Wednesday, January 25, 2012

Maan Shakti (मन शक्ति)

मनःशक्ति
पाँच तत्त्वों से बने हुऐ हमारे इस शरीर को माया ने पूरी तरह से अपने कब्जे में ले रखा है। आज तक अनेकों ॠषि, महर्षियों ने हमे अनेकों बार ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश दिया किन्तु हम कहाँ पहुँचे? जब तक हम किसी संत के समीप होते है, तो उतनी ही देर के लिऐ हमारा चेतन मन शान्त होता है और अवचेतन मन जाग्रत हो जाता है। हम जो भी ग्रहण करते हैं या सुनते हैं, एक तरह से वे सब का हमारे अवचेतन मन में चला जाता है। हमारे अवचेतन मन में ही हमारे सभी जन्मों का लेखा-जोखा छिपा हुआ है। जब तक हमारा अवचेतन मन जाग्रत होता है, तब तक हम पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, ज्ञान और अज्ञान, विद्या और अविद्या के प्रति जागरूक रहते है। सन्त जो भी बोलता है, तब अवचेतन मन उसे ग्रहण कर लेता है और फैसला करता है, कि इन में से कौन-कौन सी बात मैने पहले सुनी हुई है और कौन सी बात नहीं सुनी हुई। क्योंकि जो बाते अवचेतन मन ने पहले भी ग्रहण की हुई है, वह उन बातों को छोड़ देता है, क्योंकि वे बातें तो पहले से ही अवचेतन मन के अन्दर छिपी हुई है। जो नई बातें है, उन को अवचेतन मन अपने अन्दर ग्रहण कर लेता है। यह सभी कुछ अवचेतन मन करता है, किन्तु इन्सान समझाता है कि मैने किया, सभी फैसले अवचेतन मन के होते है, किन्तु इन्सान का अहंकार अपनी मैं, अर्थात् अपने चेतन-मन पर केंद्रित होता है। जो नई बातें होती है, उनके बारे में व्यक्ति सोचता है कि, मैं घर जा कर आज से यह काम करूँगा या नहीं करूँगा। किन्तु जैसे ही साधक संत को छोड़ कर अपने घर पहुँचता है, तो वहाँ के वातावरण में जो अशुद्धियाँ होती है उस की वजह से अवचेतन-मन सो जाता है और चेतन-मन फिर से जाग्रत हो जाता है।

वातावरण की इन्हीं अशुद्धियों को दूर करने के लिऐ, अनादि काल से आर्य-सभ्यता में हवन करने का विधान है। जब अवचेतन-मन निष्कृय हो जाता है, तो चेतन-मन माया के चक्र में उलझ कर अपना काम करने लगता है, और जैसा की आप सभी ने देखा, सुना या पढ़ा होगा की फिर चेतन-मन जो की सन्त के पास बिलकुल निष्क्रिय था, वह सक्रिय हो कर संत की निंदा करने लगता है। उस के बाद चेतन-मन को संत कि जो-जो बातें पसन्द आती है, उनको वह ग्रहण करता है, किन्तु शेष बातों के बारे में कहता है कि ‘संतो का काम तो है ही बेकार की बातें करना’, इन के पास तो समय ही समय है, ये जो भी चाहे नियमों का पालन कर सकते हैं। लेकिन आम आदमी के पास समय कहाँ है जो इतनी मेहनत और नियमों का पालन कर सके। चेतन-मन से जैसे भी बन पड़ता है, वह अपनी तरफ से संत की निंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। हमें ध्यानपूर्वक चेतन और अवचेतन-मन को समझना पड़ेगा।

हम जितना भी मौखिक रूप से काम करते है। यह सभी काम चेतन-मन करता है। हम सभी अगर ध्यान पूर्वक अपने चरित्र को देखें तो हमे महसूस होगा की हमारा अवेचतन-मन कैसे काम करता है। मान लीजियें कि हमारे घर पर कोई मेहमान आ जाऐं तो हम उसका पूरी तरह से सत्कार करेंगे। इसके पीछे हमारा अवचेतन-मन है, क्योंकि हमारे अवचेतन-मन मे ही सभी संस्कार विद्यमान है। इसी तरह अगर किसी को सम्मोहित कर दिया जाये तो वह व्यक्ति आपकी हर बात मानने को बाध्य होगा, क्योंकि सम्मोहन से उसका चेतन-मन गहरी निंद्रा में चला गया है। किन्तु अवचेतन-मन हमेशा क्रियाशील रहता है। अगर सम्मोहन के द्वारा सम्मोहित व्यक्ति को किसी गलत काम के लिऐ निर्देश दिया जाऐं, जो की अवचेतन-मन में संस्कारों के खिलाफ हो। जैसे की सम्मोहित व्यक्ति को अगर कहा जाऐं की तुम संपूर्ण रूप से निर्वस्त्र हो जाओ, तो ऐसा सुनते ही सम्मोहित व्यक्ति का सम्मोहन टूट जाऐगा और वह जाग जाऐगा। इस तरह हम ध्यान्पूर्वक अपने चेतन और अवचेतन-मन को समझ सकते हैं। इसको योगियों ने जागना कहा है, कि तुम हमेशा अपने अवचेतन-मन की तरफ ध्यान दो और अपने संस्कारो के अनुरूप ही कार्य करो। जो व्यक्ति योग निन्द्रा के द्वारा अपने चेतन-मन को निष्क्रिय कर देता है और हमेशा अवचेतन-मन के अनुसार ही संस्कार युक्त कार्य करता है, ऐसा व्यक्ति ही पूर्ण योगी कहलाता है। जिसने योग के द्वारा माया को जीत लिया और चेतन-मन को अवचेतन-मन में पूर्ण रूप से विलीन कर लिया।

हम कितना ही पढ़ ले, जान ले, समझ ले किन्तु जब तक हमें संपूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती, हम अधूरे है और तब तक जिज्ञासायें जन्म लेती रहेंगी। हर साधक के अंदर के उसके अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों के अनुसार ही जिज्ञासायें जन्म लेती है। अनेकों बार समझाने और समझने के बाद भी साधकों के मन में एक प्रश्न पैदा होता है, कि क्या हम सिर्फ नाम के द्वारा ही उस परमात्मा को पा सकते है या नहीं? अगर कोई भी व्यक्ति परमात्मा के किसी भी नाम का जाप करे तो वह उस मंडल तक ही पहुँच पायेगा, जिस मंडल तक उस नाम की सीमा रेखा है। मान लीजिये आप राम, कृष्ण, नारायण, हरि आदि शब्दों को इस्तेमाल करते हैं, तो आप सिर्फ सहस्त्रदल तक ही पहुँच पाओगे, क्योंकि सहस्त्रदल, त्रिलोकी नाथ नारायण का स्थान है। इसलिऐ अगर आप नारायण या उस के किसी भी प्रायवाची शब्द का जाप करते है, तो हम वहीं तक पहुँच पायेगें। इसी तरह हर मंडल का देव व उस का मंत्र भी अलग है। लेकिन ऐसा नहीं है की हम सीधे ही आखिरी मंडल का जाप करके उस परमात्मा को पा सकते है। जिस तरह एक छोटा बच्चा स्कूल जाता है, और स्वर-व्यंजन पढ़ते हुऐ प्रथम कक्षा से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करता है। उसी तरह योगियों की प्रथम कक्षा मणिपुर मंडल (मणिपुर चक्र) है। जो कि हमारी नाभि में स्थित है, कुछ दिव्य महापुरूष त्रिकुटी पर ध्यान लगाना बताते हैं, कि यहीं से अपनी ध्यान-साधना प्रारम्भ करो। कुछ व्यक्ति विशेषों का यह वहम है, की हम त्रिकुटी में ध्यान लगा कर जल्द से जल्द उस परमात्मा को प्राप्त कर लेगें, लेकिन ऐसा नहीं है।

आप नाभि से प्रारम्भ करे या चाहें तो त्रिकुटी से। दोनो में समय और मेहनत एक ही लगेगी। अनेकों ही साधक त्रिकुटी में ध्यान लगा कर प्रकाश को देखने व शब्द को सुनने की कोशिश करते हैं, लेकिन ध्यान से देखा जाऐ तो जिन साधकों को त्रिकुटी में प्रकाश एंव दिव्य ध्वनी सुनाई पड़ती है। जैसे ही त्रिकुटी प्रकाशवान होगी वैसे ही नीचे के सभी मंडल भी प्रकाशवान होगें। इसलिऐ अनेकों महापुरूषों ने नया-विधान बनाया जिसमे की न तो अधिक समय लगता है और ना ही अधिक मेहनत की आवश्यकता है, क्योंकि अगर आप नाभि से प्रारम्भ करते हुऐ त्रिकुटी तक पहुँचते हैं तो एक-एक मंडल को जाग्रत करने में अधिक समय लगेगा। इसी तरह अगर हम त्रिकुटी में ध्यान लगाते है, तो भी हमे समय अधिक लगेगा। लेकिन इस नये-विधान के अनुसार अगर साधना की जाये तो नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडल शीघ्र ही क्रियाशील हो जाऐंगे। क्योंकि परमात्मा का निज नाम ॐ है। इसलिऐ हमें ॐ के ‘अ’, ‘उ’, ‘म’ को ले कर यह साधना करनी होगी। जो साधक इस साधना को करना चाहे, वह पद्मासन या सिद्धासन में बैठ कर, (अगर कोई साधक ये आसन न लगा सके तो सुखासन में बैठ कर) मेरूदंड को सीधा रखते हुऐ नाभी के अन्दर ‘अ’ हृदय के अन्दर ‘उ’ और त्रिकुटी में ‘म’ का ध्यान करते हुए दीर्घ स्वर में ॐ का जाप करें। जहाँ तक सम्भव हो सके श्वांस को गहरा लेते हुऐ ॐ का जाप व ध्यान करें। साथ ही साथ नाभि के अन्दर पीले रंग का, हृदय में हरे रंग का एवं त्रिकुटी में सफेद रंग का ध्यान करें। ऐसा करके साधक थोडे ही समय में नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडलों को प्रकाशवान बना सकता है। जब त्रिकुटी में प्रकाश व दिव्य-ध्वनी सुनाई देने लगे तो उस के बाद की साधना किसी योग्य-गुरू के निर्देशन में करें क्योंकि त्रिकुटी से आगे का रास्ता मुश्किल ही नहीं अपितु खतरनाक भी है। इसलिऐ साधना करते हुऐ आलस्य न करे और जहाँ तक कोशिश हो सके, एक दिन के लिऐ भी साधना का त्याग न करें। अगर हम बिना नागा किये प्रतिदिन एक ही समय पर साधना करेंगे, तो उस परमात्मा को प्राप्त कर लेना मुश्किल नहीं है।

मन ही माया है
मन से मुक्त हो जाना ही संन्यास है। इसके लिए पहाड़ों पर या गुफाओं में जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुकान में, बाजार में, घर में.. हम जहां भी हों, वहीं मन से छूटा जा सकता है..। संत लाख कहें कि संसार माया है, लेकिन सौ में से निन्यानबे संत तो खुद ही माया में उलझे रहते हैं। लोग भी अंधे नहीं हैं। वे सब समझते हैं। वे समझते हैं कि महाराज हमें समझा रहे हैं कि संसार माया है, वहीं वे स्वयं माया में ही उलझे हुए हैं। मेरा मानना है कि संसार माया नहीं, बल्कि सत्य है।

संसार माया नहीं, वास्तविक है। परमात्मा से वास्तविक संसार ही पैदा हो सकता है। अगर ब्रह्मा सत्य है, तो जगत मिथ्या कैसे हो सकता है? ब्रह्मा का ही अवतरण है जगत। उसी ने तो रूप धरा, उसी ने तो रंग लिया। वही तो निराकार आकार में उतरा। उसने देह धरी। अगर परमात्मा ही असत्य हो, तभी तो संसार असत्य हो सकता है।

लेकिन न तो परमात्मा असत्य है, न ही संसार। दोनों सत्य के दो पहलू हैं- एक दृश्य एक अदृश्य। माया फिर क्या है? मन माया है। मैं संसार को माया नहीं कहता, मन को कहता हूं। मन है एक झूठ, क्योंकि मन वासनाओं, कामनाओं, कल्पनाओं और स्मृतियों का जाल है।

संसार माया है, यह भ्रामक बात समझकर लोग संसार छोड़कर भागने लगे। आखिर संसार को छोड़कर कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहां संसार ही तो है। एक आदमी संसार से भाग गया। वह क्रोधी था। उसने किसी साधु से सत्संग किया, तो साधु ने कहा- संसार माया है। इसमें रहोगे, तो क्रोध, लोभ, मोह, काम और कुत्सा सब घेरेंगे। इस संसार को छोड़ दो।

उस आदमी को बात समझ में आ गई। उसने कहा- ठीक है। वह जंगल में जाकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। पेड़ पर बैठे एक कौवे ने उसके ऊपर बीठ कर दी। कौवा तो ठहरा पक्षी, उसमें इतना ज्ञान कहां। कौवा साधु-संत और सामान्य लोगों में फर्क कैसे कर सकता है। उस आदमी ने क्रोध से आगबबूला होकर हाथों में डंडा उठा लिया। अब कौवा उड़ता रहा और वह डंडा लेकर उसके नीचे-नीचे दौड़ता रहा। कभी वह कौवे की ओर डंडा फेंकता तो कभी उसे पत्थर मारता।

संसार से भागोगे, तो यही होगा। आखिर उसने खुद से ही कहा - यह जंगल भी किसी काम का नहीं। यहां क्रोध से मुक्ति नहीं मिलेगी। यहां भी माया है। वह जाकर नदी किनारे बैठ गया, जहां आसपास कोई पेड़-पौधा नहीं था। वह अपने क्रोध के जाल से इतना उदास और हताश हो गया था कि उसे जीवन अकारथ नजर आने लगा। उसकी नजरों में जब संसार ही अकारथ है और माया है, तो जीने का अर्थ ही क्या? उसने लकडि़यां इकट्ठी कीं और अपने लिए चिता बनाने लगा। उसने सोचा इसमें आग लगाकर खुद बैठ जाऊंगा। आग लगाने को ही था कि आसपास के गांव के लोग आ गए। उन्होंने कहा कि आप यह सब कहीं और जाकर करें, पुलिस हमें बेवजह तंग करेगी। आप जलेंगे, तो दुर्र्गध भी तो हमें ही आएगी। उस आदमी के क्रोध की सीमा न रही।

संसार से भागोगे, तो भागोगे कहां? यहां जीना भी मुश्किल, मरना भी मुश्किल। संसार से भाग नहीं सकते हो। संसार माया है, इस धारणा ने लोगों को गलत संन्यास का रूप दे दिया है। संसार तो परमात्मा का प्रसाद है। संसार के फूल उसी के सौंदर्य की कथा कहते हैं। ये पक्षी उसी की प्रीति के गीत गाते हैं। ये तारे उसी की आंखों की जगमगाहट हैं। यह सारा अस्तित्व उससे भरपूर है, लबालब है।
लेकिन फिर भी मैं जानता हूं कि संसार में अगर कोई चीज माया है, तो वह एक ही है- वह है मन। मन ही भ्रमित करता है।

इसलिए संसार से भागना नहीं, बल्कि मन से छूट जाना संन्यास है। मन से मुक्त हो जाना संन्यास है। इसके लिए पहाड़ों पर, गुफाओं में जाने की कोई जरूरत नहीं। दुकान में, बाजार में, घर में- तुम जहां हो, वहीं मन से छूटा जा सकता है। मन से छूटने की सीधी सी विधि है : अगर मन अतीत में जाता है, तो उसे जाने दो। लेकिन जब भी वह अतीत में जाए, उसे वापस लौटा लाओ। कहो कि भैया, अतीत में नहीं जाते। जो हो गया, सो हो गया। पीछे नहीं लौटते। इसी तरह जब मन भविष्य में जाने लगे, तब भी कहना, भैया इधर भी नहीं। अभी भविष्य आया ही नहीं, तो वहां जाकर क्या करोगे। यहीं, अभी और इस वक्त में रहो। यह क्षण तुम्हारा सर्वस्व हो। ऐसा होते ही, सारी माया मिट जाएगी। मन के सारे जंजाल खत्म हो जाएंगे। ऐसे में अंधकार चला जाता है और रोशनी हो जाती है। क्योंकि अतीत और भविष्य दोनों ही अभाव हैं, उनका अस्तित्व नहीं है। वे अंधकार की तरह हैं, जबकि वर्तमान ज्योतिर्मय है।

जिन ऋषियों ने कहा है कि हे प्रभु, हमें तमस से ज्योति की ओर ले चलो, वे उस अंधेरे की बात नहीं कर रहे हैं, जो अमावस की रात को घेर लेता है। वे उस अंधेरे की बात कर रहे हैं, जो तुम्हारे अतीत और भविष्य में डोलने के कारण तुम्हारे भीतर घिरा है। और वे किस ज्योतिर्मय लोक की बात कर रहे हैं? वर्तमान में ठहर जाओ, ध्यान में रुक जाओ, समाधि का दीया जल जाए, तो अभी रोशनी हो जाए। जब तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाए, तो तुम जो देखोगे, वही सत्य है।

मन एक जमीन है..
यदि हम यह कहें कि मेरा मन मेरा नहीं, तो फिर यह किसका है? आम व्यवहार में हम यही अनुभव करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का मन अलग-अलग होता है। मन हमारा नहीं होता का अर्थ यह कतई नहीं है कि वह पूरी तरह से दूसरे का होता है। चूंकि मन हमारा है, हमारे द्वारा संचालित है, वह हमारी ही इच्छा और विचारों को जन्म देता है, इसलिए वह हमारा है। लेकिन यहां प्रश्न यह है कि क्या यह सचमुच हमारा है? आइए, इसे थोड़ी गंभीरता से समझने की कोशिश करें, अन्यथा हमारा मन के साथ व्यर्थ ही झगड़ा होता रहेगा।

मान लीजिए खेत की एक जमीन है। इस जमीन के मालिक आप हैं। इस जमीन में आप जो चाहें, बो सकते हैं-धान, गेहूं, कपास, चना, सरसों आदि कुछ भी। यह पूरी तरह आपके ऊपर निर्भर करता है। लेकिन सोचकर देखिए कि ये जितनी भी बातें हैं, क्या सचमुच इन सभी पर आपका अपना ही नियंत्रण है? कहीं ऐसा तो नहीं कि नियंत्रण किसी और का है। आपको केवल इस बात का आभास हो रहा है कि नियंत्रण आपका है। जमीन आपकी नहीं है। आप उसके केवल मालिक हैं। जमीन किसी की नहीं है। चूंकि वह मिट्टी से बनी है, इसलिए प्राकृतिक सत्य यह है कि जमीन मिट्टी की है, आपकी नहीं।

अब आते हैं दूसरे प्रश्न पर कि आप उसमें अपनी इच्छानुसार कुछ भी बो सकते हैं। ऐसा भी नहीं है। यदि मिट्टी काली है, तो आप उसमें चना या कपास बोने को बाध्य हैं। आपको केवल इतनी ही छूट है कि चाहे आप कपास बोएं या चना या फिर दोनों ही आधा-आधा, लेकिन आप यह स्वतंत्रता लेने की हिम्मत कतई नहीं कर सकते कि आप उसमें सरसों या बाजरा बो दें। इसका अर्थ यह हुआ कि जैसी मिट्टी होगी, उसमें उसी तरह की फसल उगेगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो इससे जहां मिट्टी का दुरुपयोग होगा, वहीं फसल की भी हानि होगी।

यही प्रकृति का नियम है। अब हम इस उदाहरण को अपने मन पर लागू करके देखें। मन एक जमीन है। यह अपने आप में न तो बीज है, न फसल है और न ही किसान। यह मात्र एक पृष्ठभूमि है, जिसमें आपको बीज बोने हैं या लकीरें उकेरनी हैं। यदि मन एक जमीन है, तो इसके मालिक तो आप हो सकते हैं, लेकिन मिट्टी आपकी नहीं है। मिट्टी तो प्रकृति ने बनाई है। तो मन की इस जमीन की मिट्टी को किसने बनाया है? यदि यह मिट्टी आपने नहीं बनाई तो फिर आप खुद बताइए कि ऐसी जमीन आपकी कैसे हो सकती है? चूंकि वह आपके अंदर है, केवल इसलिए वह आपकी है। आपने उसे पैदा नहीं किया है, उसे प्राप्त किया है। पैदा करने वाला सच्चा मालिक होता है, प्राप्त करने वाला नहीं। प्राप्त करने वाला तो केवल उसका संरक्षक है।

मन की इस जमीन को किसने तैयार किया है? इसमें हमारे जीवन के संस्कार शामिल हैं। इसमें सदियों से चली आ रही हमारी सभ्यता-संस्कृति शामिल है। हमारे माता-पिता के जींस शामिल हैं। हमारे आसपास का समाज शामिल है। हमारा संपूर्ण बाह्य भौतिक वातावरण, हमारा इतिहास इसमें शामिल है। ये सारे तत्व मिलकर मन की इस जमीन के लगभग नब्बे प्रतिशत हिस्से की रचना कर देते हैं। मुश्किल से दस प्रतिशत हिस्सा ही ऐसा रह जाता है, जिसे हम अपना कह सकते हैं। इस दस प्रतिशत हिस्से को भी केवल वे ही लोग समझ पाते हैं, जो सोचते हैं और सजग रहते हैं।

मन के रूप अनेक
मन के तीन रूप माने गए हैं-चेतन, अवचेतन और अचेतन, लेकिन मन की संख्या इतने तक ही सीमित नहीं है। कई बार ये तीन मन तीन हजार बन जाते हैं। कैसे और कब बनता है मन एक से अनेक..? जब हम कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं, तब हमारा एक ही मन सक्रिय रहता है। यहां तक कि जब हम निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी। हालांकि तब लगता है कि हमारे दो मन हो गए हैं, जिसमें से एक हां कह रहा है तो दूसरा नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है।

सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है। ये तीन मन परिवर्तन एवं सम्मिश्रणों द्वारा तीन हजार मन बन जाते हैं, लेकिन इनका उद्गम इन तीन स्तरों से ही होता है।

चेतन मन वह है, जिसे हम जानते हैं। इसके आधार पर अपने सारे काम करते हैं। यह हमारे मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या संदेह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।

लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी हमारे विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो हमारे मन को कठपुतली की तरह नचाती है। हम जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।

अवचेतन आधा जाग रहा है और आधा सो रहा है। मूलत: यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता। हम जाग रहे हैं, तो हम फैसला कर सकते हैं कि हमें क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए हम स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहींलगते।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही हम उन्हें भूल जाएं, वे नष्ट नहीं होतीं। फ्रायड का मानना था कि अचेतन मन कबाड़खाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पड़ी होती हैं, पर भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी वहां जाती हैं।
अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। हमारा अवचेतन या चेतन मन जब इन वस्तुओं [विचारों] में से किसी की मांग करता है, तब अचेतन मन उसकी सप्लाई कर देता है।

निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है, जो हमारे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। हम भले ही अचेतन मन की उपेक्षा करें, लेकिन चेतन मन और अवचेतन मन जो कुछ भी करते हैं, वे सब वही करते हैं, जो अचेतन मन उनसे कराता है।

फ्रायड ने बिल्कुल सही कहा था कि मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10 प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90 फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है। इसी तरह युंग ने भी कहा था - ज्ञात मन [चेतन] तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अज्ञात [अचेतन] मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।


मन को ऐसे साधें
मन बंदर-सा चंचल है। मन को वश में करने की शक्ति पाने के पूर्व हमें मन का भली-भांति अध्ययन करना चाहिए। चंचल मन को संयत करके उसे विषयों से खींचना होगा और उसे एक विचार पर केंद्रित करना होगा। बार-बार इस क्रिया को करें।

मन को स्थिर करने का सबसे सरल उपाय यह है कि चुपचाप बैठ जाएं और मन जहां जाए, उसे जाने दें। बस उसे देखते रहें। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिंतन करें कि मैं मन को विचरण करते हुए देखने वाला साक्षी हूं। मैं मन नहीं हूं। फिर ऐसी कल्पना करें कि मानो मन मुझसे बिल्कुल अलग है और मैं ईश्वर से जुड़ा हूं। सोचिए कि मन एक विस्तृत सरोवर है और आने-जाने वाले विचार इसके तल पर उठने वाले बुलबुले हैं।

दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिंतन करें कि मैं मन नहीं हूं। मैं सिर्फ मन को देख रहा हूं। इसका अभ्यास करने से आप मन और भावना से अपने को अलग करते जाएंगे। अंत में व्यक्ति मन से अपने को बिल्कुल अलग समझ सकेगा। इसके बाद मन साधक का सेवक हो जाएगा और वह व्यक्ति इस पर इच्छानुसार शासन कर सकेगा। इंद्रियों से परे हो जाना योगी की प्रथम स्थिति है और जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब वह सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Wednesday, January 18, 2012

Rishi Ashtavakra ( ऋषि अष्टावक्र)

ऋषि अष्टावक्र
अष्टावक्र दुनिया के प्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने सत्य को जैसा जाना वैसा कह दिया। न वे कवि थे और न ही दार्शनिक। चाहे वे ब्राह्मणों के शास्त्र हों या श्रमणों के, उन्हें दुनिया के किसी भी शास्त्र में कोई रुचि नहीं थी। उनका मानना था कि सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा है। शास्त्रों में तो सिद्धांत और नियम हैं, सत्य नहीं, ज्ञान नहीं। ज्ञान तो तुम्हारे भीतर है। अष्टावक्र ने जो कहा वह 'अष्टावक्र गीता' नाम से प्रसिद्ध है।

महान दार्शनिक- विचारक ओशो  कहते हैं, 'अष्टावक्र समन्वयवादी नहीं हैं, सत्यवादी हैं। सत्य जैसा है वैसा कहा है, बिना किसी लाग-लपेट के। सुनने वाले की चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, नहीं समझेगा इसकी भी चिंता नहीं। सत्य का ऐसा शुद्धतम वक्तव्य न पहले कहीं हुआ, न फिर बाद में कभी हो सका।'

अष्टावक्र पहले ऐसे व्यक्ति थे जिनकी श्रेणी में सुकरात, मंसूर और जे. कृष्णुमूर्ति को रखा जा सकता है। इन्हें हम धर्म के विरुद्ध वक्तव्य नहीं कहेंगे बल्कि ये ऐसे लोग रहे हैं जिन्होंने धर्म के मर्म और सत्य को अपने तरीके से जाना। यह किसी परम्परा के कभी हिस्से नहीं रहे। यही कारण रहा कि दुनिया में इनकी चर्चा कम ही हुई है। आओ जानते हैं कि कौन थे अष्टावक्र।

अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। उनके पिता कहोड़ वेदपाठी और प्रकांड पंडित थे तथा उद्दालक ऋषि के शिष्य और दामाद थे। राज्य में उनसे कोई शास्त्रार्थ में जीत नहीं सकता था। अष्टावक्र जब गर्भ में थे तब रोज उनके पिता से वेद सुनते थे। एक दिन उनसे रहा नहीं गया और गर्भ से ही कह बैठे- 'रुको यह सब बकवास, शास्त्रों में ज्ञान कहाँ? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है। सत्य शास्त्रों में नहीं स्वयं में है। शास्त्र तो शब्दों का संग्रह मात्र है।'

यह सुनते ही उनके पिता क्रोधित हो गए। पंडित का अहंकार जाग उठा, जो अभी गर्भ में ही है उसने उनके ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। पिता तिलमिला गए। उन्हीं का वह पुत्र उन्हें उपदेश दे रहा था जो अभी पैदा भी नहीं हुआ। क्रोध में अभिशाप दे दिया- 'जा...जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा।' इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।पिता ने क्रोध में शरीर को विक्षप्त कर दिया। उन्हें जरा भी दया नहीं आई। ऐसे पिता के होने का क्या मूल्य, जो अपने पुत्र को शाप दे। अष्टावक्र का कोई बहुत बड़ा अपराध नहीं था। उन्होंने तो अपना विचार ही प्रकट किया था, लेकिन इससे यह सिद्ध होता है कि लोग अपने-अपने शास्त्रों के प्रति कितने कट्टर होते हैं।

पिता के इस शाप के बावजूद अष्टावक्र पिताभक्त थे। जब वे बारह वर्ष के थे तब राज्य के राजा जनक ने विशाल शास्त्रार्थ सम्मेलन का आयोजन किया। सारे देश के प्रकांड पंडितों को निमंत्रण दिया गया, चूँकि अष्टावक्र के पिता भी प्रकांड पंडित और शास्त्रज्ञ थे तो उन्हें भी विशेष आमंत्रित किया गया। जनक ने आयोजन स्थल के समक्ष 1000 गायें बाँध ‍दीं। गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और गले में हीरे-जवाहरात लटका दिए और कह दिया कि जो भी विवाद में विजेता होगा वह ये गायें हाँककर ले जाए।

संध्या होते-होते खबर आई कि अष्टावक्र के पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे ‍लेकिन वंदनि (बंदी) नामक एक पंडित से हारने की स्थिति में पहुँच गए थे। पिता के हारने की स्थिति तय हो चुकी थी कि अब हारे या तब हारे। यह खबर सुनकर अष्टावक्र खेल-क्रीड़ा छोड़कर राजमहल पहुँच गए। अष्टावक्र भरी सभा में जाकर खड़े हो गए। उनका आठ जगहों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर और अजीब चाल देखकर सारी सभा हँसने लगी। अष्टावक्र यह नजारा देखकर सभाजनों से भी ज्यादा जोर से खिलखिलाकर हँसे।

जनक ने पूछा, 'सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन बेटे, तेरे हँसने का कारण बता?अष्टावक्र ने कहा, 'मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है, आश्चर्य! ये चमार यहाँ क्या कर रहे हैं।'सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सब अवाक् रह गए। राजा जनक खुद भी सन्न रह गए। उन्होंने बड़े संयत भाव से पूछा, 'चमार!!! तेरा मतलब क्या?'

अष्टाव्रक ने कहा, 'सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है, मैं नहीं दिखाई पड़ता। ये चमार हैं। चमड़ी के पारखी हैं। इन्हें मेरे जैसा सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं पड़ता, इनको मेरा आड़ा-तिरछा शरीर ही दिखाई देता है। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से आकाश कहीं टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से आकाश कहीं फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है, इसकी तरफ तो देखो। मेरे शरीर को देखकर जो हँसते हैं, वे चमार नहीं तो क्या हैं?

यह सुनकर मिथिला देश के नरेश एवं भगवान राम के श्वनसुर राजा जनक सन्न रह गए। जनक को अपराधबोध हुआ कि सब हँसे तो ठीक, लेकिन मैं भी इस बालक के शरीर को देखकर हँस दिया। राजा जनक के जीवन की सबसे बड़ी घटना थी। देश का सबसे बड़ा ताम-झाम। सबसे सुंदर गायें। सबसे महँगे हीरे-जवाहरात। सबसे विद्वान पंडित और सारे संसार में इस कार्यक्रम का समाचार और सिर्फ एक ही झटके में सब कुछ खत्म। जनक को बहुत पश्चाताप हुआ। सभा भंग हो गई।

रातभर राजा जनक सो न सके। दूसरे दिन सम्राट जब घूमने निकले तो उन्हें वही बालक अष्टावक्र खेलते हुए नजर आया। वे अपने घोड़े से उतरे और उस बालक के चरणों में गिर पड़े। कहा- 'आपने मेरी नींद तोड़ दी। आपमें जरूर कुछ बात है। आत्मज्ञान की चर्चा करने वाले शरीर पर हँसते हैं तो वे कैसे ज्ञानी हो सकते हैं। प्रभु आप मुझे ज्ञान दो।'


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Tuesday, January 17, 2012

Safalta (सफलता)

सफलता कैसे हो सकती है स्थायी, सीखें कृष्ण से
भगवान कृष्ण जिन्हें अधिकतर लोग माया-मोह से रहित मानते हैं। भयंकर युद्धों के बाद भी कभी अशांत नहीं हुए। उन्होंने कभी अपने हिस्से का संघर्ष किसी दूसरों से नहीं करवाया। कभी किसी को सफलता के लिए अनुचित मार्ग नहीं दिखलाया।

महाभारत के भीषण युद्ध को अकेले कृष्ण पांडवों के लिए एक दिन में जीतने में सक्षम होने पर भी युद्ध पांडवों से ही करवाया, उन्होंने सिर्फ मार्गदर्शन ही किया। वे चाहते तो पांडवों की ओर से कोई सैनिक नहीं मारा जाता और युद्ध जीता जा सकता था।

इसका कारण यह था कि अगर कृष्ण युद्ध जीत कर युधिष्ठिर को राजा बना देते तो पांडव कभी उस सफलता का मूल्य नहीं समझ पाते। सफलता स्थायी और संतुष्टिप्रद तभी होती जब वे खुद संघर्ष करके इसे हासिल करते।

कभी-कभी बहुत कामयाबी मिलने के बाद भी हमारा मन संतुष्ट नहीं होता। सफलता हमें खुशी नहीं देती। ऐसा क्यों होता है कि हम जितने सफल होते हैं, उतना ही मन अशांत हो जाता है। इन सब के पीछे कुछ कारण हैं जो हमारी सफलता के भाव को प्रभावित करते हैं।

सफलता के साथ शांति और संतुष्टि ये दो भाव होना जरूरी है। अगर हम अशांत और असंतुष्ट हैं तो इसका सीधा अर्थ यह है कि हमने सफलता के लिए कोई शार्टकट अपनाया है। शार्टकट से मिली सफलता अस्थायी होती है। और यही भाव हमारे मन को अशांत करता है।

स्थायी सफलता का रास्ता कभी छोटा नहीं होता, आसान नहीं होता लेकिन इस रास्ते से चलकर जब लक्ष्य तक पहुंचा जाता है तो वह स्थायी आनंद देता है। लोग अक्सर अपनी दौड़ में दूसरों को भूल जाते हैं, कौन आपके पैरों से ठोकर खाकर गिरा, किसने आपकी सहायता की, ऊंचाई पर जाकर सब विस्मृत हो जाता है।

सफलता उसे मिलती है जिसके भीतर यह योग्यता हो...
रामचरित मानस का पांचवा अध्याय सुंदरकांड सफलता और शांति सबसे बड़ा उदाहरण है। वानरों के सामने एक असंभव सी दिखने वाली चुनौती थी। सौ योजन यानी करीब 400 किमी लंबा समुद्र लांघकर लंका पहुंचने की। जब वानरों के दल में समुद्र लांघने के बात आई तो सबसे पहले जामवंत ने असमर्थता जाहिर की। फिर अंगद ने कहा मैं जा तो सकता हूं लेकिन समुद्र पार करके फिर लौट पाऊंगा इसमें संदेह है। अंगद ने खुद की क्षमता और प्रतिभा पर संदेह जताया। ये आत्म विश्वास की कमी का संकेत है।

जामवंत ने हनुमान को इसके लिए प्रेरित किया। हनुमान को अपनी शक्तियों की याद आई और उन्होंने अपने शरीर को पहाड़ जैसा बड़ा बना लिया। आत्म विश्वास से भरकर बोले की अभी एक ही छलांग में समुद्र लांघकर, लंका उजाड़ देता हूं और रावण सहित सारे राक्षसों को मारकर सीता को ले आता हूं।

अपनी शक्ति पर इतना विश्वास था हनुमान को। जामवंत ने कहा नहीं आप सिर्फ सीमा मैया का पता लगाकर लौट आइए। हमारा यही काम है। फिर प्रभु राम खुद रावण का संहार करेंगे।

हनुमान ने एक ही उड़ान में समुद्र को लांघ लिया। रास्ते में सुरसा और सिंहिका ने रोका भी लेकिन उनका आत्म विश्वास नहीं डोला।

जब हम किसी काम पर निकलते हैं तो अक्सर मन विचारों से भरा होता है। आशंकाएं, कुशंकाएं और भय भी पीछे-पीछे चलते हैं। हम अधिकतर मौकों पर अपनी सफलता को लेकर आश्वस्त नहीं होते। जैसे ही परिस्थिति बदलती है हमारा विचार बदल जाता है।

ये काम में असफलता की निशानी है। अगर आप इन स्थितियों से गुजरते हैं तो साफ है कि आप में आत्म विश्वास की कमी है। सफलता के लिए सबसे जरूरी है आत्म विश्वास। जब तक हम खुद पर ही भरोसा नहीं करेंगे, हमारे प्रयास कभी सौ फीसदी नहीं होंगे।

सफलता के रास्ते में जब भी समस्या आए तो इस नजरिए से करें समाधान...
भगवान कृष्ण ने अपने मामा कंस का वध किया। मथुरा का शासन फिर अपने नाना को सौंपा। बचपन में ही एक बड़े अत्याचारी को मार दिया। भगवान शिक्षा ग्रहण करने अवंतिका नगरी (वर्तमान में मध्य प्रदेश के उज्जैन) में आ गए। गुरु सांदीपनि से 64 कलाओं की शिक्षा लेने के बाद मथुरा लौटे। उनके लौटने के बाद से ही कंस के ससुर जरासंघ ने अपने दामाद की मौत का बदला लेने के लिए मथुरा पर आक्रमण किया।

17 बार हमले किए, हर बार भगवान उसकी सेना को मारकर उसे अकेला छोड़ देते। बलराम हर बार कृष्ण से सवाल करते की जरासंघ को क्यों नहीं मारते। एक ही बार में विजय मिल जाएगी। जरासंघ को मारने से ऐसी सफलता मिलेगी कि फिर कोई दानव या राक्षस मथुरा पर हमले की नहीं सोचेगा। लेकिन कृष्ण ने नहीं माना। उन्होंने जरासंघ को मारने की बजाय अपनी राजधानी मथुरा को छोड़ द्वारिका में बसने का मन बना लिया। सब कृष्ण के इस निर्णय से हैरान थे।

कृष्ण ने जो जवाब दिया वो हमारे लिए बहुत उपयोगी है। कृष्ण ने सबसे कहा कि जरासंघ को मारना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन उसे जिंदा रखने में यह लाभ है कि वो हर बार दूर-दूर से अपने राक्षस मित्रों को युद्ध लिए बुलाकर लाता है और उन राक्ष्रसों को यहां मार देते हैं। इससे समाज का ही कल्याण हो रहा है। अगर जरासंघ को मार दिया तो उसके सारे मित्र बच जाएंगे जो धरती पर यहां-वहां फैलकर अनाचार बढ़ाएंगे। सफलता जरासंघ को मारने में नहीं है, सफलता हर बार उसके साथ आने वाले नए राक्षसों को मारने में है। जिससे लोक कल्याण हो रहा है। अगर ये राक्षस बच गए तो पूरी धरती को त्रास देंगे।

हम भी कई बार एक समस्या से घबराकर उसे जड़ से मिटाने की सोच लेते हैं लेकिन अक्सर उस समस्या के साथ पैदा हो रही दूसरी समस्याओं को अनदेखा कर देते हैं जो बाद में कभी-कभी हमारे लिए ज्यादा दु:खदायी हो जाती है। दूसरी शिक्षा इस प्रसंग से यह मिलती है कि हमेशा सफलता का आकलन खुद के हित को देख कर नहीं करना चाहिए। सफलता वो ही श्रेष्ठ होती है जिससे बड़े जनसमुदाय को लाभ पहुंचे।

इस सोच से काम करेंगे तो हार भी जीत में बदल जाएगी
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस, दोनों रामकथाओं में बहुत स्थानों पर अंतर मिलता है। कथानक कुछ भी हो लेकिन दोनों ही में जीवन के उच्च आदर्शों के उदाहरण मिलते हैं। वाल्मीकि रामायण के सुंदर कांड में एक बहुत प्रेरक प्रसंग है। हनुमान लंका में सीता को खोज रहे हैं। रावण सहित सभी लंकावासियों के भवनों, अन्य राजकीय भवनों और लंका की गलियों, रास्तों पर सीता को खोज लेने के बाद भी जब हनुमान को कोई सफलता नहीं मिली तो वे थोड़े हताश हो गए।

हनुमान ने सीता को कभी देखा भी नहीं था लेकिन वे सीता के गुणों को जानते थे। वैसे गुण वाली कोई स्त्री उन्हें लंका में नहीं दिखाई दी। अपनी असफलता ने उनमें खीज भर दी। वे कई तरह की बातें सोचने लगे। उनके मन में विचार आया कि अगर खाली हाथ लौट जाऊंगा तो वानरों के प्राण तो संकट में पड़ेंगे ही। प्रभु राम भी सीता के वियोग में प्राण त्याग देंगे, उनके साथ लक्ष्मण और भरत भी।

बिना अपने स्वामियों के अयोध्यावासी भी जी नहीं पाएंगे। बहुत से प्राणों पर संकट छा जाएगा। क्यों ना एक बार फिर से खोज शुरू की जाए। ये विचार मन में आते ही हनुमान फिर ऊर्जा से भर गए। उन्होंने अब तक कि अपनी लंका यात्रा की मन ही मन समीक्षा की और फिर नई योजना के साथ खोज शुरू की। हनुमान ने सोचा अभी तक ऐसे स्थानों पर सीता को ढूंढ़ा है जहां राक्षस निवास करते हैं। अब ऐसी जगह खोजना चाहिए जो वीरान हो या जहां आम राक्षसों का प्रवेश वर्जित हो।

ये विचार आते ही उन्होंने सारे राजकीय उद्यानों और राजमहल के आसपास सीता की खोज शुरू कर दी। अंत में सफलता मिली और हनुमान ने सीता को अशोक वाटिका में खोज लिया। हनुमान के एक विचार ने उनकी असफलता को सफलता में बदल दिया।

अक्सर हमारे साथ भी ऐसा होता है। किसी भी काम की शुरुआत में थोड़ी सी असफलता हमें विचलित कर देती है। हम शुरुआती हार को ही स्थायी मानकर बैठ जाते हैं। फिर से कोशिश ना करने की आदत न सिर्फ अशांति पैदा करती है बल्कि हमारी प्रतिभा को भी खत्म करती है।

सफलता को हमेशा स्थायी रखना है तो ये जरूर करें
रामकथा एक मात्र ऐसा विषय है जिस पर दुनियाभर में कई कथाएं मिलती हैं। करीब 125 तरह से रामकथा लिखी गई है, ऐसा माना जाता है। एक राम कथा में छोटा सा प्रसंग मिलता है। राम ने रावण को मार कर लंका का राज्य विभीषण को दे दिया। जब राम अयोध्या लौट रहे थे तो मार्ग में हनुमान ने राम से कहा कि उनकी माता अंजनि राम के दर्शन करना चाहती हैं।

राम ने उस स्थान पर गए जहां हनुमान की माता अंजनि निवास करती थीं। अंजनि माता ने राम की पूजा की। अपने पुत्र पर हमेशा कृपा बनाए रखने की प्रार्थना की। तब राम ने अंजनि माता से कहा हे माता आपके पुत्र के कारण ही संसार में मेरा इतना यश है। रावण को मारना हनुमान के बिना संभव ही नहीं था। सीता की खोज भी हनुमान ने की, लंका भी हनुमान ने जलाई, रावण के कई वीर योद्धाओं को हनुमान ने ही मारा।

हनुमान तो मेरा अभिन्न अंग है। राम के बिना हनुमान, हनुमान के बिना राम अधूरे हैं। ये सुन न केवल अंजनि माता की आंखें भर आईं, बल्कि हनुमान ने भी भगवान राम के चरण पकड़ लिए। राम के इस भाव को देख हनुमान की भक्ति और प्रबल हो गई। साथ ही जितने वानर और रीछ राम के साथ थे वे सब राम के इस सहज भाव को देखकर अभिभूत हो गए।

ये प्रसंग देखने में भले ही बहुत साधारण लगे लेकिन इसके पीछे का संदेश सफलता के लिए टीम भावना को बढ़ाने वाला है। राम अवतारी पुरुष घोषित थे। सभी वानर और सेना के अन्य लोग राम में दैविय शक्ति निहीत मानते थे। रावण वध के समय और रावण वध के बाद देवताओं ने राम की जो स्तुति और अभिनंदन किया, उसके बाद रावण वध और लंका विजय का कारण मात्र भगवान राम को सभी ने स्वीकार कर लिया था।

ऐसे में राम ने अपने सहयोगी को सारा श्रेय देकर यह साबित किया कि यह अकेले उनकी जीत नहीं है। सेना का भी इसमें संपूर्ण योगदान है। इससे वानरों में राम के प्रति श्रद्धा तो बढ़ी ही उनके प्रति निष्ठा भी अगाध हो गई। अपनी सफलता टीम के साथ बांटें, इससे ना सिर्फ टीम का हौंसला बढ़ेगा, बल्कि आपके प्रति भी टीम में निष्ठा भाव बढ़ेगा।

जब भी कोई सफलता मिले, सबसे पहले यह करें
सीता की खोज करते-करते राम और लक्ष्मण पहले हनुमान से मिले। हनुमान ने उनकी मुलाकात सुग्रीव से कराई। सुग्रीव को उसके बड़े भाई बाली ने अपने राज्य से निकाल दिया था। उसकी पत्नी रोमा को भी अपने पास ही रख लिया था।

राम ने सुग्रीव को मदद का भरोसा दिलाया। राम ने अपना वादा निभाया। राम ने बाली को मार कर किष्किंधा का राजा सुग्रीव को बना दिया। सुग्रीव को बरसों बाद राज्य और स्त्री का संग मिला। वो पूरी तरह राज्य को भोगने और स्त्री सुख में लग गया। तब वर्षा ऋतु भी शुरू हो चुकी थी। भगवान राम और लक्ष्मण एक पर्वत पर गुफाओं में निवास कर रहे थे।

वर्षा ऋतु निकल गई। आसमान साफ हो गया। राम को इंतजार था कि सुग्रीव आएंगे और सीता की खोज शुरू हो जाएगी। लेकिन सुग्रीव पूरी तरह से राग-रंग में डूबे हुए थे। उन्हें यह याद भी नहीं रहा कि भगवान राम से किया वादा पूरा करना है।

जब बहुत दिन बीत गए तो राम ने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास भेजा। लक्ष्मण ने सुग्रीव पर क्रोध किया तब उन्हें अहसास हुआ कि विलासिता में आकर उससे कितना बड़ा अपराध हो गया है। सुग्रीव को अपने वचन भूलने और विलासिता में भटकने के लिए सबसे सामने शर्मिंदा होना पड़ा, माफी भी मांगनी पड़ी।

इसके बाद सीता की खोज शुरू की गई। यह प्रसंग सिखाता है कि थोड़ी सी सफलता के बाद अगर हम कहीं ठहर जाते हैं तो मार्ग से भटकने का डर हमेशा ही रहता है। कभी भी छोटी-छोटी सफलताओं को अपने ऊपर हावी ना होने दें। अगर हम छोटी या प्रारंभिक सफलताओं में उलझकर रह जाएंगे तो कभी बड़े लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएंगे।

सफलता का नशा अक्सर परमात्मा से दूर कर देता है। जिस भगवान के भरोसे हमें वो कामयाबी मिली है, उसके नशे में कामयाबी दिलाने वाले को ही भूला दिया जाता है। क्षणिक सफलता परमात्मा तक पहुंचने की सीढ़ी हो सकती है, कभी लक्ष्य नहीं हो सकती। जब भी कोई सफलता मिले तो सबसे पहले परमात्मा के और निकट पहुंचने के प्रयास किए जाने चाहिए, सफलता के जश्र में उसे भूलना नहीं चाहिए।

सफलता सिर्फ जीतने में ही नहीं होती, कभी-कभी हारना भी पड़ता है
कई बार हम बाहरी सफलताएं हम पर हावी हो जाती हैं। कुछ सफलताएं पाने के बाद ऐसा भी महसूस होता है कि हमने अपना कुछ खो दिया है। सिर्फ भौतिक सफलताओं और संसाधनों पर टिकने वालों के साथ ऐसा ही होता है। हमें अपने भीतर की सफलता, यानी शांति और संतुष्टि के लिए भी सोचना चाहिए। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम हार कर भी संतुष्टि महसूस करते हैं।

भगवान कृष्ण के जीवन को देखिए। श्रेष्ठ अवतार और सर्वशक्तिमान होते हुए भी उन पर रणछोड़ होने का आक्षेप लगा। जो अवतार अपने एक चक्र से पूरी सेना के विनाश की शक्ति रखता हो, वो आखिर क्यों युद्ध का मैदान छोड़कर भागेगा। जरासंघ के सामने भी कृष्ण ने मैदान छोड़ा।

बलराम हर बार कृष्ण पर नाराज होते कि यादव वंश में आजतक कोई कायर नहीं हुआ, जो मैदान छोड़कर भाग जाए। युद्ध के लिए घर से सजधज कर निकले और युद्ध भूमि में आते ही पीठ दिखाकर भाग जाए।

कृष्ण बलराम के इस उलाहना को अक्सर हंस कर टाल जाते थे। वे कहते दाऊ हर बार जरूरी नहीं कि युद्ध जीता ही जाए। युद्ध का परिणाम सिर्फ जीतने या हारने तक सीमित नहीं होता है। इसका परिणाम तो इसके बाद की स्थिति पर निर्भर है। एक युद्ध में हजारों सैनिक मारे जाते हैं। उनसे जुड़े लाखों परिजन असहाय और दु:खी होते हैं। अगर सैनिकों की बलि चढ़ाकर जीत हासिल कर भी ली तो उसका लाभ ही क्या।

मैदान से भागने पर युद्ध टल जाता है, हजारों-लाखों जानें बच जाती हैं। अगर इसके लिए कोई आरोप या आक्षेप लगता है तो यह कोई घाटे का सौदा नही है। मैदान से भागने पर युद्ध टल जाता है, यह मेरे लिए शांति और संतुष्टि दोनों की बात है कि मेरे भागने से हजारों सैनिकों की जानें बच गई।

रावण से सीखें, सफलता और शक्ति मिले तो क्या-क्या नहीं करें....
आइए आज रावण से कुछ सीखते हैं। लोग अक्सर अपनी सफलता के नशे में क्या-क्या कर जाते हैं, जिसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ता है। रावण के साथ भी ऐसा ही कुछ होता था। उसकी गलतियां हमें सिखाती हैं कि अगर सफलता और शक्ति दोनों हमारे पास हो तो फिर हमें कैसे व्यवहार से बचना चाहिए।

रावण ने युवा होते ही अपने भाइयों के साथ कठोर तप किया। ब्रह्मा को प्रसन्न किया। मनुष्य को छोड़ किसी के भी द्वारा नहीं मारा जाऊं ये वरदान मांग लिया, अमृत भी मिल गया। अब रावण अविजीत था। किसी से भी हार नहीं सकता था। शक्ति का साथ मिला तो देवताओं पर आक्रमण कर दिया। सारे दानवों, यज्ञों, गंधर्वों को भी हरा दिया।

सारे देवता रावण के अधीन हो गए। अपनी जीत और शक्ति को देख रावण इतना अभिमानी हो गया कि वह पृथ्वी पर सिर्फ युद्ध करने के लिए ही घूमने लगा। जो भी देवता, दानव या अन्य शक्तिशाली प्राणी मिलता, वो उससे युद्ध करने की मांग करता। उसे ये एहसास होने लगा कि पूरी सृष्टि में शायद मुझसे ज्यादा कोई शक्तिशाली नहीं है।

उसे किसी ने वानरों के राजा बालि के के बारे में बताया जिसके पास अपार बल था। रावण बालि से युद्ध करने चल दिया। बालि इतना शक्तिशाली था कि वो रोज सुबह चार महासागरों की परिक्रमा करता था और उनके तट पर ही संध्या-पूजन करता था। रावण जब बालि के पास पहुंचा तो वह समुद्र किनारे खड़े होकर सूर्य को अघ्र्य दे रहा था।

रावण जैसे ही उसे मारने पहुंचा तो बालि ने उसे अपनी बाजू के लिए दबा लिया। रावण जैसे शक्तिशाली योद्धा को बाजू में दबाकर उसने चार समुद्रों की परिक्रमा की। जब उसे छोड़ा तो रावण को बहुत शर्मिंदगी हुई। उसने बालि से युद्ध करने की बजाय दोस्ती कर ली।

सफलता का अपना आनंद होता है लेकिन इसे कभी भी नशा ना बनने दें। सफलता का नशा अहंकार पैदा करता है, अहंकार से अज्ञान आता है, अज्ञान में व्यक्ति ऐसे कर्म करता है जो उसकी प्रतिष्ठा को धूमिल कर सकते हैं। रावण से सीखें कि अगर शक्ति, सामथ्र्य मिले तो कभी भी उसे अपने ऊपर इस कदर भी हावी ना होने दें कि हमारी शक्ति खुद हमारे ही अपमान का कारण बन जाए।

बिना मूल्य चुकाए कोई सफलता या लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता
सफलता उसे मिलती है, जो अपने कर्म और कर्तव्य के लिए ईमानदार है। जो, महत्वपूर्ण जिम्मेदारी हाथ में होते हुए भी दुनियादारी में उलझकर अपने कर्तव्यों की ओर से नजरें मोड़ लेता है, उसे असफलता ही मिलती है। भले ही हमारे पास सामथ्र्य हो, शक्ति हो लेकिन फिर भी उसका उपभोग और आनंद हमें नहीं मिल पाता।

महाभारत में चलते हैं। धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे। हस्तिनापुर का राजा बनने का पहला अधिकार उनका था लेकिन अंधा होने के कारण उनके छोटे भाई पांडु को राजा बनाया गया। पांडु को एक ऋषि का शाप मिला जिससे उन्हें राजमहल छोड़कर जंगल में जाना पड़ा। नतीजतन धृतराष्ट्र को उनके प्रतिनिधि के रूप में बैठाया गया।

पांडु की असमय मृत्यु के कारण धृतराष्ट्र ही स्थायी राजा हो गए। इसके बाद ही उनका पतन शुरू हो गया। उनके राजा बनते ही सारे पुत्र अनियंत्रित हो गए। कुछ समय तक धृतराष्ट्र ने अच्छे से शासन चलाया भी लेकिन फिर वो पुत्र मोह में फंस गया। दुर्योधन के लिए उनका प्रेम इतना बढ़ गया कि वो राजा होते हुए भी खुद कोई निर्णय नहीं ले पाते थे।

इसका परिणाम हुआ महाभारत युद्ध। अगर धृतराष्ट्र अपने पुत्र के मोह में नहीं फंसते तो शायद इतिहास में उनका नाम कुछ अलग अर्थों में लिया जाता। सिर्फ उनके मोह और पुत्र प्रेम के कारण आज वे एक नायक नहीं, बल्कि महाभारत युद्ध के मूल कारण के रूप में जाने जाते हैं।

कहने का अर्थ यही है कि हर सफलता कुछ त्याग और निष्ठा मांगती है। लक्ष्य जितना बड़ा हो, उसका मूल्य भी उतना अधिक होता है। अगर हम मूल्य नहीं चुका पाते हैं तो वो सफलता भी हमारे लिए नहीं होती, भले ही फिर हम शिखर पर ही क्यों ना हों। उसका श्रेय नहीं ले सकते, हां उसका अपयश जरूर भुगतना पड़ता है।

आखिर क्यों हम अक्सर बड़े लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते?
सफलता कभी एकमुश्त नहीं मिलती, ये पड़ाव दर पड़ाव पार किया जाने वाला सफर है। अक्सर ऐसा होता है कि हम पड़ावों पर ही जीत के उत्सव में डूब जाते हैं, मंजिलें तो मिल ही नहीं पाती। छोटी-छोटी कामयाबियों का जश्न मनाना तो जरूरी है लेकिन इसके उत्साह में असली लक्ष्य को ना भूला जाए। अक्सर लोग यहीं मात खा जाते हैं।

हमें अपना लक्ष्य तय करते समय ही यह भी तय कर लेना चाहिए कि हमारा मूल उद्देश्य क्या है और इसमें कितने पड़ाव आएंगे। अगर हम किसी छोटी सी सफलता या असफलता में उलझकर रह गए तो फिर बड़े लक्ष्य तक जाना कठिन हो जाएगा।
महाभारत युद्ध में चलते हैं। कौरव और पांडव दोनों सेनाओं के व्यवहार में अंतर देखिए। कौरवों के नायक यानी दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण जैसे योद्धा और पांडव सेना से डेढ़ गुनी सेना होने के बाद भी वे हार गए। धर्म-अधर्म तो एक बड़ा कारण दोनों सेनाओं के बीच था ही लेकिन उससे भी बड़ा कारण था दोनों के बीच लक्ष्य को लेकर अंतर। कौरव सिर्फ पांडवों को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से लड़ रहे थे।

जब भी पांडव सेना से कोई योद्धा मारा जाता, कौरव उत्सव का माहौल बना देते, जिसमें कई गलतियां उनसे होती थीं। अभिमन्यु को मारकर तो कौरवों के सारे योद्धाओं ने उसके शव के इर्दगिर्द ही उत्सव मनाना शुरू कर दिया।
वहीं पांडवों ने कौरव सेना के बड़े योद्धाओं को मारकर कभी उत्सव नहीं मनाया। वे उसे युद्ध जीत का सिर्फ एक पड़ाव मानते रहे। भीष्म, द्रौण, कर्ण, शाल्व, दु:शासन और शकुनी जैसे योद्धाओं को मारकर भी पांडवों के शिविर में कभी उत्सव नहीं मना।
उनका लक्ष्य युद्ध जीतना था, उन्होंने उसी पर अपना ध्यान टिकाए रखा। कभी भी क्षणिक सफलता के बहाव में खुद को बहने नहीं दिया।

श्रीकृष्ण से सीखें आपको कैसे मिलेगी हर कदम कामयाबी...
भगवान कृष्ण जिन्हें अधिकतर लोग माया-मोह से रहित मानते हैं। भयंकर युद्धों के बाद भी कभी अशांत नहीं हुए। उन्होंने कभी अपने हिस्से का संघर्ष किसी दूसरों से नहीं करवाया। कभी किसी को सफलता के लिए अनुचित मार्ग नहीं दिखलाया।
महाभारत के भीषण युद्ध को अकेले कृष्ण पांडवों के लिए एक दिन में जीतने में सक्षम होने पर भी युद्ध पांडवों से ही करवाया, उन्होंने सिर्फ मार्गदर्शन ही किया। वे चाहते तो पांडवों की ओर से कोई सैनिक नहीं मारा जाता और युद्ध जीता जा सकता था।

इसका कारण यह था कि अगर कृष्ण युद्ध जीत कर युधिष्ठिर को राजा बना देते तो पांडव कभी उस सफलता का मूल्य नहीं समझ पाते। सफलता स्थायी और संतुष्टिप्रद तभी होती जब वे खुद संघर्ष करके इसे हासिल करते।कभी-कभी बहुत कामयाबी मिलने के बाद भी हमारा मन संतुष्ट नहीं होता। सफलता हमें खुशी नहीं देती। ऐसा क्यों होता है कि हम जितने सफल होते हैं, उतना ही मन अशांत हो जाता है। इन सब के पीछे कुछ कारण हैं जो हमारी सफलता के भाव को प्रभावित करते हैं।

सफलता के साथ शांति और संतुष्टि ये दो भाव होना जरूरी है। अगर हम अशांत और असंतुष्ट हैं तो इसका सीधा अर्थ यह है कि हमने सफलता के लिए कोई शार्टकट अपनाया है। शार्टकट से मिली सफलता अस्थायी होती है। और यही भाव हमारे मन को अशांत करता है।स्थायी सफलता का रास्ता कभी छोटा नहीं होता, आसान नहीं होता लेकिन इस रास्ते से चलकर जब लक्ष्य तक पहुंचा जाता है तो वह स्थायी आनंद देता है। लोग अक्सर अपनी दौड़ में दूसरों को भूल जाते हैं, कौन आपके पैरों से ठोकर खाकर गिरा, किसने आपकी सहायता की, ऊंचाई पर जाकर सब विस्मृत हो जाता है।

सफलता मिलते ही सबसे पहले करना चाहिए ये काम...
सीता की खोज करते-करते राम और लक्ष्मण पहले हनुमान से मिले। हनुमान ने उनकी मुलाकात सुग्रीव से कराई। सुग्रीव को उसके बड़े भाई बाली ने अपने राज्य से निकाल दिया था। उसकी पत्नी रोमा को भी अपने पास ही रख लिया था।

राम ने सुग्रीव को मदद का भरोसा दिलाया। राम ने अपना वादा निभाया। राम ने बाली को मार कर किष्किंधा का राजा सुग्रीव को बना दिया। सुग्रीव को बरसों बाद राज्य और स्त्री का संग मिला। वो पूरी तरह राज्य को भोगने और स्त्री सुख में लग गया। तब वर्षा ऋतु भी शुरू हो चुकी थी। भगवान राम और लक्ष्मण एक पर्वत पर गुफाओं में निवास कर रहे थे।

वर्षा ऋतु निकल गई। आसमान साफ हो गया। राम को इंतजार था कि सुग्रीव आएंगे और सीता की खोज शुरू हो जाएगी। लेकिन सुग्रीव पूरी तरह से राग-रंग में डूबे हुए थे। उन्हें यह याद भी नहीं रहा कि भगवान राम से किया वादा पूरा करना है।

जब बहुत दिन बीत गए तो राम ने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास भेजा। लक्ष्मण ने सुग्रीव पर क्रोध किया तब उन्हें अहसास हुआ कि विलासिता में आकर उससे कितना बड़ा अपराध हो गया है। सुग्रीव को अपने वचन भूलने और विलासिता में भटकने के लिए सबसे सामने शर्मिंदा होना पड़ा, माफी भी मांगनी पड़ी।

इसके बाद सीता की खोज शुरू की गई। यह प्रसंग सिखाता है कि थोड़ी सी सफलता के बाद अगर हम कहीं ठहर जाते हैं तो मार्ग से भटकने का डर हमेशा ही रहता है। कभी भी छोटी-छोटी सफलताओं को अपने ऊपर हावी ना होने दें। अगर हम छोटी या प्रारंभिक सफलताओं में उलझकर रह जाएंगे तो कभी बड़े लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएंगे।

सफलता का नशा अक्सर परमात्मा से दूर कर देता है। जिस भगवान के भरोसे हमें वो कामयाबी मिली है, उसके नशे में कामयाबी दिलाने वाले को ही भूला दिया जाता है। क्षणिक सफलता परमात्मा तक पहुंचने की सीढ़ी हो सकती है, कभी लक्ष्य नहीं हो सकती। जब भी कोई सफलता मिले तो सबसे पहले परमात्मा के और निकट पहुंचने के प्रयास किए जाने चाहिए, सफलता के जश्र में उसे भूलना नहीं चाहिए।

ये बात आपकी हार को भी जीत में बदल सकती है...
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस, दोनों रामकथाओं में बहुत स्थानों पर अंतर मिलता है। कथानक कुछ भी हो लेकिन दोनों ही में जीवन के उच्च आदर्शों के उदाहरण मिलते हैं। वाल्मीकि रामायण के सुंदर कांड में एक बहुत प्रेरक प्रसंग है। हनुमान लंका में सीता को खोज रहे हैं। रावण सहित सभी लंकावासियों के भवनों, अन्य राजकीय भवनों और लंका की गलियों, रास्तों पर सीता को खोज लेने के बाद भी जब हनुमान को कोई सफलता नहीं मिली तो वे थोड़े हताश हो गए।

हनुमान ने सीता को कभी देखा भी नहीं था लेकिन वे सीता के गुणों को जानते थे। वैसे गुण वाली कोई स्त्री उन्हें लंका में नहीं दिखाई दी। अपनी असफलता ने उनमें खीज भर दी। वे कई तरह की बातें सोचने लगे। उनके मन में विचार आया कि अगर खाली हाथ लौट जाऊंगा तो वानरों के प्राण तो संकट में पड़ेंगे ही। प्रभु राम भी सीता के वियोग में प्राण त्याग देंगे, उनके साथ लक्ष्मण और भरत भी।

बिना अपने स्वामियों के अयोध्यावासी भी जी नहीं पाएंगे। बहुत से प्राणों पर संकट छा जाएगा। क्यों ना एक बार फिर से खोज शुरू की जाए। ये विचार मन में आते ही हनुमान फिर ऊर्जा से भर गए। उन्होंने अब तक कि अपनी लंका यात्रा की मन ही मन समीक्षा की और फिर नई योजना के साथ खोज शुरू की। हनुमान ने सोचा अभी तक ऐसे स्थानों पर सीता को ढूंढ़ा है जहां राक्षस निवास करते हैं। अब ऐसी जगह खोजना चाहिए जो वीरान हो या जहां आम राक्षसों का प्रवेश वर्जित हो।

ये विचार आते ही उन्होंने सारे राजकीय उद्यानों और राजमहल के आसपास सीता की खोज शुरू कर दी। अंत में सफलता मिली और हनुमान ने सीता को अशोक वाटिका में खोज लिया। हनुमान के एक विचार ने उनकी असफलता को सफलता में बदल दिया।

अक्सर हमारे साथ भी ऐसा होता है। किसी भी काम की शुरुआत में थोड़ी सी असफलता हमें विचलित कर देती है। हम शुरुआती हार को ही स्थायी मानकर बैठ जाते हैं। फिर से कोशिश ना करने की आदत न सिर्फ अशांति पैदा करती है बल्कि हमारी प्रतिभा को भी खत्म करती है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Shakti (शक्ति)

शक्ति तभी पूजनीय हो सकता है जब उसमें एक ये गुण भी हो...
महाभारत का एक प्रसंग है। पांडवों को जुए में हार जाने के बाद बारह साल का वनवास भोगना था। सभी पांचों भाई और द्रौपदी घने जंगलों में भटक रहे थे। वे कैलाश पर्वत के तलीय जंगलों में थे। उस समय यक्षों के राजा कुबेर का निवास भी कैलाश पर्वत पर ही था।

कुबेर के नगर में एक सरोवर था जिसमें बहुत सुगंधीत कमल के फूल थे। द्रौपदी को उन फूलों की महक आई तो उसने भीम से कहा कि उसे वे कमल के फूल चाहिए। भीम द्रौपदी के लिए फूल लाने चल दिए। रास्ते में एक घना जंगल था।

भीम ने देखा एक बंदर रास्ते पर पूंछ डाले सो रहा है। किसी जीव को लांघकर गुजर जाना मर्यादा के विरुद्ध था। सो, भीम ने बंदर से कहा अपनी पूंछ हटा लो। मुझे यहां से गुजरना है। बंदर ने नहीं सुना, भीम को क्रोध आ गया। उसने कहा तुम जानते हो मैं महाबली भीम हूं। बंदर ने कहा इतने शक्तिशाली हो तो तुम खुद ही मेरी पूंछ रास्ते से हटा दो और गुजर जाओ।

भीम ने बहुत कोशिश की लेकिन पूंछ टस से मस नहीं हुई। हार मानकर बैठ गया और वानर से प्रार्थना करने लगा। तब वानर ने अपना असली रूप दिखाया। वे स्वयं पवनपुत्र हनुमान थे। उन्होंने भीम को समझाया कि तुम्हें कभी भी अपनी शक्ति पर इस तरह घंमड नहीं करना चाहिए।

प्रकृति ने हमें शक्ति दी है, तो हमारी जिम्मेदारी भी बड़ी है। हमें शक्ति के मद में सभ्यता और विनम्रता को नहीं त्यागना चाहिए।

अपनी शक्ति के नशे में अंधे हो जाना आम बात है। ऐसे लोग बिरले ही होते हैं जो जितने शक्तिशाली होते हैं उतने ही विनम्र भी। शक्ति और विनम्रता ऐसे गुण हैं जो विपरीत स्वभाव के होते हैं लेकिन अगर ये एक ही स्थान पर आ जाएं तो व्यक्ति महान हो जाता है।

शक्ति का सही उपयोग कैसे किया जाए, सीखिए भगवान राम से...
रामायण में चलते हैं। भगवान राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरु वशिष्ठ से सारी शिक्षा ली। वे राजकुमार तो थे ही, धनुर्विद्या के भी निपुण योद्धा थे। शक्ति भी थी और सामथ्र्य भी। पूरे राजसी ठाठ से जीवन गुजर रहा था। तभी एक दिन ऋषि विश्वामित्र आ पहुंचे। उन्होंने दशरथ से राम और लक्ष्मण मांग लिए।

रावण की राक्षस सेना का आतंक बढ़ रहा था और वे ऋषियों के हवन-यज्ञों को बंद करा रहे थे। राक्षसों के संहार के लिए विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को चुना। दशरथ पहले डरे लेकिन फिर गुरुओं की बात को मानकर राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेज दिया।

राम शक्तिशाली राक्षसों का मारकर ऋषियों को भयमुक्त कर दिया। यहां राम का काम पूरा हो चुका था लेकिन उन्होंने ऋषि विश्वामित्र का साथ ततकाल नहीं छोड़ा। उनके साथ जंगल-जंगल और कई नगरों में घूमते रहे। राम का कहना था कि और भी कहीं कोई राक्षस ब्राह्मणों, ऋषियों, निर्बलों या गौओं का नष्ट कर रहे हों या उनके कार्यों में बाधा डाल रहे हों तो मैं उनका नाश करने के लिए तैयार हूं।

शक्ति है तो उसका पहला उपयोग निर्बलों की सहायता, समाज की सेवा और विश्व के उत्थान में लगाना चाहता हूं। इस पूरे अभियान में राम ने कई राक्षसों को मार गिराया। विश्वामित्र ने राम को प्रसन्न होकर कई दिव्यास्त्र भी दिए, जो बाद में रावण से युद्ध में काम आए।

शक्ति का सबसे श्रेष्ठ उपयोग जनहित में ही हो सकता है। परमात्मा अगर शक्ति देता है तो वो सिर्फ उसका उपहार नहीं होती। वो एक जिम्मेदारी भी है। हमें धन, बल, बुद्धि या विद्या कोई भी शक्ति मिले तो उसका उपयोग सबसे पहले लोक हित में किया जाना चाहिए। तभी वो सफल और सुफल होगी।

कहा जाता है जिसे अपने सामथ्र्य का उपयोग करना आ गया, वो सारा संसार जीत सकता है। शक्तिशाली होना कोई उपलब्धि नहीं है, लेकिन अपनी शक्ति का सदुपयोग बहुत बड़ी उपलब्धि है। अगर अपनी शक्ति का, सामथ्र्य का सम्मान चाहते हैं तो दूसरों के लिए जीने की आदत डालनी होगी। मुश्किल में पड़े लोगों की सहायता से ही ताकत को सलाम मिलता है।

अगर आप में प्रतिभा है तो ऐसे प्रदर्शित करने से बचें...
वाल्मीकि रामायण में प्रसंग है। भगवान श्री राम की वानर सेना समुद्र के किनारे पर आ खड़ी थी। बड़ा सवाल था इतनी बड़ी सेना के साथ समुद्र कैसे लांघा जाए। सुग्रीव, विभीषण, जामवंत आदि मंत्रियों ने भगवान को अलग-अलग सुझाव दिए। भगवान को विभीषण का प्रस्ताव पसंद आया।

विभीषण ने भगवान से कहा कि आप समुद्र को रास्ता देने के लिए प्रार्थना करें। ये आपके पूर्वज ही हैं। आपके पूर्वज महाराज सगर के 60 हजार पुत्रों द्वारा खोदा गया है। इसलिए इसे सागर कहा जाता है। भगवान ने विभीषण की बात मानी। सागर से प्रार्थना करने के लिए तप शुरू किया।

लक्ष्मण इस निर्णय से खुश नहीं थे। उनका मानना था कि समुद्र जड़ है, इससे प्रार्थना करने का लाभ नहीं है। लक्ष्मण का अनुमान ठीक भी निकला। तीन दिन तक उपवास और तप के बाद भी सागर ने कोई उत्तर नहीं दिया तो भगवान राम को भी क्रोध आ गया।

उन्होंने धनुष पर बाण का संधान कर सागर में छोड़ा। बाण से निकली अग्नि से सारे जंतु जलने लगे। समुद्र तत्काल राम की शरण में आया। क्षमा मांगी। राम ने समुद्र लांघने का उपाय पूछा तो समुद्र ने बताया कि आपकी सेना में नल और नील दोनों वानर विश्वकर्मा के पुत्र हैं। इनमें समुद्र पर सेतु बांधने की नैसर्गिक प्रतिभा है। क्योंकि विश्वकर्मा देवताओं के शिल्पी हैं।

राम ने नल-नील को बुलवाया। उनसे पूछा कि आप दोनों के पास यह प्रतिभा और शक्ति थी तो पहले क्यों नहीं बताया। तीन दिन तक तप नहीं करना पड़ता। नल और नील ने जो जवाब दिया उसे सुन राम भी प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा कि भगवान हमारे भीतर शक्ति है लेकिन जब तक हमसे कहा ना जाए हम उसका प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं। ये तो शक्ति का अपमान है।

हमारे इस गुण के बारे में तो महाराज सुग्रीव को भी पता है लेकिन उन्होंने भी आज्ञा नहीं दी तो हम कैसे अपनी शक्ति का बिना किसी कारण प्रदर्शन कर सकते हैं।

ये बात आज के युवाओं के लिए बहुत बड़ा सबक है, अक्सर हम अपनी शक्ति और प्रतिभा का प्रदर्शन वहां भी कर देते हैं जहां आवश्यकता नहीं होती। अपनी शक्ति को वहीं दिखाएं जहां बहुत आवश्यक हो और आपके अलावा कोई विकल्प ना हो। अन्यथा आपकी शक्ति और प्रतिभा दोनों बेकार होंगी।

शक्ति का ऐसा उपयोग आपको भी डाल सकता है मुश्किलों में...
महाभारत की शुरुआत में कर्ण के जन्म की कथा आती है। कर्ण की मां कुंती राजकुमारी थीं। एक दिन उनके राजमहल में महर्षि दुर्वासा आए। दुर्वासा अपने क्रोध और शापों के कारण बहुत चर्चित थे। हर राजा उन्हें प्रसन्न करने के लिए हर संभव प्रयास करता था।

कुंतीराज ने भी दुर्वासा को अपना अतिथि बनाया। उनकी सेवा में कोई कमी ना रहे इसलिए उन्होंने उनके आतिथ्य की सारी जिम्मेदारी बेटी कुंती को सौंप दी। कुंती ने भी पूरे समर्पण के साथ महर्षि दुर्वासा की सेवा की।

कई दिनों तक सेवा का पूरा सिलसिला चलता रहा। दुर्वासा ने कुंती की कई कठिन परीक्षाएं भी लीं जिससे कि कुंती उन्हें अप्रसन्न कर सके लेकिन कुंती ने धैर्य नहीं खोया। वो महर्षि की हर परीक्षा में सफल रही। दुर्वासा उससे बहुत प्रसन्न हुए। जाते-जाते उसे एक ऐसा मंत्र दे गए, जिसके उच्चारण से जिस देवता को बुलाया जाए, वो उपस्थित हो जाता है।

कुंती को एकाएक इस पर भरोसा नहीं हुआ। उसने इस मंत्र के सत्य को जानने के लिए सूर्य का आवाहन कर लिया। तत्काल सूर्य देवता प्रकट हो गए। कुंती से वरदान मांगने को कहा तो कुंती ने कहा मुझे कुछ नहीं चाहिए। सूर्य देवता ने उसे एक पुत्र दे दिया। विवाह के पहले पुत्र होना सामाजिक दृष्टि से अनुचित था इस कारण कुंती ने उस पुत्र को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। जो बड़ा होकर कर्ण कहालाया।

अगर हमें कोई शक्ति मिले तो उसका उपयोग सिर्फ आवश्यकता पडऩे पर ही किया जाए। अनावश्यक शक्ति प्रयोग कई बार हमारे लिए ही घातक हो सकता है। जहां बहुत आवश्यक हो, वहीं इसका उपयोग किया जाए तो शक्ति और हमारा दोनों का सम्मान बढ़ता है। कई लोग अपने पद, पैसे या शारीरिक क्षमताओं का अनावश्यक उपयोग करते हैं, जिसके परिणाम भी उन्हें भुगतने पड़ते हैं।

ऐसे हासिल हुई ताकत आपके लिए मुसीबत भी बन सकती है
किस्सा महाभारत का है। परशुराम ने सारी पृथ्यी कश्यप ऋषि को दान कर दी। वे अपने सारे अस्त्र-शस्त्र भी ब्राह्मणों को दान कर रहे थे। कई ब्राह्मण उनसे शक्तियां मांगने पहुंच रहे थे। द्रौणाचार्य ने भी उनसे कुछ शस्त्र लिए। तभी कर्ण को भी ये बात पता चली। वो ब्राह्मण नहीं था लेकिन परशुराम जैसे योद्धा से शस्त्र लेने का अवसर वो गंवाना नहीं चाहता था।

कर्ण को एक युक्ति सूझी, उसने ब्राह्मण का वेश बनाकर परशुराम से भेंट की। उस समय तक परशुराम अपने सारे शस्त्र दान कर चुके थे। फिर भी कर्ण की सीखने की इच्छा को देखते हुए, उन्होंने उसे अपना शिष्य बना लिया। कई दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी दिया।

एक दिन दोनों गुरु-शिष्य जंगल से गुजर रहे थे। परशुराम को थकान महसूस हुई। उन्होंने कर्ण से कहा कि वे आराम करना चाहते हैं। कर्ण एक घने पेड़ के नीचे बैठ गया और परशुराम उसकी गोद में सिर रखकर सो गए। कर्ण उन्हें हवा करने लगा। तभी कहीं से एक बड़ा कीड़ा आया और उसने कर्ण की जांघ पर डंक मारना शुरू कर दिया।

कर्ण को दर्द हुआ लेकिन गुरु की नींद खुल गई तो उसके सेवा कर्म में बाधा होगी, यह सोच कर वह चुपचाप डंक की मार सहता रहा। कीड़े ने बार-बार डंक मारकर कर्ण की जांघ को बुरी तरह घायल कर दिया। उसकी जांघ से खून बहने लगा, खून की छोटी सी धारा परशुराम को लगी तो वे जाग गए। उन्होंने कीड़े को हटाया, फिर कर्ण से पूछा कि तुमने उस कीड़े को हटाया क्यों नहीं।

उसने कहा मैं थोड़ा भी हिलता तो आपकी नींद खुल जाती, मेरा सेवा धर्म टूट जाता। ये अपराध होता। परशुराम ने तत्काल समझ लिया। उन्होंने कहा इतनी सहनशक्ति किसी ब्राह्मण में नहीं हो सकती। तुम जरूर कोई क्षत्रिय हो। कर्ण ने अपनी गलती मान ली। परशुराम ने उसे शाप दिया कि जब उसे इन दिव्यास्त्रों की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, वो इसके प्रयोग की विधि भूल जाएगा। ऐसा हुआ भी, जब महाभारत युद्ध में कर्ण और अर्जुन के बीच निर्णायक युद्ध चल रहा था, तब कर्ण कोई दिव्यास्त्र नहीं चला सका, सभी के संधान की विधि वो भूल गया।

झूठ के सहारे पाई गई, सफलता या शक्ति आपको क्षणिक सुख तो दे सकती है लेकिन स्थायी सफलता नहीं। झूठ बोल कर अगर कुछ हासिल कर भी लिया जाए तो वो चीज ज्यादा समय तक आपके पास टिक नहीं सकती।

जब लक्ष्य के लिए निकलें तो अपनी शक्ति को इस तरह मजबूत करें
महाभारत का युद्ध शुरू होने वाला था। कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडव दोनों की सेनाएं पहुंच गई थीं। युद्ध के पहले वाली रात हर योद्धा पर भारी थी। सभी सुबह होने का इंतजार कर रहे थे। कोई वीर अपनी तलवार को धार दे रहा था, कोई बाणों को तीखा बनाने में जुटा था।

हर कोई उस घड़ी के इंतजार में था जब युद्ध शुरू होना था। भगवान कृष्ण और अर्जुन भी अपने-अपने शिविरों के बाहर टहल रहे थे। युद्ध का रोमांच तो था कि चिंता की लकीरें भी थीं। दोनों पक्षों की सेना में भारी अंतर था। कौरवों की सेना पांडव सेना से कहीं ज्यादा थी।

अर्जुन भी चिंता में था। वह कृष्ण के पास पहुंचा। अर्जुन ने कृष्ण से युद्ध को लेकर बातें कीं। कृष्ण उसकी मन:स्थिति को समझ गए। उन्होंने अर्जुन से कहा कि हे पार्थ तुम चिंता छोड़ो और शक्ति यानी देवी का ध्यान करो। तुम्हें इस समय अपनी शक्ति को केंद्रित रखना चाहिए।

कृष्ण ने अर्जुन को चिंता छोड़ ध्यान करने की सलाह दी। अपने भीतर मौजूद शक्ति और सामथ्र्य को एकत्रकर उसी पर टिकने का सुझाव दिया। अर्जुन ने ध्यान लगाया। उसे शक्ति के दर्शन हुए। मन से दुविधा और चिंता मिट गई।

कृष्ण संदेश दे रहे हैं कि जब भी आप लक्ष्य के निकट हों, युद्ध के मुहाने पर खड़े हों तो चिंता की बजाय चिंतन और ध्यान पर अपना मन केंद्रित करना चाहिए। लक्ष्य के पहले मन में आई चिंता आपको पराजय की ओर मोड़ सकती है। शक्ति कम भी हो तो उसे एकत्रकर पूरे मनोयोग से जुट जाएं।

ये शक्ति ही आपकी विजय के लिए पर्याप्त होगी। अगर हम हमारी पूरी शक्ति के साथ प्रयास नहीं करेंगे तो संभव है कि हम किसी भी अवसर को अपने पक्ष में नहीं कर पाएंगे।

जीतना है तो अपने भीतर रखें ऐसा भरोसा
शक्ति पर विश्वास बहुत जरूरी होता है। रामचरित मानस का प्रसंग है। भगवान राम के साथ वानर सेना समुद्र किनारे तक पहुंच गई थी। समुद्र को पार करने पर विचार किया जा रहा था। उसी समय लंका में भी भावी युद्ध को लेकर चर्चाएं चल रही थीं। रावण ने अपने मंत्रियों से राय मांगी तो सारे मंत्रियों ने यह कह दिया कि जब देवताओं और दानवों को जीतने में कोई श्रम नहीं किया तो मनुष्य और वानरों से क्या डरना?

विभीषण ने रावण को बहुत समझाया कि राम से संधि कर ले। सीता को आदर सहित फिर राम को लौटा दिया जाए तो राक्षस कुल बच सकता है। रावण विभीषण की इस बात पर गुस्सा हुआ और उसे लात मारकर अपने राज्य से निकाल दिया। विभीषण ने राम की शरण ली।

जब विभीषण राम के पास जाने के लिए वायुमार्ग से पहुचे तो वानर सेना में खलबली मच गई। सुग्रीव ने राम को सुझाव दिया कि ये राक्षस है और ऊपर से रावण का छोटा भाई भी। इसे बंदी बना लेना चाहिए। हो सकता है यह हमारी सेना का भेद लेने आया हो।

राम ने सुग्रीव को जवाब दिया कि हमें हमारे बल और सामथ्र्य पर पूरा भरोसा है। विभीषण शरण लेने आया है इसलिए उसे बंदी नहीं बनाना चाहिए। अगर वो भेद लेने भी आया है तो भी कोई संकट नहीं है। उसके हमारी सेना के भेद जान लेने से हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। हमारा बल तो कम होगा नहीं। दुनिया में जितने भी राक्षस है उन सब को अकेले लक्ष्मण ही क्षणभर में खत्म कर सकते हैं। हमें विभीषण से डरना नहीं चाहिए। उससे बात करनी चाहिए।

अक्सर लोग अपनी ही शक्ति को लेकर आशंकित होते हैं। हम जब अपने आप पर, अपने समर्थ होने पर शंका करने लगते हैं तो यहां से हमारी पराजय की शुरुआत हो जाती है। विजय हमेशा विश्वास से हासिल होती है। अगर हम खुद में विश्वास नहीं रखेंगे तो कभी जीत नहीं पाएंगे। छोटी-छोटी समस्याओं से डरते रहेंगे।

जानिए, अधूरा ज्ञान आपके लिए कितना खतरनाक हो सकता है
बिना ज्ञान के शक्ति का कोई उपयोग नहीं होता है। ऐसी शक्ति किसी काम की नहीं जिसे उपयोग करने का पूरा ज्ञान ही हमारे पास नहीं हो। वो चाहे शारीरिक शक्ति हो या मानसिक हो, हर तरह की शक्ति के लिए उसके उपयोग का ज्ञान होना आवश्यक है।

महाभारत युद्ध के बाद का प्रसंग है। दुर्योधन ने मृत्यु से पहले अश्वत्थामा को कौरव सेना का आखिरी सेनापति नियुक्त किया। उसने पांडवों के पांच पुत्रों, धृष्टधुम्र, शिखंडी सहित कई योद्धाओं को अकेले ही मार दिया। इसके बाद भी उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ। अर्जुन भी उसके वध का प्रण कर घूम रहा था। दोनों में भयंकर युद्ध हुआ।

दोनों के गुरु द्रौणाचार्य थे। सभी शस्त्रों के संधान में दोनों ही कुशल थे। युद्ध भयानक होता जा रहा था। अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र चला दिया। जवाब में अर्जुन ने भी अश्वत्थामा पर ब्रह्मास्त्र छोड़ा। दोनों अस्त्रों से पूरी धरती और मानव जाति का विनाश हो जाता।

ये देखकर वेद व्यास बीच में आए और उन्होंने दोनों ब्रह्मास्त्रों को रोक दिया। अर्जुन और अश्वत्थामा दोनों को ही उन्होंने बहुत समझाया। दोनों को अपने-अपने अस्त्र वापस लेने को कहा, अर्जुन ने व्यासजी का कहा मानकर तुरंत अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया लेकिन अश्वत्थामा ने नहीं लिया। वेद व्यास ने जब उससे पूछा कि तुमने अपना अस्त्र वापस क्यों नहीं लिया, तो उसने जवाब दिया कि मुझे ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाने की विद्या का ज्ञान नहीं है।

वेद व्यास बहुत क्रोधित हुए और कहा कि तुम्हें जिस विद्या का पूरा ज्ञान नहीं है उसका उपयोग ही क्यों किया। ये पूरी सृष्टि के लिए खतरा है। ऐसा कहकर उसे शाप भी दिया।

यह प्रसंग बताता है कि विद्या कोई भी हो, हमें उसका संपूर्ण ज्ञान होना चाहिए। अगर हम विद्या हासिल करने में थोड़ी भी चूक करते हैं तो हमें इसके घातक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

कितनी भी शक्ति मिल जाए कभी इन बातों को ना भूलें
आज राम कथा में चलते हैं। प्रसंग है राम को वनवास हो गया है, दशरथ ने देह त्याग दी है, भरत के सामने अयोध्या का राजपाठ संभालने का दबाव है। सारे मंत्री, गुरु वशिष्ठ और अन्य सलाहकार भरत को समझा रहे हैं। भरत राजा बनने को तैयार नहीं है, उनका मानना है कि अगर उन्होंने राजा बनना स्वीकार किया तो राम वनवास का दोषी उन्हें ही माना जाएगा। राम उनके बड़े भाई हैं और उन्हें ही राजा होना चाहिए।

वे राम को मनाने सारी सेना और पूरे कुटुंब को लेकर चित्रकूट तक गए। राम ने लौटना स्वीकार नहीं किया। अयोध्यावासियों, गुरु और अपने परिवार के सामने भरत को अयोध्या का राजा बनने का आदेश दिया। भरत के पास सारे कारण मौजूद थे राजा बनने के। सभी चाहते थे कि राम की गैरमौजूदगी में भरत ही राजपाट संभालें लेकिन भरत ने सबकी अपेक्षा के विपरीत जाकर राम की चरण पादुकाएं ले लीं।

अयोध्या लौटे तो सारा राज दरबार अयोध्या के बाहर नंदीग्राम के एक आश्रम में ले आए। सिंहासन पर राम की चरण पादुकाएं रखीं और 14 साल तक अयोध्या का राज काज राम के प्रतिनिधि के रूप में देखा। उनके मन में कभी सिंहासन पर बैठने की इच्छा नहीं जागी।

भरत के पास सारी शक्ति और सामथ्र्य मौजूद था लेकिन फिर भी कभी उन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया। यही कारण था कि भरत को रामकथा का सबसे निर्दोष, निश्चल और निष्ठावान पात्र माना गया।

ये भरत की सफलता का सूत्र था। शिक्षा यह है कि हमें भले ही कोई भी शक्ति या सामथ्र्य मिल जाए, हमें कभी अपनी योग्यता और अधिकारों की सीमा को नहीं लांघना चाहिए। जैसे ही हम अपनी सीमाएं लांघने लगते हैं, हमारे पतन का सिलसिला भी शुरू हो जाता है।

अपनी शक्ति को पहचानें, कई काम आसान हो जाएंगे
कई लोग अपनी शक्ति को नहीं पहचान पाते। वे क्या कर सकते हैं, वे खुद नहीं जानते। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो खुद किसी कमजोरी को पकड़े रहते हैं लेकिन सोचते हैं कि कमजोरी ने उन्हें जकड़ रखा है।

हम अपनी शक्ति से चाहें तो किसी भी परेशानी से खुद ही मुक्ति पा सकते हैं। जरूरत सिर्फ दृढ़ इच्छाशक्ति की है। लेकिन अक्सर हम मात खा जाते हैं। परेशानियां तो दूर की बात है, कई बार हम अपनी आदतों से ही पीछा नहीं छुड़वा पाते।

किस्सा महान विनोबा भावे का है। वे अक्सर लोगों को अच्छी सलाह देते थे। परेशान लोगों की मदद किया करते थे। उन्हें संत माना जाता था। वे अपने व्यवहार से संत थे। एक दिन एक नौजवान उनके पास पहुंचा। वह बहुत परेशान था। संत विनोबा भावे ने उससे पूछा कि परेशानी का कारण क्या है?

युवक ने बताया कि वह खुद की शराबखोरी से परेशान है। रोजाना शराब पीता है। उसका तो बुरा हो ही रहा है, उसके कारण परिवार भी परेशान है। वो शराब छोडऩा चाहता है लेकिन शराब की लत उसे छोड़ नहीं रही है। वो कितनी भी कोशिश करे, उसके कदम अपनेआप शराब खाने की ओर मुड़ जाते हैं।

विनोबा भावे ने उसकी बातें गौर से सुनीं। उन्होंने युवक से कहा कि वो कल आकर फिर मिले। अगले दिन युवक फिर घर पहुंचा। वे भीतर थे। युवक ने आवाज लगाई। कोई जवाब नहीं मिला। कुछ ही पलों में विनोबा भावे के चिल्लाने की आवाज आई। वे चिल्ला रहे थे छोड़ दो मुझे, छोड़ दो। युवक उनकी मदद करने भीतर की ओर दौड़ा।

उसने देखा विनोबा भावे एक खंभा पकड़कर खड़े हैं और चिल्ला रहे हैं। युवक बोला खंभे ने आपको नहीं, आपने खंभे को पकड़ रखा है। जब तक आप उसे नहीं छोडेंगे, वो नहीं छूटेगा। विनोबा बोले बस ऐसे ही तुमने शराब को पकड़ रखा है, शराब ने तुम्हें नहीं। तुम मन से कोशिश करोगे तो ये छूट जाएगी। युवक को बात समझ में आ गई।

विनोबा ने कहा ये शक्ति तुम में है कि तुम किसी को पकड़ या छोड़ सकते हो। शराब तो निर्जीव है, वो तुम्हें कैसे पकड़ सकती है। अपनी शक्ति को पहचानो और उसे अच्छे काम में लगाओ।

इस एक गुण से आपकी शक्ति की भी हो सकती है पूजा
महाभारत का एक प्रसंग है। पांडवों को जुए में हार जाने के बाद बारह साल का वनवास भोगना था। सभी पांचों भाई और द्रौपदी घने जंगलों में भटक रहे थे। वे कैलाश पर्वत के तलीय जंगलों में थे। उस समय यक्षों के राजा कुबेर का निवास भी कैलाश पर्वत पर ही था।

कुबेर के नगर में एक सरोवर था जिसमें बहुत सुगंधीत कमल के फूल थे। द्रौपदी को उन फूलों की महक आई तो उसने भीम से कहा कि उसे वे कमल के फूल चाहिए। भीम द्रौपदी के लिए फूल लाने चल दिए। रास्ते में एक घना जंगल था।

भीम ने देखा एक बंदर रास्ते पर पूंछ डाले सो रहा है। किसी जीव को लांघकर गुजर जाना मर्यादा के विरुद्ध था। सो, भीम ने बंदर से कहा अपनी पूंछ हटा लो। मुझे यहां से गुजरना है। बंदर ने नहीं सुना, भीम को क्रोध आ गया। उसने कहा तुम जानते हो मैं महाबली भीम हूं। बंदर ने कहा इतने शक्तिशाली हो तो तुम खुद ही मेरी पूंछ रास्ते से हटा दो और गुजर जाओ।

भीम ने बहुत कोशिश की लेकिन पूंछ टस से मस नहीं हुई। हार मानकर बैठ गया और वानर से प्रार्थना करने लगा। तब वानर ने अपना असली रूप दिखाया। वे स्वयं पवनपुत्र हनुमान थे। उन्होंने भीम को समझाया कि तुम्हें कभी भी अपनी शक्ति पर इस तरह घंमड नहीं करना चाहिए।

प्रकृति ने हमें शक्ति दी है, तो हमारी जिम्मेदारी भी बड़ी है। हमें शक्ति के मद में सभ्यता और विनम्रता को नहीं त्यागना चाहिए।

अपनी शक्ति के नशे में अंधे हो जाना आम बात है। ऐसे लोग बिरले ही होते हैं जो जितने शक्तिशाली होते हैं उतने ही विनम्र भी। शक्ति और विनम्रता ऐसे गुण हैं जो विपरीत स्वभाव के होते हैं लेकिन अगर ये एक ही स्थान पर आ जाएं तो व्यक्ति महान हो जाता है।

जानिए अपनी शक्ति का सही उपयोग कब और कैसे किया जाए?
रामायण में चलते हैं। भगवान राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरु वशिष्ठ से सारी शिक्षा ली। वे राजकुमार तो थे ही, धनुर्विद्या के भी निपुण योद्धा थे। शक्ति भी थी और सामर्थ्य भी। पूरे राजसी ठाठ से जीवन गुजर रहा था। तभी एक दिन ऋषि विश्वामित्र आ पहुंचे। उन्होंने दशरथ से राम और लक्ष्मण मांग लिए।

रावण की राक्षस सेना का आतंक बढ़ रहा था और वे ऋषियों के हवन-यज्ञों को बंद करा रहे थे। राक्षसों के संहार के लिए विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को चुना। दशरथ पहले डरे लेकिन फिर गुरुओं की बात को मानकर राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेज दिया।

राम शक्तिशाली राक्षसों का मारकर ऋषियों को भयमुक्त कर दिया। यहां राम का काम पूरा हो चुका था लेकिन उन्होंने ऋषि विश्वामित्र का साथ ततकाल नहीं छोड़ा। उनके साथ जंगल-जंगल और कई नगरों में घूमते रहे। राम का कहना था कि और भी कहीं कोई राक्षस ब्राह्मणों, ऋषियों, निर्बलों या गौओं का नष्ट कर रहे हों या उनके कार्यों में बाधा डाल रहे हों तो मैं उनका नाश करने के लिए तैयार हूं।

शक्ति है तो उसका पहला उपयोग निर्बलों की सहायता, समाज की सेवा और विश्व के उत्थान में लगाना चाहता हूं। इस पूरे अभियान में राम ने कई राक्षसों को मार गिराया। विश्वामित्र ने राम को प्रसन्न होकर कई दिव्यास्त्र भी दिए, जो बाद में रावण से युद्ध में काम आए।

शक्ति का सबसे श्रेष्ठ उपयोग जनहित में ही हो सकता है। परमात्मा अगर शक्ति देता है तो वो सिर्फ उसका उपहार नहीं होती। वो एक जिम्मेदारी भी है। हमें धन, बल, बुद्धि या विद्या कोई भी शक्ति मिले तो उसका उपयोग सबसे पहले लोक हित में किया जाना चाहिए। तभी वो सफल और सुफल होगी।

कहा जाता है जिसे अपने सामथ्र्य का उपयोग करना आ गया, वो सारा संसार जीत सकता है। शक्तिशाली होना कोई उपलब्धि नहीं है, लेकिन अपनी शक्ति का सदुपयोग बहुत बड़ी उपलब्धि है। अगर अपनी शक्ति का, सामथ्र्य का सम्मान चाहते हैं तो दूसरों के लिए जीने की आदत डालनी होगी। मुश्किल में पड़े लोगों की सहायता से ही ताकत को सलाम मिलता है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Shanti (शांति)

मन की शांति चाहिए तो कुछ ऐसे करें कोशिश
शांति किसे मिलती है। तीन गुण जिसमें हो, प्रकृति से निकटता, मौन और ध्यान। ये तीन गुण व्यक्ति को भीतरी शांति प्रदान करते हैं। भगवान शिव में ये तीनों ही गुण मौजूद हैं। इसलिए रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने उनकी तुलना खुद शांत रस से की है।

शिव के चेहरे पर शांति के ये ही मुख्य कारण हैं। वे हमेशा प्रकृति के निकट रहते हैं। उन्हें इसीलिए प्रकृति का देवता भी कहा जाता है। शिव भीतर और बाहर दोनों ओर से शांत हैं क्योंकि मौन और ध्यान दोनों उनके प्रमुख गुण हैं।

हम जब भी समय पाएं, थोड़ा मौन और ध्यान की ओर जाएं। प्रकृति के निकट जाकर बैठने का प्रयास करें। उसके संकेतों पर ध्यान दें। थोड़ी देर आंखें मूंदकर बैठें। बस शांति स्वत: आपके भीतर प्रवाहित होने लगेगी।

भगवान शिव की दिनचर्या में ये बातें शामिल हैं। वे सुबह शाम समाधि में रहते हैं। भ्रमण करते हैं। कैलाश पर्वत उनका निवास है। हम भी ध्यान और मौन की ओर जाने का प्रयास करेंगे तो जिस शांति की तलाश में हम लाखों खर्च कर देते हैं वो सहज ही मिल सकेगी।

लाख सुविधाओं और साधनों के बाद भी मन अशांत ही रहता है। इसका एक कारण है कि हम प्रकृति से दूर हो गए हैं। शहरों में फैल रहे बेतरतीब कांक्रीट के जंगलों के कारण प्रकृति का दायरा सिमटता जा रहा है।

हम प्रकृति के स्पर्श से दूर हैं। प्रकृति में ही परमात्मा का वास है। इसलिए जब भी हम किसी पहाड़ी तलहटी या किसी बहती नदी के किनारे खड़े होते हैं तो हमें परमात्मा की मौजूदगी का एहसास होता है। परमात्मा प्रकृति में ही बसता है। कोशिश करें कि थोड़ा समय प्रकृति के निकट रहने के लिए निकालें। आप खुद को भीतर से शांत पांएगे। थोड़ा मौन साधिए, थोड़ा ध्यान में उतरिए, बस शांति खुद आपके भीतर प्रवेश कर जाएगी।

कैसे मिल सकती है अशांत मन को शांति?
रामायण के सुंदरकांड में एक दृश्य है। हनुमान सीता की खोज में लंका पहुंचे हैं। अशोकवाटिका में जिस पेड़ के नीचे सीता बैठी हैं, उसी की एक शाख पर हनुमान भी बैठे हैं। रावण सीता को धमकाकर जाता है और सीता राम के वियोग में दु:खी बैठी हैं। वे अशांत हैं, उनके मन में आत्महत्या करने जैसे विचार चल रहे हैं।

हनुमानजी अशोक वाटिका में वृक्ष पर बैठकर सोच रहे थे कि कैसे सीता को शांत किया जाए। उन्होंने सीताजी के सामने रामनाम की अंगूठी गिरा दी। सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया। यूं तो सीताजी बहुत दुखी थीं, लेकिन हनुमानजी की उपस्थिति ने उनके भीतर हर्ष पैदा कर दिया।

इसके बाद अंगूठी को देखा और खुशी के साथ-साथ विषाद भी हो गया। अंगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से अकुला उठीं। हनुमानजी भीतर से इतने सहज और सरल हैं, बाहर उसका प्रभाव पड़ता ही है।

सीताजी इसलिए हर्षित थीं क्योंकि हनुमानजी आ गए थे, लेकिन लंका का जो वातावरण था, उसके कारण विषाद जाता भी नहीं था। यह संसार लंका की तरह है। हमारे जीवन में हनुमानजी की उपस्थिति विपरीत वातावरण में भी प्रसन्नता का कारण बन जाएगी। आगे तुलसीदासजी ने लिखा है - सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।। सीताजी मन में विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमानजी मधुर वचन बोले। मीठे बोल सभी को शांति और प्रसन्नता देते हैं। वाणी की कर्कशता परमात्मा को पसंद नहीं।

आपकी उपस्थिति वातावरण को जिस प्रकार से प्रभावित करती है, आप अपना आकलन उस प्रकार से कर लें, क्योंकि हम अपने भीतर को ही बाहर विस्तारित करते हैं। हम मानें या न मानें, लेकिन हमारे भीतर की हलचल या हमारे भीतर का स्थिर रहना बाहर को प्रभावित करेगा।


अगर तलाशना है शांति तो इस जगह तलाशें...
कई बार हम शांति की तलाश में दुनिया भर में भटकते फिरते हैं। कभी मंदिर तो कभी योगा क्लास, या फिर कभी पहाड़ों पर। फिर भी अशांति हमारे दिमाग से निकल नहीं पाती। पुराने विद्वानों ने एक बड़ी गहरी बात कही है। जो चीज दुनिया में कहीं नहीं मिल सकती हो, संभव है खुद के भीतर खोजने से मिल जाए।

अक्सर हम शांति की खोज में बाहर भागते हैं। थोड़ा भीतर जाएं। अपने भीतर उतरने की कोशिश करें। फिर शांति पाने के लिए आपको इधर-उधर नहीं दौडऩा पड़ेगा।

हम अक्सर खुद की बजाय दूसरों के काम में ज्यादा शांति महसूस करते हैं। गौतम बुद्ध अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते हैं। एक साधु को सपना आया कि एक नदी के पुल पर एक सैनिक खड़ा है, वो जहां खड़ा है वहां एक खजाना गड़ा है। ये सपना कई दिनों तक आता रहा। साधु परेशान हो गया। वो उस नदी और पुल की खोज में निकल पड़ा।

बहुत दिनों तक भटकता रहा। आखिरकार महीनों की तलाश पूरी हुई और साधु को वो नदी, पुल और सैनिक मिल ही गए। सब वैसा ही था जैसा रोज सपने में दिखता था। साधु उत्साहित होकर पुल पर चढ़ा और सैनिक से बोला अरे, मूर्ख तेरे पैरों के नीचे खजाना गड़ा है। तूझे पता नहीं।

सैनिक ने पूछा तो साधु ने सपने वाली बात बता दी। सैनिक ने जवाब दिया महाराज मुझे भी बहुत दिनों से सपना आ रहा है कि एक गांव में, एक झोपड़ी में, एक साधु बैठा है, उसकी धुनी के नीचे खजाना गड़ा है। सैनिक ने सपने आने वाले जिस साधु का हुलिया और नाम बताया वो साधु वो ही था।

उसे तत्काल बात समझ में आ गई कि हर आदमी को दूसरे के जीवन में ज्यादा सुख और शांति दिखाई देती है। अपने जीवन में कम। अगर अपने भीतर तलाशेंगे तो सुख और शांति दोनों जल्दी ही मिल जाएंगे।

ये तीन चीजें हमारे व्यक्तित्व को बना सकती हैं सौम्य और शांत
भगवान कृष्ण का पूरा जीवन लोक हितों के कामों में गुजरा, शांति का एक पल नहीं था उनके जीवन में। लेकिन फिर भी उनके चेहरे पर हमेशा एक स्थायी शांत भाव रहता था। मुस्कुराहट कभी उनके चेहरे से नहीं हटती थी।

ऐसा क्यों? कि इतने कामों और जिम्मेदारियों के बाद भी कृष्ण हमेशा तनाव मुक्त दिखाई देते हैं। उनके बचपन में चलते हैं। आज हमारी संतानें अशांत दिखती है लेकिन कृष्ण के बचपन पर इतने राक्षसों के आक्रमण के बाद भी उसमें शांति दिखाई दे रही है।

उनके जीवन में तीन चीजें ऐसी हैं जो आज हमारे बच्चों के जीवन में भी होनी चाहिए। हमें भी अब इनसे जुडऩा चाहिए। अगर शांति को जीवन में स्थायी भाव बनाना चाहते हैं तो जीवन को ऐसे संभालें जैसे कृष्ण ने संभाला है। उनके बचपन में तीन बातें बहुत अनुकरणीय हैं। पहला प्रकृति से निकटता। कृष्ण ने अपने बचपन का अधिकांश भाग बृज मंडल के जंगलों और यमुना के किनारे गुजारा। प्रकृति का शांत भाव उनके व्यक्तित्व में उतर गया। वे इससे गहरे से जुड़े थे, इसलिए अतिसंवेदनशील भी थे। दूसरों की भावनाओं को तत्काल समझ जाते थे।

दूसरा संगीत से जुड़ाव। बांसुरी कृष्ण का ही पर्याय बन गई। संगीत की स्वरलहरियां हमारे व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए आवश्यक हैं। अपने बच्चों को भी संगीत से जोड़ें। शास्त्रीय तानें मन को भीतर तक साफ कर देती हैं।

तीसरा माखन-मिश्री। यानी स्वस्थ्य आहार। मन आपका तभी स्वस्थ्य होगा जब आपका आहार अच्छा हो। माखन मिश्री के जरिए कृष्ण का संकेत अच्छे आहार की ओर है। अगर बचपन में इससे वंचित रहे हैं तो अब इन तीन चीजों को जीवन में उतारने का प्रयास करें। फिर आपको शांति की तलाश में भटकना नहीं पड़ेगा।

आपकी जीत को हार में बदल सकती है थोड़ी सी अशांति...
महाभारत युद्ध में भीष्म बाणों की शैया पर लेट चुके थे। कौरव सेना का सेनापति आचार्य द्रौण को नियुक्त किया गया। द्रौण भगवान परशुराम के शिष्य थे। युद्ध में उन्हें सिवाय परशुराम और अर्जुन के कोई हरा नहीं सकता था। युद्ध में उन्होंने कई हजार सैनिकों को मार दिया। चक्रव्यूह की रचना की, जिसमें अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु मारा गया।

द्रौण को मारना बहुत मुश्किल होता जा रहा था। सक्षम होने के बाद भी अर्जुन द्रौण को नहीं रोक पा रहे थे। पांडवों के शिविर में खलबली मची हुई थी क्योंकि द्रौणचार्य पर किसी प्रकार की रणनीति या कूट नीति काम नहीं कर पा रही थी। उनके व्यक्तित्व की खास बात यह थी कि वे हर परिस्थिति में बहुत शांत दिखाई देते थे।

उनके चेहरे पर कभी कोई और भाव नहीं दिखता। जिससे उन्हें हराना बहुत मुश्किल हो रहा था। कृष्ण ने सुझाया कि आचार्य द्रौण को विचलित किए बगैर उन्हें मारना असंभव है। क्योंकि वे हड़बड़ाते नहीं है इसलिए उनसे कोई गलती नहीं होती। तब उन्होंने भीम को आदेश दिया कि कौरव सेना में शामिल अश्वत्थामा नाम के हाथी को मारकर घोषणा कर दो कि अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा द्रौणाचार्य का एकलौता पुत्र था। जब ये घोषणा की गई तो द्रौणाचार्य एकदम विचलित हो गए। अश्वत्थामा उन्हें प्राणों से ज्यादा प्रिय था। वे युद्ध छोड़कर रणभूमि में ध्यान लगाने बैठ गए। तभी पांडवों के सेनापति धृष्ठघुम्र ने उन्हें मार दिया।

द्रौणाचार्य का पुत्र के प्रति मोह उनकी मौत का कारण बन गया। मोह के कारण उनके मन की शांति भंग हुई और वे रणभूमि में ही ध्यान लगाने बैठ गए। जिस स्थायी शांत भाव के कारण उन्हें जितना मुश्किल लग रहा था। वो थोड़े से मोह के कारण भंग हो गया।

हमारे मन की शांति के चार शत्रु हैं काम, क्रोध, मोह और लोभ। ये चारों बातें मन को हमेशा अशांत करती हैं। अशांत मन कभी सफलता की ओर नहीं बढऩे देता है, यह अक्सर व्यक्ति को पीछे खींचता है। अकर्मण्यता का भाव लाता है। अगर मन को शांत रखना है तो किसी भी प्रकार के काम, क्रोध, मोह या लोभ को अपने पास फटकने ना दें। ये आपके मन में नहीं होंगे तो सफलता न केवल स्थायी होगी बल्कि दुश्मन आपको कभी हरा भी नहीं सकेंगे।

अगर मन में शांति हो, तो पाए जा सकते हैं असंभव लक्ष्य भी
कई बार हम लक्ष्य के करीब होते हुए भी चूक जाते हैं। जीतने की घड़ी में थोड़ी सी हड़बड़ाहट जीत को हार में बदल देती है। जब मंजिल के नजदीक हों तो सबसे ज्यादा जरूरी होती है एकाग्रता। एकाग्रता का सीधा संबंध होता है मन से। मन जितना ज्यादा शांत रहेगा, प्रयास उतने अच्छे रहेंगे। परिणाम भी मनोनुकुल मिलेंगे।

भागवत में सत्यवान और सावित्री की कथा देखिए। सावित्री ने सत्यवान से विवाह किया था। वो शादी के पहले ही जानती थी कि सत्यवान की आयु सिर्फ एक साल ही और बची है। फिर भी उसे विश्वास था कि वो अपने प्रयासों से सत्यवान को बचा सकती है। विवाह के एक साल बाद वो दिन भी आ गया, जिस दिन सत्यवान की मृत्यु होनी थी।

सावित्री ने बिना घबराए, बिना डरे और बिना किसी हड़बड़ाहट के अपने प्रयास शुरू किए। उसने चार-पांच दिन पहले से ही उपवास और प्रार्थनाएं शुरू कर दी। अपने हावभाव या व्यवहार से भी किसी पर यह जाहिर नहीं होने दिया कि वो सत्यवान की मृत्यु के बारे में जानती है।

जिस दिन यमराज सत्यवान के प्राण हरने आए, सावित्री ने उन्हें रोक लिया। उसकी गोद में सिर रखकर सत्यवान सो रहा था और यमराज ने प्राण हर लिए। लेकिन फिर भी वह घबराई नहीं, उसने यमराज की स्तुति शुरू कर दी। जिससे प्रसन्न होकर यमराज उसे वरदान देने लगे।

अपने ससुर का खोया राज्य, उनकी आंखें मांगने के बाद सावित्री ने खुद के लिए सौ पुत्रों का वरदान मांग लिया। यमराज ने बिना सोचे उसे वो वरदान भी दे दिया। नतीजा सावित्री ने यमराज को अपनी बातों में उलझाकर सत्यवान के प्राण बचा लिए क्योंकि सत्यवान के बिना सौ पुत्रों की प्राप्ति संभव नहीं थी।

ये था सावित्री की एकाग्रता और आत्म विश्वास का कमाल। अगर उसका मन थोड़ा भी विचलित होता, वो थोड़ा भी घबरा जाती, डर जाती तो फिर अपने पति के प्राण नहीं बचा पाती।

वाकई अगर शांति से रहना चाहते हैं तो यह प्रयास करें
जो लोग ये शिकायत करते हैं कि उन्हें कहीं भी सुकून नहीं मिलता, वे गलत हैं। असली कारण यह है कि वे लोग सुकून या शांति की तलाश में हैं ही नहीं। वे चाहते हैं कि वे भीड़ से घीरे रहें, परेशानियों को खुद निमंत्रित करने की आदत भी उनकी ही होती है। जो लोग वाकई शांति की तलाश में हैं, वे भीड़ में भी एकांत खोज सकते हैं।

अगर हम वास्तविक शांति चाहते हैं तो हमें भीतर की ओर यात्रा करनी होगी। अपने अंदर मौजूद शांति को जगाना पड़ेगा, अपने मन को एकाग्र करना होगा। जब तक मन बाहर भटकेगा, शांति भीतर नहीं उतरेगी। मन एक जगह बैठ गया, वहीं से शांति की यात्रा शुरू हो जाएगी। हम भरी बाजार में भी एकांत का आभास पा सकते हैं, लेकिन समस्याओं और चिंताओं को औढऩे की हमारी आदत के कारण हम ऐसा कर नहीं पाते।

आज स्वामी विवेकानंद के जीवन के एक प्रसंग की ओर चलते हैं। विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेंद्र था। वे बचपन से मेधावी रहे, ऐसा कहते हैं कि उनके साथ कोई दैवीय शक्ति भी थी। मन इतना एकाग्र था कि एक बार कोई चीज पढ़ ली या देख ली, तो फिर उसे अक्षरश: याद रखते थे।

कई लोग उनकी इस प्रतिभा के कायल थे। एक बार वे अपने एक विदेशी मित्र से मिलने गए। जिस कमरे में वे बैठे थे, वहां कुछ किताबें भी रखी थीं। स्वामी जी के मित्र को कुछ काम आ गया और वो थोड़ी देर के लिए बाहर चले गए। खाली समय देख विवेकानंद ने वहां पड़ी एक किताब उठा ली। वह किताब उन्होंने जीवन में पहले कभी नहीं पड़ी थी।

मित्र काम निपटाकर लौटा, तक तक उन्होंने किताब पूरी पढ़ ली। मित्र ने उन्हें परखने के लिए पूछा क्या वाकई पूरी किताब पढ़ ली है। विवेकानंद बोले हां, काफी अच्छी किताब है। उन्होंने उसकी व्याख्या प्रारंभ की। यह तक बता दिया कि किस पृष्ठ पर क्या लिखा है, कहां प्रूफ की गलती रह गई।

मित्र ने उनसे पूछा कि इतनी जल्दी किताब को पढ़कर याद कैसे रख लिया, जबकि वो तो अभी तक उसे पढऩे के लिए अपना मानस तक नहीं बना सका। वो अपने आप को एकाग्रचित्त करना चाहता है लेकिन ऐसा कर नहीं पा रहा।

विवेकानंद ने जवाब दिया कि मैं हमेशा अपने भीतर रहने का प्रयास करता हूं, अपने मन पर किसी चिंता या समस्या को हावी नहीं होने देता। जहां चाहता हूं वहीं शांति का आभास होता है। मन पर नियंत्रण कर लिया तो फिर कर भी शांति को खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

मन की शांति के लिए ऐसी बातों से दूर रहना चाहिए
दुर्योधन और रावण के व्यक्तित्व में सबसे बड़ी दो कमजोरियां थीं। पहली अहंकार और दूसरी क्रोध। दोनों ही पात्रों ने इन दो अवगुणों के कारण ना केवल प्राण गवाएं बल्कि पूरे परिवार के लिए संहारक भी सिद्ध हुए। अहंकार और क्रोध को नियंत्रित नहीं किया इसलिए इनका मन हमेशा अशांत रहा।

रावण को ये घमंड था कि मैंने देवताओं को हराया है, शिव को प्रसन्न कर लिया है। इस बात का अहंकार इतना बढ़ गया कि वो अपने विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं होता। इससे क्रोध को बढ़ावा मिला। सत्य बोलने वाले, अच्छी सलाह देने वाले उसे अपने शत्रु लगने लगे। विभीषण हो या माल्यवंत जिसने भी उसे राम से संधिकर सीता को लौटा देने की बात कही, उसे निकाल दिया। क्योंकि उसके अहंकार और क्रोध ने उसके पूरे व्यक्तित्व पर अधिकार जमा लिया था।

ठीक यही दुर्योधन के साथ भी घटा। उसे अहंकार था अपने पिता के राजा होने और उनके बाद हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर खुद के नैसर्गिक अधिकार का। जब युधिष्ठिर सहित पांचों पांडव वन से राजमहल आ गए तो उसे अपने राजपाठ पर संकट नजर आने लगा। युधिष्ठिर आयु और गुण दोनों में ही दुर्योधन से श्रेष्ठ था। यहीं से क्रोध उपजा। इस क्रोध ने उसे कभी शांत मन से सोचने नहीं दिया।

शायद रावण और दुर्योधन दोनों ही अगर अहंकार और क्रोध को एक ओर रख कर सोचते तो इतने भीषण युद्ध कभी हुए ही नहीं होते। मैं होने का भाव क्रोध पैदा करता है और क्रोध अपने साथ अशांति लेकर आता है।

अक्सर हम भी अपनी सफलता के घमंड में चूर क्रोध की चादर ओढ़ लेते हैं। बस यहीं से अशांति शुरू होती है। हजारों तरह की सुख सुविधाओं बावजूद भी मन एक अनजान डर से भयभीत रहता है। अगर मन की शांति चाहिए तो अहंकार और क्रोध दोनों को अपने व्यक्तित्व से अलग करने का प्रयास करें।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Prem(प्रेम)

संवेदनाओं का सम्मान करें, काम के परिणाम उम्मीद से बेहतर होंगे
व्यवसायिक जगत में सबसे ज्यादा पतन हुआ है प्रेम का। हम इतने संवेदना हीन हो चुके हैं कि सगे-संबंधियों से भी किसी लाभ की आशा में ही बात करते हैं। रिश्ते अब प्रेम से नहीं, बैंक बैलेंस और सोशल स्टेटस देखकर तय किए जा रहे हैं। ऐसे में कार्यस्थल पर अगर प्रेम ना हो तो आश्चर्य नहीं है।

कारपोरेट भाषा में इसे प्रोफेशनल एटीट्यूड कहा जाता है। जहां सहयोगी से सिर्फ काम का ही रिश्ता होता है। इस रिश्ते में अगर प्रेम का अंकुरण कर दिया जाए तो संभव है कि काम का परिणाम उम्मीद से ज्यादा बेहतर आ सकता है। कई कंपनियां अपने कर्मचारियों को सुविधाओं की बारिश में भिगो रही है लेकिन फिर भी परिणाम दाएं-बाएं ही आ रहा है। सुविधाओं के साथ अगर आपसी संबंधों में प्रेम भी बढ़ा लिया जाए तो फिर दफ्तर का काम सिर्फ नौकरी नहीं रह जाता, वो कर्मचारी का अपना काम हो जाता है।

आपके साथ जो भी काम कर रहा है, वो इंसान ही है। संवेदनाएं उसके स्वभाव में भी होंगी। आपको सिर्फ उन संवेदनाओं का सम्मान ही तो करना है। प्रेम अपनेआप उपज जाएगा।

राम और कृष्ण दोनों ही अवतार इस कला में माहिर थे। अपने सहयोगी के साथ प्रेम से कैसे रहा जाए। हमारे द्वारा पूछा गया एक छोटा सा सवाल भी उसका दिल जीत सकता है। रामचरित मानस के एक प्रसंग में चलते हैं। लंका पर कूच करने के लिए वानरों की सेना तैयार है। सहयोग का वचन सिर्फ सुग्रीव ने दिया था। वानरसेना सुग्रीव की आज्ञा से आयी थी। ये उनके लिए एक नौकरी की तरह ही था। लेकिन जब वानर सेना राम के सामने खड़ी हुई तो यहां तुलसीदासजी ने लिखा है अस कपि एक न सेना माहीं, राम कुसल जेहीं पूछी नाहीं।।

अर्थ है कि सेना में एक भी वानर नहीं था जिसकी राम ने व्यक्तिगत रूप से कुशल ना पूछी हो। राम ने इतनी बड़ी वानर सेना में एक-एक वानर से उसका हालचाल पूछा। यहीं से वानरों में राम के प्रति आस्था जागी। ऐसे राजा कम ही होते हैं जो अपने अदने से कर्मचारी से कभी उसका हालचाल पूछते हों। राम के इसी गुण ने वानरों में इस युद्ध के लिए व्यक्तिगत लड़ाई का भाव भर दिया।

प्रेम नहीं है तो फिर सारी भावनाएं बेअसर हैं
प्रेम हो तो विश्वास जागता है। प्रेम नहीं हो तो रिश्तों में दूसरा कोई भाव अपना असर नहीं दिखाएगा। अगर मामला निजी संबंधों का हो तो उसमें अधिक सावधानी रखना होती है। हमारे सबसे करीबी संबंधों में जीवनसाथी सबसे ऊपर होता है। इस रिश्ते की बुनियाद ही प्रेम है। प्रेम हो यह अच्छा है, लेकिन प्रेम को भी नयापन चाहिए। एक सी अभिव्यक्ति और व्यवहार बोरियत पैदा करता है, रिश्ते में ऊबाउपन आ जाता है।

पति-पत्नी के संबंधों में जरूरी है एक दूसरे से जीवंत संवाद होना। इस रिश्ते में एकांत की आवश्यकता होती है। आधुनिक दंपत्तियों की समस्या होती है कि जब वे दोनों एकांत में होते हैं तो बातचीत में कोई तीसरा ही होता है। यह हमेशा याद रखें कि अगर आप अपने दाम्पत्य में प्रेम को जीवित रखना चाहते हैं तो कोशिश करें कि जब भी एकांत में हों तो बातचीत का मुद्दा भी आप दोनों ही रहें। कोई तीसरा व्यक्ति आपकी बातों का विषय ना हो। इससे दो फायदे होते हैं एक तो अपने साथी को समझने का अवसर मिलता है, दूसरा विवाद की संभावना नहीं रहती।

जरूरी नहीं है कि पति-पत्नी एकांत में हों तो कोई गंभीर मुद्दा ही चर्चा में रहे। हल्की-फुल्की बातचीत और हंसी-मजाक भी होते रहना चाहिए। भागवत के एक प्रसंग में चलते हैं। यहां भगवान कृष्ण का दाम्पत्य चल रहा है। एक दिन रुक्मिणीजी ने भगवान से पूछा कि आपने मुझ से विवाह क्यों किया? रुक्मिणीजी सुंदर थीं, धनाढ्य परिवार से थीं। कृष्ण ने समझ लिया कि उनमें इस बात का अहंकार आ गया है। उन्होंने भी जवाब दिया कि सही है देवी, मैं कहां आपके लायक था। सारा जीवन दौड़ते-भागते निकल रहा है। चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हूं। जब से पैदा हुआ हूं, कोई ना कोई बिना किसी कारण मुझसे युद्ध करने चला आता है। मैं कहां आपके लायक था बड़ी मुश्किल से राज्य और परिवार को चला रहा हूं। आपका अहसान है कि आपने मुझसे विवाह कर लिया। रुक्मिणी जी शर्म से पानी-पानी हो गईं। माफी मांगने लगीं। तब भगवान ने कहा नहीं देवी, माफी की जरूरत नहीं है, मैं तो सिर्फ हास्य विनोद के लिए ऐसा कह रहा था।

भगवान कहते हैं अपनी पत्नी से दाम्पत्य में हास्य-विनोद करते रहने चाहिए यह भागवत में श्लोक लिखा है। देखिए भागवत दाम्पत्य के छोटी-छोटी बातों पर प्रकाश डालता है तो भागवत में यह श्लोक इसीलिए आया कि उनका कहना है कि दाम्पत्य में पत्नी-पत्नी के बीच हंसी-मजाक भी होते रहना चाहिए। हमेशा गंभीर न हो जाएं क्योंकि भगवान जानते थे कि दाम्पत्य में अनेक निर्णय, अनके स्थितियां ऐसी आती हैं कि अकारण तनाव आ जाता है।। तो अब आपका तनाव दूर करने कौन आएगा खुद ही को करना है और दोनों के बीच का करना है और आपसी समझ से होगा। भगवान कहते हैं हास्य-विनोद बनाए रखिए। कभी-कभी एक दूसरे को हंसाने का प्रयास करिए। और यह बात तो समझ लो आप कि दाम्पत्य तो हम को खुद ही चलाना है।

परिवार में प्रेम का प्रवेश चाहते हैं तो जीवन में पारदर्शिता हो
परिवार में प्रेम की डोर घर की महिला के हाथ में होती है। वो ही सारे रिश्तों और उनसे जुड़ी जिम्मेदारियों को ठीक से निभा सकती है। परिवार की महिला अगर थोड़ी भी लापरवाह हुई तो परिवार का बिगाड़ निश्चित हो जाता है। परिवार में

भागवत हमें इसके बारे में भी गंभीरता से समझाती है। एक प्रसंग है द्रोपदी भगवान कृष्ण की रानी सत्यभामा को समझा रही हैं कि महिला परिवार को प्रेम से कैसे चला सकती हैं। द्रोपदी कह रही है कि जो समझदार, परिपक्व और सुघढ़ गृहिणी होती है वो एक काम यह करे कि अपने परिवार के रिश्तों की पूरी जानकारी रखे। एक भी रिष्ता चूक गए तो वह रिश्ता अपमानित हो सकता है। प्रत्येक रिश्ते की जानकारी रखिए जो पुरूखों से चले आ रहे हैं।

यदि आपके यहां कोई पोंछा लगाने वाली बाई भी हो और उसकी तीन पीढ़ी बाद यदि कोई आ जाए तो आप गौरव महसूस करना कि हां तेरा-हमारा कोई रिश्ता है। द्रौपदी कहती है कि मैं अपने पांडव परिवार के एक-एक रिश्ते से परिचित हूं। सबसे पहले मैंने इसका अध्ययन किया।

आप देखिए पांच हजार साल पहले चेतावनी दी जा रही है। अभी भी ऐसा होता है कभी घर में पुरूष का निधन हो जाए तो मालूम ही नहीं रहता कि कितनी बीमे की पालिसी और कहां इनवेस्टमेंट किया। स्त्रियों को पुरूष अपना काम बताने में आज भी षर्म करते हैं या फिर पता नही किस हीनता की अनुभूति करते हैं।

परिवार में प्रेम कायम रखना हो तो अपने जीवन में पारदर्शिता लाइए। अहंकार या अज्ञान के कारण कोई भी बात रहस्य ना रखें। परिवार के लोग एक दूसरे से दुराव-छुपाव रखने लगें तो प्रेम का अंत होना तय है। प्रेम को कायम रखने के लिए हमारे पारिवारिक जीवन में खुलापन होना जरूरी है। परिवार के साथ बैठकर अपनी बातें साझा करें, इससे प्रेम तो बढ़ेगा ही, साथ ही कई समस्याओं का निराकरण भी स्वत: ही हो जाएगा।

अपने-पराए की पहचान हो तो दुश्मनों में खोजे जा सकते है दोस्त
व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा में अक्सर लोग यह नहीं जान पाते हैं कि कौन अपना है और कौन पराया। कई बार हितैषियों का त्याग हो जाता है और दुश्मन गले लगा लिए जाते हैं। जो लोग ये मानते हैं कि व्यवसायिक रिश्ते एक तय समय सीमा तक ही गर्माहट भरे होते हैं, वे शायद गलत हैं।

व्यवसायिक रिश्तों में भी अगर अपने पराए की पहचान हो, उस रिश्ते को थोड़ा प्रेम और विश्वास से सींचा जाए तो वो भी निजी रिश्तों की तरह लंबे समय टिका रह सकता है।

आज की परिणाम केंद्रीत व्यवस्था में ऐसा करना मुश्किल है लेकिन अगर थोड़ा समझदारी से काम लिया जाए तो आप अपने प्रतिस्पर्धी के खेमों से भी अपने लोग चुन सकते हैं। आवश्यकता अपने अनुभव और प्रतिभा से ऐसे लोगों को पहचानने और फिर अपने व्यवहार से उनका विश्वास जीतने की।

सुंदर कांड के एक बहुत ही रोचक प्रसंग में चलते हैं। देखिए हनुमान एक बड़े अभियान पर निकले हैं। लंका में सीता की खोज करनी है। समुद्र लांघकर, कई राक्षसों का सामना करते हुए पहुंचे हैं। हम भी जब व्यवसाय में कूदते हैं तो वो भी समुद्र लांघने जैसा ही है लेकिन हम थोड़े प्रयासों में ही थक जाते हैं, बुद्धि विचलित होने लगती है। हनुमानजी सीखा रहे हैं कैसे अपनी बुद्धि को अगर स्थिर कर लिया जाए तो दुश्मनों के शिविर में भी अपने लोग तैयार किए जा सकते हैं।

सीता को खोजते-खोजते हनुमान विभीषण के घर तक पहुंच गए। उन्होंने कुछ चिन्हों से ही जान लिया कि यहां जो व्यक्ति रहता है वो राम के काम आ सकता है। विभीषण से मित्रता की। उसे भरोसा दिलाया कि राम अपनी शरण में आने वाले को पूरे स्नेह से रखते हैं। हनुमान ने विभीषण को अपनी प्रेमभरी भाषा में एक मौन निमंत्रण दे दिया। राम की शरण में आने का। विभीषण जो अभी तक लंका में उपेक्षित से थे, उन्होंने भी ये मौका ताड़ लिया।

एक रिश्ता बन गया। प्रेम उपजा , विश्वास दृढ़ हुआ और विभीषण ने लंका छोड़कर राम की शरण ली। राम ने भी हनुमान के विश्वास को पूरी तरह रखा, विभीषण से मिलते ही उसका राजतिलक कर दिया। मित्र बना लिया।

प्रेम का रिश्ता मन से हो, देह से नहीं
कहते हैं प्रेम जब जीवन में प्रवेश करता है तो दुनिया ज्यादा अच्छी लगने लगती है। प्रेम नजर और नजरियो दोनों ही बदल देता है। नजरिया बदले तब तक तो ठीक है लेकिन अगर प्रेम में नजर बदल दे, तो यह संकेत है कि भविष्य में यही प्रेम विषय वासना बनकर रह जाएगा और हमारे जीवन में कोई बड़ा संकट खड़ा करेगा।

ऐसा पारिवारिक और व्यवसायिक जीवन में कम होता है लेकिन निजी जीवन में अक्सर यह घटना घटती है।

सावधान रहें, निजी जीवन में प्रेम जब उतरता है तो खूब तनकर चलने वाले व्यक्ति को भी घुटनों पर ला देता है। अगर निजी जीवन में प्रेम देह से जुड़ जाए तो फिर इसे हवस बनने में देर नहीं लगती। तब तो व्यक्ति का नैतिक पतन तय समझिए।

हमारा एकांत पवित्र होना चाहिए। हालांकि कई बड़े-बड़े लोग इस प्रयास में असफल ही रहे हैं। प्रेम को मन में स्थान दें, तन में नहीं।

युवाओं के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि उनका प्रेम दैहिक अधिक होता है। जब प्रेम की मर्यादाएं तोड़ी जाती हैं तो परिणाम बुरे ही होंगे। प्रेम में अपनी मर्यादाएं बनाएं रखें, विश्वास भी हमेशा कायम रहे। तभी प्रेम, प्रेम बना रहता है। भागवत की एक कथा में चलते हैं। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति से हुआ था। देवयानी ने अपने एक वरदान में ये मांग रखा था कि दानवों की राजकुमारी शर्मिष्ठा हमेशा उसके साथ दासी भाव में रहे। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ जहां वो जाती साथ ही जाती थी।

विवाह के बाद देवयानी के साथ शर्मिष्ठा ययाति के राजमहल में आ गई। ययाति और देवयानी का वैवाहिक जीवन सुखमय बीत रहा था। दोनों में प्रेम बहुत था। एक बार जब देवयानी गर्भवती हुई, राजा ययाति की निगाह शर्मिष्ठा पर पड़ गई। शर्मिष्ठा भी ययाति से प्रेम करने लगी थी। दोनों में संबंध बने। मर्यादाएं टूूट गईं, रिश्तों में विश्वासघात हो गया। प्रेम मन से देह में उतरा, वासना सिर पर हावी हो गई।

देवयानी को पता चला तो वह ययाति को छोड़कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास आ गई। शुक्राचार्य ने ययाति को शाप दे दिया। बड़ा भारी शाप, युवावस्था में वृद्ध होने का शाप। देखिए पल भर को प्रेम की मर्यादाएं टूटी, प्रेम वासना में बदला और जीवन नर्क हो गया।

हमारे निजी जीवन में जब तक पवित्रता नहीं आएगी, हमेशा अपने एकांत को शुद्ध बनाइए। यह याद रखें, एकांत में होने पर भी हम अकेले नहीं होते हैं। परमात्मा तो वहां होता ही है।

परिवार में रहें, लेकिन पति-पत्नी खुद को भी दें एकांत
हमारा परिवार कितना ही बड़ा क्यों ना हो, कितने ही सदस्य क्यों ना रहें, फिर भी हर व्यक्ति का अपना एक निजी जीवन होता है। उसे निजी ही रहने दें। अक्सर सामूहिक परिवारों में सदस्यों की निजता कहीं अनदेखी हो जाती है। हम भूल जाते हैं कि परिवार में होते हुए भी हर सदस्य का अपना निजी जीवन भी है।

अगर तीन भाइयों का परिवार है, तो तीनों का अपना-अपना दाम्पत्य भी है। कुछ समय उन्हें अपने दाम्पत्य के लिए भी निकालना चाहिए। अक्सर बड़े परिवारों में बिखराव होता ही इसी बात पर है कि पति-पत्नी की निजता वहां गौण हो जाती है।

परिवार अगर सामूहिक हो, अनुशासन प्रिय हो तो एक अनुशासन यह भी होना चाहिए कि हर सदस्य को अपने दाम्पत्य के लिए समय मिले। जिस परिवार में परंपराओं के चलते खुलापन कम हो जाता है वहां परिवार तो एक दिखता है लेकिन उसमें दाम्पत्य में एक अनचाहा सा तनाव होता है।

एक बार फिर पांडवों के दाम्पत्य में चलते हैं। द्रौपदी पांच भाइयों की पत्नी थी। कितना नाजुक रिश्ता होगा वो, विचार कीजिए। पांचों भाइयों के साथ रहती थी लेकिन कभी द्रौपदी को लेकर पांचों भाइयों में तनाव जैसी कोई बात नहीं हुई। आखिर उनके दाम्पत्य में क्या था ऐसा। वहां देह नहीं, मन केंद्र में था। पांचों भाई समान रूप से प्रेम करते थे द्रौपदी को। द्रौपदी भी पांचों से समान रिश्ता रखती थीं।

नियम बनाया गया। एक साल तक एक ही भाई द्रौपदी के साथ रहेगा। दूसरा उनकी निजता भंग नहीं करेगा। अगर किसी ने गलती से भी ऐसा किया तो दंड भी रखा गया था। एक साल का वनवास। पांचों को समान अवसर मिलता था द्रौपदी के साथ रहने का। कोई ईष्र्या नहीं, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं। परिवार ऐसे ही चलते हैं। यहां सिर्फ प्रेम और स्नेह जरूरी नहीं। कभी-कभी त्याग की भावना भी रखनी पड़ती है।

परिवार में बंधन प्रेम का हो, आजादी विचारों की
परिवार केवल इसलिए एकजुट ना रहे कि उसे समाज का डर या परंपराओं का बंधन निभाना है। परिवार प्रेम की डोर से बंधे होने चाहिए। जो परिवार समाज या परंपराओं के दबाव में बंधे रहते हैं, उनमें बाहरी एकजुटता तो दिखाई देती है लेकिन भीतर से हृदयों में प्रेम नहीं होता।

यदि परिवारों में सदस्य एक-दूसरे के लिए जीने की तैयारी करना चाहते हों, सहजीवन को प्रेमपूर्ण बनाना चाहते हों तो उन्हें अपने अहंकार को नियंत्रित करना होगा। अहंकार की जड़ 'मैं में होती है। परिवारों में जब तक 'मैं रहेगा, लोग एक-दूसरे के नहीं हो पाएंगे। मैं इतने बारीक तरीके से अपने रूप बदलता है कि पता लगाना मुश्किल हो जाता है।

अक्सर परिवार के सदस्य एक-दुसरे पर अपनी पसंद को थोपना चाहते हैं। बड़े अपने सारे काम, सारी सोच, सारे नियम कायदे छोटों पर थोप देते हैं। पत्नियां पतियों की पसंद से जीती हैं। बच्चे मां-बाप के अधीन हो जाते हैं। परिवार में अनुशासन ठीक है लेकिन अगर वह अनुशासन बंधन बन जाए तो मन के रिश्ते टूटने लगते हैं।

मैं परिवार की शांति में बहुत बड़ी अड़चन है। बड़े-बूढ़ों ने इसीलिए सिखाया है कि मैं खत्म करने का आसान तरीका है, जीवन को परमात्मा के हवाले करो। गृहस्थी के केंद्र में ईश्वर को रखो। इससे मैं को गलने में सुविधा होगी। गृहस्थी को आश्रम कहा गया है, लेकिन मैं के प्रवेश होते ही इसे श्मशान बनने में देर नहीं लगती।

रामायण में चलते हैं। देखिए लक्ष्मण को राम की सेवा प्रिय है। वो सोते-जागते हर पल राम की सेवा में लीन है लेकिन उनका ही छोटा भाई शत्रुघ्र भरत की परछाई है। शत्रुघ्न का पूरा जीवन भरत की सेवा में गुजरा। लक्ष्मण ने कभी अपनी पसंद शत्रुघ्न पर नहीं थोपी की तुम भी राम की ही सेवा में रहो। जब रघुवंश पर राम के वनवास का वज्रपात हुआ तो संभव था कि लक्ष्मण क्रोध में शत्रुघ्न को भरत से अलग कर देते लेकिन ऐसा नहीं हुआ। परिवार की मर्यादा के लिए लक्ष्मण भी उतने ही कटिबद्ध थे जितने राम। परिवार में निजी हित उतने मायने नहीं रखते जितने परिवार के हित। जिस दिन हम यह बात समझ लेंगे हमारा परिवार भी रघुवंश हो जाएगा।

काम में दबाव तनाव ही देगा, प्रेम भरे एक प्रयास से बन सकती है बात
कभी-कभी हमारे व्यवसायिक जीवन में कुछ चुनौतियां ऐसी खड़ी हो जाती हैं, जिनका हल निकालना ना केवल मुश्किल होता है, बल्कि कई बार सहयोगियों को तैयार करना भी लगभग नामुमकिन हो जाता है। आज का दौर पसंद का काम करने का है। हर कर्मचारी अपने स्वभाव और प्रतिभा के अनुसार ही काम करना चाहता है। किसी को भी थोड़ा स्वभाव के विपरित काम दिया कि विरोध और असंतोष का सिलसिला शुरू होने में समय नहीं लगता।

प्रेम भरे एक प्रयास से इस तरह की परिस्थितियों को संभाला जा सकता है। जितना तनाव और दबाव बढ़ाया जाएगा, उतना ही कर्मचारी काम को लेकर असंतुष्ट होता जाएगा। व्यवसायिक दुनिया में हर समय, हर एक को खुश रखना संभव नहीं होता है। जब कर्मचारी किसी काम से पीछे हटता है तो अफसर दबाव बनाना शुरू करते हैं। दबाव के साथ तनाव आता है, तनाव अशांति को जन्म देता है। इस पूरी प्रक्रिया का असर दिखता है परिणामों पर। ऐसी परिस्थितियां प्रबंधन संभाल रहे लोगों के लिए चुनौती होती है।

यहां अगर थोड़ी सी समझदारी से काम लिया जाए तो शायद परिस्थितियों को आसानी से संभाला जा सकता है, साथ ही परिणाम भी बेहतर हो सकते हैं। कारपोरेट जगत में पदों को गौणकर एक साथ काम करने की परंपरा चल पड़ी है। इसके अपने परिणाम है। कर्मचारी कौन सा काम करेंगे और कौन सा नहीं, कई बार कंपनी खुद तय कर देती है। हर एक को उसकी प्रतिभा और इच्छा के मुताबिक काम सौंप दिया जाता है।

अगर कोई काम ऐसा हो जो कोई ना करना चाहता हो, ते उसे कैसे करावाएं। अगर टीम लीडर, प्रबंधक या जो भी बॉस हो उस काम की परंपरा को शुरू कर दे, तो फिर उसे कोई भी कर्मचारी आसानी से कर देगा। जरूरत है एक प्रेमभरी शुरुआत की।

भगवान कृष्ण से सीखिए हर काम को महान बनाने की कला। भागवत के एक प्रसंग में चलते हैं। इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ था। दुनिया के तमाम राजाओं को बुलाया गया। भगवान कृष्ण ने सबको उनकी प्रतिभा और रूचि के अनुसार काम सौंप दिए। भीम को रसोई, अर्जुन को राजकीय व्यवस्था, नकुल सहदेव को भी अतिथियों की व्यवस्था, दुर्योधन को कोषागार। सिर्फ दो काम शेष रह गए। अतिथियों के पैर धोना, जूठन की थालियां उठाना। किसे सौंपते, सभी राजपुत्र थे, सभी इसे दासों का काम समझते थे। भगवान कृष्ण ने अपने हिस्से में ये ही दो काम लिए। भगवान ने ऐसे काम लिए, सभी सोचकर हैरान रह गए। दुनिया को चलाने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने दासों वाले काम लिए। भगवान ने संदेश दिया, कोई काम छोटा नहीं होता। सिर्फ उसे करने के पीछे का भाव उच्च होना चाहिए।

इसके बाद ऐसा कहते हैं कि हर कोई ये ही काम करना चाहता था। बस यही मैनेजमेंट का तरीका है। जो काम हेय समझा जाए, उसे टीम लीडर शुरू कर दे तो असंतोष रहेगा ही नहीं। हां लेकिन उसके पीछे प्रेम का भाव होना चाहिए। अगर यही काम अहंकार या क्रोध में किया जाए तो यह करने वाले को हंसी का पात्र बना देगा, कर्मचारियों को आपसे और ज्यादा दूर कर देगा।

पति-पत्नी के रिश्ते में नएपन की ताजगी हो, तो कायम रहेगा प्रेम
प्रेम व्यक्ति के जीवन में जब आता है तब उसे बहुत धीरे-धीरे एहसास होता है लेकिन जब जाता है तो अपने पीछे एक खालीपन छोड़ जाता है। आज का दौर ना केवल रिश्तों को सावधानी से सहेजने का है, बल्कि रिश्तों में कुछ नयापन लाने का भी है। कैसे रिश्तों में हमेशा ताजगी रहे, नयापन रहे सीखते हैं भागवत से।

भगवान श्रीकृष्ण के दाम्पत्य में चलते हैं। 16108 रानियों के पति भगवान कृष्ण के सबसे ज्यादा प्रसंग केवल दो ही रानियों के संग के हैं। पहली रुक्मिणी और दूसरी सत्यभामा। अगर गौर से देखा जाए तो इन दोनों पत्नियों के साथ कृष्ण के सबसे ज्यादा किस्से हैं। इसका कारण था कि इन दोनों रानियों ने कभी अपने रिश्तों में एकरसता नहीं आने दी। रुक्मिणी द्वारिका में राजकाज और प्रजापालन में श्रीकृष्ण के साथ हाथ बंटाती थीं, तो कभी हास्य-विनोद से उनके साथ नितांत निजी क्षण भी बिताती थीं।

वहीं सत्यभामा कई बार श्रीकृष्ण के साथ ही युद्ध या तीर्थ पर निकल जाती थीं। शेष रानियों का अधिकांश जीवन द्वारिका के महलों में ही गुजर गया। सत्यभामा श्रीकृष्ण को लेकर बहुत ही संवेदनशील रहती थी, वो आक्रामक स्वभाव की थी, इसलिए कई बार युद्धों में श्रीकृष्ण के साथ चल देती थीं।

आज के युवा दंपत्तियों में एक इसी बात की कमी है। वे साथ तो रहते हैं लेकिन दांपत्य में एकरसता आ गई है। नयापन कुछ भी नहीं रहता। वे पति-पत्नी ही सबसे ज्यादा सुखी रहते हैं जो ना केवल एक-दूसरे को अपना एकांत देते हैं बल्कि कभी-कभी एक-दूसरे की जिम्मेदारियों को भी उठाते हैं।

पति-पत्नी सिर्फ सहचर ना रहें, जीवन में सहभागी भी बनें। एक-दूसरे के कामों में हाथ बंटाएं, अपने साथी को लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करें, कभी ये भी देखने का प्रयास करें कि आपका साथी किस स्थिति में संघर्ष कर रहा है। पति-पत्नी जब सहचर से, जीवन के सहभागी बन जाते हैं, तो रिश्ते में रोज एक नयापन दिखाई देता है।

हनुमानजी से सीखिए, कैसे करें अपने-पराए की पहचान
व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा में अक्सर लोग यह नहीं जान पाते हैं कि कौन अपना है और कौन पराया। कई बार हितैषियों का त्याग हो जाता है और दुश्मन गले लगा लिए जाते हैं। जो लोग ये मानते हैं कि व्यवसायिक रिश्ते एक तय समय सीमा तक ही गर्माहट भरे होते हैं, वे शायद गलत हैं।

व्यवसायिक रिश्तों में भी अगर अपने पराए की पहचान हो, उस रिश्ते को थोड़ा प्रेम और विश्वास से सींचा जाए तो वो भी निजी रिश्तों की तरह लंबे समय टिका रह सकता है।

आज की परिणाम केंद्रीत व्यवस्था में ऐसा करना मुश्किल है लेकिन अगर थोड़ा समझदारी से काम लिया जाए तो आप अपने प्रतिस्पर्धी के खेमों से भी अपने लोग चुन सकते हैं। आवश्यकता अपने अनुभव और प्रतिभा से ऐसे लोगों को पहचानने और फिर अपने व्यवहार से उनका विश्वास जीतने की।

सुंदर कांड के एक बहुत ही रोचक प्रसंग में चलते हैं। देखिए हनुमान एक बड़े अभियान पर निकले हैं। लंका में सीता की खोज करनी है। समुद्र लांघकर, कई राक्षसों का सामना करते हुए पहुंचे हैं। हम भी जब व्यवसाय में कूदते हैं तो वो भी समुद्र लांघने जैसा ही है लेकिन हम थोड़े प्रयासों में ही थक जाते हैं, बुद्धि विचलित होने लगती है। हनुमानजी सीखा रहे हैं कैसे अपनी बुद्धि को अगर स्थिर कर लिया जाए तो दुश्मनों के शिविर में भी अपने लोग तैयार किए जा सकते हैं।

सीता को खोजते-खोजते हनुमान विभीषण के घर तक पहुंच गए। उन्होंने कुछ चिन्हों से ही जान लिया कि यहां जो व्यक्ति रहता है वो राम के काम आ सकता है। विभीषण से मित्रता की। उसे भरोसा दिलाया कि राम अपनी शरण में आने वाले को पूरे स्नेह से रखते हैं। हनुमान ने विभीषण को अपनी प्रेमभरी भाषा में एक मौन निमंत्रण दे दिया। राम की शरण में आने का। विभीषण जो अभी तक लंका में उपेक्षित से थे, उन्होंने भी ये मौका ताड़ लिया।

एक रिश्ता बन गया। प्रेम उपजा , विश्वास दृढ़ हुआ और विभीषण ने लंका छोड़कर राम की शरण ली। राम ने भी हनुमान के विश्वास को पूरी तरह रखा, विभीषण से मिलते ही उसका राजतिलक कर दिया। मित्र बना लिया।

ऐसे पहचाना जा सकता है सच्चा प्यार...
महाभारत में एक प्रेम कथा आती है। ये कहानी है राजा नल और उनकी पत्नी दयमंती की। ये कथा हमें बताती है कि प्रेम को किसी शब्द और भाषा की आवश्यकता नहीं है। प्रेम को केवल नजरों की भाषा से भी पढ़ा जा सकता है।

महाभारत में राजा नल और दयमंती की कहानी कुछ इस तरह है। नल निषध राज्य का राजा था। वहीं विदर्भ राज भीमक की बेटी थी दयमंती। जो लोग इन दोनों राज्यों की यात्रा करते वे नल के सामने दयमंती के रूप और गुणों की प्रशंसा करते और दयमंती के सामने राजा नल की वीरता और सुंदरता का वर्णन करते। दोनों ही एक-दूसरे को बिना देखे, बिना मिले ही प्रेम करने लगे। एक दिन राजा नल को दयमंती का पत्र मिला। दयमंती ने उन्हें अपने स्वयंवर में आने का निमंत्रण दिया। यह भी संदेश दिया कि वो नल को ही वरेंगी।

सारे देवता भी दयमंती के रूप सौंदर्य से प्रभावित थे। जब नल विदर्भ राज्य के लिए जा रहे थे तो सारे देवताओं ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया। देवताओं ने नल को तरह-तरह के प्रलोभन दिए और स्वयंवर में ना जाने का अनुरोध किया ताकि वे दयमंती से विवाह कर सकें। नल नहीं माने। सारे देवताओं ने एक उपाय किया, सभी नल का रूप बनाकर विदर्भ पहुंच गए। स्वयंवर में नल जैसे कई चेहरे दिखने लगे। दयमंती ने भी हैरान थी। असली नल को कैसे पहचाने। वो वरमाला लेकर आगे बढ़ी, उसने सिर्फ स्वयंवर में आए सभी नलों की आंखों में झांकना शुरू किया।

असली नल की आंखों में अपने लिए प्रेम के भाव पहचान लिए। देवताओं ने नल का रूप तो बना लिया था लेकिन दयमंती के लिए जैसा प्रेम नल की आंखों में था वैसा भाव किसी के पास नहीं था। दयमंती ने असली नल को वरमाला पहना दी। सारे देवताओं ने भी उनके इस प्रेम की प्रशंसा की।

कथा समझाती है कि चेहरे और भाषा से कुछ नहीं होता। अगर प्रेम सच्चा है तो वो आंखों से ही झलक जाएगा। उसे प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। प्रेम की भाषा मौन में ज्यादा तेज होती है।

जानिए, प्रेम आपके व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव डाल सकता है ...
कहा जाता है कि आदमी में कुछ भी परिवर्तन करना बहुत मुश्किल होता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, व्यक्तित्व की गिली मिट्टी सूखकर सख्त होती जाती है। एक उम्र तक पहुंचने के बाद किसी में कुछ बदलना बहुत मुश्किल होता है। फिर इंसान सिर्फ खुद के दम पर ही कोई बड़ा परिवर्तन अपने भीतर ला सकता है।

अगर अपने दम पर कोई कुछ परिवर्तन ला सकता है तो वह है प्रेम। प्रेम की शक्ति कुछ भी बदल सकती है। हमारे अवतारों ने, संतों-महात्माओं ने, विद्वानों ने प्रेम पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया है। केवल हिंदू धर्म ही नहीं, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध हर धर्म का एक ही संदेश है कि निष्काम प्रेम जीवन में होना ही चाहिए। इसमें बड़ी शक्ति है। यह जीवन की दिशा बदल सकता है। परमात्मा के निकट जाने का एक सबसे आसान रास्ता है प्रेम।

फकीरों की सोहबत में क्या मिलता है यह तो तय नहीं हो पाता है लेकिन कुछ चाहने की चाहत जरूर खत्म हो जाती है। सूफियाना अन्दाज में रहने वाले लोग दूसरों से उम्मीद छोड़ देते हैं। अपेक्षा रहित जीवन में प्रेम आसानी से जागता है। प्रेम में दूसरों को स्वयं अपने जैसा बनाने की मीठी ताकत होती है। प्रेम की प्रतिनिधि है फकीरी। अहमद खिजरविया नाम के फकीर बहुत अच्छे लेखक भी थे। रहते तो फौजियों के लिबास में थे लेकिन पूरी तरह प्रेम से लबालब थे।

एक दफा उनके घर चोर ने सेंध लगा दी। चोर काफी देर तक ढूंढता रहा कुछ माल हाथ नहीं लगा। घर तो प्रेम से भरा था अहमद का मन भी पूरी तरह से प्रेम निमग्न था। चोर को वापस जाता देख उन्होंने रोका। कहा हम तुम्हे मोहब्बत तो दे ही सकते हैं बाकी तो घर खाली है। बैठो और बस एक काम करो सारी रात इबादत करो। फकीर जानते थे कि जिन्दगी का केन्द्र यदि ढूंढना हो तो प्रेम के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।

जिनके जीवन के केन्द्र में प्रेम है ऊपर वाला उनकी परीधि पर दरबान बनकर खड़े रहने को तैयार होगा। दुनिया में जिन शब्दों का जमकर दुरुपयोग हुआ है उनमें से एक है प्रेम। इसके बहुत गलत मायने निकाले हैं लोगों ने। आइए देखें प्रेम कैसा आचरण करवाता है, यहीं हमें सही अर्थ पता चलेगा। चोर ने सारी रात इबादत की। सुबह किसी अमीर भक्त ने फकीर अहमद खिजरविया को कुछ दीनारें भेजी। फकीर ने दीनारे चोर को दी और कहा यह है तुम्हारी इबादत के एवज में कुबुल करो। चोर प्रेम की पकड़ में था।

आंखों में आंसू आ गए और बोला, मैं उस खुदा को भूले बैठा था जो एक रात की इबादत में इतना दे देता है। चोर ने दीनारे नहीं ली और कह गया यहां प्रेम और पैसा दोनों मिले, पर अब प्रेम हासिल हो गया तो बाकी खुद ब खुद आ जाएगा। जिन्दगी में जब प्रेम का प्रवेश रुक जाता तो अशांति को आने की जगह मिल ही जाती है।

अपने प्रेम को कैसे बनाया जा सकता हैं अजर-अमर
महाभारत का युद्ध खत्म हो गया था। युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर की राजगादी संभाल ली थी। सब कुछ सामान्य हो रहा था। एक दिन वो घड़ी भी आई जो कोई पांडव नहीं चाहता था। भगवान कृष्ण द्वारिका लौट रहे थे। सारे पांडव दु:खी थे। कृष्ण उन्हें अपना शरीर का हिस्सा ही लगते थे, जिसके अलग होने के भाव से ही वे कांप जाते थे। लेकिन कृष्ण को तो जान ही था।

पांचों भाई और उनका परिवार कृष्ण को नगर की सीमा तक विदा करने आया। सब की आंखों में आंसू थे। कोई भी कृष्ण को जाने नहीं देना चाहता था। भगवान भी एक-एक कर अपने सभी स्नेहीजनों से मिल रहे थे। सबसे मिलकर उन्हें कुछ ना कुछ उपहार देकर कृष्ण ने विदा ली। अंत में वे पांडवों की माता और अपनी बुआ कुंती से मिले।

भगवान ने कुंती से कहा कि बुआ आपने आज तक अपने लिए मुझसे कुछ नहीं मांगा। आज कुछ मांग लीजिए। मैं आपको कुछ देना चाहता हूं। कुंती की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने रोते हुए कहा कि हे कृष्ण अगर कुछ देना ही चाहते हो तो मुझे दु:ख दे दो। मैं बहुत सारा दु:ख चाहती हूं। कृष्ण आश्चर्य में पड़ गए।

कृष्ण ने पूछा कि ऐसा क्यों बुआ, तुम्हें दु:ख ही क्यों चाहिए। कुंती ने जवाब दिया कि जब जीवन में दु:ख रहता है तो तुम्हारा स्मरण भी रहता है। हर घड़ी तुम याद आते हो। सुख में तो यदा-कदा ही तुम्हारी याद आती है। तुम याद आओगे तो में तुम्हारी पूजा और प्रार्थना भी कर सकूंगी।

प्रसंग छोटा सा है लेकिन इसके पीछे संदेश बहुत गहरा है। अक्सर हम भगवान को सिर्फ दु:ख और परेशानी में ही याद करते हैं। जैसे ही परिस्थितियां हमारे अनुकूल होती हैं, हम भगवान को भूला देते हैं। जीवन में अगर प्रेम का संचार करना है तो उसमें प्रार्थना की उपस्थिति अनिवार्य है। प्रेम में प्रार्थना का भाव शामिल हो जाए तो वह प्रेम अखंड और अजर हो जाता है।

हम प्रेम के किसी भी रिश्ते में बंधे हों, वहां परमात्मा की प्रार्थना के बिना भावनाओं में प्रभाव उत्पन्न करना संभव नहीं है। इसलिए परमात्मा की प्रार्थना और अपने भीतरी प्रेम को एक कीजिए। जब दोनों एक हो जाएंगे तो हर रिश्ते में प्रेम की मधुर महक को आप महसूस कर सकेंगे।

ऐसे प्रेम का कोई अर्थ नहीं होता जिसमें ये बातें नहीं हों....
महाभारत में दुर्योधन जब पैदा हुआ तो उसके जन्म के साथ ही कई अशुभ घटनाएं घटने लगीं। सारे अपशकुन इस ओर इशारा कर रहे थे कि किसी दुरात्मा ने जन्म लिया है। विदुर ने एक राय दी कि इस बच्चे को तत्काल मार देना चाहिए। यह कुल का नाश कर सकता है। अभी मार दिया तो थोड़े ही दिन में इसके दु:ख को भुलाया भी जा सकता है लेकिन अगर यह बालक बड़ा हो गया तो पूरे कुल का नाश कर देगा। तब जो दु:ख होगा वह भुलाया नहीं जा सकेगा।

धृतराष्ट्र ने विदुर की बात से सहमत होने के बाद भी वह बात मानी नहीं। पुत्रमोह में उसने दुर्योधन को अतिप्रेम से पाला। उसकी सारी गलत मांगों की पूर्ति की जाती रही। धृतराष्ट्र पुत्र प्रेम में विवेक की सीमा से आगे चले गए। इतना प्रेम उड़ेल दिया कि दुर्योधन मनमौजी हो गया।

पिता की बातें मानना भी उसकी खुद की मर्जी का काम था। उसे जो बात अपने हित की लगती वही मानता। शेष सारी बातों को वो हवा में उड़ाने लगा। पिता उसके लिए सिर्फ राजगादी संभालने वाले प्रतिनिधि जैसे हो गए। पिता के प्रति प्रेम रहा ही नहीं। क्योंकि खुद धृतराष्ट्र के प्रेम में संस्कार नहीं थे। सिर्फ मोह था।

माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता।

एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और जब अवसर आया तो वह हमें प्रेम नहीं दे रहा, वह लौटा नहीं रहा।

इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है।

जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा न करें इसे सहज बहने दें।

इस तरह हमेशा कायम रह सकता है पति-पत्नी का प्रेम
प्रेम व्यक्ति के जीवन में जब आता है तब उसे बहुत धीरे-धीरे एहसास होता है लेकिन जब जाता है तो अपने पीछे एक खालीपन छोड़ जाता है। आज का दौर ना केवल रिश्तों को सावधानी से सहेजने का है, बल्कि रिश्तों में कुछ नयापन लाने का भी है। कैसे रिश्तों में हमेशा ताजगी रहे, नयापन रहे सीखते हैं भागवत से।

भगवान श्रीकृष्ण के दाम्पत्य में चलते हैं। 16108 रानियों के पति भगवान कृष्ण के सबसे ज्यादा प्रसंग केवल दो ही रानियों के संग के हैं। पहली रुक्मिणी और दूसरी सत्यभामा। अगर गौर से देखा जाए तो इन दोनों पत्नियों के साथ कृष्ण के सबसे ज्यादा किस्से हैं। इसका कारण था कि इन दोनों रानियों ने कभी अपने रिश्तों में एकरसता नहीं आने दी। रुक्मिणी द्वारिका में राजकाज और प्रजापालन में श्रीकृष्ण के साथ हाथ बंटाती थीं, तो कभी हास्य-विनोद से उनके साथ नितांत निजी क्षण भी बिताती थीं।

वहीं सत्यभामा कई बार श्रीकृष्ण के साथ ही युद्ध या तीर्थ पर निकल जाती थीं। शेष रानियों का अधिकांश जीवन द्वारिका के महलों में ही गुजर गया। सत्यभामा श्रीकृष्ण को लेकर बहुत ही संवेदनशील रहती थी, वो आक्रामक स्वभाव की थी, इसलिए कई बार युद्धों में श्रीकृष्ण के साथ चल देती थीं।

आज के युवा दंपत्तियों में एक इसी बात की कमी है। वे साथ तो रहते हैं लेकिन दांपत्य में एकरसता आ गई है। नयापन कुछ भी नहीं रहता। वे पति-पत्नी ही सबसे ज्यादा सुखी रहते हैं जो ना केवल एक-दूसरे को अपना एकांत देते हैं बल्कि कभी-कभी एक-दूसरे की जिम्मेदारियों को भी उठाते हैं।

पति-पत्नी सिर्फ सहचर ना रहें, जीवन में सहभागी भी बनें। एक-दूसरे के कामों में हाथ बंटाएं, अपने साथी को लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करें, कभी ये भी देखने का प्रयास करें कि आपका साथी किस स्थिति में संघर्ष कर रहा है। पति-पत्नी जब सहचर से, जीवन के सहभागी बन जाते हैं, तो रिश्ते में रोज एक नयापन दिखाई देता है।

प्रेम का मार्ग
जे कृष्णमूर्ति कहते थे कि मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि मेरा किसी से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूं, सोचकर कहो, तो वे चिंतित हो जाते हैं। वे कहते हैं कि मैं सोचता हूं कि मुझे प्रेम हो गया है। हुआ या नहीं, यह तो पक्का नहीं, लेकिन विचार आता है कि मुझे प्रेम हो गया है।

क्या प्रेम का विचार आवश्यक है? तुम्हारे पैर में कांटा गड़ता है, तो तुम्हें बोध होता है कि पैर में पीड़ा हो रही है। तुम ऐसा तो नहीं कहते कि मैं सोचता हूं कि शायद पैर में पीड़ा हो रही है। कांटा सोच-विचार को छेद देता है। उसके आर-पार निकल जाता है। जब तुम आनंदित होते हो, तो क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंदित हो रहे हो या सिर्फ आनंदित होते हो? कोई प्रियजन चल बसे, तो क्या तुम श्मशान पर सोचते हो कि तुम दुखी हो रहे हो। सोचते हो, तो शायद दिखावा होगा। दूसरों को दिखाने के लिए हंसना भी पड़ता है, दुखी भी होना पड़ता है, लेकिन तब तुम्हारे भीतर कुछ नहीं हो रहा होता।

प्रेम सोच-विचार वाला नहीं होता। यह तो भाव का प्रेम है। जब भाव से तुम्हें कोई बात पकड़ लेती है, तो समझो तुम्हें वह जड़ों से पकड़ लेती है। विचार तो वृक्षों में लगे पत्तों की भांति है, जबकि भाव वृक्षों के नीचे छिपी जड़ों की तरह। छोटा सा बच्चा भी जनमते ही भाव में समर्थ होता है, विचार में समर्थ नहीं होता। विचार तो बाद का प्रशिक्षण है। उसे सीखना पड़ता है- स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, संसार, अनुभव से, लेकिन बच्चा भाव तो पहले ही क्षण से करता है। अभी-अभी पैदा हुए बच्चे को देखो, वह भाव से आंदोलित होता है। अगर तुम प्रसन्न हो, आनंद से तुमने उसे छुआ है, तो वह भी पुलकित होता है। अगर तुम उपेक्षा से भरे हो और तुम्हारे स्पर्श में प्रेम की ऊष्मा नहीं है, तो वह तुम्हारे हाथ से अलग हट जाना चाहता है। अभी उसके पास सोच-विचार नहीं है। अभी मस्तिष्क के तंतु तो निर्मित होने हैं। अभी तो ज्ञान, स्मृति बनेंगे, तब वह जानेगा कि कौन अपना है, कौन पराया। अभी वह अपना-पराया नहीं जानता। अभी तो जो भाव के निकट है, वह उसका अपना है, जो भाव के निकट नहीं है वह पराया है। फिर तो जो अपना है, उसके प्रति भाव दिखाएगा। इसीलिए तो छोटे बच्चे में निर्दोषता का अनुभव होता है।

प्रेम भाव का होता है। उसे महसूस करने के लिए मैं लोगों से कहता हूं- थोड़ा हृदय को जगाओ। कभी आकाश में घूमते हुए बादलों को देखो। उन्हें देखकर नाचो भी, जैसे मोर नाचता है। पक्षी गीत-गाते हैं, तो उनके सुर में सुर मिलाओ। वृक्ष में फूल खिलते हैं, तो तुम भी प्रफुल्लित हो जाओ। चारों तरफ जो विराट फैला है, उसके हाथ अनेक-अनेक रूपों में तुम्हारे करीब आए हैं- कभी फूल, कभी सूरज की किरण, कभी पानी, कभी लहर बनकर। इस विराट से थोड़ा भाव का नाता जोड़ो। बैठे सोचते मत रहो। इंद्रधनुष आकाश में खिले, तो तुम यह मत सोचो कि इसकी फिजिक्स क्या है। यह मत सोचो कि जैसे प्रकाश प्रिज्म से गुजरकर सात रंगों में टूट जाता है, इसी तरह किरणें पानी के कणों से गुजरकर सात रंगों में टूट गई हैं। इस पांडित्य के कारण तुम भाव से वंचित रह जाओगे। इंद्रधनुष का सौंदर्य खो जाएगा, हाथ में फिजिक्स की किताब रह जाएगी। आकाश की तरह अपने अंदर भी इंद्रधनुष खिलने दो। अपनी जिंदगी में उसके रंग उतरने दो।

विचार का प्रेम सौदा ही बना रहता है, क्योंकि विचार चालाक है। विचार यानी गणित। विचार यानी तर्क। विचार के कारण तुम निर्दोष हो ही नहीं पाते। वहीं भाव निर्दोष होता है। विचार के कारण तुम अपनी सहजता, सरलता और समर्पण का अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि विचार कहता है कि सजग रहो। सावधान, कोई धोखा न दे जाए। विचार भले ही तुम्हें धोखों से बचा ले, लेकिन अंतत: धोखा दे जाता है। भाव के साथ तुम्हें शायद कुछ खोना पड़े, लेकिन भाव पा लिया तो सब कुछ पा लिया।

एक आदमी सपना देखता रहा है कि उसने बड़ी हत्याएं की हैं, चोरियां की हैं, और वह परेशान है कि उनसे छुटकारा कैसे मिलेगा। वह कैसे अच्छे कर्म कर पाएगा। तभी तुम जाते हो और उसे जगा देते हो। आंख खुलते ही उसका सपना टूट जाता है। उसे कर्म नहीं बदलने पड़ते, बस सपना टूट जाए। फिर वह खुद ही हंसने लगता है कि मैं भी क्या सोच रहा था। मैं सोच रहा था कि इससे छुटकारा कैसे मिलेगा और सपना टूटते ही छुटकारा मिल गया।

विचार तुम्हारे स्वप्न हैं। कर्म तो विचार के भीतर घटित हो रहे हैं। विचार टूट जाए, तो तुम जाग गए। तुम्हारे पूर्व जन्म भी दु:स्वप्न ही हैं, उन्हें बदलने का सवाल ही नहीं। बस जागते ही परिवर्तन आ जाता है। जिन विचारों से झंझावात और ऊहापोह मचा है, बस उसे शांत कर लो। इन्हें शांत करने के दो उपाय हैं। एक ढंग ध्यान है। दूसरा मार्ग प्रेम का है। तुम इतने प्रेम से भर जाओ कि तुम्हारे जीवन की सारी ऊर्जा प्रेम बन जाए। जो ऊर्जा भावना बन रही थी, विचार बन रही थी, तरंगें बन रही थी, वह खिंच आए और प्रेम में नियोजित हो जाए। ध्यान का रास्ता सूखा है, तो प्रेम का रास्ता हरा-भरा है। उस पर पक्षी गीत गाते हैं, मोर भी नाचते हैं। उस पर गीत भी है, नृत्य भी। उस पर तुम्हें कृष्ण मिलेंगे बांसुरी बजाते। उस पर तुम्हें चैतन्य मिलेंगे गीत गाते, उस पर तुम्हें मीरा मिलेंगी-नाचती-गाती।


क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK