Thursday, December 19, 2013

Jeene Ki Rah 5 (जीने की राह)

अच्छाई-बुराई का भेद समझना जरूरी
अच्छे और बुरे मनुष्यों की उपस्थिति दुनिया में हमेशा से रही है। किसी को अच्छा या खराब बताने के बाहरी मापदंड संसार ने बनाए हैं, लेकिन भीतर का अपना एक थर्मामीटर है। सभी के भीतर समान मात्रा में अच्छाई और बुराई बसी है। आप जब, जिसका उपयोग अधिक करते हैं, वैसे हो जाते हैं। रावण की सेना में भी राम को समझने वाले लोग थे। वे कोई बहुत बुद्धिमान राक्षस नहीं थे, सामान्य से गुप्तचर थे। वे भरी सभा में श्रीराम के पक्ष का गुणगान कर रहे थे। सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम। रावन काल कोटि कहुं जीति सकहिं संग्राम।। सब वानर- भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु श्रीरामजी हैं।

हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं। राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई।। श्रीरामचंद्रजी के तेज, बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। यहां एक पंक्ति कही गई है - पुनि सिर पर प्रभु राम। अर्थात उनके सिर पर भगवान का हाथ है। हमारी योग्यता में इस कृपा का होना जरूरी है। श्रीराम सब पर हाथ रखने को समान रूप से तैयार हैं, स्वीकृति हमें देना है। इसे कहीं आत्मविश्वास कहा गया है, तो कहीं भरोसा।
जबकि इन्हीं पंक्तियों में आगे कहा गया है कि श्रीराम के पास तीन बातें हैं - तेज, बल और बुद्धि। और सिर पर हाथ रखकर वे इन तीनों को हमारे भीतर स्थानांतरित कर देते हैं। हमारे भीतर भी ऐसा ही दृश्य चलता है। अंदर बैठा रावण समझने को तैयार नहीं होता कि जीवन में राम का प्रवेश हो चुका है और हम अच्छे काम शुरू कर दें।

हाथ हमेशा मदद देने के लिए उठें
अपनों  के बीच रहते हुए सुरक्षा का भाव जागता है। कहते हैं अपने ही अपनों के काम आते हैं। परहित का दायरा जितना बड़ा हो जीवन में संतोष उतना ही अधिक होगा। परिवारों में अहंकार व धन इन दो कारणों से अपनापन टूटता है। अहंकार के कारण जब परिवारों में विघटन आए तो ज्यादा से ज्यादा यह होता है कि लोग अपनी-अपनी खोल में सिमट जाते हैं। बाहर से अपनापन नजर आता रहता है, भले ही भीतर अलग-अलग हो जाएं, लेकिन धन के कारण टूटन भीतर और बाहर दोनों ओर हो जाती है। इसीलिए समझदार लोग रिश्तों के बीच में धन नहीं लाते।

तुलसीदासजी कहा करते थे, 'घर में भूखा पड़ रहे, दस फाके हो जाएं। तुलसी भैया-बंधु के, कबहुं न मांगन जाय।।' मनुष्य के पास भले ही खाने को न हो। उपवास में १० दिन बीत जाएं तो भी अपनी या अपने परिवार की जीवन-रक्षा के लिए कुछ मिलने की आशा से अपने भाई-बंधुओं के बीच नहीं जाना चाहिए। वहां अपमान हुआ तो वह अपमान मृत्यु की यंत्रणाओं की तरह होता है।

आज का समय तो वैसे ही धन के आसपास बीतता है, इसलिए प्रयास किया जाए कि स्वयं परिश्रम से धन कमाएं। इसके लिए अपनों के बीच हाथ न फैलाना पड़े। शेर और हाथियों से भरे घने जंगल में भले ही एक बार रह लें, फल-फूल खाकर जिंदगी काट लें, घास पर सो जाएं, लेकिन शास्त्रों ने कहा है, 'न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम्।। पर भाई-बंधुओं के बीच धनहीन रहना ठीक नहीं है, इसलिए अपनी योग्यता से स्वयं को सक्षम बनाएं। जब भी अवसर मिले ये हाथ मदद के लिए उठें,
मदद मांगने के लिए न बिछें।।

भोगी को सताता है मृत्यु का भय
जब मनुष्य अकेला होता है या पड़ जाता है, तब वह गलत काम करता है या भयभीत हो जाता है। संसारी लोग अकेले में उलझ जाते हैं, लेकिन अध्यात्म के मार्ग पर चलने वालों के लिए यही अकेलापन उपलब्धि बन जाता है। राम और रावण में यही अंतर था। रावण भीड़ से घिरा था। राम बिल्कुल अकेले थे, लेकिन उन्होंने ऐसी स्थितियां बना दी थीं कि रावण को लगने लगा था कि अब मैं बिल्कुल अकेला होने लगा हूं। हालांकि अहंकार के कारण वह ऐसे जताता है जैसे राम की खिल्ली उड़ा रहा हो। उसके दूत जब श्रीराम और समुद्र की चर्चा का वर्णन कर रहे थे, तो दूतों ने श्रीराम की प्रशंसा की थी।

'सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूंछेउ नय नागर।।' वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, लेकिन नीतिनिपुण श्रीरामजी ने नीति की रक्षा के लिए आपके भाई से उपाय पूछा। रावण के दूत श्रीराम को नीति में निपूण बता रहे थे और इसी के साथ वे रावण को अनीति में दक्ष भी घोषित कर रहे थे। उन्होंने अकेलेपन से घबराए रावण से कहा 'तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं।। सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा।।'

उनके वचन सुनकर श्रीरामजी समुद्र से राह मांग रहे हैं, उनके मन में कृपा भरी है। इसलिए वे उसे सोखते नहीं। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हंसा और बोला - जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है। रावण भोगी था और राम संन्यासी जैसा आचरण कर रहे थे। भोगी को अकेले में मृत्यु का डर लगता है और संन्यासी मृत्यु को ही जीने लगता है।

अध्यात्म रहे राजधर्म का आधार
राजधर्म को राज-कृत्य में बदलने के लिए सत्ता को गुरु की निकटता जरूरी होती है। पुराने समय में इसीलिए राजाओं ने गुरु-संत-फकीरों को बड़ा सम्मान दिया था। ये लोग राजा और प्रजा के बीच सेतु का काम करते थे। वे राजा को प्रजा पालन, दान-पुण्य और स्वच्छ प्रशासन के लिए शास्त्र-सम्मत सूत्र बताया करते थे। संत के तप से सत्ता सुरक्षित भी रहती थी। राजा के संस्कार उसके गुरु की देन हुआ करते थे।

समय बीता, गुरु नाम की संस्था का अवमूल्यन हुआ। सत्ता की निकटता और स्वाद ने भगवा वस्त्र पर भी काले छींटे उड़ाना शुरू कर दिए। इसके खतरे पुराणों में बताए गए हैं। मत्स्य पुराण तो राजधर्म का ज्ञान कोष  है। इस समय तो राजधर्म और प्रजाधर्म दोनों का उत्सव चल रहा है। प्रजातंत्र में चुनाव सबसे बड़ा उत्सव है। शास्त्रों के अनुसार यदि किसी बच्चे से कोई काम लगातार कराया जाए, तो वह बिना सोचे-समझे जीवनभर उसे करता है। इसीलिए सभी धर्मों में कर्मकांड सहजता से स्वीकार कर लिए जाते हैं।

मनोवैज्ञानिकों ने इसे कंडीशंड रिफ्लैक्स कहा है। योजनाबद्ध तरीके से संस्कार किसी के भीतर डाले जाएं तो वे क्रिया में बदल जाते हैं। आज के राजनेता चुनाव में इसी का प्रयोग करते हैं। वे मतदाताओं को कंडीशंड रिफ्लैक्स पद्धति से बूथ और उसके भीतर मतपेटी तक पहुंचा देते हैं। प्रभाव काम करने लगता है और विचार गौण होने लगते हैं। सही और गलत के चयन की जगह लोग भीड़ में बहने लगते हैं। इस समय राजधर्म में दोनों ही पक्ष, राजा तथा प्रजा को अपने संस्कारों को सही क्रिया देनी होगी जिसका आधार धर्म और अध्यात्म रहे।

प्रकृति को ईश्वर प्राप्ति का जरिया बनाएं
पुराने समय में आपस में बैठकर जीवन की चर्चा करना दिनचर्या का हिस्सा हुआ करता था। लोगों ने चौपालों पर बैठकर जीवन की गुत्थियों को सुलझा लिया था। फिर समय बदला। दौड़-भाग बढ़ी। तेजी से चलने वाले इस युग में लोग रुकना ही भूल गए, बैठना तो दूर की बात। माता-पिता जब अपने बच्चे को चलना सिखाते हैं और पहली बार उसे अपने पैरों पर चलता हुआ देखकर बड़े खुश भी होते हैं।

हालांकि तब वे दुखी हो जाते हैं, जब चलती हुई वह संतान ऐसे भागती है कि पलटती ही नहीं। प्रकृति से हमारा रिश्ता माता-पिता और संतान जैसा है। यदि कोई प्रकृति की आवाज सुन सके तो उसे सुनाई देगा कि प्रकृति हम मनुष्यों में संतान भाव रखती है। हम उसके लिए अभी भी बालक हैं। जैसे माता-पिता अपने बच्चों को देखकर उनकी गतिविधियों में घुलमिलकर प्रसन्न होते हैं, ऐसे ही प्रकृति हमारे साथ घुलना-मिलना चाहती है, लेकिन हम बिल्कुल विपरीत आचरण करते हैं।

उगते हुए सूरज को देखकर हम प्रसन्न न हों। चांदनी रात में हमें शांति महसूस न हो। बहती नदी की लहरें हमारे भीतर न उठें और हरे-भरे पेड़ देखकर यदि हम भीतर से खुश न हों, तो यह बिल्कुल ऐसा होता है जैसे मां-बाप बच्चे को लाख खिलाने की कोशिश करें, लेकिन बच्चा उदास ही बना रहे। उस समय मां-बाप दुखी होते हैं। इसलिए प्रकृति हमसे चाहती है कि हमारे भीतर का बालपन बना रहे। हम समझें कि वह हमें क्या दे रही है। यदि प्रकृति से हमारा रिश्ता सही समझ के साथ बन जाए तो परमात्मा को पकडऩे में देर नहीं लगेगी। आप किसी भी उम्र के हों, प्रकृति ने हमें हर दिन एक बाल दिवस दिया है।

संतों की जीवनगाथा देती है सबक, सहारा
पीड़ा झेले बिना जिंदगी की असली तस्वीर सामने नहीं आती। कुछ दुख ऐसे होते हैं जो जीवन में आ जाएं, तो ऐसा सबक सिखा जाते हैं जैसा किसी विश्वविद्यालय में भी प्राप्त नहीं हो सकता। जिंदगी की पाठशाला का पाठ्यक्रम रोज बदलता है। वह कभी आईना बन जाती है, तो कभी इसे आप किताब के  रूप में पढ़ सकते हैं।

सीप जब पीड़ा भुगतती है, तो उसके भीतर मोती का जन्म होता है। पक्षी के बच्चे को उसकी मां अचानक घोंसले से धक्का दे देती है। एक बार तो लगता है वह मर जाएगा, लेकिन बस वह पहला धक्का जीवनभर के लिए उड़ान बन जाता है। ऐसे ही कुछ कष्ट अपने साथ जीवनभर का सुख भी लाते हैं, लेकिन इन पीड़ाओं को समझना पड़ता है। इसीलिए सभी धर्मों ने विरह को बड़ा मान दिया है। परमात्मा की सत्ता में विश्वास करना सभी धर्मों का मूल है। जब हमारे मन में उस परमशक्ति को खोजने की इच्छा होती है, तब धर्म का आरंभ होता है।

तब वह परमशक्ति हमें समझाने के लिए अवतार बनकर आती है। अवतारों की लीला देखें, तो उसमें कष्ट और पीड़ा के अनेक दृश्य सामने आते हैं। मिलना और बिछडऩा इनकी जीवनशैली है। सभी अवतार अपने जीवन में उन सभी मानवीय कष्टों को भोगते हैं, जिससे एक सामान्य व्यक्ति भी गुजरता है और इसीलिए अवतार एक लोक शिक्षण है। वे मनुष्य के निकट आकर, मनुष्य के भीतर मनुष्यता को समझाने की लीला करते हैं। जब कभी हमारे जीवन में कोई दुख आए, तो तुरंत किसी अवतार, परमात्मा के बंदे, ईश्वर के दूत की जीवन गाथा से गुजरें, सबक और सहारा दोनों मिलेगा।

सही-गलत के चयन में विवेक जागृत रहे
हम लोगों ने अभी-अभी नवरात्रि और दीपावली पर्व मनाए हैं। इन उत्सवों का एक बड़ा उद्देश्य रहता है एकांत साधना। नवरात्रि में तो अधिकतर लोग अपने जीवन को तप से गुजारते ही हैं। चंचल चित्त को स्थिर करने के लिए इस दौरान उपवास भी किए जाते हैं। संयोग है कि हम पवित्रता के पर्व के बाद राजनीति के सबसे बड़े उत्सव के सामने हैं। अब हमें इस संयोग को सुखद बनाना है।

धर्म किसी का कोई भी हो, परमशक्ति से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। इसलिए हमारे भीतर उस परमशक्ति को अनुभव करें और अपने दायित्व बोध को जगाएं। सही-गलत के चयन में विवेक जागृत रखा जाए। भक्त की पूंजी होती है विवेक। जैसे कहा जाता है कि भक्त को अपनी इंद्रियों के लिए विषय सुख की खोज नहीं करनी चाहिए। ये इंद्रियां शैतान की तरह गलत मार्ग पर ले जाने के लिए सक्रिय ही रहती हैं। इसी आध्यात्मिक संदेश को चुनाव से जोड़ा जाए। हर व्यक्ति को इस समय राष्ट्रहित की बात सोचनी होगी। इस समय भ्रम के बवंडर उठेंगे।

इतना शोर होगा कि सुनना और दिखना, बंद हो सकता है। ऐसे में भीतर के नेत्र काम आएंगे। जैसे झूठा और अपरिपक्व व्यक्ति जब आस्तिक बनता है, तो वह धर्म का नुकसान करता है। उससे तो अच्छा वह नास्तिक है, जो समझकर परमात्मा को नकार रहा है। चुनाव के समय राजनीति में पारंगत लोग मतदाताओं के भीतर की आस्तिकता को ऐसे ही नासमझी से जोड़ देते हैं। उसकी सच्चाई और ईमान को डगमगा देते हैं और जैसे अपरिपक्व भक्त भक्ति को बदनाम करता है, ऐसे ही नासमझ मतदाता सत्ता को नुकसान पहुंचाता है।

कुसंग होता है पतन का कारण
मनुष्य के पतन के दो कारण होते हैं। पहला यह कि वह स्वयं को ठीक से न समझे और अपना नियंत्रण खो दे, तब वह आचरण से गिरता है। दूसरा कारण है गलत लोगों की संगति। खराब लोग आपके जीवन में आ जाएं और आप उन्हें पहचान न पाएं। जान भी जाएं तो भी उनसे न बचें। ऐसे में पतन हो जाता है, इसलिए कुसंग से बचें और अकेले में अपने मन के कुसंग से भी खुद को बचाएं।

जरा सा अकेलापन मिला और मन आपको गलत बातों में खींचेगा। इसलिए संत-फकीरों ने कुसंग की जमकर आलोचना की है। सुंदरदास नाम के संत ने तो कहा है अगर आपको सांप डस ले, बिच्छू काट ले, तो भी खतरा उतना बड़ा नहीं है। उन्होंने आगे लिखा है - आगि जरो जल बूडि मरौ, गिरि जाइ गिरौ कछु भय मत आनौ। सुंदर और भले सब ही यह दुर्जन-संग भलौ जनि जानौ।। आग में जलना, जल में डूबकर मरना और पहाड़ से गिरकर नुकसान हो जाने में भी कोई बड़ी हानि नहीं है। इनमें भी कोई भलाई ढूंढ़ी जा सकती है। सबसे बड़ी हानि है दुष्टों की संगति में।

भरत जैसे संत व्यक्ति की मां कैकयी, जो श्रीराम को बहुत प्रेम करती थीं, अपनी दासी मंथरा के कुसंग में बहक गईं। कुसंग से बचने के लिए सबसे सक्षम, समर्थ और सरल उपाय है गुरु की संगति। गुरु हमारा मार्ग ही बदल देता है। वह उस मार्ग पर चलने की न सिर्फ प्रेरणा देता है, बल्कि उत्साह भी बढ़ाता है। चलना हमें ही होगा। जैसे पक्षी अपने बच्चे को हवा में धक्का देकर उडऩा सिखाता है उसी प्रकार गुरु सिर्फ धक्का देगा। वह कुसंग की पतली गलियों से बचाकर सद्मार्ग के आकाश में भेज देता है।

अहंकार टिके तो मूर्खता बन जाता है
आप किसी से शत्रुता करें या मित्रता निभाएं, सामने वाले की बुद्धि और बल दोनों की थाह जरूर प्राप्त कर लें। जब तक सामने वाले के भीतर न उतरें, तब तक आप उसे पहचान नहीं पाएंगे। इसके लिए पहले हमें स्वयं अपने भीतर उतरना होता है। यह काम होता है योग से। मेडिटेशन भीतर उतरने की कला है। श्रीराम को रावण तक पहुंचने के लिए  समुद्र पार करना था। समुद्र अपनी गहराई के लिए जाना जाता है।

श्रीराम तो बिना गहरे उतरे कोई काम करते ही नहीं थे। उनकी रुचि रावण से ज्यादा उसके भीतर की बुराई मिटाने में थी। इसलिए श्रीराम रावण को अलग दृष्टि से देख रहे थे। रावण कभी किसी की गहराई में उतरता ही नहीं था। राक्षस लोग संबंधों का निर्वाह सतह पर ही करते हैं। इसलिए वह राम का लगातार गलत विश्लेषण कर रहा था। अपने भाई को भी ठीक से नहीं पहचान पा रहा था और इसीलिए उसने भरी सभा में टिप्पणी की : 'सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई।। मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।।' स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से मचलना ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बढ़ाई क्या करता है।

बस, मैंने राम के बल और बुद्धि की थाह पा ली है। अहंकार लंबे समय टिके तो उसका अगला परिवर्तन मूर्खता ही होता है। अब उसने श्रीराम के साथ विभीषण की भी खिल्ली उड़ाई। यही विभीषण उसकी मृत्यु का कारण बना। 'सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहां जग ताकें।।' जिसका विभीषण जैसा डरपोक मंत्री हो, उसे जगत में विजय कहां।

जीवन परीक्षा में ईश्वर का साथ जरूरी
शिक्षा के इस युग में परीक्षा का बड़ा महत्व है। परीक्षा पास करने के लिए सभी विद्यार्थी अपने-अपने तरीके से प्रयास करते हैं। जहां मन की एकाग्रता चलनी चाहिए वहां अब धन का खेल भी चलने लगा है। विद्यार्थी जीवन में परीक्षा एक हिस्सा है और इसकी पूर्णता के बाद दूसरा जीवन आरंभ होता है, लेकिन मनुष्य जीवन में परीक्षा किसी नियत तिथि पर नहीं होती, बल्कि प्रतिपल चला करती है।

भगवान ने जीवन की परीक्षा में हमारी मदद के लिए खुद को दो तरीके से उतारा है। एक तो उसका अवतार रूप है और दूसरा उसका प्रकृति रूप है। जीवन की परीक्षा में ये दो हमारे लिए मददगार होते हैं। भगवान चाहता है मानव जाति अपने जीवन का विकास और उत्थान करती रहें। इसीलिए उसने प्रकृति का निर्माण किया है। मनुष्य जब अपनी जिंदगी की प्रगति के लिए प्रयास करता है तो उसमें कई बाधाएं होती हैं। दुष्ट लोगों के रूप में बाहर से और आसुरी प्रवृत्तियों के रूप में भीतर से।

इस अवरोध को दूर करने के लिए परमात्मा की स्पष्ट घोषणा है कि मेरे अवतार रूप से जुड़कर सीखो। साथ ही प्रकृति से अपना संबंध बनाकर संघर्ष और परहित की वृत्ति को समझो, क्योंकि जीवन की परीक्षा में न तो कोई प्रश्न-पत्र छपता है, न उत्तर देने के लिए कॉपियां होती हैं।

न आरंभ होने का समय तय है और न समापन की घंटी बजती है। नकल का तो सवाल ही नहीं है। इसके पर्चे भी लीक नहीं होते। हां, कभी-कभी ऐसा जरूर हो जाता है कि लिखने वाले को कॉपी खुद ही जांचनी पड़ सकती हैं। इस कमाल के खेल में परमात्मा और प्रकृति से जुड़े रहने पर ही सफलता मिलती है।

वैराग्य वृत्ति अपनाकर ही दूर होगा भय
भौतिक सुख-सुविधाएं बढऩे के साथ पद-प्रतिष्ठा की चाह अधिक होती गई। धन-दौलत कमाने के तरीके बढ़ गए। इसके साथ एक चीज और बढ़ी, वह है भय। इतना सक्षम और समर्थ होने के बाद भी मनुष्य का भय दूर नहीं हुआ। इस समय तो अच्छे-अच्छे बली भीतर से भयभीत हैं।

भौतिक साधनों से मनुष्य ने अपने चारों ओर सुरक्षा का आवरण बना लिया। भविष्य का बीमा करवा लिया, लेकिन भय जीवन में प्रवेश के रास्ते ढूंढ़ ही लेता है। फकीरों ने कहा है, विषयों को भोगो तो बीमार होने का डर है। उच्च-कुल में पैदा हो जाओ तो पतन का भय है। चुप रहने में दीनता का भय है, क्योंकि खामोश लोगों को दीन-हीन मान लिया जाता है। इस भय से लोग अनर्गल वार्तालाप भी करने लगते हैं। बलशाली को शत्रुओं का भय है। सौंदर्य बुढ़ापे से भयभीत है।

गुणवान में दुष्टों का भय है। दुष्ट लोग सद्गुणों में भी दोष निकालकर उसका उल्टा अर्थ पैदा कर देते हैं। मृत्य भय तो है ही। भय सांसारिक जीवन का अभिन्न अंग है। इस भय से मुक्ति का उपाय क्या हैफकीरों के मुताबिक जीवन में वैराग्य-वृत्ति उतरने पर ही भय से मुक्ति मिल सकती है। इसकी तैयारी मनुष्य को स्वयं करनी पड़ेगी। वैराग्य वृत्ति केवल पूजा-पाठ या दान-पुण्य से नहीं आती, क्योंकि इन्हें कुछ पंडित-पुजारियों ने भय से जोड़ दिया है। वे भी जान गए हैं कि मनुष्य भयभीत है तो पूजा-पाठ उसके लिए सांत्वना बन जाएगी। थोड़ा समय योग को दें, अपने आप वैराग्य की वृत्ति जन्म लेने लगती है। जैसे गरिष्ठ भोजन करो तो शरीर में फैट बन जाता है। वैसे ही योग अपना परिणाम देता है।

शास्त्रों का प्रकाश दूर करता है मूच्र्छा
यदि अंधेरे में चलना पड़े तो आंख किसी काम की नहीं रहती। इसलिए शरीर के सभी अंगों का सावधानी से उपयोग करना पड़ता है। दिमाग से लेकर पैर की अंगुलियों तक की सावधानी ही अंधेरे को पार कराती है। कभी-कभी भीतर भी अंधेरा छा जाता है। परिस्थितियों के प्रति, व्यक्तियों को लेकर भीतर से समझ आनी बंद हो जाती है। अपने ही निर्णय पर संदेह होने लगता है कि क्या वह सही है। इसीलिए अज्ञान को अंधकार से जोड़ा गया है। हमारे यहां शास्त्रों को प्रकाश भी माना गया है।

एक पुराण का नाम तो अग्नि पुराण ही है। अग्नि ज्ञान, ऊर्जा, प्रकाश और तेज के लिए जानी जाती है। इसलिए शास्त्रों को यदि जीवन से जोड़ा जाए तो वे प्रकाश का काम कर जाएंगे, क्योंकि जब हम अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए होते हैं, तब हमारी समझ हमारे निर्णयों के बीच में आकर उन्हें गलत दिशा में ले जाती है। जीवन कई बार हमें एक अज्ञात जगत में ले जाता है। बाहर के ज्ञात जगत के सारे फॉर्मूले हमें आते हैं, लेकिन हमारे भीतर के अज्ञात जगत में कुछ ऐसी रहस्यमयी बातें होती रहती हैं, जिसे हम दूसरों को न तो बता सकते हैं और न ही उसके प्रति खुद को समझा सकते हैं।
इस अज्ञात जगत के लिए चाहिए प्रकाश। जो लोग आपको दुनिया में बहुत जागे हुए और सक्रिय नजर आते हैं वे भीतर से बिल्कुल सोए हुए हैं। भीतर मनुष्य ऐसे-ऐसे गलत निर्णय लेता रहता है कि यदि उसका क्रियान्वयन बाहर कर दे तो या तो वह पागलपन होगा या अपराध। शास्त्रों का प्रकाश यह मूच्र्छा दूर करता है। यह प्रकाश न सिर्फ जगाता है, बल्कि आगे बढऩे की ऊर्जा भी देता है।

सत्संग के लिए निष्क्रिय मन जरूरी
आज के समय में इतने सब साधन होने के बाद भी मनुष्य की उलझनें खत्म ही नहीं हो रहीं। सबसे ज्यादा उलझन में डालता है उसका मन। ऐसा कहते हैं जब आपको समझ में आना बंद हो जाए तो दूसरे किसी की समझ का उपयोग करना चाहिए। इसके लिए एक अच्छा माध्यम है सत्संग। इसका पाप-पुण्य से कोई लेना-देना नहीं है। समझ बढ़ाने और होश को जगाने के लिए सत्संग किया जाना चाहिए। किंतु ध्यान रखें यदि आपके विचार सक्रिय रहे, तो आपका श्रवण पूरा नहीं हो पाएगा। इसलिए जो लोग बहुत अधिक सोचेंगे वे सत्संग को ठीक से नहीं सुन पाएंगे। कम से कम उतनी देर अपने विचारों को रोक दें।

कुछ मामलों में ज्ञान भी कचरा बन जाता है। खासतौर पर जब ईश्वर की उपलब्धि करना हो, तो ज्ञान का एक हिस्सा जो कचरा ही होता है उसे हटाना पड़ेगा, लेकिन यह आसान नहीं होता। यदि आप बुद्धि का कचरा खिसका भी दो, तो मन सावधान हो जाता है। मन समझ जाता है अब अगला निशाना वही होगा। उसके पास भी कूड़े का भंडार होता है। मन विचलन शुरू कर देता है और भीतर सबकुछ अस्पष्ट होने लगता है और यहीं से लोग सत्संग में सही लाभ नहीं उठा पाते। ये बिना पंख के पक्षी जैसा है। लंबी उड़ान भरेगा।

कभी हिरण की तरह छलांगें मारेगा तो कभी शेर की तरह दहाड़ेगा। इसलिए सत्संग में बैठने के पहले इसे भी खाली करना जरूरी है। जब बुद्धि को विचार शून्य कर रहे हों, तब मन को भी निष्क्रिय करने की क्रिया शुरू कर देनी चाहिए। एक दम खाली होकर बैठिए परमात्मा को भरने के लिए। तब आनंद आता है सत्संग का।

त्याग की वृत्ति से सार्थक होती है शिक्षा
प्रतिभाशाली लोग भी पतन के मार्ग पर चले जाते हैं। ज्ञानवान जब भटक जाए, बुद्धिमान जब आचरण से गिर जाए तो तुरंत यह सीख लेनी चाहिए कि ऐसा क्यों होता है। कई बार पढ़-लिखकर लोग चालबाजी सीख जाते हैं। चूंकि शिक्षा का उद्देश्य जीवनयापन रह गया है इसीलिए अपने जीवन को संवारने के लिए दूसरे का जीवन बिगाडऩा पड़े तो भी लोग तैयार रहते हैं। इसीलिए शिक्षा शोषण का माध्यम बन गई।

यदि सेवा और त्याग की वृत्ति चली जाए और शिक्षा जीवन में आ जाए तो ऐसे लोग प्रतिभावान होने के साथ-साथ घातक भी सिद्ध होंगे। रावण प्रतिभाशाली था, लेकिन पूरे समय विध्वंस में लगा रहता था। वह जब श्रीराम के बारे में जानकारी ले रहा था तो उसके दूतों ने एक चिट्ठी सौंपी। 'रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।। बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन।।'

श्रीरामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे पढ़वाकर छाती ठंडी कीजिए। रावण ने हंस कर उसे बाएं हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे पढ़वाने लगा। यह वही पत्र था जो लक्ष्मणजी ने रावण को भेजा था। प्रतिभा को वैराग्य का पत्र पहुंच चुका था। वैराग्य की घोषणा है कि जहां ईश्वर है, वहीं प्रतिभा है। बिना ईश्वर के प्रतिभा लूट, हिंसा, ईष्र्या और षड्यंत्र बन जाएगी। वैराग्य का मतलब है आ जाए तो सहजता से स्वीकार करेंगे और देना पड़े तो असहज नहीं होंगे। तब आदमी भीतर से शांत हो जाता है। प्रतिभा शांत होकर दर्पण बन जाती है। उसमें खुद को देखकर लिए निर्णय कभी गलत नहीं होंगे।

ईश्वर से रिश्ते के बीच कुछ भी न लाएं
सौदेबाजी की इस दुनिया में नफा-नुकसान की अक्ल होना बुरी बात नहीं है, लेकिन परमात्मा के दर पर यह योग्यता किसी काम नहीं आती। लोग ऊपर वाले से मोहब्बत करने में भी व्यापारिक दृष्टिकोण अपना लेते हैं। इस रूहानी रिश्ते में भी लोग पद-प्रतिष्ठा, धन और अक्ल को बीच में ले आते हैं। स्वामी अवधेशानंदजी इसे बड़े सुंदर ढंग से कहा करते हैं, 'यदि भगवान को अपने वश में करना हो तो उनसे विशुद्ध प्रेम करना आना चाहिए। फिर वे नहीं देखते कि कौन किस धर्म का है।

कौन उन्हें किस रूप में भजता है। कौन पढ़ा-लिखा और कौन अनपढ़ है। कौन किस जाति का है, किस लिंग का है और किस पंथ का है।' ईश्वर जानता है कि जप-तप परेशानी हटाने के लिए किए जा रहे हैं या उसे पाने के लिए। वृंदावन के बांके बिहारी का दर्शन करने के लिए बहुत से भक्त जाते हैं, मगर जब काबुल से रसखान आए तो अपने कन्हैया के लिए तिल्लेदार जोड़ा और जूती लेकर आए।

सभी हंसे कि मुसलमान है, तभी तो नहीं जानता कि कन्हैया जूती नहीं पहनते। रसखान रो पड़े। रातभर रोते रहे। जब सुबह उठे तो सामने तिल्लेदार मुसलमानी जोड़ा और जूती पहने कन्हैया खड़े थे। इतना ही नहीं, रसखान का मान रखने के लिए उसी लिबास में कन्हैया ने उनके साथ अन्य भक्तों को दर्शन भी दिए। बस, तब से रसखान वहीं बस गए।
ऊपरवाला जानता है कि हमारी नीयत कैसी है। उससे कुछ नहीं छुपा। इसलिए उसके सामने बिलकुल साफ-सुथरे होकर पहुंचा जाए। आप जैसे हैं, वैसे ही रहिए। परमात्मा को जस-का-तस स्वीकार करने में बड़ा आनंद आता है।

संयम का अर्थ है विचारपूर्वक उपभोग
संयम का अर्थ है कि आदमी के पास वस्तु हो और वह उसका विचारपूर्वक उपभोग करे। पशुओं को देखकर भी संयम सीखा जा सकता है। स्वामी सत्यमित्रानंदगिरिजी एक उदाहरण देते हैं, मनुष्य के अतिरिक्त संसार में कुछ ऐसे प्राणी होते हैं, जो अपने ऊपर संयम नहीं रख पाते तो उनका जीवन ही चला जाता है। हिरण कुलांचे भरता है तो कितना प्यारा लगता है, लेकिन वही हिरण एक दिन अपने भीतर का संयम खो देता है। जंगल में कोई बंसी बजाने लगता है, तब अपने कानों पर संयम नहीं रख पाता और जिधर से बंसी की मधुर ध्वनि आ रही होती है उधर भागता चला जाता है।

वहां छिपकर बैठा शिकारी तुरंत उसे अपनी रस्सी के बंधन में ले लेता है। हिरण श्रवणेंद्रिय के संयम के अभाव में हमेशा के लिए बंध जाता है। हाथी पकडऩे वाले जंगल में एक गहरा गड्ढा खोदकर, कागज की बनावटी हथिनी खड़ी कर देते हैं। हाथी अपनी वासना, असंयम के कारण जैसे ही दौड़ता है गड्ढे में गिर पड़ता है। मनुष्य के भीतर पांचों बातें होती हैं।

आंखों से देखता है, कानों से सुनता है, त्वचा से स्पर्श करता है, नाक से सुगंध लेता है, जीभ से अच्छे पदार्थों का स्वाद लेता है। ये असंयम के मार्ग बन जाते हैं। इन पांचों का विषय-भोग में बड़ा आकर्षण होता है। इस आकर्षण को जिस अनुशासन से जीता जाता है उसका नाम योग है। योग का अर्थ है - संसार में संयम। संसार में रहते हुए अपनी वृत्ति को परमात्मा से जोड़ते रहें। वृत्तियां यदि ईश्वर से जुड़ती हैं तो भोग से बचने की संभावना बढ़ जाती है।

इंद्रियों पर नियंत्रण हो तो मन भी काबू में
वैसे तो मन कैसे बनता है, यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिए, लेकिन हम सब जानते हैं जिंदगी में जितनी झंझटें आती हैं उसके पीछे मन काम करता है। दिखता बिलकुल नहीं है, लेकिन परेशान बहुत करता है। कभी-कभी तो लगता है कि जीवन समाप्त कर लिया जाए। यह साजिश भी मन की ही होती है।

आध्यात्मिक मनोविज्ञानी निष्ठादासजी ने एक बार कहा था कि मनुष्य जब शरीर धारण करता है, तब वह पिछले जन्म से मन का बीज लेकर आता है; उसे संस्कार कहते हैं। इसलिए इस पूरे शरीर को प्रारब्ध रूप यानी पूर्वजन्म के कर्मों या संस्कारों का स्थूल रूप भी कहा जाता है। पहले के मन का तो यह शरीर बन गया। अब इस शरीर से पुन: मन कैसे बनता है, इसे समझ लेने में ही मन से मुक्ति है।

पहली बात, इंद्रियां हमेशा खट्टा-मीठा, काला-सफेद, अच्छा-बुरा इन सबके भेद में उलझी रहती हैं। यही उलझन मन का निर्माण करती है। दूसरी बात, इंद्रियों में विषयों को जानने-समझने की काबिलियत है तो कोई दिक्कत नहीं, लेकिन वह उन विषयों को पकड़ लेती है, छोड़ती नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो भी मन न बनता। भूत, भविष्य और वर्तमान की स्मृतियां मन को और मजबूत कर देती हैं। तीसरी बात, इंद्रियों में भूख न जागती, प्यास न लगती तथा उत्तेजना न होती तो भी मन बनने का कोई सवाल न रहता। इंद्रियां भेद करें, याद करें यहां तक भी ठीक है, लेकिन इसके बाद वे उत्तेजित रूप से सक्रिय हो जाती हैं और फिर ये तीनों घटनाएं मिलकर मन का निर्माण कर देती हैं। इनसे बचे तो मन से बचे।

प्रार्थना और कृतज्ञता से मिलता है ईश्वर
कुछ समय पहले तक हर कार्य को करने का एक समय निश्चित होता था। सात-आठ घंटे काम करने के बाद घर में समय बिताया जाता या अन्य काम किए जाते थे। प्रतिस्पद्र्धा बढ़ी, टेक्नोलॉजी के तमाम साधन हाथ में आने के बाद भी लोग समय के मामले में गड़बड़ाते गए। कुछ लोग तो २४ घंटे काम में उलझ गए। अब १२-१५ घंटे काम करना सामान्य बात है। कब, कौन-सा काम किया जाए, इसकी प्राथमिकता गड़बड़ा गई। अत्यधिक सक्रिय रहने की वृत्ति को समाप्त भी नहीं करना चाहिए। चलिए, इतने सारे काम जब किए जा रहे हों तो अध्यात्म कहता है कि एक काम हमारा भी कर लें और वह है प्रार्थना।

कुछ लोग कहेंगे, हम थोड़ा समय प्रार्थना के लिए ही निकालते हैं। बस यहीं बात को समझना होगा। जब आप बहुत व्यस्त हों तो प्रार्थना को कुछ अलग ढंग से पूरा करें तो यह भी आत्मा को जानने का विज्ञान बन जाएगी। कुछ लोग कर्म से शुरू होकर मांग पर खत्म हो जाते हैं। धीरे-धीरे इसे आगे बढ़ाएं और इसमें आभार का भार जोड़ दें। उस परमशक्ति ने हमें जीवन के साथ जीवित रहने के लिए सांस भी दी और ऐसे अवसर भी दिए, जिनमें हम कुछ कर सकें।

इसीलिए आभार व्यक्त करें और ऐसा करते-करते फिर मौन साध लें। आपका मौन भी कृतज्ञता व्यक्त करने वाला हो जाएगा। बस यहीं से हम और ईश्वर एक होने लगते हैं। प्रार्थना अपना परिणाम देने लगती है। प्रेम पनपने लगता है। यह एक मात्र कृत्य है जो सीढ़ी-दर-सीढ़ी बदलते हुए आपको और परमात्मा को एक कर देगा।

मन को काबू में लाने से मिलती
सभी लोग किसी न किसी शक्ति को प्राप्त करने में लगे हैं। आदमी के पास धन भले न हो, शक्ति जरूर चाहता है। कुछ नहीं तो आंदोलन की शक्ति ही बना लेता है। प्रदर्शन, नारे, चक्काजाम ये सब शक्ति प्रदर्शन ही हैं। यहां विज्ञान अध्यात्म से सहमत है। अध्यात्म कहता है शक्ति है और इसी परमशक्ति से सारा संसार संचालित है। विज्ञान के सारे प्रयोग शक्ति के आसपास रहे हैं। अब अध्यात्म जिस शक्ति की बात कर रहा है उसे समझें। शरीर, मन और आत्मा को अलग-अलग रूप में जान लेने से मनुष्य को एक शक्ति प्राप्त होती है। इसे वह स्वयं पर विजय पाने के लिए और संसार को जीतने के लिए कर सकता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है मन को स्ववश और संतुलित रखना। इसके तीन तरीके हैं।

पहला है सैद्धांतिक; शास्त्रों में पढ़ लें, सत्संग में सुन लें और मन पर जुट जाएं। दूसरा तरीका है काल्पनिक रूप से विचार करते हुए इसे काबू में लाएं और तीसरा तरीका है प्रायोगिक रूप से इसका अनुभव करें। शरीर, मन और आत्मा का ठीक से संचालन न हो तो मनुष्य के पूरे जीवन की गतिविधियां अस्त-व्यस्त हो जाती हैं।

मन बहुत सारी चीजें अपने ऊपर लाद लेता है। उसकी गति बहुत तेज होती है। जब किसी वजह से ट्रक की गति रुकती है तो ड्राइवर बुरी तरह झल्ला जाता है। इसी तरह बिना विचार-विवेक के जब मन को गति दे दी जाए और उसमें रुकावट आए तो पूरा व्यक्तित्व चिड़चिड़ा हो जाता है और यदि यह नियंत्रण में है तो एक शक्ति प्राप्त होगी। यह शक्ति जीवन के लिए बड़ी उपयोगी है।

सत्य को समझकर जीवन में उतारें
कुछ लोग सही बात सुनने को तैयार ही नहीं होते। ये दो प्रकार के होते हैं। एक वे जो भीतर से जानते हैं कि हम गलत कर रहे हैं और दूसरे वे जो अनजान हैं। फकीर, महात्मा, भले इंसान ऐसे लोगों को जगाने के लिए लगातार चेष्टा करते हैं। वे जानते हैं जो समझने को तैयार न हो उसके सामने सत्य को कैसे उजागर किया जाए, लेकिन फिर भी निराश नहीं होते। वे जानते हैं एक न एक दिन इसके भीतर होश की, सत्य की रोशनी फैलेगी। रावण को इसीलिए लक्ष्मणजी ने चिट्ठी भेजी थी। इससे रावण जाग सकता था। 'बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस। राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।'

अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्रीरामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा। 'की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग। होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।' या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भांति प्रभु के चरण-कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! श्रीरामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतंगा हो जा। इस चिट्ठी में लक्ष्मणजी ने इशारा किया था कि तू अपने मन को समझा। फिर उन्होंने कहा था अहंकार छोड़ दे। हमें रावण के इस व्यवहार से सीखना चाहिए कि हमारे जीवन में भी जब हम गलत रास्ते पर हों, तो लक्ष्मण रूपी वैराग्य, चेतावनी का पत्र जरूर आएगा। उसे पढ़ें भी और उसके शब्दों के बाण को जीवन में उतारें।

भीतर के केंद्र पर टिककर कर्म करें
कर्म का संबंध केवल परिश्रम से ही नहीं रहता। परिणाम का जो रहस्य है वह मनुष्य की उत्सुकता को बनाए रखता है। कुछ छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दें, क्योंकि 24 घंटे हम बिना कर्म किए रह नहीं सकते। कर्म करते समय केवल वर्तमान पर न टिक जाएं। हर कर्म में एक अतीत छुपा है और एक भविष्य बसा है। फिर प्रकृति अपना काम करती है। प्रकृति को भाग्य न समझा जाए। उदाहरण समझ लें। गाड़ी चलाना आपका कर्म है। न आपकी ड्राइविंग में खराबी है और न वाहन में, लेकिन प्रकृति अपना असर डालेगी। जैसे कि सड़क खराब है। कुछ लोग इसे भाग्य मान लेते हैं। इसलिए कर्म और उसके परिणाम को पूरी परिपक्वता से देखें।

लोग कर्म में मांग और याचना जोड़कर चलते हैं। हमने मांगा कि भविष्य आया। हम दुखी हुए कि अपने अतीत में गिरे। असल में कर्म का वर्तमान भी बहुत छोटा होता है। इसमें आज जैसी कोई चीज नहीं होती। इसमें जो भी होता है अभी होता है और जो अभी है वह तुरंत बीत भी जाएगा और इसी अभी में एक नया समय आने को तैयार होगा। कर्म को लेकर भूत, वर्तमान और भविष्य में उलझने की जगह एक आध्यात्मिक प्रयोग करें।

जब भी कोई काम करें, शरीर तो बाहर से संचालित होगा, लेकिन भीतर अपने केंद्र पर टिक जाएं। हमारे केंद्र पर न भूत है, न वर्तमान है और न भविष्य है। जब आप स्वयं के केंद्र पर टिककर कोई काम करेंगे तो पूरी आत्मीयता से काम करना कहा जाएगा। यहीं से आप सफलता, असफलता और फल की झंझट से मुक्त हो जाएंगे।

शास्त्रों की गहराई में छिपा है सत्य
नई पीढ़ी के बच्चे जब भी कोई ऐसा काम करते हैं, जो पुराने लोग नहीं कर चुके हों या जिन्हें वे पसंद न करते हों ये बुजुर्ग उन्हें समझाने पर तुल जाते हैं। मैंने देखा है कि इसके लिए कई बार पुराने लोग शास्त्रों का सहारा लेते हैं। कहते हैं कि रामायण में यह लिखा है, बाइबल यह कहती है और कुरान में ऐसे समझाया है। ये प्रमाण इन बच्चों को प्रभावित कर दें, जरूरी नहीं है। यह सही है कि ग्रंथ में लिखी बातों के प्रति इस धरती पर असीम श्रद्धा है। लिखने वाले महापुरुषों ने इस देश, काल, परिस्थिति में जो देखा, समझा और अनुभूत किया वही पृष्ठों पर उतर आया।

वक्त बदला तो समझ भी बदली। जीवनशैली की आवश्यकताएं वैसी नहीं रही। इसीलिए लोग शास्त्रों के शब्दों के भीतर जीवन उपयोगी बातें ढूंढऩे लगे। शब्दों की भरमार होने के कारण और समय न होने से लोगों ने इस क्रिया को भी छोड़ दिया। फिर आजकल का समय तो ऐसा है कि कागज का प्रमाण सत्य से बहुत दूर हो गया। सभी जानते हैं कि अवकाश लेना हो तो बीमारी का सर्टिफिकेट लगा दो।

गलती से डेथ सर्टिफिकेट अगर दे दिया जाए और आदमी जीवित रह जाए तो उसे खुद को जिंदा साबित करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि कागज बोल रहा है। हालांकि, लोग कागज के गोलमाल को जानते हैं और यही मानसिकता धीरे-धीरे शास्त्रों के शब्दों के प्रति भी आ जाती है। लोग इन्हें फर्जी सर्टिफिकेट मानने लगे हैं। इसीलिए शास्त्रों के शब्दों में जो अभिव्यक्ति हुई है उसको सतह पर नहीं पकड़ा जा सकता। थोड़ा गहराई में पकड़ा कि ये शब्द पार लगने के लिए नाव बन सकते हैं।

मन को खोजने से मिलेगी शांति
मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक जो लोग अधिक फुर्सत में होते हैं वे मानसिक रूप से ज्यादा परेशान पाए जाते हैं और व्यस्त लोग कम दुखी मिलेंगे। दरअसल, दुखी तो व्यस्त लोग भी रहते हैं  पर वे अपनी व्यस्तता में इस दुख को भूल जाते हैं। कई महिलाएं तो सिर्फ इसीलिए नौकरी करती हैं और यदि वे नहीं करना चाहें तो घर के पुरुष उन्हें जबर्दस्ती कहीं न कहीं व्यस्त कर देते हैं, ताकि खाली समय में न वे परेशान हों और न दूसरों को करंे। इसलिए आप देखेंगे कि जो व्यस्त रहते हैं उनका सुख टटोला जा सकता है, क्योंकि दुख के भूल जाने पर भी सुख शुरू हो जाता है।

किंतु बाहरी व्यस्तताएं परेशानी भी लेकर आती हैं। जरा सा खाली हुए कि दुख का प्रवेश हुआ। इसलिए एक व्यस्तता और अपनाएं। वह है मन को खोजने की।  जैसे ही आपने मन को देखा तो आप उससे अलग हुए और यहीं से आप सुखी, शांत होंगे। हमारे शरीर में पांच ज्ञानेंद्रियां हैं- आंख, नाक, कान, त्वचा और जिह्वा। इनके पांच विषय हैं-रूप, गंध, शब्द, स्पर्श और रस। मन इन्हीं में छुपा हुआ है। आप इधर खोजों तो वह उधर भाग जाता है। आप उधर पकड़ो तो कहीं ओर से निकलेगा। गति तो इसकी लाजवाब है ही।

जैसे हम अपने बच्चों के साथ कभी-कभी लुका-छुपी का खेल खेलते हैं और थोड़ी देर के लिए हल्के हो जाते हैं, जीवन का भारीपन भूल जाते हैं। वैसे ही मन को खोजने में जितना व्यस्त रहेंगे, मन आपसे उतना ही छुपेगा और डरेगा कि पकड़ में न आ जाऊं। बस यहीं से शांति मिलेगी और इसी शांति का नाम असली सुख है।

धर्मस्थलों पर ऊर्जा प्राप्त करने जाएं
हम किसी भी धर्म के हों, अपने-अपने आराधना स्थलों पर हो सके तो प्रतिदिन जाना चाहिए। वहां से कुछ न कुछ जरूर मिलता है। बिना मांगे मिलता है। हालांकि, अधिकांश लोग वहां इसलिए जाते हैं कि जो संसार में नहीं पा सके, वह शायद वहां मिल जाए। पूजा के नाम पर संसार के सौदे जारी रहते हैं। संसार में तो मेहनत करके मिलता है, पर यहां तो दो हाथ जोड़ो, माथा झुकाओ, कुछ शारीरिक क्रिया करो तो कोई बैठा है ऊपर जिसे देना ही पड़ेगा। जबकि धार्मिक स्थल से बिना मांगे मिलने वाली चीज है आध्यात्मिक ऊर्जा।

एक ऐसी ऊर्जा जो आपके लिए आंतरिक ऊर्जा बन जाती है। वह परमशक्ति जानती है कि आपके लिए क्या जरूरी है। हमारी इच्छा होती है जो हमें चाहिए वह मिले और उसका फैसला होता है तू जिस लायक है वैसा मिले। इसलिए धर्मस्थल पर कामनाएं लेकर जाएंगे, तो कामनाओं की मार से हमारा आत्मबल कम हो जाता है।

हम अकारण कमजोर होना शुरू हो जाते हैं। एक अजीब-सी लाचारी हमारे भीतर भर जाती है। हम न चाहते हुए भी भिखारी होने लगते हैं। वहां जाकर बलशाली होने के स्थान पर हम  वहां से और भी कमजोर होकर लौटते हैं। मांगने की यही आदत फिर संसार में तेजी से फैलने लगती है। हम हर किसी के सामने हाथ फैलाने लगते हैं। अपनी कमजोरी को अनजान लोगों के सामने प्रकट करने पर वे हमारा शोषण करने लगते हैं। इसलिए धर्मस्थल पर जब जाएं तो ऊर्जा प्राप्त करने का विचार  अपने मन में जरूर रखें। जब लौटें तो अपने आप को संसार का सबसे समृद्ध, बलवान और मस्त मनुष्य मानकर आएं।

आकर्षण के आनंद को भरपूर जीयें
आकर्षण से हमारे दो तरह के संबंध हैं। पहला, हम दूसरों की दृष्टि में आकर्षण का केंद्र होना चाहते हैं और दूसरा हम कुछ ऐसे आकर्षण के केंद्र बना लेते हैं जिन तक हम पहुंचना चाहते हैं। दोनों ही स्थितियों में जब सफलता मिलती है तो आनंद आता है। स्वाद और आकर्षण में फर्क है। आकर्षण खींचता है, स्वाद रुका हुआ होता है। स्वाद थोड़ा निजी मामला है, लेकिन आकर्षण में एक फैलाव है।

भले ही आपकी रुचि प्रदर्शन में न हो, लेकिन दूसरों के बीच आप का व्यक्तित्व, छवि आकर्षक हो इसके प्रयास जरूर करते रहें। वरना हमारा जीवन ऐसा हो जाएगा जैसे बिना सुगंध के अगरबत्ती। सिर्फ धुंआ है, गंध नहीं, बिना स्वाद का भोजन, बिना लपट की आग। दूसरों का आकर्षण बनने का अर्थ यह नहीं है कि आपकी रुचि प्रदर्शन में है या आप अहंकारी हैं। हमारे भीतर जो अच्छाई है वह हम दूसरों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं और जिन बातों के प्रति हमें आकर्षण है वहां तक पहुंचने के लिए हम प्रयास भी करेंगे। इससे हमारी सक्रियता भी बनी रहेगी।

वरना जीवन जड़ हो जाता। हम देखतें हैं कि बच्चे आकर्षण के आनंद को भरपूर जीते हैं। जब पहली बार वे चलना सीखते हैं, बोलना सीखते हैं, खेलना सीखते हैं तो वे बार-बार उसी काम को करते हैं। वह बच्चा अपने ही आनंद को दोहराता है। जरा बारीकी से इसे समझें। हम, हमें प्राप्त हुए आनंद को दोहरा भी नहीं पाते बल्कि उसे और बासी कर दते हैं। बच्चे की आकर्षण की वृत्ति अपरिपक्व है और हमें उसे परिपक्व बनाए रखना है।

दृष्टि बदल देता है ईश्वर से संबंध
प्राय: हम समझ जाते हैं कि कुछ लोगों से हमारे संबंध जन्म के साथ तय हैं और फिर धीरे-धीरे और बनते जाते हैं। कई लोग ऐसे थे जो एक वक्त हमारी जिंदगी में बड़े जरूरी थे, उनके बिना दिन नहीं कटता था। वर्षों बाद वे ही लोग वक्त के बही खाते में खो जाते हैं। नए संबंध पुराने हो जाते हैं और पुराने फिर नए हो जाते हैं। संबंधों की इस दुनिया में जब हम उलझे हुए हों तो कभी विचार कीजिए कि हमारा एक संबंध उस ईश्वर से भी है। जैसे ही हम उससे  संबंध पर सोचना शुरू करते हैं दुनिया के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाती है।

रावण को जो चिट्टी लक्ष्मणजी ने भेजी थी उसमें यही इशारा था कि ऐ रावण तुमने विश्वविजेता बनकर अनेक लोगों से संबंध रखे अब श्रीराम से जुड़ जाओ जीवन के अर्थ बदल जाएंगे। 'सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।। भूमि परा कर गहत अकासा लघु तापस कर बाग बिलासा।।' पत्रिका सुनते ही मन में भयभीत रावण मुख पर मुस्कान लाते हुए कहने लगा, 'जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकडऩे की चेष्टा करता हो, वैसे ही छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) डींग हांकता है)''कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझह छाडि़ प्रकृति अभिमानी।। सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहुं बिरोधा।। शुक (दूत) ने कहा हे नाथ! सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्रीरामजी से वैर त्याग दीजिए। दूत यही समझा रहे थे कि तुम श्रीराम जैसे विराट व्यक्तित्व से जुड़ जाओ तो अपने विश्वविजेता होने का सही अर्थ जी पाओगे।

साक्षी भाव से सुख-दुख पर नियंत्रण
हमें जन्म के साथ जो चीजें मिलती हैं उसमें ये बातें प्रत्येक को प्राप्त हैं- सुख-दुख और राग-द्वेष। दार्शनिक लोगों ने कहा है कि सुख-दुख का जन्म राग-द्वेष से होता है। राग-द्वेष का सीधा-सा अर्थ है किसी चीज से हमें अत्यधिक लगाव हो जाना और उसे प्राप्त करने के लिए फिर हर संभव कोशिश करना। यदि वह न मिले तो फिर शत्रुता का भाव ले आना। दूसरे के अहित में किसी भी स्तर पर चले जाना। यहीं से सुख-दुख शुरू हो जाते हैं।

सचमुच शांत रहना चाहें तो सुख और दुख दोनों से ही अलग हटना होगा। जिसने यह सीख लिया उसने सुख-दुख दोनों से परे के आनंद को जान लिया। इस अलग हटने को साक्षी भाव कहा गया है। इसे तटस्थता न समझा जाए क्योंकि तटस्थ होने का सामान्य अर्थ लोग यह समझते हैं कि स्थिति से अपने को क्या लेना-देना। लोग अपना कर्तव्य ही छोड़ देते हैं। जबकि साक्षी भाव कहता है किसी भी दायित्व से किनारा नहीं करना है।

अपने मन-मस्तिष्क की हर गतिविधि को लगातार देखना है। इस प्रकार जैसे हम कोई अलग हैं और हमारी ही गतिविधि हमसे अलग है। ऐसा साक्षीभाव आने से बुद्धि होश में आ जाती है। चूंकि हम लगातार उस प्रेरणास्थल को देखेंगे जहां से संकेत मिलने पर हमारी बुद्धि और शरीर सक्रिय होते हैं इसलिए हम गलत कार्यों से बचेंगे। हमारे मन से जो विचार तरंगें उठ रही हैं वे विवेक संगत होंगी और हम उन्हीं को कार्य रूप में ढालेंगे। जो व्यर्थ होंगे चूंकि हम उनके साक्षी होंगे इसलिए उन्हें कार्य रूप में परिणत नहीं करेंगे। यहीं से हमारे सुख-दुख पर हमारा नियंत्रण आरंभ हो जाएगा।

दूसरों को अपने पर निर्भर न बनाएं
जिसके प्रति हम अधिक मालकियत बताते हैं हम उसी के गुलाम हो जाते हैं। इसलिए हर व्यक्ति और परिस्थिति से संबंधित अपनी भूमिका बड़ी सावधानी के साथ सुनिश्चित करें। प्रबंधन में समझाया जाता है कि इतने प्रभावशाली और सक्षम हो जाएं कि दूसरे आपके इशारे पर काम करने लगें। दूसरों को अपने ऊपर निर्भर बनाना भी योग्यता मानी जाती है। कहने को आप किसी राजा की सत्ता के पीछे बैठे हैं, लेकिन लोग कहें कि असली राजा आप ही हैं।

हालांकि, अध्यात्म कहता है कि अपने महत्व को दूसरों पर इतना भी न लादें कि आपका ही अस्तित्व आहत हो जाए। जब आदमी खुद के महत्व को अत्यधिक स्थापित करने में लगा हो तो वह अपने आसपास अशांति का वातावरण तैयार कर रहा होता है। जब भी ऐसे प्रयास आहत होते हैं, हम घबरा जाते हैं क्योंकि हमारी तैयारी है कि हम ही पूछे जाएं। दूसरे का काम हमारे बिना चले ही न। इसलिए अध्यात्म से सीख लेनी होगी। योगी और गुरु इतने प्रभावशाली होते हैं कि उनसे जुड़े लोगों को लगता है कि इनके बिना हमारा क्या होगा।

किंतु सच्चा गुरु और योगी जानता है कि तप के कारण मेरा व्यक्तित्व प्रभावशाली है पर मैं दूसरे के अस्तित्व में प्रवेश नहीं करूंगा, मैं उसकी मजबूरी नहीं बनूंगा बल्कि उसे निश्चिंत बनाते हुए योग्य बनाऊंगा। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो एक दिन दूसरों के लिए महत्वपूर्ण बनते-बनते हम इतने मजबूर हो जाएंगे कि खुद के लिए किसी काम के नहीं रहेंगे। पहले आपने बुराई को पकड़ा और फिर बुराई ने आपको पकड़ा ऐसी स्थिति हो जाएगी।

दुख तो रहेगा, खूंटियां बदल जाती हैं
ज्यादातर मनोवैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि जिंदगी में मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता। जीवनभर मनुष्य सबसे ज्यादा यही प्रयास करता है कि दुख न आए। बहुत से लोग तो दुख आने के विचार मात्र से ही दुखी हो जाते हैं। श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले अर्जुन को दुखी देखकर कहा था, 'तू यदि यह सोचता है कि तेरे रिश्तेदार तेरे हाथों मारे जाएंगे और इसका कारण तू है तो भ्रम दूर कर ले। दुख के कारण तो खूंटियों की तरह हैं। खूंटियां बदलती रहेंगी, लेकिन दुख तो रहेगा ही।

आज युद्ध का दुख है तो कल राजतिलक का होगा। लोग हारकर भी दुखी होंगे तो कुछ जीतकर भी।' यहीं से उन्होंने गीता में अर्जुन को समझाया, 'तू यह न समझ ले कि युद्ध न लड़कर सुखी हो जाएगा। यह कोई खेल नहीं है कि हम मैदान के बाहर बैठकर जिंदगी का खेल देख लें। हां इसमें यह जरूर हो सकता है कि खिलाड़ी दर्शक भी बन जाए, लेकिन केवल दर्शक बनने से जिंदगी नहीं चलती, मैदान में उतरना ही होगा। आज धर्म बिना शस्त्र उठाए बचेगा नहीं।

जिस दिन बिना शस्त्र उठाए बचने की संभावना होगी उस दिन कृष्ण यह घोषणा कर देगा कि युद्ध लडऩा ठीक नहीं है। हालांकि, कृष्ण जैसे लोग एक युक्ति बताते हैं कि दुख को भुला दो। रोम-रोम में प्रसन्नता भर लो और गीता जैसा साहित्य उसी का प्रयोग है। गीता के शब्द अर्जुन के रोम-रोम में ऐसे उतर रहे थे जैसे प्रसन्नता के झरने। वह आत्मज्ञान से भीग चुका था और कृष्ण मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। युद्ध तो लडऩा ही पड़ेगा बस जीत और हार की बेफिक्री रखनी पड़ेगी।

परमशक्ति से जुड़ें तो गलतियां नहीं होतीं
कोई भी समझदार आदमी गलती नहीं करना चाहता। कुछ लोग तो इतने अधिक सावधान रहने लगते हैं कि वे  इसी चौकन्नेपन में गलती कर जाते हैं। गलती यदि दोहराई जाए तो मूर्खता है। संत-महात्मा कहते हैं कि मनुष्य केवल अपने बूते जब भी करेगा योग्य होने के बाद भी चूक जाएगा। अपनी शक्ति में परमशक्ति को जोडऩे से गलती की संभावना कम हो जाती है। कुदरत की मदद अदृश्य रूप में ही आती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि काम करते वक्त हम पूरी तरह वर्तमान पर टिके रहते हैं। उस समय जो खतरे होते हैं वे हमें नजर भी आ जाते हैं।

हम सारी ऊर्जा, ध्यान और समय वर्तमान पर ही लगाते हैं, लेकिन कुछ खतरे भविष्य में भी होते हैं पर भविष्य देखने के लिए केवल मानवीय योग्यता काम नहीं आती। एक गॉड-गिफ्ट भी चाहिए। क्योंकि क्या करना है यह अक्ल तो हमने संसार से ले ली, लेकिन क्या नहीं करना है यह बुद्धि परमात्मा देता है। उससे जुड़ते ही हमारे भीतर एक मौलिकता पैदा होती है। परमात्मा की अनुभूति जिन महान आत्माओं को हुई उन सबके अनुभव भिन्न थे। उन्होंने व्यक्त भी किए तो तरीके अलग ही रहे। वरना रामकृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक अलग-अलग हस्तियां क्यों होतीं। शरीर से ये मनुष्य ही थे, लेकिन देवत्व के स्पर्श ने इन्हें अलग बना दिया। फिर इन्होंने जो भी किया वह सही किया। लोग चाहे गलतियां ढूंढ़ते रहें पर ये संत-महात्मा जानते थे कि क्या करना है और क्या नहीं करना। यही देवत्व हमें भी स्पर्श कर सकता है और हम भी इनकी तरह भविष्य में झांककर वर्तमान की गलतियों से बच सकते हैं।

प्रेम किसी मजहब का मोहताज नहीं
ममता मजहब को नया रूप दे देती है। मुझे इसका बहुत अच्छा अनुभव पिछले दिनों पाकिस्तान यात्रा के दौरान हुआ। लाहौर से मीरपुर माथेलो जाने के लिए मैं कराची एक्सप्रेस से सफर कर रहा था। 28 वर्षीय बेटी और लगभग 55 वर्षीय उसकी मां जो पाकिस्तान के नागरिक थे मेरे साथ सफर में थे। हिंदू-मुस्लिम धर्म, भारत-पाकिस्तान की राष्ट्रीय समस्याएं, गीत-संगीत, फिल्म और राजनीति पर लंबी चर्चा के बाद हम लोग अध्यात्म पर टिक गए थे। बातचीत में उस मुस्लिम महिला ने अपनी बेटी के लिए कहा, 'मैं चाहती हूं इसका घर ठीक से बस जाए।' बेटी चाहती थी घर बसाने के पहले विदेश जाकर कुछ नाम-दाम कमा लें।

दोनों का मीठा मतभेद हमारे सामने आ चुका था। रात के सफर में सोने के पहले उस मां ने मुझसे और मेरे साथ यात्रा कर रहे स्वामी सत्यानंदजी से कहा, 'आप लोग भी अपने ईश्वर से दुआ कीजिए कि मेरी बेटी का घर बस जाए। सोने के पहले हम दोनों ध्यान कर रहे थे। आंख खोलने पर उस मां ने कहा, 'आपको क्या इशारा दिया आपके भगवान ने। मेरी बेटी का घर अच्छे से बस जाएगा?'

मेरे रोम-रोम में मां की ममता उतर गई और मैं सोच रहा था इस समय यह औरत न मुस्लिम है न हिंदू, सिर्फ मां है। अपनी संतान के हित के लिए एक पाकिस्तानी मुस्लिम महिला दो हिंदुओं से अपेक्षा कर रही है कि उनका भगवान हम पर भी कृपा कर दे। मां सचमुच मां होती है, न हिंदू की होती है न मुसलमान की होती है। ममता सारी सीमाएं पार करके यह सिखाती है कि प्रेम किसी मजहब का मोहताज नहीं है।

ईश्वर के सामने गलत सोच भी अपराध
समाज में रहते हुए हम सही काम और अपराध के प्रति सावधान रहते हैं। संविधान और नियम इसी आधार पर बनाए गए हैं। दुनिया के सामने आपका गलत विचार जब कृत्य बनता है, तब अपराध कहलाता है। कर्म का रूप लिए बिना दुनिया उसे अपराध नहीं मानेगी, लेकिन परमशक्ति की अदालत में गलत किया हुआ ही नहीं, कुछ गलत सोचा तो वह भी अपराध की श्रेणी में दर्ज हो जाएगा। इसलिए स्वभाव में ही सावधान हो जाएं। संसार बनाने वाले के सामने गलत बात स्वभाव में, सोचने में आई तभी से अपराध शुरू हो जाएगा।

सुंदरकांड में लक्ष्मणजी की चिट्ठी रावण पढ़ रहा था और लगातार टिप्पणी किए जा रहा था। यहां आचरण और स्वभाव का अंतर बताया गया है। रावण आचरण से अपराधी था यह सबको नजर आ रहा था और श्रीराम स्वभाव से ही सज्जन थे। इसकी घोषणा रावण के दूत कर रहे थे। अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।। मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही।। यद्यपि श्रीरघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे। इन पंक्तियों का अर्थ है कि राम स्वभाव से कोमल हैं, शुद्ध हैं, पवित्र हैं और ऐसे हृदय के लोग कृत्य से अपराध करेंगे नहीं और जिन लोगों ने अपने कर्म को अपराध से जोड़ रखा है उन्हें भी सुधारने का प्रयास करेंगे। रावण को चेतावनी दी जा रही है तुम गलत कर चुके हो, लेकिन श्रीराम से मिलोगे तो सुधरने का अवसर रहेगा।

प्रेममय होंगे तो वासना से मुक्त रहेंगे
पिछले दिनों हुई कुछ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं से अब यह तय हो गया है कि कुछ बातों का तो समाधान अध्यात्म के पास ही है। युद्ध, वैमनस्य, षड्यंत्र जैसी घटनाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होती ही रहती हैं। हमें अपने पड़ोसी देश के कारण इन समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। फिर हमारे देश में पिछले दिनों चारित्रिक पतन की कुछ घटनाएं तो ऐसी हुईं जिसमें हर उम्र, वर्ग, प्रतिष्ठा का व्यक्ति चपेट में आया है। ऐसा लग रहा है जैसे भौतिकता की मशीन से बोरिंग हुई और वासनाओं के फव्वारे फट पड़े।

विचार करना होगा कि इनसे कैसे बचा जाए। ये सब देह की झंझटे हैं। अध्यात्म कहता है मनुष्य शरीर, मन और आत्मा से बना है। केवल शरीर पर टिकने के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। इस माह के प्रथम सप्ताह में मैंने पाकिस्तान में संत युधिष्ठिरलालजी के सान्निध्य में तीन दिन भागवत कथा कही। हजारों हिंदुओं के साथ मुस्लिम भी कथा सुनने आए थे। पहले दिन शरीर, दूसरे दिन मन और तीसरे दिन आत्मा को केंद्र में रखकर कथा कही गई। भागवत के आरंभ के प्रसंग मनु-शतरूपा के परिवार के विस्तार के प्रसंग हैं, जिनका आधार है परिवार में प्रेम।

असंवेदनाएं परिवार को उपद्रव का अड्डा बना देती है। मुझे कई मुस्लिमों ने कहा कि हमें एक बात समझ में आई कि अहंकार परिवारों को तोड़ देता है। कथा में जीवन से संबंधित जितनी बातें थीं उसे ग्रहण करने में श्रोता न हिंदू था, न मुस्लिम। जितना हम प्रेममय होंगे, उतना ही हमारा शरीर वासना से मुक्त रहेगा। शायद कथा की भूमि ने दो देशों की सीमाएं भी समाप्त कर दी थीं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष


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