Thursday, May 5, 2011

Katha Gyan (कथा ज्ञान) Part 3

जियो ऐसे कि दुनिया कहे वाह ! क्या जिंदगी है
जिनकी जिन्दगी में मुस्कुराहट नहीं होती वे कभी अपने जीवन को पूर्णता के साथ नहीं जी पाते। इसलिए जिन्दगी के हर पल को मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कीजिए। तभी जिन्दगी को आनंद के साथ जी पाएंगे।

तीन बहुत गहरे दोस्त थे। तीनों बहुत खुश मिजाज और जिन्दगी को खुलकर जीने में यकीन रखते थे। जहां भी वे जाते वहां खुशी और हंसी की लहर फैल जाती। उन तीनों से जो भी मिलता, उसे वे इस तरह मिलते की मिलने वाले के मन में खुशी की लहर दौड़ जाती। अक्सर लोग उनसे पूछते कि आप इतना खुश कैसे रह लेते हैं। उन्होने कहा जो जीवन में हंसी को स्वीकार कर लेते हैं। तो जीवन अपने आप ही खुशियों से भर जाता है। मुस्कुराहट ही वह रास्ता है जिससे भगवान को भी पाया जा सकता है।

बीतता गया तीनों बूढ़े हो गए । उन तीनों में से एक दिन एक की मौत हो गई। लोगों ने सोचा अब तो ये रोएंगे जरुर, अब तो दुखी होंगे जरुर, आज तो हम उनकी आंखों मे आंसू देख लेंगे। उनकी पहचान के सारे लोग इकठ्ठे हो गए, लेकिन वो दोनो हंसते हुए अपने मरे हुए दोस्त को लेकर बाहर निकले और उन्होने गांव के लोगों से कहा कि आओ और देखो, कितना अद्भुत आदमी था। लोगों ने देखा जो उस आदमी की लाश पड़ी है लेकिन उसके होंठ मुस्कुरा रहे हैं। वह आदमी जो मर गया है वह हंसते हुए ही मर गया। वह अपने मित्रो को कह गया कि मैं मर जाऊं तो एक कृपा करना, मेरी लाश को स्नान मत करवाना और नए कपड़े भी मत पहनाना । दोनो दोस्तों ने उसकी अंतिम इच्छा का पालन किया। अब सारे परिचित लोग उसकी लाश को लेकर शमशान पहुंचे। वहां जैसे ही उसकी चिता को आग दी गई। आग लग गई ,लोग उदास खड़े हैं लेकिन फिर एकदम धीरे-धीरे भीड़ में हंसी छुटने लगी, लोग हंसने लगे। हंसी फैलती चली गई,जैसे ही लाश में आग लगी, लोगों को पता चला कि वह आदमी अपने कपड़ो के भीतर पटाखे और फुलझड़ी छिपा मर गया है।

लोग हंसने लगे और वे कहने लगे कि अद्भुत था। वह आदमी वह मरा हंसता हुआ, जीया हंसता हुआ और मरने के बाद भी लोग हंसते ही विदा दें इसकी व्यवस्था, इसका आयोजन कर गया। उन सभी लोगों को पता चल गया था कि हंसते हुए जीया जा सकता है। हंसते हुए मरा भी जा सकता है। मरने के बाद भी हंसी की संभावना पैदा की जा सकती है।

खुशी की तलाश तभी पूरी होती है...
अक्सर लोग भविष्य के सुख की चाह में अपने आज से इस तरह समझौता करते हैं कि आने वाला कल भी उनका आज जैसा ही होता है। सुख और शांति से जीने की चाह में आदमी अपने आज में इतना खो जाता है कि आने वाले कल में सुख और शांति की परिभाषा ही भूल जाता है। खुशी शांति जैसे शब्द केवल सुनने मात्र को रह जाते हैं।

एक होटल चलाने वाले व्यापारी ने अपने दोस्त से कहा कि मैं पचपन साल तक कमा लूं फिर शांति से जीऊंगा ।जब वह आदमी पचपन साल का हो गया तब अपने दोस्त से फिर मिला तब उस दोस्त ने उससे पूछा कि क्या चल रहा है तब वह बोला कि मैं बड़ा परेशान हूं घर में मन नहीं लगता ।

मुझे मेरे काम की याद आती है होटल की याद आती है पत्नी को शिकायत रहती है कि जैसा व्यवहार होटल वालों के साथ करते थे वैसा ही हुकुम घरवालों पर चलाते हैं ।इस पर घर में रोज झगड़ा होता है इसलिए मैंने दोबारा होटल आना शुरु कर दिया। दोस्त बोला तुमने कल जीने की सोच में अपना अच्छा खासा आज बरबाद कर दिया सब चीजों से फ्री होकर जब तुमने शांति से जीना चाहा तो तुम्हें वो भी अच्छा नहीं लगा। अब तुम खुद सोचो कि तुमने क्या पाया और क्या खोया।

क्योंकि मां-बाप कभी बुरा नहीं चाहते
माता-पिता अपने बच्चों के लिए जीवन में बहुत कुछ करते हैं। वे बच्चों की जरुरतों को पूरा ध्यान रखते हैं लेकिन अक्सर देखने में यह आता है कि जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और मां-बाप बुढ़े। तो बच्चे उन्हें घर का अनावश्यक सामान समझने लगते हैं जबकि उम्र के इस पढ़ाव पर उन्हें अपनों के प्रेम की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। इसलिए अपने माता-पिता की आवश्यकताओं को समझें और उनके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करें।

एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पेड़ के आस-पास एक बच्चा खेलने आया करता था। बच्चे और पेड़ की दोस्ती हो गई। पेड़ ने उस बच्चे से कहा तू आता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। बच्चा बोला लेकिन तुम्हारी शाखाएं बहुत ऊंची है मुझे खेलने में दिक्कत होती है। बच्चे के लिए पेड़ थोड़ा नीचे झुक गया। वह बच्चा खेलने लगा। एक बार बहुत दिनों तक बच्चा नहीं आया तो पेड़ उदास रहने लगा। और जब वह आया तो वह युवा हो चुका था। पेड़ ने उससे पूछा तू अब क्यों मेरे पास नहीं आता? वह बोला अब मैं बड़ा हो गया हूं। अब मुझे कुछ कमाना है। पेड़ बोला मैं नीचे झुक जाता हूं तो मेरे फल तोड़ ले और इसे बेच दे। तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा।

इस तरह वह पेड़ जवानी में भी उसके काम आ गया। फिर बहुत दिनों तक वह नहीं आया। पेड़ फिर उदास रहने लगा। बहुत दिनों बाद वह वापस लौटा तो पेड़ ने कहा तुम कहा रह गए थे। वह बोला क्या बताऊं बड़ी समस्या है। परिवार बड़ा हो गया है अब मुझे एक घर बनाना है। पेड़ बोला एक काम कर मुझे काट ले। मेरी लकडिय़ां तेरे कुछ काम आएंगी। उसने पेड़ काट डाला। अब केवल एक ठूंठ रह गया पेड़ के स्थान पर।

फिर लंबे अरसे तक वह नहीं आया। एक दिन वह आया तो बड़ा चिंतित था। पेड़ बोला तुम कहां रह गए थे और इतने परेशान क्यों हो? वह बोला मैं तो पूरी तरह से परिवार में उलझ गया हूं। बाल-बच्चे हो गए हैं। बेटी के लिए रिश्ता देखने जाना है। रास्ते में नदी है कैसे जाऊँ? पेड़ बोला। तू एक काम कर यह जो थोड़ी लकड़ी और बची है इसे काटकर एक नाव बना और अपनी बेटी के लिए लड़का देखने जा। उसने ऐसा ही किया। फिर वह बहुत दिनों तक नहीं आया। बहुत दिनों बाद जब वह आया तो बड़ा परेशान था। पेड़ ने पूछा अब क्या हुआ? वह बोला मैंने बच्चों को बड़ा तो कर दिया पर अब यह चिंता है कि मेरे बच्चे मेरे चिता की लकड़ी भी लाएंगे कि नहीं?

पेड़ ने कहा ये जो भी कुछ बचा है मेरे शरीर का हिस्सा। इसे भी तू काट ले यह तेरे अंतिम समय में काम आएगा। और उसने पेड़ का बाकी हिस्सा भी काट लिया। और इस तरह उस पेड़ ने उस बच्चे के प्रेम में अपना संपूर्ण व्यक्तित्व ही न्यौछावर कर दिया।

श्मशान... जो एक बार गया बस वहीं बस गया
अक्सर लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि गृहस्थ जीवन श्रेष्ठ है या सन्यास? एक सांसारिक व्यक्ति और और सन्यासी में सबसे बड़ा अंतर क्या है? देह उनके पास भी है, शरीर हमारे पास भी है। फर्क यह है कि उनके लिए शरीर धर्मशाला की तरह है और हमने स्थाई मुकाम बना लिया है। आइये इस बात की गहराई को सरलता से जानने के लिये चलते हैं एक सच्चे वाकये की तरफ....

इब्राहिम के जीवन की एक घटना है। उनकी कुटिया एक ऐसे मोड़ पर थी जहां से बस्ती और मरघट दोनों के रास्ते निकलते थे। आने-जाने वाले राहगीर उनसे रास्ता पूछा करते थे। फकीरों की जुबां भी निराली होती है लेकिन होती है अर्थभरी। वे लोगों को बस्ती किधर है यह पूछने पर जिस रास्ते पर भेजते वह रास्ता मरघट का होता। और मरघट जाने वालों को रिहायशी इलाके में रवाना कर देते। बाद में लोग आकर इनसे झगड़ते।

इब्राहिम का जवाब होता था कि मेरी नजर में मरघट एक ऐसी बस्ती है जहां एक बार जो गया वह हमेशा के लिए बस गया। वहां कोई उजाड़ नहीं होता, लेकिन बस्ती वह जगह है जहां कोई स्थाई बस नहीं सकता। फकीरों की नजर में जिसको हम रहने की जगह कहते हैं उसको वह श्मशान कहेंगे। इसीलिए देह के प्रति उनकी नजर अस्थाई निवास की तरह होती है। मैं शरीर नहीं हूँ यह भाव यहीं से जन्मता है। इसीलिए जब बीमारी आती है तो संत, महात्मा, फकीर यह मानकर चलते हैं बीमारी का लेना-देना शरीर से है मुझसे नहीं है और वह दूर खड़े होकर शरीर और बीमारी दोनों को देखते हैं। इसी साक्षी भाव में बड़े से बड़ा भाव छुपा है।

ऐसे वक्त पर ही असली दोस्त की पहचान होती है...
कहते हैं सच्चा दोस्त वो आईना होता है जिसमें आप अपना अच्छा और बुरा दोनों ही देख सकते हैं। इसलिए समय कैसा भी हो अपने दोस्तों का साथ कभी न छोड़े और न ही दोस्ती में कभी किसी को धोखा दें । क्योंकि दोस्ती वो दौलत है जो हमेशा हमारे साथ रहती है परिस्थिति जैसी भी हो एक सच्चा दोस्त हमेशा हमारे साथ रहता है। लेकिन कई बार इसका उल्टा भी हो जाता है, जिस दोस्ती को कोई अपनी अमूल्य पूंजी समझ बैठा था, कठिन समय आने पर वह धूप में परछाई की तरह साथ छोड़ भी सकती है। ऐसा ही कुछ महाभारत काल में हुआ था। आइये चलते हैं उस वाकये की तरफ...

महाभारत में द्रोणाचार्य और दु्रपद की दोस्ती जगत प्रसिद्ध थी। दोनों ही भारद्वाज ऋषि के आश्रम में अध्ययन करते थे दोनो ही एक दूसरे के परम मित्र थे। राजपद मिलने से पहले राजा द्रुपद ने अपने मित्र द्रोणाचार्य को यह वादा किया कि उसे जब भी जरूरत होगी तो वह अपना आधा राज्य उसे दे देगा। एक समय द्रोणाचार्य विकट परिस्थितियों से गुजर रहे थे उनके पास न धन था न खाने को खाना तब उन्हें अपने परम मित्र दु्रपद की याद आई और वे अपने परिवार के साथ द्रुपद के महल में पहुंचे। जब द्वारपाल उनका संदेश लेकर दु्रपद के पास पहुंचे तो दु्रपद ने उन्हें पहचानने से ही मना कर दिया। राजा दु्रपद ने द्रोणाचार्य का खूब अपमान भी किया। द्रोणाचार्य अपने परम मित्र द्रुपद का ऐसा व्यवहार देखकर दंग रह गए। द्रुपद के ऐसे स्वार्थपूर्ण और गैर जिम्मेदार व्यवहार से द्रोणाचार्य का दोस्ती पर से भरोसा ही उठ गया।

घोड़ा चोरी क्यों हुआ? वह तो भगवान भरोसे था !!
गुरु और शिष्य रेगिस्तान से गुजऱ रहे थे। गुरु यात्रा में हर क्षण शिष्य में आस्था जागृत करने के लिए ज्ञान देते रहते थे। अपने समस्त कर्मों को ईश्वर को अर्पित करने से सारी चिंताएं मिट जाती हैं। गुरु ने कहा हम सभी ईश्वर की संतान हैं और वह अपने बच्चों को कभी नहीं त्यागते हमेशा उनका ध्यान रखते हैं।

रात में उन्होंने रेगिस्तान में एक स्थान पर अपना डेरा जमाया। गुरु ने शिष्य से कहा कि वह घोड़े को निकट ही एक चट्टान से बाँध दे। शिष्य घोड़े को लेकर चट्टान तक गया। उसे दिन में गुरु द्वारा दिया गया कोई उपदेश याद आ गया। उसने सोचा कि शायद गुरु संभवत: मेरी परीक्षा ले रहे हैं।आस्था कहती है कि ईश्वर इस घोड़े का ध्यान रखेंगे। और उसने घोड़े को चट्टान से नहीं बाँधा।

सुबह उसने देखा कि घोड़ा दूर-दूर तक कहीं नजऱ नहीं आ रहा था।उसने गुरु से जाकर कहा आपको ईश्वर के बारे में कुछ नहीं पता! कल ही आपने बताया था कि हमें सब कुछ ईश्वर के हांथों सौंप देना चाहिए इसीलिए मैंने घोड़े की रक्षा का भर ईश्वर पर डाल दिया लेकिन घोड़ा भाग गया!

ईश्वर तो वाकई चाहता था कि घोड़ा हमारे पास सुरक्षित रहे गुरु ने कहा, लेकिन जिस समय उसने तुम्हारे हांथों घोड़े को बांधना चाहा तब तुमने अपने हांथों को ईश्वर को नहीं सौंपा और घोड़े को खुला छोड़ दिया इस तरह तुमने अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ लिया, और ईश्वर निकम्मे लोगों का साथ कभी नहीं देता।

क्या वाकई सभी में भगवान होता है?
ऐसा नहीं है कि अगर कोई अनुचित कर्म करे तो उसे ईश्वर की मरजी मानकर क्षमा कर दिया जाए तो उचित होगा। मायावी संसार में व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरुरी है कि मायावी कानून बने और मायावी दंड भी दिए जाएँ। इस सम्बन्ध में एक कथा बड़ी सटीक और प्रासंगिक है। यह सुन्दर कथा प्रेममूर्ति स्वामी रामकृष्ण परमहंस के मुखारविंद से निस्सृत है, यानी परमहंसजी ने अपने भक्तों को यह कथा सुनाई थी....

एक दिन शिष्य को उसके गुरु ने बताया कि सभी जीवों में ईश्वर है इसलिए सबसे प्रेम करो, किसी से भी नहीं डरो। एक दिन शिष्य जब भिक्षाटन पर था तब किसी राजा का हाथी पगला गया। चौराहे पर भगदड़ मच गई। सब भागने लगे। लेकिन शिष्य नहीं भागा। उसने सोचा कि गुरूजी के अनुसार तो यह हाथी भी ईश्वर है, इसलिए क्यों भागा जाए?लोग चिल्ला रहे थे उसे सचेत करने लिए कि भागो हाथी तुम्हें कुचल देगा। लेकिन वह नहीं भागा और खड़ा रहा। परिणामस्वरूप हाथी ने उसे घायल कर दिया। गुरूजी को मालूम हुआ तो राजकीय आरोग्यशाला में भागे-भागे आए और शिष्य से पूछा कि यह गजब हुआ कैसे? तो शिष्य ने कहा कि हाथी में जो ईश्वर था उसने मुझे घायल कर दिया। तब गुरूजी ने कहा कि मूर्ख, सिर्फ हाथी में ही ईश्वर था और तुम्हें जो लोग सचेत कर रहे थे, समझा रहे थे कि दूर हट जाओ उनमें ईश्वर नहीं था क्या?

कथा से जो सबक मिलता है वह यह है कि कभी भी सिर्फ शब्दों पर ही नहीं अटकना चाहिये। हर बात की गहराई में जाकर असलियत की जांच-पड़ताल करना चाहिये।

इसे कहते हैं... सुखी और सफल दाम्पत्य जीवन
सुखी जीवन के कई सूत्र होते हैं। वर्तमान में देखने को मिलता है कि शादी के बाद पति पत्नी एक दूसरे को समय नहीं दे पाते नतीजा ये होता है कि एक दूसरे में तकरार और शिकायतें जन्म लेने लगती हैं। रिश्ता बनने से पहले ही बिखरने लगता है इसलिए अगर दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाना है तो सबसे ज्यादा जरूरी है एक दूसरे के साथ रहना। तभी वे एक दूसरे की भावनाओं को अच्छे से समझ पाते हैं क्यों कि एक दूसरे को समझे बिना शादीशुदा जीवन की खुशी महसूस करना मुश्किल होता है।

इसका एक उदाहरण हमें रामायण में देखने को मिलता है। राजतिलक के समय जब माता कैकई ने राम के लिए राजा दशरथ से वनवास मांग लिया तब रामजी ने सीता से कहा कि तुम महल में रहो और मेरी प्रतीक्षा करो। लेकिन सीता जी तो श्रीराम के साथ जाना चाहती थी राम ने सीता जी को बहुत समझाया कि तुम एक राजकुमारी हो राजमहल में पली बडी हो तुम वन के वातारण को नहीं सह पाओगी। सीता जी ने राम से कहा कि एक पत्नी के लिए सबसे बड़ा सुख होता है पति का सानिध्य और यही उसका सबसे बड़ा कर्तव्य भी होता है। इसलिए मैं आपके साथ रहना चाहती हूं फिर चाहे वो महल हो या वन। सुख में तो सारा संसार आपके साथ है लेकिन में हर दु:ख और तकलीफ में भी आपके साथ रह सकती हूं, यही तो मेरा सबसे अलग और बड़ा सौभाग्य है।

सीता जी की यह बात सुनकर श्री राम उन्हें अपने साथ वन में ले गए और चौदह सालों तक वन में एक दूसरे के साथ रहकर हर कष्ट सहते हुए जीवन व्यतीत किया।

ऐसी शक्ति देखकर हैरत में पड़ गया विदेशी मित्र
एकाग्रता की शक्ति के विषय में हम सभी ने सुन रखा है। ऐसे कई सच्चे व आंखों देखें वाकये हमारे सामने हैं जो एकाग्रता की अद्भुत क्षमता को बयान करते हैं। आज भी अगर कोई भी व्यक्ति अपने ध्यान या मन को एक जगह केन्द्रित कर ले तो किसी भी काम को करना उसके लिए मुश्किल नहीं होगा।

एक बार स्वामी विवेकानंद अपने एक विदेशी दोस्त के यहां गए हुए थे। रात के समय दोनों मित्र आपस में किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। तभी स्वामीजी के मित्र को कहीं जाना पड़ा। अब स्वामीजी घर में अकेले थे, उन्हें एक किताब दिखाई दी और उन्होंने किताब पढऩा शुरू कर दी। कुछ देर बाद उनका दोस्त उनके सामने आकर खड़ा हो गया। परंतु स्वामीजी का ध्यान उनके दोस्त की ओर नहीं गया वे किताब पढऩे में लगे रहे।

जब स्वामीजी ने किताब पूरी पढ़ ली तो उन्होंने देखा कि उनका दोस्त उनके सामने ही खड़ा था। स्वामीजी ने माफी मांगते हुए कहा कि मैं किताब पढऩे में इतना खो गया था कि तुम कब आए पता ही नहीं चला। उनका दोस्त मुस्करा दिया। दोनों फिर से चर्चा करने लगे। इस बार स्वामीजी ने अभी-अभी जो किताब पढ़ी थी उसकी बातें बताने लगे। उनके विदेशी मित्र ने कहा आपने यह किताब पहले भी कई बार पढ़ी होगी, तभी आपको इस किताब की सारी बाते ज्यों की त्यों याद है।

स्वामीजी ने कहा नहीं मैंने यह किताब अभी ही पढ़ी है। उनके दोस्त को विश्वास नहीं हुआ कि 400 पेज की किताब कोई इतनी जल्दी कैसे पढ़ सकता है? तब स्वामीजी ने कहा कि यदि हम अपना पूरा ध्यान किसी काम में लगा दे और दूसरी सारी बातें छोड़ दे तो यह संभव है कि हम 400 पेज की किताब भी थोड़े ही समय में पढ़ सकते हैं और उस किताब की सारी बातें आपको याद रहेंगी।

भगवान को ऐसा व्यक्ति ही सर्वाधिक पसंद है
हर व्यक्ति का कोई न कोई सपना अवश्य होता है। अपने सपने को हकीकत में बदलने या मंजिल को हांसिल करने के लिये इंसान हर कोशिश करता है। इंसान ऐसी कोई भी कसर या कमी छोडऩा नहीं चाहता जो आगे चलकर उसकी सफलता में रोड़ा बन जाए। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि संयोग या दुर्भाग्य से एक के बाद एक कई रुकावटें या बाधाएं आती ही जाती हैं। यहां तक कि अच्छे काम को करने में तो और भी ज्यादा रुकावटे आती हैं। लेकिन इंसान यदि सच्चा है और भगवान की नजरों में योग्य है तो उस इंसान की सारी बाधाएं या कठिनाइयां अपने आप ही दूर हो जाती हैं। आइये चलते हैं ऐसी ही एक कहानी में जो हमें बहुत कीमती सबक सिखाती है........

एक बार एक व्यक्ति भगवान को देने के लिये तलवार और राजमुकुट का उपहार लेकर गया। वह भगवान से एकांत में मिलना चाहता था। लेकिन द्वारपालों ने उसे बाहर ही रोक दिया और मिलने का कारण पूछा। उस व्यक्ति ने तलवार और मुकुट का उपहार देने की बात बताई। लेकिन द्वरापालों ने यह कहकर उसे अंदर जाने से रोक दिया कि भगवान को तुम्हारे इन उपहारों की कोई आवश्यकता ही नहीं है। भगवान का कोई शत्रु नहीं है, इसलिये उन्हें इस तलवार से क्या काम? तथा मुकुट तो धरती के छोटे-छोटे राजा लोग लगाते हैं, भगवान तो इस पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, मालिक हैं उन्हें मुकुट से क्या लेना-देना। यह चर्चा चल ही रही थी कि पास में ही एक बूढ़ा आदमी अचानक ठोकर खाकर गिर गया। उसे देखते ही वह व्यक्ति बात करना बंद करके तुरंत उस बूढ़े को सहारा देकर उठाने के लिये दोड़ा। बूढ़े व्यक्ति की हालत देखकर उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसकी आवश्यक मदद करने के बाद जब वह लोटा तो उसने देखा कि रास्ता रोकने वाले द्वारपाल अब वहां से जा चुके थे। अब वह बगैर किसी रुकावट के सीधा भगवान से मिलने जा सकता था।

शायद उस बूढ़े के रूप में भगवान उस व्यक्ति की परीक्षा ले रहा था। उस व्यक्ति के मन में ओरों के लिये दया और करुणा की भावना थी इसीलिये वह परीक्षा में उत्तीर्ण हो सका।

जब गंगा नदी स्त्री बनकर प्रकट हो गईं
स्वामी विवकानंद जी के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम दुनियाभर में सुविख्यात है। परमहंस जी के विषय में कहा जाता है कि वे जिस काली मंदिर के पुजारी थे वहां की काली की मूर्ति साक्षात प्रकट होकर परमहंस जी के हाथों से भोजन ग्रहण करती थीं और उनसे बात-चीत भी करती थी। इस चमत्कार के पीछे अटूट श्रृद्धा थी।

ऐसी ही एक घटना महान भक्त रैदास के जीवन की है। संत रैदास चर्मकार थे तथा मोची का व्यवसाय करते थे। चमड़े के जूते-चप्पल बनाने के काम को वे पूरे दिल से मेहनत लगाकर करते थे। उनके मन में अपने कार्य या व्यवसाय को लेकर कोई शर्म-संकोच नहीं था। वे पूरे समय अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाने में लगे रहते थे। सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार करना, सच्चे मन से सभी का भला चाहना तथा समय पर काम करके अपने गा्रहक को प्रशन्न रखना ही उनकी रोज की दिनचर्या थी।

दशहरे का पर्व था। गांव के मंदिर के साधु ब्रह्ममुहूर्त में ही स्नान करने के लिये घर से निकले। भक्त रैदास की झोंपड़ी से गुजरते समय उन्होंने रैदास जी से पूछा, आज दशहरा है, स्नान रकने नहीं चलोगे क्या? रैदास जी ने प्रणाम करते हुए कहा कि गंगा स्नान करना सायद मेरी किस्मत में नहीं है, क्योंकि मुझे आज ही ग्राहक के जूते बनाकर देना है भाई। साधु महाराज से प्रार्थना करते हुए रैदास जी बोले कि महाराज यह सिक्का लेते जाइये, मेरी तरफ से इसे गंगा माता को भेंट चढ़ा देना। सिक्का लेकर साधु महाराज चल दिये। पूजा पाठ और स्नान करके वापस लोटने लगे। भक्ति भाव में ऐसे डूबे कि यह भूल ही गए कि भक्त रैदास जी ने गंगा मां के लिये भैंट भेजी थी। साधु महाराज तो रैदास जी की बात भूल कर चल दिये, लेकिन पीछे से स्त्री की सी कोई दिव्य आवाज आई- रुको... पुत्र रैदास द्वारा मेरे लिये भेजा गया उपहार तो देते जाओ! और एक दिव्य स्त्री मूर्ति के रूप में देवी गंगा प्रकट हो गईं। इस अद्भुत घटना से साधु महाराज आश्चर्यचकित रह गए, उन्होंने जल्दी से वह सिक्का निकाल कर देवी के हाथों में रख दिया। यह घटना इतनी अद्भुत थी कि साधु महाराज की आंखें फटी की फटी रह गईं। इस घटना के बाद से उनका जीवन ही बदल गया। उन्हें समझ में आ गया कि भक्ति का असली मतलब क्या होता है। उन्होंने रैदास जी को अपना गुरु बना लिया।

दुनिया में सबसे बड़ा सुखी कौन!! यह तब पता चला...
दुनिया में हर कोई सुखी होना चाहता है। मगर समस्या यह है कि इंसान जिसे सुख समझता है, असल में वह सुख होता ही नहीं। इतना ही नहीं इंसान सुखी होने के जिन रास्तों को अख्तियार करता है, वो उसे सुख की तरफ नहीं बल्कि आखिर में दु:ख के दलदल में ही धकेल देते हैं। इस बात की गहराई को आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं, एक सुन्दर कथा की ओर...........

एक संत की सभा में एक आदती ने पूछा महाराज आपकी सभा मे सबसे सुखी है। महात्मा ने पीछे बैठे एक आदमी की ओर इशारा किया तब वह आदमी बोला कि इसका प्रमाण क्या है कि सही सबसे सुखी है। संत ने सभा में बैठे राजा से पूछा कि राजन आपको क्या चाहिए राजा बोला मेरे पास तो सबकुछ है बस राज्य को चलाने वाला एक पुत्र चाहिए। फिर एक धनपति से पूछा तुम्हें क्या चाहिए तब धनपति बोला मैं इस नगर का सबसे ज्यादा धनी व्यक्ति बनना चाहता हूं। इस प्रकार सभी ने अपनी अपनी इच्छाऐं महात्मा जी को बता दी ।

आखिर में महात्मा जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि तुम्हें क्या चाहिए? तब वह व्यक्ति बोला कि मुझे तो कुछ नहीं चाहिए। अगर आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो कृपा करके बस मुझे इता आर्शीवाद दीजिए कि मेरे जीवन में कोई चाह नहीं हो तब पूरी सभा में मौन छा गया और महात्मा जी बोले कि है महानुभावों इस दुनिया में सबसे सुखी वही है जिसने अपनी चाहतों को खत्म कर दिया है।

हजारों दौड़ेंगे... मगर जीतेगा वही एक
लक्ष्य जीवन में बहुत जरुरी है। बिना लक्ष्य के जीवन बिल्कुल निरर्थक है। लक्ष्य विहीन जीवन ऐसा ही है जैसे कि घड़ी का पेंडुलम, जो चलता तो रात-दिन है लेकिन पहुंचता कहीं नहीं। कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ लोग किसी अन्य व्यक्ति को देखकर अपना लक्ष्य निर्धारित तो कर लेते हैं लेकिन उस तक पहुंच नहीं पाते क्योंकि लक्ष्य प्राप्ति में कई बाधाएं, लालसाएं आदि आती है। जो व्यक्ति सिर्फ अपने लक्ष्य को देखता है सिर्फ वही लक्ष्य तक पहुंचता है। यानि जब लक्ष्य तय करते हैं तो चलते तो कई लोग साथ में है लेकिन पहुंचते कुछ ही लोग हैं।

एक महात्मा ने एक नया आश्राम खोला तो पुराने आश्रम को खबर भेजी कि यहां की व्यवस्था के लिए वहां से एक संत भेजो। तो पुराने आश्रम के जो महात्मा थे उन्होंने 10 संत नए आश्रम की व्यवस्था के लिए भेज दिए। सबने कहा कि गुरुजी वहां तो सिर्फ ही व्यक्ति की आवश्यकता है। तो महात्मा कुछ नहीं बोले। कुछ दिनों बाद खबर आई कि आपने जो एक संत भेजा था वह पहुंच गया है।

यह सुनकर बाकी सब आश्चर्य में पड़ गए कि यहां से 10 गए थे वहां 1 ही पहुंचा बाकी 9 कहां रह गए? महात्मा ने अपनी दिव्य दृष्टि से बताया कि जब 10 लोग यहां से चले तो रास्ते में एक शहर आया वहां का राजा मर चुका था तो राजज्योतिष ने मंत्रियों को सलाह दी कि जो व्यक्ति सबसे नगर में प्रवेश करे उसे राजा बना दो। तो 10 में से एक वहां रुक गया और राजा बन गया। थोड़ी आगे चले तो एक अन्य शहर आया । यहां भी मंत्रीमंडल मिला। उसने कहा कि हमारे राज्य में कोई राजकुमार नहीं है तो आप में से कोई एक राजकुमार बन जाईए। उसी से राजकुमारी का विवाह किया जाएगा और वही राजा भी बनेगा। तो एक और संत वहां रुक गया।

थोड़ी आगे गए तो एक गांव आया वहां के लोगों ने बताया कि हम यहां एक बहुत बड़ा मंदिर बना रहे हैं तो उसकी देखभाल के लिए हमें एक महात्मा रखना है तो आपमें से एक यहां रुक जाईए। तो एक और वहां रुक गया। ऐसे करते-करते किसी न किसी कारण से और भी संत रुकते रहे। अंत में केवल एक ही संत नए आश्रम तक पहुंचा। उसी की सूचना पुराने आश्रम को दी गई।

दोस्त अगर मतलबी न हो तो आगाह जरूर करेगा
कबीरदास जी ने कहा है कि निंदक नियरे राखिये आंगन कुटि छवाय बिन साबुन बिना निर्मल करे सुभाय कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ के साथ साथ आपकी बुराईयों को सामने लाकर उनको दूर करने में आपकी मदद करता है।

ऐसा ही एक किस्सा है कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती काद्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था। अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए। अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा।

जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नीयती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती।

संडे का फंडा : ज्यादा प्रेक्टिस भी हो सकती है हार का कारण
किसी नगर के एक गुरुकुल में चित्रांगद नाम का छात्र था, पूरे गुरुकुल को उस पर गर्व था। वो हमेशा नया सीखने के लिए तैयार रहता, कोई भी नया दांव सीखता और जमकर उसका अभ्यास भी करता। उसके गुरु उससे बहुत खुश थे। कुछ दिनों बाद वहां विश्वजयी नाम का एक और विद्यार्थी आया। वो चित्रांगद से थोड़ा अलग था। हमेशा कुछ नया सोचता था।

उसने भी कम समय में कई सारी विद्याएं सीख लीं लेकिन वो चित्रांगद की तरह अभ्यास नहीं करता था। दोनों में एक अनकही सी प्रतिस्पर्धा होने लगी। एक बार गुरुकुल में प्रतिस्पर्धा का आयोजन किया गया। चित्रांगद और विश्वजीत दोनों इसमें प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे। शर्त थी कि तीन दिन बाद दोनों को जंगल में जाना है और एक-एक शेर का शिकार करके लाना है। चित्रांगद की नींद उड़ गई। पहली परीक्षा थी, सामने विश्वजीत जैसा प्रतिद्वंद्वी।

वो जमकर अभ्यास में भिड़ गया। खाना-पीना भूलकर दिन रात बस कभी धनुष बाण से तो कभी तलवार से अभ्यास करता ही रहता। जबकि विश्वजीत ने इन तीन दिनों में कोई अभ्यास नहीं किया। केवल खूब खाया-पीया और जमकर सोया। गुरुकुल में चित्रांगद की जीत को लेकर लोग आश्वस्त हो गए। फिर प्रतियोगिता का दिन भी आ गया। प्रतियोगिता में अपनी भावी जीत की खुशी को लेकर चित्रांगद को नींद भी नहीं आई। दोनों सुबह अपने गुरुओं का आशीर्वाद लेकर निकल पड़े। जंगल में शेर की तलाश में दोनों अलग-अलग दिशाओं में निकल पड़े।

विश्वजीत ने थोड़ी ही देर में एक शेर का शिकार कर लिया और उसे अपने रथ में लादकर गुरुकुल की ओर चल पड़ा। इधर चित्रांगद पर शेर ने हमला कर दिया। तीन दिन तक लगातार अभ्यास और रातभर जागरण के कारण उसके शरीर में इतनी शक्ति ही नहीं रह गई की वो शेर से मुकाबला कर सके। उसे जान बचाकर भागना पड़ा। शर्मिंदा होकर गुरुकुल लौट आया। उसकी इस हार से सभी आश्चर्य चकित रह गए।

संडे का फंडा - संडे का फंडा यह है कि ज्यादा अभ्यास भी हमारे लिए हानिकारक होता है। सारी विद्या और ज्ञान का महत्व उसके उपयोग में है न कि केवल उसके अभ्यास में। जिस काम के लिए जितने अभ्यास की जरूरत हो उतना ही करना चाहिए। ज्यादा सीखने और ज्यादा परफेक्ट बनने का जुनून भी कभी-कभी हमारी हार का कारण बन जाता है।

हां..1 सेकिंड में ईश्वर मिल सकता है!! बशर्ते...
भाग्य किस्मत और विधि का विधान कहते हुए लोगों को अक्सर सुना जाता है। अगर किसी को उसकी मनचाही मंजिल नहीं मिल पाती है तो वह अक्सर इसे दुर्भाग्य कहकर अपने मन को समझा लेता है। लेकिन ऐसी धारणा को पूरी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। तो फिर क्या कारण है कि किसी को लाख चाहने पर भी उसकी मंजिल या लक्ष्य नहीं मिल पाता? इस शाश्वत और गंभीर प्रश्र का माकूल जवाब जानने के लिये आइये चलते हैं एक छोटे से प्रसंग की ओर....

हुआ यह कि एक बार किसी पहुंचे हुए सद्गुरु के पास एक भक्त आया और आकर सीधे रोने लगा। सद्गुरु ने उसे समझाकर चुप करवाया और रोने का कारण पूछा। भक्त ने बताया कि मैं जो भी करना चाहता हूं उसमें मुझे कभी भी सफलता प्राप्त नहीं होती। यहां तक कि अब मैं इस संसार से पूरी तरह से उदास हो चुका हूं। अब तो मैं सिर्फ ईश्वर को ही पाना चाहता हूं, लेकिन लगता है भगवान को भी मेरे ऊपर दया नहीं आती। उसने सच्चे संत से पूछा कि मुझे ईश्वर मिलेगा या नहीं? और अगर मिलेेगा तो आखिर कब मिलेगा?

संत ने कहा चलो इस बात का जवाब में तुम्हें नदी पर चल कर दूंगा। नदी पर पहुंच कर संत ने उस भक्त से कहा आओ पहले साथ में नहा लेते हैं। जैसे ही उस भक्त ने नहाने के लिये नदी में डुबकी लगाई, संत ने तुरंत ही उसकी गर्दन पकड़कर उसे पानी में ही दबा दिया। उस व्यक्ति ने पानी से बाहर निकलने की भरपूर कोशिश की लेकिन संत ने पूरी ताकत लगाकर कुछ देर के लिये उस व्यक्ति को पानी में ही डुबाए रखा और फिर छोड़ दिया।

जैसे ही संत ने छोड़ा तुरंत वह व्यक्ति बाहर निकला और बुरी तरह से घबराया हुआ सा हांफने लगा। गुस्से से भरकर उसने संत से पूछा कि यह क्या मजाक है, मैं आया तो तुमसे भगवान का पता पूछने और तुम तो मेरी ही जान लेने के पीछे पड़ गए। संत ने मुस्कुराकर बड़े ही शांत लहजे में उत्तर दिया कि- जिस तरह से पानी में से निकलने के लिये तुछ छटपटा रहे थे, ठीक उसी प्रकार व्याकुल होकर जिस दिन परमात्मा के लिये तड़पने लगोगे बस उसी समय एक पल में ही तुम्हें ईश्वर प्राप्त हो जाएगा। तुम आज तक जिस भी काम में असफल हुए उसका यही कारण था कि तुम्हारी चाह अधूरी थी, उसमें वैसी तड़प, बैचेनी और ललक नहीं थी जैसी कि होना चाहिये।

आपके दोस्त ही आपकी पहचान बनते हैं
कहते हैं इंसान का स्वभाव उसका आईना होता है। आपका दूसरों के प्रति व्यवहार ही आपके स्वभाव को बताता है। जो लोग अच्छी संगत मे रहते हैं वे हमेशा नीतीगत बातों में विश्वास करते है। और जिन लोगों की संगत गलत होती है वे हमेशा गलत रास्ते को ही अपनाते है।

एक पिता के दो बेटे थे वह उन दोनों को बचपन में ही छोड़कर व्यापार के लिए चला गया। कुछ दिनों बाद जब वे थोड़े बड़े हुए तो राज्य के राजा ने दौनों को अकेला जानकर अपने साथ सेवा के लिए महल ले गया। दोनों भाई महल पहुचें और राजा की सेवा करने लगे। बड़ा भाई राजा को रोज सुबह नए-नए भजन सुनाता अच्छी अच्छी बातें बताता और राजा का खूब मनोरंजन करता।

बहुत दिनो बाद राजा ने उसके छोटे भाई को अपनी सेवा के लिए बुलाया। वह जब राजा के पास आया तो एक दम उल्टा था उसका छोटा भाई देर तक सोता, अपशब्द कहता। एक दिन उसने गुस्से में आकर राजा को ही गाली दे दी राजा को बहुत गुस्सा आयाऔर उसने सैनिको को बुलाकर उसे मारने के आदेश दे दिए।

जब इस बात का पता बड़े भाई को लगा तो वह राजा से विनती करने लगा कि उसे माफ कर दें यह सब उसने अपनी संगत के कारण किया है। बचपन में मैं साधू के पास रहता था इसलिए मैने अच्छी बातें सीखी औ उसे एक मछुआरा ले गया था इसलिए उसने कोई नीतीगत बात नहीं सीखी। राज ने उसकी बात सुनकर उसके छोटे भाई को माफ कर दिया और उसे सुधार गृह भेज दिया। इसलिए कहते हैं आपकी संगत ही आपकी पहचान बनाती है।

इसीलिये कहते हैं मां-बाप को धरती के भगवान
माता-पिता अपने बच्चों के लिए जीवन में बहुत कुछ करते हैं। वे बच्चों की जरुरतों को पूरा ध्यान रखते हैं लेकिन अक्सर देखने में यह आता है कि जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और मां-बाप बुढ़े, तो बच्चे उन्हें घर का अनावश्यक सामान समझने लगते हैं। जबकि उम्र के इस पढ़ाव पर उन्हें अपनों के प्रेम की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। इसलिए अपने माता-पिता की आवश्यकताओं को समझें और उनके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करें। माता-पिता को धरती के भगवान का दर्जा दिया गया है। भगवान के समान महान मानने के पीछे का असल मर्म क्या है आइये जानते हैं एक छोटे से प्रसंग के जरिये...

एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पेड़ के आस-पास एक बच्चा खेलने आया करता था। बच्चे और पेड़ की दोस्ती हो गई। पेड़ ने उस बच्चे से कहा तू आता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। बच्चा बोला लेकिन तुम्हारी शाखाएं बहुत ऊंची है मुझे खेलने में दिक्कत होती है। बच्चे के लिए पेड़ थोड़ा नीचे झुक गया। वह बच्चा खेलने लगा। एक बार बहुत दिनों तक बच्चा नहीं आया तो पेड़ उदास रहने लगा। और जब वह आया तो वह युवा हो चुका था। पेड़ ने उससे पूछा तू अब क्यों मेरे पास नहीं आता? वह बोला अब मैं बड़ा हो गया हूं। अब मुझे कुछ कमाना है। पेड़ बोला मैं नीचे झुक जाता हूं तो मेरे फल तोड़ ले और इसे बेच दे। तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा।

इस तरह वह पेड़ जवानी में भी उसके काम आ गया। फिर बहुत दिनों तक वह नहीं आया। पेड़ फिर उदास रहने लगा। बहुत दिनों बाद वह वापस लौटा तो पेड़ ने कहा तुम कहा रह गए थे। वह बोला क्या बताऊं बड़ी समस्या है। परिवार बड़ा हो गया है अब मुझे एक घर बनाना है। पेड़ बोला एक काम कर मुझे काट ले। मेरी लकडिय़ां तेरे कुछ काम आएंगी। उसने पेड़ काट डाला। अब केवल एक ठूंठ रह गया पेड़ के स्थान पर।

फिर लंबे अरसे तक वह नहीं आया। एक दिन वह आया तो बड़ा चिंतित था। पेड़ बोला तुम कहां रह गए थे और इतने परेशान क्यों हो? वह बोला मैं तो पूरी तरह से परिवार में उलझ गया हूं। बाल-बच्चे हो गए हैं। बेटी के लिए रिश्ता देखने जाना है। रास्ते में नदी है कैसे जाऊँ? पेड़ बोला। तू एक काम कर यह जो थोड़ी लकड़ी और बची है इसे काटकर एक नाव बना और अपनी बेटी के लिए लड़का देखने जा। उसने ऐसा ही किया। फिर वह बहुत दिनों तक नहीं आया। बहुत दिनों बाद जब वह आया तो बड़ा परेशान था। पेड़ ने पूछा अब क्या हुआ? वह बोला मैंने बच्चों को बड़ा तो कर दिया पर अब यह चिंता है कि मेरे बच्चे मेरे चिता की लकड़ी भी लाएंगे कि नहीं?

पेड़ ने कहा ये जो भी कुछ बचा है मेरे शरीर का हिस्सा। इसे भी तू काट ले यह तेरे अंतिम समय में काम आएगा। और उसने पेड़ का बाकी हिस्सा भी काट लिया। और इस तरह उस पेड़ ने उस बच्चे के प्रेम में अपना संपूर्ण व्यक्तित्व ही न्यौछावर कर दिया।

दुनिया का सबसे बड़ा सम्राट भिखारी निकला !
जो खुद भिखारी है उससे क्या कुछ मांगना?- भिखारी उसे कहते हैं जो मांगने वाला हो, जिसकी कोई याचना हो या जो अपनी किसी इच्छा के लिये किसी के सामने अपनी झोली फेलाए किसी से कुछ पाने की उम्मीद रखता हो। मांगने वाला भिखारी यानी याचक होता है। लेकिन भिकारी की पहचान क्या है और सबसे बड़ा भिखारी यदि खोजना हो तो किसे सबसे बड़ा भिखारी माना जाए? यह प्रश्र थोड़ा कठिन अवश्य लगता है लेकिन कठिन प्रश्रों का उत्तर खोजने पर ही अनमोल सूत्र हाथ लगते हैं। तो आइये चलते हैं एक प्रसंग की ओर जो दुनिया के सबसे बड़े भिखारी को खोजने में हमारी मदद कर सकता है...

एक गांव में एक फकीर रहता था। बड़ा पहुंचा हुआ फकीर था। बड़े-बड़े सेठ-साहुकार और धनपति उसके पैरों मे झुकते थे। यहां तक कि दुनिया का सबसे बड़ा सम्राट भी उसके दर्शन करने के लिये खुद चलकर उसकी झोपड़ी तक आता था। दुर्भाग्य वश एक साल गांव में अकाल पड़ा। लोग दाने-दाने के लिये मोहताज हो गए। पूरे गांव के लोग इकट्ठे होकर फकीर के पास पहुंचे ओर प्रार्थना करने लगे कि सम्राट आपका भक्त है, आज्ञाकारी है हम पर कृपा कीजिये राजा से कहकर हमारी सहायता करवाइये। गांव वालों की हालत देखकर फकीर को दया आ गई वह चल दिया सम्राट के महल की ओर।

सुबह का समय था फकीर सीधा बादशाह के महल में पहुंच गया। फकीर ने देखा कि सुबह का वक्त है और दुनिया का सबसे बड़ा सम्राट ईश्वर से प्रार्थना कर रहा है। फकीर राजा के इतने करीब था कि प्रार्थना के शब्द उसके कानों में साफ-साफ सुनाई दे रहे थे। सम्राट ईश्वर से याचना कर रहा था कि- है ईश्वर मेरे राज्य की सीमाओं को और फैलाओ, मुझे और..और..बड़ा सम्राट बना दो, मेरा खजाना दिनों-दिन और भी ज्यादा भरता जाए... हे ईश्वर! मुझपर रहम करो। प्रार्थना करते-करते सम्राट की हालत ऐसी हो गई जैसे कोई भिखारी गिड़-गिड़ाता है।

दुनिया के सबसे बड़े सम्राट की ऐसी दशा देखकर फकीर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने मन ही मन सोचा कि इतना बड़ा सम्राट होने पर भी इसके मन में संतोष नहीं है। फकीर ने सोचा कि इससे तो सड़क पर घूमने वाले भिखारी अधिक अच्छे हैं जो पेट भरने के लिये हाथ फैलाते हैं। फकीर ने सोचा कि यह सम्राट तो दुनिया का सबसे बड़ा भिखारी है, और जो खुद ही भिखारी हो उससे क्या कुछ मांगना? और यही सोचता हुआ फकीर सम्राट के महल से उल्टे पैर वापस लौट आया। गांव आकर फकीर ने महल का सारा हाल लोगों को सुनाया और कहा कि मांगना ही है तो उस एक मात्र सम्राटों के सम्राट परमात्मा से ही मांगों, जो खुद भिखारी हैं उनसे क्या मांगना।

संडे का फंडा : बात कड़वी ही सही, बोली तो मीठी हो
एक पंडित ने पहलवान की कुंडली देखी। उसे बताया कि तुम्हारे पास धन, दौलत और ताकत खूब रहेगी। परिवार का सुख भी रहेगा लेकिन तुम्हारे सारे परिजन तुम्हारे रहते ही मर जाएंगे। परिवार में तुम अकेले ही रह जाओगे। पहलवान डर गया, आंखों में आंसू आ गए। पंडित पर गुस्से में तमतमाया और अच्छे से धुनाई कर दी।

तुझसे मैंने भविष्य पूछा था, तू मेरे परिवार के मिटने की बात कर रहा है।

पंडितजी जान छुड़ाकर भागे। वैद्य के पास पहुंचे। मरहम-पट्टी करवाई। कभी किसी पहलवान की कुंडली न देखने की कसम खा ली। दक्षिणा तो मिली नहीं, उल्टे जान के लाले पड़ गए।

उन पंडितजी के घर के पास ही एक दूसरे पंडित आचार्य भी रहते थे। पिटाई की बात सुनी तो वे उनका हालचाल जानने पहुंचे। आचार्य जी ने पूछा कैसे हुआ यह सब।

पंडित बोले अरे उसकी कुंडली ही ऐसी थी मैं क्या करता? उसके सारे रिश्तेदारों की मौत उसके सामने ही हो जाएगी। ये तय है। उससे झूठ कैसे बोलता।

आचार्य जी ने समझाया, ये बात तुम उसे किसी दूसरे तरीके से बता सकते थे। सीधे-सीधे ऐसा बोलने की क्या जरूरत थी।

पंडित जी बोले, तो कैसे बोलता।

आचार्य जी बोले मैं उसके पास जाता हूं, तुम्हारी भी दक्षिणा वसूल करके लाऊंगा उससे।

पंडितजी बोले, न-न उसके पास मत जाना बहुत जालिम है। मैं तो जवान था सो इतनी मार सह गया। आप नहीं सह पाएंगे, आपकी तो उम्र भी ज्यादा है।

आचार्यजी बोले तुम मेरी फिक्र मत करों मैं संभाल लूंगा।

अगले दिन आचार्यजी पहलवान के घर पहुंच गए। पहलवान पहले ही पंडित से चिढ़ा हुआ था, दूसरे पंडित को देखकर नथूने फूला कर बोला, देखों आचार्यजी पहले ही एक पंडित ने मेरा मूड बहुत खराब कर दिया है। आपने भी ऐसी-वैसी बात की तो खैर नहीं है।

आचार्य जी ने कहा आप निश्चिंत रहिए, ऐसी कोई बात नहीं है। मैं सब सही-सही बताऊंगा।

आचार्यजी ने पहलवान की कुंडली बनाई और देखने लगे। पहले पंडित ने पहलवान की कुंडली के बारे में जो बताया था, सब वैसा ही था।

आचार्यजी ने पहलवान को सब वैसा ही बता दिया। पहलवान खुश हो गया और दोगुनी दक्षिणा देकर आचार्यजी को विदा किया। आचार्यजी ने पंडित के पास आकर उसके हिस्से की दक्षिणा भी दी तो पंडितजी की आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं।

आपने उसे सब बता दिया, पंडित ने आश्चर्यचकित होकर पूछा। उसके परिवार वालों की मौत के बारें में भी।

आचार्यजी ने कहा हां सब बता दिया। वो खुश हो गया।

क्या बताया आपने?

मैंने उससे कहा कि तुम बहुत किस्मत वाले हो। तुम्हारे पूरे खानदान में तुम्हारे पास ही सबसे ज्यादा दौलत, शोहरत और ताकत होगी, यहां तक कि तुम्हारे पूरे खानदान में उम्र भी सबसे ज्यादा तुम्हारी ही है।

वो खुश हो गया और मुझे दोगुनी दक्षिणा दे दी। जबकि इसका मतलब तो यही था कि उसके सारे रिश्तेदार उसके सामने ही मर जाएंगे।

पंडित को अपनी गलती का एहसास हो गया।

संडे का फंडा - संडे का फंडा यही है कि सभी जानते हैं कि सच कड़वा होता है लेकिन उसे कड़वे तरीके से ही बोला जाए, ये जरूरी नहीं है। कड़वी से कड़वी बात भी बोलते समय याद रखें कि आपके बोलने का अंदाज ऐसा हो कि सुनने वाले को बुरा नहीं लगे।

वो महल की छत पर अपना ऊंट खोज रहा था!
दुनिया में अगर रोशनी न हो तो इंसान का जीना मुश्किल हो जाए। बगैर उजाले के एक कदम बढ़ाना भी कठिन हो जाता है तो फिर लंबा रास्ता तय करके अपनी मंजिल तक पहुंचना तो लगभग असंभव ही लगता है। बाहर का प्रकाश तो मायने रखता ही है लेकिन अंदर का प्रकाश जिसे विवेक यानी सद्ज्ञान कहते हैं, वह तो और भी ज्यादा कीमती चीज है। बात की गहराई को आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं एक सुन्दर व रोचक घटना की ओर...

एक बहुत बड़ा राजा था। रात का समय था। राजा अपने महल के शयन कक्ष में सोया हुआ है। सोए हुए थोड़ा ही वक्त बीता था कि राजा एकदम से चोंक कर उठ बैठा। राजा को कुछ अजीब सी आवाजें आ रही थीं। वह ध्यान लगाकर सुनने लगा। मन में तरह-तरह के ख्याल आने लगे। राजा को लगा कि शायद महल में चोर घुस आए हैं। धीरे-धीरे वह आवाज राजा के शयन कक्ष के ठीक ऊपर से आने लगी। राजा को पक्का यकीन हो गया कि अवश्य ही महल में चोर घुस आए हैं और अब

उसके कक्ष में घुसने का प्रयास कर रहें हैं। राजा ने चिल्लाकर पूछा कि ऊपर छत पर कौन है? महल में चोरी करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? लेकिन ऊपर से जो उत्तर मिला उसे सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ऊपर से किसी ने आवाज लगाकर कहा कि- महाराज मैं चोर नहीं हूं, मैं तो किसान हूं मेरा ऊंट खो गया है इसीलिये आपके महल की छत पर खोज रहा हूं। जैसे ही मेरा ऊंट महल की छत पर से कहीं मिल जाएगा में तुरंत चला जाऊंगा। उसका जवाब सुनकर राजा को आश्चर्य तो हुआ ही साथ ही बड़ा गुस्सा भी आया। राजा ने कहा कि तुम पागल तो नहीं हो गए? महल की छतों पर भी कहीं ऊंट ढूंढे जाते है? तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है या नहीं?

राजा द्वारा गुस्सा करने और एक साथ कई सवाल पूछे जाने पर भी उस व्यक्ति के चेहरे पर शांति और मुस्कुराहट बनी रही।

वह राजा से बोला कि जब खजाने में अधिक धन-सम्पत्ति होने से तुम्हें सुख मिल सकता है, अपने राज्य की सीमाएं और ज्यादा बढ़ जाने से तुम्हें सुख मिल सकता है, सोने का सिंहासन, सोने का मुकुट और रास-रंग में डूबने से तुम्हे सच्चा सुख मिल सकता है, तो फिर महल की छत पर से ऊंट भी मिल सकता है। जब महलों में सुख मिल सकता है, संगीत, सुरा और सौन्दर्य में सुख मिल सकता है तो महल की छत पर ऊंट क्यों नहीं मिल सकता? उस आदमी की ऐसी गहरी बातों को सुनकर राजा चोंका, उसे लगा कि यह कोई सामान्य आदमी नहीं है अवश्य कोई पहुंचा हुआ संत या देव पुरुष है जो मेरी आंखें खोलने और सचेत करने आया है। राजा दोड़कर छत पर गया लेकिन तब तक वह अज्ञात पुरुष जा चुका था। राजा ने उसकी बातों का अर्थ बड़े-बड़े विद्वानों, संतों और पंडितों से पूछा और अंत में उसे यही समझ में आया कि किसी भी सांसारिक सुख-भोग में कभी भी स्थाई और वास्तविक सुख-शांति नहीं मिल सकती।

लड़की ने अपना यौवन और सौन्दर्य एक घड़े में भर दिया!
यदि किसी इंसान का अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण न हो तो वह पागलपन की हदें भी पार कर देता है। क्योंकि विवेक या मेच्योरिटी से ही इंसान को सही-गलत या उचित-अनुचित का फर्क समझकर कार्य करने की समझ आती है। लेकिन यदि कोई इंसान अपने विवेक को ताक पर रख दे और पूरी तरह से अपने मन और इच्छाओं के अनुसार ही चलने लगे तो उसका हस्र उस राजकुमार जैसा ही हो जाता है जो एक सुन्दर युवती पर इस कदर आसक्त हो गया कि सही-गलत का फर्क ही भुला बैठा। आइये चलते हैं ऐसे ही एक रोचक प्रसंग की ओर जो सभी के लिये एक कीमती सबक बन सकता है...

पुरानी घटना है। जब दुनिया में राजशाही का प्रचलन था। एक राजकुमार अपने राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों के भ्रमण कर रहा था। एक गांव में एक बेहद सुन्दर युवती को देखकर उसका मन उसपर आसक्त हो गया। वह उस युवती को जबरन अपने साथ ले जाना चाहता था। युवती ने प्रार्थना की कि वह उसके अपाहिज मां-बाप की इकलोती संतान है उन्हें छोड़कर नहीं आ सकती। लेकिन वह भोग-विलासी राजकुमार किसी भी कीमत पर मानने के लिये तैयार ही नहीं था। युवती को जब कोई रास्ता न दिखा तो उसने एक तरकीब निकाली। युवती ने उस राजकुमार से प्रार्थना की कि उसे एक महीने का समय चाहिये ताकि वह अपने अपाहिज माता-पिता की उचित व्यवस्था कर सके। राजकुमार ने जैसे-तैसे अपने मन को समझाकर युवती की इस शर्त को मान लिया। राजकुमार गिन-गिन कर एक-एक दिन गुजारने लगा। वह रात-दिन बस उस सुन्दर लड़की के ही ख्वाब देखता रहता।

उधर उस लड़की ने अपनी तरकीब पर काम करना शुरु कर दिया। लड़की एक अनुभवी वैद्य यानी चिकित्सक के पास जाकर जुलाब यानी दस्त लगने की औषधि लेकर आ गई। लड़की ने नहाना-धोना छोड़ दिया और प्रतिदिन उस जुलाव की दवाई को खाने लगी। उस जुलाव की औषधि से उसे कई बार दस्त लगते। वह उस सारे मल मूत्र को एक घड़े में भर कर रखने लगी। वह पूरे एक महीने तक एक कमरे में ही बंद रही, ना ही स्नान किया और ना ही बाल संवारे। रोज-रोज जुलाव की औषधि लेने से उसका सारा शरीर सूखकर मात्र हड्डियों का ढ़ाचा ही रह गया। महीने भर पहले जो युवती अपने सौन्दर्य के लिये दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी, आज वो बूढ़ी, बदसूरत, घ्रणित और दुर्गंध से भरी हुई लग रही थी। उसने पूरे महीने सारा मल-मूत्र एकत्रित करके एक घड़े में भर लिया था।

महीना पूरा होते ही सौन्दर्य का दीवाना वह राजकुमार बड़े उत्साह से उस युवती को ले जाने के लिये उसके घर जा पहुंचा। जैसे ही वह उस लड़की के कमरे में गया, उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। उस लड़की को देखकर उसे भरोसा ही नहीं

हुआ कि यह वही लड़की है जिसे उसने महीने भर पहले देखा था। शरीर पर मेल की पर्ते, हड्डियों का ढांचा, उठती हुई दुर्गंध... यह सब देखकर राजकुमार का सिर फटने लगा। जाने से पहले उसने इतना ही पूछा कि यह अचानक तुम्हें क्या रोग लग गया? तुम्हारा वो दिव्य सौन्दर्य कहां गया? लड़की ने कहा कि मुझे कोई बीमारी नहीं लगी है और हां जिस यौवन और सौन्दर्य को पाने के लिये तुम इतने बैचेन और पागल हो रहे थे, वह उसे घड़े में भरा है, चाहो तो उसे अपने साथ ले जा सकते हो। राजकुमार ने जैसे ही उस घडे का ढक्कन हटाया तेज दुर्गंध से उसका सिर भन्नाने लगा। उसे लगा कि यदि कुछ और क्षण वो यहां रुका तो बेहोंस हो जाएगा। वह बड़ी तेजी से वहां से भाग निकला।

मरने से पहले पिता ने बेटे को दी अद्भुत शिक्षा
कहते हैं कि कोई कितना भी बुरा व्यक्ति हो लेकिन मरते वक्त यानी जब वह मृत्युशय्या पर पड़ा हो तो वह कभी भी झू्ठ नहीं बोलता। मरते समय इंसान सारी बुराइयों को छोड़कर पूरी तरह से निष्पाप बन जाता है। यहां हम बात कर रहे हैं हकीम लुकमान के अंतिम समय की जो कि दुनियाभर में प्रसिद्ध एक महान चिकित्सक और संत व्यक्ति थे।

हकीम लुकमान के जीवन से जुड़ी एक घटना है। जब वे मृत्युशैय्या पर अंतिम सांस ले रहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र को पास बुलाकर कहा-बेटा। मैं जाते-जाते एक अंतिम और अति महत्वपूर्ण शिक्षा देना चाहता हूं। इतना कहकर लुकमान ने पुत्र से धूपदान लाने के लिए कहा। जब वह धूपदान लेकर आया, तो लुकमान ने उसमें से चुटकी भर चंदन लेकर उसके हाथ में थमाया और संकेत से उसे कोयला लाने के लिए कहा। जब पुत्र कोयला लेकर आया तो उन्होंने दूसरे हाथ में कोयले को रखने का आदेश दिया। कुछ देर बाद फिर लुकमान ने कहा-अब इन्हें अपने-अपने स्थान पर वापस रख आओ। पुत्र ने वैसा ही किया। उसकी जिस हथेली में चंदन था, वह उसकी सुंगध से अब भी महक रही थी और जिस हाथ में कोयला था वह हाथ काला दिखाई पड़ रहा था। लुकमान ने पुत्र को समझाया-बेटे। अच्छे व्यक्तियों का साथ चंदन जैसा होता है। जब तक उनका साथ रहेगा, तब तक तो सुगंध मिलगी ही, किंतु साथ छूटने के बाद भी उनके सद्विचारों की सुवास से जिदंगी तरोताजा बनी रहेगी जबकि दुर्जनों का साथ कोयले जैसा है। कुसंगति से प्राप्त कुसंस्कारों का प्रभाव आजीवन बना रहता है। इसलिए बेटा। जीवन में सदैव चंदन जैसे संस्कारी व्यक्तियों के ही साथ रहना और कोयले जैसे कुसंग से दूर रहना।शायद इसीलिए कहा गया है-चंदन की चुटकी भली, गाड़ी भरान काठ अर्थात चंदन की चुटकी भी मन को उल्लास से भर देती है जबकि गाड़ी भर लकड़ी भी इस कार्य को संपन्न नहीं कर सकती।

लुकमान का पुत्र उनके दिखाए मार्ग पर चलकर सदैव सुखी रहा। वस्तुत: लुकमान का यह उपदेश सत्संग की महिमा प्रस्थापित करता है। अच्छे व्यक्तियों का साथ शुभ फलदायी होता है जबकि बुरे व्यक्तियों का संगति अशुभ परिणामदायी।

प्यार की एक अनोखी दास्तान
एक बड़ी सुन्दर लाइन है जो सच्चे स्नेह और प्यार की ताकत को बयान करती है। वो पंक्ति कुछ इस तरह है कि -जाकर जापर सत्य सनहू, सो ताहि मिलहिं न कछु संदेहू , यानी जिस भी किसी का किसी के प्रति सच्चा प्यार होगा, तो उसका उससे मिलन होकर रहेगा।

कई प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती हैं, लेकिन इसका अर्थ नहीं कि वे समाप्त ही हो गईं हैं। अगर आपका प्यार सच्चा है तो एक न एक दिन आपको जरूर मिलता है। पुराणों में ऐसी ही एक प्रेम कहानी है राजा नल और दयमंती की। तो आइये चलते हैं उस अमर प्रेम कथा की ओर.........

एक बार राजा नल अपने भाई से जुए में अपना सब कुछ हार गए। उनके भाई ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया। नल और दयंमती जगह जगह भटकते फिरे। एक रात राजा नल चुपचाप कहीं चले गए। साथ उन्होने दयमंती के लिए एक संदेश छोड़ा जिसमें लिखा था कि तुम अपने पिता के पास चली जाना मेरा लौटना निश्चित नहीं हैं। दयमंती इस घटना से बहुत दुखी हुई उसने राजा नल को ढ़ूढऩे का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन राजा नल उसे कहीं नहीं मिले। दुखी मन से दयंमती अपने पिता के घर चली गई।

लेकिन दयमंती का प्रेम नल के लिए कम नहीं हुआ। और वह नल के लौटने का इंतजार करने लगी। राजा नल अपना भेष बदलकर इधर उधर काम कर अपना गुजारा करने लगे। बहुत दिनों बाद दयमंती को उसकी दासियों ने बताया कि राज्य में एक आदमी है जो पासे के खेल का महारथी है। दयमंती समझ गई कि वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा नल ही है। वह तुरंत उस जगह गई जहां नल रुके हुए थे लेकिन नल ने दयमंती को पहचानने से मना कर दिया लेकिन दयमंती ने अपने सच्चे प्रेम के बल पर राजा नल से उगलवा ही लिया कि वही राजा नल है। फिर दोनों ने मिलकर अपना राज पाट वापस हासिल कर लिया। कथा कहती है कि आपका समय कैसा भी हो अगर आपका प्यार सच्चा है तो आपके साथी को आपके वापस लौटा ही लाता है।

पूत के पैर पालने में ही दीख जाते हैं!! क्योंकि?
संस्कार, स्वभाव या आदतें व्यक्ति को भीड़ से अलग पहचान दिलाते हैं। संस्कार या आदतें सिर्फ इसी जन्म की नहीं होती बल्कि पिछले जन्मों से भी साथ में आती हैं। इसीलिये तो कुछ लोग बहुत छोटी उम्र यानी बचपन से ही अपनी अलग पहचान बनाने लगते हैं। जो बच्चा अच्छे संस्कारों को साथ में लेकर जन्म लेता है वह छोटी उम्र से ही श्रेष्ठ और महान कामों को करने लगता है। शायद इसीलिये समाज में यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि -पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। तो आइये चलते हैं ऐसी ही एक छोटी सी घटना की तरफ जो आश्चर्यजनक संस्कारों की नायाब उदाहरण है-

यह एक ऐतिहासिक और पौराणिक कथा है, जिसकी प्रामाणिकता पर भी किसी को संदेह नहीं है। हुआ यह कि बालक शुकदेव चार-पांच वर्ष की उम्र में ही घर छोड़कर ब्रह्म ज्ञान को पाने के लिये चल दिया। शुकदेव के पिता महर्षि व्यासजी ने उन्हें रोका कि अभी तो तुम्हारी उम्र मां की गोद में बैठकर लाड़-प्यार पाने की है, अभी से तुम कहां चले? लेकिन बालक शुकदेव के इरादे पक्के थे, उसने कहा कि पिताजी आप मुझे जाने से नहीं रोकें क्योंकि एक बार अगर इस संसार में फंस गया तो फिर कभी भी आत्मज्ञान प्राप्त नही कर सकूंगा। हर तरह से समझाने और रोकने के बाद भी इरादों का पक्का बालक शुकदेव नहीं माना ओर आत्म ज्ञान की खोज मे अकेला ही घर-बार छोड़कर घर से निकल पड़ा। बुलंद इरादों और अटूट संकल्प का मालिक यह शुकदेव ही आगे चलकर ब्रह्म ज्ञानी शुकदेवजी के नाम से जगत में विख्यात हुए। मतलब साफ है कि जिसके इरादों में चट्टानों जैसी दृढ़ता होती है वह अपनी मंजिल को हर हाल में पा कर रहता है।

2 जिगरी दोस्त नशे में अंधे ही नहीं मूर्ख भी बन गए।

यह शिकायत कइयों की रहती है कि जी-तोड़ मेहनत करने और हर कोशिश आजमाने के बाद भी हमें सफलता क्यों नहीं मिल पाती? ऐसा कई बार होता है कि सारी की सारी मेहनत बेकार चली जाती है। समस्या की असलियत को जानने के लिय जब हम गहराई में जाकर बारीकी से खोजबीन करते हैं तब पता चलता है कि मेहनत बेकार इसलिये हुई क्योंकि वह गलत दिशा में बगैर सोचे-समझे की गई थी। इस बात को आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं एक रोचक घटना की ओर...

दो जिगरी दोस्त चांदनी रात का मजा लूटने के लिये नदी किनारे जा पहुंचे। जमकर शराब की चुस्कियां ली और जब नशे में धुत हो गए तो खूब नाच-गाना हुआ। कभी किशोर कुमार बन जाते तो कभी माइकल जेक्शन, शराब की मदहोंशी ने शर्म-संकोच की सारी हदें मिटा दी थीं। नाच गाने से जब मन भर गया तो उनके मन में नदी की सैर करने का सुन्दर खयाल आया। दोनों परम मित्र एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर लडख़ड़ाते हुए पैरों से नदी के किनारे बंधी नाव की ओर चल दिये। नशे की मदहोंसी में थे, पूरे शुरूर में थे उतावली में सीधे कूद कर नाव में सवार हो गए। जल्दबाजी में इतना भी होंश नहीं रहा कि नाव जिस रस्सी से किनारे से बंधी है उसे खोला ही नहीं है। दोनों ने जल्दी-जल्दी नाव में रखे चप्पू उठाए और लगे चप्पुओं को चलाने। नशे की मदहोंशी को चांदनी रात की खूबसूरती ने और भी बढ़ा दिया था। सोचने-समझने की दिमागी क्षमता को नशे के थपेड़ों में कभी का बहा चुके थे। नाव आगे बढ़ भी रही है या नहीं इस बात को दोनों में से किसी को ध्यान ही नहीं रहा। बस लगे हैं चप्पुओं को चलाने में।

दोनों ने जमकर शराब गटकी थी इसलिये जल्दी होंश लोटने के का सवाल ही नहीं था। चप्पू चलाते-चलाते सारी रात गुजर गई। सवेरा होने को था, एक मित्र जो थोड़ा अधिक समझदार था बोला-लगता है हम किनारे से कुछ ज्यादा ही दूर निकल आए हैं अब लौट चलना चाहिये। सवेरा होने लगा था उजाले में नदी का खूबसूरत किनारा साफ नजर आ रहा था। जब पीछे मुड़ कर दोनों ने देखा तो दिमाग में कुछ ठनका, सारी बात समझ में आने लगी। पता चल गया कि सारी रात नाव तो किनारे से ही बंधी रही है, जल्दी में रस्सी को खोलना भूल गए थे। रात भर चप्पू चलाने की बेवकूफी भरी मेहनत के बारे में सोच कर मन ही मन शर्मिंदगी भी हुई और हंसी भी खूब आई। दोनों की मिलीभगत से हुई इस मूर्खतापूर्ण घटना को किसी से न कहने का पक्का वादा करके एक दूसरे को विदा देकर अगली बार किसी अच्छी जगह पर पार्टी करने की सलाह करके अपने घरों को चल गए।

इस कहानी को पढ़कर उन शराबी मित्रों को कोई भी आसानी से मूर्ख कह देगा लेकिन ऐसा जाने-अनजाने हम सभी के साथ होता रहता है। हम मेहनत तो खूब करते हैं लेकिन कामवासना, गुस्सा, आलस्य, लालच.. जैसी जाने कितनी ही रस्सियां हमारे पैरों से बंधी रहती हैं और मौत को सामने देखकर हमें समझ में आता है कि सारी दोड़-धूप बैकार ही चली गई आखिर हम पहुंचे तो कहीं भी नहीं। नशे भी कई तरह के होते हैं, कुछ नजर आते हैं लेकिन अधिक घातक नशों को तो इंसान कभी देख भी नहीं पाता।

बुराई में कुछ अच्छाई भी छुपी होती है
कभी-कभी इंसान के जीवन में ऐसा समय आता है कि वह चारों ओर से परेशानियों का शिकार होने लगता है। और समय लगातार उसकी सोच के विपरीत ही चलता है। लेकिन जो ईश्वर पर विश्वास रखता है उनके साथ बुराई में भी अच्छाई छुपी होती है।

एक बार एक गांव में बाढ़ आने से एक किसान का सब कुछ नष्ट हो गया। परिवार का पेट पालने के लिए उसके पास कुछ न था। वह काम की तलाश में दूसरे गांव गया और एक धनी व्यक्ति के यहां खेतों पर काम करने लगा। उस वर्ष उस व्यक्ति को और सालों की अपेक्षा ज्यादा अच्छी फसल मिली और दाम भी। वह उस किसान से बहुत खुश हुआ। उसने उससे पूछा कि वह ईनाम में क्या चाहता है तो किसान बोला कि आप मुझे जमीन का थोड़ा सा टुकड़ा मुझे खेती के लिए दे दीजिए।

उस साहूकार ने वैसा ही किया। अब किसान ने एक साथी किसान से बैलों की जोड़ी खेत जोतने के लिए उधार ले ली।खेत जोतने के बाद वह उन्हें लौटाने के लिए वापस गया तो साथी किसान ने कहा कि वह उन्हें आंगन में बांध दे। किसान ने वैसा ही किया और चला गया। घर जाकर वह जैसे ही खाना खाने बैठा वैसे वह किसान आया और उसे बोलने लगा कि मेरे बैल कहां हैं तुम्हारी नीयत में खोट आगया है तुम मेरे बैल लौटाना नहीं चाहते हो। मैं राजा से तुम्हारी शिकायत करूंगा।

वह उसे राजा के पास ले गया और राजा से शिकायत करते हुऐ बोला कि इसने मेरे बैल चुराए है मुझे न्याय दिलाऐं। राजा ने दोनों की बात सुनी और शिकायत करने वाले किसान से पूछा कि जब यह तुम्हारे पास बैल लौटाने आया था तब तुमने अपने बैल देखे उसने कहा हां तब राजा ने उस किसान को छोड़ दिया क्योंकि उस किसान ने खुद स्वीकार किया कि उसने खुद अपनी आखों से अपने बैलों को अपने घर में देखा था।

और घमंड ने ली 60 हजार की जान!

कुछ लोगों को अपनी शक्तियों पर बहुत अहंकार होता है। अपनी ताकत के नशे में किसी का सम्मान नहीं करते और सभी का उपहास उड़ाते रहते हैं या अपमान करते हैं। इन लोगों के पतन का कारण इनका अहंकार ही बनता है। इसलिए ध्यान रखें कि यदि आप बलशाली हैं या आपके पास कोई विशेष योग्यता है तो इसका दुरुपयोग न करें तथा किसी अन्य का अपमान न करें। अंहकार का दुष्परिणाम क्या होता यह जानने के लिये आइये चलते हैं एक बेहद रोचक और सच्ची घटना की तरफ...

श्रीराम के पूर्वज सूर्यवंशी राजा सगर की दो पत्नियां थीं केशिनी और सुमति। केशिनी का एक ही पुत्र था जिसका नाम असमंजस था, जबकि सुमति के साठ हजार पुत्र थे। असमंजस बहुत ही दुष्ट था। उसको देखकर सगर के अन्य पुत्र भी दुराचारी हो गए। उन्हें अपने बल पर बहुत ही घमंड था। घमंड में चूर होकर वे किसी का सम्मान नहीं करते थे। एक बार सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। तब इंद्र ने उस यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल में कपिलमुनि के आश्रम में छुपा दिया। जब अश्व नहीं मिला तो सगर के पुत्रों ने पृथ्वी को खोदना प्रारंभ किया। तब पाताल में उन्हें कपिलमुनि के आश्रम में यज्ञ का घोड़ा दिखाई दिया।

यह देखकर घमण्ड में चूर सगर के सभी पुत्रों ने समाधि में लीन कपिल मुनि को भला-बुरा कहा। सगर पुत्रों की बात सुनकर जैसे ही कपिल मुनि ने आंखें खोली तो आंखों से निकली योगाग्रि से सभी सगर पुत्र वहीं भस्म हो गए।

.....और इस तरह अपनी शक्तियों के घमंड में चूर सभी सगर पुत्र अपनी योग्यताओं और क्षमताओं से लाभ उठाने की बजाय असमय ही मोत को गले लगा बैठे।

भगवान कहां रहते है, कहां नहीं रहते?
कहते हैं भगवान हर जगह है। उनके निवास का कोई निश्चित स्थान नहीं है। उसे देखने के लिए उसे पाने के लिए बस आवश्यकता है आपके विश्वास और श्रद्धा की। कहने में तो यह बात बड़ी सरल लगती है लेकिन मानने और अनुभव में बहुत फर्क होता है। भगवान कहां है और कहां नहीं है? इस शाश्वत प्रश्र का माकूल जवाब खोजने के लिये आइये चलते हैं एक रोचक प्रसंग की ओर....

एक बार गुरुनानक देव मक्का में गए। सफर की लम्बी थकान के बाद वे एक पेड़ के नीचे सो गए।उस समय उनके पैर काबा की ओर थे। तभी वहां से दो आदमी गुजरे यह देख उन्होने नानकदेव को जगाया और कहा कि तुम्हारे पैर काबा की तरफ हैं दूसरी तरफ पैर करके सो जाओ। नानक देव बोले भाई मुझे तो सभी जगह काबा नजर आ रहा है। उन दोनों ने नानक देव की बात अनसुनी कर नानकदेव के पैर पकड़े और घुमाकर दूसरी तरफ कर दिए।

नानक हंसने लगे और बोले मुझे तो इस तरफ भी काबा नजर आ रहा है। दौनों लोगों ने देखा कि सच में काबा उसी तरफ दिखाई दे रहा था जिस तरफ नानक के पैर थे। उन्होनें फिर नानक देव के पैर उठाऐ और दूसरी ओर कर दिए ।लेकिन अभी भी काबा उसी ओर दिखाई देने लगा जिस तरफ नानक के पैर थे। तब दोनों आदमी नानक जी के पैरों में गिरकर माफी मांगने लगे। तब नानक देव ने समझाया कि ईश्वर हर दिशा में बसता है हर कण मे बसता है। मन मे सच्ची श्रद्धा रखो तो उसके दर्शन सभी जगह हो जाते हैं।

जल्दी का काम शैतान का... मगर क्यो?
अगर मनुष्य चाहे तो संयम और धैर्य से समुद्र भी लांघ सकता है। लेकिन कभी कभी व्यक्ति अपनी जल्दबाजी के कारण हाथ आए हुए लक्ष्य को भी खो देता है।

एक बूढ़ा व्यक्ति था वह लोगों को पेड़ पर चढऩे व उतरने की कला सिखाता था जो उनको मुसीबत के समय और जंगली जानवरों से रक्षा के काम भी आती थी। एक दिन एक लड़का उस बूढ़े व्यक्ति के पास आया और विनम्रता पूर्वक निवेदन करते हुए बोला कि उसे इस कला में जल्द से जल्द निपुण(परफेक्ट)होना है।बूढ़े व्यक्ति ने उसे यह कला सिखाते हुए बताया कि किसी भी काम को करने के लिए धैर्य और संयम की बड़ी आवश्यकता होती है। लड़के ने बूढ़े की बात को अनसुना कर दिया।एक दिन बूढ़े व्यक्ति के कहने पर वह एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गया। बूढ़ा व्यक्ति उसे देखता रहा और उसका हौसला बढ़ाता रहा पेड़ से उतरते उतरते जब वह लड़का आखिरी डाल पर पहुंचा तब बूढ़े व्यक्ति ने कहा कि बेटा जल्दी मत करना सम्भलकर कर उतरो। लड़के ने सुना और धीरे धीरे उतरने लगा।

नीचे आकर लड़के ने हैरानी के साथ अपने गुरु से पूछा कि जब में पेड़ की चोटी पर था तब आप चुपचाप बैठे रहे और जब मैं आधी दूर तक उतर आया तब आपने मुझे सावधान रहने को कहा ऐसा क्यों। तब बूढ़े व्यक्ति ने उस लड़के को समझाते हुए कहा कि जब तुम पेड़ के सबसे ऊपर भाग पर थे तब तुम खुद सावधान थे जैसे ही तुम अपने लक्ष्य के नजदीक पहुंचे तो जल्दबाजी करने लगे और जल्दी में तुम पेड़ से गिर जाते और तुम्हें चोट लग जाती।कथा बताती है कि अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने के लिए कभी भी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए क्यों कि कई बार की गई जल्दबाजी ही लक्ष्य को पाने में परेशानी बन जाती है।

सच बोलना कठिन ही नहीं बड़ा फायदेमंद भी है
सच बोलकर कौन मुसीबत मोल ले...यह कहते हुए अक्सर लोगों को सुना जाता है। लोग वास्तविक बातों को छुपाने के लिए तरह-तरह के झूठ तो बोलते ही हैं, साथ ही हकीकत को छुपाने के लिये ढ़ोंग और दिखावा भी करते हैं। उन्हें लगता है कि अगर उनकी किसी गलती पर उन्होने सच बोला तो वे मुसीबत में फंस जाऐंगे। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता, कई बार सच बोलने के कई फायदे भी होते हैं। एक बार सच बोलने से आप कई बार के झूठ बोलने से बच जाते हैं। आइये चलते हैं एक दिलचश्प घटना की ओर जो सच के फायदे को बयान करती है....

एक डाकू अपने क्षेत्र में बड़ा प्रसिद्ध था। वह डाकू अमीरों का धन लूट कर गरीबों की मदद करता इसलिए वहां के गरीब लोग उसे बहुत मानते थे। भले ही वह डाका डालने का निंदनीय काम करता हो लेकिन लोग तो उसे अपना रहनुमा ही मानते थे। एक बार उस गांव में एक संत पधारे वे सभी को अच्छे अच्छे उपदेश देते। उनके उपदेशों को सुनने के लिए सभी तरह के लोग आते वह डाकू भी संत के प्रवचनों से काफी प्रभावित हुआ।

एक दिन वह साधु के पास गया और बोला कि महाराज मेरा भी कल्याण कैसे हो सकता है। साधु ने कहा अगर तुम सच का रास्ता अपनाओगे तो तो तुम्हारा कल्याण जरूर होगा। तब से वह डाकू हमेशा सच बोलने लगा। एक रात वह डाकू राजा के महल में चोरी करने पहुंचा। सोना, चांदी और बहुत सारे जेवर लेकर जब वो महल से भागने लगा तो राजा के सिपाहियों ने उसे पकड़ कर पूछा कि तुम कौन हो। डाकू ने सोचा कि अगर वह सच बोलेगा तो ये लो उसे पकड़ कर जेल में डाल देगें। और झूठ न बोलने की उसने कसम खाई थी। उसने सोचा मैं झूठ नहीं बोलूंगा जो होगा देखा जाऐगा। उसने सिपाहियों से कहा कि मैं डाकू हूं। सिपाही उसकी बात सुनकर हंसने लगे और बोले भाई जाओ अच्छा मजाक करते हो कोइ डाकू अपने मुंह से बोलता है कि वह डाकू है। डाकू खुशी खुशी वहां से चला गया। वह बड़ा खुश हुआ कि उसके सच बोलने का परिणाम बड़ा सुखद मिला।

नफरत का तीर खुद करने वाले को ही लगता है
कहते हैं हम जो लोगों को देते हैं वही हमें वापस मिला है। अगर हम किसी को प्यार देगें तो ही हमें बदले में प्यार मिल सकता है और अगर किसी से नफरत करेंगें तो बदलें में प्यार की उम्मीद करना बेकार है। सीता और गीता नाम की दो बहनें थी सीता की शादी सम्मपन्न परिवार में हुई और गीता की एक गरीब परिवार में। एक दिन एक साधू ने गीता को अपनी गरीबी दूर करने के लिए मां वैभव लक्ष्मी का व्रत और पूजन करने को कहा। वह पूरे मन से मां वैभव लक्ष्मी का व्रत करने

लगी एक दिन उसके सपने में मां ने दर्शन देकर कहा कि मैं तुम्हारी पूजा से खुश हूं आज से तुम्हारे दुख दूर हो जाऐंगे तुम जिस चीज के बारे में सोचोगी वो तुम्हें मिल जाएगी।सुबह गोबर पाथते हुए उसे सपने की बात याद आई और उसने मन में विचार किया कि ये कण्डे हीरे मोती के हो जाऐं। जैसे ही उसने मन में विचार किया वे कण्डे हीरे मोती के हो गए। उसने उन हीरे मोतियों से व्यापार शुरु किया और व्यापार उसका व्यापार चल निकला उधर जब यह बात उसकी बहन सीता को मालूम हुई तो वह अपनी बहन से मिलने आई। उसने गीता से पूछा कि इतना सारा पैसा तुम्हारे पास कैसे आया। गीता ने सारा सच अपनी बहन को बता दिया। फिर तो सीता ने भी सोचा कि मैं भी लक्ष्मी जी का व्रत करूंगी। वह भी पूरे मन से वैभव लक्ष्मी का व्रत व उपवास करने लगी। उसे भी मां ने दर्शन देकर आर्शीवाद दिया कि वह जो मांगेगी वह उसे मिलेगा। सीता ने कहा कि गीता जो भी सोचे उसका दोगुना मेरे पास आ जाए। बस फिर क्या था। जो गीता मांगती सीता के पास उसका दोगुना हो जाता। यह सब देख गीता को गुस्सा आने लगा वह सोचने लगी कि मेरी बहन को मेरी सम्पन्नता हजम नहीं हुई इसलिए उसने मां से ऐसा वरदान मांगा। लेकिन वह भी कम पडऩे वाली नहीं थी वह गुस्से से पागल हो रही थी। उसने अपनी बहन को सबक सिखाने की ठान ली। उसने सोचा कि मेरी एक आंख फूट जाऐ तभी सीता की दोनों आखें फूट गई। फिर उसने सोचा कि मेरा एक पैर टूट जाए वहीं दूसरी तरफ सीता के दोनों पैर टूट गए। गुस्से में गीता को ये भी होश नहीं था कि जाने अनजाने में वह अपना भी बुरा कर रही है। तभी आकाशवाणी हुई और आवाज आई कि तुम दोनों ने अपनी शक्तियों का गलत उपयोग किया है। तुमसे अब इन शक्तियों को वापस ले रही हूं। तब दोनों बहनों को अपनी गलती का एहसास हुआ और दोनों पछतावा करने लगी लेकिन तब तक उनका सब कुछ खत्म को चुका था।

ऐसा नजरिया बनाता है सबसे बड़ा लीडर
अगर व्यक्ति को सही मायने में सक्सेस पाना है तो उसे कोशिश के साथ साथ पॉजिटिव एटिट्यूड रखना भी जरूरी होता है। क्यों कि लक्ष्य के प्रति सकारात्मक नजरिया ही हमें अपनी मंजिल तक पहुंचाता है।

एक बार गोलियथ नाम का राक्षस था उसने हर आदमी के दिल में दहशत बिठा रखी थी। सब उससे डरते और कहते कि उसे कोई मार ही नहीं सकता। एक दिन 17 साल का एक भेड़ चराने वाला लड़का अपने भाइयों से मिलने के लिए आया उसने पूछा कि तुम इस राक्षस से लड़ते क्यों नहीं। उसके भइयों ने कहा कि वह इतना बड़ा राक्षस है कि उसे मारा नहीं जा सकता। लेकिन उस लड़के ने कहा कि बात यह नहीं कि बड़ा होने कि वजह से उसे मारा नहीं जा सकता बल्कि सच तो यह है कि वह तो इतना बड़ा है कि उस पर लगाया गया निशाना चूक ही नही सकता। उसके बाद उस लड़के ने गुलेल से निशाना लगाकर उस राक्षस को मार ड़ाला।

कथा बताती है कि अगर नजरिया सही हो तो हम बड़ी से बड़ी कठिनाई को पार कर अपनी मंजिल को पा सकते हैं।

स्वार्थ में आदमी इंसान से हैवान बन जाता है!
सही क्या है और गलत क्या है यह लगभग सभी लोग जानते हैं। धर्म किस ओर है तथा अधर्म का साम्राज्य कहां है, यह बात भी उजागर हो ही जाती है। कौन अपने हक की खातिर संघर्ष कर रहा है और कौन अन्याय और अनीतियों के दम पर दूसरों का हक भी हथियाने के मंसूबे बना रहा है, यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं रहता है। फिर आखिर ऐसा कौनसा कारण है कि सब कुछ देखते हुए भी व्यक्ति गलत, अधर्म और अन्याय का ही साथ देता है। आइये इस गंभीर प्रश्र का हल एक रोचक घटना के द्वरा जानते हैं...

एक नगर में एक बहुत प्रसिद्ध विद्यालय था। दूर-दूर के राज्यों के विद्यार्थी वहां पढऩे आया करते थे। इस विद्यालय की प्रसिद्धि के पीछे आचार्य वेदानंद का प्रमुख योगदान था। आचार्य वेदानंद के पढ़ाने का तरीका ऐसा था कि विद्यार्थी उनके बताए सबकों को सदैव के लिय अपने दिल में उतार लेते थे। विद्यार्थियों में उनकी लोकप्रियता को देख कर विद्यालय के सारे साथी शिक्षक मन ही मन उनसे ईष्र्या-द्वेष करते थे। यहां तक कि विद्यालय के प्राचार्य के मन में भी आचार्य वेदानंद के प्रति गहरी जलन की भावना थी। प्राचार्य को लगने लगा था कि यदि आचार्य वेदानंद के गुणों की प्रसिद्धि इसी तरह फैलती रही तो एक दिन प्राचार्य का पद भी उन्हें ही मिल जाएगा।

प्राचार्य रात-दिन इसी उधेड़-बुन में लगा रहता कि किसी तरह से आचार्य वेदानंद को परेशान किया जाए कोई झूंठा और मनगढंत आरोप लगाकर लोगों की नजरों में उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई जाए। लेकिन आचार्य वेदानंद के ज्ञान का प्रकाश इतना प्रखर था कि उसे प्राचार्य की काली योजनाओं का धूंआ और कोहरा रोक नहीं पा रहा था। अब तो प्राचार्य ने हेवानियत की हदें पार कर दी्। वह पशुता और नीचता पर उतर आया और एक घ्रणित कार्य कर बैठा। प्राचार्य को किसी भी तरह से अपनी कुर्सी बचानी थी इसलिये वह अपने अंदर से उठने वाली आत्मा की आवाज को हमेशा दबा देता और मन को समझा देता कि आगे बढऩे के लिये किसी को कुचलना पड़े तो भी जायज है। उस नीच प्राचार्य ने आचार्य वेदानंद से जलने वाले सभी शिक्षकों को अपनी तरफ मिला लिया और लालच और डर की घुट्टी पिलाकर पूरी तरह से अपना गुलाम बना लिया।

इंसानियत खो चुके उस प्राचार्य ने चुपके से आचार्य वेदानंद के भोजन में जहर मिलाकर मोत के घाट उतार दिया। आश्चर्य की बात यह थी कि आचार्य वेदानंद से जलने वाले सभी साथी कर्मचारियों को इस नीच योजना की पहले से ही जानकारी थी।

इस तरह उस स्वार्थी और विवेकहीन प्राचार्य ने कुछ समय के लिये अपनी प्राचार्य की कुर्सी सुरक्षित कर ली तथा साथी कर्मचारियों ने कुछ लाभ और छूट प्राप्त कर ली। लेकिन यह अटल सच्चाई दोनों ही भूल गए कि जो फसल उन्होंने आज बोई है वह उन्हीं को काटना पड़ेगी। क्योंकि कार्य-कारण के कर्मफल सिद्धांत से ब्रह्मा जी भी किसी को छुटकारा नहीं दिला सकते।

जीवन तभी बदलता है, जब उसके लिए प्रयास किए जाएं।
यह बात कैसे समझाई गौतम बुद्ध ने अपने शिष्य को.. देश भ्रमण करते हुए एक बार भगवान बुद्ध ने एक नदी के तट पर डेरा डाला। बुद्ध जीवन के विभिन्न आयामों पर रोज व्याख्यान देने लगे, जिन्हें सुनने दूर-दूर के गांव के लोग आने लगे। बुद्ध के प्रवचनों में प्रवाह था, तत्व ज्ञान था तथा जीवन का सार छिपा हुआ था। उनकी वाणी से श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे।

तथागत के भक्तों में समीप के गांव का एक निवासी भी था। वह बिना नागा उनके व्याख्यान सुनता था। यह क्रम महीनों तक चलता रहा। परंतु उस व्यक्ति ने अपने अंदर कोई बदलाव नहीं पाया। वह बहुत निराश हो गया। एक दिन प्रवचन के बाद जब सब लोग चले गए, तो वह व्यक्ति बुद्ध के पास जाकर बोला-भगवन, मैं लंबे समय से लोभ इत्यादि छोड कर अच्छा इंसान बनने के आपके प्रवचन सुनता आया हूं। उन्हें सुनकर मैं उत्साह से भर जाता हूं। परंतु इन बातों से मुझमें बदलाव नहीं आ रहा है।
उसकी बातें सुनकर बुद्ध मुस्कुराए। उन्होंने स्नेह से उस व्यक्ति के सिर पर हाथ फेरा और बोले वत्स, तुम कौन से गांव से आए हो उसने जवाब दिया, भगवन, मैं पिपली गांव से आया हूं। बुद्ध ने फिर पूछा, यह गांव इस स्थान से कितनी दूर है? उसने कहा, करीब दस कोस। बुद्ध ने पुन: प्रश्न किया, तुम यहां से अपने गांव कैसे जाते हो? वह व्यक्ति बोला-गुरुदेव, मैं पैदल ही जाता हूं, परंतु आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं? बुद्ध ने उसकी बातों को अनसुना कर फिर पूछा-क्या ऐसा संभव है कि तुम यहां बैठे-बैठे अपने गांव पहुंच जाओ? उस व्यक्ति ने झुंझलाकर उत्तर दिया ऐसा तो बिल्कुल भी संभव नहीं है। वहां पहुंचने के लिए मुझे पैदल चलकर जाना ही होगा।

बुद्ध ने कहा, तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। यदि तुम्हें अपने गांव का रास्ता पता है, उसकी जानकारी भी है, परंतु इस जानकारी को व्यवहार में लाए बिना, प्रयत्न किए बिना, पैदल चले बिना तुम वहां नहीं पहुंच सकते। उसी प्रकार यदि तुम्हारे पास ज्ञान है और तुम इसको अपने जीवन में अमल में नहीं लाते हो, तो तुम अपने आप को बेहतर इंसान नहीं बना सकते। ज्ञान को व्यवहार में लाना आवश्यक है। इसके लिए तुम्हें स्वयं दृढ निश्चय के साथ निरंतर प्रयास करने होंगे तथा सीखी गई बातों को जीवन की विभिन्न स्थितियों में निरंतरता के साथ प्रयोग में लाना होगा, वास्तव में तभी तुम अपने जीवन में परिवर्तन महसूस कर सकते हो। उसे बुद्ध की बात अच्छी तरह से समझ में आ गई।


दुनिया की सबसे बड़ी दौलत किसके पास?

इंसान को कभी अपनी शक्तियों और सम्पत्ति पर अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस दुनिया में हांसिल की गई कोई सी भी दौलत स्थाई नहीं है। संसार से मिला पद, पैसा और प्रतिष्ठा कभी भी रेत की तरह हाथों से फिसल सकता है। इसीलिये धर्म शास्त्रों में सांसारिक दौलत को माया कहा गया है। माया व्यक्ति को बुद्धिहीन कर देती है। और बुद्धिहीन लोग जीवन में कभी वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते। इस बात को और भी आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं एक रोचक घटना प्रसंग की ओर...

एक बार एक जानश्रुति नाम का राजा था उसे अपनी सम्पत्ती पर बड़ा घमंड था एक रात कुछ हंस राजा के कमरे की छत पर आकर बात करने लगे एक हंस बोला कि राजा का तेज चारों ओर फैला है उससे बड़ा कोई नहीं तभी दूसरा हंस बोला कि तुम गाड़ी वाले रैक्क को नहीं जानते उनके तेज के सामने राजा का तेज कुछ भी नहीं है। राजा ने सुबह उठते ही रैक्क बाबा को ढूढ़कर लाने के लिए कहा राजा के सेवक बड़ी मुश्किल से रैक्क बाबा का पता लगाकर आए। तब राजा बहुत सा धन लेकर साधू के पास पहुंचा और साधू से कहने लगा कि ये सारा धन में आपके लिए लाया हूं कृपया कर इसे ग्रहण करें और आप जिस देवता की उपासना करते हे उसका उपदेश मुझे दीजिए साधू ने राजा को वापस भेज दिया।

अगले दिन राजा और ज्यादा धन और साथ में अपनी बेटी को लेकर साधू के पास पहुंचा और बोला हे श्रेष्ठ मुनि मैं यह सब आपके लिए लाया हूं आप इसे ग्रहण कर मुझे ब्रह्मज्ञान प्रदान करें तब साधू ने कहा कि हे मूर्ख राजा तू तेरी ये धन सम्पत्ति अपने पास रख ब्रह्मज्ञान कभी खरीदा नहीं जाता। राजा का अभिमान चूर-चूर हो गया और उसे पछतावा होने लगा। कथा बताती है कि जहां अभिमान होता है वहां कभी ज्ञान नहीं होता ज्ञान को पाने के लिए इंसान को अपना अहंकार को छोडना पड़ता है।

आत्मसंतोष की दौलत
एक गांव में एक गरीब आदमी रहता था। वह बहुत मेहनत करता, अपनी ओर से पूरा श्रम करता, लेकिन फिर भी वह धन न कमा पाता। इस प्रकार उसके दिन बड़ी मुश्किल में बीत रहे थे। कई बार तो ऐसा हो जाता कि उसे कई-कई दिन तक सिर्फ एक वक्त का खाना खाकर ही गुज़ारा करना पड़ता। इस मुसीबत से छुटकारा पाने का कोई उपाय उसे न सूझता।

एक दिन उस गरीब आदमी को एक महात्माजी मिल गए। गरीब ने उन महात्माजी की बहुत सेवा की। महात्माजी उसकी सेवा से प्रसन्न हो गए और उसे धन की देवी की आराधना का एक मंत्र दिया। मंत्र से कैसे देवी की स्तुति व स्मरण किया जाए, उसकी पूरी विधि भी महात्माजी ने उसे अच्छी तरह समझा दी।

गरीब उस मंत्र से देवी की नियमित प्रार्थना करने लगा। कुछ दिन मंत्र आराधना करने पर देवी उससे प्रसन्न हुईं और उसके सामने प्रकट हुईं। देवी ने उस गरीब से कहा, ‘मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। बोलो, क्या चाहते हो? नि:संकोच होकर मांगो।’

देवी को इस प्रकार अपने सामने प्रकट हुआ देख वह गरीब घबरा गया। क्या मांगा जाए, यह वह तुरंत तय ही नहीं कर पाया, इसलिए हड़बड़ाहट में बोल पड़ा, ‘देवी, इस समय तो नहीं, हां कल मैं आप से उचित वरदान मां लूंगा।’ देवी अगले दिन प्रात: आने के लिए कहकर अंतध्र्यान हो गईं।

घर जाकर गरीब सोच में पड़ गया कि देवी से क्या मांगा जाए? उसके मन में आया कि उसके पास रहने के लिए घर नहीं है, इसलिए देवी से यही सबसे पहले मांगा जाए। अब सवाल आया कि घर कैसा होना चाहिए। वह घर के आकार-प्रकार व उसमें होने वाली विभिन्न सुख-सुविधाओं के बारे में विचार करने लगा। फिर उसने सोचा कि जब देवी मुझे मुंहमांगा वरदान देने के लिए तैयार हैं, तो केवल घर ही क्यों मांगू। ये ज़मींदार लोग गांव के सब लोगों पर रौब गांठते हैं, जब देखो तब हुक्म चलाते हैं। इसलिए देवी से वर मांगकर मैं ज़मींदार हो जाऊं, तो अच्छा रहे। यह सब सोचकर उसने ज़मींदारी मांगने का निर्णय कर लिया।

ज़मींदार बनने का विचार आने के बाद वह सोचने लगा कि आखिर जब लगान भरने का समय आता है, तब ये ज़मींदार भी तो तहसीलदार साहब की आरज़ू-मिन्नतें करते हैं। इस प्रकार इन ज़मींदारों से बड़ा तो तहसीलदार ही है, इसलिए जब बनना ही है तो तहसीलदार क्यों न बन जाऊं। इस तरह वह तहसीलदार बनने की इच्छा करने लगा। अब वह अपने इस निर्णय से खुश था।

लेकिन, उसने मन में कुछ न कुछ चलता ही रहता। अब कुछ देर बाद उसे जिलाधीश का ध्यान आया। वह जानता था कि जिलाधीश साहब के सामने तहसीलदार भी कुछ नहीं है। तहसीलदार तो भीगी बिल्ली बना रहता है जिलाधीश के सामने। इस तरह

उसे अब तहसीलदार का पद भी फीका दिखाई पड़ने लगा और उसकी जिलाधीश बनने की इच्छा बलवान हो उठी। इस प्रकार उसकी एक से एक नवीन इच्छा बढ़ती चली गईं। वह सोचने-विचारने में ही इतना फंस गया कि यह तय नहीं कर पाया कि क्या मांगा जाए। उसी सोचने की चिंता में दिन तो बीता ही, रात भी बीत गई।

दूसरे दिन सवेरा हुआ। गरीब आदमी अब तक भी कुछ निर्णय न कर पाया था कि उसे क्या वरदान मांगना चाहिए। उधर ज्यों ही सूरज की पहली किरण पृथ्वी पर पड़ी, त्यों ही देवी उसके सामने प्रकट हो गईं। उन्होंने उस गरीब से पूछा, ‘बोलो तुम क्या वरदान मांगाना चाहते हो? अब तो तुमने सोच लिया होगा कि तुम्हें क्या मांगना है?’

गरीब ने हाथ जोड़कर कहा, ‘देवी, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो सिर्फ भगवान की भक्ति और आत्मसंतोष का गुण दीजिए। यही मेरे लिए पर्याप्त है।’
देवी ने पूछा, ‘क्यों, तुमने घर-द्वार, ऐशो-आराम या धन-दौलत क्यों नहीं मांगी?’

गरीब विनम्रता से बोला, ‘मां, मेरे पास दौलत नहीं आई, बस आने की आशा मात्र हुई, तो मुझे उसकी चिंता से रातभर नींद नहीं आई। यदि वास्तव में मुझे दौलत मिल जाएगी, तो फिर नींद तो एकदम विदा ही हो जाएगी। साथ ही न मालूम और कौन-कौन सी मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए मैं जैसा हूं, वैसा ही रहना चाहता हूं। आत्मसंतोष का गुण ही सबसे बड़ी दौलत होती है, आप मुझे यही दीजिए। साथ ही यह संसार सागर पार करने के लिए भगवान नाम के स्मरण का गुण दीजिए।’
देवी ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और आशीर्वाद देकर अंतध्र्यान हो गईं। वह गरीब पहले की तरह खुशी से अपना जीवन बिताने लगा। फिर उसे कभी भी धन की लालसा नहीं हुई।

जाने भगवान कब, किस रूप में आ जाए!
इंसान की जिंदगी में कई ऐसे अवसर आते हैं जिसकी वह तलाश में रहता है। लेकिन कई बार वह इसे पहचान नहीं पाता। उसकी यही गलतियां उसे आगे जाकर पछताने पर मजबूर कर देती है। जीवन में अगर कोई अच्छा अवसर मिले तो उसका लाभ उठाना चाहिए। नहीं तो आगे जाकर पछताना पड़ता है।

किसी गांव में हरिया नाम का एक आदमी रहता था। वह भगवान पर बहुत श्रद्धा रखता था। वह रोज भगवान की पूजा करता। वह भगवान भक्ति में इतना डूब गया कि अंधविश्वासी हो गया। वह हर बात को भगवान से जोड़कर ही देखता। एक दिन गांव में बाढ़ आ गई। सब गांव वाले जान बचाकर भागने लगे लेकिन हरिया नहीं भागा। तभी हरिया के पास गांव का ही एक आदमी आया और बोला कि बाढ़ का पानी गांव को डुबा दे इसके पहले यहां से भाग चलो। लेकिन हरिया तो भगवान की भक्ति में अंधविश्वासी हो गया था। उसने कहा जब भगवान मुझे बचाने नहीं आएंगे मैं नहीं जाऊंगा। वह व्यक्ति चला गया। धीरे-धीरे गांव में पानी भराने लगा। हरिया घर की छत पर चढ़ गया। फिर उसके पास गांव का दूसरा आदमी आया और वहां से चलने को कहा। हरिया ने फिर वही जबाव दिया।

थोड़ी देर में बाढ़ के पानी ने पूरे गांव को डुबा दिया। हरिया एक बड़े पेड़ पर चढ़ गया। सब दूर पानी ही पानी हो गया। तभी नाव में बैठकर एक और गांव वाला हरिया को बचाने आया। हरिया ने उसे भी मना कर दिया। बाढ़ का पानी बढऩे से हरिया उसमें डूब कर मर गया। जब हरिया भगवान के पास पहुंचा तो गुस्से में बोला कि मैंने आपकी बहुत सेवा की और आप मुझे बचाने नहीं आए। भगवान मुस्कुराए और बोले- अरे मूर्ख। मैं एक नहीं तीन बार तुझे बचाने आया था लेकिन तुने मुझे पहचाना ही नहीं।

माफी... एक अवसर जो हमें रोज मिलता है
कहते हैं कि गलत काम करने वाले व्यक्ति को सजा देना देना जरूरी होता है। यही सजा उसके लिए सबक बनकर उसे सुधरने में मदद करती है। लेकिन हर बार ऐसा हो ये जरूरी नहीं। कभी-कभी हमारा क्षमादान भी उसे उसकी गलती का एहसास कराके इंसान बनने में मदद करता है।

जापान में एक संत थे। लोग उन्हें जापान का गांधी कहा करते थे। वे न कभी किसी के लिए बुरा बोलते, न कभी बुरा सोचते और न कभी किसी का बुरा करते इसलिए लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। वहीं एक आदमी उनसे बड़ी घृणा करता था और चारों ओर संत की प्रशंसा देख उसे बड़ी जलन होती। एक दिन उसने संत को मारने का विचार किया।

एक रात वह चुपके से उस संत के घर में जा घुसा। संत को मारने के लिए उसने जैसे ही तलवार निकाली वैसे ही संत की नींद खुल गई। वह बुरी तरह से डर गया और डर के मारे कांपने लगा। उसे लगा कि अब संत शोर मचाऐंगे और सबको इक्कठ्ठा कर लेंगे और ये सब लोग मिलकर मुझे मार डालेगें।लेकिन उसने देखा कि संत हाथ जोडकर भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि हे ईश्वर मेरे इस भाई को सद्बुद्धि दो और इसकी गलती क्षमा करो। यह देख उसे अपने किए पर पछतावा होने लगा। वह संत के पैरों में गिरकर माफी मांगने लगा। संत ने उसे गले लगाया और कहा कि गलती इंसान से ही होती है। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं अब तुम एक अच्दे इंसान बनने की कोशिश करो।

फकीर की तड़प देखकर भगवान पिघल गए
कहते हैं कि चाह अगर सच्ची हो तो मंजिल तक पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता। जरूरत है उस तीव्र प्यास की जो सीधे आत्मा को परमात्मा से जोड़ देती है। ऐसे एक नहीं बल्कि सैकड़ों उदाहदण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य जब कुछ पाने के लिये अपने जीवन की बाजी लगाने को तैयार हो जाता है तो अपने मकसद में कामयाबी अवश्य ही मिलती है। इस बात की हकीकत और गहराई को समझने के लिये आइये चलते हैं एक सच्चे घटना प्रसंग की ओर...

एक गांव में एक फकीर रहता था। गांव के बच्चों को सत्य, प्रेम और दूसरों की मदद करने की शिक्षा देना ही उसका प्रतिदिन का पसंदीदा कार्य था। खाली वक्त में वह किसी एकांत स्थान पर जाकर ईश्वर का ध्यान करता और जिंदगी में आए अनेक दुखों को भुलाकर भगवान को हमेशा धन्यवाद ही देता रहता। वह अपना पेट भरने के लिये गांव में घर-घर जाकर भिक्षा

मांगता और पेट भरने के लिये पर्याप्त होने पर वापस लौट आता।

रोज की तरह ही एक दिन वह गांव में भिक्षा मांग रहा था। एक घर से दूसरे घर जाते हुए वह बिना देखे ही बस यही पुकारता कि- भगवान तेरी जय हो। एक घर से दूसरे की ओर जाने में वह भूल ही गया कि वह जहां खड़े होकर भिक्षा के लिये पुकार रहा है वह किसी का घर नहीं बल्कि गांव की एक मात्र बहुत पुरानी मस्जिद है। उसकी आदत थी कि वह हमेशा अपना सिर झुकाकर ही रखता था इसलिये उसे पता ही नहीं चला कि वह मस्जिद के सामने खड़ा होकर भीख मांग रहा है। उस रास्ते से गुजरते हुए व्यक्ति ने उसे देखा तो फकीर के पास आकर बोला- बाबा क्या आपको दिखाई नहीं देता कि यह किसी का घर नहीं बल्कि मस्जिद है यहां तुम्हें कौन भिक्षा देगा। जाओ- जाओ किसी के घर जाकर मांगों जो अवश्य कुछ खाने को मिल जाएगा।

उस राहगीर की बात सुनकर उस फकीर के दिमाग में अचानक बिजली सी कोंध गई। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। फकीर सोचने लगा कि यह मस्जिद तो खुद ईश्वर का ही घर है, क्या यहां आकर भी मेरी झोली खाली रह जाएगी। जब एक सामान्य सा मनुष्य इतनी दया दिखाता है कि कुछ न कुछ तो दे ही देता है तो क्या इस संसार के मालिक को मुझ पर दया नहीं आएगी। कहते हैं कि यही सोचता हुआ वह फकीर मस्जिद के सामने ही बैठ गया। उसकी आंखों से लगातार आंसू बहते जा रहे थे, सुबह से रात हो गई लेकिन वह फकीर अपनी जगह से हिला तक नहीं। यहां तक कि पूरे तीन दिन हो गए लोंगों ने उसे खूब समझाने की कोशिश कर ली लेकिन वह बगैर जवाब दिये बस मस्जिद के भीतर ही देखता रहता। उसकी आंखों में आंसू थे लेकिन चेहरे पर हंसी थी उसे लगा जैसे आज उसकी असली आंखें खुल गईं।

और कहते हैं कि चोथें दिन सुबह-सुबह वहां एक चमत्कार घटित हो गया। बिजली सी चमक गई एक तेज रोशनी हुई और उस फकीर को जाने ऐसा क्या मिल गया कि वह तो बस नाचने लगा, झूमने लगा। लोग कहते हैं कि उस दिन के बाद से उस फकीर में कई चमत्कारी शक्तियां आ गईं थी। उसके छूने मात्र से लोगों के दु:ख, दर्द और बीमारियां मिट जाती थीं।

'मैं' को नहीं छोड़ा, इसीलिये सब गया बेकार
अहंकार या झूठे घमंड का शिकार होकर अक्सर इंसान जिंदगी की वास्तविकता को भुला बैठता है। इसका सबसे बुरा परिणाम यह होता है कि वह इस शानदार जिंदगी को सभी के साथ मिल-जुलकर और हंसी-खुशी बिताने की बजाय झूठे अहंकार में ही बर्बाद कर देता है। ऐसा ही कुछ हुआ उस अहंकारी व्यक्ति के साथ जिसे समझ तो आई लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। हुआ कुछ यूं कि....

एक व्यक्ति को अपने पांडित्य यानि ज्ञान पर बहुत घमंड था। सारे वेद, पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथ उसे लगभग रटे हुए थे। यहां तक कि उसे पूरी दुनिया का इतिहास भी ज्ञात था। अपना धर्म ही नहीं दुनिया के अन्य सारे धर्मों के विषय में भी उसे बहुत कुछ ज्ञात और याद था। समाज में उसके ज्ञान की बड़ी तारीफ हुआ करती थी।

तारीफें सुनकर उसका घमंड पहले से भी ज्यादा बढ़ चुका था। वह रास्ते से निकलता तो बड़ा अकड़कर और चेहरे पर बड़े गंभीर विद्वान के से भाव बनाकर निकलता था। लेकिन वक्त कभी छोटे-बड़े या ज्ञानी-अज्ञानी का फर्क नहीं करता। देखते ही देखते उस अहंकारी व्यक्ति का अंतिम समय आ गया। जैसे ही उसके गुरु को इस बात का पता चला तो वे तुरंत दोड़ते हुए अपने शिष्य के पास आए।

शिष्य का आखिरी समय देखकर वे बोले कि बेटा मुझे पता है कि तुम जीवन का असली अर्थ और उद्देश्य नहीं समझ पाए हो इसीलिये तुम्हारे मन में अंदर ही अंदर कुछ कचोटता रहता है। आओ मैं तुम्हें जिंदगी का असली मर्म समझाऊं। मौत को सामने खड़ा देखकर भी शिष्य की आंखें नहीं खुल रही थी। वह अपने ज्ञान के अहंकार में ही बोला कि कोई किसी को कुछ नहीं सिखा सकता है। इंसान अकेला आता है और उसे जाना भी अकेले ही पड़ता है।

गुरू समझ गए कि शिष्य में मरते वक्त भी ज्ञान का ही घमंड बोल रहा है उसमे जरा सी भी विनम्रता नहीं है। यही सोचकर गुरु ने शिष्य से कहा कि बहुत कुछ जानकर भी तुम्हें अंदर की वास्तविक शांति नहीं मिली क्योंकि तुम्हारे ऊपर जीवनभर 'मैं' ही हावी रहा। जब तक यह 'मैं' तुमसे नहीं छूटता तुम्हें वास्तविक शांति मिल भी नहीं सकती। तुम्हारा सारा ज्ञान और पांडित्य खोखला और व्यर्थ ही है क्योंकि तुम जिंदगी का असल मकसद कभी नहीं समझ पाए।

ऐसा करके कभी खुशी नहीं मिल सकती!
अक्सर लोग अपनी जिम्मेदारियों से परेशान होकर उनसे भागने लगते हैं। कभी कभी तो वे किसी दूसरे रास्ते का रुख ही कर लेते हैं। लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाला कभी खुश नहीं रह पाता है। आइये चलते हैं एक रोचक घटना की ओर जिसमें एक राजा खुशी की तलाश में अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेता है....

एक राजा को शासन करते-करते लम्बा समय बीत गया। एक दिन वो एक दिन वो सोचने लगा कि इतने लम्बे राज्यकाल में मैंनें क्या पाया। जनसेवा में ही सारा जीवन बीत गया। यह सोचते-सोचते वह जंगल की ओर निकल लिया। जंगल में सारे पशु पक्षी आंनद से आजाद घूम रहे थे। वहीं दूसरी ओर राजा चिंता में बैठा हुआ था।

वह पशु पक्षियों को देख सोचने लगा ये कितने खुश हैं राजा सोच ही रहा था कि एक तेज हवा का झोंका आया और एक पेड़ भरभरा के गिर गय और सारे पक्षी उड़ गए। राजा बोला इस संसार में सब अपने लाभ के लिए ही साथ देते है। तभी उधर से गुजर रहे एक साधु ने राजा का अकेले उदास बैठे देखा। वह राजा के पास गया और बोला कि तुम इस जंगल में क्या का रहे हो। वह साधु से बोला कि महात्मा जी मेरा मन अब संसार में नहीं लगता मैं अभी थक गया हूं।अब मैं भगवान की भक्ति करना चाहता हूं।

राजा की बात सुनकर साधु हंसने लगा और बोला आप राजा हैं और राजा का काम है राज काज देखना न कि फकीरी करना। अपने कर्तव्य से मुहं फेर कर आपको शांति नहीं मिलेगी। आप अपनी प्रजा की देखभाल करो अपको सच्चा सुख उसी में मिलेगा। क्यों कि जो अपना कर्तव्य पालन को ही अपना धर्म मानते हैं सच्चा सुख उन्हीं को मिलता है।

क्या आप जानते हैं- इंसान का सबसे बड़ा शिक्षक कौन है?
दुखों की पाठशाला में पढ़ा-लिखा और पका व्यक्ति अनायास ही सर्वश्रेष्ठ बन जाता है। मनुष्य जितना सुविधाओं और सुख-साधनों में रहकर नहीं सीखता उससे अधिक कठिनाइयां और अभाव ही उसे तराशती और मांजती और सुयोग्य बनाती हैं। इस बात को और भी आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं महाभारत की एक रोचक घटना की ओर...

द्रोणाचार्य कौरव सेना के सेनापति बने। पहले दिन का युद्ध वे बड़े कोशल के साथ लड़े, फिर भी उस दिन की विजय अर्जुन के हाथ ही लगी। यह देखकर दुर्योधन बड़ा निराश हुआ। हताशा और क्रोध से भरी मन:स्थिति के साथ वह गुरु द्रोण के पास गया और बोला - गुरुदेव! अर्जुन तो आपका शिष्य है, आप तो उसे एक क्षण में परास्त कर सकते हैं। फिर ऐसा कैसे हुआ? द्रोणाचार्य गंभीर मुद्रा में बोले- तुम ठीक कहते हो पर एक तथ्य नहीं जानते। अर्जुन मेरा शिष्य अवश्य है, पर उसका सारा जीवन कठिनाइयों से सघंर्षो में, वनवास में, अज्ञातवास में बीता है। मैनें राजसी सुख में जीवन बिताया है। कुधान्य खाया है। विपत्ति ने ही उसे मुझसे भी अधिक योग्य बना दिया है।

सबक यह कि जीवन में आने वाली कठिनाइयों या मुसीबतों को तप या व्यायाम समझकर सदा हंसकर सामना करना चाहिये। ऐसा करने से व्यक्ति बेहद शक्तिशाली और अजैय यौद्धा बन जाता है। सुख नहीं दु:ख ही हमारा सबसे बड़ा शिक्षक है।

1 सेकंड ही काफी है बदलने के लिये, क्योंकि मौत...
मनुष्य का पूरा जीवन एक पाठशाला है यहां हर वक्त किसी न किसी पहलु पर हमें कुछ न कुछ सीखने को जरूर मिलता है। जिदंगी का हर क्षण हमें कुछ न कुछ सीख जरूर देता है।

स्वामी रामतीर्थ जापान की यात्रा पर थे। जिस जहाज से वह जा रहे थे, उसमें नब्बे वर्ष के एक बुजुर्ग भी थे। स्वामी जी ने देखा कि वह एक पुस्तक खोल कर चीनी भाषा सीख रहे हैं। वह बार-बार पढ़ते और लिखते जाते थे। स्वामी जी सोचने लगे कि यह इस उम्र में चीनी सीख कर क्या करेंगे। एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।

यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है? स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है। स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।

मंहगा पड़ा गुस्सा .... मुंह खोलते ही गंवाना पड़ी जान!
कई बार चुप रहना बोलने से अधिक जरूरी हो जाता है। यहां तक कि कई बार तो चुप रहने में ही भलाई छुपी होती है। गलत समय पर अनावश्यक बोलने की आदत किसी के लिये जानलेवा भी हो सकती है। ऐसा ही हुआ उस कछुवे के साथ जो चुप रहने की समझाइस मिलने के बावजूद अपने गुस्से पर काबू न रख सका और बोल पड़ा। आइये चलें उस रोचक घटना की ओर जिसमें मूर्ख कछुवे को अपनी जान गंवाना पड़ी.....

एक बार माघ के महिने में बहुत जोरदार बारिश हुई। दूर-दूर तक सिर्फ पानी ही पानी नजर आ रहा था। एक कछुआ जान बचाने के लिये जैसे-तैसे झाड़ी की टहनी को मुंह से पकड़े हुए खुद को बाढ़ के पानी में बचने से बचा रहा था। कछुए की ऐसी हालत देखकर ऊपर उड़ती दो बतखों को उस पर दया आ गई। बतखों ने उस कछुए से कहा कि इस लकड़ी को अपने मुंह से ताकत से पकड़ लो, हम तुम्हें उड़ाकर किसी सुरक्षित सूखे स्थान पर पहुंचा देंगे। बतखों ने कछुए को समझा दिया कि इतना ध्यान रखना कि किसी भी परिस्थिति में भूल कर भी अपना मुंह मत खोलना।

इस तरह कछुए को समझाकर दोनों बतखों ने लकड़ी को दोनों तरफ से पकड़ कर ऊपर बहुत ऊंचाई पर उडऩा शुरु किया ताकि ऊंचाई से सूखा स्थान भी खोजा जा सके। उड़ते हुए वे एक गांव के ऊपर से गुजर रहे थे, तभी गांव के लोगों की नजर उनके ऊपर पड़ी और तीनों को इस तरह उड़ते देखकर हंसने लगे।

बतखों ने तो लोगों की हंसी पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन लोगों को अपनी हंसी उड़ाते देख कर कछुए को गुस्सा आ गया। गुस्से में कछुआ बतखों की बात भूल गया और मुंह से लकड़ी छोड़कर गांव वालों पर चिल्लाने लगा। लेकिन मुंह खोलते ही उसके मुंह से वह लकड़ी तो छूट ही गई जिसके सहारे वह उड़ रहा था। लकड़ी छूटते ही कछुआ इतनी ऊंचाई से सीधा जमीन पर पत्थरों के ऊपर आकर गिरता है। इतनी ऊंचाई से पत्थरों पर गिरते ही उसकी जान निकल जाती है।

...और इस तरह उस असंयमी कछुए को अपने मन पर काबू न रखने की सजा मौत के रुप में मिलती है।




क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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