Saturday, March 12, 2011

Jeene Ki Rah(जीने की राह) Part 1

अहंकार के लिए भोजन का काम करता है ज्ञान
सीखने की ललक न सिर्फ आपके ज्ञान के भंडार को बढ़ाएगी, बल्कि आपको अहंकाररहित भी रखेगी। हर व्यक्ति, हर घटना कुछ न कुछ सिखाकर ही जाती है। जिनकी तैयारी सदैव सीखने की रहेगी, वे अपने ज्ञान का ठीक उपयोग भी कर सकेंगे। इसे शिष्यत्व का भाव कहा गया है। विद्यार्थी बनकर सीखने में अहंकार का खतरा हो सकता है, लेकिन शिष्य बनकर सीखने में हम अहंकार से मुक्त रहते हैं। जब हम यह सोचते हैं कि हम उतना नहीं जानते जितना जानना चाहिए, उसी समय हमारे व्यक्तित्व में एक खुलापन, एक विशालता आ जाती है। मैं जानता हूं, यह दावा हमको एक घेरे में बांध देता है। शिष्यत्व का सीधा-सा अर्थ है लगातार सीखने की ललक। विद्यार्थी स्मृति को तीव्र रखकर दक्ष होता है।
स्मृति एक प्रशिक्षण है और शिष्यत्व का ज्ञान एक बोध। यह बोध जीवन में आते ही एक बात समझ में आने लगती है कि जितना हमने जाना, वह पर्याप्त नहीं और जो कुछ नहीं जान पाए, उसके लिए परमात्मा की कृपा प्राप्त की जाए। ज्ञान अहंकार के लिए भोजन का काम करता है। अहंकार को सबसे अधिक तृप्ति ही ‘मैं ज्ञानी हूं’ के भाव से मिलती है। इसीलिए जीवन में लगातार शिष्यत्व का प्रयास करते रहें। विद्यार्थी विश्वास में जीता है, जो एक बौद्धिक स्थिति है। शिष्य श्रद्धा से चलता है, जो आत्मिक स्थिति है। यही श्रद्धा धीरे-धीरे आस्था में बदल जाती है और ज्ञान जब आस्था से जुड़ता है तो परिणाम अद्भुत होते हैं।

सत्संग विचारों का बहाव है जिसमें बहना पड़ेगा
कभी इस पर भी विचार करिए कि हम कितने ग्रहणशील हैं। क्या हम दूसरों के विचार, उनकी गरिमा, रिश्तों की संवेदनाएं इत्यादि को लेकर ग्रहणशील हैं? असल में हम वही चीज स्वीकार करते हैं, जो हमें पसंद हैं, विचार हों या व्यक्ति। इस मामले में हमारा रिजर्वेशन इतना तगड़ा होता है कि हम किसी का अपमान भी कर देते हैं और खुद का नुकसान भी कर सकते हैं। ग्रहणशील व्यक्ति प्रतीक्षारत और प्रार्थनामय होता है। आजकल हम देखते हैं कई संगठनों, संस्थानों और लगभग सभी व्यवस्थाओं में बैठकें होती हैं। वर्कशॉप, सेमिनार, मीटिंग इन सबका बड़ा बोलबाला है। यह सब परिस्थितियों को बदलने के लिए बड़े कारगर उपाय हैं। इनमें जो योजना बनती है, उससे भविष्य की परिस्थितियां नियंत्रित कर ली जाती हैं।
स्वामी जी कहते हैं कि जिंदगी में परिस्थिति के साथ मन:स्थिति का भी बड़ा महत्व है। परिस्थिति बैठकों से नियंत्रित की जा सकती है, लेकिन मन:स्थिति ठीक करना है तो सत्संग से गुजरना होगा। जिनकी मन:स्थिति में बदलाव आएगा, उनकी सफलता में शांति का समावेश सहज हो जाएगा। इसलिए व्यावसायिक जीवन में मीटिंग और धार्मिक जीवन में सत्संग दोनों का समान महत्व है। सत्संग का अर्थ है सद्गुरु की निकटता। सत्संग विचारों का वह बहाव है, जिसमें हमें पूरी तरह प्रवाहित होना पड़ेगा और जो बह गया, बस उसी ने मन:स्थिति में बदलाव कर लिया। यहीं से परिस्थिति आपके नियंत्रण में होगी।

प्रशंसा के रथ पर बैठकर दुर्गुण भीतर घुस जाते हैं
प्रशंसा इन दिनों शस्त्र की तरह उपयोग की जाती है। पहले आलोचना को हथियार माना जाता था। किसी की बुराई करो और उसे घायल कर दो। प्रशंसा को किसी को प्रेरित करने के लिए या उसका पतन करने दोनों ही दृष्टि से काम में लिया जाता है। सावधान रहें, यदि आप प्रशंसा कर रहे हों तो उसका उद्देश्य ‘प्रेरित करना’ ही रखें और यदि सुन रहे हों तो बिल्कुल भी असावधान न रहें, क्योंकि गलत तरीके से सुनी और स्वीकार की गई प्रशंसा पतन के मार्ग पर ले जा सकती है। जब भी कोई हमारी प्रशंसा करता है तो हम कुछ आदर्श वाक्य बोलते हैं जैसे- ‘सब आप ही की कृपा है’, ‘मेरा क्या है, सबका सहयोग है’। लेकिन उसी समय हमारा मन कह रहा होता है थोड़ी देर यह व्यक्ति और हम पर केंद्रित होकर बोले।
दुगरुणों को प्रशंसा के रथ पर बैठकर हमारे भीतर घुसने में बड़ी सुविधा होती है। इसलिए जब आपकी प्रशंसा हो रही हो तो तत्काल अपनी चेतना को जगाएं और पहला विचार यह करें कि क्या हम इस योग्य हैं, दूसरा विचार यह लाएं कि यदि योग्य हैं तो इस प्रशंसा को कितना भीतर उतारें। क्या कहीं दुगरुण इसके साथ प्रवेश तो नहीं कर रहे? इसीलिए कहा गया है कि जितनी प्रशंसा हो, उतना ही वैराग्य भाव जागृत करें, क्योंकि प्रशंसा अहंकार लेकर आएगी। वैराग्य यदि जागा हुआ है तो हम प्रशंसा को आसानी से पचा जाएंगे। इसलिए प्रशंसा करते समय निष्कपट रहें और सुनते समय बैरागी।

संघर्ष के दौर में भी हमेशा अपनापन बनाए रखें
आजकल कुछ भी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जिन्हें बिना संघर्ष के कुछ मिलता है, वे उसकी कीमत भी नहीं जान पाते। स्थितियों से संघर्ष करते-करते आदमी खुद से संघर्ष करने लगता है, फिर धीरे-धीरे अपनों से संघर्ष करने लग जाता है। यहीं से अपने और पराए का भेद शुरू हो जाता है।
नतीजा यह होता है कि सगे-संबंधियों में भेदभाव पैदा होकर घर टूट जाता है। इसलिए संघर्ष करने वालों को अपने भीतर अपनापन बनाए रखना चाहिए। अपनत्व का भाव जितना अधिक होगा, संघर्ष के दौरान संकीर्ण मनोवृत्ति उतनी ही कम होगी। यदि ऐसा नहीं है तो जीवन में कलह का प्रवेश हो जाता है। परिवार टूटते हैं, सामाजिक एकता समाप्त होती है और देश की अखंडता पर भी इसका असर पड़ता है। इसलिए संघर्ष के दौर में अपनापन बनाए रखें।
हमारे भीतर अपनेपन की वृत्ति जागे, इसके लिए ईसाई महात्माओं का एक वचन याद रखना चाहिए - हर संत का एक अतीत होता है और हर पापी से एक भविष्य जुड़ा होता है। इस विचार को जीवन में उतारते ही हम समझ जाते हैं कि संत की स्तुति और पापी की निंदा करने में यह ध्यान रखें कि अपनेपन का भाव समाप्त न हो। संतों की स्तुति इसलिए करते हैं कि हम उनके जैसा होना चाहते हैं और पापी की निंदा इसलिए करते हैं कि अपने अहंकार को तृप्ति मिले। अपनेपन का भाव आते ही हमारी दृष्टि बदल जाएगी और हम अपने संघर्ष को उत्सव का रूप दे सकेंगे।

बुढ़ापे में ही नहीं जवानी में भी ईश्वर को याद करें
जिसकी शुरुआत है उसका अंत जरूर होगा। जीवन है तो मृत्यु होना ही है। अपने अंत को जो आरंभ से समझ लेता है, उसका आरंभ भी दिव्य होता है और अंत तक पहुंचने की यात्रा भी मस्ती में बीत जाती है। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की 34वीं चौपाई में लिखा है - अंत काल रघुबर पुर जाई। जहां जन्म हरि-भक्त कहाई।। अंतिम समय जब आता है, तब हम कहते हैं कि अरे, अंतिम समय आ गया, अब राम नाम लिया जाए। अंतिम समय नाम हम इसलिए लेते हैं कि हमारा अगला जीवन अच्छा हो। दरअसल हमारा अंतिम ही अगले जीवन का प्रारंभ है। जो इच्छा हमारी अंतिम समय में रहती है, वह हनुमानजी पूरी कर देते हैं। इसलिए जीवन के अंतकाल में सभी बहुत सावधान हो जाते हैं।
मंदिरों, तीर्थस्थलों, कथा-प्रवचनों के पांडालों में वृद्धजन ही अधिक पहुंचते हैं। मंदिर सिर्फ बुढ़ापे के विश्रामालय बन गए, तीर्थ थके पांव की मंजिलों में तब्दील हो गए। पूजा-पाठ, सत्संग में कम ही युवा बैठते हैं। ताजे फूल भगवान को चढ़ाए जाने चाहिए, लेकिन मुरझाए फूल भगवान को चढ़ रहे हैं। तात्पर्य यह कि परमात्मा के प्रति जवानी में समर्पित होना चाहिए, तभी अच्छे संस्कार पाएगी नई पीढ़ी। हम खान-पान सदैव ताजा ग्रहण करते हैं, किंतु स्वयं ताजा, नया और नूतन रहकर ईश्वर को अर्पित नहीं होते। यदि हम बाल्यकाल और युवावस्था में सजग रहकर ईश्वर के प्रति समर्पित रहें, तो इसका श्रेष्ठ फल मिलेगा।

समगति से हमारे जीवन में आएगा संतुलन
भगवान जितने दूर हैं, उतने ही पास भी हैं। इसीलिए कहा गया है, जो दूर से भी दूर है वो भी भगवान हैं और जो पास से भी पास है, वो भी परमात्मा है। इस दूरी में ही निकटता छिपी हुई है और इस पास में भी सारी दूरियां सिमटी हुई हैं। तर्क, शास्त्र, ज्ञान, असहमति की वृत्ति, ये सब दूरियों से जुड़े मामले हैं। जीवन में जब इनकी अधिकता होती है तो एक द्वंद्व पैदा होता है। हम खुद में ही भटकने लगते हैं, स्वयं से ही टकराने लगते हैं। इस दूरी को मिटाने के लिए अनुभूति की जरूरत पड़ेगी। केवल ज्ञान और जानकारी से यह दूरी नहीं मिटेगी। अध्यात्म में एक शब्द है ‘समगति’। इसका अर्थ है हमारी चाल, गति, चलने का ढंग इस प्रकार हो कि न हम दूरी की अति पर टिकें और न ही निकटता की अति में बस जाएं।
समगति से संतुलन आएगा और हमारे लिए दूर-पास के अर्थ बदल जाएंगे। परमात्मा से दूरी होने पर एक अपरिपक्व अवस्था हमारे व्यक्तित्व में उतर जाती है और संसार में ऐसी अवस्था के साथ हमें मानसिक नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे अपरिपक्व लोग बाहरी संसार में आदर्श हो सकते हैं, लेकिन सही नेतृत्व नहीं दे पाएंगे। जैसे-जैसे हम ईश्वर के निकट होते हैं, दूसरी चीजों से दूरी बना लेते हैं। यहीं से हमारे भीतर एक नया भाव जागता है जिसे कहते हैं चुनाव रहित होना, क्योंकि अब हम परम शक्ति के निकट हैं। हमारे और उसके बीच रिक्तता नहीं है इसलिए चुनाव भी नहीं है और इसी में शांति छिपी है।

संसार में दो चीजों को हमेशा याद रखें - चिता और कब्र
यह संसार परिवर्तनशील है। परिवर्तनशीलता ताजगी बनाए रखती है, लेकिन उद्वेग, बेचैनी और अशांति भी दे जाती है। परिवर्तन में हमारी प्रगति होती रहे यह अच्छी बात है, पर भौतिक प्रगति के चक्कर में आध्यात्मिक विकास न रुक जाए। इस बदलती दुनिया में दो चीजों को हमेशा याद रखिए - चिता और कब्र। हर एक को इन दोनों में से किसी एक मुकाम पर जरूर पहुंचना है, चाहे सिंहासन पर बैठे हों या पटिए पर, महलों में विराजे हों या गलियों की खाक छान रहे हों, दौलतमंद हों या गरीब। इसलिए परिवर्तन को ठीक से पकड़ें। बदलाव का आखिरी चरण सबके लिए एक जैसा है। ये दुनिया जिसे लोगों ने दुखों का घर कहा है, इस घर के किसी न किसी कोने, आंगन या कक्ष में प्रसन्नता, आनंद भी बिखरा हुआ है।
जरूरत है समय रहते समेटने की। संत श्री रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार का कहना है कि भाग-दौड़ की दुनिया में सब तरह के लोग मिलेंगे। अनेक तरह की परिस्थितियां सामने आएंगी। घर में शौचालय की तरह हम इनका उपयोग करें। गए, फ्रेश हुए और लौट आए, वहां रुकना नहीं है। उनकी यह बात बड़े पते की है। गंदा स्थान भी आखिर काम तो शुद्ध होने के लिए ही आता है। लिहाजा परिवर्तनशील जगत में जब लोगों से संपर्क में आएं, तो अपने सांसारिक दृष्टिकोण में हमें क्रिया, भावना और विचारों की दृष्टि से मूल्यांकन करना चाहिए। इतनी-सी सावधानी बदलाव में भी हमें दोनों आनंद देगी, बाहर का और भीतर का भी।

जब मन में आए कि ‘आओ किसी से पंगा लें’ तो..

आज लोगों को जब दोस्ती निभाने का समय नहीं, तब कुछ लोग दुश्मनी के लिए खूब वक्त निकाल लेते हैं। जो बलशाली हैं, वे अपनी बैर-वृत्ति को अंजाम दे देते हैं और जो कमजोर हैं, वे इसे भीतर ही भीतर बसा लेते हैं और खुद ही के दुश्मन बन जाते हैं। पं. श्रीराम शर्मा कहा करते थे - बैर एक पुरानी जीर्ण मानसिक बीमारी है। मनुष्य का मनोविज्ञान होता है, झगड़ा करना कभी-कभी अच्छा लगता है। कुछ लोग तो कहते हैं कि बहुत दिन हुए किसी से झगड़ा नहीं किया और जानबूझकर लोगों से उलझ जाते हैं। पति-पत्नी, भाई-भाई, बाप-बेटा ये सारे रिश्ते इस बीमारी के शिकार हैं। मुफ्त में बैर पाल लेना मनुष्य की फितरत में बसा है।
जब कभी हमारे मन में ऐसा हो कि ‘आओ किसी से पंगा लें’ तो आंख बंद करके अपने ही व्यक्तित्व के तीन दृश्य देखें - बचपन, जवानी और बुढ़ापा। जब हम बच्चे थे तो हमेशा आगे की सोचते थे। बच्चे सामने दृष्टि रखते हैं, पीछे नहीं। जब हम जवान होते हैं तो वर्तमान पर टिक जाते हैं और जब बूढ़े होते हैं, तो हमेशा पीछे देखते हैं। इन तीनों क्रम को भीतर ही भीतर बदल लें। अपने ही भीतर बच्चे होकर पीछे देखें। अपनी जवानी को थोड़ा-सा छलांग लगाकर आगे-पीछे दोनों ओर देखें और अपने बुढ़ापे में लगातार आगे देखें। इन तीनों स्थितियों का संबंध विचार से है। आपकी सोच बदल जाएगी और यहीं से आप बैर मुक्त तथा प्रेमयुक्त हो जाएंगे।

ईर्ष्या अवसाद के कुएं में पटकने के लिए काफी है
किसी आदमी से पूछो कि तुम क्या हो? तो वह नाम, पद, जाति, आदमी या औरत की अपनी पहचान बता देगा। फिर अपनी इसी पहचान की तुलना वह दूसरे की ऐसी ही पहचान से करता है। यहीं से जिंदगी में ईर्ष्या का भाव पैदा होता है। नारी-नारी के सौंदर्य से, अमीर एक-दूसरे की अमीरी से और तो और गरीब एक-दूसरे की गरीबी से ईर्ष्या करते हैं। आदमी अपने आदमी होने पर और औरत, औरत होने पर एक-दूसरे से ही ईर्ष्या करने लगती है। नहीं चाहते हुए भी हमारे भीतर ईर्ष्या का जन्म होने लगे तो तत्काल सावधानी से इस वृत्ति को रोकिए, क्योंकि यह स्पर्धा का युग है। बहुत निकट के रिश्ते वालों में भी स्पर्धा का भाव आ जाता है। इससे अगला कदम ईर्ष्या होता है।
ईर्ष्या का भाव लगातार भीतर बना रहे और उसका सही उपचार न हो तो या तो वह अपराधी बन जाएगा या फिर अवसाद में डूब जाएगा। ईर्ष्या का धक्का अवसाद के कुएं में पटकने के लिए काफी होता है। इसलिए जब ईर्ष्या जीवन में उतरे तो विचार करें कि हमारी पहचान क्या है। हम नाम, पद और शरीर से ही नहीं बने हैं। हमारा पूरा व्यक्तित्व मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से बना है। हमारे सारे कृत्य और उससे बनी पहचान इन्हीं का रूप है। भीतर उतरकर इन्हें समझें, इन पर काम करें। खासतौर पर मन पर यदि काम किया जाए तो ईर्ष्या से मुक्ति आसान होगी। इसलिए कुछ समय अपनी भीतरी पहचान के लिए भी निकालें और बाहरी दोषों से मुक्त हो जाएं।।

शंका करने से फायदा और नुकसान दोनों होते हैं
कहते हैं शंका करने से फायदा और नुकसान दोनों होते हैं। फायदा यह होता है कि हम धोखा खाने से बच जाते हैं, क्योंकि शंका एक तरह की सावधानी बन जाती है। नुकसान यह होता है कि शंका की वृत्ति यदि लंबे समय तक कायम रह जाए तो हर एक पर अविश्वास करने की आदत बन जाती है। धीरे-धीरे आदमी खुद पर भी विश्वास करना बंद कर देता है और यहीं से वह सारे हानि-लाभ दूसरों में, अपने से बाहर देखने लगता है। कुछ लोग जब गुरु बनाते हैं, कोई विशेष भक्ति का मार्ग चुनते हैं, ध्यान के क्षेत्र में उतरते हैं और कुछ समय बाद उन्हें वैसा लाभ नहीं मिलता, जैसा वे चाहते हैं तो वे इन विधियों को बदलते हैं, गुरु बदल देते हैं या धर्म बदल देते हैं। शायद फिर भी उन्हें लाभ नहीं मिलता। आदमी खुद को नहीं बदलता।
कारण वही है लगातार शंका की आदत बन जाना। खुद को बदलने के लिए एक आसान उपाय है अपने भीतर आस्था को जन्म देना। किसी धर्म, गुरु, व्यवस्था में जैसे-जैसे हम आस्था बढ़ाएंगे, स्वयं पर विश्वास भी बढ़ने लगेगा। आस्थावान लोगों की देखने की क्षमता बढ़ने लगती है। वे हर बात को अलग निगाह से देखते हैं। हम व्यक्ति या वस्तुओं को बहिमरुखी होकर नहीं देखते। आस्था हमें भीतर से जोड़ती है। आस्थावान व्यक्ति अपने भीतर से जुड़कर बाहर सक्रिय होता है और हमारा चिंतन स्पष्ट होता है कि जो भी अच्छा और बुरा हम करते हैं, उसके जिम्मेदार हम होते हैं। दूसरों को दोष न दिया जाए।

श्री हनुमानजी की पूजा से नाराज नहीं होंगे अन्य देव
किसी में विश्वास करने का मतलब यह नहीं कि दूसरे में अविश्वास करें। विश्वास का अर्थ है सबका सम्मान करना। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की 35वीं चौपाई में यही समझाया है। और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।। हे हनुमानजी, आपकी इस महिमा को जान लेने के बाद लोग अन्य देवता को अपने चित्त में स्थान नहीं देंगे। ‘और देवता’ कहने का एक अन्य अर्थ भी है। ‘और अधिक’ देवताओं को चित्त में न रखें। जो भी आपके इष्ट हों उन्हें बनाए रखें। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि यदि श्रीहनुमानजी को आप पूजेंगे, तो अन्य देवता नाराज नहीं होंगे।
तुलसीदासजी यह आश्वासन दे रहे हैं कि चिंता न की जाए। जिन्हें ज्योतिष में विश्वास है, वे ग्रहों के रूप में शनि को अत्यधिक पीड़ादायक मानते हैं। यदि जातक की राशि में शनि का प्रवेश हो, तो प्रयास किया जाता है कि उनके कोप से बचा जाए। एक बार गर्व में डूबे सूर्य पुत्र शनि ने हनुमानजी को बाधा पहुंचाई। हनुमानजी ने शनि को समझाया कि उन्हें परेशान न करें, किंतु शनिदेव ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ में शनि को लपेटा और चट्टानों पर पटक-पटककर लहूलुहान कर दिया। पीड़ित शनि ने अपनी मुक्ति के लिए हनुमानजी को वचन दिया कि ‘मैं कभी आपके भक्त की राशि में प्रवेश नहीं करूंगा।’ अपने घावों से परेशान होकर शनिदेव तेल-तेल का विलाप करने लगे। इसीलिए उन्हें तेल चढ़ाकर प्रसन्न किया जाता है।

परमार्थ के काम करें तो परमात्मा से जुड़ सकते हैं

शिव और शक्ति का मिलन कल्याण की भावना और परिश्रम की प्रवृत्ति का मिलन है। ज्यादातर लोग परिश्रम निजहित के लिए करते हैं। यदि कल्याण की भावना हो तो पुरुषार्थ परमार्थ में बदल जाता है। शिवरात्रि का यह पर्व हमारे उद्देश्यों और लक्ष्यों को कल्याण का चिंतन देता है। अपने भीतर सर्व-कल्याण की भावना जगाना हो तो परमात्मा से जुड़ना होगा। दोनों बातें एक साथ चलती हैं। परमार्थ के काम करें तो परमात्मा से जुड़ना आसान होगा और परमात्मा से जुड़ जाएं तो परमार्थ के कार्य करने में उत्साह बना रहेगा, लेकिन हम अपने कामकाज की सूची में परमात्मा से जुड़ने को अंतिम प्राथमिकता देते हैं।
हमारे पूजा-पाठ, धर्म-कर्म के काम दुनिया साधने की नीयत से होते हैं, न कि परमात्मा पाने के इरादे से। सांसारिक चीजें मुफ्त में नहीं मिलतीं। छोटी से छोटी भौतिक वस्तु को पाने के लिए खूब श्रम करना होता है, लेकिन परमात्मा जैसी मूल्यवान उपलब्धि हम मुफ्त में पाना चाहते हैं। इसलिए शिव-पार्वतीजी की पूजा करते समय ध्यान रखें कि कल्याण को हमें शक्ति से जोड़ना है। भवानी शक्ति के रूप में जब मां पूजी जाती हैं तो उनकी आठ भुजाएं, आठ साधन हैं जिनसे हम लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं - स्वास्थ्य, विद्या, धन, व्यवस्था, संगठन, यश, शौर्य और सत्य। जब ये अष्टभुजा रूप हमारे जीवन में उतरता है तो शक्ति का उदय होता है। हमें इन्हें अपने भीतर उतारना है। भीतर-बाहर का यह संतुलन सफलता को नए अर्थ देगा।

जानकारियों का ढेर नहीं अनुभव की नदी बनें
हमारी समझ में जो बात आती है, ज्यादातर मौकों पर हम उसे सही और सत्य मान लेते हैं। जो बात हमारी समझ से बाहर है, या तो हम उसे गलत साबित कर देते हैं या नकार देते हैं। हमारी बुद्धि के विपरीत जो भी दिखता है, उसे हम इसलिए खारिज कर देते हैं कि हम अपनी बुद्धि को सही मानते हैं। जिस समय हम यह मानते हैं कि हमारी समझ से परे भी सत्य हो सकता है, वहीं से सत्य मिलने की संभावना बढ़ जाती है। जो लोग सचमुच सत्य को प्राप्त करना चाहते हों, उन्हें लगातार वर्तमान पर टिकने की आदत बनानी होगी। अतीत पर टिककर हम भगवान को भूल जाते हैं और भविष्य में खोकर भी हम परमात्मा को याद नहीं रख सकते, क्योंकि दोनों स्थितियों में हमारा ‘मैं’ सक्रिय रहता है।
वर्तमान एक ऐसी स्थिति होती है, जहां ‘मैं’ कमजोर पड़ता है और वहीं से भगवान का प्रवेश सरल हो जाता है। बीता और आने वाला कल हमें जानकारियों से भर देगा, पर वर्तमान हमें अनुभव से जोड़ता है। इस समय हम जानकारियों का ढेर बन गए हैं, जबकि हमें अनुभव की बहती हुई नदी बनना है। वर्तमान में टिकने का एक फायदा यह होता है कि हमारी ऊर्जा संगठित होकर अपने लक्ष्य से जुड़ जाती है। हम अपने काम में डूबकर ध्यानस्थ स्थिति पर चले जाते हैं। कार्य का परफेक्शन इसे ही कहते हैं। वर्तमान हमें तन्मय बनाता है और अपने काम में डूबा हुआ, तन्मय व्यक्ति अतीत का अधिक लाभ उठाएगा और भविष्य का सही उपयोग करेगा।

हमारे जीवन में सूरज की तरह है परमात्मा
अहंकार बर्फ की चट्टान की तरह होता है, न पिघलाओ तो पत्थर जैसा कड़क रहेगा और हमें घायल भी करता रहेगा, लेकिन इस चट्टान में पिघलने की संभावना होती है, इसलिए कोई गर्मी तलाशनी पड़ेगी। परमात्मा हमारे जीवन में सूरज की तरह है। उनका प्रकाश, तेज, ओज हमारे व्यक्तित्व के लिए जितना जरूरी है, उतनी ही उसकी गर्मी अहंकार की चट्टान को पिघलाने के लिए आवश्यक है। दुनिया में चारों तरफ प्रतिस्पर्धा है। यदि स्वयं की रक्षा नहीं करेंगे तो दूसरे आपको पटकनी भी दे सकते हैं। इसलिए अपनी पहचान, अपना अस्तित्व और अहंकार आत्म-रक्षा का कवच भी बन जाता है।
कभी-कभी ‘मैं’ को हथियार बनाना पड़ता है ताकि दूसरे आपको घायल न कर जाएं, आपका दुरुपयोग न कर जाएं। लेकिन इस ‘मैं’ को एक सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाएंगे, ‘मैं’ को गिराना पड़ेगा और रक्षा के दूसरे हथियार अपनाने पड़ेंगे। इनमें से एक है ईश्वर के प्रति श्रद्धा। श्रद्धा का भाव अगले चरण में हमारे भीतर जाग जाना चाहिए। श्रद्धा पैदा करने के लिए सेवा के कार्य हाथ में लेते रहिए। कहते हैं अहंकार गिराना हो तो संगठन से जुड़ने के प्रयोग करें। समूह में समानता का अधिकार, एक-दूसरे को सहयोग करना यह सब जरूरी होता है। और यहीं से अहंकार गिरता है, सेवा जागती है और परमात्मा की ओर हम चलते हैं। इसलिए संसार के आरंभ में ‘मैं’ जरूरी है और परमात्मा के आरंभ में ‘मैं’ गैरजरूरी।

हर काम एकाग्रचित्त होकर किया जाए तो बेहतर है
दुनिया की लंबी दौड़ में कई मोड़ ऐसे आते हैं, जब न चाहते हुए भी हांफना पड़ जाता है। ऊर्जा के सांसारिक केंद्र बहुत अधिक मदद नहीं कर पाते। ऐसे समय आध्यात्मिक शक्ति अपने भीतर उत्पन्न करने की कला हमें सीख लेनी चाहिए। हमारे ऋषि-मुनियों ने एकाग्रता पर बहुत जोर दिया है। हर काम करते समय एकाग्रता का अभ्यास रखें। जब जो करें, जमकर करें। एकाग्रता से तीन फायदे हैं। पहला - शक्ति उत्पन्न होती है। दूसरा- धर्य जागता है और तीसरा - शक्ति और धर्य के परिणाम में हम साहसी हो जाते हैं। यह साहस ही हमें संसार की हर उपलब्धि को प्राप्त कराएगा तथा भगवान के निकट ले जाएगा।
इतिहास गवाह है कि जो लोग खूब सफल हुए हैं, वे अपने कार्य के प्रति एकाग्रचित्त रहे हैं। एकाग्रचित्त होने का अभ्यास प्रतिदिन नियमित रूप से करना होगा। कोई भी कार्य आरंभ करने के पहले अनर्गल विचार और गतिविधियों को विराम दें। यह दृढ़ता धीरे-धीरे एकाग्रचित्त बना देगी। हम जितने एकाग्रचित्त होंगे, जागे हुए रहेंगे। भगवान महावीर स्वामी ने जैन धर्म में एक सुंदर शब्द दिया है - असुत्ता मुनि और सुत्ता अमुनि। इसका अर्थ है, जो एकाग्रचित्त है वह जागा हुआ है और जो जागकर जी रहा है, उसे लोग संन्यासी कहेंगे, वर्ना सोया हुआ व्यक्ति संसारी है। असुत्ता मुनि मतलब जो सोया हुआ नहीं है और सुत्ता अमुनि मतलब जो सोते हुए चल रहा है, वह असाधु है। इसलिए खूब काम करें, पर होश में करें।

छल का साथ देने वाले का हश्र रावण जैसा होता है
जीवन में उत्थान व पतन चलता ही रहता है। भौतिक सफर में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं, लेकिन आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है। जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता। इसका उदाहरण है रावण।
रावण एक ऐसा पात्र है, जिसे अनेक पात्रों ने समझाया, लेकिन उसे समझ नहीं आया। मानस रोगों का वर्णन करते हुए लिखा गया है -‘मोह सकल व्याधिन कर मूला’। मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाद काम है और शूर्पणखा वासना। रावण को मेघनाद और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों।
इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं, उसकी तुलना नाखूनों से की जाती है। यानी एक सीमा तक वासना ठीक है, उसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं काटेगा, समाज में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं किया। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने राम की पत्नी का हरण कर लिया।
शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखा, इसमें क्या गलत था। इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला था, छल किया था। रावण ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है, वह रावण के समान होता है। पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।

पुरुष के लिए तीन तीर्थ हैं मां, बहन और भाभी
परमात्मा की घोषणा है कि जब मैं किसी आत्मा को स्त्री की देह देता हूं तो यह अपने आपमें सबसे बड़ा सम्मान हो जाता है। भारत ने शरीर, मन और आत्मा के विचार को स्वीकार किया है। इसलिए शरीर के रूप में सारी धरती पर जो मान भारत में नारी देह को दिया गया है, वैसे उदाहरण कम मिलते हैं। मातृशक्ति को ईश्वर ने सृजन का अधिकार दिया है। एक उदाहरण आज भी भारतीय संस्कृति को धन्य करता है। शिवाजी के जीवन में अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं हुई थीं, लेकिन मातृशक्ति के मान की एक घटना हमें आज भी प्रेरित करती है। शिवाजी के सैनिक मुगल बादशाहों को पराजित करके लौटते तो उनकी संपत्ति शिवाजी को भेंट करते। उनके सेनापति का नाम था सोनदेव।
एक बार सोनदेव ने एक मुगल बादशाह को पराजित करने के बाद भरी सभा में धन, संपत्ति के अलावा एक पालकी भी भेंट की। उसमें से एक बहुत सुंदर मुगल स्त्री उतरी और डरते-कांपते खंभे के पास जाकर खड़ी हो गई। सोनदेव ने शिवाजी से कहा आपके भोगने के लिए यह एक और भेंट है। शिवाजी सांवले थे, सुंदर नहीं दिखते थे। क्रोध में कांपते हुए शिवाजी ने सोनदेव से कहा था पुरुष तीन तीर्थ पार करता है, तब स्त्री को भोगने के योग्य होता है। मां, बहन और भाभी के रूप में ये तीन तीर्थ होते हैं। मालवी कवि मोहन सोनी ने मालवी भाषा में इस पर बड़ी सुंदर रचना लिखी है।
शिवाजी ने उस स्त्री को देखा और कहा था भारत की नारी, तुझे डरने की जरूरत नहीं है। तेरा रूप और सौंदर्य देखकर शिवाजी के मन में बस एक ही विचार उठा है कि यदि तेरे जैसी मेरी मां होती तो आज शिवा भी सुंदर होता और तेरे आंगन में खेलता। इन पंक्तियों को सुनकर उस औरत की आंख से आंसू बह निकले थे और शिवाजी की मां जीजाबाई ने कहा था मैंने जो तुझे शिक्षा दी बेटा, आज तू उसकी परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। इस एक घटना से यह पता लगता है कि भारत ने औरत को सिर्फ शरीर नहीं माना, उसकी अस्मिता को आत्मा से जोड़कर अपने मनुष्य होने का मान दिया है। इसीलिए मातृशक्ति भारत की धरती पर बड़े भाव से पूजी गई है और पूजी जानी चाहिए।

ईश्वर को प्यारे लगने वाले काम भी करें

संसारभर के काम करते हुए एक इरादा और रखें कि हम ईश्वर को प्यारे लगने वाले काम भी करते रहें। कबीर कह गए हैं - ‘तेरा जन एकाध है कोई’ करोड़ों-करोड़ों लोग हैं दुनिया में। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च हैं। कई लोग पूजा-अर्चना कर रहे हैं, लेकिन परमात्मा यदि सवाल पूछे तो कुछ ही लोगों के लिए यह जवाब आएगा कि ‘तेरा जन एकाध है कोई’। उस मालिक का कोई एक हो पाएगा और वह वो होगा, जो उस चयन के दायित्व को पूरा कर सकेगा, जिसके लिए मालिक ने उसे चुना है। दुनिया का मार्ग कांटों से भरा हुआ है। भक्ति ऐसे ही दुर्गम मार्ग पर चलकर की जा सकती है। जो भक्ति सही स्वरूप में कर जाएगा, वह निजी और सांसारिक जीवन में सफल हो जाएगा।
भीड़ में सिर्फ एक चेहरा होना बहुत आसान है, पर भीड़ का सामना करना मुश्किल। भक्त जब सेवा करता है तो उसकी सेवा के अर्थ बदल जाते हैं। जरूरी नहीं है कि सेवा हमेशा धर्म बन जाए। जो लोग सेवा करने निकले हैं, उनकी जिंदगी में भक्ति आ जाएगी, यह जरूरी नहीं है। लेकिन जिस व्यक्ति का चित्त भक्तिमय है, उसकी जिंदगी में सेवा अवश्य हो सकती है। जिस व्यक्ति का चित्त शांत और भक्ति से परिपूर्ण हो गया, उसकी जिंदगी सेवा बन जाती है। लेकिन अगर कोई यह सोचे कि मैं सेवा करने निकला हूं तो मेरा चित्त आनंदित हो जाएगा और भक्ति से भर जाएगा तो ऐसा जरूरी नहीं है, बल्कि ऐसी सेवा अहंकार को पोषित कर देगी।

अपनी कुछ कमाई को सेवा के रूप में बदलें

अपने लिए तो सभी कमाते हैं, पर हमारी कुछ कमाई ऐसी होनी चाहिए, जो सेवा के रूप में बदल सके। आजकल सेवा भी हथियार बना ली गई है। जो दुनियादारी के सेवक हैं, वह अक्सर ऐसे ही काम करते हैं। कोई कहता है कि मैं हिंदू धर्म को संगठित करना चाहता हूं तो कोई कहता है कि मैं इस्लाम की सेवा करना चाहता हूं। नेता कहते हैं कि हम देश की सेवा कर रहे हैं। यह सब समाजसेवा तो हो सकती है, लेकिन इससे भीतर परमात्मा पैदा नहीं होता। जब चित्त में ईश्वर या कोई परमशक्ति होती है तो सेवा का रूप बदल जाता है।
हिंदू धर्म के साधु-संतों की, इस्लाम के ठेकेदारों की और नेताओं की सेवा के ऐसे परिणाम नहीं आते, जैसे आज धर्म के नाम पर मिल रहे हैं। इसलिए सेवा के ईश्वर वाले स्वरूप को समझना होगा। अभी सेवा चित्त के आनंद से वंचित है। परमात्मा का एक स्वरूप है सत्य। सच तो यह है कि धर्म हो या राजधर्म, जो लोग सेवा का दावा कर रहे हैं, उनके भीतर से सत्य गायब है। धर्म का चोला ओढ़ लें यहां तक तो ठीक है, अब तो लोगों ने भगवान का ही चोला ओढ़ लिया है। वेश के भीतर से जब विचार समाज में फिंकता है तो लोग सिर्फ झेलने का काम करते हैं। वे यह समझ नहीं पाते कि सत्य कहां है। इसलिए दूसरे जो कर रहे हैं, उनसे सावधान रहें और हमें जो करना है उसके प्रति ईमानदार रहें। लगातार प्रयास करें कि भीतर परमात्मा जागे और तब बाहर हमारे हाथ से सेवा के कार्य हों।

हमें धर्म से नहीं, धर्म के नियमों से डरना चाहिए

धर्म के मामले में चार बातें काम की हैं - सेवा, सत्य, परहित और अहिंसा। हमारे यहां एक प्यारा शब्द है धर्मभीरू, यानी धर्म से डरने वाला। धर्म सृष्टि को धारण करने वाला शाश्वत नियम है। मनु ने धर्म के ये लक्षण बताए हैं - धर्य, क्षमा, दया, अस्तेय, इंद्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध। इन नियमों की आवश्यकता तो हर वर्ग, हर जाति को पड़ेगी, चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो या जैन। सीधी-सी बात यह है कि मनुष्य को इन नियमों का पालन करना चाहिए। धर्मभीरू होने का अर्थ तो हम यही लगा लेते हैं कि धर्म से डरो, जबकि डरना धर्म के नियमों से चाहिए। ट्रैफिक पुलिस से नहीं, ट्रैफिक नियमों से डरना चाहिए। हम अपने कर्तव्य से एक अच्छी व्यवस्था को जन्म दें। यहीं से शुरू होता है सेवाधर्म।
परमात्मा ने हर काम के लिए किसी न किसी को चुन रखा है, वैसे ही हम भी चुने गए हैं। चयन सृष्टि का आधारभूत नियम है। जाने-अनजाने हर कोई चुन रहा है। प्रकृति भी चुपचाप चुनाव कर रही है। पेड़ को देखिए। फल गिरते हैं, उन फलों में कई बीज भी होते हैं, पर इन बीजों में से कोई एक वृक्ष बन पाता है। जड़ और चेतन सब में चयन की प्रक्रिया चल रही है। राम ने अपने काम के लिए हनुमान को चुना, परमहंस ने नरेंद्र को चुना, कहीं जीसस, कहीं गौतम बुद्ध तो कहीं भगवान महावीर चुने गए हैं। ऐसे ही हम भी चयन किए गए हैं और यहीं से शुरू होता है हमारा सेवाधर्म।

सफल हों तो धन्यवाद दें विफल हों तो ताकत मांगें
हमें अपनी कार्यक्षमता पर भरोसा होना चाहिए और अपने लोगों पर भी विश्वास करना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में जो भी घट रहा होता है, उसमें हमसे ऊपर एक परम शक्ति की बड़ी भूमिका रहती है। रामकथा में राम अवतार के पांच कारण बताए गए हैं। उनमें से एक प्रसंग है कि शिवजी पार्वतीजी को कथा सुनाते हैं कि एक बार नारदजी ने विष्णुजी को शाप दिया। यह सुनकर भवानी चौंक उठीं। उन्होंने कहा - एक तो नारद विष्णुजी के भक्त हैं, उस पर ज्ञानी हैं, उन्होंने शाप क्यों दे दिया? यहां एक बहुत सुंदर पंक्ति आती है - ‘कारन कवन शाप मुनि दीन्हा, का अपराध रमापति कीन्हा।’
नारदजी पार्वतीजी के गुरु हैं। इसलिए उन्हें लग रहा है कि यदि कोई अपराध हुआ होगा तो वह विष्णु ने ही किया होगा, नारद नहीं कर सकते। शंकरजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया। शंकरजी ने कहा - ‘बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोई, जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।’ यह शंकरजी का अपना दर्शन है कि संसार में न कोई मूढ़ है, न ज्ञानी। परमात्मा जब डोरी घुमाता है तो आदमी कठपुतली की तरह डोलता है। वह ऊपर वाला ऐसा है कि न उसकी अंगुली दिखती है और न धागे, बस हम कठपुतलियों की तरह दिखते हैं। हमें अपनी क्षमता पर विश्वास होना चाहिए। ऊपर वाला जिंदगी की डोर अपने हाथ में रखता है, इसलिए सफल हों तो उसे धन्यवाद दें और असफल हों तो उससे ताकत मांगें।

प्रभु कृपा पाने का सबसे सरल माध्यम है सुमिरन
परेशानियां सूचना देकर नहीं आतीं, न ही उनके पैर होते हैं और न ही उनको आने के लिए कोई वाहन पकड़ना पड़ता है। जीवन में वे कब प्रकट हो जाएं, पता नहीं चलता। जब बहुत सारी परेशानियां एक साथ आ जाएं तो उसे संकट कहते हैं। बाहर संकटों से लड़ते-लड़ते मनुष्य के भीतर पीड़ा का जन्म हो जाता है। हनुमानजी अपने भक्तों की इस स्थिति से परिचित हैं। इसलिए हनुमानचालीसा की 36वीं चौपाई में लिखा है - संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।। जो लोग हनुमानजी का स्मरण करते हैं, उनके संकट दूर होते हैं। तुलसीदासजी ने संकट कटने और पीड़ा मिटने के साथ सुमिरन शब्द लिखा है। इसके पीछे अनोखा दर्शन है। ध्यान और सुमिरन के अंतर को समझा जाए।
अधिकांश लोगों के ध्यान में सबसे बड़ी बाधा मन की रहती है। मन ध्यान को जमने नहीं देता। संसार में एक बड़ा संकट है मन का अनियंत्रित होना तथा पीड़ा है उसका अत्यधिक गतिशील रहना। आरंभ करने के लिए ध्यान से सुमिरन आसान है। संकट और पीड़ा के समय व्यक्ति तुरंत निराकरण चाहता है। कहा जाता है कि वायु की गति तेज होती है, उससे तेज ध्वनि की गति, उससे तेज प्रकाश की गति और इन सबसे तेज मन की गति होती है। किंतु मन से भी अधिक तेज गति होती है प्रभु की कृपा की और इस कृपा को प्राप्त करने का सबसे सरल माध्यम है सुमिरन।

समय रहते अपने दोषों का निवारण कर लिया जाए
लोग हमारे कामकाज पर टिप्पणी करें, सुझाव दें और विश्लेषण करें, यह स्वाभाविक बात है। हमें सहजता से इसे स्वीकार करना चाहिए। लेकिन सबसे अच्छा विश्लेषण है अपना आंतरिक विश्लेषण। तारीफ हो या आलोचना, फौरन भीतर उतरें और स्वयं का मूल्यांकन शुरू कर दें। सबसे सही परिणाम भीतर ही मिलेगा। राजा दशरथ ने जब राम को राजा बनाने की घोषणा की तो भरे दरबार में उनकी प्रशंसा हुई थी। उस समय रामकथा में एक दृश्य आता है। चारों ओर से अपनी जय-जयकार होती देख वे भरी राजसभा में दर्पण देखते हैं और अपना मुकुट ठीक करते हैं। ‘राय सुभाय मुकुर कर लीन्हा, बदन बिलोकी मुकुट सम कीन्हा।’
सामान्यत: दर्पण एकांत में देखा जाता है, किंतु दशरथ सबके सामने देख रहे थे। घटना प्रतीकात्मक है। मुकुट राजसत्ता का प्रतीक है। शासक का कर्तव्य है कि वह ध्यान रखे कि सत्ता संयमित रहे, उसमें समत्व रहे। दशरथ का मुकुट तिरछा हुआ, उन्होंने ठीक कर लिया और दर्पण में यह देखा कि क्या मैं सचमुच इस प्रशंसा के योग्य हूं। जब कभी हमारी प्रशंसा हो तो हम भी अपने मन के दर्पण में स्वयं की छवि को निहारें और गड़बड़ हो तो ठीक करें। दूसरा उदाहरण रावण का था। अंगद के साथ वाद-विवाद में उसका मुकुट गिर गया था, किंतु फिर भी उसने उसे ठीक नहीं किया। यही फर्क है दशरथ और दशानन में। समय रहते अपना मूल्यांकन कर अपने दोषों का निवारण कर लिया जाए, यही बेहतर है।

ईश्वर की निकटता हमें दिलाती है सफलता
सफलता किस प्रकार मिलती है और असफलता से कैसे बचा जाए? ये सवाल सबके मन में बने रहते हैं और संघर्ष सबके जीवन में चलता रहता है। भौतिक प्रयासों को आध्यात्मिक सहारा देने से सफलता आसान हो जाती है और असफलता पीड़ा नहीं देती। एक आध्यात्मिक सूत्र है कि परमात्मा की निकटता सफलता की ओर ले जाती है और परमात्मा से दूरी असफलता की ओर। हमें अपने जीवन में इस सूत्र के अर्थ को सही तरीके से समझकर दिशा तय करनी चाहिए। एक कहानी में बहुत अच्छा उदाहरण सामने आता है। पहुंचे हुए फकीर के आश्रम में चार महिलाएं प्रवेश पाना चाहती थीं।
फकीर ने परीक्षा लेने के उद्देश्य से चारों से पूछा - आपको परमात्मा का कितना ज्ञान है? पहली स्त्री का जवाब था - सबकुछ जानती हूं। दूसरी बोली - इसमें जानने जैसा है क्या है? तीसरी ने कहा - काफी हद तक समझ गई हूं, बाकी आप भी तो कुछ करेंगे। चौथी स्त्री ने कहा कि मुझे कुछ पता नहीं, मैं निपट अज्ञानी हूं। चौथी स्त्री स्वीकार कर ली गई। दरअसल, परमात्मा के मार्ग पर वही जा सकता है, जो अपने अज्ञान को स्वीकार कर ले। जीवन एक पहेली है, एक रहस्य है और भक्ति उस रहस्य को खोलने की कुंजी। इस पहेली का अंतिम उत्तर ही परमात्मा है। उत्तर मालूम होने पर भी पहेली से गुजरना ही होगा। इसलिए सत्संग, अच्छी पुस्तकें इस रहस्य की परतों को खोलने में बहुत काम आती हैं।

धन से नहीं, प्राण व आत्मा से पाया जाता है धर्म
किसी धर्म विशेष को मान लेने और धार्मिक होने में फर्क है। जो लोग धार्मिक होना चाहते हैं, वे यह समझ लें कि धार्मिक होना गहरी और आंतरिक क्रांति है। धार्मिक होना अंदर का मामला है। इसका बाह्य जगत से कोई संबंध नहीं। श्रीराम का उदाहरण लें। वे राजा बनने वाले थे, पर उन्हें जंगल जाना पड़ा। जीवन की दो विपरीत स्थितियों का सामना अचानक हो गया था। राम की धार्मिकता से हम अपने धार्मिक होने को जोड़ें। राम यहां अपने निर्णय से धार्मिक जगत में नजर आते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं था कि उन्हें अयोध्या का राज्य मिला है या वनवास। यदि और कोई होता तो युद्ध हो जाता। हमारे साथ प्रतिदिन ऐसा होता है।
कितनी कैकेयी, कितनी मंथराएं हमें मिलेंगी, कितने दशरथ होंगे जो अपने वचन के लिए हमें दांव पर लगा देंगे। लेकिन जो राम के रूप में धार्मिक होगा, जो धर्म के सत्य स्वरूप का पालन करेगा, वह उसी आनंद से वनवास चला जाएगा, जिस आनंद के साथ राम चले गए थे। जो आदमी अयोध्या का राजा होने का आनंद जैसा ही आनंद मानते हुए वनवास जाने की तैयारी कर लेता है तो वह रावण को मार भी लेता है। रावण सभी बुराइयों का प्रतीक है। धर्म की यात्रा का आखरी पड़ाव दुगरुणों की समाप्ति, बुराइयों की मौत है। सवाल पूजा और प्रार्थना का नहीं है। जो धर्म धन से खरीदा जा सकता है, वह धर्म नहीं है। धर्म धन से नहीं, प्राणों से, आत्मा से प्राप्त किया जाता है।

इस बार भ्रष्टाचार की होली जलाई जाए

फागुन बीत रहा है। इस माह गुलाबी ठंड हमको स्पर्श करके जहां शीतल बना रही थी, वहीं थोड़ी ऊष्मा भी जीवन में प्रवेश कर रही थी। इस मास के समापन पर दो त्यौहार एक ही नाम से दो अलग-अलग संदेश देते हैं - होलिका दहन और धुलेंडी। एक में अग्नि है, दूसरे में रंग। हमें दुगरुणों का दहन करना चाहिए। भारतीय संस्कृति में यज्ञ परंपरा का बड़ा संदेश है कि अनुचित की आहुति दो और उचित को खूब तपाओ। अग्नि का स्वभाव तटस्थ होता है। इस साल होली जलानी ही हो तो भ्रष्टाचार की जलाई जाए।
हनुमानजी ने लंका जलाकर संदेश दिया था कि यह देह जब दुगरुणों की लंका बन जाए तो इसे तपाना चाहिए। और फिर धुलेंडी का मतलब है जीवन को उन रंगों में रंगा जाए कि जिसका स्वाद आत्मा तक स्पर्श हो। माया का रंग उतरे और मायापति का रंग चढ़ जाए। होली में रंग और नृत्य साथ चलते हैं। भक्ति का रंग अगर चढ़े तो सारे रंग फीके हैं। होली पर रंग-धर्म को ठीक से जिया जाए। कहते हैं भक्ति नाचता हुआ धर्म है। भक्ति ही मौलिक धर्म है। धर्म जीता है भक्ति की धड़कन से। भक्ति से हटा हुआ धर्म सैद्धांतिक चर्चा मात्र रह जाता है। जिस शून्य को ज्ञानी ध्यान से जगाता है और बड़े श्रम से पैदा करता है तथा मुश्किल से सफल हो पाता है, उस शून्य को भक्त सिर्फ प्रेम से पैदा कर लेता है। होली के रंग में यदि भक्ति का रंग है तो यह त्यौहार प्रेम लेने और देने का त्यौहार बनेगा।

घर में खुशी की महक फैलाएं

इस बात पर विचार करिएगा कि आप अपने भीतर सबसे अधिक तनाव में किस समय रहते हैं। देखने में आया है कि प्रोफेशनल लाइफ में कामयाब लोग सुबह-सुबह अपने घर में बहुत परेशान पाए जाते हैं। सुबह उठने से लेकर अपने काम पर जाने के समय के बीच, जो भी घंटे आपके पास रहते हैं, कहीं आप उस कालखंड में दबाव में, चिड़चिड़े, बेचैन और हताश तो नहीं रहते हैं। यह समय ज्यादातर लोगों का घर पर बीत रहा होता है। चूंकि घर से निकल कर दिनभर की योजना इसी समय दिमाग में बन रही होती है, तब आदमी भीतर ही भीतर व्यावहारिक समीकरणों में उलझा रहता है और परिवार में होने के कारण उसी समय परिवार के लोग अपने हिस्से की बातें, अधिकार जता रहे होते हैं। इस वक्त आदमी जल्दी में होता है, दबाव में रहता है, इसलिए घर वालों से भी उलझ जाता है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने प्रात:काल स्नान करके योग, प्राणायाम, पूजा-पाठ की जो पद्धति हमें सौंपी है, उसके पीछे एक कारण यह भी रहा है कि हम अपने निवास स्थान पर वातावरण में हल्कापन, प्रसन्नता और भक्ति की महक बनाए रखें। घर से निकलने के बाद तो दुनियादारी की उलझनें बढ़ ही जाएंगी। कम से कम घर इस मामले में अछूता रहना चाहिए। ऋषि पद्धति से गुजारे हुए प्रात: काल के कुछ घंटे आने वाले दिनभर के लिए गजब की ऊर्जा देंगे। सुबह से उठकर घर में रहते हुए अपनी दिनचर्या में तीन भावनाएं जोड़ लें- पहली यह कि जो भी करेंगे, खिलाड़ी भावना से करेंगे। खेल में खिलाड़ी जानता है कि जीत किसी एक की होगी। प्रयास भी युद्ध स्तर के किए जाते हैं, प्रतिद्वंद्विता चरम सीमा पर होती है, लेकिन शत्रुभाव नहीं होता। हम लोग प्रात:काल अपनी दिनचर्या में पारिवारिक हस्तक्षेप के कारण खुद को घर वालों का और घरवालों को स्वयं का शत्रु बना बैठते हैं, यह न करें।
दूसरी बात, भावना यह हो कि हम पूरे परिवार की प्रगति के लिए समर्पित रहेंगे। ये सब मेरा हिस्सा हंै, मेरे दायित्व की सीमा में आते हैं, अत: इनकी भावनाओं का सम्मान मुझे करना ही है। तीसरी बात, पूजा करते समय अपने ऊपर श्रद्धा बनाएं और बढ़ाएं। आत्म-सम्मान को परमात्मा के अंश होने से जोड़ें। हम उसकी कृति हैं। इसलिए हमारे भीतर दोष नहीं होना चाहिए। निर्दोषता का सही स्वरूप है आंतरिक पवित्रता। पूजा हमें पवित्र बनाएगी और यहीं से हमारे भीतर आत्म-विश्वास जागेगा। जिसमें आत्म-विश्वास होगा, वह हमेशा सहज होगा और प्रसन्नता के साथ ही घर से प्रस्थान करेगा। फिर देखिए दिनभर, हर पल सफलता लिए खड़ा होगा।
जो काम करना चाहते हैं, उसके लिए जी-जान लगा दें। अपनी गलतियों पर हंसें और उनसे सबक लेने के लिए अपनी प्रशंसा करें। फूलों को देख प्रकृति के सौंदर्य की दाद दें। अनजान का अभिवादन करें और परिचितों के संपर्क का आनंद लें। भावना व्यक्त करने से डरें नहीं। खूब हंसें, मस्ती करें। मित्रों, परिजनों और जो जीवन का अहम हिस्सा हैं, उन्हें प्रेम करें। सारे दिन शांति महसूस करें। याद रखें, जीवन जैसा दिखता है, उससे कहीं ज्यादा सुंदर है।

गुरु जीवन बनाएंगे और जल जीवन बचाएगा
हम भौतिक मार्ग पर चल रहे हों या आध्यात्मिक जीवन जी रहे हों, गुरु का मार्गदर्शन जरूरी है। गुरु और जल एक जैसे होते हैं। जिस प्रकार जल सबमें मिलकर उसका मान, स्वाद, रूप बढ़ा देता है, उसी तरह गुरु का महत्व है। हनुमानचालीसा की 37वीं चौपाई में तुलसीदासजी ने गुरु को याद किया है। जै जै जै हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।। हे हनुमानजी! तीनों कालों में आपकी जय हो। आप मेरे स्वामी हैं, श्री गुरुदेव की तरह मुझ पर कृपा करिए। तीन बार जै जै जै कहा है, यानी तीनों काल में कृपा करें। इस चौपाई में ‘गोसाईं’ शब्द का प्रयोग किया है।
‘गो’ का मतलब है इंद्रियां और ‘साईं’ का मतलब उसके मालिक। जो अपनी इंद्रियों के स्वामी हैं, वे हनुमान हैं। आगे लिखा है, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं। हे हनुमानजी! आप मुझ पर गुरुदेव की तरह कृपा करें। किसे गुरु बनाएं? गुरु बनाना बहुत कठिन काम है। लेकिन यह सत्य है कि दुनिया में कृपा यदि कोई कर सकता है तो गुरु ही कर सकता है। गोस्वामीजी ने कहा है - गुरु न मिले तो न सही।’ उन्होंने तो घोषणा कर दी - ‘कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।’ और कोई गुरु न मिले, तो हनुमानजी को ही गुरु बनाएं। इनसे अधिक कृपालु गुरु हमारे और कौन हो सकते हैं। संपूर्ण श्रीहनुमानचालीसा हमारी गुरु है और जो जीवन में गुरु को महत्व देना चाहते हैं, उन्हें जल को भी उतना ही महत्व देना चाहिए। गुरु जीवन बनाएंगे और जल जीवन बचाएगा।

जो मरघट पर जीते-जी पहुंच गया वो कभी नहीं मरता
मनुष्य को मनुष्य बनाना एक कला है जिसे भारतीय संस्कृति ने बहुत सुंदर तरीके से सजाया है। जन्म और मृत्यु के बीच का जो जीवन है, उसे संवारने की संभावना परमात्मा ने सबको समान दी है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, अपने-अपने तरीके से शक्ति संपन्न होते जाते हैं, लेकिन कुछ बातें सबमें समान होती हैं। इनमें से एक है भीतरी अशांति। सांसारिक रूप से समर्थ और असमर्थ दोनों ही तरह के लोग भीतर से समान रूप से अशांत पाए जाते हैं। इसलिए अध्यात्म जीवन में जरूरी हो जाता है। अपने भीतर उतरते ही आदमी एक ऐसे निराकार रूप से परिचित होता है जिसका नाम परमात्मा है।
जो अपने भीतर के भगवान से परिचित हो जाता है, उसके बाहर का मामला बदल जाता है और यहीं से मनुष्य, मनुष्य बनने लगता है। कुछ लोग एक बार गुरुनानक को ढूंढ़ रहे थे। पता लगा वे मरघट की ओर गए हैं। सब चौंक गए। नानक जीते-जी वहां क्यों गए? नानक का जवाब था - जो मरघट पर जीते-जी पहुंच गया, फिर वह कभी नहीं मरता। नानक की बात आध्यात्मिक लगती है, पर शहीद भगतसिंह जैसे लोगों ने इसी आध्यात्मिक दर्शन को जीवन में क्या गजब उतारा है। कोई फांसी का फंदा भगतसिंह को नहीं मार सका। हम अपने भीतर उतरकर अपने परमात्मा से परिचित होते ही जीवन की बाहरी परिस्थितियों के नए अर्थ जान लेंगे। थोड़ी देर ध्यान करें, स्वयं का और ऐसे महान लोगों का, जो हमें मनुष्य बनना सिखा गए।

रंगों से फूलों की तरह खिल उठता है हमारा जीवन
रंगों से हमारा करीबी रिश्ता है। रंग हमें उत्साहित करते हैं, हमारे मन-मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। रंगों से हमारा जीवन भी फूलों की तरह खिल उठता है। हम अपना आंगन रंगीन फूलों से भरा देखना चाहते हैं। घर की दीवारें, खिड़कियां, पर्दे तक के लिए खास रंग पसंद करते हैं। किसी भी कला में रंगों का सामंजस्य उसकी सुंदरता को कई गुना बढ़ा देता है। रंगों की यही गहराई हमारे जीवन पर उसके प्रभाव को व्यक्त करती है। धर्म में भी रंगों की मौजूदगी का खास उद्देश्य है।
रंगों के विज्ञान को समझकर ही हमारे ऋषि-मुनियों ने धर्म में रंगों का समावेश किया। पूजा के स्थान पर रंगोली बनाना रंगों के मनोविज्ञान को भी प्रदर्शित करता है। कुंकुम, हल्दी, अबीर, गुलाल, मेहंदी के रूप में पांच रंग तो हर पूजा में शामिल हैं। धर्म ध्वजाओं के रंग, तिलक के रंग, भगवान के वस्त्रों के रंग भी विशिष्ट रखे जाते हैं, ताकि धर्म-कर्म के समय हम उन रंगों से प्रेरित हो सकें। हमारे अंदर उन रंगों के गुण आ सकें। सूर्य की किरणों में सात रंग हैं, जिन्हें वेदों में सात रश्मियां कहा गया है।
सूर्य किरणों से मिलने वाली रंगों की ऊर्जा हमारे शरीर को मिले, इसके लिए ही सूर्य को अघ्र्य देने का धार्मिक विधान है। हमारे शरीर के सात चक्र हैं, जो ग्रहों से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। इसके लिए ज्योतिषी रत्न धारण करने के लिए कहते हैं। इस तरह रंग हमारे अंदर ऊर्जा का संचरण करते हैं। रंगपंचमी का मतलब ही यह होना चाहिए कि रंगों के प्रभाव से आंतरिक रूपांतरण हो सके।

हम ही नहीं, हमारे भीतर परमात्मा भी पैदा हुआ
ज्यादातर लोग जन्मदिन की तारीख याद रखते हैं कि हम इस दिन पैदा हुए। थोड़े-बहुत लोग अपने माता-पिता को याद कर लेते हैं। पर बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो यह याद रखते होंगे कि हमें पैदा किया है परमात्मा ने और उस दिन हमारे भीतर परमात्मा भी पैदा हुआ। इस बात को अपने हर जन्मदिन पर जरूर याद रखें। हमारे साथ वह भी उतरा है इस संसार में। गंगा की लहरों को देखते हुए हम महसूस कर सकते हैं कि पानी और लहर अलग-अलग हैं, लेकिन फिर भी एक हैं। ऐसे ही हम और परमात्मा हैं। भीतर के परमात्मा से परिचित होने के लिए हमें बाहर एक सुविधा दी गई है, वह है प्रकृति। बाहर जितना हम प्रकृति से परिचित होंगे, भीतर हमें परमात्मा से मिलने में उतनी ही सुविधा होगी।
यह शरीर पंच तत्वों से बना है। आज अग्नि तत्व की बात करें। हमारी संस्कृति में यज्ञ का विधान इसीलिए है कि समूचे जीवन को यज्ञमय बना दें। यज्ञ में जब समिधा डाली जाती है तो अग्नि पूरी तरह निष्पक्ष रहती है। यज्ञ से गुजरकर हम प्रकृति के प्रति अनुशासित हो जाएंगे और हम परमात्मा के सही स्वरूप को जान सकेंगे। गौतमबुद्ध ने कहा था कि जिस दिन मैं आध्यात्मिक अनुशासन से भीतर उतरा, उसी दिन पता लगा कि दृष्टि निर्मल हो चुकी है। अब परमात्मा दिख नहीं रहा, अनुभव हो रहा है और इस अनुभव का नाम समाधि है। तो समझ लें अपने जन्मदिन पर हमारे भीतर, हमारे साथ जिसने जन्म लिया है उसकी अनुभूति का सुंदर अवसर न गंवाएं।

प्रकृति की शक्ति से टकराने पर दिखेंगे जापान जैसे दृश्य
शक्ति सभी के पास होती है। महत्वपूर्ण यह है कि उसका उपयोग कैसे और कब किया जाए? मनुष्य से मनुष्य की शक्ति टकराए तो परिणाम उतने घातक नहीं होते, पर जब मनुष्य प्रकृति की शक्ति से टकराता है, तब हमें जापान जैसे दृश्य दिखते हैं। तीन तरह की शक्तियां बताई गई हैं - शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। इनमें मानसिक शक्ति को स्थिर करना सबसे जरूरी है।
शारीरिक शक्ति पर नियंत्रण सामाजिक मर्यादा, मनुष्य की सीमाओं के कारण सरल होता है। लेकिन मानसिक शक्ति का नियंत्रण इसलिए कठिन है कि यह नजर नहीं आती है। यदि मानसिक शक्ति नियंत्रित है तो हमारा अगला कदम होगा हम आत्मिक शक्ति के केंद्र में उतर जाएंगे, बल्कि हमारी मानसिक शक्ति वहां फंेक देगी और आत्मिक शक्ति के क्षेत्र में आलोचना के केंद्र बदल जाएंगे। इसलिए मानसिक शक्ति के नियंत्रण में सदैव जागरूक रहें। जैनमुनि प्रज्ञासागरजी से किसी ने पूछा - धर्म करने का सबसे अच्छा समय कौन-सा है?
उनका जवाब था - आज, अभी, इसी समय। फिर उनसे पूछा गया - पाप करने का वक्त? उनका जवाब था - कभी-कभी, किसी वक्त। बात गहरी है। मानसिक शक्ति का सदुपयोग आज, अभी, जब भी मौका मिले करते रहें और शारीरिक शक्ति का उपयोग कभी-कभी, किसी वक्त करें। इसी का अगला कदम होगा आत्मिक शक्ति तक पहुंच जाना। यहीं से सारी क्रियाएं बदल जाएंगी और सांसारिक उपलब्धियों के अर्थ भी।

आज आदमी अपने होने की भी मार्केटिंग कर रहा है
आज के जीवन में मिलना-जुलना मार्केटिंग कहलाता है। इस समय तो आदमी को खुद के होने की भी मार्केटिंग करनी पड़ रही है। पिता को पिता, माता को माता होने की। पति और पत्नी अपने-अपने रिश्तों की मार्केटिंग कर रहे हैं। विचार करिए क्या खुद से कभी खुद की मार्केटिंग की है? आध्यात्मिक जगत में इसे अपना ही साक्षात्कार करना कहते हैं। जो स्वयं साक्षात्कार संपन्न होता है, वह अपनी अच्छाई और कमजोरियों से भलीभांति परिचित हो जाता है। तब न तो दूसरों में दोष देखता है और न स्वयं में अहंकार पैदा करता है। जितना हम स्वयं के साक्षी होते हैं, उतना जान जाते हैं कि अहंकार कुछ नहीं होता। असल में अहंकार क्रिएट किया जाता है। जब हम यह जान जाते हैं कि अहंकाररहित होने पर परमात्मा मिलता है, तब धीरे-धीरे अहंकार का निर्माण बंद कर देते हैं। यूं समझ लें, साइकिल चलती है पैडल लगाने से। आप पैडल लगाना बंद कर दें, थोड़ी देर बाद जाकर साइकिल रुक जाएगी। अहंकार का मामला ऐसा ही है। हम स्वयं पद, प्रतिष्ठा, महत्वाकांक्षाओं का पैडल लगातार लगाते रहते हैं और अहंकार की साइकिल चलती रहती है। निरंतर सक्रियता अहंकार को पसंद है, लेकिन सतत सक्रियता आज के समय में व्यावसायिक जीवन में जरूरी भी है। इसीलिए जो लोग स्वयं का साक्षात्कार कर लेंगे, वे निरंतर सक्रिय रहेंगे। पर सतत सजग रहेंगे कि अहंकार का निर्माण न हो और कर्म के परिणाम भी मिलते जाएं।

भक्ति में मात्रा से कहीं ज्यादा जरूरी है समर्पण
पूजा में जब तक कर्मकांड का भाव होता है, तब तक संख्या का महत्व बना रहता है। इसीलिए कई भक्त अपनी पूजा संख्या के हिसाब से करते हैं। हमने इतने जप किए, इतने तीर्थ किए, हमारे इतने पारायण हो गए। लेकिन भक्ति में संख्या से अधिक समर्पण जरूरी है। तुलसीदासजी संख्या के मामले में हमेशा संकोच में रहे हैं। हनुमानचालीसा में एक जगह उन्होंने ऐसी पंक्ति लिखी है कि भक्तजन संख्या में उलझ जाते हैं। 38वीं चौपाई में उन्होंने लिखा है- जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महा सुख होई।। जो श्रीहनुमानचालीसा का सौ बार पाठ करता है वह सारे बंधनों और कष्टों से छुटकारा पा जाता है और उसे अपार सुख की प्राप्ति होती है।
वे कहते हैं सौ बार नहीं कर सकें तो कम से कम तीन या पांच बार पाठ करें, चाहें तो ग्यारह बार करें। लेकिन फिर नियम से करें। जप करिए, पाठ करिए, आवृत्ति होगी और यही आवृत्ति आपके जीवन को सही दिशा देगी, धन्य कर देगी। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मत है कि ‘श’ को अवधि भाषा में ‘स’ उच्चरित किया जाता है। अत: सत का अर्थ सात या सौ भी है। प्रतिदिन सात बार भी इसका पाठ किया जा सकता है। एक संत ने बताया था, सत बार का सबसे सुंदर अर्थ यह है कि जैसे नींबू को पूरी तरह निचोड़ने पर अंतिम बूंद को सत कहते हैं, उसी प्रकार अपनी भक्ति को पूरी तरह से समर्पित करें, निचोड़ दें और फिर जो अंतिम बूंद की तरह सत हो, उस भाव से हनुमानचालीसा का पाठ करें।

जीवन में प्रेम से ही सारा दृष्टिकोण व्यापक होता है
जीवन का एक सच यह भी है कि आदमी अपनों के ही कारण अपनों से दूर हो जाता है। जब ऐसा हो तो फिर सारी प्रकृति अपनी हो जाती है। जीवन में प्रेम आते ही सारा दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है। इस व्यापकता का नाम ही धर्म का सत्य स्वरूप है। सच्चे धर्म का संबंध मनुष्य के सत्य के जानने से है। सच्चे धर्म की खोज मनुष्य के भीतर जो छुपा है, उसे पहचान लेने से है। मनुष्य के भीतर बहुत कुछ है। यदि नदी की तली में चट्टानें नहीं होतीं तो उसकी धाराओं में कोई संगीत भी नहीं होता। इसी तरह मनुष्य के भीतर गहराई में उतरने पर अपनी ही पहचान का संगीत सुनाई देने लगता है। वह संगीत एक दफा पहचान लिया जाए तो वही पहचान अंत में परमात्मा की पहचान सिद्ध होती है।
एक संन्यासी सारी दुनिया की यात्रा करके भारत लौटकर आया था। उस राज्य के राजा ने संन्यासी से पूछा - क्या कहीं परमात्मा को खोज सके? संन्यासी ने उत्तर दिया - मैं इतना जान पाया हूं कि जिस दिन हम यह जान लेते हैं कि हम कौन हैं, उसी दिन हम परमात्मा को जान पाएंगे। न वह मूर्तियों में है, न वह नाम में है, न चित्र में है, न रूप में। यह सब तो प्रवेशद्वार हैं, उन्हें लांघकर अंदर पहुंचना है। अध्यात्म मार्ग पर मन बहाने ढूंढ़ लेता है और बहाने वे कीलें होती हैं, जिनका उपयोग असफलता का मकान बनाने में होता है। फिर चाहे वह असफलता भौतिक जीवन में हो या भक्ति के जीवन में।

ईश्वर भक्त जनहित और परहित की बात सोचें
जीवन में भक्ति उतरते ही हमें पहला काम यह करना चाहिए कि हम जनहित और परहित की बात सोचें। लेकिन होता यह है कि जो लोग धार्मिक हैं, वे स्वहित में डूबे हैं। यदि हम ईश्वर के निकट पहुंच गए हैं तो सबसे पहले काम यह करना है कि परहित में लगें। लेकिन लोग सेवा और परहित की आड़ में स्वार्थ सिद्ध करने में लग जाते हैं और यह भ्रम पाल लेते हैं कि हम परमात्मा की सेवा कर रहे हैं, इसलिए कबीर ने हमको एक जगह सावधान किया है कि ‘जगसु प्रीत न कीजिए।’
परोपकार करें संसार पर, लेकिन संसार से प्रीत न करें। संसार बाहर है और मन भीतर। हम बाहर के संसार से प्रीत लगा बैठते हैं तो वह संसार फिर अंदर आ जाता है। जब वह संसार अंदर आ जाता है तो सारी हलचल अंदर होने लगती है। इसलिए दो आदमियों का भी मिलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। जब दो आदमी मिलें तो दो संसार मिलते हैं क्योंकि दोनों ने अपने भीतर संसार बैठा रखा है और लड़ाइयां शुरू हो जाती हैं। आसमान देख पक्षी कहते हैं - काश! मैं आसमान होता। आसमान कहता है - काश! मैं पक्षी होता। लेकिन यदि मन में संसार न होकर केवल प्रेमभाव हो तो बाहर होने वाले परोपकार भी पूजा हो जाएंगे और यही धर्म का सही स्वरूप है। इसलिए जीवन में जब भक्ति उतरे तो सांसारिक कार्यो को छोड़ना नहीं है। भक्ति कहीं भी डायवर्शन नहीं कराती। वह कहती है जो कर रहे हो वो करो। बस करने का तरीका बदल जाएगा।

अहिंसक होइए यानी स्वयं में संतुष्ट होना सीखिए

धर्म के साथ कर्म को जोड़ते हुए उसके बहुत सारे रूप प्रदर्शित किए जाते हैं। धर्म को हम बुद्धि और हृदय से हीन कर्मकांड से इतना अधिक जोड़ चुके हैं कि हमारे महापुरुषों के आदर्श वाक्य भी हमें याद नहीं रहे। धर्म विवेकशून्य हो जाता है तो उसमें जड़ता आ जाती है। धर्म को समझने के बाद जीना चाहिए। समझ लें और यदि उसे न जिएं तो भी मामला अधूरा रह जाएगा और बिना समझे जीने लगे तो भी मामला अधूरा रहेगा। कहा जाता है कि मेहमूद गजनवी ने गायों को आगे रखकर उनकी आड़ में शिव मंदिर पर हमला किया। अब गायों को आगे देखकर मंदिरों की रक्षा करने वाले गोहत्या से बचना चाहते थे, अत: हमले का ठीक से सामना नहीं कर पाए और मंदिर लूट लिया गया।
यह धर्म का भ्रमित स्वरूप है। यदि आपने सही परमात्मा को पा लिया है तो फिर धर्म का स्वरूप निखर जाएगा। जब परमात्मा का परिचय जीवन में आता है तो आदमी छोटी बातों में नहीं उलझता। अहिंसा को धर्म से जोड़ा गया है। यहीं से अहिंसा धर्म में भ्रम की शुरुआत हो जाती है। संसार में दो तरह के कामी हैं। एक सांसारिक हैं, दूसरे धार्मिक। जो सांसारिक कामी हैं, वे धन, पद और प्रतिष्ठा इकट्ठी कर रहे हैं और जो धार्मिक कामी हैं, उनमें से कुछ साधु हो गए हैं, मुनि हो गए हैं, फकीर हो गए हैं। बस कामना की आवाज बदल गई है, लेकिन कामना नहीं बदली और यह एक तरह की हिंसा है।

भला इंसान वह है जिसके जीवन में भक्ति उतर गई
धार्मिक कार्यो की इस समय भरमार है। तीर्थ स्थानों पर भीड़ बढ़ गई है। इन सबसे आदमी धर्म-प्रेमी तो होगा, लेकिन उसे भक्त बनने के लिए कुछ कदम भी बढ़ाने होंगे। अब हम यह समझ लें कि भक्ति का संबंध समग्र जीवन से है। एक-एक क्षण इसमें देना पड़ेगा, तभी आदमी भक्त होगा। कोई यह सोच ले कि एक घंटा पूजा कर लें, दस मिनट मस्जिद हो आएं, इबादत कर लें, गिरिजाघर जाकर प्रार्थना या गुरुद्वारे जाकर अरदास कर लें। वह यह सोच ले कि मैं भक्त हो गया तो यह गलत है। एक घंटे की पूजा से महत्वपूर्ण यह है कि 23 घंटे हम क्या करते हैं? यदि 23 घंटे विपरीत हैं तो जो एक घंटा भक्ति में बीता है वह भी झूठ है।
‘सजे-धजे संसार में मिलता सब सामान, मुश्किल है बस ढूंढ़ना एक भला इंसान।’ भला इंसान यानी जिसके जीवन में भक्ति उतर गई हो। जो एक घंटे मंदिर में है, वही 23 घंटे जीवन में मंदिर के बाहर रहना चाहिए। इसलिए यदि हमें भक्त रहना है तो होश में रहना होगा। भक्ति व्यक्ति का मूल्य मांगती है। इसलिए इंसान को भक्ति के साथ अंदर की यात्रा करनी चाहिए। जब एक बार हम अंदर की यात्रा कर लेंगे तो भक्ति के मायने समझ में आएंगे। सुख-दुख, अच्छा-बुरा, स्वर्ग-नर्क यह सब भक्ति से समझ में आ जाएगा। भक्ति की यात्रा इन चार शब्दों में पूरी हो सकती है - सेवा, सत्य, परोपकार और अहिंसा। यह चार कदम उठा लें तो हम परमात्मा तक पहुंच जाएंगे और सही भक्ति को पा लेंगे।

भीतरी ऊर्जा को नीचे से ऊपर उठाने के दिन हैं नवरात्र
समय बदलता ही है। फिर यह दौर तो और भी तेजी से बदल रहे वक्त का है। हिंदुओं ने नव-संवत्सर नाम दिया है इसे। चैत्र की नवरात्र आरंभ होगी आज से। अपने भीतर की शक्ति के सदुपयोग के लिए परमात्मा ने कालखंड को भी हमारा सहयोगी बनाया है। ये नौ दिन अपने भीतर की ऊर्जा को सबसे नीचे के चक्र से ऊपर उठाने के दिन हैं। जब हम गलत दिशा में चल रहे होते हैं तो मन हमें नहीं रोकता। मन को पतन, अनुचित और अप्रिय में बड़ी रुचि होती है। वह समर्थन देता है गलत के लिए। हमें सही से हटाने के मन के अपने तरीके हैं। वह प्रोत्साहन देता है, चलो कुछ गलत करें। इसीलिए इन दिनों में अपनी शक्ति को जाग्रत करें, ताकि हम जान सकें कि जब मन कहे कि यह सही है तो हम गहरे उतरकर विश्लेषण कर लें, क्या वास्तव में यह सही है या नहीं, क्योंकि मन का सही परमात्मा के मार्ग का गलत होगा और मन जिसे गलत कहेगा, उसके सही होने का भी अध्ययन करने की शक्ति नवरात्रि में मिलेगी। ऊर्जा मूलाधार चक्र यानी काम-केंद्रों पर स्वभावत: पड़ी हुई है। इसे नाभि के नीचे स्वाधिष्ठान चक्र, फिर मणिपुर, अनाहत (हृदय), विशुद्ध (कंठ), आज्ञाचक्र यानी दोनों भौहों के बीच लाकर महसूस करना है कि शक्ति का हमने सदुपयोग किया और जीवन ऊर्जा को ऊपर ले आए। सारा व्यक्तित्व निखर जाएगा, यदि ऊर्जा काम केंद्रों से मुक्त होकर ऊपर उठ गई। चलिए स्वयं को निर्दोष बनाने के लिए ये नौ दिन समर्पित कर दें।

अर्थ समझकर दिल से पंक्तियां बोलें तो नतीजे हों सुंदर

अधिकांश लोग पूजा-पाठ में मंत्रों या शब्दों को रट लेते हैं। यह सही है कि श्रद्धा से पढ़े हुए शब्द अपना असर करते हैं, लेकिन अर्थ समझकर दिल से यदि पंक्तियां बोली जाएं तो परिणाम और सुंदर होंगे। हनुमानचालीसा की ३९वीं चौपाई में तुलसीदासजी कहते हैं - ‘जो यह पढ़ै हनुमानचालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा।’ ऐसा नहीं लिखा है कि जो यह ‘बोले’, लिखा है ‘पढ़ै’, क्योंकि पुस्तक खोलकर पढ़ने का मतलब है कि नेत्रों से पढ़ना ही पड़ेगा। तुलसीदासजी यहां ऐसा लिख सकते थे कि जो यह ‘सुने’ हनुमानचालीसा। ऐसा होता तो लोगों को और आराम मिल जाता।
किसी को सामने बिठा लेते कि चलो सुनाओ पांच बार और वो सुना देता। हम सुन लेते, लेकिन तुलसीदासजी ने स्पष्ट लिखा है कि जो यह ‘पढ़ै’ हनुमानचालीसा। पढ़ना खुद को पड़ता है, सुना कोई दूसरा भी सकता है। ‘पढ़ै’ शब्द का एक और गूढ़ अर्थ है। यदि हम जप भी करें तो हृदय की पुस्तक पर उस जप को पढ़ते रहें। मन की पुस्तक खुली हुई है और हम उसे पढ़ रहे हैं, तो आनंद अलग ही आएगा। इसलिए गोस्वामीजी ने कहा कि पढ़ना ही पड़ेगा। आगे वर्णन आया है ‘होय सिद्धि साखी गौरीसा।’ तुलसीदासजी ने प्रमाण दिया ‘साखी गौरीसा।’ गौरीसा का अर्थ है शंकर व पार्वतीजी। इनकी शपथ ली गई है, क्योंकि इन्हें श्रद्धा-विश्वास का प्रतीक माना गया है। कहने का अर्थ है कि श्री हनुमानचालीसा श्रद्धा और विश्वास के साक्ष्य में पढ़ा जाए।

आत्मानुभव के लिए एक सरल सीढ़ी के समान है मौन
अध्यात्म में एक प्यारा शब्द है आत्मानुभव। यह एक स्थिति है। यहां पहुंचते ही मनुष्य में साधुता, सरलता, सहजता और समन्वय की खूबियां जाग जाती हैं। नवरात्र में बहुत से लोग मौन धारण करते हैं। आत्मानुभव के लिए मौन एक सरल सीढ़ी है। भीतर घटा मौन बाहर वाणी के नियंत्रण के लिए बड़ा उपयोगी है। जैसे ही वाणी नियंत्रित होती है, हम दूसरों के प्रति प्रतिकूल शब्द फेंकना बंद कर देते हैं। शब्द भी भीतर से उछाल लेते हैं और बाहर आकर निंदा के रूप में बिखरते हैं। ऐसे शब्दों का रुख अपनी ओर मोड़ दें, अपने ही विरोध में कहे गए शब्द आत्म-विश्लेषण का मौका देंगे। जितना सटीक आत्म-विश्लेषण होगा, उतना ही अच्छा आत्मानुभव रहेगा। मन को आत्म-विश्लेषण करना नापसंद है, इसलिए वह हमेशा अपने भीतर भीड़ भरे रखता है।
विचारों की भीड़, मन को प्रिय है। फिर विचारों की भीड़ तो इंसानों की बेकाबू भीड़ से भी ज्यादा खतरनाक होती है। ऐसा भीड़ भरा मन मनुष्य के भीतर से तीन बातों को सोख लेता है - प्रेम, चेतना और जीवन। प्रेमहीन व्यक्ति सिर्फ स्वार्थ और हिंसा के निकट ही जिएगा। चेतना को तो भीड़ भरा मन जाग्रत ही नहीं होने देता। भीतर इतना शोर होता है कि इस विचार-भीड़ की चेतना की आवाज ही सुनाई नहीं देती। यहीं से एक बे-होश व्यक्ति जीवन चलाने लगता है। दरअसल हमारा जीवन एक कृत्य न होकर धक्का भर है। होश में आने के लिए नवरात्र से अच्छा समय नहीं मिलेगा।

विकास की छलांग लगाएं पर उसका आधार ध्यान हो
कुछ संयोग जीवन को और भी सुंदर बना देते हैं। जैसे धर्य के साथ आशा को बनाए रखना। देखा गया है कि कुछ लोग मजबूरी को धर्य समझ लेते हैं, वहीं अधिकांश ने तो अपने आलस्य को ही धर्य की संज्ञा दे रखी है। अधीर लोग जल्दी उदास हो जाते हैं। ध्यान रखिए, उदासी भी पागलपन के शुरुआत की हल्की-सी थाप है, पहली कड़ी है। पूरे पागलपन का तो फिर भी इलाज संभव है, पर आधे पागलपन का क्या करेंगे? इस अर्ध स्थिति का इलाज दुनियाभर के मनोचिकित्सक भी नहीं कर सकते। हां, इसका इलाज एकमात्र इलाज अध्यात्म के पास है।
मन के पार होने की कला सीख जाइए। यह भी धर्य से आएगी। इसके लिए ध्यान की क्रिया काम आएगी। ध्यान लगा या नहीं, इस पर ज्यादा जोर न दें। इसमें परिणाम से अधिक क्रिया महत्वपूर्ण है। बस इतना काफी है कि आप ध्यान की क्रिया भर करें। धर्य से ध्यान करें, फिर ध्यान से धर्य उपजेगा, यह एक कड़ी की तरह है। इससे वह और उससे यह पा जाना ही ध्यान तथा धर्य होगा। अपने धर्य को फिर आशा से जोड़ दें।
आशा बनाए रखें कि जीवन में जो भी महान है, वह मिलकर रहेगा। नवरात्र में एक बात तय कर लें, वर्षभर विकास और प्रगति की जो छलांग आपको लगानी है, उसका आधार ध्यान यानी मेडिटेशन रहे। धर्य और आशा की मजबूत जमीन से उछला हुआ मनुष्य हर उस आसमान को मुट्ठी में भर सकेगा, जिसे संसार ने सफलता का नाम दिया है।

बिना प्रेम के परिवार चलाया जा सकता है, बसाया नहीं
इस समय दो तरह के दांपत्य चल रहे हैं। पहला अशांत दांपत्य और दूसरा असंतुष्ट दांपत्य। जो पति-पत्नी नासमझ हैं उनके उपद्रव, खुद उनके सामने और दुनिया के आगे जाहिर हो जाते हैं। वे अपनी अशांति पर आवरण नहीं ओढ़ा पाते। दूसरे वर्ग का दांपत्य वह है, जिसमें पति-पत्नी थोड़े समझदार हैं, लिहाजा इस अशांति को ढंक लेते हैं या उपद्रव को खिसका भर देते हैं।
ऐसा दांपत्य असंतुष्ट दांपत्य है। ये असंतोष स्त्री या पुरुष को गलत मार्ग पर जाने के लिए प्रेरित करता है। जिन्हें सचमुच घर बसाना हो, वे चमड़ी की तरह एक बात अपने से चिपका लें और वह है प्रेम। बिना प्रेम के परिवार चलाया जा सकता है, बसाया नहीं जा सकता। इस समय ज्यादातर लोगों की गृहस्थी शोषण और उत्पीड़न पर चल रही है। पति-पत्नी में से जो ज्यादा समझदार है, वह इसे व्यवस्थित ढंग से करता है और कम समझदार अव्यवस्थित तरीके से निपटाता है। मूल कृत्य में कोई अंतर नहीं है।
प्रेम यदि आधार बनेगा तो जो पक्ष अधिक बुद्धिमान व समझदार होगा, वह अपने जीवनसाथी को भी वैसा बनाने का प्रेमपूर्ण कृत्य करेगा। गुण, कर्म और स्वभाव की समानता से जोड़े बन जाएं, यह किस्मत की बात है, वरना अपनी समूची सहनशक्ति, उदारभाव और माधुर्य को अपने जीवनसाथी के साथ संबंधों में झोंक दें और इसके लिए जो ताकत लगती है, उसके शक्ति संचय के लिए ये नौ दिन काम आएंगे। नामभर नवरात्र है, पर इसमें गजब का उजाला है।

कुंठा से बाहर निकलने के लिए ये दिन नौ रास्तों की तरह हैं
अपनी निजता के निकट जाने के सबसे सुंदर अवसर नवरात्र से हम गुजर रहे हैं। अपनी गरिमा से परिचित होने के बढ़िया दिन हैं यह। जिंदगी जीते-जीते हम यह भूल जाते हैं कि हमारे जीवन में जो महत्वपूर्ण था, वह जन्मजात था। अभी गलती यह कर रहे हैं कि इस खास को, महत्वपूर्ण को बाहर दुनिया में ढूंढ़ रहे हैं। भीतर टटोलिए, खोई हुई वस्तु की तरह हमारा अपना होना कहीं पड़ा हुआ है।
जन्म हुआ है तो संसार में रहना भी पड़ेगा। संसार जितना देता है, उससे ज्यादा ले लेता है। इसलिए जो हमारे लिए जन्मजात महत्वपूर्ण है, उस पर नजर रखें, खोने न दें और दुनिया में जो खो रहे हैं उसके प्रति जागरूक रहें। एक सवाल उठता है कि ये जन्मजात महत्वपूर्ण है क्या? कौन-सी खास बात हम अपनी पैदाइश के साथ लाए हैं। दरअसल जन्म के साथ हमारे भीतर हमारा परमात्मा भी आया है। उसकी मौजूदगी हमें यह एहसास कराती है कि मालिक कोई और है, हमें तो हुक्म का पालन करना है।
हम सिर्फ माली हैं, बगीचे का मालिक कोई और है। अपनी पहली पहचान ईश्वरीय प्रतिनिधि के रूप में रखें। सारे कर्म, सभी रिश्ते इसी दायित्वबोध के आसपास रहें। स्वार्थ और परमार्थ का संतुलन संसार में बनाना पड़ता है। यदि हम भगवान के प्रतिनिधि हैं, ऐसा जान लें तो फिर हर दिन बेफिक्री से बीतेगा। नवरात्र में इस अनुभूति का अभ्यास सरल हो जाता है। निराशा और कुंठा से बाहर निकलने के लिए ये दिन नौ रास्तों की तरह हैं।

नवरात्र के तप का परिणाम प्रसन्नता होनी चाहिए
आज के समय में कुछ भी पाना हो तो परिश्रम के साथ उत्साह होना जरूरी है। इन दोनों के मेल को तप कहा गया है। तप में खून और पसीना दोनों बहते हैं, लेकिन बाहर नहीं भीतर। अंदर बहाए गए खून से हृदय की शुद्धि होती है और पसीने से मन का स्नान हो जाता है। यह कार्य प्राणायाम से होता है। आठों प्राणायाम जब इस कल्पना से जुड़ जाते हैं कि जीवन ऊर्जा नीचे के चक्र से ऊपर उठ रही है तो धर्य, दृढ़ता, साहस, लगन, स्फूर्ति, उत्साह जैसे लक्षण स्वयं प्रकट होने लगते हैं। नवरात्र के यही परिणाम हैं। अष्टमी इसका चरम है। नवरात्र के तप का परिणाम प्रसन्नता होनी ही चाहिए। अभी तो कुछ लोगों ने रिश्ते, मित्रता, पूजा-पाठ की तरह मुस्कान को भी ढाल बना लिया है। हथियार की तरह इसका इस्तेमाल हो रहा है। आंसुओं को लोगों ने या तो सुखा दिया है या औजार बना लिया है। लेकिन नवरात्र का तप महसूस करने के बाद आई मुस्कान का परिणाम देगा। हमारी मुस्कराहट भीतर के किसी सत्य को उजागर करने वाली होनी चाहिए, न कि एक सौदा मात्र। नवरात्र का तप मुस्कान को होंठों की कसरत नहीं, शुद्ध हृदय की अंगड़ाई बना देता है। आज की प्रोफेशनल लाइफ में हर शख्स अपने आप को बाहर से खूब खुला और भीतर से बंद करके रखता है, लेकिन मुस्कराहट की क्रिया आपको भीतर से खोलेगी, एक कली की तरह खिलाएगी। यही परिश्रम और उत्साह का परिणाम होगा। इसलिए नवरात्र की विदाई में जरा मुस्कराइए।

परिवार प्रबंधन की आचार संहिता बन गईं चौपाइयां
परमात्मा के प्रति प्रेम जगाना हो तो परिवार एक पाठशाला है। रिश्तों में प्रेम एक बीज की तरह है, जिस दिन इसमें अंकुरण हुआ, समझ लें जीवन में परमात्मा की कोपलें फूट पड़ी हैं। जैसे बीज टूटता है, फूटता है, तब वृक्ष बाहर आता है। ऐसे ही परिवार में प्रेम जब बनता है या फूटता है, दोनों ही स्थिति में परमात्मारूपी वृक्ष हाथ लगेगा ही। तुलसीदासजी ने हनुमानजी को केंद्र में रखकर जो चालीस चौपाइयां लिखी हैं, वे परिवार प्रबंधन की आचार संहिता बन गईं। अपनी गृहस्थी में हम अनेक ऐसे प्रयास करते हैं जैसे पानी पर खिंची लकीर। यह चालीसा उन प्रयासों को खाली नहीं जाने देगी। परिवार में होने वाले आमोद-प्रमोद के साधनों को ये तिरयालिस पंक्तियां निष्काम कर्मयोग से जोड़ देती हैं। परिवार में भोग से प्यास जागती है और इस प्यास को योग से बुझाना पड़ेगा। भोग से विषाद होगा और वह योग का आरंभ होगा। योग तक पहुंचने के लिए श्रीहनुमान चालीसा की चौपाइयां सीढ़ियों के समान हैं। गृहस्थी के राग को अनुराग से गुजारकर विराग तक ले जाने के लिए ये चौपाइयां राजपथ हैं। जीवन में कितनी ही भक्ति और भौतिकता हो, इसके संतुलन के सूत्र समाए हैं इस चालीसा में। आज सारे विश्व में इसका महापाठ है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह तो प्रत्येक व्यक्ति की निजता को निखारने का उद्घोष होगा। राष्ट्रीय जागरण के लिए एक आह्वान है, मुरझाए हुए अंत:करण के लिए नवजीवन है।

ईश्वर से साझेदारी हर लिहाज से नफे का सौदा
सबसे बड़ा संतोष है कि आप किसी सद्कार्य में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर लें। भौतिकता सिखाती है कि निजी प्रयासों में निजी लाभ जमकर होना चाहिए। सार्वजनिक लाभ तो उसमें एक बहाना होता है, लेकिन अध्यात्म कहता है, हर निजी प्रयास जब परमार्थ में तब्दील हो तो समझो भक्ति हो गई। ऐसे प्रयासों के प्रति फिर परमात्मा आभार व्यक्त करता है। हमारा व्यक्तिगत संतोष, भगवान का दिया हुआ आभार होता है। गायत्री परिवार के प्राणपुरुष आचार्य श्रीराम शर्मा कहते थे - ईश्वर से साझेदारी करो तो हर लिहाज से नफे का सौदा होगा। इसमें हम ईश्वर के प्रतिनिधि बनेंगे और हमारा हर कर्म निष्काम हो जाएगा। महापाठ की अनुभूति यही होनी चाहिए कि बाबा हनुमंतलाल हमारे हनुमान होकर हमारे साझेदार हो गए। राष्ट्र को भ्रष्टाचार और अपराध से मुक्त कराने के लिए भी ऐसी पार्टनरशिप बड़ी उपयोगी रहेगी। इसे कहेंगे ईश्वर की मर्जी से चलना। क्यों गलत करें, क्या सही करें, के प्रश्न जब मन में उठते हैं तो हमारा साझेदार उनके उत्तर देता चलता है। विशेष बात यह है कि ईश्वर केवल प्रश्नों के उत्तर ही नहीं देता, बल्कि जीवन के रहस्यों को खोलता भी है। और सच यह है कि जीवन प्रश्नों का उत्तर नहीं, एक रहस्य है। इस रहस्य को जितना जानेंगे, जीने का आनंद उतना बढ़ जाएगा। आनंद उन सबके प्रति आभार व्यक्त करने में है, जिन्होंने महापाठ का बीज रोप दिया तथा हनुमानजी को अपना साझेदार घोषित कर गए।

मशीनी मिजाज के कारण ही संवेदना खो रहे रिश्ते
जीवन यांत्रिक हो जाए और मनुष्य मशीन बन जाए तो परिणाम भले ही शानदार हों, पर उस सुख में शांति जाती रहेगी। आज शिक्षा और कॅरियर के हर स्तर पर इस बात की तैयारी की जा रही है कि व्यक्ति कुशल हो, योग्य हो, लेकिन चीजों की तरह उपयोगी और आज्ञाकारी रहे। हर हाल में सफल होना है, यह उम्मीद हो और इसकी पूर्ति के लिए प्रयासों की पराकाष्ठा भी रहे। लेकिन असफल होने पर प्राणों की बाजी लगा देना समझदारी नहीं होगी। सफलता का असली मजा वो लोग ज्यादा उठा सकेंगे, जो कभी-कभी असफल भी रहे होंगे। हर बार की सफलता खुशी से ज्यादा भय दे जाएगी। सफलता की जिम्मेदारी यदि जाग्रत आत्मा के कंधे पर होगी तो मनुष्य मशीन होने से बच जाएगा। भौतिक समस्याओं के आध्यात्मिक उपचार करने से मनुष्य की निजता खंडित नहीं होती और जीवन यांत्रिक होने से बच जाता है। दुनिया आपको योग्य मशीन बनने के लिए मजबूर करेगी। मशीन को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उसे चलाने और बंद करने के लिए हाथ कौन से हैं, लेकिन मनुष्य की गति को प्रोत्साहित करने के लिए और आवेग को शांत करने के लिए रिश्तों का स्पर्श जरूरी होता है। शायद इसी मशीनी मिजाज के कारण रिश्ते अपनी संवेदना खोते जा रहे हैं। तेज इंसानी दौड़ में रिश्ते बाधा और अपने लोग बोझ लगने लगते हैं। हर हाल में जीत और सुख पाने के लिए रोबोट न बनें, अपनी निजता को जानें और उसे बचाए रखें।

क्रोध किसी भी शक्ल में आए परिणाम खतरनाक ही देगा
क्रोध में भी एक शक्ति होती है, लेकिन यह भीतरी तेज को कम कर जाती है। कुछ लोग क्रोध को अपने संकल्प से जोड़ देते हैं। अब तो ऐसा होना ही है। समझा जाता है कि यह कुछ कर गुजरने की जिद है, पर होता है वह क्रोध। क्रोध किसी भी शक्ल में आए, परिणाम खतरनाक ही देगा। इसका लाभ उठाने का एक ही सही तरीका है। इसे गुलाम बनाया जाए। हमारी मर्जी पर यह नहीं, इस पर हमारी इच्छा हावी हो। यह हमारे आदेश से आए और निर्देश से चला जाए। इसकी खुद की घुसपैठ रोकी जानी चाहिए। जब कभी भी क्रोध आने की संभावना हो तो तत्काल अपनी चेतना से जुड़ जाएं। इसके दो फायदे होंगे। पहला तो यह कि ऐसे में हमारा क्रोध होशपूर्ण रहेगा और दूसरी बात यह होगी कि इस क्रोध में भी करुणा जागी रहेगी। करुणा और क्रोध का कॉम्बिनेशन एक श्रेष्ठ आक्रामक प्रबंधन बन जाएगा। करुणा संतुलन का तत्व है। क्रोध को अति से रोकेगा और अक्रोध की अति पर जाने से भी बचाएगा। अक्रोध की अति किसी भी व्यवस्था को अनुशासनहीन बना देगी तथा क्रोध की अति भीतरी नियंत्रण को ध्वस्त कर जाएगी। करुणा बिना होश के नहीं जागती। होश में रहने के लिए सतत प्रयास करने पड़ेंगे। कुछ समय स्वयं से जुड़ना होगा। ध्यान की क्रिया का एक परिणाम करुणा भी है। इसीलिए मेडिटेशन करने वालों का क्रोध और अक्रोध कभी खाली नहीं जाता। वह दोनों ही स्थिति में शुभ परिणाम देता है।

संतुलन का झरना है भगवान महावीर की झलक में
जीवन में आर्थिक, मानसिक और शारीरिक विकास तीनों एक साथ चलने चाहिए। इसके लिए जीवनशैली में सत्संग और ध्यान का संतुलन बनाकर उतारा जाए। भगवान महावीर की प्रतिमा को देखें। वे हर दिशा से और दृष्टि से समाधि में नजर आते हैं। उनकी प्रतिमाओं में स्त्री और पुरुष की सारी विशेषताओं का संतुलित रूप देखने को मिलेगा। उनके व्यक्तित्व की ऊंचाई और स्थिति की गहराई उनकी प्रतिमा देखकर भी समझी जा सकती है। जो शांति हिमालय में मिलती है, वह शांति भगवान महावीर की प्रतिमा को लगातार देखने से प्राप्त हो सकती है। उनके चेहरे के भाव में तो पूरी तरह डूब जाने का आमंत्रण है। ये प्रतिमाएं समाधि और सत्संग दोनों का प्रतीक हैं। इसीलिए जब उनकी प्रतिमा के मुखड़े को गौर से देखो तो उसमें स्त्रैण सरलता तथा पुरुषत्व का प्रभाव एक साथ दिखता है। सत्संग के लिए स्त्री का चित्त होना जरूरी है। स्त्रियां समर्पण को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा अच्छे से जानती और जीती हैं। सत्संग बिना समर्पण भाव के नहीं होता। संभवत: इसी कारण सत्संग में महिलाएं अधिक संख्या में पाई जाती हैं। पुरुष का सत्संग भी कैलकुलेटेड होता है। वह जल्दी समाधि में जाना चाहेगा। उसे थोड़ा सत्संग, ज्यादा समाधि चाहिए। स्त्री को ज्यादा सत्संग, कम समाधि चाहिए, लेकिन असली उपलब्धि दोनों के संतुलन में है और भगवान महावीर की हर झलक ऐसे ही संतुलन का झरना है।

हनुमान जयंती का अर्थ है देवत्व की अनुभूति करना
परमात्मा के प्रति हम जो पुकार लगाते हैं, हनुमानजी उसे प्रभावी बनाते हैं। हनुमान जयंती का सीधा-सा अर्थ है एक ऐसे देवत्व की अनुभूति करना, जो हमें हमारे होने का सही अर्थ बता दे। इन्हें केवल पत्थर पर लपेटे हुए सिंदूर की मूर्ति न माना जाए। ये जीवन के पांच महत्वपूर्ण तत्वों में से एक वायु तत्व है। अत: वैज्ञानिक रूप से इनकी उपस्थिति हमारे जीवन को दिव्य बनाती है। इस समय परिवार बचाना भी हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है। हनुमानजी से जुड़ते ही हमारे हाथ में परिवार बचाने के चार सूत्र लग जाते हैं। पहला है भूषा, दूसरा भाषा, तीसरा भोजन और चौथा भजन। सुख-सफलता के साथ परिवार में शांति भी बनी रहे, इसके लिए यह चार सूत्र बड़े उपयोगी हैं। भूषा का अर्थ है ड्रेस कोड। हमारी पहचान क्या हो? सच तो यह है कि हम कोई भी आवरण न ओढ़ें। हमारी सहजता ही हमारी भूषा होनी चाहिए। दूसरा सूत्र है भाषा बचाई जाए। परिवार की भाषा प्रेम की भाषा होनी चाहिए। भोजन का अर्थ शाकाहार ही नहीं है, बल्कि हम दुर्गुणों का, अपराध और भ्रष्टाचार से अर्जित की हुई आय का भोजन अपने घरों में न लाएं। यही सीख हनुमानजी ने विभीषण को दी थी। चौथा सूत्र है भजन, इसका अर्थ है घर-परिवार प्रतिष्ठा से अधिक चरित्र पर टिकें। हमारी हर गतिविधि इतनी निष्काम हो कि हम निज हित के साथ परोपकार लगातार करते रहें। परमात्मा ने इसे ही भजन माना है। हनुमान जयंती का यही संदेश है।

मनुष्य की रचना ब्रह्माजी ने चैत्र मास में ही की थी
इस बात को लेकर जरा भी निराश न हों कि हम कलयुग में रहते हैं और कलयुग में कहां हैं भगवान? भगवान हर समय रहा है। जैसे-जैसे आध्यात्मिक अनुभूति गहरी होती जाएगी, हम समझ जाएंगे कि हमारे मन की दशा और आंतरिक आचार-विचार की स्थितियों का नाम ही कलयुग या सतयुग है। अगर उम्र से जोड़कर देखें तो बचपन सतयुग से मिलता-जुलता है और बुढ़ापे तक आते-आते समझ लीजिए कलयुग आ गया।
अब बुढ़ापे को सतयुग बनाना हो तो बच्चों जैसी सरलता, निष्कपटता और ऊर्जा अपने भीतर बनाए रखनी होगी। इसलिए समय को हम ही साधें। 20 मार्च से चैत्र मास आरंभ हो गया है। यह सृजन का काल है। ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना इसी समय की थी।
दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण कृति मनुष्य इसी काल में गढ़ा गया। ब्रह्माजी ने मनुष्य को तैयार करके चैत्र मास में ही कहा था कि जाओ धरती पर और जियो तथा जीने दो। कहते हैं सृष्टि बनाने के बाद ब्रह्माजी स्वयं की सफलता पर मोहित हो गए थे।
हमारी प्रशंसा हो, यह भाव अहंकार, क्रोध लेकर आता है और यहीं से हमारे आसपास का युग सतयुग से कलयुग में बदलने लगता है। आध्यात्मिक चिंतन के बिना मनुष्य में विनीत भाव नहीं आता और न उसमें स्वयं को सुधारने की क्षमता रह जाती है। इसलिए जितना गहरा आध्यात्मिक चिंतन होगा, समय उतना ही सुंदर हो जाएगा। चैत्र मास का लाभ इसी प्रकार उठाया जाए।

भक्ति की आंख से परमात्मा को दिखना ही पड़ता है
भगवान को पाने के लिए भक्ति करनी पड़ती है। अधिकांश लोगों का मकसद भी यही होता है कि भगवान मिल जाएं। दरअसल भगवान को पाना और भक्ति करना दो अलग-अलग बातें हैं। यदि किसी की दृष्टि चली जाए और वह अंधा हो जाए, तब उसे प्रकाश की जगह आंख खोजनी चाहिए। भक्ति एक तरह की आंख है, जिससे भगवान को देखा जा सकता है। भक्ति करने का अर्थ है अपनी आंख को खोजना। जो दृष्टिहीन लोग सीधे प्रकाश खोजने के फेर में रहेंगे, उन्हें जीवनभर अंधकार ही हाथ लगेगा। पहले आंख खोजी जाए। जिन्होंने सीधे भगवान को खोजने की कोशिश की, उन्होंने जीवनभर कर्मकांड ही किया और इसमें निराशा हाथ लगती है।
कर्मकांड का अर्थ है एक चौराहे पर ही चक्कर काटना। इसीलिए केवल पूजा करने वाले लोग उदास और खिन्न भी पाए जाते हैं। अब पूजा को भक्ति में बदलना होगा। भक्ति जीवन में आते ही भीतर से रूपांतरण होना आरंभ हो जाता है। फिर भगवान दिखना और मिलना सुनिश्चित है। तो महत्वपूर्ण यह है कि जीवन में भक्ति को लाया जाए। कर्मकांड इसका आरंभ हो सकता है। कर्मकांड करते हुए अपने भीतर के प्रेम को धीरे-धीरे बढ़ाएं। जितना प्रेम बढ़ेगा, कर्मकांड के भक्ति में बदलने की संभावना भी बढ़ जाएगी, क्योंकि प्रेम की अधिकता में अहंकार को गलना पड़ता है। क्रिया निरहंकारी होते ही भक्ति बन जाती है और भक्ति की आंख से परमात्मा को दिखना ही पड़ता है।

स्त्रियों का आत्मविश्वास लौटाता है सत्संग
हार और जीत का खेल जीवन में बाहर ही नहीं चलता। भीतर भी जय-पराजय के दृश्य देखने को मिल जाते हैं। बस, इसके लिए जरा बारीकी से अपने भीतर झांकना होगा। भीतर बुद्धि और हृदय में से कभी बुद्धि जीतती है तो कभी हृदय। कभी विचार विजयी हो जाते हैं तो कभी भाव जीतने लगते हैं। ऋषियों ने इस हार-जीत को देखने के लिए सत्संग की अद्भुत व्यवस्था की है। वे जानते थे कि मनुष्य स्वयं के भरोसे शायद भीतर न उतर पाए, इसलिए सत्संग एक सहारा है।
सत्संग को केवल देखने-सुनने की घटना न मानें। जब आदमी सत्संग में उतरता है, किसी के विचारों को सुनता है और उसमें डूबने की कोशिश करता है, तब यदि वह पुरुष है तो उसके भीतर का स्त्रैण चित्त जाग जाता है और बिना स्त्रैण चित्त जगाए आदमी भक्ति रस में डूब भी नहीं पाता। इसलिए महिलाएं सत्संग में बड़ी संख्या में होती हैं और लाभ भी अधिक उठा लेती हैं। इसका ठीक उल्टा भी होता है। स्त्रैण चित्त में सत्संग से कुछ पुरुषत्व भी जागता है। सत्संग स्त्रियों का आत्मविश्वास लौटाता है। यही उनके पुरुष भाव जागने के संकेत हैं।
पुरुष में 50 प्रतिशत स्त्री और स्त्री में 50 प्रतिशत पुरुष आते ही व्यक्तित्व संतुलित हो जाता है। ऐसे संतुलित व्यक्तित्व से जब सत्संग किया जाता है तो जागरण की इच्छा जाग्रत होती है और यदि कोई ध्यान में उतर जाए, तभी समझे कि सत्संग का पूरा लाभ उठाया गया है। सत्संग गुरु का हो तो संभावना प्रबल होती है।

भीतर ईर्ष्या आते ही जहरीली किरणों छोड़ने लगते हैं हम

जब कभी आपके भीतर भय, घबराहट और भ्रम आने लगे तो गहराई में जाकर टटोलिए। इसके पीछे ईष्र्या की वृत्ति नजर आएगी। ईर्ष्या हमारी सद्वृत्तियों को धीरे-धीरे नुकसान पहुंचाने लगती है। फिर यह हमारी क्रिया में उतरने लगती है और यहीं से हम गलत काम करने लग जाते हैं। हमारे भीतर ईर्ष्या आते ही हम अपने आसपास कुछ जहरीली किरणों छोड़ने लगते हैं। लिहाजा जो हमारे संपर्क में आता है, उसे महसूस होने लगता है और यदि वह सामान्य व्यक्ति है तो वह भी इस क्रिया की प्रतिक्रिया करेगा, जिससे संबंध खराब होने शुरू हो जाते हैं।
हमारी संस्कृति में ईर्ष्या मिटाने का एक सरल तरीका है कि थोड़े विनम्र हो जाएं। इसीलिए हमारे यहां झुककर नमस्कार करने की पद्धति है। हमारे ऋषि-मुनियों ने नमस्कार में भी विनम्रता का भाव ला दिया। फिर इसके भी आगे एक और कदम है - प्रेमपूर्ण शब्दों का उच्चारण करना। कोई ‘जयरामजी की’ कहता है तो कोई ‘जय माता दी’ बोलता है। होंठ का संबंध हृदय से होता है। आप जैसे शब्द बोलेंगे, वैसा स्पंदन हृदय में होने लगता है।
इसीलिए बार-बार कहा गया है कि सोते-जागते और लोगों से मिलते वक्त प्रभु स्मरण के शब्द बोले जाएं, क्योंकि होंठ जब ऐसे शब्दों से जुड़ते हैं तो उसका सीधा असर हृदय पर होता है। ऐसा हृदय ईर्ष्या वृत्ति को अनुमति नहीं देता और आसपास का पूरा वातावरण महक जाता है। अत: सावधान रहें हर उस शब्द के प्रति, जिसका होंठों से स्पर्श होता है।

हे हनुमानजी! अकेले मत आना, डेरा-डंडा लेकर आना

भक्ति में हृदय की प्रमुखता होती है। बुद्धि से भक्ति करने में बाधा आएगी। प्रेम का स्थान हृदय है। हनुमानचालीसा की अंतिम चौपाई में तुलसीदासजी ने भगवान से निवेदन किया है कि हमारे हृदय में विराजिए। हनुमानचालीसा मन से आरंभ हुई थी। पहले ही दोहे में श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।। यहां निज मनु का अर्थ है कि मन रूपी दर्पण को गुरु के चरणों की धूल से साफ किया जाता है। तो मन को लगातार साफ, शुद्ध करें और हृदय में परमात्मा के लिए स्थान बनाएं। 40वीं चौपाई में लिखा गया है - तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महं डेरा।।
हे हनुमानजी! यह तुलसीदास सदा सर्वदा के लिए श्रीराम (हरि) का सेवक है। ऐसा समझकर आप उसके (तुलसीदास) हृदय में निवास करिए। इस चौपाई में ‘नाथ’ इसलिए कहा कि यदि हमको लगे कि हम अनाथ हैं, तो फिर हमारे भीतर बाबा हनुमंतलालजी की कृपा का अनुभव करें, हम अनाथ नहीं रहेंगे। आगे ‘डेरा’ शब्द का प्रयोग किया है। गोस्वामीजी ने स्पष्ट मांग की है कि हे हनुमानजी! अकेले मत आना, पूरा डेरा-डंडा लेकर आना। डेरा-डंडा से मतलब है कि आप तो आएंगे ही, साथ में रामजी, सीताजी, लक्ष्मणजी पूरा डेरा लेकर आना। भक्त का हृदय भगवान का कैंप होता है। डेरे में जब सब होते हैं, तब जाकर डेरा पूरा लगता है और एक दिन में नहीं उठता। इसलिए कहा है कि महाराज डेरा लेकर आना।

प्रसन्न रहने के लिए अपने आंतरिक सुख को पकड़ें
खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक दिक्कत आती है। वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दुखी हो जाते हैं। क्लब गए, टीवी देखी, खेल खेला और जब उनसे दूर हटे तो वापस अशांत हो गए। कुछ स्थायी इलाज ढूंढ़ने होंगे। अपनी निजी और आंतरिक वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढ़े जाएं। यदि स्थायी रूप से प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें।
जो लोग इस संसार में स्थायी रूप से प्रसन्न रहे हैं, उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित कर लिया, क्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख थोड़ा सहज होता है, लेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है। मजेदार बात यह है कि इस संसार का दुख भी उत्तेजित करता है और सुख भी, लेकिन इन दोनों को जब अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है, न दुख और इन दोनों के पार की स्थिति है शांति।
परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर दिया है। आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे, उतने शीघ्र शांत हो सकेंगे। आप सुख और दुख दोनों को भोग रहे होते हैं, लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को महसूस भी होती है।

ईमानदार लोग अपना और दूसरों का मंगल करते हैं
जीवन में मंगल और शुभ की तलाश सभी को रहती है। अमंगल को आमंत्रण कोई नहीं देना चाहता। हनुमान चालीसा के समापन पर तुलसीदासजी ने हनुमानजी को मंगल के रूप में याद किया है।

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप। राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।। हे पवनसुत! आप सारे संकटों को दूर करने वाले साक्षात कल्याण स्वरूप हैं। आप भगवान श्रीराम, लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ मेरे हृदय में निवास करें। श्री हनुमान चालीसा का आरंभ ‘श्रीगुरु चरन सरोज रज’ से हुआ है और अंत ‘हृदय’ पर हुआ है।

गुरु के चरण-रज से मन को साफ करें, क्योंकि परमात्मा को बसाने के लिए एकमात्र स्थान है हृदय। हृदय से स्वभाव बनता है और मस्तिष्क से व्यवहार। बाहरी संसार मनुष्य के व्यवहार से संचालित होता है और भीतरी जगत मनुष्य के स्वभाव से नियंत्रित होता है। पहली श्रेणी में वे लोग होते हैं, जो व्यवहार से स्वभाव को बनाते हैं, जबकि दूसरी श्रेणी के लोग स्वभाव से व्यवहार बनाते हैं।

ज्ञान, कर्म, उपासना, व्यवसाय, समाज, परिवार में दोनों ही प्रकार के लोग अलग-अलग परिणाम देते हैं। पहली श्रेणी के लोग कुशल होते हैं, किंतु उनके कार्यकलाप स्वार्थ से प्रेरित होंगे। दूसरी श्रेणी के लोग सर्वप्रिय रहेंगे और उनकी कार्यशैली में ईमानदारी रहेगी। ऐसे लोग स्वयं का मंगल तथा दूसरों का कल्याण करेंगे। आप दूसरों के संकट तभी हर सकते हैं, जब आपके भीतर शुभ करने की वृत्ति हो। इसलिए अपना स्वभाव साधें।

जरूरत पड़ने पर परमात्मा का ही सहारा लिया जाए
अपनी जीवन यात्रा अपने ही भरोसे पूरी की जाए। यदि सहारे की आवश्यकता पड़े तो परमात्मा का लिया जाए। संसार के सहयोग के भरोसे न रहें। संसार के भरोसे ही अपना काम चला लेंगे, यह सोचना नासमझी है, लेकिन अपने ही दम पर सारे काम निकाल लेंगे, यह सोच भी मूर्खता है।

इसलिए सहयोग सबका लेना है, लेकिन अपनी मौलिकता को समाप्त नहीं करना है। इसके लिए अपने भीतर के साहस को लगातार बढ़ाते रहें। अपने जीवन का संचालन दूसरों के हाथ न सौंपें। हमारे ऋषि-मुनियों ने एक बहुत अच्छी परंपरा सौंपी है और वह है ईश्वर का साकार रूप तथा निराकार स्वरूप। कुछ लोग साकार को मानते हैं। उनके लिए मूर्ति जीवंत है और कुछ निराकार पर टिके हुए हैं। पर कुल मिलाकर दोनों ही अपने से अलग तथा ऊपर किसी और को महत्वपूर्ण मानकर स्वीकार जरूर कर रहे हैं।

जो लोग परमात्मा को साकार मानते हैं, मूर्ति में सबकुछ देखते हैं, वह भी धीरे-धीरे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार को पकड़ लेते हैं, जिसे कुछ लोग मूर्ति के बाहर ढूंढ़ रहे होते हैं। भगवान के ये दोनों स्वरूप हमारे लिए एक भरोसा बन जाते हैं। व्यर्थ के सपने बुनकर जो अनर्थ हम जीवन में कर लेते हैं, परमात्मा के ये रूप हमें इससे मुक्त कराते हैं, क्योंकि हर रूप के पीछे एक अवतार कथा है। अवतार का जीवन हमारे लिए दर्पण बन जाता है। आईने में देखो, उस परमशक्ति पर भरोसा करो और यहीं से खुद का भरोसा मजबूत करो।

खुद करें अपना कायाकल्प, इस प्रयोग से
इंसान का स्वभाव और आदतें उसके अनकांसस माइंड यानी अवचेतन मन निर्भर होते हैं। किस अवसर पर व्यक्ति कैसी प्रतिक्रिया करेगा, इस बात को उसका अवचेतन मन ही तय करता है। इस अवचेतन मन को यदि प्रशिक्षित किया जा सके तो निश्चित रूप से व्यक्तित्व में मनचाहा परिवर्तन लाया जा सकता है। इस अवचेतन मन को प्रशिक्षित करने का भी खाश समय होता है।

दिन की शुरुआत सकारात्मक संकल्प से करें, यह पूरे दिन आपको रचनात्मक ऊर्जा प्रदान करेगा। यदि आप कार्यस्थल और घर की तमाम समस्याओं को निपटाना चाहते हैं तो मन में कुछ संकल्प जरूर लें। लगातार मस्तिष्क में ये शब्द दोहराते समय इनमें छिपा संदेश आपके अवचेतन में जाकर समा जाता है और यह प्रत्यक्ष तौर पर फायदा पहुंचाता है।

सूर्योदय के समय किसी प्राकृतिक स्थान जो कि शुद्ध वायु से भरपूर हो, वहां तेज कदमों से मोर्निंग वॉक करें। मोर्निंग वॉक के बाद किसी शांत स्थान पर आसन बिछा कर बैठ जाएं। यही वह समय होता है जब आप अपने पूरे दिन के लिए ऊर्जा ग्रहण कर सकते हैं। अब यदि आपने कोई संकल्प लिया है तो उस पर विचार करें। जैसे, मैं जैसा हूं, उसी रूप में खुद से प्यार करता हूं, मैं ऑफिस में बॉस या सहकर्मियों के साथ बेहतर और खुशगवार संबंध रख सकता हूं, मैं अपने रुके हुए सारे कामों को हर हाल में पूरा कर सकता हूं, या 'बच्चों की पढ़ाई-कैरियर को लेकर हमेशा बने रहने वाले तनाव को खत्म कर सकता हूं।

इन बातों को अवचेतन में दोहराते रहें, ठीक वैसे ही जैसे हम बच्चों से मुहावरे या कविता की पंक्तियां दोहराने को कहते हैं। जब भी कोई नकारात्मक विचार या सवाल जेहन में उठने को हो, अपने संकल्पों को दोहराएं।

परिवार में बच्चें को भक्ति करना अवश्य सिखाएं
दूसरों को अपने साथ जोड़ा जा सकता है, बल्कि जीवन का लंबा समय उनके साथ बिताया जा सकता है, लेकिन जब उनके विचारों को परिवर्तित करने का अवसर आता है तो या तो मतभेद हो जाएंगे या आप इसमें असफल हो जाएंगे। यह मामला केवल बाहरी दुनिया का नहीं है। परिवार में यदि माता-पिता अपने कुल की परंपरानुसार अच्छे विचारों को बच्चों में भी उतारना चाहते हैं तो यही परेशानी आती है।

बच्चे आपका कहना मान लेंगे, आपके अनुसार दिनचर्या भी कर लेंगे, लेकिन विचार बदलने को तैयार नहीं होते। किसी का दृष्टिकोण बदलना है तो प्रेम को जीवन में उतारना होगा। दबाव में आप किसी की जीवनशैली बदल सकते हैं, लेकिन चिंतनशैली नहीं। इसके लिए प्रेम की ही जरूरत पड़ेगी। अपने प्रेम को इतना बढ़ाएं कि उसमें से अहंकार गलने लगे। जैसे ही प्रेम में से अहंकार गया, भक्ति का प्रवेश शुरू हो जाता है।

इसलिए परिवारों में बच्चों को भक्ति करना सिखाएं। आप उन्हें जो भी बनाना चाहें, जरूर बनाएं, पर वे भक्त बनें, ऐसा अवश्य करें। भक्त देना जानता है, लेना नहीं। जैसे प्रेम मांगने लग जाए तो वासना हो जाती है। इसी तरह भक्ति यदि मांगने लग जाए तो मात्र कर्मकांड बन जाएगी। भक्ति जितनी जागेगी, परमात्मा पर भरोसा उतना बढ़ेगा। इसीलिए भक्तों के पास जाकर लोग आसानी से अपने विचार बदल लेते हैं और सद्विचार यदि सुपात्र में उतर जाएं तो ऐसे लोग परिवार, समाज और राष्ट्र को हित ही पहुंचाएंगे।

हर कोई कहे इनके पास बैठकर अच्छा लगता है

सफलता का श्रेय स्वयं लेना और असफलता का दोष दूसरे पर मढ़ना मनुष्य की आदत बन जाता है, क्योंकि श्रेय अहंकार को तृप्त करता है और दूसरों को दोष देने में ईष्र्या वृत्ति को मजा आता है। लेकिन याद रखें कुछ समय बाद दोनों के ही परिणाम में मन अप्रसन्न हो जाता है।

इसलिए जब भी हम असफल हों, दूसरों में कारण न ढूंढ़ते हुए खुद के भीतर उतरकर अपनी ही कोई कमजोरी अवश्य पकड़ें। असफलता को जितना स्वयं की कमजोरी से जोड़ेंगे, अगली बार की सफलता के लिए रास्ता आसान बना देंगे और जितना दूसरों से जोड़ेंगे, पुन: असफल होने की तैयारी कर रहे होंगे। असफल होने पर यदि आप स्वयं में कारण ढूंढ़ रहे होते हैं तो दुख की तरंगों से मुक्त रहते हैं क्योंकि भीतर आपको एकांत मिलता है और वह एकांत आपकी सांसों में भी शांति का स्वाद भर देता है।

आपसे मिलने वाला व्यक्ति उसी सांस को बाहर से महसूस करता है। यदि हमारी सांस में अहंकार का स्वाद है तो हमसे मिलने वाले लोग इसी को चखेंगे और हमसे दूर जाने का प्रयास करेंगे। इसे कहते हैं व्यक्तित्व की तरंग। किसी के भीतर से निकल रही तरंग जहां हमें तरोताजा बना देती है, वहीं किसी के पास से लौटने पर लगता है कि हमें पूरा निचोड़ लिया गया है। अत: सफलता या असफलता पर भीतर से जुड़कर बाहर की तरंगों को इतना स्वस्थ रखें कि हमसे मिलने वाला हर व्यक्ति यह कहे कि इनके पास बैठकर अच्छा लगता है।

अशुभ, अप्रिय, अनुचित को भुला दें, शुभ को याद रखें

पीड़ादायक स्मृतियों को भुला देना बुद्धिमानी है और अच्छी बातों को याद रखना समझदारी, लेकिन यदि अच्छी बातें सही समय पर आचरण में न उतारी गईं तो ये भी बोझ बन जाएंगी। कुछ घटनाएं जीवन में ऐसी होती रहती हैं कि जिन्हें यदि नहीं भुलाया गया तो वे हमें मानसिक उधेड़-बुन में पटक देती हैं और एक घटना फिर कई विपरीत घटनाओं को जन्म देने वाली बन जाती है।

इसलिए अप्रिय प्रसंगों को तत्काल विस्मृत करें। इनको सतत याद रखने का नाम है चिंता। चिंता करने वाला आदमी कुछ समय बाद अवसाद में जरूर डूबेगा। प्रिय और अच्छी स्थितियां सदुपयोग के लिए होती हैं। अपने शुभ कर्मो को एक जगह अपनी स्मृति में स्टॉक की तरह रखना चाहिए और उनका उपयोग भविष्य में करते रहना चाहिए। चार तरीके से अपने शुभ कर्मो को दूसरों के प्रति उपयोग करें।

पहला, अपने से छोटी उम्र के लोगों से अपने शुभ कर्म जोड़ें, इससे स्नेह बढ़ेगा। अपने दोस्त, पति-पत्नी से शुभ कर्म जुड़कर प्रेम का रूप ले लेते हैं। तीसरा तरीका है अपने से बड़े यानी माता-पिता, गुरु तथा वृद्धजन के प्रति जुड़े हुए शुभ कर्म श्रद्धा का रूप ले लेते हैं। जैसे ही हमारे शुभ कर्म चौथे चरण में परमात्मा के प्रति जुड़ते हैं, बस फिर इसे भक्ति कहा जाएगा। इसलिए अशुभ, अप्रिय और अनुचित घटे हुए को भूल जाएं तथा शुभ को याद रखते हुए उनका इन चार चरणों में सदुपयोग करें। इसका सीधा असर आपके स्वास्थ्य पर पड़ेगा।

जो जीवन को ऊंचा ले जाए वह सब ग्रहण किया जाए
जीवन जितना उच्च होगा, उतना ही हम घटनाओं में अनुकूलता देखने लगेंगे और जीवन की गतिविधियां जितनी अधिक निम्न स्तर की होंगी, हम प्रतिकूलता देखेंगे। अनुकूल यानी सुख, प्रतिकूल यानी दुख। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सदैव एक ही स्थिति बनी रहेगी। इसलिए कोशिश यह की जाए कि दोनों ही स्थितियों में जो उत्तम है, जो जीवन को ऊंचा ले जा सकता है, वह सब ग्रहण किया जाए।

सुख और दुख दोनों ही हमारे ऊपर राज न करें, बल्कि हम उन पर अधिकार बना लें। सभी धर्मो ने यह सुविधा दी है कि आप कई विभूतियों के माध्यम से सीख सकते हैं। अवतार परंपरा संभवत: इसीलिए हुई है। यह न समझें कि अवतार किसी पुराने युग में हुए, उनका जीवन आज कैसे प्रेरणादायक होगा और यह भी न मानें कि आज तो हमारे बीच वे अवतार नहीं हैं। जिस भी युग में ऐसे लोग हुए, ठीक वैसी ही स्थितियां आज भी हमारे साथ हैं। हम अवतारों को उनके पुराने रूप में खोजने की आदत बना लेते हैं।

हमने जो अपने भीतर छवि बनाई है, वह अपनी सुविधा से बना ली है। लेकिन भगवान हर काल में नए-नए रूप में आता है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार वह नए स्वरूप में हमें मिलेगा ही। इसके लिए सबसे पहले स्वयं के भीतर के परमात्मा को स्वीकार करना पड़ेगा। हम उसका अंश हैं, यह एहसास ही हमें उसके स्वरूप से परिचित करा देगा और तब जीवन का जो भी उत्तम है, वह हमारे हाथ जरूर लगेगा।


क्रमश:...



जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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