Monday, December 19, 2011

Guru Swami Kalyan Dev( गुरू स्वामी कल्याणदेव)


गुरू
आज का साधारण व्यक्ति धर्म, जाति और यम-नियमों में इतना अधिक उलझा हुआ है, कि यदि उसके सामने आकर कोई सत-धर्म कि बात कहे, तो वह सुनने को तैयार नहीं है। आज के समय में कितने ही निगुरे (बिना गुरू वाले), गुरू बने बैठे हैं। स्वयं का गुरू ना होते हुऐ भी दूसरों को गुरू धारण करने एवं मंत्र-दीक्षा लेने को कहते हैं। अगर हम ध्यान से देखे तो हिन्दुस्तान के अन्दर कितने ही महा-पुरूष बिना गुरू के उत्पन्न हुऐ है और उन्होनें सत-धर्म का प्रचार-प्रसार किया, लेकिन उनकी तरह नकल कर लेने से तो कोई भी उनके जैसा बन नहीं सकता। इस समय में जो-जो गुरू अपने आपको ब्रह्म-ज्ञानी मानते हैं या बने हुऐ हैं, अगर हम ध्यान से उनका अवलोकन करे तो उनके पास अपना कुछ भी नहीं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आज का प्रत्येक संत एक दूसरे की या पवित्र धर्म-ग्रंथो की बातें ही सुनाता है। उनके पास स्वयं का कुछ भी ज्ञान नहीं है। जो संत धर्म-ग्रंथो की चर्चा या उनकी कथा-कहानी कहता या सुनाता है, वह कथा-वाचक तो हो सकता है, ब्रह्म-ज्ञानी कदापि नहीं हो सकता।

समय के अनुसार अनादि काल से ही गुरूओं मे भेद रहें हैं। जब बच्चे का नामकरण या जनेउ संस्कार होता है। ऐसे संस्कार कराने वाले गुरू को दीक्षा- गुरू कहते हैं। उसके उपरान्त जब बालक को मंत्र ज्ञान दिया जाता है, जो कि गायत्री मंत्र से ले कर किसी भी देव विशेष का मंत्र होता है। यह बच्चे को उसका बौद्धिक-ज्ञान एवं आगे जा कर भौतिक सुखों की पूर्ति करता है। ऐसे मंत्र देने वाले गुरू को मंत्र-गुरू कहते हैं। इसके उपरांत जो बालक या साधक, जिसके अंदर विद्या को जानने की इच्छा होती है। तब ऐसा साधक ज्ञान प्राप्ति हेतु जिस गुरू की खोज करता है। उसे सत्-गुरू कहते हैं। सत्-गुरू ऐसे साधक को देव विशेष का मंत्र न देकर परमात्मा के निज-नाम का उपदेश देता है एवं विद्या या अविद्या को सम्पूर्ण रूप से शिष्य को समझाते है। जब ऐसा साधक विद्या और अविद्या के भेद को सुक्ष्म रूप से जान कर परमात्मा के निज-नाम का जाप करता है, तो ऐसा साधक कैवल्य को प्राप्त होता है। अनेकों साधुओं के मन में यह प्रश्न उठता है कि मेरे गुरू ने तो मुझे देव विशेष का मंत्र दिया है। इससे मुझे वह परमात्मा मिलेगा या नहीं। स्पष्टतः हम यही कहेगें की किसी भी देव विशेष के मंत्र का जाप आप कितना ही क्यों न करें, उससे आप को उस देव विशेष की शक्तियाँ एवं आप उस की कृपा के कृपा-पात्र तो बन सकते हैं, किन्तु उस परमात्मा को कभी भी प्राप्त नही कर सकते। जिस तरह हनुमान जी की कृपा के लिऐ ‘हनुमान चालिसा’, शिवजी की कृपा के लिए ‘ॐ नमः शिवाय’, देवी की कृपा के लिऐ ‘दुर्गा सप्तशति’ आदि जाप अनिवार्य है। उसी तरह उस परमात्मा को पाने के लिऐ उसके निज-नाम का जाप अनिवार्य है।

इसके बाद अनेकों ही साधको के मन में एक प्रश्न और उठता है, कि गुरू एक ही हो या अनेक, इस को समझने के लिऐ हमें फिर से बीते हुऐ युगों के साथ-साथ इस युग के भी कुछ महापुरूषों के चरित्र को समझना और जानना होगा। सबसे पहले हम बात करेगें भगवान राम की जिन्होंने की वशिष्ठ और विश्वामित्र को अपना गुरू बनाया, इसके साथ ही जब भगवान राम 14 वर्षों के लिऐ वनवास गये, तो वहाँ पर भी अनेकों ॠषि, महर्षियों से ज्ञान प्राप्त किया। स्पष्टतः हम राम के चरित्र को देखें तो हमें पता चलता है, कि भगवान राम दोनों वक्त की संध्या करते थे। उनके कुल-देवता भगवान सूर्य नारायण थे। उन के इष्ट देव भगवान शिव थे। उन्होंने अपने जीवन काल में हवन और तर्पण किये थे और उन्होंने अनेकों जगह से ज्ञान प्राप्त किया था। इसलिऐ उनके अनेकों गुरू थे। मुख्यतः वशिष्ठ उनके कुल-गुरू थे। यहाँ पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हमें पूर्णता की प्राप्ति के लिऐ भगवान राम की तरह ही अपने कुल देवता, इष्ट देवता, हवन, तर्पण एवं जहाँ से भी ज्ञान प्राप्त हो, वहीं पर उस व्यक्ति विशेष को अपना गुरू मानना चाहिये। भगवान राम के चरित्र को देखने पर ऐसा महसूस नहीं होता की सिर्फ एक ही गुरू होना चाहिऐ। बल्कि हमें भगवान राम की तरह ही जहाँ से भी जितना भी ज्ञान मिले, उसे प्राप्त करना चाहिऐ। इसी तरह अगर हम भगवान कृष्ण जी की बात करें, तो उनके भी दो गुरू हुऐं है। पहले सांदीपन, जिनसे कि उन्होंने व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त की एवं दूसरे गुरू उपमन्यु थे, जिनसे कि उन्होंने ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया। आज राम और कृष्ण को मानने वाले, राम और कृष्ण का नाम तो जपते हैं, लेकिन जिस परमात्मा को स्वयं राम और कृष्ण ने माना उस परमात्मा को मानने को तैयार नहीं है। जिस परमात्मा ने इस सम्पूर्ण सृष्टि एवं राम और कृष्ण को जन्म देने वाले को, जो स्वयं में अजूणी है, उसे मानने को तैयार नहीं।

वेद शास्त्रों में स्पष्टतः उल्लेख है, कि वह परमात्मा कभी जन्म नहीं लेगा, लेकिन हम फिर भी देह धारी को भगवान मान बैठते है। वह परमात्मा कण-कण में है। इसलिए सभी देहधारी उस परमात्मा का अंश तो हैं, लेकिन परमात्मा नहीं है। हमें बूंद और समुंद्र को समझना पड़ेगा, कि बूंद तो बूंद है, और समुंद्र तो समुंद्र है। बूंद और समुंद्र दोनो का गुण धर्म एक है, किन्तु दोनों की शक्तियाँ अलग-अलग है। बूंद समुंद्र में जा कर विलीन हो सकती है, लेकिन बूंद चाहे तो उस परमात्मा रूपी समुद्र को अपने अन्दर आत्मसात नहीं कर सकती। इसलिऐ हमें उस परमात्मा को समझने के लिऐ, उसको जानने के लिऐ, अनेकों ही गुरूओं का सहारा लेना पड़ सकता है। इसलिऐ हमे मिथ्या परपंच मे नहीं पड़ना चाहिऐ, कि गुरू सिर्फ एक ही हो। बल्कि हमें इस मिथ्या परपंच को छोड़ कर ज्ञान की खोज करनी चाहिऐ। जो भी सतपुरुष मिलें उन से ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए। अगर हम बात करें महात्मा-बुद्ध की, तो उन्होनें भी अपने जीवन काल में अनेकों महर्षियों से ज्ञान प्राप्त करते हुऐ, अन्त में बौद्धि-वृक्ष के नीचे, बौद्धित्व को प्राप्त हुऐ। इसी प्रकार रामकृष्ण-परमहंस ने भी गुरु की सहायता से काली सिद्धि एवं ज्ञान को प्राप्त किया, किन्तु पूर्ण आत्म-ज्ञान सन्त तोतापुरी जी महाराज के सान्निधय में प्राप्त हुआ।

समय का चक्र स्वयं चलता रहता है। जैसे कि बाबा नानक को बिना गुरू के ही उस परमात्मा की प्राप्ति हुई और बाबा नानक ने मूल-मन्त्र में ही उस परमात्मा के लिऐ ही गुरू-प्रसाद शब्द का उल्लेख किया, कि यह जो ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ है उस परमात्मा अर्थात् उस गुरू का प्रसाद ही है। उसी परमात्मा को उन्होंने वाहे-गुरू कहा, कि एक वही गुरू है। अगर हम सभी बाबा नानक की तरह बनने की कोशिश करें, कि जिस प्रकार बिना देहधारी गुरू के उनको ज्ञान प्राप्त हो गया, ऐसा हमें भी प्राप्त हो जाऐ तो ऐसा सम्भव नहीं है। यह सब उस परमात्मा की ही इच्छा है, कि वह किसी को बिना देहधारी गुरू के, किसी को एक गुरू से ही एवं किसी को अनेकों गुरूओं की कृपा से मिलता है। हमे सिर्फ परमात्मा और ज्ञान के प्रति जिज्ञासु बने रहते हुऐ, खोज करनी चाहिऐ। यह खोज चाहे बिना गुरू के या एक गुरू से हो या अनेकों गुरूओं की मदद लेनी पड़े। हमें सब कुछ विधि पर छोड़ कर ज्ञान की खोज में आगे बढ़ते रहना चाहिऐ। उस परमात्मा की बंदगी में कभी आलस्य को स्थान न दे, अगर तुम्हारा संकल्प दृढ़ है तो किसी ना किसी तरह वह परमात्मा एक दिन अवश्य ही तुम्हारे सामने प्रकट होगा।

तुम्हारे मन में जो सोच बनी हुई है, कि मेरा गुरू बड़ा और बाकी गुरू छोटे हैं। जो व्यक्ति यह भेद बुद्धि रखता है, वह कितनी ही गुरू की सेवा क्यों न कर ले, फिर भी अंत समय में नरक-गामी होगा। बिना सोचे, बिना समझे, बिना जाने किसी को भी छोटा या बड़ा कहने का अधिकार नहीं है। कोई भी गुरू उस परमात्मा को कितना ही क्यों न जान ले फिर भी वह अधूरा है। इसलिऐ संतो ने उस परमात्मा के लिऐ नेति-नेति कहा है। जब इतने पहुँचे हुऐ सन्त ही उस परमात्मा के सम्पूर्ण रहस्यों को नहीं जान पाऐ तो फिर तुम कैसे कह सकते हो, कि तुम्हारा गुरू बड़ा है। आज का संत सिर्फ दसवें-द्वार या सच्च-खण्ड तक की ही बात करता हैं। कुल मिलाकर आज के साधक 14 मण्डलों, या यों कहें कि 14 भुवनों के बारे में ही जानते है, जबकि मण्डल या भुवनों की सँख्या 36 है। सही मायने में अगर सत्य कहा जाये तो 36 मन्डलों का रहस्य जानने वाला ही पूर्ण गुरू है। आज के वक्त में कितने सन्त हैं जो पूर्ण रूप से 36 मन्डलों के नाम या उनके रहस्य को जानते है?

शब्द या मन्त्र भी किसी देवी या देवता के ही होते हैं। बल्कि गुरूओं को चाहिऐ कि वे देवी, देवता के मंत्र ना दे कर उस परमात्मा के निज-नाम का जाप शिष्यों को बतायें। आज कल के गुरू तो बिना सोचे, बिना समझे, बिना जाने कि यह शिष्य किस मंत्र का अधिकारी है, उसे मन्त्र प्रदान कर देते है। मन्त्र-दीक्षा कोई खेल नहीं है, कि जिसे मर्जी, जो मर्जी मन्त्र दे दिया जाये, मान लो एक बच्चे को जो कि कम उम्र का है, उसे कोई भी पुस्तक दे दी जाये और कहा जाऐ कि इसे घर ले जा और पढ़ लेना तो क्या ऐसा बालक उस पुस्तक को अगर घर में ला कर पढ़ सकता हैं, और अगर वह किसी तरह पढ़ भी ले तो क्या उसे कुछ प्राप्त हो सकेगा? कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई बच्चा स्कूल कि सारी किताबें घर बैठ कर पढ़ ले तो कोई भी स्कूल उसे मान्यता नहीं देगा।

उसी तरह किसी साधक को कोई भी मन्त्र दे दिया जाये और कहा जाये की घर में जा कर इसका आवश्यक्ता अनुसार जाप करना, तो क्या ऐसे साधक को ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है? कदापि नहीं। ऐसा साधक उस मन्त्र का कितना भी जाप क्यों न करे, उसे कुछ भी प्राप्ति सम्भव नहीं है। जब तक एक स्कूल की तरह जिसमें कि शिक्षक अपने छात्र को एक-एक विषय समझाता है। उसी तरह जब तक गुरू उपने शिष्य को अविद्या और विद्या के बारे में एक-एक करके नहीं समझायेगा तब तक मन्त्र जाप सफल नहीं होगा। आज के समय फिर से आवश्कता है कि नये आश्रमों की स्थापना हो जहाँ पर की श्रेष्ठ-गुरू एवं श्रेष्ठ-शिष्य ज्ञान का आदान-प्रदान करें एवं एक नये युग की स्थापना करें। आज फिर से आवश्यक्ता है कि गुरू और शिष्य मिल कर पुरूषार्थ करें और जो धर्म के नाम पर आडम्बर कर रहे है ऐसे स्वार्थी लोगों को सत्य का आभास करायें कि मन्त्र, गुरू और शिष्य यह परम्परा इतनी सहज नहीं है। जितना की आज के वक्त मे समझा जाता है।

मां सरस्वती के भक्त ब्रह्मलीन स्वामी कल्याणदेव जी महाराज
निष्काम, कर्मयोगी, तप, त्याग और सेवा की साक्षात मूर्ति ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव महराज का जन्म वर्ष 1876 में जिला बागपत के गांव कोताना में उनकी ननिहाल में हुआ थ । उनका पालन पोषण मुजफरनगर के अपने गांव मुंडभर में हुआ था । उन्हें वर्ष 1900 में मुनि की रेती ऋषिकेश में गुरूदेव स्वामी पूर्णानन्द जी से संन्यास की दीक्षा ली थी । अपने 129 वर्ष के जीवनकाल में उन्होनें 100 वर्ष जनसेवा में गुजारे । स्वामी जी ने करीब 300 शिक्षण संस्थाओं के साथ कृषि केन्द्रों, गऊशालाओं, वृद्ध आश्रमों, चिकित्सालयों आदि का निर्माण कराकर समाजसेवा में अपनी उत्कृष्ट छाप छोड़ी ।

ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव जी के प्रमुख शिष्य एवं उत्तराधिकारी ओमानन्द ब्रह्मचारी जी के अनुसार स्वामी कल्याणदेव जी को उनके समसाजिक कार्यों के लिये तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी जी ने 20 मार्च 1982 में पदमश्री सम्मानित किया । इसके बाद 17 अगस्त 1994 को गुलजारी लाल नन्दा फाउंडेशन की ओर से तत्कालीन राष्ट्रपति डा0 शंकर दयाल शर्मा जी ने उन्हें नैतिक पुरूस्कार से सम्मानित किया । 30 मार्च 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के0आर0 नरायणन जी द्वारा पदमभूषण से सम्मानित किया गया । इसके बाद चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के दीक्षांत समारोह में उन्हें 23 जून 2002 को तत्कालीन राज्यपाल श्री विष्णुकांत शास्त्री जी ने साहित्य वारिधि डी–लिट उपाधि प्रदान की थी।

स्वामी ओमानन्द के अनुसार ब्रह्मलीन स्वामी कल्याणदेव जी महाराज अपने जीवनकाल में कभी भी रिक्शा में नहीं बैठे । लखनऊ, दिल्ली रेलवे स्टेशनों पर जाकर भी वे हमेशा पैदल चला करते थे । उनका तर्क था कि रिक्शा में आदमी आदमी को खिंचता है । यह एक पाप है।पांच घरों से रोटी की भिक्षा लेकर एक रोटी गाय को दूसरी रोटी कूत्ते को तीसरी रोटी पक्षियों के लिये छत पर डालते थे । बची दो रोटियॉं को वह पानी में भिगोकर खाते थे ।

ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव जी महाराज ने एक वर्ष पहले ही अपने शिष्य स्वामी ओमानंद महाराज को अपनी समाधि का स्थान बता दिया था । यहॉ तक की मृत्यु के तीन दिन पहले स्वामी जी ने अंतिम सांस लेने से दस मिनट पहले शुक्रताल स्थित मंदिर व वटवृक्ष की परिक्रमा की इच्छा जताई थी । उनकी इच्छानुसार उनके अनुयायियों ने ऐसा ही किया । इस दौरान भगवान श्रीकृष्ण का चित्र देखकर उनके चेहरे पर हंसी आ गई । शुक्रताल मे मंगलवार को एकादशी के दिन रात्रि 12 बजकर 20 मिनट पर अन्तिम सांस ली ओर ब्रह्मालीन हो गये ।

ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव महाराज जी ने अपने जीवनकाल में हमेशा जरूरतमंदो की मदद करने का संदेश दिया । वह कहा करते थे कि अपनी जरूरत कम करो । और जरूरत मंदो की हरसंभव मदद करों । परोपकार को ही वह सबसे बड़ा धर्म मानते थे । ऐसा उन्होंने जीवन पर्यन्त किया भी । सदैव पानी में भिगोकर भिक्षा में ली गई रोटी खाने वाले स्वामी जी ने 129 वर्ष की आयु में 300 से अधिक शिक्षा केन्द्र स्थापित कर रिकार्ड स्थापित किया ।

मां सरस्वती के भक्त तथा मुजफरनगर के इस महान सपूत को शत शत नमन ।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

4 comments:

  1. Adarniya swami ji ko shat shat naman

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  2. Aajkal aise santo ke darshan durlabh ho gaye.aajkal ke sawamiyo ke vaibhav dekhkar ashchaya hota h jab ve veragaya ki bat karte h

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    1. परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से ही हम लोगों का मार्गदर्शन हुआ। शत शत नमन

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  3. पूज्य संत स्वामी कल्याणदेव जी के दर्शन करने व उनसे आशीर्वाद लेने का अवसर मिलना मेरा सौभाग्य था

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