Tuesday, January 17, 2012

Grahasthi (ग्रहस्थी )

इन सात बातों से मजबूत होता है पति-पत्नी का रिश्ता
दाम्पत्य कहते किसे हैं? क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है।

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों के मिलन से ही अधूरापन भरता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनद पूर्ण हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात हैं। रामायण में राम सीता के दाम्पत्य में ये सात बातें देखने को मिलती हैं।

संयम : यानि समय-यमय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना। राम-सीता ने अपना संपूर्ण दाम्पत्य बहुत ही संयम और प्रेम से जीया। वे कहीं भी मानसिक या शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए।

संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना। दोनों एक दूसरे से पूर्णत: संतुष्ट थे। कभी राम ने सीता में या सीता ने राम में कोई कमी नहीं देखी।

संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका रहती है। राम और सीता के बीच वनवास को खत्म करने और सीता को पवित्र साबित करने में उनके बच्चों लव और कुश ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना। राम और सीता के बीच संवेदनाओं का गहरा रिश्ता था। दोनों बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते थे।

संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना।

सक्षम : सामथ्र्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है।

समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है।

कैसे बनाएं अपनी गृहस्थी को सुखी और सफल? सीखें ये सूत्र...
पति-पत्नी किसी भी गृहस्थी की धुरी होते हैं। इनकी सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार होती है। अगर पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ा भी दुराव या अलगाव है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता। परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है।

पति-पत्नी का संबंध तभी सार्थक है जबकि उनके बीच का प्रेम सदा तरोताजा बना रहे। तभी तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण कहा जाता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनदपूर्ण हो जाता है। मात्र पत्नी से ही सारी अपेक्षाएं करना और पति को सारी मर्यादाओं और नियम-कायदों से छूट दे देना बिल्कुल भी निष्पक्ष और न्यायसंगत नहीं है। स्त्री में ऐसे कई श्रेष्ठ गुण होते हैं जो पुरुष को अपना लेना चाहिए। प्रेम, सेवा, उदारता, समर्पण और क्षमा की भावना स्त्रियों में ऐसे गुण हैं, जो उन्हें देवी के समान सम्मान और गौरव प्रदान करते हैं।

जिस प्रकार पतिव्रत की बात हर कहीं की जाती है, उसी प्रकार पत्नी व्रत भी उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। जबकि गहराई से सोचें तो यही बात जाहिर होती है कि पत्नी के लिये पति व्रत का पालन करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा आवश्यक है पति का पत्नी व्रत का पालन करना। दोनों का महत्व समान है। कर्तव्य और अधिकारों की दृष्टि से भी दोनों से एक समान ही हैं।

जो नियम और कायदे-कानून पत्नी पर लागू होते हैं वही पति पर भी लागू होते हैं। ईमानदारी और निष्पक्ष होकर यदि सोचें तो यही साबित होता है कि स्त्री पुरुष की बजाय अधिक महम्वपूर्ण और सम्मान की हकदार है।

देखिए भगवान राम ने कैसे सीता से अपने विवाह के साथ ही सफल दाम्पत्य की नींव रखी। सीता को भगवान राम ने विवाह के बाद सबसे पहला उपहार क्या दिया। राम ने सीता को वचन दिया कि जिस तरह से दूसरे राजा कई रानियां रखते हैं, कई विवाह करते हैं, वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। हमेशा सीता के प्रति ही निष्ठा रखेंगे। विवाह के पहले ही दिन एक दिव्य विचार आया। रिश्ते में भरोसे और आस्था का संचार हो गया। सफल गृहस्थी की नींव पड़ गई। राम ने अपना यह वचन निभाया भी। सीता को ही सारे अधिकार प्राप्त थे। राम ने उन्हें कभी कमतर नहीं आंका।

गृहस्थी और संतान का सुख चाहिए, तो यह पढ़ें...
परिवार का आधार गृहस्थी होती है और गृहस्थी की धुरी दाम्पत्य पर टिकी होती है। लोग परिवार, गृहस्थी और दाम्पत्य को एक ही समझते हैं लेकिन इनमें बहुत बारीक अंतर होता है। दाम्पत्य, पति-पत्नी के निजी संबंधों से चलता है, गृहस्थी पति-पत्नी के साथ संतान की जिम्मेदारियों से जुड़ी होती है, जिसमें आर्थिक, मानसिक और भौतिक तीनों स्तरों पर व्यवस्था मुख्य होती है।

परिवार इन सब का समग्र रूप है, जिनमें पति-पत्नी और संतान के अलावा अन्य रिश्ते भी शामिल होते हैं। अगर गृहस्थी की बात करें तो यह शुरू होती है दाम्पत्य से। पति-पत्नी के रिश्ते में समर्पण, प्रेम और कर्तव्य का भाव ना हो तो गृहस्थी सफल हो ही नहीं सकती। हमारे प्रेम और कर्मों से ही हमारी संतानों के संस्कार और भविष्य दोनों जुड़े हैं। पति-पत्नी सिर्फ खुद के लिए ना जीएं, संतान हमारी सम्पत्ति हैं, इन्हें व्यर्थ ना जाने दें। संस्कार दें, समझ दें और कर्तव्य का भाव पैदा करें।

देखिए महाभारत में धृतराष्ट्र और गांधारी का दाम्पत्य। धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे। उनका विवाह सुंदर गांधारी से हुआ। गांधारी ने जब देखा कि मेरे पति जन्म से अंधे हैं तो उसने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। पिता अंधा था, माता ने अंधत्व ओढ़ लिया। दोनों अपनी संतानों के प्रति कर्तव्य से विमुख हो गए। संस्कार और शिक्षा दोनों की व्यवस्था सेवकों के हाथों में आ गई। माता-पिता में से कोई भी उनकी ओर देखने वाला नहीं था। सो, सारी संतानें दुराचारी हो गईं।

गांधारी अगर यह सोचकर आंखों पर पट्टी नहीं बांधती कि संतानों का क्या होगा, उनके लालन-पालन की व्यवस्था कौन देखेगा तो शायद महाभारत का युद्ध होने से रुक जाता। लेकिन पति-पत्नी ने सिर्फ अपने दाम्पत्य के सुख को देखा, गृहस्थी यानी संतान और अन्य कामों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। संतानें सिर्फ सम्पत्ति नहीं होती, वे हमारा कर्तव्य भी हैं। अगर अपने रिश्तों में इस बात का ध्यान नहीं दिया तो परिणाम भी हमें ही देखना होगा।

गृहस्थी में हो ये भूख तो सुखी रहेंगे पति-पत्नी...
सही भूख हो तो रूखी रोटी भी छप्पन भोग का मजा दे जाती है, वरना छप्पन भोग भी अपच कर जाएंगे। भूख का अर्थ है जीवन के प्रति एक तीव्र आवश्यकता। गृहस्थी एक भूख है। अगर जीवन में यह भूख नहीं हो तो गृहस्थी के सारे सुख बेस्वाद हो जाएंगे। गृहस्थी की भूख को बढ़ाने में आपसी संतुलन और प्रेम टॉनिक का काम करते हैं। ये भूख तो बढ़ाते ही हैं, स्वाद भी इन्हीं में निहित है।

यदि इसमें प्रेम है तो स्वाद है, वरना यह बेस्वाद है। कुछ लोगों ने अपनी गृहस्थी को मन और विचार में उठी भूख की तरह बना लिया है। बिना स्वाद के खाए चले जा रहे हैं। आज भी घरों में अन्न का केंद्रीय नियंत्रण महिलाओं के हाथ में रहता है। वे चौके-चूल्हे ही नहीं, वहां से संस्कारों का संचालन भी करती हैं।

इसीलिए घर की स्त्री सम्मानित, संतुष्ट व स्वावलंबी होनी चाहिए, लेकिन उन्हें चौके तक ही सीमित कर दिया जाए, यह भी उचित नहीं। उनका यही ममता भरा भाव जब देहरी पार आकर सार्वजनिक जीवन में उतरेगा तो समाज में व्याप्त स्वार्थपरकता, निष्ठुरता, हिंसा और विलासिता का वातावरण भी नियंत्रित होगा।

पांडवों को देखिए, पांचों भाइयों की गृहस्थी में प्रेम और रिश्तों का संतुलन देखिए। पांचों भाइयों की एक पत्नी थी द्रौपदी। पांचों भाइयों की अपनी अलग-अलग गृहस्थी भी थी। फिर भी देखिए, पांचों भाइयों का प्रेम द्रौपदी के लिए एक समान था। पांचों कभी द्रौपदी को अकेला नहीं छोड़ते थे। ना ही अपनी अन्य पत्नियों के लिए उनके मन में प्रेम कम हुआ। ये सिर्फ प्रेम के कारण ही संभव है। अर्जुन, भीम की तो दो से अधिक पत्नियां थीं फिर भी द्रौपदी का स्थान सबसे अलग था।

इसका सिर्फ एक कारण था, उनकी गृहस्थी वासना पर नहीं टिकी थी। शरीर से परे भावनाएं उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण थी। एक-दूसरे के प्रति सम्मान, एक दूसरे की भावनाओं का आदर, एक दूसरे के प्रति प्रेम ही आधार था।

गृहस्थी बसाने से पहले ये एक काम जरूर कर लें
भगवान राम के विवाह प्रसंग में चलते हैं। सीता का स्वयंवर चल रहा है। शिव का धनुष तोडऩे वाले से सीता का विवाह किया जाएगा, यह शर्त थी सीता के पिता जनक की। कई राजाओं और वीरों ने प्रयास किया लेकिन धनुष किसी से हिला तक नहीं। तक ऋषि विश्वामित्र ने राम को आज्ञा दी। जाओ राम धनुष उठाओ। राम ने सबसे पहले अपने गुरु को नमन किया। फिर शिव का ध्यान करके धनुष को प्रणाम किया। देखते ही देखते, धनुष को उठाया और उसे किसी खिलौने की तरह तोड़ दिया।

आखिर धनुष ही क्यों उठाया और तोड़ा गया। धनुष ही विवाह के पहले की शर्त क्यों थी। वास्तव में इसके मर्म में चलें तो इस प्रसंग को आसानी से समझा जा सकता है। अगर दार्शनिक रूप से समझें तो धनुष अहंकार का प्रतीक है। अहंकार जब तक हमारे भीतर हो, हम किसी के साथ अपना जीवन नहीं बीता सकते। अहंकार को तोड़कर ही गृहस्थी में प्रवेश किया जाए। इसके लिए विवाह करने वाले में इतनी परिपक्वता और समझ होना आवश्यक है।

भारतीय परिवार में अक्सर विवाह या तो नासमझी में किया जाता है या फिर आवेश में। आवेश सिर्फ क्रोध का नहीं होता, भावनाओं का होता है। फिर चाहे प्रेम की भावना में बहकर किया गया हो लेकिन अक्सर लोग अपनी गृहस्थी की शुरुआत ऐसे ही करते हैं।

विवाह एक दिव्य परंपरा है, गृहस्थी एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लेकिन हम इसे सिर्फ एक रस्म के तौर पर देखते हैं। गृहस्थी बसाने के लिए सबसे पहले भावनात्मक और मानसिक स्तर पर पुख्ता होना होता है। हम अपने आप को परख लें। घर के जो बुजुर्गवार रिश्तों के फैसले तय करते हैं वे अपने बच्चों की स्थिति को समझें। क्या बच्चे मानसिक और भावनात्मक स्तर पर इतने सशक्त हैं कि वे गृहस्थी जैसी जिम्मेदारी को निभा लेंगे।

जीवन में उत्तरदायित्व कई शक्लों में आता है। सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है शादी करके घर बसाना। गृहस्थ जीवन को कभी भी आवेश या अज्ञान में स्वीकार न करें, वरना इसकी मधुरता समाप्त हो जाएगी। आवेश में आकर गृहस्थी में प्रवेश करेंगे तो ऊर्जा के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाएगी। हो सकता है रिश्तों में क्रोध अधिक बहे, प्रेम कम। यदि अज्ञान में आकर घर बसाएंगे, तब हमारे निर्णय परिपक्व व प्रेमपूर्ण नहीं रहेंगे।

गृहस्थी का आधार सिर्फ धन या वासना ना रहे, इसमें इन्हें भी रखें...
समाज या देश कोई भी हो, अक्सर लोगों का वैवाहिक जीवन दो ही चीजों पर टिक जाता है अर्थ और काम। या तो रिश्ते को अर्थ की भूख ढंक लेती है या पति-पत्नी वासना की चादर ओढ़ लेते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में गृहस्थी केवल एक समझौता हो जाती है। दाम्पत्य एक दिव्य संबंध होता है, जो सीधे परमात्मा से जोड़ता है। अपनी गृहस्थी को मंदिर बनाइए। इसमें जैसे ही परमात्मा का प्रवेश होगा, ये सांसारिकता से ऊपर उठ जाएगी।

विवाह केवल शारीरिक आवश्यकता या वश वृद्धि के लिए नहीं होता। भागवत के प्रसंग में चलिए। जहां सृष्टि का निर्माण हुआ। पहले पुरुष मनु और पहली स्त्री शतरूपा का जन्म हुआ। उन पर ही मानव वंश की वृद्धि का भार भी था लेकिन उन्होंने कभी अपने रिश्ते का आधार वासना को नहीं बनाया। उन्होंने संतान उत्पत्ति को भी परमात्मा को समर्पित किया। घोर तपस्या की। ब्रह्मा को प्रसन्न किया। वरदान मांगा देव तुल्य संतानों की उत्पत्ति का।

मनु और शतरूपा ने ही सारे मानव और देव वंश को आगे बढ़ाया लेकिन उनके संबंध में न तो अर्थ था और ना ही कभी काम आया। दोनों ही भाव उनसे दूर रहे। दोनों ने अपने दाम्पत्य में कुछ कड़े नियम तय किए। जैसे संभोग सिर्फ संतान उत्पत्ति का साधन रहे, ना कि वो पूरे रिश्ते का आधार बने। देव पूजा नियमित हो, जो भी संतान उत्पन्न हो उसमें उच्च संस्कारों का संचार किया जाए। इसलिए मनु को आदि पुरुष माना गया है। जिन्होंने समाज को पूरी व्यवस्था दी।

हम भी गृहस्थी में रहें तो पति-पत्नी दोनों अपने लिए कुछ नियम तय करें। जिसमें परिवार, संतान, समाज और परमात्मा सभी के लिए कुछ सकारात्मक और रचनात्मक हो। तभी दाम्पत्य सफल भी होगा।

गृहस्थी में ये दो बातें जरूरी हैं तभी मिलेगा सुख
अगर हम ये मानें कि गृहस्थी एक वृक्ष है तो इसके फल क्या हैं। गृहस्थी के वृक्ष के दो ही फल हो सकते हैं संतुष्टि और शांति। अगर दाम्पत्य में ये दोनों फल नहीं हैं तो गृहस्थी बंजर है। ये दो फल ही तय करते हैं कि आपका दाम्पत्य कितना सफल है।

जिस घर में संतुष्टि और शांति नहीं हो, वो असफल है। परिवार के वृक्ष पर ये फल तब ही लगेंगे, जब जड़ें गहरी और मजबूत होंगी। जड़ों में जब पर्याप्त जल और खाद डाली जाती है, तब वृक्ष फलता-फूलता है। यही प्राकृतिक समीकरण गृहस्थी पर भी लागू होता है। जैसे वृक्ष हमसे मांगते कम हैं और हमें देते ज्यादा हैं, यही सिद्धांत जब परिवार के सदस्यों में उतरता है तो गृहस्थी यहीं वैकुंठ बन जाती है। समर्पण का भाव जितना अधिक होगा, देने की वृत्ति उतनी ही प्रबल होगी।

स्त्री और पुरुष दोनों के धर्म का मूल स्रोत समर्पण में है। इस प्रवृत्ति को अधिकार द्वारा लोग समाप्त कर लेते हैं। घर-परिवार में हम जितना अधिक अधिकार बताएंगे, विघटन उतना अधिक बढ़ जाएगा। प्रेम गायब हो जाएगा और भोग घरभर में फैल जाएगा। एक-दूसरे को सुख पहुंचाने, प्रसन्न रखने के इरादे खत्म होने लगते हैं और मेरे लिए ही सबकुछ किया जाए, यह विचार प्रधान बन जाता है। स्वच्छंदता यहीं से शुरू होती है, जो परिवार के अनुशासन को लील लेती है।

भागवत में चलते हैं, ऋषि कश्यप और दिति के दाम्पत्य में। ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थी, वे सभी बहनें थी और प्रजापति दक्ष की पुत्रियां थी। धरती के सारे जीव, देवता और दानव इन्हीं की संतानें मानी जाती हैं। अदिति से सारे देवताओं का जन्म हुआ, जबकि दिति से दानवों का। पिता एक ही है लेकिन संतानें एकदम अलग-अलग। सिर्फ दाम्पत्य में संतुष्टि और शांति का फर्क है। अदिति और कश्यम के दाम्पत्य में ये दोनों बातें थीं लेकिन दिति ने अपने भोग और वासना के आगे, शांति और संतुष्टि दोनों को त्याग दिया।

जिस समय ऋषि कश्यप संध्या-पूजन के लिए जा रहे थे, दिति ने कामवश होकर उसी समय उनसे रतिदान मांग लिया। देव पूजन के समय भी संयम नहीं बरता गया। कश्यम ने पत्नी की इच्छा तो पूरी कर दी लेकिन उसे ये भी बता दिया इस रतिदान से जो संतानें उत्पन्न होंगी वे सब दुराचारी होंगी।

गृहस्थी में वासना और देह ही सब कुछ नहीं होते। इसमें संतुष्टि और अनुशासन को भी स्थान देना होता है।

ऐसी हो गृहस्थी तो भगवान को भी झुकना पड़ता है
आज के युवा वर्ग में अक्सर गृहस्थी की शुरुआत आकर्षण से शुरू हो, वासना से गुजरती हुई, अशांति पर आकर ठहर जाती है। लोग गृहस्थी को एक समझौता या दैहिक आवश्यकता मानकर रह जाते हैं। इसलिए कई बार ऐसा भी होता है कि शादी एक बंधन और गृहस्थी एक कैद सी महसूस होने लगती है।

हम चूक जाते हैं इस रिश्ते के रचनात्मक निर्माण में। अक्सर विवाह दैहिक होकर ही रह जाता है। उसमें वो दिव्यता नहीं आ पाती जो हमें परमात्मा की राह पर ले जाए। रामायण के एक प्रसंग में अत्रि ऋषि और अनुसुईया के दाम्पत्य में चलते हैं। अत्रि ऋषि और अनुसुईया दोनों पति-पत्नी होने के साथ ही बड़े तपस्वी भी थे।

उनके तप में इतना बल था कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं को उनके आगे नतमस्तक होना पड़ा। उनके रिश्ते में इतनी दिव्यता थी कि शरीर का भाव जाता रहा। एक बार तीनों देवताओं ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी। तीनों साधु का वेश बनाकर भिक्षा मांगने आ गए। अनुसुईया भिक्षा देने आई तो तीनों ने शर्त रख दी कि भिक्षा तभी लेंगे जब अनुसुईया अपने शरीर के ऊपरी वस्त्र निकालकर आए।

यह एक कठिन समय था। कोई और स्त्री होती तो शायद तीनों को अपमानित कर भगा देती लेकिन अनुसुईया ने सोचा कि साधुओं को खाली हाथ लौटाने में अशुभ की आशंका है। पति के साथ कुछ अशुभ ना हो जाए। अनुसुईया ने मन ही मन परमात्मा का ध्यान किया। अपने ईष्ट का स्मरण करते हुए मन ही मन प्रार्थना की अगर मेरा पतिव्रत सच्चा है, मेरी तपस्या में पुण्य है तो ये तीनों साधु तत्काल बालक बन जाएं।

नन्हें अबोध बालकों के सामने इस अवस्था में जाना माता के लिए मुश्किल नहीं था। तीनों देवता, अनुसुईया के इस सतीत्व और पतिव्रत से प्रसन्न हुए। उन्होंने अनुसुईया से इसका रहस्य पूछा तो उसने तीनों देवों को बताया कि हमारे दाम्पत्य का आधार प्रेम और परमात्मा है। हमने आपसी प्रेम को एक डोर में पिरोकर उसे परमशक्ति को समर्पित कर दिया है। इस लिए हमारे दाम्पत्य में इतनी दिव्यता है। हम सिर्फ एक दूसरे से ही प्रेम और विश्वास नहीं रखते, हमने इस प्रेम और विश्वास को परमात्मा से जोड़ दिया है।

वो दाम्पत्य सबसे ज्यादा खुशहाल है जिसमें ये पांच बातें हों...
गृहस्थी कौन सी सबसे ज्यादा सुखी मानी जाती है। इस बात को लेकर लंबी बहस हो सकती है लेकिन सच तो यही है कि गृहस्थी वो ही सबसे ज्यादा सुखी है जहां प्रेम, त्याग, समर्पण, संतुष्टि और संस्कार ये पांच तत्व मौजूद हों। इनके बिना दाम्पत्य या गृहस्थी का अस्तित्व ही संभव नहीं है।

अगर इन पांच तत्वों में से कोई एक भी अगर नहीं हो तो रिश्ता फिर रिश्ता नहीं रह जाता, महज एक समझौता बन जाता है। गृहस्थी कोई समझौता नहीं हो सकती। इसमें मानवीय भावों की उपस्थिति अनिवार्य है।

आइए, भागवत में चलते हैं, देखिए महान राजा हरिश्चंद्र के चरित्र और उनकी पत्नी तारामति के साथ उनके दाम्पत्य को। हरिश्चंद्र अपने सत्य भाषण के कारण प्रसिद्ध थे। वे हमेशा सत्य बोलते थे, उनके इस सत्यव्रत में उनकी पत्नी तारामति भी पूरा सहयोग करती थी। वो ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न नहीं होने देती जिससे सत्यव्रत टूटे।

अब आइए, देखें उनके दाम्पत्य में ये पांच तत्व कैसे कार्य कर रहे थे। पहला तत्व प्रेम, हरिश्चंद्र और तारामति के दाम्पत्य का पहला आधार प्रेम था। हरिश्चंद्र, तारामति से इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने अपने समकालीन राजाओं की तरह कभी कोई दूसरा विवाह नहीं किया। एक पत्नीव्रत का पालन किया। तारामति के लिए पति ही सबकुछ थे, पति के कहने पर उसने सारे सुख और राजमहल छोड़कर खुद को दासी का रूप दे दिया। ये उनके बीच समर्पण और त्याग की भावना थी।

दोनों ने एक दूसरे से कभी किसी बात को लेकर शिकायत नहीं की। जीवन में जो मिला उसे भाग्य समझकर स्वीकार किया। दोनों ने यहीं गुण अपने पुत्र में भी दिए। प्रेम, समर्पण, त्याग, संतुष्टि और संस्कार पांचों भाव उनके दाम्पत्य में, उनकी गृहस्थी में थे, इसलिए राज पाठ खोने के बाद भी, वे अपना धर्म निभाते रहे, और इसी के बल पर एक दिन इसे फिर पा भी लिया।

सिर्फ इस एक कारण से बिगड़ते हैं पति--पत्नी के रिश्ते
अक्सर पति-पत्नी के रिश्ते में तनाव की एक बारीक सी डोर भी होती है। इसमें थोड़ा भी खिंचाव आने पर रिश्ते तन जाते हैं। ज्यादा दबाव दिया जाए तो टूट भी जाते हैं। ये डोर होती है अपेक्षा की। हम एक-दूसरे से जब रिश्ता जोड़ते हैं तो अपनी अपनेक्षाएं भी उसके साथ चिपका देते हैं। रिश्ता कोई भी हो हम उसमें कभी नि:स्वार्थ नहीं रह पाते हैं। हमारा कोई भी रिश्ता निष्काम नहीं होता।

यह अपेक्षा ही तनाव और बिखराव का कारण बनती है। अपनों से की गई अपेक्षा तो और उपद्रव खड़े करती है। अपनों से अपेक्षा पूरी हो जाए तो शांति नहीं मिलती लेकिन यदि पूरी न हो तो अशांति जरूर ज्यादा हो जाती है। इसीलिए पति-पत्नी और रिश्तेदारों के बीच के संबंध हमेशा खटपट वाले बने रहते हैं क्योंकि हमने इनका आधार अपेक्षा बना लिया है।

हम अपने भीतर पसंद, नापसंद का एक ऐसा आरक्षण कर लेते हैं कि जिसके कारण हम लोगों की अच्छाइयों से वंचित हो जाते हैं। हम जितना दूसरों की अच्छाइयों के निकट जाएंगे उतना ही अपने भीतर शांति पाएंगे।

भागवत सिखाती है कि कैसे दाम्पत्य में अपेक्षा रहीत होकर ज्यादा सुखी रहा जा सकता है। भगवान कृष्ण की प्रमुख आठ पटरानियों में रुक्मिणी और सत्यभामा को देखिए। रुक्मिणी भगवान से निर्मल स्नेह और प्रेम रखती थीं। उन्हें भगवान का जितना साथ मिल जाए, उसी में सौभाग्य मानकर संतुष्टि मानती थी लेकिन इसके विपरीत सत्यभामा अक्सर भगवान से यह अपेक्षा रखती थीं कि वे ज्यादा से ज्यादा उनके पास रहें।

हर जन्म में उन्हीं के साथ रहें। इस लालच में उन्होंने एक बार नारद की बातों में आकर भगवान को ही दान कर दिया। बहुत पीड़ा झेली, सौतनों की उलाहना भी सही। आपके दाम्पत्य में संतुष्टि का भाव होना चाहिए। जितनी ज्यादा अपेक्षा रखेंगे, उतनी ज्यादा परेशानी और अशांति आपको ही झेलनी पड़ेगी।

खुशहाल गृहस्थी के लिए पति-पत्नी के बीच ऐसा रिश्ता जरूरी है...
सफल गृहस्थी का आधार सुखी दाम्पत्य होता है। दाम्पत्य वो सुखी है जिसमें पति-पत्नी एक दूसरे के सम्मान और स्वाभिमान की मर्यादा को ना लांघें। पति, पत्नी से या पत्नी, पति से समान पूर्वक व्यवहार ना करें तो उस घर में कभी भी परमात्मा नहीं आ सकता। परमात्मा पे्रेम का भूखा है। जहां प्रेम और सम्मान होगा वहीं उसका वास भी होगा।

पतियों का पुरुषत्व वाला अहंकार उन्हें स्त्री के आगे झुकने नहीं देता। कई महिलाओं के लिए भी पुरुषों के आगे झुकने में असहज महसूस करती हैं। बस यहीं से अशांति की शुरुआत होती है दाम्पत्य में।

तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में इसके संकेत दिए हैं। तुलसीदासजी ने शिव और पार्वती के दाम्पत्य का एक छोटा सा प्रसंग लिखा है। जिसमें बहुत गहरी बात कही है। प्रसंग है शिव-पार्वती के विवाह के बाद पार्वती ने एक दिन भगवान को शांतभाव से बैठा देख, उनसे रामकथा सुनने की इच्छा जाहिर की। यहां तुलसीदासजी लिखते हैं कि

बैठे सोह कामरिपु कैसे। धरें सरीरु सांतरसु जैसे।।

पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहि मातु भवानी।।

एक दिन भगवान शिव शांत भाव से बैठे थे। तो पार्वती ने सही अवसर जानकर उनके पास गई। देखिए पत्नी के मन में पति को लेकर कितना आदर है कि उनसे बात करने के लिए भी सही अवसर की प्रतीक्षा की। जबकि आजकल पति-पत्नी में एक-दूसरे के समय और कार्य को लेकर कोई सम्मान का भाव नहीं रह गया। फिर तुलसीदासजी ने लिखा है -

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा।।

शिव ने पार्वती को अपना प्रिय जानकर उनका बहुत आदर किया। अपने बराबर वाम भाग में आसन बैठने को दिया। पति, पत्नी को आदर दे रहा है। ये भारतीय संस्कृति में ही संभव है। कई लोग आज गृहस्थी को जंजाल भी कहते हैं। लेकिन अगर एक-दूसरे के प्रति इस तरह प्रेम और सम्मान का भाव हो तो गृहस्थी कभी जंजाल नहीं लगेगी।

अपनी गृहस्थी को सुखी और सफल कैसे बनाएं? सीखें ये सूत्र...
पति-पत्नी किसी भी गृहस्थी की धुरी होते हैं। इनकी सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार होती है। अगर पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ा भी दुराव या अलगाव है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता। परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है।

पति-पत्नी का संबंध तभी सार्थक है जबकि उनके बीच का प्रेम सदा तरोताजा बना रहे। तभी तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण कहा जाता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनदपूर्ण हो जाता है। मात्र पत्नी से ही सारी अपेक्षाएं करना और पति को सारी मर्यादाओं और नियम-कायदों से छूट दे देना बिल्कुल भी निष्पक्ष और न्यायसंगत नहीं है। स्त्री में ऐसे कई श्रेष्ठ गुण होते हैं जो पुरुष को अपना लेना चाहिए। प्रेम, सेवा, उदारता, समर्पण और क्षमा की भावना स्त्रियों में ऐसे गुण हैं, जो उन्हें देवी के समान सम्मान और गौरव प्रदान करते हैं।

जिस प्रकार पतिव्रत की बात हर कहीं की जाती है, उसी प्रकार पत्नी व्रत भी उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। जबकि गहराई से सोचें तो यही बात जाहिर होती है कि पत्नी के लिये पति व्रत का पालन करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा आवश्यक है पति का पत्नी व्रत का पालन करना। दोनों का महत्व समान है। कर्तव्य और अधिकारों की दृष्टि से भी दोनों से एक समान ही हैं।

जो नियम और कायदे-कानून पत्नी पर लागू होते हैं वही पति पर भी लागू होते हैं। ईमानदारी और निष्पक्ष होकर यदि सोचें तो यही साबित होता है कि स्त्री पुरुष की बजाय अधिक महम्वपूर्ण और सम्मान की हकदार है।

देखिए भगवान राम ने कैसे सीता से अपने विवाह के साथ ही सफल दाम्पत्य की नींव रखी। सीता को भगवान राम ने विवाह के बाद सबसे पहला उपहार क्या दिया। राम ने सीता को वचन दिया कि जिस तरह से दूसरे राजा कई रानियां रखते हैं, कई विवाह करते हैं, वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। हमेशा सीता के प्रति ही निष्ठा रखेंगे। विवाह के पहले ही दिन एक दिव्य विचार आया। रिश्ते में भरोसे और आस्था का संचार हो गया। सफल गृहस्थी की नींव पड़ गई। राम ने अपना यह वचन निभाया भी। सीता को ही सारे अधिकार प्राप्त थे। राम ने उन्हें कभी कमतर नहीं आंका।

अगर एकांत में पति-पत्नी का व्यवहार ऐसा हो तो गृहस्थी स्वर्ग है...
सुंदर कांड का प्रसंग है। जब हनुमान ने सीता को राम की अंगुठी दी। सीता चकित थीं और डरी हुई भी। वे ये मानने को तैयार नहीं थीं कि राम का दूत कोई वानर होगा। वो इसे रावण की ही कोई माया समझ रही थीं। हनुमान ने उन्हें समझाया और कहा

रामदूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करूणानिधान की।।

हे माता मैं भगवान राम का ही दूत हूं। करुणा निधान श्रीराम की ही शपथ खाकर कहता हूं।

जैसे ही हनुमान ने श्री राम को करूणा निधान कहा, सीता को भरोसा हो गया कि ये राम का ही भेजा हुआ दूत है। ऐसा इस कारण से क्योंकि सीता ही भगवान राम को अकेले में करूणा निधान कहती थीं। अपने द्वारा उपयोग किया जाने वाला गुप्त संबोधन जब उन्होंने हनुमान के मुंह से सुना तो तत्काल पहचान लिया।

आज के दाम्पत्य में ऐसा प्रेम नहीं है। पत्नी-पति के एकांत में संबोधन ऐसे हो सकते हैं जो शायद सार्वजनिक नहीं किए जा सकते हों। हमारे दाम्पत्य में अगर डोर प्रेम, आदर और विश्वास की है तो उससे बने संबोधन भी निश्चित ही सुंदर होंगे।

पति-पत्नी को कोशिश करनी चाहिए कि एकांत में भी एक-दूसरे के लिए उपयोग किए जाने वाले संबोधनों में प्रेम, आदर दोनों झलके। अक्सर पति-पत्नी का एकांत सिर्फ तनाव या वासना इन दो भावों में से किसी एक का केंद्र होकर रह जाता है।

अगर हम एक दूसरे के प्रति एकांत में भी वैसा ही आदर और प्रेम रखें तो रिश्तों में तनाव कभी आ ही नहीं सकता। वरन दाम्पत्य महकने लगता है। हमेशा प्रेम से रहें। जीवन साथी से कठोर लहजे में बात करने से पहले उसकी और खुद की, दोनों की गरिमा का ध्यान रखना जरूरी है।

पति-पत्नी का रिश्ता टूट सकता है अगर उसमें ये बात ना हो....
रामचरित मानस के बालकांड में शिव और सती का एक प्रसंग है। शिव और सती, अगस्त ऋषि के आश्रम में रामकथा सुनने गए। अगस्त शिव के शिष्य भी हैं। राम, शिव के आराध्य देव। सती को यह थोड़ा अजीब लगा। कथा में ध्यान नहीं रहा, पूरे समय सोचने में बिता दिया कि शिव जो तीनों लोकों के स्वामी माने जाते हैं वे राम की कथा सुनने के लिए आए हैं। कथा समाप्त हुई और शिव-सती लौटने लगे। उस समय रावण ने सीता का हरण किया था और राम सीता के वियोग में दु:खी जंगलों में घूम रहे थे।

सती को आश्चर्य हुआ। जिसे शिव अपना आराध्य कहते हैं, वो एक स्त्री के वियोग में साधारण इंसान की तरह रो रहा है। सती ने शिव के सामने ये बात रखी तो शिव ने समझाया कि ये तो सब उनकी लीला है। भ्रम में मत पड़ो। लेकिन सती नहीं मानी। उन्होंने राम की परीक्षा लेनी चाही। शिव ने रोका, लेकिन सती पर कोई असर नहीं हुआ। वे सीता का रूप धर कर राम के सामने जा पहुंची।

राम ने सती को पहचान लिया और पूछा हे माता आप अकेली इस घने जंगल में क्या कर रही हैं? शिवजी कहां हैं? सती एकदम डर गई और चुपचाप शिव के पास लौट आई। शिव ने पूछा तो वे कुछ जवाब ना दे सकीं। लेकिन शिव ने सब देख लिया कि सती ने सीता का रूप बनाया था। जिन राम को वे अपना आराध्य देव मानते हैं, उनकी पत्नी का रूप सती ने बना लिया था। शिव ने मन ही मन सती का त्याग कर दिया। सती भी ये बात समझ गई और दक्ष के यज्ञ में जाकर आत्मदाह कर लिया।

ये प्रसंग बताता है कि पति-पत्नी में अगर थोड़ा भी अविश्वास हो तो रिश्ता खत्म होने की कगार पर भी पहुंच जाता है। कई बार पत्नियां, पति की और पति, पत्नी की बात पर विश्वास नहीं करते। नतीजा रिश्ते में बिखराव आ जाता है।

गृहस्थी को सुख से चलाना है तो पति-पत्नी को एक-दूसरे की आस्था और निष्ठा पर भरोसा करना पड़ेगा। अविश्वास तनाव पैदा करता है, तनाव से दुराव का प्रवेश होता है। अपने रिश्तों को टूटने से बचाना है तो एक-दूसरे पर भरोसा करें। अन्यथा इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।

पति-पत्नी के रिश्ते में प्रेम कायम रखना है तो यह जरुरी है....
अक्सर पति-पत्नी के संबंधों में थोड़े समय बाद ही तनाव पैदा होने लग जाता है। गृहस्थी एक जंजाल लगने लगती है। ऐसा सिर्फ एक ही कारण से होता है। वो कारण है पति-पत्नी के विचारों का तालमेल नहीं होना। एक-दूसरे को समझे बिना ही अक्सर गृहस्थी शुरू हो जाती है, ना परिवार को समझा, ना एक दूसरे को।

भागवत के एक प्रसंग में देखिए, भगवान कृष्ण की पत्नी सत्यभामा द्रौपदी से पूछ रही है कि वो पांच पतियों को अपने वश में कैसे रखती है। कोई भी उसकी बात नहीं काटता। हर पति उसे उतना ही चाहता है। आखिर ऐसा कौन सा जादू है। द्रौपदी ने जो जवाब दिया वो आज हर एक गृहस्थ के लिए जरूरी है।

भागवत हमें इसके बारे में भी गंभीरता से समझाती है। एक प्रसंग है द्रोपदी भगवान कृष्ण की रानी सत्यभामा को समझा रही हैं कि महिला परिवार को प्रेम से कैसे चला सकती हैं। द्रौपदी कह रही है कि जो समझदार, परिपक्व और सुघढ़ गृहिणी होती है वो एक काम यह करे कि अपने परिवार के रिश्तों की पूरी जानकारी रखे। एक भी रिश्ता चूक गए तो वह रिश्ता अपमानित हो सकता है। प्रत्येक रिश्ते की जानकारी रखिए जो पुरूखों से चले आ रहे हैं। द्रौपदी कहती है कि मैं अपने पांडव परिवार के एक-एक रिश्ते से परिचित हूं। सबसे पहले मैंने इसका अध्ययन किया।

आप देखिए पांच हजार साल पहले चेतावनी दी जा रही है। अभी भी ऐसा होता है कभी घर में पुरूष का निधन हो जाए तो मालूम ही नहीं रहता कि कितनी बीमे की पालिसी और कहां इनवेस्टमेंट किया। स्त्रियों को पुरूष अपना काम बताने में आज भी शर्म करते हैं या फिर पता नही किस हीनता की अनुभूति करते हैं।

परिवार में प्रेम कायम रखना हो तो अपने जीवन में पारदर्शिता लाइए। अहंकार या अज्ञान के कारण कोई भी बात रहस्य ना रखें। परिवार के लोग एक दूसरे से दुराव-छुपाव रखने लगें तो प्रेम का अंत होना तय है। प्रेम को कायम रखने के लिए हमारे पारिवारिक जीवन में खुलापन होना जरूरी है। परिवार के साथ बैठकर अपनी बातें साझा करें, इससे प्रेम तो बढ़ेगा ही, साथ ही कई समस्याओं का निराकरण भी स्वत: ही हो जाएगा।

पति-पत्नी ध्यान रखें ये दो जरूरी बातें, तभी मिलेगा सुख
अगर हम ये मानें कि गृहस्थी एक वृक्ष है तो इसके फल क्या हैं। गृहस्थी के वृक्ष के दो ही फल हो सकते हैं संतुष्टि और शांति। अगर दाम्पत्य में ये दोनों फल नहीं हैं तो गृहस्थी बंजर है। ये दो फल ही तय करते हैं कि आपका दाम्पत्य कितना सफल है।

जिस घर में संतुष्टि और शांति नहीं हो, वो असफल है। परिवार के वृक्ष पर ये फल तब ही लगेंगे, जब जड़ें गहरी और मजबूत होंगी। जड़ों में जब पर्याप्त जल और खाद डाली जाती है, तब वृक्ष फलता-फूलता है। यही प्राकृतिक समीकरण गृहस्थी पर भी लागू होता है। जैसे वृक्ष हमसे मांगते कम हैं और हमें देते ज्यादा हैं, यही सिद्धांत जब परिवार के सदस्यों में उतरता है तो गृहस्थी यहीं वैकुंठ बन जाती है। समर्पण का भाव जितना अधिक होगा, देने की वृत्ति उतनी ही प्रबल होगी।

स्त्री और पुरुष दोनों के धर्म का मूल स्रोत समर्पण में है। इस प्रवृत्ति को अधिकार द्वारा लोग समाप्त कर लेते हैं। घर-परिवार में हम जितना अधिक अधिकार बताएंगे, विघटन उतना अधिक बढ़ जाएगा। प्रेम गायब हो जाएगा और भोग घरभर में फैल जाएगा। एक-दूसरे को सुख पहुंचाने, प्रसन्न रखने के इरादे खत्म होने लगते हैं और मेरे लिए ही सबकुछ किया जाए, यह विचार प्रधान बन जाता है। स्वच्छंदता यहीं से शुरू होती है, जो परिवार के अनुशासन को लील लेती है।

भागवत में चलते हैं, ऋषि कश्यप और दिति के दाम्पत्य में। ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थी, वे सभी बहनें थी और प्रजापति दक्ष की पुत्रियां थी। धरती के सारे जीव, देवता और दानव इन्हीं की संतानें मानी जाती हैं। अदिति से सारे देवताओं का जन्म हुआ, जबकि दिति से दानवों का। पिता एक ही है लेकिन संतानें एकदम अलग-अलग। सिर्फ दाम्पत्य में संतुष्टि और शांति का फर्क है। अदिति और कश्यम के दाम्पत्य में ये दोनों बातें थीं लेकिन दिति ने अपने भोग और वासना के आगे, शांति और संतुष्टि दोनों को त्याग दिया।

जिस समय ऋषि कश्यप संध्या-पूजन के लिए जा रहे थे, दिति ने कामवश होकर उसी समय उनसे रतिदान मांग लिया। देव पूजन के समय भी संयम नहीं बरता गया। कश्यम ने पत्नी की इच्छा तो पूरी कर दी लेकिन उसे ये भी बता दिया इस रतिदान से जो संतानें उत्पन्न होंगी वे सब दुराचारी होंगी।

गृहस्थी में वासना और देह ही सब कुछ नहीं होते। इसमें संतुष्टि और अनुशासन को भी स्थान देना होता है।

ये पांच बातें वैवाहिक जीवन को बनाती हैं खुशहाल...
गृहस्थी कौन सी सबसे ज्यादा सुखी मानी जाती है। इस बात को लेकर लंबी बहस हो सकती है लेकिन सच तो यही है कि गृहस्थी वो ही सबसे ज्यादा सुखी है जहां प्रेम, त्याग, समर्पण, संतुष्टि और संस्कार ये पांच तत्व मौजूद हों। इनके बिना दाम्पत्य या गृहस्थी का अस्तित्व ही संभव नहीं है।

अगर इन पांच तत्वों में से कोई एक भी अगर नहीं हो तो रिश्ता फिर रिश्ता नहीं रह जाता, महज एक समझौता बन जाता है। गृहस्थी कोई समझौता नहीं हो सकती। इसमें मानवीय भावों की उपस्थिति अनिवार्य है।

आइए, भागवत में चलते हैं, देखिए महान राजा हरिश्चंद्र के चरित्र और उनकी पत्नी तारामति के साथ उनके दाम्पत्य को। हरिश्चंद्र अपने सत्य भाषण के कारण प्रसिद्ध थे। वे हमेशा सत्य बोलते थे, उनके इस सत्यव्रत में उनकी पत्नी तारामति भी पूरा सहयोग करती थी। वो ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न नहीं होने देती जिससे सत्यव्रत टूटे।

अब आइए, देखें उनके दाम्पत्य में ये पांच तत्व कैसे कार्य कर रहे थे। पहला तत्व प्रेम, हरिश्चंद्र और तारामति के दाम्पत्य का पहला आधार प्रेम था। हरिश्चंद्र, तारामति से इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने अपने समकालीन राजाओं की तरह कभी कोई दूसरा विवाह नहीं किया। एक पत्नीव्रत का पालन किया। तारामति के लिए पति ही सबकुछ थे, पति के कहने पर उसने सारे सुख और राजमहल छोड़कर खुद को दासी का रूप दे दिया। ये उनके बीच समर्पण और त्याग की भावना थी।

दोनों ने एक दूसरे से कभी किसी बात को लेकर शिकायत नहीं की। जीवन में जो मिला उसे भाग्य समझकर स्वीकार किया। दोनों ने यहीं गुण अपने पुत्र में भी दिए। प्रेम, समर्पण, त्याग, संतुष्टि और संस्कार पांचों भाव उनके दाम्पत्य में, उनकी गृहस्थी में थे, इसलिए राज पाठ खोने के बाद भी, वे अपना धर्म निभाते रहे, और इसी के बल पर एक दिन इसे फिर पा भी लिया।

पति-पत्नी को हमेशा ध्यान रखना चाहिए ये 7 बातें, क्योंकि...
दाम्पत्य कहते किसे हैं? क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है।

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों के मिलन से ही अधूरापन भरता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनद पूर्ण हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात हैं। रामायण में राम सीता के दाम्पत्य में ये सात बातें देखने को मिलती हैं।

संयम : यानि समय-यमय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना। राम-सीता ने अपना संपूर्ण दाम्पत्य बहुत ही संयम और प्रेम से जीया। वे कहीं भी मानसिक या शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए।

संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना। दोनों एक दूसरे से पूर्णत: संतुष्ट थे। कभी राम ने सीता में या सीता ने राम में कोई कमी नहीं देखी।

संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका रहती है। राम और सीता के बीच वनवास को खत्म करने और सीता को पवित्र साबित करने में उनके बच्चों लव और कुश ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना। राम और सीता के बीच संवेदनाओं का गहरा रिश्ता था। दोनों बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते थे।

संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना।

सक्षम : सामर्थ्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है।

समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

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