Tuesday, January 17, 2012

Karma(कर्म)

सफलता के साथ शांति चाहिए तो अपने लिए भी जीएं
आज आप कितना भी काम कर लीजिए, लेकिन शाम को घर लौटते समय एक बेचैनी साथ लेकर ही जाएंगे। काम बहुत कर रहे हैं लेकिन संतुष्टि नहीं है। लोग सफलता की अंधी दौड़ में दौड़ तो रहे हैं, मनचाहा पैसा भी कमा रहे हैं लेकिन इस सब के बीच कुछ चीज हम खोते जा रहे हैं, वो है हमारे भीतर की मौलिकता, मासूमीयत, अपने भीतर का आनंद और संवेदनाएं। कर्म कीजिए, ये आपके लिए जरूरी है लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में से कुछ समय ऐसे कामों के लिए हो जो आपके निजी जीवन के लिए हो। ये कर्म ही हमारे अंतर्मन को संतुष्टि का भाव देंगे। हर काम केवल परिणाम के लिए किया जाए, फायदे के लिए किया जाए, ये ठीक नहीं। कुछ काम कभी-कभी यूं ही किया कीजिए।

अपने जीवन में से कुछ समय अपनी निजता के लिए निकालें। कुछ समय खुद को भी दें। इस समय का उद्देश्य लाभ का भाव नहीं, आत्म संतुष्टि का भाव होना चाहिए। थोड़ा मेडिटेशन करें, वो काम करें जो आपके भीतर मरती जा रही प्रतिभा को जीवित रखे, जैसे संगीत, चित्रकारी या आपका कोई और शौक। कभी-कभी किसी मंदिर में जाकर थोड़ी देर आंखें मूंदकर बैठें। किसी गरीब, असहाय की मदद करें। ये काम आपको वो शांति, वो संतुष्टि देंगे, जिसकी आप तलाश कर रहे हैं।

महाभारत में कर्ण का व्यक्तित्व इसका आदर्श उदाहरण है, कर्ण का सारा दिन भले ही दुर्योधन जैसे व्यक्ति के कर्मों में सहभागिता करने में गुजरता, लेकिन उसकी दिनचर्या में सूर्य की उपासना, असहायों की सेवा, धनुर्विद्या का अभ्यास भी शामिल था। यह काम कर्ण का नितांत निजी काम था। खुद के कल्याण, संतुष्टि और संवेदनाओं के लिए। हम भी कुछ काम सिर्फ खुद के लिए करें। ऐसा आवश्यक नहीं है कि जो किया जाए, वो लाभ के लिए ही हो। खुद के लिए किया गया काम आपको भीतर से रिचार्ज करता है, शक्ति देता है।

परिवार और व्यवसाय, जरूरी है इन दो नावों का तालमेल
इंसान के लिए सबसे मुश्किल काम क्या है? अपने कर्मक्षेत्र और परिवार के बीच तालमेल बनाना। यहां अच्छे-अच्छे लोग असफल होते देखे गए हैं। जो बिजनेस में कूदे वो परिवार भूल गए, जिन्होंने परिवार संभाला, वे धंधे में मात खा गए। धन की भूख ने हमारे प्रेम की भूख को कम कर दिया है। आज परिवार एक साथ बैठकर बातें करना, भोजन करना, ऐसे सारे काम लगभग भूल चुके हैं। परमाणु परिवारों का बढऩा भी इसी कारण है, क्योंकि व्यक्तिगत लाभ, उन्नति और आनंद की भावना हम सब में घर कर रही है।

संयुक्त परिवारों का विघटन भी इसी व्यवसायिक मानसिकता का परिणाम है। परिवार हमारी संपत्ति है। इस बात को समझना बहुत जरूरी है। खुद के लिए हासिल की गई अपार सफलता भी तब तक पूरा मजा नहीं देती जब तक कि उसे अपनों के साथ बांटा ना जाए।

परिवार को समय दीजिए। सप्ताह या महीने में एक दिन ऐसा निकालें जो सिर्फ परिवार के लिए हो। माता-पिता के साथ बैठें, उनसे चर्चा करें, पति-पत्नी अपने लिए समय निकालें, बच्चों को समय दें। साथ में भोजन करें। कहीं घूमने जाएं। किसी धार्मिक स्थान की यात्रा करें। ये काम आपमें एक अद्भुत ऊर्जा भर देगा।

राम और कृष्ण ने भी अपने पारिवारिक जीवन को दिव्य बनाए रखा। कृष्ण के जीवन में चलते हैं। माता-पिता, भाई-भाभी, 16108 पत्नियां और हर पत्नी से 10-10 बच्चे। कितना बढ़ा कुनबा, कैसा भव्य परिवार। फिर भी सभी कृष्ण से प्रसन्न, किसी को कोई शिकायत नहीं। सभी को बराबर समय दिया। कोई आम आदमी होता तो या तो छोड़कर भाग जाता, या फिर परिवार में ही खप जाता। कृष्ण थे तो संभाल लिया। दुनियाभर के काम किए लेकिन कभी परिवार की अनदेखी नहीं की। जीवन में कुछ नियम थे, जैसे सुबह उठकर माता-पिता से आशीर्वाद, पत्नियों से चर्चा, बच्चों की शिक्षा आदि की व्यवस्था देखना। सबसे हमेशा संवाद बनाए रखना। हमें भी कृष्ण के इस पक्ष से कुछ सिखना चाहिए। परिवार के लिए समय निकालें। दिनचर्या को कुछ ऐसे सेट करें कि परिवार को कोई सदस्य उससे अनछुआ ना रहे।

कर्म करें लेकिन उस पर अपने अपेक्षा का लेबल ना चिपकाएं
अक्सर लोग नौकरी में तरक्की और व्यवसाय में सफलता के फंडे खोजते रहते हैं। मैनेजमेंट की सैंकड़ों किताबें लिखी जा रही हैं, पढ़ी जा रही हैं। लेकिन फिर भी एक सवाल अब भी अपनी जगह जस की तस खड़ा है कि सफलता के साथ शांति कैसे मिले। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि काम तो पूरा कर रहे हैं लेकिन उसका परिणाम वैसा नहीं मिल रहा।

आज के युवाओं की सबसे बड़ी समस्या भी यही है कि वे अपने दफ्तर में, कंपनी में, या व्यवसाय में सफलता तो खूब पा रहे हैं लेकिन उस सफलता में शांति का रस नहीं है। नतीजा यह कि सफलता के बाद भी जीवन में आनंद का वो अनुभव नहीं है जो मिलना चाहिए। सोचिए, इसका कारण क्या है?

हम कर्म तो कर रहे हैं लेकिन इसके साथ अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं को चिपका देते हैं। अपेक्षा इसका सबसे बड़ा कारण है। हम नौकरी या धंधे में आज जो भी कर रहे हैं, भले ही वह हमारा कर्तव्य हो, जिम्मेदारी हो लेकिन उसमें हम अपनी अपेक्षा भी जोड़ देते हैं। काम किया, परिणाम भी आया, सफलता भी मिली लेकिन फिर भी अधूरी रह जाती है हमारी अपेक्षा। इस अपेक्षा के कारण ही सफलता अपना रस अनुभव नहीं करने देती है। थोड़े दिन में हमारा मन ऊब जाता है। काम में कमजोर पडऩे लगते हैं और धीरे-धीरे सफलता, असफलता में बदल जाती है।

कर्म करते समय हमेशा एक बात ध्यान रखें कि उसमें अपनी अपेक्षाओं को साथ में न चिपकाएं। जब तक कर्म के साथ अपेक्षा चिपकी रहेगी, सफलता तो मिलेगी लेकिन शांति नहीं। अपेक्षा को छोड़ दें। नतीजों का अनुमान न लगाएं, परिणाम का केलक्यूलेशन न करें।

इसे समझना है तो महाभारत के कुरुक्षेत्र में चलिए, जहां अर्जुन हथियार डालकर कर्तव्य, परिणाम और पाप-पुण्य की दुविधा में उलझें हैं, श्री कृष्ण गीता के उपदेश में अर्जुन को समझा रहे हैं। श्री कृष्ण ने कहा है :-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन। (गीता उपदेश)

यानी सिर्फ कर्म करो, परिणाम की मत सोचो। परिणाम तो परमात्मा के हाथ में है। हम अच्छा करेंगे तो अच्छा परिणाम मिलेगा ही।

सीधा सूत्र यही है कि अपने व्यवसायिक जीवन में सफलता के साथ शांति का अनुभव करना है तो इसका सीधा तरीका है अपने कर्तव्यों से अपनी अपेक्षाओं को दूर कर दें। परिणाम का अनुमान न लगाएं, सिर्फ इमानदारी से अपना फर्ज निभाते रहें।

सफलता के लिए जरूरी है कर्म में इन दो बातों का होना...
हमारे कर्मों में कई तरह की बातें शामिल होती हैं। लेकिन सफलता किस बात से मिलती है, यह समझना जरूरी है। अक्सर हम यह सोचते हैं कि हम जो भी काम कर रहे हैं उसका परिणाम वैसा मिल नहीं रहा है, जैसा होना चाहिए। कभी कभी हम अपने कर्मों से भी असंतुष्ट दिखाई देते हैं। ये कोई नई बात नहीं है कि हम कई बार खुद के प्रयासों पर भी भरोसा नहीं करते।

जब भी कोई काम करें, तो उसमें दो चीजें शामिल होनी चाहिए। खुद कर्मों के प्रति आस्था और विश्वास। स्वयं के प्रति विश्वास रखें और अपने काम के प्रति आस्था। विश्वास हमारे व्यक्तित्व में सक्रियता, सतर्कता और ऊर्जा लाता है। आस्था हमारे काम में समर्पण की भावना लाती है। हम जब तक दोनों के बीच संतुलन नहीं बनाएंगे, सफलता मिलना मुश्किल है। ।

जितनी आस्था अधिक बलवान होगी, काम में भी भक्ति जैसा भाव आएगा। परिणाम को लेकर तनाव नहीं होगा। चूंकि अधिकांश मौकों पर हम अपने काम को केवल रोजगार से जोड़ लेते हैं, मात्र धन कमाना उद्देश्य रह जाता है, इस कारण काम या तो बोझ बन जाता है या उलझन का कारण।

कृष्ण और राम दोनों के व्यक्तित्वों को एक साथ देखते हैं। दोनों के जीवन में इतनी उथल-पुथल और तनाव था कि कोई आम व्यक्ति तो सहन कर ही नहीं सकता। जीवन को अभिशाप समझने लगता लेकिन दोनों ने पूरे जीवन को बड़ी सहजता और समर्पण से जीया। आखिर क्या कारण था कि ना कभी राम तनाव में आए और ना ही महाभारत जैसा भयंकर युद्ध करवाने वाले श्रीकृष्ण।

दोनों के कामों में एक समानता थी। अपने कर्म के प्रति विश्वास और आस्था। दोनों ही जानते थे कि वे जो भी कर रहे हैं वो धर्म की रक्षा के लिए है। उसके लिए कुछ भी करना हो, वह पाप नहीं माना जाएगा। उससे धर्म की स्थापना ही होगी। ये बात ने उनको कर्म के प्रति विश्वास दिया। कर्म के परिणाम को दोनों ही जानते थे कि उससे धर्म जुड़ा है इसलिए उस कम के प्रति उनके मन में आस्था का भाव बना रहा।

आज आधुनिक युग में हमारा अपने कर्म के प्रति आस्थावान या विश्वासी ना होना, इस बात की ओर इशारा करता है कि हमारे कर्मों में कहीं ना कहीं कोई गलत उपदेश है। या फिर हम अपने कर्म के उपदेश को लेकर गंभीर ही नहीं हैं।

कर्म करें लेकिन उस पर अपने अपेक्षा का लेबल ना चिपकाएं
अक्सर लोग नौकरी में तरक्की और व्यवसाय में सफलता के फंडे खोजते रहते हैं। मैनेजमेंट की सैंकड़ों किताबें लिखी जा रही हैं, पढ़ी जा रही हैं। लेकिन फिर भी एक सवाल अब भी अपनी जगह जस की तस खड़ा है कि सफलता के साथ शांति कैसे मिले। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि काम तो पूरा कर रहे हैं लेकिन उसका परिणाम वैसा नहीं मिल रहा।

आज के युवाओं की सबसे बड़ी समस्या भी यही है कि वे अपने दफ्तर में, कंपनी में, या व्यवसाय में सफलता तो खूब पा रहे हैं लेकिन उस सफलता में शांति का रस नहीं है। नतीजा यह कि सफलता के बाद भी जीवन में आनंद का वो अनुभव नहीं है जो मिलना चाहिए। सोचिए, इसका कारण क्या है?

हम कर्म तो कर रहे हैं लेकिन इसके साथ अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं को चिपका देते हैं। अपेक्षा इसका सबसे बड़ा कारण है। हम नौकरी या धंधे में आज जो भी कर रहे हैं, भले ही वह हमारा कर्तव्य हो, जिम्मेदारी हो लेकिन उसमें हम अपनी अपेक्षा भी जोड़ देते हैं। काम किया, परिणाम भी आया, सफलता भी मिली लेकिन फिर भी अधूरी रह जाती है हमारी अपेक्षा। इस अपेक्षा के कारण ही सफलता अपना रस अनुभव नहीं करने देती है। थोड़े दिन में हमारा मन ऊब जाता है। काम में कमजोर पडऩे लगते हैं और धीरे-धीरे सफलता, असफलता में बदल जाती है।

कर्म करते समय हमेशा एक बात ध्यान रखें कि उसमें अपनी अपेक्षाओं को साथ में न चिपकाएं। जब तक कर्म के साथ अपेक्षा चिपकी रहेगी, सफलता तो मिलेगी लेकिन शांति नहीं। अपेक्षा को छोड़ दें। नतीजों का अनुमान न लगाएं, परिणाम का केलक्यूलेशन न करें।

इसे समझना है तो महाभारत के कुरुक्षेत्र में चलिए, जहां अर्जुन हथियार डालकर कर्तव्य, परिणाम और पाप-पुण्य की दुविधा में उलझें हैं, श्री कृष्ण गीता के उपदेश में अर्जुन को समझा रहे हैं। श्री कृष्ण ने कहा है :-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन। (गीता उपदेश)

यानी सिर्फ कर्म करो, परिणाम की मत सोचो। परिणाम तो परमात्मा के हाथ में है। हम अच्छा करेंगे तो अच्छा परिणाम मिलेगा ही।

सीधा सूत्र यही है कि अपने व्यवसायिक जीवन में सफलता के साथ शांति का अनुभव करना है तो इसका सीधा तरीका है अपने कर्तव्यों से अपनी अपेक्षाओं को दूर कर दें। परिणाम का अनुमान न लगाएं, सिर्फ इमानदारी से अपना फर्ज निभाते रहें।

सफलता के लिए जरूरी है कर्म में इन दो बातों का होना...
हमारे कर्मों में कई तरह की बातें शामिल होती हैं। लेकिन सफलता किस बात से मिलती है, यह समझना जरूरी है। अक्सर हम यह सोचते हैं कि हम जो भी काम कर रहे हैं उसका परिणाम वैसा मिल नहीं रहा है, जैसा होना चाहिए। कभी कभी हम अपने कर्मों से भी असंतुष्ट दिखाई देते हैं। ये कोई नई बात नहीं है कि हम कई बार खुद के प्रयासों पर भी भरोसा नहीं करते।

जब भी कोई काम करें, तो उसमें दो चीजें शामिल होनी चाहिए। खुद कर्मों के प्रति आस्था और विश्वास। स्वयं के प्रति विश्वास रखें और अपने काम के प्रति आस्था। विश्वास हमारे व्यक्तित्व में सक्रियता, सतर्कता और ऊर्जा लाता है। आस्था हमारे काम में समर्पण की भावना लाती है। हम जब तक दोनों के बीच संतुलन नहीं बनाएंगे, सफलता मिलना मुश्किल है। ।

जितनी आस्था अधिक बलवान होगी, काम में भी भक्ति जैसा भाव आएगा। परिणाम को लेकर तनाव नहीं होगा। चूंकि अधिकांश मौकों पर हम अपने काम को केवल रोजगार से जोड़ लेते हैं, मात्र धन कमाना उद्देश्य रह जाता है, इस कारण काम या तो बोझ बन जाता है या उलझन का कारण।

कृष्ण और राम दोनों के व्यक्तित्वों को एक साथ देखते हैं। दोनों के जीवन में इतनी उथल-पुथल और तनाव था कि कोई आम व्यक्ति तो सहन कर ही नहीं सकता। जीवन को अभिशाप समझने लगता लेकिन दोनों ने पूरे जीवन को बड़ी सहजता और समर्पण से जीया। आखिर क्या कारण था कि ना कभी राम तनाव में आए और ना ही महाभारत जैसा भयंकर युद्ध करवाने वाले श्रीकृष्ण।

दोनों के कामों में एक समानता थी। अपने कर्म के प्रति विश्वास और आस्था। दोनों ही जानते थे कि वे जो भी कर रहे हैं वो धर्म की रक्षा के लिए है। उसके लिए कुछ भी करना हो, वह पाप नहीं माना जाएगा। उससे धर्म की स्थापना ही होगी। ये बात ने उनको कर्म के प्रति विश्वास दिया। कर्म के परिणाम को दोनों ही जानते थे कि उससे धर्म जुड़ा है इसलिए उस कम के प्रति उनके मन में आस्था का भाव बना रहा।

आज आधुनिक युग में हमारा अपने कर्म के प्रति आस्थावान या विश्वासी ना होना, इस बात की ओर इशारा करता है कि हमारे कर्मों में कहीं ना कहीं कोई गलत उपदेश है। या फिर हम अपने कर्म के उपदेश को लेकर गंभीर ही नहीं हैं।

कभी-कभी अपने कर्म में इस भाव को लाकर देखें...
अध्यात्मिक जीवन में एक शब्द अक्सर सुनने में आता है निष्काम। कई लोग इस शब्द का बहुत अलग-अलग अर्थ लगाते हैं। कुछ तो बहुत ही हास्यास्पद होते हैं जो कहते हैं निष्कामता यानी कर्म से हट जाना। कर्म ना करना। जीवन की हकीकत यह है कि हम बिना कर्म किए रह ही नहीं सकते। कर्म के बिना तो पशु भी नहीं रह सकते। सिर्फ मनुष्य में ही यह संभावना है कि वह अपने कर्मों को अपने हिसाब से परिभाषित कर सकता है।

अधिकांश कर्म हम अपने हित और स्वार्थ के लिए करते हैं। इनका फल भी उतना ही होता है। इस तरह के कर्म को सकाम कर्म कहते हैं। यहीं से निष्काम कर्म की परिभाषा शुरू होती है। निष्काम कर्म उसे कहते हैं जिसके पीछे हमारा कोई निजी हित, निजी स्वार्थ ना जुड़ा हो। कभी कभी कुछ काम ऐसे भी किए जाएं जिसका हमारे लिए कोई फायदा ना हो। हमेशा याद रखिएए दूर तक वे ही कर्म फायदा देते हैं।

कर्म में निष्कामता का भाव होगा तो हमारी संवेधनाएं प्रबल होंगी। हम संवेदनशील बनेंगे। कभी अनजान की मदद, कभी प्रकृति की सेवा, कभी परमात्मा के ध्यान में बैठना, भगवान की पूजा करना लेकिन उनसे कुछ मांगना नहीं, किसी गरीब की सहायता ऐसे कई कर्म हैं जिनसे आप अपने भीतर निष्कामता का भाव लाने की शुरुआत कर सकते हैं।

कभी कभी ये भी सोचिए कि आप सिर्फ निमित्त हैं, सारा काम कोई और ही करवा रहा है। थोड़ा समय ऐसा निकालें, जिसमें अपेक्षा रहित हो जाएं। जो हो रहा है उसे होने दें। अपने आप को सिर्फ एक माध्यम समझें। किसी भी कर्म में खुद को शामिल ना करें, मतलब खुद के स्वार्थ को ना देखें, फायदा हो रहा है या नुकसान इसका विचार मन में ना लाएं।

कर्म में निष्कामता जड़ भरत से सीखिए। भागवत में कथा है जड़ भरत की। वे कोई भी कर्म हो उसे परमात्मा की इच्छ समझकर करते थे। चिडिय़ा खेत का दाना चुग जाए तो परमात्मा की इच्छा, बाढ़ आ जाए तो परमात्मा की इच्छा। एक बार तो किसी ने उनकी बलि चढ़ाने के लिए उनकी गर्दन पर तलवार भी रख दी, तो भी वे निष्काम रहे। विचलित नहीं हुए। उसे भी परमात्मा की मर्जी ही माना। तो भगवान खुद आ गए उनकी जान बचाने।

हमेशा ना सही लेकिन कभी-कभी हमारे मन में, कर्म में निष्कामता का भाव आएगा तो जीवन में कई उलझनों का जवाब मिल जाएगा। हल मिल जाएगा।

हर काम से पहले एक बार यह भी सोचें कि....
जब कभी हम कोई कर्म करते हैं तो यह नहीं सोचते कि हमारे परिवार पर इसका क्या असर होगा। अक्सर नासमझी या अनदेखी में कई काम ऐसे हो जाते हैं जो हमने किए खुद के लिए थे, परिणाम परिवार को भुगतना पड़ता है। जीवन में परिवार की वरीयता शेष चीजों से ऊपर रहे। परिवार पूंजी है, रिश्ते हमारी सम्पत्ति। जब भी कोई काम करें तो यह अनुमान पहले ही लगा लें कि इससे आपकी इस जायदाद पर तो कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा।

अहंकार जब परिवार में प्रवेश करता है तो फिर वहां परिवार गौण और व्यक्तिवाद हावी हो जाता है। परिवार का हर सदस्य केवल स्वयं का लाभ या हानि देखने लगता है। अगर परिवार का मुखिया भी इसी भााव में जीने लगे तो फिर वो परिवार रह ही नहीं जाता। वो सिर्फ व्यक्तियों का एक समूह बनकर रह जाता है। जहां हर आदमी अपनी ही सोच में डूबा होता है।

परिवार को सहेजने के लिए यह ध्यान रखना जरूरी है कि हम क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं और इसका क्या परिणाम भुगतना पड़ सकता है। आप कुछ भी करें, अगर गलत किया है तो कीमत परिवार को भी चुकानी ही पड़ेगी। हमसे परिवार जुड़ा हुआ है, चाहें हम साथ रहें या ना रहें। एक डोर हमें बांधे हुए है।

रावण से सीखें, अहंकार और क्रोध ने रावण का तो सर्वनाश किया ही, पूरे राक्षस कुल को प्राण देकर रावण के बुरे कर्मों की कीमत चुकानी पड़ी। शक्ति के अभिमान में रावण ने कभी यह नहीं सोचा था कि उसके परिवार का भी विनाश हो जाएगा। राक्षस कुल के अधिकतर सदस्य रावण की चाटुकारिता में थे, कुछ उससे डरते थे और जो निडर होकर सत्य बोलते थे उनकी सुनी नहीं जाती थी। पूरे परिवार की बागडोर रावण के हाथ थी लेकिन रावण खुद अपने अहंकार के हाथ की कठपुतली था। उसका अहंकार उससे जो कराता, वो वही करता था।

परिणाम हमारे सामने है। अगर रावण ने एक पल के लिए भी यह सोचा होता कि उसके कर्मों का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ सकता है तो शायद वो इतनी बड़ी चूक करने से बच जाता। लेकिन सिर्फ अहंकार के कारण उसे अपने कर्मों में परिवार के अच्छे-बुरे का ध्यान नहीं रहा। हमेशा याद रखें आपके हर एक कर्म से एक महीन डोर परिवार के साथ बंधी है। हमारा कर्म जिस दिशा में होगा, परिवार भी उसी दिशा में खिंचा जाएगा।

जब तक मंजिल ना मिले, चलते रहें
व्यवसायिक जीवन का सबसे बड़ा सच है कि हमें व्यवहारिक होना पड़ता है। व्यवसाय भावनाओं से नहीं किया जा सकता। हम काम-धंधे में जितने भावुक होंगे, सफलता उतनी ही देरी से मिलेगी। अक्सर लोगों के साथ होता यही है, वे जैसे ही अपनी मंजिल की ओर निकलते हैं, बाधाएं उन्हें रोकने लगती हैं। सबसे पहले अपनों की ही रोक-टोक से बाधाओं का सिलसिला शुरू होता है। अपने भले ही हमें हमारे हित के लिए ही रोकते हैं लेकिन अगर रुक गए एक बात हमेशा याद रखें कि सफलता किसी के लिए नहीं ठहरती।

जब भी हम किसी अभियान के लिए निकलते हैं तो सबसे पहले हमारे प्रिय लोग ही हमें देखकर प्रेमवश रोकते है, थोड़ा आराम करने की सलाह देते हैं। अक्सर लोग अपनों की बातों में ही आकर अपने अभियान में ढीले पड़ जाते हैं। फिर लक्ष्य नहीं पाया जा सकता क्योंकि वक्त तो गुजर ही रहा है। थोड़ा सा विश्राम भी मन में कई तरह के विचार ले आता है, व्यक्ति लक्ष्य से हट भी सकता है। कई लोग सिर्फ इसीलिए सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि वे अपने लक्ष्य के पहले ही थक कर आराम करने बैठ जाते हैं। एक बार आराम किया, तो शरीर और मन दोनों थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आराम की मांग करने लगते हैं।

अभ्यास कीजिए, लगातार अपने लक्ष्य की ओर तेजी से बढऩे का। जब तक मंजिल ना मिल जाए, विश्राम ना करें। अपने स्वभाव में इस व्यवहारिक गुण को बैठा लें। हमें अपनों को इंकार करना भी आना चाहिए। कई बार सिर्फ लोगों की बात रखने के लिए ही हम अपने काम में थोड़ा ठहराव ले आते हैं। संभव है क्षणभर का यह ठहराव भी आपको भारी पड़ जाए।

हनुमान से सीखिए, कैसे लक्ष्य तक बिना रुके पहुंचा जाए। रामचरित मानस के सुंदरकांड में चलते हैं। जामवंत से प्रेरित हनुमान पूरे वेग से समुद्र लांघने के लिए चल पड़े हैं। समुद्र के दूसरे छोर पर बसी रावण की नगरी लंका में सीता की खोज करने के लिए हनुमान पूरी ताकत से जुट गए हैं। लक्ष्य बहुत मुश्किल है और समय भी कम। हनुमान तेजी से आकाश में उड़ रहे हैं। तभी समुद्र ने सोचा कि हनुमान बहुत लंबी यात्रा पर निकले हैं, थक गए होंगे, उसने अपने भीतर रह रहे मैनाक पर्वत को कहा कि तुम हनुमान को विश्राम दो।

मैनाक तुरंत उठा, उसने हनुमान से कहा कि हनुमान तुम थक गए होंगे, थोड़ी देर मुझ पर विश्राम कर लो, मुझ पर लगे पेड़ों से स्वादिष्ट फल खा लो। हनुमान ने मैनाक के निमंत्रण का मान रखते हुए सिर्फ उसे छूभर लिया। और कहा कि राम काज किन्हें बिना मोहि कहां विश्राम। रामजी का काम किए बगैर मैं विश्राम नहीं कर सकता। मैनाक का मान भी रह गया। हनुमान आगे चल दिए। रुके नहीं, लक्ष्य नहीं भूले।

खुश रहना है तो थोड़ा समय खुद को भी देना सीखें
व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में हम कुछ खोते जा रहे हैं। हमारा अपना निजत्व। हमारा अपना निजी जीवन। सुबह से लेकर शाम तक आज हम जो कुछ भी कर रहे हैं वो अधिकांश काम सिर्फ दूसरों के लिए ही होते हैं। स्वयं के लिए जीने की समझ, संभावना और गुंजाइश तीनों ही हमारे भीतर से लगभग गुम होती जा रही है। यही कारण है कि हमारे कुछ निजी कामों में भी व्यवसायिक भाव आ गया है।

आज कई लोग यह भूल गए हैं कि खुद के लिए जीया कैसे जाए। हम जब परिवार में होते हैं, बच्चों के साथ होते या मित्रों के साथ, लेकिन दरअसल हम कभी खुद के साथ नहीं होते। अपने कुछ कर्मों अपनी ओर मोड़ लें। कर्म से खुद को भी जोड़ें। हम काम का आर्थिक लाभ देखना ठीक नहीं है।

अपने व्यवसायिक जीवन से थोड़ा वक्त निकालिए, कुछ ऐसा काम करने के लिए जिससे आपको सुकुन मिले। आपके भीतर एक नई ऊर्जा का संचार हो। वक्त को इस तरह बांटिए कि आपके हिस्से में भी थोड़ा सा समय जरूर रहे। अभी लोग अपना पूरा समय दूसरों के लिए रखते हैं। यहां तक कि भोजन और श्रंगार तक हम दूसरों के लिए ही कर रहे हैं, जबकि यह नितांत निजी मामला।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमारे शौक ही हमारा व्यवसाय बन जाता है। फिर आपको खुद को समय देना जरूरी नहीं होता लेकिन अमूमन ऐसा ही होता है कि हमारे शौक कुछ और होते हैं और काम कुछ और। काम का दबाव दिमाग पर होता है और शौक का दबाव दिल पर। जब हम काम छोड़कर शौक पूरा करने जाएंगे तो दिमाग इजाजत नहीं देगा और अगर शौक को छोड़कर काम करेंगे तो दिल झंझोड़ता रहेगा।

आइए एक बार फिर भागवत के एक प्रसंग में चलते हैं। सतयुग के राजा प्रियव्रत का जीवन देखिए। राजा थे, प्रजा की सेवा, सुरक्षा और सहायता में जीवन लगा दिया। देवताओं के भी कई काम किए, लेकिन उन्होंने कभी अपने निजत्व को नहीं खोया। थोड़ा समय वे हमेशा अपने लिए रखते थे। आखेट के बहाने प्रकृति के निकट रहते थे।

इससे उन्हें अच्छे काम करने की नई ऊजा्र मिलती थी। हम भी अपने लिए वक्त निकालें। दूसरे कामों को भी महत्व दें लेकिन हमेशा याद रखें, हमारे मन में संतुष्टि का भाव तभी आता है जब हम कुछ काम खुद के लिए करते हैं।

अगर आत्म संतुष्टि चाहिए तो कुछ काम ऐसे भी करें...
क्यों हर काम हमें पूरी तरह संतुष्टि नहीं देता। संतुष्टि हमारे भीतरी विकास के लिए बहुत आवश्यक है लेकिन अक्सर हम बाहरी दुनिया में इतने खो जाते हैं कि अपने मन की शांति को नजरअंदाज कर देते हैं।

आत्मशक्ति को बढ़ाने के लिए मन की शांति और शक्ति दोनों ही बहुत जरूरी है। कभी-कभी बिना किसी लगाव और स्वार्थ के काम काम करने पर ही आत्म संतुष्टि मिलती है। स्वार्थ से किया गया काम अशांति ही देकर जाएगा, क्योंकि उसमें हम कहीं ना कहीं कोई गलत कर्म जरूर करते हैं।

गलत काम मन में डर पैदा करते हैं। भय कभी संतुष्टि के भाव को जागृत नहीं होने देता। इसलिए कभी-कभी दूसरों के लिए भी जीएं। कुछ काम ऐसे करें, जिसमें आपका स्वार्थ, अहंकार और आसक्ति तीनों ही गौण हो जाएं। अनासक्ति का भाव रहे। तभी आत्मसंतुष्टि का भाव आएगा।

आसक्ति अपेक्षा को पैदा करती है। हम जितने अधिक अनासक्त रहेंगे, उतने अधिक प्रवहमान रहेंगे और जितने आसक्त रहेंगे, मोह में डूबे हुए होंगे, उतने ही जड़ बन जाएंगे। मोह में डूबा हुआ व्यक्ति नई बातों को स्वीकार नहीं करता। वह जीवन के परिवर्तन को भी बर्दाश्त नहीं कर पाता, क्योंकि उसका मोह यह चाहता है कि जैसा वह सोच रहा है, वैसा ही सबकुछ हो जाए। इसी का नाम जड़ता है।

बिना स्वार्थ कर्म कैसे किया जाए, यह बहुत मुश्किल काम है। अक्सर हम कुछ काम करते समय उसमें कोई लगाव का कारण या स्वार्थ को जोड़ ही लेते हैं। महाभारत के इस प्रसंग से सीखिए, कैसे कभी खुद को छोड़कर दूसरों के लिए जीया जाए। भगवान कृष्ण ने जब पांडवों को अकेला देखा, जब उन्होंने यह महसूस किया कि पांडव धर्म के रास्ते पर होने के बाद भी दर-दर भटक रहे हैं। उनकी मदद करने वाला कोई नहीं है तो वे उनकी मदद करने चल पड़े। पूरी महाभारत में भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों का साथ दिया और लगातार उनका मार्गदर्शन किया। इस पूरे युद्ध में श्रीकृष्ण का कोई निजी हित नहीं था।

कृष्ण का मैनेजमेंट फंडा, परिवार और बिजनेस में कैसे लाएं संतुलन
इंसान के लिए सबसे मुश्किल काम क्या है? अपने कर्मक्षेत्र और परिवार के बीच तालमेल बनाना। यहां अच्छे-अच्छे लोग असफल होते देखे गए हैं। जो बिजनेस में कूदे वो परिवार भूल गए, जिन्होंने परिवार संभाला, वे धंधे में मात खा गए। धन की भूख ने हमारे प्रेम की भूख को कम कर दिया है। आज परिवार एक साथ बैठकर बातें करना, भोजन करना, ऐसे सारे काम लगभग भूल चुके हैं। परमाणु परिवारों का बढऩा भी इसी कारण है, क्योंकि व्यक्तिगत लाभ, उन्नति और आनंद की भावना हम सब में घर कर रही है।

संयुक्त परिवारों का विघटन भी इसी व्यवसायिक मानसिकता का परिणाम है। परिवार हमारी संपत्ति है। इस बात को समझना बहुत जरूरी है। खुद के लिए हासिल की गई अपार सफलता भी तब तक पूरा मजा नहीं देती जब तक कि उसे अपनों के साथ बांटा ना जाए।

परिवार को समय दीजिए। सप्ताह या महीने में एक दिन ऐसा निकालें जो सिर्फ परिवार के लिए हो। माता-पिता के साथ बैठें, उनसे चर्चा करें, पति-पत्नी अपने लिए समय निकालें, बच्चों को समय दें। साथ में भोजन करें। कहीं घूमने जाएं। किसी धार्मिक स्थान की यात्रा करें। ये काम आपमें एक अद्भुत ऊर्जा भर देगा।

राम और कृष्ण ने भी अपने पारिवारिक जीवन को दिव्य बनाए रखा। कृष्ण के जीवन में चलते हैं। माता-पिता, भाई-भाभी, 16108 पत्नियां और हर पत्नी से 10-10 बच्चे। कितना बढ़ा कुनबा, कैसा भव्य परिवार। फिर भी सभी कृष्ण से प्रसन्न, किसी को कोई शिकायत नहीं। सभी को बराबर समय दिया। कोई आम आदमी होता तो या तो छोड़कर भाग जाता, या फिर परिवार में ही खप जाता। कृष्ण थे तो संभाल लिया। दुनियाभर के काम किए लेकिन कभी परिवार की अनदेखी नहीं की। जीवन में कुछ नियम थे, जैसे सुबह उठकर माता-पिता से आशीर्वाद, पत्नियों से चर्चा, बच्चों की शिक्षा आदि की व्यवस्था देखना। सबसे हमेशा संवाद बनाए रखना। हमें भी कृष्ण के इस पक्ष से कुछ सिखना चाहिए। परिवार के लिए समय निकालें। दिनचर्या को कुछ ऐसे सेट करें कि परिवार को कोई सदस्य उससे अनछुआ ना रहे।

सफलता चाहिए तो अपने काम में इन तीन बातों को शामिल करें..
कई बार हमें अपने कमों का पूरा परिणाम नहीं मिलता। ऐसी स्थितियां सिर्फ व्यक्तित्व में झुंझलाहट ही पैदा करती हैं। जब व्यक्तित्व में तीखापन आ जाता है तो हर बात पर फिर क्रोध का आवेग आना शुरू हो जाता है। अपने कर्मों की प्लानिंग कीजिए। सिर्फ काम मत कीजिए। अपने काम में तीन चीजों का समावेश कीजिए।

अधिकांश लोग बिना मार्गदर्शन के ही लक्ष्य सिद्धि के लिए निकल पड़ते हैं। ऐसे में असफलता ही मिलनी है। जब भी कोई लक्ष्य साधने निकले तो आपको तरीका पता हो। जीवन की सफलता के तीन सूत्र हैं अगर इन्हें ध्यान में रखा जाए तो कुछ भी पाना असंभव नहीं। जीवन में परिश्रम, प्रार्थना और प्रतीक्षा का बड़ा महत्व है।

परिश्रम में सक्रियता, प्रार्थना में समर्पण और प्रतीक्षा में धर्य छुपा है। इन तीनों के मेल से आदमी पूर्ण कर्मयोगी बनता है। माना जाता है हनुमानजी महाराज भक्त शिरोमणि हैं लेकिन उनका कर्मयोगी स्वरूप भी अद्भुत है। श्रीराम से मिलने के पहले हनुमानजी केवल किष्किंधा के राजा सुग्रीव के सचिव मात्र थे।

उनकी विलक्षण प्रतिभा लगभग सोई हुई थी। एक दिन श्रीराम उनके जीवन में आ गए। राम ने उन्हें स्पर्श किया और हनुमानजी के भीतर की सोई हुई शक्ति जाग गई। यह घटना बड़ी प्रतिकात्मक है। सभी के जीवन में ऐसा होता रहता है। हम अपनी ही ऊर्जा को पहचान नहीं पाते लेकिन एक काम करते रहें।

हनुमानजी महाराज की तरह प्रार्थना और प्रतीक्षा न छोड़ें। हनुमानजी की मां अंजनि ने उन्हें बचपन से ही आश्वस्त कर रखा था कि तुम्हारे जीवन में एक दिन श्रीराम अवश्य आएंगे और तुम्हारा जीवन पूरी तरह से बदल जाएगा। मां के इन शब्दों को बालक हनुमान ने अपने कलेजे पर लिख लिया था। परिश्रम वे करना चाहते थे किंतु ऊर्जा सोई हुई थी लेकिन प्रार्थना और प्रतीक्षा उनके स्वभाव में उतर गई थी।

वे परमात्मा से प्रार्थना करते थे एक न एक दिन मेरे जीवन में जरूर आएं और उसके बाद पूरे धर्य से उन्होंने प्रतीक्षा की। एक दिन श्रीराम उनके जीवन में आ ही गए। यहां दो बातें हैं जिसके संग आप रहते हैं उसके जैसे हो जाते हैं। सुग्रीव भयभीत व्यक्तित्व का व्यक्ति था तो हनुमानजी भी भीतर से थके-थके से हो गए थे। फिर मिला श्रीराम का संग और उनकी ऊर्जा जाग गई। एक ऐसी ऊर्जा जिससे आज तक संसार चार्ज हो रहा है।

यह था राम के संग का प्रभाव। इसलिए संग अच्छा रखें, परिश्रम की सदैव तैयारी हो, प्रार्थना सुबह-शाम करें और प्रतीक्षा करें तो बस परमात्मा की।

हनुमानजी से सीखिए, कम समय और मेहनत में कैसे पाएं ज्यादा परिणाम
आज का दौर कम समय में अधिक काम करने का है, बिना ज्यादा थके अधिकतम परिणाम पाने की प्रतिस्पर्धा है। टाइम मैनेजमेंट आज के दौर की सबसे बड़ी मांग है। किसी भी कर्मचारी से कंपनी तभी खुश है जब वह कम प्रयासों और न्यूनतम समय में अधिकतम परिणाम देता है।

सुंदरकाण्ड में प्रसंग आता है हनुमानजी जैसे ही लंका के लिए चले सबसे पहले उड़ते हुए आंजनेय के सामने सुरसा नामक राक्षसी सामने आती है। इन्हें खाने के लिए उस राक्षसी ने अपना मुंह बड़ा करके खोला तो इन्होंने भी अपने रूप को बड़ा कर लिया। फिर छोटे बनकर उसके मुंह में प्रवेश किया और बाहर निकल गए।

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।

जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी हनुमानजी इसका दुगुना रूप दिखलाते थे। उसने सो योजन (सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।

इस आचरण से उन्होंने बताया कि जीवन में किसी से बड़ा बनकर नहीं जीता जा सकता। लघुरूप होने का अर्थ है नम्रता! जो सदैव विजय दिलाएगी। इस प्रसंग में जीवन-प्रबंधन का एक और महत्वपूर्ण संकते है। हनुमानजी चाहते तो सुरसा से युद्ध कर सकते थे, लेकिन उन्होंने विचार किया मेरा लक्ष्य इससे युद्ध करना नहीं है, इसमें समय और ऊर्जा दोनों नष्ट होंगे, लक्ष्य है सीता शोध।

इसे कहते हैं सहजबुद्धि (कॉमनसेंस)। समय और ऊर्जा बचाने का एक माध्यम शब्द भी हैं इसलिए जीवन में मौन भी साधा जाए। हनुमानजी सुरसा के सामने मौन हो गए थे। एक संत हैं रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार, वे कम बोलने के लिए जाने जाते हैं। पूरी तरह मौनी भी नहीं हैं पर छानकर बोलने की कला भी जानते हैं। कम शब्द की वाणी भीतरी सद्भाव से पूरे व्यक्तित्व को सुगंधित कर देती है और इसीलिए जाते-जाते सुरसा हनुमानजी को आशीर्वाद दे गई।

हनुमान से सीखें, मंजिल पाना है तो ऐसे हो लक्ष्य पर निगाह....
व्यवसायिक जीवन का सबसे बड़ा सच है कि हमें व्यवहारिक होना पड़ता है। व्यवसाय भावनाओं से नहीं किया जा सकता। हम काम-धंधे में जितने भावुक होंगे, सफलता उतनी ही देरी से मिलेगी। अक्सर लोगों के साथ होता यही है, वे जैसे ही अपनी मंजिल की ओर निकलते हैं, बाधाएं उन्हें रोकने लगती हैं। सबसे पहले अपनों की ही रोक-टोक से बाधाओं का सिलसिला शुरू होता है। अपने भले ही हमें हमारे हित के लिए ही रोकते हैं लेकिन अगर रुक गए एक बात हमेशा याद रखें कि सफलता किसी के लिए नहीं ठहरती।

जब भी हम किसी अभियान के लिए निकलते हैं तो सबसे पहले हमारे प्रिय लोग ही हमें देखकर प्रेमवश रोकते है, थोड़ा आराम करने की सलाह देते हैं। अक्सर लोग अपनों की बातों में ही आकर अपने अभियान में ढीले पड़ जाते हैं। फिर लक्ष्य नहीं पाया जा सकता क्योंकि वक्त तो गुजर ही रहा है। थोड़ा सा विश्राम भी मन में कई तरह के विचार ले आता है, व्यक्ति लक्ष्य से हट भी सकता है। कई लोग सिर्फ इसीलिए सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि वे अपने लक्ष्य के पहले ही थक कर आराम करने बैठ जाते हैं। एक बार आराम किया, तो शरीर और मन दोनों थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आराम की मांग करने लगते हैं।

अभ्यास कीजिए, लगातार अपने लक्ष्य की ओर तेजी से बढऩे का। जब तक मंजिल ना मिल जाए, विश्राम ना करें। अपने स्वभाव में इस व्यवहारिक गुण को बैठा लें। हमें अपनों को इंकार करना भी आना चाहिए। कई बार सिर्फ लोगों की बात रखने के लिए ही हम अपने काम में थोड़ा ठहराव ले आते हैं। संभव है क्षणभर का यह ठहराव भी आपको भारी पड़ जाए।

हनुमान से सीखिए, कैसे लक्ष्य तक बिना रुके पहुंचा जाए। रामचरित मानस के सुंदरकांड में चलते हैं। जामवंत से प्रेरित हनुमान पूरे वेग से समुद्र लांघने के लिए चल पड़े हैं। समुद्र के दूसरे छोर पर बसी रावण की नगरी लंका में सीता की खोज करने के लिए हनुमान पूरी ताकत से जुट गए हैं। लक्ष्य बहुत मुश्किल है और समय भी कम। हनुमान तेजी से आकाश में उड़ रहे हैं। तभी समुद्र ने सोचा कि हनुमान बहुत लंबी यात्रा पर निकले हैं, थक गए होंगे, उसने अपने भीतर रह रहे मैनाक पर्वत को कहा कि तुम हनुमान को विश्राम दो।

मैनाक तुरंत उठा, उसने हनुमान से कहा कि हनुमान तुम थक गए होंगे, थोड़ी देर मुझ पर विश्राम कर लो, मुझ पर लगे पेड़ों से स्वादिष्ट फल खा लो। हनुमान ने मैनाक के निमंत्रण का मान रखते हुए सिर्फ उसे छूभर लिया। और कहा कि राम काज किन्हें बिना मोहि कहां विश्राम। रामजी का काम किए बगैर मैं विश्राम नहीं कर सकता। मैनाक का मान भी रह गया। हनुमान आगे चल दिए। रुके नहीं, लक्ष्य नहीं भूले।

ऐसे कर्म हों तो खराब किस्मत को भी बदला जा सकता है...
एक बड़े ज्ञानी संत थे। उनका एक शिष्य था जो हमेशा उनके साथ रहता था। एक दिन संत ने अपने शिष्य को बुलाकर कहा कि मैं कहीं दूर योग साधना के लिए जा रहा हूं। तुम्हारी गुरु मां अभी गर्भवती हैं। उन्हें जल्दी ही संतान प्राप्ति होने वाली है। तुम उनके पास ही रहो। जब भी मेरी संतान जन्म ले, तुम तत्काल उसकी कुंडली बना लेना ताकि उसका भविष्य देखा जा सके।

शिष्य ने गुरु की बात मान ली। संत चले गए। एक दिन गुरु मां को प्रसव पीड़ा हुई, उसने एक पुत्र को जन्म दिया। शिष्य ने तत्काल नक्षत्रों की गणना कर उसकी कुंडली तैयार की। पुत्र का भाग्य बहुत खराब था। उसके भाग्य में सिर्फ एक बोरी अनाज और एक पशु ही था। शिष्य को उसकी चिंता हुई। उसने अपने गुरु भाई के भविष्य को बचाने के लिए तप की ठानी।

वो जंगलों में निकल गया। कई साल बाद जब वो तप करके लौटा तो उसने देखा, जहां आश्रम था, वहां एक झोपड़ी है। उस झोपड़ी में उसके गुरु का वही पुत्र रहता है। बहुत गरीब था, सिर्फ एक बोरी अनाज और एक गाय उसके यहां थी। पत्नी और बच्चे भी कई बार भूखे रह जाते। शिष्य ने अपने गुरु भाई से कहा कि तुम ये अनाज और गाय बाजार में बेच आओ इससे जो धन मिले उससे गरीबों को भोजन कराओ।

गुरु के पुत्र ने कहा ऐसे तो मेरा जीवन बरबाद हो जाएगा। ये एक बोरी अनाज और गाय ही तो मेरी गृहस्थी का आधार है। संत ने कहा कुछ नहीं होगा। मैं जैसा कहता हूं वैसा करो। गुरु भाई ने ऐसा ही किया। अगले दिन फिर उसके घर के आंगन में एक गाय और एक बोरी अनाज बंधा था। संत ने फिर उससे वही करने को कहा। फिर तो ये रोज का सिलसिला बन गया। धीरे-धीरे गुरु भाई की आर्थिक स्थिति सुधरती गई।

संत ने उसे समझाया कि एक बोरी अनाज और गाय तो तुम्हारे भाग्य में था ही, वो तो तुम खर्च करते तो फिर कहीं से मिल ही जाता। इसे बेचकर तुमने गरीबों को भोजन कराया तो तुम्हारे पुण्य बढऩे लगे, इससे तुम्हारे भाग्य के दोष कम हो गए।

हम भी अक्सर किस्मत के लिखे को ही अंतिम सत्य मानकर बैठ जाते हैं। कभी अपने भाग्य को बदलने का प्रयास नहीं करते। अगर प्रयास किया जाए तो भाग्य को भी अपने कर्मों से बदला जा सकता है। हमें अगर कोई भविष्य बताए तो उसे ही सत्य मानकर ना जीएं, उसमें अपने कर्मों को शामिल करें। अच्छे कर्मों से भाग्य भी बदला जा सकता है।

आपके कर्मों में ये सोच होना भी जरूरी है, तभी बड़ी कामयाबी मिलेगी
लाक्षागृह की आग से बचने के बाद पांडव और उनकी मां कुंती, ब्राह्मण के वेश में एक छोटे से राज्य में रहने लगे। एक कुम्हार के घर उन्हें आश्रय मिल गया। पांचों भाई भिक्षा मांगकर अपना भरण पोषण करते थे। उन्होंने अपने सत्य को किसी पर प्रकट नहीं होने दिया कि वे क्षत्रिय हैं और हस्तिनापुर के राज परिवार से हैं।

उस राज्य के बाहर जंगल में एक राक्षस बकासुर रहता था। उसका बहुत आतंक था। वो राज्य में आकर सबकुछ नष्ट ना कर दे, इसके लिए उसे हर रोज नगर के एक घर का कोई सदस्य एक गाड़ी भरकर भोजन देने जाता था। राक्षस का नियम था कि वो भोजन लाने वाले को भी मार कर खा जाता था।

एक दिन कुंती ने उसी घर में रोने की आवाजें सुनीं। कुम्हार, उसकी पत्नी और उसके दोनों बच्चे रो रहे थे। कुंती ने पूछा कि क्यों रो रहे हैं तो कुम्हार ने बताया कि आज बकासुर को भोजन देने कि बारी हमारे परिवार की है। कुंती ने सोचा इस परिवार ने हमें आश्रय दिया है, अगर इनके परिवार से कोई गया तो यह परिवार टूट जाएगा।

कुंती ने कहा आप लोगों ने हमें आश्रय दिया है। हमारा कर्तत्व है कि हम आपके संकट को दूर करें। मेरे पांच पुत्र हैं अगर उसमें से कोई एक नहीं भी रहा तो भी चलेगा लेकिन आपके परिवार पर कोई संकट नहीं आने देंगे। कुंती ने भीम के भोजन की गाड़ी ले जाने की आज्ञा दी। भीम ने जंगल में जाकर उस राक्षस को मार दिया। सारे नगर का संकट टल गया।

हमारे कर्मों में उपकार का मूल्य चुकाने का भाव होना चाहिए। कुंती ने कुम्हार के परिवार को उपकार अपने पुत्र को भेजकर चुकाया। अगर हम अपने कर्मों में ये भाव नहीं है तो उनका फल भी नहीं मिलता है। जो लोग दूसरों के एहसान को भूल जाते हैं वे अक्सर थोड़ी सफलता के बाद बड़ी असफलताओं की ओर बढ़ जाते हैं।

खुश रहने का एक तरीका ये भी है, आजमाकर देखिए...
व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में हम कुछ खोते जा रहे हैं। हमारा अपना निजत्व। हमारा अपना निजी जीवन। सुबह से लेकर शाम तक आज हम जो कुछ भी कर रहे हैं वो अधिकांश काम सिर्फ दूसरों के लिए ही होते हैं। स्वयं के लिए जीने की समझ, संभावना और गुंजाइश तीनों ही हमारे भीतर से लगभग गुम होती जा रही है। यही कारण है कि हमारे कुछ निजी कामों में भी व्यवसायिक भाव आ गया है।

आज कई लोग यह भूल गए हैं कि खुद के लिए जीया कैसे जाए। हम जब परिवार में होते हैं, बच्चों के साथ होते या मित्रों के साथ, लेकिन दरअसल हम कभी खुद के साथ नहीं होते। अपने कुछ कर्मों अपनी ओर मोड़ लें। कर्म से खुद को भी जोड़ें। हम काम का आर्थिक लाभ देखना ठीक नहीं है।

अपने व्यवसायिक जीवन से थोड़ा वक्त निकालिए, कुछ ऐसा काम करने के लिए जिससे आपको सुकुन मिले। आपके भीतर एक नई ऊर्जा का संचार हो। वक्त को इस तरह बांटिए कि आपके हिस्से में भी थोड़ा सा समय जरूर रहे। अभी लोग अपना पूरा समय दूसरों के लिए रखते हैं। यहां तक कि भोजन और श्रंगार तक हम दूसरों के लिए ही कर रहे हैं, जबकि यह नितांत निजी मामला।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमारे शौक ही हमारा व्यवसाय बन जाता है। फिर आपको खुद को समय देना जरूरी नहीं होता लेकिन अमूमन ऐसा ही होता है कि हमारे शौक कुछ और होते हैं और काम कुछ और। काम का दबाव दिमाग पर होता है और शौक का दबाव दिल पर। जब हम काम छोड़कर शौक पूरा करने जाएंगे तो दिमाग इजाजत नहीं देगा और अगर शौक को छोड़कर काम करेंगे तो दिल झंझोड़ता रहेगा।

आइए एक बार फिर भागवत के एक प्रसंग में चलते हैं। सतयुग के राजा प्रियव्रत का जीवन देखिए। राजा थे, प्रजा की सेवा, सुरक्षा और सहायता में जीवन लगा दिया। देवताओं के भी कई काम किए, लेकिन उन्होंने कभी अपने निजत्व को नहीं खोया। थोड़ा समय वे हमेशा अपने लिए रखते थे। आखेट के बहाने प्रकृति के निकट रहते थे।

इससे उन्हें अच्छे काम करने की नई ऊजा्र मिलती थी। हम भी अपने लिए वक्त निकालें। दूसरे कामों को भी महत्व दें लेकिन हमेशा याद रखें, हमारे मन में संतुष्टि का भाव तभी आता है जब हम कुछ काम खुद के लिए करते हैं।

हनुमानजी से सीखें कम समय में कैसे प्राप्त करें मुश्किल लक्ष्य...
व्यवसायिक जीवन का सबसे बड़ा सच है कि हमें व्यवहारिक होना पड़ता है। व्यवसाय भावनाओं से नहीं किया जा सकता। हम काम-धंधे में जितने भावुक होंगे, सफलता उतनी ही देरी से मिलेगी। अक्सर लोगों के साथ होता यही है, वे जैसे ही अपनी मंजिल की ओर निकलते हैं, बाधाएं उन्हें रोकने लगती हैं। सबसे पहले अपनों की ही रोक-टोक से बाधाओं का सिलसिला शुरू होता है। अपने भले ही हमें हमारे हित के लिए ही रोकते हैं लेकिन अगर रुक गए एक बात हमेशा याद रखें कि सफलता किसी के लिए नहीं ठहरती।

जब भी हम किसी अभियान के लिए निकलते हैं तो सबसे पहले हमारे प्रिय लोग ही हमें देखकर प्रेमवश रोकते है, थोड़ा आराम करने की सलाह देते हैं। अक्सर लोग अपनों की बातों में ही आकर अपने अभियान में ढीले पड़ जाते हैं। फिर लक्ष्य नहीं पाया जा सकता क्योंकि वक्त तो गुजर ही रहा है। थोड़ा सा विश्राम भी मन में कई तरह के विचार ले आता है, व्यक्ति लक्ष्य से हट भी सकता है। कई लोग सिर्फ इसीलिए सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि वे अपने लक्ष्य के पहले ही थक कर आराम करने बैठ जाते हैं। एक बार आराम किया, तो शरीर और मन दोनों थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आराम की मांग करने लगते हैं।

अभ्यास कीजिए, लगातार अपने लक्ष्य की ओर तेजी से बढऩे का। जब तक मंजिल ना मिल जाए, विश्राम ना करें। अपने स्वभाव में इस व्यवहारिक गुण को बैठा लें। हमें अपनों को इंकार करना भी आना चाहिए। कई बार सिर्फ लोगों की बात रखने के लिए ही हम अपने काम में थोड़ा ठहराव ले आते हैं। संभव है क्षणभर का यह ठहराव भी आपको भारी पड़ जाए।

हनुमान से सीखिए, कैसे लक्ष्य तक बिना रुके पहुंचा जाए। रामचरित मानस के सुंदरकांड में चलते हैं। जामवंत से प्रेरित हनुमान पूरे वेग से समुद्र लांघने के लिए चल पड़े हैं। समुद्र के दूसरे छोर पर बसी रावण की नगरी लंका में सीता की खोज करने के लिए हनुमान पूरी ताकत से जुट गए हैं। लक्ष्य बहुत मुश्किल है और समय भी कम। हनुमान तेजी से आकाश में उड़ रहे हैं। तभी समुद्र ने सोचा कि हनुमान बहुत लंबी यात्रा पर निकले हैं, थक गए होंगे, उसने अपने भीतर रह रहे मैनाक पर्वत को कहा कि तुम हनुमान को विश्राम दो।

मैनाक तुरंत उठा, उसने हनुमान से कहा कि हनुमान तुम थक गए होंगे, थोड़ी देर मुझ पर विश्राम कर लो, मुझ पर लगे पेड़ों से स्वादिष्ट फल खा लो। हनुमान ने मैनाक के निमंत्रण का मान रखते हुए सिर्फ उसे छूभर लिया। और कहा कि राम काज किन्हें बिना मोहि कहां विश्राम। रामजी का काम किए बगैर मैं विश्राम नहीं कर सकता। मैनाक का मान भी रह गया। हनुमान आगे चल दिए। रुके नहीं, लक्ष्य नहीं भूले।

सिर्फ एक बार ऐसा सोचे, फिर करें कोई भी काम...
जब कभी हम कोई कर्म करते हैं तो यह नहीं सोचते कि हमारे परिवार पर इसका क्या असर होगा। अक्सर नासमझी या अनदेखी में कई काम ऐसे हो जाते हैं जो हमने किए खुद के लिए थे, परिणाम परिवार को भुगतना पड़ता है। जीवन में परिवार की वरीयता शेष चीजों से ऊपर रहे। परिवार पूंजी है, रिश्ते हमारी सम्पत्ति। जब भी कोई काम करें तो यह अनुमान पहले ही लगा लें कि इससे आपकी इस जायदाद पर तो कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा।

अहंकार जब परिवार में प्रवेश करता है तो फिर वहां परिवार गौण और व्यक्तिवाद हावी हो जाता है। परिवार का हर सदस्य केवल स्वयं का लाभ या हानि देखने लगता है। अगर परिवार का मुखिया भी इसी भाव में जीने लगे तो फिर वो परिवार रह ही नहीं जाता। वो सिर्फ व्यक्तियों का एक समूह बनकर रह जाता है। जहां हर आदमी अपनी ही सोच में डूबा होता है।

परिवार को सहेजने के लिए यह ध्यान रखना जरूरी है कि हम क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं और इसका क्या परिणाम भुगतना पड़ सकता है। आप कुछ भी करें, अगर गलत किया है तो कीमत परिवार को भी चुकानी ही पड़ेगी। हमसे परिवार जुड़ा हुआ है, चाहें हम साथ रहें या ना रहें। एक डोर हमें बांधे हुए है।

रावण से सीखें, अहंकार और क्रोध ने रावण का तो सर्वनाश किया ही, पूरे राक्षस कुल को प्राण देकर रावण के बुरे कर्मों की कीमत चुकानी पड़ी। शक्ति के अभिमान में रावण ने कभी यह नहीं सोचा था कि उसके परिवार का भी विनाश हो जाएगा। राक्षस कुल के अधिकतर सदस्य रावण की चाटुकारिता में थे, कुछ उससे डरते थे और जो निडर होकर सत्य बोलते थे उनकी सुनी नहीं जाती थी। पूरे परिवार की बागडोर रावण के हाथ थी लेकिन रावण खुद अपने अहंकार के हाथ की कठपुतली था। उसका अहंकार उससे जो कराता, वो वही करता था।

परिणाम हमारे सामने है। अगर रावण ने एक पल के लिए भी यह सोचा होता कि उसके कर्मों का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ सकता है तो शायद वो इतनी बड़ी चूक करने से बच जाता। लेकिन सिर्फ अहंकार के कारण उसे अपने कर्मों में परिवार के अच्छे-बुरे का ध्यान नहीं रहा। हमेशा याद रखें आपके हर एक कर्म से एक महीन डोर परिवार के साथ बंधी है। हमारा कर्म जिस दिशा में होगा, परिवार भी उसी दिशा में खिंचा जाएगा।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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