Friday, March 11, 2011

Prem(प्रेम)

मानवता का एक मात्र धर्म है प्रेम
नूरी रक्काम फारस के अत्यंत विख्यात सूफी संत थे। उनके बहुत सारे अनुयायी थे। ये लोग अनहलक (अर्थात् अहं ब्रह्मास्मि: मैं ही ब्रह्मा हूं) की रट लगाकर अलख जगाते थे। फारस का तत्कालीन शासक नूरी से बहुत चिढ़ता था। उनकी लोकप्रियता उसे रास नहीं आती थी।उसने एक दिन नूरी और उनके अनुयायियों को काफिर घोषित कर सरेआम मृत्यु की सजा सुना दी। जब मृत्युदंड का दिन आया, तो पूरा नगर उमड़ पड़ा क्योंकि नूरी के प्रति बहुसंख्यक लोगों में श्रद्धा भाव था।नूरी और उनके अनुयायियों को कतार में खड़ा कर दिया गया। शासक का हुक्म था कि पहले नूरी के अनुयायियों का कत्ल कर दिया जाए और बाद में नूरी का। मगर जल्लाद ने जैसे अनुयायियों को मारने के लिए तलवार उठाई, नूरी ने उनके स्थान पर स्वयं को प्रस्तुत कर दिया। उपस्थित लोग चकित हो गए। जल्लाद बोला- ‘‘तुम्हारी बारी अभी नहीं आई है। फिर तलवार कोई ऐसे चीज नहीं है जिससे मिलने के लिए इतना उतावला हुआ जाए।’’ तब नूरी ने कहा- ‘‘मेरे गुरु की शिक्षा है कि मनुष्य का एकमात्र धर्म है- प्रेम और प्रेम दो व्यक्तियों, परिवारों या समाजों को ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता को अपने में समेटे हुए है। सच्चे प्रेम की यही परिभाषा है और इस दृष्टि से सभी मेरे बंधु हैं और संकट में पड़े बंधुओं को उससे मुक्त करना मेरा दायित्व है।’’ नूरी का जवाब सुनकर जल्लाद के हाथ रुक गए और शासक अपने किए पर लज्जित हुआ।प्रेम की इस विराटता के आगे भला कौन टिक सकता है? यही वो प्रेम है, जो हमें ईश्वर से मिलता है क्योंकि तब द्वैत-भाव समाप्त होकर अद्वैत स्थापित हो जाता है। अर्थात् ‘लाली मेरे लाल की, जित देखूं उत लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।

शब्दों की जरूरत न पड़े, रिश्ते ऐसे हों
आजकल पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव बढ़ गया है। लंबे समय तक बातें नहीं होती। एक-दूसरे की आवश्यकताओं को समझते नहीं, भावनाओं को पहचानते नहीं। रिश्ते ऐसे हों कि उनमें शब्दों की आवश्यकता ही न पड़े, बिना कहे-बिना बताए आप समझ जाएं कि आपके साथी के मन में क्या चल रहा है। ऐसी समझ प्रेम से पनपती है। यह रिश्ते का सबसे सुंदर हिस्सा होता है कि आप सामने वाले की बात बिना बताए ही समझ जाएं।
दाम्पत्य के लिए राम-सीता का रिश्ता सबसे अच्छा उदाहरण है। इस रिश्ते में विश्वास और प्रेम इतना ज्यादा है कि यहां भावनाओं आदान-प्रदान के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। एक प्रसंग है वनवास के समय जब राम-सीता और लक्ष्मण चित्रकूट के लिए जा रहे थे। रास्ते में गंगा नदी पड़ती है। गंगा को पार करने के लिए राम ने केवट की सहायता ली। केवट ने तीनों को नाव से गंगा नदी के पार पहुंचाया। केवट को मेहनताना देना था। राम के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। वे केवट को देने के लिए नजरों ही नजरों में कुछ खोजने लगे।
सीता ने राम के हावभाव से ही उनके मन की बात जान ली। वे बिना कहे ही समझ गई कि राम केवट को देने के लिए कोई भेंट के लायक वस्तु खोज रहे हैं। सीता ने राम की मनोदशा को समझते हुए अपने हाथ से एक अंगुठी निकालकर केवट को दे दी। इस पूरे प्रसंग में न तो राम ने सीता से कुछ कहा और न ही सीता ने राम से कुछ पूछा लेकिन दोनों की ही भावनाओं का आदान-प्रदान हो गया।

दीर्घ जीविता का रहस्य विनम्रता में छिपा है
विनम्रता से संबंधित एक कथा पुराणों में मिलती है। जो अत्यंत प्रेरणास्पद है। एक साधु थे- अत्यंत विनम्र और मृदुभाषी। उनका शिष्य वृंद काफी विशाल था। उनके उपदेशों से कई लोगों का जीवन सुधर गया था। वे सदैव परोपकार में ही लगे रहते थे और स्वयं सादा जीवन व्यतीत करते थे। धीरे-धीरे उनकी काफी वय हो गई और वे असक्तता अनुभूत करने लगे। जब उन्हें ऐसा लगा कि अंतिम समय निकट आ गया है, तब अपने सभी शिष्यों को बुलाया और बोले-''देखों, अब भगवान का बुलावा किसी भी समय आ सकता है। जाते-जाते तुम लोगों को एक अंतिम उपदेश देना चाहता हूं। जिससे तुम्हारा जीवन प्रकाशमय हो सके। शिष्यों ने स्वीकार में सिर हिलाए।''साधु महाराज पुन: बोले- ''मेरे मुंह में देखकर बताओ कि कितने दांत बचे हैं?शिष्यों ने उनके मुंह की ओर देखकर समवेत स्वर में कहा- ''एक भी नहीं।'' साधु पुन: बोले- ''देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।''सभी ने इस बात को स्वीकार किया। अब उन्होंने कहा- ''मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज जब मैं मृत्यु शैया पर हूं, तो भी यह बची हुई है। ये दांत बाद में पैदा हुए किंतु जीभ से पहले कैसे विदा हो गए। इसका कारण जानते हैं?'' शिष्यों ने कारण बताने का आग्रह किया, तो साधु बोले- ''इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और कोमलता थी। इसलिए यह जन्म से लेकर आज तक मेरे पास है, किंतु दांतों में आरंभ से ही कठोरता थी, इसलिए वे बाद में आकर भी पहले समाप्त हो गए। अपनी कठोरता के कारण वे दीर्घ जीवी नहीं हो सके। यदि तुम भी दीर्घ जीवी होना चाहते हो, तो विनम्रता सीखो।''कथा सार यह है कि यदि झूठे अहंकार और कटु वाणी की कठोरता से बचकर रहा जाए और विनम्रता को अपने विचारों के साथ व्यवहार का भी अंग बना लिया जाए, तो व्यक्ति का दीर्घजीवी होना तय है। दीर्घजीवी का गूढ़ार्थ यहां आयु से नहीं बल्कि मृत्यु के बाद भी बहुसंख्यक लोगों की स्मृतियों में संबंधित व्यक्ति को सम्मानपूर्वक स्मरण किए जाने से है।

तपस्या का फल

भगवान शंकर को पति के रूप में पाने हेतु माता-पार्वती कठोर तपस्या कर रही थी। उनकी तपस्या पूर्णता की ओर थी। एक समय वह भगवान के चिंतन में ध्यान मग्न बैठी थी। उसी समय उन्हें एक बालक के डुबने की चीख सुनाई दी। माता तुरंत उठकर वहां पहुंची। उन्होंने देखा एक मगरमच्छ बालक को पानी के भीतर खींच रहा है। बालक अपनी जान बचाने के लिए प्रयास कर रहा है, तथा मगरमच्छ उसे आहार बनाने का।
करुणामयी मां को बालक पर दया आ गई। उन्होंने मगरमच्छ से निवेदन किया कि बालक को छोड़ दीजिए इसे आहार न बनाएं। मगरमच्छ बोला माता यह मेरा आहार है मुझे हर छठे दिन उदर पूर्ति हेतु जो पहले मिलता है, उसे मेरा आहार ब्रह्मा ने निश्चित किया है। माता ने फिर कहा आप इसे छोड़ दे इसके बदले मैं अपनी तपस्या का फल दुंगी। ग्राह ने कहा ठीक है। माता ने उसी समय संकल्प कर अपनी पूरी तपस्या का पुण्य फल उस ग्राह को दे दिया। ग्राह तपस्या के फल को प्राप्त कर सूर्य की भांति चमक उठा। उसकी बुद्धि भी शुद्ध हो गई। उसने कहां माता आप अपना पुण्य वापस ले लें। मैं इस बालक को यू हीं छोड़ दुंगा। माता ने मना कर दिया तथा बालक को गोद में लेकर ममतामयी माता दुलारने लगी।
बालक को सुरक्षित लौटाकर, माता ने अपने स्थान पर वापस आकर तप शुरु कर दिया। भगवान शिव तुरंत ही वहां प्रकट हो गए, और बोले पार्वती अब तुम्हें तप करने की आवश्यकता नहीं है। हर प्राणी में मेरा ही वास है, तुमने उस ग्राह को तप का फल दिया वह मुझे ही प्राप्त हुआ। अत: तुम्हारा तप फल अनंत गुना हो गया। तुमने करुणावश द्रवित होकर किसी प्राणी की रक्षा की अत: मैं तुम पर प्रसन्न हूं तथा तुम्हें पत्नी रूप में स्वीकार करता हूं।
कथा का साराश यही है कि जो परहित की कामना करता है। उस पर परमात्मा की असीम कृपा होती है। जो व्यक्ति असहायों की सहायता, दयालु प्रेमी करुणाकारी होता है। ईश्वर उसको स्वीकार करते हैं। यह कथा ब्रह्मपुराण में उल्लेखित है।

हमारे अंतर्मन में बसा है ईश्वर
जातक कथाओं में एक कथा आती है, जो इस तथ्य को रेखांकित करती है कि ईश्वर हमारे अंतर्मन में ही बसता है।
एक धनी व्यापारी के पास अकूत संपत्ति थी, किंतु चित्त में तनिक भी शांति नहीं थी। एक बार उसके शहर में एक पहुंचे एक महात्मा आए। व्यापारी को पता चला कि उनके प्रवचन मन को काफी सुकून देने वाले होते हैं। उसने सोचा कि शायद मेरी समस्या का हल महात्माजी के पास मिल जाए।
वह अगले दिन प्रवचन सुनने गया। महात्माजी ने अन्य बातों के अतिरिक्त प्रवचन में कहा कि परमात्मा को पाने से वास्तविक शांति मिलती है इसलिए उसकी तलाश करना चाहिए। व्यापारी उनकी इस बात से बहुत प्रभावित हुआ और एक दिन अपना सब कुछ छोड़कर परमात्मा की खोज में घर से निकल पड़ा। वर्षों एक शहर से दूसरे शहर भटकता रहा। उसे जो भी जहां भी ईश्वर के मिलने की संभावना बताता, वहां वह चला जाता, किंतु उसे ईश्वर के दर्शन नहीं हुए। उसकी व्यग्रता बढ़ती गई।
वह अपना घर, शहर सब कुछ भूल गया। व्यापार चौपट हो गया। स्वास्थ्य भी गिरने लगा, किंतु शांति के लिए परमात्मा से मिलने की उसकी ललक समाप्त नहीं हुई। इस यात्रा के दौरान व्यापारी एक शहर में पहुंचा। वहां किसी महात्मा के प्रवचन चल रहे थे। वह तत्काल वहां गया। उसे आवाज जानी-पहचानी लगी। वह मंच के थोड़ा निकट गया तो देखा कि ये तो वही महात्मा हैं जिनका प्रवचन सुनकर उसने घर छोड़ा था। वह महात्मा के चरणों में गिरकर रोने लगा और बोला- आपने शांति के लिए ईश्वर की तलाश करने को कहा था।तभी से मैं शहर-दर-शहर भटक रहा हूं किंतु ईश्वर के दर्शन अभी तक नहीं हुए । तब महात्मा ने व्यापारी को समझाया- बेटा, शायद तुमने मेरी पूरी बात नहीं सुनी थी। मैंने ईश्वर को खोजने की बात कही थीं किंतु यह भी कहा था कि वह हमारे भीतर ही मिलेगा। तुम घर जाओ और वहीं रहकर अच्छे कर्म करो। ईश्वर एक दिन स्वयं तुम्हारे भीतर प्रकट हो जाएगा। कथा सार यह है कि हम स्वयं के प्रति ईमानदार रहते हुए अपने दायित्वों को भलीभांति पूर्ण करें और सभी के कल्याण हेतु कार्य करें तो ईश्वर हमें सहज ही प्राप्त हो जाएगा।

सेवा में बसा ईश्वर
उस दिन रविवार था। दीनबंधू एंड्रयूज से मिलने एक ईसाई सज्जन सवेरे ही आ पहुंचे। दीनबंधू ने उनका यथोचित सत्कार किया। उनके मध्य बातचीत होने लगी। अनेक मुद्दों पर चर्चाओं का दौर चला।थोड़ी देर बाद दीनबंधू ने घड़ी ने समय देखा और बोले-ओह। दस बज गए। क्षमा कीजिएगा, मुझे चर्च जाना है। मैं फिर किसी दिन आपसे बात करता हूं।यह सुनकर वे सज्जन तत्काल बोल पड़े-चर्च तो मुझे भी जाना है। चलिए, मैं भी चलता हूं। दोनों का साथ भी हो जाएगा और बातें भी। दिनबंधू ने कहा-किंतु मैं उस चर्च में नहीं जा रहा हूं, जहां आपको जाना है। उन सज्जन ने आश्चर्य से पूछा- तो फिर किस चर्च में जाएंगे?
तब दीनबंधू मुस्कुराकर बोले-चलिए, आज आप मेरा चर्च देख ही लीजिए।दीनबंधू उन सज्जन को लेकर एक निर्धन बस्ती में पहुंचे। वहां एक टूटी-फूटी झोपड़ी थी, जिसके भीतर चारपाई पर एक बच्चा लेटा था, जिसकी सेवा एक वृद्ध कर रहा था।दीनबंधू ने झोपड़ी प्रवेश कर वृद्ध से पंखा लेते हुए -बाबा। अब आप जाइए। जब वृद्ध चला गया, तो उन सज्जन से दीनबंधू ने कहा-यह बालक अनाथ है और ज्वरग्रस्त भी। यह वृद्ध ही इसकी देख-रेख करता है किंतु यह समय इसका ड्यूटी पर जाने का है।
दोपहर तक लौट आएगा, तब तक मैं ही इसकी सेवा करता हूं। यही मेरी पूजा है और यह झोपड़ी ही मेरे लिए चर्च है। यह सुनकर वे सज्जन दीनबंधू के प्रति श्रृद्धा से भर गए।
वस्तुत: दीन-दु:खियों की सेवा ही सच्ची ईश पूजा है। यदि हम पूजास्थल न भी जाएं और किसी जरुरतमंद की सेवा कर दें तो यही सही मायनों में धार्मिकता है क्योंकि सभी धर्म एक स्वर से असहायों की सहायता करना सबसे बड़ा मानव धर्म बताते हैं।

क्षमा से सुधार और सुधार से विकास

हजरत मोहम्मद जब भी नमाज पढऩे मस्जिद जाते, तो उन्हें नित्य ही एक वृद्धा के घर के सामने से निकलना पड़ता था। वह वृद्धा अशिष्ट, कर्कश और क्रोधी स्वभाव की थी। जब भी मोहम्मद साहब उधर से निकलते, वह उन कूड़ा-करकट फेंक दिया करती थी। मोहम्मद साहब बिना कुछ कहे अपने कपड़ों से कचरा झाड़कर आगे बढ़ जाते।
एक दिन जब वे उधर से गुजरे, तो उन पर कूड़ा आकर नहीं गिरा। उन्हें कुछ हैरानी हुई किंतु वे आगे बढ़ गए। अगले दिन फिर ऐसा ही हुआ तो मोहम्मद साहब से रहा नहीं गया। उन्होंने दरवाजे पर दस्तक दी, वृद्धा ने दरवाजा खोला।
मोहम्मद साहब ने देखा कि बीमारी के कारण वृद्धा अत्यंत दुर्बल हो गई है। वे तत्काल हकीम को बुलाकर लाए और उसकी दवा आदि की व्यवस्था की।
उनकी देखभाल और सेवा से वृद्धा कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गई।अंतिम दिन जब वह बिस्तर से उठ बैठी तो मोहम्मद साहब ने कहा- अपनी दवाएं लेती रहना और मेरी जरूरत हो तो मुझे बुला लेना। वृद्धा उनकी बात सुनकर रोते हुए कहने लगी- मेरे दुव्र्यवहार के लिए मुझे माफ कर दोगे?
मोहम्मद साहब ने बड़े प्रेम से उनके आंसू पोछे और बोले- भूल जाओ सब कुछ और अपनी तबियत सुधारों। तब वृद्धा ने कहा- मैं क्या सुधारुंगी तबियत? तुमने तबियत के साथ-साथ मुझे भी सुधार दिया है। तुमने अपने प्रेम और पवित्रता से मुझे सही मार्ग दिखाया है। मैं जीवनभर तुम्हारी अहसानमंद रहुंगी।
घटना का संदेश यही है कि क्षमा से सुधार होता है और सुधार विकास की कई राहे खोल देता है। जिसने स्वयं को क्षमा जैसी सद्भावना में डुबोकर पवित्र कर लिया, उसने संत-महात्माओं से भी अधिक प्राप्त कर लिया।
जहां प्रेम है वहीं शांति है
एक फूलों से भरी डाल ने अपने पड़ोस की टहनी से कहा आज का दिन तो बिलकुल नीरस लग रहा है।क्या तुम्हें भी ऐसा ही महसूस हो रहा है।
उस टहनी ने उत्तर दिया- यही बात मुझे भी महसूस हो रही है।
उसी समय उस टहनी पर एक तोता आ बैठा और उसके पास ही एक दूसरा तोता भी आ गया। पहले तोते ने कहा आज मेरी पत्नी मुझे छोड़कर चली। मैं भी उसे मनाने नहीं जाने वाला।
दूसरे तोते ने भी कहा- मेरी पत्नी भी चली गई, जो अब वापस नहीं आने वाली और मुझे भी उसकी परवाह नहीं। दोनों आपस में इस विषय पर जोर-जोर से बतियाने और शोर मचाने लगे। तभी दो मैनाएं आकाश में उड़ती हुई इन दोनों तोतों के पास आकर बैठ गई। शोर बंद हो गया और चारों और शांति हो गई। फिर वे चारों अपने जोड़े बनाकर उड़ गए।
फिर उस डाल ने टहनी से कहा- यह तो शोर का बवंडर सा था। टहनी बोली- इसे चाहे जो कहो, लेकिन अब तो सारा वातावरण शांत है। यदि ऊपरी हवा, शांत हो तो मेरा विश्वास है कि नीचे रहने वाले भी शांति बनाए रख सकते हैं। क्या तुम भी हवा के साथ झोंका लेकर मेरे पास न आओगी?
उस डाल ने कहा- ओह। यह तो शांति प्राप्त करने का अच्छा अवसर है। कहीं ऐसा न हो कि बसंत बीत जाए।
उसी समय हवा का एक झोंका आया और दोनों एक दूसरे के गले लग गए।
कथा का संकेत यह है कि जहां प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, वहां शांति खुद ही आ जाती है। वास्तव में प्रेम ऐसा विराट भाव है, जिससे दूरी, विवाद और शत्रुता का नामोनिशान मिट जाता है निकटता, भाईचारा और स्नेह की निराली त्रिवेणी बहने लगती है।

हजरत उमर पैदल और गुलाम ऊंट पर
बात उन दिनों की है जब हजरत उमर का अपने पड़ोसी बादशाह से युद्ध चल रहा था। युद्ध में दोनों पक्षों के जान-माल का काफी नुकसान हो चुका था। जब बादशाह को महसूस हुआ कि अब युद्ध को और लंबा खींचने का कोई फायदा नहीं है तो उसने हजरत उमर के पास एक संधि प्रस्ताव भिजवाया। हजरत उमर ने उस पढ़ा और अपने सलाहकारों से विचार-विमर्श किया। चूंकि सभी युद्ध से तंग आ चुके थे। अत: सभी ने एकमत से संधि प्रस्ताव का समर्थन किया।
हजरत उमर ने उन संधि की बात मान ली और ऊंट पर सवार होकर बादशाह से संधि करने चले। उनके साथ उनका एक गुलाम भी था, जो ऊंट की नकेल पकड़कर चल रहा था।जब मार्ग आधे से अधिक तय हो चुका, तो हजरत उमर ऊंट से नीचे उतरे और स्वयं ऊंट की नकेल पकड़कर गुलाम को ऊंट पर बैठा दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में गुलाम भी मनुष्य था। हजरत उमर पड़ोसी बादशाह की राजधानी पहुंचे। तभी बादशाह का वजीर आया और ऊंट पर सवार गुलाम को सलाम किया। तब गुलाम हड़बड़ाकर बोला- मैं तो गुलाम हूं। हजरत तो वे हैं, जो ऊंट की नकेल पकड़े हुए हैं।
गुलाम की बात सुनकर सभी लोग हैरान हो गए। बात जब बादशाह तक पहुंची तो वह हजरत उमर की महानता के आगे नतमस्तक होकर बोला- ऐसे खलीफा से कैसा युद्ध जो अपने गुलाम के साथ भी श्रेष्ठतम व्यवहार करता हो।
बादशाह ने स्वयं को हजरत का शागिर्द घोषित कर दिया।
कथा का संकेत है कि पद या सामाजिक प्रतिष्ठा आदि किसी भी दृष्टि से छोटे व्यक्ति का सम्मान करना मानव धर्म है। जिसे निभाने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में बड़प्पन को जीता है।

सिकंदर हुआ शर्म से पानी-पानी
विश्व विजेता सिकंदर के नाम से हम सभी भलीभांति परिचित हैं। वह घोड़ों का बहुत शौकिन था। उसके अस्तबल में देशी-विदेशी घोड़े थे और सभी विशेषताओं से युक्त थे।
सिकंदर के मंत्री और सेनापति भी उसके इस शौक से परिचित थे और उसके लिए ऊंची नस्ल के घोड़ों का प्रबंध करते थे।
इन घोड़ों में से सिकंदर को एक घोड़ा अतिप्रिय था। जो उसे अपने किसी मित्र से भेंट में प्राप्त हुआ था।
एक दिन सिकंदर ने अपने राज्य के एक उच्चकोटि के चित्रकार को बुलाया और उसे अपने इस घोड़े का चित्र बनाने का निर्देश दिया। चित्रकार ने अथक परिश्रम कर घोड़े का चित्र बनाया और सिकंदर के पास ले गया। चित्र को देखते ही सिकंदर मुग्ध हो गया। चित्रकार ने वाकई अत्यंत सजीव चित्र बनाया था किंतु सिकंदर ठहरा अहंकारी, इसलिए वह चित्र में खामियां बताने लगा। तब चित्रकार बोला हुजूर। आप अपने घोड़े के सामने मेरी का मूल्यांकन करें।
घोड़े को लाया गया और घोड़ा उस चित्र को देखते ही हिनहिनाने लगा। सिकंदर ने चित्रकार से इसका कारण पूछा, तो वह बोला जहांपनाह, आपसे अधिक कला पारखी आपका यह घोड़ा है। कला की सजीवता का इससे बड़ा और क्या प्रमाण होगा कि चित्र वाले घोड़े को देखकर यह घोड़ा भी दौडऩे को बेताब हो गया।
यह सुनकर सिकंदर शर्म से पानी-पानी हो गया। कथा बताती है कि बेहतर चीज की प्रशंसा संबंधित को प्रोत्साहन देती है। जिससे और बेहतर परिणाम सामने आते हैं। प्रशंसा, प्रोत्साहन और परिणाम की यह तीनों बातें श्रेष्ठता लाती है। इसलिए जो कुछ वास्तव में अच्छा है, उसकी प्रशंसा खुले दिल से करते हुए प्रोत्साहन देना चाहिए।

आपका एटिट्युड क्या है?
एक बार की बात है एक जगह मंदिर बन रहा था और एक राहगीर वहां से गुजर रहा था। उसने वहां पत्थर तोड़ते हुए एक मजदूर से पूछा कि तुम क्या कर रहे हो और उस पत्थर तोड़ते हुए आदमी ने गुस्से में आकर कहा देखते नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं आंखें हैं कि नहीं? वह आदमी आगे गया उसने दूसरे मजदूर से पूछा कि मेरे दोस्त क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से छैनी हथोड़ी से पत्थर तोड़ते हुए कहा रोटी कमा रहा हूं बच्चों के लिए बेटे के लिए पत्नी के लिए । उसने फिर अपने पत्थर तोडऩे शुरु कर दिए । अब वह आदमी थोड़ा आगे गया तो देखा कि मंदिर के पास काम करता हुआ एक मजदूर काम करता हुआ गुनगुना रहा था। उस आदमी ने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने फिर पत्थर तोड़ते उस मजदूर से पूछा क्या कर रहे हो मित्र। उस आदमी ने कहा भगवान का मंदिर बना रहा हूं । और इतना कहकर उसने फिर गाना शुरु कर दिया । ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे हैं पत्थर तोडऩे का पर तीनों का अपने काम के प्रति दृष्टीकोण अलग -अलग है। तीसरा मजदूर अपने काम का उत्सव मना रहा है। तीनों एक ही काम कर रहें हैं लेकिन तीसरा मजदूर अपने काम को पूजा की तरह कर रहा है इसीलिए खुश है। जिन्दगी में कम ही लोग हैं जो अपने काम से प्यार करते हैं और जो करते हैं वे ही असली आनन्द के साथ सफलता को प्राप्त करते हैं। दूनिया में हर आदमी सुखी बन सकता है अगर वो अपना काम समर्पण के साथ करता है। हम जो कर रहे हैं, उसके प्रति हमारा एटिटयुड क्या है, वह सवाल है। और जब इस एटिटयुड का इस भाव का परिवर्तन होता है, तो हमारी सारी गतिविधि बदल जाती है।

क्या अंतर है ध्यान और प्रार्थना में
जब ध्यान और प्रार्थना की बात आती है। हर साधारण व्यक्ति के मन यही प्रश्र उठता हैं कि आखिर ध्यान और प्रार्थना एक ही है, तो क्यों कहते हैं कि ध्यान करो उससे आपको जीवन जीने के लिए ऊर्जा मिलेगी सकारात्मक शक्ति मिलेगी। दरअसल ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि प्रार्थना मैं आप अपने परमात्मा से मांगते हो यानि अपनी परमात्मा को सुनाते हो लेकिन ध्यान वो है जिसमे आप मौन में परमात्मा की सुनते हो परमात्मा से रुबरु होते हो।

एक ग्वाला था यानि गाय चराने वाला वह रोज जंगल में गाय चराने जाया करता था। एक दिन वह रोज की तरह गायों को चरने के लिए जंगल में छोड़कर एक पेड़ के नीचे शांति से बैठा था। तभी उसके मन में विचार आया कि जैसे मैं यहां इस पेड़ के नीचे शांत मन से बैठकर इन गायों को चरते हुए देख रहा हूं। वैसे ही परमात्मा भी अपने बनाए इस संसार के इंसानों को देख रहा होगा। उस ग्वाले ने ऐसे परमात्मा का अनुभव करने में मजा आने लगा। अब वह जंगल में घंटों अकेला बैठा परमात्मा से बात करता रहता था। उस जंगल से एक पूजा पाठी ब्राह्मण रोज गुजरता था और रोज उस ग्वाले को ऐसे अकेले बढ़बढ़ाते हुए देखता था। एक दिन तो उससे रहा ही नहीं गया। उसने उस ग्वाले से कहा तुम्हें सभ्यता नही है कि भगवान से कैसे बात करते हैं। उसने कहा मैं तो ऐसे ही बात करता हूं। यदि तुम्हें दूसरा सही तरीका पता है तो मुझे बता दो मैं वैसे ही करुंगा। उस पंडित ने उसे लगभग दो घंटे में एक श्लोक रटवा दिया। अब वह बस वही श्लोक रटने लगा। ईध्वर को शायद यह परिवर्तन पसंद नहीं आया। जैसे ही किसान घर पहुचा आकाशवाणी हुई कि ये तुमने ठीक नहीं किया। ब्राह्मण घबराया और बोला पर मैंने तो उसे सही तरीके से बात करने की सभ्यता सिखाई है। आकाश से आवाज आई मुझे उसके उसी भोलेपन मैं आनन्द आता था। तुमने एक श्लोक रटवाकर उसकी मुझ से जुड़ी भावनाओं को खत्म कर दिया है अब वह सिर्फ एक श्लोक को दस बार बोलकर निवृत्त हो जाता है। जबकि पहले वह मेरे बारे में विचार करता था। मुझ से अपनी भावनाओं से जुड़ा हुआ था। पहले वह मेरे इस बनाई सुन्दर दुनिया और इससे जुड़ी चीजों के बारे में बातें करता था। जिससे मैं और वो दोनों आनन्दित थे। अब वह भी मेरे हजारों मानने वालों की तरह मुझसे मांगने में लगा है यानि प्रार्थना करने लगा तो हम दोनों ही आनंदित नहीं है। पहले वह आनंदित था और में भी क्योंकि उसे पता ही नहीं था, कि वह जो दिन रात कर रहा है वही ध्यान।

भावनाओं को बनाएं ताकत
कहते हैं भावनाए इंसान की कमजोरी होती है लेकिन कभी-कभी यही इमोशंस या भावनाए इंसान की कमजोरी नहीं उसकी ताकत बन जाती है और उसे नया इतिहास लिखने का उत्साह देती हैं। भावनाओं को अपनी कमजोरी या ताकत बनाना आपके हाथ में है और अपना भविष्य बनाना भी।
एक दिन जब महर्षि वाल्मीकि गंगा नदी में स्नान करने के लिए जा रहे थे। तब उन्होने क्रौंच के एक जोड़े को आकाश में उड़ते हुए और एक दुसरे का चुंबन करते समय देखा। महर्षि उन्हे देखकर खुश हो रहे थे लेकिन इतनी देर में एक तीर गुजरा औश्र जोड़े में से एक पक्षी मारा गया। वह जमीन पर गिर गया। तब जोड़े का दुसरा पक्षी विलाप करने लगा। वह अपने साथी के शव के चारों और मंडराने लगा। यह दृश्य देखकर कवि के मन में वेदना और करुणा उमड़ी कि उन्होंने हत्यारे शिकारी से कहा। हे निषाद तु दुष्ट है। तुझमे बिल्कुल भी दया का भाव नहीं है। तेरा हत्यारा हाथ प्रेम देखकर भी नहीं रुका। मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:, यक्रौञचमिथुनादैमवथी: काममोहितम्तभी कवि ने अपने मन में सोचा यह क्या? यह मैं क्या कह गया? इस ढंग से तो मैं इसके पहले तो मैं कभी नहीं बोला था और तब एक देववाणी सुनायी दी। डरो मत यह कविता है जो तुम्हारे मुख से निकल रही है। संसार के कल्याण के लिए राम चरित्र काव्य लिखो। इस प्रकार राम की प्रथम कविता जन्म हुआ।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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