Friday, October 11, 2013

Jeene Ki Rah3 (जीने की राह )

वर्तमान में रहने से मिलती है हिम्मत
हर हिम्मत वाले मनुष्य के भीतर किसी कोने में डरपोक मनुष्य जरूर छिपा रहता है। इसका उल्टा भी है, डरपोक इंसान के भीतर उसी का एक हिम्मतवाला व्यक्तित्व दबा रहता है। बाहरी रूप से कोई भी एक तरह का व्यक्तित्व प्रकट होता है, लेकिन उस समय दूसरा भीतर मर नहीं जाता। आइए, पहले उन लोगों की बात करें जो किसी काम को हाथ में लेने के पहले डरने लगते हैं। दूसरों की सहायता पाने के लिए व्यग्र हो जाते हैं।

कितनी ही कठिन परिस्थिति हो उनके सामने के वातावरण को हल्का ही बनाए रखें। इस तरह के कमजोर लोग या तो अतीत की घटनाओं में उलझे रहते हैं या अपनी कमजोरी में अनेक पात्रों को जोड़ लेते हैं। इसलिए सबसे पहले दूसरों को हटाकर स्वयं को टिकाएं। इन्हें अतीत से हटाओ तो ये भविष्य में जा गिरते हैं। अब ये बीते हुए कल की परेशानियों से छूटेंगे, तो आने वाले कल के डर में जकड़ जाएंगे। हमें इनकी भावनाओं को वर्तमान से जोड़कर भड़काना होगा। कमजोर लोग आसानी से आपको स्पर्श नहीं करने देंगे।

वे असहयोग के नए-नए बिंदू ढूंढ़ लेंगे, लेकिन हमें उनके भीतर का हिम्मतवाला व्यक्तित्व पकडऩा ही होगा। जैसे ही अतीत और भविष्य से मुक्त होंगे, वर्तमान पर टिकते ही इनकी भीतरी हिम्मत अंगड़ाई लेगी और वह खुद ही इन्हें समझाने लगेगी कि कल क्या हुआ छोड़ो, अब कल क्या होगा ज्यादा मत सोचो। अभी श्रेष्ठ करना है। ऐसे कमजोर लोग आपके जीवनसाथी, आपके बच्चे या आपके मित्र भी हो सकते हैं। उन्हें छोडि़एगा मत, वरना यह एक नैतिक अपराध होगा।

खुश रहने का तरीका है मनोविनोद
संसार में खुश रहने के इन दिनों बहुत से तरीके खोजे जा रहे हैं। खुश रहने के लिए शिविर लगाए जा रहे हैं, किताबें लिखी जा रही हैं और इसी के साथ दुखी रहने के तमाम तरीके भी अपनाए जा रहे हैं। खुश रहने के कुछ तरीके तो हमारे आसपास ही होते हैं और कुछ तरीके हमें भगवान जन्म के साथ गिफ्ट करते हैं। खुश रहने का एक तरीका है मनोविनोद करना। जब आप परिवार में हों, तो अपने से छोटे, हमउम्र और बड़े लोगों से थोड़ी बहुत ठिठोली करते रहिए। यदि कोई पुराना मित्र मिल जाए, तो कुछ पुरानी बातों को याद करके हास्य-विनोद जरूर कीजिए। सावधानी यही रखनी है कि विनोद करते समय खिल्ली उड़ाने से बचें।

कई बार हिसाब चुकाने का भाव आ जाता है और जिस विनोद से शांति मिलनी चाहिए वह अशांति का कारण बन जाता है। इसलिए ध्यान रखें जब भी किसी से विनोद करना हो, पहले उसका मान बढ़ाएं। शब्द और टिप्पणी ऐसी हो कि सामने वाले को उस मीठे मजाक में अपनी प्रशंसा सी लगे। विनोद के भीतर एक स्वाद जगाइए। एक रस सामने वाले में भर दीजिए। रस जाग्रत होते ही उसे विनोद प्रिय लगने लगेगा।

भूल कर भी कभी किसी के शारीरिक दोष और उसकी व्यक्तिगत रुचि पर टिप्पणी न करें। उनकी उपलब्धियों को ऊंचा आंकें। उसके सामने अपने को छोटा बनाएं और जैसे नीचे से किसी ऊपर बैठे व्यक्ति को गुहार लगाई जाती है, इस तरह से अपने विनोद को शब्दों में ढालकर पेश करें। ऐसा विनोद सामने वाले को तृप्त करेगा और पूरा वातावरण खुशनुमा हो जाएगा।

होश और कल्पना साथ चलने चाहिए
कल्पना करना और सपने देखना सभी के स्वभाव में होता है। यदि आप बारीकी से अध्ययन करें तो हर सांस के साथ हम एक कल्पना को भीतर उतार रहे होते हैं। जब हम आती-जाती सांस के प्रति लापरवाह हो जाते हैं, तब हम अपने स्वप्न और कल्पना के प्रति भी भूल कर बैठते हैं। होता यह है कि ये कल्पनाएं हमारे मस्तिष्क में इस कदर छा जाती हैं कि हम यथार्थ से कटने लग जाते हैं। कोई भी घटना घटी कि हम उसमें खुद को जोड़कर एक कल्पना में डूब जाते हैं।

कल्पना में डूबना बुरी बात नहीं है। सृजन को कल्पना ही पंख देती है, लेकिन हर कल्पना के आसपास यथार्थ की बागड़ जरूर बनाइए। मजबूत किनारों के बीच से बहती हुई कल्पना की नदी अपने सागर तक ठीक से पहुंच जाएगी। वरना जिस दिन इसे किनारे तोडऩे की आदत पड़ गई, ये कल्पनाएं हमारे भीतर तबाही और त्रासदी का कारण बन जाएंगी। इसलिए चौबीस घंटे में कुछ समय सांस पर एकाग्र होने के लिए निकालिए। कल्पना रहित सांस की क्रिया आपको यथार्थ यानी वर्तमान से जोड़ देगी।

इसलिए होश और कल्पना एक साथ चलने चाहिए। एक मुटठी में होश हो और दूसरी मुटठी में कल्पना और स्वयं पर इतना नियंत्रण रहे कि जब जिस मुटठी को खोलना हो, तभी उसको खोला जाए। बिना कल्पना के आपका व्यक्तित्व रूखा-सूखा हो जाएगा और अधिक कल्पना के साथ आप शेखचिल्ली बन जाएंगे। कल्पना को और अधिक परिष्कृत करना हो तो इस बात को न भूलें कि ईश्वर सबसे अधिक सुंदर कल्पना है।

जीवन में गुरु मंत्र ही भरता है स्वाद
अहंकार तो दूरी बना ही देता है लेकिन कई बार बिना अहंकार के पद व प्रतिष्ठा से भी हमारी दूसरों से दूरी बन जाती है। सीनियर और जूनियर के बीच मर्यादा  के नाम पर इतनी दूरी न बन जाए कि जिसमें अपनापन, हित और लाभ ही नुकसान में बदल जाए। घरों में भी यह स्थिति जनरेशन गेप के नाम पर आ जाती है। यदि हम वरिष्ठ हों और उम्र में बड़े हों तो अपने अधीनस्थों व छोटी उम्र वालों से बेशक दूरी रखें परंतु अपना बड़प्पन और उनकी अपेक्षाओं में तालमेल जरूर रखें। इस भरोसे को पैदा करें कि हमारे साथ उनका भविष्य सुरक्षित रहेगा।

उनके हित हमारी महत्वाकांक्षा की भेंट न चढ़ें। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि हम कार्यस्थल पर अधिनस्थ हों और घर में छोटे। तब भी कुछ सावधानियां जरूर रखें। बड़े लोग एक दूरी अवश्य चाहते हैं। यदि वे अहंकारी हैं तो समझ लें कि तलवार की मूठ उन्होंने थामी है और धार वाला हिस्सा हमें पकड़ाया जा रहा है। इस खेल में खून भले ही न निकले पर जिंदगी जरूर घायल होती है।

दोनों ही स्थिति में एक आध्यात्मिक भाव अपने भीतर लाएं। यदि आप बड़े हैं तो गुरु क्या होते हैं इसका आध्यात्मिक अर्थ समझें। यदि छोटे हैं तो स्वयं के भीतर शिष्य का भाव जगाएं। गुरु की कृपा शिष्य के भीतर के बीज को अंकुरित कर देती है। उसके जीवन रूपी फल में गुरु मंत्र ही स्वाद भरता है। शिष्य की श्रद्धा ही गुरु के शब्दों में तथास्तु का भाव उतारती है। गुरु का कंठ  शिष्य की श्रद्धा से ही सिद्ध होता है। परस्पर का यह रिश्ता नसीब वालों को ही नसीब होता है।

ईश्वर किया हुआ लौटाता जरूर है
ईश्वर  का उसूल है किया हुआ लौटाता जरूर है। लोग भले ही अपनी मांगों की पूर्ति में अधूरापन देखें पर वह कभी नहीं रखता। उसका स्पष्ट नियम है कि दूसरे के हिस्से का आप ले नहीं सकते और आपके हक का कोई रख नहीं सकता। श्रीराम ने सुंदरकांड में अपनी इसी व्यवस्था का सुंदर उदाहरण दिया है। हनुमानजी के आमंत्रण और आश्वासन पर विभीषण श्रीराम के सामने खड़े थे। वार्तालाप हो चुका था अब परिणाम आना था।

श्रीराम जो बोलते हैं वह करते भी हैं। समुद्र का जल मंगवाकर विभीषण का राजतिलक करते हैं। यह श्रीराम का आत्मविश्वास था। युद्ध अभी आरंभ भी नहीं हुआ है पर विजय हमारी ही होगी यह उन्हें मालूम था। तुलसीदासजी लिखते हैं-जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ। सोइ संपदा विभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।। शिवजी ने जो सम्पत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही सम्पत्ति श्रीरघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचाते हुए दी। रावण ने घोर तपस्या कर जो प्राप्त किया वह विभीषण को भक्ति से, शरणागति से मिल गया।

राम कोई राजनीति नहीं कर रहे थे विभीषण को तोडऩे की। विभीषण द्वारा जो रावण के विरोध का निर्णय लिया था, उस सही निर्णय का पुरस्कार दिया जा रहा था। सत्य के मार्ग पर चलने के लिए लोग प्रेरित हों इसलिए श्रीराम विभीषण  को रावण से भी बड़ी उपलब्धि दे रहे थे। विभीषण को घर का भेदी मानने की भूल न की जाए। वे सत्य के पक्ष में खड़े होने वाले व्यक्ति हैं, जिनके पीछे सच्चे लोगों की कतार आरंभ होती है।

हर मनुष्य में छिपी हैं संभावनाएं
देवता और मनुष्य में क्या फर्क है। शास्त्रों की परिभाषा में जाएंगे तो उलझ सकते हैं। साधु-संत कहा करते हैं- पुण्य करने से देवत्व प्राप्त होता है। आज के दौर में अपनी मेहनत से लक्ष्य प्राप्त करने वालों को ये सब बातें कम ही समझ में आएंगी। आज किसी से संबंध बनाओ या किसी विषय पर चिंतन करो या कोई काम करो तो पहला सवाल यही उठता है कि यह हमारे किस काम का? हर बात उपयोगिता से टटोली जाती है।

अब तो माता-पिता अपनी संतानों में और औलाद अपने जन्मदाताओं में भी उपयोगिता तलाशते हैं। ऐसे में देवताओं के चक्कर में कौन पड़े? लेकिन भारतीय संस्कृति में देवता की अवधारणा है बड़े काम की। हर मनुष्य में यह संभावना छिपी हुई है कि वह कुछ नया कर सकता है। वह ऐसा भी कर सकता है, जो पहले कभी नहीं हुआ। हर एक के भीतर नवनिर्माण की क्षमता परमात्मा ने आरंभ से ही दे दी है।

मनोवैज्ञानिकों ने जिसे व्हील ऑफ टाइम कहा है। समय की कल्पना में भविष्य निर्माण की एक महत्वपूर्ण योजना बसी है। जिसे भी भविष्य में कुछ श्रेष्ठ करना है, उसे समय के तीनों कालखंडों - भूत, वर्तमान और भविष्य पर स्पष्ट दृष्टि रखनी होगी। कुछ कमाल करके दिखाना हो तो देवत्व अपने भीतर उतारो। मनुष्य वर्तमान में ही ज्यादा उलझता है, देवता आने वाले समय की घटनाओं को भांपकर वर्तमान में अपनी योग्यता का उपयोग करते हैं। अतीत से सीखकर, भविष्य को भांपकर वर्तमान का सदुपयोग ही आपकी सफलता को सुनिश्चित करेगा।

चेतना को बड़ी चुनौतियों से जोड़ें
हर मनुष्य के भीतर एक चेतना होती है। सीधी-सादी भाषा में कहें कि हम मनुष्य हैं यह भावना जब थोड़ी परिपक्व हो जाती है तो चेतना कहलाती है। हमारी चेतना आशा और निराशा के बीच झूलती रहती है। जो लोग अपने जीवन को सचमुच मस्ती से जीना चाहते हैं उन्हें चेतना को संघर्ष, चुनौति से जोड़ना पड़ेगा। आत्मविश्वास चेतना का प्राण है।

इतना आत्मविश्वास बढ़ाइए कि जीवन में जब भी सामना करें, बड़ी समस्याएं ही हों। बड़ी चुनौतियां हमारी भीतर की चेतना को जाग्रत और सक्रिय करती हैं। अपनी चेतना को बड़े लक्ष्य, संघर्ष, चुनौतियों, स्थितियों और निर्णयों से ही जोड़ें। चेतना को विकसित करने में ये ही काम आएंगे। असंभव-सी लगने वाली बड़ी से बड़ी कठिनाई का सामना करने और उस पर जीत हासिल करने की पर्याप्त शक्ति हमारे भीतर अवश्य होती है।

जब आप बड़ी स्थितियों के सामने होते हैं तब आपके भीतर चेतना विकल्प देना शुरू कर देती है। हो सकता है वह आपको पीछे खींचे, भयभीत भी करे, सुरक्षित खेल खेलने की प्रेरणा देकर आलसी बना दे। यदि आप ऐसा करते हैं, तो जीवन से वंचित हो जाएंगे। ऐसे ही लोगों का जीवन जड़ हो जाता है।

जड़ जीवन वाले लोग अपना नुकसान करते हैं और दूसरों का भला तो कर ही नहीं पाते हैं, लेकिन जब चेतना जीवन से जुड़ती है, विकसित होती है तो आपकी सक्रियता न सिर्फ आपका निजहित करती है, बल्कि दूसरों की भी भलाई में आप सक्रिय हो जाते हैं। जिन महान लोगों को संसार आज तक याद करता है वे जाग्रत चेतना वाले लोग ही थे।

कर्म व भाग्य प्रकृति के दो वरदान
कितना कर्म, कितना भाग्य या केवल कर्म, केवल भाग्य। इस चक्कर में अच्छे-अच्छे उलझ जाते हैं। ऋषि-मुनियों को मालूम था कि आगे आने वाले समय में लोग इसमें परेशान होंगे। किसी एक को स्वीकारने का अर्थ है एक अति पर टिक जाना। अति हर चीज की बुरी होती है। कभी मौका मिले तो एक हाथ से एक चप्पू से नाव चलाकर देखिएगा वह वहीं घूमने लगेगी। केवल कर्म पर टिकना मनुष्य को सफलता पर अहंकारी बनाएगा और असफलता पर डिप्रेशन में डुबो देगा। केवल कर्म हमेशा जीतने का नशा चढ़ा देता है। इसलिए भाग्य का विचार लाया गया।

अपनी हिम्मत के अलावा किसी और ताकत की उपस्थिति के एहसास का नाम भाग्य है, लेकिन जिन्हें अति पर टिकने की आदत होती है वे भाग्य का पल्ला पकड़ लेते हैं। जब हम श्रम से छुटकारा पाना चाहते हैं, तब हम भाग्य का सहारा ले लेते हैं। भाग्य को आलसियों ने अपना हथियार बना लिया है। निराश चिंतन, कर्म और भाग्य दोनों के साथ पैदा हो जाता है। थोड़ी सी बुद्धिमानी से काम लीजिए।

जब पूरा कर्म, श्रम करने के बाद सफलता हाथ न लगे, तो निराश चिंतन को भाग्य से जोडि़ए। यहां भाग्य फिर से जुट जाने की प्रेरणा देगा। जहां भाग्य पर टिककर निराशा हाथ लगे, वहां अपने उदास चित को कर्म से जोड़ दें। भाग्य यहां उत्साह बढ़ाने का काम करेगा। सूरज और चांद दोनों की अपनी उपयोगिता है। ऐसे ही कर्म और भाग्य प्रकृति के ही दो वरदान हैं, हम समझदारी से दोनों पर टिकें।

नीरस नहीं होने देता ईश्वर रूपी रस
सांसारिक  दुनिया में समझदार लोग अपनी प्राथमिकताएं तय करके चलते हैं। अपनी इस प्राथमिकता की वृत्ति को तन मन धन से जोडि़ए। ज्यादातर लोग धन को प्राथमिकता देते हैं। वे धन के पीछे अपने तन, मन को दौड़ाते हैं। धन का सुख बीमारी और तनाव भी लेकर आता है। फिर हमारी नज़र जब अपनी प्राथमिकता पर जाती है तब तक देर हो जाती है। लेकिन यह भी सही है कि धन की प्राथमिकता छूटे नहीं छूटती।

चलिए धन छोडऩे की मूर्खता मत कीजिए, लेकिन एक काम करें। सुबह, दोपहर, शाम और रात धन के अलग-अलग रूप देखें। सुबह का धन परमात्मा बना लें। इसे कमाने का यह सबसे बेहतर अवसर है। पूजा, प्रार्थना, ध्यान इस समय तबीयत से किया जाए। फिर दिन में संसार में उतरें। सुबह कमाया ईश्वर रूपी धन साथ में रहे क्योंकि संसार रूपी चरखी में दो पैसे कमाने के लिए मनुष्य गन्ने की तरह पिसता है।

पूरा निचोड़े जाने के बाद भी तय नहीं है कि रस का गिलास आपको मिले। हो सकता है वह दूसरे हाथ में हो। तब ईश्वर रूपी रस आपको नीरस नहीं होने देगा। शाम का समय कमाया हुआ खर्च करने का है। इसीलिए बाजारों में, मेले-ठेलों में, क्लबों में शाम से रौनक बढ़ जाती है। जेबें इतना तेज धक्का देती हंै कि हम धन से ज्यादा खुद को खर्च करते हैं। यह स्वयं की बचत का समय है। शाम स्वयं को बचाएं और इसमें सुबह की प्रार्थना, ध्यान काम आएंगे। और रात विश्लेषण का समय हैं; क्या खोया क्या पाया सोचकर ही सोएं।

श्रीराम की विशेषताएं हृदय में उतारें
अपने लोगों की वाणी और विचार को सही साबित करने के लिए हमें प्रयास करते रहने चाहिए। खासतौर पर तब, जब हमारे लोग हमारे बारे में कोई अच्छा विचार व्यक्त करें, तब हमारी यह जिम्मेदारी हो जाएगी कि हम उनके कहे अनुसार अपने आचरण को प्रमाणित करें।

हनुमानजी ने विभीषण से प्रथम भेंट में श्रीराम के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला था। उनका प्रस्तुतीकरण इतना अच्छा था कि विभीषण के मन में यह उत्सुकता जाग गई कि क्या श्रीराम सचमुच इतने दिव्य हैं, जितना हनुमानजी ने व्यक्त किया है और इसी अपेक्षा के साथ विभीषण श्रीरामजी के सामने खड़े थे। दोनों की बातचीत हो रही थी।

सुंदरकांड में तुलसीदासजी ने व्यक्त किया- पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी।। बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक।। फिर सब कुछ जानने वाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्वरूप, भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करने वाले श्रीरामजी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले। इन पंक्तियों में श्रीराम की पांच विशेषताएं तुलसीदासजी ने बताई हैं- पहली, वे सबकुछ जानते हैं।

दूसरी, सबके हृदय में बसते हैं। तीसरी वे सर्वरूप हैं। चौथी, सबसे रहित हैं और पांचवीं विशेषता है कि वे उदासीन हैं। और ऐसा इसलिए हैं कि वे मनुष्य बनकर आए हैं। परमात्मा मनुष्य क्यों बनता है, इस पर भी टिप्पणी तुलसीदासजी ने इसी समय कर दी। दो प्रमुख कारण यहां बताए हैं- भक्तों पर कृपा करने और राक्षस कुल का नाश करने के लिए श्रीराम मनुष्य बने हैं। उनके भक्तों को मनुष्य रहते हुए श्रीराम की ये विशेषताएं अपने भीतर उतारनी चाहिए।

गृहस्थी एक तपोवन के समान है
स्त्री और पुरुष को पति-पत्नी के रूप में जीवनभर साथ चलना है, यह भूलकर वे ज्यादातर मौकों पर टकराने लगते हैं। साथ-साथ होने की बजाय आमने-सामने हो जाते हैं। अब तो पति-पत्नी में अच्छे पिता या अच्छी माता की भी प्रतिस्पद्र्धा देखी जा रही है। औरत के भीतर की मां तो कमाल की ही होती है। वह भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों काल में मां ही रहती है। जैसे गुड़ की डली में किसी एक कोने से मिठास तय नहीं की जा सकती, ऐसे ही मां हर स्वाद में मां ही है।

पुरुष के भीतर पिता की सुगंध होती है। स्वाद और सुगंध भी टकराने लगे तो गृहस्थी कैसे चलेगीइस टकराहट का सबसे बड़ा नुकसान उठाती हैं संतानें। गृहस्थी को तपोवन कहा गया है। तप की पूर्णता योग में है। घर-गृहस्थी का योग, छोटा-मोटा नहीं, वह राजयोग है। लेकिन अनेक लोगों ने इसे हठयोग में बदल दिया। राजयोग का सीधा अर्थ है शरीर को समझकर मन से गुजरकर आत्मा तक पहुंचना।

शरीर और मन के चरण को ठीक से समझ लें तो राजयोग आसान है। पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष का मिलन राजयोग जैसा है, पर लोग इसमें देह से आगे चल ही नहीं पाते। हठयोग शरीर पर अप्राकृतिक क्रियाएं करके प्राप्त होता है। कड़ी ठंड में शरीर को वस्त्रहीन रखना, भीषण गर्मी में कंबल ओढऩा, धूनी की ऊष्मा से शरीर का मुकाबला कराना, ये सब हठयोग हैं। इस तरह का हठयोग शरीर की स्थूल प्रकृति पर तो कारगर हो सकता है

गृहस्थी के सूक्ष्म संबंधों पर नहीं। गृहस्थी में सबने अपनी अपनी चिताएं तैयार की है और उस पर दूसरों को लिटाने, बैठाने की तैयारी है। इसलिए गृहस्थी में पति-पत्नी साथ में राजयोग से गुजरें।

जीवन को पूरा देखने का प्रयास करें
किसी भी चीज को आधा करके देखें और उसी पर टिक जाएं, उसे ही सही मान लें तो नुकसान पूरे का होता है। बाकी मामलों में तो नुकसान की भरपाई हो सकती है, पर जब जीवन को आधा-अधूरा देखा जाता है तो परिणाम खतरनाक आते हैं। जब भी देखें तो जीवन को पूरा देखने का प्रयास करें, स्वयं के भी और दूसरे के जीवन को भी। जैसे जीवन में बीमारी को देखें और उसी पर टिक जाएं तो जीवन नर्क बनेगा ही। आधा हिस्सा भले ही बीमारी ने घेर रखा हो, पर उसके शेष आधे हिस्से में स्वास्थ्य भी है। दुनिया में पूरी बुराई किसी में नहीं होगी।

उसके आधे में अच्छाई होगी और वह भी कूट-कूटकर भरी होगी। इसलिए जिन्दगी को कभी आधा मत देखना। उसके पूरे की खोज करना। जब हम पूरी तरह जी रहे हों तब मृत्यु को भी याद रखें, वह आधा सच है। और जब मृत्यु पर हों, तो जीवन को न भूलें, क्योंकि जीवन किसी एक से नहीं, दोनों को मिलाकर ही संपूर्ण होता है। हम हर बात की अति के आदी हो गए हैं।

बाकी सब मामलों में तो चल जाता है, पर जीवन के मामले में ऐसे में परिणाम खतरनाक आते हैं। दरअसल, हम जितना देख पाते हैं उतना ही सही मान लेते हैं। अनदेखे का सच प्राप्त कर लेना जीवन का सही अर्थ पा लेना है। संसारी संसार के पक्ष में दलील देते हैं। वे संसार को इस कदर पूरा मान लेते हैं कि उसी में रम जाते हैं। जबकि यदि कोई देखना चाहे तो प्रकृति ने संसार के आधे हिस्से में पूरा परमात्मा भर रखा है। और जब पूरा परमात्मा देखें तो आधा संसार मत भूल जाइए।

मित्रता विपरीत गुण वालों के साथ हों
वैसे सामान्य समझ यह है कि मित्रता बराबर के लोगों में की जानी चाहिए। नाम, दाम, पद, प्रतिष्ठा के मामले में ऐसा सही माना जा सकता है। लेकिन बात यदि गुणों की हो तो इस विचार को बदल लेने में ही भलाई है। हमेशा उनसे मित्रता, संबंध और संपर्क रखें जिनमें हमारे दोषों के विपरीत गुण हों। यदि हम मितभाषी हैं तो किसी वाचाल के साथ उठने-बैठने में नुकसान नहीं है। यदि हम उग्र हैं तो अपने आसपास शांत लोगों को खोजें, इससे हमें नुकसान कम होगा और हमारे बदलाव की संभावना बढ़ जाएगी।

यदि आप जानते हैं कि आप कंजूस हैं तो पहली फुर्सत में दरियादिल लोगों से जुड़ जाएं। कंजूसी की खोल फाड़कर उदारता का बीज अपना परिणाम देगा। हरेक के भीतर एक निराशावादी व्यक्तित्व होता है। जब वह अंगड़ाई लेने लगे तो तुरंत हंसमुख लोगों की मंडली में घुस जाएं। हमारे भीतरी दोषों को हमसे ज्यादा और कोई नहीं जान सकता। चौबीस घंटे में थोड़ी देर शांत बैठकर ध्यान मुद्रा में आकर अपने दोषों में से आते स्वर को सुनना यह एक आध्यात्मिक प्रयोग है। ये दोष  पुकार-पुकार कर गुणों को आमंत्रण दे रहे होते हंै।

इसलिए दोषों के विपरीत गुणों की तलाश में लगे रहिए। दोष भिखारी की तरह होते हैं कुछ न कुछ इनकी मांग बनी रहती है। यदि गुण नहीं देंगे तो ये दोष दुष्कर्म, पाप, अनुचित कृत्य से ही अपनी भरपाई करेंगे। इसलिए कोशिश कीजिए दोष की संगत शुभ के साथ रहे ताकि दोष बढऩे की बजाय प्रारंभ में ही निर्बल होकर मर जाए।

अपेक्षा में छिपी होती है अशांति
हम सबके प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं। हमने क्रोध भी छोड़ दिया है, सामने वाले को खुश रखने का पूरा प्रयास करते हैं। फिर भी वह हमसे ठीक व्यवहार नहीं करता। यह सवाल कई लोग मुझसे करते हैं। खास तौर पर अपने जीवन साथी के मामले में। एक को लगता है हम ही झुक रहे हैं और दूसरे पर कोई असर ही नहीं है। चलिए इसका उत्तर ढूंढ़ते हैं। दरअसल अपेक्षा में अशांति छिपी है। हम प्रेम के बदले प्रेम चाहते हैं।

हमारा प्रेमपूर्ण होना भी या तो एक योजना रहती है या मजबूरी। इसलिए प्रेम जैसी उच्चतम स्थिति को छोड़ दें, यह सामान्य के बस में है भी नहीं। इसके स्थान पर हम अपने भीतर की पॉजीटिव एनर्जी, सकारात्मक ऊर्जा पर ध्यान दें। हर एक के व्यक्तित्व में पॉजीटिव और नेगेटिव दोनों एनर्जी  दबी रहती हैं। हमें हर बार, हर व्यक्ति, हर स्थिति में इस पॉजीटिव एनर्जी पर केंद्रित रहना होगा।

मन जितना विचार शून्य होगा उतना ही पॉजीटिव एनर्जी बाहर फेंकेगा। जब भी मौका मिले विचार शून्य सांस लेते रहें। जैसे ही हम अपनी पॉजीटिव एनर्जी पर केंद्र्रित होंगे, दूसरों से अपेक्षा अपने आप छूट जाएगी। हम अपेक्षा शून्य हुए कि जो भी हमारे संपर्क में होगा उसमें भी हमारे जैसा होने की तैयारी शुरू हो जाएगी। यह इस कदर खामोशी से होता है कि अच्छे-अच्छे ज्ञानी नहीं जान पाते कि कब वे एक जैसे प्रेम पूर्ण हो गए। सारी तैयारी हमें करनी है और हम दूसरों का मुंह देखते हैं। इसीलिए हमारा प्रेम एक प्रयास मात्र रह जाता है। परिणाम में अशांति हाथ लगती है।

धैर्य और संतोष से दें संकट को मात
मनुष्य जीवन में स्वतंत्रता सबसे बड़ा सुख है और यह सुख हमें परमशक्ति द्वारा दिया गया है। ईश्वर ने सुख और दुख नहीं बनाए। ईश्वर ने हमें स्वतंत्रता दी है कि हम चयन कर लें। जैसे ही स्वतंत्रता दी वैसे ही सुख आरंभ हुआ, लेकिन हम चयन करते समय सुख की जगह दुख का चयन करते हैं। दुख यानी जीवन के विपरीत की स्थितियां। इसीलिए संतोष और असंतोष शब्द  बड़े काम के हैं। संतोषी व्यक्ति कहता है परमात्मा ने जो दिया है वह ठीक है।

सुंदरकांड में श्रीराम अपने आचरण से बताते हैं कि संतोष का क्या स्वरूप होता है। उन्हें समुद्र पार जाकर लंका में प्रवेश करना है। इसलिए वे सब लोगों से पूछते हैं कि यह काम कैसे किया जाए। सबका मत जानकर अपने निर्णय लेना श्रीराम की प्रजातांत्रिक विशेषता है। उन्हें राय दी अभी-अभी आए विभीषण ने- प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि। बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।

हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बता देंगे। तब सारी सेना बिना परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी। सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।।श्रीराम कहते हैं आपने बहुत अच्छी बात सुझाई। संतोषी व्यक्ति सदैव विनम्र होकर सामने वालों को निर्णय लेने का अवसर देता है। अब जो कुछ करना था समुद्र को करना था। श्रीराम हमें यही सिखा रहे हैं कि धैर्य और संतोष से कई बार भीषण से भीषण संकट भी सरलता से निपट जाते हैं।

कर्मों का फल अवश्य ही मिलता है
इस  संसार में जो भी मिल रहा है, उसके प्रति धन्यवाद का भाव जरूर बनाए रखें। लौकिक रूप से संसार के लोगों का आभार व्यक्त करें और पारलौकिक रूप से परमात्मा के अनुग्रहीत हो जाएं। भले ही हम अपने ही परिश्रम से प्राप्त कर रहे हों, पर इस परिश्रम की सतह के नीचे सहयोग और कृपा की लहर सदैव बहती रहती है। विचार करें कि हमें जो कुछ भी मिल रहा है, उस उपलब्धि के प्रति हम आभार से भरे हुए नहीं रहते हैं, तब हम वासना को अपने जीवन में आमंत्रित कर रहे होते हैं। जैसे कर्म हम करेंगे, उसका फल अवश्य मिलेगा।

कर्म और फल के बीच एक स्थिति चलती है, जिसका नाम वासना है। विद्वानों ने वासना का एक अर्थ यह भी बताया है कि जो बास जाए उसका नाम वासना है। दुर्गंध को बास भी कहा गया है। यह फूल की सुगंध की तरह कर्म और फल के बीच अपना प्रभाव रखती है। जैसे गुलदस्ता हटाने के बाद भी फूल अपनी गंध छोड़ जाएंगे। कर्म में जो फल मिलता है, वह उस भावना का होता है जिस भावना से कर्म किया जाता है। जिससे कर्म किया जा रहा है, वह भावना यदि दूषित है तो वासना में बदल जाएगी और फल में इसकी गंध आएगी।

एक ही कर्म अलग-अलग वासना के कारण फल के मामले में बदल जाते हैं। जैसे हथियार से अपराधी हत्या करे और उसी हथियार से डॉक्टर ऑपरेशन करे या सैनिक राष्ट्र की रक्षा। कर्म एक जैसे हैं, पर भावना दूषित होकर वासना में बदली तो परिणाम में फल भी बदल जाता है। इसलिए आभार का भाव बनाए रखें। अनुग्रह का भाव रखने वाला व्यक्ति सदैव अपने कर्म की भावना को शुद्ध रखता है और वासना से मुक्त रहता है।

भीतर उतरें तो कम होता है दुख
दुख आने पर पर अपने भीतर उतरकर खुद से परिचय किया जाए तो दुख कम हो जाता है। चाहे मनुष्य साधु हो जाए या पूरी तरह संसारी ही रहे, दुख तो आएंगे ही। दुख आने पर आप जितने बाहर रहेंगे, उतना ही वह और बढ़ेगा। जितना भीतर उतरेंगे दुख के बढऩे में रुकावट आ जाएगी। भीतर उतरने पर हमें अपनी आत्मा से परिचय करने में सुविधा होगी। ऐसा नहीं है किभीतर गए तो आत्मा स्वागत के लिए बैठी मिल जाएगी।

भीतर भी कुछ पर्दे हटाने पड़ते हैं। जो संसार हम देखते हैं इसका निर्माण धीरे-धीरे हुआ है। जैसे ही भीतर उतरें तो विचार करें कि निर्माण की पहली कड़ी में सिर्फ प्रकृति थी। इसे अस्मिता भी कहा गया है। परमात्मा ने इसमें अपनी शक्ति डाली। इससे जो गति उत्पन्न हुई उस हलचल का नाम अहंकार है, जो गतिशील हुआ तो चित्त बना। इस चित्त में आत्मा का भी प्रतिबिंब है और संसार का भी।

जब अधिक संसार है तो इसे क्षिप्त कहेंगे लेकिन अशांति और व्याकुलता बढ़ जाती है तो इसे विक्षिप्त कहते हैं। क्या करना है और क्या नहीं करना है, जब यह भान चला जाए तो इसे मूढ़ कहते हैं। जब यह किसी एक स्थान पर टिक जाए, हलचल कम कर दे तो इसे एकाग्र कहते हैं।

और थोड़ा आगे बढ़कर किसी एक केंद्र पर रुक ही जाए, कोई हलचल न हो तब इसे निरुद्ध कहते हैं। इसी अवस्था को योग कहा गया है। यानी संसार में रहते हुए योग से जुड़े रहें। यह आपको अपने भीतर जाने में एक सीढ़ी की तरह काम आएगा।

संस्कारों को जकड़ लेता है झूठ
बेवकूफ से बेवकूफ आदमी भी जानता है कि यदि एक झूठ बोलो तो बीसियों झूठ आगे बोलने पड़ते हैं। कम ही लोग जान पाते हैं कि बोला गया एक झूठ आपके भीतर के तेज को सोख लेता है। हमें लगता है कि पकड़े नहीं गए तो झूठ अपने लिए फायदेमंद है, लेकिन वह आपके व्यक्तित्व, को नुकसान पहुंचा चुका होता है। तेज संसार का सबसे बलवान तत्व है। झूठ उसी को सोखता है। मांसाहारी से दया की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए।

कामुक व्यक्ति में पवित्रता आ नहीं सकती। चील के घोंसले में फल नहीं मिला करते, वहां मांस के टुकड़े ही होते हैं। आपका स्वभाव आपका व्यवहार बनता है। इसलिए झूठ एक स्वभाव है जो व्यवहार को प्रभावित करता है। आपके भीतर झूठ बोलने की वृत्ति यदि उतर गई तो आप खुद से भी झूठ बोलने लगते हैं, फिर आप उस तोते की तरह हो जाते हैं, जिसे कितने ही मंत्र रटा दो चोंच का प्रहार करना बंद नहीं करेगा।

सर्प दूध पीकर भी जहर ही उगलता है। गन्ने के रस  की बालटियां नीम के पेड़ की जड़ में रोज डालो तो भी उसकी पत्तियां कड़वी ही रहेंगी। झूठ संस्कारों को ऐसे जकड़ता है कि हम तोता, सांप और नीम की तरह हो जाते हैं। इसलिए सुकर्म के लिए झूठ से मुक्ति जरूरी है। सुकर्म के बिना सुयश नहीं मिलता और अपयश के समान मौत नहीं। शुरू से सावधानी रखिए। झूठ को अपने आसपास भी फटकने न दीजिए। सत्य सदैव साफ-सुथरा होता है। झूठ जटिल-कुटिल और उलझा हुआ रहता है। झूठ से बचने का एक सीधा तरीका है कम बोलें।

प्रतिस्पद्र्धा देंगे तो ईष्र्या लौट कर आएगी
घर परिवार में सदस्यों के बीच न चाहते हुए भी एक अघोषित प्रतिस्पद्र्धा आरंभ हो जाती है। इसकी शुरुआत होती है आत्म प्रदर्शन के दैत्य से, जो पूरे घर को राक्षसी वृत्ति में बदल देता है। अपनेपन को खा जाता है। परिवार में व्यवहार करते हुए समय और समझ दो बातों के प्रति अतिरिक्त रूप से जागरूक रहें। जब हमारे पास समय होता है तब हम समझ से काम नहीं लेते और जब समझ आती है तब समय निकल चुका होता है। बाहर की दुनिया में इसके नुकसान इतने ज्यादा नहीं हैं, जितने घर के संसार में होते हैं। परिवार में संबंध यदि टूट जाएं तो फिर परिवार ही किस बात का।

यदि परिवार का बुरा समय चल रहा है, तो एक-दूसरे को भरोसा होना चाहिए कि वक्त आने पर काम आएंगे। समय अच्छा चल रहा हो तो एक-दूसरे की खुशियों में ईष्र्या नहीं करनी चाहिए। इस समय घर-परिवार में शिक्षा का वातावरण बदला है। पहले परिवार में एक या दो लोग पढ़े-लिखे होते थे। अब हर एक के पास शिक्षा है और इसीलिए प्रतिस्पद्र्धा भी है। बुद्धि से बुद्धि टकरा रही है, जो कि बुद्धि का स्वभाव है।

होना तो यह चाहिए कि एक की शिक्षा दूसरे के काम आए, लेकिन घरों में शिक्षा के शस्त्र से ही युद्ध शुरू होने लगे। पुराने जमाने में लोग कम पढ़े-लिखे थे, लेकिन धार्मिक अधिक थे। उन्होंने शास्त्रों से एक शिक्षा ली थी कि परमात्मा का अर्थ है एक ऐसी व्यवस्था जिसमें आप जो देंगे वो लौटकर आएगा और यह नियम आज भी घरों में लागू हो रहा है। यदि आप प्रतिस्पद्र्धा देंगे तो ईष्र्या लौट कर आएगी। प्रेम देंगे, तो प्रेम लौटकर आएगा।
विनम्रता व आवेश दोनों ही उपयोगी

चुनौतियों से निपटने का सबका अपना तरीका होता है। मनुष्य का निजी स्वभाव उसकी कार्यप्रणाली में कैसे उतरता है इसका उदाहरण सुंदरकांड में आया है। समुद्र पार करके श्रीलंका जाना था। श्रीराम के  सलाह मांगने पर विभीषण ने सलाह दी कि आप मार्ग देने के लिए समुद्र से निवेदन करें। श्रीराम दूसरों की राय का सम्मान करना जानते हैं। इसीलिए धनुष-बाण रखा और समुद्र से निवेदन आरंभ किया।

लक्ष्मणजी को यह बात ठीक नहीं लगी। वे तो तुरंत आवेश में आ जाते हैं। इस मामले में वे श्रीराम से बिल्कुल विपरीत हैं, एकदम गरज गए। तुलसीदासजी को लिखना पड़ा - मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा।। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्रीरामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुख पाया। नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।। कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।। लक्ष्मणजी ने कहा, 'हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! क्रोध कीजिए और समुद्र को सुखा डालिए।'

यह दैव तो कायर के मन का आधार है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं। लक्ष्मण कहते हैं कि आपके पास विवेक है, आप निर्णय के प्रति एक अलग दृष्टि रखते हैं, लेकिन आपको ऐसा करते हुए देखकर सामान्यजन देवता और भाग्य पर न टिक जाएं। मन ही मन श्रीराम भी सहमत थे। इसीलिए वे लक्ष्मण को अवसर दे रहे थे कि मेरी विनम्रता और तुम्हारा आवेश दोनों ही लोगों के लिए संदेश बन जाए।

किसी को सक्षम बनाना यश दान है
कुछ लोगों में अतिरिक्त ऊर्जा होती है इसीलिए वे दूसरों से अधिक काम कर जाते हैं। ऐसे लोगों को जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि वे अकेले दो-तीन लोगों का काम निपटा लेते हैं। यह अच्छी आदत धीरे-धीरे बुराई में भी बदल सकती है। ये दूसरों के काम भी निपटाने लगते हैं। उनके आस-पास के लोग उन पर निर्भर हो जाते हैं ।


ऐसा इन्हें अच्छा लगने लगता है। दूसरों को अपने पर निर्भर बनाना कभी-कभी तो ठीक है, पर हमेशा ऐसा करना खुद के लिए भी और दूसरों के लिए भी हानिकारक है। जब माता-पिता अपने बच्चों के साथ ऐसा करते हैं तो संतान का नैसर्गिक विकास रुक जाता है। आपके कार्यस्थल पर दूसरे लोग निकम्मे बन सकते हैं। उन्हें स्वतंत्रता दीजिए अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए। उन्हें केवल काम करना ही नहीं सिखाना है, आंतरिक रूप से जागरूक भी बनाना चाहिए। काम कैसे किया जाए यह सिखाना बाहर का मामला है।

काम क्यों किया जाए इसकी समझ देना भीतर का विषय है। उनके भीतर होश जगाएं कि वे जो कृत्य कर रहे हैं, उसका उद्देश्य क्या है और उसकी पूर्ति के लिए सही साधन क्या है।


आपकी भूमिका इसमें क्या होगी उसे सुनिश्चित करें। लोगों के भीतर यह भाव जगाएं कि इस काम को करने के लिए आपको योग्य माना गया है तभी यह काम आपको दिया गया है। इसलिए ठीक-ठीक अपनी पहचान करें कि आप क्यों योग्य हैं और फिर अपने उद्देश्य को समझें। अंधेरे में तीर न चलाएं। किसी को स्वतंत्र रूप से सक्षम बनाना यश दान माना गया है।

आलोचना हो तो भगवान से जुड़ जाएं
आलोचना करना जितना आसान होता है। आलोचना सुनने को भी उतना सरल बनाया जाए। संसार में लोग या तो आपकी प्रतिष्ठा की आलोचना करते हैं या चरित्र की। जब प्रतिष्ठा की आलोचना होती है तो हम खुद को समझा लेते हैं कि लोग हमसे जल रहे हैं और हमारी प्रतिष्ठा हमें सरल बनाने की जगह अहंकारी बना देती है। अहंकारी व्यक्ति दूसरों के प्रति लापरवाह हो जाता है। चरित्र की आलोचना होने पर व्यक्ति भीतर से हिल जाता है।

जब कोई हमारे चरित्र की आलोचना करे तो बचने की कोशिश न करें। लोगों का ध्यान हमारी ओर क्यों आया है इसका कारण अपने भीतर ढूंढ़ें। गलत से गलत आलोचना भी भीतर के मामले में सही इशारा कर जाती है। एक प्रयोग करें, जब प्रतिष्ठा की आलोचना हो तो विनम्रता और सादगी अपनाएं और जब चरित्र की आलोचना हो तो तुरंत भगवान से जुड़ जाएं। संसार के लिए कहा गया है, जो सरके वो संसार।

एक और अर्थ बोला गया है सवारी यानी संसार। इसीलिए आप देखिए, हर आदमी सरकने के लिए किसी न किसी पर सवार है। कोई धन पर, कोई बल पर, कोई पद पर, कोई यौवन पर ये सब सवारियां हैं। और इसीलिए आपको भी किसी पर सवार देखकर लोग आलोचनात्मक टिप्पणी जरूर करेंगे, लेकिन जैसे ही आप भगवान से जुड़ जाते हैं, आपकी सवारी का रूप बदल जाता है। परमात्मा इतना सुंदर है कि बुरी से बुरी आलोचना का भी भाव बदल जाता है और आप आलोचना को स्वस्थ रूप में लेने लगते हैं।

इच्छा को ईश्वर से जोडऩे पर ही तृप्ति
मनुष्य के मन में उठी हुईं इच्छाएं उससे ऐसे-ऐसे काम करवा लेती हैं, जिसकी वह कल्पना तक नहीं करता और बाद में उसे पछताना भी पड़ता है। लोग सवाल करते हैं कि इच्छाओं पर नियंत्रण कैसे पाया जाए। आइए, आज इस पर विचार करें।

जब हमारे मन में कोई इच्छा जागती है, जैसे वासना की। अब वासना से निपटने का सामान्य विचार यह है कि ब्रह्मचर्य को बचाया जाए, क्योंकि उसमें तेजस्विता होती है। सोचने में यह बात अच्छी लगती है, लेकिन जब इच्छा जागती है तब वासना अपना पूरा काम दिखा जाती है और ज्ञान धरा रह जाता है। केवल ज्ञान काम नहीं आएगा। इसके लिए हमारा अपनी इंद्रियों से परिचय होना आवश्यक है। इंद्रियां जब उत्तेजित होती हैं तो वे मन और मस्तिष्क दोनों को अपने हिसाब से सोचने और सक्रिय होने पर मजबूर कर देती हैं। हमारे शरीर में दस प्रमुख इंद्रियां हैं। हर इंद्री का अपना एक काम है। इनका संतुलन बनाया जाए। इंद्रियां जब अपने विषय से जुड़ती हैं, जैसे आंख का विषय है दृश्य, त्वचा का  स्पर्श, तब ये सक्रिय होती हैं।


इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए हमें विषयों के प्रति जागरूक होना पड़ेगा, तब इंद्रियां आवश्यकता और इच्छा दोनों पर ही काम करती हैं। आवश्यकता जीवन में एक मधुर ध्वनि है और इच्छा कर्कश वाणी है। इन्हें कितने ही विषयों का भोग मिल जाए, पूरी तृप्त कभी नहीं होंगी। पूरी तृप्ति एक ही विषय में है और उसका नाम है परमात्मा। इसलिए अपनी इच्छा को परमात्मा से जोड़ दिया जाए और इसी में इंद्रियों की परम तृप्ति होगी।

हर काम प्रसन्नता के साथ करें
जिस भी काम को जब जबरदस्ती करेंगे, अनमने ढंग से किया जाएगा। उसके परिणाम में हम थकेंगे भी और तनाव में भी डूब जाएंगे। इसके विपरीत प्रेम से करेंगे, पूजा मानकर काम किया जाएगा तो प्रसन्नता बनी रहेगी बल्कि थकान नहीं रहेगी और तनाव भी मिट जाएगा। ऐसा कृत्य दूसरों के लिए प्रेरणा-स्रोत बनेगा। सुंदरकांड की एक घटना इसका उदाहरण है। श्रीराम समुद्र से मार्ग मांग रहे थे और उनके छोटे भाई लक्ष्मण ने आवेश में आकर भाग्य और आलसियों की बात करते हुए उनके निर्णय के प्रति असहमति जताई थी।

लक्ष्मण का आवेश देखकर विभीषण, सुग्रीव व वहां मौजूद अन्य वानर सकते में  आ गए थे। सब विचार कर रहे थे कि श्रीराम अब क्या टिप्पणी करते हैं। सब लोगों के सामने छोटे भाई ने बड़े भाई की बात काट दी, लेकिन श्रीराम कोई भी कार्य दबाव में नहीं करते। उनके लिए हर कृत्य एक पूजा है। इसीलिए वे पलटकर लक्ष्मण से कहते हैं - सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।

ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।। अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।  सिंधु समीप गए रघुराई।। यह सुनकर रघुबीर हंसकर बोले, ‘ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो।ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्रीरघुनाथजी समुद्र के समीप गए। पहली बात तो श्रीराम अपने छोटे भाई की तीखी टिप्पणी पर मुस्कुराए, यही बड़प्पन है। कैसी भी स्थिति हो, अपनी प्रसन्नता नहीं खोनी चाहिए। हम लोग घर-परिवार में जरा सी बात अपने विपरीत हो तो अपना आपा खो देते हैं। श्रीराम से सीखें, जो काम करें भीतरी प्रसन्नता के साथ किया जाए।

समस्या को समझने में ही समाधान
यदि किसी जहरीले, खतरनाक जानवर को पकड़ने  का अवसर आए तब हम अत्यधिक सावधानी रखते हैं। ऐसे ही जीवन में जब कोई समस्या आए तो सबसे पहले उसे सावधानी से पकड़ा जाए। यदि पकड़ने का ढंग ही गलत हुआ तो समाधान, समस्या से भी अधिक खतरनाक होगा।

यही वजह है कि कई लोग समस्या सुलझा नहीं पाते। इसलिए समस्या को पकड़ने की योजना बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। सुंदरकांड में श्रीराम के सामने एक बड़ी समस्या यह थी कि समुद्र पर सेतु कैसे बनाया जाए। सलाह  का सहारा लिया तो छोटे भाई लक्ष्मण के विरोध के स्वर सामने आ गए। लेकिन श्रीराम ने समस्या को बहुत सही तरीके से पकड़ा। चार बातों का प्रयोग उन्होंने उस समय किया था।

पहली बात, लक्ष्मण के प्रतिकार पर हंसे थे। दूसरी बात उन्होंने स्वयं धर्य नहीं छोड़ा और छोटे भाई को भी धर्य रखने को कहा, ऐसे ही करब धरहु मन धीरा।। इसके बाद पूरी विनम्रता से समुद्र को प्रणाम किया और वहीं बैठ गए। प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।।

इसके बाद उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश (आसन) बिछाकर बैठ गए। हमारे जीवन में जब भी कोई समस्या आए प्रसन्नता, धर्य, विनम्रता और योग का सहारा लें। यहां बैठ जाने का अर्थ है शांत मन से स्वयं का मूल्यांकन करना। वरना हम जिन  प्रयासों में सफलता ढूंढ़ते हैं वे प्रयास नई समस्याओं को जन्म दे देते हैं। श्रीराम से सीखिए समस्या तो आएगी, पर पहली पकड़ ही मजबूत बनाएं।

विज्ञान और भगवान में हो संतुलन
भक्त  कहते हैं कि भगवान क्या नहीं कर सकता। भौतिक संसार को सब कुछ मानने वाले लोगों केलिए विज्ञान ही भगवान है। विज्ञान के माध्यम से जो चाहो वह कर लो। लेकिन विज्ञान की भी सीमा है। मानसिक शांति के मामले में विज्ञान रुक जाता है। हालांकि चिकित्सा विज्ञान में कुछ दवाइयां हैं, जो मनुष्य को कुछ समय के लिए आवेगरहित कर देती हैं, लेकिन उसे शांति नहीं माना जा सकता।

यदि विज्ञान से शांति मिल जाती, तो विकसित देश में सर्वाधिक शांति होती। शायर अकबर ने लिखा था, 'भूलता जाता है यूरोप आसमानी बाप को। बस खुदा समझा है उसने बर्क (बिजली) को और भाप को। बिजली और भाप के आविष्कार ने लोगों को इतना बावला बना दिया कि वे प्रकृति से ही लडऩे लगे। ईश्वर संसार और प्रकृति दोनों में बसा है। संसार में भी परमात्मा को नकारते हैं और प्रकृति में भी। इसलिए संसारी भी अशांत हैं और साधु-संत भी।

शांति का अभाव हो जाता है तो ये शांति का भी मुखौटा ओढ़ लेते हैं। हम शांत दिखने में ऊर्जा लगाने लगते हैं। फिर शांति का ये मुखौटा असत्य होने के कारण कुछ और परेशानियां लेकर आता है। ये  भीतर सक्रिय रहती हैं। दूसरे हमें शांत मान रहे होते हैं, लेकिन भीतर हम खूब परेशान रहते हैं।

भ्रम और भय का ऐसा जाल हमारे भीतर उत्पन्न हो जाता है कि हम उसी में उलझ जाते हैं। हमें यह डर रहता है कि कहीं मुखौटा हट न जाए, लोग क्या कहेंगे। इसीलिए आध्यात्मिक व्यक्ति विज्ञान और भगवान का संतुलन जीवन में रखता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष

No comments:

Post a Comment