Saturday, June 30, 2012

Sidhdhi ( सिद्धि)


अगर अपनी सिद्धि को हमेशा कायम रखना है तो यह करें...
कोई भी सिद्धि तभी तक कायम रहती है, जब तक कि उसका अनुशासन नहीं तोड़ा जाए। हर सिद्धि का अपना एक अनुशासन होता है जैसे वाकसिद्धि यानी बोली की सिद्धि तभी तक होती है जब तक आप सच बोलते हैं। भूले से भी बोला गया एक झूठ कई वर्षों की वाक सिद्धि को खत्म कर सकता है।

एक निरपराध का मारने से वर्षों की युद्ध निपुणता खत्म हो सकती है। अगर आप किसी सिद्धि के साथ हैं तो उसके अनुशासन को लगातार पालन करते रहे। एक चूक आपकी वर्षों की मेहनत को धूल में मिला सकता है।

महाभारत का युद्ध चल रहा था। भीष्म तीरों की शैय्या पर लेट चुके थे। कौरव सेना की बागडोर गुरु द्रौणाचार्य के हाथ में थी। द्रौणाचार्य लगातार नई-नई व्यूह रचनाओं से पांडवों की सेना का नाश कर रहे थे। पांडवों की सेना में हड़कंप मचा हुआ था।

कृष्ण ने कहा किसी भी सूरत में द्रौणाचार्य को रोकना होगा, नहीं तो पांडव सेना समाप्त हो जाएगी। द्रौणाचार्य को शस्त्रों से रोकना मुश्किल था, सो कूट नीति का सहारा लिया गया। कौरव सेना के एक हाथी का नाम अश्वत्थामा था, कृष्ण ने भीम को कहा कि उसे मार दे। भीम ने ऐसा ही किया। और शोर मचाया कि मैंने अश्वत्थामा को मार दिया। अश्वत्थामा द्रौण के पुत्र का नाम भी था।

वो इसकी पुष्टी करने के लिए युधिष्ठिर के पास गए। युधिष्ठिर से पूछा कि क्या वाकई अश्वत्थामा मारा गया है तो उन्होंने कहा हां मारा गया। इसी बीच कृष्ण ने विजयी शंख फूंक दिया। युधिष्ठिर ने यह भी कहा हाथी या मनुष्य यह नहीं पता। लेकिन द्रौण शंख के शोर में ये सुन नहीं पाए। वे पुत्रशोक में ध्यान लगाकर बैठे और धृष्ठघुम्र ने उनका सिर काट दिया।

युधिष्ठिर ने सत्यव्रत लिया था। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे। कहते हैं इसी के प्रभाव से उनका रथ धरती से तीन अंगुल ऊपर चलता था। द्रौणाचार्य से बात के बाद उनका रथ जमीन पर आ गया। युधिष्ठिर ने झूठ नहीं बोला लेकिन उन्होंने एक झूठे कर्म में सहयोग दिया।

इस कर्म के कारण उनकी सत्य सिद्धि जाती रही। हम जब भी कोई सिद्धि पाएं तो उसके अनुशासन को भूलकर भी ना तोड़ें। नहीं तो वह सिद्धि पलभर में हमारा साथ छोड़ देगी।

जानिए कैसे पाई जा सकती है कोई सिद्धि?
कहते हैं कोई भी सिद्धि बहुत अभ्यास के बाद ही मिलती है। लगातार किसी चीज का अभ्यास हमें उसमें निपुण बनाता है और यह निपुणता ही हमारी सिद्धि कहलाती है। पुराणों में सिद्धियों के आठ प्रकार बताए गए हैं लेकिन ये सब तप से मिलती हैं। अधिकांश तंत्र साधना का हिस्सा हैं।

हम जिन सिद्धियों की बात कर रहे हैं वे हमारे व्यवहार से आती हैं। पुराणों में ऐसे पात्रों का भी उल्लेख मिलता है जिनके व्यवहार से ही प्रसिद्ध थे, और उनका व्यवहार ही सिद्धि था। जैसे सत्य बोलना। ऐसा माना जाता है कि हम अगर कई वर्षों तक सत्य बोलते रहे, कभी मजाक में भी किसी से झूठ ना कहें तो ये हमारी वाक सिद्धि होती है।

महाभारत में कुंती की वाक सिद्धि मानी गई है। ऐसा कहा जाता है कि कुंती ने कभी कोई झूठ नहीं बोला। उसने वो ही कहा जो सत्य था। जब पांचों पांडव द्रौपदी के स्वयंवर से लौटे। अर्जुन ने मछली की आंख भेदकर द्रौपदी को जीता था।

वे गए थे भिक्षा मांगने और स्वयंवर मे चले गए। कुंती को यह बात पता नहीं थी। भाइयों ने आकर मां से कहा देखो मां आज हम क्या लेकर आए हैं। कुंती ने बिना देखे कह दिया पांचों भाई बराबर बांट लो। युधिष्ठिर ने कहा मां ने आज तक कभी असत्य नहीं कहा। मां का हर वचन सत्य होता है।

नतीजतन पांचों भाइयों ने द्रौपदी से विवाह किया। ये प्रताप था कुंती के सत्य बोलने का। वो जो कहती थी वो सच होता था। हम अपने व्यवहार में ऐसी बातें लाएं, उनका कठोरता से पालन भी करें तो सिद्धि मिलना कोई मुश्किल नहीं है। इसके लिए जरूरत है लगातार अभ्यास और इसे व्यवहार में उतारने की।

इस तरह से आती हमारे भीतर सिद्धि...
किसी भी काम में कुशलता तभी आती है जब इसमें निरंतरता हो। बिना नियमित अभ्यास के कोई सिद्धि नहीं मिल सकती। भगवान हनुमान इसी की तरफ संकेत कर रहे हैं कि जब भी कोई काम करो, उसमें निरंतरता बनाए रखो। तभी वो काम और उसकी कुशलता आपकी सिद्धि बन जाएगी।

तुलसीदासजी ने भी हनुमान चालीसा में इसका उल्लेख किया है कि हर अच्छे काम में नियमित रहना जरूरी है। हनुमान की रामभक्ति इसलिए सिद्ध है क्योंकि उसमें निरंतरता है। वे कभी राम नाम से अलग ही नहीं हुए।
सफलता का एक सिद्धांत यह है कि या तो आप हालात को अपने अनुकूल बना लें या परिस्थितियों के अनुकूल बन जाएं। दोनों ही स्थितियों में संघर्ष भले ही हो, लेकिन सफलता सरलता से मिल जाती है। श्रीहनुमानचालीसा की बत्तीसवीं चौपाई है -

राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा।।

इसकी दूसरी पंक्ति में एक शब्द आया है- सदा। आइए इन शब्दों को जीवन से जोड़कर देखें। हनुमानचालीसा में जिस रसायन की चर्चा हुई है और जो हनुमानजी के पास है, इसका अर्थ है सभी परिस्थितियों के अनुकूल रहना।

इस रसायन का आध्यात्मिक संदेश यह है कि हमारा रहना इस प्रकार हो कि हम संसार में रहें, संसार हममें न रहे। सदा रहो रघुपति के दासा इसमें सदा शब्द महत्वपूर्ण है। श्रीराम ने हनुमानजी को उनकी उपयोगिता, उनके समर्पण और भक्ति के कारण सदा अपने पास रहने का गौरव दिया है।

श्रीराम का मानना है कि जाने कब, कौन-सी समस्या आ जाए। इसलिए समाधान हेतु श्री आंजनेय का साथ रहना ठीक है। प्रबंधन का सूत्र है कि यदि आप समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो फिर आप स्वयं एक समस्या हैं।

हनुमानजी का यह समाधानकारी चरित्र हमें जीवन तत्वों का सही उपयोग करते हुए व्यक्तित्व विकास की प्रेरणा देता है। परमात्मा की निकटता बड़ी उपलब्धि है। यह सदा रहनी चाहिए। ऐसा न हो कि आज सफल हुए, लापरवाही के कारण कल वह सफलता जीवन से फिसल जाए।

किसी भी सिद्धि के लिए सबसे जरूरी बात यह है...
शरीर में शक्ति का संचय तभी होता है, जब उसे इसका समय मिले। ध्यान शरीर में मानसिक और शारीरिक शक्ति को इकठ्ठा करने का वो समय देता है। ध्यान एकाग्रता बढ़ाता है। एकाग्रता किसी भी सिद्धि की पहली सीढ़ी होती है। बिना एकाग्र मन के कोई उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकती। जब तक हम मन को पकडऩा नहीं सिखते, ये हमें कुछ और नहीं सिखने देता। सबसे जरूरी है, अपने मन पर नियंत्रण किया जाए। फिर किसी सिद्धि के पीछे भागा जाए। दुनिया की लम्बी दौड़ में कई मोड़ ऐसे आते हैं जब न चाहते हुए भी हाफना पड़ जाता है। ऊर्जा के सांसारिक केन्द्र बहुत अधिक मदद नहीं कर पाते हैं। ऐसे समय आध्यात्मिक शक्ति अपने भीतर उत्पन्न करने की कला हमें सीख लेना चाहिए।

हमारे ऋषि-मुनियों ने एकाग्रता पर बहुत काम किया है। हर काम करते समय एकाग्रता का अभ्यास रखें। जब जो करें, जमकर करें। यह भी एकाग्रता है। एकाग्रता से तीन फायदे होते हैं। पहला- शक्ति उत्पन्न होती है, दूसरा- धैर्य जागता है और तीसरा- शक्ति और धैर्य के परिणाम में हम साहसी हो जाते हैं।

यह साहस ही हमें संसार की हर उपलब्धि को प्राप्त कराएगा तथा भगवान के निकट भी ले जाएगा। इतिहास गवाह है कि जो-जो लोग भी खूब सफल हुए हैं वे अपने कार्य के प्रति एकाग्र चित्त रहे हैं। एकाग्र चित्त होने का अभ्यास प्रतिदिन नियमित रूप से करना होगा। सीधा सा तरीका तो यह है कि कोई भी कार्य आरंभ करने के पहले अनर्गल विचार और गतिविधियों को विराम दें।

निश्चय करें कि जो भी कुछ करना है, सोचना है, मिलना-जुलना है वह किए जा रहे कार्य के बाद ही होगा। इस समय जो कर रहे हैं, बस वही करना है। यह दृढ़ता धीरे-धीरे एकाग्र चित्त बना देगी। हम जितने एकाग्र चित्त होंगे उतने ही जागे हुए रहेंगे। भगवान महावीर स्वामी ने जैन धर्म में एक सुंदर शब्द दिया है- असुत्ता मुनि और सुत्ता अमुनि।

इसका अर्थ है जो एकाग्र चित्त है वह जागा हुआ है और जो जाग कर जी रहा है उसे लोग संन्यासी कहेंगे, वर्ना सोया हुआ व्यक्ति संसारी है। असुत्ता मुनि मतलब जो सोया हुआ नहीं है और सुत्ता अमुनि मतलब जो सोते हुए चल रहा है, वह असाधु है। इसलिए खूब काम करें, पर होश में करें। इसी को जागते हुए करना कहते हैं।

हनुमान से सीखें, कैसे हर समस्या से निपटा जाए...
किसी भी व्यक्ति में सबसे बड़ी सिद्धि होती है अपना काम बिना किसी परेशानी के पूरा करने की। हनुमान इस मामले में आदर्श देवता हैं। किसी भी काम में आने वाली मुश्किलों से कैसे निपटा जाए ये हनुमान से सिख सकते हैं।

हमारे व्यक्तित्व में जिस बात का रस भरा होगा, उसके छींटे हमसे मिलने वालों पर गिरेंगे ही। हनुमानजी तो भीतर से भक्ति रस से भरे हुए हैं, उनके रोम-रोम में राम हैं। इसी कारण जो उनसे मिलता है, उसे सान्निध्य सुख प्राप्त होता है।

उनकी मौजूदगी ही अपने आप में एक संरक्षण बन जाती है। सुंदरकांड में लंका प्रवेश पर हनुमानजी व लंकनी का वार्तालाप तुलसीदासजी ने बड़े गहन भाव के साथ लिखा है। वह हनुमानजी से हो रही अपनी इस वार्ता को सत्संग बताती है और आगे लंका प्रवेश के लिए हनुमानजी को एक विचार देती है।

इस विचार की चौपाई को तुलसीदासजी ने लंकनी जैसी राक्षसी के मुंह से कहलाया है-
 
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयं राखि कोसलपुर राजा।।
 
अयोध्या पुरी के राजा श्रीरघुनाथजी को हृदय में रखकर नगर में प्रवेश करते हुए सब काम कीजिए।

मानस की यह चौपाई अपने प्रभाव के कारण ही मंत्र हो गई। विपत्तियों को छोटी मान लेना ही उन पर विजय जैसा है। हनुमानजी के हृदय में तो श्रीराम पूर्व से थे ही, क्योंकि लंका के लिए उड़ते समय उनके लिए लिखा गया है-
 
यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।।

उन्होंने दो काम किए थे- पहला श्रीराम हृदय में थे, दूसरा प्रसन्न थे। इसी कारण हनुमानजी की उपस्थिति मात्र से लंकनी के विचार भी दिव्य हो गए। हम अपनी भीतरी स्थिति को जितना पुनीत रखेंगे, बाहर का वातावरण उतना ही शुभ होगा।

काम को इस तरह पूरा करना भी एक सिद्धि ही है...
बुद्धिमान व्यक्ति को धैर्यवान भी होना चाहिए। कभी-कभी बुद्धि की अधिकता आदमी को अधीर बना देती है। हनुमानजी के लिए सुंदरकांड में मतिधीर शब्द का उपयोग किया गया है। इसका अर्थ है - वे बुद्धिमान भी हैं और धैर्यवान भी।

सुरसा नाम की राक्षसी जब मुंह फैलाकर उन्हें खाने के लिए आगे बढ़ी तो हनुमानजी पहले तो बड़े हुए और फिर बहुत छोटे होकर उसके मुंह से बाहर आ गए थे। वे अपने समय, लक्ष्य और ऊर्जा को लेकर अत्यधिक सावधान रहे। वे जानते थे कि उनका लक्ष्य रामकाज है।

सीताजी तक श्रीराम का संदेश पहुंचाना है। इसीलिए मैनाक पर्वत को उन्होंने कह दिया था -

रामकाजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम।

दूसरी बात, वे जानते थे कि सुरसा से युद्ध करने पर ऊर्जा और समय दोनों नष्ट होंगे। इसीलिए तुरंत वहां से आगे बढ़ गए। आगे उनके साथ एक घटना घटी- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। हनुमानजी ने उसको मार डाला और आगे चले।
तुलसीदासजी ने हनुमानजी के लिए लिखा है -

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।

धीर, बुद्धिमान, वीर श्री हनुमानजी उसको मारकर समुद्र के पार गए। मतिधीर लिखकर तुलसीदासजी बताते हैं कि इस समय जब शिक्षा के युग में बुद्धिमान होना सरल है, तब धर्यवान उतना ही कठिन होता जा रहा है। बुद्धि के साथ धर्य जुड़ जाए तो लक्ष्य पर पहुंचना आसान हो जाएगा।

यही काम असली सिद्धि, असली वीरता है...
मानवता की जो असाधारण विशेषताएं हैं, उनमें से एक है खूब परिश्रमी होना। परिश्रम के लिए स्वाथ्य तथा समझ, दोनों जरूरी हैं। यह समय खूब परिश्रम करने का है।आजकल लोग 14 से 16  घंटे सामान्य रूप से काम करते हैं, लेकिन ऐसा देखा गया है कि परिश्रमी दुर्बल भी हो जाते हैं।

उनमें करुणा की जगह व्याकुलता आ जाती है। उन्हें देखकर कभी-कभी लगता है काम के नशे में इनका दिल सो गया है। शरीर को कपड़े की तरह निचोड़ा और कूटा जा रहा है। फटे कपड़े में जिस तरह से रफू की कारीगरी होती है, आज के सफल परिश्रमियों के शरीर को भी ऐसा देखा जा सकता है। आध्यात्मिक दृष्टि यदि जीवन में हो, तो परिश्रम के साथ वीरता भी आ जाएगी।

अध्यात्म कहता है वीरता आने से सहृदयता और व्यवहार में खूबसूरती आ जाती है। यह जरूरी नहीं कि परिश्रमी व्यक्ति अपने लक्ष्य और शक्ति के प्रति सही हो। कई बार मेहनतकश इंसान जान ही नहीं पाता कि वह क्या और क्यों कर रहा है।

मेहनत उसकी मजबूरी हो जाती है, लेकिन परिश्रम के साथ व्यक्तित्व में जब वीरता जुड़ जाए, तो साहस, धर्य, लक्ष्य और संकल्प निखर कर आ जाता है। जब हम अपने कामकाज की दुनिया में रहते हैं, तो मन अपने तरीके से सक्रिय रहता है।

हमें कई तरह की भूमिकाएं निभाना पड़ती हैं। कभी हम ब्राह्मण की तरह ज्ञान का कर्म कर रहे हैं तो कभी शूद्र की तरह सेवारत हैं, कभी क्षत्रिय की तरह पराक्रम में डूबे हैं, तो कभी वैश्य की तरह सौदे निबटा रहे होते हैं।

इस परिवर्तन से हमें सीखना चाहिए कि हमें ही हर भूमिका में अपना नेतृत्व करना है। ऐसे में केवल परिश्रम से काम नहीं चलेगा, वीरता की जरूरत है, लेकिन यह भी ध्यान रखें वीरता किसके लिए? हमेशा हमको युद्ध नहीं लड़ना है, दरअसल सबसे बड़ी वीरता है अपने मन पर जीत हासिल करना।

यह मन भीतर से हमें हमारी बाहरी भूमिकाओं में परेशान करता है। यह हम पर हावी होने की कोशिश में रहता है और इसीलिए न चाहते हुए भी कुछ ऐसे काम करवा लेता है कि बाद में हमें पछतावा होता है।

मेहनतकश इंसान का मन जरूरी नहीं है कि उसके वश में हो, लेकिन वीर व्यक्ति मन पर नियंत्रण पा लेता है और जीवन के हर क्षण पर सवार हो जाता है, सदुपयोग कर लेता है।

यही है हमारी असली शक्ति और सिद्धि...
संपत्ति के कई रूप हैं। शक्ति व पुण्य को भी संपत्ति माना गया है। इनको प्राप्त करने के कई तरीके हैं। तप से शक्ति और सेवा से पुण्य प्राप्त होते हैं। इनका दुरुपयोग दुर्भाग्य है और सदुपयोग सौभाग्य। शक्ति का प्रवाह नदी की भांति होता है। यदि सही रूप से इसे नहीं संभाला तो यह गलत दिशा में जाएगा। कुछ बातें इनका दुरुपयोग करने में सक्रिय होती हैं।

हमारी देह, इंद्रियां, मन, बुद्धि को इसका दुरुपयोग करने में देर नहीं लगती। इस प्रवाह को परमात्मा तक मोड़ना ही सच्चा पुरुषार्थ है। यह प्रवाह अपने आप में एक मार्ग है। इस मार्ग को वैज्ञानिक रखिए और लक्ष्य परमात्मा रखिए। देखा गया है कि दिमाग यदि वैज्ञानिक हो तो आदमी बाहर की ही दुनिया में रहता है और तर्क के आधार पर फैसले लेता है।

भगवान की ओर चलने में ये बातें उल्टी हो जाती हैं, खारिज नहीं। बुद्धि से विज्ञान को स्वीकार करें और सांसों से भीतर की यात्रा करें। तर्क को नकारें न। बात अच्छी हो या बुरी, उसी के आधार पर स्वीकार करें, फिर तर्क को पकड़कर उसी के पार चले जाएं। विचारों से आमना-सामना कर उनसे झगड़ा नहीं करना है, बस छलांग लगाकर उनके पार ही चले जाना है।

इस पार जाने के लिए शक्ति की जरूरत है और विचारों का सामना करने के लिए पुण्य काम आते हैं। पुण्य का अर्थ है अच्छे कामों से जुड़े रहना। हम जितना भले कार्यो में संलग्न होंगे, उतने ही विचारों से पार जाने में सक्षम हो पाएंगे। आज दुनिया विज्ञान से चल रही है, इसलिए भक्त बनते समय प्रयास किया जाए कि हम आचरण में बुद्धिप्रधान हों, पर प्रवृत्ति में हृदय पर टिकें। तब शक्ति भी एक संतुलन का माध्यम बन जाएगी, जगत तथा जगदीश का।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Sukh Dukh (सुख- दुःख)



जब कभी जीवन में दुःख आये तो क्या करें?
दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें, जितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है।

तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।

कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।
इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दिया, इसलिए हम परेशान हैं।

अगर आप चाहते हैं कि जीवन में भरपूर सुख हो...
जीवन में मंगल और शुभ की तलाश सभी को रहती है। अमंगल को आमंत्रण कोई नहीं देना चाहता। हनुमान चालीसा के समापन पर तुलसीदासजी ने हनुमानजी को मंगल के रूप में याद किया है।

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।

हे पवनसुत! आप सारे संकटों को दूर करने वाले साक्षात् कल्याण स्वरूप हैं। आप भगवान श्रीराम, लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ मेरे हृदय में निवास करें। श्री हनुमान चालीसा का आरंभ 'श्रीगुरु चरन सरोज रज' से हुआ है और अंत 'हृदय' पर हुआ है।

गुरु के चरण-रज से मन को साफ करें, क्योंकि परमात्मा को बसाने के लिए एकमात्र स्थान है हृदय। हृदय से स्वभाव बनता है और मस्तिष्क से व्यवहार बनता है। बाहरी संसार मनुष्य के व्यवहार से संचालित होता है और भीतरी जगत् (आध्यात्मिक) मनुष्य के स्वभाव से नियंत्रित होता है। पहली श्रेणी में वे लोग होते हैं जो व्यवहार से स्वभाव को बनाते हैं। दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से व्यवहार बनाते हैं। ज्ञान, कर्म, उपासना, अपनी नौकरी, व्यवसाय, समाज, परिवार में दोनों ही प्रकार के लोग अलग-अलग परिणाम देते हैं।

पहली श्रेणी के लोग कुशल होते हैं, किन्तु उनके कार्यकलाप कहीं न कहीं स्वार्थ से प्रेरित होंगे। दूसरी श्रेणी के लोग सर्वप्रिय रहेंगे और उनकी कार्यशैली में मूलरूप से ईमानदारी रहेगी। ऐसे लोग स्वयं का मंगल करेंगे तथा दूसरों का भी कल्याण करेंगे। इनका हर काम शुभ और जनहितकारी होगा। आप दूसरों के संकट तभी हर सकते हैं जब आपके भीतर शुभ करने की वृत्ति हो। इसलिए अपना स्वभाव साधें। इसके लिए एक काम जरूर करें जरा मुस्कराइए...।

इस तरह नहीं हो सकता है हमारे दुःख और तनाव का निदान...
मानवीय सुख हमारे परिवारों की प्राचीन मांग है। अधिकांश लोगों की गृहस्थी की शुरुआत इसी से होती है। देह का भान, उसकी तृप्ति और अतृप्ति ही अशांति का कारण बनती है।कई रिश्ते तो घरों में देह से चलकर देह पर ही खत्म हो जाते हैं। शरीर से परे हो ही नहीं पाता परस्पर आत्म समर्पण। अधिक समय दांपत्य जब शरीर पर ही टिकता है तो त्याग की भावना जन्म नहीं ले पाती।

भोग, उसकी पूर्ति और अपेक्षा के आसपास जीवन मंडराने लगता है। फिर शुरू होता है तनाव। केवल शरीर पर टिके रहकर तनाव का निदान नहीं हो सकता। फिर तनाव अपना वंश बढ़ाता है, तब प्रवेश होता है अशांति का। एक-दूसरे के प्रति शंका होने लगती है।संदेह एक धीमा जहर है घर-परिवार के लिए। परिवार का हर व्यक्ति फिर अपने-अपने अधिकार में, अपने-अपने अधिकार के लिए ही जीने लगता है। दांपत्य में अपेक्षा, संदेह, देह, अधिकार जैसी वृत्तियों से बचने के लिए एक ही उपाय है और वह है प्रेम।

यह प्रेम न तो दहेज में मिलता है, न डिग्री से प्राप्त होता है, इसे कोई तिजोरी भी नहीं उगल पाती, न किसी दवा की शक्ल में बाजार में उपलब्ध है। इसे अपने भीतर जगाने का एक ही तरीका है अपनी सांसों से अपनी चेतना को जोड़कर थोड़ा भीतर उतरने का अभ्यास रोज करें। हृदय को जब सांसों से चेतना का पवित्र स्पंदन मिलता है तो आप स्वत: प्रेमपूर्ण हो जाते हैं। योग से योगी ही तैयार नहीं होते, प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व भी निर्मित होते हैं, इसीलिए अपने घर में किसी भी सदस्य को दया का पात्र न बनाएं, बल्कि प्रेम का भागीदार बनाएं।

हमेशा सुखी रहने के लिए यह बहुत जरूरी है...
हमारी प्रसन्नता या उदासी हमारे आसपास प्रवाहित होती है। जब हम भीतर से खुश रहते हैं, तब बाहर भी एक सदाशय व्यक्तित्व की तरह फैलते हैं और जब अन्दर से दुखी या अप्रसन्न रहते हैं, तब हमारा व्यक्तित्व संकुचित, छोटा और दूसरों को भी बोझिल कर देने वाला बन जाता है।

कुल मिलाकर सारा मामला संचरण का है। इसलिए जब एक-दूसरे से मिलें तो अपना बेहतर उसको देने की कोशिश करें। हमारे यहां सत्संग की व्यवस्था इसीलिए है। सत्संग का अर्थ है किसी के अच्छे गुणों की चर्चा। सुंदरकांड में तुलसीदासजी ने विभीषण और हनुमानजी की बातचीत के दौरान एक चौपाई में लिखा है- एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।

इस प्रकार श्रीरामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय शांति प्राप्त की। यहां एक शब्द आया है दोनों को यानी हनुमानजी और विभीषण को शांति प्राप्त हुई। वे दोनों ही श्रीराम की चर्चा कर रहे थे। इसका सीधा-सा अर्थ है अच्छे व्यक्तियों के गुणगान के बाद, परमात्मा के स्मरण के बाद शांति प्राप्त होनी चाहिए।

इसलिए जब भी सत्संग करें तो इस तरह करें कि बाद में शांति प्राप्त हो। विश्राम की उपलब्धि के लिए परमात्मा का यशगान होना चाहिए। सुंदरकांड में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जो जीवन को सुंदर बनाते हैं ।

दुनियाभर के काम करने के बाद शांति उपलब्ध हो जाए, तब जीवन सुंदर है और यहां शांति के लिए सूत्र दिया गया है कि जब भी अवसर मिले, अच्छे लोगों के साथ समय बिताएं और सत्संग करते रहें।

सुखी रहने के सारे तरीकों में ये सबसे अच्छा है...
सब चाहते हैं कि वे खुश रहें, सुखी रहें लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। कारण क्या है? सारे भौतिक संसाधन, जमानेभर की सुविधाएं और हर तरह का सुख होने के बाद भी हम भीतर से कहीं दु:खी ही हैं। ऐसा क्यों होता है। कारण बहुत सीधा और सरल है, निदान भी वैसा ही सहज है।

हम संसाधनों पर टिक गए हैं। बाहरी आवरण को ही दुनिया समझ रहे हैं। जबकि असली सुख भीतर की यात्रा में मिलेगा। अगर सुखी रहना है तो एक यात्रा अपने भीतर की ओर भी करें।

खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक दिक्कत आती है वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दु:खी हो जाते हैं। क्लब गए, टीवी देखी, खेल खेला उनसे दूर हटे और हम वापस अशांत हुए। कुछ स्थाई इलाज ढूंढना होंगे। अपनी निजी और आंतरिक वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढे जाएं।

यदि स्थाई प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें। जो लोग भी इस संसार में स्थाई रूप से प्रसन्न रहे हैं उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित कर लिया, क्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख थोड़ा सहज होता है, लेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है।

मजेदार बात यह है इस संसार का दु:ख भी उत्तेजित करता है और सुख भी, लेकिन इन दोनों को जब अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है न दु:ख और इन दोनों के पार की स्थिति है शांति। परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर दिया है।

आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे उतने ही शीघ्र शांत हो सकेंगे। इस तल पर कोई उत्तेजना नहीं होती। यहां सबकुछ ठहरा हुआ रहता है। आप सुख और दु:ख दोनों को भोग रहे होते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। बाहर अनेक लोगों से घिरे हुए रहने के बाद भी भीतर बिल्कुल एकांत घट रहा होता है। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को वह महसूस भी होती है।

सुखी रहने के सारे तरीकों में ये सबसे अच्छा है...
सब चाहते हैं कि वे खुश रहें, सुखी रहें लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। कारण क्या है? सारे भौतिक संसाधन, जमानेभर की सुविधाएं और हर तरह का सुख होने के बाद भी हम भीतर से कहीं दु:खी ही हैं। ऐसा क्यों होता है। कारण बहुत सीधा और सरल है, निदान भी वैसा ही सहज है।

हम संसाधनों पर टिक गए हैं। बाहरी आवरण को ही दुनिया समझ रहे हैं। जबकि असली सुख भीतर की यात्रा में मिलेगा। अगर सुखी रहना है तो एक यात्रा अपने भीतर की ओर भी करें।

खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक दिक्कत आती है वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दु:खी हो जाते हैं। क्लब गए, टीवी देखी, खेल खेला उनसे दूर हटे और हम वापस अशांत हुए। कुछ स्थाई इलाज ढूंढना होंगे। अपनी निजी और आंतरिक वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढे जाएं।

यदि स्थाई प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें। जो लोग भी इस संसार में स्थाई रूप से प्रसन्न रहे हैं उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित कर लिया, क्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख थोड़ा सहज होता है, लेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है।

मजेदार बात यह है इस संसार का दु:ख भी उत्तेजित करता है और सुख भी, लेकिन इन दोनों को जब अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है न दु:ख और इन दोनों के पार की स्थिति है शांति। परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर दिया है।

आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे उतने ही शीघ्र शांत हो सकेंगे। इस तल पर कोई उत्तेजना नहीं होती। यहां सबकुछ ठहरा हुआ रहता है। आप सुख और दु:ख दोनों को भोग रहे होते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। बाहर अनेक लोगों से घिरे हुए रहने के बाद भी भीतर बिल्कुल एकांत घट रहा होता है। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को वह महसूस भी होती है।

कैसे पाएं सफलता के साथ सुख-शांति? सीखें सुंदरकांड से...
युवाओं के सामने बड़ी विकट स्थिति होती है। सफलता तो बहुत मिल जाती है लेकिन शांति नहीं मिल पाती। सुख और शांति के अभाव में सफलता हमेशा अजीब लगती है। एक अधूरापन, कुछ खाली-खाली सा हमेशा महसूस होता है। आखिर सफलता के साथ शांति और सुख कैसे पाया जाए, ये सिखना है तो सुंदरकांड से सीखें। बाबा हनुमान के चरित्र और उनके व्यवहार में वे सब बातें शामिल हैं।

यह दिख रही सफलता को केवल अर्जित करने का ही नहीं, बल्कि नई-नई सफलता गढऩे का भी युग है। असफल कोई नहीं रहना चाहता। इसी कारण सतत् सफलता का तनाव असफलता से भी ज्यादा हो गया है। सुख अर्जित करना एक बड़ी सफलता माना जा रहा है।

पढ़ा-लिखा हो या बिना पढ़ा-लिखा आजकल इतना सक्षम और जुगाड़ु तो आदमी होता ही जा रहा है कि इधर-उधर से सुख उठा ही लेता है। सुख की सामान्य परिभाषा यही बना दी गई है कि जो हमारे अनुकूल हो वह सुख तथा विपरीत हो वह दु:ख। तो सुख अर्जित करना इस समय बहुत कठिन काम नहीं है। परन्तु सवाल यह है कि शांति कहां से लाएंगे?

यह किसी तिजोरी से नहीं निकलती, किसी सैलेरी से नहीं मिलती, केवल बही-खाते में नहीं बसी है, किसी इंस्टीट्यूट में नहीं पढ़ाई जाती। यह तो आदमी को खुद अर्जित करना पड़ेगी। सुख के साथ जब शांति होगी तभी सफलता सही और स्थाई होगी तथा जीवन सुंदर होगा। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के पाँचवें सौपान का नाम सुंदरकाण्ड रखा है।

इसमें हनुमानजी की सफलताओं के प्रसंग हैं। इसके आरंभ के श्लोक का पहला शब्द ही शांति को समर्पित है-
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं...

शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परम्शान्ति देने वाले श्रीराम की वंदना इन पंक्तियों में की गई है। जीवन सुंदर ही तब है जब सफलता के साथ शांति हो। सुंदरकाण्ड में हनुमानजी ने तीन बड़ी सफलताएं एक साथ अर्जित की थीं। सीताजी को संदेश दिया था, विभीषण के हृदय में श्रीराम का स्वभाव स्थापित किया और रावण के मन में प्रभाव।

सुखी होने के लिए यह तरीका सबसे अच्छा है...
जब भी हम दु:खों को दूर करने के बारे में सोचते हैं, कुछ ही उपाय हमारे सामने होते हैं। कोई धन से सुखी होता है, कोई तन से, कोई भौतिक साधनों से तो कोई भावनाओं के संबल से।लेकिन इनके अलावा भी एक साधन है जो ना केवल दु:ख दूर करता है बल्कि सुख का अनुभव भी कराता है। यह तरीका भगवान हनुमान से सीखा जा सकता है। रामचरितमानस के सुंदर कांड में इस पर तुलसीदासजी ने बहुत सुंदर वर्णन लिखा है।

भक्ति भी एक युक्ति है। युक्ति यानी उपाय। परमात्मा को पाने का तरीका, ढंग या रीति। भगवान विशेष प्रयास से मिलते हैं। सुंदरकांड में युक्ति का एक प्रसंग आता है। विभीषण और हनुमानजी की चर्चा हो रही थी। हनुमानजी ने विभीषण से सीताजी का पता पूछा। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी -

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
विभीषण ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियां कह सुनाईं।

विभीषण को हनुमानजी समझा चुके थे कि आप राम-नाम तो लेते हैं, परंतु राम-काम नहीं करते। ज्यादातर लोग संसार में ऐसा ही करते हैं। राम-काम का अर्थ तिलक लगाना, मंदिर जाना, पूजा करना ही नहीं है, असली राम-काम है ईमानदारी, निष्ठा और परिश्रम से अपना कर्तव्य पूरा करना। सीताजी को भक्ति, शक्ति व शांति का प्रतीक बताया गया है।

विभीषण ने सीताजी की खोज की युक्ति बताई थी, इसका अर्थ है कि हम समाज की शांति, भक्ति व शक्ति की खोज में लगे रहें, यही राम-काम है। हनुमानजी ने अशोक वाटिका में जाकर सीताजी को देखा। वे कृशकाय हो चुकी थीं और राम-नाम का जप कर रही थीं। उनको देखकर हनुमानजी भी दुखी हो गए।

परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।। (दोहा-8)
हनुमानजी हमें समझा रहे हैं कि दूसरों के दुख का ठीक से एहसास करें। भक्त दूसरों के दुख को समझता है और उसे दूर करने का प्रयास भी करता है। आज उल्टा है, हम दूसरों के दुख से दुखी नहीं, बल्कि उनके सुख से दुखी हैं। हनुमानजी से सीखें दूसरों का दुख समझकर कैसे दूर किया जाता है।

कैसा होना चाहिए सुख या दुःख में हमारा व्यवहार...
मानव जीवन में सुख और दुःख का आना-जाना लगा रहता है। ये दोनों चीजें हमारे कर्म और व्यवहार पर निर्भर करता है। कभी-कभी हमारा व्यवहार और हमारी सोच ही सुख और दुःख के प्रभाव को कम कर देते हैं।

जीवन जितना उच्च है उतना ही हम घटनाओं में अनुकूलता देखने लगेंगे और जीवन की गतिविधियां जितनी अधिक निम्न स्तर की होंगी हम प्रतिकूलता देखेंगे। अनुकूल यानी सुख, प्रतिकूल यानी दु:ख। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सदैव एक ही स्थिति बनी रहेगी।

इसलिए कोशिश यह की जाए कि दोनों ही हालात में जो उत्तम है, जो जीवन को ऊँचा ले जा सकता है वह सब ग्रहण किया जाए और बाकी छोड़ दिया जाए। सुख और दु:ख दोनों ही हमारे ऊपर राज न करे बल्कि हम उन पर अधिकार बना लें।

जैसे ही अधिकार बनेगा दोनों के प्रति हमारा आग्रह बदल जाएगा। अभी हमारा सुख के प्रति आग्रह होता है और दु:ख के प्रति नकारने का भाव होता है। श्रेष्ठ लोगों ने अपने जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर कैसा आचरण किया लगातार इस पर वॉच रखें।

सभी धर्मों ने यह सुविधा दी है कि आप कई विभूतियों के माध्यम से सीख सकते हैं। अवतार परंपरा संभवत: इसीलिए हुई है। यह न समझें कि अवतार किसी पुराने युग में हुए, उनका जीवन आज कैसे प्रेरणा दायक होगा और यह भी न मानें कि आज तो हमारे बीच वे अवतार नहीं हैं। जिस भी युग में ऐसे लोग हुए उस समय जिन लोगों ने उन्हें पाया ठीक वैसी ही स्थितियाँ आज भी हमारे साथ हैं।

हम अवतारों को उनके पुराने रूप में खोजने की आदत बना लेते हैं। हमने जो अपने भीतर छवि बनाई है वह अपनी सुविधा से बना ली है। लेकिन भगवान हर काल में नए-नए रूप में आता है। वह तब भी था और आज भी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार वह नए स्वरूप में हमें मिलेगा ही। इसके लिए सबसे पहले स्वयं के भीतर के परमात्मा को स्वीकार करना पड़ेगा।

हम उसका अंश हैं यह एहसास ही हमें उसके स्वरूप से परिचित करा देगा। और तब जीवन का जो भी उत्तम है वह हमारे हाथ जरूर लगेगा।

इस कारण से हमें दुःख बहुत भारी लगता है...
दूसरों के दुख में हम शामिल होते हैं, लेकिन उसे अपने भीतर नहीं लाते। हमें यह मालूम रहता है कि यह सारा घटनाक्रम दूसरे का है। लेकिन ऐसी ही घटना जब अपने ही जीवन में घटे तो दुख तत्काल हम भीतर ले आते हैं। चूंकि हमें सुख भी भीतर लाने की आदत है, इसलिए दुख भी ले आएंगे और फिर असली परेशानी शुरू होती है।

जैसे हम दूसरे के दुख को देखकर भीतर नहीं लाते, ऐसे ही हम अपने सुख के साथ हो जाएं, तब एक नई स्थिति आनंद की अनुभूति होगी, जिसमें सुख है न दुख। पर हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं कि केवल सुख मिले, दुख मिले ही नहीं। पर ऐसा मुमकिन हो नहीं सकता। सुख और दुख इतने जुड़े हुए हैं कि एक का सुख दूसरे का दुख बन जाता है और दूसरे का दुख किसी और के लिए सुख होता है।

हिंदुओं में पुनर्जन्म की कल्पना इसमें बड़ी राहत पहुंचाती है। एक घर में हुई मृत्यु का दुख, दूसरे किसी घर में हुए जन्म का सुख बन जाता है। जो लोग दूसरों के दुख में विवेकपूर्ण ढंग से उन्हें समझाते हैं, ऐसे लोग अपने दुख में सारी समझ भूल जाते हैं। निर्लिप्त रहने का जितना अभ्यास बढ़ाएंगे, सुख और दुख दोनों एक जैसा रस देने लगेंगे।

यदि प्रेम को ठीक से समझें तो पाएंगे कि प्रेम की अपनी पीड़ा है। प्रेम के बिना पीड़ा हो नहीं सकती, पर उस पीड़ा में भी एक रस है, वरना दुनिया से प्रेम मिट जाएगा। इसलिए सुख व दुख दोनों ही स्थितियों में प्रेमपूर्ण जरूर बने रहें। प्रेम के लिए पहला पात्र परमात्मा को बनाएं तो धीरे-धीरे उसी का विस्तार संसार में हो जाता है और तब संसार छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही वह तकलीफ पहुंचाता है।

जब भी दुःख या परेशानी आए तो यह काम करें...
किसके जीवन में मुसीबत नहीं आती। छोटे को छोटी और बड़े को बड़ी दिक्कतें आती ही रहती हैं। मुसीबतों को आने के लिए कोई रिजर्वेशन नहीं कराना पड़ता और ना ही वे पूर्व सूचना दिए आती हैं।

कुछ तो वे स्वयं चलकर आती हैं और कुछ हम खुद आमंत्रित करते हैं। स्वआमंत्रित समस्याओं के मामले में कुछ लोग बहुत भरेपूरे होते हैं। जैसे ही मुसीबतों के आने का एहसास हो या वह सामने आकर खड़ी ही हो जाए तो अपने भीतर के अध्यात्म को जगाएं। यहीं से आपका होश बदलेगा, सोचने का तरीका परिवर्तित हो जाएगा।

अपने मन में ग्रंथी न बनने दें। हानि-लाभ, खुशी-गम इनके बारे में ज्यादा न सोचें क्योंकि जब मुसीबत आती है हम उसके परिणाम पर टिक जाते हैं। अभी घटा नहीं है और हम भविष्य के भय से जुड़ जाते हैं। मन को ग्रंथी बांधने का शौक होता है।

इसी कारण वह दिमाग में उलझनें और उथल-पुथल पैदा कर देता है। ऐसे समय सात्विक आहार, शुद्ध विचार और संतुलित शारीरिक क्रियाएं बड़े काम आती हैं। मुसीबत आते ही इन तीनों पर काम करना शुरू कर दीजिए। मन ऐसे समय बार-बार हमें कुछ पुरानी स्थितियों, व्यक्तियों से विपरीत भाव से जोड़ता है। हम निदान निकालने की जगह पुरानी झंझटों में उलझ जाते हैं। एक अजीब सा उद्वेग पैदा होने लगता है।

इससे मुसीबत को बड़ा होने में सुविधा हो जाती है। यहीं से मेंटल बॉडी का लोड फिजीकल बॉडी पर और फिजीकल का लोड मेंटल बॉडी पर आने लगता है। हम शक्तिहीन होने लगते हैं। जबकि हमारा धर्म, हमारी भक्ति हमें सिखाती है शरीर और आत्मा दोनों के महत्व को जानें और दोनों के बीच अंतर को बढ़ाएं।

कुछ लोग केवल आत्मा पर टिककर शरीर को भूल जाते हैं और कुछ लोग केवल शरीर पर टिककर आत्मा को भूल जाते हैं, लेकिन हमें दोनों पर टिकना है अंतर बनाकर। और फिर कैसी भी समस्या हो, मुसीबत रहे, हम पार लग जाएंगे।

अगर आप दुःख और अभावों में जी रहे हैं तो...
अभाव किसी को भी नहीं भाता। वस्तु पास में न हो, स्थिति अनुकूल न रहे तब जो अभाव होता है वह तो समझ में आता है परन्तु मन चाहा मिल जाए और फिर भी जीवन में अभाव, असंतोष बना रहे, खतरा यहां से शुरू होता है और आज अनेक लोग इसी खतरनाक स्थिति में जी रहे हैं। जो लोग ये मानते हैं कि सम्पन्नता के साधनों से ही प्रसन्नता आएगी और प्रगति होगी वे भूल जाते हैं कि केवल इससे ही कुछ नहीं होगा।

इन बाहरी साधनों के साथ भीतर की मनोवृत्ति पर भी काम करते रहना होगा। हमारी मनोवृत्ति में यदि संतोष, सहानुभूति, संयम और सदाचार नहीं है तो बाहर से सबकुछ मिल जाने पर भी अभाव का भाव बना रहेगा जो अशांति का कारण बनेगा। इसी कारण जिनके पास सबकुछ है जरूरी नहीं कि उनके पास शांति भी हो।

भौतिकता और आध्यात्मिकता का संघर्ष यहीं से शुरू होता है। भौतिकता कहती है पदार्थ ही प्रमाण है, मटैरिएलिस्कि एप्रोच बनाए रखो, भावनाएं भ्रांति हैं। आध्यात्मिकता का आग्रह है पदार्थ गौण हैं, संवेदनाओं को साधो, इसी छीना-झपटी में मनुष्य उलझ जाता है फिर कैसे जीतें इस द्वन्द को? गुरूनानक की बात काम आ सकती है। वे कहते हैं-जिउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारू

हे प्रभु जैसे भी तुझे भाता हो हमें रख, तेरी मर्जी। ये जो दो शब्द हैं तेरी मर्जी ये हमारे सारे पुरूषार्थ को पवित्र और प्रभावशाली बना देंगे। हम कर्म तो पूरा करेंगे पर फल की प्राप्ति या अप्राप्ति हमें अशांत नहीं करेगी।

नानक कहते हैं ऐसे रहते हुए शब्द की, नाम की कमाई करो। व्यावसायिक जीवन में जो भी कमाएं परन्तु आध्यात्मिक जीवन की इस आमदानी को न भूलें जिसे नानक ने च्च्नामु अधारूज्ज् कहा। नाम की कमाई सारे अभाव दूर कर देती है। वे शरीर के सौंदर्य के प्रति जागरूक हैं। सुसज्जित रहने का स्वभाव भी एक गुण है। वे यह नहीं कहते कि जो ब्रह्मचर्य का पालन करे वह सौंदर्यबोध को ठुकरा दे। सुंदरता की अनुभूति भी परमात्मा तक पहुंचने में साधक बन जाती है।

हमारे दुःखों का एक कारण यह भी है...
जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है। भौतिक सफर में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं, लेकिन आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है और इसकी चिंता पालना चाहिए। कई बार पतन के बाद भी उत्थान का क्रम बन जाता है, लेकिन जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता।

इसका उदाहरण है रावण। रावण एक ऐसा पात्र है जिसको कई बार अनेक पात्रों ने अपने-अपने स्तर पर समझाया था। हनुमानजी, अंगद, शूर्पणखा, मंदोदरी, मारीच जैसे लोगों ने उसे समझाया लेकिन उसे समझ में नहीं आया। मानस रोगों का वर्णन करते हुए लिखा गया है-

'मोह सकल व्याधिन कर मूला।'

मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाथ काम है और शूर्पणखा अंदर की वासना है। रावण को मेघनाथ और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों। इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं उसकी तुलना नाखूनों से की जाती है।

यानी एक सीमा तक वासना ठीक है, उसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं काटेगा, समाज में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं किया था। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने राम की पत्नी का हरण कर लिया। शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखा, इसमें क्या गलत था।

इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला था, छल किया था। रावण ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है वह रावण के समान होता है और पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।

अगर ऐसा नहीं करेंगे तो सुख का आनंद नहीं उठा पाएंगे...
हर मनुष्य के भीतर ऊर्जा का एक हिस्सा रचनात्मक कार्यों के लिए रहता ही है। अपनी ऊर्जा के जिस हिस्से से हम नाम और दाम कमाने में सक्रिय रहते हैं, उससे ही जीवन में पूर्णता नहीं आती। इस तरह लगातार काम करने से दो ही प्रकार के लोग समाज में बनते हैं।

एक, शोषण और लूट के द्वारा धन कमाने वाले और दूसरे, शोषित और लुटने वाले लोग। इन दोनों वर्गो के बीच मनमुटाव, प्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य आना स्वाभाविक है। इसका सीधा असर राष्ट्रीय, सामाजिक व पारिवारिक जीवन पर पड़ता है। कुल मिलाकर हर क्षेत्र में अशांति हाथ लगती है।
इसलिए हम किसी भी स्तर के व्यक्ति हों, अपनी ऊर्जा का रचनात्मक हिस्सा जरूर सक्रिय रखें। इससे भेदभाव मिटेगा, वार्तालाप का वातावरण बनेगा और एक-दूसरे के प्रति सद्भाव जागेगा। जितना हम रचनात्मकता की ओर बढ़ेंगे, उतना ही पॉजिटिव होते जाएंगे।

जीवन निषेध का नाम नहीं है। जीवन को विधेय से चलाना चाहिए, यानी सकारात्मकता बढ़ाने के प्रयास लगातार करते रहें। प्रतिस्पर्धा के इस युग में सुख और दुख आते ही रहते हैं।

यदि हम पॉजिटिव नहीं रहे तो सुख का सदुपयोग नहीं कर पाएंगे और दुख हमसे लगातार ऐसे काम करवा लेगा, जिन्हें हम होश में तो कभी नहीं करना चाहेंगे। दुख विचलन लाता है और यदि लंबे समय विचलन टिक जाए, तो मनुष्य या तो डिप्रेशन में डूब जाएगा या डिस्ट्रक्टिव हो जाएगा।
इसलिए 24 घंटे में कुछ समय अपनी ऊर्जा की रचनात्मकता पर पकड़ बनाए रखें। अन्यथा यह एक बार गलत दिशा में बह गई तो लौटाकर लाना कठिन हो जाएगा।

सुख नहीं, दु:ख सिखाता है जीवन के कई अनुभव
हर कोई सुख की डोर को पकड़कर जिंदगी का सफर तय करना चाहता है। जीवन सिर्फ सुख के लिए नहीं होता, अक्सर जो अनुभव और ज्ञान सुख नहीं दे पाता, वो दु:ख सीखा जाता है। सुख के पीछे भागने वाले अक्सर सबसे ज्यादा दु:खों से घिरते हैं। जो दु:खों की परवाह नहीं करते, सुख उन्हें बिना खोजे ही मिल जाता है।

राम, सीता और लक्ष्मण वनवास को जा रहे थे। राम वन जाने के अपने फैसले पर अडिग थे। राज परिवार के लोग सीता को समझा रहे थे, जंगल में कितने दु:ख और परेशानियां होंगी। जंगली जीवों, राक्षसों का डर, ना सुख का बिस्तर ना, शाही भोजन। फिर भी सीता राम के साथ जाने पर अड़ी रहीं। कारण था, वो जंगल के दुखों के बारे में नहीं सोच रही थीं, वो पति के सामिप्य और उनकी सेवा से मिलने वाले सुख को लेकर आश्वस्त थी।

कई बार हम भौतिक सुख-सुविधाओं के चक्कर में मानसिक सुख को गौण कर देते हैं। पहले तो ये सुख अच्छा लगता है लेकिन जब अपनों की कमी महसूस होती है, तो वो ही साधन अखरने लगते हैं। परिवार से बढ़कर सुख का और दूसरा कोई रास्ता नहीं हो सकता। हमेशा क्षणिक या आंशिक सुख के बारे में ना सोचें, कभी-कभी भीतरी सुख को भी ध्यान में रखें।


तनाव और चिंता में भी हो सकता है रचनात्मक काम...
तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।

दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें, जितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है। 

कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है। 

इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दिया, इसलिए हम परेशान हैं। 

पैदा होने पर मान लेते हैं बस अब जिन्दगी कट जाएगी लेकिन जन्म और जीवन अलग-अलग मामला है। जन्म एक घटना है और उसके साथ जो सम्भावना हमें मिली है उस सम्भावना के सृजन का नाम जीवन है। 

इसलिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त नहीं है। इस जीवन के साथ होने वाले संघर्ष को सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा और इसी सहर्ष स्वीकृति में समाधान छुपा है। सत्संग, पूजा-पाठ, गुरु का सान्निध्य इससे बचने और उभरने के उपाय हैं।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Santaan (संतान)

सिर्फ सुविधाओं से नहीं आते बच्चों में संस्कार, ये भी जरूरी है...
गृहस्थी में जो काम सबसे मुश्किल होता है, वह है संतानों को संस्काररी बनाना। अक्सर लोग ये शिकायत करते हैं कि हम कितनी भी सुविधाएं और साधन जुटा दें, बच्चों पर कितना ही स्नेह लुटा दें लेकिन फिर भी कहीं न कहीं ये लगता है कि बच्चों में वे संस्कार नहीं हैं जो हम उन्हें देना चाहते थे।बच्चों ने हमारे लाड़-प्यार का ज्यादा फायदा उठाया।

वास्तव में चूक हम से होती है, दोषारोपण हम संतानों पर करते हैं। संतानें हमारे जीवन की पूंजी हैं, इन्हें कैसे बड़ा किया जाए ये हमारे हाथ में होता है। ये बात पूरी तरह गलत है कि बच्चों को संस्कारी और योग्य बनाने के लिए ज्यादा से ज्यादा संसाधनों और पूंजी की जरूरत होती है। अभाव में भी संतानों को योग्य बनाया जा सकता है। एक तरह से देखा जाए तो सिर्फ सुख ही नहीं, कभी-कभी हमें बच्चों को थोड़े अभाव में भी रखना चाहिए। तभी उन्हें जीवन के मूल्य का पता चलता है।

महाभारत में दो तरह की संतानें हैं। पहली कौरव जो पूरे जीवन राजमहलों में रहे, सुविधाएं भोगीं। दूसरी पांडव जिनका जन्म और लालन-पालन जंगल में हुआ। पांडव और माद्री के देह त्यागने के बाद कुंती ने पांडवों को जंगल में अकेले पाला। वो सारे संस्कार दिए जो कौरवों में राजकीय सुविधाओं के बावजूद नहीं थे।

दुर्योधन और उसके ९९ भाई, सभी धूर्त और कुसंस्कारी निकले। लेकिन युधिष्ठिर और उसके चारों भाई सभी धर्मात्मा थे। कुंती ने अकेले उनको वो संस्कार दिए जो कौरवों को महल में भीष्म सहित सारे कौरव परिजन मिलकर भी नहीं दे पाए।

अगर आप ये सोचते हैं कि सुविधाओं से बच्चों में संस्कार आते हैं तो यह गलत है। संस्कार हमारे विचारों से आते हैं। हम हमेशा सिर्फ सुविधाओं की ना सोचें, कभी-कभी उन्हें अभावों में भी रखने का प्रयास करें लेकिन अभावों में सुविधाओं के स्थान पर आपका प्यार और संस्कार साथ होने चाहिए। फिर कभी संतानें भटकेंगी नहीं।

जीवन तब सफल है जब संतानें ऐसी हों...
अक्सर परिवार में बड़े ही बच्चों के लिए त्याग करते हैं। सफल जीवन वह है जिसमें संतानें अपने माता-पिता के लिए त्याग करना सीख जाएं। वो लोग सौभाग्यशाली होते हैं, जिनकी संतानें उनके लिए त्याग करती हैं। लेकिन ऐसी संतान पाने की कीमत भी चुकानी पड़ती है। जो लोग अपनी संतानों के लिए त्याग करना सीख जाते हैं, उन्हें संस्कार और योग्यता पाने के लिए उनका मोह छोड़ देते हैं, वे ही संतान का ये सुख देख पाते हैं।

महाभारत में भीष्म के पिता शांतनु की कथा है। शांतनु को देव नदी गंगा से प्रेम हो गया। उन्होंने उससे विवाह कर लिया। अत्यंत सुंदर गंगा ने शांतनु के सामने ये शर्त रखी कि उसे अपने अनुसार काम करने की पूरी आजादी होनी चाहिए, जिस दिन शांतनु उन्हें किसी बात के लिए रोकेंगे, वो उन्हें छोड़कर चली जाएंगी।

शांतनु ने शर्त मान ली। जब भी गंगा किसी संतान को जन्म देती, उसे तुरंत नदी में बहा देती। शांतनु उन्हें रोक नहीं पाते क्योंकि वे गंगा को खोने से डरते थे। जब सातवी संतान को भी गंगा नदी में बहाने आई तो शांतनु से रहा नहीं गया। उन्होंने गंगा को रोक कर पूछा कि वो अपनी संतानों को इस तरह नदी में बहा क्यों देती है।

गंगा ने कहा आज आपने अपनी संतान के लिए मेरी शर्त को तोड़ दिया। अब ये संतान ही आपके पास रहेगी। शांतनु ने अपनी संतान को बचा लिया। लेकिन उसे अच्छी शिक्षा के लिए कुछ सालों के लिए गंगा के साथ ही छोड़ दिया। उस लड़के का नाम रखा गया देवव्रत।

कुछ वर्षों बाद गंगा उसे लौटाने आईं। तब तक वह एक महान योद्धा और धर्मज्ञ बन चुका था। पुत्र के लिए शांतनु ने गंगा जैसी देवी का त्याग स्वीकार किया, उसी पुत्र को शिक्षा के लिए कई साल अपने से दूर भी रखा। इसी देवव्रत ने शांतनु का विवाह सत्यवती से करवाने के लिए आजीवन अविवाहित रहने की भीषण प्रतिज्ञा की थी। जिसके बाद इसका नाम भीष्म पड़ा। भीष्म ने ही आखिरी तक अपने पिता के वंश की रक्षा की।

बच्चों को दिया गया ऐसा प्यार उनके लिए ही खतरा बनता है...
बच्चों के लाड़ प्यार में मां-बाप अक्सर भूल जाते हैं कि उनके बच्चों के लिए क्या सही है और क्या गलत। बच्चों को अच्छी परवरिश देना, उन्हें हर तरह की सहूलियतें देना ठीक है लेकिन इस पर भी विचार किया जाए कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत। अक्सर लाड़-प्यार में भविष्य की परेशानियों को अनदेखा कर दिया जाता है। जहां तक बच्चों की शिक्षा और संस्कार देने का सवाल है, इसमें सख्ती बरती जानी चाहिए।

शिक्षा में बरती गई थोड़ी सी लापरवाही भविष्य में संतान और माता-पिता दोनों के लिए परेशानी का कारण बन जाती है। महाभारत इसका सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है। गुरु द्रौण और उनके पुत्र अश्वत्थामा का रिश्ता ऐसा ही था। द्रौण को अपने पुत्र से बहुत प्यार था। शिक्षा में भी अन्य छात्रों से भेदभाव करते थे। जब उन्हें सभी कौरव और पांडव राजकुमारों को चक्रव्यूह की रचना और उसे तोडऩे के तरीके सिखाने थे, उन्होंने शर्त रख दी कि जो राजकुमार नदी से घड़ा भरकर सबसे पहले पहुंचेगा, उसे ही चक्रव्यूह की रचना सिखाई जाएगी। सभी राजकुमारों को बड़े घड़े दिए जाते लेकिन अश्वत्थामा को छोटा घड़ा देते ताकि वो जल्दी से भरकर पहुंच सके। सिर्फ अर्जुन ही ये बात समझ पाया और अर्जुन भी जल्दी ही घड़ा भरकर पहुंच जाते।

जब ब्रह्मास्त्र का उपयोग करने की बारी आई तो भी द्रौणाचार्य के पास दो ही लोग पहुंचे। अर्जुन और अश्वत्थामा। अश्वत्थामा ने पूरे मन से इसकी विधि नहीं सीखी। ब्रह्मास्त्र चलाना तो सीख लिया लेकिन लौटाने की विधि नहीं सीखी। उसने सोचा गुरु तो मेरे पिता ही हैं। कभी भी सीख सकता हूं। द्रौणाचार्य ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। जब महाभारत युद्ध के बाद अर्जुन और अश्वत्थामा ने एक-दूसरे पर ब्रह्मास्त्र चलाया। वेद व्यास के कहने पर अर्जुन ने तो अपना अस्त्र लौटा लिया लेकिन अश्वत्थामा ने नहीं लौटाया क्योंकि उसे इसकी विधि नहीं पता थी। जिसके कारण उसे शाप मिला। उसकी मणि निकाल ली गई और कलयुग के अंत तक उसे धरती पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया।

अगर द्रौणाचार्य अपने पुत्र मोह पर नियंत्रण रखकर उसे शिक्षा देते, उसके और अन्य राजकुमारों के बीच भेदभाव नहीं करते तो शायद अश्वत्थामा को कभी इस तरह सजा नहीं भुगतनी पड़ती।

अगर सुख चाहिए तो अपने बच्चों को ये जरूर सिखाएं...
परिवार का सुख और घर की शांति सबसे ज्यादा निर्भर करती है घर के बच्चों पर। अगर संतानें परिवार से जुड़ाव महसूस नहीं करती हैं तो वो परिवार कभी खुश हो ही नहीं सकता। बच्चे भविष्य की पूंजी होते हैं, इन्हें इसी तरह से रखा जाए जैसे हम हमारी सम्पति को निवेश करते हैं. सबसे पहले बच्चों को परिवार से जुड़ना सिखाएं। उनके मन में गहरी संवेदना हो अपनों के लिए, तभी वो घर स्वर्ग बन सकता है।

पढ़े-लिखे होने का अर्थ है, केवल एक क्षेत्र में अपनी भूमिका को केंद्रित न किया जाए। शिक्षा हमारे व्यक्तित्व को हर क्षेत्र में विस्तार दे, तब ही इसका कोई अर्थ होगा। आजकल पढ़े-लिखे व्यक्ति का पहला लक्ष्य धन कमाना हो गया है और इसीलिए वह इतना केंद्रित हो गया है कि अपने अन्य दायित्वों को भूल गया।

भारत में शिक्षा संस्थानों को इस बात पर विचार करना होगा कि शिक्षा अच्छे कॅरियर के साथ ही परिवार बचाने के सूत्र भी दे। बच्चों के पढ़ने की उम्र में उन्हें पारिवारिक दायित्व कम रहते हैं। जवानी की संवेदनाएं घर से ज्यादा बाहर बह रही होती हैं। घर उनके लिए महज छत होता है और माता-पिता कभी खलनायक, तो कभी पालन करने वाली मशीनें भर रह जाते हैं।

ऐसे में जब अधिकांश समय शिक्षा संस्थानों में बीत रहा हो, तब बच्चों को परिवार से जोड़ने की शिक्षा जरूर दी जानी चाहिए। वहां का वातावरण पारिवारिक हो, अन्यथा ये बच्चे इतनी दूर दौड़ जाएंगे कि परिवार की ओर मुड़ना ही भूल जाएंगे। ये घर बसाएंगे, पर गृहस्थी नहीं चला पाएंगे। पति-पत्नी के रूप में साथ जी लेंगे, लेकिन एक-दूसरे के लिए नहीं जिएंगे। आज की शिक्षा-व्यवस्था तीन तरह के बच्चे तैयार कर सकती है - पहले, पत्थर की तरह।

इनके भीतर आवेश है, कुछ करने का जज्बा है, लेकिन ये पाषाण जैसे हैं। अत: इनके व्यक्तित्व को पत्थर बनने से बचाना होगा। दूसरे, जल की तरह। कितने ही बड़े व्यक्ति हो जाएं इनके भीतर बच्चों की सरलता खत्म न हो। तीसरे, ये वायु की तरह गतिमान हों। आज की शिक्षा परिवार बचाएगी भी और बिगाड़ेगी भी। इसलिए जितनी हो सके, सावधानी जरूर रखी जाए।

परिवार में हर बच्चे को इस बात का अहसास दिलाया जाना चाहिए....
आधुनिक संसार में बच्चों का परिवार के प्रति लगाव लगातार घट रहा है। इसे माता-पिता की व्यस्तता का नाम दिया जा सकता है, या फिर संस्कारों की कमी का। बच्चे समझने की स्थिति में आते हैं, वे दोस्तों और बाहरी दुनिया में इतने रम जाते हैं कि परिवार से कट जाते हैं। हर संतान को शुरू से ही यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि दुनिया में सबसे अनमोल रिश्ता माता-पिता का होता है। माता-पिता के रिश्ते से बढ़कर कोई रिश्ता नहीं होता। उनके आशीर्वाद से ही कई विपरित परिस्थितियां हमारे पक्ष में हो जाती हैं। मां का आशीर्वाद दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति होता है।

अपने प्रयासों को करते समय यदि अन्य कोई सहारा मिलने लगे तो थोड़ी राहत हो जाती है। करना हमें ही है, लेकिन कुछ बातें सहायक हो जाती हैं। हमारे यहां आशीर्वाद और वरदान की परंपरा है। रावण को खूब वरदान मिले, लेकिन अहंकार के कारण उसके सारे वरदान शाप में बदलते गए। एक दौर ऐसा भी आया कि रावण सिर्फ शाप का ही संग्रह कर रहा था।

सामान्यत: वरदान तप से या किसी सक्षम व्यक्ति को प्रसन्न करके पाया जाता है। श्रीराम ने वरदानों से अधिक आशीर्वाद को प्राथमिकता दी। बड़े-बड़े जब आशीर्वाद देते हैं तो वे किसी दबाव में नहीं होते। वरदान कई बार अपने तप से दूसरे पर दबाव डालकर लिया जाता है, जबकि आशीर्वाद स्वेच्छा के साथ दिया जाता है।

हनुमानजी के पास वरदान और आशीर्वाद दोनों भरपूर थे। सीताजी ने प्रसन्न होकर हनुमानजी को भरपूर आशीर्वाद दिया। तब हनुमानजी ने कहा -

बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउं मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।।

हनुमानजी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा - हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है। आशीर्वाद को लेकर हनुमानजी ने कृतकृत्य शब्द का उपयोग किया है।

कृतकृत्य का अर्थ है इसके बाद करने के लिए, पाने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया। मां का आशीर्वाद अपने आप में परिपूर्ण होता है और हनुमानजी ने घोषणा कर दी कि मां का आशीर्वाद अचूक, अतुलनीय और अद्भुत है। हर हालत में इसे अपने जीवन में बनाए रखना चाहिए।

अगर आप अपने बच्चे को सफल बनाना चाहते हैं तो ये जरूरी है...
हर मां-बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा नाम कमाए। बच्चे के पैदा होते ही हम उसके भविष्य को संवारने में जुट जाते हैं। कई बार माता-पिता एक बात में चूक कर जाते हैं। वे अपनी संतानों को सुविधाएं देने में इतने डूब जाते हैं कि संस्कार देना भूल जाते हैं। बच्चों में अगर संस्कार अच्छे हों तो सुविधाएं वे खुद भी जुटा सकते हैं। हमें पहले संस्कारों पर ध्यान देना चाहिए, सुविधाएं हमारी प्राथमिकता ना हों।

भारतीय परिवारों में सोलह संस्कार की जो व्यवस्था रखी गई है, उसमें संतान को भी संस्कार से जोड़ा गया है। ऋषि-मुनियों ने यह व्यवस्था बड़े सोच-समझकर की है। गृहस्थी में बिना प्रेम के शांति नहीं हो सकती। परिवार में प्रेम लाने के लिए शारीरिकता से ऊपर उठना होगा।

रिश्तों में शरीर के भाव को कम करने के लिए संतान बहुत बड़ा अवसर होती है। जैसे ही संतान होती है, माता-पिता प्रेम और संवेदना के साथ संतान पर टिक जाते हैं। यहीं से पति-पत्नी के बीच शारीरिकता कम होती जाती है। परिवार में बच्चों की मौजूदगी झगड़े और तनाव को कम करती है।

स्त्रित्व मातृत्व में और पुरुषत्व पितृत्व में घुल-मिल जाता है। बच्चों के लिए जब माता-पिता त्याग करते हैं तो वे इसे बोझ न मानकर आनंद मानते हैं, जबकि ऐसा त्याग पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए नहीं कर पाते। पहले के मुकाबले आज के बच्चे बाहर की स्थितियों से जल्दी व ज्यादा परिचित हो जाते हैं। ऐसे में संस्कारों को उनसे जोड़े रखना थोड़ा दबाव का काम हो जाता है।

लेकिन उनके व्यक्तित्व में संतुलन बनाने के लिए प्रेम से संस्कारों को उनके व्यक्तित्व में उतारा जाए, नहीं तो यह बच्चे घर और बाहर दोनों ही स्थिति में अशांत होकर अपने आप को दुख की स्थिति में पटक लेंगे।
इन्हें घर उपद्रव का अड्डा लगने लगेगा और बाहर नर्क नजर आएगा, जबकि नर्क हमारे जीने के तरीके का दूसरा नाम है। इसलिए परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा, संतानें उतनी ही यशस्वी हो सकेंगी।

बच्चों की परवरिश में हमेशा इस बात का ध्यान रखें...
माता-पिता बच्चों को निस्वार्थ प्रेम करते हैं। उन्हें सुख-सुविधाओं से रखने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। लेकिन वक्त के साथ जब बच्चे बड़े होते हैं, तो माता-पिता को उनसे प्यार की भीख मांगनी पड़ती है। अपने पैरों पर खड़े होते ही बच्चे बाहर भागने की कोशिश करने लगते हैं। आखिर हमारी संस्कृति और संस्कारों में ऐसा क्या परिवर्तन आया है कि माता-पिता को बच्चों से प्रेम की मांग करनी पड़ती है। बच्चे बड़े होते ही संवेदन शून्य हो जाते हैं।

माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता।

एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और जब अवसर आया तो वह हमें प्रेम नहीं दे रहा, वह लौटा नहीं रहा।

इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है।

जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा न करें इसे सहज बहने दें।

अगर आप अपने बच्चों को बनाना चाहते हैं सफल और यशस्वी...
भारतीय परिवारों में सोलह संस्कार की जो व्यवस्था रखी गई है, उसमें संतान को भी संस्कार से जोड़ा गया है। ऋषि-मुनियों ने यह व्यवस्था बड़े सोच-समझकर की है। गृहस्थी में बिना प्रेम के शांति नहीं हो सकती। परिवार में प्रेम लाने के लिए शारीरिकता से ऊपर उठना होगा।

रिश्तों में शरीर के भाव को कम करने के लिए संतान बहुत बड़ा अवसर होती है। जैसे ही संतान होती है, माता-पिता प्रेम और संवेदना के साथ संतान पर टिक जाते हैं। यहीं से पति-पत्नी के बीच शारीरिकता कम होती जाती है। परिवार में बच्चों की मौजूदगी झगड़े और तनाव को कम करती है।

स्त्रित्व मातृत्व में और पुरुषत्व पितृत्व में घुल-मिल जाता है। बच्चों के लिए जब माता-पिता त्याग करते हैं तो वे इसे बोझ न मानकर आनंद मानते हैं, जबकि ऐसा त्याग पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए नहीं कर पाते। पहले के मुकाबले आज के बच्चे बाहर की स्थितियों से जल्दी व ज्यादा परिचित हो जाते हैं। ऐसे में संस्कारों को उनसे जोड़े रखना थोड़ा दबाव का काम हो जाता है।

लेकिन उनके व्यक्तित्व में संतुलन बनाने के लिए प्रेम से संस्कारों को उनके व्यक्तित्व में उतारा जाए, नहीं तो यह बच्चे घर और बाहर दोनों ही स्थिति में अशांत होकर अपने आप को दुख की स्थिति में पटक लेंगे। इन्हें घर उपद्रव का अड्डा लगने लगेगा और बाहर नर्क नजर आएगा, जबकि नर्क हमारे जीने के तरीके का दूसरा नाम है। इसलिए परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा, संतानें उतनी ही यशस्वी हो सकेंगी।

बच्चों को यह चीज़ जरूर सिखाएं...
शिक्षा को इस समय सत्संग से जोड़ा जाना चाहिए। आधुनिक शिक्षा और परंपरागत सत्संग का मेल असंतुष्ट, अशांत और असंयमित व्यक्तित्व के लिए जरूरी हो गया है। इस समय बच्चे इंटरनेट पर टिक गए हैं। सारी पढ़ाई परदे से खींची जा रही है। लैपटॉप और कंप्यूटर कितनी शिक्षा उगल रहे हैं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन बच्चे उसमें किस तरह से डूब रहे हैं, यह हमें मालूम कर लेना चाहिए।

एक अच्छा तरीका बुरे परिणाम दे रहा है। बच्चों को इसीलिए थोड़ा सत्संग से गुजारा जाना चाहिए। सत्संग के शब्दों में सुरक्षा है। सत्संग से गुजरने के बाद यह आत्मविश्वास प्रबल होता है कि संसार में जो यात्रा हम करेंगे, वह गलत नहीं होगी। हमारे देश में तो सत्संग के कई तरीके हैं। आदर्श वाक्यों के बैनर, दीवारों पर शुभ शब्द, पुस्तकों के स्लोगन, लेकिन अब इनमें धीरे-धीरे लोगों की रुचि कम हो रही है।

बोलती दीवारें, जगाती किताबें बच्चों की अंतिम प्राथमिकता हो गई हैं। इन्हें सबकुछ एक क्लिक में मिल रहा है। सत्संग में दो बातें महत्वपूर्ण हैं - एक गायन का हिस्सा, दूसरा प्रवचन का पक्ष। आजकल वक्ता यह मानकर चल रहा है कि जो हम कह रहे हैं, वही सही है या जो हमें अच्छा लग रहा है, वही दूसरों को भी लग रहा होगा। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है।

सभी अपनी यूटिलिटी देखते हैं, सत्संग में भी। यदि वह उनको नहीं मिले तो इसे समय खराब करना माना जाता है। इसलिए ऐसी पीढ़ी जिसे सबसे ज्यादा शांति की जरूरत है, इसकी पूर्ति कहीं और से करने लगती है। सत्संग का महत्व उसके जीवन प्रबंधन से जुड़ते ही एकदम बढ़ जाएगा। श्रोता और वक्ता दोनों पक्ष इसकी तैयारी रखें।

बचपन का एक फैसला भी बदल देता है जिंदगी...
दुनिया में आज भी अधिकांश माता-पिता ऐसे हैं जो संतान पैदा करने के मकसद से वाकिफ नहीं हैं। अगर शादी हुई है तो औलाद पैदा होना है। इसे जिन्दगी की तयशुदा घटना मान लिया जाता है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने एक जगह सही टिप्पणी की है कि हमारे भारत में ज्यादातर लोग संतान पैदा करना और उसके पालन-पौषण के मामले में प्रकृति तथा संयोग पर ही निर्भर हैं। वे जिन्दगीभर नहीं समझ पाते कि किस भरोसे और किस अधिकार से संतान पर संतान पैदा कर रहे हैं।

यह मामला नैतिक है न कि शारीरिक। भविष्य के नागरिकों का चरित्र आज के लालन-पालन पर टिका रहेगा। इस समय के बच्चे सर्वाधिक चुनौतियों का वक्त देखेंगे। इसलिए औलाद मुकद्दर का खेल न मानी जाए, यह एक जीवन-योजना होना चाहिए। उन्हें प्रबुद्ध और सुयोग्य बनाना सबसे बड़ा दायित्व माना जाए। हर चीज एक-दूसरे से बंधी है। बच्चों के लालन-पालन में उन्हें शुरु से स्पष्ट किया जाए कि जीवन सुविधाओं से नहीं संघर्षों से चलता है।

कभी-कभी अच्छा करने पर भी परिणाम अच्छा न मिले तो अच्छाई को नकारा नहीं जाना चाहिए। धैर्य से आने वाले दृष्यों की प्रतीक्षा करें तब परिणाम के प्रति विचार बदल जाऐंगे। मोहम्मद ने अपने शिष्य अली को एक बहुत खूबसूरत उदाहरण दिया था। उन्होंने कहा था अपना एक पैर उठाओ, अली ने उठा दिया। मोहम्मद बोले अब दूसरा उठाओ। अली जानता था दूसरा पैर उठाते ही सारा मामला लडख़ड़ा जाएगा और अली को समझ में आ गया कि पहला पैर उठाना कर्म था। पहले पैर उठाने के लिए वह आजाद था लेकिन दूसरा पैर किन्हीं और स्थितियों में बंध गया। इसी का नाम जिन्दगी है। एक फैसला दूसरे को प्रभावित करता है और इसी प्रकार बचपन के फैसले पूरी जिन्दगी को मुकाम देते हैं।

संतान के सुखी और सफल भविष्य के लिए सबसे जरुरी है ये बात...
कोई भी वृक्ष कभी अपने बीज से बड़ा नहीं हो सकता। माता-पिता हमारे बीज, हमारी जड़ हैं। इसलिए जो जड़ से जुड़ा रहेगा, वह सूखेगा नहीं। माता-पिता में समूचे समाज की वृद्धावस्था विराजित है। समाज और राष्ट्र में बड़े-बूढ़ों का मान सबके सुखद भविष्य के लिए आवश्यक है।

तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के पंचम सोपान सुंदरकांड की पहली चौपाई का पहला शब्द जामवंत है। जामवंत श्रीराम की सेना के सबसे वरिष्ठ और वृद्ध सदस्य थे। सुंदरकांड की पहली पंक्ति अपने प्रथम शब्द के साथ समाज की वृद्धावस्था को समर्पित है -

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।

जामवंत के वचन हनुमानजी के हृदय को बहुत भाए। सुंदरकांड हनुमानजी की सफलता की यात्रा है।
हनुमानजी ने अपने लंका अभियान के आरंभ में समाज के वृद्ध जामवंत को प्रणाम किया और चल दिए। हनुमानजी संदेश दे रहे हैं कि जीवन में जब भी कोई कार्य करने जाएं, समाज के बड़े-बूढ़ों को प्रणाम करें। माता-पिता को मान दें। उनके अनुभव और आशीर्वाद हमारे अभियान को सफल करेंगे। आगे की पंक्ति में लिखा गया है -

यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।

मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है सबको मस्तक नवाकर। हनुमानजी ने सबको प्रणाम किया तथा प्रसन्नचित्त होकर चल दिए। उन्होंने समझाया कि किसी भी अभियान में तीन बातें ध्यान में रखें - विनम्रता, परमात्मा का स्मरण व प्रसन्नता।

अपने बच्चों को इस रिश्ते का महत्व समझाएं...
आजकल दोस्त मिलना मुश्किल हो गया है और मित्रता भी एक धंधा बन गई है। जिस उम्र में मित्र बनते हैं, वह उम्र पढ़ाई-लिखाई और कॅरियर के इतने दबाव में है कि हर संबंध बस लेन-देन का जरिया हो गया है। एक प्रयोग करें, बाहर की दुनिया में अगर दोस्त नहीं बन पा रहे हों और जो पुराने थे, वे वक्त के बही-खाते में जमाखर्च हो गए हों या सब अपनी-अपनी दुनिया में उलझ गए हों तो अब दोस्ती घर में की जाए।

भारतीय परिवारों में रिश्तेदारी तो है, लेकिन दोस्ती नहीं है। हम नातेदारी को महत्व देते हैं, मित्रता को नहीं। इसीलिए पति-पत्नी एक नाता है, यह रिश्ता मित्रता नहीं बन पाता। दोनों एक-दूसरे के लिए जो भी कर रहे होते हैं, उसमें कुटुंब के संबंध रहते हैं, दोस्तों जैसी दोस्ती नहीं। यही हालत बाप-बेटे, मां-बेटी में भी चलती है।

इसी कारण लंबे समय चलते हुए रिश्ते बोझ बन जाते हैं। जबकि दोस्ती में हमेशा ताजगी रहती है। परिवार का आधार प्रेम होना चाहिए और परिवारों में प्रेम की शुरुआत मित्रता से की जाए, क्योंकि मित्रता में यह संभावना रहती है कि एक दिन वह प्रेम में बदल सकती है। और जैसे ही संबंधों में प्रेम जागा तो शुचिता व शांति अपने आप आ जाएगी।

अभी जब एक-दूसरे की मांग पूरी नहीं होती तो आवेश जागता है। लेकिन मैत्री और प्रेम आने के बाद एक-दूसरे के प्रति क्षमाभाव जागेगा। परिवारों में रिश्तों के बीच अपेक्षा ही प्रधान होती है। अपेक्षा अशांति का कारण है। प्रेम अपेक्षा के रूप को बदल देता है। अपेक्षा हटी कि एक-दूसरे पर दोषारोपण बंद हो जाएंगे, क्योंकि प्रेम बीच में आते ही हम हर रिश्ते में परमात्मा की झलक देखने लगेंगे। इसी को वैकुंठ कहते हैं।

कैसे करें अपने बच्चों के जीवन का लक्ष्य तय?
अक्सर हम बच्चों पर या तो अपेक्षाओं का बोझ लाद देते हैं या फिर उन्हें इतनी आजादी दे देते हैं कि वो नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। माता-पिता को चाहिए कि वो अपनी संतान के जीवन के दोनों पहलुओं आध्यात्मिक  व भौतिक जीवन का लक्ष्य तय कर दें। लक्ष्य तय करें फिर उसके अनुसार उनका लालन-पालन करें।

कई लोगों का जीवन बीत जाता है और वे तय नहीं कर पाते कि उनके जीवन का लक्ष्य क्या है। कई लोग लक्ष्य का दावा करते हैं, पर वो उनके अहंकार के कारण भ्रम ही होता है। लक्ष्य गढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। अब तो समय आ गया है कि बचपन से ही माता-पिता अपनी संतानों के लक्ष्य तय कर दें, क्योंकि इस बात में समय लग जाता है कि लक्ष्य को समझा भी जाए। जिस दिन यह नारा हृदय में उतर जाए कि सफलता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, उस दिन लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक तड़प भीतर पैदा हो जाती है।

बिना लक्ष्य के न तो भौतिकता का जीवन जिएं और न भक्ति का। लक्ष्यहीन भक्ति कोरा कर्मकांड बनकर रह जाती है। लक्ष्य यदि बचपन से तय हो जाए, तो युवावस्था आते-आते परिश्रम के अर्थ सही ज्ञात हो जाएंगे। वैसे आजकल इस मामले में नई पीढ़ी बहुत सक्रिय है कि वह अपने लक्ष्य तय करके चलती है।

गलत है कि सही, इस पर वह किसी का हस्तक्षेप भी नहीं चाहती। अब लक्ष्य के साथ दो काम जरूर करें। अपने लक्ष्य को पारिवारिक और सामाजिक उद्देश्यों से जरूर जोड़ें, अन्यथा हम तो लक्ष्य की पूर्णता की ओर चल देंगे, पर हमसे जुड़े परिवार और समाज के लोग पीछे छूट जाएंगे। यहीं से परिवार के लोगों को लगने लगता है कि मनुष्य स्वार्थी हो गया है।

बचपन की सीख के बाद भी इस कारण भटक जाते हैं लोग...
बचपन से हमें सिखाया जाता है कि सावधान रहना, जिंदगी की राहों में भटक मत जाना। साधारणतया भटकने का अर्थ है कि हम चरित्रहीन न हो जाएं। हमारी जीवन यात्रा में दो चीजें होती हैं, तब हम भटकते हैं। पहला, यदि कोई धक्का लगे तो चाल लड़खड़ाएगी और दूसरा, यदि कोई घसीट ले तो मार्ग से इधर-उधर हो जाएंगे।

लोभ, मोह, काम, क्रोध, मान, पद, प्रतिष्ठा इन सबके धक्के हमें गिरा देते हैं। घसीटने के मामले में इंद्रियां बहुत ताकतवर होती हैं। खींच-खींचकर विषयों की ओर ले जाकर पटक देती हैं। इनसे बचने के लिए अपने भीतर या तो अति आत्मविश्वास जगा लें या श्रद्धा का अंकुर पैदा कर लें।

श्रद्धावान व्यक्ति नसीहतों के प्रति गंभीर होता है। उसके लिए सीख आचरण से अधिक भरोसे का विषय होती है। माता-पिता और गुरुजन की सीख वह अनुशासन के रूप में नहीं, श्रद्धा के रूप में लेता है। झोंकों से गिरने वाले और इंद्रियों से घसीटे गए लोग भविष्य के अज्ञात भय से भी डरने लगते हैं कि अब क्या होगा?

यदि श्रद्धा जीवन में है तो भय को जाना ही पड़ेगा। एक बात और कि जीवन में जब भी भय आएगा, उसके मूल में अहंकार जरूर होगा। अहंकारी व्यक्ति का जीवन दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा और आलोचना पर निर्भर होता है।उसे सदैव भय बना रहता है कि दूसरे उसके बारे में क्या कहेंगे और इसीलिए वह धक्के भी खाता है, लेकिन श्रद्धा आपको स्वयं पर टिकाएगी, निर्भय बनाएगी।

जानिए, कैसे पाला जाए संतानों को...
जरूरतों और इच्छाओं का संघर्ष हमेशा चला करता है। ईश्वर हमारी इच्छा होनी चाहिए, जरूरत नहीं। लेकिन सांसारिक चीजें हमारी जरूरत की श्रेणी में आनी चाहिए, इच्छाओं की नहीं। हम जितना इच्छाओं पर टिकेंगे, उतना स्वार्थी होंगे और जितना जरूरतों से जुड़े रहेंगे, उतने उदार हो जाएंगे। इच्छापूर्ति के लिए आदमी किसी भी हद तक जाता है।

इच्छा जब ईश्वर से जुड़ती है तो प्रत्येक कृत्य उपासना बन जाता है। परमात्मा के लिए हमारी इच्छा में जितनी तीव्रता होगी, परमात्मा की दृष्टि में हम उतने ही सुपात्र होंगे। अब इन्हीं बातों को संसार की दृष्टि से देखें। संसार में इच्छाओं को काटना चाहिए और आवश्यकताओं के अनुसार जीना चाहिए। आदमी की अनेक इच्छाओं में एक इच्छा होती है कि मैं लोकप्रिय हो जाऊं। अधिक लोकप्रिय व्यक्ति एक चलती-फिरती जेल होता है।

अपनी लोकप्रियता से वह खुद ही परेशान होने लगता है। फिर भी सब चाहते हैं नाम हो जाए। यह एक इच्छा है। गहराई में जाकर देखें तो इच्छा एक सपना है, इसमें यथार्थ कम रहता है। आवश्यकता सदैव यथार्थ पर टिकी है। इसीलिए आवश्यकता की पूर्ति में आप अशांत नहीं होंगे, लेकिन इच्छाओं के चक्कर में जरूर परेशान हो जाएंगे।

जिस दिन हम आवश्यकता और इच्छा का फर्क समझेंगे, उस दिन से हमारे परिवारों में बच्चों के लालन-पालन पर भी असर पड़ने लगेगा। जो बच्चे जरूरतों से पाले जाएंगे, वे बड़े होकर कुछ अलग मानसिकता के होंगे और जो इच्छाओं से पाले जाएंगे, वे अलग आचरण के होंगे।

बच्चों की परवरिश में सबसे जरूरी है यह बात...
इस समय सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण काम है बच्चों का लालन-पालन करना। बड़े से बड़े पराक्रमी और सक्षम लोग भी इस मामले में चूक जाते हैं। इसके लिए बेहद जरूरी है कि पति-पत्नी अत्यधिक समझदार माता-पिता बनें।

संतानों ने जो कुछ भी सीखा, इसका 80 प्रतिशत भाग आनुवंशिक रूप से माता-पिता से आया और घर में देखकर सीखा गया। बच्चों के सर्वागीण विकास में परिवार की बड़ी भूमिका होती है। हर सदस्य बालमन को कुछ न कुछ सिखा जाता है। यदि घर दुखी है, असंतुष्ट है, कलह में डूबा हुआ है तो बच्चे संतोष और प्रसन्नता बाहर ढूंढ़ने लगते हैं।

माता-पिता के मन-मुटाव में वे स्वयं को असहज पाते हैं और सहजता की खोज में घर की देहरी पार करते ही गलत दिशा में निकल पड़ते हैं। घर में हो रहा कोहराम तथा सूनापन भी बालमन को विचलित करता है। उनका अपरिपक्व मस्तिष्क माता-पिता के असंतुष्ट प्रतिबिंब को अपने भीतर उतार लेता है और जो जन्मजात निर्दोष था, वो दोषपूर्ण आचरण के लिए तैयार होने लगता है।

उसकी निर्दोषता में हम अपनी भूमिका डाल देते हैं। जबकि उस समय हमें उनके भीतर चरित्र, शिक्षा के अलावा विवेक जगाना चाहिए वरना आने वाले दौर में स्त्री-पुरुष पति-पत्नी बनकर माता-पिता के रूप में संतुष्ट और प्रसन्न होने का दावा नहीं कर पाएंगे। लेकिन यदि बच्चों में विवेक जगाने में कामयाब हो गए तो बच्चे इन चीजों को ग्रहण करते समय क्या फेंकें, क्या रखेंकी अक्ल से काम लेंगे। वे शुभ और अशुभ का अंतर सीख जाएंगे, जो इस समय पारिवारिक जीवनशैली के लिए बहुत जरूरी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK