Thursday, April 12, 2012

Jigyasa (जिज्ञासा)

विवेक सध जाए तो वैराग्य की जरूरत नहीं रहती
परिवर्तनशील का पता चलता है पर जो अपरिवर्तनशील है उसका अहसास होता है, पता नहीं चलता। सत्य का अहसास होता है, असत्य का पता चलता है। इसी को विवेक कहते हैं। विवेक क्या है। सत्य क्या है, असत्य क्या है.. कौन सा सुख है, कौन सा दुख है.. यह जान लेना ही विवेक है। विवेक सध जाए तो फिर वैराग्य की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

वैराग्य माने क्या? इहा परक भोग विराग। किसी के प्रति रुचि न रखना, न यहां का, न पर का। रुचि न रखना से आशय है कि उसके प्रति ज्वर से पीड़ित न रहना। जो फल हमको यहां मिल रहा है या मिलेगा आगे, उसके प्रति कोई ज्वर न रखना ही विराग है। तो अगर वैराग्य से पहले विवेक सिद्ध हो जाए कि क्या नित्य है, क्या अनित्य है, तो फिर उसमें न राग रहता है और न द्वेष रहता है। अक्सर लोग राग करते है या द्वेष करते हैं। राग-द्वेष से मुक्ति हो जाना ही विवेक है।

कहते हैं कि सेवा करने वाले लोग प्रभु को ज्यादा प्रिय हैं। और कुछ कहते हैं कि ईश्वर सबको बराबर प्रेम करते हैं। यह कैसे? हां, कृष्ण एक लम्बी लिस्ट देते हैं कि कौन उनके प्रिय हैं। गीता का बारहवां अध्याय उससे भरा हुआ है। वे कहते हैं कि जो किसी को द्वेष नहीं करता। जो सबके प्रति मैत्री और करुणा रखते हैं। जिनमें ममता नहीं है, अहंकार नहीं है, जो सुख-दुख में समान रहने वाले हैं वे सब मुझे प्रिय हैं। जो शत्रु और मित्र नहीं देखते और सबके प्रति समता में रहते हैं, ऐसे व्यक्ति भी मुझको बहुत प्रिय हैं।

यह तो सहज ही है। तुम भी तो कुछ चीजों को पसंद करते हो। जैसे तुम भोजन करते हो। तो कुछ तो पसंद होगा। जैसे कहोगे कि मुझे करेला पसंद है। या मुझे बैंगन का भरता पसंद है। तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी सब पसंद नहीं है। किसी को बैंगन भरता पसंद है तो वह हमेशा बैंगन भरता ही नहीं खा सकता। हां दाल रोटी के साथ बैंगन भरता पसंद है तो वह खाते हो। है न।
इस तरह से कृष्ण कहते हैं और कभी भ्रम भी पैदा करते हैं। और उनका काम यही है कि भ्रम पैदा करो। अर्जुन को बड़ा भ्रम हो गया। वह कहता है कि कोई एक चीज बताओ भाई, तुम यह भी बताते हो, वह भी बताते हो, इसे भी ठीक कहते हो, उसे भी ठीक कहते हो। मेरा दिमाग तिलमिला गया है।

तब फिर कृष्ण बताते हैं कि ये सब एक ही है। फिर भी अलग-अलग बोलता हूं तो भी एक ही है। संन्यासी भी, योगी भी, काम करने वाले भी, नहीं करने वाले भी, सब एक हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। ऐसा नहीं है। काम सबको करना ही पड़ेगा। खाली कोई बैठ ही नहीं सकता दुनिया में इसलिए सबको कर्म का मार्ग अपनाना पड़ेगा। यह साफ-साफ कहा है।

दस वर्ष की उम्र से लेकर चालीस वर्ष की उम्र तक विवेकशक्ति बढ़ती रहती है। अगर इस उम्र में कोई विवेकशक्ति नहीं बढ़ाता है तो फिर चालीस वर्ष के बाद उसकी विवेकशक्ति क्षीण होती जाती है। जो दस से चालीस वर्ष की उम्र में विवेकशक्ति बढ़ाने की कोशिश करता है उसकी तो यह शक्ति बाद में भी बढ़ती रहती है। 40 वर्ष के बाद भी विवेकशक्ति बढ़ती रहे उसकी एक साधना है। इस साधना को सात विभागों में बाँट सकते हैं। एक तो सत्संग सुनता रहे।बिन सतसंग बिबेक न होई।खाने पीने का, इधर-उधर का, अतिथि मेहमान का विवेक नहीं,आत्मा क्या है,जगत क्या है और परमात्मा क्या है?– इस बात का विवेक।अविनासी आतम अचल,जग तातैं प्रतिकूल।

आत्मा अविनाशी है, हम अविनाशी हैं और जगत विनाशी है। हम शाश्वत हैं, शरीर और जगत नश्वर है इस प्रकार का प्रखर विवेक। यह सारी साधनाओं का मूल है।उसने सब अध्ययन कर लिया, उसने सब पढ़ाई कर ली और सारे अनुष्ठान कर लिये जिसने सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके इच्छारहित आत्मा-परमात्मा में आने का ठान लिया ऐसा तीव्र विवेक ! ईश्वरप्राप्ति के उस तीव्र विवेक को जगाने के लिये ये सात साधन हैं।

दूसरा है सत्शास्त्रों का अध्ययन। तीसरा साधन है प्रातः और संध्या के समय त्रिबन्ध प्राणायाम करके जप। भगवद् ध्यान, भगवत्प्राप्ति का जो साधन या मार्गदर्शन गुरु ने दिया है उसका अभ्यास, इससे विवेक जगेगा। चौथा साधन है कम बोलना, कम खाना और कम सोना, आलस्य छोड़ना। नींद के लिए तो 4-5 घंटे काफी हैं, आलसी की नाईं न पड़े रहें। अति नींद नहीं, आलस्य नहीं, अति आहार नहीं, अति शब्द विलास नहीं।पाँचवाँ है शुद्ध, सात्त्विक भोजन और छठा सारगर्भित साधन है ब्रह्मचर्य पालना, सातवाँ साधन है सादगी।
ये सात साधन संसार की चोटों से, मुसीबतों से तो क्या बचायेंगे और आपके जीवन में भगवत्प्राप्ति का दिव्य विवेक भी जगमगा देंगे।

तपस्या किसे कहते हैं?
तपस्या उसी को कहते हैं कि जो पसंद नहीं है, फिर भी करना पड़ता है। अब बस में बैठकर जा रहे हैं दस घंटे, तो बीच में तो उतर नहीं सकते। बस में बैठे हुए हैं, यह तपस्या है। इतनी देर बैठने को किसी का दिल तो नहीं करता। पर बस में बैठे हैं तो बैठे रहना पडेगा। यानी जो पसंद नहीं है पर जिसको करने से श्रेय मिलता है, जिसमें हमारा हित है, वह तपस्या है।

अगर आपकी बातें और विचार मेल नहीं खाते हैं तो यह करें....
अधिक जानकारियां भी जब मस्तिष्क में ओवर फ्लो होने लगती हैं तो इसका असर जुबान पर पड़ता है। हम देखते हैं कि कई बार कुछ लोग, जो बोल रहे हैं, उसे वे खुद ही नहीं समझ पाते। आज की शिक्षा में ज्ञान से ज्यादा जानकारियों पर दबाव है।

यदि जानकारियों का बहीखाता कोई ईमानदारी से लिखे तो वह पाएगा कि निजी जीवन के उत्थान के लिए इनमें से कुछ ही काम की होंगी, बाकी तो व्यर्थ का भरावहैं। इसके लिए जानकारी एकत्रित करने की पद्धति को खत्म भी नहीं करना है, पर प्रतिदिन इसकी सफाई करनी जरूरी है। इसका एक तरीका है मेडिटेशन। जैसे ही हम मेडिटेशन में उतरते हैं, बाढ़ की तरह विचार हमारी ओर बहने लगते हैं।

विचारों का यही सैलाब बिल्कुल चौबीस घंटे हमारी ओर ऐसे ही चलता है। उस समय हम कहीं और व्यस्त रहते हैं, इसलिए इनकी ओर ध्यान नहीं दे पाते। खाना खाते समय, कंप्यूटर पर काम करते समय और तो और किसी से जरूरी मीटिंग करते हुए भी यही सब चलता है। चूंकि ध्यान के समय हम थोड़ा शरीर के साथ एकांत में होते हैं, इसलिए हमारी नजर इन पर आसानी से पड़ जाती है।

उस समय हम अपने एकांत को जीने की कोशिश कर रहे होते हैं, बाकी समय हम दूसरों के साथ होते हैं। इस कारण लगता है कि ध्यान नहीं हो पाएगा। लेकिन इसे भूल जाएं और क्रिया जारी रखें। इसका बड़ा फायदा यह होगा कि दिनभर एकत्रित की गई जानकारियां ओवर फ्लो होकर आपकी वाणी को गलत रूप से प्रभावित नहीं करेंगी। विचार और वाणी का संतुलन अपने आप बनने लगेगा।

जीवन को अच्छी तरह से समझने के लिए यह जरूरी है...
इस समय अधिकांश समय लोग शरीर की परिधि पर ही टिक गए हैं। अपने शरीर से बाहर आए तो दूसरे के शरीर में टिक गए। बस इतनी ही यात्राएं मनुष्य के जीवन में चल रही हैं। सारे उद्देश्य, लक्ष्य शरीर की पूर्ति के आसपास घूम रहे हैं। मजेदार बात यह है कि जिस शरीर के लिए सब किया जा रहा है, सबसे ज्यादा नुकसान भी उसी का हो रहा है।

निज तन ही निज तन को खाएजैसी जीवनशैली हो गई है। बहुत कम लोग जान पाते हैं कि आत्मा भी कोई अंग है। वास्तव में हमारी शिक्षाप्रणाली को चाहिए कि वह हर विषय के साथ कहीं न कहीं आत्मा को अवश्य जोड़े, क्योंकि बिना आत्मा को स्पर्श किए शांति नहीं मिलती। आने वाले समय में भारत जब भौतिक ऊंचाइयां छुएगा तो यहां अशांति के वे सब आयाम होंगे, जो पश्चिम में हैं।

ऐसे समय यदि आत्मबोध हमारे पास हुआ तो हम कामयाब भी रहेंगे और शांत भी। शिक्षा हमें सभ्य बना रही है और सभ्यता का संबंध शरीर से है, लेकिन संस्कार मन को प्रभावित करेंगे, तब आत्मा की यात्रा आसान होगी। केवल शरीर पर टिकने से छोटी मानसिक बीमारियां आसानी से प्रवेश करती हैं और बाद में विकराल रूप ले लेती हैं।

जैसे ज्यादातर क्रोध करने वाले लोग जानते हैं कि यह गलत हो रहा है। पछताते भी हैं, छोड़ना भी चाहते हैं, फिर भी क्रोध नहीं छूटता। अब जानकर भी यदि बुराई न छूटे तो समझ लें कुछ नहीं जाना गया। केवल शरीर पर टिककर समूचा जीवन नहीं जाना जा सकता, आत्मज्ञान जरूरी है। जैसे ही आत्मज्ञान प्राप्त होगा, उसके बाद हम जो भी करेंगे तो ऐसा लगेगा जैसे स्वत: हो रहा है और दुगरुण अपने आप छूटेंगे।

अगर सुख और शांति चाहिए तो अपनी आमदानी का उपयोग ऐसे करें...
कमाए हुए धन का सामाजिक व व्यावसायिक स्वरूप अलग होता है, परंतु पारिवारिक स्वरूप आते ही इसमें उत्तराधिकार महत्वपूर्ण हो जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी संपत्ति का स्थानांतरण भारत की परंपरा है। कभी नई पीढ़ी उस संपत्ति को बढ़ा देती है तो कभी उसे खत्म ही कर देती है। कमाए हुए धन का हिस्सा घरवालों को मिलना ही है, लेकिन समय आ गया है इस पर नई दृष्टि रखी जाए।

कुटुंब की परिभाषा को विस्तृत किया जाना चाहिए और संपत्ति का अधिकार भी थोड़ा विस्तार लेगा। हम जो कमा रहे हैं, उसमें उन लोगों का भी अधिकार है, जिनके पास इतना भी धन नहीं है कि दो वक्त की रोटी जुटा सकें। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मजबूरी में उपचार नहीं करा पा रहे या योग्य किसी अभाव के कारण अच्छी शिक्षा नहीं ले पाते।

ये सब भी हमारे कुटुंब का हिस्सा हैं। इसलिए अपनी आमदनी का एक भाग इन तक भी पहुंचना चाहिए। तभी धन का औचित्य सिद्ध हो पाएगा। धन के बंटवारे के समय बुद्धि यह समझाती है कि हमने इसे कमाया है तो हम किसको कितना दें, इस पर विचार करेंगे। धन कमाया तो बुद्धि से ही जाता है, लेकिन खर्च करते समय इसे हृदय से जोड़ दें।

धर्म केवल बुद्धि से जुड़ने पर खतरनाक हो जाता है और हृदय से जुड़ने पर भक्ति बन जाता है। वैसा ही धन का भी है। धन जब हृदय से जुड़ेगा तो उसका व्यय भी सद्कार्यो में होगा। सद्कर्म की परछाई प्रतिष्ठा व भक्ति की परछाई प्रेम है, ऐसे ही धन की परछाई सेवा हो जाएगी। जब हम सेवा की दृष्टि से अपने कुटुंब का विस्तार करेंगे, तब हमारा मूल कुटुंब भी उसके परिणाम में सुख व शांति पाएगा।

यह है सफलता का सबसे बड़ा सूत्र...
समय के साथ दो बातें हमेशा ध्यान रखी जाएं, उसका आना और जाना। आते हुए समय की चुनौती को समझा जाए और गुजरते हुए वक्त के नुकसान को पकड़ा जाए। भारतीय संस्कृति ने तो समय को भी काल रूप में देव माना है। उसमें प्राण जैसी अनुभूति दी है।

समय को जीवनरूप में स्वीकार कर मान दिया है। आज का काम आज किया जाए, यह सिर्फ कहावत नहीं है, पूरा जीवन दर्शन है। कबीर ने अपनी एक पंक्ति में पल में परलयशब्द का बहुत सही उपयोग किया है।

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब? आज की चूक एक बहुत बड़ा धक्का है। इसकी चोट जीवन के अंतिम समय तक असर करती है। यूं तो समय बहुत हल्का होता है, हौले-हौले गुजरता है।

शीतल और सुगंधित पवन की तरह समय भी आनंद देता बीत जाता है, लेकिन विलंब और टालने की वृत्ति आते ही अपने आप को भारी बना देता है और हर अगले दिन वह अपने भार को मल्टीपल कर लेता है। इसीलिए टाले हुए काम बोझ बनकर अशांत बनाते हैं। साथ ही हमारे व्यक्तित्व को अप्रिय व आलोचनापूर्ण बना देते हैं।

भारी समय अपने साथ अंधकार भी लाता है। वक्त की बर्बादी अपराध है। ऐसे लोग खुद का समय भी नष्ट करते हैं और दूसरे के समय का महत्व भी नहीं समझ पाते। यदि समय के मामले में स्फूर्त रहना है तो हर कार्य करने के पूर्व थोड़ा शांत होकर, विश्राम मुद्रा में अपने भीतर उतरें, एक गहरे प्रकाश को पकड़ने का प्रयास करें, जो हमारे भीतर होता ही है, फिर काम करें। भीतर उतरकर मौन साधना समय का सम्मान ही होता है।

उपासना का यथार्थ
उपासना के समय भावना का स्थान महत्वपूर्ण है। उपासना का अर्थ यही है कि भगवान की भावनाएं, भगवान का स्तर एवं हमारी भावनाएं और हमारा स्तर एक होना चाहिए, किंतु हम एक होने में सफल नहीं हो पाते। अत: जितना अधिक हो सके, हमें प्रभु के समीप होने का प्रयत्न करना चाहिए। बेल कमजोर होती है, पतली होती है। वह जमीन पर फैल सकती है, पर ऊपर नहीं उठ सकती, लेकिन जब वह पेड़ का सहारा पा जाती है तो उतना ही ऊपर पहुंच जाती है जितना ऊंचा पेड़ होता है। हम कोशिश करें और परमात्मा रूपी पेड़ के साथ अपनी अंतरात्मा रूपी बेल को उससेलिपटाते चलें और उसकी ऊंचाई, उसकी गरिमा, उसकी महिमा के बराबर अपने व्यक्तित्व को उठाते जाएं। उपासना के समय मन:स्थिति बेल जैसी ही होनी चाहिए। अपनी मन:स्थिति ऐसी बनाने का प्रयत्न करें कि हमारी कामनाओं पर भगवान की कामनाएं काम करें। हम खाली हो जाएं और उसके भीतर भगवान अपना काम करने के लिए स्वाधीन हो जाएं, स्वच्छंद हो जाएं, किंतु ऐसा नहीं कर पाते। इसलिए कि हम वासना के गर्त में घिरे होते हैं। हम तृष्णा के जाल, तृष्णा के दलदल में फंसे होते हैं। अहं की पूर्ति के लिए अपना वैभव बढ़ाने में लिप्त रहते हैं और भगवान के अनुग्रह की उपेक्षा कर देते हैं। अपने लिए उसका उपयोग नहीं कर पाते।

एक ईमानदार आदमी की तरह हमें भगवान की उपासना करनी चाहिए। हमें अपने आपको भगवान के हाथों सौंप देना चाहिए। अर्थात अपनी इच्छाओं को भगवान के हवाले कर देना चाहिए। अब आपकी इच्छाओं का शासन-अनुशासन हमारे ऊपर लागू होगा। यदि हमने संसार, परमात्मा और अपने संबंधों की वास्तविकता को हृदयंगम् कर लिया तो निश्चित रूप से सांसारिकता और भौतिकता हमें बौनी प्रतीत होगी। तो फिर हम क्यों भगवान के बनाए प्राणियों को कष्ट पहुंचाएं। परमात्मा भी अपने बनाए जीवों को असीम प्यार करता है। जब प्रभु ऐसा चाहते हैं तो हम क्यों उनके विपरीत जाएं। संभवत: परमात्मा के प्रति यही सच्ची भक्ति और उनकी आराधना है।

इस तरह आप हर बार गलत कामों से बच सकते हैं....
जब भी हम कोई गलत काम कर रहे होते हैं, हमारे भीतर कुछ ऐसा होता है, जो एक बार हमें जरूर टोकता है। जब तमो गुण हावी होते हैं, पाप प्रिय लगने लगता है, आचरण में पशुता उतरती है तो भीतर भी हलचल होती है।

हमारे अंत:करण में आग्रह का एक भाव जागता है कि रुक जाओ, गलत काम न करो। कुछ लहरें चलती हैं जिसमें दया, सेवा, दान, ज्ञान, त्याग, उदारता और विवेक एक बार शरीर के रग-रग में बहता जरूर है। गलत काम के ठीक पहले यदि हम इन्हें महसूस करें तो निश्चित ही हम अपने आप को रोक लेंगे। कबीरदासजी ने कहा है कि ईश्वर हमसे चौबीस अंगुल दूरी पर है।

कबीर बात पते की कहते थे, लेकिन तरीका तिरछा ही रहता था। यदि सचमुच परमात्मा इतने निकट हैं तो हर किसी को मिल जाएगा। लेकिन कबीर जिस भाव से कह रहे हैं, उसे समझा जाए। आत्मा का स्थान हृदय होता है और मन का स्थान मस्तिष्क। हृदय से मस्तिष्क की दूरी चौबीस अंगुल है। आत्मा का ही अगला रूप परमात्मा है। बुरे विचार या गलत काम का केंद्र मन होता है। जैसे ही यह सक्रिय हुआ, वैसे ही हृदय हमें अवसर देता है कि रुक सकें तो रुक जाएं।

हृदय से आवाज भी आती है सत्य पर टिको, ये दुष्कर्म अस्थायी हैं। यदि हम हृदय की भाषा सुनने से चूक जाएं तो मन वहां ले जाकर पटकता है, जिसे गलत दुनिया कहते हैं। इसलिए भीतर की सत्ता से जुड़े रहें तो बाहर की सत्ताएं हमसे गलत काम नहीं करवाएंगी। गलत में एक आकर्षण होता है और सही में सहज आमंत्रण। हृदय पुकारता है और मन खींचता है।

सफलता का नया मंत्र है, कर्म करो, फल की चिंता भी रखो
कहना आसान है कि कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो। पहले तो इसी पंक्ति में संशोधन कर लें। फल की चिंता जरूर करें, क्योंकि बिना चिंता पाले कर्म की योजना, कर्म में परिश्रम नहीं हो पाएगा। इतना जरूर ध्यान रखें कि फल में आसक्ति न हो। दिक्कत आसक्ति से शुरू होती है, लेकिन ऐसा करना भी कठिन मालूम पड़ता है।

आजकल तो पहले फल निर्धारित किया जाता है, फिर आदमी कर्म करता है। इसीलिए जब उसे वांछित फल नहीं मिलता, तब वह परेशान होता है। फल की आसक्ति से मुक्त होने के लिए हमें अपने मनुष्य होने की रचना को समझना होगा। हम दो बातों से मिलकर बने हैं, दैवीय तत्व और भौतिक तत्व।

हमारी आत्मा दैवीय तत्व का हिस्सा है, मन भौतिक तत्व से जुड़ा है और तन इन दोनों का मिश्रण है। मन का स्वभाव है कि उसे सबकुछ चाहिए, बेलगाम चाहिए। इसीलिए मन या तो भविष्य की सोचता है या भूतकाल की, उसे वर्तमान में रुचि नहीं है। यह तमोगुणी स्वभाव है। आत्मा के भी तीन गुण होते हैं, जिन्हें सत्, चित् और आनंद कहा गया है।

जैसे मछली को जल में रहना ही प्रिय है, वैसे ही आत्मा आनंद में ही रहती है। जो आनंद में रहता है, वह भविष्य में फल की आसक्ति नहीं करता। इसलिए कर्म करते समय शरीर पूरा परिश्रम करे, लेकिन हम आत्मा की ओर मुड़े रहें, केवल मन पर न टिकें। और इसीलिए योगियों ने ध्यान को महत्व दिया है। ध्यान का अर्थ है वर्तमान पर टिकना। कई लोग पूछते हैं - क्या ध्यान करने से शांति मिलेगी? यह प्रश्न ही ध्यान में बाधा है। आप सिर्फ क्रिया करिए और अपने आप वह मिलेगा, जो सही है।

अगर मन को काबू में रखना है तो यह करें...
मन को जो-जो चीजें पसंद हैं, उनमें से एक है बेईमानी करना। उसे नई-नई किस्म की बेईमानियां ढूंढ़ने में बड़ा मजा आता है। मनुष्य के भीतर गलत के प्रति जो प्रोत्साहन होता है, वह मन द्वारा ही फेंका गया होता है। मन की आकांक्षाएं मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं बन जाती हैं और अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति अनुचित का चुनाव करने में संकोच नहीं करता।

मन को नवीनता में भी रुचि है। जैसे कुछ लोगों का स्वभाव होता है कि वे वस्तु की उपयोगिता से ज्यादा उसके नए होने में रुचि रखते हैं। फिजूलखर्ची इसी का नाम है। हम उदाहरण ले सकते हैं आज के जीवन में मोबाइल रखना और लगातार बदलना उपयोगिता से ज्यादा लेटेस्ट का मामला है। मन इसी शैली में रिश्तों पर, सिद्धांतों पर काम करता है।

जो लोग मन की रुचि से चलते हैं, वे संसार पर टिक जाते हैं। संसार की दौड़ तेजी से परिवर्तन का मामला है। इसीलिए मन की रुचि सांसारिक कार्यो में ज्यादा होती है। अब जैसे ही हम भीतर उतरते हैं, मन को अध्यात्म से जोड़ने का क्रम आरंभ हो जाता है। अब मन छटपटाता है। इसलिए समझदार भक्त लोग मन की नवीनप्रियता को जानकर उसे भीतर ही नई-नई वस्तुएं उपलब्ध कराते हैं।

भीतर जाकर जैसे ही आप अपने पुराने को काटने लगते हैं, बस वहीं से चेतना जाग्रत होती है। नई-नई कथाएं सुनना, लगातार ध्यान करते रहना हमारे भीतर हमारे अतीत के बोझ से हमको मुक्त कराता है। अब मन को नया चाहिए। यदि वो उसे भीतर ही मिल जाए तो फिर वह बाहर नहीं कूदेगा। ईश्वर के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि वो नित-नया होता जाता है। इसी का नाम जिंदगी की ताजगी है।

गृहस्थी का सुख चाहिए तो थोड़ा ऐसे भी रहें...
दुनिया में अनेक तरह के लोग होते हैं। किसे आपका कौन-सा काम पसंद या नापसंद है, इसका ठीक से आप हिसाब-किताब नहीं लगा पाते। चूंकि हम अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा दूसरों से प्रभावित रखते हैं, इसलिए हम भी चिंतित रहते हैं कि किसे क्या पसंद आएगा?

कुछ लोग तो आपकी प्रशंसा करके अहंकार को बढ़ाएंगे और आप समझ नहीं पाएंगे कि आप अपना कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं। हमारे जीवन में वन का बड़ा महत्व है। इसलिए नहीं कि जंगलों में पर्यावरण बसता है, बल्कि इसलिए कि सभी महान लोगों ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा वन से जोड़कर रखा है। दरअसल वन और तप एक-दूसरे के पर्याय हैं।

जीवन में तप जरूर होना चाहिए। हमारे यहां आज भी उपवास और तप को लोगों ने प्रशंसा का विषय बनाया है। कई लोग तो इसीलिए साधु-महात्मा बन गए कि उन्होंने जरा शरीर पर काम किया और लोगों ने जय-जयकार कर दी। संसार में लोगों को इसी में मजा आने लगता है कि कोई अपना शरीर सुखा रहा है, कोई भूखा रह रहा है, कोई आग पर बैठा है तो कोई धरती पर उल्टा हो रहा है। ऐसा ही जीवन में होने लगता है।

विचित्र को प्रशंसा मिल ही जाती है। हमारे यहां वन में जाकर तप इसीलिए किया जाता था कि एकांत में जो आपको उपलब्ध होगा, वह आपके अहंकार को नहीं बढ़ाएगा। वन में चुप्पी, मौन और दृष्टि तीनों रहती थी। जंगल भगवान की अभिव्यक्ति होती है और परमात्मा मिले तो दूसरों की प्रशंसा, आलोचना की चिंता नहीं करनी चाहिए। इसलिए घर में रहते हुए भी थोड़ा-सा तपस्वी जीवन अवश्य जिएं।

अगर शांति चाहिए तो ये काम जरूर करें...
बोलना और सुनना हमारी फितरत में शामिल है। कुछ लोगों को बोलने की बीमारी-सी हो जाती है। इसी तरह सुनने का भी नशा होता है। जब सुनने की इच्छा खूब होने लगती है तो आदमी दूसरों की बातों में रुचि लेने लगता है। क्या सुना जाए, भक्ति के क्षेत्र में यह भी आवश्यक है, क्योंकि हमारे जीवन में और इस ब्रहांड में बहुत कुछ अनसुना भी मौजूद है।

भजन, कीर्तन आध्यात्मिक प्रतिध्वनि होते हैं। इनके बोल जागरूकता के लिए प्रेरक बन जाते हैं। जिन्हें शांति की तलाश हो, वे अपने श्रवण, रुचि और क्षमता पर थोड़ा ध्यान दें।

ऐसा न सुनें, जो आवश्यक न हो और ऐसा जरूर सुनें, जो हमें और गहराई में ले जाए। इसलिए मेडिटेशन के समय शास्त्रीय संगीत की कुछ धुनें बड़ी काम आती हैं। कभी-कभी तो हमें ऐसा लगता है, जैसे ये स्वर हमें हौले-हौले हमारे ही भीतर गहरे ले जा रहे हों।

अंदर जाते समय जरा भी लड़खड़ाहट हो तो संगीत हमें संभाल लेता है। इसे ही साउंड ऑफ साइलेंस कहेंगे। थोड़ा समय इसे सुनने का प्रयास करें, क्योंकि हम सब शून्य से घबराते हैं। थोड़ा समय आंखें बंद करके जब बैठेंगे तो जो मौन, शून्य भीतर घटता है, उससे घबराहट होगी, क्योंकि आंखें बंद करते ही अंधेरा छा जाता है और अंधेरे में जैसे हम चलते समय किसी भी चीज से टकराते हैं, वैसे ही भीतर के अंधेरे में भी हड़बड़ाहट शुरू होती है।

थोड़ा-थोड़ा अभ्यास रोज करें। थोड़ी देर अधिक अंधेरे में रहो तो उस स्थान पर चलने का अभ्यास हो जाता है। आंखें बंद हों और कानों से कुछ ऐसा सुनें, जो हमें अपने ही भीतर उस अनसुने की ओर ले जाएगा, जिसे सुनकर गहरी शांति मिलेगी।

इस तरीके से आप किसी भी तनाव से निपट सकते हैं...
कोई काम करते हुए दबाव बन जाना स्वाभाविक है, लेकिन तनाव में आ जाना ठीक नहीं। प्रेशर और टेंशन के बीच की लक्ष्मण रेखा को हमें समझना चाहिए। तनाव को सांसारिक दृष्टिकोण से देखेंगे तो हम पाएंगे कि हमारे आसपास नेगेटिव ऊर्जा एकत्रित हो गई है, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि हमें सकारात्मक संकेत देगी। यह दृष्टि हमें बताएगी कि तनाव हमारी क्षमता को बढ़ा देगा।

दरअसल तनाव सकारात्मक घटना का नकारात्मक नाम है। जीवन में जब तनाव आए, तब इसे चुनौती मानकर स्वीकार करेंगे तो तनाव दबाव में बदलेगा और दबाव की कार्यशैली हमारी योग्यता को बढ़ा देगी। एक प्रयोग किया जा सकता है। जब तनाव आए तो अपनी इंद्रियों पर लौट जाइए।

उदाहरण के तौर पर जैसे आंख हमारी एक इंद्रिय है। हम आंखें बंद करें और पूरी तरह से उसी पर एकाग्र हो जाएं। एक आध्यात्मिक व्यवस्था है कि सभी इंद्रियां भीतर से अपने परिणामों को लेकर इंटरकनेक्टेट हैं। जिस दिन हम आंख नाम की इंद्रिय पर नियंत्रण करेंगे, हम पाएंगे कान पर भी हमारा नियंत्रण शुरू हो गया। आंख से जो हम भीतर दर्शन कर रहे होंगे, कान से भी दिव्य श्रवण होने लगेगा। यह एक नया अनुभव रहेगा। यह भीतरी अनुभव हमें बाहरी तनाव से मुक्त करेगा।

बाहर काम तो होना ही है, आप नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करेगा, पर तनाव से परेशान होकर आप उस दौड़ में या तो बाहर हो जाएंगे या लड़खड़ाकर गिर जाएंगे। अंतिम सफलता या तो असफलता में बदल जाएगी या अशांति में। अत: तनावमुक्त होने के लिए अपनी इंद्रियों पर लौटने का यह छोटा-सा प्रयोग करते रहें।

जानिए, किस बात पर टिका होता है हमारे हर काम का परिणाम....
किस नजरिए से और किस इरादे से हम काम कर रहे हैं, उस पर परिणाम टिका होता है, लेकिन कई बार ऐसा भी हो जाता है कि काम हम सही कर रहे होते हैं और तरीका हमारा गलत होता है। इस बात की भी संभावना रहती है कि काम हम गलत कर रहे होते हैं और तरीका हमारा सही होता है। मूल भावना क्या है, इस पर परिणाम टिका रहता है।

सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी की मुठभेड़ रावण के सैनिकों से हुई। रावण के बेटे अक्षयकुमार को हनुमानजी ने मार डाला था। हनुमानजी जानते थे कि रावण की नगरी में उसी के बेटे को मार डालना कितनी बड़ी घटना होगी। जबकि जाम्वंतजी ने हनुमानजी से कहा था - कोई ऐसा काम मत करना, जिसमें बड़े पैमाने पर हिंसा हो जाए, लेकिन हनुमानजी ने अपनी दृष्टि में परिणाम को रखा। देखने में लगता है, रावण के बेटे को मारना गलत था, क्योंकि हनुमानजी दूत बनकर गए थे।

पर हनुमानजी जानते थे कि मुझे रावण तक संदेश पहुंचाना है और रावण जैसा अहंकारी आदमी छोटी-मोटी घटना से न तो प्रभावित होगा और न ही हनुमानजी को ठीक से नोटिस में लेगा। प्रबंधन में दक्ष हनुमानजी ने अक्षयकुमार के माध्यम से एक ऐसा संदेश तैयार किया कि रावण सारे काम छोड़कर हनुमानजी से बात करने पर मजबूर हो गया।

वह जान चुका था कि जो व्यक्ति मात्र वाटिका उजाड़ने में मेरे पुत्र को संसार से विदा कर सकता है, वह सामान्य नहीं होगा। इसकी बात मुझे विशिष्ट शैली में सुननी और समझनी होगी। यहीं से हनुमानजी ने रावण पर अपना प्रभाव जमाया था और अपने दूत कर्म को स्थापित किया था।

जीवन में सफलता के लिए इन दोनों की ही जरूरत है...
आज के युग में बुद्धि और बल में निपुणता का नाम ही योग्यता है। सुंदरकांड में हनुमानजी ने मां सीता से भोजन मांगा था। तब सीताजी ने हनुमानजी से कहा - अशोक वाटिका में जाकर फल खा लो, लेकिन वहां बड़े-बड़े योद्धा हैं। इस पर हनुमानजी ने तत्काल टिप्पणी कर दी कि मुझे उनका डर नहीं है।

भक्त निर्भय होता है, क्योंकि उसे परमात्मा पर भरोसा होता है।

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।।

सीताजी ने कहा - हे बेटा सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं। हनुमानजी का जवाब था -

तिन कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।

हे माता! यदि आप मन में सुख मानें, प्रसन्न होकर आज्ञा दें तो मुझे उनका भय बिल्कुल नहीं है। जिस आत्मविश्वास से हनुमानजी सीताजी को कह रहे थे, एक क्षण के लिए सीताजी को लगा कि कहीं यह अतिशयोक्ति तो नहीं है।

फिर हनुमानजी से किया हुआ वार्तालाप याद आया। सीताजी जानती थीं कि अशोक वाटिका में प्रवेश करने का अर्थ है सीधे रावण तक पहुंचना और रावण के सामने केवल बल से काम नहीं चलेगा, बल के साथ-साथ बुद्धि भी चाहिए। वे हनुमानजी के भीतर दोनों को संयुक्त रूप से देख चुकी थीं।

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।

हनुमानजी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा - जाओ। हे तात! श्रीरघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ। हनुमानजी के माध्यम से हमें यह संदेश मिलता है कि जीवन तभी सुंदर है, जब हमारे पास बुद्धि और बल दोनों हों।

काम के दबाव को कैसे कम किया जाए, ये हनुमान से सीखें...
भीतर से ललक हो तो हम काम करने पर ज्यादा टिकेंगे, परिणाम पर कम। हमारे लिए प्रयास ही परिणाम जैसा होगा। प्रयास केंद्रित होने पर परिणाम अनुकूल होने की संभावना बढ़ जाती है। हनुमानजी के जीवन में हर कृत्य पर योग का प्रभाव रहता है। योगी होकर जब कोई काम किया जाता है तो मन और भावनाएं रचनात्मक दिशा में रहती हैं।

सुंदरकांड में हनुमानजी रावण के बेटे को मारने के बाद राक्षसों पर प्रहार करते हैं। उनकी इस क्रिया में दो पक्ष हैं। पहला तो यह कि वे गलत को समाप्त करने के लिए भी भीतर से पूर्णत: शांत थे। दूसरा पक्ष यह है कि वे जो भी काम करते हैं, शत-प्रतिशत करते हैं।

आज के युग में शतक ही आंकड़ों में दर्ज होता है। निन्यानवे का महत्व नहीं होता। यहां दोहे में तुलसीदासजी ने व्यक्त किया है - कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।। उन्होंने सेना में कुछ को मार डाला, कुछ को मसल डाला तथा कुछ को पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया।

कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान है। यहां चार बार कछुशब्द का प्रयोग किया गया है। हर कछु में पच्चीस प्रतिशत की संख्या छिपी है। यानी पचहत्तर प्रतिशत का तो उन्होंने यह हश्र कर दिया, लेकिन वे शत-प्रतिशत परिणाम में विश्वास करते हैं।

इसलिए शेष पच्चीस प्रतिशत को इस लायक बनाकर छोड़ा कि वे रावण को जाकर सूचना दे सकें। वे हिंसा करते हुए भी पूरी तरह से जागरूक थे। इस तरह काम के दबाव में सजगता बनाए रखते हैं हनुमानजी। सुंदरकांड सिखा रहा है प्रेशर में टेंशन न लें, वरना अटेंशन भी चला जाता है।

भगवान तक पहुंचने का सबसे सरल रास्ता यह है...
सुबह से लेकर रात तक व्यस्त रहना आजकल मजबूरी और फैशन दोनों हो गया है। कुछ लोगों के जीवन में काम तो इस प्रकार हो गए हैं कि कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। फिर महानगरों में तो आवागमन में ही समय का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। शरीर की दौड़-भाग के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा और उदास होने लगता है। बाहर से जो लोग उद्विग्न नजर आते हैं, दरअसल वे भीतर से उदास हैं।

ऐसे में शांतिदायक स्थितियां बाहर से जीवन में आ जाएं, ऐसी उम्मीद करनी बेकार है। तब क्या किया जाए? कामकाज छोड़ना नहीं है। चौबीस घंटे की अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता। नाम और दाम कमाना ही है। इसके लिए लगातार प्रकृति से जुड़ने का प्रयास करें। विश्व वानिकी दिवस इसलिए नहीं मनाया जाता कि केवल वन को बचाया जाए।

दरअसल मनुष्य को बचाने के लिए भी इस दिन संकल्प लिया जाना चाहिए। सूरज को उगता हुआ देखें। उसके ढलने पर चंद्रमा के आगमन पर नजर रखें। परिंदों की हलचल पर नजर डालें। पशुओं में खासकर गाय की गतिविधि को नोटिस करें। नदी को बहता हुआ देखें और रुके हुए पहाड़ पर थोड़ा अपने चित्त को टिकाएं।

तब आप पाएंगे कि प्रकृति वो पगडंडी है, जो परमात्मा तक ले जाती है। प्रतिदिन प्रकृति से जुड़ने का अर्थ है, उस मार्ग की साफ-सफाई करना, जो उस दिव्य शक्ति तक पहुंचने का राजमार्ग है। यह रास्ता ही ऐसा है कि हमारी सुविधा की दृष्टि से पगडंडी में बदल जाएगा, कभी फुटपाथ में बदल जाएगा और कभी राजमार्ग-सा दिखेगा। इसलिए आदत बना लें कि थोड़ी देर पशु-पक्षी, नदी, पहाड़, पेड़-पौधे इत्यादि पर भी टिकें।

ऐसे लोगों से भगवान कभी खुश नहीं होता...
जब हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे होते हैं तो हमारा प्रयास रहता है कि हमारी ऊर्जा पूरी तरह एकाग्र होकर सफलता अर्जित करने में लगी रहे, लेकिन तमाम सावधानियों के बाद भी ऊर्जा इधर-उधर चली जाती है। बहुत सारे ऐसे छिद्र हैं, जहां से ऊर्जा क्षरण की ओर चल देती है।

इनमें से एक छिद्र है निंदा की वृत्ति, ईष्र्या का भाव। स्वामी अवधेशानंदगिरिजी ईष्र्या के इस भाव पर बड़ी सुंदर टिप्पणी करते हैं।

हम अपने जीवन की सारी ऊर्जा समेटकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं और क्षणिक जीवन में व्यक्ति दूसरे का मान, वैभव और प्रभाव देखकर ईष्र्या करता है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने अभाव में दुखी तो रहता ही है, उससे भी ज्यादा दूसरों के प्रभाव से पीड़ित होता है।

अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि दूसरे की अवनति से उसे प्रसन्नता होती है। वस्तुत: तुलनात्मक दृष्टि उन्नति के लिए होनी चाहिए कि दूसरे का उत्थान देखकर उन्नति करो और ईष्र्या-द्वेष आपके हृदय को दग्ध न करे।

लेकिन ईष्र्यालु व्यक्ति सोचता है कि कोई वस्तु मुझे मिले न मिले, परंतु दूसरे को न मिले तो बेहतर। इस तरह की अवधारणा मन में रखने वाले व्यक्ति से परमात्मा प्रसन्न नहीं होता। जीवन की पहली कसौटी यह है कि वाणी मधुर हो, व्यवहार में सौम्यता हो और मन में सद्भावना हो।

ईष्र्या एक अपराध है, जो इंसान बार-बार करता है। शायद गुनहगार इंसान यह सोचता है कि मैं तो अमर हूं, मुझे तो संसार में सदैव रहना है और बाकी सब यहां से चले जाएंगे। इसलिए हमारी सारी गतिविधि हमारे हित और दूसरे के अहित पर केंद्रित हो जाती है। ऊर्जा के ऐसे दुरुपयोग को हमें ही रोकना होगा।

जिंदगी को खूबसूरत बनाने के लिए यह जरूरी है...
जीवन के संबंध में बंधन और मुक्ति की बात बहुत कही जाती है। दुनियादारी में आसक्ति बंधन है। अनासक्ति के साथ संसार में रहना अपने आप में मुक्ति है। बंधन और मुक्ति से संबंधित शास्त्रों का साहित्य पढ़ो तो जानकारी हाथ भले ही लग जाए, अर्थ फिर भी समझ में नहीं आता।

सिद्धांत और फिलॉस्फी भले ही हाथ लग जाएं, लेकिन इन्हें जीवन में उतारे बिना न तो बंधन का दुख समझ में आएगा और न ही मुक्ति की भक्ति गले उतरेगी। सुंदरकांड में हनुमानजी को मेघनाद ब्रह्मास्त्र से बांध चुका था। इसी प्रसंग में तुलसीदासजी को लगा कि यही अवसर है एक अच्छे सिद्धांत को सरलता से समझाने का। तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बंधावा।। प्रभु के कार्य के लिए स्वयं हनुमानजी ने अपने को बांध लिया।

जीवन में कुछ बंधन भी जरूरी हैं, बस समझना यह पड़ेगा कि इस बंधन के पीछे का हेतु क्या है? यदि गृहस्थी बसाई है तो बच्चों का लालन-पालन, जीवनसाथी का साथ, माता-पिता की सेवा, ये सब बंधकर ही अच्छे से पूरे होंगे। हैं तो ये भी बंधन, पर मुक्ति के सारे मार्ग यहां खुले हैं। बंधन को मजबूरी और बोझ न मानकर एक नैतिक अनुशासन समझना चाहिए। ऐसे अनुशासन के बिना न तो भगवान का कार्य सधता है और न ही परिवार के दायित्व निपटते हैं। कुछ निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसे बंधन भी स्वीकार करने पड़ते हैं। हनुमानजी जानते थे कि मेरा लक्ष्य इस समय रावण के समक्ष जाने का है। इस बंधे जाने से ही उस तक जाने के रास्ते खुलेंगे। यह घटना हमें समझा रही है कि जीवन को सुंदर बनाने के लिए अनुशासन भी जरूरी है।

ये है दुःखों को दूर करने का सबसे सरल उपाय...
अक्सर पूछा जाता है कि दुख दूर करने के सरल उपाय क्या हैं? इसका उत्तर ढूंढ़ने में ही कुछ लोगों ने अपने आसपास और बड़े-बड़े दुख खड़े कर लिए हैं। हमारे शास्त्रों में भी आत्म-साक्षात्कार के जो साधन बताए गए हैं, वे दुख से मुक्ति के ही तरीके हैं। दुख की समझ ही दुख से मुक्ति है। इस समझदारी से आगमन होता है सुख, शांति और प्रसन्नता का।

भारत की संस्कृति ने दुख को समझने के लिए उसे प्रारब्ध से जोड़ा है। प्रारब्ध यानी पूर्व संचित कर्म एवं संस्कारों का परिणाम। ये भोगकर ही पूरे होते हैं। इसी को दुख माना गया है। जीवन में समझ आने पर इनके भोगने की सहनशक्ति आ जाती है।

दूसरे हमारे व्यवहार से पैदा होने वाले दुख हैं। इन्हीं में बीमारियां आती हैं। रोगी काया बहुत बड़ा दुख है। तीसरे तरीके से जीवन में दुख मनुष्य द्वारा स्वनिर्मित दुख होते हैं।

डिप्रेशन इसी का परिणाम है। जीवन से दुख मिटाने के लिए अपने व्यक्तित्व को दो भागों में बांटकर देखिए। हमारा एक हिस्सा संसारी होता है और दूसरा संन्यासी। हम संसारी हिस्से पर ही ज्यादा टिके रहते हैं। संसार छोड़ना नहीं है, साथ ही संन्यास को भी पकड़ना है।

संन्यास उस समझ का नाम है, जिसमें हम जान जाते हैं कि जीवन में कई ऐसी बातों से हमने स्वयं को जोड़ रखा है जो मरण धर्मा हैं, व्यर्थ हैं, छोड़ने लायक हैं। तो कुछ ऐसी बातों से स्वयं को जोड़ा जाए जो मृत नहीं, अमृत हैं। जैसे ही हम अमृत से जुड़ेंगे, हमारा हर कार्य अमृत हो जाएगा।

हमारा परिश्रम नशा नहीं, पूजा बनकर हमें दुख मुक्त कर देगा। इसलिए अपने व्यक्तित्व के संन्यासी हिस्से को जानने के लिए कुछ समय दीजिए।

क्या करें अगर आपको अकेलापन परेशान करे...
कुछ काम ऐसे हो ही जाते हैं कि बाद में पछताना पड़ता है। जीवन में उम्र का एक ऐसा पड़ाव आता है, जब अपने पछतावे को प्रायश्चित में बदलने की तैयारी रखें और प्रायश्चित को प्रसन्नता में तब्दील करें। पिछले दिनों संयोग से मेरा दो स्थितियों से सामना हुआ।

कुछ बुजुर्गो के साथ यात्रा की और एक दिन गांव में बिताया। मेरा ज्यादातर समय युवा, व्यस्त और महानगर के लोगों के बीच गुजरता है। वृद्ध और ग्रामीणों के साथ दिन बिताने पर मैंने महसूस किया कि वृद्ध अपने अकेलेपन को कोस रहे थे।

अपनी ही गलती मान रहे थे तथा गांव के मूल निवासी उतने ही दुखी नजर आए, जितने शहर वाले थे। महानगर का आदमी अपनी अतिव्यस्तता और अस्त-व्यस्त जीवनशैली के कारण हैरान हो जाए यह समझ में आता है, लेकिन गांव वाला इसी स्तर पर दुखी रहे तो आश्चर्य होता है।

बुजुर्ग इसलिए परेशान थे कि उन्होंने जीवनभर संघर्ष करते हुए अपने बच्चों को खूब पढ़ाया और अब वे इतनी दूर चले गए कि ये वृद्ध अकेले रह गए। गांव में ऐसा ही हो रहा है। माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए अपने से दूर भेजते हैं और पढ़ाई का पान करने के बाद इन बच्चों का स्वाद बदल जाता है, फिर वे गांव की ओर नहीं लौटते। आज के माता-पिता लगातार अकेले होते जा रहे हैं।

चूंकि निर्णय हमारे रहे, इसलिए अब पछताने से दुख और बढ़ेगा। इस पछतावे को प्रसन्नता में बदलने का प्रयास किया जाए। उम्र बढ़ने पर जब अकेलापन बढ़े तो अपने आप से जुड़ने का प्रयास जरूर करें। जीवनभर जिनसे जुड़े रहे, थोड़ा उन्हें छोड़कर अपने भीतर उतरकर स्वयं से जुड़ें। अत: कुछ समय ध्यान जरूर करें।

बिना इस एहसास के प्रेम हो ही नहीं सकता...
दूसरों के दुख में हम शामिल होते हैं, लेकिन उसे अपने भीतर नहीं लाते। हमें यह मालूम रहता है कि यह सारा घटनाक्रम दूसरे का है। लेकिन ऐसी ही घटना जब अपने ही जीवन में घटे तो दुख तत्काल हम भीतर ले आते हैं। चूंकि हमें सुख भी भीतर लाने की आदत है, इसलिए दुख भी ले आएंगे और फिर असली परेशानी शुरू होती है।

जैसे हम दूसरे के दुख को देखकर भीतर नहीं लाते, ऐसे ही हम अपने सुख के साथ हो जाएं, तब एक नई स्थिति आनंद की अनुभूति होगी, जिसमें सुख है न दुख। पर हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं कि केवल सुख मिले, दुख मिले ही नहीं। पर ऐसा मुमकिन हो नहीं सकता। सुख और दुख इतने जुड़े हुए हैं कि एक का सुख दूसरे का दुख बन जाता है और दूसरे का दुख किसी और के लिए सुख होता है।

हिंदुओं में पुनर्जन्म की कल्पना इसमें बड़ी राहत पहुंचाती है। एक घर में हुई मृत्यु का दुख, दूसरे किसी घर में हुए जन्म का सुख बन जाता है। जो लोग दूसरों के दुख में विवेकपूर्ण ढंग से उन्हें समझाते हैं, ऐसे लोग अपने दुख में सारी समझ भूल जाते हैं। निर्लिप्त रहने का जितना अभ्यास बढ़ाएंगे, सुख और दुख दोनों एक जैसा रस देने लगेंगे।

यदि प्रेम को ठीक से समझें तो पाएंगे कि प्रेम की अपनी पीड़ा है। प्रेम के बिना पीड़ा हो नहीं सकती, पर उस पीड़ा में भी एक रस है, वरना दुनिया से प्रेम मिट जाएगा। इसलिए सुख व दुख दोनों ही स्थितियों में प्रेमपूर्ण जरूर बने रहें। प्रेम के लिए पहला पात्र परमात्मा को बनाएं तो धीरे-धीरे उसी का विस्तार संसार में हो जाता है और तब संसार छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही वह तकलीफ पहुंचाता है।

भगवान को समझना है तो पहले हनुमानजी को समझें...
बड़े-बड़े सिद्ध लोगों की उम्र बीत जाती है और वे परमात्मा के स्वरूप को नहीं जान पाते। संतों से सबसे ज्यादा पूछा गया सवाल ही यह है कि क्या आपने भगवान को देखा है? क्या आपको परमात्मा कहीं मिले हैं? फकीरों ने अपने-अपने उत्तर भी दिए।

सर्वाधिक मान्य उत्तर है - परमात्मा आकार से अधिक अनुभूति का विषय है। यदि अनुभूति हो जाए तो अनेक रूपों में भगवान मिल जाता है। आज देश के कई हिस्सों में हनुमान जयंती मनाई जाती है।

क्या केवल इसलिए कि वे रामजी की सेना के छोटे-से सैनिक हैं या रामलीला के पात्र हैं या पत्थर पर लपेटी हुई सिंदूर की मूर्ति हैं। दरअसल, हनुमानजी की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण उनका अनुपस्थित होकर भी उपस्थित रहना है। भगवान के लिए शास्त्रों में लिखा है - रसो वै स:।यानी भगवान रसरूप हैं। यह रस जब जीवन में उतरता है तो आनंद पैदा करता है।

प्रभुचरित सुनिबै को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया।। श्री हनुमानचालीसा में हनुमानजी को तुलसीदासजी ने रसिया लिखा है। सच तो यह है कि परमात्मा का रस हनुमानजी हैं। जिन्होंने हनुमानजी को चखा, उन्हें परमात्मा का स्वाद अपने आप आ जाएगा।

रस का शाब्दिक अर्थ है बहते रहना, जो गतिशील है। जैसे जल बहता है और स्वाद से अधिक तृप्ति देता है, वैसे ही हनुमानजी हैं। जल की निर्मलता जल को पूज्य बनाती है और हनुमानजी बहुत निर्मल हैं। कल्पना कीजिए कोई निर्मल भी हो और सक्रिय भी रहे, कोई विनम्र भी हो और बलशाली भी बना रहे। उनकी यही अनुभूति हमें श्रेष्ठ मानव बनने के लिए प्रेरित करती है।

दुनिया को बदलने का सबसे आसान तरीका यही है...
भीतर से, गहरे में हम जो भी होते हैं, कुल मिलाकर हम बाहर वैसा ही कर जाते हैं। हम लीपापोती जरूर कर लें, पर मूल रूप से हमारी करनी कृत्य बन ही जाती है। शायद इसीलिए परमशक्ति ने हमको सबक देने के लिए एक तरीका निकाला है।

हमारे जीवन में जब कटु अनुभव होते हैं, विपरीत स्थितियां बनती हैं, संघर्ष करना पड़ता है, शोक की स्थिति आती है, तब समझ लें कि ऐसा हमें सबक देने के लिए किया जा रहा है। कटु अनुभव सद्गुणों का विकास करते हैं। धन का नुकसान सदुपयोग की अक्ल दे जाता है, विपत्तियां धर्य सिखा जाती हैं।

धीरे-धीरे हम अपने ही कर्मो से मुक्त होने की कला सीख जाते हैं। ध्यान रखें, अपने कर्मो से मुक्त होने का अर्थ यह नहीं है कि कामकाज करना छोड़ दें। इसका अर्थ है, बंधन में रहकर काम न करें। बंधन अहंकार का होता है, लोभ का होता है, काम का होता है।

जैसे ही हम अपने आपको थोड़ा स्वतंत्र करते हैं, हमारी दृष्टि का दायरा बढ़ जाता है। जीवन में जब कष्ट आएंगे, दुख आएंगे तो हम अपने पर टिकना सीख जाएंगे। हम खुद को ही समझाएंगे कि यह दुख जितना दूसरे ने नहीं दिया है, उससे अधिक हमने लिया है।

दुनिया को ऐसी क्या बेताबी है, जो हमको दुखी करे, लेकिन हमारा अहम भीतर ही भीतर हमसे कहता है कि ये झंझट दूसरों की पैदा की हुई है तो हम निदान भी दूसरों में ढूंढ़ने लगते हैं। सारी ताकत दूसरों को बदलने में लगाते हैं और खुद के रूपांतरण का मौका खो देते हैं। नवरात्र स्वयं के रूपांतरण के दिन हैं। जिसने खुद को बदला, उसकी दुनिया अपने आप बदल जाती है।

सुख का पूरा सदुपयोग करना हो तो ये करें...
हर मनुष्य के भीतर ऊर्जा का एक हिस्सा रचनात्मक कार्यो के लिए रहता ही है। अपनी ऊर्जा के जिस हिस्से से हम नाम और दाम कमाने में सक्रिय रहते हैं, उससे ही जीवन में पूर्णता नहीं आती। इस तरह लगातार काम करने से दो ही प्रकार के लोग समाज में बनते हैं।

एक, शोषण और लूट के द्वारा धन कमाने वाले और दूसरे, शोषित और लुटने वाले लोग। इन दोनों वर्गो के बीच मनमुटाव, प्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य आना स्वाभाविक है। इसका सीधा असर राष्ट्रीय, सामाजिक व पारिवारिक जीवन पर पड़ता है। कुल मिलाकर हर क्षेत्र में अशांति हाथ लगती है।

इसलिए हम किसी भी स्तर के व्यक्ति हों, अपनी ऊर्जा का रचनात्मक हिस्सा जरूर सक्रिय रखें। इससे भेदभाव मिटेगा, वार्तालाप का वातावरण बनेगा और एक-दूसरे के प्रति सद्भाव जागेगा। जितना हम रचनात्मकता की ओर बढ़ेंगे, उतना ही पॉजिटिव होते जाएंगे।

जीवन निषेध का नाम नहीं है। जीवन को विधेय से चलाना चाहिए, यानी सकारात्मकता बढ़ाने के प्रयास लगातार करते रहें। प्रतिस्पर्धा के इस युग में सुख और दुख आते ही रहते हैं।

यदि हम पॉजिटिव नहीं रहे तो सुख का सदुपयोग नहीं कर पाएंगे और दुख हमसे लगातार ऐसे काम करवा लेगा, जिन्हें हम होश में तो कभी नहीं करना चाहेंगे। दुख विचलन लाता है और यदि लंबे समय विचलन टिक जाए, तो मनुष्य या तो डिप्रेशन में डूब जाएगा या डिस्ट्रक्टिव हो जाएगा।

इसलिए 24 घंटे में कुछ समय अपनी ऊर्जा की रचनात्मकता पर पकड़ बनाए रखें। अन्यथा यह एक बार गलत दिशा में बह गई तो लौटाकर लाना कठिन हो जाएगा।

चलने के लिए जरूरी है ठहराव
कहा जाता है कि जीवन चलने का नाम है अत: चलते रहो। निरंतर आगे बढ़ना ही जीवन है, रुकना मृत्यु। लेकिन निरंतर चलने के लिए एक चीज और भी है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है और वह है रुकना। निरंतर चलते रहने के लिए रुकना भी अनिवार्य है। ऊपर कहा गया है कि रुकना मृत्यु है तथा बाद में कहा गया है कि आगे बढ़ने के लिए रुकना जरूरी है। थोड़ा विरोधाभास दिखलाई पड़ रहा है पर है नहीं।

चलना वस्तुत: दो प्रकार का होता है। एक शरीर का गति करना और दूसरा मन का। मन शरीर को चलाता है, उसे नियंत्रित करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से उसकी गति को नियंत्रित करना भी अनिवार्य है।

रुकने का एक अर्थ भौतिक शरीर की गति अर्थात् कर्म से मुंह मोड़ना है, लेकिन दूसरे रुकने का अर्थ मन की गति को विराम देना है। मन जो अत्यंत चंचल है, उसको नियंत्रित करना है। उसको सही दिशा में ले जाने के लिए उसको रोकना अनिवार्य है।

चलना जीवन है, तो रुकना पुनर्जन्म। जब मन रुक जाता है, तो वह पुनर्निर्माण में सहायक होता है। उपयोगी सृजन का कारण बनता है। भौतिक शरीर अथवा स्थूल शरीर को निरंतर चलाने के लिए कारण-शरीर अर्थात मन का ठहराव जरूरी है। भौतिक शरीर कभी नहीं ठहरता। सोते-जागते अथवा आराम की अवस्था में भी गतिशील रहता है। अत: ठहराव शरीर का नहीं, मन का होता है। जब मन तेज भागता है या गलत दिशा में दौड़ता है, तो ठहराव की जरूरत होती है। नकारात्मक मन शरीर की गति को बाधित करता है। अनेक रोगों से भर देता है। सकारात्मक मन शरीर का पोषण करता है। उसकी रोगों से रक्षा कर आरोग्य प्रदान करता है। सकारात्मक मन को नहीं, बल्कि नकारात्मक मन को ठहराना है।

कीचड़युक्त पानी जब स्थिर हो जाता है, तो उसमें घुली मिट्टी नीचे बैठ जाती है और स्वच्छ पानी ऊपर तैरने लगता है। मन को रोकने पर भी यही होता है। सकारात्मक उपयोगी विचार प्रभावी होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं और जीवन को एक सार्थक गति मिलती है। कार्य करता है हमारा शरीर, लेकिन उसे चलाता है हमारा मस्तिष्क और मस्तिष्क को चलाने वाला है मन। मन की उचित गति के अभाव में न तो मस्तिष्क ही सही कार्य करेगा और न ही शरीर। इसलिए शरीर को सही गति प्रदान के लिए मन को रोकना और उसे सकारात्मकता प्रदान करना अनिवार्य है।

जब बुद्ध और अंगुलिमाल का आमना-सामना हुआ, तो दोनों तरफ से ठहरने की बात होती है। अंगुलिमाल कड़ककर बुद्ध से कहता है, ठहर जा। बुद्ध अत्यंत शांत भाव से कहते हैं, मैं तो ठहर गया हूं, पर तू कब ठहरेगा? एक आश्चर्य घटित होता है। बुद्ध की शांत मुद्रा सारे परिवेश को शांत-स्थिर कर देती है। उस असीम शांति में अंगुलिमाल भी आप्लावित हो जाता है। वह ठहर जाता है और दस्युवृत्ति त्यागकर बुद्ध की शरण में आ जाता है। शरीर और मन की गति में अंतर होना ही सब प्रकार की समस्याओं का मूल है। शरीर और मन की गति में सामंजस्य होना अनिवार्य है। रेलगाड़ी के डिब्बे तभी अपने गंतव्य तक पहुंच पाते हैं, जब वे इंजन के साथ-साथ चलते हैं। इंजन और डिब्बों की गति समान होना तथा उनमें एक लय होना जरूरी है। इसी प्रकार शरीर और मन में भी संतुलन और लयात्मकता होना अनिवार्य है। मन भागा जा रहा है, लेकिन शरीर उसका साथ नहीं दे पा रहा है, तो समस्या खड़ी हो जाएगी। इंजन भागा जा रहा है पर उसकी गति इतनी तेज है कि डिब्बे या तो उछल रहे हैं और पटरी से उतरने की अवस्था आने वाली है या उनके बीच की कड़ी टूटने वाली है। इंजन की गति को नियंत्रित कर इंजन और डिब्बों के बीच की कड़ी को टूटने से बचाना है।

डिब्बे ही नहीं, उनमें बैठे यात्री भी इस गति से प्रभावित होते हैं। क्या तेज गति से दौड़ते इंजन वाली रेलगाड़ी के डिब्बों में बैठे यात्री सुरक्षित रह सकते हैं? शायद नहीं। इसलिए इंजन तथा इंजन रूपी मन दोनों की गति में ठहराव लाकर नियंत्रण करना जरूरी है। जीवन में भाग-दौड़ का एक ही उद्देश्य है-आनंद की प्राप्ति, लेकिन जितना हम भाग-दौड़ करते हैं, आनंद से दूर होते चले जाते हैं। आनंद के लिए जीवन की गति तथा विचारों के प्रवाह को नियंत्रित कर उन्हें संतुलित करना जरूरी है। यही आध्यात्मिकता हमें सहज होना सिखाती है। हम सहज होकर अपने वास्तविक स्व अर्थात चेतना से जुड़ते हैं। आत्मा में स्थित हो पाते हैं। यही वास्तविक आनंद अथवा परमानंद है।
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जब समय बहुत खराब हो तो क्या करें...?
सुविधाएं, संपत्ति और सहयोग होने पर सफलता आसान हो जाती है, लेकिन स्वयं की तैयारी न हो तो ये तीनों बातें होते हुए भी आदमी असफल हो जाता है। अभाव, गरीबी, समस्याएं जीवन में होने पर लगेगा कि यह दुर्भाग्य है, लेकिन अपनी प्रतिभा को चमकाने के लिए अच्छे अवसर भी इन्हीं में छिपे रहते हैं।

जितने रोलमॉडल हम टटोलें, उतने ही नए दृश्य सामने आएंगे और हर दृश्य यह बताता है कि परिस्थितियां विपरीत हों तो आंतरिक प्रतिभा का जागरण होकर रहता है।

हर कामयाब आदमी ने हथेलियों और पंजों को लोहे की तरह मजबूत रखा है, ताकि डगमगाएं नहीं। विचारों को तो घोड़े की तरह प्रवहमान रखा, ताकि समय से पीछे न छूट जाएं और अपने परिश्रम को सूर्य की तरह तेजस्वी और विशाल बनाया, ताकि कोई हिस्सा ऐसा न रहे, जहां पहुंच न पाएं।

चलिए, अब इस पर विचार करें कि हमारा आध्यात्मिक होना इसमें हमारी क्या मदद करेगा। जब हम विपरीत परिस्थितियों से टकरा रहे होते हैं, उस समय हमें अपने भीतर स्वयं से कभी नहीं लड़ना चाहिए।

ऐसे समय कई लोग बाहर तो उलझे रहते ही हैं, भीतर से भी बिखर जाते हैं। मनुष्य जब भीतर से खंड-खंड हो जाता है, अपने आप को टुकड़ों में देखने लगता है तो वह बाहर की परिस्थितियों का समाधान नहीं जुटा पाएगा। हमें भीतर से एक रहना है।

अपने आपको तोड़ने का मतलब है अर्धविक्षिप्तता। स्वयं ही समाधान ढूंढेंगे और स्वयं ही उसे मिटा भी देंगे। पागलपन हम ही करेंगे और दोष दूसरों को देंगे। इसलिए जीवन में विपरीत परिस्थितियां आएं तो सबसे पहले भीतर से एक हो जाएं। इसी को कहते हैं आत्मविश्वास।

जानिए, कितना आराम जरुरी है आपके लिए...
भौतिक वस्तुओं का उपयोग करते समय उन्हें तीन खंडों में बांट लीजिए। पहला, उनमें आवश्यकता का तत्व देखें। दूसरा, उनमें आराम कितना है और तीसरा वे हमें विलासिता की ओर कब और कैसे ले जाएंगी। भौतिक वस्तुओं का अधिकांश संबंध शरीर से होता है।

शरीर का सुख उठाते-उठाते हम भूल ही जाते हैं कि जिस दिन यह दुख में बदलेगा, उस दिन बहुत देर हो जाएगी। इसलिए इन तीन स्थितियों पर लगातार नजर रखें। पहले ध्यान दें कि विलासिता बीमारी की पैकेजिंग है। भोग आलसी भी बना सकता है और आलस्य अपराध है।

फिर ख्याल कीजिए आराम पर। आराम को नकारा नहीं जा सकता। आराम ऊर्जा के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया होनी चाहिए, न कि आलस्य का पड़ाव। जो लोग आराम नहीं करेंगे, वे भी शरीर की अति पर टिक जाएंगे। अति शरीर के लिए बहुत खतरनाक है। इसके बाद आती है आवश्यकता। यह सबसे जरूरी पक्ष है। शुरुआत इसी से की जानी चाहिए। हमारे जीवन में आने वाली हर वस्तु कितनी आवश्यक है, इसकी समझ से ही उसका उपयोग शुरू करें।

जब आप वस्तु की आवश्यकता पर टिकेंगे तो आपके शरीर का हर अंग उसका सही लाभ उठा सकेगा। शरीर अपने साथ होने वाली अति को रोकने के लिए संकेत देता है। लेकिन हम आराम व विलासिता की ओर बढ़ने में रुचि रखते हैं, इसलिए समझ ही नहीं पाते। जितना हम आवश्यकता पर टिकेंगे, उतना ही संयम का अर्थ समझ जाएंगे। संयम का सही अर्थ है संतुलन। आवश्यकता, आराम व विलासिता में संतुलन बनाए रखें, फिर देखें शरीर सबसे बड़ा सुख देगा।

भगवान तक पहुंचने का सरल और सीधा रास्ता यह है...
सुबह से लेकर रात तक व्यस्त रहना आजकल मजबूरी और फैशन दोनों हो गया है। कुछ लोगों के जीवन में काम तो इस प्रकार हो गए हैं कि कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। फिर महानगरों में तो आवागमन में ही समय का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। शरीर की दौड़-भाग के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा और उदास होने लगता है। बाहर से जो लोग उद्विग्न नजर आते हैं, दरअसल वे भीतर से उदास हैं।

ऐसे में शांतिदायक स्थितियां बाहर से जीवन में आ जाएं, ऐसी उम्मीद करनी बेकार है। तब क्या किया जाए? कामकाज छोड़ना नहीं है। चौबीस घंटे की अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता। नाम और दाम कमाना ही है। इसके लिए लगातार प्रकृति से जुड़ने का प्रयास करें। विश्व वानिकी दिवस इसलिए नहीं मनाया जाता कि केवल वन को बचाया जाए।

दरअसल मनुष्य को बचाने के लिए भी इस दिन संकल्प लिया जाना चाहिए। सूरज को उगता हुआ देखें। उसके ढलने पर चंद्रमा के आगमन पर नजर रखें। परिंदों की हलचल पर नजर डालें। पशुओं में खासकर गाय की गतिविधि को नोटिस करें। नदी को बहता हुआ देखें और रुके हुए पहाड़ पर थोड़ा अपने चित्त को टिकाएं।

तब आप पाएंगे कि प्रकृति वो पगडंडी है, जो परमात्मा तक ले जाती है। प्रतिदिन प्रकृति से जुड़ने का अर्थ है, उस मार्ग की साफ-सफाई करना, जो उस दिव्य शक्ति तक पहुंचने का राजमार्ग है। यह रास्ता ही ऐसा है कि हमारी सुविधा की दृष्टि से पगडंडी में बदल जाएगा, कभी फुटपाथ में बदल जाएगा और कभी राजमार्ग-सा दिखेगा। इसलिए आदत बना लें कि थोड़ी देर पशु-पक्षी, नदी, पहाड़, पेड़-पौधे इत्यादि पर भी टिकें।

ये छ: चीजे जिसके भी पास होती हैं वह कभी दुखी नहीं हो सकता
हर मनुष्य के जीवन में सुख और दुख आते जाते रहते हैं। कहा जाता है कि कोई भी मनुष्य कभी भी पूर्ण सुखी नहीं होता है। कोई न कोई कमी हर मनुष्य के जीवन में रहती है। महाभारत के अनुसार अवतार हमें जीवन के प्रति नई दृष्टि देते हैं। हम मनुष्यों को जिन संकटों का सामना करना पड़ता है, वे सब अवतार में भगवान के सामने भी आते हैं और तब वे अपने आचरण से हमें शिक्षा देते हैं।अवतार एक तरह से आध्यात्मिक उपचार है। जीवन में कई दु:ख हैं। उनका निदान आध्यात्मिक तरीके से किया जाए। हम सुख-दु:ख की कल्पना करते हैं। वस्तुत: यह मन की अवस्था के प्रतीक हैं।

महाभारत के उद्योग पर्व में महात्मा विदुर ने इस लोक में छ: प्रकार के सुख गिनाए हैं।

''अर्थगमो नित्यमरोगिता च। वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या शड जीवलोकस्य सुखानि राजन''

धन की आय, निरोगी शरीर , स्त्री का अनुकूल होगा तथा प्रियवादिनी, पुत्र का आज्ञाकारी और धन पैदा करने विद्या का ज्ञान होना - ये छ: बातें इस लोक में मनुष्य को सुख देती हैं।

क्या है इच्छाशक्ति का मूल?
इस दुनिया में विद्युत की प्रकृति अभी तक एक रहस्य है, किंतु मनुष्य ने उससे लाभ उठाने के हजारों मार्ग खोज लिए हैं। विद्युत प्रकृति में सर्वत्र पाई जाती है, किंतु इसे प्राप्त कर एकत्र करना, उसका भंडारण करना तथा उपयोग करना मनुष्य द्वारा अभिकल्पित एवं निर्मित यंत्रों के माध्यम से ही संभव है।

आध्यात्मिक आत्मशक्ति भी सर्वत्र है। शरीर में भी उसका भंडार है तथा सूक्ष्म तारों अर्थात शरीर के सूक्ष्म नाड़ी एवं स्नायु तंत्रों के माध्यम से वितरित होकर प्रकाश प्रदान करती है तथा समस्त गतिविधियों का निर्देशन करती है।

इन सब गतिविधियों को वास्तविक आनंद की ओर अभिमुख होना चाहिए, न कि अस्थिर, क्षणिक सुख-भोगों की ओर। जीवन सिद्धांत, जो बुद्धि के रूप में प्रत्येक कोशिका और नाड़ी तंत्र में प्रवाहित है, आत्मा का ही प्रक्षेपण है।

जिसका जन्म होता है, वह मरता है। आने में जाना निहित है। जिसका जन्म नहीं होता, उसकी मृत्यु भी नहीं होती। आत्मा का न जन्म है और न ही मृत्यु। आप यह भी नहीं कह सकते कि आत्मा फैलती या बढ़ती है अथवा क्षीण होती है।

इसका कोई इतिहास नहीं है। यह है’, बस इतना ही इसके संदर्भ में कहा जा सकता है। यह सर्वदा ज्ञान है, सर्वदा आनंद है। किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए इच्छा प्रेरित करती है।

इसे इच्छाशक्ति कहते हैं, किंतु यह भी आत्मशक्ति से निकली है। यही आपमें निहित देवत्व है। इसे इस रूप से अनुभव करो, समझो तथा क्षुद्र पदार्थो की इच्छा करके इच्छाशक्तिकी प्रतिष्ठा को मत गिराओ।

इस प्रेरणा से ओतप्रोत इच्छा प्रेम का आधार होती है। यह ईश्वर की ओर निर्देशित वृक्ष फल है। फल के कड़वे छिलके (माया) और उसके अंदर के कठोर बीजों (भेदभावों के संज्ञान) को हटाकर मधुरता का आस्वादन करो। यह मधुरता आत्मा द्वारा प्रदत्त आनंद है।

ज्ञान वही है, जो व्यवहार में काम आए
आचार्य बहुश्रुत के पास कई शिष्य रहते थे। उनमें से तीन शिष्यों की विदाई का जब अवसर आया, तब आचार्य ने कहा - कल प्रातः काल मेरे निवास पर आना। कल तुम्हारी आखिरी परीक्षा होगी। फिर तुम्हें घर जाने की अनुमति दूंगा। आचार्य बहुश्रुत ने रात्री में कुटिया के मार्ग पर कांटे बिखेर दिए। नियत समय पर वे तीन शिष्य जिन्हें अंतिम परीक्षा देनी थी, गुरु के निवास की ओर चल पड़े। मार्ग में कांटे बिछे थे लेकिन शिष्य भी कच्चे न थे। कांटे हैं तो क्या हुआ?

गुरु के द्वार पर जाना ही है ... ऐसा सोचकर पहला शिष्य कांटे चुभ रहे थे फिर भी कुटिया तक पहुंच गया और कुटिया के बाहर बैठ गया। दुसरा शिष्य कांटो से बचकर निकल आया फिर भी एकाध कांटा जो चुभ गया उसको शांति से निकाला। तीसरे शिष्य ने आकर देखा तो उसने झाडू ली। पहले बड़े बड़े कांटो को घसीटकर दूर फ़ेंक आया। फिर झाडू से कांटे बुहारकर दूर कर दिया और हाथ-मुंह धोकर कुटिया के पास आया। आचार्य कुटिया में से तीनों की गतिविधि देख रहे थे। जिसने कांटे हटाकर मार्ग साथ-सुथरा कर दिया था वह तीसरा शिष्य ज्यों ही आया, तो आचार्य ने कुटिया के द्वार खोले एवं कहा वत्स, तुम्हारा ज्ञान पूरा हो गया। तुम मेरी अंतिम परीक्षा में पास हो गए।

ज्ञान वही है जो व्यवहार में काम आए। तुम्हारा ज्ञान व्यवहारिक हो गया है। तुम उत्तीर्ण हो गए हो। तुम संसार में रहोगे फिर भी तुम्हें कांटे नहीं लगेंगे और तुम दूसरों को भी कांटे लगने नहीं दोगे वरन कांटे हटाओगे। फिर पहले एवं दुसरे शिष्य की ओर देखकर कहा - तुमको अभी कुछ दिन और आश्रम में रहना पडेगा। ज्ञान प्राप्ति का मतलब केवल पढ़कर या सुनकर उसे रटना नहीं, वरन उसे व्यवहार में लाना है। गुरु से प्राप्त ज्ञान को जो व्यवहार में लाता है, उसका ज्ञान पाना सार्थक हो जाता है।

अगर असफलता भी मिले तो यह बात ना भूलें...
उत्सव मनाना और सौभाग्य को आमंत्रित करना लगभग एक जैसा है। सफलता का उत्सव तो बहुत लोग मनाते हैं, लेकिन असफल होने पर भी उत्सव की वृत्ति न छोड़ें। भारतीय संस्कृति उत्सवों की ही संस्कृति है।

उत्सव का अर्थ यह नहीं होता कि खुशियों का बंटवारा कर लें, बल्कि उत्सव का अर्थ होता है, उत्साह को पैदा करना। सुख और दुख बांटो या न बांटो, उनके अपने फैलने के तरीके होते हैं, लेकिन उत्साह हमें भीतर से ही लाना पड़ेगा। उत्सव का अर्थ धूम-धड़ाका और भाग-दौड़ ही न मान लें।

सच तो यह है कि जिस दिन आप खूब शांति से बैठ जाते हैं, उस दिन आप भरपूर उत्सव में डूबे रहते हैं। तमाशे और उत्सव में यही फर्क है। जिंदगी की चलती हुई गाड़ी में उत्सव उस कील की तरह है, जिसके आसपास पहिया घूम रहा है। हम कहते हैं, वाहन चल रहा है।

दरअसल वाहन दो हिस्सों में बंटा है। उसका चलना उसके पहिये पर निर्भर है और पहिये का घूमना उसकी बीच की कील पर निर्भर है। कील रुकी रहती है, पहिया घूमता है और गाड़ी को चलता हुआ बताया जाता है। बस जिंदगी की गाड़ी भी ऐसी ही है। आप घूमते हुए पहिए पर ज्यादा न टिकें। उस रुकी हुई कील पर ध्यान दें, जिसे जीवन का केंद्र कहा गया है।

जो सचमुच उत्सव मनाना चाहते हैं, वे अपनी प्रशंसा को, उत्साह को उस कील पर टिकाएं। जो आयोजन, प्रयोजन कील पर केंद्रित होगा तो वह उत्सव होगा और जब वह पहिए पर आधारित होगा तो तमाशा होगा। जिसमें धूम-धड़ाका होगा, जिसमें शोर होगा। खामोशी से मनाया उत्सव जीवन को और संचारित तथा उत्साहित कर देता है।

क्या करें जब जीवन में बिना गलती बदनामी का दौर आए?
जिंदगी में कभी-कभी बिना किसी कारण के अपयश मिलता है। हमारी कोई भूमिका न हो, फिर भी जिंदगी में अपकीर्ति आ जाए तो अच्छे-अच्छे सहनशील भी परेशान हो जाते हैं। कहा गया है -नास्त्यकीर्ति समो मृत्यु:यानी अकीर्ति के समान मृत्यु नहीं है। ऐसा लगता है जैसे मौत आ गई है। जब अकारण अपयश मिले तो मनुष्य दो काम कर जाता है।

पहली स्थिति तो यह होगी कि कुछ न किया जाए, चुपचाप बैठकर इस अपयश को भोग लें। लेकिन ऐसे में भी स्थितियां बार-बार घूमकर सामने आती हैं और निरंतर प्रताड़ना का एक स्थायी दौर जीवन में आ जाता है। दूसरी स्थिति मनुष्य यह बनाता है कि प्रयास करके इस अपयश को धोया जाए।

लेकिन यह इतना आसान नहीं होता। मानसिक दबाव के कारण मार्ग दिखना ही बंद हो जाता है। राम कथा में हम सुन चुके हैं कि भरत को राम वनवास का अपयश अकारण ही मिला था। लेकिन प्रयास और त्याग वृत्ति के कारण वह अपयश यश में बदल गया था।

कभी जीवन में ऐसा हो जाए तो मनुष्य प्रयास शुरू करता है कि यह अकीर्ति मिट जाए, लेकिन परेशानी होने के कारण उसके प्रयास भी उलटे पड़ने लगते हैं। हमारे ही प्रयास हमें और पीड़ा पहुंचाते हैं। तब एक प्रयोग करिए, चूंकि अपयश के कारण पूरा व्यक्तित्व कंपन करने लगता है।

भले ही लोग न देख सकें, पर हम जानते हैं कि ऐसे हालात में थोड़े समय शरीर को बिल्कुल शांत कर दें। बाहरी कंपन दूर करें तो भीतरी यात्रा प्रारंभ हो सकेगी। लगातार विचारशून्य सांस लें और पूरे व्यक्तित्व को अकंपन की स्थिति में ले आएं। अकंपन की स्थिति आपके प्रयासों को अपयश मिटाने में मदद करेगी।

इन दो चीजों से बचकर रहें, इनसे केवल दुख ही मिलेगा
कहते हैं चिंता चिता के समान है यानी चिंता एक ऐसा रोग है जिसके कारण इंसान को जीवित रहते हुए भी मृत्यु के समान कष्ट सहन करना पड़ता है। इसीलिए किसी भी इंसान को पूर्ण सुखी तभी माना जाता है जब उसके मन में किसी तरह की चिंता न हो। लेकिन ऐसा होता नहीं है क्योंकि जिंदगी से मोह के कारण हर मनुष्य को कभी न कभी किसी न किसी कारण से चिंता सताने लगती है। कभी जरुरतों के कारण तो कभी इच्छाओं के कारण हर मनुष्य का मन दुखी और चिंतित हो ही जाता है लेकिन सिर्फ सोचकर कुछ भी नहीं पाया जा सकता है। ज्यादा सोचना और अपनी पहुंच से बाहर की चीजों की इच्छाएं हमेशा दुख पहुंचाती है।

महाभारत के सभापर्व में मिले विदुरनीति के एक कथन के अनुसार

जो निर्धन होकर बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता है और असमर्थ होकर भी क्रोध करता है। ये दोनों ही चीजें इंसान के शरीर को सुखा देने वाले कांटों के समान है।

इसीलिए जब किसी वस्तु की आकांक्षा करें या किसी बात पर क्रोध करें तो ये जरूर याद रखें कि बिना मेहनत धन और सुख नहीं मिल सकता और जो काम आपके वश में नहीं है उस पर क्रोध करने से केवल दुख के अलावा कुछ नहीं मिलता है।

सफलता पर गर्व करना है तो पहले ये इत्मिनान कर लें...
किसान बड़े परिश्रम से अपनी फसल उगाता है और उसका सबसे बड़ा सपना होता है फसल को काटकर अन्न के रूप में उपयोग करना। शास्त्रों में किसान की इस सफलता पर बड़ी सुंदर टिप्पणी की गई है। जब फसल बिल्कुल काटे जाने की तैयारी में होती है, तब किसान से एक चूक हो जाती है। कबीर कह गए हैं - पकी खेती देखिके, गरब किया किसान। अजहूं झोला बहुत है, घर आवै तब जान।

इन पंक्तियों में अजहूं झोला’, बड़ा सुंदर शब्द आया है। झोला का अर्थ है झमेला। फसल पक चुकी है, किसान बहुत प्रसन्न है। यहीं से उसे अभिमान आ जाता है, लेकिन प्रकृति इशारा कर रही है कि फसल काटकर घर ले जाने तक बहुत सारे झमेले हैं। कई कठिनाइयां हैं।जब तक फसल बिना बाधा के घर न आ जाए, तब तक सफलता न मानी जाए। इसीलिए कहा है - घर आवै तब जान।यह बात हमारे कार्यो पर भी लागू होती है। कोई भी काम करें, जब तक अंजाम पर न पहुंच जाएं, यह बिल्कुल न मान लें कि हम सफल हो चुके हैं।

बाधाओं की कई शक्लें होती हैं। इसी में से एक शक्ल अभिमान तो दूसरी लापरवाही है। इसलिए कबीर ने इस ओर इशारा किया है। अब सवाल यह है कि अपनी सफलता को पूर्णरूप देने के लिए अभिमान रहित कैसे रहा जाए? इसके लिए परमपिता परमेश्वर के प्रति लगातार प्रार्थना व आभार व्यक्त करते रहें, क्योंकि जब हम प्रार्थना में डूबे हुए होते हैं तो हमारी भावनाओं में, विचारों और शब्दों में समर्पण और विनम्रता का भाव अपने आप आता है कि हे परमात्मा! आपका हाथ हमारी पीठ पर नहीं होता तो ये सफलता संभव नहीं थी।

जानिए, कैसी थी श्रीकृष्ण की दिनचर्या?
भागवत के अनुसार वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जल में स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म संध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्री का जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषों के पात्र आदर्शं जो हैं। इसके बाद सूर्योदय होने के समय सूर्योपस्थान करते और अपने कालास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरों का तर्पण करते। फिल कुल के बड़े-बूढ़ों और ब्राम्हणों की विधि पूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधार, पहले-पहल ब्याही हुई, बछड़ों वाली, सीधी-शांत गौओं का दान करते।

भगवान् के योग और ध्यान पर प्रकाश डाला गया है। नियमित प्राणायाम करते थे भगवान्। शक्ति का संचरण कैसे करना, प्राण से अपने जीवन को कैसे ऊंचा उठाना, बकायदा पूरी क्रिया करने के बाद भगवान् मार्निंग वॉक पर जाते थे। लोग उनसे पूछते कि आपको घूमने की जरुरत क्या है! भगवान् कहते हैं कि द्वारका की व्यवस्था देखने हेतु घूमना आवष्यक है। भगवान् लौटकर आते, उसके बाद भगवान् का स्नान, ध्यान, पूजन के बाद भगवान् का दान का सत्र शुरू होता। प्रतिदिन दान का एक सत्र हुआ करता था उस सत्र में वो सबको वांछित दान दिया करते। उसी समय लोग अपनी छोटी-मोटी समस्याएं भगवान् को बता देते फिर भगवान् जलपान करने आते थे।यह भगवान का इन्द्रिय यज्ञ था। कर्म सम्पादन में सुनना, छूना, देखना, रस लेना, सूंघना, पांचों इन्द्रियों (कर्ण, त्वचा, आंखें, रसना और नासिका) की संयम रूपी अग्नि में आहुति देते हैं अर्थात् इन्द्रिय-संयम वर्तते हैं। यह वर्तना राग-द्वेश से रहित इन्द्रियों द्वारा प्रतिपादित भोग भोगते हुए जीवन यज्ञ पूरा करते हैं। ऐसे जीवन में कर्म गलत हो ही नहीं सकते।

भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्द्रिय यज्ञ की संज्ञा इन्द्रियों के संयमित जीवन को दी है। महाभारत में अर्जुन को ब्राम्हण और उसकी पत्नी के साथ संवाद के रूप में इस तत्व की गूढ़ व्याख्या श्रीकृष्ण ने की है। संक्षेप में मन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों को भोगता है, कर्म करता है। कर्म के विषय में वर्णन किया गया है।संसार में जो ग्रहण करने योग्य दीक्षा और व्रत आदि हैं तथा आंखों से दिखाई देने वाले स्थूल कर्म हैं उन्हें ही कर्म माना जाता है। कर्मठ लोग ऐसे ही कर्म को कर्म के नाम से पुकारते हैं और जो अकर्मठ जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है वे लोग कर्म के द्वारा मोह का ही नियंत्रण करते हैं।

अगर जिंदगी का असली आनंद महसूस करें तो ये करके देखें
कहते हैं कि यदि आपसे कोई कुछ मांगता है तो परामात्मा उसे तभी आपके पास भेजता है जब आपके पास उसे देने का सामथ्र्य होता है। वेदों में भी कहा गया है कि सौ हाथों से कमाये और हजार हाथों से खर्च करें तभी आप जिंदगी का असली आनंद महसूस करेंगे। इसलिए अब जब भी कोई कुछ मांगे तो यह सोचें कि आप उसे क्या दे सकते हैं?

कृष्ण का अध्ययन समाप्त होने पर उन्होंने सान्दीपनि मुनि से प्रार्थना की कि आपकी जो इच्छा हो, गुरु दक्षिणा मांग लें। महाराज! सान्दीपनि मुनि ने अपनी पत्नी से सलाह करके यह गुरुदक्षिणा मांगी कि प्रभास क्षेत्र में हमारा बालक समुद्र में डूबकर मर गया था, उसे तुम लोग ला दो।

यह गुरू की महिमा है और मर्यादा भी। गुरू दक्षिणा मांगते समय अपने मांगने की मर्यादा और शिष्य के देने का सामथ्र्य दोनों नाप लें। सांदीपनि महाराज कृष्ण की अनन्त शक्ति और उनके परमात्मा स्वरूप दोनों को जानते थे, इसलिए ऐसी ही चीज मांगी जिसे देने की शक्ति केवल कृष्ण में ही थी।

बलरामजी और श्रीकृष्ण का पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने बहुत अच्छा कहकर गुरुजी की आज्ञा स्वीकार की और रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र में गए। वे समुद्रतट पर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ।

सफलता के लिए कैसे लोगों को रखें अपने साथ?
अपनी आलोचना करने वालों को अपने आसपास रखा जाए, ऐसे प्रेरक वाक्य हर युग में कहे गए हैं। निंदक नियरे राखिए.. इसका अर्थ है, आलोचकों को अपने पास रखेंगे तो हमें अपनी गलतियां पता लगती रहेंगी, लेकिन यह बात उन आलोचकों के लिए कही गई, जिनके पास कोई विश्लेषण नहीं रहता।

आधुनिक प्रबंधन यह भी सिखाता है कि आलोचकों से दूर रहो, क्योंकि आलोचना करने वाले भी अब स्वार्थी हो गए हैं। आलोचना उनके लिए एक शस्त्र है, जिससे वह आप पर प्रहार कर सकते हैं।
एक संत ने इसका उल्टा करने को कहा। प्रेरक नियरे राखिए.. ऐसे लोगों को अपने पास रखें, जो प्रेरणा के स्रोत हों। प्रेरणा दो तरीके से मिलती है। पहली, मस्तिष्क से, दूसरी मन से। अच्छी किताबें, अच्छे लोग, गुरुजन ये आपको मस्तिष्क से प्रेरणा देंगे और माता-पिता, वृद्धजन, परिवार के लोग मन से प्रेरणा देंगे। मस्तिष्क का काम है जानकारी एकत्रित करना, उनको व्यवस्थित करना और आगे स्थानांतरित कर देना। लेकिन मन दो हिस्सों में बंटा होता है।

एक हिस्से से वह विचारों का भोजन करता है और दूसरे से वासनाओं को गतिशील करता है। हमारे अपने लोग और खासतौर पर माता-पिता जब हमें कोई प्रेरणा दे रहे होते हैं, उस समय उनका मन विचार और वासना दोनों से शून्य रहता है। इन दोनों के जाते ही प्रेम अपना स्थान ले लेता है।
पवित्रता अपना काम करने लगती है। इस समय प्रेरणा बिना कहे भी उनके शरीर के आसपास पॉजिटिव एनर्जी के रूप में आने लगती है। इसे दुआ और आशीर्वाद भी कहा जाता है। जब भी मौका मिले, ऐसी प्रेरणा दीजिए और लीजिए।

अगर आप नहीं जानते मौत से जुड़ी ये सच्चाई तो ये जरुर पढ़ें
मौत एक ऐसी सच्चाई जिसे कोई झूठला नहीं सकता। एक न एक दिन मौत सभी को आनी है। इस सच्चाई को जानते हुए भी हम मौत से घबराते हैं। आखिर क्या है मौत का राज़? क्यों होती किसी की मृत्यु? यह वह सवाल है जो मानव मस्तिष्क को हमेशा परेशान करते आए हैं।

अगर आध्यात्मिक रूप से देखा जाए तो मौत का अर्थ है शरीर से प्राण अर्थात आत्मा का निकल जाना। इसके बिना शरीर सिर्फ भौतिक वस्तु रह जाता है। इसे ही मौत कहते हैं। जबकि विज्ञान की दृष्टि से मृत्यु का अर्थ कुछ अलग है। उसके अनुसार शरीर में दो तरह की तरंगें होती हैं- भौतिक व मानसिक तरंग। जब किसी कारणवश इन दोनों का संपर्क टूट जाता है तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। साधारणत: मौत तीन प्रकार से होती है- भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक।

किसी दुर्घटना या बीमारी से मृत्यु का होना भौतिक कारण की श्रेणी में आता है। इस समय भौतिक तरंग अचानक मानसिक तरंगों का साथ छोड़ देती है और शरीर प्राण त्याग देता है। जब अचानक किसी ऐसी घटना-दुर्घटना के बारे में सुनकर, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, मौत होती है तो ऐसे समय में भी भौतिक तरंगें मानसिक तरंगों से अलग हो जाती हैं और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु का मानसिक कारण है।

मौत का तीसरा कारण आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक साधना में मानसिक तरंग का प्रवाह जब आध्यात्मिक प्रवाह में समा जाता है तब व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है क्योंकि भौतिक शरीर अर्थात भौतिक तरंग से मानसिक तरंग का तारतम्य टूट जाता है। ऋषि मुनियों ने इसे महामृत्यु कहा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार महामृत्यु के बाद नया जन्म नहीं होता और आत्मा जीवन-मरण के बंधन से मुक्त हो जाती है।

किसी भी इंसान की सबसे बड़ी योग्यता होती है ये बात...
परिवार में रहते हुए लगातार इस बात की कोशिश करते रहना चाहिए कि यह टूटे नहीं। जैसे हर बात की आयु होती है, वैसे ही परिवार की भी उम्र होती है और जिस तरह हर उम्र की अपनी हेंडलिंग अलग रहती है, वैसे ही परिवार में रहते हुए सदस्यों द्वारा एक-दूसरे की हेंडलिंग पर लगातार सजगता रखनी चाहिए। यदि हम दीये की रोशनी पर दृष्टि गड़ाते हुए ध्यान कर रहे हों तो हमें ज्योति के महत्व को समझना चाहिए।

हम दीये के आकार, मिट्टी के प्रकार पर ध्यान न दें। दीया जो ज्योति दे रहा है, हम उस पर टिकें। परिवार में कोई सदस्य कमजोर है और कोई सक्षम, हमें इस बात पर ध्यान नहीं देना है कि कौन क्या है? हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह उसका सदस्य हो। स्वयं भी इस बात पर गौरव करें कि हम इस परिवार के सदस्य हैं।

इसको कहते हैं मानसिक एकता। मानसिक रूप से जैसे ही सबको समान मानेंगे, हम भावनात्मक रूप से जुड़ने लगेंगे। आज अविश्वास की स्थिति परिवारों में बहुत जल्दी आ जाती है। कई लोगों का तो पूरा पारिवारिक जीवन संदेह की भूल-भुलैया में खो जाता है।

अजीब-अजीब सुरंगें परिवार में बन जाती हैं, जबकि कुटुंब में रिश्ते निभाना ही सबसे बड़ी योग्यता मानी जाएगी। किससे किसको क्या मिलेगा, इसकी जगह महत्वपूर्ण यह होना चाहिए कि हमको परिवार मिला है और इसे परमात्मा का प्रसाद मानकर स्वीकार करना चाहिए।

दुनियादारी के सारे रिश्ते यदि ठीक से टटोलें तो परिवार में ही मिल जाएंगे। मित्र, गृहिणी, रमणी, गुरु, परमात्मा, सेवक, सहयोगी सबकुछ जिस परिवार में है, उसका टूट जाना दुर्भाग्य ही होगा।

इसलिए कहते हैं जैसा देखेंगे वैसा ही सोचेंगे
संत तुलसीदासजी ने संकेत दिया है- कामहिं नारि पियारि जिमि, लोभी प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर हि: प्रिय लागहु मोहि राम।।अर्थात् भौतिक व सांसारिक लोभ को रामाभिमुख कर दिया जाए तो लोभ सात्विकता में बदल जाएगा। दूसरे चित्त की विषय प्रवृत्ति मन द्वारा प्रेरित हो राग में प्रगट होने लगती है। जहां राग होता है वहा द्वेष अपने आप आ जाता है। चित्त को निर्विषय बनाना एक साधना है। निर्विषयी चित्त वालों का मन अभटकाव वाला हो जाता है, बुद्धि स्थिर हो जाती है। चित्त इन्द्रियों के माध्यम से विषयी होता है। इन्द्रियों के अपने विषय होते हैं।

आंखें अच्छा व सुंदर देखना चाहती हैं। वे कुत्सित दृश्य भी देखती हैं। तब तामसिक भाव मन में आता है। कान अच्छा-मधुर सुनना चाहते हैं किंतु उन्हें भी निंदा- स्तुति में आनंद आता है। कानों में हरिगुण, संत वचन यदि पहुंचे तो मन की वृत्ति में शुद्धता आ जाती है। मुख मधुर बोले, मधुर खान-पान करें, सात्विक उसका आहार हो तो वृत्ति को निर्विषयी बनाने में सहायता मिलती है। लेकिन रसना को संयम चाहिए, मुख से सत्य बोलना तप है। सांच बराबर तप नहीं... कहा गया है। हरि गुणगान भक्ति रूपी साधना है।

ये दो बड़ी कमजोरियां...हर इंसान की सबसे बड़ी दुश्मन हैं
भागवत के अनुसार निंदा में बड़ा रस आता है। निंदा नहीं की तो लोगों का पेट दुखने लगता है। फोकट की निंदा करने में और ज्यादा मजा आता है। निंदा तो दूर की बात समाज में कोई अपरिचित व्यक्ति हो, बाहर वाला हो तो समझ में आता है। हम तो देखते हैं अपने ही घर में कोई आयोजन हो, एक कमरे में 5-7 लोग बैठे हों और उसमें से दो गए तो शेष पांच पहला काम निंदा ही करेंगे। वह दो बाहर जाकर वही कर रहे होंगे, इसमें कोई नई बात नहीं है। सब लगे ही रहते हैं, निंदा में कितना स्वाद है। आत्मस्तुति और परनिंदा मनुष्य की दो बड़ी कमजोरियां हैं। निंदा जब जीवन में उतर जाती है तो स्वभाव बन जाती है, निंदा से बचिए।

निंदा आपको भीतर से चाटती है। आपके सत्य, प्रेम, निष्ठा, सृजन हर चीज को खत्म करती है। निंदा को जीवों में दीपक की तरह माना गया है। यह हमें भीतर से खोखला करती है। हम निंदा में रस की अनुभूति करते हैं लेकिन यह रस भीतर हमारे लिए विष का काम करता है। हमारी अच्छाइयों को गलाता है, जलाता है। निंदा की आदत से बचिए। बुरा देखने, सुनने और बोलने तीनों कामों में हमारे अच्छे कर्मों और अमूल्य समय का नाश होता है। इससे बेहतर है कि जो अच्छा है उससे कुछ सीखें। उसी में अपने आप को डूबो दें। बुराई करना और सुनना दोनों कई लोगों के लिए आनंददायक काम है लेकिन यह केवल हमारी शक्ति का हृास और समय की बर्बादी है।

जानिए, कैसे लोगों की संगत आप पर कैसा असर डालती है...
अनेक मौकों पर हम जान ही नहीं पाते हैं कि हमारे भीतर जो क्रोध, काम, लोभ जागा है, वह हमारा नहीं है, बल्कि किसी और के द्वारा फेंका हुआ है। इसे कहते हैं विचारों का संक्रमण। अब तो विज्ञान भी स्वीकृत करता है कि किसी और का थ्रो आपके भीतर पेस्ट हो रहा है और फिर आप रिएक्ट कर रहे हैं।

साधारण-सी बात है, कहा जाता है कि गाड़ी चलाते हुए ड्राइवर के पास बैठी हुई सवारी को सोना नहीं चाहिए, क्योंकि पड़ोसी के आलस्य से उसकी निद्रा निश्चित ही संक्रमित होगी और यह संक्रमण बाहर ही नहीं होता, भीतर तक प्रभाव छोड़ जाता है।

जैन धर्म में महावीर स्वामी ने कहा है कि अज्ञानी से दूर रहना और ज्ञानी के पास रहना मंगलकारी है। जिसकी चेतना बीमार हो, उसका सान्निध्य अमंगलकारी होगा और जो जाग्रत है, प्रसन्न है, उसकी मौजूदगी मंगलकारी होगी।

शास्त्रों में कहा गया है - महतां योपराध्येत दूरस्थोस्मीति नाश्वसेत्। दीघौ बुद्धिमतौ, ताभ्यां हिंसति हिंसकम्।।
महापुरुषों के प्रति अपराध करके मैं उनसे दूर हूं, यह सोचकर आश्वस्त नहीं होना चाहिए। बुद्धिमान के बड़े लंबे हाथ होते हैं, उनसे वह हिंसक को मार डालता है। पंचतंत्र में इसीलिए कहा गया है कि बुद्धिमान का अर्थ है जिसकी चेतना जाग्रत है। और इसीलिए यदि आप उसके प्रति कोई अपराध करेंगे तो वह अपने जाग्रत बोध से ही आप तक पहुंच सकता है। उसके विचार प्रवाहित होते-होते आप तक पहुंच ही जाएंगे।

दरअसल भीतर से विचार बाहर आकर दूसरे में प्रवेश करते ही हैं। अत: अपने भीतर नकारात्मकता न रखें। आप जितने सकारात्मक रहेंगे, आसपास का वातावरण उतना ही मंगलकारी होगा।

आपने ये नहीं सीखा तो सारी पढ़ाई बेकार है...
जीवन में शिक्षा की शुरुआत पढ़ने से होती है। अब तो पढ़ने के तरीके भी बदल गए हैं। किताबों का अक्षर-ज्ञान कंप्यूटर की स्क्रीन पर जा धंसा है। समय बदलता है तो शिक्षा के तरीके भी बदल जाते हैं।लेकिन आप जिस भी तरीके से पढ़ें, आपके पास कितना ही अच्छा शब्द-ज्ञान हो, पर यदि एक पढ़ाई नहीं की तो सारी शिक्षा बेकार हो जाएगी और वह है मनुष्य को पढ़ना।

जैसे किताब पढ़ते समय कठिन शब्द आए तो डिक्शनरी देखनी होती है, वैसे ही मनुष्य को पढ़ते समय कठिनाई आए तो स्वयं को पढ़ना होगा। इस मामले में प्रत्येक मनुष्य एक डिक्शनरी है।
आप अपने को जितना अच्छा टटोल लेंगे, दूसरों का अध्ययन उतना ही अच्छा कर सकेंगे। लोगों को पहचानने में भूल नहीं करेंगे। कभी दर्पण के सामने खड़े होकर खुद को देखने का प्रयास करें। खासतौर पर उस समय, जब आपको बहुत गुस्सा आ रहा हो।

क्रोध में रहते हुए कांच में खुद को देखना, क्रोध को कम करने का एक बड़ा कारण बन जाएगा। यहीं से आप खुद को पढ़ने का अर्थ समझ जाएंगे। शिक्षा के लिए कहा गया है कि यह वह धन है, जो कोई चुरा नहीं सकता। लेकिन आदमी इसका सही उपयोग नहीं कर पाता। शिक्षा ऐसा धन है, जो देने से और बढ़ता है। इसके वितरण का संबंध उदारता से है।

मरने के बाद भी शिक्षा का धन काम आता है। ऐसा कहा गया है कि अर्जित ज्ञान मौत के बाद संस्कार के रूप में सूक्ष्म शरीर बनकर आत्मा के साथ जाता है और अगले जन्म की तैयारी में काम भी आता है। इसलिए शिक्षित हों, खूब पढ़ें और उस पढ़ाई का उपयोग अपने को तथा अन्य मनुष्यों को पढ़ने में भी लगाएं।



जीव और ईश्वर
एक की संख्या के बाद अनेक शून्य लगाकर बड़ी से बड़ी संख्या पाई जा सकती हैपर यदि उस एक को मिटा दिया जाएतो शून्यों का कोई मूल्य नहीं रहता। उसी प्रकारजब तक जीव (मनुष्य) एक-स्वरूप ईश्वर के साथ युक्त नहीं होतातब तक उसकी कोई कीमत नहीं होती।

कारण जगत में सभी को ईश्वर के साथ जुड़ने पर ही मूल्य प्राप्त होता है। जब तक वह मूल्य प्रदान करने वाले ईश्वर के साथ संयुक्त रहकर उन्हीं के लिए कार्य करता हैतब तक उसे अधिकाधिक श्रेय प्राप्त होता रहता है। इसके विपरीत जब वह ईश्वर की उपेक्षा करते हुए अपने स्वयं के गौरव के लिए बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करने में जुट जाता हैतब उसे कोई लाभ नहींमिलता।

ईश्वर और जीव का बहुत ही निकट का संबंध है। जैसे लोहे और चुंबक का संबंध। लेकिन ईश्वर जीव को आकर्षित क्यों नहीं करताजैसे लोहे पर बहुत अधिक कीचड़ लिपटा होतो वह चुंबक से आकर्षित नहीं होता। उसी तरह जीव मायारूपी कीचड़ में अत्यधिक लिपटा होतो उस पर ईश्वर के आकर्षण का असर नहीं होता। फिर जिस प्रकार कीचड़ को जल से धो डालने पर लोहा चुंबक की ओर खिंचने लगता हैउसी प्रकार जब जीव प्रार्थना और पश्चाताप के आंसुओं से माया के कीचड़ को धो डालता हैतब वह तेजी से ईश्वर की ओर खिंचता चला जाता है।

जीवात्मा (मनुष्य) और परमात्मा (ईश्वर) का योग वैसा ही हैजैसे घड़ी का छोटा कांटा और बड़ा कांटा। दोनों घंटे में एक बार मिलकर एक हो जाते हैं। दोनों परस्पर संबद्ध तथा एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यद्यपि साधारणतया दोनों अलग प्रतीत होते हैंफिर भी अनुकूल अवस्था प्राप्त होते ही वे एक हो जाते हैं। जिस प्रकार जल प्रवाह में एक लकड़ी अड़ा देने से जल के दो भाग हो जाते हैंउसी प्रकार एक अखंड परमात्मा माया के कारण जीवात्मा और परमात्मा के रूप में बंटा हुआ प्रतीत होता है। पानी और बुलबुला वस्तुत: एक ही है। बुलबुला पानी में ही उत्पन्न होता हैपानी में ही रहता है और पानी में ही समा जाता है। उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा वस्तुत: एक ही हैं। उनमें अंतर यह है कि एक सीमित हैतो दूसरा अनंत।

अनंत ईश्वर को जानना नमक के टुकड़े का समुद्र की गहराई नापने जैसा प्रयास है। नमक का डेला समुद्र की गहराई नापने जैसे ही उतरता हैवह घुलकर विलीन हो जाता है। इसी प्रकार जीव भी ईश्वर की थाह लेनेउसे जानने जाता हैतो अपना पृथक अस्तित्व खो देता है और ईश्वर के साथ एकरूप हो जाता है।

मनुष्य की देह हांडी की तरह है और मनबुद्धिइंद्रियां पानीचावल और आलू। हांडी में पानीचावल और आलू डालकर आग पर रख देने से वे गर्म हो जाते हैं और अगर कोई उसे हाथ लगाएतो उसका हाथ जल जाता है। वास्तव में जलाने की शक्ति हांडीपानीचावल या आलू में से किसी में नहीं है। वह शक्ति तो उस आग में हैफिर भी उनसे हाथ जलता है। इसी प्रकार मनुष्य के भीतर विद्यमान ईश्वरीय शक्ति के कारण ही मनबुद्धिइंद्रियां कार्य करती हैं और जैसे ही इस शक्ति का अभाव हो जाता हैवे निष्क्रिय हो जाती हैं।

कैसे करें अपने गुस्से को ठीक तरह से काबू....
कहावत है कि गुस्से की आग पर धैर्य का ठंडा पानी डाल दो। क्रोध और जल का बड़ा गहरा संबंध है। दोनों की तासीर एक जैसी है। दोनों नीचे की ओर बहते हैं। अगर ऊपर उठाना हो तो प्रयास करना पड़ता है। इसीलिए आदमी क्रोध के मामले में यदि विचार करे तो पाएगा कि किसी और व्यक्ति और स्थिति का परिणाम उसने अपने ऊपर ले लिया।

थोड़ा-बहुत नुकसान खुद का किया और फिर इसे आगे स्थानांतरित कर दिया। पारिवारिक खेलों में एक खेल होता है। गोला बनाकर लोग बैठ जाते हैं और कोई गेंद या वस्तु एक-दूसरे के हाथ में ट्रांसफर करते रहते हैं। जिस समय रेफरी सीटी बजा देता है और उस समय जिस किसी के हाथ में वह वस्तु होती है, उसे मैदान के बाहर जाना पड़ता है। क्रोध के मामले में भी हम रोज ऐसा ही खेल खेलते हैं। सब एक-दूसरे को थमाए जाते हैं।

अब चूंकि जल की गति नीचे की होती है, ऐसे ही क्रोध भी अपने से नीचे वाले में आसानी से खिसकाया जाता है। कार्यालयों में बॉस ने डांटा, अब चूंकि क्रोध ऊपर नहीं फेंका जा सकता, इसलिए वह पहली फुर्सत में इस खतरनाक गेंद को नीचे टपकाएगा। जीवनसाथी और बच्चे क्रोध के ऐसे ही स्थानांतरण की चपेट में आ जाते हैं।

चूंकि अपने से वरिष्ठ से मिला हुआ क्रोध लौटाना तो दूर, व्यक्त भी नहीं किया जा सकता, बल्कि उसे अपने भीतर दबाया जाता है तो फिर उसका विस्फोट होना ही है। इसीलिए घरों में दफ्तर जैसी अशांति नजर आती है। क्रोध से बचने का सरल उपाय यह है कि पहले तो इसे स्वीकार ही न करें और यदि लेना ही पड़े तो दूसरे को स्थानांतरित न करते हुए अपने ही धैर्य के जल से इसे शांत कर दें।


विवाह के बाद ध्यान रखनी चाहिए ये सात बातें
दाम्पत्य कहते किसे हैं? क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों के मिलन से ही अधूरापन भरता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनद पूर्ण हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात हैं। रामायण में राम सीता के दाम्पत्य में ये सात बातें देखने को मिलती हैं।

संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका रहती है। राम और सीता के बीच वनवास को खत्म करने और सीता को पवित्र साबित करने में उनके बच्चों लव और कुश ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है।

संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना। राम और सीता के बीच संवेदनाओं का गहरा रिश्ता था। दोनों बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते थे।

संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना। दोनों एक दूसरे से पूर्णत: संतुष्ट थे। कभी राम ने सीता में या सीता ने राम में कोई कमी नहीं देखी।

सक्षम : सामर्थ्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है।

संयम : यानि समय-यमय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना। राम-सीता ने अपना संपूर्ण दाम्पत्य बहुत ही संयम और प्रेम से जीया। वे कहीं भी मानसिक या शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए।

संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना।


जानिए क्यों करें दान व कौन से दान का क्या पुण्य मिलता है?
महाभारत के अनुसार एक दिन एक ब्राह्मण जो अर्जुन का प्रिय मित्र था, यह संदेश लेकर आया कि महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण यहां जल्द ही पधारने वाले हैं। भगवान को यह मालूम हो चुका है कि आप लोग इस वन में आ गए हैं। वे हमेशा ही आप लोगों से मिलने को उत्सुक रहते हैं। आपके कल्याण की बातें सोचा करते हैं। वह ब्राह्मण यह बात कह ही रहा था कि देवकीनंदन भगवान कृष्ण सत्यभामा सहित रथ पर सवार होकर पांडवों के पास पहुंचे। वे सभी पांडवों से मिले उनके हाल-चाल पूछे उसके बाद वे द्रोपदी से बोलें- प्रद्युम्र तुम्हारे पुत्रों को बहुत अच्छे से शस्त्र शिक्षा दे रहा है अब आगे...जब श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर बात कर रहे थे। तभी मार्कण्डेय मुनि वहां प्रकट हुए।

तब युधिष्ठिर ने उनसे रूकने की प्रार्थना की उन्होंने कहा महात्मा मार्कण्डेयजी हम आपसे श्रेष्ठ ब्राह्मणों के बारे में पूछना चाहते हैं। तब मार्कण्डेय मुनि ने ब्राह्मणों के चरित्र के बारे में बताया। उसके बाद एक बार मुनिवर ने सरस्वती देवी से कुछ प्रश्र किया। उसके उत्तर में सरस्वती ने जो कुछ कहा, वह मैं तुम्हे सुनाता हूं। ताक्ष्र्य ने पूछा- इस संसार में मनुष्य का कल्याण करने की वस्तु क्या है? किस तरह का आचरण करने से मनुष्य अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होता? देवी तुम मुझसे इसका वर्णन करो, मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा। मुझे दृढ़ विश्वास है। तुमसे उपदेश ग्रहण करके मैं अपने धर्म से गिर नहीं सकता। जो प्रमाद छोड़कर पवित्रभाव से नित्य स्वाध्याय प्रणव मंत्र का जप करता है। मार्गो से प्राप्त होने योग्य सगुण ब्रह्मा को जान लेता है। वही देवलोक से ऊपर ब्रह्मलोक में जाता है।

देवताओं के साथ उसका मित्रभाव हो सकता है। दान करने वाले को भी उत्तम लोक की प्राप्ति होती है। वस्त्रदान करने वाला चंद्र लोक तक जाता है। स्वर्ण देने वाला देवता होता है। जो अच्छे रंग की हो, सुगमता से दूध दुहवा लेती हो, अच्छे बछड़े देने वाली हो। वे गौ के शरीर में जितने रोएं हों, उतने वर्षो तक परलोक में पुण्यफलों का उपभोग करते हैं। कांसी की दोहनी में  द्रव्य, वस्त्र आदि रखकर दक्षिणा के साथ दान करते हैं। उसकी सारी कामनाएं पूर्ण होती है। गोदान करने वाला मनुष्य अपने पुत्र, पौत्र आदि सात पीढ़ियों का नरक से उद्धार करता है। शास्त्रीय विधि के अनुसार अन्य वस्तुओं का दान करने वाला मनुष्य इंद्र लोक तक जाता है। जो सात वर्षों तक हवन करता है, वह पीढ़ियों का उद्धार कर देता है।


दुश्मनों को हराना है तो ये गुरु मंत्र याद रखना जरूरी है....
महाभारत के अनुसार जब कौरवों और पांडवों दोनों की ओर से युद्ध के संकेत मिलने लगे। तब कृष्ण धृतराष्ट्र से मिलने हस्तिनापुर गए। कृष्ण ने कहा कौरवों में जो वयोवृद्ध है ये उन सभी की गलती है क्योंकि वे ऐश्वर्य के कारण दुर्योधन को कैद नहीं कर रहे हैं। इस विषय में मुझे जो बात जान पड़ती है वो मैं स्पष्ट कहता हूं। आपको यदि वह अनुकूल लगे तो कीजिएगा दुर्योधन को कैद करके पांडवों से संधि कर लीजिए। इससे सबका भला हो जाएगा। सारा कुरुवंश नष्ट होने से बच जाएगा श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी से कहा भैया आप गांधारी को यहां बुलवा लीजिए। वही दुर्योधन को समझा सकती है। तब गांधारी सभा में आई। जब धृतराष्ट्र ने उसे पूरी बात बताई तो वह बोली महाराज इसमें आपकी ही गलती है। जब आप जानते हैं दुर्योधन गलत है। फिर भी आप आज तक अपनी मौन स्वीकृति देते आए है।

वह तो काम, क्रोध, लोभ और मोह में अंधा हो रहा है। आपने उसे बिना कुछ सोचे-समझे ही राज्य की बागडौर उसके हाथ सौंप दी। गांधारी ने दुर्योधन को सभा में बुलवाया और कहा बेटा दुर्योधन मेरी बात सुनो तुम पांडवों के साथ संधि कर लो। इससे तुम्हारा और तुम्हारी संतान दोनों का ही भविष्य सुखमय रहेगा।जिस तरह बिगड़े घोड़े उस पर सवारी करने वाले को रास्ते में ही मार देते हैं उसी तरह यदि इंद्रियों पर वश न रखा जाए तो मनुष्य का नाश हो जाता है। मन पर काबू न रखने वाले शत्रुओं को जीतने में हमेशा विफल होते हैं। यदि तुम सुखी रहना चाहते हो तो पाण्डवों को उनका न्यायोचित भाग दे दो।

हनुमानजी का ये भी है एक नाम क्योंकि....
कहते हैं किसी भी तरह का संकट हो या कार्य पूरे नहीं हो रहे हों तो हनुमानजी की आराधना करनी चाहिए क्योंकि हनुमान को संकटमोचक भी कहा जाता है। हनुमान शिव यानी रुद्र अवतार माने जाते हैं। रुद्र का मतलब है शिव और यह रूप शास्त्रों के अनुसार संकट को हरने वाला माना गया है। 

मान्यता है कि हनुमानजी अष्टचिरंजीवियो में से एक है। कलयुग में हनुमानजी ही एक मात्र ऐसे देवता हैं जो अपने भक्तो पर शीघ्र कृपा करके उनके कष्टों का निवारण करते हैं। कथा है कि महाभारत जैसे महासंग्राम में भी कृष्ण और अर्जुन ने जो कि स्वयं अवतार माने जाते हैं उन्होंने अपने रथ की ध्वजा पर हनुमानजी को स्थापित किया था, ताकि उनके ऊपर आने वाले हर संकट का हर उनके संकटों का मोचन करें। 

साथ ही कलयुग के बारे में भी ऐसी मान्यता है कि कलियुग में श्री हनुमान जहां-जहां अपने श्रीराम का ध्यान और स्मरण होता देखते हैं, वहां अदृश्य रूप में उपस्थित रहते हैं। इस तरह हनुमान हर युग में अलग-अलग रुप और शक्तियों के साथ अपने सभी भक्तों को संकट से मुक्ति दिलाते हैं। इसीलिए इन्हें संकट मोचन भी कहा जाता है।

इसीलिए कहते हैं समय का इंतजार करना ठीक नहीं है क्योंकि.. 
भागवत के अनुसार नारदजी कहते हैं कि उसे एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। जीवन में एक-एक क्षण का भी महत्व होता है। भक्त समय की कीमत जानता है। यह उसके भौतिक सुविधाओं की बहुमूल्य निधि है, जिसका उपयोग वह भक्ति के प्रति करता है। वह यह भी समझता है कि जो क्षण बीत गया, उसे कोई भी कीमत देकर भी वापस नहीं लाया जा सकता। इसलिए वह एक-एक क्षण का उपयोग भजन करने के प्रति ही करता है। यदि कोई भक्त ऐसा नहीं करता है तो उसे करना चाहिए, क्योंकि शुभ समय की केवल बाट ही देखते रहना, कुछ साधन नहीं करना यह कोई प्रतीक्षा नहीं है। 

मनुष्य का जीवन अत्यंत अनिश्चित है, कितना समय उसके पास है, कहा नहीं जा सकता। अत: उसका एक-एक पल महत्वपूर्ण है। कार्य बहुत बड़ा है। इतना बड़ा कि अनेकों जन्मों की तपस्या एवं निरंतर साधना से भी पूर्ण हो पाएगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। फिर भी यह सोचते रहना कि अमुक काम पूर्ण हो जाए, अमुक परिस्थिति आ जाए तो भजन करूंगा। अपने आप को धोखा देना तथा समय नष्ट करना है। 

एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि आज हम अच्छे सात्विक भगवद् भक्तों की संगत में हैं जिससे हमारे मन में भी प्रभु को प्राप्त करने के लिए परम-प्रेम-रूपा भक्ति जाग्रत करने की शुभ इच्छा जाग्रत है। किन्तु, यदि हम विचार ही करते रह गए, भजन कुछ किया नहीं, केवल अनुकूल समय का रास्ता ही देखा। जब अनुकूल समय प्राप्त हुआ तो हमारे मन का विचार ही बदल गया। इसलिए उत्तम यही है कि जो भी परिस्थितियां प्राप्त हों तथा जो भी समय उपलब्ध हो एवं जो कुछ आपके पास सुविधाएं हों, उनमें जैसा भी, जितना भी भजन सम्भव हो आरंभ कर दो। यह नियम जाग्रति से पूर्व एवं पश्चात दोनों अवस्थाओं में लागू होता है। 

विशेषकर भजन का स्वभाव तथा भक्ति जाग्रति का उपर्युक्त समय युवावस्था ही होता है। बुढ़ापे में जब मन का स्वभाव पक जाता है, इन्द्रियों में शिथिलता आ जाती है, उठा-बैठा भी नहीं जाता, तब क्या साधन-भजन होगा। हां, यदि युवावस्था में ही ऐसा स्वभाव तथा परिस्थितियां बन जाएं तो बुढ़ापे में भी क्रम चलता रह सकता है। अत: आधा क्षण बिगाड़े बिना भी साधन में जुट जाओ। आयु तो देखते ही देखते निकली जा रही है। दिन पर दिन तथा रातों पर रातें व्यतीत होती जा रही हैं। सूर्य उदय होता है, सायं को ढल जाता है। यह क्रम घड़ीभर के लिए भी नहीं ठहरता। इसी के साथ व्यतीत हो जाता है  मनुष्य का जीवन भी। सुविधा पूर्वक तथा अनुकूल समय का भजन जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए प्रतीक्षा करना उचित नहीं।


जानिए राखी का एक धागा हमारे लिए क्या करता है....
कई बार हमें लगने लगता है कि सारी दुनिया में हम इसीलिए श्रेष्ठ हैं कि हमारे पास धर्म-अध्यात्म की कुछ अद्भुत घटनाएं हैं। जैसे रक्षाबंधन को ही लीजिए। शास्त्रों में इस रक्षा-सूत्र की कहानी राजा बलि और लक्ष्मीजी से भी जोड़ी गई है। और भी पात्र इस धागे से जुड़े किरदार में हैं।

धीरे-धीरे यह त्योहार धर्म की सीमाएं पार कर गया और मानवीय रिश्तों का प्रतीक बनता गया। फिर जैसा होता है कि लगातार करते-करते हम क्रिया की ताजगी खो बैठते हैं, यही रक्षाबंधन के साथ हुआ। प्रेम और सुरक्षा के इस पर्व का आध्यात्मिक अर्थ है - एक ऐसे बंधन में बंध जाएं, जहां हमारे मनोवेगों को स्वतंत्रता न मिले।

अभी हमारे आंतरिक विचार तूफान की तरह बेतरतीब हैं। कोई बंधन खुद ही को, खुद ही के विचारों के लिए रखना पड़ेगा। ये सही है कि महिलाओं की उपस्थिति मात्र घर और बाहर के वातावरण में एक अनुशासन और मर्यादा ला देती है।

इसीलिए उनके हाथों से बंधा रक्षा-सूत्र आध्यात्मिक रूप से हमें अपनी ही शक्ति को नियंत्रित करने के लिए प्रेरित करता है। प्रेम का ये धागा बांधने और बंधवाने वाले दोनों के लिए ही आवेशों को नियंत्रित करने का अद्भुत उपचार है, क्योंकि मनुष्य अपने ऊपरी मुखौटे के ऊपर अपने मानसिक आवेशों का एक अलग ही संसार रचाए बैठा है और ये आवेश हमारे मानसिक तंतुओं को झुलसा देते हैं।

हमारे भीतर एक ऐसी ज्वाला जल रही होती है, जिसमें भीतरी व्यक्तित्व झुलस रहा होता है, लेकिन बाहर से हम शीतलता ओढ़ लेते हैं। राखी का धागा हमें भीतर और बाहर दोनों मौकों पर आवेगों पर नियंत्रण करना सिखाता है। यह एकमात्र बंधन है, जिसमें आध्यात्मिक मुक्ति भी है।




जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK