Thursday, August 4, 2011

Dharm Gyan( धर्म ज्ञान) Part 4

जीवन में गुरु का होना क्यों जरुरी है?
हिन्दू धर्म में आषाढ़ पूर्णिमा ( इस वर्ष 15 जुलाई, शुक्रवार) गुरु भक्ति को समर्पित गुरु पूर्णिमा का पवित्र दिन भी है। भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु को सर्वोपरि माना है। वास्तव में यह दिन गुरु के रुप में ज्ञान की पूजा का है। गुरु का जीवन में उतना ही महत्व है, जितना माता-पिता का।

माता-पिता के कारण इस संसार में हमारा अस्तित्व होता है। किंतु जन्म के बाद एक सद्गुरु ही व्यक्ति को ज्ञान और अनुशासन का ऐसा महत्व सिखाता है, जिससे व्यक्ति अपने सद्कर्मों और सद्विचारों से जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद भी अमर हो जाता है। यह अमरत्व गुरु ही दे सकता है। सद्गुरु ने ही भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया इसलिए गुरुपूर्णिमा को अनुशासन पर्व के रुप में भी मनाया जाता है।

इस प्रकार व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास गुरु ही करता है। जिससे जीवन की कठिन राह को आसान हो जाती है। सार यह है कि गुरु शिष्य के बुरे गुणों को नष्ट कर उसके चरित्र, व्यवहार और जीवन को ऐसे सद्गुणों से भर देता है। जिससे शिष्य का जीवन संसार के लिए एक आदर्श बन जाता है। ऐसे गुरु को ही साक्षात ईश्वर कहा गया है इसलिए जीवन में गुरु का होना जरुरी है।

जानें, क्या है गुरु पूर्णिमा का महत्व
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। हिंदू धर्म में इस पूर्णिमा का विशेष महत्व है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। कौरव, पाण्डव आदि सभी इन्हें गुरु मानते थे इसलिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा कहा जाता है। इस बार गुरु पूर्णिमा का व्रत 15 जुलाई, शुक्रवार को है।

इस दिन गुरु की पूजा कर सम्मान करने की परंपरा प्रचलित है। हिंदू धर्म में गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि गुरु ही अपने शिष्यों को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है तथा जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार करता है इसलिए यह कहा गया है-

गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:।।

अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं।

गुरु पूर्णिमा अर्थात सद्गुरु के पूजन का पर्व। गुरु की पूजा, गुरु का आदर किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है अपितु गुरु के देह के अंदर जो विदेही आत्मा है, परब्रह्म परमात्मा है उसका आदर है, ज्ञान का आदर है, ज्ञान का पूजन है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।

जानिए, दूसरे धर्मों में क्या कहते हैं गुरु को
गुरु की महिमा का वर्णन सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों में भी किया गया है। दूसरे धर्मों के लोग भी अपने गुरुओं को भगवान का दर्जा देते हैं और उनका सम्मान करते हैं। जानते हैं अन्य धर्मों के प्रमुख गुरु तथा उन्हें क्या कहा जाता है-

सिख धर्म में गुरु- सिख धर्म में ग्यारह गुरु माने गए हैं, जिन्हें भगवान माना जाता है। इनमें से दस हैं- नानकदेवजी, अंगददेव, अमरदास, रामदास, अर्जुनदेव, हरगोविंद, हरराय, हरकिशन, तेगबहादुर एवं गोविंदसिंह हैं। ग्यारहवें गुरु गुरु ग्रंथ साहिब को माना गया है।

ईसाई धर्म- ईसाई धर्म में पादरी को धर्म गुरु कहते हैं। उन्हें सम्मान से फादर कहा जाता है। उनके उपदेश को प्रभु वाक्य की तरह माना जाता है।

मुस्लिम धर्म- मुस्लिम धर्म में भी उलेमाओं को दूसरे शब्दों में गुरु कहा जाता है। वे धर्मोपदेश(तकरीर) देते हैं।

बौद्ध धर्म- हिंदू धर्म की तरह बौद्ध धर्म में भी गुरु को भगवान के समान माना जाता है। बौद्ध इन्हें लामा कहते हैं।

देवलस्मृति में गुरु बारह प्रकार के माने गए हैं, वहीं चिंतामणी में दस विषयों के गुरु बताए गए हैं। नीदरलैण्ड्स के क्रनेन बोर्ग ने अपनी पुस्तक नियो-हिंदू मूवमेंट्स में गुरु की मुख्य रूप से चार श्रेणियां बताई हैं, जो इस प्रकार है-

1- आध्यात्मिक, 2- बौद्धिक, 3- अवतार जैसे वेदव्याजी व 4- पुस्तक जैसे गुरु ग्रंथ साहिब।

गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ क्यों कहते हैं?
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताए।।

कबीर द्वारा रचित उक्त पंक्तियों में गुरु की महिमा का वर्णन किया गया है तथा गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ बताया गया है। हिंदू धर्म में गुरु का स्थान प्रारंभ से श्रेष्ठ है। धार्मिक ग्रंथों में गुरु की महिमा का वर्णन कई बार पढऩे में आता है। गुरु के आदर व सम्मान स्वरूप आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का पर्व भी मनाया जाता है। भविष्यपुराण के ब्राह्मपर्व में भी गुरु की महिमा का वर्णन किया गया है।

उसके अनुसार गुरु के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े रहें, गुरु की आज्ञा हो तो बैठे परंतु आसन पर नहीं। वाहन पर हों तो गुरु का अभिवादन न करें, वाहन से उतर कर प्रणाम करें। शरीर त्याग पर्यंत जो गुरु की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ दर्शाने के पीछे तर्क है कि आध्यात्मिक ज्ञान सिर्फ गुरु के माध्यम से ही प्राप्त हो सकता है। यह ईश्वरीय ज्ञान है जो गुरु के माध्यम से पृथ्वी पर उतरा है।

सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं इस्लाम में भी गुरु की महिमा का वर्णन है इसीलिए गुरु को पैगंबर कहा गया है। भारत का संपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान गुरु-शिष्य सम्वाद के रूप में ही है जैसे- कृष्ण-अर्जुन संवाद, यम-नचिकेता संवाद, जनक-अष्टावक्र संवाद, जनक-याज्ञवल्क्य संवाद आदि। गुरु वह होता है जिसने पूर्णत्व को प्राप्त कर लिया है। धर्म के गोपनीय गुर वही बता सकता है। ऐसे गुरु को ही ज्ञानी कहते हैं।

इन तीनों का अपमान कर देता है बर्बाद!
अक्सर यह देखा जाता है कि इंसान जब दु:खी हो तो उसके बोल, स्वभाव, व्यवहार में कोमलता आ जाती है। किंतु दु:ख से बाहर निकलने या फिर सुखों को पाने पर किसी न किसी रूप में अहं मन-मस्तिष्क पर हावी होने लगता है। जिसके चलते पैदा दोष के कारण दूसरों की उपेक्षा व अपमान भी उसे तब तक गलत नहीं लगता, जब तक कि दुष्परिणाम से दो-चार न हो।

धर्मशास्त्रों में आया एक प्रसंग सुखी जीवन में ऐसे ही दु:खों से बचने के लिए खासतौर पर तीन चरित्रों का सदैव सम्मान करने की सीख देता है। जानते हैं उस प्रसंग के साथ वे तीन चरित्र, जिनका धार्मिक ही नहीं व्यावहारिक नजरिए से भी उपेक्षा जीवन के लिये घातक हो सकती है -

शास्त्रों के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारकापुरी में आए रुद्र अवतार दुर्वासा मुनि के रूप व दुबले-पतले शरीर को देख उनकी नकल करने लगा। अपमानित दुर्वासा मुनि ने साम्ब को ऐसे कृत्य के लिए कुष्ठ रोगी होने का शाप दिया। फिर भी साम्ब नहीं माना और वही कृत्य दोहराया। तब दुर्वास मुनि के एक ओर शाप से साम्ब से लोहे का एक मूसल पैदा हुआ, जो अंतत: यदुवंश की बर्बादी और अंत का कारण बना।

इस प्रसंग द्वारा नीचे बताए तीन चरित्रों से विनम्रता और मधुर वाणी बोलने का सबक दिया गया है -

गुरु - गुरु को भगवान का ही साक्षात् रूप माना गया है। क्योंकि वह ईश्वर के समान ही ज्ञान द्वारा चरित्र को श्रेष्ठ बनाकर इंसान को नया जन्म देता है। व्यावहारिक नजरिये से भी जिस इंसान से शिक्षा, गुण, कला, कौशल प्राप्त हो, गुरु पद का भागी है। धर्म और व्यवहारिक दृष्टि से ऐसे गुरु का अपमान चरित्र और व्यक्तित्व में दोष पैदा कर जीवन में तमाम सुखों से वंचित कर देता है।

देवता - शास्त्रों के नजरिए से ईश्वर का स्मरण व विश्वास जीवन में संकल्प और कर्म शक्ति को हर स्थिति में मजबूत बनाए रखता है। किंतु ईश या धर्म निंदा धार्मिक दृष्टि से ही पाप का भागी नहीं बनाती, बल्कि धर्म आस्था व श्रद्धा को चोट पहुंचाने से अपयश, कलह लाकर जीवन को भी खतरे में डाल सकती है।

ब्राह्मण
- ब्राह्मण को ब्रह्म का अंश माना गया है। धार्मिक परंपराओं में ब्राह्मणों से भगवान की पूजा-अर्चना, ब्राह्मण-पूजा व ब्रह्मदान जीवन में आ रहे सारे कष्ट, बाधाओं से मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय माना गया है। व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्मपूजा या दान के मूल में पावनता और परोपकार के भावों से जुडऩा है। जिससे दूरी पाप कर्म से जोड़ती है। इसलिए ब्राह्मण का अपमान धर्म और ईश्वर के प्रति दोष से जीवन के लिये घातक भी माना गया है।

श्री गणेश के इस नाम से ही कट जाता है हर संकट
हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश बुद्धि, श्री यानी सुख-समृद्धि और विद्या के दाता हैं। उनकी उपासना और स्वरूप मंगलकारी माने गए हैं। दरअसल, श्री गणेश उपासना में व्यावहारिक संकेत यही है कि शुभ, मंगल और सकारात्मक विचारों से किसी कार्य का आगाज किया जाए तो उसे सफलता पूर्वक अंजाम देकर नियत लक्ष्य पाना तय हो जाता है।

बहरहाल, श्री गणेश के प्रेरणादायी स्वरूप और शक्तियों की बात करें तो शास्त्रों में श्री गणेश के प्रमुख नामों में विकट भी बहुत ही मंगलकारी माना गया है। गणेश के इस नाम का शाब्दिक अर्थ - भयानक या भयंकर होता है। क्योंकि श्री गणेश की शारीरिक रचना में मुख हाथी का तो धड़ पुरुष का है। सांसारिक दृष्टि से यह विकट स्वरूप ही माना जाता है। किंतु इसमें धर्म और व्यावहारिक जीवन से जुड़े गुढ़ संदेश हैं।

धार्मिक आस्था से श्री गणेश विघ्रहर्ता हैं। इसलिए माना जाता है कि वह बुरे वक्त, संकट और विघ्रों का भयंकर या विकट स्वरूप लेकर अंत करते हैं। आस्था से जुड़ी यही बात व्यावहारिक जीवन का एक सूत्र बताती है कि धर्म के नजरिए से तो सज्जनता ही सदा सुख देने वाली होती है, लेकिन जीवन में अनेक अवसरों पर दुर्जन और तामसी वृत्तियों के सामने या उनके बुरे कर्मों की अति के अंत के लिये श्री गणेश के विकट स्वरूप की भांति स्वभाव, व्यवहार और वचन से कठोर या भयंकर बनकर धर्म की रक्षा जरूर करना चाहिए।

सांसारिक जीवन के लिये श्री गणेश का विकट नाम निर्भय और कर्मशील बन आगे बढऩे की ऐसी ही प्रेरणा देता है।

एक छोटी-सी बात! जिससे कायम रहे होश भी और जोश भी..
मन को साधने पर जीवन सही दिशा में चलने लगता है। चंचल स्वभाव के मन पर संयम और अनुशासन से ऐसा संभव हो पाता है। किंतु रस, रूप, गंध और अनेक सुखों से भरे सांसारिक जीवन में मन पर काबू करना तप के समान माना गया है।

ऐसे वातावरण में हर इंसान दूसरों से तो साफ मन की उम्मीद रखता है। किंतु स्वयं ऐसा करने में पूरी तरह संकल्पित नहीं हो पाता। क्योंकि व्यवहार और स्वभाव से जुड़े कुछ दोष मन पर इतने हावी हो जाते हैं कि मन की पावनता कहीं खो जाती है। जिससे न केवल रिश्तों और संबंधों में कलह घुलता है, बल्कि इंसान व्यक्तिगत रूप से भी अशांत और बेचैन रहता है। जानते हैं इनमें से ही एक स्वाभाविक दोष, जिसे दूर रहने पर मन ऊर्जावान बना रहता है -

दरअसल, गुण-दोष हर इंसान में होते हैं। किंतु मानव स्वभाव यही है कि वह अपने दोषों का सामना करने से कतराता है, वहीं दूसरों की कमियों को ढूंढने में देर नहीं करता। बस, यही दोष इंसान के लिये नुकसान का कारण बन जाता है। क्योंकि दोष देखने की यह आदत मन में संबंधित के लिये द्वेष पैदा करती है। यही नहीं कमियों या दोषों पर विचार करने और द्वेषता से उसके मन को वही दोष घेर लेते हैं। इस तरह इंसान चिंतन और व्यवहार से अशांत हो जाता है।

इस दोष से दूर रहने का ही सबसे बेहतर उपाय यही है कि दोष के स्थान पर गुणों पर ध्यान दें। क्योंकि दोष दर्शन से गुण भी नजरअंदाज हो जाते हैं। किंतु गुणों को ढढ़ने की आदत बना लेने पर सकारात्मक पक्ष या गुण ही मिलते चले जाएंगे। क्योंकि हर इंसान में कुछ गुण अवश्य होते हैं। अच्छाई या गुणों को चुनने से न केवल इंसान मानसिक व वैचारिक रूप से स्वस्थ्य रहेगा, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी सहज हो जाएगा।

सरल शब्दों में कहें तो होश और जोश बनाए रखने के लिये दोष दर्शन के स्थान पर दूसरों में गुणों को देखना और अपनाना शांत और सुखी जीवन का आसान उपाय है।

श्री हनुमान का यह सूत्र बताए दु:ख में भी सुख व सफलता की राह
सुख और दु:ख के रास्ते ही इंसानी जीवन का सफर तय होता है। इस सफर को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिये गुण, योग्यता, विचार और शक्तियां अहम होती है। किंतु साधारण इंसान के नजरिए से दु:खों से दूर जीवन ही सफल और सुखी होता है। यही कारण है कि इंसान जीवन को सुखी और निश्चिंत बनाने के लिये हर दिन जूझता है। किंतु सुरक्षा और दु:खों से परे रहने की यही सोच और आतुरता अनेक अवसरों पर उसको सुकून के बजाए अधिक चिंता में डूबो देती है।

धर्मशास्त्रों में ऐसे ही दु:खों और चिंता से मुक्त जीवन के लिये ऐसे सूत्र बताए गए हैं, जो ऊपरी तौर पर अव्यावहारिक दिखाई देते हैं, किंतु उनमें छुपे अर्थ को गंभीरता से समझा जाए तो वह जीवन में संतुलन लाने के साथ मुश्किलों से निजात दिला सकते हैं।

इसी कड़ी में संकटमोचक देवता और संयम के महान आदर्श श्री हनुमान द्वारा रामचरितमानस में दु:ख को बुरा मानने के स्थान पर अच्छा मानकर उसका सामने करने के लिये बताया एक सूत्र सांसारिक जीवन के लिये बहुत ही सटीक और कारगर है।

रामचरित मानस में श्री हनुमान के बोल हैं कि -

कह हनुमंत बिपत्ति प्रभु सोई। जब तब सुमिरन भजन न होई।।

इस चौपाई में श्री हनुमान द्वारा देव स्मरण, भक्ति और समर्पण की अहमियत बताते हुए जीवन को सुखी बनाने का बहुत ही अच्छा संदेश दिया है। इसमें दु:ख को अच्छा मानते हुए संकेत है कि साधारण इंसान दु:ख को मुसीबत मानता है, किंतु असल में दु:ख सुख से श्रेष्ठ इसलिए हो जाता है कि ऐसे वक्त में ही भगवान की याद आती है। इसके विपरीत बुरा समय तो वह होता है जब भगवान का स्मरण न हो।

व्यावहारिक रूप से प्रेरणा यही है कि चूंकि बुरा वक्त इंसान को सोने की तरह तपाकर निखारने वाला होता है। इसलिए ऐसे वक्त हिम्मत हारकर रुकने के बजाय इंसान ईश्वर और खुद पर विश्वास रख आगे बढ़ता चले। साथ ही वह दु:ख ही नहीं बल्कि सुखों में भी अहं भाव से परे होकर उनको ईश्वर की देन मानकर हमेशा सरल और सहज भाव से देव स्मरण कर जीवन गुजारता चले।

इस तरह श्री हनुमान के इस सूत्र को अपनाने से बड़े से बड़े दु:ख में भी इंसान अस्थिर और अशांत नहीं होता।

जानें, दुर्गासप्तशती का पाठ क्यों है मंगलकारी व चमत्कारी?
जगतजननी दुर्गा आद्यशक्ति पुकारी जाती हैं। शास्त्रों में इसी आद्यशक्ति के अलग-अलग रूपों में जगत के मंगल के लिए प्रकट होने की महिमा बताई गई है। देवी शक्ति के मुख्य रूप से तीन रूप जगत प्रसिद्ध है - महादुर्गा, महालक्ष्मी और महासरस्वती। वहीं नवदुर्गा, दश महाविद्या के रूप में भी देवी के अद्भुत और चमत्कारिक स्वरूप पूजनीय है।

देवी उपासना सांसारिक जीवन के सभी दु:ख व कष्टों का नाश कर अपार सुख देने वाली मानी गई है। यह शक्ति साधना के रूप में भी प्रसिद्ध है। जिसके लिए अनेक धार्मिक विधान, देवी मंत्र, स्त्रोत व स्तुतियों का बहुत महत्व बताया गया है।

इसी कड़ी में दुर्गासप्तशती का पाठ बहुत मंगलकारी और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करने वाला माना गया है। यही कारण है कि दुर्गासप्तशती और उसका हर मंत्र चमत्कारिक भी माना जाता है। यहां जानते हैं दुर्गासप्तशती और उसके मंगलमय प्रभाव से जुड़े अन्य अहम कारण और बातें -

- दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण का अंग है, जो वेदव्यास द्वारा रचित पवित्र पुराणों में एक है। श्री व्यास भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं।

- मार्कण्डेय पुराण में दुर्गासप्तशती के रूप में मार्कण्डेय मुनि द्वारा संपूर्ण जगत की रचना व मनुओं के बारे में बताते हुए जगतजननी देवी भगवती की शक्तियों की स्तुति की गई है।

- इसमें देवी की शक्ति व महिमा उजागर करते सात सौ मंत्रों के शामिल होने से यह सप्तशती नाम से पुकारी जाती है। इसमें देवी की 360 शक्तियों की स्तुति है।

- दुर्गासप्तशती के मंगलकारी होने के पीछे धार्मिक दर्शन है कि जगतपालक विष्णु द्वारा स्वयं भगवान वेद व्यास के रूप में अवतरित होकर शक्ति रहस्य उजागर किया गया है। दूसरा इसमें शामिल पद्य संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। संस्कृत देववाणी कहलाती है। देव कृपा व प्रसन्नता के लिए ही तपोबली महान मुनि और ऋषियों द्वारा इस भाषा का उपयोग कर देव साधनाओं के लिए दुर्गासप्तशती के साथ अन्य देव स्तुतियों और स्त्रोतों की रचना की गई। इसलिए ऋषि-मुनियों की ये स्तुतियां देववाणी के साथ तप के प्रभाव से संकटनाश व अनिष्ट से रक्षा के लिए बहुत असरदार मानी गई है।

यही कारण है कि श्री वेदव्यास रचित मार्कण्डेय पुराण व उसमें शामिल दुर्गासप्तशती भी देव शक्तियों और तप के शुभ प्रभाव से भक्त के लिये मंगलकारी तो होती ही है, साथ ही यह हर कामनासिद्धी का अचूक उपाय भी माना गया है।

एक बात! जो बना दे इंसान ही नहीं भगवान से भी अटूट रिश्ता..
हर रिश्ता विश्वास की मजबूत नींव पर खड़ा रहता है। फिर यह संबंध भक्त का भगवान से हो या इंसान का इंसान से। किसी भी कारण भरोसा कमजोर होते ही रिश्तों में दरार पैदा होती है, जिससे निजी जीवन में तो उथल-पुथल होती है, किंतु पारिवारिक और सामाजिक जीवन भी प्रभावित होता है।

यही कारण है कि रिश्तों में विश्वास को कायम रखने के लिए जिस सूत्र को जीवन में उतारना सबसे जरूरी माना गया है, वह सूत्र चरित्र, व्यक्तित्व, व्यवहार और विचार को इतना पावन बना देता है कि इंसान को शक्ति और आत्मविश्वास से भर हमेशा निर्भय रखता है। शास्त्रों में बताया यह बेजोड़ सूत्र है - सत्य को अपनाना।

शास्त्रों के मुताबिक सत्य ही भगवान है। इसलिए आचरण, विचार, वाणी, कर्म, संकल्प सभी में सत्य का होना ईश्वर का जप ही है। फिर इंसान अगर देव उपासना के धार्मिक कर्मकाण्डों से चूक भी जाए तो भी वह भगवान का कृपा पात्र बना रहता है।

हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में भी सत्य की अहमियत बताते हुए लिखा गया है कि -

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

सरल अर्थ है कि असत्य नाशवान होता है, बल्कि सत्य का कभी नाश नहीं होता, वह अपरिवर्तनशील है।

फिर भी सांसारिक जीवन में नाशवान पदार्थोँ से इंसान मोह करता है, किंतु सत्य जैसे अमरत्व का सूत्र अपनाने में बहुत विचार और तर्क करता है। जबकि सत्य को दृढसंकल्प के साथ अपनाने की कोशिश करे तो वह इंसान की ताकत बन जीवन में शांति व सुख लाकर प्रतिष्ठा और यश का कारण बनता है।

ऐसी भक्ति में डूबने से ही मिलती है भरपूर देव कृपा!
ईश्वरीय सत्ता को मानने वाले हर धर्मावलंबी के लिए ईश्वर से जुडऩे के लिए ज्ञान और कर्म के अलावा एक ओर आसान उपाय बताया गया है। यह तरीका है - भक्ति। भक्ति का मार्ग न केवल ज्ञान और कर्म की तुलना में आसान माना गया है, बल्कि भक्ति के जो रूप बताए गए हैं, वह व्यावहारिक जीवन में अपनाना हर उस इंसान के लिए संभव है, जो देव कृपा से जीवन में सुख और शांति की कामना रखता है।

हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगदगीता में लिखी बात भक्ति के नौ रूप उजागर करती है -

श्रवणं कीर्तनं विष्णों: स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्य्रमात्मनिवेदनम्।।

इसमें भगवान विष्णु की भक्ति के नौ रूप श्रवण यानी सुनकर, कीर्तन, स्मरण, चरणसेवा, पूजन-अर्चन, वन्दना, दास भाव, सखा भाव और समर्पण भाव को बहुत ही शुभ बताया गया है।

यही नहीं भक्ति के इन नो रास्तों से जिन भक्तों ने भगवान की कृपा पाई, उनके नाम भी धर्मग्रंथों में मिलते हैं। जानते है उन 9 विलक्षण और महान भक्तों के नाम उनके द्वारा अपनाए भक्ति मार्ग के साथ -

श्रवण - राजा परीक्षित

कीर्तन - श्री शुकदेवजी

स्मरण - भक्त प्रह्लाद

चरण सेवा - देवी लक्ष्मी

पूजन-अर्चन - राजा पृथु

वन्दना - अक्रूरजी

दास - श्री हनुमान

सखा या मित्र भाव - अर्जुन

समर्पण - राजा बलि

यश और सफलता के ये सूत्र सीखें शिव से..
धार्मिक आस्था से शिव नाम ही जीने की प्रेरणा और ऊर्जा मानी गई है। क्योंकि निराकार रूप में शिव हो या साकार रुप में शंकर, वह सहिष्णुता, उदारता और संयम के महान आदर्श हैं। इन गुणों के बिना जीवन अशांत रहता है। जहां शिव का विष पान जगत के लिए सद्भाव, उदार और सहनशीलता की प्रेरणा देता है, वहीं कामदेव को भस्म करना संयम के साथ सृजन का संदेश देता है।

यही कारण है कि शिव भक्ति सौभाग्य, सुख व मोक्षदायी बताई गई है। शिव भक्ति से ही जुड़े कुछ पौराणिक प्रसंग व्यावहारिक जीवन के लिये भी ऐसे सूत्र बताते हैं जो इंसान की उन्नति और सफलता की राह आसान करते हैं। जानते हैं एक ऐसा ही प्रसंग और उसमें छुपा जीवन सूत्र -

यह प्रसंग है शिव महिमा की अद्भुत स्तुति शिव महिम्र स्त्रोत की रचना का। यह स्त्रोत प्रकृति रूप शिव के निराकार, साकार शक्तियों को उजागर करता है। यह अद्भुत शिव स्त्रोत के रचनाकार गंधर्वराज पुष्पदंत माने जाते हैं।

गंधर्वराज पुष्पदंत ने अपनी खोई दिव्य शक्तियों को शिव के गुण, शक्तियों का गान कर फिर से पा लिया। पुष्पदंत द्वारा की गई शिव की यह स्तुति महिम्र: पद से शुरु हुई। इसलिए इसका नाम शिव महिम्र: स्त्रोत प्रसिद्ध हुआ।

इस शिव स्त्रोत की रचना से जुड़ा दूसरा रहस्य यह भी बताया जाता है कि यह स्वयं भगवान शिव के द्वारा रचा गया। क्योंकि शिवभक्ति से अपने अद्भुत बल को फिर से पाकर गंधर्वराज पुष्पदंत के मन में अहं भाव आ गया था। तब उसके घमण्ड को चूर करने के लिए ही महादेव ने शिव महिम्र स्त्रोत को अपने गण भृंगी के दांतों पर उभारा। तब पुष्पदंत यह समझ नतमस्तक हो गया कि उसके जरिए जगत कल्याण के लिए भगवान शिव ने ही यह स्त्रोत प्रकट किया है।

इस प्रसंग में जीवन से जुड़ा यही सूत्र है कि किसी भी कठिन हालात में अपनी योग्यता, बल और खूबियों को याद रख आत्मविश्वास व मनोबल को बनाएं रखें। तब अपनी बुद्धि, शारीरिक बल या आर्थिक शक्तियों के सदुपयोग से सफलता पाकर अच्छा वक्त फिर से लौट आता है। वैसे ही जैसे गंधर्वराज पुष्पदंत ने अपने बल को पाया।

यही नहीं शिव की भांति संयमशील व पुष्पदंत की तरह अहंकार से परे होने पर यश व सम्मान प्राप्त होता है। सफलता के लिये ऐसी खूबियां हर इंसान के लिये अहम है।

इस तरह शिव से जुड़े अनेक प्रसंग प्रमाण है कि शिव नाम हो या शिव भक्ति दोनों ही जीवन में सुख, सफलता व तरक्की के लिये आत्मविश्वास, मनोबल, आत्मसम्मान बनाए रखने व पाने का बेहतर उपाय है।

यमराज का नगर यमलोक और कैसे होता है आत्मा का पुनर्जन्म?
मौत और मौत के बाद की दुनिया की जितनी भी कल्पना की जाए उसका सही अनुमान लगाना काफी मुश्किल है। मरने के बाद क्या वाकई कोई यमपुरी है जहां आत्मा को ले जाया जाता है? या फिर आत्मा को खुद ही वहां पहुंचना होता है। उसका रास्ता कैसा है? यमपुरी या यमलोक जैसी कोई दुनिया है? या यह केवल कपोल कल्पना मात्र है। ऐसे कई सवालों का जवाब हमारे धर्म ग्रंथों में मिलता है। आइए जानते हैं कि यमलोक के बारे में हमारे धर्म ग्रंथ क्या कहते हैं।
ऐसा है यमपुरी का नजारा
यमपुरी का उल्लेख कई ग्रंथों में मिलता है। जिसमें गरूड़ पुराण, कठोपनिषद, आदि में इसका विस्तृत विवरण मिलता है। मृत्यु के 12 दिन बाद आत्मा यमलोक का सफर शुरू करती है। इन बारह दिनों में वह अपने पुत्रों और रिश्तेदारों द्वारा किए गए पिंड दान के पिंड खाकर शक्ति प्राप्त करती है। बारह दिन बाद सारे उत्तर कार्य खत्म होने पर आत्मा यमलोक के लिए यात्रा को निकलती है। इसे मृत्युलोक यानी पृथ्वी से 86000 योजन दूरी पर माना गया है। एक योजन में करीब 4 किमी की दूरी होती है।

यमलोक के इस रास्ते में वैतरणी नदी का उल्लेख भी मिलता है। यह नदी बहुत भयंकर है, यह विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। इसमें मांस का कीचड़ होता है। अपने जीवन में दान न करने वाले मनुष्य मृत्यु के बाद यमपुरी की यात्रा के समय इस नदी में डूबते हैं और बाद में यमदूतों द्वारा निकाले जाते हैं।

यमपुरी का रास्ता बहुत लंबा है, आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करके 18वें दिन यमपुरी पहुंचती है। यमपुरी में भी एक नदी का वर्णन मिलता है, जिसमें स्वच्छ पानी बहता है, कमल के फूल खिले रहते हैं। इस नदी का नाम है पुष्पोदका।

इसी नदी के किनारे एक वटवृछ है जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। तब तक उसे शरीर त्यागे पूरा एक महीना बीत चुका होता है और इसी वटवृक्ष के नीचे बैठकर वह जीव पुत्रों द्वारा किए गए मासिक पिंडदान के पिंड को खाता है। फिर कुछ नगरों को लांघकर यमराज के सामने पहुंची है। वहां से आत्मा को उसके कर्मों के अनुसार दंड या सम्मान मिलता है।

यम लोक एक लाख योजन क्षेत्र में फैला माना गया है। इसके चार मुख्य द्वार हैं। पूर्व द्वार योगियों, ऋषियों, सिद्धों, यक्षों, गंधर्वों के लिए होता है। यह द्वार हीरे, मोती, नीलम और पुखराज जैसे रत्नों से सजा होता है। यहां गंधर्वों के गीत और अप्सराओं के नृत्य से जीवात्माओं का स्वागत किया जाता है। इसके बाद दूसरा महत्वपूर्ण द्वार है उत्तर द्वार जिसमें विभिन्न रत्न जड़े हैं, यहां वीणा और मृदंग से मंगलगान होता है। यहां दानी, तपी, सत्यवादी, माता,पिता और ब्राह्मणों की सेवा करने वाले लोग आते हैं।

पश्चिम द्वार भी रत्नों से सजा है और यहां भी मंगल गान से जीवों का स्वागत होता है। यहां ऐसे जीवों को प्रवेश मिलता है जिन्होंने तीर्थों में प्राण त्यागे हों या फिर गौ, मित्र, परिवार स्वामी या राष्ट्र की रक्षा में प्राण त्यागे हो। यमपुरी का दक्षिण द्वार सबसे ज्यादा भयानक माना जाता है। यहां हमेशा घोर अंधेरा रहता है। द्वार पर विषैले सांप, बिरूछु, सिंह, भेडि़ए आदि खतरनाक जीव होते हैं जो हर आने वाले को घायल करते हैं। यहां सारे पापियों को प्रवेश मिलता है।

जीव का पुनर्जन्म
हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार जीव को बार-बार जन्म लेना पड़ता है। अपने पिछले जन्म के कर्मों का फल तो वह नर्क की यातनाओं से भोगता है और कुछ उसे अपने अगले जन्म में भोगना पड़ते हैं। इस बारे में ज्योतिष शास्त्र का अपना अलग मत है। गरूड़ पुराण के अनुसार जीव पहला शरीर छोडऩे के बाद पहले अपने कर्मों के अनुसार फल भोगता है। उसे तरह-तरह की यातनाएं दी जाती हैं। कई वर्षों तक नारकीय यातनाओं के बाद उसे फिर जन्म दिया जाता है।

वह अपने कर्मों के अनुसार ही स्वर्ग भी पाता है। यहां स्वर्ग की भी कई श्रेणियां मानी गई हैं। जिसमें से मध्यम श्रेणी के स्वर्ग का अधिपति इंद्र को माना गया है। इससे भी ऊंचे स्वर्ग माने गए हैं। अच्छे कर्मों के कारण जीवों को यहां सुख भोगने को मिलता है। सुख भोगने के बाद भी उसकी अवधि समाप्त होने पर उस जीव को दोबारा जन्म लेना पड़ता है।

वहीं ज्योतिष शास्त्र का विचार थोड़ा ज्यादा तर्कसंगत और वैज्ञानिक है। ज्योतिष शास्त्र में माना जाता है कि कोई भी जीव दूसरा जन्म तब लेता है जब उसके पूर्व जन्म के कर्मफल के अनुसार ग्रह दशाएं बनती हैं। तब वह जीव अपनी माता के गर्भ में आता है और फिर वैसे ही मिलते-जुलते ग्रह नक्षत्रों में वह जन्म भी लेता है। इसकी कोई अवधि निश्चित नहीं होती है। इसमें सदियां भी लग सकती हैं।

एक युद्ध...जो सिर्फ मुक्कों के दम पर चला हजारों साल!
धर्मशास्त्र और मानव सभ्यता का इतिहास उजागर करते हैं कि धर्म रक्षा और अधर्म के नाश के लिये अनेक बड़े युद्ध लड़े गए। राम-रावण हो या महाभारत युद्ध दोनों ने ही जीवन में धर्म, सत्य पालन का जो संदेश दिया, वह युग-युगान्तर से मानव को सुख और सफल जीवन की राह बताता है।

वैसे युद्ध युक्तियों, रणनीतियों और अस्त्र-शस्त्र कलाओं के बूते लड़े जाते हैं। किंतु धर्मशास्त्रों में ही अनेक ऐसी कलाओं का वर्णन भी मिलता है, जिनके द्वारा बिना हथियार युद्ध कर शत्रु को पस्त करने का वर्णन मिलता है।

शास्त्रों के मुताबिक शरीर, हाव-भाव, व्यवहार से जुड़ी अनेक कलाएं है, जिनकी गणना भी संभव नहीं। किंतु मुख्य रूप से 64 कलाएं प्रसिद्ध है। ऐसी ही कलाओं में से एक कला के उपयोग द्वारा जगत कल्याण के लिए एक युद्ध जीता गया।

पुराणों के मुताबिक यह युद्ध जगतजननी दुर्गा और मधुकैटभ के बीच हुआ। जिसमें भगवान विष्णु द्वारा मधुकैटभ दैत्यों से बाहुयुद्ध करने का वर्णन है, जो ऐसी कला का अंग है, जिसे युद्ध या कुश्ती कला के नाम से भी जाना जाता है।

शरीर के अंगो की खींचतान और जोड़ों पर प्रहार करना इस कुश्ती कला की खूबी है। इसी कला के एक रुप बाहुयुद्ध में शस्त्रों का उपयोग न कर मात्र मुष्टि यानी मुक्कों द्वारा प्रहार किया जाता है। द्वापर युग में भगवान कृष्ण द्वारा भी इसी कला से कंस, चाणूर जैसे दैत्यों का वध किया गया। शास्त्रों में यह युद्ध कला मरनेवाले को अपयश का भागी और जीतने वाले को अपार यश देने वाली मानी गई है। क्योंकि यह दुश्मन के अहं का अंत करती है। इसलिए शत्रु के प्राणों के अंत होने तक बाहुयुद्ध करने पर जोर दिया गया है।

इसी तरह का बाहुयुद्ध कर भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ का अंत कर जगतजननी की कृपा से जगत के दु:खों का नाश किया। जिसका वर्णन सप्तशती में मिलता है। लिखा है कि -

मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ।

क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्मौ।

समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरि:।

पञ्चवर्षसहस्त्राणि बाहुप्रहरणो विभु:।।

श्री हनुमान को गुरु बना सीखें सफलता के ये गुरु मंत्र
हिन्दू संस्कृति रिश्तों और जीवन मूल्यों के प्रति विश्वास, समर्पण व सम्मान का जज्बा बनाए रखने वाले सूत्रों और महान आदर्शों का खजाना है। इसी खजाने का एक अनमोल सूत्र है - गुरु पूर्णिमा उत्सव। गुरु पूर्णिमा गुरु भक्ति, वंदना और कृपा से जीवन को शांत, सुखी और सफल बनाने के लक्ष्य से बहुत शुभ घड़ी है।

गुरु और शिष्य का संबंध तमाम सांसारिक रिश्तों में श्रेष्ठ और ऊपर माना गया है। क्योंकि धर्म, अध्यात्म हो या व्यावहारिक जीवन किसी भी क्षेत्र में गुरु की ज्ञान व शक्ति की ऊर्जा व रोशनी शिष्य के चरित्र, व्यक्तित्व और व्यवहार को उजला बनाकर जीवन के तमाम दोष, दुर्गण और विकार रूपी अंधकार का नाश करती है।

भौतिक सुखों से भरे आज के माहौल में अनेक लोग अंदर और बाहरी द्वंद्व या संघर्ष से आहत हो सुख की राह पाने के लिये जूझते हैं। ऐसी मानसिक और व्यावहारिक मुश्किलों में एक श्रेष्ठ गुरु मिलना कठिन हो जाता है। अगर आप भी संकटमोचक गुरु की आस रखते हैं तो गुरु पूर्णिमा की शुभ घड़ी में यहां बताए जा रहे सूत्र से आप एक श्रेष्ठ गुरु पा सकते हैं।

यह अनमोल सूत्र है - संकटमोचक हनुमान को इष्ट बनाकर गुरु के समान सेवा, भक्ति। पूर्णिमा तिथि पर श्री हनुमान उपासना शुभ मानी जाती है। क्योंकि श्री हनुमान का जन्म भी पूर्णिमा तिथि पर माना गया है। श्री हनुमान को गुरु मान उनके चरित्र का स्मरण सफल जीवन के लिए मार्गदर्शन ही नहीं करता है, बल्कि संकटमोचक भी साबित होता है। सीखें हनुमान चरित्र से कामयाबी के कुछ खास गुरु मंत्र -

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हनुमान भक्ति के रची गई हनुमान चालीसा की शुरुआत गुरु स्मरण से ही होती है। जिसमें श्री हनुमान के प्रति भी गुरु भक्ति का भाव छुपा है। ऐसे ही गुरु भाव से हनुमान का स्मरण कर नीचे लिखे सूत्रों को अपनाएं -

विनम्रता - गुण और शक्ति संपन्न होने पर भी हनुमान अहंकार से मुक्त रहे। सीख है कि किसी भी रुप में अहं को स्थान न दे। हमेशा नम्रता और सीखने का भाव मन में कायम रखें।

मान और समर्पण - श्री हनुमान ने हर रिश्तों को मान दिया और उसके प्रति समर्पित रहे, फिर चाहे वह माता हो, वानर राज सुग्रीव या अपने इष्ट भगवान राम । संदेश है कि परिवार और अपने क्षेत्र से जुड़े हर संबंध में मधुरता बनाए रखें। क्योंकि इन रिश्तों के प्रेम, सहयोग और विश्वास से मिली ऊर्जा, उत्साह और दुआएं आपकी सफलता तय कर देती है।

धैर्य और निर्भयता - श्री हनुमान के धैर्य और निडरता का सूत्र जीवन की तमाम मुश्किल हालातों में भी मनोबल देता है। जिसके दम पर ही लंका में जाकर हनुमान ने रावण राज के अंत का बिगुल बजाया।

कृतज्ञता - जीवन में दंभ रहित या आत्म प्रशंसा का भाव पतन का कारण होते हैं। श्री हनुमान से कृतज्ञता के भाव सीख जीवन में उतारे। अपनी हर सफलता में परिजनों, इष्टजनों और बड़ों का योगदान न भूलें। जैसे हनुमान ने अपनी तमाम सफलता का कारण श्रीराम को ही बताया।

विवेक और निर्णय क्षमता - श्री हनुमान ने माता सीता की खोज में समुद्र पार करते वक्त सुरसा, सिंहिका, मेनाक पर्वत जैसी अनेक बाधाओं का सामना किया। किं तु बुद्धि, विवेक और सही निर्णय लेकर बिना प्रलोभन और डावांडोल हुए अपने लक्ष्य की ओर बढें। आप भी जीवन में सही और गलत की पहचान कर अपने मकसद को कभी न छोड़े।

तालमेल की क्षमता - श्री हनुमान ने अपने स्वभाव व व्यवहार से हर स्थिति, काल और अवसर से तालमेल बैठाया बल्कि हर युग और काल में सबके प्रिय बने। हनुमान के इस सूत्र से आप भी अपने बोल, व्यवहार और स्वभाव में सेवा, प्रेम और मधुरता घोलकर सभी का भरोसा और प्रेम पाकर सफलता की ऊंचाईयों को पा सकते हैं, ठीक श्री हनुमान की तरह।

जानें, क्यों शिव भक्ति के काल को पुकारा जाता है 'श्रावण'?
हिंदू वर्ष का पांचवा माह श्रावण (16 जुलाई से) शिव भक्ति का काल होने से बहुत ही पुण्य काल माना गया है। लोक भाषा में इसे ही सरल रूप में सावन भी कहा जाता है। शिव उपासना के इस विशेष माह को श्रावण पुकारने के पीछे भी धार्मिक महत्व और कालगणना के आधार हैं।

दरअसल, हिन्दू पंचांग में भारतीय कालगणना और ज्योतिष शास्त्रों के मुताबिक हर माह और दिन का नाम नियत हैं। हिन्दू वर्ष की शुरुआत चैत्र मास से होती है। हर माह ग्रह-नक्षत्रों की चाल और स्थिति में बदलाव होता है। इसी क्रम में पांचवे माह श्रावण में या इसकी पूर्णिमा तिथि के साथ आसमान में श्रवण नक्षत्र का योग बनता है। यही कारण है कि इसी नक्षत्र के नाम से यह माह श्रावण नाम से प्रसिद्ध है।

वहीं धार्मिक महत्व के नजरिए से श्रावण, भादौ, आश्विन और कार्तिक चातुर्मास के चार माह होते हैं। चातुर्मास धर्म और आध्यात्मिक साधनाओं का विशेष और पुण्य काल माना गया है। जिसमें संत से लेकर साधारण इंसान भी भक्ति और उपासना में डूबा रहता है। क्योंकि सावन से शिव भक्ति से शुरु सिलसिला आगामी महिनों में शिव परिवार के अन्य सदस्यों की भक्ति और उपासना के रूप में जारी रहता है। जिनमें भादौ मास श्री गणेश का तो आश्विन मास और कार्तिक देवी उपासना का विशेष काल है।

शिव कल्याणकारी देवता है। श्रावण में उनकी भक्ति से शुरू हुई शुभ और मंगल कामनाओं का दौर अगले चार माहों में गणेश उत्सव व देवी आराधना के पर्व और त्यौहारों के द्वारा मन व जीवन को शक्ति, ऊर्जा और नए विचारों से भर देते हैं।

इसलिए सावन में चमत्कारी होती है शिव पूजा
शिव की सत्ता में विश्वास करने वाले शैव ग्रंथों में भगवान शिव सृष्टि की रचना, पालन और विनाशक शक्तियों के स्वामी हैं। यही कारण है कि शिव आराधना किसी भी वक्त, काल और युग में सांसारिक बाधाओं को दूर करने वाली मानी गई है। लेकिन सावन माह, उसकी तिथियां या सोमवार पर शिव भक्ति जल्द मनोरथ सिद्धि की दृष्टि से बाकी माहों व तिथियों से तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ मानी गई है। इसके पीछे धर्मग्रंथों में बताई कुछ खास पौराणिक मान्यताएं हैं -

एक पौराणिक मान्यता के मुताबिक मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में ही घोर तप कर शिव कृपा प्राप्त की। जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हुए।

इसी तरह ही दूसरी मान्यता है - अमरनाथ गुफा में भगवान शंकर द्वारा माता पार्वती के सामने अमरत्व का रहस्य उजागर करना।

जिसके मुताबिक अमरनाथ की गुफा में जब भगवान शंकर अमरत्व की कथा सुनाने लगे तो इस दौरान माता पार्वती को कुछ समय के लिए नींद आ गई। किंतु उसी वक्त इस कहानी को वहां उपस्थित शुक यानि तोते ने सुना। जिससे वह शुक अमरत्व को प्राप्त हुआ। तब गोपनीयता भंग होने से भगवान शंकर के कोप से बचकर निकला यही शुक बाद में शुकदेव जी के रुप में जन्मा। जिन्होंने नैमिषारण्य क्षेत्र में यही अमर कथा भक्तों को सुनाई।

मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान शंकर ने ब्रह्मा और विष्णु के सामने सृष्टि चक्र की रक्षा और जगत कल्याण के लिए शाप दिया कि आने वाले युगों में इस अमर कथा को सुनने वाले अमर न होंगे। किंतु इस कथा को सुनकर हर भक्त पूर्व जन्म और वर्तमान जन्म में किए पाप और दोषों से मुक्त होकर शिवलोक को प्राप्त होगें। विशेष रूप से सावन के माह में इस अमर कथा का पाठ या श्रवण जनम-मरण के बंधन मुक्त कर देगा।

ऐसे पौराणिक महत्व से ही श्रावण मास में शिव आराधना को शुभ और शीघ्र फलदायी माना जाता है। जिसमें शिव पूजा, अभिषेक, शिव स्तुति, मंत्र जप, शिव कथा को पढऩा-सुनना सभी सांसारिक कलह, अशांति व संकटों से रक्षा करते हैं। श्रावण मास में शिव उपासना ग्रह दोष और पीड़ा का अंत करने वाली भी मानी गई है।

इन बेजोड़ गुणों से शिव हैं 'महादेव'
शिव, महादेव यानी देवों के भी देवता कहलाते हैं। हालांकि देवत्व भाव ही वंदनीय होने से सभी देवता भी पूजनीय है। शिव भी गुणातीत यानी उनके गुणों की महिमा अपार, अनंत है। किंतु शिव के सभी देवताओं में सर्वश्रेष्ठ होने के पीछे सांसारिक और व्यावहारिक नजरिए से शिव चरित्र के कुछ खास गुण महत्व रखते हैं।

दरअसल जीवन के लिए दो बाते अहम हैं - पहली रचना, उत्पत्ति या सृजन चक्र। दूसरा आजीविका।

इन दोनों लक्ष्य को पाने और कायम रखने के लिए यहां बताए तीन गुण अहम हैं या यूं कहें कि इनके बिना न सृजन, न ही जीवन को चलाना संभव है। इन तीन बजोड़ गुणों से संपन्नता शिव चरित्र की विशेषता है। जानते हैं ये तीन गुण -

पावनता - शुद्धता, पावनता या पवित्रता के अभाव में मानव जन्म हो या किसी वस्तु की रचना दोषपूर्ण हो जाती है। शिव चरित्र व उनका निराकार स्वरूप शिवलिंग भी सृजन का प्रतीक होकर जीवन व व्यवहार में पावनता और संयम का संदेश देता है। शिव का संयम और वैराग्य दोनों ही तन-मन की पवित्रता की सीख हैं।

ज्ञान - शिक्षा या ज्ञान के अभाव में जीवनयापन संघर्ष और संकट भरा हो जाता है। यही कारण है कि ज्ञान व बुद्धि के मेलजोल से बेहतर आजीविका के रास्ते खुल जाते हैं। भगवान शिव भी जीवन के लिए जरूरी ज्ञान, कलाओं, गुण और शक्तियों के स्वामी होने से जगतगुरु भी पुकारे जाते हैं, जो धर्मशास्त्र, तंत्र-मंत्र और नृत्य के रूप में जगत को मिले।

पुरुषार्थ - जीवन के लक्ष्यों को पाने के लिए संकल्पों के साथ पूरी तरह डूबकर परिश्रम को अपनाना ही पुरुषार्थ का भाव है। जिसे धर्म या अध्यात्म क्षेत्र में साधना या तप के रूप में भी जाना जाता है। भगवान भी शिव महायोगी, तपस्वी माने गए हैं। शिव का योग व तप जीवन में सुख, सफलता व शांति के लिये पुरुषार्थ की अहमियत बताता है। मन, तन के आलस्य से परे श्रम के द्वारा जीवन को साधना ही शिव के बेजोड़ तप और योग का संदेश है।

शिव चरित्र की ये तीन खासियत इंसानी जीवन में गहरी अहमियत रखने से भक्तों के मन में श्रद्धा और आस्था पैदा कर शिव भक्ति और उपासना को सर्वोपरि बनाती है। साथ ही शिव के महादेव स्वरूप को हृदय में बसाए रखती है।

इसलिए शिव मानस पूजा से संभव है शिव से साक्षात्कार
मन को साधने पर हर कार्य संभव है। विचलित मन ही हर काम में नाकामी का कारण बनता है। भक्ति में भी यही अहम सूत्र लागू होता है। भगवान से जुडऩे या एहसास के लिए मन को संतुलित और एकाग्र करना जरूरी है। मन की पावना और स्थिरता से ही भाव जागते हैं। क्योंकि भाव मन के द्वारा नियंत्रित होते हैं। भक्ति में भाव की ही अहमियत मानी जाती है।

मानसिक और भाव शुद्धि के साथ देव पूजा कर शक्ति, विश्वास और सफलता पाने के लिए ही धर्मशास्त्रों में मानस पूजा यानी मानसिक भावों से देव पूजा बहुत ही मंगलकारी मानी गई है। सरल शब्दों में कहें तो इसमें भौतिक वस्तुओं या पदार्थों जैसे गंध, फूल शरीर द्वारा देवता को अर्पित नहीं किए जाते, बल्कि मानसिक भावों से पूजा सामग्रियों जिनको मानस पूजा सामग्री भी कहते हैं, चढ़ाई जाती है।

मानस पूजा परंपरा में ही हिन्दू धर्म में भगवान शिव की मानस पूजा का खास महत्व है। शास्त्रों में कुदरत का हर कण शिव स्वरूप बताया गया है। लिहाजा मानसिक भावों ओर कल्पना से जब गंध, फूल, वस्त्र, नैवेद्य शिव को अर्पित करते हैं तो कण-कण में शिव के बसने का एहसास और शिव दर्शन होता है।

पुराणों के मुताबिक शिव अनादि, अनंत, अव्यक्त हैं। वह निराकार भी हैं और साकार ब्रह्म भी। शिव मृत्युलोक के देवता हैं। फिर भी वह आशुतोष यानी जल्दी प्रसन्न होने वाले भोले देवता के रूप में पूजनीय है।

यही कारण है कि शिव कृपा के लिए सावन माह, उसकी तिथियों जैसे अष्टमी, चतुर्दशी, सोमवार पर व्रत, उपवास में शिव मानस पूजा पाठ बहुत शुभ माना गया है। शिव मानस पूजा से हर भक्त शरीर, हृदय, मस्तिष्क, इंदियों से शिव के स्मरण में डूब जाता है। जिससे उसके हर बुरे भावों व मानसिक दोषों अंत होकर मन पावन हो जाता है।

शास्त्र कहते हैं कि अनेक बाहरी फूलों को चढ़ाने का फल मात्र एक मानस फूल के अर्पण से ही प्राप्त होता है। इसी तरह सभी मानस पूजा सामग्रियां भी श्रेष्ठ हैं। जो मानसिक भावों से शिव को चढ़ाने पर सारे क्लेशों और अनिष्ट को मिटाने वाली मानी गई है।

इस तरह शिव मानस पूजा से मन को साधकर महादेव को वह दिव्य और अनमोल सामग्री भी चढ़ाई जा सकती है, जो सांसारिक जीवन में दुर्लभ व संभव नहीं। यहीं नहीं इससे सधा मन व्यक्तित्व, चरित्र और स्वभाव में निखार भी लाता है। जिसे शिव कृपा या दर्शन का फल माने तो अतिशयोक्ति न होगी।

काल भी थर्राता है शिव के इस करिश्माई रूप से..

शास्त्रों में शिव के अनेक कल्याणकारी रूप और नाम की महिमा बताई गई है। शिव ने विषपान किया तो नीलकंठ कहलाए, गंगा को सिर पर धारण किया तो गंगाधर पुकारे गए। भूतों के स्वामी होने से भूतभावन भी कहलाते हैं।

इसी क्रम में शिव का एक अद्भुत स्वरूप हैं - मृत्युञ्जय। माना गया है कि शिव इस स्वरूप की दिव्य शक्तियों के आगे काल भी पराजित हो जाता है। मृत्युञ्जय का मतलब भी होता है - मृत्यु को जीतने वाला। काल के अलावा यह शिव शक्ति सभी सांसारिक पीड़ा व भय को हर लेती है। शिव द्वारा भयंकर जहर पीना इस बात को जाहिर करता है।

ऐसा है मृत्युञ्जय स्वरूप -

शास्त्रों के मुताबिक शिव का मृत्युञ्जय स्वरुप अष्टभुजाधारी है। सिर पर बालचन्द्र धारण किए हुए हैं। कमल पर विराजित हैं। ऊपर के हाथों से स्वयं पर अमृत कलश से अमृत धारा अर्पित कर रहें हैं। बीच के दो हाथों में रुद्राक्ष माला व मृगमुद्रा। नीचे के हाथों में अमृत कलश थामें हैं।

कैसे पराजित होता है काल?

महामृत्युञ्जय के मृत्यु को पराजित करने के पीछे शास्त्रों के मुताबिक यह भी दर्शन है कि असल में यह स्वरुप आनंद, विज्ञान, मन, प्राण व वाक यानी शब्द, वाणी, बोल इन पांच कलाओं का स्वामी है। व्यावहारिक जीवन में भी जो इंसान इन कलाओं से माहिर और पूर्ण होता है। वह सुखी, निरोगी, पीड़ा और तनाव मुक्त हो दीर्घ काल तक जीवन जी सकता है।

यही कारण है कि आनंद स्वरूप महामृत्युञ्जय शिव की उपासना से मिलने वाली प्रसन्नता से मौत ही मात नहीं खाती बल्कि निर्भय व निरोगी जीवन भी प्राप्त होता है। जिसके लिए महामृत्युञ्जय मंत्र का स्मरण भी बेहद असरदार माना गया है।

इसलिए शिव उपासना में जरूरी है बिल्वपत्र

इंसानी जीवन में प्रकृति का कल्याणकारी रूप भोजन, वायु और जल और प्राकृतिक सौंदर्य के साथ अनेक रूपों में तन, मन का पोषण देने वाला होता है। उसी तरह प्राकृतिक आपदाएं विनाशक रूप में भी सामने आती है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में भगवान शिव को प्रकृति रूप माना जाकर उनकी रचना, पालन और संहार शक्तियों की वंदना की गई है।

यही कारण है कि भगवान शिव की उपासना में भी प्राकृतिक फूल-पत्र, फल के चढ़ावे का विशेष महत्व है। इसी कड़ी में शिव को बेलपत्र या बिल्वपत्र का चढ़ावा बहुत ही पुण्यदायी माना गया है। मान्यता है कि शिव को तीन पत्तियों के बिल्वपत्र अर्पण से तीन जन्मों का पाप नाश होने के साथ सुख-वैभव की हर कामना पूरी हो जाती है।

यही नहीं शिवपुराण में बिल्वपत्र के वृक्ष की जड़ में शिव का वास माना गया है। इसलिए बिल्वपत्र की जड़ में गंगाजल के अर्पण का महत्व है, जो शिव पूजा व तीर्थ दर्शन, यात्रा व स्नान का पुण्य देने वाला बताया गया है।

शिव और बिल्वपत्र पूजा के रूप प्रकृति पूजा का व्यावहारिक और वैज्ञानिक पहलू यही है कि यह शिव पूजा द्वारा धर्म मार्ग से प्रकृति से प्रति प्रेम और उसे सहेजने की सीख है। क्योंकि कुदरत के नियमों या उसकी किसी भी रूप में हानि जीवन के लिए घातक है।

इसी तरह प्रकृति और सावन में बारिश के मौसम के साथ तालमेल बैठाने के जरियों में बिल्वपत्र भी गुणकारी माना गया है, जिसका सेवन सूर्य के प्रकाश के अभाव में वात, पित्त, कफ व पाचन क्रिया के दोषों से पैदा बीमारियों से रक्षा करता है। यह त्वचा रोग और मधुमेह को बुरे प्रभाव बढऩे से भी रोकता है व तन के साथ मन को चुस्त-दुरुस्त रखता है।

इस तरह सावन में शिव भक्ति में बिल्वपत्र न केवल धार्मिक बल्कि जीवन के नजरिए से भी मंगलकारी है।

36 नर्क, किस पाप के लिए मिलती है कौन सी सजा?
स्वर्ग और नर्क की अवधारणा कोई नई नहीं है। हिंदू धर्म ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों ने भी स्वर्ग और नर्क के अस्तित्व को माना है। अच्छे कर्मों के लिए स्वर्ग यानी जन्नत और बुरे कर्मों के लिए नर्क यानी जहन्नुम की व्यवस्था दी गई है।

हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों ने 36 तरह के मुख्य नर्कों का वर्णन किया गया है। अलग-अलग कर्मों के लिए इन नर्कों में सजा का प्रावधान भी माना गया है। गरूड़ पुराण, अग्रिपुराण, कठोपनिषद जैसे प्रामाणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।

कई विद्वानों का मत है कि स्वर्ग और नर्क जैसे कोई लोक पृथ्वी के ऊपर नहीं है, इसी दुनिया में व्यक्ति को अपने कर्मों की सजा भुगतनी पड़ती है। कई मनीषी यह भी मानते हैं कि यह नर्क और स्वर्ग प्रतीकात्मक हैं, इनमें दी जाने वाली सजा व्यक्ति धरती पर ही झेलता है। फिर भी आइए जानते हैं 36 तरह के नर्क कौन से हैं और किस पाप के लिए जीवात्मा को क्या दंड मिलता है।

महावीचि - यह नर्क पूरी तरह रक्त यानी खून से भरा है और इसमें लोहे के बड़े-बड़े कांटें हैं। जो लोग गो-हत्या करते हैं उन्हें इस नर्क में यातना भुगतनी पड़ती है।

कुंभीपाक - इस नर्क की जमीन गरम बालू और अंगारों से भरी है। जो लोग किसी की भूमि हड़पते हैं या ब्राह्मण की हत्या करते हैं। उन्हें इस नर्क में आना पड़ता है।

रौरव - यह लोहे के जलते हुए तीर होते हैं। जो लोग झूठी गवाही देते हैं उन्हें इन तीरों से बींधा जाता है।

मंजूष - यह जलते हुए लोहे जैसी धरती वाला नर्क है। यहां उनको सजा मिलती है जो दूसरों को निरपराध बंदी बनाते हैं या कैद में रखते हैं।

अप्रतिष्ठ - यह पीब, मूत्र और उल्टी से भरा नर्क है। यहां वे लोग यातना पाते हैं जो ब्राह्मणों को पीड़ा देते हैं या सताते हैं।

विलेपक - यह लाख की आग से जलने वाला नर्क है। यहां उन ब्राह्मणों को जलाया जाता है जो शराब पीते हैं।

महाप्रभ - यहां एक बहुत बड़ा लोहे का नुकीला तीर है। जो लोग पति-पत्नी में फूट डालते हैं, पति-पत्नी के रिश्ते तुड़वाते हैं वे यहां इस तीर में पिरोए जाते हैं।

जयंती - यहां जीवात्माओं को लोहे की बड़ी चट्टान के नीचे दबाकर सजा दी जाती है। जो लोग पराई औरतों के साथ संभोग करते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।

शाल्मलि - यह जलते हुए कांटों से भरा नर्क है। जो औरत कई पुरुषों से संभोग करे, जो व्यक्ति हमेशा झूठ बोले, कड़वा बोले, दूसरों के धन और स्त्री पर नजर डाले, पुत्रवधु, पुत्री, बहन आदि से शारीरिक संबंध रखे, वृद्ध की हत्या करे, ऐसे लोगों को यहां लाया जाता है।

महारौरव - इस नर्क में चारों तरफ आग ही आग होती है। जैसे किसी भट्टी में होती है। जो लोग दूसरों के घर, खेत, खलिहान या गोदाम में आग लगाते हैं वे यहां जलाए जाते हैं।

तामिस्र - इस नर्क में लोहे की पट्टियों और मुग्दरों से पिटाई की जाती है। यहां चोरों को यातना मिलती है।

महातामिस्र - इस नर्क में जौंके भरी हुई हैं, जो इंसान का रक्त चूसती हैं। माता, पिता और मित्र की हत्या करने वाले को इस नर्क में जाना पड़ता है।

असिपत्रवन - यह नर्क एक जंगल की तरह है जिसके पेड़ों पर पत्तों की जगह तीखी तरवारें और खड्ग हैं। मित्रों से दगा करने वाला इंसान इस नर्क में गिराया जाता है।

करम्भ बालुका - यह नर्क एक कुएं की तरह है जिसमें गर्म बालूरेत और अंगारे भरे हुए हैं। जो लोग दूसरे जीवों को जलाते हैं, वे इस कुए में गिराए जाते हैं।

काकोल - यह पीब और कीड़ों से भरा नर्क है। जो लोग छुप-छुप कर अकेले ही मिठाई खाते हैं, दूसरों को नहीं देते, वे इस नर्क में लाए जाते हैं।

कुड्मल - यह मूत्र, पीब और विष्ठा (उल्टी) से भरा है। जो लोग दैनिक जीवन में पंचयज्ञों का अनुष्ठान नहीं करते वे इस नर्क में आते हैं।

महाभीम - यह नर्क बदबूदार मांस और रक्त से भरा है। जो लोग ऐसी चीजें खाते हैं जिनका शास्त्रों ने निषेध बताया है, वो लोग इस नर्क में गिरते हैं।

महावट - इस नर्क में मुर्दे और कीड़े भरे हैं, जो लोग अपनी लड़कियों को बेचते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।

तिलपाक - यहां दूसरों को सताने, पीड़ा देने वाले लोगों को तिल की तरह पेरा जाता है। जैसे तिल का तेल निकाला जाता है, ठीक उसी तरह।

तैलपाक - इस नर्क में खौलता हुआ तेल भरा है। जो लोग मित्रों या शरणागतों की हत्या करते हैं वे यहां इस तेल में तले जाते हैं।

वज्रकपाट - यहां वज्रों की पूरी श्रंखला बनी है। जो लोग दूध बेचने का व्यवसाय करते हैं, वे यहां प्रताडऩा पाते हैं।

निरुच्छवास - इस नर्क में अंधेरा है, यहां वायु नहीं होती। जो लोग दिए जा रहे दान में विघ्र डालते हैं वे यहां फेंके जाते हैं।

अंगारोपच्य - यह नर्क अंगारों से भरा है। जो लोग दान देने का वादा करके भी दान देने से मुकर जाते हैं। वे यहां जलाए जाते हैं।

महापायी - यह नर्क हर तरह की गंदगी से भरा है। हमेशा असत्य बोलने वाले यहां औंधे मुंह गिराए जाते हैं।

महाज्वाल - इस नर्क में हर तरफ आग है। जो लोग हमेशा ही पाप में लगे रहते हैं वे इसमें जलाए जाते हैं।

क्रकच - इस नर्क में तीखे आरे लगे हैं। जो लोग ऐसी महिलाओं से संभोग करते हैं, जिसके लिए शास्त्रों ने निषेध किया है, वे लोग इन्हीं आरों से चीरे जाते हैं।

गुड़पाक - यहां चारों ओर गरम गुड़ के कुंड हैं। जो लोग समाज में वर्णसंकरता फैलाते हैं, वे इस गुड़ में पकाए जाते हैं।

क्षुरधार - यह नर्क तीखे उस्तुरों से भरा है। ब्राह्मणों की भूमि हड़पने वाले यहां काटे जाते हैं।

अम्बरीष - यहां प्रलय अग्रि के समान आग जलती है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, वे इस आग में जलाए जाते हैं।

वज्रकुठार - यह नर्क वज्रों से भरा है। जो लोग पेड़ काटते हैं वे यहां लंबे समय तक वज्रों से पीटे जाते हैं।

परिताप - यह नर्क भी आग से जल रहा है। जो लोग दूसरों को जहर देते हैं या मधु की चोरी करते हैं, वे यहां जलाए जाते हैं।

काल सूत्र - यह वज्र के समान सूत से बना है। जो लोग दूसरों की खेती नष्ट करते हैं। वे यहां सजा पाते हैं।

कश्मल - यह नर्क नाक और मुंह की गंदगी से भरा होता है। जो लोग मांसाहार में ज्यादा रुचि रखते हैं वे यहां गिराए जाते हैं।

उग्रगंध - यह लार, मूत्र, विष्ठा और अन्य गंदगियों से भरा नर्क है। जो लोग पितरों को पिंडदान नहीं करते, वे यहां लाए जाते हैं।

दुर्धर - यह नर्क जौंक और बिच्छुओं से भरा है। सूदखोर और ब्याज का धंधा करने वाले इस नर्क में भेजे जाते हैं।

वज्रमहापीड - यहां लोहे के भारी वज्र से मारा जाता है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, किसी प्राणी की हत्याकर उसे खाते हैं, दूसरों के आसन, शय्या और वस्त्र चुराते हैं, जो दूसरों के फल चुराते हैं, धर्म को नहीं मानते ऐसे सारे लोग यहां लाए जाते हैं।

शिव चरित्र में है नाकामी से बचने का यह सूत्र
जीवन में असफलता का सामना करने से हर कोई बचना चाहता है। इसके पीछे है नाकामी से जुड़ा नकारात्मक नजरिया है। जबकि असफलता से सबक ही जोरदार कामयाबी का राज होता है। सफलता के ऐसे ही सूत्र धर्मग्रंथों में देव चरित्रों में भी छुपे हैं। इसलिए यहां बताया जा रहा है शिव स्वरूप में छुपा सुखी और सफल जीवन का रहस्य -

शिव स्वरूप में त्रिशूल अहम अंग है। त्रिशूल का शाब्दिक अर्थ है त्रि यानी तीन और शूल यानी कांटा। त्रिशूल धारण करने से ही भगवान शिव, शूलपाणि यानी त्रिशूल धारण करने वाले देवता के रूप में भी वंदनीय है। इसके पीछे धार्मिक दर्शन है कि हालांकि त्रिशूल घातक और अचूक शस्त्र है। किंतु सांसारिक नजरिए से यह कल्याणकारी है। क्योंकि त्रिशूल के तीन कांटे जगत में फैले रज, तम और सत्व गुणों का प्रतीक हैं।

दरअसल, इन तीन गुणों में दोष होने पर ही कर्म, विचार और स्वभाव भी विकृत होते हैं, जो सभी दैहिक, भौतिक और मानसिक पीड़ाओं का कारण बन शूल यानी कांटे की तरह चुभकर असफल जीवन का कारण बनते हैं।

शिव के हाथों में त्रिशूल संकेत है कि महादेव इन तीन गुणों पर नियंत्रणकरते हैं। शिव त्रिशूल धारण कर यही संदेश देते हैं कि इन तीन गुणों में संतुलन और समायोजन के द्वारा ही व्यक्तिगत जीवन के साथ सांसारिक जीवन में भी सुखी और समृद्ध बन सकता है। अन्यथा कलहपूर्ण, कटु और असफल जीवन की पीड़ाओं को भोगना पड़ता है।

इसलिए शिव का नाम है 'हर'
सावन में चारों ओर शिव नाम की गूंज होती है। शास्त्र कहते हैं कि शिव नाम और गुणों की महिमा अनंत, अपार है। सरल शब्दों में समझें तो शिव ऐसे अव्यक्त, अनंत स्वरूप देवता हैं, शिव के गुण व शक्तियों की गिनती साधारण इंसान के लिए संभव नहीं।

शास्त्रों में लिखी एक बात शिव के गुणातीत स्वरूप को उजागर भी करती है। जिसके मुताबिक अगर पर्वत जितना काजल लेकर उसे समुद्र जैसी दवात में भरकर कल्पवृक्ष रूपी कलम से पृथ्वी रूपी कागज पर स्वयं ज्ञान की देवी सरस्वती शिव के गुणों को लिखना शुरू करें तो शिव के गुण व शक्तियों का वर्णन खत्म नहीं होगा।

भगवान शिव के ऐसे ही गुण व शक्तियों से जुड़ा है एक नाम, जिसे खासतौर पर सावन में हर शिव भक्त की कंठ में बसता है। यह नाम है - हर। खासतौर पर हर-हर महादेव का जयकारा हर शिव भक्त बोलता है।

'हर' शब्द के पीछे हरण करने का भाव है। शास्त्रों के मुताबिक शिव और शिव नाम भी सभी पापों को हर लेता है। मन, बुद्धि, विचार, कर्म, वाणी के सारे दोष शिव के 'हर' नाम से नष्ट हो जाते हैं। दूसरे अर्थों में यह पवित्र शब्द पाप, दोष और दुर्गुणों पर विजय दिलाने वाला है।

'हर' नाम की महिमा यहां तक बताई गई है कि अगर 'हर' का किसी शब्द में छुपे या स्वर के रूप में भी उच्चारण हो तो सारे पापों का अंत हो जाता है।

विशेष तौर जीवन के अंतिम समय में 'हर' शब्द किसी भी रूप में बोले तो बड़ा से बड़ा पाप भी धुल जाता है। शिव नाम की इस दिव्य शक्ति ही शिव अन्य देवों से सर्वश्रेष्ठ माने गए हैं और वह महादेव भी पुकारे जाते हैं। शिवभक्तों द्वारा भी पापनाश और शिव की प्रसन्नता के लिये ही हर-हर महादेव का जयकारा लगाया जाता है।

वीर बनें तो वीरभद्र की तरह
भगवान शिव के वीरभद्रावतार का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यह अवतार हमें संदेश देता है कि शक्ति का प्रयोग वहीं करें जहां उसका सदुपयोग हो। वीरों को दो वर्ग होते हैं- भद्र एवं अभद्र वीर। राम, अर्जुन और भीम वीर थे। रावण, दुर्योधन और कर्ण भी वीर थे लेकिन पहला भद्र (सभ्य) वीर वर्ग है और दूसरा अभद्र (असभ्य) वीर वर्ग। सभ्य वीरों का काम होता है हमेशा धर्म के पथ पर चलना तथा नि:सहायों की सहायता करना। जबकि असभ्य वीर वर्ग सदैव अधर्म के मार्ग पर चलते हैं तथा नि:शक्तों को परेशान करते हैं। भद्र का अर्थ होता है कल्याणकारी। अत: वीरता के साथ भद्रता की अनिवार्यता इस अवतार से प्रतिपादित होती है।

कैसे हुआ वीरभद्रावतार
यह अवतार तब हुआ था जब ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया लेकिन भगवान शिव को उसमें नहीं बुलाया। जबकि दक्ष की पुत्री सती का विवाह शिव से हुआ था। यज्ञ की बात ज्ञात होने पर सती ने भी वहां चलने को कहा लेकिन शिव ने बिना आमंत्रण के जाने से मना कर दिया। फिर भी सती जिद कर अकेली ही वहां चली गई। अपने पिता के घर जब उन्होंने शिव का और स्वयं का अपमान अनुभव किया तो उन्हें क्रोध भी हुआ और उन्होंने यज्ञवेदी में कूदकर अपनी देह त्याग दी। जब भगवान शिव को ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-

क्रुद्ध: सुदष्टष्ठपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्वह्लिसटोग्ररोचिषम्।

उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥

ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं। - श्रीमद् भागवत -4/5/1

अर्थात सती के प्राण त्यागने से दु:खी भगवान शिव ने उग्र रूप धारण कर क्रोध में अपने होंठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली, जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी। सहसा खड़े होकर उन्होंने गंभीर अठ्ठाहस के साथ जटा को पृथ्वी पर पटक दिया। इसी से महाभयंकर वीरभद्र प्रगट हुए।

ऐसा है शिव अवतार वीरभद्र का रूप
शिव के वीरभद्र अवतार का वर्णन भागवत पुराण में किया गया है। देखने में वे प्रलयाग्नि के समान प्रतीत होते थे। उनका शरीर इतना ऊंचा था कि वह स्वर्ग को स्पर्श कर रहा था। वे एक हजार भुजाओं से युक्त थे। मेघ के समान श्यामवर्ण था। सूर्य के समान जलते हुए तीन नेत्र थे। विकराल दाढ़ें थीं और अग्नि की ज्वालाओं की तरह लाल-लाल जटाएं थीं। गले में नरमुंडों की माला तो हाथों में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र थे।

शिव के परम आज्ञाकारी
वीरभद्र भगवान शिव के परम आज्ञाकारी थे। शिव ने उन्हें दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने और विद्रोहियों के मर्दन यानि अहंकार का नाश करने की आज्ञा दी थी। हालांकि दक्ष को परास्त करना बहुत कठिन काम था लेकिन वीरभद्र ने इस काम को भी कर दिखाया जबकि यज्ञ स्थल की रक्षा का काम स्वयं भगवान विष्णु कर रहे थे। वीरभद्र ने विष्णु से भी संग्राम किया। विष्णु को जब इस बात का अनुभव हुआ कि वीरभद्र का तेज प्रबल है तो वे अंतध्र्यान हो गए। ब्रह्पुत्र दक्ष भी भय के मारे छिप गए थे। दक्ष ने योग-बल से अपने सिर को अभेद्य बना लिया। तब वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रख दोनों हाथों ने गर्दन मरोड़कर उसे शरीर से अलग कर अग्निकुंड में डाल दिया था।

भगवान शिव ने क्यों पीया था जहर?
देवताओं और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकला विष भगवान शंकर ने अपने कण्ठ में धारण किया था। विष के प्रभाव से उनका कण्ठ नीला पड़ गया और वे नीलकण्ठ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

समुद्र मंथन की कथा का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। समुद्र मंथन का अर्थ है अपने मन को मथना, विचारों का मंथन करना। मन में असंख्य विचार और भावनाएं होती हैं उन्हें मथकर निकालना और अच्छे विचारों को अपनाना। हम जब अपने मन से विचारों को निकालेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार निकलेंगे। यही विष हैं, विष बुराइयों का प्रतीक है। शिव ने उसे अपने कण्ठ में धारण किया। उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। शिव का विष पान हमें यह संदेश देता है कि हमें बुराइयों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए।

हमें बुराइयों का हर कदम पर सामना करना चाहिए। शिव द्वारा विष पान हमें यह सीख भी देता है कि यदि कोइ बुराई पैदा हो रही हो तो हम उसे दूसरों तक नहीं पहुंचने दें।

कर्म का प्रतीक है शिव का नंदी अवतार
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। इस अवतार में भगवान शंकर का स्वरूप वानर व नंदी(बैल) के समान माना जाता था, जो इस बात का प्रतीक है प्रकृति ने सभी जीवों को समान अधिकार दिए हैं। प्रकृति के संतुलन के लिए सभी जीवों का होना अतिआवश्यक है। इनके अभाव में प्रकृति का संतुलन बिगड़ सकता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक भी है जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। अत: हमें भी समान जीवों से दयाभाव रखते हुए अपने कर्म पथ पर बढऩा चाहिए।

ऐसे हुआ नंदी का जन्म
शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर अयोनिज व मृत्युहीन पुत्र मांगा। इंद्र ने कहा ऐसा वरदान तो शिव ही दे सकते हैं। तब शिलाद ने शिव को प्रसन्न कर उनके समान मृत्युहीन व अयोनिज पुत्र का वरदान मांगा। भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। नंदी जब बढ़े हुए तो शिलाद ने नंदी को शास्त्रों का ज्ञान दिया।

एक दिन भगवान शंकर द्वारा भेजे गए मित्रा-वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम आए। उन्होंने बताया कि नंदी अल्पायु हैं। नंदी को यह ज्ञात हुआ तो उसने वन में जाकर महादेव की आराधना आरंभ कर दी। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन देकर कहा-वत्स नंदी। तुम्हें मृत्यु से भय कैसे हो सकता है? मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा। भगवान शंकर ने नंदी का अपना गणाध्यक्ष भी बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।

ये हैं वे चमत्कारिक शिवलिंग, जिनको पूजते हैं देवता!
शिव को अनीश्वर माना गया है यानी ऐसे देवता जिनका कोई ईश्वर या स्वामी नहीं। दूसरे शब्दों में वह ब्रह्माण्ड या संसार के रूप में प्रकट होने वाले देवता है। जिससे शिव का भव नाम भी पूजनीय व प्रसिद्ध है।

शिव ही ऐसे देवता हैं, जिनकी साकार और निराकार रूप में उपासना की जाती है। उनका निर्गुण यानी निराकार स्वरूप शिवलिंग है। शिव पुराण में शिवलिंग के दर्शन मात्र को ही दोष और विकार का नाश करने वाला माना गया है।

ऐसे दिव्य स्वरूप से ही वह देवाधिदेव भी पुकारे जाते हैं। शास्त्रों के मुताबिक यही कारण है कि महादेव की कृपा के लिए देव-दानव, ऋषियों ने भी शिवलिंग उपासना कर चमत्कारिक सिद्धियों को पाया।

शिवपुराण में अनेक तरह के दिव्य शिवलिंगों को अलग-अलग देवी-देवताओं द्वारा पूजने का वर्णन है, जो शिव कृपा के लिये भगवान विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए। जानते हैं देवता और उनके अलग-अलग पदार्थ या धातु के बने अद्भुत शिवलिंग-

ब्रह्मा - चमकीला सोने

विष्णु - इन्द्रनील

लक्ष्मी - स्फटिक

देवी - मक्खन

कुबेर - सोना

इन्द्र - पद्मराग मणि

वरुण - श्याम या काले रंग

अग्रिदेव - हीरे

अश्विनी कुमार - पार्थिव लिंग

नाग - मूंगा

सोम - मोती

विश्वेदेव - चांदी

धर्म - पुखराज

वसुगण - पीतल

मयासुर - चन्दन

आदित्यगण - तांबे

ब्राह्मण - मिट्टी

बाणासुर - पारद या पार्थिव

योगी - भस्म

यक्ष - दही

ब्रह्मपत्नी - रत्न

संकटनाशक है श्री हनुमान के इस अद्भुत रूप का साया
श्री हनुमान रुद्र यानी शिव के ही ग्यारहवें अवतार माने गए हैं। शिव शक्तियों से पूर्ण होने से श्री हनुमान को भी कालजयी व चिरंजीव देवता माना गया है। यही कारण है कि श्री हनुमान चरित्र या नाम स्मरण ही हर युग व काल में जगत के लिये संकटमोचन व विघ्रहरण का बेहतर रास्ता माना गया है।

शास्त्रों में चरित्र, शक्तियों और गुणों के आधार पर श्री हनुमान के भी अनेक रूप व अवतार की महिमा बताई गई है। जिनमें पंचमुखी हनुमान या एकादश मुखी हनुमान की उपासना बहुत ही चमत्कारिक मानी गई है। किंतु शिव अवतार होने से हनुमान का एक ऐसा स्वरूप भी मंगलकारी बताया गया है, जो शिव का ही अंश है।

यह शिव का अंश हनुमान स्वरूप है - चौदहमुखी रुद्राक्ष। यह साक्षात् हनुमान का रूप माना गया है। इस संबंध में शास्त्रों में लिखा है कि -

चतुर्दशास्यो रुद्राक्षो साक्षातदेवो हनूमत:।

चौदह मुखी रुद्राक्ष को धारण करना ग्रह पीड़ा जैसे शनि व मंगल दोष शांति का अचूक उपाय है। इसे पहनने से रोग, शोक कानाश होता है। कामनाओं के साथ तंत्र शास्त्रों की दृष्टि से सिद्धियां भी तुरंत प्राप्त होती है। यह हनुमान रुद्राक्ष के नाम से भी प्रसिद्ध है।

धार्मिक मान्यताओं में अगर चौदहमुखी रुद्राक्ष को शिखा में पहना जाए तो यह शिवत्व यानी सभी सांसारिक सुखों के साथ मोक्ष देने वाला होता है।

बड़े करिश्माई हैं शिव के ये आंसू..
शिव और शिव नाम की कल्याणकारी महिमा अंनत मानी गई है। यही कारण है कि धार्मिक श्रद्धा से उनका एक स्वरूप शर्व नाम से भी प्रसिद्ध है। जिसका अर्थ है दु:ख व कष्टों को हरने वाले। शास्त्रों के मुताबिक भक्तों के प्रति यही स्नेह यानी भक्तवत्सलता ही है कि शिव का हर अंश चाहे वह अवतार या किसी पदार्थ के रूप में ही क्यों न हो, कल्याण स्वरूप व पीड़ानाशक है।

शिव का ऐसा ही दिव्य अंश माना जाता है - रुद्राक्ष। दरअसल, सदाशिव रूप में शिव कल्याणकारी तो उनका ही रुद्र स्वरूप बुरी शक्तियों का विनाशक माना गया है। रुद्र का शाब्दिक अर्थ भी पीड़ा हरने वाला होता है। रुद्र यानी शिव और अक्ष यानी आंखों से मिलकर रुद्राक्ष शब्द बना है।

जिससे जुड़ी पौराणिक मान्यता है कि घोर तप करने के बाद जब शिव ने आंखे खोली तो उनसे तपोबल के प्रभाव से आंसुओं की बूंदे टपककर धरती पर गिरीं। जिनसे रुद्राक्ष के पेड़ की उत्पत्ति हुई।

शिव का अंश होने से ही रुद्राक्ष सभी सांसारिक मनोरथ पूर्ति करने वाला, पापनाशक और मोक्षदायी माना गया है। शास्त्रों में रंग, रूप व आकार के आधार पर अनेक प्रकार के रुद्राक्ष का महत्व बताया गया है। जिनमें खासतौर पर 1 से 14 मुखी तक रुद्राक्ष बहुत ही मंगलकारी माने गए हैं। यह अलग-अलग देवताओं के स्वरूप भी माने गए हैं।

यहां जानते हैं कौन-सा रुद्राक्ष किस देव का स्वरूप है?..
एक मुखी - शिव, दो मुखी - शंकर-पार्वती, तीन मुखी - अग्रि, चार मुखी - ब्रह्मा, पांच मुखी - कालाग्रि रूद्र, छ: मुखी - कार्तिकेय, सात मुखी - कामदेव, आठ मुखी - गणेश, नो मुखी - भैरव, दस मुखी - भगवान विष्णु, ग्यारह मुखी - एकादश रुद्र, बारहमुखी - सूर्य सहित १२ आदित्य, तेरह मुखी - इन्द्र और चौदहमुखी - रुद्र अवतार हनुमान

माना जाता है कि इन 14 मुखों वाले रुद्राक्ष धारण करने से शिव और अलग-अलग देव शक्तियों की कृपा से जीवन से जुडी़ अनेक पीड़ाओं, ग्रहदोष और संकट का शमन हो जाता है।

शिव-पार्वती की इस अद्भुत शक्ति से गृहस्थ जीवन बने खुशहाल
शास्त्रों के मुताबिक शिव-शक्ति एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। शिव शक्ति के बल पर तो शक्ति शिव के सहारे जगत का तमाम सुखों से कल्याण करते हैं। जगत की सृजन, पालन व संहार में स्त्री-पुरुष के योगदान व महत्व को उजागर करने वाला शिव-शक्ति चरित्र से जुड़ा अर्द्धनारीश्वर रूप जगत प्रसिद्ध व पूजनीय है। शिव-पार्वती, उमा-शंकर, शिव-सती के प्रसंग भी भगवान शिव व जगतजननी की रचना, पालन व विनाशक शक्तियों की महिमा गाते हैं।

शिव-शक्ति का ऐसा ही एक अनूठा और कल्याणकारी साक्षात् स्वरूप गौरी-शंकर रुद्राक्ष को भी माना जाता है। यह रुद्र के अंश रुद्राक्ष का ही एक रूप है। जिसमें दो रुद्राक्ष प्राकृतिक रूप से ही एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। यही कारण है कि गौरी शंकर रुद्राक्ष शिव-शक्ति की अद्भुत शक्तियों से पूर्ण माना जाता है।

सांसारिक दृष्टि से शिव-पार्वती व शिव परिवार गृहस्थ जीवन का आदर्श है। इसलिए माना गया है कि गौरी शंकर रुद्राक्ष को धारण करना दाम्पत्य जीवन में अपार सुख, शांति और समृद्धि लाता है। पति-पत्नी के बीच आपसी प्रेम, विश्वास और सहयोग को बरकरार रखता है। संतान सुख देता है। घर-परिवार में लक्ष्मी कृपा बनी रहती है। साथ ही यह सभी कामनाओं की सिद्धि करने के साथ धार्मिक दृष्टि से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में बहुत असरदार माना गया है।

यही नहीं शास्त्रों के मुताबिक गौरी शंकर रुद्राक्ष के शुभ प्रभाव से खासतौर पर अविवाहितों का शीघ्र विवाह, वैवाहिक जीवन में अलगाव या तलाक के कारणों का अंत और पति-पत्नी के संबंधों में प्रेम, समर्पण और घनिष्ठता आती है।

सफल जीवन का यह सूत्र सिखाए शिव के गले का सर्पों का हार
भगवान शिव के विराट स्वरूप की महिमा बताते शिवपंञ्चाक्षरी स्त्रोत की शुरुआत में शिव को नागेन्द्रहाराय कहकर स्तुति की गई है। जिसका सरल शब्दों में अर्थ है ऐसे देवता जिनके गले में सर्प का हार है। यह शब्द शिव के दिव्य और विलक्षण चरित्र को उजागर ही नहीं करता बल्कि जीवन से जुड़ा एक सूत्र भी सिखाता है। जानते हैं यह सूत्र -

शास्त्रों के मुताबिक शिव नागों के अधिपति है। दरअसल, नाग या सर्प कालरूप माना गया है। क्योंकि वह विषैला व तामसी स्वभाव का जीव है। नागों का शिव के अधीन होना यही संकेत है कि शिव तमोगुण, दोष, विकारों के नियंत्रक व संहारक हैं, जो कलह का कारण ही नहीं बल्कि जीवन के लिये घातक भी होते हैं। इसलिए वह प्रतीक रूप में कालों के काल भी पुकारे जाते हैं और शिव भक्ति ऐसे ही दोषों का शमन करती है।

इस तरह शिव का नागों का हार धारण करना व्यावहारिक जीवन के लिये भी यही संदेश देता है कि जीवन को तबाह करने वाले कलह और कड़वाहट रूपी घातक जहर से बचना है तो मन, वचन व कर्म से द्वेष, क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद जैसे तमोगुण व बुरी आदत रूपी नागों पर काबू रखें। सरल शब्दों में कहें तो साफ, स्वच्छ और संयम भरी जीवनशैली से जीवन को शिव की तरह निर्भय, निश्चिंत व सुखी बनाएं।

लाजवाब सफलता चाहें तो इस दोष से बचकर करें शिव भक्ति
सोच और व्यवहार में अहं सम्मान व सुख से वंचित करता है। हिन्दू धर्मग्रंथ रामचरितमानस जीवन जीने के ऐसे ही अनेक सूत्र सिखाता है। जिनमें भगवान शिव की एक स्तुति की रचना से जुड़ी बात अहंकारमुक्त होकर जीवन को सफल बनाने की प्रेरणा देती है।

शिव की यह स्तुति है- रुद्राष्टक। जिसमें शिव के स्वरूप का 'नामामि शमीशान' से शुरू कर 'शम्भु प्रसीदति' तक श्रद्धा से पाठ मन, बुद्धि से घमण्ड को गलाने वाला माना गया है। दरअसल, इसकी रचना के पीछे दंभ और अहंकार के बुरे नतीजों से मुक्ति का ही एक प्रसंग है।

ऋषि कागभुशुण्डि परम शिव भक्त थे। उनको शिव के अलावा किसी ओर देव की उपासना में विश्वास न था। ऐसी सोच से वह गुरु विरोधी बन गए, क्योंकि उनके गुरु श्री लोमेश शिव और राम भक्त थे। शिव भक्ति के अहंकार में वह गुरु को छोड़कर भी चले गए। बाद में कागभुशुण्डि ने शिव कृपा के लिए यज्ञ किया। जिसमें उन्होंने विरोधी भाव से अपने गुरु को न बुलाया। किंतु शिष्य के प्रति अपार स्नेह के कारण गुरु स्वयं ही वहां चले आए। फिर भी कागभुशुण्डि ने अहंकारवश गुरु का सम्मान न किया। इस पर भी गुरु शिष्य की नाराजगी मानते हुए कुछ न बोले।

तब भगवान शंकर ने अपने ही परम भक्त किंतु अहंकारी कागभुशुण्डि को गुरु के अपमान जैसे बुरे कृत्य का दण्ड देते हुए अजगर बनने का श्राप दे दिया। क्योंकि माना जाता है कि शिव बुरे कर्म और आचरण के संहारक हैं, किंतु आशुतोष रूप में थोड़ी भक्ति में ही ढेरों सुख देते हैं। जीवन में गुरु के सम्मान और महत्व को समझाने के लिए भी भगवान शंकर द्वारा ऐसा किया गया।

शिष्य को ऐसी स्थिति में देख गुरु दु:खी हुए। तब उन्होंने शिष्य को घमण्ड में चूर होने से मिले श्राप से मुक्ति के लिए भगवान शिव की महिमा गाई, जो जगत में रुद्राष्टक के रूप में प्रसिद्ध हुई। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने काकभुशुण्डी को शाप मुक्त किया।

इस प्रसंग में व्यावहारिक जीवन के लिए एक संकेत यही है कि पद, धन या ज्ञान के दंभ में किसी की उपेक्षा या अनादर न करें। चाहे वह छोटा हो या बड़ा। जीवन में आगे बढऩे के दौरान और कामयाबी में किसी भी रूप में साथ रहे हर व्यक्ति के लिए कृतज्ञता का भाव रखें। द्वेषता छोड़कर अपनी कामयाबी का हिस्सा बनाएं। ऐसी विनम्रता से भरी सोच ही हर संबंध में भरोसा और मधुरता बनाए रखेगी।

धार्मिक दृष्टि से भी यही संदेश है कि शिव भक्ति की सार्थकता तभी है जब आचरण, बोल और व्यवहार में हमेशा सद्भावों और अच्छी वाणी को भी स्थान दें व घमण्ड से कोई नाता न रखें।

गुरु प्रदोष व्रत 28 को: माहात्म्य व कथा
धर्म ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक मास की त्रयोदशी तिथि को भगवान शिव के निमित्त प्रदोष व्रत किया जाता है। यह तिथि जिस दिन पड़ती है उस वार के साथ संयोग कर इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। सावन में किए गए प्रदोष व्रत से और भी श्रेष्ठ फल मिलता है। सावन मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि इस बार 28 जुलाई, गुरुवार को पड़ रही है। धर्म ग्रंथों के अनुसार गुरु प्रदोष व्रत करने से शत्रुओं का विनाश हो जाता है। इस व्रत का कथा इस प्रकार है-

एक बार देवताओं के राजा इन्द्र और राक्षस वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध हुआ । देवताओं ने दैत्य-सेना को पराजित कर दिया। यह देख वृत्रासुर क्रोधित होकर स्वयं युद्ध करने आया। उसने अपनी माया से देवताओं को भयभीत कर दिया। तब सभी देवता गुरुदेव बृहस्पति की शरण में गए। गुरु बृहस्पति ने इंद्र को बताया कि वृत्रासुर बड़ा तपस्वी और कर्मनिष्ठ है। उसने तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न किया है। पूर्व समय में वह चित्ररथ नाम का राजा था। एक बार वह अपने विमान से कैलाश पर्वत चला गया।

वहां शिवजी के साथ माता पार्वती को देखकर उसने शिव-पार्वती का उपहास किया। जिससे माता पार्वती क्रोधित हो गई और उन्होंने चित्ररथ को श्राप दिया कि तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर जाएगा और राक्षस योनि प्राप्त करेगा। राक्षस होने के बाद भी वृत्तासुर बाल्यकाल से ही शिवभक्त रहा। इसलिए इंद्र तुम बृहस्पति प्रदोष व्रत कर शंकर भगवान को प्रसन्न करो। इंद्र ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर बृहस्पति प्रदोष व्रत किया। गुरु प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय प्राप्त कर ली।

कैसे मिली भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति?
ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। तभी वहां ब्रह्महत्या उत्पन्न हुई और भैरव को त्रास देने लगी। तब भगवान शिव ने ब्रह्महत्या से मुक्ति के लिए भैरव को व्रत करने का आदेश दिया व कहा कि जब तक ब्रह्महत्या वाराणसी पहुंचे, तब भयंकर रूप धारण करके तुम इसके आगे ही आगे चले जाना। वाराणसी में ही तुम्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिलेगी। जब भैरव ने वाराणासी में प्रवेश किया, उसी समय ब्रह्महत्या पाताल में चली गई और भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई।

शिव के साथ करें भैरव की भक्ति
भैरव ने ब्रह्मा का पांचवा सिर काटा था। जहां वह सिर गिरा वह स्थान काशी में कपाल मोचन तीर्थ के नाम से विख्यात है। जो प्राणी इस तीर्थ का स्मरण करता है, उसके इस जन्म एवं पर जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। यहां आकर सविधि स्नानपूर्वक पितरों एवं देवताओं का तर्पण करके मानव ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। कपाल मोचन तीर्थ के समीप ही भक्तों के सुखदायक भगवान भैरव स्थित हैं।

जीना है बेफि़क्र जिंदगी तो अपना लें यह सीख
इंसान जीवन में तमाम सुख-सुविधाओं को बंटोर लें, किंतु स्वभाव की एक खामी दूर न करे तो उससे मिले कलह और अशांत महौल से जीवन कभी भी सुकून से नहीं बीतेगा। यह खामी या दोष है- क्रोध।

धर्मशास्त्रों में क्रोध यानी गुस्सा जीवन के लिये बाधक बताया गया है। जिस पर काबू करने के लिये क्रोध से दूरी ही बेहतर उपाय माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि अक्रोधेन जयेत क्रोध यानी गुस्सा न करना ही क्रोध पर विजय का सूत्र है। इससे जुड़ा जैन शास्त्रों का ही एक प्रसंग क्रोध पर काबू रख सफलता के गुर भी सिखाता है -

कथा के मुताबिक राजकुमार बलदेव, वासुदेव व सात्यकि वन में भटक गए। रात बिताने के लिए तीनों ने बारी-बारी से पहरा देने का फैसला किया। सबसे पहले जब सात्यकि पहरा देने शुरु किया तो वहां एक दैत्य प्रकट हो गया।

सात्यकि ने आवेश में आकर उसे चले जाने की चेतावनी दी, किंतु उस दैत्य का आकार और शक्ति सात्यकि के ऐसे बोल, व्यवहार से और बढ़ गए। तब उस दैत्य ने सात्यकि पर हमला कर घायल कर दिया।

इसी तरह सात्यकि के बाद वासुदेव के पहरा देने पर वह दैत्य फिर से प्रकट हुआ। वासुदेव के भी सात्यकि की तरह दैत्य को देखकर तमतमाने से दैत्य ने शक्तिशाली बन वासुदेव को भी पराजित कर दिया।

अंत में बलदेव की पहरेदारी के दौरान भी दैत्य प्रकट हुआ। किंतु बलदेव उसे देखकर विचलित या आवेशित होने के बजाय प्रसन्नतापूर्वक दैत्य को यह जताया कि उससे लड़कर उसका समय बीत जाएगा।

दैत्य के हमला करने पर भी बलदेव मुस्कराते रहे। उनके ऐसे रुख से दैत्य की शक्ति और आकार घटता गया। अंत में वह कीट के बराबर इतना छोटा हो गया कि बलदेव ने उसे अपने दुपट्टे में बांध लिया।

सुबह उठने पर जब सात्यकि, वासुदेव ने दैत्य की बात बताई तो बलदेव ने दुपट्टे से उस दैत्य को बाहर निकालकर दोनों को बताया और कहा कि दरअसल यह क्रोध रूपी वह दैत्य था, जो बोल, व्यवहार व विचार में स्थान देने पर बढ़ता ही जाता है।

इस प्रसंग में व्यावहारिक जीवन के लिए संकेत यही है कि अगर सुख-सफलता की चाहत है तो क्रोध पर नियंत्रण रखें। क्योंकि क्रोध करने पर बोल ही नहीं व्यवहार और चरित्र में भी दोष पैदा होते हैं, जो जीवन को बड़ी हानि पहुंचा सकते हैं। किंतु क्रोध पर काबू करने से मिला दूसरों का प्रेम, सहयोग और स्वयं का आत्मविश्वास जीवन को कलह और चिंतामुक्त बनाता है।

ये सीखें शिव के अश्वत्थामा अवतार से
महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक अश्वत्थामा भगवान शंकर के अंशावतार थे। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर है तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। भगवान शंकर के अश्वत्थामा अवतार से हमें क्रोध पर नियंत्रण रखना सीखना चाहिए क्योंकि क्रोध ही सभी दु:खों का कारण है। यह गुण अश्वत्थामा में नहीं था। साथ ही एक और बात जो हमें अश्वत्थामा से सीखनी चाहिए वह यह कि जो भी ज्ञान प्राप्त करें उसे पूर्ण करें। अधूरा ज्ञान सदैव हानिकारक रहता है। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र चलाना तो जानते थे लेकिन उसका उपसंहार करना नहीं। फिर भी उन्होंने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जिसके कारण संपूर्ण सृष्टि के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया था। इस तथ्य से हमें यह शिक्षा मिलती है कि क्रोध तथा अपूर्ण ज्ञान से कभी सफलता नहीं मिलती।

द्रोणाचार्य के पुत्र थे अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार अश्वत्थामा महादेव, यम, काल व क्रोध के सम्मिलित अवतार थे। अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। अश्वत्थामा अत्यंत शूरवीर, प्रचंड क्रोधी स्वभाव के योद्धा थे। महाभारत संग्राम में अश्वत्थामा ने कौरवों की सहायता की थी। हनुमानजी आदि सात चिरंजीवियों में अश्वत्थामा का नाम भी आता है। इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-

अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।

कृप: परशुरामश्च सरतैते चिरजीविन:॥

अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये सातों चिरंजीवी हैं। शिवमहापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

भक्ति के इन 6 उपायों से खूब बरसेगी भगवान की कृपा
जीवन में कलह, दु:ख और बुरा वक्त बहुत अशांत और बेचैन कर देते हैं। ऐसे में हर इंसान गहरी राहत की आस रखता है। इसी तरह अनेक मौकों पर सुख की अति भी जीवन में नीरसता लाती है और इंसान सुकूनभरे जीवन के लिए नए उपायों की तलाश में रहता है।

शास्त्रों में दु:ख से छुटकारे और स्थायी सुख का ऐसा ही एक मार्ग बताया गया है, जिस पर चलकर इंसान हमेशा दु:ख से परे और सुख-शांति से जीवन गुजार सकता है। यह रास्ता है - ईश्वर की शरण।

भगवान की पनाह यानी शरणागति भक्ति का ही एक रूप है, जो आसान तो है, किंतु इसके लिए स्वभाव, विचार और व्यवहार से भी उतना ही सरल बनना भी जरूरी है। खासतौर पर अहं के अभाव और समर्पण के भाव के बिना भगवान की शरणागति संभव ही नहीं।

सरल शब्दों में अपनी कमजोरियों को जानकर, मानकर व स्वीकार कर भगवान की शरण में जाना गहरे सुख व शांति देते हैं। ऐसी ही शरणागति के छ: उपाय शास्त्रों में बताए गए हैं-

प्रपत्तिरानुकूलस्य संकल्पोप्रतिकूलता।।

विश्वासो वरणं न्यास: कार्पण्यमिति षड्विधा।।

सार है कि छ: बातें स्मरण रख भगवान की शरण में जाएं -

- भगवान की भक्ति का संकल्प यानी उनके ही मुताबिक होने का मजबूत इरादा रखें। सद्गुणों, अच्छे विचार-व्यवहार को अपनाएं।

- भगवान के विपरीत न हों यानी अहंकार और अन्य सभी बुराईयों से दूर रहें।

- भगवान में गहरा विश्वास रखें।

- यह मानकर चलना कि भगवान हमारी रक्षा करेंगे।

- आप तन, मन या धन से कितने ही सबल हो, किंतु भगवान की भक्ति में दीनता का भाव रखें।

- भगवान के प्रति समर्पण का भाव।

इन बातों का सरल शब्दों में संकेत यही है कि भगवान की पनाह में जाएं तो बेपनाह के भाव से जाएं। फिर जिंदगी मे हर पल खुशियां से भरा पाएंगे।

इस बुराई से बचें..वरना तय है दुर्गति!
इंसान का स्वभाव होता है कि वह अपनी गलतियों को नजरअंदाज करता है, किंतु दूसरों में बुराई ढूंढने में देर नहीं करता। दरअसल, कड़वा सच यह है कि ऐसा होने के पीछे अपने ही अंदर उन दोषों का होना भी होता है, जो अक्सर हम दूसरों में खोजते रहते हैं। इसमें कभी-कभी अपनी खामियों से ध्यान हटाने की मंशा भी होती है। द्वेषता या स्वार्थपूर्ति न होना भी निंदा का कारण बनता है।

शास्त्रों में इसे परदोष दर्शन पुकारा गया है। जिसको भक्ति मार्ग हो या व्यावहारिक जीवन दोनों के लिये बाधक माना गया है। क्योंकि निंदा, बुराई या दोष दर्शन लत बनकर सोच, व्यवहार और कर्म को बिगाड़ देते हैं। जिनके द्वारा भक्ति के लिए अहम समर्पण का अभाव हो जाता है।

इसी तरह हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भाभागवत में भी दूसरों की बुराई न करने पर जोर दिया गया है। यही नहीं रामचरितमानस में भी परदोष से बचने का महत्व बताते हुए श्री राम ने शबरी से कहा कि - 'सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा' यानी सपने में भी दोषदर्शन से बचना चाहिए। इन सीखों का निचोड़ यही है कि दूसरों की निंदा जीवन पर बुरा असर ही नहीं डालती बल्कि दुर्गति का बड़ा कारण बन सकती है। इसे इस तरह समझा जा सकता है -

- निंदा से खुद की श्रेष्ठता का अहं भाव पैदा होता है। किसी भी रूप में अहं पतन का बड़ा कारण माना गया है।

- दूसरों में कमी, बुराई के बारे में सोचते रहने, सुनने या देखने पर हमारा साफ मन भी बुरे भावों से भर जाता है, जिससे कहीं न कहीं हमारे बोल, व्यवहार व काम में भी बुरे बदलाव आते हैं।

- धर्म शास्त्रों के मुताबिक भी अगर कोई बुरा है या बुरे काम करता है, तो बार-बार उसके बारे में बोलने या सुनने से कर्ता भी उस बुराई या पाप का भागी बन जाता है।

- बुराई करने से दूसरों को सीधे दु:ख पहुंचता है, जो व्यावहारिक रूप से आपके लिए भी असहयोग, द्वेष के रूप में कलह लाता है। दु:ख देना धर्म शास्त्रों में पाप भी माना गया है

- बार-बार खामियां ढूंढने से किसी के प्रति मन में प्रेम का अभाव होता है और नफरत घर करने लगती है। जिससे अंतत: दोष देखने वाले की ही हानि होती है।

दोष दर्शन की आदत इंसान के मन-मस्तिष्क पर इस तरह हावी हो जाती है, कि वह खूबियों में भी दोष निकालकर अपयश और असम्मान का भागी बन जाता है। जिससे बचने के लिए इंसान अनेक बुरे रास्तों को अपनाकर अपनी ही दुर्गति का कारण बनता है।

व्यवहार कुशलता के इन 4 सूत्रों से मुश्किल न लगेगा कोई भी लक्ष्य
जीवन में ज्ञान, शरीर या धन से ताकतवर हो जाना ही सफलता सुनिश्चित नहीं करते। बल्कि इनके साथ एक ऐसी खूबी भी होना हर इंसान के लिये जरूरी है, जिसके द्वारा मनचाही सफलता या लक्ष्य को पाना आसान हो जाता है। यह गुण है - व्यवहार कुशलता।

धर्मशास्त्रों में सफल जीवन के लिये जरूरी इस खास गुण में महारत हासिल करने के लिये ही जगत में चार तरह के इंसान मानकर उनसे व्यवहार के 4 सूत्र बताए गए हैं। जानते हैं किस तरह के इंसान से कैसा व्यवहार यश, सुख और सफलता नियत करता है? -

- अपने जैसी गुण, काबिलियत, शौक व हैसियत वाले इंसान से दोस्ती का व्यवहार करें। जिसमें प्रेम, सहयोग का भाव विशेष रूप से हो। क्योंकि ऐसे लोगों से तालमेल बहुत ही जल्दी व आसानी से कायम हो जाता है।

- किसी भी रूप में बड़ें या गुणी लोग, जो प्रेरणादायी या आत्मविश्वास बढ़ाने वाले हों। उनसे मिलकर या देखकर सम्मान के साथ खुशी जाहिर करें और उनके गुणों को अपनाने का भरसक प्रयास करें।

- अपने से छोटे चाहे वह गुण, ज्ञान, धन से ही कमजोर क्यों न हो, से व्यवहार में करुणा का भाव रखें। शास्त्रों में तो कर्म से कमजोर यानी बुरे कामों में शामिल इंसान के लिये भी दया और सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना श्रेष्ठ माना गया है। ऐसे लोगों से नफरत न कर अपनी तरह ही सुखी और गुणों से ऊंचा बनाने के लिए यथासंभव कोशिश और मदद करें।

- दुर्जन यानी जो बुरी लत या कामों में से जुड़े होकर पाप कर्म करते रहते हैं या जिनमें तमाम तरीके अपनाने के बाद भी सुधार की संभावना न दिखे। उनके प्रति नफरत या शत्रुता का भाव न रख तटस्थ हो जाएं। उनसे न भयभीत हो न उनके शमन के लिए मन में बुरे भाव या कर्म द्वारा स्वयं को भी अपराध या पाप कर्म में शामिल कर अपने गुण, योग्यता और भविष्य को दांव पर लगाएं। न्याय व नीतिपूर्वक निपटें।

इस तरह इन चार तरीकों से व्यवहार कुशलता न केवल जीवन में आपकी सफलता की राह को आसान बनाएगी, बल्कि इनके नतीजों में मिले दूसरों के स्नेह, विश्वास, सहयोग व मनोबल की ऊर्जा से आप मनचाहा मकसद भी पा लेंगे।

खुदा की इबादत का महीना है रमजान
हिजरी कैलेंडर का नवां महीना रमजान कहलाता है। इस माह में बोहरा व मुस्लिम धर्मावलंबी रोजा रखकर खुदा की इबादत करते हैं। बोहरा समाज 31 जुलाई से रोजा रखकर खुदा की इबादत में जुट जाएगा वहीं चांद नजर आते ही मुस्लिम धर्म के लोग भी रोज रखेंगे। यदि चांद 31 जुलाई को दिखाई दिया तो रमजान 1 अगस्त से और यदि चांद 1 अगस्त को नजर आया तो रमजान की शुरुआत 2 अगस्त से मानी जाएगी।

पूरी दुनिया में फैले इस्लाम धर्म के लिए रमजान का पवित्र महीना एक उत्सव होता है। इस्लाम धर्म की परंपराओं में रमजान माह का रोजा हर मुसलमान के लिए जरुरी फर्ज होता है। इस्लामी मान्यताओं के अनुसार पैगंबर ने यह आदेश दिया था कि रमजान अल्लाह का माह है और इस माह में रोजे रखकर खुदा की इबादत करने से अल्लाह खुश होते हैं और कर हर रोजेदार की इबादत कबूल करते हैं। इसलिए इस्लाम धर्म में रमजान माह में रोजा गहरी आस्था के साथ रखे जाते हैं।

किंतु इस्लाम धर्म का रोजा सिर्फ भूखे या प्यासे रहने की परंपरा मात्र नहीं है बल्कि रोजे के दौरान कुछ मानसिक और व्यावहारिक बंधन भी जरुरी बताए गए हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि रमजान माह में किए गए एक अच्छे काम के बदले में उसका 70 गुना अधिक सबाब मिलता है।

जानिए, क्या है सांप के बदला लेने के पीछे का सच..?
हिन्दू धर्म में सावन माह शिव भक्ति का शुभ काल है। इस काल में शिव और उनके नाम, स्वरूप और शक्तियों का अलग-अलग रूपों, तरीकों से स्मरण किया जाता है। भगवान शिव को कालों का काल भी माना गया है। शंकर के गले में नाग का हार पहनना और कंठ में विष उतार नीलकंठ बन जाना इस बात का प्रमाण है। क्योंकि सर्प भी काल का ही रूप माना गया है।

यही कारण है कि शिव भक्ति के पुण्य काल में नागपंचमी पर नागों को देवता रूप में पूजकर सुख-शांति की कामना की जाती है। यह दिन नाग जाति के जन्म का भी माना गया है। नाग भक्ति की प्राचीन परंपरा में युगों के बदलाव के साथ कुछ किवदंतियों, घटनाओं, लोक मान्यताओं और दुष्प्रचार के चलते नाग जाति के व्यवहार से जुड़ी कुछ भ्रांतियां और अंधविश्वास भी जुड़े।

इन बातों से पैदा भय ने जहां एक तरफ नाग जाति के प्रति हिंसा को बढ़ावा दिया, बल्कि भय को कारण मानकर नाग पूजा पर प्रश्रचिन्ह लगाए। सांपों से जुड़ी ऐसी ही एक प्रचलित मान्यता है कि सांप अपने साथी की मौत का बदला लेते हैं। यहीं नहीं नाग को मारने पर नागिन की आंखों में मारने वाले की तस्वीर उभर आती है, जिसके द्वारा संबंधित को ढूंढकर डसती है। क्या वाकई सर्प बदला लेते हैं, जानते हैं इससे ही जुड़ा सच -असल में सांपों की सूंघने की शक्ति यानी ध्राण शक्ति बहुत तेज होती है। प्राकृतिक रूप से भी सर्प अपने शरीर से एक विशेष प्रकार का गंधयुक्त पदार्थ छोड़ते हैं। जिसे फेरामोन नाम से भी जाना जाता है। सूंघने की तेज क्षमता व गंध के प्रति संवेदनशील होने के कारण काफी दूर से आ रही इस गंध को सूंघकर वह सांप साथी से संपर्क या पहचान कर उस स्थान पर जा सकता है।

चूंकि सावन माह में बारिश का मौसम सांपो के मिलन और सक्रियता का काल होता है। वहीं मानव भी इसी वक्त दैनिक कामकाज, खेतीबाड़ी के चलते सांपो का सामना करता है। यही कारण है कि सांप साथी को आकर्षित करने के लिये या फिर मानव द्वारा भय के कारण हमला करने पर शरीर से विशेष गंधयुक्त पदार्थ छोड़ते हैं।

इस तेज और विशेष गंध के द्वारा दूसरा सर्प संबंधित स्थान पर या उस साधन तक पहुंच सकता है, जिसके द्वारा सर्प को मारा गया है। सर्प के इसी व्यवहार को कालान्तर में बढ़ा-चढ़ाकर सांप के बदला लेने की भावना से जोड़ दिया गया। वैज्ञानिक शोध भी इस तरह की भावना मानसिक धरातल पर सरिसर्प जाति में संभव नहीं मानता।

वहीं मानव भावनओं और मानसिक स्तर पर सर्प से कही अधिक विकसित है। इसलिए उसका यह कर्तव्य है कि सर्प को अपनी ही तरह प्रकृति का हिस्सा मानकर उसकी यथासंभव प्राण रक्षा का संकल्प लेकर पर्यावरण के संतुलन में योगदान दे।

जानें, नागपंचमी का महत्व व क्यों पूजते हैं नागों को
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है। हिंदू धर्म के लोग इस दिन नाग को देवता मानकर उनकी पूजा करते हैं। यह बार यह पर्व 4 अगस्त, गुरुवार को है। पुराणों के अनुसार इस दिन नाग दर्शन व पूजन का विशेष फल मिलता है। जो भी इस दिन नागों की पूजा करता है उसे कभी सर्प भय नहीं होता और न ही उसके परिवार में किसी को नागों द्वारा काटे जाने का भय सताता है। नागपंचमी का पर्व मनाए जाने के पीछे एक कथा भी प्रचलित है जो इस प्रकार है-

एक नगर में एक किसान परिवार रहता था । एक दिन वह किसान अपने खेत में हल चलाने गया । हल जोतते समय नागिन के बच्चे हल से कुचल कर मर गए । नागिन बच्चों को मरा देखकर दु:खी हुई । उसने क्रोध में आकर किसान, उसकी पत्नी और लड़कों को डस लिया। जब वह किसान की कन्या को डसने गई। तब उसने देखा किसान की कन्या दूध का कटोरा रखकर नागपंचमी का व्रत कर रही है। यह देख नागिन प्रसन्न हो गई। उसने कन्या से वर मांगने को कहा। किसान कन्या ने अपने माता-पिता और भाइयों को जीवित करने का वर मांगा। नागिन ने प्रसन्न होकर किसान परिवार को जीवित कर दिया। तभी से ऐसी मान्यता है कि श्रावण शुक्ल पंचमी को नागदेवता का पूजन करने से नागों द्वारा किसी प्रकार का कष्ट और भय नहीं रहता।

जानें, क्यों नाचते हैं नाग ..?
नाग पूजा उसी प्रकृति पूजा का ही अंग है, जिसमें रोम-रोम में ईश्वर का वास माना जाता है। ईश्वर का यह प्राकृतिक स्वरूप भगवान शिव के रूप में पूजनीय है। यही कारण है कि सावन माह में आने वाली नागपंचमी (4 अगस्त) की शुभ घड़ी पर नाग पूजा साक्षात् शिव पूजा भी मानी जाती है।

वैसे भी भगवान शंकर को नागों का अधिपति माना गया है। नाग उनका आभूषण माने गऐ हैं। इसलिए नाग पूजा शुभ और मंगलकारी मानी गई है। दरअसल, नाग पूजा में पेड़-पौधों, जल, वायु, अन्न, जीव-जन्तुओं आदि के द्वारा मानव पर मेहरबान प्रकृति के सम्मान और उसके साथ तालमेल बैठाकर सुखी जीवन जीने का संदेश है।

बहरहाल, श्रद्धा और आस्था से भरपूर इस धार्मिक परंपरा के दौरान एक रोचक बात भी देखी जाती है। जिसमें नाग पूजा कर बीन बजाकर नागों को नचाया जाता है। माना जाता है नाग प्रसन्न होकर नाचते हैं। जबकि नाग के नृत्य के पीछे जुड़े व्यावहारिक कारण कुछ ओर होते हैं। आखिर क्या है नाग नृत्य के पीछे छुपा विज्ञान? जानते हैं -

असल में नागों के इंसान की तरह कर्णछिद्र सरल शब्दों में कहें तो कान नहीं होते। बल्कि उनकी दृष्टि बहुत तेज होती है। साथ ही धरती और हवा में होने वाले कंपन और हलचल को भी वह त्वचा और नाक के द्वारा ली जाने वाली श्वांस द्वारा पकड़ लेते हैं। इस तरह उनकी आंखें व अन्य अंग कान का कार्य करते हैं।

यही कारण है कि जब सपेरे द्वारा बीन बजाने के दौरान घुमाई भी जाती है तो सांप उसकी आवाज सुनकर नहीं, बल्कि उसे देखकर इधर-उधर हिलता है। जिसे श्रद्धा और आस्था से यह मान लिया जाता है कि सर्पदेवता प्रसन्न होकर नृत्य कर रहे हैं।

सार यही है कि सर्प पूजा से जुड़े प्रकृति संरक्षण के मूल भाव व संदेश को समझ व्यवहार में अपनाए न कि मात्र धार्मिक क र्मकाण्ड की खानापूर्ति कर इस उत्सव की इतिश्री कर लें।

नाग से सीखें ये 3 करिश्माई सूत्र..फौरन मिलेगी सफलता
बुराई में अच्छाई, दोष में गुण, नकारात्त्मकता में सकारात्मकता की खोज कर बुरे वक्त को अच्छे समय में बदल लेना ही सशक्त और महान चरित्र की पहचान है। जीवन से जुड़े हर पल, बातों और घटनाओं में सबक और प्रेरणा ढूंढने से जीवन को सफल बनाना बहुत आसान हो जाता है।

हिन्दू धर्म शास्त्रों में ऐसा ही एक मौका है - नागपंचमी। यह शुभ घड़ी नाग पूजा से जुड़ी है। हालांकि नाग क्रूर, विषधर और काल स्वरूप माना गया है। किंतु सर्प के स्वभाव, व्यवहार में भी ऐसे सूत्र छुपे हैं, जिनसे जीवन को बेहतर तरीकों से साधा जा सकता है। जानते हैं खास सूत्र -

शक्ति का सदुपयोग - सांप विषैला होता है। उसकी ताकत विष ही होती है। माना जाता है कि लंबे समय में बना यह थोड़ा-सा जहर भी वह प्राण रक्षा के उद्देश्य से ही उगलता है। इसमें मानव जीवन के लिये सकारात्मक सूत्र खोजे तो वह यही है कि मेहनत के दम पर ही शक्ति संचय व उसका सदुपयोग करें। अपनी इस क्षमता व कुशलता का अपने और दूसरों के हित के लिए सही वक्त पर इस्तेमाल बेहद कारगर साबित होगा।

भूल सुधार - सर्प एकांतप्रिय माना गया है। यही कारण है कि प्राय: निर्जन और एकांत स्थानों पर पाया जाता है। इस बात से यही सकारात्मक सीख लें कि दु:खों, कष्टों या विपत्तियों से घबराकर तनाव व निराशा के साथ अकेलेपन में जीवन गुजारने के बजाय एकांत में अपनी चूक, त्रुटियों पर विचार, मनन करें, उनको स्वीकार करें और अंत में सुधार कर फिर से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चलें, जो एक बुद्धिमान इंसान की पहचान भी है।

अच्छाई को अपनाना - शास्त्रों में मणिधर सांपों का जिक्र मिलता है। माना जाता है कि इनके सिर पर दिव्य और बेहद तेजोमयी मणि मौजूद होती है। असल में सिर यानी मस्तिष्क बुद्धि केन्द्र है। जिसका शक्तिशाली व पवित्र होना बहुत जरूरी है। इसलिए सांप के सिर पर मणि में भी प्रतीकात्मक संदेश है कि हमेशा अच्छे व्यक्ति, विचार और व्यवहार के चिंतन, मनन और ध्यान से दिमाग में अच्छाई को स्थान दे। जिससे मिली मानसिक शक्ति और ऊर्जा जीवन को सही दिशा से नहीं भटकने देगी।

सर्प स्वभाव व व्यवहार के ये तीन सूत्र जीवन में उतारने पर फौरन ही सुख के साथ शांति और सफलता जीवन में चली आएगी।

सांप को दूध पिलाना शुभ नहीं अशुभ है क्योंकि...!
अक्सर देखा जाता है कि इंसान अपने फायदे के लिए प्रकृति के नियमों की अनदेखी या उनमें खलल डालता है। जिसका घातक असर अंतत: मानव जीवन पर ही होता है। खासतौर पर जब बात धर्म परंपराओं के साथ जुड़ी हो तो देव श्रद्धा और आस्था से बंधे मन और भावों को समझाना और उससे बाहर आना कठिन हो जाता है। जानते हैं ऐसी ही एक धर्म परंपरा से जुड़े मिथक को, जिसे दूर कर धर्म पालन द्वारा हम अपने साथ जगत के हित में सहभागी बन अपार सुख व सुकून महसूस करेंगे -

हिन्दू धर्म में नागपंचमी का उत्सव नाग पूजा द्वारा धार्मिक नजरिए से सुख, शांति और खुशहाली पाने का माना जाता है। वहीं व्यावहारिक रूप से यह जीव दया और प्रकृति से प्रेम का संदेश देता है। इस पवित्र परंपरा का सिलसिला युगों से चला आ रहा है। किंतु कालान्तर में इसी परंपरा का अहम अंग माने जाने लगा - नाग को दूध पिलाना।

लोक मान्यता में नाग पूजा की यह रस्म बहुत ही मंगलकारी मानी जाती है। जिसके चलते इस उत्सव पर बड़ी संख्या में सांपों को पकड़कर श्रद्धालुओं द्वारा दूध पिलाया जाता है। लेकिन अगर इस बात के पीछे का सच जाने तो यह साफ हो जाता है कि वरदान की उम्मीद से निभाई जाने वाली यह परंपरा असल में शाप का कारण साबित हो सकती है। इसलिए यहां बताई जा रही बातों को समझें और दूसरों को भी समझाएं -

दरअसल, सांप प्राकृतिक रुप से मांसाहारी प्राणी है। उसकी शरीर रचना और अंग भी मांस भक्षण को पचाने की ही क्षमता रखते हैं। किंतु नागपंचमी पर धार्मिक पुण्य लाभ के भाव से पकड़े गए सांप को दूध पिलाना प्रकृति के खिलाफ होने से नाग जाति के जीवन के लिए संकट का कारण बन जाता है। क्योंकि अलग-अलग तरह के दूध का पाचन न होने या सांप की सूंघने और श्वांस लेने की अहम शक्ति का प्रमुख अंग नाक के छिद्रों में अवरोध से सांस में बाधा आना नाग की मौत का कारण बन जाता है।

इस तरह इस पुण्य अवसर पर अज्ञानता या अनजाने में उस नाग की मृत्यु का दोष लग सकता है, जिसे हम देवता मानकर सुख और कल्याण का वर चाहते हैं। इस तरह धार्मिक कर्मों में जीव हत्या के दोष से बचने के लिए नाग पूजा में दूध की कुछ बूंदे नाग पर छिड़कें या हम शास्त्रों में बताए अन्य उपायों से धर्म लाभ कमा सकते हैं, जो पर्यावरण के अनुकूल भी हैं।

इनमें से ही एक उपाय है - शिवलिंग का दूध अभिषेक या दूध की धारा अर्पित करना। शिव नागों के ही देवता है। शिव स्वयं नाग को आभूषण के रुप में अपने अंगों पर धारण करते हैं। इसलिए शिव को दूध अर्पण नागदेवता के दूध स्नान या पूजा के समान ही है। यहीं नहीं इससे शिव के साथ नाग पूजा का दोहरा पुण्य भी मिलता है।

जानिए, क्यों है शरीर के साथ छाया का संबंध?
हर इंसान, प्राणियों, वनस्पतियों या वस्तुओं आदि के साथ एक रोचक बात जुड़ी होती है। वह है - परछाई का प्रकट होना और लुप्त हो जाना। जिसे देख सकते हैं, किंतु पकड़ा नहीं जा सकता। विज्ञान की नजर से यह साधारण बात है, जो रोशनी के आने-जाने से घटती है। किंतु धर्मशास्त्रों के मुताबिक भी इसका संबंध सूर्य से ही जुड़ा एक प्रसंग है। जिसके चलते हर देह से छाया का संबंध जुड़ा। जानते हैं यह प्रसंग -

भविष्य पुराण के मुताबिक दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री रुपा का विवाह सूर्यदेव से किया। उनकी यमुना और यम नाम की दो संतान हुई। किंतु सूर्य के तेज के कारण रूपा उनको देख नहीं पाती। साथ ही उसका शरीर भी जल कर काला पड़ गया। तब इससे बचने के लिए रुपा ने अपनी छाया से ही अपने ही समान स्त्री पैदा की और उसे अपने पति सूर्य के साथ रहने व यह भेद न खोलने का कहकर अपनी दोनों संतान को छोड़कर चली गई।

सूर्य देव और छाया से दो संतानें शनि और तपती ने जन्म लिया। किंतु छाया रूपा की संतानों से ज्यादा अपनी संतान को चाहती थी। इसी कारण विवाद के चलते यमुना और तपती एक-दूसरे के शाम से नदी बन गई। यही नही यम से विवाद होने पर यम ने छाया को पहचान लिया, तब छाया ने भी यम को जगत के प्राणियों के प्राण हरने के क्रूर कार्य करने और जमीन पर पैर रखने ही गलने का शाप दिया।

विवाद के दौरान जब सूर्यदेव वहां पहुंचे तो यम ने माता छाया के उपेक्षा और भेदभाव से भरे व्यवहार और श्राप देने की शिकायत की। साथ ही यह भेद भी खोल दिया कि वह उनकी असली मां नहीं बल्कि माता की छाया है।

सूर्यदेव ने सारी बात सुनकर यम को पैर गलने के श्राप से मुक्ति और ब्रह्मदेव द्वारा लोकपाल का पद प्राप्त होने का वर दिया। साथ ही बहन यमुना और तपती को क्रमश: गंगा और नर्मदा के समान पावन होने का वर दिया। किंतु छाया द्वेषपूर्ण व्यवहार के लिये यह मर्यादा नियत की वह अब से हर सांसारिक देह में स्थित रहेगी।

माना जाता है कि तब से ही हर देह के साथ छाया का संबंध है और सूर्यदेव की रोशनी या सूर्य रूप अग्रि से जुड़े हर स्त्रोत से निकली रोशनी के साथ छाया प्रकट होती है।

शिव-शक्ति की उपासना ही है हर देवी-देवता की पूजा! क्योंकि..
धार्मिक परं पराओं में अनेक देवी-देवताओं की उपासना के विधान है। अलग-अलग दिन, तिथि, व्रत, त्यौहार विशेष कामनाओं को पूरा करने के लिये नियत है। शिव, विष्णु, शक्ति, गणेश, सूर्य को मानने वाले अलग-अलग संप्रदाय अपनी-अपनी परंपराओं के मुताबिक ईश भक्ति करते हैं। भक्ति पंरपराओं के इतने अलग-अलग रूप या कभी-कभी कट्टरता ने भी धर्म से जुड़े श्रद्धालुओं के मन में अनेक देवी-देवता होने की धारणा और विश्वास को बल दिया। जिनकी संख्या करोड़ों भी मानी जाती है।

दरअसल, धर्मशास्त्रों में लिखी कुछ बातों पर गौर करें तो यह साफ हो जाता है कि यह सारे देवी-देवता एक ही ईश्वर के अलग-अलग शक्ति स्वरूप है। इन देवी-देवताओं से जुड़े पुराण और शास्त्रों में देव विशेष के साथ अन्य देवताओं की भी महिमा बताई गई है। जैसे शैव पुराणों में भगवान विष्णु और वैष्णव पुराणों में शिव की स्तुति की गई है।

इसलिए इनकी भक्ति में भेद या अन्तर नहीं रखना चाहिए।

इसी कड़ी में सूर्य भक्ति के सौरपुराण में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर से कही बात का प्रमाण है। जिसके मुताबिक पूरा जगत ही शिव-शक्ति से पूर्ण है और सभी देवी-देवता इस शक्ति के ही अलग-अलग रूप हैं। लिखा गया है कि -

यो ब्रह्मा स हरि: प्रोक्तो यो हरि: स महेश्वर:। महेश्वर: स्मृत: सूर्य: सूर्य: पावक उच्यते।।

पावक: कार्तिकेयोसौ कार्तिकेयो विनायक:। गौरी लक्ष्मीश्च सावित्री शक्तिभेदा: प्रकीर्तिता:।।

देवं देवीं समुद्दिश्य य: करोति व्रतं नर:। न भेदस्तत्र मन्तव्य: शिवशक्तिमयं जगत्।।

सरल शब्दों में अर्थ है कि ब्रह्मा ही विष्णु, विष्णु ही शिव, शिव ही सूर्य, सूर्य ही कार्तिकेय, कार्तिकेय ही गणेश है। इसी तरह गौरी, लक्ष्मी और शक्ति भी एक ही है। इसलिए जिस भी देवी-देवता की उपासना, व्रत या पूजा करे तो भेद भाव और बुद्धि न रखें। क्योंकि पूरा जगत ही शिव-शक्ति से पूर्ण है।

जानें, सूर्य के वे 12 करिश्माई रूप, जिनका ध्यान देता है अपार यश
हिन्दू धर्म के प्रमुख पांच देवताओं में एक भगवान सूर्य की शक्ति व स्वरूप की महिमा बताने वाले भविष्य पुराण में सूर्यदेव को ही परब्रह्म यानी जगत की सृष्टि, पालन और संहार शक्तियों का स्वामी माना गया है।

पौराणिक मान्यता के मुताबिक ये तीन कार्य सूर्यदेव 12 स्वरूपों द्वारा पूर्ण करते हैं, जो सूर्य की 12 मूर्तियों के रूप में पूजनीय है। ये जगत में अलग-अलग रूपों में स्थित हैं। इसलिए सूर्य उपासना में सूर्य के साथ इन 12 मूर्तियों का स्मरण सभी सांसारिक सुख और जबर्दस्त सफलता देने वाला माना गया है।

जानते हैं सूर्य की इन 12 मूर्तियों के नाम, स्थिति व कार्य -

इन्द्र - यह देवराज होकर सभी दैत्य व दानव रूपी दुष्ट शक्तियों का नाश करती है।

धाता - यह प्रजापति होकर सृष्टि निर्माण करती है।

पर्जन्य - यह किरणों में बसकर वर्षा करती है।

पूषा - यह मंत्रों में स्थित होकर जगत का पोषण व कल्याण करती है।

त्वष्टा - यह पेड-पौधों, जड़ी-बूटियों में बसती है।

अर्यमा - पूरे जगत में बसती है व जगत रक्षक है।

भग - यह धरती और पर्वतों में स्थित है।

विवस्वान् - अग्रि में स्थित हो जीवों के खाए अन्न का पाचन करती है।

अंशु - चन्द्रमा में बसकर पूरे जगत को शीतलता प्रदान करती है।

विष्णु - यह अर्धम का नाश करने के लिए अवतार लेती है।

वरुण - यह समुद्र में बसकर जल द्वारा जगत को जीवन देती है। यही कारण है समुद्र का एक नाम वरुणालय भी है।

मित्र - यह चन्द्रभागा नदी के तट पर मित्रवन नामक स्थान पर स्थित है। मान्यता है कि सूर्यदेव ने यहां मात्र वायु ग्रहण कर तपस्या की। यह मूर्ति जगत के जीवों को मनचाहे वर प्रदान करती है।

धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक सूर्यदेव उपासना द्वारा इन 12 मूर्तियों का स्मरण और भक्ति न केवल सभी पापों से मुक्त करती है, बल्कि पद, प्रतिष्ठा, समृद्धि और वैभव प्रदान करती है। जिसके लिये रविवार, संक्रांति और सप्तमी तिथि का विशेष महत्व है।

ये बातें हर पुरुष को रखती हैं बेखौफ और बेहद खुश..
जीवन में कर्म की प्रधानता है। कर्म यानी काम ही जीवन को गति भी देता है और सद्गति भी। खासतौर पर गृहस्थ जीवन की बात करें तो स्त्री-पुरुष दोनों ही गृहस्थी की धुरी होते हैं। किंतु गृहस्थी में अगर पुरुष कर्महीन हो जाए तो उसके व्यक्तिगत जीवन के साथ परिवार भी कलह और संकट से घिर सकता है।

दरअसल, काम से दूरी या अभाव ही शरीर, मन और कर्म से जुड़े दोष पैदा करता है। जिनके कारण जीवन में भय, चिंता और अशांति प्रवेश करती है। यही कारण है कि पुरुषों के लिए निश्चिंत और असुरक्षा के भाव से मुक्त गृहस्थ जीवन बिताने के लिए धर्मशास्त्रों में कुछ खास सूत्र बताए गए हैं। पौराणिक मान्यता है कि ये बात स्वयं ब्रह्मदेव ने शिव के सामने बोली। जानते हैं ये बातें -

लिखा गया है कि -

यो धर्मशीलो जितमानरोषो विद्याविनीतो न परोपतापी।

स्वदारतुष्ट: परदारवर्जितो न तस्य लोके भवमस्ति किंचित्।।

न तथा शशी न सलिलं न चन्दनं नैव शीतलच्छाया।

प्रह्लादयति पुरुषं यथा हिता मधुरभाषिणी वाणी।।

ध्रर्मशास्त्र की इस बात में भयमुक्त जीवन खासतौर पर पुरुष को खुश रखने के लिये कुछ अहम सूत्र है, जिनके मुताबिक -

- सम्मान और क्रोध पर काबू करें।

- विनम्र बने, ज्ञान और विद्या में निपुण बनें।

- दूसरों को भारी पीड़ा और दु:खों देने से बचें।

- अपनी स्त्री यानी जीवन के प्रति सम्मान और समर्पित का भाव रखें।

- परायी स्त्री का त्याग करें।

- धर्म का पालन करे। जैसे सत्य, परोपकार, दया, भक्ति आदि भाव चरित्र और स्वभाव में बनाए रखे।

यहीं नहीं परिजनों, इष्टमित्रों या किसी सज्जन द्वारा पुरुष को भलाई और हित के भाव से बोलें गए मीठे बोल इतनी शांति, प्रसन्नता और सुकून देते हैं कि जिनके आगे चन्द्रमा, जल, चन्दन और छाया की ठंडक भी कमतर होती है।

इन बातों में छुपे संयम और धर्म पालन के संकेत पुरुष के अलावा कोई भी मनुष्य जीवन में उतारे तो सुखी और सफल जीवन बीता सकता है।

एक सूत्र..जो बना दे शांति, सुख और धन पाने की राह आसान
हर इंसान जीवन को सुख-शांति से गुजारने की चाहत होती है। किंतु हर इच्छा पूरी करने के लिए लक्ष्य जरूरी होता है। जिसको पाने के लिए लगन, मेहनत और मजबूत विचार शक्ति होना जरूरी है। क्योंकि विचार ही इंसान को लक्ष्य के प्रति संकल्पित बनाए रखते हैं।

शास्त्रों में विचारों को बेहद ताकतवर माना गया है। लेकिन यह विचार कैसे शक्तिशाली बन अपने साथ दूसरों के भी सुख, शांति और भौतिक सुखों का कारण बन सकते हैं? इस संबंध में कुछ भावों को मन, वचन और कर्म में हमेशा बनाए रखने को बेहद जरूरी माना है। जानते हैं शास्त्रों में बताये ये खास सूत्र -

सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामय:।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दु:खभाग भवेत।

जिसका सरल शब्दो में अर्थ है कि सभी सुखी, स्वस्थ्य रहें, कोई भी किसी दु:ख से पीडि़त न हो। ऐसी ही भावना रखने वाला इंसान अहंकार, क्रोध, लालच, द्वेष और ईर्ष्या भाव से मुक्त रहता है। स्वभाव व चरित्र में विनम्रता और दया भाव के कारण है कि उसे मनचाहे सांसारिक सुख भी परिवार, समाज और कार्यक्षेत्र में उठते-बैठते सभी के सहयोग, प्रेम और स्नेह द्वारा आसानी से मिलते जाते हैं।

गीता में पढ़े यह खास बात.. धुल जाएंगे सारे पाप
हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है। महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कराकर कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के महामंत्र द्वारा अर्जुन के साथ संसार के लिए भी सफल जीवन का रहस्य उजागर किया।

भगवान का विराट स्वरूप ज्ञान शक्ति और ईश्वर की प्रकृति के कण-कण में बसे ईश्वर की महिमा ही बताता है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, नर-नारायण के अवतार थे और महायोगी, साधक या भक्त ही इस दिव्य स्वरूप के दर्शन पा सकता है। किंतु गीता में लिखी एक बात साफ करती है साधारण इंसान भी भगवान की विराट स्वरूप के दर्शन कर सभी पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। जानते हैं वह विशेष बात -

श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय में ही देवी लक्ष्मी द्वारा भगवान विष्णु के सामने यह संदेह किया जाता है कि आपका स्वरूप मन-वाणी की पहुंच से दूर है तो गीता कैसे आपके दर्शन कराती है? तब जगत पालक श्री हरि विष्णु गीता में अपने स्वरूप को उजागर करते हैं, जिसके मुताबिक -

पहले पांच अध्याय मेरे पांच मुख, उसके बाद दस अध्याय दस भुजाएं, अगला एक अध्याय पेट और अंतिम दो अध्याय श्रीहरि के चरणकमल हैं।

इस तरह गीता के अट्ठारह अध्याय भगवान की ही ज्ञानस्वरूप मूर्ति है, जो पढ़ , समझ और अपनाने से पापों का नाश कर देती है। इस संबंध में लिखा भी गया है कि बुद्धिमान इंसान हर रोज अगर गीता के अध्याय या श्लोक के एक, आधा या चौथे हिस्से का भी पाठ करता है, तो उसके सभी पापों का नाश हो जाता है।

ये 10 बातें सुनिश्चित कर देती हैं सफलता
जीवन में संयम भी एक शक्ति है। फर्क सिर्फ इतना है कि यह भौतिक रूप द्वारा नहीं बल्कि भाव रूप में इंसान को बहुत सबल बनाती है। हालांकि अनेक मौकों पर इसे कमजोरी मान लिया जाता है। किंतु सिर्फ धैर्य रखने के बेहतर परिणाम ही उसी इंसान को यश, सफलता और सम्मान का हकदार बना देते हैं।

संयम का ही शक्तिशाली स्वरूप धर्म और अध्यात्म क्षेत्र में अष्टांग मार्ग के रूप में भी जाना जाता है। जिसका पालन किसी भी इंसान, भक्त या साधक के लिए सुख, सफलता और मोक्ष सुनिश्चित कर देता है। जिसके लिये यम-नियम का महत्व बताया गया है।

जानते हैं यम-नियम से जुड़े इन 10 अनमोल सूत्रों से जुड़ी शास्त्रों में लिखी बातें -

यमा: पञ्च त्वहिंसाद्या अहिंसा प्राण्यहिंसनम्।।

सत्यं भूतहितं वाक्यमस्तेयं स्वाग्रहं परम्। अमैथुनं ब्रह्मचर्यं सर्वत्यागोपरिग्रह।।

जिसका अर्थ है कि यम के तहत इन पांच बातों का पालन जरूरी है -

अहिंसा - जीव हिंसा से बचना।

सत्य - सच खासतौर पर जीव के हित में सत्य बोलना।

अस्तेय - दूसरों की सामग्री, वस्तु की चोरी, कब्जे या अपहरण से बचना।

अपरिग्रह - सब कुछ त्याग करना।

इसी तरह यम के साथ पांच नियमों का पालन में अहम है -

शौच - पवित्रता, जो अंदर और बाहर दोनों ही रूपों में जरूरी है।

संतोष - तृप्त होना। सरल शब्दों में हर स्थिति में संतुष्ट व प्रसन्नता का भाव।

इन्द्रिय निग्रह - सभी इन्द्रियों पर संयम रखना।

स्वाध्याय - मंत्र जप, धर्म-ज्ञान का अध्ययन और पालन।

प्राणिधान - देव उपासना, पूजा, अर्चना आदि

ये 10 अनमोल बातें ऐसी हैं, जिनको व्यावहारिक जीवन में भी अगर साधारण इंसान भी अपनाएं तो ये जीवन की सफलता तय कर देते हैं।

कितनी तरह की मौतें? कैसे होता है आत्मा का पुनर्जन्म?
हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार जीव को बार-बार जन्म लेना पड़ता है। अपने पिछले जन्म के कर्मों का फल तो वह नर्क की यातनाओं से भोगता है और कुछ उसे अपने अगले जन्म में भोगना पड़ते हैं। इस बारे में ज्योतिष शास्त्र का अपना अलग मत है।

गरूड़ पुराण के अनुसार जीव पहला शरीर छोडऩे के बाद पहले अपने कर्मों के अनुसार फल भोगता है। उसे तरह-तरह की यातनाएं दी जाती हैं। कई वर्षों तक नारकीय यातनाओं के बाद उसे फिर जन्म दिया जाता है। वह अपने कर्मों के अनुसार ही स्वर्ग भी पाता है। यहां स्वर्ग की भी कई श्रेणियां मानी गई हैं। जिसमें से मध्यम श्रेणी के स्वर्ग का अधिपति इंद्र को माना गया है।

इससे भी ऊंचे स्वर्ग माने गए हैं। अच्छे कर्मों के कारण जीवों को यहां सुख भोगने को मिलता है। सुख भोगने के बाद भी उसकी अवधि समाप्त होने पर उस जीव को दोबारा जन्म लेना पड़ता है। वहीं ज्योतिष शास्त्र का विचार थोड़ा ज्यादा तर्कसंगत और वैज्ञानिक है।

ज्योतिष शास्त्र में माना जाता है कि कोई भी जीव दूसरा जन्म तब लेता है जब उसके पूर्व जन्म के कर्मफल के अनुसार ग्रह दशाएं बनती हैं। तब वह जीव अपनी माता के गर्भ में आता है और फिर वैसे ही मिलते-जुलते ग्रह नक्षत्रों में वह जन्म भी लेता है। इसकी कोई अवधि निश्चित नहीं होती है। इसमें सदियां भी लग सकती हैं।

कितनी तरह की होती है मृत्यु?
ग्रंथों ने मृत्यु को भी अलग-अलग माना है। हमारे कर्मों के अनुसार ही हमें वैसी मौत मिलती है। ग्रंथों ने मृत्यु के १०१ प्रकार माने हैं। इसमें से प्रमुख है इंद्रिय मृत्यु (इंद्रियों का कार्य करना बंद हो जाना। जैसे कोमा), हत्या, दुर्घटना, क्रोध, स्वहत्या (आत्म हत्या), काम, क्रोध, मोह, काल मृत्यु, कर्म मृत्यु आदि मुख्य हैं। इन मृत्युओं के बारे में वेदों की तीन शाखाओं में उल्लेख मिलता है कठोपनिषद, मैत्रायणी और कपिष्ठय में मिलता है।

कैसे लोग जाते है नरक में?
मृत्यु के बाद का जीवन कैसा होता है? नरक और स्वर्ग क्या है? कौन लोग नरक में जाते है आदि जिज्ञासाएं सभी के मन में होती है। इसी कारण हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद के जीवन पर एक पूरा पुराण लिखा गया है। इसे गरुड़ पुराण कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि गरुड़ पुराण उचित और अनुचित का ज्ञान करवाकर मनुष्य को धर्म और नीति के अनुसार जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देता है। ये मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों का विश्लेषण कर उन्हें सत्कर्म करने को प्रेरित करता है और दुष्कर्म करने से रोकता है। इसी पुराण में उल्लेख मिलता है कि कौन लोग नर्क में जाते हैं। इसमें उल्लेख के अनुसार गरुड, भगवान विष्णु से पूछते हैं कि भगवान किन पापों के कारण इंसान नर्क में जाता है तो भगवान उत्तर देते हैं- यमदूत कैसे पापियों को प्रताडि़त कर नरक में गिराते हैं उन्हें तुमसे कहता हूं।

- जो स्त्रियों, बालकों, नौकरों, गुरु को बिना भोजन कराये अकेला भोजन करे।

- विष्णु भगवान को बिना नैवेद्य लगाए भोजन करे।

- जो शंकु, काष्ट, पत्थरों, कांटों से मार्ग रोकते हैं।

- जो शिव, शिवा की, विष्णु, सूर्य , गणेश, सदगुरु व पंडित की पूजा नहीं करते वे नरक में जाते हैं।

- जो कामांध होकर राजस्वला स्त्री का सेवन करे।

- अपने शस्त्र बेचने वाले नरक में जाते हैं।

- अनाथ पर दया नहीं करने वाले।

- अपराध के बिना किसी को दण्ड देने वाले सब नरक में जाते हैं।

- किसी भी जरूरतमंद को भोजन की आशा बंधाकर भोजन न करवाने वाले।

- दया न करने वाले और सबसे कपट रखने वाले भी नरक में जाते हैं।

- दोस्त को धोखा देने वाले, आशा भंग करने वाले सब नरक में जाते हैं।

- विवाह, यात्रा आदि पर जाने वाले को लुटने वाला नरक में जाता है।

इसलिए सुबह पाठ-पूजा के पहले करें स्नान
हिन्दू धर्म परंपराओं में देव उपासना या धार्मिक कार्यों के पहले पवित्रता के लिहाज से स्नान करना महत्वपूर्ण और जरूरी क्रिया मानी गई है। खासतौर पर सुबह देवपूजा के पहले तीर्थ या पवित्र जल से स्नान को धर्मशास्त्रों ने पापनाशक कहा है।

पाठ-पूजा से पहले प्रात: स्नान के धार्मिक महत्व के साथ-साथ व्यावहारिक व वैज्ञानिक कारण भी हैं, जो तन के साथ मन को भी स्वस्थ्य रखते हैं। जानते हैं ये कारण -

दरअसल, रात में आराम से सोने के दौरान शरीर के अलग-अलग अंगों से तरह-तरह के दूषित पदार्थ जैसे लार, पसीना आदि निकलते हैं, जिससे शरीर अपवित्र हो जाता है। इसलिए शरीर की सुबह उठने पर सफाई न करना गंदगी से त्वचा छिद्रों के बंद होने या संक्रमण से रोग का कारण बन सकते हैं। इससे बचाव के लिए ही सुबह उठने के बाद स्नान जरूरी है। जिससे त्वचा स्वस्थ्य और शरीर चुस्त बना रहता है।

प्रात: स्नान से स्वस्थ तन, मन को भी बुरे विचारों से दूर रखता है। मन के अच्छे विचारों के प्रवेश से दरिद्रता, बुरे सपनों, अनिष्ठ शक्तियों से पैदा कुविचारों का भी नाश हो जाता है। शास्त्रों में इसे मानसिक पापों का अंत कहा गया है। चूंकि देव भक्ति में भी तन के साथ मन की पावनता और संयम अहम माने गए हैं, जो सुबह उठने के बाद स्नान द्वारा प्राप्त होते हैं।

किसी विवशता के कारण स्नान करना संभव न हो तो शास्त्रों में सिर पर बिना जल डाले या गीले कपड़े से शरीर को पोंछकर भी स्नान किया जा सकता है, जो कायिक स्नान के नाम से भी जाना जाता है।

जानिए, किसे कहते हैं माया? क्या अर्थ है माया शब्द का?
अक्सर हम सुनते हैं कि वो मोह-माया में फंसा है। ये संसार तो एक माया है। सब भगवान की माया है। लेकिन यह समझना कठिन है कि ये माया होती क्या है? क्या अर्थ होता है माया का? क्या यह कोई देवी हैं, या फिर भगवान की कोई अवतार। शा

स्त्रों में माया के बारे में बहुत विवरण मिलता है।सही मायनों में माया को समझना बहुत कठिन है, संसार में क्या माया है और क्या हकीकत, इसमें भेद करना आम आदमी के लिए मुश्किल है। माया शब्द संस्कृत के दो शब्दों मा और या से मिलकर बना है।

मा का अर्थ होता है नहीं है और या का अर्थ होता है जो। इस तरह माया का अर्थ है जो वस्तु नहीं है। इस दुनिया में जो भी चीज अस्थायी या काल्पनिक है उसे माया कहा जाता है। शास्त्रों में इस संसार को माया माना गया है क्योंकि यह स्थायी नहीं है। जब तक हम जीवित हैं, इसमें सुख से रह सकते हैं लेकिन यह कब खत्म हो जाएगा हमारे लिए इसका कोई भरोसा नहीं है।

ग्रंथों ने केवल परमात्मा और आत्मा को ही स्थायी माना है। इसके अतिरिक्त सारी चीजें अस्थायी मानी गई है। माया का अर्थ है कि ये चीजें एक दिन हमसे छूट जानी है, लेकिन परमात्मा कभी नहीं छूटेगा, वो स्थायी है।

जानें, क्या होता है जब नहीं होती गणेश की पहली पूजा?
भगवान श्री गणेश विघ्रहर्ता है। श्री गणेश के अनेक स्वरूप अलग-अलग युग और कालों से दु:खहर्ता और सुखदाता रूप में वंदनीय है। शास्त्रों के मुतबिक श्री गणेश को मंगलकारी विलक्षण रूप और शक्तियों के कारण ही प्रथम पूजनीय देवता का वरदान भी प्राप्त हुआ। किंतु शास्त्रों में ही आए कुछ प्रसंग भगवान गणेश को विघ्नहर्ता ही नहीं विघ्रकर्ता स्वरूप को भी उजागर करते हैं।

श्री गणेश के विघ्रकर्ता रूप से जुड़ा प्रसंग भी शुभ और मंगल के लिए श्री गणेश की पहली पूजा की अनिवार्यता को जाहिर करता है। यहीं नहीं यह भी बताया गया है कि इसके अभाव में जीव कैसी-कैसी बातों का सामना कर सकता है? जानतें हैं ये बातें -

दरअसल, सतयुग में जगतरचना के बाद जीवों के बिना रुकावट या विघ्र के मनचाहे कार्य तुरंत पूरे होने लगे। जिससे एक समय बाद उनमें अहंकार का वास हो गया। अहं से भरे जगत को दोष व कलह से बचाने के लिए ब्रह्मदेव ने विनायक की आवश्यकता महसूस की। तब ब्रह्मदेव के आग्रह पर भगवान शंकर ने श्री गणेश को जन्म दिया और गणों का स्वामी बनाया। साथ ही विघ्रकर्ता की शक्तियां भी प्रदान की।

भगवान श्री गणेश की प्रथम पूजा के बिना काम शुरू करने पर किन-किन अनिष्ट बातों से जुड़े संकेत और लक्षणों का सामना होता है, इनका जिक्र भी शास्त्रों में हैं। जानें इन बातों को -

- सपने में पानी में डूबते हुए या स्वयं को मुड़े हुए बालों के साथ देखता है।

- सपने में स्वयं को जंगली जानवर के ऊपर काले या गंदे कपड़े पहने बैठा देखता है।

- सपने में स्वयं को गधे, ऊंट पर चढ़ा हुआ अपने ही परिजनों के बीच से जाता हुए देखता है।

- सपने में केकड़े पर बैठकर पानी में जाता देखता है या पैदल राहगीरों के बीच से यमलोक जाता देख दु:ख के गहरे संकेत पाता है।

- इनके अलावा अविवाहित कन्या मनचाहा वर नहीं पाती।

- गभर्वती होने पर भी संतान बाधा आती है।

- विद्वान होने पर आचार्य पद प्राप्त नहीं होता, शिष्य अध्ययन से वंचित रहता है।

- कारोबार में वांछित लाभ नहीं मिलता।

- खेती बाड़ी में कामयाब नहीं मिलती।

ऐसे अमंगलकारी सपनों, संकेतों या बुरे परिणामों से रक्षा के लिए हर कार्य की शुरुआत में विनायक पूजा को बहुत ही शुभ माना गया है।

पतन और भटकाव से बचाते हैं गीता के ये आसान सूत्र
सुख व सफलता की सोच तो बहुत आसान होती है। किंतु उनको पाने के लिए जरूरी बातें अपनाना या करना व्यावहारिक रूप से उतना सरल नहीं होता। यही कारण है कि हर धर्म इन मुश्किलों को कम करने के लिए हर अच्छाईयों को जीवन में उतारने का सरल तरीका बताता है। जिनको जानने के बाद भी अनेक बार इंसान पर स्वभाव व चरित्र के दोष इतने हावी हो जाते हैं कि वह सुखों के लिए गलत मार्ग पर भटक जाता है।

कैसे पैदा होते हैं पतन के कारण और क्या हो सकता है इसका हल? इसका बेहतर जवाब हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। जानते हैं सुख और शांति पाने के लिए यह अहम बातें -

श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा गया है कि -

ध्यायतो विषयान् पुंस: सङ्गस्तेधूपजायते।

सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोभिजायते।

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिर्भशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशत्प्रणश्यति।।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसामधिगच्छति।।

यहां पहले दो श्लोकों में पतन का कारण हैं तो अंतिम श्लोक में उससे बचने का हल है। सार रूप में समझें तो इंद्रियों से जुड़े विषयों पर सोच-विचार आसक्ति, आसक्ति से इच्छाएं, इच्छापूर्ति में बाधा क्रोध पैदा करती है। क्रोध से सही-गलत की शक्ति, स्मरण शक्ति, स्मृति बुद्धि व ज्ञान का नाश होने से इंसान का पतन हो जाता है।

वहीं इसके विपरीत इंसान मोह, ईर्ष्या से दूर इंद्रियों पर संयम रखता है तो वह मन की पावनता व देव कृपा के द्वारा प्रसन्नता व सुखों को पाता है। उसका जीवन कलह व दु:ख से मुक्त हो जाता है और वह बुद्धि व ज्ञान से धनी हो जाता है।

इन 6 से जुड़ते ही मिटने लगेंगे सारे पाप
ईश्वर और धर्म में गहरा विश्वास रखने वाला हर इंसान पाप-पुण्य पर विचार कर तदनुसार अच्छे कर्मों को करने और बुरे कर्म से बचने का प्रयास करता है। जिसके लिए वह धार्मिक कर्म, धर्म ज्ञान, अध्ययन, सत्संग आदि में रुचि रखता है। शास्त्रों में ऐसे ही लोगों की पुण्य और मोक्ष पाने की भावना को सफल बनाकर पापमुक्त जीवन के लिए ही धर्म से जुड़ी 6 विशेष बातें बताई है। जिनसे आस्था से जुडऩा न केवल मानसिक, शारीरिक, व्यावहारिक व आध्यात्मिक शांति देने वाली है बल्कि धर्म दृष्टि से मुक्तिदायक है।

जानते हैं पुराणों में बताई ये पुण्यदायी 6 बातें। लिखा है -

विष्णुरेकादशी गीता तुलसी विप्रधेनव:।

असारे दुर्गसंसारे षट्पदी मुक्तिदायिनी।।

जिसका सरल शब्दों में अर्थ है कि भगवान विष्णु, एकादशी व्रत, गीता, तुलसी, ब्राह्मण और गौ ये 6 इस नाशवान संसार में लोगों के लिए मुक्तिदायी है। जानते हैं धर्म व व्यावहारिक नजरिए से इनका महत्व -

विष्णु - भगवान विष्णु परब्रह्म के तीन स्वरुपों में एक व जगतपालक माने गए हैं। वह सत्व गुणों, ऐश्वर्य, सुख, शांति के स्वामी भी हैं। उनकी व विष्णु अवतारों की भक्ति धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाली मानी गई है।

एकादशी व्रत- भगवान विष्णु की भक्ति को ही समर्पित एकादशी व्रत संयम, नियम, व्रत-उपवास के द्वारा धर्म और अनुशासन से जोड़कर पुण्य तो देता ही है। साथ ही वैज्ञानिक दृष्टि से भी इस तिथि पर व्रत प्राकृतिक तत्वों के साथ शरीर का तालमेल बैठाकर स्वस्थ्य व दीर्घ जीवन देने वाला होता है।

तुलसी - तुलसी पौराणिक चरित्र है, जिसका पवित्रता के फलस्वरूप ही भगवान विष्णु से संबंध जुड़ा, जो तुलसी-शालिग्राम विवाह के रूप में प्रसिद्ध है। इसलिए तुलसी पूजा सुख-ऐश्वर्यदायी भी मानी गई है। यह वैज्ञानिक दृष्टि से औषधीय पौधा भी है।

ब्राह्मण - ब्राह्मण को ब्रह्म या ईश्वर का ही अंश माना गया है। धार्मिक दृष्टि से ब्राह्मण ब्रह्म से जुडऩे की अहम कड़ी है। इसलिए ईश्वर का ही साक्षात् स्वरूप मानकर ब्रह्मपूजा, दान और सेवा सभी कलह और संताप का अंत करने वाली मानी गई है।

गीता - धार्मिक दृष्टि से गीता ईश्वर का ज्ञानस्वरूप है। इसलिए इसका किसी भी रूप में पाठ, स्मरण या व्यवहार में अपनाना शरीर और आत्मा के लिए सुख और मोक्षदायी ही है।

गौ - धर्म क्षेत्र में गौ यानी गाय को देव स्वरूप माना गया है। अनेक देवी-देवताओं का वास गौ में माना गया है। यही कारण है कि गौ का हर अंश दूध, दही, घी यहां तक कि मूत्र, गोमय भी देव कर्मों के लिए पवित्र और मंगलकारी माने गए हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह शरीर के लिए भी रोगनाशक है।

सुख का खजाना खोल देती है श्री हनुमान की यह सीख
श्री हनुमान चरित्र में भक्ति एक ऐसा पक्ष है, जिसमें छुपे अंतहीन सुख-शांति के सूत्र सांसारिक जीवन के कलह व संताप दूर कर देते हैं। हालांकि धर्मशास्त्रों में नवधा भक्ति के रूप में भक्ति के अलग-अलग नौ तरीके व्यावहारिक जीवन में चिंतन, मनन, व्यवहार, ध्यान द्वारा उठते-बैठते, चलते-फिरते कर्म, वचन और बोल में भगवान के स्मरण से जीवन को सुखी और सुरक्षित बनाने के उपाय ही है। किंतु श्री हनुमान ने गहरी सेवा और समर्पण को सर्वोपरि मानकर राम भक्ति द्वारा सुख पाने की आसान राह बताई।

हिन्दू धर्मग्रंथ रामचरितमानस में श्री हनुमान द्वारा कही बात में ईश्वर भक्ति के महत्व को उजागर कर सुख का ऐसा ही सूत्र बताया गया है। लिखा गया है कि -

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।

जिसका सार यही है कि भगवान का स्मरण करते रहना ही सुख व भूल जाना दु:ख का कारण है। दरअसल, इसमें व्यावहारिक जीवन के लिए यही संकेत है कि चूंकि जीवन शोक और खुशी का सिलसिला है। इसलिए इंसान को सुख और दु:ख दोनों में ही समान भाव से जीना चाहिए।

चूंकि दु:ख का शमन ज्ञान से ही संभव है। इसलिए यह बात भी स्वीकार करना चाहिए कि जिस तरह सुख ईश्वर कृपा से प्राप्त हुए, ठीक उसी भाव से दु:ख को भगवान की समीपता की घड़ी मान स्वीकार करना चाहिए। वैसे भी कहा गया है कि सांसारिक जीवन में सुख के साथी प्राणी और दु:ख के भगवान होते हैं। इसलिए दु:खों से बचने के लिए ईश्वर व स्वयं पर भरोसा रखें तो बुरा वक्त भी भारी न लग आसानी से कट जाएगा।

जानें श्रीकृष्ण का सिर्फ यह एक सूत्र और पा लें ढेरों सफलताएं
भगवान श्रीकृष्ण योगेश्वर या कर्मयोगी भी पुकारे जाते हैं। क्योंकि श्रीकृष्ण की जीवन लीलाओं में कर्म है, योग है, विज्ञान है, जो युग-युगान्तर से इंसानी जीवन के लिए सार्थक रहा है। श्रीकृष्ण के कर्म के पीछे पुरुषार्थ और मेहनत, योग के पीछे तन, मन को संयम द्वारा साधकर जीवन को अनुशासित और संतुलित करने का भाव और संदेश छुपा है।

व्यावहारिक रूप से भी विचार करें तो काम के बिना शरीर और विचारों में निष्क्रियता या जड़ता आती है। जिससे दूसरे तमाम दोष भी स्वभाव, व्यवहार में साथ चले आते हैं। जबकि आज तेज रफ्तारभरे जीवन की मांग गति और कुशलता है। परिश्रम के साथ कार्य कुशलता बेहद अहम हो गई है। काम ही आज के दौर में शीघ्र ही पहचान, सम्मान और ख्याति पाने का बेहतर जरिया है।

भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म की इसी अहमियत को धर्मयुद्ध के दौरान कुरुक्षेत्र के मैदान में धर्म और कर्म को भूलकर पस्त हो चुके योद्धा अर्जुन को विराट लीला के साथ उजागर किया। श्रीकृष्ण की इन बातों ने न केवल युद्ध बल्कि धर्म की जीत तय कर दी। श्रीकृष्ण की ये अनमोल बातें श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश के रूप में जानी जाती हैं।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताए कर्म संदेशों का यही अर्थ है कि कर्म करना हर व्यक्ति का कर्तव्य भी है और हक भी। किंतु उसके फल यानी नतीजों पर वह अधिकार न समझें। कर्म आसक्ति या मोह के साथ न हो, न ही स्वयं को कर्मों के नतीजों का कारण मानो। आसान शब्दों में श्रीकृष्ण के कर्मयोग का सकारात्मक पक्ष यही है कि कोई भी काम करें, उसे पूरे समर्पण, सच्चाई, निष्ठा और स्वार्थ से परे होकर करें। बस, यही सूत्र व्यावहारिक जीवन में हर क्षेत्र में सफलता, ऊँचा मुकाम पाने या आगे बने रहने का बेहतर तरीका भी है।

गोगा नवमी आज, जानें कौन थे गोगादेव?
भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की नवमी (इस बार 23 अगस्त, मंगलवार) गोगा नवमी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन श्रीजाहरवीर गोगाजी का जन्मोत्सव बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस अवसर पर बाबा जाहरवीर गोगाजी के भक्तगण अपने घरों में इष्टदेव की थाड़ी(थान-वेदी) बनाकर अखण्ड ज्योति जागरण कराते हैं तथा गोगादेवजी की शौर्य गाथा एवं जन्म कथा सुनते हैं। इस प्रथा को जाहरवीर का जोत कथा जागरण कहते हैं। इस दिन कहीं मेले लगते हैं तो कहीं भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। ऐसी मान्यता है कि श्रीगोगादेव भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।

कौन थे श्रीगोगादेव महाराज
किवदंती के अनुसार श्रीगोगादेव का जन्म नाथ संप्रदाय के योगी गोरक्षनाथ के आशीर्वाद से हुआ था। योगी गोरक्षनाथ ने ही आपकी माता बाछल को प्रसाद रूप में अभिमंत्रित गुग्गल दिया था। जिसके प्रभाव से महारानी बाछल से जाहरवीर (श्रीगोगादेव महाराज), पुरोहितानी से नरसिंह पाण्डे, दासी से मज्जूवीर, महतरानी से रत्नावीर तथा बन्ध्या घोड़ी से नीलाश्ववीर का जन्म हुआ। इन सभी ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए विधर्मी राजाओं से घोर युद्ध किया जिसमें श्रीगोगादेवजी व नीलाश्व को छोड़कर अन्य वीरगति को प्राप्त हुए। अंत में गुरु गोरक्षनाथ के योग, मंत्र व प्रेरणा से श्रीजाहरवीर गोगाजी ने नीले घोड़े सहित धरती में जीवित समाधि ली।

जो करते हैं ऐसे पाप उन्हें रोते हुए जाना पड़ता है नरक
जिंदगी का क्या भरोसा कब तक चल पायेगी, मौत का पक्का है वादा एक दिन वो आएगी। जीवन में मौत एक ऐसी सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है। कहते हैं मौत के बाद इंसान अपने कर्म के अनुसार स्वर्ग या नर्क में जाता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार मृत्यु के बाद इंसान को अपने किए कर्मों का फल मिलता है। गरुड़ पुराण के अनुसार गरुड़ भगवान से पूछते हैं कि जीव किन पापों से यमलोक में जाता है। किन पापों से वैतरणी नदी में गिरता है। तब भगवान उत्तर देते हैं। जो शुभ काम नहीं करते हुए हमेशा अशुभ काम करता हो वह नरक में जाता है। धर्मराजपुर के चार दरवाजे हैं। उनमें पूर्व पश्चिम व उत्तर तीनों धर्मात्माओं के लिए होते हैं।

दक्षिण दिशा का दरवाजा पापी पुरुषों के लिए होता है। ब्रम्ह्म हत्या करने वाले, मदिरा पीने वाले, गोहत्या करने वाले, बालघाती, स्त्रीघाती, विश्वासघाती, स्त्रियों को विश्वास दिलवाकर उनसे धन छिनने वाला, जहर मिश्रित अन्न देकर किसी को मारने वाला, नीचपुरूष से स्नेह रखने वाला, सुखी को दुखी बनाने वाला, कड़वा बोलने वाला, मन में बुरी बात रखने वाला, हित की बात भी न सुनने वाला, उधार लेकर वापस न देने वाला, बच्चों का धन छिनने वाला शास्त्रों की आज्ञा न मानने वाला, अभिमानी, मुर्ख अपने को पंडित मानने वाले, ऐसे बताए गए पाप जो भी करता है वह जीव दिन-रात रोते हुए यमलोक को जाता है।

पाप पैदा करता है तबाही के ये 4 कारण..!
इंसान हित, सुख या स्वार्थ के पीछे पाप और पुण्य को भी अपने हिसाब से परिभाषित करने लगता है। जिसके कारण वह बुरे कर्मों को जानते-समझते कुतर्कों द्वारा सही ठहराकर कुछ समय के लिए लाभ या सुख तो पा लेता है, फिर चाहे उसकी वजह से कोई दूसरा कितनी ही पीड़ा से क्यों न गुजरें? जबकि वास्तव में पाप किसी भी रूप में हो वह अंतत: व्यक्तिगत हानि का कारण बनता है।

धर्मशास्त्रों में पाप से पैदा हुए ऐसे 4 दोषों को बताया गया है, जो इंसान के लिए घातक ही साबित होते हैं। इनके पीछे मन, वचन या कर्म द्वारा किए बुरे कर्म ही होते हैं। डालते हैं एक नजर उन चार कारणों पर -

रोग - बुरे विचार और कर्म मन के साथ शरीर पर भी निश्चित रूप से बुरा असर डालते हैं। जिससे बिगड़ा संयम और अनुशासन रोगों के रूप में सामने आता है, जो स्वयं के साथ परिवार के लिए भी कष्टकारी होते हैं।

शोक - शास्त्रों के मुताबिक जानकर ही नहीं अनजाने में किसी का अहित, बुराई या नुकसान भी पाप है, जो हर इंसान को अंदर से पीड़ा देता है। यहीं नहीं बाहरी रूप से दूसरों की हानि के बदले पैदा प्रतिशोध का भाव या प्रतिक्रिया से प्राण, प्रियजन, धन या प्रिय वस्तु को खोना भी भारी शोक का कारण बन सकता है, जो शरीर, स्वभाव, चरित्र और व्यक्तित्व के लिए बुरा ही होता है।

संकट - स्वयं के हित के लिए दूसरों की भलाई को नजरअंदाज करने की लत हर वक्त संकट रूपी तलवार बनकर जीवन पर लटकी रहती है। जिसके बुरे नतीजे परिजन ही नहीं समाज को भी गुजरना पड़ सकता है।

पतन - पाप व बुरे कामों के कारण रोग, शोक और संकट से गुजरने या भुगतने के बाद अहंकारवश बुरे कर्म या सोच को अपनी शक्ति मानकर भी अगर कोई इंसान पाप के रास्ते पर ही चलता रहे तो उसका अंत या पतन बहुत ही करीब होता है। धर्मग्रंथों के मुताबिक हिरण्यकशिपु से लेकर रावण या कंस तक ऐसी ही स्थितियों से गुजरकर काल की गर्त में गिरे।

करें सांई भक्ति तो ध्यान रखें ये 3 बातें..
सांई बाबा जगतगुरु कहलाते हैं। हिन्दू धर्म मान्यताओं में सांई बाबा को महायोगी भगवान दत्तात्रेय का अवतार भी माना जाता है। दत्तात्रेय भक्ति की तरह ही सांई भक्ति और नाम स्मरण जीवन पर मण्डराएं संकट का फौरन अंत करने वाले और मनोरथ को सिद्ध करने वाले माने गए हैं।

गुरुवार का दिन सांई बाबा की पूजा व स्मरण का विशेष व शुभ दिन माना जाता है। धार्मिक आस्था कहती है कि सांई बाबा का किसी भी रूप में स्मरण मंगलकारी ही है। किंतु हर भक्त का भी यह कर्तव्य बनता है कि सांई बाबा की बताई तीन बातों को हमेशा जेहन में रखें। अन्यथा सांई भक्ति की सार्थकता कहीं खो जाएगी। क्या है वे तीन बातें? जानते हैं -

श्रद्धा - सांई का यह सूत्र मात्र धार्मिक अर्थों में नहीं बल्कि व्यावहारिक रूप से भी अहम है। श्रद्धा के पीछे यही संदेश है कि जीवन में आप जिस भी रिश्ते या काम से जुड़ें उसके प्रति समर्पण, निष्ठा और ईमान के साथ-साथ त्याग भाव रखें।

सबूरी - सांई का एक ओर सूत्र जीवन में सुखी रहने का श्रेष्ठ उपाय है। यह है - सबूरी। इसके पीछे भाव यही है कि संतोष, धैर्य या संयम द्वारा जीवन में स्थिरता और आनंद लाएं। असंतोष या असंयम बैचेनी, कलह या संताप का ही कारण बनते हैं।

एकता - सांई बाबा का यह सूत्र बताता है कि मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है। धर्म की कट्टरता व संकीर्णता से बचकर हर धर्म का सम्मान व अलग-अलग ईश्वर के रूपों को एक मानकर दर्शन और विश्वास प्रेम, परोपकार, दया, त्याग जैसी धर्म भावों को बनाए रखता है। सांई बाबा ने इसी भावना को 'सबका मालिक एक' बोलकर एक सूत्र में पिरोया।

गणेश चतुर्थी 1 को, सुख-समृद्धि लेकर आएंगे गजानन
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है। इस दिन घर-घर भगवान श्रीगणेश की स्थापना की जाती है और व्रत रखा जाता है। धर्म शास्त्रों में श्रीगणेश को प्रथम पूज्य व ज्ञान तथा बुद्धि का देवता माना गया है। सभी शुभ कार्यों से पहले भगवान श्रीगणेश की पूजा का विधान है। इस बार गणेश चतुर्थी का पर्व 1 सितंबर, शनिवार को है।

गणेश उत्सव का पर्व 10 दिनों तक मनाया जाता है। इन दिनों में हर गली, मौहल्लों व चौराहों पर भी भगवान श्रीगणेश की स्थापना कर सांस्कृतिक व धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिसे देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ता है। प्रमुख गणेश मंदिरों में दर्शन करने वालों का तांता लगा रहता है वहीं मंदिरों पर विशेष साज-सज्जा भी की जाती है। हर कोई अपने-अपने तरीके से भगवान श्रीगणेश की आराधना में जुट जाता है। श्रीगणेश को रोज लड्डू व मोदक का भोग लगाया जाता है।

महाराष्ट्र में गणेश उत्सव की रौनक देखते ही बनती है। यहां स्थापित की जाने वाली श्रीगणेश की विशालकाय मूर्तियां लोगों की श्रृद्धा व आकर्षण का केंद्र होती हैं। 10 दिन के बाद भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी (इस बार 11 सितंबर, रविवार) को पर्व का समापन होता है। भक्त घरों व सार्वजनिक स्थानों पर स्थापित श्रीगणेश की मूर्तियों का प्रवाहित करते हैं और कामना करते हैं कि अगले साल फिर से भगवान श्रीगणेश सुख व समृद्धि लेकर उनके घर आएं। चतुर्दशी की रात्रि को आकर्षक झाकियां निकाली जाती हैं जो लोगों को मंत्र मुग्ध कर देती हैं। इसी के साथ गणेश उत्सव का समापन हो जाता है।

सभी दु:खों को दूर करते हैं भगवान श्रीगणेश
हिंदू धर्म शास्त्रों में भगवान श्रीगणेश को विघ्वविनाशक व दु:खनाशक बताया गया है, जिसका अर्थ है श्रीगणेश की पूजा करने से किसी प्रकार की कोई विपत्ति नहीं आती और सभी दु:ख दूर हो जाते हैं। इसके साथ ही श्रीगणेश को बुद्धि व ज्ञान का स्वामी भी कहा जाता है। प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी का पर्व बड़े ही उत्साह व श्रृद्धा के साथ मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 1 सिंतबर, गुरुवार को है।

भगवान श्रीगणेश की आराधना श्रद्धानिष्ठ होकर करने से गणपति की कृपा से देवता व पित्र प्रसन्न होते हैं। शिव-शक्ति के पुत्र, रिद्धि-सिद्धि के पति, शुभ-लाभ एवं सदा सुख शांति देने वाली माता संतोषी के पिता श्रीगणेश की कृपा से ही मनुष्य को संसार में संपदा प्राप्त होती है। समस्त पुण्य कर्मों का शुभ फल देने का अधिकार भगवान श्री गणेश को प्राप्त है।

व्यापारी को व्यापार लाभ के लिए, कर्मचारी को पदोन्नति के लिए, गृहस्थी को घर में सुख, शांति के लिए भगवान श्रीगणेश की ही आराधना चाहिए। श्रीगणेश के आचार-विचार, व्यवहार, स्वभाव आदि सभी में जनहित व लाइफ मैनेजमेंट की बातें हैं इसलिए इन्हें लाइफ मैनेजमेंट गुरु भी कहा जाता है।

भगवान गणेश क्यों हैं लाइफ मैनेजमेंट गुरु?
श्री गणेश बुद्धि के देवता हैं इसीलिए श्रीगणेश प्रथम पूज्य है यानि हर शुभ कार्य में गणेशजी की पूजा सबसे पहले की जाती है। उनके स्वरूप में अध्यात्म और जीवन के गहरे रहस्य छुपे हैं। जिनसे हम जीवन प्रबंधन के सफल सूत्र हासिल कर सकते हैं। भगवान गणेश गजमुख है जिस पर हाथी जैसे कान सूप जैसे हैं। जिनका मतलब है कि बातें सबकी सुनो लेकिन उनका सार ही ग्रहण करो। ठीक उसी तरह जिस तरह सूप छिलके बाहर फेंककर सिर्फ अन्न को ही अपने पास रखता है।

इसी तरह श्री गणेश की छोटी आंखें मानव को जीवन में सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। उनकी बड़ी नाक (सूंड) दूर तक सूंघने में समर्थ है जो उनकीदूरदर्शिता को बताती है। जिसका अर्थ है कि उन्हें हर बात का ज्ञान है। श्री गणेश के दो दांत हैं एक पूर्ण व दूसरा अपूर्ण। पूर्ण दांत श्रद्धा का प्रतीक है तथा टूटा हुआ दांत बुद्धि का। वह मनुष्य को यह प्रेरणा देते हैं कि जीवन में बुद्धि कम होगी तो चलेगा लेकिन ईश्वर के प्रति पूरा विश्वास रखना चाहिए।

भगवान गणेश का बड़ा पेट यह बताता है कि पेट गागर की तरह छोटा नहीं अपितु सागर की तरह विशाल होना चाहिए, जिसमें अच्छी-बुरी सभी बातों को शामिल करने की शक्ति हो। श्री गणेश के छोटे पैर यह शिक्षा देते हैं कि मनुष्य को उतावला नहीं होना चाहिए। सभी कार्य धैर्यपूर्वक करना चाहिए।

भगवान गणेश के आस-पास ऋद्धि और सिद्धि के दर्शन होते हैं। यह इस बात का संदेश है कि जो जीवन में बुद्धि का सदुपयोग करता है, वह सुख और शांति को पाता है।

बोलें यह अचूक देवी मंत्र..शनि भी करेंगे मंगल
देवी पुराण के मुताबिक ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्रों की गति से लेकर पूरे जड़-चेतन जगत के अस्तित्व का कारण शक्तिरुपा महामाया जगदंबा है। यहां तक कि ब्रह्मा, विष्णु की भांति रुद्र यानी शिव भी विनाशक शक्ति का उपयोग देवी शक्ति की मदद से ही कर पाते हैं।

यही कारण है कि ग्रह दोष या उनके शुभ प्रभाव के पीछे शक्ति का अनुकूल या प्रतिकूल होना भी होता है। इसलिए शक्ति उपासना ग्रहदोष शांति में भी अचूक मानी गई है। जिसके लिए आदिशक्ति के रूप दशविद्या की उपासना का महत्व है। दशविद्या के अलग-अलग रूप अलग-अलग ग्रह दोषों का शमन करते हैं।

इनमें पहला देवी रूप है काली, जो शनि ग्रह की अधिष्ठात्री मानी जाती है। बाकी दशविद्याएं काली का ही रूप माना गया है। महाकाली प्रचण्ड व रौद्र स्वरूप, मुण्डमालाधारी, हाथ में खड्ग लिए असुरों की नाशक बताई गई है। व्यावहारिक दृष्टि विचार करें तो माता का यह रूप बुरी सोच और दुर्गुणों रूपी राक्षसी प्रवृत्तियों को नाश करने वाली स्वयं में छुपी शक्ति ही है। नवरात्रि के पहले तीन दिन महाकाली उपासना और छुपी शक्ति के जागरण का ही महत्व है।

काली उपासना का शिव भक्ति की प्रदोष तिथि में भी बहुत ही शुभ और मंगलकारी होती है। क्योंकि यह शिव की शक्ति शिवा का ही एक रूप है। चूंकि मान्यता है कि शनि ग्रह भी शिव की आज्ञा से जीवों को दण्ड देने का कार्य करते हैं। इसलिए इस दिन काली के विशेष बीज मंत्र सहित मूल मंत्र का स्मरण शनि ग्रहदोष शांति के साथ मनोरथपूर्ति व सिद्धि देने वाला होता है।

जानते हैं यह काली का बीज मंत्र सहित मूल मंत्र और आसान विधि -

- प्रात: स्नान के बाद यथासंभव लाल वस्त्र पहन महाकाली की प्रतिमा या तस्वीर की पूजा में चंदन, कुंकुम, हल्दी, सौभाग्य वस्त्र या सूत्र, फूल, फूलमाला, सुपारी चढ़ाकर काले तिल, मेवे या घी-शक्कर का भोग लगाएं।

- धूप व दीप जलाकर नीचे लिखे काली मंत्र का स्फटिक की माला से कम से कम एक माला यानी 108 बार जरूर स्मरण शनि ग्रह दोष शांति व सुख-समृद्धि की कामना से करें। इसमें क्रीं काली का ही बीज मंत्र है।

ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वर्यै स्वाहा

- मंत्र स्मरण के बाद देवी आरती कर काले तिल का प्रसाद ग्रहण करें व पूजा, आरती, जप में हुई गलती के लिये क्षमा मांगे।

जानें, कैसे देवी पूजा से मिलती है शक्ति व ऊर्जा?
हर काम में शक्ति की जरूरत होती है। इससे साफ है कि संसार में रचना, पालन और विनाश जैसा अद्भुत कार्य किसी महाशक्ति द्वारा ही संभव है। हिन्दू धर्म में महाशक्ति का यही स्वरूप आद्यशक्ति के नाम से जाना जाता है। शास्त्रों के मुताबिक आदि शक्ति परब्रह्म का ही रूप है, जो साकार न होकर भी चर-अचर जगत में फैली अनेक रूपों व शक्तियों में नजर आती है।

वेदों में भी देवी ने स्वयं को हर कार्य का फल और वैभव देने वाली बताया है। वहीं दुर्गासप्तशती में भी देवी की महिमा का एक मंत्र भी उजागर करता है कि पूरे ब्रह्माण्ड को शक्ति और ऊर्जा निराकार रूप में आदिशक्ति द्वारा ही प्राप्त होती है। लिखा है कि -

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:।।

जिसका अर्थ यही है कि पंचतत्वों यानी आकाश, जल, वायु, अग्रि और पृथ्वी सहित सभी प्राणियों में बसी शक्तिरूपा व प्राणदायी देवी को बार-बार मेरा नमस्कार है। साफ है कि देवी ही ब्रह्माण्ड की अधिष्ठात्री है।

शास्त्रों के मुताबिक त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी शक्ति के अधीन है और आदिशक्ति के द्वारा ब्रह्मदेव जगत रचना करते है। ब्रह्मा के साथ यह शक्ति रूप ब्राह्मी पुकारा जाता है। इसी तरह भगवान विष्णु जब इस शक्ति द्वारा ही जगत का पालन करते हैं तो यह शक्ति रूप वैष्णवी के रूप में पूजा जाता है। इसी तरह शिव की संहार शक्ति शिवा के रूप में जानी जाती है।

इसी तरह देवी के अलग-अलग रूप, शक्ति और गुणों के पीछे भी भक्त और साधकों की भावनाएं ही जुड़ी हैं। भक्त की भावनाओं के मुताबिक आदिशक्ति वैसे ही स्वरूप को धारण करती है। यही कारण है कि निराकार देवी शक्ति के अलग-अलग दिव्य स्वरूप जैसे महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, जगदंबा, गायत्री आदि अनेक साकार रूपों में पूजनीय है। इनके स्मरण द्वारा शक्ति साधना की गहरी आस्था जुड़ी है। ये शक्तियां सुख-शांति, वैभव देने वाली, संकट, काल, भय, कलह मुक्त जीवन और हर सांसारिक मनोरथसिद्धि करने वाली मानी जाती है।

सरल शब्दों में सार यही है कि शक्ति उपासना असल में हर भक्त को उसकी गुण व शक्तियों का ज्ञान व चेतना देती है। इससे मिली नई ऊर्जा आत्मविश्वास जगाकर कर्म के लिए प्रेरित करती है।

चिंताओं से घिरा हो मन..तो यह बात देगी गजब का हौंसला व समाधान
जीवन अनिश्चिताओं से भरा माना जाता है। वक्त कब, किस तरफ करवट लेगा, यह कोई नहीं जानता। यही कारण है कि हर इंसान बीते समय की अच्छी-बुरी बातों से सबक सीख हर कोशिश में अच्छे भविष्य की आशाएं रखता है। किंतु वक्त के उतार-चढ़ाव से उसका मन समय-समय पर चिंताओं से भी घिर जाता है, जो अच्छी सोच पर सीधे असर डालती है। डावांडोल मन से काम भी बिगड़ जाते हैं।

शास्त्रों में चिंता और दु:ख से घिरी ऐसी मानसिक स्थिति के लिए एक छोटी-सी बात का ज्ञान न रखना कारण माना गया है। जिसे अनेक मौकों पर समझदार या विद्वान व्यक्ति भी भूलकर व्यर्थ बेचैन और चिंतित हो जाता है। जानते हैं क्या है शास्त्रों में बताया चिंताओं को दूर करने और उनका हल भी बताने वाला बेहतरीन सूत्र?

शास्त्रों के मुताबिक अज्ञानता ही दु:ख या चिंता का कारण है। इस संबंध में योगवशिष्ठ नामक ग्रंथ में ऋषि वशिष्ठ ने श्रीराम को यह बताते हुए कि ज्ञान के बिना सांसारिक कलह का अंत संभव नहीं, कहा है कि -

ज्ञानान्निदु:खतामेति ज्ञानादज्ञानसंक्षय:।

ज्ञानादेव परासिद्धिर्नान्यस्माद् राम वस्तुत:।।

प्रश्र यही उठता है कि वह ज्ञान क्या है? इसी ज्ञान को सरल शब्दों में जानें तो शास्त्रों में साफ लिखा है कि चूंकि अच्छे-बुरे काम ही सुख और दु:ख नियत करते हैं, जिनका सामना हर इंसान को करना ही पड़ता है। इनसे बचना संभव नहीं। इसलिए चिंता या पीड़ाओं से भयभीत होने के बजाए एक छोटा-सा सूत्र हमेशा ध्यान रखना चाहिए। यह सूत्र है -

यद्भावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा।

इति चिन्ताविषघ्रोयमगद: किन्न पीयते।।

जिसका मतलब है जो घटित होना है या होनहार है वह टल नहीं सकती और जो नहीं होना है या होनहार नहीं है, वह बात कभी नहीं होगी। इसलिए व्यर्थ चिंता कर मन को न जलाकर जीवन को चिता की ओर न मोड़ें।

हर इंसान अगर इस सूत्र को मन-मस्तिष्क में उतारकर रखे तो नियत लक्ष्य को पाने के संकल्प के साथ शांत और निश्चिंत जीवन गुजारना आसान हो जाएगा।

इसलिए शुभ कामों में बनाया जाता है स्वस्तिक
हिन्दू धर्म परंपराओं में स्वस्तिक शुभ व मंगल का प्रतीक माना जाता है। इसलिए हर धार्मिक, मांगलिक कार्य, पूजा या उपासना की शुरुआत स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर की जाती है। धर्मशास्त्रों में स्वस्तिक चिन्ह के शुभ होने और बनाने के पीछे विशेष कारण बताया गया हैं। जानते हैं यह खास बात -

दरअसल, शास्त्रों में स्वस्तिक विघ्रहर्ता व मंगलमूर्ति भगवान श्री गणेश का साकार रूप माना गया है। स्वस्तिक का बायां हिस्सा गं बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसमें जो चार बिन्दियां होती हैं, उनमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानी कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है।

विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में भी स्वस्तिक के श्री गणेश स्वरूप होने की पुष्टि होती है। हिन्दू धर्म की पूजा-उपासना में बोला जाने वाला वेदों का शांति पाठ मंत्र भी भगवान श्रीगणेश के स्वस्तिक रूप का स्मरण है। यह शांति पाठ है -

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:

स्वस्तिनस्ता रक्षो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पर्तिदधातु

इस मंत्र में चार बार आया स्वस्ति शब्द चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन है।

असल में स्वस्तिक बनाने के पीछे व्यावहारिक दर्शन यही है कि जहां माहौल और संबंधों में प्रेम, प्रसन्नता, श्री, उत्साह, उल्लास, सद्भाव, सौंदर्य, विश्वास, शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं श्री गणेश का वास होता है और उनकी कृपा से अपार सुख और सौभाग्य प्राप्त होता है। चूंकि श्रीगणेश विघ्रहर्ता हैं, इसलिए ऐसी मंगल कामनाओं की सिद्धि में विघ्रों को दूर करने के लिए स्वस्तिक रूप में गणेश स्थापना की जाती है। इसीलिए श्रीगणेश को मंगलमूर्ति भी पुकारा जाता है।

खुदा पर यकीन करना सीखाता है ईद का त्योहार
मुस्लिम धर्म ग्रंथों के अनुसार रमजान के पवित्र महीने के दौरान ही अल्लाह ने पवित्र कुरान पैगम्बर मुहम्मद को दिया था। अल्लाह के पवित्र संदेश देवदूत जिब्राइल के माध्यम से पैगम्बर मुहम्मद को प्राप्त हुए, जो 23 वर्ष की अवधि में कुरान के रूप में लिखे गए। इसी की याद में पूरे रमजान माह विशेष त्योहार के रूप में मनाया जाता है। इस माह के अंत में ईद का त्योहार मनाया जाता है। इस बार यह त्योहार 31 अगस्त, गुरुवार(संभावित) को है।

रमजान के दौरान मुसलमान रोजा अर्थात् उपवास रखते हैं जिसमें वे भोजन नहीं करते,पानी नहीं पीते, धूम्रपान और अनेक प्रकार की सुख-सुविधाओं का त्याग करते हैं। रमजान मुसलमानों के लिए धार्मिक प्रथा ही नहीं बल्कि अच्छा जीवन जीने, धैर्य, आत्म-नियंत्रण और सहनशीलता की सीख देता है। जो जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

रमजान के महीने में खुदा की ईबादत के बाद मुस्लिम भाई ईद का त्योहार मनाते हैं। ईद को मौके पर बच्चों को उपहार और मिठाइयां दी जाती है। इसके साथ ही भोज समारोह आयोजित किए जाते है जिनमें विशेष व्यंजन, पेय पदार्थ आदि शामिल होते हैं। ईद की मुख्य मिठाइयों में दूध में पकाया सेंवइयां बहुत लोकप्रिय है। रमजान माह के अंत में मनाया जाने वाला त्योहार ईद-उल-फितर है। यह आत्म-परीक्षण करने और धार्मिक आस्था को बढ़ाने वाला त्योहार है।

खुशियां बांटने का पर्व है ईद-उल-फितर
इस्लाम धर्म में पवित्र रमजान के पूरे महीने रोजे अर्थात् उपवास रखने के बाद नया चांद देखने के अवसर पर ईद-उल-फितर का त्योहार मनाया जाता है। यह रोजा तोडऩे के त्योहार के रूप में भी लोकप्रिय है। यह त्योहार रमजान के अंत में मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 31 अगस्त, गुरुवार (संभावित) को है।

मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए यह अवसर भोज और आनंद का होता है। 'फितर' शब्द अरबी के 'फतर' शब्द से बना। जिसका अर्थ होता है टूटना। 'फितर' शब्द का एक अन्य अर्थ भी होता है जो 'फितरह' शब्द से निकलता है। जिसका अर्थ होता है भीख। अन्य इस्लामी त्योहारों की तरह रमजान एक दिन विशेष पर नहीं आता है। यह इस्लामी केलेंडर का नौवां महीना होता है। इस प्रकार यह पूरा माह ही त्योहारों की तरह होता है। इबादत या प्रार्थना, भोजन और मेल-मिलाप इस त्योहार की प्रमुख विशेषता है।

इस दिन की रस्मों में सुबह सबसे पहले नहाना, नए कपड़े पहनना, सुगंधित इत्र लगाना, ईदगाह जाने से पहले खजूर खाना आदि मुख्य है। आमतौर पर पुरुष सफेद कपड़े पहनते हैं। सफेद रंग पवित्रता और सादगी का प्रतीक है। इस पवित्र दिन पर बड़ी संख्या में मुस्लिम अनुयायी सुबह जल्दी उठकर ईदगाह, जो कि ईद की विशेष प्रार्थना के लिए एक बड़ा खुला मैदान होता है, में इबादत और नमाज अदा करने के लिए इकट्ठे होते हैं।

नमाज से पहले सभी अनुयायी कुरान में लिखे अनुसार, गरीबों को अनाज की नियत मात्रा दान देने की रस्म निभाते हैं। जिसे फितर देना कहा जाता है। फितर या एक धर्मार्थ उपहार है, जो रोजा तोडऩे के उपलक्ष्य में दी जाती है। इसके बाद इमाम द्वारा ईद की विशेष इबादत और दो रकत नमाज अदा करवाई जाती है। ईदगाह में नमाज की व्यवस्था इस त्योहार विशेष के लिए होती है। अन्य दिनों में नमाज मस्जिदों में ही अदा की जाती है।

शिखर छूना है तो काम में हो ऐसा समर्पण और जज्बा
शिखर पर पहुंचने की आस हर कोई करता है, लेकिन सभी उस ऊंचाई को छू नहीं पाते। क्योंकि बिरले ही लोग उसके लिये जरूरी काबिलियत, गुण रखते हैं। चूंकि सफलता की बुलंदियों की ओर जाने का यह सफर परिवार और कार्यक्षेत्र से होकर ही गुजरता है। इसलिए हर इंसान को इस दौरान कुछ आसान सूत्रों को ध्यान रखना चाहिए। जिसे यहां हिन्दू धर्मग्रंथ में आई प्रथम पूज्य गणेश जन्म की कथा से ही समझते है -

पौराणिक मान्यता है कि देवी पार्वती ने स्नान के वक्त अपने उबटन की बत्तियों से एक शिशु बनाया। तपोबल से उसमें प्राण फूंक कर पुत्र मान आदेश दिया कि मेरे स्नान करने तक वह किसी को भी भीतर न आने दे।

इसी दौरान वहां भगवान शंकर पहुंच गए। किंतु द्वार पर खड़े बालक के द्वारा उनको अंदर प्रवेश से रोका गया और वह अपनी बात से टस से मस न हुआ। तब इस बात से अनजान कि वह उनका ही पुत्र है, शिव ने आवेशित होकर उसका सिर त्रिशूल से काट दिया। तब पार्वती के दु:खी होने पर भगवान शंकर ने हाथी का कटा सिर उस बालक के धड़ पर लगाया। साथ ही उसे जगत में हर कार्य में सबसे पहले पूजनीय होने का आशीर्वाद दिया। वह बालक ही गजानन पुकारा गया। जिसे हम भगवान के गणेश नाम से भी सबसे पहले पूजते हैं।

इस छोटी-सी कथा में संकेत यही है कि मानव जीवन की सफलता परिवार हो या कार्यक्षेत्र में जिम्मेदारियों को ईमानदारी और समर्पण से पूरा करने में ही छुपी है। परिवार के बीच या किसी कार्यक्षेत्र से जुडऩे के बाद वक्त आगे बढऩे के साथ कर्तव्य भी जुड़ते चले जाते हैं। कर्तव्यों को पूरा करने के प्रति सच्चाई व जज्बा ही नई जिम्मेदारी, पद व सम्मान के काबिल बनाता है। देवी पार्वती द्वारा गणेश का जन्म और द्वार पर पहरेदारी का जिम्मा इसी बात का संकेत है।

वहीं गणेश की द्वार पर पहरेदारी और भगवान शंकर को रोकने के पीछे यह संदेश है कि किसी भी वक्त मिली किसी भी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए कमर कसकर तैयार रहना चाहिए। साथ ही उसे निर्भय व निष्पक्षता के साथ पूरा करना चाहिए, फिर चाहे उसमें किसी वक्त अपनों के ही अनुचित दबाव, दखल या खलल का ही क्यों न सामना करना पड़े।

आपका कर्तव्यों को पूरा करने का ऐसा जज्बा और समर्पण ही आपकी शख्सियत को साफ-सुथरा, विश्वसनीय बनाकर भगवान गणेश की तरह ही नई पहचान, यश, सम्मान और प्रतिष्ठा देकर निश्चित रूप से शिखर पहुंचा देगा।

श्री गणेश से सीखें यह खास खूबी लीडरशिप की..
परिवार का मुखिया हो या कार्यक्षेत्र में शीर्ष पद दोनों ही स्थानों पर बेहतर नेतृत्व क्षमता ही पारिवारिक सदस्यों या कार्यदल यानी टीम पर बेहतर नियंत्रण व तालमेल से सुखद नतीजों के लिए निर्णायक होती है। किंतु किसी भी शीर्ष पर पहुंचकर उससे जुड़ी जिम्मेदारियां और कार्य को अंजाम देना कुछ खास खूबियों के बिना संभव नहीं।

हिन्दू धर्म पंरपराओं में चूंकि सही शुरूआत और अंजाम के लिए भगवान गणेश का स्मरण ही किया जाता है। इसलिए श्री गणेश स्वरूप में मौजूद सही नेतृत्व के लिए जरूरी गुणों में से ही एक खास और अहम गुण को व्यवहार में उतार लिया जाए तो यशस्वी जीवन को आसानी से पाया जा सकता है। जानते हैं क्या है यह खास खूबी?..

श्री गणेश का एक नाम गणपति है। जिसका शाब्दिक अर्थ निकाले तो गण यानी समूह व पति यानी स्वामी। इस तरह इस शब्द में नेतृत्व का ही भाव छुपा है। चूंकि श्री गणेश का बाहरी स्वरूप तो अनूठा है, जिसका संबंध गजमुख या गजानन यानी हाथी के मुख से है। किंतु वह अनेक गुणों के स्वामी होने से गुणपति भी पुकारे जाते हैं।

श्री गणेश के इस अनूठे हाथी मुख में ही नेतृत्व क्षमता का बेजोड़ सूत्र छूपा है। जिसके मुताबिक चूंकि हाथी को बलवान ही नहीं बुद्धिमान प्राणी भी माना गया है। जिसमें साफ संकेत है कि अगर कोई भी इंसान ऊंचाई, शीर्ष या नेतृत्व की कामना रखता है तो उसे तेज बुद्धि का मालिक जरूर बनना चाहिए। बुद्धिमानी के बिना नेतृत्व करना या सक्षम होना मुश्किल है। जिसके लिए वक्त रहते सजग और जागरूक रहकर अधिक से अधिक ज्ञान, अनुभव व कुशलता को पाने से नहीं चूकना चाहिए।

बुद्धिमानी ही श्री गणेश की तरह गुणवान बनाकर प्रथम पूज्य व्यावहारिक अर्थों मे आगे रखकर प्रतिष्ठा, सम्मान व सफलता में अहम भूमिका निभाएगी।

जानें, श्रीगणेश के प्रमुख गणों के नाम
गणेशजी का उल्लेख ऋग्वेद के एक मंत्र (2-23-1) से मिलता है। चाहे कोई सा अनुष्ठान हो, इस मंत्र का जाप तो होता ही है...गणनां त्वा गणति हवामहे..। इस मंत्र में ब्रह्मणस्पति शब्द आया है। यह बृहस्पति देव के लिए प्रयुक्त हुआ है। बृहस्पति देव बुद्धि और ज्ञान के देव हैं इसलिए गणपति देव को भी बुद्धि और विवेक का देव माना गया है। किसी भी कार्य की सिद्धि बिना बुद्धि और विवेक के नहीं हो सकती। अस्तु, हर कार्य की सिद्धि के लिए बृहस्पतिदेव के प्रतीकात्मक रूप से गणेशजी की पूजा होती है। गणेश पुराण में गणेशजी के अनेकानेक रूप कहे गए हैं। सतयुग में कश्यप ऋषि पुत्र के रूप में वह विनायक हुए और सिंह पर सवार होकर देवातंक -निरांतक का वध किया। त्रेता में मयूरेश्वर के रूप में वह अवतरित हुए।

गणेश के 21 गण हैं- गजास्य, विघ्नराज, लंबोदर, शिवात्मज, वक्रतुंड, शूर्पकर्ण, कुब्ज, विनायक, विघ्ननाश, वामन, विकट, सर्वदैवत, सर्वाॢतनाशी, विघ्नहर्ता, ध्रूमक, सर्वदेवाधिदेव, एकदंत, कृष्णपिंड्:ग, भालचंद्र, गणेश्वर और गणप। ये २१ गण हैं और गणेशजी की पूजा के भी 21 ही विधान हैं।

अगर क्रोध किया तो भुगतने पड़ेगें ये घातक नतीजे..
अक्सर देखा जाता है कि इंसान अच्छाई का श्रेय स्वयं लेना चाहता है, वहीं बुराई का दूसरों के माथे मढ़ता है। जबकि सच यह भी है कि इंसान के स्वभाव और व्यवहार के दोष भी अपयश या निंदा का कारण बनते हैं। शास्त्रों में भी ऐसे ही छ: दोष बताए गए हैं, जिनमें क्रोध भी एक है।

धर्मग्रंथों की बातों का सार समझें तो क्रोध बर्बादी का अहम कारणों में एक है। क्रोध से न केवल सही या गलत की समझ खो जाती है, बल्कि अनेक सद्गुण भी ढंक जाते है। गुस्सा किस तरह से नुकसानदायक व घात का कारण बनता है, जानते हैं शास्त्रों में लिखी बात से-

क्रोध: प्राणहर: शत्रु: क्रोधोमित्रमुखो रिपु:।

क्रोधोसि महातीक्ष्ण: सर्वं क्रोधोपकर्षति।।

तपते यतते चैव यच्च दानं प्रयच्छति।

क्रोधेन सर्वं हरति तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत।।

जिसका आसान शब्दों में मतलब है कि क्रोध प्राणघातक है, क्रोध शत्रु है, क्रोध घाव देने वाली तलवार है, जिससे सारा तप, धीरज, दान आदि निरर्थक हो जाते हैं। इसलिए क्रोध का साथ छोडऩा ही बेहतर व सुखी जीवन का सरल उपाय है।

साफ है कि क्रोध से न केवल स्वयं के गुण, स्वभाव व व्यवहार पर बुरा असर डालता है, जबकि उससे दूसरों पर हुए नकारात्मक प्रभाव से हुई प्रतिक्रिया बुरे और घातक परिणाम का कारण बनती है।

ये काम भी हैं सच्ची भक्ति.. जो लाते हैं सुख और शांति
भक्ति भी मन, तन और कर्म को साधकर सुख और शांति का श्रेष्ठ उपाय है, जो अलग-अलग रूपों में ईश्वर और दैवीय भावों के निकट ले जाती है। अच्छे भावों के विचार और व्यवहार में आते ही उसके सुखद नतीजे भी जीवन में दिखाई देते हैं।

अक्सर ईश भक्ति के लिए देव उपासना-पूजा आसान मार्ग समझा जाता है। लेकिन अनेक लोग इन धार्मिक कर्मकाण्डों में ऐसे उलझ जाते हैं कि वह अंधविश्वास का रूप भी ले लेते हैं। जिससे व्यावहारिक दोष पैदा होते हैं। असल में वह भक्ति के मूल भाव से दूर हो जाते हैं।

धर्मग्रंथ गीता में भक्ति और कर्म के इसी तालमेल को बनाने का एक सूत्र बताया गया है। जो संकेत करता है कि काम के साथ भक्ति कैसे की जा सकती है?

लिखा गया है कि -

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानव:।।

जिसका सरल शब्दों में शाब्दिक अर्थ है कि ईश्वर से ही सभी जन्मे हैं, जिनसे सारे जगत का अस्तित्व है। इस तरह हर जगह भगवान मौजूद है। इसलिए अगर मानव स्वाभाविक कामों को ही करता रहे तो वह ईश्वर पूजा के समान है। जिनके द्वारा वह सिद्ध बन सकता है।

साफ संकेत है कि इंसान कर्म में भी ईश्वर का भाव रख पूजा के समान कर्तव्यों व जिम्मेदारियों को बिना बेचैनी और अशांत भाव के पूरा करता चले तो उसे असीम सुख और शांति मिल सकती है।

भक्त की इस एक बात के भगवान भी हो जाते है कायल!
व्यावहारिक जीवन में सुख और आनंद के लिए पद, प्रतिष्ठा और सम्मान और ऐश्वर्य अहम माने जाते हैं। किंतु ये सभी एक साथ या समान रूप से नहीं मिलते। तो क्या कोई ऐसा तरीका हो संभव है, जो स्थायी और अपार सुख दे सके?

धर्मग्रंथों के मुताबिक सभी सुख और आनंद पाने का एक सरल उपाय है और वह है - भक्ति। जी हां, भगवान की भक्ति भगवान के स्मरण में लगाया मन कुछ ही पलों में ऐसा सुख, खुशी और आनंद दे देता है, जिनके आगे तमाम भौतिक सुख भी कमतर लगते हैं।

ऐसी सुखदायी भक्ति के लिये भाव जरूरी है। क्योंकि भक्ति में भाव अहम माना गया है। इस संबंध में श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि -

भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते।

गन्धो धूप: सुमनसो दीपोन्नाद्यं च किं पुन:।।

जिसका सरल शब्दों अर्थ है कि मुझे कोई अनेक तरह की भोग सामग्रियां चढ़ाएं तो मैं उनसे संतुष्ट नहीं हो पाता, बल्कि कोई भक्ति भाव से मात्र जल अर्पित कर दे तो प्रसन्न हो जाता हूं और अगर कोई इसी भावना से गंध, फूल, धूप, दीप और भोग लगाए तो फिर वह मेरा कृपा पात्र ही हो जाता है।

इस बात से यही सूत्र मिलता है कि सांसारिक जीवन में सुकून से जीवन जीने के लिए कर्म के साथ भाव भरी भक्ति भी एक बेहतर उपाय साबित। क्योंकि माना जाता है कि इससे मिली शांति धन से पाई सुख-सुविधाओं से भी नहीं मिल पाती।

घर के इन 5 स्थानों पर हर रोज होती है हिंसा! जानें, कैसे बचें?
धर्म का पालन जीवन में संयम, अनुशासन लाकर सुख, शांति लाता है। जो व्यक्ति, परिवार और समाज के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन इसके लिए धर्म परंपराओं में आस्था और विश्वास बहुत जरूरी है। इसी कड़ी में शास्त्रों की मानें तो हर घर में हिंसा के ऐसे पांच स्थान होते हैं। जहां न चाहकर भी कुछ जीवों की हिंसा हो जाती है। लिखा गया है कि -

पञ्चसूना गृहस्थस्य चुल्की पेषण्युपुष्कर:।

कण्डनी चोदकुम्भश्च वध्यते वास्तु वाहयन्।।

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभि:।

पञ्च क्लृप्ता महायज्ञा: प्रत्यहं गृहमेधिनाम्।।

मनुस्मृति के इस श्लोक के मुताबिक नीचे बताएं घर के पांच स्थानों पर हर रोज हिंसा होती है। इस हिंसा शांति के लिए पञ्च महायज्ञों को जरूर करना चाहिए। खासतौर पर द्विज यानी जनेऊधारी या ब्राह्मण को ये कर्म नहीं भूलना चाहिए। जानते हैं वह पांच स्थान और पंच महायज्ञों के नाम -

- चूल्हा या रसोई बनाने का साधन व स्थान।

- चक्की यानी अनाज पीसने या आटा तैयार करने का यंत्र।

- झाडू या वे स्थान, जहां-जहां सफाई की जाए

- ओखली या अन्न या अन्य खाद्य सामग्री कूटने का पात्र या स्थान

- पानी का घड़ा या जल पात्र और जल रखने या भरने का स्थान

इन स्थानों पर कार्य के दौरान अन्न, जल या भूमि में रहने वाले छोटे-छोटे, सूक्ष्म जीवों की मृत्यु हो जाती है। इसलिए धार्मिक दृष्टि से पाप या दोष शमन का उपाय नीचे बताए पांच महायज्ञ है -

- ब्रह्मयज्ञ -

- देवयज्ञ

- भूतयज्ञ

- पितृयज्ञ

- मनुष्य यज्ञ

ये हैं भारतीय इतिहास के युगनायक शिक्षक
भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक शिक्षक रहे हैं। राम से लेकर विवेकानंद तक जितने भी युगनायक हुए हैं, उनके पीछे किसी महान गुरु का आशीर्वाद और शिक्षा रही है। आइए जानते हैं कि कौन-कौन से ऐसे महान गुरु हैं जिन्होंने युगनायकों को जन्म दिया है।

सांदीपनि - भगवान श्रीकृष्ण के गुरु आचार्य सांदीपनि थे। उज्जैयिनी वर्तमान में उज्जैन में अपने आश्रम में आचार्य सांदीपनि ने भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार श्रीकृष्ण ने सर्वज्ञानी होने के बाद भी सांदीपनि ऋषि से शिक्षा ग्रहण की और ये साबित किया कि कोई इंसान कितना भी प्रतिभाशाली या गुणी क्यों न हो, उसे जीवन में फिर भी एक गुरु की आवश्यकता होती ही है। भगवान श्रीकृष्ण ने 64 दिन में ये कलाएं सीखीं थी। सांदीपनि ऋषि परम तपस्वी भी थे, उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न कर यह वरदान प्राप्त किया था कि उज्जैयिनी में कभी अकाल नहीं पड़ेगा।

वशिष्ठ - त्रैतायुग में भगवान राम के गुरु रहे श्री वशिष्ठ भी भारतीय गुरुओं में उच्च स्थान पर हैं। भगवान राम की प्रतिभा और उनके सद्व्यवहार को सबसे पहले श्री वशिष्ठ ने ही पहचाना। उन्होंने भगवान राम के व्यक्तित्व को देखते हुए पहले ही घोषणा कर दी थी कि ये भविष्य में सूर्यवंश राम के नाम से ही जाना जाएगा। भगवान राम ने सारी वेद-वेदांगों की शिक्षा वशिष्ठ ऋषि से ही प्राप्त की थी।

विश्वामित्र - भगवान राम को परम योद्धा बनाने का श्रेय विश्वामित्र ऋषि को जाता है। एक क्षत्रिय राजा से ऋषि बने विश्वामित्र भृगु ऋषि के वंशज थे। भगवान राम के पास जितने भी दिव्यास्त्र थे, वे सब विश्वामित्र ऋषि के दिए हुए थे। विश्वामित्र को अपने जमाने का सबसे बड़ा आयुध अविष्कारक माना जाता है। उन्होंने ब्रह्मा के समकक्ष एक और सृष्टि की रचना कर डाली थी।

द्रोणाचार्य - द्वापरयुग में कौरवों और पांडवों के गुरु रहे द्रोणाचार्य भी श्रेष्ठ शिक्षकों की श्रेणी में काफी सम्मान से गिने जाते हैं। द्रोणाचार्य ने अर्जुन जैसे योद्धा को शिक्षित किया, जिसने पूरे महाभारत युद्ध का परिणाम अपने पराक्रम के बल पर बदल दिया। द्रोणाचार्य अपने युग के श्रेष्ठतम शिक्षक थे।

चाणक्य - आचार्य विष्णु गुप्त यानी चाणक्य कलयुग के पहले युगनायक माने गए हैं। दुनिया के सबसे पहले राजनीतिक षडयंत्र के रचयिता आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य जैसे साधारण भारतीय युवक को सिकंदर और धनानंद जैसे महान सम्राटों के सामने खड़ाकर कूटनीतिक युद्ध कराए। चंद्रगुप्त मौर्य को अखंड भारत का सम्राट बनाया। पहली बार छोटे-छोटे जनपदों और राज्यों में बंटे भारत को एक सूत्र में बांधने का कार्य आचार्य चाणक्य ने किया था। वे मूलत: अर्थशास्त्र के शिक्षक थे लेकिन उनकी असाधारण राजनीतिक समझ के कारण वे बहुत बड़े रणनीतिकार माने गए।

रामकृष्ण परमहंस - स्वामी विवेकानंद के गुरु आचार्य रामकृष्ण परमहंस भक्तों की श्रेणी में श्रेष्ठ माने गए हैं। मां काली के भक्त श्री परमहंस प्रेममार्गी भक्ति के समर्थक थे। ऐसा माना जाता है कि समाधि की अवस्था में वे मां काली से साक्षात वार्तालाप किया करते थे। उन्हीं की शिक्षा और ज्ञान से स्वामी विवेकानंद ने दुनिया में हिंदू धर्म की पताका फहराई।

सीखें सफलता के ये 9 सूत्र..जमाने में होगी वाहवाही
जब इंसान कटु वाणी, अच्छे कर्म और व्यवहार करते हुए कई अवसरों पर अपयश या निंदा का पात्र बनता है, तो ऐसी स्थिति कहीं न कहीं मनोबल पर बुरा असर ही नहीं डालती, बल्कि अनेक अवसरों पर इंसान को यह सोचने पर मजबूत करती है कि क्या सही है और क्या गलत है?

ऐसी मानसिक दशा उसे भलाई और अच्छाई से भी दूरी ले जा सकती है, जो कि धर्मशास्त्रों की दृष्टि से ठीक नहीं है। शास्त्रों के मुताबिक ऐसी स्थिति के लिए इंसान की छोटी-सी भूल भी कारण होती है। वह है - सही समय की समझ। अगर शब्द, व्यवहार और कर्म की लिये सही समय और विचार में तालमेल न बैठे तो अच्छी बातें या काम भी बेकार हो जाते हैं।

समय, सोच व कर्म में सही तालमेल बनाने के लिये ही हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में 9 खास बातों का जिक्र किया गया है। जिसको अगर व्यावहारिक जीवन में अपना लें तो मुश्किलों से दो-चार न होकर सुखी, शांत व समृद्ध जीवन बिताना आसान हो जाता है। जानते हैं क्या है ये बातें?

लिखा गया है कि -

न संरम्भेणारभते त्रिवर्गमाकारित: शंसति तत्वमेव।

न मित्रार्थे रोचयते विवादं नापूतित: कुप्यति चाप्यमूढ:।।

न योभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बल: प्रातिभाव्यं करोति।

नात्याह किंचित्क्षमते विवादं सर्वत्र ताद्दग् लभते प्रशंसाम्।।

इन श्लोकों में सीख दी गई है कि नीचे लिखी 9 बातों को अपनाने वाला इंसान हर जगह मान-सम्मान व प्रशंसा का पात्र बन जाता है -

- जो आवेश या जल्दबाजी के साथ धर्म, अर्थ या कर्म की शुरुआत न करे।

- पूछने पर व्यावहारिक व सत्य यानी यथार्थ बात ही बताए।

- मित्र की भलाई के लिये झगड़ा पसंद न करे।

- मान-सम्मान न मिले तो क्रोधित या कुंठित न हो।

- हमेशा सही और गलत की पहचान यानी विवेक कायम रखे।

- दूसरों में दुर्गण, दोष या कमी न देखे।

- दयालु हो।

- कमजोर होने पर किसी की जमानत न दे। सरल शब्दों में समझें तो अभाव में दूसरों के शक्तियों के बूते गलत काम न करे या न ऐसे लोगों व काम को समर्थन दे।

- बढ़-चढ़कर बातें न करें और विवाद को सहन कर ले।

ये 5 लोग सिखा देते है कैसे गुजारें जीवन?
मुश्किलों से बचना या आसान जीवन जीना इंसान की स्वाभाविक चाहत है। किंतु सुरक्षित जीवन की यह भावना इंसान के दिमाग पर ज्यादा हावी हो जाती है तो वह हर दिन, हर पल उठते-बैठते आस-पास के लोगों या बातों को लेकर असंतुष्ट होने लगता है। जिससे वह अशांत या व्यर्थ दबाव व तनाव में रहकर अकेलेपन का शिकार भी होने लगता है।

शास्त्रों के मुताबिक संसार में रहकर भी जीवन से जुड़े दर्शन को लेकर अज्ञानता ही ऐसी मनोदशा पैदा करती है। जिससे बचकर व्यावहारिक जीवन की सफलता के लिए हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में एक बेहतरीन सूत्र बताया गया है। जिसके मुताबिक हर व्यक्ति के जीवन में 5 तरह के लोग अहम भूमिका निभाते हैं। इंसान को इस बात को समझकर हर स्थिति का सामना करने को तैयार रहना चाहिए।

लिखा गया है कि -

पञ्च त्वानु गमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि।

मित्राण्र्यामित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविन:।।

इस श्लोक का अर्थ है कि जीवन में जहां-जहां भी जाएंगे वहां पर इन पांच तरह के लोगों के बीच जीवन गुजारना होता है, वह हैं -

मित्र - समान विचार, व्यवहार व भावना रखने वाले लोग आपके करीबी बन मित्र रूप में सहयोगी बनते हैं।

शत्रु - काम, स्वार्थ या हित के चलते विरोधी, द्वेषी या ईष्र्या भाव रखने वाले लोगे शत्रुता का व्यवहार करते हैं।

उदासीन - ऐसे लोग जो अच्छा हो या बुरा न आपका सहयोग न विरोध करे। ऐसे लोगों का व्यवहार असामान्य व निष्क्रियता भी शमिल होती है, जो किसी को भी विचलित कर सकती है।

आश्रय देने वाले - कठिन समय में निस्वार्थ सहयोग व सेवा करने वाले लोग।

आश्रय पाने वाले - बुरे वक्त या हालात के कारण कमजोर, गरीब या अन्य किसी कारण से शरण में आने वाले लोग।

इस तरह जीवन में हर रोज इन पांच तरह के लोगों का सामना तय है। इसलिए वक्त व व्यक्तियों से तालमेल बैठाकर जीवन को सही दिशा में मोडऩा चाहिए, बजाए इन बातों से मुंह फेर खुद या दूसरों को दोषी मानकर कलह व संताप के साथ वक्त व जीवन गुजारना।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

No comments:

Post a Comment