Tuesday, October 11, 2011

Jeevan Darshan(जीवन दर्शन) Part 3

गांधीजी से प्रेरित गोपालदास ने त्यागी राजगद्दी
आजादी से पहले सौराष्ट्र में वसो राज्य के राजा थे गोपालदास देसाई। वे युवा थे और बड़ी शान से रहते थे। उनके शौक काफी महंगे होते थे और विलासिता उनके स्वभाव में थी। स्वयं की सुविधाओं पर राजा साहब भरपूर व्यय करते थे। तनिक भी कष्ट उन्हें असहनीय था।

जब कभी वे बाहर की यात्रा करते, तो उनके साथ उनकी छोटी से छोटी जरूरत का सामान होता था। एक बार वे कहीं गए। उस दिन किसी कारणवश कोई सेवक उनके साथ नहीं था। अत: जैसे ही वे स्टेशन पर उतरे, सामान उठाने के लिए उन्होंने कुली की तलाश की।

संयोग से उस समय कोई कुली स्टेशन पर नहीं था। उनकी परेशानी देखकर एक किसान से लगने वाले आदमी ने उनका सामान उठाकर गाड़ी में रख दिया। राजा साहब ने उसे चवन्नी दी तो उसने लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कुछ सोचकर पूछा- एक समय का भोजन कितने पैसों में मिलेगा?

उस आदमी ने जवाब दिया- तब तो मेरी मजदूरी दो अरब इकन्नियां हैं क्योंकि मुझे 40 करोड़ मनुष्यों के भोजन की व्यवस्था करनी है। यह कहकर वह चला गया। चकित राजा गोपालदास कुछ न समझ पाए।

शाम को उन्होंने देखा कि वही आदमी एक विशाल जनसभा को संबोधित कर रहा है। ये गांधीजी थे। आगे चलकर गांधीजी से प्रेरित हो गोपालदास राजगद्दी त्यागकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वस्तुत: जब ‘स्व’ का संकीर्ण भाव ‘पर’ में तिरोहित हो जाता है, तभी वसुधव कुटुंबकम् की भावना साकार होती है।

अंग्रेज की पिटाई कर निडरता का परिचय दिया युवक ने
यह उस समय की घटना है, जब देश पर अंग्रेजों का शासन था। वे लोग भारतीयों पर तरह-तरह के अत्याचार करते और अधिसंख्य भारतीय उन्हें चुपचाप सहन करते थे। विरोध करने की हिम्मत किसी की नहीं होती थी। एक दिन प्रतापगढ़ स्टेशन पर एक अंग्रेज सार्जेट केले खा रहा था।

खाते-खाते उसने केले का छिलका पास ही खड़ी एक भारतीय लड़की पर फेंक दिया। उसकी ऐसी हरकत से लड़की सहम गई और कुछ बोलते हुए वहां से दूर हट गई। इससे उस सार्जेट की हिम्मत और बढ़ गई। और अब वह दूर खड़ी लड़की के ठीक सामने पहुंच गया और जोर से सीटी बजाई।

स्टेशन पर अनेक लोग मौजूद थे, किंतु किसी ने सार्जेट की इस उद्दंडता का विरोध नहीं किया। तभी अचानक एक नवयुवक का वहां आना हुआ और उसने सार्जेट को डपटते हुए कहा- तुम यह बदतमीजी क्यों कर रहे हो?

सार्जेट अकड़ में आकर नवयुवक को गुस्सा दिखाने लगा तो नवयुवक ने एक जोरदार थप्पड़ उसे रसीद कर दिया। थप्पड़ खाकर पहले तो सार्जेट लड़खड़ाया, फिर संभलकर नवयुवक पर झपटा। नवयुवक पहले से ही तैयार था, फिर तो उसने सार्जेट की ऐसी जमकर धुनाई की कि उसे लड़की से क्षमा मांगनी पड़ी।

दरअसल अन्याय के विरुद्ध निडर होकर आवाज उठाने वाला वह नवयुवक था- चंद्रशेखर आजाद। कथा का सार यह है कि अन्याय को सहन करना उसका साथ देने के समान ही है। इसलिए बेहद जरूरी है कि अन्याय का पूरे साहस के साथ पुरजोर विरोध किया जाए।

प्रकृति संरक्षण का महत्व समझाया मुगल सम्राट ने
मुगल सम्राट औरंगजेब के स्वभाव की कटुता और अनुदारता विख्यात थी। इसलिए हर कोई बादशाह के पास जाने से डरता था। वस्तुत: औरंगजेब के गुस्से और सनक का कोई ठिकाना नहीं था। पता नहीं कब, किस बात पर वह नाराज हो जाए और सिर कलम करा दे। यह भय उसके निकटस्थ मंत्री व सेनापति को भी था, इसलिए अति आवश्यक होने पर ही वे उसके पास कोई मुद्दा ले जाते थे।

एक दिन जामा मस्जिद के बाहरी आंगन में भीषण आग लग गई। लोगों ने जैसे-तैसे आग पर काबू पाया, किंतु वजीरेआला को यह तनाव हो गया कि बादशाह तक खबर पहुंचेगी तो क्या होगा? ऐसा न हो, इसके लिए बहुत प्रयत्न करने के बावजूद बादशाह तक खबर पहुंच ही गई।

उन्होंने तत्काल वजीरेआला को पेश होने का हुक्म दिया। वह डरते-डरते बादशाह के सामने पहुंचा। औरंगजेब ने पूछा - मस्जिद के बाहर लगे सभी पेड़ तो हरे-भरे हैं न? उन तक तो आग नहीं पहुंची? वजीरेआला ने हैरानी से कहा - नहीं हुजूर। पेड़ तो सुरक्षित हैं, किंतु आपने मस्जिद के बारे में कुछ नहीं पूछा? तब औरंगजेब बोला - ये पेड़ हमारे जीवन की नींव हैं।

मस्जिद के नुकसान को तो हमारे कारीगर दो-चार दिनों में पूरा कर देंगे, लेकिन किसी जले पेड़ को चार दिन में कैसे हरा-भरा किया जा सकता है? बादशाह का प्रकृति प्रेम देख दरबारी श्रद्धावनत हो गए। सार यह है कि प्रकृति पर ही मानव जीवन अवलंबित है। इसलिए उसका जितना अधिक संरक्षण करेंगे, अपने जीवन को उतना ही अधिक दीर्घ व स्वस्थ बना पाएंगे।

राष्ट्र के लिए आत्मबलिदान कर गेस्टलो ने पाई अमरता
यह घटना द्वितीय विश्व युद्ध के समय की है। युद्ध अपने चरम पर था। युद्ध में शामिल सभी देश और देशभक्त पूरे जोश और उत्साह से अपनी वीरता का परिचय दे रहे थे। सभी के मन में अपने-अपने राष्ट्र की विजय की प्रबल चाह थी, जिसे पूर्ण करने के लिए सभी योद्धा अपनी सारी ताकत झोंक रहे थे।

इन्हीं में से एक था गेस्टलो, जो जर्मन हवाई अफसर था। गेस्टलो अपने अदम्य साहस और बहादुरी से दुश्मनों के छक्के छुड़ा रहा था। वह शत्रुओं पर हर तरफ से कहर बरपा रहा था। ३ जुलाई १९४३ को वह अपना शौर्य प्रदर्शन करते हुए विमान से आकाश में घूम रहा था।

तभी कहीं से एक गोली आई और उसके विमान की पेट्रोल की टंकी में लगी। इससे विमान में आग लग गई और वह जलने लगा। गेस्टलो हवाई छतरी से उतरने ही वाला था कि उसकी नजर नीचे खड़े रूसी ट्रकों पर पड़ी, जो पेट्रोल व गोला- बारूद ले जा रहे थे। अचानक गेस्टलो ने एक निर्णय लिया और वह नीचे कूदने की बजाय चालक कुर्सी पर जाकर बैठ गया।

उसने जलते विमान की दिशा ट्रकों की ओर मोड़ दी। कुछ ही पल में विमान ट्रकों से टकराया और वे तीव्र विस्फोट के साथ जलकर नष्ट हो गए। लेकिन उनके साथ ही गेस्टलो भी शहीद हो गया। निश्चय ही उसने अपने जीवन से अधिक देश की विजय चाही थी। सार यह है कि राष्ट्र ऋण चुकाने का सर्वोत्तम तरीका आत्मबलिदान है। जो लोग इस ऋण को चुकाने में कामयाब हो जाते हैं, वे ही सच्चे अर्थो में राष्ट्रभक्त सिद्ध होकर इतिहास में अमर हो जाते हैं।

महात्मा गांधी का कहना था अपनी हिंदी में बात करो
बात उन दिनों की है, जब महात्मा गांधी राष्ट्रसेवा के महान कार्य में लगे हुए थे। अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए वे विभिन्न मोर्चो पर कार्य कर रहे थे। इस कड़ी में जनसंपर्क कर अधिकाधिक लोगों को अपने अभियान में शामिल करना उनका प्रमुख लक्ष्य था।

इसके लिए गांधीजी राष्ट्र के कई शहरों व गांवों में जाते थे और लोगों को राष्ट्रहितकारी कार्यो से जुड़ने के लिए प्रेरित करते थे। इसी सिलसिले में एक बार गांधीजी दिल्ली की किसी कॉलोनी में रुके हुए थे। एक दिन वे अपने कमरे में आवश्यक कार्य कर रहे थे कि उन्हें किसी की बातचीत सुनाई दी।

बातचीत एक लड़के और लड़की के मध्य हो रही थी और अंग्रेजी भाषा में हो रही थी। गांधीजी ने दोनों को भीतर बुलाकर पूछा- तुम कौन हो? दोनों अचकचा गए क्योंकि गांधीजी उन्हें भलीभांति जानते थे। गांधीजी ने फिर पूछा- बोलो तुम कौन हो?

दोनों ने कहा- बापू हम सगे भाई-बहन हैं। गांधीजी ने अगला प्रश्न किया- तुम कहां के रहने वाले हो? उत्तर मिला पंजाब के। गांधीजी बोले- तुम तो पंजाबी और हिंदी दोनों भाषाएं जानते हो, फिर बातचीत में इनका प्रयोग क्यों नहीं करते?

अंग्रेजी के गुलाम बनकर अपने देश की भाषाओं पर तुम अत्याचार कर रहे हो। अंग्रेजी को मैं बुरी भाष नहीं मानता, किंतु उसके लिए मातृभाषा का तिरस्कार करना उचित नहीं है। दोनों भाई-बहन ने बापू से क्षमा मांगी।

वस्तुत: विश्व की सभी भाषाएं सम्मान के योग्य हैं, किंतु स्वदेश में मातृभाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। राष्ट्र के प्रति निष्ठा का यह एक महत्वपूर्ण उपादान है।

निर्धन के उपहार को विनम्रता से स्वीकार किया कमाल पाशा ने
कमाल पाशा उन दिनों तुर्की के राष्ट्रपति थे। उनकी तूती चारों ओर बोलती थी। अपने कार्य और व्यवहार से कमाल पाशा ने खासी लोकप्रियता अर्जित की थी। कमाल पाशा योजनाबद्ध व संतुलित तरीके से कार्य करते थे, जिससे उनके मातहत उनसे अत्यंत प्रभावित थे।

इसी जनप्रियता के चलते कमाल पाशा का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। खास से लेकर आम तक इस अवसर पर पूरे जोश व उत्साह के साथ शामिल होता था। कमाल पाशा भी इस समय प्रत्येक छोटे-बड़े की भावनाओं का आदर करते थे।

एक बार उनकी वर्षगांठ राजधानी में जोर-शोर से मनाए जाने के बाद वह अपने शयन कक्ष में जाकर लेटे ही थे कि उनके निजी सचिव ने आकर सूचना दी कि कोई गरीब बुजुर्ग दूर के किसी गांव से उनके लिए वर्षगांठ की भेंट लेकर आया है।

कमाल पाशा बहुत अधिक थके होने के बावजूद उठकर स्वागत कक्ष में आए और बुजुर्ग सज्जन को प्रणाम कर विनम्रता से उनका उपहार ग्रहण किया। उपहार स्वरूप एक हंडिया में शहद था। कमाल पाशा ने उसी समय अंगुली भर शहद स्वयं भी चाटा और बुजुर्ग को भी चटाया।

समुचित सत्कार के बाद राष्ट्रपति ने हुक्म दिया कि शाही बग्घी में बुजुर्ग को उनके गांव पहुंचाया जाए। कथा का सार यह है कि उपहार की श्रेष्ठता उसकी कीमत से नहीं, अपितु देने वाले की भावना से आंकी जानी चाहिए और मनुष्य की श्रेष्ठता का पैमाना भी पद या संपन्नता के स्थान पर गुण व व्यवहार होना चाहिए।

जब खलीफा उमर ने युवक की नियुक्ति रद्द की

खलीफा उमर को अपने किसी प्रदेश में गवर्नर नियुक्त करना था। वे किसी योग्य व्यक्ति की तलाश में थे। उनके पास नित्य ही अनेक उम्मीदवार आते। खलीफा प्रदेश के हित को दृष्टिगत रखते हुए उनका उचित साक्षात्कार लेते।

काफी मशक्कत के बाद खलीफा ने एक व्यक्ति की योग्यता से संतुष्ट होने के बाद गवर्नर नियुक्त किया। उसे नियुक्ति पत्र देने से पहले उन्होंने अनेक आवश्यक बातें भी उसे समझाईं। जब वे उससे चर्चा कर रहे थे, तभी उनके सामने एक बालक आ पहुंचा।

उसे देखते ही खलीफा उमर ने बातचीत करना छोड़ बड़े प्रेम से गोद में उठा लिया और फिर भांति-भांति की आवाजें निकालकर उसे हंसाने लगे। वह व्यक्ति आश्चर्य से यह सब देखता रहा और फिर बोला - खलीफा साहब।

मेरे तो चार बच्चे हैं किंतु मैंने कभी उनके प्रति इतना स्नेह नहीं जताया, जितना आप किसी अन्य के बच्चे के प्रति जता रहे हैं। यह सुनते ही खलीफा ने उससे नियुक्ति पत्र लेकर फाड़ दिया और बोले - मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हारी नियुक्ति की।

जब तुम्हें अपने ही बच्चे से स्नेह नहीं है तो तुम प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करोगे? तुम्हारे दिल से प्रेम का पवित्र झरना सूख चुका है। तुम इस पद के योग्य नहीं हो। वह व्यक्ति लज्जित होकर वहां से चला गया, किंतु जीवन का एक अहम पाठ उसने सदा के लिए सीख लिया।

सार यह है कि बच्चे इस धरती पर ईश्वर की सबसे उत्कृष्ट व निष्कपट कृति होते हैं। जो इनसे प्रेम करता है, वह ईश्वर का सबसे बड़ा आराधक होता है।

जब खलीफा उमर ने युवक की नियुक्ति रद्द की


खलीफा उमर को अपने किसी प्रदेश में गवर्नर नियुक्त करना था। वे किसी योग्य व्यक्ति की तलाश में थे। उनके पास नित्य ही अनेक उम्मीदवार आते। खलीफा प्रदेश के हित को दृष्टिगत रखते हुए उनका उचित साक्षात्कार लेते।

काफी मशक्कत के बाद खलीफा ने एक व्यक्ति की योग्यता से संतुष्ट होने के बाद गवर्नर नियुक्त किया। उसे नियुक्ति पत्र देने से पहले उन्होंने अनेक आवश्यक बातें भी उसे समझाईं। जब वे उससे चर्चा कर रहे थे, तभी उनके सामने एक बालक आ पहुंचा।

उसे देखते ही खलीफा उमर ने बातचीत करना छोड़ बड़े प्रेम से गोद में उठा लिया और फिर भांति-भांति की आवाजें निकालकर उसे हंसाने लगे। वह व्यक्ति आश्चर्य से यह सब देखता रहा और फिर बोला - खलीफा साहब।

मेरे तो चार बच्चे हैं किंतु मैंने कभी उनके प्रति इतना स्नेह नहीं जताया, जितना आप किसी अन्य के बच्चे के प्रति जता रहे हैं। यह सुनते ही खलीफा ने उससे नियुक्ति पत्र लेकर फाड़ दिया और बोले - मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हारी नियुक्ति की।

जब तुम्हें अपने ही बच्चे से स्नेह नहीं है तो तुम प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करोगे? तुम्हारे दिल से प्रेम का पवित्र झरना सूख चुका है। तुम इस पद के योग्य नहीं हो। वह व्यक्ति लज्जित होकर वहां से चला गया, किंतु जीवन का एक अहम पाठ उसने सदा के लिए सीख लिया।

सार यह है कि बच्चे इस धरती पर ईश्वर की सबसे उत्कृष्ट व निष्कपट कृति होते हैं। जो इनसे प्रेम करता है, वह ईश्वर का सबसे बड़ा आराधक होता है।

जब सिकंदर के अहंकार को चूर किया एक साधु ने
सिकंदर अपने विश्व विजय के अभियान पर निकला था। कई देशों में वह अपनी विजय पताका फहरा चुका था। जैसे-जैसे उसकी जीत होती जा रही थी, वैसे-वैसे उसका अहंकार बढ़ता जा रहा था। सिकंदर को लगने लगा था कि इस धरती पर उससे अधिक शक्तिशाली कोई नहीं है।

उसकी बातों और व्यवहार से अब उसका यह अहंकार झलकने लगा था और अनेक अवसरों पर वह स्वयं से बड़े व सम्मानित लोगों का अपमान करने से भी नहीं चूकता था। ऐसे ही एक बार सिकंदर का काफिला किसी जंगल से गुजर रहा था।

तभी उसे एक साधु की कुटिया दिखाई दी। थोड़ी देर सुस्ताने के उद्देश्य से सिकंदर वहां रुक गया। साधु से जो बन पड़ा, वह सत्कार उसने किया। सिकंदर साधु के व्यवहार और उसकी ज्ञानपूर्ण बातों से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने साधु से पूछा - महाराज, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?

साधु बोला - मैंने आपका यथाशक्ति सत्कार किया। अब आप तत्काल यहां से चले जाइए। सिकंदर को ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। वह क्रोधित होकर बोला - क्या आप जानते हैं कि मैं वह सिकंदर हूं, जो कुछ भी कर सकता है?

साधु ने शांत भाव से कहा - यदि ऐसा है तो मुझे मारकर फिर से जिंदा कर दो। साधु की बात सुनकर सिकंदर का सिर शर्म से झुक गया। सार यह है कि मनुष्य कभी प्रकृति और ईश्वर से बड़ा व ताकतवर नहीं हो सकता।

इसलिए अपनी शक्ति पर अहंकार से बचते हुए उसे सकारात्मक कार्यो में लगाना चाहिए ताकि कल्याण को साकार किया जा सके।

अहंकारी सेठ को परोपकारी बनाया महामना मालवीय ने
पंडित मदनमोहन मालवीय का राष्ट्रप्रेम और सादगी के सभी कायल थे। इतनी लोकप्रियता और सम्मान के बावजूद पं. मालवीय को घमंड छू भी नहीं गया था। वे सदैव राष्ट्रहितकारी कार्यो में लगे रहते और दूसरों को भी इस दिशा में प्रेरित करते। दूसरों के भले की बेइंतहा इच्छा रखकर कर्म करने वाले इस महापुरुष को इसी वजह से महामना कहा गया। पं. मालवीय के असंख्य प्रशंसक थे, जो प्राय: उनसे मिलने घर आते और पंडितजी भी बड़े स्नेह से उनसे मिलते, बातचीत करते और सत्कार भी करते। उनमें से कई पंडितजी को घर आने का निमंत्रण भी देते, जिसे पंडितजी स्वीकार कर यथाशक्ति पूर्ण करने का प्रयास भी करते।

एक बार एक धनी सेठ ने उन्हें अपने यहां विवाह समारोह में आमंत्रित किया और इस अवसर पर दिए जाने वाले विशाल भोज की सगर्व चर्चा की। यह सुनकर पं. मालवीय नम्रतापूर्वक उनके आग्रह को अस्वीकार करते हुए बोले - यह आपकी कृपा है जो मेरे जैसे मामूली व्यक्ति को आपने भोज में आने का निमंत्रण दिया। लेकिन जब मेरे भारत देश के हजारों-लाखों भाई भूखे हैं या दिन में एक वक्त का खाना खाकर जीवन बिता रहे हैं तो मैं विविध व्यंजनों से परिपूर्ण भोजों में कैसे शामिल हो सकता हूं।

पंडितजी की इस बात से प्रभावित हो सेठ ने भोजन में व्यय होने वाला सारा धन गरीबों को दान कर दिया। सार यह है कि स्वयं से अधिक दूसरों की चिंता करने वाला उस परोपकार को साकार करता है जिससे समाज के अंतिम व्यक्ति को लाभ पहुंचता है और जो उसे अनगिनत पुण्यों का भागी बना देता है।

शिकारी बादशाह को हिरनी से मिला जीवन देने का सबक
अरब का एक बादशाह शिकार का बड़ा शौकीन था। राजकार्य से जब भी अवकाश मिलता, वह मंत्री, सेनापति और सिपाहियों को लेकर शिकार पर निकल जाता। बादशाह ने अपने महल की दीवारों को मारे गए जानवरों की खालों से सजा रखा था।

जब भी उसके राज्य में कोई अतिथि आता, वह सगर्व इन खालों का दर्शन उसे कराता और अपनी शिकार संबंधी उपलब्धियों को बताता। एक बार बादशाह शिकार करने गया तो खूब भटकने के बाद भी शिकार नहीं मिला। वह और उसका पूरा काफिला थक गया।

शाम को जब बादशाह खाली हाथ लौट रहा था तो उसे एक हिरनी और उसका बच्च घास चरते हुए दिखाई दिए। बादशाह को यकायक जाने क्या सूझा कि उसने तीर चलाने के स्थान पर चुपचाप हिरनी के बच्चे को पकड़ लिया और महल की ओर लौटने लगा।

कुछ देर बाद उसने पीछे मुड़कर देखा कि हिरनी भी उसके पीछे-पीछे आंखों में आंसू लिए चली आ रही है। यह देखकर बादशाह का दिल पिघल गया और उसने हिरनी के बच्चे को छोड़ दिया। हिरनी अपने बच्चे को पाकर खुशी से उसे चाटने लगी और बादशाह को कृतज्ञताभरी दृष्टि से उनके ओझल होने तक देखती रही।

बादशाह को महसूस हुआ कि उन्होंने हाथ आया शिकार भले ही खो दिया हो, लेकिन बदले में एक ऐसी गहरी आत्मसंतुष्टि पा ली है, जो हिरनी के बच्चे का वध करके कभी नहीं मिलती। सार यह है कि जीवन देने में जो सुख है, वह लेने में कदापि नहीं, क्योंकि लेकर हम स्वार्थी सिद्ध होते हैं और देकर परोपकारी।

चिकित्सक अमरनाथ ने दिया समय की पाबंदी का संदेश
अमरनाथ झा विख्यात चिकित्सक थे। वे अपने कार्य के जितने माहिर थे, उतने ही समय के भी पाबंद थे। अपने सहकर्मियों से भी वे समयबद्धता के पालन का आग्रह करते थे और यदि किसी कार्यक्रम में वे निमंत्रित किए जाते तो आयोजकों को उनकी प्रतीक्षा कभी नहीं करनी पड़ती थी, क्योंकि वे दिए गए समय पर पहुंच जाते थे।

एक बार डॉक्टर झा पटना में थे। वहां साहित्यकारों की एक गोष्ठी आयोजित की गई थी, जिसमें डॉक्टर झा को मुख्य अतिथि बनाया गया था। उन्होंने सहर्ष निमंत्रण स्वीकार किया और आयोजकों से कहा कि वे निर्धारित समय अर्थात 6 बजे से आधा घंटा पहले किसी को उन्हें लेने उनके विश्राम स्थल पर भेज देंगे।

डॉक्टर झा 5.30 बजे तैयार होकर बैठ गए, लेकिन उन्हें लेने आने वाले सज्जन 6 बजे के बाद आए। आते ही वे डॉक्टर झा से क्षमा मांगने लगे, किंतु उन्होंने विनम्रतापूर्वक गोष्ठी में जाने से इनकार कर दिया।

वे सज्जन यह सुनकर गिड़गिड़ाए कि आपके बिना हमारी गोष्ठी असफल हो जाएगी, किंतु डॉक्टर झा ने नम्रता से उत्तर दिया - आपकी गोष्ठी असफल होने का मुझे खेद है, किंतु देरी से जाकर मुझे लेट-लतीफ कहलाना स्वीकार नहीं है।

सार यह है कि हर कार्य समय पर करने से सदैव अच्छे परिणाम मिलते हैं, क्योंकि प्रत्येक कार्य को भलीभांति संपन्न होने में लगने वाला समय उसे मिल जाता है। साथ ही कर्ता को समयबद्धता के पालन के कारण एक कुशल योजनाकार का सम्मान भी मिलता है।

राज्य की रक्षा के लिए बाजीराव ने किया आत्मबलिदान
यह घटना आजादी से कुछ वर्ष पहले की है। ओडिशा के ढेंकानाल जिले में अनगुल नामक एक गांव है। चूंकि संपूर्ण राष्ट्र में आजादी के आंदोलन की लहर दौड़ रही थी, अत: ढेंकानाल की जनता भी जोश में थी। वहां के लोग अपने राजा के विरुद्ध एकजुट होने लगे थे।

वे लोग प्रजा परिषद के गठन की मांग कर रहे थे। ढेंकानाल का राजा अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली था। उसने जनता के लिए कुछ करने के स्थान पर उसे दबाना चाहा और इसके लिए अंग्रेजों से सहायता मांगी। अंग्रेजों ने सहायता के बदले यह शर्त रखी कि आंदोलन दबाने के बाद उस राज्य का संचालन उन्हें सौंपना होगा।

राजा ने शर्त मान ली। अंग्रेज अनगुल जाने के लिए नदी के उस पार आ गए। नदी के किनारे एक 12 वर्षीय लड़के से कप्तान ने कड़ककर कहा- ए लड़के, नाव लगा हमें पार जाना है। लड़का तनकर खड़ा रहा और उसने आज्ञा नहीं मानी।

कप्तान ने गुस्से में आकर फिर लड़के को नाव लगाने को कहा, किंतु उसने नदी पार कराने से स्पष्ट इनकार कर दिया। कप्तान ने सभी सैनिकों को नाव पर चढ़ने का आदेश दिया, किंतु लड़का पतवार लेकर बीच में लड़ गया।

फिर भी एक अंग्रेज सिपाही आगे बढ़ा तो लड़के ने पतवार से उसके सिर पर वार कर दिया। वह खून से लथपथ हो गिर पड़ा। यह देख कप्तान ने पिस्तौल चलाकर लड़के की जान ले ली। अनगुल का यह साहसी किशोर बाजीराव अपने राज्य के लिए शहीद हो गया।

दरअसल न्याय और सत्य का साथ देने के लिए साहस और आत्मत्याग अति आवश्यक उपादान है।

जब चर्चिल के आम व्यवहार से प्रभावित हुआ टिकट निरीक्षक
घटना उन दिनों की है, जब विंस्टन चर्चिल राजनीति में काफी प्रतिष्ठित हो चुके थे। वे इंग्लैंड के प्रधानमंत्री तो नहीं बने थे, किंतु जाने-माने नेता अवश्य हो चुके थे। अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियों में उनके भाषण व चित्र प्रकाशित होने लगे थे।

एक बार चर्चिल को भाषण देने कहीं जाना था। वे गंतव्य तक पहुंचने के लिए रेल में सवार हुए। थोड़ी देर बाद टिकट निरीक्षक उनके डिब्बे में आया। वह यात्रियों के टिकट की जांच करने लगा। जब चर्चिल की बारी आई तो उसने उनसे भी टिकट दिखाने का आग्रह किया।

जब चर्चिल ने जेब में हाथ डाला, तो टिकट नहीं था। वे परेशान हो गए। उन्होंने अपनी सभी जेबों की तलाशी ली। जब टिकट किसी भी जेब में नहीं मिला तो उन्होंने अपने साथ लाए सामान में खोजना प्रारंभ किया। इस बीच टिकट निरीक्षक उन्हें पहचान चुका था।

वह नम्रतापूर्वक बोला- रहने दीजिए। मैं जानता हूं कि टिकट आपने अवश्य खरीदा होगा, किंतु कहीं रखकर भूल गए हैं। कुछ देर बाद ढूंढ़ने की कोशिश कर लीजिएगा, हो सकता है आपको याद आ जाए। उसकी बात सुनकर चर्चिल बोले- टिकट निरीक्षक के मांगने पर टिकट दिखाना हर यात्री का कर्तव्य है।

इसमें किसी प्रकार की कोताही बरतना ठीक नहीं है। इतना कहकर वे पुन: टिकट खोजने में लग गए। सार यह है कि कर्तव्य पालन में छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं होना चाहिए। इससे एक नैतिक व मर्यादित समाज के निर्माण में मदद मिलती है।

कर्मनिष्ठा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है मोक्ष-मार्ग
राजस्थान के प्रसिद्ध जैन साहित्यकार थे टोडरमल। उत्कृष्ट लेखन के धनी इस साहित्यकार में अपने कार्य के प्रति अद्भुत लगन थी। वे जिस विषय पर लिखना तय कर लेते, उसे एक बार हाथ में लेने पर पूर्ण करके ही छोड़ते।

एक समय वे अपने ग्रंथ मोक्षमार्ग पर कार्य कर रहे थे। यह उल्लेखनीय है कि मोक्षमार्ग टोडरमल का विख्यात ग्रंथ है और आज भी बहुसंख्य लोगों के लिए मार्गदर्शक बना हुआ है। जब टोडरमल के मस्तिष्क में मोक्षमार्ग का विचार आया तो उसके लिए उन्होंने अनेक स्रोतों से सामग्री जुटानी आरंभ की।

टोडरमल अपने काम में इस कदर डूब गए कि उन्हें रात-दिन का होश ही नहीं रहा और न खाने-पीने की सुध रही। घर के लोग उनका ध्यान रखते और वे अपना ग्रंथ लिखते रहते। एक दिन भोजन करते समय टोडरमल अपनी मां से बोले- मां, आज भोजन में नमक नहीं है। लगता है आप नमक डालना भूल गईं।

उनकी बात सुनकर मां मुस्कराते हुए बोली- बेटा, लगता है आज तूने अपना ग्रंथ पूर्ण कर लिया है। टोडरमल मां की बात सुनकर चौंके और हैरानी से बोले- हां मां, मैंने ग्रंथ पूर्ण कर लिया। किंतु आपको कैसे पता चला?

मां ने जवाब दिया- नमक तो मैं तेरे खाने में पिछले 6 माह से नहीं डाल रही थी, किंतु उसका अभाव आज पहली बार तुझे महसूस हुआ। इसी से मैंने जाना। दरअसल कार्य के प्रति लगन और निष्ठा हो तो कार्य थोड़े समय में और उत्कृष्टता के साथ पूर्ण होता है। इसलिए जब भी कोई कार्य हाथ में लें तो उसे पूरी लगन के साथ पूर्ण करें।

जमीन से जुड़कर ही एक महान रचनाकार बने डिकेंस
चार्ल्स डिकेंस इंग्लैंड के विख्यात कथाकार हुए हैं। अपने श्रेष्ठतम मुकाम पर पहुंचने के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया। धीरे-धीरे डिकेंस की रचनाएं विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित होना आरंभ हुईं और उनका एक पाठक वर्ग विकसित होने लगा।

चाल्र्स इस प्रकाशन के सिलसिले को निरंतर रखते हुए देश के विभिन्न स्थानों पर स्वयं भी जाते और लोगों को अपनी रचनाएं सुनाते थे। लोग उनके मुख से उनकी रचनाएं सुनकर खुश होते। इस प्रकार धीरे-धीरे डिकेंस की ख्याति बढ़ने लगी। उनके श्रोताओं की संख्या सैकड़ों में पहुंच गई। इंग्लैंड की तत्कालीन महारानी विक्टोरिया तक भी चाल्र्स की प्रशंसा पहुंची, जिसे सुनकर उन्होंने डिकेंस की रचनाएं सुनने का निश्चय किया। महारानी के सेवक चाल्र्स डिकेंस को बुलाने भेजे गए।

डिकेंस उनके साथ राजमहल आए तो महारानी ने यथोचित सत्कार के बाद उनकी रचनाएं सुनने की इच्छा व्यक्त की। यह सुनकर डिकेंस विनम्रतापूर्वक बोले - अगर आप मेरी रचनाएं सुनना चाहती हैं तो उस समय आइएगा, जब मैं लोगों को उन्हें सुनाता हूं। मैं राजमहल के लिए नहीं, लोगों के लिए लिखता हूं।

यह कहकर स्वाभिमानी डिकेंस वहां से चले गए। कथा का सार यह है कि रचना और रचनाकार वास्तविक रूप से तभी कालजयी हो सकते हैं, जब वे जमीन से जुड़े हुए हों। श्रेष्ठ साहित्य महलों के आश्रय की अपेक्षा जनता की कुटिया में अधिक बेहतर ढंग से पल्लवित होता है।

कोई भी युद्ध जीतने के लिए जरूरी है आपस में एकता
पानीपत की तीसरी लड़ाई अहमद शाह अब्दाली और मराठों के मध्य पूरे जोर-शोर से चल रही थी। दोनों पक्ष पूरी वीरता से विजय के लिए लड़ रहे थे। अब्दाली के पास आधुनिक हथियार थे। उसकी बंदूकें काफी घातक थीं, इसलिए उसकी सेना का जोश चरम पर था।

हालांकि मराठा सैनिक भी पूरी दिलेरी और बहादुरी के साथ लड़ रहे थे ताकि अब्दाली पर शीघ्रातिशीघ्र जीत हासिल कर लें। ऐसे ही युद्ध जारी रहने के दौरान ही एक दिन अब्दाली अपने सैन्य शिविर में बैठा था और अपने मंत्री व सेनापति के साथ युद्धनीति पर चर्चा कर रहा था, तभी उसके एक मुलाजिम ने आकर सूचना दी कि रसद समाप्त हो रही है।

यदि जंग जल्दी खत्म न हुई तो हम भारी विपत्ति में फंस जाएंगे। अब्दाली पहले तो चिंतित हुआ, फिर कुछ देर सोचने के बाद बोला - चिंता मत करो, हम यह जंग जल्दी ही जीत लेंगे। वहां देखो, उस पहाड़ी पर मराठा सैनिकों के अलग-अलग तबके अपना खाना अलग-अलग बना रहे हैं।

इतना ही नहीं, वे अपना पानी भी अलग-अलग ही रखते हैं। ऐसे में जब कि उनमें आपस में ही एकता नहीं है तो वे एक होकर कब तक युद्ध लड़ पाएंगे। और वास्तव में कुछ समय बाद ही मराठे अब्दाली से पराजित हो गए।

कथा का सार यह है कि ईश्वर ने सभी इंसानों को जिस एक सांचे से बनाया है, उसी के अनुसार हमारे मन, वचन, कर्म रहने पर सफलता सुनिश्चित रहती है। इसके विपरीत तुच्छ स्तरों पर भेदभाव निर्मित कर लेने से पराजय ही हाथ लगती है।

स्वामी विवेकानंद ने वसुधव कुटुंबकम् का संदेश दिया
चीन में एक समय ऐसा था, जब कि कुछ शहरों को छोड़कर शेष सभी शहरों में विदेशियों के प्रवेश पर प्रतिबंध था। यदि भूलवश कोई विदेशी उन शहरों में चला जाता तो चीनी मरने-मारने पर आमादा हो जाते थे।

प्राय: दूसरे देशों से आने वाले लोग इस नियम को ध्यान में रखते थे और उन शहरों में नहीं जाते थे। आखिर अपनी जान सभी को प्यारी होती है। एक बार भारत से स्वामी विवेकानंद चीन की यात्रा पर गए। वे कई शहरों में भ्रमण करते रहे।

फिर अचानक उनकी इच्छा एक ऐसा शहर देखने की हुई, जहां विदेशियों का प्रवेश वर्जित था। दो जर्मन यात्री भी वहां जाना चाहते थे, किंतु उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी। स्वामीजी ने दोनों में साहस जगाया और एक दुभाषिए को समझा-बुझाकर अपने साथ ले उस शहर की ओर चल पड़े।

सारे रास्ते दुभाषिया स्वामीजी को समझाता रहा- अभी भी वक्त है, अन्यथा प्राणों से हाथ धो बैठोगे। किंतु स्वामीजी उस शहर में पहुंच ही गए। जब चीनियों ने उन्हें देखा तो वे हथियार लेकर उन्हें मारने दौड़े।

उन्हें आता देख जर्मन यात्रियों और दुभाषिए का भय के मारे हलक सूख गया, किंतु स्वामीजी ने निर्भयता से चीनियों को बड़े प्रेमपूर्वक कहा क्या आप अपने भाइयों से प्रेम नहीं करते? यही बात दुभाषिए ने दोहरा दी।

चीनी यह सुनते ही स्वामीजी के पैरों में झुक गए और उस दिन से वह प्रतिबंध भी हट गया। सार यह है कि जब वसुधव कुटुंबकम की भावना हम मनसा, वाचा और कर्मणा जीने लगते हैं, तो सारे भेद, विरोध व विवाद समाप्त होकर एकता, सौहार्द व प्रेम की स्थापना होती है।

प्रधानाचार्य के आगे सच साबित हुआ बालक राजेंद्र का भरोसा
जीवन दर्शन.. एक बार एक विद्यालय में प्रधानाचार्य द्वारा परीक्षाफल घोषित किया जा रहा था। परीक्षाफल की घोषणा के बाद एक बच्चे ने प्रधानाचार्य से कहा - सर! मैं अनुत्तीर्ण नहीं हो सकता। प्रधानाचार्य को क्रोध आ गया। उन्होंने उसे डांटते हुए कहा - क्या मैं झूठ बोल रहा हूं कि तुम अनुत्तीर्ण हो?

प्रधानाचार्य की डांट सुनने के बावजूद वह लड़का यह मानने के लिए तैयार नहीं हुआ कि वह अनुत्तीर्ण है। तभी विद्यालय का चपरासी दौड़ता हुआ आया और प्रधानाचार्य से बोला - सर! गजब हो गया। आपने छात्रों की उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण की जो सूची सुनाई है, वह तो गलत है। सही सूची तो यह है। इस बीच वह लड़का, जो बार-बार अनुत्तीर्ण न होने की बात कह रहा था, सभी विद्यार्थियों में हास्य का पात्र बन चुका था। एक सहपाठी ने कहा-बड़ा आया पढ़ने वाला, अनुत्तीर्ण हो गया।

दूसरा बोला - हम सब तो पढ़ते नहीं थे, फिर भी पास हो गए।ञ्ज सभी हंसने लगे। प्रधानाचार्य ने सभी विद्यार्थियों को मैदान में पुन: बुलाया और बोले - हमें खेद है कि पहले गलत सूची से परीक्षाफल सुना दिया गया था। इस सही सूची में पहला स्थान उसी लड़के का है, जो बार-बार कह रहा था कि मैं अनुत्तीर्ण नहीं हूं।

फिर प्रधानाचार्य ने उस लड़के को मंच पर बुलाकर पुरस्कृत किया और कहा आगे चलकर तुम अवश्य बहुत उन्नति करोगे। यही बालक आगे चलकर देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के रूप में विख्यात हुए। सार यह है कि पूर्ण आत्मविश्वास से कोई भी कार्य करने पर शत-प्रतिशत सफलता प्राप्त होती है।

गुरु के संदेश को आत्मसात कर वैज्ञानिक बने बसु
बालक जगदीश को जब उसकी मां ने यह सूचना दी कि उसके प्राध्यापक प्रफुल्लचंद राय को कैंसर हो गया है तो वह सहसा विश्वास ही नहीं कर पाया। उन्हें वह अपना प्रेरणास्रोत मानता था और प्रेम से उन्हें प्रफुल्ल दा कहकर बुलाता था। प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्राध्यापक प्रफुल्लचंद राय एक दिन कॉलेज जा रहे थे।

अचानक उन्होंने देखा कि दो बच्चे सड़क पार कर रहे थे और सामने से आ रही कार का उन्हें ध्यान नहीं था। कार के नजदीक आने पर उन्होंने कलाबाजी खाकर दोनों बच्चों को किनारे कर दिया, किंतु अपना एक पैर गंवा दिया। पैर गंवाने का उन्हें दुख नहीं था, पर बच्चों की जान बचाने का संतोष था। यहीं से प्रफुल्लचंद राय की हालत बिगड़नी शुरू हुई।

पैर खोने के बाद उन्हें कैंसर हो गया। धीरे-धीरे बीमारी बढ़ने लगी, दवाएं बेअसर होने लगी। एक दिन उन्होंने जगदीश को बुलाकर अपना वायलिन उसे सौंपा, फिर अपना काव्य संग्रह पूर्ण करने में जुट गए। कुछ दिनों बाद उन्होंने शाम को जगदीश से पानी मांगा, किंतु जगदीश के पानी लाने के पहले ही प्राण त्याग दिए।

जगदीश रो पड़ा, किंतु अगले ही क्षण उसकी दृष्टि उनकी लिखी अंतिम पंक्तियों पर पड़ी - जीवन के दुख से घबराकर अपने मन को क्यों मुरझाएं, धूप-छांव तो प्रतिपल प्रतिक्षण, आओ हम केवल मुस्काएं। अपने गुरु के अंतिम संदेश को आत्मसात कर जगदीश विश्व के महान वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचंद्र बसु बने। वस्तुत: जीवन सुख व दुख के बीच ही संचालित होता है। प्रसन्नता और सफलता के लिए दोनों को समान भाव से ग्रहण करना चाहिए।

जीव हत्या के बदले स्वयं की मृत्यु चाही परचुरे शास्त्री ने
परचुरे शास्त्री कुष्ठ रोगी थे। गांधीजी उन पर अत्यधिक स्नेह रखते थे। इसलिए उन्हें शास्त्रीजी की सेवा करने में भी कोई हिचक नहीं होती थी। गांधीजी उनके घाव धोते, उन पर दवाई लगाते और उनकी मालिश भी करते थे।

लोक में प्रचलित आमधारणा के अनुसार उनके मन में कभी यह ख्याल तक नहीं आता था कि कुष्ठ छूत का रोग है और यह उन्हें भी हो सकता है। कभी शास्त्रीजी उन्हें मना भी करते, तो गांधीजी दोगुने वेग से उनकी सेवा में जुट जाते।

गांधीजी, शास्त्रीजी के उपचार में भी कोई कसर नहीं छोड़ते थे। इसी क्रम में एक बार उन्हें ज्ञात हुआ कि पं. सुंदरलाल कुष्ठ की किसी अच्छी दवा के विषय में जानते हैं। गांधीजी ने उन्हें तत्काल बुलवाया। पंडितजी ने कहा - बापू! एक जीवित काले सर्प को पकड़कर हांडी में बंद किया जाए और हांडी को आग पर रखकर खूब तपाया जाए।

जब सर्प जलकर भस्म हो जाए, तब उसकी भस्म को शहद में मिलाकर शरीर पर लगाने से कुष्ठ ठीक हो जाता है। यह सुनकर गांधीजी ने मुस्कराते हुए शास्त्रीजी से पूछा - आप इस प्रयोग के लिए तैयार हैं? शास्त्रीजी ने कहा - बापू! सांप के बदले मुझे जला दिया जाए। उस बेचारे का क्या अपराध, जो मैं उसे जीवित जलाऊं?

कथा का सार यह है कि अपने जीवन से अधिक किसी प्राणी के जीवन की चिंता को दर्शाता यह प्रसंग उन लोगों के लिए एक सबक की तरह है, जो महज अपनी जिह्वा की संतुष्टि के लिए जीव हत्या करते हैं।

बेहतर के लिए सदा प्रयत्नशील रहने की सलाह दी कलाम ने
जब हमारा देश पराधीन था, तब अंग्रेजों ने संपूर्ण राष्ट्र में शिक्षा के क्षेत्र में भी अपना वर्चस्व कायम कर लिया। हर ओर अंग्रेजी स्कूलों की भरमार थी। संस्कृत, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं लगभग सिमटती जा रही थीं। इनका महत्व कम होकर अंग्रेजी भाषा की प्रमुखता होने लगी थी। गांधीजी सहित प्रमुख भारतीय नेता इस स्थिति से काफी परेशान और चिंतित थे और इसीलिए देश की जनता को राष्ट्रभाषा हिंदी का ही अपनी बोलचाल व लेखन में प्रयोग करने की निरंतर प्रेरणा देते रहते थे। एक बार की बात है।

मौलाना अबुल कलाम आजाद एक सभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने अनेक बातों के अतिरिक्त यह भी कहा - भाइयो, गांधीजी का कहना है कि अंग्रेजी स्कूलों और अंग्रेजों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा छोड़ दो, क्योंकि इससे हमारी गुलामी की जंजीरें मजबूत होती हैं। यह सुनते ही एक आदमी ने खड़े होकर कहा - अरे गांधीजी से कहो कि पहले देशी स्कूल तो खुलवाएं, तब अंग्रेजी पढ़ाई बंद कराएं। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने उत्तर दिया - यदि अमृत नहीं मिलेगा तो क्या जहर पी लोगे? यह सुनते ही उस आदमी को अपनी गलती का अहसास हुआ और वह चुपचाप बैठ गया। कथा का सार यह है कि आदर्श स्थिति की कामना और उसकी पूर्ति के बीच लगने वाले समय को नकारात्मक सोच में न जीते हुए हमें सकारात्मक दिशा में प्रयासरत रहना चाहिए, ताकि आदर्श स्थिति शीघ्र प्राप्त की जा सके।

निर्धन चित्रकार ने जीता फ्रांस के सम्राट का दिल
फ्रांस का सम्राट नेपोलियन विद्वतजनों एवं कलाकारों का बड़ा सम्मान करता था। उसके पास ऐसे व्यक्ति जब भी आते, पर्याप्त सत्कार व सम्मान पाकर ही जाते। नेपोलियन के मंत्री भी इस नियम का समुचित पालन करते। एक बार नेपोलियन का दरबार लगा हुआ था। विभिन्न श्रेणियों के लोगों से वह भेंट कर रहा था। इन्हीं लोगों में एक चित्रकार भी था, जो अत्यंत निर्धन था। नेपोलियन ने उस चित्रकार की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया।

जब वह दरबार में आया तो उसके मैले-कुचैले कपड़े देख नेपोलियन सहित किसी ने उसका आदर नहीं किया और उसे एक तरफ दूर बैठने का आदेश दिया। थोड़ी देर बाद जब चित्रकार को अपना हुनर दिखाने का अवसर मिला तो उसने गजब कर दिया। उसकी उत्कृष्ट चित्रकारी देखकर नेपोलियन बड़ा प्रभावित हुआ और उठकर उससे हाथ मिलाया।

साथ ही उसे पर्याप्त सम्मान देकर उसे छोड़ने द्वार तक आया। चित्रकार को यह बदला व्यवहार देख आश्चर्य हुआ। उसने पूछा - जब मैं आया था, तब तो आपने मुझे पास भी नहीं बैठने दिया और अब आप मुझे बाहर तक पहुंचाने आए हैं। इसका क्या कारण है? नेपोलियन बोला - आते समय जो आदर किया जाता है, वह इंसान की वेश-भूषा देखकर किया जाता है, किंतु जाते समय जो आदर होता है, वह उसके गुणों को देखकर होता है। सार यह है कि पहनावा ऊपरी चीज है, जबकि ज्ञान और गुण आंतरिक संपन्नता है। अत: व्यक्ति के अंतिम मूल्यांकन का आधार उसकी योग्यता व आचरण होना चाहिए।

एक अदद मकान की खातिर लंबी प्रतीक्षा की शास्त्रीजी ने
यह घटना उन दिनों की है, जब भारत के गृह मंत्री लालबहादुर शास्त्री थे। शास्त्रीजी की सादगी सर्वविदित है। वे स्वयं पर अथवा अपने परिवार पर तनिक भी अनावश्यक खर्च नहीं करते थे और उनका रहन-सहन बिल्कुल आम लोगों जैसा ही था। राष्ट्र के अति महत्वपूर्ण पद पर आसीन होने के बावजूद उन्होंने कभी अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया।

एक बार उनके इलाहाबाद स्थित निवास के मकान मालिक ने उनसे मकान खाली करने का अनुरोध किया, जिसे शास्त्रीजी ने तत्काल मान लिया। वास्तव में मकान मालिक को उस निवास स्थान की अति आवश्यकता थी और शास्त्रीजी स्वयं से अधिक दूसरों की जरूरतों का ख्याल रखते थे। अत: उन्होंने मकान खाली कर दिया और किराए पर दूसरा मकान लेने के लिए आवेदन पत्र भरा। काफी समय बाद भी शास्त्रीजी को मकान नहीं मिल सका, तो उनके किसी मित्र ने अधिकारियों से पूछताछ की।

अधिकारियों ने बताया कि शास्त्रीजी का कड़ा आदेश है कि जिस क्रम में उनका आवेदन पत्र दर्ज है, उसी क्रम के अनुसार मकान दिया जाए। कोई पक्षपात न किया जाए। और सच यह था कि १७६ आवेदकों के नाम शास्त्रीजी से पहले दर्ज थे, इसलिए देश का गृह मंत्री मकान के लिए लंबे समय तक प्रतीक्षारत रहा। कथा का सार यह है कि नियम-कानून का पालन यदि साधारण लोगों के साथ ही विशिष्टजन भी पूरी ईमानदारी से करें तो समाज से भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त हो जाएगा।

गुरु गोविंद सिंह ने असहाय शत्रु की सहायता का संदेश दिया
औरंगजेब के मन में साम्राज्य विस्तार की बहुत लिप्सा थी। इसी के चलते वह अनेक राज्यों पर अपनी विशाल सेना व मजबूत साधनों के बल पर कब्जा जमा लेता था। उसकी सेना में लगभग पांच लाख सैनिक थे, जो विभिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्रों से लैस थे। एक बार औरंगजेब ने आनंदपुर पर चढ़ाई कर दी। गुरु गोविंदसिंह के पास मात्र १क् हजार खालसा वीर थे।

फिर भी उन्होंने शाही सेना का डटकर मुकाबला किया। सत्य और न्याय की शक्ति उनके साथ थी और गुरु गोविंद सिंह जैसा ओजस्वी, धर्मप्राण और साहसी व्यक्ति उनका नेता था। इन्हीं खालसा वीरों में एक भाई कन्हैया था। उसका काम घायल सैनिकों को पानी पिलाने का था। एक दिन सिख सैनिकों ने देखा कि वह दुश्मन के घायल सैनिकों को भी पानी पिला रहा है। लड़ाई रुकने पर उन्होंने इसकी शिकायत गुरुजी से की। गुरुजी ने कन्हैया से पूछा तो वह बोला - मैं कुछ नहीं जानता, गुरुजी। मुझे तो पानी पिलाने का काम दिया गया है, सो मैं हर आहत को पानी पिला रहा था।

यह सुनकर गुरु गोविंदसिंह स्नेह से बोले - असहाय मात्र असहाय होता है, चाहे वह अपना हो या पराया। उसकी सेवा करना इंसान का कर्तव्य है। भाई, तुमने अपने कर्तव्य का पालन किया है। भविष्य में तुम अपने साथ मरहम भी रखो और जो घायल हों, उनके जख्मों पर मरहम भी लगाया करो। सार यह है कि लाचारों की सेवा व सहायता में मित्र और शत्रु का भेद नहीं करना चाहिए। यही सच्च मानव धर्म है।

हजरत अली ने स्वयं पर हमला करने वाले को पिलाया शर्बत
हजरत अली के पास एक नौकर था। एक दिन उसने कोई गंभीर भूल की तो हजरत अली ने उसे डांट दिया। नौकर ने अपनी गलती मानकर उसे सुधारने के स्थान पर इस बात को दिल पर ले लिया और नाराज होकर नौकरी छोड़ दी। वह हजरत अली का घर छोड़कर चला गया।

कुछ दिनों बाद हजरत अली जब मस्जिद में नमाज पढ़ने गए तो वह नौकर भी चुपचाप उनके पीछे-पीछे वहां पहुंच गया और अवसर देखकर उसने तलवार निकालकर उन पर वार कर दिया। हजरत अली को काफी चोटें आईं। वहां मौजूद लोगों ने उन्हें उठाया और मरहम-पट्टी करने लगे।

इसी बीच कुछ लोगों ने उस नौकर को पकड़ लिया और हजरत अली के सामने लाए। इतने में हजरत अली को प्यास लगी। लोग दौड़कर उनके लिए शर्बत लेकर आए। शर्बत लेकर हजरत अली बड़े स्नेह से नौकर की ओर संकेत कर बोले - मुझे नहीं, पहले इसे पिलाओ।

बेचारा कितना थक गया है और बुरी तरह हांफ रहा है। लोगों ने शर्बत नौकर को दिया तो वह रोने लगा। तब हजरत अली बोले - भाई, रोओ मत। गलती सभी से होती है। तुम शर्बत पी लो। नौकर ने उनके पैरों पर गिरकर क्षमा मांगी।

हजरत अली ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा - जो अपनी गलती को जानकर भविष्य में उसे न करने का फैसला लेता है, वह जिंदगी में बहुत ऊंचा उठ जाता है। नौकर ने उसी क्षण अच्छा इंसान बनने का प्रण किया।

सार यह है कि पश्चाताप से अपराध का पाप और दंश कम हो जाता है और जीवन को अधिक नैतिक व शांतिपूर्ण बनाने में मदद मिलती है।

सद्गुणों की फसल के पास उगी दुर्गुणों की घास हटाते रहें
हम सब अपने सद्गुणों की फसल बोते हैं। हमारे निर्णय बीज की तरह होते हैं। समय आने पर परिणाम जरूर देंगे। शास्त्रों में लिखा है - कृषि निरावही चतुर किसाना। जो किसान समझदार होते हैं, वे अपनी फसल के आसपास उग आई घास को समय पर हटा देते हैं।

यदि यह सावधानी न बरती जाए तो यह व्यर्थ की घास फसल को नुकसान पहुंचाती है। कहते हैं सावधानी से समय पर घास काट दी जाए तो फसल और मजबूत हो जाती है। पृथ्वी का धन-धान्य उसे सीधे मिलता है। घास में उसका बंटवारा नहीं होता।

हर व्यक्ति अपने सद्गुणों की खेती करता है। सद्गुणों के बीज बोकर जो फसल उगती है, उस समय सावधानी नहीं रखी गई तो सद्गुणों के साथ दुगरुणों का अंकुरण भी हो जाएगा। उदाहरण के तौर पर लोग हमारे सद्कार्यो की प्रशंसा करते हैं, बस यह प्रशंसा ही घास की तरह फसल के आसपास उग आती है।

सीधा-सा मतलब है अच्छे काम के साथ अहंकार का पैदा हो जाना। अब यदि इसकी सफाई ठीक से नहीं की गई तो अच्छे-अच्छे कर्मयोगी भी अहंकार का घुन लगने से असफल हो जाते हैं। हमें किसान की तरह यह समझ होनी चाहिए कि बीज बो देने से ही नहीं उगता, उसमें समय पर खाद, ठीक मिट्टी, पर्याप्त जल और बीज की गुणवत्ता भी जरूरी है।

इसी तरह हम अपने सद्गुणों के प्रति सावधान रहें, इसके आसपास कुसंग, अहंकार, दुराचरण की फसल न उगने दें। फसल बोने और उग आने तक ही सावधानी नहीं रखनी है, उसको काटकर उपयोगी बनाने तक अक्ल लगती है। यही भाव अपने अच्छे कार्यो के लिए रखे जाएं।।

जब स्वयंसेविका ने नेहरूजी को सिखाया कर्तव्य पालन
बात उन दिनों की है, जब वर्ष 1922 में काकीनाड़ा में कांग्रेस पार्टी द्वारा खादी प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। देशभर से लोग वहां आते थे और प्रदर्शनी का समुचित लाभ उठाते थे। प्रदर्शनी में प्रवेश हेतु कांग्रेस ने 2 आने का टिकट रखा था, जो अंदर जाने के इच्छुक व्यक्ति को खरीदना होता था।

प्रदर्शनी के द्वार पर एक दुबली-पतली-सी दिखाई देने वाली स्वयंसेविका तैनात थी, जो किसी को टिकट दिखाए बिना अंदर प्रवेश नहीं करने देती थी। एक दिन एक व्यक्ति प्रदर्शनी स्थल पर आया और बिना टिकट दिखाए अंदर जाने लगा।

स्वयंसेविका ने उसे रोक दिया और टिकट मांगा। उस व्यक्ति ने अपनी जेब टटोली और फिर कहा कि अभी पैसे नहीं हैं, इसलिए वह कल प्रदर्शनी देख लेगा। पास ही एक बुजुर्ग सज्जन खड़े थे। उन्होंने स्वयंसेविका से कहा - इन्हें जाने दो, ये बहुत बड़े नेता हैं।

स्वयंसेविका बोली - ये चाहे कितने ही बड़े नेता हों, किंतु मुझे बिना टिकट किसी को अंदर नहीं जाने देने के आदेश हैं। मैं आदेश को जानती हूं, नेता को नहीं। यह सुन उस व्यक्ति ने स्वयंसेविका की पीठ थपथपाई और उन सज्जन से 2 आने उधार लेकर टिकट खरीदा।

यह स्वयंसेविका दुर्गाबाई देशमुख थीं, जो बाद में संसद व योजना आयोग की सदस्य बनीं और वह व्यक्ति थे जवाहरलाल नेहरू। सार यह है कि हम जहां जिस भूमिका में हों, उससे संबंधित कर्तव्यों का पालन कर एक आदर्श समाज के निर्माण में सहयोग कर सकते हैं।

भिखारी ने गुरु नानक से सीखा स्वावलंबन का पाठ

नेताजी के आह्वान पर लड़कियों ने खून से किए हस्ताक्षर
घटना उस समय की है, जब रंगून में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में भर्ती के लिए लोगों की लंबी कतार लगी थी। हर कोई चाहता था कि नेताजी की फौज में शामिल होकर उनके साथ देशहित में कार्य करे। नेताजी का व्यक्तित्व और कार्य शैली थी ही इतनी आकर्षक और जबर्दस्त।

नेताजी सुभाषचंद्र ने इस अपार जनसमूह को भारत की आजादी के आंदोलन से जुड़ने की प्रेरणा देता उद्बोधन मंच से दिया। जनता ने बड़े उत्साह से उन्हें सुना। अंत में नेताजी बोले - मित्रो, आजादी बलिदान चाहती है, तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।

भीड़ में शामिल लोगों ने जोश में भरकर कहा - नेताजी, आपके एक इशारे पर हम अपना तन, मन और धन भारत मां के चरणों में न्यौछावर कर देंगे। नेताजी बोले - ठीक है दोस्तो। आगे आकर इस शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करें। भीड़ में आपाधापी मच गई।

हर कोई हस्ताक्षर कर नेताजी की निगाह में बड़ा बनना चाहता था। कोई हस्ताक्षर करता, इसके पहले नेताजी ने कहा - जो आजादी के लिए सर्वस्व अर्पित करने का दावा करता हो, वह अपने खून से हस्ताक्षर करे। यह सुनते ही बहुसंख्य लोगों के होश गुम हो गए और धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी।

तभी भीड़ में से अचानक 17 लड़कियां आगे बढ़ीं। उन्होंने अपनी कमर से छुरियां निकालकर अपनी अंगुली काटी और शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। सार यह है कि जब बात अपने राष्ट्र के हित से जुड़ी हो तो किसी भी प्रकार के त्याग के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

जब सेठ को प्राप्त हुआ गौतम बुद्ध से सच्च ज्ञान
गौतम बुद्ध संन्यास ग्रहण कर चुके थे और उन्होंने अपना जीवन दूसरों की सेवा तथा जनकल्याण को समर्पित कर दिया था। गौतम बुद्ध अनेक स्थानों की यात्रा करते और अपने अनमोल उपदेशों से लोगों का नैतिक जीवन सुधारने का प्रयास करते। बुद्ध अनेक कथाओं और उदाहरणों के माध्यम से अपनी बात जनता के समक्ष रखते, जो सीधे उसके हृदय में उतर जाती।

स्वयं अपना जीवन भी गौतम बुद्ध ने इतना आदर्श बना लिया था कि सादगी और समरसता का वे प्रत्यक्ष उदाहरण बन गए थे। एक बार एक धनी सेठ ने उनसे भिक्षाटन हेतु अपने घर आने का आग्रह किया। बुद्ध ने सहर्ष इस प्रस्ताव को मान लिया। सेठ ने मेवों की खीर बनवाई थी। गौतम बुद्ध उसके घर पहुंचे और गोबर से भरा कमंडल आगे बढ़ाते हुए खीर उसमें डालने के लिए कहा। अस्वच्छ कमंडल देख सेठ ने उसे पहले धोया और फिर उसमें खीर भरकर बुद्ध के हाथ में दे दिया। यह देख बुद्ध ने सेठ से कहा - हमारे आशीर्वाद को भी यदि आप खीर जितना ही मूल्यवान समझते हो तो उसे रखने के लिए मन रूपी पात्र को भी शुद्ध व पवित्र करो।

गोबर जैसी मलिनता अपने अंतस के भीतर भरे रखने पर ये दान-धर्म आपके किसी काम न आ सकेगा। यह सुनकर सेठ की आंखें खुल गईं और उसने अपने पात्र अर्थात् अंतर्मन में भरे दुर्गुणों से मुक्ति पाने का निश्चिय किया। सार यह है कि धार्मिक कर्मकांड, तीर्थ स्थलों की यात्रा, व्रत-उपवास और दानादि तभी सार्थक व पुण्य देते हैं, जबकि मन विकार रहित और हमारी भावना शुद्ध हो।

मानवता की सच्ची राह दिखाई स्वामी विवेकानंद ने
एक बार गोरक्षण सभा के एक प्रचारक आर्थिक अनुदान हेतु स्वामी विवेकानंद के पास आए। स्वामीजी ने प्रचारक से पूछा - आप लोगों की सभा का उद्देश्य क्या है? प्रचारक महोदय बोले - हम देश की गोमाताओं को कसाइयों से बचाते हैं। हमने देश के अनेक स्थानों पर गोशालाएं स्थापित की हैं। जहां दुर्बल, रोगग्रस्त गायों का पालन-पोषण किया जाता है। स्वामीजी ने पूछा - सभा की आय कैसे होती है? प्रचारक ने कहा - मारवाड़ी वैश्य संप्रदाय इस कार्य के लिए प्रचुर धन देता है। फिर आप जैसे धर्मात्मा भी हमें सहयोग देते हैं।

स्वामीजी ने प्रश्न किया - मध्य भारत में इस वर्ष अकाल से लाखों लोग मर गए। क्या आपकी संस्था ने इसमें सहायता की? प्रचारक बोले - हम अकाल आदि में कोई सहायता नहीं करते, क्योंकि हमारा मानना है कि मनुष्य के कर्मफल अर्थात पापों के कारण यह अकाल पड़ा। उन्होंने कर्मानुसार फल भोग लिया। प्रचारक की बात स्वामीजी को उचित नहीं लगी। अत: वे बोले - जो समिति मनुष्यों से सहानुभूति नहीं रखती हो, अपने भाइयों को बिना अन्न मरते देखकर भी उनकी मदद करने के लिए तैयार न हो, उससे मैं लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं रखता।

यदि अपने कर्मफल से मनुष्य अकाल का शिकार हुए तो यह भी कहा जा सकता है कि गोमाताएं भी अपने कर्मफल से कसाइयों के पास पहुंचती हैं। वैसे भी मैं संन्यासी हूं और रुपया मेरे पास नहीं है। यदि कभी होगा तो पहले उसे मानव सेवा पर, फिर आपकी सभा पर व्यय करूंगा। सार यह है कि मनुष्यता की परिभाषा पर वही खरा उतरता है, जिसकी संवेदनाएं प्राणिमात्र के प्रति जागृत रहें।

वे एक ही बार भोजन करते और खंभे की रोशनी में पढ़ते थे
बात उस समय की है, जब आजादी की जंग जोर पकड़ रही थी। एक बालक अपने घर से दूर एक शहर के छात्रावास में रहकर पढ़ाई कर रहा था। उसके माता-पिता अत्यंत निर्धन थे। घर की आमदनी से अधिक खाने वालों की संख्या थी। फिर भी बच्चे की पढ़ाई की ललक को देखते हुए माता-पिता जैसे-तैसे उसे 8 रुपए फीस व अन्य खर्चो के लिए भेज देते हैं।

बालक घर की दयनीय आर्थिक स्थिति से परिचित था। वह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता था। उसे इस प्रकार की सहायता बहुत अखरती थी। बहुत सोचने के बाद उसने एक उपाय खोज निकाला। वह एक ही बार भोजन करता और रात में बिजली के खंभे के नीचे बैठकर पढ़ता। इस तरह वह घर से भेजे गए 8 रुपए में से भी बचत करता और उस बचत से अच्छी पुस्तकें खरीदता।

धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाई। कॉलेज से उसे वजीफा मिलने लगा। उसी दिन से उस स्वाभिमानी बालक ने घर से आर्थिक सहायता लेनी बंद कर दी। साथ ही उसने छोटे बच्चों को पढ़ाने की नौकरी भी शुरू की और उसका वेतन था मात्र 35 रुपए प्रतिमाह।

इसी वेतन के बल पर उसने कानून की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और आगे चलकर कांग्रेस का अत्यंत सम्माननीय और प्रथम श्रेणी का नेता बना, जिसे गांधीजी ने ससम्मान अपना गुरु माना और जीवन भर उसी रूप में आदर दिया। ये थे गोपालकृष्ण गोखले। सार यह है कि जब मन दृढ़ संकल्प कर ले तो राह के शूल भी फूल बन जाते हैं। अत: संकटों से घबराकर प्रयास नहीं छोड़ने चाहिए।

गांधीजी ने चिकित्सक को दी चिकित्सा धर्म की सीख
महात्मा गांधी बुजुर्गो व असहायों की सहायता को मानव-जीवन का परम धर्म मानते थे। यदि कोई बुजुर्ग अस्वस्थ होता तो गांधीजी उसे अपनी जिम्मेदारी मानकर उसके उपचार व देखभाल का पूरा जिम्मा ले लेते थे। एक बार उनके पास एक वृद्धा आई, जिसकी उम्र लगभग 75 वर्ष थी। वह रो रही थी और कुछ बोल नहीं पा रही थी।

गांधीजी ने पहले उसे प्रेम से बैठाकर पानी पिलाया। जब वह थोड़ी सहज हुई, तब उन्होंने उसकी तकलीफ के विषय में पूछा। वृद्धा ने बताया कि वह खुजली से पीड़ित है, जिस कारण वह अपने दैनिक कार्य भी ठीक से नहीं कर पा रही है। गांधीजी ने तत्काल एक चिकित्सक को बुलाकर वृद्धा को नीम की पत्तियां पीसकर खिलाने व ऊपर से छाछ पिलाने का आदेश दिया। चिकित्सक ने नीम की पत्तियां वृद्धा को पीसकर दे दीं और उन्हें खाकर छाछ पीने के लिए कह दिया। दूसरे दिन गांधीजी ने चिकित्सक से पूछा - वृद्धा को कितनी छाछ पिलाई? चिकित्सक बता न सका।

वह जानकारी के लिए वृद्धा के घर गया। वृद्धा ने गरीबी का हवाला देते हुए छाछ पीने में असमर्थता जताई। जब गांधीजी को यह पता चला तो वे बोले - तुम कैसे डॉक्टर हो? अभी भी तुमने उसे छाछ नहीं पिलाई। तुम्हें गांव से मंगाकर छाछ उसे पिलानी थी। उसे रोता छोड़कर यहां क्या करने आए हो?

चिकित्सक का धर्म सेवा करना है, महज दवा या अनुपात बताना नहीं। वस्तुत: रोगी को लाभ होने तक सारी जिम्मेदारी चिकित्सक की होती है। वह जीवनदाता होता है, उसे रोगियों की चिकित्सा लाभ की दृष्टि से न करते हुए सेवा भाव से करनी चाहिए।

अपने दुख का कारण हम स्वयं हैं यह समझ लें..
जीवन दर्शन. इस समय स्वस्थ रहने से अधिक बीमारी का वक्त बन गया है। आज विश्व खाद्य दिवस मनाया जा रहा है। भोजन का स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। एक समय था कि हमारी ऋषि परंपरा में रात्रिभोज की व्यवस्था नहीं रहती थी। आज नाइट-लाइफ महत्वपूर्ण है।

लोग नाश्ता हैवी करते हैं, लंच ड्रॉप कर देते हैं और डिनर तबीयत से लेते हैं, क्योंकि लंच के समय काम ही काम है। देर रात किया हुआ भोजन, अगली सुबह की पूजा योग-ध्यान को प्रभावित करेगा ही, फिर अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है। शरीर से जुड़ी बीमारियों का इलाज तो धन देकर हो सकता है, लेकिन बीमारी जब मन को लग जाए, तब ठीक होने में धन भी काम नहीं आता और मन की बीमारी लगती सभी को है।

अध्यात्म कहता है कि असाध्य रोग कोई नहीं होता। हर व्याधि का इलाज है, असाध्य शब्द ही आध्यात्मिक जगत में मान्य नहीं है। सब कुछ साध्य है, व्यक्ति घोर पापी हो, तो भी सुधर सकता है, क्योंकि सारा मामला रूपांतरण का है। जैसे ही हम मानसिक रूप से बीमार होते हैं, हमारे आसपास दुख का संसार बन जाता है।

यदि हम बीमारी से ठीक से परिचित न हों, तो दुख का कारण दूसरों में ढूंढ़ते हैं। जैसे ही हम यह समझते हैं कि हम पर जो दुख आया है, यह दूसरे के कारण है हम अपने आप को थोड़ा कम्फरटेबल महसूस करते हैं, लेकिन अध्यात्म कहता है हमारे दुखों का कारण हम ही हैं। जैसे ही यह विचार चलता है हमारे अहंकार को चोट लगती है, क्योंकि यह मानना बड़ा कठिन है कि हम ही अपने आप को दुखी किए जा रहे हैं।

झूठी सांत्वना दे-देकर हम इस बीमारी का इलाज करते हैं। दुख कहीं और से आ रहा है, यह दुनिया दुख ही पहुंचाती है, अन्यथा हम तो अच्छे आदमी हैं, यह विचार हमें ठीक नहीं होने देता। जैसे ही हम दुख का कारण स्वयं में ढूंढ़ने लगते हैं, बस यहीं से परिवर्तन का दौर शुरू हो जाता है। हमारे दुख का कारण हम हैं यह खोज, मान्यता, समझ है तो कठिन, पर एक बार जिंदगी में उतर जाए, तो क्या दुख, क्या सुख सभी में आनंद रहेगा।

जब मेंढक ने अति क्षमतावान बनने की सजा पाई
एक तालाब में बड़े-छोटे मेंढकों का एक परिवार रहता था। सभी स्नेहपूर्वक रहते थे और परस्पर एक-दूसरे का ध्यान रखते थे। एक दिन तालाब के किनारे की घास खाने एक बैल आया। वह बड़े मजे से घास चर रहा था और उसे तालाब के पानी से बड़ी शीतलता भी महसूस हो रही थी। उसी समय पानी में से एक छोटा मेंढक बाहर निकला।

उसने जीवन में पहली बार बैल देखा था। वह बैल का विशाल शरीर देखकर डर गया और तत्काल पानी में कूद गया। फिर वह एक बड़े मेंढक के पास पहुंचा और उसे बताया कि मैंने तालाब के बाहर एक भयंकर, पहाड़ जैसा दानव देखा है, जिसके सींग हैं, एक लंबी पूंछ है और दो भागों में बंटे हुए खुर हैं। एक दूसरे मेंढक ने जानकारी दी कि वह दानव नहीं बैल है।

किंतु एक बूढ़े मेंढक ने कभी बैल नहीं देखा था और वह घमंडी भी था। वह बोला - वो इतना बड़ा भी नहीं होगा, बस मुझसे थोड़ा ही ऊंचा होगा। जबकि मैं तो अपने आपको आसानी से बढ़ा भी सकता हूं। ऐसा कहकर उसने स्वयं को फुलाना शुरू कर दिया ताकि वह बड़ा हो जाए। छोटा मेंढक उसे देखकर बोला कि बैल तो उससे काफी बड़ा है।

बूढ़ा मेंढक यह सोचकर कि बैल उसके जितना बड़ा नहीं है, लगातार स्वयं को फुलाता गया। जब उसने क्षमता से अधिक स्वयं को फुलाया तो उसका शरीर फट गया और उसकी मृत्यु हो गई। सार यह है कि निरंतर सक्रिय रहकर अपनी क्षमता को बढ़ाना अच्छा है, किंतु उसके अंतिम बिंदु से ऊपर जाने का प्रयास करना संकट को आमंत्रण देना है। इसलिए क्षमतावान बनें, किंतु अति क्षमतावान बनने का प्रयास न करें।

जापानी बच्चे की राष्ट्रभक्ति से प्रभावित हुए स्वामी रामतीर्थ
एक बार स्वामी रामतीर्थ जापान गए। उनके ज्ञान और ओजस्वी व्यक्तित्व के कारण जापान में उनका खूब स्वागत-सत्कार हुआ। अनेक संस्थाओं में उन्हें सादर निमंत्रित किया गया और वहां के सभी कार्यक्रमों में व्यक्त उनके विचारों को खूब सराहा गया। अनेक लोग उनसे प्रभावित होकर उनके अनुयायी भी बने। एक दिन उन्हें एक विद्यालय में आमंत्रित किया गया।

जब स्वामीजी विद्यालय का निरीक्षण कर रहे थे, तो अचानक उन्होंने एक नन्हे विद्यार्थी से पूछा - तुम किस धर्म को मानते हो? विद्यार्थी ने उत्तर दिया - बौद्ध धर्म को। स्वामीजी ने फिर प्रश्न किया - महात्मा बुद्ध के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं? विद्यार्थी ने मन ही मन बुद्ध का ध्यान कर अपने देश की प्रथा के अनुसार बुद्ध को प्रणाम करते हुए कहा - बुद्ध तो भगवान हैं।

स्वामीजी ने अब पूछा - तुम कनफ्यूशियस के बारे में क्या कहोगे? विद्यार्थी ने उसी तरह प्रणाम करते हुए कहा - वे एक महान संत थे। स्वामीजी का अब प्रश्न था कि यदि कोई देश जापान पर आक्रमण करे और उसके सेनापति बुद्ध या कनफ्यूशियस हों, तो क्या करोगे? विद्यार्थी क्रोधावेश में बोला - मैं अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए उन दोनों पर भी प्रहार करने से नहीं हिचकूंगा।

यह सुनते ही स्वामीजी ने बालक को गोद में उठाकर चूमते हुए कहा - जिस देश के रक्षक तुम जैसे हों, उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। दरअसल एक अच्छे नागरिक के लिए प्रत्येक देश, काल, परिस्थिति में अपनी मातृभूमि सर्वोपरि होनी चाहिए। ऐसी राष्ट्रभक्ति ही संबंधित राष्ट्र को हर दृष्टि से समर्थ और विकसित बनाती है।

विवेकयुक्त साहस का परिचय दिया सर वाल्टर रेले ने
एक समय था जब इंग्लैंड के लोग अपनी कमर में तलवार बांधे बड़ी शान से घूमा करते थे और एक-दूसरे को बात-बेबात ही लड़ने के लिए ललकारते थे। यदि ललकारने पर कोई द्वंद्वयुद्ध में उतर जाता, तो उसे बड़ा साहसी माना जाता था और इंकार करने वाले को कायर समझा जाता था। उस समय इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ थीं, जिनके विशेष सम्मानपात्र थे - सर वाल्टर रेले।

सर रेले अपनी विवेकशील दृष्टि और उदार व्यवहार के लिए जाने जाते थे। इसी वजह से न सिर्फ राजमहल बल्कि समाज में भी उन्हें बड़ा आदर दिया जाता था। एक दिन एक नवयुवक ने थोथी बहादुरी दिखाते हुए सर वाल्टर रेले को द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा। सर रेले ने इंकार कर दिया। इस पर उस असभ्य व्यक्ति ने उन पर थूक दिया।

तलवार चलाने में अत्यंत निपुण सर वाल्टर रेले ने इस अपमान को धर्यपूर्वक सहन किया और बड़ी शांति से बोले - मैं अपने मुंह पर पड़े तुम्हारे थूक को जितनी आसानी से पोंछ सकता हूं, यदि उसी प्रकार तुम्हारे सीने में लगने वाले तलवार के घाव को पोंछ सकता, तो मैं अभी इसी समय तुम्हारे साथ द्वंद्वयुद्ध के लिए तैयार हो गया होता।

यह सुनकर उस नवयुवक का घमंड चूर-चूर हो गया और उसने सर रेले से क्षमा मांगी। सार यह है कि साहस को दिखावे या अहंकार का शिकार बनाने से वह सदा गलत परिणाम देता है। इसलिए साहस के साथ विवेक को जाग्रत रखते हुए उचित समय और स्थान पर उसका प्रदर्शन करना चाहिए।

पंडित मदनमोहन मालवीय ने दिखाई नैतिक सामाजिकता
एक फटेहाल महिला घायल अवस्था में सड़क के किनारे पड़ी हुई कराह रही थी। पास में उसका अबोध शिशु लेटा था, जो भूख के मारे रो रहा था। महिला में इतनी भी शक्ति नहीं थी कि वह बच्चे को गोद में लेकर संभाल सके। अनेक लोग उस मार्ग से आ-जा रहे थे। वे क्षणभर को रुकते, महिला की स्थिति देखकर अपनी प्रतिक्रिया देते और चल देते।

लगभग सभी की यही राय थी कि यह पता नहीं कौन है? यदि इसकी मदद करने गए तो पुलिस को जवाब देना पड़ेगा। अचानक वहां से एक बग्घी गुजरी। उस महिला की कराह सुनते ही बग्घी रुकी और एक व्यक्ति नीचे उतरा। उसने बिना कुछ कहे-सुने उस महिला और उसके शिशु को उठाया और बग्घी पर बैठा दिया। अपने कोचवान से वह बोला - बग्घी अस्पताल ले चलो।

कोचवान ने कहा - लेकिन साहब, आपको तो जलसे में जाना है। सभी आपका इंतजार कर रहे होंगे। वह व्यक्ति बोला - मेरे लिए मानव सेवा जलसे से बड़ी है। कोचवान फिर कुछ नहीं बोला और बग्घी अस्पताल की ओर मोड़ दी। अस्पताल में महिला को यथोचित उपचार दिया गया।

जब महिला पूरी तरह चैतन्य हुई, तो उस व्यक्ति ने उसे कुछ रुपए दिए और वापस बग्घी पर आकर कोचवान से कहा - अब जलसे में चलो। ये महान व्यक्ति थे पंडित मदन मोहन मालवीय। सार यह है कि किसी असहाय की सहायता को अपने अन्य सभी कार्यो से अधिक वरीयता देनी चाहिए। यही वह नैतिक सामाजिकता है, जो एक मानवीय समाज की रचना करती है।

स्वयं आदर्श बन दूसरों की राह रोशन करने की सीख दी मां ने
एक जातक कथा है, जो हमें एक महत्वपूर्ण जीवन दृष्टि से परिचित कराती है। एक स्थान पर दो केकड़े रहते थे- एक मां और दूसरा बेटा। मां हमेशा अपने जीवन के अनुभवों से बेटे को अनेक महत्वपूर्ण सबक सिखाती और बेटा भी उन्हें बड़ी ही आत्मीयता से ग्रहण करता था। एक समय की बात है, मौसम बड़ा सुहावना हो रहा था। बेटे की इच्छा हुई कि बाहर सैर करने चलें।

मां इसके लिए मान गई। दोनों घर से निकलकर रेत पर सैर करने आए। उनका घर नदी की गहराई में था। बेटे ने देखा कि उसकी मां एक कतार में नहीं चल रही है, तो वह बोला - अरे मां! आप ठीक ढंग से नहीं चल रही हैं। एकदम सीधा चलिए। इधर-उधर लड़खड़ाइए मत। आपको बिना इधर-उधर अपने शरीर को घुमाए सीधे चलने की आदत डालनी चाहिए।

मां को अनुभवहीन बेटे की यह सीख उचित नहीं लगी क्योंकि वह जानती थी कि अपनी शारीरिक बनावट के कारण केकड़े कभी भी एक कतार में नहीं चल सकते। दरअसल इसका कारण यह है कि उनके पैर अलग-अलग होते हैं। अत: मां ने बेटे को समझाते हुए कहा - मेरे बच्चे! पहले तुम स्वयं ही सीधे चलकर बताओ और दूसरों के लिए उदाहरण बनो। तब मैं भी तुम्हारा अनुसरण करूंगी और सीधा एक कतार में चलूंगी। कथा का सार यह है कि उदाहरण शिक्षा का एक अच्छा रूप है। इसलिए जरूरी है कि पहले स्वयं को आदर्श बनाएं, फिर दूसरों को उसे अपनाने की शिक्षा दें।

गांधीजी ने शिष्य को समझाया समय प्रबंधन का महत्व
महात्मा गांधी अपने प्रत्येक कार्य को योजनाबद्ध रूप से करते थे और उचित समय पर हर योजना को कार्यरूप में परिणत करते थे। जब अंग्रेजों ने भारतीयों द्वारा नमक के निर्माण पर रोक लगा दी, तो गांधीजी ने उसके विरोध स्वरूप दांडी यात्रा का आयोजन किया। उन्होंने तय किया कि वे अपने साबरमती आश्रम से यात्रा आरंभ करेंगे और दांडी पहुंचकर नमक का निर्माण करेंगे।

मार्च 1935 में दांडी यात्रा शुरू हुई। इस यात्रा के दौरान गांधीजी का काफिला अनेक स्थानों पर रुका। संपूर्ण भारतवासी इस यात्रा के कारण राष्ट्रीय भावनाओं से आंदोलित थे और गांधीजी को अपार समर्थन मिल रहा था। उधर ब्रिटिश सरकार यथासंभव इसका विरोध कर रही थी। एक दिन गांधीजी किसी स्थान पर कुछ देर के लिए रुके। जब वे जाने लगे, तो एक अंग्रेज उनसे मिलने आया। वह गांधीजी का प्रशंसक था।

उसने गांधीजी का अभिवादन करते हुए कहा - हैलो, मेरा नाम वॉकर है। गांधीजी उस समय जल्दी में थे, इसलिए उन्होंने भी उसका अभिवादन करते हुए कहा - मैं भी वॉकर (चलने वाला) हूं। यह कहकर वे अपनी राह पर चल दिए। मार्ग में उनके किसी शिष्य ने यह देख उनसे कहा - यदि आप उनसे थोड़ी देर बात कर लेते तो कल आपका नाम अंग्रेजी अखबारों में छपता और काफी सम्मान मिलता।

तब गांधी बोले - मैं समय को सम्मान से श्रेष्ठ मानता हूं। यदि हम अपने सभी कार्य समय पर करें, तो सुख व सफलता सुनिश्चित हो जाते है। समय प्रबंधन आज के व्यस्ततम युग की अनिवार्य आवश्यकता है।

रिश्तों में पारदर्शिता रखेंगे तो लंबे समय बने रहेंगे
जब आप दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए क्रियाशील होंगे, तब सुख आपकी ओर आने के लिए सक्रिय हो जाएगा। यह सीधा सिद्धांत है आपने दिया और आपको मिला। ईश्वर ने यह सौदा इस हाथ दे, उस हाथ ले का ही बनाया है। व्यावसायिक दुनिया में हम इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि दूसरों को सुख पहुंचाने में भी हमारा दृष्टिकोण प्रोफेशनल हो जाता है, लेकिन जब घर में प्रवेश करें, तो सावधान हो जाएं। यहां वैसा न करें, जैसा बाहर करते आए हैं।

घर के सदस्यों में एक-दूसरे को सुख पहुंचाते समय करुणा का भाव होना चाहिए, सहानुभूति का नहीं, इन दोनों में फर्क है। मां का समूचा लालन-पालन संतान के प्रति करुणा का भाव लिए रहता है, लेकिन उसी बच्चे को जब आया संभालती है, तो यह भाव सहानुभूति का हो जाता है।

आप आजमा कर देख सकते हैं, जब किसी गुरु, संत को आप अपनी व्यथा, पीड़ा सुनाएंगे, तो पाएंगे वे निर्लिप्त होकर सुनेंगे, ऐसा लगता है वे तटस्थ हैं, किंतु उनके भीतर आपके प्रति करुणा का भाव होगा। संसार सहानुभूति के तरीके से चलता है। यदि आप दुखी हैं, तो लोग सहानुभूति बताकर आपके अहंकार को संतुष्ट करेंगे। वे आपसे यह भी कहेंगे कि सचमुच आप तो बहुत अच्छे हैं, दूसरे लोग ही आपके साथ बुरा कर रहे हैं। ये शब्द हमारे स्वदोष दर्शन में बाधा बन जाते हैं। लेकिन करुणा का भाव आपको इस स्थिति से पार लगाने की क्रिया है।

करुणा समझाती है यदि सचमुच संकट से उबरना है, तो गहरे उतर कर स्वयं की भूमिका तलाशो और यदि दोष खुद में नजर आए, तो स्वीकार करो, समाधान यहीं मिलेगा। घर-परिवार में करुणा का वातावरण रिश्तों में सफाई लाएगा, समस्या का स्थाई निदान निकलेगा। सहानुभूति की गर्मी अहंकार को और तपा देती है, परंतु करुणा की शीतलता पूरे घर को प्रेमपूर्ण कर देगी। माता-पिता बनकर, लालन-पालन में सहानुभूति और करुणा का फर्क जरूर समझें। जब संबंधों में करुणा होती है, तो जीवन-रिश्ते पारदर्शी होते हैं। सहानुभूति में एक छिपाव रहता है। घर में पारदर्शिता लंबे समय जुड़ाव बनाए रखेगी।

आइंस्टीन ने युवक को दिया महान बनने का मूलमंत्र
दुनिया के महानतम वैज्ञानिक सर अल्बर्ट आइंस्टीन की सफलता से प्रभावित होकर कई युवा उनके पास आते थे और उनसे चर्चा कर अपने जीवन की सही दिशा चुनने का प्रयास करते थे। आइंस्टीन भी यथाशक्ति उन लोगों की सहायता करते थे। एक दिन एक युवा उनके पास आया और उनसे पूछा - सर, आज सारी दुनिया में आपका नाम है।

सभी आपकी प्रशंसा करते हैं। कृपा कर मुझे बताएं कि महान बनने का मूलमंत्र क्या है? आइंस्टीन ने एक शब्द में कहा - लगन। युवक बोला - मैं कुछ समझा नहीं सर। आइंस्टीन अपनी बात को समझाते हुए बोले - जब मैं तुम्हारी आयु का था, तब गणित से बहुत डरता था, जैसे आज तुम डरते हो। प्राय: मैं गणित में अनुत्तीर्ण हो जाता था, जिसके लिए मुझे सजा दी जाती।

मेरे वे मित्र, जो मुझसे आगे बढ़ जाते, मेरा मजाक उड़ाते। मैं बहुत दुखी होता। फिर मैंने सोचा कि आखिर मुझमें कोई कमी नहीं है, फिर गणित से क्यों घबराना? उस दिन से मैंने गणित के सवाल निरंतर हल करना शुरू किए। कई बार असफल हुआ और दोस्तों ने मजाक बनाया, किंतु बिना घबराए मैं लगन से गणित करता गया।

इसी लगन का यह फल है कि आज लोग मेरे सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं। साथ ही मैंने विज्ञान में भी दक्षता हासिल की। लगन ही मेरा गुरुमंत्र है। तुम भी इसे ही अपना लो। युवक ने आइंस्टीन की बात सदा के लिए गांठ बांध ली। लक्ष्य प्राप्त करने की सच्ची लगन हो तो भौतिक साधनहीनता कभी बाधा नहीं बनती। वस्तुत: लगन वह आंतरिक शक्ति है, जो बाहरी अवरोधों पर सदैव विजय पाकर लक्ष्य प्राप्ति कराती है।

नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा ही सच्चा पुण्यकर्म है
भारत के स्वाधीनता संग्राम में कई महान विभूतियों का योगदान रहा है। इनमें से कुछ अहिंसा मार्ग के अनुयायी थे तो कुछ क्रांति पथ के पथिक। इन्हीं में से एक थे यतींद्रनाथ बोस। यतींद्रनाथ क्रांतिकारी थे और भारत की आजादी के लिए इनके प्रयास अत्यंत सराहनीय रहे। इन्हीं के जीवन की एक घटना है, जो आज के यांत्रिक और अमानवीय होते जा रहे समाज के लिए प्रेरणा लेने योग्य है।

एक दिन यतींद्रनाथ गर्मी की चिलचिलाती धूप में कोलकाता की एक सड़क पर पैदल कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक स्थान पर उन्होंने भारी भीड़ देखी। यतींद्रनाथ भीड़ को चीरते हुए अंदर घुसे तो अवाक रह गए। उन्होंने देखा कि एक वृद्धा गर्मी से परेशान, बोझा उठाने में असमर्थ होकर नीचे गिर पड़ी है।

मौखिक सहानुभूति सभी जता रहे थे, किंतु उसे उठाकर घर पहुंचाने की वास्तविक सहायता के लिए कोई तैयार नहीं था। यतींद्रनाथ ने उस वृद्धा को सहारा दिया और उसका बोझ उठाकर बोले - चलो मां, घर चलें। घर पहुंचकर उन्होंने पूछा - तुम्हारा और कोई नहीं है क्या? वृद्धा यह सुनकर रो पड़ी और बोली - एक ही बेटा था, जो महामारी के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गया। अब बोझा ढोकर पेट की आग बुझाती हूं।

यतींद्रनाथ द्रवित होकर बोले - मां, यह बेटा अभी जीवित है। अब तुम्हें कभी बोझा नहीं ढोना पड़ेगा। यह कहते हुए उन्होंने उसके चरण छूकर कुछ रुपए दिए और फिर आजीवन उसका भरण-पोषण किया। कथा का सार यह है कि नि:स्वार्थ सेवा सच्चा पुण्यकर्म है और उसे करने वाला सच्ची पुण्यात्मा।

पद पर रहते हुए भी महानता का परिचय दिया राजेंद्र प्रसाद ने
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनने के बावजूद अत्यंत सादगी से रहते थे। उनका रहन-सहन और आचरण सर्वथा आम व्यक्ति जैसा था और उन्होंने कभी अपने पद और विशेषाधिकारी का दुरुपयोग नहीं किया। उनकी दृष्टि में पद नहीं, बल्कि देशसेवा सर्वोपरि थी और देशसेवा को ही उन्होंने अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित किया था।

पद को भी वे देशसेवा का ही एक साधन मानते थे, इसलिए वे किसी साधारण व्यक्ति की ही तरह रहते थे। एक बार की बात है डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पुत्री उनसे मिलने राष्ट्रपति भवन आई। उसके साथ उसका पुत्र भी था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद पत्नी, बेटी और नातिन को देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उनका स्नेहपूर्वक सत्कार किया।

काफी देर बातचीत व भोजन के बाद जब पुत्री विदा होने लगी तो डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी नातिन को एक रुपया दिया। यह देख उनकी पत्नी आश्चर्य से बोलीं - आप इतने बड़े पद पर हैं फिर भी अपनी नातिन को इतना तुच्छ उपहार दे रहे हैं। पत्नी की बात सुनकर राजेंद्र बाबू सहजता से बोले - मैंने तो इसे एक रुपया दे दिया, किंतु जितनी मेरी तनख्वाह है और जितने पूरे भारत में बच्चे हैं, यदि मैं सभी को एक-एक रुपया दूं तो क्या मेरी तनख्वाह से यह सब पूरा पड़ पाएगा?

यह सुनकर उनकी पत्नी और बेटी उनके प्रति श्रद्धावनत हो गई। दरअसल बड़े पद पर पहुंचकर भी अपनी सहजता में बने रहने की प्रवृत्ति ही व्यक्ति को महान बनाती है। अत: बड़ी उपलब्धियां हासिल करने के बाद भी अपने आचरण में विनम्रता व सादगी को बनाए रखना चाहिए।

कर्ण की नीति-निष्ठा देखकर अश्वसेन खांडव वन लौट गया
महाभारत के युद्ध में कर्ण ने अजरुन को मार गिराने की प्रतिज्ञा की थी। उसे सफल बनाने के लिए खांडव वन के महासर्प अश्वसेन ने यही उपयुक्त अवसर समझा। वह पांडवों के प्रति दुर्भावना इसलिए रखता था, क्योंकि उसका संपूर्ण परिवार पांडवों द्वारा लगाई गई आग में भस्म हो गया था।

उसने सोचा कि अर्जुन की मृत्यु से पांडवों का आधा बल क्षीण हो जाएगा। अत: वह दानवीर कर्ण के तरकश में बाण बनकर प्रवेश कर गया। उसकी योजना यह थी कि जब उसे धनुष पर रखकर अर्जुन पर छोड़ा जाएगा तो वह डसकर अर्जुन के प्राण ले लेगा। युद्ध में जब कर्ण ने वह बाण चलाया तो श्रीकृष्ण इस बात को जानते थे, अत: उन्होंने रथ के घोड़ों को जमीन पर बैठा दिया। बाण अर्जुन का मुकुट काटता हुआ ऊपर से निकल गया। अपनी असफलता से क्षुब्ध अश्वसेन ने कर्ण के सामने प्रकट होकर कहा - अब की बार मुझे साधारण तीर की भांति मत चलाना। कर्ण ने आश्चर्य से पूछा - आप कौन हैं?

तब अश्वसेन ने अपने परिवार के समाप्त होने के बारे में बताते हुए कहा कि मैं अर्जुन से बदला लेना चाहता हूं। कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति आभार व्यक्त किया और कहा - भद्र! मुझे अपने ही पुरुषार्थ से नीति युद्ध लड़ने दीजिए।

आपकी अनीतियुक्त छद्म सहायता लेकर जीतने से तो हारना अच्छा है। कर्ण की नीति-निष्ठा देख अश्वसेन खांडव वन लौट गया। वस्तुत: स्वयं की शक्ति व कौशल के बल पर शत्रु से लोहा लेने वाले इतिहास में सच्चे वीर का सम्मान पाकर सदा के लिए अमर हो जाते हैं, जबकि अनीति का प्रश्रय लेने वाले कायर कहलाकर भत्र्सना के पात्र बनते हैं।

विपरीत स्थिति में भी नहीं डिगा साहसी पायलट का मन
वह एक पायलट था। दूसरे विश्व युद्ध में उसकी दोनों टांगें कट गई थीं। किंतु वह भीतर से इतना मजबूत था कि उसे लगता ही नहीं था कि उसके दोनों पैर नहीं हैं। उसे यह महसूस होता था कि वह उड़ रहा है। वह दुर्घटना से पूर्व वायुसेना में था और उसका अटल निश्चय था कि वह वायुसेना में ही रहेगा। अपनी शारीरिक अक्षमता के बावजूद उसने प्रशिक्षण लेना जारी रखा और एक दिन अपने कमांडर से कहा - मैं अब आसानी से वायुयान उड़ा सकता हूं।

कमांडर ने अपनी विवशता बताते हुए कहा - मैं मानता हूं कि तुम विमान उड़ा सकते हो, किंतु मुझे खेद हैं कि वायुसेना के नियमानुसार तुम्हें फिर से वायुसेना में नहीं रखा जा सकता। पायलट बोला - आम लोगों के लिए जो परीक्षाएं निर्धारित हैं, मेरी उनसे भी कठिन परीक्षाएं लीजिए। यदि मैं उनमें सफल हो जाता हूं तो आपको मुझे रोकने का अधिकार नहीं है। पायलट उन परीक्षाओं में तो सफल हुआ ही, साथ ही उसने जर्मनी में 151 विमान मार गिराए।

वह तीन बार दुश्मनों की जेल से निकल भागा। उसकी पत्नी ने उसे समझाया कि अपने देश के लिए तुमने काफी कुछ कर लिया है, किंतु उसका उत्तर था कि युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है और वायुसेना का जवान होने के नाते मैं खाली नहीं बैठ सकता।

अंतत: जब विजय दिवस मनाया गया तो विमान में बैठकर उसने परेड का नेतृत्व किया। सभी लंदनवासी उसके सम्मान के लिए मौजूद थे। इस बिना पैरों वाले महान साहसी पायलट का नाम था - डगलस बोर्डर। दृढ़ संकल्प और फौलादी इरादे प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदल देते हैं। इसलिए विपरीतताओं में भी मन मजबूत रखें।

जब बालक गोविंद रानाडे खेल में खंभे से हार गए
महादेव गोविंद रानाडे के बाल्यकाल की एक प्रेरणास्पद घटना है। रानाडे को अपने मित्रों के साथ चौपड़ खेलने का बड़ा शौक था। वे अपने अध्ययन से निवृत्त होकर प्रतिदिन चौपड़ खेलते थे। सभी मित्र निश्चित समय पर उनके घर पहुंच जाते और फिर एक-दो घंटे तक यह खेल चलता रहता।

एक दिन रानाडे ने अपने सभी कार्य निपटाकर चौपड़ की तैयारी कर ली, किंतु उनके मित्र नहीं आए। रानाडे ने काफी देर तक प्रतीक्षा की, किंतु कोई नहीं आया। पहले उन्होंने सोचा कि आज चौपड़ नहीं खेलें, किंतु मन नहीं माना। साथ में खेलने के लिए कोई मित्र नहीं था, इसलिए रानाडे अपने आंगन में लगे खंभे की ओर से दाएं हाथ से और अपनी ओर से बाएं हाथ से खेलने लगे। उनके दाएं हाथ ने बाएं हाथ को हरा दिया। रानाडे की फूफी पास बैठी उनका खेल देख रही थी। वह बोलीं - अरे गोविंद, तू एक निर्जीव खंभे से हार गया। रानाडे ने कहा - फूफी! मैं इस खंभे से इसलिए हारा, क्योंकि मुझे बाएं हाथ से खेलने का अभ्यास नहीं है। फूफी ने पूछा - तो तुमने दाएं हाथ से अपने लिए क्यों नहीं खेला? रानाडे ने उत्तर दिया - क्योंकि यह अन्याय होता। खंभा बोल नहीं सकता। यदि मैं इसकी चाल बाएं हाथ से चलता, तो यह बेईमानी होती, क्योंकि तब मैं अवश्य जीत जाता। अब कोई यही कह सकता है कि मुझे खेलना नहीं आता क्योंकि मैं खंभे से हार गया,किंतु कोई मुझे बेईमान नहीं कह सकता। दरअसल ईमानदारी ऐसा सद्गुण है, जो आत्मिक संतोष देता है और आत्मिक सुख से बढ़कर कोई सुख नहीं होता। अत: सदैव स्वयं के प्रति ईमानदार रहें।

स्वयं को तुच्छ बताकर अपनी महानता सिद्ध की न्यूटन ने
विश्वविख्यात वैज्ञानिक न्यूटन की उपलब्धियां सर्वविदित हैं। उनके द्वारा की गई खोज और उनके परिणाम इतने सटीक हैं कि संपूर्ण विज्ञान-जगत आज भी उनका अनुसरण करता है। इतने महान विद्वान और सफलता के शीर्ष पर खड़े होने के बावजूद न्यूटन अत्यंत विनम्र और मृदुभाषी थे। उन्हें अपनी उपलब्धियों पर लेशमात्र भी अहंकार नहीं था और सादगी की वे प्रतिमूर्ति थे।

एक बार न्यूटन बहुत बीमार हो गए। बड़े से बड़ा चिकित्सक भी उन्हें स्वस्थ नहीं कर पा रहा था। सभी को महसूस हो रहा था कि न्यूटन का अंत समय नजदीक आ गया है। न्यूटन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। यह देखकर उनके एक अंतरंग मित्र ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा - आपको तो गर्व करना चाहिए कि आपने प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को बहुत नजदीक और ध्यान से देखा है और संपूर्ण विश्व आपके शोध-परिणामों का अनुसरण करता है। मित्र की बात सुनकर न्यूटन बोले - संसार मेरे अनुसंधान के विषय में कुछ भी कहे, किंतु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं समुद्र तट पर खेलने वाले उस बच्चे के समान हूं, जिसको कभी-कभी अपने साथियों की अपेक्षा कुछ अधिक सुंदर पत्थर, सीप व शंख मिल जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि सत्य का अथाह समुद्र मेरे सामने अब भी बिना खोजा पड़ा है। वस्तुत: ज्ञान अनंत है, इसलिए कभी भी अपने ज्ञान को संपूर्ण मानकर अहंकार नहीं करना चाहिए। अहंकार ज्ञान के सभी द्वार बंद कर देता है जबकि जिज्ञासु भाव से कुछ नया और सार्थक जानने का निरंतर प्रयास व्यक्ति को बौद्धिक व आत्मिक रूप से संपन्न बनाता है।

शेख सादी ने अपने पिता से पाई परनिंदा न करने की सीख
शेख सादी जब छोटे थे, तो उनके पिताजी ने एक बार मक्का जाने का कार्यक्रम बनाया। शेख सादी प्रत्येक बात में पिता का अनुसरण करते थे। पिताजी जैसा कहते, वे वैसा ही करते। जिस दल में शेख सादी थे, उसका यह नियम था कि अलसुबह उठकर नहाने के पश्चात खुदा की इबादत करना।

शेख सादी के पिताजी इस नियम का पालन करते और उन्होंने अपने पुत्र को भी ऐसा ही करने की सलाह दी। शेख सादी अपने पिता की आज्ञानुसार सुबह जल्दी उठते और इबादत में शामिल होते। एक दिन बालक शेख सादी ने गौर किया कि दल के कई लोग इबादत के समय उठते ही नहीं और आराम से सोए रहते हैं। उन्होंने यह बात अपने पिता को बताई और कहा - देखो न बाबा! ये लोग कितने आलसी हैं, न उठते हैं और न इबादत करते हैं। खुदा इन्हें कभी माफ नहीं करेगा। यह सुनकर उनके पिताजी बोले - बेटा! तू भी न उठता तो अच्छा होता।

शेख सादी ने कारण पूछा, तो वे बोले - जल्दी उठकर किसी की निंदा करने से तो अच्छा है कि तू सोया ही रहता। पिताजी की बात शेख सादी को गहराई तक प्रभावित कर गई। दरअसल पिताजी से उस दिन यह सार्थक जीवन-दर्शन प्राप्त हुआ, जिसे उन्होंने सदा के लिए अपने आचरण का अंग बना लिया। सार यह है कि दूसरों की निंदा करने से स्वयं की सकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है। इसलिए परनिंदा से बचते हुए निरंतर आत्मपरिष्कार पर अपनी दृष्टि रखनी चाहिए।

स्वामी विवेकानंद का सेवाभाव देख अंग्रेज ने माफी मांगी
स्वामी विवेकानंद के पुनीत व तेजोमय व्यक्तित्व से सभी सुपरिचित हैं। आरंभ से ही उनके स्वभाव में मानवीय सद्गुणों का आलोक दिखाई देने लगा था। बाल्यकाल में भी उनकी वृत्तियां सामान्य बच्चों जैसी शरारत, पक्षपात और द्वेष से भरी हुई नहीं थीं। उनमें किशोरावस्था तक इन्हीं सद्गुणों का और विस्तार हुआ।

इसी समय की एक घटना है। किशोरावस्था में स्वामी विवेकानंद व्यायाम के प्रति काफी रुचि रखते थे। वे नित्य ही व्यायामशाला जाया करते थे और विभिन्न प्रकार की कसरतें कर शरीर को सबल बनाते थे। एक दिन वे अपने मित्रों के साथ व्यायामशाला गए और वहां अपने गुरु के कहने पर एक स्थान पर झूला लगाने लगे। तभी एक अंग्रेज नाविक ने उनसे और उनके मित्रों से किसी बात पर विवाद शुरू कर दिया।

अभी विवाद चल ही रहा था कि अचानक व्यायामशाला का एक खंभा उस अंग्रेज के सिर पर गिर पड़ा। इससे उसका सिर फट गया और खून बहने लगा। यह देखकर अन्य किशोर तो डरकर पीछे हट गए, किंतु विवेकानंद ने तत्काल विवाद भुला दिया और निर्भीकता व स्नेह से अपनी कमीज फाड़कर उसके सिर पर पट्टी बांध दी। फिर उसकी बगल में बैठकर पंखा करने लगे। कुछ देर बाद अंग्रेज नाविक को होश आ गया। उसने विवेकानंद का सेवाभाव देखकर उनसे क्षमा मांगी और उस दिन से वह आजीवन उनका घनिष्ठ मित्र बना रहा।

वस्तुत: शत्रु को विपत्ति में पड़ा देख शत्रुता भुलाकर उसकी मदद करने वाला ही सच्चा इंसान होता है और उसका यही सद्भाव एक सौहार्दपूर्ण समाज की स्थापना करता है।

बाल गंगाधर तिलक ने पेश की साहस की अनूठी मिसाल
कुछ लड़के एक छात्रावास में रहते थे। सभी परस्पर मित्र थे और उनके बीच पर्याप्त प्रेम था। वे अपनी विभिन्न समस्याओं में परस्पर एक-दूसरे के साथ होते और यथासंभव उन्हें हल करने का प्रयास करते। अपने अवकाश के समय को वे हंसी-मजाक और सार्थक बातचीत में व्यय करते थे। एक दिन वे लोग छात्रावास की छत पर बैठे गपशप कर रहे थे।

एक लड़के ने सभी से प्रश्न किया - यदि इस भवन में आग लग जाए और सीढ़ी का मार्ग लपटों से घिर जाए तो बाहर कैसे निकलोगे? सभी लड़के उत्तर सोचने लगे। प्रश्न करने वाले लड़के ने कहा - जल्दी उत्तर दो। दूसरे ने कहा - भाई, जरा सोच तो लेने दो।

प्रश्न करने वाला लड़का बोला - और यदि आग इतनी पास आ जाए कि सोचने का अवसर ही न हो तो क्या करोगे? एक ने उत्तर दिया - तब हम अपनी धोती को छज्जे से बांधकर लटकाएंगे और उसी के सहारे उतर जाएंगे। प्रश्न करने वाले ने कहा - इतना भी समय न हो तो? तब एक छात्र बोल उठा - मैं तो अगले ही क्षण छत से इस तरह कूद पडूंगा।

यह कहते हुए वह वास्तव में छत से कूद पड़ा। लड़के भयभीत होकर दुर्घटना की आशंका से नीचे सड़क की ओर दौड़े। वहां पहुंचकर सभी ने देखा कि वह लड़का सही-सलामत तेजी से दौड़ता हुआ वापस आ रहा है। इस साहसी बालक का नाम था - बाल गंगाधर तिलक। सार यह है कि भय बचाव के लिए सभी मार्ग बंद कर देता है और साहस एक न एक द्वार अवश्य खोलता है। इसलिए विकट परिस्थिति में भय का त्याग कर साहसी बनें।

महात्मा गांधी ने जेलर को दी अपरिग्रह की सीख
यह घटना उस समय की है, जब अंग्रेजों ने भारतीयों द्वारा नमक निर्माण पर रोक लगा दी थी और महात्मा गांधी ने इस निर्णय के विरुद्ध दांडी यात्रा का आयोजन कर नमक सत्याग्रह आरंभ कर दिया था। जब गांधीजी के आंदोलन ने जोर पकड़ा, तो अंग्रेज सरकार ने गांधीजी को साबरमती आश्रम में नजरबंद कर दिया। इस आश्रम के सामने ही साबरमती जेल भी थी।

वहां के जेलर को गांधीजी पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया गया। एक दिन गांधीजी ने जेलर को संदेश भिजवाया कि उन्हें कुछ फल भिजवा दें। चूंकि जेल के अहाते में कई तरह के फल बहुतायत में लगे थे और गांधीजी जैसे महात्मा फल मंगवा रहे हैं, यह सोचकर जेलर ने एक सिपाही को आदेश दिया कि वह बहुत सारे फल तुड़वाकर कई टोकरियों में भरवाए और गांधीजी के पास भिजवाए।

लेकिन कुछ ही देर में सिपाही वापस आया। फलों की सभी टोकरियां उसके साथ यथावत थीं। जेलर ने आश्चर्यचकित हो उससे कारण पूछा, तो सिपाही ने गांधीजी का यह संदेश जेलर को दिया - आपके द्वारा भेजे गए फल मिले। इसके लिए आपका बहुत-बहुत आभारी हूं।

मेरे लिए दो फल ही पर्याप्त हैं। अत: जरूरत के फल लेकर शेष वापस भेज रहा हूं। कृपा कर इन्हें अन्य कैदियों में बांट दीजिए। कथा का सार यह है कि अति के लोभ से बचते हुए अपनी जरूरत के मुताबिक ही ग्रहण करना चाहिए। यही सच्चे अर्थो में अपरिग्रह कहलाता है।

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भेंट में मिली थैलियां लौटा दीं
यह घटना उन दिनों की है, जब महावीरप्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादन करते थे। द्विवेदीजी अत्यंत निष्ठा व ईमानदारी से पत्रिका का कार्य करते थे। उन्हें किसी भी स्तर पर बेईमानी और आलस्य पसंद नहीं था। ‘सरस्वती’ के कर्मचारी भी द्विवेदीजी के इस स्वभाव से परिचित थे और उनके अनुकूल ही आचरण करते थे।

द्विवेदीजी का स्वयं का लेखन उत्कृष्ट कोटि का था और इसकी छाप ‘सरस्वती’ की रचनाओं पर भी दिखाई देती थी। द्विवेदीजी उन्हीं रचनाओं को ‘सरस्वती’ में स्थान देते थे, जो लेखन के प्रत्येक कोण पर खरी उतरती हों। इस वजह से अनेक सामान्य रचनाएं ‘सरस्वती’ में अस्वीकृत हो जाती थीं।

एक बार एक सज्जन द्विवेदीजी के पास शकर की कुछ थैलियां लेकर आए और अत्यंत विनम्रतापूर्वक उन्हें भेंट कीं। इसके पीछे उनकी योजना यह थी कि द्विवेदीजी ‘सरस्वती’ में उनकी प्रशंसा में कुछ ऐसा लिख दें कि वे पूरे शहर में विख्यात हो जाएं। थैलियां देने के कुछ दिन बाद वे सज्जन फिर द्विवेदीजी से मिले और उन्हें अपनी थैलियों के विषय में याद दिलाया तो द्विवेदीजी मुस्कराते हुए उठे और अलमारी से उनकी थैलियां निकालकर देते हुए बोले - ‘भाई!

तुम्हारी थैलियां जैसी की तैसी रखी हुई हैं। सरस्वती को व्यापार का साधन बनाकर मैं उसे लक्ष्मी के समक्ष अपमानित नहीं कर सकता।’ सार यह है कि व्यवसाय की प्रगति के लिए लोभ की शीघ्रता के स्थान पर ईमानदारी का विलंब भला होता है, क्योंकि लोभ का मार्ग पतन की ओर ले जाता है तथा ईमानदारी उत्कर्ष की ओर उन्मुख करती है।

मानसिक दृढ़ता व संकल्प ने कोलंबस को दिलाई सफलता
अमेरिका की खोज करने वाले कोलंबस को संपूर्ण विश्व एक महान साहसी व्यक्ति के रूप में सम्मान देता है। कोलंबस जब अपने साथी नाविकों के दल को लेकर अटलांटिक महासागर में उतरा तो बहुत कम लोगों को आशा थी कि वह जीवित लौट सकेगा। मार्ग की दुर्गमता को देखकर कोलंबस के मित्रों का साहस जवाब दे गया। उन्होंने कोलंबस से लौट चलने का आग्रह किया, किंतु उसने इनकार कर दिया।

कोलंबस ने अपने मित्रों का भय देखकर उन्हें जाने दिया, किंतु स्वयं निर्भीकता से आगे बढ़ता गया। अंतत: उसने अमेरिका की खोज की और सकुशल अपने देश वापस आ गया। इस खोज के बाद जब कोलंबस लोकप्रिय हुआ तो उसकी कीर्ति देखकर उसके कुछ मित्र उससे ईष्र्या करने लगे।

वे कोलंबस से कहने लगे कि अमेरिका को खोज निकालना कौन-सा कठिन कार्य है? अटलांटिक सागर में पश्चिम की ओर चले गए और खोज हो गई। यह सुनकर कोलंबस ने कहा - दोस्तो! संसार में कोई कार्य कठिन नहीं है। जरा आप उस उबले अंडे को ही मेज पर खड़ा करके दिखाइए।

कोई भी इस कोशिश में सफल नहीं हुआ। अंत में कोलंबस ने अंडे के चौड़े हिस्सों को पिचकाकर खड़ा कर दिया और बोला - देखिए, ऐसा करना कितना आसान है। बस, जरा-सी बुद्धि का इस्तेमाल करना था। सभी मित्र शर्म से नतमस्तक हो गए और कोलंबस की सफलता का रहस्य उन्होंने जान लिया। मानसिक दृढ़ता जब संकल्प का रूप ले लेती है तो असंभव दिखाई देने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं। वस्तुत: एक मजबूत मन बुद्धि व चेतना के सभी द्वार खोलकर लक्ष्य प्राप्ति को आसान कर देता है।

निजामुल्मुल्क ने फीका खरबूज खाकर भी उसे सराहा
निजामुल्मुल्क तूसी ईरान के एक बुजुर्ग थे। दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव था। यदि कोई संकटग्रस्त उनके पास आता तो वे यथाशक्ति उनकी मदद करते और कभी किसी को निराश नहीं लौटने देते थे। उनके इस स्वभाव के कारण सभी लोग उनका बड़ा आदर करते थे।

निजामुल्मुल्क की एक और आदत थी, वह यह कि जब भी उनका कोई स्नेही स्नेहवश कोई खाने-पीने की वस्तु उनके लिए लेकर आता तो वे उसे स्वयं अकेले सेवन न करके सभी उपस्थितों में बांट देते। जब उस स्वादिष्ट वस्तु के भोग का आनंद सभी के चेहरों पर दिखाई देता तो निजामुल्मुल्क को अत्यधिक आनंद की अनुभूति होती। एक दिन एक किसान बड़ा-सा खरबूज लेकर उनसे मिलने आया। निजामुल्मुल्क ने खरबूज काटा, रखा और फिर सारा खरबूज अकेले ही खा गए।

यह देखकर उपस्थित लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। किसान के समक्ष निजामुल्मुल्क ने खरबूज के स्वाद की बहुत प्रशंसा की। जब किसान चला गया तो किसी ने उनसे अकेले ही खरबूज खाने का कारण पूछा। तब वे बोले - खरबूज बिलकुल फीका था।

यदि मैं उसे काटकर बांटता और तुममें से कोई उसके फीकेपन का जिक्र कर देता तो उस गरीब किसान का दिल टूट जाता। कथा का सार यह है कि स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को लाभ पहुंचाने की भावना समाज में उस परमार्थ की सृष्टि करती है, जो श्रेष्ठतम कोटि का होकर अनुकरणीय होता है।

कर्मनिष्ठा का महान संदेश दिया वैज्ञानिक एडीसन ने
हमारे दैनिक उपयोग की अनेक वस्तुओं के आविष्कारक महान वैज्ञानिक टॉमस अल्वा एडीसन को अपने काम से अत्यधिक लगाव था। जब वे शोधकार्य हेतु अपनी प्रयोगशाला में प्रवेश करते थे तो घंटों बाहर नहीं निकलते थे। यही नहीं, यदि रात्रि में सोते हुए भी उन्हें कोई नया प्रयोग सूझता तो वे तत्काल उस पर कार्य करने के लिए प्रयोगशाला जा पहुंचते। अपने किसी प्रयोग को उचित निष्कर्ष पर पहुंचाने के लिए वे दीर्घकाल तक मेहनत करते और अपना काम कभी अधूरा नहीं छोड़ते थे।

अपने काम के आगे वे परिवार को भी महत्व नहीं देते थे। उनके इस स्वभाव के कारण उनकी हमेशा पत्नी नाराज रहती थी। एक दिन एडीसन को प्रयोगशाला में घुसे पूरा दिन हो गया। उन्हें खाने-पीने की भी सुध नहीं रही। पत्नी उनसे बार-बार बाहर आने का आग्रह करती रही, जिसे वे निरंतर अनसुना करते गए। जब पत्नी का दबाव बहुत बढ़ गया तो एडीसन बाहर निकले।

तब उन्हें पत्नी ने सलाह दी - ‘तुम रात-दिन काम में लगे रहते हो, कभी तो छुट्टी कर लिया करो।’ एडीसन बोले - ‘किंतु छुट्टी लेकर मैं जाऊंगा कहां?’ पत्नी ने चहककर उत्तर दिया - ‘जहां तुम्हारा दिल बहल जाए, वहीं जाना चाहिए।’ एडीसन अगले ही क्षण यह कहते हुए फिर प्रयोगशाला में चले गए - ‘अच्छा तो फिर मैं वहीं जाता हूं, जहां मेरा दिल बहल जाए।’ सार यह है कि अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पण ही बड़ी व गौरवशाली सफलताएं दिलाता है तथा दूसरों को भी इसी सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

दुख में विस्मृति मदद करती है लेकिन मन तर्क देता है
कहा जाता है कि परेशानी हो तो थोड़ा भूलने की आदत डाल लें। दुख में विस्मृति भी मदद करती है, लेकिन फिर मन तर्क देता है कि क्यों और कैसे भुला दें? खासतौर पर जब घटना हमारे साथ ही हुई हो। अपनी हानि हो गई, किसी ने अपमान कर दिया, कुछ छूट गया, किसी की मृत्यु हो गई। इसे कैसे भुला दिया जाए? यह प्रश्न मुसीबत में फंसे लगभग हर इंसान के मन में उठेगा।

इसीलिए व्यक्ति मुसीबत से अपने को अलग नहीं कर पाता। कबीरपंथी संत निष्ठादासजी कहते हैं - यदि शरीर में कोई बहुत बड़ा कष्ट है और वह सहन के बाहर हो रहा है तो उसे भुलाना अवश्य ही कठिन होगा। फिर भी मन को किसी न किसी प्रकार से समझाना ही होगा।

यदि मन नहीं सुलझेगा तो वह कष्ट और भयंकर बनकर सामने आएगा। वैसे तो इस प्रकार के किसी शारीरिक कष्ट को मुसीबत नहीं कहते, मुसीबत मानसिक ही होती है। मन का अधर्य हो जाना, अत्यधिक उलझ जाना, बौखला जाना, अधिक चिंता बढ़ जाना आदि जैसी मानसिक स्थितियों को ही आदमी मुसीबत का समय मानता है।

मन प्रफुल्लित हो तो शरीर में कितनी भी वेदना हो, आदमी उसे कुछ नहीं समझता, मामूली-सी बात समझकर झेल जाता है। जब हम मानसिक रूप से विचलित होते हैं, तब हम पहचान भी नहीं पाते कि मामला आखिर है क्या? उस समय जीवन में गुरु की जरूरत होती है।

गुरु हमें बताते हैं कि खुद से थोड़ा अलग हटो। जब भी मुसीबत आए, अपने आप को दुनिया में से बाहर निकाल लो और एकांत में खुद को देखो। आप एकांत में जो भी होंगे, वही आपका होना है। अपने होने को जान लेना ही मुसीबत से मुक्ति है।

आचार्य कृपलानी ने बताई जातिवाद की निर्थकता
सुविख्यात गांधीवादी नेता जीवतराम भगवानदास कृपलानी अत्यंत सरल स्वभाव के थे। अपनी अपार लोकप्रियता को वे अत्यंत सहजता से लेते थे और विशिष्ट होने का भाव कभी उनके विचारों और व्यवहार से नहीं झलकता था। उनके पास आने वाले या उनके संपर्क में रहने वाले सभी व्यक्तियों के प्रति उनका व्यवहार स्नेहपूर्ण व अपनत्व से भरा होता था। आचार्य कृपलानी मनुष्य मात्र की समानता में विश्वास रखते थे और किसी भी क्षुद्र आधार पर पक्षपात के घोर विरोधी थे।

एक बार की बात है। आचार्य कृपलानी ट्रेन से कहीं जा रहे थे। वे जिस डिब्बे में बैठे थे, उसमें एक महिला व पुरुष यात्री भी यात्रा कर रहे थे। वे आचार्यजी को नहीं पहचानते थे, किंतु उनकी बातों से अत्यंत प्रभावित होकर वे आचार्यजी से वार्तालाप करने लगे। बातों ही बातों में उन्होंने आचार्यजी से पूछा - आप किस जाति के हैं? कृपलानीजी तत्काल बोले - मैं तो कई जातियों का हूं।

दोनों ने आश्चर्य से पूछा - वह कैसे? तब आचार्य कृपलानी बोले - जब मैं सुबह अपने जूते साफ करता हूं, तब शूद्र हो जाता हूं। महाविद्यालय में पढ़ाने जाता हूं तो ब्राrाण हो जाता हूं। वेतन का हिसाब करता हूं तो वणिक हो जाता हूं। अब आप ही बताइए कि मेरी क्या जाति है?

आचार्यजी का उत्तर सुनकर दोनों ने अपनी भूल जानकर उनसे क्षमा मांगी। सार यह है कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है। इसलिए जाति, धर्म, लिंग, अमीरी-गरीबी आदि किसी भी आधार पर भेदभाव अनुचित है। मूल्यांकन का आधार मात्र विचार व आचरण होना चाहिए।

न्यायाधीश रानाडे ने बताया ज्ञान जहां से भी मिले ग्रहण करें
बंबई (अब मुंबई) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रानाडे उन दिनों कांग्रेस के नेता थे। रानाडे ने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। बेहतर पद की उपलब्धि के बाद भी रानाडे की ज्ञान पाने की भूख मिटी नहीं थी। उन्हें कुछ न कुछ नया सीखने की सदैव ललक बनी रहती थी। इसलिए जहां भी अवसर मिलता, वे प्रयास करते कि उनके ज्ञान में अभिवृद्धि हो।

एक बार उनके मन में विचार आया कि बांग्ला भाषा सीखी जाए। उन्होंने ऐसे व्यक्ति की खोज आरंभ की, जिसका बांग्ला भाषा पर अच्छा अधिकार हो। बहुत प्रयास के बाद भी रानाडे को ऐसा व्यक्ति नहीं मिल पाया। एक दिन उनका नाई जब उनकी हजामत बनाने आया तो रानाडे ने इस बात की चर्चा उससे की।

संयोग से नाई बांग्ला भाषा का जानकार था। यह जानकर रानाडे प्रसन्न हो गए और उन्होंने नाई से उसी दिन से बांग्ला सीखनी शुरू कर दी। यह देख उनकी पत्नी ने कहा - आप पढ़ भी रहे हैं तो किससे? कोई सुनेगा, तो आपके सम्मान को धक्का लगेगा।

रानाडे हंसते हुए बोले - दत्तात्रेय ने तो २४ गुरु बनाए थे। उनमें कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी तक थे। फिर हमें नाई को गुरु बनाने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? दरअसल ज्ञान जहां से भी मिले, उसे हृदय से ग्रहण किया जाना चाहिए। ज्ञान सार्वभौमिक है, वह किसी व्यक्ति या जाति विशेष की बपौती नहीं है। इसलिए वह जहां भी, जिससे भी मिले, स्वीकार किया जाना चाहिए। सार यह है कि ज्ञान का स्रोत कोई भी हो, किंतु ज्ञान सदा कल्याणकारी होता है।

जीवन-साथी ही तो जीवन का जोड़ है...
जब भी किसी को पसंद करें पूरा ही पसंद करें। प्रेम समग्र होता है। पारिवारिक जीवन में हम यह भूल कर जाते हैं कि सदस्यों की कोई बात पसंद करते हैं, तो कोई नापसंद। बाकी रिश्तों में यह बात धकाई जा सकती है, परंतु पति-पत्नी के बीच जब समग्रता न हो, तो वैवाहिक जीवन में नैराश्य आता है।

तीन काम इन दोनों के रिश्तों के बीच घातक होंगे। पहला, एक-दूसरे पर प्रभुत्व न जमाएं। दोनों एक-दूसरे के जज्बात को जानें, एक-दूसरे को जायदाद न मानें। दूसरी बात, आत्म-सम्मान को ठेस न पहुंचाएं और तीसरी बात, निंदा न करें। दोनों में जितना लगाव होगा, उतना ही वे अपनी संतान के पालन में सहज होंगे। दोनों एक-दूसरे की निगाह बनें, केवल किसी एक के नेत्रों से यह यात्रा पूरी नहीं हो सकती।

विवाह पूर्व जब पति या पत्नी का चयन होता है, तो उसकी देह को लेकर कुछ विशेष पसंद होती है। लेकिन याद रखें जीवन-साथी देह के अलावा और भी बहुत कुछ लेकर आता है। शरीर के हर अंग की आकृति ही नहीं, स्वभाव भी होता है और उसी के अनुसार मनुष्य आचरण करता है।

नेत्र अपने पीछे गहरी अपेक्षा लेकर आते हैं। नाक क्रोध को व्यक्त करती है। आप केवल शरीर को ही पसंद नहीं कर रहे होते हैं। एक पूरे व्यवहार को जीवन-साथी के रूप में स्वीकार कर रहे होते हैं। आपके जीवन में शरीर के पीछे उसका स्वर्ग या नर्क भी चला आ रहा होता है।

जीवन-साथी रूपी जिस और जैसे बीज को आप बोते हैं, वैसी फसल आने की तैयारी भी रखें। इसीलिए जब किसी को पसंद करें, जीवन में लाएं, रिश्ते निभाएं, तो समग्र ही पसंद करें, क्योंकि मनुष्य जोड़ होता है और आप तोड़कर संबंध रखेंगे, तो सुखी नहीं रह पाएंगे।

सुकरात ने बताया रोज आईना देखने का कारण
विख्यात दार्शनिक सुकरात शक्ल-सूरत से कुरूप थे। हालांकि उनके गुण और सदाचरण ने इस कुरूपता को ढंक दिया था। बावजूद इसके सुकरात अपनी कुरूपता की प्राय: चर्चा करते थे। एक दिन वे आईने में अपना चेहरा देख रहे थे कि उनका एक शिष्य सामने आ खड़ा हुआ और अपने गुरु को ऐसा करते देखकर मुस्करा दिया।

सुकरात ने उसके मुस्कराने का अभिप्राय समझकर कहा - मैं तुम्हारे मुस्कराने का मतलब समझता हूं। तुम इसलिए मुस्करा रहे हो न कि मैं कुरूप हूं और फिर भी बड़े गौर से आईने में अपना चेहरा देख रहा हूं। मैं ऐसा प्रतिदिन करता हूं। शिष्य को अपनी गलती का एहसास हुआ। वह शर्म के मारे सिर झुकाकर खड़ा रहा।

सुकरात ने बड़े स्नेह से उसे समझाया। आईना देखने से मुझे अपनी कुरूपता का आभास होता रहता है। मैं अपने रूप से परिचित हूं, इसलिए प्रयत्न करता हूं कि मुझसे हमेशा अच्छे काम होते रहें। मैं समाज की भलाई में लगा रहूं, ताकि अच्छे कामों से मेरी कुरूपता ढंक सके।

शिष्य सकुचाते हुए बोला - गुरुजी इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि रूपवान लोगों को आईना देखना ही नहीं चाहिए। सुकरात हंसकर बोले - आईना उन्हें भी देखते रहना चाहिए। केवल इसलिए कि उन्हें ध्यान रहे कि वे जितने सुंदर हैं, उतने ही अच्छे और भलाई के कार्य करें। उन्हें बुरे कार्यो से बचना चाहिए ताकि उनकी सुंदरता को कुरूपता का ग्रहण न लगे। सार यह है कि व्यक्ति के गुण-अवगुणों का संबंध रूपवान व कुरूप होने से नहीं, बल्कि अच्छे व बुरे विचारों तथा कामों से है।

कर्म को वरीयता देकर किसान बुद्ध का सच्च शिष्य सिद्ध हुआ
गौतम बुद्ध को उनके अनुयायी यदि स्नेह से कहीं बुलाते तो वे अवश्य जाते। फिर जब बुद्ध पहुंचते, तो श्रोताओं की भारी भीड़ उमड़ पड़ती। बुद्ध के वचनों में जो अमृतत्व होता था, उसका पान करना सभी को प्रीतिकर लगता था। उनके उपदेशों में ऐसा कुछ अवश्य होता था, जिससे गंभीर समस्याएं सुलझ जातीं और कुछ न कुछ सार्थक भी प्राप्त होता।

एक गरीब किसान गौतम बुद्ध का बहुत बड़ा भक्त था। एक दिन वह बुद्ध के पास आया और अपने गांव आने का आग्रह किया। बुद्ध उसके गांव पहुंचे, तो सारा गांव उन्हें देखने व सुनने के लिए उमड़ पड़ा, किंतु वह किसान नहीं आया। हुआ यह कि उसी दिन किसान के बैलों की जोड़ी कहीं खो गई।

किसान इस दुविधा में रहा कि बुद्ध का प्रवचन सुने या अपने बैलों को खोजे? काफी सोचने के बाद उसने अपने बैलों को खोजने का निर्णय किया। घंटों भटकने के बाद बैल मिले। थका-हारा किसान घर आया और भोजन कर सो गया। अगले दिन वह अति संकोच से क्षमा प्रार्थी बन बुद्ध के पास पहुंचा, तो वे बड़े स्नेह से बोले - मेरी दृष्टि में यह किसान मेरा सच्च अनुयायी है।

इसने उपदेश से अधिक महत्व कर्म को दिया। यदि यह कल बैलों को न ढूंढ़ते हुए उपदेश सुनता, तो मेरी बातें इसे समझ ही नहीं आतीं, क्योंकि मन बैलों में अटका रहता। इसने कर्म को महत्व देकर प्रशंसनीय काम किया। सार यह है कि हम जहां जिस भूमिका में हो, उसका ईमानदारी से निर्वाह ही सच्ची आध्यात्मिकता है, क्योंकि प्रत्येक धर्म ‘कर्म’ को ही सर्वोपरि महत्व देता है।

जेलर के आने तक चुपचाप खड़े रहे गांधीजी और कस्तूरबा
यह घटना उन दिनों की है, जब अंग्रेजों ने गांधीजी को जेल में बंद कर रखा था। गांधीजी का आचरण जेल में भी अत्यंत अनुशासित था। वे आम कैदियों की ही तरह सवेरे उठते, स्नान-ध्यान के बाद जेल के कार्य करते और अन्य कैदियों के साथ भोजन करते। उन्हें कभी अपने विशिष्ट होने का विचार भी नहीं आता और न ही इस आधार पर उन्होंने कभी किसी विशेष सुविधा की मांग ही की।

जेल के अन्य नियमों के साथ यह नियम भी था कि जब किसी कैदी से कोई परिजन मिलने आता था, तो मुलाकात के वक्त जेल का एक अधिकारी वहां मौजूद रहता था। एक दिन गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा उनसे मिलने जेल में आईं। जेल के नियमानुसार जेलर उनके साथ अंदर गया, किंतु फिर यह सोचकर कि उसके वहां रहने से दोनों पति-पत्नी खुलकर बातचीत नहीं कर पाएंगे, वह बाहर चला गया।

चूंकि गांधीजी का सभी आदर करते थे और जेलर भी उनकी महानता के समक्ष श्रद्धावनत था, अत: वह वहां से हट गया। मुलाकात का समय पूरा होने पर जब जेलर लौटा, तो गांधीजी और कस्तूरबा दोनों को चुपचाप खड़ा देख पूछ बैठा - ‘आप दोनों चुपचाप क्यों खड़े है?’ गांधीजी बोले - मैं जेल के नियम जानता हूं। इसलिए आपकी अनुपस्थिति में हम बात कैसे करते? दरअसल आम और खास दोनों के द्वारा नियम-पालन से एक ऐसी सुव्यवस्था कायम होती है, जो एक समतापूर्ण समाज की स्थापना करती है।

डॉ. विश्वेश्वरैया ने चिकित्सक को सिखाया कर्तव्य पालन
भारतीय इंजीनियरिंग के पितामह डॉ. विश्वेश्वरैया अत्यंत सरल व्यक्तित्व वाले इंसान थे। अपार लोक प्रियता व सम्मान के बावजूद विश्वेश्वरैया सामान्य ढंग से रहते थे और उन्होंने अपनी साधारणता को विशिष्टता के अहंकार में कभी खोने नहीं दिया। वे निष्पक्ष ढंग से कार्य करते थे और उनकी दृष्टि में सभी व्यक्ति समान थे।

किसी खास आधार पर लोगों में परस्पर भेदभाव करना उन्हें कभी रास नहीं आता था। जब डॉ. विश्वेश्वरैया मैसूर रियासत के दीवान थे तो एक बार किसी गांव में उनका कै म्प लगा। डॉ. साहब तो सेवा कार्यो में सदा अग्रणी रहते थे। इसलिए इस कैम्प में उन्होंने बड़े ही उत्साह के साथ हिस्सा लिया और खूब काम किया। एक दिन वहां काम करते समय उनकी अंगुलियों में चोट लग गई। गांव के चिकित्सक ने तत्काल उनकी मरहम-पट्टी की।

विश्वेश्वरैया ने 25 रुपए का चेक फीस के रूप में चिकित्सक को दिया। चिकित्सक चेक लौटाते हुए बोला - मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपकी सेवा करने का अवसर मिला। तब डॉ. विश्वेश्वरैया उस पर बिगड़ते हुए बोले - हर मरीज की सेवा करने का अवसर आपका सौभाग्य है, ऐसा आपको महसूस करना चाहिए।

जो लोग पैसा दे सकते हैं, उनसे अवश्य लें ताकि जो देने में अक्षम हैं, उनसे लेने की लालसा आप में न रहे। आपने अपना कर्तव्य किया, कृपया मुझे अपना कर्तव्य करने दें। सार यह है कि कर्तव्य पालन में साधारण और विशिष्ट का अंतर न करते हुए समानता रखी जानी चाहिए ताकि उससे मिलने वाले लाभ सभी को प्राप्त हो सकें।

नेक काज के लिए मालवीयजी ने अर्थी पर लुटाए पैसे भी उठाए
पंडित मदनमोहन मालवीय काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक थे। जब उनके मन में इस विश्वविद्यालय की स्थापना का विचार आया तो सबसे अहम समस्या थी धन की। विवि के निर्माण में काफी धन की आवश्यकता थी और पं. मालवीय के पास इतना धन नहीं था। वे संपन्न व्यक्तियों, संस्थाओं व संगठनों के पास जाते और अपना उद्देश्य बताकर दान मांगते। इसी सिलसिले में वे हैदराबाद के नवाब के यहां पहुंचे, किंतु उन्हें खाली हाथ वापस आना पड़ा।

वे दुखी होकर जा ही रहे थे कि उनकी दृष्टि मार्ग से गुजरती एक धनी व्यक्ति की शवयात्रा पर पड़ी। धनिक के परिजन उसकी अर्थी अंतिम संस्कार के लिए ले जा रहे थे। परंपरा के अनुसार अर्थी पर पैसे लुटाए जा रहे थे। मालवीयजी शवयात्रा में शामिल होकर पैसे उठाने लगे।

कुछ लोगों ने उनके जैसे सभ्य व सुसंस्कृत व्यक्ति को ऐसा काम करते देख टोका तो उन्होंने बताया कि वे किस उद्देश्य से हैदराबाद आए थे और कैसे उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। मालवीयजी का आगे कहना था कि इन पैसों को जोड़कर जो रकम इकट्ठा होगी, उसे वह हैदराबाद के सहयोग के रूप में निर्माण कार्य में लगाएंगे।

मालवीयजी के इस नेक उद्देश्य के बारे में जानकर शवयात्रा में शामिल अनेक धनाढ्यों ने उन्हें हजारों रुपए चंदे के रूप में दे दिए। सार यह है कि विभिन्न आडंबरों व रूढ़िवादी सोच के चलते हम कई अनावश्यक मदों पर धन का अपव्यय करते हैं। यदि इसे जनकल्याण में खर्च करें तो देश शीघ्र ही विकसित देशों की श्रेणी में आ जाएगा।

शहीदों के रक्त से सनी मिट्टी बनी भगतसिंह की प्रेरणा
यह उस वक्त की बात है, जब हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था। वर्ष १९१९ में पंजाब के जलियांवाला बाग में जनरल डायर ने हजारों निर्दोष भारतीयों पर अंधाधुंध फायरिंग करवा कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया था। वहां का दृश्य अत्यंत मार्मिक था। जलियांवाला बाग में चारों ओर लाशें ही लाशें बिखरी पड़ी थीं और पूरी धरती रक्तरंजित हो चुकी थी।

समूचा देश इस घटना से दहल गया और अंग्रेजों के प्रति भीषण आक्रोश हर भारतीय के दिल में था। जब यह घटना हुई, तब महान शहीद भगतसिंह की उम्र मात्र बारह वर्ष की थी। घटना के अगले दिन भगतसिंह घर से विद्यालय जाने के लिए निकले, किंतु वहां न जाकर जलियांवाला बाग पहुंच गए। वहां की धरती अभी तक लाल थी।

भगतसिंह वहीं बैठ गए और एक शीशी में रक्त से सनी मिट्टी भरने लगे। मिट्टी भरकर शीशी जेब में रख ली और वहीं बैठकर घटना पर मन ही मन दुख मनाते रहे। जब ध्यान टूटा, तो शाम हो चुकी थी। विद्यालय की छुट्टी तो कब की हो गई थी।

जब वह घर पहुंचे तो बहन ने देर से आने का कारण पूछा। भगतसिंह शीशी दिखाकर बोले- ‘जलियांवाला बाग गया था।’ बहन ने पूछा- ‘इसमें क्या है?’ भगतसिंह बोले - ‘शहीदों का खून।’ बहन ने प्रश्न किया - ‘इससे क्या होगा? इस पर उनका जवाब था- ‘मुझे प्रेरणा मिलेगी।’ इतिहास गवाह है कि इसी प्रेरणा के कारण भगतसिंह का जीवन और उनकी शहादत सदा के लिए अनुकरणीय हो गई। लक्ष्य वही निर्धारित करें, जिनकी उपलब्धि संपूर्ण समाज के लिए कल्याणकारी हो।

साक्षीभाव से करें मन को अपने वश में..
कभी आपने अपनी समस्या को ऐसे देखा है, जैसे वह आपकी नहीं किसी दूसरे की समस्या है। यह प्रयोग करके देखिएगा। जीवन में समस्याओं का कोई अंत नहीं है। कुछ लोगों के जीवन में तो समस्याएं सांस की ही तरह आती-जाती हैं। चौबीस घंटे में 15 मिनट का योग हमें एक साक्षी-भाव दे जाता है। खुद के द्वारा खुद को ही देखना, यही साक्षी-भाव है।

बड़ी से बड़ी समस्याएं इस साक्षी-भाव से आसानी से सुलझ जाएंगी। जीवन में जब भी कोई विपरीत परिस्थिति, संघर्ष, चुनौती, परेशानी, दिक्कत और समस्या आती है, तो हम उसका हिस्सा नहीं, वही बन जाते हैं। समस्या और हम एक ही हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर हम और क्रोध अलग-अलग हैं, लेकिन जब गुस्सा आता है, तो हम ही गुस्सा बन जाते हैं।

यही तादात्म्य नुकसानदेह होता है। साक्षीभाव को आप यूं भी समझ सकते हैं। आप किसी नाटक में काम कर रहे हैं, तब अभिनय करने वाला कलाकार भी आप हैं और दर्शक भी स्वयं बन जाएं। ऐसा करें कि गायक भी आप हों, श्रोता भी खुद बनें। इस प्रयोग से हम खुद को खुद ही देख सकेंगे।

जीवन में ऐसी स्थितियां बनती हैं, जब उनमें समाना और सरकना पड़ता है। घर में एक-दूसरे में समाना होगा। बाहर सरकना होता है स्थितियों से। जितना हम साक्षी-भाव विकसित करेंगे, उतना ही हम मन की शिफ्टिंग करने में दक्ष होंगे। अभी मन हमें लगाता-हटाता है। साक्षी-भाव आने पर हम उसके गियर बदल सकेंगे। उसकी गति के लिए क्लच, गियर और ब्रेक तीनों हमारे पास रहेंगे। फिर कैसी भी घटना जीवन में हो, शांति के साथ समाधान निकाल पाएंगे।

वाणी के उचित उपयोग का संदेश दिया हनुमानजी ने
ईश्वर ने वाणी के रूप में मनुष्य को अद्भुत वरदान दिया है। संप्रेषण और ज्ञान के माध्यम के रूप में वाणी मनुष्य का वर्तमान उज्ज्वल बनाती है और सुनहरा भविष्य रचती है। वाणी का समुचित उपयोग करने वाला व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है और ऐसा व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाकर सकारात्मक परिणाम का जनक होता है।

रामायण का यह प्रसंग इसी बात का संकेत देता है। पर्वत पर बाली के भय से छिपा सुग्रीव जब शस्त्रधारी श्रीराम व लक्ष्मण को आते देखता है तो यह सोचकर डर जाता है कि ये दोनों उसका वध करने के लिए ही भेजे गए हैं। सुग्रीव हनुमान को उन दोनों का परिचय जानने के लिए भेजता है।

हनुमान बटुक रूप में जाकर श्रीराम व लक्ष्मण से बात करते हैं। अपनी मधुर वाणी से श्रीराम का दिल जीत लेते हैं और इस प्रकार अपने स्वामी सुग्रीव की मदद के लिए पृष्ठभूमि भी तैयार कर लेते हैं। उनके वाकचातुर्य से प्रभावित हो श्रीराम उन्हें वेद-व्याकरण आदि का जानकार कहकर प्रशंसा करते हैं।

और कहते हैं - वध हेतु तलवार उठाए शत्रु का हृदय अद्भुत वाणी बदल देती है। जिस राजा के पास ऐसा दूत हो, उसका कार्य अवश्य सिद्ध होगा। सुग्रीव का आगे चलकर किष्किंधापति बनना इसी बात का प्रमाण है। उक्त कथा का सार यह है कि जो व्यक्ति जितनी सजगता से अपनी वाणी का उचित उपयोग करता है, वह उसी अनुपात में जीवन में उत्तरोत्तर सफलता भी प्राप्त करता है।

अल्प भोजन से स्वस्थ रहने का राज जाना हकीम ने
एक बादशाह बड़ा ही दयालु और परोपकारी था। सभी का आदर करना और विनम्रतापूर्ण व्यवहार करना उसके स्वभाव का स्थायी अंग था। उसकी अपने राज्य के एक साधु के प्रति बड़ी श्रद्धा भक्ति थी। वह साधु राजधानी से दूर किसी दूसरे नगर में रहता था। वहां कोई अच्छा इलाज करने वाला नहीं था।

एक दिन बादशाह ने सोचा कि यदि उन साधु के आश्रम में कोई बीमार हो जाए तो उन्हें बड़ी परेशानी होगी। इसलिए उसने अपने शाही हकीम से कहा कि तुम उस नगर में जाकर रहो और यदि साधु या उनका शिष्य बीमार पड़ जाए तो समय पर उनका इलाज करना। हकीम वहां पहुंच गया।

दिन पर दिन बीतते गए, किंतु साधु के आश्रम से एक भी व्यक्ति हकीम के पास इलाज के लिए नहीं पहुंचा। हकीम खाली बैठे-बैठे परेशान हो गया। जब कई महीने बीत गए तो वह साधु के पास जाकर बोला - महाराज, मुझे बादशाह ने आपके शिष्यों का इलाज करने भेजा है, किंतु इतने महीनों में कोई भी मेरे पास नहीं आया। इसका क्या कारण है? साधु ने जवाब दिया - हकीमजी! मेरे शिष्यों की आदत है कि जब तक उन्हें जोर की भूख नहीं लगती, वे खाना नहीं खाते और जब खाते हैं, तब थोड़ी भूख रहते खाना छोड़ देते हैं।

हकीम समझ गया कि ऐसी जगह रोग नहीं आ सकता। उसी समय उसने वह स्थान छोड़ दिया। कथा का सार यह है कि स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है कि कम व सुपाच्य भोजन किया जाए। इससेइंद्रिय निग्रह को बल मिलता है, जो स्वस्थ व सुखी जीवन के लिए आवश्यक है।

जो अवसर का महत्व नहीं जानते वे सफलता से दूर ही रहते हैं
हर कोई चाहता है कि मनचाहा मिल जाए और मनचाहा मिलता भी है, लेकिन इसके लिए तीव्र इच्छा और लगातार क्रिया करने की रुचि होनी चाहिए। हनुमान भक्त रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार अपनी सरल भाषा में बताते हैं - हमें प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे ईश्वर हमें लगन और संकल्प-शक्ति प्रदान करिए, क्योंकि बड़े से बड़ा वृक्ष भी एक लघु बीज से पैदा हुआ है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह बीज धरती के अंतस में निरंतर प्रगतिशील रहा। इंसान की जिंदगी श्रेष्ठ है, क्योंकि समस्याओं व मुसीबतों के दौर से गुजरती है।

हमें इन सब समस्याओं से विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। ये समस्याएं संकल्प के समक्ष अधिक समय तक नहीं रह पाएंगी। समस्याओं से निपटने के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए। समस्याएं तो सहज ही शांत हो जाएंगी। जो व्यक्ति अवसर का महत्व नहीं जानते, वे सफलता से दूर रहते हैं।

सपने सदैव उन्हीं लोगों के सच हुए हैं, जो अपनी संकल्प- शक्ति पर अटल रहे, जो अपनी महत्वाकांक्षाओं पर अडिग रहे, जो कभी परिश्रम से पीछे नहीं हटे, जिन्होंने निराशाओं को कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। व्यक्ति का मूल्यांकन इस बात से नहीं होता कि वह कौन-सा काम प्रारंभ करता है, बल्कि इससे होता है कि वह कौन-सा काम पूरा कर लेता है।

भक्त होने का एक बड़ा फायदा यह है कि वह जीवन के हर क्षण को परमात्मा की कृपा मानता है, इसीलिए अवसरों का लाभ उठाना भी जानता है, क्योंकि भक्ति यह कहती है कि हर सांस उस ईश्वर की दी हुई है। इसलिए एक भी क्षण नष्ट न हो, लगन बनी रहे और संकल्प-शक्ति कभी खत्म न हो।

शेख फरीद ने गुरु नानक से पाया संतुलित जीवन का मंत्र
प्राय: अध्यात्म की कसौटी पर मनुष्य असंतुलित हो जाता है। वह या तो भोग के त्याग को सर्वस्व मानकर सर्वथा विरक्त हो जाता है अथवा पूर्णत: भोगों में डूबा रहकर घोर विलासी हो जाता है। गुरु नानक के अनुसार ये दोनों दर्शन अज्ञान से होते हैं और यह अज्ञान जीवन को खंडित रूप से देखने पर उत्पन्न होता है।

गुरु नानक एक बार अपनी यात्रा के दौरान पाकपाटन में शेख फरीद द्वितीय से मिलने पहुंचे। शेख फरीद जंगल में कठोर तपस्या कर रहे थे और घर-परिवार छोड़कर संन्यासी हो गए थे। जब गुरु नानक उनसे मिले तो शेख ने पूछा - आप पहनते तो फकीरी लिबास हैं, किंतु आपका शरीर बड़ा सुगठित व सुंदर है।

त्यागी को तो कृशकाय होना चाहिए। तब गुरु नानक ने उन्हें उत्तर दिया - दो नावों पर सामान लाना बुद्धिमानी है। पता नहीं कौन-सी पहले किनारे पहुंचे? आशय यह है कि न संसार छोड़ो, न खुदा को। क्योंकि संसार भी खुदा का ही बनाया हुआ है। पता नहीं उसे कौन-सा मार्ग पसंद है? धन-संपत्ति बुरे नहीं हैं। इन्हें दूसरों की सेवा में लगाएं तो वरदान है।

स्वयं के भोग पर इन्हें व्यय करने से यह माया बंधन बनती है। शरीर को उग्र ताप से तपाना और भोगों से पुष्ट करना दोनों ही गलत है। परमात्मा को पाने का सही मार्ग है शरीर से सेवा और आत्मा से ध्यान। गुरु नानक देव की यह बात सुनकर शेख को यथार्थ ज्ञान हुआ और वे तपस्या छोड़ नानक के बताए मार्ग पर चलने लगे। कथा का सार यह है कि जीवन का संतुलन परम सत्य के प्रति आस्थावान रहकर अपने कर्तव्य को करने में निहित है।

सत्य में केवल शुरू में दुविधा
जैसे -जैसे युग बदला बहुत सारी चीजें परिवर्तित होती रही हैं। एक महत्वपूर्ण घटना यह भी घटी है कि लोगों ने सच और झूठ के मायने भी बदल दिए हैं। कुछ का कहना है जिसमें अपना हित हो वही सत्य है, बाकी सब झूठ। हमारी ऋषि-मुनि जानते थे कि जैसे-जैसे समय बदलेगा परंपराएं तो बदलेंगी ही, लेकिन इसका असर मूल्यों पर भी होगा।

इसीलिए उन्होंने सत्य को मनुष्य से ज्यादा ईश्वर से जोड़ा। इसीलिए परमात्मा के लिए सत्य और सत् दोनों कहे गए। उन्हें सत्, चित और आनंद कह कर पुकारा गया है। सच्चिदानंद संबोधन इसीलिए बना है। इसमें जो सत् शब्द है इसका अर्थ है एक्जीस्टेंस।

जितना हम ईश्वर के अस्तित्व को जानेंगे उतना ही हम सत्य के निकट होंगे। अस्तित्व का सामान्य अर्थ है अनुभूति होना, उसकी महक को महसूस करना। परमात्मा के अस्तित्व से जुड़ने पर हमें अपने अस्तित्व का भान होगा। अस्तित्व केवल शरीर से संबंधित नहीं है। यह भीतर की पहुंच है।

जो लोग सत् से परिचित होंगे उनके लिए सत्य भी शाश्वत होगा। ईश्वर का सत् स्वरूप हमें बताता है कि ईश्वर जरूरत नहीं, मांग होना चाहिए। जरूरत पूरी होती है और फिर खत्म हो जाती है। मांग बढ़ती है तो प्रार्थना में बदल जाती है। व्यक्ति प्रार्थना से प्रेम की ओर चलता है और प्रेमपूर्ण होते ही सच और झूठ एक नया रूप ले लेते हैं।

झूठ बोलने वालों पर दबाव इसीलिए होता है कि उन्हें याद बहुत रखना पड़ता है, लेकिन सत्य हर याददाश्त से मुक्त रहता है। वह जैसा होता है, वैसा ही होता है। झूठ में शुरू में सुविधा है बाद में दुविधा है। सत्य में शुरुआत में दुविधा हो सकती है, पर भविष्य में सुविधा ही रहेगी। अपने व्यावसायिक जीवन को झूठ से मुक्त कराने के लिए अपने सत्य के सत् स्वरूप को जाना जाए, यानी परमात्मा से जोड़ा जाए और फिर सफलताएं अर्जित की जाए।

एक साधु ने दिखाया सेठ को परम शांति का मार्ग
एक सेठ के पास अपार धन-संपत्ति थी, किंतु उसका मन अशांत रहता था। कोई न कोई चिंता उसे लगी ही रहती थी। उसकी ऐसी दशा देख उसके एक मित्र ने शहर से कुछ दूर एक आश्रम में रहने वाले साधु से मिलने की सलाह दी।

मित्र का कहना था कि किसी भी प्रकार का कष्ट दूर करने में साधु सक्षम है। सेठ मित्र की सलाह मानकर साधु के पास गया और अपनी परेशानी सुनाकर बोला - महाराज, मैं जिंदगी से तंग आ गया हूं। मैं क्या करूं, जिससे मुझे शांति मिले? - साधु ने उसे सांत्वना देते हुए कहा - घबराओ मत, तुम प्रभु के चरणों में ध्यान लगाओ। तुम्हारी अशांति दूर हो जाएगी।

साधु ने सेठ को ध्यान की विधि समझा दी। किंतु सेठ का मन ध्यान में भी नहीं लगा। वह ध्यान करने बैठता तो मन भटकने लगता। उसने साधु को फिर अपनी समस्या बताई तो साधु चुप ही रहा। जब सेठ आश्रम से निकल रहा था तो उसके पैर में कांटा चुभ गया। सेठ जमीन पर बैठकर दर्द के मारे चिल्लाने लगा। तब साधु ने उसे कांटा निकालने की राय दी।

सेठ ने जी कड़ा कर अपने हाथों से कांटा निकाल दिया, उसे आराम मिला। तब साधु ने समझाया-‘तुम्हारे पैर में जरा-सा कांटा चुभने पर तुम बेहाल हो गए। जरा सोचकर देखो कि तुम्हारे अंतर्मन में लोभ, मोह, क्रोध, ईष्र्या के कितने बड़े-बड़े कांटे चुभे हुए हैं।

जब तक उन्हें नहीं उखाड़ोगे, शांति कैसे मिलेगी?’ साधु के वचनों ने सेठ को शांति का मार्ग बता दिया। आत्मिक शांति को पाने का लक्ष्य सद्गुणों की राह से जाकर ही प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए सदा स्वयं को दुर्रुणों से मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए।

रसोइये ने सिखाया कि योग्यता के साथ चतुराई भी जरूरी है
एक गांव से एक बेरोजगार युवक प्रतिदिन काम की तलाश में निकलता, किंतु उसे अपनी योग्यता के अनुरूप कोई काम नहीं मिलता था। हालांकि वह पढ़ा-लिखा था, लेकिन बहुत प्रयास के बाद भी नौकरी प्राप्त नहीं कर पा रहा था। एक दिन उसके मित्रों ने उसे शहर जाकर काम खोजने की सलाह दी। स्वयं उसे भी यही उचित लगा, क्योंकि गांव में तो वह प्रत्येक स्थान पर कोशिश कर चुका था।

वह जब शहर जाने लगा तो एक रसोइया भी उसके साथ हो लिया। युवक ने रसोइये को बता दिया कि रोजगार मिलने के बाद ही उसे पैसे देगा। फिलहाल खाना और कपड़ा ही मिलेगा। रसोइया मान गया। पहले ही पड़ाव पर रसोइये ने दो रुपए मांगे। युवक ने पूछा - ‘क्या बनाओगे?’ रसोइया बोला - ‘दाल-चूरमा’। युवक ने कहा - ‘रोजगार लगने पर दाल-चूरमा खाएंगे।

अभी दाल-रोटी ही बनाओ।’ यह कहते हुए उसने डेढ़ रुपए ही दिए। रसोइये ने आटा-दाल और घी-चीनी लिया। जब युवक खाने बैठा तो उसे दाल-रोटी परोस दी, किंतु लड्डू नहीं दिए। युवक ने पूछा - ‘लड्डू किसके लिए है?’ रसोइये ने उत्तर दिया - ‘आपने कहा था कि रोजगार मिलने पर चूरमा खाएंगे।

जब आपका लगेगा, तब आपके लिए बनाऊंगा, लेकिन मेरा रोजगार तो आपके यहां लग गया है। इसलिए मैं लड्डू खाऊंगा।’ कथा का सार यह है कि धनार्जन के लिए योग्यता के साथ-साथ चतुराई भी जरूरी है। इसलिए आजीविका प्राप्त करने व उसे बनाए रखने के लिए ज्ञान के साथ-साथ बुद्धिमानी व चतुराई भी जरूरी है।

गुरु गोबिंद सिंह ने शिष्य को समझाया परिश्रम का महत्व
एक बार गुरु गोबिंद सिंह कहीं जा रहे थे। शिष्य उनके अमृत वचनों को पूर्ण एकाग्रता से सुन रहे थे। जब चर्चा समाप्त हो गई, तो गुरु गोबिंद सिंह को प्यास लगी। उन्होंने अपने शिष्य से कहा - कोई पवित्र हाथों से मेरे लिए पानी ले आए। एक शिष्य तत्काल गया और चांदी के पात्र में निर्मल जल ले आया।

गुरु गोबिंद सिंह ने पात्र लेते हुए शिष्य की हथेली की ओर देखा और बोले - वत्स! तुम्हारे हाथ तो बड़े कोमल हैं। गुरु की यह बात सुनकर शिष्य बड़ा प्रसन्न हुआ। वह गर्व भरी वाणी में बोला - गुरुदेव, मेरे हाथ इसलिए कोमल हैं, क्योंकि मुझे कोई श्रम नहीं करना पड़ता। मेरे यहां बहुत सारे नौकर हैं। उनसे जो कहता हूं, फौरन कर देते हैं।

गुरु गोबिंद सिंह का हाथ पात्र को होंठों तक ले जाकर ही रुक गया और वे बोले - वत्स, जिस हाथ ने कभी कोई सेवा नहीं की, कभी कोई काम नहीं किया, मजदूरी से जो मजबूत नहीं हुआ और जिसकी हथेली में मेहनत करने से गांठ नहीं पड़ी, उस हाथ को पवित्र कैसे कहा जा सकता है? पवित्रता तो सेवा और श्रम से ही प्राप्त होती है।

क्षमा करना वत्स, मैं तुम्हारे हाथ का पानी नहीं पी सकता। यह कहकर गुरु गोबिंद सिंह ने पात्र नीचे रख दिया। गुरुदेव के वचनों से शिष्य को ज्ञान का बोध हुआ और उसने उसी क्षण परिश्रमी बनने का संकल्प लिया। कथा का सार यह है कि परिश्रम से कमाया गया धन पुण्यदायी होता है और आत्मिक शांति प्रदान करता है। इसलिए आलस्य का त्याग कर परिश्रम को अपनी प्रवृत्ति का स्थायी अंग बना लेना चाहिए।

थॉमस एक्विनास ने विश्वास व समर्पण के बल पर पाया संतत्व
मनुष्य लक्ष्य निर्धारित करता है और उन्हें पाने के लिए प्रयास भी करता है, लेकिन नाममात्र को ही लक्ष्य प्राप्ति में सफल होते हैं। जो असफल रहते हैं, वे अवसर और साधनों की कमी, भाग्य का साथ न देना जैसे कई कारण गिना देते हैं। किंतु जो सफल होते हैं, उनके आचरण में एक बात समान रूप से दिखाई देती है। वह है - लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण और विश्वास। ईसाई धर्म के महान संत और दार्शनिक थॉमस एक्विनास का जन्म एक अभिजात्य परिवार में हुआ था।

बाल्यकाल से ही उनकी प्रवृत्ति आध्यात्मिकता की ओर थी। जब थॉमस १७ वर्ष के हुए तो उन्होंने साधु जीवन जीने की इच्छा प्रकट की। उनके भाइयों ने यह सुनते ही नाराज होकर उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया। इस दौरान उन्हें हर तरीके से समझाया गया, अनेक प्रलोभन दिए गए, किंतु थॉमस अपने निर्णय पर अटल रहे। यहां तक कि इस कैद के दौरान भी अपने समय का उपयोग उन्होंने प्रार्थना और स्वाध्याय में किया।

आखिरकार परिजनों ने हार मान ली। थॉमस डोमिनिकन संप्रदाय के सदस्य बने और जल्दी ही अपने समय के श्रेष्ठ संत और धर्मशास्त्री बन गए। पाश्चात्य संस्कृति की दार्शनिक धरोहरों में काफी महत्वपूर्ण मानी जाने वाली पुस्तक सम्मा थियोलॉजिका की रचना थॉमस एक्विनास ने की। कथा का सार यह है कि गहन समर्पण और विश्वास होने पर व्यक्ति लक्ष्य प्राप्ति में अवश्य सफल होता है। विरोधी व्यक्ति या परिस्थितियां भी तब पराजित होकर उनका मार्ग छोड़ देती हैं।

गीता का संदेश अपने आचरण से समझाया गांधीजी ने
एक बार महात्मा गांधी के पास एक व्यक्ति आया। उसने गांधीजी से कहा - मैं आपसे गीता का रहस्य जानने आया हूं। महात्मा गांधी उस समय आश्रम की भूमि फावड़े से खोद रहे थे। उन्होंने उस व्यक्ति से कुछ देर बैठने के लिए कहा और फिर वे पहले की तरह भूमि खोदने लगे।

जब गांधीजी को भूमि खोदते-खोदते और उस व्यक्ति को इंतजार करते-करते काफी देर हो गई, तो उसका धर्य जवाब दे गया। वह गांधीजी से बोला - मैं इतनी दूर से आपकी ख्याति सुनकर आपसे गीता का मर्म समझने आया हूं, किंतु आपको सिर्फ काम का महत्व अधिक जान पड़ता है।

गांधीजी ने हंसते हुए कहा - भाई, मैं आपको गीता का रहस्य ही तो समझा रहा हूं। आश्चर्यचकित होकर वह व्यक्ति बोला - कहां समझा रहे हैं? मैं तो कब से यहां बैठा हूं, आपने एक शब्द भी नहीं कहा। गांधीजी ने उसे समझाया - बोलने की आवश्यकता ही क्या है? गीता का उपदेश यही है कि बस कर्म करो। मैं तबसे आपके सामने कर्म ही तो कर रहा था और गीता का रहस्य भी यही है - निरंतर कर्म करो और फल की आशा मत करो।

महात्मा गांधी का उत्तर सुनकर उस व्यक्ति को गीता का रहस्य अच्छी तरह समझ में आ गया और वह उन्हें प्रणाम कर वहां से चला गया। इस साधारण-से प्रसंग का महत्वपूर्ण संदेश यह है कि प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को कर्मशील रहना चाहिए। कर्मोन्मुखी आत्मवृत्ति मनुष्य को भौतिक प्राप्तियों के साथ-साथ आध्यात्मिक उपलब्धियां भी देती है।

एक पत्रकार ने हेनरी फोर्ड को बताए सच्ची मित्रता के गुर
प्रख्यात उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने जीवन में वह सब कुछ प्राप्त किया, जिसका सपना हर व्यक्ति की आंखों में पलता है। धन, दौलत, सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य की विराटता और अपार यश। ये सब हेनरी फोर्ड की कमाई थी। जब वे अपनी समृद्धि और कीर्ति के शिखर पर थे, तब एक दिन एक पत्रकार ने उनसे पूछा - महोदय! आपने अपने जीवन में प्रचुर धन-संपत्ति के साथ यश और गौरव कमाया है।

आपके सौजन्य से अनेक महान कार्यो का संपादन हुआ है। सारी दुनिया आपकी सफलता को सलाम करती है। इतना सब कुछ होने के बाद क्या आपको अब भी जीवन में किसी कमी का अनुभव होता है? हेनरी फोर्ड तत्काल बोले - हां, मेरे जीवन में सच्चे मित्र की कमी मुझे रह-रहकर सालती है।

यदि मुझे फिर से जीवन आरंभ करना हो तो मैं सच्चे मित्रों की तलाश करूंगा। भले ही इसके लिए मुझे अपना सारा धन क्यों न खोना पड़े। यह सुनकर पत्रकार ने कहा - यदि आप ऐसा करें तो आपको मित्र ही मित्र मिल जाएंगे, किंतु सच्च मित्र तब भी नहीं मिलेगा। फोर्ड द्वारा कारण पूछे जाने पर वह बोला - क्योंकि आप केवल धन के बल पर मित्रों की तलाश करना चाहते हैं।

धन से सच्चे मित्र नहीं मिलते, उसके लिए अहंकार को गलाना पड़ता है। स्वयं को संपूर्णत: देना पड़ता है, समर्पित होना होता है। धन से संसार की हर चीज खरीदी जा सकती है, किंतु सच्चमित्र नहीं। फोर्ड को अपनी भूल का अहसास हुआ। कथा का सार यह है कि सच्ची मित्रता सात्विक हृदय की शुद्ध भावनाओं पर टिकी होती है। अत: सच्च मित्र पाने के लिए जेब नहीं, दिल को संपन्न और उदार रखें।

बाजीराव की दूरदर्शिता को देख मल्हार राव का क्रोध शांत हुआ
यह घटना उस समय की है, जब संपूर्ण भारत में मराठों का प्रभुत्व था। एक बार उनके मित्र राज्य ने शत्रुओं से मुकाबला करने के लिए सहायता हेतु उन्हें बुलाया। मराठों की सेना मित्र राज्य की मदद के लिए चल पड़ी। कुछ समय बाद एक स्थान पर सेना का पड़ाव डाला गया। आसपास किसानों के खेत थे। एक दिन सेनानायक कहीं गए हुए थे।

मराठी सेना के कुछ सैनिकों ने खेतों से कुछ फसल काट ली और घोड़ों को खिला दी। परेशान किसानों ने शिविर में आकर सेना के उच्च अधिकारी बाजीराव से शिकायत की।

बाजीराव ने जांच में शिकायत सही पाई। उन्होंने दोषी सनिकों को बहुत डांटा। ये सैनिक मल्हार राव होल्कर के थे। उन्होंने बाजीराव को सैनिकों को फटकार लगाते देखा तो उनसे सहन नहीं हुआ। उन्होंने एक बड़ा पत्थर बाजीराव के सिर पर दे मारा। बाजीराव के सिर से खून बहने लगा, किंतु वे चुपचाप लौट आए।

सेनानायक को जब घटना पता चली तो उन्होंने मल्हार राव को बाजीराव से क्षमा मांगने को कहा। मल्हार राव ने इसे अपना अपमान समझा और एक दिन बाजीराव को तलवार से मारने का प्रयास किया।

तब बाजीराव बोले - मल्हार राव, तुम वीर हो और हम सभी एक लक्ष्य लेकर निकले हैं। यदि मुझे मारकर ही तुम्हें शांति मिल सकती हो तो मार डालो, किंतु मराठा जाति के लक्ष्य मार्ग में फूट के कांटे मत डालो। बाजीराव की इस दूरदर्शिता को देखकर मल्हार राव का क्रोध शांत हो गया और उसने बाजीराव के पैरों में गिरकर क्षमा मांगी। वस्तुत: एकता से बड़े-से-बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति आसान हो जाती है, जबकि भेदभाव से छोटी-छोटी सफलता भी संदिग्ध हो जाती है।

मातृभक्त ध्रुव ने स्वर्गगमन भी माता के साथ ही किया
सम्राट उत्तानपाद और सुमति का पुत्र ध्रुव अत्यंत मातृभक्त था। वह सर्वथा माता के अनुकूल आचरण करता था। जैसा माता कह दे, ध्रुव उससे रंचमात्र भी नहीं हटता था। जब माता सुमति वृद्ध हुईं तो उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और वन जाने की इच्छा व्यक्त की। ध्रुव उस समय राजा थे। उन्होंने माता की इच्छा का आदर करते हुए माता के वन गमन का प्रबंध किया। ध्रुव का व्यक्तित्व राजा और ऋषि दोनों के गुणों से समन्वित था।

सात्विक जीवन जीने वाले ध्रुव के अंत समय में जब स्वर्ग का विमान उन्हें लेने के लिए आया तो मृत्यु उनके समक्ष दंडवत होकर बोली - भगवन्, आप मेरे मस्तक पर अपने पैरों का स्पर्श करते हुए विमान की सीढ़ियां चढ़ें। मैं धन्य हो जाऊंगी। ध्रुव ने ऐसा ही किया।

तत्काल बाद उन्होंने देवदूतों को विमान मृत्युलोक की ओर पुन: मोड़ने के लिए कहा। कारण पूछने पर वे बोले - वहां मेरी माताश्री हैं, जो मेरे समस्त ज्ञान की स्रोतस्विनी हैं। उनके बिना मेरा स्वर्गारोहण अधूरा ही रहेगा। तभी देवदूतों ने उन्हें संकेत से एक अति भव्य विमान दिखाया और कहा कि हमने आपकी माताश्री को आपसे पहले ही स्वर्ग भेजने की व्यवस्था कर दी है।

मातृभक्त ध्रुव को अत्यंत संतोष हुआ कि स्वर्ग में भी मैं उसी मातृछाया में रहूंगा, जो सदैव मेरे सन्मार्ग का संबल रही है। वस्तुत: इस धरती पर मां ईश्वर का प्रतिस्वरूप है। यदि ऐसा मानकर उसके प्रति अटल निष्ठा रखी जाए तो दिव्य शांति व परम सुख का जीवन में स्थायी निवास हो जाता है।

श्रीमती रूजवेल्ट की विनम्रता से प्रभावित हुए संपादक
नारद पुराण में उल्लेख है कि बड़प्पन की परिभाषा इसी बात में निहित है कि हम किसी भी कार्य को छोटा न समझें और हर स्तर पर समदृष्टि अपनाएं। इसी विषय में अमेरिका का एक प्रसंग है। रूजवेल्ट अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे। राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभालने के पूर्व व्हाइट हाउस में उनके आगमन की तैयारी आरंभ हुई।

संबंधित अधिकारियों ने श्री रूजवेल्ट की रुचियों के विषय में श्रीमती रूजवेल्ट से जानना चाहा, तो उन्होंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक व्हाइट हाउस को सजाने का जिम्मा स्वयं ही ले लिया। फिर अपने पति की रुचि के अनुरूप राष्ट्रपति भवन को संवारा। जब उन्होंने श्री रूजवेल्ट के कार्यालय को अच्छी तरह व्यवस्थित कर दिया तो वे शासकीय कार्यो में भी रूजवेल्ट का हाथ बंटाने लगीं।

एक दिन अमेरिका के एक प्रसिद्ध पत्र के संपादक का फोन आया जो श्रीमती रूजवेल्ट ने उठाया। संपादक महोदय ने अपना परिचय देते हुए कहा - मैं राष्ट्रपति की निजी सचिव मिस मीलवीना से बात करना चाहता हूं। श्रीमती रूजवेल्ट बोलीं - वे आज छुट्टी पर हैं। उनके स्थान पर मैं कार्य कर रही हूं।

यदि काम को मेरे योग्य समझें तो मुझे बता दें। उनकी शालीनतापूर्ण बातों को सुनकर संपादक ने उनसे पूछा - आप बोल कौन रही हैं? उत्तर मिला - श्रीमती रूजवेल्ट। यह सुनकर संपादक उनके विनम्र व्यवहार के आगे श्रद्धावनत हो गया। कथा का सार यह है कि सच्च बड़प्पन तो शालीनता और शिष्टता में ही है, पद के दंभ और निर्थक अकड़ में नहीं।

जब बुद्ध ने साक्षी भाव से घोर अपमान सहन किया
गौतम बुद्ध सत्य, अहिंसा व सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति थे। इन्हीं सद्गुणों का उपदेश वे घूम-घूमकर देते और लोगों से इन्हें अपनाने का आग्रह करते। एक दिन वे किसी गांव में पहुंचे। वहां कुछ अज्ञानी लोग ऐसे थे, जो बुद्ध के विरोधी थे। वे बुद्ध को अपशब्द कहने लगे।

यह देखकर बुद्ध के शिष्यों को बहुत बुरा लगा। उन्होंने बुद्ध से इसका विरोध करने का आग्रह किया तो बुद्ध ने उन्हें समझाया कि ये लोग तो अपशब्द ही कह रहे हैं। यदि ये पत्थर भी मार रहे होते तो भी मैं कहता क मारने दो। मैं जानता हूं कि ये कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन क्रोध के कारण कह नहीं पा रहे।

दस साल पूर्व यदि ये ही लोग मुझे गाली देते तो मैं भी इन्हें गाली देता। किंतु अब तो लेन-देन से मुक्ति मिल गई है। क्रोध से अपशब्द निकलते हैं। यहां तो क्रोध भवन कभी का ढह चुका है। बुद्ध के विचार सुनकर अपशब्द कहने वाले हैरान रह गए।

बुद्ध ने आगे अपने शिष्यों से कहा - इन लोगों को बताओ कि पिछले गांव में क्या हुआ था? शिष्यों ने बताया - वहां के लोग फल व मिठाइयां लेकर आए थे और आपने यह कहकर वे चीजें लौटा दीं कि अब लेने वाला विदा हो चुका है। दस साल पहले आते तो मैं ये सभी उपहार ले लेता। बुद्ध बोले - उन लोगों ने मिठाइयां गांव में बांट दीं, लेकिन आप ये अपशब्द गांव में न बांटें। आप मुझे क्रोध नहीं दिला सकते।

ठीक उस खूंटी की तरह, जो किसी को नहीं टांगती, लोग उस पर वस्त्र अवश्य टांग देते हैं। कथा का सार यह है कि साक्षी भाव सच्चे संत की पहचान है। जो अच्छे-बुरे, लाभ-हानि, अपना-पराया के संकीर्ण भाव से मुक्त हो जाता है, उसे ही संतत्व की प्राप्ति होती है।

देवी ने माना सुकरात को सबसे बुद्धिमान व ज्ञानी पुरुष
यूनान के देल्फी मंदिर में वर्ष में एक बार भारी भीड़ जमा होती थी। ऐसा माना जाता था कि उस दिन देवी जाग्रत होती है और पूछे जाने वाले सभी प्रकार के संतुष्टि प्रदायक उत्तर देती है। एक बार इसी अवसर पर मंदिर के सभागृह में काफी लोग एकत्रित हुए। पुजारी ने विधि-विधान से पूजा की और फिर देवी के जाग्रत होने का उद्घोष किया।

उपस्थित जनसमुदाय ने देवी को प्रणाम करते हुए अपनी-अपनी जिज्ञासाएं उनके सामने रखनी आरंभ की। कोई अपने भविष्य को लेकर प्रश्न कर रहा था तो कोई परिवार के विषय में जिज्ञासु था। किसी ने देश और समाज से संबंधित प्रश्न भी पूछे। इसी क्रम में किसी ने पूछा - इस समय यूनान में सबसे बुद्धिमान व ज्ञानी पुरुष कौन है? देवी ने उत्तर दिया - सुकरात।

यह सुनकर कुछ लोग सुकरात के पास गए। तब सुकरात बोले - मैं तो अज्ञानी हूं। वैसे ज्ञान प्राप्त करने की मेरी जिज्ञासा अवश्य है। यह सुनकर लोग पुन: देवी के पास जाकर बोले - सुकरात तो ज्ञानी होने से इनकार कर रहे हैं। फिर हम किसे यूनान का सबसे बड़ा ज्ञानी मानें? देवी ने कहा - यही तो सबसे बड़े ज्ञानी की पहचान है कि उसे ज्ञान का अहंकार नहीं होता। वह स्वयं को अज्ञानी मानता रहता है।

इसलिए आज यूनान के सबसे बड़े ज्ञानी सुकरात ही हैं। यह कहकर देवी शांत हो गईं। सार यह है कि ज्ञानी बनने की इच्छा रखने वालों को अज्ञान के प्रति जिज्ञासु और ज्ञान के प्रति अभिमान से रहित होना चाहिए। तभी वह अपने ज्ञान का उपयोग स्वयं और समाज के हित में कर पाएगा।

मृतक की खोपड़ी से अद्भुत संदेश दिया च्वांगत्से ने
चीनी महात्मा च्वांगत्से परम ज्ञानी थे। लोग दूर-दूर से उनके पास आते और न केवल अपनी विभिन्न समस्याओं का समाधान पाते, बल्कि सुखद जीवन संचालन के अनेक सूत्र भी सीखकर जाते। च्वांगत्से रोजमर्रा के जीवन में छोटी-छोटी बातों को उदाहरण बनाकर लोगों की समस्याएं हल करते और उनके जीवन की ठीक-ठीक दिशा तय कर देते।

एक बार च्वांगत्से शाही श्मशान में से होकर कहीं जा रहे थे कि अचानक उनका पैर एक मानव खोपड़ी से टकराया। वे रुक गए और खोपड़ी को दोनों हाथों से उठाकर बार-बार क्षमा याचना करने लगे। फिर वे खोपड़ी को उठाकर अपने घर ले गए और उसके समक्ष सिर झुकाकर क्षमा मांगने लगे।

जब उनके मित्रों ने यह देखा तो बोले - च्वांगत्से, तुम पागल हो गए हो क्या? बार-बार मृतक की खोपड़ी से क्षमा मांगने से क्या लाभ? तब च्वांगत्से ने कहा - यह किसी बड़े सम्राट की खोपड़ी है। यदि आज यह जीवित होता तो मुझे भारी दंड देता। इसके जीवनकाल में न जाने कितनों के इसने प्राण लिए होंगे, न जाने कितने इससे भयभीत रहे होंगे।

इसने कल्पना भी न की होगी कि एक दिन इसकी खोपड़ी श्मशान में लावारिस पड़ी लोगों के पैरों की ठोकर खाएगी और यह कुछ नहीं कर पाएगा। इसने अहंकारी होकर यह नहीं जाना कि मृत्यु चिरंतन सत्य है और इससे कभी कोई नहीं बच पाया। मैं इसकी खोपड़ी को सामने रखकर यह सत्य नहीं भूलना चाहता। सार यह है कि मृत्यु अटल है। इसलिए अपने आचरण से अहंकार को मिटाकर विनम्रता को स्थान देना चाहिए, ताकि मृत्यु के बाद भी लोगों के मन में मृतक के प्रति सम्मान रहे।


क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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