Monday, May 9, 2011

Jeene Ki Rah(जीने की राह) Part 2

जीने की राह..
बचपन से हमें सिखाया जाता है कि सावधान रहना, जिंदगी की राहों में भटक मत जाना। साधारणतया भटकने का अर्थ है कि हम चरित्रहीन न हो जाएं। हमारी जीवन यात्रा में दो चीजें होती हैं, तब हम भटकते हैं। पहला, यदि कोई धक्का लगे तो चाल लड़खड़ाएगी और दूसरा, यदि कोई घसीट ले तो मार्ग से इधर-उधर हो जाएंगे।

लोभ, मोह, काम, क्रोध, मान, पद, प्रतिष्ठा इन सबके धक्के हमें गिरा देते हैं। घसीटने के मामले में इंद्रियां बहुत ताकतवर होती हैं। खींच-खींचकर विषयों की ओर ले जाकर पटक देती हैं। इनसे बचने के लिए अपने भीतर या तो अति आत्मविश्वास जगा लें या श्रद्धा का अंकुर पैदा कर लें।

श्रद्धावान व्यक्ति नसीहतों के प्रति गंभीर होता है। उसके लिए सीख आचरण से अधिक भरोसे का विषय होती है। माता-पिता और गुरुजन की सीख वह अनुशासन के रूप में नहीं, श्रद्धा के रूप में लेता है। झोंकों से गिरने वाले और इंद्रियों से घसीटे गए लोग भविष्य के अज्ञात भय से भी डरने लगते हैं कि अब क्या होगा?

यदि श्रद्धा जीवन में है तो भय को जाना ही पड़ेगा। एक बात और कि जीवन में जब भी भय आएगा, उसके मूल में अहंकार जरूर होगा। अहंकारी व्यक्ति का जीवन दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा और आलोचना पर निर्भर होता है।

उसे सदैव भय बना रहता है कि दूसरे उसके बारे में क्या कहेंगे और इसीलिए वह धक्के भी खाता है, लेकिन श्रद्धा आपको स्वयं पर टिकाएगी, निर्भय बनाएगी।

दुनिया की सारी सफलता तीन गुणों की दासी है
परमात्मा को जीवन में उतारना हो तो सबसे सही स्थान है हृदय। श्री हनुमानचालीसा के अंतिम दोहे में तुलसीदासजी ने श्री आंजनेय को आमंत्रण दिया है कि वे पधारें, लेकिन साथ में श्रीरामजी, सीताजी और लखनजी को भी लाएं और स्थायी रूप से निवास करें।

भगवान को रहने के लिए तुलसीदासजी ने जो स्थान प्रस्तावित किया है, वह है उनका हृदय। ‘कीजै नाथ हृदय महं डेरा’ तथा अंतिम दोहे में कहा ‘हृदय बसहु सुर भूप।’ हृदय में परमात्मा उतरते ही हम व्यवहार की जगह स्वभाव पर टिकना सीख जाते हैं। इससे स्वभाव सधेगा और ऐसे लोग सरल, सहज व सुव्यवस्थित होंगे। प्रबंधन की ऊंची उड़ानें इन्हीं तीनों से आरंभ होती हैं, परिश्रम की सारी ऊर्जा इन्हीं में समाहित है। जो सरल होता है, उसकी सोच सत्य और स्पष्ट होती है। जो सहज होता है, उसके निर्णय परिपक्व और दूरगामी होते हैं और जो सुव्यवस्थित है, वह अथाह परिश्रम में भी थकता नहीं।

दुनिया की सारी सफलताएं इन्हीं तीनों गुणों की दासी हैं और ये गुण श्री हनुमानचालीसा का प्रसाद हैं। अब जब श्री हनुमानचालीसा का समापन हो, तब विचार करें कि गोस्वामीजी की श्री हनुमानचालीसा किस तरह उपयोगी है। तुलसीदासजी ने श्री हनुमानचालीसा लिखकर यह बताया कि इसकी पंक्ति-पंक्ति में परिणाम तो वेद मंत्र का है, लेकिन यदि कोई दोष हो जाए तो दुष्परिणाम नहीं मिलेगा। इसकी हर पंक्ति मंत्रों के समान प्रभावशाली और दिव्य बन गई।

जब मन, वचन व कर्म एक जैसे हों वह है पुरुषार्थ
परिश्रम एक साधारण शब्द है। फिर इस समय जब मेहनत का बड़ा मोल है, सब लोग जमकर शोर मचाते हैं कि खूब मेहनत करो। इस चक्कर में परिश्रम और हम्माली का अंतर ही समाप्त हो गया। इन्हीं से मिला-जुला एक शब्द है पुरुषार्थ। परिश्रम में जब मन, वचन और कर्म एक जैसे हो जाते हैं, तब वह पुरुषार्थ कहलाएगा।

यह परिश्रम की दिव्य स्थिति है। जिनकी कथनी और करनी के बीच अंतर जितना कम होता है, उनकी सफलता और शांति के बीच भी उतना ही कम फर्क रह जाता है। जो लोग इस अंतर को मिटा देंगे, वे निष्काम कर्मयोगी होंगे। ऐसे लोग किसी भी क्षेत्र में हों, सफल होने पर कभी भी अशांत नहीं रहेंगे। अपने परिश्रम को पुरुषार्थ का रूप देते समय निर्णायक तत्व क्या हो, इसके लिए एक प्रयोग करिए। कुछ ऐसे लोगों को लगातार ढूंढ़ते रहिए, जिनके पास बैठने पर चित्त रूपांतरित होने लगे।

इस बात का ध्यान रखें कि ऐसे व्यक्तियों के पास बैठते समय हमें जो उपलब्ध हो रहा है, उसके लिए हमें कोई प्रयास न करना पड़े। अपने आप ऐसा होने लगेगा, बस अपने को थोड़ा शून्य बना लीजिए, थोड़ा खाली छोड़ दीजिए। यदि अच्छे से अच्छे व्यक्ति के पास बैठकर भी हम खाली नहीं होंगे तो उसकी अच्छाई को अपने भीतर कैसे भरेंगे। उसकी आती हुई तरंगों का अपने खालीपन से स्वागत करना पड़ेगा और जब आप लगभग फ्रेश हो चुके हों, तब अपना परिश्रम करिए और ऐसा परिश्रम पुरुषार्थ में अवश्य बदल जाएगा।

जीवन में भक्ति व भौतिकता का संतुलन जरूरी है
जीवन में भक्ति और भौतिकता का संतुलन बनाए रखना चाहिए। अति हर बात की बुरी है। संयम की जरूरत हर क्षेत्र में है, पर इसकी भी अति न कर दें। हर परिस्थिति के दूसरे पहलू से परिचित जरूर रहें। संसार से भी परिचय रखें और संसार बनाने वाले को भी न भूलें। हम संसार में सफलता की खोज में निकले हुए हैं। सभी यही कर रहे हैं, बस क्षेत्र अलग हैं, मार्ग अलग हैं, मंजिल अलग हैं। कुल मिलाकर चाहिए सबको सफलता। आप जो कुछ भी खोज रहे हों, थोड़ा रुकिए जरूर, फिर भीतर मुड़ जाएं। अपनी इस तलाश को थोड़ा रोक दें, अपने भीतर झांकें और कुछ पाने की कोशिश करें। जो भीतर मिलेगा, वह सफलता के अर्थ बदल देगा।

अपना कुछ भी नहीं है, बस पकड़ने के तरीके बदलना हैं। जैसे ही आपने अपने भीतर भगवान होने को जान लिया, फिर आपके कर्म में निष्कामता आ जाएगी और वाणी में विश्वसनीयता तथा प्रभाव आ जाएगा। एक ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि लोग आपकी ओर खिंचे चले आएंगे। जैसे ही हम भीतर उतरते हैं, जिस ईश्वर से हमारा परिचय होता है, वह परमपिता है, जो सबके भीतर जन्म से ही आया हुआ है। हम उसके निकट गए, उसको पहचाना और उसी के जैसा होना शुरू कर देते हैं। पिता की नकल बेटा करता ही है। संतानों में अपने जनक-जननी के लक्षण आ ही जाते हैं। इस अनुभूति के बाद हमारी बाहरी क्रियाएं ईश्वर की तरह दिव्य और पवित्र होने लगती हैं।

आदत छुड़ाने के लिए अपने स्वभाव को समझना होगा
संसार में रहते हुए हम कुछ आदतों को ओढ़ लेते हैं और कुछ को जीने लगते हैं। आदतों का स्वभाव होता है कि उसे बार-बार करने की इच्छा होती है। पुनरावृत्ति आदत का मूल स्वभाव है। देर से उठने की आदत है तो अगले दिन फिर देर से उठने की इच्छा होगी।

आदत अतीत से जुड़कर अतीत को ही भविष्य में पटकने पर उतारू होती है। आदत से बचने के लिए अपने भीतर के स्वभाव को समझना होगा। अभी तो हमने भक्ति को भी आदत बना लिया है, जबकि भक्ति स्वभाव का विषय है।

सामान्य रूप से ऐसा समझा जाता है कि जो लोग भक्ति कर रहे हैं, वे या तो कमजोर लोग हैं या छोटे ओहदे के व्यक्ति हैं। यह एक भ्रम है। जिनके पास मिटने की क्षमता है, वे ही भक्ति कर सकेंगे, क्योंकि जितना हम मिटेंगे, उतने ही हमारे भीतर के परमात्मा को रूप लेने का अवसर मिलेगा।

भक्ति एक आत्मघाती कला है। इसलिए जैसे-जैसे भक्ति जीवन में उतरेगी, हमें भीतर उतरने में सुविधा होगी। मन को निष्क्रिय करने में सहारा मिलेगा। अभी मन मालिक है और शरीर गुलाम। लेकिन भक्ति के उतरते ही परमात्मा प्रकट होने लगता है और ईश्वर की अनुभूति के सामने मन गौण हो जाता है।

मन मौन हुआ और हमारी सारी मस्ती, धूमधाम भौतिक सफलताओं के बाद भी हमें शांत रखेगी, प्रकाश ही प्रकाश होगा और इसी प्रकाश को आंतरिक उत्सव कहा गया है। जब हर काम में आनंद आने लगे तो फिर जिंदगी के अर्थ ही बदल जाते हैं।

परमात्मा उन्हें ही मिलता है जिनके पास धीरज है
इस समय हर आदमी बहुत तेजी में है। प्रतीक्षा कोई नहीं करना चाहता। जल्दी के चक्कर में इंसानियत ने एक बात खो दी है और वह है धर्य। भौतिक मार्ग में जल्दबाजी भी योग्यता मानी जाती है।

अध्यात्म मार्ग में धर्य गहना है। परमात्मा उन्हें ही मिलता है, जिनके पास धीरज है। जिनकी जीवन यात्रा में धर्य होता है, वे थोड़ा अपने आसपास भी देख पाते हैं। जो जल्दी में हैं, उन्हें इतनी फुर्सत कहां कि वे अपने आसपास के लोगों को देख सकें।

पराए तो दूर, ये जल्दीबाजी वाले अपने सगे लोगों पर भी ध्यान नहीं दे पाते। यही जल्दी इन्हें अपने लोगों के लिए समय के मामले में कंगाल बना देती है। जीवन में धर्य हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम अपनी सेवा और सहयोग से दूसरों को सुखी बनाएं।

जब दूसरे विपत्ति में हों तो उन्हें देख हमारा धीरजभरा स्वभाव हमें प्रेरित करता है कि हम उनकी मदद करें। धर्य का एक और गुण है कि दूसरों को सुखी देख वह हमारे भीतर प्रसन्नता भरता है। वरना आजकल लोग अपने दुख से कम, बल्कि दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी रहते हैं।

अधीरता के कारण लोगों की प्रतीक्षा की क्षमता ही खत्म हो गई है। ऐसे में संसार तो मिल जाएगा, पर परमात्मा नहीं और बिना परमात्मा के शांति कैसे मिलेगी?

भगवान हर घड़ी हमारी ओर हाथ बढ़ाता है, लेकिन हम देख नहीं पाते, क्योंकि जल्दी में हैं। बाहर की गति तो रहे, पर भीतर का धर्य बना रहे तो दुनिया भी मिलेगी और दुनिया बनाने वाला भी नहीं छूटेगा।

सुख के साथ शांति होने पर सफलता स्थायी होगी
यह दिख रही सफलता को केवल अर्जित करने का ही नहीं, बल्कि नई-नई सफलता गढ़ने का भी युग है। असफल कोई नहीं रहना चाहता। इसी कारण सतत सफलता का तनाव असफलता से भी ज्यादा हो गया है।

सुख अर्जित करना एक बड़ी सफलता माना जा रहा है। पढ़ा-लिखा हो या बिना पढ़ा-लिखा, आजकल इतना सक्षम और जुगाड़ू तो आदमी होता ही जा रहा है कि इधर-उधर से सुख उठा ही लेता है। सुख की सामान्य परिभाषा है कि जो हमारे अनुकूल हो, वह सुख तथा विपरीत हो वह दुख।

सुख अर्जित करना बहुत कठिन काम नहीं है। परंतु सवाल यह है कि शांति कहां से लाएंगे? यह तो आदमी को खुद अर्जित करनी पड़ेगी। सुख के साथ जब शांति होगी, तभी सफलता सही और स्थायी होगी तथा जीवन सुंदर होगा।

तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के पांचवें सोपान का नाम सुंदरकांड रखा है। इसमें हनुमानजी की सफलताओं के प्रसंग हैं। इसके आरंभ के श्लोक का पहला शब्द ही शांति को समर्पित है- शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं.. शांत, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप, परम शांति देने वाले श्रीराम की वंदना इन पंक्तियों में की गई है।

जीवन सुंदर तब ही है, जब सफलता के साथ शांति हो। सुंदरकांड में हनुमानजी ने तीन बड़ी सफलताएं एक साथ अर्जित की थीं। सीताजी को संदेश दिया था, विभीषण के हृदय में श्रीराम का स्वभाव स्थापित किया और रावण के मन में प्रभाव।

जीवन में व्यर्थ हटा दें तो सार्थक स्वत: बाहर आएगा
धर्म निश्चय से होता है, व्यवहार से नहीं। यह दार्शनिक वाक्य धर्म व अध्यात्म के बीच सेतु की तरह है। इन दिनों धर्म की स्थिति भ्रम और विवाद जैसी बना दी गई है। खासतौर पर नई पीढ़ी के लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि किस तरह धार्मिक हुआ जाए। दिगंबर जैन समाज के सद्गुरु कानजी स्वामी ने कहा था -‘धर्म निश्चय से होता है’ अर्थात केवल कर्मकांड, पूजा-पाठ से दिव्य स्थिति उपलब्ध नहीं होगी। अध्यात्म एक स्वभाव है, इसे जीना पड़ता है। उन्होंने एक जगह कहा था कि जीवन में कोई भी कार्य करना हो तो दो बातें होती हैं - पहला निमित्त और दूसरा उपादान। इसमें उपादान महत्वपूर्ण है। जैसे किसी स्त्री ने रोटियां बनाईं। इसमें स्त्री, बर्तन व रोटी तो निमित्त होंगे, लेकिन उपादान होगा आटा।

जिंदगी के प्रति जिस दिन ऐसा नजरिया आएगा, कार्य में निष्कामता स्वत: आ जाएगी और परिणामस्वरूप सफलता के साथ शांति भी आएगी। जीवन में बहुत-सी चीजें क्रमबद्ध घटती हैं। कानजी स्वामी एक जगह कहते हैं - घटनाओं का तयशुदा क्रम परिवर्तित नहीं होता। इसीलिए पुरुषार्थ पूरा किया जाए एवं फल को साक्षी भाव से देखा जाए। जीवन में जो तय है, वह अपने आप प्रकट होगा। जैसे कुआं खोदते समय पानी को कहीं और से नहीं लाना पड़ता, वह तो मौजूद रहता ही है। सिर्फ आसपास के मिट्टी, कंकर-पत्थर हटा दिए जाएं तो पानी स्वत: निकल आएगा। जिंदगी में व्यर्थ हटा दें तो सार्थक अपने आप बाहर आता है।

जब तक भीतर वैराग्य नहीं होगा साहस नहीं जागेगा
भौतिक चीजों के असली-नकली होने के मापदंड स्थूल होते हैं। थोड़ी अक्ल हो तो हम पहचान सकते हैं, कौन-सी चीज सही है और कौन-सी गलत। लेकिन जब जीवन के गुणों और दुगरुणों की बात आती है और उसमें असली-नकली की पहचान करनी हो तो झंझट शुरू हो जाती है। संसार के काम करते हुए त्याग और वैराग्य लाना कठिन हो जाता है, जबकि शांति के लिए दोनों जरूरी हैं।

वैराग्य का सामान्यतया अर्थ गलत लगा लिया जाता है। आदमी तभी त्याग कर सकता है, जब उसके भीतर वैराग्य जागा हो। वरना त्याग भी एक तरह का सौदा बन जाएगा। वैराग्य का यह अर्थ नहीं होता कि चीजों को छोड़ दें, बल्कि इसका सही अर्थ यह होगा कि उन्हीं चीजों का सदुपयोग दूसरों के हित में होता रहे। जितना हम दूसरों को सही लाभ पहुंचा सकेंगे, उतना ही हमारे वैराग्य और त्याग का मतलब सही होगा। इसलिए कहते हैं अपने भीतर थोड़ी वैराग्य की वृत्ति होनी जरूरी है।

बिना वैराग्य जागे हम अपने भीतर का जो भी रूपांतरण करना चाहेंगे, वह नकली होगा। असली सद्गुण अपनाने के लिए साहस की जरूरत होती है। जब तक भीतर वैराग्य नहीं होता, साहस नहीं जागेगा। वैराग्य का अर्थ है छोड़ने की शक्ति। पकड़ने की चाह भय पैदा करती है और छोड़ने की इच्छा ताकत देती है। यदि वैराग्य भीतर है तो अहंकार छोड़ने का साहस आसान होगा। यह आध्यात्मिक समीकरण हम अपने हर सद्गुण और दुगरुण के साथ लगा सकते हैं।

हमारा हर कृत्य हमारी भगवत्ता को स्पर्श करे
हर तरह से बलशाली बनने के इस समय में बाहुबल, धनबल, जनबल को भौतिक तौर-तरीकों से पाया जा सकता है। यह बहुत कठिन काम नहीं होता। यह सब तो रावण के पास भी था, क्योंकि उसने अर्जित किया था। लेकिन आत्मबल की कमी उसमें भी थी और आज भी कई लोगों में रहती है। लगातार प्रयास करते रहिए कि बाहर से सब तरह से सक्षम होने के साथ हम आत्मबली भी हों। इसकी शुरुआत आत्मज्ञान से होती है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना। अपने को जानने की पहली सीढ़ी है कि हम यह जानें कि हमारे भीतर और कौन रहता है? जैसे ही इस सवाल के जवाब में हम गहरे उतरेंगे, हमें अनुभूति होगी कि हमारे भीतर परमात्मा रहता है।

हमारे भीतर रहकर ईश्वर ने हमें अपने जैसा बनाया है, लेकिन संभावना छोड़ दी है कि हम पहचानें या न पहचानें। हम भगवान की शानदार कृति हैं और वे हमारे भीतर बसे हैं। इस अनुभव को बढ़ाने के लिए एक प्रयोग करें। जब भी हम कोई काम करें, इस बात का दबाव स्वयं पर बनाएं कि हमारा हर कृत्य हमारी भगवत्ता को जरूर स्पर्श करे। फिर विचार करें कि परमात्मा अनुचित नहीं करता। चूंकि हम उससे कट गए हैं, इसलिए जीवन में गलत शुरू हो गया है। जैसे ही हम उससे जुड़ेंगे, अनुचित उचित में बदलने लगेगा। भगवान से जुड़ना ही आत्मबल है। कोई है जो हमसे सीधे-सीधे जुड़ा है। भीतर से उनका साथ होना बाहर हमारे व्यक्तित्व को ओज और तेजमय बना देगा।

स्वयं को उन्नत करने वालों को मिलती है शांति
दुनियाभर में उन्नति का बड़ा शोर है। निजी, परिवार, समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए बड़े-बड़े अभियान चल रहे हैं। हमें इन सभी क्षेत्रों में अपना योगदान देना चाहिए। लेकिन इसी के साथ लगातार आत्म-उन्नति के लिए अत्यधिक सजग और सक्रिय होना पड़ेगा।

इसके लिए स्वाध्याय जरूरी है यानी स्वयं का अध्ययन। यह दो तरीके से हो सकता है। पहला, हम खुद इस काम को करें, अपने को देखते रहें। दूसरा, हमारे पास कुछ ऐसे लोग होने चाहिए जो दूर से हमें देखकर समझाते रहें।

ये माता-पिता, जीवनसाथी, मित्र, गुरु के रूप में हो सकते हैं। मानसिक उन्नति में इन लोगों का योगदान इसलिए अधिक होता है कि यह हमारे अंतरतल को स्पर्श कर सकते हैं। जो लोग मानसिक रूप से उन्नत और स्वस्थ होते हैं, उनके लिए जीवन में सुख और दुख के अर्थ बदल जाते हैं।

शांति और सुख दो अलग-अलग बातें हैं। शांति का मतलब सुख नहीं लगाना चाहिए। सुख अपने आप में एक झंझट हो सकता है। दुख तो परेशान करता ही है, सुख भी जीवन में उठापटक लेकर आता है। सुख और दुख दोनों की अपनी प्रचंडता होती है। लिहाजा संतोष दोनों में ही गायब हो जाता है।

दुख में संघर्ष है तो सुख की खींचातानी भी कम नहीं है। कुल मिलाकर दोनों ही विश्राम रहित हैं। यदि इन दोनों स्थितियों में निढाल होने से बचना है तो शांति ढूंढ़नी पड़ेगी और शांति उन्हें ही मिलेगी, जो मानसिक रूप से अपने आप को उन्नत कर लेंगे।

सुखद भविष्य के लिए बड़े-बूढ़ों का मान जरूरी
कोई भी वृक्ष कभी अपने बीज से बड़ा नहीं हो सकता। माता-पिता हमारे बीज, हमारी जड़ हैं। इसलिए जो जड़ से जुड़ा रहेगा, वह सूखेगा नहीं। माता-पिता में समूचे समाज की वृद्धावस्था विराजित है। समाज और राष्ट्र में बड़े-बूढ़ों का मान सबके सुखद भविष्य के लिए आवश्यक है। तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के पंचम सोपान सुंदरकांड की पहली चौपाई का पहला शब्द जामवंत है। जामवंत श्रीराम की सेना के सबसे वरिष्ठ और वृद्ध सदस्य थे। सुंदरकांड की पहली पंक्ति अपने प्रथम शब्द के साथ समाज की वृद्धावस्था को समर्पित है - जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए। जामवंत के वचन हनुमानजी के हृदय को बहुत भाए। सुंदरकांड हनुमानजी की सफलता की यात्रा है।

हनुमानजी ने अपने लंका अभियान के आरंभ में समाज के वृद्ध जामवंत को प्रणाम किया और चल दिए। हनुमानजी संदेश दे रहे हैं कि जीवन में जब भी कोई कार्य करने जाएं, समाज के बड़े-बूढ़ों को प्रणाम करें। माता-पिता को मान दें। उनके अनुभव और आशीर्वाद हमारे अभियान को सफल करेंगे। आगे की पंक्ति में लिखा गया है - यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा। मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है सबको मस्तक नवाकर। हनुमानजी ने सबको प्रणाम किया तथा प्रसन्नचित्त होकर चल दिए। उन्होंने समझाया कि किसी भी अभियान में तीन बातें ध्यान में रखें - विनम्रता, परमात्मा का स्मरण व प्रसन्नता।

योजना बनाते समय चिंतन व चरित्र का समन्वय जरूरी
यह सही है कि कर्म हम ही करते हैं, लेकिन उसके परिणाम तक आते-आते अन्य कुछ बातों का योगदान उसमें हो जाता है। इसलिए परिणाम के सौ प्रतिशत भाग को तीन भागों में बांटा जाए। पचास प्रतिशत जिम्मेदार हम स्वयं रहेंगे।

पच्चीस प्रतिशत भाग दूसरे व्यक्ति या हालात होंगे और शेष पच्चीस प्रतिशत में भाग्य और प्रारब्ध की भूमिका भी होगी। हमारे काम करने का तरीका और दृष्टिकोण परिणाम के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। यदि हम अपने हिस्से को और अधिक प्रभावशाली बनाना चाहते हैं तो एक काम करें कि हर कार्य की योजना बनाते समय चिंतन और चरित्र का समन्वय बनाए रखें।

इससे भीतरी विरोधाभास समाप्त होगा तथा बाहर आत्मविश्वास जागेगा। यदि हम अपनी भूमिका वाले 50 प्रतिशत हिस्से पर ठीक से काम नहीं करेंगे तो भ्रम में पड़ेंगे और हठी भी हो जाएंगे। अपने निर्णय और विचार दूसरों पर थोपने की अजीब-सी जिद हमारे भीतर आ जाएगी।

जो हमने सोचा व कहा वही सही है, यह दुराग्रह हमें अच्छे लोगों से दूर कर देगा। जीवन हर बार एक अति पर टिका दिया जाता है। ऐसा व्यक्तित्व फिर घोषणा करने लगता है कि या तो कोई हमारा मित्र है और यदि मित्र नहीं है तो फिर शत्रु है।

जबकि जरूरी नहीं है कि जो हमारा मित्र न हो, उसे शत्रु बना लिया जाए। इसी कारण कार्य के परिणाम में हमारी भूमिका गड़बड़ा जाती है और दोष हम दूसरे व्यक्ति, परिस्थिति, भाग्य और प्रारब्ध को देने लगते हैं।

स्नान से देह, दान से धन व ध्यान से मन शुद्ध होता है
अपनी असफलता या सफलता की दूसरों की सफलता-असफलता से तुलना करने में बुराई नहीं है। एक स्वस्थ विश्लेषण करना अहंकार से बचने का आसान तरीका हो सकता है। पूरी ईमानदारी और पूर्वग्रह से मुक्त होकर दूसरों की अच्छाई को देखें और समझें। फिर लगातार विचार करें कि ऐसी अच्छाई अपने भीतर है या नहीं और यदि नहीं है तो किन प्रयासों से ये खूबियां हमारे भीतर उतर सकती हैं। भक्ति का एक लक्षण यह भी है कि दूसरों की अच्छाइयों को आत्मसात करें। जो सच्चे भक्त हैं, वे इस मामले में बहुत सदाशय होते हैं।

भक्ति में कथा-सत्संग का महत्व ही इसलिए है कि वहां जाकर हम अच्छाइयों को स्वीकार करते हैं और ग्रहण भी। कथा के लिए कहा जाता है कि वहां जाकर सुनते हुए दो बातें होनी चाहिए - देह की विस्मृति और दोष का भान। इन दोनों के बिना हम अच्छे विचार, आचरण अपने भीतर उतार ही नहीं पाएंगे। हम स्वस्थ तब ही होते हैं, जब शरीर को भूले हुए रहते हैं। शरीर की विस्मृति और मन का अभाव हमें आत्मा की अनुभूति कराता है। यहीं से हम थोड़े हल्के होंगे, हमारी ग्राह्यता बढ़ेगी। अच्छी बातें स्वीकार करने में शरीर और मन जो बाधा पहुंचाते हैं, वह दूर होगी। इसके लिए नियमित प्राणायाम-ध्यान बड़े काम के हैं। जिसके पास जितना समय हो, उस हिसाब से योग करें, लेकिन करें जरूर। देह की शुद्धि स्नान से, धन की शुद्धि दान से और मन की शुद्धि ध्यान से हो ही जाती है।

जीवन में निराशा आए तो सड़े-गले विचारों को त्यागें

अनेक तरह से बलशाली लोग भी मानसिक दुर्बलता के शिकार पाए जाते हैं। हमारे संत-महात्माओं ने तो मानसिक बल पर खूब जोर दिया है और काम भी किया है। जब भी जीवन में निराशा आए, अपने पुराने सड़े-गले विचारों को त्यागें।

विचार भी लगातार बने रहने से बासी हो जाते हैं, इन्हें भी मांजना पड़ता है, इनकी भी साफ-सफाई करनी पड़ती है। कुछ समय स्वयं को विचारशून्य रखना भी विचारों की साफ-सफाई है। यह शून्यता गलत विचारों को गलाती है।

इसके बाद आने वाले विचार दिव्य और स्पष्ट होंगे। विचारशून्य होने की स्थिति का नाम ध्यान है। कुछ समय अपने ऊपर, अपने ही द्वारा, अपने विचारों के आक्रमण को रोकिए। कुछ लोग काफी समय ध्यान की विधि ढूंढ़ने में लगा देते हैं।

कौन-सी विधि से ध्यान करें, इसमें ही उनके जीवन का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। थोड़ा समझें कि ध्यान की कोई विधि नहीं होती। ध्यान में जो बाधाएं आती हैं, उन बाधाओं को हटाने-मिटाने की विधियां जरूर होती हैं।

ध्यान एक ऐसा होश है, जो अपनी शून्यता से विचारों को धो देता है। ताजे और प्रगतिशील विचार रोम-रोम में समाते हैं और उनके नियमित उपयोग की कला भी आ जाती है। हर विधि एक रास्ता है, पर बाधा को हटाने के लिए उसे ही ध्यान मान लेना गलत होगा।

मानसिक दुर्बलता से मुक्ति पाने के लिए कोई न कोई ऐसा मार्ग पकड़ लें, जो आपको ठीक लगे। ध्यान का स्वाद स्वयं आ जाएगा।

हम सब परमात्मा के अधरों की बंसी बन जाएं
कार्य की सफलता के लिए दृढ़ निश्चय जरूरी है। इस निश्चय में निश्छलता और जोड़ देना चाहिए। यानी हम कार्य को पूरा करने के लिए जितने अनुशासित रहेंगे, उतने ही विनम्र भी होंगे। निश्चय यानी अपने ही प्रति अनुशासन हेतु कठोर होना और निश्छल यानी दूसरों के मामले में कुटिल भावना न रखना।

अपने द्वारा बनाए नियमों का अपने ही द्वारा पालन करना आसान नहीं है। अपने अनुशासन का पालन करने के लिए हमें सतत स्वयं के गुण-दोषों की पहचान और आकलन करना होगा। इसके लिए एक सरल तरीका है, सत्संग करते रहना।

जीवन का जो भी श्रेष्ठ होता है, वह सत्संग में उस समय उतर रहा होता है। लिहाजा कोई चूक न हो जाए, इसलिए आत्म अनुशासन काम आता है। अपने व्यक्तित्व में दृढ़ता लाने के लिए सत्संग के माध्यम से महान हस्तियों की जीवन शैली को ऐसे सुना जाए, जैसे पहले उन लोगों ने जीवन जिया है।

चाहे राम हों या कृष्ण, जीसस हों या महावीर अथवा बुद्ध, इन सबका जीवन बिल्कुल ऐसा था जैसे बांसुरी। बंसी अपनी आकृति और कृति से एक बड़ा सुंदर संदेश देती है। उसके पेट में कुछ नहीं होता। जैसी फूंक मारी गई और उंगलियां चलाई गईं, वह मधुर संगीत संसार में फेंक देती है।

इसी प्रकार हम सब परमात्मा के अधरों की बंसी बन जाएं। स्वर हमारा होगा, क्रिया उसकी होगी। यही आत्म अनुशासन का एक स्वरूप है। इस अनुभूति में हम दृढ़ भी होंगे और निश्छल भी।

परमात्मा से जुड़े रहने के लिए जरूरी है प्रार्थना
हमारे कर्मकांड में प्रार्थना एक महत्वपूर्ण पक्ष है। बहुत बारीकी से देखें तो प्रार्थना कर्मकांड है भी और नहीं भी। या यूं कहें कि इसकी शुरुआत कर्मकांड से होती है और समापन भक्ति पर जाकर होता है। जब हम अपने व्यावसायिक जीवन को अध्यात्म से जोड़ना चाहें तो प्रार्थना एक सेतु का काम करेगी। परमात्मा से जुड़े रहने के लिए प्रार्थना का सहारा लेना चाहिए। जीवन में कोई भी काम करें, भगवान की हिस्सेदारी, साझेदारी बनाए रखिएगा।

पं. श्रीराम शर्मा ने एक सुंदर शब्द दिया है - ईश्वरीय साझेदारी। वे कहा करते थे कि परमात्मा यदि हमारे जीवन व्यापार में घुल जाए तो लोहे का-सा काला-कुरूप जीवन पारस स्पर्श से बने स्वर्ण की भांति साकार हो जाएगा। हर मनुष्य में कुछ कमियां या अधूरापन रहता है। परमात्मा की साझेदारी से यह दूर होगा। इसका सीधा-सा अर्थ है जीवन के हर निर्णय में भगवान की उपस्थिति। उसकी मौजूदगी हर खालीपन के लिए एक भराव बन जाएगी। पूरा जीवन एक व्यवसाय है। जैसे ही हम भगवान को पार्टनर बनाएंगे, हमारे नफे-नुकसान, सफलता-असफलता में भी वे साझेदार होंगे और इनके अर्थ बदल जाएंगे।

हमारे भीतर का अज्ञान, अशक्ति और अभाव, ये तीनों संकट इस साझेदारी से दूर होंगे। यह हिस्सेदारी बनी रहे, इसके लिए प्रार्थना जरूर करिए। परमात्मा को याद करके जिन क्षणों में आंखों में आंसू आ जाएं, समझ लें प्रार्थना हो रही है और परमात्मा मौजूद है, जीवन में अपनी साझेदारी के साथ।

हनुमानजी से सीखें कार्य की पूर्व प्लानिंग कैसे करें
योजना जितनी स्पष्ट व पूर्व नियोजित होगी, परिणाम उतने ही सफलतादायी रहेंगे। आइए, किसी कार्य से पूर्व प्लानिंग कैसे की जाए, हनुमानजी से सीखें।

सुंदरकांड में जब वे सीताजी की खोज के लिए लंका की ओर उड़ने की तैयारी कर रहे थे, तब तुलसीदासजी ने लिखा- सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।। बार बार रघुबीर संभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।। समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था।

हनुमानजी कूदकर उस पर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके उस पर से बड़े वेग से उछले। यहां एक शब्द आया है कौतुक यानी खेल-खेल। हनुमानजी जा तो रहे थे युद्धभूमि में, लेकिन वृत्ति थी खेल की। हनुमानजी कहते हैं कि जिंदगी को खेल की तरह लिया जाए।

खेल में भी एक हारेगा, दूसरा जीतेगा। हारने वाला खिलाड़ी जानता है कि एक दिन फिर जीतने का मौका मिलेगा। इसलिए योजना व्यवस्थित रखी जाए, उसके बाद काम किया जाए। दृढ़ आधार का एक और अर्थ है कि जिंदगी की इमारत की नींव बचपन होती है।

जिसका बचपन सुलझा हुआ है, उसकी जवानी फिर नहीं लड़खड़ाएगी। आगे लिखा है- बार-बार। हनुमानजी ने श्रीरामजी को बार-बार याद किया। भक्त का जीवन सांप-सीढ़ी के खेल की तरह होता है।

भक्ति करते हुए कभी बहुत अच्छा लगता है तो दुगरुण के थपेड़ों से अचानक पतन भी हो जाता है। इसलिए हनुमानजी सिखाते हैं कि परमात्मा से जुड़ाव की निरंतरता बनाए रखें।

अहंकार का अंधकार समझ रूपी दीए से हटेगा
अच्छी बातें जहां कहीं भी मिलें, स्वीकार करके अपने भीतर उतारनी चाहिए। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाए कि अच्छाई और शांति हमारे भीतर से फिर बाहर निकले और समूचे समाज में फैले। यह जब दो-तरफा होगा, तभी इसके परिणाम सही मिलेंगे।

स्वामी अवधेशानंद गिरिजी एक जगह कहते हैं- प्रत्येक व्यक्ति इस तरह का जीवन जी रहा है कि उसकी जिंदगी कई हिस्सों में बंट जाती है- भौतिक शरीर, मन, बुद्धि। और इन सबके अलावा एक आध्यात्मिक पक्ष है भगवान।

इन स्तरों पर हम अपने आप को बिखरा हुआ महसूस करते हैं, जबकि इनमें तालमेल होना चाहिए। हम सही तरीके से पूरे व्यक्तित्व के रूप में संगठित नहीं हो पाते। इसका एक कारण यह है कि हम अपने आध्यात्मिक पक्ष से ठीक से परिचित नहीं हो पाते।

यदि अपने व्यक्तित्व को संपूर्ण बनाना है तो अपने आध्यात्मिक पक्ष को विकसित करना पड़ेगा और उससे परिचित होना होगा। इसमें एक बाधा है अहंकार। अहंकार हमें तोड़ता है, जोड़ता नहीं। अहंकार को मिटाने से अच्छा है इसे समझा जाए।

बिना इसे समझे यह मिटेगा नहीं। अहंकार के अंधकार को हटाने के लिए समझ एक दीए का काम करेगी। अहंकार हटा और हमें अपने भीतर उतरने में सुविधा हुई। भीतर उतरते ही हमारा सबसे पहला जुड़ाव परमात्मा से होगा।

प्रभु में प्रेम है, प्रकाश है, शांति है, आनंद है और चेतन है। यही सब हमारे भीतर आएगा और हमारे व्यक्तित्व के टूटे हुए हिस्से फिर जुड़ जाएंगे।

स्वर्ग पाने के लिए गुरु व संत का महत्व समझना होगा

सभी चाहते हैं कि स्वर्ग मिल जाए या स्वर्ग जैसी स्थितियों का समावेश जिंदगी में हो जाए। दार्शनिकों ने कहा है- जिस ढंग का जीवन हम जीते हैं, उसी ढंग से स्वर्ग और नर्क अपने आसपास निर्मित कर लेते हैं।

एक संत हुए हैं सुंदरदासजी। एक जगह इन्होंने लिखा है - सुंदर सतगुरु आपनैं किया अनुग्रह आई। मोह-निसा में सोवते हमको लिया जगाई।। सुंदरदासजी ने गुरु के महत्व पर बहुत सुंदर लिखा है। जो स्वर्ग की खोज में हों, उन्हें जीवन में गुरु और संत का महत्व समझना चाहिए।

जितनी देर हम संतों के साथ बैठेंगे, समझ लीजिए स्वर्ग के निकट हैं या स्वर्ग में ही हैं। संत के तीन रूप माने गए हैं- पहला तो वे सूरज हैं, जो सोए हैं उन्हें जगाते हैं।

दूसरा, वे पवन की भांति हैं, सोए हुए को हिलाने के लिए हवा की भूमिका में रहते हैं और यदि आदमी तब भी न उठे तो संत पंछी की तरह शोर करेंगे कि अब तो उठ जाओ। सूर्य, पवन और पंछी तीनों का कोई स्थायी ठिकाना नहीं होता।

जो विस्मरण में पड़े हैं, ये उनके भीतर स्मरण कराते हैं। संत के सान्निध्य में समझ में आ जाता है कि स्वर्ग का अर्थ है- परिष्कृत, गुणग्राही, हर शुभ का स्वीकार। फकीर की फकीरी हमें यही समझाती है। जहां आप सहमत होना सीखें, वहीं स्वर्ग घटा है।

सुंदरदासजी की घोषणा है कि जीवन सुंदर तब है, जब सबकुछ स्वीकार्य है और उसी के साथ शांति भी जीवन में उतर जाए। इसलिए स्वर्ग प्राप्ति के लिए संतों का सान्निध्य बनाए रखें।

गुरु का चुनाव सच्चाई के आधार पर करना होगा
पूजा-पाठ में जोर-जबर्दस्ती न की जाए। हमारा स्वभाव सहज प्रभाव के साथ पूजा में बहना चाहिए। इस भाव को समझने के लिए जीवन में गुरु की जरूरत पड़ती है।

लोग गुरु भी अपनी सुविधा से चुनते हैं। जो हमारी मानसिकता की दृष्टि से सुविधाजनक लगे, हम उसको गुरु बना लेते हैं। जैन मुनि प्रज्ञासागरजी कहते हैं कि गुरु स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं, परमार्थ सिद्धि के लिए होना चाहिए।

गुरु भोगलिप्सा के लिए नहीं, योग शिक्षा के लिए बनाया जाता है। जो परमार्थ के लिए दीक्षा और योग की शिक्षा देता है, वही सच्चा गुरु होता है। गुरु का चुनाव अच्छाई के नहीं, सच्चई के आधार पर करना होगा और एक बार जिसे गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया, उसे जीवनभर निभाना होगा।

सर्वप्रथम गुरु के गुणों का आपको ज्ञान होना चाहिए। उनकी सादगी, सरलता अथवा गंभीरता को गुण मान लें या उनकी प्रखर प्रवचन शैली, वाक्पटुता या मधुर व्यवहार को गुण मानें। परंतु यह सभी बातें गुरु के पर्याप्त गुण नहीं हैं।

ये गुण तो गृहस्थ जीवन जीने वाले लोगों में भी पाए जाते हैं, पर सच्चे गुरु और गृहस्थ में यह फर्क है कि गुरु संन्यासी, मुनि के रूप में यह समझा लेता है कि सबकुछ परमात्मा के भरोसे छोड़ दो। वह ईश्वर जैसा करवाएगा, वैसा ही करेंगे।

हमारे जीवन का पूर्ण निर्णायक वह परमशक्ति है। यह ऋषिभाव गुरु अपने शिष्यों में प्रवेश करा देते हैं। इसलिए गुरु जीवन में आवश्यक हो जाता है।

जब भय सताए तो व्यस्त हो जाएं, संगीत सुनें या सो जाएं
हम जो भी काम करें, उसके पीछे क्या है सदैव इस बात का मूल्यांकन जरूर करें। हमारे काम के पीछे शरीर कितना है, बुद्धि कितनी है और हृदय कितना है, इन तीनों का आकलन जितना सही होगा, उतना ही किए हुए का आनंद हम अधिक उठा पाएंगे।

श्रीश्री रविशंकर कहते हैं कि कार्य के परिणाम को लेकर यदि हम ज्वरग्रस्त हैं तो स्वस्थ होने के लिए कुछ इस प्रकार करिए। पहला काम तो अपने भीतर आत्मविश्वास जगाएं कि जो भी परिणाम होगा, वह कल्याणकारी होगा।

यह भाव आते ही हम कर्मबंधन और उपलब्धियों की आकांक्षा से थोड़ा मुक्त हो जाएंगे। परिणाम के प्रति कुछ लोग बीमार जैसे हो जाते हैं। खासतौर पर विद्यार्थी अपने परीक्षा परिणाम से भयभीत हो किसी भी हद तक जा सकते हैं। कुछ तो आत्महत्या कर बैठते हैं।

परिणाम के प्रति अत्यधिक चिंताग्रस्त, भयग्रस्त होने से बचने के लिए कुछ और काम किए जा सकते हैं। जैसे कहीं और व्यस्त हो जाएं, संगीत सुनें, कुछ न हो तो सो जाएं। स्नान करना भी इससे मुक्त होने का तरीका है।

परिणाम के प्रति भय सताए तो जो काम कर रहे हों, पूरी तरह उसमें डूब जाएं। इससे हमारी सृजन शक्तिबढ़ेगी और परिणाम को लेकर स्मरण शक्ति घटेगी। जीवन को खेल की तरह लें, युद्ध की तरह नहीं। महसूस करिए जिंदगी में कुछ चीजें होती ही हैं और होकर रहती हैं।

आपका वश एक सीमा तक ही चलेगा। ऐसे समय अपनी क्रिया को शरीर, बुद्धि और हृदय के संतुलन के साथ करें।

बुद्धिमान राजा ने दूरदर्शिता से बचाए अपने प्राण
एक देश में एक अजीब-सी प्रथा थी। हर दस वर्ष बाद नए राजा का चुनाव होता था। दस वर्ष पश्चात उस पुराने राजा को एक ऐसे निर्जन द्वीप में बलपूर्वक भेज दिया जाता था, जहां भोजन, पानी आदि का नितांत अभाव होता था। आदमी वहां जाकर बिना पानी और भोजन के तड़प-तड़पकर मर जाता था।

वर्षो से यह प्रथा वहां चली आ रही थी, जिसके कारण अनेक राजा इतनी पीड़ादायक मृत्यु के भागी बने। यदि वे दस वर्ष पश्चात उस द्वीप में न जाने का आग्रह करते तो देशवासी अपशकुन के भय से उनकी बात नहीं मानते और उन्हें जबर्दस्ती वहां भेज दिया जाता। एक बार एक बुद्धिमान व्यक्ति राजा के रूप में चुना गया।

उसने दूरदर्शिता से काम लेते हुए विचार किया कि दस वर्ष बाद उसे भी इसी प्रकार न मरना पड़े, इसके लिए क्यों न आज से ही उस द्वीप का चहुंमुखी विकास किया जाए। वहां पानी की व्यवस्था कर खेती करवाई जाए, ताकि न जल संकट रहे और न अन्न की कमी। उसने तत्काल द्वीप में कुएं, तालाब, बावड़ियां बनवाईं और फिर खेती आरंभ करवा दी।

थोड़े ही समय में द्वीप हरा-भरा और आबाद दिखने लगा। जब दस वर्ष बाद उसे प्रथानुसार द्वीप पर जाना पड़ा, तो उसे कोई समस्या नहीं हुई क्योंकि द्वीप अब पूर्ण विकसित रूप ले चुका था। इस प्रकार उसकी जान बच गई और भविष्य के राजाओं के प्राण भी सुरक्षित हो गए। सार यह है कि दूरदर्शिता से बड़े से बड़ा संकट भी टल जाता है। समस्या कैसी भी हो, उसके विषय में सांगोपांग विचार कर ही निर्णय लेना चाहिए।

हनुमानजी सिखाते हैं अपने लक्ष्य को न भूलें
अत्यधिक सक्रियता के इस युग में विश्राम का अपना महत्व है। लेकिन यदि ठीक से न समझा जाए तो विश्राम आलस्य में बदल जाता है और आलस्य अपराध है। सुंदरकांड में हनुमानजी जब लंका की ओर उड़ चले तो मार्ग में उनके समक्ष पहली बाधा मैनाक पर्वत के रूप में आई थी।

बीच समुद्र में यह सोने का पर्वत प्रकट हुआ और उसने हनुमानजी से कहा - आप थक गए होंगे, मेरे ऊपर विश्राम कर लीजिए। उस समय हनुमानजी ने उस पर्वत को उत्तर दिया - हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम।। हनुमानजी ने उसे हाथ से छुआ, फिर प्रणाम करके कहा - भाई! श्रीरामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहां? यहां एक बड़ी सीख हनुमानजी हमें यह दे रहे हैं कि मैनाक पर्वत का अर्थ है सुख-सुविधा, भोग-विलास।

जब आप अपने कर्म की यात्रा पर निकलते हैं तो पहली बाधा यही आती है। हनुमानजी ने उसे धन्यवाद दिया और कहा - मैं आपके ऊपर विश्राम नहीं कर सकता क्योंकि मुझे मेरा लक्ष्य याद है और वह है राम काज। उन्होंने हमें बताया है कि सुख-सुविधाओं का जीवन में उपयोग करना चाहिए, लेकिन उन्हीं पर टिक जाएं, यह ठीक नहीं। आज के समय में सुख-सुविधाएं अथवा विलासिता की वस्तुएं मैनाक पर्वत के समान हैं। इनका सीमित उपयोग करें, लेकिन अपने लक्ष्य को न भूलें। हनुमानजी सिखाते हैं कि अपने लक्ष्य पर सदैव आगे बढ़ते रहना चाहिए।

अपने मस्तिष्क को किसी भी बदलाव के लिए तैयार रखें
संसार चक्र तेजी से घूमता है। इस बदलाव को समझते हुए हमें अपनी मानसिक स्थिति से इसे जोड़े रखना चाहिए। आज जो हमारी प्रतिष्ठा है, धन की स्थिति है, जरूरी नहीं कि वह कल भी रहे। कब स्थिति बदल जाए, पता नहीं।

जब बदलाव आता है और यदि वह अनुकूल हो तो अहंकार पैदा हो सकता है और प्रतिकूल हो तो अवसाद को जन्म देता है। इसलिए अपने मस्तिष्क को बदलाव से तालमेल बनाने के लिए तैयार रखें। दो चीजें बड़े काम आएंगी- एक तो हमारी मानसिकता विपरीत परिस्थिति में हल निकालने वाली हो और दूसरी तालमेल बैठाने वाली।

हमारे भीतर की फकीरी को इन दोनों स्थितियों से जोड़े रखने पर हम कभी भी निराश नहीं होंगे। जिनके पास बहुत अधिक धन होता है, जो इसका पर्याप्त भोग कर चुके होते हैं, ऐसे लोग भी फकीर बनते देखे गए हैं।

गौतम बुद्ध के साथ यही हुआ था। उन्होंने जीवन के एक पक्ष को वैभव के साथ देखा था और उसके बाद त्याग के चरम को छुआ। कबीर के साथ उल्टा था। उन्होंने कभी वैभव नहीं देखा, पर वैसी ही फकीरी अभाव में घट गई। जिसको जीवन में सब मिल जाता है, उसकी तृप्ति भी उसे वैराग्य की ओर ले जाती है।

इसलिए जब वक्त बदले, हमारे पास सबकुछ हो तो भी वैराग्य की संभावनाओं को बचाए रखें और जब कुछ भी न हो, तब भी फकीरी को घटाने की तैयारी रखें। संतोषभरा यह संतुलन परिस्थितियों में जीवन के अर्थ बदल देगा।

अपने विचारों और कार्यो में संतुलन बनाए रखें
कार्य का विचार से गहरा संबंध है। जो हम सोच रहे हैं और जो कर रहे हैं, इनकी गति यदि आगे-पीछे हो जाए तो परिणाम पर फर्क पड़ेगा। श्रम और शक्ति दोनों बेकार होने लगती है। इसलिए विचार और कार्य संतुलित रखें।

एक समय में एक काम हाथ में लें, पूरी तीव्रता से विचार उसमें जुड़े रहें। जो लोग ऐसा नहीं करते, उनके कुछ काम अधूरे रह जाते हैं और जो पूरे होते हैं, वे भी बेहतर नहीं। एक प्रयोग लगातार करते रहें, किसी भी अभियान से जुड़ें, अपने वंश और संस्कारों को न भूलें। जितना आप संस्कार से जुड़ेंगे, उतने उच्च भाव आपके भीतर आएंगे।

अच्छे विचार कर्म को हल्का करते हैं, उससे हमारा जुड़ाव सही बना देते हैं। विचारों की स्पष्टता का एक अच्छा उदाहरण कबीरदासजी हैं। उन्हें जब-जब भी आप पढ़ें, लगेगा कि ये कौन-सी उल्टी बात लिख दी, लेकिन गहराई में जाएं तो उससे सीधी बात कोई नजर नहीं आएगी।

जिंदगी में भी कई स्थितियां ऊपर से ऐसी ही दिखती हैं और यदि हम अपनी समझ को सतही रखेंगे तो असली अर्थ पकड़ नहीं पाएंगे। कबीर लिखते हैं- एक अचंभा मैंने देखा नदिया लागी आग।

यह सुनकर लगता है यह कैसे मुमकिन है, लेकिन कबीर यह कहना चाहते हैं कि जीवन उस विरोधाभास का नाम है, जहां ऐसा हो जाता है जो नहीं होना चाहिए। जब हमारे विचार इस तरह की गहरी बातों से जुड़ेंगे और फिर हम कर्म में उतरेंगे तो बहुत सारे रहस्य अपने आप सुलझ जाएंगे।

जीवन में सारे काम अकेले दम पर करना मुश्किल है
जीवन में कई काम दूसरों के सहयोग से ही पूरे होते हैं। मनुष्य यह सोच ले कि सबकुछ मैं ही कर लूंगा तो मुश्किल है। लेकिन जैसे ही जीवन में दूसरे का प्रवेश होता है, हलचल भी शुरू हो जाती है।

आदमी की अपनी सत्ता बड़ी निरंकुश होती है। दूसरा कितना सहयोग देगा या असहयोग करेगा, इससे कभी-कभी भूचाल आ जाता है। फकीरों ने एक शब्द कहा है खुमारी। इसका अर्थ है एक ऐसी स्थिति जहां आप होश में भी हैं और बेहोश भी। जहां दुख भी है और सुख भी। कोशिश करें कि भावनात्मक रूप से दूसरों पर आश्रित न रहें।

व्यावहारिक रूप से सहयोग लें और सहयोग दें। ऐसा बिल्कुल न सोचें कि दूसरे हमारे ही हिसाब से चलेंगे। इस दुनिया में आए हैं तो दूसरों के बिना रहना मुश्किल है। इसलिए थोड़ा समय ध्यान यानी मेडिटेशन करें। ध्यान से खुमारी जागती है।

जब आप खुमारी का मतलब समझ जाएंगे, तब आप स्थितप्रज्ञ जैसे हो जाएंगे। लोगों से जुड़े भी रहेंगे और छिटके हुए भी रहेंगे। यदि आप भक्ति भी करेंगे तो आपके भीतर मीरा का नृत्य भी हो रहा होगा और बाहर महावीर की तरह, गौतम बुद्ध की तरह बिल्कुल शांत भी नजर आएंगे।

आप कृष्ण की तरह छोटी उंगली पर पर्वत भी उठा लेंगे और राम की तरह एक-एक पत्थर को समुद्र में फिंकवाकर सेतु बनाते नजर आएंगे। इसलिए ध्यान की खुमारी २४ घंटे में थोड़ी देर के लिए अपने भीतर जरूर उतारें।

परमात्मा रस है इसकी एक बूंद रोजाना पी जाए
हर पल का सदुपयोग करना समझदारी है, लेकिन हर पल में कामकाज ठूंस देना मूर्खता है। इस समय तो लोग काम को नशा बना चुके हैं। कई लोग कहते हैं कि हम एक क्षण भी खाली नहीं बैठ सकते। समझ लीजिए वे अशांति के ढेर पर बैठने की तैयारी कर रहे हैं।

ईश्वर ने एक क्षमता हमको ऐसी दी है, जिसको हल्का-फुल्का बनाकर जीना चाहिए, वरना क्षमता का दुरुपयोग हो जाएगा। २४ घंटे में कुछ समय निष्काम हो जाएं। अपने आप को खाली छोड़ दें विचारों से व कर्म से। यह खालीपन आगे के भराव के लिए काम आएगा।

हमें नियमित रहने में भी सहयोग देगा। इस खालीपन में एक रसपान करें। भारतीय संस्कृति में रस शब्द का बड़ा सुंदर उपयोग किया है। रसायन शब्द इसी से बना है। शास्त्रों में ईश्वर को ‘रसो वै स:’ कहा है। इसका एक अर्थ है परमात्मा एक रस है। इसकी एक बूंद 24 घंटे में जरूर पी जाए।

रसायन का अर्थ ही यह है कि इसे भीतर उतारा जाए। यह रस दो जगह मिलता है- गुरु के सान्निध्य में और कथा-सत्संग में। ये दोनों स्थान प्याऊ हैं, इस रस के लिए। जीवन भीतर से कई बार प्यासा हो जाता है और बाहर से हम बेचैन रहते हैं।

इस बेचैनी को दूर करने के लिए हम बाहर के तरीके अपनाते हैं। जबकि यह प्यास भीतर बुझ सकती है और उस रस से बुझती है, जिसे दुनिया ने ईश्वर कहा है। इसलिए 24 घंटे खूब काम करें, पर कुछ पल रसपान जरूर करें। इसको पीते ही प्रेम की अनुभूति स्वयं होगी।

पारिवारिक जीवन में सदैव भक्ति बनाए रखें
परिवार में एक-दूसरे के साथ रहने में थोड़ा-सा प्रेमभरा समझौता यदि किया जाए तो आनंद और सुगंध दोनों मिल जाते हैं। बगीचे में हर फूल अपनी महक लिए होता है। उसी प्रकार जब हम परिवार में रहते हैं तो हर सदस्य की अपनी एक सुगंध होती है। जो सुगंध आपको अच्छी लगती है, उस व्यक्ति के पास हम रहना पसंद करते हैं।

यह संगति हमें संतोष देती है। लेकिन यदि इसकी हैंडलिंग ठीक से न की जाए तो यह तनाव भी देती है। परिवार में सहयोग, समझौता और सूझबूझ रिश्तों के मतलब ही बदल देते हैं। एक कुटुंब में न तो केवल पुरुषों से जीवन आएगा और न केवल स्त्रियों से। घर की माता, बहन, पत्नी, पुत्री, बहू, भाभी के रूप में हर औरत एक विशेष सुगंध लिए रहती है। जैसे ही यह किसी पवित्र रिश्ते से जुड़ती है, पूरा जीवन महक उठता है।

परिवारों में साथ-साथ जीने की इच्छा के पीछे ऐसी ही महक काम करती है। इसे पवित्र रखने के लिए हर घर में भक्ति का आचरण बड़ा काम आएगा। जैसे ही परिवार में भक्ति उतरती है, सबसे समानता का व्यवहार होने लगता है। घर में व्यक्तिवादी दृष्टिकोण होना जरूरी है। इसका अर्थ है कि घर के हर व्यक्ति का समान विकास हो। हर एक की स्वतंत्रता मान्य की जाए और उसके निजी व सामाजिक विकास में पूरा परिवार सहयोग करे। परिवार की सामूहिक भक्ति-भावना इस जीवनशैली को प्रेरित व प्रोत्साहित करती है। इसलिए परिवार के जीवन में भक्ति बनाए रखें।

संघर्ष हमें थकाता जरूर है पर सुंदर भी बनाता है
जो लोग सफलता अर्जित करना चाहते हैं, वे अपनी सफलता को सौंदर्य से जरूर जोड़ें। जीवन की सुंदरता का अर्थ है सफलता के साथ शांति। हनुमानजी की सफलता के लिए सुंदरकांड को याद किया जाता है।

श्रीरामचरितमानस के इस पांचवें सोपान को लेकर लोग चर्चा करते हैं कि इसका नाम सुंदरकांड क्यों रखा गया, जबकि मानस के अन्य कांडों के नाम व्यक्ति या स्थितियों के नाम पर रखे गए हैं।

बाललीला का बालकांड, अयोध्या की घटनाओं का अयोध्याकांड, जंगल के जीवन का अरण्यकांड, किष्किंधा राज्य के कारण किष्किंधाकांड, लंका के युद्ध की चर्चा लंका कांड में और जीवन के प्रश्नों का उत्तर फिलॉसफी के साथ उत्तरकांड में दिया गया है। फिर अचानक सुंदरकांड का नाम सुंदर क्यों रखा गया?

दरअसल, लंका त्रिकुटाचल पर्वत पर बसी हुई थी। तीन पर्वत थे- पहला सुबैल, जहां के मैदान में युद्ध हुआ था। दूसरा, नील पर्वत, जहां राक्षसों के महल बसे हुए थे और तीसरे पर्वत का नाम है सुंदर पर्वत, जहां अशोक वाटिका निर्मित थी और यहीं हनुमानजी को पहली बार सीताजी के दर्शन हुए थे। इसलिए इसका नाम सुंदरकांड है।

सुंदरकांड पढ़कर उनके भक्त जान जाते हैं कि जगत का वैभव और जगदीश का ऐश्वर्य एक साथ कैसे प्राप्त होता है। इसी दृष्टि से हमें भी अपनी सफलता की यात्रा को जब भी जरूरत पड़े और अवसर मिले, सुंदरकांड से गुजारते रहना चाहिए।

मुसीबतें बिना रिजर्वेशन व सूचना के आती हैं
किसके जीवन में मुसीबत नहीं आती? मुसीबतों को आने के लिए कोई रिजर्वेशन नहीं कराना पड़ता और न ही वे पूर्व सूचना दिए आती हैं। कुछ स्वयं चलकर आती हैं और कुछ हम खुद आमंत्रित करते हैं।

जैसे ही मुसीबतों के आने का एहसास हो या वह सामने आकर खड़ी ही हो जाएं तो अपने भीतर के अध्यात्म को जगाएं। यहीं से आपका सोचने का तरीका बदलेगा। अपने मन में ग्रंथि न बनने दें। हानि-लाभ, खुशी-गम इनके बारे में ज्यादा न सोचें, क्योंकि जब मुसीबत आती है, हम उसके परिणाम पर टिक जाते हैं।

मन को ग्रंथि बांधने का शौक होता है। इसी कारण वह दिमाग में उथल-पुथल पैदा कर देता है। ऐसे समय सात्विक आहार, शुद्ध विचार और संतुलित शारीरिक क्रियाएं बड़े काम आती हैं। मुसीबत आते ही इन तीनों पर काम करना शुरू कर दीजिए।

मन ऐसे समय बार-बार हमें कुछ पुरानी स्थितियों, व्यक्तियों से विपरीत भाव से जोड़ता है। हम निदान निकालने की जगह पुराने झंझटों में उलझ जाते हैं। इससे मुसीबत को बड़ी होने में सुविधा हो जाती है। हम शक्तिहीन होने लगते हैं।

जबकि हमारा धर्म, हमारी भक्ति हमें सिखाती है कि शरीर और आत्मा दोनों के महत्व को जानें और दोनों के बीच अंतर को बढ़ाएं। कुछ लोग केवल आत्मा पर टिककर शरीर को भूल जाते हैं और कुछ केवल शरीर पर टिककर आत्मा को भूल जाते हैं, लेकिन हमें दोनों पर टिकना है अंतर बनाकर और फिर कैसी भी मुसीबत हो, हम पार लग जाएंगे।

शुभ संकल्प हमें अच्छे पक्ष से जोड़े रखते हैं
विचारों से संकल्प, संकल्प से क्रिया और फिर जो परिणाम मिलता है, इनमें आपस में तालमेल रहता है। शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंदजी ने कहा है कि कर्म का प्रारंभ संकल्प का बिंदु है। उससे धीरे-धीरे रेखाएं बनती हैं।

उनसे चाहे महल बने, चाहे मित्र। पुल बनेगा तो पहले रेखाएं खींचनी पड़ेंगी। उन्हीं रेखाओं के आधार पर पुल का निर्माण होता है। मानव मन में संकल्प बिंदु के निर्मित होते ही कर्म की रेखाएं खिंचती हैं। व्यक्ति के साथ सुसंस्कार हों तो वह राम का प्रतिनिधि बन जाता है, राममय हो जाता है।

संकल्प को न संभाला और पूर्व के कुसंस्कार जाग गए तो व्यक्ति दानव बन जाता है, जो संपूर्ण जगत को कष्ट देता है। शुभ संकल्प के साथ जब भी कोई काम करेंगे, हम उस कर्म की कुरूपता के पक्ष से मुक्त होंगे। कर्म व्यावहारिक जीवन से जुड़ा है और व्यावहारिक जीवन में अच्छाई-बुराई दोनों रहती हैं।

शुभ संकल्प हमें व्यावहारिक जीवन में उतार देंगे और अच्छे पक्ष से ही जोड़े रखेंगे। हम जीवन का सृजन करना चाहेंगे, विध्वंस नहीं। ऐसा संकल्प समाज के भेदभाव को मिटाएगा, धन की शुद्धता पर ध्यान देगा और इसी से अपराध व भ्रष्टाचार जैसी बीमारियों से मुक्ति होगी।

बाबा रामदेव का अभियान जब तक योग से जुड़ा है, शुभ संकल्प से जुड़ा है और उसके दायरे में आने वाले लोग करुणा के साथ परिवर्तन लाएंगे। संतों द्वारा यह जो राष्ट्रीय निदान सुझाया जा रहा है, उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए।

बहुमूल्य हैं जल की बूंदें, चाहे एक हो या अनेक
जीवन नरम और गरम दोनों स्थितियों से बना है। आजकल नरम होना कमजोरी माना गया है और गरमी को पुरुषार्थ। भारतीय संस्कृति के अनुसार यह मास ज्येष्ठ (18 मई से 15 जून) के नाम से जाना जाता है।

इसमें एक विशिष्ट त्योहार आता है गंगा दशहरा, जो आज है। ज्येष्ठ का शाब्दिक अर्थ है श्रेष्ठ बनें। अपने भीतर के बड़प्पन को संवारने और उजागर करने के लिए यह दिन बड़े काम के हैं। बड़प्पन दायित्व है। इसमें समर्पण है, प्रेम है और जिम्मेदारी है।

ज्येष्ठ माह की दूसरी बात यह है कि यह बड़ी गरमी के साथ आता है। इस समय उसकी सहन शक्ति काम आती है। गंगा दशहरा पानी के पवित्र प्रभाव का पर्व है। शास्त्रों के अनुसार इसी दिन गंगाजी का अवतरण हुआ था।

एक नदी के रूप में दुनियाभर में अद्भुत है यह जलधारा। जितना आप गंगा को अधिक समझेंगे, उतना ही जल का मूल्य जान पाएंगे। आज का दिन, जल व्रत का दिन है। गंगा अपने साथ शीतलता, पवित्रता और सक्रियता लेकर आती है।

गंगा किनारे यदि खड़े हो जाएं और लगातार उसके बहाव को देखते रहें तो आपके शरीर में मां के स्पर्श की अनुभूति होने लगेगी। ज्येष्ठ माह हमको यह बताकर जा रहा है कि मैं कैलेंडर से तो चला जाऊंगा, लेकिन आपके आचरण की गर्मी और संघर्ष के तपन में गंगा की शीतलता का उपाय भी छोड़ जाऊंगा।

वर्षभर, जीवनभर गंगा का यही उपयोग करिए यानी जल का उपयोग। बहुमूल्य हैं बूंदें, एक हो या अनेक।

उपकार कर्ता का आभार लौटाएं
जिंदगी को यदि मस्ती से जीना है, तो जीवन को बांहों में भरना आना चाहिए। जो लोग जीवन का आलिंगन प्रेम, सौहाद्र्र, करुणा और आभार से करेंगे, उनके लिए जीवन भी वही सबकुछ लौटाने को तैयार हो जाता है। जिंदगी की घोषणा है कि मेरे पास जो लेकर आओगे, मेरे साथ जैसा भी करोगे, मैं वैसा ही लौटा देती हूं।

यदि हम जीवन को प्रसन्नता देंगे, तो वापस भी वही पाएंगे। इसलिए एक काम जरूर करें हम.. हम किसी भी क्षेत्र में हों, हमारी जो भी सफलता हो, उसके प्रति सबका आभार जरूर व्यक्त करें। हमारा गेट्रीटच्यूट लेवल सदैव ऊंचा होना चाहिए।

इस बात को कभी नहीं भूला जाए कि जीवन में जो हमें उपलब्ध हुआ है, वह हमारे अकेले की वजह से नहीं है। बहुत सारे लोगों ने इसमें अपना समय, श्रम, धन और रुचि प्रदान की है। इसमें परिवार के सदस्य भी शामिल हैं और बाहरी दुनिया के लोग भी।

कोई भी हों, हरेक के प्रति आभार व्यक्त करें, जो आभार व्यक्त करने में कंजूस होगा वह खुशियों के मामले में भी कंगाल हो जाएगा, लेकिन ध्यान रखें, आभार व्यक्त करते समय मैत्री भाव हमारे भीतर जरूर होना चाहिए, अन्यथा आभार एक औपचारिकता बन जाएगा।

आभार में न भय हो, न लोभ। देखने में आता है कि अधिकांश लोग अपने परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों के मामले में आभार व्यक्त करने में संकोच करते हैं और कंजूसी भी। हमारे यहां सारी रिश्तेदारी गृहस्थी तक सीमित हो जाती है।

हम इसे बाहर समाज में नहीं निकाल पाते। इसीलिए हमारे परिवारों में रिश्ते तो पनप जाते हैं, लेकिन मित्रता नहीं पनप पाती। लोग मित्र ढूंढ़ने के लिए घर से बाहर भागते हैं। सगे भाई-बहन, देवर-भाभी, माता पिता-संतान ऐसे अनेक रिश्ते हैं जो अभिन्न मित्रता में नहीं बदल पाते।

मित्रता के मौके कुटुंब से बाहर खोजे जाते हैं। सारे नाते परिवार में हैं, पर दोस्त कोई नहीं होता क्योंकि आभार की वृत्ति में हमने मैत्री भाव नहीं रखा और बिना परिजनों की मदद के आप कभी श्रेष्ठ बन भी नहीं सकते।

इसलिए मैत्री भाव के साथ आभार व्यक्त करें घर में भी और बाहर भी। जीवन को यह अंदाज पसंद है। यह एक सुनिश्चित और पॉजीटिव क्रिया होगी। ऐसे मैत्री भाव से आभार देने वालों को जीवन झोलियां भरकर खुशियां लौटाता है।

इसलिए हमारे प्रति किसी ने छोटा या बड़ा कोई भी योगदान किया हो, खूब आभार लौटाएं, लेकिन याद रखें मैत्री भाव के साथ।

भौतिकता के लिए थोड़ी-सी आध्यात्मिकता काफी है
आपके संघर्ष की यात्रा में आप अकेले नहीं होते हैं। जितने मित्र होंगे, उससे अधिक शत्रु भी जुड़ जाएंगे, लेकिन हर काम को यदि सुंदरता से किया जाए तो एक जगह जाकर शत्रु और मित्र का फर्क खत्म हो जाता है।

सुंदरकांड पढ़कर लोगों को यह समझ में आ जाता है कि हनुमानजी कर्म-धर्म, अनुराग-विराग, भक्ति-योग के समन्वय और संतुलन की पाठशाला हैं। इनके जीवन की एक-एक घटना सिखाती है कि थोड़ी-सी आध्यात्मिकता काफी है बहुत अधिक भौतिकता के लिए।

लंका की ओर सीताजी की खोज में जैसे ही हनुमान उड़े, उस पर तुलसीदासजी ने एक दोहा लिखा है - जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुं बल बुद्धि बिसेषा। सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।

देवताओं ने पवनपुत्र हनुमानजी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पो की माता को भेजा, उसने आकर हनुमानजी से कहा - आज मुझे तुम्हारे रूप में भोजन प्राप्त हो गया है।

हनुमानजी की सफलता की यात्रा में यह एक और बाधा थी। हम जब भी अपने कर्मक्षेत्र में उतरेंगे, सुरसा जैसी बाधाएं भी आएंगी। हनुमानजी ब्रह्मचारी हैं और सामने एक स्त्री। यहां लिखा गया है - सुनत बचन कह पवनकुमारा।

सुरसा की बात सुनकर तत्काल हनुमानजी ने उत्तर दिया। हनुमानजी समझा रहे हैं कि समस्या का निराकरण करने में देर न की जाए। सबक यही है कि चरणबद्ध चलें और समस्याओं को निपटाएं।

अपनी अच्छाइयों को दूसरों के आक्रमण से भी बचाएं
हमारे भीतर की अच्छाइयां सदैव हमें आगे ले जाएं और सुख पहुंचाएं ऐसा जरूरी नहीं होता है। इनके कारण भी कभी-कभी परेशानियां आ जाती हैं। ईष्र्यालु लोग आपकी अच्छाइयां, सरलता, विनम्रता को लेकर एक अदृश्य आक्रमण करते हैं।

आपके यश को खंडित करने के लिए उनका कुटिल मन सक्रिय हो जाता है। इसलिए अपने भीतर अच्छाई बनाएं और उन अच्छाइयों को बचाएं भी दूसरों के आक्रमण से। कई बार अच्छा आचरण भी मुसीबत पैदा कर देता है।

इसलिए अच्छे व्यक्ति को हिम्मतवाला भी होना चाहिए, क्योंकि यदि ऐसे आक्रमणों को ठीक से संभाला नहीं गया तो या तो जीवन में निराशा आ जाएगी या हम अच्छाई छोड़कर गलत मार्ग पर चल देंगे। एक और खतरा अच्छाई के साथ होता है कि दूसरे हमें मान देने, पूजने लगते हैं।

इनसे दूर रहने के लिए भी भीतरी ताकत चाहिए। यदि हम कमजोर हैं तो हम इसी में उलझ जाएंगे। ऐसा उलझना सबको अच्छा लगता है। लेकिन भविष्य में परिणाम खतरनाक होंगे। जो सही और सत्य है उसको अपने आचरण से जोड़कर पूरे साहस के साथ दूसरों के हित में उपयोग किया जाए।

जितना हम इस तरह की क्रिया करेंगे, उतना ही हमारा व्यक्तित्व मजबूत होगा, उसमें गहराई आएगी। न आलोचना से डरें, न ही प्रशंसा के प्रति अतिरिक्त मोह रखें। इन दोनों के बीच एक लयबद्धता बनाएं। काम की दोनों ही हैं, लेकिन सही समझ के साथ।

प्रायश्चित करें ताकि हर गलती एक सीख बन जाए
भूल किससे नहीं होती। अनजाने में होती है और जानबूझकर भी की जाती है, लेकिन कर्म के साथ भूल का सिलसिला बना ही रहता है। कुछ लोगों को दूसरे बताते हैं तो कुछ स्वयं अपनी भूल पकड़ लेते हैं।

जो अनजाने में गलती कर जाते हैं उनकी अबोध दशा तो माफ की जा सकती है, लेकिन जो जानबूझकर गलत कर रहे हों, उन्हें ऐसी गतिविधि भविष्य में बड़ा नुकसान पहुंचाएगी। जिस क्षण यह पता लगे कि हमसे गलती हो गई है तो फौरन क्षमा मांग ली जाए।

धर्म में इसे ही प्रायश्चित का बोध कहा गया है। प्रायश्चित का भाव केवल अफसोस नहीं होता, बल्कि दोबारा गलत काम न करने का संकल्प भी इसमें छुपा रहता है। गलत काम हो जाने पर जब हम क्षमा मांगने की तैयारी कर रहे होते हैं, तब हमारा मन हमें रोकता है। इसके पीछे हमारा अहं काम कर रहा होता है।

अहंकार को क्षमायाचना करने में बड़ी पीड़ा होती है। अहंकार हमें समझाता है कि गलत काम करने के बाद यदि क्षमा मांगी गई तो लोग आपको कायर, निर्बल, मूर्ख समझेंगे। और यहीं से मनुष्य लगातार गलतियां करते चला जाता है।

हमारे और हमारी सफलता के बीच में ये गलतियां रुकावटें और बाधाएं बनकर स्थायी रूप में बस जाती हैं। गलत के विरुद्ध लड़ने और संघर्ष करने की रुचि समाप्त हो जाती है। इसलिए पहली बात तो गलत करें न और यदि हो जाए तो प्रायश्चित से गुजरें। हो सकता है कि हर गलती एक सीख बन जाए।

साधु-संतों और स्त्रियों को प्रिय होता है अकेलापन
दिल लगता नहीं अकेले में, यह भी आजकल की जीवनशैली की एक बड़ी समस्या है। पुराने दार्शनिक लोग कह गए हैं कि दो ही लोगों को अकेलापन प्रिय लगा है। योगियों में साधु-संतों को और भोगियों में स्त्रियों को।

अकेलेपन में मनुष्य की निकटता, स्पर्श और संग को अलग-अलग रूप में देखा जाता है। अकेलेपन का अर्थ लिया जाता है किसी का साथ न होना और इसीलिए इसे दूर करने के लिए दूसरे को ढूंढ़ा जाता है। अकेलापन मिटाने का दूसरा तरीका होता है भावनात्मक स्पर्श से।

आदमी केवल शरीर से शरीर को नहीं छूता, दृष्टि और हृदय से भी दूसरों को स्पर्श किया जा सकता है। अकेलापन मिटाने की इस क्रिया में मन और हृदय सक्रिय हो जाते हैं। भावनात्मक स्पर्श अपना काम तो करता है, लेकिन जरूरी नहीं कि अकेलापन मिट जाए, पूर्ण तृप्ति और संतुष्टि तब भी नहीं मिलती।

भावनात्मक रूप से अकेलापन मिटाने में मन केवल विचार और जानकारियां भीतर भरता है और बाहर उगलता है। मन से हटकर जब हृदय से जुड़ जाएं तो अकेलेपन में हृदय कुछ अधिक पवित्र होता है, ठीक बदलाव लाता है। मन को विचारों से खाली कर दीजिए।

खाली मन अपने आप खिसककर हृदय के पास चला जाता है और हृदय से फिर पूरे शरीर में भावनाओं का संचार होता है और ऐसा संचार अकेलेपन को आनंद में बदल देता है। यह क्रिया है तो गहरी, पर करने पर परिणाम बड़े शुभ देती है।

अपने मन में रखें पवित्र स्पर्श का भाव
मिल-जुलकर रहना हिम्मत का काम है। पहले कहा जाता था कि सब मिलकर रहेंगे तो सुरक्षित रहेंगे और आज महसूस किया जाता है कि अपनों से ही खतरे पैदा हो जाते हैं। अब तो एक छत के नीचे दो लोग पति-पत्नी के रूप में मिलकर नहीं रह पाते।

महात्मा गांधी ने अपने 11 व्रतों में स्पर्श भावना को भी एक व्रत कहा है। उनका मामला केवल छुआछूत से नहीं जुड़ा था। उस समय इस बात का महत्व था कि कोई अछूत न रहे, लेकिन आज अर्थ बदल गए हैं।

आदमी अपने ही लोगों को अछूत मानता है और वैसा ही व्यवहार करता है, जबकि अपने साथ रहने वालों के प्रति हममें पवित्र स्पर्श का भाव होना चाहिए। धर्म कुछ अलग सिखाता है जबकि धार्मिकता यह सिखाती है कि जब हम निजी जीवन के प्रति सम्मान का भाव रखेंगे, तभी हम दूसरों के प्रति करुणामयी रहेंगे, स्पर्श भावना लिए हुए होंगे।

स्पर्श भावना मनुष्य की स्वाभाविक मांग है। चाहे वह सत्संग से पूरी हो, दांपत्य से संतुष्ट हो या मित्रता से, पर बिना इसके काम नहीं चलता। अपने और दूसरे के शरीर के प्रति हमें बहुत ही पवित्रता का भाव रखना चाहिए।

मानव मात्र का शरीर उतना ही पवित्र है, जितना किसी साधु का या मंदिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा का होगा। यह भाव जितना परिपक्व होगा, परिवार और समाज में मिल-जुलकर रहने की भावना उतनी ही दृढ़ होगी। ऐसी मानवीय समझ मनुष्यता के विकास के लिए बहुत ही जरूरी है।

दुनिया में बड़ा होना है तो छोटा होना आना चाहिए

जीवन में ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों में से कोई भी मार्ग चुन लें, समस्याएं हर मार्ग पर आएंगी। लेकिन अच्छी बात यह है कि हर समस्या अपने साथ एक समाधान लेकर ही चलती है। समाधान ढूंढ़ने की भी एक नजर होती है।

सामान्यत: हमारी दृष्टि समस्या पर पड़ती है, उसके साथ आए समाधान पर नहीं। श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में जब हनुमानजी लंका की ओर उड़े तो सुरसा ने उन्हें खाने की बात कही। पहले तो हनुमानजी ने उनसे विनती की।

इस विनम्रता का अर्थ है शांत चित्त से, बिना आवेश में आए समस्या को समझ लेना। जब सुरसा नहीं मानी और उसने अपना मुंह फैलाया। जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।। सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।

उसने योजनभर (चार कोस में) मुंह फैलाया। तब हनुमानजी ने अपने शरीर को उससे दोगुना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया, हनुमानजी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए। यह घटना बता रही है कि सुरसा बड़ी हुई तो हनुमानजी भी बड़े हुए।

हनुमानजी ने सोचा कि ये बड़ी, मैं बड़ा, इस चक्कर में तो कोई बड़ा नहीं हो पाएगा। दुनिया में बड़ा होना है तो छोटा होना आना चाहिए। छोटा होने का अर्थ है विनम्रता।

दुनिया जब भी जीती जाएगी, विनम्रता से जीती जाएगी। बड़ा होकर सिर्फ किसी को हराया ही जा सकता है। इसीलिए हनुमानजी ने छोटा रूप लिया और सुरसा के मुंह से बाहर आ गए।

अपनी उच्च भाषा में बोली का टच जरूर रखें
आध्यात्मिक जीवन में उदारता और विनम्रता आधार बन जाते हैं। इसी विनम्रता को भक्ति के मार्ग में दीनता भी कहते हैं। ईश्वर के प्रति अपनी दीनता और विनम्रता प्रकट करने के लिए हमारे पास शब्द भी छने हुए होने चाहिए।

आज भी भारत के परिवारों में भाषा और बोली का फर्क नजर आता है। भक्ति में भाषा से ज्यादा बोली काम आती है। संस्कृत को देव भाषा तथा बाकी सबको प्राकृत भाषा इसीलिए बोला गया है। देव भाषा के लिए एक मानसिक और वैचारिक स्तर होना चाहिए, लेकिन बोली के मामले में इतना अनुशासन जरूरी नहीं है।

बड़े की भाषा होती है और बच्चे की बोली होती है। पुराने संस्कृत नाटकों में पुरुष देव भाषा बोलते थे और स्त्रियां प्राकृत में बोलती थीं। बोली में अपनापन होता है। इसमें गजब के संकेत होते हैं। सुदामा ने श्रीकृष्ण को पोटली से जो चावल दिए थे, वो उनकी पत्नी सुशीला की बोली का परिणाम थे।

सुशीला जो बोलना चाहती थी, वह चावल के दानों से व्यक्त किए गए। हमारा भी शब्दों पर थोड़ा-थोड़ा बोली का स्पर्श होना चाहिए। हम कितनी ही उच्च भाषा के जानकार हों, पर अपनी बोली का टच उसमें जरूर रखें।

माताएं जब बच्चों को शब्द ज्ञान कराती हैं, उसका माध्यम बोली होती है। भारत के परिवारों में अपनापन बनाए रखने के लिए भाषा से अधिक बोली का ही योगदान है और भक्ति मार्ग के पथिकों ने इसी बोली के माध्यम से भगवान से अपने को जोड़ा है।

कितने ही व्यस्त रहें, पर भोजन तसल्ली से करें
कहा जाता है कि दुनिया में कोई काम ऐसा नहीं है, जो रसोई के काम की बराबरी का कहा जा सके। भोजन बनाना और खिलाना जीवन के दो बड़े महत्वपूर्ण काम हैं। इसका संबंध अन्न से है और अन्न से मन बनता है। मन से फिर पूरा व्यक्तित्व चलता है।

बड़े-बूढ़े कहा करते हैं- कितने ही व्यस्त रहें, भोजन तसल्ली से करें तथा क्या खा रहे हैं इसके प्रति सावधान रहें। आदमी की व्यस्तता और स्वाद ने उसके जीवन से भोजन का महत्व खत्म कर दिया है। कई लोगों की शिकायत होती है कि साधना के समय हमें सांसारिक विचार बहुत आते हैं।

क्या आपने कभी सोचा है कि पूजा के पीछे भोजन की महत्वपूर्ण भूमिका है। शरीर जब भोजन ग्रहण करता है, उस समय मस्तिष्क यदि शांत न हो और संसार की आकृतियां तैयार कर रहा हो तो भोजन उन आकृतियों से जुड़ जाता है।

यह आकृतियां आदमी-औरत, भवन, कार, आभूषण ऐसी न जाने कितनी भौतिक वस्तुएं होती हैं। इसीलिए हमारे यहां भोजन के पहले भोग लगाने की व्यवस्था है। मस्तिष्क भोग से परमात्मा की आकृति को जोड़ लेगा और अन्न सात्विक होता जाएगा।

अन्न जैसे ही भोग के रूप में स्वीकार किया जाएगा, लोग शुद्धता के प्रति सावधान हो जाएंगे। आदमी ने अपने जीवन में अन्न के नाम पर अपने भीतर कूड़ा-करकट भरने की तैयारी कर ली है। इसे असत्य-अन्न कहेंगे और यह अशांति पैदा करेगा। भोग व प्रसाद सत्य-अन्न हैं, जो शांति व आनंद प्रदान करेंगे।

विद्यार्थियों की गति पर गुरु और पालक नजर रखें
शिक्षा रोजी से जुड़ी रहे, यह बहुत अच्छा है। शिक्षा का ज्ञान से कितना लेना-देना है, यह एक बार फिर शोध का विषय बन गया है, लेकिन एक सवाल और चिंता शिक्षा के साथ जुड़ गई है, वह है अधिक अच्छी शिक्षा पाने के लिए जो दौड़ इस समय चल रही है, उसने बच्चों के भीतर एक वेग भर दिया है। इसीलिए बच्चे बहुत तेजी में हैं।

यह वेग धीरे-धीरे आवेग में बदल जाता है। विद्यार्थी को विद्या अध्ययन के समय यह ज्ञात नहीं हो पाता कि वह किस तेजी में है। उसकी गति, चाल, प्रवाह और रफ्तार पर गुरु और पालकों की नजर होनी चाहिए।

वे बच्चों के मस्तिष्क, मन और आत्मा में एक संतुलन बनाने की जिम्मेदारी उठाएं। अगर संतुलन इनके जीवन में नहीं आया तो जरा से धक्के पर यह संभल नहीं पाएंगे। विज्ञान और जानकारी के शिक्षण के अलावा संस्कारों का शिक्षण भी इसीलिए अनिवार्य है।

जब ये दोनों मिलाकर किया जाएगा, तब ही उदार शिक्षण माना जाएगा। पहले की व्यवस्था में पुरुषप्रधान जीवन होने के कारण शिक्षा भी बंटी हुई थी। आज स्त्री-पुरुष शिक्षा के मामले में समान बनाए जा रहे हैं। ऐसे में पिछले दौर से भी अधिक खतरे बढ़ गए हैं।

स्त्री और पुरुष के बीच जो प्राकृतिक भेद है, उसे दुनिया की कोई शिक्षा नहीं मिटा पाएगी, लेकिन प्रतिस्पर्धा और अहंकार के भेद को मिटाना पड़ेगा, तब ऐसा उदार शिक्षण दोनों के जीवन में रोजी-रोटी से जुड़ेगा तो कमाई अशांति का कारण नहीं बनेगी।

बच्चों के साथ अपना समय गपशप की शैली में बिताएं
एक संसार तो होता है और एक संसार मान लिया जाता है। कई मनुष्यों की आदत होती है कि वे अपने माने हुए संसार में इस कदर डूब जाते हैं कि उनका संबंध वास्तविक संसार से कट जाता है। बच्चों में भी यह आदत होती है कि वह अपना अलग संसार बना लेते हैं।

इस समय उनके पास न तो दूरदृष्टि होती है और न ही अनुभव। इसलिए अपने आसपास की दुनिया ही उनके लिए सब कुछ हो जाती है। वे अत्यधिक ‘मैं’ केंद्रित हो जाते हैं। आज के बच्चे खुद में जितने संकुचित हो रहे हैं, उतने किसी दौर में नहीं हुए। छोटे परिवारों में यह समस्या और बढ़ जाती है।

वे अपने जीवन में किसी का हस्तक्षेप नहीं चाहते। जिद की सीमाएं बढ़ जाती हैं। ज्यादा से ज्यादा इनकी दौड़ माता-पिता तक रहती है। जब ऐसे खतरे घरों में दिखने लगें और जो माता-पिता चाहते हों कि उनके बच्चे केवल अपने पर न टिकें और भी रिश्तों को मान दें तो ऐसे बच्चों के साथ अत्यधिक बातचीत की जाए।

बातचीत में ज्ञान बांटना, समझाईश देना, सिद्धांत समझाना जैसा स्वर न रहे। उनसे लगातार गपशप करें। हमारे पुराण-शास्त्रों में गुरु-शिष्य गपशप की शैली में ही बड़ी-बड़ी कथाएं कह गए। गपशप का हर शब्द सकारात्मकता लिए हो।

यदि बच्चों को यह लगेगा कि उन पर शब्द थोपे जा रहे हैं तो वे आपके होंठ खोलने के पहले ही आपका मूड खराब करने के सारे साधन अपना लेंगे। इसलिए बच्चों को खूब समय दें और पूरा समय गपशप की शैली में बिताएं।

रिस्क की क्षमता यानी सफलता
सामान्य रूप से माना जाता है कि संकट यदि आए, तो प्रगति में बाधा आ जाती है। इसलिए लोग संकटों से बचना चाहते हैं, लेकिन अब समय बदल गया है। पहले चुनिंदा लोग योग्य होते थे और अब योग्य लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।

अधिकांश लोग खूब परिश्रम कर रहे हैं। सफलता हासिल करने के सूत्र सामान्य लोगों के हाथ में भी पहुंच गए हैं। ऐसे में सीधे-सीधे चलकर कामयाब होना कठिन है। इसका अर्थ यह नहीं कि गलत मार्ग अपना लिया जाए। इसका अर्थ यह है कि हमेशा सेफ गेम नहीं खेला जा सकता।

लाइफ में रिस्क फेक्टर जरूरी हो गया है। आप कितना जोखिम उठा सकते हैं इससे आपकी सफलता दूसरों के मुकाबले अधिक सुनिश्चित होगी। जीवन के खतरे जीवन को और गहरा बनाएंगे। अधिकांश लोगों की नजर में जिंदगी का अर्थ है लंबाई से जीना, लेकिन जितना आपका परिचय अध्यात्म से होगा, आप समझ जाएंगे कि जीवन लंबाई और चौड़ाई से ज्यादा गहराई और ऊंचाई का मामला है।

सागर की तरह गहरा उतरना होगा और पहाड़ की तरह ऊंचाई जीवन में लाना होगी। इन दोनों के साथ किसी भी खतरे का सामना करने के लिए हम सक्षम होंगे। इसे कहते हैं जिसके पास प्रशांत महासागर की गहराई होगी और गौरीशंकर की तरह पर्वत का शिखर होगा, वह लाइफ में कैसी भी रिस्क लेने के लिए घबराएगा नहीं।

जो लोग जीवन में रिस्क लेना चाहते हैं वे दो बातें ध्यान में रखें- पहली, अपने ऊपर भरपूर भरोसा रखने के बाद भी इस बात का विश्वास हो कि हमसे हटकर और बढ़कर भी कोई परमशक्ति है, उस पर भी भरोसा रखा जाए। दूसरी बात, उसे जबर्दस्त संयम बरतना होगा।

परिश्रम, समय, एकाग्रता की बचत करना होगी और इन्हें अपने विचारों से लगातार जोड़े रखना होगा। इन दो बातों के साथ रिस्क फेक्टर, जोखिम कम और सफलता का तरीका अधिक बन जाएगा। भरोसे का अर्थ है भगवान से जुड़ना और संयम का अर्थ है तन, मन, धन के प्रति नैतिक प्रतिबद्धता।

यदि हम तन से कमजोर हैं, तो मन और धन लाभ नहीं पहुंचा पाएंगे। मन से कमजोर हैं, तो तन और धन बोझ बन जाएंगे। तन, मन और धन का संतुलित संयम न हो, तो जीवन गीली लकड़ी से उठ रहे धुंए के समान हो जाएगा।

जब हम देखते हैं कि आग में से धुआं उठ रहा है, तो हम मान लेते हैं कि धुआं अग्नि का हिस्सा है, लेकिन ऐसा है नहीं। यदि लकड़ी गीली है, तो ही धुआं उठेगा, आग का उससे कोई लेना-देना नहीं है, आग हमेशा आग ही रहेगी।

असंतुलित जीवन गीली लकड़ी की तरह है, इससे धुआं ही उठेगा, अग्नि प्रज्वलित नहीं होगी। भरोसा और संयम जीवन में किसी भी रिस्क को लेने में काम आएगा और जितना रिस्क फेक्टर मजबूत है, कामयाबी उतनी अनूठी होगी।

खुश रहते हुए हर जोखिम का सामना किया जाए
सार्वजनिक जीवन में मित्र कब शत्रु हो जाए और शत्रु कब मित्र बन जाए, यह विकल्प खुले रहते हैं। आज के समय में कम ही चीजें स्थायी होती हैं। यदि कोई मित्र मिले तो कोशिश करिए मित्रता कायम रहे और जब शत्रु मिले तो प्रयास करिए शत्रुता जल्द मित्रता में बदल जाए।

हनुमानजी सुंदरकांड में लंका की यात्रा के समय सुरसा का सामना कर रहे होते हैं। जब छोटे बनकर सुरसा के मुंह से बाहर आए तो उनके बल और बुद्धि को देख सुरसा ने उन्हें भरपूर आशीर्वाद दिया। तुलसीदासजी ने लिखा है- सुरसा बोली- बुधि बल मरमु तोर मैं पावा। मैंने तुम्हारी बुद्धि और बल का मर्म पा लिया है।

आज भी हमें यदि किसी को प्रभावित करना है तो हमारे पास यह दो साधन हैं। बिना बुद्धि के बल केवल पहलवानी होगी और बिना बल के बुद्धि विचारों की जुगाली। दोनों को जोड़ना होगा। जो अभी-अभी शत्रु थी, वह सुरसा हनुमानजी को आशीर्वाद देकर कहती है- राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।

अर्थात तुम श्रीरामचंद्रजी के सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। हमारी पूंजी आशीर्वाद होनी चाहिए, वरदान नहीं। हमारे काम ऐसे हों कि बड़े-बूढ़े और दूसरे लोग हमें आशीर्वाद दें। दूसरा शब्द है हरषि यानी प्रसन्नता।

सुरसा जैसी समस्या को निपटाते हुए हनुमानजी प्रसन्नता नहीं छोड़ते। हम भी खुश रहते हुए हर जोखिम का सामना करना सीखें। इसी से जीवन सुंदर बनेगा।

खुश रहना है तो खुशी का इंतजार ही न करें
दिनभर में यदि दस लोगों से मिला जाए तो उसमें से सात लोग यही कहते पाए जाते हैं कि जीवन में आनंद नहीं आ रहा, जिंदगी बोझिल होती जा रही है, बस कट रही है।

इस तरह के उदासी भरे संवाद सामान्य रूप से सुनाई देने लगे हैं। जीवन में खुशी खींचकर लानी पड़ती है। आनंद अर्जित करने का मामला है। यह एक तरह का परिश्रम है, इसे सृजन के साथ पाना पड़ता है।

भारतीय संस्कृति कहती है कि जन्म लेना ही पर्याप्त नहीं है, जन्म के बाद जीवन को संवारना भी जरूरी है। इस सबमें मन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

गुरुनानक कहा करते थे- ‘राम नामि मनु बेधिआ अवरु कि करी वीचारु’ अर्थात यह जो तेरा मन विषयों- विकारों में फंसकर हिरण की तरह दिन-रात भटकता फिरता है।

जिस समय यह राम-नाम के साथ जुड़ जाएगा, यह काबू आ जाएगा। राम-नाम से गुरुनानक का मतलब वह ताकत है, जिसने सारी दुनिया की रचना की है। इसलिए मन को जप नाम से जोड़ा जाता है तो वह निर्मल और पवित्र हो जाता है।

नाम को फकीरों ने परमात्मा का ही रूप कहा है। जो प्रसन्नता की खोज में हों, वे मन और नाम का जोड़ बना दें। नाम आपका गुरुमंत्र हो सकता है, ईश्वर का नाम हो सकता है।

लेकिन खुश रहना है तो खुशी का इंतजार न करें, स्वयं सक्रिय हो जाएं और खुशी को पकड़कर जीवन में लाएं। आज के समय में शांति, प्रसन्नता जिस भी कीमत पर मिले, लपक लीजिए।

चलने से डरेंगे तो कैसे होगी पहुंचने की उपलब्धि?
जीवन के कर्म और कर्मफल को लेकर भगवान महावीर ने एक सुंदर दर्शन दिया है। मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणो समक्खादं। मग्गो खलु सम्मत्तं, मग्गफलं होइ णिव्वाणं।। भगवान कहते हैं-जिन शासन में मार्ग तथा मार्गफल इन दो प्रकारों से कथन किया गया है।

मार्ग मोक्ष का उपाय है। उसका फल निर्वाण या मोक्ष है। धर्म के अनुशासन में दो ही बातें कही गईं और वे हैं मार्ग और उसका मार्गफल। जो मार्ग पर चलेगा, उसे मार्गफल अवश्य मिलेगा। विज्ञान भी कहता है कि कुछ पाने के लिए कुछ करना ही पड़ेगा।

लोग चलने से ही डर जाएं तो पहुंचने की उपलब्धि कैसे होगी? जीवन को प्रसन्नता, आनंद की प्यास होती है और उसकी तलाश में वह इधर-उधर भटकता है। यदि सही जगह न पहुंचे तो जीवन गलत तरीके से खुशी ढूंढ़ने लगता है।

कुत्ता जब हड्डी खाता है तो वह सूखी हड्डी उसको रस इसलिए देती है कि हड्डी की रगड़ से कुत्ता अपनी ही दाढ़ का खून पी रहा होता है और गलतफहमी यह हो जाती है कि यह रस हड्डी में है। भगवान महावीर यही कह रहे हैं हम इंद्रियों से भोगते हैं, पर इन्द्रियां हमको भोग लेती हैं।

बिना संयम के आनंद नहीं आएगा। आज के जीवन में सारे रिश्ते इंद्रियों पर टिके हैं, क्योंकि आधार इंद्रियां हैं, लेकिन आत्मीयता आधार होगी तो बाहरी स्थिति कितनी ही बदल जाए प्रेमपूर्ण संबंध बने रहेंगे। आत्मीयता उतारने के लिए प्रयास करना पड़ेगा। इसी प्रयास का नाम है कर्म और कर्मफल।

अहंकार जीवन में आते ही बुद्धि को उलट देता है
आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? दार्शनिकों ने इस सवाल के अलग-अलग उत्तर दिए हैं। लेकिन इस बात पर सभी सहमत हैं कि हर कमजोरी में यदि कोई दुगरुण मौजूद है तो वह है अहंकार। अहंकार जीवन में आते ही बुद्धि को उल्टा कर देता है। यहीं से लोग अहंकार और इज्जत को एक समझने लगते हैं और भूल जाते हैं कि अहंकार बढ़ने से इज्जत बढ़ती नहीं, बल्कि घट जाती है।

अहंकारी मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा भले ही बना ले, लेकिन उसका मनोबल और आत्मविश्वास कम होने लगता है। कहते हैं अहंकार नीच कर्मो का बादशाह होता है। अहंकार जैसे-जैसे कम होगा, हम सरल और विनम्र होते जाएंगे और यहीं से हम दूसरों से अपेक्षा करना छोड़ देंगे।

जीवन जितना अपेक्षारहित होगा, उतना ही अशांति से दूर होगा। अहंकारी सारी दुनिया के सामने अपनी ऊर्जा इस बात में खर्च करता है कि लोग जान जाएं ‘मैं कौन हूं।’ इसे सिद्ध करने के लिए वह हर तरह के हथकंडे अपनाता है। जबकि अध्यात्म कहता है - ताकत इस बात में लगाओ कि आप स्वयं जान जाएं कि आप कौन हैं?

अपनी खासियत, अपनी विशिष्टता, हम भी कुछ हैं, इस भाव के आसपास जीवनभर ताने-बाने बुने जाते हैं। जब मनुष्य इससे संघर्ष करता है तो अहंकार अपनी विदाई के अंतिम क्षणों में विनम्रता का वेश धर लेता है, पर जाना नहीं चाहता। इसको भेजे बिना जीवन का सच्च सुख नहीं मिल सकता।

परिवार बगीचा नहीं, एक नर्सरी की तरह है
परिवार बगीचा नहीं, नर्सरी की तरह है। यदि परिवार में शांति और सद्भाव है तो इसकी सुगंध सारे समाज में फैलेगी। थोड़ी-सी पारिवारिक सावधानी समाज की गंदगी को भीतर आने से रोकेगी और थोड़ी-सी सजगता परिवार की श्रेष्ठता को समाज में बिखेर देगी।

माली एक बात तो जानता है कि जिस खाद से दुर्गन्ध निकल रही होती है, उस खाद को यदि वृक्ष में डाल दिया जाए तो वही पेड़-पौधों की सुगंध बन जाती है। परिवार का हर व्यक्ति अपने आप में एक पौधा, एक वृक्ष है।

समाज से दुर्गन्ध रूपी खाद लगातार आती रहती है, लेकिन परिवार के पास यह संभावना है कि दरुगध में से सुगंध बना दे। हम जिस भी नौकरी, धंधे या व्यवसाय में हों, वहां की यांत्रिकता, हानि-लाभ की वृत्ति, व्यावसायिक दृष्टिकोण परिवार में न लाया जाए, लेकिन परिवार का प्रेमपूर्ण वातावरण आत्मीयता और संवेदनाएं बाहर के काम-काज के क्षेत्र में जरूर ले जाई जाएं।

इससे जिंदगी में जो बुरा है वह शुभ में बदल सकता है। जीवन की दरुगध सुगंध में बदल सकती है। यह एक तरह का रूपांतरण होता है। परिवार में रूपांतरण की संभावना अत्यधिक बलवती होती है। पूरा जीवन एक रूपांतरण है।

बाहर की दुनिया का जीवन शिक्षा, ज्ञान, योग्यता और तकनीक से पूर्ण होता है, लेकिन पारिवारिक जीवन प्रेम और आत्मीयता से रूपांतरित होता है। घर-गृहस्थी को कामकाज की दुनिया में प्राथमिकता दी जाए, उसके महत्व को नकारा न जाए।

परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा संतानें भी यशस्वी होंगी
भारतीय परिवारों में सोलह संस्कार की जो व्यवस्था रखी गई है, उसमें संतान को भी संस्कार से जोड़ा गया है। ऋषि-मुनियों ने यह व्यवस्था बड़े सोच-समझकर की है। गृहस्थी में बिना प्रेम के शांति नहीं हो सकती। परिवार में प्रेम लाने के लिए शारीरिकता से ऊपर उठना होगा।

रिश्तों में शरीर के भाव को कम करने के लिए संतान बहुत बड़ा अवसर होती है। जैसे ही संतान होती है, माता-पिता प्रेम और संवेदना के साथ संतान पर टिक जाते हैं। यहीं से पति-पत्नी के बीच शारीरिकता कम होती जाती है। परिवार में बच्चों की मौजूदगी झगड़े और तनाव को कम करती है।

स्त्रित्व मातृत्व में और पुरुषत्व पितृत्व में घुल-मिल जाता है। बच्चों के लिए जब माता-पिता त्याग करते हैं तो वे इसे बोझ न मानकर आनंद मानते हैं, जबकि ऐसा त्याग पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए नहीं कर पाते। पहले के मुकाबले आज के बच्चे बाहर की स्थितियों से जल्दी व ज्यादा परिचित हो जाते हैं। ऐसे में संस्कारों को उनसे जोड़े रखना थोड़ा दबाव का काम हो जाता है।

लेकिन उनके व्यक्तित्व में संतुलन बनाने के लिए प्रेम से संस्कारों को उनके व्यक्तित्व में उतारा जाए, नहीं तो यह बच्चे घर और बाहर दोनों ही स्थिति में अशांत होकर अपने आप को दुख की स्थिति में पटक लेंगे।

इन्हें घर उपद्रव का अड्डा लगने लगेगा और बाहर नर्क नजर आएगा, जबकि नर्क हमारे जीने के तरीके का दूसरा नाम है। इसलिए परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा, संतानें उतनी ही यशस्वी हो सकेंगी।

हनुमानजी मतिधीर हैं यानी बुद्धिमान भी और धर्यवान भी
बुद्धिमान व्यक्ति को धर्यवान भी होना चाहिए। कभी-कभी बुद्धि की अधिकता आदमी को अधीर बना देती है। हनुमानजी के लिए सुंदरकांड में मतिधीर शब्द का उपयोग किया गया है। इसका अर्थ है - वे बुद्धिमान भी हैं और धर्यवान भी।

सुरसा नाम की राक्षसी जब मुंह फैलाकर उन्हें खाने के लिए आगे बढ़ी तो हनुमानजी पहले तो बड़े हुए और फिर बहुत छोटे होकर उसके मुंह से बाहर आ गए थे। वे अपने समय, लक्ष्य और ऊर्जा को लेकर अत्यधिक सावधान रहे। वे जानते थे कि उनका लक्ष्य रामकाज है।

सीताजी तक श्रीराम का संदेश पहुंचाना है। इसीलिए मैनाक पर्वत को उन्होंने कह दिया था - रामकाजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम। दूसरी बात, वे जानते थे कि सुरसा से युद्ध करने पर ऊर्जा और समय दोनों नष्ट होंगे। इसीलिए तुरंत वहां से आगे बढ़ गए। आगे उनके साथ एक घटना घटी- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। हनुमानजी ने उसको मार डाला और आगे चले।

तुलसीदासजी ने हनुमानजी के लिए लिखा है - ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।। धीर, बुद्धिमान, वीर श्री हनुमानजी उसको मारकर समुद्र के पार गए। मतिधीर लिखकर तुलसीदासजी बताते हैं कि इस समय जब शिक्षा के युग में बुद्धिमान होना सरल है, तब धर्यवान उतना ही कठिन होता जा रहा है। बुद्धि के साथ धर्य जुड़ जाए तो लक्ष्य पर पहुंचना आसान हो जाएगा।

जीवन के कोरे कैनवास पर जो चाहे लिख सकते हैं
चयन और वितरण चतुराई और विवेक से हो तो भौतिक जगत में प्राप्त किया गया सुख शांति भी प्रदान करेगा। हम किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति हों, चार चीजों का चयन जरूर करें - सौंदर्य, यौवन, शक्ति और धन।

ईश्वर ने इन्हें संभावना बनाकर हर मनुष्य को सौंपा है। भगवान से जुड़ने का एक अर्थ यह भी है कि हम धन, उत्साह और आरोग्य से जुड़ें। ईश्वर बहुत सुंदर है, इसमें कोई संदेह नहीं है। इसका प्रमाण प्रकृति है। प्रकृति परमात्मा की प्रतिनिधि है।

हमें भी ईश्वर के ये ऐश्वर्य अपने भीतर उतारना चाहिए। इसके लिए परमात्मा ने हमें शक्ति भी दी है। जो लोग शक्ति और ऊर्जा का अपने जीवन में सही वितरण करते हैं, उन्हें फिर परमात्मा के ऐश्वर्य आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

मनुष्य होने की विशेषता यह है कि वह हर निर्णय के लिए स्वतंत्र है। यही उसके लिए खुशी की बात भी है और परेशानी की भी। जीवन एक कोरे कैनवास की तरह है। आप इस पर शक्ति की स्याही से भरी कलम जैसे चाहे वैसे चला सकते हैं।

हर इबारत मनुष्य अपनी मौलिकता से लिख सकता है, लेकिन चयन में भ्रम और ऊर्जा, शक्ति के गलत वितरण के कारण हमारी स्वतंत्रता ही तनाव बन जाती है। हम स्वतंत्र हैं, अच्छा करने या बुरा करने के लिए।

बुरे की ओर आकर्षण सहज होता है। कीचड़ बनना या कमल बनना दोनों हमारी स्वतंत्रता में शामिल है। इसलिए अपनी शक्ति व ऊर्जा को अपने भीतर उतरकर पहचानें और सही उपयोग करें।

8 कदम शांति की ओर...
सुकून की तलाश और हासिल बाहर से भीतर की ओर नहीं, बल्कि भीतर से बाहर की ओर ही मुमकिन है। मन के किसी आले में कुछ बिखरा है, तो उसे समेटना जरूरी है। आइए, आठ दिनों का अभ्यास शुरू करते हैं। रोज की एक क्रिया तय है। जब भूलें, दोहरा लें..

पहला दिन:स्वीकार भाव से जिएं
अपनी परिस्थितियों (चाहे वे बुरी क्यों न हों) और लोगों (जिनके साथ आप हैं) को, जैसे वे हैं, उसी रूप में स्वीकार कीजिए, क्योंकि दूसरों को बदलने की कोशिश में आप अपनी ऊर्जा स्वयं ही नष्ट कर देते हैं। पहले खुद बदलें, बाकी सब अपने आप ही बदल जाएगा।

दूसरा दिन:आभारी हों, दुआएं दें
यदि आपको ऐसा महसूस होता है कि किसी से आपको दुख या हानि मिल रही है, तो ऐसे व्यक्ति को खूब दुआएं दीजिए। इससे आपके भीतर रुकी ऊर्जा का प्रवाह खुल जाएगा, चेतना शुद्ध होगी। प्रेम बांटेंगे, तो जग के प्रेम के खजाने आपके लिए खुल जाएंगे।

तीसरा दिन:एक दिन में एक संकल्प
जिस लक्ष्य को सबसे पहले पाना है, सुबह उठते ही सबसे पहले, अपनी पूरी शक्ति से मन में उसे दोहराएं और उसे पूरा करने में जुट जाएं। रात को सोते समय संकल्प प्राप्ति के सुकून को आंखें बंद करके महसूस करें। संकल्पशक्ति, संकल्प लेने से ही बढ़ती है और अब एकाग्रता भी आपके साथ हो जाएगी।

चौथा दिन:शिकायत छोड़ दें
मन में तय कर लें कि किसी से किसी भी पहलू को लेकर शिकायत नहीं करेंगी। बिना आकांक्षा रखे अपना काम करते रहें। पहली बार में न सही, लेकिन धीरे-धीरे आप शिकायत करना छोड़ देंगे। शिकायत संग दुख भी खुद-ब-खुद चले जाएंगे।

पांचवा दिन:क्रोध को देखें
जब क्रोध की लहर उठे तो उसे बिना दबाए, केवल साक्षी हो जाएं। क्रोध आपको असंतुलित करने वाली एक ऋणात्मक ऊर्जा है। गुस्से में लोगों के हाथ-पैर कांपना इसका छोटा-सा उदाहरण है।

छठा दिन:प्रसन्न रहें
खुशी के भाव को अपने अंदर भर लें। आप पाएंगे कि यही खुशी की तरंगें कई गुना होकर आप और आपके वातावरण, घर को आंदोलित करने लगी हैं। जब हम खुश रहते हैं, तो खुशियां अपने पीछे कई खुशियों को न्योता दिए आती हैं। प्रसन्न मन आपके लिए सुख के नए द्वार खोल देता है।

सातवां दिन:बस एक मिनट
प्रभु से जुड़े होने का अनुभव कर, अनुग्रहित हो जाएं। प्रभु से जुड़ने का अनुभव शरीर को शक्ति की अनुभूति करा जाता है। दिन में एक मिनट अपने इष्ट देव के नाम का उच्चरण भी मन को शांति देता है।

आठवां दिन:साक्षी भाव से जिएं
मन में 24 घंटे चलने वाले हर विचार से अलग हटकर मात्र साक्षी की तरह देखें। कौन से विचार अच्छे हैं और कौन से बुरे आप खुद जान जाएंगे और कुछ ही दिनों में व्यर्थ के विचार स्वत: ही आने बंद हो जाएंगे।

बिना कर्म किए कोई भी नहीं रह सकता
कर्मयोग पर हमारे महात्माओं ने अलग-अलग दृष्टि से बहुत सुंदर बातें कही हैं। बिना कर्म किए कोई रह नहीं सकता। कर्म का शरीर, मन और आत्मा से जो संबंध है, उस पर महाराज चरनसिंहजी ने कहा है कि हमारी आत्मा उस परमात्मा का अंश है, हम उस सतनाम रूपी समुद्र के कतरे हैं।

हम उस मालिक से बिछड़कर इस माया के जाल में फंस गए हैं। सिखों के पांचवें गुरु देवजी ने इस दुनिया को करमा संदड़ा खेत कहकर बयान किया है। हम यह जानते ही हैं कि इन कर्मो के कारण जिस जामे में भी जाकर हमें जन्म लेना पड़ता है, उस जामे में हम सुख और शांति प्राप्त नहीं कर सकते।

हर एक जामे में हमें दुख ही दुख सहने पड़ते हैं। इंसान के जामे के बारे में अच्छी तरह से विचार करके देखें। जिस जामे को हम सृष्टि का सरताज कहते हैं। जेलखानों में जाकर अगर मुल्जिमों की कहानियां सुनें तो पता लगेगा दुनिया में दुख और मुसीबतें ही हैं।

अपने शरीर से हम इन सबका शोर सुनकर अपने भीतर उतार लेते हैं। बाहर का यह शोर जितना भीतर उतारेंगे, हम अशांत हो जाएंगे। थोड़ा भीतर उतरकर इस शोर की जगह अपनी वाणी को भी सुनिए। एक शब्द मनुष्य बोलता है, मनुष्य सुनता है।

यह मनुष्य द्वारा बोली गई वाणी है। पर एक वाणी ऐसी होती है जिसमें खुद मनुष्य ही सुनाई देता है और वह है अनाहत। इसलिए कुछ समय गहरे उतरकर उस ध्वनि को भी सुना जाए तो बाहर का शोर परेशान नहीं करेगा।

पढ़ाई के साथ श्रेष्ठ विचार व संस्कार हैं सोने पे सुहागा
विद्यार्थी जीवन निर्णायक भूमिका अदा करता है, लेकिन आज भी छात्र-छात्राओं के मामले में वातावरण अपने प्रभाव अलग-अलग रखता है। इस दौर में शक्ति, ऊर्जा, योग्यता की संभावनाएं भरपूर रहती हैं और माता-पिता के साथ समाज तथा राष्ट्र भी इस युवा पीढ़ी को देख रहा होता है।

इस निर्णायक दौर में पढ़ाई-लिखाई के साथ श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ प्रवृत्ति और संस्कार सोने पर सुहागा जैसे हैं, लेकिन इनके लिए माहौल मिलना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। इस शिक्षा जगत में भी शोषण, कुटिलता और आचरणहीनता भरपूर भरी हुई है।

जवानी भटक जाए वह तो समझ में आता है, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में कतिपय वरिष्ठ लोग भी कुप्रवृत्तियों का शिकार हैं। पढ़ाने वाले और शिक्षा प्रबंधन में व्यावसायिक दृष्टिकोण रखने वाले तमाम लोग विशेष तौर पर छात्राओं के साथ आज भी अलग अपेक्षा के साथ व्यवहार करते हैं।

स्त्री की घर में और बाहर दोनों जगह मौजूदगी अभी भी अलग अंदाज में देखी जाती है। अपने कुटुंब से बाहर बच्चियों को माता-पिता जैसे सुरक्षित भाव वाले लोग आज भी मिलना मुश्किल हो जाते हैं। स्त्रियां घर और बाहर सुरक्षित स्थान की खोज में वर्षो से लगी हैं।

ऐसे में विद्यार्थी जीवन और चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसलिए इस समय संस्कारों से जुड़ाव जितना अधिक होगा, दुराचार से बचाव उतना ही आसान हो जाएगा।

हम जानें अपना स्वभाव कि हमारे भीतर क्या है
व्यावहारिक जीवन में बाहर सजगता रखनी पड़ती है और जब जीवन में अध्यात्म शुरू होता है तो उसी सजगता को भीतर जागरण नाम दिया गया है। जैन संत श्री चंद्रप्रभ ने सम्यक दृष्टि और सम्यक बोधि के साथ इसका बहुत सुंदर विश्लेषण किया है।

सजगता से किया जाता है और जागरण से होता है। जो किया जाता है, उसका इतिहास लिखा जाता है और जो हो जाता है, वह व्यक्ति का स्वभाव होता है। हम होनी की तरफ आएं, अपने स्वभाव से जुड़ें। ज्यों-ज्यों व्यक्ति में कर्ताभाव कम होता जाएगा, वह अपने आत्म-स्वभाव में स्थिर होता चला जाएगा।

जानें अपना स्वभाव कि हमारे भीतर क्या है? कितना क्रोध है, कितनी शांति? कितनी पवित्रता है और कितने विकार? व्यक्ति स्वयं का हर पल आत्मदर्पण में निरीक्षण करे, स्वयं के प्रति सम्यकत्व का। मेरे भीतर अच्छा क्या है, बुरा क्या है? अच्छे को मैं कैसे बढ़ाऊं और बुरे से कैसे बचूं?

व्यक्ति अपनी सम्यक बोधि का उपयोग स्वयं को जानने और सुधारने के लिए करे। ऐसी बाहरी सजगता और भीतरी जागरण जीवन में आने पर जीवन का रूखापन खत्म हो जाता है। साहित्य में एक शब्द है क्षणभंगुर।

उदासी के भाव को क्षणभंगुर रखा जाए। इसे यदि बार-बार दोहराया जाएगा तो यह आदत भविष्य में महंगी पड़ सकती है। सम्यक बोध हमारी भीतरी प्रसन्नता को बढ़ाएगा और इसके आते ही बाहर की उपलब्धियों के अर्थ बदल जाएंगे।

इंद्रियों को परमशक्ति से जोड़ने पर समर्पण भाव जागेगा
संसार में अनुपयोगी कुछ भी नहीं है। हरेक का अपना उपयोग है। हम जिस वृत्ति से वस्तु या व्यक्ति का उपयोग करते हैं, उसी से उसका रूप और महत्व बदल जाता है। संगीत का ही उदाहरण लें। केवल आनंद के लिए इसे सुनेंगे तो संगीत के अर्थ ही कुछ अलग होंगे।

इसका उपयोग जब कुछ कमाने के लिए करेंगे तो संगीत अपनी दिव्यता खो देगा। संगीत गौण हो जाएगा और हमारा स्वार्थ प्रधान रहेगा। इससे रसिकता समाप्त होकर लोलुपता में बदल जाएगी।

जीवन में रसिक होना जरूरी है, परंतु लोलुप होने से बचा जाए। ऋषियों ने कहा कि अपनी इंद्रियों को परमशक्ति से जोड़ दो तो विषय की जगह समर्पण की भावना जागेगी। संसार की हर वस्तु को विषय न मानें, उसे विभूति मानकर उससे संबंधों में पवित्रता रखी जाए।

मनुष्य ने इस मामले में सबसे बड़ी चूक जीवन को समझने में की है। अधिकांश लोग जन्म को ही जीवन समझने की भूल कर जाते हैं। जबकि जन्म सिर्फ एक घटना है प्राणपूर्ण, लेकिन जीवन इसके बाद इसे संवारने और सही रूप से समझने से शुरू होता है।

जब जन्म होता है तो उसी के साथ एक अवसर, एक संभावना का भी जन्म होता है कि इस जन्म को जीवन में बदला जा सके। पशु-पक्षी इसमें चूक जाते हैं।

उनके लिए जन्म और जीवन एक ही है, पर मनुष्य अपनी इंद्रियों का उपयोग सही रूप से करते हुए जीवन को उपलब्ध हो सकता है। यदि इंद्रियों को ईश्वर से जोड़ें तो जीवन भी एक उपलब्धि होगा।

ईश्वर का भरोसा जीवन में होश के रूप में आता है
जीवन बहुत जटिल होता है। जिंदगी में रास्ते सीधे नहीं हुआ करते। हर मोड़ एक पहेली जैसा होता है, लेकिन यह सब बाहर का मामला होता है। जैसे ही हमारे भीतर होश जाग जाता है, हम इन स्थितियों से परेशान नहीं होते। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में हनुमानजी के ऐसे ही होश का वर्णन किया है। वे मैनाक, सुरसा और सिंहिका से निपटकर जब लंका के निकट पहुंचे और प्रवेश की तैयारी कर रहे थे, तब तुलसीदासजी ने उनके लिए लिखा - सैल बिसाल देखि एक आगे। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागे।। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमानजी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े। यहां हनुमानजी ने बताया लंका में प्रवेश के पहले मनुष्य का तन, मन और धन से सक्षम होना जरूरी है। यह दुनिया एक लंका की तरह है। इसमें प्रवेश करना हो तो हर तरह से सक्षम होना पड़ेगा। इस चौपाई में शब्द आया है हनुमानजी दौड़कर चढ़ गए। यहां दौड़कर चढ़ने का अर्थ है कि हनुमानजी हर काम स्फूर्ति व समयबद्धता से करते हैं। और परमात्मा के प्रति विश्वास बनाए रखते हैं। उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।। हे उमा! इसमें वानर हनुमान की बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। इस चौपाई में लिखा है उनके साथ प्रभु प्रताप था, इसलिए वे जटिल काम भी सरलता से कर गए। आत्मविश्वास और ईश्वर का भरोसा जीवन में होश के रूप में आता है।

अपने मन को दुख और मुसीबतों से काटकर रखें
जीवन में जब सब कुछ अच्छा चल रहा होगा तो दुनिया वाले भी पूछताछ कम करेंगे। यह अलग बात है कि आपके सुख से वे दुखी भी हो सकते हैं। लेकिन जब हम पर संकट आएगा, तब हमसे पूछताछ भी ज्यादा होगी।

दूसरों के दुखों को टटोलने और कुरेदने का रस कुछ लोगों को सुख पहुंचाता है। भूलने से दुख कम होता है, पर बाहर से दुनिया भूलने नहीं देती। मनुष्य ऐसे में खुद को दूसरों से काट लेता है। समस्या यहीं निपट जाती तो यह तरीका भी बुरा नहीं होता।

लेकिन लोगों से बचकर अब हम अपने पर टिक जाते हैं और यहीं से मन सक्रिय हो जाता है। हल्की-फुल्की मुसीबत को भी वह बहुत गंभीर कर देता है। यहीं से चिंता के जाल में फंसता है मनुष्य। हम स्वयं देखें, कई बार जब समस्या या दुख का प्रथम प्रवेश होता है वह आरंभ में उतनी बड़ी नहीं होगी, लेकिन मन उससे जुड़ा और सक्रिय होकर उसे भारी बना देता है।

समाधान को असंभव बनाने तक मन क्रियाशील रहता है। इसलिए प्रयोग करें, जैसे ही दुख, मुसीबत, परेशानी आए सावधानी रखें कि मन का इससे ज्यादा जुड़ाव न हो सके। मन को मुसीबतों से काटकर रखें। उसे निष्क्रिय करने के लिए ध्यान का प्रयोग करें, मेडिटेशन से गुजरा मन संकटों से दूर रहेगा।

यहीं से हम शांति के साथ समाधान ढूंढ़ सकेंगे। हर समस्या का सामना हम प्रफुल्लता और उत्साह से कर सकेंगे। हमारे लिए तब समाधान के प्रयास चिंता का विषय नहीं, सहज कर्म होंगे।

मौत को मजबूरी या भय से नहीं हमेशा याद रखा जाए
जीवन में सीखने के लिए जितनी स्थितियां हैं, उनमें से एक महत्वपूर्ण है मृत्यु। फकीरों ने कहा है धार्मिकता शुरुआत है जीवन को सही रूप में देखने की। और अंत होते-होते धार्मिकता जब अध्यात्म में बदलती है, तब मृत्यु को सही ढंग से देखना आ जाता है।

मृत्यु भी गुरु की भूमिका में होती है। बड़ी से बड़ी सीख मृत्यु से ली जाती है। कई लोग कहते हैं फटाफट शरीर खत्म हो जाए तो ठीक है, पर थोड़ा-थोड़ा शारीरिक कष्ट और फिर मौत, यह बड़ा कष्टकारी है। लोग मौत भी सुविधाजनक चाहते हैं।

दरअसल, जब तक जिंदगी में बढ़िया चल रहा होता है, तब तक मृत्यु की याद भी नहीं आती और जहां शरीर के, हालात के कष्ट शुरू हुए तब मनुष्य थोड़ा-बहुत मौत को टटोलता है। मृत्यु को मजबूरी या भय से याद न किया जाए, इसे सतत स्मरण रखा जाए।

जितना मृत्यु से परिचय गहरा होगा, जिंदगी उतने ही अच्छे से समझ में आएगी। यदि जीना चाहते हैं तो मृत्यु को न भूलें। परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धिमान बनाकर सर्वश्रेष्ठ वरदान दिया है। इसलिए थोड़ी बुद्धि मृत्यु के स्वाद, समझ और स्वागत में भी खर्च की जाए।

उसे जब आना होगा, कोई रोक नहीं पाएगा, लेकिन तैयारी पूर्व से ही होगी तो जीवन जरूर मस्ती का स्पर्श ले लेगा। मृत्यु की समझ के लिए सतत जागृति हमें प्रेमपूर्ण बनाएगी, हरेक के प्रति हमारी दृष्टि बदल देगी। ऊर्जा मौत से बचने में न लगाकर समझने में लगाई जाए तो जीवन जीना भी उपलब्धि हो जाएगा।

गुरु के झरोखे से भगवान को झांका जा सकता है
जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टि और विश्वास जगाने के लिए कुछ विशेष परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। ऐसी ही एक परिस्थिति का नाम होता है गुरु। हम चाहे किसी भी मार्ग के व्यक्ति हों, भौतिकता का पथ हो या भक्ति की राह, कुछ न कुछ संदेह, भ्रम और प्रश्न खड़े हो ही जाते हैं।

जिज्ञासु लोग उत्तर पाना चाहते हैं। यह चाहत ही गुरु पर जाकर पूरी होती है, लेकिन याद रखिए गुरु उत्तर दे या न दे, पर समझ को एक उत्तेजना प्रदान कर देता है। वही समझ होश बनकर साधक के काम आती है।

जैसे छात्र जीवन में सफलता के लिए दो बातें जरूरी हो जाती हैं- शिक्षक और पाठच्यक्रम। इनसे भी जुड़ाव समर्पण और परिश्रम से होता है। योग्य शिक्षक मिल जाए और उपयोगी पाठच्यक्रम का चयन कर लिया जाए तो सफलता मिलती है।

यही दृश्य भक्ति के मार्ग में भी रहेगा। गुरु अपने मंत्र से मन के विसर्जन, निष्क्रियता की तैयारी कराता है। गुरुमंत्र रटने का विषय नहीं, मन को निष्क्रिय करने का साधन है। जिनके पास गुरुमंत्र है उनके लिए ध्यान में उतरना सरल है।

भौतिक जगत में भी सफलता के साथ जिस शांति की जरूरत है, वह जिस होश से आती है, उसका स्रोत ध्यान होता है। तो सद्गुरु के प्रभाव को व्यक्ति से अधिक मंत्र में मानें।

गुरु के झरोखे से भगवान को झांका जा सकता है, पर झरोखे पर ही टिक गए तो यह गुरु का अपमान होगा। जिन कारणों से सद्गुरु हमारे जीवन में आते हैं, यदि वे ही पूरे न किए जाएं तो यह सद्गुरु का अपमान ही होगा।

आत्मरक्षा के लिए स्वार्थ की भावना आवश्यक है
हमें कुछ बातों और व्यक्तियों से अतिरिक्त लगाव होता है। अपने लगाव को विस्तार दें। यहीं से हमारे जीवन में परमार्थ आरंभ होगा। ‘भला सोचो और भला करो’ यह परमात्मा को पसंद है। परमार्थ करते समय दृढ़ भावना रखें और वह भी निश्चलता के साथ।

सभी में स्वार्थ भाव होता है। अस्तित्व बनाए रखने और आत्मरक्षा के लिए स्वार्थ की भावना एक आवश्यक तत्व है। अपने इस स्वार्थ भाव को धीरे-धीरे परमार्थ में बदलने की क्रिया भी जारी रखी जाए। निज-स्वार्थ में त्याग का भाव जोड़ने से नि:स्वार्थ भाव जागता है।

धीरे-धीरे अपने लाभ के साथ दूसरों की हानि न हो, यह शैली विकसित होने लगेगी। आत्म उन्नति करते-करते दूसरों को प्रोत्साहन, अवसर देना हमारी जीवनशैली का हिस्सा बन जाएगा। जो लोग निज-हित के विचार को लंबे समय तक स्वयं पर ही केंद्रित रखेंगे, वे फिर धीरे-धीरे कुंठित होंगे और अनुचित करने पर भी उतर आएंगे।

ऐसे लोग पुण्य भी परहित के लिए नहीं, अपने पाप काटने के लिए ही करेंगे। ऐसे ही लोगों ने यह धारणा फैलाई है कि पाप करते रहो, उसके एवज में पुण्य भी करते चलो, पुण्य पाप को काट देगा। परमात्मा कमीशनखोर नहीं है, जो आपकी गलत हरकतों को पुण्य से लीपा-पोती कर देगा।

वहां की व्यवस्था साफ-सुथरी है। अच्छे कर्मो के परिणाम अच्छे मिलेंगे, बुरे कर्मो के नतीजे शुभ नहीं होंगे। कर्म आरंभ होते ही फल भी शुरू हो जाता है। दरअसल, कृत्य और परिणाम जुड़े हैं।

गलत बात का विरोध करें और समर्थन में पीछे न हटें
सहमति और विरोध की जीवन में अलग-अलग स्थिति में जरूरत पड़ती है, लेकिन यदि गलत में सहमति हो जाए और सही का विरोध हो जाए तो नुकसान भी उठाना पड़ता है। कहां सहमति देना और कहां विरोध करना है, इसमें हनुमानजी बहुत जागरूक थे।

जब सुंदरकांड में वे लंका प्रवेश के समय लंका की सुरक्षा अधिकारी लंकिनी के सामने आते हैं, तो मच्छर के समान छोटा-सा आकार लेकर हनुमानजी लंका में प्रवेश कर रहे होते हैं और लंकनी उन्हें पकड़ लेती है। तुलसीदासजी ने लिखा है- जानेहि नहीं मरम् सठ मोरा। मोर अहार जहां लगि चोरा।।

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना। जितने चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। लंकिनी ने हनुमानजी को चोर बोला। बस, यहीं से हनुमानजी ने विरोध का स्वर प्रकट किया। उन्होंने लंकिनी से कहा- तुम मुझे क्या चोर बता रही हो, दुनिया का एक बड़ा चोर रावण हमारी मां सीता को चुरा लाया है।

जब सुरक्षा व्यवस्था चोरों की ही रक्षा करने लग जाए, तब हनुमान का विरोध आरंभ होता है। हनुमानजी ने लंकिनी को एक मुक्का मारा और उसके मुंह से रक्त निकल आया। यह उनका सीधा विरोध था। गलत के प्रति आवाज उठाना, अनुचित का प्रतिकार करना हनुमानजी के चरित्र में था।

हम उनसे सीखें कि जब गलत बात हो तो हम विरोध में आगे खड़े हों और सही बात के समर्थन में पीछे न हटें। आमतौर पर लोग तटस्थ हो जाते हैं, इसीलिए उनकी अच्छाई के नीचे भी बुराई पनप जाती है।

प्रकृति के तत्वों से जो कुछ लेंगे उसे लौटाना भी पड़ेगा
फसल उनकी अच्छी होती है जो भूमि निर्माण सही करते हैं। केवल उपजाऊ जमीन होने से ही काम नहीं चलता, उसको जोतना भी आना चाहिए। हमारे जीवन में सद्गुण और बुरे गुणों के बीज रहते ही हैं। दोनों में अंकुरण की बराबर संभावना रहती है।

देखा जाए तो नीच कर्म, पाशविक वृत्ति, बुरे विचारों की ओर मन जल्दी मुड़ता है। अच्छे गुणों के संचालन और उनकी वृद्धि के लिए परमात्मा ने एक दैवी-शक्ति हर एक के भीतर दी है। यही शक्ति हमसे सद्कर्म कराती है।

हमने प्रकृति के प्रत्येक तत्व में एक प्रतिनिधि देवता की कल्पना इसीलिए की है कि उससे हमें शक्ति मिले, जिससे हमारे भीतर की दैवी-शक्ति का विकास हो। उदाहरण के लिए सूर्य की ही बात करें। हमने प्रकृति के इस महत्वपूर्ण तत्व को देवता मानकर पूजा और उन पर जल चढ़ाकर पॉजीटिव एनर्जी प्राप्त की।

परमात्मा ने प्रकृति के माध्यम से यह विधान बना दिया कि सौदा एकतरफा नहीं होगा। प्रकृति के तत्वों से ले रहे हो तो देना भी पड़ेगा। दैवी-शक्ति मिले तो परोपकार करो, उस देवता को उसका भाग लौटाओ। हमारे कुछ धार्मिक लोगों ने कुरूपता को आध्यात्मिक योग्यता मानने की भूल कर दी।

कुछ अपवाद छोड़ दें कि ऐसे फकीर हुए जिनकी औघड़ता ही उनका सौंदर्य बन गया। हमने देवता और देव स्थानों को इतना गंदा बना दिया कि शुद्धता का बोध ही चला गया। गंदा रहकर साधना नहीं हो सकती। इसलिए दैवीय शक्ति को सौंदर्य से भी जोड़े रखें।

हर उस बात को याद रखें जो हमें खुशी और प्रसन्नता दे
अच्छी स्मरण शक्ति का यह अर्थ नहीं है कि बातों को याद रखा जाए। बढ़िया याददाश्त के मायने यह भी हैं कि जो भुलाने लायक है उसे भुला दिया जाए। ताकत याद रखने में ही नहीं लगती, उससे ज्यादा ताकत तो व्यक्तियों और स्थितियों को भुलाने में लगती है।

स्मरण शक्ति का उपयोग लाभकारी होना चाहिए। हर उस बात को याद रखें, जो खुशी दे, चित्त को हल्का बनाए, तबीयत प्रसन्न रखे। जिससे खिन्नता, भारीपन, निराशा, उदासी आती हो उसे भुलाने में ही भला है।

स्मरण शक्ति को भी रीचार्ज करना पड़ता है। इसकी मेमोरी को हमेशा फुल न रखें, खाली करते रहें। रिफ्रेश की कला को याददाश्त से जरूर जोड़ें। जो ज्यादा याद रखते हैं, वे डिप्रेशन में भी जल्दी चले जाते हैं। याददाश्त की साफ-सफाई ठीक से नहीं करेंगे तो एक बीमारी और हो जाती है।

जो जरूरी बातें हैं वो समय पर दिमाग में नहीं आतीं और ऊटपटांग, इधर-उधर के विचार मस्तिष्क में न चाहने पर भी आते हैं। स्मरण शक्ति के सदुपयोग के लिए कुछ ऐसा किया जाए कि विचार के स्तर पर उनसे जुड़ें जिनसे सीधा संबंध न हो, जैसे प्रकृति और परमात्मा, मनुष्यों और उनके द्वारा निर्मित स्थितियों के अलावा भी संसार में बहुत कुछ है, जैसे- वृक्ष, नदी, पर्वत आदि, इनके अस्तित्व से जुड़ें।

इनसे जुड़ते ही विचार नवीन बनेंगे, जो हमें जीवन की गहरी जड़ों तक ले जाएंगे और स्मृति को ताजगी प्रदान करेंगे, तब आसान होगा याद रखने वाली बात याद रखना, भूल जाने वाली भूल जाना।

हर व्यक्ति के भीतर एक महात्मा होता है
हम बाहर कई लोगों से मिलते हैं और अलग-अलग व्यक्तित्व का लाभ भी उठाते हैं, लेकिन हमारे भीतर भी कुछ व्यक्तित्व होते हैं। हर व्यक्ति के भीतर एक महात्मा होता है। हम अपने ही भीतर बैठे महात्मा का लाभ नहीं उठा पाते।

महात्माओं में वैराग्य की एक विशेष वृत्ति होती है। हमारे भीतर जितना वैराग्य जागेगा, हम उतने ही अधिक शांत होते जाएंगे। वैराग्य का सामान्य अर्थ लगाया जाता है वस्तुओं और स्थितियों के प्रति उदासीनता, लेकिन यह आधा अर्थ है।

दरअसल, उपयोग करने की ठीक कला का नाम वैराग्य है। उपयोगिता और विलासिता के बीच ठीक से खींची लक्ष्मण रेखा वैराग्य होती है। संसार की वस्तुओं पर अपना मालिकाना अधिकार समझने से हम उनका दुरुपयोग शुरू कर देते हैं।

हर मिली वस्तु को परमात्मा का प्रसाद मानें तो निष्कामता का जन्म होगा। हमें वैराग्य भाव ओढ़ना नहीं है, जीना है। यदि ऊपरी तौर पर वैराग्य, त्याग साधा तो आंख, नाक, कान, स्पर्श में से लोभ, लालच टपकने लगेगा।

हम अपने लोभ को छुपाना जान जाएंगे, लेकिन वह बहने के नए-नए मार्ग ढूंढ़ लेगा। बाहर से हम वैराग्य प्रकट करेंगे, लेकिन भीतर ही भीतर लोभ हमारा पीछा कर रहा होगा। दूसरे की हर वस्तु पर मन अपना हक जताएगा।

इसलिए त्याग और वैराग्य के आचरण को अपने ऊपर थोपें नहीं, उसे मन से स्वीकार करें, उसके उपयोग को निष्कामता से जोड़ें। जो वैराग्य को ठीक से समझ लेंगे, वे उपयोग के बाद पूर्ण तृप्ति महसूस करेंगे।

ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है स्त्री, जो पुरुषों से श्रेष्ठ है
स्त्री को मानवता का नवीनतम संस्करण बताया है। प्रसिद्ध सर्वोदयी चिंतक दादा धर्माधिकारी कहा करते थे- हम जब कोई चीज खरीदने बाजार जाते हैं, तो अक्सर सबसे आखिरी तर्ज की चीज मांगते हैं। अगर मोटर खरीदते हैं तो आज का या सबसे बाद का मॉडल मांगते हैं।

चीज वही बढ़िया है, जो अप-टु-डेट हो, नवीनतम हो। लेटेस्ट मॉडल को बेस्ट मॉडल समझा जाता है। इसी प्रकार स्त्री भगवान की सृष्टि का लेटेस्ट मॉडल है। इसलिए वह हर बात में पुरुष से बढ़िया है। भगवान ने पहले मनु को या आदमी को बनाया और बाद में स्त्री को।

उसकी सबसे उत्कृष्ट कृति स्त्री है। दरअसल भगवान ने दोनों को अपनी-अपनी विशेषता के साथ समान ही बनाया है। जब आदमी, औरत एक-दूसरे से एक-दूसरे को श्रेष्ठ बताने की कोशिश करते हैं, तब उनकी सृजन ऊर्जा इसी में खर्च हो जाती है।

इसी कारण दोनों पास-पास तो रहते हैं, लेकिन साथ-साथ नहीं रह पाते। जीवन रेल की पटरियों की तरह हो जाता है। दूर से देखो तो एक नजर आती हैं, परंतु पास जाकर देखो तो दूरी है। दोनों में बराबरी होनी चाहिए, लेकिन बराबरी समान भूमिका की, हैसियत की हो, एकरूपता की नहीं।

प्रतिस्पर्धा और खिंचाव कम करने के लिए एक प्रयोग किया जा सकता है। अपना सौंदर्यबोध शरीर से हटाकर आत्मा के तल पर टिकाएं, प्रकृति के प्रति प्रेमपूर्ण हों, तब शरीर के अतिरिक्त भावनात्मक विशेषताएं दिखने लगेंगी और एक-दूसरे की खूबी एक-दूसरे के काम आएगी।

मनुष्य व पुरुषार्थ परस्पर पूरक
मानवीय जीवन की विशेषता पुरुषार्थ में होती है। पुरुषार्थ का सीधा सा मतलब है ऐसी वस्तुएं और स्थितियां जो मनुष्य अपने प्रयास और पराक्रम से प्राप्त करता है, जिनके परिणाम उनके हाथों में होते हैं, जिनमें वह अपना कौशल दिखा सकता है।

हर मनुष्य के भीतर उसका पुरुषार्थ होता है और हर पुरुषार्थ के भीतर एक मनुष्य होता है। जो लोग नेतृत्व कर रहे हों और उन्हें जब बहुत से लोगों से काम लेना हो, तब वे इस बात का ध्यान रखें। आदमी के भीतर के पुरुषार्थ को समझ लें, उसे जगा लें और उसका भरपूर उपयोग कर लें।

बहुत सारे लोग ऐसा करने में दक्ष भी होते हैं, बल्कि यूं कहें कि ज्यादातर योग्य प्रबंधक ऐसा ही कर रहे हैं। आदमी की कार्यक्षमता का भरपूर दोहन किया जा रहा है। लगातार ऐसा करते रहने से सबकुछ एक पक्षीय हो जाता है।

दरअसल, अक्सर लोग यह नहीं समझते हैं कि जितना महत्व आदमी के भीतर के पुरुषार्थ का उपयोग करने का है, उससे कुछ कम जरूरी नहीं है पुरुषार्थ के भीतर के आदमी को जिंदा रखना। बात गहरी है और इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखना चाहिए।

पहली स्थिति में जब हम केवल पुरुषार्थ में टिकते हैं तो सबकुछ यंत्रवत हो जाता है। लगातार काम करते रहने से आदमी मशीन बन जाता है। धन कमाना उसकी विवशता हो जाती है। जैसे भारतीय समाज में स्त्री का कौमार्य और वैभव दोनों ही विवशता है, जबकि पुरुष का ब्रह्मचर्य और संन्यास स्वेच्छा प्रेरित होता है।

इसी प्रकार आदमी मजबूर है काम करने के लिए और प्रबंधन विवश है काम का भुगतान देने के लिए, लेकिन जैसे ही दृष्टि आध्यात्मिक होगी हम पुरुषार्थ के भीतर के आदमी को ढूंढेंगे और यहीं से सृजनात्मकता, संवेदनाएं और भावनाएं पकड़ में आएंगी।

अच्छे प्रबंधक आदमी के काम के अलावा काम के भीतर के आदमी को भी टटोल लेते हैं। जैसे ही आप किसी के अंतरतम को स्पर्श करते हैं, उसकी क्रिएटिविटी बढ़ जाती है, उसके परिणाम देने के तरीके बदल जाते हैं। वह खुद भी खुश रहता है और पूरे संस्थान का वातावरण बोझिल नहीं करता।

वह काम के बदले भुगतान पर नहीं टिकता, बल्कि काम के बदले और अच्छा काम करता है। शोषण की जगह इरादों में सेवा आ जाती है। दोनों ही पक्ष एक-दूसरे के लिए भय और संदेह का नहीं, सद्भाव और सेवा का माहौल बना देते हैं।

इसलिए कोई भी संस्थान हो, वह अपने काम के घंटों में से थोड़ा समय निकालकर काम करने वाले लोगों के भीतर जाकर उस मनुष्य को जरूर टटोलें, जिसकी वजह से दुनिया स्वर्ग बनती है।

‘दही में पड़ा हूं इसलिए ही मैं दही बड़ा हूं’
समर्पण जिंदा व्यक्ति का लक्षण है तो अहंकार मुर्दे की पहचान है। मुर्दे के लक्षण होते हैं कि वह कुछ भी करो, मुड़ता नहीं है, यथास्थिति रहता है। अहंकारी व्यक्ति किसी के सामने झुकता नहीं है। लेकिन आदमी मुड़ना जानता है इसलिए वह मुड़ता भी है और मोड़ता भी है। तो अहंकार आदमी को अकड़ाकर मुर्दा बनाता है और समर्पण झुकाकर जीना सिखाता है। गुरुनानक देव ने कहा है - नानक छोटे हुई रहो, जैसे नन्ही दूब। बड़े बिरछ कट जाएंगे, दूब खूब की खूब।।

संतों की ऐसी वाणी भी हमारे अहंकार के सामने व्यर्थ हो जाती है। बड़े बनने की धृष्टता पर हम मर मिटने को भी राजी हो जाते हैं, लेकिन याद रखें कि अहंकार के लिए मरने वाले कभी बड़े नहीं बन सकते। बड़े वे होते हैं, जो समर्पण के साथ जीते हैं। जैसे दही बड़ा। किसी ने दही बड़े से पूछा - लोग तुम्हें बड़ा क्यों कहते हैं? उसने कहा - मैं दही में पड़ा हूं इसलिए बड़ा हूं। दही बड़े की यह आत्मकथा हमें बताती है कि पड़े रहने का अर्थ है समर्पण। समर्पण हमारे भीतर की विशेषताओं को स्थापित करता है। समर्पण में सीखने के लिए ऊर्जा का जन्म होता है।

जो सीख लेते हैं, वे ज्येष्ठ (बड़े) के साथ श्रेष्ठ भी हो जाते हैं और जो नहीं सीख पाते, वे निश्चेष्ट (मृत) हो जाते हैं। समर्पण की एक और विशेषता है कि वह हमें वर्तमान पर टिकाता है। जब अतीत व भविष्य से मुक्त होंगे, तब वह हमारा वर्तमान होगा और वर्तमान में ही जागरण की अनुभूति होती है।

हर पल को भरपूर जीने से और खूबसूरत होगी जिंदगी
जिंदगी तब और खूबसूरत हो जाती है, जब हम प्रत्येक क्षण को भरपूर जीते हैं। जीवन में जो रस होता है, उसको पूरी तरह से निचोड़ने की कला आनी चाहिए। हनुमानजी इस जीवनशैली के पारंगत थे। वे जो जब करते थे, जमकर करते थे।

चलिए, सुंदरकांड के उस प्रसंग में चलें, जहां लंका प्रवेश के अवसर पर हनुमानजी की चर्चा लंकनी से हो रही थी। हनुमानजी ने उसको एक मुक्का मारा। घायल होकर वह हनुमानजी से कहती है- जब रावनहि बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।

रावण को जब वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की पहचान बता दी थी। यहां एक शब्द आया है चीन्हा अर्थात चिन्ह यानी आइकॉन। इसका सीधा-सा अर्थ है हनुमानजी राक्षसों के विनाश की पहचान थे।

जिस तरह हम अपने संस्थान या काम का एक मोनो, लोगो या आइकॉन बनाते हैं, उसी तरह हनुमानजी सदैव से बुराइयों का विनाश और अच्छाइयों की स्थापना के आइकॉन हैं।

उनकी मौजूदगी का परिणाम था कि उनसे शत्रुता रखने वाली लंकनी ने कहा- हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए तो भी वे उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है।

यानी लंकनी को हनुमानजी की उपस्थिति सत्संग लगी। हमारे भीतर यदि सद्गुण हैं तो हम जहां भी खड़े होंगे, आसपास के लोग सत्संग-सी अनुभूति करेंगे और यही हमारी उपलब्धि होगी।

शिक्षितों में धर्मभीरुता कम धर्म भावना ज्यादा होती है
एक समय था जब शिक्षा सीमित लोगों का विषय थी। पुराने समय में किसी भी कारण से अशिक्षित लोग अपनी नैसर्गिक ऊर्जा को धर्म से जोड़ देते थे। इसीलिए मोटे तौर पर यह कहा जाता है कि कम पढ़े-लिखे लोग अधिक धार्मिक होते हैं।

यहीं से गड़बड़ी शुरू हो गई। जिनके पास शिक्षा कम थी, उनके पास धर्म अधिक आ गया, क्योंकि धर्म के ठेकेदारों ने इसका फायदा उठाया। ऐसे लोग धर्मभीरु बन गए। पढ़े-लिखे लोग भी धर्म से जुड़ते हैं, पर उनके भीतर धर्मभीरुता कम और धर्म भावना ज्यादा होती है, इन दोनों में अंतर है।

धर्मभीरुता ने कर्मकांड को ही लक्ष्य बना लिया। सिर्फ कर्मकांड परमात्मा तक पहुंचने का साधन नहीं हो सकता। वह शुरुआत हो सकती है, लेकिन यदि केवल धर्मभीरुता रही तो भटकाव निश्चित है। इसीलिए हमारे यहां धर्म के द्वारा लोगों में पर्याप्त नैतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकी।

अधर्म यानी बुरा, अनुचित। धर्म यानी शुभ, अच्छा। परमात्मा तक पहुंचना हो तो एक स्थिति ऐसी आती है, जब अशुभ के साथ शुभ भी छोड़ना पड़ता है। यदि पाप आदमी को बांधता है तो पुण्य भी बंधन का कारण बन जाता है।

पुण्य करने के लिए लोग दान-दक्षिणा में उलझ जाते हैं। दान तब कर पाएंगे, जब धन होगा और धन तब होगा, जब काम करेंगे। इस वतरुल से बाहर निकलना ही उस परमशक्ति की उपलब्धि है। इसलिए धर्मभीरुता से अधिक महत्व धर्म भावना को दिया जाए।

जिज्ञासा के तत्व को सदैव अपनी पूजा से जोड़े रखें
जिज्ञासा ज्ञान का आरंभ है। जिज्ञासु लोगों ने ही कर्मकांड को नए स्वरूप दिए। हिंदू संस्कृति में ऐसे लोगों ने कर्मकांड को संवार दिया। छोटा-सा उदाहरण देखें। गणोशजी की प्रतिमा बनाई जाती है, पूजी जाती है और फिर उसे विसर्जित कर दिया जाता है।

इसके पीछे बड़ा भारी दर्शन है। एक कर्मकांड से मूर्ति निर्माण किया, पूजा की, उत्सव मनाया और फिर उसी प्रतिमा को विसर्जित कर दिया, यानी कर्मकांड से जुड़े भी और मुक्त भी हुए। जिज्ञासा यदि चिंतन और मनन के लिए है तो कर्मकांड ऐसे ही अंधविश्वासों से मुक्त होगा।

अपने भीतर जिज्ञासा के तत्व को सदैव अपनी पूजा से जोड़े रखें। अपनी जिज्ञासु वृत्ति को तराशने के लिए पांच काम करते रहें : किताबों का अध्ययन, सत्संग, मनुष्यों की मनोवृत्तियों का अध्ययन, घटना घट जाने पर उससे अनुभव लेने का प्रयास करें तथा अपनी भूलों को ढूंढ़ने और स्वीकार करने में विलंब न करें।

यहीं से जिज्ञासा ज्ञान में बदल जाएगी। हर मनुष्य के भीतर घटना या व्यक्तियों के प्रति सोचने और प्रतिक्रिया करने का निजी ढंग होता है। यदि ठीक से व्यक्त न हो तो भीतर ही भीतर उबाल आने लगता है।

जैसे बादलों में पानी भर जाए तो उन्हें बरसना ही है, लेकिन यदि जिज्ञासा की वृत्ति अपने भीतर तराश ली जाए, तब हम अपनी प्रतिक्रियाओं के प्रति अत्यधिक सक्षम, सहज व आनंदित होंगे। जिज्ञासा हमें भीतर से संतुष्ट करेगी और संतुष्ट व्यक्ति बाहर के वातावरण को बोझिल नहीं होने देता।

धन के आने और जाने में सदा बना रहे प्रवाह
धर्म धन को शुद्ध करता है, ऐसी शास्त्रों की उद्घोषणा है। धन के साथ दान इसीलिए जुड़ा है। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला, एक और नया दृष्टिकोण सामने आ रहा है। धर्म ने धन को जितना शुद्ध किया, उतना ही खतरा इस बात का बढ़ गया कि धन भी धर्म को विकृत कर सकता है।

ये दोनों ही जब समझदार और विवेकशील लोगों के हाथ में नहीं होंगे तो एक-दूसरे को विकृत ही करेंगे। मंदिर, तीर्थ, मठ और आश्रम इस समय धनवर्षा की आंधी से हिल रहे हैं। इतना पैसा आया कि पैसे का महत्व ही बदल गया।

धन और विलास की बड़ी पुरानी दोस्ती है। इसके बीच की लक्ष्मण रेखा का नाम वैराग्य है। धन लोक-मंगल की जगह निजहित का हथियार बन गया है। धार्मिक लोगों की कमजोरी दान होती है। धर्म के ठेकेदारों ने इसका खूब लाभ उठाया।

धन की शक्ति को भावनाओं की शक्ति और जनशक्ति से जोड़ा जाना चाहिए। अध्यात्म में धनोपार्जन को बुरा नहीं माना है। धन बीज है और सेवा क्षेत्र में उसका उपयोग बीज का अंकुरण है। धन की भी मृत्यु करानी पड़ती है।

जैसे बीज की मौत ही वृक्ष का जीवन है, उसी प्रकार धन की मृत्यु भी उसके उपयोग का नवजीवन होगा। धन को बचाने में मिटाने की कला आनी चाहिए। रोका हुआ जल दरुगध देता है और जमा किया हुआ धन अशांति का कारण बनता है।

इसके आने और जाने में फ्लो होना चाहिए। इस बहाव को वैराग से जोड़ा जाए। लोभ की लहर धन को गलत तरीके से लाएगी और अनुचित मार्ग से ले जाएगी।

जीवन में मन की सोच ही हमारे चरित्र की कुंजी है
शास्त्रों में एक पंक्ति है- जिसने जानने वाले को जान लिया, उसने सबकुछ जान लिया, यानी वह परमात्मा सभी के भीतर मौजूद है। इसीलिए परमात्मा की शुरुआत दृश्य से होती है। दृश्य यानी मूर्ति, मंदिर।

लेकिन जैसे-जैसे यह भाव परिपक्व होता है, परमात्मा दृश्य की जगह द्रष्टा हो जाता है। संतों ने इसी क्रिया को ‘आत्मा ही परमात्मा है’ कहा है। अपने भीतर उतरें और गहराई में जाकर उस अंतिम केंद्र पर स्वयं को ही पा लें, बस वहीं भगवान है।

इसके लिए जिंदगी के सफर की दिशा को बदलना होता है। पांच बातें इस गति के लिए काम आती हैं। भगवान महावीर द्वारा चंद्रप्रद्योत को पांच व्रत दिए गए थे। वे ही व्रत श्रमण और श्रावक जीवन के आधार-स्तंभ बने।

अपरिग्रह के रूप में हम इन पंच महाव्रतों से वाकिफ हैं। ये महाव्रत आज भी समीचीन हैं। जैन मुनि श्री चंद्रप्रभ के अनुसार व्रत का अर्थ है ‘विरत या अलग होना’। रत का अर्थ है जुड़ना या मिलना और विरत यानी दूर या अलग होना।

जैसे कमल की पंखुड़ियां कीचड़ से अलग रहती हैं, ऐसे ही महावीर हमें हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और व्यर्थ के संग्रह के कीचड़ से मुक्त रखना चाहते हैं। इन पांचों को अपनी सोच से जोड़कर रखना चाहिए, क्योंकि सोच वाणी का आधार है, वाणी व्यवहार का और व्यवहार चरित्र का।

यानी मन की सोच चरित्र की कुंजी है। जो अपने चरित्र पर टिक गया, उसे परमशक्ति परमात्मा की अनुभूति शीघ्र हो जाएगी।

प्रसन्नता और प्रगति का रास्ता
हमें क्या पाना है, क्या छोड़ना है इसका स्पष्ट चिंतन और लक्ष्य होना चाहिए। क्योंकि ऊर्जा दोनों में ही लगती है। व्यावहारिक दृष्टि से ऊर्जा का वितरण समान किया जा सकता है, लेकिन आध्यात्मिक जीवनशैली में ऊर्जा को मोड़ने के लिए सावधानी रखना होगी।

हमें ऊर्जा लगाना चाहिए परमात्मा को पाने में, तो संसार अपने आप छूट जाएगा। लोग इसे गलत रूप में ले लेते हैं। संसार छोड़ने का अर्थ यह नहीं है कि जिम्मेदारियों से भागकर जंगल, पहाड़ या आश्रमों में चले जाएं।

दरअसल, जैसे-जैसे परमात्मा की अनुभूति बढ़ने लगती है वैसे-वैसे संसार की बाधाएं हमें कष्ट नहीं देतीं। जीवन को पॉजिटिव तरीके से लेंगे, तो जो पाना है ऊर्जा उसमें लगाएंगे, जो नहीं पाना है, वह अपने आप छूट जाएगा।

दूसरा ढंग है नेगेटिव, इसमें जो छोड़ना है सारी ताकत उसमें लगा दी जाती है। विधायक, यानी पॉजिटिव तरीका कहता है, घर में रहकर, संसार में रहते हुए, व्यवसाय-नौकरी करते हुए भी परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। कई लोग जीवनभर यह नहीं समझ पाते हैं कि यह ऊर्जा है क्या?

परमात्मा की अनुभूति कई शक्ल में होती है। इसी में यह ऊर्जा काम आती है। आज केवल ईश्वर की एक सूरत की चर्चा करें। अच्छा स्वास्थ्य भी ईश्वर का रूप है। इस समय लोग खूब काम कर रहे हैं। इस कारण या तो अच्छी सेहत के प्रति लापरवाह हैं या खराब सेहत के लिए मजबूर हो गए हैं।

हमारी जो जीवन ऊर्जा है वह स्वास्थ्य संतुलन और पुरुषार्थ पराक्रम दोनों के काम आती है। थोड़ा शांति से बैठकर अपना ध्यान भीतर ही भीतर नाभि पर टिकाएंगे, तो ऊर्जा महसूस होगी। इस ऊर्जा को प्रतिदिन स्पर्श करें, अभ्यास से महसूस होने लगेगी।

शारीरिक रोग से बचने के तो मेडिकल साइंस ने कई साधन हमें दे ही दिए हैं और हम तत्काल इनका उपयोग कर भी लेते हैं। लेकिन जब हम मानसिक रोगों से घिरते हैं तब इस जीवन ऊर्जा की जरूरत पड़ती है।

आप अपने कामकाज, परिवार, समाज में किसी भी पद पर हों, पर सबसे बड़ी पदवी है नीरोगी-काया, तंदुरुस्त रहना तन और मन दोनों से। याद रखें जमाने भर की चिकित्सा सुविधा होने के बाद भी आरोग्य-रक्षा का आश्वासन नहीं मिल पाता।

बीमारियां भी इस समय जीवन में एक बड़ी समस्या हैं। इसलिए जीवन ऊर्जा को समझें, उससे जुड़ें तो परमात्मा को पाने की ओर मुडेंगे और अनुचित अपने आप छूटेगा। वहीं से जीवन में प्रसन्नता, प्रगति और सफलता का आगमन होगा ही।

गुरुरूपी नाव जीवन-सैर को और सार्थक बना देती है
गौरव करने के लिए हमारे पास कई सांसारिक उपलब्धियां होती हैं। गौरव यदि अहंकारशून्य है तो आत्मबल को बढ़ाएगा, लेकिन एक बात का गौरव सबसे अधिक और आवश्यक रूप से करिए और वह है अपने मनुष्य होने का।

धन, पद, संतान और सफलता के गौरव पानी के बुलबुले साबित हो सकते हैं। मनुष्य को परमात्मा ने सीधे अपनी झलक दी है। हमारी जिंदगी एक झील की तरह है, जिसमें उसका कृपा रस भरा हुआ है। यदि गहरे उतरकर देख सकें तो पाएंगे यह मानसरोवर से भी अधिक धवल, साफ-सुथरी है।

इस झील में विहार करने के लिए हंस बनना पड़ेगा, मोती तब ही चुग पाएंगे। सिर्फ मनुष्य के पास यह संभावना है कि वह हंस भी बन सकता है और कौआ भी। हम ईश्वर के प्रतिनिधि हैं, इसलिए पतन से बचना होगा। हमारा हर कदम उत्थान और उत्कर्ष की ओर होना चाहिए।

हम ईश्वर के राजवंश के राजकुमार, राजकुमारी हैं। हमारा हर आचरण समृद्ध होना चाहिए। इस झील में विहार के समय जिस नौका की जरूरत पड़ती है वह गुरु है। गुरुरूपी नाव जीवन-सैर को और सार्थक बना देती है। महान तो हम हैं ही, क्योंकि मनुष्य देह मिली है अब महान से महानतम बनना है।

इसलिए अपने मनुष्य होने पर भरपूर गौरव करें और उसका उपयोग भी करें। मनुष्यता का गौरव परमात्मा की निकटता से आएगा। इसलिए अपने जीवन में अच्छे और बुरे अवसर पर भगवान को कभी न भूलें।

जीवन में आलस्य एक बहुत बड़ी अनुशासनहीनता है
अनुशासित जीवन सफलता का स्वाद अलग ही तरीके से चखता है। अनुशासनहीन व्यक्ति की उपलब्धियां भी दोष बन जाती हैं। आलस्य एक बहुत बड़ी अनुशासनहीनता है। यह धन कमाने के आग्रह का दौर है।

यदि दौलत के वास्तविक रूप को ठीक से समझना हो तो स्वयं को आलस्य से मुक्त रखें और अपनी संपत्ति को वैचारिक दरिद्रता से मुक्त रखें। धन अर्जित करने के लिए दो चीजें जरूरी हैं - एक, विशेष मानसिक परिस्थिति और दूसरा परिश्रम।

अपनी मानसिकता को पांच चरणों से जोड़े रखें। इन पांच पायदानों से दौलत बटोरें, सीधे छलांग की कोशिश अनुचित मार्ग और अपराध की सुरंग से गुजार सकती है। अपनी मनोवृत्ति को शिक्षा से जोड़ें, यह पहली पायदान है।

दूसरी पायदान है योग्यता, क्योंकि यह जरूरी नहीं कि शिक्षित व्यक्ति योग्य भी हो। तीसरा चरण है परिश्रम, फिर चौथा है सद्विचार और पांचवीं पायदान है आत्मबल। धनबल के साथ आत्मबल नहीं रहे तो धन अशांति का कारण बन जाएगा।

मनुष्य का बायां भाग तर्क, गणित, अधिक समीकरणों से चलता है। दायां भाग ज्यादा विचार नहीं करता, उसे संवेदना, भावना से ज्यादा लेना-देना रहता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं पुरुष अधिकांशत: बाएं ओर के हिस्से से जीवन जीते हैं, स्त्रियां दाएं भाग से।

इसी कारण स्त्री-पुरुष के वैचारिक तालमेल गड़बड़ाते हैं। दोनों के संतुलन से मानसिकता स्वस्थ होती है, अत: धन को इसी स्वस्थ मनोवृत्ति से जोड़ा जाए।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

No comments:

Post a Comment