Tuesday, January 17, 2012

Rishte(रिश्ते)

रिश्ता ऐसा हो कि शब्दों की जरूरत न पड़े...
निजी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता पति-पत्नी का होता है। इस रिश्ते की डोर में ही परिवार के सारे रिश्ते पिरोए होते हैं। अगर ये धागा टूट जाए तो समझिए परिवार बिखरने में देर नहीं लगेगी। अगर परिवार को सहेजकर रखना चाहते हैं तो अपने दाम्पत्य को दिव्य बनाइए।

आज के दौर में दो तरह के दाम्पत्य चल रहे हैं, एक असंतुष्ट और दूसरा अशांत। कहीं संसाधनों को जुटाने में दाम्पत्य दांव पर लगाया जा रहा है तो कहीं विश्वास के अभाव में गृहस्थी की बलि चढ़ाई जा रही है।

पति-पत्नी का रिश्ता सिर्फ प्रेम और विश्वास इन दो पहियों पर चलता है। एक भी पहिया डगमगाया तो रिश्ते का पतन तय है। आजकल युवा दम्पत्तियों में एक शिकायत आम है कि आपस में बात नहीं हो पाती। दोनों के बीच कोई अनदेखी सी दीवार खड़ी है। यहीं से प्रेम के कम होने और भरोसे के डिगने का क्रम शुरू होता है। अपने रिश्ते को प्रेम से सिंचिए।

कई रिश्ते केवल शब्दों पर टिके होते हैं, शब्दों का आधार हटते ही गिर जाते हैं। बातचीत कम हुई कि रिश्ते में दुराव शुरू हो जाता है। जबकि अगर रिश्ते में प्रेम हो तो शब्दों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। बिन कहे, बिन सुने बात हो जाती है।

रामचरितमानस में राम सीता का दाम्पत्य ऐसा ही था। ना शब्द थे, न कोई बात, बस भावों से ही एक-दूसरे को समझ जाते। वनवास में जब राम, सीता और लक्ष्मण को केवट ने गंगा के पार उतारा तो राम के पास उसे देने के लिए कुछ नहीं था। वे इधर -उधर कुछ देख रहे थे। तभी तुलसीदास ने लिखा है

पिय हिय की सिय जान निहारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी।।

अर्थात सीता ने बिना राम के कहे, सिर्फ उनके हाव-भाव देखकर ही समझ लिया कि वे केवट को कुछ भेंट देने के लिए कोई वस्तु ढूंढ़ रहे हैं और उन्होंने अंगुली से अंगुठी उतार कर दे दी। निजी संबंधों में प्रेम ऐसा हो कि शब्दों के बगैर भी बात हो जाए। वो ही रिश्ता सफल भी है और सुखी भी।

निजी संबंधों को निजी ही रहने दें, उनमें व्यवसायिकता का मिलना ठीक नहीं
लाइफ हम जहां काम करते हैं, वहां माहौल मिलाजुला होता है। किसी से बहुत घनिष्ठता होती है तो किसी से हमेशा काम को लेकर विवाद जैसी स्थिति बनी रहती है। सबसे समान रिश्ते नहीं रहते। कार्य स्थल पर अगर किसी से भी विवाद हो तो उसका सीधा असर हमारी क्षमता और काम पर पड़ता है।

तनाव हमारे काम में झलकता है, काम से हमारे व्यवहार में कब उतर जाता है, पता नहीं चलता। अगर ऑफिस में तनाव है, तो वहां के खटास भरे रिश्ते हमारे साथ घर तक पीछे आते हैं। सबसे हर समय एक सा व्यवहार और एक से रिश्ते की उम्मीद नहीं की जा सकती।

लोग व्यवसायिक संबंधों में भी निजत्व खोजते हैं। निजी जिंदगी को निजी ही रहने दें। उसमें व्यवसायिक रिश्तों का मिलना ठीक नहीं है। व्यवसायिक रिश्तों में एक ही चीज हमेशा खटास लाती है। वो है अपेक्षा यानी एक्सपेक्टेशन। जब हम किसी के साथ कोई काम कर रहे होते हैं तो उसमें बहुत सी उम्मीदें रखना शुरू कर देते हैं।

इससे दोनों के ही व्यक्तिगत जीवन में दखल पड़ता है और उसका बोझ काम पर स्पष्ट दिखाई देता है। एक दूसरे के निजी जीवन और निजत्व का सम्मान करें। भागवत में भगवान कृष्ण ने इसका तरीका बताया है। आपके व्यवसायिक और निजी रिश्ते कैसे भिन्न हों, ये भागवत से सीखिए। ये रिश्तों और उनके भीतर के द्वंद्व का ग्रंथ है।

कृष्ण और दुर्योधन समधी थे। कृष्ण के पुत्र सांब और दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा ने विवाह किया था। फिर भी इस रिश्ते को कृष्ण ने कभी अपने कर्मक्षेत्र में नहीं आने दिया। उन्होंने महाभारत युद्ध में दुर्योधन का साथ न देते हुए पांडवों का साथ दिया। क्योंकि पांडव धर्म की राह पर थे। दुर्योधन अधर्म के मार्ग पर चल रहा था। कृष्ण ने कभी भी अपने कर्तव्य के मार्ग में रिश्तों को बाधा नहीं बनने दिया।

अपने प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी उनके मन में पूरा सम्मान रहा। किसी भी रिश्ते की मर्यादा को नहीं तोड़ा गया। कर्म क्षेत्र में रिश्तों की मर्यादा ना टूटे यही बड़ी बात है और सफलता का सूत्र भी है।

रिश्ते हमारी सम्पत्ति भी है, जिम्मेदारी भी
हर इंसान के पास एक संपत्ति बहुत बड़ी है जिसका नाम है परिवार। परिवार और रिश्ते हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। इस के लिए कोई भी कीमत चुकाई जा सकती है। जो इसका मूल्य समझ जाए वो संसार को भी समझ जाएगा। कर्तव्य और हमारे बीच या यूं कहें धर्म और हमारे बीच की ही एक डोर परिवार और रिश्ते भी होते हैं।

परमात्मा ने हमें इसी को सहेजने की जिम्मेदारी भी दी है, हर आदमी इसी के बोझ से झुका हुआ भी है। घर-परिवार में माता-पिता या बड़ों के प्रति क्या कर्तव्य होता है इसका उदाहरण हमे रामचरितमानस में देखने को मिलता है। राम ने रिश्तों की मर्यादाओं को कैसे सहेजा, रिश्तों के लिए कितना त्याग किया, यह सबसे बड़ा उदाहरण है।

रामायण के उस दृश्य में चलें जहां, एक दिन पहले राजतिलक की घोषणा हुई, खुशियां मनाई गईं, बधाइयों का तातां लग गया लेकिन अगले ही दिन राजतिलक होने की बजाय एकाएक 14 वर्षों के लिए वनवास दे दिया गया। वनवास की आज्ञा पाकर भी राम के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। पिता के वचन को सबसे ऊपर माना। राज-पाठ के लिए रिश्तों की बलि नहीं चढ़ाई। वन जाने की आज्ञा पाकर राम ने उसे अपना प्रमुख कर्तव्य माना। पिता की आज्ञा को ही अपना पहला कर्तव्य मानकर राम ने कुछ इस तरह का जवाब दिया।

राम अपने पिता दशरथ से कहते हैं कि आपकी आज्ञा पालन करके मैं अपने इस मनुष्य जन्म का फल पाकर जल्दी ही लौट आउंगा। इसलिये आप बड़ी कृपा करके मुझे वन जाने की आज्ञा दीजिये।

ये वो लम्हा था जिसमें कोई भी कमजोर आदमी टूटकर रिश्तों की मर्यादा भूल सकता है। हमारे इतिहास में ऐसे भी उदाहरण है जब राजगद्दी के लिए पुत्रों ने पिताओं को जेल में डाल दिया। वहीं राम रिश्तों की एक नई परिभाषा देते हैं। रिश्तों के प्रति अपने कर्तव्य को ऊंचा मानते हैं।

नई पीढ़ी को दबाए नहीं, निर्णय की आजादी भी दें
हर आदमी के जीवन में उस जगह का विशेष महत्व होता है जहां वो काम करता है। लेकिन अगर वहां भी हम रिश्तों में बंधे हों तो फिर काम करना मुश्किल होता है। यह समस्या खासतौर पर उन युवाओं के साथ आती है जो अपने पुश्तैनी व्यापार को संभालते हैं। वहां सारे ही पारिवारिक रिश्ते होते हैं।

पिता, चाचा, दादा या बड़े भाई किसी ना किसी के मार्गदर्शन में ही काम करना पड़ता है।

युवा मन खुद के फैसले लेने के लिए छटपटाता है, क्योंकि बड़ों की नजर में उसके हर निर्णय पर अनुभव की मुहर लगना आवश्यक होती है। ऐसे में कई युवा भीतर ही भीतर घुटन महसूस करते हैं। वे अपने परिवार में तो खुश होते हैं लेकिन जैसे ही पारिवारिक व्यवसाय में प्रवेश करते हैं, अपने आप को बंधा हुआ पाते हैं। घर के बड़े उसके हर निर्णय पर कमियां, नुक्स निकालकर उसके लिए फैसलों को बदल देते हैं। लेकिन वे अक्सर भूल जाते हैं कि इस दौरान अपने परिवार को बिखराव के रास्ते पर ले जा रहे हैं।

घर के बड़ों को चाहिए कि जब वे अपने व्यवसाय में घर के बच्चों को उतारें तो उन्हें सिर्फ अपने अनुभव का सहारा दें लेकिन हर बात पर उन्हें अपने फैसलों से बांधना ठीक नहीं। युवा विचारों का भी सम्मान हो, उसे भी कुछ निर्णय लेने की स्वतंत्रता दें। बड़े अपने निर्णय छोटों पर थोप देते हैं। कई बड़े परिवारों में दुराव सिर्फ इसी कारण हो रहा है।

राम को देखिए, मेघनाद जैसे योद्धा से लडऩे के लिए लक्ष्मण को भेजा। मेघनाद अद्वितीय योद्धा था। इंद्र को परास्त कर चुका था। इधर लक्ष्मण ने स्वतंत्र रूप से कोई युद्ध नहीं किया। जितने युद्ध किए राम के साथ उनके छत्र के नीचे किए। लेकिन राम ने लक्ष्मण को अनुभवहीन नहीं माना। कमजोर नहीं आंका। उसे पूरा मौका दिया। और लक्ष्मण ने भी मेघनाद को मार कर अपनी योग्यता साबित की।

अगर अपने पारिवारिक व्यवसाय में आप अपने छोटों को प्रवेश देते हैं तो उन्हें केवल दैहिक रूप में ही प्रवेश ना दें। उनके साथ आने वाले नवाचार, नए विचार और योजनाओं का भी स्वागत करें। सिर्फ अनुभव ही सबकुछ नहीं होता, कई बार अतार्किक लगने वाली बात भी बहुत अच्छा परिणाम दे सकती है।

सुख और शांति चाहिए तो परिवार की डोर सौंप दें परमात्मा को
परिवार रिश्तों की एक सुंदर माला है। इसका हर मोती मूल्यवान है। एक भी मोती टूटा तो माला की सुंदरता नष्ट हुई, समझो। कई लोग अक्सर सवाल करते हैं कि परिवार में हमेशा प्रेम और स्नेह कैसे बना रहे। कहीं-ना-कहीं निजी स्वार्थ बीच में आ ही जाते हैं। आखिर ऐसा क्या करें कि घर हमेशा घर ही रहे।

यहां हम परिवार के केंद्र में चलते हैं। हमारा परिवार टिका किस पर है। संसाधनों पर, संसार पर, प्रेम पर या परमात्मा पर। संसाधनों और संसार अगर परिवार के केंद्र में हो तो परिवार साथ रहकर भी एक नहीं रहता। प्रेम हो तो जब तक साथ रहता है अपनापन रहता है लेकिन अगर परिवार के केंद्र में परमात्मा हो तो फिर वो परिवार परिस्थितिवश बिखर कर भी एक ही होता है।

अपने परिवार के केंद्र में परमात्मा को रखें। रिश्तों की जो डोर हो, वो परमात्मा के हाथों में हो, तो रिश्ते सुंदर भी होते है और गरिमामय भी। कई बार समझ नहीं आता कि परिवार को एक साथ बांध कर कैसे रखा जाए। वो अदृश्य डोर कौन सी हो सकती है कि कोई सदस्य उससे अलग ना रह सके। वो डोर प्रेम की ही हो सकती है।

आइए, रामायण के एक प्रसंग को देखें, भगवान समझा रहे हैं कि कैसे परिवार को एक रखा जा सकता है। विभीषण लंका छोड़कर राम की शरण में आ गए हैं। विभीषण ने भगवान से कहा कि मैं अपनी पत्नी और पुत्रों को आपके भरोसे लंका में छोड़कर आपकी शरण में आ गया हूं। भगवान ने यहां एक बड़ी सुंदर बात कही है। उन्होंने विभीषण को समझाया कि मुझे पाने के लिए परिवार छोडऩे की आवश्यकता नहीं है। मुझे परिवार के केंद्र में रखो। तुलसीदासजी ने इस प्रसंग में लिखा है

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।

सबकें ममता ताग बटोरी। मम पद मनहिं बांधि बरि डोरी।

भगवान कह रहे हैं कि परिवार के सारे रिश्ते माता, पिता, पुत्र, भाई, पत्नी, तन, धन, मित्र और कुटुंब को प्रेम के धागे में बांधकर उस धागे का एक सिरा मेरे चरणों से बांध दो। फिर परिवार चलाने में कोई परेशानी नहीं होगी। हमेशा प्रेम बना रहेगा। कभी बिखराव नहीं होगा। परमात्मा को पाने के लिए भी कभी परिवार का त्याग नहीं करना पड़ेगा।

एक तरफा रिश्ता सिर्फ तनाव और अशांति ही देगा
हर रिश्ता दो तरफा होता है। एक तरफा रिश्ते कभी लंबे समय नहीं चलते। हम जब किसी से कोई रिश्ता गांठते हैं तो उसमें सिर्फ अधिकारों का भाव नहीं होना चाहिए, कर्तव्यों की समझ भी हो। अगर रिश्ता किसी व्यवसायिक या व्यवहारिक समझौते पर बना हो तो इसमें और अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है।

अक्सर लोग अपना काम निकलने के बाद रिश्तों को ढीला छोड़ देते हैं। अपने अधिकारों का उपयोग किया, कर्तव्यों को छुआ भी नहीं। रिश्ते व्यवसायिक हों तो टूटने में देर नहीं लगती। कोई दिली रिश्ता हो तो पहले खटास आती है, फिर दुराव और आखिरी में रिश्ता समाप्त हो जाता है। ये हमेशा याद रखें कि जब भी आप किसी की तरफ हाथ बढ़ाते हैं या किसी का हाथ थामते हैं तो सिर्फ आप सहारा दे रहे नहीं होते हैं, आपको भी एक सहारा मिलता है।

रिश्ते के प्रति अपनी जिम्मेदारी के भाव को हमेशा समझें। मामला व्यवसायिक हो तो और भी ज्यादा गंभीरता बरती जाना चाहिए। इसमें लापरवाही न केवल दूरगामी बुरे परिणाम देती है बलिक् हमारी छवि भी खराब कर देती है। जब तक आप किसी समझौते के तहत बने रिश्तों के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से ना निभा दें तब तक चैन से ना बैठें।

राम और सुग्रीव की मित्रता भी एक ऐसा ही समझौता थी। राम ने सुग्रीव को उसका राज्य और पत्नी दिलाने का वचन दिया और सुग्रीव ने राम को सीता की खोज करने का। दोनों तरफ से कसमें खाई गईं। राम ने अपना वादा पूरा किया। सुग्रीव राज और स्त्री मिलते ही अपना वचन भूलकर राग-रंग में लग गया। उसकी छवि तो खराब हुई ही, लक्ष्मण का क्रोध भी सहना पड़ा। आत्मग्लानि भी हुई।

रिश्तों का सुख और आनंद तभी है जब दोनों ही पक्ष अपनी निष्ठा और लगन से एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारियों को निभाएं।

मित्र बनाए नहीं अर्जित किए जाते हैं, संभालकर रखें इस रिश्ते को
हमारे जीवन में कुछ रिश्ते बहुत अनमोल होते हैं। मित्रता ऐसा ही रिश्ता है। कहते हैं मित्र बनाए नहीं जाते, अर्जित किए जाते हैं। ये रिश्ता हमारी पूंजी भी है, सहारा भी। आजकल दोस्ती के मायने बदल गए हैं तो इस रिश्ते की गहराई भी कम हो गई है। इस संसार में हम अपनी मर्जी से जो सबसे पहला रिश्ता बनाते हैं, वो मित्रता का रिश्ता होता है। शेष सारे रिश्ते हमें जन्म के साथ ही मिलते हैं। मित्र हम खुद अपनी इच्छा से चुनते हैं। जो रिश्ता हम अपनी पसंद से बनाते हैं, उसे निभाने में भी उतनी ही निष्ठा और समर्पण रखना होता है।

आधुनिक युग में दोस्ती भी टाइम पीरियड का मामला हो गया है। स्कूली जीवन के दोस्त अलग, कॉलेज के अलग और व्यवसायिक जीवन के अलग। आजकल कोई भी दोस्ती लंबी नहीं चलती। जीवन के हर मुकाम पर कुछ पुराने दोस्त छूट जाते हैं, कुछ नए बन जाते हैं। दोस्ती जीवनभर की होनी चाहिए। हमारे पुराणों में कई किस्से मित्रता के हैं। कृष्ण-सुदामा, राम-सुग्रीव, कर्ण-दुर्योधन ऐसे कई पात्र हैं जिनकी दोस्ती की कहानियां आज भी प्रेरणादायी हैं। मित्रता भरोसे और निष्ठा इन दो स्तंभों पर टिकी होती है।

कोई भी स्तंभ अपनी जगह से हिलता है तो मित्रता सबसे पहले धराशायी होती है। हमेशा याद रखें मित्रता में एक बात को कभी बीच में ना आने दें। ये चीज है मैं। इस रिश्ते में जैसे ही मैं की भावना घर करती है, रिश्ते में दुराव शुरू हो जाता है। निज की भावना से मित्रता में जितना बचा जाए, रिश्ता उतना ही दूर तक चलता है। जो भी हो उसमें हमारे की भावना हो। मित्रता में जैसे स्वार्थ आता है, हमें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं।

कृष्ण-सुदामा की मित्रता में चलते हैं। दोनों एक-दूसरे के प्राण हैं। गुरु सांदीपनि के आश्रम में शिक्षा पा रहे हैं। एक दिन गुरु मां ने लकड़ी लाने दोनों को जंगल भेजा। सुदामा को थोड़े चने दिए, रास्ते में खाने के लिए। कहा दोनों मिल बांटकर खा लेना। जंगल पहुंचे तो बारिश शुरू हो गई। एक पेड़ पर दोनों चढ़ गए। सुदामा ने भूख के कारण चुपके से कृष्ण के हिस्से के भी चने खा लिए। नतीजा भुगता, मित्र से बिछोह और भयंकर गरीबी।

मित्रता में कभी स्वार्थ नहीं आना चाहिए। हर हाल में अपने रिश्ते की मर्यादा का पालन करें। ये रिश्ता ईश्वर का वरदान होता है, इसमें धोखा, ईश्वर से धोखा होता है।

रिश्तों में इस तरह बनाया जा सकता है संतुलन
परिवार में रहने पर थोड़ी सी असावधानी भी घातक हो सकती है। रिश्तों के मर्म को समझना बहुत जरूरी होता है। कई बार ऐसा होता है कि परिवार में हम किसी सदस्य के बहुत निकट हो जाते हैं। अन्य सदस्य अनदेखे होने लगते हैं। तीन भाई हों तो दो में ज्यादा प्रेम हो जाता है तीसरा खुद को उपेक्षित समझने लगता है।

घर के बड़ों की जिम्मेदारी है कि वे रिश्तों में संतुलन और सामंजस्य बनाए। हर सदस्य को बराबर प्रेम और सम्मान मिले। परिवार के हर सदस्य का एक दूसरे के प्रति विश्वास और निष्ठा भी जरूरी है।

हमेशा शिकायत करना या हमेशा तारीफों से बंधे रहना दोनों ही घातक है। परिवार में रिश्ते इस तरह से पिरोए जाएं कि किसी को भी कोई कमी लगे ही नहीं। जो पास है उसे अपनी निकटता से और जो दूर है उसे अपने शब्दों से अपने पास बनाए रखें।

राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न चार भाई, दो-दो के दल में। लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों सगे भाई हैं लेकिन दोनों ही अलग-अलग बड़े भाइयों के साथ रहते हैं। इस रिश्ते की सबसे बड़ी बात जो सीखने लायक है वो ये कि राम के साथ हमेशा रहते तो लक्ष्मण हैं लेकिन राम हमेशा अपना सबसे प्रिय भाई भरत को कहते हैं। लक्ष्मण दिन रात सेवा करते हैं। पूरे वनवास में साथ रहे। पत्नी को छोड़ा। फिर भी सबसे प्यारा भाई है भरत। लेकिन लक्ष्मण ने कभी राम से ये नहीं कहा कि भैया मैं आपको सबसे प्रिय क्यों नहीं हूं। चुपचाप सेवा की।

लक्ष्मण इस बात की गहराई को जानते थे कि राम उन्हें भी उतना ही प्रेम करते हैं, तभी तो साथ में रखते हैं हमेशा। अगर प्रेम नहीं होता तो साथ रखते ही क्यों, ये सुख भरत के पास नहीं है। राम को सभी भाई प्रिय थे। लक्ष्मण को अपनी निकटता दी। भरत को अपने वचनों में रखा। दोनों के लिए समान प्रेम दिखाया।

हम भी इस बात की गहराई को समझें। रिश्ते आपसी समझ से ही चलते हैं। बड़े अपना व्यवहार ठीक रखें और छोटे उनको समझने में भूल ना करें, तो परिवार हमेशा सुखी व शांत रहेगा।

ऐसा होना चाहिए घर के मुखिया का व्यवहार
अगर हम घर में बड़े हैं तो यह ध्यान रखें कि हमें ही सबसे ज्यादा लचीला होना पड़ेगा। घर का नेतृत्व तटस्थ ना हो तो कलह होना तय है। ये हमेशा याद रखें कि हर युवा पीढ़ी अपने साथ कुछ नए नियम भी आते हैं। पुरानी पीढ़ी को इसे स्वीकार करना चाहिए। पुराने लोग पुरानी परंपरा पर ही ना टिकें। नए परिवर्तनों को स्वीकार करें।

परिवार की कोई परंपरा या नियम शाश्वत नहीं हो सकता। हर नियम को एक दिन बदलना ही पड़ता है। परिवार में सबसे ज्यादा परिवर्तन तब आते हैं जब कोई नया सदस्य आता है। जैसे घर में बहू का आना। जब घर में बहू आती है तो वह अपने साथ नई परंपराएं, संस्कार और सभ्यता लेकर आती है। उसके साथ कुछ नए विचारों का भी गृहप्रवेश होता है। उनका स्वागत किया जाना चाहिए।

जब पुरानी पीढ़ी नए विचारों को हजम नहीं कर पाती है, तो परिवार में विघटन शुरू हो जाता है। विघटन की जिम्मेदार अक्सर नई पीढिय़ों को बताया जाता है लेकिन कभी ऐसा भी सोचा जाए कि शायद पुरानी पीढ़ी नए विचारों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाई हो।

पांडवों के परिवार में चलते हैं। द्रौपदी का स्वयंवर हुआ। पांचों भाई कुटिया में लेकर पहुंचे द्रौपदी को लेकर। मां ने बिना देखे ही कह दिया पांचों भाई आपस में बांट लो। अभी तक नियम था मां जैसा कह दे, वैसा ही होता था। मां ने पलटकर देखा, नई बहू आई है। ये क्या कह दिया, तत्काल अपने शब्दों को वापस लिया। कुंती ने कहा तुम लोग जैसा ठीक समझो वैसा करो। नई बहम आई तो परिवार के नियम उसके लिए शिथिल हो गए। हालांकि हुआ वही जैसा कुती ने कहा था लेकिन कुंती ने अपने नियम शिथिल कर दिए।

नया सदस्य परिवार में आए तो उस पर परंपराएं या कायदे थोपे ना जाएं।

संतों संग बैठे राम, भरत को मिला जीवन का ज्ञान
रामायण का एक छोटा सा प्रसंग है। भगवान राम को वनवास हो गया, वे लक्ष्मण और सीता के साथ चित्रकूट में रहने लगे। उधर अयोध्या में राजा दशरथ की मौत हो गई, भरत उनके अंतिम संस्कार और क्रियाकर्म के बाद राम को अयोध्या लौटा लाने के लिए चित्रकूट पहुंचते हैं।

भरत जब राम के आश्रम में पहुंचते हैं तो देखते हैं कि वहां कई संत जुटे हैं। तीन बातों पर चर्चा चल रही है ज्ञान, गुण और धर्म। संतों के साथ बैठकर राम इन्हीं विषयों पर गहन चर्चा कर रहे थे। लक्ष्मण और सीता भी गंभीरता से सुन रहे हैं।

थोड़ी देर तो भरत भी देखते ही रह गए। जिस राम को अपने नगर से निकालकर वन में भेज दिया गया हो। जिसके राजतिलक की घोषणा करने के बाद उसे सन्यासी बना दिया गया हो, वो कितने शांत मन से संतों के साथ बैठे हैं। फिर भरत आश्रम में पहुंचे और फिर राम-भरत के मिलन की घटना घटी।

ये दृश्य देखने, पढऩे या सुनने में साधारण लगता है लेकिन इसके पीछे एक बहुत ही गंभीर और उपयोगी संदेश छिपा है। हम परिवार के साथ बैठते हैं तो बातों का विषय क्या होता है। इस दृश्य में देखिए, एक परिवार के सदस्यों में क्या और कैसी बातें होनी चाहिए।

अक्सर परिवारों में ऐसा नहीं होता, घर के सदस्य साथ बैठते हैं तो या तो झगड़े शुरू हो जाते हैं, पैसों पर विवाद होता है या फिर किसी तीसरे की बुराई की जाती है। इससे परिवार में अंशाति और असंतुलन आता है। हम जब भी परिवार के साथ बैठें तो चर्चा के विषय ज्ञान, गुण, धर्म और भक्ति होना चाहिए। इससे आपसी प्रेम तो बढ़ेगा ही, विवाद की स्थिति भी नहीं होगी। परिवार में हमारा बैठना सार्थक होगा।



तब रिश्तों में होगा सिर्फ प्यार ही प्यार
सम्बन्धों को निभाया जाता है, उनमें आपको केवल देना होता है। जितना आपसे संभव है आप दूसरे को उतना देते हैं और फिर उनसे कुछ वापस पाने की प्रतीक्षा करते हैं। आपकी यह मांग संबंधों को अधिक समय तक टिकने नहीं देती। मांग और आरोप रिश्तों को बिगाड़ देते हैं। इसलिए आपको उनकी प्रशंसा करना आना चाहिए।

उनकी गलतियां निकालकर उन पर आरोप लगाने की बजाय परिस्थिति को सुधारना चाहिए। दूसरे को ऊपर उठाने के लिए आप प्रतिबद्ध रहें तभी आप किसी के लिए भी लायक बन पाएंगे। जब आप जानबूझकर दूसरों को चोट नहीं पहुंचाएंगे तो आपको सब अपनाएंगे। यह याद रखने वाली पहली बात है।

दूसरी बात यह है कि आप खुद को बदलने के लिए और अपने को सुधारने के लिए तैयार रहें जिसके लिए आपको अपनी आलोचना सुनने का धैर्य होना चाहिए। तीसरा बात है कि, दूसरों के दृष्टिकोण को जानिए, उनकी पीड़ा को समझिए, उनके शब्दों या कृत्यों को नजरअंदाज करके उस व्यक्ति को जानिए।

आठ-दस घंटे काम करने के बाद जब कोई थका हुआ वापस घर आता है या जब एक व्यापारी शेयर बाजार में हुए घाटे से परेशान होकर घर लौटता है तो वह घर में आराम और शान्ति चाहता है। अपने साथी की परिस्थिति को समझकर उन्हें अपनी भावना, कुंठा या क्रोध आदि को व्यक्त करने की स्वतन्त्रता दीजिए।

जैसे एक दाई प्रसूति में मदद करती है वैसे ही ऐसे समय में जीवनसाथी उनकी मदद करें। कोई प्रसव पीड़ा में हो और उनसे कहें कि आप शिशु को बाहर मत आने दो, अंदर ही रहने दो तो वह क्या करेगा? कितनी देर शिशु को अंदर रख पाएगा आखिर तो वो बाहर निकलेगा ही। ऐसे ही पति या पत्नी को तनाव से खाली होने का अवसर दीजिए।

वो क्यों दुःखी या परेशान है उसको समझने का प्रयास करें तो आपके रिश्ते मधुर होंगे। परन्तु यदि आप यह अपेक्षा रखते हैं कि आपके साथी आपसे कभी कुछ न कहे चौबीस घंटे, सप्ताह के सातों दिन, साल के 365 दिन वह मधुर व्यवहार रखें और आप हमेशा उनके दोष देखें, ताने मारें कि तुम ऐसे हो, तुम वैसे हो तो वह बेचारे क्या करेगें? 

उनको लगेगा कि वह बिलकुल अकेले हैं, उनको कोई सहारा नहीं देता। फिर वह जीवन में आगे कैसे बढ़ेंगे, सफल कैसे होंगे वह निराश हो जाएंगे। व्यक्ति वो महान है जिसमें दूसरों को स्वीकार करने, धैर्यपूर्वक सहने व निभाने की ज़्यादा से ज़्यादा क्षमता हो। यदि यह स्वीकृति केवल दस प्रतिशत है तो आप दुःखी और परेशान रहेंगे।

और यदि यह स्वीकृति शून्य प्रतिशत है तो जीवन में आप उन्नति कर ही नहीं पायेंगे इसलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि अपने धैर्य को शून्य से शत-प्रतिशत तक बढ़ने दे। एक और बात है कि संबंधों में थोड़ी छूट दे दें। संबंधों की मजबूती बीच के कंटीले राहों को स्वीकार करने की क्षमता में है। ऐसी परिस्थिति को आप कैसे भली भांति संभालते हैं इसी में आपकी कुशलता बढ़ती है।

ये सद्गुण उन कंटीले राहों के दौरान ही प्रकट होते हैं। ऐसे समय को अपने धैर्य, समझदारी, विचारशीलता, और स्वीकृति के गुण लाने का अवसर समझें। दूसरे व्यक्ति से बदलने की अपेक्षा रखने की बजाय अपना श्रेष्ठ चरित्र प्रदर्शन कीजिए।



क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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