Wednesday, January 25, 2012

Maan Shakti (मन शक्ति)

मनःशक्ति
पाँच तत्त्वों से बने हुऐ हमारे इस शरीर को माया ने पूरी तरह से अपने कब्जे में ले रखा है। आज तक अनेकों ॠषि, महर्षियों ने हमे अनेकों बार ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश दिया किन्तु हम कहाँ पहुँचे? जब तक हम किसी संत के समीप होते है, तो उतनी ही देर के लिऐ हमारा चेतन मन शान्त होता है और अवचेतन मन जाग्रत हो जाता है। हम जो भी ग्रहण करते हैं या सुनते हैं, एक तरह से वे सब का हमारे अवचेतन मन में चला जाता है। हमारे अवचेतन मन में ही हमारे सभी जन्मों का लेखा-जोखा छिपा हुआ है। जब तक हमारा अवचेतन मन जाग्रत होता है, तब तक हम पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, ज्ञान और अज्ञान, विद्या और अविद्या के प्रति जागरूक रहते है। सन्त जो भी बोलता है, तब अवचेतन मन उसे ग्रहण कर लेता है और फैसला करता है, कि इन में से कौन-कौन सी बात मैने पहले सुनी हुई है और कौन सी बात नहीं सुनी हुई। क्योंकि जो बाते अवचेतन मन ने पहले भी ग्रहण की हुई है, वह उन बातों को छोड़ देता है, क्योंकि वे बातें तो पहले से ही अवचेतन मन के अन्दर छिपी हुई है। जो नई बातें है, उन को अवचेतन मन अपने अन्दर ग्रहण कर लेता है। यह सभी कुछ अवचेतन मन करता है, किन्तु इन्सान समझाता है कि मैने किया, सभी फैसले अवचेतन मन के होते है, किन्तु इन्सान का अहंकार अपनी मैं, अर्थात् अपने चेतन-मन पर केंद्रित होता है। जो नई बातें होती है, उनके बारे में व्यक्ति सोचता है कि, मैं घर जा कर आज से यह काम करूँगा या नहीं करूँगा। किन्तु जैसे ही साधक संत को छोड़ कर अपने घर पहुँचता है, तो वहाँ के वातावरण में जो अशुद्धियाँ होती है उस की वजह से अवचेतन-मन सो जाता है और चेतन-मन फिर से जाग्रत हो जाता है।

वातावरण की इन्हीं अशुद्धियों को दूर करने के लिऐ, अनादि काल से आर्य-सभ्यता में हवन करने का विधान है। जब अवचेतन-मन निष्कृय हो जाता है, तो चेतन-मन माया के चक्र में उलझ कर अपना काम करने लगता है, और जैसा की आप सभी ने देखा, सुना या पढ़ा होगा की फिर चेतन-मन जो की सन्त के पास बिलकुल निष्क्रिय था, वह सक्रिय हो कर संत की निंदा करने लगता है। उस के बाद चेतन-मन को संत कि जो-जो बातें पसन्द आती है, उनको वह ग्रहण करता है, किन्तु शेष बातों के बारे में कहता है कि ‘संतो का काम तो है ही बेकार की बातें करना’, इन के पास तो समय ही समय है, ये जो भी चाहे नियमों का पालन कर सकते हैं। लेकिन आम आदमी के पास समय कहाँ है जो इतनी मेहनत और नियमों का पालन कर सके। चेतन-मन से जैसे भी बन पड़ता है, वह अपनी तरफ से संत की निंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। हमें ध्यानपूर्वक चेतन और अवचेतन-मन को समझना पड़ेगा।

हम जितना भी मौखिक रूप से काम करते है। यह सभी काम चेतन-मन करता है। हम सभी अगर ध्यान पूर्वक अपने चरित्र को देखें तो हमे महसूस होगा की हमारा अवेचतन-मन कैसे काम करता है। मान लीजियें कि हमारे घर पर कोई मेहमान आ जाऐं तो हम उसका पूरी तरह से सत्कार करेंगे। इसके पीछे हमारा अवचेतन-मन है, क्योंकि हमारे अवचेतन-मन मे ही सभी संस्कार विद्यमान है। इसी तरह अगर किसी को सम्मोहित कर दिया जाये तो वह व्यक्ति आपकी हर बात मानने को बाध्य होगा, क्योंकि सम्मोहन से उसका चेतन-मन गहरी निंद्रा में चला गया है। किन्तु अवचेतन-मन हमेशा क्रियाशील रहता है। अगर सम्मोहन के द्वारा सम्मोहित व्यक्ति को किसी गलत काम के लिऐ निर्देश दिया जाऐं, जो की अवचेतन-मन में संस्कारों के खिलाफ हो। जैसे की सम्मोहित व्यक्ति को अगर कहा जाऐं की तुम संपूर्ण रूप से निर्वस्त्र हो जाओ, तो ऐसा सुनते ही सम्मोहित व्यक्ति का सम्मोहन टूट जाऐगा और वह जाग जाऐगा। इस तरह हम ध्यान्पूर्वक अपने चेतन और अवचेतन-मन को समझ सकते हैं। इसको योगियों ने जागना कहा है, कि तुम हमेशा अपने अवचेतन-मन की तरफ ध्यान दो और अपने संस्कारो के अनुरूप ही कार्य करो। जो व्यक्ति योग निन्द्रा के द्वारा अपने चेतन-मन को निष्क्रिय कर देता है और हमेशा अवचेतन-मन के अनुसार ही संस्कार युक्त कार्य करता है, ऐसा व्यक्ति ही पूर्ण योगी कहलाता है। जिसने योग के द्वारा माया को जीत लिया और चेतन-मन को अवचेतन-मन में पूर्ण रूप से विलीन कर लिया।

हम कितना ही पढ़ ले, जान ले, समझ ले किन्तु जब तक हमें संपूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती, हम अधूरे है और तब तक जिज्ञासायें जन्म लेती रहेंगी। हर साधक के अंदर के उसके अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों के अनुसार ही जिज्ञासायें जन्म लेती है। अनेकों बार समझाने और समझने के बाद भी साधकों के मन में एक प्रश्न पैदा होता है, कि क्या हम सिर्फ नाम के द्वारा ही उस परमात्मा को पा सकते है या नहीं? अगर कोई भी व्यक्ति परमात्मा के किसी भी नाम का जाप करे तो वह उस मंडल तक ही पहुँच पायेगा, जिस मंडल तक उस नाम की सीमा रेखा है। मान लीजिये आप राम, कृष्ण, नारायण, हरि आदि शब्दों को इस्तेमाल करते हैं, तो आप सिर्फ सहस्त्रदल तक ही पहुँच पाओगे, क्योंकि सहस्त्रदल, त्रिलोकी नाथ नारायण का स्थान है। इसलिऐ अगर आप नारायण या उस के किसी भी प्रायवाची शब्द का जाप करते है, तो हम वहीं तक पहुँच पायेगें। इसी तरह हर मंडल का देव व उस का मंत्र भी अलग है। लेकिन ऐसा नहीं है की हम सीधे ही आखिरी मंडल का जाप करके उस परमात्मा को पा सकते है। जिस तरह एक छोटा बच्चा स्कूल जाता है, और स्वर-व्यंजन पढ़ते हुऐ प्रथम कक्षा से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करता है। उसी तरह योगियों की प्रथम कक्षा मणिपुर मंडल (मणिपुर चक्र) है। जो कि हमारी नाभि में स्थित है, कुछ दिव्य महापुरूष त्रिकुटी पर ध्यान लगाना बताते हैं, कि यहीं से अपनी ध्यान-साधना प्रारम्भ करो। कुछ व्यक्ति विशेषों का यह वहम है, की हम त्रिकुटी में ध्यान लगा कर जल्द से जल्द उस परमात्मा को प्राप्त कर लेगें, लेकिन ऐसा नहीं है।

आप नाभि से प्रारम्भ करे या चाहें तो त्रिकुटी से। दोनो में समय और मेहनत एक ही लगेगी। अनेकों ही साधक त्रिकुटी में ध्यान लगा कर प्रकाश को देखने व शब्द को सुनने की कोशिश करते हैं, लेकिन ध्यान से देखा जाऐ तो जिन साधकों को त्रिकुटी में प्रकाश एंव दिव्य ध्वनी सुनाई पड़ती है। जैसे ही त्रिकुटी प्रकाशवान होगी वैसे ही नीचे के सभी मंडल भी प्रकाशवान होगें। इसलिऐ अनेकों महापुरूषों ने नया-विधान बनाया जिसमे की न तो अधिक समय लगता है और ना ही अधिक मेहनत की आवश्यकता है, क्योंकि अगर आप नाभि से प्रारम्भ करते हुऐ त्रिकुटी तक पहुँचते हैं तो एक-एक मंडल को जाग्रत करने में अधिक समय लगेगा। इसी तरह अगर हम त्रिकुटी में ध्यान लगाते है, तो भी हमे समय अधिक लगेगा। लेकिन इस नये-विधान के अनुसार अगर साधना की जाये तो नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडल शीघ्र ही क्रियाशील हो जाऐंगे। क्योंकि परमात्मा का निज नाम ॐ है। इसलिऐ हमें ॐ के ‘अ’, ‘उ’, ‘म’ को ले कर यह साधना करनी होगी। जो साधक इस साधना को करना चाहे, वह पद्मासन या सिद्धासन में बैठ कर, (अगर कोई साधक ये आसन न लगा सके तो सुखासन में बैठ कर) मेरूदंड को सीधा रखते हुऐ नाभी के अन्दर ‘अ’ हृदय के अन्दर ‘उ’ और त्रिकुटी में ‘म’ का ध्यान करते हुए दीर्घ स्वर में ॐ का जाप करें। जहाँ तक सम्भव हो सके श्वांस को गहरा लेते हुऐ ॐ का जाप व ध्यान करें। साथ ही साथ नाभि के अन्दर पीले रंग का, हृदय में हरे रंग का एवं त्रिकुटी में सफेद रंग का ध्यान करें। ऐसा करके साधक थोडे ही समय में नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडलों को प्रकाशवान बना सकता है। जब त्रिकुटी में प्रकाश व दिव्य-ध्वनी सुनाई देने लगे तो उस के बाद की साधना किसी योग्य-गुरू के निर्देशन में करें क्योंकि त्रिकुटी से आगे का रास्ता मुश्किल ही नहीं अपितु खतरनाक भी है। इसलिऐ साधना करते हुऐ आलस्य न करे और जहाँ तक कोशिश हो सके, एक दिन के लिऐ भी साधना का त्याग न करें। अगर हम बिना नागा किये प्रतिदिन एक ही समय पर साधना करेंगे, तो उस परमात्मा को प्राप्त कर लेना मुश्किल नहीं है।

मन ही माया है
मन से मुक्त हो जाना ही संन्यास है। इसके लिए पहाड़ों पर या गुफाओं में जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुकान में, बाजार में, घर में.. हम जहां भी हों, वहीं मन से छूटा जा सकता है..। संत लाख कहें कि संसार माया है, लेकिन सौ में से निन्यानबे संत तो खुद ही माया में उलझे रहते हैं। लोग भी अंधे नहीं हैं। वे सब समझते हैं। वे समझते हैं कि महाराज हमें समझा रहे हैं कि संसार माया है, वहीं वे स्वयं माया में ही उलझे हुए हैं। मेरा मानना है कि संसार माया नहीं, बल्कि सत्य है।

संसार माया नहीं, वास्तविक है। परमात्मा से वास्तविक संसार ही पैदा हो सकता है। अगर ब्रह्मा सत्य है, तो जगत मिथ्या कैसे हो सकता है? ब्रह्मा का ही अवतरण है जगत। उसी ने तो रूप धरा, उसी ने तो रंग लिया। वही तो निराकार आकार में उतरा। उसने देह धरी। अगर परमात्मा ही असत्य हो, तभी तो संसार असत्य हो सकता है।

लेकिन न तो परमात्मा असत्य है, न ही संसार। दोनों सत्य के दो पहलू हैं- एक दृश्य एक अदृश्य। माया फिर क्या है? मन माया है। मैं संसार को माया नहीं कहता, मन को कहता हूं। मन है एक झूठ, क्योंकि मन वासनाओं, कामनाओं, कल्पनाओं और स्मृतियों का जाल है।

संसार माया है, यह भ्रामक बात समझकर लोग संसार छोड़कर भागने लगे। आखिर संसार को छोड़कर कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहां संसार ही तो है। एक आदमी संसार से भाग गया। वह क्रोधी था। उसने किसी साधु से सत्संग किया, तो साधु ने कहा- संसार माया है। इसमें रहोगे, तो क्रोध, लोभ, मोह, काम और कुत्सा सब घेरेंगे। इस संसार को छोड़ दो।

उस आदमी को बात समझ में आ गई। उसने कहा- ठीक है। वह जंगल में जाकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। पेड़ पर बैठे एक कौवे ने उसके ऊपर बीठ कर दी। कौवा तो ठहरा पक्षी, उसमें इतना ज्ञान कहां। कौवा साधु-संत और सामान्य लोगों में फर्क कैसे कर सकता है। उस आदमी ने क्रोध से आगबबूला होकर हाथों में डंडा उठा लिया। अब कौवा उड़ता रहा और वह डंडा लेकर उसके नीचे-नीचे दौड़ता रहा। कभी वह कौवे की ओर डंडा फेंकता तो कभी उसे पत्थर मारता।

संसार से भागोगे, तो यही होगा। आखिर उसने खुद से ही कहा - यह जंगल भी किसी काम का नहीं। यहां क्रोध से मुक्ति नहीं मिलेगी। यहां भी माया है। वह जाकर नदी किनारे बैठ गया, जहां आसपास कोई पेड़-पौधा नहीं था। वह अपने क्रोध के जाल से इतना उदास और हताश हो गया था कि उसे जीवन अकारथ नजर आने लगा। उसकी नजरों में जब संसार ही अकारथ है और माया है, तो जीने का अर्थ ही क्या? उसने लकडि़यां इकट्ठी कीं और अपने लिए चिता बनाने लगा। उसने सोचा इसमें आग लगाकर खुद बैठ जाऊंगा। आग लगाने को ही था कि आसपास के गांव के लोग आ गए। उन्होंने कहा कि आप यह सब कहीं और जाकर करें, पुलिस हमें बेवजह तंग करेगी। आप जलेंगे, तो दुर्र्गध भी तो हमें ही आएगी। उस आदमी के क्रोध की सीमा न रही।

संसार से भागोगे, तो भागोगे कहां? यहां जीना भी मुश्किल, मरना भी मुश्किल। संसार से भाग नहीं सकते हो। संसार माया है, इस धारणा ने लोगों को गलत संन्यास का रूप दे दिया है। संसार तो परमात्मा का प्रसाद है। संसार के फूल उसी के सौंदर्य की कथा कहते हैं। ये पक्षी उसी की प्रीति के गीत गाते हैं। ये तारे उसी की आंखों की जगमगाहट हैं। यह सारा अस्तित्व उससे भरपूर है, लबालब है।
लेकिन फिर भी मैं जानता हूं कि संसार में अगर कोई चीज माया है, तो वह एक ही है- वह है मन। मन ही भ्रमित करता है।

इसलिए संसार से भागना नहीं, बल्कि मन से छूट जाना संन्यास है। मन से मुक्त हो जाना संन्यास है। इसके लिए पहाड़ों पर, गुफाओं में जाने की कोई जरूरत नहीं। दुकान में, बाजार में, घर में- तुम जहां हो, वहीं मन से छूटा जा सकता है। मन से छूटने की सीधी सी विधि है : अगर मन अतीत में जाता है, तो उसे जाने दो। लेकिन जब भी वह अतीत में जाए, उसे वापस लौटा लाओ। कहो कि भैया, अतीत में नहीं जाते। जो हो गया, सो हो गया। पीछे नहीं लौटते। इसी तरह जब मन भविष्य में जाने लगे, तब भी कहना, भैया इधर भी नहीं। अभी भविष्य आया ही नहीं, तो वहां जाकर क्या करोगे। यहीं, अभी और इस वक्त में रहो। यह क्षण तुम्हारा सर्वस्व हो। ऐसा होते ही, सारी माया मिट जाएगी। मन के सारे जंजाल खत्म हो जाएंगे। ऐसे में अंधकार चला जाता है और रोशनी हो जाती है। क्योंकि अतीत और भविष्य दोनों ही अभाव हैं, उनका अस्तित्व नहीं है। वे अंधकार की तरह हैं, जबकि वर्तमान ज्योतिर्मय है।

जिन ऋषियों ने कहा है कि हे प्रभु, हमें तमस से ज्योति की ओर ले चलो, वे उस अंधेरे की बात नहीं कर रहे हैं, जो अमावस की रात को घेर लेता है। वे उस अंधेरे की बात कर रहे हैं, जो तुम्हारे अतीत और भविष्य में डोलने के कारण तुम्हारे भीतर घिरा है। और वे किस ज्योतिर्मय लोक की बात कर रहे हैं? वर्तमान में ठहर जाओ, ध्यान में रुक जाओ, समाधि का दीया जल जाए, तो अभी रोशनी हो जाए। जब तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाए, तो तुम जो देखोगे, वही सत्य है।

मन एक जमीन है..
यदि हम यह कहें कि मेरा मन मेरा नहीं, तो फिर यह किसका है? आम व्यवहार में हम यही अनुभव करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का मन अलग-अलग होता है। मन हमारा नहीं होता का अर्थ यह कतई नहीं है कि वह पूरी तरह से दूसरे का होता है। चूंकि मन हमारा है, हमारे द्वारा संचालित है, वह हमारी ही इच्छा और विचारों को जन्म देता है, इसलिए वह हमारा है। लेकिन यहां प्रश्न यह है कि क्या यह सचमुच हमारा है? आइए, इसे थोड़ी गंभीरता से समझने की कोशिश करें, अन्यथा हमारा मन के साथ व्यर्थ ही झगड़ा होता रहेगा।

मान लीजिए खेत की एक जमीन है। इस जमीन के मालिक आप हैं। इस जमीन में आप जो चाहें, बो सकते हैं-धान, गेहूं, कपास, चना, सरसों आदि कुछ भी। यह पूरी तरह आपके ऊपर निर्भर करता है। लेकिन सोचकर देखिए कि ये जितनी भी बातें हैं, क्या सचमुच इन सभी पर आपका अपना ही नियंत्रण है? कहीं ऐसा तो नहीं कि नियंत्रण किसी और का है। आपको केवल इस बात का आभास हो रहा है कि नियंत्रण आपका है। जमीन आपकी नहीं है। आप उसके केवल मालिक हैं। जमीन किसी की नहीं है। चूंकि वह मिट्टी से बनी है, इसलिए प्राकृतिक सत्य यह है कि जमीन मिट्टी की है, आपकी नहीं।

अब आते हैं दूसरे प्रश्न पर कि आप उसमें अपनी इच्छानुसार कुछ भी बो सकते हैं। ऐसा भी नहीं है। यदि मिट्टी काली है, तो आप उसमें चना या कपास बोने को बाध्य हैं। आपको केवल इतनी ही छूट है कि चाहे आप कपास बोएं या चना या फिर दोनों ही आधा-आधा, लेकिन आप यह स्वतंत्रता लेने की हिम्मत कतई नहीं कर सकते कि आप उसमें सरसों या बाजरा बो दें। इसका अर्थ यह हुआ कि जैसी मिट्टी होगी, उसमें उसी तरह की फसल उगेगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो इससे जहां मिट्टी का दुरुपयोग होगा, वहीं फसल की भी हानि होगी।

यही प्रकृति का नियम है। अब हम इस उदाहरण को अपने मन पर लागू करके देखें। मन एक जमीन है। यह अपने आप में न तो बीज है, न फसल है और न ही किसान। यह मात्र एक पृष्ठभूमि है, जिसमें आपको बीज बोने हैं या लकीरें उकेरनी हैं। यदि मन एक जमीन है, तो इसके मालिक तो आप हो सकते हैं, लेकिन मिट्टी आपकी नहीं है। मिट्टी तो प्रकृति ने बनाई है। तो मन की इस जमीन की मिट्टी को किसने बनाया है? यदि यह मिट्टी आपने नहीं बनाई तो फिर आप खुद बताइए कि ऐसी जमीन आपकी कैसे हो सकती है? चूंकि वह आपके अंदर है, केवल इसलिए वह आपकी है। आपने उसे पैदा नहीं किया है, उसे प्राप्त किया है। पैदा करने वाला सच्चा मालिक होता है, प्राप्त करने वाला नहीं। प्राप्त करने वाला तो केवल उसका संरक्षक है।

मन की इस जमीन को किसने तैयार किया है? इसमें हमारे जीवन के संस्कार शामिल हैं। इसमें सदियों से चली आ रही हमारी सभ्यता-संस्कृति शामिल है। हमारे माता-पिता के जींस शामिल हैं। हमारे आसपास का समाज शामिल है। हमारा संपूर्ण बाह्य भौतिक वातावरण, हमारा इतिहास इसमें शामिल है। ये सारे तत्व मिलकर मन की इस जमीन के लगभग नब्बे प्रतिशत हिस्से की रचना कर देते हैं। मुश्किल से दस प्रतिशत हिस्सा ही ऐसा रह जाता है, जिसे हम अपना कह सकते हैं। इस दस प्रतिशत हिस्से को भी केवल वे ही लोग समझ पाते हैं, जो सोचते हैं और सजग रहते हैं।

मन के रूप अनेक
मन के तीन रूप माने गए हैं-चेतन, अवचेतन और अचेतन, लेकिन मन की संख्या इतने तक ही सीमित नहीं है। कई बार ये तीन मन तीन हजार बन जाते हैं। कैसे और कब बनता है मन एक से अनेक..? जब हम कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं, तब हमारा एक ही मन सक्रिय रहता है। यहां तक कि जब हम निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी। हालांकि तब लगता है कि हमारे दो मन हो गए हैं, जिसमें से एक हां कह रहा है तो दूसरा नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है।

सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है। ये तीन मन परिवर्तन एवं सम्मिश्रणों द्वारा तीन हजार मन बन जाते हैं, लेकिन इनका उद्गम इन तीन स्तरों से ही होता है।

चेतन मन वह है, जिसे हम जानते हैं। इसके आधार पर अपने सारे काम करते हैं। यह हमारे मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या संदेह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।

लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी हमारे विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो हमारे मन को कठपुतली की तरह नचाती है। हम जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।

अवचेतन आधा जाग रहा है और आधा सो रहा है। मूलत: यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता। हम जाग रहे हैं, तो हम फैसला कर सकते हैं कि हमें क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए हम स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहींलगते।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही हम उन्हें भूल जाएं, वे नष्ट नहीं होतीं। फ्रायड का मानना था कि अचेतन मन कबाड़खाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पड़ी होती हैं, पर भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी वहां जाती हैं।
अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। हमारा अवचेतन या चेतन मन जब इन वस्तुओं [विचारों] में से किसी की मांग करता है, तब अचेतन मन उसकी सप्लाई कर देता है।

निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है, जो हमारे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। हम भले ही अचेतन मन की उपेक्षा करें, लेकिन चेतन मन और अवचेतन मन जो कुछ भी करते हैं, वे सब वही करते हैं, जो अचेतन मन उनसे कराता है।

फ्रायड ने बिल्कुल सही कहा था कि मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10 प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90 फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है। इसी तरह युंग ने भी कहा था - ज्ञात मन [चेतन] तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अज्ञात [अचेतन] मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।


मन को ऐसे साधें
मन बंदर-सा चंचल है। मन को वश में करने की शक्ति पाने के पूर्व हमें मन का भली-भांति अध्ययन करना चाहिए। चंचल मन को संयत करके उसे विषयों से खींचना होगा और उसे एक विचार पर केंद्रित करना होगा। बार-बार इस क्रिया को करें।

मन को स्थिर करने का सबसे सरल उपाय यह है कि चुपचाप बैठ जाएं और मन जहां जाए, उसे जाने दें। बस उसे देखते रहें। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिंतन करें कि मैं मन को विचरण करते हुए देखने वाला साक्षी हूं। मैं मन नहीं हूं। फिर ऐसी कल्पना करें कि मानो मन मुझसे बिल्कुल अलग है और मैं ईश्वर से जुड़ा हूं। सोचिए कि मन एक विस्तृत सरोवर है और आने-जाने वाले विचार इसके तल पर उठने वाले बुलबुले हैं।

दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिंतन करें कि मैं मन नहीं हूं। मैं सिर्फ मन को देख रहा हूं। इसका अभ्यास करने से आप मन और भावना से अपने को अलग करते जाएंगे। अंत में व्यक्ति मन से अपने को बिल्कुल अलग समझ सकेगा। इसके बाद मन साधक का सेवक हो जाएगा और वह व्यक्ति इस पर इच्छानुसार शासन कर सकेगा। इंद्रियों से परे हो जाना योगी की प्रथम स्थिति है और जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब वह सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

2 comments:

  1. आपके विचार बहुत सुंदर है
    रोचक और अच्छी जानकारी
    धन्यवाद,,,,,

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    1. आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार..

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