Friday, January 2, 2015

Jene Ki Rah1 (जीने की राह)


यह बात याद रखेंगे तो 2015 में सफलता कदम चूमेगी
विकासवाद भले ही यह मानता हो कि मनुष्य के पूर्वज उसके स्तर से गिरे हुए दूसरे जीव जंतु रहे होंगे, लेकिन अध्यात्म की मान्यता है कि वह मूलतः एक देवता है। हजारों साल के ज्ञात इतिहास में अभी तक ऐसा कोई क्षण नहीं आया, जिसमें यह सोचना पड़े कि सभ्यता अब नष्ट हो ही जाएगी और चारों तरफ विनाश के बादल गरजेंगे बरसेंगे। चारों तरफ घटाटोप अंधेरा छाया हो लेकिन सुबह की सुनहरी लालिमा अंततः उगी और बिखरी है। मनुष्य एक बार फिर उठा और चल दिया।
मनुष्य अपने भटकाव से छुटकारा पा सके तो उतने भर से स्वयं पार उतरने और अनेकों को पार उतार सकता है। इसके लिए कोई पहलवान या विद्वान होना जरूरी नहीं है। कबीर, दादू ,रैदास मीरा शबरी आदि ने संपन्नता के आधार पर वह श्रेय प्राप्त नहीं किया जो अब भी असंख्य लोगों को प्रेरित करता है। वह श्रेय उन्हें आंतरिक उत्कृष्टता के आधार पर ही प्राप्त हुआ।

हमारे पास शरीर, मन और अंतःकरण ये तीन ऐसी विशेष खदानें हैं, जिनमें से मनचाहे मोती निकाले जा सकते हैं। बाहरी सहयोग से भी लाभ होता है। कभी कभार अयोग्य और अवांछित लोगों पर भी भाग्य बरस सकता है। लेकिन सफलता दूसरों की मेहरबानी या भाग्य भरोसे ही नहीं है। सफलता उन्हें ही मिली जिन्होंने पुण्य प्रयास किए। गतिवानों और सक्रियजनों को कौन रोक पाया। गंगा का बहता हुआ संकल्प उसे महासागर तक पहुंचाए बिना बीच में कहीं रुका नहीं है।

नववर्ष में अपनी ऊर्जा को नया रूप दें
अध्यात्म में कहा गया है कि ऊर्जा कभी मरती नहीं है, केवल उसका रूप बदलता है। इस पर विज्ञान और धर्म दोनों सहमत हैं। यह ऊर्जा प्रकृति में ऋतु के अनुसार बदलती है, मरती कभी नहीं है। ऐसे ही ऋतु परिवर्तन होता है, जब हम नए कैलेंडर के अनुसार 31 दिसंबर से 1 जनवरी में प्रवेश करते हैं। हालांकि, भारतीय संस्कृति ने अपना ऋतु चक्र बनाया है, लेकिन जब मनुष्य की समूची भावना नववर्ष की तैयारी में हो, तब हमें मानना चाहिए कि हम नए ऋतुकाल में चल रहे हैं। ऐसे में जिस ऊर्जा से हमने विगत वर्ष काम किया, वही ऊर्जा अब नए रूप में नए वर्ष में काम आए। इसके लिए हमें विवेक और वैराग्य से काम लेना चाहिए। विवेक का मतलब किसी चीज का बुद्धि से सही उपयोग और वैराग्य का मतलब है अति न करते हुए दुरुपयोग से बचना। हमें जरा सुख मिलता है, हम अति पर उतर आते हैं और हम ऊर्जा का दुरुपयोग करते हैं। पिछले वर्ष ऊर्जा का दुरुपयोग हुआ होगा, संकल्प लें कि नए वर्ष में उससे बचेंगे। नववर्ष का यह अर्थ नहीं है कि अपनी ऊर्जा को केवल विलास और हुड़दंग से जोड़ें,  आप अपनी ऊर्जा को नववर्ष में नया रूप दे सकते हैं।
ईश्वर में भरोसे से मिटता है भय
जीवन में जब भय उतरता है, तो वह हमारे विचारों को भी गलत दिशा में धक्का देने लगता है। भय ऐसी क्रिया है जिसमें मन, हृदय, मस्तिष्क तीनों सक्रिय हो जाते हैं। भय मिटाने का सरल तरीका है भरोसा। बच्चों को माता-पिता पर भरोसा होता है, तो भय के समय वो उनसे लिपट जाते हैं। संसार में अनेक भय हैं। सबके निपटारे का सही तरीका है ईश्वर के प्रति भरोसा। भय का प्रवेश बाहरी घटनाओं से होगा, भरोसे का आगमन अंतरतम से आएगा। हमारी चर्चा चल रही है रामचरितमानस के चौथे सोपान किष्किंधाकांड की। भय भी बहुत बड़ी समस्या है और हनुमानजी के पास हर समस्या का निदान है। यह कांड समस्याओं के समाधान का ही सोपान है। सुग्रीव ने श्रीराम-लक्ष्मण को आता देखकर हनुमानजी को भेजा था। जैसे ही हनुमानजी श्रीराम के सामने हुए, वे जानते थे समय कम है इसलिए दो टूक बातचीत आरंभ कर दी, ‘को तुह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा।। कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी।।हे वीर! सांवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं? हनुमानजी के जो प्रश्न थे उसमें एक आमंत्रण था कि श्रीराम उत्तर देने में सहज हो जाएं। यहां से हनुमानजी भरोसा बना रहे थे क्योंकि सुग्रीव का भय दूर करना था और आगे के प्रसंगों से साबित होता है कि हनुमानजी ने पहली ही मुलाकात में श्रीराम का भरोसा जीत लिया था।

भीतर से आता है संतुलित दृष्टिकोण
बहुत से लोग जीवनभर यह तय नहीं कर पाते कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। इसमें भी उन्हें दूसरों का सहारा लेना पड़ता है। दरअसल, सारा मामला हमारे दृष्टिकोण का है। दृष्टिकोण का शाब्दिक अर्थ है आपकी निगाहें घटना को किस एंगल से देख रही हैं। आध्यात्मिक दृष्टि हमें दृष्टिकोण की गहराई दे सकती है।  दृष्टि शब्द आया यानी आंख। आंख का काम है देखना, लेकिन जब दृष्टि जुड़ती है तो अर्थ है विचार सक्रिय हो चुके हैं और सक्रिय विचार मन और हृदय तक पहुंच रहे हैं। इस पूरी यात्रा का नाम है दृष्टिकोण। फिर हम मूल्यांकन करते हैं और शुरू होती है तुलना, क्योंकि तीन एजेंसियां साथ में काम कर रही हैं, आंख, मस्तिष्क और मन। अनुभव शरीर कर रहा होता है, जिसकी रुचि सुख-सुविधा में है। यहीं से हम अपने प्रति अच्छी-बुरी घटनाएं तय करते हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि वर्तमान में हमने जिसे बुरा माना, भविष्य में वह अच्छा लगने लगा है। जब भी अपने जीवन के प्रति अच्छे-बुरे का निर्णय लेना हो, तो पहले शरीर की दृष्टि से उसका विश्लेषण करें। फिर भोग-विलास से हटकर आनंद को शरीर के मामले में समझिए और अंत में शरीर से भीतर उतरकर आत्मा पर जाइए। जैसे ही हम वहां पहुंचेंगे, अच्छे या बुरे होने की हमारी समझ बदलने लगेगी। कई बार तो लगेगा कि घटनाएं ही हमारी मदद कर रही हैं। ऐसा इसलिए होता है कि हम शरीर और आत्मा का तालमेल बना चुक होते हैं। कई बार तो वो मस्ती स्वत: ही आ जाएगी कि हालात अच्छे हों या बुरे हम, हम ही रहेंगे।

परमात्मा को रखें जीवन के केंद्र में
मनुष्य दो तरीके से जीवन जीता है। एक होता है जीवन का केंद्र, जो शरीर के भीतर होता है और दूसरी होती है परिधि, जहां हमारी सांसारिक गतिविधियां रहती हैं। जैसे हमारा घर और हमारी बाहर की दुनिया। घर केंद्र है और हमारा कार्यस्थल परिधि है। अब हमें तय करना है कि जीवन में किसको किस जगह रखना है। परमात्मा को केंद्र में रखिए और दुनियादारी को परिधि पर पटकिए। अगर उल्टा किया, तो जीवन समस्या का दूसरा नाम हो जाएगा। जैसे ही ईश्वर को हम केंद्र में रखते हैं हमारी सोच सकारात्मक हो जाती है। हम आत्मा से परिचित होने लगते हैं। बाहर की स्थितियों के प्रति दृष्टिकोण नकारात्मक नहीं रहता है। जीवन जीना हो या छोड़ना हो, हमारे अंदाज अनूठे होने लगते हैं। विनोबा भावे ने जब देह छोड़ी थी तो वे पूरी तरह से तैयार थे कि अपनी देह से आत्मा के स्थानांतरण को स्वयं देख सकें। ऐसा तभी हो सकता है जब जीवनभर केंद्र में परमात्मा रखा हो। जीवन कब-किसका समाप्त होगा यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस प्रयोग का परिणाम हमें हमारी बीमारी के समय मिल सकता है। जब कभी भी हम बीमार हों और बिस्तर पर सोना पड़े तो अपने केंद्र से परिधि पर देखिए, साफ नजर आएगा बीमारी परिधि पर दिख रही है और स्वास्थ्य केंद्र पर है। यदि कैंसर भी हुआ है, तो धीरे-धीरे महसूस होने लगेगा कि कैंसर शरीर को हुआ है, या बुखार शरीर का मामला है, आत्मा बिलकुल अलग है। पूरा शरीर तड़प रहा है, लेकिन हम जो हैं शांत हैं और एक दर्शक हैं। बस, यहीं से बीमारी भी अपना अर्थ बदल लेगी।

विचारों से मुक्ति है असली शांति
हम जब खाली बैठे होते हैं तब भी खाली नहीं रहते। विचारों को भीतर भरते रहते हैं। शरीर काम नहीं कर रहा होता है तो हम मान लेते हैं कि खाली हैं, लेकिन मन की सक्रियता बनी रहती है। फिर भी जब कभी हम शरीर से निष्क्रिय हों तो विचार करिएगा कि हमारा मन आखिरी बार कब शांत रहा था। चौबीस घंटे में यह सवाल एक या दो बार खुद से जरूर पूछें, क्योंकि शांत मन मस्तिष्क को रचनात्मक परिणाम देने में सहयोग करता है। मस्तिष्क में बेढंगे रूप में प्रवेश करने वाले विचारों को सिस्टेमैटिक बनाने के लिए समझ से काम लेना पड़ता है। समझ का मतलब हमारी ऊर्जा का वह हिस्सा जो मन के धक्के से मुक्त होता है, इसलिए मन जैसे ही शांत हुआ, वैसे ही हमारी समझ सक्रिय हो जाएगी और विचारों को व्यवस्थित कर देगी। व्यवस्थित विचार निराशा, उदासी, चिड़चिड़ेपन को पास नहीं आते देते। चूंकि मन मौन है इसलिए आप जीने वाले हर पल के प्रति मोहित होने लगते हैं। यह है वर्तमान को पूरी तरह जीना। जैसे ही आप वर्तमान में जीने लगते हैं, मन अपने आप गलने लगता है, क्योंकि मन दो ही स्थितियों में सक्रिय रहता है अतीत में या भविष्य में। मन एक तरह से इंद्रधनुष है। इंद्रधनुष दिखता है, होता नहीं है। यदि आप इंद्रधनुष के निकट पहुंचें तो हाथ कुछ नहीं लगेगा, वह सिर्फ आकाश का रूप है। ऐसे ही मन विचारों का रूप है। इससे मुक्त होना है असली खाली होना। चौबीस घंटे में जो भी बाहर और भीतर से खाली रह सकेगा, वह होगा शांत व्यक्तित्व, इसलिए शांति की तलाश जरूर करते रहिए।

वर्तमान के प्रति जागरूक रहें
भविष्य की चिंता सभी को सताती है, लेकिन भविष्य के प्रति जागरूक रहना अलग बात है और चिंतित होना बिल्कुल अलग स्थिति है। लोग जब भविष्य के बारे में सोचने लगते हैं, तो वर्तमान से बिल्कुल हट जाते हैं। भविष्य यानी आने वाला वर्तमान। उम्मीदों का तूफान जो आने वाला है, इसलिए भविष्य की लिस्ट बड़ी लंबी है और मनुष्य उसी में उलझ जाता है। अनजाने भविष्य के लिए वर्तमान क्यों बिगाड़ें? वर्तमान का पूरा आनंद उठाते हुए आने वाले वक्त के प्रति सजग रहा जा सकता है, क्योंकि भविष्य को तो आना ही है। आप चाहें तो जल्दी नहीं ला सकते और चाहने पर रोक भी नहीं सकते। हमारे हाथ में वही क्षण हैं, जिन्हें हम वर्तमान कहते हैं। यह भी बहुत थोड़ा सा होता है, इसलिए उसके प्रति अधिक जागरूक रहना पड़ेगा। हम वर्तमान के प्रति इसलिए चूक जाते हैं कि हमारे पास अतीत की स्मृतियां होती हैं और भविष्य का चिंतन रहता है। स्मृतियों और चिंतन का बोझ वर्तमान को बिगाड़ता है। आजकल लोग पूछते हैं कि जीवन में अशांति क्यों है? इसका निदान हमारे ही पास है। भूत, वर्तमान और भविष्य के प्रति समझ। इसमें शांति के सूत्र समाए हैं। जो लोग अपने वर्तमान पर थोड़ी देर टिकना चाहें वे वक्त की रफ्तार को तो नहीं रोक पाएंगे, लेकिन मन की गति पर काम करेंगे तो उन्हें महसूस होगा कि वर्तमान पर टिकना क्या होता है और मन की गति रोकना हो तो सबसे सही तरीका है मेडिटेशन। कुछ समय इसके लिए जरूर निकालिए।

नवीनता देती है रिश्ते को स्थिरता
सभी में आकर्षण होता है और हर आकर्षण की उम्र होती है। आकर्षण खत्म होने का सबसे ज्यादा खतरा पति-पत्नी के रिश्ते में होता है। अन्य रिश्तों में भी आकर्षण होता है। अनेक बार इसे बनाए रखना पड़ता है और कभी-कभी इसे खत्म भी करना पड़ता है। लगाव व आकर्षण में फर्क है। आकर्षण अनजान के प्रति खिंचाव है। लगाव जानबूझकर जुड़ना है। पति-पत्नी में धीरे-धीरे आकर्षण कम होने लगता है। रिश्ता प्रेम में बदल जाए ऐसा मुिश्कल से ही हो पाता है। प्रेम तो अनेक बार गुप्त समझौते जैसा बन जाता है। मन मारकर जीने की कला को प्रेम बता दिया जाए, तो लंबे समय शांति नहीं टिकी रह सकती। बागबानी में बोन्साई से पौधों में नवीन आकार दिये जाते हैं। दांपत्य में प्रेम-भावना की बोन्साई करनी पड़ती है। नवीनता देनी पड़ती है। हर दिन नया करने-देखने की वृत्ति जब इस रिश्ते में आएगी तो इसका आकर्षण बना रहेगा, क्योंकि पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे से इतना गहन परिचय हो जाता है कि इसे घनिष्ठता की चरम सीमा भी कह सकते हैं। यहीं से शुरुआत होती है ऊब की, बेचैनी की। सही वक्त पर इलाज न हो तो इन्हें घुटन में बदलने में देर नहीं लगती। एक-दूसरे का अनादर आदत बन जाती है। साथ रहते हुए दूरियां बनने लगती है, इसलिए दांपत्य को नदी के रूप में देखा जाए। नदी की खूबी है बहना। चूंकि बहती है, इसलिए जल बदलता रहता है और इसीलिए नदी का आकर्षण बना रहता है। अपनी गृहस्थी में भी इस बहाव से आकर्षण निकालिए और आनंद उठाइए।

आपके शब्द ही आपका परिचय हैं
हर काम को करने के कुछ कायदे होते हैं। योजना बनाकर किए काम में सफलता की संभावना रहती ही है, लेकिन योजना का वर्तमान जब एग्जीक्यूशन के भविष्य से जुड़ता है तो समझ की जरूरत पड़ती है। मैदान में योजना बनाने का वक्त नहीं होता। तुरंत निर्णय लेने होते हैं। इसमें हनुमानजी दक्ष थे, क्योंकि उनका मन उनके नियंत्रण में था। अनियंत्रित मन कई किस्म के विचार उछालकर अनिर्णय में डाल देगा। किष्किंधा कांड में हनुमानजी श्रीराम के सामने थे। पता लगाना था कि ये कौन हैं, ताकि सुग्रीव भविष्य का निर्णय ले सकें। हनुमानजी ने जब श्रीराम को देखा तो समझ गए कि यह कोई महान व्यक्तित्व हैं, इसीलिए उन्होंने परिचय प्राप्त करने के लिए बोली गई पंक्तियों में उनके लिए पूरी गरिमा रखी। की तुम्ह तीनि देव महं कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ।।क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश इनमें से कोई हैं या आप दोनों नर और नारायण हैं। जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार। की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार।अथवा आप जगत् के मूल कारण और सम्पूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है। यह प्रसंग सिखाता है कि ऐसी स्थिति में वाणी का पूरे विवेक के साथ प्रयोग करें। आरंभ में आपके शब्द ही आपके व्यक्तित्व का परिचय देंगे। सामने वाले को पता लग जाएगा कि हम क्या हैं, क्योंकि हमारे प्रश्न गरिमामयी होंगे तो उत्तर भी सुलझे हुए आएंगे।

नियमितता में है शांतिपूर्ण सफलता
आजकल  माता-पिता के पास बच्चों की शिकायत सूची में यह भी है कि बच्चे आलसी होते जा रहे हैं, लेकिन गौर से देखा जाए तो आजकल के बच्चे बहुत क्रियाशील नजर आते हैं। खतरा उनकी अनियमितता से है। इसके कारण बच्चों का तेज और चुस्त दिमाग भी जल्दी थकने लगता है। नए जमाने में बाल मनोविज्ञान को इस बात से जोड़ दिया गया है कि तुम्हें हर हाल में और बहुत जल्दी सब प्राप्त करना है। देर की तो दूसरे आगे निकल जाएंगे। इस दबाव ने उनके मन को बेचैन और तन को अनियमित बना दिया है। इनके पास जीवन का अनुभव तो कम होता है, लेकिन अपेक्षाएं भरपूर होती हैं, इसलिए हमें बच्चों की अनियमितता पर बहुत काम करना चाहिए। यह आदत लंबे समय तक चली तो हम इन्हें वक्त से पहले बीमारियों का तोहफा दे देंगे। प्रतिस्पर्द्धा के दबाव में आलस्य तो चला जाएगा, लेकिन अनियमितता बढ़ती जाएगी। मनुष्य को अनियमित बनाता कौन है? आध्यात्मिक दृष्टि से देखेंगे तो हमें अनियमित बनाने में शरीर और मन का हाथ है। इंसान का शरीर अपने आप में जुलूस है। जैसे जुलूस में भीड़ अपने-अपने राग के साथ होती है, जिसे जो समझ में आ रहा है वह करता है, वैसे ही हमारे अंग हो गए हैं। तालमेल ही नहीं बैठ पाता। इसी तरह मन कहां से आ रहा है, कहां जाएगा, किसी को नहीं मालूम। शरीर के लिए खाना और सोना और मन के लिए योग तथा ध्यान, दो बातें करनी होंगी। अनियमितता से ही सफलता शांति के साथ आएगी।

हर स्थिति को सहजता से स्वीकारें
हमारा सोचना और फिर प्रतिक्रिया करना, इस पर हमारी खुशी या परेशानी टिकी रहती है। कुछ घटनाओं पर आपका वश नहीं रहता, वे घटकर ही रहेंगी। गुरु नानकदेव की यह घोषणा बड़ी गजब की है कि आपका जो नजरिया है वैसी ही आपकी दुनिया बन जाएगी, इसलिए कुछ बातों को सहज रूप से स्वीकार करें, लेकिन हम स्थितियों से उलझने लगते हैं। हम हमेशा चाहते हैं कि हालात हमारे अनुकूल रहें। अध्यात्म कहता है कि हम बाहर की स्थिति से भीतर बिल्कुल विचलित न हों। हम बाहरी स्थितियों और व्यक्तियों को देखकर अपने भीतर के अस्तित्व को भी बदलने लगते हैं। किसी अनजाने के साथ व्यवहार करते हैं तो बहुत गंभीर, बोझिल हो जाते हैं। अहंकार ओढ़ लेते हैं। फिर कोई अपना मिल जाए तो पूरा रंग-ढंग बदल जाता है। किसी अमीर आदमी के सामने हों, तो विनम्रता अंग-अंग से टपकने लगती है और अधिकार सम्पन्न होते ही हमारा अहंकार टपकने लगता है। हम यह मुखौटे ओढ़ने का खेल बड़ी आसानी से खेल लेते हैं। बाहर की चीजें हमें भीतर से बदलती जाती हैं, जबकि थोड़ा गहराई में जाएं तो हम पाएंगे कि हमारी आत्मा को बाहर के हालात से कोई लेना-देना नहीं है। हमारी चेतना सदैव के लिए जाग्रत है और शांत है। बाहर जो भी हो रहा है, उससे हम भीतर डिस्टर्ब न हों। ऐसा तभी होगा जब हम अपनी आत्मा से जुड़ना सीख जाएंगे। इसके लिए चौबीस घंटे में कुछ समय एकांत में जरूर बिताएं। अपने से जुड़ जाएंगे तो दूसरे से जुड़ने का आनंद ही अलग होगा।

बाधाएं दूर करनी हों तो एकांत साधिए
क्या हम यह जानते हैं कि हमारे पास आज जो कुछ भी है अमीरी या गरीबी, शिक्षा या निरक्षरता, सुख या दुख यह सब कहां से आया और कहां जाएगा? ज्यादातर लोग इससे परिचित नहीं हैं। वे तो सिर्फ भोग रहे हैं। न तो इसके मूल की फिक्र है और न ही इसके परिणाम की चिंता। थोड़ा विचार करिए, ऐसी बातें जब जीवन में आती हैं तो कोई न कोई जरूर इनकी शुरुआत का बिंदु होता है और कहीं न कहीं जाकर इन्हें समाप्त भी होना है। इन दोनों छोरों से हम जितना अधिक परिचय कर लेंगे, उतना ही इन्हें भोगते समय आनंद उठा पाएंगे। इन छोरों को ढूंढ़ने के लिए हमें एकांत में जाना पड़ेगा। थोड़ी देर एकांत साधिए। एकांत बड़ी से बड़ी बाधा को दूर कर देता है। एकांत का अर्थ होता है मन का निष्क्रिय रहना, तन का रिलैक्स रहना, विचारों का रुक जाना और आपका स्वयं से जुड़ जाना, लेकिन देखा यह जाता है कि हम अपने ही एकांत से घबराने लगते हैं। एकांत से घबराना क्या होता है इसे समझना है तो पति-पत्नी के रिश्ते को देखिए। कुछ जोड़ों को यदि एकांत में छोड़ दिया जाए तो वे उसमें से भी अकेलापन पैदा कर लेते हैं। वे अभिनय करने में इतने दक्ष हो जाते हैं कि लोगों को लगता है कि क्या अद्भुत मेल-मिलाप है, लेकिन दोनों जानते हैं कि कैसे हमने अपने एकांत को छिन्न-भिन्न कर रखा है, इसीलिए इनके जीवन में सुख आए या दुख, दोनों ही समय परेशान रहते हैं। न सुख का आनंद उठा पाते हैं, न दुख दूर कर पाते हैं, इसलिए एकांत के माध्यम से स्थितियों के आरंभ और अंत को जरूर पकड़िए।

रोज की गतिविधियों में नवीनता लाएं
इस दौर में बदलाव से जुड़े रहना ही बुद्धिमानी है। हमारी दिनचर्या में कुछ काम ढर्रे में बदल जाते हैं। इन कामों को हम क्यों कर रहे हैं, इसका कोई जवाब नहीं होता। ये काम धीरे-धीरे आदत बन जाते हैं, जो दो तरह की होती हैं। एक नुकसान पहुंचाती है और दूसरी वह जिसमें न लाभ है, न हानि। बस, करने के लिए किए जा रहे हैं। ऐसे में हमारी ऊर्जा भी अज्ञात दिशा में बहने लगती है। हमारे पास ऊर्जा का असीम भंडार है, लेकिन उसका सद्पयोग न करें, तो वह सीमित हो जाता है, इसलिए अपने दैनिक ढर्रे को बदलते रहिए।  डाइनिंग टेबल पर अपना स्थान बदला जा सकता है। यदि खड़े होकर स्नान करते हैं, तो बैठकर कर लें। गतिविधियों के तरीके भी परिवर्तित करते रहें। हम पाएंगे कि इस बदलाव से हमारी ऊर्जा एक नया रूप ले लेती है। एक ही ढंग से काम करने से हमारी दृष्टि भी एक तरह से बंध जाती है। हम बायस्ड भी हो सकते हैं। इसका मतलब है अच्छी चीजों से दूर जाना, इसीलिए हम अनेक गतिविधियां करते हुए होश में नहीं रह पाते। जैसे भोजन करते समय हम भूल ही जाते हैं कि भोजन कर रहे हैं। इसके बाद क्या करना है उसके विचार चलते रहते हैं। भोजन मुंह में जाता रहता है, क्योंकि यह आदत का हिस्सा है। इसका अर्थ  है हम एकाग्र नहीं हैं, लेकिन बंधे हुए हैं। हमारी ऊर्जा को यहीं से जंग लगना शुरू होता है, क्योंकि ऊर्जा के पास नया कुछ करने के लिए होता नहीं। ऊर्जा को होश में काम करने में मजा आता है, इसीलिए अपनी दैनिक गतिविधियों में फेरबदल करते रहें।

मेडिटेशन से परिवार में लाएं शांति
दूसरे पर राज करने की इंसान की जन्मजात आदत होती है। दूधमुंहा बच्चा भी अपना अधिकार जताने से पीछे नहीं हटता। इसे धीरे-धीरे नियंत्रित करना चाहिए। लोगों से संबंध खराब होने यहीं से शुरू होते हैं कि हम उनकी स्वतंत्रता को अपने नियंत्रण में लेना चाहते हैं। सबका अपना प्रभाव होता है। हम उसी प्रभाव पर अपना शक्ति प्रदर्शन शुरू करते हैं। यह झंझट सबसे ज्यादा होती है पति-पत्नी के बीच। विवाह होते ही दोनों की आंतरिक इच्छा होती है कि सामने वाला सीमित हो जाए उसके दायरे में। हम एक-दूसरे को बांध लें। हम तो उड़ लें, पर सामने वाले के पर कतर दें। सलाह देने से इस हस्तक्षेप की शुरूआत होती है। सलाह की आड़ में आदमी शासन करने लगता है। इस रिश्ते में मधुरता लाने के लिए दूर खड़े होकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को सीमित करें और दूसरे की इच्छाओं का अध्ययन करके उसकी पूर्ति में सहयोग करे। दैनिक गतिविधियों में जाने-अनजाने ये एक-दूसरे का अपमान भी करते रहते हैं, इसलिए पति-पत्नी जब साथ बैठकर मेडिटेशन करेंगे, तो दोनों की ऊर्जा पॉजीटिव होने लगेगी। जब ये दोनों टकराएंगे तो परिणाम कुल-मिलाकर शांति ही होगी। तमाम विरोध के बाद भी दोनों एक-दूसरे को संतुष्ट कर पाएंगे, इसलिए दोनों का संयुक्त ध्यान केवल एक धार्मिक घटना नहीं है। यह एक समझ बढ़ाने वाली पारिवारिक घटना होगी। ऊर्जा का स्थानांतरण दोनों के बीच होना ही है, क्योंकि यह रिश्ता ही ऐसा है, इसलिए क्यों न ऊर्जा को दिव्य और पवित्र बना लिया जाए।

शब्द कीमती हैं, सावधानी से खर्च करें
किसी से जब हमारी पहली भेंट हो रही हो और सामने वाला व्यक्तित्व बहुत ही प्रभावशाली हो, तो हम दो तरह से रिएक्ट करते हैं। या तो हम स्वयं को कमजोर समझने लगते हैं या खुद को महान बताने लगते हैं। हनुमानजी, श्रीराम का परिचय पूछते हुए ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जिनसे श्रीराम का मान बढ़े। यही हमें सीखना है। किष्किंधा कांड में हनुमानजी के प्रश्नों को तुलसीदासजी ने ऐसे लिखा है : जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार। की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार।। आप जगत् के मूल कारण और सपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है। ये शब्द सुनकर श्रीराम ने लक्ष्मण से टिप्पणी की थी, जिसकी चर्चा वाल्मीकि रामायण में आई है। नानृग्वेद विनीतस्य नायजुर्वेदधारिण:। नासामवेदविदुष: शक्यमेवं विभाषितुम।।  जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान नहीं है, वह ऐसी सुंदर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता। एवविधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु। सिद्धयंति हि कथं तस्य कार्याणां गतयोअनघ।। जिस राजा के पास ऐसे दूत न हो, उसके कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती है। मतलब यह कि आपके शब्द आपको अच्छे लोगों से ऐसे जोड़ देंगे कि आपका भविष्य सफल-सुरक्षित हो जाएगा, इसलिए शब्दों को बहुमूल्य सिक्कों की तरह सावधानी से खर्च किया जाए।

सोने से पहले शांत होने का सूत्र
आजकल सभी ने छोटी-बड़ी पद-प्रतिष्ठा हासिल कर ली। लोग कुख्याति को भी लोकप्रियता मान रहे हैं। जिसे देखो वो ऊंचा उठने के चक्कर में है और इसीलिए अधिकांश लोगों के आस-पास या तो उनके अधीनस्थ हैं या उनके आदेश पर काम करने वाले कर्मचारी। हम  अधीनस्थों को आदेश देने के इतने आदी हो जाते हैं कि जो काम व्यक्तिगत रूप से हमें करने चाहिए हम उनके लिए भी दूसरे के हाथ-पैरों पर टिक जाते हैं और इसीलिए जब हम शांति की खोज में निकलते हैं तो हमारी यही डिपेंडेंसी बाधा बन जाती है। दूसरों को निर्देश देना वैसे भी आसान है, पर क्या हमने सोचा है कि हम खुद को आज्ञा दे सकते हैं। अगर आप शांति चाहते हैं तो कम से कम रात को सोने से पहले खुद को आदेश देने का स्वभाव बना लें। उस समय हमारा अवचेतन मन आज्ञा लेने के लिए पूरी तरह से तैयार रहता है। जरा खुद को डांटकर कहिए कि बाहर का संसार बिल्कुल अंदर नहीं जाएगा। अब वैसे ही शयन में हम और हमारी आत्मा होगी। कल का दिन है दूसरों के साथ बिताने के लिए। देखिए, यह केवल समझाने से नहीं होगा, इसमें खुद को डांटना ही पड़ेगा। आसमान और बादल दो अलग-अलग बातें हैं। इसी तरह मन और विचार भी अलग-अलग बातें हैं। सोने के पहले मन के आकाश से विचारों के बादल हटा दीजिए। बादलों की नियति है बहना और आकाश ठहरा ही रहेगा। यह काम अपने आप को डांटकर ही किया जा सकेगा। शांत होकर सोना जीवन की बड़ी उपलब्धि है।

अपने विश्वास से बनता है व्यक्तित्व
हमने जीवन में जो कुछ भी पिछले समय में किया है, पाया है, खोया है वह सब इकट्ठा होकर हमारा विश्वास बन जाता है। फिर अपने बारे में जो विश्वास हमारा होता है, वैसे ही हम होने लगते हैं। यदि हमने घोर संघर्ष किया है और हम सफल हो गए, तो हमें अपने भीतर का लौह पुरुष प्रिय हो जाता है। हमें भरोसा होने लगता है कि हम कुछ भी कर सकते हैं। जब इसका उल्टा होता है, हम असफल हो चुके होते हैं, तो फिर हमारे भीतर बैठा कमजोर इंसान कहता है हमसे कुछ नहीं हो सकेगा। हम अपनी ही कमजोरियों की मिट्टी से अपने व्यक्तित्व की प्रतिमा गढ़ लेते हैं। कठिन और सरल समय में मनुष्य सबसे अच्छा बनता है, इसलिए अपने जीवन में जब कठिन समय आए उस हर दिन को पाठशाला मानकर बिताइए। जब सरल समय आए तो आनंद-वन की तरह मान लें, क्योंकि यह जो मानना है इससे हमारा व्यक्तित्व बनेगा। इन दोनों स्थितियों में जागरूक रहिए, क्योंकि यह हमारे निर्माण का वक्त रहेगा। जब कठिन समय आए तो अपने आप को थोड़ा लचीला बनाएं। यदि आप कड़क हो जाएंगे, तो आपको चोट भी ज्यादा लगेगी। इन स्थितियों में मन बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह आपको अस्थिर करता है और फिर आप परेशान होकर ऐसे काम करने लगते हैं जो खुद को भी समझ में नहीं आते, इसलिए मन पर बराबर काम करते रहिए। मन के पास बीते हुए का बड़ा स्टॉक होता है। जो काम का है वह रखें और बाकी को डिलीट कर दें। जो बचेगा वही हमारा सही व्यक्तित्व होगा।

उपलब्धियों व खुशी में संतुलन साधें
एक तराजू जो दिखती नहीं है, पर होती सबके पास है। बीच-बीच में इसे अपने हाथ में लेकर कुछ बातें तौलते रहना चाहिए। एक पलड़े में उपलब्धियां और दूसरे पलड़े में खुशियां रखकर देखिए। पलड़ों पर असफलता और शांति भी रखकर देखें, क्योंकि असफलता के दौर में मनुष्य अधिक अशांत हो जाता है। अशांत तो वह सफलता के समय भी रहता है। हमारी व्यस्तता के क्षण दिल-दिमाग, घर-बाहर सब जगह घुस गए हैं। इतनी भी फुर्सत नहीं है कि तराजू में तौलकर देख लें कि जो किया जा रहा है उसमें नफा-नुकसान कितना है। आप व्यस्त होते हैं तो लोगों के साथ होते हैं या एकाकी होकर खुद में ही डूब गए होते हैं। दोनों ही स्थितियों में आप अपने अस्तित्व को संकुचित कर चुके हैं, इसलिए बीच-बीच में नाप-तौल जरूर करते रहें। जब आप स्वयं को तौलते हैं तो आपको पता लग जाता है कि वजन किस बात में है। हमारी उपलब्धियां और हमारी खुशी का संतुलन होना चाहिए। जब असफलता का पलड़ा भरा हुआ हो, तब शांति का पलड़ा भी उतना ही लबालब रहे। इस तराजू को स्थिर करने के लिए मन का पेंडुलम की तरह दोलन रोकना पड़ेगा। आप जीवन को तौल रहे हैं। इसमें हवा का हल्का सा झोंका भी नाप-तौल बिगाड़ देगा। ज्वैलर जब बहुमूल्य जेवरात को तौलता है, तो तराजू को एयर टाइट कांच के बॉक्स में रखता है, फिर हमारे पास तो उससे भी मूल्यवान जीवन है, इसलिए तौलते समय इसे मन के झोंकों से बचाइए। फिर देखिए, नुकसान का सौदा नहीं होगा।

परिजनों की रुचि पर ध्यान दीजिए
परिवार में कभी-कभी हर सदस्य की इच्छा हो जाती है कि परिवार की कुछ गतिविधियां उसके अनुसार चलें। कुछ सदस्य जिद पर उतर आते हैं। जो सदस्य जिद्दी नहीं होते, थोड़े संवेदनशील होते हैं वे भीतर ही भीतर घुटने लगते हैं कि मेरी क्यों नहीं सुनी जाती। देखिए, हर सदस्य के भीतर गुण और दुर्गुण होते हैं। एक छत के नीचे रहना है तो इनसे तालमेल बैठाना ही होगा। न हम उनके व्यक्तित्व को बदल सकते हैं और न ही उनके लिए हमारे व्यक्तित्व को परिवर्तित किया जा सकता है, इसलिए जब तक वंश की कोई विशेष नीति आहत न हो रही हो और केवल रुचि का मामला हो तो बेकार दिल पर न लें। सबकी रुचि के अनुसार जीवन जीने के रास्ते परिवार में निकालने ही होंगे, इसलिए परिवार के अन्य सदस्यों की रुचियों के प्रति जागरूक रहें और उन्हें पूरा करने में अतिरिक्त रुचि दिखाएं। इससे नजदीकियां बढ़ती हैं। आज-कल लोग पास-पास रहने के बाद भी साथ-साथ नहीं रह पाते। परिवार के सदस्यों को जब यह लगने लगता है कि कोई हम पर ध्यान दे रहा है तो उसे ऊर्जा मिलती है। मंच पर कलाकारों या नेताओं को आप देखिएगा वे बड़े एनर्जेटिक दिखेंगे, क्योंकि बहुत सारे लोगों का ध्यान उन पर होता है। जब हम कई लोगों की दृष्टि का केंद्र होते हैं तो हमारे भीतर अपने आप एक ऊर्जा आ जाती है, इसीलिए यह प्रयोग परिवार में किया जाना चाहिए। जब सदस्य को यह महसूस होता है कि मेरा भी ध्यान रखा जाता है तो यह ध्यान का विचार उसे ऊर्जावान बनाकर प्रसन्न कर देता है।

दिल से आती है शब्दों में विनम्रता
बातचीत में केवल शब्दों का महत्व नहीं होता, बल्कि चर्चा के विषय का स्पष्ट परिचय हो जाना  उसे प्रभावी बनाता है। शब्दों में विनम्रता केवल जिह्वा की कसरत से नहीं आती, हृदय की भावुकता अपना काम करती है। शब्दों का संबंध हृदय से जोड़ने के प्रति कम ही लोग गंभीर होते हैं। किष्किंधा कांड में श्रीराम को परिचय देने के साथ अपनी  समस्या का समाधान भी चाहिए था। राम समझ चुके थे हनुमान कोई अद्भुत व्यक्तित्व हैं, इसलिए परिचय देते हुए अपना संकट भी बता दिया। कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए। नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई।’ ‘हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं। पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं। दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री थी।परिचय के साथ समस्या बता दी। हनुमानजी ने यह सुना तो सुधबुध खो बैठे। परमात्मा सामने खड़े हैं और मैं पहचान नहीं पाया। श्रीराम भी समझ गए थे कि कुछ गड़बड़ हो रही है तो तुरंत  कहा, ‘आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।।हमने अपना चरित्र कह सुनाया। हे ब्राह्मण, अपनी कथा समझाकर कहिए। अपनी बात को उन्होंने चरित्र कहा और हनुमानजी के परिचय में कथा शब्द का उपयोग किया। अब राम हनुमान को सहारा दे रहे हैं कि परेशान न हों, सामान्य होकर वार्तालाप करें। सुलझे हुए लोगों की यह विशेषता होती है कि वे वार्तालाप में सभी को समान और समानजनक अवसर देते हैं।

शोर बन सकता है शांति का कारण
अत्यधिक वाचाल व्यक्ति से सामना हो जाए और वो हमसे कुछ न कुछ जवाब की उम्मीद करे, तो मौन रहना ही अच्छा जवाब होता है, क्योंकि वाचाल जवाब देने को कहते जरूर हैं, लेकिन गुंजाइश बिल्कुल नहीं छोड़ते। वे फिर अपनी ही बात कहने लगते हैं। कभी-कभी अपनी अयोग्यता को लोग शब्दों से ढंक देते हैं। ऐसे अवसर पर बिल्कुल विचलित न हों। बेकार में उन्हें महत्व देकर अपनी शांति भंग न करें। न सुनकर उनका तिरस्कार भी न करें। उनके शब्दों का शोर आपकी शांति का कारण बन सकता है। इसके लिए अध्यात्म में सुंदर प्रयोग है। ध्यान करने से पहले कहा जाता है शरीर से थोड़ी एक्सरसाइज कर लें। जब शरीर कुछ अंगों से ऊर्जा बाहर फेंककर थक चुका होता है तो वह मन को शांत होने का अवसर देता है, इसीलिए ऋषि-मुनियों ने कीर्तन, आरती, भजन के बाद थोड़ी देर आंख बंद करके बैठने को कहा है। इसे भूलकर लोग आरती करने के बाद और शोर में डूब जाते हैं। आरती समाप्त होने के बाद सभागार या मंदिर के गर्भगृह में लोग बतियाने के लिए टूट पड़ते हैं। वाद्ययंत्रों का वाणी के साथ वह कोलाहल इसलिए था कि बाद में आप अचानक खामोशी महसूस करें। होना तो यह चाहिए कि चाहे सुंदरकांड का पारायण हो या सामूहिक आरती, उसके समापन पर थोड़ी देर के लिए मौन रहना चाहिए, तब उसकी उपलब्धि भीतर उतरेगी। इसी प्रयोग को उन लोगों के सामने करिए जो आपके सामने बहुत बोल रहे हों। उनका शोर आपके भीतर एक शांति घटा देगा।

हनुमान चालीसा से दुर्गुणों का विनाश
मुखौटा ओढ़कर गलत काम करने में रावण बड़ा माहिर था। रावण के दुर्गुणों में एक यह भी है कि आप बाहर से कुछ और रहें, भीतर से कुछ और हो जाएं। उसने साधु-वेश रखा और सीता का हरण किया। आज भी रावण वृत्ति के लोग यही कर रहे हैं। रावण जानता था कि मेरे रूप को राम मार देंगे, इसलिए उसने अरूप को जीवित रखा और अपना अड्डा बनाया मनुष्य का मन। मन में से दुर्गुणों का साम्राज्य हटाने के लिए ही श्रीराम हनुमानजी को छोड़कर गए हैं। दुर्गुणों के विनाश में हनुमानजी और हनुमान चालीसा किस प्रकार मदद करेंगे, ऐसे में यदि अपने बच्चों को बचाना है तो संकल्प लेना होगा कि एक बार श्री हनुमान चालीसा का पाठ जरूर किया जाए। हनुमान चालीसा सामान्य पंक्तियां नहीं हैं। यह वैसा ही प्रभावशाली मंत्र है, जैसा गायत्री मंत्र है और मंत्रों की शक्ति हमारे मन के दुर्गुणों का नाश कर सकती है। जब दुर्गुणों का नाश होता है तो हम अचानक हल्के हो जाते हैं और इस हल्के व्यक्तित्व का अर्थ है शांत होना।

ॐ के जप से आती है आंतरिक शुद्धता
भोग विलास मनुष्य के मन की पहली पसंद है। भोगने की वृत्ति हमारी आवश्यकताओं के दरवाजे से प्रवेश करती है। जैसे रहने के लिए एक मकान चाहिए। यह एक जरूरत है, लेकिन धीरे-धीरे मकान अशांति का केंद्र बन जाता है। पहले के समय में राजा भोग-विलास के लिए महल बनाते थे और भोग-विलास पर आक्रमण न हो जाए, इसीलिए उसे किले का रूप दिया जाता था। रावण ने लंका को महल और किला दोनों बना दिया था। विश्वामित्र ने दशरथ से श्रीराम और लक्ष्मण को मांगा था राक्षसों के विनाश के लिए। श्रीराम भी जानते थे कि रावण का विनाश अयोध्या में रहकर तो नहीं कर पायेगें । लंका में बुराई पनप रही थी तो अयोध्या में लंका की बुराई को नजरअंदाज किया जा रहा था। दुर्गुणों का जो विराट संसार रावण ने बनाया था वह केवल शस्त्रों से समाप्त नहीं किया जा सकता था। श्रीराम जानते थे इसके लिए वैचारिक जागरूकता भी चाहिए। दशहरे का पर्व अपने भीतर होश जगाने का दिवस है। ज्ञान व भक्ति के द्वारा तो    दुर्गुणों के विनाश के प्रयास किए ही जाने चाहिए, लेकिन सबसे प्रभावशाली ढंग है योग। लोग कहते हैं योग के लिए समय नहीं मिलता, तो पांच मिनट के लिए बिल्कुल सीधे बैठ जाएं, आंख बंद करें और ॐ का उच्चारण होठ बंद करके किया जाए। इस ॐ के गुंजन की ध्वनि को रोम-रोम तक पहुंचाएं और कल्पना करें कि इसके दबाव से दुर्गुण बाहर फिंक रहे हैं। ॐ का यह उपयोग भी आपको भीतर से शुद्ध करने में काम आएगा। आंतरिक पवित्रता ही रावण की मौत है।

लक्ष्य बिना निरर्थक है मानव जीवन
यदि जीवन में लक्ष्य नहीं है तो जीवन निरर्थक है और जिस तरह आज प्रतिस्पर्द्धा का माहौल है अब सालों के, महीनों के लक्ष्य से काम नहीं चलेगा। दिन और उसमें भी हर घंटे के लक्ष्य तय करना पड़ेंगे, क्योंकि आप लक्ष्य पर आधारित जीवन जीते हैं तो फालतू बातों से अपने को बचा लेते हैं। लक्ष्य केंद्रित लोग बहस में नहीं पड़ते। वे बेकार के निदानों के चक्कर में भी नहीं उलझते। उन्हें शॉर्ट कर्ट भी कम पसंद आता है। वे इस बात के लिए गंभीर रहते हैं कि अपनी क्षमता का अधिकतम उपयोग कैसे किया जाए। उनकी रुचि दूसरों को नीचा दिखाने से ज्यादा खुद को आगे बढ़ाने में रहती है। चूंकि उन्हें एक लक्ष्य पाना है इसलिए वह मित्रता करने और दूसरों को सम्मान देने में भी विवेकपूर्ण रहते हैं। सभी के पास कोई न कोई लक्ष्य है, तय आपको करना है। यदि आप पति-पत्नी हैं तो श्रेष्ठ संतान आपका लक्ष्य है। यदि नागरिक हैं तो अच्छे पड़ोसी बनाए रखना आपका लक्ष्य होगा। यदि संतान हैं तो माता-पिता की सेवा से सुंदर लक्ष्य और क्या हो सकता है। करवा चौथ जैसा त्योहार भी एक लक्ष्य है। यह प्रेम का अंधविश्वास नहीं है। यह प्रेम को लक्ष्य में बदलने का उत्सव है, इसलिए अपने आप को किसी न किसी लक्ष्य से जोड़े रखें। ध्यान रखिएगा लक्ष्य के लिए सबसे जरूरी बात है एकाग्रता और इसे भंग करता है मनुष्य का मन। मन को बिखरने की बहुत आदत है। उसे अपने मालिक को पागल बनाने में बड़ा मजा आता है आपकी रुचि जितनी अधिक लक्ष्य केंद्रित जीवन में होगी, आप अपने मन पर उतने ही अच्छे से काम कर सकेंगे।

क्षमा करना भी मदद का तरीका है
जिंदगी कभी-कभी खुद पर गर्व करने के अवसर देती रहती है। गलती हमसे होती है कि हम चूक जाते हैं। जब भी ऐसे मौके आएं तो उनका पूरा लाभ उठाएं। आपको सबसे अधिक गर्व तब होगा, जब आप दूसरे को क्षमा करेंगे और उसकी मदद करेंगे। ध्यान रखिए, किसी को क्षमा करना भी उसकी मदद करना ही है। आध्यात्मिक दृष्टि से इसका मतलब है वह आदमी भीतर से कमजोर है, तभी उसने गलती की है। मन समझाता है कि यदि किसी को क्षमा किया तो आप कमजोर साबित होंगे। हालांकि क्षमा वही कर सकता है, जो आत्मविश्वास से भरा हुआ हो; इसलिए जब ऐसे अवसर आएं, कोई व्यक्ति या स्थिति हमको आवेश में आने के लिए उकसा रही हो। हमें हिंसा की ओर खींचा जा रहा हो, तो तुरंत करुणामय होकर क्षमा कर दें। हिंसा कैसी भी हो, बुरी है। रोजमर्रा की जिंदगी में उतरी हुई हिंसा धर्म में भी प्रवेश कर जाती है और फिर समूची मानवता का नुकसान होता है। क्षमा करने के लिए जब करुणामयी बनना हो तो एक प्रयोग करिए। चाहे गायत्री मंत्र हो, हनुमान चालीसा हो या अन्य कोई गुरु मंत्र, उसके जप को सांस से जोड़ लें। जप जब सांस से जुड़ जाता है तो उसके परिणाम ही बदल जाते हैं, क्योंकि सांस उस जप को भीतर और बाहर ले जाती है। यह क्रिया मंत्र को आपके भीतर गुंजन की स्थिति में ला देती है। यदि सावधानी से सुनें, तो आपको लगेगा कि भीतर से आपका रोम-रोम गूंज रहा है और इसका सीधा परिणाम होता है कि आप प्रेमपूर्ण और करुणामयी होने लगते हैं। फिर आप दूसरों से संचालित होकर अकारण नहीं विचलित होते।

संतान की उपलब्धि पालकों का सुख
रिश्तों की खूबी यही है कि एक की उपलब्धि दूसरे के सुख का कारण बन जाती है। संतानों को जब कुछ हासिल होता है तो सबसे ज्यादा प्रसन्न माता-पिता होते हैं। ऐसी ही घटना किष्किंधा कांड में घटी। तुलसीदासजी ने दृश्य लिखा है कि श्रीराम का परिचय मिलने के बाद हनुमानजी ने उन्हें पहचाना और ऐसी चौपाइयां तैयार हो गईं। प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना।। पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना।। प्रभु को पहचानकर हनुमानजी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े। शिवजी कहते हैं, ‘हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता।इन पंक्तियों में तीन घटनाएं आ रही हैं। पहली तो यह कि हनुमानजी पहली बार मिल रहे थे, तो फिर पहचाना शब्द क्यों लिखा। दरअसल, मां अंजनी ने बचपन में हनुमानजी को समझाया था, ‘तुम्हारे जीवन का उद्देश्य रामदूत के रूप में काम करना है। मां ने बचपन में ही संतान का भविष्य तय कर दिया था। सभी समझदार माताएं समय रहते अपने बच्चों की ऊर्जा सही दिशा में रूपांतरित कर देती हैं। पद्म रामायण में घटना है कि रामजी को बंदरों से खेलने की बहुत इच्छा रहती थी। मंत्री सुमंतजी मां अंजनी से हनुमानजी को रामजी के खिलौने के रूप में ले आए थे। जब श्रीराम-लक्ष्मण विश्वामित्रजी के साथ गए तब हनुमानजी वापस मां अंजनी के पास लौट आए। ऐसा भी पुराना परिचय था। अब इस मुलाकात में शिवजी बहुत प्रसन्न हुए, क्योंकि उनके बेटे हनुमान को श्रीराम के रूप में बड़ी उपलब्धि हुई थी।

दूसरे में अपने जैसी समानता खोजें
हर इंसान कहीं न कहीं दूसरे इंसान से समानता लिए होता है। गहराई में आप पाएंगे कि सभी में बहुत कुछ ऐसा है जैसा आपके भीतर है। यदि आपका प्रोफेशन ऐसा हो कि आपको प्रतिदिन जनसमुदाय से गुजरना पड़े या घर-परिवार में कुछ सदस्यों के साथ जीवन बिताना पड़े, तब समानता ढूंढ़ने का स्वभाव बड़े काम आएगा। समानता हाथ लगते ही आपको खुद ही संदेश मिल जाएगा कि सामने वाला तो मेरे ही जैसा है, फिर क्या द्वेष या भय रखना। आप उदार होने लगेंगे। आपका शिकायती चित्त विराम लेने लगेगा। दूसरों की गलतियां कम देखने लगेंगे, क्योंकि उसमें आपको अपनी भूलें नजर आने लगेंगी। हालांकि, दूसरों में अपने जैसी समानता ढूंढ़ना आसान नहीं है। इसके लिए अभ्यास करते रहें। देखिए, प्रकृति के पांच तत्व सभी में एक जैसे होते हैं। प्रकृति इसमें भेदभाव नहीं करती। हम लोग जरूर पंच तत्व के उपयोग के स्तर पर असमानता कर रहे हैं, इसलिए रोज थोड़ी देर यह जानने के लिए अभ्यास करें कि हमारे भीतर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश भरे हुए हैं। इन पांचों को एक जगह  एकत्रित करना है। यानी इन तत्वों के भीतर जो शक्ति है, उसको एक जगह भीतर के शरीर में लाना। दो स्थान सबसे सही हैं, नाभि या हृदय। यहां पंच तत्वों को केंद्रित करिए। नतीजा यह होगा कि एक लहर आपके शरीर से उठनी शुरू होगी और यह लहर दूसरों के भीतर के पंच तत्वों से जुड़ने की कोशिश करेगी। यहीं से आपको सबमें समानता के दर्शन होने लगेंगे और भीतर से जब सब समान हैं तो हम किसी से भी नाखुश क्यों रहें? हमारी खुशी हमारे ही हाथ में है।

दूसरों की नकारात्मकता से ऐसे बचें
दिनभर में हम इतने लोगों से मिलते हैं कि भूल ही जाते हैं कि मिलने वालों से हमें कुछ ऐसा भी मिल रहा है; जिसका हिसाब हम नहीं लगा पाते, क्योंकि मुलाकात में सारा मामला बातचीत, लेन-देन पर ही टिक जाता है। हमें ध्यान ही नहीं रहता है कि यदि वह व्यक्ति भीतर से नेगेटिविटी से भरा हो तो उसके भीतर का संक्रमण हमारे भीतर हो सकता है। थोड़ा सजग रहकर बातचीत में सामने वाले की आंख में जरूर झांकिए। अंसतुष्ट लोगों की आंखें बोलती हैं। यदि व्यक्ति भीतर से विचलित है तो उसकी आंखें भी शांत नहीं रहेंगी। अगर आप प्रतिदिन मेडिटेशन करते हैं तो दूसरे की आंखों से भाव पकड़ सकते हैं। अगर लगता है कि व्यक्ति नेगेटिव है, तो तुरंत सुरक्षित रहने के प्रयास शुरू कर दें। अन्यथा आप उसकी कमजोरियां अपने साथ ले जाएंगे। ध्यान रखें, जितना खतरा दूसरों से है उतना स्वयं से भी है। स्वयं से सावधान रहने का एक छोटा प्रयोग है। हर तीन-चार घंटे बाद शरीर को एकांत में पूरा हिलाएं। यदि ज्यादा उलझन के दौर से गुजरे हों, तो सिर को भी झटका दे सकते हैं। दोनों हाथों के पंजों को आगे जोड़ लें, दोनों हाथ सीधे कर लें और तेजी से ऊपर ले जाएं। कुल-मिलाकर यह जो झटका है, ये शरीर और मन के संबंध को तोड़ता है। फिर कुछ समय के लिए शांत बैठ जाएं। जैसे ही मन शांत होता है, दूसरों के भाव पकड़ने में सक्षम हो जाता है। जिसका मन निष्क्रिय है उसको स्वयं से खतरा उतना ही कम है और दूसरों से भी रक्षा करना आसान हो जाएगा। चारों तरफ दुर्गुण और नेगेटिविटी की आंधी चल रही है। आपको अपनी सुरक्षा खुद ही करनी है।

व्यवसाय में निराशा का मुकाबला करें
कोई व्यक्त करे या न करे, लेकिन यह सही है अच्छे-अच्छे विद्वान को निराशा घेर लेती है। समझदार लोग निराशा से बचने के तरीके जानते हैं और नासमझ लोग उसमें उलझ जाते हैं। आजकल व्यावसायिक क्षेत्र में लक्ष्य प्राप्त करने का दबाव अत्यधिक बढ़ गया है। आपके ऊपर वाले टारगेट के लिए आप पर दबाव बना रहे होंगे और इसी दबाव को आप अपने नीचे खिसका रहे होंगे। यही दबाव धीरे-धीरे तनाव में बदलता है। इसी तनाव की औलाद का एक नाम निराशा है, इसलिए व्यवसाय करते हुए निराशा के जाल में बिलकुल न फंसें। निराशा आपकी सम्पति और स्वास्थ्य दोनों पर असर कर देगी। पहली बात तो आशा और दूसरी बात उसमें उत्साह जोड़े रखें। इस संसार में सफलता बिखरी हुई है। कोई न कोई तो उसे समेटेगा ही, फिर वो आप क्यों नहीं हो सकते। मानकर चलिए कि आपका भविष्य उज्ज्वल है। जो भी घड़ी आपके जीवन में आने वाली है वह श्रेष्ठ होगी और यदि नहीं है तो आप उसे बनाइए। लगातार सकारात्मक पहलुओं पर टिक जाएं। खर्चों पर कटौती करें लेकिन आमदनी बढ़ाने के भी लगातार प्रयास करते रहें। ये सारे प्रयास निराशा को भुला देंगे, लेकिन जब आप अकेले होंगे, खासतौर पर जब रात को सोने जाएंगे, तब फिर ये निराशा आपको डराएगी। इसलिए सोने के पहले निर्भय होने का प्रयास करें। एक कवच अपने आसपास बना लें और जो किसी न किसी मंत्र का हो। बस, सांस से मंत्र को जोड़ें कवच तैयार हो जाएगा और जो निर्भय होकर सोएगा वो सुबह उठेगा भी वैसे ही।

परिजनों के कामों में रुचि लें
किसी के दिल में क्या चल रहा है यह पता लगाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। जो ऐसा कर सकें, समझ लीजिए वह सिद्ध है। बाहर की दुनिया में तो लोग एक-दूसरे से कम ही खुलते हैं। व्यावसायिक दुनिया के सारे सौदे लुकाछिपी से ही किए जाते हैं। अब घरों में भी यह दिक्कत शुरू हो गई है। हम जान ही नहीं पाते कि घर के सदस्यों के मन में क्या चल रहा है। घर के सदस्य जब-जब दूसरे से बातें छुपाएंगे तो कलह होने की संभावना बढ़ जाएगी। परिजनों से बातचीत करते रहिए। इससे यह मालूम पड़ जाता है कि सामने वाला किन बातों से चिड़ जाता है, किन बातों से गुस्से में आ जाता है। यदि आपको यह जानकारी हो जाए तो आप बातचीत के माध्यम से उसे मोड़ सकते हैं। घर के सदस्य एक-दूसरे से यह जरूर पूछें कि दिनभर उन्होंने क्या किया। इसमें जासूसी का भाव न होकर एक-दूसरे के सहयोग की वृत्ति हो। आप जांच आयोग भले न बिठाएं पर यह जताएं कि आपको अपने लोगों में रुचि है, इसीलिए घरों में सामूहिक मेडिटेशन आवश्यक है। इससे घर के सदस्य एक-दूसरे के निकट आ जाते हैं। हम लोग कर्मकांड में तो साथ में बैठ जाते हैं, लेकिन वह केवल शारीरिक उपस्थिति होती है। ऐसी उपस्थिति तो दिनभर हम बाहर के संसार में दूसरे लोगों के बीच रखते ही हैं, लेकिन अपनों के साथ भीतर से भी मौजूद रहना चाहिए। जब हम ध्यान में होते हैं, तो हम अपने भीतरी शरीर का भी विस्तार करते हैं। हम जो हैं उसे रोकते नहीं, दूसरे से घुलामिला देते हैं। इसी का नाम अपनापन है।

बदलावों को समझकर व्यवहार करें
हर उम्र में मनुष्य की प्रवृत्ति बदलती है। इसके पीछे पहला कारण होता है भौतिक परिस्थितियों में बदलाव। किसी के पास पहले धन नहीं होता, बाद में पर्याप्त संपत्ति आ जाती है। इसका उल्टा भी हो जाता है। हरेक का ग्राफ ऊपर या नीचे जाता ही है। पहला कारण स्थितियों से जुड़ा हुआ है। स्थितियां बदलती हैं तो हमारा व्यवहार बदलने लगता है। मिसाल के तौर पर एक वक्त था जब जहां जैसा खाना-पानी मिला, खाया-पिया और पचा भी लिया। फिर ऐसा वक्त भी आता है कि जरा गड़बड़ हुई कि पाचन तंत्र जवाब दे जाता है। मनुष्य की प्रवृत्ति दूसरी बार प्रभावित होती है शरीर से। यानी उम्र अपना असर करती है। हमारे परिवारों में जब यह परिवर्तन होते हैं तो सदस्य एक-दूसरे की मन:स्थिति नहीं समझ पाते और फिर चिड़चिड़ापन शुरू होता है। अनेक विसंगतियां जीवनशैली में आने लगती हैं। खाने की टेबल पर ही मिर्ची, बिना मिर्ची का झगड़ा शुरू हो जाता है। एक उम्र के बाद कोई पैदल नहीं चल पाता, किसी के लिए हवाई जहाज की यात्रा मुश्किल है और फिर सब एक-दूसरे को दोष देने लगते हैं। हमें समझना होगा कि हर उम्र में हालात बदल जाते हैं, इसलिए एक-दूसरे को सहयोग देना पड़ेगा। बड़े होेने के साथ बच्चों का व्यवहार बदलने लगता है। पति-पत्नी भी उम्र के साथ एक-दूसरे के प्रति बदलने लगते हैं। पहले जितने मददगार थे, हो सकता है उतने न रहें। ऐसी स्थितियां मनुष्य को परेशानी में डाल देती हैं, इसलिए बदलाव को समझा जाए और विपरीत परिस्थिति हो तो उसको एक-दूसरे के साथ बांटा जाए।

भूलने से बचाती है जागरूकता
हमें एक-दूसरे से जितनी भी शिकायतें होती हैं उनमें से एक शिकायत होती है, ‘आपने हमें भुला दिया।कई बार ऐसा होता है कि हम किसी से मिलने जाना चाहते हैं, किसी का कोई काम करना हो, लेकिन हम भूल जाते हैं। लाख सावधानी के बाद भी कई बातें विस्मृत हो ही जाती हैं। मनुष्य में ऐसी कौन सी वृत्ति होती है जो उसे बातें भुला देती हैं। इस वृत्ति का नाम है माया। इसे साधारण भाषा में जादू भी कह सकते हैं। जादू यानी होने और न होने का भ्रम। किष्किंधा कांड में हनुमानजी ने माया का जिक्र किया है। श्रीराम से उनकी पहली मुलाकात चल रही थी, लेकिन इस भेंट में हनुमानजी श्रीराम को नहीं पहचान पाए। अपने पक्ष में हनुमानजी ने श्रीराम के सामने अपनी बात रखी और तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी - तव माया बस फिरउं भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना।। मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूं, इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना।माया एक परदा है जो मस्तिष्क पर पड़ जाता है तो अच्छे-अच्छे भूल में आ जाते हैं। हमारे साथ भी यही होता है। मन के विस्तार का नाम माया है। मनुष्य का मन वो सब सोच लेता है जो शरीर से नहीं कर पाता। मन के नियंत्रण की तकनीक को ध्यान कहा गया है। वैसे तो मन की कोई सीमा नहीं होती, लेकिन जब हम ध्यान करते हैं तो हम मन की सीमा के पार जा सकते हैं, क्योंकि ध्यान में मन गलने लगता है, तो उसकी सीमाएं भी सिकुड़ जाती हैं और फिर उसके पार जो भी है उसमें आदमी होश में होता है। होश में रहने वाले लोग भूला नहीं करते।

जानकारी बाहर और ज्ञान भीतर मिलता है
आजकल हर बात की जानकारी इकट्ठा करना फैशन बन गया है। इंटरनेट आने के बाद तो हर आदमी तुरंत समाधान के चक्कर में है। लोग बीमार होते हैं, डॉक्टर के पास पहुंचने के पहले ही लक्षणों के आधार पर कम्प्यूटर से बीमारी और इलाज दोनों की जानकारी निकाल लेते हैं। इसके बाद शुरू होता है उनकी परेशानी का दौर। फर्क होता है जानकारी, ज्ञान और होश में। आपको कम्प्यूटर से जानकारी मिल सकती है, पर ज्ञान तो डॉक्टर के पास ही होगा और होश डॉक्टर भी नहीं दे सकता, वो आपको खुद अर्जित करना है और उसके लिए गुरु माध्यम जरूर बन सकता है। अब तो लोग गुरुओं के पास जाकर भी ऐसे प्रश्न करते हैं कि लगता है इन्हें समाधान नहीं, इंफॉर्मेशन चाहिए। मनुष्य यदि अपनी अंतरआत्मा से जुड़ना चाहे तो यह अचानक नहीं हो पाएगा। आध्यात्मिक प्रक्रिया से गुजरना होगा, जो समय लेती है। चूंकि हमें आदत सी हो जाती है तुरंत जानकारी मिल पाने की, इसलिए हम लंबा और गहरा मार्ग पसंद नहीं करते। आश्चर्य नहीं कि विज्ञान एक दिन गर्भ की अवधि भी नौ माह से घटा दे। यदि खुद को जानना है तो हमें भीतर जाने की यात्रा आरंभ करनी होगी और इसमें जल्दी न करें। खुद को परत-दर-परत जानें। अपने भीतर जैसे-जैसे परत उघाड़ेंगे, हर बार खुद को नया और खूबसूरत पाएंगे। वहां और शांति मिलती जाएगी। शांति प्राप्त करने के लिए तयशुदा गति होनी चाहिए। न यह बहुत तेजी से चलने से मिलती है और न ही बहुत धीमे सरकने से, इसीलिए कर्मकांड के साथ योग-साधना को जोड़ा गया है। कर्मकांड में एक गति है और योग में उस गति का नियंत्रण।

व्यक्तित्व नहीं, अस्तित्व से जुड़ें
परनिंदा और आत्म-स्तुति मनुष्य की दो कमजोरियां हैं। कहते हैं कि अत्यधिक आत्म-स्तुति करने से अहंकार आ जाता है। लगातार खुद की प्रशंसा करते रहने से आप भ्रम में भी पड़ सकते हैं। कुछ लोगों को यह आदत पड़ जाती है कि दिनभर में वे यदि तारीफ न सुनें तो शाम तक उन्हें निराशा घेर लेती है। यदि वे प्रभावशाली व्यक्ति हैं तो उनके आस-पास चापलूसों का घेरा बन ही जाएगा। चापलूस शब्दों से ऐसा भ्रम-जाल बुन देते हैं कि कुछ समय बाद आप भूल ही जाते हैं कि मूल रूप से आप हैं क्या। चलिए, एक आध्यात्मिक प्रयोग करें। अध्यात्म आत्म-स्तुति और आत्म-निंदा दोनों से बचने को कहता है। आप किसी भी क्षेत्र में सफलता चाहें, पर खुद में हीन भावना न आने दें। असफलता आए तो अपनी गलतियां जरूर ढूंढ़ें, पर अपने को नकारा न समझ लें, क्योंकि आत्म-निंदा ही आपके भीतर डर बैठा देगी, आपको तोड़ देगी। अध्यात्म कहता है आत्म-स्तुति व्यक्तित्व पर छवि हावी कर देगी और आत्म-निंदा व्यक्तित्व को भयग्रस्त कर देगी, लेकिन योग से जुड़कर आपकी यात्रा व्यक्तित्व से अस्तित्व की ओर होने लगेगी। अस्तित्व कभी निराश नहीं होता। उसका मूल स्वभाव ही प्रसन्न रहना है, क्योंकि वह आत्मा के निकट है, इसलिए आत्म-निंदा न करें, क्योंकि ऐसे लोग अपने अस्तित्व को कभी नहीं पहचान पाएंगे। व्यक्तित्व तो फिर भी उलझा देता है, क्योंकि उस पर छवि हावी हो जाती है, लेकिन अस्तित्व आपको और सुलझाएगा, क्योंकि उसका साथ छवि नहीं, आत्मा दे रही है।

मित्र, संबंधियों के लक्ष्य जरूर जानें
जब भी हम किसी के साथ संबंध रखें, एक बात जरूर जान लें कि सामने वाले के जीवन में लक्ष्य क्या है। उनके भीतर क्या चल रहा है यह तो नहीं जान पाएंगे, लेकिन वे कहां पहुंचना चाहते हैं, कौन सा काम करते हैं और उनकी महत्वाकांक्षाएं क्या हैं, इसका सूक्ष्म विश्लेषण जरूर कर लीजिए। इसके दो फायदे होंगे। यदि वो व्यक्ति सही है तो आप उसकी मदद कर सकेंगे और वह भी आपकी मदद कर पाएगा, क्योंकि जीवन में मदद लेनी भी पड़ती है। जब हम अपने कार्यस्थल पर होते हैं तब हमें समान लक्ष्य वाले लोग मिल जाते हैं। मसलन, आपके कार्यस्थल पर सभी लोग एक ही तरह का कार्य कर रहे होंगे, लेकिन जब हम घर आते हैं, तब स्थितियां बदल चुकी होती हैं। परिवार के हर सदस्य का अपना एक अलग लक्ष्य होता है, इसलिए परिवार के हर सदस्य का लक्ष्य जरूर मालूम करते रहें। अगर वो लक्ष्य से भटक रहा है तो तुरंत सक्रिय होकर सही लक्ष्य पर ले आएं। यदि उसे स्पष्ट ही नहीं है कि करना क्या है, तब आप उसे फोकस्ड करने की भूमिका निभाएं, लेकिन घर हो या बाहर, जब भी किसी से जुड़ें, उसके लक्ष्य की जानकारी जरूर रखें। वो करता क्या है और चाहता क्या है, यह जान लेना हमारे लिए हितकारी है। इससे हमारे संबंध भी मधुर होंगे और आपके पास यह विकल्प होगा कि आप उससे संबंध रखें या न रखें। उन लोगों के साथ मत बैठिए, जिनका आप नुकसान करें या जो आपको दिक्कत में डाल दें। हमें अपने लक्ष्य पर भी पहुंचना हैक्योंकि लक्ष्यहीन जीवन हमें जीवित शव की तरह बना देगा।

लक्ष्य केंद्रित जीवन में है सार्थकता
बिना लक्ष्य का जीवन वैसा ही है जैसे बिना धड़कन का हृदय यानी मृत्यु। आज प्रतिस्पर्द्धा का जैसा माहौल है उसमें सालों और महीनों के लक्ष्य नहीं, दिन और उसमें भी हर घंटे के लक्ष्य तय करने पड़ेंगे। आप लक्ष्य आधारित जीवन जीते हैं तो फालतू बातों से खुद को बचा लेते हैं। लक्ष्य केंद्रित लोग बहस में नहीं पड़ते। बेकार के निदानों के चक्कर में नहीं उलझते। उन्हें शार्ट कर्ट भी ज्यादा पसंद नहीं आते। वे तो यह देखते हैं कि अपनी क्षमता का अधिकतम उपयोग कैसे  करें। उनकी रुचि दूसरों को नीचा दिखाने से ज्यादा खुद को आगे बढ़ाने में रहती है। लक्ष्य की खातिर वे मित्रता करने और दूसरों को सम्मान देने में भी विवेकपूर्ण रहते हैं। सभी के पास कोई न कोई लक्ष्य है, तय आपको करना है। यदि आप पति-पत्नी हैं तो श्रेष्ठ संतान आपका लक्ष्य है। यदि संतान हैं तो माता-पिता की सेवा से सुंदर लक्ष्य और क्या हो सकता है, इसलिए अपने आप को किसी न किसी लक्ष्य से जोड़े रखें। ध्यान रखिएगा लक्ष्य के लिए सबसे जरूरी बात है एकाग्रता और एकाग्रता को भंग करता है मनुष्य का मन। मन को बिखरने की बहुत आदत है। उसे अपने मालिक को पागल बनाने में बड़ा मजा आता है और एक पागल ही ऐसा होता है, जिसका कोई लक्ष्य नहीं होता। या इसे यूं भी कह सकते हैं कि जिसके पास कोई लक्ष्य न हो उसे अपने भीतर के पागल को ढूंढ़ लेना चाहिए। आपकी रुचि लक्ष्य केंद्रित जीवन में जितनी अधिक होगी, आप अपने मन पर उतने ही अच्छे से काम कर सकेंगे।

संसार के केंद्र में ईश्वर होना चाहिए
यह चीज हमारी है, ऐसा दावा करते ही जिंदगी के सारे समीकरण बदलने लगते हैं। फिर आज की जीवनशैली में तो सारे प्रयास इसी के लिए होते हैं। हमारी हो जाए या हमें मिल जाए, इस आकांक्षा में ही अशांति छिपी है। जिन्हें शांति की खोज करनी हो, वे इस इच्छा को थोड़ा सा आध्यात्मिक मोड़ दे दें। जो चीज ज्यादा समय साथ रहती है, उससे मोह हो जाता है। बरसों साथ रहकर बिछड़ जाए तो वह आपकी तो नहीं हुई। परमहंस संत रामसुखदासजी कहा करते थे, ‘आपकी न उत्पत्ति होती है, न विनाश होता है, न आरंभ होता है, न अंत होता है। फिर उत्पन्न और नष्ट होने वाली चीज आपकी कैसे हुई?’ कोई वस्तु हमारी हो जाए, इसके पीछे सुख मिलने की कामना होती है। सुख के मामले में उसके स्वाद को समझना होगा। परमात्मा की प्राप्ति चाहने वाले को संसार के सुख के स्वाद के प्रति जागरूक होना पड़ेगा। सभी लोग संसार का सुख और परमात्मा दोनों ही चाहते हैं। ऐसा संभव नहीं है। नाशवान और अविनाशी दोनों साथ कैसे रह सकते हैं, लेकिन दोनों को विरोधी बनाकर भी नहीं रहा जा सकता। हमारा स्वाद परमात्मा हो और फिर इसके आस-पास संसार रहे तो कोई खतरा नहीं है। हम उल्टा कर जाते हैं। हमारे स्वाद में संसार होता है और हम परमात्मा को बाय प्रोडक्ट जैसा बना लेते हैं। अगर स्वाद में परमात्मा आ जाए तो हमें समझ में आएगा कि यह कभी मिटने वाला नहीं है। सुख हर पल स्वरूप बदल लेगा, लेकिन ईश्वर सदैव एक जैसा है और इसी में सबसे बड़ा सुख है।

ईश्वर से संसार नहीं, उन्हीं को मांगें
कभी आपने सोचा है कि हम भगवान को क्यों याद करते हैं। चलिए, आज हनुमानजी के माध्यम से समझते हैं। बहुत सारे लोग परंपरा के कारण परमात्मा को याद करते हैं। कुछ लोग स्वार्थ-पूर्ति के लिए कर रहे हैं और शेष डर के कारण। बहुत कम लोग परमात्मा को इसलिए याद करते हैं कि उनमें कुछ ऐसी बात है जो संसार में कहीं नहीं है। सच्चा भक्त उनसे इसलिए जुड़ता है कि उसे सिर्फ भगवान चाहिए। हमारी चर्चा चल रही है किष्किंधा कांड में श्रीराम और हनुमानजी की पहली भेंट के प्रसंग की। हनुमानजी श्रीरामजी से कह रहे हैं और तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘एक मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।। एक तो मैं यूं ही मंद हूं, दूसरे मोह के वश में हूं, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञानी हूं, फिर हे दीनबंधु भगवान, प्रभु आपने भी मुझे भुला दिया।हनुमानजी ने तीन बातें स्वयं की कमजोरी के लिए बोली हैं। परमात्मा से जुड़ने का अर्थ ही यह है कि ऐसी कमजोरियों की भरपाई हो जाना। हनुमानजी ने कहा कि सेवक अपने स्वामी के भरोसे होता है। आगे चौपाई में कहा गया है - जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें।। हे नाथ! यद्यपि मुझमें बहुत से अवगुण हैं, तथापि परमात्मा तो अपने भक्तों को न भूले। भक्त की यही मांग परमात्मा को बांध देती है, इसीलिए हमें भगवान से संसार नहीं मांगना चाहिए, बल्कि भगवान से भगवान को ही मांग लेना चाहिए। फिर जो मिलता है वह तो संसार कभी दे ही नहीं सकता।

बांटने से बढ़ती है संपदा रूपी लक्ष्मी
समुद्र मंथन में चौदह रत्न प्राप्त हुए थे। कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएंमदिरा, पारिजात, चंद्रमा, शारंग धनुष, लक्ष्मीजी, धन्वंतरि और अमृत आदि। आठवें क्रम पर लक्ष्मीजी प्रकट हुई थीं। उस समय ऋषि-मुनि, देवताओं ने लक्ष्मीजी की कामना की, लेकिन उन्होंने नारायण का वरण किया था। यह साधारण-सी कथा, असाधारण अर्थ लिए हुए है। लक्ष्मीजी के प्रकट होने पर एक श्लोक लिखा गया है- रूपौदार्य वयोवर्ण महिमा क्षिप्त चेतस:। जब वे समुद्र से प्रकट हुईं तो उनके सौंदर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमा से सबका चित्त खिंच गया। लक्ष्मी ऐसी ही होती हैं। अपनी ओर खींचती है। फिर लोग उसे खींचने लग जाते हैं। खींचातानी से जिसे लक्ष्मीजी मिलीं वो बाद में परेशान होगा ही, जबकि ग्रंथों में लिखा है कि जब लक्ष्मीजी चल रही थीं, तो श्लोक आया है - सव्रीडहासं दधती सु शोभनम्। लज्जा के साथ मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं। अर्थ है लक्ष्मीजी भक्तों को प्रसन्न देखना चाहती हैं और भक्त चाहते हैं कि लक्ष्मी से सुख मिले। प्रसन्नता यानी सुख के साथ शांति। आज जिसके पास धन है, थोड़ा या कम, वह उसी मात्रा में अशांत, तनाव-ग्रस्त है। आज के दिन लक्ष्मी पूजन करते हुए हम उनका सम्मान करते हैं, जबकि उनका सबसे बड़ा सम्मान यह होगा कि हम ईमानदारी से धन कमाएं, संतोष के साथ बचाएं और शुद्धता के साथ खर्च करें। आपके पास हो तो दूसरों के अभाव को भी समझें। लक्ष्मी की कृपा में देने का सुख शामिल है। आपके पास जो हो उसको अवश्य बांटें। फिर आपको लक्ष्मी को खींचना नहीं पड़ेगा, वे स्वयं चली आएंगी।

भक्ति जगाकर परिवार को बचाएं
संसार में अधिकांश लोग घर-गृहस्थी को समझौते के आधार पर चला रहे हैं। जो जीवनसाथी मिला है, उसे बोझ मानकर ढो रहे हैं। जरा विचार करिए, हम परिवार में अन्य सदस्यों का मान रखने के लिए समझौता क्यों करें, क्योंकि समझौता लंबे समय में बोझ बन जाता है। ऐसा परिवार भीतर कलह की लहरें लेकर चलेगा। आज का दबाया हुए कलह का भविष्य में विस्फोट होना तय है। जिन्हें समझौते की गृहस्थी नहीं जीना हो, वे एक प्रयोग करें। हमारी संस्कृति के अनुसार भक्त हर जगह भगवान देखता है। जब यह विचार परिपक्व होता है तो वह सभी में परमात्मा देखने लगता है। जब हमारा किसी से संपर्क हो तो अपने सुख के पहले उसके सुख को प्राथमिकता दें। परिवार के सदस्यों के बीच जब ऐसी भावना जन्म लेती है तब समझौते की नौबत नहीं आती, इसलिए परिवार का आधार भक्ति होनी चाहिए। भक्ति जीवनशैली है। हर रिश्ते में इसका स्वाद बनाए रखें। रोज प्रार्थना में परमात्मा से मांग करें कि तू हमारे मन में उतरे, क्योंकि मन हमेशा शरीर पर टिकता है और जब रिश्ते शरीर की दृष्टि से देखे जाते हैं तो समझौता करना ही पड़ेगा। शरीर सुख उठाने के चक्कर में रहता है, पीछे काम कर रहा होता है मन, इसीलिए रिश्तों के समीकरण गड़बड़ा जाते हैं। मन में परमात्मा होने का अर्थ है मन का गायब होना और उसकी जगह ऐसी शक्ति आना जो हमें विचारों में नहीं उलझाती, प्रेमपूर्ण बनाती है। परिवार बचाने का यही तरीका है कि परिवार की गतिविधियों के केंद्र में भक्ति बनी रहे।

निजी जीवन प्रेमपूर्ण होकर जिएं
आजकल प्रबंधन के क्षेत्र में नए प्रबंधकों को यह सिखाया जाता है कि अपने काम से प्रेम करो। ऐसा करना भी चाहिए, लेकिन इसके पीछे के खतरे को न भूलें। काम से प्रेम करते-करते लोग प्रेम को भी काम बना लेते हैं, इसीलिए व्यवसाय में सफल लोग घरों में विफल होने लगते हैं, क्योंकि वहां व्यवसाय के तौर-तरीके नहीं चलते, वहां प्रेम, पूजा है। काम से प्रेम करने का अर्थ है ईमानदारी से परिश्रम करना और लेन-देन में सावधान रहना, लेकिन जब घर में प्रेम आता है, तो लेन-देन लुप्त हो जाता है। प्रेम सिर्फ देना जानता है। लेने का भाव आते ही प्रेम सौदा बन जाता है। हमारे निर्माण में कई लोगों का हाथ होता है। माता-पिता, मित्र और हमारे साथ काम करने वाले लोग, लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रेमपूर्ण हमें खुद ही होना पड़ेगा। अपनी भावनाओं पर नियंत्रण पाकर प्रेमपूर्ण होना जीवन प्रबंधन है। प्रेम को जानना हो, तो समूचे प्रयास स्वयं ही करने होंगे। यह न किसी पुस्तक से प्राप्त होगा, न ही किसी ट्रेनिंग में मिलेगा। प्रेम की परिभाषाएं, उसकी जानकारी जरूर बताई जा सकती है, लेकिन इसे जीना हो तो वह खुद को ही करना होगा। प्रेमपूर्ण होने के लिए बहुत अक्लमंद होना भी जरूरी नहीं है, ज्यादा ज्ञानी होने की आवश्यकता भी नहीं है। वैसे भी ज्ञानियों के जीवन में प्रेम मुश्किल से ही उतरा है, इसलिए आज के युग में अपने काम से प्रेम अवश्य करें, लेकिन फिर प्रेम को ठीक से समझें और अपने परिवार व निजी जीवन में प्रेमपूर्ण होकर जिएं।

करुणा को भीतर से बाहर लाएं
ऋषि मुनियों का संदेश है कि जीवन को जानना हो तो उसकी गति को पकड़ना पड़ता है। एक होती है बाहर से भीतर और दूसरी होती है भीतर से बाहर की गति। संसार बाहर से हमारे भीतर उतरता है व शुरू होती है अशांति। प्रेम और करुणा भीतर से बाहर बहती है तथा आती है शांति। जैसे बीज से वृक्ष निकलता है, ऐसे ही हमारे भीतर से अनेक पवित्र भावनाएं बाहर निकलने को तैयार हैं, उन्हें रोका न जाए। किष्किंधा कांड में हनुमानजी ने पहली मुलाकात में भगवान से कहा, ‘आप स्वामी हैं, मैं सेवक हूं, आप मुझे क्यों भूल गए और भगवान श्रीराम ने उन्हें उठाकर हृदय से लगाया। यहां दो अद्भुत क्रिया श्रीराम ने की। अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई।। तब रघुपति उठाइ उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा।।

ऐसा कहकर हनुमानजी अकुलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े, उन्होंने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया। उनके हृदय में प्रेम छा गया। तब श्रीरघुनाथजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से सींचकर शीतल किया। दोनों में ही भीतर से बाहर भक्ति और कृपा बह रही थी। भगवान किसी को दिख जाए उसका सौभाग्य। भगवान किसी को देख ले परम सौभाग्य। भगवान किसी को छू ले, सौभाग्य में सौ का गुना समझा जाए, लेकिन यहां तो भगवान ने हृदय से लगा लिया और अपने आंसुओं से अभिषेक कर रहे हैं। ऐसा तब घटता है, जब मनुष्य अपनी सेवा-भक्ति और करुणा को भीतर से बाहर लाता है। हमारे पास भी यह संभावना है।

पारिवारिक रिश्तों में मित्रता पैदा करें
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर योग्यता और कमजोरियां हैं। हमें बाहर से देखने वाले लोग तो वही समझेंगे, जो हम मेकअप करके उन्हें दिखाते हैं। कुछ ही रिश्ते ऐसे होते हैं, जिनमें मनुष्य अपने आप को जैसा होता है, वैसा बता देता है। ऐसा ही एक रिश्ता होता है मित्रता का। लोग मित्रता करते ही इसलिए हैं कि वहां कुछ समय खुलकर जीने का मौका मिल जाता है, क्योंकि जब आप ओढ़ा हुआ आवरण हटा देते हैं तो बिल्कुल हल्के हो जाते हैं। पद-प्रतिष्ठा, दिखावे के बोझ में दबकर हम उदास रहने लगते हैं। शोहरत से नहीं, शांति मिलती है सहज होकर जीने में, इसलिए हमें पारिवारिक रिश्तों में भी मित्रता के छींटे डालने चाहिए। मां-बेटे और भाई-बहन भी बहुत अच्छे मित्र हो सकते हैं। यदि मनुष्य ईमानदार हो जाए तो पति-पत्नी इतने अच्छे दोस्त बन सकते हैं कि मिसाल बन जाएं। रिश्ते निभाते समय आदमी आवरण ओढ़ लेता है। पिता-पुत्र से बात कर रहा है, भाई-भाई से चर्चा कर रहा है, पति-पत्नी के वार्तालाप में बाहर कोई और बोल रहा है, लेकिन भीतर कोई और ही रहता है। बातचीत के दौरान शब्द उस दिमाग से निकल रहे हैं, जिसमें कई गणित चल रहे होते हैं। जैसे गलत भोजन कर लो, तो मनुष्य वमन कर देता है। ऐसे ही मनुष्य के मस्तिष्क में बैठा हुआ गणित विचारों का वमन कराता है। ऐसे विचार से निकली वाणी रिश्तों को सिर्फ सौदा बनाती है, लेकिन यदि मित्र भाव आ जाए, तो फिर बाहर वही बोला जाएगा, जो भीतर होगा। फिर जीवन में रिश्ते सही अर्थ ग्रहण कर लेंगे।

घर की ग्राहकी में विश्वास का कमाल
पिछले दिनों बाजार अद्भुत रूप से गरम था। गरम इसलिए, क्योंकि इस पर किसी ने रोटी सेंकी तो किसी ने हाथ। किसी ने पूरा व्यक्तित्व ही झुलसा लिया। धन की गर्मी लेने और देने में पूरी तरह से काम कर रही थी। दिवाली का दौर होता ही ऐसा है। सब एक-दूसरे को सिर्फ ग्राहक समझ रहे थे। इस एक सप्ताह में मनुष्य के भीतर का ग्राहक निचोड़ लिया गया। खरीददारी की क्षमता ग्राहक का अहंकार बढ़ाती है। व्यापारी जानता है कि वस्तु की गुणवत्ता से अधिक ग्राहक के अहंकार पर काम करना है, इसीलिए दोनों के बीच विश्वास के लिए कोई जगह नहीं है। यह ग्राहकीय मानसिकता धीरे-धीरे परिवारों में उतर आती है। आजकल घरों में जब लोग एक-दूसरे का काम करते हैं, तो लगता है जैसे कस्टमर सर्विस दी जा रही हो। घर कॉल-सेंटर बन गए हैं जबकि व्यापारी और ग्राहक के रिश्ते में विश्वास सबसे बड़ी बात थी। विश्वास बच जाए, तो घर में भी ग्राहक वाला खेल अच्छे नतीजे दे जाएगा। हालांकि, जैसे हर ग्राहक व्यापारी को शक की नजर से देखता है, वैसा ही घरों में हो रहा है। विश्वास बचाने के लिए एक-दूसरे से व्यक्तिगत संबंध जोड़ने पड़़ते हैंै। एक-दूसरे के भीतर उतरना पड़ता है। सामने वाले के दर्द को अपना दर्द मानना पड़ता है। उसकी सोच में अपनी सदाशयता मिलानी पड़ती है। उसका नुकसान, अपना नुकसान मानना पड़ता है। तब एक छलांग सी लगती है और लोग एक-दूसरे में उतर जाते हैं। फिर ग्राहकी घर में हो या बाहर, विश्वास के आधार पर अच्छे ही परिणाम देगी।

बच्चों की परवरिश में अहंकार न आने दें
लालन पालन के दौर में क्या केवल बच्चे ही गलतियां करते हैं? लालन-पालन का अर्थ होता है बच्चों को गलत रास्ते से रोककर सही रास्ते पर डाला जाए। अगर गहराई से देखें तो लालन-पालन के दौरान सारी गलतियां केवल बच्चे करें ऐसा नहीं है। माता-पिता भी गलतियां कर जाते हैं, इसलिए  उन्हें एक बात याद रखनी चाहिए कि बच्चे केवल अपनी गलतियों से बर्बाद नहीं होंगे। माता-पिता की भूलें भी उन्हें बर्बाद कर सकती हैं, इसलिए गलती हो जाए तो माता-पिता गलतियों का सामना गलत तरीके से न करें। अपनी गलती सही ढंग से स्वीकारें और दूर करें। वरना उनके अहंकार की कीमत बच्चे चुकाएंगे। जब भी कोई समस्या आए तो शरीर और मन से हटकर आत्मा के तल पर जाकर सोचें। वहां  आपकी सोच ही बदल जाएगी। अब समस्या का स्तर नीचे होगा और आपके विचार का स्तर ऊंचा होगा। चूंकि आप आत्मा से जुड़े हुए हैं, इसलिए आपका चिंतन निर्दोष होगा। आप निष्पक्ष और परिपक्व निर्णय लेने में सक्षम होंगे। यदि आप केवल मन और शरीर से जुड़कर फैसले लेंगे, तो आपका अहंकार काम करेगा। अहंकार के अंधेरे में आपको भविष्य नहीं दिखेगा। आप दावा करेंगे आगे की सोचने का, लेकिन अहंकार आपको वर्तमान की भी नहीं सोचने देगा। इसलिए माता-पिता बच्चों के साथ थोड़़ा समय आत्मा के तल पर जुड़ने के लिए निकालें। वह समय होता है मेडिटेशन का। थोड़ी देर साथ बैठकर ध्यान करें, फिर हर समस्या अपने साथ समाधान लेकर ही आएगी।

भावनाओं को ईश्वर के साथ जोड़ दें
जीवन में कई तरह की दुर्घटनाएं होती रहती हैं। कुछ से शरीर, कुछ से मन तो कुछ में दिल टूट जाता है। हर दुर्घटना के पीछे मनुष्य की विशेष किस्म की लापरवाही काम कर रही होती है। मनुष्य का मतलब आप भी हैं और आपके सामने वाला भी। जैसे वाहन दुर्घटना में आप सावधान हैं, पर दूसरे की गलती आपको आहत कर जाएगी, इसलिए इतना प्रयास करें कि हम से हम ही आहत न हो जाएं। बहुत सारी दुर्घटनाएं भावनाओं पर नियंत्रण न होने के कारण भी होती हैं। अनियंत्रित भावनाएं मस्तिष्क पर दबाव डालती हैं। फिर मस्तिष्क तनाव पैदा करता है, जो क्रिया में उतर जाता है। ड्राइविंग की तो एक्सिडेंट। खुद भी घायल होंगे, दूसरों को भी करेंगे। घर ले गए तो संबंध खराब हो जाएंगे। बिस्तर तक ले गए तो नींद गड़बड़ाएगी, इसलिए यदि दुर्घटनाओं से बचना है तो भावनाओं पर नियंत्रण करिए और इसका अच्छा तरीका है उसे मोड़ दीजिए। भावना यदि परमात्मा की ओर मुड़ जाए तो वह उसमें रम जाएगी। फिर आप उस ईश्वरीय शक्ति में इतने व्यस्त हो जाएंगे कि जीवन के सारे काम तो करेंगे, लेकिन परेशान नहीं रहेंगे। हर काम के दौरान सहज, सरल स्वाभाविक स्थिति हो जाएगी, क्योंकि काम आप संसार का कर रहे हैं, लेकिन मानसिक रूप से संसार बनाने वाले के साथ हो जाएंगे। जीवन के छोटे-बड़े कार्य होते रहेंगे और ऐसा लगेगा जैसे करने वाला कोई और है। तो जब भी मौका लगे, भावनाओं को परमात्मा से जोड़ दें। खुद भी दुर्घटना से बचेंगे और दूसरों की भी रक्षा हो जाएगी।

भक्ति और योग बढ़ाते हैं धीरज
मनुष्य के मनोबल पर प्रहार करने में प्रमुख है क्रोध। क्रोध में व्यक्ति स्वयं से कट जाता है और दूसरों पर टिक जाता है। जब हम स्वयं से कटते हैं, तो हमारा आत्मविश्वास गड़बड़ाएगा ही। समस्या सुलझाते समय आप क्रोध में डूब गए, तो विकल्प अपने आप कम होने लगेंगे। आवेश रास्ते बंद कर देता है, इसलिए समस्याएं आएं तो बिल्कुल क्रोधित न हों। परिस्थितियों को व्यक्तिगत स्तर पर लेने से क्रोध आ जाता है। मछलियां गहराई में हों, तो उन्हें सतह पर लाने के लिए कोई हरकत करनी पड़ती है। पानी में हलचल करो, तो मछलियां बेचैन होकर ऊपर आती हैं और वहां उन्हें आटा नजर आता है, वे लपकती हैं और कांटे में फंस जाती हैं। यही मनुष्य की कहानी है।

कुछ घटनाएं हलचल मचाकर आपको आपकी गहराई से निकालकर सतह पर पटकती हैं। क्रोध का कांटा आपको उलझा लेता है। उसके बाद लोग अपने-अपने ढंग से तड़पते हैं। क्रोध की बीमारी मनुष्य के जीवन में वर्षों से है, लेकिन इस दौर में बहुत नाजुक हो गई है। जीवनशैली ऐसी हो गई कि भोजन में अव्यवस्था आ गई है। लोग बेतरतीब मेहनत कर रहे हैं। नींद गड़बड़ा गई है। रिश्ते छोटे हो गए, लक्ष्य बड़े हो गए। संवेदनाएं खिलौना बन गई, परिवार के मतलब बदल गए और इन सबका नुकसान यह हुआ है कि धैर्य चला गया है। क्रोध को नियंत्रित रखने में धैर्य बहुत काम आता है, इसलिए कुछ काम ऐसे जरूर करिए, जिनसे धैर्य बना रहे। भक्ति, योग धीरज को बढ़ाने के साधन हैं।

सेवाभाव से खिल उठता है जीवन
जब प्रेम, करुणा और सेवाभाव मनुष्य के भीतर से बाहर निकलता है, तब जीवन खिल उठता है। किष्किंधा कांड का दृश्य चल रहा है। श्रीराम ने अपने हृदय से कई लोगों को लगाया था, लेकिन हनुमानजी के मामले में कुछ घटनाएं अद्भुत हो गई थीं। श्रीराम ने पहली ही मुलाकात में हनुमानजी का आंसुओं से अभिषेक कर दिया था। इसके बाद जब श्रीराम ने बोलना आरंभ किया, तब तो कमाल कर दिया। सुनु कपि जियं मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना।। समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ।। श्रीराम ने कहा, ‘हे कपि! सुनो, मन में ग्लानि मत मानना। तुम मुझे लक्ष्मण से भी दोगुने प्रिय हो। सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं। मेरे लिए न कोई प्रिय है, न अप्रिय। पर मुझको सेवक प्रिय है। मुझे छोड़कर उसे दूसरा सहारा नहीं होता। तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमानजी की तारीफ करते हुए श्रीराम ने उनकी तुलना लक्ष्मणजी से कर दी। यह पढ़कर सभी को आश्चर्य होता है। हनुमानजी को भी लगा कि लक्ष्मणजी भगवान के छोटे भाई हैं। उनके लिए अपना घर-बार छोड़कर आए हैं। वे अभी-अभी मिले हैं और श्रीरामजी ने उन्हें लक्ष्मणजी से दोगुना प्रिय बता दिया। संतों का मत है कि श्रीराम कभी गलत नहीं बोलते। भविष्य में यह साबित हो गया। एक घटना तो यही है कि जब लक्ष्मणजी युद्ध में मूर्छित हुए थे, तो संजीवनी बूटी हनुमानजी ही लाए थे। श्रीराम जान गए थे कि हनुमानजी का प्रवेश उनके लिए सबसे अहम हो जाएगा।

मानसिक आघातों से सावधान रहें
चोट से सभी बचना चाहते हैं। यदि मामला शारीरिक है तो मनुष्य हर तरह की सावधानी रखता है। भले लोग हिंसा से इसीलिए दूर रहते हैं, क्योंकि उसका अंतिम परिणाम शारीरिक चोट ही होता है। कभी-कभी शरीर की चोट मनुष्य को उसकी अपनी गलती से भी लग जाती है। जैसे चलते समय घुटने का टकरा जाना, लेकिन जब चोट मानसिक होती है, तब इलाज कठिन हो जाता है। यह दो ढंग से लगती है। एक दूसरे पहुंचाते हैं और दूसरी हम अपने आप को आहत करते हैं। कोई हमें धोखा दे दे, भावनात्मक रूप से छल कर जाए या विपरीत टिप्पणी कर दे, तो मन आहत हो जाता है। मन यह चोट बहुत गहराई में दबा देता है, जो अपने ढंग से परिणाम देती है।

एेसी भीतर दबी चोटों को हमें स्थायी नहीं होने देना है, क्योंकि वह चोटों पर स्मृतियों की परत चढ़ा देता है। इसका सरल इलाज है विस्मृति। पुरानी बातें, खासतौर पर खराब बातें भूलने से मन की चोट का इलाज होने लगता है। जितना अधिक याद करेंगे, घाव उतना गहरा होता जाएगा। जैसे नींद में जाने से शरीर रिलैक्स हो जाता है, ऐसे ही ध्यान में जाने पर मन गलने लगता है। मेडिटेशन से मन की सारी कृत्रिम हरकतें बंद हो जाती हैं। वे सारे मिथ्या चेहरे उतर जाते हैं, जिन्हें मन ढो रहा होता है। आप मौन होने लगते हैं और भीतर का हर घाव मौन से भरने लगता है। शरीर की चोट कम नुकसान देती है, पर मानसिक आघात पूरे जीवन को परेशानी में डाल देता है, इसलिए इस मामले में सावधान रहें।

रूटीन से अलग जिंदगी जीकर देखें
हम वर्षभर जिस रूटीन में जीते हैं, उससे हटकर जब जीना पड़ता है तब जीवन की परीक्षा होती है। गरीब से गरीब आदमी भी दिनचर्या को अपने हिसाब से सुविधाजनक बना लेता है। सुविधा उठाना मनुष्य का मूल स्वभाव है। सुविधा का स्वरूप बदल सकता है, लेकिन इसे सभी प्राप्त करना चाहते हैं। घोर संकट की घड़ी में भी लोग सुविधाएं निकाल ही लेते हैं। दरअसल विपरीत में कोई भी नहीं जीना चाहता, लेकिन मनुष्य की परीक्षा विपरीत में ही होती है। आजकल कई प्रबंध संस्थान अपनी ट्रेनिंग के दौरान लोगों को विपरीत में जीना सिखाते हैं। इसमें उनके धैर्य और समझ दोनों की परीक्षा हो जाती है।

हम जब कहीं यात्रा पर जाते हैं और हमें खाने-ठहरने की वैसी स्थिति न मिले, जिसके हम आदी हों, तब हमारी परीक्षा शुरू हो जाती है। आराम की तलब लगती है और मनुष्य विचलित होने लगता है। हमें सप्रयास कुछ ऐसा समय बिताना चाहिए जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से विपरीत हो, जब थोड़े कष्ट मिलें और तब हम शांत रहें। शरीर सुविधा की मांग करेगा, पर हम उसे समझाएं कि जीवन में ऐसे मौकों का भी स्वागत किया जाए। इससे व्यक्तित्व में धैर्य आता है और यह धैर्य रोजमर्रा में काम आएगा। कभी-कभी परिवार में ऐसा हो जाता है कि कुछ नापसंद घटता है और हम भड़क उठते हैं। नतीजे में कलह हाथ लगता है। अपने आप को तैयार करिए कि सीधी सुविधाजनक चलती जिंदगी में उठापटक हो जाए तो उत्तेजित  न होकर इसका भी मजा उठाएंगे।

खुशी बाहर नहीं, आपके भीतर है
खुशी को लेकर आजकल बहुत काम होता है। खुशी हासिल करने के वर्कशॉप तक लगाए जाते हैं। सभी चाहते हैं खुशी मिल जाए। ऋषि-मुनियों ने कहा है कि खुशी बाहरी स्थिति नहीं है, मानसिक अवस्था है। हमारी सोच की दिशा खुशी में बदल जाती है। खुशी को बाहर से अर्जित नहीं करना है। इसकी तैयारी भीतर से होती है। टंकी में पानी डाला जाता है और कुएं में जमीन से आता है। भोग-विलास टंकी में डाला गया पानी है। खुशी कुएं में फूटी झरन है। खुशी को हमारे भीतर यदि कोई रोकता है तो वे हैं हमारी वासनाएं। भीतर सक्रिय वासनाएं जहां से खुशी आती है, उसी जगह लेपन करती हैं। आप बाहर कितने ही अच्छे काम कर लीजिए, लेकिन भीतर से खुश रहने के लिए तैयार नहीं हैं तो अच्छे से अच्छा काम भी मशीनी हो जाएगाा और यदि हम भीतर से तैयार हैं, तो फिर जो भी काम करेंगे वह अनूठा होगा।

अपनी खुशी दूसरों में ढूंढ़ने वाले लोग लंबे समय इस यात्रा को नहीं कर पाएंगे। संसार में रहते हैं, तो दूसरों के बिना जीवन कट भी नहीं सकता, संबंध निभाने भी पड़ेंगे। कई बार कुछ रिलेशन तकलीफ भी देते हैं। आपकी खुशी को खा जाते हैं, लेकिन यदि आपने आप भीतर से क्या हैं, इसे जानने की तैयारी कर ली तो खुशी आपकी मुट्ठी में है। फिर कोई भी संबंध इससे छेड़छाड़ नहीं कर सकता। हम खुशी बाहर ढूूंढ़ेंगे और यदि प्राप्त भी करेंगे तो या तो वह उसकी छाया होगी या अस्थायी रूप। व्यक्ति या परिस्थिति हटी तो खुशी भी गई, इसलिए खुशी अपने भीतर ढूंढ़ लें।

आसक्ति से मुक्त होकर प्रफुल्लित रहें
खूब परिश्रम करिए और उसका परिणाम पाइए। भारतीय संस्कृति में यही कर्मयोग है, लेकिन यह केवल ऊपरी दृश्य है। कर्मयोग का समाधि संदेश भी है। चलिए, इसे समझते हैं। एक होता है काम का करनाऔर दूसरा होता है काम का हो जाना। व्यापार करते हैं, फायदा-नुकसान होता है। खेती करते हैं, फसल होती है। करना अपना होता है और होना परमशक्ति का होता है। अगर होना हमारे हाथ में होता तो व्यापार में, जीवन में कोई भी नुकसान नहीं होने देता। अगर हम यह मान लें कि जो होता है, वह ईश्वरीय शक्ति के मंगलमय विधान से, उसकी कृपा से होता है तो हर समय आनंद, प्रसन्नता, खुशी बनी रहेगी। प्रकृति हमारा अहित कैसे कर सकती है।

जो हम देते हैं वह उसे और बेहतर करके लौटाती है, लेकिन हम यदि लगातार खराब देंगे तो धीरे-धीरे वह भी वैसा ही लौटाएगी, इसलिए सबसे पहले इस भावना को प्रबल करें कि प्रकृति का परिणाम मंगलमय ही होता है। हमारी संस्कृति में मृत्यु को भी मंगल माना है। जीना चाहते हैं, इसलिए मौत से डर लगता है। भीतर की चाहना छोड़ दें, तो चिंता मिट जाएगी। हमारा चाहा हुआ हमेशा नहीं होगा, इसे समझ लें। हम अचाह हों इसका यह अर्थ नहीं है कि आलसी हो जाएं। अचाह होने का अर्थ है आसक्ति से मुक्त हो जाएं। जमकर काम करने का आनंद उठाइए। थकान शरीर को आए, लेकिन भीतर से हृदय सदैव प्रफुल्लित रहे। यह भेद बनाना हमारे ही हाथ में है। कुछ समय योग को दीजिए, फिर देखिए प्रकृति से चारों तरफ प्रसन्नता ही बरसती मिलेगी।

मानसिक अभ्यास अधिक प्रभावी
पूर्वाभ्यास या रिहर्सल दो तरीके से की जाती है। आज के प्रबंधन की भाषा में होमवर्क, प्रैक्टिस, तैयारियां जैसे शब्द पहले के ऋषि-मुनियों द्वारा अपने ढंग से उपयोग में लाए गए थे। सीधी भाषा में कहें तो आज के ये सारे शब्द पूजा-पाठ का ही विस्तार हैं। भारतीय संस्कृति में पूजा एक पूर्वाभ्यास है। इस रिहर्सल में तीन तरीके से तैयारियां बताई गई हैं। कायिक, वाचिक और मानसिक पूजा। जिस पूजा में पूरी तरह से शरीर सक्रिय रहता है उसे कायिक पूजा कहते हैं। बोलकर पूजा की जाती है तो वह वाचिक हो जाएगी। पूजा की तीसरी पद्धति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- मानसिक। मन की चंचलता के कारण मानसिक पूजा सबसे कठिन है।

जिन्हें मानसिक पूजा का अभ्यास हो जाता है उन्हें फिर चौबीस घंटे काम करते हुए भी पूजा का लाभ मिलता है। अब इसे आज के प्रबंधन के दौर की प्रैक्टिस, होमवर्क आदि में देखें। पुराने संगीतकार कहते थे कि वे जितनी देर रियाज करते हैं उससे अधिक रियाज दिमाग में करते हैं। अगर ऐसा मानसिक अभ्यास सही हो जाए, तो शारीरिक अभ्यास को आधा वक्त देना भी बहुत है। यह प्रबंधन में भी काम देगा। कोई भी योजना बनाएं तो पहले उसे मन और दिमाग, माइंड और ब्रेन इन दोनों में ठीक से बैठाएं। मन नियंत्रण में हो और मस्तिष्क स्पष्ट रहे, तब मानसिक अभ्यास सही होगा। फिर कागज पर उतारकर अमल में लाएं। जब हम केवल कागज से शुरुआत करते हैं मन और मस्तिष्क को बाद में लाते हैं तो सारा काम निरस भी हो जाता है तथा अव्यवस्थित भी।

पूरे समर्पण के बाद होती है कृपा
हर खेल के कुछ साधन होते हैं। क्रिकेट में बल्ला और गेंद होगी, हॉकी में स्टिक होगी, लेकिन पुराने समय में जो लोग साधन-संपन्न नहीं थे, उन्होंने खेल में अपने शरीर को ही वस्तु बनाया। जैसे कब्बड्डी, खो-खो। ऐसा ही खेल गुरु और शिष्य के बीच चलता रहता है। परमात्मा को स्वामी माना गया है। भक्त ने खुद को सेवक कहा है। स्वामी और सेवक के बीच भी खेल चलता है। भगवान यानी स्वामी अपने भक्त के धैर्य और श्रद्धा की परीक्षा लेते रहते हैं। भक्त अपने स्वामी की कृपा की परीक्षा लेता है। इस प्यारे खेल की विशेषता यह है कि इसमें हारने वाला हमेशा जीत जाता है। रामचरितमानस के पांचवें सौपान किष्किंधा कांड में लगभग ऐसा ही प्रसंग चल रहा था।

तुलसीदासजी ने पंक्तियां लिखीं - समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ।। श्रीराम ने कहा, ‘हनुमान मुझे सब लोग समदृष्टा मानते हैं। यानी भेदभाव नहीं करने वाला, लेकिन मुझे भक्त यानी सेवक बहुत प्रिय हैं।भगवान भक्त के लिए पक्षपाती हो जाते हैं। यहां श्रीराम का वक्तव्य विरोधाभासी है। एक तरफ कह रहे हैं मैं समदर्शी हूं और दूसरी तरफ भक्त को प्रिय बता रहे हैं, लेकिन इसमें अनन्यगति शब्द आया है। यानी जिसे और कोई गति या भरोसा न हो। जिस सेवक को पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पण होता है, मेरा ही भरोसा होता है, फिर मैं उसके लिए कुछ भी कर सकता हूं। बस, यही वो प्यारा खेल है जो भक्त और भगवान के बीच चल रहा है। हम भी चाहें, तो ऐसे खेल में भागीदारी कर सकते हैं।

सफलता-विफलता में ध्यान जरूरी
सफलता और असफलता दोनों ही अपने-अपने ढंग के रोग हैं। दोनों के इलाज भी अलग-अलग हैं। ज्यादातर लोग सफलता नामक रोग  को प्राप्त करने के लिए खूब प्रयास करते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि इसका करना क्या है। चिकित्सा विज्ञान शुरुआत लक्षणों से करता है, फिर परीक्षण और अंत में इलाज होता है। हम चाहें तो उक्त दो रोगों का लक्षणों के आधार पर ही इलाज कर सकते हैं। इनके परीक्षण के लिए कोई पैथोलॉजी या लैब नहीं होती। ये रोग दो ही तरीके के डॉक्टर ठीक कर सकते हैं।

एक स्वयं हम और दूसरे यदि जीवन में सद्गुरु हों, तो वे। जब हम बीमार होते है तो मामला गंभीर होने पर ही टेस्ट कराए जाते हैं, अन्यथा केवल लक्षणों के आधार पर इलाज शुरू हो जाता है। सफलता और असफलता रूपी रोगों के आते ही आप अपने भीतर दो लक्षणों पर तत्काल काम करिए। पहला विचार, दूसरा कर्म। इस पर पकड़ बनाइए कि दोनों अवसरों पर हम क्या सोच रहे और क्या कर रहे होते हैं।

अगर ये लक्षण हमने ठीक से पकड़ लिए तो असफलता के समय अवसाद यानी डिप्रेशन, निराशा, उदासी ये सब नहीं आएंगे। सफलता के समय अहंकार, जिद, आवेश इन सबको मिटा सकेंगे, क्योंकि इन दोनों ही अवस्थाओं में विचार और कर्म इतनी तेजी से सक्रिय होते हैं कि हमारा समय निकलता जाता है और हम उलझते चले जाते हैं। दोनों ही अवस्था में विश्राम जरूरी है। विश्राम का मतलब है ध्यान। मेडिटेशन जरूर करिए तथा सफलता-असफलता को स्वास्थ्य में बदलिए।

विसर्जन से होती है मन की सफाई
मैली वस्तुओं को धोया जाता है या फिर फेंक दिया जाता है। शरीर में सबसे ज्यादा मैला क्या होता है? मन प्रतिपल गंदा होता रहता है। मन इतनी तेजी से गंदगी की परत अपने ऊपर चढ़ाता जाता है कि एक ऐसी अवस्था आती है कि धोने से काम नहीं चलता। जब किसी वस्तु के साथ ऐसा हो तो हम उसे फेंक देते हैं। ऐसे ही मन को फेंकना पड़ेगा, जिसे कहते हैं विसर्जन। शाब्दिक रूप से तो फेंकना और विसर्जन करना लगभग समान है, लेकिन बारीक, आध्यात्मिक अंतर है। फेंकने के बाद कुछ नहीं बचता है। विसर्जन यानी वस्तु चली गई, अनुभूति रह गई। मन विसर्जित होते ही आप शांत होने लगेंगे, क्योंकि मन अंग नहीं, स्थिति है और कोई एक स्थिति का नाम मन नहीं है।

शोर, बीमारी, तनाव, उदासी, बेचैनी, काम का जागना, विलास की इच्छाएं, चोरी करने का मन, अत्यधिक तेजी से चिंतन, हिंसक विचार आदि से गुजरना मन से गुजरना है। इन सबका अलग-अलग या इकट्‌ठा नाम मन है। अब मन जहां से मैला होता है, हमें उन इनकमिंग स्थितियों को रोकना चाहिए। जब अस्वीकृति और आलोचना की घटना घटती है तब हमारा मन ज्यादा सक्रिय होता है, क्योंकि मन को स्वीकृति और प्रशंसा में अत्यधिक रुचि है, इसलिए हमें बाहर से इन दोनों बातों को रोक देना चाहिए। जितना आप दूसरों से कम संचालित होंगे, मन उतना ज्यादा निष्क्रिय होगा। स्वयं संचालित लोगों का मन उनकी पकड़ में जल्दी आता है और जब तक सही ढंग से पकड़ में नहीं आएगा, सही तरीके से फेंक भी नहीं पाएंगे।

खुद को अलग करके गलती को देखें
आपने गलती की और आप गलत हैं। ये दो अलग-अलग बातें हैं। जब भी जीवन में कोई भूल हो जाए तो थोड़ा अपने आप को अलग करके घटना का विश्लेषण करिए। गलती होने पर हम मान बैठते हैं कि यह हमने ही की है और नतीजन हम गलत हैं, इसलिए इन दो भागों को अलग रखकर देखिए। गलती हुई और हम गलत हैं। हम, हम हैं और गलती होना अलग बात है। यदि हम अपने अस्तित्व को ठीक से समझकर चलेंगे, तो गलती को समय पर सुधार लेंगे और भविष्य में होने वाली गलतियों की संख्या कम भी कर लेंगे। मैं गलत हूं यह मानना व्यक्तित्व है तथा गलती होना और मेरा अलग होना अस्तित्व है। इसे यूं भी समझ सकते हैं कि आप गाड़ी चला रहे हैं और सामने वाले किसी और व्यक्ति के कारण एक्सीडेंट हो गया। इसमें आप अलग हैं, दुर्घटना अलग।

हमारी संस्कृति में दो शब्दों का बड़ा आध्यात्मिक उपयोग किया गया है, पहेली और रहस्य।  आम आदमी जिंदगी को पहेली कहता है। साधु-संत कहते हैं जीवन रहस्य है। पहेली सुलझाना आसान है, क्योंकि इसमें कुछ तयशुदा स्टेप्स होते हैं, कुछ संकेत होते हैं। उन्हें ठीक से पकड़ लें, तो पहेली सुलझ जाएगी, लेकिन रहस्य बड़ा गहरा होता है। जीवन को रहस्य मानें तो गलती होना और हम गलत हैं यह पहेली नहीं, रहस्य है। रहस्य के भीतर के परिणाम को महसूस किया जाता है वह पकड़ में नहीं आता। पहेली का परिणाम पकड़ में आ जाता है, इसलिए जीवन में जब भी गलती करें, पहेली और रहस्य के साथ उसे निपटाएं।

व्यक्तित्व के अनुसार परवरिश हो
यह वैरायटी का युग है। लोगों की मानसिकता बन गई है कि हर वस्तु में लंबी रेंज होनी चाहिए, ताकि उन्हें चयन के अच्छे अवसर मिल सकें। इस सोच का असर पालन-पोषण पर पड़ने से एक ही मां-बाप के बच्चों में बहुत अंतर दिखने लगा है। समझदार मां-बाप स्वभाव के अनुसार उनके लालन-पालन के तरीके में अंतर करते हैं, जो काफी हद तक जरूरी भी है, लेकिन कुछ माता-पिता यहां चूक जाते हैं। वे लालन-पालन  में भेद करते-करते बच्चों में ही भेद करने लगते हैं। यह भेद जब बेटे-बेटी में होने लगे तो और भी खतरनाक हो जाता है। पुत्र-पुत्री के अस्तित्व में बिल्कुल भेद न किया जाए। चूंकि बेटे को भविष्य में पिता और बेटी को मां बनना है, इसलिए लालन-पालन के कुछ कायदे अलग-अलग रखने ही होंगे, पर ध्यान रखें इसमें पक्षपात न हो जाए।

एक ही बात सिखाने के तरीके अलग-अलग रखने होंगे, क्योंकि आने वाला जीवन दोनों से स्त्री-पुरुष के रूप में कुछ मांग अलग ढंग से करेगा। जब आप अपने बच्चों के लिए घर में कुछ अनुशासन बनाएं तो उनकी मानसिकता का अध्ययन जरूर कर लें, क्योंकि एक के लिए अनुशासन इसलिए जरूरी होगा कि वो उन्मुक्त मानसिकता का है। कहीं चरित्र न बिगाड़ ले, लेकिन वैसा ही अनुशासन उस बच्चे पर कतई लागू नहीं कर सकते, जो अत्यधिक आज्ञाकारी और अंतर्मुखी हो, अन्यथा वह कुंठा में डूब सकता है, इसलिए भेद लालन-पालन के तरीके में हो, दोनों के अस्तित्व में न हो जाए।

विचारों के अंतराल में डूबना ध्यान है
काम के समय मस्तिष्क में विचार बहुत तेजी से दौड़ रहे होते हैं और यदि उन्हें नियंत्रित न करें, तो इसका असर कर्म पर भी पड़ता है। कहा जाता है कि विचारों के बीच में गैप होता है। जब उस शून्य पर टिक जाएं, तो हम अपने आप में डूबने लगते हैं। यहां डूबने का अर्थ है तन्मय हो जाना। फिर जब कोई काम होता है, तो उसके नतीजे बहुत अच्छे होते हैं। विचारों के बीच के गैप में डूबना ही ध्यान है। इस दौरान हम शांत भी होते हैं और प्रसन्न भी। यह ऊर्जा लेकर फिर काम में जुट जाएं तो आप परिश्रम करने के बाद भी थकेंगे नहीं। किष्किंधा कांड में हनुमानजी श्रीराम से जब मिले, तो उन्होंने वही प्रसन्नता और ऊर्जा प्राप्त की, जो मेडिटेशन से मिलती है।

तुलसीदासजी ने लिखा- देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयं हरष बीती सब सूला।। स्वामी को अनुकूल, प्रसन्न देखकर पवनकुमार हनुमानजी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुख जाते रहे। यहां पति श्रीराम के लिए लिखा गया है। श्रीराम को सामने देखकर वे श्रीराम रूपी परमशक्ति को अपने विचारों के बीच के गैप में उतारकर थोड़ी देर के लिए शून्य में उतर जाते हैं। यही मेडिटेशन है और परिणाम में तुलसीदासजी को लिखना पड़ा, ‘हनुमानजी के हृदय में हर्ष छा गया। उनके दुख दूर हो गए। हनुमानजी को एक ही दुख था कि श्रीराम कब मिलेंगे। श्रीराम के मिलते ही दुख गया। हनुमान योगी हैं, इसलिए श्रीराम को उन्होंने ध्यान का केंद्र बनाया। ऐसा हम भी कर सकते हैं। यही किष्किंधा कांड का संदेश है।

फैसले लेने हों तो अपने भीतर उतरें
हां और ना जीवन के दो ऐसे निर्णय होते हैं, जो आपको न चाहकर भी लेने पड़ते हैं। हां का अर्थ है स्वीकृति और ना का अर्थ है अस्वीकृति। जब हम बाहर की दुनिया में होते हैं तो हां और ना के प्रति बहुत अधिक फिक्र नहीं पालते, क्योंकि सारा मामला सांसारिक है। हर निर्णय के पीछे समीकरण चल रहा होता है। सारे संबंध भी सतही होते हैं , लेकिन जब हम अपने घर में हों, तब हां-ना का मतलब बिल्कुल बदल जाएगा। गलत बात के लिए आपकी हां पूरे परिवार के भविष्य को कलह में डाल सकती है। सही बात पर ना भी ऐसे ही परिणाम देगी। अपनों को अपेक्षा भी बहुत अधिक होती है, इसीलिए हर हां और ना अपेक्षा पर हथियार बनकर पड़ती है।

कभी-कभी तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि हमारी हां-ना कितनी सही है, क्योंकि इसमें हमारी विनम्रता और अहम की वृत्ति काम कर जाती है। ऋषि-मुनियों ने कहा है हां करो या ना, स्पष्टता बनाए रखो। स्पष्टता कहा गया, दृढ़ता नहीं। संसार सिखाता है दृढ़ता से हां-ना कहो। स्पष्टता आती है स्वयं के भीतर उतरने से, इसलिए जब भी हां या ना का निर्णय लेना हो, थोड़ी देर के लिए भीतर नि:शब्द हो जाएं। जैसे ही आप इस शून्य में उतरते हैं आपका मैंखत्म होने लगता है। अहंकार हटा कि फिर जो भी निर्णय आएगा वह अपने आप सत्य के निकट होगा, क्योंकि इसमें अहंकार, भय, स्वार्थ इनका घालमेल नहीं रहेगा। ऐसा किसी एक दिन के अभ्यास से संभव नहीं हो पाएगा, इसलिए प्रतिदिन थोड़ा समय अपने भीतर के शून्य से परिचित होने में लगाएं।

जीवनसाथी को बदलने का प्रयास न करें
जीवनसाथी के मामले में हर व्यक्ति का निजी स्वप्न होता है और इसी के आधार पर जीवनसाथी ढूंढ़ा जाता है। विवाह के बाद पत्नी चाहती है पति वैसा हो जाए जैसा मैंने सोचा था। पति अपनी कल्पना के अनुसार पत्नी को ढालना चाहता है। दोनों ने अपने मन में जीवनसाथी की आदर्श छवि बनाई हुई थी और दोनों जुट जाते हैं एक-दूसरे को उस आदर्श छवि की कार्बन कॉपी बनाने में। यह झंझटों को सीधा आमंत्रण है, क्योंकि हरेक के पास अपनी अपूर्णता है। सबके भीतर दोष हैं। पहले इन्हें स्वीकार किया जाए, फिर श्रेष्ठ उजागर होना चाहिए। जीवनसाथी  को बदलने का आग्रह दाम्पत्य टूटने का कारण बन सकता है। इस रिश्ते की खूबी यह है कि इसमें कई बातें इशारों से चलती हैं।

ऋषि-मुनियों ने कहा था कि परमात्मा सीधे पकड़ में नहीं आता। उसे संकेतों से हासिल करना होता है। जब गुरु किसी शिष्य को संकेत देता है कि ईश्वर उस दिशा में हैं, तो संकेत से ज्यादा दिशा की ओर देखना है। ऐसे ही दाम्पत्य में संकेत और दिशा का बड़ा महत्व है। पति-पत्नी के बीच समझ बन जाए, तो एक-दूसरे से बोल-बोलकर जुबान व माथा चलाने और खपाने की ज्यादा जरूरत ही न पड़े। अधिकांश जोड़ों की ज्यादातर ऊर्जा इसी में खर्च हो रही है, इसलिए विवाह के पश्चात जो जैसा है पहले उसे स्वीकार करें और परिवर्तन के लिए संकेतों से काम करें, संवादों से कम। इसमें प्रेम का भाव, अपनेपन की भावना और एक-दूसरे के लिए जीने की तमन्ना बहुत काम आएगी।

समाज से जुड़कर अकेलेपन से बचें
मनुष्य जितना भीड़ से घिरा होता है उतना ही अकेलेपन का अहसास बढ़ता जाता है। अज्ञात भय सभी को डराता है। जिन क्षणों में खुद को असुरक्षित महसूस करें, तत्काल पता लगाइए कि इसकी जड़ में क्या है। वहां  आप पाएंगे अकेलापन। जो लोग आसमान पर उड़ रहे हैं वे भी अकेले हैं और जो जमीन पर चल रहे हैं वे भी तन्हा हैं। अकेलेपन को ज्यादा अपने साथ न रखें। यह आपको दूसरों से कट जाने के लिए उकसाता है। भीतर यह विचार भर देता है कि दूसरे जो कर रहे हैं वैसा हम नहीं कर सकते। फिर हीन भावना आने लगती है। यह खतरनाक भाव भी जाग जाता है कि दूसरों द्वारा जो भी किया जा रहा है वह हमें नुकसान पहुंचाने के लिए है। यह अकारण का संदेह अकेलेपन को और बढ़ाता है।

इस दुश्चक्र को तत्काल तोड़ दीजिए। दूसरों पर संदेह न रखें अौर खुद को सामाजिक गतिविधियों से जोड़ दें, सावधानी ही संदेह का इलाज है। इस दुनिया में सब अपना हित साधने में लगे हैं, तो हमें क्या दिक्कत है। हम सावधान रहें और अपना अहित न होने दें। इतना कर लें तो अकेलेपन को जाना पड़ेगा। बुढ़ापे में अकेलापन और काटता है। किसी का जीवनसाथी चला जाए, तो व्यक्ति को एक-एक पल, एक-एक युग जैसा लगता है। ये सब अकेलेपन की झंझटें हैं। अपने आप को नदी जैसा बना लें। भारतीय संस्कृति में नदी का बड़ा महत्व है। हम और हमारा जीवन नदी की तरह है जिसे परमात्मा रूपी सागर में मिलना है, फिर किस बात का अकेलापन। बहते हुए लोग अकेले नहीं हो सकते।

कामयाबी की कीमत पर भी गौर करें
आजकल जीतने के बहुत तरीके सिखाए जाते हैं। सफलता के सूत्रों की बाढ़ आई हुई है। आधुनिक प्रबंधन जीत और सफलता के सारे तरीके बहुत व्यवस्थित तरीके सिखाता है, इसीलिए सारा जोर तरीकों और सूत्रों पर होता है। क्या-क्या किया जाए इसे कई उदाहरणों से गले उतारा जाता है। एक दिन हमें जीत के सारे तरीके मालूम पड़ जाते हैं और जीत भी जाते हैं। फिर अशांत क्यों रहते हैं। केवल बाहरी तरीकों से विजेता बना व्यक्ति, अकेले में उस जीत के पीछे की हार को भी चखता रहता है। प्रतिष्ठा के कारण किसी से बोल भी नहीं पाता।

जीत और सफलता के सूत्र अध्यात्म के पास भी हैं। थोड़ा सा फर्क है। अध्यात्म कहता है कि जीत के तरीकों के साथ जीत क्या होती है, यह जानना भी जरूरी है। इसके लिए भीतर उतरना पड़ेगा, जहां आपको समझ में आता है कि बाहर की हर सफलता, परेशानी, संकट अकेले नहीं आते। एक के साथ दूसरा जुड़ा होता है। जैसे आप व्यवसाय में सफल हो गए, तो निश्चित ही परिवार से चुराकर समय इसमें लगाया होगा। संभव है आपके बच्चे, जीवनसाथी इस समयाभाव में भटक गए हों। अब जितना पाया, उससे ज्यादा खो दिया। जितने मित्र बने, उतने शत्रु भी बने। सुविधाएं मिलीं, स्वास्थ्य गया। इस पाए-खोए की समझ भीतर उतरने पर ही समझ में आएगी, क्योंकि जब आप भीतर उतरते हैं तो बिल्कुल शांत होकर, पूर्वाग्रह से दूर हटकर अपनी जीत को देखते है, इसलिए तरीके और सूत्र के अलावा  सफलता पर भी काम करते रहें।
गुरु के आश्रय में मिलती है निर्भयता

अज्ञान मिटाने के लिए सभी लोग एक सहज प्रक्रिया अपनाते हैं और वह है ज्ञान प्राप्त करना, लेकिन यह भी सच है कि कितना ही ज्ञान प्राप्त कर लें, अज्ञान रहेगा ही। यह एक आवरण है, जो लौकिक ज्ञान से तो पूरी तरह नहीं हटेगा। ऋषि-मुनियों ने इसे हटाने के लिए जो व्यवस्था दी है उसका नाम गुरु है। कहते हैं गुरु के ज्ञान से अज्ञान नहीं जाता, गुरु की कृपा से अज्ञान का अंधकार हटता है। यह कृपा बड़ी महत्वपूर्ण है, इसलिए आप देखेंगे बड़े-बड़े ज्ञानियों के गुरु भी साधारण संत होते हैं, क्योंकि संतत्व का लौकिकज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए बड़े-बड़े ज्ञानियों ने संतों का शिष्यत्व स्वीकार किया है।

आज ज्ञान प्राप्त करने के लिए तो बहुत सारी तकनीक हैं, लेकिन कृपा प्राप्त करने के लिए तो झुकना ही पड़ेगा, इसलिए गुरु का जीवन में बड़ा महत्व है। हम कई लोगों पर आश्रित होते हैं। जब हम संसारी लोगों पर आश्रित होते हैं, तो वे भी हम पर अधिकार जताएंगे। यहीं से अनैतिक स्थितियां भी बनने लगती हैं। जो भी आश्रित है, वह भयभीत रहेगा। चूंकि यह वृत्ति हमारे भीतर होती ही है, इसलिए इसे गुरु से जोड़ दें। शिष्यत्व का अर्थ होता है गुरु का आश्रय। गुरु पर आश्रित होते ही हम निर्भय हो जाएंगे। गुरु के पास देने के लिए कृपा है। गुरु से और भी कुछ मिल जाएं तो उसे बोनस मानिए। सद्‌गुरु कहते हैं कि कृपा हमारे पास ऊपर से आ रही है और हम आपकी ओर भेज रहे हैं, इसलिए आश्रित हों, तो गुरु के हों। फिर ज्ञान और अज्ञान की झंझट से आसानी से मुक्ति मिल जाएगी।

भीतर सरलता है तो नतीजे ठीक आएंगे
अच्छे आदमी सदैव यह चाहते हैं कि हमारा भी हित हो और सामने वाले का अहित भी न हो। जब दो जरूरतमंद आमने-सामने हों, तब हित-अहित का मामला बहुत सूक्ष्म हो जाता है। मध्यस्थ को कैसे कदम फूंक-फूंककर रखने पड़ते हैं, हनुमानजी से सीखिए। श्रीरामजी को सीता की खोज करनी थी। सुग्रीव अपने भाई बाली से परेशान था। हनुमानजी दोनों की मदद करना चाहते थे। वे खुद के परिचय के बाद अपने राजा सुग्रीव का परिचय दे रहे थे। सुग्रीव का परिचय देते समय उन्होंने बताया कि उनका राजा समस्याग्रस्त है, लेकिन समर्थ भी है। समस्याग्रस्त है इसलिए आप मेरे राजा के काम आ जाइए और समर्थ है इस कारण वे भी आपके लिए उपयोगी रहेंगे।

तुलसीदासजी लिखते हैं - नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई।। हे नाथ, इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहता है, वह आपका दास है। तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे।। हे नाथ, उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। हनुमानजी ने बहुत सरलता से यह प्रस्ताव रखा। किसी की मदद कर रहे हों तो भीतर की सरलता बनाए रखें। बनावटीपन के साथ जब एेसे प्रस्ताव रखेंगे, तो परिणाम ठीक नहीं आएंगे। भीतर कुछ और, बाहर कुछ और हो तो ताकत भी ज्यादा लगती है, पर यदि हनुमानजी की तरह सरल हों तो काम पूरा करने में श्रम भी कम लगेगा। बहुत ही आसानी से हनुमानजी एक कठिन कार्य को पूरा करने की तैयारी कर रहे थे।

अंदर से ठहरे रहें, बाहर से गतिशील
जीवन में निरंतरता का बड़ा महत्व है। जो काम करो, उसमें कंटीन्युटी बनाए रखिए। काम की गति को तोड़ना और विश्राम, ये दो अलग-अलग बातें हैं। जब हम विश्राम लेते हैं, तो यह निरंतरता तोड़ना नहीं है। विश्राम हमारी निरंतरता में मदद करता है। हमारी निरंतरता टूटती है आलस्य और लापरवाही से, इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है- चरैवेति, चरैवेति। चलते चलो, चलते चलो। जैसे रुका हुआ जल सड़ने लगता है, ऐसे ही रुका हुआ जीवन भी दुर्गंध मारता है। उदासीन संत स्वामी शांतानंदजी अपने गुरुभाई ईश्वरदासजी की एक बात बड़े अच्छे ढंग से दोहराते हैं। वे कहते हैं - चरैवेति का अर्थ है चरण चलते रहें, यानी शरीर में सक्रियता हो और जप अबाध हो।

यानी हृदय प्रभु स्मरण में लगा रहे और संसार में संघर्ष होता रहे वरना ज्यों कोल्हू के बैल को घर ही कोस पचास। हमारे लिए चरैवेति का अर्थ है अपने लक्ष्य के प्रति लगातार गतिशील रहना, इसीलिए ईश्वरदासजी कहते थे, हरकत में बरकत है। यहां हरकत का अर्थ है गतिशीलता, आलस्य मुक्त जीवन। बाहर की सक्रियता को भीतर मौन से सहारा दें। फिर ऐसी सक्रियता सहज बन जाती है। इसमें दबाव नहीं आता। दूसरों के प्रति हम आक्रामक नहीं होते। हम प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं, प्रतिद्वंद्विता नहीं। आज दुनिया ने चरैवेति का आधा अर्थ ही लिया है। वे बाहर से गतिशील हैं और भीतर से उससे भी ज्यादा उथल-पुथल में डूबे हैं, जबकि चरैवेति का अर्थ है भीतर से एकदम रुके हुए और बाहर से चलते हुए।

धैर्य व समझदारी से संदेह पर काबू पाएं
धोखाधड़ी की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। जब जिसे मौका मिलता है, लूटने की तैयारी में है। इससे समाज को यह नुकसान हुआ है कि लोगों में परस्पर संदेह करने की वृत्ति बढ़ गई है। धंधे-पानी की दुनिया में संदेह किया तो समझ में आता है, पर यह वृत्ति घर-परिवार में भी उतर आई है। चूंकि चरित्र का महत्व कम होता जा रहा है, इसलिए संदेह स्वाभाविक है। पत्नी जरा-सी असहज गतिविधि कर दे, तो पति संदेह में डूब जाता है। संदेह करना तो जैसे पत्नियों का जन्मसिद्ध अधिकार है। वे मानती हैं कि पुरुष का कोई भरोसा नहीं। भौतिक संसाधनों ने बच्चों के बिगड़ने की गुंजाइश बढ़ा दी, इसलिए मां-बाप संदेह में डूबे रहते हैं। बड़े-बूढ़ों को संदेह है कि कब उनकी सेवा खत्म हो जाए, तब भविष्य में क्या होगा। जो लोग भीतर अधिक अपराध-बोध से भरे होते हैं, वे बाहर ज्यादा संदेह करते हैं।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि घर का आचरण पारदर्शिता से चलता है। जब तक कंफर्म डाउट न हो, बिल्कुल प्रदर्शित न करें। धूल में चलाया गया आपका लट्‌ठ पारिवारिक जीवन की नींव हिला सकता है। पारिवारिक जीवन को बचाने के लिए संदेह, तर्क, अत्यधिक अधिकार बताना यह सब खतरनाक है। परिवार बचता है संदेह के समय रखे गए धैर्य और समझ से। संदेह के पीछे का सत्य यदि सामने आ जाए, तो भी तूफान आना है और यदि सत्य नजर न आए और संदेह बचा रह जाए, तब भी आंधियां जीने नहीं देंगी, इसलिए इस बीमारी का सजगता, स्पष्टता और सावधानी से इलाज करें।

अपनी समस्याओं से बच्चों को दूर रखें
कुछ समस्याओं को बच्चों के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए। यदि समस्याएं उनके सामने आ जाएं, तो फिर अकारण छिपाएं भी नहीं। उसे उनके लायक बताकर ही जानकारी दें। घर-परिवार में बड़े लोगों के आपसी पचड़े, कानूनी झगड़े, परिवार की बदनामी की घटनाएं बच्चों तक नहीं पहुंचनी चाहिए। अपरिपक्व बालमन इनको गलत रूप में अपने भीतर उतार लेगा। कुछ लोग अपनी समस्याओं को निपटाने में बच्चों का दुरुपयोग करते हैं। पति को अपनी पत्नी को चिढ़ाना है, तो वह बच्चों से कुछ ऐसी हरकत करवा लेते हैं ताकि वह विचलित हो जाए। सास-बहू के रिश्ते में भी दोनों पक्ष एक-दूसरे को परेशान करने के लिए बच्चों की हरकतों को स्वीकृति दे देते हैं।

ध्यान रहे कि अगर कोई सदस्य बच्चों का दुरुपयोग कर रहा है तो वह गलती हम न करें। मनुष्य के मन में जो-जो क्षमताएं होती हैं, उसमें एक क्षमता होती है निर्माण की। वह ऐसी-ऐसी चीज बना लेता है, जो आप बाहर नहीं बना सकते और बालमन के पास तो विवेक भी कम होता है। विवेक के द्वारा मन नियंत्रित किया जा सकता है, इसलिए बड़े लोग जब अपनी समस्याओं में बच्चों को उतार लेते हैं तो उनका बालमन तुरंत निर्माण में जुट जाता है। वह उस समस्या से ऐसी-ऐसी चीज बना लेगा जो जीवनभर के लिए स्थायी हो जाएंगी। आप तो एक उम्र के बाद हट जाएंगे, पर उन्हें ताउम्र इसे ढोना पड़ेगा, इसलिए अपनी समस्याओं में बच्चों को हथियार न बनाएं। स्वयं सक्षम बनें और समाधान जुटाएं।

आत्मा को याद रखेंगे तो ईश्वर उतरेगा
शरीर  मन और आत्मा तीनों का अंतर समझ में आ जाए तो सफलता की यात्रा में परिश्रम कम लगेगा और शांति अधिक मिलेगी। हम कोई काम करते हैं, तो सबसे ज्यादा उसमें शरीर को झोंकते हैं। सबकुछ इतना शरीर केंद्रित हो जाता है कि परिणाम आते-आते स्थितियां बदल जाती हैं। कई लोग तो अपनी सफलता का सुख भोग भी नहीं पाते। तन अस्वस्थ हो जाता है या फिर मन उदास। सबकुछ मिलने के बाद भी कुछ खोया-खोया सा लगता है। कबीरदासजी कहा करते थे, तोड़ो, फेंको और भूलो। इस उलटबासी को समझना पड़ेगा। उनकी पहली बात थी, तोड़ो और फिर जोड़ो। इसका अर्थ है संसार के मामले में शरीर से थोड़ा नाता तोड़ो, तब ईश्वर से नाता जुड़ेगा। मतलब यह नहीं कि संसार छोड़ दिया जाए।

हमने इसे मजबूती से पकड़ रखा है जबकि कभी-कभी छोड़ना भी पड़ता है। फिर कबीर कहते हैं बाहर फेंको और अंदर ले आओ। इसका संबंध मन से है। अच्छी बुद्धि को भीतर लाएं और बुरी बुद्धि को बाहर फेंक दें। बुरे विचारों को बाहर फेंके बिना आप शांत हो नहीं पाएंगे। भीतर ताजगी के लिए अच्छे विचारों को भरिए। तीसरी बात, भूलो और फिर याद करो। इसका संबंध आत्मा से है। आत्मा को सदैव याद रखो, क्योंकि यही हमारा सत्य है। जितना आत्मा को याद रखेंगे परमात्मा उतनी ही शीघ्रता से जीवन में उतरेगा। शरीर और उससे जुड़ी बातों को जितना भूलेंगे, उतने ही जल्दी आप शांत होते जाएंगे, इसलिए शरीर, मन और आत्मा के अंतर को चौबीस घंटे दिमाग में रखिए।

भक्ति में छिपी है रचनात्मकता
विशेषज्ञता के इस दौर में हर क्षेत्र में सामान्य शिक्षा, सामान्य जानकारियां किसी काम की नहीं है। कुछ अनूठा और अलग करना पड़ेगा। क्रिएटिविटी पर बड़ा जोर है। मां-बाप, शिक्षक अपने बच्चों को समझा रहे हैं कुछ न कुछ क्रिएटिव जरूर करिए। अधिकांश लोग यह मानने लगे हैं कि क्रिएटिविटी का संबंध प्रोफेशनल एजुकेशन यानी कुछ विशिष्ट किस्म के व्यवसाय से है। रचनात्मकता केवल कलाकार, इंजीनियर, डॉक्टर और विशेष पदों पर बैठे हुए लोग ही कर सकते हैं। हालांकि, यह सही नहीं है। रचनात्मकता स्वभाव है और इसका दायरा बड़ा विस्तृत है। एक महिला रसोई के काम में क्रिएटिव हो सकती है। बच्चों के लालन-पालन में भी रचनात्मकता लाई जा सकती है।

अगर रचनात्मकता को समझना है तो ईश्वर से जुड़ें, जिसने हर काम को बड़़े क्रिएटिव ढंग से किया  है। इसी वजह से भक्तों ने भी परमात्मा से जुड़ने या परमात्मा को पाने के लिए संसार का सबसे प्यारा रचनात्मक कार्य जो किया है उसे भक्ति कहते हैं। भक्ति में रचनात्मकता कैसे छिपी है एक छोटे से उदाहरण से समझें। जो परमात्मा को पाने का प्रयास कर रहे हों, उन्हें स्वयं को मिटाना होगा। मैं गिराए बिना भगवान नहीं मिलता और इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसे ही आप मैं गिराकर स्वयं को मिटाते हैं आपको भगवान नहीं ढूंढ़ना पड़ता, ईश्वर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते अपके जीवन में आ जाता है, इसीलिए भक्ति में रचनात्मकता के प्रयोग किए जाते हैं। आप कितने ही व्यावसायिक हों, अपने भीतर की भक्ति बनाए रखिए।

विषय पर पकड़ हो तो सलाह महत्वपूर्ण
किसी को सलाह देना दुनिया के सरलतम कामों में से एक है। परीक्षा तब होती है जब दी गई सलाह पर आपको ही काम करना पड़ता है। कहे गए को करने में अक्ल से ज्यादा समझ काम आती है। अक्ल और समझ का अंतर भी मालूम होना चाहिए। अक्ल और समझ, सलाह और क्रियान्वयन का अद्‌भुत समन्वय हनुमानजी में है। किष्किंधा कांड में श्रीरामजी से पहली भेंट में हनुमानजी ने सलाह दी, ‘आप सुग्रीव से मैत्री करिए और सुग्रीव का दुख दूर करिए,’ इसीलिए तुलसीदासजी ने चौपाई में लिखा है- सो सीताकर खोज कराइहि। जहं तहं मर्कट कोटि पठाइहि।। वह सीताजी की तलाश करा देंगे और करोड़ों बंदरों को जहां-तहां भेजेंगे। इहिबिधि सकल कथा समुझाई। लिए दोउ जन पीठ चढ़ाई।। इस भांति सब कथा समझाकर श्रीराम-लक्ष्मण दोनों को पीठ पर चढ़ा लिया। श्रीराम के हित की बात यह रखी कि राजा सुग्रीव सीताजी की खोज में वानर भेजेंगे।

यह अच्छी सलाह है, क्योंकि इसमें दोनों पक्षों का हित हो रहा है। फिर हनुमानजी ने दोनों भाइयों को कंधे पर बैठ जाने के लिए कहा, क्योंकि उन्हें सुग्रीव के पास ले जाना था। इस दृश्य में हनुमानजी की भूमिका से हम यह सीख सकते हैं कि हमारे सामने कोई बहुत बड़ा व्यक्ति हो तो भी सही सलाह देने में हिचकें न, लेकिन सलाह का महत्व तभी होगा, जब विषय पर गहरी पकड़ हो और उस कार्य के प्रति ठीक से होमवर्क किया गया हो। यहां हनुमानजी ने सलाह के साथ कंधे पर बैठाने का प्रस्ताव भी रखा, मतलब उसे पूरा करने के लिए वे तत्पर भी थे।

किसी से मिलें तो उसे महत्वपूर्ण मानें
मन का मूल स्वभाव है महत्व पाना। जब उसे इंपोर्टेंस नहीं मिलता, तो वह बेचैन होने लगता है। आइए, आज इस पर विचार करें कि महत्वपूर्ण होना होता क्या है। एक प्रयोग करते रहें। आप जब भी किसी व्यक्ति से मिलें सामने वाले को महत्वपूर्ण मानें। भले ही आपको उसकी प्रतिष्ठा-योग्यता की पर्याप्त जानकारी न हो, लेकिन फिर भी उसके व्यक्तित्व की अज्ञात खूबियों को सहज स्वीकार करके उसके साथ ऐसा व्यवहार करें कि उसे लगे कि आपने उसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मान लिया है। ऐसा करने के दो फायदे हैं। एक तो इससे किसी को संतोष मिलता है और दूसरे की ज्ञान या अज्ञात खूबियों को महत्व देने से अपने भीतर की खूबियां भी पकड़ में आने लगेंगी। दूसरे की खूबी से अपनी खूबी को जोड़ दीजिए।

अब संसार के दो महत्वपूर्ण व्यक्ति आमने-सामने होंगे। कई बार हम अपनी खूबियां या तो जानते नहीं या दबा लेते हैं। परमात्मा ने सबको कुछ न कुछ विशिष्ट दिया है। बीज में से वृक्ष निकलता है, वृक्ष कभी बीज में नहीं समाता। वह उसमें होता ही है। ऐसे ही कुछ खूबियों को परमात्मा ने बहुत संभालकर हमारे भीतर रखा था। दूसरे को महत्व देना खाद-पानी की तरह है आपकी खूबियां फूट पड़ेंगी। इसको आत्मविश्वास भी कहते हैं। जब आप दूसरे को महत्व देंगे, तब आपका आत्मविश्वास अंगड़ाई लेने लगेगा। आपका व्यक्तित्व यह घोषित करने लगता है कि आप उदार हैं, विशाल हैं और समझदार हैं। इसलिए जब भी किसी से मिलें उसे महत्वपूर्ण बना दें, क्योंकि आपको भी बनना है।

हमें मशीन बनने से बचाता है संतोष
व्यस्त जीवन मनुष्य को कब मशीन बना देता है पता नहीं चलता। मशीन बने लोग कब अपने साथियों के प्रति उपेक्षा का व्यवहार करने लगते हैं यह भी पता नहीं चलता। सफलता की यात्रा के शुरुआती साथी, राह में छूटने लगते हैं। शीर्ष पर तो आप बिल्कुल अकेले हो जाते हैं, क्योंकि मशीन अपने कलपुर्जों से सिर्फ इतना संबंध रखती है कि वह चलती रहे। कलपुर्जा बदला जा रहा है या जंग खा रहा है, इससे मशीन को कोई लेना-देना नहीं होता। मनुष्य जब मशीन बनता है तो वह ऐसा व्यवहार करने लगता है कि या तो मेरे साथ मेरे लिए चलो और नहीं तो बदल दिए जाओगे। यदि आपको संसार में रहकर व्यस्तता के साथ सफलता भी हासिल करनी है और आपके भावनात्मक संबंध भी बने रहें, तो आपको अपने भीतर संतोष की वृत्ति पोषित करनी होगी। लेन-देन का मामला न हो तो लोग संबंध भी नहीं बनाते, लेकिन संतोष की वृत्ति अाने के बाद यह समझ पैदा होगी कि मिला तो ठीक, नहीं मिला तो ठीक, लेकिन भावनात्मक संबंध नहीं तोड़ेंगे। संतोष की वृत्ति समाप्त हो गई है, इसीलिए पति-पत्नी में कलह है।

भाई-भाई में प्रतिस्पर्धा हो गई। रिश्तेदारी में बड़े-छोटे होने का प्रदर्शन ही परंपरा बन गया, संतोष केवल हमारे प्रयास से पैदा नहीं होगा। हमें परमात्मा से जुड़ना होगा। तब हमारे भीतर यह भाव जाग जाता है कि हमें देने वाला, हमसे लेने वाला और हमसे कराने वाला कोई और भी है। यह संतोष बन जाएगा व आप मशीन बनने से बच जाएंगे, लेकिन नतीजे मशीन से भी ज्यादा अच्छे पाएंगे।

दूसरे से पहले खुद पर भरोसा होना आवश्यक
किस पर भरोसा करें। इन दिनों यह प्रश्न ज्यादातर लोगों के मन में उठता रहता है। कुछ लोग तो जीवन में इतने धोखे खा चुके होते हैं कि पूरे समय अविश्वास में जीने लगते हैं। सफर में कोई सहयात्री हमें कुछ खाने को देता है तो संदेह होता हैक्योंकि हमने बेहोशी की  दवा देकर सामान लूटने की खबरें पढ़ी हैं। ऐसी घटनाएं अविश्वास को जन्म देती हैं। धीरे-धीरे इसका विस्तार होता है और हमें अपने नजदीक के लोगों पर भी भरोसा नहीं रहता। वे भी हम पर संदेह करने लगते हैं। अविश्वास परमात्मा से मनुष्य तक सक्रिय रहता है। भक्त के जीवन में विपरीत परिस्थिति आ जाएतो वह भी भगवान पर अविश्वास करने लगता है। दरअसलविश्वास-अविश्वास की वृत्ति दूसरे से कम और खुद से ज्यादा जुड़ी है। जिसे खुद पर विश्वास न हो वह दूसरों पर भी मुश्किल से विश्वास कर पाएगा। गहराई से सोचें तो विश्वास भी अविश्वास की परछाई है। अविश्वास भी एक तरह का नेगेटिव विश्वास हैइसलिए सारी ऊर्जा स्वयं पर विश्वास बढ़ाने में लगाएं। इससे आपके मन में यह भाव दृढ़ होगा कि न तो कोई मुझे धोखा दे सकता है और न ही मैं ऐसा करूंगा। मुझे पूरा विश्वास है कि मैं जो भी करूंगासही करूंगा। परिणाम कुछ भी आए मेरा कर्म सत्य के आधार पर ही होगा। अगर यह भाव दृढ़ हो जाएतो हम दूसरों पर विश्वास-अविश्वास के चक्कर में नहीं पड़ेंगे। अपना किया अपना आनंद बन जाएगा।

प्रेम हर दौर में रिश्ते को देता है ताजगी
रिश्तों की भी उम्र होती है। कुछ रिश्ते बच्चों की तरह होते हैं। फिर वे जवान होते हैंएक दिन हमउम्र होते हैं और फिर बूढ़े हो जाते हैं। जाहिर है रिश्तों की मृत्यु भी होती है। अपने पारिवारिक जीवन में जब रिश्ते निभा रहे हों तो उनकी उम्र पर जरूर ध्यान दीजिए। एक उम्र के रिश्ते दूसरे उम्र के प्रति लापरवाह न हो जाएं। इसे ऐसे समझे कि बच्चों का लालन-पालन करते समय हम माता-पिता का रिश्ता निभा रहे होते हैं। हम उन पर बहुत ध्यान देते हैंसमय भी देते हैं। ऐसे वक्त कुछ लोग अपने जीवनसाथी के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। अपने बच्चों की देखभाल करते हुए हम उनको भी भूल जाते हैं जिनके हम बच्चे हैं यानी हमारे बूढ़े माता-पिता।

समय किसी के लिए नहीं रुकता। एक दिन ऐसा आता है बच्चे बड़े हो जाते हैं। वे आपसे दूर चले जाते हैंतब आपके पास रह जाता है आपका जीवनसाथी या आप स्वयं बूढ़े माता-पिता के रूप में अकेले हो जाते हैंइसलिए बच्चों के साथ रिश्ते निभाते समय भूल न जाएं कि बाद में आपको दूसरे रिश्ते भी जीना है। देशकालपरिस्थिति के अनुसार रिश्तों के साथ समझ और संतुलन पैदा करें। उम्र के हर दौर में हर रिश्ते का अपना महत्व हैउसको उसी के हिसाब से निभाएं। बच्चों के लालन-पालन में इतने बावले न हो जाएं कि दूसरे रिश्ते दम तोड़ दें और दूसरे रिश्ते निभाने में इतने न डूब जाएं कि बच्चों के प्रति लापरवाह हो जाएंइसलिए रिश्तों के पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण बात होती है वह होती है प्रेम। प्रेम बचाए रखें तो उम्र के हर दौर में रिश्ते की समझ और ताजगी बनी रहेगी।

निरर्थक छोड़नासार्थक को अपनाना
आदमी को हिसाब-किताब में माहिर होना चाहिए। फिर इस अर्थ-प्रधान युग में तो हानि-लाभ का बारीक मुआयना किया जाता है। धीरे-धीरे हम हर बात में हिसाब-किताब के आदी हो जाते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। बुरा यह है कि हम उन बातों का हिसाब लगान लगेंजिनकी जीवन में कोई जरूरत नहीं और उन बातों का हिसाब नहीं लगाएं जिनकी जरूरत है। थोड़ा सजग होकर इस बात का बही-खाता बना लें कि जो सार्थक है वही किया जाएगा और निरर्थक को हटा दिया जाएगा। हमें यह मालूम होना चाहिए कि हमारे शरीर में सबसे निरर्थक काम कौन करता है। यूं तो हमारे पास दस इंद्रियां हैं। पांच कर्मेंद्रियां और पांच ज्ञानेंद्रियां हैं।

इन्हें लेकर हम बहुत लापरवाह नहीं होतेलेकिन हमारा मन ऐसा है कि निरर्थक गतिविधियों में संलग्न रहना उसके प्राण हैंक्योंकि सार्थक होते ही उसे खाली होना पड़ता है। खाली मन मनुष्य के लिए सबसे अधिक सार्थक क्षण उपलब्ध कराता है। मन को खाली करना आसान काम नहीं है। दो समय मन को खाली करने के लिए उपयोगी हैं। पहलाजब हम सोकर उठें। तब हमारी इंद्रियां शिथिल होती हैं और ताजा होने के लिए तैयार रहती हैं। वे मन को शांत रखने में मददगार होंगी। कई लोगों का मन उठते ही सक्रिय हो जाता है। पलंग से उतरे भी नहीं और मन दुनिया नपवा देता है। ऐसे ही सोते समय उसे शांत करने का मतलब है सिर्फ आप और आपकी शैया। यही है सार्थक को अपनानानिरर्थक को छोड़ना। इसी में है शांति।

हर जगह सम्मान पाती है योग्यता
वे सौभाग्यशाली होते हैंजिन्हें अच्छे काम करने का मौका मिल जाता है। काम अच्छा होहमारे भीतर जिम्मेदारी निभाने की इच्छा हो तो जब परिणाम आता है उसका आनंद ही अलग है। इस मामले में हनुमानजी बहुत सौभाग्यशाली थे। यूं तो उन्होंने जो भी काम किए हैं कमाल के ही किए हैंलेकिन किष्किंधा कांड में उन्होंने जो कियासंभवत: और कोई नहीं कर पाया होगा। श्रीराम और लक्ष्मण को उन्होंने कंधे पर बैठा लिया था। पहली मुलाकात में सारी बातें होने के बाद हनुमानजी ने श्रीराम को प्रस्ताव रखा, ‘आप दोनों भाई मेरे कंधे पर बैठिएमैं सुग्रीव के पास ले चलता हूं।’ श्रीराम तो तैयार हो गएक्योंकि बहुत सीधे-सरल और हनुमानजी के प्रभाव में भी थेलेकिन लक्ष्मणजी थोड़ा बिदक गए।

उन्होंने कहा हम अयोध्या से महामंत्री सुमंत के रथ पर बैठकर चले।  वह समझ में आता है। फिर केवट की नाव में विराजे। वह भी ठीक था। फिर पैदल चलेयहां तक भी स्वीकार करने लायक बात हैलेकिन अब यह कौन सा तरीका है यात्रा करने का। श्रीराम ने कहा, ‘लक्ष्मणअब ये आ गया है। सारी रामकथा अब इसी के कंधे पर चलने वाली है। मैं बैठ रहा हूंतुम भी चुपचाप बैठ जाओ। श्रीराम का सदैव कहना मानना लक्ष्मणजी की विशेषता थीइसलिए चुपचाप बैठ गए। जिस परमात्मा ने सारे ब्रह्मांड का बोझ उठा रखा होउसे कंधे पर बैठा लेना परम सौभाग्य है। हनुमानजी संदेश दे रहे हैं कि हम भी इतने योग्य बनें कि सक्षम से सक्षम व्यक्ति भी हमारी योग्यता का सम्मान करने लगे।

हर काम में सीखने की वृत्ति रखें
हम किसी भी उम्र के व्यक्ति होंजब भी कोई काम करें तो उसमें सीखने की वृत्ति जरूर रखें। यह वृत्ति यदि हमारे भीतर बनी रहेतो हर काम में से हम उस जानकारी को निकाल लेंगेजो हमें नहीं थी। कुदरत ने हर वस्तु में नवीनता छिपा रखी हैपर ढूंढ़ने वाला चाहिए। इस रहस्य को पाने की चाह में लोग दार्शनिक बन गएभक्त हो गएवैज्ञानिक और कलाकार बन गए। सीखने की वृत्ति रखने के साथजो सीखा है उसे तराशकर सुझाव में बदलें। आज भी लोगों को सुझाव की बहुत जरूरत है। लोग इतनी जल्दी में हैं कि खुद कोई होमवर्क करना नहीं चाहते। फिर टेक्नोलॉजी ने तो और सिखा दिया कि काम जल्दी हो जाएदिमाग कम लड़ाना पड़े। ऐसे में लोगोंं को सही सुझाव की बहुत जरूरत है।

सलाह और सुझाव में यही अंतर है। सलाह बाल्टी को रस्सी से बांधकर कुंए में से पानी निकालने जैसी है। इसमें परिश्रम  व दूरी है जबकि सुझाव बाल्टी लेकर थोड़ा पानी में उतरनाभीगना और फिर बाहर आना है। सुझाव देने वाला व्यक्ति सलाह को अपना चुका होता है। आप सही वक्त पर किसी को सही सुझाव दे दें तो जीवनभर आपको नहीं भूलेगा। आप महसूस करेंगे कि कुछ दुकानदार जब आपको सामान बेचते हैंतो सामान की खूबी के अलावा उपयोग का सुझाव भी देते हैंजो सामान्य से हटकर होता है। आपकी कल्पना में यदि वो बात न होयदि वह सुझाव में आ जाए और उपयोगी साबित होतब आपके सीखने का अर्थ बदल जाता हैइसलिए लगातार सीखिए और सीखे हुए को सुझाव बनाइए।


संवाद है सुखी दाम्पत्य की कुंजी
मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं है, तुम जानो, ​तुम्हारा काम जाने, मुझे बेकार में डिस्टर्ब मत किया करो। ऐसे संवाद हम अपने जीवन में दूसरों को बोल चुके होते हैं। ये संवाद ध्वनि देते हैं कि हमें आपकी परेशानियों से कोई लेना-देना नहीं है। बात सही भी है। दुनिया में किस-किस की मुसीबत आप मोल लेंगे। हालांकि, जब ऐसे संवाद पति-पत्नी के बीच चलने लगे, तो यह अनैतिक ही होगा। कई जीवनसाथी एक-दूसरे से इस तरह के संवाद बोलते हैं, जो उनके दाम्पत्य के लिए बहुत घातक है। ध्यान दीजिए, जीवनसाथी में से किसी एक के ऊपर भी यदि समस्या आई है, तो वह भागीदारी के साथ निपटाई जानी चाहिए। यह कॉमन प्राब्लम ही होगी। इस समस्या को खंड-खंड करके न देखा जाए।

दोषपूर्ण होते हुए भी आप उस समस्या में अपने जीवनसाथी को अकेले नहीं छोड़ सकते। उसे उपदेश देने के और भी मौके आएंगे, लेकिन समस्या के समय तुरंत साथ खड़े हो जाएं। यदि आप अपने जीवनसाथी की समस्या को महत्व नहीं देते हैं तो इसका सीधा-सा मतलब है आप उसके अस्तित्व को नकार रहे हैं। समाधान पर पहुंचने के तीन चरण हैं - पहला, संवाद करिए। उस समस्या पर सामने वाला जो भी बोल रहा है उसे पूरा सुनें। सुनने से आप उसे यह महसूस कराते हैं कि आप उसे महत्व दे रहे हैं। फिर सहानुभूति जताइये और उसके बाद सक्रिय हों। संवाद, सहानुभूति और सक्रियता किसी भी पति-पत्नी के बीच की समस्या को निपटाने के लिए सुंदर सूत्र है।

जीवन की हर घटना में भविष्य देखें
हम अपने अतीत से जुड़े रहते हैं, क्योंकि हम गुजरे समय के साक्षी थे। उस बारे में हमें बहुत कुछ मालूम है। तटस्थ रहकर सोचेंगे तो यह भी पता लग जाएगा कि आप थे क्या। थेसे हैंतक की यात्रा, अतीत से वर्तमान तक की यात्रा है। क्या हैं इस पर भी हमारा चिंतन चलता रहता है। अभी मैं क्या कर रहा हूं, आज मुझे क्या करना चाहिए, ऐसे अनेक सवाल हम चौबीसों घंटे अपनी छाती पर लटकाए घूमते रहते हैं। दिनभर में इस पर थोड़ा समय जरूर गुजारिए कि आने वाले वक्त में आप क्या होंगे, क्योंकि जो आप थे वो अब आप हैं नहीं। जो अब आप हैं वैसे आप रहेंगे नहीं, इसलिए भविष्य में हम क्या बन सकते हैं इसकी तैयारी जरूर रखिए और बदलते वक्त से उसे जोड़ते चलें।

जैसे यदि हम उनमें से हैं जो अभी जवान हैं तो अपने को भविष्य से जोड़़ने का मतलब है पच्चीस-तीस साल बाद जब हम बूढ़े होंगे तब हमारा भविष्य क्या होगा। आने वाले वक्त में बूढ़े होने का मतलब खूब अकेले होना। पचास साल पहले के वृद्ध ने इतना अकेलापन नहीं भोगा था, जितना आने वाले वक्त के बुढ़ापे को उठाना होगा, इसलिए जीवन की हर घटना में अपना भविष्य जरूर देखें और जो भी योजना बनाएं वह भविष्य की दृष्टि से बनाएं। चाहे आपका व्यवसाय हो, परिवार का मामला हो या निजी जीवन के निर्णय हों। हर समय भविष्य व्यवस्थित तैयारी मांगता है। जो लोग बिना तैयारी के भविष्य में कूदेंगे, वे जरूर लड़खड़ाकर गिरेंगे। भविष्य सज-धजकर आने वालों का स्वागत करता है।

वाणी का दान सोच-समझकर करें...
चौबीस घंटे में हम जो भी काम करते हैं उसमें से एक काम है अनवरत बोलना। किसी के प्रश्न पूछने पर उत्तर दें तब भी, किसी से प्रश्न पूछें उस समय भी आप वक्ता रहते हैं। चलने में पैरों की सावधानी रखनी पड़ती है और हम रखते भी हैं। चलते समय हम हाथों का उपयोग भी सावधानी से करते हैं। आंखों के प्रति भी सजग रहते हैं। चूंकि जिह्वा मुंह में सुरक्षित है, इसलिए इसके उपयोग के मामले में हम घोर लापरवाह होते हैं। यदि आप अच्छे वक्ता हैं, तो यह बात आपके व्यक्तित्व को निखारेगी। अत: जब भी बोलें, तैयारी से बोलें। मुझसे प्राय: यह पूछा जाता है कि आप इतना कैसे बोलते हैं? मैं महीने में पच्चीस दिन व्याख्यान, प्रवचन देता हूं, इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक है।

भले ही पांच मिनट बोल रहे हों या दो घंटे, एक-दो लोगों से बात कर रहे हों या अनेक लोगों को संबोधित कर रहे हों, यह सावधानी जरूर रखिए कि जो आप बोल रहे हैं क्या उसका आपको ज्ञान है। आपके बोले गए शब्द दूसरों के लिए कितने उपयोगी हैं। शब्दों में अर्थ हो या न हो, लेकिन अनर्थ न हो। उच्चारण दोष न रहे यह तो वक्ता से अपेक्षा होती ही है, लेकिन विचार भी दोषपूर्ण न हों। आपकी वाणी दूसरे के लिए उत्साह, प्रसन्नता और उद्‌देश्य देने वाली बने, तब आपका वक्ता होना सार्थक है। केवल बोलने के लिए न बोलें। दूसरे के सुनने लायक हो, ऐसा बोलें। वाणी का दान सोच-समझकर करिए। परमात्मा ने आपको शब्द भी गिन कर दिए हैं। आप नहीं हिसाब रख सकें, पर ऊपर वाला जरूर रखता है।

ऊंचे विचारों से आते हैं प्रभावी शब्द
विचार हमारे आस-पास के वातावरण के प्रभाव का क्रिएशन होते हैं। देखने-सुनने से ही विचार बनने का सिलसिला शुरू हो जाता है। व्यस्त आदमी यह भूल ही जाता है कि क्या सोचा जा रहा है, किन बातों का समावेश मस्तिष्क में किया जा रहा है। जब पारिवारिक, सामाजिक एवं व्यावसायिक जीवन में वार्तालाप किया जाता है तब ये विचार ही शब्द बनकर बाहर आते हैं। बुद्धि इसमें अपनी भूमिका निभाती है। महत्वपूर्ण यह नहीं कि आपमें बुद्धि कितनी है, बल्कि अहम यह है कि आपके पास जो है आप उसका किस तरह उपयोग करते हैं। आपकी बुद्धि को दिशा देने वाले चिंतन या नजरिये का है। गौर करें कि जब हम खाली बैठे हों या किसी से वार्तालाप कर रहे हों, तब हमारे भीतर कौन सी बातें इकट्‌ठी हो रही हैं। बातें महत्वपूर्ण होंगी, तो बाहर भी प्रभावी शब्दों का विसर्जन होगा।

समय-समय पर अपना अंत:निरीक्षण करते रहें। मस्तिष्क में चल रहे तथ्यों का मूल्यांकन करें। नकारात्मक विचार निठल्ला बना देते हैं। ज्ञान ही शक्ति है, यह बात पूरी तरह सही नहीं है। ज्ञान शक्ति तभी बनता है, जब उसका उपयोग सही तरीके से किया जाता है। जब ऐसा लगे कि हमारे भीतर चल रहा विचारों का सैलाब किसी के लिए हितकारी नहीं है, व्यर्थ चिंतन है, तब विचारशून्य हो जाएं और उस परमशक्ति का स्मरण करें। उसका स्मरण हुआ और आपके विचार प्रभावी ढंग से समावेशित भी होंगे और सही ढंग से शब्दों का विसर्जन भी होगा, इसलिए सदैव विचार और शब्द के प्रति सावधान रहें।

ईश्वर का अनुग्रह सदैव रहता है
भारतीय संस्कृति में कुछ अनूठे शब्द आए हैं। ऐसा ही एक शब्द है अनुग्रह। शाब्दिक अर्थ है, ‘अनुमतलब बाद में, ‘ग्रहयानी पकड़ना। भक्तों ने माना है कि ईश्वर बहुत दयालु हैं, इसलिए किसी भी हालत में उसके अनुग्रह को न भूला जाए। जब कभी जीवन में हम असहाय हो जाएं, भरोसा रखिए वह आएगा। किष्किंधा कांड में ऐसे ही अनुग्रह का दृश्य है। हनुमानजी श्रीराम और लक्ष्मण को अपने कंधे पर बैठा चुके थे। जैसे ही हनुमानजी खड़े होते हैं दोनों डगमगा जाते हैं। श्रीराम कहते हैं, ‘हनुमान, हम गिर रहे हैं और हनुमानजी का उत्तर था, ‘आप मेरा माथा पकड़ लीजिए, तब गिरेंगे नहीं। श्रीराम ने ऐसा ही किया।  तब हनुमानजी सुंदर संवाद बोलते हैं, ‘भगवन्, हम हैं प्राणी।

जब हम किसी को पकड़ते हैं, तो छोड़ भी देते हैं, लेकिन प्रभु आप जिसे पकड़ते हैं उसे फिर छोड़ते नहीं।इसे ही अनुग्रह कहते हैं। एक बार जो भगवान की पकड़ में आ जाए उसे वे नहीं छोड़ते, इसलिए जीवन में उनकी पकड़ में बने रहने का प्रयास करना चाहिए। अनुग्रह एक तरह का भरोसा है। किसी रचनाकार की बड़ी सुंदर पंक्तियां हैं, चींटी के पग नुपुर बाजे, वो भी साहेब सुनता है। कल्पना कीजिए चींटी कितनी छोटी होती है। उसमें भी उसका पैर और पैर में भी घुुंघरू निश्चित ही बहुत बारीक होंगे। ईश्वर उस आवाज को भी सुन लेता है, तो हमारी सांस, धड़कन को क्यों नहीं सुनेगा। यह प्रसंग उसी अनुग्रह को बताता है। हनुमानजी ऐसे ही भरोसे के साथ श्रीराम से जुड़ गए और अब सुग्रीव के साथ जोड़ने जा रहे हैं।

सफलता के लिए उत्साह जरूरी
ऊंचे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य के भीतर ललक के साथ उत्साह आवश्यक है। ललक सब में होती है, लेकिन उत्साह के अभाव में अधिकांश लोग उलझ जाते हैं। सफलता के लिए किए जा रहे परिश्रम को ठीक से क्रियान्वित करना हो तो ललक के साथ उत्साह बनाए रखिए। लगन और उत्साह का लाभ समय प्रबंधन में मिलता है। सभी बड़ी हस्तियां समय प्रबंधन को साधकर ही सफलता की ऊंचाई तक पहुंची हैं। कार्य कितना महत्वपूर्ण है और उसे किस समय पर पूरा करना है, यह निर्धारित करना बहुत आवश्यक है। अधिकांश लोग ये दोनों बातें निर्धारित ही नहीं कर पाते। यहीं से उलझन शुरू हो जाती है। एक कार्य पूरा होता नहीं कि दूसरा काम हाथ में ले लिया जाता है।

महात्मा गांधी से सीखा जा सकता है कि कार्य की महत्ता क्या होती है। बापू काम सौंपने के साथ उसे पूरा करने की समय-सीमा भी तय करते थे। खास बात यह थी कि वे खुद उस काम को कर चुके होते थे और उसके पूरा होने की समय-सीमा जानते थे। इससे काम समय पर हो जाता था। जो लोग सफलता के लिए जी-तोड़ मेहनत में लगे हैं, उन्हें यह समझ लेना होगा कि अपनी ललक को सार्थक क्रियारूप देने के लिए जीवन में उत्साह दिलाने वाले लोगों का साथ रखिए और साधनों का उपयोग करते रहिए। मेहनत तो हर कोई कर लेता है, लेकिन सफलता की ऊंचाई तक पहुंचने पर अशांत लोग कम ही होते हैं। एक प्रयोग यह भी करें कि परिश्रम करते समय मन को विश्वास से भर दें कि हम जरूर सफल होंगे। यह उत्साह का ही रूप है।

स्वहित से किसी को दु:ख न पहुंचे
पढ़े लिखे होने का अर्थ यह नहीं कि जीवन जीने की समझ आ गई, व्यवसाय में सफल हो जाएंगे, परिवार चला लेंगे। यह तो बिना पढ़े-लिखे भी किया जा सकता है। शिक्षा से केवल ज्ञान व जानकारी मिल सकती है, समझ और चतुराई नहीं। परिस्थितियों को गहराई और दूरदर्शिता से देखकर व्यवहार करना समझ तथा चतुराई है। इन्हें जानने का सबसे अच्छा तरीका प्रकृति से लिया जा सकता है। परिस्थिति के अनुसार आदमी को व्यवहार व कार्यशैली के प्रति सजग रहना चाहिए। विपरीत समय में अधिकतर लोगों की समझ काम करना बंद कर देती है। यहीं से डिप्रेशन शुरू हो जाता है। समस्या आई नहीं कि चिंताएं सताने लगती हैं। इसे थोड़ा प्रकृति से समझना होगा।

जब ठंड जा रही होती है तो एकदम से गर्मी नहीं लगती। हवाएं चलती हैं और गर्मी के आगमन का एहसास कराती हैं। ऐसा ही गर्मी जाते समय हवाओं का संकेत मिलता है कि मानसून आ रहा है। इसी तरह जीवन में विपरीत समय आएगा, तो हवा की तरह इशारा भी करेगा। समझ यह रखी जाए कि भविष्य फिर खुशियां लाएगा। वर्तमान से निपटने में चतुराई से काम लेना होगा। फिर जब समस्याओं का समाधान होगा तब आनंद दोगुना हो जाएगा। मनुष्य के भीतर की समझ और चतुराई निजहित के अलावा परहित की प्रेरणा भी देती है। दो काम करते रहिए। अपना हित दूसरों को दुख पहुंचाए बिना करते रहें और अपनी योग्यता को जब भी मौका लगे दूसरों की समस्या के समाधान में लगाएं। यह भी परोपकार होगा।

ईश्वर के हाथों की मशीन बनें
विज्ञान के इस युग में मशीनों का उपयोग इतना बढ़ता जा रहा है कि लोग भूल ही जाते हैं कि इन्हें चलाने वाला तो इंसान ही है। मशीन चलाते-चलाते इंसान का भी मशीनीकरण होता जा रहा है। इसी कारण हर आदमी जल्दी में है। तेजी से परिणाम की अपेक्षा है। अपने नीचे काम करने वाले लोगों को मशीन मान लिया जाता है। कई बार तो नेतृत्व करने वाले बड़े गर्व के साथ कहते हैं हम भी मशीन की तरह काम कर रहे हैं और आप भी करिए। आदमी स्वेच्छा से मशीन बनने को तैयार हो गया है। मशीन का केवल तन होता है, मन और आत्मा नहीं होती। आदमी जब मशीन बनता है तो केवल तन से तो मशीन बन जाता है आत्मा और मन बचाए रखता है। इससे उसके व्यक्तित्व में घालमेल हो जाता है। काम तो मशीन की तरह करता है और सुखी-दुखी इंसानों की तरह होता है।

मान दे दिया तो अहंकार पैदा होता है और अपमान होने पर आवेश में आ जाता है। यह मशीन के लक्षण नहीं हैं। वह बहुत तटस्थ होती है तथा सिर्फ अपने संचालक के इशारे पर काम करती है। मशीन खराब भी हो जाए, तो ठीक होने के लिए भी मालिक पर निर्भर होती है। आध्यात्मिक दृष्टि यह है कि मशीन ही बनना है, तो सबसे बड़े इंजीनियर परमात्मा के हाथों की मशीन बन जाएं। सारा संचालन उसके हाथ में होगा तो सुख-दुख, शांति-अशांति से मुक्ति मिल जाएगी, इसलिए आज के इस भौतिक युग में मशीन का भी मान रहे और मन तथा आत्मा की अनुभूति भी बनी रहे, ऐसा प्रयोग किया जा सकता है।

संकट में निहित है समाधान की दिशा
हर घर एक बंधी मुट्‌ठी होता है। कहते हैं जब तक बंद है तब तो लाख की और खुल जाए तो खाक की। इन दिनों बाहर से बहुत शांत, कुशल, मंगल और संपन्न दिखने वाले अधिकांश परिवार भीतर से उथल-पुथल में डूबे हैं, क्योंकि बाहर की दुनिया में कुछ और दिखाना पड़ता है तथा भीतर कुछ और चल रहा होता है। इसमें  तालमेल न बैठाने के कारण कुछ परिवार बिखर जाते हैं। सबसे पहले यह समझ लें कि तनाव, बिखराव और भटकाव केवल हमारे यहां है ऐसा नहीं है। हर घर के कोने में ऐसा कचरा बिखरा हुआ है, लाख झाड़ू लगा लो। यदि कुएं का उदाहरण लें तो कितनी बार ऊपर से पानी बदलेंगे। जहां से पानी अाता है उस झरण में ही गड़बड़ हो गई है। यही दशा परिवारों की है।

सब एक-दूसरे से डर रहे हैं कि हमारी दुर्दशा पर लोग क्या कहेंगे। ऐसा संकट आएं तो प्रयास यह हो कि जमाना क्या कहेगा, इसकी फिक्र छोड़कर हम क्या बेहतर कर सकते हैं इसकी चिंता पाली जाए। ऐसा श्रीराम और श्रीकृष्ण के परिवारों में भी हुआ था। श्रीराम के साथ तो मां ही धोखा कर गई थी। रघुवंश की रानी नौकरानी से संचालित हो गई थी। कृष्ण के बच्चे आपस में ही इतने उलझ गए थे कि कृष्ण ने बलराम से कहा था कि इनका कोई ठोस निदान हमें ही निकालना होगा। शास्त्र बताते हैं कि राम-कृष्ण ने अपने परिवारों की दुर्दशा में से ही सही दिशा निकाल ली थी। यही हमारे लिए सबसे बड़ा सबक है कि दूसरों की टिप्पणियों से ज्यादा अपने निदान पर टिकें, खासतौर पर परिवार के मामले में।

परिवार प्रपंच नहीं, प्रेम का स्वरूप है
दुनिया में कई तरह के प्रपंच होते हैं। प्रपंच का मतलब है कुछ ऐसी बातों में उलझ जाना, जिन्हें हम पहले से जानते थे और फिर जानबूझकर उलझने के बाद निकलने का रास्ता न ढूंढ़ना। घर के बाहर की दुनिया हमारा मिलना-जुलना बाहर के लोगों से होता है। उन लोगों का अपना स्वार्थ काम कर रहा होता है। हम अपने निज हित की कामना से लगे हुए हैं और जब एक-दूसरे के हित टकराते हैं, तो झंझटें आना स्वाभाविक है। यह दुनिया का प्रपंच कहलाएगा, लेकिन जब घर-परिवार को भी प्रपंच कहा जाता है, तब थोड़ा सोचना चाहिए। परिवार प्रेम की शुद्ध अवस्था का नाम है। परिवार से जब प्रेम जाएगा तो प्रपंच का प्रवेश होगा ही। परिवार भी बाहर की स्वार्थी  दुनिया जैसा हो जाएगा।

परिवार में जब प्रेम आता है, तो एक-दूसरे के लिए जीने की तमन्ना अपनेआप पैदा होने लगती है। परिवार में प्रेम उतरने का मतलब है कि परिवार के केंद्र में परमात्मा रखना। इसमें हर सदस्य इस भावना से ओतप्रोत होता है कि मुझे कुछ मिले या न मिले, लेकिन बाकी सदस्यों को वह सब मिले, जिसकी वे कामना करते हैं। हर सदस्य के भीतर प्रतिदिन कुछ नया, अच्छा ढूंढ़ें। इससे संबंधों में स्फूर्ति आएगी। इसी से परिवार में प्रेम पनपेगा। परिवार को प्रपंच न माना जाए, अन्यथा मनुष्य प्रपंचों से मुक्ति की इच्छा रखता है। लोग परिवार बसाते भी हैं और परिवार से बचना भी चाहते हैं। भारत में तो परिवार का मतलब यही है कि केंद्र में परमात्मा हो और सब एक-दूसरे के लिए जीने की तमन्ना रखें।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष

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