Thursday, July 21, 2011

Real 'I' Interview(असली 'मैं' का साक्षात्कार)

असली 'मैं' का साक्षात्कार
जप, तप, व्रत, उपवास, ध्यान, भजन, योग आदि साधन अगर सत्संग के बिना किये जायें तो उनमें रस नहीं आता। वे तो साधन मात्र हैं। सत्संग के बिना वे व्यक्तित्व का सिंगार बन जाते हैं।

जब तक ब्रह्मवेत्ता महापुरूष का जीवंत सान्निध्य इन साधनों का सुहावना नहीं बनाता तब तक ये साधन श्रम मात्र रह जाते हैं। ये साधन सब अच्छे हैं फिर भी सत्संग के बिना रसमय नहीं बनते। सत्संग इनमें रस लाता है।

रसौ वै सः।

रस स्वरूप परमात्मा का बोध ब्रह्मवेत्ता अनुभवनिष्ठ महापुरूष की वाणी का शरण लिए बिना नहीं हो सकता। अकेले साधन-भजन करने से थोड़ी-बहुत सात्त्विकता आ जाती है, सच्चाई आ जाती है, साथ ही साथ सात्त्विकता और सच्चाई का अहं भी उतना ही आ जाता है। साधना का अहं खड़ा हो जाता है। अहं के अनुरूप घटना घटती है तो सुख होता है। अहं के प्रतिकूल घटना घटती है तो सुख होता है। अहं के प्रतिकूल घटना घटती है तो दुःख होता है। सुखी और दुःखी होने वाले हम मौजूद रहे।

सत्संग से क्या लाभ होता है ? हमारा माना हुआ जो परिच्छिन्न व्यक्तित्व है, जीव का अहं है उसका पोल खुल जाता है। जैसे प्याज की पर्तें उतारते जाओ तो भीतर से कुछ ठोस प्याज जैसा निकलेगा नहीं। केवल पर्तें ही पर्तें है। ऐसे ही जब तक सत्संग नहीं मिलता तब तक 'मैं' का ठोसपना दिखता है। सत्संग मिलते ही 'मैं' की पर्तें हटती हैं और अपने चिदाकाश स्वरूप का दीदार हो जाता है। जीव मुक्ति का अनुभव कर लेता है।

एक साधु ने 'कलिदोषनिवारक' ग्रन्थ में पढ़ा कि साढ़े तीन करोड़ नाम जपने से सद्योमुक्ति होती है। उसने अनुष्ठान शुरू किया। साढ़े तीन करोड़ राम नाम का जप कर लिया। कुछ हुआ नहीं। दूसरी बार अनुष्ठान किया। फिर भी सद्योमुक्ति जैसा कुछ नहीं हुआ। जिन सत्पुरूष के द्वारा उस ग्रन्थ की बात सुनी थी उनको जाकर कहा महाराज!मैंने साढ़े तीन करोड़ जप दो बार किये। कुछ हुआ नहीं।
तीसरी बार कर। संत ने सूचन किया। तीसरी बार करने पर भी सद्योमुक्ति का कोई अनुभव नहीं हुआ। उनकी श्रद्धा टूट गई। फिर किसी ब्रह्मवेत्ता के पास गया और अपना हाल बताते हुए कहा "स्वामी जी ! सुना था कि साढ़े तीन करोड़ मंत्रजप करने से सद्योमुक्ति होती है। मैंने एक बार नहीं, तीन बार किया। मुझे कोई अनुभव नहीं हुआ।सद्योमुक्ति का मतलब क्या है?संत श्री ने पूछा।शीघ्र मुक्ति। सद्यो मोक्षप्रदायकः। तुरन्त मुक्ति हो जाती है।

वत्स ! तू मनमाना होकर साधना करता था इसलिए अटूट दृष्टि नहीं रही। तू अभी मुक्त है, इसी समय तू मुक्त है। तुझे बाँध सके ऐसी कोई भी परिस्थिति तीनों लोकों में भी नहीं है। तू अभी मुक्त है। तूने जप तो किया लेकिन सत्संग का रंग नहीं लगा। अब सत्संग में बैठकर देख। दीये में तेल तो भर दिया, बाती भी रख दी लेकिन जले हुए दीये के नजदीक नहीं गया। अब सत्संग में बैठ। शान्ति से ध्यानपूर्वक सुन। श्रद्धा के साथ विचार कर। तेरी सद्योमुक्ति है ही। 'मेरी सद्योमुक्ति अब होगी' – ऐसा मत मान। अभी इसी समय, यहीं तेरी सद्योमुक्ति है। हम लोग बड़े में बड़ी गलती यह करते हैं कि साधनों के बल से भगवान को पाना चाहते हैं या मुक्त होना चाहते हैं। साधन करने वाले का व्यक्तित्व बना रहेगा। केवल भगवान की कृपा से भगवान को पाना चाहते हैं तो आलस्य आ जायेगा। अतः तुम्हारा पुरूषार्थ और भगवान की कृपा का समन्वय कर। 'भगवान ऐसे हैं.... वैसे हैं' ऐसी मान्यता मत पकड़। वे जैसे हैं उसी रूप में अपने आप प्रकट हों।

तुम्हारी धारणा के मुताबिक भगवान प्रकट हों ऐसा चाहोगे तो तुम्हारी धारणा कभी कैसी होगी कभी कैसी होगी। मुसलमान खुदा को चाहेगा तो अपनी धारणा का, वाघरी भगवान को चाहेगा तो अपनी धारणा का, रामानुजाचार्य के भक्त भगवान को चाहेंगे तो अपनी धारणा का, देवी का भक्त अपनी धारणा का चाहेगा, पटेल अपनी धारणा का भगवान चाहेगा, सिंधी अपनी धारणा का झूलेलाल चाहेगा।
तुम्हारी धारणा के भगवान तो तुम्हारी अन्तःकरण की वृत्ति तदनुकूल होगी तो वही होकर दिखेंगे। तुम्हारी वृत्ति माता के आकार की होगी तो भगवान माता के स्वरूप में दिखेंगे, तुम्हारी वृत्ति श्रीरामचन्द्रजी के आकार की होगी तो भगवान रामचन्द्र जी के रूप मे दिखेंगे। तुम्हारी वृत्ति झुलेलाल के आकार की होगी तो भगवान झुलेलाल के स्वरूप में दिखेंगे। ऐसे भगवान दिखेंगे और फिर अन्तर्ध्यान हो जायेंगे।

उन महापुरूष ने साधू को कहा तू सत्संग में आ तब तुझे भगवत-रस की प्राप्ति होगी, इसके बिना नहीं होगी।
यही घटना बिल्ख के सम्राट इब्राहीम के साथ हुई। वह राजपाट छोड़कर भारत में आया और संन्यास ले लिया। मजदूरी करके, लकड़ियाँ बेचकर दो पैसे कमा लेता। एक पैसे से गुजारा करता, एक पैसा बच जाता। जब ज्यादा पैसे इकट्ठे हो जाते तब साधुओं को भोजन करा देता। कहाँ तो बिल्ख का सम्राट और कहाँ लकड़हारा होकर परिश्रम करने वाला फकीर !इब्राहीम के मन में आया कि,मैं दान का नहीं खाता। इतना बड़ा राज्य छोड़ा, संन्यासी बना, फिर भी किसी के दान का नहीं खाता हूँ, अपना कमाकर खाता हूँष ऊपर से दान भी करता हूँ। फिर भी मालिक नहीं मिल रहा है, क्या बात है? वह प्रार्थना करने लगता हे मेरे मालिक ! हे मेरे प्रभु ! हे भगवान ! हे खुदा ! हे ईश्वर ! मुझे कब मिलोगे ? मैं नहीं जानता कि आप कैसे हो। आप जैसे भी हो, मुझे सन्मार्ग दिखाओ।

ऐसी प्रार्थना करते-करते ध्यानस्थ होने लगा। अंतर में प्रेरणा मिली कि,जा ऋषिकेश के आगे। वहाँ अमुक संत हैं उनके पास जा।बिल्खनरेश वहाँ पहुँच गया और बोला बाबाजी मैं बिल्ख का सम्राट था। राजपाट छोड़कर फकीर बना हूँ। अभी मेरा अहं नहीं छूटता। मैंने सुना है कि अहं मिटते ही मालिक मिलता है। पहले मैं राजा था ऐसा अहं था। फिर फकीर का अहं घुसा। अहं निकालने के लिए परीश्रम करके खाता हूँ, संग्रह न करके त्याग करता हूँ,बचा हुआ वित्त भंडारे में खर्च कर देता हूँ। पसीना बहाकर अपना अन्न खाता हूँ फिर भी मालिक क्यों नहीं मिलता ? बाबाजी ने कहा यह अपना खाने वाला और पराया खाने वाला ही अड़चन है। मेरा और तेरा, अपना और पराया जो बनाता है वह अहं ही मालिक के दीदार में अड़चन है।

सम्राट ने कहा महाराज!मेरा वह अहं आप निकाल दीजिये। इतनी कृपा कीजिये। बाबाजी ने कहा हाँ, ठीक तू समझा है। अहं है तेरे पास ? हाँ अहं है। वही दुष्ट परेशान कर रहा है।तो देखो, कल प्रभात में चार बजे आ जाना। मैं तेरा अहं ले लूँगा। जी महाराज अनुभव-संपन्न ब्रह्मवेत्ता महापुरूष थे। सिद्धि के ऊँचे शिखर सर किये थे।इब्राहीम जाने लगा। बाबाजी ने पीछे से कहा देख, अहं लाना, पूरा। कहीं आधा छोड़कर नहीं आना।

इब्राहीम चकित रह गया अहं छोड़कर कहाँ आऊँगा ? वह तो पूरे का पूरा साथ में रहता है।दूसरे दिन प्रभात में चार बजे इब्राहीम पहुँच गया बाबाजी के गुफा पर। बाबाजी डण्डा लेकर आये। बड़ी-बड़ी आँखे दिखाते हुए बोले अहं लाया है? हाँ महाराज ! अहं है।कहीं छोड़कर तो नहीं आया ? ना महाराज !कहाँ है? हृदय में रहता है। बैठ। निकाल उसको, मेरे को दिखा, उसको मैं ठीक कर देता हूँ। जब तक अहं को निकालकर मेरे सामने नहीं रखा तब तक उठने नहीं दूँगा। इस डण्डे से सिर फोड़ दूँगा। तू सम्राट था तो उधर था। इधर अभी तेरा कोई नहीं। यहाँ बाबाओं के राज्य की सीमा में आ गया है। सिर फोड़ दूँगा अहं दिये बिना गया तो। देना है न अहं ? तो खोज, कहाँ है अहं ?कैसे खोजूँ अहं को ? वह कहाँ होता है? अहं कहाँ होता है – ऐसा करके भी खोज। जहाँ होता है वहाँ से निकाल। आज तेरे को नहीं छोड़ूँगा।

ज्यों केले के पात में पात पात में पात।
त्यों संतन की बात में बात बात में बात।।

कभी साधक का ताड़न करने से काम बन जाता है कभी पुचकार से काम हो जाता है। कभी किसी साधन से कभी किसी साधन से....। ये तो महापुरूष जानते हैं कि कौन से साधक की उन्नति किस प्रकार करनी चाहिए।
युक्ति से मुक्ति होती है, मजदूरी से मुक्ति नहीं होती।

इब्राहीम अहं को खोजते-खोजते अन्तर्मुख होता गया। प्रभात का समय। वातावरण शुद्ध था। बाबाजी की कृपा बरसती रही। मन की भाग दौड़ क्षीण होती गई। एक टक निहारते निहारते आँखें बन्द हुई। चेहरे पर अनुपम शांति छाने लगी। ललाट पर तेज उभरने लगा। डण्डे वाला बाबाजी तो गुफा के भीतर चले गये थे। डण्डा मारना तो था नहीं। जो कुछ भीतर से करना था वह कर दिया। इब्राहीम की सुरता की गति अन्तर्मुखी बना दी।इब्राहीम को अहं खोजते-खोजते साढ़े चार बजे, पाँच बजे, छः बज गये। बैठा है ध्यानस्थ। बाहर का कोई पता नहीं। श्वासोच्छ्वास की गति मंद होती चली जा रही है।

सूर्योदय हुआ। सूर्य का प्रकाश पहाड़ियों पर फैल रहा है। अपने आत्मा का प्रकाश इब्राहीम के चेहरे पर दिव्य तेज ले आया है। बाबाजी देखकर प्रसन्न हो रहे हैं कि साधक ठीक जा रहा है।घण्टों के बाद बाबाजी इब्राहीम के पास गये उठो उठो अब।इब्राहीम ने आँख खोली और चरणों में गिर पड़ा। अहं दे दो।गुरू महाराज इब्राहीम के हृदय में भाव उमड़ रहा है लेकिन वाणी उठती नहीं। आँखों से भावविभोर होकर गुरू महाराज को निहार रहा है। विचार स्फुरता नहीं। आखिर बाबाजी ने उसकी बहिर्गति कराई। फिर बोले लाओ,कहाँ है अहं?
महाराज अहं जैसी कोई चीज है ही नहीं। बस वही वह है। वाणी वहाँ जाती नहीं। यह तो आरोप करके बोल रहा हूँ।

बाबाजी ने इब्राहीम को गले लगा लिया।इब्राहीम तू गैर नहीं। तू इब्राहीम नहीं। तू मैं है, मैं तू हूँ।जब तक अहं को नहीं खोजा था तब तक परेशान कर रहा था। खोजो तो उसका वास्तव में अस्तित्व ही नहीं रहता। आँख देखती है, हम जुड़ जाते हैं-मैंने देखा।मनःवृत्ति शरीर के तरफ बहती है तो अहं बना देती है और अपने मूल के तरफ जाती है तो मन रहता ही नहीं। जैसे तरंग उछलती है तो अलग बनी रहती है और पानी को खोजती है तो शान्त होकर पानी बनकर रह जाती है, अलग अस्तित्व मिट जाता है। ऐसे ही 'मैं.... मैं.. मैं.. मैं..' परेशान करता है। वह 'मैं' अगर अपने मूल को खोजता है तो उसका परिच्छिन्न अहं मिलता ही नहीं।तीन प्रकार का अहं होता हैः स्थूल अहं, सदगुरू की शरण से विलीन होता है। सूक्ष्म अहं वेदान्त के प्रतिपादित साधन की तरकीब से बाधित होता है। तीसरा है वास्तविक अहं, वह ब्रह्म है, परम सुख-स्वरूप है। उसी में अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्ड फुरफुरा के लीन हो रहे हैं।

वास्तविक हमारा जो 'मैं' है उसमें अनन्त अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, स्थित रहती हैं और लय हो जाती हैं। फिर भी हमारा बाल भी बाँका नहीं होता। हमारा वास्तविक अहं वह है। अपनी वास्तविकता का बोध नहीं है तो वहाँ की एक तरंग, एक धारा, एक वृत्ति को 'मैं' मानकर उलझ रहे हैं। उलझते-उलझते सदियाँ बीत गईं लेकिन विश्रांति नहीं मिली।

बिना सत्संग के साधन-भजन भीतर व्यक्तित्व को सजाये रखता है। 'पहले मैं संन्यासी था, अब मैं साधक हूँ। पहले मैं भोगी था, अब मैं त्यागी हूँ। पहले बहुत बोलनेवाला था, अब मौनी हूँ। पहले स्त्री-पुत्र-परिवार के चक्कर में था, अब अकेला शांत हूँ। कमरा बन्द कर देता हूँ बस, मौज है। न किसी से लेना न किसी को देना।'खतरा पैदा करोगे। जो अकेले कमरे में नहीं बैठते, एकान्त में नहीं रहते उनकी अपेक्षा आप ठीक हो। लेकिन जब कमरा न होगा, एकान्त न होगा तब परेशानी चालू हो जायेगी। और मौत तुम्हें कमरे से भी तो पकड़कर ले जायेगी।

जीते जी मौत के सिर पर पैर रखने की कला आ जाना-इसी का नाम आत्म-साक्षात्कार है। साक्षात्कार होने से राग-द्वेष और अभिनिवेश का अत्यंत अभाव हो जाता है। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से लगाव नहीं, किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से लगाव नहीं, किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से घृणा नहीं, द्वेष नहीं। अभिनिवेश यानी मृत्यु का भय, जीने की आस्था। आत्म-साक्षात्कार हो जाता है तो जीने की आकांक्षा हट जाती है। जिसको अपने आपका बोध हो जाता है वह जान लेता है कि मेरी मौत तो कभी होती नहीं। एक शरीर तो क्या, हजारों शरीर लीन हो जायें, पैदा हो जायें, ब्रह्माण्डों की उथल-पुथल हो जाय फिर भी मुझ चिदाकाश स्वरूप को कोई आँच नहीं आती, ऐसा अपनी असली 'मैं' का साक्षात्कार हो जाता है।

देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।
ते ज्ञानीना चरणमां हो वन्दन अगणित।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Friday, July 15, 2011

Vedvyas ji (वेदव्यास जी)

वेदव्यास जी
ऋषि वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की।

वेदव्यास के जन्म की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया
जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।" तब पाराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।"

समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।

वेद व्यास के विद्वान शिष्य
पैल,जैमिन,वैशम्पायन,सुमन्तुमुनि,रोम,हर्षण

वेद व्यास का योगदान
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जावेंगे। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास जी के शिष्योंने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं। व्यास जी ने महाभारत की रचना की।

पौराणिक-महाकाव्य युग की महान विभूति, महाभारत, अट्ठारह पुराण, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य-दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग ३००० ई. पूर्व में हुआ था। वेदांत दर्शन, अद्वैतवाद के संस्थापक वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे महान बाल योगी शुकदेव। श्रीमद्भागवत गीता विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य 'महाभारत' का ही अंश है। रामनगर के किले में और व्यास नगर में वेदव्यास का मंदिर है जहॉ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है। गुरु पूर्णिमा का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयन्ती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।

पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से पाँच मील की दूरी पर स्थित है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग में भी पश्चिम भाग में व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान् है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के नाम से जानती है। वास्तव में वेदव्यास की यह सब से प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मंदिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए।
इस घटना का उल्लेख काशी खंड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। स्थितो ह्यद्य्यापि पश्चेत्स: काशीप्रासाद राजिकाम् ।। स्कंद पुराण, काशी खंड ९६/२०१

व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना करने के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी। वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिये उपजीव्य हैं। महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है। महाभारत के संबंध में स्वयं व्यासजी की ही उक्ति अधिक सटीक है- इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यत्र है, पंरतु जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।

यमुना के किसी द्वीप में इनका जन्म हुआ था। व्यासजी कृष्ण द्वैपायन कहलाये क्योंकि उनका रंग श्याम था। वे पैदा होते ही माँ की आज्ञा से तपस्या करने चले गये थे और कह गये थे कि जब भी तुम स्मरण करोगी, मैं आ जाऊंगा। वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय वे छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे। उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से
महाभारत ग्रंथ की रचना की थी-
त्रिभिर्वर्षे: सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनोमुनि:। महाभारतमाख्यानं कृतवादि मुदतमम् ।। आदिपर्व - (५६/५२)

जब इन्होंने धर्म का ह्रास होते देखा तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये। वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान् का अवतार माना जाता है।

संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिखे काव्य 'आर्ष काव्य' के नाम से विख्यात हैं। व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिख कर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की नि:सारता को दिखाना है। उनका कथन है कि भले ही कोई पुरुष वेदांग तथा उपनिषदों को जान ले, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है।

१. यो विध्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विज:। न चाख्यातमिदं विद्य्यानैव स स्यादिचक्षण:।। २. अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत् । कामाशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेना मितु बुद्धिना।। महा. आदि अ. २: २८-८३

व्यास-जन्मतिथि आषाढी पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा के रूप में महापर्व बन गई है, जिसे प्रतिवर्ष अत्यंत श्रद्धा एवं उत्साह के साथ मनाते हैं। गुरु-शिष्य परम्परा को सुदृढ बनाने के उद्देश्य से व्यास-पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। ऐसे अवतारी महापुरुष का अवतरण-दिवस सबके लिए गुरु पूर्णिमा के रूप में सत्प्रेरणा का महापर्व बन गया है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK