Friday, December 23, 2011

Dharm Gyan ( धर्म ज्ञान) Part 7

इस दोष से मन और बुद्धि हो जाते है बेहद कमजोर
जीवन को सफल और सुखी बनाने के लिए अहम होता है - निर्णय। किंतु फैसला करने के लिए जरूरी है सही और गलत की समझ, जिसे विवेक कहते हैं। विवेक के अभाव में अच्छे या बुरे की पहचान करना मुश्किल हो जाता है। जिसके नतीजे में मिली असफलता जीवन में कलह और अशांति ला सकती है। क्या आप जानते हैं कि वक्त आने पर सही फैसला न ले पाने की कमजोरी आपके स्वभाव में मौजूद होती है। जानते हैं वह दोष और उससे बचने का उपाय -

यह ऐसी कमजोरी है जो धर्म के नजरिए से दोष भी मानी गई है। यह दोष है - क्रोध यानी गुस्सा। जी हां, क्रोध वह कारण है, जिससे विवेक खो जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथ गीता में क्रोध को दोष मानकर लिखा गया है -
क्रोधोद्भवति सम्मोह:।

जिसका सरल शब्दों में मतलब है क्रोध से विवेक यानी बुरे या भले को समझने वाली बुद्धि खत्म हो जाती है। जिससे अंत में नुकसान ही हाथ लगता है। यहां सवाल ये उठता है, कि क्रोध से कैसे बचें? जवाब है अगर क्रोध से बचना है तो इंसान इन दो उपायो को अपनाएं -

शास्त्रों के मुताबिक गुस्सा पैदा होने का कारण ज्ञान की कमी होती है। वहीं इसके बढऩे का कारण अभिमान होता है। इसलिए अगर जीवन में लगातार तरक्की और सुखों की चाहत है तो हर इंसान को हर तरह के ज्ञान को पाने की भरसक कोशिश करना चाहिए। साथ ही घमंड से बचकर भी रहे। इन दो उपायों से क्रोध भी काबू में रहेगा और सही क्या? गलत क्या? की समझ भी बनी रहेगी।

ये 16 गुण बनाते हैं दमदार लीडर
हर व्यक्ति यश, कीर्ति, ख्याति, नाम पाने या आगे रहने की आस रखता है। असल में, सांसारिक जीवन में सद्गुण और अच्छे काम नाम, सम्मान व प्रतिष्ठा का कारण ही नहीं बनते हैं, बल्कि किसी भी इंसान को असाधारण और विलक्षण नेतृत्व शक्तियों का स्वामी बना देते हैं। धर्मग्रंथों के नजरिए से जानिए कि साधारण व्यक्ति आगे रहने या ऊंचाई पाने के लिए कैसे गुणों को विकसित करे -

हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक विष्णु अवतार भगवान श्रीराम ने भी मानवीय रूप में जन-जन का भरोसा और विश्वास अपने आचरण और असाधारण गुणों से ही पाया। उनकी चरित्र की खास खूबियों से ही वह न केवल लोकनायक बने, बल्कि युगान्तर में भी भगवान के रूप में पूजित हुए।

वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम की ऐसे ही सोलह गुण बताए गए हैं, जो आज भी लीडरशीप के अहम सूत्र हैं, जानते हैं इन गुणों को आज के संदर्भ में अर्थों के साथ -

- गुणवान (ज्ञानी व हुनरमंद)

- वीर्यवान (स्वस्थ्य, संयमी और हष्ट-पुष्ट)

- धर्मज्ञ (धर्म के साथ प्रेम, सेवा और मदद करने वाला)

- कृतज्ञ (विनम्रता और अपनत्व से भरा)

- सत्य (बोलने वाला ईमानदार)

- दृढ़प्रतिज्ञ (मजबूत हौंसले)

- सदाचारी (अच्छा व्यवहार, विचार)

- सभी प्राणियों का रक्षक (मददगार)

- विद्वान (बुद्धिमान और विवेक शील)

- सामर्थ्यशाली (सभी का भरोसा, समर्थन पाने वाला)

- प्रियदर्शन (खूबसूरत)

- मन पर अधिकार रखने वाला (धैर्यवान व व्यसन से मुक्त)

- क्रोध जीतने वाला (शांत और सहज)

- कांतिमान (अच्छा व्यक्तित्व)

- किसी की (निंदा न करने वाला सकारात्मक)

- युद्ध में जिसके क्रोधित होने पर देवता भी डरें (जागरूक, जोशीला, गलत बातों का विरोधी)

जानिए सूर्य की 4 अद्भुत शक्तियों का रहस्य
सनातन धर्म में प्रकृति को ईश्वर का ही रूप माना जाता है। इसी परंपरा में सूर्य को साक्षात् ईश्वर मानकर उपासना की जाती है। यही नहीं सूर्य की महिमा बताने वाले शास्त्रों में उनको एक मात्र ईश्वर बताया गया है। इस दृष्टि से सूर्य को सृष्टि रचना, पालन और संहार करने वाला देवता माना गया है। इसीलिए सूर्य साधना शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दु:खों, रोगों से छुटकारा देने वाली मानी गई है।

हिन्दू धार्मिक मान्यताओं में सूर्यदेव चार रूपों में संसार का मंगल करते हैं। इनको सूर्य की चार मूर्तियां भी कहा जाता है। जानते हैं सूर्यदेव की इन चार मूर्तियों की गुण और शक्तियां -

- सूर्यदेव की पहली मूर्ति राजसी मूर्ति कहलाती है। संसार की रचना करने वाला यह रूप ब्राह्मी शक्ति के रूप में भी जाना जाता है।

-विष्णु रूप को सूर्यदेव की दूसरी मूर्ति माना जाता है। यह सत्व या सौम्य गुणों वाली होती है। जिसके द्वारा बुराई और दुर्जनों का अंत कर जगत का पालन होता है।

- सूर्य की तीसरी मूर्ति को शंकर रूप में पूजा जाता है, जो उग्र या तामसी गुणों वाली है। यह संहार शक्ति के रूप में प्रसिद्ध है।

- सूर्य की चौथी मूर्ति होने पर भी अदृश्य रूप में रहती है यानी नजर नहीं आती। यह शक्ति है ऊँकार। संसार में दिखाई देने वाली साकार और निराकार सभी में यह शक्ति स्थित है। जिसके द्वारा पूरा संसार आगे बढ़ता और फैलता है। इस कारण इसे श्रेष्ठ मूर्ति भी माना जाता है।

चाहें जीवन में अच्छे बदलाव तो संक्रांति से शुरू करें इस शुभ घड़ी में जागना
शास्त्रों में देव उपासना व साधना से जीवन में अच्छे बदलाव व नतीजे पाने लिए एक खास वक्त में जागना बहुत ही शुभ व पवित्र माना जाता है। यह विशेष घड़ी है- ब्रह्ममुहूर्त। किंतु आज के दौर की व्यस्त जीवनशैली खासतौर पर युवाओं को इस खास वक्त का लाभ उठाने से दूर कर रही है।

दरअसल, ब्रह्ममुहूर्त धर्म, अध्यात्म ही नहीं व्यावहारिक नजरिए से भी फायदेमंद है। अगर कोई भी इंसान जीवन में अच्छे बदलाव लाना चाहता है तो यहां बताए जा रहे ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलुओं और लाभ को जानकर मकर संक्रांति की पुण्य योग से हर रोज इस शुभ घड़ी में जागना शुरू करें -

धार्मिक महत्व - व्यावहारिक रूप से यह समय सुबह सूर्योदय से पहले चार या पांच बजे के बीच माना जाता है। किंतु शास्त्रों में साफ बताया गया है कि रात के आखिरी प्रहर का तीसरा हिस्सा या चार घड़ी तड़के ही ब्रह्ममुहूर्त होता है।

मान्यता है कि इस वक्त जागकर इष्ट या भगवान की पूजा, ध्यान और पवित्र कर्म करना बहुत शुभ होता है। क्योंकि इस समय ज्ञान, विवेक, शांति, ताजगी, निरोग और सुंदर शरीर, सुख और ऊर्जा के रूप में ईश्वर कृपा बरसाते हैं। भगवान के स्मरण के बाद दही, घी, आईना, सफेद सरसों, बैल, फूलमाला के दर्शन भी इस काल में बहुत पुण्य देते हैं।

पौराणिक महत्व - वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्री हनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।

व्यावहारिक महत्व - व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।

इस तरह युवा पीढ़ी शौक-मौज या आलस्य के कारण देर तक सोने के बजाय इस खास वक्त का फायदा उठाकर बेहतर सेहत, सुख, शांति और नतीजों को पा सकती है।

1 सूत्र! जो बेहद आसान बना देता है सफलता व तरक्की की राह
कामयाबी व तरक्की की चाहत किसे नहीं होती? चूंकि तरक्की के रास्ते ही कामयाबी का ऊँचा मक़ाम पाना संभव है। इसलिए हर व्यक्ति द्वारा आगे बढऩे की कवायद अलग-अलग तरीकों से की जाती है। जिससे कुछ लोगों को कामयाबी आसानी से नसीब होती दिखाई देती है, तो कुछ लोगों के लिए सफलता की डगर बेहद कठिन भी होती है।

सवाल यह उठता है कि सफलता की राह सरल या कठिन बनाने में कौन-सी बातें निर्णायक हो जाती है? असल में इसके लिए चाहत ही काफी नहीं होती बल्कि सबसे अहम बात है सही सोच और सही दिशा में की गई कोशिश। जिनके साथ स्थिति, हालात और सुविधाएं कामयाबी में सहारा बन जाती हैं।

हिन्दू धर्म शास्त्रों में तरक्की की सीढिय़ों पर चढऩे के लिए ही ऐसे सरल सूत्रों को बताया गया है, जो व्यावहारिक और सांसारिक जीवन के लिए भी सटीक बैठते हैं। जानें वेदों में बताए इन बेहतरीन सूत्रों को -

वेदों में लिखा है -

आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम।

इस एक वेद सूत्र का सरल शब्दों में निचोड़ यही है कि -

- आगे बढऩे के लिए हमेशा सफल, विद्वान और बुद्धिमानों को प्रेरणा बनाकर कोशिश करें।

- हमेशा दिमाग में आगे बढऩे या बड़े लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सिलसिलेवार छोटे-छोटे लक्ष्य को बनाना और पाना बेहतर तरीका है।

- यही नहीं अपने बराबर वालों से आगे बढऩा बेहतर होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी को कमतर जताकर या बताकर आगे बढ़े। बल्कि इस बात का ज्ञान के नजरिए से मतलब है कि कुशल लोगों से प्रतियोगिता कर उनसे कुछ सीखकर आप भी बेहतर बन अच्छे नतीजे पा सकते हैं।

- दूसरी बात कि नासमझ, अज्ञानी लोगों से बराबरी या तुलना कर तरक्की की कोई कोशिश न करें। क्योंकि उनको ज्ञान देना खुद का समय और ऊर्जा बर्बाद करना होता है। जिससे आप अपने मकसद से भी भटक सकते हैं।

हिरण के पेट से क्यों लिया एक ऋषि ने जन्म?
महाभारत के अनुसार एक बार युधिष्ठिर नन्दा और अपरनन्दा नाम की नदियों पर गए जो हर प्रकार से पाप और भय को नष्ट करने वाली थी। तब लोमेशजी ने युधिष्ठिर से कहा राजन- इस नदी में स्नान करने वाला हर तरह के पाप से मुक्त हो जाता है। यह सुनकर युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ उस नदी में स्नान किया।

उसके बाद वे लोग कौशिक नदी के किनारे गए। वहां जाकर लोमेशजी ने युधिष्ठिर से कहा- इस नदी के किनारे आपको जो आश्रम दिखाई दे रहा है। वह कश्यप मुनि का है। महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋषिश्रृंग का आश्रम भी यहीं है। उन्होंने एक बार अपने तप के प्रभाव से वर्षा को रोक दिया था। वे परमतेजस्वी हैं। उन्होंने विभाण्डकमुनि और मृगी के उदर से जन्म लिया है।

तब युधिष्ठिर ने कहा लेकिन पशुजाति के साथ योनी संसर्ग होना तो शास्त्रों की दृष्टी से गलत है। तब लोमेशजी बोले महर्षि विभाण्डक बड़े ही साधुस्वभाव और प्रजापति के समान तेजस्वी थे। उनका वीर्य अमोघ था। तपस्या के कारण अंत:करण शुद्ध हो गया। एक बार वे एक सरोवर पर स्नान करने लगे। वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित को गया।इतने में ही वहां एक प्यासी मृगी आई वह जल के साथ वीर्य भी पी गई। इससे उसका गर्भ ठहर गया। वास्तव में वह एक देवकन्या थी। इसे शाप देते हुए कहा था कि तू मृगजाति में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को उत्पन्न करेगी। तब शाप से छूट जाएगी। विधि का विधान अटल है। इसी से महामुनि ऋषिश्रृंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके सिर पर एक सींग था। इसलिए उनके मन में हमेशा ब्रम्हचर्य रहता था।

ये 8 गुण चमका देते हैं पुरुषों की किस्मत
अक्सर हमारे आस-पास हम ऐसे अनेक व्यक्तियों को देखते हैं, जिनको अपनी योग्यता और ताकत के मुताबिक सफलता नसीब नहीं होती। व्यावहारिक रूप से इसके अनेक कारण हो सकते हैं। जिनमें स्थिति, समय, सुविधा और प्रयास भी अहम हैं। किंतु धर्म के नजरिए से खासतौर पर पुरुषों के बारे में विचार करें तो किसी पुरुष की तरक्की और सफलता में कुछ खास गुण निर्णायक होते हैं।

हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में अनेक वीर और असाधारण पुरुष पात्रों के बारे में लिखा गया है। इसी महाग्रंथ के मुताबिक पुरुष में कुछ खास गुणों का होना उसे हमेशा सम्मान और ऊंचे पद का हकदार बनाते हैं। जानते हैं पुरुषों के लिए जरूरी ऐसे आठ गुणों को -

बुद्धि - बुद्धिमानी यानि अक्लमंदी पुरुष को किसी भी बुरे वक्त या समस्याओं से बाहर निकालकर सफलता व यश देने वाली होती है।

दम - हौंसला, ताकत, जोश और उत्साह किसी भी लक्ष्य को भेदने में निर्णायक होता है।

कुलीनता - पुरुष का अच्छे कुल का होना और उसके अच्छे संस्कार, आचरण, कर्म और विचार उसका मान बढ़ाते हैं।

ज्ञानी - पुरुष का ज्ञानी यानी शिक्षित और जानकार होना। खासतौर पर शास्त्रों की शिक्षा और उनकी व्यावहारिक समझ पुरुष को प्रतिष्ठा दिलाती है।

अधिक न बोलना - वाचालता या अधिक बोलना दोष बन जाता है। इसलिए पुरुष का कम और मीठा बोलना उसे सम्माननीय बनाता है।

दानी - दान करने वाला व्यक्ति दूसरों का सम्मान और प्रेम पाता है।

उपकार मानने वाला - किसी की मदद को याद रख उसके प्रति समर्पण रखने वाला कृतज्ञ पुरुष सभी का सम्मान पाता है।

वीरता - भय और कायरता को दूर रखने वाला बहादुर या पराक्रमी पुरुष आत्मविश्वास से भरा होता है, जो जीवन के हर कदम पर बहुत जरूरी होता है।

स्त्री के ऐसे रहन-सहन से हो जाता है गृहस्थी का बेड़ागर्क
सनातन धर्म में स्त्री को शक्ति और लक्ष्मी स्वरूपा माना गया है। यही कारण है कि गृहस्थ जीवन की खुशहाली और बदहाली पुरूष ही नहीं स्त्री के श्रेष्ठ आचरण, व्यवहार और चरित्र पर भी निर्भर है। स्त्री परिवार की जिम्मेदारियों की बागडोर संभाल अपने तन के साथ मन और धन के संतुलन व प्रबंधन से शक्ति बन परिवार में खुशियां बनाए रखती है।

इसी तरह हिन्दू धर्म में भी देवी लक्ष्मी ऐश्वर्य, धन और सुख-समृद्धि देने वाली मानी जाती है और यह भी मान्यता है कि वह दरिद्रता पसंद नहीं करती। इसलिए शास्त्रों में भी सांसारिक नजरिए से विवाहित या अविवाहित लक्ष्मी स्वरूपा स्त्री के लिए स्वयं के साथ घर-परिवार को भी बदहाली से बचाने के लिए बोल, व्यवहार से जुड़ी कुछ बुरी बातों से दूर रहने की सीख दी गई है। जिसके लिए दरिद्र बनाने वाली ऐसी स्त्रियों के लक्षण भी उजागर किए गए हैं -

- जो स्त्री हमेशा पति के खिलाफ़ काम करे।

- पति को कटु बोल बोलती है।

- पति को तरह-तरह से दु:ख देती है।

- लज्जाहीन स्त्री, झकडालू, गुस्सैल

- चिढ़चिढ़ी और निर्मम

- पति का घर छोड़कर दूसरे के घर में रहना पसंद करे।

- बड़ों का अपमान करने वाली

- परपुरूष को पसंद करे।

- आलसी और अस्वच्छ रहने वाली

- वाचाल यानी ज्यादा बोलने वाली

- घर का सामान इधर-उधर फेंकने वाली

- अधिक सोने वाली

- घर को अस्त-व्यस्त रखने वाली

- अनजान लोगों से अनावश्यक बात करने वाली

यह 1 बात है बिगड़े रिश्तों को सुधारने का आसान उपाय
जीवन में समाज, कार्यक्षेत्र में मेल-मिलाप या अपनों के बीच ही उठने-बैठने के दौरान बातों, विचारों या व्यवहार को लेकर दूसरों से मतभेद पैदा होते हैं। स्वार्थ पूर्ति न होना भी इसका कारण हो सकता है। लेकिन इससे आख़िर में व्यक्ति ही नहीं उससे जुड़े लोग भी एक-दूसरों को दोषी मानकर मन में दुर्भाव बना लेते हैं। ऐसी भावना असल में व्यक्ति विशेष को ही ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। क्योंकि खराब मनोदशा व्यक्ति को अपने कार्य और लक्ष्य से दूर कर बुरे नतीजे देती है।

सवाल यह बनता है कि क्या ऐसा संभव है कि व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में ऐसी स्थितियों से बचकर संतुलित और सफल जीवन बीता सके? इस बात का हल रामचरित मानस में लिखे एक प्रसंग में मिल सकता है। जानते हैं वह चौपाई और प्रसंग का संदेश -

बोले लखन मधुर मृदु बानी, ग्यान बिराग भगति रस सानी।

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता, निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

इस प्रसंग के मुताबिक राम, लक्ष्मण और सीता को वनवास के दौरान कष्ट में देख जब निषादराज माता कैकई को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मण निषादराज को ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से भरी बात कहते हुए समझाते हैं कि कोई किसी को सुखी या दु:खी नहीं करता बल्कि सभी अपने किए गए कर्मों का फल भोगते हैं।

इस चौपाई में संदेश यही है कि स्वार्थ या हितपूर्ति की सोच में व्यक्ति या समूह एक-दूसरे को दोषी मानकर कुछ भी फैसला या प्रतिक्रिया करने से पहले यह जरूर सोच-विचार करे कि उस बात के लिए वह स्वयं कितने जिम्मेदार है। ऐसा करने से मन में आए क्रोध, द्वेष या कटु भावना घटती है। मन अशांत नहीं होता, सोच सही दिशा में जाती है और संबंधों में मिठास आती है

ऐसी सोच बनाती है साहसी, जुझारू और सफल
हर इंसान के जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब वह हालात से जूझता हुआ दिखाई देता है। कुछ लोग अपनी हिम्मत और जज्बे से समय को बदलकर अपना बना लेते हैं, तो कुछ टूटकर बिखर भी जाते हैं। किंतु जीवन के प्रति सही और सकारात्मक सोच रखी जाए तो हर मुश्किलों से पार पाना संभव है। शास्त्रों में ऐसे ही अनमोल सूत्रों को बताया गया है, जिनसे किसी भी अशांत स्थिति में इंसान अपना संतुलन बनाए रख सकता है।

ऋग्वेद का एक बेहतरीन सूत्र है -

विश्वाउत त्वया वयं धारा उदन्या इव। अति गाहे महि द्विष:।।

जिसका सरल शब्दों में यही संदेश है कि जीवन में अनेक परेशानियां, मुसीबतें और जिम्मेदारियां या शत्रु रुकावटे पैदा करते हैं। किंतु ईश्वर व खुद पर भरोसे के दम पर इन पर काबू पाया जा सकता है। ठीक उसी तरह जैसे तमाम झोंको के बीच नाव से नदी पार की जाती है।

यहां दो बातें साफ हो जाती हैं कि संकट और मुसीबतों से बाहर आने के लिए खुद पर विश्वास और भगवान के प्रति आस्था व श्रद्धा सबसे बड़ी ताकत है। यह शक्ति तभी संभव है जब इंसान शांत चित्त रहने का अभ्यास करें। क्योंकि अशांत मन से पैदा हुए तरह-तरह के दोषों, चिंता और घबराहट से इंसान डगमगा जाता है। इसके उल्टे शांत दिमाग से सोच, ऊर्जा और एकाग्रता के संतुलन द्वारा बुरे वक्त को भी आसानी से बदला जा सकता है।

अगर कायम रखना है कामयाबी और ताकत तो..
हर इंसान की ताकत जो नहीं है, उसको पाने और जो पा लिया, उसे बचाने की कवायद में खर्च हो जाती है। सफलता पाने और उसे कायम रखने पर भी यही बात लागू होती है। सफलता के लिए व्यक्ति जद्दोजहद करता है और जब कामयाबी की मंजिल को छू लेता है, तो वहां पर बने रहने का संघर्ष शुरू हो जाता है।

सवाल यही बनता है कि व्यक्ति ऐसा क्या करे कि ताकत और कामयाबी दोनों ही कायम रहे? हिन्दू धर्म शास्त्रों में इनका जवाब बेहतर तरीके से ढूंढा जा सकता है। जिनमें आए कुछ प्रसंग साफ करते हैं कि ताकत और सफलता को संभाल पाना आसान नहीं है।

शास्त्रों में बताए कुछ अधर्मी चरित्र जिनमें रावण से लेकर कंस और दुर्योधन से लेकर शिशुपाल के जीवन चरित्र बताते हैं कि शक्ति, सफलता और तमाम सुखों को पाने के बाद दूसरों को कमतर समझने से पैदा दंभ या अहं उनके अंत का कारण बना।

इन चरित्रों से यही सूत्र मिलते है कि सफल होकर या शक्ति पाने पर उसके हर्ष या मद में इतना न डूब जाएं कि उससे पैदा हुआ अहं आपको आगे बढ़ाने के बजाए पीछे धकेल दे या कामयाबी का सफर रोक दे। इसलिए अगर लगातार सफलता की चाहत है तो इसके लिए सबसे जरूरी है कि कामयाबी मिलने पर सरल, विनम्र और शांत रहें। अहंकारी या घमण्डी न बने, बल्कि हितपूर्ति की भावना को दूर रख उससे दूसरों को भी मदद और राहत देने की भावना से आगे बढ़ें। कामयाब होने पर भी अपने दोष या कमियों पर ध्यान दें और दूर करें।

यह बातें सफलता को पाने के बाद भी आपको मन और व्यवहार दोनों तरह से संतुलित और शांत रखेगी। जिससे आप पूरी तरह से एकाग्र, स्थिर, सजग, योजना और सहयोग के साथ सफलता के सिलसिले को जारी रख पाएंगे।

अगर रोज चूके ये 5 शुभ काम..तो तय है बर्बादी
जीवन में अच्छे नतीजों के लिये जरूरी है - बेहतर कोशिशें और असफलताओं से सबक लेकर कमियों और दोषों में सुधार करना। किंतु इंसान का स्वभाव होता है कि वह सुखों की आस लगाए रहता है, किंतु दु:खों का कारण बनने वाली अपनी कमजोरियों के बारे में सोचने से बचता रहता है। सोच का अभाव दोष स्वीकार नहीं करने देता और मनचाहे सुख पाने में बाधाएं पैदा होती है।

शास्त्रों में इंसान को दोष और बुराईयों से बचकर ऐसे ही सुख पाने के लिये कुछ सीख दी गई हैं। जिनको व्यावहारिक जीवन में अपनाना किसी भी व्यक्ति के लिये शुभ और मनवांछित नतीजे देने वाली साबित होती है।

मनुस्मृति में लिखा गया है कि -

अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।

एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वर्ण्यैब्रवीन्मनु:।।

सरल शब्दों में समझें तो जीवन में बुरे समय और परिणामों से बचने के लिये इन पांच बातों को मन, वचन, कर्म से हर रोज जोडऩा चाहिए -

हिंसा से बचें - शरीर पर आघात ही नहीं बुरे शब्द या विचार भी हिंसा होते हैं, जो जीवन को अशांत कर बुरे फल देते हैं।

सच बोलें - सत्य बोल और व्यवहार से इंसान विश्वास और सम्मान पाता है।

चोरी से बचें - धन ही नहीं किसी के जीवन, मान-सम्मान, विचार से जुड़े विषय या वस्तुओं पर लाभ के लिए अधिकार या अपहरण भी धर्म के नजरिए से चोरी है, जो दु:खों का कारण बनती है।

स्वच्छता रखें - मन व शरीर में पवित्रता शांत, सुखी व स्वस्थ्य जीवन के लिए जरूरी है।

संयम रखें - इंद्रिय संयम सरल शब्दों में कहें तो शौक-मौज, विलासिता से भरे जीवन के आकर्षण में तन और मन को भटकाने से अंतत: जीवन रोग, दु:ख और पीड़ाओं से घिर जाता है। इसलिए मन और शरीर की इच्छाओं को काबू में रखें।

गुप्त नवरात्रि कल से, मिल सकती हैं चमत्कारी शक्तियां
हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है लेकिन आमजन केवल दो नवरात्रि (चैत्र व शारदीय नवरात्रि) के बारे में ही जानते हैं। आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि कहा जाता है। इस बार माघ मास की गुप्त नवरात्रि 24 जनवरी, मंगलवार से प्रारंभ हो रही है।

आषाढ़ मास की गुप्त नवरात्रि का समय शाक्य एवं शैव धर्मावलंबियों के लिए पैशाचिक, वामाचारी क्रियाओं के लिए अधिक शुभ एवं उपयुक्त होता है। इसमें प्रलय एवं संहार के देवता महाकाल एवं महाकाली की पूजा की जाती है। इन्हीं संहारकर्ता देवी-देवताओं के गणों एवं गणिकाओं अर्थात भूत-प्रेत, पिशाच, बैताल, डाकिनी, शाकिनी, खण्डगी, शूलनी, शववाहनी, शवरूढ़ा आदि की साधना की जाती है। ऐसी साधनाएं शाक्त मतानुसार शीघ्र ही सफल होती है। दक्षिणी साधना, योगिनी साधना, भैरवी साधना के साथ पंचमकार की साधना इसी नवरात्रि में की जाती है।

आषाढ़ मास की नवरात्रि की तरह माघ मास की नवरात्रि को भी गुप्त नवरात्रि कहते हैं। लेकिन इन दोनों में काफी भिन्नताएं हैं। आषाढ़ मास की नवरात्रि में जहां वामाचार उपासना की जाती है वहीं माघ मास की नवरात्रि में वामाचार पद्धति को अधिक मान्यता नहीं दी गई है। ग्रंथों के अनुसार माघ मास के शुक्ल पक्ष का विशेष महत्व है। शुक्ल पक्ष की पंचमी को ही देवी सरस्वती प्रकट हुई थीं। इन्हीं कारणों से माघ मास की नवरात्रि में सनातन, वैदिक रीति के अनुसार देवी साधना करने का विधान निश्चित किया गया है।

यमपुरी में कौन से पाप की क्या सजा मिलती है?
जिंदगी में सभी के अपने कायदे या सिद्धांत होते हैं। हर व्यक्ति का जीवन जीने का अपना तरीका है। जो बात किसी के लिये उसका कर्तव्य और धर्म है वह किसी के लिये घोर पाप या नीच कृत्य हो सकता है। लेकिन शास्त्रों के अनुसार जिन कर्मों को पाप माना गया है उसकी सजा उसे अपनी मृत्यु के बाद मिलती है। किस पाप की क्या सजा मिलती है। इसका वर्णन गरूड़ पुराण में कुछ इस प्रकार दिया हुआ है। गरुड़ जी बोले- भगवान जीवों को उनके कौन से पाप कौन सी सजा मिलती है। वे किन अगला जन्म किस रूप में लेते हैं व भी बताइए।

भगवान कहते हैं गरूड़ ध्यान से सुनो-

- ब्रह्महत्या करने वाला क्षयरोगी।

- गाय की हत्या करने वाले कुबड़ा।

- कन्या की हत्या करने वाला कोढ़ी।

- स्त्री पर हाथ उठाने वाला रोगी।

- परस्त्री गमन करने वाला नपुंसक।

- गुरुपत्नी सेवन से खराब शरीर वाला।

- मांस खाने व मदिरा पीने वाले के दांत काले व अंग लाल होते हैं।

- दूसरे को न देकर अकेले मिठाई खाने वाले को गले का रोगी।

- घमंड से गुरु का अपमान करने वाले को मिरगी।

- झूठी गवाही देने वाला गूंगा।

- किताब चोरी करने वाला जन्मांध।

- झूठ बोलने वाला बहरा।

- जहर देने वाला पागल होता है।

- अन्न चोरी करने वाला चूहा।

- इत्र की चोरी करने वाले छछुंदर।

- जहर पीकर मरन वाले काले सांप।

- किसी की आज्ञा नहीं मानते वे निर्जन वन में हाथी होते हैं।

- ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करते वे अगले जन्म में बगुला होते हैं।

- पति को बुरा-भला कहने वाली जूं बनती है।

- परपुरूष की कामना रखने वाली स्त्री चमगादड़ बनती है।

- मृतक के ग्यारहवे में भोजन करने वाला कुत्ता बनता है।

- मित्र की पत्नी से मोह रखने वाले गधा बनता है।

वसंत पंचमी 28 को, करें मां सरस्वती की उपासना
माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को वसंत पंचमी कहते हैं। इस दिन ज्ञान की देवी मां सरस्वती की उपासना विशेष रूप से की जाती है। इस पर्व को वसंत उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 28 जनवरी, शनिवार को है।

पुरातन समय में इसी दिन बालकों को उपनयन संस्कार कर पढ़ाई के लिए गुरुकुल भेजा जाता था। उसी परंपरा का अनुसरण करते हुए वर्तमान में भी इसी दिन विद्यालयों में सरस्वती पूजा की जाती है। ऋग्वेद में देवी सरस्वती को पवित्रता, शुद्धि, ज्ञान तथा बुद्धि प्रदान करने वाली बताया गया है। मत्स्यपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, मार्कण्डेयपुराण, स्कंदपुराण, विष्णुर्मोत्तरपुराण तथा अन्य ग्रंथों में भी देवी सरस्वती की महिमा का वर्णन किया गया है।

इन धर्मग्रंथों में देवी सरस्वती को सतरूपा, शारदा, वीणापाणि, वाग्देवी, भारती, प्रज्ञापारमिता, वागीश्वरी आदि नामों से भी संबोधित किया गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार पृथ्वी पर देवी सरस्वती का पूजन सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण ने ही किया था। अन्य धर्मग्रंथों के अनुसार वाल्मीकि, देवगुरु बृहस्पति तथा महर्षि भृगु को क्रमश: नारायण, मारीच तथा ब्रह्मा ने ही सरस्वती मंत्र दिया था। देवी सरस्वती का वाहन हंस स्वच्छ छवि तथा हाथ में वीणा मधुर वाणी का प्रतीक है।

ये बातें सीखें मां सरस्वती के वाहन हंस से
वसंत पंचमी (28 जनवरी, शनिवार) के अवसर पर देवी सरस्वती की पूजा अर्चना की जाती है। धर्मशास्त्रों के अनुसार मां सरस्वती का वाहन सफेद हंस है इसलिए उन्हें हंस पर बैठा हुआ प्रदर्शित किया जाता है। यही कारण है कि देवी सरस्वती को हंसवाहिनी भी कहा जाता है।

देवी का वाहन हंस हमें कुछ संदेश भी देता है। शास्त्रों के अनुसार देवी सरस्वती विद्या की देवी हैं और उनका स्वरूप श्वेत वर्ण बताया गया है। उनका वाहन भी सफेद हंस ही है। सफेद रंग शांति और पवित्रता का प्रतीक है। यह रंग शिक्षा देता है कि अच्छी विद्या और संस्कार के लिए आवश्यक है कि आपका मन शांत और पवित्र हो। आज के समय में सभी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करना होती है। मेहनत के साथ ही माता सरस्वती की कृपा भी उतनी आवश्यक है।

मां सरस्वती से जानिए कैसा होना चाहिए विद्यार्थी जीवन
स्कूल, कॉलेजों और अन्य शिक्षण संस्थानों में देवी सरस्वती का चित्र विशेष तौर पर लगाया जाता है। कमल पर बैठी, एक हाथ में वीणा, एक हाथ में पुस्तक, एक हाथ में माला, पीछे मोर, एकांत, नदी किनारे, सफेद कपड़ों में। देवी सरस्वती के इस चित्र के पीछे विद्यार्थी जीवन के कई गूढ़ रहस्य जीवन छिपे हैं। जो इस प्रकार हैं-

- मां सरस्वती हमेशा सफेद कपड़ों में होती है। इसके दो संकेत हैं पहला हमारा ज्ञान निर्मल हो, विकृत न हो। जो भी ज्ञान अर्जित करें वह सकारात्मक हो। दूसरा संकेत हमारे चरित्र को लेकर है। विद्यार्थी जीवन में कोई दुर्गुण हमारे चरित्र में न हो। वह एकदम साफ हो।

- एक हाथ में पुस्तक, संदेश देती है कि हमारा लगाव पुस्तकों के प्रति, साहित्य के प्रति हो। विद्यार्थी कभी पुस्तकों से अलग न हो, भौतिक रूप से भले ही कभी किताबों से दूर रहे लेकिन हमेशा मानसिक रूप से किताबों के साथ रहे।

- एक हाथ में माला है, यह बताती है कि हमें हमेशा चिंतन में रहना चाहिए, जो ज्ञान अर्जित कर रहे हैं, उसका लगातार मनन करते रहें, इससे आपकी मेधा बढ़ेगी।

- दो हाथों से वीणा का वादन, यह संकेत करता है कि विद्यार्थी जीवन में ही संगीत जैसी ललित कलाओं प्रति भी हमारी रुचि होनी चाहिए। संगीत हमारी याददाश्त बढ़ाने में भी सहायक होता है।

- सरस्वती नदी किनारे एकांत में बैठी है, यह संकेत है कि विद्यार्जन के लिए एकांत भी आवश्यक है। विद्यार्थी को थोड़ा समय एकांत में भी बिताना चाहिए।

- सरस्वती के पीछे सूरज भी उगता दिखाई देता है, यह बताता है कि पढ़ाई के लिए सुबह का समय ही श्रेष्ठ है।

- सरस्वती के सामने दो हंस हैं, ये बुद्धि के प्रतीक हैं, हमारी बुद्धि रचनात्मक और विश्लेषणात्मक दोनों होनी चाहिए।

इन बातों में है हर स्त्री की सफलता का राज
आज महिलाएं हर क्षेत्र में अपने गुण, योग्यता और ताकत का लोहा मनवा रही है। जिससे वे सारी दकियानूसी सोच और परंपराएं पीछे छूटती चली जा रही हैं, जिससे घर की दहलीज के अंदर स्त्री की जिंदगी तमाम हो जाती है। इस बात का मतलब यह कतई नहीं है कि आज कामकाजी स्त्रियां बेहतर और गृहस्थ महिला कमतर हैं, बल्कि यही बताना है कि स्त्रियां दोनों ही रूपों में समान रूप और जज्बे से जिम्मेदारियों को पूरा करती है।

धर्म शास्त्रों में भी ऐसी ही अनेक गृहस्थ और पतिव्रता स्त्रियों के बारे में लिखा गया है, जो आज भी हर नारी के लिए आदर्श और प्रेरणा है। भारतीय संस्कृति में ही ऐसे ही गुणों के लिए शक्ति रूपा माता सीता को याद किया जाता है। अनेक लोग माता सीता के जीवन को संघर्ष से भरा भी मानते हैं, लेकिन असल में उनके ऐसे ही जीवन में हर कामकाजी या गृहस्थ स्त्री के लिए बेहतर और संतुलित जीवन के अनमोल सूत्र छुपे हैं। जानते हैं ये संदेश -

- माता सीता ने असाधारण पातिव्रत्य धर्म का पालन किया। वनवास श्रीराम को मिला, किंतु सीता ने महल के सारे सुख और दौलत के ऊपर पति का साथ सही माना।

- वनवास के दौरान रावण द्वारा हरण के बाद और अशोक वाटिका में रहने के दौरान शील, सहनशीलता, साहस और धर्म का पालन करने से नहीं चूकीं। उन्होंने रावण की ताकत और वैभव के आगे अपने पति श्रीराम और उनकी शक्ति के प्रति पूरा विश्वास ही नहीं रखा बल्कि अपने शील और साहस के बल पर रावण को भी झुकने को मजबूर किया।

- श्रीराम के द्वारा त्याग करने पर भी उस फैसले को कुल के सम्मान के लिए बिना किसी को दोषी ठहराए सीता ने पूरी सहनशीलता के साथ स्वीकार कर धर्म का पालन किया।

इन बातों का निचोड़ यही है कि आज की स्त्री भी सीता के पावन चरित्र की तरह ही सेवा, संयम, त्याग, शालीनता, अच्छे व्यवहार, हिम्मत, निर्भयता, क्षमा और शांति को जीवन में स्थान देकर कामकाजी और दाम्पत्य जीवन के बीच संतुलन के साथ सफलता और सम्मान भी पा सकती है।

श्री गणेश के इस अनूठे रूप से सीखें बुराई और बुरे लोगों से निपटने के गुर
हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश बुद्धि, श्री यानी सुख-समृद्धि और विद्या के दाता हैं। उनकी उपासना और स्वरूप मंगलकारी माने गए हैं। दरअसल, श्री गणेश उपासना में व्यावहारिक संकेत यही है कि शुभ, मंगल और सकारात्मक विचारों से किसी कार्य का आगाज किया जाए तो उसे सफलतापूर्वक अंजाम देकर नियत लक्ष्य पाना तय हो जाता है।

बहरहाल, श्री गणेश के प्रेरणादायी स्वरूप और शक्तियों की बात करें तो शास्त्रों में श्री गणेश के प्रमुख नामों में विकट भी बहुत ही मंगलकारी माना गया है। गणेश के इस नाम का शाब्दिक अर्थ - भयानक या भयंकर होता है। क्योंकि श्री गणेश की शारीरिक रचना में मुख हाथी का तो धड़ पुरुष का है। सांसारिक दृष्टि से यह विकट स्वरूप ही माना जाता है। किंतु इसमें धर्म और व्यावहारिक जीवन से जुड़े गुढ़ संदेश है।

धार्मिक आस्था से श्री गणेश विघ्रहर्ता है। इसलिए माना जाता है कि वह बुरे वक्त, संकट और विघ्रों का भयंकर या विकट स्वरूप में अंत करते हैं। आस्था से जुड़ी यही बात व्यावहारिक जीवन का एक सूत्र बताती है कि धर्म के नजरिए से तो सज्जनता ही सदा सुख देने वाली होती है, लेकिन जीवन में अनेक अवसरों पर दुर्जन और तामसी वृत्तियों के सामने या उनके बुरे कर्मों के अंत के लिये श्री गणेश के विकट स्वरूप की भांति स्वभाव, व्यवहार और वचन से कठोर या भयंकर बनकर धर्म की रक्षा जरूर करना चाहिए।

इस तरह सांसारिक जीवन के लिये श्री गणेश का विकट स्वरूप निर्भय और कर्मशील बन आगे बढऩे की ही प्रेरणा देता है।

जानिए, क्या और कौन-सी हैं चमत्कारी महाविद्याएं?
वास्तव में मन शक्ति के अधीन होता है। इसी शक्ति का एक रुप है विद्या। विद्या के भी तीन रुप हैं- विद्या, अविद्या और महाविद्या। ये तीन शब्द भी प्रतीक रूप हैं। इनमें मुक्ति का रास्ता बताने वाली विद्या कहलाती है यानी विद्या ज्ञान रूपी है। इसी प्रकार अविद्या वह सांसारिक ज्ञान है, जो हमारे लौकिक व्यवहार से जुड़ा है यानी अविद्या मोह पैदा करने वाली होती है।

महाविद्या इन दोनों विद्याओं से भी श्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि जो भक्त जिस इच्छा से इसकी साधना करता है, उसकी वह इच्छा पूरी होती है। संतान, धन, ज्ञान और मोक्ष महाविद्या की साधना से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार महाविद्या सभी प्राणियों को भोग और मोक्ष प्रदान करती है।

साल की चार नवरात्रियों (चैत्र, अश्विन, आषाढ और माघ माह) में नवदुर्गा के साथ दस महाविद्याओं की उपासना का भी शुभ काल माना जाता है। जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि यह विद्या का ही एक रूप है। जानते हैं धर्मग्रंथों में बताई इन अलग-अलग महाविद्याओं के साथ उनकी शिव-शक्तियों को -

शाक्त तंत्र में दस महाविद्याओं का महत्व बताया गया है। यह आदिशक्ति भगवती के ही रूप है, जो अपने स्वभाव के अनुसार लोक-परलोक दोनों तरह की सिद्धि देने वाली मानी जाती है। ये दस महाविद्याएं हैं -

1. काली 2. तारा 3. षोडशी त्रिपुरसुन्दरी 4. भुवनेश्वरी (श्रीविद्या/ललिता) 5. छिन्नमस्ता 6. भैरवी (त्रिपुर भैरवी) 7. धूमावती 8. बगला (बगलामुखी) 9. मातंगी 10. कमला (लक्ष्मी)

इन सभी महाविद्याओं के अलग-अलग शिव भी बताए गए हैं, जो इस प्रकार हैं - काली के शिव महाकाल, तारा के अक्षोभ्य, षोडशी के पंचवक्त्र, छिन्नमस्ता के कबंध, भैरवी के दक्षिणामूर्ति, बगला के एकमुख महारुद्र, मातंगी के मतंग और कमला के सदाशिव श्री विष्णु माने जाते हैं।

धार्मिक आस्था है कि आदिशक्ति भगवती स्वरूप इन दस महाविद्याओं की भक्ति करने वाला भक्त सभी भौतिक सुखों को पाकर जनम-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है।

भगवान की भक्ति के इस 1 सूत्र से बन सकते हैं अमर..!
भक्त का भगवान से हो या इंसान का इंसान से हर रिश्ता विश्वास की मजबूत नींव पर खड़ा रहता है। किसी भी रूप में यह भरोसा कमजोर होते ही व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में उथल-पुथल मच जाती है।

यही कारण है कि रिश्तों में विश्वास को कायम रखने के लिए जिस सूत्र को जीवन में उतारने, अपनाने के लिए सबसे जरूरी माना गया है। वह सूत्र चरित्र, व्यक्तित्व, व्यवहार और विचार को इतना पावन बना देता है कि इंसान को शक्ति और आत्मविश्वास से भर हमेशा निर्भय रखता है। शास्त्रों में बताया यह बेजोड़ सूत्र है - सत्य को अपनाना।

शास्त्रों के मुताबिक सत्य ही भगवान है। इसलिए आचरण, विचार, वाणी, कर्म, संकल्प सभी में सत्य का होना ईश्वर का जप ही है। फिर इंसान अगर देव उपासना के धार्मिक कर्मकाण्डों से चूक भी जाए तो भी वह भगवान का कृपा पात्र बना रहता है।

हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में भी सत्य की अहमियत बताते हुए लिखा गया है कि -

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

सरल अर्थ है कि असत्य नाशवान होता है, बल्कि सत्य का कभी नाश नहीं होता, वह अपरिवर्तनशील है।

फिर भी सांसारिक जीवन में नाशवान पदार्थोँ से इंसान मोह करता है, किंतु सत्य जैसे अमरत्व का सूत्र अपनाने में बहुत विचार और तर्क करता है। जबकि सत्य को संकल्प के साथ अपनाने की कोशिश क रे तो वह इंसान की ताकत बन जीवन में शांति व सुख लाकर प्रतिष्ठा और यश का कारण बनते हैं।

इस तरह रखें मन पर काबू, तो न होगा कलह, पाप या संताप
मन पर काबू करना तप के समान माना गया है। मन को साधने पर जीवन सही दिशा में चलने लगता है। सांसारिक जीवन में रस, रूप, गंध जैसे अनेक सुखों की ओर खिंचाव से भटकने वाले चंचल स्वभाव के मन पर संयम और अनुशासन से ऐसा संभव हो पाता है।

दरअसल, हर इंसान दूसरों से तो साफ मन की उम्मीद रखता है। किंतु स्वयं ऐसा करने में पूरी तरह संकल्पित नहीं हो पाता। क्योंकि व्यवहार और स्वभाव से जुड़े कुछ दोष मन पर इतने हावी हो जाते हैं कि मन की पावनता व सहजता कहीं खो जाती है। जिससे न केवल रिश्तों और संबंधों में कलह घुलता है, बल्कि इंसान व्यक्तिगत रूप से भी अशांत और बेचैन रहता है। जानते हैं इनमें से ही एक स्वाभाविक दोष, जिससे दूर रह न केवल मन को ऊर्जावान रखा जा सकता है, बल्कि कलह और पाप से भी बचा जा सकता है -

दरअसल, हर इंसान में गुण-दोष होते हैं। किंतु मानव स्वभाव यही है कि वह अपने दोषों का सामना करने से कतराता है, वहीं दूसरों की कमियों को ढूंढने में देर नहीं करता। बस, यही दोष इंसान के लिये नुकसान का कारण बन जाता है। क्योंकि दोष देखने की यह आदत मन में संबंधित के लिये द्वेष पैदा करती है। यही नहीं कमियों या दोषों पर विचार करने और द्वेषता से उसका मन उसी दोष से घिर जाता है। इस तरह इंसान चिंतन और व्यवहार से अशांत हो जाता है।

इस दोष से दूर रहने का ही सबसे बेहतर उपाय यही है कि दोष के स्थान पर गुणों पर गौर करें। क्योंकि दोष दर्शन से गुण भी नजरअंदाज हो जाते हैं। किंतु गुणों को ढूंढने की आदत बना लेने पर सकारात्मक पक्ष या गुण ही मिलते चले जाएंगे। क्योंकि हर इंसान में कुछ गुण अवश्य होते हैं। अच्छाई या गुणों को चुनने से न केवल इंसान मानसिक व वैचारिक रूप से स्वस्थ्य रहेगा, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी सहज हो जाएगा।

ये 8 बातें हर वक्त और जगह पर देती है सुख, शांति व सफलता
शास्त्रों के मुताबिक पाप इंसान के दु:ख और पतन का कारण, तो पुण्य सुख और तरक्की का कारण होते हैं। किंतु व्यावहारिक रूप से अक्सर यह भी देखने में आता है कि इंसान स्वार्थ, हित पूर्ति और जरूरतों या लाभ के कारण पाप और पुण्य को भी अपने मुताबिक परिभाषित करता है। जीवन की भागदौड़ भी पाप या पुण्य कर्मों पर गहराई से विचार का वक्त नहीं देती। यही कारण है सुख या दु:ख और होनी-अनहोनी का सामना इंसान को करना ही पड़ता है।

इनके बावजूद हर इंसान के अंदर अच्छाई से जुडऩे का भाव कहीं न कहीं मौजूद रहता है। शास्त्रों में मन, वचन और कर्म से जुड़े अनेक पाप-पुण्य बताए गए हैं। जिनकी गहरी जानकारी हर इंसान को नहीं होती। इसलिए यहां बताई जा रही है शास्त्रों में बताई कुछ ऐसी बातें जिनको पुण्य कर्म माना जाकर सुखी, शांत और सफल जीवन के लिए भी अहम माना गया है। यह बातें हर काल, स्थान और व्यक्ति के लिए जरूरी मानी गई है -

लिखा गया है कि -

प्राणाघातान्निवृति: परधनहरणे संयम: सत्यवाक्यं

काले शक्तया प्रदानं युवतिजनकथामूकभाव: परेषाम्।

तृष्णास्त्रोतोविभंगो गुरुषु च विनय: सर्वभूतानुकम्पा

सामान्य: सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि: श्रेयसामेष पन्था:।।

इस श्लोक का सरल शब्दों में अर्थ है कि मानव के लिये 8 बातों को मन, वचन, व्यवहार में अपनाना चाहिए। ये बाते हैं -

- सच बोलना

- शक्ति और समय के मुताबिक दान करना

- गुरु के प्रति सम्मान और नम्रता का भाव। चाहे वह गुण, उम्र या किसी भी रूप में बड़ा हो।

- सबके प्रति दया भाव रखना।

- मन में पैदा होने वाली अनुचित इच्छाओं पर काबू रखना।

- परायी स्त्री के बारे में बोलने या सुनने से बचना।

- दूसरों का धन पाने या हड़पने की भावना से दूर रहना।

- प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव अपनाना।

क्या आप जानते हैं गायत्री महामंत्र का इतना सरल अर्थ और 7 शुभ फल?
गायत्री वेदमाता है। धार्मिक दृष्टि से गायत्री उपासना सभी पापों का नाश करने वाली, आध्यात्मिक सुखों से लेकर भौतिक सुखों को देने वाली मानी गई है। गायत्री साधना में गायत्री मंत्र का महत्व है। इस मंत्र के चौबीस अक्षर न केवल 24 देवी-देवताओं के स्मरण के बीज हैं, बल्कि ये बीज अक्षर वेद, धर्मशास्त्र में बताए अद्भुत ज्ञान का आधार भी हैं।

वेदों में गायत्री मंत्र जप से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन, ब्रह्मचर्य के रूप में मिलने वाले सात फल बताए गए हैं। असल में गायत्री मंत्र ईश्वर का चिंतन, ईश्वरीय भाव को अपनाने और बुद्धि की पवित्रता की प्रार्थना है।

यहां जानते हैं इसी अद्भुत मंत्र का सरल अर्थ -

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो न: प्रचोदयात्।

ॐ - ईश्वर

भू: - प्राणस्वरूप

भुव: - दु:खनाशक

स्व: - सुख स्वरूप

तत् - उस

सवितु: - तेजस्वी

वरेण्यं - श्रेष्ठ

भर्ग: - पापनाशक

देवस्य - दिव्य

धीमहि - धारण करे

धियो - बुद्धि

यो - जो

न: - हमारी

प्रचोदयात् - प्रेरित करे

सभी को जोडऩे पर अर्थ है - उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।

ये 10 रिश्ते हैं भरपूर सफलता व सुख का मजबूत जरिया
विवेकहीनता या सही और गलत का फर्क न समझ पाने की कमजोरी जीवन को असंतुलित कर देती है। भौतिक सुखों की लालसा व ज्यादा अहमियत देना भी इंसान को अनेक तरह से अशांत करने वाली साबित होती है। जबकि शास्त्रों के नजरिए से सुख व सफलता के लिए धन या सुविधाएं ही अहम नहीं होती, बल्कि वह सारे रिश्ते, भावनाएं व देव कृपा भी महत्व रखती हैं, जिनके साथ व सहयोग से कोई व्यक्ति जीवन गुजारता है।

हिन्दू धर्म ग्रंथ रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड की चौपाई में इंसानी जीवन में रिश्तों के सही प्रबंधन के ऐसे ही सूत्र बताए गए हैं, जिनके संदेशों का पकड़ व अपनाकर भौतिक सुखों के साथ आध्यात्मिक सुख भी पाए जा सकते हैं। जानते हैं वह चौपाई और उसका अर्थ, जो श्रीराम और शरणागत विभीषण से संवाद के दौरान आई है -

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बॉंध बरि डोरी।।

शाब्दिक सरल अर्थ जानें तो इस चौपाई में श्रीराम ने स्वयं बताया है कि उनको वह प्रिय है जो माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार के ममताभरे धागों को एक सूत्र में बांधकर उनके साथ मन को मेरे चरणों में बांध देता है।

संदेश यह है कि चूंकि यहां बताए 10 रिश्तों के बिना हर इंसान का जीवन अधूरा रह जाता है। इसलिए चिंता, भय और दु:खों से दूर रहने व सुख-सफलता को स्थायी बनाने के लिए इन रिश्तों और खुशियों के साथ सही तालमेल और संतुलन रख ईश्वर का स्मरण और भक्ति की जाए तो इंसान सुख-दु:ख में समान रहना सीख हर तरह से पुख्ता भी बना रहता है। सार यही है कि गृहस्थ जीवन में सही संतुलन बनाने पर आध्यात्मिक जीवन और देव कृपा भी संभव है।

अगर बुरे लोगों व वक्त को देना है मात तो यह 1 बात रखें ध्यान..
इंसान सामाजिक प्राणी माना गया है। यही कारण है कि धर्म शास्त्रों में भी इंसान को अनुशासन और संयम से जीवन गुजारने के लिए आचरण और व्यवहार की मर्यादाएं नियत है। किंतु हर इंसान इनका पालन नहीं करता। बस, यही कारण आपसी टकराव, संघर्ष और कलह को पैदा करता है, जिससे मनचाहे लक्ष्य को पाना मुश्किल हो जाता है।

यह स्थिति परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र में बड़े या छोटे स्तर पर देखी जाती है। ऐसी हालात का सामना करने के लिए ही हिन्दू धर्म शास्त्रों में बताए कुछ सूत्र कारगर साबित हो सकते हैं। अगर आप भी कामयाबी का ऊंचा मुकाम छूने की चाहत रखते हैं तो यहां बताया जा रहा है वह तरीका, जिससे बुरे से बुरे वक्त और व्यक्ति को भी मात देना संभव होता है -

हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में लिखा है कि -

प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि-

दुद्योगमन्विच्दति चाप्रमत्त:।

दु:खं च काले सहते महात्मा

धुरन्धरस्तस्य जिता: सपत्ना:।।

सरल शब्दों में अर्थ है कि विपरीत हालात या मुसीबतों के वक्त जो इंसान दु:खी होने के स्थान पर संयम और सावधानी के साथ पुरुषार्थ, मेहनत या परिश्रम को अपनाए और सहनशीलता के साथ कष्टों का सामना करे, तो उससे शत्रु या विरोधी भी हार जाते हैं।

इस बात में संकेत यही है कि अगर जीवन में तमाम विरोध और मुश्किलों में भी मानसिक संतुलन और धैर्य न खोते हुए हमेशा सकारात्मक सोच के साथ आगे बढऩे का मजबूत इरादा रखें तो राह में आने वाले हर विरोध या रुकावट का अंत हो जाता है।

अगर करें ये 3 कर्म, तो बढ़ता रहेगा धन, यश व सुकून
व्यावहारिक जीवन में धन पाने और बढ़ाने के लिए इंसान अनेक तरीकों के बारे में विचार करता है, कुछ अपनाता भी है। जिनमें वह कभी सफल होता है तो कभी असफल भी। इसी कड़ी में अगर धार्मिक उपायों की बात करें तो हिन्दू धर्म में धन, सुख, ऐश्वर्य पाने के लिए शक्तिरूपा महालक्ष्मी पूजनीय है।

आस्था है कि पावनता ही वह सूत्र है, जिससे लक्ष्मी सदा प्रसन्न रहती है। जिसके लिए दरिद्रता यानी मन, वचन, कर्म में बुराईयों से दूर रहकर पवित्र आचरण, विचार और परिश्रम के द्वारा धन कमाने का महत्व बताया गया है। क्योंकि ऐसा धन ही यश, सम्मान और निरोगी जीवन देने वाला माना गया है।

शास्त्रों में धन पाने के ही कुछ ऐसे उपाय बताए गए हैं, जो धन के साथ-साथ हमेशा सुख, शांति और प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं। पौराणिक मान्यताओं में स्वयं देवी लक्ष्मी द्वारा धन कमाने और बढ़ाने के ऐसे 3 काम या उपाय बताए गए हैं, जो आधुनिक संदर्भ में भी बहुत ही खुशहाल बनाने वाले हैं। लिखा गया है कि -

धनमस्तीति वाणिज्यं किंचिस्तीति कर्षणम्।

सेवा न किंचिदस्तीति भिक्षा नैव च नैव च।।

सरल शब्दों में मतलब है कि अगर धन हो तो व्यवसाय करें। कम पैसा हो तो कृषि कार्य करें। अगर धन न हो तो कोई नौकरी करना ही बेहतर है। किंतु किसी भी हालात में धन पाने के लिए किसी के सामने भिक्षा न मांगे।

दरअसल, व्यावहारिक रूप से इन बातों का संकेत यही है कि हर इंसान को आलस्य और बुरे कामों से दूर हो मेहनत, संकल्प और समर्पण के साथ धन कमाने और बढ़ाने की हरसंभव कोशिश करना चाहिए।

पढ़िए, पैगम्बर के वे खास सबक, जो घोलते हैं दिल और ज़िंदगी में मिठास
इस्लामी त्योहार मिलाद-उन-नबी है। इस्लामी शरीयत के मुताबिक, मिलाद के दिन को पवित्र पैगम्बर के जन्म के समय घटी घटनाओं के लिए याद किया जाता है। दरअसल, 'मिलाद' शब्द जन्म के समय और स्थान का प्रतीक है। यही कारण है कि इस्लाम धर्म में मतान्तर से यह त्योहार अल्लाह के दूत माने जाने वाले पैगम्बर हजरत मुहम्मद के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।

इस्लामी केलेंडर के अनुसार, पैगम्बर हजरत मुहम्मद का जन्म 571 ई. 12 रबीउल अव्वल (इस्लामी बारहवां माह) को माना जाता है। यही नहीं मिलाद-उन-नबी का दिन मात्र पैगम्बर हजरत के जन्म का ही नहीं, बल्कि इस दुनिया से विदा होने का यानी रुखसत का भी माना जाता है। मुस्लिम समाज इस दिन को बारह-वफात के रूप में भी मनाता है।

पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने ही इस्लाम धर्म स्थापित किया। जिसके द्वारा उन्होंने मानवता, धर्म और अध्यात्म के मार्ग पर चलने के ऐसे सबक सिखाए, जो हर इंसान को धार्मिक, सामाजिक व नैतिक रूप से मजबूत बनाते हैं। सरल शब्दों में कहें तो पैगम्बर ने पवित्र कुरान के जरिए लोगों को तन, मन, आचरण व आत्म शुद्धि के ऐसे उपाय बताए जो न केवल इस्लाम धर्म को मानने वालों को वरन पूरे मानव समाज को एक होने का संदेश देकर दिल और ज़िंदगी में हमेशा मिठास घोलने वाले हैं। जानिए, आज के संदर्भ में पैगम्बर हजरत मुहम्मद द्वारा दिए गए ऐसी ही बातों और सबक का सार -

- जिहाद का मतलब है - खुदं पर विजय, न कि बाहरी दुनिया में लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनैतिक, गैर-कानूनी और बुरे कर्म करना।

- किसी भी मकसद को पूरा करने के लिए झूठ और अन्याय का रास्ता न अपनाएं।

- बुरे वक्त या संकट के दौर में भी विवेक से काम लें यानी सही और गलत में फर्क समझकर फैसला लें।

- हर काम निर्भय होकर करें। कोई भी काम भय, संशय या उदासीनता के हालात में न करें।

- इच्छाओं और भावनाओं को काबू में रखें।

- गुस्से या क्रोध में आकर कोई गलत काम न करें।

- किसी भी प्रकार के कष्ट, विपत्ति में अपना मानसिक संतुलन बनाएं रखें।

- स्वयं को पहचानना ही खुदा को जानना है।

- स्त्री को पूरा सम्मान दें, उनके धार्मिक स्थल पर जाने पर पाबंदी न हो।

जानिए, किससे, कैसी बात और व्यवहार कर बना लें काम?
इंसान तन और धन से कितना ही सबल और सक्षम हो, किंतु जीवन को सफल और सुखी बनाने के लिए मात्र किताबी ज्ञान ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान भी बहुत ही जरूरी है। जिसके तहत मानवीय व्यवहार की समझ और पहचान अहम होती है। इंसान के स्वभाव को जानने की इस कला से जीवन के लक्ष्यों को पाना आसान हो सकता है।

अगर आप भी सामाजिक या कार्यक्षेत्र में इसी व्यवहार कुशलता की कमी से असहज महसूस करते हैं, तो यहां बताई जा रही शास्त्रों में लिखी बातों से आप भी सीख सकते हैं कि किस व्यक्ति से कैसा व्यवहार कर अपना बनाना चाहिए? जानते हैं क्या है वह शास्त्रों की बातें -

लुब्धमर्थप्रदानेन श्लाघ्यमञ्जलिकर्मणा।

मूर्खं छन्दानुवृत्या च याथातथ्येन पण्डितम्।।

सद्भावेन हि तुष्यन्ति देवा: सत्पुरुषा द्विजा:।

इतरे खाद्यापानेन मानदानेन पण्डिता:।।

इसका सरल शब्दों में अर्थ है हाथ जोड़कर प्रणाम कर सज्जन या उदार व्यक्ति को, अर्थ यानी धन देकर लालची व्यक्ति को, तारीफ कर मूर्ख व्यक्ति को, ज्ञान की बातों द्वारा विद्वान को, अच्छे या सद्भावों से देवता, भले लोगों को, आम व्यक्ति को खान-पान से और मान-सम्मान द्वारा पण्डित को संतुष्ट करें या अपना बनाएं।

व्यावहारिक जीवन का सफर भी ऐसे लोगों के संपर्क में आकर ही आगे बढ़ता है। इसलिए इन बातों में नकारात्मक या कुतर्क पर विचार न कर व्यवहार कुशलता का मूल भाव अपनाकर जिंदगी में आने वाली हर बाधा को पार करते चलें।

सीखें, अक्लमंदी से जुड़ा 7 अंकों का हिसाब-किताब, होगा खूब फायदा!
बुद्धि को इंसान और पशु-पक्षियों के बीच अहम फर्क भी माना जाता है। किंतु अनेक मौकों पर बुद्धिमान इंसान भी पशुवत व्यवहार करते देखा जाता है, किंतु पशु-पक्षियों का खान-पान, दिनचर्या या जीवनशैली स्वाभाविक ही रहती है। इस बात से यह साफ है कि इंसान द्वारा अच्छे-बुरे कर्मों में बुद्धि का उपयोग ही उसके सुख-दु:ख नियत करता है।

बुद्धि ईश्वर की वह देन है, जो हर इंसान के पास होती है। किंतु धर्मशास्त्रों के मुताबिक इस बुद्धि का पोषण ज्ञान के साथ अनुभव और व्यवहार द्वारा भी होता है। ज्ञान, पुण्य कर्म और विचार बुद्धि को धार देते हैं। वहीं ज्ञान का अभाव, बुरे या पाप कर्मो से बुद्धि का नाश होता है।

हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में सुखी जीवन के लिये ही बुद्धि के सही उपयोग से सुखों की मंजिल तय करने के लिये ऐसा अंक गणित भी बताया गया है, जिसे सीखकर हर इंसान सांसारिक जीवन के खाते में सुख-लाभ बंटोर सकता है।

लिखा गया है कि -

एकया द्वे विनिनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिवशे कुरु।

पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखो भव।।

इस श्लोक में जीवन में कर्म, व्यवहार और नीति में बुद्धि के उपयोग द्वारा सुख बंटोरने के लिये 1 से लेकर 7 अलग-अलग सूत्रों को उजागर किया गया है। सरल शब्दों में जानते हैं यह अंक गणित -

एक यानी बुद्धि से दो यानी कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय कर चार यानी साम, दाम, दण्ड, भेद द्वारा तीन यानी दुश्मन, दोस्त और तटस्थ को काबू में करें।

इनके साथ-साथ पांच यानी पांच इन्द्रियों के संयम द्वारा छ: यानी छ: गुण सन्धि- मेलजोल या मित्रता, विग्रह - संधि विच्छेद या मित्रता के रिश्ते न रखना, यान - सही मौके पर वार, आसन - विपरीत हालात में शांत रहना, द्वैधीभाव - ऊपर से मित्रता अंदर से शत्रुता का भाव और समाश्रय - सक्षम व सबल की पनाह लेना, समझें और जानें।

साथ ही सात यानी स्त्री, जूआ, मृगया यानी शिकार, नशा, कटु वचन, कठोर दण्ड और गलत तरीके से धन कमाने के बुरे गुण और कर्म को छोडऩा कठिन और विरोधी स्थितियों में किसी भी इंसान के लिये सुख का कारण बन जाते हैं।

क्या इस साल तबाह होगी दुनिया! इन संकेतों से खुद जानें..
पिछले कुछ समय से दुनिया खत्म होने के दिन और तबाही के अलग-अलग कारणों को लेकर अनेक दावे और अनुमान सामने आते रहे हैं। इसी कड़ी में दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में एक माया सभ्यता की कालगणना के मुताबिक साल 2012 भी दुनिया के विनाश की आखिरी घड़ी है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कुदरती घटनाओं से होने वाली तबाही ऐसी बातों को और बल देती है कि क्या वाकई इस साल दुनिया का विनाश हो जाएगा?

दरअसल, ये बातें मन में दहशत, अनिश्चितता, अविश्वास और संदेह ज्यादा पैदा करती है। जबकि इन दावों का पुख्ता आधार नहीं है। इसलिए इस वर्ष या निकट भविष्य में दुनिया की तबाही का कोई दिन निश्चित नहीं कहा जा सकता।

इस संबंध में हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भागवद् में लिखी प्रलय के दौरान होने वाली घटनाएं व हालात भी इन दावों को कमजोर साबित करते है। आप स्वयं भी श्रीमद्भागवत महापुराण में प्रलय से जुड़ी बातों का सार पढ़ अंदाजा लगा सकते हैं कि विनाश के दावों में कितना सच है?

प्रलय का वक्त आने पर सौ साल तक बारिश नहीं होती। अन्न और पानी न होने से अकाल पड़ जाता है। सूर्य की भीषण गर्मी समुद्र, प्राणियों और पृथ्वी का रस सोख लेती है। इसे ही प्रतीक रूप में संकषर्ण भगवान के मुंह से निकलने वाली आग की लपटें बताया गया है। हवा के कारण यह आकाश से लेकर पाताल तक फैलती हैं।

इस प्रचण्ड ताप और गर्मी से पृथ्वी सहित पूरा ब्रह्माण्ड ही दहकने लगता है। इसके बाद गर्म हवा अनेक सालों तक चलती है। पूरे आसमान में धुंआ और धूल छा जाते हैं। जिसके बाद बने बादल आकाश में मण्डराते हुए फट पड़ते हैं। कई सालों तक भारी बारिश होती है।

इससे ब्रह्माण्ड में समाया सारा संसार जल में डूब जाता है। इस तरह पृथ्वी के गुण, गंध जल में मिल जाते हैं और पृथ्वी तबाह हो जाती है और अंत में जल में ही मिलकर जल रूप हो जाती है।

इस तरह जल, पृथ्वी सहित पंचभूत तत्व जो इस जगत का कारण माने गए हैं एक-दूसरे में समा जाते हैं और मात्र प्रकृति ही शेष रह जाती है।

दुर्गति कर देती हैं ये 4 इच्छाएं‍!
सुखी व शांत वही रह सकता है, जो अपनी कमजोरियां और दोषों के प्रति सावधान रहे। किंतु व्यावहारिक जीवन में यह तय है कि हर इंसान किसी न किसी रूप में जाने-अनजाने पाप का भागी बनता है। जिसके पीछे कर्म, बोल और व्यवहार होते हैं। इसके बावजूद बुरे कर्म या बोल के दोषी बनने पर उसे मानकर यथासंभव प्रायश्चित द्वारा जीवन में सुख-चैन बरकरार रखा जा सकता है।

इसी सिलसिले में धर्मशास्त्रों में मानसिक शांति और सुख से ज़िंदगी बिताने के लिए ऐसी बुरी सोच से बचने की नसीहत दी गई है, जो इंसान को भावना, संवेदना, नैतिकता, ईमान और सत्य आचरण से दूर कर देती है। यह सोच आदतों में इस तरह शामिल हो जाती हैं कि उसे बार-बार दोहराकर भी गलती का एहसास नहीं होता। किंतु जब उसके बुरे परिणाम सामने आते हैं तो पछतावे के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता।

हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण में ऐसे ही चार मानसिक या वैचारिक दोषों का जिक्र किया गया है, जो इंसान के लिए अपार दु:ख, मानसिक अशांति और कलह का कारण बनते हैं। पुराण के मुताबिक यह मानसिक महापाप है और ऐसी बुरी सोच से नरक यानी दु:ख भोगना पड़ता हैं। डालते हैं इन पर एक नजर -

- परायी स्त्री को पाने का संकल्प या चाहत करना।

- पराये धन का अपहरण यानी पाने या अधिकार करने की लालसा।

- मन में किसी भी विषय, व्यक्ति या उद्देश्य को लेकर बुरा या अनिष्ट चिन्तन।

- बुरे या न करने योग्य कामों में शामिल होने का कुविचार।

जानिए, विनाश से कैसे बचाती है मृत्युञ्जय की शक्ति?
शिव को अविनाशी भी पुकारा जाता है। यह शब्द और भाव ही शिव की अनंत शक्तियों, मंगलमयी रूप व नाम की महिमा प्रकट करता है। जब शिव ने विषपान किया तो नीलकंठ बने, गंगा को सिर पर धारण किया तो गंगाधर। वहीं भूतों के स्वामी होने से भूतभावन भी कहलाते हैं।

इसी कड़ी में शिव का एक अद्भुत स्वरूप हैं - मृत्युंजय। माना गया है कि इस शिव स्वरूप की दिव्य शक्तियों के आगे काल भी पराजित हो जाता है। मृत्यु्ञ्जय का मतलब भी होता है - मृत्यु को जीतने वाला। काल के अलावा यह शिव शक्ति सभी सांसारिक पीड़ा व भय को हर लेती है।

कैसा है मृत्यंञ्जय स्वरूप?
शास्त्रों के मुताबिक शिव का मृत्यंञ्जय स्वरुप अष्टभुजाधारी है। सिर पर बालचन्द्र धारण किए हुए हैं। कमल पर विराजित हैं। ऊपर के हाथों से स्वयं पर अमृत कलश से अमृत धारा अर्पित कर रहें हैं। बीच के दो हाथों में रुद्राक्ष माला व मृगमुद्रा। नीचे के हाथों में अमृत कलश थामें हैं।

कैसे मृत्युञ्जय के आगे काल भी हो जाता है पस्त ?
महामृत्युञ्जय के काल को पराजित करने के पीछे शास्त्रों के मुताबिक दर्शन यह भी है कि असल में यह स्वरुप आनंद, विज्ञान, मन, प्राण व वाक यानी शब्द, वाणी, बोल इन पांच कलाओं का स्वामी है। व्यावहारिक जीवन में भी जो इंसान इन कलाओं से दक्ष और पूर्ण हो जाता है, वह सुखी, निरोगी, पीड़ा और तनाव मुक्त हो लंबी आयु को प्राप्त करता है। यही नहीं माना जाता है कि इन पांच विद्याओं की शक्ति के बूते सृष्टि का चक्र चलता रहता है यानी ये संसार को विनाश से बचाती है।

इस तरह आनंद व प्राण स्वरूप महामृत्युञ्जय शिव की उपासना से जुड़ी ऐसी आस्था और विश्वास के आगे मौत ही मात नहीं खाती, बल्कि निर्भय व निरोगी जीवन भी प्राप्त होता है। जिसके लिए महामृत्युञ्जय मंत्र का स्मरण बेहद असरदार माना गया है।

शिव भक्त हैं तो भूलकर भी न हों ये 4 तरह की बातें! वरना..
अक्सर 'जुबान से पक्का' यह बात किसी व्यक्ति के भरोसेमंद होने के संबंध में कही जाती है। दरअसल, जीवन में सफलता का स्वाद चखाने में शरीर के दूसरें अंगों की तरह ही जीभ की भी अहम भूमिका होती है। क्योंकि इसका संबंध वाणी और भाषा से है।

यही कारण है कि जीभ केवल खान-पान के लिए ही उपयोगी नहीं है, बल्कि यह इंसान के संस्कार भी उजागर करती है। बोल से बना व्यक्तित्व भी दूसरों के दिल-दिमाग पर प्रभाव छोड़कर छबि को नकारात्मक या सकारात्मक बनाता है। यही कारण है कि धर्मशास्त्र हो या साहित्य सभी में वाणी, शब्द और भाषा की मिठास और मर्यादा का महत्व बताया गया है।

इसी कड़ी में हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण सच्चे शिव भक्त के साथ ही हर इंसान के लिए व्यावहारिक जीवन में वाणी दोष से बचने के लिए खासतौर पर चार बातों से दूर रहने की सीख देता है। जिनको इंसान दैनिक जीवन में जाने-अनजाने लाभ की मानसिकता से अपना तो लेता है, किंतु उनके बुरे नतीजे अपयश और अपमान का कारण बन सकते हैं।

अगर आप भी कामयाब, सुखी और शांत जीवन की कामना रखते हैं, तो घर, कुटुंब, कार्यक्षेत्र में यहां बताई जा रही चार तरह की बातें आज से महाशिवरात्रि तक चलने वाली शिव नवरात्रि के अलावा ताउम्र भी न करें। धार्मिक नजरिए से यह वाणी के पाप भी माने गए हैं -

- असंगत प्रलाप यानी बेतुकी बातें करना

- असत्य यानी झूठ बोलना

- अप्रिय यानी कटु, तीखा बोलना या ताने मारना

- चुगलखोरी यानी पीठ पीछे किसी के बारे में तोड़-मरोड़कर बातें बनाना या शिकायत करना।

शाम और रात को बड़ी मंगलकारी है शिव भक्ति, क्योंकि..
धर्मग्रंथों के मुताबिक अनादि, अनंत, सर्वव्यापी भगवान शिव की भक्ति दिन और रात के मिलन की घड़ी यानी प्रदोष काल और अर्द्धरात्रि में सिद्धि और साधना के लिए बहुत ही शुभ व मंगलकारी बताई गई है। इसलिए महाशिवरात्रि हो या प्रदोष तिथि शिव भक्ति से सभी सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने का अचूक काल मानी जाती है।

धार्मिक पंरपराओं से परे क्या आपने विचार किया है कि शिव भक्ति के लिए महाशिवरात्रि, प्रदोष काल, शाम या रात का इतना महत्व क्यों है? यहां जानिए इन धर्म भावों से जुड़ा व्यावहारिक पहलू -

दरअसल, हिन्दू धर्मग्रंथों में भगवान शिव को तमोगुणी व विनाशक शक्तियों का स्वामी भी माना गया है। रात्रि भी तमोगुणी यानी तम या अंधकार भरी होती है। जिसमें तामसी या बुरी शक्तियां हावी मानी जाती हैं, जो सांसारिक जीवों के लिए अशुभ व पीड़ादायी मानी गई है। लोक भाषा में इन शक्तियों को ही भूत-पिशाच पुकारा जाता है, शास्त्रों में शिव को इन भूतगणों का ही स्वामी और भूतभावन बताया गया है। जिन पर शिव का पूरा नियंत्रण होता है। इसलिए प्रदोष काल में शिव की पूजा इन बुरी शक्तियों के प्रभाव से बचाने वाली होती है।

इसमें व्यावहारिक पक्ष को समझें तो असल में दिन के वक्त सूर्य की ऊर्जा और प्रकाश से तन ऊर्जावान बना रहता है, रोग पैदा करने वाले जीव भी निष्क्रिय होते हैं। शरीर के स्वस्थ होने से मन व आत्मा में सत् यानी अच्छे विचारों के प्रवाह से बुरे या तामसी भावों का असर नहीं होता। शैव ग्रंथों में सूर्य को शिव का ही रूप माना गया है और शिव रूप वेद में भी सूर्य को जगत की आत्मा माना गया है। इस तरह सूर्य रूप शिव के प्रभाव से दिन में बुरी शक्तियां कमजोर हो जाती हैं।

वहीं दिन ढलते ही सत्वगुणी प्रकाश के जाने और तमोगुणी अंधकार के आने से तन, मन के भावों में बदलाव आता है। बुरे और तामसी भावों के हावी होने से मन, विचार और व्यवहार के दोष बड़े कलह और संताप पैदा करते हैं। यही दोष पैशाचिक प्रवृत्ति माने जाते हैं। जिन पर प्रभावी और तुरंत नियंत्रण के लिए ही रात्रि के आरंभ में यानी प्रदोष काल में आसान उपायों से प्रसन्न होने वाले देवता और भूतों के स्वामी शिव यानी आशुतोष की पूजा बहुत ही शुभ और संकटनाशक मानी गई है।

इसी भाव और श्रद्धा से यह मान्यता भी प्रचलित है कि शिव रात्रि के स्वामी हैं और प्रदोष काल यानी शाम के वक्त शिव कल्याण भाव से भ्रमण पर निकलते हैं। यहीं नहीं पौराणिक मान्यता भी है कि ज्योर्तिलिंग का प्राकट्य भी अर्द्धरात्रि यानी महाशिवरात्रि को माना गया है। जिसमें संकेत यही है कि अशुभ और बुराई से बचना है तो शुभ और सद्भावों से जुड़ें।

महाशिवरात्रि है शिव की इन अद्भुत शक्तियों की भक्ति की रात
शिव ऐसे देवता है कि जिनकी भक्ति और पूजा साकार और निराकार दोनों रूप में होती है। दूसरें शब्दों में शिव मूर्त या सगुण और अमूर्त या निर्गुण रूप में पूजे जाते हैं।

शिव ऐसे स्वरूप, अलग-अलग गुण और शक्तियों के कारण अनेक नामों से प्रसिद्ध हैं। खासतौर पर जानिए महाशिवरात्रि की शुभ तिथि व रात्रि पर शिव की किन अद्भुत स्वरूप व शक्तियों की भक्ति महामंगलकारी होती है -

शिव का साकार रूप सदाशिव नाम से प्रसिद्ध है। इसी तरह शिव की पंचमूर्तियां - ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात से पूजनीय है, जो पंचवक्त्र पूजा में पंचानन रूप का पूजन किया जाता है। महाशिवरात्रि पर चार रात्रि के चार पहरों में शिव के ईशान, अघोर, वामदेव व सद्योजात स्वरूप की उपासना मंगलकारी मानी गई है।

शास्त्रों में भगवान शिव की अष्टमूर्ति पूजा का भी महत्व बताया गया है। यह अष्टमूर्ति है - शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव जो क्रम से पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु, अकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चन्द्र रूप में स्थित मूर्ति मानी गई है।

साम्ब-सदाशिव, अर्द्धनारीश्वर, महामृत्युञ्जय, पशुपति, उमा-महेश्वर, पञ्चवक्त्र, कृत्तिवासा, दक्षिणामूर्ति, योगीश्वर और महेश्वर रूप में भी शिव के अद्भुत और शक्ति संपन्न स्वरूप पूजनीय है।

रुद्र भगवान शिव का परब्रह्म स्वरूप है, जो सृष्टि रचना, पालन और संहार शक्ति के नियंत्रक माने गए हैं। रुद्र शक्ति के साथ शिव घोरा के नाम से भी प्रसिद्ध है। रुद्र रूप माया से परे ईश्वर का वास्तविक स्वरूप और शक्ति मानी गई है।

जानिए, क्यों हैं पशुपति इतने चमत्कारी?
हिन्दू शैव ग्रंथों के मुताबिक शिव लीला ही सृष्टि, रक्षा और विनाश करने वाली है। वह अनादि, अनन्त हैं यानी उनका न जन्म होता है न अंत। वह साकार भी है और निराकार भी। इसलिए भगवान शिव कल्याणकारी हैं।

शिव को ऐसी शक्तियों और स्वरूप के कारण अनेक नामों से पुकारा और स्मरण किया जाता है। इन नामों में पशुपति भी प्रमुख है। शिव के इस नाम के पीछे का रहस्य शिव पुराण में बताया गया है। डालते हैं एक नजर -

शिव पुराण के मुताबिक भगवान ब्रह्मदेव से लेकर सभी सांसारिक जीव शिव के पशु हैं। इनके जीवन, पालन और नियंत्रण करने वाले भगवान शिव हैं। इन पशुओं के पति यानी स्वामी होने से ही शिव पशुपति हैं।

भगवान शिव ही इन पशुओं को माया और विषयों द्वारा बंधन में बांधते हैं। इनके द्वारा शिव ब्रह्मा सहित सभी जीवों को कर्म से जोड़ते हैं। पशुपति द्वारा ही बुद्धि, अहंकार से इन्द्रियां व पंचभूत बनते हैं, जिससे देह बनती हैं। जिसमें बुद्धि कर्तव्य और अहंकार अभिमान नियत करती है। साथ ही चित्त में चेतना, मन में संकल्प, ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अपने विषय और कर्मेन्दियों द्वारा अपने नियत कर्म पशुपति की आज्ञा से ही संभव है।

पशुपति ही आराधना और भक्ति से प्रसन्न होकर ब्रह्म से लेकर कीट आदि पशु सभी को जन्म-मरण और सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त करते हैं।

इसलिए इस बार महाशिवरात्रि की रात न चूकें शिव भक्ति
धर्मग्रंथों के मुताबिक अनादि, अनंत, सर्वव्यापी भगवान शिव की भक्ति दिन और रात के मिलन की घड़ी यानी प्रदोष काल और अर्द्धरात्रि में सिद्धि और साधना के लिए बहुत ही शुभ व मंगलकारी बताई गई है। इसलिए महाशिवरात्रि हो या प्रदोष तिथि शिव भक्ति से सभी सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने का अचूक काल मानी जाती है।

धार्मिक पंरपराओं से परे क्या आपने विचार किया है कि शिव भक्ति के लिए महाशिवरात्रि, प्रदोष काल, शाम या रात का इतना महत्व क्यों है? यहां जानिए इन धर्म भावों से जुड़ा व्यावहारिक पहलू -

दरअसल, हिन्दू धर्मग्रंथों में भगवान शिव को तमोगुणी व विनाशक शक्तियों का स्वामी भी माना गया है। रात्रि भी तमोगुणी यानी तम या अंधकार भरी होती है। जिसमें तामसी या बुरी शक्तियां हावी मानी जाती हैं, जो सांसारिक जीवों के लिए अशुभ व पीड़ादायी मानी गई है। लोक भाषा में इन शक्तियों को ही भूत-पिशाच पुकारा जाता है, शास्त्रों में शिव को इन भूतगणों का ही स्वामी और भूतभावन बताया गया है। जिन पर शिव का पूरा नियंत्रण होता है। इसलिए प्रदोष काल में शिव की पूजा इन बुरी शक्तियों के प्रभाव से बचाने वाली होती है।

इसमें व्यावहारिक पक्ष को समझें तो असल में दिन के वक्त सूर्य की ऊर्जा और प्रकाश से तन ऊर्जावान बना रहता है, रोग पैदा करने वाले जीव भी निष्क्रिय होते हैं। शरीर के स्वस्थ होने से मन व आत्मा में सत् यानी अच्छे विचारों के प्रवाह से बुरे या तामसी भावों का असर नहीं होता। शैव ग्रंथों में सूर्य को शिव का ही रूप माना गया है और शिव रूप वेद में भी सूर्य को जगत की आत्मा माना गया है। इस तरह सूर्य रूप शिव के प्रभाव से दिन में बुरी शक्तियां कमजोर हो जाती हैं।

वहीं दिन ढलते ही सत्वगुणी प्रकाश के जाने और तमोगुणी अंधकार के आने से तन, मन के भावों में बदलाव आता है। बुरे और तामसी भावों के हावी होने से मन, विचार और व्यवहार के दोष बड़े कलह और संताप पैदा करते हैं। यही दोष पैशाचिक प्रवृत्ति माने जाते हैं। जिन पर प्रभावी और तुरंत नियंत्रण के लिए ही रात्रि के आरंभ में यानी प्रदोष काल में आसान उपायों से प्रसन्न होने वाले देवता और भूतों के स्वामी शिव यानी आशुतोष की पूजा बहुत ही शुभ और संकटनाशक मानी गई है।

इसी भाव और श्रद्धा से यह मान्यता भी प्रचलित है कि शिव रात्रि के स्वामी हैं और प्रदोष काल यानी शाम के वक्त शिव कल्याण भाव से भ्रमण पर निकलते हैं। यहीं नहीं पौराणिक मान्यता भी है कि ज्योर्तिलिंग का प्राकट्य भी अर्द्धरात्रि यानी महाशिवरात्रि को माना गया है। जिसमें संकेत यही है कि अशुभ और बुराई से बचना है तो शुभ और सद्भावों से जुड़ें।

जानिए, महादेव ने किस देवता को सौंपा है कौन-सा काम?
शिव पुराण शिव के अद्भुत स्वरूप और शक्तियों को उजागर करता है। इसके मुताबिक शिव ही परब्रह्म हैं। उनके द्वारा ही सृष्टि की रचना, पालन और संहार होता है। यही कारण है कि शिव के आदेश का सभी देवता पालन करते हैं। ऐसी ही शक्तियों से शिव महादेव भी पुकारें जाते हैं।

शिव पुराण के मुताबिक शिव के आदेश से ही अलग-अलग देवता सृष्टि संचालन से जुड़े अलग-अलग कार्य करते हैं। यहां जानते हैं शिव आज्ञा से कौन-से देवता कौन सा कार्य करते हैं -

इन्द्र - देवताओं की रक्षा और राक्षसों का नाश।

वरुण देव - जल की रक्षा और दोषी प्राणियों को बंधन में बांधना।

कुबेर - धन-सम्पत्ति और ज्ञान देना।

शेष - पृथ्वी को धारण करना।

ब्रह्माजी - सृष्टि रचना।

विष्णु - अपनी तीन मूर्तियों द्वारा विश्व के पालन के साथ सृर्जन और संहार भी करते हैं।

सूर्यदेव - अपने तीन अंशों द्वारा जगत पालन, बारिश का आदेश व वर्षा कराना।

चन्द्रदेव - अनेक तरह की औषधियों को पोषित करना और जीवों को प्रसन्न करना।

इन प्रमुख देवताओं के अलावा अन्य देवता जैसे, आदित्य, अश्विनी कुमार, वसु, रुद्र, नागगण सहित मनुष्य, पशु, पक्षी, नदियां, सागर, पर्वत, जंगल, वेद, मंत्र, ब्रह्माण्ड, भूत, वर्तमान, भविष्य सहित काल के अलग-अलग रूप जो सुने और नजर आते है शिव के आदेश से ही क्रिया करते हैं।

रखें कि क्या आपकी शिव भक्ति में है इतनी सच्चाई?
हिन्दू धार्मिक मान्यताओं में संपूर्ण प्रकृति शिव का ही स्वरूप मानी गई है। विशेष रूप से वेद भगवान शिव की विराटता, व्यापकता, शक्तियों और महिमा का रहस्य बताते हैं। जिसमें शिव को अनादि, अनंत, जगत की हर रचना का कारण, स्थिति और विनाशक मानकर स्तुति की गई है। वेदों में भी प्रकृति पूजा का ही महत्व व गुणगान है। इसलिए माना भी गया है कि वेद ही शिव है और शिव ही वेद है। इस तरह वेद प्रकृति प्रेम के रूप में शिव भक्ति का ज्ञान भी देते हैं।

वैसे शिव शब्द का अर्थ भी कल्याण ही है और व्यावहारिक नजरिए से विचार करें तो जगत के जीवों का कल्याण प्रकृति से जुड़े बिना संभव नहीं है। प्रकृति और जगत का मूल पंचतत्व जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी माने गए हैं। इन तत्वों में किसी भी रूप और स्तर पर आया दोष संसार के लिए घातक होते हैं। यही कारण है कि शिव के बिना हर जीव शव के समान भी माना गया है। इसलिए मंगल की कामना से ही शिव की साकार और निराकार दोनों ही रूप में उपासना का महत्व भी है।

दूसरी ओर धर्मग्रंथों और पौराणिक मान्यताओं में बताए शिव के प्रसंगों, शक्ति, स्वरूप, भक्ति और उपासना के उपायों पर विचार करें तो यह साफ हो जाता है ैकि प्रकृति और शिव एक-दूसरे की ही पर्याय हैं। मसलन शिव और उनके परिवार के अन्य सदस्यों के वाहनों में चूहे, शेर, सर्प, मयूर, नंदी कमजोर से लेकर शक्तिशाली और खूबसूरत से लेकर जहरीले जीव प्राकृतिक शत्रुता के बाद भी कल्याणकारी शिव कृपा से जगत के लिए पूजनीय है। यह प्रकृति मे रहने वाले जीवों के प्रति प्रेम का संदेश है।

इसी तरह शिव का निवास कैलास पर्वत, गंगा को जटा में धारण करना, शिव उपासना में खासतौर पर वनस्पतियों, फूल, पत्तों, जल यहां तक कि नशीले या विषैले फल-फूलों का चढ़ावा प्रकृति से जुड़ी हर रचना पर्वत, सागर, वन, वृक्ष, जल, वायु आदि को सहेजने और प्रेम का संदेश है। यहीं नहीं शिव भक्ति का महत्व सावन माह के उस विशेष काल में है, जबकि वर्षा ऋतु में प्रकृति की सुंदरता चरम पर होती है।

सार यही है कि मात्र व्यक्तिगत कामनाओं की पूर्ति से शिव भक्ति के धार्मिक उपायों को अपना लेना ही सच्ची शिव उपासना नहीं, बल्कि शिव शब्द के ही मूल भाव कल्याण को जीवन में उतारकर नि:स्वार्थ बन प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा द्वारा प्रकृति और प्राणियों के बीच अटूट संबंध और संतुलन को कायम रखना ही सच्ची शिव भक्ति होगी।

यह बात भी थी महादेव के विष पीने की वजह!
शिव चरित्र और स्वरूप में छिपा ज्ञान उम्र के बंधन से परे हर इंसान के जीवन से जुड़े सारे भ्रम, संशय दूर करने वाला है। दरअसल, जीवन में अनेक ऐसे मौके आते हैं, जहां हमारे गुण, चरित्र, व्यक्तित्व की परख होती है। जिसमें सही और गलत के बीच फर्क समझ जीवन की सही दिशा और दशा तय करना हमारे ही हाथों में होता है। इसमें की गई चूक यश और अपयश का कारण भी बन सकती है।

इसी कड़ी में वक्त के मुताबिक मन, बुद्धि, बल, ज्ञान, वचन, समय व अनुभव का सही उपयोग कैसे यशस्वी और सफल बना सकता है? ऐसा ही सूत्र सिखाता है- शिव का नीलकंठ स्वरूप। पौराणिक कथा है कि समुद्र मंथन से निकले हलाहल यानी जहर का असर देव-दानव सहित पूरा जगत सहन नहीं कर पाया। तब सभी ने भगवान शंकर को पुकारा। भगवान शंकर ने पूरे जगत की रक्षा और कल्याण के लिए उस जहर को पीना स्वीकार किया। विष पीकर शंकर नीलकंठ कहलाए।

यह भी माना जाता है कि भगवान शंकर ने विष पान से हुई दाह की शांति के लिए समुद्र मंथन से ही निकले चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया। बहरहाल, नीलकंठ नाम से जुड़ा यह प्रसंग मात्र नहीं है, बल्कि महादेव ने ऐसा कर वाणी, मन, बुद्धि संतुलन का एक खास सबक भी दिया। जिसके मुताबिक भगवान शंकर द्वारा विष पीकर कंठ में रखना और उससे हुई दाह की शांति के लिए चंद्रमा को अपने सिर पर धारण करना इस बात की ओर संकेत है इंसान को अपनी वाणी व मन पर संयम रखना चाहिए।

खासतौर पर कठोर वचन से बचना चाहिए, जो कंठ से ही बाहर आते हैं और व्यावहारिक जीवन पर बुरा असर डालते हैं। किंतु कटु वचनों पर काबू तभी हो सकता है, जब व्यक्ति मन-मस्तिष्क पर भी काबू रखे। चंद्रमा मन और विवेक का प्रतीक है और उसे भगवान शंकर ने उसी स्थान पर रखा है, जहां विचार केन्द्र मस्तिष्क होता है।

रवि प्रदोष, जानें व्रत की कथा व महत्व
19 फरवरी को रवि प्रदोष व्रत है। इस व्रत के प्रभाव से लंबी आयु और बेहतर स्वास्थ्य मिलता है। इस व्रत की कथा इस प्रकार है-

एक गांव में एक दीन-हीन ब्राह्मण रहता था। उसकी धर्मनिष्ठ पत्नी प्रदोष व्रत करती थी। उनका एक पुत्र था। एक बार वह पुत्र गंगा स्नान को गया। दुर्भाग्यवश मार्ग में उसे चोरों ने घेर लिया और डराकर उससे पूछने लगे कि उसके पिता का गुप्त धन कहां रखा है। बालक ने दीनतापूर्वक बताया कि वे अत्यन्त निर्धन और दु:खी हैं। उनके पास गुप्त धन कहां से आया। चोरों ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे छोड़ दिया। बालक अपनी राह हो लिया।

चलते-चलते वह थककर चूर हो गया और बरगद के एक वृक्ष के नीचे सो गया। तभी उस नगर के सिपाही चोरों को खोजते हुए उसी ओर आ निकले। उन्होंने ब्राह्मण बालक को चोर समझकर बन्दी बना लिया और राजा के सामने उपस्थित किया। राजा ने उसकी बात सुने बगैर उसे कारागार में डलवा दिया। उधर बालक की माता प्रदोष व्रत कर रही थी। उसी रात्रि राजा को स्वप्न आया कि वह बालक निर्दोष है यदि उसे नहीं छोड़ा गया तो तुम्हारा राज्य और वैभव नष्ट हो जाएगा।

सुबह जागते ही राजा ने बालक को बुलवाया। बालक ने राजा को सच्चाई बताई। राजा ने उसके माता-पिता को दरबार में बुलवाया। उन्हें भयभीत देख राजा ने मुस्कुराते हुए कहा- तुम्हारा बालक निर्दोष और निडर है। तुम्हारी दरिद्रता के कारण हम तुम्हें पांच गांव दान में देते हैं। इस तरह ब्राह्मण आनन्द से रहने लगा। शिव जी की दया से उसकी दरिद्रता दूर हो गई।

कैसे हुई रुद्राक्ष की उत्पत्ति तथा ये कितने प्रकार का होता है?
रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से मानी जाती है। इस बारे में पुराण में एक कथा प्रचलित है। कहते हैं एक बार भगवान शिव ने अपने मन को वश में कर दुनिया के कल्याण के लिए सैकड़ों सालों तक तप किया। एक दिन अचानक ही उनका मन दु:खी हो गया। जब उन्होंने अपनी आंखें खोलीं तो उनमें से कुछ आंसू की बूंदे गिर गई। इन्हीं आंसू की बूदों से रुद्राक्ष नामक वृक्ष उत्पन्न हुआ। शिव भगवान हमेशा ही अपने भक्तों पर कृपा करते हैं। उनकी लीला से ही उनके आंसू ठोस आकार लेकर स्थिर(जड़) हो गए। जनधारणा है कि यदि शिव-पार्वती को प्रसन्न करना हो तो रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।

रुद्राक्ष की श्रेणी
रुद्राक्ष को आकार के हिसाब से तीन भागों में बांटा गया है-

1- उत्तम श्रेणी- जो रुद्राक्ष आकार में आंवले के फल के बराबर हो वह सबसे उत्तम माना गया है।

2- मध्यम श्रेणी- जिस रुद्राक्ष का आकार बेर के फल के समान हो वह मध्यम श्रेणी में आता है।

3- निम्न श्रेणी- चने के बराबर आकार वाले रुद्राक्ष को निम्न श्रेणी में गिना जाता है।

जिस रुद्राक्ष को कीड़ों ने खराब कर दिया हो या टूटा-फूटा हो, या पूरा गोल न हो। जिसमें उभरे हुए दाने न हों। ऐसा रुद्राक्ष नहीं पहनना चाहिए।

वहीं जिस रुद्राक्ष में अपने आप डोरा पिरोने के लिए छेद हो गया हो, वह उत्तम होता है।

भगवान शिव ने ही दिया था विष्णु को सुदर्शन चक्र
भगवान विष्णु के हर चित्र व मूर्ति में उन्हें सुदर्शन चक्र धारण किए दिखाया जाता है। यह सुदर्शन चक्र भगवान शंकर ने ही जगत कल्याण के लिए भगवान विष्णु को दिया था। इस संबंध में शिवमहापुराण के कोटिरुद्रसंहिता में एक कथा का उल्लेख है।

एक बार जब दैत्यों के अत्याचार बहुत बड़ गए तब सभी देवता श्रीहरि विष्णु के पास आए। तब भगवान विष्णु ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की विधिपूर्वक आराधना की। वे हजार नामों से शिव की स्तुति करने लगे। प्रत्येक नाम पर एक कमल पुष्प भगवान विष्णु शिव को चढ़ाते।

तब भगवान शंकर ने विष्णु की परीक्षा लेने के लिए उनके द्वारा लाए एक हजार कमल में से एक कमल का फूल छिपा दिया। शिव की माया के कारण विष्णु को यह पता न चला। एक फूल कम पाकर भगवान विष्णु उसे ढूंढने लगे। परंतु फूल नहीं मिला। तब विष्णु ने एक फूल की पूर्ति के लिए अपना एक नेत्र निकालकर शिव को अर्पित कर दिया। विष्णु की भक्ति देखकर भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए और श्रीहरि के समक्ष प्रकट होकर वरदान मांगने के लिए कहा।

तब विष्णु ने दैत्यों को समाप्त करने के लिए अजेय शस्त्र का वरदान मांगा। तब भगवान शंकर ने विष्णु को अपना सुदर्शन चक्र दिया। विष्णु ने उस चक्र से दैत्यों का संहार कर दिया। इस प्रकार देवताओं को दैत्यों से मुक्ति मिली तथा सुदर्शन चक्र उनके स्वरूप से सदैव के लिए जुड़ गया।

साक्षात शिव का स्वरूप है एक मुखी रुद्राक्ष
भगवान शंकर के स्वरूप से रूद्राक्ष जुड़ा हुआ है। भगवान शंकर के उपासक इन्हें माला के रूप में पहनते हैं। रुद्राक्ष के 14 प्रकार शिवमहापुराण के विद्येश्वरसंहिता में बताए गए हैं। सभी का अलग-अलग महत्व है, जो इस प्रकार है-

- एक मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात शिव का स्वरूप है। वह भोग और मोक्ष प्रदान करता है। जहां इस रूद्राक्ष की पूजा होता है वहां से लक्ष्मी दूर नहीं जाती।

- दो मुख वाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है। यह संपूर्ण कामनाओं और मनोवांछित फल देने वाला है।

- तीन मुख वाला रुद्राक्ष सदा साक्षात साधन का फल देने वाला है उसके प्रभाव से सारी विद्याएं प्रतिष्ठित होती हैं।

- चार मुख वाला रुद्राक्ष ब्रह्मा का स्वरूप है। उसके दर्शन तथा स्पर्श से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है।

- पांच मुख वाला रुद्राक्ष कालाग्निरुद्ररूप है। वह सब कुछ करने में समर्थ है। सबको मुक्ति देने वाला तथा संपूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करने वाला है।

- छ: मुख वाला रुद्राक्ष कार्तिकेय का स्वरूप है। इसे धारण करने वाला ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।

- सात मुख वाला रुद्राक्ष अनंगस्वरूप और अनंग नाम से प्रसिद्ध है। इसे धारण करने वाला दरिद्र भी राजा बन जाता है।

- आठ मुख वाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरवस्वरूप है। इसे धारण करने वाला मनुष्य पूर्णायु होता है।

- नौ मुख वाले रुद्राक्ष को भैरव तथा कपिल-मुनि का प्रतीक माना गया है।

- दस मुख वाला रुद्राक्ष भगवान विष्णु का रूप है। इसे धारण करने वाले मनुष्य की संपूर्ण कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

- ग्यारह मुखवाला रुद्राक्ष रुद्ररूप है इसे धारण करने वाला सर्वत्र विजयी होता है।

- बारह मुखवाले रुद्राक्ष को धारण करने पर मानो मस्तक पर बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं।

- तेरह मुख वाला रुद्राक्ष विश्वदेवों का रूप है। इसे धारण कर मनुष्य सौभाग्य और मंगल लाभ करता है।

- चौदह मुख वाला रुद्राक्ष परम शिवरूप है। इसे धारण करने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है।

यह दिलचस्प किस्सा! जो बताता है कि कण-कण में बसे हैं शिव
हिन्दू धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में शिव साकार और निराकार दोनों ही रूप में पूजनीय है। शिव को अनादि, अनंत भी माना गया है। पंचदेवों के रूप में शिव जहां कल्याणकारी देवता माने गए हैं तो वहीं त्रिदेव शक्तियों में वह दुष्ट वृत्तियों के विनाशक के रूप में भी पूजनीय है। खासतौर पर शिव के निराकार स्वरूप शिवलिंग पूजा समस्त सांसारिक कामनाओं को पूरा करने और दु:ख-संताप का अंत करने वाली बताई गई है। यही नहीं शिवलिंग के दर्शन मात्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला बताया गया है।

शिव पुराण में शिवलिंग प्राकट्य के प्रसंग भी निराकार स्वरूप शिवलिंग की शक्तियों और उपासना का महत्व ही उजागर नहीं करते, बल्कि घट-घट में बसे शिव स्वरूप की अपार महिमा बताते हैं। इसी कारण शिव ही नहीं उनके अनेक अवतार भी धर्म परंपराओं में संकटमोचक माने गए हैं। जिनमें हनुमान, भैरव लोक प्रसिद्ध है। शिवलिंग की ऐसी ही महिमा बताते हुए एक रोचक प्रसंग शिव पुराण में आया है। जिसमें शिव के एक अद्भुत शिवलिंग की स्थापना का रहस्य भी है। जानते हैं यह दिलचस्प प्रसंग -

एक बार दो असुरों विदल और उत्पल ने तप कर ब्रह्मदेव से यह वर पाया कि उनकी किसी पुरुष के हाथों मृत्यु न होगी। इसके बाद दोनों असुरों ने देवताओं पर आक्रमण कर बुरी तरह से हरा दिया। पराजित देवगणों ने ब्रह्मदेव के सामने अपना दु:ख प्रगट किया। तब ब्रह्मदेव ने सभी देवताओं को यह बताया कि शिवलीला से दोनों असुरो का देवी के हाथों अंत होगा।

इसी शिवलीला के चलते नारद ने दोनों दैत्यों के आगे पार्वती की सुंदरता का बखान किया। यह सुनकर दोनों उस स्थान पर पहुंचे जहां माता पार्वती गेंद से खेल रही थी। उनके रूप से मोहित दोनों दुष्ट दैत्य वेश बदलकर देवी के करीब पहुंचे। किंतु महादेव ने उनकी आंखों को देखकर यह जान लिया कि वह दैत्य हैं। शिव ने देवी की ओर संकेत किया।

देवी शिव का इशारा समझ गई और उन्होनें बिना देरी किए अपनी गेंद से दोनों राक्षसों पर घातक प्रहार किया। जिससे चोट खाकर विदल और उत्पल नामक दैत्य धराशायी होकर मृत्यु को प्राप्त हुए और उस गेंद ने शिवलिंग रूप ले लिया। शिवपुराण के मुताबिक यही शिवलिंग गेंद यानी कन्दुक के नाम से कन्दुकेश्वर लिंग के रूप में काशी में स्थित है, जो सभी बुरी वृत्तियों का नाशक व समस्त सांसारिक सुख और मोक्ष देने वाला माना गया है।

शिव भक्ति के वक्त मन में तो नहीं है ऐसा भाव, वरना..
हिन्दू धर्मग्रंथ रामचरितमानस में जीवन जीने के अनेक सूत्र हैं। जिनमें एक सबक यह भी है कि सोच और व्यवहार में अहं सम्मान व सुख से वंचित करता है। रामचरितमानस में आई भगवान शिव की एक स्तुति की रचना से जुड़ी बात अहंकारमुक्त होकर जीवन को सफल बनाने की ऐसी ही अहम सीख देती है।

शिव की यह स्तुति है- रुद्राष्टक। जिसमें शिव के स्वरूप का 'नामामि शमीशान से शुरू लेकर शम्भु प्रसीदति' तक श्रद्धा से पाठ मन, बुद्धि से घमण्ड को गलाने वाला माना गया है। दरअसल, इसकी रचना के पीछे दंभ और अहंकार के बुरे नतीजों से छुटकारे का ही एक प्रसंग है।

ऋषि कागभुशुण्डि परम शिव भक्त थे। उनको शिव के अलावा किसी ओर देव की उपासना में विश्वास न था। ऐसी सोच से वह गुरु विरोधी बन गए, क्योंकि उनके गुरु श्री लोमेश शिव और राम भक्त थे। शिव भक्ति के अहंकार में वह गुरु को छोड़कर भी चले गए। बाद में कागभुशुण्डि ने शिव कृपा के लिए यज्ञ किया। किंतु विरोधी भाव से अपने गुरु को न बुलाया। किंतु शिष्य के प्रति अपार स्नेह के कारण गुरु स्वयं ही वहां चले आए। किंतु कागभुशुण्डि ने अहंकारवश गुरु का सम्मान न किया। इस पर भी गुरु शिष्य की नाराजगी मानते हुए कुछ न बोले।

तब भगवान शंकर ने अपने ही परम भक्त, किंतु अहंकारी कागभुशुण्डि को गुरु के अपमान का दण्ड देते हुए अजगर बनने का श्राप दे दिया। क्योंकि माना जाता है कि शिव बुरे कर्म और आचरण के संहारक हैं, किंतु आशुतोष रूप में थोड़ी भक्ति में ही ढेरों सुख देते हैं। जीवन में गुरु के सम्मान और महत्व को समझाने के लिए भी भगवान शंकर द्वारा ऐसा किया गया।

शिष्य को ऐसी स्थिति में देख गुरु दु:खी हुए। तब उन्होंने शिष्य को घमण्ड में चूर होने से मिले श्राप से मुक्ति के लिए भगवान शिव की महिमा गाई, जो जगत में रुद्राष्टक के रूप में प्रसिद्ध हुई। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने काकभुशुण्डी को शाप मुक्त किया।

इस प्रसंग में व्यावहारिक जीवन के लिए एक संकेत यही है कि पद, धन या ज्ञान के दंभ में किसी की उपेक्षा या अनादर न करें। चाहे वह छोटा हो या बड़ा। जीवन में आगे बढऩे के दौरान और कामयाबी में किसी भी रूप में साथ रहे हर व्यक्ति के लिए कृतज्ञता का भाव रखें। द्वेषता छोड़कर अपनी कामयाबी का हिस्सा बनाएं। ऐसी विनम्रता से भरी सोच ही हर संबंध में भरोसा और मधुरता बनाए रखेगी।

धार्मिक दृष्टि से भी यही संदेश है कि शिव भक्ति की सार्थकता तभी है जब आचरण, बोल और व्यवहार में हमेशा सद्भावों और अच्छी वाणी को भी स्थान दें व घमण्ड से कोई नाता न रखें। वरना दुर्गति व पतन भी तय है।

अनूठा व पापनाशक शिव नाम! जो अनजाने भी बोले हर इंसान
महाशिवरात्रि पर चारों ओर शिव नाम की गूंज होती है। शास्त्र कहते हैं कि शिव नाम और गुणों की महिमा अनंत, अपार है। सरल शब्दों में समझें तो शिव ऐसे अव्यक्त, अनंत स्वरूप देवता हैं, शिव के गुण व शक्तियों की गिनती साधारण इंसान के लिए संभव नहीं।

शास्त्रों में लिखी एक बात शिव के गुणातीत स्वरूप को उजागर ही करती है। जिसके मुताबिक अगर पर्वत जितना काजल लेकर समुद्र जैसी दवात में भरकर कल्पवृक्ष की कलम से पृथ्वी रूपी कागज पर स्वयं ज्ञान की देवी सरस्वती शिव के गुणों को लिखना शुरू करें तो शिव के गुण व शक्तियों का वर्णन खत्म नहीं होगा।

भगवान शिव के ऐसे ही गुण व शक्तियों से जुड़ा है एक नाम, जिसे खासतौर पर शिव साधना के काल में हर शिव भक्त के कंठ में बसता है। यह नाम है - हर। खासतौर पर हर-हर महादेव का जयकारा हर शिव भक्त बोलता है।

हर शब्द के पीछे हरण करने का भाव है। शास्त्रों के मुताबिक शिव और शिव नाम भी सभी पापों को हर लेता है। मन, बुद्धि, विचार, कर्म, वाणी के सारे दोष शिव के हर नाम से नष्ट हो जाते हैं। दूसरे अर्थों में यह पवित्र शब्द पाप, दोष और दुर्गुणों पर विजय दिलाने वाला है।

'हर' नाम की महिमा यहां तक बताई गई है कि अगर 'हर' का किसी शब्द में छुपे या स्वर के रूप में भी उच्चारण हो तो सारे पापों का अंत हो जाता है।

विशेष तौर जीवन के अंतिम समय में 'हर' शब्द किसी रूप में बोले तो बड़ा से बड़ा पाप भी धुल जाता है। शिव नाम की यह दिव्य शक्ति ही शिव का अन्य देवों में सर्वश्रेष्ठ बनाती है और वह महादेव भी पुकारे जाते हैं और पापनाश और शिव की प्रसन्नता के लिये हर-हर महादेव का जयकारा लगाया जाता है।

जानिए, किन-किन चीजों के शिवलिंग होते हैं बड़े चमत्कारी!
शिव को अनीश्वर माना गया है यानी ऐसे देवता जिनका कोई ईश्वर या स्वामी नहीं। इसलिए शिव 'भव' नाम से भी पूजनीय है। जिसका मतलब है कि वह ब्रह्माण्ड या संसार के रूप में प्रकट होने वाले देवता हैं।

यही कारण है कि शिव ही ऐसे देवता हैं, जिनकी साकार और निराकार रूप में उपासना की जाती है। उनका निर्गुण यानी निराकार स्वरूप शिवलिंग है। शिव पुराण में शिवलिंग के दर्शन मात्र को ही दोष और विकार का नाश करने वाला माना गया है।

ऐसे दिव्य स्वरूप से ही वह देवाधिदेव भी पुकारे जाते हैं। यही कारण है कि महादेव की कृपा के लिए देव-दानव, ऋषियों शिवलिंग उपासना से चमत्कारिक सिद्धियों पाया।

शिवपुराण में अनेक तरह के दिव्य शिवलिंगों को अलग-अलग देवी-देवताओं द्वारा पूजने का वर्णन है, जो शिव कृपा के लिये भगवान विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए। इसलिए सांसारिक जीवन में भी इन चीजों से बने शिवलिंग बड़े ही चमत्कारी व शुभ फल देने वाले माने जाते हैं।

जानिए, उन देवी-देवताओं और उनके अलग-अलग पदार्थ या धातु के बने अद्भुत शिवलिंग के बारें में रोचक जानकारी -

ब्रह्मा - चमकीला सोने

विष्णु - इन्द्रनील

लक्ष्मी - स्फटिक

देवी - मक्खन

कुबेर - सोना

इन्द्र - पद्मराग मणि

वरुण - श्याम या काले रंग

अग्रिदेव - हीरे

अश्विनी कुमार - पार्थिव लिंग

नाग - मूंगा

सोम - मोती

विश्वेदेव - चांदी

धर्म - पुखराज

वसुगण - पीतल

मयासुर - चन्दन

आदित्यगण - तांबे

ब्राह्मण - मिट्टी

बाणासुर - पारद या पार्थिव

योगी - भस्म

यक्ष - दही

ब्रह्मपत्नी - रत्न

इसलिए महादेव को है सांपों से लगाव
भगवान शिव के विराट स्वरूप की महिमा बताते शिवपञ्चाक्षरी स्त्रोत की शुरुआत में शिव की नागेन्द्रहाराय कहकर स्तुति की गई है। जिसका सरल शब्दों में अर्थ है ऐसे देवता जिनके गले में सर्प का हार है। यह शब्द शिव के दिव्य और विलक्षण चरित्र को उजागर ही नहीं करता बल्कि जीवन से जुड़ा एक सूत्र भी सिखाता है। जानते हैं यह सूत्र -

शास्त्रों के मुताबिक शिव नागों के अधिपति है। दरअसल, नाग या सर्प कालरूप माना गया है। क्योंकि वह विषैला व तामसी स्वभाव का जीव है। नागों का शिव के अधीन होना यही संकेत है कि शिव तमोगुण, दोष, विकारों के नियंत्रक व संहारक हैं, जो कलह का कारण ही नहीं बल्कि जीवन के लिये घातक भी होते हैं। इसलिए वह प्रतीक रूप में कालों के काल भी पुकारे जाते हैं और शिव भक्ति ऐसे ही दोषों का शमन करती है।

इस तरह शिव का नागों का हार धारण करना व्यावहारिक जीवन के लिये भी यही संदेश देता है कि जीवन को तबाह करने वाले कलह और कड़वाहट रूपी घातक जहर से बचना है तो मन, वचन व कर्म से द्वेष, क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद जैसे तमोगुण व बुरी आदत रूपी नागों पर काबू रखें। सरल शब्दों में कहें तो साफ, स्वच्छ और संयम भरी जीवनशैली से जीवन को शिव की तरह निर्भय, निश्चिंत व सुखी बनाएं।

इन 3 के लिये कभी न बोलें बुरा, नहीं तो..
अक्सर यह भी देखा जाता है कि इंसान जब दु:खी हो तो उसके बोल, स्वभाव, व्यवहार में कोमलता आ जाती है। किंतु दु:ख से बाहर निकलने या फिर सुखों को पाने पर किसी न किसी रूप में अहं मन-मस्तिष्क पर हावी होने लगता है। जिसके चलते पैदा दोष के कारण दूसरों की उपेक्षा व अपमान भी उसे तब तक गलत नहीं लगता, जब तक कि बुरे नतीजों का सामना न हो।

हिन्दू शास्त्रों में आया एक प्रसंग सुखी जीवन में ऐसे ही दु:खों से बचने के लिए खासतौर पर तीन चरित्रों का सदैव सम्मान करने की सीख देता है। जानिए, उस प्रसंग के साथ वे तीन चरित्र, जिनका धार्मिक ही नहीं व्यावहारिक नजरिए से भी उपेक्षा जीवन के लिये घातक हो सकती है -

शास्त्रों के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारकापुरी में आए रुद्र अवतार दुर्वासा मुनि के रूप व दुबले-पतले शरीर को देख उनकी नकल करने लगा। अपमानित दुर्वासा मुनि ने साम्ब को ऐसे कृत्य के लिए कुष्ठ रोगी होने का शाप दिया। फिर भी साम्ब नहीं माना और वही कृत्य दोहराया। तब दुर्वास मुनि के एक ओर शाप से साम्ब से लोहे का एक मूसल पैदा हुआ, जो अंतत: यदुवंश की बर्बादी और अंत का कारण बना।

इस प्रसंग द्वारा नीचे बताए तीन चरित्रों से विनम्रता और मधुर वाणी बोलने का सबक दिया गया है -

गुरु - गुरु को भगवान का ही साक्षात् रूप माना गया है। क्योंकि वह ईश्वर के समान ही ज्ञान द्वारा चरित्र को श्रेष्ठ बनाकर इंसान को नया जन्म देता है। व्यावहारिक नजरिये से भी जिस इंसान से शिक्षा, गुण, कला, कौशल प्राप्त हो, गुरु पद का भागी है। धर्म और व्यवहारिक दृष्टि से ऐसे गुरु का अपमान चरित्र और व्यक्तित्व में दोष पैदा कर जीवन में तमाम सुखों से वंचित कर देता है।

देवता - शास्त्रों के नजरिए से ईश्वर का स्मरण व विश्वास जीवन में संकल्प और कर्म शक्ति को हर स्थिति में मजबूत बनाए रखता है। किंतु ईश या धर्म निंदा धार्मिक दृष्टि से ही पाप का भागी नहीं बनाती, बल्कि धर्म आस्था व श्रद्धा को चोट पहुंचाने से अपयश, कलह लाकर जीवन को भी खतरे में डाल सकती है।

ब्राह्मण - ब्राह्मण को ब्रह्म का अंश माना गया है। धार्मिक परंपराओं में ब्राह्मणों से भगवान की पूजा-अर्चना, ब्राह्मण-पूजा व ब्रह्मदान जीवन में आ रहे सारे कष्ट, बाधाओं से मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय माना गया है। व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्मपूजा या दान के मूल में पावनता और परोपकार के भावों से जुडऩा है। जिससे दूरी पाप कर्म से जोड़ती है। इसलिए ब्राह्मण का अपमान धर्म और ईश्वर के प्रति दोष से जीवन के लिये घातक भी माना गया है

सच्ची भक्ति के ये हैं 6 आसान तरीके
जीवन में कलह, दु:ख और बुरा वक्त बहुत अशांत और बेचैन कर देते हैं। ऐसे में हर इंसान बड़ी राहत की आस करता है। दूसरी तरफ अनेक मौकों पर सुख की अति भी जीवन में नीरसता लाती है और इंसान सुकूनभरे जीवन के लिए नए उपायों की तलाश में रहता है।

शास्त्रों में दु:ख से छुटकारे और स्थायी सुख का ऐसा ही एक मार्ग बताया गया है, जिस पर चलकर इंसान हमेशा दु:ख से परे और सुख-शांति से जीवन गुजार सकता है। यह रास्ता है - ईश्वर की शरण।

भगवान की पनाह यानी शरणागति भक्ति का ही एक रूप है और आसान भी, किंतु इसके लिए स्वभाव, विचार और व्यवहार से भी उतना ही सरल बनना जरूरी है। खासतौर पर अहं के अभाव और समर्पण के भाव के बिना भगवान की शरणागति संभव ही नहीं।

सरल शब्दों में अपनी कमजोरियों को जानकर, मानकर व स्वीकार कर भगवान की शरण जाना गहरे सुख व शांति देते हैं। ऐसी ही शरणागति के छ: उपाय शास्त्रों में बताए गए हैं-

प्रपत्तिरानुकूलस्य संकल्पोप्रतिकूलता।।

विश्वासो वरणं न्यास: कार्पण्यमिति षड्विधा।।

सार है कि छ: बातें स्मरण कर भगवान की शरण में जाएं -

- भगवान की भक्ति का संकल्प यानी उनके ही मुताबिक होने का मजबूत इरादा रखें। सद्गुणों, अच्छे विचार-व्यवहार को अपनाएं।

- भगवान के विपरीत न हों यानी अहंकार और अन्य सभी बुराईयों से दूर रहें।

- भगवान में गहरा विश्वास रखें।

- यह मानकर चलना कि भगवान हमारी रक्षा करेंगे।

- आप तन, मन या धन से कितने ही सबल हो, किंतु भगवान की भक्ति में दीनता का भाव रखें।

- भगवान के प्रति समर्पण का भाव।

इन बातों का सरल शब्दों में संकेत यही है कि भगवान की शरण में जाएं तो स्वार्थ, अहं को छोड़कर जाएं।

उम्र से पहले नहीं चाहते बुढ़ापा, तो आज से ही सुधारें ये 6 आदतें
स्वस्थ होने पर मन अभावों में भी खुश रह सकता है, लेकिन रोगी देह अपार सुखों में भी दु:ख का कारण बन जाती है। यही कारण है कि शास्त्रों में स्वास्थ्य को धन से भी अधिक महत्व दिया गया है। क्योंकि खराब सेहत आपकी आर्थिक हालात भी बिगाड़ सकती है। इसलिए अच्छी सेहत के लिए सबसे जरूरी है नियमित और सुनियोजित दिनचर्या और जीवनशैली।

बस, यही दोष आज के भागते-दौड़ते जीवन का हिस्सा बनता जा रहा है। जिसने तमाम तरह के रोगों से जीवन को बेबस करने वाली बीमारियों को भी पैदा किया है। जिन पर काबू पाना हर इंसान के अपने हाथों में संभव है। किंतु वह जरूरतों और जिम्मेदारियों की विवशता से न चाहकर भी दिनचर्या अनुशासित नहीं रख पाता।

निरोगी जीवन की इसी चाहत को शास्त्रों में लिखी दिनचर्या से जुड़ी हुई कुछ अहम किंतु व्यावहारिक रूप से अपनाने में आसान बातों को ध्यान रख पूरा किया जा सकता है। यथासंभव इन बातों को अपनाने पर आप अनेक रोगों से बच सकते हैं -

लिखा गया है कि -

अत्यम्बुपानं कठिनाशनं च धातुक्षयो वेगविधारणं च।

दिवाशयो जागरणं च रात्रौ षड्भिन निवसन्ति रोगा:।।

सरल शब्दों में दिनचर्या में लापरवाही के छ: कारण आपको गंभीर रोगों का शिकार बना सकते हैं। ये छ: कारण है -

- अधिक मात्रा में पानी पीना

- भारी यानी गरिष्ठ भोजन करना

- धातु क्षीणता या वीर्य स्खलन

- मल-मूल का वेग रोकना

- दिन में सोना

- रात में जागना

शास्त्रों में बताई इन बातों को अपनाकर आप स्वस्थ्य रहकर लंबी आयु पा सकते हैं।

अगर न रखेंगे इंद्रियों पर संयम तो..
यह बात सही है कि प्राण या जीवन को बुद्धि और ज्ञान सबल बनाते हैं। क्योंकि इनसे इंसान के लिये अच्छा-बुरा, लाभ-हानि या सही-गलत के बीच फर्क करना आसान होता है। सही निर्णय क्षमता से ही इंसान गलतियों से बचकर सफलतापूर्वक अपने तय मकसद को पा सकता है। वहीं दूसरी ओर बुद्धि बल या अज्ञानता के कारण समझबूझ की कमी से कोई भी इंसान कितना ही साधन संपन्न हो, लक्ष्य को पाने में मात खा सकता है।

क्या आप जानते हैं मानवीय स्वभाव से जुड़े दोषों में से एक ऐसा भी दोष है, जिससे बुद्धिमान और नासमझ के बीच का फर्क खत्म हो जाता है? यह दोष है इंद्रिय असंयम। जी हां, अज्ञानतावश इंद्रियों जैसे रस, रूप, गंध, स्पर्श, श्रवण और कर्मेन्द्रियों पर संयम न रख पाना इतना अचंभित नहीं करता, किंतु ज्ञानी होने पर भी इन इंद्रियों को वश में न कर पाना बुद्धिदोष माना जाता है, जो किसी इंसान के ज्ञान पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है।

हिन्दू धर्म ग्रंथ धर्मशास्त्रों और श्रीमद्भवतगीता में भी इस बात की ओर संकेत कर सावधान रहने के लिए सीख दी गई है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि -

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरषस्य विपश्र्चित:।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:।।

जिसका सरल शब्दों में संदेश यही है कि अस्थिर या चंचल स्वभाव वाली इन्द्रियां परिश्रमी बुद्धिमान इंसान का मन भी बलपूर्वक डांवाडोल कर देती है।

इसी तरह अन्य शास्त्रों बात में लिखा है कि -

बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति।

इसमें संदेश है कि इन्द्रियों पर बहुत ही काबू में रखें। क्योंकि शक्तिशाली इंद्रियों के आगे ज्ञानी व्यक्ति भी पस्त हो सकता है।

इन बातों का अर्थ यह कतई नहीं है कि इंसानी जीवन में संयम या अनुशासन व्यर्थ है। बल्कि यही सचेत करना है कि हर इंसान में यह कमजोरी होती है। जिसे दूर करने के लिए ही हमेशा अच्छे माहौल, अच्छे विचारों, अच्छे दृश्यों व अच्छे बोलों को व्यावहारिक जीवन में अपनाएं। जिससे अपने आप को हर स्थिति में का सामना करने के लिए संयमी और सबल बना सकें।

जानिए, किन-किन का शनि की क्रूर दृष्टि कर सकती है सर्वनाश..
हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक शनि सूर्य पुत्र हैं। जहां एक ओर शनि देव तपस्वी, महायोगी, महाज्ञानी व भाग्य विधाता बताए गए हैं, वहीं दूसरी ओर उनका स्वभाव और दृष्टि क्रूर भी मानी गई है। उनका यह स्वरूप दण्डाधिकारी के रूप में प्रकट होता है। इसलिए वह न्याय के देवता भी पुकारे जाते हैं।

शनि के स्वभाव, क्रूर दृष्टि और दण्डाधिकारी होने से जुड़ी पौराणिक कथा है। जिसके मुताबिक शनि-सूर्य पिता-पुत्र होने पर भी उनके बीच शत्रुभाव है। जिसका कारण यह बताया गया है कि शनि सूर्य की पत्नी छाया की संतान थे। किंतु शनि के जन्म के समय उनका रंग-रूप देखकर सूर्य ने अपना पुत्र मानने से इंकार किया और छाया की उपेक्षा और अपमान किया।

माता का अपमान सहन न कर शनि ने घोर तप कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और सूर्य से भी अधिक बलवान बनने का वर मांगा। भोलेनाथ ने भी शनि को इस वर के साथ ही नवग्रहों में सबसे ऊंचा स्थान और इंसान ही नहीं देवताओं को भी शनि की शक्ति के आगे नतमस्तक होने का वर दिया। इसके अलावा बुरे कर्मों के लिए जगत के हर प्राणी को दण्ड देने का अधिकार भी दिया।

यही कारण है कि धार्मिक मान्यताओं शनि तिरछी नजर सबल, सक्षम को भी पस्त करने वाली मानी गई है। शनि की ऐसी ही क्रूर दृष्टि से कौन-कौन बदहाल हो सकता है, इसका जवाब भी शास्त्रों लिखा गया है कि -

देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा:।

तव्या विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।

जिसका अर्थ है - देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग इन सभी का शनि की टेढ़ी नजर पडऩे पर नाश हो सकता है।

दूसरों की इन बातों को देखकर न जलें, वरना..
इंसान का अच्छा स्वभाव, व्यवहार और कर्म ही अंतत: सफल और सुखी जीवन का कारण होते हैं। किंतु यह भी सत्य है कि हर व्यक्ति के विचार और स्वभाव में गुण-दोष होते हैं, जो व्यवहार और कर्म को नियत करते हैं। जहां गुण मान-प्रतिष्ठा और यश देते हैं, वहीं दोष से अपयश ही नहीं मिलता, बल्कि कुछ दोष तो गुणों को भी दफन कर देते हैं।

ईर्ष्या, डाह या जलन भी इंसान का ऐसा ही वैचारिक दोष है। ईष्र्या इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी बन जाती है। जिससे इंसान अपनी ही बुरी सोच की आग में अंदर ही अंदर खुद ही जलकर बर्बाद हो सकता है। यह बुरी लत की तरह अंतत: बुरे नतीजों से पहचान, प्रतिष्ठा को नुकसान ही नहीं पहुंचाती, बल्कि अविश्वास का कारण बनती है।

यही कारण है कि हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में ईर्ष्या, दाह या जलन को बुराई बताकर इससे यथासंभव दूर रहने की सीख दी गई है। चूंकि आज के दौर का सुख-सुविधाओं की चकाचौंध भरा जीवन हर किसी के मन को डांवाडोल कर सत्य, दया, परोपकार जैसी धर्म की राह से भटका देता है। इस नजरिए से यहां बताई जा रही बात न केवल आज के दौर के लिए सार्थक है, बल्कि सावधान करने की चेतावनी भी है। जानते हैं कि इंसान को किन-किन विषयों को लेकर ईर्ष्या का भाव मन में नहीं लाना चाहिए -

लिखा गया है कि -

य ईर्षु: परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये।

सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तक:।।

सरल शब्दों में अर्थ है कि किसी के सुख, सौभाग्य, पराक्रम, धन, रूप, कुलीनता और मान-सम्मान को देखकर ईर्ष्या करने का दोष लाइलाज बीमारी है।

इसमें सुखी जीवन का सूत्र यही है कि दूसरों के सुखों को देखकर अपने प्राप्त सुखों को खोते रहना भी अभाव और दरिद्रता को खुला निमंत्रण है। इसलिए ईर्ष्या के बजाय अपने कर्म, काबिलियत और विचार शक्ति पर भरोसा रख सुखों को बंटोरते रहें।

जानें बुरी यादों को चंद पलों में भुलाने का 1 सटीक उपाय
मन का स्वभाव चंचल माना गया है। यही कारण है कि इच्छा के पूरी होने या न होने पर दूसरी इच्छा जाग जाती है। यही सिलसिला आगे चलता रहता है। लेकिन मन की यह चंचलता और अस्थिरता इंसानी स्वभाव और विचारों में दोष भी पैदा करती है। खासतौर पर तब, जबकि व्यक्ति किसी बुरी घटना से गुजरे या उपेक्षित हुआ हो।

मन की चंचलता इन दोषों को और हवा देती - बाहरी वातावरण की नकारात्मक बातें। जिससे कई अवसरों पर इंसान बुरे और निराशाजनक विचारों का शिकार होता है। जिसके चलते वह हर बात में नकारात्मक पक्ष ही ढूंढने लगता है। एक अवस्था ऐसी भी आती है, जिसमें वह बुरी सोच से मिले बुरे नतीजों से बाहर निकलने के लिए जूझता है। इसलिए समय रहते अगर इस दोष पर नियंत्रण न किया जाए तो यह गंभीर निराशा और पतन का कारण बन सकता है।

जीवन में स्वभाववश या परिस्थितियों से पैदा हुई ऐसी ही समस्या का हल हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवतगीता में लिखे एक श्लोक से मिल सकता है। जानें क्या है यह बुरी और निराशाभरी सोच से बाहर आने का सूत्र -

लिखा गया है कि -

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

सरल शब्दों में समझें तो इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने संकेत दिया है कि बुरे और नकारात्मक विचारों को रोकने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि हर व्यक्ति को पक्के इरादों के साथ इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह हर हालात, बात और विचारों में अच्छी, शुभ और सकारात्मक पक्ष को ढूंढे और स्वीकार करेंगा। जिसके लिए अभ्यास जरूरी है।

जिसके लिए अहम है कि दु:ख, कष्टों और बुरी यादों के साथ बुरे विचार, दृश्यों और बातों से दूर रहने का संकल्प रख मन को मजबूत बनाएं। शुभ और मंगल को ढूंढने का ऐसा अभ्यास ही मन को सकारात्मक ऊर्जा से भरकर हमेशा स्वस्थ्य और सबल बनाए रखेगा।

जानिए, कहां और कैसे जब बोलता है पैसा..तो मिलते हैं बड़े-बड़े सुख?
धर्म के नजरिए से धन बाहरी ही नहीं, आतंरिक जीवन की संपूर्णता के लिए भी बहुत जरूरी है। इसलिए यह जीवन के चार पुरुषार्थो में भी शामिल हैं। व्यावहारिक जीवन के नजरिए से हर सांसारिक व्यक्ति के सुख-दु:ख में अर्थ यानी धन, पैसा या दौलत बड़ी भूमिका निभाते हैं।

इसी अहमियत के कारण अक्सर कहा भी जाता है कि पैसा बोलता है, लेकिन बाहरी तौर पर जड़ या द्रव्य रूप में होकर धन या पैसा कैसे चेतना जगाता है, जानिए -

दरअसल, व्यक्ति और स्थिति के मुताबिक धन सुख का कारण व फायदेमंद हो सकता है, वहीं यह दु:ख की वजह और नुकसानदायक भी हो सकता है। अयोग्य और अहंकारी धन का दुरुपयोग कर सकता है, वहीं योग्य और काबिल के पास पहुंचा धन स्वयं के साथ दूसरों के लिए हितकारी हो जाता है। इसलिए जानिए, कैसे और कहां जीवन में धन सकारात्मक भूमिका निभाता है -

- व्यक्तिगत योजनाओं और लक्ष्यों तक पहुंचने में धन का बहुत बड़ा योगदान होता है।

- धन व्यक्ति को सकारात्मक विचार शक्ति यानी सोच को सही दिशा दे सकता है।

- अमीर हो या गरीब भावनात्मक संबंधों और रिश्तों को मधुर बनाने में धन अहम भूमिका निभाता है। इससे मिलने वाली खुशी जिंदगी जीने का जज्बा बनाए रखती है। यह खुशी उम्र को उसी तरह बढ़ा सकती है, जिस तरह चिंता या तनाव उम्र को घटाती है।

- पारिवारिक जिंदगी में जरूरतों और सुविधाओं की पूर्ति में धन का अभाव तनाव, कलह और विवाद का कारण बनकर जिंदगी में उथल-पुथल मचा देता है। किंतु ऐसी स्थिति से बाहर आने और जीवन को गति देने में धन ही संगी-साथी बनता है।

- दरिद्रता या धन के अभाव से समय निकलने के साथ मानसिक बेचैनी, निराशा, कुंठा जीवन पर हावी होती है, ऐसी स्थिति में धन की आवक आपके आत्मविश्वास और शक्ति को फिर से जगा देती है।

- धन मिलने पर ही नहीं, बल्कि धन प्राप्ति की आस ही व्यक्ति में ऊर्जा और उत्साह भर देती है।

- धन परिवार, समाज में मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और ख्याति देता है।

- धर्म शास्त्रों में बताए गए जीवन के चार पुरुषार्थों में धर्म, काम और मोक्ष को पाना अर्थ यानि धन के पड़ाव से गुजरे बिना संभव नहीं है।

- धन व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक और व्यावहारिक स्वास्थ्य को पुष्ट करता है।

इस तरह धन किसी भी व्यक्ति के जीवन, व्यक्तित्व, विचार और चरित्र को निखारने में अचूक औषधी की तरह कार्य करता है।

शक्ति और भक्ति का अद्भुत संगम है हनुमान चरित्र
तुलसीदास द्वारा लिखी श्री हनुमान चालीसा की हर चौपाई संकटमोचक श्री हनुमान की शक्ति और भक्ति के करिश्माई परिणामों की महिमा बताती है। धर्मग्रंथों में बताए श्री हनुमान के ऐसे दिव्य चरित्र, गुण और अतुलनीय शक्तियां ही युग-युगान्तर से धर्मावलंबियों के मन में श्री हनुमान भक्ति के लिए श्रद्धा, भक्ति और विश्वास जगाती है। यह भरोसा ही सारे शोक, संताप व रोग दूर करने में भी निर्णायक होता है।

दरअसल, हनुमान चरित्र भक्ति और शक्ति का बेजोड़ संगम माना गया है। इसलिए जानिए, कैसे हनुमान की भक्ति और शक्ति का प्रभाव सांसारिक व्यक्ति को स्वस्थ्य और पीड़ामुक्त जीवन देने वाला होता है? इसका जवाब भी श्री हनुमान चरित्र और गुणों में मिल जाता है। जानिए, यह रहस्य -

शास्त्रों के मुताबिक श्री हनुमान जितेन्द्रिय और प्रजापत्य ब्रह्मचारी है। श्री हनुमान का यह बेजोड़ गुण ही सांसारिक प्राणी के लिए हमेशा रोग और दु:ख से मुक्त रहने का श्रेष्ठ सूत्र माना गया है। इस दिव्य गुण के कारण ही श्री हनुमान भक्ति और उपासना के नियमों में पवित्रता, मर्यादा और संयम का पालन अहम माना गया है।

श्री हनुमान के इन गुणों और भक्ति के नियम किसी भी इंसान को इंद्रिय संयम के संकल्प से जोड़ते हैं। इंद्रिय संयम द्वारा इंसान बुरे संग, गलत खान-पान, कुविचार, बुरे व्यवहार के साथ बुरा बोलने, सुनने और देखने से दूर रहता है।

वहीं दूसरी ओर मात्र शरीर द्वारा ही नहीं बल्कि मन और विचारों के द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत सरल शब्दों में संयम के पालन से सद्भभाव, सद्गुणों व अच्छी प्रवृत्तियों के जीवन में उतरने से जीवनशैली व दिनचर्या अनुशासित होती है। निरोग रहने के लिए यही बातें महत्वपूर्ण होती है। जब इंसान तन और मन से स्वस्थ व दोष रहित होता है तो जाहिर है वह शारीरिक, मानसिक व व्यावहारिक जीवन के कष्टों से मुक्त रहता है।

यही कारण है निरोगी, सुखी और शांत जीवन के लिए हनुमान का स्मरण रख संयम और अनुशासन को जीवन में अपनाना बहुत ही शुभ है।

कयामत: दुनिया खत्म होने के पहले ऐसे खतरनाक इशारे मिलेगे
जी हां प्रलय आने के पहले दुनिया बदलने लगेगी और ऐसे आश्चर्यजनक बदलाव होंगे जो आपको चौंका देंगे। ज्योतिष के अनुसार जब आसमानी सितारे अपनी चाल के साथ दिशा बदल देते हैं तो कोई बड़ी घटना घटने का संकेत मिलता है। जब ये सितारे, राशि और ग्रह नक्षत्र अपनी गति में भी अचानक बदलाव कर देते हैं तो दुनिया बदलने के संकेत मिलने लगते हैं। इन्ही से शकुन और अपशकुन विचार किया जाता है।

वेद और पुराणों के अनुसार यह सारा संसार ब्रह्म जी के एक दिन के बराबर होता है। दिन खत्म होते ही संसार भी खत्म हो जाता है। जब दुनिया खत्म होने वाली होती है तो उससे पहले सभी लोग झूठ बोलने लग जाते हैं। ब्राह्मण शुद्रों के कर्म करते हैं। शुद्र वैश्यों की तरह धन इकट्ठा करने लगते हैं या क्षत्रियों के कर्म से अपनी जीविका चलाने लगते हैं। नीच लोग गायत्री जप को अपनाते हैं। इस तरह सब लोगों का व्यवहार बदल जाता है। विपरित हो जाता है। इंसान नाटे कद के होने लगते हैं। आयु, बल, वीर पराक्रम सब घटने लगता है। सभी लोगों की बातों में सच का अंश बहुत कम होने लगता है। उस समय स्त्रियां भी नाटे कद वाली और बहुत से बच्चे पैदा करने वाली होती हैं।

ब्राह्मण वेद बेचने लगते हैं। वेश्यावृति बढऩे लगती है। वृक्षों पर फल-फूल बहुत कम लगते हैं। गृहस्थ अपने ऊपर भार पढऩे पर इधर-उधर से कर की चोरी करने लगते हैं। मदिरा पीते हैं और गुरुपत्नी के साथ व्याभिचार करते हैं। जिनसे शरीर में मांस व रक्त बढ़े उन लौकिक कार्यों को करते हैं। स्त्रियां पति को धोखा देकर नौकरों के साथ व्याभिचार करती हैं। वीर पुरुषों की स्त्रियां भी अपने स्वामी का परित्याग करके दूसरों का आश्रय लेती हैं। इस तरह सहस्त्र युग पूरे होने लगते हैं। इसके बाद सात सूर्यों का बहुत प्रचण्ड तेज बढ़ता है और प्रलय की शुरुआत होती है।

कम वक्त में भी गहरी नींद चाहें, तो अमल करें इन 5 बातों पर..
मानव शरीर की एक सबसे अहम क्रिया है - नींद, शयन या सोना। नींद शरीर के लिए उतनी ही जरूरी है, जितना भोजन या पानी। सुखी और खुशहाल जीवन गुजारने के लिए जरूरी यही होता है कि शरीर की इस क्रिया को कुदरत से तालमेल बैठाकर चला जाए। किंतु भागदौड़ भरे जीवन में कर्म, वचन और व्यवहार के दोष और असंतुलित जीवनशैली शयन क्रिया में खलल डालते हैं। इससे शरीर समस्या, दु:ख और रोग का घर बन जाता है।

हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में भी जीवन और व्यवहार से जुड़े ऐसे ही पांच कारण बताए गए हैं, जिससे इंसान सो नहीं पाता। अगर आप भी चैन की नींद सोना चाहते हैं तो कारणों को जानें और साधें अपने जीवन को -

महाभारत में लिखा गया है कि -

अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम्।

हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागरा:।।

सरल शब्दों में इस श्लोक का अर्थ समझें तो नीचे बताए पांच कारणों से इंसान रात में भी जागने का रोगी हो जाता है -

- पहला किसी व्यक्ति को अपने से अधिक शक्तिशाली और मजबूत व्यक्ति से विरोध, मतभेद हो जाए तो टकराव की उधेड़बुन में मन-मस्तिष्क रातों में भी बेचैन रहता है। इसके हल के लिए प्रेम और सहयोग का रास्ता चुनें।

- दूसरा अभावग्रस्त या सुख-साधनों से वंचित इंसान चिंता से जागता रहता है। संतोष और मेहनत का भाव उतारना इस समस्या से निजात दिलाता है।

- तीसरा जीवन जीने के सुख-साधन छिन जाने पर व्यक्ति सो नहीं पाता। इसके लिए धैर्यवान और आशावादी बनें।

- चौथा काम भाव यानी काम वासना से पीडि़त व्यक्ति। इससे बचने के लिए जीवन में संयम रखकर सोने से पहले अच्छे विचारों व देव स्मरण करें।

- पांचवा चोरी करने वाला। चोरी शब्द अन्य अर्थो में यह भी संकेत देता है कि आलस्य यानी कामचोरी या कर्महीनता भी सुकून भरी नींद छिनने वाली होती है। इसके लिये अकर्मण्यता और लालच से बचें।

बच्चे करेंगे बड़ा काम और नाम..अगर माता-पिता सिखाएं ये सरल मंत्र
सत्य और पवित्रता परमात्मा या भगवान का ही स्वरूप माने गए हैं। हर बच्चे का मन और भाव भी इन दो गुणों से भरा होता है। यही कारण है कि बच्चों को भगवान की मूरत भी पुकारा जाता है। हर माता-पिता यही चाहते हैं कि उनकी संतान मन, वचन और कर्म में यही सच्चाई और पावनता ताउम्र कायम रख सुखी व यशस्वी जीवन बिताए।

ऐसी ही कामना को पूरा करने का एक बेहतर उपाय है- देव स्मरण, जो हर इंसान को नियम व अनुशासन से जोड़कर मन को सत्य, पवित्रता के संकल्प से जोड़कर रखता है। अगर आप भी अपने पुत्र या पुत्री के सुनहरे भविष्य की इच्छा रखते हैं और चाहते हैं वे होनहार बन बड़ा काम व नाम करें तो उनकी जीवनशैली और दिनचर्या को नियमित और संयमित करने के लिये यहां बताए जा रहे सरल देव मंत्रों को जरूर सिखाएं और बुलवाएं। जानिए, ये सरल देव मंत्र और उन मंत्रों से मिलने वाली गुण व सिद्धियां -

श्री गणेश - ॐ गं गणपतये नम: (बुद्धि और विवेक)

शिव - ॐ नम: शिवाय (परोपकार, दया, उदारता )

विष्णु - ॐ नमो भगवते वासुदेवाय (शांति, संयम, पवित्रता)

मां सरस्वती - ॐ सरस्वत्यै नम: (ज्ञान, कला, कौशल)

श्री हनुमान - ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय नम: (शक्ति, ऊर्जा, समर्पण)

गायत्री मंत्र - (तमाम शक्तियां व सिद्धियां)

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्यधीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

युवा बने इन 5 शक्तियों का स्वामी!..तो दुनिया हो जाएगी मंत्रमुग्ध
शक्ति आत्मविश्वास और ऊर्जा बढ़ाती है, जिनसे कामयाबी की ऊंचाईयों को छूना आसान हो जाता है। शक्ति की इसी अहमियत को जानकर हर इंसान शक्ति संपन्न बनने के प्रयास भी करता है। जिसके लिये या तो वह खुद अपनी शक्तियों के बूते या फिर किसी शक्ति संपन्न से जुड़कर सबल बनने की कवायद करता है।

शास्त्रों में व्यावहारिक जीवन में शक्ति के इसी महत्व को जानकर इंसान के लिये अहम शक्तियों के पांच रूप बताए गए हैं। खासतौर पर हर युवा इन शक्तियों के बूते किसी भी असंभव लक्ष्य को भी पा सकता है। जानते हैं शक्ति के ये पांच रूप -

हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत के मुताबिक कोई इंसान इन पांच शक्तियों को स्वामी बन जाए तो नामुमकिन को मुमकिन बना सकता है -

बाहुबल - शारीरिक ताकत यानी शरीर हष्टपुष्ट और स्वस्थ रखना। इसे कनिष्ठ बल भी कहा गया है।

धन बल - इंसान के जीवन के लिये धन भी शक्ति है, जिसके बिना जरूरतों, जिम्मेदारियों को पूरा करना कठिन हो जाता है। किंतु धनवान होने पर इंसान के लिये यही काम आसान हो सकते हैं।

राज्य बल - इसके तहत किसी मंत्री से मिलना या सहयोग भी बल माना गया है। जिसे आधुनिक संदर्भ में समझें तो शासन में रुतबेदार व्यक्ति की पहचान या सहयोग भी इंसान को ताकत देती है।

कुटुम्ब बल - प्रतिष्ठित कुल या कुटुंब का होना भी इंसान की शक्ति होती है। जिसके द्वारा वह मान-सम्मान और यश पाता है। जिसके लिए हर इंसान चरित्र व आचरण को पवित्र बनाए रखे। जिससे अच्छे संस्कार व जीवन मूल्य अगली पीढ़ियों तक पहुंचते रहे।

बुद्धि बल - यह बल सभी बलों में श्रेष्ठ और अहम माना गया है। बुद्धि के अभाव में शरीर, राज्य, कुटुंब या धन से सक्षमता भी निरर्थक हो जाते हैं। बुद्धि ही ऐसी ताकत है, जिससे हर कठिन हालात पर काबू और लक्ष्य को पाया जा सकता है।

यहां पुरुष जान लें 3 काम की बातें!
जीवन में सुख बंटोरने के लिये तन, मन और धन से जुड़ी अनेक बातें अहम होती है। गुण, योग्यता, व्यवहार, स्वभाव, कर्म, व्यवहार, धन सुखों को नियत करते हैं। इनमें कमी या दोष इंसान के दु:खों का कारण बन सकते हैं। शास्त्रों में इंसान खासतौर पर पुरुष को दु:खों से दूर रखने के लिये ही ऐसे तीन सूत्र बताए गए हैं, जिनको कोई पुरुष व्यावहारिक जीवन में ध्यान रखकर अपनाए तो वह हमेशा सुख पाता है।

यहां जानते है कि पुरुषों के लिए वह तीन खास सूत्र कौन-से हैं। शास्त्रों में लिखा है कि -

उत्तमै: सह साङ्गत्यं पण्डितै: सह सत्कथाम्।

अलुब्धै: सह मित्रत्वं कुर्वाणो नावसीदति।

जानते हैं इस बात का सरल और व्यावहारिक अर्थ -

कहा गया है कि पुरुष 3 बातों के कारण कभी दु:खी नहीं होता। ये तीन बाते हैं -

पहली अच्छे स्वभाव वाले सज्जनों की संगति। दूसरी ज्ञानी, विद्वानों से सत्कथा यानी अच्छी बातें सुनना और तीसरी ऐसे व्यक्ति से मित्रता जो लोभी न हो।

सार यही है कि चूंकि संगति का प्रभाव ही अच्छा या बुरा बनाता है। इसलिए अगर कोई पुरुष अच्छे स्वभाव वाले व्यक्ति का संग करता है तो उसका स्वभाव, चरित्र और गुण भी उत्तम होते हैं। यही श्रेष्ठता जीवन में उसके लिये किसी भी वक्त और स्थान को अनुकूल बना देती है। इस तरह समय और स्थान के हिसाब से ढल जाना ही उसे हमेशा सुखी रख सकता है।

इन 4 सुखों से धोना पड़ेगा हाथ! अगर बड़ों के पैर छूने में रखी झिझक..
इंसान के लिए मान-सम्मान की अहमियत प्राणों के बराबर ही मानी गई है। जिस तरह प्राण चले जाने पर शरीर निष्क्रिय हो जाता है। उसी तरह अपमान होने या सम्मान छिन जाने पर जीवित इंसान भी प्राणहीन महसूस करता है।

यही कारण है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में सुखी जीवन के लिये मात्र सम्मान बंटोरने के लिये ही कर्म, व्यवहार की सीख नहीं दी गई, बल्कि उससे भी अधिक महत्व सम्मान देने का बताया गया है।

इसी कड़ी में हिन्दू संस्कृति में बड़ों का सम्मान व सेवा का व्यवहार व संस्कार में बहुत महत्व बताया गया है। तमाम हिन्दू धर्मग्रंथ जैसे रामायण, महाभारत आदि में बड़ों के सम्मान को सर्वोपरि बताया गया है। जिनमें माता-पिता, गुरु, भाई सहित सभी बुजुर्गों के सम्मान के प्रसंगों में बड़ों से मिला आशीर्वाद संकटमोचक तक बताया गया है।

इसी संबंध में हिन्दू धर्म शास्त्र में लिखी बात ऐसी ही एक बात साफ करती है कि बड़ों के सम्मान से क्या लाभ हो सकते हैं -

लिखा गया है कि -

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

सरल अर्थों में समझें तो जो व्यक्ति हर रोज बड़े-बुजुर्गों के सम्मान में प्रणाम, चरणस्पर्श कर सेवा करता है। उसकी उम्र, विद्या, यश और बल में बढ़ती जाती है।

असल में बड़ों के सम्मान से आयु, यश, बल और विद्या बढऩे के पीछे मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक कारण भी है। चूंकि सम्मान देते समय समय खुशी का भाव प्रकट होता है, जो देने और लेने वाले के साथ ही आस-पास के माहौल में भी उत्साह, उमंग व ऊर्जा से भरता है। आयु बढ़ाने में प्रसन्नता, ऊर्जा और बेहतर माहौल ही अहम और निर्णायक होते हैं।

वहीं सम्मान देना व्यक्ति का गुणी और संस्कारित होने का प्रमाण होने से दूसरे भी उसे सम्मान देते हैं। यही नहीं ऐसे व्यक्ति को गुणी और ज्ञानी लोगों का संग और आशीर्वाद अनेक रूपों में प्राप्त होता है। अच्छे और गुणी लोगों का संग जीवन में बहुत बड़ी शक्ति बनकर बेहतर नतीजे तय करता है।

इस तरह बड़ों का सम्मान आयु, यश, बल और ज्ञान के रूप में बहुत ही सुख और लाभ देता है।

गृहस्थी हो या कार्यक्षेत्र, सफल होना है तो याद रखें श्री हनुमान का यह सबक
इंसानी जीवन संघर्ष से भरा होता है। सफलतम हो या असफल इंसान, दोनों को अपने वजूद को बनाए रखने के लिये जद्दोजहद करना ही होती है। हां, इसका रूप अलग-अलग जरूर हो सकता है।

संघर्ष का यह सिलसिला परिवार को खुशहाल बनाने से लेकर कार्यक्षेत्र में आगे बढऩे के दौरान चलता ही रहता है। परिवार के मुखिया के रूप में जिम्मेदारियों को उठाना हो या कार्यक्षेत्र में ऊंचे पद पर बैठकर प्रबंधन का दायित्व पूरा करना हो, दोनों ही स्थितियों में प्रशासनिक कुशलता अहम होती है। जिसके लिए ऊपरी तौर पर तो सभी को साथ लेकर चलने का सूत्र बेहतर माना जाता है।

सभी के साथ समन्वय और संतुलन बनाने की यह बात मौखिक रूप से तो बड़ी आसान लगती है, किंतु व्यावहारिक रूप उतना ही कठिन भी होती है। इसी जटिल कार्य को आसान बनाने का सूत्र हिन्दू धर्मग्रंथ वाल्मीकि रामायण में श्री हनुमान द्वारा सुग्रीव को बताया गया। जिसे राजा या शासन करने वाला कोई भी व्यक्ति अपनाएं तो गृहस्थी या कार्यक्षेत्र में सफलता पा सकता है।

वाल्मीकि रामायण के मुताबिक श्रीराम-लक्ष्मण को देखकर सुग्रीव के मन में पैदा भय-संशय को दूर करने के लिय श्री हनुमान द्वारा यह बात कही गई -

बुद्धिविज्ञानसम्पन्न इङ्गितै: सर्वमाचर:।

नह्यबुद्धिं गतो राजा सर्वभूतानि शास्ति हि।।

सरल शब्दों में संदेश है कि राजा बुद्धि और बल के बूते ही पूरी प्रजा पर सफलतापूर्वक शासन कर सकता है। जिसके लिये बहुत जरूरी है कि बुद्धि और विवेक के उपयोग से दूसरों के भाव, स्वभाव और व्यवहार को समझें और उसके मुताबिक निर्णय लेकर काम करें।

यही बात गृहस्थी और कार्यक्षेत्र में समान रूप से लागू होती है। घर में पारिवारिक सदस्यों के स्वभाव, गुणों, आदतों और कार्यक्षेत्र में अधीनस्थों के कार्य, प्रकृति, गुण और व्यवहार की निरपेक्ष भाव से परख कर सफलता और लक्ष्य को हासिल करें और कुशल प्रबंधक बन अधीनस्थों के साथ स्वयं भी तरक्की की राह पर आगे बढें।

दो बेहतरीन तरीके! जो तेजी से बढ़ाए ख्याति, यश व सफलता
वैसे यश व प्रतिष्ठा पाने के लिए यह जरूरी नहीं है कि किसी बड़ी सफलता, उपलब्धि, पद या शक्ति को हासिल किया जाए। खासतौर पर आज के रफ्तार भरे दौर में तो धन, पद और प्रतिष्ठा तो स्वार्थ, छल, झूठ जैसे गलत आचरण से भी पा लेता है, लेकिन ऐसी बंटोरी सफलता उतनी ही तेजी से पतन का सबब भी बनती है।

यही कारण है कि धर्मशास्त्र भी कहते हैं कि यश और कीर्ति वास्तविक सुख और आनंद तभी देती है, जब वह सही आचरण, अच्छे कर्मों और भलाई से पाई जाए। व्यावहारिक जीवन में अच्छे आचरण, कर्म और भलाई के भाव तभी संभव है जबकि मन संवेदनाओं से भरा हो। किंतु मन में भावनाओं को स्थान तभी मिलता है, जब मन को काबू में रखा जाए।

हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमद्भवतगीता में मन को ही वश में रखने के दो सूत्र बताए गए हैं। इनमें पहला है - वैराग्य और दूसरा है - अभ्यास। जानते हैं इनका व्यावहरिक नजरिए से अर्थ -

वैराग्य का शाब्दिक मतलब है - राग यानी मोह से छूटना। तन, मन और सामाजिक दोषों से अलग रहते हुए सादा, संतोषी और शांतिपूर्ण ज़िंदगी बिताना ही वैराग्य का वास्तविक अर्थ है। किंतु इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि परिवार, समाज से कट कर एकाकी जीवन गुजारें। बल्कि सही मायनों में वैराग्य वही सफल माना जाता है, जो संसार में रह कर ही राग-द्वेष को मात देकर पाया जाए। इसके लिए सादा जीवन और उच्च विचार का सूत्र भी बेहतर उपाय है।

दूसरा सूत्र है - अभ्यास यानी बुराईयों और बुरे विचारों से दूर रहने का अभ्यास। जिसके लिए योग साधनाओं को श्रेष्ठ माना गया है। ऐसा अभ्यास बुरी आदत और भावनाओं से बचने का सबसे अच्छा तरीका है। इससे मन की चंचलता खत्म होती है और वह एकाग्र होता है। शास्त्रों में मन को संयमित रखने के सरल तरीकों में खासतौर पर ध्यान, जप, भगवत नाम का स्मरण व त्राटक बहुत प्रभावी माना गया है।

इस तरह इन दो तरीकों को अपनाकर पाई संयमित और व्यवस्थित ज़िंदगी किसी व्यक्ति के लिए वरदान साबित होती है। ऐसा जीवन न केवल व्यक्तिगत उपलब्धि देने वाला होता है, बल्कि दूसरों के लिए भी आदर्श और प्रेरणा बन जाता है।

क्या कभी आपने गौर किया है भगवान की पूजा से जुड़ी इन 3 जरूरी बातों पर
भगवान में आस्था रखने वाला इंसान दु:ख में, किसी विशेष इच्छा को पूरा करने, किसी देव साधना से जुड़े नित्य कर्म या खास मौके पर धार्मिक कर्मों में भगवान को याद जरूर करता है। किंतु अक्सर व्यक्ति भगवान की पूजा, उपासना या भक्ति के दौरान कुछ जरूरी बातों पर गौर नहीं करता। जिससे अनेक लोग परेशानियां पूरी तरह से दूर न होने या इच्छाएं अधूरी होने से निराश होकर नियमित भगवान के ध्यान से दूरी बना लेते हैं। ऐसी हालात में वह यह नहीं सोच पाता कि भगवान की कृपा से ही संभव हो कि उसकी दिक्कतें बढ़ी नहीं और कुछ हद तक कामनाएं भी पूरी हुईं।

आखिर कौन-सी हैं वे अहम बातें, जिन पर ध्यान न देने से भक्ति के बाद भी व्यक्ति बेचैन और परेशान रहता है? धर्म के नजरिए से जानिए भगवान को स्मरण करने में इच्छाओं, भाव से जुड़ी याद रखने योग्य 3 अहम जरूरी बातें -

- पहली बात जब भी भगवान या अपने इष्ट का ध्यान करें या मंत्र जप करें। वह नाम और जप उजागर न करें। क्योंकि धार्मिक महत्व की दृष्टि से भगवान के नाम का ध्यान जितना गुप्त रखा जाता है वह उतना ही असरदार और फलदायी होता है।

- दूसरी बात आप जिस भी देवता या इष्ट का नाम लें उस नाम का मतलब और देव स्वरूप का ध्यान कर जप करें। जिससे मन शांत और एकाग्र्र रहता है।

- तीसरी और अंतिम बात जो व्यावहारिक रूप से अजीब लगती है, किंतु धार्मिक रूप से अहम है। वह है भगवान का ध्यान या उनका नाम किसी इच्छा, कामना के मकसद से न लेकर बिना किसी स्वार्थ या हितपूर्ति की कामना से पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ करें। धार्मिक दृष्टि से इस भाव से नाम स्मरण भक्त को भगवान की प्रसन्नता और अदृश्य कृपा मिलती है। साथ ही वह शांत और सहज हो जाता है।

वक्त व स्थान के मुताबिक ढलना हैं, तो पढ़ें ये 11 बेजोड़ सूत्र
हर व्यक्ति सुख की इच्छा ही नहीं रखता, बल्कि उसके साथ शांति भी चाहता है। जीवन में शांति न होने पर बड़े से बड़े सुख में भी व्यक्ति अभावग्रस्त महसूस करता है। सुकून भरे इंसानी जीवन के सूत्र हर धर्म में बताए गए हैं। किंतु सनातन धर्म में परंपराओं के माध्यम से बताए गए रहने और जीने के सलीके खुशी के साथ मन में गहरी शांति भी देते हैं। जानते हैं ऐसी ही कुछ बातें -

1. दूसरों में अपना रूप देखें। तभी वास्तविक प्रेम व मेलजोल से जीवन गुजारना संभव होगा।

2. यह कभी न भूलें कि शरीर की मृत्यु तय है। जीवन अस्थाई है। इससे अहं का भाव दूर रहेगा और प्रेम जीवन में उतरेगा।

3. दूसरों के दोष न देखकर स्वयं के दुर्गुणों को पहचान उसे दूर करें।

4. पवित्र, ईमानदारी के साथ सादा जीवन बिताते हुए नियत लक्ष्य पाना ही जीवन की सार्थकता और उपयोगिता है।

5. निजी हित और स्वार्थ को भूलकर परोपकार और दूसरों की भलाई की कोशिश करना।

6. सभी सुख-वैभव और भोग विलास में आसक्ति न रखना।

7. माता-पिता, गुरु, बुजुर्गों, विद्वान, संत, महापुरुषों, ब्राह्मणों एवं आचार्यों की सेवा एवं सम्मान करना।

8. गाय, गंगा, गीता, गायत्री, वेद और रामायण की पवित्रता का सम्मान करना।

9. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्रत, उपवास, तप और योग को अपनाएं।

10. सत्य, दया, अहिंसा, प्रेम, सेवा, त्याग के भाव जीवन में उतारना ही सनातन धर्म की पहचान है।

11. ईश्वर सर्वशक्तिमान है। इसलिए हर हालात में भगवान पर विश्वास रखें।

चाहें ज्यादा से ज्यादा खुशी, तो जीवन में कम से कम ये 8 बातें कर गुजरें
आज जीवन की भागदौड़ पाप या पुण्य कर्मों पर गहराई से विचार का वक्त नहीं देती। अक्सर यह भी देखने में आता है कि पाप और पुण्य की परिभाषा भी इंसान अपने स्वार्थ, हित पूर्ति, जरूरतों या लाभ के मुताबिक गढ़ता है।

शास्त्रों के नजरिए से पाप इंसान के दु:ख और पतन का कारण तो पुण्य सुख और तरक्की का कारण होते हैं। इस कारण सुख या दु:ख और होनी-अनहोनी का सामना इंसान को करना ही पड़ता है।

शास्त्रों में मन, वचन और कर्म से जुड़े अनेक पाप-पुण्य बताए गए हैं। हर सांसारिक व्यक्ति इस ज्ञान से अवगत नहीं होता। चूंकि, हर इंसान के अंदर अच्छाई से जुडऩे का भाव कहीं न कहीं मौजूद रहता है। इसलिए यहां बताई जा रही है शास्त्रों में बताई कुछ ऐसी ही बातें, जिनको पुण्य कर्म माना जाकर हर काल, स्थान और व्यक्ति के लिए श्रेष्ठ माना गया है। सरल शब्दों में समझें तो अगर जीवन में ज्यादा से ज्यादा खुशी चाहते हैं तो कम से कम ये 8 बातें कर गुजरने से न झिझकें। लिखा गया है कि -

प्राणाघातान्निवृति: परधनहणे संयम: सत्यवाक्यं

काले शक्तया प्रदानं युवतिजनकथामूकभाव: परेषाम्।

तृष्णास्त्रोतोविभंगो गुरुषु च विनय: सर्वभूतानुकम्पा

सामान्य: सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि: श्रेयसामेष पन्था:।।

सरल शब्दों में मतलब है कि इंसान के लिये 8 बातों को मन, वचन, व्यवहार में अपनाना चाहिए। ये बाते हैं -

- सच बोलना

- शक्ति और समय के मुताबिक दान करना

- गुरु के प्रति सम्मान और नम्रता का भाव। चाहे वह गुण, उम्र या किसी भी रूप में बड़ा हो।

- सबके प्रति दया भाव रखना।

- मन में पैदा होने वाली इच्छाओं पर काबू रखना।

- परायी स्त्री के बारे में बोलने या सुनने से बचना।

- दूसरों का धन पाने या हड़पने की भावना से दूर रहना।

- प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव अपनाना।

इन 4 बातों को दें अहमियत, तो पूरा हो जाएगा हर मकसद
जीवन में सफलता तय करने के लिए केवल ज्ञान, शरीर या धन से ताकतवर हो जाना ही काफी नहीं होता, बल्कि इनके साथ एक अहम खूबी भी हर इंसान के लिये जरूरी है, जिसके द्वारा मनचाहा मकसद पूरा करना आसान हो जाता है। यह खास खूबी है-व्यवहार कुशलता।

धर्मशास्त्रों में सफल जीवन के लिये जरूरी इस खास खूबी में महारत हासिल करने के लिये ही संसार में चार तरह के इंसान बताकर उनसे व्यवहार के 4 सूत्र बताए गए हैं। जानते हैं किस तरह के इंसान से कैसा व्यवहार यश, सुख और सफलता नियत करता है -

- अपने समान गुण, काबिलियत, शौक व हैसियत वाले इंसान से दोस्ती का व्यवहार करें। जिसमें विशेष रूप से प्रेम, सहयोग का भाव हो। क्योंकि ऐसे लोगों से तालमेल बहुत ही जल्दी व आसानी से कायम हो जाता है।

- किसी भी रूप में बड़ें या गुणी लोग, जो प्रेरणादायी या आत्मविश्वास बढ़ाने वाले हों। उनसे मिलकर या देखकर सम्मान के साथ खुशी जाहिर करें और उनके गुणों को अपनाने का भरसक प्रयास करें।

- अपने से छोटे चाहे वह गुण, ज्ञान, धन से ही कमजोर क्यों न हो, से व्यवहार में करुणा का भाव रखें। शास्त्रों में तो कर्म से कमजोर यानी बुरे कामों में शामिल इंसान के लिये भी दया और सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना श्रेष्ठ माना गया है। ऐसे लोगों से नफरत न कर अपनी तरह ही सुखी और गुणों से ऊंचा बनाने के लिए यथासंभव कोशिश और मदद करें।

- दुर्जन यानी जो बुरी लत या कामों से जुड़े होकर पाप कर्म करते रहते हैं या जिनमें तमाम तरीके अपनाने के बाद भी सुधार की संभावना न दिखे। उनके प्रति नफरत या शत्रुता का भाव न रख तटस्थ हो जाएं। उनसे न भयभीत हो न उनके शमन के लिए मन में बुरे भाव या कर्म द्वारा स्वयं को भी अपराध या पाप कर्म में शामिल कर अपने गुण, योग्यता और भविष्य को दांव पर लगाएं। नीतिपूर्वक निपटें।

इस तरह इन चार तरीकों से व्यवहार कुशलता न केवल जीवन में आपकी सफलता की राह को आसान बनाएगी, बल्कि इनके नतीजों में मिले दूसरों के स्नेह, विश्वास, सहयोग व मनोबल की ऊर्जा से आप मनचाहा मकसद भी पा लेंगे।

व्यस्तता से पाठ-पूजा नहीं कर पाते, तो जानें काम के दौरान कैसे होती है पूजा?
ईश्वर में आस्था और विश्वास करने वाले सुख-सफलता के लिए देव पूजा करने या देवालय जाते हैं। इससे वह आत्मविश्वास ही नहीं पाते, बल्कि उससे मिली हर उपलब्धि को देव कृपा या आशीर्वाद मानते हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, जिनको नास्तिक भी पुकारा जाता है। किंतु वे भी सफल जीवन गुजारते देख जाते हैं।

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो ईश्वर को मानते हैं, पर व्यस्तता के चलते देव आराधना का समय निकाल नहीं पाते। हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में उजागर एक सूत्र आस्तिक हो या नास्तिक या फिर देव भक्ति से चूका कोई इंसान, सभी के लिए समान रूप से जीवन में सुख-सफलता व सिद्धि लाने वाला माना गया है।

दरअसल, यह एक ऐसा व्यावहारिक सूत्र है, जो जिसके लिये धर्म परंपराओं या देव उपासना के तमाम तरीके या उपाय न भी अपनाएं तो हर व्यक्ति देव पूजा का सुख और फल पा लेता है। गीता में लिखा है कि -

स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानव:।

जिसका सरल अर्थ है यही है कि स्वाभाविक कामों के रूप में भी भगवान की उपासना करते हुए मनुष्य सिद्ध बन सकता है।

असल में यहां सीख यही है कि चूंकि व्यावहारिक जीवन में अहं या मोह के कारण इंसान अनेक गलत बातें और व्यवहार से दोष का भागी बन, अच्छी संगति, विचारों और देव स्मरण से भी दूर होता जाता है। इसलिए इंसान सुख चाहता है तो, भले ही देव स्मरण न भी करें, पर अहंकार, स्वार्थ और मोह को छोड़कर अपने जीवन से जुड़े कर्तव्यों को पूरा करता चले तो यह भी भगवान की पूजा ही मानी गई है।

निचोड़ यही है कि कर्म को ही पूजा मानकर चलने वाले व्यक्ति पर भगवान भी प्रसन्न रहते हैं।

सिर्फ यह 1 पाप है तमाम दु:खों की जड़..! जानिए कैसे बचें?
वैसे हर बुरा भाव ही पाप की जड़ है। चाहे वह भाव तन, मन, व्यवहार या विचार से जुड़ा हो। साधारण इंसान ऊपरी तौर पर नजर आने वाली सही और गलत बातों या कामों से पाप-पुण्य का भेद समझता है। किंतु हित या लाभ के चलते अनेक अवसरों पर मन, विचार, भावों के स्तर किए पाप पर विचार नहीं करता। इन पाप भावों से बचना कड़ी परीक्षा के समान है। क्योंकि सांसारिक जीवन का निर्वाह करते हुए जीवन में कठोर अनुशासन जरूरी होता है। किंतु इसमें हल्की चूक से भी हर इंसान हर रोज कहीं न कहीं किसी रूप में पाप का भागी बन जाता है।

धर्मशास्त्रों में इंसानी प्रकृति और व्यवहार के आधार पर अनेक पाप कर्म बताए गए हैं। पापों कर्मों की इस कड़ी में यहां जिक्र कर रहे हैं उस पाप की जिससे बचने में हर इंसान की भलाई है। यहीं नहीं यह ऐसा पाप है, जिससे इंसान व्यवहारिक कोशिशों से बच सकता है। यह पाप है - दरिद्रता या अभाव।

दरिद्रता मात्र धन की नहीं तन और विचारों की भी पाप मानी गई है। किंतु जीवन में धन की अहमियत के नजरिए से दरिद्रता पर विचार करें तो शास्त्रों में लिखा गया है कि -

दारिद्रयं पातकं लोके कस्तच्छंसितुमर्हति।

जिसका सरल अर्थ है कि दरिद्रता पाप है। कोई भी अभाव की प्रशंसा नहीं करता। दरअसल, अगर कोई इंसान धन की कमी से जूझता है तो उसका जिम्मेदार भी वही होता है। क्योंकि आलस्य या बुरे आचरण व बुरे कर्म से धन बर्बाद हो जाता है। शास्त्रों में भी लक्ष्मी का वास उसी स्थान या व्यक्ति के पास बताया गया है, जो हर तरह से पाप मुक्त हो।

यही कारण है कि दरिद्रता रूपी पाप से छुटकारे के लिए एक बेहतर सूत्र यही बताया गया है कि -

भव क्रियापरो नित्यम्।

यानी हमेशा काम करने में ही जुटे रहो। बेकार न बैठो। मेहनत, व्यवसाय, सेवा या जैसा भी काम कर सकना संभव पवित्र भाव से करें। इससे अभाव दूर होंगे यानी लक्ष्मी की प्रसन्नता स्वत: ही प्राप्त हो जाएगी।

जानें, क्या है शीतला माता पूजा से जुड़ा ठंडे भोजन का विज्ञान?
जीवन और मौसम के बदलाव में संयम, धैर्य और अनुशासन से जीवन बिताने पर ही सुख और शांति संभव है, नहीं तो मृत्यु के समान दु:ख भोगना पड़ सकते हैं। ऐसी ही सीख देने के लिए प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मौसम में होने वाले बदलावों के कारण होने वाले घातक रोगों को अपने ज्ञान और अनुभव से पहचान धार्मिक परंपराओं में रोगों के उपचार और शमन के अचूक उपाय जोड़े।

ये उपाय मनुष्य को धर्म से जोड़कर तन के साथ ही मन को भी संयमित और अनुशासित रहना सिखाते है। ऐसे ही रोगों में चेचक नामक रोग का प्रकोप खासतौर पर गर्मी के मौसम में दुनिया के अनेक स्थानों पर आज भी देखा जाता है। इसे भारतीय समाज में माता या शीतला के नाम से भी जाना जाता है।

हिन्दू धार्मिक परंपराओं में चैत्र माह कृष्ण पक्ष अष्टमी शीतलाष्टमी (15 मार्च) का व्रत रखा जाता है। इसमें भगवती स्वरूप शीतलादेवी को बासी या शीतल भोजन का भोग लगाया जाता है। इसलिए यह व्रत बसोरा नाम से भी जाना जाता है।

धार्मिक दृष्टि से यह व्रत और ठंडा भोजन शीतला माता की प्रसन्नता के लिये किया जाता है। किंतु वैज्ञानिक नजरिए से इस परंपरा के पीछे चेचक रोग से बचाव व इसकी पीडा का शमन करना ही है। धर्मशास्त्रों में भी इस रोग का संबंध माता के गर्भ से ही बताया गया है। जिसके अनुसार जब बालक गर्भ में होता है तब उसकी नाभि माता के हृदय से एक रक्त नली द्वारा जुडी होती है। उसी से उसका पोषण भी होता है। यही संधि स्थान ही इस रोग का मुख्य केन्द्र माना जाता है। गर्भ से बाहर आने पर कालान्तर में अनियमित खान-पान और मौसम के बदलाव से व्यक्ति के माता से प्राप्त इसी रक्त में दोष पैदा होने से चेचक नामक रोग उत्पन्न होता है। विशेष रुप से गर्मी के मौसम में यह भीषण प्रकोप होता है।

इस व्रत और रोग के संबंध में धार्मिक दर्शन यह है कि पुराणों में माता के सात मुख्य रूप बताए गए हैं। ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा। धर्मावलंबी इनमें से भाव के अनुसार किसी माता को सौम्य एवं किसी को उग्र भाव मानते हैं। इस रोग से कौमारी, वाराही और चामुण्डा को प्रभाव भयानक माना जाता है। जिसके संयम और लापरवाही की स्थिति में रोगी के नेत्र, जीभ के साथ ही शरीर से हमेशा के लिए असहाय हो जाता है।

पुराणों में माता शीतला के रूप का जो वर्णन है, उसके मुताबिक उनका वाहन गधा बताया गया। उनके हाथ में कलश, झाडू होते हैं। वह नग्र स्वरुपा, नीम के पत्ते पहने हुए और सिर पर सूप सजाए हुए होती है। चेचक रोग की दृष्टि से इस स्वरुप की प्रतीकात्मकता यह है कि चेचक का रोगी बैचेन होकर निर्वस्त्र हो जाता है। संक्रमण से बचाने के लिए उसे सूप हिलाकर हवा से ठंडक करते हैं और झाडू से चेचक के फोडे फट जाते हैं। नीम के पत्ते औषधीय गुणों के कारण फोडों को सडऩे नहीं देते। कलश का यह महत्व है कि बुखार में तपते रोगी को ठंडा जल अच्छा लगता है। गधे का स्वभाव भी सहनशील और धैर्यवान माना जाता है। जो यह सीख देता है कि चेचक का रोगी भी इस रोग की पीड़ा में सहनशील रहकर उचित समय तक संयम रखने पर इस रोग से मुक्ति पा सकता है। ऐसा माना जाता है कि गधे की लीद से चेचक के दाग हल्के हो जाते हैं।

इन 9 बातों को छिपाने में ही ज्यादा भलाई है..
अनेक लोगों के स्वभाव का एक पहलू यह भी होता है कि वह फायदे की बात फौरन जानना चाहते हैं, किंतु दूसरे को लाभ हो जाए, ऐसी किसी बात या तरीके को यथासंभव उजागर करने से बचते हैं। ऐसी सोच इंसान के कर्म, व्यवहार और स्वभाव को भी नियत करती है। इसलिए हर व्यक्ति को कोशिश जरूर करना चाहिए कि ऐसे विचार किसी भी रूप में जीवन और रिश्तों में नकारात्मक नतीजे न लाए।

नकारात्मक परिणामों से बचने के लक्ष्य से या यूं कहें कि इंसान की भलाई के लिए ही शास्त्रों में भी ऐसी ही कुछ बातों को गुप्त रखने की सीख दी गई है, जिनसे कोई भी इंसान अनचाहे कलह, दु:ख या परेशानी से बच सकता है।

जानिए, शास्त्रों में बताई ऐसी ही 9 बातें -
वित्त यानी धन - धन किसी भी व्यक्ति की ताकत का पैमाना होता है। यह दूसरों का आपके प्रति व्यवहार नियत ही नहीं करता, बल्कि इसके उजागऱ होने पर शत्रु द्वारा या मित्र के मन में भी लोभ आने पर किसी न किसी रूप में हानि पहुंचाई जा सकती है।

गृहछिद्र यानी घर की फूट - घर या परिवार का आपसी कलह उजागर होना परिवार के साथ हर सदस्य को व्यक्तिगत, व्यावहारिक और सामाजिक स्तर पर नुकसान का कारण बनता है।

मंत्र - शास्त्रों के मुताबिक गुरु हो या इष्ट मंत्र, इनको गुप्त रखने पर ही इनकी शक्तियों का लाभ मिलता है।

मैथुन - शास्त्रों में इंसान के लिए काम यानी मैथुन क्रिया की मर्यादा नियत की गई है। जिनका भंग होना या इसका उजागऱ होना चरित्र हनन का कारण बनता है।

दान - धार्मिक दृष्टि से गुप्त दान बहुत ही पुण्य देने वाला होता है, जबकि दान देकर बताना अपयश का कारण बनता है।

मान - अपनी मान-प्रतिष्ठा का बखान भी अहं पैदा करता है, जिससे अनेक स्वाभाविक दोष पैदा होते हैं।

अपमान - अनेक मौकों पर अपमान को छुपा लेना या पचा लेना व्यक्ति के लिए हितकारी होता है। बार-बार स्वयं के अपमान को उजागर करना व्यक्ति की कमजोरी बताने के साथ ही स्वयं के मानसिक कष्टों का कारण भी बनता है।

आयु - व्यावहारिक रूप से आयु को गुप्त रखना मुश्किल होता है। किंतु अनेक अवसरों पर उम्र छुपाना भी हानि से बचा सकता है। इसमें दर्शन देखें तो व्यक्ति द्वारा आयु को औरों की तुलना में स्वयं से छिपाना सार्थक है यानी उम्र का ख्याल दिमाग पर हावी न रख कर्म के संकल्प के साथ जीवन जीना चाहिए।

औषध - शास्त्रोक्त मान्यता है कि औषधी के शुभ प्रभाव गुप्त रखने पर ही होते हैं।

क्या आप जानते हैं श्री गणेश का असली मस्तक कहां गया?
भगवान गणेश गजमुख, गजानन के नाम से जाने जाते हैं। क्योंकि उनका मुख गज यानी हाथी का माना गया है। भगवान गणेश का यह स्वरूप विलक्षण और बड़ा ही मंगलकारी है। आपने भी श्री गणेश के गजानन बनने से जुड़े पौराणिक प्रसंग सुने-पढ़े होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं या विचार किया है कि गणेश का मस्तक कटने के बाद उसके स्थान पर गजमुख तो लगा, लेकिन उनका असली मस्तक कहां गया? जानिए, उन प्रसंगों में ही उजागर यह रोचक बात...

ब्रह्माण्ड पुराण के मुताबिक जब माता पार्वती ने श्री गणेश को जन्म दिया, इन्द्र, चन्द्र सहित सारे देवी-देवता उनके दर्शन की इच्छा से उपस्थित हुए। इसी दौरान शनिदेव भी वहां आए, जो श्रापित थे कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से पार्वती रुष्ट थी। फिर भी शनि देव की दृष्टि गणेश पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।

इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक माता पार्वती ने अपने तन के मैल से श्री गणेश का स्वरूप तैयार किया और स्नान होने तक दौरान द्वार पर पहरा देकर किसी को भी अंदर प्रवेश से रोकने का आदेश दिया। इसी दौरान वहां आए भगवान शंकर को जब श्री गणेश ने अंदर जाने से रोका, तो अनजाने में भगवान शंकर ने श्री गणेश का मस्तक काट दिया, जो चन्द्र लोक में चला गया। बाद में भगवान शंकर ने रुष्ट पार्वती को मनाने के लिए कटे मस्तक के स्थान पर गजमुख जोड़ा।

ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से भी धर्म परंपराओं में संकट चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।

काम को आसान बनाना है, तो करें कुछ ऐसा!
जी हां, मुश्किल काम या हालात को आसान और अनुकूल बनाना तभी संभव है जब व्यवहार, विचार और स्वभाव में कुछ जरूरी बदलाव लाए जाएं। इंसान स्वभाविक रूप से सुख, सुविधा और अच्छा व्यवहार चाहता है और बुरे समय या बातों से बचना पसंद करता है। किंतु अनेक बार दूसरों के लिए इन बातों के विपरीत व्यवहार कर गुजरता है।

दरअसल, साधारण व्यक्ति के लिए धर्म पर बात करना तो सरल है, लेकिन धर्म को जीवन में उतारना या व्यवहार में अपनाना उतना ही मुश्किल। धर्मशास्त्रों में बताए कुछ अहम सूत्र हर व्यक्ति को धर्म से जोड़कर व्यावहारिक जीवन को भी सुखी और शांत बनाते हैं। जानते हैं क्या कहते हैं ये सूत्र? लिखा गया है कि -

असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्।

सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम्।।

सरल अर्थ है धर्म की कामना करने वाले इंसान का आचरण अगर बुरा है तो उसके लिए पवित्र काम करना कठिन है। किंतु अगर उसका आचरण पवित्र है तो उसके लिए मुश्किल काम भी आसान हो जाते हैं।

व्यावहारिक मतलब यही है कि जो व्यक्ति अपनी खुशियों और कामयाबी के साथ दूसरों से भी प्रेम, सहयोग और सम्मान चाहता है तो पहले वह स्वयं अपने बोल, व्यवहार व सोच में सुधार लाए। वह कटु बोल, दूसरों के अपमान या उपेक्षा, ईष्र्या जैसे बुरे भावों को छोड़ दे। इन बदलावों से दूसरों का भरपूर प्रेम, सम्मान, मदद और भरोसा मिलेगा।

जानें वे छोटी-छोटी बातें, जो परिवार को रखें एकजुट
शास्त्रों प्रेम को ईश्वर का स्वरूप कहा गया है। क्योंकि इसमें सत्य समाया होता है। इसमें भी देने, समर्पण, अर्पण, उदारता व विनम्रता के भाव समाए हैं, जो ईश्वर की आराधना और भक्ति में भी जरूरी है। धर्म की नजर से ईश्वर का अस्तित्व कण-कण में हैं, तो प्रेम भी रग-रग में बसता है। इस भाव से भी हर धर्म में प्रेम को ही मानव ही नहीं ईश्वर से भी जुडऩे का श्रेष्ठ उपाय माना गया है।

व्यावहारिक नजरिए से भी प्रेम ही परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र हर जगह दिलों को जोड़ता लोगों को करीब लाता है। इसके बिना संवेदना और भावनाएं खो जाती है। संसार और जिंदगी नीरस लगने लगता है। जिससे विचार, व्यवहार और आचरण में दोष पैदा होते है। चूंकि संस्कारों की पाठशाला परिवार ही होता है। इसलिए हम यहां जानते हैं परिवार में प्रेम के बीज कैसे बोएं, जिससे पनपा प्रेम का वृक्ष अपनी छांव से आने वाली पीढ़ी को भी ठंडक और राहत का एहसास कराए।

- परिवार में प्रेम के लिए जरूरी है अहं का भाव छोडऩा। क्योंकि अहं के होते प्रेम नहीं रहता।

- जीवनसाथी, पत्नी या बच्चों के साथ विश्वास और अपनत्व से भरा व्यवहार हो।

- परिवार के सदस्यों पर अधिकार जताएं किंतु उपेक्षा से भरा ऐसा व्यवहार न करें, जिससे वह आपके सामने डरे-सहमे या बंधे महसूस करें। लंबे समय के लिए यह माहौल परिवार में प्रेम के रस को सूखा देगा।

- जहां किसी भी तरह की जकडऩ होती है, वहां प्रेम नहीं होता। जहां प्रेम न हो वहां धर्म पालन असंभव है। इसलिए जरूरी है कि परिवारिक माहौल में इतना खुलापन हो कि सभी सदस्य अपने विचारों को एक-दूसरे से बांट सके।

- किसी बात पर मतभेद या समस्या हो तो परिवार हित को ऊपर रखकर तुरंत सुलझा लें।

- प्रेम की खासियत है कि उसमें लेने का भाव नहीं होता। इसलिए बच्चों से उम्मीदें पूरी करने के लिए अपनी मर्जी न थोपें। जिससे संतान भी घुटन महसूस नहीं करेगी। उनकी जिंदगी से जुडें फैसलों में उनके साथ बातचीत कर भरोसा पैदा करें। इससे प्रेम और रिश्ता मजबूत होगा।

- बच्चे का मन कोमल होता है, इसलिए परिवार और कुंटुब के सदस्यों का आपसी व्यवहार और बोलचाल का बालमन पर गहरा असर करता है। इसलिए अगर परिवारिक वातावरण स्नेह से भरा होगा तो यही अगली पीढ़ी में भी ऐसे ही संस्कार झलकेंगे।

- हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में प्रसंग है कि अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु मां के गर्भ में रहते ही युद्धकला सीख गया। इससे सीख लेकर परिवार का माहौल भी ऐसा बनाएं कि घर के छोटे सदस्य बड़ों की नजर-व्यवहार में प्रेम ही पाएं।

जानें, कितनी बार महामृत्युञ्जय मंत्र बोलने पर क्या हो जाता है?
भक्ति में अविश्वास का कोई स्थान नहीं होता। आस्था और विश्वास ही वह कारण है कि जिनके बूते ही भक्त और भगवान का मिलन हो जाता है। धर्मशास्त्र भी यही कहते हैं कि प्रेम और भाव ईश्वर को भी भक्त के पास आने को विवश करती है। भगवान शिव भी ऐसे ही देवता माने जाते हैं, जो भक्तो की थोड़ी ही उपासना से प्रसन्न होकर चले आते हैं।

शिव की प्रसन्नता के ही इन उपायों में महामृत्युंजय मंत्र को बहुत ही अचूक माना जाता है। शिव भक्ति के दिनों जैसे सोमवार, चतुर्दशी, शिवरात्रि या हर रोज भी यह मंत्र बोलना रोग, शोक, काल और कलह को दूर करने वाला माना गया है। शिव के इस मंत्र का अलग-अलग रूप और संख्या में जप बहुत ही असरदार माना जाता है। लेकिन इसके लिए यह भी जरूरी है कि भक्त बिना किसी कामना के शिव का ध्यान करे।

यहां जानिए, कितनी संख्या में शिव के इस महामंत्र को बोलने या जप करने जीवन में क्या-क्या घट जाता है-

- महामृत्युंजय मंत्र के एक लाख जप करने पर शरीर पवित्र हो जाता है।

- मंत्र के दो लाख मंत्र जप पूरे होने पर पूर्वजन्म की बातें याद आ जाती हैं।

- मंत्र के तीन लाख मंत्र जप पूरे होने पर सभी मनचाही सुख-सुविधा और वस्तुएं मिल जाती है।

- चार लाख मंत्र जप पूरे होने पर भगवान शिव सपनों में दर्शन देते हैं और,

- पांच लाख महामृत्युंजय मंत्र पूरे होते ही भगवान शिव तुरंत ही भक्त के सामने प्रगट हो जाते हैं।

गुस्सैल स्वभाव है! इस रोचक किस्से को पढ़ छूट जाएगा बात-बात पर तमतमाना
क्रोध यानी गुस्सा ऐसा दोष है, जो जीवन के लिये बाधक ही नहीं, घातक भी माना गया है। दरअसल, इंसान जीवन में तमाम सुख-सुविधाएं बंटोर लें, किंतु क्रोधी स्वभाव में सुधार न करे तो नतीजतन मिले कलह और अशांत महौल से जीवन कभी भी सुकून से नहीं गुजरता।

हिन्दू धर्मशास्त्रों में क्रोध से दूरी बनाने का सबक बताया गया है कि 'अक्रोधेन जयेत क्रोधम्' यानी गुस्सा न करना ही क्रोध को मात देने का सूत्र है। अगर आप या आपका कोई परिजन गुस्सैल स्वभाव है, जिससे जीवन में तनाव या अशांति घुली रहती है, तो यहां बताया जा रहा जैन शास्त्रों का ही एक प्रसंग पढ़ या पढ़ाकर क्रोध पर काबू रख सफलता के गुर सीख सकते हैं -

कथा के मुताबिक राजकुमार बलदेव, वासुदेव व सात्यकि वन में भटक गए। रात बिताने के लिए तीनों ने बारी-बारी से पहरा देने का फैसला किया। सबसे पहले जब सात्यकि पहरा देना शुरु किया तो वहां एक दैत्य प्रकट हो गया। सात्यकि ने आवेश में आकर उसे चले जाने की चेतावनी दी, किंतु उस दैत्य का डीलडौल और बल सात्यकि के ऐसे आक्रामक बोल, व्यवहार से और बढ़ गया। फिर उस दैत्य ने सात्यकि पर हमला कर घायल कर दिया।

इसी तरह सात्यकि के बाद वासुदेव के पहरा देने पर वह दैत्य फिर से वहां आया। वासुदेव भी सात्यकि की तरह दैत्य को देखकर तमतमाया। जिससे ताकतवर बन दैत्य ने वासुदेव को भी पराजित कर दिया। अंत में बलदेव की पहरेदारी की बारी आई। दैत्य फिर से वहां आ धमका। किंतु बलदेव उसे देखकर विचलित या आवेशित होने के बजाय प्रसन्नतापूर्वक दैत्य को यह जताया कि उससे लड़कर उसका समय कट जाएगा।

बलदेव तब भी मुस्कराते रहे, जब दैत्य ने उन पर हमला किया। बलदेव के ऐसे रुख से दैत्य की शक्ति और कद घटता गया। आखिर में वह कीड़े की तरह इतना छोटा हो गया कि बलदेव ने उसे अपने दुपट्टे में बांध लिया। सुबह उठने पर जब सात्यकि, वासुदेव ने दैत्य की बात उजागर की तो बलदेव ने दुपट्टे से उस दैत्य को बाहर निकालकर दोनों को बताया और कहा कि दरअसल, यह क्रोध रूपी वह दैत्य था, जो बोल, व्यवहार व विचार में स्थान देने पर बढ़ता ही जाता है।

शास्त्रों के इस रोचक किस्से में संकेत यही है कि अगर सुख-सफलता की चाहत है तो क्रोध पर नियंत्रण रखें। क्योंकि चिढऩे, खीजने या तमतमाने जैसे छोटे या बड़े रूप में क्रोध से बोल ही नहीं व्यवहार और चरित्र में भी दोष पैदा होते हैं, जो जीवन को बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं। किंतु क्रोध पर काबू करने से मिला दूसरों का प्रेम, सहयोग और स्वयं का आत्मविश्वास जीवन को कलह और चिंतामुक्त बनाता है।

परखें, सच्ची शिव भक्ति के इन 5 तरीकों में से किसे अपना रहें हैं आप?
भगवान शिव को स्वयंभू और अजन्मा माना जाता है। पुराण प्रसंग और महिमा से उजागर होता है कि अनादि, अनंत ईश्वर शिव की अनजाने की गई भक्ति के फल भी सुखद व निश्चिंत करने वाले होते हैं। शिव चरित्र में समाई ऐसी सरलता, सहजता, सच्चाई से शिव एक ओर भोलेनाथ, तो दूसरी ओर उनकी भक्त वत्सलता यानी भक्तों पर अपार स्नेह व कृपा लुटाने से महादेव के रूप में भी पूजे जाते हैं।

लेकिन क्या आप जानते हैं कि तन, मन और वचन के स्तर पर शिव भक्ति, उपासना, साधना और सेवा के सही तरीके या विधान क्या हैं? इसका जवाब भी शिव पुराण में मिलता है। जिसमें शिव सेवा को शिव भी धर्म कहा गया है। जानिए, शिव भक्ति और सेवा के ये विशेष रूप -

शिव पुराण के मुताबिक भक्ति के तीन रूप बताए गए हैं। यह है मानसिक, वाचिक और शारीरिक सरल शब्दों में तन, मन और वचन से भक्ति।

इनमें भगवान शिव के स्वरूप का चिन्तन मन से, मंत्र और जप वचन से और पूजा विधान शरीर से सेवा मानी गई है। इन तीनों तरीकों से की जाने वाली सेवा ही शिव धर्म कहलाती है।

इस शिव धर्म या शिव की सेवा के भी पांच रूप है। यह हैं -

कर्म - लिंगपूजा सहित अन्य शिव पूजन परंपरा कर्म कहलाते हैं।

तप - चान्द्रायण व्रत सहित अन्य शिव व्रत विधान तप कहलाते हैं।

जप - शब्द, मन आदि द्वारा शिव मंत्र का अभ्यास या दोहराव जप कहलाता है।

ध्यान - शिव के रूप में लीन होना या चिन्तन करना ध्यान कहलाता है।

ज्ञान - भगवान शिव की स्तुति, महिमा और शक्ति बताने वाले शास्त्रों की शिक्षा ज्ञान कही जाती है।

इस तरह शिव धर्म का पालन या शिव की सेवा हर शिव भक्त को बुरे कर्मों, विचारों व इच्छाओं से दूर कर शांति और सुख की ओर ले जाती है।

चाहें हर काम में सुखद परिणाम, तो बोलें ये 3 दत्तात्रेय मंत्र
शास्त्रों में त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु व महेश का स्वरूप माने गए भगवान दत्तात्रेय का स्मरण ज्ञान के बूते अहंकार को गलाकर जीवन को सफल, सुखी व शांत बनाने का संदेश देता है। क्योंकि भगवान दत्तात्रेय द्वारा 24 गुरुओं से शिक्षा ली गई। जिनमें मनुष्य, प्राणी, वनस्पति सभी शामिल थे। इसीलिए भगवान दत्तात्रेय महायोगी व महागुरु के रूप में भी पूजनीय है।

धार्मिक दृष्टि से तो भगवान दत्तात्रेय की पूजा ज्ञान व मोक्ष, तो व्यावहारिक नजरिए से ज्ञान, बुद्धि, बल के साथ शत्रु बाधा दूर कर हर काम में सफलता और मनचाहे सुखद परिणामों को देने वाली मानी गई है।

भगवान दत्तात्रेय का जन्म प्रदोष काल यानी शाम के वक्त ही माना गया है। यही नहीं शिव की तरह भगवान दत्तात्रेय भी भक्त की पुकार पर शीघ्र प्रसन्न होकर किसी भी रूप में उसकी कामनापूर्ति या संकटनाश करते हैं। इसलिए आप भी गुरुवार की शाम यहां बताए जा रहे 3 विशेष मंत्रों व सरल पूजा विधि से भगवान दत्तात्रेय की पूजा कर कामनासिद्धि कर सकते हैं -

- गुरुवार की शाम दत्त मंदिर बें भगवान दत्तात्रेय की प्रतिमा या दत्तात्रेय की तस्वीर पर सफेद चंदन और सुगंधित सफेल फूल चढ़ाकर फल या मिठाई का भोग लगाएं। गुग्गल धूप लगाएं और नीचे लिखे 3 विशेष मंत्रों से भगवान दत्तात्रेय का स्मरण करें या यथाशक्ति मंत्र जप कर घी के दीप से आरती कर सफलता की कामना करें -

ॐ महानाथाय नमः

ॐ भूतानां परमं गतये नमः

ॐ अवधूताय नमः

जब घर में घटने लगे ये 6 बातें!..तो हो जाएं सावधान
विश्वास, सहयोग, संतोष, मन और विचारों में तालमेल जैसी बातें सुखी, शांत और लंबे गृहस्थ जीवन के लिए जरूरी होती हैं। धर्म की दृष्टि से गृहस्थ जीवन चार पुरुषार्थों को पाने का अहम चरण है। चूंकि वक्त के उतार-चढ़ाव से गृहस्थ जीवन में भी खुशी या गमों के क्षणों से दो-चार होना पड़ता है। जिसके लिए अहम होता है कि हर व्यक्ति पूरी तरह से तैयार रहें।

शास्त्रों में कुछ ऐसी ही बातें उजागर की गई हैं, जो व्यावहारिक रूप से इंसान को समय रहते आने वाले संकट की ओर इशारा करती है। जिनको पहचान कर अहम निर्णय लेकर समय रहते गृहस्थी को मुसीबतों से बचाया जा सकता है।

जनिए, ऐसी ही 6 बातें। धर्म उपदेशों में बताई इन बातों को अगर आप भी गृहस्थ जीवन में घटता देखें तो सावधान होकर इनको सुलझाने की हर संभव कोशिश करें। तभी तनाव, कलहमुक्त जीवन का लुत्फ संभव होगा।

बुद्धिहीन पुत्र - ऐसे पुत्र के गलत कामों, खराब आचरण और गंदे चरित्र से परिवार भी लज्जित और संकट में पड़ जाता है।

कलहप्रिय स्त्री - अशांत स्वभाव की स्त्री से घर में कलह पैदा होता है। आपसी कटुता से जिससे गृहस्थी की गाड़ी डगमगा जाती है।

रोग - बार-बार बीमारी का प्रकोप परिवार के हर सदस्य को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से बुरा असर डालता है।

दारिद्रय - घर या परिवार के सदस्यों में किसी भी रूप में अपवित्रता दरिद्रता के संकेत है, जिससे परिवार विपत्तियों में पड़ सकता है।

कुअन्न का भोजन - आहार शुद्धि ही तन, मन, व्यवहार और विचार को पवित्र बनाता है। किंतु घर में अशुद्ध, मांसाहार भोजन की अपवित्रता परेशानियों का कारण बन सकती है।

कलंक - परिवार और व्यक्ति की प्रतिष्ठा और मान-सम्मान एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। इसलिए किसी भी व्यक्ति के गलत आचरण, चरित्र से लगा कलंक पूरे परिवार को बिखेर सकता है।

पढ़िए, मृत्यु से जुड़ी 1 दिलचस्प बात!
अक्सर यह कहा-सुना जाता है कि जन्म के समय हर व्यक्ति खाली हाथ आता है और मौत के वक्त खाली हाथ चला जाता है। यहां तक कि माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र, पुत्री सहित अनेक संबंधी भी मृत शरीर का साथ छोड़ देते हैं। किंतु धर्म शास्त्रों में लिखी बातों पर गौर करें तो व्यक्ति अकेला नहीं जाता है, बल्कि उसके साथ जाने वाला भी कोई होता है। कौन है वह जो हर व्यक्ति के साथ जीवन ही नहीं मृत्यु में भी साथ निभाता है। जानिए -

धर्म शास्त्रों में यह बात गहराई से समझकर व्यवहार में अपनाई जाए तो संभवत: व्यक्ति ही नहीं हमारे आसपास फैले अशांत और कलह भरे माहौल को खुशहाल बना सकती है। क्योंकि यह बात जीवन से जुड़ी सच्चाई ही उजागर नहीं करती बल्कि व्यावहारिक संदेश भी देती है।

शास्त्र लिखते हैं कि -

मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्टलोष्टसमं जना:।

मुहूर्तमिव रोदित्वा ततोयान्ति पराङ्मुखा:।।

तैस्तच्छरीमुत्सृष्टं धर्म एकोनुगच्छति।

तस्माद्धर्म: सहायश्च सेवितव्य: सदा नृभि:।।

इसका सरल और व्यावहारिक अर्थ यही है कि मृत्यु होने पर व्यक्ति के सगे-संबंधी भी उसकी मृत देह से कुछ समय में ही मोह या भावना छोड़ देते हैं और अंतिम संस्कार कर चले जाते हैं। किं तु इस समय भी मात्र धर्म ही ऐसा साथी होता है, जो उसके साथ जाता है।

इस बात में संकेत यही है कि धर्म पालन यानी व्यक्ति द्वारा जीवन में किए गए अच्छे काम ही उसकी पहचान, व्यक्तित्व और चरित्र बनाते हैं। यह तभी संभव है जब व्यक्ति ने जीवन में स्वभाव, व्यवहार और बोल में प्रेम, सच, दया, भलाई जैसी बातों को अपनाया हो। इसलिए माना गया है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु के बाद भी लोगों की यादों में हमेशा जीवित रहता है।

धर्म के नजरिए से यही भाव व्यक्ति की मृत्यु होने पर धर्म के साथ जाने से जुड़ा है। इसलिए जहां तक संभव हो जिंदग़ी में अच्छा और ऊंचा उठने का संकल्प रखें। ताकि जीवन में ही नहीं मौत के पहले भी मन अशांत और बेचैन न रहे।

जानिए, कलियुग में कहां हैं श्री हनुमान?
श्री हनुमान बल, पराक्रम, ऊर्जा, बुद्धि, सेवा, भक्ति के आदर्श देवता माने जाते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में श्री हनुमान को सकलगुणनिधान भी कहा गया है। श्री हनुमान को चिरंजीव सरल शब्दों में कहें तो अमर माना जाता है।

हनुमान उपासना के महापाठ श्री हनुमान चालीसा में गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि - 'चारो जुग परताप तुम्हारा है परसिद्ध जगत उजियारा।'

इस चौपाई से साफ संकेत है कि श्री हनुमान ऐसे देवता है, जो हर युग में किसी न किसी रूप, शक्ति और गुणों के साथ जगत के लिए संकटमोचक बनकर मौजूद रहे। श्री हनुमान से जुड़ी यही विलक्षण और अद्भुत बात उनके प्रति आस्था और श्रद्धा गहरी करती है। इसलिए यहां जानिए, श्री हनुमान किस युग में किस तरह जगत के लिए शोकनाशक बनें और खासतौर पर कलियुग यानी आज के दौर में श्री हनुमान कहां बसते हैं -

सतयुग - श्री हनुमान रुद्र अवतार माने जाते हैं। शिव का दु:खों को दूर करने वाला रूप ही रुद्र है। इस तरह कहा जा सकता है कि सतयुग में हनुमान का शिव रुप ही जगत के लिए कल्याणकारी और संकटनाशक रहा।

त्रेतायुग - इस युग में श्री हनुमान को भक्ति, सेवा और समर्पण का आदर्श माना जाता है। शास्त्रों के मुताबिक विष्णु अवतार श्री राम और रुद्र अवतार श्री हनुमान यानी पालन और संहार शक्तियों के मिलन से जगत की बुरी और दुष्ट शक्तियों का अंत हुआ।

द्वापर युग - इस युग में श्री हनुमान नर और नारायण रूप भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के साथ धर्मयुद्ध में रथ की ध्वजा में उपस्थित रहे। यह प्रतीकात्मक रूप में संकेत है कि श्री हनुमान इस युग में भी धर्म की रक्षा के लिए मौजूद रहे।

कलियुग - पौराणिक मान्यतओं में कलियुग में श्री हनुमान का निवास गन्धमानदन पर्वत पर है। यही नहीं माना जाता है कि कलियुग में श्री हनुमान जहां-जहां अपने इष्ट श्रीराम का ध्यान और स्मरण होता है, वहां अदृश्य रूप में उपस्थित रहते हैं। शास्त्रों में उनके गुणों की स्तुति में लिखा भी गया है कि - 'यत्र-यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र-तत्र कृत मस्तकांजलिं।'

इस तरह श्री हनुमान का स्मरण हर युग में अलग-अलग रूप और शक्तियों के साथ संकटमोचक देवता के रूप में जगत को विपत्तियों से उबारते रहे हैं।

ऐसा धन रहता है गुप्त और सुरक्षित! कोई मौका न छोड़े बंटोरने का..
क्या ऐसा संभव है कि व्यक्ति हमेशा धनवान बना रहे और उसके धन की न हानि हो, न चोरी? चूंकि इंसानी जीवन में धन की अहमियत मात्र शारीरिक सुख और सुविधाओं को पाने तक ही नहीं बल्कि यह विचार और व्यवहार को भी नियत करने वाला होता है। इसलिए धन हानि इच्छापूर्ति, रोग या चोरी के रूप में हो ही जाती है। किंतु शास्त्रों में ऐसा ही धन बताया गया है, जिससे व्यक्ति हमेशा अमीर बना रहता है। जानते हैं कौन-सा है वह धन -

शास्त्रों में विद्या को ऐसा धन बताया गया है जो गुप्त भी होता है और सुरक्षित भी। विद्या या ज्ञान इंसान के चरित्र, आचरण और व्यक्तित्व को उजला बनाने वाली होती है। शास्त्रों में लिखी यह बात साफतौर पर जीवन में विद्या के महत्व को उजागर करती है-

लिखा है कि -

विद्या नाम कुरूपरूपमधिकं विद्यापति गुप्तं धनं।

विद्या साधुकरी जनप्रियकरी विद्या गुरूणां गुरु:।।

विद्या बन्धुजनार्तिनाशनकरी विद्या परं दैवतं।

विद्या राजसु पूजिता हि मनुजो विद्याविहीन: पशु:।।

सरल शब्दों में जानें तो विद्या बदसूरत व्यक्ति को भी खूबसूरत बना देती है। यही नहीं यह व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार को पावन कर लोकप्रिय व भरोसेमंद भी बनाती है। यह व्यक्ति की ही नहीं बल्कि परिवार को भी संकट से बचाती है। विद्वान के आगे ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति भी झुक जाता है।

इस तरह विद्या से दूर इंसान पशु के समान माना गया है। किंतु विद्या या विद्वानता ऐसा धन है, जिसे कोई दूसरा किसी भी तरह से चुरा नहीं सकता।

जानें, नए साल की 6 वजह, सीखें वक्त और जीवन बदलने के 6 रोचक तरीके!
बदलाव, इंसान के लिए जीवन के मूल्यांकन का सही मौका होते हैं। चूंकि बदलाव बेहतर भी होते हैं और बदतर भी। इसलिए अक्सर अनिश्चय और कुछ खोने के भय से इंसान बदलाव को फौरन स्वीकार नहीं कर पाते। जबकि वास्तविकता यह भी है कि बदली हुई स्थितियों में स्वयं को ढालने पर ही कोई भी बदलाव अंतत: खुशी का कारण ही नहीं बनता बल्कि इंसान को आगे बढऩे का हौंसला और भरोसा देता है।

सनातन धर्म में ऐसे ही सुखद बदलाव का अवसर चैत्र माह शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को माना जाता है। हिन्दू माह चैत्र के शुक्ल पक्ष का पहला दिन यानी प्रतिपदा तिथि धार्मिक और लोक मान्यताओं में बहुत ही शुभ माना जाता है। दरअसल, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (23 मार्च) से हिंदू नववर्ष के आरंभ होने का मूल भाव भी यही है कि जीवन से अज्ञान, अशांति व कलह रूपी अंधकार यानी सारे कष्ट, दुख, दर्द, कठिनाइयां दूर हो और आनंद, सुख, प्रसन्नता और समृद्धि को पाने के संकल्प के साथ आगे बढ़े।

बीते कल की बुरी यादों को छोड़कर नई और बेहतर सोच रख, बुलंदियों को छूने के इरादों से काम का आगाज करने के ऐसे ही बेहतरीन संदेश व सबक देते हैं चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी हिन्दू नवसंवत्सर व गुड़ी पड़वा से जुड़े धर्मग्रंथों और लोक परंपराओं के अलग-अलग युग व काल के शुभ अवसर व संयोग।

जानें नववर्ष की पहली वजह और सीख : सीखें बिगड़े को बनाने की कला!
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से जुड़ी पहली वजह धार्मिक नजरिए से ही शुभ नहीं है बल्कि व्यावहारिक रूप से भी बड़ी प्रेरणा देती है। दरअसल, इस दिन नए वर्ष का पहला दिन मनाने के पीछे धार्मिक मान्यता है इस दिन ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना की शुरुआत की थी।

व्यावहारिक जीवन के नजरिए से इस मान्यता में दो बातें साफ है। पहली - रचना और दूसरी शुरुआत। यानी संकेत यही है कि अगर जीवन में सुखद बदलाव चाहते हैं तो मन, विचार और कर्म में सृजन का भाव रखें और विनाशक प्रवृत्तियों को पीछे छोड़ आगे बढ़े।

रचना या सृजन भी साधारण न हो, बल्कि ऐसा हो जिससे सभी का हित जुड़ा हो। सरल शब्दों में परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में बिगाड़ से बचने या बिगड़ी बातों को बनाने के लिए बोलचाल, व्यवहार या सोच में सुधार लाकर नई शुरुआत का संकल्प लें।

जानें, नववर्ष की दूसरी वजह और सीख : इस 1 सूत्र में है ढेरों सफलता का रहस्य!
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ब्रह्मदेव द्वारा जगत रचना की मान्यता में शुरुआत और रचनात्मकता के संदेश के अलावा नववर्ष के आगाज से जुड़ी दूसरी वजह में भी हर इंसान के लिए सुखद व शांत जीवन जीने की सरल, सीधी और सटीक सीख है। जानिए-

धार्मिक मान्यता यह भी है कि इस दिन से ही सतयुग का आरंभ हुआ। इस बात पर गहराई से गौर करें तो एक जीवन सूत्र निकलता है। संकेत है कि जीवन में सत् यानी सत्य को उतारें। सात्विक यानी सच्चे और अच्छे विचारों के साथ जीवन बिताएं।

सत्य से प्रेम, दया, क्षमा भाव जुड़े होते हैं, जिससे ही जीवन की तमाम सफलताओं के रहस्य छुपे होते हैं। साथ ही दु:ख, संताप व कलह से बचना या दूर करना संभव हो पाता है। इसलिए नववर्ष पर यही ठाने कि तमाम कठिनाईयों के बावजूद पर सच पर अडिग रहने की हिम्मत और संकल्प कायम रखें।

नववर्ष की तीसरी वजह और सीख : इस खूबी से हर लक्ष्य होगा आसान!
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी नववर्ष से जुड़े सृजन, आरंभ और सत्य से जुडऩे के सबक के साथ ही इसकी चौथी वजह से जुड़ी सीख हर इंसान के जीवन की दिशा और दशा को तय करने वाली मानी गई है।

दरअसल, पौराणिक मान्यता में यह दिन भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का भी है। इससे जुड़े प्रसंग के मुताबिक भगवान विष्णु ने मत्स्य यानी मछली का रूप लेकर प्रलयकाल में मनु की संकट में पड़ी नाव को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया।

इस कारण में जीवन से जुड़ा संदेश यही मिलता है कि असल में जल के बिना जीवन संभव नहीं होता और जीवन की शुरुआत भी जल से ही मानी गई है। चूंकि मछली जल का जाना-पहचाना प्राणी है, इसलिए भगवान विष्णु का मत्स्यावतार शुभ शुरुआत के साथ ही जल की तरह आचरण व कर्म को पवित्र बनाए रखने का संदेश देता है।

जल और उसके महत्व को बताते हुए इसमें गूढ़ सबक यह भी है कि जीवन में चरित्र रूपी पानी बनाए रखा जाए तो हर मकसद की शुरुआत बेहतर होने के साथ ही सारे संकटों से बचते हुए सही दिशा और मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। साथ ही मनचाहे नतीजों को पाना संभव बनाया जा सकता है।

नववर्ष की चौथी वजह और सीख : चाहें ताउम्र खुशियां, तो याद रखें यह 1 सलीका!
भावना सच्ची हो, सोच सही, सकारात्मक, सृजनात्मक हो, साथ ही चरित्र और आचरण में भी पवित्रता हो, लेकिन फिर भी जीवन के लक्ष्यों को पाने के लिए एक अहम बात निर्णायक होती है। यह सूत्र है - मर्यादा और गरिमा।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से जुड़ी चौथी वजह मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जीवन से जुड़ी होकर जीवन, दायित्व और रिश्तों में मर्यादा की अहमियत को उजागर करती है।

मान्यता है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम का राज्याभिषेक हुआ यानी राम राजा बने। श्रीराम के संपूर्ण चरित्र में मर्यादा का सौंदर्य प्रकट होता है, जो प्रेरणा देता है कि अगर सुख, यश और सम्मान पाना या कायम रखना चाहते हैं, तो जीवन मर्यादा के साथ गुजारने का संकल्प लें और श्रीराम का स्मरण करते रहें।

नववर्ष की पांचवी वजह और सीख : जीवन में क्यों, कब और कैसा काम करें?
इंसान दायित्वों या जिम्मेदारियों को पूरा करने के दौरान ऐसे वक्त का भी सामना करता है, जब उसके धैर्य, सच्चाई और ईमान की कठिन परीक्षा होती है। खासतौर पर ऐसे वक्त इंसान फैसलों तक पहुंचने में क्या करें और क्या न करें की स्थिति से गहरा दबाव व तनाव का सामना करता है।

जीवन में क्यों, कब और कैसे व्यवहार और विचारों को सही दिशा में ले जाएं? यही सिखाता है चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से जुड़ी पांचवी वजह से जुड़ा सबक।

पौराणिक मान्यताओं में यह दिन धर्मराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का भी माना गया है। पांडव पुत्रों में युधिष्ठिर धर्म पालक व रक्षक माने गए हैं। इस मान्यता में जीवन से जुड़ा संकेत यही है कि अगर इंसान सुख, पद और प्रतिष्ठा की आस रखता है, तो उसे धर्म यानी मन, शब्द और कर्म में सच्चाई और शुद्ध भावों को उतारना चाहिए।

सरल शब्दों में समझें तो सही वक्त पर सही उद्देश्य के लिए सही काम को कर गुजरने का संकल्प धर्मसंकट, दुविधा, संताप या चिंताओं से बचाने वाला सिद्ध होता है।

नववर्ष की छठी वजह और सीख : ऐसे पाएं बुरों को पछाडऩे का माद्दा और साहस?
शक्ति के मायने तब है, जब मन भी ताकतवर हो। शरीर की शक्ति कमजोर हो जाए, धन का अभाव हो जाए, किंतु मन की शक्ति कायम रहती है, बस जरूरत होती है, उसको जगाने की।

ऐसी ही सीख देती है चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से जुड़ी छठी व सबसे खास वजह यानी शक्ति उपासना की शुरुआत, जो नवरात्रि की शुभ घड़ी के रूप में भी जानी जाती है। यह शक्ति जागरण का काल है।

दरअसल, आलस्य मन और शरीर का ही शत्रु नहीं बल्कि वह धन बाधा भी बन जाता है। यही नहीं, यह आत्मविश्वास और मनोबल को कमजोर करता है। शक्ति जागरण का सीधा और साफ संदेश यही है कि मात्र पूजा, अनुष्ठान कर धार्मिक क्रियाओं में न डूबे, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी अपनी शक्ति और काबिलियत को पहचानों, उसे बढ़ाओ और उस शक्ति का सही उपयोग सबसे पहले अपनी बुरी आदतों, मन की कमजोरियों और बुरी प्रवृत्तियो के नाश के लिए करो।

साथ ही ताकत का इस्तेमाल दूसरों की भलाई के लिए करें और स्त्री जाति के लिए भी पूरे सम्मान का भाव रखें।

जानें, कैसे लाज और इलाज के लिए कारगर हैं नीम व गुड़?
हिंदू नव वर्ष का पहला दिन गुड़ी पड़वा के रूप में भी प्रसिद्ध है। इससे जुड़ी धार्मिक मान्यताओं पर गौर करें तो गुड़ी का अर्थ है - विजय ध्वज या पताका। माना जाता है कि इसी दिन भगवान श्रीराम ने बाली को मारा था। बाली के अत्याचार से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर पताका (गुडिय़ां) फहराई।

इसी तरह लोक परंपराओं में गुड़ी को एक स्त्री का रूप दिया जाता है। एक लकड़ी के डण्डे के ऊपरी सिरे पर कलश रख उसके चारों ओर साड़ी लपेटी जाती है। उसे फूलों की माला पहनाकर घर के द्वार पर लगा दी जाती है। उसकी पूजा-हवन किए जाते हैं। जिसके पीछे स्त्री के शक्ति स्वरूप को सम्मान देने का भाव भी जुड़ा है।

बहरहाल, नएपन, आशा, उम्मीदें, उमंग रंगों से सराबोर इस शुभ दिन से ऐसी परंपराएं भी जुड़ी है, जो मन व तन को भरपूर शक्ति, ऊर्जा, आत्मविश्वास व मनोबल देकर जीवन के उतार-चढ़ाव में भी संतुलित रख सफलता के नई-नई ऊंचाईयों पर ले जाती है।

इसी कड़ी में इस दिन भोजन में श्रीखण्ड, पूरन पोली का विशेष महत्व है। जिसमें पूरन पोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इनमें गुड़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आम। प्रतीकात्मक रूप से गुड़ बोल व व्यवहार में मधुरता के लिए, नीम के फूल मन से कलह व कड़वाहट को दूर रखने और इमली व आम की खटाई जीवन के उतार-चढ़ाव का संकेत है।

इस दिन औषधि के रूप में नीम की पत्तियाँ, काली मिर्च, अजवाइन, मिश्री और सौंठ भी खाए जाते हैं, जो अपने औषधीय गुणों के प्रभाव से व्यक्ति को निरोग, सबल, ऊर्जावान बनाते हैं। साथ ही शरीर को बढते तापमान के अनुकूल भी बनाते हैं।

सार यही है कि नीम, गुड़ और खटाई खाना संकेत करता है कि जीवन में कटु बातों और व्यवहार को भुलाकर हम प्रेम और स्नेह के मार्ग पर चलें। निराशा को हटाकर उत्साह से आगे बढ़ें। लोभ, निंदा, कटु बोल, बुरी आदतें, असंयम और गलत लोगों का साथ छोड़ें। ईश्वर के प्रति आस्थावान होकर अपने कर्तव्यों का पालन नि:स्वार्थ भाव से करें। ऐसा आचरण व आदत तन, मन को पुष्टि और प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला सिद्ध होगा।

क्यों, कैसे और कौन-सी अनूठी शक्तियां देती है देवी साधना?
हर काम में शक्ति की जरूरत होती है। इससे साफ है कि संसार में रचना, पालन और विनाश जैसा अद्भुत कार्य किसी महाशक्ति द्वारा ही संभव है। हिन्दू धर्म में महाशक्ति का यही स्वरूप आद्यशक्ति के नाम से जाना जाता है। शास्त्रों के मुताबिक आदि शक्ति परब्रह्म का ही रूप है, जो साकार न होकर भी चर-अचर जगत में फैली अनेक रूपों व शक्तियों में नजर आती है।

वेदों में भी देवी ने स्वयं को हर कार्य का फल और वैभव देने वाली बताया है। वहीं दुर्गासप्तशती में भी देवी की महिमा का एक मंत्र भी उजागर करता है कि पूरे ब्रह्माण्ड को शक्ति और ऊर्जा निराकार रूप में आदिशक्ति द्वारा ही प्राप्त होती है। लिखा है कि -

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:।।

जिसका अर्थ यही है कि पंचतत्वों यानी आकाश, जल, वायु, अग्रि और पृथ्वी सहित सभी प्राणियों में बसी शक्तिरूपा व प्राणदायी देवी को बार-बार मेरा नमस्कार है। साफ है कि देवी ही ब्रह्माण्ड की अधिष्ठात्री है।

शास्त्रों के मुताबिक त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी शक्ति के अधीन है और आदिशक्ति के द्वारा ब्रह्मदेव जगत रचना करते है। ब्रह्मा के साथ यह शक्ति रूप ब्राह्मी पुकारा जाता है। इसी तरह भगवान विष्णु जब इस शक्ति द्वारा ही जगत का पालन करते हैं तो यह शक्ति रूप वैष्णवी के रूप में पूजा जाता है। इसी तरह शिव की संहार शक्ति शिवा के रूप में जानी जाती है।

इसी तरह देवी के अलग-अलग रूप, शक्ति और गुणों के पीछे भी भक्त और साधकों की भावनाएं ही जुड़ी हैं। भक्त की भावनाओं के मुताबिक आदिशक्ति वैसे ही स्वरूप को धारण करती है। यही कारण है कि निराकार देवी शक्ति के अलग-अलग दिव्य स्वरूप जैसे महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, जगदंबा, गायत्री आदि अनेक साकार रूपों में पूजनीय है। इनके स्मरण द्वारा शक्ति साधना की गहरी आस्था जुड़ी है। ये शक्तियां सुख-शांति, वैभव देने वाली, संकट, काल, भय, कलह मुक्त जीवन और हर सांसारिक मनोरथसिद्धि करने वाली मानी जाती है।

सरल शब्दों में सार यही है कि शक्ति उपासना असल में हर भक्त को उसकी गुण व शक्तियों का ज्ञान व चेतना देती है। इससे मिली नई ऊर्जा आत्मविश्वास जगाकर कर्म के लिए प्रेरित करती है।

क्रमश:...

 जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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