Monday, September 17, 2012

धर्म ज्ञान Dharm Gyan (1)


किसी भी स्त्री को रास नहीं आती पुरुष की यह बात!
शास्त्रों के मुताबिक गृहस्थी भी जीवन में सुख, शांति और अहम लक्ष्यों को पाने का अहम पड़ाव है। गृहस्थ जीवन की धुरी स्त्री को माना जाता है। वह जननी भी पुकारी जाती है क्योंकि सृजन या रचना की विलक्षण व कुदरती शक्ति स्त्री के पास होती है। इसलिए वह शक्तिस्वरुपा भी कहलाती है।

इन गुण व शक्तियों से कोई भी स्त्री ही घर को स्वर्ग सा खुशहाल बना देती है। दरअसल, धार्मिक मान्यताओं में स्वर्ग देवताओं की नगरी माना गया है। वहां देवत्व भाव की प्रधानता है। देवत्व का संबंध शुभ, मंगल, सुख, पवित्र भाव, विचार व कर्मों से जुड़ा है। इसलिए सांसारिक जीवन में हर सुखद अनुभव या स्थान को स्वर्ग नाम से जोड़ा जाता है।

इसी कड़ी में गृहस्थी को स्वर्ग बनाने यानी सुख-समृद्ध बनाने के लिए घर-परिवार या समाज में पुरुष के लिए स्त्री के साथ बोल, वचन और व्यवहार से जुड़ा एक अहम बात बताई गई है। इस बात में संकेत भी साफ है कि पुरुष की कौन सी बात स्त्री को रास नहीं आती। जानिए यह खास सूत्र-
शास्त्रों में लिखा गया है कि - यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तत्र रमन्ते देवता। मतलब है कि जहां नारी की पूजा यानी सम्मान होता है, वहां देव कृपा या देव वास होता है। इस बात का व्यावहारिक संकेत यही है कि अगर घर-परिवार में स्त्री अपमानित या उपेक्षित हो तो स्वाभाविक है कि इसका बुरा असर न केवल स्त्री की मनोदशा पर बल्कि गृहस्थी की व्यवस्था, संस्कार व जीवनमूल्यों पर भी होता है।

अपमानित स्त्री का पुरुष से उठा भरोसा व गिरा आत्मविश्वास घर-परिवार के माहौल में न केवल अशांति घोलते हैं बल्कि कलह दरिद्रता, रोग, संकट या शोक का कारण बनते हैं। इसके विपरीत जननी के रूप में स्त्री का आदर गृहस्थी का माहौल सुखद, व्यवस्थित तनावरहित व प्रेरणादायी बना रहता है। साथ ही पीढ़ी दर पीढ़ी अच्छे संस्कार, आचरण व गुण फलते-फूलते हैं। इनसे मिलने वाली खुशियां, समृद्धि व शांति स्वर्ग सा आनंद ही देती है।

गृहस्थ का भी ब्रह्मचर्य कायम रखती हैं ये 2 रातें!
अक्सर बोला और सुना जाता है कि पति-पत्नी का साथ एक नहीं सात जन्मों का होता है। यह बात भावनात्मक अधिक और व्यावहारिक कम लगती है। किंतु धर्मशास्त्रों में बताई विवाह परंपरा से जुड़ी कुछ खास बातें इस बात को सार्थक साबित करती है।

दरअसल, हिन्दू धर्म में विवाह एक संस्कार और गृहस्थी को धर्म माना गया है। धर्म के नजरिए से इसके पीछे पितृऋण और कुटुंब रक्षा के लिए संतान उत्पत्ति, खासतौर पर पुत्र प्राप्ति ही प्रमुख उद्देश्य है। इसके द्वारा मृत्यु उपरांत भी पीढ़ी दर पीढ़ी श्राद्ध, यज्ञ, दान आदि द्वारा धर्म व पुण्य कर्म संचित किए जाते रहें।

वहीं इसमें मानवीय जीवन के व्यावहारिक पक्ष से जुड़ा पहलू भी साफ हैं, जिसके मुताबिक प्रेम को केन्द्र में रखकर मर्यादा के साथ स्त्री-पुरुष की इन्द्रिय सुखों की कामनाओं को पूरा किया जा सके। इससे भावनाओं में पवित्रता बनी रहे और वे पशुओं के समान व्यवहार से दूर रहें।

इस तरह विवाह संस्कार भाव शुद्धि के नजरिए से आध्यात्मिक तप के समान भी है। यही वजह है कि इसके तहत स्त्री-पुरुष के लिए विकार नहीं बल्कि शुद्ध विचार, संयम व त्याग भाव की प्रधानता के साथ संतान उत्पत्ति के लिये विशेष घडिय़ा नियत भी की गई है। इसे गर्भाधान काल के रूप में शास्त्र सम्मत भोग भी माना गया है। सृष्टि और सृजन की क्रिया को विकृत होने से बचाने के लिए भी यह बात बेहद अहम मानी गई है।

खासतौर पर जबकि आज के दौर में भौतिक सुखों की बढ़ती चकाचौंध में संयम व अनुशासन के अभाव से मर्यादाएं व वर्जनाएं टूटने से शरीर, मन व विचारों में असुरक्षा, भय व अशांति घर कर रही है, ये बातें नई पीढ़ी को अनुशासित, जीवनसाथी के लिए समर्पित होने व सेहतमंदी का सही सबक देती हैं।

पौराणिक मान्यताओं में सृष्टि को आगे बढ़ाने वाले महाराज मनु के मुताबिक इन घडिय़ों के तहत कुछ विशेष रात्रियां और तिथियां नियत हैं। यहीं नहीं इनमें से भी दो विशेष रात्रियों या तिथियों में स्त्री से मिलन करने वाला गृहस्थ पुरुष भी ब्रह्मचारी माना गया है, यानी उसका ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहता है। जानिए ये शास्त्रोक्त तिथियां

यह दो खास तिथियां या रात्रि स्त्रियों के ऋतुकाल यानी रजोदर्शन के पहले दिन से 16वीं रात्रि तक के काल में आती हैं। इन 16 में से पहली 4 रातें व ग्यारहवीं, तेरहवीं रात यानी कुल छ: रातें मिलन के लिए निषेध है। शेष 10 रातें मान्य हैं। इन गर्भाधान के लिए अमान्य 6 रातों व शेष मान्य 10 रातों में से भी 8 रातों को छोड़कर बाकी बची कोई भी 2 रातों (जिनमें भी पर्व यानी अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा एकादशी शामिल न हो) पर स्त्री से मिलन करने वाले का ब्रह्मचर्य भंग नहीं माना जाता है।

राजा न करे ये 5 काम तो प्रजा हो जाती है बर्बाद!
आजादी पाने और जनतंत्र या गणतंत्र के लागू होने के तकरीबन छ: दशक में हिन्दुस्तान ने हर क्षेत्र में कई बुलंदियों, उपलब्धियों को छुआ। लेकिन इतने गौरवशाली इतिहास के बावजूद इसी देश की जनता आज शासन में फैले भ्रष्टाचार और खामियों से भरी अव्यवस्थाओं से आहत नजर आती है। भ्रष्ट आचरण, बेईमानी व अनैतिकता शासन तंत्र का हिस्सा बन चुकी है। इनका जिम्मेदार एक-दूसरे को बताकर शासन में ऊंचे पदों पर बैठा व्यक्ति भी पल्ला झाड़ लेता है। ऐसे भ्रष्ट माहौल में यही सवाल उठते हैं कि आखिर कौन है असल जिम्मेदार ऐसी बुरी व्यवस्थाओं का और कैसे इनसे बचकर बन सकता है सुखी समाज और राष्ट्र?

ऐसी समस्याओं का हल और सवालों का जवाब देते हैं - धर्मशास्त्र। खासतौर पर सनातन धर्म में बताया गया राजधर्म राजा के कर्तव्यों से जुड़े 5 कामों पर खासतौर पर जोर देता है। इनका सच्चाई से पालन ही प्रजा के सुख-दु:ख नियत करता है। ये बातें आज की शासन व्यवस्था और उसको चलाने वालों के लिए भी अहम सबक है। जानिए ये काम

दुष्ट को दंड देना - शांत और तनावरहित राज्य और शासन के लिए सबसे अहम है - दण्ड देना। धर्म कहता है दुष्ट यानी बुरे कामों, आचरण और विचारों से दूसरों को कष्ट या असुविधा पैदा करने वाले व्यक्ति को दण्ड जरूर देना चाहिए। इससे उसके साथ ही दूसरों तक भी दुराचरण न करने का संदेश जाए।

स्वजनों की पूजा करना - स्वजन का मतलब केवल परिवार ही नहीं बल्कि सारी प्रजा के साथ सद्भाव और आत्मीयता का व्यवहार। उनकी स्वाभाविक और व्यावहारिक कमियों, असुविधाओं को दूर करने के साथ उनकी गुण, प्रतिभा को निखारने में हरसंभव मदद करना एक राजा का अहम कर्तव्य है।

न्याय से कोष बढ़ाना - किसी भी राज्य की मजबूत अर्थव्यवस्था उसकी ताकत होती है। लेकिन राजा के लिए यह जरूरी है यह आर्थिक प्रगति न्याय पर आधारित हो यानी खजाने में आया धन जनता के शोषण या निरंकुशता से इकट्ठा न करें, बल्कि धन ऐसा हो जो सही नीति, उद्योग व प्रबंधन से संचित हो। ऐसा धन ही राज्य और प्रजा को प्रगति और उन्नति का कारण बने।

न्याय से कोष बढ़ाना - किसी भी राज्य की मजबूत अर्थव्यवस्था उसकी ताकत होती है। लेकिन राजा के लिए यह जरूरी है यह आर्थिक प्रगति न्याय पर आधारित हो यानी खजाने में आया धन जनता के शोषण या निरंकुशता से इकट्ठा न करें, बल्कि धन ऐसा हो जो सही नीति, उद्योग व प्रबंधन से संचित हो। ऐसा धन ही राज्य और प्रजा को प्रगति और उन्नति का कारण बने।

राष्ट्र की रक्षा करना - किसी भी राजा का सबसे बड़ा राजधर्म होता है कि वह राष्ट्र की बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षा करे, न कि मात्र शासन की बागडोर मिलने पर सुख-सुविधाओं में डूबकर स्वयं का हित साधे। सार यही है कि सिंहासन पर बैठा राजा राज्य और प्रजा के सुख के लिए अपनी प्राण भी देने पड़े तो पीछे न रहे। साथ ही वह न नाइंसाफी करे, न अपने सामने किसी के साथ अन्याय होता देखे। ऐसा संकल्प ही राजा के साथ प्रजा के आचरण को भी पावन रखेगा व राज्य को भी ।


महामृत्युंजय मंत्र में समाई इन 33 देवशक्तियों से बाल भी नहीं होता बांका!
मंत्र का शाब्दिक मतलब होता है मनन करना। मगर फल की दृष्टि से मंत्र का मतलब होता है मन की पीड़ा का त्राण यानी अंत करने वाला। मंत्र शक्ति से जब दु:खों से छुटकारे के धार्मिक उपाय पर विचार किया जाता है, तब एक ही मंत्र सर्वश्रेष्ठ माना गया है। वह है - महामृत्युंजय मंत्र।

धर्म परंपराओं में यह शिव के महामृत्युंजय रूप की आराधना से रोग, काल भय और दु:खों के शमन का मंत्र है। किंतु शास्त्रों में इस मंत्र से कामनापूर्ति का भी महत्व बताया गया है। साथ ही यह शिव ही नहीं बल्कि अनेक देवताओं की उपासना का भी अद्भुत मंत्र है।

शास्त्रों के मुताबिक यह मंत्र 32 अक्षरों से बना है। किंतु ऊँ के जुडऩे पर मंत्र 33 अक्षरों का हो जाता है। इसलिए इसे तैंतीस अक्षरी मंत्र भी कहा जाता है। चूंकि मंत्रों में आने वाले अक्षर, शब्द, स्वर, व्यंजन, ध्वनि और बिंदु देवीय शक्तियों के ही रूप और बल के संकेत होते हैं।  इसी तरह महामृत्युंजय मंत्र के 33 अक्षरों में 33 देवीय शक्तियां मानी गई है,जिससे यह मंत्र बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली माना जाता है। जानिए मंत्र व इसके 33 अक्षरों में हर शब्द या अक्षर में छुपे देव शक्ति को

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
त्र - ध्रुव वसु। यम - अध्वर वसु। ब - सोम वसु। कम् - वरुण। य- वायु। ज - अग्नि। म - शक्ति। हे - प्रभास। सु - वीरभद्र। ग - शम्भु। न्धिम - गिरीश। पु - अजैक। ष्टि - अहिर्बुध्न्य। व - पिनाक। र्ध - भवानी पति। नम् - कापाली। उ - दिकपति। र्वा - स्थाणु। रु -भर्ग। क - धाता। मि - अर्यमा। व- मित्रादित्य। ब - वरुणादित्य। न्ध - अंशु। नात - भगादित्य। मृ - विवस्वान। त्यो - इंद्रादित्य। मु - पूषादिव्य। क्षी - पर्जन्यादिव्य। य - त्वष्टा। मा - विष्णुऽदिव्य। मृ - प्रजापति। तात -वषट। इस तरह मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1-1 प्रजापति और वषट यानी त्रिदेव की शक्तियां समाई है, इससे इसे स्मरण करने वाला काल, संकट, रोग व तमाम दःखों से सुरक्षित रहता है।

भगवान श्रीगणेश हैं लाइफ मैनेजमेंट गुरु, जानिए कैसे
श्रीगणेश बुद्धि के देवता हैं इसीलिए श्रीगणेश प्रथम पूज्य है यानि हर शुभ कार्य में गणेशजी की पूजा सबसे पहले की जाती है। उनके स्वरूप में अध्यात्म और जीवन के गहरे रहस्य छुपे हैं। जिनसे हम जीवन प्रबंधन के सफल सूत्र हासिल कर सकते हैं।

भगवान गणेश गजमुख है जिस पर हाथी जैसे कान सूप जैसे हैं। जिनका मतलब है कि बातें सबकी सुनो लेकिन उनका सार ही ग्रहण करो। ठीक उसी तरह जिस तरह सूप छिलके बाहर फेंककर सिर्फ अन्न को ही अपने पास रखता है।

इसी तरह श्री गणेश की छोटी आंखें मानव को जीवन में सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। उनकी बड़ी नाक (सूंड) दूर तक सूंघने में समर्थ है जो उनकीदूरदर्शिता को बताती है। जिसका अर्थ है कि उन्हें हर बात का ज्ञान है। श्री गणेश के दो दांत हैं एक पूर्ण व दूसरा अपूर्ण। पूर्ण दांत श्रद्धा का प्रतीक है तथा टूटा हुआ दांत बुद्धि का। वह मनुष्य को यह प्रेरणा देते हैं कि जीवन में बुद्धि कम होगी तो चलेगा लेकिन ईश्वर के प्रति पूरा विश्वास रखना चाहिए।

भगवान गणेश का बड़ा पेट यह बताता है कि पेट गागर की तरह छोटा नहीं अपितु सागर की तरह विशाल होना चाहिए, जिसमें अच्छी-बुरी सभी बातों को शामिल करने की शक्ति हो। श्री गणेश के छोटे पैर यह शिक्षा देते हैं कि मनुष्य को उतावला नहीं होना चाहिए। सभी कार्य धैर्यपूर्वक करना चाहिए।

भगवान गणेश के आस-पास ऋद्धि और सिद्धि के दर्शन होते हैं। यह इस बात का संदेश है कि जो जीवन में बुद्धि का सदुपयोग करता है, वह सुख और शांति को पाता है।

ऋषिपंचमी: इस विधि से करें व्रत, पापों का नाश होगा
20 सितंबर, गुरुवार को ऋषिपंचमी का व्रत है। इस व्रत की शास्त्रोक्त विधि इस प्रकार है- इस दिन व्रती सुबह से दोपहर तक उपवास करके किसी नदी या तालाब पर जाएं। वहां अपामार्ग(आंधीझाड़ा) से दांत साफ करें और शरीर पर मिट्टी लगाकर स्नान करें। इसके बाद पंचगव्य (गाय का गोबर, मूत्र, दूध, दही और घी) का सेवन करें। इसके बाद घर आकर गोबर से पूजा का स्थान लीपें तथा सर्वतोभद्रमंडल बनाकर उस पर मिट्टी अथवा तांबे का कलश स्थापित करके उसे कपड़े से ढंककर उसके ऊपर तांबे अथवा मिट्टी के बर्तन में जौ भरकर रखना चाहिए। पंचरत्न, फूल, गंध और चावल आदि से पूजन करें। यह संकल्प लें-

अमुकगोत्रा(अपने गोत्र का उच्चारण करें) अमुकदेवी(स्त्री है तो स्वयं का नाम लें) अहं मम आत्मनो रजस्वलावस्थायां गृहभाण्डादिस्पर्शदोषपरिहारार्थं अरुन्धतीसहितसप्तर्षिपूजनं करिष्ये।

पूजन के बाद कलश आदि पूजन सामग्री को ब्राह्मण को दान कर दें व ब्राह्मण भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करें। कलश के पास ही अष्टदल कमल बनाकर उसके दलों में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा वशिष्ठ-इन सप्तर्षियों व अरुंधती का षोडशोपचारपूर्वक पूजन करना चाहिए। इस व्रत में नमक का प्रयोग वर्जित है। हल से जुते हुए खेत का अन्न खाना वर्जित है। दिन में केवल एक ही बार भोजन करना चाहिए।

जानिए श्रीगणेश का असली मस्तक कटने के बाद कहां गया!
भगवान गणेश गजमुख, गजानन के नाम से जाने जाते हैं, क्योंकि उनका मुख गज यानी हाथी का है। भगवान गणेश का यह स्वरूप विलक्षण और बड़ा ही मंगलकारी है। आपने भी श्रीगणेश के गजानन बनने से जुड़े पौराणिक प्रसंग सुने-पढ़े होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं या विचार किया है कि गणेश का मस्तक कटने के बाद उसके स्थान पर गजमुख तो लगा, लेकिन उनका असली मस्तक कहां गया? जानिए, उन प्रसंगों में ही उजागर यह रोचक बात -

पौराणिक मान्यता है कि जब माता पार्वती ने श्रीगणेश को जन्म दिया, तब इन्द्र, चन्द्र सहित सारे देवी-देवता उनके दर्शन की इच्छा से उपस्थित हुए। इसी दौरान शनिदेव भी वहां आए, जो श्रापित थे कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। इसलिए जैसे ही शनि देव की दृष्टि गणेश पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्रीगणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।

इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक माता पार्वती ने अपने तन के मैल से श्रीगणेश का स्वरूप तैयार किया और स्नान होने तक गणेश को द्वार पर पहरा देकर किसी को भी अंदर प्रवेश से रोकने का आदेश दिया। इसी दौरान वहां आए भगवान शंकर को जब श्रीगणेश ने अंदर जाने से रोका, तो अनजाने में भगवान शंकर ने श्रीगणेश का मस्तक काट दिया, जो चन्द्र लोक में चला गया। बाद में भगवान शंकर ने रुष्ट पार्वती को मनाने के लिए कटे मस्तक के स्थान पर गजमुख या हाथी का मस्तक जोड़ा।

ऐसी मान्यता है कि श्रीगणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से भी धर्म परंपराओं में संकट चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्रीगणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।

घर में बैठाएं हैं गणपति, जानें अब 10 दिन क्या करें, क्या न करें!
भगवान गणेश की उपासना के लिए भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से लेकर अनंत चतुर्दशी (19 सितंबर से 29 सितंबर) तक 10 दिनों को मुरादों और मन्नतों को पूरा करने के लिए बहुत ही शुभ माना गया है। इसके लिए हर भक्त अपनी शक्ति और श्रद्धा से धार्मिक उपाय करता है। किंतु श्री गणेश की कृपा के लिए व्यावहारिक जीवन में कुछ बातों का पालन करें तो यह तन, मन को स्वस्थ रखने के साथ भरपूर धन लाभ देने वाली भी होंगी। जानिए गणेश उत्सव के 10 दिनों के दौरान दैनिक जीवन में ऐसा क्या करें और क्या न करें कि श्रीगणेश के साथ हम भी सदा प्रसन्न रहें। हर रोज इन बातों का पालन किया जाए तो सुख-शांति सुनिश्चित है।

किसी भी काम के पहले श्रीगणेश का स्मरण जरूर करें। हर रोज भगवान गणेश की पूजा और सुबह उठते ही श्रीगणेश के दर्शन करें। बुधवार के दिन मूंग के लड्डू, दुर्वांकूर, गुड़ एवं दक्षिणा श्रीगणेश को जरूर चढ़ाएं। गणपति पूजा में गणेश कवच, गणेश चालीसा या स्त्रोत और श्रीगणेश के 108 नाम पाठ करना चाहिए। पूरी श्रद्धा, आस्था और मन को एकाग्र कर गणपति उपासना करें।

गणेश मंत्रों के जप लाल चन्दन की माला से ही करें। उपासना के समय बिना सिले कपड़े पहने या धोती लपेट लें। पूजन के दौरान घी का दीपक जलाएं। हर रोज़ श्रीगणेश को मूंग की खिचड़ी या लड्डूओं का भोग लगाएं और सुगन्धित फूलों की माला चढ़ाएं। इन बातों के अलावा शास्त्रों में कुछ बातों का संयम भी जरूरी बताया गया है।

'गणपति' हैं 'गुणपति' भी, जानिए इसी बात से जुड़ा सफलता का 1 राज
किसी भी क्षेत्र में शिखर पर पहुंचकर उससे जुड़ी जिम्मेदारियां और काम को अंजाम देना कुछ खास खूबियों के बिना संभव नहीं होता। फिर चाहे यह मक़ाम परिवार के मुखिया के रूप में या कार्यक्षेत्र में शीर्ष पद के रूप में हासिल हो, दोनों ही जगहों पर बेहतर नेतृत्व क्षमता ही पारिवारिक सदस्यों या कार्यदल यानी टीम पर बेहतर नियंत्रण व तालमेल के बूते सुखद नतीजों में निर्णायक साबित होती है।

हिन्दू धर्म पंरपराओं में चूंकि सही शुरुआत और अंजाम के लिए भगवान गणेश को ही याद किया जाता है। इसलिए श्रीगणेश स्वरूप में मौजूद सही नेतृत्व के लिए जरूरी गुणों में से ही एक खास और अहम गुण को व्यवहार में उतार लिया जाए तो यशस्वी जीवन को आसानी से पाया जा सकता है। जानिए क्या है यह खास खूबी -

श्रीगणेश का एक नाम 'गणपति' है। इसका शाब्दिक अर्थ निकाले तो गण यानी समूह व पति यानी स्वामी। इस तरह इस शब्द में नेतृत्व का ही भाव छुपा है। चूंकि श्रीगणेश का बाहरी स्वरूप तो अनूठा है, जिसका संबंध गजमुख या गजानन यानी हाथी के मुख से है। किंतु वह अंदर से अनेक गुणों के स्वामी होने से 'गुणपति' भी पुकारे जाते हैं।

श्री गणेश के इस अनूठे हाथी मुख में ही नेतृत्व क्षमता का बेजोड़ सूत्र छुपा है। इसके मुताबिक चूंकि हाथी को बलवान ही नहीं बुद्धिमान प्राणी भी माना गया है। इसमें साफ संकेत है कि अगर कोई भी इंसान ऊंचाई, शीर्ष या नेतृत्व की कामना रखता है तो उसे तेज बुद्धि का मालिक जरूर बनना चाहिए। बुद्धिमानी के बिना नेतृत्व करना मुश्किल है। इसके लिए वक्त रहते सजग और जागरूक रहकर अधिक से अधिक ज्ञान, अनुभव व कुशलता को पाने से नहीं चूकना चाहिए।
बुद्धिमानी ही श्रीगणेश की तरह गुणवान बनाकर प्रथम पूज्य व्यावहारिक अर्थों मे आगे रखकर प्रतिष्ठा, सम्मान व सफलता में अहम भूमिका निभाएगी।

गणेशजी के चूहे की इन बातों से बदल जाएगी आपकी दशा
शास्त्रों के अनुसार सभी देवी-देवताओं के वाहन अलग-अलग और विचित्र बताए हैं। किसी भी देवता का वाहन अज्ञान और अंधकार की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका नियंत्रण वह देवता करते हैं। गणेशजी का वाहन है मूषक यानि चूहा। गणपति को विशालकाय बताया गया है जबकि उनका वाहन मूषक अति लघुकाय है।

गणेशजी को बुद्धि और ज्ञान का देवता माना जाता है। उनका वाहन चूहा भी जिस प्रकार किसी भी वस्तु को कुतर-कुतर कर उसके छोटे-छोटे टुकड़े कर देता है उसी प्रकार हमें भी बुद्धि के प्रभाव से जीवन की सभी समस्याओं अलग-अलग कर विश्लेषण करना चाहिए। जिससे सत्य और ज्ञान तक पहुंचा जा सके। जिन लोगों पर गणपति की कृपा होती है, उन्हें अच्छी बुद्धि और ज्ञान प्राप्त होता है।

चूहा बिल में छिपकर रहने वाला अंधकार प्रिय प्राणी है। इस वजह से यह नकारात्मक और अज्ञानी शक्तियों का प्रतीक भी है। ये शक्तियां ज्ञान और प्रकाश से डरती हैं और अंधेरे में अन्य लोगों को हानि पहुंचाती हैं। जो व्यक्ति गणेशजी की कृपा प्राप्त करना चाहता है उसे इन सभी नकारात्मक शक्तियों और भावनाओं का त्याग करना होगा। तभी वह व्यक्ति ज्ञान और बुद्धि प्राप्त कर सकता है। अंधकार और नकारात्मक विचारों को छोडऩे के बाद व्यक्ति को जीवन के हर कदम पर सफलता ही प्राप्त होती है।

जिस प्रकार चूहा हमेशा ही सर्तक और जागरुक रहता है उसी प्रकार हमें भी हर प्रकार की परिस्थितियों का सामना करने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए और समस्याओं को तुरंत सुलझा लेना चाहिए।

चूहे को धान्य अर्थात् अनाज का शत्रु माना जाता है और श्रीगणेश का उस नियंत्रण रहता है। अत: श्रीगणेश का वाहन मूषक यह संकेत देता है कि हमें भी हमारे अनाज, संपत्ति आदि को बचाकर रखने के लिए उन विनाशक जीव-जंतुओं पर नियंत्रण करना चाहिए। वहीं हमारे जीवन में जो लोग हमें नुकसान पहुंचा सकते हैं उन पर भी पूर्ण नियंत्रण किया जाना चाहिए। ताकि जीवन की सभी समस्याएं समाप्त हो जाए और हम सफलताएं प्राप्त कर सके। इन सभी बातों को अपनाने से हमारे जीवन की कई परेशानियां दूर हो जाएंगी। धन, संपत्ति और धर्म के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त होंगी। घर-परिवार और समाज में मान-सम्मान मिलेगा।

मोरयाई छठ 21 को, करें सूर्य का पूजन
भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मोरयाई छठ का व्रत रखा जाता है। इसे मोर छठ या कुछ स्थानों पर सूर्य षष्ठी व्रत भी कहते हैं। इस बार यह व्रत 21 सितंबर, शुक्रवार को है।

भविष्योत्तर पुराण के अनुसार प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भगवान सूर्य के निमित्त व्रत करना चाहिए। इनमें भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी का विशेष महत्व है। इस दिन गंगा स्नान, सूर्योपासना, जप एवं व्रत किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन सूर्य, पूजन, गंगास्नान एवं दर्शन तथा पंचगव्य सेवन से अश्वमेध के समान फल प्राप्त होता है। इस दिन व्रत को अलोना (नमक रहित) भोजन दिन में एक बार ही ग्रहण करना चाहिए। सूर्य पूजा में लाल पुष्प, गुलाल, लाल कपड़ा, लाल रंग की मिठाई आदि का विशेष महत्व है।

क्यों दिया श्रीगणेश ने चंद्रमा को श्राप, जानिए
भगवान श्रीगणेश के बारे में अनेक कथाएं हमारे धर्म ग्रंथों में वर्णित है। इन कथाओं में श्रीगणेश की वीरता, बुद्धिमानी और चार्तुय की बातें बताई गई हैं। भगवान श्रीगणेश द्वारा चंद्रमा को श्राप देने की कथा भी पुराणों में है जो इस प्रकार है-

भगवान गणेश को जब हाथी का मुख लगाया तो सभी देवताओं ने उनकी स्तुति की और आशीर्वाद भी दिया लेकिन चंद्रमा श्रीगणेश के इस रूप को देखकर मुस्कुराता रहा। क्योंकि उसे अपनी सुंदरता का अभिमान था। जब यह बात भगवान श्रीगणेश को पता चली तो उन्होंने एक दिन क्रोध में आकर चंद्रमा को श्राप दे दिया कि आज से तुम काले हो जाओगे। तब चंद्रमा को अपनी भूल का अहसास हुआ।

उसने भगवान श्रीगणेश से क्षमा मांगी तो गणेशजी ने कहा सूर्य के प्रकाश को पाकर तुम एक दिन पूर्ण होओगे यानी पूर्ण प्रकाशित होंगे। लेकिन आज का यह दिन तुम्हें दंड देने के लिए हमेशा याद किया जाएगा। इस दिन को याद कर कोई अन्य व्यक्ति अपने सौंदर्य पर अभिमान नहीं करेगा। जो कोई व्यक्ति आज यानी चतुर्थी के दिन तुम्हारे दर्शन करेगा उस पर झूठा आरोप लगेगा इसीलिए भाद्रपद माह की शुक्ल चतुर्थी को चंद्र दर्शन नहीं किया जाता।

रोचक बातें: ऐसी होनी चाहिए श्रीगणेश की सूंड तो मिलेगा शुभ फल
धर्म शास्त्रों में भगवान श्रीगणेश के अनेक नाम बताए गए हैं। उन्हीं में से एक नाम है वक्रतुंड, जिसका अर्थ है भगवान गणेश का वह स्वरूप जिसमें उनकी सूंड मुड़ी हुई होती है। श्रीगणेश के इस स्वरूप के भी कई भेद हैं। कुछ मुर्तियों में गणेशजी की सूंड को बाईं को घुमा हुआ दर्शाया जाता है तो कुछ में दाईं ओर।

कुछ विद्वानों ने भगवान श्रीगणेश की घुमी हुई सूंड के पीछे भी कई तर्क दिए हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि दाईं ओर घुमी सूंड के गणेशजी शुभ होते हैं तो कुछ का मानना है कि बाईं ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी शुभ फल प्रदान करते हैं। हालांकि कुछ विद्वान दोनों ही प्रकार की सूंड वाले गणेशजी का अलग-अलग महत्व बताते हैं। उसके अनुसार-

यदि गणेशजी की स्थापना घर में करनी हो तो दाईं ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी शुभ होते हैं। दाईं ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी सिद्धिविनायक कहलाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इनके दर्शन से हर कार्य सिद्ध हो जाता है। किसी भी विशेष कार्य के लिए कहीं जाते समय यदि इनके दर्शन करें तो वह कार्य सफल होता है व शुभ फल प्रदान करता है।इससे घर में पॉजीटिव एनर्जी रहती है व वास्तु दोषों का नाश होता है।

धर्म शास्त्रों के अनुसार घर के मुख्य द्वार पर भी गणेशजी की मूर्ति या तस्वीर लगाना शुभ होता है। यहां बाईं ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी की स्थापना करना चाहिए। बाईं ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी विघ्नविनाशक कहलाते हैं। इन्हें घर में मुख्य द्वार पर लगाने के पीछे तर्क है कि जब हम कहीं बाहर जाते हैं तो कई प्रकार की बलाएं, विपदाएं या नेगेटिव एनर्जी हमारे साथ आ जाती है। घर में प्रवेश करने से पहले जब हम विघ्वविनाशक गणेशजी के दर्शन करते हैं तो इसके प्रभाव से यह सभी नेगेटिव एनर्जी वहीं रुक जाती है व हमारे साथ घर में प्रवेश नहीं कर पाती।

जानिए श्रीगणेश की पहली पूजा न हो तो आती हैं कौन सी दिक्कतें
भगवान श्रीगणेश विघ्रहर्ता है। श्रीगणेश के अलग-अलग युग और कालों से अनेक स्वरूप दु:खहर्ता और सुखदाता रूप में वंदनीय है। शास्त्रों के मुताबिक श्रीगणेश के मंगलकारी विलक्षण रूप और शक्तियों की वजह से ही प्रथम पूजनीय देवता का वरदान भी मिला। किंतु शास्त्रों में ही आए कुछ प्रसंग भगवान गणेश के विघ्नहर्ता ही नहीं विघ्रकर्ता स्वरूप को भी उजागर करते हैं।

श्रीगणेश के विघ्रकर्ता रूप से जुड़े प्रसंग भी शुभ और मंगल के लिए श्रीगणेश की पहली पूजा की अहमियत बताते हैं। यहीं नहीं, यह भी बताया गया है कि इसके बिना इंसान को कैसी-कैसी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है? जानिए ये बातें -

दरअसल, सतयुग में जगतरचना के बाद जीवों के बिना रुकावट या विघ्र के मनचाहे कार्य तुरंत पूरे होने लगे। इससे एक समय बाद उनमें अहंकार का वास हो गया। अहं से भरे जगत को दोष व कलह से बचाने के लिए ब्रह्मदेव ने विनायक की जरूरत महसूस की। तब ब्रह्मदेव के आग्रह पर भगवान शंकर ने श्रीगणेश को जन्म दिया और गणों का स्वामी बनाया, साथ ही विघ्रकर्ता की शक्तियां भी प्रदान की।

भगवान श्रीगणेश की बिना प्रथम पूजा के काम शुरू करता है वह किन-किन अनचाही बातों का सामना करता है इसका जिक्र भी शास्त्रों में हैं। जानिए ये परेशानियां

(1)अविवाहित व्यक्ति खासतौर पर कन्या को मनचाहा जीवनसाथी मिलने में बाधा आती है। (2)गभर्वती होने पर भी संतान बाधा आती है। (3)विद्वान होने पर आचार्य पद नहीं मिलता, शिष्य अध्ययन से वंचित रहता है। आधुनिक संदर्भों में काबिलियत के मुताबिक काम व पद नहीं मिलता। (4)कारोबार में मनचाहा फायदा नहीं मिलता। (5)नौकरी या खेतीबाड़ी में कामयाबी व तरक्की नहीं मिलती।

संतान सातें , लंबी होगी संतान की आयु
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को महिलाओं द्वारा संतान सातें का पर्व मनाया जाता है। यह मुख्य रूप से राजस्थान का त्योहार है। इसे दुबड़ी सातें या दुबड़ी सप्तमी भी कहते हैं। यह त्योहार संतान की मंगलकामना के लिए किया जाता है। इस बार यह पर्व 22 सितंबर, शनिवार को है।

इस दिन दुबड़ी माता की पूजा की जाती है। घर की दीवार पर दुबड़ी (कुछ बच्चों, सर्पों, मटका तथा एक औरत) का चित्र मिट्टी से बनाया जाता है। उनको चावल, जल, दूध, रोली, आटा, घी और चीनी मिलाकर लोई बनाकर उनसे पूजा जाता है, दक्षिणा चढ़ाई जाती है तथा भीगा हुआ बाजरा भोग के रूप में चढ़ाया जाता है। इसके बाद बहुएं अपनी सास के पूर छूकर आशीर्वाद लेती हैं। इस दिन दुबड़ी सातें की कहानी भी सुनी जाती है तथा ठंडा भोजन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि दुबड़ी माता की विधि-विधान पूर्वक पूजा करने से उत्तम संतान प्राप्त होती है तथा वह स्वस्थ व दीर्घायु भी होती है।

जानिए, भगवान श्रीगणेश के प्रमुख गणों के नाम
भगवान गणेशजी का उल्लेख ऋग्वेद के एक मंत्र (2-23-1) से मिलता है। चाहे कोई सा अनुष्ठान हो, इस मंत्र का जाप तो होता ही है...गणनां त्वा गणति हवामहे..। इस मंत्र में ब्रह्मणस्पति शब्द आया है। यह बृहस्पति देव के लिए प्रयुक्त हुआ है। बृहस्पति देव बुद्धि और ज्ञान के देव हैं। इसलिए गणपति देव को भी बुद्धि और विवेक का देव माना गया है। किसी भी कार्य की सिद्धि बिना बुद्धि और विवेक के नहीं हो सकती। इसलिए हर कार्य की सिद्धि के लिए बृहस्पतिदेव के प्रतीकात्मक रूप में गणेशजी की पूजा होती है।

गणेश पुराण में गणेशजी के अनेकानेक रूप कहे गए हैं। सतयुग में कश्यप ऋषि पुत्र के रूप में वह विनायक हुए और सिंह पर सवार होकर देवातंक -निरांतक का वध किया। त्रेता में मयूरेश्वर के रूप में वह अवतरित हुए।

धर्म शास्त्रों में भगवान गणेश के 21 गण बताए गए हैं, जो इस प्रकार हैं- गजास्य, विघ्नराज, लंबोदर, शिवात्मज, वक्रतुंड, शूर्पकर्ण, कुब्ज, विनायक, विघ्ननाश, वामन, विकट, सर्वदैवत, सर्वाॢतनाशी, विघ्नहर्ता, ध्रूमक, सर्वदेवाधिदेव, एकदंत, कृष्णपिंड्:ग, भालचंद्र, गणेश्वर और गणप। ये 21 गण हैं और गणेशजी की पूजा के भी 21 ही विधान हैं।

क्या आप जानते हैं क्यों चढ़ाते हैं श्रीगणेश को दूर्वा?
भगवान श्रीगणेश की पूजा में दूर्वा चढ़ाने का विधान है। ऐसी मान्यता है कि श्रीगणेश की पूजा में यदि दूर्वा न हो तो उनकी पूजा पूर्ण नहीं होती। पंचदेव उपासना में भी दूर्वा का महत्वपूर्ण स्थान है। श्रीगणेश को दूर्वा इतनी प्रिय क्यों है इसके पीछे एक पौराणिक कथा है, जो इस प्रकार है-

पुराणों में कथा है कि पृथ्वी पर अनलासुर राक्षस के उत्पात से त्रस्त ऋषि-मुनियों ने इंद्र से रक्षा की प्रार्थना की। तब इंद्र और अनलासुर में भयंकर युद्ध हुआ लेकिन इंद्र भी उसे परास्त न कर सके। तब सभी देवतागण एकत्रित होकर भगवान शिव के पास गए तथा अनलासुर का वध करने का अनुरोध किया। तब शिव ने कहा इसका नाश सिर्फ श्रीगणेश ही कर सकते हैं। तब सभी देवताओं ने भगवान गणेश की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल लिया। अनलासुर को निगलने के कारण गणेशजी के पेट में जलन होने लगी, तब ऋषि कश्यप ने 21 दूर्वा की गांठ उन्हें खिलाई और इससे उनकी पेट की ज्वाला शांत हुई। इसी मान्यता के चलते श्रीगणेश को दुर्वा अर्पित की जाती है।

श्रीराधाजन्माष्टमी, सुख-समृद्धि देता है यह व्रत
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को श्रीराधाजन्माष्टमी का त्योहार बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इसी दिन श्रीकृष्णप्रिया श्रीराधिकाजी का जन्म वृषभानुपुरी नामक नगर में हुआ था। धर्म शास्त्रों के अनुसार वृषभानुपुरी के राजा वृषभानु शास्त्रों के ज्ञाता तथा श्रीकृष्ण के आराधक थे। उनकी पत्नी श्रीकीर्तिदा के गर्भ से भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मध्याह्न काल में श्रीराधिकाजी का जन्म हुआ था। इस बार यह पर्व 23 सितंबर, रविवार को है।

व्रत विधान:
श्रीराधाजन्माष्टमी के दिन व्रत रखकर उनकी पूजा करें। श्रीराधाकृष्ण के मंदिर में ध्वजा, पुष्पमाला, वस्त्र, तोरण आदि अर्पित करें तथा श्रीराधाकृष्ण की प्रतिमा को सुगंधित पुष्प, धूप, गंध आदि से सुसज्जित करें। मंदिर के बीच में पांच रंगों से मंडप बनाकर उसके अंदर सोलह दल के आकार का कमलयंत्र बनाएं। उस कमलयंत्र के बीच में श्रीराधाकृष्ण की युगल मूर्ति पश्चिम दिशा में मुख कर स्थापित करें तत्पश्चात अपनी शक्ति के अनुसार पूजा की सामग्री से उनकी पूजा अर्चना कर नैवेद्य चढ़ाएं। दिन में इस प्रकार पूजा करने के पश्चात रात में जागरण करें। जागरण के दौरान भक्तिपूर्वक श्रीकृष्ण व राधा के भजनों को सुनें।

शास्त्रों के अनुसार जो मनुष्य इस प्रकार श्रीराधाष्टमी का व्रत करता है उसके घर सदा लक्ष्मी निवास करती है। यह व्रत सुख-समृद्धि प्रदान करने वाला है। जो भक्त इस व्रत को करते हैं उसे विष्णुलोक में स्थान मिलता है।

क्या आप जानते हैं क्यों है चूहा भगवान श्रीगणेश का वाहन?
मूषक (चूहा) भगवान गणेश का वाहन है। गणेश का स्वरूप जितना विचित्र है उतना ही अजीब उनका वाहन है। शिवपुराण में प्रसंग आता है कि गणेश ने मूषक पर सवार होकर ही अपने माता-पिता की परिक्रमा की। कहां विशालकाय गणेश और कहां चूहे का छोटा-सा शरीर, कहीं कोई तालमेल ही नहीं। पुराण कहते हैं-

मूषकोत्तममारुह्य देवासुरमहाहवे।
योद्धुकामं महाबाहुं वन्देऽहं गणनायकम्॥

पद्मपुराण, सृष्टिखंड 66/4

भावार्थ- उत्तम मूषक पर विराजमान देव-असुरों में श्रेष्ठ तथा युद्ध में महाबलशाली गणों के अधिपति श्रीगणेश को प्रणाम है।

भगवान गणेश के वाहन मूषक के बारे में कई प्राचीन कथाएं प्रचलित हैं। उसी के अनुसार गजमुखासुर नामक दैत्य ने अपने बाहुबल से देवताओं को बहुत परेशान कर दिया। सभी देवता एकत्रित होकर भगवान गणेश के पास पहुंचे। तब भगवान श्रीगणेश ने उन्हें गजमुखासुर से मुक्ति दिलाने का भरोसा दिलाया। तब श्रीगणेश का गजमुखासुर दैत्य से भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में श्रीगणेश का एक दांत टूट गया। तब क्रोधित होकर श्रीगणेश ने टूटे दांत से गजमुखासुर पर ऐसा प्रहार किया कि वह घबराकर चूहा बनकर भागा लेकिन गणेशजी ने उसे पकड़ लिया। मृत्यु के भय से वह क्षमायाचना करने लगा। तब श्रीगणेश ने मूषक रूप में ही उसे अपना वाहन बना लिया।

गणेशोत्सव: इस गणेश मंत्र से होगी तरक्की और मिलेगा लाभ
व्यवसाय में बाधा या नौकरी में तरक्की न होना किसी न किसी रूप में हर व्यक्ति को बैचेन और विचलित करती है, जो निजी जिंदगी से लेकर परिवार को भी प्रभावित करती है। इस परेशानियों से बचने के लिए श्रीगणेश की उपासना की उत्तम मानी गई है। यदि नीचे लिखे मंत्र का विधि-विधान से प्रतिदिन पूजन किया जाए तो आपकी हर समस्या का निदान तुरंत हो जाएगा।

मंत्र:
वक्रतुंड महाकाय कोटिसूर्य समप्रभ:
निर्विघ्र कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा

भगवान गणेश को 108 पीले फूल एक-एक करके चढ़ाएं। हर बार इस मंत्र का उच्चारण करें। यह मंत्र निश्चित रूप से आपके व्यापार में सफलता और जॉब में प्रमोशन की कामना पूरी करेगा।

डोल ग्यारस, भगवान करवट लेते हैं इस दिन
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को डोल ग्यारस कहते हैं। इसे परिवर्तिनी एकादशी, जयझूलनी एकादशी आदि नामों से भी जाना जाता है। इस बार यह एकादशी 26 सितंबर, बुधवार को है।

इस तिथि को व्रत करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य इस एकादशी को भगवान विष्णु के वामन रूप की पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं। इस व्रत के बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर से कहा है कि जो इस दिन कमलनयन भगवान का कमल से पूजन करते हैं, वे अवश्य भगवान के समीप जाते हैं। जिसने भाद्रपद शुक्ल एकादशी को व्रत और पूजन किया, उसने ब्रह्मा, विष्णु सहित तीनों लोकों का पूजन किया। अत: हरिवासर अर्थात एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको परिवर्तिनी एकादशी कहते हैं।

तेजादशमी : जानिए, कौन थे तेजाजी महाराज व उनकी कथा
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को तेजादशमी का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य तौर पर मध्य प्रदेश के मालवा, निमाड़, झाबुआ के अलावा राजस्थान में मनाया जाता है। इस दिन तेजाजी महाराज के मंदिरों पर मेला लगता है, जहां  सर्पदंश  से पीडि़त सहित अन्य जहरीले कीड़ों की ताँती (धागा) छोड़ा जाता है। इस बार यह पर्व 25 सितंबर, मंगलवार को है।

कथा
तेजाजी राजा बाक्साजी के पुत्र थे। बचपन में ही उनके साहसिक कारनामों से लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। एक बार अपने हाली (साथी) के साथ तेजा अपनी बहन पेमल को लेने उसकी ससुराल गए। बहन पेमल की ससुराल जाने पर वीर तेजा को पता चलता है कि मेणा नामक डाकू अपने साथियों के साथ पेमल की ससुराल की सारी गायों को लूट ले गया। वीर तेजा अपने साथी के साथ जंगल में मेणा डाकू से गायों को छुड़ाने के लिए गए। रास्ते में एक बांबी के पास भाषक नामक सांप घोड़े के सामने आ जाता है एवं तेजा को डँसना चाहता है।

तब तेजा उसे वचन देते हैं कि अपनी बहन की गाएं छुड़ाने केबाद मैं वापस यहीं आऊंगा, तब मुझे डँस लेना। अपने वचन का पालन करने के लिए डाकू से अपनी बहन की गाएं छुड़ाने के बाद लहुलुहान अवस्था में तेजा नाग के पास आते हैं। तेजा को घायल अवस्था में देखकर नाग कहता है कि तुम्हारा तो पूरा शरीर कटा-पिटा है, मैं दंश कहां मारुं। तब वीर तेजा उसे अपनी जीभ पर काटने के लिए कहते हैं।

वीर तेजा की वचनबद्धता को देखकर नाग उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहता है कि आज के दिन (भाद्रपद शुक्ल दशमी) से पृथ्वी पर कोई भी प्राणी, जो सर्पदंश से पीडि़त होगा, उसे तुम्हारे नाम की ताँती बाँधने पर जहर का कोई असर नहीं होगा। उसके बाद नाग तेजाजी की जीभ पर दंश मारता है। तभी से भाद्रपद शुक्ल दशमी को तेजाजी के मंदिरों में श्रृद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है और सर्पदंश से पीडि़त व्यक्ति वहां जाकर तांती खोलते हैं।

श्रीगणेश की आंखों से सीखें लाइफ मैनेजमेंट के ये सूत्र
भगवान श्रीगणेश की आंखें उनके मुख की अपेक्षा काफी छोटी हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि बिना किसी रुकावट कार्य होने के इच्छुकों को अपने नेत्र अर्थात दृष्टिकोण को कैसा रखना चाहिए।

हाथी के नेत्र इस प्रकार के होते हैं कि वह सामने की छोटी वस्तु को भी बड़ी देखता है। उदाहरण के लिए हम बिल्लौरी कांच का सहायता से सूक्ष्म अक्षरों या वस्तुओं को बड़ा करके देखते हैं। उसी प्रकार हाथी के नेत्र अपनी विशिष्ठ बनावट के कारण सामने खड़े तीन हाथ के मनुष्य को भी अपने से ऊंचा देखता है। संभवत: प्रकृति ने उसके नेत्र ऐसे इसलिए बनाए कि वह अपनी विशालता के समक्ष अन्य प्राणियों को छोटा समझकर पैरों से रौंद न डाले। हाथी अपने सामने आने वाले प्रत्येक प्राणी को स्वयं से बड़ा देखकर डरते हैं।

इस प्रकार हाथी के नेत्र हमें इस बात की शिक्षा देते हैं कि अपने कार्य में विघ्न न चाहने वालों को अपना दृष्टिकोण दूसरों को स्वयं से बड़ा देखने वाला रखना चाहिए। मनुष्य जब दूसरों को तुच्छ या हीन समझकर उनका अपमान करता है अथवा उनकी अवहेलना करता है तभी दूसरे लोग अपने सम्मान की रक्षा के लिए उसे न तो सहयोग करते हैं और न ही उससे संवाद रखना पसंद करते हैं। अत: सदैव दूसरों को यथोचित सम्मान देने की सीख श्रीगणेश की आंखों से मिलता है।

श्राद्ध पक्ष , पितरों को प्रसन्न करने का है ये उत्सव
इस बार श्राद्ध पक्ष का प्रारंभ 29 सितंबर, शनिवार से हो रहा है। श्राद्ध पक्ष के बारे में हमारे धर्म ग्रंथों में विस्तृत विवरण दिया गया है जिसके अनुसार श्राद्ध पक्ष एक उत्सव है जिसमें हम हमारे पितरों का आह्वान करते हैं और विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन, पिंडदान व तर्पण आदि के माध्यम से उन्हें तृप्त करते हैं। जब हमारे पितर तृप्त हो जाते हैं तो वे हमें आशीर्वाद देते हैं जिससे हमारा जीवन सुखी व समृदिध से परिपूर्ण होता है।

भाद्रपद मास की पूर्णिमा (इस बार 29 सितंबर, शनिवार) से श्राद्ध पक्ष का प्रारंभ होता है जो सोलह दिन तक चलता है और अश्विन मास की अमावस्या(इस बार 15 अक्टूबर, सोमवार) को समाप्त होता है। इन दिनों में हम अपने पितरों को याद करते हैं और विभिन्न प्रकार का धार्मिक कार्य कर उनकी आत्मा की शांति के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं। विभिन्न श्राद्ध स्थलों पर इन दिनों में श्राद्ध करने वालों की भीड़ उमड़ती है। हिंदू धर्म में श्राद्ध पक्ष का महत्व किसी त्योहार से कम नहीं है क्योंकि यही वह अवसर होता है जब पितर भी हमें आशीर्वाद देने के लिए आतुर होते हैं।

वामन द्वादशी : जानिए, महत्व व व्रत विधि
भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी को वामन द्वादशी या वामन जयंती कहते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार इसी तिथि को श्रवण नक्षत्र में अभिजित मुहूर्त में भगवान वामन का प्राकट्य हुआ था। इस बार वामन द्वादशी 27 सितंबर, गुरुवार को है।

वैष्णव भक्तों को इस दिन उपवास करना चाहिए। सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर वामन द्वादशी व्रत का संकल्प लेना चाहिए। दोपहर(अभिजित मुहूर्त) में भगवान वामन का पंचोपचार अथवा षोडषोपचार पूजन करना चाहिए। इसके पश्चात एक बर्तन में चावल, दही और शक्कर रखकर किसी योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए। शाम के समय व्रती(व्रत करने वाला) को पुन: स्नान करने के बाद भगवान वामन का पूजन करना चाहिए और व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और स्वयं फलाहार करना चाहिए।

इस तरह व्रत व पूजन करने से भगवान वामन प्रसन्न होते हैं और भक्तों की हर मनोकामना पूरी करते हैं।

परिवर्तिनी एकादशी: इस विधि से करें व्रत, सब दु:ख दूर होंगे
भादौ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को परिवर्तिनी, जयझूलनी, वामन, डोल ग्यारस व अन्य कई नामों से जाना जाता है। इस बार यह एकादशी 26 अगस्त, बुधवार को है। परिवर्तिनी एकादशी के व्रत की विधि इस प्रकार है-

परिवर्तिनी एकादशी व्रत का नियम पालन दशमी तिथि (25 सितंबर, मंगलवार) की रात्रि से ही शुरु करें व ब्रह्मचर्य का पालन करें। एकादशी के दिन सुबह नित्य कर्मों से निवृत्त होकर साफ वस्त्र पहनकर भगवान वामन की प्रतिमा के सामने बैठकर व्रत का संकल्प लें। इस दिन यथासंभव उपवास करें। उपवास में अन्न ग्रहण नहीं करें संभव न हो तो एक समय फलाहारी कर सकते हैं।

इसके बाद भगवान वामन की पूजा विधि-विधान से करें।(यदि आप पूजन करने में असमर्थ हों तो पूजन किसी योग्य ब्राह्मण से भी करवा सकते हैं।) भगवान वामन को पंचामृत से स्नान कराएं। स्नान के बाद उनके चरणामृत को व्रती (व्रत करने वाला) अपने और परिवार के सभी सदस्यों के अंगों पर छिड़कें और उस चरणामृत को पीएं। इसके बाद भगवान को गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पूजन सामग्री अर्पित करें।

विष्णु सहस्त्रनाम का जप एवं भगवान वामन की कथा सुनें। रात को भगवान वामन की मूर्ति के समीप हो सोएं और दूसरे दिन यानी द्वादशी के दिन वेदपाठी ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देकर आशीर्वाद प्राप्त करें। जो मनुष्य यत्न के साथ विधिपूर्वक इस व्रत को करते हुए रात्रि जागरण करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट होकर अंत में वे स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं। इस एकादशी की कथा के श्रवणमात्र से वाजपेई यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

स्त्री हो या पुरुष, इन जगहों के पास होने पर रहें ज्यादा सावधान!
हिन्दू धर्मग्रंथो में इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक को सुधारने वाले चार पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष, में काम या भोग्य विषय-वस्तु को योग की तरह संयम और अनुशासन से अपनाने पर यशस्वी और सफल बनाने वाला माना गया है। यानी इसका सकारात्मक पहलू सृजन और गति है। वहीं केवल भोग के रूप में असंयमित काम अपयश व असफलता देने वाला बताया गया है।

पौराणिक मान्यताओं में काम के स्वामी कामदेव को ही माना गया है। इसे जगत के सृजन चक्र और गति को नियत करने की कामना से भगवान शंकर के तप भंग के लिये देवताओं द्वारा तैयार किया गया। नतीजतन भगवान शंकर द्वारा कामदेव भस्म हुआ। तब कामदेव की पत्नी रति की विनती पर भगवान शंकर द्वारा कामदेव को भाव रूप में प्रकृति और जीवो में वास करने की गति नियत की गई।

श्रीगणेश की शक्तियों की महिमा बताने वाले मुद्गल पुराण में इसी से जुड़े प्रसंग के मुताबिक जब शंकर के कोप से कामदेव जलकर शापित हुआ तो शापमुक्त होने के लिए कामदेव द्वारा श्रीगणेश के ज्ञान-ब्रह्म स्वरूप 'महोदर' का तप किया गया। तब भगवान महोदर द्वारा शिव के शाप की काट को असंभव बताया गया। लेकिन प्रकृति और जीव जगत में रहने के लिये कामदेव के लिए स्थान नियत किया गया।

भगवान महोदर द्वारा कामना या वासनाओं के प्रतीक कामदेव के रहने के लिये जिन खास जगहों को बताया गया, वे इस तरह हैं -

लिखा गया है कि -

यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते:।

गानं मधुरश्चैव मृदुलाण्डजशब्दक:।।

उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादय:।

सङ्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम्।

वायुर्मद: सुवासश्र्च वस्त्राण्यपि नवानि वै।

भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया।।

इस श्लोक में खासतौर पर उस स्थान, व्यक्ति या चीजों को उजागर किया गया है, जिनमें कामदेव वास करते हैं यानी इनके संपर्क में आने पर स्त्री हो या पुरुष का मन कमजोर होता हैं और संभलकर न रहने पर नुकसान हो सकता है। जानिए आसान शब्दों में इन पौराणिक बातों का मतलब

मदन यानी कामदेव का वास इन स्थानों पर होता है- यौवन या सौंदर्य, स्त्री, फूल, गाना, परागकण या फूलों का रस, पक्षियों की मीठी आवाज, सुंदर बाग-बगीचा, बसन्त ऋतु, चन्दन, वासनाओं में डूबे मनुष्य की संगति, छुपे अंगों के दर्शन, सुहानी और मन्द हवा, रहने का सुन्दर स्थान, नए कपड़े और आभूषण। इस पौराणिक बात के पीछे व्यावहारिक जीवन के लिये संकेत भी है कि चूंकि कामनाओं की अति मन को भटकाती है, इसलिए इन स्थान विशेष के संपर्क में आने पर संयम और अनुशासन बनाए रख मन को कमजोर होने से बचाएं। अन्यथा जीवन पतन की ओर जा सकता है।

गुरु प्रदोष: ये है व्रत की आसान विधि, महत्व व रोचक कथा
धर्म ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक मास की त्रयोदशी तिथि को भगवान शिव के निमित्त प्रदोष व्रत किया जाता है। यह तिथि जिस दिन पड़ती है उस वार के साथ संयोग कर इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। पंचांग के अनुसार इस बार 27 सितंबर, गुरुवार के दिन प्रदोष होने से गुरु प्रदोष का योग बन रहा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार गुरु प्रदोष व्रत करने से शत्रुओं का विनाश हो जाता है। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-

- प्रदोष व्रत में बिना जल पीए व्रत रखना होता है। सुबह स्नान करके भगवान शंकर, पार्वती और नंदी को पंचामृत व गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्रगंध, चावल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची भगवान को चढ़ाएं।

- शाम के समय पुन: स्नान करके इसी तरह शिवजी की पूजा करें। शिवजी की षोडशोपचार पूजा करें। जिसमें भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजा करें।

- भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं।

- आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। आठ बार दीपक रखते समय प्रणाम करें। शिव आरती करें। शिव स्त्रोत, मंत्र जप करें ।

- रात्रि में जागरण करें।

इस प्रकार समस्त मनोरथ पूर्ति और कष्टों से मुक्ति के लिए व्रती को प्रदोष व्रत के धार्मिक विधान का नियम और संयम से पालन करना चाहिए।

गुरु प्रदोष व्रत की कथा इस प्रकार है-
एक बार देवताओं के राजा इन्द्र और राक्षस वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध हुआ । देवताओं ने दैत्य सेना को पराजित कर दिया। यह देख वृत्रासुर क्रोधित होकर स्वयं युद्ध करने आया। उसने अपनी माया से देवताओं को भयभीत कर दिया। तब सभी देवता गुरुदेव बृहस्पति की शरण में गए। गुरु बृहस्पति ने इंद्र को बताया कि वृत्रासुर बड़ा तपस्वी और कर्मनिष्ठ है। उसने तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न किया है। पूर्व समय में वह चित्ररथ नाम का राजा था। एक बार वह अपने विमान से कैलाश पर्वत चला गया।

वहां शिवजी के साथ माता पार्वती को देखकर उसने शिव-पार्वती का उपहास किया। जिससे माता पार्वती क्रोधित हो गई और उन्होंने चित्ररथ को श्राप दिया कि तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर जाएगा और राक्षस योनि प्राप्त करेगा। राक्षस होने के बाद भी वृत्तासुर बाल्यकाल से ही शिवभक्त रहा। इसलिए इंद्र तुम गुरु प्रदोष व्रत कर शंकर भगवान को प्रसन्न करो। इंद्र ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर ये व्रत किया। गुरु प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय प्राप्त की।

अनन्त चतुर्दशी कल: इस विधि से करें व्रत व भगवान विष्णु की पूजा
भाद्रमास मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी अनन्त चतुर्दशी के रूप में मनाई जाती है। इस दिन भगवान अनन्त की पूजा की जाती है। इस दिन महिलाएं सौभाग्य की रक्षा एवं सुख और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए व्रत रखती हैं। दस दिवसीय गणेशोत्सव की समापन भी इसी दिन होता है। इस बार अनन्त चतुर्दशी का पर्व 29 सितंबर, शनिवार को है।

व्रत विधि
इस दिन व्रती (व्रत करने वाला) को सुबह व्रत के लिए संकल्प लेना चाहिए व भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए। भगवान विष्णु के सामने 14 ग्रंथियुक्त अनन्त सूत्र (14 गांठ युक्त धागा, जो बाजार में आसानी से मिल जाता है) को रखकर भगवान विष्णु के साथ ही उसकी भी पूजा करनी चाहिए। पूजा में रोली, मोली, चंदन, फूल, अगरबत्ती, धूप, दीप, नैवेद्य आदि का प्रयोग करना चाहिए और प्रत्येक को समर्पित करते समय ऊँ अनन्ताय नम: का जप करना चाहिए।
पूजा के बाद यह प्रार्थना करें-

नमस्ते देवदेवेशे नमस्ते धरणीधर।

नमस्ते सर्वनागेंद्र नमस्ते पुरुषोत्तम।।

न्यूनातिरिक्तानि परिस्फुटानि

यानीह कर्माणि मया कृतानि।

सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व

प्रयाहि तुष्ट: पुनरागमाय।।

दाता च विष्णुर्भगवाननन्त:

प्रतिग्रहीता च स एव विष्णु:।

तस्मात्तवया सर्वमिदं ततं च

प्रसीद देवेश वरान् ददस्व।।

प्रार्थना के पश्चात कथा सुनें तथा रक्षासूत्र पुरुष दाएं हाथ में और महिलाएं बाएं हाथ में बांध लें। रक्षासूत्र बांधते समय इस मंत्र का जप करें-

अनन्तसंसारमहासमुद्रे मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव।

अनन्तरूपे विनियोजितात्मामाह्यनन्तरूपाय नमोनमस्ते।।

इसके बाद ब्राह्मण को भोजन कराकर व दान देने के बाद स्वयं भोजन करें। इस दिन नमक रहित भोजन करना चाहिए।

क्या आप जानते हैं अनन्त चतुर्दशी की ये रोचक कथा?
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को भगवान अनन्त के निमित्त व्रत किया जाता है व उनका पूजन किया जाता है। इस बार अनन्त चतुर्दशी का व्रत 29 सितंबर, शनिवार को है। इसकी कथा इस प्रकार है-

प्राचीन काल में सुमन्तु नामक ऋषि थे। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम शीला था। शीला अत्यंत गुणवती थी। समय आने पर सुमन्तु ऋषि ने उसका विवाह कौण्डिन्यमुनि से कर दिया। भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को शीला ने अनन्त चतुर्दशी का व्रत किया और भगवान अनन्त का पूजन करने के बाद अनन्तसूत्र अपने बाएं हाथ पर बांध लिया।    

भगवान अनन्त की कृपा से शीला के घर में सुख-समृद्धि आ गई और उसका जीवन सुखमय बन गया। एक बार क्रोध में आकर कौण्डिन्यमुनि ने शीला के हाथ में बंधा अनन्तसूत्र तोड़कर आग में डाल दिया। इसके कारण उनका सुख-चैन, ऐश्वर्य-समृद्धि, धन-संपत्ति आदि सभी नष्ट हो गए और वे बहुत दु:खी रहने लगे। एक दिन अत्यंत दु:खी होकर भगवान अनन्त की खोज में निकल पड़े।

तब भगवान ने उन्हें एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में दर्शन दिए और उनसे अनन्त व्रत करने को कहा। कौण्डिन्यमुनि ने विधि-विधान पूर्वक अपनी पत्नी शीला के साथ श्रृद्धा व विश्वास से अनन्त नारायण की पूजा की और व्रत किया। अनन्त व्रत के प्रभाव से उनके अच्छे दिन पुन: आ गए और उनका जीवन सुखमय हो गया।

इस विधि से करें भगवान श्री गणेश का विसर्जन
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को गणेशोत्सव का समापन होता है और भगवान श्रीगणेश का विसर्जन किया जाता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार श्रीगणेश का विसर्जन नदी या तालाब में किए जाने का विधान है लेकिन सिर्फ बालूरेत से निर्मित गणेश प्रतिमा का। विसर्जन के पूर्व भगवान श्रीगणेश का पूजन पहले घर पर तथा इसके बाद विसर्जन स्थल पर भी किया जाता है। इसकी विधि इस प्रकार है-

विधि
विसर्जन से पूर्व स्थापित गणेश प्रतिमा का संकल्प मंत्र के बाद षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाएं। मंत्र बोलते हुए 21 दूर्वा दल चढ़ाएं। 21 लड्डुओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाएं और 5 ब्राह्मïण को प्रदान कर दें। शेष लड्डू प्रसाद के रूप में बांट दें। पूजन के समय यह मंत्र बोलें-

ऊँ गं गणपतये नम:

दूर्वा दल चढ़ाते समय यह मंत्र बोलें

गणेशजी को 21 दूर्वा दल चढ़ाई जाती है। दूर्वा दल चढ़ाते समय नीचे लिखे मंत्रों का जप करें-

ऊँ गणाधिपताय नम: 

ऊँ उमापुत्राय नम:

ऊँ विघ्ननाशनाय नम: 

ऊँ विनायकाय नम:

ऊँ ईशपुत्राय नम: 

ऊँ सर्वसिद्धप्रदाय नम:

ऊँ एकदन्ताय नम: 

ऊँ इभवक्त्राय नम:

ऊँ मूषकवाहनाय नम: 

ऊँ कुमारगुरवे नम:  

इसके बाद श्रीगणेश की आरती उतारें और विसर्जन स्थल पर ले जाकर पुन: एक बार आरती करें व गणेश प्रतिमा जल में विसर्जित कर दें और यह मंत्र बोलें-

यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम् ।

इष्टकामसमृद्धयर्थं पुनर्अपि पुनरागमनाय च ॥

यदि नदी या तालाब से थोड़ा जल लेकर गणेश प्रतिमा पर चढ़ा दिया जाए तो यह भी विधिवत विसर्जन ही माना जाएगा, ऐसा धर्म ग्रंथों में उल्लेख है।

जानिए क्या कहानी है काशी के ढुण्ढिविनायक के प्रकट होने की
एक बार महर्षि कश्यप की पत्नी व देवताओं की माता अदिति ने भगवान श्रीगणेश को पुत्र रूप में पाने के लिए उनकी घोर तपस्या की। तब प्रसन्न होकर भगवान गणेश ने उन्हें दर्शन दिए तथा उनके घर पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान भी दिया। जब अदिति ने यह बात अपने पति महर्षि कश्यप को बताई तो वे बहुत प्रसन्न हुए।

उधर देवान्तक व नरान्तक नामक राक्षसों के अत्याचार से जब देवता, पृथ्वी व ब्राह्मण भयभीत हो गए तो ब्रह्माजी के आदेश पर उन्होंने श्रीगणेश की आराधना की। तभी आकाशवाणी हुई-

कश्यपस्य गृहे देवोवतरिष्यति साम्प्रतम्।

करिष्यत्यद्भुतं कर्म पदानि व: प्रदास्यति।।

दुष्टानां निधनं चैव साधूनां पालनं तथा।

अर्थात- भगवान गणेश महर्षि कश्यप के घर में अवतार लेंगे और वे ही दुष्टों का संहार कर साधुओं का पालन करेंगे।

निश्चित समय के बाद कश्यप पत्नी अदिति के घर भगवान गणेश ने जन्म लिया। उनकी दस भुजाएं, कानों में कुण्डल, ललाट पर कस्तूरी तिलक से सुसज्जित रूप देखकर अदिति बहुत प्रसन्न हुई। तब अदिति ने श्रीगणेश को बालक के रूप में दर्शन देने को कहा। भगवान गणेश उसी क्षण बालक बन गए। यह जानकर ऋषि-मुनि आदि महर्षि कश्यप के घर आए। उन्होंने उस बालक का नाम रखा महोत्कट। जब राक्षसों को इस बात ज्ञात हुई तो वे महोत्कट को मारने का प्रयास करने लगे लेकिन वे असफल हुए। कुछ समय पश्चात महोत्कट रूपी श्रीगणेश ने सभी असुरों को यमपुरी पहुंचा दिया। इसके पश्चात श्रीगणेश काशी में ढुण्ढिविनायक के नाम से प्रतिष्ठित हो गए।

जब शिव ने शुक्राचार्य को निगल लिया
दानव गुरु शुक्राचार्य के संबंध में काशी खंड महाभारत जैसे ग्रंथों में कई कथाएं वर्णित हैं। शुक्राचार्य भृगु महर्षि के पुत्र थे। देवताओं के गुरु बृहस्पति अंगीरस के पुत्र थे। इन दोनों बालकों ने बाल्यकाल में कुछ समय तक अंगीरस के यहां विद्या प्राप्त की। आचार्य अंगीरस ने विद्या सिखाने में शुक्र के प्रति विशेष रुचि नहीं दिखाई। असंतुष्ट होकर शुक्र ने अंगीरस का आश्रम छोड़ दिया और गौतम ऋषि के यहां जाकर विद्यादान करने की प्रार्थना की।

गौतम मुनि ने शुक्र को समझाया, बेटे! इस समस्त जगत् के गुरु केवल ईश्वर ही हैं। इसलिए तुम उनकी आराधना करो। तुम्हें समस्त प्रकार की विद्याएं और गुण स्वत: प्राप्त होंगे। गौतम मुनि की सलाह पर शुक्र ने गौतमी तट पर पहुंचकर शिव जी का ध्यान किया। शिव जी ने प्रत्यक्ष होकर शुक्र को मृत संजीवनी विद्या का उपदेश दिया। शुक्र ने मृत संजीवनी विद्या के बल पर समस्त मृत राक्षसों को जीवित करना आरंभ किया। परिणामस्वरूप दानव अहंकार के वशीभूत हो देवताओं को यातनाएं देने लगे, क्योंकि देवता और दानवों में सहज ही जाति-वैर था। फलत: देवता और दानवों में निरंतर युद्ध होने लगे।

मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती ही गई। देवता असहाय हो गए। वे युद्ध में दानवों को पराजित नहीं कर पाए। देवता हताश हो गए। कोई उपाय ना पाकर वे शिव जी की शरण में गए, क्योंकि शिव जी ने शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या प्रदान की थी। इसलिए देवताओं ने शिव जी से शिकायत की, महादेव! आपकी विद्या का दानव लोग दुरुपयोग कर रहे हैं। आप तो समदर्शी हैं। शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से मृत दानवों को जिलाकर हम पर भड़का रहे हैं। यही हालत रही तो हम कहीं के नहीं रह जाएंगे। कृपया आप हमारा उद्धार कीजिए।

शुक्राचार्य द्वारा मृत संजीवनी विद्या का इस प्रकार अनुचित कार्य में उपयोग करना शिव जी को अच्छा न लगा। शिव जी क्रोध में आ गए और शुक्राचार्य को पकड़कर निगल डाला। इसके बाद शुक्राचार्य शिव जी की देह से शुक्ल कांति के रूप में बाहर आए और अपने निज रूप को प्राप्त किया।

शुक्राचार्य के संबंध में एक और कथा इस प्रकार है-शुक्राचार्य ने किसी प्रकार छल-कपट से एक बार कुबेर की सारी संपत्ति का अपहरण किया। कुबेर को जब इस बात का पता चला, तब उन्होंने शिव जी से शुक्राचार्य की करनी की शिकायत की। शुक्राचार्य को जब विदित हुआ कि उनके विरुद्ध शिव जी तक शिकायत पहुंच गई, वे डर गए और शिव जी के क्रोध से बचने के लिए झाडि़यों में जा छिपे। आखिर वे इस तरह शिव जी की आंख बचाकर कितने दिन छिप सकते थे।

एक बार शिव जी के सामने पड़ गए। शिव स्वभाव से ही रौद्र हैं। शुक्राचार्य को देखते ही शिव जी ने उनको पकड़कर निगल डाला। शिव जी की देह में शुक्राचार्य का दम घुटने लगा। शिव जी का क्रोध शांत नहीं हुआ। उन्होंने रोष में आकर अपने शरीर के सभी द्वार बंद किए। अंत में शुक्राचार्य मूत्रद्वार से बाहर निकल आए। इस कारण शुक्राचार्य पार्वती-परमेश्वर के पुत्र समान हो गए।

शुक्राचार्य को बाहर निकले देख शिव जी का क्रोध पुन: भड़क उठा। वे शुक्राचार्य की कुछ हानि करें, इस बीच पार्वती ने परमेश्वर से निवेदन किया, यह तो हमारे पुत्र समान हो गया है। इसलिए इस पर आप क्रोध मत कीजिए। यह तो दया का पात्र है। पार्वती की अभ्यर्थना पर शिव जी ने शुक्राचार्य को अधिक तेजस्वी बनाया। अब शुक्राचार्य भय से निरापद हो गए थे। उन्होंने प्रियव्रत की पुत्री ऊर्जस्वती के साथ विवाह किया। उनके चार पुत्र हुए-चंड, अमर्क, त्वाष्ट्र और धरात्र।

एक कथा शुक्राचार्य के संबंध में इस प्रकार है- एक बार वामन ने राजा बलि के पास जाकर तीन कदम रखने की पृथ्वी मांगी। यह समाचार शुक्राचार्य को मिला। उन्होंने राजा बलि को समझाया, राज्न! सुनो। आपसे तीन कदम जमीन मांगनेवाले व्यक्ति नहीं हैं, वे नर भी नहीं। भूल से भी सही, उनको एक कदम रखने की जमीन तक मत देना। नीतिशास्त्र बताता है कि वारिजाक्ष, विवाह, प्राण, मान तथा वित्त के संदर्भ में झूठ बोला जा सकता है, इसलिए मेरी सलाह मानकर याचक को जमीन का दान देने से अस्वीकार करो।

शुक्राचार्य ने राजा बलि को इस तरह अनेक प्रकार से समझाया, परंतु राजा बलि अपने वचन के पक्के थे, साथ ही ज्ञानी भी। इसलिए उन्होंने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, यदि याचक नर न होकर नारायण ही हों तो और अधिक उत्तम। यदि उनके हाथों में मेरा कुछ अहित भी होता है, तो वह मेरा भाग्य ही माना जाएगा। इसलिए ऐसे सुअवसर से मैं वंचित होना नहीं चाहता। मैं अपने वचन का पालन हर हालत में करना चाहूंगा। यह कहकर राजा बलि ने प्रसन्नतापूर्वक वामन को तीन कदम रखने की भूमि दान कर दी।

इससे दानवार्च शुक्र चिंता में पड़ गए। उन्होंने संकल्प किया कि किसी प्रकार से राजा बलि का उपकार करना चाहिए। चह विचार करके वे मक्खी का रूप धरकर कमंडल की टोंटी से जलधारा के गिरने से अटक गए। टोंटी से जल के न गिरते देख राजा बलि ने तीली लकेर कमंडल की टोंटी में घुसेड़ दिया। तीली मक्खी की आंख में चुभ गई और आंख छितर गई। परिणामस्वरूप दानवाचार्य शुक्र काना बन गए। तब से दानवाचार्य काना शुक्राचार्य कहलाए।

मौत के सालभर और उसके बाद कहां भटकती है आत्मा?
सनानत धर्म में भाद्रपद माह की पूर्णिमा व आश्विन माह के कृष्णपक्ष के16 दिनों में श्राद्ध कर्म के जरिए पूर्वजों को याद कर उनसे स्वयं के जीवन की परेशानियों को दूर करने की भी कामना की जाती है। किंतु धर्म शास्त्रों का का कम ज्ञान और समझ रखने वाले कई लोग मृत्यु और श्राद्ध से जुड़े पहलुओं को नहीं जानते।

ऐसे लोगों के जेहन में यह सवाल रहता है कि आखिर श्राद्ध से जुड़े धर्म-कर्म पितरों को कैसे प्रसन्न करते हैं? यहां जानिए मौत और श्राद्ध से जुड़ी ऐसी ही जिज्ञासा ओं का जवाब -

दरअसल, सनातन धर्म मे माना जाता है कि मानव शरीर पंच तत्वों - आग, पानी, पृथ्वी, वायु, आकाश, पांच कर्म इन्द्रियों हाथ-पैर आदि सहित २७ तत्वों से बना है। जब मृत्यु होती है तो शरीर और कर्मेंन्द्रियों पंचतत्वों में ही मिल जाती है। किंतु बाकी १७ तत्वों से बना अदृश्य और सूक्ष्म शरीर इसी संसार में बना रहता है।

हिन्दू शास्त्रों के मुताबिक सांसारिक मोह और लालसाओं की वजह से यह सूक्ष्म शरीर १ साल तक अपने मूल स्थान, घर और परिवार के आस-पास ही रहता है। किंतु शरीर न होने से उसे कोई भी सुख नहीं मिल पाता और इच्छा पूरी न होने से वह अतृप्त रहता है।

इसके बाद वह अपने कर्म के मुताबिक अलग-अलग योनि में जाता है। हर योनि में किए गए कर्म के मुताबिक जनम-मरण का चक्र चलता रहता है।

यही वजह है कि मौत के बाद सालभर और उसके बाद भी मृत परिजन को तृप्त करने और जनम-मरण के बंधन से छुड़ाने के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्राद्ध के जरिए भोजन के साथ सारे सुख व रस सूक्ष्म तरीके से मृत जीव की आत्मा या अलग-अलग योनि में घूम रहे पूर्वजों को मिलते हैं और वह तृप्त हो जाते हैं। खासतौर पर पितृपक्ष काल में, जिसमें यह माना जाता है कि पूर्वज इस विशेष काल में अपने परिजनों से मिलने जरूर आते हैं।

पितरों को तृप्त करने का उत्सव है श्राद्धपक्ष
हिंदू पंचांग के आश्विन मास के कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष या श्राद्धपक्ष कहते हैं। इस वर्ष श्राद्ध पक्ष 29 सितंबर, शनिवार से 15 अक्टूबर, सोमवार तक रहेगा। सनातन धर्म में इस पूरे पक्ष का समय पूर्वजों को तृप्त करने और उनके प्रति आस्था प्रकट करने के लिए ही बनाया गया है।

हर धर्म का आधार श्रद्धा है। सभी धर्मों में पितरों के प्रति सम्मान और श्रद्धा के भाव का महत्व बताया गया है। सनातन धर्म में श्रद्धा प्रगट करने का ही एक धार्मिक कर्म श्राद्ध है। श्राद्ध में हम अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं। अपने मृत पितृगण यानी पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक कर्म विशेष किए जाने के कारण इसका नाम श्राद्ध पड़ा। इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं।

शास्त्रों में आश्विन मास के प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक श्राद्ध करने के अलग-अलग फल बताए गए हैं। शास्त्रों के अनुसार वर्ष में आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध का विशेष महत्व है। ये महालय श्राद्ध भी कहलाते हैं। मह का अर्थ होता है 'उत्सव का दिन  और आलय यानी 'घर। इस कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते हैं।

पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक तिल, कुश तथा जल आदि पदार्थों के त्याग एवं दान कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है। इस प्रकार पितरों के प्रति श्रद्धा ही श्राद्ध का मुख्य भाव है यानि श्राद्ध पूर्वजों के प्रति श्रद्धा जगाता है।

श्राद्ध पक्ष में ध्यान रखें इन बातों का क्योंकि...
पितरों को तृप्त करने वाले श्राद्ध पक्ष का प्रारंभ 29 सितंबर, शनिवार से हो चुका है। हमारे धर्म शास्त्रों में श्राद्ध पक्ष के दिनों में कई कार्यों पर प्रतिबंध लगाया गया है। इस दौरान कुछ खास कार्य किए जाने चाहिए जिनसे हमारे पितर खुश होते हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि हमारे पितर हमसे संतुष्ट नहीं होंगे तो भगवान भी हमें कोई शुभ फल प्रदान नहीं करते हैं इसलिए पितरों को प्रसन्न रखने के लिए वर्जित कार्यों से दूर रहना चाहिए।

श्राद्ध में न करने योग्य कार्य
इन दिनों हमें पान नहीं खाना चाहिए। बॉडी मसाज या तेल की मालिश नहीं करना चाहिए। किसी और का खाना नहीं खाना चाहिए। इन दिनों के लिए विशेष रूप से संभोग को वर्जित किया गया है। इन नियमों का पालन न करने पर हमें कई दु:खों को भोगना पड़ता है। इन दिनों खाने में चना, मसूर, काला जीरा, काले उड़द, काला नमक, राई, सरसों आदि वर्जित मानी गई है अत: खाने में इनका प्रयोग ना करें।

श्राद्ध में यह कार्य करें
श्राद्ध के दिनों में तांबे के बर्तनों का अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए। पितरों का श्राद्ध कर्म या पिण्डदान आदि कार्य करते समय उन्हें कमल, मालती, जूही, चम्पा के पुष्प अर्पित करें। श्राद्धकाल में पितरों के मंत्र (ऊँ पितृभ्य स्वधायीभ्य स्वधा नम:, पितामयभ्य: स्वधायीभ्य स्वधा नम:, प्रपितामयभ्य स्वधायीभ्य स्वधा नम:) का जप करें। इस मंत्र से पितरों सहित सभी देवी-देवता आपसे प्रसन्न होंगे।

श्राद्ध के लिए प्रसिद्ध है ये स्थान, जानिए इसकी विशेषता
श्राद्ध, यूं तो हर व्यक्ति के जीवन को काल-चक्र से मुक्त कर देता है पर सिद्ध योगियों में इसे लेकर बड़ी कामना होती है। एक ऐसा भी स्थान है जहां केवल सिद्ध योगियों को ही श्राद्ध नसीब होता है। वह स्थान है- उज्जैन स्थित सिद्धनाथ।

शिप्रा नदी के विशाल रमणीय तट पर एक पवित्र वट वृक्ष है इसे ही सिद्धवट कहा जाता है। कहा जाता है कि इसको माता पार्वती ने अपने हाथों से लगाया था। इस घाट को सिद्धनाथ घाट कहते हैं। हर चतुर्दशी और वैशाख मास में यहां विशेष यात्रा होती है। यहां एक बार जिसका श्राद्ध हो जाए तो उसकी पूरी वंशावली को कभी भी देखा जा सकता है।

श्राद्ध कर्म के लिए इस तीर्थ का विशेष महत्व है। हर साल यहां सैकड़ों लोग अपने सगे-संबंधियों के श्राद्ध कर्म को पूरा करने आते हैं। मान्यता है कि यहां हुआ श्राद्ध सिद्ध योगियों को ही नसीब होता है।

इस आसान विधि से करें श्राद्ध, प्रसन्न होंगे पितृ देवता
आश्विन कृष्ण पक्ष में जिस दिन पूर्वजों की श्राद्ध तिथि आए उस दिन पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध विधि-विधान से करना चाहिए। किंतु अगर आप किसी कारणवश शास्त्रोक्त विधानों से न कर पाएं तो यहां बताई श्राद्ध की सरल विधि को अपनाएं -

- सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर से लीपकर व गंगाजल से पवित्र करें।

- घर आंगन में रंगोली बनाएं।

- महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं।

- श्राद्ध का अधिकारी श्रेष्ठ ब्राह्मण (या कुल के अधिकारी जैसे दामाद, भतीजा आदि) को न्यौता देकर बुलाएं।

- ब्राह्मण से पितरों की पूजा एवं तर्पण आदि कराएं।

- पितरों के निमित्त अग्नि में गाय का दूध, दही, घी एवं खीर अर्पित करें। गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन से चार ग्रास निकालें।

- ब्राह्मण को आदरपूर्वक भोजन कराएं, मुखशुद्धि, वस्त्र, दक्षिणा आदि से सम्मान करें।

- ब्राह्मण स्वस्तिवाचन तथा वैदिक पाठ करें एवं गृहस्थ एवं पितर के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करें।

आश्विन मास प्रारंभ: पितृऋण से मुक्त होने का है ये समय
आश्विन माह का प्रारंभ पितृपक्ष से होता है। इस मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस तक की अवधि पितरों को समर्पित रहती है। इस बार आश्विन मास का प्रारंभ 30 सितंबर, रविवार से हो चुका है। क्या कारण है कि वर्ष के 12 महीनों में से इसी महीने में पितृपक्ष आता है। अध्ययन करने पर जो तथ्य सामने आते हैं। वे इस प्रकार हैं-

इस समय बारिश समाप्त हो चुकी होती है और आकाश साफ रहता है। ऐसी स्थिति में आकाशवासी पितरों तक पिंड और तर्पण के रूप में हमारी श्रद्धांजलि अब आसानी से पहुंच सकती है। जीवन के नए संघर्ष का शुभारंभ पितरों की आराधना, उनके स्मरण से किया जाए तो सफलता सुनिश्चित है। संभवत: यही भाव है जिसके कारण आश्विन का पूर्वाद्र्ध पितरों के निमित्त निश्चित है।

शास्त्रों में चार ऋणों का उल्लेख है। कहा है मनुष्य को इन चार से मुक्त होना चाहिए, तभी उसके जीवन की सार्थकता है- देवऋण, भूतऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। पितृऋण का अर्थ है परिवार भाव के प्रति दायित्व का बोध। जो परिवार के प्रति, संतान के प्रति समुचित दायित्व बोध से नहीं भरते वे भले संतान को जन्म दे दें, लेकिन पितृऋण से मुक्त नहीं हो पाते।

इस तरह पितृपक्ष के बहाने आश्विन मास अपने पूर्वजों को याद करने का माह है। यह हमें याद दिलाता है कि आकाश में हमारे पितृ हमारे कल्याण की कामना कर रहे हैं तथा हमारे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म से मुक्ति की राह देख रहे हैं।

कच्ची उम्र में गृहस्थ जीवन के मैनेजमेंट सूत्र सीखाता है संजा पर्व
हमारा देश भारत रीति-रिवाजों व परंपराओं का देश है। यहां प्रत्येक त्योहार के साथ कई परंपराएं व रीति-रिवाज देखने को मिलते हैं। इन परंपराओं व रीति-रिवाजों के पीछे कहीं न कहीं जीवन प्रबंधन से जुड़ा कोई संदेश अवश्य जुड़ा होता है। इन दिनों श्राद्ध पक्ष चल रहा है। श्राद्ध पक्ष से जुड़ी एक परंपरा भी है जिसे हमें संजा पर्व या सांझी उत्सव के नाम से जानते हैं।

संजा पर्व मुख्य तौर पर मालवा, निमाड़, राजस्थान, गुजरात आदि स्थानों पर प्रचलित है। संजा पर्व में श्राद्ध के सोलह ही दिन(भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक) कुंवारी कन्याएं शाम के समय एक स्थान पर एकत्रित होकर गोबर के मांडने मांडती हैं और संजा के गीत गाती है व संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं। 16 ही दिन तक कुंवारी कन्याएं गोबर के अलग-अलग मांडने मांडती है तथा हर दिन का एक अलग गीत भी होता है।

दरअसल संजा सिर्फ एक परंपरा नहीं है। संजा के मांडनों तथा गीतों में महिलाओं के विवाहित जीवन से जुड़े कई जीवन सूत्र छिपे होते हैं जिन्हें बचपन में ही कुंवारी कन्याओं के जीवन में संजा पर्व के दौरान समझने का मौका मिलता है। हालांकि बदलते समय के साथ इस परंपरा का ह्रास अवश्य हुआ है लेकिन आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में कुंवारी कन्याएं बहुत ही उत्साह व उमंग के साथ संजा पर्व मनाती हैं।

संजा: सोलह दिन तक मनाया जाने वाला एक लोक उत्सव
श्राद्ध पक्ष के दौरान मालवा, निमाड़, राजस्थान, गुजरात आदि स्थानों पर संजा पर्व मनाया जाता है। यह एक लोक उत्सव है। इसमें कुंवारी कन्याएं शाम के समय एक स्थान पर एकत्रित होकर गोबर के मांडने मांडती हैं और संजा के गीत गाती है व संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं।

संजा पर्व में सबसे पहले दिन पूनम का पाटला बनता है, दूसरे दिन दूज का बिजौरा, तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़, पांचवें दिन पांचे या पांच कुंवारे, छठे दिन छबड़ी, सातवें दिन स्वस्तिक, आठवें दिन आठ पंखूड़ी का फूल, नौवें दिन डोकरा-डोकरी उसके बाद वंदनवार, केल, जलेबी की जोड़ आदि बनने के बाद तेरहवें से सोलहवें दिन तक किलाकोट बनाया जाता है। इसमें 12 दिन में बनाई गई आकृतियां भी होती हैं।

श्राद्घ पक्ष की समाप्ति पर इन सभी आकृतियों को नदी में प्रवाहित किया जाता है। वर्तमान दृष्टिकोण से देखा जाए तो संजा पर्व कन्याओं का कलाकर्म है। देहाती क्षेत्रों से लेकर शहरी इलाकों तक यह पर्व एक लोककला उत्सव के रूप में मनाया जाता है। संजा के गीतों में आदिशक्ति के विभिन्न रूपों पार्वती, गौरा, दुर्गा आदि की आराधना के निमित्त अंचलों में संजा पर्व बेमिसाल है।

श्राद्ध नहीं कर सकते तो करें ये 4 काम, मिलेगा पितरों का आशीर्वाद
धर्म शास्त्रों में श्राद्ध के कुछ विधान बताए गए हैं। उसके अनुसार ही श्राद्ध करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है, ऐसी मान्यता है। विधि-विधान पूर्वक श्राद्ध कर्म करने में समय व धन की आवश्यकता होती है लेकिन यदि आप विधि-विधान पूर्वक श्राद्ध कर्म करने में सक्षम नहीं है तो भी कुछ साधारण उपाय कर आप अपने पितरों को तृप्त कर सकते हैं। धर्म शास्त्रों के अनुसार पितरों ने स्वयं अपनी प्रसन्नता के सरल उपाय बताए हैं। ये उपाय इस प्रकार हैं-

- अगर श्राद्ध करने वाले की साधारण आय हो, वह पितरों के श्राद्ध में यथासंभव ब्राह्मण को भोजन कराए या भोजन सामग्री जिसमें आटा, फल, गुड़, शक्कर, शाक और दक्षिणा दान करें।

- किंतु अगर कोई व्यक्ति गरीब हो और चाहने पर भी धन की कमी से पितरों का श्राद्ध करने में समर्थ न हो पाए तो वह जल में काले तिल डालकर तर्पण करे और विद्वान ब्राह्मण को काले तिल की एक मुट्ठी दान करने मात्र से ही पितृ प्रसन्न हो सकते हैं।

- अगर कोई व्यक्ति इन उपायों को करने में भी किसी कारणवश कठिनाई महसूस करे तो वह पितरों को याद कर गायों को चारा खिला दे।

- इतना भी संभव न हो तो सूर्यदेव को हाथ जोड़कर प्रार्थना कर ले कि मैं श्राद्ध के लिए जरुरी धन और साधन न होने से पितरों का श्राद्ध करने में असमर्थ हूं। इसलिए आप मेरे पितरों तक मेरा भावनाओं और प्रेम से भरा प्रणाम पहुंचाएं और उनको तृप्त करें। इन साधारण उपायों से भी आपके पितृ प्रसन्न हो सकते हैं।

गणेश चतुर्थी आज, चाहिए वरदान तो इस विधि से करें पूजन व व्रत
हिंदू महीने की प्रत्येक कृष्ण पक्ष की चंद्रोदयव्यापिनी चतुर्थी तिथि को भगवान श्रीगणेश के लिए जो व्रत किया जाता है उसे गणेश चतुर्थी व्रत कहते हैं। जो भी यह व्रत करता है, भगवान श्रीगणेश उसकी हर इच्छा पूरी करते हैं। इस बार गणेश चतुर्थी व्रत 3 अक्टूबर, बुधवार को है। यह व्रत इस विधि से करें-

- सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि नित्यकर्म से शीघ्र निवृत्त हों।

- शाम के समय अपने सामथ्र्य के अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।

- संकल्प मंत्र के बाद श्रीगणेश की षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाएं। गणेश मंत्र (ऊँ गं गणपतयै नम:) बोलते हुए 21 दूर्वा दल चढ़ाएं।

- गुड़ या बूंदी के 21 लड्डूओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास ही रखें और 5 ब्राह्मण को दान कर दें। शेष लड्डू प्रसाद के रूप में बांट दें।

- पूजा में भगवान श्री गणेश स्त्रोत, अथर्वशीर्ष, संकटनाशक स्त्रोत आदि का पाठ करें।

- चंद्रमा के उदय होने पर पंचोपचार पूजा करें व अध्र्य दें तत्पश्चात भोजन करें।

व्रत का आस्था और श्रद्धा से पालन करने पर श्री गणेश की कृपा से मनोरथ पूरे होते हैं और जीवन में निरंतर सफलता प्राप्त होती है।

श्राद्ध विशेष: क्या दान करने से उसका क्या फल मिलता है, जानिए
पितृ पक्ष के सोलह दिनों में श्राद्ध, तर्पण, पिण्डदान आदि कर्म कर पितरों को प्रसन्न किया जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार पितृ पक्ष में दान का भी बहुत महत्व है। मान्यता है कि दान से पितरों की आत्मा को संतुष्टि मिलती है और पितृदोष भी खत्म हो जाते हैं। आईए जानते हैं पितृपक्ष में क्या दान करने से क्या फल मिलता है-

गाय का दान - धार्मिक दृष्टि से गाय का दान सभी दानों में श्रेष्ठ माना जाता है। लेकिन श्राद्ध पक्ष में किया गया गाय का दान हर सुख और ऐश्वर्य देने वाला माना गया है।

तिल का दान - श्राद्ध के हर कर्म में तिल का महत्व है। इसी तरह श्राद्ध में दान की दृष्टि से काले तिलों का दान संकट, विपदाओं से रक्षा करता है।

घी का दान - श्राद्ध में गाय का घी एक पात्र (बर्तन) में रखकर दान करना परिवार के लिए शुभ और मंगलकारी माना जाता है।

भूमि दान- अगर आप आर्थिक रूप से संपन्न है तो श्राद्ध पक्ष में किसी कमजोर या गरीब व्यक्ति को भूमि का दान आपको संपत्ति और संतान लाभ देता है। किंतु अगर यह संभव न हो तो भूमि के स्थान पर मिट्टी के कुछ ढेले दान करने के लिए थाली में रखकर किसी ब्राह्मण को दान कर सकते हैं।

वस्त्रों का दान - इस दान में धोती और दुपट्टा सहित दो वस्त्रों के दान का महत्व है। यह वस्त्र नए और स्वच्छ होना चाहिए।

चाँदी का दान - पितरों के आशीर्वाद और संतुष्टि के लिए चाँदी का दान बहुत प्रभावकारी माना गया है।

अनाज का दान - अन्नदान में गेंहू, चावल का दान करना चाहिए। इनके अभाव में कोई दूसरा अनाज भी दान किया जा सकता है। यह दान संकल्प सहित करने पर मनोवांछित फल देता है।

गुड़ का दान - गुड़ का दान पूर्वजों के आशीर्वाद से कलह और दरिद्रता का नाश कर धन और सुख देने वाला माना गया है।

सोने का दान - सोने का दान कलह का नाश करता है। किंतु अगर सोने का दान संभव न हो तो सोने के दान के निमित्त यथाशक्ति धन दान भी कर सकते हैं।

नमक का दान - पितरों की प्रसन्नता के लिए नमक का दान बहुत महत्व रखता है।

श्राद्ध में कराएं ब्राह्मणों को भोजन तो इन बातों का ध्यान रखें
श्राद्धपक्ष में पितरों की तृप्ति के लिए ब्राह्मणों को भोजन कराने का बहुत महत्व है। क्योंकि ऐसी धार्मिक मान्यता है कि ब्राह्मणों के साथ वायुरूप में पितृ भी भोजन करते हैं इसलिए विद्वान ब्राह्मणों को पूरे सम्मान और श्रद्धा के साथ भोजन कराने पर पितृ भी तृप्त होकर सुख समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। श्राद्धपक्ष में ब्राह्मणों को किस तरह यथाविधि भोजन कराना चाहिए -

- श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मण या ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें।

- श्राद्ध दोपहर के समय करें।

- श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।

- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।

- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें।

- इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।

- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं।

- इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं।

- पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।

- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं।

- ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।

पुत्र न होने पर किन लोगों को करना चाहिए श्राद्ध?
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक पुत्र को मरणोपरांत संस्कारों खासतौर पर श्राद्ध, पिंडदान का पहला अधिकारी माना गया है  यहीं नहीं शास्त्रों में लिखा है कि पुत्र  द्वारा किए जाने वाले धर्म-कर्मों पितरों को नरक से बचाने या छुटकारा दिलाने वाले होते है ।

इन धर्म मान्यताओं की वजन से आज भी पुत्र की कामना हर कोई करता है। हालांकि वक्त के बदलाव के साथ यह काम पुत्र या स्त्री के द्वारा भी किए जाने लगे हैं। लेकिन शास्त्रों में भी यह उजागर किया गया है कि पुत्र न होने की दशा में किन-किन लोगों को श्राद्ध या पितृकर्मों को करने का अधिकार है।

जानिए 29-30 सितंबर से शुरू हो रहे श्राद्धपक्ष में शास्त्रों के अनुसार पुत्र या किसी परिजन के न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है -

(1)पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। (2) पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। (3)पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडों या कुटुंब विशेष के लोगों को श्राद्ध करना चाहिए। (4) एक से ज्यादा पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध कर सकता है। (5) पुत्री का पति यानी दामाद एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं। (6) पुत्र के न होने पर पोता या परपोता भी श्राद्ध कर सकता है। (7) पुत्र, पोता या परपोता न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है। (8) कोई व्यक्ति पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो। (9) पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है। (10) गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है। (11) कोई न होने पर राजा को अपने धन से श्राद्ध करने का विधान है।

श्राद्ध में इन 10 चीजों का दान देता है तरक्की व सफलता
हिन्दू धर्म में दान को धर्म पालन का अहम और जरूरी अंग माना गया है। खासतौर पर पितरों की प्रसन्नता के लिए श्राद्धपक्ष में किए जाने वाले सोलह श्राद्ध के श्राद्धकर्म के साथ किए जाने वाले दान न केवल पितृदोष खत्म करते हैं बल्कि घर-परिवार की तरक्की व खुशहाली में आ रही सारी रुकावटों को दूर करते हैं। पितृपक्ष में खासतौर पर दस दान महादान माने गए हैं। जानिए ये दान और उनके फल

तिल का दान - श्राद्ध के हर कर्म में तिल का महत्व है। इसी तरह श्राद्ध में दान की दृष्टि से काले तिलों का दान संकट, विपदाओं से रक्षा करता है।

घी का दान - श्राद्ध में गाय के घी का एक पात्र में रखकर दान परिवार के लिए शुभ और मंगलकारी माना जाता है।

सोने का दान - सोने का दान कलह का नाश करता है। किंतु अगर सोने का दान संभव न हो तो सोने के दान के निमित्त यथाशक्ति धन दान भी कर सकते हैं।

अनाज का दान - अन्नदान में गेंहू, चावल का दान करना चाहिए। इनके अभाव में कोई दूसरा
अनाज भी दान किया जा सकता है। यह दान संकल्प सहित करने पर मनोवांछित फल देता है।

वस्त्रों का दान - इस दान में धोती और दुपट्टा सहित दो वस्त्रों के दान का महत्व है। यह वस्त्र नए और स्वच्छ होना चाहिए।

चाँदी का दान - पितरों के आशीर्वाद और संतुष्टि के लिए चाँदी का दान बहुत प्रभावकारी माना गया है।

भूमि दान - अगर आप आर्थिक रुप से संपन्न है तो श्राद्ध पक्ष में किसी कमजोर या गरीब व्यक्ति को भूमि का दान आपको संपत्ति और संतति लाभ देता है। किंतु अगर यह संभव न हो तो भूमि के स्थान पर मिट्टी के कुछ ढेले दान करने के लिए थाली में रखकर किसी ब्राह्मण को दान कर सकते हैं।

गुड़ का दान - गुड़ का दान पूर्वजों के आशीर्वाद से कलह और दरिद्रता का नाश कर धन और सुख देने वाला माना गया है।

गाय का दान - धार्मिक दृष्टि से गाय का दान सभी दानों में श्रेष्ठ माना जाता है। लेकिन श्राद्ध पक्ष में किया गया गाय का दान हर सुख और ऐश्वर्य देने वाला माना गया है।

नमक का दान - पितरों की प्रसन्नता के लिए नमक का दान बहुत महत्व रखता है। इस दान के पहले यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन कराएं और उसके बाद दान करते समय यह श्लोक बोलकर भगवान विष्णु से श्राद्धकर्म की शुभ फल की प्रार्थना करें - यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।

मौत आने पर झूठ बोलने वालों के साथ होती हैं ये बातें!
काल यानी मृत्यु जीवन की अटल सच्चाई है। इसलिए शास्त्रों में न केवल जीवन के रहते अच्छे या बुरे कामों को सुख और दु:ख की वजह बताया गया है बल्कि इन अच्छाइयों व बुराइयों को सुखद व दु:खद मृत्यु नियत करने वाला भी बताया गया है। इसे धार्मिक अर्थों में सद्गति व दुर्गति भी पुकारा जाता है। इसलिए हर ग्रंथ में हमेशा अच्छे गुण, विचार व आचरण को अपनाने की सीख दी गई है।

इसी कड़ी में हिन्दू धर्मग्रंथ गरुड़ पुराण में भी भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं उजागर किया है कि ज़िंदगी में किए गए अच्छे-बुरे कामों के मुताबिक मृत्यु के वक्त कैसे हालात बनते हैंजानिए झूठ व सच बोलने के अलावा किन कामों से मौत के वक्त क्या दशा होती है

जो लोग सत्य बोलते हैं, ईश्वर में आस्था और विश्वास रखते हैं, विश्वासघाती नहीं होते, उनकी मृत्यु सुखद होती है।

जो लोग आसक्ति का उपदेश और अविद्या या अज्ञानता फैलाते हैं, वे मृत्यु के समय बहुत ही कष्ट उठाते हैं। इसी तरह झूठे लोग मौत के वक्त किस हालात से गुजरते हैं, जानिए

झूठ बोलने वाला, झूठी गवाही देने वाला, भरोसा तोडऩे वाला, शास्त्र व वेदों की बुराई करने वालों की दुर्गति सबसे अधिक होती है। वह बेहोशी में मृत्यु को प्राप्त होते हैं। यही नहीं उनको लेने के लिये भयानक रूप और गंध वाले यमदूत आते हैं। जिसे देखकर जीव कांपने लगता है। तब उसे माता-पिता व पुत्र को याद कर रोता है। ऐसी हालता में वह चाहकर भी मुंह से साफ नहीं बोल पाता। उसकी आंखे घूमने लगती है। मुंह का पानी सूख जाता है, सांस बढ़ जाती है और अंत में कष्ट से दु:खी होकर प्राण त्याग देता है। मृत्यु होते ही उसका शरीर सभी के लिए न छूने और घृणा का पात्र बन जाता है।

कुत्ते को खाना खिलाने से जुड़ीं हैं ज़िंदगी सफल बनाने की ये खास बातें!
हिन्दू धर्म में श्राद्धपक्ष सांसारिक रिश्तों से जुड़े संस्कार, भावनाओं और मर्यादाओं को कर्म, विचार और व्यवहार में उतारकर हर तरह से संपन्न बनाने वाली एक श्रेष्ठ धार्मिक परंपरा है। क्योंकि यह मात्र मानवीय धरातल तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरा जीव व प्रकृति जगत इस अद्भुत परंपरा का हिस्सा होता है।

श्राद्ध की इन खास परंपराओं में ही भूतयज्ञ प्रमुख है। अलग-अलग योनियों को प्राप्त आत्माओं की तृप्ति के लिए भूतयज्ञ का महत्व है। इसमें पंचबलि कर्म किया जाता है। पंचबलि में भोजन के पांच अलग-अलग हिस्से गाय, कुक्कुर यानी कुत्ता, कौआ, देवता व चींटियों के लिए निकाल समर्पित किए जाते हैं। श्राद्धपक्ष में भी इसी पंरपरा के मुताबिक श्वान यानी कुत्ते के लिए भोजन का ग्रास निकाला जाता है।

व्यावहारिक जीवन के नजरिए से सोचें तो कुक्कुर बलि या कुत्ते को ग्रास की इस पंरपरा में गृहस्थ जीवन ही नहीं बल्कि कार्यक्षेत्र में सफलता के बेहतरीन सूत्र छुपे हैं। कुक्कुर यानी श्वान जिसे लोक भाषा में कुत्ता भी पुकारा जाता है, के धार्मिक पहलू पर नजर डालें तो श्वान भी देव प्राणी माना जाता है। अनेक पौराणिक प्रसंग इस बात का प्रमाण है- जैसे पाण्डवों के स्वर्गारोहण के वक्त धर्म स्वरूप में धर्मराज युधिष्ठिर के साथ श्वान का रहना या महायोगी श्री दत्तात्रेय व रुद्रअवतार भैरव का वाहन।

श्राद्धकर्म में कुक्कुर बलि के साथ देव प्राणी के रूप में श्वान के स्वभाव व आदतों से जुड़ी कुछ खूबियों को जीवन में उतारें तो सफल और कलहमुक्त जीवन जीना आसान हो सकता है। इसकी कामना पितरों से भी की जाती है।

असल में, श्वान के स्वभाव की सबसे अहम खूबी कर्तव्यनिष्ठा है यानी वफादारी, जिसमें निष्ठा, समर्पण, विश्वास, सजगता व प्रेम का भाव प्रमुख है। बस, अगर यही एक गुण व भावों को गृहस्थ जीवन में रिश्तों व जिम्मेदारियों से जोड़े तो परिवार में अंतहीन खुशहाली संभव होती है। वहीं कार्यक्षेत्र में भी कार्य व सहयोगियों के साथ तालमेल बनाने में समर्पण, भरोसा, सहयोग व आत्मीयता के भाव के साथ कार्य के प्रति जागरूकता तरक्की और सफलता के सपने साकार करने की राह आसान बना सकती है।

7 सटीक उपाय! जो देते हैं जबर्दस्त सफलता व तरक्की
अक्सर देखा जाता है कि सफलता व तरक्की के लिए कई लोग हाथ-पैर मारते हैं, पर कामयाबी कुछ लोगों को ही नसीब होती है। आखिर ऐसा क्यों होता है? इसकी कई वजहें हो सकती हैं, किंतु मोटे तौर पर कामयाब न होने के पीछे लक्ष्य को लेकर उदासीनता या सोच और काम में सही तालमेल का अभाव भी बड़ी वजह नजर आता है।

यही नहीं, सफलता में निरंतरता भी अहम होती है क्योंकि उसके बिना तरक्की संभव नहीं। किंतु अगर मकसद साफ हो, सही विचार हो और पूरा जोर लगाकर काम करने के बाद भी सफलता और तरक्की दूर रह जाए तो फिर इसके क्या कारण हो सकते हैं?

इस सवाल का जवाब हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में बताए गए सफलता व उन्नति के सटीक सूत्रों में मिलता है। सफलता व तरक्की के ये 7 सूत्र जीवन में उतार साधारण इंसान भी असाधारण बन मनचाही ऊंचाईयों को पा सकता है व नाकामी से भी बच सकता है -

महाभारत में लिखा गया है कि -

उत्थानं संयमो दाक्ष्यमप्रमादो धृति: स्मृति:।

समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं भवस्य तु।।

इस श्लोक में जीवन में कर्म, विचार और व्यवहार से जुड़ी 7 बातें तरक्की का मूल मंत्र मानी गई है। जानिए ये बाते हैं

उद्यम - मेहनत यानी कर्म व परिश्रम की भावना। संयम - मन व विचार पर काबू यानी उतावलेपन से बचना। दक्षता - किसी भी काम या कला में कुशलता यानी महारत हासिल करना। सावधानी - विषय, कार्य और हालात को लेकर जागरुकता या समझ रखना। जानिए बाकी 3 बातें

धैर्य - मनचाहे नतीजे न मिलने या अपेक्षा पूरा न होने पर लक्ष्य से न भटकना। स्मृति - इसकी अलग-अलग अर्थों में अहमियत है। जैसे ज्ञान, स्मरण शक्ति के अलावा दूसरों के उपकारों, सहयोग या प्रेम को न भूलना आदि। सोच-विचार - विवेक का साथ न छोडऩा। सफलता व तरक्की के लिए कोई भी कदम बढ़ाने से पहले सही और गलत की विचार शक्ति अहम होती है, जिसके लिए अधिक से अधिक ज्ञान व अनुभव बंटोरें।

ऐसा लगने के बाद शरीर और प्राण हो जाते हैं अलग!
जीवन में रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द के रूप में इंसान अनेक सुखों व आनंद को भोगता है। हालांकि इस दौरान वह दु:ख, संकट यहां तक कि ऐसे कष्टों को सामना करता या दूसरों के जीवन में देखता है जो मृत्यु के समान कहे जाते हैं। लेकिन स्वाभाविक मृत्यु के समय या यूं कहें कि जब शरीर प्राण छोड़ता है तब कैसा अनुभव होता है, यह व्यक्ति व शरीर विशेष ही जान सकता है। इससे हर इंसान को गुजरता है।

यही वजह है कि शास्त्रों में सुखी जीवन के लिए अहं का त्याग और अहं से दूर होने के लिए मृत्यु को याद रखना एक बेहतर उपाय बताया गया है। खासतौर पर मृत्यु के वक्त होने वाली पीड़ा हर शरीर भोगता है। इसे हिन्दू धर्मग्रंथ गरूड़ पुराण में बताया गया है। जानिए जब तन से प्राण निकलते हैं तो क्या-क्या होता है?

मृत्यु काल का ही रूप है। मृत्यु के वक्त शरीर और प्राण अलग हो जाते हैं और यह नियत समय पर ही आती है। मृत्यु पीड़ा से प्राणी सभी कर्म भूल जाता है। सूर्य, चन्द्र, शिव, पंच तत्व, इन्द्र देवादि, प्रकृति, रज, तम, सत्व गुण सभी काल के वश में होकर प्राणी के जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं, किंतु मृत्यु के समय यह प्रभावहीन हो जाते हैं।

यही कारण है कि मृत्यु का समय करीब आने पर शरीर में कोई रोग पैदा होता है। इन्द्रिया कमजोर या निष्क्रिय हो जाती हैं। शरीर शक्ति व तेजहीन हो जाता है। यहीं नहीं शरीर में अनेक बिच्छुओं के डंक लगने की पीड़ा जैसा अनुभव होता है। मुंह लार से भर जाता है। इसके बाद ही शरीर जड़ और विकृत रूप ले लेता है। काल प्राणों को अपनी ओर खींचता है। जिससे प्राण कण्ठ में आते हैं और अंत में अंगूठे के आकार का माना गया प्राण पुरुष बेचैन होकर अपने निवास को देखता हुआ यमदूतों द्वारा यमलोक ले जाया जाता है।

5 बातें! जिनमे हैं कई परेशानियों से बचने के उपाय
हर इंसान के स्वभाव व व्यवहार में गुण व दोष होते हैं। यही वजह है कि हर रोज उठते-बैठते अक्सर किसी भी तरह से हमारी खामियां दूसरों का जीवन तो कभी दूसरों की कमियां हमारे जीवन पर बुरा असर डालती है। किंतु जो इंसान अपन दोषों को नजरअंदाज कर दूसरों की कमियां ढूंढने की कवायद में लगा रहता है, वह अक्सर कलह, संताप, आरोप-प्रत्यारोप के जाल में जीवन को उलझाकर कुण्ठा या निराशा का शिकार होता है।

ऐसी स्थिति किसी भी इंसान को विवेकहीन बनाती है यानी सही-गलत की समझ से दूर कर सकती है। जीवन को ऐसी नकारात्मकता दशा से बचाने या बाहर आने के लिए धर्मग्रंथों में लिखी सीधी और साफ बातों पर गौर करें तो पल में जीवन की सारी मुश्किलों का हल मिल सकता है।
जानिए  गरुड पुराण में लिखी यह खास बात -

सद्भिरासीत सततं सद्भि: कुर्वीत संगतिम्।

सद्भिर्विवाद मैत्रीं च नासद्भि: किंचिदाचरेत्।।

पण्डितैश्च विनीतैश्च धर्मज्ञै: सत्यवादिभि:।

बन्धनस्थोपि तिष्ठेच्च न तु राज्ये खलै: सह।।

इस श्लोक में व्यावहारिक जीवन को साधने के कुछ बेहतरीन सूत्र प्रकट किए गए हैं, जो हर इंसान के व्यावहारिक भ्रम व संशय को दूर कर देते हैं। जानिए ये सूत्र

लगातार सज्जनों यानी गुणी, ज्ञानी, दक्ष व सरल स्वभाव के इंसानों की संगति में रहें। दोस्ती व विवाद भी करें तो सज्जनों से, क्योंकि उसमें भी ज्ञान की बातों से हल सामने आते हैं। दुर्जन यानी कुटिल, व्यसनी दुर्गणी व बुरे स्वभाव के व्यक्ति के साथ न मित्रता करें न शत्रुता।

पण्डित यानी दक्ष, विनम्र, धर्म में आस्थावान, मन, वचन व कर्म से सच्चे इंसान हो तो उसके साथ बंधन में भी रहना अनुचित नहीं होगा, क्योंकि ऐसा संग यश, लक्ष्मी व सफलता लाता है। वहीं दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति के साथ शाही व आलीशान जीवन भी मिले तो उनको छोड़ देना चाहिए। क्योंकि अंतत वे अपयश, दु:ख या कलह का कारण बनते हैं।

हर काम में सफलता का यह है दमदार सूत्र
सफलता इंसान को ऊर्जावान बनाती है। कामयाबी इंसान को शरीर, मन और विचारों के स्तर पर पूरे विश्वास और उत्साह से भर देती है। तब असंभव बातें भी संभव लगती है। कामयाबी से साधारण व्यक्ति भी असाधारण बनकर दूसरों की नजरों में प्रेरणा बन जाता है। अनेक लोग मात्र धन, सुविधा या अनुकूल हालात को ही ऐसी सफलता का कारण मानते हैं। जबकि धर्मशास्त्रों के मुताबिक कामयाबी के लिए इन बातों के अलावा भी एक गुण अहम है, जो हर इंसान में होना जरूरी है।

असल में जीवन में काम ही इंसान को पहचान और सम्मान देता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी कर्म को ही सुख और सफलता का मंत्र बताया गया है। यह कर्म तभी संभव है जब इंसान में उद्यम यानी मेहनत और परिश्रम का भाव संकल्प की तरह मौजूद रहे। यही वजह है कि शास्त्र लिखते हैं कि - आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महिरिपु:। नास्त्युद्यमसमो बन्धु: कुर्वाणो नावसीदति।। संदेश है कि परिश्रम की भाव ही हर इंसान का सबसे अच्छा मित्र है। जिसके रहते कोई भी व्यक्ति कभी भी नाकामी या पतन का सामना नहीं करता है। जबकि इसके विपरीत आलस्य यानी काम को टालने या बचने की मानसिकता इंसान के लिये दुश्मन बनकर बार-बार नाकामयाबी का मुंह देखने को मजबूर करती है।

शरीर की इन 9 बातों में है भरपूर ताकत और अच्छी सेहत का राज
दु:ख व पाप से भरा जीवन कोई नहीं चाहता। लेकिन चाहकर भी ऐसा संभव नहीं हो पाता। क्योंकि शास्त्रों के मुताबिक जीवन में सुख व दु:ख का सिलसिला मनोभावों में बदलाव लाता है। जिससे इंसान के विचार और कर्म में कभी हित पूर्ति तो कभी अस्तित्व को बचाने के लिये दोष पैदा होते हैं, जो जीवन पर कई तरह से बुरा असर डालते हैं।

ऐसे बुरे नतीजों व पापकर्मों से बचने के लिये ही हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में शरीर से जुड़ी ऐसी 9 बातों की अहमियत बताई गई है, जिन्हें जानकर कोई भी इंसान सेहतमंद व ताकतवर बनने के साथ पाप से दूर जीवन गुजार सकता है। जानिए ये रोचक बातें। लिखा गया है कि -

नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम्।

क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान् यो वेद स पर: कवि:।।

जानिए इस श्लोक के अर्थ में उजागर शरीर की 9 खास बातें, जो अच्छी सेहत व भरपूर ताकत देती हैं। इस श्लोक का अर्थ समझें तो इंसानी शरीर को ही नौ दरवाजे वाला घर बताया गया है। इन नौ दरवाजों में तीन वात, पित्त, कफ प्रकृति, पांच ज्ञानेन्द्रियां यानीं नाक, कान, मुंह, नेत्र, त्वचा व एक आत्मा शामिल है, जो इन पर नियंत्रण व संतुलन पा लेता है, वहीं सबसे बड़ा विद्वान, सबल और बुद्धिमान होता है।

इसमें संकेत साफ है कि वात, पित्त, कफ यानी उचित खान-पान, रहन-सहन के साथ पांचों इंदियों पर संयम और अनुशासन रखें।यानी रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श के प्रभाव में आकर गलत काम न कर आत्मा व शरीर को पावन रखें, जो अच्छी सोच और काम के जरिए ताकतवर व निरोगी बनाकर जीवन को भी लंबा कर देते हैं।

इन 6 बातों को याद रख चलाएं घर तो खूब बचेगा पैसा
धर्मशास्त्रों में वर्ण व्यवस्था बताई गई है यानी काम और कर्तव्यों के आधार पर समाज में चार तरह के मनुष्य होते हैं। यह है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें मोटे तौर पर ब्राह्मण समाज की भलाई के लिए शिक्षा पाने और देने, क्षत्रिय का युद्ध कौशल से रक्षा करने, वैश्य का धन का सही बंदोबस्त करने और शूद्र का तीनों की सेवा करना ही धर्म बताया गया है। वक्त के बदलाव के बावजूद भी इस वर्ण व्यवस्था का असर समाज पर हावी है। कई मौकों पर यह बिखराव और बैर की वजह बन जाती है।

असल में, वर्ण व्यवस्था मनुष्य को एक-दूसरे से बांटने के बजाय मानव के व्यक्तित्व और व्यावहारिक ज़िंदगी को निखारती है। हर व्यक्ति खुद को एक वर्ण का मानकर अन्य तीन वर्णों के धर्म को भूल जाता है। जबकि सच यह है कि सुखी और सफल जिंदगी के लिए हर व्यक्ति को इन चारों वर्णों के धर्म और कर्तव्यों को कहीं न कही अपनाना जरूरी होता है यानी वर्ण व्यवस्था समाज में ही नहीं बल्कि परिवार में भी लागू होती है। यहां बताया जा रहा है कि कैसी स्थिति में किस खास वर्ण के कर्तव्यों का पालन अहम है?

खुशहाल जीवन की बात करें तो उसके लिए सबसे पहले यही विचार आता है कि पैसों की कोई कमी न हो। इसके लिए जरूरी है परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत हो। इस तरह जब धन या अर्थ की बात आती है तो यहां वैश्य धर्म और कर्तव्यों का पालन सुखी परिवार की जरूरत बन जाता है।

किंतु वैश्य धर्म के पालन का संबंध धन के नजरिए से हीं नहीं बल्कि अन्य स्वाभाविक गुणों को व्यवहार में उतारने से है। वर्ण व्यवस्था के मुताबिक बताई गई वैश्य की 6 खास खूबियों को याद रख घर-परिवार को चलाने से खूब धन लाभ होने के साथ हर परिजन खूब फलता-फूलता है। जानिए शास्त्रों में बताई वैश्य की ये 6 खास बातें

वैश्य की खास खूबी होती है - जरूरत के मुताबिक खर्च करना यानी मितव्ययता और धन का सही जगह उपयोग करना।

वैश्य दूसरों को नुकसान पहुंचाए बगैर बुद्धि के सदुपयोग से फायदा पाने की मानसिकता रखता है यानी कारोबारी स्वभाव।

वैश्य के स्वभाव की बात करें तो वह बहुत ही सभ्य, व्यावहारिक और मिलनसार होता है।

वैश्य की बातचीत इतनी मिठास से भरी होती है कि सुनने वाला और देखने वाला मंत्रमुग्ध हो जाए।

वैश्य की यह भी खूबी बताई गई है कि वह सच बोलता है यानी सच्चा होता है। व्यावहारिक जीवन में हम लक्ष्मी की प्रसन्नता चाहते हैं, लेकिन वास्तव में लक्ष्मी तभी खुश होगी, जब आप परिवार के हितों के लिए धन की बचत करने के साथ वैश्य के इन स्वाभाविक गुणों को भी जिंदगी में उतारें। हर गृहस्थ को वैश्य गुणों को भी अपनाना चाहिए। ताकि परिवार की जरूरतों को बिना किसी अभाव के पूरा किया जा सके।


सुबह या दिनभर भी किया यह काम तो नहीं पड़ेगी पाठ-पूजा की जरूरत
हिन्दू धर्म में ब्रह्मदेव को जगत का रचनाकार, भगवान विष्णु को पालनकर्ता और भगवान शिव को संहारकर्ता माना गया है। भगवान की इस ताकत का एहसास व्यावहारिक तौर पर तब होता है जब माता-पिता के साये में ज़िंदगी गुजरती है। माता-पिता भी बह्मा, विष्णु, महेश की तरह ही जन्म देकर पालन-पोषण और अच्छे संस्कारों से ज़िंदगी संवारते हैं।

हर देव उपासना में भी एक श्लोक जरूर बोला जाता है, इस श्लोक के पद में भी भगवान के लिए माता-पिता के समान श्रद्धा और आस्था प्रकट की जाती है। यह पद है -

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव"

इस तरह साफ है कि माता-पिता भी भगवान का ही रूप हैं। धर्म के नजरिए से माता-पिता को तीर्थ समान भी माना गया है। जबकि आज आधुनिकता की दौड़ में उम्रदराज़ होते माता-पिता उपेक्षा के दौर से गुजरते देखे जा रहे हैं, ऐसे में जरूरी है कि जिस तरह हम देव आराधना पूरी आस्था, श्रद्धा और समर्पण के साथ करते हैं, उसी तरह से माता-पिता के लिए भी सेवा और समर्पण भाव रखें तो फिर परेशानियों में देव-देव करने की जरूरत नहीं रहेगी।

धार्मिक मान्यता है कि माता-पिता के लिए सम्मान और सेवा के भाव रखने वाले व्यक्ति पर देवता भी प्रसन्न होते हैं। व्यावहारिक रूप से इसका मतलब है कि माता-पिता की सेवा और आदर ज़िंदगी में अनेक कठिनाईयों और परेशानियों के दौर से बाहर निकालती है। इसलिए काम ही मानकर माता-पिता की सेवा का कोई अवसर न चूकें।

जानिए कुछ ऐसी व्यावहारिक उपाय जो माता-पिता की उपासना का ही रूप है। इसमें देव पूजा की भांति किसी पूजा सामग्री नहीं बल्कि भावों का ही महत्व है
(1) सुबह उठते ही माता-पिता के दर्शन और चरण स्पर्श जरूर करें। (2) कामकाजी युवा पीढ़ी घर से दूर हों तो माता-पिता से बातचीत करना न भूलें। खासतौर पर पर्व-त्योहार के मौकों पर। (3) माता-पिता के मान-सम्मान और भावनाओं को आहत करने वाली बाते कभी न करें। (4) आर्थिक संपन्न्नता और आत्म निर्भर होने पर माता-पिता के लिए उनकी पसंदीदा वस्तुओं, कपड़ों या सुविधाओं को उपलब्ध कराएं। उनकी सेहत का ख्याल रखें। (5) माता-पिता के लिए अटूट विश्वास और प्रेम रखें। (6) धार्मिक और ज्योतिषीय मान्यताओं में भी माता-पिता की प्रसन्नता और आशीर्वाद ग्रह दोष शांति करने वाला बताया गया है। (7) इसी कड़ी में जीवित ही नहीं मृत माता-पिता की आत्मशांति के लिए पितृदोष शांति के उपाय बताए गए हैं। सुख और समृद्धि के लिए उचित जानकारी के बाद शांति के उपाय अवश्य करना चाहिए। माता-पिता की सेवा और प्रसन्नता के इन सरल तरीकों को जीवन में उतारने से ही आप कई परेशानियों से वैसे ही छुटकारा पा सकते हैं, जैसे किसी देव उपासना, ग्रहशांति या धार्मिक उपायों द्वारा।

सावधान! जल्द बुढ़ापा लाती हैं ये 6 बातें
ज़िंदगी में मनचाहा पाना सुख तो खोना दु:ख की वजह बनता है। जहां पाने के लिए कोशिशों की अहमियत है। वहीं खामियां या थोड़ी सी चूक बहुत कुछ खोने या दु:ख की वजह बन जाती है। किंतु अक्सर साधारण इंसान परेशानियों में खुद की कमी ढूंढने के बजाय दूसरों को दोषी ठहराकर विचार व व्यवहार करता है।

हिन्दू धर्म शास्त्रों में इंसान के सोच और बर्ताव को सही और संतुलित करने के लिए अनेक सूत्र उजागर हैं, जिनसे हर व्यक्ति अपने दु:ख के कारण जानकर सुखी ज़िंदगी गुज़ार सकता है।

हिन्दू धर्म शास्त्र महाभारत में स्वभाव से जुड़ी कुछ ऐसी ही 6 बातें बताई गई हैं, जिनकी वजह से कोई व्यक्ति खुशियों के मौके पर भी हमेशा ही दु:खी रहता है, जो उसकी सेहत व उम्र पर बुरा असर डालती हैं। इन स्वाभाविक दोषों को दूर कर हर व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में बेहतर बदलाव ला सकता है। महाभारत में लिखा है  -

ईर्ष्या घृणो न संतुष्ट: क्रोधनो नित्यशङ्कित:।

परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदु:खिता:।।

सरल शब्दों में मतलब है कि स्वभाव में 6 दोष होने पर कोई भी व्यक्ति गम और परेशानियों से घिरे होते हैं। ये 6 बातें जान सावधान रहकर अपने स्वभाव व सोच पर गौर करें-

(1)क्रोधी यानी गुस्सैल व्यक्ति (2)हमेशा शंका करने वाला (3)दूसरे के भाग्य पर जीवन जीने वाला यानी दूसरों पर पर आश्रित या सुखों पर जीवन बिताना (4)ईर्ष्या यानी जलन रखने वाला। (5)घृणा यानी नफरत करने वाला। (6)असंतोषी यानी हर बात में कमी ढूंढने वाला या संतोष न करने वाला।

बोलने में माहिर हैं तो इन 2 उपायों से कर सकते हैं खूब तरक्की
कामयाबी की मंजिल पर दो तरीकों से पहुंचा जा सकता है। पहला - अनुभव और दूसरा ज्ञान। कामयाबी के लिए दोनों ही राह बेहतर हैं। इनमें से पहले रास्ते से हर व्यक्ति को गुजरना ही पड़ता है। किंतु जो व्यक्ति जल्द सफलता की चाहत रखता है, उसके लिए दूसरा रास्ता अपनाना भी अहम हो जाता है। क्योंकि ज्ञान और अनुभव के तालमेल से सपनों को जल्दी पूरा करना आसान हो जाता है। अनुभव किसी व्यक्ति को जानकार और हुनरमंद बनाते हैं तो ज्ञान व्यक्ति को हर तरह की गलतियों से दूर रखने के साथ शरीर, मन, विचार और व्यवहार को भी संयमित रखता है।

धर्म के नजरिए सफलता व तरक्की के लिए वाणी यानी बोल के जरिए अनुभव व ज्ञान का बेहतर उपयोग भी अहम व निर्णायक होता है। इसलिए शास्त्रों में वाणी के संयम व सही उपयोग को सफल जीवन के लिए बड़ा महत्व बताया गया है। कई लोग बोलने में माहिर होते हैं, किंतु वाणी को कला बनाकर कब, कहां और कैसा बोल यश व प्रतिष्ठा पाना है, इसका ज्ञान हर किसी को नहीं होता। जानिए कि 2 ऐसे तरीके जो उजागर करते हैं कि कैसे वाणी से ज्ञान का झरना फूटे यानी कैसे वाणी को बेहद असरदार बनाएं व शब्दों का सही उपयोग कहां और कैसे कर सफलता व तरक्की पाएं
हिन्दू धर्म शास्त्र गीता में इसी उद्देश्य से स्वाध्याय को वाणी का तप बताकर लिखा गया है कि - "स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।" यानी धर्म के नजरिए से ज्ञान पाने या सीखने की बात हो तो स्वाध्याय सबसे बेहतर उपाय माना गया है। स्वाध्याय शब्द के भी दो अर्थ निकलते हैं।

पहला स्वयं का अध्ययन यानी खुद के गुण-दोष को जानकर दूर करना। वहीं दूसरा मतलब है स्वयं ही अध्ययन करना। इसमें स्वयं किताबों, ग्रंथ की शिक्षाओं को पढ़कर या विद्वान और सिद्ध लोगों के अनुभव या सोच को जानकर व्यावहारिक जीवन में अपनाया जाता है। सार यही है कि स्वाध्याय का रास्ता इसीलिए बेहतर है कि इससे व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में आने वाली परेशानियों से बाहर आने का तरीका, सही निर्णय लेने की सीख या विद्वान लोगों के अनुभव पुस्तकों के अध्ययन के जरिए जान लेता है। इनको व्यावहारिक जीवन में अपनाकर बिना किसी भूल के आगे बढ़ा जा सकता है। खासतौर पर यही ज्ञान जब बोल के जरिए बाहर निकलता है तो तमाम सुख, सफलता व तरक्की की राह खोल देता है।

7 उपाय! जो बनाते हैं वैवाहिक ज़िंदगी को सफल
धर्म और प्रेम एक-दूसरे के पर्याय हैं। धार्मिक नजरिए से दोनों ही जनम-मरण के बन्धन से छुटकारा देने वाले हैं यानी मोक्ष की राह पर ले जाते हैं।

इस तरह धर्म और प्रेम दोनों ही बंधन से परे माने गए हैं। दोनों से बाहरी दिखावों के जरिए मुमकिन है किंतु उसकी गहराई जानने के लिए भावना व समर्पण के साथ जुड़े बिना संभव नहीं।

गृहस्थ जीवन भी ऐसा ही धर्म है जिसका पालन प्रेम और समर्पण के बिना मुमकिन नहीं होता। दाम्पत्य की सफलता के लिए जरूरी बातों में पति-पत्नी के बीच प्रेम होना सबसे अहम होता है। इसके अभाव में बाकी सभी सुख-सुविधाएं बेमानी हो जाती हैं। हर धर्म की वैवाहिक रस्में बिना शर्त प्रेम को दाम्पत्य जीवन में उतारने का संकल्प ही होती है। व्यावहारिक नजरिए से भी जानिए कि दाम्पत्य में प्रेम बनाए रखने के लिए कौनसी 7 बातें जरूरी है

(1)आज दौड़भाग भरी ज़िंदगी में कामकाजी पति-पत्नी के लिए सबसे अहम समस्या है एक-दूसरे के लिए समय की कमी। इसलिए जब भी काम से फुर्सत मिले जीवनसाथी और परिवार के साथ वक्त गुजारने का मौका न चूकें। इससे दाम्पत्य में प्रेम की जड़े गहरी होंगी। रामायण में भी उजागर है कि किस तरह वनवास में भी श्रीराम व सीता के बीच विश्वास की डोर नहीं टूटी। जीवन के संघर्षों में भी राम व सीता का स्मरण कर प्रेम को बरकरार रखेगा। (2)दोनों या किसी एक के आत्मनिर्भर या आर्थिक रूप से मजबूत होने पर कई बार विवाद और कटुता का कारण अहंकार बन जाता है। इसलिए पहले मैं की भावना को छोड़कर यथासंभव पैसों के ऊपर परिवार को अहमियत दें। इससे एक-दूसरे के लिए गहरा प्रेम और भरोसा पैदा होगा। क्योंकि पैसा फिर भी कमाया जा सकता है, किंतु परिवार की कमी आपको अंदर से तोड़ कर प्रेम के भाव से दूर ले जा सकती है। (3) हर व्यक्ति में गुण-दोष होते हैं। इसलिए दाम्पत्य में भी एक-दूसरे के दोष और गुणों को स्वीकारें। केवल दोषों को सामने रख बहस और विवाद आपसी प्रेम को घटाता है। (4)शंका या संदेह प्रेम का अंत कर दाम्पत्य के बिखराव का कारण बन सकता है। इसका बचाव और उपचार विश्वास और प्रेम से ही संभव है। (5) प्रेम, धर्म पालन का अहम अंग है। इसलिए दाम्पत्य जीवन में धर्म को भी स्थान दें। धार्मिक यात्राओं और क्रियाओं को पूरी आस्था और श्रद्धा से साथ-साथ करें। श्रीकृष्ण-राधा या सीता राम की तस्वीरें देवालय या कक्ष में उचित स्थान पर लगाकर हर रोज स्मरण करें। (6) एक-दूसरे पर अधिकार और बंधन जताने की बातें कलह और बेचैनी पैदा कर सकता है। इससे बचने के लिए एक-दूसरे पर अटूट विश्वास और स्वाभाविक प्रेम को अहमियत दें। यह दो बातें रिश्तों को प्रेम के बंधन में मजबूती से बांधे रखेगी। (7) एक-दूसरे की किसी भी तरह से प्रशंसा का अवसर न चूकें। जन्मदिन, वैवाहिक सालगिरह या किसी शुभ अवसरों की तारीखों पर एक-दूसरे से संवाद, संपर्क करने के साथ समय भी निकालें। उपहार दें। आधुनिक समय में इन छोटी-छोटी बातों से ज़िंदगी में प्रेम के साथ सुख और सुकून भी सदा बना रहेगा।

कैसे चेहरे वाले पुरुष बनते है धनी या फिर होते हैं किस्मतवाले?
चेहरा व्यक्ति की पहचान होता है किंतु अच्छा या बुरा चेहरा होना उसकी खूबसूरती या बदसूरती से नियत नहीं होता, बल्कि अच्छे या बुरे कर्म भी सुन्दर चेहरे को बदसूरत और बिगड़ी सूरत को खूबसूरत बनाने में निर्णायक होते हैं। यही चेहरा मन के भावों को उजागर भी कर देता है। वहीं कुछ लोग चेहरे के भावों को छुपाने की कला में भी माहिर होते है और अपने स्वार्थ या मंशा को पूरा करने के लिए नकली चेहरे को असली चेहरे के पीछे छुपा लेते हैं।

व्यावहारिक जीवन के नजरिए से यही बात अनेक मौकों पर नुकसान या परेशानी का कारण भी बन जाती है। दूसरी तरफ व्यक्ति के मन में भी खुद का जीवन कैसा होगा, यह जिज्ञासा भी रहती है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में लिखी कुछ रोचक बातें ऐसी ही जिज्ञासा को शांत करने और अनजान पुरुष से व्यवहार करने के सूत्र बताती है। इन बातों में अलग-अलग सूरत वाले पुरुषों के गुण व स्वभाव बताए गए हैं।

हिन्दू धर्म ग्रंथ भविष्यपुराण के मुताबिक जब भगवान शिव ने विवाद के बाद पुत्र कार्तिकेय द्वारा लिखे गए लक्षण शास्त्र को समुद्र में फेंक दिया, तब कार्तिकेय स्वामी के निवेदन पर ब्रह्मदेव ने पुरुषों की मुख से पहचान के लक्षणों को उनको फिर से स्मरण कराया। जानिए पुरुषों की सूरत से जुड़ी ऐसी ही दिलचस्प बातें

चन्द्रमा की रोशनी की तरह चमकदार और शांत चेहरे वाला भला और धर्मात्मा पुरुष होता है।
वानर या बकरे जैसे मुख वाला पुरुष धनवान होता या बनता है।

खूबसूरत और प्रभावशाली हाथी के मुख की तरह भरे चेहरे वाला राजा यानी राजसी स्वभाव का होता है। वहीं सूंड के आकार जैसे चेहरे वाला पुरुष बदकिस्मत होता है।

बदसूरत, टेढ़ा, टूटा और शेर की तरह चेहरा चोर व्यक्ति की पहचान है। वहीं शेर, हाथी, बाघ जैसे गालों वाला पुरुष सभी सुख और संपत्तियों का मालिक व भाग्यशाली होता है।

लंबे, छोटे और कुटील भाव से भरे मुख वाला पुरुष गरीब और पापी होता है। औरत जैसा, चौकोर चेहरे वाला पुरुष पुत्रहीन होता है। जिसके गाल कमल जैसे लाल और चमकदार हो वह धनवान और किसान होता है।

इन 2 बातों से माता-पिता या बड़ों से न होगा मतभेद, न मनभेद
हर माता-पिता अपनी संतान के गुणी, योग्य, आत्मनिर्भर बनने और सुखद भविष्य की कामना करते हैं। उनके लिए हर सुख-सुविधाओं को जुटाने की हरसंभव कोशिश करते हैं। संस्कारित संतान माता-पिता के त्याग और स्नेह का मान रख उम्मीदों पर खरी भी उतरती है। लेकिन आज के दौर में कई मौकों पर माता-पिता व संतान का एक-दूसरे के लिए लगाव होने पर भी महत्वकांक्षाओं या हालात से पैदा हुई गलतफहमी या मतभेद से रिश्तों में दुराव पैदा होते दिखाई देते हैं। इससे माता-पिता के साथ संतान भी अलगाव की घुटन में समय गुजारते हैं।

हिन्दू धर्म में संबंधों के आदर्श और मर्यादाओं का पाठ सिखाने वाला पावन ग्रंथ रामचरितमानस माता-पिता और संतान के रिश्तों में मिठास बनाए रखने और रिश्तों में आई ऐसी ही दरारों को भरने वाले सूत्र उजागर करता है। जानिए ऐसी ही 2 बातें
मानस की चौपाई है - "सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी।। जो पितु मात बचन अनुरागी।।" इस चौपाई का सार यही है कि किस्मतवाला पुत्र वही होता है, जो अपने माता-पिता से मधुर वाणी बोलता है। संदेश यही है कि आज के भौतिक युग में माता-पिता और संतान में पैदा हो रही कटुता को खत्म करने के लिए अहं को दूर कर प्रेम को स्थान दे तो रिश्तों की पावनता और गरिमा को जिंदा रखा जा सकेगा।

अहं को दूर करने के लिए संवाद या बोलचाल बेहतर शुरूआत होती है। लेकिन सबसे जरूरी बात यह हो कि माता-पिता से संवाद में विनम्रता, स्नेह, सम्मान और मिठास हो। यही बातें उनके दिलों को सबसे अधिक सुकून और तसल्ली देगा। जिसके आगे बड़े से बड़ा भौतिक सुख भी कमतर रहेगा। ऐसे रिश्ते व्यक्तिगत रूप से भी मानसिक सुख और बेहतर ज़िंदगी का आनंद देगे।

जानिए श्रीहनुमान की 8 चमत्कारी सिद्धियां व किससे क्या होता है
रुद्र के 11वें अवतार और कई गुणों, सिद्धियों और अपार बल के स्वामी श्रीहनुमान की भक्ति और प्रसन्नता के लिए गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई श्रीहनुमान चालीसा बड़ी ही संकटमोचक व लोकप्रिय स्तुति है। इसी चालीसा की एक चौपाई श्रीहनुमान की आठ चमत्कारी सिद्धियों को उजागर करती है। माना जाता है कि पवित्रता के साथ हनुमान भक्ति से ये सिद्धियां भक्त को भी मिल सकती हैं। चौपाई है -

अष्टसिद्धि नव निधि के दाता।

अस बर दीन जानकी माता।।

अक्सर हर भक्त श्रीहनुमान चालीसा पाठ के दौरान इस चौपाई का आस्था से पाठ तो करता है लेकिन इसमें बताई गई 8 सिद्धियों यानी अष्टसिद्धि के बारे में बहुत कम ही श्रद्धालु जानकारी रखते हैं। इस चौपाई के मुताबिक यह अष्टसिद्धि माता सीता के आशीर्वाद से श्रीहनुमान को मिली और साथ ही उनको इन सिद्धियों को अपने भक्तों को देने की भी शक्ति मिली। सरल शब्दों में जानिए इन 8 सिद्धियों के नाम और इनसे होने वाले चमत्कार

अणिमा - इससे शरीर को बहुत ही छोटा बनाया जा सकता है।

लघिमा - इस सिद्धि से शरीर छोटा होने के साथ हल्का भी बनाया जा सकता है।

महिमा - शरीर को बड़ा कर कठिन और दुष्कर कामों को आसानी से पूरा करने की सिद्धि।

गरिमा - शरीर का वजन बढ़ा लेने की सिद्धि। अध्यात्म के नजरिए से यह अहंकार से दूर रहने की शक्ति भी मानी जाती है।

प्राप्ति - मनोबल व इच्छाशक्ति से मनचाहा पाने की सिद्धि।

प्राकाम्य - कामनाओं को पूरा करने और लक्ष्य पाने की दक्षता।

वशित्व - वश में करने की सिद्धि।

ईशित्व - इष्टसिद्धि और ऐश्वर्य सिद्धि। इन 8 सिद्धियों की वजह से भी श्रीहनुमान संकटमोचक कहलाते हैं। हर हिन्दू धर्मावलंबी विपत्तियों से रक्षा के लिए श्रीहनुमान का स्मरण और उपासना जरूर करता है।


धर्म मार्ग पर चल कर ध्रुव बने तारा
स्वयंभुव मनु और शतरुपा के दो पुत्र थे-प्रियवत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नियां थीं। राजा उत्तानपाद को सुनीति से ध्रुव और सुरुचि से उत्तम नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। यद्पि सुनीति बड़ी रानी थी परन्तु उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था। एक बार सुनीति का पुत्र ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठा खेल रहा था। इतने में सुरुचि वहां आ पहुंची।

ध्रुव को उत्तानपाद की गोद में खेलते देख उसका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। सौतन के पुत्र को अपने पति की गोद में वह बर्दाश्त न कर सकी। उसका मन ईष्र्या से जल उठा। उसने झपट कर बालक ध्रुव को राजा की गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उसकी गोद में बिठा दिया तथा बालक ध्रुव से बोली, अरे मूर्ख! राजा की गोद में वही बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ हो।

तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है। इसलिए तुझे इनकी गोद में या राजसिंहासन पर बैठने का कोई अधिकार नहीं है। पांच वर्ष के ध्रुव को अपनी सौतेली मां के व्यवहार पर क्रोध आया। वह भागते हुए अपनी मां सुनीति के पास आए तथा सारी बात बताई। सुनीति बोली, बेटा! तेरी सौतेली माता सुरुचि से अधिक प्रेम के कारण तुम्हारे पिता हम लोगों से दूर हो गए हैं।

तुम भगवान को अपना सहारा बनाओ। माता के वचन सुनकर ध्रुव को कुछ ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह भगवान की भक्ति करने के लिए पिता के घर को छोड़ कर चल पड़े। मार्ग में उनकी भेंट देवार्षि नारद से हुई।  देवार्षि ने बालक ध्रुव को समझाया, किन्तु ध्रुव नहीं माना। नारद ने उसके दृढ़ संकल्प को देखते हुए ध्रुव को मंत्र की दीक्षा दी। इसके बाद  देवार्षि राजा उत्तानपाद के पास गए।

राजा उत्तानपाद को ध्रुव के चले जाने से बड़ा पछतावा हो रहा था। देवार्षि नारद को वहां पाकर उन्होंने उनका सत्कार किया। देवॢष ने राजा को ढांढस बंधाया कि भगवान उनके रक्षक हैं। भविष्य में वह अपने यश को सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैलाएंगे। उनके प्रभाव से आपकी कीर्ति इस संसार में फैलेगी। नारद जी के इन शब्दों से राजा उत्तानपाद को कुछ तसल्ली हुई।

उधर बालक ध्रुव यमुना के तट पर जा पहुंचे तथा महॢष नारद से मिले मंत्र से भगवान नारायण की तपस्या आरम्भ कर दी। तपस्या करते हुए ध्रुव को अनेक प्रकार की समस्याएं आईं परन्तु वह अपने संकल्प पर अडिग रहे। उनका मनोबल विचलित नहीं हुआ। उनके तप का तेज तीनों लोकों में फैलने लगा। ओम नमो भगवते वासुदेवाय की ध्वनि वैकुंठ में भी गूंज उठी।

तब भगवान नारायण भी योग निद्रा से उठ बैठे। ध्रुव को इस अवस्था में तप करते देख नारायण प्रसन्न हो गए तथा उन्हें दर्शन देने के लिए प्रकट हुए। नारायण बोले, हे राजकुमार! तुम्हारी समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी। तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वह लोक प्रदान कर रहा हूं, जिसके चारों ओर ज्योतिष चक्र घूमता है तथा जिसके आधार पर सब ग्रह नक्षत्र घूमते हैं।

प्रलयकाल में भी जिसका कभी नाश नहीं होता। सप्तऋषि भी नक्षत्रों के साथ जिस की प्रदक्षिणा करते हैं। तुम्हारे नाम पर वह लोक ध्रुव लोक कहलाएगा। इस लोक में छत्तीस सहस्र वर्ष तक तुम पृथ्वी पर शासन करोगे। समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अंत समय में तुम मेरे लोक को प्राप्त करोगे। बालक ध्रुव को ऐसा वरदान देकर नारायण अपने लोक लौट गए। नारायण के वरदान स्वरूप ध्रुव समय पाकर ध्रुव तारा बन गए।

भक्तराज जटायु
प्रजापति कश्यप जी की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए-गरुड़ और अरुण। अरुण जी सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आए किंतु सम्पाती उड़ते ही गए। सूर्य के सन्निकट पहुंचने पर सूर्य के प्रखर ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वह समुद्र तट पर गिर कर चेतना शून्य हो गए।

चंद्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीता जी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया। जटायु पचंवटी में आकर रहने लगे। एक दिन आखेट के समय महाराज दशरथ से इनका परिचय हुआ और यह महाराज के अभिन्न मित्र बन गए। वनवास के समय जब भगवान श्री राम पचंवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्रीराम अपने पिता के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे।

भगवान श्रीराम अपनी पत्नी सीता जी के कहने पर कपट-मृग मारीच को मारने के लिए गए और लक्ष्मण भी सीता जी के कटुवाक्य से प्रभावित होकर श्री राम को खोजने के लिए निकल पड़े। आश्रम को सूना देख कर रावण ने सीता जी का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठा कर आकाश मार्ग से लंका की ओर ले चला। सीता जी के करुण विलाप को सुन कर जटायु ने रावण को ललकारा और उसके केश पकड़ कर उसे भूमि पर पटक दिया।

गृधराज जटायु का रावण से भयंकर संग्राम हुआ और अंत में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीता जी को लेकर लंका की ओर चला गया। भगवान श्री राम सीता जी को खोजते हुए जटायु के पास आए। जटायु मरणासन्न थे। श्रीराम के चरणों का ध्यान करते हुए उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे थे। इन्होंने श्रीराम से कहा, राघव! रावण ने मेरी यह दशा की है। वह दुष्ट सीता जी को लेकर दक्षिण दिशा की ओर गया है।

मैंने तुम्हारे दर्शनों के लिए ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अंतिम विदा दो। भगवान श्रीराम के नेत्र भर आए। उन्होंने जटायु से कहा,तात! मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूं, आप अभी संसार में रहें। जटायु बोले,श्रीराम! मृत्यु के समय तुम्हारा नाम मुख से निकल जाने पर अधम प्राणी भी मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात तुम स्वयं मेरे पास हो। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं।’’ भगवान श्रीराम ने जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया।

उन्होंने पक्षीराज के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ किया। जटायु ने उनके मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपना शरीर छोड़ दिया। इन्होंने परोपकार के बल पर भगवान का सायुज्य प्राप्त किया और भगवान ने इनकी अन्त्येष्टि क्रिया को अपने हाथों से सम्पन्न किया। पक्षीराज जटायु के सौभाग्य की महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता है।

जानिए ज़िंदगी के किन लक्ष्यों को पाने के लिए पढ़ें कौन सा वेद?
दुनिया के इतिहास में वेद सबसे पुराने धर्मग्रंथ माने जाते हैं। ज्ञान रूपी वेद चार प्रकार के बताए गए हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। यह धर्म, अध्यात्म, प्राणी-प्रकृति को जोडऩे वाले अद्भुत ज्ञान से भरे है। आम जन के लिए यह देव उपासना के मंत्रों के पुरातन ग्रंथ मात्र है, किंतु बहुत कम लोग यह जानते हैं कि चारों वेदों के मंत्र, स्तुति आदि मानव जिंदगी के लिए कुछ खास मकसद को पूरा करने के ज्ञान उजागर करते हैं।

हर वेद की मानवीय जिंदगी के लिए भी खास अहमियत है। यहां जानिए कौन-सा वेद मानवीय ज़िंदगी के नजरिए से किन लक्ष्यों के पूरा करने का ज्ञान देता है।

ऋग्वेद - आत्मशांति, धर्म भाव, कर्तव्य पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार, उदारता, सेवा भाव के लिए ऋग्वेद अहम है।

यजुर्वेद - बहादुरी, पराक्रम, पुरुषार्थ, साहस, वीरता, पद, प्रतिष्ठा, विजय, आक्रमण और रक्षा की दृष्टि से यजुर्वेद महत्वपूर्ण है।

सामवेद- मनोरंजन, संगीत, साहित्य, इन्द्रिय सुख या इसका चिन्तन, शौक, संतोष, सक्रियता, कल्पना के लिए सामवेद का महत्व है।

अथर्ववेद - अन्न, धन, वैभव, सभी भौतिक सुख यानि घर, वाहन आदि सुखों के लिए अथर्ववेद अहम माना गया है।

इस तरह अध्यात्म हो या विज्ञान हर नजरिए से हर मानव के जीवन में इच्छाएं, जरूरतें या लक्ष्य आदि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को पाने में ही सीमित है। चार वेद इन पुरुषार्थों को पाने के लिए ज्ञान की अलग-अलग धारा है। इसलिए इनको पाने के लिए ही ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम का महत्व बताया गया। ज्ञान रूपी इन चार शक्तियों की माता गायत्री को माना गया और चार वेद उनके पुत्र माने जाते हैं।

1 गायत्री मंत्र बोलने से ये 24 देवशक्तियां बाल भी नहीं होने देती बांका
धर्मग्रंथों में इष्टसिद्धि से शक्ति, कामयाबी और कई इच्छाएं पूरी करने का महत्व बताया गया है। इष्टसिद्धि को सरल शब्दों में समझें तो मतलब है कि जब व्यक्ति जिस देव शक्ति के लिए श्रद्धा और आस्था मन में बना लेता है, तब उसी के मुताबिक उस देवता से जुड़ी सभी शक्तियां, प्रभाव और चीजें संबंधित को मिलने लगती है। साथ ही वह देव उपासना का वास्तविक लाभ पाता है। इष्टसिद्धि की कड़ी में मां गायत्री का ध्यान भी सभी के लिए बहुत शुभ व असरदार माना गया है।

खासतौर पर शास्त्रों में गायत्री साधना में गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों से 24 देव शक्तियों को पाने का भी फल बताया गया है। असल में, गायत्री मंत्र के हर अक्षर का एक देवता है यानी हर अक्षर देव शक्ति बीज है। इस तरह गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में 24 देव शक्तियों का आवाहन हो जाता है। इष्टसिद्धि के नजरिए से मात्र एक मंत्र से ही 24 देवताओं का इष्ट और उनसे जुड़ी शक्ति पाना साधक को सिद्ध बना देती है। ऐसी इष्टसिद्धि से ज़िंदगी में किसी भी तरह की भय, परेशानी, बाधा या संकटों का सामना नहीं करना पड़ता। साथ ही मनचाही सिद्धी भी पा लेता है।

जानिए इस महामंत्र के 24 अक्षरों को बोलने से कौन से 24 देवी-देवताओं बाल भी बांका नहीं होने देते -

- श्रीगणेश

- नृसिंह

- विष्णु

- शिव

- कृष्ण

- राधा

- लक्ष्मी

- अग्रि

- इन्द्र

- सरस्वती

- दुर्गा

- हनुमान

- पृथ्वी

- सूर्य

- राम

- सीता

- चन्द्रमा

- यम

- ब्रह्मा

- वरुण

- नारायण

- हयग्रीव

- हंस

- तुलसी

धार्मिक नजरिए से देव शक्तियां जाग्रत होती है। इसलिए इष्टरूप में गायत्री और गायत्री मंत्र के स्मरण से ही इन 24 देवताओं के अधीन शक्तियां और पदार्थ भी उपासक को मिलते हैं। इससे वह कई सांसारिक और भौतिक सुख व शक्तियों को पाने में सक्षम हो जाता है।


ये 2 बातें सफलता पाना और बरकरार रखना बनाती है आसान
कामयाबी की राह ही कठिन नहीं होती, बल्कि उससे भी मुश्किल होती है सफलता के शिखर पर बने रहना। बिरले लोग ही ऐसा करने में माहिर होते हैं। हर सफल इंसान की ज़िंदगी में ऐसा वक्त आता है, जब वह कामयाबी की ऊंचाई से नीचे की ओर आने लगता है।

यह समय बहुत ज्यादा कठिन तब बन जाता है, जब कामयाबी की दौड़ में शामिल उसके प्रतिद्वंदी या बाधा बने विरोधी इस मौके का किसी भी तरह से फायदा उठाना नहीं छोड़ना चाहते। खासतौर पर महत्वाकांक्षा और जोश से भरी युवा पीढ़ी ऐसे मौके पर कभी-कभी संयम खोकर अपना ही नुकसान कर लेती है।

अगर आप भी सफलता के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहें या शिखर पर पहुंचकर विरोधियों के गलत हथकंड़ों का सामना कर रहें है, तो ऐसे वक्त खुद को कैसे संभाले? इसके लिए जानिए धर्म के नजरिए से कुछ व्यावहारिक सूत्र -

सफलता के लिए संघर्ष के वक्त या सफलता की मंजिल पर पहुंचने पर संयम और मौन दो ऐसे सूत्र है, जो हर विपरीत हालात को अनुकूल बना देंगे। धर्म के नजरिए से मौन यानी बोलने की शक्ति का सदुपयोग बहुत अहम है। खासतौर पर युवाओं को वाणी पर संयम बेहद फायदेमंद साबित होता है।

विपरीत हालात में कम बोलना और अधिक सुनने पर ध्यान दें। जहां एक शब्द से काम बने वहां दस शब्दों का उपयोग न करें। क्योंकि इससे आप व्यर्थ की बातों और विवादों में उलझ सकते हैं। आपकी शक्ति, ऊर्जा और समय बेकार हो जाता है और आप लक्ष्य पर केन्द्रित नहीं रह पाते।

यही नहीं. आलोचनाओं में से नकारात्मक बातों को दिमाग में रख अशांत होने के बजाय खामोश रहकर उन बातों में से ही अपनी गलतियों और दोषों को पहचान सुधार करें। मौन ध्यान और योग की भांति ही शांति और सुकून देता है। इससे आप अपनी विचार शक्ति का पूरा उपयोग काम को अच्छा करने और बेहतर नतीजों के लिए कर सकते हैं।

इसी तरह दूसरा सूत्र है- संयम। मौन की तरह ही संयम भी व्यक्ति को संतुलित और एकाग्रता बनाए रखने में अहम योगदान देता है। संयमहीन व्यक्ति न स्वयं तरक्की कर पाता है, न ही दूसरों के लिए उपयोगी होता है। शास्त्रों में संयम के श्रेष्ठ आदर्श भीष्म पितामह भी माने जाते हैं। उनकी ब्रह्मयर्च व्रत की प्रतिज्ञा और संयमित जीवन ने ही उनको यश, कीर्ति देकर शिखर पुरूष बना दिया।

सरल शब्दों में बातें कम, काम ज्यादा का सूत्र ही आपको किसी भी विपरीत हालात से निकालकर कामयाबी के शिखर पर ले जाएगा।


मां, बहन या भाई को धोखा देने वाला अगले जन्म में क्या बनता है?
बीमारियों से तन की कमजोरी या अपवित्रता से लेकर अज्ञानता, बुरे बोल और बर्ताव से मिलने वाले बुरे नतीजे, भारी दु:ख व अभाव भी शास्त्रों में बताए मृत्यु के बाद बुरे कामों से मिलने वाली सजा भुगतने का जीते-जी एहसास ही हैं।

दरअसल, धर्मशास्त्र जीवन को साधने की ही सीख देते हैं। इसी कड़ी में हिन्दू धर्मग्रंथ गरुड़ पुराण में भी व्यावहारिक जीवन में बुरे कर्मों की सजा प्रेत योनि मिलना भी बताया गया है। इसके पीछे छिपा मकसद यही है कि हर प्राणी सदाचार, संस्कार, मर्यादा व सद्कर्मों से जुड़कर रहे तो सुख-सम्मान भरा जीवन संभव है, अन्यथा उसकी भूत-प्रेत की तरह दुर्गति होना तय है।

बहरहाल, जानिए गरुड़ पुराण के मुताबिक व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक जीवन के दौरान किए गए वे गलत काम, जिनका दण्ड मृत्यु उपरांत प्रेत योनि के रूप में मिलता है। इनमें मां, भाई व बहन के अलावा दूसरे रिश्तों के साथ गलत आचरण करने वाला भी शामिल है। लिखा गया है कि -

मातरं भगिनीं ये च विष्णुस्मरणवर्जिता:।

अदृष्दोषां त्यजति स प्रेतो जायते ध्रुवम्।

भ्रातृधुग्ब्रह्महा गोघ्र: सुरापो गुरुतल्पग:।

हेमक्षौमहरस्ताक्ष्र्य स वै प्रेतत्वमाप्रुयात्।।

न्यासापहर्ता मित्रधु्रक् परदारतस्तथा।

विश्वासघाती क्रूरस्तु स प्रेतो जायते ध्रुवम्।।

कुलमार्गांश्चसंत्यज्य परधर्मतस्तथा।

विद्यावृत्तविहीनश्च स प्रेतो जायते ध्रुवम्।।

जानिए इन बातों में उजागर दैनिक जीवन किए ऐसे बुरे काम, जिनसे कोई व्यक्ति मरने पर प्रेत योनि में जाता है

(1)बेकसूर मां, बहन, पत्नी, बहू और कन्या को छोड़ देना। (2) भाई के साथ दगाबाजी, गाय को मारने वाला, नशा करने वाला, गुरुपत्नी के लिए दुर्भाव रखने वाला, किसी भी मनुष्य या ब्राह्मण को मृत्यु के समान दु:ख देने वाला व चोर। (3) घर में रखी अमानत को हरने वाला, मित्र के साथ धोखा करने वाला, परायी स्त्री से संबंध रखने वाला, विश्वासघाती व दुष्ट। (4)वह अज्ञानी व दुराचरण करने वाला, जो कुटुंब या परिवार की अच्छी परंपराओं व धर्म की राह छोड़े।

जानिए क्या है वह खास बात, जिससे खूब बरसती है लक्ष्मी कृपा
व्यावहारिक तौर पर ज़िंदगी के अहम और तय लक्ष्यों को पाने के लिए जरूरी है ठोस योजना। योजना को सफल बनाने के लिए ताकत व जरियों को लेकर संदेह को दूर करने के साथ कमियों को पूरा करना भी अहम है ताकि सारे मकसद और अरमान जल्द व सही वक्त पर पूरे कर सकें। हिन्दू धर्मशास्त्रों में लक्ष्यों को पूरा करने में आने वाली कमियों को दूर करने में धन भी बेहद जरूरी माना गया है। इसलिए यह जीवन के बताए 4 पुरुषार्थों में भी एक है।

धार्मिक नजरिए से धन को मां लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। इसलिए हर इंसान सुख-संपन्न होने और दु:ख-दरिद्रता से परे रहने के लिए लक्ष्मी कृपा चाहता है। किंतु अक्सर देखा जाता है कि लक्ष्मी की प्रसन्नता की तमाम कोशिशों के बावजूद मनचाहे नतीजे नहीं मिलते। शास्त्रों के नजरिए से इसके पीछे कर्म और व्यवहार के वे दोष भी जिम्मेदार होते हैं, जो सुख बटोरने की जल्दबाजी में लक्ष्मी कृपा के लिए जरूरी मन और विचारों को साफ व मजबूत रखने वाली कुछ बातों को भुला देने से पैदा होते हैं।

शास्त्रों के मुताबिक चार अहम बातों को हमेशा ध्यान रखने पर हमेशा लक्ष्मी का संग पाते हुए जीवन को यशस्वी और सफल बनाया जा सकता है। जानिए ये चार बातें

लक्ष्मी का साथ पाने के लिए यह पहली बात ध्यान रखें कि यश और कीर्ति हमेशा पवित्र भाव, त्याग व नम्रता का संग करती है। यही वजह है कि कई बार बुरा व्यक्ति भी विन्रमता व सज्जनता का दिखावा कर नाम तो कमा लेता है किंतु उसकी बुरी भावना, नियत या बुरे काम उसकी असफलता व अपयश की वजह बनते हैं।

दूसरी बात विद्वान, विद्यावान या दक्ष बनने में निर्णायक होता है - अभ्यास। तमाम जानकारी या ज्ञान अभ्यास के बिना बेमानी और बेकार हो जाता है।

तीसरी बात अपने ज्ञान को कर्म में उतारना बुद्धि को धार देने वाला साबित होता है। इसलिए लक्ष्मी कृपा के लिए जरूरी है कि कर्म और ज्ञान का यथासंभव गठजोड़ बेहतर बनाएं।

सबसे अहम बात कि सच्चाई को अपनाने वाले के साथ मां लक्ष्मी का साया बना रहता है। यानी मां लक्ष्मी हमेशा सत्य के साथ रहती है। क्योंकि सच से ही पवित्रता का भाव जुड़ा है। यही वजह है कि सच्चाई और स्वच्छता शरीर व सोच के साथ पैसा कमाने में भी कायम रखी जाए।


मंदिर में जूते पहनकर जाने या पूजा के वक्त गुस्सा करने से क्या होता है?
हिन्दू धर्म मान्यताओं में बुरे काम पाप तो अच्छे काम पुण्य बढ़ाने वाले माने गए हैं। यही अच्छाई-बुराई जीते-जी ही सुख-दु:ख को नियत करने वाली ही नहीं बल्कि माना जाता है कि इनके मुताबिक ही मरने के बाद जीव आत्मा को स्वर्ग या नरक मिलता है। इस तरह स्वर्ग सुख और नरक दु:ख का पर्याय भी हैं।

इस तरह गौर करें तो सुख और दु:ख के पीछे बोल, कर्म और व्यवहार के गुण-दोष होते हैं। यही वजह है कि दु:ख व दरिद्रता से घिरा जीवन नारकीय और सुख-समृद्ध जीवन स्वर्ग सा सुख देने वाला भी माना जाता है। हर इंसान ऐसे वैभव की इच्छा रखता है, किंतु शास्त्रों के मुताबिक कलियुग में हावी कलह राग-द्वेष पैदा कर ही देता है। इससे व्यक्ति सुखों की चाहत में भी जाने-अनजाने गलत काम कर नरक की ओर कदम बढ़ाता है यानी दु:ख के बीज बोता है। इनसे बचने के लिए कर्म, वचन और व्यवहार से जुड़ी कुछ बातों के प्रति सावधान होना जरूरी बताया गया है।

इसके लिए हिन्दू धर्मग्रंथों में इंसान के ऐसे अनेक दोष भी बताएं गए हैं, जो नरकगामी कहे गए हैं। ऐसे बुरा व्यवहार करने वाले व्यक्तियों के अलग-अलग नाम भी बताए गए है। जानिए, कैसे होते हैं ये 5 लोग?

विषम - जो सामने मीठे बोल बोले और पीछे कटु वचन, जिनकी कथनी और करनी में फर्क हो।

पिशुन - कपट, झूठ, छल, शक्ति या प्रेम का दिखावा कर ठगने वाला।

अधम - जो गुरु से ऊंचे स्थान पर बैठे, देवता के सामने जूता और छतरी लेकर जाए। आधुनिक संदर्भ में बड़ों का सम्मान न करने वाला या धर्म से दूर व उसकी निंदा करने वाला।

पशु - व्यावहारिक नजरिए से केवल सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने की चाहत रख हर काम करने वाला। देव सेवा व शास्त्रों के ज्ञान से दूर। एक धार्मिक मान्यता के मुताबिक प्रयाग में रहते हुए भी स्नान न करने वाला।

कृपण - जो क्रोध कर देव पूजा व दान करे। यही नहीं धार्मिक व पितृ कर्मो में अन्न-धन से संपन्न होने पर भी निम्र स्तर का भोजन कराने वाला। कहा गया है कि ऐसे स्वभाव व दोष वाले व्यक्तियों को न तो स्वर्ग मिलता है न ही मोक्ष। इसलिए ऐसे दोष और व्यक्तियों से बचकर पवित्र भावों से जीवन गुजारने पर ही सुखों के रूप में जीते-जी स्वर्ग का आनंद पाया जा सकता है।


स्त्री याद रखे ये 4 नसीहतें तो कभी न आएगी साख पर आंच!
शक्तिस्वरूपा के रूप में वरदायिनी हो या प्रकृति से मिला जननी होने का वरदान, सनातन धर्म में स्त्री को हर तरह से पूजनीय बताया गया है। ये बेजोड़ गुण व शक्तियां ही स्त्री को संसार व गृहस्थी की भी धुरी बनाते हैं। शास्त्रों में संसार के सृजन चक्र व शक्ति को बनाए रखने के लिए ही इसके सम्मान के साथ सुरक्षा का कर्तव्य पुरुष के लिए भी नियत किया गया हैं। किंतु शास्त्रों में ही धर्म और व्यावहारिक नजरिए से ही खुद स्त्री के लिए भी अपने स्वाभिमान, शील व प्रतिष्ठा को बचाने के लिए कुछ अहम बातों का याद रखने के सबक भी उजागर हैं।

इसी कड़ी में गरूड पुराण के मुताबिक आचरण व व्यवहार में नीचे लिखी चार बातों से दूर रहकर स्त्री का सम्मान व शील सुरक्षित रह सकता साथ ही उसकी साख भी बढ़ती है। जानिए ये 4 अहम बातें -

दुष्ट या दुर्जन का संग - किसी भी तरह या इच्छा से अगर स्त्री गलत व्यक्ति का साथ देती या सहयोग लेती है तो ऐसा करना उसके लिए बड़े अपयश व निंदा का कारण बनता है। इसलिए किसी भी स्वार्थ या इच्छा के वशीभूत ऐसा करने से दूर रहे।

बहुत ज्यादा विरह या सम्मान - किसी बात पर बहुत ज्यादा संताप, शोक या दु:ख पालना किसी भी तरह से न स्वयं न परिजनों का हित करने वाला होता है। इसी तरह भावनाओं में बहकर किसी का अत्यधिक सम्मान न केवल स्वयं को भावनात्मक रूप से कमजोर करता है बल्कि मन व व्यवहार में दोष पैदा कर सकता है, जो स्त्री की साख गिराने वाले साबित हो सकते हैं।

दूसरों के लिए स्नेह - परिजनों या निकट संबंधियों की किसी वजह विशेष या क्षणिक फायदे के लिए उपेक्षा या अपमान कर दूसरों के पर ज्यादा भरोसा या स्नेह जताना, अपनों के विरोध, द्वेष या असहयोग से बड़े दु:खों की वजह बन सकता है।

दूसरों के घर में रहना - कामना, स्वार्थ या राग के वशीभूत व मर्यादाओं के विपरीत ऐसा काम तो निश्चित रूप से स्त्री की छवि बिगाडऩे वाला व चरित्र को लेकर सवाल खड़े करने वाला साबित होता है।

नवरात्रि 16 से, इस बार सिर्फ 8 दिन होगी माता की आराधना
हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवमी तिथि तक नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। इसे शारदीय नवरात्रि कहते हैं।  बंगाल में यह त्योहार बड़े ही विशाल स्तर पर मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 16 अक्टूबर, मंगलवार से 23 अक्टूबर, मंगलवार तक मनाया जाएगा। पंचमी व षष्ठी तिथि एक ही दिन होने से इस बार यह पर्व 8 दिनों का होगा।

नवरात्रि में प्रमुख माता मंदिरों में दर्शन करने वालों का तांता लगा रहता है वहीं मंदिरों पर विशेष साज-सज्जा भी की जाती है। नवरात्रि देवी पूजा का एक गहरा आध्यात्मिक दर्शन है। समूचे देवी दर्शन को हम देवी के विभिन्न रूपों, उनकी उपासना पद्धतियों और उनके तीर्थों के माध्यम से ही समझ सकते हैं।

इन 5 वजहों से नहीं आती अच्छी नींद? करें ये 5 खास उपाय
नींद, शयन या सोना शरीर के लिए उतना ही जरूरी है, जितना भोजन या पानी। खुशहाल जीवन गुजारने के लिए जरूरी यही होता है कि शरीर की इस क्रिया को कुदरत से तालमेल बैठाकर चला जाए। किंतु आज के दौर के आपाधापी भरे जीवन से बोल, बर्ताव व काम में आए दोष और असंतूलित जीवनशैली शयन क्रिया में खलल की बड़ी वजह बन रहे हैं। इससे मन दु:ख का और शरीर रोग का घर बन जाता है।

हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में भी जीवन और व्यवहार से जुड़ी ऐसी ही 5 रोचक वजह उजागर की गई है, जिससे इंसान सो नहीं पाता। अगर आप भी चैन की नींद सोना चाहते हैं तो इन 5 कारणों के साथ इनसे निपटने के 5 उपाय भी जानें। महाभारत में लिखा गया है कि -

अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम्।

हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागरा:।।

सरल शब्दों में इस श्लोक का अर्थ समझें तो इन पांच वजहों से इंसान रात में भी जागने का रोगी बन जाता है -

- अभावग्रस्त खासतौर पर धन से वंचित इंसान चिंताओं से जागता रहता है। जीवन में हर तरह से संतोष और मेहनत का भाव उतारकर इस समस्या से निजात पाना आसान हो जाता है।

- जीवन जीने के अहम सुख-सुविधा व साधन छिन जाने पर भी व्यक्ति सो नहीं पाता। इसके लिए जरूरी है कि इंसान धैर्यवान और आशावादी बनें।

- काम भावना यानी काम वासना से पीडि़त व्यक्ति। इससे बचने के लिए जीवन में संयम रखकर सोने से पहले अच्छे विचार व देव स्मरण करें।

- चोरी करने वाला। चोरी का दूसरे शब्दों में अर्थ  आलस्य यानी कर्महीनता भी है। कामचोरी भी सुकूनभरी नींद छिनने वाली होती है। इसके लिये आलसीपन, अकर्मण्यता और लालच से बचें।

- खुद से ज्यादा ताकतवर और मजबूत व्यक्ति से विवाद, मतभेद या टकराव की उधेड़बुन में भी मन-मस्तिष्क रातों में भी अशांत व बेचैन रहता है। इसके निपटने के लिए प्रेम, विश्वास और सहयोग का रास्ता बेहतर है।

घर की इन 5 जगहों पर अनजाने होने वाले पाप श्राद्ध से हो जाते हैं दूर!
आज दौड़ती-भागती दुनिया में यह भी देखा जाता है कि सफलता के घोड़े पर सवार कई लोग अपने पूर्वजों और मृत परिजनों की अपनी सफलता में योगदान को भूल जाता है। किंतु जब वह परेशानियों और कष्टों से घिर जाता है, तब अपने दु:ख की वजह को तलाशता हुआ जब धर्म के रास्ते पर आता है, तो उसे बताया जाता है पितरों की नाराजगी से उसे कष्ट मिल रहे हैं। इस स्थिति में संभवत: श्रद्धा कम किंतु अपने सुख की कामना से अधिक उसे पितरों की याद आती है और वह पितृशांति के लिए श्राद्धकर्म करता है। इसका मतलब हुआ सुख की वजह 'मैं' और दु:ख का कारण पितृ। जबकि धार्मिक मान्यताएं और आस्था इसके उलट पहलू उजागर करती है।

दरअसल, धार्मिक मान्यता है कि श्राद्धकाल में श्राद्ध से पितरों को बल मिलता है, जिससे वह भी परिजनों को परेशानियों से बचाते हैं। किंतु जब परिजन ऐसा नहीं करते तो वह भी कमजोर होकर आपकी मदद नहीं कर पाते। यह वैसा ही जैसे आप व्यावहारिक जीवन में सुख की घड़ी में अपने ही निकट संबंधियों या रिश्तदारों को भूल जाएं और दु:ख की घड़ी में उनसे उम्मीद रखें कि वह आपका साथ दें। यह स्वार्थ और मतलब की भावना ही वास्तव में दु:ख कारण है।

धार्मिक नजरिए से पितरों के श्राद्ध से जुड़ी भावना सुख, प्रतिष्ठा और गौरव को बढ़ाने के साथ परिवार को विश्वास, प्रेम, संस्कार और परंपरा से जोड़कर रखती है। यहीं नहीं शास्त्रों के मुताबिक घर में अनजाने होने वाले पांच पापों को दूर करने में श्राद्ध परंपरा बहुत ही मंगलकारी मानी गई है। जानिए कौन-से और कैसे होते हैं ये पाप और कैसे श्राद्ध में पितरों की कृपा से होते हैं दूर -

शास्त्रों की मानें तो हर घर में हिंसा के ऐसे पांच स्थान होते हैं। जहां न चाहकर भी हर रोज जीवों की हिंसा हो जाती है। ये 5 स्थान हैं -

- चूल्हा यानी रसोई बनाने का साधन या स्थान।

- चक्की यानी अनाज पीसने आटा बनाने का यंत्र।

- झाडू यानी सफाई का साधन व जहां-जहां सफाई की जाए

- ओखली यानी अन्न या अन्य खाद्य सामग्री कूटने का पात्र या स्थान

- पानी का घड़ा यानी जल पात्र या जल रखने या भरने का स्थान

इन स्थानों पर अन्न, जल या भूमि में रहने वाले छोटे-छोटे, सूक्ष्म जीवों की हिंसा दोष दूर करने के लिए पञ्च महायज्ञों का महत्व बताया गया है। खासतौर पर द्विज यानी जनेऊधारी या ब्राह्मण को ये काम नहीं भूलना चाहिए। श्राद्धपक्ष में श्राद्ध के साथ ये पंच महायज्ञ हो जाते हैं। ये 5 महायज्ञ हैं- ब्रह्मयज्ञ - इसे ऋषियज्ञ भी पुकारा जाता है। वेदों के अलावा पुराण, उपनिषद, महाभारत, गीता या अध्यात्म विद्याओं के पाठ से भी यह यज्ञ पूरा हो जाता है। यह न हो तो मात्र गायत्री साधना भी ब्रह्मयज्ञ संपूर्ण कर देती है।

देवयज्ञ - देवी-देवताओं की प्रसन्नता के लिए हवन करना देवयज्ञ कहलाता है।

भूतयज्ञ -  कीट-पतंगों, पशु-पक्षी, कृमि या धाता-विधाता स्वरूप भूतादि देवताओं के लिए अन्य या भोजन अर्पित करना भूतयज्ञ कहलाता है।

पितृयज्ञ - मृत पितरों की संतुष्टि व तृप्ति के लिये अन्न-जल समर्पित करना पितृयज्ञ कहलाता है। इससे पितरों की असीम कृपा से सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। अमावस्या, श्राद्धपक्ष आदि इसके लिये विशेष दिन है।

मनुष्य यज्ञ - घर के दरवाजे पर आए अतिथि को अन्न, वस्त्र, धन से तृप्त करना या दिव्य पुरुषो के लिए अन्न दान आदि मनुष्य यज्ञ कहलाता है।

इनमें पितृयज्ञ व भूतयज्ञ के अलावा मनुष्य यज्ञ, देवयज्ञ व ब्रह्मयज्ञ श्राद्धपक्ष में बड़े ही घर में हुए अनचाहे-अनजाने पाप और दोष का नाश करते हैं।

हर रोज इन फायदे की बातों को भूलने से उठाना पड़ता है नुकसान!
जीवन में दु:खों की कई वजहों में एक है - अपेक्षा। इसी तरह इच्छाओं का भी कोई अंत नहीं। यहां तक कि मृत्यु के पहले या बाद भी इंसान की अंतिम इच्छा के बारे में विचार किया जाता है। इन बातों का मतलब यह नहीं है कि अपेक्षा या इच्छाओं को परेशानी का कारण मानकर कर्तव्यों या जिम्मेदारियों से मुंह मोड लें बल्कि यही सबक है कि ज्यादा अपेक्षा न रखते हुए नि:स्वार्थ भाव से काम और दायित्वों को पूरा करें।

यह सब जानते हुए भी कई लोग उम्मीदों और इच्छाओं पर काबू न होने से जीवन को उलझन बना लेते हैं। इससे वे अपने साथ ही दूसरों का जीवन भी अशांत कर देते हैं। इस अशांति से बचने के लिए ही हिन्दू धर्मशास्त्र गीता, वेद, उपनिषद आदि में जियो और जीने दो का संदेश देते हैं। इनमें से ही एक इस छोटी सी बात में ढेरों खुशियों के खजाने की चाबी मानी गई है। इसके मुताबिक भगवान से चाहते हुए लिखा गया है कि -  

"सर्वे भवन्तु सुखिन:"

इस सूत्र में सभी के सुखी होने और दु:ख से बचने की कामना की गई है। व्यावहारिक जीवन के लिए शास्त्रों में बताए ऐसे ही उपदेशों का ही सरल शब्दों में निचोड़ बताया जा रहा है कि इंसान अपना काम, सोच और व्यवहार कैसा रखे? जिससे उसकी इच्छाएं और अपेक्षा दायरे में रहे और वह भी दूसरों की उम्मीदों पर खरा उतर सके -

- किसी को किसी भी रूप में दु:ख न दें बल्कि सुख देने की कोशिश करें।

- सभी के साथ प्रेम रखें यानी बोल, व्यवहार और स्वभाव में प्रेम को स्थान दे।

- हमेशा मेहनत को ही सफलता का सूत्र बनाए और आलस्य से दूर रहें।

- लाभ के लिये मर्यादा और मूल्यों को कभी न भूलें।

- ऐसे कामों से बचें जो अपमान का कारण बने या चरित्र पर दाग लगे।

- बुरे समय या हालात में गहरे दु:ख या शोक में न डूबें। सुख-दु:ख में समान रहने का अभ्यास           करें।

- बच्चों की तरह साफ मन और स्वभाव रखें, जो पल में ही कटुता भूल जाए।

- हिम्मत और साहस रखें।

- हमेशा ईश्वर पर आस्था और विश्वास रखें।

- मृत्यु को न भूलें और संसार को अस्थायी ठिकाना मानें। इससे अहंकार नहीं आएगा।


जब ब्राह्मणों में राजा दशरथ को देखा सीता ने
इन दिनों श्राद्ध पक्ष चल रहा है। श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें भोजन कराने की परंपरा है। ऐसी मान्यता है कि ब्राह्मणों द्वारा किया हुआ भोजन हमारे पितरों को प्राप्त होता है। ऐसी ही एक कथा का वर्णन हमारे पद्म पुराण में भी मिलता है उसके अनुसार-

जब भगवान राम वनवास भोग रहे थे तब श्राद्ध पक्ष में उन्होंने अपने पिता महाराज दशरथ का श्राद्ध किया। सीताजी ने अपने हाथों से सब सामग्री तैयार की परंतु जब निमंत्रित ब्राह्मण भोजन के लिए आए तो सीताजी उनको देखकर कुटिया में चली गईं। भोजन के बाद जब ब्राह्मण चले गए तो श्रीराम ने इसका कारण पूछा। तब सीताजी ने कहा कि-

पिता तव मया दृष्यो ब्राह्मणंगेषु राघव।

दृष्टवा त्रपान्विता चाहमपक्रान्ता तवान्तिकात्।।

याहं राज्ञा पुरा दृष्टा सर्वालंकारभूषिता।

सा स्वेदमलदिग्धांगी कथं पश्यामि भूमिपम्।।

(पद्म पुराण सृष्टि 33/74/110)

अर्थात- हे राघव। मैंने निमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में आपके पिताजी का दर्शन किया इसलिए लज्जित होकर मैं आपके निकट से दूर चली गई। मेरे श्वसुर ने पहले मुझे सब आभूषणों और अलंकारों से सुसज्जित देखा था अब वे मुझे इस अवस्था में कैसे देख पाते।

चतुर्दशी श्राद्ध: हत्या, आत्महत्या, एक्सीडेंट से मृत परिजनों का करें तर्पण
हिन्दू पंचांग के आश्विन माह के कृष्णपक्ष यानी श्राद्धपक्ष की चतुर्दशी तिथि पर पितरों की प्रसन्नता के लिए चतुर्दशी का श्राद्ध (इस बार 14 अक्टूबर, रविवार) किया जाएगा। इस तिथि पर अकाल मृत्यु को प्राप्त पितरों का श्राद्ध करने का विशेष महत्व है।

अकाल मृत्यु से अर्थ है जिसकी मृत्यु हत्या, आत्महत्या, दुर्घटना आदि कारणों से हुई है इसलिए इस श्राद्ध को शस्त्राघात मृतका श्राद्ध भी कहते हैं। जिन पितरों की मृत्यु ऊपर लिखे गए कारणों से हुई हो तथा मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को करने से वे प्रसन्न होते हैं व अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं।

इस बार चतुर्दशी तिथि के साथ उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का योग बन रहा है। चतुर्दशी तिथि पर उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में श्राद्ध करने से सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। चतुर्दशी श्राद्ध रविवार के दिन होने से इस दिन सूर्यदेव का पूजन करना भी श्रेष्ठ रहेगा।
सर्वपितृमोक्ष अमावस्या , करें ज्ञात-अज्ञात पितरों का श्राद्ध

हिन्दू पंचांग के आश्विन माह की अमावस्या को सर्वपितृमोक्ष अमावस्या कहते हैं। यह पितृ पक्ष का अंतिम दिवस होता है। इस बार यह अमावस्या 15 अक्टूबर, सोमवार को है। इस तिथि को अज्ञात तिथि श्राद्ध भी कहते हैं।

धर्म शास्त्रों के अनुसार जिन पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो उनका श्राद्ध इस दिन करने से उन्हें तृप्ति मिलती है तथा वे अपने वंशजों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। धर्म शास्त्रों में यह भी लिखा है कि यदि श्राद्ध पक्ष के सोलह दिनों में आप किसी कारणवश श्राद्ध नहीं कर पाएं तो सिर्फ इस दिन विधि-विधान पूर्वक श्राद्ध करने से सभी पितरों की आत्मा को सुख मिलता है और वे अति प्रसन्न होकर श्राद्धकर्ता के मंगल की कामना करते हैं। सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या के दिन इस बार हस्त नक्षत्र का योग बन रहा है। यह योग पितरों को प्रसन्न करने वाला तथा श्राद्धकर्ता की हर मनोकामना पूरी करने वाला होता है।

या देवी सर्वभूतेषु...
शारदीय नवरात्र में दुर्गा सप्तशती के व्रत, पाठ और हवन द्वारा धन, बल, विद्या और बुद्धि की अधिष्ठाता देवी महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती की आराधना की जाती है। सप्तशती का पाठ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करता है। शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा मंगलवार, दिनांक 16 अक्तूबर से प्रारम्भ होंगे। दुर्गा सप्तशती के बारहवें अध्याय में शारदीय नवरात्र के महत्व को बताते हुए कहा है कि: शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वित:।। सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।

अर्थात शारदीय नवरात्र में जो वार्षिक महापूजा की जाती है, उस अवसर पर जो मेरे इस माहात्म्य को भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त और धन-धान्य से सम्पन्न होगा। इन दिनों नवदुर्गा के रूप में देवी की नौ शक्तियों की पूजा की प्रधानता रहती है। ये नौ शक्तियां शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री के नाम से विख्यात हैं। नवरात्र में देवी के निमित्त व्रत, पूजा, पाठ, हवन, बटुक कुमारिका पूजन आदि का विधान देवी भागवत में बताया गया है।

श्री मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गा सप्तशती में श्लोक, अर्ध श्लोक, उवाच आदि मिलाकर कुल 700 मंत्र होने के कारण इसे सप्तशती कहा गया है। पूजन विधि नवरात्र में सर्वप्रथम आराधक पूजन कक्ष को लेपन, गौमूत्र आदि से पवित्र करें। पूजा करते समय आराधक का देवी की प्रतिमा (चित्र) के सामने या पूर्वाभिमुख बैठना ज्यादा उत्तम होता है। कलश को ईशान कोण (देवी की प्रतिमा के दाहिनी ओर) स्थापित करें और घी का दीपक भी देवी के दाहिनी ओर ही जलाएं। तांत्रिकों के लिए देवी की प्रतिमा के बाईं ओर तेल का दीपक जलाने का विधान है। सर्वप्रथम विघ्नविनाशक गणपति की आराधना व वैदिक मंत्रों के  साथ गणेश की पूजा करनी चाहिए। गणपति पूजन में फल, पुष्प नैवेद्य आदि अर्पित करें। गणपति पूजन के बाद कलश पूजन का विधान है।

कलश पूजन भूमि स्पर्श करते समय ' '' मूरसि भूमि रस्यदितिरसि' मंत्र का उच्चारण करते हुए वेदी बनाएं और घट स्थापना करें। वेदी निर्माण के लिए काम में ली जाने वाली मिट्टी किसी पवित्र नदी, पीपल, बड़, आंवले के पेड़ के निकट या किसी देवालय या शिवालय या पवित्र स्थान से ली जानी चाहिए। मृत्तिका की वेदी में जौ या गेहूं '' न्यमसि धिनुहि देवान्प्राणायत्वो दानायत्वयानायत्वा' मंत्र पढ़कर मिलानी चाहिए। उसके बाद कलश-मंत्र, बोल कर कलश स्थापित करें। वरुण भगवान का ध्यान कर कलश में गंगाजल या किसी शिवालय, देवालय का पवित्र जल डालें। जल डालने के बाद चंदन, सर्वोषधि, कुश (डाब) सुपारी, पंच पल्लव डालकर कलश के गले में मौली-सूत्र बांधना चाहिए। ढक्कन पर चावल व उस पर नारियल रखना चाहिए।

नारियल पर स्वस्तिक बनाकर मौली से बांध देना चाहिए। उसके बाद कलश में वरुण भगवान का पूजन करना चाहिए और स्वस्थ व शतायु जीवन की कामना करनी चाहिए। धर्मग्रंथों में तो यहां तक कहा गया है कि देवी का पूजन कलश में करना और भी पुण्यकारी व फलदायी है। प्रधान कलश देवी के सम्मुख भी पृथक से स्थापित कर सकते हैं। मनवांछित फल के लिए करें षोडश मातृका पूजन लकड़ी के पट्टे या किसी ऊंचे स्थान पर सवा मीटर लाल वस्त्र पर 16 प्रकार की गेहूं की सम गोलीय आकृति बनाकर पूजा करना श्रेष्ठ माना गया है। कहते हैं इस पूजन से मनवांछित फल की प्राप्ति होती है।

नवग्रह पूजन लकड़ी पर या देवी के सम्मुख सवा मीटर सफेद कपड़े पर चावल की सम प्रकार नौ गोल आकृतियां बनाकर क्रमश: पूजन पद्धति के अनुसार नौ ग्रहों की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद वास्तु पुरुष, सप्तर्षि, 64 योगिनियों आदि की भी पूजा की जा सकती है। कुमारी पूजन नवरात्र में कुमारी पूजन सर्वोत्तम माना गया है। देवी पुराण में लिखा है कि भगवती होम, दान और जप आदि से इतनी संतुष्ट नहीं होती, जितनी कुमारी पूजन से होती हैं। दुर्गा पूजन के बाद कुमारी पूजन उत्तम माना गया है। देवी पुराण में ब्रह्माजी ने इंद्र की शंकाओं के समाधान में कुमारी पूजन की विधि बतलाई है।

कुमारियों के पांव धोकर स्वच्छ भूमि पर आसन बिछाकर उन्हें बिठा दें और गंध पुष्प माला आदि से पूजन कर उन्हें भोजन कराएं। विशेष रूप से भोजन में श्रीखंड मोदक, दही, खीर का प्रयोग करें। स्कन्द पुराण के अनुसार नवरात्र में या तो प्रतिदिन एक-एक कन्या का पूजन करें या दोगुनी या तिगुनी कन्याओं को भोजन कराएं। नौ दिन में सामान्य रूप से 18 या 27 कन्याओं को भोजन करवा पूजन किया जा सकता है। मंत्रजाप और सिद्धियां मंत्रजाप में मणकों का बड़ा महत्व है। कहते हैं कि 25 मणकों की माला से जाप करने से मोक्ष मार्ग, 27 मणकों की माला से जाप करने से सर्वासिद्धि की पूर्ति, 30 मणकों की माला से जाप करने से धनप्राप्ति के योग, 54 मणकों की माला से जाप करने से सर्व आकांक्षापूर्ति और 108 मणकों की माला से जाप करने से सिद्धियां मिलने लगती हैं।

माता को प्रतिदिन का भोग प्रथम दिन घी का, दूसरे दिन शक्कर का, तीसरे दिन दूध, चौथे दिन मालपुआ, पांचवें दिन केला, छठे दिन शहद, सातवें दिन गुड़, आठवें दिन नारियल, नौंवे दिन काले तिल का भोग लगाने से माता प्रसन्न होती है। नवरात्र से ग्रह दोष शांति नौ दिनों तक देवी की आराधना, पूजा और व्रत करके न सिर्फ शक्ति संचय किया जाता है, वरन् नवग्रहों से जनित दोषों का शमन भी इस अवधि में सुगमता से किया जा सकता है। जन्म कुंडली में यदि सूर्य ग्रह कमजोर हो तो स्वास्थ्य लाभ के लिए शैल पुत्री की उपासना से लाभ मिलता है। चंद्रमा के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए कूष्मांडा देवी की आराधना करें।

दुर्गा पाठ में रखें सावधानी सप्तशती की पुस्तक को हाथ में लेकर पाठ करना वर्जित है। अत: पुस्तक को किसी आधार पर रख कर ही पाठ करना चाहिए। मानसिक पाठ नहीं करें वरन् पाठ मध्यम स्वर से स्पष्ट उच्चारण सहित बोलकर करना चाहिए। अध्यायों के अंत में आने वाले 'इति', 'अध्याय:' और 'वध' शब्दों का प्रयोग वर्जित है।

उदाहरण देखें- 'इति श्री मार्कंडेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमहात्मये मधुकैटभ वधो नाम प्रथमोकध्याय:।।' के स्थान पर श्री मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमहात्मये '' तत्सत् सत्या: सन्तु मम कामा: अथवा यजमानस्य कामा:' जैसा अवसर हो अध्याय के अंत में बोलना चाहिए। दुर्गा पाठ को देवी के नवार्ण मंत्र 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे' से संपुटित करें अर्थात पाठ के ठीक पहले और तुरंत बाद इस मंत्र के 108 बार जप करें। नौ अक्षरों के इस नवार्ण मंत्र के जाप में अन्य मंत्रों की तरह '' नहीं लगता है। अत: इसे प्रणव '' रहित ही जपना चाहिए परन्तु करन्यास, सदयादिन्यास आदि करते समय '' लगेगा।

किस दिन कौन सी देवी की करते हैं पूजा, जानिए
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तिथि तक नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 16 से 23 अक्टूबर तक है। धर्म शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि वास्तविक अर्थों में प्रकृति का उत्सव है। इन नौ दिनों में मां के विभिन्न स्वरूप हमें प्रकृति दर्शन के कई रहस्यों से अवगत कराते हैं। साथ ही यह रूप हमें अपने जीवन के लिए भी विभिन्न संदेश भी देते हैं। जानिए नवरात्रि में किस दिन कौन सी देवी की पूजा की जाती है-

नवरात्रि की पहली शक्ति हैं शैलपुत्री। हिमाचल के यहां जन्म लेने के कारण देवी का यह नाम पड़ा। यह देवी प्रकृति स्वरूपा हैं। स्त्रियों के लिए उनकी पूजा करना ही श्रेष्ठ और मंगलकारी है।

देवी भगवती का दूसरा चरित्र ब्रह्मांचारिणी का है। ब्रह्म को अपने अंतस में धारण करने वाली देवी भगवती ब्रह्मां को संचालित करती हैं। ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे का महामंत्र ब्रह्मांचारिणी देवी ने ही प्रदान किया है।

देवी की तीसरी शक्ति चंद्रघंटा देवी हैं। असुरों के साथ युद्ध में देवी ने घंटे की टंकार से असुरों को चित्त कर दिया। यह नाद की देवी हैं। स्वर विज्ञान की देवी हैं।

देवी का चौथा स्वरूप कूष्मांडा देवी हैं। संसार में जितनी भी प्रकार की अभिलाषा है वह देवी कूष्मांडा की पूजा करने मात्र से प्राप्त हो जाती है। इन देवी को ही तृष्णा और तृप्ति का कारण माना गया है।

देवी भगवती का पांचवा स्वरूप स्कंदमाता का है। स्कंदकुमार को पुत्र के रूप में पैदा करने और तारकासुर का अंत करने में कारक सिद्ध होने के कारण वह जगतमाता कहलाईं।

देवी का छठा स्वरूप कात्यायनी का है। कात्यायन गोत्र में जन्म लेने के कारण ही उनका यह नाम पड़ा। कात्यायन ऋषि ने कामना की कि देवी भगवती उनके यहां पुत्री बन कर आएं। देवी ने इसको स्वीकारा और उनके यहां पुत्री बन कर आईं।

देवी का सातवां स्वरूप मां काली का है। संसार जिन-जिन चीजों से दूर भागता है, देवी को वह प्रिय हैं। श्मशान, नरमुंड, भस्म आदि आदि। काली देवी की आराधना से सारे मनोरथ पूर्ण होते हैं।

आठवां स्वरूप महागौरी है। यह नारी शक्ति का मुख्य भाव है। गृहलक्ष्मी का भाव। अर्थात पत्नी के बिना संसार को सभी सुखों को भोगना संभव नही है।

नौंवी सिद्धिदात्री देवी कहती हैं- हे जीव, मेरे बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता। मैं चारों ओर हूं। मेरे से ही जगत है। मेरे से ही ब्रह्मांड है। यह देवी का विराट स्वरूप है जिसमें यह पृथ्वी, आकाश आदि सबकुछ समाहित है।

10 दिलचस्प सवाल! जो देते हैं मुश्किलों से पार पाने की जबर्दस्त ताकत
आज का समय रफ्तार और भाग-दौड़ से भरा है। शास्त्रों में युगों पहले लिखी बातों का भी सार यही है कि कलियुग में कामनाएं हावी होंगी। अक्सर नजर आता है कि जरूरत, उम्मीदें, महत्वाकांक्षा व स्वार्थ कई तरह से मन-मस्तिष्क पर सवार होती हैं। इन को पूरा करने के लिए ही तन व मन चलते रहते हैं। जहां इच्छाओं का पूरा होना सुखी व शांत रखता है, तो अभाव कई दोषों को पैदा करता है।

बहरहाल, आज के जीने के तरीकों पर गौर करें तो अधूरी इच्छाओं से पैदा कुंठा या कलह ही इंसान पर हावी दिखाई देता है। इससे निराशा और असफलता में डूबा इंसान खुद को सबसे बदनसीब या दु:खी भी मानने लगता है। ऐसी मनोदशा से बचना या बाहर निकलने के लिए शास्त्रों में कुछ ऐसे सवाल बताए गए हैं, जिनको पढ़कर कोई भी इंसान व्यावहारिक जीवन को समझने और जीने के तरीके में हो रही चूक को जान सकता है और सफलता के मकसद से भटकने से खुद को रोक भी सकता है। जानिए 10 ऐसे ही सवाल और सीखें क्या हो जिंदगी को लेकर नजरिया?

लिखा गया है कि -

कस्य दोष: कुले नास्ति व्याधिना को न पीडित:।

केन न व्यसनं प्राप्तं श्रिय: कस्य निरन्तरा:।।

कोर्थं प्राप्य न गर्वितो भुवि नर: कस्यापदो नागता:

स्त्रीभि: कस्य न खण्डितं भुवि मन: को नाम राज्ञां प्रिय:।

क: कालस्य न गोचरान्तरगत: कोर्थी गतो गौरवं

को वा दुर्जनवागुरानिपतित: क्षेमेण यात: पुमान्।।

इन श्लोको में बताए सवाल व्यर्थ तनाव व दबावों से बाहर निकाल जीने और आगे बढ़ने का जबर्दस्त हौसला देते हैं -

- किसका कुल दोषरहित है?

- कौन रोगमुक्त है?

- किसका धन-संपदा स्थायी है?

- कौन धनवान बनने पर अहं से बचा रहता है?

- किस पर संकट नहीं आए?

- स्त्रियां किसके मन को विचलित करने या कलह का कारण नहीं बनी?

- राजाओं या सत्ता का कौन प्यारा रहा?

- कौन काल से बचा रहता है?

- किसका स्वाभिमान नष्ट नहीं हुआ?

- कौन दुर्जन के अधीन रहकर आसानी से और दक्षतापूर्वक आजीविका कमा सकता है?

शादी के बाद स्त्री के लिए बेहद जरूरी हैं ये 3 बातें
शास्त्रों में जिस तरह शिव-शक्ति को एक-दूसरे के बिना अधूरा माना गया है, ठीक उसी तरह गृहस्थ जीवन में भी स्त्री शक्ति का पुरुष के पुरुषार्थ के साथ बेहतर तालमेल गृहस्थ जीवन को सुखी और शांत रखने के लिए बेहद जरूरी माना गया है।

इसी कड़ी में गरुड़ पुराण में बताए गए स्त्री धर्म का सकारात्मक पक्ष समझें तो यहां बताए जा रहे गृहस्थ जीवन के सूत्रों को अपनाना आधुनिक दौर में भी हर स्त्री के लिये सार्थक साबित हो सकता है। जानिए इस धर्मग्रंथ में लिखे स्त्री धर्म के निचोड़ से निकले शादीशुदा स्त्री के लिए जरूरी तीन खास सूत्र-

आज्ञा पालन -  स्त्री को अपने पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए यानी हर स्त्री जीवनसाथी की बातों की अनदेखी न करे बल्कि किसी बात या विषय से सहमत न होने पर अपने विचार रखकर आपसी तालमेल से गृहस्थी से जुड़े फैसले ले।

पति की विरोधी न बने - अतिमहत्वाकांक्षा, अभाव, सोच न मिलने या हालात के चलते पैदा मतभेद या तनाव में संयम खोकर पति का विरोध करने के बजाए विवेक का उपयोग कर निस्वार्थ भाव से गृहस्थी को बनाए रखने के लिए पति के साथ खड़ी रहे। शास्त्र कहते हैं कि जब पति-पत्नी में आपसी कटुता या मतभेद न हो तो गृहस्थी धर्म, अर्थ व काम से सुख-समृद्ध हो जाती है।

साफ-सुथरा चरित्र - पति के जीते-जी या मृत्यु के बाद पराए पुरुष का संग या पनाह न लें। इस बात में संकेत चरित्र की पावनता का है। चूंकि विश्वास और प्रेम गृहस्थी का मूल है, जो पति के साथ रहते और उसके बाद कुटुंब की खुशहाली के लिए भी अहम है। शास्त्रों के मुताबिक ऐसी स्त्री का जीवन न केवल यशस्वी होता है, बल्कि शक्ति और प्रेरणा बन जाती है।

हर वक्त, हर जगह ये 5 तरीके देते हैं यश व सफलता
यश और सफलता किसी भी उम्र के इंसान के काम, सोच और व्यवहार में सकारात्मक बदलाव लाती है। हिन्दू धर्मग्रंथों में सफल और यशस्वी जीवन के लिए ही इंसान की उम्र को चार भागों में बांट कर चार आश्रम धर्म बताए गए हैं। उम्र की एक अवस्था व कर्म इन आश्रम धर्मों को निभाने के लिये नियत है, जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम के रूप में जाने जाते हैं।

शास्त्रों में अलग-अलग उम्र और कर्म से संबंध होने पर भी पांच बातें ऐसी बताई गई जो हर आश्रम का सामान्य धर्म मानी गई है। आधुनिक जीवन के नजरिए से उम्र के हर पड़ाव पर ये खास बातें यश व सफलता सुनिश्चित कर देती हैं। जानिए ये 5 बातें -

अहिंसा सूनृता वाणी सत्यशौचे क्षमा दया।

वर्णिनां लिंगिनां चैव सामान्यो धर्म उच्यते।।

इस श्लोक में सीख यही है कि हर अवस्था में सुखी रहने के लिए नीचे लिखी पांच बातें अपनाना जरूरी है -

अहिंसा - बोल, सोच और काम में हिंसा को किसी भी तरह से स्थान न देना।

मीठी और सत्य वाणी - मीठा, अच्छा और सच बोलना

पवित्रता - तन, मन, विचार, व्यवहार व आचरण से शुद्ध होना।

क्षमा - गलत व्यवहार, अपमान या नुकसान से बदले का भाव व द्वेष न आने देना यानी माफ कर देना।

दया - सभी के लिए संवेदना व भावनाओं को मन-मस्तिष्क, व्यवहार व स्वभाव में स्थान देना।

इस अद्भुत शक्ति के सामने अस्त्र-शस्त्र भी हो जाते हैं बेकार!
ज़िंदगी में वक्त का उतार-चढ़ाव शरीर या धन की ताकत को कमजोर या असरदार बना सकता है। यह भी सच है कि शरीर और धन की ताकत बाहरी तौर पर दूसरों को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाती है। किंतु अगर शास्त्रों की बात पर गौर करें तो तन और धन की ताकत के पीछे भी एक ओर छुपी शक्ति होती है।

इस ताकत की ही अहमियत महाभारत में उजागर की गई है। इसके मुताबिक इंसान की यह शक्ति तो उसे हर स्थिति में निर्भय और सफल बना देती है। जानिए कौन सी है अद्भुत शक्ति। लिखा गया है कि -

कान्तारे वनदुर्गेषु कृच्छ्राखापत्सु सम्भ्रमे।

उद्यतेषु च शस्त्रेषु नास्ति सत्ववतां भयम्।।

इस श्लोक का सरल शब्दों में मतलब है कि जो व्यक्ति सत्वगुणी यानी सच्चा व मजबूत मनोबल वाला होता वह गहरे संकट, घबराहट, कठिन रास्तों, घने जंगलों या फिर शस्त्रों व हथियारों के आक्रमण के वक्त भी भयभीत नहीं होता।

यहां सच्चाई व मानसिक शक्ति यानी मनोबल को श्रेष्ठ बताकर व्यावहारिक जीवन की कठिनाईयों पर जीत का मंत्र बताया गया है। कहा भी गया है कि - मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। ये पंक्तियां स्वयं मन की शक्ति की अहमियत उजागर करती है। मन की ताकत सामाओं से परे मानी गई है।

यही वजह है कि व्यावहारिक जीवन में मजबूत मनोबल रोग या अभावों से छुटकारा देता है। यह निडर, सफल व्यक्तित्व का स्वामी भी बना सकती है। किंतु टूटा मनोबल बलवान या धनवान व्यक्ति का भी पतन कर देता है।

आधुनिक संदर्भों में विचार करें तो संकेत यही है कि मन को संयम, व्यवहार को सत्य और पवित्रता से जोड़कर रखें तो इंसान को हर हालात में निर्भय व निश्चिंत रहता है।

जानिए दुर्गासप्तशती के चमत्कारी होने की 4 खास वजहें
जगतजननी दुर्गा आद्यशक्ति पुकारी जाती हैं। शास्त्रों के मुताबिक आद्यशक्ति जगत के मंगल के लिए कई रूपों में प्रकट हुईं। देवी शक्ति के मुख्य रूप से तीन रूप जगत प्रसिद्ध है - महादुर्गा, महालक्ष्मी और महासरस्वती। वहीं नवदुर्गा, दश महाविद्या के रूप में भी देवी के अद्भुत और चमत्कारिक स्वरूप पूजनीय है।

देवी उपासना सांसारिक जीवन के सभी दु:ख व कष्टों का नाश कर अपार सुख देने वाली मानी गई है। इन सभी रूपों की उपासना शक्ति साधना के रूप में भी प्रसिद्ध है। इसके लिए अनेक धार्मिक विधान, देवी मंत्र, स्त्रोत व स्तुतियों का बहुत महत्व बताया गया है।

इसी कड़ी में नवरात्रि में दुर्गासप्तशती का पाठ के जरिए जगतजननी के कई शक्तिस्वरूपों की भक्ति बहुत मंगलकारी और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करने वाली मानी गई है। यही वजह है कि दुर्गासप्तशती और उसका हर मंत्र चमत्कारिक भी माना जाता है। इसके अलावा जानिए वे 4 खास वजहें भी, जिनसे दुर्गासप्तशती पाठ का चमत्कारी और मंगलमय प्रभाव होता है-

दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण का अंग है, जो वेदव्यास द्वारा रचित पवित्र पुराणों में एक है। श्रीव्यास भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं।

मार्कण्डेय पुराण में दुर्गासप्तशती के रूप में मार्कण्डेय मुनि द्वारा संपूर्ण जगत की रचना व मनुओं के बारे में बताते हुए जगतजननी देवी भगवती की शक्तियों की स्तुति की गई है।

इसमें देवी की शक्ति व महिमा उजागर करते सात सौ मंत्रों के शामिल होने से यह सप्तशती नाम से पुकारी जाती है। इसमें देवी की 360 शक्ति स्वरूपों की स्तुति है।

दुर्गासप्तशती के मंगलकारी होने के पीछे धार्मिक दर्शन है कि जगतपालक विष्णु द्वारा स्वयं भगवान वेद व्यास के रूप में अवतरित होकर शक्ति रहस्य उजागर किया गया है। दूसरा इसमें शामिल पद्य संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। संस्कृत देववाणी कहलाती है। देव कृपा व प्रसन्नता के लिए ही तपोबली महान मुनि और ऋषियों द्वारा इस भाषा का उपयोग कर देव साधनाओं के लिए दुर्गासप्तशती के साथ अन्य देव स्तुतियों और स्त्रोतों की रचना की गई।

इसलिए ऋषि-मुनियों की ये स्तुतियां देववाणी के साथ तप के प्रभाव से संकटनाश व अनिष्ट से रक्षा के लिए बहुत असरदार मानी गई है। यही कारण है कि श्री वेदव्यास रचित मार्कण्डेय पुराण व उसमें शामिल दुर्गासप्तशती भी देव शक्तियों और तप के शुभ प्रभाव से भक्त के लिये मंगलकारी तो होती ही है, साथ ही यह हर कामनासिद्धी का अचूक उपाय भी माना गया है।

हर मर्ज दूर करे यह अचूक देवी मंत्र
नवरात्रि के विशेष काल में देवी उपासना के जरिए खान-पान, रहन-सहन और देव स्मरण में अपनाने गए संयम और अनुशासन तन व मन को शक्ति और ऊर्जा देते हैं। इससे इंसान निरोगी होकर लंबी आयु और सुख पाता है। यही वजह है कि व्यावहारिक उपाय के साथ धार्मिक उपायों को जोड़कर शास्त्रों में देवी उपासना के कुछ विशेष मंत्रों का स्मरण सामान्य ही नहीं गंभीर रोगों की पीड़ा को दूर करने वाला माना गया है। इन रोगनाशक मंत्रों का नवरात्रि के विशेष काल में ध्यान अच्छी सेहत के लिये बहुत ही असरदार माना गया है। जानिए ऐसा ही एक रोगनाशक विशेष देवी मंत्र -

ऊँ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।

- धार्मिक मान्यता है कि नवरात्रि के अलावा हर रोज भी इस मंत्र का यथसंभव 108 बार जप तन, मन व स्थान की पवित्रता के साथ करने से संक्रामक रोग सहित सभी गंभीर बीमारियों का भी अंत होता है। घर-परिवार रोगमुक्त होता है। इस मंत्र जप के पहले देवी की पूजा पारंपरिक पूजा सामग्रियों से जरूर करें। इनमें गंध, फूल, वस्त्र, फल, नैवेद्य शामिल हो। इतना भी न कर पाएं तो धूप व दीप जलाकर भी इस मंत्र का ध्यान कर आरती करना भी बहुत शुभ माना गया है।

देने का आनंद पाने के आनंद से अधिक...
ईसा मसीह सेवा, परोपकार और दान को सर्वोपरि धर्म बताया करते थे। एक बार उन्होंने अपने शिष्यों और अनुयायियों को ज्ञान बांटते हुए कहा, ‘‘ यदि किसी के पास देने की क्षमता हो, तो उसे अभावग्रस्तों की सेवा सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहना  चाहिए।

यदि कोई अभावग्रस्त पड़ोसी तुमसे कुछ मांगने की नीयत से आए, तो उससे कभी यह न कहना कि जा कल फिर आना। मैं तुझे कल दूंगा। यथा संभव, उसे तत्काल दे देना चाहिए। ईसा मसीह ने अपने अमृत वचनों में कहा, दूसरे को तुच्छ समझने वाले को प्रभु तुच्छ समझता है। जो मनुष्य विनम्र और दीन है, उस पर ईश्वर स्वत: ही अनुग्रह करता है, कृपा करता है। अहंकार में स्वयं को बड़ा मानने वाला व्यक्ति अपने तमाम पुण्य क्षीण करके अपमान का भागी बनता है।

अत: सबसे पहले मनुष्य को विनम्र और निर्भिमानी बनना चाहिए। ईसा ने आगे कहा कि परमेश्वर से दान, सम्पत्ति न मांग कर बुद्धि मांगनी चाहिए। वह धन्य है, जो बुद्धि मांगता है। बुद्धि की प्राप्ति चांदी की प्राप्ति से अधिक महत्वपूर्ण है। उसका शुद्ध लाभ सोने के लाभ से भी उत्तम है, मूंगे से भी अधिक मूल्यवान है। बुद्धि और विवेक ऐसा अनूठा धन है, जिसकी तुलना किसी सांसारिक पदार्थ से नहीं की जा सकती। बुद्धिहीन और अज्ञानी को अपने जीवन में संकटों का सामना करना पड़ता है।

बुद्धि ही, मानव को पतन से बचाती है। कर्म हो या दान, कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। दूसरों की सेवा करना व असहायों को सहारा देना, मानवीय दृष्टि से बहुत बड़ा काम है। आपके द्वारा की गई सेवा से यदि किसी को सुख मिलता है, आराम और शांति मिलती है, तो वह ईश्वर की पूजा व आराधना है, क्योंकि जिस जीव को आपकी सेवा से राहत और सुख की प्राप्ति होती है, वह जीव परमपिता परमात्मा का ही अंश है। हमारे वेद, उपनिषद् और पुराणों के अनुसार भी प्राणी मात्र में ईश्वर का वास है।

सेवा जैसे पुनीत पावन कार्य के लिए किसी मुहूर्त या चौघडिय़े की आवश्यकता नहीं है। चाहे कोई भी समय या क्षण हो, सेवा का अवसर मत चूकिए, क्योंकि आपके द्वारा की गई सेवा व सहायता अंतत: किसी न किसी रूप में आपके लिए भी फलित होने वाली है। सेवा के अवसर को अपना भाग्योदय ही मानें। हो सकता है सेवा कार्य में कोई अड़चन और रुकावट आए। उससे हताश न हों, शायद प्रभु आपके मन को टटोल रहे हों, यह आपकी परीक्षा हो कि जिस सेवा कार्य के लिए आप बढ़े हैं, उसमें आपका समर्पण भाव कैसा है?

असहाय और पीडि़त जन की सेवा किसी भी रूप में की जा सकती है। तन से मन से, धन से, वाणी से और कुछ नहीं तो अपनी मुस्कान भरी सांत्वना भी दुख पर मरहम सी कारगर हो सकती है। हमारे पास जो कुछ भी है, वह सब प्रभु का ही दिया हुआ है और उसमें से ही हमें नेवैद्य के रूप में उसे अर्पण करना है। फिर देखिए किस तरह प्रभु आपकी जीवन यात्रा को सफल करते हैं। आप पर अपने अनुग्रह की वर्षा करते हैं। प्रतिदिन कोई न कोई शुभ कार्य, विकलांग पीडि़त एवं दुखी जन की सेवा का आज ही व्रत लीजिए। जल्दी ही आप पाएंगे अपने जीवन में शुभ चमत्कार।


मां काली, लक्ष्मी और सरस्वती की भक्ति से होते है ये चमत्कारी बदलाव
धर्मग्रंथों में धर्म-अधर्म की लड़ाई से जुड़े प्रसंग हों या विज्ञान के सिद्धांत, सभी में वजूद कायम रखने के लिए संघर्ष की अहमियत उजागर होती है। यह जद्दोजहद जीवन, मान-सम्मान या जीवन से जुड़े किसी भी विषय से जुड़ी हो सकती है। किंतु संघर्ष चाहे जैसा हो, ताकत के बिना संभव नहीं।

यही वजह है कि शक्ति, अस्तित्व का भी प्रतीक मानी गई है। धार्मिक नजरिए से यह शक्ति संसार की रचना, पालन व संहार रूप में प्रकट होने वाली मानी गई है। सनातन संस्कृति में स्त्री में शक्ति का ही साक्षात् रूप मानी जाती है। क्योंकि स्त्री के जरिए कुदरती व व्यावहारिक तौर पर यही सृजन व पालन शक्ति उजागर होती है। शक्ति की इसी अहमियत को जानकर ही स्त्री स्वरूपा कई देवी शक्तियां पूजनीय है।

नवरात्रि शक्ति स्वरूप की पूजा का विशेष काल है। शक्ति पूजा में खासतौर पर महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती का विधान है, जो सिलसिलेवार शक्ति, ऐश्वर्य और ज्ञान की देवी मानी जाती है। जानिए नवरात्रि के 9 दिनों में तीनों देवियों की साधना ज़िंदगी में किन बदलावों के लिए खास महत्व रखती है-

व्यावहारिक नजरिए से तीन शक्तियों की साधना से यही सूत्र जूड़े हैं कि यही है कि तरक्की और सफलता के लिए सबल व दृढ़ संकल्पित होना जरूरी है। जिसके लिये सबसे पहले विचारों को सही दिशा देना यानी नकारात्मकता, अवगुणों व मानसिक कलह से दूर होना जरूरी है। महाकाली पूजा के पीछे यही भाव है।

इसी तरह महालक्ष्मी पावनता और महासरस्वती विवेक शक्ति की प्रतीक है, जो मन और तन को सशक्त बनाती है। ऐसी दशा ज्ञान, संस्कार आत्मविश्वास, सद्गगुणों, कुशलता और दक्षता पाने के लिये मुनासिब होती है। इसके द्वारा कोई भी इंसान मनचाहा धन, वैभव बंटोरने के साथ ही सुखी और शांत जीवन की कामनाओं को सिद्ध कर सकता है। इस तरह आज के दौर में इन तीन शक्तियों की पूजा का संदेश यही है कि जीवन में निरोगी, चरित्रवान, आत्म-अनुशासित, कार्य-कुशल व दक्ष बनकर शक्ति संपन्न बने और कामयाबी की ऊंचाइयों को छूकर वजूद, साख और रुतबे को कायम रखें।

इन 16 स्त्रियों के लिए गलत नजर या सोच भी है पाप!
हर नवरात्रि चाहे चैत्र हो या आश्विन माह की, दोनों में ही शक्ति की उपासना के साथ ही भगवान राम की भी आराधना का महत्व है। चैत्र में रामनवमी तो आश्विन में विजयादशमी पर श्रीराम का स्मरण किया जाता है। असल में शक्ति और श्रीराम उपासना के पीछे संदेश यह भी है कि जीवन में कामयाबी को छूने के लिए शक्ति के साथ बेहतर व मर्यादित चरित्र व व्यक्तित्व की भी जरूरी है।

इस तरह नवरात्रि शक्ति के साथ मर्यादा की अहमियत उजागर करती है। खासतौर पर शक्ति या सुखों के मद में रिश्तों, संबंधों और पद की मर्यादा न भूलकर दुर्गति से बचना ही दुर्गा पूजा की सार्थकता भी है। जगतजननी का स्वरूप व्यावहारिक जीवन में स्त्री को ही माना जाता है। यही वजह है कि इस विशेष काल में धर्मग्रंथों में बताई 16 स्त्रियों को बड़ा ही सम्मान देने का महत्व बताया गया है। जानिए कौन हैं ये स्त्रियां -

स्तनदायी गर्भधात्री भक्ष्यदात्री गुरुप्रिया।

अभीष्टदेवपत्नी च पितु: पत्नी च कन्यका।।

सगर्भजा या भगिनी पुत्रपत्त्नी प्रियाप्रसू:।

मातुर्माता पितुर्माता सोदरस्य प्रिया तथा।।

मातु: पितुश्र्च भगिनी मातुलानी तथैव च।

जनानां वेदविहिता मातर: षोडश स्मृता:।।

इन बातों के मुताबिक 16 स्त्रियां मनुष्य के लिए माताएं या माता की तरह हैं और उनके लिए कभी भी गलत भाव व सोच से व्यवहार नहीं करना चाहिए। जानिए-   

(1) स्तन या दूध पिलाने वाली (2) गर्भधारण करने वाली (3) भोजन देने वाली, (4) गुरुमाता यानी गुरु की पत्नी (5) इष्टदेव की पत्नी (6) पिता की पत्नी यानी सौतेली मां (7) पितृकन्या यानी सौतेली बहिन, (8) सगी बहन (9) पुत्रवधू या बहू (10) सास (11) नानी (12) दादी (13) भाई की पत्नी (14) मौसी (15) बुआ और (16) मामी।

इन बातों से बचें! तेज चलेगा दिमाग, पाएंगे तरक्की व सफलता
रोजमर्रा की ज़िंदगी में हर इंसान व्यक्तिगत तौर पर कई मसलों या व्यक्तियों को लेकर सही या गलत को चुनने की मानसिक जद्दोजहद से दो-चार होता है। अच्छे-बुरे में फर्क समझने या उससे मिलने वाले नतीजों को लेकर चलने वाली यह कवायद मन को अशांत और अस्थिर करती है।

हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भवतगीता में एक ऐसा छोटा-सा सूत्र उजागर किया गया है जो मन को शांत रखने और स्थायी सुख देने के साथ ही ऐसी ही स्थितियों का बेहतर ढंग से सामना कर मन, संबंधों, कार्य और व्यवहार में संतुलन बनाने में भी कारगर होता है। जानिए यह सूत्र –

लिखा गया है कि - "मन: स्वबुद्ध्यामलय नियम्य" जिसका मतलब है कि अपनी पवित्र बुद्धि से ही मन को साधें।

इसमें साफ तौर पर बुद्धि की पावनता के जरिए काम, बोल और व्यवहार में बुराई से बचकर सही और गलत का फर्क समझ सफलता पाने का सबक भी जुड़ा है। यह तभी मुमकिन है जब कुछ बुरे काम और भावों से इंसान बचकर रहे। जानिए कौन सी हैं ये गलत भावनाएं और बुरी बातें -अहं, कर्महीनता, नफरत यानी घृणा, बुरे संस्कार और आचरण, मान-सम्मान की लालसा, राग, मोह, आसक्ति, ईष्र्या, द्वेष, स्त्री प्रसंग, स्वार्थ भाव के कारण मन व ह्दय से उदार न होना, दुराग्रह, झूठा दंभ।

स्वभाव, व्यवहार से जुड़ी ये सारी बातें इंसान के बुद्धि और विवेक पर सीधे ही बुरा असर डालती है, जिससे जीवन में आए बुरे बदलाव दु:ख और पीड़ा का कारण बन सकते हैं। इसलिए संयम और समझ के साथ इन बुरी बातों से बचने की हरसंभव कोशिश करें।


उपांग ललिता व्रत, मिलेगी सुख-समृद्धि व पूरी होगी मनोकामना
आदि शक्ति माँ ललिता दस महाविद्याओं में से एक हैं। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को इनके निमित्त उपांग ललिता व्रत किया जाता है। यह व्रत भक्तजनों के लिए शुभ फलदायक होता है। इस वर्ष उपांग ललिता व्रत 19 अक्टूबर, शुक्रवार को है। इस दिन उपांग ललिता की पूजा करने से देवी मां की कृपा व आशीर्वाद प्राप्त होता है। जीवन में सदैव सुख व समृद्धि बनी रहती है।

उपांग ललिता शक्ति का वर्णन पुराणों में प्राप्त होता है, जिसके अनुसार पिता दक्ष द्वारा अपमान से आहत होकर जब माता सती ने अपने देह त्याग दी थी और भगवान शिव उनका पार्थिव शव अपने कंधों में उठाए घूम रहे थे। उस समय भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती की देह को विभाजित कर दिया था इसके बाद भगवान शंकर को हृदय में धारण करने पर इन्हें ललिता के नाम से पुकारा जाने लगा।

उपांग ललिता पंचमी के दिन भक्तगण व्रत एवं उपवास करते हैं। कालिकापुराण के अनुसार देवी की दो भुजाएं हैं, यह गौर वर्ण की, रक्तिम कमल पर विराजित हैं। ललिता देवी की पूजा से समृद्धि की प्राप्त होती है। दक्षिणमार्गी शाक्तों के मतानुसार देवी ललिता को चण्डी का स्थान प्राप्त है। इनकी पूजा पद्धति देवी चण्डी के समान ही है। इस दिन ललितासहस्रनाम व ललितात्रिशती का पाठ किया जाए तो हर मनोकामना पूरी हो जाती है।

श्रीहनुमान का यह सूत्र याद रख करें काम, कभी न होंगे नाकाम
अक्सर साधारण इंसान दु:खों से दूर रहने में ही ज़िंदगी की सफलता मानता है।  किंतु दु:खों से परे रहने की यही सोच और बेचैनी कई मौकों पर पर उसको सुकून के बजाए ज्यादा चिंता में डुबो देती है। इससे वह कई सुख-सुविधाओं के बीच रहते हुए भी हर दिन मानसिक तौर पर जूझता है।

धर्मशास्त्रों में ऐसे ही दु:ख और चिंता से मुक्त जीवन के लिए ऐसे सूत्र बताए गए हैं, जो ऊपरी तौर पर अपनाना अव्यावहारिक लगते हैं, किंतु उनमें छिपे अर्थ को गंभीरता से समझा जाए तो वह जीवन में संतुलन लाने के साथ मुश्किलों से निजात पाने के लिए मानसिक तौर पर मजबूत बनाता है। इसी कड़ी में श्रीरामचरितमानस में संकटमोचक और संयम के महान आदर्श श्रीहनुमान द्वारा बताया सूत्र व्यावहारिक जीवन की सफलता के लिए बहुत ही बेहतर उपाय साबित होता सकता है। 

जानिए श्रीरामचरितमानस में श्रीहनुमान के बोल हैं कि - "कह हनुमंत बिपत्ति प्रभु सोई। जब तब सुमिरन भजन न होई।।"

इस चौपाई में श्रीहनुमान द्वारा दु:खों को बुरा मानने के बजाए अच्छा मानकर उनका सामने करने के लिये देव स्मरण, भक्ति और समर्पण की अहमियत बताते हुए जीवन को सुखी बनाने का बहुत ही अच्छा संदेश दिया है।

इसमें सबक है कि अक्सर साधारण इंसान दु:ख को मुसीबत मानता है, किंतु असल में दु:ख, सुख से बेहतर इसलिए साबित होते हैं कि ऐसे वक्त में ही भगवान की याद आती है। इसके उलट बुरा समय तो वह होता है जब भगवान का स्मरण न हो।

व्यावहारिक रूप से संकेत साफ है कि चूंकि बुरा वक्त इंसान को सोने की तरह तपाकर निखारने वाला होता है। इसलिए ऐसे वक्त हिम्मत हारकर रुकने के बजाय इंसान भगवान और खुद पर भरोसा रख आगे बढ़ाता चले। साथ हीवह दु:ख ही नहीं बल्कि सुखों में भी अहं भाव से परे होकर उनको ईश्वर की ही देन मानकर हमेशा सरल और सहज भाव से जीवन गुजारता चले।

इस तरह श्रीहनुमान के इस सूत्र को अपनाने से बड़े से बड़े दु:ख में भी मानसिक तौर पर मजबूत रहकर स्थिर और अशांत होने से बचेगा।


काम के इस तरीके से ही मिलता है लोगों का भरोसा व भगवान की कृपा!

किसी भी इंसान की विश्वसनीयता के पीछे सच्चाई की अहम भूमिका होती है। शास्त्रों में भी सत्य को ही ईश्वर पुकारा गया है। इस कड़ी में सत्य और भगवान से जोड़कर "सत्यं शिवम् सुंदरम्" जैसे सूत्र सृष्टि से लेकर संहार तक में सत्य की अहमियत व सार्थकता के कई पहलू उजागर करते हैं।

सत्य के इसी सूत्र को व्यावहारिक जीवन के नजरिए से विचार करें तो हर काम की शुरुआत से अंत तक बेहतर नतीजे तभी संभव है, जब उसे पूरी सच्चाई और समर्पण से अंजाम दिया। यह इंसान को सफल, भरोसेमंद और सम्मान का पात्र बनाता है। संत कबीर ने भी इस दोहे के जरिए घर, परिवार या संसार का भरोसा जीतने का ऐसा ही बेहतर सूत्र बताया है -



जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल।

पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥



संदेश यही है कि सांसारिक जीवन में कर्म या व्यवहार के दौरान व्यक्ति जो कुछ भी बोले उस पर कायम रहकर अगर वैसा ही आचरण और चेष्टा भी करे, तो भगवान की अपार कृपा उसे खुशहाल बना देती है।



दरअसल, संत कबीर की इस बात में भगवत्व कृपा से निहाल होने के रूप में संकेत यही है कि मन, वचन, कर्म में निष्ठा और सच्चाई ही सांसारिक जीवन में किसी भी इंसान को ईश्वर की भांति शक्ति, सुख व वैभव संपन्न बनाकर विश्वास व सम्मान दिलाती है।




क्या है नवरात्रि में शक्ति के साथ शक्तिधर श्रीराम की भक्ति का रहस्य?
नवरात्रि में शक्ति जागरण के लिए महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के पूजन की परंपरा है। शक्ति की उपासना के साथ ही शारदीय नवरात्र में भगवान राम की भी आराधना की जाती है। यही वजह है कि एक ओर देवी भागवत, दुर्गासप्तशती, दुर्गा उपासना व रात्रि जागरण आदि होते हैं तो दूसरी तरफ श्रीमद्भागवत, तुलसी रामायण, अध्यात्म रामायण, रामनाम जप आदि भी चलते हैं। इस तरह इन नौ रातों में शक्ति के साथ शक्तिधर की पूजा में जीवन से जुड़े गूढ़ सबक भी हैं।

दरअसल, ज़िंदगी में सफलता की ऊंचाइयों को छूने के लिए बेहतर चरित्र व व्यक्तित्व रूपी शक्तियां बेहद जरूरी है। यही शक्ति की आराधना और जागरण का मूल अर्थ भी है। सच्चा, समर्पित, मेहनती व दृढ संकल्पित व्यक्ति ही गुणी, विद्वान और धनवान होकर सुख-सम्मान पाते हैं  और अपने साथ समाज को भी आगे ले जाते हैं। किंतु कई मौकों पर कुछ लोग किसी क्षेत्र में ऊंचा पद या शक्ति, किसी के सहारे गलत या कुटील तरीकों से भी पा लेते है। ताकत के मद में वह रिश्तों, संबंधों और पद की मर्यादा भूलकर ऐसे आचरण करते हैं, जो आखिर में उसकी ही दुर्गति की वजह भी बन जाते हैं।

नवरात्रि पर्व पर शक्ति के साथ भगवान राम की उपासना इसी मर्यादा की अहमियत उजागर करती है। भगवान राम मर्यादा के प्रतीक है। उनकी आराधना संदेश देती है कि शक्ति पाने और उसके उपयोग की सार्थकता तभी है, जब उसका मकसद सही हो। यही नहीं, शक्ति के साथ जिम्मेदारियां भी आती है। इसलिए शक्ति का उपयोग सबसे पहले अपने मन के रावण पर विजय पाने के लिए हो यानी अपने मानसिक, चारित्रिक और व्यावहारिक दोषों को दूर करना। तभी आप मर्यादा में रहकर उस शक्ति से दूसरों की भलाई और मदद कर यश व सम्मान के हकदार होंगे। यही वजह है कि दुर्गति से बचने के लिए नवरात्रि की नौ रातों में शक्ति रूप नवदुर्गा और मर्यादाओं का पालन करने के लिए शक्ति को धारण करने वाले भगवान श्रीराम का भी स्मरण किया जाता है।

जानिए कौन सी है चमत्कारी 10 महाविद्याएं?
धर्मशास्त्रों के मुताबिक मन भी शक्ति के अधीन होता है। इसी शक्ति का एक रूप है - विद्या। विद्या के भी तीन रूप हैं- विद्या, अविद्या और महाविद्या। ये तीन शब्द भी प्रतीक रूप हैं। इनमें मुक्ति या मोक्ष का रास्ता बताने वाली विद्या कहलाती है यानी विद्या ज्ञान रूपी है। इसी तरह अविद्या वह सांसारिक ज्ञान है, जो हमारे लौकिक व्यवहार से जुड़ा है यानी अविद्या मोह पैदा करने वाली होती है। महाविद्या इन दोनों विद्याओं से भी बड़ी व श्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि जो भक्त जिस इच्छा से इसकी साधना करता है, उसकी वह इच्छा पूरी होती है। संतान, धन, ज्ञान और मोक्ष महाविद्या की साधना से मिल जाते हैं। इस तरह महाविद्या सभी प्राणियों को सुख-भोग और मोक्ष प्रदान करती है।

साल की चार नवरात्रियों (चैत्र, अश्विन, आषाढ और माघ माह) में नवदुर्गा के साथ दस महाविद्याओं की उपासना का भी शुभ काल माना जाता है। जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि यह भी विद्या का ही एक रूप है। जानिए धर्मग्रंथों में बताई इन अलग-अलग महाविद्याओं के साथ उनकी शिव-शक्तियों को - शाक्त तंत्र में दस महाविद्याओं का महत्व बताया गया है।

यह आदिशक्ति भगवती के ही रूप है, जो अपने स्वभाव के अनुसार लोक-परलोक दोनों तरह की सिद्धि देने वाली मानी जाती है। ये दस महाविद्याएं है -

1. काली

2. तारा

3. षोडशी त्रिपुरसुन्दरी

4. भुवनेश्वरी (श्रीविद्या/ललिता)

5. छिन्नमस्ता

6. भैरवी (त्रिपुर भैरवी)

7. धूमावती

8. बगला (बगलामुखी)

9. मातंगी

10. कमला (लक्ष्मी)

इन सभी महाविद्याओं के अलग-अलग शिव या भैरव रूप भी बताए गए हैं, जो इस तरह हैं -

काली के शिव महाकाल, तारा के अक्षोभ्य, षोडशी के पंचवक्त्र, छिन्नमस्ता के कबंध, भैरवी के दक्षिणामूर्ति, बगला के एकमुख महारुद्र, मातंगी के मतंग और कमला के सदाशिव श्रीविष्णु माने जाते हैं।

धार्मिक आस्था है कि आदिशक्ति भगवती स्वरूप इन दस महाविद्याओं की भक्ति करने वाला भक्त सभी भौतिक सुखों को पाकर जनम-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है।

जानिए रावण के 10 सिर और श्रीराम के 1 सिर से जुड़ा एक रोचक पहलू
हिन्दू धर्म में विजयादशमी बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। नवरात्रि की नौ रातों में शक्ति पूजा द्वारा शक्ति संचय की भाव के साथ विजयादशमी पर श्रीराम का स्मरण किया जाता है और बुराई और अहंकार के प्रतीक रावण का दहन किया जाता है।

राम-रावण युद्ध से जुड़ी यह मान्यता प्रचलित है कि भगवान राम ने रावण का वध कर अहंकार के अंत से ही तमाम सुख को पाने की राह दिखाई। किंतु राम और रावण के चरित्र और व्यक्तित्व को व्यावहारिक नजरिए से तुलना कर विचार करें तो रावण का अहंकार ही नहीं बल्कि उसके चरित्र की एक ओर बड़ी खामी दुर्गति का कारण बनी।

यह दोष अगर किसी भी इंसान के चरित्र में मौजूद हो तो उसका हर गुण, योग्यता, क्षमता निरर्थक होकर असफल और दु:खी जीवन का कारण बन सकती है। इसे भगवान राम के 1 सिर व रावण के 10 सिरों पर गौर कर सोचें तो बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। जानिए श्रीराम व रावण से जुड़ा एक रोचक पहलू

दरअसल, अक्सर रावण के दस सिर चरित्र दोषों के प्रतीक माने जाते हैं। किंतु रावण के चरित्र का सकारात्मक पक्ष यह भी था कि वह वेद, शास्त्रों, अनेक कलाओं व विद्याओं के साथ ज्योतिष व कालगणना का ज्ञाता था। लिहाजा राम व रावण के व्यक्तित्व व चरित्र से जुड़ा एक दर्शन यह भी माना जाता है कि अगर राम बुद्धि संपन्न थे, तो रावण, राम से दस गुना बुद्धिमान था। बावजूद इसके वह राम के सामने परास्त हुआ। ऐसा इसलिए कि बुद्धि व ज्ञान संपन्नता के बावजूद रावण विवेक हीन था। जबकि सिर्फ एक सिर वाले राम बुद्धि के साथ विवेकवान भी थे यानी, सही और गलत, सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म के बीच फर्क  करने की अद्भुत क्षमता भगवान राम के पास थी, किंतु रावण के पास अभाव।

दूसरे शब्दों में समझें तो राम का 1 सिर संकल्प का प्रतीक तो रावण को विकल्पों की उलझन का प्रतीक है। बस, राम की यही खूबी जीत का और रावण की खामी हार का कारण बनी।  इस प्रसंग में सार यही है बुद्धि के साथ वक्त, हालात के मुताबिक सही और गलत को चुनने की सही निर्णय क्षमता भी सफल और सुखी जीवन के लिए अहम होती है। अन्यथा रावण की भांति दंभ, विकल्पों से भरा और विवेकहीन स्वभाव व व्यवहार जीवन में कुंठा, निराशा और असफलता लाता है।



क्या आप जानते हैं दुर्गा शब्द का अर्थ?

मां दुर्गा सभी दु:खों को हरने वाली है। वे अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करती तथा उनकी हर मनोकामना पूरी करती है। इतना ही नहीं दुर्गा मां का नाम लेने से ही सारे कष्टों का निवारण स्वत: ही हो जाता है। देवीपुराण में दुर्गा शब्द का व्यापक अर्थ बताया गया है उसके अनुसार-



दैत्यनाशार्थवचनो दकार: परिकीर्तित:।



उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मत:।।



रेफो रोगघ्नवचनो गच्छ पापघ्नवाचक:।



भयशत्रुघ्नवचनश्चाकार: परिकीर्तित:।।



इस श्लोक के अनुसार दुर्गा शब्द में द अक्षर दैत्यनाशक, उ अक्षर विघ्ननाशक, रेफ रोगनाशक, ग कार पापनाशक तथा आ कार शत्रुनाशक है। इसीलिए मां दुर्गा को दुर्गतिनाशिनी भी कहते हैं।



रावण ने मरने से पहले लक्ष्मण को बताई थी ज्ञान की ये 3 बातें

हम आपको बता रहे हैं ज्ञान की वे तीन बातें जो रावण ने मृत्यु से पहले लक्ष्मण को बताई थी। ये तीन बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी।



जिस समय रावण मरणासन्न अवस्था में था, उस समय भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि इस संसार से नीति, राजनीति और शक्ति का महान् पंडित विदा ले रहा है, तुम उसके पास जाओ और उससे जीवन की कुछ ऐसी शिक्षा ले लो जो और कोई नहीं दे सकता। श्रीराम की बात मानकर लक्ष्मण मरणासन्न अवस्था में पड़े रावण के सिर के नजदीक जाकर खड़े हो गए। रावण ने कुछ नहीं कहा। लक्ष्मणजी वापस रामजी के पास लौटकर आए। तब भगवान ने कहा कि यदि किसी से ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसके चरणों के पास खड़े होना चाहिए न कि सिर की ओर। यह बात सुनकर लक्ष्मण जाकर इस रावण के पैरों की ओर खड़े हो गए। उस समय महापंडित रावण ने लक्ष्मण को तीन बातें बताई जो जीवन में सफलता की कुंजी है।



पहली बात जो रावण ने लक्ष्मण को बताई वह ये थी कि शुभ कार्य जितनी जल्दी हो कर डालना और अशुभ को जितना टाल सकते हो टाल देना चाहिए यानी शुभस्य शीघ्रम्। मैंने श्रीराम को पहचान नहीं सका और उनकी शरण में आने में देरी कर दी, इसी कारण मेरी यह हालत हुई।



दूसरी बात यह कि अपने प्रतिद्वंद्वी, अपने शत्रु को कभी अपने से छोटा नहीं  समझना चाहिए, मैं यह भूल कर गया। मैंने जिन्हें साधारण वानर और भालू समझा उन्होंने मेरी पूरी सेना को नष्ट कर दिया। मैंने जब ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा था तब मनुष्य और वानर के अतिरिक्त कोई मेरा वध न कर सके ऐसा कहा था क्योंकि मैं मनुष्य और वानर को तुच्छ समझता था। मेरी मेरी गलती हुई।



तीसरी और अंतिम बात ये है कि अपने जीवन का कोई राज हो तो उसे किसी को भी नहीं बताना चाहिए। यहां भी मैं चूक गया क्योंकि विभीषण मेरी मृत्यु का राज जानता था। ये मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती थी।



अगर ये एक बात नहीं कहता रावण तो शायद कभी नहीं मरता!

हम आपको बता रहे हैं कि रावण ने ऐस कौन सी सबसे बड़ी गलती की थी जिसके कारण उसे पराजित होना पड़ा और उसका नामोनिशान मिट गया। रावण की उस गलती से हमें भी ज्ञान की बातें सिखनी चाहिए।



रावण विश्वविजेता बनना चाहता था लेकिन वह जानता था कि बिना वरदान के यह संभव नहीं है। तब उसने भगवान ब्रह्मा की घोर तपस्या की। इतने पर भी जब ब्रह्माजी नहीं आए तो उसने अपने मस्तक काटने शुरु कर दिए। यह देखकर ब्रह्माजी को उसके समझ आना ही पड़ा। ब्रह्मीजी ने रावण को वरदान मांगने के लिए कहा। तब रावण ने वरदान मांगा कि- हम काहू के मरहिं न मारैं अर्थात हम किसी के हाथ नहीं मरें।



तब ब्रह्माजी ने कहा- ऐसा तो नहीं हो सकता, मृत्यु तो आएगी ही। रावण बोला - देना हो तो यही दीजिए अन्यथा कुछ भी नहीं। बहुत समझाने पर रावण बोला- हम काहू के मरहिं न मारैं, बानर, मनुज जाति दोइ बारैं अर्थात मनुष्य और बंदरों को छोड़कर कोई भी मेरा वध न कर सके। बस यहीं रावण से सबसे बड़ी भूल हो गई क्योंकि वह तो मानव और बंदरों को अपना भोजन मानता था। ब्रह्माजी ने भी उसे वरदान दे दिया।



यहीं रावण सबसे बड़ी भूल कर गया कि वो जिन मानव और बंदरों को अपना भोजन मानता था उन्हीं के कारण उनकी उसकी मृत्यु हो गई। सार यह है कि किसी भी प्राणी को अपने से छोटा नहीं समझना चाहिए क्योंकि एक चींटी भी हाथी का मृत्यु का कारण बन सकती है।


ये सात काम हैं रावण के अधूरे सपने....

रावण पर राम की जीत का उत्सव विजयादशमी 24 अक्टूबर को है। यह त्योहार सिर्फ उत्सव मनाने या रावण के पुतले को जलते हुए देखने का नहीं है। ये त्योहार है अपने जीवन में राम के गुणों के उतारने का और उन गलतियों से सबक लेने का जो रावण ने अपने जीवन में कीं।



आज से हम आपको रावण से जुड़ी कई रोचक बातों को बताएंगे। आखिर कैसे एक ब्राह्मण राक्षस हो गया? कैसे एक योद्धा के पूरे वंश का नाश हो गया? रावण में क्या कमजोरियां थीं? रावण की भूलों से हम क्या सबक लें? कैसे रावण की आदतों और चरित्र को पहचानें? कैसे खुद रावण की वृत्तियों से बचें?



हम आपको बताएंगे कि रावण किन कारणों से संसार में बुराई का प्रतीक माना जाता है, किन कामों के कारण वो राक्षस कहलाया और उसकी भूलों से हम क्या सीख सकते हैं। ऐसी ही कई बातें जो आप जानना चाहते हैं।



आज हम आपको वो बातें बता रहे हैं जो रावण भगवान की सत्ता को मिटाने के लिए करना चाहता था लेकिन सफल नहीं हो पाया क्योंकि वे बातें प्रकृति के विरुद्ध थीं। उनसे अधर्म बढ़ता और राक्षस प्रवृत्तियां अनियंत्रित हो जातीं। हम आपको बता रहे हैं कि रावण ऐसे कौन से 7 काम करना चाहता था जो दुनिया की तस्वीर बदल सकते थे।



संसार से हरि पूजा को निर्मूल करना - रावण का इरादा था कि वो संसार से भगवान की पूजा की परंपरा को ही समाप्त कर दे ताकि फिर दुनिया में सिर्फ उसकी ही पूजा हो।



स्वर्ग तक सीढ़ियां बनाना - भगवान की सत्ता को चुनौती देने के लिए रावण स्वर्ग तक सीढ़ियां बनाना चाहता था ताकि जो लोग मोक्ष या स्वर्ग पाने के लिए भगवान को पूजते हैं वे पूजा बंद कर रावण को ही भगवान माने।



समुद्र के पानी को मीठा बनाना - रावण सातों समुद्रों के पानी को मीठा बनाना चाहता था।



सोने में सुगंध डालना - रावण चाहता था कि सोने (स्वर्ण) में खुश्बु होनी चाहिए। रावण दुनियाभर के स्वर्ण पर खुद कब्जा जमाना चाहता था। सोना खोजने में कोई परेशानी नहीं हो इसलिए वो उसमें सुगंध डालना चाहता था।



काला रंग गोरा करना - रावण खुद काला था इसलिए वो चाहता था कि मानव प्रजाति में जितने भी लोगों का रंग काला है वे गोरे हो जाएं, जिससे कोई भी महिला उनका अपमान ना कर सके।



खून का रंग सफेद हो जाए - रावण चाहता था कि मानव रक्त का रंग लाल से सफेद हो जाए। जब रावण विश्वविजयी यात्रा पर निकला था तो उसने सैकड़ों युद्ध किए। करोड़ों लोगों का खून बहाया। सारी नदियां और सरोवर खून से लाल हो गए थे। प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा था और सारे देवता इसके लिए रावण को दोषी मानते थे। तो उसने विचार किया कि रक्त का रंग लाल से सफेद हो जाए तो किसी को भी पता नहीं चलेगा कि उसने कितना रक्त बहाया है वो पानी में मिलकर पानी जैसा हो जाएगा।



शराब से दुर्गंध दूर करना - रावण शराब से बदबू भी मिटाना चाहता था। ताकि संसार में शराब का सेवन करके लोग अधर्म को बढ़ा सके।



दशहरा 24 को: इस विधि से करें भगवान श्रीराम का पूजन

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरे का पर्व मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 24 अक्टूबर, बुधवार को है। इस दिन बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में रावण के पुतले का दहन किया जाता है व भगवान राम की पूजा की जाती है। भगवान श्रीराम के पूजन की विधि इस प्रकार है-



दशहरे के दिन सुबह जल्दी नित्यकर्मों से निवृत्त होकर अपने घर के उत्तर भाग में एक सुंदर मंडप बनाएं। उसके बीच में एक वेदी बनाएं। इसके बीच में भगवान श्रीराम व माता सीता की प्रतिमा को स्थापित करें। श्रीराम व माता सीता की पंचोपचार(गंध, चावल, फूल, धूप, दीप) से पूजन करें।

इसके बाद इस मंत्र बोलें-

मंगलार्थ महीपाल नीराजनमिदं हरे।

संगृहाण जगन्नाथ रामचंद्र नमोस्तु ते।।

ऊँ परिकरसहिताय श्रीसीतारामचंद्राय कर्पूरारार्तिक्यं समर्पयामि।

इसके बाद किसी पात्र (बर्तन) में कपूर तथा घी की बत्ती(एक या पांच अथवा ग्यारह) जलाकर भगवान श्रीसीताराम की आरती उतारें व गाएं-

आरती कीजै श्रीरघुबर की, सत चित आनंद शिव सुंदर की।।

दशरथ-तनय कौसिला-नंदन, सुर-मुनि-रक्षक दैत्य निकंदन,

अनुगत-भक्त भक्त-उर-चंदन, मर्यादा-पुरुषोत्तम वरकी।।

निर्गुन सगुन, अरूप, रूपनिधि, सकल लोक-वंदित विभिन्न विधि,

हरण शोक-भय, दायक सब सिधि, मायारहित दिव्य नर-वरकी।।

जानकिपति सुराधिपति जगपति, अखिल लोक पालक त्रिलोक-गति,

विश्ववंद्य अनवद्य अमित-मति, एकमात्र गति सचारचर की।।

शरणागत-वत्सलव्रतधारी, भक्त कल्पतरु-वर असुरारी,

नाम लेत जग पवनकारी, वानर-सखा दीन-दुख-हरकी।।

आरती के बाद हाथ में फूल लेकर यह मंत्र बोलें-

नमो देवाधिदेवाय रघुनाथाय शार्गिणे।

चिन्मयानन्तरूपाय सीताया: पतये नम:।।

ऊँ परिकरसहिताय श्रीसीतारामचंद्राय पुष्पांजलि समर्पयामि।

इसके बाद फूल भगवान को चढ़ा दें और यह श्लोक बोलते हुए प्रदक्षिणा करें-

यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च।

तानि तानि प्रणशयन्ति प्रदक्षिणपदे पदे।।

इसके बाद भगवान श्रीराम को प्रणाम करें और कल्याण की प्रार्थना करें। इस प्रकार भगवान श्रीराम का पूजन करने से सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।

नवरात्रि में क्यों करते हैं कन्या पूजन, जानिए महत्व व विधि
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार चैत्र व शारदीय नवरात्रि में कन्या पूजन का विशेष महत्व है। अष्टमी व नवमी तिथि के दिन तीन से नौ वर्ष की कन्याओं का पूजन किए जाने की परंपरा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार तीन वर्ष से लेकर नौ वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती है।

शास्त्रों के अनुसार एक कन्या की पूजा से ऐश्वर्य, दो की पूजा से भोग और मोक्ष, तीन की अर्चना से धर्म, अर्थ व काम, चार की पूजा से राज्यपद, पांच की पूजा से विद्या, छ: की पूजा से छ: प्रकार की सिद्धि, सात की पूजा से राज्य, आठ की पूजा से संपदा और नौ की पूजा से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है। कन्या पूजन की विधि इस प्रकार है- 

कन्या पूजन में तीन से लेकर नौ साल तक की कन्याओं का ही पूजन करना चाहिए इससे कम या ज्यादा उम्र वाली कन्याओं का पूजन वर्जित है। अपने सामथ्र्य के अनुसार नौ दिनों तक अथवा नवरात्रि के अंतिम दिन कन्याओं को भोजन के लिए आमंत्रित करें। कन्याओं को आसन पर एक पंक्ति में बैठाएं। ऊँ कुमार्यै नम: मंत्र से कन्याओं का पंचोपचार पूजन करें। इसके बाद उन्हें रुचि के अनुसार भोजन कराएं। भोजन में मीठा अवश्य हो, इस बात का ध्यान रखें। भोजन के बाद कन्याओं के पैर धुलाकर विधिवत कुंकुम से तिलक करें तथा दक्षिणा देकर हाथ में पुष्प लेकर यह प्रार्थना करें-

मंत्राक्षरमयीं लक्ष्मीं मातृणां रूपधारिणीम्।

नवदुर्गात्मिकां साक्षात् कन्यामावाहयाम्यहम्।।

जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरुपिणि।

पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोस्तु ते।। 

तब वह पुष्प कुमारी के चरणों में अर्पण कर उन्हें ससम्मान विदा करें।




जानिए रामायण की ये खास बात, शायद आप नहीं जानते होंगे

धार्मिक ग्रंथों में विस्तार से उल्लेख है कि दशरथ अपने बेटे राम का राज्याभिषेक कर रहे थे। मगर, इससे देवता खुश नहीं थे। कारण विष्णु का रामावतार दैत्यों और राक्षसों के नाश के लिए हुआ था। देवताओं ने अनुभव किया कि यदि राम अभिषेक के बाद राजकाज में व्यस्त हो गए तो राक्षसों का नाश कौन करेगा?



ऐसे में उद्देश्य को पूरा करने के लिए देवताओं ने सरस्वती को प्रेरित कर राम की सौतेली मां कैकेयी की दासी मंथरा की मति फेर दी। अंतत: कैकेयी ने कोप किया और रामकथा के अनुसार दशरथ की आज्ञा पर राम वन को चले गए। साथ में सीता और लक्ष्मण भी थे।



फिर हुआ राक्षसों का वध सारी घटनाएं देवताओं के अनुकूल हुईं, जो राक्षसों के विनाश का आधार बनीं। कथा का समापन यात्रा के समापन की तरह ही रावण वध के साथ हुआ।



रावण समूची राक्षस जाति का मुखिया था। उसके बंधु-बांधवों और सेना सहित नाश के साथ रामावतार की पूर्णता हुई। इस अर्थ में विजयादशमी का पर्व धर्म की स्थापना और अधर्म की पराजय का पर्व है।



विजयादशमी पर विजय निश्चित होती है यह अंधकार पर विजय का ऐसा दिन है जो हमें यह संकल्प लेने को प्रेरित करता है कि हम अपने भीतर के दुर्गुण रूपी रावण को मारें।



ज्योतिष की मान्यता है इस दिन ग्रह नक्षत्रों के ऐसे संयोग होते हैं, जिनसे विजय सुनिश्चित होती है। बशर्ते वह अधर्म पर धर्म की विजय हो।



हमारा लक्ष्य लोक मंगल हो और नकारात्मकता पर सकारात्मकता की विजय हो। रावण को दशानन कहा गया है। उसके 10 मुख दुर्गुणों के ही प्रतीक हैं। दस की संख्या केवल प्रतीक रूप में है और दुर्गुण भी देशकाल और परिस्थिति के हिसाब से बदल सकते हैं।



आज की परिस्थिति में दुर्गुण-रूपी राक्षस दृष्टिगोचर होते हैं, हमारा संकल्प होना चाहिए कि इस विजयादशमी पर उनके विनाश के लिए हम अपने भीतर रामत्व का आह्वान करें।





इसलिए भगवान राम को कहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरे का पर्व मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 24 अक्टूबर, बुधवार को है। इस दिन बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में भगवान श्रीराम को याद किया जाता है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है जिसका अर्थ है सदैव मर्यादा के अनुसार कार्य करने वाला सबसे श्रेष्ठ पुरुष।



भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया और हमेशा धर्मानुसार आचरण किया। पिता के कहने पर 14 वर्ष के वनवास पर जाने का प्रसंग हो या साधारण मनुष्य की तरह रावण जैसे महाबली राक्षस का वध करने का। श्रीराम ने अपना पूरा जीवन मर्यादा के अनुरूप ही निर्वाह किया।



श्रीराम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे, वे चाहते तो पलभर में ही रावण को मारकर सीता को उसके दासत्व से मुक्त करा सकते थे लेकिन ऐसा करने से मर्यादा का हनन होने का भय था इसलिए श्रीराम ने साधारण मनुष्य की तरह ही पहले सीता की खोज की, समुद्र पर बांध बनाया और मर्यादा अनुरूप ही युद्ध कर रावण का वध किया। भगवान श्रीराम ने पुत्र, पति, भाई, मित्र, पिता तथा राजा आदि सभी संबंधों का निर्वाह मर्यादा के अनुरूप ही किया। इसलिए भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है।



क्या होता है मेडिटेशन, कैसे सुबह के 20 मिनट में दिनभर बने रहें तरोताजा

देखने की गुणवत्ता और होशपूर्वक सजगता से देखने की गुणवत्ता का नाम है ध्यान। हमें एक बात ध्यान रखना है कि ध्यान का अर्थ है होश। जो कुछ भी हम होश पूर्वक करते हैं वह ध्यान है। ध्यान का अर्थ है अकेले होने का आनंद। होशपूवर्ण काम मतलब खाते समय बस खाओ, इसमें तल्लीन रहो, चलते समय बस चलो इसमें तल्लीन रहो। उसी क्षण में बने रहना चाहिए। उस क्षण के आगे न होना चाहिए। यहां वहां न उछलें, क्यों मन या तो हमेशा आगे चलता है या पीछे घिसटता है। वर्तमान क्षण में टिके रहो, यह ध्यान है।



ध्यान की कुछ प्रमुख अवस्थाएं हैं विधियां है, जो हमें उचित लगे उसे हमें स्वीकार करना है। एक स्वर्णिम प्रकाश हमारे भीतर और बाहर है, ध्यान इसी से शुरू करते हैं। इसे दिन में कम से कम दो बार करें, सबसे अच्छा समय है सुबह का। ठीक, हमारे बिस्तर से उठने से पहले, जिस क्षण हमें लगे कि हम जाग गए हैं, इसे कम से कम 20 मिनट के लिए किया जाए। सुबह सबसे पहले यही काम करें, बिस्तर से मत उठे, वहीं उसी समय, तत्क्षण इस विधि को करें क्योंकि जब हम नींद से जाग रहे होते हैं तब बहुत नाजुक और संवेदनशील होते हैं, जब हम नींद से बाहर आ रहे होते हैं तब हम बहुत ताजे होते हैं। और इस विधि का प्रभाव बहुत गहरा होता जाएगा।



जिस समय हम नींद से बाहर आ रहे होते हैं उस समय हम सदा की अपेक्षा हम बुद्धि में कम होते हैं। तो कुछ अंतराल है जिनके माध्यम से ध्यान की यह विधि हमारे अन्तरतम सत्व में प्रवेश कर जाएगी। और सुबह-सुबह जब हम जाग रहे होते हैं, पूरी पृथ्वी जाग रही होती है, उस समय पूरे विश्व में जाग रही ऊर्जा, एक विशाल लहर होती है, उस लहर का उपयोग करने वाले अवसर को न चूकें।



सभी प्राचीन धर्म सुबह-सुबह प्रार्थना किया करते थे। जब सूर्य उगता है क्योंकि सूर्य का उगना अस्तित्व में व्याप्त सभी ऊर्जाओं का उदित होना है। इस क्षण में हम उदित होती ऊर्जा की लहर पर सवार हो सकते हैं। यह सरल होगा। शाम तक यह कठिन हो जाएगा, ऊर्जाएं वापस बैठने लगेगी, तब हम धारा के विरूद्ध लडेंगे। सुबह के समय इस धारा के साथ होंगे। तो इस शुरू करने का सबसे अगछा समय सुबह-सुबह का है। ठीक उस समय जब हम आधे सौए और आधे जागे हुए होते हैं। यह प्रक्रिया बड़ी सरल है। इसके लिए किसी मुद्रा, आसन, स्नान आदि की जरूरत नहीं है।



हम अपने बिस्तर पर पीठ के  बल लेटे रहें। अपनी आंखों को बंद रखें, जब हम श्वास को भीतर लें तो कल्पना करें कि एक विशाल प्रकाश हमारे सर से होकर गुजर कर हमारे शरीर में प्रवेश कर रहा है। जैसे हमारे सिर के निकट ही कोई सूर्य उग आया हो। स्वर्णिम प्रकाश हमारे सिर मे ऊंडल रहा है, और गहरे से गहरा जाता जा रहा है। हमारे पंजों से बाहर निकल रहा है। जब हम श्वास भीतर लें तो इस कल्पना के साथ लें। और जब श्वास छोडे तो एक कल्पना करें, अंधकार पंजों से प्रवेश कर रहा है। एक विशाल अंधेरी नदी हमारे पंजों में प्रवेश कर रही है। ऊपर बढ़ रही है और हमारे सिर से बाहर निकल रही है। श्वास धीमी ओर गहरी रखें ताकि हम कल्पना कर सकें। बहुत धीरे-धीरे बढ़े। बिल्कुल धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे, यह करें। सोकर उठने के बाद हमारी श्वास धीमी और गहरी हो सकती हैं। क्योंकि शरीर विश्रांत और शिथिल है।



एक बार और दोहरा लें, श्वास लेते हुए स्वर्णिम प्रकश को अपने भीतर आने दें क्योंकि वहीं पर स्वर्णपुष्प प्रतीक्षा कर रहा है, वह स्वर्णिम प्रकाश सहायक होगा, वह पूरे शरीर को स्वच्छ कर देगा। और से सृजनात्मकता से पूरी तरह भर देगा। यह पुरुष ऊर्जा है। और जब हम श्वास छोडे तो अंधकार को जितने अंधेरे की हम कल्पना कर सकते हैं, जैसे कोई अंधेरी रात के समान, अपने पंजों से इस अंधेरे को ऊपर उठने दें, यह स्त्रैण ऊर्जा है। यह हमें शांत करेगी। हमें ग्राह्यïक बनाएगी, हमें मौन करेगी। हमें विश्राम देगी, उसे अपने अपने सिर से बाहर निकल जाने दें।


देखिए, अंधकार बाहर निकल रहा है, तब फिर से श्वास लें और स्वर्णिम प्रकाश भीतर प्रवेश कर जाता है। इसे सुबह-सुबह के लिए 20 मिनट के लिए करें और दूसरा सबसे अच्छा समय है रात में, जब हम नींद में लौट रहे हों। बिस्तर पर लेट जाएं, कुछ मिनट आराम करें। और जब हमें लगे कि अब हम सोने और जागने के बीच डोल रहे हैं तो ठीक उस समय, उस मध्य में प्रक्रिया से फिर से शुरू करे दें और 20 मिनट तक जारी रखें। यदि हम इसे करते-करते सो जाएं तो सबसे अच्छा है। क्योंकि इसका प्रभाव अचेतन में बना रहेगा और वह कार्य करता चला जाएगा। महिने, दो महिने, तीन महिने की अवधि के बाद हम आश्चर्यचकित होंगे। जो ऊर्जा सतत मूलाधार पर, निम्नतम काम केंद्र पर इकट्ठी हो रही थी, अब वहां इकट्ठी नहीं हो रही है। वह ऊपर जा रही है।


जानिए, रावण से जुड़ी जानी-अनजानी रोचक बातें

दशहरा पर्व राम की विजय और रावण की हार का दिन है। दस सिर और नाभि में अमृत कलश होने के बाद भी रावण पराजित हुआ। बुराई का प्रतीक माने जाने वाले रावण में कई बुरी आदतें थी, जो उसके लिए विनाश का कारण बनी। साथ ही कुछ ऐसे गुण भी थे जो उसे महान विद्वान बनाते थे।



रावण जितना दुष्ट था, उसमें उतनी खुबियां भी थीं, शायद इसीलिए कई बुराइयों के बाद भी रावण को महाविद्वान और प्रकांड पंडित माना जाता था। रावण से जुड़ी कई रोचक बातें हैं, जो आम कहानियों में सुनने को नहीं मिलती। विभिन्न ग्रंथों में रावण को लेकर कई बातें लिखी गई हैं। फिर भी रावण से जुड़ी कुछ रोचक बातें हैं, जो कई लोगों को अभी भी नहीं पता है।

आइए, जानते हैं कि किन बुराइयों के कारण रावण का पतन हुआ। किन अच्छाइयों के कारण उसे विद्वान माना जाता है।



महिलाओं के प्रति दुर्भावना - रावण के मन में महिलाओं के प्रति हमेशा दुर्भावना रही। वो उन्हें सिर्फ उपभोग की वस्तु मानता था। जिसके कारण उसे रंभा और सीता सहित कई महिलाओं के शाप भी लगे, जो उसके लिए विनाशकारी बने। भगवान महिलाओं का अपमान करने वालों को कभी माफ नहीं करता क्योंकि दुनिया में जो पहली पांच संतानें पैदा हुई थीं, उनमें से पहली तीन संतानें लड़कियां ही थीं। भगवान ने महिलाओं को पुरुषों से आगे रखा है। रावण अपनी शक्ति के अहंकार में ये बात समझ नहीं पाया।



अपने बल पर अति विश्वास - रावण को अपनी शक्ति पर इतना भरोसा था कि वो बिना सोचे-समझे किसी को भी युद्ध के लिए ललकार देता था। जिससे कई बार उसे हार का मुंह देखना पड़ा। रावण युद्ध में भगवान शिव, सहस्त्रबाहु अर्जुन, बालि और राजा बलि से हारा। जिनसे रावण बिना सोचे समझे युद्ध करने पहुंच गया।



सिर्फ तारीफ सुनना - रावण की दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि उसे अपनी बुराई पसंद नहीं थीष गलती करने पर भी वह दूसरों के मुंह से अपने लिए सिर्फ तारीफ ही सुनना चाहता था। जिसने भी उसे उसकी गलतियां दिखाईं, उसने उन्हें अपने से दूर कर दिया, जैसे भाई विभीषण, नाना माल्यवंत, मंत्री शुक आदि। वो हमेशा चापलूसों से घिरा रहता था।



कैसे-कैसे हारा रावण - बालि ने रावण को अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी। बालि इतना ताकतवर था कि वो रोज सवेरे चार समुद्रों की परिक्रमा कर सूर्य को अर्घ्य देता था। रावण जब पाताल के राजा बलि से युद्ध करने पहुंचा तो बलि के महल में खेल रहे बच्चों ने ही उसे पकड़कर अस्तबल में घोड़ों के साथ बांध दिया था। सहस्त्रबाहु अर्जुन ने अपनी हजार हाथों से नर्मदा के बहाव को रोक कर पानी इकट्ठा किया और उस पानी में रावण को सेना सहित बहा दिया। बाद में जब रावण युद्ध करने पहुंचा तो सहस्र्बाहु ने उसे बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। रावण ने शिव से युद्ध में हारकर उन्हें अपना गुरु बनाया था।



संगीतज्ञ और विद्वान - रावण संगीत का बहुत बड़ा जानकार था, सरस्वती के हाथ में जो वीणा है उसका अविष्कार भी रावण ने किया था। रावण ज्योतिषी तो था ही तंत्र, मंत्र और आयुर्वेद का भी विशेषज्ञ था।



ऐसा था रावण का वैभव - रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि रावण के दरबार में सारे देवता और दिग्पाल हाथ जोड़कर खड़े रहते थे। रावण के महल में जो अशोक वाटिका थी उसमें अशोक के एक लाख से ज्यादा वृक्ष थे। इस वाटिका में सिवाय रावण के किसी अन्य पुरुष को जाने की अनुमति नहीं थी।



वीर योद्धा भी था रावण - रावण जब भी युद्ध करने निकलता तो खुद बहुत आगे चलता था और बाकी सेना पीछे होती थी। उसने कई युद्ध तो अकेले ही जीते थे। रावण ने यमपुरी जाकर यमराज को भी युद्ध में हरा दिया था और नर्क की सजा भुगत रही जीवात्माओं को मुक्त कराकर अपनी सेना में शामिल किया था।



रथ में जुते होते थे गधे - वाल्मीकि रामायण के मुताबिक सभी योद्धाओं के रथ में अच्छी नस्ल के घोड़े होते थे लेकिन रावण के रथ में गधे हुआ करते थे। वे बहुत तेजी से चलते थे।





इन दो अक्षरों के नाम में समाया है संपूर्ण ब्रह्मांड


भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र  है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला। रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है-





नहिं कलि करम न भगति बिबेकू।





राम नाम अवलंबन एकू।।





अर्थात कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा हैं।





स्कंदपुराण में भी राम नाम की महिमा का गुणगान किया गया है-




रामेति द्वयक्षरजप: सर्वपापापनोदक:।



गच्छन्तिष्ठन् शयनो वा मनुजो रामकीर्तनात्।।



इड निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्।



स्कंदपुराण/नागरखंड



अर्थात यह दो अक्षरों का मंत्र (राम) जपे जाने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। चलते, बैठते, सोते या किसी भी अवस्था में जो मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है, वह यहां कृतकार्य होकर जाता है और अंत में भगवान विष्णु का पार्षद बनता है।


इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो शक्ति भगवान की है उसमें भी अधिक शक्ति भगवान के नाम की है। नाम जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहराई तक उतरती है। इससे मन और प्राण पवित्र हो जाते हैं, बुद्धि का विकास होने लगता है, सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, मनोवांछित फल मिलता है, सारे कष्ट दूर हो जाते हैं, मुक्ति मिलती है तथा समस्त प्रकार के भय दूर हो जाते हैं।

दशहरा मनाएं असत्य पर सत्य की विजय का उत्सव
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को विजयादशमी का पर्व मनाया जाता है। विजयादशमी अर्थात् देवी की विजय का पर्व। यह श्रीराम की रावण पर एवं माता दुर्गा की शुंभ-निशुंभ आदि असुरों पर विजय के उपलक्ष्य में मनाए जाने वाला पर्व है। दशमी तिथि के दिन मनाए जाने के कारण इसे दशहरा भी कहता हैं। इस बार विजयादशमी का पर्व 24 अक्टूबर, बुधवार को है।

इस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की रावण पर विजय सत्य की असत्य पर, धर्म की अधर्म पर एवं न्याय की अन्याय पर विजय थी। भगवान राम ने जगत को संदेश दिया कि दुष्ट और अत्याचारी कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो किंतु शक्ति का दुरुपयोग अंत में उसके ही विनाश का कारण होता है। यह पर्व हमारें मन में विजय का भाव जगाता है एवं अपनी ज्ञान एवं विवेक रूपी शक्तियों का जागरण कर अपने अज्ञान रूपी अंधकार और स्वभाविक विकारों - काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मात्सर्य पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा देता है।

इस पर्व पर शमी वृक्ष की पूजा की जाती है। शास्त्र अनुसार शमी वृक्ष तेज और दृढ़ता का प्रतीक होता है। अर्थात् इसी भावना के साथ शमी के वृक्ष की पूजा की जाती है कि हम भी तेजस्वी और दृढ़ बने। मूलत: यह शक्ति के जागरण का पर्व है। ऐसी शक्ति जो हमें विजयी करती है अर्थात् सफलता की ओर ले जाती है। जीवन को प्रगति की ओर ले जाती है।

बकरीद 27 को, कुर्बानी का संदेश देता है ये पर्व
इस्लाम धर्म में त्योहारों का विशेष महत्व है। हर इस्लाम पर्व जीवन प्रबंधन से जुड़े संदेश देता है। इस्लाम में एक वर्ष में दो ईद मनाई जाती है। एक ईद जिसे मीठी ईद कहा जाता है और दूसरी है बकरीद। इसे ईदुल-जुहा भी कहते हैं। बकरीद कुर्बानी का पैगाम देता है। इस बार बकरीद 27 अक्टूबर, शनिवार को है। बकरीद से जुड़ी एक कथा भी प्रचलित है जो इस प्रकार है-

ऐसा माना जाता है कि पैगम्बर हजरत को अल्लाह ने हुक्म दिया कि अपनी सबसे प्यारी चीज को मेरे लिए कुर्बान कर दो। पैगंबर साहब को अपना इकलौता बेटा इस्माइल सबसे अधिक प्रिय था। खुदा के हुक्म के अनुसार उन्होंने अपने प्रिय इस्माइल को कुर्बान करने का मन बना लिया।

इस बात से इस्माइल भी खुश था कि वह अल्लाह की राह पर कुर्बान होगा। बकरीद के दिन ही जब कुर्बानी का समय आया तब इस्माइल की जगह एक दुम्बा कुर्बान हो गया। अल्लाह ने इस्माइल को बचा लिया और पैगंबर साहब की कुर्बानी कबूल कर ली। तभी से हर साल पैगंबर साहब द्वारा दी गई कुर्बानी की याद में बकरीद मनाई जाती है।

इस आसान विधि से करें पापांकुशा एकादशी का व्रत
25 अक्टूबर, गुरुवार को पापांकुशा एकादशी का व्रत है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस व्रत को करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-

इस व्रत का पालन दशमी तिथि के दिन से ही करना चाहिए। दशमी तिथि के दिन सात धान्य अर्थात गेहूं, उड़द, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर की दाल का सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि इन सातों धान्यों की पूजा एकादशी के दिन की जाती है। जहां तक संभव हो दशमी तिथि और एकादशी तिथि दोनों ही दिनों में कम से कम बोलना चाहिए। दशमी तिथि को भोजन में तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए और पूर्ण ब्रह्राचर्य का पालन करना चाहिए।

एकादशी तिथि के दिन सुबह उठकर स्नान आदि करने के बाद व्रत का संकल्प लेना चाहिए। संकल्प अपनी शक्ति के अनुसार ही लेना चाहिए यानी एक समय फलाहार का या फिर बिना भोजन का। संकल्प लेने के बाद घट स्थापना की जाती है और उसके ऊपर श्री विष्णुजी की मूर्ति रखी जाती है। इस व्रत को करने वाले व्यक्ति को रात्रि में विष्णु के सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए। इस व्रत का समापन एकादशी तिथि में नहीं होता है बल्कि द्वादशी तिथि की सुबह ब्राह्माणों को अन्न का दान और दक्षिणा देने के बाद ही यह व्रत समाप्त होता है।

पापांकुशा एकादशी सभी पापों से मुक्ति दिलाता ये व्रत
हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पापांकुशा एकादशी कहते हैं। इस एकादशी के दिन मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु कीपूजा की जाती है। इस बार यह एकादशी 25 अक्टूबर, गुरुवार को है।

धर्म ग्रंथों के अनुसार जो मनुष्य कठिन तपस्याओं के द्वारा फल प्राप्त करते है, वही फल इस एकादशी के दिन शेषनाग पर शयन करने वाले श्री विष्णु को नमस्कार करने से ही मिल जाते हैं और मनुष्य को यमलोक के दु:ख नहीं भोगने पड़ते हैं। यह एकादशी उपवासक के मातृपक्ष के दस और पितृपक्ष के दस पितरों को विष्णु लोक लेकर जाती है। इस व्रत की कथा इस प्रकार है-

प्राचीन समय में विंध्य पर्वत पर क्रोधन नामक एक बहेलिया रहता था। वह बड़ा क्रूर था। उसका सारा जीवन पाप कर्मों में बीता। जब उसका अंत समय आया तो वह मृत्यु-भय से कांपता हुआ महर्षि अंगिरा के आश्रम में पहुंचकर याचना करने लगा- हे ऋषिवरमैंने जीवन भर पाप कर्म ही किए हैं। कृपा कर मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरे सारे पाप मिट जाएं और मोक्ष की प्राप्ति हो जाए। उसके निवेदन पर महर्षि अंगिरा ने उसे पापांकुशा एकादशी का व्रत करने को कहा। महर्षि अंगिरा के कहे अनुसार उस बहेलिए ने पूर्ण श्रद्धा के साथ यह व्रत किया और किए गए सारे पापों से छुटकारा पा लिया।

श्रीराम की इन 16 बेजोड़ शक्तियों के आगे रावण हुआ धराशायी
सांसारिक जीवन में आगे बढऩे, नाम कमाने यानी ख्याति, यश, कीर्ति बटोरने के लिए सद्गुणों और अच्छे कामों की बड़ी भूमिका होती है। क्योंकि गुण और अच्छे कर्म सम्मान व प्रतिष्ठा का कारण ही नहीं बनते हैं, बल्कि किसी भी इंसान को असाधारण और विलक्षण नेतृत्व शक्तियों का स्वामी बना देते हैं। लेकिन कोई साधारण इंसान आगे रहने, बेहतर नेतृत्व क्षमता पाने या ऊंचाइयों को छूने के लिए के लिए किन खास गुणों पर ध्यान दें, यह समझने के लिए धर्मग्रंथों के नजरिए से भगवान श्रीराम का चरित्र श्रेष्ठ आदर्श है।

दरअसल, विष्णु अवतार भगवान श्रीराम ने भी मानवीय रूप में जन-जन का भरोसा और विश्वास अपने आचरण और असाधारण गुणों से ही पाया। उनकी चरित्र की खास खूबियों से ही दंभी रावण के हौसले पस्त हुए और आखिरकार श्रीराम के आगे धराशायी हुआ। इससे वह न केवल लोकनायक बने, बल्कि युगान्तर में भी भगवान के रूप में पूजित हुए।

वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम की ऐसे ही सोलह गुण बताए गए हैं, जो आज भी नेतृत्व क्षमता बढ़ाने व किसी भी क्षेत्र में अगुवाई करने के अहम सूत्र हैं, जानिए इन गुणों को आज के संदर्भ में मतलब के साथ -

- गुणवान (ज्ञानी व हुनरमंद)
- वीर्यवान (स्वस्थ्य, संयमी और हष्ट-पुष्ट)
- धर्मज्ञ (धर्म के साथ प्रेम, सेवा और मदद करने वाला)
- कृतज्ञ (विनम्रता और अपनत्व से भरा)
- सत्य (सच बोलने वाला, ईमानदार)
- दृढ़प्रतिज्ञ (मजबूत हौंसले वाला)
- सदाचारी (अच्छा व्यवहार, विचार)
- सभी प्राणियों का रक्षक (मददगार)
- विद्वान (बुद्धिमान और विवेक शील)
- सामर्थ्यशाली (सभी का भरोसा, समर्थन पाने वाला)
- प्रियदर्शन (खूबसूरत)
- मन पर अधिकार रखने वाला (धैर्यवान व व्यसन से मुक्त)
- क्रोध जीतने वाला (शांत और सहज)
- कांतिमान (अच्छा व्यक्तित्व)
- किसी की निंदा न करने वाला (सकारात्मक)
- युद्ध में जिसके क्रोधित होने पर देवता भी डरें (जागरूक, जोशीला, गलत बातों का विरोधी)




क्यों मनाते हैं बकरीद, क्या आप जानते हैं?

27 अक्टूबर, शनिवार को बकरीद का पर्व है। बकरीद को इस्लाम में बहुत ही पवित्र त्योहार माना जाता है। इस्लाम में एक वर्ष में दो ईद मनाई जाती है। एक ईद जिसे मीठी ईद कहा जाता है और दूसरी है बकरीद। बकरीद पर अल्लाह को बकरे की कुर्बानी दी जाती है। पहली ईद यानी मीठी ईद समाज और राष्ट्र में प्रेम की मिठास घोलने का संदेश देती है।



दूसरी ईद अपने कर्तव्य के लिए जागरूक रहने का सबक सिखाती है। राष्ट्र और समाज के हित के लिए खुद या खुद की सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का संदेश देती है। बकरे की कुर्बानी तो प्रतीक मात्र है, यह बताता है कि जब भी राष्ट्र, समाज और गरीबों के हित की बात आए तो खुद को भी कुर्बान करने से नहीं हिचकना चाहिए।



कुर्बानी का मतलब है दूसरों की रक्षा करना 

कोई व्यक्ति जिस परिवार में रहता है, वह जिस समाज का हिस्सा है, जिस शहर में रहता है और जिस देश का वह निवासी है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह अपने देश, समाज और परिवार की रक्षा करें। इसके लिए यदि उसे अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी देना पड़े तब भी वह पीछे ना हटे।



तीन हिस्से किए जाते हैं कुर्बानी के

इस्लाम में गरीबों और मजलूमों का खास ध्यान रखने की परंपरा है। इसी वजह से ईद-उल-जुहा पर भी गरीबों का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस दिन कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। इन तीनों हिस्सों में से एक हिस्सा खुद के लिए और शेष दो हिस्से समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों का बांटा दिया जाता है।



शरद पूर्णिमा 29 को, जानिए क्यों बहुत खास है ये रात

आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा करते हैं। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। इस बार शरद पूर्णिमा 29 अक्टूबर, सोमवार को है। जानिए शरद पूर्णिमा की रात इतनी खास क्यों है, इससे जुड़े विभिन्न पहलू व मनोवैज्ञानिक पक्ष।



शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं जो कईबीमारियों का नाश कर देती हैं। यही कारण है कि शरद पूर्णिमा की रात को लोग अपने घरों की छतों पर खीर रखते हैं जिससे चंद्रमा की किरणें उस खीर के संपर्क में आती है और उसके बाद उस खीर का सेवन किया जाता है। कुछ स्थानों पर सार्वजनिक रूप से खीर का प्रसाद भी वितरण किया जाता है।



एक मान्यता यह भी है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। शरद पूर्णिमा को रासलीला की रात भी कहते हैं। धर्म शास्त्रों के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास रचाया था।



शरद पूर्णिमा की रात्रि का अगर मनोवैज्ञानिक पक्ष देखा जाए तो यही वह समय होता है जब मौसम में परिवर्तन की शुरुआत होती है और शीत ऋतु का आगमन होता है। शरद पूर्णिमा की रात को जागकर खीर का सेवन करना इस बात का प्रतीक है कि शीत ऋतु में हमें गर्म पदार्थों का सेवन करना चाहिए क्योंकि इसी से हमें जीवनदायिनी ऊर्जा प्राप्त होगी।


क्या सचमुच शरद पूर्णिमा पर अमृत बरसता है?
हिंदू पंचांग के अनुसार पूरे वर्ष में बारह पूर्णिमा आती हैं। इस दिन चंद्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है। पूर्णिमा पर चंद्रमा का अनुपम सौंदर्य देखते ही बनता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पूर्ण चंद्रमा के कारण वर्ष में आने वाली सभी 12 पूर्णिमा पर्व के समान ही हैं लेकिन इन सभी में आश्विन मास में आने वाली पूर्णिमा सबसे श्रेष्ठ मानी गई है। यह पूर्णिमा शरद ऋतु में आती है इसलिए इसे शरद पूर्णिमा भी कहते हैं। इस बार यह 29 अक्टूबर, सोमवार को है। शरद ऋतु की इस पूर्णिमा को पूर्ण चंद्र अश्विनी नक्षत्र से संयोग करता है। अश्विनी जो नक्षत्र क्रम में पहला है और जिसके स्वामी अश्विनीकुमार है।

कथा है च्यवन ऋषि को आरोग्य का पाठ और औषधि का ज्ञान अश्विनीकुमारों ने ही दिया था। यही ज्ञान आज हजारों वर्ष बाद भी परंपरा से हमारे पास धरोहर के रूप में संचित है। अश्विनीकुमार आरोग्य के दाता हैं और पूर्ण चंद्रमा अमृत का स्रोत। यही कारण है कि ऐसा माना जाता है कि इस पूर्णिमा को आसमान से अमृत की वर्षा होती है। शरद पूर्णिमा की रात्रि को घरों की छतों पर खीर आदि भोज्य पदार्थ रखने का प्रचलन भी है। जिसका सेवन बाद में किया जाता है। मान्यता यह है कि ऐसा करने से चंद्रमा की अमृत की बूंदें भोजन में आ जाती हैं जिसका सेवन करने से सभी प्रकार की बीमारियां आदि दूर हो जाती हैं।

शनि प्रदोष, पुत्र सुख चाहिए तो करें ये व्रत
धर्म ग्रंथों के अनुसार प्रदोष व्रत करने से हर सुख की प्राप्ति संभव है। यह व्रत प्रत्येक माह की दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि को किया जाता है। विभिन्न वारों के साथ यह व्रत विभिन्न योग भी बनाता है। जब त्रयोदशी शनिवार को आती है तो शनि प्रदोष व्रत किया जाता है। इस बार यह व्रत 27 अक्टूबर, शनिवार को है। पुराणों के अनुसार शनि प्रदोष व्रत करने से पुत्र की प्राप्ति होती है। शनि प्रदोष व्रत के पालन के लिए शास्त्रोक्त विधान इस प्रकार है। किसी विद्वान ब्राह्मण से यह कार्य कराना श्रेष्ठ होता है-

 - प्रदोष व्रत में बिना जल पीए व्रत रखना होता है। सुबह स्नान करके भगवान शंकर, पार्वती और नंदी को पंचामृत व गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची भगवान को चढ़ाएं।
- शाम के समय पुन: स्नान करके इसी तरह शिवजी की पूजा करें। शिवजी का षोडशोपचार पूजा करें, जिसमें भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजा करें।
- भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं।
- आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। आठ बार दीपक रखते समय प्रणाम करें। शिव आरती करें। शिव स्त्रोत, मंत्र जप करें ।
- रात्रि में जागरण करें।

इस प्रकार समस्त मनोरथ पूर्ति और कष्टों से मुक्ति के लिए व्रती को प्रदोष व्रत के धार्मिक विधान का नियम और संयम से पालन करना चाहिए।

शनि प्रदोष व्रत विधि-विधान पूर्वक करने से पुत्र प्राप्ति होती है। इस व्रत की कथा इस प्रकार है- प्राचीन समय की बात है। किसी नगर में एक सेठ-सेठानी रहते थे। वह अत्यन्त दयालु थे। उसके यहां से कभी कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता था लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी जिसके कारण वे दोनों काफी दु:खी रहते थे। एक दिन उन्होंने तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया। अभी वे नगर के बाहर ही निकले थे कि उन्हें एक विशाल वृक्ष के नीचे समाधि लगाए एक तेजस्वी साधु दिखाई पड़े।

दोनों ने सोचा कि साधु महाराज से आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा शुरू की जाए। पति-पत्नी दोनों समाधिलीन साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए और उनकी समाधि टूटने की प्रतीक्षा करने लगे। सुबह से शाम और फिर रात हो गई लेकिन साधु की समाधि नही टूटी। मगर वे दोनों पति-पत्नी धैर्यपूर्वक हाथ जोड़े पूर्ववत बैठे रहे। अंतत: अगले दिन सुबह साधु समाधि से उठे। पति-पत्नी को वहां बैठा देख साधु महाराज बोले- मैं तुम्हारे अन्तर्मन की कथा भांप गया हूं वत्स! मैं तुम्हारे धैर्य और भक्तिभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूं। साधु ने सन्तान प्राप्ति के लिए उन्हें शनि प्रदोष व्रत करने की विधि समझाई और शंकर भगवान की निम्न वन्दना बताई-

हे रुद्रदेव शिव नमस्कार। शिव शंकर जगगुरु नमस्कार॥
हे नीलकंठ सुर नमस्कार। शशि मौलि चन्द्र सुख नमस्कार॥
हे उमाकान्त सुधि नमस्कार। उग्रत्व रूप मन नमस्कार॥
ईशान ईश प्रभु नमस्कार। विश्वेश्वर प्रभु शिव नमस्कार॥

तीर्थयात्रा के बाद दोनों पति-पत्नी वापस घर लौटे और नियमपूर्वक शनि प्रदोष व्रत करने लगे। कुछ समय बाद ही सेठ की पत्नी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार शनि व्रत करने से उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई।



जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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