Friday, March 11, 2011

Karm(कर्म

कर्म में स्वार्थ नहीं
मनुष्य नाना प्रकार के हेतु (प्रयोजन) लेकर कार्य करता है, क्योंकि बिना हेतु के कार्य हो ही नहीं सकता। कुछ लोग यश चाहते हैं, और वे यश के लिए काम करते हैं। दूसरे पैसा चाहते है, और वे पैसे के लिए काम करते हैं। कुछ अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, और वे अधिकार के लिए काम करते हैं। कुछ लोग मृत्यु के बाद अपना नाम छोड़ जाने के इच्छुक होते हैं। चीन में प्रथा है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद ही उसे उपाधि दी जाती है। किसी ने यदि बहुत अच्छा कार्य किया, तो उसके मृत-पिता अथवा पितामह को कोई सम्माननीय उपाधि दे दी जाती है। इस्लाम धर्म के कुछ संप्रदायों के अनुयायी इस बात के लिए आजन्म काम करते रहते हैं कि मृत्यु के बाद उनकी एक बड़ी कब्र बने। इस प्रकार, मनुष्य को कार्य में लगाने वाले बहुत से उद्देश्य होते हैं।
प्रत्येक देश में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उससे दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो और भी उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई तथा मनुष्य-जाति की सहायता करने के लिए अग्रसर होते हैं, क्योंकि भलाई में उनका विश्वास है और उसके प्रति प्रेम है।
देखा जाता है कि नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य बहुधा शीघ्र फलित नहीं होता। ये चीजें तो हमें उस समय प्राप्त होती हैं, जब हम वृद्ध हो जाते हैं। असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल की प्राप्ति होती है और सच पूछा जाय, तो नि:स्वार्थता अधिक फलदायी होती है, पर लोगों में इसका अभ्यास करने का धीरज नहीं रहता। यदि कोई मनुष्य पांच दिन या पांच मिनट भी बिना भविष्य का चिंतन किए, बिना स्वर्ग, नरक या अन्य किसी के संबंध में सोचे, नि:स्वार्थता से काम कर सके, तो वह एक महापुरुष बन सकता है। यह शक्ति की महत्ताम अभिव्यक्ति है-इसके लिए प्रबल संयम की आवश्यकता है। अन्य सब बहिर्मुखी कर्मो की अपेक्षा इस आत्मसंयम में शक्ति का अधिक प्रकाश होता है। मन की सारी बहिर्मुखी गति किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की ओर दौड़ती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है, वह फिर तुम्हारे पास लौटकर तुम्हारे शक्ति विकास में सहायक नहीं होती। परंतु यदि उसका संयम किया जाए, तो उससे शक्ति की वृद्धि होती है। इस आत्मसंयम से एक महान् इच्छा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। वह एक ऐसे चरित्र का निर्माण करता है, जो जगत् को अपने इशारे पर चला सकता है।
प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर ध्येयों की ओर बढ़ने तथा उन्हें समझने का प्रबल यत्न करते रहना चाहिए। यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस आदमी का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा रहता है। यदि तुम एक श्रेष्ठ एवं भला कार्य करना चाहते हो, तो यह मत सोचो कि उसका फल क्या होगा। कर्मयोगी के लिए सतत कर्मशीलता आवश्यक है। बिना कार्य के हम एक क्षण भी नहीं रह सकते।
अब प्रश्न यह उठता है कि आराम के बारे में क्या होगा? यहां इस जीवन-संग्राम के एक ओर है कर्म, तो दूसरी ओर है शांति। सब शांत, स्थिर। यदि एक ऐसा मनुष्य, जिसे एकांतवास का अभ्यास है, संसार के चक्कर में घसीट लाया जाए, तो उसका ध्वंस हो जाएगा। जैसे समुद्र की गहराई में रहने वाली मछली पानी की सतह पर लाते ही मर जाती है। वह सतह पर पानी के उस दबाव की अभ्यस्त नहीं होती। इसी प्रकार, सांसारिक तथा सामाजिक मनुष्य शांत स्थान पर ले जाया जाय, तो क्या वह शांतिपूर्वक रह सकता है? कदापि नहीं।
आदर्श पुरुष वे हैं, जो परम शांत एवं निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शांति एवं निस्तब्धता का अनुभव करते हैं। यही कर्मयोग का आदर्श है। यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया, तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया।
जो कार्य हमारे सामने आते जाएं, उन्हें हम हाथ में लेते जाएं और शनै:-शनै: अपने को दिन-प्रतिदिन नि:स्वार्थ बनाने का प्रयत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारा हेतु क्या है। ऐसा होने पर हम देख पाएंगे कि आरंभावस्था में प्राय: हमारे सभी कार्यो का हेतु स्वार्थपूर्ण रहता है, किंतु धीरे-धीरे यह स्वार्थपरायणता अध्यावसाय से नष्ट हो जाएगी, और अंत में वह समय आ जाएगा, जब हम वास्तव में स्वार्थ से रहित होकर कार्य करने के योग्य हो सकेंगे।

कर्म करने की शिक्षा देती है गीता
जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने वाला था। तब अर्जुन ने कौरवों के साथ भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि श्रेष्ठ महानुभावों को देखकर तथा उनके प्रति स्नेह होने पर युद्ध करने से इंकार कर दिया था। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था जिसे सुन अर्जुन ने न सिर्फ महाभारत युद्ध में भाग लिया अपितु उसे निर्णायक स्थिति तक पहुंचाया। गीता को आज भी हिंदू धर्म में बड़ा ही पवित्र ग्रंथ माना जाता है। गीता के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी।
वास्तव में यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण कलयुग के मापदंड को ध्यान में रखते हुए ही दिया है। कुछ लोग गीता को वैराग्य का ग्रंथ समझते हैं जबकि गीता के उपदेश में जिस वैराग्य का वर्णन किया गया है वह एक कर्मयोगी का है। कर्म भी ऐसा हो जिसमें फल की इच्छा न हो अर्थात निष्काम कर्म। गीता में यह कहा गया है कि निष्काम काम से अपने धर्म का पालन करना ही निष्कामयोग है। इसका सीधा का अर्थ है कि आप जो भी कार्य करें, पूरी तरह मन लगाकर तन्मयता से करें। फल की इच्छा न करें। अगर फल की अभिलाषा से कोई कार्य करेंगे तो वह सकाम कर्म कहलाएगा।
गीता का उपदेश कर्मविहिन वैराग्य या निराशा से युक्त भक्ति में डूबना नहीं सीखाता वह तो सदैव निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देता है।

जो जिम्मेदारी मिले उसे निभाओ, सवाल मत करो....
अधिकतर लोगों के साथ यह समस्या है कि उन्हें कोई भी जिम्मेदारी दी जाए, वे कुछ न कुछ शिकायत करते ही रहते हैं। जीवन में अध्यात्म हो या व्यवसाय हर जगह तप जरूरी है। जब तक हम अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभाते, सफलता कभी नहीं मिल सकती। अध्यात्म में भी सफलता का यही एक मार्ग है। प्रकृति या यूं कहें परमात्मा ने आपको जो काम दिया है उसे इमानदारी से बिना किसी शिकायत के पूरा करते चलें, आपको भगवान खुद ब खुद मिल जाएगा।
यह कथा कर्तव्य और परमात्मा के संबंध को बताती है। बहुत पुरानी बात है, एक राज्य में जोरदार बारिश के कारण नदी में बाढ़ आ गई। सारा नगर बाढ़ की चपेट में आ गया। लोग जान बचाकर ऊंचे स्थानों की ओर भागे। बहुत से लोगों की जान गई। राज्य का राजा परेशान हो उठा। एक पहाड़ी से उसने नगर का नजारा देखा। सारा नगर पानी में डूब चुका था। राजा ने अपने मंत्रियों से बचाव कार्य पर चर्चा की। पंडितों को बुलाया गया। किसी भी तरह से बाढ़ का पानी नगर से निकाला जाए, बस सबको यही चिंता थी। राजा ने सिद्ध संतों से पूछा क्या कोई ऐसी विधि है जो नदी को उल्टा बहा सके, जिससे बाढ़ का पानी निकल जाए। पंडितों ने कहा ऐसी कोई विधि नहीं है। तभी वहां एक वेश्या आई, उसने राजा से कहा वह नदी को उल्टी बहा सकती है। राजा को हंसी आ गई। मंत्रियों और ब्राह्मणों ने उसे दुत्कार दिया, जहां बड़े-बड़े सिद्ध पुरुष हार मान गए, वहां तू क्या है। पापिनी, तू तो अपवित्र है, समाज पर कलंक है।वेश्या ने राजा से कहा मुझे एक बार अवसर तो दें। राजा ने सोचा जहां इतने लोग कोशिशें कर रहे हैं, यह भी कर तो बुराई ही क्या है। राजा ने उसे आज्ञा दे दी। वेश्या ने आंखें बंद कर थोड़ी देर कुछ बुदबुदाया। वह ध्यान की स्थिति में ही बैठी रही, तभी अचानक चमत्कार हो गया। नदी का बहाव उलटी दिशा में लौटने लगा और देखते ही देखते, सारा पानी बह गया। संकट टल गया। राजा ने उस वेश्या के पैर पकड़ लिए। उससे पूछा ऐसी सिद्धि तुझमें कहां से आई? वेश्या ने कहा यह मेरी गुरु की शिक्षा का असर है। जिस महिला ने मुझे इस निंदित कार्य में धकेला था, उसने मुझे एक शिक्षा दी थी कि शायद भगवान ने तुझे इसी कार्य के लिए बनाया है। तू कभी अपनी किस्मत को मत कोसना। जो भी जिम्मेदारी हो उसे हमेशा पूरे मन से निभाना। और मैंने यही किया। मैंने कभी भगवान से शिकायत नहीं की, न ही किस्मत को कोसा। मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या बन गया और मैंने आज भगवान से उस तपस्या का फल मांग लिया।

कर्म की महत्ता है, नाम की नहीं
किसी दंपत्ति ने अपने पुत्र का नाम ‘पापक’ रख दिया। बचपन में तो बालक को अपने नाम का अर्थ भी ज्ञात नहीं था। किंतु जब वह बड़ा हुआ, तो उसने अपने नाम का अर्थ जाना और इसे जानकर उसे बहुत बुरा लगा।एक दिन वह अपने गुरु भगवान बुद्ध के पास गया और उनसे प्रार्थना की- ‘‘भंते, मेरा नाम कृपा कर बदल दीजिए। पापक नाम बड़ा अप्रीतिकर लगता है।’’बुद्ध बोले- ‘‘वत्स, नाम तो पुकारने के लिए होता है। प्रमुख तो हमारे कर्म होते हैं, जिन पर हमारी कीर्ति-अपकीर्ति टिकी होती है।’’ पापक उनसे सहमत नहीं हो पाया। उसका आग्रह यथावत रहा। तब बुद्ध ने कहा- ‘‘तुम स्वयं कोई अच्छा-सा नाम खोज लाओ। मैं वही तुम्हारा नाम रख दुंगा।पापक अच्छे नाम की खोज में निकला। उसे मार्ग में एक शवयात्रा दिखी। उसने शवयात्रा के साथ चल रहे लोगों में से एक से पूछा- ‘‘मरने वाले का नाम क्या था?’’ उत्तर मिला- ‘अमरपाल’ सुनकर पापक सोचने लगा कि नाम अमरपाल और मृत्यु को प्राप्त हो गया। आगे चलकर एक भिखारी मिला। पूछने पर उसने अपना नाम ‘धनपति’ बताया। पापक को अजीब लगा कि नाम धनपति और भीख मांग रहा है। कुछ दूर और जाने पर देखा कि एक राह भूला व्यक्ति लोगों से राह पूछ रहा था। उसका नाम पंथक था। पापक ने विचार किया कि पंथक भी पंथ भूलते हैं। अंतत: उसे समझ में आ गया कि नाम में कुछ नहीं रखा, व्यक्ति के कर्म ही महत्वपूर्ण होते हैं। अत: माता-पिता द्वारा रखे गए नाम को बदलने का कोई औचित्य नहीं है।कथा संकेत करती है कि कर्म की महत्ता है क्योंकि वे ही व्यक्ति के यश या अपयश का आधार बनते हैं। नाम तो व्यक्ति की पहचान का माध्यम भर है।
तिलक ने दिया कर्मनिष्ठा का संदेश
बात वर्ष 1916 की है। लखनऊ में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा था। इसमें 1914 के प्रथम विश्व युद्ध के बाद उत्पन्न स्थितियों का भारत पर प्रभाव जैसे अहम मसले के अलावा देश को अंग्रेजों से आजाद कराने की नीति पर भी विचार-विर्मश चल रहा था। सभी नेता व कार्यकर्ता सुबह जल्दी उठकर आवश्यक कार्यो से निवृत्त हो विचार-विमर्श में जुट जाते। इन्हीं लोगों में एक वयोवृद्ध सज्जन भी थे। वे ब्रह्म मुहूर्त में उठते, एक-दो घंटे स्नान व अन्य जरूरी कार्यो में लगाते और फिर चिट्ठी-पत्री लिखने बैठ जाते।इन चिट्ठियों में देशभर के उन लोगों के लिए संदेश भेजते, जो भारत की आजादी के लिए कुछ करना चाहते थे। उनकी भाषा शैली इतनी औजस्वी होती थी कि भारत के सभी प्रांतों से लोग आजादी के यज्ञ में अपनी आहुति देने खिंचे चले आते ।एक दिन वे बुजुर्ग दिन के11-12 बजे तक चिट्ठियां लिखते रहे। एक स्वयंसेवक ने आकर उनसे कहा- ‘‘मान्यवर, आपने सुबह से कुछ नहीं खाया। कहे, तो नाश्ता यहीं ले आऊं।’’ उनके हां कहने पर वह नाश्ता ले आया। जब वे नाश्ता करने लगे, तो स्वयंसेवक बोला- ‘‘क्षमा करें। आपने नाश्ते के पूर्व पूजा नहीं की। शायद आप भूल गए।’’ तब वे बुजूर्ग हंसकर बोले- ‘‘बेटा, सुबह से मैं पूजा के अलावा कर ही क्या रहा हूं? मेरे लिए कर्म की पूजा है।’’यह बुजरुग सज्जन बालगंगाधर तिलक थे, जिनका यह संदेश आज भी प्रासंगिक है कि धर्म स्थल जाना, घंटों बैठकर पूजा करना अथवा बात-बात में ईश्वर को स्मरण करना धार्मिकता के सही मायने नहीं हैं बल्कि अपने कर्मो को अपना ईश्वर मानकर उन्हें पूर्ण निष्ठा व समर्पण से करना ही सच्ची धार्मिकता है।

स्वस्थ और सुखी जीवन का रहस्य
पुराने समय में एक राजा हुए। राजा के पास सभी सुख-सुविधाएं और असंख्य सेवक-सेविकाएं हर समय उनकी सेवा उपलब्ध रहते थे। उन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी। फिर भी राजा उसके जीवन के सुखी नहीं था। क्योंकि वह अपने स्वास्थ्य को लेकर काफी परेशान रहता था। वे सदा बीमारियों से घिरे रहते थे। राजा का उपचार सभी बड़े-बड़े वैद्यों द्वारा किया गया परंतु राजा को स्वस्थ नहीं हो सके। समय के साथ राजा की बीमारी बढ़ती जा रही थी। अच्छे राजा की बढ़ती बीमारी से राज दरबार चिंतित हो गया। राजा की बीमारी दूर करने के लिए दरबारियों द्वारा नगर में ऐलान करवा दिया गया कि जो भी राजा स्वास्थ्य ठीक करेगा उसे असंख्य स्वर्ण मुहरे दी जाएगी। यह सुनकर एक वृद्ध राजा का इलाज करने राजा के महल में गया। वृद्ध ने राजा के पास आकर कहा, 'महाराज, आप आज्ञा दे तो आपकी बीमारी का इलाज मैं कर सकता हूं। राजा की आज्ञा पाकर वह बोला, 'आप किसी पूर्ण सुखी मनुष्य के वस्त्र पहनिए, आप अवश्य स्वस्थ और सुखी हो जाएंगे। वृद्ध की बात सुनकर राजा के सभी मंत्री और सेवक जोर-जोर से हंसने लगे। इस पर वृद्ध ने कहा 'महाराज आपने सारे उपचार करके देख लिए है, यह भी करके देखिए आप अवश्य स्वस्थ हो जाएंगे।Ó राजा ने उसकी बात से सहमत होकर के सेवकों को सुखी मनुष्य की खोज में राज्य की चारों दिशाओं में भेज दिया। परंतु उन्हें कोई पूर्ण सुखी मनुष्य नहीं मिला। प्रजा में सभी को किसी न किसी बात का दुख था। अब राजा स्वयं सुखी मनुष्य की खोज में निकल पड़े। अत्यंत गर्मी के दिन होने से राजा का बुरा हाल हो गया और वह एक पेड़ की छाया में विश्राम हेतु रुका। तभी राजा को एक मजदूर इतनी गर्मी में मजदूरी करता दिखाई दिया। राजा ने उससे पूछा, 'क्या, आप पूर्ण सुखी हो? मजदूर खुशी-खुशी और सहज भाव से बोला भगवान की कृपा से मैं पूर्ण सुखी हूं। यह सुनते ही राजा भी अतिप्रसन्न हुआ। उसने मजदूर को ऊपर से नीचे तक देखा तो मजदूर ने सिर्फ धोती पहनी थी और वह गाढ़ी मेहनत से पूरा पसीने से तर है। राजा यह देखकर समझ गया कि श्रम करने से ही एक आम मजदूर भी सुखी है और राजा कोई श्रम नहीं करने की वजह से बीमारी से घिरे रहते हैं। राजा ने लौटकर उस वृद्ध का उपकार मान उसे असंख्य स्वर्ण मुद्राएं दी। अब राजा स्वयं आराम और आलस्य छोड़कर श्रम करने लगे। परिश्रम से कुछ ही दिनों में राजा पूर्ण स्वस्थ और सुखी हो गए। कथा का सार यही है कि आज हम भौतिक सुख-सुविधाओं के इतने आदि हो गए हैं कि हमारे शरीर की रोगों से लडऩे की शक्ति क्षीण हो जा रही है। इससे हम जल्द ही बीमारी की गिरफ्त में आ जाते हैं। अत: स्वस्थ और सुखी जीवन का रहस्य यही है कि थोड़ा बहुत शारीरिक परिश्रम जैसे योगा, ध्यान, भ्रमण आदि अवश्य करें।

संकटों से मुक्ति दिलाती है दृढ़ इच्छाशक्ति
एक आदमी हमेशा मुसीबतों से घिरा रहता था। उसका एक काम ठीक होता तो दूसरा बिगड़ जाता। उसे सुधारने जाता तो तीसरे काम में पेंच आ जाता। कभी परिवार में कोई संकट, तो कभी नौकरी में। उनसे पार पाता तो कोई और समस्या मुंह बाए खड़ी रहती। वह यह सोचकर अत्यधिक परेशान हो गया कि मेरे साथ ही ऐसा होता है और ऐसा कब तक चलता रहेगा? क्या जीवन में कभी सुख-संतोष नसीब नहीं होगा? वह इतना निराश हो गया कि उसने आत्म हत्या करने का प्रयास किया, किंतु किस्मत ने वहां भी धोखा दिया। वह बच गया और परिवार व इष्ट मित्रों के कोप का शिकार हुआ। उसे जिम्मेदारियों से भागने वाला कहकर सभी ने धिक्कारा। उसने सभी से क्षमा मांगी और शहर छोडऩे का फैसला किया। उसने सोचा कि स्थान बदलने से शायद उसका भाग्य भी बदल जाए। उसने कई स्थान देखे और उनमें से एक छोटे से कस्बे को पसंद किया। वहां जाने के लिए उसने व उसके परिवार ने तैयारी कर ली।सामान लेकर जैसे ही उसने घर से बाहर कदम रखा तो देखा कि एक महिला रास्ता रोके खड़ी है। उसने पूछा-''क्या चाहती हो?'' महिला ने कहा-''तुम्हारा साथ।'' आदमी ने जवाब दिया- ''किंतु मैं तो शहर छोड़ रहा हूं।'' महिला बोली-''तो क्या हुआ? तुम जहां जाओगे मैं वहीं तुम्हारे साथ जाऊंगी।'' आदमी ने झल्लाकार उसका परिचय पूछा तो वह बोली- ''मैं तुम्हारी किस्मत हूं।'' यह सुनकर उस आदमी का दिल बैठ गया। उसने कहा- ''जब तुम कही भी मेरा साथ छोडऩे के लिए तैयार नहीं तो दूसरे स्थान पर जाकर भी क्या करूंगा?'' तब उस आदमी ने वहीं रहकर अपनी किस्मत बदलने का फैसला किया। दृढ़-इच्छाशक्ति रंग लाई और उसकी जी तोड़ मेहनत से सफलता उसके कदम चूमने लगी। ब्रह्मवैतपुराण की यह कथा इंगित करती है कि इच्छाशक्ति की प्रबलता से गंभीर संकटों पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। सुख व संतोष को अपने जीवन की स्थाई निधि बनाया जा सकता है।

परिश्रम जीवन को सार्थकता प्रदान करता है
किसी गांव में हरि नामक ईमानदार व परिश्रमी व्यक्ति रहता था। इनके ठीक विपरित उसका बेटा घोर आलसी व निकम्मा था। मेहनत कर पैसा कमाना उसके स्वभाव में नहीं था। यदि वह कुछ कमाकर लाता भी, तो बेईमानी और जालसाजी से। एक दिन हरि ने उसे समझाया- ''बेटे, अब मैं वृद्ध हो गया हूं। काम करने की पहले जैसी सामथ्र्य नहीं रही। अब तुम कुछ ठीक-ठीक काम कर पैसा कमाओ और घर चलाओ। मैं अपना शेष जीवन भजन-पूजन में बिताना चाहता हूं।'' पहले तो उसका अकर्मथ्य बेटा बात को टालता रहा, किंतु पिता के अधिक दबाव के चलते मान गया। अगले दिन वह काम पर गया और शाम को लौटकर अपनी कमाई पिता के हाथों में रख दी। पिता ने वह सारा पैसा सामने जल रहे चूल्हे में डाल दिया। बेटा यह देखकर कुछ नहीं बोला और लापरवाही से अंदर चला गया। अगले दिन भी ऐसा ही हुआ।
तीसरे दिन भी जब पिता ने वही क्रम दोहराने की कोशिश की तो बेटे ने पिता के हाथ पकड़कर कहा- ''पिताजी, आप मेरी कमाई आग में मत झोंकिए। आज मैंने सारे दिन जी-तोड़ मेहनत की है। यह देखिए, काम कर-करके मेरे हाथों में छाले पड़ गए हैं।''
उसके हाथों के छाले और चेहरे पर सत्य के भाव देखकर पिता ने कहा- ''कल तक पैसों को आग में डालते समय तुम्हारे चेहरे पर शिकन तक नहीं थी क्योंकि वह बेईमानी की कमाई थी। आज तुम्हारी पीड़ा बता रही है कि तुमने वास्तव में परिश्रम किया है। अब मुझे कोई चिंता नहीं है। क्योंकि तुमने मेहनत से कमाना सीख लिया है और इसी में जीवन की सार्थकता है।'' कथा का मर्म यह है कि परिश्रम से अर्जित धन वह आत्मिक शांति देता है, जो संतोषपूर्वक जीने के लिए अत्यावश्यक है। बेईमानी से अर्जित धन संपन्नता दे सकता है, किंतु सुख शांति नहीं। वस्तुत: जिसने परिश्रम से कमाना सीख लिया, उसका जीवन सही अर्थों में सार्थकता को उपलब्ध हो जाता है।

परिश्रम रूपी सीप से मिलता है आनंद रूपी मोती
एक राजा था। वह प्राय: प्रजा के कष्टों को जानने के लिए राज्य में भ्रमण किया करता था। एक दिन वह घूमते हुए एक गांव में पहुंचा। वहां उसने देखा कि एक किसान खेत में हल चला रहा है। हल में एक ओर बैल जुता है और दूसरी ओर उसकी पत्नी हल खींच रही है। राजा को यह देखकर बहुत दुख हुआ वह किसान के पास जाकर बोला- ''तुम यह क्या कर रहे हो भाई? अपनी पत्नी को बैल के स्थान पर जोतकर अनर्थ कर रहे हो।'' किसान ने कहा- ''मेरा एक बैल मर गया है और मुझे खेत की बुआई अभी ही करना है। मैं क्या करूं?''राजा बोला- ''तुम मेरा एक बैल ले लो।'' किसान ने प्रश्न किया- ''यदि तुम्हारी पत्नी नहीं मानी तो?'' राजा ने जवाब दिया- ''तुम अपनी पत्नी को मेरी पत्नी के पास भेज दो। वह बात कर आएगी और मेरी पत्नी का जवाब भी ले जाएगी।'' किसान बोला- ''मेरी पत्नी के जाने से मेरा काम रुक जाएगा।'' राजा ने मुस्कुराते हुए कहा- ''तब तक उसकी जगह मैं हल खींच दुंगा।'' किसान ने अपनी पत्नी को रानी के पास भेज दिया और उसकी जगह राजा हल खींचने लगा। उधर किसान की पत्नी ने रानी के समक्ष अपनी समस्या रखी तो रानी बोली- ''बहन, तुम्हारा बैल बूढ़ा है और हमारा बैल जवान। दोनों साथ नहीं चल पाएंगे। इसलिए तुम दो बैल ले जाओ।'' किसान की पत्नी प्रसन्न हुई और रानी के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो गई। दोनों बैलों की मदद से किसान ने शाम तक सारे खेत में बीज डाल दिए। कुछ दिन बाद फसल बड़ी हुई। किसान ने देखा कि जितनी धरती पर राजा ने हल खींचा था और उसके पसीने की बूंदे टपकी थीं वहां अनाज नहीं मोती लगे थे। किसान सोचने लगा कि कहीं यह भ्रम ही थे। दरअसल वे प्रजावत्सल राजा के श्रम से उपजे मोती थे। नारद पुराण में वर्णित इस कथा का सार यह है कि परिश्रम से जब किसी वस्तु की उपलब्धि होती है, तो उसे भोगने में जो आनंद प्राप्त होता है। वह किसी स्वर्गिक सुख से कम नहीं है। वस्तुत: परिश्रम रूपी सीप से ही आनंद रूपी मोती की प्राप्ति होती है।

असंभव को भी संभव करता है आत्मबल
द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। मित्र राष्ट्र संगठित रूप से जर्मनी से टक्कर ले रहे थे। 24 मार्च 1944 को ब्रिटेन के सार्जेंट निकोलस ने बर्लिन पर बमबारी करने के लिए हवाई जहाज से उड़ान भरी। बमबारी करने के बाद जब वे लौट रहे थे, तभी शत्रु सेना की विमान भेदी तोपों ने निकोलस के हवाई जहाज को निशाना बनाया।इससे निकोलस के विमान में आग लग गई। निकोलस पैराशूट निकालने के लिए केबिन की ओर मुड़े, किंतु केबिन का दरवाजा खोलते ही आग की भीषण लपटें उनकी ओर बढ़ीं। इस आग में पैराशूट भी जलकर स्वाहा हो गया।आग विमान में फैलती जा रही थी। निकोलस परमात्मा को याद करते हुए बिना पैराशूट के नीचे कूद गए। जब उनकी चेतना लौटी, तो स्वयं को बर्फ से ढंका हुआ पाया। उनके पैरों में की हड्डियां टूट चुकी थीं, इसलिए वे उठने में असमर्थ थे। उन्हें इतना अनुमान तो हो गया कि यह क्षेत्र शत्रु का है, किंतु जीवन रक्षा हेतु उन्होंने कमर में बंधी सीटी बजा दी। सीटी बजाते ही शत्रु सैनिक ने आकर उन्हें बंदी बना लिया। जब निकोलस को शत्रु सेना के अधिकारियों के समक्ष लाया गया तो उन्होंने उनसे सारी बात पूछी। निकोलस ने अपने साथ घटित सारा ब्यौरा सुनाया, तो किसी को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ, किंतु जले हुए विमान के अवशेष प्राप्त होने पर उन्हें निकोलस की साहस गाथा पर विश्वास करना पड़ा। युद्ध समाप्त होने के बाद बाकि युद्धबंदियों के साथ निकोलस को भी छोड़ दिया गया और वे सकुशल ब्रिटेन पहुंच गए।यह सच्ची घटना हमें दृढ़ आत्मबल की प्रेरणा देती है। यदि हम स्वयं को भीतर से मजबूत रखें तो असंभव या जटिल कहलाने वाले कार्यों को भी संभव कर सकते हैं और किसी भी सीमा तक जाकर सत् और शुभ को उपलब्ध कर सकते हैं। समस्त विपरीतताओं परिस्थितियों को अनुकूलताओं में बदलने का एकमात्र साधन आत्मबल है।

संकल्प से दूर हुई बाधाएं
भगवान बुद्ध जब श्रावस्ती में थे, तब एक समय वहां भयावह अकाल पड़ा। चारों ओर हाहाकार मच गया। सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति उन माताओं की थी, जिनकी गोद में छोटे-छोटे बच्चे थे। धीरे-धीरे यह दशा हो गई कि कहीं माताओं की आंखों के समक्ष ही बच्चे दम तोडऩे लगे और कहीं माता की मृत्यु से बच्चे अनाथ होने लगे।
यह देख भगवान बुद्ध ने श्रावस्ती के संपन्न लोगों की एक गोष्ठी बुलाई। गोष्ठी में उन्होंने कहा कि इस अकाल के दौर में जिन घरों में पुरुष जिंदा है, वे अपने परिवार का पेट भरने के लिए यथा शक्ति उपक्रम कर रहे हैं, किंतु जिन घरों में पुरुष नहीं रहे, वहां माताओं व बच्चों की दशा अत्यंत सोचनीय है। आप लोग कृपा कर इनकी सहायता करें।
यह सुनकर उपस्थित लोगों में थोड़ी देर के लिए मौन छा गया। फिर एक व्यक्ति बोला- हमारे पास अन्न है, किंतु वह हमारे परिवार के वास्ते मात्र एक वर्ष के लिए है। हम इससे किसी की मदद कैसे कर सकते हैं। लगभग सभी अन्य लोग भी उस व्यक्ति के समर्थन में थे। तभी एक 12 वर्षीय कन्या सुचेता ने खड़े होकर कहा- देव। मैं यह कार्य करुंगी। मनुष्य कितना भी निष्ठुर हो, उसके हृदय में कहीं न कहीं करुणा छिपी रहती है। जिनके घर चूल्हा जलेगा। मैं उनके पास जाकर मरणासन्न लोगों के लिए आधी रोटी मांगूगी।
बुद्ध ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा तुम भावना की दृष्टि से धनवानों से अधिक संपन्न हो। तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी।
सुचेता ने अपने संकल्प को सच कर दिखाया। उसने अकाल के पूरे एक वर्ष तक घर-घर जाकर अन्न एकत्रित किया और इस अवधि में प्रतिदिन लगभग एक हजार निराश्रितों को भोजन कराया। अटल संकल्प की धनी सुचेता अकाल पीडि़तों के लिए देवी स्वरूपा बन गई।सार यह है कि संकल्प शक्ति की अटलता पहाड़ सी समस्या को तिल के बराबर कर देती है। सत्कार्य में बाधाएं विभिन्न स्वरूपों में आती हैं किंतु इरादा मजबूत हो, तो बाधाएं निराकृत होकर लक्ष्य की उपलब्धि निश्चित रूप से होती है।

आत्मनिर्भरता से बढ़ाता है आत्मविश्वास
विख्यात भक्त नामाजी के जीवन का एक प्रसंग स्वावलंबन के महत्व को प्रदर्शित करता है। नामाजी अपनी ईश भक्ति और ख्याति के बावजूद सादगीपूर्ण जीवन के लिए काफी लोकप्रिय थे। संपूर्ण भारतवर्ष में उनके असंख्य शिष्य थे और संत समाज में भी उनकी काफी प्रतिष्ठा थी। उनसे मिलने प्राय: विद्वान लोग आया करते थे और नामाजी उनका यथोचित सत्कार भी करते थे।
एक बार कुछ संत उनसे मिलने घर पहुंचे। नामाजी ने उन्हें ससम्मान बैठाया। परस्पर ज्ञान चर्चा आरंभ हो गई। घर के भीतर उनकी पत्नी इस चिंता में डूबी थी कि अतिथियों का सत्कार कैसे करे क्योंकि सत्कार के लिए घर में कुछ नहीं था। जब कुछ नहीं सूझा, तो उन्होंने नामाजी को बुलाकर समस्या उनके सामने रख दी।
नामाजी बोले- राजा ने जो सिक्का मुझे पुरस्कार में दिया था उसे किसी महाजन के पास गिरवी रखकर सामान खरीद लाओ। पत्नी ने ऐसा ही किया। इस विषय में जब बाद में राजा को ज्ञात हुआ तो उन्होंने मंत्री के हाथों आवश्यक रुपए नामाजी के घर भिजवाए, किंतु उन्होंने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि मैं स्वयं मजदूरी करके पुरस्कार का सिक्का महाजन से छुड़वा लूंगा। भक्तवर का स्वाभिमान भरा उत्तर सुनकर राजा ने उसी समय नामाजी के घर जाकर उनसे क्षमा मांगी और सदा के लिए उनके शिष्य बन गए।
यह प्रसंग स्वाबलंबन और उससे उपजे आत्मविश्वास की ओर संकेत करता है। अपने परिश्रम से अर्जित आय भले कम हो, किंतु वह व्यक्ति के भीतर उस ऊर्जा का संचार करती है, जिससे प्रगति के द्वार उसके लिए खुलते जाते हैं और बाधाओं से वह कभी पराजित नहीं होता।

बच्चे ने दिया आत्मनिर्भरता का संदेश
विख्यात भारतीय विद्वान सत्यदेव परिव्राजक उन दिनों अमेरिका प्रवास पर थे। प्रात:कालीन भ्रमण उनका नित्य का नियम था। एक दिन वे प्रात:कालीन भ्रमण पर थे कि सामने से एक किशोर आया। उसने सत्यदेव का अभिवादन किया। सत्यदेव ने भी प्रत्युत्तर में अभिवादन कर उसकी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा। लड़के के हाथों में कुछ समाचार पत्र थे। वह सत्यदेव से बोला-मान्यवर। क्या आप मुझसे एक समाचार पत्र खरीदना पसंद करेंगे।
सत्यदेव बोले- बेटे। मैं अभी-अभी समाचार पत्र पढ़कर ही आ रहा हूं। अत: अब मुझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, किंतु तुम इतनी कम उम्र में समाचार पत्र बेचने लगे हो, इसका क्या कारण है?
कहीं तुम्हारे माता-पिता का अवसान----?
वह लड़का बोला- श्रीमान। यदि आप एक समाचार पत्र खरीदेंगे तो मैं अपने विषय में सब कुछ सच-सच बता दूंगा।
सत्यदेव ने तत्काल उससे एक समाचार-पत्र खरीद लिया और बोले अच्छा अब बताओ।
वह लड़का स्वाभिमानपूर्वक बोला- मेरे माता-पिता जीवित है और सभी प्रकार से संपन्न भी। किंतु मैं नहीं चाहता कि उनके सहारे रहकर स्वयं को पराश्रित बना लूं। मेरे देश में बच्चों को आरंभ से ही स्वावलंबी बनना सिखाया जाता है। मैं भी उसी सीख को जीवन में उतारने का प्रयास कर रहा हूं।
सत्यदेव उसका जवाब सुनकर अति प्रसन्न हुए और उस सुखद भविष्य के लिए अनेकानेक आशीष दिए।
कथा का तात्पर्य यह है कि बच्चों को आरंभ से ही स्वावलंबन की शिक्षा दी जाना चाहिए। इससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है और वे संकटों पर विजय पाना सीखते हैं। यही साहस आगे चलकर उनकी इच्छित उपलब्धियों को पाने का माध्यम बनता है।

असफलता ही सफलता की कुंजी
कूर्म पुराण की एक कथा के अनुसार मध्य भारत के किसी प्रांत के एक राजा ने इस बार पूरी तैयारी से शत्रु सेना पर हमला किया। घमासान युद्ध हुआ। राजा और उसके सैनिक बहुत ही वीरता से लड़े, किंतु सातवीं बार भी हार गए। राजा को अपने प्राणों के लाले पड़ गए। वह अपनी जान बचाकर भागा। भागते-भागते घने जंगल में पहुंच गया और एक स्थान पर बैठकर सोचने लगा कि सात बार हार चुकने के बाद अब तो शत्रु से अपना राज्य फिर से प्राप्त करने की कोई आशा ही नहीं रह गई है। अब मैं इसी जंगल में रहकर एकांत जीवन बिताऊंगा। जीवन में अब क्या शेष रह गया है।
इन्हीं निराशाजनक विचारों में खोया राजा थकान के मारे सो गया। जब काफी देर बाद उसकी नींद खुली, तो सामने देखा कि उसकी तलवार पर एक मकड़ी जालाबना रही है। वह ध्यान से यह दृश्य देखने लगा। मकड़ी बार-बार गिरती और फिर से जाला बनाती हुई तलवार पर चढऩे लगती है। इस तरह वह दस बार गिरी और दसों बार पुन: जाल बनाने में जुट गई। तभी वहां एक संत आए और राजा की निराशा जानकर बोले देखों राजन। मकड़ी जैसा छोटा सा जीव भी बार-बार हारकर निराश नहीं होता। युद्ध हारने को हार नहीं कहते बल्कि हिम्मत हारने को हार कहते हैं।
तुम फिर से प्रयास करों। अपने सैनिकों को इकट्ठा कर, उनमें नया जोश भरकर युद्ध करो, देखना, इस बार जीत तुम्हारी होगी। राजा ने वैसा ही किया और इस बार वह जीत गया।
कथा का सार यह है कि असफलता पर निराश होकर बैठ जाने के स्थान पर अधिकाधिक प्रयास करना चाहिए। इससे एक दिन अवश्य ही सफलता मिलती है। वास्तव में लगातार प्रयास ही सफलता की कुंजी है।

नियम सभी के लिए समान हो...
महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में प्रत्येक कार्य का समय नियत था और नियम कायदों का सख्ती से पालन होता था।
आश्रम के प्रत्येक कर्मचारी और वहां रहने व आने वाले सभी लोगों को निम्नानुसार ही कार्य करने की हिदायत दी जाती थी।
साबरमती आश्रम का एक नियम यह था कि वहां भोजनकाल में दो बार घंटी बजाई जाती थी। उस घंटी की आवाज सुनकर आश्रम में रहने वाले सभी लोग भोजन करने आ जाते थे। जो लोग दूसरी बार घंटी बजाने पर भी नहीं पहुंच पाते थे, उन्हें दूसरी पंक्ति लगने तक इंतजार करना पड़ता था।एक दिन की बात है भोजन की घंटी दो बार बज गई और गांधीजी समय पर उपस्थित नहीं हो सके। कारण यह था कि वे कुछ आवश्यक लेखन कार्य कर रहे थे, जिसे बीच में छोडऩा संभव नहीं था।जब वे आए, तब तक भोजनालय बंद हो गया था।
इसलिए उन्हें दूसरी पंक्ति लगने तक प्रतिक्षा करना पड़ी। वे बड़ी ही सहजता से लाइन में लग गए। तभी किसी ने कहा- बापू। आप लाइन में क्यों लग रहे हैं? आपके लिए कोई नियम नहीं है। आप भोजन लीजिए।
तब गांधीजी बोले- नहीं, नियम सभी के लिए एक जैसा होना चाहिए, जो नियम का पालन न करें, उसे दंड भी भोगना चाहिए।गांधीजी के ये विचार नियम पालन के साथ ही उसमें समानता अपनाने पर बल देते हैं। प्रत्येक संस्था कुछ तय नियमों के अनुसार संचालित होती है। छोटे कर्मचारियों के साथ बड़े अधिकारियों के लिए भी नियम पालन की अनिवार्यता से संस्था की सुव्यवस्था व उन्नति निर्धारित होती है।

सच्ची लगन से असंभव भी संभव
तुम्हें शर्म आना चाहिए कि ब्राह्मण होकर फारसी की शिक्षा ग्रहण करते हो। अरे, तुम्हें तो संस्कृत का अधिष्ठाता विद्वान होना चाहिए। इन शब्दों में लाहौर कॉलेज के एक स्नातक छात्र को उसके सहपाठी ने लताड़ा। उस छात्र को अपने मित्र की यह बात भीतर तक चुभ गई।उसने उसी समय प्रण किया कि वह संस्कृत भाषा की शिक्षा अवश्य ग्रहण करेगा। अगले दिन वह संस्कृत शिक्षक के पास गया और उनसे संस्कृत सीखकर उसकी परीक्षा देने की इच्छा व्यक्त की। शिक्षक उसकी बात सुनकर पहले तो हंसे और फिर बोले-बेटे। जब तुम्हें संस्कृत का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, तब तुम स्नातक में संस्कृत की परीक्षा हेतु फॉर्म कैसे भर सकते हो?
यह सुनने के बावजूद वह छात्र निराश नहीं हुआ बल्कि उसने मन में ठान लिया कि संस्कृत तो वह हर स्थिति में सीखकर ही रहेगा।
वह सीधा अपने पिता के पास गया, जो संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान थे और उनसे संस्कृत सीखाने की प्रार्थना की। पिता ने उसकी लगन को देखते हुए उसके आग्रह को स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार वह छात्र अपने पिता व संस्कृत के विद्यार्थियों के संपर्क में रहकर अध्ययनरत हो गया। तीन-चार माह बाद वह पुन: संस्कृत शिक्षक के पास पहुंचा और परीक्षा देने के संबंध में प्रार्थना की। शिक्षक ने उसकी परीक्षा ली और वह सफल रहा। लगन का पक्का यह छात्र आगे चलकर स्वामी रामतीर्थ के नाम से विख्यात हुआ। उन्होंने स्नातक परीक्षा में विश्वविद्यालय में शीर्ष स्थान प्राप्त किया।
कथा का अर्थ है कि यदि मन में कुछ कर गुजरने की लगन हो तो असंभव दिखने वाले कार्य भी संभव ही जाते हैं। दृढ़ इच्छा शक्ति के समक्ष विपरीत परिस्थितियां भी ध्वस्त हो जाती है और मार्ग के शूल भी फूल बन जाते हैं।

मदद सभी की करनी चाहिए
हितोपदेश में एक कथा आती है जो सहायता के महत्व पर केंद्रित है।
एक व्यापारी के पास एक घोड़ा और एक गधा था। वह स्वयं घोड़े पर चढ़ता और गधे पर बोझ लादकर गांव-गांव माल बेचता था। चूंकि उसने घोड़ा ऊंचे दाम देकर खरीदा था, इसलिए उस पर वह बोझ नहीं लादता था और खान-पान से लेकर दवा आदि तक उसका अधिक ध्यान रखता था।
एक दिन व्यापारी घोड़े पर चढ़कर और गधे पर बोझ लादकर किसी गांव की ओर जा रहा था। गधा बेचारा अत्यंत दुबला था, दूसरा उस पर क्षमता से अधिक बोझ लाद दिया गया था। रास्ता भी पथरीला था। इसलिए वह एक-एक पैर बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ा रहा था। धीरे-धीरे गधे की हिम्मत जवाब देने लगी। उसने घोड़े से कहा भाई। इस भारी बोझ से तो मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। तुम दया कर मेरा थोड़ा सा बोझ ले लों। मैं जीवनभर तुम्हारा अहसान मानुंगा। किंतु घोड़े ने घमंड में भरकर जवाब दिया- क्या बकता है? हमने कभी बोझ ढोया है, जो आज तेरे कहने से ढोएंगे। खबरदार, जो फिर ऐसी बात मुंह से निकाली।
बेचारा गधा चुप हो गया। रोते-कलपते पैर उठाने लगा और अंतत: गिर पड़ा। उसका एक पैर टूट गया। व्यापारी ने तत्काल गधे को भी चढ़ा दिया। सारा बोझ घोड़े की पीठ पर लादा और ऊपर से गधे को भी चढ़ा दिया। अब घोड़े का सारा घमंड हवा हो गया और वह यह सोचकर पछताने लगा कि काश, मैं गधे की बात मानकर उसकी थोड़ी सी सहायता कर देता, तो बदले में मेरा ही भला होता और इतना कष्ट नहीं उठाना पड़ता।
कथा का उपदेश यही है कि हम यदि दूसरों की सहायता करते हैं, तो दूसरें भी हमारी सहायता करेंगे अन्यथा संकट में पड़कर अधिक कष्ट उठाने की नौबत आ जाती है।

क्षमा से झुकता है संसार
महात्मा बुद्ध उपदेश दे रहे थे- क्रोध एक प्रकार की अग्नि है, जिसमें उसे धारण करने वाला स्वयं ही जलता है। उस अग्नि से वह दूसरे को जलाने से पूर्व स्वयं ही बहुत कुछ जल जाता है।
बुद्ध का उपदेश एक अत्यंक क्रोधी व्यक्ति भी सुन रहा था। उसे क्रोध के विरुद्ध बुद्ध का यह उपदेश तनिक भी अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए वह खड़ा होकर कहने लगा- अरे पाखंडी। तू बड़ी-बड़ी बातें करता है। इन पर अमल करके भी बता। लोगों के व्यवहार के विरुद्ध बाते बताते शर्म नहीं आती?
उसकी बातें सुनकर भी बुद्ध शांत रहे। यह देखकर वह और अधिक गुस्से से भर उठा। उसने उनके पास आकर उनके मुंह पर थूक दिया।बुद्ध ने अपना चेहरा पोंछा और उससे पूछा- तुम्हें और क्या कहना है? वह बोला- मैं कुछ कह रहा हूं। बुद्ध ने कहा- हां, तुम्हारा इस प्रकार का व्यवहार तुम्हारी घृणा को प्रकट कर रहा है। वह व्यक्ति और अपशब्द कहते हुए वहां से चला गया। अगले दिन बुद्ध दूसरे गांव में चले गए। अब तक उस व्यक्ति का क्रोध शांत हो चुका था और उसे पश्चाताप हो रहा था। वह बुद्ध को खोजते हुए उस गांव में आया और उनके पैरों में गिरते हुए बोला- मुझे मॉफ कीजिए मैंने कल आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया। बुद्ध ने उससे पूछा- क्या हुआ? कौन हो तुम? क्रोधी चौंककर बोला आप भूल गए? मैं वहीं दुष्ट हूं, जिसने कल आप पर थूका था। बुद्ध ने हंसकर कहा- कल को तो मैं कल ही छोड़ आया हूं। हर बड़ी बात या घटना को याद रखा जाएगा तो जीवन और भविष्य दोनों ही ठहर जाएंगे।
यह प्रसंग शिक्षा देता है कि हमें धरती की तरह क्षमाशील होना चाहिए। इससे सारा संसार हमारी महानता को स्वीकार कर खुद-ब-खुद हमारे कदमों में झुक जाएगा।

सच्चा मनुष्य करता है सहायता
यह सत्य घटना पेरिस की है। पेरिस की एक सुप्रसिद्ध होटल में एक भूखा-प्यासा व्यक्ति पहुंचा और भोजन मंगवाया। जब वह भरपेट भोजन कर चुका, तब वेटर बिल लेकर आया।
बिल देखकर उस व्यक्ति के चेहरे पर चिंता की कई लकीरें उभर आई। वह कुछ देर तक बिल देखता रहा, फिर वेटर से अत्यंत नम्रता से बोला- भाई। मेरे पास फिलहाल एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। मैं इन दिनों राजनीतिक निर्वासन भोग रहा हूं। क्या तुम मुझ पर दया करके कुछ पैसे उधार दोगे, ताकि मैं बिल अदा कर सकूं। जब मेरी स्थिति ठीक होगी तो मैं वे पैसे तुम्हें वापस कर दूंगा। वेटर दयालु स्वभाव का था। उसने उस व्यक्ति को पैसे दिए और व्यक्ति बिल चुकाकर चला गया।
दरअसल वह व्यक्ति रूसी क्रांति के जनक व बोल्रोविक दल के प्रमुख नेता लेनिन थे। रूसी क्रांति के बाद जारशाही का अंत होने पर वे रूप के शासक बने।
शासक बन जाने के बाद भी लेनिन को बैरे से लिया हुआ कर्ज याद था। अत: उन्होंने बैरे के पास कई उपहारों के साथ कर्ज की रकम लौटाते हुए धन्यवाद दिया। किंतु उसने उकम व उपहार लौटाते हुए कहा- वह कर्ज मैंने एक भूख-प्यास से बेहाल व्यक्ति को मानवीयता के नाते दिया था। न कि एक शक्तिशाली राष्ट्र के महान शासक को। बैरे की महानता के समक्ष लेनिन नतमस्तक हो गए।
यह घटना दर्शाती है कि जरूरतमंद को अवश्य ही सहायता करनी चाहिए और यह सहायता बदले में कुछ पाने की इच्छा से मुक्त होना चाहिए। वास्तव में लेन-देन की भावना व्यापार का हिस्सा है और संकटग्रस्ट की मदद मानवीय भावना का विषय है। सहायता की भावना हमें सच्चा मनुष्य सिद्ध करती है।

कार्य करते रहे, सुखी होगा जीवन
गांधीजी एक छोटे से गांव में पहुंचे, तो उनके दर्शन के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। हर व्यक्ति उनहें देखना और उनसे बात करना चाहता था। गांधीजी स्वयं भी सहज स्नेही थे। सो उन्होंने सभी से प्रेमपूर्वक बातचीत की। भोजन व विश्राम के बाद शाम को जब गांधीजी गांव की चौपाल पर बैठे, तो उन्होंने ग्रामीण से प्रश्न किया। इन दिनों आप कौन सा अन्न बो रहे हैं और किसी अन्न की कटाई कर रहे हैं?उपस्थित ग्रामिणों को गांधीजी के इस प्रश्न पर आश्चर्य हुआ और उनमें से एक वृद्ध ग्रामीण उठकर खड़ा हुआ। गांधीजी को प्रणाम करते हुए वह बोला- आप तो अत्यंत ज्ञानी हैं बापू। क्या आप नहीं जानते कि ज्येष्ठ मास में खेतों में कोई फसल नहीं होती। अत: बोने-काटने का प्रश्न ही निरर्थक है। इन दिनों हम खाली रहते हैं।
गांधीजी ने पुन: पूछा- जब फसल बोने व फसल काटने का समय होता है, तब क्या आप लोगों के पास बिल्कुल समय नहीं होता? वृद्ध बोला- उस समय तो रोटी खाने का भी समय नहीं होता। तब गांधीजी ने कहा तो इस समय तुम लोग बिल्कुल बेकार हो और गप्पे हांकते हो। यदि तुम चाहो तो इस समय भी कुछ बो और काट सकते हो।
ग्रामीणों ने उनसे इस बात को स्पष्ट करने को कहा। तो गांधीजी ने कहा आप लोग ऐसा कर सकते हैं, कर्म की बुवाई और आदत की कटाई, आदत की बुवाई और चरित्र की कटाई, चरित्र की बुवाई और भाग्य की कटाई। तभी आपका जीवन सफल होगा।
ग्रामीणों ने गांधीजी की बात का पालन किया और उनका जीवन सुखी हो गया।
आशय यह है कि यदि हम कर्मठता को अपनी जीवनशैली बना लें, तो निश्चित रूप से यह हमारे चरित्र को उजला बनाता है और उजला चरित्र हमारे सुखद भविष्य का निर्माणकर्ता होता है।

अभाव में भी मिलती है सफलता
चार्ल्स डिकंस बचपन से ही लेखक बनना चाहते थे, लेकिन पढऩे के लिए बहुत गरीब थे। पिता को कर्ज न चुकाने पर जेल में बंद कर दिया गया।
चार्ल्स के सिर पर तो मुसीबत का पहाड़ ही टूट पड़ा। एक दिन उदास बैठे चाल्र्स के पास एक सज्जन आए। वे चार्ल्स के लिखने के शौक से परिचत थे। उन्होंने पूछा क्या सोच रहे हो? क्या किसी लेख की भूमिका तैयार कर रहे हो?
चार्ल्स टूटे स्वर में बोले- घर खाली, पेट खाली, लेख कहां से लिखुंगा?
सज्जन ने कहा- तुम्हारे खाली घर और खाली पेट को भरने कौन आएगा? तुम्हें ही सब कुछ करना होगा।
चार्ल्स की इच्छाशक्ति ने यह बात सुनकर संकल्प लिया और चार्ल्स जुट गए। थोड़ा प्रयास करने पर उन्हें एक गोदाम में लेबल चिपकाने का काम मिल गया। वहां चूहे बहुत थे और बदबू के कारण वहां थोड़ी देर भी रुकना मुश्किल था लेकिन परिवार की खातिर चार्ल्स ने वहां काम करना स्वीकार किया।
काम से बचे समय में चार्ल्स लेख लिखते और पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिए भेजते। एक दिन उनका एक लेख एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ। उस पत्रिका के संपादक ने उनकी काफी प्रशंसा की। संपादक की तारीफ ने चाल्र्स के उत्साह को और बढ़ावा दिया। वे और अधिक मेहनत से लिखने लगे और धीरे-धीरे अपने समय के प्रसिद्ध लेखक बन गए। उन्होंने यश के साथ धन भी खूब कमाया।
सार यह है कि साधनों का अभाव होने पर भी दृढ़ संकल्पशीलता सफलता दिलाती है। यह सारा संसार मनुष्य की शक्ति और संकल्प से ही बना है। अत: दुर्बल विचारों को छोड़कर संकल्पवान बनें तभी ऊंचे उठेंगे।

कर्मठता का सम्मान होता है
अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने रक्षा मंत्रालय का कार्यभार एक ऐसे व्यक्तियों को सौंपा, जो उनका कटु आलोचक था। उसका यह प्रतिदिन का नियम था कि वह लिंकन के खिलाफ कुछ न कुछ अपशब्द बोला करता था। वह इस बात की जरा सी भी परवाह नहीं करता था कि लिंकन राष्ट्रपति हैं और वह स्वयं भी प्रतिष्ठित पद पर है। दोनों ही पदों की मर्यादा के विरुद्ध उसका आचरण था। सार्वजनिक रूप से वह लिंकन के लिए कड़वे शब्दों का प्रयोग करता था।
एक दिन लिंकन के एक मित्र उनके पास पहुंचे और बोले- क्या आप नहीं जानते कि जिसे आपने रक्षा मंत्रालय का कार्यभार सौंपा है वह कौन है? लिंकन ने प्रश्र किया क्यों, क्या हुआ?
मित्र बोला- उस व्यक्ति ने कल एक भरी सभा में आपको दुबला गोरिला बताया है। लिंकन ने कहा मुझे पता है, समाचार पत्र में पढ़ा था। मित्र ने लिंकन को भड़काने की नियत से कहा- इससे पहले भी उसने आपको किसी मंच से बहुरुपिया कहा था। लिंकन ने कहा- यह भी मुझे पता है। यह सुनकर मित्र ने झुंझलाकर कहा- जब सब पता है तो उसे रक्षा मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण विभाग क्यों सौंपा?
तब लिंकन ने जवाब दिया वह जैसा भी है किंतु एक कुशल प्रशासक है, अपने कार्य को लगन और निष्ठा से पूरा करता है। मुझे ऐसे ही देशभक्त रक्षामंत्री की जरूरत है, न कि चापलुस की। लिंकन की बात सुनकर मित्र वहां से चुपचाप चले गया और फिर कभी रक्षामंत्री की शिकायत नहीं की।
दरअसल कर्मठता का यह सम्मान ही उस भावना को दर्शाता है, जिसे देशभक्ति कहा जाता है। वास्तव में कर्मशीलता प्रत्येक कार्य की सफलता को सुनिश्चित करने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक है।

बड़प्पन से मिलता है संतोष
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ग्लैस्डन एक कृषक पुत्र थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे अत्यंत सादगी से रहते थे। अपने कपड़े भी वे स्वयं ही धोते थे और प्रात: साइकिल पर थैला लटका कर सब्जी खरीदने भी जाया करते थे। उनकी वाणी और व्यवहार दोनो ही उच्चता के अहंकार से रहित थे।एक बार वे ट्रेन से यात्रा कर रहे थे। किसी अखबार का संपादक भी उसी ट्रेन के एक डिब्बे में सफर कर रहा था। जब उसे मालुम हुआ कि प्रधानमंत्री भी उसी ट्रेन में है तो उसे उनसे भेंट करने की इच्छा हुई।
उसने अनुमान लगाया कि ग्लैस्डन प्रधानमंत्री है तो निश्चित ही वे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में होंगे लेकिन जब वह उस डिब्बे में गया तो वहां सूट-बूट पहने एक युवक बैठा दिखाई दिया। संपादक ने उस युवक से जब प्रधानमंत्री के विषय में पूछा तो उसने कहा वे इस डिब्बे में नहीं, द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में हैं। जब संपादक ने शंका भरी दृष्टि से युवक को देखा, तो वह बोला मैं सच कह रहा हूं, क्योंकि मैं उनका बेटा हूं।संपादक द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में गया तो देखा कि प्रधानमंत्री अखबार पढ़ रहे थे। उसने उनके पास जाकर अपना परिचय दिया और पूछा आपका पुत्र प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहा है जबकि आप प्रधानमंत्री होकर भी आप द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में हैं। तब ग्लैडस्टन बोले भाई। वह प्रधानमंत्री का बेटा है किंतु मैं तो सामान्य किसान का बेटा हूं और इस बात को मैं भी नहीं भुला हूं। यही जवाब आपके प्रश्न का जवाब है। संपादक ग्लैडस्टन के सादगी भरे बडप्पन को देखकर उनके प्रति श्रद्धा भाव से भर गया।
प्रसंग का संकेत यह है कि व्यक्ति पद, अर्थ व मान की दृष्टि से कितना भी बड़ा हो जाए, किंतु यदि वह अहंकार मुक्त रह अपनी जड़ों से जुड़ा रहे, तो उसका यह बड़प्पन न केवल उस आत्मा को संतोष देगा बल्कि संपूर्ण समाज के लिए वह प्रेरणादायी बनकर आदरणीय हो जाता है।

प्रयास से मिलती है सफलता
थामस अल्वा एडीसन बहुत बड़े वैज्ञानिक थे। उनके द्वारा किए गए आविष्कारों की वजह से आज हमारे अनेक कार्य सुविधाजनक ढंग से संपन्न होते हैं। एडीसन निरंतर नवीन प्रयोगों में व्यस्त रहते थे। खाना-पीना सब भुलकर रात-दिन एक करते हुए वे अपनी वैज्ञानिक खोजों को निश्चित व सार्थक परिणाम देते थे।
यह बात उन दिनों की है, जब एडिसन स्टोरेज बैटरी बनाने के कार्य में जुटे हुए थे। लगातार मेहनत के बाद भी उन्हें सफलता नहीं मिल पा रही थी। कुल मिलाकर एडिसन ने 25 बार स्टोरेज बैटरी बनाने का प्रयास किया किंतु विफल रहे।
एडीशन परेशान तो हुए परंतु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। मन में विचार किया कि एक बार और कोशिश कर ली जाए।
26वीं बार जब उन्होंने स्टोरेज बैटरी बनाने की दिशा में नए तरीके से कार्य करना शुरू किया तेा उन्हें सफलता हासिल हो गई।
इसके बाद आयोजित पत्रकार वार्ता में उनसे एक पत्रकार ने प्रश्र किया- स्टोरेज बैटरी बनाने में आप 25 बार विफल रहे। इसका मतलब यह है कि इतना समय आपने व्यर्थ ही गंवाया। इससे आपको कुद भी हासिल नहीं हुआ।
तब एडीसन मुस्कराते हुए बोले- आप गलत कह रहे हैं। ऐसा करने से मुझे 25 ऐसे तरीके पता चले जिनसे स्टोरेज बैटरी बन ही नहीं सकती।
सार यही है कि नकारात्मक बातों में सकारात्मक बातें खोज लेना ही उस जीवटता को जन्म देता है, जो असंभव कार्यों को भी संभव करने की प्रेरणा व शक्ति देती है। असफलता मिलने पर निराशा के गर्त में डूबकर निष्क्रीय हो जाने के स्थान पर सकारात्मक विचारों से भर पुन: प्रयास करने से सफलता अवश्य प्राप्त होती है।
सत्कर्मों से समाज का कल्याण होता है
सन् 1921 की बात है। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की लहर में देश के न जाने कितने नौजवानों ने अपने जीवन को देशसेवा के लिए समर्पित कर देने का संकल्प लिया था। इन्हीं में से एक इलाहाबाद के प्रतिभाशाली वकील जवाहरलाल नेहरू थे। वे राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के साथ दिन-रात राष्ट्र कार्य में लगे रहते।
एक बार उन्हें घ लौटे तीन दिन हो गए। तब पिता पं. मोतिलाल नेहरू पुरुषोत्तम टंडन के घर पहुंचे। उन्होंने टंडनजी से निवदेन किया मैं अपने जवाहर को तुमसे भीख में मांगता हूं।
टंडनजी ने मोतीलाल नेहरू को आश्वासन देकर विदा किया और जवाहरलाल को समझाया जिस पिता ने तुम्हें इतना योग्य बनाया, उनकी आज्ञा से चलना तुम्हारा प्रथम कर्तव्य है। तुम घर जाओ।
यह सुनकर जवाहर ने कहा- बाबूजी, देश की गरीबी और अंग्रेजों द्वारा देश का शोषण मुझसे देखा नहीं जा रहा है। मेरी रूचि जिस ओर है मैं वही करुंगा। अंतत: टंडनजी ने मोतीलालजी को समझाया आपने अपने जीवन में पर्याप्त नाम और धन कमाया है। अब आप वह करें, जिससे आपका जवाहर आपको मिल जाए। आप राजनीति में आ जाइए और देश सेवा कीजिए। तीन बाद अखबारों में छपा कि इलाहाबाद के प्रख्यात वकील मोतीलाल नेहरू ने वकालत छोड़कर राजनीति में प्रवेश किया। खबर पढ़ते ही जवाहरजी टंडनजी के पास जाकर बोले- बाबूजी। आपने क्या जादू कर दिया?
फिर दोनों आनंद भवन गए। माता-पिता ने जवाहर को गले लगा लिया।
सच है, दीप से दीप जलता है अर्थात् सत्प्रेरणा के आलोक से सत्कर्मों का सिलसिला चल पड़ता है और संपूर्ण समाज उनकी दिव्य से जगमगा उठता है।

सोचे समझे, फिर कुछ करें...
गुरुनानक प्रतिदिन शाम को भ्रमण करते थे। मार्ग में जो भी मिलता उसके हालचाल पूछना और उसकी यदि कोई समस्या हो तो उसका समाधान सुझाना उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा था।
एक दिन गुरुनानक यमुना किनारे टहल रहे थे। तभी उन्हें किसी व्यक्ति के जोर-जोर से रोने की आवाज आई। उन्होंने पास जाकर देखा तो पाया कि एक हाथी बेसूध पड़ा था और उसका महावत रोते हुए ईश्वर से हाथी को पुन: जीवित करने की प्रार्थना कर रहा था। उन्होंने महावत से रोने का कारण पूछा। तो वह बोला मेरा हाथी अचानक चलते-चलते गिर पड़ा। मैंने इसे कितना पुकारा और हिलाया-डुलाया परंतु यह उठता ही नहीं है।
तब गुरुनानक बोले तुम हाथी को सिर पर पानी डालों। यह ठीक हो जाएगा।
महावत ने ऐसा ही किया। कुछ ही देर बाद हाथी होश में आ गया और वह उठ बैठा।
महावत ने तत्काल गुरुनानक के चरण पकड़ते हुए कहा- महाराज आपकी कृपा से मेरा हाथी जिंदा हो गया। गुरुनानक बोले- हाथी मरा नहीं था। वह दिमाग में गर्मी हो जाने से बेहोश हो गया था। तुमने उसके सिर पर पानी की ठंडक से दिमाग की गर्मी दूर हो गई। इसमें मेरी कोई कृपा या चमत्कार नहीं है।
कथा सार यह है कि हर व्यक्ति को पहले सोच विचार कर समस्या का कारण जानना चाहिए। फिर उसके निदान का प्रयास करना चाहिए। बिना सोचे-विचारे, घबराने से काम बिगड़ता ही है। अत: खुब सोच-विचार कर कार्य करें। सदैव अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे।

सफलता चाहिए तो पहले ये सीखें
किसी भी काम में लगन का अपना महत्व होता है, सफलता आपकी एकाग्रता पर ही निर्भर करती है। आप संसार को पाने की दौड़ में हो या परमात्मा को, जब तक हम ध्यान लगाकर काम नहीं करेंगे कभी ठीक परिणाम नहीं मिलेगा। इसके लिए जरूरी है कि आप पहले अपने मन को एकाग्र करें, फिर सफलता खुद आपको मिल जाएगी।
एक बार की बात है। राजा एक बार युद्ध पर गया। शाम के समय युद्ध के बाद राजा अपने युद्ध के बाद शिविर से थोड़ी दूर जाकर एक वीरान स्थान पर ध्यान लगाकर बैठ गया ताकि उसे थोड़ी शांति मिल सके। अभी राजा नदी के किनारे पर बस ध्यान की मुद्रा में बैठा ही था। वहां से एक युवती दौड़ती हुई निकली, जिसका ध्यान उस ओर तक ना गया कि राजा बैठा है। ना जाने कहां जाने की जल्दी थी। वह राजा से टकराती हुई निकल गई। राजा का ध्यान भंग हो गया उसे बहुत गुस्सा आया। उसने तुरंत शिविर मैं लौटकर आदेश दिया। उस औरत को ढंूढ कर लाया जाए जिसने ये गुस्ताखी की है। उस युवती को इतना भी नहीं दिखा कि देश का राजा ध्यान में बैठा है और वह उसे कुचलती हुई चली जा रही है। सिपाही गए और थोड़ी ही देर में उस युवती को पकड़कर ले आए। राजा ने उस युवती से कहा- बदतमीज लड़की इतना भी नहीं जानती कि ध्यान में बैठे हुए व्यक्ति को इस तरह धक्का लगाकर उसका ध्यान भंग करना कितना बड़ा पाप है। उस युवती ने राजा को पहले ऊपर से नीचे तक देखा और कहा - आपको धक्का लगा जरूर होगा लेकिन मुझे याद नहीं। मैं अपने प्रेमी से मिलने जा रही थी। मुझे कुछ नहीं पता कि आप कहां ध्यान लगा रहे थे लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि मैं तो अपने प्रेमी से मिलने जा रही थी। मेरा ध्यान सिर्फ अपने प्रेमी से मिलने पर केंद्रित था। मुझे पता ही नहीं चला कि आप परमात्मा के ध्यान में बैठे हैं। आपको मेरा पता चल गया? राजा को उसकी बात समझ आ गई और उसने उसे छोड़ दिया। क्योंकि यह साबित हो गया थी कि राजा के मन में वह समर्पण का भाव नहीं था जो उस प्रेमिका में था। उसके प्रेम में वह तीव्रता और ज्वलंतता थी जिसने राजा को सोचने पर मजबूर कर दिया।

हर सिक्के का पूरा उपयोग करों
जिन्दगी में समस्याएं सभी के साथ होती हैं। समस्याओं से हारकर आप जीवन को जीना नहीं छोड़ सकते हैं। भगवान जिन्दगी का हर दिन हमें एक अनमोल सिक्के के रूप में दिया है। सुबह वह सिक्का देता है और आप खर्च करें तो ठीक नहीं तो वह जिस तरह से देता है उसी तरह से सिक्के को वापस भी ले लेता है तो सिक्के को बेकार जाने देने से अच्छा है उस सिक्के का उपयोग किया जाए। जिन्दगी के जो पल हैं उन्हें आनन्द से बिताएं क्योंकि जिन्दगी का समय सीमित है और मौत एक सच्चाई ।
एक शहर में चार साधु आए। एक साधु शहर के चौराहे पर जाकर बैठ गया दूसरा घंटाघर में, एक अन्य कचहरी में और चौथा साधु शमशान में जाकर बैठ गया। चौराहे पर बैठे साधु से लोगों ने पूछा, बाबाजी आप यहां आकर क्यों बैठे हो? क्या कोई अच्छी जगह नहीं मिली? साधु ने कहां यहां चारों दिशा से लोग आते है और चारों दिशाओं मे जाते हैं। किसी आदमी को रोको तो वह कहता है कि रुकने का समय नहीं हैं, जरुरी काम पर जाना है। अब यह पता नहीं लगता कि जरुरी काम किस दिशा में है? सांसारिक कामों में भागते-भागते जीवन बीत जाता है। हाथ कुछ नहीं लगता। न तो सांसारिक काम पूरे होते है ना ही वह भगवान को याद कर पाता है। इसलिए यह जगह बढिय़ा दिखती है। जिससे सावधानी रहे।
घंटाघर पर बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबाजी। यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहा घड़ी की सुइयां दिनभर घूमती है परंतु बारह बजते ही हाथ जोड़ देती है कि बस हमारे पास इतना ही समय है, अधिक कहां से लाएं? घंटा बजता है तो वह बताता है कि तुम्हारी उम्र में से एक घंटा और कम हो गया। जीवन का समय सीमित है। हमें यह जगह बढिय़ा दिखती है ताकि सावधानी बनी रहे। कचहरी के बाहर बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबाजी आप यहां क्यों बैठे हो? साधु से लोगों ने पूछा बाबाजी आप यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहा यहां दिन भर अपराधी आते हैं। मनुष्य पाप तो अपनी मर्जी से करता है परंतु दंड दुसरे की मर्जी से भोगना पड़ता है। अगर वह पाप करे ही नहीं तो दंड क्यों भोगना पड़े? इसलिए हमें यह जगह बढिय़ा दिखती है। जिससे सावधनी बनी रहे। शमशान में बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबाजी आप यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहां शहर में कोई भी आदमी हमेशा नहीं रहता। सबको एक दिन यहां आकर उसकी यात्रा समाप्त हो जाती हैं। कोई भी आदमी यहां आने से बच नहीं सकता। हमें जीवन रहते-रहते ही इसे जी लेना चाहिये। जिससे फिर संसार में आकर दुख ना झेलना पड़े इसलिए यह जगह मुझे बैठने के लिए सबसे बढिया दिखती हैं।

स्थायी सफलता चाहिए तो...
हमें परखने के लिए जिन्दगी में कभी जीत की खुशी आती है, तो कभी हार के गम आते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसका सामना कैसे करें। जब भी हम किसी अपने क्षेत्र में सफल व्यक्ति की जिन्दगी की कहानियां सुनते हैं, तो ऐसे लोगों के जीवन में सफलता मिलने से पहले उन्हे हताशा देने वाली बाधाओं का सामना करना पड़ा। उन्हें जीत इसीलिए मिली क्योंकि वे कभी हार से निराश नहीं हुए।जीव विज्ञान के एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे कि सूंडी या मॉथ तितली में कैसे बदल जाती है। उन्होंने छात्रों को बताया कि तितली आसानी से अपनी खोल से बाहर नहीं आ पाती है। उसे इसके लिए काफी समय संघर्ष करना पड़ता है। ये बात वे अपने छात्रों को सूंडी के खोल को दूर से दिखाकर समझा रहे थे। तभी एक छात्र ने पूछा क्या हम इनकी मदद नहीं कर सकते तो शिक्षक ने उसे सख्त हिदायत दी कि वह भूल कर भी यह गलती ना करे। इतना कह कर शिक्षक को चपरासी बुलाने आया। वो वहां से चले गए। सभी छात्र इंतजार कर रहे थे कि तितली वहां से बाहर निकले। तितली बाहर निकलने के लिए मेहनत करने लगी। उस छात्र से देखा नहीं गया। उसने तितली की मदद करने का फैसला किया। सभी छात्रों के मना करने के बावजूद उसने खोल से तितली को बाहर निकाल दिया। जिससे तितली को मेहनत ना करना पड़े, लेकिन थोड़ी देर में ही वह तितली मर गई।
वापस लौटने पर जब शिक्षक को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने कहा बिना मेहनत के मिली सफलता ऐसी ही होती है। शिक्षक ने अपने छात्रों को बताया कि तितली का वह थोड़ी देर का संघर्ष ही उसे असली मजबूती देता है। वह उस संघर्ष के बाद बाहरी माहौल के अनुकूल अपने आपको स्थापित कर पाने और जीवित रह पाने में सक्षम हो पाती है। शायद तुम उसे संघर्ष करने का मौका देते तो बाहरी माहौल मे संघर्ष कर ज्यादा लंबी जिन्दगी जी पाती।

ऐसे जन्मा मिकी माउस
जीवन में असफलता का डर नहीं होना चाहिए। बस स्वीकार कर लें कि ठीक है असफल हूं तो क्या हुआ? जिंदगी एक खेल की तरह है। चाहे हारे या जीते। तब भी हम खेल खेलते है क्योंकि इस खेल को हम बीच में नहीं छोड़ सकते। इसीलिए असफलता से डरे नहीं। यदि असफल हो तो कोई बात नहीं तब भी काम करते जाओ। जीवन सफलता और असफलता दोनों का मिलाजुला रूप है। जो असफल होता है, वही सफलता की कीमत जान पाता है। हमेशा आगे बढऩा चाहिये और अपने आप से पूछना चाहिए कि मैंने बीते कल से क्या सिखा?
एक युवक को अपनी जिन्दगी में कुछ नया कर गुजरने की चाह थी। वह बहुत अच्छा कार्टुनिस्ट था। उसे खुद पर विश्वास था लेेकिन जिंदगी शायद उसकी परिक्षा लेना चाहती थी। इसीलिए वह खूब भटका। उसने कई अखबारों के आफिसो के चक्कर काटे। उसे कहीं काम नहीं मिला। उसे थोड़ी निराशा जरूर हुई लेकिन वह फिर भी जुटा रहा। उसे अखबार में तो काम नहीं मिला लेकिन उसे एक चर्च के पादरी ने कुछ कार्टुन बनाने का काम दिया। वो युवक जिस शेड के नीचे काम कर रहा था। वहां चूहे उधम मचा रहे थे। एक चूहा देखकर उसके मन में एक कार्टून बनाने का ख्याल आया और वही से मिकी माउस का जन्म हुआ। वह व्यक्ति और कोई नहीं वाल्ट डिज्री था। सफल लोग हर छोटे काम को भी पूरे समर्पण के साथ करते है। इसीलिए उनका जीवन हम सबके लिए एक प्रेरणा की तरह होता है।

दोनों का रिश्ता बड़ा खास है...
कर्मवादी लोग कहते हैं भाग्य कुछ नहीं होता, भाग्यवादी लोग कहते हैं किस्मत में लिखा ही होता है, कर्म कुछ भी करते रहो। भाग्यवादी और कर्मवादी लोगों की यह बहस कभी खत्म नहीं हो सकती। लेकिन यह भी सत्य है कि भाग्य और कर्म दोनों के बीच एक रिश्ता जरूर है। कर्म से भाग्य बनता है या भाग्य से कर्म करते हैं लेकिन दोनों के बीच कोई खास रिश्ता जरूर होता है।
भाग्य और कर्म के बीच के इस रिश्ते को समझने के लिए यह कथा बहुत ही अच्छा उदाहरण हो सकती है। कहते हैं एक बार ऋषि नारद भगवान विष्णु के पास गए। उन्होंने शिकायती लहजे में भगवान से कहा पृथ्वी पर अब आपका प्रभाव कम हो रहा है। धर्म पर चलने वालों को कोई अच्छा फल नहीं मिल रहा, जो पाप कर रहे हैं उनका भला हो रहा है। भगवान ने कहा नहीं, ऐसा नहीं है, जो भी हो रहा है, सब नियती के मुताबिक ही हो रहा है। नारद नहीं माने। उन्होंने कहा मैं तो देखकर आ रहा हूं, पापियों को अच्छा फल मिल रहा है और भला करने वाले, धर्म के रास्ते पर चलने वाले लोगों को बुरा फल मिल रहा है। भगवान ने कहा कोई ऐसी घटना बताओ। नारद ने कहा अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं, वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने वाला नहीं था।तभी एक चोर उधर से गुजरा, गाय को फंसा हुआ देखकर भी नहीं रुका, उलटे उस पर पैर रखकर दलदल लांघकर निकल गया। आगे जाकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिल गई। थोड़ी देर बाद वहां से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने उस गाय को बचाने की पूरी कोशिश की। पूरे शरीर का जोर लगाकर उस गाय को बचा लिया लेकिन मैंने देखा कि गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया। भगवान बताइए यह कौन सा न्याय है।
भगवान मुस्कुराए, फिर बोले नारद यह सही ही हुआ। जो चोर गाय पर पैर रखकर भाग गया था, उसकी किस्मत में तो एक खजाना था लेकिन उसके इस पाप के कारण उसे केवल कुछ मोहरे ही मिलीं।वहीं उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन गाय के बचाने के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसे मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गई। इंसान के कर्म से उसका भाग्य तय होता है। अब नारद संतुष्ट थे।

छोटी सी बात भी बदल देती है जीवन की दिशा
हम कई बार अनजाने में ही कोई भी बात मुंह से निकाल देते हैं। बिना सोचे-समझें बोली गई कई बातें हमारा जीवन बदल देती हैं। कई बार थोड़ा सा गुस्सा या अनजाने में किया गया मजाक भी भारी पड़ सकता है। इसी कारण से विद्वानों ने कहा है कि हमेशा तौलों फिर बोलो। कई बार जरा सी बातें भी इतना तूल पकड़ती है कि उसका परिणाम आपकी जिंदगी की दिशा बदल देता है।
श्रीमद् भागवत पुराण में एक कथा इसी बात की ओर संकेत करती है। वृषपर्वा दैत्यों के राजा थे, उनके गुरु थे शुक्राचार्य। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी दोनों सखी थीं लेकिन शर्मिष्ठा को राजा की पुत्री होने का अभिमान भी बहुत था। दोनों साथ-साथ रहती थीं, घूमती, खेलती थीं। एक दिन शर्मिष्ठा और देवयानी नदी में नहा रही थीं, तभी देवयानी ने नदी से निकलकर कपड़े पहने, उसने गलती से शर्मिष्ठा के कपड़े पहन लिए। शर्मिष्ठा से यह देखा न गया और उसने अपनी दूसरी सहेलियों से कहा कि देखो, इस देवयानी की औकात, राजकुमारी के कपड़े पहनने की कोशिश कर रही है। इसका पिता दासों की तरह मेरे पिता के गुणगान किया करता है और यह मेरे कपड़ों पर अधिकार जमा रही है।
देवयानी और शर्मिष्ठा में इस बात को लेकर झगड़ा हो गया। देवयानी ने सारी बात अपने पिता शुक्राचार्य को सुनाई और कहा कि अब हम इस राजा के राज में नहीं रहेंगे। शुक्राचार्य ने वृषपर्वा को सारी बात बताई और राज्य छोड़कर जाने का फैसला भी सुना दिया। चूंकि शुक्राचार्य मृत संजीवनी विद्या के एकमात्र जानकार थे और वे देवताओं से मारे गए दैत्यों को जीवित कर देते थे, उनके जाने से वृषपर्वा को बहुत नुकसान होता सो उसने शुक्राचार्य के पैर पकड़ लिए। शुक्राचार्य ने कहा तुम मेरी बेटी को प्रसन्न कर दो तो ही मैं यहां रह सकता हूं। वृषपर्वा ने देवयानी के भी पैर पकड़ लिए, देवयानी ने कहा तुम्हारी पुत्री ने मेरे पिता को दास को कहा है इसलिए अब उसे मेरी दासी बनकर रहना होगा।
वृषपर्वा ने उसकी बात मान ली और अपनी बेटी राजकुमारी शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बना दिया। उसके बाद पूरे जीवन शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनकर ही रहना पड़ा। एक क्षण के गुस्से ने शर्मिष्ठा का पूरा जीवन बदल दिया।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

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