Thursday, July 11, 2013

Jigyasa1 (जिज्ञासा)

क्या मांगें भगवान से सफल या असफल होने पर?
हमें अपनी कार्यक्षमता पर भरोसा होना चाहिए और अपने लोगों पर भी विश्वास करना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में जो भी घट रहा होता है, उसमें हमसे ऊपर एक परम शक्ति की बड़ी भूमिका रहती है। रामकथा में राम अवतार के पांच कारण बताए गए हैं।

उनमें से एक प्रसंग है कि शिवजी पार्वतीजी को कथा सुनाते हैं कि एक बार नारदजी ने विष्णुजी को शाप दिया। यह सुनकर भवानी चौंक उठीं। उन्होंने कहा - एक तो नारद विष्णुजी के भक्त हैं, उस पर ज्ञानी हैं, उन्होंने शाप क्यों दे दिया? यहां एक बहुत सुंदर पंक्ति आती है -

‘कारन कवन शाप मुनि दीन्हा, का अपराध रमापति कीन्हा।’

नारदजी पार्वतीजी के गुरु हैं। इसलिए उन्हें लग रहा है कि यदि कोई अपराध हुआ होगा तो वह विष्णु ने ही किया होगा, नारद नहीं कर सकते। शंकरजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया। शंकरजी ने कहा -

‘बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोई,

जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।’

यह शंकरजी का अपना दर्शन है कि संसार में न कोई मूढ़ है, न ज्ञानी। परमात्मा जब डोरी घुमाता है तो आदमी कठपुतली की तरह डोलता है। वह ऊपर वाला ऐसा है कि न उसकी अंगुली दिखती है और न धागे, बस हम कठपुतलियों की तरह दिखते हैं। हमें अपनी क्षमता पर विश्वास होना चाहिए। ऊपर वाला जिंदगी की डोर अपने हाथ में रखता है, इसलिए सफल हों तो उसे धन्यवाद दें और असफल हों तो उससे ताकत मांगें।

हनुमानजी से सीखें गलत का विरोध और सही का समर्थन कैसे हो?
सहमति और विरोध की जीवन में अलग-अलग स्थिति में जरूरत पड़ती है, लेकिन यदि गलत में सहमति हो जाए और सही का विरोध हो जाए तो नुकसान भी उठाना पड़ता है। कहां सहमति देना और कहां विरोध करना है, इसमें हनुमानजी बहुत जागरूक थे।

जब सुंदरकांड में वे लंका प्रवेश के समय लंका की सुरक्षा अधिकारी लंकिनी के सामने आते हैं, तो मच्छर के समान छोटा-सा आकार लेकर हनुमानजी लंका में प्रवेश कर रहे होते हैं और लंकनी उन्हें पकड़ लेती है। तुलसीदासजी ने लिखा है-

जानेहि नहीं मरम् सठ मोरा। मोर अहार जहां लगि चोरा।।

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना। जितने चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। लंकिनी ने हनुमानजी को चोर बोला। बस, यहीं से हनुमानजी ने विरोध का स्वर प्रकट किया। उन्होंने लंकिनी से कहा- तुम मुझे क्या चोर बता रही हो, दुनिया का एक बड़ा चोर रावण हमारी मां सीता को चुरा लाया है।

जब सुरक्षा व्यवस्था चोरों की ही रक्षा करने लग जाए, तब हनुमान का विरोध आरंभ होता है। हनुमानजी ने लंकिनी को एक मुक्का मारा और उसके मुंह से रक्त निकल आया। यह उनका सीधा विरोध था। गलत के प्रति आवाज उठाना, अनुचित का प्रतिकार करना हनुमानजी के चरित्र में था।

हम उनसे सीखें कि जब गलत बात हो तो हम विरोध में आगे खड़े हों और सही बात के समर्थन में पीछे न हटें। आमतौर पर लोग तटस्थ हो जाते हैं, इसीलिए उनकी अच्छाई के नीचे भी बुराई पनप जाती है।

तो आपके बच्चे होंगे यशस्वी और सफल
भारतीय परिवारों में सोलह संस्कार की जो व्यवस्था रखी गई है, उसमें संतान को भी संस्कार से जोड़ा गया है। ऋषि-मुनियों ने यह व्यवस्था बड़े सोच-समझकर की है। गृहस्थी में बिना प्रेम के शांति नहीं हो सकती। परिवार में प्रेम लाने के लिए शारीरिकता से ऊपर उठना होगा।

रिश्तों में शरीर के भाव को कम करने के लिए संतान बहुत बड़ा अवसर होती है। जैसे ही संतान होती है, माता-पिता प्रेम और संवेदना के साथ संतान पर टिक जाते हैं। यहीं से पति-पत्नी के बीच शारीरिकता कम होती जाती है। परिवार में बच्चों की मौजूदगी झगड़े और तनाव को कम करती है।

स्त्रित्व मातृत्व में और पुरुषत्व पितृत्व में घुल-मिल जाता है। बच्चों के लिए जब माता-पिता त्याग करते हैं तो वे इसे बोझ न मानकर आनंद मानते हैं, जबकि ऐसा त्याग पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए नहीं कर पाते। पहले के मुकाबले आज के बच्चे बाहर की स्थितियों से जल्दी व ज्यादा परिचित हो जाते हैं। ऐसे में संस्कारों को उनसे जोड़े रखना थोड़ा दबाव का काम हो जाता है।

लेकिन उनके व्यक्तित्व में संतुलन बनाने के लिए प्रेम से संस्कारों को उनके व्यक्तित्व में उतारा जाए, नहीं तो यह बच्चे घर और बाहर दोनों ही स्थिति में अशांत होकर अपने आप को दुख की स्थिति में पटक लेंगे।

इन्हें घर उपद्रव का अड्डा लगने लगेगा और बाहर नर्क नजर आएगा, जबकि नर्क हमारे जीने के तरीके का दूसरा नाम है। इसलिए परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा, संतानें उतनी ही यशस्वी हो सकेंगी।

इन लोगों को सबसे ज्यादा पसंद होता है अकेलापन...
दिल लगता नहीं अकेले में, यह भी आजकल की जीवनशैली की एक बड़ी समस्या है। पुराने दार्शनिक लोग कह गए हैं कि दो ही लोगों को अकेलापन प्रिय लगा है। योगियों में साधु-संतों को और भोगियों में स्त्रियों को।

अकेलेपन में मनुष्य की निकटता, स्पर्श और संग को अलग-अलग रूप में देखा जाता है। अकेलेपन का अर्थ लिया जाता है किसी का साथ न होना और इसीलिए इसे दूर करने के लिए दूसरे को ढूंढ़ा जाता है। अकेलापन मिटाने का दूसरा तरीका होता है भावनात्मक स्पर्श से।

आदमी केवल शरीर से शरीर को नहीं छूता, दृष्टि और हृदय से भी दूसरों को स्पर्श किया जा सकता है। अकेलापन मिटाने की इस क्रिया में मन और हृदय सक्रिय हो जाते हैं। भावनात्मक स्पर्श अपना काम तो करता है, लेकिन जरूरी नहीं कि अकेलापन मिट जाए, पूर्ण तृप्ति और संतुष्टि तब भी नहीं मिलती।

भावनात्मक रूप से अकेलापन मिटाने में मन केवल विचार और जानकारियां भीतर भरता है और बाहर उगलता है। मन से हटकर जब हृदय से जुड़ जाएं तो अकेलेपन में हृदय कुछ अधिक पवित्र होता है, ठीक बदलाव लाता है। मन को विचारों से खाली कर दीजिए।

खाली मन अपने आप खिसककर हृदय के पास चला जाता है और हृदय से फिर पूरे शरीर में भावनाओं का संचार होता है और ऐसा संचार अकेलेपन को आनंद में बदल देता है। यह क्रिया है तो गहरी, पर करने पर परिणाम बड़े शुभ देती है।

अपनी मौत को हमेशा इस तरह याद रखें...
जीवन में सीखने के लिए जितनी स्थितियां हैं, उनमें से एक महत्वपूर्ण है मृत्यु। फकीरों ने कहा है धार्मिकता शुरुआत है जीवन को सही रूप में देखने की। और अंत होते-होते धार्मिकता जब अध्यात्म में बदलती है, तब मृत्यु को सही ढंग से देखना आ जाता है।

मृत्यु भी गुरु की भूमिका में होती है। बड़ी से बड़ी सीख मृत्यु से ली जाती है। कई लोग कहते हैं फटाफट शरीर खत्म हो जाए तो ठीक है, पर थोड़ा-थोड़ा शारीरिक कष्ट और फिर मौत, यह बड़ा कष्टकारी है। लोग मौत भी सुविधाजनक चाहते हैं।

दरअसल, जब तक जिंदगी में बढ़िया चल रहा होता है, तब तक मृत्यु की याद भी नहीं आती और जहां शरीर के, हालात के कष्ट शुरू हुए तब मनुष्य थोड़ा-बहुत मौत को टटोलता है। मृत्यु को मजबूरी या भय से याद न किया जाए, इसे सतत स्मरण रखा जाए।

जितना मृत्यु से परिचय गहरा होगा, जिंदगी उतने ही अच्छे से समझ में आएगी। यदि जीना चाहते हैं तो मृत्यु को न भूलें। परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धिमान बनाकर सर्वश्रेष्ठ वरदान दिया है। इसलिए थोड़ी बुद्धि मृत्यु के स्वाद, समझ और स्वागत में भी खर्च की जाए।

उसे जब आना होगा, कोई रोक नहीं पाएगा, लेकिन तैयारी पूर्व से ही होगी तो जीवन जरूर मस्ती का स्पर्श ले लेगा। मृत्यु की समझ के लिए सतत जागृति हमें प्रेमपूर्ण बनाएगी, हरेक के प्रति हमारी दृष्टि बदल देगी। ऊर्जा मौत से बचने में न लगाकर समझने में लगाई जाए तो जीवन जीना भी उपलब्धि हो जाएगा।

भगवान को देखना हो तो इस झरोखे से देखें...
जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टि और विश्वास जगाने के लिए कुछ विशेष परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। ऐसी ही एक परिस्थिति का नाम होता है गुरु। हम चाहे किसी भी मार्ग के व्यक्ति हों, भौतिकता का पथ हो या भक्ति की राह, कुछ न कुछ संदेह, भ्रम और प्रश्न खड़े हो ही जाते हैं।

जिज्ञासु लोग उत्तर पाना चाहते हैं। यह चाहत ही गुरु पर जाकर पूरी होती है, लेकिन याद रखिए गुरु उत्तर दे या न दे, पर समझ को एक उत्तेजना प्रदान कर देता है। वही समझ होश बनकर साधक के काम आती है।

जैसे छात्र जीवन में सफलता के लिए दो बातें जरूरी हो जाती हैं- शिक्षक और पाठच्यक्रम। इनसे भी जुड़ाव समर्पण और परिश्रम से होता है। योग्य शिक्षक मिल जाए और उपयोगी पाठच्यक्रम का चयन कर लिया जाए तो सफलता मिलती है।

यही दृश्य भक्ति के मार्ग में भी रहेगा। गुरु अपने मंत्र से मन के विसर्जन, निष्क्रियता की तैयारी कराता है। गुरुमंत्र रटने का विषय नहीं, मन को निष्क्रिय करने का साधन है। जिनके पास गुरुमंत्र है उनके लिए ध्यान में उतरना सरल है।

भौतिक जगत में भी सफलता के साथ जिस शांति की जरूरत है, वह जिस होश से आती है, उसका स्रोत ध्यान होता है। तो सद्गुरु के प्रभाव को व्यक्ति से अधिक मंत्र में मानें।

गुरु के झरोखे से भगवान को झांका जा सकता है, पर झरोखे पर ही टिक गए तो यह गुरु का अपमान होगा। जिन कारणों से सद्गुरु हमारे जीवन में आते हैं, यदि वे ही पूरे न किए जाएं तो यह सद्गुरु का अपमान ही होगा।

इस तरह बना सकते हैं जिंदगी को खूबसूरत....
जिंदगी तब और खूबसूरत हो जाती है, जब हम प्रत्येक क्षण को भरपूर जीते हैं। जीवन में जो रस होता है, उसको पूरी तरह से निचोड़ने की कला आनी चाहिए। हनुमानजी इस जीवनशैली के पारंगत थे। वे जो जब करते थे, जमकर करते थे।

चलिए, सुंदरकांड के उस प्रसंग में चलें, जहां लंका प्रवेश के अवसर पर हनुमानजी की चर्चा लंकनी से हो रही थी। हनुमानजी ने उसको एक मुक्का मारा। घायल होकर वह हनुमानजी से कहती है-

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।

रावण को जब वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की पहचान बता दी थी। यहां एक शब्द आया है चीन्हा अर्थात चिन्ह यानी आइकॉन। इसका सीधा-सा अर्थ है हनुमानजी राक्षसों के विनाश की पहचान थे।

जिस तरह हम अपने संस्थान या काम का एक मोनो, लोगो या आइकॉन बनाते हैं, उसी तरह हनुमानजी सदैव से बुराइयों का विनाश और अच्छाइयों की स्थापना के आइकॉन हैं।

उनकी मौजूदगी का परिणाम था कि उनसे शत्रुता रखने वाली लंकनी ने कहा- हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए तो भी वे उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है।

यानी लंकनी को हनुमानजी की उपस्थिति सत्संग लगी। हमारे भीतर यदि सद्गुण हैं तो हम जहां भी खड़े होंगे, आसपास के लोग सत्संग-सी अनुभूति करेंगे और यही हमारी उपलब्धि होगी।

अगर आप संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं तो ये याद रखें...
आजकल कुछ भी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जिन्हें बिना संघर्ष के कुछ मिलता है, वे उसकी कीमत भी नहीं जान पाते। स्थितियों से संघर्ष करते-करते आदमी खुद से संघर्ष करने लगता है, फिर धीरे-धीरे अपनों से संघर्ष करने लग जाता है। यहीं से अपने और पराए का भेद शुरू हो जाता है।

नतीजा यह होता है कि सगे-संबंधियों में भेदभाव पैदा होकर घर टूट जाता है। इसलिए संघर्ष करने वालों को अपने भीतर अपनापन बनाए रखना चाहिए। अपनत्व का भाव जितना अधिक होगा, संघर्ष के दौरान संकीर्ण मनोवृत्ति उतनी ही कम होगी।

यदि ऐसा नहीं है तो जीवन में कलह का प्रवेश हो जाता है। परिवार टूटते हैं, सामाजिक एकता समाप्त होती है और देश की अखंडता पर भी इसका असर पड़ता है। इसलिए संघर्ष के दौर में अपनापन बनाए रखें।

हमारे भीतर अपनेपन की वृत्ति जागे, इसके लिए ईसाई महात्माओं का एक वचन याद रखना चाहिए - हर संत का एक अतीत होता है और हर पापी से एक भविष्य जुड़ा होता है। इस विचार को जीवन में उतारते ही हम समझ जाते हैं कि संत की स्तुति और पापी की निंदा करने में यह ध्यान रखें कि अपनेपन का भाव समाप्त न हो।

संतों की स्तुति इसलिए करते हैं कि हम उनके जैसा होना चाहते हैं और पापी की निंदा इसलिए करते हैं कि अपने अहंकार को तृप्ति मिले। अपनेपन का भाव आते ही हमारी दृष्टि बदल जाएगी और हम अपने संघर्ष को उत्सव का रूप दे सकेंगे।

क्या हनुमान की पूजा से दूसरे देवता नाराज होते हैं?
किसी में विश्वास करने का मतलब यह नहीं कि दूसरे में अविश्वास करें। विश्वास का अर्थ है सबका सम्मान करना। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की 35वीं चौपाई में यही समझाया है।

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।

हे हनुमानजी, आपकी इस महिमा को जान लेने के बाद लोग अन्य देवता को अपने चित्त में स्थान नहीं देंगे। ‘और देवता’ कहने का एक अन्य अर्थ भी है। ‘और अधिक’ देवताओं को चित्त में न रखें। जो भी आपके इष्ट हों उन्हें बनाए रखें।

इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि यदि श्रीहनुमानजी को आप पूजेंगे, तो अन्य देवता नाराज नहीं होंगे। तुलसीदासजी यह आश्वासन दे रहे हैं कि चिंता न की जाए। जिन्हें ज्योतिष में विश्वास है, वे ग्रहों के रूप में शनि को अत्यधिक पीड़ादायक मानते हैं।

यदि जातक की राशि में शनि का प्रवेश हो, तो प्रयास किया जाता है कि उनके कोप से बचा जाए। एक बार गर्व में डूबे सूर्य पुत्र शनि ने हनुमानजी को बाधा पहुंचाई। हनुमानजी ने शनि को समझाया कि उन्हें परेशान न करें, किंतु शनिदेव ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारा।

तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ में शनि को लपेटा और चट्टानों पर पटक-पटककर लहूलुहान कर दिया। पीड़ित शनि ने अपनी मुक्ति के लिए हनुमानजी को वचन दिया कि ‘मैं कभी आपके भक्त की राशि में प्रवेश नहीं करूंगा।’

अपने घावों से परेशान होकर शनिदेव तेल-तेल का विलाप करने लगे। इसीलिए उन्हें तेल चढ़ाकर प्रसन्न किया जाता है।

अगर दबंग होकर काम करना चाहते हैं तो यह करें...
विपरीत परिस्थितियों में विचलित न होना, संकट के समय धर्य रखना, विपत्ति में विवेक न खोना, इन विशेषताओं को शौर्य कहा जाता है। बुराइयों के विरुद्ध प्रतिशोध शौर्य माना गया है। स्वाभिमान, धर्म और राष्ट्रहित के लिए जो कार्य किए जाएं, वह शौर्य की श्रेणी में आते हैं।

इस छोटे से शब्द ‘शौर्य’ के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। साहसी को सतत अभ्यास करना पड़ता है। निरंतर अभ्यास ही आपको शौर्यवान बनाएगा। इसीलिए जीवन में निरंतरता का बड़ा महत्व है। निरंतरता के अभ्यास के लिए हमारे साधु-संतों ने एक छोटी-सी विधि बताई है।

सूफी फकीरों ने कहा है - अल्लाह के नाम को जितनी बार लेंगे, उतना मजा बढ़ता जाएगा। साधु-संतों ने इसे ही आनंद कहा है। नाम जप की पुनरावृत्ति हमारे पूरे अस्तित्व को प्रेम से लबालब कर देती है।

हर सांस जब नाम से जुड़ जाती है तो हर कृत्य शौर्यपूर्ण होता है। इसलिए जिन्हें संसार में साहसिक कार्य करना हो, उन्हें अपने भीतर निरंतर जप का अभ्यास बनाए रखना चाहिए। लेकिन ध्यान रखें, इस अभ्यास को यांत्रिक न बनाएं। इसे श्रद्धा और निष्ठा से जिया जाए।

अभ्यास इस तरह से हो, जैसे हम नहीं कर रहे, वह हो रहा है। लगातार इस बात को अपने भीतर उतारें। नाम जप का काम प्रथम हो और करने वाले हम द्वितीय। जब ऐसा होने लगता है तो पूरा व्यक्तित्व शौर्यपूर्ण हो जाता है। हर काम दबंगता के साथ पूरा होगा, क्योंकि हम निरंतरता के अर्थ समझ चुके होंगे।

तो फिर सफलता ज्यादा आसानी से मिल सकती है...
सफलता का एक सिद्धांत यह है कि या तो आप हालात को अपने अनुकूल बना लें या परिस्थितियों के अनुकूल बन जाएं। दोनों ही स्थितियों में संघर्ष भले ही हो, लेकिन सफलता सरलता से मिल जाती है। श्रीहनुमानचालीसा की बत्तीसवीं चौपाई है -

राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा।।

इसकी दूसरी पंक्ति में एक शब्द आया है- सदा। आइए इन शब्दों को जीवन से जोड़कर देखें। हनुमानचालीसा में जिस रसायन की चर्चा हुई है और जो हनुमानजी के पास है, इसका अर्थ है सभी परिस्थितियों के अनुकूल रहना।

इस रसायन का आध्यात्मिक संदेश यह है कि हमारा रहना इस प्रकार हो कि हम संसार में रहें, संसार हममें न रहे। सदा रहो रघुपति के दासा इसमें सदा शब्द महत्वपूर्ण है। श्रीराम ने हनुमानजी को उनकी उपयोगिता, उनके समर्पण और भक्ति के कारण सदा अपने पास रहने का गौरव दिया है।

श्रीराम का मानना है कि जाने कब, कौन-सी समस्या आ जाए। इसलिए समाधान हेतु श्री आंजनेय का साथ रहना ठीक है। प्रबंधन का सूत्र है कि यदि आप समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो फिर आप स्वयं एक समस्या हैं।

हनुमानजी का यह समाधानकारी चरित्र हमें जीवन तत्वों का सही उपयोग करते हुए व्यक्तित्व विकास की प्रेरणा देता है। परमात्मा की निकटता बड़ी उपलब्धि है। यह सदा रहनी चाहिए। ऐसा न हो कि आज सफल हुए, लापरवाही के कारण कल वह सफलता जीवन से फिसल जाए।

अगर आपके जीवन में प्रेम है तो नजरिया भी ऐसा होगा...
जीवन का एक सच यह भी है कि आदमी अपनों के ही कारण अपनों से दूर हो जाता है। जब ऐसा हो तो फिर सारी प्रकृति अपनी हो जाती है। जीवन में प्रेम आते ही सारा दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है। इस व्यापकता का नाम ही धर्म का सत्य स्वरूप है।

सच्चे धर्म का संबंध मनुष्य के सत्य के जानने से है। सच्चे धर्म की खोज मनुष्य के भीतर जो छुपा है, उसे पहचान लेने से है। मनुष्य के भीतर बहुत कुछ है। यदि नदी की तली में चट्टानें नहीं होतीं तो उसकी धाराओं में कोई संगीत भी नहीं होता।

इसी तरह मनुष्य के भीतर गहराई में उतरने पर अपनी ही पहचान का संगीत सुनाई देने लगता है। वह संगीत एक दफा पहचान लिया जाए तो वही पहचान अंत में परमात्मा की पहचान सिद्ध होती है। एक संन्यासी सारी दुनिया की यात्रा करके भारत लौटकर आया था।

उस राज्य के राजा ने संन्यासी से पूछा - क्या कहीं परमात्मा को खोज सके? संन्यासी ने उत्तर दिया - मैं इतना जान पाया हूं कि जिस दिन हम यह जान लेते हैं कि हम कौन हैं, उसी दिन हम परमात्मा को जान पाएंगे। न वह मूर्तियों में है, न वह नाम में है, न चित्र में है, न रूप में।

यह सब तो प्रवेशद्वार हैं, उन्हें लांघकर अंदर पहुंचना है। अध्यात्म मार्ग पर मन बहाने ढूंढ़ लेता है और बहाने वे कीलें होती हैं, जिनका उपयोग असफलता का मकान बनाने में होता है। फिर चाहे वह असफलता भौतिक जीवन में हो या भक्ति के जीवन में।

गृहस्थी को सुखी बनाना है तो ऐसे रहें...
गृहस्थी परमात्मा का प्रसाद होती है। इस विचार को जितनी परिपक्वता और पवित्रता के साथ जीवन में उतारा जाएगा, परिवार उतना ही शांत व सुखी होगा। आज परिवार अशांति के केंद्र और उपद्रव के अड्डे इसलिए बन गए हैं कि हम परिवार बसा तो लेते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि इसका आधार क्या होना चाहिए?

भारत के सबसे बड़े सामूहिक विवाह समारोह में संन्यास परंपरा के गौरव स्वामी सत्यमित्रानंदजी ने बड़ी सुंदर बात कही थी। उन्होंने व्यक्त किया - हमने संन्यासियों के कुंभ तो बहुत देखे, लेकिन गृहस्थों का कुंभ आज पहली बार देखा। उनका इशारा था कि जब गृहस्थी में ब्रह्मचर्य और संन्यास का समावेश हो जाए तो ऐसे दांपत्य में वैकुंठ का सुख उतरेगा ही।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म की चर्या यानी एक नैतिक अनुशासन, इसी की आज परिवारों में कमी पाई जाती है। संन्यास का अर्थ है तेरे भरोसे। मतलब यह कि परिवार को जितना परमात्मा के भरोसे रखेंगे, समस्याओं के हल उतनी ही सरलता से मिल जाएंगे।

भारतवासियों के पास अपने परिवार बचाने के लिए अध्यात्म की बहुत बड़ी पूंजी है। इसलिए भारतीय परिवारों में सुख की संभावना शांति के साथ दुनिया के और देशों से अधिक है। बस, इसका उपयोग करना आना चाहिए।

अगर जिंदगी में कभी निराशा आए तो सबसे पहले यह करें...
अनेक तरह से बलशाली लोग भी मानसिक दुर्बलता के शिकार पाए जाते हैं। हमारे संत-महात्माओं ने तो मानसिक बल पर खूब जोर दिया है और काम भी किया है। जब भी जीवन में निराशा आए, अपने पुराने सड़े-गले विचारों को त्यागें।

विचार भी लगातार बने रहने से बासी हो जाते हैं, इन्हें भी मांजना पड़ता है, इनकी भी साफ-सफाई करनी पड़ती है। कुछ समय स्वयं को विचारशून्य रखना भी विचारों की साफ-सफाई है। यह शून्यता गलत विचारों को गलाती है।

इसके बाद आने वाले विचार दिव्य और स्पष्ट होंगे। विचारशून्य होने की स्थिति का नाम ध्यान है। कुछ समय अपने ऊपर, अपने ही द्वारा, अपने विचारों के आक्रमण को रोकिए। कुछ लोग काफी समय ध्यान की विधि ढूंढ़ने में लगा देते हैं।

कौन-सी विधि से ध्यान करें, इसमें ही उनके जीवन का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। थोड़ा समझें कि ध्यान की कोई विधि नहीं होती। ध्यान में जो बाधाएं आती हैं, उन बाधाओं को हटाने-मिटाने की विधियां जरूर होती हैं।

ध्यान एक ऐसा होश है, जो अपनी शून्यता से विचारों को धो देता है। ताजे और प्रगतिशील विचार रोम-रोम में समाते हैं और उनके नियमित उपयोग की कला भी आ जाती है। हर विधि एक रास्ता है, पर बाधा को हटाने के लिए उसे ही ध्यान मान लेना गलत होगा।

मानसिक दुर्बलता से मुक्ति पाने के लिए कोई न कोई ऐसा मार्ग पकड़ लें, जो आपको ठीक लगे। ध्यान का स्वाद स्वयं आ जाएगा।

इन सातों को नींद से नहीं जगाना मतलब खतरे की घंटी...
जीवन को सुखी और शांत बनाए रखने के लिए शास्त्रों में कई अचूक नियम और उपाय बताए गए हैं। इन उपायों और नियमों का पालन करने वाले इंसान को कभी भी दुख का सामना नहीं करना पड़ता। वे लोग हर पल सुखी और चिंताओं से मुक्त रहते हैं।

जीवन में सफलताएं प्राप्त करने के लिए कई बातों का ध्यान रखना अनिवार्य है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य द्वारा कई सटीक सूत्र बताए गए हैं। इन्हीं से एक सूत्र ये है सर्प, नृप अथवा राजा, शेर, डंक मारने वाले जीव, छोटे बच्चे, दूसरों के कुत्ते और मूर्ख, इन सातों को नींद से नहीं जगाना चाहिए, ये सो रहे हैं तो इन्हें इसी अवस्था में रहने देना ही लाभदायक है।

यदि किसी सोते हुए सांप को जगा दिया जाए तो वह हमें अवश्य डंसेगा। किसी राजा को जगाने पर राजा का क्रोध झेलना पड़ सकता है। यदि किसी शेर को जगा दिया तब तो निश्चित ही मृत्यु का सामना करना पड़ सकता है। किसी डंक मारने वाले जीव को जगाने पर भी मृत्यु का संकट खड़ा हो सकता है। यदि कोई छोटा बच्चा सो रहा है तो उसे जगाने पर संभालना मुश्किल होता है। दूसरों के कुत्तों को जगा दिया जाए तो वह भौंकना शुरू कर देगा, काट भी सकता है। यदि कोई मूर्ख इंसान सो रहा है तो उसे भी सोते रहने देना चाहिए क्योंकि मूर्ख व्यक्ति को समझा पाना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी संभव नहीं हैं।

जीवन की हर सीढ़ी पर सबक सीखिए हनुमानजी से....
बचपन की सरलता हम हनुमानजी से सीख सकते हैं। जवानी की सक्रियता उनके पराक्रम की ही कहानी है। प्रौढ़ता में जो समझ होनी चाहिए, वह भी हनुमानजी हमें सिखाएंगे। और बुढ़ापा सफल होता है पूर्ण समर्पण से।

भारतीय संस्कृति में चार की संख्या का बड़ा महत्व है। चार वर्ण, चार युग और चार अंत:करण को कई बार याद किया जाता है। तुलसीदासजी ने श्रीहनुमानचालीसा की चालीस चौपाइयों में भी चार के आंकड़े को एक जगह याद किया है। 29वीं चौपाई में वे लिखते हैं-

चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा।।

अर्थात जगत को प्रकाशित करने वाले आपके नाम का प्रताप चारों युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) में है। श्रीहनुमान पवनसुत हैं और पवन न सिर्फ चारों युग में है, बल्कि प्रत्येक स्थान पर है। विदेश में पानी अलग मिल सकता है, धरती अलग मिल सकती है, वहां भोजन अलग मिल सकता है, किंतु हवा सारी दुनिया में एक जैसी मिलती है। पानी, अग्नि को रोका जा सकता है, लेकिन आप हवा का बंटवारा नहीं कर सकते। चारों युग का एक और अर्थ है।

हमारे जीवन की भी चार अवस्थाएं हैं - बचपन, जवानी, पौढ़ता और बुढ़ापा। प्रताप का एक साधारण सा अर्थ होता है योग्यता। इन चारों उम्र में हनुमानजी योग्यता की तरह हमारे जीवन में आ सकते हैं। बचपन की सरलता हम हनुमानजी से सीख सकते हैं। जवानी की सक्रियता उनके पराक्रम की ही कहानी है। प्रौढ़ता में जो समझ होनी चाहिए, वह भी हनुमानजी हमें सिखाएंगे। और बुढ़ापा सफल होता है पूर्ण समर्पण से।

हनुमानजी समर्पण के देवता हैं। इन चारों अवस्थाओं में तालमेल बिठाना है तो मुस्कान सेतु का काम करती है। इसीलिए आप किसी भी उम्र के हों जरा मुस्कराइए..।

जीने का सही तरीका सिखाती है महाभारत...
हर अच्छी किताब पढऩे के कुछ फायदे हैं। यदि बारीकी से शब्दों को पकड़ेंगे तो हम पाएंगे किताब में चार संदेश जरूर होते हैं। कैसे रहें, कैसे करें, कैसे जिएं और कैसे मरें। यह चार सवाल हर मनुष्य के जीवन में खड़े होते ही हैं।

यूं तो अनेक पुस्तकें हैं, पर आज हम भारतीय संस्कृति की चार किताबों पर नजर डालेंगे। महाभारत हमारा एक ग्रंथ है जो हमको रहना सिखाती है। गीता हमें करना सिखाती है। रामायण जीना सिखाती है और भागवत हमें मरना सिखाती है।

महाभारत हमें रहना सिखाती है यानी आर्ट ऑफ लिविंग, कैसे रहें, जीवन की क्या परंपराएं हैं, क्या आचार संहिता, क्या सूत्र हैं, संबंधों का निर्वहन कैसे किया जाता है ये महाभारत से सिखा जा सकता है। क्या भूल जीवन में होती है कि जीवन कुरूक्षेत्र बन जाता है। हम लोग सामाजिक प्राणी हैं। इसलिए नियम, कायदे और संविधान से जीना हमारा फर्ज है। महाभारत में अनेक पात्रों ने इन नियम-कायदों का उल्लंघन किया था। छोटी सी घटना है महाभारत के मूल में।

जब आप वचन देकर मुकर जाएं तो या तो सामने वाला आपकी इस हठधर्मिता को स्वीकार कर ले, या विरोध करे। और विरोध होने पर निश्चित ही युद्ध होगा। पाण्डव कौरवों से जुएं में हार गए। पहली बात तो यह है कि जुआ खेलना ही गलत था। गलत काम के सही परिणाम हो ही नहीं सकते।

दूसरी बात हारने पर उन्हें वनवास जाना था और जंगल से लौटने पर कौरव पाण्डवों को उनका राज्य लौटाने वाले थे, लेकिन कौरवों की ओर से दुर्योधन ने साफ कह दिया कि सूई की नोंक से नापा जा सके इतना धरती का टुकड़ा भी नहीं दूंगा और इस एक जिद ने महाभारत जैसा युद्ध करवा दिया। जब हम समाज, परिवार में रहते हैं, किए हुए वादे को निभाना हमारा फर्ज है। जुबान दी है तो बात पूरी तरह निभाई जाए।

मरने की कला सिखाती है भागवत...
भागवत ग्रंथ मरने की कला सिखाता है, आर्ट ऑफ डाईंग। यह 18 पुराणों में एक पुराण है। मरने की भी एक कला होती है। जीना तो सारी दुनिया सिखाती है और मरते-मरते आदमी इतना थक जाता है कि भूल ही जाता है कि यह भी एक कला है। जीवन का जब समापन हो, उस समय अमृत जरूर घटना चाहिए।

मरते तो पशु भी हैं। मौत को कोई नहीं रोक पाएगा, लेकिन मौत के समय होश जरूर रखा जा सकता है। जिन्दगी में जितने भी भय होते हैं उनमें सबसे बड़ा भय मौत का है। जिसका जन्म हुआ है उसे मरना ही है, लेकिन यदि मृत्यु के प्रति जागरुकता है तो जिन्दगी के मायने भी बदल जाएंगे।

देखिए, जिन्दगी का सीधा संबंध सांस से होता है। कहते हैं सांस रुक जाए तो उम्र खत्म हो जाती है। हमारे जीवन में सांस लेना सबसे महत्वपूर्ण क्रिया है। हम कैसे उठते हैं, बैठते हैं, बोलते हैं, देखते हैं, इसके प्रति खूब जागरुक रहते हैं, लेकिन सांस कैसे लेते हैं इसका हमें बोध नहीं है, बस लिए चले जाते हैं।

आदमी कहता है मैं सांस ले रहा हूं, पर सच तो यह है सांस वो नहीं ले रहा होता है। यदि वो सांस ले रहा होता तो इस दुनिया में कोई मरता ही नहीं। जब हम खुद सांस ले रहे हैं तो हम लेना क्यों बंद करेंगे। दरअसल कोई और है जो सांस दे रहा है।

जिस दिन वो चाहता है सांसों की डोर काट देता है, रोक देता है। इसलिए जैसे ही सांस से जुड़ते हैं, यानी आती-जाती सांस के प्रति जागरुक होते हैं, वैसे ही एक परम शक्ति से हमारा जुड़ाव हो जाता है। क्योंकि परमात्मा ने जन्म देने के बाद हमें हर शारीरिक क्रिया के लिए स्वतंत्र छोड़ रखा है, सिवाए सांस लेने के। इस कार्रवाई में उसका सीधा हस्तक्षेप है।

जो लोग परमशक्ति ईश्वर से जुडऩा चाहें उन्हें सांस से जुड़ाव करना आना चाहिए और जितना सांस से जुड़ेंगे उतना ही मौत को जान जाएंगे। यहीं से मरने की कला आती है।

शरीर भले ही परिश्रम करे, मन को आराम मिलना चाहिए
हमारे व्यावसायिक जीवन में परिश्रम हो लेकिन परिश्रम के अर्थ समझिए। परिश्रम नशा न बन जाए, परिश्रम बीमारी न बन जाए कितना परिश्रम करते हैं लोग आज। पर परिश्रम होना चाहिए तन का और विश्राम मिलना चाहिए मन को। होता उल्टा है। जितना परिश्रम हम तन से करते हैं उससे कहीं अधिक परिश्रम मन करने लगता है।

इससे आदमी या तो थक जाता है, चिढ़चिढ़ा हो जाता है, बैचेन हो जाता है, बीमार हो जाता है। परिश्रम का अर्थ समझिए। आज के परिश्रम ने इतना दौड़ा दिया है आदमी को बाहर से और भीतर से कि उसकी जितनी भी प्रतिभा थी वो सब प्रचंडता में बदल गई। उसकी जो योग्यता थी वह छीना-झपटी में बदल गई और आदमी आक्रामक होता गया है। देह खूब परिश्रम करे, देह की तीव्रता होना चाहिए लेकिन मन उसी क्षण बहुत विश्राम में रहे तब आप इस परिश्रम का आनंद उठा पाएंगे। इसी परिश्रम को पूजा कहा गया है।

इस समय आलस्य अपराध है। 14 घण्टे काम करना कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती, लेकिन थोड़ा समय अपने भीतरी व्यक्तित्व को जानने में भी लगाना चाहिए। हनुमान जब लंका गए तो वे जानते थे कि वे एक विष्व विजेता रावण की दुनिया में जा रहे हैं। वहां न सिर्फ चुनौतियां थीं, बल्कि जान का खतरा भी था। वे रामदूत बनकर गए थे।

उस समय उन्होंने सीताजी को ढूंढते-ढूंढते थोड़ी देर एकांत में बैठकर विचार किया था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटा जाए। उनके लिए एक षब्द लिखा गया है- मन महुं तरक करैं कपि लागा। हनुमानजी ने मन में विचार किया था। इसका सीधा अर्थ है थोड़ा भीतर उतरकर अपने आंतरिक व्यक्तित्व को पकडऩा। आप जितना गहरे उतरेंगे, बाहर उतना ही परिपक्व होंगे और आपका परिश्रम सचमुच पूजा बनेगा।

गीता सिखाती है कर्म का सही अर्थ
जीवन का दूसरा साहित्य है गीता। गीता महाभारत का एक छोटा सा हिस्सा है। जिस दिन 18 दिन का युद्ध आरंभ होने वाला था उस दिन अर्जुन थक गया तो भगवान ने पुन: अर्जुन को अपने कर्तव्य की ओर प्रेरित करने के लिए गीता का संदेश दिया था। केवल काम करने के लिए ही काम नहीं करना है। हर किए जा रहे काम के पीछे कर्तव्य, ईमानदारी और शत्प्रतिशत परिणाम लेने की तीव्र इच्छा होना चाहिए।

गीता यही सिखाती है। महाभारत युद्ध के ठीक पहले पाण्डवों के बड़ें भाई युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा था हम युद्ध हार जाएंगे, क्योंकि कौरवों के पक्ष में भीष्म, कर्ण और द्रौणाचार्य जैसे योद्धा हैं। हमारे पास क्या है? सेना भी कम है। तब अर्जुन ने समझाया था भैया युद्ध हम ही जीतेंगे, क्योंकि हमारे पास कृष्ण हैं यानी धर्म है। जहां धर्म, वहां जीत।

थोड़ी देर बाद युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण जो अर्जुन के सारथी थे, अर्जुन का रथ लेकर दोनों सेनाओं के बीच में पहुंचते हैं। अर्जुन ने जब कौरवों के पक्ष में अपने बुजुर्गों को देखा, रिश्तेदारों पर नजर डाली तो श्रीकृष्ण से कहने लगा मैं इस युद्ध को नहीं लड़ूंगा, इसमें मेरे अपने ही लोग मारे जाएंगे। तब कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं और इसी समझाइश से गीता का जन्म होता है।

कृष्ण ने कहा था मुद्दा यह नहीं है कि तुम युद्ध लड़ोगे या नहीं, हिंसा होगी या नहीं। सवाल यह है कि तुम्हारी इस निष्क्रियता से अधर्म और पाप को समर्थन मिल जाएगा। तुम्हारा कर्तव्य है गलत को रोकना और ध्यान रखो काम करते समय मैं कर रहा हूं यह भाव हटाओ, क्योंकि कर्म में यदि मैं आता है तो सफल होने पर अहंकार आ जाता है और असफल होने पर अवसाद (डिप्रेशन) आ जाता है। इसलिए शस्त्र उठाओ और युद्ध करो। तुम्हारा दायित्व है काम करना। सही काम करोगे तो परिणाम सही मिलेगा।

इसलिए कई बार पति-पत्नी गलत रास्तों पर चले जाते हैं...
इस समय दो तरह के दांपत्य चल रहे हैं। पहला अशांत दांपत्य और दूसरा असंतुष्ट दांपत्य। जो पति-पत्नी नासमझ हैं उनके उपद्रव, खुद उनके सामने और दुनिया के आगे जाहिर हो जाते हैं। वे अपनी अशांति पर आवरण नहीं ओढ़ा पाते।

दूसरे वर्ग का दांपत्य वह है, जिसमें पति-पत्नी थोड़े समझदार हैं, लिहाजा इस अशांति को ढंक लेते हैं या उपद्रव को खिसका भर देते हैं। ऐसा दांपत्य असंतुष्ट दांपत्य है। ये असंतोष स्त्री या पुरुष को गलत मार्ग पर जाने के लिए प्रेरित करता है।

जिन्हें सचमुच घर बसाना हो, वे चमड़ी की तरह एक बात अपने से चिपका लें और वह है प्रेम। बिना प्रेम के परिवार चलाया जा सकता है, बसाया नहीं जा सकता। इस समय ज्यादातर लोगों की गृहस्थी शोषण और उत्पीड़न पर चल रही है। पति-पत्नी में से जो ज्यादा समझदार है, वह इसे व्यवस्थित ढंग से करता है और कम समझदार अव्यवस्थित तरीके से निपटाता है।

मूल कृत्य में कोई अंतर नहीं है। प्रेम यदि आधार बनेगा तो जो पक्ष अधिक बुद्धिमान व समझदार होगा, वह अपने जीवनसाथी को भी वैसा बनाने का प्रेमपूर्ण कृत्य करेगा। गुण, कर्म और स्वभाव की समानता से जोड़े बन जाएं, यह किस्मत की बात है, वरना अपनी समूची सहनशक्ति, उदारभाव और माधुर्य को अपने जीवनसाथी के साथ संबंधों में झोंक दें।

सम्मोहन का एक ऐसा मंत्र जो आपकी किस्मत चमका देगा
सम्मोहन क्या है? कोई जादू है या चमत्कार है जिससे इंसान अपने मनचाहे काम किसी दूसरे इंसान से करवा सकता है। सम्मोहन को समझना हर कोई चाहता है क्योंकि सभी समझते हैं कि सम्मोहन वह कला है जो अगर आपको आ जाए तो आप किसी को भी अपने बस में कर सकते हैं। दरअसल ये इसी कारण होता है क्योंकि हम सम्मोहन का वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते हैं। अधिकतर लोग समझते हैं कि सम्मोहन वह अवस्था है जिसमें मनुष्य अवचेतनअवस्था में रहता है। न तो वह जागता रहता है न ही वह सोता रहता है। उसकी इंद्रिया उसके वश में होती है। वह सब कुछ करता है लेकिन सम्मोहन करने वाले के इशारों पर।

वह अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता में नहीं होता है। हां यह बात सही भी है। लेकिन भगवान ने हम सभी को भीतर एक सम्मोहन दिया है जिसे हम समझ नहीं पाते हैं। लेकिन एक सच और है वह यह कि सम्मोहित वही होता है जो होना चाहता है। हम सब के भीतर अवचेतन मन में एक सम्मोहन क्षमता है। यही कारण है कि जब हम अपने अंतर मन की आवाज को वाकई सुनते हैं। ऐसा अक्सर लोगों के साथ तब होता है जब उन्हें तुरंत निर्णय लेना होता है और वह फैसला सही साबित होता है। यही कारण है कि जब हम कठिन परिस्थिति में कोई निर्णय लेते हैं तो हमें चमत्कारिक परिणाम मिलते हैं क्योंकि वही समय होता है जब चेतन मन और अवचेतन मन का संधि काल होता है।

इसका कारण यही है कि उस अवस्था में हम अपने अवचेतन मन की आवाज सुन रहे होते हैं बस यही सम्मोहन कला है। उस समय मन का वश आपके ऊपर नहीं चलता बल्कि आप मन पर अपना वश चला रहे होते हैं। जैसे जब हमें गुस्सा आता है तो हम उस पर नियंत्रण नहीं कर पाते। लेकिन बाद में हमें अपने ही गुस्से पर गुस्सा आने लगता है। कारण यही है कि उस समय हमारा पूरा ध्यान गुस्से पर होता है न कि किसी और चीज पर। उस समय हम सम्मोहन में होते हैं अपने गुस्से के सम्मोहन में।

बस ऐसा ही जीवन में हर चीज को पाने के लिए सम्मोहन का सिद्धांत ही काम करता है। जब आप किसी चीज पूरी तरह ध्यान लगा रहे होते हैं तो वह आपकी तरफ अपने आप चली आती है। बस देर है तो मन को याद दिलाने की। आपकी जरूरत क्या है यह याद करने की। जब आप किसी चीज को बार-बार मन को दोहराते हैं और सोच को सकारात्मक रखते हैं तो ऐसी कोई चीज नहीं जिसे आप नहीं पा सकते हैं या कहें सम्मोहित कर सकते हैं। अगर आप ऐसा करने लगेंगे तो ये सारी सृष्टि आपके लिए काम करने लगेगी आपको सहयोग करने लगेगी।

इवेंट मैनेजमेंट के सूत्र सीखिए भगवान हनुमान से...
इस युग में कई तरह के प्रबंधन हो गए हैं। श्री हनुमान चालीसा की 30वीं चौपाई की आधी पंक्ति में एक सुंदर संकेत है।

साधु-संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे।

इसमें इवेंट मैनेजमेंट का बड़ा सुंदर संदेश है। भगवान के अवतार के दो प्रमुख प्रयोजन हैं। एक साधु-संतों की रक्षा और दूसरा असुरों का संहार। श्री हनुमान इवेंट मैनेजमेंट में पारंगत हैं। इवेंट मैनेजमेंट में तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली- उद्देश्य स्पष्ट हो। दूसरी- खर्च नियंत्रित रहे और तीसरी- परिणाम सौ प्रतिशत हो।

तो परपज, फंडिंग और रिजल्ट का तालमेल श्री हनुमान के लंका दहन जैसे इवेंट में दिखता है। रामकथा का एक बड़ा इवेंट है लंका दहन। हनुमानजी का उद्देश्य साफ था कि वे रामदूत हैं। उन्होंने अपनी हर गतिविधि से लंका को यह संदेश दिया। खर्च (फंडिंग) के मामले में वे इतने नियंत्रित थे कि तेल, कपड़ा सब लंका से लिया और लंका जला दी।

ये है सौ प्रतिशत स्पॉन्सरशिप। तीसरी बात थी परिणाम शत-प्रतिशत आया। हनुमानजी ने सारी लंका जला दी। जान-माल की हानि तो राक्षसों की हुई पर भविष्य में हमेशा के लिए वे सारे वानर नाम से ही भयभीत हो गए। किसी भी इवेंट की सबसे बड़ी सफलता यह है कि लोग इसे भविष्य में लंबे समय तक याद रखें। बाद में जब युद्ध के पूर्व अंगद को दूत बनाकर लंका में भेजा गया तो उन्हें देख राक्षस भयभीत हो गए थे। उन्हें अंगद में हनुमानजी ही नजर आ रहे थे।

अगर आप दुखी हैं तो ऐसे हर दुख को छोटा किया जा सकता है....
हम यहां इन विभिन्न तरीकों का विवेचन इसलिए नहीं ले रहे हैं कि बिना विशेषज्ञ जानकारी के इन पर चल पडऩा हमें लाभ के स्थान पर उसी प्रकार हानि पहुंचा सकता है जिस प्रकार बिना चिकित्सक द्वारा निदान के ही मनमाने तरीके से दवा लेने से लाभ के बजाय हानि हो जाया करती है। लेकिन हम प्राकृतिक जीवन पद्धति अपनाकर या तो रोग को आने से रोक सकते हैं या रोग यदि किसी कारण से आ जाए तो उससे लड़ सकते हैं। लडऩे के लिए चाहिए आत्मबल, साहस और प्रतिरोधात्मक शक्ति।

इसलिए हम इन दोनों पक्षों को (प्राकृतिक और आध्यात्मिक) को लेते हैं। विषय विशद है। प्राकृतिक जीवन पद्धति के निम्न सोपान हो सकते हैं- खुली हवा में रहना सूर्यप्रकाश की पूरी व्यवस्था सहित, अल्प आहार यथासंभव पौष्टिक व सादा सात्विक दूध युक्त, व्यसन मुक्त जीवन, शराब, तम्बाकू, नशा देने वाली वस्तुओं का त्याग, नित्य नियमित शरीर का त्याग की अवस्थानुसार व्यायाम या यौगिक क्रियाएं, शारीरिक स्वच्छता-स्नान और सफाई, कार्यरत बने रहना-योग्यता एवं क्षमता के अनुसार, विश्राम यथा आवश्यकतानुसार और स्वच्छ जल पान तथा पाचन प्रणाली...रक्त परिभ्रमण प्रणाली....तथा श्वसन प्रणाली को प्रयासों से ठीक बनाए रखना। अधिकांश रोग इनके विपरीत कार्य करने से होते हैं। इन तीनों का संबंध सम्यक आहार एवं विहार है। सम्यक आहार के निर्देश हमें समय-समय सद साहित्य से मिलते रहते हैं। अस्तु आधुनिक रोग जैसे उच्च रक्त चाप, मधुमेह, हृदयरोग, मानसिक दुर्बलता आदि प्राणलेवा हैं का संबंध जहां असंतुलित आहार आदि प्राण लेवा हैं का संबंध जहां आहार तथा अनियमित जीवन है वहीं इनका संबंध मनोदौर्बल्य से भी है। चिंता दुर्बल मन का प्रतीक है, तनाव दुर्बल मन की क्रिया है, चिंता व तनाव का संयुक्त प्रतिफल इन रोगों के रूप में प्रकट होता है।मन की दुर्बलता का इलाज नींद की गोलियों में नहीं, न ही चिकित्सा के अनान्य उपायों में है बल्कि यह आध्यात्मिकता के माध्यम से किया जा सकता है। आध्यात्मिक उपायों से आत्मबल बढ़ता है और मन रोग से संघर्ष करने योग्य हो जाता है तथा उपचार कारगर साबित होने लगते हैं।

आध्यात्मिक उपाय या उपचार क्या हो सकते हैं, इसका हम अत्यंत संक्षेप में विश्लेशण करने का प्रयास यहां कर रहे हैं। अध्यात्म का सार है मन को भगवान में लगाना। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है ''मन्मना भव मग्दक्तों.... 18/65

मन को मुझ में लगा दो और मामेकं शरणं ब्रज मेरी षरण में आ जाओ। 'अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिश्यामि मा शुच:।। 18/66 मैं तुम्हें पापों से छुड़ा दूंगा। चिंता मत करो। अर्थात् पाप हमारे चिंता के कारण हैं। पाप मुक्ति ही हमारे मन को चिंता मुक्त कर सकती है। हमें विश्वास करना होगा कि वासनायुक्त मन ही पाप का जनक और अस्थिर बुद्धि उसकी जननी है। पाप की पहचान हम कैसे करें?

वासनायुक्त मन बार-बार दु:खी करता है और दु:ख पाप का परिणाम है। हम आत्म चिंतन करें तो पायेंगे कि हमारा किया हुआ पाप या पाप करने की हमारी इच्छा या वृत्ति हमें दु:ख के सागर में धकेल रही है और जब हम या कोई बार-बार दु:खी होते हैं तो निश्चित बात है कि भूतकाल या पूर्व जन्म में जो पाप कर्म हमसे हो गए हैं और जो प्रारब्ध बनकर हमारे दु:खों के कारण हैं- चाहे वे गरीबी के रूप में हों या शारीरिक दृष्टि से रोग के रूप में हो या बौद्धिक दृष्टि से अविद्या के रूप में हों।इसका स्थाई उपचार आध्यात्मिक चिकित्सा प्रणाली में है जो वर्तमान में आत्मबल, मनोबल या मन शक्ति से बढ़ाकर दु:ख विषेशत: रोग रूपी दु:ख से लडऩे में सहायक हो सकती है। दु:ख वहन करने की एक बार शक्ति आ जाती है तो बड़े से बड़ा दु:ख बहुत छोटा हो जाता है।

क्या मांगें अगर कभी मिल जाए भगवान?
ईश्वर से कुछ मांगना हो तो ईश्वर को ही मांग लेना, लेन-देन के इस युग में आध्यात्मिक जगत में भी यह सवाल उठता है कि परमात्मा यदि मिल जाए तो उससे क्या मांगा जाए? इस वक्त हर आदमी किसी-न-किसी से कुछ मांग रहा है।

माता-पिता संतानों से सम्मान मांग रहे हैं, संतान माता-पिता से ध्यान मांग रहे हैं, पति मांग रहा है कि पत्नी मेरे हिसाब से चले, पत्नी की मांग है कि मेरा सोचा होता रहे। मालिक नौकर से अधिकतम परिणाम मांग रहा है, काम करने वाले अधिक वेतन चाह रहे हैं।

सब जगह मांग है। ऐसे में लोगों ने तैयारी कर ली है कि कभी भगवान हाथ लग जाए तो उससे भी मांग का सौदा किया जाएगा। गुरुनानक देव ने एक जगह कहा है कि मालिक मिले तो मालिक से मालिक को ही मांगना। इससे कम का सौदा मत करना क्योंकि उससे दुनिया मांगोगे तो वह दे भी देगा।

मालिक देते-देते थकता नहीं, पर हम लेते-लेते थक जाएंगे। जो लोग लंबी-लंबी अरदासें करके मांगते हैं, उन्हें परमात्मा बार-बार जन्म दे देता है और हम देह के चक्कर से छुटकारा नहीं पा पाते। जितना देह से हटेंगे उतना ही शांति के निकट पहुंच जाएंगे। हमें मनुष्य शरीर उसने दिया ही इसलिए है कि हम इसकी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि प्राप्त कर लें और वो है एक दिन उससे सामना हो जाना।

कई कथाओं में वर्णन है कि भगवान जिनको मिला, उनसे पूछता है- बोलो क्या दूं! और भगत यहीं चूक जाते हैं। बड़ी उपलब्धि हो तो सौदा भी बड़ा करें। परमात्मा से परमात्मा को ही मांग लें।

ये दो चीजें जीवन में आती हैं तो आदमी भटक जाता है....
बचपन से हमें सिखाया जाता है कि सावधान रहना, जिंदगी की राहों में भटक मत जाना। साधारणतया भटकने का अर्थ है कि हम चरित्रहीन न हो जाएं। हमारी जीवन यात्रा में दो चीजें होती हैं, तब हम भटकते हैं। पहला, यदि कोई धक्का लगे तो चाल लड़खड़ाएगी और दूसरा, यदि कोई घसीट ले तो मार्ग से इधर-उधर हो जाएंगे।

लोभ, मोह, काम, क्रोध, मान, पद, प्रतिष्ठा इन सबके धक्के हमें गिरा देते हैं। घसीटने के मामले में इंद्रियां बहुत ताकतवर होती हैं। खींच-खींचकर विषयों की ओर ले जाकर पटक देती हैं। इनसे बचने के लिए अपने भीतर या तो अति आत्मविश्वास जगा लें या श्रद्धा का अंकुर पैदा कर लें।

श्रद्धावान व्यक्ति नसीहतों के प्रति गंभीर होता है। उसके लिए सीख आचरण से अधिक भरोसे का विषय होती है। माता-पिता और गुरुजन की सीख वह अनुशासन के रूप में नहीं, श्रद्धा के रूप में लेता है। झोंकों से गिरने वाले और इंद्रियों से घसीटे गए लोग भविष्य के अज्ञात भय से भी डरने लगते हैं कि अब क्या होगा?

यदि श्रद्धा जीवन में है तो भय को जाना ही पड़ेगा। एक बात और कि जीवन में जब भी भय आएगा, उसके मूल में अहंकार जरूर होगा। अहंकारी व्यक्ति का जीवन दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा और आलोचना पर निर्भर होता है।

उसे सदैव भय बना रहता है कि दूसरे उसके बारे में क्या कहेंगे और इसीलिए वह धक्के भी खाता है, लेकिन श्रद्धा आपको स्वयं पर टिकाएगी, निर्भय बनाएगी।

रामायण का पांचवा अध्याय क्यों कहलाता है सुंदरकांड?
जो लोग सफलता अर्जित करना चाहते हैं, वे अपनी सफलता को सौंदर्य से जरूर जोड़ें। जीवन की सुंदरता का अर्थ है सफलता के साथ शांति। हनुमानजी की सफलता के लिए सुंदरकांड को याद किया जाता है।

श्रीरामचरितमानस के इस पांचवें सोपान को लेकर लोग चर्चा करते हैं कि इसका नाम सुंदरकांड क्यों रखा गया, जबकि मानस के अन्य कांडों के नाम व्यक्ति या स्थितियों के नाम पर रखे गए हैं। बाललीला का बालकांड, अयोध्या की घटनाओं का अयोध्याकांड, जंगल के जीवन का अरण्यकांड, किष्किंधा राज्य के कारण किष्किंधाकांड, लंका के युद्ध की चर्चा लंका कांड में और जीवन के प्रश्नों का उत्तर फिलॉसफी के साथ उत्तरकांड में दिया गया है।

फिर अचानक सुंदरकांड का नाम सुंदर क्यों रखा गया? दरअसल, लंका त्रिकुटाचल पर्वत पर बसी हुई थी। तीन पर्वत थे- पहला सुबैल, जहां के मैदान में युद्ध हुआ था। दूसरा, नील पर्वत, जहां राक्षसों के महल बसे हुए थे और तीसरे पर्वत का नाम है सुंदर पर्वत, जहां अशोक वाटिका निर्मित थी और यहीं हनुमानजी को पहली बार सीताजी के दर्शन हुए थे। इसलिए इसका नाम सुंदरकांड है।

सुंदरकांड पढ़कर उनके भक्त जान जाते हैं कि जगत का वैभव और जगदीश का ऐश्वर्य एक साथ कैसे प्राप्त होता है। इसी दृष्टि से हमें भी अपनी सफलता की यात्रा को जब भी जरूरत पड़े और अवसर मिले, सुंदरकांड से गुजारते रहना चाहिए।

किसका सहारा लें अगर जीवन में कभी जरूरत पड़े?
अपनी जीवन यात्रा अपने ही भरोसे पूरी की जाए। यदि सहारे की आवश्यकता पड़े तो परमात्मा का लिया जाए। संसार के सहयोग के भरोसे न रहें। संसार के भरोसे ही अपना काम चला लेंगे, यह सोचना नासमझी है, लेकिन अपने ही दम पर सारे काम निकाल लेंगे, यह सोच भी मूर्खता है।

इसलिए सहयोग सबका लेना है, लेकिन अपनी मौलिकता को समाप्त नहीं करना है। इसके लिए अपने भीतर के साहस को लगातार बढ़ाते रहें। अपने जीवन का संचालन दूसरों के हाथ न सौंपें। हमारे ऋषि-मुनियों ने एक बहुत अच्छी परंपरा सौंपी है और वह है ईश्वर का साकार रूप तथा निराकार स्वरूप।

कुछ लोग साकार को मानते हैं। उनके लिए मूर्ति जीवंत है और कुछ निराकार पर टिके हुए हैं। पर कुल मिलाकर दोनों ही अपने से अलग तथा ऊपर किसी और को महत्वपूर्ण मानकर स्वीकार जरूर कर रहे हैं।
जो लोग परमात्मा को साकार मानते हैं, मूर्ति में सबकुछ देखते हैं, वह भी धीरे-धीरे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार को पकड़ लेते हैं, जिसे कुछ लोग मूर्ति के बाहर ढूंढ़ रहे होते हैं। भगवान के ये दोनों स्वरूप हमारे लिए एक भरोसा बन जाते हैं। व्यर्थ के सपने बुनकर जो अनर्थ हम जीवन में कर लेते हैं, परमात्मा के ये रूप हमें इससे मुक्त कराते हैं, क्योंकि हर रूप के पीछे एक अवतार कथा है।

अवतार का जीवन हमारे लिए दर्पण बन जाता है। आईने में देखो, उस परमशक्ति पर भरोसा करो और यहीं से खुद का भरोसा मजबूत करो।

अगर जीवन में कभी भटकना नहीं चाहते हैं तो यह करें...
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक सबको समझाया जाता है कि देखो भटक मत जाना। भटकने का सामान्य अर्थ है आचरण से भ्रष्ट होना। एक और अर्थ है लक्ष्य से भ्रमित हो जाना। ये व्यावहारिक पक्ष हैं। आध्यात्मिक जगत में भी इसके संकेत हैं।

सबसे बड़ा भटकाव है जब मनुष्य अपनी ही गरिमा, योग्यता और क्षमता से भटक जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी की जीवनी देखें तो पता चलता है कि जब आदमी अपनी महत्ता पहचान लेता है तो कहां से कहां पहुंच जाता है।

उन्होंने अपने जीवन से हमें समझाया है कि लोग भूल जाते हैं कि हमारे ही भीतर एक दैवीय शक्ति है, जिसके सहारे हम बड़े से बड़ा काम कर सकते हैं। लेकिन हम अपने भीतर न टिककर दूसरे व्यक्तियों और स्थितियों पर अधिक टिकते हैं।

हमारा सारा संचालन दूसरे कर रहे होते हैं। अत: अपने अस्तित्व पर टिकने का अभ्यास बढ़ाएं। महर्षि रमण के देह त्याग के समय उनके शिष्यों ने उनसे पूछा - हमें छोड़कर आप कहां जा रहे हैं? अब आपकी यात्रा क्या होगी?

रमण ने गूढ़ उत्तर देते हुए कहा था - मैं कहां जाऊंगा? ये आप लोग पूछ रहे हो। मैं सदैव से यहीं हूं और यहीं रहूंगा। उन्होंने समझाया - बीज से वृक्ष और फिर वृक्ष से बीज बनता है। नदी सागर में, सागर से जल मेघ से होकर फिर नदी में जाता है।

इसमें आत्मा सदा ही रहती है। दरअसल इस भाव को ध्यान से समझा जाता है। मेडिटेशन हमें हमारे होने का बोध कराता है। भटकाव से बचना हो तो थोड़ा समय मेडिटेशन को जरूर दें।

अगर जल्दी सफलता चाहिए तो इस तरह चलें...
आजकल दुनियादारी की दौड़ में धीमे चलने वालों को नासमझ, थका हुआ और कमजोर माना जाता है। यह चीजों को तेजी से लपकने का वक्त है, लेकिन याद रखा जाए भौतिक रूप में विलंब असफलता का कारण हो सकता है।

साथ ही बहुत अधिक तेजी कब हमें हिंसक बना दे, पता नहीं लगता, क्योंकि तेज दौड़ने वाले लोग हर हालत में सफलता चाहते हैं। जरा भी असफलता मिली तो मन में यह विचार आता है कि दौड़ कुछ कम थी और इसलिए वह पूरे जोश से फिर दौड़ता है। बात भी ठीक है।

जब आप अपने आप को पूरी तरह दौड़ का हिस्स बना चुके हों और फिर भी कामयाब न रहें तो मानने में बुरा नहीं है कि दौड़ में कुछ कमी है। यहीं से आदमी के भीतर हिंसक भाव शुरू होता है। एक-दूसरे को समाप्त करने की प्रतियोगिता।

ठीक ऐसी ही कोशिश उस समय दूसरा भी कर रहा होता है। अब प्रतिस्पर्धा बदलते-बदलते प्रतिद्वंद्विता का रूप ले लेती है और फिर एक युद्ध शुरू हो जाता है। हिंसा तो युद्ध के प्राण हैं। संघर्ष हिंसक हो उठता है। इसलिए अहिंसा का भाव बचाए रखें।

आज के समय में तेज चलना ही होगा, लेकिन थोड़ा अहिंसा का भाव होगा तो हम संघर्ष को श्रेष्ठ रूप दे सकेंगे। इसलिए बाहर कितनी ही तेजी से चलें, 24 घंटे में थोड़ी देर भीतर रुक जाएं। जितना भीतर स्थिर होंगे, उतना ही बाहर अहिंसक। बाहर की दौड़ जारी रहेगी, पर हिंसा रहित होगी।

दुनिया में ऐसे लोग होते हैं ज्यादा सफल...
हमारा व्यवहार,संसार का व्यवहार है। दुनिया जैसा करती है,जैसा चाहती है,वैसा हम करने लगते हैं। इस मामले में जो लोग व्यवहारकुशल होते हैं,वे दुनिया में खूब कामयाब हो जाते हैं। इसी प्रकार हमारा स्वभाव परमात्मा का स्वभाव है।

इस बात को जितना हम ठीक से समझ लेंगे, उतना ही दूसरों के प्रति विनम्र और प्रेमपूर्ण हो जाएंगे। यह बहुत गहरा विचार है। हम यदि अपने स्वभाव को परमात्मा के स्वभाव से जोड़ लेते हैं तो वैसा ही अनुभव करने लगते हैं। आदमी वही बन जाता है जो वह अपने को मानता है। चूंकि हम एक विराट से अपने को जोड़कर रखते हैं, इसलिए हम भी विराट हो जाते हैं।

नास्तिक और आस्तिक में भेद ही यह है। आस्तिक हमेशा इसलिए मस्त रहेगा कि उसने भगवान में विश्वास ही नहीं किया है, उसने अपने आप को भगवान से जोड़ा भी है। नास्तिक के साथ आपत्ति यही है कि वह परमपिता के साथ अपने जुड़ाव को नकार देता है।

यहां मामला नैतिकता से अधिक स्वभाव का है। इसलिए स्वभाव के स्तर पर भगवान से जुड़े रहें। हम संसार में रहते हैं,परेशानियां आ ही जाती हैं,पर यदि हम भगवान से जुड़े हैं तो उस परेशानी,को गहराई में नहीं लाएंगे।

परेशानियां उतनी बड़ी नहीं होतीं,जितना मनुष्य खुद से जोड़कर उसको बड़ा बना देता है। यदि जुड़ाव परमशक्ति से है तो अपने आप संकटों से कटना हो जाएगा। हम संघर्षशील और पुरुषार्थी व्यक्ति होंगे,साथ में धार्मिक,विनम्र और विवेकशील भी रहेंगे।

सभी दिव्य शक्तियां हमारे पास ही हैं लेकिन...
सुख और दुख, जीवन के यही दो पहलु हैं। कोई भी व्यक्ति एक समय में या तो सुखी हो सकता है या दुखी। सुख और दुख हर इंसान के जीवन में आते-जाते रहते हैं। किसी व्यक्ति को अधिक समय के लिए दुखों का सामना करना पड़ता है तो कुछ लोगों को कम समय के लिए।

कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि उनके जीवन में कभी भी दुख आए और इसके लिए वे जगह-जगह मंदिर और देवस्थानों की भागते हैं। दुख से घबराकर वे दुखों को दूर करने के उपाय जो उनके सामने होते हैं देख नहीं पाते, फिर ईश्वर को दोष देते हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि ब्राह्मंड की सारी शक्तियां पहले से ही हमारे मन में मौजूद हैं। फिर भी व्यक्ति इन्हें खोजने के लिए जगह-जगह भागते-दौड़ता रहता है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार सभी दुखों को दूर करने के उपाय हर समय हमारे सामने ही रहते हैं लेकिन अज्ञानता वश हम उन्हें पहचान नहीं पाते। जीवन की समस्याओं से पीडि़त होकर रोते हैं और ईश्वर को दोष देते हैं। समस्याओं के दूर न होने की स्थिति में हम किस्मत खराब होने की बात कहते हैं। जबकि हर बुरी परिस्थिति से निकलने का उपाय या शक्तियां हमारे आसपास ही रहती हैं, बस हम उन्हें पहचान नहीं पाते। अत: हमारे मन में जो शक्तियां हैं उन्हें पहचानकर ही हमेशा सुखी और खुश रहा जा सकता है।

खुश रहने के लिए एक बहाना ये भी बनाइए...
कई बार स्थितियां अनुकूल होती हैं, जीवन में सबकुछ ठीक चल रहा होता है, बावजूद इसके हम खुश नहीं रहते। कुछ लोगों से यदि पूछा जाए कि आपकी उदासी का कारण क्या है तो वे बता नहीं पाते। बस इतना जानते हैं कि वे खुश नहीं हैं।

भारतीय संस्कृति में एक शब्द है सौजन्य। इसे जो ठीक से जी लेंगे, वे खुश रहेंगे भी और खुश रखेंगे भी। खुश रहने के लिए अपने आप को बहाना पड़ता है। जैसे मां अपनी संतान में बहती है और खुशी महसूस करती है।

इस बहाव में बहने के लिए मां की ममता काम कर रही होती है। इसलिए हमारे भीतर यदि प्रेम जागे तो हम दूसरों को अनुमति देते हैं कि वे हमारे भीतर बह सकें और हम भी दूसरों में लहर की तरह बहने लगते हैं।

संत रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार सौजन्य का अर्थ बताते हैं कि जीवन में जब सुजनता, भद्रता और नम्रता आ जाए, तब सौजन्य शुरू होता है। आज सौजन्य मनुष्य के भीतर से जा रहा है, उसका सबसे बड़ा नुकसान हुआ मानवता क्षीण होने लगी।

मानव जाति बढ़ी, मानवता कम हो गई। जब हम अभद्र व्यवहार करते हैं तो जीवन में बीमारियां आती हैं और जब हम मन के प्रति अशालीन होते हैं तो वासनाएं प्रवेश कर जाती हैं। जिनके जीवन में सौजन्य सही रूप में उतरा, वे कभी नाखुश नहीं रहेंगे।

इसलिए कोशिश करें कि पहले शालीन बनें तो अपने आप हम दूसरों के प्रति भद्र होते जाएंगे। हमारी ऐसी भद्रता निश्चित ही भगवान को पसंद आएगी।

कौन लोग बनते हैं प्रेत और ये कैसे होते हैं?
मरने के बाद क्या होता है? यह जानना हर मनुष्य की जिज्ञासा का विषय है। इस जिज्ञासा को कुछ हद तक हमारे धर्मग्रंथों में मिली जानकारी से संतुष्ट किया जा सकता है। प्रेतों के बारे में कहानियां तो हम सभी बचपन से सुनते आए है मगर ये प्रेत होते कौन हैं इनका स्वरूप क्या होता है आइए जानते हैं....

इस संसार में मनुष्य योनि, पशुयोनि, आदि दृश्य योनियों के अलावा अदृश्य एक प्रेतयोनि भी हैं। संसार में जितने पदार्थ हैं। मनुष्य पशु-पक्षी जीव-जन्तु, अन्न-फल-मूल सब के सब पश्चभौतिक है। ये प्रेत भी पश्चभौतिक हैं पर पार्थक्य इतना ही है कि मनुष्य-पशु-पक्षियों में पृथ्वी के अंश नहीं के बराबर है। प्रेत अदृश्य और बलवान होता है। अदृश्य होने के कारण उसका प्रत्यक्ष प्रमाण कोई नहीं दे सकता। अर्थववेद में इनके निराकरण के लिए मारण प्रयोग के लिए अनेक यंत्र-मंत्रों भरमार है। पुराणों में भूतोमि देवनोय: ऐसा लिखा है। मृत व्यक्तियों का जब श्राद्ध होता है तो उनको प्रेत कहकर पिण्ड दिया जाता है। ऐसा कहा जाता है प्रेतत्वविमुक्तये एष पिण्डस्तुभ्यं स्वधा।।

ऐसा कहा जाता है इन सभी से प्रमाणित होता है कि प्रेतयोनी अवश्य है। इसमें अनेक विभाग हैं। आयुर्वेद के अनुसार अठारह प्रकार के प्रेत हैं। जैसे प्रसुता, स्त्री या नवयुवती मरती है तो चुड़ैल कुमारी कन्या मरती है तो देवी होती है। इन सभी की उत्पति अपने जन्मार्जित पापों से अभिचार से अकाल मृत्यु से, ओझा डाइन के मारण प्रयोग से, अंत्येष्टी एवं श्राद्ध को पवित्र नहीं होने देती।

इनको खाने की इच्छा अधिक रहती है। इच्छा होती है कि समुद्र सोख ले। लेकिन इनका आकार सुई के बराबर होने के कारण ये जल नहीं पी सकते है। जरा सा अपराध होने पर वे बिगड़ जाते हैं। उपद्रव करने लगते हैं। अच्छी चीजों पर इनका अधिकार नहीं रहता है। यहां तक की वे उन्हें स्पर्श भी नहीं कर सकते हैं। वे बहुत दुखी और चिड़चिड़ा होता है। जीवित अवस्था में जिस स्वभाव के रहते हैं वही अवस्था प्रेत अवस्था कहलाती है। इनका शरीर कुष्ट सा रहता है। बलिष्ट इतने होते हैं कि बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ फेंके।

घर को मंदिर जैसा दिव्य बनाना है तो बुलाइए हनुमानजी को...
कहा जाता है कि सत्य व्यक्त नहीं होता, इसे अनुभव करने के लिए मौन से गुजरना पड़ता है, पर फिर भी हमारे महात्माओं ने संसार को सत्य समझाने के लिए अपने आप को मुखर किया। कई संत तो चिल्ला-चिल्लाकर लोगों से बोले हैं - जाग जाओ।

संत जीवन में आए और जो सोता रहे, समझ लीजिए वह राक्षस वृत्ति का है और जो जाग गया, उसके ऊंचे उठने की संभावना है। चलिए, इस प्रसंग को सुंदरकांड से समझते हैं। हनुमानजी लंका में प्रवेश कर चुके हैं। वे सीताजी को ढूंढ़ रहे हैं। तुलसीदासजी ने लिखा -

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जंह तंह अगनित जोधा।।

उन्होंने हर महल की खोज की, सभी जगह असंख्य योद्धा नजर आए। वे रावण के महल में गए। हनुमानजी ने रावण को शयन करते देखा, परंतु वहां जानकीजी नहीं दिखीं। हनुमानजी जीवन में आए और रावण सोता रहा। संत और भगवंत का प्रवेश हो जाए और मनुष्य सोता रहे तो समझिए उसके भीतर रावण आ गया है। कुछ लोग कहते हैं तुलसीदासजी ने रावण के महल को मंदिर क्यों लिखा। दरअसल हनुमानजी सभी स्थानों में मंदिर के जैसा पवित्र भाव रखते थे।

दूसरी बात, जहां हनुमानजी आ जाएं, वहां के स्थानों को फिर मंदिर जैसी दिव्यता प्राप्त होना ही है। रावण का महल भी उनकी नजर पड़ते ऐसा हो गया। हमारा घर-परिवार भी कई बार रावण वृत्ति से संचालित होता है, ऐसे में हनुमानजी की उपस्थिति उसे मंदिर जैसी प्रतिष्ठा दिला देगी।

तो ऐसा धन होता है बहुत खतरों भरा...
धन से धन को बढ़ाया जाए। आधुनिक प्रबंधन का यह सूत्र सभी लोग अपनाए बैठे हैं, लेकिन लंबे समय तक जब केवल इसी फ़ॉर्मूले पर जिंदगी चलती है, तो धन का लक्ष्य धन ही न होकर भोग बन जाता है। इसीलिए आजकल अधिकांश लोग धन का लक्ष्य भोग बनाकर बैठ गए हैं।

वे समृद्धि की सारी कल्पना भोग विलास से जोड़कर चलते हैं। यह सत्य है कि हमारे पास जितना अधिक धन होगा विलासिता से हमारी दूरी उतनी ही कम होगी। जब हम अपनी वासनाओं से जुड़कर भटकाव की स्थिति में आ जाते हैं तब इसे भोग कहा जाता है।

इसलिए धन कमाते समय दो बातों का ध्यान रखें। पहली बात- अर्जित संपत्ति से अहंकार का जन्म न हो और दूसरी बात- इसे अनुचित कार्यो में खर्च न करें। धन होता ही उचित अभावों की पूर्ति के लिए है।

अपने अभाव को तो दूर करना ही है, लेकिन यदि दूसरे लोगों का अभाव भी मिटा सकें, तो धन अपने साथ परमात्मा की अनुभूति लेकर आएगा। ऐसा धनवान भगवान के निकट होगा। इसलिए धन कमाते समय उसके सही रास्ते से आने के प्रति अत्यधिक सजग रहें और उसके जाने के मार्ग के लिए सावधान रहें।

धन का उपार्जन और उपयोग पवित्रता के साथ ही करें। देखिए, धन का भी निर्माण करना पड़ता है। जैसे भवन का निर्माण होता है, चरित्र बनाते हैं, मूर्ति में प्राण की प्रतिष्ठा होती है, ऐसे ही धन निर्मित होता है।

हम अपने जीवन को जितना अधिक अध्यात्म से जोड़ेंगे, जीवन के प्रति हमारी दृष्टि एकदम स्पष्ट हो जाएगी। हम परमात्मा का अंश हैं, उसने हमें बनाया है और ध्यान रखें जल्दी में नहीं बनाया। मनुष्य का निर्माण करने में भगवान पर्याप्त समय देता है। वह शीघ्रता करते हुए कोई गड़बड़ नहीं करता, क्योंकि परमात्मा जानता है जिस मनुष्य को मैं बना रहा हूं, वह बहुमूल्य है।

पूरे 9 माह लगते हैं, तब हम तैयार होते हैं और संसार में आने के बाद जब हम धन का निर्माण करते हैं, तो परमात्मा की कार्यशैली को भूल जाते हैं। उसने हमें इसलिए तसल्ली से बनाया है कि जब हम अपने जीवन में धन को बनाएं तो उसी धर्य, समझ, गहराई और ईमानदारी से तैयार करें।

एक बात याद रखी जाए, धन के जितने खतरे हैं उसमें एक बड़ा खतरा है संतानों का बर्बाद होना, क्योंकि आपके द्वारा अर्जित संपत्ति का सर्वाधिक लाभांश परिवार और परिवार में भी संतान उठाती है। गलत तरीके से आया हुआ धन संतान को सही नहीं रहने देगा।

इसलिए कमाई करते समय शरीर का श्रम, बुद्धि की योग्यता, मन की विश्राम-मुद्रा और आत्मा की शुचिता एक साथ होना चाहिए।

ये तीन बातें सिखाती हैं धन का सही उपयोग करना...
नदी पर बांध बनने से ऊर्जा और सिंचाई जैसे काम अच्छे से संपन्न होते हैं। ऐसे ही धन पर भी बांध बनाना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि धन को रोका जाए। अनुशासन और नियमपूर्वक धन के साथ व्यवहार किया जाना ही उस पर बांध बनाने जैसा है।

धन और नदी की गति एक जैसी चलती है। यह नदी नष्ट, कष्ट और संतुष्टि तीनों प्रदान करती है। जैसे ही धन हमारे जीवन में आता है, कई बातों के उत्तर मिलने लगते हैं और कई सवाल भी खड़े हो जाते हैं।

हर चीज के दो पक्ष बन जाते हैं। इसलिए धन के मामले में सदैव एक बात पर दृढ़ रहिए कि जब भी पक्ष लेना पड़े, धर्म का पक्ष लीजिए। अधर्म जीवन में जिन मार्गो से प्रवेश करता है, उनमें से एक धन का मार्ग भी है। इसलिए सावधानी जरूरी है।

धन प्राप्त करने में ही बुद्धिमानी नहीं लगती, उसे बचाने में भी ताकत लगती है और सबसे ज्यादा योग्यता लगती है उसको खर्च करने में। इन तीनों का संतुलन बिगड़ा और दौलत ज्वालामुखी बन जाएगी। हमारे भीतर जितनी आध्यात्मिक वृत्ति परिपक्व होगी, धन के संबंध में हम संसार और संसार बनाने वाले के मामले में लाभ उठा सकेंगे। धन हमें संसार से जोड़ता है, उस धारा का नाम राग है।

राग को परमात्मा से जोड़ने के लिए अनुराग पैदा करना होता है और जैसे ही हम परमात्मा से जुड़े, वैराग्य जागता है। राग, अनुराग और वैराग्य ये तीनों मिलकर धन का सदुपयोग सिखाते हैं। दौलत खूब मजा देगी, यदि हम इन तीनों से ठीक से परिचित रहेंगे।

अच्छे काम करने वाले लोगों को कैसे ले जाया जाता है स्वर्ग?
गरुड़ पुराण में हम आपको पहले बता चुके हैं कि पापी लोगों को दक्षिणमार्ग से यमपुरी ले जाया जाता है। दक्षिण मार्ग से यमलोक गए हुए पापी पुरूष उस सभा को नहीं देख सकते। धर्मराजपुर में जाने के लिए चार भाग होते हैं, उसमें पापियों का गमन मैंने पूर्व में कहा। पूर्वादि तीन मार्ग जो धर्ममंदिर गए वे पुण्यादि कर किस रीति से उसमें जाते हैं। उसको सुनो। पूर्व सांसारिक वस्तुओं के सति तथा परिजातवृक्ष की छाया में आच्छादित एक रत्न मंडप है। उस मार्ग में अनेक विमानों से प्याप्त हंस व पक्षियों से शोभित विद्रुम, बगीचा तथा अमृतविंदु आदि से सुशोभित है। इस मार्ग से ब्रहर्षि , पुनीत राजर्षि, विद्याधर, आदि होते हैं। देवताओं की आराधना करने वाले, शिव भक्ति में तत्पर रहने वाले, माघ महीने में काष्ठ देने वाला उस मार्ग से धर्मराजपुर को जाते हैं। वर्षाऋतु में वैरागी पुरुष आ जाए तो उनका दान मान से सत्कार क रने वाला, दुखी पुरुषों को मधुर वाणी कहने वाला, रहने को जो जगह देव ,सत्य धर्म में रत, क्रोध-लोभ से रहित, माता-पिता की भक्ति में रत, गुरूसेवा करने वाला, भूमिदान देनेवाला, घर दान देनेवाला, गाय दान देनेवाला, विद्यादान देनेवाला,

शुद्ध परायण भी अच्छा पुरुष, पवित्र और शुद्ध निर्मल पुरुष पूर्व द्वार से धर्मराजसभा में जाते हैं।दूसरा मार्ग उत्तर दिशा का है। जिसमें बड़े-बड़े रथ व पालकी रखी है। उस मार्ग में हंस, सार, चकवा-चकवी, पक्षियों से सुशोभित अमृत बिंदु युक्त तलाब है। वेद पढऩे वाले, अभ्यागत की पूजा करने वाले, दुर्गा, सूर्य, की सेवा करने वाले, पर्व में तीर्थ पर स्नान वाले। जो धर्मयुद्ध कर संग्राम में मरे, अनशन व्रत धारण कर मरे, वाराणसी, गोगृह में, तीर्थ जल में गिरकर जो मरे। ब्राह्मण के अर्थ स्वामी के निमित्त, योगाभ्यास से जो मरे। जो सुपात्र पूजक है। महादान में रत है, वे उत्तर दिशा के मार्ग से धर्मराज की सभा में प्रवेश करते हैं। तीसरा मार्ग पश्चिमदिशा का है, वन,रत्नों से मंदिर व्याप्त है, अमृत रस से सदा पूर्ण बावडिय़ों से युक्त है।

वह मार्ग हाथी, घोड़ों से पूर्ण है। हाथी ऐरावत वंश के हैं, इस मार्ग से आत्मा का विचार करने वाले, स्हास्त्र चिंतन करने वाले, विष्णु के अनन्य भक्त, गायत्रीमंत्र जप करने वाले, परहिंसा, परद्रव्य, पर निंदा इनको नहीं करने वाले, अपनी स्त्री में आसक्त सन्त, अग्रिहोत्र , वेदपाठी, ब्रह्मचार, वानप्रस्थी, तपस्वी, मोह, पाषाण, कांचन, जिनके समान संयासी, ज्ञान-वैराग्य में सम्पन्न, सब प्राणियों का हित करने वाले, शिव, विष्णु के व्रत को करने वाले, कर्म को ब्रह्म में समर्पण करने वाले, कर्म ब्रह्म में समर्पण करने वाले, तीन ऋणों से विर्नियुक्त, पंचयज्ञ में रत, पितरों श्राद्ध करने वाले, समय पर संध्या के उपासक, नीच संगति से रहित तथा सत्संगति करने वाले ऐसे पुरुष अप्सरागणों के सहित विमान में बैठे अमृतपान करते हुए धर्मराज के मंदिर में जाते हैं। वे पश्चिम द्वार से प्रवेशकर सभा के अन्दर जाते हैं।

अपने सपनों को साकार करना हैं तो यह करें...
परमात्मा का लौकिक स्वरूप हमें मौलिक बनाने में बड़ी मदद करता है। इसीलिए हमने मंदिरों में मूर्तियां स्थापित कीं, अवतार कथाओं को जीवन से जोड़ा। इन दिव्य आत्माओं को हम अपने जीवन में इस प्रकार उतारें कि हमारी मौलिकता निखरकर आए।

अधिकांश लोग दुनिया की दौड़-भाग में दूसरों को देखकर उन्हीं के पीछे भाग रहे हैं। याद रखें, अच्छी बातों का अनुसरण जरूर किया जाए, लेकिन हमारे पास अपने मौलिक उद्देश्य होने चाहिए। दूसरे कमा रहे हैं, इसलिए धन न कमाया जाए, बल्कि उसके उपयोग तथा कमाने के पीछे हमारा अपना मौलिक चिंतन होना चाहिए।

इस मौलिकता को लाने के लिए परमात्मा से भी आदान-प्रदान किया जाए। दुनिया में हम लोगों से लेन-देन करते हैं भौतिक वस्तुओं का, स्थितियों और चिंतन का भी। इसीलिए हम नकल करने में उस्ताद हो जाते हैं, लेकिन यदि आदान-प्रदान परमात्मा से भी किया जाए तो हमारे भीतर मौलिकता उतरेगी।

ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति हमें जितनी निकटता से होगी, हमारे भीतर आनंद और उल्लास उतना ही अधिक होगा। दुनिया की धक्का-मुक्की में बेशक दौड़ लगाएं, लेकिन बीच में थोड़ा रुक जाएं और अपनी क्रिया-शक्ति की मौलिकता पर विचार करें।
अपने अंतर्मन से पूछें कि जो कुछ हम कर रहे हैं, यह किसलिए है? इस किसलिए में जिंदगी के कई सुंदर उत्तर छिपे हुए हैं। थोड़ा-थोड़ा मेडिटेशन हमारी कल्पनाओं को साकार होने में अद्भुत रूप से मदद करेगा।

इस सोच के साथ जीएं जीवन को...आसानी होगी..
जीवन और मृत्यु को यदि सही अर्थ में हम समझ लें तो कई व्यर्थ के कार्य हम करेंगे ही नहीं। हमारा अधिकांश जीवन उन गतिविधियों में गुजर जाता है, जो हमारे जीवन में किसी काम की नहीं होती।

एक पुराने प्रसंग को स्वामी जी नए ढंग से समझाते हैं। घटना इस प्रकार थी- महर्षि वेदव्यास अपना पावन ग्रंथ लिख रहे हैं। दीपक जल रहा था। दीपक के ऊपर पतंगा आया।

व्यासजी ने यह देखा और अद्भुत बात लिखी कि दीपक के ऊपर पतंगा, उसे खाने के लिए मेंढक दौड़ा, मेंढक को पकड़ने के लिए सांप दौड़ा और सांप को पकड़ने के लिए मयूर भागा। मयूर के पीछे शेर लग गया, शेर को पकड़ने के लिए शिकारी चला तथा शिकारी के पीछे काल दौड़ा।

सारे संसार की चोटी काल के हाथ में है। अपने-अपने आहार की खोज में एक के पीछे एक दौड़ रहे हैं, परंतु यह किसी ने विचार नहीं किया। संसार का कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि मुझे कब जाना है। प्रत्येक का जब आगमन हुआ तो प्रस्थान भी होगा। इसलिए विचार करने की आवश्यकता है।

अत: निरंतर परमात्मा का स्मरण करते रहें। मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ईश्वर लाभ। हमारा पूरा अस्तित्व बिना परमात्मा के अर्थहीन है। ईश्वर की अनुभूति हमें मृत्यु के भय से मुक्त कराएगी। हम मृत्यु से कांपते हुए मनुष्य न बनें, बल्कि उसको स्वीकार करके, जीवन का सही अर्थ समझते हुए भरपूर जिएं।

सबकुछ था रावण के पास, बस एक ये ही कमी थी..
बहुत से लोग अपनी योग्यता, परिश्रम, निष्ठा से शिखर पर पहुंचते हैं। शीर्ष पर पहुंचना फिर भी संभव होता है, लेकिन वहां बने रहने में बड़ी ताकत लगती है और जो उसमें चूक गया, उसे नीचे आने में देर भी नहीं लगती।

रावण के साथ यही हुआ था। योग्यता जब भ्रमित हो जाए, जानबूझकर अपना दुरुपयोग करने लगे तो रावण जैसे पात्र सामने आते हैं। रावण इतना विद्वान था कि यदि उसने अपनी शक्ति का दुरुपयोग न किया होता तो वह किसी महाकाव्य का नायक होता। लेकिन अपनी योग्यताओं के दुरुपयोग से वह दुनिया का बड़ा खलनायक बन गया।

उसने जो युद्ध लड़े थे, वे दुर्लभ थे। मृत्यु को नियंत्रित कर लिया था उसने। ऐसे में उस सर्वसंपन्न के सामने अपने ही राज्य से निष्कासित, अकेले, संघर्षरत श्रीराम थे। फिर भी वे रावण को क्यों पराजित कर गए, इससे हम अपने जीवन की धारा बदल सकते हैं। रावण के पास सब था, निजबल, जनबल व बाहुबल, बस एक चीज की कमी थी और वह था आत्मबल।

राम के पास ये सारे बल नहीं थे, पर आत्मबल गजब का था। रावण अपने वर्तमान पर इतना टिक गया कि भूल ही गया कि भविष्य भी कुछ होता है। जो लोग वर्तमान पर अधिक टिकते हैं, उनके जीवन में विलास आने में देर नहीं लगती। राम के पास दूरदृष्टि थी और उनका उद्देश्य रावण को मारना ही नहीं था। वे लोक शिक्षा, जनसामान्य के आत्मविश्वास को लौटाने के लिए आए थे। इसीलिए रावण आज भी मारा जा रहा है और राम आज भी पूजे जा रहे हैं।

अगर आप वाकई भगवान को पाना चाहते हैं तो यह करें...
कई लोगों के मन में यह सवाल होता है कि जब सब कुछ ठीक चल रहा है तो भगवान की जरूरत ही क्या है और यदि ठीक नहीं भी चल रहा है, तब उसकी और क्या आवश्यकता है। यह बात काफी हद तक सच है कि परमात्मा की खोज बैठे-ठाले नहीं हो सकती और अकारण करना भी नहीं चाहिए।

दूसरों को देखकर यदि ईश्वर की खोज में जुट जाएंगे तो यह एक नकल, एक औपचारिकता होगी। खुद की तड़पजरूरी है। जिंदगी जब बेकार नजर आने लगे, जीवन व्यर्थ दिखने लगे, तब भगवान को ढूंढ़ना शुरू होता है। जीवन में खूब मजा आ रहा हो तो क्यों कोई भगवान को ढूंढ़ेगा?

इसलिए जीवन में जो व्यर्थ है, वह जब दिखने लगे तो रुककर मत बैठ जाइए, उसी व्यर्थ के साथ सार्थक को देखने की कोशिश कीजिए। यहीं से भगवान की खोज आरंभ होती है। गुरुनानक देव ने कहा था कि संसार में बहुत कुछ ऐसा है, जो काम का नहीं होता। उसे थोड़ा-सा परे हटाओ तो जो काम का है, वह हाथ लग जाएगा।

यदि दुनिया में ही सार्थकता ढूंढ़ोगे तो अंत में हाथ कुछ नहीं लगेगा। संसार जब संसार से मिलता है तो वैसे ही मिलता है, जैसे किसी बंदर को फोड़ा हो जाए तो दूसरे बंदर उसके हालचाल पूछने आते हैं।

बंदरों का यह मनोविज्ञान होता है कि जिसे फोड़ा हो गया हो, उसकी पूछताछ करने वाले उसके घाव को अपने पंजे से नोंचते हैं और वह बंदर कभी ठीक नहीं हो पाता, बल्कि मर ही जाता है। बस, संसार घाव देता है और ऐसे ही घाव को सहलाता है। तब लोगों की इस निर्थकता पर नजर पड़ती है और वे सार्थक यानी परमात्मा की खोज में उतरते हैं।

आखिर कहां बसी हैं हमारे परिवार की खुशियां?
केंद्रस्थ व्यक्ति के लिए प्रसन्न रहना आसान है। अपने आप का केंद्रीकरण किया जाए। थोड़ा भीतर उतरकर खुद पर टिकें, असली आनंद यही है। आनंद हमारा मूल स्वभाव है। उसे बाहर ढूंढ़ने की भूल हम करते ही रहते हैं।

न कोई हमें खुश रख सकता है और न ही दुखी, अगर हम भीतर स्वयं पर टिकना जान लेंगे। अभी हम हर बात के लिए बाहर ही टिके हैं। दूसरों से शुरू होते हैं और दूसरों पर ही खत्म हो जाते हैं। अपने पर जाने का तो न होश है, न समय।

योग का नियमित आचरण इसमें मददगार होगा। नियमित योग हमें रिदम में ला देता है। इस काम के लिए हमें अपने घर को ही तपस्थली बनाना चाहिए। घर में अनेक सदस्य रहते हैं। गुण, कर्म और स्वभाव के स्तर पर सदस्यों में जितनी समानता होगी, घर में उतनी ही शांति होगी।

इस समानता को साधना पड़ता है। इसलिए अपने केंद्र पर जाकर प्रसन्नता पाने का अभ्यास करें। जो भीतर से आनंद में होगा, वह बाहर इसकी सुगंध से दूसरों को भी महका देगा। परिवार में शांति लाने के लिए प्रयत्नशील रहना होगा।

यह एक दिन का काम नहीं है। धर्य, दृढ़ता और चतुरता से लगे रहें। इसलिए भीतर की यात्रा के क्रम को न तोड़ें। हमारे अंतस के आनंद में ही परिवार की खुशियां बसी हैं। योग को आवृत्तिमूलक अभ्यास भी कह सकते हैं, लगातार दोहराए जाने वाली क्रिया।

तन के साथ मन को रोज धोना, पोंछना पड़ेगा। वरना सारे प्रयास ऐसे होंगे कि गंदा मुंह पोंछने की जगह केवल दर्पण को साफ किया जाए।

मरने के बाद इन 8 कारणों से होता है पुनर्जन्म...
जन्म और मृत्यु ये दो अटल सत्य माने गए हैं। जिस जीव ने धरती पर जन्म लिया है उसे एक दिन अवश्य ही मृत्यु प्राप्त होती है। जीव की मृत्यु के पश्चात उसकी आत्मा पुन: जन्म लेती है, यह भी एक सत्य है। शास्त्रों के अनुसार जीवन और मृत्यु का यह चक्र अनवरत चलता ही रहता है।

आत्माएं फिर से जन्म क्यों लेती हैं? इस संबंध में आठ कारण मुख्य रूप से बताए गए हैं। इन्हीं कारणों की पूर्ति के लिए आत्मा पुन: जन्म लेती है, शरीर धारण करती है। यहां पुनर्जन्म का अर्थ है दुबारा जीवन प्राप्त करना। किसी भी जीवात्मा का पुन: यानि फिर से जन्म होता है। आत्मा शरीर धारण करके शिशु रूप में इस धरती पर जन्म प्राप्त करती है और जीवनभर कर्म करती है। अंत में मृत्यु होने पर उसे शरीर छोड़कर जाना पड़ता है। ऐसे में आत्मा को मुख्य रूप से इन आठ कारणों से उसे पुन: जन्म लेना पड़ता है।

शास्त्रों के अनुसार आत्मा के पुनर्जन्म के संबंध में बताए गए आठ कारणों में से एक कारण है कि आत्मा किसी से बदला लेने के लिए पुनर्जन्म लेती है।

यदि किसी व्यक्ति को धोखे से, कपट से या अन्य किसी प्रकार की यातना देकर मार दिया जाता है तो वह आत्मा पुनर्जन्म अवश्य लेती है। इस संबंध में वेद-पुराण में एक कथा दी गई है-

कथा इस प्रकार है, एक राजकुमार की किसी तपस्वी से गहरी मित्रता हो गई। जब वह महात्मा काशी जा रहा था तभी राजकुमार भी जिद करके अपने मित्र के साथ चल दिया। राजकुमार की इस यात्रा के लिए राजा ने उन्हें सवा सेर सोना एक लकड़ी में भरकर दे दिया। सफर के दौरान एक रात्रि दोनों मित्रों ने एक सेठ के यहां विश्राम किया। रात्रि में उस सेठ ने लकड़ी में से सोना निकालकर उसमें कंकड़ भर दिए। राजकुमार और महात्मा जब काशी पहुंचे तब उन्होंने वहां के ब्राह्मणों को भोजन पर आमंत्रित कर लिया। ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए जब उसने लकड़ी से सोना निकालना चाहा तब उसमें से कंकड़ निकले। वह समझ गया कि उस सेठ ने उन लोगों के साथ धोखा किया है। ब्राह्मणों को खाना के निमंत्रण भिजवा दिया गया था लेकिन राजकुमार उन्हें भोजन कराने में असर्मथ हो गया। इसी चिंता में राजकुमार के प्राण चले गए।

राजकुमार की आत्मा ने सेठ से बदला लेने के लिए उसी सेठ के यहां पुन: पुत्र रूप में जन्म लिया। जब सेठ का पुत्र बड़ा हो गया तब उसकी शादी कराई गई। सेठ ने पुत्र के लिए बहुत सुंदर और विशाल महल बनवाया। एक दिन उसी महल की छत से पति-पत्नी दोनों ने कूदकर जान दे दी। तब सेठ को बहुत दुख हुआ। उस समय राजकुमार के मित्र महात्मा ने सेठ को उसकी करनी की कथा सुनाई और इसप्रकार राजकुमार का बदला पुरा हुआ।

इस प्रकार की कई कथाएं शास्त्रों में दी गई हैं जहां आत्मा ने किसी से बदला लेने के लिए पुन: जन्म प्राप्त किया है और अपना लक्ष्य पुरा किया है।

जिस घर में हो ये चार चीजें वहां आते हैं हनुमानजी...
ऋषि-मुनियों ने जिसे तप कहा है, आज उसे अनुशासन कहा जा सकता है। अनुशासन एक सुव्यवस्था है। हनुमानजी अत्यधिक सुव्यवस्थित देवता हैं। सीताजी की खोज के लिए जब वे लंका पहुंचते हैं तो एक-एक भवन में ढूंढ़ने पर सीताजी नहीं मिलतीं। तभी उन्हें विभीषण का घर दिखता है।

तुलसीदासजी ने सुंदरकांड में लिखा है -

भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहं भिन्न बनावा।।

फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। उसमें भगवान का मंदिर बना हुआ था। यहां एक बात समझने वाली है। विभीषण लंका में रहते थे और उनके घर में चार विशेषताएं थीं, इसीलिए हनुमानजी उनके जीवन में आ गए। पहली विशेषता ‘हरि मंदिर तहं भिन्न बनावां’ घर में भगवान के लिए एक पृथक स्थान होना चाहिए।

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ। नव तुलसिका बृंद तहं देखि हरष कपिराइ।।

दूसरी, वह महल श्रीरामजी के आयुध के चिह्नें से अंकित था। तीसरा, वहां तुलसी के पौधे थे। चौथी बात, विभीषणजी के मकान पर मांगलिक चिह्न् बने हुए थे। हमारे निवास स्थान के द्वार पर शुभ चिह्न् होना चाहिए।

आंगन में तुलसी का पौधा था, तुलसी संतोष का पौधा है। यह देखकर हनुमानजी प्रसन्न हुए। हमारे निवास स्थान में या जीवन में जब कोई आए तो उसे प्रसन्नता होनी चाहिए। हम सब भी विभीषण की तरह इस संसार रूपी लंका में रहते हैं, लेकिन यदि हमारे घरों में भी ये विशेषताएं हों तो हनुमानरूपी भगवंत का प्रवेश होगा ही।

ऐसे काम से प्रसन्न होते हैं हनुमानजी....
अत्यधिक व्यावहारिकता के युग में जब सारे संबंध लेन-देन, तेरे-मेरे पर टिके हों, ऐसे में जड़ वस्तुओं में भी संवेदना दिख जाती है। वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि वृक्षों को कुल्हाड़ी की आहट महसूस हो जाती है।

बरसते पानी से वृक्ष मस्त होने लगते हैं। जड़ वस्तु भी अपनी संवेदनशीलता नहीं छोड़ती, जबकि हम मनुष्य होने के बाद भी संवेदनहीन होते जा रहे हैं। संवेदनाएं बचाने के लिए भीतरी जप भी एक तरीका है।

सुंदरकांड में प्रसंग है कि विभीषण का घर देखकर हनुमानजी ने मन ही मन विचार किया और तुलसीदासजी ने लिखा- मन महुं तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।। हनुमानजी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषण जागे। राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयं हरष कपि सज्जन चीन्हा।।

मन महुं तरक का अर्थ है कि मनुष्य को अपने भीतर उतरकर स्वयं से भी चर्चा करनी चाहिए। उसी समय विभीषण जागे और उन्होंने रामनाम का उच्चरण किया। उनकी यह ध्वनि सुनकर हनुमानजी के हृदय में बड़ा हर्ष हुआ।

इसका सीधा-सा अर्थ है कि जब हम ईश्वर के नाम का जप कर रहे हों, तो हमसे मिलने वाले व्यक्तियों को प्रसन्नता होनी चाहिए। अभी तो देखा गया है कि लोग पूजा-पाठ जितना अधिक करते हैं, उतने ही क्रोधित भी होते जाते हैं।

विभीषण से यह सीखा जा सकता है कि भक्ति से ही उन्होंने हनुमानजी को आकर्षित किया था और वह भी लंका में रहकर।

ये है अच्छी याददाश्त का सही अर्थ....
अच्छी स्मरण शक्ति का यह अर्थ नहीं है कि बातों को याद रखा जाए। बढ़िया याददाश्त के मायने यह भी हैं कि जो भुलाने लायक है उसे भुला दिया जाए। ताकत याद रखने में ही नहीं लगती, उससे ज्यादा ताकत तो व्यक्तियों और स्थितियों को भुलाने में लगती है।

स्मरण शक्ति का उपयोग लाभकारी होना चाहिए। हर उस बात को याद रखें, जो खुशी दे, चित्त को हल्का बनाए, तबीयत प्रसन्न रखे। जिससे खिन्नता, भारीपन, निराशा, उदासी आती हो उसे भुलाने में ही भला है।

स्मरण शक्ति को भी रीचार्ज करना पड़ता है। इसकी मेमोरी को हमेशा फुल न रखें, खाली करते रहें। रिफ्रेश की कला को याददाश्त से जरूर जोड़ें। जो ज्यादा याद रखते हैं, वे डिप्रेशन में भी जल्दी चले जाते हैं। याददाश्त की साफ-सफाई ठीक से नहीं करेंगे तो एक बीमारी और हो जाती है।

जो जरूरी बातें हैं वो समय पर दिमाग में नहीं आतीं और ऊटपटांग, इधर-उधर के विचार मस्तिष्क में न चाहने पर भी आते हैं। स्मरण शक्ति के सदुपयोग के लिए कुछ ऐसा किया जाए कि विचार के स्तर पर उनसे जुड़ें जिनसे सीधा संबंध न हो, जैसे प्रकृति और परमात्मा, मनुष्यों और उनके द्वारा निर्मित स्थितियों के अलावा भी संसार में बहुत कुछ है, जैसे- वृक्ष, नदी, पर्वत आदि, इनके अस्तित्व से जुड़ें।

इनसे जुड़ते ही विचार नवीन बनेंगे, जो हमें जीवन की गहरी जड़ों तक ले जाएंगे और स्मृति को ताजगी प्रदान करेंगे, तब आसान होगा याद रखने वाली बात याद रखना, भूल जाने वाली भूल जाना।

स्वर्ग जाएंगे या नर्क हम खुद ही तय कर सकते हैं...
सत्य का संबंध केवल शब्दों से नहीं है। शब्दों में सत्य ढूंढ़ना साधारण आदत है, लेकिन स्थितियों में सच ढूंढ़ना मुश्किल बात है। इसके लिए अपने भीतर गहरा उतरना पड़ता है और बाहर के हालात के लिए दूरदृष्टि रखनी पड़ती है।

चूंकि सत्य इतना मजबूत होता है जिसे किसी हथियार से काटा नहीं जा सकता, इसलिए इसे देखना चाहें या जानना चाहें तो जरूर जान सकेंगे। सद्कर्म, सद्विचार, सद्भाव व अच्छे उद्देश्य सत्य के प्रतिरूप हैं। हमारे यहां स्वर्ग और नर्क की एक प्राचीन धारणा है।

कुछ लोगों ने तो यह समझा ही दिया है कि स्वर्ग और नर्क मृत्यु के बाद की स्थिति है। हो भी सकती है। लेकिन जहां तक जीवन का सवाल है, इसे सत्य से जोड़कर देखना चाहिए। कौन नर्क जाता है? दरअसल जो गलत काम करेगा, वह नर्क जाता है, लेकिन सत्य तो यह है कि जो अनुचित कर्म करेगा, वो नर्क में जीता है।

जाता है या नहीं, यह तो भविष्य के गर्त में है, लेकिन जीता जरूर है और जीना यहीं पड़ता है। इसलिए जितना हम असत्य पर टिकेंगे, गलत बात करेंगे, उतना हमारा पतन होगा। पतन की पीड़ा ही नर्क है। इसलिए हम कहते भी हैं जिंदगी नर्क हो गई। हो नहीं गई, बना दी गई।

पाप और पुण्य आपको स्वर्ग और नर्क ले जाएंगे, इस विषय में बौद्धिक विवाद हो सकता है, लेकिन एक बात पर सभी को सहमत होना पड़ेगा कि आपके पाप का ताप नर्क है और पुण्य यानी अच्छे कर्मो का परिणाम स्वर्ग है। इसलिए जीवन को जितना हो सके, सत्य के निकट रखिए।

जानिए, मौत के बाद का जीवन कैसा होता है?
गरूड़ पुराण कहता है कि जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो उसे दो यमदूत लेने आते हैं। जैसे हमारे कर्म होते हैं उसी तरह वो हमें ले जाते हैं। अगर मरने वाला सज्जन है, पुण्यात्मा है तो उसके प्राण निकलने में कोई पीड़ा नहीं होती है लेकिन अगर वो दुराचारी या पापी हो तो उसे बहुत तरह से पीड़ा सहनी पड़ती है। पुण्यात्मा को सम्मान से और दुरात्मा को दंड देते हुए ले जाया जाता है। गरूड़ पुराण में यह उल्लेख भी मिलता है कि मृत्यु के बाद आत्मा को यमदूत केवल 24 घंटों के लिए ही ले जाते हैं।

इन 24 घंटों में उसे पूरे जन्म की घटनाओं में ले जाया जाता है। उसे दिखाया जाता है कि उसने कितने पाप और कितने पुण्य किए हैं। इसके बाद आत्मा को फिर उसी घर में छोड़ दिया जाता है जहां उसने शरीर का त्याग किया था। इसके बाद 13 दिन के उत्तर कार्यों तक वह वहीं रहता है। 13 दिन बाद वह फिर यमलोक की यात्रा करता है।

वेदों, गरूड़ पुराण और कुछ उपनिषदों के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की आठ तरह की दशा होती है, जिसे गति भी कहते हैं। इसे मूलत: दो भागों में बांटा जाता है पहला अगति और दूसरा गति। अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है। गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है।

अगति के चार प्रकार हैं क्षिणोदर्क, भूमोदर्क, तृतीय अगति और चतुर्थ अगति। क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है, भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है, तृतीय अगति में नीच या पशु जीवन और चतुर्थ गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है। वहीं गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं और जीव अपने कर्मों के अनुसार गति के चार लोकों ब्रह्मलोक, देवलोक, पितृ लोक और नर्क लोक में स्थान पाता है।


इसलिए कहते हैं अति सर्वत्र वर्जयते
कहते हैं अति सर्वत्र वर्जते यानी किसी भी चीज की अति दुखदायी होती है। चाहे वह अति खाने-पीने को लेकर हो, प्रेम या नफरत की हो, या अन्य किसी तरह की अति हमेशा दुख ही देती है।

एक बार की बात है पृथ्वीपति भरत जिनके नाम पर भारत का नाम रखा गया। एक दिन वे नदी पर नहाने के लिए गए। वहां उस समय एक हिरनी पानी पीने आई। उस समय जब वह पानी पी चुकी थी। वहां अचानक शेर की आवाज सुनकर वह उछलकर नदी के तट पर चढ़ गई। बहुत ऊंचे स्थान पर चढऩे के कारण उसका गर्भपात हो गया। नदी लहरो के साथ उसके गर्भ से निकला बच्चा राजा भरत के पास पहुंचा। राजा भरत उसे अपने साथ आश्रम ले आए। वे उसका अपने बच्चों की तरह पालन-पोषण करने लगे।

उसी के कारण उनका पूजा-पाठ आदि सब छुट गए। वे दिन रात बस उसी के चिंतन में लगे रहते। एक दिन आश्रम के पास एक हिरणों का झुंड आया। वह हिरण उन्हीं के साथ चला गया। जब वह बच्चा वापस नहीं लौटा तो राजा भरत सोचने लगे कि कहीं उसे किसी भेडि़ए ने तो नहीं खा लिया। क्या वह आज जंगल से लौटेगा या नहीं वे दिन रात बस उसी हिरण के बच्चे की चिंता करते रहते। जब उनकी मृत्यु का समय आया तब भी वे उसी हिरण के बारे में सोचते रहते थे। इसी तरह हिरण के वियोग में राजा भरत ने अपने प्राण त्याग दिए। यही कारण था कि उन्हें अगला जन्म हिरण के रूप में लेना पड़ा। इतने महान राजा को भी हिरण से प्रेम आसक्ति हो जाने के कारण अगला जन्म हिरण के रूप में लेना पड़ा।

हनुमान से सीखें. मुसीबतों से कैसे निपटा जाए...
हमारे व्यक्तित्व में जिस बात का रस भरा होगा, उसके छींटे हमसे मिलने वालों पर गिरेंगे ही। हनुमानजी तो भीतर से भक्ति रस से भरे हुए हैं, उनके रोम-रोम में राम हैं। इसी कारण जो उनसे मिलता है, उसे सान्निध्य सुख प्राप्त होता है।
उनकी मौजूदगी ही अपने आप में एक संरक्षण बन जाती है। सुंदरकांड में लंका प्रवेश पर हनुमानजी व लंकनी का वार्तालाप तुलसीदासजी ने बड़े गहन भाव के साथ लिखा है। वह हनुमानजी से हो रही अपनी इस वार्ता को सत्संग बताती है और आगे लंका प्रवेश के लिए हनुमानजी को एक विचार देती है।
इस विचार की चौपाई को तुलसीदासजी ने लंकनी जैसी राक्षसी के मुंह से कहलाया है-

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयं राखि कोसलपुर राजा।।

अयोध्या पुरी के राजा श्रीरघुनाथजी को हृदय में रखकर नगर में प्रवेश करते हुए सब काम कीजिए।
मानस की यह चौपाई अपने प्रभाव के कारण ही मंत्र हो गई। विपत्तियों को छोटी मान लेना ही उन पर विजय जैसा है। हनुमानजी के हृदय में तो श्रीराम पूर्व से थे ही, क्योंकि लंका के लिए उड़ते समय उनके लिए लिखा गया है-

यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।।
उन्होंने दो काम किए थे- पहला श्रीराम हृदय में थे, दूसरा प्रसन्न थे। इसी कारण हनुमानजी की उपस्थिति मात्र से लंकनी के विचार भी दिव्य हो गए। हम अपनी भीतरी स्थिति को जितना पुनीत रखेंगे, बाहर का वातावरण उतना ही शुभ होगा।

सफल तो वो है, जिसने इस सच को समझ लिया
जब हम बाहर कामयाब होने लगें, हमारे विकास और प्रगति की दर हमारे भौतिक मापदंडों के अनुकूल रहे तो निश्चित ही इसे सफलता कहेंगे, पर समझदार लोग उसी समय अपने भीतर की प्रगति पर भी दृष्टि डालते हैं।
बाहर की यात्रा में तो कई लोग आपके सहयोगी होंगे और उन्हीं की मदद से आप कामयाब बनेंगे, लेकिन जब अपने भीतर की प्रगति को टटोलेंगे तो यह यात्रा बिल्कुल एकाकी होती है। इसीलिए कहा गया है मानसिक क्षमता का हम केवल 7 प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं।

हमारी 93 प्रतिशत सामथ्र्य कहीं सोई पड़ी रहती है तो कहीं खोई रहती है। इसी कारण भीतर जाने का आग्रह किया जा रहा है कि स्वयं की अंतर्यात्रा में उस शक्ति को ढूंढ़ें और जगाएं। यहीं से आत्मनिर्माण आरंभ होता है।

बाहर की दुनिया में तो हम बड़े-बड़े निर्माण करते हैं, हमारी जय-जयकार होती है, लेकिन अपने भीतर उसी समय हाहाकार भी शुरू हो जाता है। हम बिल्कुल वैसे हो जाते हैं, जैसे लोग भीतर से नास्तिक रहते हैं और ऊपर से आस्तिक। ईश्वर है, इसके बाहर प्रमाण मिल सकते हैं। लेकिन परमात्मा है, इसके प्रमाण भीतर ही मिलेंगे।

आप अपने भीतर उतरते ही बाहर के कर्मो के प्रति एक ऐसा नजरिया प्राप्त कर लेते हैं, जो शुद्ध होता है और इसीलिए जब भीतर से बाहर आते हैं तो गलत काम कर ही नहीं पाते, क्योंकि आप जीवन के बारे में जान चुके होते हैं और जिसने जाना, वही सचमुच सफल है, वरना सफलता भी एक मुखौटा है।

रिश्तों को शरीर नहीं, मन से निभाएं....
परिवारों में रिश्ते बनते भले ही शरीर से हैं, लेकिन रिश्तों को निभाने के लिए शरीर से अलग हटना पड़ता है। भारतीय परिवारों में भी बदलते दौर में एक बड़ा परिवर्तन आया है। हमारे यहां पहले रिश्तों को महत्व दिया गया, शरीर को गौण रखा गया।

इसीलिए भारत के परिवार के सदस्य एक-दूसरे से भावनात्मक रूप में रहते हैं। धीरे-धीरे घर-गृहस्थी का विस्तार हुआ। बाहर की दुनिया में लोगों का समय अधिक बीतने लगा। लक्ष्य परिवार से हटकर संसार हो गया और यहीं से शरीर का महत्व बढ़ गया।

जैसे ही हम रिश्तों में शरीर पर टिकते हैं, हमारा आदमी या औरत होना भारी पड़ने लगता है, उनका अहं टकराने लगता है। बाप और बेटे का एक रिश्ता है। जब तक इसमें केवल रिश्ता काम कर रहा होता है, प्रेम और सम्मान भरपूर रहेगा, लेकिन जैसे ही दोनों अपने शरीर पर टिकेंगे, तो भीतर का पुरुष जाग जाता है और यहीं से फिर बाप-बेटे नहीं, दो पुरुष नजर आने लगते हैं।

ठीक यही स्थिति पति-पत्नी के बीच बन जाती है। स्त्री हो या पुरुष, जब तक रिश्ते की डोर से बंधे हैं, दोनों एक-दूसरे के प्रति अत्यधिक सम्मानपूर्वक रहेंगे, लेकिन इनके भीतर का आदमी, औरत जागते ही रिश्ते बोझ बन जाते हैं।

यही स्थिति हर संबंध में काम करती है। पत्नी के रूप में रिश्ता एक दायित्व, एक स्नेह का होता है, लेकिन यदि वह स्वयं भी अपने भीतर की स्त्री को ही जाग्रत कर ले, पुरुष भी केवल शरीर ही देखने लगे, तो फिर सारी अनुभूतियां कामुकता, अपेक्षा, महत्वाकांक्षा और लेन-देन पर टिक जाती हैं।

जिन रिश्तों में शरीर गौण हों और भावनाएं प्रमुख हों, वहां जिंदगी मीठी होने लगती है। यह सही है कि शरीर के बीज से ही रिश्ते अंकुरित होते हैं, लेकिन जो लोग वापस शरीर की ओर लौटेंगे, वे रिश्तों का वृक्ष नहीं बना पाएंगे।

रिश्तों से जुड़ने पर ऐसा लगता है, जैसे पत्थर में से मूर्ति संवारी गई। छुपा हुआ निखरकर आता है। हमें आज के दौर में यह ध्यान रखना होगा कि रिश्ते शुरू तो शरीर से हों, पर धीरे-धीरे शरीर से हटकर भावना, संवेदना, ममता, सम्मान और प्रेम पर जाकर टिकें।

अगर अहंकार आपको जकड़ रहा है तो ये करें...
जीवन में प्रसन्नता एक लयबद्धता से आती है। स्थितियों का बहाव यदि ठीक तरह से जिंदगी में हो रहा हो तो आदमी मस्त रहता है। इस लयबद्धता को अहंकार बिखरा देता है। मन अपने अहंकार की पूर्ति के लिए हमें बार-बार प्रेरित करता है, क्योंकि वह जानता है कि जब तक मनुष्य अहंकार की पूर्ति करता रहेगा, मन की सक्रियता बनी रहेगी।

आदमी अपने अहंकार की पूर्ति में इतना जुट जाता है कि कहीं बाधा आती है, तो वह विचलित हो जाता है, निराश हो जाता है। कई अहंकारियों को देखा है कि जब तक उनकी जवानी की उम्र होती है, वे इसकी पूर्ति आसानी से कर लेते हैं, लेकिन बुढ़ापे में अहंकारी मुसीबत में आ जाता है।

अहंकार को वृद्धावस्था एक सबक देती है। लेकिन चूंकि जवानी में मुसीबत झेलने की ताकत थी इसलिए सबकुछ चल गया। हमारे शास्त्रों ने इसीलिए संसार को असार बताया है। यानी संसार है भी और नहीं भी। ऐसा इसलिए कहा गया है कि अहंकार मत रखो क्योंकि दुनिया की जिन बातों के कारण हम अहंकार रखते हैं, ये दुनिया ही एक दिन नहीं रहेगी।

अहंकाररहित व्यक्ति को भी प्रतिकूलता का सामना करना पड़ता है, लेकिन तब उसकी समझदारी और सहनशीलता बढ़ी रहती है, इसलिए वह आसानी से पार लग जाता है। लेकिन अध्यात्म ने एक महत्वपूर्ण बात कही है। निरहंकार स्थिति आती ही अहंकार के बाद है। अहंकार आएगा जरूर, बस हमें सावधानी रखनी पड़ेगी कि इसके आते ही इसके रूपांतरण की तैयारी रखें। गुरु परंपरा इसीलिए बनी है। आदमी गुरु के प्रति समर्पित होता है और इसी समर्पण में उसका अहंकार गलता है।

हनुमानजी सिखाते हैं, कैसे पाया जाए भगवान को...

भक्ति भी एक युक्ति है। युक्ति यानी उपाय। परमात्मा को पाने का तरीका, ढंग या रीति। भगवान विशेष प्रयास से मिलते हैं। सुंदरकांड में युक्ति का एक प्रसंग आता है। विभीषण और हनुमानजी की चर्चा हो रही थी। हनुमानजी ने विभीषण से सीताजी का पता पूछा। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी -

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।

विभीषण ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियां कह सुनाईं। विभीषण को हनुमानजी समझा चुके थे कि आप राम-नाम तो लेते हैं, परंतु राम-काम नहीं करते। ज्यादातर लोग संसार में ऐसा ही करते हैं। राम-काम का अर्थ तिलक लगाना, मंदिर जाना, पूजा करना ही नहीं है, असली राम-काम है ईमानदारी, निष्ठा और परिश्रम से अपना कर्तव्य पूरा करना। सीताजी को भक्ति, शक्ति व शांति का प्रतीक बताया गया है।

विभीषण ने सीताजी की खोज की युक्ति बताई थी, इसका अर्थ है कि हम समाज की शांति, भक्ति व शक्ति की खोज में लगे रहें, यही राम-काम है। हनुमानजी ने अशोक वाटिका में जाकर सीताजी को देखा। वे कृशकाय हो चुकी थीं और राम-नाम का जप कर रही थीं। उनको देखकर हनुमानजी भी दुखी हो गए।

परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।। (दोहा-8)

हनुमानजी हमें समझा रहे हैं कि दूसरों के दुख का ठीक से एहसास करें। भक्त दूसरों के दुख को समझता है और उसे दूर करने का प्रयास भी करता है। आज उल्टा है, हम दूसरों के दुख से दुखी नहीं, बल्कि उनके सुख से दुखी हैं। हनुमानजी से सीखें दूसरों का दुख समझकर कैसे दूर किया जाता है।

जानिए, बिना धन के कैसे बनें धनवान...
धन हो तब मनुष्य धनवान कहलाता है, कुछ लोग दिवाली इसी विचार से मनाते हैं। यह संसार की साधारण परिभाषा है, लेकिन अध्यात्म बताता है बिना धन के धनवान कैसे बनें? दौलत को ही धन न समझा जाए। लक्ष्मी के अनेक स्वरूप हैं।

लोग लक्ष्मी के संदर्भ में केवल संपत्ति पर टिक गए। स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, प्रेमपूर्ण परिवार, ईमानदार आचरण व योग्य संतानें हों तो आदमी बिना रुपयों के भी अधिक दौलतमंद होगा। ऋषि-मुनियों और संतों की परंपरा में अनेक नाम ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत, तन पर सामान्य वस्त्र और निर्धन से भी बीता व्यावहारिक रहन-सहन था, लेकिन बड़े-बड़े राजा उनके चरणों में नतमस्तक थे।

सदाचारी के पास लक्ष्मी अलग रूप में आती है। लोगों ने लक्ष्मी को अपने जीवन में लाने और जाने के कई तरीके ईजाद किए। आज उनमें से एक पर विचार करें। वह तरीका है दान। इससे पुण्य अर्जन का काम किया गया।

दान लक्ष्मीजी को भी प्रिय है, लेकिन वे चाहती हैं, दया-भाव से दान मत करो, प्रेम-भाव से करो। जब तक कोई कमजोर न हो, दया शुरू कैसे होगी? दया करने के लिए सामने वाला दीन होना जरूरी है। धनवानों की एक रुचि यह भी रहती है कि लोग दीन बने रहें, वरना उनका दान कैसे चलेगा? यहीं से अमीरी-गरीबी की खाई गहरी बनाई जाती है।

सब बराबर हों और यदि ऐसा न भी हो तो कम-से-कम दान प्रेम की उपस्थिति से अहंकार व शोषण से मुक्त रहेगा। लक्ष्मी का आचरण यही है कि मुझ पर दबाव मत बनाना, वरना मैं कब, कैसे विपरीत परिणाम दूंगी, आदमी समझ ही नहीं पाएगा। इनका जन्म समुद्र मंथन से हुआ था। यह इस बात का प्रतीक है कि मुझे पुरुषार्थ से प्राप्त करो और परमार्थ में खर्च करो।

स्त्री और पुरुष दोनों के लिए जरूरी है ब्रह्मचर्य...
सामान्यत: ब्रह्मचर्य पुरुषों के लिए आरक्षित स्थिति मानी जाती है। दरअसल ब्रह्मचर्य एक ऐसा आचरण है, जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही समान है। ब्रब्रह्मचर्य एक शक्ति का नाम है, जो ब्रह्म के आचरण से आती है।

एक आंतरिक अनुशासन ब्रह्मचर्य का रूप है। इसका संबंध केवल शारीरिक नहीं है। शरीर के स्तर पर तो ब्रह्मचर्य स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग होगा, लेकिन जब इसे आंतरिक शक्ति के रूप में लेंगे, तो यह स्त्री के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण होगा, जितना पुरुष के लिए है।

स्त्री का ब्रह्मचर्य उसे रूप-धन की स्थिति से भी मुक्त कराएगा। जैसे-जैसे वह अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानेगी, मां बनना उसके लिए विवशता नहीं, विशेष अधिकार बन जाएगा। स्त्री का ब्रह्मचर्य उसके मातृत्व के लिए एक वरदान है।

जो स्त्रियां अपनी आंतरिक शक्ति पर बखूबी टिकीं, उन्हें पुरुष से बराबरी का रुतबा पाने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। बिना आंतरिक शक्ति के पुरुष से जो बाहरी संघर्ष होगा, वह ऊर्जा को नष्ट करने वाला, वातावरण को दूषित करने वाला और जीवन को संकट में डालने वाला ही रहेगा।

माताओं, बहनों को योग, प्राणायाम और ध्यान से गुजरते समय अधिक सरलता रहेगी। माताओं, बहनों को अपने व्यक्तित्व की प्रस्तुति करने में आज भी कई परेशानियां हैं, लेकिन ब्रह्मचर्य यानी आंतरिक शक्ति पर टिकते ही उनके लिए सारा वातावरण मित्रवत हो जाएगा।

इसका अर्थ है सम्मान और सदाचार के साथ उन्हें सहयोग मिलेगा और वे भी सान्निध्य दे सकेंगी।

जानिए, आपके व्यक्तित्व के लिए कितने जरूरी हैं आंसू...
आदमी दुखी होने पर भी रोता है, संवेदनशील हो और खुशी जाहिर करनी हो, तब भी उसकी आंखें सजल हो उठती हैं। आंख और आंसू भीतरी व्यक्तित्व को व्यक्त करते हैं। इसीलिए पहुंचे हुए महात्मा की आंख में आंख डालने का मौका मिले तो तप के क्या परिणाम होते हैं, यह जानने की कोशिश की जाए।

जैसे नवजात शिशु की आंख निर्दोष होती है, वैसे ही संत की आंखों में परमात्मा की गहराई होती है और आंसू होते तो आंख का हिस्स हैं, पर धोते हृदय को हैं। विभीषण से बात करते हुए सुंदरकांड में हनुमानजी द्रवित हो गए। उन्होंने श्रीराम के कृपालु चरित्र का वर्णन किया और तुलसीदासजी ने लिखा -

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।। (सुंदरकांड दोहा-७)

हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूं, पर श्रीराम ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान के गुणों का स्मरण करके हनुमानजी के नेत्रों में जल भर आया। लेकिन भगवान को याद करके जब आंसू निकलते हैं तो वह अमृत होते हैं और दुनिया की याद में जो बहाए जाते हैं, वो जहर होते हैं। आंख के आंसू भक्ति में जरूर बहना चाहिए, क्योंकि जिनकी आंख के आंसू सूख गए, उनके लिए भक्ति कठिन होगी।

आंसू हृदय को न सिर्फ धोते हैं, बल्कि उन बातों से ओतप्रोत रखते हैं, जो उन्हें परमात्मा तक ले जाती हैं, जो हमें प्रेमपूर्ण बनाती हैं। इसलिए अकारण आंसू न रोकें, लेकिन इतना आश्वासन जरूर अपनी आंखों को दें कि आंसू भगवान से जुड़ने के लिए सेतु का काम करेंगे, प्रेम का भाव प्रदर्शित करने की इबारत बनेंगे।

इसलिए कहा जाता है कि स्त्री भगवान की श्रेष्ठ कृति है
स्त्री को मानवता का नवीनतम संस्करण बताया है। प्रसिद्ध सर्वोदयी चिंतक दादा धर्माधिकारी कहा करते थे- हम जब कोई चीज खरीदने बाजार जाते हैं, तो अक्सर सबसे आखिरी तर्ज की चीज मांगते हैं। अगर मोटर खरीदते हैं तो आज का या सबसे बाद का मॉडल मांगते हैं।

चीज वही बढ़िया है, जो अप-टु-डेट हो, नवीनतम हो। लेटेस्ट मॉडल को बेस्ट मॉडल समझा जाता है। इसी प्रकार स्त्री भगवान की सृष्टि का लेटेस्ट मॉडल है। इसलिए वह हर बात में पुरुष से बढ़िया है। भगवान ने पहले मनु को या आदमी को बनाया और बाद में स्त्री को।

उसकी सबसे उत्कृष्ट कृति स्त्री है। दरअसल भगवान ने दोनों को अपनी-अपनी विशेषता के साथ समान ही बनाया है। जब आदमी, औरत एक-दूसरे से एक-दूसरे को श्रेष्ठ बताने की कोशिश करते हैं, तब उनकी सृजन ऊर्जा इसी में खर्च हो जाती है।

इसी कारण दोनों पास-पास तो रहते हैं, लेकिन साथ-साथ नहीं रह पाते। जीवन रेल की पटरियों की तरह हो जाता है। दूर से देखो तो एक नजर आती हैं, परंतु पास जाकर देखो तो दूरी है। दोनों में बराबरी होनी चाहिए, लेकिन बराबरी समान भूमिका की, हैसियत की हो, एकरूपता की नहीं।

प्रतिस्पर्धा और खिंचाव कम करने के लिए एक प्रयोग किया जा सकता है। अपना सौंदर्यबोध शरीर से हटाकर आत्मा के तल पर टिकाएं, प्रकृति के प्रति प्रेमपूर्ण हों, तब शरीर के अतिरिक्त भावनात्मक विशेषताएं दिखने लगेंगी और एक-दूसरे की खूबी एक-दूसरे के काम आएगी।

जानिए, कैसे हुआ था हजारों साल पहले ब्रह्माण्ड का निर्माण?
हिन्दू धर्म और मान्यता के अनुसार सारे ब्रह्माण्ड का निर्माण ब्रह्माजी ने की थी। अगर हम अठारह पुराणों में से ही एक भविष्य पुराण की बात मानें तो परमात्मा ने सबसे पहले आकाश और वायु, अग्रि व जल बनाए उसके बाद नक्षत्र, नदी, समुद्र पर्वत, सम और विषम भूमि आदि उत्पन्न कर काल के विभागों आदि की रचना की। उसके बाद धर्म और अधर्म की रचना की। इस लोक के निर्माण के लिए अपने मुख से ब्राह्मण बहुओं से क्षत्रिय, ऊरु अर्थात जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों को उत्पन्न किया। ब्रह्मजी के चारों मुखों से चार वेद उत्पन्न हुए। पूर्व मुख से ऋगवेद, और दक्षिण मुख से यजुर्वेद उत्पन्न हुआ पश्चिम मुख से सामवेद निसृत हुआ, उसे गौतमऋषि ने धारण किया। उत्तर मुख से अर्थवेद उत्पन्न हुआ। जिसे लोकपूजित महर्षि शौनक ने ग्रहण किया। ब्रह्माजी के मुख से अठारह पुराण उत्पन्न हुए। इसके बाद ब्रह्माजी ने अपने देह के दो भाग किए। दाहिने भाग को पुरुष तथा बांए भाग को स्त्री बनाया। उसके बाद उसने नाना प्रकार की सृष्टि की।

उस विराट पुरुष ने नाना प्रकार की सृष्टि रचने के लिए बहुत समय तक तपस्या की और सबसे पहले दस ऋषियों को उत्पन्न किया। उसके बाद देवता, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, अप्सरा, पितर, मनुष्य, नाग, सर्प आदि योनियों के अनेक गण उत्पन्न किए और उनके रहने के स्थानों को बनाया। उसके बाद बादल, वज्र, इंद्रधनुष, धुमकेतु, उल्का, तारे, आदि का निर्माण हुआ। मनुष्य किन्नर अनेक प्रकार के मत्सय, वराह, पक्षी, हाथी, घोड़े, पशु, मृग कृमि,कीट,पतंगे छोटे-छोटे जीवों को उत्पन्न किया।

सफलता चाहिए तो जीवन में कभी भी ये गलतफहमी ना पालें...
दुनिया में कई तरह के भ्रम होते हैं, उनमें से एक भ्रम है यह मान लेना कि मुझे सबकुछ आता है। उससे भी बड़ा भ्रम यह है कि मेरे मुकाबले दूसरों को कुछ नहीं आता। यहीं से गड़बड़ शुरू हो जाती है।

एक बुरी आदत जीवन में यह उतर जाती है कि अपनी गलतियां ढूंढ़ने में रुचि नहीं रहती, सारे दोष दूसरों पर थोपने लगते हैं। जब भी आप किसी जिम्मेदार पद पर हों और आपके पास कोई महत्वपूर्ण कार्य हो तो पहली बात यह करें कि उससे संबंधित सारी जानकारियां और ज्ञान जरूर बटोर लें।

जानकारी का अभाव बिल्कुल न रखें। आप विशिष्ट और अधिकार संपन्न इसी बात के लिए होंगे कि आपके पास अन्य के मुकाबले उस विषय की जानकारी अधिक होगी। लगातार आत्मसमीक्षा करते रहें। अपनी जानकारियों को अपडेट करते रहें।

प्रतिदिन की पूजा में नवीनता बनाए रखें। भारतीय शास्त्रों ने कहा है कि भक्ति के प्राण उसकी नवीनता में बसे हैं, इसे बासी बिल्कुल न होने दें, वरना हम थोड़ी भी चुनौती आने पर चिड़चिड़े हो जाते हैं, तनावग्रस्त बन जाते हैं।

यह भ्रम न पालें कि हमें सब आता है और दूसरों को कुछ नहीं। जितनी भी देर आप पूजा करें, पूरी तरह डूबकर उसे नवीन बनाएं। एक भाव-दशा में जीना सबसे अच्छी पूजा है।

पूजा में बैठकर अपने भीतर की स्थिति का मूल्यांकन करें। जितना हम भीतर उतरकर पूजा करेंगे, नवीन होते जाएंगे। जब परमात्मा को फूल, वस्त्र व भोग ताजा लगाते हैं तो स्वयं भी बासी बनकर न चढ़ें।

ये कारण मजबूर कर देते हैं भटकने के लिए...
बचपन से हमें सिखाया जाता है कि सावधान रहना, जिंदगी की राहों में भटक मत जाना। साधारणतया भटकने का अर्थ है कि हम चरित्रहीन न हो जाएं। हमारी जीवन यात्रा में दो चीजें होती हैं, तब हम भटकते हैं। पहला, यदि कोई धक्का लगे तो चाल लड़खड़ाएगी और दूसरा, यदि कोई घसीट ले तो मार्ग से इधर-उधर हो जाएंगे।

लोभ, मोह, काम, क्रोध, मान, पद, प्रतिष्ठा इन सबके धक्के हमें गिरा देते हैं। घसीटने के मामले में इंद्रियां बहुत ताकतवर होती हैं। खींच-खींचकर विषयों की ओर ले जाकर पटक देती हैं। इनसे बचने के लिए अपने भीतर या तो अति आत्मविश्वास जगा लें या श्रद्धा का अंकुर पैदा कर लें।

श्रद्धावान व्यक्ति नसीहतों के प्रति गंभीर होता है। उसके लिए सीख आचरण से अधिक भरोसे का विषय होती है। माता-पिता और गुरुजन की सीख वह अनुशासन के रूप में नहीं, श्रद्धा के रूप में लेता है। झोंकों से गिरने वाले और इंद्रियों से घसीटे गए लोग भविष्य के अज्ञात भय से भी डरने लगते हैं कि अब क्या होगा?

यदि श्रद्धा जीवन में है तो भय को जाना ही पड़ेगा। एक बात और कि जीवन में जब भी भय आएगा, उसके मूल में अहंकार जरूर होगा। अहंकारी व्यक्ति का जीवन दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा और आलोचना पर निर्भर होता है।

उसे सदैव भय बना रहता है कि दूसरे उसके बारे में क्या कहेंगे और इसीलिए वह धक्के भी खाता है, लेकिन श्रद्धा आपको स्वयं पर टिकाएगी, निर्भय बनाएगी।

सिर्फ इस कारण रिश्तों में संवेदनाएं खत्म हो रही हैं....
जीवन यांत्रिक हो जाए और मनुष्य मशीन बन जाए तो परिणाम भले ही शानदार हों, पर उस सुख में शांति जाती रहेगी। आज शिक्षा और कॅरियर के हर स्तर पर इस बात की तैयारी की जा रही है कि व्यक्ति कुशल हो, योग्य हो, लेकिन चीजों की तरह उपयोगी और आज्ञाकारी रहे।

हर हाल में सफल होना है, यह उम्मीद हो और इसकी पूर्ति के लिए प्रयासों की पराकाष्ठा भी रहे। लेकिन असफल होने पर प्राणों की बाजी लगा देना समझदारी नहीं होगी। सफलता का असली मजा वो लोग ज्यादा उठा सकेंगे, जो कभी-कभी असफल भी रहे होंगे।

हर बार की सफलता खुशी से ज्यादा भय दे जाएगी। सफलता की जिम्मेदारी यदि जाग्रत आत्मा के कंधे पर होगी तो मनुष्य मशीन होने से बच जाएगा। भौतिक समस्याओं के आध्यात्मिक उपचार करने से मनुष्य की निजता खंडित नहीं होती और जीवन यांत्रिक होने से बच जाता है।

दुनिया आपको योग्य मशीन बनने के लिए मजबूर करेगी। मशीन को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उसे चलाने और बंद करने के लिए हाथ कौन से हैं, लेकिन मनुष्य की गति को प्रोत्साहित करने के लिए और आवेग को शांत करने के लिए रिश्तों का स्पर्श जरूरी होता है। शायद इसी मशीनी मिजाज के कारण रिश्ते अपनी संवेदना खोते जा रहे हैं।

तेज इंसानी दौड़ में रिश्ते बाधा और अपने लोग बोझ लगने लगते हैं। हर हाल में जीत और सुख पाने के लिए रोबोट न बनें, अपनी निजता को जानें और उसे बचाए रखें।

इसलिए हम पूजते हैं साधु-संतों को....
हम लोग संतों को इतना क्यों पूजते हैं। दरअसल हर फकीर के भीतर साक्षात भक्ति शरीर धारण करके खड़ी है। जैसे यदि कृष्ण को जानना हो तो मीरा और चैतन्य जैसे संतों को सेतु बनाएं। तुलसी ने लिखकर, कबीर ने गाकर, नानक ने बोलकर, महावीर-बुद्ध ने खड़े होकर और चैतन्य तथा मीरा ने नाचकर भगवान को पाया।

हर संत के जीवन में कुछ चमत्कारिक घटता है। लेकिन भक्तों को इन चमत्कारों से ज्यादा लेना-देना नहीं होना चाहिए। चमत्कार को छोड़ें, प्रेमभाव को मानें। तार्किक उलझ जाता है बुद्धि में, त्यागी उलझ जाता है देह में पर जो प्रेमी हैं, भक्त हैं, वह उलझते नहीं।

वे चमत्कार से हटकर सिर्फ फकीरों की लीला देखते हैं। भारत ने बुद्धि के शिखर को छुआ है। भारत के पास आज भी बहुत-सा ऐसा साहित्य है, जो दुनिया की किसी भाषा में अनूदित नहीं हो सकता, क्योंकि इतने बारीक शब्द दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं हैं। हमारे पास ऐसे-ऐसे शब्द हैं, जिनका कोई सानी नहीं। हमने वेद, उपनिषद, पतंजलि, कपिल, कणाद सबको सोचा है। इतना सोचा कि सोच-सोचकर थक गए हैं।

लेकिन ऐसी चिंतन परंपरा के अतिरिक्त हमारे पास अनेक संतों के रूप में समर्पित परंपरा की भी पूंजी है। इसलिए भारत के पास हर किस्म का फकीर मौजूद है। आप अपने अनुरूप किसी से भी जुड़ सकते हैं। फकीरी से जुड़ने का एक सरल तरीका है, जरा मुस्कराइए..।

अगर आप वाकई तनाव से बचना चाहते हैं तो यह करें...
मानवीय सुख हमारे परिवारों की प्राचीन मांग है। अधिकांश लोगों की गृहस्थी की शुरुआत इसी से होती है। देह का भान, उसकी तृप्ति और अतृप्ति ही अशांति का कारण बनती है। कई रिश्ते तो घरों में देह से चलकर देह पर ही खत्म हो जाते हैं। शरीर से परे हो ही नहीं पाता परस्पर आत्म समर्पण। अधिक समय दांपत्य जब शरीर पर ही टिकता है तो त्याग की भावना जन्म नहीं ले पाती।

भोग, उसकी पूर्ति और अपेक्षा के आसपास जीवन मंडराने लगता है। फिर शुरू होता है तनाव। केवल शरीर पर टिके रहकर तनाव का निदान नहीं हो सकता। फिर तनाव अपना वंश बढ़ाता है, तब प्रवेश होता है अशांति का। एक-दूसरे के प्रति शंका होने लगती है।

संदेह एक धीमा जहर है घर-परिवार के लिए। परिवार का हर व्यक्ति फिर अपने-अपने अधिकार में, अपने-अपने अधिकार के लिए ही जीने लगता है। दांपत्य में अपेक्षा, संदेह, देह, अधिकार जैसी वृत्तियों से बचने के लिए एक ही उपाय है और वह है प्रेम।

यह प्रेम न तो दहेज में मिलता है, न डिग्री से प्राप्त होता है, इसे कोई तिजोरी भी नहीं उगल पाती, न किसी दवा की शक्ल में बाजार में उपलब्ध है। इसे अपने भीतर जगाने का एक ही तरीका है अपनी सांसों से अपनी चेतना को जोड़कर थोड़ा भीतर उतरने का अभ्यास रोज करें।

हृदय को जब सांसों से चेतना का पवित्र स्पंदन मिलता है तो आप स्वत: प्रेमपूर्ण हो जाते हैं। योग से योगी ही तैयार नहीं होते, प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व भी निर्मित होते हैं, इसीलिए अपने घर में किसी भी सदस्य को दया का पात्र न बनाएं, बल्कि प्रेम का भागीदार बनाएं।

धन-दौलत नहीं, ये है हमारी असली सम्पत्ति....
संपत्ति के कई रूप हैं। शक्ति व पुण्य को भी संपत्ति माना गया है। इनको प्राप्त करने के कई तरीके हैं। तप से शक्ति और सेवा से पुण्य प्राप्त होते हैं। इनका दुरुपयोग दुर्भाग्य है और सदुपयोग सौभाग्य। शक्ति का प्रवाह नदी की भांति होता है। यदि सही रूप से इसे नहीं संभाला तो यह गलत दिशा में जाएगा। कुछ बातें इनका दुरुपयोग करने में सक्रिय होती हैं।

हमारी देह, इंद्रियां, मन, बुद्धि को इसका दुरुपयोग करने में देर नहीं लगती। इस प्रवाह को परमात्मा तक मोड़ना ही सच्चा पुरुषार्थ है। यह प्रवाह अपने आप में एक मार्ग है। इस मार्ग को वैज्ञानिक रखिए और लक्ष्य परमात्मा रखिए। देखा गया है कि दिमाग यदि वैज्ञानिक हो तो आदमी बाहर की ही दुनिया में रहता है और तर्क के आधार पर फैसले लेता है।

भगवान की ओर चलने में ये बातें उल्टी हो जाती हैं, खारिज नहीं। बुद्धि से विज्ञान को स्वीकार करें और सांसों से भीतर की यात्रा करें। तर्क को नकारें न। बात अच्छी हो या बुरी, उसी के आधार पर स्वीकार करें, फिर तर्क को पकड़कर उसी के पार चले जाएं। विचारों से आमना-सामना कर उनसे झगड़ा नहीं करना है, बस छलांग लगाकर उनके पार ही चले जाना है।

इस पार जाने के लिए शक्ति की जरूरत है और विचारों का सामना करने के लिए पुण्य काम आते हैं। पुण्य का अर्थ है अच्छे कामों से जुड़े रहना। हम जितना भले कार्यो में संलग्न होंगे, उतने ही विचारों से पार जाने में सक्षम हो पाएंगे। आज दुनिया विज्ञान से चल रही है, इसलिए भक्त बनते समय प्रयास किया जाए कि हम आचरण में बुद्धिप्रधान हों, पर प्रवृत्ति में हृदय पर टिकें। तब शक्ति भी एक संतुलन का माध्यम बन जाएगी, जगत तथा जगदीश का।

अगर आप अपने अंदर जगाना चाहते हैं हिम्मत, तो यह करें...
भौतिक चीजों के असली-नकली होने के मापदंड स्थूल होते हैं। थोड़ी अक्ल हो तो हम पहचान सकते हैं, कौन-सी चीज सही है और कौन-सी गलत। लेकिन जब जीवन के गुणों और दुगरुणों की बात आती है और उसमें असली-नकली की पहचान करनी हो तो झंझट शुरू हो जाती है।

संसार के काम करते हुए त्याग और वैराग्य लाना कठिन हो जाता है, जबकि शांति के लिए दोनों जरूरी हैं। वैराग्य का सामान्यतया अर्थ गलत लगा लिया जाता है। आदमी तभी त्याग कर सकता है, जब उसके भीतर वैराग्य जागा हो। वरना त्याग भी एक तरह का सौदा बन जाएगा।

वैराग्य का यह अर्थ नहीं होता कि चीजों को छोड़ दें, बल्कि इसका सही अर्थ यह होगा कि उन्हीं चीजों का सदुपयोग दूसरों के हित में होता रहे। जितना हम दूसरों को सही लाभ पहुंचा सकेंगे, उतना ही हमारे वैराग्य और त्याग का मतलब सही होगा। इसलिए कहते हैं अपने भीतर थोड़ी वैराग्य की वृत्ति होनी जरूरी है। बिना वैराग्य जागे हम अपने भीतर का जो भी रूपांतरण करना चाहेंगे, वह नकली होगा।

असली सद्गुण अपनाने के लिए साहस की जरूरत होती है। जब तक भीतर वैराग्य नहीं होता, साहस नहीं जागेगा। वैराग्य का अर्थ है छोड़ने की शक्ति। पकड़ने की चाह भय पैदा करती है और छोड़ने की इच्छा ताकत देती है। यदि वैराग्य भीतर है तो अहंकार छोड़ने का साहस आसान होगा। यह आध्यात्मिक समीकरण हम अपने हर सद्गुण और दुगरुण के साथ लगा सकते हैं।

सफलता चाहिए तो इस बात के लिए खुद को हमेशा तैयार रखें....
संसार चक्र तेजी से घूमता है। इस बदलाव को समझते हुए हमें अपनी मानसिक स्थिति से इसे जोड़े रखना चाहिए। आज जो हमारी प्रतिष्ठा है, धन की स्थिति है, जरूरी नहीं कि वह कल भी रहे। कब स्थिति बदल जाए, पता नहीं।

जब बदलाव आता है और यदि वह अनुकूल हो तो अहंकार पैदा हो सकता है और प्रतिकूल हो तो अवसाद को जन्म देता है। इसलिए अपने मस्तिष्क को बदलाव से तालमेल बनाने के लिए तैयार रखें। दो चीजें बड़े काम आएंगी- एक तो हमारी मानसिकता विपरीत परिस्थिति में हल निकालने वाली हो और दूसरी तालमेल बैठाने वाली।

हमारे भीतर की फकीरी को इन दोनों स्थितियों से जोड़े रखने पर हम कभी भी निराश नहीं होंगे। जिनके पास बहुत अधिक धन होता है, जो इसका पर्याप्त भोग कर चुके होते हैं, ऐसे लोग भी फकीर बनते देखे गए हैं।

गौतम बुद्ध के साथ यही हुआ था। उन्होंने जीवन के एक पक्ष को वैभव के साथ देखा था और उसके बाद त्याग के चरम को छुआ। कबीर के साथ उल्टा था। उन्होंने कभी वैभव नहीं देखा, पर वैसी ही फकीरी अभाव में घट गई। जिसको जीवन में सब मिल जाता है, उसकी तृप्ति भी उसे वैराग्य की ओर ले जाती है।

इसलिए जब वक्त बदले, हमारे पास सबकुछ हो तो भी वैराग्य की संभावनाओं को बचाए रखें और जब कुछ भी न हो, तब भी फकीरी को घटाने की तैयारी रखें। संतोषभरा यह संतुलन परिस्थितियों में जीवन के अर्थ बदल देगा।

जब भी कोई योजना बनाएं तो ये बातें ध्यान में रखें...
यह सही है कि कर्म हम ही करते हैं, लेकिन उसके परिणाम तक आते-आते अन्य कुछ बातों का योगदान उसमें हो जाता है। इसलिए परिणाम के सौ प्रतिशत भाग को तीन भागों में बांटा जाए। पचास प्रतिशत जिम्मेदार हम स्वयं रहेंगे।

पच्चीस प्रतिशत भाग दूसरे व्यक्ति या हालात होंगे और शेष पच्चीस प्रतिशत में भाग्य और प्रारब्ध की भूमिका भी होगी। हमारे काम करने का तरीका और दृष्टिकोण परिणाम के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। यदि हम अपने हिस्से को और अधिक प्रभावशाली बनाना चाहते हैं तो एक काम करें कि हर कार्य की योजना बनाते समय चिंतन और चरित्र का समन्वय बनाए रखें।

इससे भीतरी विरोधाभास समाप्त होगा तथा बाहर आत्मविश्वास जागेगा। यदि हम अपनी भूमिका वाले 50 प्रतिशत हिस्से पर ठीक से काम नहीं करेंगे तो भ्रम में पड़ेंगे और हठी भी हो जाएंगे। अपने निर्णय और विचार दूसरों पर थोपने की अजीब-सी जिद हमारे भीतर आ जाएगी।

जो हमने सोचा व कहा वही सही है, यह दुराग्रह हमें अच्छे लोगों से दूर कर देगा। जीवन हर बार एक अति पर टिका दिया जाता है। ऐसा व्यक्तित्व फिर घोषणा करने लगता है कि या तो कोई हमारा मित्र है और यदि मित्र नहीं है तो फिर शत्रु है।

जबकि जरूरी नहीं है कि जो हमारा मित्र न हो, उसे शत्रु बना लिया जाए। इसी कारण कार्य के परिणाम में हमारी भूमिका गड़बड़ा जाती है और दोष हम दूसरे व्यक्ति, परिस्थिति, भाग्य और प्रारब्ध को देने लगते हैं।

जानिए, धन के कैसे उपयोग से खुश होती हैं लक्ष्मी?
धन हो तब मनुष्य धनवान कहलाता है, कुछ लोग लक्ष्मी को इसी विचार से मनाते और पूजते हैं। दौलत को ही धन न समझा जाए। लक्ष्मी के अनेक स्वरूप हैं। लोग लक्ष्मी के संदर्भ में केवल संपत्ति पर टिक गए।

स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, प्रेमपूर्ण परिवार, ईमानदार आचरण व योग्य संतानें हों तो आदमी बिना रुपयों के भी अधिक दौलतमंद होगा। ऋषि-मुनियों और संतों की परंपरा में अनेक नाम ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत, तन पर सामान्य वस्त्र और निर्धन से भी बीता व्यावहारिक रहन-सहन था, लेकिन बड़े-बड़े राजा उनके चरणों में नतमस्तक थे।

सदाचारी के पास लक्ष्मी अलग रूप में आती है। लोगों ने लक्ष्मी को अपने जीवन में लाने और जाने के कई तरीके ईजाद किए। आज उनमें से एक पर विचार करें। वह तरीका है दान। इससे पुण्य अर्जन का काम किया गया। दान लक्ष्मीजी को भी प्रिय है, लेकिन वे चाहती हैं, दया-भाव से दान मत करो, प्रेम-भाव से करो।

जब तक कोई कमजोर न हो, दया शुरू कैसे होगी? दया करने के लिए सामने वाला दीन होना जरूरी है। धनवानों की एक रुचि यह भी रहती है कि लोग दीन बने रहें, वरना उनका दान कैसे चलेगा? यहीं से अमीरी-गरीबी की खाई गहरी बनाई जाती है। सब बराबर हों और यदि ऐसा न भी हो तो कम-से-कम दान प्रेम की उपस्थिति से अहंकार व शोषण से मुक्त रहेगा।

लक्ष्मी का आचरण यही है कि मुझ पर दबाव मत बनाना, वरना मैं कब, कैसे विपरीत परिणाम दूंगी, आदमी समझ ही नहीं पाएगा। इनका जन्म समुद्र मंथन से हुआ था। यह इस बात का प्रतीक है कि मुझे पुरुषार्थ से प्राप्त करो और परमार्थ में खर्च करो।

मौत का डर भगाना है तो सबसे पहले यह काम करें...
जीवन में सीखने के लिए जितनी स्थितियां हैं, उनमें से एक महत्वपूर्ण है मृत्यु। फकीरों ने कहा है धार्मिकता शुरुआत है जीवन को सही रूप में देखने की। और अंत होते-होते धार्मिकता जब अध्यात्म में बदलती है, तब मृत्यु को सही ढंग से देखना आ जाता है।

मृत्यु भी गुरु की भूमिका में होती है। बड़ी से बड़ी सीख मृत्यु से ली जाती है। कई लोग कहते हैं फटाफट शरीर खत्म हो जाए तो ठीक है, पर थोड़ा-थोड़ा शारीरिक कष्ट और फिर मौत, यह बड़ा कष्टकारी है। लोग मौत भी सुविधाजनक चाहते हैं।

दरअसल, जब तक जिंदगी में बढ़िया चल रहा होता है, तब तक मृत्यु की याद भी नहीं आती और जहां शरीर के, हालात के कष्ट शुरू हुए तब मनुष्य थोड़ा-बहुत मौत को टटोलता है। मृत्यु को मजबूरी या भय से याद न किया जाए, इसे सतत स्मरण रखा जाए।

जितना मृत्यु से परिचय गहरा होगा, जिंदगी उतने ही अच्छे से समझ में आएगी। यदि जीना चाहते हैं तो मृत्यु को न भूलें। परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धिमान बनाकर सर्वश्रेष्ठ वरदान दिया है। इसलिए थोड़ी बुद्धि मृत्यु के स्वाद, समझ और स्वागत में भी खर्च की जाए।

उसे जब आना होगा, कोई रोक नहीं पाएगा, लेकिन तैयारी पूर्व से ही होगी तो जीवन जरूर मस्ती का स्पर्श ले लेगा। मृत्यु की समझ के लिए सतत जागृति हमें प्रेमपूर्ण बनाएगी, हरेक के प्रति हमारी दृष्टि बदल देगी। ऊर्जा मौत से बचने में न लगाकर समझने में लगाई जाए तो जीवन जीना भी उपलब्धि हो जाएगा।



आसक्ति क्या है?  और आसक्ति कैसे जा सकती है?
आठवी कक्षा में पढ़ने वाली बच्ची ने पत्र में पूछा, ‘‘भैया ये आसक्ति क्या होती है?’’ सुसंस्कृत परिवार था। घर में पाठ, स्वाध्याय होता रहता था। इसलिये ऐसे शब्द सुन रखे थे। अर्थ पता नहीं था पर किसी से पूछने का साहस भी नहीं कर पायी होगी। अब विश्वास बना कि कोई बता सकता हे तो बेझिझक पूछ लिया। पर उत्तर देना इतना सहज नहीं था। वैसे भी इन सूक्ष्म संकल्पनाओं को समझना और समझाना कठीन ही होता है। यहाँ तो 12-13 साल की बच्ची वह भी बड़ी कठीन परिस्थिति का सामना कर रही है। कुछ ही दिनों में माँ की गंभीर शल्य-चिकित्सा (Surgery)  होनेवाली थी। ऐसे समय वह बालिका जानना चाह रही है कि आसक्ति क्या है?
गीता में बार बार कहा गया है -अनासक्त होकर कर्म करें। ‘‘तस्मात असक्तः सततं।। गी 3.19।।’’ सदैव आसक्ति से मुक्त रहो। ‘‘संगं त्यक्त्वा धनंजय।। गी 2.48।।’’ हे धनंजय! आसक्ति का त्याग कर। ‘‘कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगं असक्तः स विशिष्यते।।गी 2.7।।’’ कर्मेन्द्रियों में आसक्ति ना होना ही कर्म को कर्मयोग बनाता है। ‘‘मुक्तसंगः’’ आसक्ति से जो मुक्त है वह सात्विक कर्ता है। आदि अनेक स्थानों पर इस महत्वपूर्ण बात का उल्लेख मिलता है। कर्मयोग की परिभाषा का यह महत्वपूर्ण घटक है। अतः कर्मयोग के विविरण में यह बार बार आता है। 

किन्तु बारवे अध्याय में जहाँ भक्ति योग का विवरण है वहाँ भी भक्तों के लक्षणों में ‘‘समः संगविवर्जितः।। गी 12.18।।’’ सभी द्वन्द्वों को समान दृष्टि से देखनेवाला के साथ ही आसक्ति को जिसने छोड़ दिया है यह भी आता है। गीता का महत्वपूर्ण संदेश है आसक्ति को छोड़ो। यह ऐसा केवल इसलिये नहीं है कि अर्जुन की आसक्ति गीता का निमित्त बनीं और उसको युद्ध के लिये प्रेरित करने के लिये अनासक्त होना आवश्यक था अतः भगवान् श्रीकृष्ण बार बार आसक्ति के छोड़ने पर बल दे रहे है। यह तात्कालिक कारण कितना भी मोहक लगता हो किन्तु गीता का निमित्त भले ही तात्कालिक धर्मयुद्ध और अर्जुन का उसके प्रति विरक्त होना हो किन्तु गीता का विषय सार्वकालिक है। सनातन धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों की गीता सार्वभौम, सार्वकालिक, व्यावहारिक व्याख्या है। कर्मकौशल का योग समझाने वाली गीता को अनासक्ति, असंग, संगरहितं, संगत्याग आदि पर बल देना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि सब बन्धनों, दबावों तथा समस्याओं से मुक्त होकर स्वतन्त्र कर्म करने के लिये आसक्ति का हटना प्रथम आवश्यकता है। इसी कारण विनोबा भावे गीता का विषय अनासक्ति योग है ऐसा बताते है।

यह सब विशेषता तो ठीक है पर मूल प्रश्न तो वही बना रहा, ‘‘आसक्ति है क्या?’’ हमारे मन में सदा ये प्रश्न आता है। अनासक्त होना तो असम्भव है। मनुष्य है तो भावनायें भी होंगी ही। ऐसे निष्ठुर, कठोर हृदय थोड़े ही हो जायेंगे कि अपने परिवार, परिजन से कोई लगाव ही ना हो? ये कैसे सम्भव है? और सम्भव हो भी तो क्यों करना? क्या पत्थरदिल हो जाना ही जीवन है। ऐसा सब करके सफल हो भी गये तो ये सफलता किसके लिये? अपनों से आत्मीयता ही नहीं रही तो फिर जीवन ही निरर्थक हो जायेगा। ऐसी अनेक बातें हमारे विचारों में आ जाती है जब भी काई आसक्ति को छोड़ने की बात करता है। यह ठीक अर्जुन का तर्क है। पहले अध्याय में यही सारे तर्क उसने युद्धविमुख होने की अपनी कायरता को उदात्त बताने के लिये दिये है। इन शंकाओं का समाधान पाने के लिये हमें आसक्ति, प्रेम, आत्मीयता आदि में भेद को समझना होगा। वास्तव में आसक्ति या संग, प्रेम या आत्मीयता के विलोम है। एक के होने से दूसरा नहीं हो सकता। अतः जब तक आसक्ति होगी हम वास्तव में प्रेम, लगाव, आत्मीयता आदि उदात्त भावों का अनुभव ही नहीं कर पायेंगे और इन्द्रियों के स्तर पर कीचड़ में खेलने को ही आनन्द मान बैठेंगे।

गीता के दूसरे अध्याय में स्थितःप्रज्ञ लक्षणों में भगवान् अत्याधुनिक प्रबन्धकों की प्रस्तुतियों के समान ही एक प्रवाह रेखांकन (Flow Chart) दिखा रहे है। पतन का प्रवाह चित्रण है यह। कैसे थोड़ी सी असावधानी पूर्ण पतन का कारण बन सकती है इसका यह व्यावहारिक वर्णन है। इसमें ही हमें संग अथवा आसक्ति की परिभाषा व परिणाम दोनों देखने को मिलते है।

ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषुपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात् क्रोधोभिजायते।।गी 2.62।।
क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्समृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।।गी 2.63।।

विषयों के बारे में सोचने से संग अर्थात इन्द्रिय विषयों के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से वासनाओं का जन्म होता है। इच्छाओं की पूर्ति न होने से क्रोध और क्रोध से भ्रम पैदा होते है। सम्मोह का अर्थ है सही मार्ग के प्रति भ्रमित हो जाना। इस भ्रम से स्मृति विकृत हो जाती है। जो बाते जैसी है उस प्रकार याद नहीं आती। इस के कारण बुद्धि का आधार ही नष्ट हो जाता है। बुद्धि का कार्य विश्लेषण का है। नयी जानकारी का विश्लेषण स्मृति में संचित जानकारी के साथ तुलना द्वारा ही सम्भव है। जब स्मृति ही सुव्यवस्थित नहीं होगी तो बुद्धि विश्लेषण किस आधार पर करेगी? और जब बुद्धि ही नष्ट हो गयी तो बचा ही क्या यह तो पूर्ण विनाश ही है।

इस पतन के क्रम का प्रारम्भ संगसे है। उससे पहले उसका कारण है विषयों का ध्यान। यह अपने आप में प्रक्रिया है परिणाम तो है संग अर्थात आसक्ति। तो इस आधार पर इन्द्रियजन्य चिन्तन से उत्पन्न राग को, चाह को आसक्ति कहा है। सम्बन्धों को शरीर के स्तर पर देखना एक बाध्यकारी आकर्षण को जन्म देता है। यही पतन का प्रारम्भ है। जब हम जीवन का उद्देश्य भोग बना लेते है और प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति को उसका साधन तब जीवन इस चक्र में फँस जाता है। यह लिप्सा, चिपकना जीवन की कीचड़ है। जैसे भैंस कीचड़ में और सुअर गंदी नाली में सुख का अनुभव करता है वही स्थिति आसक्ति में फँसे मनुष्य की होती है। किसी शराबी की तरहा वह बार बार अपने को रोकने का प्रयास करता है पर इन्द्रियाँ उसे बलपूर्वक पतन की ओर खींच कर ले जाती है। यह चिकनी ढ़लान पर पैर फिसलने के समान है। एक बार पैर फिसला तो बीच में रूकना असम्भव है। जो भी सावधानी बरतनी है फिसलने से पूर्व ही बरतनी है। मन को विषयों के चक्र में फँसने से पूर्व ही बचाना होगा। प्रेम, आत्मीयता यह उदात्त भाव है। उसमें चिपकना नहीं होता मुक्ति होती है। मजबुरी नहीं होती। पर हम सामान्यतः फिल्मी प्रभाव में वासना, आकर्षण जैसी आसक्तिजन्य भाव-लहरों को प्रेम मान लेते है और पतन की फिसलपट्टी पर सरपट पसर जाते है।

अब आता है व्यावहारिक प्रश्न। आसक्ति के फेरे से बचे कैसे? कई बार प्रवचन आदि सुनकर लगता है कि ये तो बड़ा ही कठीन है। पर वास्तव में इससे सरल कुछ नहीं है। मानव को मानव के रूप में रहना कैसे कठीन हो सकता है? किन्तु यदि हम पशुवत आनन्द की ओर बढ़ गये तो फिर मुश्किल होती है। इसमें अपूर्णता भी रहती है आनन्द से ज्यादा कष्ट भी होता है। सच्चा और स्थायी आनन्द तो मानवीय ही होगा ना? मानवीय आनन्द आसक्ति रहित कार्य से ही सम्भव है। प्रश्न फिर वही है आसक्ति से कैसे बचे? इसका सरल सा मार्ग है उदात्तीकरण। शब्द बड़ा भारी भरकम लगता है पर अर्थ सरल है उपर उठना। जमीन पर चलते समय रास्ते के गढ्ढ़े पीड़ादायक होते है और मन भी त्रस्त होता है किन्तु जब पहाड़ी की चोटी पर पहुँच जाते हे तो वहाँ से जो दृश्य दिखाई देता है उसमे उतार चढ़ाव नही होते। वैसे ही जीवन के उदात्त ध्येय को महत्व देना शुरू कर देते है तो मन फिर इन क्षुद्र चीजों में नहीं लगता। 

तुलसीदास जी के विवाह के बाद वे अपनी पत्नि के मोहपाश में ऐसे बन्ध गये कि जब वो मायके गई तो पीछे-पीछे पहुँच गये। मन काम में ऐसा लगा था कि कुछ भी सुध नहीं। बाढ़ के पानी में कूद पड़े, बहती लाश पर बैठकर नदी पार की। पत्नि के घर रात को पहुँचे। खिड़की से कोई रस्सी लटक रही है ऐसा समझकर सांप को पकड़ कर उपर चढ़ गये। पत्नि ने धिक्कारा ये कैसा काम? इतनी लगन राम में लगाई होती तो भगवान के दर्शन हो गये होते। इस झिड़क से इन्द्रिय भोग का नशा उतर गया। जीवन का उदात्तीकरण हो गया और अब मन राम मे रम गया। मानस में रामजी प्रगटे और स्वयं हनुमानजी ने रामकथा सुनाई। सारी दुनिया को रामचरित मानस की निधि प्राप्त हो गई। आसक्ति का बल अगाध होता है उसे उपर की ओर मोड़ देते है तो उसी गति से अनासक्त मन बड़े कार्य में लग जाता है।

जब हम किसी कार्य में पूरे रम जाते है तो स्वयं को भूल जाते है। यदि पूरा जीवन ही किसी उदात्त कार्य में रस लेने लगे तो फिर इन्द्रियों के खेल को भूलना सहज हो जाता है। साथ ही इन्द्रियों का प्रशिक्षण भी आवश्यक है जो हमने पूर्व के आलेख ‘‘भले ही कर्मकाण्डी बनों . . .’’ में देखा ही है। उदात्त ध्येयगामी कार्य और इन्द्रियनिग्रह के सतत प्रयास दोनों का निरन्तर चलना जीवन को आनन्ददायी, संगरहित, अनासक्त बना देता है। यही तो कर्मयोग का रहस्य है। सामान्य कार्य को भी सहज योग बना देना।

आठवी की बहना के पत्र के उत्तर में तो सहज लिख दिया था कि आसक्ति वो है जो कभी भी आ सकती है और आये तो जकड़ भी सकती है। इसलिये अपने को भगवान में ही आसक्त कर लो ताकि जकड़े तो रामजी ही जकड़े।आज 18 वर्ष बाद उस पत्र को याद कर के ये उपाय लिखे है। पर याद रहे दोनों उपाय करने सतत होंगे। क्योंकि आसक्ति कभी भी आ सकती है। पर योगयुक्त जीवन के नियमित अभ्यास से ही जा सकती है।




जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

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