Tuesday, March 1, 2011

Matribhakti(मातृभक्ति)

माता-पिता को स्वार्थपूर्ति का माध्यम न समझें
माता-पिता अपने बच्चों के लिए जीवन में बहुत कुछ करते हैं। वे बच्चों की जरुरतों को पूरा ध्यान रखते हैं लेकिन अक्सर देखने में यह आता है कि जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और मां-बाप बुढ़े। तो बच्चे उन्हें घर का अनावश्यक सामान समझने लगते हैं जबकि उम्र के इस पढ़ाव पर उन्हें अपनों के प्रेम की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। इसलिए अपने माता-पिता की आवश्यकताओं को समझें और उनके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करें।
एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पेड़ के आस-पास एक बच्चा खेलने आया करता था। बच्चे और पेड़ की दोस्ती हो गई। पेड़ ने उस बच्चे से कहा तू आता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। बच्चा बोला लेकिन तुम्हारी शाखाएं बहुत ऊंची है मुझे खेलने में दिक्कत होती है। बच्चे के लिए पेड़ थोड़ा नीचे झुक गया। वह बच्चा खेलने लगा। एक बार बहुत दिनों तक बच्चा नहीं आया तो पेड़ उदास रहने लगा। और जब वह आया तो वह युवा हो चुका था। पेड़ ने उससे पूछा तू अब क्यों मेरे पास नहीं आता? वह बोला अब मैं बड़ा हो गया हूं। अब मुझे कुछ कमाना है। पेड़ बोला मैं नीचे झुक जाता हूं तो मेरे फल तोड़ ले और इसे बेच दे। तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा।
इस तरह वह पेड़ जवानी में भी उसके काम आ गया। फिर बहुत दिनों तक वह नहीं आया। पेड़ फिर उदास रहने लगा। फिर बहुत दिनों वह वापस लौटा तो पेड़ ने कहा तुम कहा रह गए थे। वह बोला क्या बताऊं बड़ी समस्या है। परिवार बड़ा हो गया है अब मुझे एक घर बनाना है। पेड़ बोला एक काम कर मुझे काट ले। मेरी लकडिय़ां तेरे कुछ काम आएंगी। उसने पेड़ काट डाला। अब केवल एक ठूंठ रह गया पेड़ के स्थान पर। फिर लंबे अरसे तक वह नहीं आया। फिर एक दिन वह आया तो बड़ा चिंतित था। पेड़ बोला तुम कहा रह गए थे और इतने परेशान क्यों हो। वह बोला मैं तो पूरी तरह से परिवार में उलझ गया हूं। बाल-बच्चे हो गए हैं।
बेटी के लिए रिश्ता देखने जाना है। रास्ते में नदी है कैसे जाऊँ? पेड़ बोला। तू एक काम कर यह जो थोड़ी लकड़ी और बची है इसे काटकर एक नाव बना और अपनी बेटी के लिए लड़का देखने जा। उसने ऐसा ही किया। फिर वह बहुत दिनों तक नहीं आया। बहुत दिनों बाद जब वह आया तो बड़ा परेशान था। पेड़ ने पूछा अब क्या हुआ? वह बोला मैंने बच्चों को बड़ा तो कर दिया पर अब यह चिंता है कि मेरे बच्चे मेरे चिता की लकड़ी भी लाएंगे कि नहीं? पेड़ ने कहा ये जो भी कुछ बचा है मेरे शरीर का हिस्सा। इसे भी तू काट ले यह तेरे अंतिम समय में काम आएगा। और उसने पेड़ का बाकी हिस्सा भी काट लिया। और इस तरह उस पेड़ ने उस बच्चे के प्रेम में अपना संपूर्ण व्यक्तित्व ही न्यौछावर कर दिया।

सफलता के नशे में माता-पिता को मत भूलो
राजा ज्ञानसेन के दरबार में प्राय: शास्त्रार्थ हुआ करता था। शास्त्रार्थ में जो विजयी होता, ज्ञानसेन उसे धन और मान से उपकृत करते। ज्ञान की ऐसी प्रतिस्पर्धा और फिर श्रेष्ठ ज्ञानी उपलब्धि में राजा ज्ञानसेन को आनंद की अनुभूति होती थी।
एक दिन ज्ञान सेन के दरबार में शास्त्रार्थ चल रहा था। उस शास्त्रार्थ में विद्वान भारवि विजेता घोषित किए गए। राजा ज्ञानसेन ने उन्हें हाथी पर बैठाया और स्वयं चंवर डुलाते हुए उनके घर तक ले गए। भारवि जब ऐसे बड़े सम्मान के साथ घर पहुंचे तो उनके माता-पिता की खुशी का ठीकाना न रहा। घर लौटकर भारवि ने सर्वप्रथम अपनी माता को प्रणाम किया किंतु पिता की ओर उपेक्षा भरा अभिवादन मात्र किया। माता को यह उचित नहीं लगा। उन्होंने भारवि को साष्टांग दंडवत के लिए इशारा किया तो उन्होंने बड़े बेमन से इसका निर्वाह किया। पिता ने भी अनिच्छा से चिरंजीवी रहो कह दिया। बात समाप्त हो गई किंतु माता-पिता खिन्न बने रहे। उन्हें वैसी प्रसन्नता न थी जैसी होना चाहिए थी। कारण भी स्पष्ट था। कारण भी स्पष्ट था। किसी बड़ी उपलब्धि को अर्जित करने पर संतान जिस विनम्रता के भाव से माता-पिता को नमन करती हैं उसका भारवि में सर्वथा अभाव था। उन्हें तो राजा द्वारा हाथी पर बैठाकर चंवर डुलाते हुए घर तक लाने का अहंकार था। इस अहंकार में उन्होंने शिष्टाचार व विनम्रता को भुला दिया था। थोड़े दिनों तक माता-पिता की खिन्नता देखने के बाद भारवि माता से कारण पूछने गए। माता बोलीं- विजयी होकर लौटने के पीछे तुम्हारे पिता की कठोर साधना को तुम भुल गए। शास्त्रार्थ के दसों दिन उन्होंने मात्र जल लेकर तुम्हारी सफलता के लिए उपवार किया और उससे पूर्व पढ़ाने में कितना श्रम किया। यह तुम्हें याद ही न रहा। भारवि को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने माता-पिता से क्षमा मांगी।
वस्तुत: सफलता कितनी ही बड़ी क्यों ना हो ङ्क्षकतु उसके मूल में माता-पिता के स्नेह एवं परिश्रम को भुलाना नहीं चाहिए। उनसे सदैव विनम्र बने रहना चाहिए क्योंकि विनम्रता से ही ज्ञान शोभा पाता है।

मातृभक्त बालक डाकू के सामने भी सत्य बोला
एक बार एक लंबा काफिला बगदाद की ओर जा रहा था। रास्ते में उस पर डाकू टूट पड़े और लूटमार करने लगे। चारो ओर हाहाकार मच गया। उस काफिले में 9 वर्ष का एक बालक भी था, जो एक और चुपचाप खड़ा इस लूटमार को देख रहा था। एक डाकू की नजर बालक पर पड़ी। उसने बालक से पूछा- तेरे पास भी कुछ है?
बालक ने उत्तर दिया- मेरे पास 40 अशर्फियां है।
डाकू हंसा और बोला- क्या कहा? तेरे 40 अशर्फियां हैं।
बालक ने कहा- मैं सत्य कहा रहा हूं। डाकू ने बालक का हाथ पकड़कर सरदार के पास ले गया और बोला- यह बालक अपने पास 40 अशर्फियां बताता है। सरदार ने बालक को अशर्फियां बताने को कहा। बालके ने अपनी सदरी उतारी और उसके अस्तर को फाड़कर अशर्फियां सामने डाल दी। डाकू हैरान रह गए। सरदार ने पूछा- लड़के, अशर्फियां इस प्रकार से रखने का उपाया किसने बताया? बालक ने कहा- मेरी मां ने इन्हें सदरी के अस्तर में सी दिया था। जिससे किसी को इसका पता न चले।
सरदार ने अचरज से पूछा- तो तूने इनके विषय में हमें क्यों बताया?
बालक बोला- चलते समय मेरी मां ने कहा था कि कभी झूठ न बोलना।
झूठ बोलना पाप है। इसलिए मैं आपसे झूठ कैसे बोलता?
डाकू बच्चे से बहुत प्रभावित हुआ और वह अपने साथियों से बोला- यह छोटा सा बच्चा अपनी मां का इतना कहना मानता है कि ऐसे संकट में भी झूठ नहीं बोला और हम लोग बड़े होकर भी सन्मार्ग पर नहीं चलते।
सभी डाकूओं ने उसी क्षण से लूटमार त्याग दी और उस मातृभक्त बालक को अपना गुरु स्वीकार किया। इस बालक का नाम अब्दुल काफिर था। जो आगे चलकर एक महान संत हुआ और आज भी मुसलमानों में बड़े पीर के नाम से प्रसिद्ध है। वस्तुत: मां की शिक्षा उस नींव को तैयार करती हैं, जिस पर सज्जनता का ऐसा भव्य महल खड़ा होता है, जो स्थाई यश का आधार बनता है। इसलिए मां द्वारा प्रदत्त ज्ञान को वाणी के साथ ही व्यवहार का अंग भी बनाइए।

सभी मुश्किलों का हल है आत्म बल
अमेरिका में एक छोटा-सा परिवार रहता था। माता-पिता और दो बच्चे। चारों प्रेम से रहते थे।सर्दियों के मौसम की बात है। दोनों बच्चे घर में अकेले थे। ठंड की अधिकता ने दोनों की अंगीठी सुलगाकर तापने के लिए प्रेरित किया। दोनों छोटे थे। इसलिए एक गलती कर बैठे। अंगीठी सुलगाने के प्रयास में मिट्टी के तेल के स्थान पर पेट्रोल डाल दिया। पेट्रोल की आग एकदम भड़क उठी। जिसमें एक बच्चा तो तत्काल मर गया और दूसरा बहुत अधिक जल गया। उसे अस्पताल पहुंचाया गया। वह लंबे समय तक अस्पताल में रहा और ठीक भी हो गया, लेकिन अब वह पूर्व की तरह सामान्य दिखाई देने वाला बच्चा नहीं रह गया था। वह बेहद कुरूप और अपंग हो गया था। उसके दोनों पैर लकड़ी की तरह सूख चुके थे। पहिएदार कूर्सी पर बैठकर जब वह घर लौटा तो उसकी मां फफक-फफककर रो पड़ी। पिता भी निराशा के गहन अंधकार में डूबे थे।किसी को आशा नहीं थी कि वह फिर चल सकेगा, किंतु उस बच्चे ने हिम्मत नहीं छोड़ी। वह अपने वर्तमान से अधिक बेहतर स्थिति पाने के लिए निरंतर प्रयास करता रहा। खिन्न होने के स्थान पर उसने प्रतिकूलताओं को चुनौती के रूप में लिया और उसे अनुकूलता में बदलने के लिए अपनी बुद्धि, पौरुष और कौशल को दांव पर लगा दिया। उसने बैसाखी के सहारे न केवल चलने में बल्कि दौडऩे में भी सफलता पाई और अनेक पुरस्कार भी प्राप्त किए। अपना अध्ययन जारी रखते हुए एम.ए. और पी.एच.डी. उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय के निदेशक पद पर आसीन हुआ। साहस की अद्भूत बानगी पेश करते हुए द्वितीय विश्वयुद्ध में मोर्चे पर भी गया। जब वह निदेशक पद से निवृत्त हुआ, तो अपनी जमापूंजी से अपंगों को स्वावलंबन देने वाली एक संस्था खोली, जिसमें हजारों अपंगों के रहने, पढऩे और कमाने का सुव्यवस्थित प्रबंध था। ऐसे दृढ़ संकल्पवान पुरुष का नाम था- ग्रेट कनिंघम, जिन्हें अमेरिका में देवता की भांति पूजा जाता है।कथा संदेश देती है कि व्यक्ति की सभी मुश्किलों का हल एक मात्र आत्मबल होता है। कितनी भी विकट परिस्थिति हो, किंतु आत्मबल दृढ़ होने पर उस पर आसानी से विजय प्राप्त कर लक्ष्य की उपलब्धि की जा सकती है।

उस बालक ने मां के लिए प्राण दे दिए
सन् 1880 ई. में उड़ीसा में बड़ा भारी अकाल पड़ा था। अन्न के बिना लोग भूखों मर रहे थे। एक गरीब परिवार में एक पुरुष, उसकी पत्नी व दो बच्चे थे। जब घर में भोजन के लिए कुछ भी नहीं रह गया और कहीं मजदूरी भी नहीं मिली, तो पुरुष से अपनी पत्नी व बच्चे का भुख से तड़पना नहीं देखा गया। वह उन्हें छोड़कर कहीं चला गया। बेचारी उस स्त्री ने घर के बर्तन और कपड़े बेचकर जितने दिन काम चल सकता था, चलाया। जब घर खाली हो गया, तो वह दोनों बच्चों को लेकर भीख मांगने निकली। भीख में जो कुछ मिलता था, उसे पहले बच्चों को खिलाकर तब वह बचा हुआ खाती और न बचता, तो पानी पीकर ही सो जाया करती थी।थोड़े दिनों के बाद वह स्त्री बीमार हो गई। उसके दस वर्षीय बड़े लड़के को भीख मांगने जाना पड़ता था। किंतु वह बालक भीख में जो कुछ पाता था, उससे तीनों का पेट नहीं भरता था। माता ज्वर में बेसुध पड़ी रहती थी और छोटे बच्चे को संभालने वाला कोई न था। वह भूख के मारे इधर-उधर भटका करता और एक दिन वह मर गया। बड़ा लड़का जो भीख में पाता वह मां को खिला देता। एक बार कई दिनों तक उसे अपने भोजन के लिए कुछ नहीं मिला। वह एक सज्जन पुरुष के घर पहुंचा, तो उन्होंने कहा- ‘‘मेरे पास थोड़े-सा भात है। तुम यहीं बैठकर खा लो।’’ लड़के ने बीमार मां का हवाला देते हुए उसके लिए दो मुट्ठी भात की मांग की। उन सज्जन ने कहा- ‘‘भात इतना कम है कि तुम्हारा भी पेट नहीं भरेगा। इसलिए तुम्हीं खा लो। तब लड़का बोला- ‘‘मां जब अच्छी थी, तो मुझे खिलाकर स्वयं बिना खाए रह जाती थी। अब उसके बीमार होने पर मैं उसे बिना खिलाए कैसे खा सकता हूं?’’ लड़के की मातृभक्ति देखकर सज्जन बहुत प्रसन्न हुए और भात लेने घर में गए। किंतु लौटकर आने पर देखा कि वह लड़का भूमि पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हो चुका था। यह थी उस अनाम बालक की मातृभक्ति, जिसने मां को अन्न दिए बिना भोजन स्वीकार नहीं किया जबकि भूख के कारण उसके प्राण ही चले गए। सार यह है कि जो मां हमारे लिए अपना खाना-पीना, सोना अर्थात् सभी सुख-सुविधाओं का त्याग कर देती है समय आने पर हमें भी उसके लिए हर प्रकार का बलिदान करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। ऐसी मातृभक्ति मात्र हमारा कर्तव्य ही नहीं बल्कि आत्मिक संतोष पाने का श्रेष्ठ माध्यम भी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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