Tuesday, January 17, 2012

Parivaar (परिवार)

परिवार की खुशी और तरक्की चाहते हैं तो यह जरूर पढ़ें...
परिवार होता क्या है? ऐसे लोगों का समूह जो भौतिक और मानसिक स्तर पर एक-दूसरे से प्रगाढ़ता से जुड़ा हो। जिसके सभी सदस्य अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से करते हुए उदारता पूर्वक एक-दूसरे के लिये त्याग और सहयोग करते हैं। कोई भी परिवार संगठित, विकसित और उन्नतिशील तभी हो सकता है जबकि उसका प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्य को अपना धर्म मानकर पूरी निष्ठा और गहराई से पालन करे।

परिवार की खुशहाली और समृद्धि तभी संभव है जबकि परिवार का कोई भी सदस्य स्वार्थी, विलासी और दुर्गुणी न हो। यदि परिवार में धर्म-कर्तव्यों के प्रति पूरी आस्था और समर्पण होगा तो वे अच्छी तरह से समझ पाएंगे कि स्वार्थ की बजाय स्नेह-सहयोग का माहौल ही फायदेमंद है। किसी भी परिवार में अलगाव, बिखराव या मन-मुटाव तभी पैदा होता है जबकि सदस्यों में अपने कर्तव्य की बजाय अधिकार को पाने की अधिक जल्दी होती है।

यदि कर्तव्य और फर्ज को गहराई से समझकर इनके बीच संतुलन साध लिया जाए तो कोई भी परिवार टूटने और बिखरने से बच सकता है। यानि जिस परिवार में अधिकारों से पहले कर्तव्यों की फिक्र की जाती है, वहीं पर स्नेह, सहयोग और सद्भावना कायम रह पाती है। जहां पर इस तरह की सुलझी हुई सद्बुद्धि का माहौल होगा वहीं पर शुख-संपत्ति से भरा-पूरा राम परिवार जैसा वातावरण होगा।

महाभारत में पांडवों का परिवार देखिए। मां कुंती और पांचों भाई। मां ने पहले अपने कर्तव्य निभाए। अपनी सौतन माद्री की दोनों संतानों नकुल और सहदेव को भी अपने बच्चों जैसा ही प्रेम और परवरिश दी। संस्कार दिए। सभी बेटे भी ऐसे ही हैं। मां के मुंह से निकली हर बात को पूरा करना, बड़े भाई के प्रति आदर, हर भाई को अपने कर्तव्य का भलीभांति ज्ञान था। किसे क्या करना है जिम्मेदारी तय थी। तभी पांडव जहां भी रहे, सुखी रहे। जिन परिवारों में ऐसा समर्पण नहीं होता, वहां अक्सर वैमनस्यता, अलगाव और बिखराव की स्थिति पैदा हो जाती है।

बच्चों को संस्कारवान बनाना है तो अभाव में भी रहना सिखाइए
समाज और देश-दुनिया की महत्वपूर्ण इकाई है परिवार जबकि परिवार की शुरुआत होती है दाम्पत्य से। परिवार की सम्पत्ति होती है संतान। अगर यह कहें कि संतान के बिना समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं है तो कोई अचरज नहीं है। अपना परिवार बढ़ाना या संतान का उत्पादन करना सिर्फ व्यक्तिगत ही नहीं बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यह कार्य साधारण नहीं बल्कि बड़ा ही महत्वपूर्ण और चुनौती वाला है।

किसी भी युवक या युवति को माता-पिता बनने की जिम्मेदारी को उठाने के लिये आगे आने से पहले हर तरह से तैयार हो जाना चाहिए। पति तथा पत्नी दोनों की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति इस लायक हो कि वे संतान और परिवार की जिम्मेदारी को बखूबी निभा सकें , तभी उन्हे इस दिशा में आगे कदम बढ़ाना चाहिए। स्वयं और परिवार की स्थिति तो ध्यान में रखना ही चाहिये साथ ही देश, समय और परिस्थितियों का भी ध्यान करना ही चाहिए। गलत स्थान, अनुचित समय और विपरीत परिस्थितियों में संतान का जन्म लेना भी समस्याओं को बढ़ावा देता है।

परिवार का भविष्य संतानों के संस्कार और उनकी परवरिश पर ही निर्भर करता है। बच्चों के लालन-पालन के लिए सिर्फ सुख और सुविधाओं की ही आवश्यकता नहीं होती। अभावों में भी बच्चों को अच्छे संस्कार दिए जा सकते हैं। जब संतानें संस्कारवान और सभ्य होंगी तो परिवार सफल होगा। अगर अधिक लाड़-प्यार में संतानों को बिगाड़ दिया जाए तो परिवार को टूटने में देर नहीं लगेगी।

महाभारत में कौरव और पांडवों में क्या फर्क था। कौरव महलों की सुख-सुविधाओं में पले थे और पांडव जंगल में। फिर भी पांडव नायक हुए और कौरव खलनायक। पांडवों को उनकी मां कुंती ने अकेले ही जंगल में पाला। कोई सुख-सुविधा नहीं। जबकि कौरवों को धृतराष्ट्र और गांधारी ने महलों में पाला। फिर भी आप फर्क देखिए। अपने बच्चों को हमेशा हर चीज सुलभ ना कराएं, कभी-कभी अभावों में जीना भी सिखाएं। अभाव हम में किसी वस्तु को पाने की लालसा भरते हैं। उसके लिए परिश्रम करना सिखाते हैं।

मुसीबतों पर जीत चाहते हैं, तो ऐसे रहें परिवार में...
परिवार एक माला है, जो प्रेम के धागे में पिरोई जाती है। सारे सदस्य इसके मोती हैं। एक मोती भी कम हो, टूट जाए, छूट जाए तो माला की सुंदरता खत्म हो जाती है। परिवार को सहेजें।

परिवार के हर एक सदस्य का परिवार में बराबरी का महत्व होता है। हम परिवार के बिना अधूरे हैं। हम किसी भी परिस्थिति में रहें लेकिन हमेशा परिवार को साथ रखें। यह ऊर्जा और प्रेरणा दोनों का काम करते हैं।

महाभारत में पांडवों को देखिए। कोई भी परेशानी हो, इंद्रप्रस्थ का निर्माण हो या वनवास। पांडव हर समय साथ रहते थे। जुए में हारने के बाद पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञात वास दिया गया था। दुर्योधन उन्हें लगातार परेशान करने में लगा था। बड़े भाई के कारण पूरा परिवार वनवास में भटकने को मजबूर हो गया लेकिन कोई भी भाई अपने बड़े भाई के विरुद्ध नहीं गया। सबने युधिष्ठिर के जुए में हार जाने के बाद भी परिवार को बिखरने नहीं दिया।

ये आश्चर्यजनक है कि पांचों भाइयों ने सभी संकटों को मिल कर सामना किया। ये परिवार की ही शक्ति थी कि इतनी परेशानियों के बाद भी उन्होंने अपना राज्य और सम्मान फिर प्राप्त कर लिया।

हमेशा याद रखें परिवार को साथ लेकर चलेंगे तो बड़े-बड़े संकट भी छोटे लगेंगे। परिवार को एक रखिए। यह हमारी सम्पत्ति भी है और हमारी प्रेरणा भी।

परिवार सिर्फ इस कारण से बिखरता है...
महाभारत में कौरवों की हार क्यों हुई। इस बात को अगर परिवार प्रबंधन की दृष्टि से देखा जाए तो महाभारत में कौरवों के परिवार में एकमत नहीं था। परिवार का हर निर्णय एकतरफा होता था। धृतराष्ट्र के अधिकतर निर्णय दुर्योधन लिया करता था। जिसमें सिर्फ दुर्योधन का ही स्वार्थ सिद्ध होता था। परिवार के अन्य सदस्यों को कभी रायशुमारी के लिए नहीं कहा जाता। भीष्म और विदुर सिंहासन के लिए निष्ठावान थे इसलिए वे विरोध भी नहीं कर पाते।

परिणाम कौरव वंश पूरी तरह बिखर गया। महाभारत युद्ध में वे एक थे लेकिन वे मन से एक नहीं थे। ना ही एकमत थे। जबकि पांडवों के हर फैसले में सारे सदस्यों की सलाह होती थी। परिवार के हर सदस्य की इच्छा का सम्मान किया जाता था। उनके हर फैसले में श्रेष्ठ परिणाम आता था, क्योंकि उसमें सभी की सलाह शामिल होती थी।

परिवार में बिखराव क्यों होता है? जब परिवार में संयुक्त हितों से जुड़े फैसले कई बार एकतरफा ले लिए जाते हैं। बड़े अपने हिसाब से निर्णय लेते हैं, छोटे उसे अपने पर थोपा हुआ मानते हैं। बस यहीं से शुरू होती है परिवार से बाहर की ओर निकलने वाली राहें। छोटे विद्रोही स्वर लेकर परिवार से अलग हो जाते हैं।

परिवार में सदस्यों की एक-दूसरे के प्रति समझ होना जरूरी है। कई घरों में लोगों की उम्र बीत जाती है और यह शिकायत बची ही रह जाती है कि एक-दूसरे को समझ ही नहीं पाए। यदि किसी को समझना है, तो दो काम करें। एक, निश्चित दूरी बनाकर देखिएगा। दूसरा काम यह कीजिए कि निर्णायक न बन जाएं, निरीक्षक बने रहें। घर के सदस्यों के प्रति जैसे ही हम निर्णायक बनते हैं, हमारे भीतर तुलना का भाव जाग जाता है। घर में उम्र, पद, रिश्तों में विभिन्नता, भेद होने के बाद भी एक जगह सब समान होते हैं।

हर सदस्य की अलग-अलग विशेषता होती है, वह अपने आप में बेजोड़ होता है। कोई पत्थर की तरह दृढ़ है, तो कोई बादल की तरह बहाव में है। इन सबके बावजूद भी जब वे अपने दांपत्य के प्लेटफार्म पर हों, तो उन्हें समान, एक रहना होगा। नहीं तो योग्यताएं घर में ही टकराने लगेंगी। जहां प्रेम होना चाहिए, वहां प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी। लिहाजा निरीक्षक का भाव रखिए। यह साक्षी-भाव आपकी समझ को बढ़ाएगा और तब आप सामने वाले व्यक्ति को भी समझ पाएंगे तथा उसकी समस्या को भी जान पाएंगे। फिर सलाह भी हितकारी लगेगी, हस्तक्षेप नहीं।

परिवार वह है जो सिर्फ खुद के बारे में ही ना सोचे
रामचरित मानस के एक प्रसंग में चलते हैं। रावण का वध करके राम अयोध्या लौटे। भरत ने उन्हें राजकाज समर्पित किया। एक दिन राम एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने तीनों भाई भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जीवन में देश, समाज और परिवार का महत्व समझा रहे हैं।

राम अपने भाइयों को समझा रहे हैं कि समाज और राष्ट्र का हित सबसे बड़ा है। हर परिवार को उसके बारे में सोचना चाहिए। जब तक हम दूसरे की पीड़ा और व्यथा नहीं समझेंगे, राष्ट्र का विकास संभव नहीं है।

राम कहते हैं - परहित सरिस धरम नहीं भाई। परपीड़ा सम नहीं अधमाई।।

यानी दूसरों के हित और सुख से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई पाप नहीं।

राम ने अपने परिवार में जो संस्कार और विचारों की नींव रखी वे विचार और संस्कार आज हमारे परिवारों में भी आवश्यक हैं। हर परिवार को केवल खुद के लिए ही नहीं, दूसरों के लिए, समाज और राष्ट्र के लिए भी सोचना चाहिए।

इंसानों के प्रेमपूर्ण मिलन से परिवार बनता है और परिवारों के व्यवस्थित समूह को ही समाज कहते हैं । यह तो जाहिर सी बात है कि श्रेष्ठ समाज ही किसी विकसित और प्रगतिशील देश का आधार बनता है। लोगों की जनसंख्या या बसावट को ही समाज नहीं कहते, वह तो समाज कम और भीड़ अधिक है।

वास्तव में समाज उस मानव समुदाय को कहते हैं जिसके सारे परिवार और सदस्य एक-दूसरे के साथ इस तरह से मिल-जुल कर रहते हैं कि सभी के विकास में सहयोगी बनते हैं। इंसानी जिंदगी का जो अंतिम मकसद है उसे पाने या उस तक पहुंचने में समाज सहायक हो सकता है। यदि समाज मानव जीवन के असली और सबसे बड़े मकसद को पाने में सहायक नहीं हो सकता तो उस समाज को सफल नहीं कहा जा सकता।

कब परिवार बिखराव और विनाश के रास्ते पर चल देता है?
सभ्य समाज की नींव सभ्य परिवार से पड़ती है। संस्कारों का प्रवाह परिवार से समाज की ओर जितनी तेजी से जाता है, उतनी ही गति से समजा से परिवार की ओर आता भी है। संस्कारों का प्रवाह ही परंपराओं जीवन प्रदान करता है। अगर परिवार से गलत परंपराओं की शुरुआत हो जाए तो समाज भी उससे अछूता नहीं रहेगा।

हम जब भी परिवार में किसी नवाचार का स्वागत करें तो पहले ये भी विचार करें कि इससे समाज की भावी पीडिय़ों को क्या लाभ या हानि होगी। बिना किसी विचार के किसी भी नई परंपरा को परिवार में प्रवेश ना दें।

समाज जहां एक तरफ संस्कृ ति और परंपराओं की रक्षा करता है, वहीं समय के साथ-साथ मानवीय आचरण में आ रहे परिवर्तन को भी नियंत्रित करता है। समय के साथ ही जिन आदर्शों और मर्यादाओं में बदलाव और परिवर्तन आ रहा है, उसकी खोज-खबर रखना भी समाज का ही कार्यक्षेत्र है।

यदि आदर्शों और मर्यादाओं के गिरते स्तर के प्रति कठोर प्रतिक्रिया नहीं होती तो लोगों का चरित्र गिरने लगता है यानि कि वे और भी अधिक उद्दण्ड और मनमौजी हो जाते हैं। लेकि न ध्यान रखने की बात यह है कि समाज कोई व्यक्ति नहीं है जिसे किसी बात के लिये इनाम या सजा दी जा सके।

महाभारत में देखिए कौरवों का परिवार, वहां संस्कारों की लगभग अनदेखी ही हो गई। सत्ता और पुत्र प्रेेम के मोह में धूतराष्ट्र ने संस्कारों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। मद में चूर दुर्योधन ने भी संस्कारों और मर्यादाओं का उल्लघंन करना शुरू कर दिया। पिता पुत्र प्रेम में दृष्टिहीन था, पुत्र सत्ता के मद में अंधा।

अपने ही भाइयों को दुर्योधन ने पिता के नाम से जुआ खेलने के लिए आमंत्रित किया, धृतराष्ट्र कुछ नहीं बोले। द्रौपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करने का प्रयास किया तो भी कौरव परिवार के सारे लोग चुप रहे।

परिवार में सभ्यता और संस्कृति दोनों का ही नाश हो गया। यह दरअसल सिर्फ इसलिए हुआ कि दुर्योधन को अनुचित अधिकार और प्रेम मिलने लगा। धृतराष्ट्र ने राजा होते हुए भी पुत्रमोह की परंपरा को परिवार में प्रवेश दे दिया। एक गलत परंपरा को घर में लाते ही पूरा कौरव परिवार नष्ट हो गया।

रिश्तों में पवित्रता रखें, परिवार समृद्ध रहेगा
हम जितने आधुनिक हो रहे है, हमारे नैतिक मूल्य उतने ही गिरते जा रहे हैं। रिश्तों में व्यवहारिकता की जो लहर चली है उसने कई नातों को धराशायी कर दिया है। अब रिश्ते दिलों के नहीं, सिर्फ लाभ-हानि के रह गए हैं। हम जितने प्रोफैशनल हुए हैं, परिवारों में दुराव बढ़ा है। हमारे इस प्रोफेशनलिज्म की कीमत संभवत: परिवारों ने भी चुकाई है।

हम दुनिया से जितने मतलब के रिश्ते रखते हैं, उसका एक परोक्ष प्रभाव हमारे परिवार पर भी पड़ता है। रिश्तों में व्यवहारिकता आई तो पवित्रता खत्म हो गई। जबकि रिश्तों में पवित्रता ज्यादा जरूरी है। भगवान से भी मिन्नतों में सिर्फ आदान-प्रदान की ही बात करते हैं। कई बार तो उसे भी धोखा देने में पीछे नहीं रहते हैं। आपके द्वारा किसी रिश्ते में पार की गई मर्यादा आपको कब और कैसे प्रभावित करेगी, ये कोई नहीं जानता। रिश्ता कोई भी हो, उसमें पवित्रता जरूर रखें। परिवार भी सुखी रहेगा।

हम दुनिया में इस तरह से रिश्ते निभा रहे हैं वैसे ही दुनिया बनाने वाले भी निभाने लगते हैं और यहीं से गड़बड़ शुरू हो जाती है। भगवान से हमारा रिश्ता कैसे हो यह सवाल हर भक्त के मन में आता रहता है। क्या हम करें और क्या वो करेगा सवाल के इस झूले में हमारी भक्ति झूलती रहती है। श्रीकृष्ण अवतार में सुदामा प्रसंग इस प्रश्र का उत्तर देता है।

सांदीपनि आश्रम में बचपन में श्रीकृष्ण-सुदामा साथ पढ़े थे। बाद में श्रीकृष्ण राजमहल में पहुंच गए और सुदामा गरीब ही रह गए। सुदामा की पत्नी ने दबाव बनाया और सुदामा श्रीकृष्ण से कुछ सहायता लेने के लिहाज से द्वारिका आए। एक मित्र दूसरे मित्र से कैसे व्यवहार करे इसका आदर्श प्रस्तुत किया श्रीकृष्ण ने। खूब सम्मान दिया सुदामा को लेकिन विदा करते समय खाली हाथ भेज दिया।

वह तो बाद में अपने गांव जाकर सुदामा को पता लगा श्रीकृष्ण ने उनकी सारी दुनिया ही बदल दी। भगवान के लेने और देने के अपने अलग ही तरीके होते हैं। बस हमें इन्हे समझना पड़ता है। वह दिखाकर नहीं देता पर खुलकर देता है। इस प्रसंग का खास पहलू यह है कि सुदामा ने पूछा था कृष्ण मैं गरीब क्यों रह गया। आपका भक्त होकर भी?

श्रीकृष्ण बोले थे बचपन की याद करो, गुरु माता ने एक बार तुम्हे चने दिए थे कि जब जंगल में लकड़ी लेने जाओ तो कृष्ण के साथ बांटकर खा लेना। तुमने वो चने अकेले खा लिए, मेरे हिस्से के भी। जब मैंने पूछा था तो तुम्हारा जवाब था, कुछ खा नहीं रहा हूं बस ठंड से दांत बज रहे हैं। भगवान की घोषणा है जो मेरे हिस्से का खाता है और मुझसे झूठ बोलता है उसे दरिद्र होना पड़ेगा।

उस परिवार की खुशियां कभी खत्म नहीं होतीं, जिसमें ऐसे रिश्ते हों...
आधुनिक परिवारों में आपसी संघर्ष बडऩे से रिश्तों की संवेदनाओं और मर्यादाओं का पतन हुआ है। घर की बड़ी महिलाएं बहू और बेटी के रिश्ते में बहुत अंतर रखती हैं। बेटी कर्तव्य के भाव से देखी जाती है और बहू अधिकार के भाव से। यहीं हाल लगभग हर रिश्ते का है, कोई हमसे कितना निकटता से जुड़ा है इसका कोई पैमाना नहीं बचा। रक्त का संबंध भी वैसा नहीं रह गया।

परिवार कैसा होना चाहिए, इसके भीतर के सारे रिश्ते कितने संवेदनशील हों, ये रामायण से सीखा जा सकता है। ये कथा परिवार की कथा है। परिवार के ऊंचे सिद्धांतों और आदर्शों की कथा है। एक संवेदनशील प्रसंग में चलते हैं, जहां पारिवारिक मूल्यों की शिक्षा मिलती है।

श्रीरामजी को वनवास जाना था। वे चाहते थे सीताजी माँ कौशल्या के पास रुक जाएं। सीताजी उनके साथ जाना चाहती थीं। कौशल्याजी भी चाहती थीं सीता न जाए। सास, बहू और बेटा, ऐसा त्रिकोण यहां पैदा हो गया था। दुनिया में इस रिश्ते ने कई घर बना दिए और बिगाड़ दिए। लेकिन रामजी के धैर्य, सीताजी की समझ और कौशल्याजी की समझ ने रघुवंश का इतिहास बदल दिया।

हमारे अवतारों की यह घटनाएं हमें अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों में बड़े-बड़े संदेश दे जाती हैं। हमारे परिवारों में सास-बहू पति-पत्नी के संबंधों में जो विच्छेदन आता है उसका बड़ा मनोवैज्ञानिक संकेत है। जब कोई किसी परिवार में किसी पर निर्भर होता है तो परिवार के सदस्य को लगता है कि हम उसकी जरूरत पूरी कर रहे हैं। माँ-बाप बच्चों को जब बड़ा करते हैं तो वे इसलिए प्रसन्न रहते हैं कि बच्चे उन पर निर्भर हैं। जैसे ही बच्चे बड़े हो जाते हैं तो वे अपना काम खुद करने लगते हैं।

उनका अपना संसार बस जाता है, अब वो माँ-बाप पर निर्भर नहीं हैं। तब एक मनोवैज्ञानिक भीतरी अन्त:विरोध शुरू होता है। सास-बहू के झगड़े का एक कारण यह भी होता है कि सास सोचती है कि इस बेटे को जो सदा से मेरे ऊपर निर्भर था, मुझे उसे बुद्धिमान बनाने में 25 साल लगे और इस नई औरत ने पांच मिनट में उसको बुद्धू बना दिया। जो बेटा सदा से मुझ पर निर्भर था वह आज इस पर निर्भर हो गया।

यही हाल पति-पत्नी के होते हैं। वह भी एक-दूसरे को एक-दूसरे पर निर्भर करना चाहते हैं। दाम्पत्य का आधार प्रेम होना चाहिए। हम पहले भी यह बात कर चुके हैं कि जिस परिवार के केन्द्र में प्रेम होगा वह परिवार फिर अहंकाररहित होगा उसमें बड़ा-छोटा, तेरा-मेरा नहीं होता और इसलिए विरोध की संभावना समाप्त हो जाती है।

परिवार को एक रखना है तो इस तरह हो आपसी व्यवहार
महाभारत में पांडवों के बीच रिश्तों की धुरी क्या थी। द्रौपदी प्रेम की एक डोर के रूप में मौजूद तो थी ही लेकिन सबसे बड़ा कारण था, पांचों भाइयों में भावनात्मक बंधन। पांचों भाई एक-दूसरे के प्रति इतने संबेदनशील थे कि कभी बिना कहे एक-दूसरे की भावनाओं, परेशानियों और समस्याओं को समझ जाते थे।

धर्मराज युधिष्ठिर स्पर्श की भाषा को समझते थे। जब भी किसी भाई को कोई पीड़ा, परेशानी या दु:ख होता तो वे उसका हाथ पकड़ लेते थे। छोटे भाई को तत्काल पता चल जाता कि धर्मराज उसकी पीड़ा को समझ चुके हैं। उसे बड़े भाई का संबल मिल जाता। इसे कहते हैं स्पर्श की भाषा। अपनों के प्रति हमारी संवेदनशीलता। यही रिश्ते बनाती है, यही परिवारों को एक सूत्र में बांधे रखती है।

इस समय हमारे पारिवारिक जीवन में जितनी समस्याएं चल रही हैं उसमें एक बड़ी समस्या है संबंधों में भावनात्मकता की कमी। संवेदनाओं के अभाव के कारण घर के सदस्य एक दूसरे के प्रति रूखे और सूखे हो गए हैं। अब तो कई घरों में हो रही बातचीत सुन और देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी मॉल के काउंटर पर लेन-देन हो रहा है या किसी कॉर्पोरेट ऑफिस के केबिन में मीटिंग हो रही है या पेढ़ी पर ब्याज-बट्टे का हिसाब चल रहा है।

घर परिवार का हर सदस्य अपना सौदा खुटा रहा है। पिछले दिनों एक खबर सुनने में आई कि गर्भस्थ बालक की मुस्कान थ्री-डी स्केनिंग में फोटो के रूप में प्राप्त हुई है। चिकित्सा विज्ञान के जानकार लोगों का कहना है यह गर्भ में पलने वाले शिशु की संवेदना का मामला है। एक बात तो यह समझने जैसी है कि इसमें मुस्कान संवेदना की प्रतिनिधि क्रिया है। फिर बच्चे की मुस्कान तो और अद्भुत होती है। दरअसल बड़ा जब भी मुस्कराएगा समझ लीजिए बच्चे होने की तैयारी ही कर रहा होगा। अध्यात्म कहता है जैसे-जैसे समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे हम छोटे हो जाएंगे और जितने छोटे होंगे उतने ही विराट के प्रकट होने की संभावना बढ़ जाएगी। बल्कि छोटे होते-होते जितना खो जाएंगे बस उसके बाद फिर उसे पा जाएंगे जिसका नाम परमात्मा है।

अपने बच्चों से प्रेम चाहिए तो ऐसे हो उनका लालन-पालन
बच्चों को पूरा प्रेम दिया जाए, उनकी हर मांग जुबान से निकलने के पहले पूरी भी कर दी जाए तो भी वे अक्सर हमारे नियंत्रण से बाहर हो ही जाते हैं। ये समस्या आजकल हर दूसरे परिवार में है कि संतानों को सारे सुख-सुविधा देने के बाद भी एक समय ऐसा आता है जब माता-पिता और परिवार का महत्व बच्चों के लिए कम हो जाता है।

आखिर हमारी परवरिश में कहां कमी रह जाती है। वो कौन सी बात है जो हम बच्चों को सीखाना चूक जाते हैं। वो चीज है भक्ति। संतानों के जीवन में भक्ति का प्रवेश बालकाल में ही हो जाए तो बेहतर होता है। भक्ति संस्कार तो देती ही है, संवेदनाओं को भी तीव्र करती है।

भगवान कृष्ण ने अपना बचपन दो गांवों में गुजारा। पहला था गोकुल और दूसरा वृंदावन। भगवान कृष्ण के बचपन को गौर से देखिए। गोकुल में उन्हें खूब प्रेम मिला। ग्वाल, गोपियां, गोकुलवासी उनके दर्शन के लिए हमेशा बहाने खोजते थे। कृष्ण के जीवन के पहले पांच साल प्रेम में गुजरे।

हमारी संतानों के जीवन के पहले पांच साल प्रेम में गुजरें। उन्हें खूब स्नेह और आत्मीयता से पाला जाए। जैसे गोकुल में भगवान कृष्ण को प्रेम मिला। पांच साल की उम्र में दैत्यों के आक्रमण को देखते हुए गोकुलवासियों ने वृंदावन की ओर रूख किया। सब गोकुल छोड़कर वृंदावन में आ गए। वृंदावन भक्ति का प्रतीक है।

पांच साल तक बालक अबोध होता है। सांसारिक भावों को वो आत्मसात नहीं कर पाता लेकिन पांच साल की उम्र तक आते आते सांसारिक दोष भी उसे घेरने लगते हैं। यह वह समय होता है जब उसे एक घेरे की आवश्यकता होती है। ये घेरा होता है भक्ति का। बच्चे को भक्ति की ओर ले जाएं। वृंदावन में कृष्ण की भक्ति की गई।

भक्ति का भाव मन में आते ही सारी सकारात्मक संवेदनाएं जागृत होती हैं। रिश्तों की मर्यादा और मूल्य दोनों का आभास होने लगता है। अपने बच्चों में भक्ति का संचार करें। ये बचपन में ही संभव है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

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