Monday, November 28, 2011

Dharm Gyan ( धर्म ज्ञान) Part 6

कभी न बोलें ऐसे 5 तरह के बोल, वरना..
मन और कर्म ही नहीं बल्कि उसके साथ वचन यानी बोल या शब्दों में संयम व अनुशासन जीवन में सुख-दु:ख नियत करने वाले माने गए हैं। धर्म और व्यवहार दोनों ही नजरिए से वाणी की पावनता व मधुरता भी इंसान की सफलता का सूत्र माना गया है। क्योंकि वचन में सत्य और मिठास ही विश्वसनीय बनाकर आगे बढऩे के अवसर देती है।

धर्मग्रंथों में भी यशस्वी और कामयाब जीवन के लिए शब्द शक्ति का महत्व बताते हुए सत्य वचन के प्रति हमेशा संकल्पित और वचन दोष से सावधान रखने की सीख दी गई है। किंतु व्यावहारिक जीवन में अक्सर स्वार्थ या हितपूर्ति व असंयम के चलते इंसान ऐसे कटु शब्द व वाणी के उपयोग का अभ्यस्त हो जाता है, जो आखिकार बुरे नतीजों का कारण बनते हैं।

हिन्दू धर्मग्रंथों में जीवन के लिए बाधक व घातक बनने वाली ऐसी ही पांच तरह की बातों से बचना स्वयं के साथ दूसरों के लिए भी हितकारी बताया गया है। ये 5 वाचिक पाप भी कहे गए हैं। जानते हैं बातचीत के दौरान कैसे 5 तरह के बोल से किनारा कर लें -

- अनियन्त्रित प्रलाप यानी विषय से हटकर या अनावश्यक रूप से या आपत्ति के बाद भी लगातार अपनी बात ही बोलते चले जाना। ऐसे बोल दूसरों की परेशानी या कष्ट का कारण बनते हैं।

- अप्रिय यानी कटु, कठोर या अपशब्दों से भरे बोल बोलकर दूसरों को आहत करना।

- असत्य यानी किसी भी स्वार्थ, गलत कामों के दुराव-छुपाव या हानि पहुंचाने के लिए झूठ बोलना।

- परनिन्दा यानी ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थसिद्धि या मानहानि के उद्देश्य से दूसरों में दोष दर्शन।

- पिशुनता या चुगली - लक्ष्य व स्वार्थ सिद्धि व किसी की हानि की मंशा से एक व्यक्ति से जुड़ी बातों को तोड़-मरोड़, बढ़ा-चढ़ाकर या शिकायत के रूप में दूसरों तक पहुंचाना।

शास्त्र कहते हैं कि बातचीत के दौरान शब्दों को इन 5 गलत तरीकों व भावनाओं से उजागर करना मन व विचारों में हमेशा दोष व अशांति बनाए रखते हैं। इनसे तत्कालिक या क्षणिक लाभ हो सकता है, किंतु लंबे वक्त के लिए ऐसे शब्द अपयश व पतन का कारण बनते हैं।

सिर्फ चोरी नहीं, ऐसे काम करने वाला भी होता है चोर..!
सामान्यत: चोर शब्द का अर्थ धन या वस्तु की चोरी करने वाले व्यक्ति के संदर्भ में लिया जाता है। किंतु हिन्दू धर्मशास्त्रों में मन व कर्म में पैदा हर दोष को पाप की जड़ मानकर जीवन व मृत्यु के बाद भी पीड़ादायी बताया गया है। इसी कड़ी में चोरी भी मानसिक व व्यावहारिक दोष से हुआ पापकर्म माना गया है, जो खासतौर पर आलस्य, दरिद्रता या कर्महीनता से जन्मे अभाव या स्वार्थ के हावी होने से होता है।

भविष्य पुराण के मुताबिक चोरी के अलावा व्यावहारिक जीवन में आचरण या जिम्मेदारियों व कर्तव्यों की पूर्ति में दोष की दृष्टि से कुछ अन्य कामों को करने वाला भी स्तेयी यानी चोर कहा गया है। यह भी कहा गया है कि ऐसे काम करने वाला व्यक्ति नरक में जाता है। जानते हैं चोरी के अलावा कौन-से हैं वे कर्म, जो चोर बना देते हैं -

- अन्याय या गलत तरीकों से धन अर्जित करने वाला।

- अन्याय या गलत कामों से दूसरों का धन हड़पने वाला।

- देव उपासना, स्मरण या परोपकार से दूर रहने वाला।

- माता-पिता, बुजूर्गों या गुरु की सेवा-सुश्रूषा न करने वाला।

- मदद या उपकार करने वाले के प्रति अच्छा व्यवहार न करने वाला।

- धर्मग्रंथों, रत्न-आभूषण, सोना, जमीन, पशु जैसे घोड़े, गाय को चुराने वाला।

- योग्य या अपात्र होने पर वर्जित धन को भी स्वीकार करने या पाने वाला।

चोर बना देने वाले ऐसे कामों से बचने की सीख के पीछे सुखी जीवन का एक सूत्र यह भी मिलता है कि दुर्भाव व स्वार्थवश वस्तु या धन की चोरी करने के बजाए सेवा, सद्भाव, धर्म पालन व परोपकार से हृदय का हरण करने वाला ही यशस्वी व सफल जीवन को प्राप्त कर सकता है।

अगर घर में न हों ये आसान धर्म-कर्म..तो चला जाएगा सुख-चैन
घर-परिवार के सौंदर्य का पैमाना बाहरी रंग-रोगन या बनावट से नहीं बल्कि सुख-शांति है। सुख-शांति के लिए अहम है सुदृढ व्यवस्था। ऐसे प्रबंधन में परिजनों के कार्य, व्यवहार में सच्चाई के साथ, कर्तव्य व मर्यादा का पालन जरूरी है। इनमें दोष आते ही सुख-चैन छिन जाता है व शांति भी भंग हो जाती है। नतीजतन घर में रहते भी जीवन नारकीय महसूस होने लगता है।

हिन्दू धर्मग्रंथों में जीवन को ऐसी उथल-पुथल या अशांति से दूर रखने के लिए घर में ऐसे छोटे-छोटे धार्मिक कामों को नियमित या विशेष घडिय़ों में करना जरूरी बताया गया है, जो सकारात्मक ऊर्जा देने के साथ घर के माहौल में सुख-शांति व मेल-जोल बनाए रखते हैं। कौन-से है ये सुखदायी धार्मिक कर्म जानते हैं -

लिखा गया है कि -

न विप्रपादोदककमर्दमानि न वेदशास्त्रप्रतिगर्जितानि।

स्वाहास्वधस्वस्तिविवर्जितानि श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।

सरल शब्दों में अर्थ है कि जिस घर में ब्राह्मणों का सेवा-सम्मान न हो, वेद-शास्त्रों का अध्ययन व स्मरण न हो, या स्वाहा, स्वधा और स्वस्ति के स्वर न गूंजे ऐसा घर श्मसान की तरह होता है।

व्यावहारिक नजरिए से इस श्लोक में साफ संकेत है कि घर में किए जाने वाले धर्म-कर्म ईश्वर में आस्था को मजबूत रख मनोबल व आत्मविश्वास ऊंचा रख निर्भय व निश्चिंत रखने के साथ परिवार को जोड़ते हैं। जिसके लिए धार्मिक दृष्टि से ब्रह्म अंश माने गए ब्राह्मण या फिर विद्वान व गुणी लोगों का सम्मान, दान, सेवा, धर्म से जुड़ी ज्ञान की चर्चा, देव महिमा या स्मरण से जुड़ी स्तुतियों व मंत्रों का नित्य पाठ, स्वाहा, स्वधा, स्वस्ति यानी यज्ञ-हवन, पितृपूजा कर्म व विवाह, संस्कारों से जुड़े मंगल कार्यों को करने का महत्व बताया गया है।

इन 3 मीठी बातों के जादू से जीवनभर पाएं सुखद नतीजे
वाणी या बोल का महत्व धर्मशास्त्रों के नजरिए से जाने तो यह इंद्रिय संयम के द्वारा सुखी जीवन पाने का अहम सूत्र है। यह वाचिक तप भी कहलाता है। कहा गया है कि सांसारिक जीवन में मीठी वाणी के अभाव में तो पूजन, दान या अध्ययन भी निरर्थक हो जाते हैं। क्योंकि कड़वे बोल हृदय, प्राण, मर्म और अस्थि को गहरा दु:ख पहुंचाते हैं।

इस बात पर व्यावहारिक रूप से भी गौर करें तो मिठासभरे शब्दों से न केवल व्यक्तिगत सुकून प्राप्त होता है, बल्कि यह दूसरों का मन भी मोह या जीत लेते हैं। इस तरह मीठी वाणी का जादू भी सफलता का सूत्र है। लेकिन वाणी के सदुपयोग करते हुए वे मीठे शब्द कैसे होने चाहिए? और क्या ऐसे खास शब्द हैं, जिनका हर इंसान जीवनभर मेल-मिलाप या व्यवहार के दौरान उपयोग कर जीवनभर सुख बंटोर सके या मुश्किलों से पार पाए?

इन सवालों का जवाब भविष्यपुराण में बताई वाणी की अहमियत व मिठास से जुड़ी इन बातों में मिल सकता है -

लिखा गया है कि -

न हीदृक् स्वर्गयानाय यथा लोके प्रियं वच:।

इहामुत्र सुखं तेषां वाग्येषां मधुरा भवेत्।।

अमृतस्यनन्दिनीं वाचं चन्दनस्पर्शशीतलाम्।

धर्माविरोधिनीमुक्त्वा सुखमक्षय्यमाप्रुयात्।।

सरल शब्दों में सार है कि मीठी वाणी चंदन की भांति ठंडक देती है, जो लोक-परलोक यानी जीवन और मृत्यु के बाद भी सुख देने वाली होती है। जिसके लिए तीन खास बातों को अपनाना जरूरी है -

- पहली अतिथि के आने पर कुशलक्षेम यानी खैरियत पूछना चाहिए और जाने पर - यात्रा व कार्य मंङ्गलमय हो ऐसा बोलना चाहिए।

- दूसरे किसी से मिलने, अभिवादन या स्वागत के वक्त स्वस्ति यानी शुभ कामनाओं व प्रसन्नता से भरे वचन व शब्द बोलें।

- किसी भी कार्य के संबंध में शब्दों से यही भावना व्यक्त करें कि - आपका नित्य कल्याण हो। जिससे व्यावहारिक रूप से समझे तो किसी को भी किसी कार्य के संबंध में सकारात्मक टिप्पणी, विचार या सलाह ही दें।

शिव कृपा के साफ संकेत हैं मन में ऐसे बदलाव
वेद-पुराणों शिव के अनादि, अनंत प्रकृति स्वरूप की महिमा प्रकट करते हैं। जिनके मुताबिक प्रकृति के कण-कण में शिव का अस्तित्व है। इसलिए शिव के निर्गुण हो या सगुण दोनों ही स्वरूप की भक्ति व पूजा जीवन को कलहमुक्त बनाने वाली मानी गई है। अक्सर सांसारिक जीवन में भक्ति के प्रभाव या देव कृपा का पैमाना बाहरी तौर पर मिलने वाले भौतिक सुखों को मान लिया जाता है। जबकि देव कृपा अंदर से मन और स्वभाव में बदलाव लाकर बाहरी रूप से सुख देती है।

इसी तरह शिव भक्ति भी सभी सांसारिक इच्छाओं को जल्दी पूरा करने वाली जरूर है, लेकिन शिव भक्ति से मिलने वाली शिव कृपा या प्रसन्नता जानना है तो सुख-सुविधाओं से पहले मन में आने वाले कुछ भावों या सुखद बदलावों पर गौर करें। क्या है ये शिव कृपा के भाव रूपी संकेत जानते हैं?

दरअसल, शिव का अर्थ है मंङ्गल या कल्याण यानी जो मंङ्गलमय और कल्याणकारी है, वही शिव है। यही कारण है शिव कृपा को जानने की शुरुआत मन की पाावनता से करें। ऐसा तभी संभव है जब विकार या दोष का अभाव हो।

मन को पावन रखने के लिए ही श्रद्धा और विश्वास सबसे अहम है। क्योंकि श्रद्धा मन का विषय है। चूंकि मन चंचल होता है, जो थोड़ी से चूक से भटक जाता है। लेकिन जब सात्विक गुण-विचार का संग हो तो उसी मन में श्रद्धा पनपती है। यह श्रद्धा ही विश्वास को मजबूत रखती है। चूंकि शास्त्र में शिव श्रद्धा स्वरूप ही माने गए हैं। नीचे लिखी गोस्वामी तुलसीदास की बात इस बात को बल देती है -

भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणौ।। यानी मैं श्रद्धा व विश्वास के रूप शक्ति और शंकर की वंदना करता हूं।

यही कारण है कि शिव का मार्ग श्रद्धा से ही तय करना संभव माना गया है। मन में श्रद्धा व शिवतत्व की पहचान पवित्र भाव और शुद्ध संकल्प से ही होती है। अगर शिव भक्ति व सेवा से आप के मन भी ऐसे ही भाव जीवन के हर विषय या रिश्तों को लेकर उमड़ते हैं, तो समझें आप शिव कृपा के भागी बन रहें है।

ऐसी शिव कृपा पाने के लिए यानी श्रद्धा और विश्वास बढ़ाने के लिए व्यावहारिक जीवन में सरल तरीका यह भी है कि शुद्ध आहार-विहार, माहौल को अपनाएं। जिसके लिए अच्छी संगति, सत्संग और धर्मग्रंथों के ज्ञान को पढ़ें।

जानें, कैसे दया भी है बड़ी सफलता का जरिया?

अक्सर बेकाबू लालसा या कामनाएं जीवन में अशांति और असफलता का कारण बनती है। शास्त्रों के नजरिए से ऐसे भटकाव से परे रहने का बेहतर सूत्र या शक्ति दया भाव है। चूंकि व्यावहारिक जीवन में अक्सर आगे बढऩे की होड़ में दया भाव को परे कर स्वार्थसिद्धि ही लक्ष्य मान लिया जाता है। जबकि यहां बताई जा रही धर्मशास्त्रों की बात पर गौर करें तो अहं और कटुता से दूर रहकर भी दया या रहम को भी सफलता का ऊंचा मुकाम पाने का अहम जरिया बनाया जा सकता है।

दया या रहम से सुख-शांति पाने के लिए सबसे पहले दया का स्वरूप व परिभाषा को जेहन में उतारना जरूरी है। पुराणों में दया की परिभाषा यह मिलती है कि -

अपरे बन्धुवरों वा मित्रे द्वेष्टरि वा सदा।

आत्मवद्वर्तनं यत् स्यात् सा दया परिकीर्तिता।।

इस श्लोक के मुताबिक दया का अर्थ है अपने-पराये, मित्र और शत्रु में अपनी तरह व्यवहार करना और दूसरों का हर दु:ख मिटाने की कामना रखना है।

व्यावहारिक जीवन के नजरिए से दया के इस स्वरूप में ही दया को बड़ी सफलता का जरिया बनाने के संकेत भी छुपे हैं। दरअसल, दया का मूल प्रेम है और प्रेम का सत्य। हृदय में प्रेम क्षमा भाव को जन्म देता है और क्षमा ही इंसान को दया भाव से जोड़ती है।

इस तरह दया से जुड़े प्रेम, सत्य, क्षमा के ये भाव अपने-परायों का विश्वास जीतकर यशस्वी और सफलतम बनाने की डगर बेहद आसान बना देते हैं। क्योंकि दयालु इंसान सारी दुनिया के लिए अपनापन रखता है। जिससे वह कर्तव्य और जिम्मेदारियों को उठाने के लिए संकल्पित रहता है और ऐसी संकल्प शक्ति ही लक्ष्य भेदन में सफल बनाती है।

राह चलते ये लोग सामने आएं तो बिना देरी दें रास्ता..!
हिन्दू धर्मग्रंथों में सुखद व सफल जीवन के लिए जरूरी चार पुरुषार्थ के अहम लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए नियम, संयम, अनुशासन, मर्यादा, ज्ञान, कर्तव्य व संस्कार को अपनाना अहम माना गया है, जो जन्म से लेकर मृत्यु कर्मों तक के लिए नियत किए गए हैं। इसी लिहाज से जीवन में उठते- बैठते अनेक ऐसी छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखने का महत्व बताया गया है, जो सुनने-पढऩे में दिलचस्प भी हैं, लेकिन उनका पालन अनुशासन, सम्मान व आपसी सद्भाव बढ़ाने वाला है। जानते हैं ऐसी रोचक बातें -

भविष्य पुराण की यहां बताई जा रही बात का संबंध राह में चलते वक्त किसी व्यक्ति विशेष के सामने आने पर किए जाने वाले व्यवहार से जुड़ी है। लिखा गया है कि -

चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिण: स्त्रिया:।

स्नातकस्य तु राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च।।

एपां समागमे तात पूज्यौ स्नातकपार्थिवौ।

आभ्यां समागमे राजन् स्नातको नृपमानभाक्।।

सरल शब्दों में अर्थ व संदेश यही है कि नीचे बताए लोगों के सामने आने पर तुरंत सद्भाव पूर्वक जल्द राह दे दें -

- रथ आदि यान पर सवार, आधुनिक संदर्भों में किसी भी वाहन पर बैठा व्यक्ति,

- अतिवृद्ध यानी ज्यादा उम्र या बुजूर्ग इंसान

- रोगी

- भारयुक्त यानी किसी भी रूप में बोझ उठाकर ले जा रहा व्यक्ति।

- स्त्री

- स्नातक यानी जिसका समावर्तन संस्कार यानी गुरु शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर केशांत कर आचार्य उपाधि प्राप्त कर आने वाला। आधुनिक संदर्भ में विद्वान या धर्माचार्य, शिक्षित भद्र व्यक्ति।

- राजा

- वर यानी दूल्हा

अगर इन सभी का सामने से एक साथ आना हो जाए तो राजा और स्नातक। दोनो में भी पहले स्नातक को रास्ता देना चाहिए।

व्यावहारिक रूप से इस बात में छुपे संदेश समझें तो बुजूर्ग, रोगी, भारयुक्त, स्त्री को रास्ता देने में मूलत: सम्मान, सेवा, संवेदना, मर्यादा वहीं राजा या दूल्हे को मार्ग छोडऩा अनुशासन व सद्भाव को अपनाने की सीख देते हैं। वहीं स्नातक की राह छोडऩा धर्म व ज्ञान के प्रति सम्मान का प्रतीक है। इस दिलचस्प बात पर सतही तौर पर भी विचार करें तो ऐसा व्यवहार स्वयं के साथ दूसरों को भी शरीर, प्राण, प्रतिष्ठा या चरित्र हानि से बचाने वाला है।

सफल जीवन की राह बताते हैं साईं के ये 4 सबक
त्यागमूर्ति साईं बाबा ने मानव धर्म का पालन ही सर्वोपरि बताया। इंसानियत की अहमियत उजागर करती साईं की यह सीख धर्म पालन की नासमझी से पैदा कट्टरता की गलत सोच के बंधनों में जकड़े हर इंसान को मानवीय रिश्तों में संवेदना व भावनाओं को ऊपर रख खुले विचारों के साथ व्यवहार और कर्मों को साधने की कला सिखाती है।

हिन्दू धर्म मान्यताओं के नजरिए से विचार करें तो परब्रह्म के त्रिगुण स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश की रचना, पालन व बुरी शक्तियों के संहार के गुण साईं चरित्र में भी प्रकट होते हैं। दरअसल ब्रह्मदेव की ज्ञान शक्ति से रचना या बनाने का भाव, विष्णु की सत्व शक्ति यानी शांति से पालन और शिव का वैराग्य से सुख प्राप्ति का गुण साईं बाबा के ज्ञानी, त्यागी व शांत चरित्र में भी उजागर होता है।

यही कारण है कि साईं बाबा द्वारा बताई 4 अहम बातें व्यावहारिक जीवन में हर व्यक्ति को धर्म और मानवीयता से जोड़ जीने की राह बताती है। इसलिए साईं भक्ति में इन चार बातों से जीवन में जुडऩे की मुरादें मांगना भी अहम माना गया है। जानते हैं क्या बताया साईं ने -

बुराई से बचें - साईं बाबा ने सुख-शांति से जीवन बिताने के लिए हमेशा तन की मलिनता, मन के बुरे भाव, कर्म में आलस्य या धन के लिए गलत तरीके अपनाना जैसी हर तरह की बुराईयों से दूर रहने पर जोर दिया।

अहं - साईं बाबा ने विनम्रता व उदारता को सुखद जीवन का अहम सूत्र माना। जिसके लिए अहं भाव को मन में स्थान न देने का संदेश दिया।

धन के साथ बुद्धि - साईं ने यह भी सिखाया कि ईश्वर से धन की कामना बुरी नही, किंतु उसके साथ बुद्धि की कामना भी जरूर करें, ताकि धन का संग पाकर मन व जीवन में भटकाव न आए। बल्कि परोपकार में धन का उपयोग हो।

न्यायप्रिय वचन - साईं बाबा ने इस खास सूत्र द्वारा वचन की पवित्रता से सफलता की राह बताई। साईं ने सिखाया कि सत्य और न्यायप्रिय बोल की ही सार्थकता है। अन्यथा बुरे, अप्रिय या अन्याय से भरे शब्दों का कोलाहल जीवन को अशांत कर देता है।

खबरदार! शरीर से न हों ये 4 काम, वरना..
मन का स्वभाव चंचल होता है। अस्थिर मन से पैदा मानसिक पाप शरीर पर हावी होते हैं। जिससे कर्म भी दूषित होते हैं। गलत काम के दु:खद नतीजे जीवन को भी अस्थिर कर अहम लक्ष्यों से भटकाते हैं।

शास्त्रों में जीवन को असंतुलन व भटकाव से दूर रखने के लिए ही मन को अच्छी सोच, बातों और माहौल से जोड़ने के अलावा खासतौर पर शरीर को भी चार कर्मों से दूर रखने की हिदायत दी गई है। जिनको कायिक पाप भी पुकारा गया है। जानते हैं, कौन-से हैं वे चार काम, जो देह के पाप हैं -

- अभक्ष्य भक्षण यानी दूषित, किसी भी जीवित प्राणी को मारकर मांसाहार या ऐसे भोजन को खाना जो शरीर के लिए घातक हो।

- हिंसा यानी किसी भी प्राणी पर अस्त्र-शस्त्रों से वार कर शरीर हानि करना या प्राण हरना।

- मिथ्या काम सेवन यानी बुरे विचारों के साथ संयमहीन शारीरिक सुखों को भोगते हुए जीवन बिताना।

- परधन हरण यानी चोरी या अन्य किसी भी गलत तरीके से किसी के धन, सपंत्ति पर अधिकार करना।

धार्मिक दृष्टि से इन कामों से नरक प्राप्त होता है, जिसमें व्यावहारिक संकेत समझे तो नरक भोगना यानी ये काम बड़े मानसिक व शारीरिक दु:ख, रोग व कष्टों का कारण बनते हैं, जो न केवल व्यक्ति बल्कि परिवार व समाज पर भी बुरा असर डालते हैं।

बस, ध्यान रहें ये 2 बातें..तो मजबूत रहेगी गृहस्थी की बुनियाद
शास्त्रों में बताए आश्रम-व्यवस्था रूपी जीवन के चार चरणों में गृहस्थाश्रम को बाकी तीन आश्रमों का मूल बताते हुए सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। क्योंकि धार्मिक और व्यावहारिक रूप से भी यह सत्य है कि धर्म से जुड़कर ही अर्थ और काम संयमित रहते हैं। जिसके द्वारा जीवन रहते सुख और बाद मोक्ष मिलता है। इसलिए इसे गृहस्थ धर्म भी कहा गया है।

यह तो हुई जीवन को गृहस्थ धर्म के पालन से साधने की बात, किंतु गृहस्थी की नींव को मजबूत बनाए रखने के लिए किस तरह धर्म से जीवन को जोडऩा चाहिए? इस संबंध में शास्त्रों में गृहस्थी में मुखिया से लेकर परिवार के हर सदस्यों के लिए खासतौर पर दो बातों को कर्म, व्यवहार और स्वभाव में स्थान देना अहम माना है। जानें कौन-सी है ये दो खास बातें -

प्रेम - जी हां, प्रेम के बिना धर्म पालन मुश्किल है। चूंकि प्रेम का मूल है सत्य। इसलिए गृहस्थी में परिजनों के काम, बोल और कर्म में सच्चाई एक-दूसरे के बीच अटूट प्रेम और विश्वास बनाए रखती है।

सहयोग - शास्त्रों के नजरिए से सहयोग या सहकार में भी परोपकार, प्रेम, दया, क्षमा के भाव मौजूद होते हैं। परिवार में सुख-शांति रखने के लिए भी सदस्यों में आपसी सहयोग, मेलजोल और तालमेल अहम है। जिनको कायम रखने के लिए प्रेम और उससे पैदा क्षमा का भाव होना बेहद जरूरी है। क्योंकि क्षमा मन को द्वेष परे रख अपनत्व, दया, करुणा, संवेदना और भावनाओं से जोड़े रखती है।

गीता जयंती निष्काम कर्म करने की शिक्षा देता है यह ग्रंथ
मार्गशीर्ष (अगहन) मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को गीता जयंती का पर्व मनाया जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इसी तिथि पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का शिक्षा दी थी। इस बार गीता जयंती का पर्व 6 दिसंबर, मंगलवार को है।

जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने वाला था। तब अर्जुन ने कौरवों के साथ भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि श्रेष्ठ महानुभावों को देखकर तथा उनके प्रति स्नेह होने पर युद्ध करने से इंकार कर दिया था। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था जिसे सुन अर्जुन ने न सिर्फ महाभारत युद्ध में भाग लिया अपितु उसे निर्णायक स्थिति तक पहुंचाया।

गीता को आज भी हिंदू धर्म में बड़ा ही पवित्र ग्रंथ माना जाता है। गीता के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी। वास्तव में यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण कलयुग के मापदंड को ध्यान में रखते हुए ही दिया है। कुछ लोग गीता को वैराग्य का ग्रंथ समझते हैं जबकि गीता के उपदेश में जिस वैराग्य का वर्णन किया गया है वह एक कर्मयोगी का है। कर्म भी ऐसा हो जिसमें फल की इच्छा न हो अर्थात निष्काम कर्म।

गीता में यह कहा गया है कि निष्काम काम से अपने धर्म का पालन करना ही निष्कामयोग है। इसका सीधा का अर्थ है कि आप जो भी कार्य करें, पूरी तरह मन लगाकर तन्मयता से करें। फल की इच्छा न करें। अगर फल की अभिलाषा से कोई कार्य करेंगे तो वह सकाम कर्म कहलाएगा। गीता का उपदेश कर्मविहिन वैराग्य या निराशा से युक्त भक्ति में डूबना नहीं सीखाता वह तो सदैव निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देता है।

जानें, क्या हैं सफल जीवन के लिए शिव, शम्भु व शंकर नाम के मायने?
पुराणों में शिव महिमा उजागर करती है कि काल पर शिव का नियंत्रण है, न कि शिव काल के वश में। इसलिए शिव महाकाल भी पुकारे जाते हैं। ऐसे शिव स्वरूप में लीन रहकर ही काल पर विजय पाना भी संभव है।

सांसारिक जीवन के नजरिए से शिव व काल के संबंधों से जुड़ा गूढ़ संकेत यही है कि काल यानी वक्त की कद्र करते हुए उसके साथ बेहतर तालमेल व गठजोड़ ही जीवन व मृत्यु दोनों ही स्थिति में सुखद है। जिसके लिए शिव भाव में रम जाना ही अहम है। शिव भाव से जुडऩे के लिए वेदों में आए शिव के अलावा अन्य दो नामों शम्भु व शंकर के मायनों को भी समझना जरूरी है-

वेदों के मुताबिक शम्भु मोक्ष और शांति देने वाले हैं। वहीं शंकर शमन करने वाले और शिव मंगल और कल्याण कर्ता। इस तरह शम्भु नाम यही भाव प्रकट करता है कि शांति की चाहत के लिए अशुभ से परे रहें और शुभ से जुड़े। जिसके लिए क्षमा की तरह अच्छे भाव व कर्मों को अपनाए। जिससे मन दोषरहित होने से भय-रोगों से मुक्त रहेगा और मनचाहे लक्ष्य को पाना संभव होगा।

शंकर का मतलब है शमन करने वाला। यह नाम स्मरण यही भाव जगाता है कि मन को हमेशा शांत, संयमित व संकल्पित रखें, ठीक शंकर के योगी स्वरूप की तरह। संकल्पों से मन को जगाए रखने से ही सारे कलहों का शमन यानी शांति होती रहेगी और सफलता का रास्ता भी साफ दिखाई देगा।

शंभु व शंकर के साथ शिव नाम का अर्थ व भाव है - मंगल या कल्याणकारी। इसके पीछे कर्म, भाव व व्यवहार में पावनता का संदेश है। जिसके लिए जीवन में हर तरह से पवित्रता, आनन्द, ज्ञान, मंगल, कुशल व क्षेम को अपनाएं ताकि स्वयं के साथ दूसरों का भी शुभ हो। क्योंकि शिव नाम के साथ मंगल भावों से जुडऩे से मन की अनेक बाधाएं, विकार, कामनाएं और विकल्प नष्ट हो जाते हैं।

इस तरह शिव, शंभु हो या शंकर नाम हमेशा जीवन में निर्मलता, सफलता और महामंगल ही लाने वाले हैं।

कर्बला-कुरुक्षेत्र की जंग - 'करो या मरो' के जज्बे ने सिखाए सफल जीवन के ये सूत्र
युद्ध मानवता और शांति के नजरिए से अस्वीकार्य है। किंतु धर्म इतिहास उजागर करता है कि हिन्दू धर्म मान्यताओं में कुरुक्षेत्र और इस्लामी मान्यताओं में कर्बला की जंग के महानायकों ने कर्म के साथ जीने तो धर्म रक्षा के लिए मर मिटने के जो सूत्र सिखाए वह हमेशा सारी दुनिया को इंसानियत व अमन के साथ रहकर जीवन को सफल बनाने का जज्बा देते हैं।

इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक मुहर्रम के दिन कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन व परिजनों द्वारा इंसानियत के लिए दी गई शहादत को याद किया जाता है। माना जाता है कि यजीद की सेना इतनी ताकतवर थी कि बाकी दुनिया की सारी सेना के मिल जाने पर भी उसकी ताकत का भी मुकाबला न कर पाए। किंतु यह जानते हुए भी इमाम हुसैन ने धर्म निभाते हुए मानवता का गला घोंट रहे यजीद के जुल्मों से आहत लोगों व धर्म की रक्षा के लिये ही छोटे-से दल-बल के साथ कर्बला की ओर कूच किया। जहां कर्बला के मैदान में यजीद द्वारा उपयोग की गई तमाम शक्ति व प्रलोभनों के आगे न झुकते हुए सिर्फ अल्लाह की रहमत, इंसानियत व नेकदिली की राह पर ही अडिग रहकर शहादत दे दी।

वहीं हिन्दू धर्म मान्यताओं के मुताबिक कुरुक्षेत्र का मैदान तो असल में योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने ही जीता। क्योंकि भगवान कृष्ण ने गीता के उपदेशों से निष्काम कर्मयोग का जो संदेश दिया। वह हर प्राणी के लिये सुखी, शांत व सफल जीवन का नायाब सूत्र माना जाता है।

इस तरह जहां कर्बला में इमाम हुसैन ने धर्म पालन यानी प्रेम, परोपकार, दया आदि के मजबूत संकल्पों के साथ तो कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म और पुरुषार्थ के जरिए धर्म अपनाने व सफल जीवन के बेहतरीन सूत्र सिखाए।

शेषनाग पर सोते हैं भगवान विष्णु क्योंकि...
भगवान विष्णु को सभी देवताओं में प्रधान माना गया है। विष्णु ही वे भगवान है जिनके सबसे ज्यादा अवतार लिए जाने का वर्णन हमारे धर्मशास्त्रों में मिलता है। भगवान विष्णु के भयानक और कालस्वरूप शेषनाग पर आनंद मुद्रा में शयन करते हुए भी दर्शन किए जा सकते हैं। भगवान विष्णु के इसी स्वरूप के लिए शास्त्रों में लिखा गया है

- शान्ताकारं भुजगशयनं यानि शांतिस्वरूप और भुजंग यानि शेषनाग पर शयन करने वाले देवता भगवान विष्णु।

साधारण नजरिए से यह अनूठा देव स्वरूप अचंभित करता है कि काल के साये में रहकर भी देवता बिना किसी बैचेनी के शयन करते हैं। किंतु भगवान विष्णु के इस रूप में मानव जीवन से जुड़ा छुपा संदेश है - जिंदगी का हर पल कर्तव्य और जिम्मेदारियों से जुड़ा होता है। इनमें पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक दायित्व अहम होते हैं। किंतु इन दायित्वों को पूरा करने के साथ ही अनेक समस्याओं, परेशानियों, कष्ट, मुसीबतों का सिलसिला भी चलता रहता है, जो कालरूपी नाग की तरह भय, बेचैनी और चिन्ताएं पैदा करता है।

जिनसे कईं मौकों पर व्यक्ति टूटकर बिखर भी जाता है। भगवान विष्णु का शांत स्वरूप यही कहता है कि ऐसे बुरे वक्त में संयम, धीरज के साथ मजबूत दिल और ठंडा दिमाग रखकर जिंदगी की तमाम मुश्किलों पर काबू पाया जा सकता है। तभी विपरीत समय भी आपके अनुकूल हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति सही मायनों में पुरूषार्थी कहलाएगा। इस तरह विपरीत हालातों में भी शांत, स्थिर, निर्भय व निश्चिंत मन और मस्तिष्क के साथ अपने धर्म का पालन यानि जिम्मेदारियों को पूरा करना ही विष्णु के भुजंग या शेषनाग पर शयन का प्रतीक है।

स्त्री से ऐसा बर्ताव रखता है गृहस्थी को खुशहाल
धार्मिक मान्यता है कि स्वर्ग देवताओं की नगरी है। वहां देवत्व भाव की प्रधानता है। देवत्व का संबंध शुभ, मंगल, सुख, पवित्र भाव, विचार व कर्मों से जुड़ा है। इसलिए भी सांसारिक जीवन में हर सुखद अनुभव या स्थान को स्वर्ग नाम से जोड़ा जाता है।

इसी कड़ी में शास्त्रों के मुताबिक गृहस्थी भी जीवन में सुख, शांति और लक्ष्यों को प्राप्त करने का अहम पड़ाव है। इस गृहस्थ जीवन की धुरी स्त्री को माना जाता है। वह शक्तिस्वरुपा भी कहलाती है। क्योंकि स्त्री रचना की विलक्षण शक्ति की स्वामिनी है। इसलिए वह जननी भी पुकारी जाती है।

यही कारण है कि गृहस्थी को स्वर्ग बनाने यानी सुख-समृद्ध बनाने के लिए घर-परिवार या समाज में स्त्री के प्रति बोल, वचन और व्यवहार से जुड़ा एक अहम सूत्र लिखा गया है। यह सूत्र है -

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तत्र रमन्ते देवता।

अर्थ है कि जहां नारी की पूजा यानी सम्मान होता है, वहां देव कृपा या देव वास होता है। इस बात का व्यावहारिक संकेत यही है कि अगर घर-परिवार में स्त्री अपमानित या उपेक्षित हो तो स्वाभाविक है कि इसका बुरा असर न केवल स्त्री की मनोदशा पर बल्कि गृहस्थी की व्यवस्था, संस्कार व जीवनमूल्यों पर भी होता है।

इस वजह से घर-परिवार के वातावण में घुली अशांति व कलह दरिद्रता, रोग, संकट या शोक का कारण बनते हैं। किंतु इसके विपरीत जननी के रूप में स्त्री का आदर गृहस्थी का माहौल सुखद, व्यवस्थित तनावरहित व प्रेरणादायी बना रहता है। साथ ही पीढ़ी दर पीढ़ी अच्छे संस्कार, आचरण व गुण फलते-फूलते हैं। जिनसे मिलने वाली खुशियां, समृद्धि व शांति स्वर्ग सा आनंद ही देती है।

बोध होने के बाद गौतम बुद्ध ने धारण किया था मौन। क्या था इस मौन का महत्व..?
बुद्ध को जब बोध प्राप्त हुआ, तो कहा जाता है कि वे एक सप्ताह तक मौन रहे। उन्होंने एक भी शब्द नहीं बोला। पौराणिक कथाएं कहती हैं कि सभी देवता चिंता में पड गए। उनसे बोलने की याचना की। मौन समाप्त होने पर वे बोले, जो जानते हैं, वे मेरे कहने के बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। जिन्होंने जीवन का अमृत ही नहीं चखा, उनसे बात करना व्यर्थ है, इसलिए मैंने मौन धारण किया था। जो बहुत ही आत्मीय और व्यक्तिगत हो उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है?
देवताओं ने उनसे कहा, जो आप कह रहे हैं वह सत्य है, परंतु उनके बारे में सोचें जिनको पूरी तरह से बोध भी नहीं हुआ है और पूरी तरह से अज्ञानी भी नहीं हैं। उनके लिए आपके थोडे से शब्द भी प्रेरणादायक होंगे। तब आपके द्वारा बोला गया हर शब्द मौन का सृजन करेगा।

बुद्ध के शब्द निश्चित ही मौन का सृजन करते हैं, क्योंकि बुद्ध मौन की प्रतिमूर्ति हैं। मौन जीवन का स्रोत है। जब लोग क्रोधित होते हैं, तो पहले वे चिल्लाते हैं और फिर मौन हो जाते हैं। जब कोई दुखी होता है, तब वह भी मौन की शरण में जाता है। जब कोई ज्ञानी होता है, तब भी वहांपरमौन होता है।

शुरुआत से ही बुद्ध ने संतुष्ट जीवन का निर्वाह किया। हर सुख-सुविधा किसी भी समय उनकी इच्छानुसार उनके सामने हाजिर हो जाती थी। एक दिन उन्होंने कहा कि मुझे बाहर जाकर यह देखना है कि दुनिया क्या है। जब उन्होंने एक बीमार, एक वृद्ध और एक मृत व्यक्ति को देखा, तो उन्होनेजीवन के बारे में विचार करना शुरू किया। ये दृश्य यह ज्ञान देने में पर्याप्त थे कि जीवन में दु:ख है।

बुद्ध ने अकेले सत्य की तलाश शुरू की। इसके लिए उन्होंने अपना महल, पत्‍‌नी और बेटे को छोड दिया। उन्होंने वह सब कुछ किया, जो लोगों ने उन्हें बताया। इसके बाद ही वे चार सत्य जान पाए। पहला सत्य है कि दुनिया में दु:ख है। जीवन में सिर्फ दो संभावनाएं हैं- पहली यह कि अपने आसपास के संसार में औरों के दु:ख के अनुभव को देखकर समझ जाना। दूसरी यह कि स्वयं उसका अनुभव करके समझना कि संसार दु:ख है। दूसरा सत्य यह है कि दु:ख के लिए कोई कारण होता है। आप बिना किसी कारण सुखी रह सकते हैं, परंतु दु:ख का कोई कारण अवश्य होता है। तीसरा सबसे महत्वपूर्ण सत्य यह है कि दु:ख का निवारण संभव है। चौथा सत्य यह है कि दु:ख से बाहर निकलने के लिए एक पथ है।

उस समय इतनी अधिक समृद्धि थी कि बुद्ध ने अपने मुख्य शिष्यों को भिक्षा का पात्र पकडा दिया और उनसे भिक्षा मांगने को कहा! उन्होनेंराजाओं के शाही वस्त्र उतरवाकर उनके हाथ में भिक्षा का कटोरा दे दिया। यह इसलिए नहीं था कि उन्हें भोजन की आवश्यकता थी, परंतु वे उन्हें कुछ होने से कुछ नहीं होने के पाठ की सीख देना चाहते थे। यह बताना चाहते थे कि आप कुछ नहीं हैं। आप इस विश्व में निरर्थक हैं। जब उस समय के राजाओं और ज्ञानियोंको भिक्षा मांगने को कहा गया, तो वे करुणा की मूर्ति बन गए।
अपने सच्चे स्वभाव को देखें कि वह क्या है? वह शांति, करुणा, प्रेम, मित्रता, और आनंद है। मौन में इन सब का उदय होता है। दुख, पछतावेऔर कष्ट को मौन निगल लेता है और आनंद, करुणा और प्रेम को जन्म देता है।

क्यों खोला था शिव ने अपना तीसरा नेत्र, क्या है तीसरे नेत्र का रहस्य?
रामचरित मानस के अनुसार तारका नाम का एक असुर हुआ उसने सभी देवताओं को हराकर तीनों लोकों को जीत लिया। वह अमर था। इसीलिए देवता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। आखिर में सभी देवता उसके आतंक से परेशान होकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे। तब ब्रह्माजी ने देवताओं को बताया कि इस असुर का संहार सिर्फ शिव पुत्र के द्वारा ही हो सकता है। तब सभी देवता चिंतित हो गए क्योंकि सती के देह त्याग के बाद से शिव समाधि में बैठे थे। तब ब्रह्माजी बोले कि सती ने देह त्याग के बाद हिमाचल के यहां जन्म लिया है।

उन्होंने पार्वती के रूप में शिव को पाने के लिए बहुत तप किया लेकिन वे तो समाधि लगाकर बैठे हैं। इसलिए आप लोग जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो ताकि उनके मन में काम का भाव उत्पन्न हो। इसके अलावा कोई उपाय नहीं है। देवताओं ने जब कामदेव को जाकर सारी बात बताई। तब कामदेव फूलों का धनुष लेकर निकल पड़े। उनके प्रभाव से सभी पशु-पक्षी काम के बस में हो गए। लेकिन जब कामदेव शिव के पास पहुंचे तो वे डर गए।

उन्होंने शिव को मनाने के लिए बसंत को भेजा लेकिन शिव की समाधि नहीं टूटी। जब कामदेव सारी कोशिश कर हार गए। तब उन्होंने शिव पर काम के पांच बाण चलाए। क्रोध के कारण शिव का तीसरा नेत्र खुल गया और जैसे ही उन्होंने कामदेव को देखा तो वे जलकर भस्म हो गए। साधारण रूप में देखें तो शिव ईश्वर हैं और बुरे लोगों को अपने तीसरे नेत्र की अग्नि से जलाकर भस्म कर देते है और यदि अलग तरह से देखने का प्रयत्न करें तो शिव का तीसरा नेत्र ज्ञान पुंज है जो अज्ञान का नाश करता है!

इन उपायों से न होगा घमण्ड से जीवन का बेड़ागर्क
धर्म के नजरिए से पांच तत्वों से बनी इस देह में मन और बुद्धि के साथ अहंकार की प्रकृति भी होती है। जब भी व्यक्ति के मन में स्वयं का महत्व सबसे ऊपर हो जाता है और अपनी बात, विचार और कामों के साथ ही वह स्वयं को ही बड़ा मानने लगता है। उसमें काम या कर्तव्य को पूरा करते यह भाव आ जाना कि सिर्फ मैं ही इस कार्य को करने में समर्थ हूं। यह स्थिति ही अहंकार की होती है।

अनेक बार एक मनुष्य को दूसरे का अहंकार दिखाई देता है पर स्वयं का नहीं। जबकि सच यह है कि अहंकार कभी न कभी किसी में आता है या यूं कहें कि यह सभी में रहता है। पौराणिक प्रसंग भी बताते हैं कि देव, दानव हो या मानव अहं से बच न पाए।

दरअसल, अहंकार मन को अशांत कर देता है। जिससे पैदा तमाम दोष पारिवारिक, सामाजिक जीवन पर बुरा असर डालते हैं। जिससे अहंकार व इससे पैदा दोषों से ग्रसित इंसान की बदहाली टलना मुश्किल हो जाता है। श्रीमद्भगद्गीता में कहा गया है कि -

'निर्ममो निरहंकार: स शान्ति मधिगच्छति' यानी ममता या अहंकाररहित मन ही शांति प्राप्त करता है। इसलिए जानें कि कुछ व्यावहारिक उपायों से कैसे अहंकार से बच शांत व सुखी रहा जा सकता है -

- हमेशा विनम्रता से व्यवहार करने की कोशिश करें। विनम्रता अहं के अंत की सबसे अच्छी औषधी है। जिसने आप पर उपकार किया, उसे न भूलें, न अपमानित करें ।

- अपेक्षा न रखें, यह सभी कहते हैं, लेकिन इससे दूर रहना कठिन कार्य है। यह अपेक्षा ही अहं और टकराव का कारण बनती है, इसलिए मन में हमेशा देने का भाव रखें, तो अपेक्षा नहीं सताएगी, न ही अहंकार।

- धर्म के नजरिए से हर व्यक्ति को अपनी मृत्यु का ध्यान रखना चाहिए। एक दिन मौत आने पर है बल, धन, सौंदर्य, ज्ञान सब कुछ यहीं छूट जाता है। फिर क्यों उसके पहले मेरा-तेरा की भावना रख या दूसरों को कमतर बताकर क्लेश का जीवन जीते रहें।

- अपनी इच्छाओं को दबाएं नहीं लेकिन काबू में रखें। इससे आपकी मानसिक बल मिलता है, यह आपकों अहं से दूर रखने में मदद करेगा।

- सच यही है कि जब तक व्यक्ति स्वयं अहंकार का एहसास नहीं करता, तब तक वह अहंकार से बाहर नहीं आ सकता।

- सबसे आसान उपाय है कि हमेशा खुद को ऊपर रखकर बातें करना बंद करें। न ही किसी ओर से अपनी झूठी तारीफ सुनें। इसके स्थान पर अपनी अच्छाई-बुराई के बारें में ईमानदारी से सोचें।

- जब आप अहंकार के विसर्जन के इन कुछ उपायों को अपनाएंगे, तब आचरण और व्यवहार में मर्यादा अपने आप स्थान बना लेगी। जिससे आप दिल और दिमाग से अधिक संयमित और अनुशासित बनेगें। ऐसा होने पर ही अहं से मिले दु:खों से दूर होकर आपका जीवन सुख, शांति और आनंद से बीतेगा।

भगवान विष्णु के अवतार हैं दत्तात्रेय
मार्गशीर्ष (अगहन) मास की पूर्णिमा को दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है। धर्मशास्त्रों के अनुसार इसी दिन भगवान दत्त का अवतार हुआ था। इस बार दत्त जयंती का पर्व 10 दिसंबर, शनिवार को है। भगवान दत्तात्रेय को विष्णु का अवतार माना जाता है। इसकी कथा अनेक ग्रंथों में उल्लेखित हैं। उसके अनुसार-

एक बार माता लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती को अपने पातिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान ने इनका अंहकार नष्ट करने के लिए लीला रची। उसके अनुसार एक दिन नारदजी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों को बारी-बारी जाकर कहा कि मुनि अत्रि की पत्नी अनुसूईया के सामने आपका सतीत्व कुछ भी नहीं। तीनों देवियों ने यह बात अपने स्वामियों को बताई और उनसे कहा कि वे अनुसूईया के पातिव्रत्य की परीक्षा लें। तब भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा साधुवेश बनाकर अत्रिमुनि के आश्रम आए। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे।

तीनों ने देवी अनुसूईया से भिक्षा मांगी मगर यह भी कहा कि आपको निर्वस्त्र होकर हमें भिक्षा देनी होगी। अनुसूईया पहले तो यह सुनकर चौंक गई लेकिन फिर साधुओं का अपमान न हो इस डर से उन्होंने अपने पति का स्मरण किया और बोला कि यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ:-छ: मास के शिशु हो जाएं। और तुरंत तीनों देव शिशु होकर रोने लगे। तब अनुसूईया ने माता बनकर उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और पालने में झूलाने लगीं। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं।

तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई। तीनों देवियां अनुसूईया के पास आईं और क्षमा मांगी। तब देवी अनुसूईया ने त्रिदेव को अपने पूर्वरूप में कर दिया। प्रसन्न होकर त्रिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि हम तीनों अपने अंश से तुम्हारे गर्भ से पुत्ररूप में जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ।

ऐसा हो प्रेम तो भक्ति व रिश्तों में आता है भरपूर आनंद
धर्मशास्त्रों के मुताबिक प्रेम, धर्म का प्रमुख अंग है। सरल शब्दों में समझें तो अच्छाई को अपनाना व अच्छे परिणाम पाने के लिए प्रेम भाव निर्णायक होता है। इसी कारण माना जाता है कि बोल, व्यवहार और आचरण में प्रेम का भाव नहीं उतरता तो सुखों की आस पूरी नहीं हो सकती। किंतु आज के भागमभाग भरे दौर में अनेक अवसरों पर रिश्ते हो या भक्ति, दोनों में सच्चे प्रेम के स्थान पर स्वार्थ या हावी दिखाई देता है।

ऐसे में आखिर सच्चे प्रेम को कैसे जाने और अपनाएं? शास्त्रों में लिखी कुछ बातें इस सवाल का बेहतर जवाब देती है -

नारद भक्ति सूत्र में लिखा है - अनिर्वचनीयं प्रेम स्वरूपम्।

इसका व्यावहारिक मतलब है कि प्रेम महसूस किया जा सकता है, लेकिन बोलकर बताया नहीं जा सकता। प्रेम का भाव अटूट, अदृश्य, अनुभव योग्य, इच्छाओं और अपेक्षाओं से परे होता है।

इस तरह कहा जा सकता है कि स्वार्थ, गुणों या इच्छा के वशीभूत होने पर पैदा भाव प्रेम नहीं होता, बल्कि आकर्षण होता है। इसके विपरीत नि:स्वार्थ प्रेम कभी कम नहीं होता, न अपेक्षा रखता है। वह अमर और अंतहीन होता है। ऐसा प्रेम ही सांसारिक जीवन में मन-मस्तिष्क और व्यवहार में रिश्तों में नजदीकी बनाए रखता है। वहीं भक्ति में ऐसे प्रेम से भक्त का मन भगवान के ही चिंतन और मनन में डूब जाता और उसे दूसरों में भी भगवान के अलावा कोई नजर नहीं आता।

क्यों थी कृष्ण के पास सोलह हजार रानियां?

एक बार की बात है। भगवान् अपनी रानियों के साथ बैठे हुए विचार कर रहे थे और उसी समय उनको सूचना दी गई कि कुछ लोग आपसे मिलना चाहते हैं। विशेष रूप से कुछ स्त्रियां हैं और उनके साथ कुछ पुरूष हैं और वो बहुत परेशान हैं। भगवान् ने कहा-ठीक है। भगवान् की सभा का नाम था सुधर्मा सभा। भगवान् ने कहा उनको भेजा जाए। वो लोग आए।

उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया। उन स्त्रियों ने भगवान् से कहा आपका उदय हो गया है। हमने सुना है आप सबके रखवाले हैं, आपने कंस का वध किया है।आप बार-बार घोषणा करते हैं कि आप स्त्री शक्ति, मातृ शक्ति के रक्षक हैं। क्या आप जानते हैं कि आज प्राज्ञज्योतिपुर नाम के नगर में एक राजा है नरकासुर। उसने सोलह हजार स्त्रियों को अपनी कैद में कर रखा है। उन सारी स्त्रियों को वो उठा लाया जो किसी की मां हैं, बहन हैं, पत्नी हैं, बेटी हैं और उसने अपने कारावास में उनको बन्दी बना लिया है। उस कारावास में बन्दियों की क्षमता पांच हजार है। उस पांच हजार की क्षमता वाले कारावास में उसने सोलह हजार स्त्रियों को बन्दी करके रखा है।

पशु की भांति जीवन बिता रही हैं वो सब। नरकासुर जिस दिन चाहता है कारावास का दरवाजा खोलकर स्त्रियों को उठाकर ले जाता है। उसके वे मंत्री इतने कुटिल, अत्याचारी व कामी हैं कि हमारा कोई रक्षण नहीं है। आज हम आपके पास आए हैं। नरकासुर को कोई जीत नहीं सकता। आज की राजनीति, आज की राज सत्ताएं आपके आसपास हैं। हम कब तक कैद में रहेंगे? यह सुनकर भगवान् के चेहरे पर बल पड़ गए। भगवान् ने कहा-मैं आपकी रक्षा का वचन देता हूं। उसके बाद श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया। कारावास में बंद सभी स्त्रियों को कृष्ण ने स्वीकार किया। इसीलिए कहा जाता है कि कृष्ण सोलह हजार रानियां थी।

अध्यात्म की राह पकड़ते ही ये बुराईयां छूटने लगती है पीछे
अक्सर धार्मिक या आध्यात्मिक होने का अर्थ धार्मिक क्षेत्र, ज्ञान, या विषयों से जुड़े किसी खास इंसान से जोड़ा जाता है। जबकि शास्त्रों के मुताबिक सांसारिक जीवन में जब कोई व्यक्ति अध्यात्म की ओर बढ़ता है, तब उसे किसी ऊपरी दिखावे या बनावटी बातों की जरूरत नहीं होती। क्योंकि अध्यात्म का संबंध आत्मा से होता है। इसलिए वह भलाई, भद्रता और विनम्रता के रूप में बाहर दिखाई देता है। जरूरी नहीं कि ऐसा इंसान धार्मिक कर्मकांड या पाठ-पूजा में रमा हो।

श्रीमद्भगवद्गीता में भी अर्जुन के पूछने पर अध्यात्म के बारे में पूछने पर श्रीकृष्ण ने कहा है कि -

'स्वभावोध्यात्ममुच्यते' यानी अपना स्वरूप या जीवात्मा ही अध्यात्म है। इसलिए जरूरी है कि आत्मा से नाता जोडऩे या खुद से पहचान के लिए शरीर, मन व कर्म शुद्धि पर भी दृष्टि जरूरी है।

यहां जानते हैं उन लक्षणों को, जो अध्यात्म से जुड़े हुए व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। जिसे सही मायनों में उदारता और सांसारिक जीवन के नजरिए से साफ दिल का इंसान भी कहा जाता है -

- व्यक्ति किसी भी तरह की हानि या नुकसान होने पर भी आवेश, बदले की भावना से दूर होता है और उल्टे ऐसी हालात में स्नेह और क्षमा को महत्व देता है।

- दु:ख हो या सुख उसका व्यवहार और विचार संतुलित होते हैं। वह विपरीत हालात में घबराता नहीं है और नहीं सुख में अति उत्साहित होता है।

- वह दूसरों की गलतियां देखने, बुराई या ओछे विचारों से दूर रहता है और केवल गुणों और अच्छाईयों को ढूंढता और अपनाने की कोशिश करता है।

- व्यक्ति इतना सरल, सहज और निस्वार्थ हो जाता है कि वह अधिकारों के स्थान पर सिर्फ कर्तव्यों को याद रखता है।

- वह निर्भय होता है। वह मानसिक रुप से इतना जुझारू होता है कि इच्छाशक्ति से अपने लक्ष्य को पा लेता है।

- ऐसा व्यक्ति बहुत ही धैर्य और संयम रखने वाला होता है। जिसके कारण वह बुरी लतों और गलत कामों से स्वयं को भटकाता नहीं है।

- कर्तव्यों की ही सोच होने से वह हर तरह की इच्छाओं यानि वासना पर काबू कर लेता है। इससे वह अपनी मानसिक शक्तियों का उपयोग भजन, संगीत, रचनात्मक कामों जैसे चित्रकारी, लेखन, साहित्य के पठन-पाठन में लगाता है।

अगर आपकी या किसी नजदीकी व्यक्ति की जिंदगी में कुछ ऐसे ही बदलाव नजर आ रहे है तो समझे ऐसे कदम वास्तविक सुख और शांति की ओर बढ़ रहे हैं।

हर युवा सीखे श्री हनुमान से सफलता के ये 4 खास सूत्र
जीवन में किसी भी लक्ष्य को भेदना शक्ति के बिना संभव नहीं है। यह शक्ति अनेक रूपों में प्रकट होती है। सांसारिक जीवन में भी इंसान अनेक लक्ष्यों को पाने के लिये शक्ति का संचय किसी न किसी रूप में करता है और अलग-अलग तरह की गुण और शक्तियों के द्वारा सफलता की ऊँचाईयों को छूता भी है।

शक्ति साधना के इन उपायों में साक्षात शक्ति स्वरूप श्री हनुमान का स्मरण भी भी अचूक माना जाता है। क्योंकि श्री हनुमान शक्ति व पुरुषार्थ के साक्षात स्वरूप हैं। समुद्र लांघना, माता सीता की खोज, लंका दहन, रावण व मेघनाथ जैसे महावीरों से सामना और अद्भुत युद्ध कौशल में उजागर जुझारु और शूरता के साथ राम भक्ति व सेवा से भरा व्यक्तित्व व चरित्र ही उन्हें रामायण रूपी महामाला का रत्न बनाती है।

वैसे श्री हनुमान चरित्र व नाम स्मरण बच्चों से लेकर बुजूर्गों को भी ऊर्जावान व जाग्रत बना देता है। किंतु खासतौर पर आज के दौर में ऊर्जा व जोश से भरे सफलता के आकांक्षी युवा अपनी शक्तियों को किसी तरह सकारात्मक दिशा में मोड़े, इस संबंध में श्री हनुमान का चरित्र खासतौर पर चार सूत्रों को उजागर करता है।

हनुमान चरित्र पर गौर क रे तो शक्ति यानी बल के ऐसे ही चार रूप जो हर इंसान विशेष तौर पर युवाओं के लिये सुखी, शांत और कामयाब जीवन के लिए बहुत जरूरी है। जिनको पाना, बढ़ाना या बनाए रखना हर इंसान का लक्ष्य होना ही चाहिए -

देह बल - निरोगी, ऊर्जावान, तेजस्वी शरीर सफल जीवन की पहली जरूरत है। यह खान-पान, रहन-सहन के संयम और अनुशासन के द्वारा ही संभव है। श्री हनुमान की व्रज के समान मजबूत, तेजस्वी देह, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन व पावनता, इंद्रिय संयम व पुरुषार्थ तन को हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ रखने की अहमियत बताता है।

बुद्धि बल - बुद्धि बल व कौशल सफल, सुखी और शांत जीवन के लिए सबसे बड़ी ताकत बन जाता है। क्योंकि बुद्धि के अभाव में शरीर से बलवान और धनवान भी दुर्बल हो जाता है। संदेश है कि ज्ञानवान व दक्ष बनें। श्री हनुमान भी ज्ञानियों में अग्रणी पुकारे गए हैं। क्योंकि शास्त्र भी हनुमान के बुद्धि चातुर्य से बाधाओं को दूर करने के अनेक प्रसंग उजागर करते हैं।

देव बल - ईश्वर का स्मरण एक ऐसी शक्ति है, जो अदृश्य रूप में भी शक्ति, ऊर्जा, एकाग्रता और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाली होती है। शास्त्रों में भगवान के मात्र नाम का ध्यान भी देवकृपा करने वाला माना गया है। श्री हनुमान की श्रीराम भक्ति, नाम स्मरण और सेवा इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। इस तरह जागते और सोते वक्त देव स्मरण व उपासना आस्था से ऊर्जावान व शक्ति संपन्न बने रहे।

धन बल - शास्त्र पुरुषार्थ के रूप में सुखी जीवन के लिए अर्थ या धन की अहमियत बताते हैं। जहां धन का अभाव व्यक्ति को तन, मन और विचारों से कमजोर बनाता है। वहीं सेवा, कर्म और समर्पण से धन संपन्नता व्यक्ति के आत्मविश्वास और सोच को मजबूत बनाती है। श्री हनुमान चरित्र में माता सीता के आशीर्वाद से अष्ट सिद्धियों व नो निधियों को प्राप्त करने का प्रसंग इस बात की ओर भी संकेत करता है।

ऐसे व्यक्ति का संग सुनिश्चित करता है सुख-सफलता व यश
सांसारिक जीवन में सुख-सफलता पाने के लिये हर इंसान का अलग-अलग तरीका हो सकता है, लेकिन चाहत एक समान होती है। जिसे पूरा करने के लिए अपनाए गए सही या गलत तरीके ही सुख व सफलता का स्वरूप या अवधि भी तय कर देते हैं। गलत कामों से अर्जित सुख अंतत: अपयश, किंतु सद्कर्मों से बंटोरे सुखों से हमेशा सफल व यशस्वी जीवन प्राप्त होता है।

हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में इंसान की सुख-सफलता व यश पाने की इसी कामना को पूरा करने के लिए एक ऐसा सूत्र बताया गया है। जिसे कोई भी इंसान अपनाए तो आजीवन सुख व यश कमा सकता है। जानते हैं यह अहम सूत्र -

लिखा गया है कि -

येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनश्च कर्म च।

तान् सेवेत्तै: समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी।।

सरल अर्थ है कि ऐसे सज्जन पुरुष जो विद्या, कर्म और कुल से पवित्र हो, के साथ उठना, बैठना या उनकी सेवा करना स्वाध्याय से भी बेहतर है।

यहां व्यावहारिक जीवन के नजरिए साफ संकेत है कि जीवन में अच्छी संगति यानी सज्जन का संग सुख और सुकून लाता है। खासतौर पर जब कोई इंसान ज्ञान, कुल और कर्म से पावन हो। क्योंकि ऐसे शुद्ध चरित्र, व्यक्तित्व और वातावरण के साये में हर इंसान को पावनता की प्रेरणा मिलने के साथ ज्ञान भी प्राप्त होता है। जिससे सुधरे कर्म व्यक्ति को सुख-सफलता और यश की राह पर ले जाते हैं। सरल शब्दों में इंसान का चरित्र ज्ञान व कर्म से पावन हो जाता है, जो शास्त्रों में बताई सुखद जीवन के लिये जरूरी ज्ञान को पढने से भी बेहतर साबित होता है।

सज्जनता की ऐसी ताकत के आगे कहीं नहीं टिकती दुर्जनता

अक्सर सज्जनता को कमजोरी, दब्बूपन या कायरता से जोड़कर देखा जाता है। जबकि धर्मदृष्टि से सज्जन व्यक्ति स्वभाव से निर्भय और दृढ़ होता है। यहां तक कि वह हालात और नीति के मुताबिक जरूरत होने पर अपनी शारीरिक ताकत का उपयोग भी करता है।

असल में सज्जनता सभ्य होने की पहचान है। इसलिए सज्जन दब्बू या कमजोर नहीं होता बल्कि निडर और पक्के इरादों वाला होता। धर्मशास्त्रों में लिखी यह बात सज्जनता की शक्ति को उजागर भी करती है। इस ताकत का सही उपयोग दुर्जन को भी पस्त कर देता है -

उपकर्तुं प्रियं वक्तुं कर्तुं स्नेह कृत्रिमम्।

सुजनानां स्वभावो यं केनेन्दु: शिशिरी कृत

सरल शब्दों में अर्थ है कि उपकार करना, मीठा बोलना और सच्चा स्नेह करना ये 3 लक्षण सज्जनों के स्वभाव की खासियत है। इन 3 खूबियों में समाई सज्जनता कैसे व्यावहारिक जीवन में शक्ति बनकर प्रकट होती हैं? जानते हैं -

- सज्जन व्यक्ति मात्र अधिकार ही नहीं बल्कि अपने कर्तव्यों को भी याद रखता है। क्योंकि वह जानता है कि अधिकार के साथ जिम्मेदारियां भी आती है। जिनको पूरा करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा और शक्तियों को जोडऩा जरूरी है। ऐसा कर्तव्य भावना से ही संभव है।

- सज्जन व्यक्ति न्याय को महत्व देता है। वह किसी भी विषय पर राग या द्वेष के भाव रखने के बजाय सही और गलत का फर्क कर ही फैसला करता है।

- सज्जन और सभ्य व्यक्ति बंटोरने की नहीं बल्कि बांटने यानि दान की मानसिकता रखता है। क्योंकि वह समझता है कि दूसरों की जरूरतों के मायने भी उतने हैं जितने स्वयं की।

- वासना या इच्छाओं से कोई मनुष्य परे नहीं होता है। इसलिए सज्जन व्यक्ति भी इससे मुक्त नहीं होता। किंतु सभ्य व्यक्ति की यही खूबी होती है कि वह वासनाओं और इच्छाओं पर काबू करना जानता है। मानसिक और शारीरिक वासनाओं पर संयम रखने के लिए वह आसान उपाय अपनाता है। यह उपाय होता है वह खुद को समाज कार्यों या जरूरतमंद लोगों की मदद में, नया हुनर सीखनें, अध्ययन और ज्ञान बढ़ाने में व्यस्त रखता है। जिससे खाली समय में आने वाली व्यर्थ की वासनाओं की ओर उसका ध्यान नहीं जाता।

- सभ्य और सज्जन व्यक्ति की खासियत होती है कि वह हठधर्मिता या बेकार की अकड़ नहीं रखता। वह किसी भी उलझन या विवाद में व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने पर ध्यान देता है। जिससे कटुता या संबंध बिगडऩे की संभावना नहीं रहती।

- इस तरह सभ्यता और सज्जनता ही कमजोरी न होकर ऐसी शक्ति है जो अधिकार और कर्तव्य, शरीर और आत्मबल, विवेक और बुद्धि का संतुलन सिखाने के साथ ही भले और बुरे का ज्ञान कराती है।

सज्जनता की इन खूबियों को अपनाकर हर इंसान आसानी से उन वास्तविक खुशियों को पा सकता है, जो आज सुख-सुविधाओं की चाहत में चल रही गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में ईमान खोकर या अनैतिक कामों से मिले सुखों में भी नहीं मिलती।

जानें, क्यों रुद्राक्ष है साक्षात् शिव?
रुद्राक्ष शिव का साक्षात् स्वरूप माना जाता है। रुद्राक्ष दो शब्दों रुद्र और अक्ष से मिलकर बना है। जिसका सरल अर्थ ही है रुद्र यानी शिव के नेत्र। वहीं रुद्राक्ष शब्द के पीछे छुपी गूढ़ता जानें तो रुद्र का अर्थ है रुत् यानी दु:खों का नाश करने वाले वहीं अक्ष का अर्थ है आंखे यानी रुद्राक्ष शिव के नेत्रों से निकला पीड़ा हरण करने वाला है।

इस संबंध में शिव पुराण में लिखा भी है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से हुई है। इसके अलावा भी अन्य पुराण रुद्राक्ष के शिव अंश होने की पुष्टि करते हैं। जानते हैं रुद्राक्ष के शिव का साक्षात् स्वरूप होने से जुड़े ऐसे ही पुराण प्रसंग -

शिव पुराण के मुताबिक सती से वियोग होने से आहत शिव के आंसुओं की बूंदे जमीन जगह-जगह पर गिरने से रुद्राक्ष वृक्ष पैदा हुआ। श्रीमद देवी भागवत् में उल्लेख है कि राक्षस त्रिपुर के नाश के लिये जब लंबे वक्त तक भगवान के नेत्र खुले रहे तो उनसे थकावट के कारण आंसू निकल भूमि पर गिरे। इससे ही रुद्राक्ष का वृक्ष प्रकट हुआ।

इसी तरह पद्मपुराण में लिखा है कि सतयुग में जब ब्रह्मदेव के वरदान से शक्तिसंपन्न बना दानवराज त्रिपुर जब पूरे जगत को पीडि़त करने लगा, तो देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शंकर ने अपनी तेजस्वी दृष्टि से त्रिपुर का अंत किया। त्रिपुर से युद्ध के दौरान महादेव की देह से निकली पसीने की बूंदों से रुद्राक्ष के पेड़ की उत्पत्ति हुई।

रुद्र शिव का संहारक स्वरूप माना गया है। वहीं, वेद भी संपूर्ण प्रकृति को ही शिव का स्वरूप बताते हैं। इसलिए भी शिव के ही प्राकृतिक स्वरूप में रुद्राक्ष अनिष्ट, पाप व दु:ख नाशक माना गया है। यहीं नहीं, शिव उपासना की भांति रुद्राक्ष धारण करना भी कामनासिद्धि कर आयु, धन, वैभव, पुण्य और मुक्ति देने वाला माना गया है।

सिर्फ, इन 3 सीधे-सादे उपायों से साधें और सुधारें जीवन
जीवन की राह के टेढ़ेपन से निकालकर सीधे रास्ते पर लाना ही धार्मिक और आध्यात्मिक बातों का लक्ष्य है व निचोड़ भी। जिनका संबंध जिंदगी को सही तरीकों से गुजारने से हैं। जिनमें सधी जीवनशैली और दिनचर्या की अहम भूमिका हैं। इन दो बातों पर ही जीवन में सुख और सफलता निर्भर है।

यही कारण है कि जब भी जीवन साधने व सुधारने की बात हो तो एक छोटे-से शब्द का अक्सर इस्तेमाल किया जाता है। वह है-सीधा। यह शब्द छोटा जरूर है, किंतु सफल जीवन के लिये खास और गहरे अर्थ से भरे सूत्र सिखाता है। जिनका संबंध जीवनशैली से ही है। ये तीन सूत्र हैं - सीधे रास्ते चलना, सीधा बोलना और सीधे बैठना।

इन तीन बातों को ही सामने रखकर सोचें तो यह समझना आसान है कि सीधापन जिंदगी के लिए कितना अहम है। क्योंकि इनके बिना धर्म पालन भी मुश्किल है -

पहली बात - सीधी राह चलना। जिसका मतलब भी सीधा है कि आप जिंदगी में हमेशा उन उपायों को अपनाएं, जिनसे आप बिना किसी उलझन और भ्रम के अपने नियत लक्ष्य तक पहुंचने में कामयाबी हासिल करें। यह उपाय शारीरिक, मानसिक और व्यावहारिक होते हैं। जैसे शरीर के स्तर पर स्वास्थ्य का ध्यान रखें, मन के स्तर पर एकाग्रता बनाए रखें, व्यर्थ की बातों और विषयों में समय न बिताएं। व्यावहारिक स्तर पर सभी के मेलजोल और सहयोग की भावना रखें।

दूसरी बात - सीधा बोलना। आम जिंदगी में अक्सर लोग सीधा बोलने और कटु बोलने के बीच की महीन रेखा को समझने में चूक कर जाते हैं। इसका परिणाम कई मौकों पर संबंधों की खटास के रुप में सामने आता है। असल में सीधे बोलने का मतलब यही होता है कि आप अपनी बात बुद्धि और तर्क के साथ इस तरह रखें कि किसी भी विषय पर आपका पक्ष साफ और स्पष्ट रहे। न आप और न सुनने वाला भ्रम या उलझन की स्थिति में ही न रहे। आपकी सीधी बात में इतना खुलापन हो कि दिल और रिश्तों के दरवाजे खुले रहें।

तीसरी बात- सीधे बैठना। यह बात सुनने में बहुत सामान्य सी लगती है, किंतु दैनिक जीवन में इसी क्रिया में चूक अनेक शारीरिक कष्टों का कारण बन जाता है। धर्म के नजरिए से पंचतत्वों से बना मानव शरीर पुरूषार्थ को पाने का माध्यम है। इसके लिए शरीर का निरोगी होने आवश्यक है। मानव शरीर के स्वास्थ्य में रीढ़ की हड्डी का बहुत योगदान होता है। क्योंकि रीढ़ न केवल शरीर को संतुलित करती है, बल्कि इसके साथ जुड़ा तंत्रिका तंत्र दिमाग का शरीर के बाकी अंगों से संबंध जोडऩे के साथ ही नियंत्रण भी करता है। इसलिए सीधे बैठकर रीढ़ के स्वास्थ्य के साथ शरीर भी स्वस्थ रखा जा सकता है।

इस तरह का सीधापन जिंदगी को सही दिशा देता है। लेकिन इस सीधेपन के साथ लचीलापन भी रखें। वरना जरूरत से अधिक सीधा होना अकड़ में तब्दील हो जाता है और ऐसी अकड़ जिंदगी, पीठ और चेहरे का रूप-रंग बदल सकती है।

पाना है ऊंचा मक़ाम तो हर रोज हो माता-पिता, गुरु से ऐसा व्यवहार
हिन्दू धर्म ग्रंथ श्री रामचरितमानस में व्यावहारिक जीवन के लिए यही संदेश छुपा है कि मर्यादाओं के पालन से साधारण इंसान भी समाज में ऊंचा दर्जा पा सकता है। सरल शब्दों में कहें तो यह आम जन को जीने के सलीके सिखाता है। स्वयं भगवान द्वारा अवतरित होकर मानव योनि में जन्म लेना और मानव जीवन की महत्ता और श्रेष्ठता को स्थापित करना भी इस ग्रंथ के प्रति गहरी आस्था और श्रद्धा का कारण है।

आज, जबकि यह देखा जाता है कि जरूरतों, सुविधाओं की पूर्ति या मान-सम्मान के मसले पर दो पीढिय़ों के वैचारिक मतभेद या यूं कहें कि माता-पिता और संतान में भी टकराव के हालात पैदा हो रहे हैं। जिससे बनी संवादहीनता की स्थिति रिश्तों में दूरियां और अलगाव पैदा कर दु:खों का सिलसिला शुरू कर देती है। रामचरित मानस में ऐसी ही समस्याओं को दूर करने के सूत्र बताए गए हैं। राम और मानस की गहराई में उतरकर जानते हैं कुछ ऐसे ही सूत्र -

रामचरित मानस में चौपाई है -

प्रात:काल उठि कै रघुनाथ। मात-पिता-गुरु नावइं माथा।।

इस चौपाई के माध्यम से भगवान राम की माता-पिता और गुरु के लिए गहरी आस्था और सम्मान का भाव बताया गया। किंतु इसके पीछे व्यक्तित्व और चरित्र विकास का सूत्र है। जिससे माता-पिता से ही नहीं आपके प्रेरक, मार्गदर्शक से भी गहरे और मधुर संबंध ताउम्र रखे जा सकते हैं।

इस चौपाई का माता-पिता और गुरु को प्रणाम करने की परंपरा निभाना मात्र ही अर्थ नहीं है। बल्कि मूल भाव यह है कि आप हमेशा ही माता-पिता और गुरु (जिससे आपने कुछ सीखा या ज्ञान लिया हो) के लिए पूरा सम्मान, प्रेम और भरोसा रखें। जिससे उनका आपके प्रति विश्वास और उम्मीदें बनी रहेगी। जिससे उनके चेहरे, नजरों और शब्दों में पैदा हुए खुशी और आत्मीयता के भाव हर स्थिति में खासतौर पर मुश्किल हालातों में आपका संबल बनेंगे।

माता-पिता के लिए ऐसी भावना और मधुर रिश्ते आपके आत्मविश्वास को जिंदा रखेंगे। जिससे आप खुले दिल और जोश के साथ जिंदग़ी के हर इम्तिहान में सफल होंगे। आपका चरित्र और व्यक्तित्व दिन-ब-दिन बेहतर होगा।


यीशु के जन्म की खुशियां मनाने का त्योहार है क्रिसमस

क्रिसमस ईसाई धर्म का सबसे बड़ा त्योहार है। यह पर्व प्रभु यीशु के जन्म उत्सव के रूप में 25 से 31 दिसंबर तक मनाया जाता है, जो 24 दिसंबर की मध्यरात्रि से ही आरंभ हो जाता है। क्रिसमस शब्द का जन्म क्राईस्टेस माइसे अथवा क्राइस्टस् मास शब्द से हुआ माना जाता है।

24 दिसंबर की रात से ही नवयुवकों की टोली जिन्हें कैरल्स कहा जाता है, यीशु मसीह के जन्म से संबंधित गीतों को प्रत्येक मसीही के घर में जाकर गाते हैं।

इसी रात को गिरिजाघरों में प्रभु यीशु के जन्म से संबंधित झांकियां भी सजाई जाती है। इस अवसर पर ईसाई धर्मावलंबी बड़ी संख्या में गिरजाघरों में एकत्रित होकर एक-दूसरे को प्रभु के जन्म की बधाई देते हैं। 25 दिसंबर की सुबह गिरजाघरों में विशेष आराधना होती है, जिसे क्रिसमस सर्विस कहा जाता है। इस आराधना में ईसाई धर्मगुरु यीशु के जीवन से संबंधित प्रवचन कहते हैं। आराधना के बाद सभी लोग एक-दूसरे को क्रिसमस की बधाई देते हैं।

दुनिया को प्रेम का संदेश देता है क्रिसमस
क्रिसमस ईसाई समुदाय के लोगों का महापर्व है। यह पर्व हर वर्ष 25 दिसम्बर को मनाया जाता है। ईसाई धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी दिन ईसा मसीह का जन्म हुआ था। ईसाई समुदाय के लोग ईसा मसीह की शिक्षा को ही अपने धर्म का मूल आधार मानाते हैं। ईसा मसीह को जीसस क्राइस्ट भी कहते हैं।

ईसाई मानते हैं की ईश्वर ने इस संसार की रचना की है तथा अपने दूतों के माध्यम से लोगों को संदेश देते हैं। ईश्वर के पुत्र जीसस इस धरती पर लोगों को जीवन की शिक्षा देने के लिये आये थे। जीसस ने कहा था कि ईश्वर सभी व्यक्तियों से प्यार करते हैं तथा हमें प्रेम को जीवन में अपनाकर ईश्वर की सेवा करनी चाहिए।

ईश्वर की सेवा का सबसे उत्तम मार्ग दीन-दुखियों की सेवा करना है। क्रिसमस का त्योहार सभी लोगों को भाईचारा, मानवता व परोपकार का पावन संदेश देता है। यह उत्सव सुख, शांति व समृद्धि का सूचक है।

जानें, यीशु की वह 1 बात! जिससे अधूरा नहीं रहता कोई काम या सपना
क्रिसमस का दिन ईसा मसीह के जन्म की शुभ घड़ी मानी जाती है। यह घड़ी उत्साह, उमंग, उल्लास, स्नेह से भरपूर होती है। इस दिन क्रिसमस ट्री के दमकते सितारे हो या सेंटा क्लॉज के उपहार उम्मीदों की रोशनी से जीवन की राह आसान बनाने वाले होते हैं।

जीवन के सकारात्मक पक्ष से जोडऩे वाली इन सभी भावनाओं के उजागर होने के पीछे मन का ही एक भाव अहम होता है। यह भाव है - क्षमा। प्रभु ईसा ने इसी भाव को न केवल उपदेशों द्वारा बल्कि स्वभाव, व्यवहार में अपनाकर वास्तविक सुख व शांति पाने का श्रेष्ठ व अहम सूत्र बताया।

दरअसल, व्यावहारिक रूप से क्षमा भाव तभी संभव होता है, जब मन, वचन, विचार या स्वभाव में प्रेम का भाव समाया हो। जिसके लिये भी सत्य से जुडऩा जरूरी है। प्रभु यीशु के द्वारा जीवन को खुशहाल बनाने के लिये दी गई ऐसी ही एक सीख में इंसान या ईश्वर से रिश्ता बनाने में क्षमा के साथ प्रेम और सत्य की अहमियत भी उजागर होती है।

जीसस के उपदेशों के एक बेहतरीन ग्रंथ सर्मन आन दी माऊण्ट में क्षमा कहा गया है कि -

अगर तू ईश्वर के सामने अर्पण हेतु कुछ लाता है और वहां पर तुझे अपने भाई से विरोध और वैमनस्यता का स्मरण होता है तो तू वापस लौट जा और पहले अपने भाई से विरोध समाप्त कर ले, घृणा समाप्त कर ले, वैमनस्यता कर ले, क्षमा करना सीख ले और जब ऐसा कर सके तब ईश्वर के समक्ष आ, तभी तेरा अर्पण ईश्वर को स्वीकार होगा।

इस बात से साफ है कि जीवन में किसी भी लक्ष्य या सपना को पूरा करने के लिए क्षमा भाव से मन को नियंत्रित रखें। मन में दूसरों के प्रति दुर्भावना या कटुता को बिल्कुल जगह न दें। संबंधों को विनम्रता और क्षमाशीलता द्वारा सहज, सरल और सुगम बनाये रखें। जिससे मन स्वस्थ रहेगा और सुख, सफलता व शांति की आस पूरी होगी। इसलिये ईसा को याद कर बस, क्षमा करना सीखें।

हिमालय में नजर आए वह दिव्य पुरुष थे ईसा मसीह..!
ईसाई धर्म के पवित्र ग्रंथ बाइबल के मुताबिक प्रेम ही ईश्वर का स्वरूप है। प्रभु यीशु भी प्रेम की साक्षात् मूर्ति माने जाते हैं। प्रभु यीशु का यही सबक था कि शांति व हर प्राणी में बसे प्रेम रूपी इसी ईश्वर से जुड़े बिना किसी भी धर्म का पालन करना संभव नहीं। उनका जन्मदिवस क्रिसमस डे भी प्रेम और शांति का ऐसा ही पैगाम लेकर आता है।

प्रभु यीशु यानी ईसा मसीह द्वारा सिखाए गए मानव धर्म और प्रेम के संदेशों से जुड़ा प्रसंग हिन्दू धर्मग्रंथों में भी मिलता है। जिसके मुताबिक ईसा मसीह हिमालय के शिखरों पर दिखाई दिए व धर्म व प्रेम से जुड़ी बातों को उजागर किया।

जी हां, हिन्दू धर्मग्रंथ भविष्य पुराण की कथा के मुताबिक प्रतापी राजा विक्रमादित्य के बाद जब बाहरी शासक हिमालय के रास्ते भारत में आकर आर्य संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने लगे। उस वक्त विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन ने उनको पराजित किया। साथ ही रोम, कामरूप आदि देशों के अत्याचारियों को पकड़ दण्डित भी किया। राजा ने ऐसे दुराचारियों यानी म्लेच्छों के लिये सिन्धु नदी के उस पार का क्षेत्र नियत किया। वहीं, आर्यों के लिये सिंधु प्रदेश।

इसी दौरान एक बार जब राजा शालिवाहन हिमालय क्षेत्र में पहुंचे तो वहां उन्हें एक गोरा, सुन्दर, सफेद वस्त्र पहनें दिव्य पुरुष दिखाई दिया। उनसे परिचय पूछने पर उन्होंने स्वयं को ईश्वर का पुत्र बताया। साथ ही बताया कि वह कुंवारी मां के गर्भ से जन्मे धर्म प्रचारक व सत्य व्रत का पालन करने वाले हैं।

राजा द्वारा उनका धर्म पूछने पर ईशपुत्र ने बताया कि मैं म्लेच्छ प्रदेश में सत्य व मर्यादा का नाश हो जाने से धर्म स्थापना के लिए आया हूं। यही नहीं, उस दिव्यात्मा ने धर्म पालन के लिए मन और तन की मलीनता को दूर करने, सत्य व न्याय को अपनाने व ईश्वर प्रेम को जरूरी बताया।

इस पौराणिक कथा के मुताबिक धर्म, सत्य और प्रेम से भरे आचरण से ही उस दिव्य पुरुष के हृदय में ईश्वर का वास हुआ। जिससे वह ईसा मसीह के रूप में प्रसिद्ध हुए। राजा शालिवाहन ने धर्म संदेश सुन उनको प्रणाम किया, म्लेच्छों के कल्याण के लिए स्थान बताया और अपने राज्य में आकर अश्वमेध यज्ञ किया।

जानें कि कौन-से 4 अचूक मंत्रों से फौरन होती है शनि कृपा?
शास्त्रों में शनि की विपरीत दशा में पीड़ा और मृत्यु भय मिटाकर स्वास्थ्य, धन, अन्न, विद्या, बल और पराक्रम देने वाले कुछ मंत्र विशेष का विधान बताया गया है। यह मंत्र व्रती को मोक्ष देने वाले भी माने गये हैं।

इन मंत्रों में महामृत्युंजय मंत्र, शनि वैदिक मंत्र और शनि का पौराणिक मंत्र प्रमुख है। जिनकी अलग-अलग जप संख्या नियत है।

महामृत्युंजय मंत्र - इस मंत्र का पाठ सवा लाख जप शनि अमावस्या, शनिवार, शनि जयंती या शनि की दशा में शुरू करने चाहिए। यह मंत्र पूर्ण विधि-विधान से करना चाहिए। जो किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से भी कराया जा सकता है। यह मंत्र प्रतिदिन 10 माला के हिसाब से 125 दिन तक करने से शनि ग्रह दोष से शांति मिलती है।

ॐ त्र्यंम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम् ।

उर्वारुकमिव बन्धनान्म्त्योर्मुक्षीय याऽमृतात ।।

शनि का पौराणिक मंत्र - इन मंत्रों का 21 दिन में 23000 जप करने का विधान है।

ॐ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।

बस, रोज करें ये 5 काम..तो शनि भी संवार देगें पूरा जीवन
शनि न्यायाधीश माने जाते हैं। शास्त्रों के मुताबिक शनि का न्याय शनि की ढैय्या, साढ़े साती या महादशा में सौभाग्य या दुर्भाग्य के रूप में मिलता है, जो कि शनि द्वारा प्राणियों के पाप-पुण्य कर्मों के आधार पर तय होता है। इस तरह देखा जाए तो सद्कर्म व अच्छे विचार ही जीवन में सुख-सौभाग्य की बुनियाद है।

यही कारण है कि शास्त्रों में भी शनि भक्ति व पाठ-पूजा के शुभ फल पाने के लिए दैनिक जीवन में खासतौर पर बोल, व्यवहार और कर्म में 5 अच्छी बातों को अपनाना भी जरूरी बताया गया है। धर्मशास्त्रों के नजरिए से भी ये बातें हर इंसान का जीवन सफल बनाती हैं। माना जाता है कि ऐसे व्यक्ति का जीवन शनि बिना धार्मिक कर्मकांड या उपासना के भी संवार देते हैं।

जानते हैं शनि कृपा के लिए दैनिक जीवन में धर्म पालन से जुड़ी ये खास 5 बातें -

परोपकार - दूसरों पर दया खासतौर पर गरीब, कमजोर को अन्न, धन या वस्त्र दान या शारीरिक रोग व पीड़ा को दूर करने में सहायता शनि की अपार कृपा देने वाला होता है। क्योंकि परोपकार धर्म का अहम अंग है।

दान - अहं व विकारों से मुक्त इंसान से शनि प्रसन्न होते हैं। जिसके लिये दान का महत्व बताया गया है। दान उदार बनाकर घमण्ड को भी दूर रखता है। इसलिए यथाशक्ति शनि से जुड़ी सामग्रियों या किसी भी रूप में दान धर्म का पालन करें।सेवा - हमेशा माता-पिता या बड़ों का सम्मान व सेवा करने वाले पर शनि की अपार कृपा होती है। क्योंकि मान्यता है कि शनिदेव जरावस्था या बुढ़ापें के स्वामी है। इसलिए इसके विपरीत वृद्ध माता-पिता या बुजुर्गों को दु:खी करने वाला शनि के कोप से बहुत पीड़ा पाता है।

सहिष्णुता - शनि का स्वरूप विकराल है। वहीं शनि को कसैले या कड़वे पदार्थ जैसे सरसों का तेल आदि भी प्रिय माना गया है। किंतु इसके पीछे भी सूत्र यही है कि कटुता चाहे वह वचन या व्यवहार की हो, से दूर रहें व दूसरों के ऐसे ही बोल व बर्ताव को द्वेषता में न बदलें यानी सहनशील बनें।

क्रोध का त्याग - शनि का स्वभाव क्रूर माना गया है, किंतु वह बुराईयों को दण्डित करने के लिए है। इसलिए शनि कृपा पाने व कोप से बचने के लिए क्रोध जैसे विकार से दूर रहना ही उचित माना गया है।


छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम् ।।

शनि का वैदिक मंत्र - इन मंत्रों की सुबह-शाम दो माला करने से शनि की प्रसन्नता और कृपा प्राप्त होती है।

ॐ शत्रोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्र वन्तु न:।

शनि ग्रह पीड़ा नाशक मंत्र - ॐ शं शनैश्चराय नम:।

जानें, कैसी है शिव के 11 रुद्रों की अद्भुत शक्ति?
वेदों का ज्ञान कुदरत के कण-कण में शिव के अनेक रूपों का दर्शन कराता है। इन रूपों में ही एक हैं - रुद्र। रुद्र का शाब्दिक अर्थ होता है - रुत यानी दु:खों को अंत करने वाला। यही कारण है कि शिव को दु:खों का नाश करने वाले देवता के रुप में पूजा जाता है। शास्त्रों के मुताबिक शिव ग्यारह अलग-अलग रुद्र रूपों में दु:खों का नाश करते हैं। यह ग्यारह रूप एकादश रुद्र के नाम से जाने जाते हैं।

व्यावहारिक जीवन में भी कोई दु:खों को तभी भोगता है, जब तन, मन या कर्म किसी न किसी रूप में अपवित्र होते हैं। इसी कारण धर्म और आध्यात्म के धरातल पर दस इन्द्रियों और मन को मिलाकर ग्यारह यानी एकादश रुद्र माने गए है। जिनमें शुभ भाव और ऊर्जा का होना ही शिवत्व को पाने के समान है। शिव के रुद्र रूप की आराधना का महत्व यही है कि इससे व्यक्ति का चित्त पवित्र रहता है और वह ऐसे कर्म और विचारों से दूर होता है, जो मन में बुरे भाव पैदा करे। जानते हैं ऐसे ही ग्यारह रूद्र रूपों को–

शम्भू - शास्त्रों के मुताबिक यह रुद्र रूप साक्षात ब्रह्म है। इस रूप में ही वह जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं।

पिनाकी - ज्ञान शक्ति रूपी चारों वेदों के स्वरूप माने जाने वाले पिनाकी रुद्र दु:खों का अंत करते हैं।

गिरीश - कैलाशवासी होने से रुद्र का तीसरा रुप गिरीश कहलाता है। इस रुप में रुद्र सुख और आनंद देने वाले माने गए हैं।

स्थाणु - समाधि, तप और आत्मलीन होने से रुद्र का चौथा अवतार स्थाणु कहलाता है। इस रुप में पार्वती रूप शक्ति बाएं भाग में विराजित होती है।

भर्ग - भगवान रुद्र का यह रुप बहुत तेजोमयी है। इस रुप में रुद्र हर भय और पीड़ा का नाश करने वाले होते हैं।

भव - रुद्र का भव रुप ज्ञान बल, योग बल और भगवत प्रेम के रुप में सुख देने वाला माना जाता है।

सदाशिव - रुद्र का यह स्वरुप निराकार ब्रह्म का साकार रूप माना जाता है। जो सभी वैभव, सुख और आनंद देने वाला माना जाता है।

शिव - यह रुद्र रूप अंतहीन सुख देने वाला यानी कल्याण करने वाला माना जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए शिव आराधना महत्वपूर्ण मानी जाती है।

हर - इस रुप में नाग धारण करने वाले रुद्र शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दु:खों को हर लेते हैं। नाग रूपी काल पर इन का नियंत्रण होता है।

शर्व - काल को भी काबू में रखने वाला यह रुद्र रूप शर्व कहलाता है।

कपाली - कपाल रखने के कारण रुद्र का यह रूप कपाली कहलाता है। इस रुप में ही दक्ष का दंभ नष्ट किया। किंतु प्राणीमात्र के लिए रुद्र का यही रूप समस्त सुख देने वाला माना जाता है।

शरीर और दिमाग को शांत और खुश रखता है गीता का यह सटीक उपाय
इच्छाओं और जरूरतों को पूरा करने की आपाधापी में आज की व्यस्त दिनचर्या और तेज जीवनशैली अनचाहे तनाव व दबाव का कारण बनती है। हर व्यक्ति मानसिक बेचैनी में डूबा होता है, किंतु सतही तौर पर वह सामान्य दिखाई देता है। कभी-कभी व्यग्रता इतनी बढ़ जाती है कि वह गुस्से या हिंसा के रूप में बाहर निकलती है, लेकिन बात में पछतावा देती है।

धर्मशास्त्रों में ऐसे ही मानसिक असंतुलन से बचने का बेहतर उपाय है- ध्यान। सरल शब्दों में ध्यान का मतलब होता है कि मन को साधना यानी मन को चिंताओं, बेचैनी और बुरे विचारों से हटाकर सकारात्मक सोच पर केन्द्रित या एकाग्र करना। विचारों की गति पर नियंत्रण और संयम से दिल-दिमाग को सुकून पहुंचाने का अभ्यास भी ध्यान है।

हिन्दू धर्मशास्त्र श्रीमद्भगवदगीता में मन के संयम से सुख-सुकून पाने के लिए ही ध्यान की अहमियत बताई गई है। जिसमें लिखा गया है -

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता

इसमें व्यावहारिक जीवन के लिए संकेत यही है कि मन को काबू करने से ही सभी इन्द्रियां भी नियंत्रित हो जाती है, जिससे बुद्धि और विवेक को भी सही दिशा मिलती है। इस तरह मन पर वश होने पर दुनिया भी वश में हो सकता है। ऐसा करने के लिए ध्यान ही श्रेष्ठ उपाय है। इस तरह अध्यात्मिक और धार्मिक की दृष्टि से ध्यान से आत्मिक लाभ मिलता है यानी यह सोई हुई शक्तियों को जगाता है और ईश्वरीय सत्ता को महसूस कराता है। वहीं व्यावहारिक जीवन के नजरिए से ध्यान मन की प्रसन्नता, एकाग्रता, मानसिक ऊर्जा और स्फूर्ति देता है। इसका फायदा यह होता है कि हम बेहतर तरीके से काम को अंजाम देते हैं। जिसके कामयाबी के रूप में सुखद नतीजे मिलते हैं। कामयाबी हर भौतिक सुख की राह आसान बनाती है।

नववर्ष में साधें ये 5 लक्ष्य तो साल ही नहीं जीवन हो जाएगा सफल
हिन्दी हो या अंग्रेजी नव वर्ष, यह नया दिन, नई उम्मीदें, नए सपनें, नई सोच के साथ सब कुछ नया और ताजगी लेकर आता है। ऐसे सुखद माहौल में शारीरिक, मानसिक और वैचारिक रूप से तरोताजा होकर नए साल की पहली सुबह की ऐसी शुभ शुरुआत होनी चाहिए कि सुख की कामना की जाने वाली हर कोशिश कामयाबी की नई बुलंदियों तक पहुंचा दे?

ऐसी ही ऊंचाईयों को पाने के लिए संकल्प शक्ति का अहम मानी जाती है। नववर्ष का आगाज़ नए संकल्पों के साथ करना आने वाले कल को बेहतर बना सकता है। किंतु ऐसे कौन से संकल्प हो सकते हैं, जो साल-दर-साल जिंदग़ी को बेहतर बनाए? जानते हैं -

शास्त्रों के नजरिए से इंसानी जिंदग़ी को बेहतर बनाने वाली अनेक बातों में से खासतौर पर 5 बातें बेहद अहम हैं। जिनको पांच तरह की संपत्ति भी कहा गया है। इन संपत्तियों को बंटोरने का संकल्प ही हर व्यक्ति को जीवनभर यश व सफलता देगा। ये पांच संपत्तियां हैं -

- स्वास्थ्य,

- धन,

- विद्या,

- चतुरता व,

- सहयोग

जानें, कैसे पूरा साल सफल बनाएगा निरोगी काया का संकल्प?
कहा गया है कि पहला सुख निरोगी काया यानी सुखी जीवन के लिए सबसे जरूरी है- सेहतमंद होना। कमजोर, रोगी, सौंदर्यहीन तन आपकी खुशियों और कामयाबी में रोड़ा बन जाता है। खासतौर पर युवावस्था तो शरीर को हष्ट-पुष्ट रखने और दीर्घायु बनने का अहम पड़ाव है। इस संबंध में शास्त्रों में लिखा भी गया है कि -

यावत्स्वस्थमिदं कलेवर गृहं यावज्जरा दूरत:

यावच्चेन्द्रिय शक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुष: ।

आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान्

संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश: ॥

अर्थ है कि जब तक घर रूपी तन अच्छी स्थिति यानी स्वस्थ है, बुढ़ापा दूर हो, इंद्रिय बल कमजोर न हो, स्वास्थ व आयु की हानि न हो, तब तक बुद्धिमान व ज्ञानी व्यक्ति को बेहतर जीवन के लिए हर प्रयास करते रहना चाहिए। वक्त निकलने पर सारी कोशिशें घर में आग लगने पर कुआं खोदने की तरह बेमानी हैं।

सरल शब्दों में कहें तो बेहतर स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि जीवनशैली और दिनचर्या को नियमित और अनुशासित रखें। व्यर्थ के शौक या मौज की मानसिकता शारीरिक और मानसिक बल को नष्ट करती है।

इस तरह शक्ति का दुरुपयोग और समय गंवाना शरीर और मन को रोगी बना सकता है। इसलिए नव वर्ष में ऐसी बातों और आचरण से बचने और अच्छे स्वास्थ्य का संकल्प लें। तभी आप व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अच्छे नतीजे पाएंगे।

जानें, नए साल में खूब धन कमाने का क्यों और कैसा लें संकल्प?
शास्त्रों की सीखों को सामने रख सुखी जीवन की चाह से नए साल में लिये जाने वाले संकल्पों की कड़ी में बेहतर सेहत के साथ ही धन अर्जन यानी पैसा कमाने का संकल्प भी अहम माना गया है। इसलिए जानते हैं नववर्ष में क्यों और कैसा धन कमाने का संकल्प जीवन के लिये सार्थक हो सकता है?

दरअसल, शास्त्रों के नजरिए से भी धन जीवन के लिए नियत चार पुरुषार्थों में एक है, जो यह सिखाता है कि व्यावहारिक रूप से जरूरतों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए धन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। ऐसा धन पाने के लिए जरूरी है कर्म या परिश्रम की मानसिकता। निष्क्रिय व आलस्य से भरा जीवन मात्र दरिद्रता लाता है, जो दु:खों का कारण बनता है। इस संबंध में शास्त्रों में लिखा भी गया है कि -

मित्राण्यमित्रतां यान्ति यस्य न स्यु: कपर्दका:।

सरल शब्दों में अर्थ है कि जिनके पास धन न हो उसके मित्र भी दूर होने लगते हैं।

यही कारण है कि अगर कोई व्यक्ति धन के अभाव में उपेक्षा भरे जीवन से दूर होना चाहता है, तो वह नए वर्ष में मेहनत और कर्मठता के साथ जरूरतों की पूर्ति और कर्तव्यों को पूरा करने के लिए पैसा कमाने का सुखद संकल्प लें।

पौराणिक मान्यताओं पर भी गौर करें तो आनंद स्वरूप भगवान विष्णु की पत्नी महालक्ष्मी को ऐश्वर्य और वैभव की देवी बताया गया है। प्रतीक रूप में संकेत है कि वैभव, ऐश्वर्य के साथ आनंद और सुख का अटूट रिश्ता है, जो यह भी सिखाता है कि प्राप्त धन का वास्तविक आनंद तभी प्राप्त होता है, जब वह ईमान और अच्छे कामों से कमाया जाए।

प्रेम सच्चा है या दिखावा! बताती हैं ये 4 बातें
प्रेम केवल मानव ही नहीं महसूस करता बल्कि प्रेम की अनुभूति कुदरत की हर रचना में अलग-अलग रूपों में उजागर होती है। इसलिए हर धर्म में प्रेम को ईश्वर से साक्षात्कार के लिए अहम माना गया है। व्यावहारिक नजरिए से भी प्रेम ऐसा जीवन मूल्य है़, जो सच, भलाई, सेवा, त्याग की तरह जिंदगी में वास्तविक सुखों को पाने के लिए बहुत जरूरी है। असल में प्रेम ऐसा अहसास है जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है, क्योंकि यह कोई सोच नहीं है। अलग-अलग व्यक्ति में और उम्र के हर पड़ाव पर प्रेम का अहसास भी अलग-अलग होता है। सरल शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि प्रेम करने वाले या प्रेम पाने वाले दोनों आत्मा में सुकून पाते हैं। यहां जानते हैं धर्मशास्त्रों के नजरिए से जीवन में प्रेम किन-किन रूपों में प्रकट होता है -

लौकिक प्रेम - प्रेम का यह रूप साधारण मानव की जिंदगी में दिखाई देता है। जहां मानव का दौलत, प्रतिष्ठा, सौंदर्य, स्वाद के प्रति आसक्ति या लगाव के रूप में प्रेम दिखाई देता है। यह लौकिक प्रेम कहलाता है। इसमें कई अवसरों पर मानव हित और स्वार्थ के चलते भी संबंध बनाता है। जिसे स्वार्थ पर आधारित प्रेम कहते हैं।

अलौकिक प्रेम - अध्यात्म में डूबकर ईश्वरीय सत्ता पर भरोसा, पूरी प्रकृति को ईश्वर की रचना मान प्रेम, ईश्वर को जेहन में रख आदर्श और मर्यादा पालन अलौकिक प्रेम कहलाता है।

मोहजन्य प्रेम - माता-पिता और संतान, पति-पत्नी या अन्य मानवीय रिश्तें में एक-दूसरे से लिए प्रेम मोहजन्य प्रेम कहलाता है।

नि:स्वार्थ प्रेम - प्रेम का यह रूप सेवा भावना में दिखाई देता है। जिसमें व्यक्ति कुछ देने के बदले लेने का भाव नहीं रखता। बिना किसी हितपूर्ति के वह समर्पण भाव से दूसरों के लिए हरसंभव मदद करता है। ऐसा प्रेम पावन-पवित्र और श्रेष्ठ माना जाता है। क्योंकि यह प्रेम करने और पाने वाले दोनों को आत्मिक सुख देता है।

नए साल में संवारना है भविष्य तो अपनाएं ये गुण...
शास्त्र कहते हैं कि विद्या यानी हर तरह से ज्ञान और दक्षता को पाना, हर इंसान के सफल जीवन के लिये निर्णायक साबित होता है। व्यावहारिक रूप से विद्या पाने का मतलब मात्र किताबी ज्ञान ही नहीं, बल्कि तन, मन, विचार और व्यवहार से संपूर्ण व कुशल बन जाने से हैं।

असल में विद्या बुद्धि, चरित्र और व्यक्तित्व को संवारती है। यही कारण है कि अच्छे भविष्य की चाहत के लिये नए साल में विद्यावान यानी अधिक से अधिक ज्ञान और कला को पाने का संकल्प उठाने का महत्व शास्त्र में बताई यह बात भी उजागर करती है -

विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मति:।

परलोके धनं धर्म: शीलं सर्वत्र वै धनम्।।

इसमें सरल शब्दों में सीख है कि स्वदेश से बाहर विद्या संपत्ति के समान है। दुर्भाग्य या बुरे हालात में बुद्धिमानी ही धन है। परलोक में धर्म या नैतिक मूल्य धन के समान है। किंतु अच्छा चरित्र तो हर स्थिति में धन के समान है, जो विद्या और ज्ञान से पावन बना रहता है।

इस तरह साफ है कि ज्ञान व्यक्ति को दूरदर्शी, बुद्धिमान, विवेकवान बनाकर जीवन से जुड़े अहम फैसले लेने में मददगार साबित होता है। विद्या व्यक्ति को गुणी, अहंकाररहित और विनम्र बना देती है, जिनसे व्यक्ति धर्म और कर्म के माध्यम से सभी सुख प्राप्त करने लायक बनता है। इसलिए नववर्ष में ध्यान रहे कि असफलता से बचने के लिए विद्या और ज्ञान को ही ढाल बनाएं।

रखें इन 5 अंगों का ऐसा ख़्याल..तो साल क्या, आजीवन पाएंगे भरपूर सुख...
हर धर्म में सुखी जिंदगी के लिए संयम की अहमियत बताई गई है। खासतौर पर अक्सर धर्म उपदेशों और प्रवचनों में इन्द्रिय सुखों और संयम के बारे में सुना या पढ़ा जाता है। दरअसल, संयम का सरल अर्थ मन को काबू करने से होता है। मन का संबंध इंद्रियों से होता है। इसलिए जैसी मनोदशा होती है, बाहरी तौर पर इंद्रियों पर भी वैसा ही असर दिखाई देता है।

शास्त्रों में लिखा भी गया है कि -

इन्द्रियान्येव संयम्य तपो भवति नाऽन्यथा ।

यानी इन्द्रिय संयम से ही तप संभव है, किसी अन्य तरीके से नहीं

मानव शरीर में भी पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं। यह हैं - आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। इनसे ही कोई व्यक्ति सौंदर्य, रस, गंध, स्पर्श, स्वाद महसूस करता है। इन इन्द्रियों पर भी व्यक्ति का जीवन, चरित्र और व्यक्तित्व का विकास निर्भर होता है। इसलिए हर इंसान के लिए जरूरी है कि बाहरी तौर पर भी इंद्रियों की क्रियाओं पर नियंत्रण रखें।

यहां जानते हैं इंद्रियों को वश में रखने व बुरे प्रभाव बचाने के सरल तरीके-

आंख - इनका उपयोग सुंदर ओर मनोरम दृश्यों को देखने में करें। थकान से बचाएं और उचित आराम दें।

जीभ - इसका उपयोग मात्र स्वाद के लिए ही नहीं, बल्कि इससे मधुर वाणी और सच बोलने का भी अभ्यास करें।

कान - बुरी बातों को सुनने से बचें।

नाक - इस पर गंध ही नहीं सांस भी निर्भर है, जो जिंदगी के लिए जरूरी है। इसलिए जहां तक संभव हो साफ वातावरण को महत्व दें। प्राणायम करें।

त्वचा - यह मात्र वस्तुओं का नहीं भावनाओं के अहसास का भी माध्यम है। इस पर सौंदर्य भी निर्भर करता है। इसलिए इसकी सुरक्षा और स्वच्छता का खास ध्यान रखें।

इस तरह इन पांच इंद्रियों के संयम पर ही शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक सुख टिके होते हैं। इसलिए लंबी, कामयाबी और सुखी जिंदगी के लिए थोड़ी देर मन पर काबू करने पर भी ध्यान लगाएं।

जब प्रलय आने वाला होगा तो ऐसे मिलेंगे इशारे...
महाभारत के अनुसार एक बार की बात है,युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय मुनि से कहा कि आपने तो अनेक युगों के बाद प्रलय देखा है। आप सारी सृष्टी के कारण से संबंध रखने वाले हैं मैं आपसे प्रलय कथा सुनना चाहता हूं। तब मार्कण्डेयजी ने कहा ये जो हम लोगों के पास भगवान कृष्ण बैठे हैं ये ही समस्त सृष्टि का निर्माण और संहार करने वाले हैं। ये अनंत हैं इन्हें वेद भी नहीं जानते। जब चारों युगों की समाप्त हो जाते हैं। तब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त हो जाता है।

यह सारा संसार ब्रह्म के दिनभर में रहता है। दिन समाप्त होते ही संसार नष्ट हो जाता है। जब सहस्त्र युग समाप्त हो जाते हैं तब सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। ब्राह्मण शुद्रों के कर्म करते हैं। शुद्र वैश्यों की भांति धन संग्रह करने लगते हैं या क्षत्रियों के कर्म से अपनी जीविका चलाने लगते हैं। शुद्र गायत्री जप को अपनाते हैं। इस तरह सब लोगों का व्यवहार विपरित हो जाता है। मनुष्य नाटे कद के होने लगते हैं। आयु, बल, वीर पराक्रम सब घटने लगता है। सभी लोगों की बातों में सच का अंश बहुत कम होने लगता है। उस समय स्त्रियां भी नाटे कद वाली और बहुत से बच्चे पैदा करने वाली होती हैं।

गांव-गांव में अन्न बिकने लगता है।ब्राह्मण वेद बेचने लगते हैं। वेश्यावृति बढऩे लगती है। वृक्षों पर फल-फूल बहुत कम लगते हैं। गृहस्थ अपने ऊपर भार पढऩे पर इधर-उधर से कर की चोरी करने लगते हैं। मदिरा पीते हैं और गुरुपत्नी के साथ व्याभिचार करते हैं। जिनसे शरीर में मांस व रक्त बढ़े उन लौकिक कार्यों को करते हैं। स्त्रियां पति को धोखा देकर नौकरों के साथ व्याभिचार करती हैं। वीर पुरुषों की स्त्रियां भी अपने स्वामी का परित्याग करके दूसरों का आश्रय लेती हैं। इस तरह सहस्त्र युग पूरे होने लगते हैं। इसके बाद सात सूर्यों का बहुत प्रचण्ड तेज बढ़ता है और प्रलय की शुरुआत होती है।

घर-परिवार पर चाहें लक्ष्मी कृपा तो न करें ये 4 काम
शास्त्रों में विद्या, धन, सुख और वैभव से संपन्न लक्ष्मी को 'श्री' कहा गया है। इसलिए सांसारिक जीवन में भी जब किसी स्थान या व्यक्ति के संग से किसी भी तरह का सुख या ज्ञान मिलता है तो उसे 'श्री' संपन्न कहकर भी पुकारा जाता है। इस तरह लक्ष्मी का श्री स्वरूप प्रेरणा यही देता है कि जहां ज्ञान रूपी प्रकाश होता है, वहां लक्ष्मी प्रसन्न होकर ठहरने पर विवश हो जाती है। संकेत है कि विद्वानता, बुद्धिमत्ता, पावनता से भरा आचरण ज्ञान, गुण व धन से समृद्ध होता है।

वहीं इसके विपरीत अज्ञान व दरिद्रता रूपी अंधेरा या कलह से लक्ष्मी दूरी बनाए रखती है। इस संबंध में शास्त्रों में कहा भी गया है कि- अर्थ है किसी भी रूप में दरिद्रता से सारे गुणों का अंत हो जाता है।

यही कारण है कि शास्त्रों में इंसान के लिए धर्म को व्यवहार में उतार दैनिक जीवन में कुछ ऐसे कामों से दूरी बनाए रखने की सीख दी गई है, जो तन, मन, विचार को दरिद्र बनाकर लक्ष्मी कृपा से वंचित रखतें है। जानिए 'श्री' संपन्न बनने के लिए किन 4 बातों से फासलें रखें -

माता-पिता या गुरु का अपमान - शास्त्रों में सेवा को ईश्वर पूजा की तरह माना गया है। जन्म देने वाले माता-पिता और ज्ञान देने वाले गुरु को भी ईश्वर का दर्जा दिया गया है। इसलिए इन तीनों की सेवा से मुंह मोडऩे या अपमान करने वाले पर लक्ष्मी कृपा नहीं होती।

आलस्य और अज्ञान - शास्त्रों में कर्म और ज्ञान ही तमाम सुखों का मूल माना गया है। लक्ष्मी भी ऐसे ही व्यक्ति पर प्रसन्न होती है जो परिश्रमी और सक्रिय होता है। न कि आलस्य से घिरा व ज्ञान, कर्म और पुरुषार्थ से दूर रहने वाले पर।

पराया धन और परस्त्री - लक्ष्मी हर तरह से पावनता का संग करती है। इसलिए चरित्र की पावनता बनाए रखने के लिए परायी स्त्री या दूसरों के कमाए धन पर कब्जा और चोरी करने से भी बचें।

इंद्रिय असंयम - इंद्रियों का असंयम अपवित्रता का कारण बनता है। जिससे लक्ष्मी रुष्ट होती है। सुबह सोते रहना, शाम के समय सहवास करना, भोजन में अपवित्रता जैसे खाना बनाते समय स्त्री द्वारा खा लेना, बार-बार भोजन करना या रजस्वला होने पर भी भोजन छूने जैसे काम लक्ष्मी कृपा से वंचित करते हैं।

इन तरीकों से बोली के साथ सूरत व सीरत भी बने आकर्षक व असरदार
शास्त्रों में मीठी वाणी भी सफल जीवन का अहम सूत्र बताई गई है। व्यावहारिक रूप से भी सोचें तो सुख, शांति और सुकूनभरे जीवन के लिए धन व साधन ही जरूरी नहीं, बल्कि अच्छे बोल के साथ व्यवहार की भी बड़ी अहमियत है। क्योंकि बोल के साथ बोलने का तरीका ही दूसरों के मन में आपकी पहली छबि बनाता है।

हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में भी वाणी के तप के रूप में वाणी साधने का महत्व उजागर करते हुए लिखा गया है -

अनुद्बेगकरं वाकयं सत्यं प्रियहितं च यत् ।

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ् मयं तप उच्यते।।

सरल अर्थ है कि कलह, पीड़ा न देने वाली वाणी, मीठे, हितकारी व सत्य वचन, स्वाध्याय या वेद-शास्त्र पढऩा और ईश्वर नाम लेना ये सभी वाणी का तप है। संकेत यही है कि मीठी वाणी के साथ सूरत और सीरत का जादू दूसरों पर तभी संभव है, जब बोलने का तरीका भी बेहतर व मर्यादित बनाया जाए।

जानिए शास्त्रों में बताए बोलचाल के ऐसे ही कुछ सही तरीके, जिनको अपनाकर कोई भी बातों से रुतबा बना सकता है -

- बोलें कम सुने ज्यादा यानी अपनी बात को कम शब्दों में सही ढंग से रखने का अभ्यास करें।

- साफ और संतुलित आवाज में आत्मविश्वास के साथ बोलें यानी न अधिक कम न अधिक ऊंची आवाज में बात करें।

- झूठ बोलने, तीखा बोलने से बचें। साथ ही बुराई या विरोधी बातें न करें।

- गुरु या बड़ों के सामने जानकार होने पर भी अहं रखकर विद्वानता न बताएं बल्कि उनके लिए सम्मान का भाव रखते हुए अपनी बात रखें।

- धर्म की नजर में जब दो व्यक्ति अकेले में बैठे बातें कर रहे हो, वहां जाना समझदारी नहीं बताया गया है।

- दो व्यक्तियों की बातचीत के दौरान अनावश्यक बोलना भी अनुचित है।

- बातचीत के दौरान अकेले ही न बोलते रहें, बल्कि दूसरों को भी बोलने का मौका दें।

- किसी व्यक्ति को पद और रिश्तों की मर्यादा के अनुसार संबोधित करें।

- बातों ही बातों में किसी को ताना न मारें या ऐसी मजाक न करें जहां व्यक्तिगत् जीवन से जुड़े विषय की हंसी उड़ाई जाए और दूसरा व्यक्ति दु:खी हो।

- निंदा करने के लिए गुपचुप या इशारों में ऐसी बातें न करें, जो दूसरों को समझ न आए। इससे आपकी छबि नकारात्मक बनेगी।

- गैर जरूरी सवाल करना, चलती राह में अपरिचित से अनावश्यक बातें करना परेशानी का कारण बन सकता है।

- घर आए मेहमान या अतिथि को बैठाकर, जलपान करने के बाद ही बातचीत करना सभ्यता मानी जाती है।

- आधुनिक समय में एक-दूसरे को नाम से संबोधन प्रचलित है। किंतु हिन्दी भाषा में बड़ों को 'आप' और छोटी आयु के व्यक्ति को 'तुम' कहा जाता है।

- भाषा भेद होने पर ही दूसरी भाषा में बातचीत करना उचित होता है। किंतु बोली या भाषा जानने पर भी अन्य या अंग्रेजी भाषा में बात करना अनुचित और अभद्र माना जाता है।

इस तरह मीठे बोल के साथ बातचीत के इन तरीकों को व्यवहार में उतारने पर आपकी छबि भी उजली बन सकती है।

शिव पूरी करे श्रीकृष्ण की तरह इंसान की भी ये 16 इच्छाएं!
भक्ति प्रेम, समर्पण और त्याग का ही रूप है। धार्मिक आस्था है कि जब ऐसी भक्ति से ईश्वर को याद किया जाता है, तो ईश्वर भी उस प्रेम के वशीभूत हो दृश्य या अदृश्य रूप से भक्त पर कृपा करते हैं।

भक्ति से कामनापूर्ति की बात हो तो भगवान शिव की भक्ति सबसे आसान और जल्द मुरादें पूरी करने वाली मानी जाती है। इसलिए भगवान शिव को भक्त आशुतोष, ओढरदानी या भोलेनाथ भी पुकारते हैं। पौराणिक प्रसंग बताते हैं कि शिव भक्ति से दानव, मानव ही नहीं बल्कि देवताओं ने भी अपने मनोरथ पूरे किए।

इसी कड़ी में महाभारत के मुताबिक भगवान शिव ने स्वयं कहा है - श्री कृष्ण मेरी भक्ति करते हैं, इसलिए मुझे श्रीकृष्ण सबसे प्रिय है। भगवान श्रीकृष्ण ने शिव की उपासना शिव के हजार नामों के उच्चारण और बिल्वपत्रों को अर्पित कर सात माह तक कठोर तप के साथ की। महाभारत के अनुशासन पर्व में बताया गया है कि श्रीकृष्ण ने शिव की भक्ति से 16 कामनाओं को पूरा किया।

जानिए श्री कृष्ण की ही ये 16 मुरादें और इंसानी जीवन के नजरिए से इन इन इच्छाओं के मायने। जिनको हर इंसान शिव भक्ति द्वारा पूरा करने का प्रयास करें -

- धर्म में मेरी दृढ़ता रहे यानी सत्य, प्रेम परोपकार जैसा धर्म पालन।

- युद्ध में शत्रुघात यानी विरोधियों और जीवन के संघर्ष में विपरीत हालात पर काबू पा लेना।

- जगत में उत्तम यश यानी प्रसिद्धि, सम्मान,

- परम बल यानी हर तरह से शक्ति संपन्न

- योग बल यानी संयम और संतोष

- सर्व प्रियता यानी सबसे मधुर संबंध और व्यवहार

- शिव का सानिध्य यानी भगवान, धर्म और कर्म से जुड़े रहना।

- दस हजार पुत्र यानी संतान और कुटुंब सुख

- ब्राह्मणों में कोपाभाव यानी पवित्रता और शुचिता प्राप्त हो।

- पिता की प्रसन्नता यानी पिता का प्रेम और आशीर्वाद

- सैकड़ों पुत्र यानी दाम्पत्य सुख

- उत्कृष्ट वैभव योग यानी सुख-समृद्धि

- कुल में प्रीति यानी परिवार और संबंधियों में मेलजोल

- माता का प्रसाद या अनुग्रह यानी माता से प्रेम और आशीर्वाद

- शम प्राप्ति यानी हर तरह से शांति मिलना

- दक्षता यानी कार्य कुशलता या हुनरमंद होना।

इस दिलचस्प काम से होता है सबका भला!
धर्मशास्त्रों के नजरिए से विचार करें तो सहयोग या मदद में छुपा है परोपकार और भलाई का भाव। दरअसल, सहयोग की इस भावना के पीछे एक सकारात्मक पहलू दूसरों की ही नहीं खुद की मदद से भी जुड़ा है।

इशारा यही है कि अपनी कमियों, दोषों और कमजोरियों को पहचान उनमें पूरी सच्चाई और अनुशासन से सुधार करें। तभी आप दूसरों की भी सच्चे ह्रदय से मदद के लिए तैयार कर पाएंगे। कह सकते हैं कि व्यक्ति मदद की शुरुआत खुद से करें तो उसका फायदा दूसरों तक भी जल्द पहुंचता है।

असल में परोपकार व्यावहारिक रूप से आपकी शक्ति बन जाता है। क्योंकि जो इंसान स्वयं विनम्र, मधुभाषी, उदार, दयालु, सेवाभावी बन और अहं से दूर रहकर दूसरों की मदद को तैयार रहता है, तो अन्य लोग भी उस व्यक्ति के वशीभूत हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति की भी हर कोई किसी भी वक्त मदद को तैयार रहता है।

परोपकार के इसी भाव के संबंध में शास्त्रो में एक दिलचस्प बात कही गई है। जिसमे छुपी सीख यही है कि दूसरों के लिए ज़िंदगी बिताना ही वास्तविक जीवन है। लिखा गया है कि -

परोपकार: सतां व्यसनम् यानी परोपकार सज्जन लोगों की लत या व्यसन है।

पुराणों प्रसंगों में भी भगवान विष्णु के दस अवतार भी परोपकार और भलाई की ही प्रेरणा देते हैं। इस तरह भलाई और इससे जुड़े सेवा भाव से इंसान हर स्थिति में न केवल दूसरों को प्रेम, शांति, सम्मान का पात्र बनाता है बल्कि स्वयं भी स्नेह, यश और सम्मान का हकदार बन सुख-समृद्धि पाता है। ऐसे लोग जहां भी पहुंचते हैं, वहां पर उनके अनेक मित्र, सहयोगी और प्रेमी बन जाते हैं।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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