Sunday, February 26, 2012

Srimdbhagwat Part(2)

खुद से परिचित होने का ग्रंथ है भागवत
आज से हम एक ऐसे ग्रंथ में प्रवेश कर रहे हैं जो वैष्णवों का परम धन है, पुराणों का तिलक है, ज्ञानियों का चिंतन, संतों का मनन, भक्तों का वंदन तथा भारत की धड़कन है। किसी का सौभाग्य सर्वोच्च शिखर पर होता है तब उसे श्रीमद्भागवत पुराण कहना, सुनना और पढऩा मिलता है।

भागवत महापुराण वह शास्त्र हैं जिसमें बीते कल की स्मृति, आज का बोध और भविष्य की योजना है। तो आज भागवत में प्रवेश करने से पहले थोड़ा भीतर उतरने की तैयारी करिए। यह स्वयं मूल से परिचित कराने का ग्रंथ है। भगवान ने भागवत की पंक्ति-पंक्ति में ऐसा रस भरा है कि वे स्वयं लिखते हैं-

पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरवो रसिका भुवि भावुका:।

हमारे भीतर जो रहस्य भरा हुआ है उसको उजागर करने के लिए भागवत एक अध्यात्म दीप है जैसे हम भोजन करते हैं तो हमको संतुष्टि मिलती है उसी प्रकार भागवत मन का भोजन है। जब मन को ऐसा शुद्ध भोजन मिलेगा तो मन संतुष्ट होगा, पुष्ट होगा और तृप्त होगा और जिसका मन तृप्त है उसके जीवन में शांति है। भागवत में प्रवेश करें तो कुछ बातें स्पष्ट करते चलें। हम जिस रूप में इस सद्साहित्य को पढ़ते चलेंगे, हमारे तीन आधार हैं। संत और महात्माओं का यह कहना है और शोध से ज्ञात भी हुआ है। पहली बात है भगवान ने अपना स्वरूप भागवत में रखा तो भागवत भगवान का स्वरूप है। दूसरी बात इसमें ग्रंथों का सार है और तीसरी बात हमारे जीवन का व्यवहार है। ये तीन बातें भागवत में हैं।

भगवान बसे हैं भागवत में
भागवत में 12 स्कंध हैं (12 चेप्टर)। उन 12 स्कंधों में 335 छोटे-छोटे अध्याय हैं जिन्हें सेक्शन कह लें और 18 हजार श्लोक हैं। जो 12 स्कंध हैं उसमें भगवान का स्वरूप बताया है। पहला और दूसरा अध्याय भगवान के चरण , तीसरा और चौथा स्कंध भगवान की जंघाएं, पांचवां स्कंध भगवान की नाभि , छठा वक्षस्थल, सात और आठ बाहू , नौ कंठ, दस मुख, ग्यारह में ललाट और बारह में मूर्धा है।

भगवान का वाड्.मय स्वरूप भागवत के स्कंधों में बंटा हुआ है तो भागवत में बसे हुए हैं भगवान। भागवत का एक और अर्थ है भाग मत। बहुत सी ऐसी स्थिति आती है हमारे जीवन में, या तो आदमी बाहर भागता है या भीतर भागने लगता है। भाग मत भागवत कहती है रुकिए, देखिए और फिर चलिए। एक और अर्थ है भागवत का। चार शब्द है भ, ग, व, त। जिनका अर्थ है भ से भक्ति, ग से ज्ञान, व से वैराग्य और त से त्याग।

दूसरी बात इसमें ग्रंथों का सार है। हमारे यहां चार प्रमुख ग्रंथ हैं और चारों ग्रंथ भागवत में समाविष्ट हैं। इतनी सुंदर रचना वेदव्यासजी ने की है। महाभारत हमें रहना सिखाती है आर्ट ऑफ लिविंग जिसे कहते हैं। कैसे रहें, जीवन की क्या परंपराएं हैं, क्या आचारसंहिता, क्या सूत्र हैं, संबंधों का निर्वहन कैसे किया जाता है यह सब महाभारत से सीखा जा सकता है।

जीवन का दूसरा साहित्य है गीता। गीता हमें सिखाती है करना कैसे है आर्ट ऑफ डुईंग। भागवत महापुराण के दो से आठ स्कंध तक हम गीता में करना कैसे ये देखेंगे। रामायण हमें जीना सिखाती है भागवत में नवें स्कंध में श्रीरामकथा आई है। रामायण हमें सिखाएगी आर्ट ऑफ लिविंग। अंतिम चरण में भागवत कहती है मरना कैसे है। यह इस ग्रंथ का मूल विचार है, 'आर्ट ऑफ डाइंग। भागवत के दसवें, ग्यारहवें और बारहवें स्कंध में भगवान की लीला आएगी। यह चार ग्रंथ इस भागवत में समाए हुए हैं और इसी रूप में चर्चा करते चलेंगे तो आप इसे स्मरण में रखिए। ..

गृहस्थी का ग्रंथ है भागवत
हम सब गृहस्थ लोग हैं, दाम्पत्य में रहते हैं। भागवत की घोषणा है कि मैं दाम्पत्य में आसानी से प्रवेश कर जाती हूं। हमारे दाम्पत्य के सात सूत्र हैं- संयम, संतुष्टि, संतान, संवेदनशीलता, संकल्प, सक्षम और समर्पण। इन सात सूत्रों को हम प्रतिदिन भागवत में स्पष्ट करते चलेंगे।हमने भागवत में भगवान का स्वरूप देख लिया। ग्रंथों का सार देख लिया और जीवन का व्यवहार भी देख लिया।

लोगों के मन में प्रश्न उठता है भागवत किसने कही, किसने सुनी? वेदव्यासजी ने ऐसा ग्रंथ रचा कि जिसमें बहुत सारे स्तर पर बहुत सारी कथाएं चलती हैं। इस कारण भागवत पढऩे वाले भ्रम में आ जाते हैं कि अभी तो ये बोल रहे थे, अभी तो इनकी कथा चल रही थी, अचानक दूसरी कथा आ जाती है तो लोग भ्रम में पड़ जाते हैं। भ्रम न पालें, सबसे पहले हम ये जान लें कि भागवत लिखने की नौबत क्यों आई? वैसे तो इसका उत्तर भागवत के प्रथम स्कंध के चौथे अध्याय में आता है पर मैं आपको यहीं बता रहा हूं। भागवत का आरंभ उसके महात्म्य से होता है। जिसे सामान्य भाषा में संदेश(प्रोमो) कहते हैं। क्या बात हुई जो भागवत लिखनी पड़ी? महर्षि वेदव्यास जिनका नाम कृष्णद्वेपायन है। ब्रह्माजी ने जब वेद रचे तो उनको सौंप दिए। व्यासजी ने वेदों का संपादन किया।

चार वेद उन्होंने बनाए ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्वेद और सामवेद। फिर व्यासजी ने 18 पुराण लिखे। फिर व्यासजी ने महाभारत की रचना की, जिसको कहते हैं पंचम वेद। ऐसी अद्भुत रचना की कि महाभारत को पढऩे के बाद सारे संसार ने ये तय कर लिया कि जो कुछ भी इस महाभारत में है वो सारा संसार में है और जो इसमें नहीं है वह संसार में नहीं है।

भागवत के नायक हैं श्रीकृष्ण
महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखने के बाद व्यासजी एक दिन बैठे तो उनके भीतर उदासी जाग गई। उसी समय नारदजी आए। उन्होंने पूछा व्यासजी क्या बात है इतना बड़ा सृजन करने के बाद आपके चेहरे पर उदासी क्यों है?सृजन के बाद तो आनंद होना चाहिए। व्यासजी ने नारदजी से बोला मेरा भी यही प्रश्न है आपसे।

मैंने महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखा, मैं थका हुआ क्यों हूं, उदास क्यों हूं। नारदजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया और वह हमारे बड़ा काम का है। नारदजी ने कहा व्यासजी ये तो होना ही था क्योंकि आपने जो रचना की है उसके नायक पांडव हैं और खलनायक कौरव हैं।आपकी रचना के केंद्र में मनुष्य है, विवाद है, षडयंत्र हैं।

आप कोई ऐसा साहित्य रचिए जिसके केंद्र में भगवान हों। तब आपको शांति मिलेगी। हमें समझने की बात ये है कि जीवन की जिस भी गतिविधि के केंद्र में भगवान नहीं होगा, वहां अशांति होगी। इसीलिए भगवान को केंद्र में रखिए और सारे काम करिए। बात व्यासजी को समझ में आ गई। तब उन्होंने भागवत की रचना की जिसके नायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। तब जाकर उनको शांति मिली।
इसीलिए भागवत का पाठ किया जाता है जिसे सुनने के बाद मनुष्य को शांति मिलती है। लोग कहते हैं महाभारत घर में नहीं रखना चाहिए।महाभारत नहीं रखते। क्योंकि उपद्रव होता है। लोग रामायण रखते हैं घर में, लेकिन रामायण जैसा आचरण नहीं करते। अगर आप महाभारत पढऩा चाहें तो अवश्य पढि़ए, घर में रखिए यह वही ग्रंथ है जो व्यासजी ने लिखा है। व्यासजी ने बड़ी सुंदर रचना भागवत के रूप में की है। केंद्र में भगवान को रखा और केंद्र में भगवान को रखने के बाद महात्म्य का आरंभ कर रहे हैं। केन्द्र में भगवान हों और व्यक्तित्व में प्रसन्नता हो इसलिए हमेशा मुस्कुराइए....

आनंद चाहिए तो सच्चिदानंद का ध्यान करें
भागवत माहात्म्य में श्लोक वर्णित है- सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।

अर्थात जो जगत की उत्पत्ति और विनाश के लिए है तथा जो तीनों प्रकार के ताप के नाशकर्ता हैं ऐसे सच्चिदानंद स्वरूप भगवान कृष्ण को हम सब वंदन करते हैं। सत यानी सत्य, परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है। चित्त, जो स्वयं प्रकाश है। आनंद-आत्मबोध। शास्त्रों में परमात्मा के तीन स्वरूप कहे गए हैं सत, चित और आनंद। सत प्रकट रूप से सर्वत्र है। जड़ वस्तुओं में सत तथा चित है किंतु आनंद नहीं।

जीव में सत और चित प्रकटता है पर आनंद अप्रकट रहता है अर्थात अप्रकट रूप से विराजमान अवश्य है। वह अव्यक्त रूप से है। वैसे आनंद अपने अन्दर ही है। फिर भी मनुष्य आनंद को बाहर खोजता है। इस आनंद को जीवन में किस प्रकार प्रकट करें यही भागवत शास्त्र हमें बताता है। आनंद के अनेक प्रकार तैतरीय उपनिषद् में बताए गए हैं परंतु इनमें से दो मुख्य हैं पहला साधनजन्य आनंद और दूसरा है स्वयंसिद्ध आनंद।

जिसका ज्ञान नित्य टिकता है उसे ही आनंद मिलता है वही आनंदमय होता है। जीव को यदि आनंद रूप होना हो तो उसे सच्चिदानंद के आश्रय होना पड़ेगा । भागवत कहती है मेरे लिए कुछ भी नहीं छोडऩा है। वेद, त्याग का उपदेश करते हैं, शास्त्र कहते हैं काम छोड़ो, क्रोध छोड़ो, परंतु मनुष्य कुछ नहीं छोड़ सकता । संसार में फंसे जीव उपनिषदों के ज्ञान को पचा नहीं सकते । इन सब बातों का विचार करके भगवान व्यासजी ने श्रीमद्भागवत शास्त्र की रचना की है।

भगवान का पहला स्वरूप है सत्य
भागवत महात्म्य के आरंभ में सबसे पहले लिखा है-सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।

ये पहला श्लोक है भागवत का। प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द है सच्चिदानंदरूपाय। भागवत आरंभ हो रहा है और भागवत ने घोषणा की सत, चित और आनंद। भगवान के तीन रूप हैं सच्चिदानंद रूपाय सत, चित और आनंद। भगवान के रूप को प्रकट किया। भगवान तक पहुंचने के तीन मार्ग है सत, चित और आनंद। इन तीन रास्तों से आप भगवान तक पहुंच सकते हैं।

आप देखना चाहें भगवान का स्वरूप क्या है तो भगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट नहीं होंगे। भगवान का पहला स्वरूप है सत्य। जिस दिन आपके जीवन में सत्य घटने लगे आप समझ लीजिए आपकी परमात्मा से निकटता हो गई। सत भगवान का पहला स्वरूप है फिर कहते हैं चित स्वयं के भीतर के प्रकाश को आत्मप्रबोध को प्राप्त करिए। फिर है आनंद। देखिए सत और चित तो सब में होता है पर आपमें जो है उसे प्रकट होना पड़ता है। वैसे तो आनंद हमारा मूल स्वभाव है पर हमको आनंद निकालना पड़ता है मनुष्य का मूल स्वभाव है आनंद फिर भी इसके लिए प्रयास करना पड़ता है।

सत, चित, आनंद के माध्यम से भागवत में प्रवेश करें। यहां भागवत एक और सुंदर बात कहती है भागवत की एक बड़ी प्यारी शर्त है कि मुझे पाने के लिए, मुझ तक पहुंचने के लिए या मुझे अपने जीवन में उतारने के लिए कुछ भी छोडऩा आवश्यक नहीं है। ये भागवत की बड़ी मौलिक घोषणा है। इसीलिए ये ग्रंथ बड़ा महान है। भागवत कहती है मेरे लिए कुछ छोडऩा मत आप।
संसार छोडऩे की जरूरत नहीं है। कई लोग घरबार छोड़कर, दुनियादारी छोड़कर पहाड़ पर चले गए, तीर्थ पर चले गए, एकांत में चले गए तो भागवत कहती है उससे कुछ होना नहीं है। मामला प्रवृत्ति का है। प्रवृत्ति अगर भीतर बैठी हुई है तो भीतर रहे या जंगल में रहें बराबर परिणाम मिलना है।

सबका उद्धार करती है भागवत
भागवत कहती है कि योगियों को जो आनंद समाधि में मिलता है, गृहस्थों को वही आनंद घर में बैठकर भागवत से मिल सकता है। ये भागवत की मौलिक घोषणा है।भागवत ने बोला आपसे घर नहीं छूटता तो कोई बड़ा भारी काम करने की आवश्यकता नहीं। घर में रहें, संसार में रहें। घर में रहना कोई बुरा नहीं है। हां हमारे भीतर घर रहने लगे वहां से झंझट चालू होती है। भागवत इस अंतर को बताएगी कि क्या फर्क है संसार में रहने में और संसार अपने भीतर रहने में। इसलिए भागवत ने कहा है कुछ छोडऩे की आवश्यकता नहीं, मेरे साथ रहो। ऐसे कई प्रसंग आएंगे कि भागवत ये साबित कर देगी कि यहीं स्वर्ग है और यहीं नर्क है। ये तो हम ही लोग हैं जो इसको नर्क बनाए जा रहे हैं।

इस भागवत शास्त्र की रचना कलयुग के जीवों के उद्धार के लिए की गई है। श्रीमद्भागवत में एक नवीन मार्गदर्शन कराया गया है। घर में रहकर भी आप भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं, प्राप्त कर सकते हैं परंतु आपका प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय हो जाना चाहिए। गोपियों का प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय बन गया था। भागवत में कहा है घर में रहो, अपने स्वभाव में रहो और संसार में फिर परमात्मा को प्राप्त कर सकते है। घर में रहें या बाहर अपनों से मिलें या परायों से। लेकिन जरा मुस्कुराइए...

निष्काम भक्ति सीखाती है भागवत
आज इस बात की चर्चा की जाए कि भागवत का मूल विषय क्या है? भागवत का मूल है निष्काम भक्ति। भागवत में बार-बार आपको यह शब्द मिलता रहेगा। भागवत ने कहा है मेरा मूल विषय है निष्काम भक्ति। निष्काम भक्ति का अर्थ है आप कर रहे हैं फिर भी आप नहीं कर रहे हैं। जिसको अंग्रेजी में कहते हैं डूइंग है डूअर नहीं है। निष्कामता वहीं घटती है जिसमें आपके कर्म में से मैं चला जाए। आपके काम में से जिस दिन कर्ता बोध का अभाव हो जाए उस दिन निष्कामता घटती है।

बहुत लोगों को समझ में नहीं आता निष्कामता होती क्या है? मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। जिन लोगों ने बेटियां पैदा की हैं, बेटियां बड़ी की हैं, पाली हैं और विदा किया है। वो लोग जान सकते हैं निष्कामता क्या होती है। जब कोई अपनी बेटी को पालता है तो बेटे की तरह ही पालता है। लेकिन एक दिन वह बेटी बड़ी होती है और आदमी उसको विदा कर देता है। एक दिन उस बेटी का विवाह हो जाता है। उसका नाम, वंश, कुल, परंपरा सब एक क्षण में बदल जाता है।

ये भारतीय संस्कृति का ऐसा गौरव है कि जब स्त्री का विवाह होता है तो एक क्षण में उसका सबकुछ बदल जाता है। देहरी पार जाकर उसकी पहचान, उसका वंश, उसका कुल, उसके रिश्ते और सोलह श्रृंगार। आदमी जानता है मैं इस बेटी को बड़ा कर रहा हूं। एक दिन मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं रहेगा। जिस दिन आपके कर्म में, कर्म के फल के प्रति बेटी के विदा करने जैसा भाव जाग जाए बस वहीं से निष्कामता का जन्म होता है। भागवत का मूल विषय यही है कि निष्काम भक्ति योग।

तीनों दुखों का नाश करते हैं श्रीकृष्ण
तीन तरह के ताप का विनाश करने वाले है श्रीकृष्ण। भागवत के पहले श्लोक में ये बताया गया है।
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।

तापत्रय अर्थात आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तीन तरह के दु:ख होते हैं इंसान को। भागवत कितना सावधान ग्रंथ है। पापत्रयविनाशाये नहीं लिखा तापत्रयविनाशाय लिखा। पाप आता है चला जाता है। यदि आदमी पश्चाताप कर ले। लेकिन पाप का परिणाम क्या है ताप। पाप अपने पीछे ताप छोड़कर जाता है। आदमी को पता नहीं लगता इसी को संताप कहते हैं। लिखा है आध्यात्मिक आदिदैविक, अदिभौतिक तीनों प्रकार के पापों को नाश करने वाले भगवान श्रीकृष्ण की हम वंदना करते हैं। अनेक लोगों को मन में यह प्रश्न उठता है कि वंदना करने से क्या लाभ है? वंदना करने से पाप जलते हैं। श्रीराधा व कृष्ण की वंदना करेंगे तो हमारे सारे पाप नष्ट होंगे। परंतु वंदना केवल शरीर से नहीं मन से भी करना पड़ेगी। अत: ईश्वर वंदनीय है। वंदना करने का अर्थ है अपनी क्रियाशक्ति को और बुद्धि शक्ति को श्रीभगवान को अर्पित करना।

वंदन करने से अभिमान का बोझ कम होता है। श्रीभागवत का आरंभ ही वंदना से किया गया है। और वंदना से समाप्ति की गई है। संत महात्मा कहते हैं कि ये जो 'श्रीकृष्ण' शब्द लिखा है इसमें जो ये 'श्री' है यह राधाजी का प्रतीक है। राधाजी को 'श्री' भी कहा गया है। विद्वानों का प्रश्न है और शोध का विषय भी है बड़ी चर्चा होती है इसकी लोग हमसे भी प्रश्न पूछते हैं कि भागवत में राधाजी की चर्चा नहीं आती? पूरे भागवत में राधाजी का नाम ही नहीं है। नायक कृष्ण और राधा का नाम नहीं। लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है कि वेदव्यासजी ने क्या सोचकर राधाजी का नाम नहीं लिखा। जबकि राधा के बिना कुछ नहीं हो सकता।

कृष्ण देह तो राधा आत्मा हैं
विद्वान और पंडित लोग कहते हैं जिस समाधि भाषा में भागवत लिखी गई और जब राधाजी का प्रवेश हुआ तो व्यासजी इतने डूब गए कि राधा चरित लिख ही नहीं सके। सच तो यह है कि ये जो पहले श्लोक में वंदना की गई इसमें श्रीकृष्णाय में श्री का अर्थ है कि राधाजी को नमन किया गया।

बात ये है कि जब राधाजी से कृष्णजी ने पूछा कि इस साहित्य में तुम्हारी क्या भूमिका होगी। तो राधाजी ने कहा मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए मैं तो आपके पीछे हूं। इसलिए कहा गया कि कृष्ण देह हैं तो राधा आत्मा हैं। कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ हैं, कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत हैं, कृष्ण बंशी हैं तो राधा स्वर हैं, कृष्ण समुद्र है तो राधा तरंग हैं और कृष्ण फूल हैं तो राधा उसकी सुगंध हैं।
इसलिए राधाजी इसमें अदृश्य रही हैं। राधा कहीं दिखती नही है इसलिए राधाजी को इस रूप में नमन किया।

जब हम दसवें, ग्यारहवें स्कंध में पहुंचेंगे, पांचवें, छठे, सातवें दिन तब हम राधाजी को याद करेंगे। पर एक बार बड़े भाव से स्मरण करें राधे-राधे। ऐसा बार-बार बोलते रहिएगा। राधा-राधा आप बोलें और अगर आप उल्टा भी बोलें तो वह धारा हो जाता है और धारा को अंग्रेजी में बोलते हैं करंट। भागवत का करंट ही राधा है। आपके भीतर संचार भाव जाग जाए वह राधा है। जिस दिन आंख बंद करके आप अपने चित्त को शांत कर लें उस शांत स्थिति का नाम राधा है। यदि आप बहुत अशांत हो अपने जीवन में तो मन में राधे-राधे..... बोलिए मेरा आश्वासन है, मेरा आपसे वादा है और नमन है आप पंद्रह मिनट में शांत हो जाएंगे क्योंकि राधा नाम में वह शक्ति है। भगवान ने अपनी सारी संचारी शक्ति राधा नाम में डाल दी। इसलिए भागवत में राधा शब्द हो या न हो राधाजी अवश्य विराजी हुई हैं।

इसीलिए प्रथम पूज्य हैं श्री गणेश
आज हम भागवत के महात्म्य में प्रवेश करते हैं। व्यासजी ने भागवत की रचना की। अब व्यासजी के सामने एक समस्या आई कि इतना बड़ा ग्रंथ लिखेगा कौन? तब नारदजी ने सलाह दी कि गणेशजी से लिखवा लो, गणेशजी से अच्छा कोई नहीं लिख सकता। गणेशजी को याद किया, गणेशजी आ गए। गणेशजी से व्यासजी ने कहा मैंने एक साहित्य रचा है। आप इसके लेखक बन जाइए।
उन्होंने कहा लिख तो दूंगा पर मेरी एक शर्त है जब आप बोलो तो एक पल के लिए भी रूकना मत। तो मैं लिख दूंगा। व्यासजी मान गए। व्यासजी भी व्यासजी थे। वे हर सौ श्लोक के बाद ऐसा कोई गंभीर श्लोक बोल देते थे कि गणेशजी उसका अर्थ सोचने लग जाते क्योंकि व्यासजी ने भी शर्त रखी थी कि मैं तो बिना रूके बोलूंगा पर आप बिना अर्थ समझे एक भी पंक्ति मत लिखना। व्यासजी एक श्लोक ऐसा बोलते कि गणेशजी उसका अर्थ सोचते तब तक व्यासजी अपना सब काम निपटाकर दूसरा श्लोक रच देते।

18 हजार श्लोक का साहित्य भागवत गणेशजी ने लिख दिया। इसीलिए प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में गणपतिजी की पूजा की जाती है। गणपतिजी विघ्नहर्ता हैं। गणपतिजी के पूजन करने का अर्थ है जितेंद्रीय होना। विघ्न न आए इसलिए व्यासजी सर्वप्रथम श्रीगणेशाय नम: कहकर गणपति महाराज की वंदना करते हैं। इसके पश्चात सरस्वतीजी की वंदना करते हैं। सरस्वती की कृपा से मनुष्य में समझ और सोचने की शक्ति आती है। फिर सद्गुरु की वंदना की गई है तथा भागवत के प्रधान देव श्रीकृष्ण की वंदना हुई है।

भगवान शिव का रूप हैं शुकदेव
भागवत लिखने के बाद व्यासजी के सामने एक और समस्या आ गई कि इस ग्रंथ का प्रचार कौन करेगा ? उनको चिंता हो गई अब यह शास्त्र किसको दूं ? श्रीभागवत शास्त्र मैंने मानव समाज के कल्याण के लिए रचा है। अब यह किसको सौंपूं ? जिससे जगत का कल्याण हो ऐसे किसी योग्य पुरूष को यह ज्ञान दिया जाए।

इस विचार के साथ वृद्धावस्था में भी व्यासजी को पुत्रेष्णा जागी। उन्होंने आह्वान किया। भगवान शंकर वैराग्य के रूप में मेरे यहां पुत्र बनकर आएं। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। शिवजी प्रसन्न हुए। व्यासजी ने मांगा -समाधि में जो आनंद आप पाते हैं वही आनंद जगत को देने के लिए आप मेरे घर में पुत्र के रूप में पधारिए। शुकदेवजी भगवान शिव का ही अवतार हैं। वाल्मीकि रामायण के बाद श्रीरामचरितमानस रचा गया। रामकथा के वक्ता शंकरजी थे। महाभारत के बाद भागवत रची गई। हम भी भागवत को इस स्तंभ में नई शैली में प्रस्तुति कर रहे हैं।

व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी सोलह वर्ष माता के गर्भ में रहे और वहीं उन्होंने परमात्मा का ध्यान किया। व्यासजी ने गर्भ में ही अपने पुत्र से पूछा- तुम बाहर क्यों नहीं आते। शुकदेवजी ने उत्तर दिया- मैं संसार के भय से बाहर नहीं आता हूं। मुझे माया का भय लगता है। इस पर श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि मेरी माया तुझे नहीं लग सकेगी। तब शुकदेवजी माता के गर्भ से बाहर आए। जन्म होते ही शुकदेवजी वन की ओर जाने लगे।

माता ने प्रार्थना की कि मेरा पुत्र निर्विकार ब्रह्म रूप है किंतु यह मेरे पास से दूर न जाए इसे रोंके। व्यासजी अपनी धर्मपत्नी से बोले जो हमें अतिप्रिय लगता हो वही परमात्मा को अर्पण करना चाहिए। वह तो जगत का कल्याण करने जा रहा है। किंतु व्यासजी भी व्यथित हो गए । व्यासजी ज्ञानी थे, फिर भी जाते हुए पुत्र के पीछे दौड़े।

जीव का संबंध तो परमात्मा से है
व्यासजी अपने पुत्र शुकदेव को बुलाते हैं- पुत्र लौट आओ। तुम्हें विवाह आदि के लिए आग्रह नहीं करेंगे। बस हमें छोड़कर मत जाओ। शुकदेवजी वृक्षों द्वारा उत्तर देते हैं। मुनिराज आपको पुत्र के वियोग से पीड़ा हो रही है परंतु हमको तो जो पत्थर भी मारता है तो हम उसे फल देते हैं। वृक्षों के पुत्र उनके फल हैं। पत्थर मारने वाले को भी फल दे वही सज्जन है। आपका बेटा तो जगत कल्याण करने चला है।

शुकदेवजी ने कहा- पिताजी। मेरे और आपके अनेक जन्म हुए हैं। यह तो अच्छा है पूर्व जन्म याद नहीं रहते। न तो आप मेरे पिता हैं और न ही मैं आपका पुत्र हूं। आपके और मेरे सच्चे पिता तो श्रीनारायण हैं। जीव का सच्चा संबंध तो परमात्मा के साथ ही है। मेरे पीछे न पड़ो श्रीभगवान के पीछे पड़ो। इतना कहकर शुकदेवजी नर्मदा तट पर आ गए। शुकदेवजी ने कहा मैं नर्मदा के इस किनारे पर बैठता हूं और सामने के किनारे पर आप विराजिए। पिताजी, अब मेरा ध्यान न करें। ध्यान तो परमात्मा का ही करें।

इस प्रकार यह भागवत का वंदना क्रम था। शुकदेवजी को प्रणाम करके इस कथा का आरंभ किया गया है। एक बार नैमिशारण्य में शौनकजी ने सूतजी से कहा कि आज तक कथाएं तो बहुत सुनी हैं। अब कथा का सार तत्व सुनने की इच्छा है। ऐसी कथा सुनाइए की हमारी भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति दृढ़ हो। अनेक ऋषि-मुनि वहां गंगा के किनारे बैठे थे। परंतु कथा कहने को तैयार नहीं हुआ।
तब भगवान ने श्रीशुकदेवजी को प्रेरणा दी कि तुम वहां जाओ। भागवत पांचवा पुरुषार्थ प्रेम का शास्त्र है। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का उदय होता है तब इस पवित्र कथा को पढऩे-सुनने का योग बनता है। कलयुग में प्राणियों को काल रूपी सर्प से छुड़ाने के लिए शुकदेवजी ने यह भागवत की कथा कही थी।

निर्भय कर देती है भागवत
भागवत के महात्म्य में एक और चर्चा है। जब परीक्षित को शुकदेवजी कथा सुना रहे थे। उसी समय भागवत के श्लोक को सुनकर स्वर्ग से देवता नीचे उतर आए। देवता शुकदेवजी से बोले- इतने दिव्य श्लोक और भूलोक में बोले जाएं, ये तो देवताओं की संपत्ति है। यह तो स्वर्ग में जाना चाहिए। आप इसे हमें दे दें। शुकदेवजी बोले- मैं तो वक्ता हूं । यजमान हैं राजा परीक्षित। आप परीक्षित से पूछ लीजिए अगर ये देते हैं तो ले जाइए कथा को।

देवताओं ने परीक्षित से पूछा और परीक्षित ने उत्तर दिया। आप मुझे क्या देंगे इसके बदले में? देवताओं ने कहा- इस कथा के बदले हम आपको अमृत दे देंगे। सात दिन बाद आपको तक्षक डसने वाला है आपकी मृत्यु होने वाली है। हम आपको स्वर्ग का अमृत देते हैं। आप अमृत ले लो कथा हमको दे दो। परीक्षित ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया-आप मुझे अमृत तो दोगे। हो सकता है मैं अमर भी हो जाऊं पर निर्भय नहीं हो पाऊंगा।

बड़ा फर्क है अमर और निर्भय होने में। देवताओं आप तो रोज डरते हो, जब कोई दैत्य पीछे लग जाए आप भागते फिरते हो, आप अमर हो पर निर्भय नहीं हो। ये भागवत मुझे निर्भय कर देगी मुझे अमर नहीं होना। शुकदेवजी कहते हैं धन्य हैं आप राजा परीक्षित। आपने बहुत अच्छा निर्णय लिया। शुकदेवजी मुस्कुरा दिए। शुकदेवजी मुस्कुरा रहे हैं और शुकदेवजी ने घोषणा कि भागवत को सुनते समय जीवन में भी उतारें । आलस्य की प्रतिनिधि क्रिया नींद है और आनंद की प्रतिनिधि क्रिया है मुस्कान।आप मुस्कुराएंगे तो आपके भीतर आनंद का जन्म होगा। इसीलिए जरा मुस्कुराइए।

भक्ति के पुत्र हैं ज्ञान व वैराग्य
भागवत कथा का महात्म्य एक बार सनदकुमारों ने नारदजी को सुनाया था। महात्म्य में ऐसा लिखा है कि बड़े-बड़े ऋषि और देवता ब्रह्म लोक छोड़कर विशाला क्षेत्र में इस कथा को सुनने के लिए आए थे। विशालापुरी में जहां सनदकुमार विराजते थे वहां एक दिन नारदजी घूमते हुए आ गए। वहां सनकादि ऋषियों के साथ नारदजी का मिलन हुआ।

नारदजी का मुख उदास देखकर सनकादि ने उनकी उदासीनता का कारण पूछा कि आप चिंता में क्यों हैं? नारदजी ने कहा-मैंने अनेकों स्थानों का परिभ्रमण किया किंतु मुझे शांति नहीं मिली। कलयुग के दोष देखता हुआ घूमता फिरता मैं वृंदावन आया तो वहां एक विचित्र बात देखी। वहां एक महिला अपने दो सुप्तप्राय: अचेतन से पुत्रों के साथ बैठी विलाप कर रही थी। मैं उसके समीप गया और विलाप का कारण पूछा। उस स्त्री ने बताया कि वह भक्ति है। उसके पास अचेतन से पड़े ये दो प्राणी उसके पुत्र हैं। एक का नाम ज्ञान है और दूसरे का वैराग्य है।

स्त्री का कहना था कि कलयुग ने इन दोनों को मृतक समान बना दिया है। और कहा कि मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई कर्नाटक में पली, महाराष्ट में मेरा यौवन निखरा और गुजरात में पहुंचते-पहुंचते ही मैं वृद्धा हो गई। भक्ति ने कहा जबसे मैं वृंदावन आई हूं। तब से मेरा यौवन लौट आया है। किंतु मेरे पुत्रों की दशा दयनीय हो गई है। वे यहां पहुंचते-पहुंचते अचेतन से हो गए हैं।कर्नाटक में आज भी आचार की शुद्धि देखने में आती है। भगवान व्यासजी को कर्नाटक के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। जो सच था भक्ति के बारे में उन्होंने व्यक्त किया। भक्ति कहती है गुजरात मे जीर्ण हो गई। देवलोकवासी डोंगरे महाराज कहा करते थे। धन का दास प्रभु का दास नहीं हो सकता। गुजरात कांचन का लोभी हो गया है।

धर्म का प्रचार करने पर मिलता है मोक्ष
नौ अंग होते हैं भक्ति के। इसमें प्रथम है श्रवण। कीर्तन भक्ति दूसरी है। तीसरी है वंदन भक्ति और चौथी है अर्चन भक्ति। विस्तार से हम आगे पढ़ेंगे। भक्ति के दो बालक हैं ज्ञान और वैराग्य। ज्ञान और वैराग्य जब मूर्छित होते हैं तो भक्ति रोती है। कलयुग में ज्ञान और वैराग्य क्षीण होते हैं बढ़ते नहीं। नारदजी ने ज्ञान व वैराग्य को जगाने के अनेक प्रयत्न किए, तो भी उनकी मूर्छा नहीं गई। उपनिषदों के पठन से अपने हृदय में ज्ञान और वैराग्य जागता है परंतु वे फिर से मूर्छित हो जाते हैं। नारदजी चिंता में फंसे हैं कि ज्ञान और वैराग्य की मूर्छा उतरती नहीं है। उसी समय आकाशवाणी हुई कि आपका प्रयास उत्तम है। ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति का प्रचार करने के लिए आप कुछ सद्कर्म कीजिए। नारदजी कहते हैं मैंने जिस देश में जन्म लिया है उस देश के लिए यदि उपयोगी बन सकूं तो मेरा जीवन धन्य हैं।

आप बताईए मैं क्या सदकर्म करूं ? नारद ने पूछा। तब सनकादि मुनि ने कहा परदु:ख से यदि आप दु:खी हंै तो आपकी भावना दिव्य है। यही संत का चरित्र है। भक्ति का प्रचार करने की आपकी इच्छा है तो आप भागवत यज्ञ का पारायण कीजिए। आपकी इच्छा पूर्ण होगी। आप भागवत ज्ञान यज्ञ करें और भागवत का प्रचार करें। आप ही ने तो व्यासजी के दु:ख दूर करते हुए भागवत रचने का उपदेश दिया था। अत: आप श्रीमद्भागवत का प्रचार कर अपना कर्तव्य पूरा करें। कलयुग में भक्ति प्रचार का एक तरीका यह भी है प्रभु का स्मरण करते हुए सदैव मुस्कुराइए।

भक्ति से मिलते हैं भगवान
हरिद्वार के पास श्रीभागवत कथा का अमृतपान करने के लिए सनकादि ऋषि, नारद मुनि आदि सभी ऋषि मुनि आए। जो नहीं आए थे उन सभी के घर भृगु ऋषि जाते हैं। विनती करते हैं उनको कथा में लाते हैं। नारदजी श्रोता बनकर बैठै हैं और सनकादि आसन पर विराजमान हैं। उसी समय भागवत महिमा सुन भक्ति प्रकट हुई, बोली- मैं कहां रहूं ? मेरा स्थान बताएं। सनकादि बोले- आप भक्तों के हृदय में रहें। फिर भगवान भी आ गए। वे निर्मल चित्त वालों में बैठ गए। इसी प्रकार भक्ति और भगवान का स्थान तय हो गया।

श्रीमद्भागवत के दर्शन से, श्रवण से, पूजन से पापों का नाश होता है। कथा श्रवण का लाभ आत्मदेव ब्राह्मण का चरित्र कहकर बताया गया है। एक आत्मदेव नाम का ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम था धुन्धुली, जो कर्कशा व क्रोधी स्वभाव की थी। आत्मदेव की संतान नहीं थी इसलिए वह बड़ा दु:खी था। एक बार जंगल में उसे एक महात्मा मिले। आत्मदेव ने उनसे संतान का वरदान मांगा। महात्मा ने आत्मदेव को एक फल दिया। कहा अपनी पत्नी को खिला देना।

आत्मदेव ने वह फल अपनी पत्नी को दिया। धुन्धुली उल्टा सीधा बहुत सोचती थी। उसने सोचा यदि ये फल मैंने खाया तो मैं गर्भवती हो जाऊंगी और मेरा पेट बढ़ जाएगा। घर में डाकू आ जाएंगे तो भाग नहीं पाऊंगी और मैं बीमार होने लगूंगी तो घर का काम कौन करेगा। यदि गर्भ टेढ़ा हुआ तो मेरी मृत्यु हो जाएगी। भागवत रिश्तों के ऊपर प्रकाश डालने वाला ग्रंथ है। यहां भागवतकार ने एक श्लोक लिखा है कि धुन्धुली सोच रही है मेरी ननद मेरा सामान ले जाएगी। अब बोलिए ये भी कोई बात हुई। श्लोक लिखा है कि भाभी को चिंता हो रही है कि ननद के कारण झंझट न खड़ी हो जाए। इस तरह एक-एक संबंध पर भागवत प्रकाश डालेगी।

मन की नहीं बुद्धि की बात मानें
अपनी उल्टी सोच के कारण आत्मदेव की पत्नी धुंधुली फल खाने को लेकर संशय में पड़ गई। धुंधुली की एक बहन थी। उसने वह फल बहन को खाने को दिया। बहन ने कहा मैं तो हूं गर्भवती और किसी को फल खिला देते हैं। मेरा जो बच्चा होगा वो तू रख लेना, पति को झूठ बोल देना। दोनों ने वह फल गाय को खिला दिया। बहन के यहां जो संतान हुई वह उसने धुन्धुली को दे दी।

जब गाय ने फल खाया तो गाय को एक ऐसे पुत्र का जन्म हुआ जिसके कान गाय की तरह थे। उसका नाम गोकर्ण रखा। जो बहन का बेटा था इसका नाम धुंधुकारी रखा। धुंधुकारी बहुत ही अत्याचारी, अपवित्र आचरण का व्यक्ति था। माता-पिता को मारता, घर की सारी दौलत ठिकाने लगा दी। दु:खी होकर एक दिन पिता तो जंगल में चले गए और मां मर गई। पांच वैश्याओं को अपने घर ले आया। पांच वैश्याओं ने कहा और धन लाओ तो धुंधुकारी ने राजा का धन चुरा लिया। वैश्याओं ने सोचा राजा का मामला है। हम पकड़े जाएंगे तो वैश्याओं ने धुंधुकारी को मार डाला और गाढ़ दिया। वैश्याएं चली गईं। धुंधुकारी प्रेत बन गया ।

कथा का सार है कि आत्मदेव हम हैं यानि मनुष्य और आत्मदेव की पत्नी का नाम धुन्धुली था जो कि बुद्धि है। उसकी बहन थी मन। मन का कहना बुद्धि ने माना और उल्टा काम हो गया। हमारी बुद्धि जब मन का कहना मानेगी तो जीवन बिगड़ जाएगा। सारा खेल मन का है। जब मन बुद्धि को नियंत्रित करने लगे तो गए काम से। होना ये चाहिए कि बुद्धि से मन नियंत्रित हो। मन तो गलत काम सिखाता ही है।

इस तरह आत्मदेव व धुंधली का सारा जीवन बिखर गया। जबकि गोकर्ण बड़ा संत प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपने भाई को प्रेत बना जब देखा तब उसने अपने भाई को भागवत सुनाई तो धुंधुकारी मुक्त हो गया।

भवसागर से मुक्त करती है भागवत
ऐसी कथा आती है कि जब गोकर्णजी भागवत सुना रहे थे तो एक बांस के खंभे में धुंधुकारी उतर गया और उसमें सात गठान थी। उस बांस के खंभे में एक-एक दिन कर सात गठान टूटती गई और धुंधुकारी मुक्त हो गया। भागवत सुनने की भावना जो धुंधुकारी के मन में थी वैसी भावना आप भी रखेंगे तो आप भी मुक्त हो जाएंगे। मुक्त होने का मतलब जीवन से मुक्त नहीं होना दुनियादारी से मुक्त होना है। जीवन में सात गठानें होती हैं काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर और अविद्या। एक-एक दिन एक-एक टूटती चली जाएंगी।

इस कथा के आगे एक प्रसंग बहुत सुंदर आ रहा है जैसे ही यह कथा पूरी हुई, सबको बड़ा आनंद हुआ। कथा पूरी होते-होते अचानक शुकदेवजी पधार गए। शुकदेवजी बहुत प्रसन्न हुए। शुकदेवजी को ऊंचे आसन पर बैठाया। जब सारे साधु-संत बैठ गए तो अचानक भगवान प्रकट हुए। भगवान श्रीहरि के साथ अर्जुन प्रकट हुए, प्रहलाद प्रकट हुए और सारे संत प्रकट हो गए। सबने मिलकर भागवत में कीर्तन किया। इसलिए भागवत में कीर्तन का महत्व है। भागवत में महात्म्य समाप्त होने जा रहा है और भागवत के महात्म्य को समाप्त करते-करते ग्रंथकार ने वक्ता और श्रोता के लक्षण बताए हैं। पहला लक्षण है विरक्त भाव। प्रत्येक नर-नारी को भागवत भाव से देखा जाए।

उपदेशकर्ता ब्राह्मण अर्थात ब्रह्मज्ञ होना चाहिए। वह धीर गंभीर और दृष्टांत कुशल होना चाहिए। वक्ता में धन-कीर्ति का मोह न हो। कथा सुनते समय कथा का ही चिंतन करें चिंताएं त्याग दें। भागवत की कथा का श्रवण जो प्रेम से करता है उसका संबंध भगवान से जुड़ जाता है। आगे सनकादि ने सप्ताह विधि बताई। सूतजी-शौनकजी को बता रहे हैं। नारद ने तब सनकादि का आभार व्यक्त किया। सनकादि ने एक सप्ताह तक कथा कहीं थी। कथा सुन भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, तरूण व स्वस्थ हो गए।

सभी वेदों का सार है भागवत
ऋग्वेदी शौनक ने पूछा- सूतजी बताएं शुकदेवजी ने परीक्षित को, गोकर्ण ने धुंधकारी को, सनकादि ने नारद को कथा किस-किस समय सुनाई ? समयकाल बताएं।

सूतजी बोले- भगवान के स्वधामगमन के बाद कलयुग के 30 वर्ष से कुछ अधिक बीतने पर भ्राद्रपद शुक्ल नवमी को शुकदेवजी ने कथा आरंभ की थी, परीक्षित के लिए। राजा परीक्षित के सुनने के बाद कलयुग के 200 वर्ष बीत जाने के बाद आषाढ़ शुक्ला नवमी से गोकर्ण ने धुंधुकारी को भागवत सुनाई थी। फिर कलयुग के 30 वर्ष और बीतने पर कार्तिक शुक्ल नवमी से सनकादि ने कथा आरंभ की थी।

सूतजी ने जो कथा शौनकादि को सुनाई वह हम सुन रहे हैं व पढ़ रहे हैं। जब शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे तब सूतजी वहां बैठे थे तथा कथा सुन रहे थे। भागवत के विषय में प्रसिद्ध है कि यह वेद उपनिषदों के मंथन से निकला सार रूप ऐसा नवनीत है जो कि वेद और उपनिषद से भी अधिक उपयोगी है। यह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का पोषक तत्व है। इसकी कथा से न केवल जीवन का उद्धार होता है अपितु इससे मोक्ष भी प्राप्त होता है। जो कोई भी विधिपूर्वक इस कथा को श्रद्धा से श्रवण करते हैं उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार फलों की प्राप्ति होती है। कलयुग में तो श्रीमद्भागवत महापुराण का बड़ा महत्व माना गया है। इसी के साथ ग्रंथकार ने भागवत का महात्म्य का समापन किया है।

सत्य ही परमात्मा है
आज से भागवतजी का प्रथम स्कंध आरंभ हो रहा है। इसमें 19 अध्याय हैं। प्रवेश के पूर्व एक बार पिछले दिनों पढ़े गए महात्म्य का संक्षेप में चिंतन कर लें ताकि स्मृति बनी रहे। नैमिशारण्य में शौनकादि ने सूतजी को सम्मान देकर कथा वाचन का आग्रह किया । सूतजी ने सर्वप्रथम शुकदेव, नारदजी, सरस्वती, व्यासजी को प्रणाम किया।

व्यासजी ने मंगलाचरण से प्रथम स्कंध आरंभ किया है। कथा में बैठने से पहले मंगलाचरण करना चाहिए। वंदन करने से, स्मरण करने से मंगलाचरण होता है। क्रिया में अमंगलता काम के कारण आती है। मनुष्य जब तक सकाम है तब तक उसका मंगल नहीं होता। भागवत में तीन मंगलाचरण हैं। प्रथम स्कंध में व्यासदेवजी का। द्वितीय स्कंध में शुकदेवजी का और समाप्ति पर सूतजी का। प्रभात के समय, मध्यान्ह के समय और रात को सोने से पहले भी मंगलाचरण करना चाहिए चूंकि इन तीनों समय देह को ऊर्जा चाहिए।

व्यासजी ने ध्यान की चर्चा करते हुए कहा कि एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करो। मन को प्रभू के स्वरूप में स्थिर किया जाए। एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करने से मन एकाग्र होता है। ध्यान का एक अर्थ है मानस दर्शन। ध्यान में पहले तो संसार के विषय उभरते हैं। वे मन में न आएं ऐसा करने के लिए ध्यान करते समय परमात्मा के नाम का बारंबार चिंतन करो। जिससे मन स्थिर हो सके इसके लिए सांस पर भी नियंत्रण किया जाए। उच्च स्वर से कीर्तन भी किया जा सकता है। कीर्तन से संसार का विस्मरण होता है।

केवल दान या स्नान से मन शुद्ध नहीं होता। ध्यान की परिपक्व दशा समाधि है। भगवान के प्रति ध्यान नहीं होगा तो संसार का ध्यान होता रहेगा। मंगलाचरण में व्यासजी लिखते हैं -सत्यंपरंधिमहि। अर्थात सत्य स्वरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं। सत्य ही परमात्मा है।

भक्ति से मिलते हैं भगवान
जिस धर्म में कोई कपट नहीं है ऐसी निष्कपट चर्चा ही भागवत का मुख्य विषय है। भागवत का मुख्य विषय है निष्काम भक्ति। जहां भोगेच्छा है वहां भक्ति नहीं होती। भगवान के लिए भक्ति करें। भक्ति का फल भगवान होना चाहिए, संसार सुख नहीं। मांगने से प्रेम की धारा टूट जाती है। इसीलिए कृष्ण कह गए हैं कि जो आनंद मुझे गोकुल में गोपियों से मिला है वह द्वारका में नहीं मिला क्योंकि गोपियों का प्रेम निष्काम है।

शौनकजी ने पूछा- व्यासजी ने भागवत की रचना क्यों की तथा इसका प्रचार कैसे किया, हमें सुनाएं। सूतजी ने कहा- व्यासजी ने यह कथा शुकदेवजी को सुनाई थी। शुकदेवजी सुपात्र हैं। शुकदेवजी केवल ब्रहमज्ञानी नहीं है, ब्रहमदृष्टि भी रखते हैं।
एक प्रसंग आता है। जनक राजा के दरबार में एक समय शुकदेवजी और नारदजी पधारे। दोनों महापुरूष हैं मगर दोनों में श्रेष्ठ कौन ? जनक राजा समाधान नहीं कर सके। परीक्षा किए बिना कैसे फैसला हो। तो जनकजी की रानी सुनयना ने निश्चय किया कि मैं इन दोनों की परीक्षा लूंगी। सुनयनाजी ने दोनों को अपने घर बुलाया और एक ही झूले पर बैठा दिया। फिर सुनयनाजी ने श्रृंगार किया, सजधजकर आईं और उन दोनों के मध्य में उस झूले पर बैठ गईं। नारदजी को कुछ संकोच हुआ, मैं बालब्रह्मचारी हूं । स्त्री का स्पर्श हो रहा है मेरे मन में विकार न आ जाए, यह सोचते हुए वे दूर हट गए।

लेकिन शुकदेवजी जैसे बैठै थे वैसे ही बैठे रहे। उनको भान तक नहीं हुआ कि कोई आकर बैठ गया है। उन्हें स्त्री और पुरूष का भान है ही नहीं। वे दूर भी नहीं हटते । बस सुनयना रानी ने निर्णय दे दिया कि इन दोनों में श्रेष्ठ शुकदेवजी ही हैं।

कलयुग में मुक्ति दिलाती है कृष्ण भक्ति
शुकदेवजी भिक्षावृत्ति के लिए बाहर निकलते हैं तो भी गो दोहनकाल से अर्थात छ: मिनट से अधिक कहीं नहीं रूकते । फिर भी सात दिन तक बैठकर यह कथा उन्होंने राजा परीक्षित को कैसे सुनाई ? शौनकादि सूतजी से पूछ रहे हैं।
सूतजी ने कहा- एक समय की बात है कि नैमिशारण्य तीर्थ में 88 हजार ऋषि-मुनि एकत्रित हुए। मुझे भी उस सभा में आमंत्रित किया गया था। उस सभा में विचार हो रहा था कि कलयुग में न केवल मनुष्य की आयु अल्प होगी अपितु वह रोग, शोक आदि व्याधि से ग्रस्त रहने के कारण आलसी और मंदबुद्धि भी हो जाएंगे। उनसे वेदशास्त्रों का अध्ययन और यज्ञ कर्मों की आशा भी नहीं की जा सकती। तो उसका उद्धार कैसे होगा ? सभी का मत था कि कलयुगी जीव के उद्धार के लिए श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान ही एक मात्र उपाय है।

सूतजी महाराज से आग्रह किया गया कि वे भगवान के अवतारों का वर्णन करें। आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और श्रीमद्भागवत पुराण की कथा कहना आरंभ की । ऋषियों ने सूतजी से छ: प्रश्न भी किए। 1- शास्त्रों का तत्व क्या है ? 2- नारायण होकर श्रीकृष्ण देवकी के पुत्र किस प्रकार हैं ? 3- भगवान के क्या-क्या गुण हैं ? 4- भगवान के अवतार और लीलाओं की कथा क्या है? 5- नर रूप धारण कर श्रीकृष्ण और बलराम का चरित्र कैसा था और 6- जब भगवान श्रीकृष्ण स्वर्ग सिधारे तो उस समय धर्म किसकी शरण में था ?

सूतजी ऋषियों के प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनको शास्त्रों के तत्वों से अवगत कराया। भगवान अपने भक्तों को सुख देने के लिए अनेक लीलाएं भी करते हैं और उनके अवतार में रूप धारण भी करते हैं। कल अवतारों की चर्चा होगी। अवतार जीवन में उतरे इसके पहले जरा मुस्कुराइए....

धर्म स्थापना के लिए अवतार लेते हैं भगवान
सूतजी ने भगवान विष्णु के विराट रूप से संसार की सृष्टि तथा उनके चौबीस अवतारों का विस्तृत विवरण किया है। लोक सृष्टि की इच्छा से भगवान विष्णु ने सर्वप्रथम महत् तत्व और अहंकार आदि से उत्पन्न सोलह कलाओं से परिपूर्ण पुरूष में अवतार धारण किया।

सृष्टि की रचना पर विचार करने के लिए वे क्षीरसागर में जाकर योगनिद्रा में सो गए। तब उनकी नाभि से प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और फिर उन्होंने वृहत विश्व की रचना कर डाली। आगे परमात्मा के चौबीस अवतारों की कथा है। धर्म की स्थापना करने और जीव का उद्धार करने हेतु परमात्मा अवतार धारण करते हैं। भागवत में मुख्यत: श्रीकृष्ण कथा करनी है परंतु यह कथा अंत के स्कंधों में आती है।

पहला अवतार सनदकुमारों का है सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार। ये चारों ब्रह्मचर्य का प्रतीक हैं। सब धर्मों में ब्रह्मचर्य पहले आता है। ब्रह्मचर्य से ही मन स्थिर रहेगा। दूसरा अवतार वराह का है। वराह अर्थात श्रेष्ठ दिवस। सत्कर्म में लोभ विघ्न करने आता है। लोभ को संतोष से मारें। वराह का अवतार संतोष का अवतार है। रसातल में गई पृथ्वी को लाने के लिए यह अवतार हुआ था। तीसरा अवतार है नारदजी का। यह भक्ति का अवतार है।

ब्रह्मचर्र्य का पालन करें और प्राप्त स्थिति में संतोष मानें उससे नारद अर्थात भक्ति मिलेगी। चौथा अवतार नर नारायण का है। ऋषि बनकर इस अवतार में तपस्या की। भक्ति मिले तो उसे भगवान का साक्षात्कार होता है। भक्ति द्वारा भगवान मिलते हैं। परंतु भक्ति ज्ञान और वैराग्य बिना न हो। पांचवां अवतार कपिल देव का है। ज्ञान, वैराग्य का अवतार है यह । इन्हें जीवन में उतारो तो ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति आएगी। छठा अवतार है दत्तात्रेयजी का। ऊपर बताए हुए पांच गुण ब्रह्मचर्य, संतोष, ज्ञान भक्ति और वैराग्य हमारे भीतर आएंगे तो हम गुणातीत होंगे। ऊपर के छ: अवतार ब्राह्मण के लिए हैं।

धर्माचरण करने से मिलेंगे श्रीकृष्ण
सातवां अवतार यज्ञ का है। प्रजापति रूचि तथ आकूति के पुत्र स्वायंभू मनवन्तर की रक्षा की। अमृत लेकर समुद्र से प्रकटे। आठवां अवतार ऋषभदेव का। नवां अवतार है पृथु राजा का। दसवां अवतार है मत्यनारायण का। जब पृथ्वी डूब रही थी, चाक्षुष मनवन्तर में तब पृथ्वी रूपी नौका पर बैठकर अगले मनवन्तर के अधिपती वैवस्त मनु की रक्षा की।

ये चार अवतार क्षत्रियों के लिए हैं।धर्म का आदर्श बताने के लिए ग्यारहवां अवतार कुर्म का है। बारहवां अवतार धन्वन्तरी का है। तेहरवां अवतार मोहिनी का। इस अवतार में भगवान ने दैत्यों को मोहित कर देवताओं को अमृत पान कराया। यह अवतार वैश्यों के लिए है। चौदहवां अवतार नृसिंह स्वामी का है। नृसिंह अवतार पुष्टि का अवतार है। पंद्रहवां अवतार वामन का है जो पूर्ण निष्काम है। जिसके ऊपर भक्ति का नीति का छत्र है जिसने धर्म का कवच पहना है जिसे भगवान भी नहीं मार सके हैं ऐसे बलि राजा के लिए यह वामन अवतार है । सोलहवां अवतार परशुराम का है। यह अवतार आवेश का अवतार है। इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया।
सत्रहवां व्यास नारायण का ज्ञान का अवतार है। अठाहरवां रामजी का अवतार है। यह मर्यादा पुरूषोत्तम का अवतार है। इससे हमारा काम मिटेगा अर्थात हमंे कन्हैया मिलेगा, क्योंकि उन्नीसवां अवतार श्रीकृष्ण का है। रामजी की मर्यादा का पालन करो तो श्रीकृष्ण कृपा करेंगे। ये दोनों साक्षात पूर्ण पुरूषोत्तम के अवतार हैं। बाकि सब अंशावतार हैं। भागवत में कथा तो करनी है कन्हैया की। परंतु क्रम-क्रम से दूसरे अवतारों की कथा भी सुनी जाएगी। बीसवां अवतार बलराम का था।

नारदजी से सीखें प्रसन्न रहना
भगवान विष्णु का इक्कीसवां अवतार बुद्ध का था। बाईसंवा हरि का अवतार था, जिन्होंने गजेंद्र को गृह से मुक्त कराया था। तेईसवां अवतार हयग्रीव का था। चौबीसवां अवतार कार्तिक अवतार हुआ। इस प्रकार के चौबीस अवतार हैं। अवतारों की संख्या और क्रम में विद्वानों के अपने-अपने मत हैं। अब व्यासजी के दु:खी होने का प्रसंग कथा में आता है जो हम महात्म्य में पढ़ चुके हैं।
नारदजी ने जब अनुभव किया कि अभी भी व्यासजी के मन में उनकी बात बैठ नहीं पाई है तो भक्ति महिमा और उपयोगिता के प्रमाण स्वरूप उन्होंने अपने पूर्व जन्म का वृतांत व्यासजी को सुनाया। नारदजी पूर्व जन्म में एक दासी के पुत्र थे। ऋषि-मुनियों से भगवान के चरित्र को सुनकर उनके मन में इतना अनुराग उत्पन्न हुआ कि उनको किसी प्रकार का देह बोध ही नहीं रहा। वे भक्त थे किंतु माता के प्रति मोह को वे त्याग नहीं पाए थे।

नारदजी बताते हैं कि भगवान की कुछ ऐसी कृपा हुई, क्योंकि माता को एक रात सर्प ने दंश मारा और वे चल बसीं। इस प्रकार वे सहज ही बंधन मुक्त हो गए। नारदजी घर से निकलकर गहन वन में समाधि में लीन हो गए। उसी अवस्था में भगवान विष्णु के उन्हें दर्शन हुए। आंख से आंसू बहने लगे। भगवान जब अन्तध्र्यान हुए तो नारदजी विचलित हो उठे।

तब भगवान ने उन्हें निरंतर साधु सेवा करने का उपदेश दिया और आशा दिलाई कि अगले जन्म में वे सिद्ध योगी होंगे। सहसा एक दिन बिजली गिरी और भौतिक शरीर नष्ट हो गया। अंतिम सांस के साथ ही नारदजी की आत्मा भगवान में प्रविष्ट हो गई। सहस्त्रों युगों के बाद वे मरीची आदि ऋषियों के साथ उत्पन्न हुए । भगवान विष्णु की कृपा से नारदजी अखंड ब्रह्मचर्य धारण करने वाले और तीनों लोक में स्वच्छंद विचरण करने के अधिकारी बन गए। निरंतन वीणा लेकर हरि गुणगान करते हैं नारदजी। वे सदैव प्रसन्न रहते हैं। उनके चरित्र से सीखा जाए-जरा मुस्कुराइए...

सत्संग का महत्व बताती है भागवत
भागवत में संत की महिमा का गुणगान किया गया है। पारसमणि लोहे को सोना बनाती है और किन्तु लोहे को अपने जैसा नहीं बनाती। परंतु संत अपने संसर्ग में आए हुए को अपने जैसा बना देते हैं। संत करे आपु समाना।

मनुष्य देव होने के लिए बनाया गया है। मनुष्य को देव होने के लिए चार गुणों की आवश्यकता है- संयम, सदाचार, स्नेह, और सेवा । ये चार गुण सत्संग बिना नहीं आते। प्रथम स्कंध अधिकार लीला का है। श्रीमद्भागवत का ज्ञान देने का अधिकारी कौन है यह प्रथम स्कंध में बताया गया है। पहले स्कंध में तीन प्रकरण हैं- उत्तमाधिकारी, मध्याधिकारी व कनिष्ठाधिकारी। शुकदेव और परीक्षितजी उत्तम वक्ता व श्रोता हैं। नारदजी और व्यासजी मध्यम श्रोता व वक्ता हैं और सूतजी, शौनकजी कनिष्ठ वक्ता तथा श्रोता हैं।

शुकदेवजी जन्म से ही निर्विकारी हैं। वे घर छोड़कर वन चले गए । तब व्यासजी ने विचार किया कि इन्हें भागवत कथा कैसे सुनाई जाए। जब इन्हें कथा सुनाऊंगा तभी तो ये प्रचार करेंगे। तब व्यासजी ने अपने शिष्यों से कहा कि शुकदेवजी जिस वन में समाधि में बैठे हों आप वहां जाइए। वे सुनें, इस प्रकार इन दो श्लोक का उच्चारण कीजिए। शिष्य वन में पहुंचे शुकदेवजी को वे दो श्लोक सुनाए। श्लोक सुन शुकदेवजी ने पूछा कि ये श्लोक कौन बोल रहा है ? व्यासजी के शिष्यों का दर्शन हुआ। शुकदेवजी ने पूछा आप कौन हैं? ये श्लोक कहां से आए ?

शिष्यों ने बताया ऐसे तो बहुत सारे श्लोक भागवत पुराण में हैं जो आपके पिताजी ने रची है। अठारह हजार श्लोक हैं। शुकदेवजी सोचने लगे व्यासजी मेरे पिता हैं । मैं उनका उत्तराधिकारी हूं। मैं पिता के पास जाकर यह पुराण सुनूंगा। अब शुकदेवजी को भागवत शास्त्र पढऩे की इच्छा हुई । सूतजी वर्णन करते हैं इसके बाद यह कथा शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को सुनाई। अब मैं आपको सुना रहा हूं। व्यासजी ने शुकदेवजी को सुनाई। शुकदेवजी ने राजा परीक्षितजी को सुनाई, और सूतजी ये कथा शौनकादि ऋषि को सुना रहे हैं।

महाभारत सीखाती है, रहना कैसे है
अब मैं आप लोगों को राजा परीक्षित के जन्म कर्म और मोक्ष की कथा तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा सुनाता हूं। पांच प्रकार की शुद्धि बताने के लिए पंचाध्यायी कथा शुरू करता हूं। पितृशुद्धि, मातृशुद्धि, वंशशुद्धि, अन्नशुद्धि, और आत्मशुद्धि । जिनके ये पांच शुद्ध होते हैं उन्हीं में प्रभु दर्शन की आतुरता जागती है। राजा परीक्षित में ये पांच शुद्धियां मौजूद थीं। और यही बात दिखाने के लिए आगे की कथा कही जा रही है।

अब भागवत के प्रथम स्कंध में महाभारत आरंभ हो रही है। महाभारत हमको बताएगी रहना कैसे है। महाभारत भागवत में प्रवेश कर रही है। अद्भुत ग्रंथ है महाभारत। महाभारत से शुरू होगी और कृष्ण के स्वधाम गमन पर भागवत समाप्त होगी। बहुत सावधानी से भागवत के आरंभ में महाभारत सुनाई गई। इसलिए सुनाई गई कि हम जान लें महाभारत से, कि जीवन में क्या भूल होने पर क्या परिणाम मिलते हैं। अश्वत्थामा का प्रसंग सुनें सबसे पहले। महाभारत समाप्त हो चुकी है। कौरव पराजित हो गए पांडव जीत गए।
महाभारत समाप्त हुई तो आठ लोग बचे थे पांच पांडव और तीन कौरव पक्ष के, कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा। दुर्योधन युद्ध छोड़कर एक सरोवर में छिप गया। पांडव उसे मारने के लिए ढूंढ़ रहे थे। भीम ने प्रतिज्ञा ली थी कि मैं इसकी जंघाएं तोड़ दूंगा। दुर्योधन की जंघाएं तोड़ दीं, दुर्योधन मरने जैसा हो गया। जो दुर्योधन कभी हस्तिनापुर का राजा था। वह दुर्योधन अपने अंतिम समय में कीचड़ से भरे एक सरोवर में पड़ा हुआ था। गिद्ध और श्वान उसकी मज्जा को नोंच रहे थे। ये जीवन का अंत है। महाभारत कहती है याद रखिए ये इंद्रियां जब समाप्त होंगी तो ये शरीर कुरूक्षेत्र की तरह समाप्त हो जाएगा।

अश्वत्थामा की मणि निकाली श्रीकृष्ण ने
अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र था। दुर्योधन का परम मित्र था। दुर्योधन के अंत समय में उसने दुर्योधन से पूछा- मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं, मित्र। तो दुर्योधन ने कहा -मैं तुम्हें आज अंतिम दिन का सेनापति बनाता हूं। पांडवों को मार डालो। ऐसा कहकर दुर्योधन ने प्राण त्याग दिए। अश्वत्थामा ने पांडवों के सर्वनाश की शपथ ली और रात के अंधेरे में वह पांडवों के शिविर में गया। शिविर में पांडवों के द्रोपदी से उत्पन्न पांचों पुत्र सो रहे थे। अश्वत्थामा ने पांडव समझकर द्रोपदी के पांचों पुत्रों को छल से मार दिया।
सुबह जब सबको यह ज्ञात हुआ तो हाहाकार मच गया, पांडव रोने लगे। हमारे पुत्र मारे गए। द्रौपदी बहुत दु:खी हुई। पांडव अश्वत्थामा को पकडऩे के लिए दौड़े। श्रीकृष्ण की कृपा से उन्होंने अश्वत्थामा को बंदी बना लिया तथा द्रोपदी के सामने लेकर आए।

अर्जुन और भीम ने कहा द्रौपदी आज्ञा दो इसका क्या करें। अभी तुम्हारे सामने इस पापी का हम वध करते हैं। इसने हमारे पांच पुत्र मार डाले छल से। तब द्रौपदी ने कहा-ये मेरी गुरु माता का बेटा है। मैं जानती हूं जिसका बेटा चला जाए, उसकी मां को कितना दर्द होता है। इसको मार डालेंगे तो जो दु:ख मुझे हो रहा है वही दु:ख मेरी गुरु माता को होगा। इसलिए इसको छोड़ दो। द्रोपदी की यह बात सुनकर सभी सोच में पड़ गए।
श्रीकृष्ण द्रौपदी को बहुत अच्छे से जानते थे, उनकी सखा थी, बहिन थी। श्रीकृष्ण ने कहा यह स्त्री बहुत महान है। ये आज में नहीं देखती ये कल में देखती है। पर अश्वत्थामा को दंड तो दिया जाएगा। उसकी मणि निकाल ली। किंतु जाते-जाते अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र छोड़ गया और ब्रह्मास्त्र उसने उत्तरा के गर्भ पर छोड़ा।

परीक्षित की रक्षा की श्रीकृष्ण ने
अब हम भागवत में महाभारत के प्रसंगों की चर्चा कर रहे हैं। उत्तरा अभिमन्यु की पत्नी थी। श्रीकृष्ण उत्तरा के मामा ससुर थे। उत्तरा गर्भवती थी और उसके गर्भ पर अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा। इधर श्रीकृष्ण द्वारका जा रहे थे। श्रीकृष्ण जैसे ही जाने लगे, उन्होंने देखा उत्तरा दौड़ती हुई आई, उसने कहा-आप कहां जा रहे हैं? अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया है मेरे गर्भ पर। मेरी संतान समाप्त हो जाएगी, मेरी रक्षा करिए।महाभारत में प्रसंग आता है कि उत्तरा को मृत पुत्र हुआ था तो श्रीकृष्ण को बुलाया गया और श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि जीवन में मैंने कोई शुभ कार्य किए हों, कोई पुण्य किए हों तो यह संतान जीवित हो जाए और वह बच्चा जीवित हो गया।

लेकिन भागवत थोड़ा हटकर बात करती है। भागवत कहती है श्रीकृष्ण ने उत्तरा से कहा- तू चिंता मत कर और श्रीकृष्ण उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गए। वहां जाकर ब्रह्मास्त्र को शांत किया तथा बच्चे की रक्षा की। इसलिए जब ये बच्चा पैदा हुआ तो इस बच्चे ने कहा गर्भ में मैंने किसी चतुर्भुज रूप को देखा था। वह प्रत्येक व्यक्ति का परीक्षण करने लगा इसलिए उसका नाम परीक्षित पड़ा। भगवान उर में यानी हृदय में भी आते हैं और भगवान भक्त की रक्षा के लिए उदर में भी आते हैं। देवकी के पेट में प्रभु नहीं थे। देवकी को भ्रांति कराई थी कि पेट में आ गए हैं। किंतु जब भक्त पर संकट आया तो परमात्मा उत्तरा के गर्भ में चले गए।

इसके बाद जब भगवान द्वारका जा रहे थे। तब उनकी बुआ कुंती ने उनका रथ पकड़ लिया। श्रीकृष्ण उतरे, नियम था रोज वे कुंती बुआ को प्रणाम करते थे। लेकिन जैसे ही आज श्रीकृष्ण उतरे, कुंती ने उन्हें प्रणाम किया। कृष्ण बोले- बुआ, ये आप क्या कर रही हैं। मैं आपका भतीजा हूं। कुंती ने कहा- मैं तो तुझे तब से जानती हूं जब तू माखन चुराया करता था, बंसी बजाया करता था, गाय चराता था। फिर तुने कंस को मारा। अब सुन, बहुत हो गया ये रिश्ता। तू भगवान है और हम भक्त।

रिश्तों का महत्व बताती है भागवत
कुंती ने श्रीकृष्ण से जो बातचीत की बड़ी प्यारी बातचीत है। बुआ और भतीजे का रिश्ता बड़ा अद्भुत बताया है भागवत में। भागवत परिवार का ग्रंथ है एक-एक रिश्ते पर भागवत प्रकाश डालता चलता है। बुआ को जब भतीजा या भतीजी देखते हैं तो बुआ में पिताजी का आधा रूप दिखता है। बुआ लाड़ भी है और वात्सल्य भी है, ममता भी और पिता का भय भी है।

कुंती श्रीकृष्ण से बोलती हैं- तू आज भगवान है, तू आज मुझे वरदान देकर जा। कुंती ने श्रीकृष्ण से जो वरदान मांगा दुनिया में कभी किसी ने ऐसा वरदान नहीं मांगा। कुंती कहती है-मैंने सुना है आदमी सुख में भगवान को भूल जाता है तो कृष्ण, एक काम कर जीवनभर के लिए दु:ख दे जा। दु:ख में तू बहुत याद आता है। जब हम बहुत सुखी रहेंगे, हमको सबकुछ मिलता रहेगा तो हम तुझे भूल जाएंगे। तो तू ऐसा कर कि जीवन में ऐसा लगे कुछ काम अनुकूल नहीं है यदि अनुकूल हो जाए तो आलस्य आ जाएगा। थोड़ा दु:ख देकर जा मुझको। श्रीकृष्ण ने कहा क्या बात करती हैं बुआ। कुंती बोली हां मुझे दु:ख देकर जा। इतना दु:ख देना कि हमेशा तेरी याद आती रहे। महत्वपूर्ण तू याद आना है बाकी सुख दु:ख तो भूल जाएंगे। पर तुझे याद करते रहेंगे। ऐसे सुख पर सिला पड़े, जो हरि नाम भूलाए। बलिहारी रहूं दु:ख की जो हरि का नाम रटाए।कुंती बार-बार श्रीकृष्ण से दु:ख मांग रही हैं।

श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा -आज आपकी ईच्छा पूरी करता हूं। कुंती बोली एक दिन और रूक जा। कृष्ण ने सोचा चलो रूक जाते हैं एक दिन और। जैसे ही श्रीकृष्ण हस्तिनापुर के राजभवन में लौटे सबको लगा हमारे कारण रूके हैं। उत्तरा कह रही है मेरे कारण रूके, अर्जुन कह रहा है मेरी वजह से रूके हुए हैं, कुंती कह रही है मैंने रोक लिया।

भगवान भी रखते हैं भक्तों का ध्यान
कुंती बुआ के कहने पर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर रुक गए। सबको लग रहा था हमने रोक लिया श्रीकृष्ण को पर भगवान सोच रहे हैं मैं जिसकी वजह से रूका हूं ये कोई नहीं जानता। भगवान आंख बंद करके अपने कक्ष में बैठे हैं। उसी समय युधिष्ठिर आए। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। पूछा-भगवान सारी दुनिया आपका ध्यान करती है। आप किसका ध्यान कर रहे हैं?
भगवान ने कहा- सारी दुनिया मेरा ध्यान करती है परन्तु मैं हमेशा भक्त का ध्यान करता हूं। मुझे भीष्म याद आ रहे हैं। तुम राजगादी पर बैठने वाले हो युधिष्ठिर, तो आओ चलो भीष्म के पास चलते हैं, भीष्म देह त्यागने वाले हैं। शरशैया पर पड़े हुए हैं। भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था इसलिए महाभारत के समाप्त होने पर भीष्म ने निर्णय लिया कि मैं देह बाद में त्यागूंगा। श्रीकृष्ण बोले- चलो उनके पास चलते हैं। मुझे वहां जाना है तुम भी साथ चलो। उनसे राजधर्म की शिक्षा ग्रहण करो। भीष्म के पास उनको लेकर आए हैं।

भीष्म शरशैया पर पड़े हुए हैं। जो कभी हस्तिनापुर का रक्षक था, परम ब्रह्मचारी, ब्रह्मांड कांपता था जिससे, एक-एक राजा जिनके इशारे पर चलता था वो महान पराक्रमी शरशैया पर पड़ा हुआ है। भगवान को देख भीष्म हाथ भी नहीं उठा सके क्योंकि हाथों में भी तीर लगे हुए थे। गर्दन भी नहीं झुका सके। भीष्म बोले -वासुदेव आप आ गए मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उन्होंने कहा-वासुदेव, मैं आज आपको नमन भी नहीं कर सकता। कितना लाचार हो जाता है व्यक्ति अपने अंतिम समय में। जो कभी बड़े-बड़े शस्त्र उठाता था वो हाथ भी हिला नहीं सकता। यह बूढ़ापा है, यह जीवन का अंतिम काल है, सभी को इससे गुजरना है एक दिन।

क्रमश:..

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

2 comments:

  1. जय सच्चिदानंद

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  2. आपका हार्दिक धन्यवाद आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं...

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