Thursday, June 14, 2012

Vishwas (विश्वास )

सच्चा विश्वास इस तरह बदल सकता है हर परिस्थिति को
जिंदगी सिर्फ एक ही आधार पर चलती है। वो आधार है विश्वास। अगर हमारे मन से विश्वास समाप्त हो जाए तो फिर सबकुछ खत्म हुआ समझिए। विश्वास ही एक ऐसा साधन है जिस पर सबकुछ टिका है। परमात्मा है, यह विश्वास ही अंतिम समय में परिस्थितियों को बदल सकता है।

अगर आपके मन में विश्वास कायम रखना चाहते हैं तो अपने मन में दो भाव और जगाइए, आस्था और समर्पण का। जिस पर आपको विश्वास हो उसके प्रति आस्था और समर्पण भी रखें। फिर कभी भी आपको निराशा हाथ नहीं लगेगी। भगवान को ये तीन भाव ही सबसे ज्यादा प्रिय हैं। जब तक ये तीन कायम हैं कोई भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

महाभारत के उस दृश्य में चलते हैं जहां इतिहास के सबसे भीषण युद्ध की नींव रखी गई। हस्तिनापुर के राजमहल में कौरव और पांडवों के बीच जुआ खेला जाना। पांडव लगभग सभी चीजें हार चुके थे, राज्य, सेना, धन, अपने आप को भी, इसके बाद दाव पर लगाया गया द्रौपदी को।

कौरवों ने उसे भी जीत लिया। दुर्योधन ने दु:शासन को आदेश दिया कि वो द्रौपदी को खींचकर राजसभा में ले आए। ऐसा ही हुआ। द्रौपदी के वस्त्र उतारने का आदेश दिया गया। दु:शासन ने वैसा ही किया। द्रौपदी ने राजसभा में बैठे हर व्यक्ति से सहायता मांगी लेकिन कोई नहीं उठा। दु:शासन ने उसकी साड़ी खींचना शुरू की।

तब द्रौपदी ने सब कुछ भगवान कृष्ण पर छोड़ दिया। उसे विश्वास था कि अब केवल वो ही उसे बचा सकते हैं। वो कृष्ण का नाम जपने लगी। और फिर अचानक द्रौपदी की साड़ी अपने आप बढऩे लगी। दु:शासन जितना खिंचता कपड़ा उतना ही बढ़ जाता। वो थक गया। लेकिन द्रौपदी के कपड़े नहीं उतार सका। आखिरी में उसे हार माननी पड़ी।

ये चमत्कार था द्रौपदी के विश्वास का। उसकी कृष्ण में आस्था और अपना भविष्य कृष्ण पर ही छोड़ देने का। हमारे साथ यह होता है कि जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती हैं हमारा विश्वास डिगने लगता है। जब तक विश्वास अडिग नहीं होगा, परमात्मा कभी हमारी सहायता करने नहीं आएगा।

अगर मनचाही सफलता चाहिए तो सबसे पहले यह करें...
अक्सर हम दुनिया जीतने निकल पड़ते हैं लेकिन खुद पर ही भरोसा नहीं होता। खुद पर भरोसे का मतलब है आत्म विश्वास से। जब भी कोई मुश्किल काम करने जाते हैं तो एक बार सभी के हाथ कांप ही जाते है।

सफलता का पहला सूत्र आत्म विश्वास ही है। अगर हम खुद पर ही भरोसा नहीं कर सकते, खुद की योग्यता का अनुमान ही नहीं लगा सकते हैं तो फिर किसी पर भी किया गया विश्वास हमारे काम नहीं आ सकता।

रामायण के एक प्रसंग में चलते हैं। वानरों के सामने समुद्र लांघने का बड़ा लक्ष्य था। समुद्र पास बसी लंका से सीता की खोज खबर लाना थी। जामवंत ने कहा कौन है जो समुद्र पार जा सकता है। सबसे पहले आगे आए अंगद। बाली के पुत्र अंगद में अपार बल था लेकिन उन्होंने कहा कि मैं समुद्र लांघ तो सकता हूं लेकिन लौटकर आ सकूंगा या नहीं इस पर संदेह है। जामवंत ने उसे रोक दिया। क्योंकि उसमें आत्म विश्वास की कमी थी।

जामवंत की नजर हनुमान पर पड़ी। जो शांत चित्त से समुद्र को देख रहे थे जैसे ध्यान में डूबे हों। जामवंत ने समझ लिया कि हनुमान ही हैं जो पार जा सकते हैं। क्योंकि इतनी विषम परिस्थिति में भी वो शांत चित्त हैं। जामवंत ने हनुमान को उनका बल याद दिलाया और बचपन की घटनाएं सुनाई।

हनुमान विश्वास से भर गए। एक ही छलांग में समुद्र लांघने को तैयार हो गए। उनका यह विश्वास काम आया। समुद्र लांघा, सीता का पता लगाया, और फिर इस पार लौट आए।

अंगद भी ये काम कर सकते थे लेकिन उनके भीतर खुद की योग्यता पर विश्वास नहीं था। इस आत्म विश्वास की कमी से वो एक बड़ा मौका चूक गए।

ऐसा हो भरोसा तो हर काम में मिलेगी सफलता...
थोड़ी सी असफलता से विचलित हो जाना हमारा स्वभाव होता है। इसका कारण है, हमारे भीतर अविश्वास जागना। जब तक कर्म और आस्था में अविश्वास होगा, सफलता नहीं मिल सकती। सफलता के लिए चाहिए कि मन में एक विश्वास कायम रहे। पुरानी कहावत है कि जैसे हमारे भीतर के विचार होते हैं, हमारे कामों के परिणाम पर भी उसका वैसा ही प्रभाव होता है।

काम करते-करते अगर मन में थोड़ा भी अविश्वास आ जाए तो फिर सफलता दूर हो जाती है। विश्वास आस्था को बल देता है, आस्था से प्रार्थनाओं में असर आता है, ये असर काम को सफल बनाने में मददगार होता है। कोशिश करें, जब भी कोई काम शुरू करें तो उसकी सफलता के प्रति थोड़ी भी आशंका मन में ना लाएं। ये आशंका आपके प्रयासों को धीमा कर देगी।

विश्वास पत्थरों में भी जान डाल देता है। भागवत में कथा आती है दो असुर भाइयों की। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ये दो भाई थे, जिन्होंने देवताओं को बहुत प्रताडि़त किया। देवताओं ने हिरण्याक्ष को मार दिया। हिरण्यकशिपु उनसे बदला लेने के लिए तप करने लगा। तप से कई शक्तियां पा लीं लेकिन उसका पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था। पांच साल के प्रहलाद की आस्था विष्णु में अटूट थी।

हिरण्यकशिपु को ये पता चला तो उसे क्रोध आया। उसने प्रहलाद को कई तरह से समझाया कि विष्णु की भक्ति छोड़ दे लेकिन वह नहीं माना। उसे दंड दिया गया। हाथी के पैर तले कुचला गया, पहाड़ से नदी में फेंका गया, जलाया गया लेकिन हर बार बच गया। हिरण्यकशिपु ने उसे चुनौती दी। अगर भगवान है तो इस खंभे से निकालकर दिखा। प्रार्थना की और भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में खंभा तोड़कर प्रकट हो गए।

ऐसा हर बार संभव नहीं है, क्योंकि इसके लिए आस्था और विश्वास प्रहलाद जैसा होना चाहिए। प्रहलाद का भरोसा एक बार भी टूटता तो शायद कभी नरसिंह अवतार होता ही नहीं।

मन में भरोसा है तो साधारण शब्द भी कर सकते हैं चमत्कार...
लोग गुरुमंत्र तो लेते हैं लेकिन अक्सर उसके पीछे अपनी शंकाएं भी चिपका देते हैं। मन में अविश्वास का भाव आया कि मंत्र का असर ख़त्म हुआ समझिए। मन का विश्वास ही एक साधारण से मंत्र को चमत्कारी बना सकता है। अगर गुरु से मंत्र दीक्षा में लिया है तो उसमे पूरा भरोसा रखिये। विश्वास से बड़ा कोई मंत्र नहीं है।

शंका करना मन का स्वभाव होता है। किसी पर अविश्वास करके मन बड़ा प्रसन्न रहता है। इसीलिए लोग गुरु के शब्दों में भी संदेह ढूंढ़ते हैं। सिद्ध गुरु आरंभ में शब्द ऐसे बोलते हैं कि मन के द्वार बंद न हो जाएं। गुरुमंत्र में ऐसा प्रभाव होता है कि वह मन में प्रवेश करता है और फिर धीरे-धीरे उसकी सफाई करता है।

शक्तिपात गुरु स्वामीजी महाराज कहा करते थे कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा विकसित हो गया है कि वह हर बात में शंका करता है। उससे कोई कितनी भी सहानुभूति करे, वह उसमें भी संशय करता है। अध्यात्म के विषय में उसने केवल सुना ही सुना है, अनुभव नहीं किया। इसलिए इस संबंध में वह और भी अधिक शंकालु हो गया है। जब तक उसके मन में गुरु वचनों पर दृढ़ श्रद्धा नहीं होती, अंतर की शंका नीचे नहीं दबती। गुरु इस बात से अच्छी तरह परिचित होते हैं। अत: वह अपनी कृपा से शिष्य को चेतना शक्ति की जागृति का प्रत्यक्ष अनुभव करा देते हैं। चित्त में एक चिंगारी सुलग उठती है, जो आध्यात्मिक जागृति के लिए बीज का काम करती है।

सूर्य के फैलने वाले प्रकाश के पूर्व किरण होती है, जिससे साधक को ज्ञात हो जाता है कि चित्त में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होने वाला है, जिससे उसके मन में गुरु के प्रति, साधन के प्रति, अनुभव के प्रति श्रद्धा पैदा हो उठती है। श्रद्धा ही साधन का आधार है तथा सभी शंकाओं को दूर करने में मददगार है। श्रद्धा को केवल कर्मकांड से बलवती नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए ध्यान बहुत जरूरी है। लगातार ध्यान करने से जो अनुभव होते हैं, उससे श्रद्धा परिष्कृत होती है।

विश्वास करने का सही अर्थ यह होता है...
कई लोगों की आदत होती है जिस पर विश्वास करेंगे, आंखें मूंद कर करेंगे, जिस पर भरोसा नहीं हो, उसका गाहे-बगाहे अपमान करते रहेंगे। भगवान और भक्ति के मामले भी कुछ लोगों का नजरिया ऐसा ही होता है। जिस भगवान को मानते हैं उसे सबकुछ तो मानेंगे लेकिन दूसरे भगवानों को वे हमेशा अविश्वास की नजर से देखते हैं।

जिस संत को गुरु माना उसे भगवान की तरह पूजेंगे लेकिन अन्य संतों को ढोंगी बाबा कहने से नहीं चूकते। ऐसा विश्वास किसी काम का नहीं होता जो दूसरों पर अविश्वास और अपमान करवाता है। विश्वास वो दृष्टि है जो सभी के प्रति समानता का नजरिया पैदा करे। आप जिसे मानते हैं, पूजते हैं, पूजें लेकिन दूसरों को अपमानित ना करें। किसी में विश्वास करने का मतलब यह नहीं होता कि दूसरे में अविश्वास करें या उनका अपमान करें। विश्वास करने का अर्थ है सबका सम्मान करें। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की 35वीं चौपाई में समझाया है कि विश्वास का क्या अर्थ है।

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।

हे हनुमानजी, आपकी इस महिमा को जान लेने के बाद लोग अन्य देवता को अपने चित्त में स्थान नहीं देंगे। केवल आपकी ही सेवा में सारे सुख मिल जाएंगे। 'और देवता' कहने का एक अन्य अर्थ भी है। 'और अधिक' देवताओं को चित्त में न रखें। जो भी आपके इष्ट हों उन्हें बनाए रखें, लेकिन दूसरों के इष्ट की आलोचना भी न करें।

इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि यदि हनुमानजी को आप पूजेंगे, तो अन्य देवता आपको परेशान नहीं करेंगे। जैसे होता है कि कभी हम सोचते हैं शनि महाराज नाराज हो जाएंगे। तो तुलसीदासजी यह आश्वासन दे रहे हैं कि चिंता न की जाए। जिन्हें ज्योतिष में विश्वास है, वे ग्रहों के रूप में शनि को अत्यधिक पीड़ादायक मानते हैं। यदि जातक की राशि में शनि का प्रवेश हो, तो हर संभव प्रयास किया जाता है कि उनके कोप से बचा जाए। एक बार गर्व में डूबे सूर्य पुत्र शनि ने श्रीराम के ध्यान में मग्न श्री हनुमान को बाधा पहुंचाई।

हनुमानजी ने शनिदेव को समझाया कि वे ध्यान कर रहे हैं, परेशान न करें। किन्तु, शनिदेव ने उन्हें बलपूर्वक युद्ध के लिए ललकारा। तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ से शनिदेव को लपेटा और चारों ओर घुमाते हुए चट्टानों पर पटक-पटक कर लहूलुहान कर दिया। पीडि़त शनिदेव ने अपनी मुक्ति के लिए श्री हनुमानजी को यह वचन दिया कि 'मैं कभी आपके भक्त की राशि में प्रवेश नहीं करूंगा।' अपने घावों से परेशान होकर शनिदेव तेल-तेल का विलाप करने लगे। इसीलिए उन्हें तेल चढ़ाकर प्रसन्न किया जाता है।

धर्म की राह पर विश्वास से बढ़ कर कुछ भी नहीं...
हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान है, धर्म को समझना सरल नहीं है, धर्म को समझ कर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल है, लेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना। धर्म में जी लेना जितना कठिन है, जीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है।

तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहीं, क्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता है, वह लडख़ड़ाता है, गिर जाता है। सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है मैं तो पूरे ध्यान से चला रहा हूं फिर भी गिर जाता हूं और वह बड़ी मस्ती में चला रहा है।

जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है। धर्म का मामला कुछ इसी तरह का है, जब तक उसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाक, परेशानी में डालने वाला, लडख़ड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर हम उस मस्त साइकिल सवार की तरह हैं जो अपनी मर्जी से लहराते हुए चलाता है, अपनी मर्जी से रोक लेता है, अपनी मर्जी से उतर जाता है और बिना लडख़ड़ाहट के चला लेता है।

जीवन में धर्म बेश कीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा। पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरना, हम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे।


सफलता के लिए जरुरी है कि पहले भरोसा जीता जाए...
जीवन में संदेह और विश्वास का खेल चलता ही रहता है। जब अपने पर ही संदेह होने लगे तो उसका निराकरण आत्मविश्वास से होता है, लेकिन जब दूसरों पर संदेह हो तो या तो हमें उदारता से उन पर विश्वास करना पड़ेगा या सामने वाले को अपनी निष्ठा, ईमानदारी व योग्यता से संदेह का निवारण करना पड़ेगा।

फिर आज के दौर में विश्वास करना भी कठिन काम है। देखा जाता है कि मनुष्य, मनुष्य से बात कर रहा होता है, लेकिन भीतर ही भीतर हर शब्द को संदेह की दृष्टि से तौल ही रहा होता है। भरोसा ही नहीं होता कि आदमी की उपस्थिति, शब्दों और निर्णयों में कितनी सच्चई है।
सुंदरकांड में हनुमानजी और सीताजी की बातचीत हो रही थी। हनुमानजी सीताजी के सामने अपने आप को रामजी का दूत साबित कर चुके थे, लेकिन फिर भी सीताजी को उनकी क्षमता पर संदेह था।

हे सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।।
हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हे-नन्हे) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान योद्धा हैं।
अत: मेरे हृदय में भारी संदेह है कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे मारोगे? हनुमानजी समझ गए कि संदेह का निवारण अब शब्दों से नहीं होगा। यह सुनकर हनुमानजी ने अपने शरीर को विशालकाय बना लिया। तब उन्होंने बताया कि हम आचरण से ही दूसरों के प्रति विश्वसनीय हो सकते हैं।

तुलसीदासजी ने लिखा -
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
तब सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया। इसलिए संदेह होना स्वाभाविक है, लेकिन हमें विश्वास जीतना भी आना चाहिए।

किसके भरोसे पर करें जीवन का सफ़र...
अपनी जीवन यात्रा अपने ही भरोसे पूरी की जाए। यदि सहारे की आवश्यकता पड़े तो परमात्मा का लिया जाए। सहयोग संसार से लिया जा सकता है, पर इसके भरोसे न रहें। संसार के भरोसे ही अपना काम चला लेंगे यह सोचना नासमझी है, लेकिन केवल अपने ही दम पर सारे काम निकाल लेंगे, यह सोच मूर्खता है।

इसलिए सहयोग सबका लेना है लेकिन अपनी मौलिकता को समाप्त नहीं करना है। इसके लिए अपने भीतर के साहस को लगातार बढ़ाते रहें। अपने जीवन का संचालन दूसरों के हाथ न सौंपें। हमारे ऋषिमुनियों ने एक बहुत अच्छी परंपरा सौंपी है और वह है ईश्वर का साकार रूप तथा निराकार स्वरूप। कुछ लोग साकार को मानते हैं।

उनके लिए मूर्ति जीवंत है और कुछ निराकार पर टिके हुए हैं। पर कुल मिलाकर दोनों ही अपने से अलग तथा ऊपर किसी और को महत्वपूर्ण मानकर स्वीकार जरूर कर रहे हैं। जो लोग परमात्मा को आकार मानते हैं, मूर्ति में सबकुछ देखते हैं वह भी धीरे-धीरे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार को पकड़ लेते हैं जिसे कुछ लोग मूर्ति के बाहर ढूंढ रहे होते हैं। भगवान के ये दोनों स्वरूप हमारे लिए एक भरोसा बन जाते हैं।

वह दिख रहे हैं तो भी हैं और नहीं दिख रहे हैं तो भी हैं। यहीं से हमारा साहस अंगड़ाई लेने लगता है। जीवन में किसी भी रूप में परमात्मा की अनुभूति हमें कल्पनाओं के संसार से बाहर निकालती है। भगवान की यह अनुभूति यथार्थ का धरातल है। व्यर्थ के सपने बुनकर जो अनर्थ हम जीवन में कर लेते हैं, परमात्मा के ये रूप हमें इससे मुक्त कराते हैं। क्योंकि हर रूप के पीछे एक अवतार कथा है।
  

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK 

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