Tuesday, March 1, 2011

Ramakrishna ji(श्री रामकृष्ण परमहंस)

श्री रामकृष्ण परमहंस
(आविर्भाव, २० फरवरी १८३६ ई. - महाप्रयाण, १६ अगस्त १८८६ ई.)
बंगाल प्रान्त के हुगली जिले में स्थित कामारपुकुर नामक गाँव में परमहंस श्री रामकृष्ण देव का आविर्भाव हुआ। यह स्थान वर्धमान से ५० किमी. दक्षिण, तारकेश्वर से ४० किमी. पश्चिम और घाँटाल से २५ किमी. उत्तर स्थित है। इनके पिता का नाम क्षुदिराम चट्टोपाध्याय था। ये बड़े ही कर्मनिष्ठ, तेजस्वी, शास्त्रानुयायी और तेजस्वी ब्राह्मण थे।

एक बार गया में निवास के समय रात्रि में गदाधर जी ने क्षुदिराम को स्वप्न में दर्शन देकर कहा-'मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा।' एतद्नुसार ९ मास बाद जब पुत्र का जन्म हुआ तो क्षुदिराम ने उस बालक का नाम 'गदाधर' रखा। गाँव के लोग उसे 'गदाई' कह कर पुकारते थे। बाल्यावस्था में गदाई धनी-गरीब, बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सबका इतना प्यारा हो गया कि गाँव के लोग २४ घण्टे में कम से कम एक बार उसका दर्शन अवश्य करते थे। वह स्पृश्य-अस्पृश्य सबका दिया हुआ भोजन करता और लोग उसे प्रेम से खिलाते भी थे। विद्यालय जाकर भी उसने पढ़ना लिखना नहीं सीखा। भगवान् की मूर्ति का निर्माण, भगवान् की लीला-उत्सव, रामायण, महाभारत की कथा का श्रवण, खेल, गीत आदि में उसका मन तीव्रता से रमता था।
गदाधर, गदाई अथवा रामकृष्ण परमहंस के व्यक्तित्व को अनेक आयामों से देखा जा सकता है-

बालक रामकृष्ण
रामकृष्ण के अन्दर ऐसी प्रतिभा और ऐसा मनोहारी व्यक्तित्व था कि लोग उनके सामने नतमस्तक होकर उनकी बात को शिरोधार्य कर लेते थे। जनश्रुति के अनुसार यदि कभी किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर पर आयोजित विद्वत् सभा में विद्वानों का शास्त्रार्थ होता और तत्त्वसिद्धान्त का निर्णय न हो पाता तो १२-१३ वर्ष का बालक रामकृष्ण लोगों के बीच आकर ऐसी बात कह देता जो दोनों पक्षों को मान्य हो जाती और विद्वान् लोग सन्तुष्ट हो जाते।

किशोर रामकृष्ण
रामकृष्ण को दो भाई और दो बहनें थीं। बड़े भाई रामकुमार ने कलकत्ता आकर एक पाठशाला स्थापित की। वे व्याकरण, साहित्य एवं धर्मशास्त्र के अच्छे विद्वान् थे। १६-१७ वर्ष की अवस्था में रामकृष्ण भी कलकत्ता आकर बड़े भाई के साथ रहने लगे। एक दिन उन्होंने कहा- 'जिस विद्या से केवल पेट भरता हो हमें वैसी विद्या पढ़ने की जरूरत नहीं है।' बाद में कलकत्ता में ही किसी गृहस्थ के यहाँ वे विष्णु के पुजारी बना दिये गये और वहीं उनका नाम रामकृष्ण हो गया।
कलकत्ते की प्रसिद्ध रईस रानी रासमणि और उनके दामाद मथुर बाबू रामकृष्ण एवं उनकी माँ के परम भक्त थे। ३१ मई सन् १८५५ ई. में रानी रासमणि ने दक्षिणेश्वर नामक स्थान में एक काली बाड़ी बनवायी। रामकृष्ण अपने बड़े भाई के साथ वहीं आ कर रहने लगे और कालीबाड़ी के पुजारी बना दिये गये। एक दिन पूजा के बाद आरती के समय वे 'माँ ' 'माँ' कह कर भूमि पर गिर पड़े और बाह्य ज्ञान खो बैठे। तीन दिनों तक उन्हें होश नहीं आया। उनकी छाती आँसुओं से भीग गयी। उनकी पागलों जैसी स्थिति देखकर उनके भांजे हृदयराम मुखोपाध्याय को उस मन्दिर का पुजारी नियुक्त कर दिया गया। तत्पश्चात् रामकृष्ण गाँव चले गये। २४ वर्ष की आयु में रामकृष्ण का शारदा नामक ५ वर्ष की कन्या के साथ विवाह हुआ। विवाह के बाद रामकृष्ण पुन: दक्षिणेश्वर चले आये एवं अपने भाव में लीन रहने लगे। उन्होंने काली माँ से प्रार्थना की कि -'हे माँ! तुम मुझे जो सिखाओगी मैं वही सीखूँगा।' जगदम्बा ने परोक्ष रूप से उन्हें कनक, कामिनी और कीर्ति से दूर रहने का उपदेश दिया।

एक दिन रामकृष्ण गंगा के किनारे एक हाथ में मिट्टी और दूसरे हाथ में चाँदी का सिक्का लेकर सोचने लगे-'मिट्टी जड़ है। इससे धान गेहूँ पैदा हो सकता है पर सच्चिदानन्द नहीं मिल सकते। इसी प्रकार रानी विक्टोरिया की मुहर लगे इस सिक्के से सामान खरीदा जा सकता है, दश प्राणियों का भोजन चल सकता है पर सच्चिदानन्द नहीं मिल सकते। अत: मिट्टी और रुपया दोनों समान है।' यह सोचकर उन्होंने दोनों को गंगा जी में फेंक दिया और तब से रुपया पैसा या किसी भी समान को हाथ से नहीं छुआ। बाद में तो स्थिति यह हो गयी कि यदि वे किसी सामान को लेना भी चाहते तो उनका हाथ टेढ़ा हो जाता था और वे उस समान को ले नहीं पाते थे।

अहंकार के नाश के लिये रामकृष्ण कभी झाड़ू लेकर शौचालय साफ करते, कभी भिखमंगों की जूठी पत्तल शिर पर रखकर गंगा जी में फेंक आते। उन्होंने सभी धर्मों की विशिष्ट प्रणालियों से अनुष्ठान कर सब में सिद्धि प्राप्त की थी। तन्त्रोक्त साधनापद्धति से सिद्धि प्राप्त करने के बाद एक दिन उनके पास तोतापुरी नाम के एक सिद्ध महापुरुष आये। उनसे वेदान्त का उपदेश सुनने के बाद रामकृष्ण तीन दिनों तक समाधि में डूबे रहे। तोतापुरी कहीं भी तीन दिन से अधिक नहीं ठहरते थे किन्तु रामकृष्ण के गुणों से आकृष्ट होकर वे उनके साथ ग्यारह महीने रह गये। रामकृष्ण ने उनसे संन्यास लिया और सबसे पहले इन्हीं ने रामकृष्ण को 'परमहंस' कह कर पुकारा। इसके बाद रामकृष्ण ने पञ्चनामी, बाउल, सहजिया, सिक्ख, ईसाई, इस्लाम आदि मतों के अनुसार साधना की। वे जब जिस मत के अनुसार साधना करते उस समय उस मत का एक सिद्ध पुरुष कहीं न कहीं से उनके पास आ जाता अथवा उसकी तस्वीर से ज्योति निकल कर रामकृष्ण के अन्दर समा जाती। कठिन से कठिन साधना की सिद्धि के लिये उनको तीन दिन से अधिक का समय नहीं लगता था।

युवा रामकृष्ण
राम ने प्रत्यक्षत: तो १२ वर्षों तक भिन्न-भिन्न मतानुसार कठोर अनुष्ठान कर उन धर्मों में सिद्धि प्राप्त की थी किन्तु गुप्तरूप से भी उन्होंने अनेक साधनायें की थी। उच्चतर कोटि के साधक होते हुए भी वे विद्वानों का बहुत आदर करते थे। जयपुर के नारायण शास्त्री, वर्धमान राज्यसभा के पण्डित पद्मलोचन शर्मा, इन्देश निवासी गौरीदत्त आदि के प्रति उनके मन में आदर का भाव था।

अपनी यात्रा के क्रम में रामकृष्ण एक बार काशी आये। यहाँ उनकी भेंट तैलङ्ग स्वामी से हुई। रामकृष्ण ने तैलङ्ग स्वामी को २०-२५ किलो खीर पिलाई। वे तैलङ्ग स्वामी को काली माँ का सर्वोच्च भक्त मानते थे। काशी से वे वृन्दावन गये। वहाँ वैष्णव वेश में वे घूमते और भगवान् कृष्ण की मूर्ति देखकर समाधिस्थ हो जाते। इसी अवस्था में विजयकृष्ण गोस्वामी आदि अनेक साधकों तथा विद्वानों से इनकी भेंट हुई।

शिशुवत् रामकृष्ण
एक बंगाली सन्त का कथन है-'शिशुर मत मायेर काछे रात दिन काँदबी बस ता हलेई हबे' (शिशु के समान माँ के पास रात दिन रोओ, बस उसी से सब हो जायगा')। रामकृष्ण शिशुभाव में रहते थे। उन्हें अपने शरीर के वस्त्र का ध्यान नहीं रहता। राजा-महाराजा, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सबके सामने वे नग्न रहते। ऐसी स्थिति में उन्हें लज्जा नहीं आती थी।

एक समय गिर पड़ने से परमहंस देव का एक हाथ टूट गया। वे पीड़ा से विकल थे। उन्हीं दिनों एक सज्जन उनके दर्शन के लिये आये। परमहंस ने पूछा - कहाँ से आये हो?' उत्तर मिला 'कलकत्ते से।' फिर रामकृष्ण ने पूछा - 'तुम इन मंदिरों को देखने आये हो?' उत्तर मिला - 'नहीं महाराज मैं तो आपके दर्शन के लिये आया हूँ।' यह सुनकर वे बच्चों के समान रोने लगे और बोले-'मुझे क्या देखोगे बाबू! मेरा तो हाथ ही टूट गया। आह! बड़ी पीड़ा होती है।' सज्जन कुछ देर तक आश्चर्यचकित स्तब्ध और चुप रहे फिर बोले-'यह अच्छा हो जायगा। कोई डर की बात नहीं है।' तदनन्तर वे अबोध शिशु की भाँति बोले-'क्या अच्छा हो जायगा?- बाद में पास बैठे एक व्यक्ति को बुलाकर कहा -'ये बाबू कलकत्ते से आये हैं और कहते हैं, मेरा हाथ ठीक हो जायगा।'
एक दिन उन्होंने माँ काली से झंुझलाकर कहा - 'माँ! तूने मुझे मूर्ख क्यों बनाया?' उसी समय उन्होंने भावावस्था में देखा कि माँ सामने एक कूड़ा कर्कट के पहाड़ को दिखलाकर कह रही है-' कितनी विद्या लोगे?' तब वे बोले - 'नहीं माँ मुझे कुछ नहीं चाहिये।'
स्त्रीभाव वाले रामकृष्ण

किसी साधक ने कहा है कि रामकृष्ण का आधा भाव स्त्री का था। बहुत छोटी अवस्था में उनके अन्दर स्त्रीभाव लक्षित हुआ था। किशोरावस्था में एक दिन रामकृष्ण किसी गाँव में घूमने गये। वहाँ इकट्ठे हुए लोगों में से एक आदमी शेखी मार रहा था कि -'मेरे घर का हाल समाचार कोई नहीं जान सकता।' रामकृष्ण ने यह सुना और स्त्रियों के कपड़े पहन कर जुलाहिन के वेश में उसके घर में प्रवेश कर गये। इन्हें देख और इनकी मीठी बातें सुनकर उस घर की सब औरतें और लड़कियाँ इनके पास आ गयीं एवं देर रात तक इनसे बातें करती रहीं। देर रात हो जाने के कारण रामकृष्ण के बड़े भाई जब इनका नाम पुकारते हुए खोजते-खोजते वहाँ पहुँचे तब 'गदाई' नाम सुनकर रामकृष्ण अन्दर से ही चिल्लाते हुए बाहर दौड़े। यह देख सारी स्त्रियाँ दंग रह गयीं। वे कहने लगीं-'यह क्या, यह तो लड़की नहीं लड़का है। हम लोग पहचान ही नहीं सके। आश्चर्य है।' यह सुनकर शेखी मारने वाला आदमी लज्जित हो गया।

एक बार होली के अवसर पर वे राधिका के भाव में कृष्ण को अबीर लगाते हुए यह गीत गाने लगे-
आवहु फाग खेलिय गिरधारी।
तुमहु जड़ाओ गुलाल मोहि पर हौं हु तोंहिं पर डारी।
देखन चहौं आज तुमरो गुन को जीते को हारी।।

महापुरुष भाव वाले रामकृष्ण
रामकृष्ण ने नरदेह धारण किया था इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे सामान्य संसारी पुरुष भाव वाले व्यक्ति थे। उनका पुरुषभाव परमपुरुष का था। वे जब वृन्दावन में विचरण कर रहे थे तो उनके अन्दर समय-समय पर लीलापुरुषोत्तम योगेश्वर कृष्ण का भाव उद्दीप्त होता था। इसीलिये उस समय के लोग उनको अवतारी पुरुष मानते थे। इसका संकेत कभी-कभी वे बातचीत में दे देते थे। यथा - 'जैसे कभी-कभी राजा लोग अपने राज्य में भेष बदलकर घूमते हैं उसी प्रकार मैं भी भेष बदलकर आया हूँ। इस बार बहुत कम ही लोग मुझे पहचान सकेंगे।'' एक व्यक्ति से कहा-'मेरा भजन करो।' दूसरे से कहा -'मेरे ऊपर सब भार छोड़ दो।'' ''तुम्हें कुछ साधन-भजन नहीं करना होगा। यदि मुझ पर सोलह आना विश्वास रखोगे तो सब कुछ सिद्ध हो जायगा।''

निर्लोभी रामकृष्ण
लक्ष्मी नारायण नामक एक मारवाड़ी परमहंस को दस हजार रुपया देने के लिए कम्पनी का कागज लाया ताकि वह रुपया जमा कर उसके ब्याज से रामकृष्ण का खर्च आराम से चलता रहे। परमहंस ने रुपया लेना अस्वीकार कर दिया। उसके दुराग्रह पर परमहंस रोते हुए भवतारिणी से कहने लगे-'' माँ! तू ऐसे लोगों को यहाँ क्यों बुलाती है जो मुझे तेरे पास से हटाना चाहते हैं। जो मुझमें और तुझमें भेद डालना चाहते हैं वे मेरे पक्के बैरी हैं।'' यह कहते हुए वे समाधिस्थ हो गये। रानी रासमणि के जामाता मथुर बाबू, जिन्होंने परमहंस की तीर्थयात्रा के समय अस्सी हजार रुपये परमहंस के हाथों खर्च किये थे, भी जब पचास हजार रुपये कम्पनी के कागज पर लिख देना चाहते थे तो परमहंस उन रुपयों को किसी प्रकार लेने के लिये सहमत नहीं हुए।

निष्काम रामकृष्ण
परमहंस रामकृष्ण ने अपनी पत्नी शारदा देवी के भी साथ कभी सहवास नहीं किया। उनके भाञ्जे हृदयराम एवं रानी रासमणि के जामाता मथुर बाबू दोनों ने अनेक बार अन्य सुन्दरियों को सुअलङ्कृत कर उनके कमरे में भेजा। उनको देखकर रामकृष्ण कभी 'माँ' 'माँ' पुकारते हुए कमरे से बाहर निकल भागे और कभी उन सुन्दरियों को आनन्दमयी माँ कहकर प्रणाम कर लिया। कामकला में प्रवीण एक परमसुन्दरी वैष्णवी, जो कि अनेक तीर्थों में भ्रमण कर बहुत से साधुओं, मठाधीशों को भ्रष्ट कर प्रभूत धनराशि अर्जित कर ली थी, ने भी परमहंस के पास जाकर इन्हें भ्रष्ट करना चाहा। असफल होने पर लज्जित होकर उसने क्षमा माँगी और कहा -मैंने अनेक साधु देखे पर तुम जैसा नहीं देखा। प्रभु! मेरे अपराधों को क्षमा करो।' परमहंसदेव वहाँ की एक स्त्री के व्यवहार को कभी-कभी सुनाया करते कि कैसे वह पान खा कर मन्द मुस्कान के साथ परमहंस के शरीर से अपने शरीर को रगड़ कर कहती-'भाई! मैं पान और सुर्ती (=सम्भोग और आलिङ्गन) के बिना नहीं रह सकती।

इसी प्रकार उनके भक्तों ने उनको दीन रामकृष्ण, दयालु रामकृष्ण, प्रेममय रामकृष्ण आदि के रूप में देखा था। दक्षिणेश्वर में रहते हुए भी परमहंस दूर-दूर की बातें अपनी दिव्यदृष्टि से जान लिया करते थे। कभी-कभी आज्ञाचक्र में स्थित द्विदल कमल को स्वयं विकसित कर उसकी कर्णिका में काली, दुर्गा, राधा - कृष्ण अथवा जिस किसी देवता का आविर्भाव कर उसका दर्शन कर लेते थे। मथुर बाबू को उन्होंने अपने शरीर के अन्दर काली और शिव की मूर्त्ति दिखलायी थी।

रामकृष्ण के उपदेश
ईश्वर है। वह अकेला और एक है। उसका प्रकाश बहुविध है। सब मत ईश्वर प्राप्ति के पन्थ हैं। वह साकार भी है और निराकार भी। वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। माया चलते हुए साँप की तरह है और ब्रह्म स्थिर साँप की तरह। सब शास्त्र जूठे हैं क्योंकि बहुत से लोगों ने उनको अपने मुख से कहा है। किन्तु ब्रह्म जूठा नहीं है क्योंकि वह वाणी से नहीं कहा जा सकता। ईश्वर के प्रति हमारी विकलता वैसी ही होनी चाहिये जैसी कृपण की अपने धन के प्रति। कलिकाल में ईश्वर का नाम मुक्ति का एक मात्र निश्चित साधन है।

भक्तिपूर्वक प्रदत्त छोटे से छोटे दान को भी ईश्वर ग्रहण करते हैं। वह सर्वत्र और सबमें है। परमेश्वर को प्राप्त मनुष्य पार्थिव विषयों से निर्लिप्त होता है। ज्ञान और भक्ति नित्य हैं। ज्ञान का अर्थ है- परोक्षरूप से जानना। विज्ञान का अर्थ है-साक्षात् प्रत्यक्ष रूप से जानना। विज्ञान के अनन्तर जिस भाव का उदय होता है वही असली भक्ति है। विशुद्धज्ञान और भक्ति एक ही वस्तु है। अपने धर्म का पालन करो। अन्य धर्मों से द्वेष मत करो। वितण्डा मत करो। पहले ईश्वर की प्राप्ति करो, फिर संसार का सेवन करो। दुर्जनों की संगति से बचो। साधक को एकान्त सेवन करना चाहिए। झूठे साधुओं से बचो। लाखों में कोई एक सिद्ध होता है। परमहंस ने इसी प्रकार दृष्टान्त के साथ प्राय: छ सौ विषयों पर चर्चा करते हुए अपने उपदेशामृत से सबको तृप्त किया।

विश्वास की शक्ति

स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस के जीवन की ऐसी कुछ घटनाएं, जो रोचक है और प्रेरणास्पद भी.
देवी काली के महान साधक और स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस का जन्म बंगाल के कामारपुकुरगांव में शुक्ल पक्ष फाल्गुन द्वितीया के दिन हुआ था। इस बार यह तिथि 6मार्च को है। उनका बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिए कठोर साधना की। वे महान विचारक और मानवता के पुजारी थे। हम उनके जीवन से संबंधित कुछ घटनाओं का उल्लेख कर रहे है, जो हम सभी के लिए अनुकरणीय हैं-

करुणा भाव
:बचपन में रामकृष्ण को सभी प्यार से गदाध पुकारते थे। उनकी बालसुलभ सरलता और मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। जब उन्हें पढने के लिए स्कूल में भर्ती कराया गया, तो किसी सहपाठी को फटा कुर्ता पहने देखकर उन्होंने अपना नया कुर्ता दे दिया। कई बार ऐसा होने पर एक दिन उनकी मां ने गदाधर से कहा, प्रतिदिन नया कुर्ता कहा से लाऊंगी? उन्होंने कहा- ठीक है। मुझे एक चादर दे दो। मुझे कुर्ते की आवश्यकता ही नहीं है। मित्रों की दुर्दशा देखकर उनके हृदय में करुणा उभर आती थी।
दिव्य ज्ञान
:जब वे महज सात वर्ष के थे, तो उनके सिर से पिता का साया उठ गया। इसकी वजह से घर की परिस्थिति बिल्कुल बदल गई। आर्थिक कठिनाईयां आने लगीं और पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया, लेकिन बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बडे भाई रामकुमार चत्रोपाध्यायकोलकातामें एक पाठशाला के संचालक थे। वे उन्हें अपने साथ कोलकाताले गए। रामकृष्ण बहुत निश्छल, सहज और विनयशील थे। संकीर्ण विचारों से वे बहुत दूर रहते थे। हमेशा अपने कार्य में लीन रहते। हालांकि काफी प्रयास के बावजूद जब रामकृष्ण का मन पढाई-लिखाई में नहीं लगा, तो उनके बडे भाई रामकुमार उन्हें कोलकाताके पास दक्षिणेश्वरस्थित काली माता मंदिर ले गए और वहां पुरोहित का दायित्व सौंप दिया। उनका मन इसमें भी नहीं रम पाया। कुछ वर्ष बाद उनके बडे भाई भी चल बसे।
अंतत:इच्छा न होते हुए भी रामकृष्ण मंदिर में पूजा-अर्चना करने लगे। धीरे-धीरे वे मां काली के अनन्य भक्त हो गए। बीस वर्ष की उम्र से ही साधना करते-करते उन्होंने सिद्धि प्राप्त कर ली।

विश्वास :रामकृष्ण के सबसे प्रिय शिष्य थे विवेकानंद। उन्होंने एक बार उनसे पूछा, महाशय! क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है, उन्होंने उत्तर दिया हां, देखा है। जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं, ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। वे स्वयं की अनुभूति से ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास दिलाते थे।

मानवता का पाठ: वे अपने भक्तों को मानवता का पाठ पढाते थे। एक बार उनके परम शिष्य विवेकानंद हिमालय पर तप करने के लिए उनसे अनुमति मांगने गए। उन्होंने कहा कि वत्स, हमारे आसपास लोग भूख से तडप रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया हुआ है और तुम हिमालय की गुफामें समाधि का आनंद प्राप्त करोगे। क्या तुम्हारी आत्मा यह सब स्वीकार कर पाएगी उनकी बात से प्रभावित होकर विवेकानंद दरिद्र नारायण की सेवा में लग गए। मां काली के सच्चे भक्त परमहंस देश सेवक भी थे।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......मनीष

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