण से। थोड़ी-सी अक्ल से काम लिया जाएतो हम अपनी बीमारी से अध्यात्म के मार्ग पर जा सकेंगे। लोगों ने अपनी व्याधि से भगवान ढूंढ़ लिए। पीड़ा से भी आनंद का मार्ग ढूंढ़ा जा सकता है। नर्क से भी स्वर्ग प्राप्त हो सकता है। भारत में तो भूख से लोगों ने आत्मा स्पर्श कर ली।

जहां मेडिकल साइंस की सीमा समाप्त हो जाएवह हाथ ऊंचे कर देवहां से तपश्चर्या और उपवास मददगार साबित होंगे। इन दोनों की शुरुआत शरीर से होती है और समापन आत्मा पर होता है।हम जब जीवित होते हैंतो हमारे पास दो तरह की रोशनी होती है।एक शरीर का प्रकाश है और दूसरी आत्मा की ज्योति है। सामान्य तौर पर हम इन दोनों में फर्कनहीं कर पाते। बल्कि यूं कहें कि पहचान नहीं पाते।

जब हम उपवास और तपश्चर्या से शरीर को सुखाते हैंउसके दोष दूर कर गुण पकड़ते हैंतब उसका प्रकाश कम होने लगता है। यह प्रकाश जितना मद्धम होगाउतनी ही दूसरी ज्योति हमें ज्यादा दिखेगी। उस आत्मा की ज्योति का सहारा लें उस समय और वहीं से बीमारी के प्रति एक सहनशक्ति जागेगी। हमको लगने लगेगा कि हमारे भीतर कुछ ऐसा हैजो शरीर से हटकर है। वही हमारी असली ताकत है। इसके लिए सतत अभ्यास करते रहें। अच्छे विचार लगातार इकट्ठा करें। इन्हें बीज मानकर बीजांकुर का कोई मौका न चूकें।सद्गुण हमें शरीर के प्रकाश से गुजारकर आत्मा की ज्योति तक ले जाने में सेतु साबित होंगे।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष