Friday, August 17, 2012

Baba Kinaramji (बाबा कीनाराम जी)


अघोरेश्वर कीनाराम जी
(आविर्भाव सन् १६०१ ई. -महाप्रयाण १७७१ ई.)
उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले की चन्दौली तहसील (अब जिला) के रामगढ़ ग्राम में अकबरसिंह नामक एक रघुवंशी क्षत्रिय रहते थे। उनकी पत्नी मनसा देवी को स्वप्न में भगवान् शिव नन्दी बैल पर बैठे हुए दिखलायी पड़े। पुरोहितों ने इस स्वप्न को सुनकर मनसा देवी से कहा- 'आपके गर्भ से ९ माह बाद भगवान् सदाशिव अवतार लेंगे। शिशु के जन्म के पूर्व तीन महात्मा चातुर्मास्य का बहाना लेकर उस गाँव में ठहरे थे। जन्म होने पर तीनों महात्माओ ने अकबर सिंह के द्वार पर उपस्थित होकर शुभकामना व्यक्त की। उन तीनों में से सबसे वयोवृद्ध महात्मा ने बालक को अपनी गोद में लेकर उसके कान में कुछ शब्द कहे जो सम्भवत: दीक्षामन्त्र था। पुरोहितों ने अकबर सिंह को परामर्श दिया कि ६० वर्ष की उम्र में आपको पुत्ररत्न मिला है इसके दीर्घजीवी होने के लिए आप इसको किसी के हाथ बेचकर फिर 'किन' (खरीद) लें। इस परामर्श का क्रियान्वयन होने के कारण बालक का नाम कीनाराम हुआ। इसका राशिनाम शिवा था। इन्हीं की वैष्णव लोग 'शिवाराम' के नाम से जानते थे।

किशोर वय में कीनाराम का विवाह हुआ। पत्नी का नाम कात्यायनी था। पति के घर जाने से पूर्व ही उसका देहान्त हो गया फलस्वरूप अत्यन्त तीव्र वैराग्य उत्पन्न होने के कारण कीनाराम तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। इस क्रम में वे गाजीपुर जिले के कारो गाँव (अब बलिया में है) में पहुँचे। वहाँ एक क्रूर जमींदार ने मालगुजारी बकाया रहने के कारण एक विधवा के पुत्र बीजाराम को, हाथ पैर बाँधकर जेठ की दोपहरी में, भूमि पर लिटा दिया था। कीनाराम ने जमींदार से कहा- 'अपने पैर के नीचे की जमीन खोदो। तुम्हें बकाया मालगुजारी और जमीन खोदने का पारिश्रमिक दोनों मिल जायेगा।' जमींदार ने वैसा ही किया। पैसा मिलने पर उसने कीनाराम से क्षमा माँगी और बीजाराम को छोड़ दिया।

माँ के दुराग्रह पर बाबा कीनाराम बीजाराम को लेकर चल दिये। बालक बीजाराम आजीवन कीनाराम के साथ छाया की तरह रहा।कारो ग्राम से चलकर बाबा गिरनार की ओर बढ़ गये। कीनाराम को पादुकासिद्धि (=खड़ाऊँ पहन कर पानी या कीचड़ के ऊपर या आसमान में चलना) प्राप्त थी। इसके साथ उन्होंने पृथिवी में प्रवेश की, आकाशगमन की भी सिद्धि स्वत: प्राप्त की। जूनागढ़ पहुँच कर बाबा भिक्षाटन करने लगे। जूनागढ़ के नवाब के आदेशानुसार सिपाहियों ने पहले भिक्षाटन करते हुए बीजाराम को फिर बाबा कीनाराम को जेल में बन्द कर दिया। वहाँ और भी साधु बन्दी थे। इस जेल में ९८१ चक्कियाँ थीं। सबके साथ एक चक्की बाबा को भी आटा पीसने के लिये दी गयी। बाबा ने चक्की को देखा और कहा- 'चल'। वह नहीं चली। इस पर उन्होंने चक्की पर एक कुबड़ी (=छोटा डण्डा) मारी। देखते ही सारी ९८१ चक्कियाँ चलने लगीं। यह सुनकर नवाब दौड़ा-दौड़ा बाबा के पास आया और क्षमा माँगा। बाबा ने उसे दो आदेश दिये-(१) आज से किसी साधु को तंग मत करना। (२) जो साधु फक़ीर तुम्हारे यहाँ आये उसे खुदा के नाम पर ढ़ाई पाव राशन दे देना। वहाँ बाबा के दोनों आदेशों का पालन चलता रहा और बाबा के आशीर्वाद से जूनागढ़ में मुसलमान शासक की वंशपरम्परा भी चली।

जूनागढ़ से चलकर बाबा कीनाराम खाड़ी और दलदलों को पार करते हुए कराँची से ७० किमी. दूर हिंगलाज१ पहुँचे। हिंगलाज मन्दिर से कुछ दूरी पर उन्होंने धूनी लगायी। हिंगलाज देवी स्वयं एक कुलीन महिला के रूप में वहाँ उन्हें प्रतिदिन भोजन पहुँचाती थी। धूनी की साफ-सफाई भैरव स्वयं एक वटुक के रूप में करते थे। कुछ दिनों के बाद बाबा ने उस महिला से परिचय पूछा तो देवी ने स्वयं अपने रूप का दर्शन दिया और कहा- 'जिसके लिये आप तप कर रहे हैं मैं वही हूँ। मेरा यहाँ का समय पूरा हो गया है। अब मुझे मेरे स्थान काशी में ले चलो। मैं काशी में केदारखण्ड के क्रीं कुण्ड में निवास करूँगी।' बाबा ने धूनी ठंडी की, और चल दिये।

सन् १६३८ में बाबा हिंगलाज से मुल्तान और मुल्तान से कन्धार पहँचे। कन्धार में मिट्टी का एक विशाल किला था जो व्यापारिक और सामरिक दृष्टि से भारत और फारस दोनों देशों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण था। बाबा के आशीर्वाद से शाहजहाँ ने किले को फारस के शाहअब्बास से जीत लिया। बाद में उसने वहाँ बुलाकर बाबा का भव्य सत्कार किया। कुछ दिनों बाद शाहजहाँ से बाबा की भेंट उत्तर भारत में हुई। इस समय शाहजहाँ अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल के ऊपर दीवाना था और राजकोष का बहुत अपव्यय कर रहा था। बाबा के प्रति उसने अवज्ञा और उद्दण्डता दिखायी। बाबा ने उसे शाप दे दिया- 'तुमने साधु की अवज्ञा की है। तुम बीबी के गुलाम हो। अपनी ही औलाद के हाथों दु:ख पाओगे और अपनी करनी का फल चखोगे।' वैसा ही हुआ। शाहजहाँ अपने पुत्र औरंगजेब के हाथों जेल में बन्द किया गया और यातना भोगता रहा।

महाराज कीनाराम फिर जूनागढ़ आ गये। वहाँ उन्होंने कमण्डलु कुण्ड अघोरी शिला पर सिद्धेश्वर दत्तात्रेय को बड़े विभत्स रूप में मांस का टुकड़ा लिये देखा। दत्तात्रेय ने उस मांस में से एक टुकड़ा काटकर कीनाराम को दिया। उसे खाने के बाद कीनाराम को दूरदृष्टि प्राप्त हो गयी। एक ही समय में अनेक स्थानों में प्रकट होने की सिद्धि उन्हें पहले से प्राप्त थी। उन्होंने गिरनार पर्वत से दिल्ली के बादशाह को घोड़े पर सवार और वजीर से दुशाला लेते देखा था।

गिरनार से कश्मीर और दिल्ली होते हुए बाबा कीनाराम काशी में आये और वहाँ हरिश्चन्द्र घाट पर भगवान् दत्तात्रेय के अंशभूत कालूराम से उनकी भेंट हुई। कालूराम उस समय मुर्दों की खोपड़ियों से अनेक चमत्कार दिखा रहे थे, उन्हें चना खिला रहे थे। कालूराम ने इशारे से कीनाराम से भोजन माँगा। बाबा ने गंगा की ओर ऊपर हाथ उठाया और गंगा जी से मछलियाँ निकल-निकल कर चिता में गिरने लगीं। कालूराम ने उनका भोजन किया। कालूराम और कीनाराम ने उस समय के जमींदार राघवेन्द्र सिंह को बुलाकर उनसे सम्पर्क किया और क्रींकुण्ड तथा उसके आस पास की ९० बीघा भूमि दान में प्राप्त की। यहाँ कीनाराम, कालूराम और कीनाराम के शिष्य रामजियावन, जिसको बाबा ने मरने के बाद जीवित कर लिया था, की समाधि है।

एक बार बाबा कीनाराम के आदेश से बीजाराम सितार लिये हुए आकाश में उड़ गये। वहाँ उनके शरीर से ज्वाला उत्पन्न हुई, चिनगारियाँ निकलने लगीं, मानो पूरा शरीर जल गया। बाद में सब लोगों के देखते-देखते बीजाराम चमगादड़ों के साथ नीचे उतर आये; बाबा को प्रणाम किया और सितार बजाने लगे। तब से क्रींकुण्ड पर पेड़ों में बहुत सारे चमगादड़ रहते हैं।

बनारस में ईश्वरगंगी मुहल्ले में बाबा लोटादास रहते थे। उनको लोटा की सिद्धि प्राप्त थी। वे उस पात्र में से मनोवाञ्छित वस्तु निकालकर दूसरों को दे देते थे। कीनाराम ने किसी समय लोटादास की किसी मामले में सहायता की थी। तब से दोनों में प्रगाढ़ सम्बन्ध था। एक बार लोटादास ने भण्डारा किया, उसमें कीनाराम को निमन्त्रित नहीं किया। कीनाराम चुपचाप जाकर वहाँ बैठ गये। जब भोजन के लिये पत्तल और पानी परोसा गया तो पत्तलों पर मछलियाँ कूदने लगीं और पानी में शराब की दुर्गन्ध आने लगी। लोटादास ने आकर बाबा से क्षमा मांगी। तब सब्जी की जगह तैर रहीं मछलियाँ बदल गयीं और पानी में सुगन्ध आ गयी। लोटादास ने अपने सिद्ध लोटा से कीनाराम के पात्र (=कपाल) में भोजन देना शुरु किया। कई लोटा और दही देने पर भी कपाल नहीं भरा। क्षमा माँगने पर कीनाराम ने लोटादास के भण्डार गृह में पहले से चार गुनी अधिक दही पूड़ी की व्यवस्था कर दी।

एक बार क्रींकुण्ड के पास शिवाला घाट पर काशीनरेश चेतसिंह के किले में वैदिक ब्राह्मण वेदपाठ कर रहे थे। कीनाराम गधे पर चढ़कर वहाँ पहुँचे। ब्राह्मणों ने उनका अपमान कर दिया। बाबा बोले - लोलुप ! ठगविद्या का आश्रय लेने वालो, उदरनिमित्त अपने धर्म से विमुख ब्राह्मणो, देखो मेरा गदहा वेद बोल रहा है। ऐसा कहकर महाराज ने गदहे का कान ऐंठा और थप्पड़ मारा। गधा वेदमन्त्र बोलने लगा। कीनाराम ने अक्षत लेकर किला की ओर फेंका और शाप दिया-'किला में कबूतर बीट करेंगे। छोड़कर भागना होगा। यह किला विधर्मियों के अधिकार में चला जायगा। यहाँ उपस्थित सभी लोग नि:संतान होंगे।' वैसा ही हुआ। अंग्रेजों के आक्रमण पर चेतसिंह को किला छोड़कर भागना पड़ा। आज भी उस किले में कबूतरों का झुण्ड रहता है।

एक बार कीनाराम अपनी जन्मभूमि रामगढ़ में रह रहे थे। उनके पास आकाशमार्ग से एक भैरवी आयी जो पूर्णतया नग्न थी। महाराज ने अपनी जटा से एक बहुत सुगन्धित रेशमी वस्त्र निकाल कर भैरवी के ऊपर फेंक दिया। भैरवी के ऊपर जो कोई वस्त्र फेंका जाता वह जल जाता था पर वह वस्त्र नहीं जला। भैरवी आश्चर्य में पड़ गयी। बाबा के पास एक ही लंगोटी रहती थी। नहाने के पहले उसे धुलकर आकाश में फेंक देते थे। नहाने के बाद हाथ आकाश में उठाते और लंगोटी उनके हाथ में आ जाती। लंगोटी को फट्कारने पर उसमें से चिनगारियाँ निकलती थीं। हाथ से सुरकने पर उसमें से रंगविरंगी किरणें निकला करती थी। इसी प्रकार नि:संतान ब्राह्मण दम्पती को चार पुत्रों की प्राप्ति, छोटी लकड़ी को आवश्यकता से अधिक बड़ी करना उनका चमत्कार था। रामगढ़ में कुँवा खोदने के लिए इन्होंने आकाश में हाथ उठाकर कई अञ्जली सिक्के मँगाये थे। तथा इंर्टों के घट जाने पर उपलों से कुँये को बँधवाया था। रामगढ़ में आज भी वह कुआँ विद्यमान है। इस कुँये में चार घाट है और हर घाट के पानी का स्वाद अलग-अलग है। स्वामी जी ने ७० वर्ष की उम्र में कायाकल्प किया था।

काशी में क्रींकुण्ड में दो कुँयें हैं। जिस कुण्ड का पानी पीया जाता है एक बार बाबा उसमें प्रवेश कर गये। वापस न निकलने पर लोगों को चिन्ता हुई। उसी समय एक भक्त जगन्नाथपुरी गया हुआ था। वहाँ उसने हाथ में नारियल का कमण्डलु लिये जटाजूटधारी बाबा कीनाराम को जगन्नाथ मन्दिर से बाहर आते देखा। काशी आकर उसने यह घटना बतलायी। बाबा ने औरंगजब को फट्कारा था- 'धर्म के नाम पर पृथिवी को न रंगें। भविष्य आपका कृतज्ञ नहीं होगा।...आपकी मृत्यु नजदीक है...आप लोलुपचित्त हैं....दिल्ली तक आपका पहुँचना कठिन है।

एक बार उन्होंने अपने सामने उपस्थित कामासक्त स्त्रियों को उपदेश के द्वारा कामवासनारहित कर सन्मार्ग पर पहुँचाया था। एक बार बाबा मुंगेर जिले में श्मशान के समीप चातुर्मास्य कर रहे थे। एक मध्यरात्रि में पीले रंग के मांगलिक वस्त्र को पहने खड़ाऊँ पर चढ़ी एक योगिनी आकाशमार्ग से बाबा के सामने उतरी और निवेदन किया-'गिरनार की काली गुफा में निवास करती हूँ। अन्त:प्रेरणा हुई और आपके पास आगयी। आप तान्त्रिक क्रियाओं द्वारा मेरे साध्य को पूरा करें ताकि मैं पूर्ण हो जाऊँ। श्मशान में एक शव था। चार खूँटियाँ चार कोनों में गाड़ कर शव के हाथ-पैर को चारों खूँटियों से बाँध दिया गया। लालवस्त्र से शव को ढँककर उसका मुख खोल दिया गया। योगिनी और महाराज भगलिङ्ग आसन पर बैठकर शव के मुख में हवन करते रहे। योगिनी तृप्त हुई। अन्त में श्मशान-देवता नन्दी पर बैठ कर उपस्थित हुए और इस साधना को सफल होने का आशीर्वाद दिया। अभी भी यदा कदा जूनागढ़ अहमदाबाद मार्ग पर योगिनियों का दर्शन लोगों को मिलता रहता है। इस प्रकार की अनेक चमत्कारपूर्ण घटनायें बाबा के जीवन में घटित हुईं। विस्तार के भय से उनका वर्णन यहाँ नहीं किया जा रहा है।

भविष्यवाणी- एक बार विजयकृष्ण गोस्वामी को सम्बोधित करते हुए बाबा ने कहा -'पुरुष की जरूरत पुत्रादि के लिए होती है। शताब्दियों बाद विज्ञान का चमत्कार सामने आयेगा तब स्त्रियाँ पुत्रों के लिये कृत्रिम गर्भाधान करायेंगी। अपनी उपेक्षा और अवहेलना के प्रतिशोध में पुरुषों की उपेक्षा और अवहेलना करने को वे उद्यत होंगी।'

उपदेश-'पुरुष विधुर हो सकते हैं स्त्रियाँ विधवा नहीं हो सकती। पति की मृत्यु के ६ महीने बाद रजस्वला होने पर उनका विवाह कराया जा सकता है।'

'मनुष्य को कामना दु:ख देती है। विषयासक्त जीवन अथाह होता है। दम्भ से भरा व्यक्तित्व झुलस जाता है...मान-बड़ाई-स्तुति और कुत्ते का लिङ्ग पैठते-पैठते पैठ जाता है पर निकलने के समय बहुत कष्ट देता है।...चोरी नारी (=व्यभिचार), मिथ्या त्याग और साधु की इच्छा इन तीनों से अपने को बचाओ और बचो।'

'दुविधा धोबी कुमति कलवार तृष्णा तेली हम धरकार।
हमरे भीतर भरा मूत खखार कहे कीनाराम रहिये ओही पार।'
'साधु है तुरीयातीत, साधु की दृष्टि में नहीं कोई अमीत।'

जीवन जीने के लिये नहीं है। जीवन मरने के लिए भी नहीं है। जीवन जानने के लिए है। सन्यास वैराग्य देह का विषय है आत्मा का नहीं। आत्मा शुद्ध चैतन्य है। उसमें किसी का प्रतिबिम्ब नहीं होता। देह और मन में ही प्रतिबिम्ब होता है।

१. हिंगलाज देवी का मन्दिर अब पाकिस्तान में है। वहाँ के लोग उसे बीवी-नानी के नाम से जानते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

No comments:

Post a Comment